भाग 12 / एक पुलिस अधिकारी के संस्मरण / महेश चंद्र द्विवेदी

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देयर इज नो सच ऑफीसर इन दिस डिपार्टमेट

'महेश, यू नो ह्वाई यू हैव बीन पोस्टेड इन दी पी.ए.सी. अंडर मी?' वर्ष 1966 में मेरी कमांडेंट, पी.ए.सी. के पद पर नियुक्ति होने पर सींक खड़ी रखने के लिए मशहूर डी.आई.जी. श्री गोपाल ने मुझसे प्रश्न किया था। उन दिनों पतले पाँइचे के पैंट नए-नए फैशन में आए थे और मैंने सुन रखा था कि वह तब तक किसी अधिकारी को स्मार्ट नहीं समझते थे जब तक उसकी पैंट का पाँइचा इतना पतला न हो कि उसमें बोतल न जा सके। मैं उनके प्रश्न का अर्थ समझता, उसके पहले ही वह आगे बोल पड़े थे, 'सो दैट यू बिकम स्मार्ट'।

फिर वर्ष 1969 में मैं जब पी.ए.सी. से स्थानांतरित होकर लखनऊ में एस.पी., इंटेलीजेंस के पद पर नियुक्त हुआ, तो सोच रहा था कि सम्भवतः श्री कर, डी.आई.जी., इंटेलीजेंस मुझे बुलाकर कहेंगे, 'महेश, यू हैव बीन पोस्टेड इन इंटेलीजेंस अंडर मी सो दैट यू बिकम इंटेलीजेंट।' पर ऐसा तो कुछ नहीं हुआ बल्कि पहले ही दिन एक अन्य एस.पी. ने लंच के दौरान इंटेलीजेंस विभाग पर एक मजेदार किस्सा अवश्य सुनाया -

'जब इंटेलीजेंस विभाग नया-नया बना था और सचिवालय के बाबुओं को यहाँ के अधिकारियों के पदनाम ठीक से ज्ञात नहीं थे, तो सचिवालय से इंटेलीजेंस विभाग को प्रेषित एक पत्र के लिफाफे पर वहाँ के बाबू ने पता लिख दिया - 'टू दी इंटेलीजेंट ऑफीसर, इंटेलीजेंस डिपार्टमेट, लखनऊ', जिसको बिना खोले ही इंटेलीजेंस के बाबू ने यह लिखकर वापस कर दिया, 'आर.आई.ओ. विद दी रिमार्क दैट देयर इज नो सच ऑफीसर इन दिस डिपार्टमेंट'।'

बाद में मैंने अनुभव किया कि यद्यपि इंटेलीजेंस विभाग के बाबू ने अपने रिमार्क में कुछ अतिशयोक्ति अवश्य कर दी थी, तथापि उसने इंटेलीजेंस विभाग में नियुक्त अधिकारियों के बारे में एक गुप्त तथ्य को उजागर भी किया था; क्योंकि प्रायः इंटेलीजेंस विभाग में नियुक्ति का कारण अधिकारी की इंटेलीजेंस न होकर उसका इंटेलीजेंसाइटिस नामक मर्ज का शिकार होना होता है। यह मर्ज पुलिस अधिकारियों को निम्नलिखित प्रकार से लग जाता है -

1. जिले के एस.पी. के पद पर अपनी पोस्टिंग की सिफारिश कराने की इंटेलीजेंस में कमी होने पर : वर्ष 1969 में मेरी इंटेलीजेंस विभाग में नियुक्ति इसी मर्ज के कारण हुई थी।

2. जनपदीय नियुक्ति के दौरान सत्ताधारी नेताओं को खुश रखने में इंटेलीजेंस की कमी होने पर : वर्ष 1976 में मैं एस.पी., शाहजहाँपुर के पद से इसी कारण दुबारा इंटेलीजेंस विभाग में नियुक्त किया गया था।

3. लम्बे समय तक इंटेलीजेंस विभाग में नियुक्त रहने पर जनपदीय पुलिस के कठिन आउटडोर वर्क से घबराने लगना; और फिर इंटेलीजेंस विभाग से ऐसे चिपक जाना कि 'ऐसे मानूस हम सैयाद से हो गए कि रिहाई मिलेगी तो किधर जाएँगे'।

इस श्रेणी में वे अधिकारी भी आते हैं जो दुर्भाग्यवश क्रानिक ज़ुकाम से लेकर क्रानिक कैंसर तक की किसी बीमारी के शिकार हो जाते हैं, और शारीरिक असमर्थता के कारण इंटेलीजेंस विभाग में दिन काटना चाहते हैं।

4. इंटेलीजेंस के कार्य में विशेष योग्यता प्राप्त कर लेना : इस वर्ग के अधिकारी सचमुच इंटेलीजेंट होते हैं और अपने कार्य से उच्चाधिकारियों को इतना प्रभावित कर देते हैं कि वे उन्हें जल्दी इंटेलीजेंस विभाग से छोड़ना ही नहीं चाहते हैं।

5. आदतन इंटेलीजेंट होना : इस वर्ग के अधिकारी वे हैं जिन्हें कान में फुसफुसाकर बात करने - जिसमें प्रायः अपनी बड़ाई और दूसरों की चुगली ही होती है - की जन्मसिद्ध महारत होती है। मेरे साथ के एक अधिकारी इस महारत के कारण अपने पूरे सेवा काल में अनेक उच्चाधिकारियों और नेताओं के बड़े कृपापात्र रहे हैं और पुलिस सेवा के दौरान उच्चतम पद प्राप्त कर उसके उपरांत भी सत्तासुख भोग रहे हैं।

यह सर्वविदित है कि गोपनीय सूचनाओं को गोपनीय सूत्रों के माध्यम से प्राप्त किया जाता है, जिन्हें प्रायः धन का भुगतान करना पड़ता है। इस हेतु सीक्रेट सर्विस फंड के नाम से प्रतिवर्ष कुछ हजार की धनराशि जनपदीय एस.पी. को दी जाती रही है। मेरे प्रारम्भिक सेवा काल में ऐसी कोई धनराशि डी.एम. को नहीं मिलती थी जिसका उन्हें मलाल रहता था, परंतु सातवें दशक में जनपदों में नियुक्त आई.ए.एस. अधिकारियों ने सचिवालय में नियुक्त आई.ए.एस. अधिकारियों से मिलीभगत कर डी.एम. के लिए यह धनराशि स्वीकृत करा ली और कुछ ही वर्षों में हालत यह हो गई कि 1980 में जब मैं एस.एस.पी., लखनऊ नियुक्त हुआ तो डी.एम. को स्वीकृत धनराशि मुझे स्वीकृत धनराशि से दस गुनी थी। इस दौरान हमारे नेतागण भी प्रशासनिक अधिकारियों के इस'खुला खेल फरक्काबादी' से सीख ले रहे थे और फिर मुख्य मंत्रियों ने अपने 'विवेकाधीन कोष' में करोड़ों-अरबों रुपया रखना प्रारम्भ कर दिया, जिसका उपयोग प्रायः अविवेकपूर्ण ढंग से वैयक्तिक अथवा राजनैतिक उद्देश्यों हेतु किया जा रहा है। हाल में एक मुख्य मंत्री ने इस कोष से 'मात्र 35 करोड़ रुपए' अपने भाई द्वारा चलाये जा रहे कालेज को दिए हैं।