भाग 6 / एक पुलिस अधिकारी के संस्मरण / महेश चंद्र द्विवेदी

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साले! साहब की शान में गुस्ताखी करता है

अपने साहब की शान बनाए रखना शासकीय सेवाएँ अपना धर्म समझती हैं। धर्म का यह भाव साहब के अहं को उकसाकर उन्हें खुश करने और फिर निर्द्वंद्व कमाई करने के उद्देश्य से कर्मचारियों के मन में उमड़ता है। मेलों में लगने वाले विभिन्न विभागों के तम्बुओं-शामियानों में शासकीय धन का अनाप-शनाप व्यय इस शान को स्पष्टतः परिलक्षित करता है। अगर जिलाधीश को पता लग जाए कि किसी भी विभाग का तम्बू उसके तम्बू से अधिक शानदार है, तो उसके तहसीलदार की खैर नहीं रहती है। यह बात अलग है कि इन तम्बुओं में आजकल का ए.सी. में रहने का अभ्यस्त अधिकारी शायद ही एक रात के लिए भी रुकता हो।

साहब की शान उच्चस्तरीय सेवा के बजाय साहबी रुतबा कायम रखने से बनती है, यह बात कर्मचारीगण बड़े प्रभावी तरीके से साहब लोगों के मन में सेवा काल के प्रारम्भिक दिनों में ही भर देते है। मेरे प्रारंभिक सेवा काल में एक थानेदार ने मेरा रुतबा बढ़ाने हेतु जो कार्यवाही की और उससे जो लाभ उठाया, वह मैं कभी भी भूल नहीं सकता हूँ। उसका वर्णन करने से पूर्व एक अन्य घटना को बताना आवश्यक है।

वर्ष 1966 में जब मैं जनपद इलाहाबाद में सर्किल ऑफीसर, फूलपुर नियुक्त था, तो एस. एस. पी., इलाहाबाद के पास शिकायत आई कि थाना सराय इनायत में एक गम्भीर डकैती की घटना को थानाध्यक्ष ने मात्र चोरी की घटना होना लिखकर अपराध का न्यूनीकरण किया है। एस.एस.पी. ने जाँच मुझे सौंप दी। मैं जीप लेकर इलाहाबाद से सीघे गाँव गया और गाँव आने के पहले ही कुछ राहगीरों और बच्चों से घटना के विषय में पूछताछ करने लगा। अधिकतर ने तो यह सोचकर कि कहीं गवाही न देनी पड़ जाए, संबंधित दिवस पर ससुराल चले जाने या तारीख पर इलाहाबाद में होने या रात में आँख न खुलने आदि का बहाना बनाकर घटना से अनभिज्ञता जताई, परंतु कुछ नादान किस्म के लोग बता ही गए कि रात में डकैतों ने खूब मारपीट कर जमकर लूटपाट की थी, यद्यपि फायरिंग नहीं हुई थी। गाँव में जाने पर घर बालों ने डकैती की घटना की पुष्टि की। कतिपय स्त्रियों ने अपनी पीठ पर मार के निशान भी दिखाए। मैंने तदनुसार एस.एस.पी. को डकैती की घटना की पुष्टि होने की रिपोर्ट दे दी। मेरी रिपोर्ट पर एस.एस.पी. ने थानाध्यक्ष को पदावनत कर दिया एवं विभागीय कार्यवाही प्रारम्भ कर दी।

पुलिस संस्कृति के अनुसार सर्किल ऑफीसर प्रायः अपराध के न लिखने अथवा उसके न्यूनीकरण की शिकायत की जाँच में दोषी थाना स्टाफ को बचा लेते हैं, चाहे वे अभियोग की धाराएँ सही करवा ही दें। इसके तीन कारण होते हैं। एक तो यह कि प्रायः शासन एवं उच्चाधिकारियों का दबाव रहता है कि अपराध कम लिखाया जाए। दूसरे, सब अपराध लिखने पर स्टाफ की कमी के कारण उनकी ठीक से विवेचना करा पाना असम्भव होता है, और तीसरे, थानाध्यक्ष की कमाई में बंदरबाँट उसे दण्ड से बचाकर ही की जा सकती है। मेरी रिपोर्ट और उस पर हुई कार्यवाही के विषय में जानकारी होने पर मुझे कुछ पुराने सर्किल आफीसरों ने समझाया भी कि इस तरह की रिपोर्टों से तो सारे थानेदारों का मनोबल टूट जाएगा। मेरी रिपोर्ट पर कड़ी कार्यवाही हो जाने का परिणाम यह हुआ कि शिकायतकर्ताओं के साथ आने वाले नेता मेरे द्वारा जाँच कराने की माँग करने लगे और शीघ्र ही मुझे एक चोरी की घटना न लिखे जाने की जाँच सौंप दी गई।

घटनास्थल उसी कस्बे में था जहाँ थाना स्थित था। अतः मेरे जाँच हेतु पहुँचने की खबर पाकर थानाध्यक्ष कस्बे के बाहर ही से मेरे साथ हो लिए। मुझे बड़े-से कस्बे में उस गरीब व्यक्ति,जिसने अपने यहाँ चोरी होने की शिकायत की थी, के घर पहुँचने हेतु पथ प्रदर्शक की आवश्यकता भी थी। घर पर मुझे कोई ऐसा चिह्न नहीं मिला जिसे चोर छोड़ गए हों। वहाँ बस एक 17-18 साल का लड़का मिला, जो काफी जल्दी-जल्दी बोलता था। मेरे पूछने पर वह चोरी की घटना की पुष्टि करने लगा, जिसके बोलने के स्टाइल के कारण मुझे एक-दो स्थान पर शंका हुई और उसके निवारण हेतु मैं उससे क्रॉस-क्वेश्चन करने लगा। तभी उससे एक ऐसी चूक हो गई, जिसके लिए घाघ थानाध्यक्ष घात लगाये हुए था। वह अपनी भाषा की अपरिपक्वता एवं भावों पर नियंत्रण की कमी के कारण बोल पड़ा, 'आप इतने बड़े अधिकारी होते हुए भी यह नहीं समझ सकते हैं कि...'

उसे अपनी बात पूरी करने का अवसर दिए बिना ही थानाध्यक्ष यह कहते हुए झापड़ रसीद करने लगा, 'साले साहब की शान में गुस्ताखी करता है।'

मैं मानवीय कमजोरी के कारण अथवा पुलिस संस्कृति की इस शिक्षा के कारण कि थानाघ्यक्ष को प्रभावशाली बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि उसे जनता के समक्ष डाँटा-फटकारा न जाए, किंकर्तव्यविमूढ़ होकर चुप रहा और वह लड़का बेइज्जत होकर और पिटकर फफक-फफक कर रोने लगा। उससे अथवा वहाँ उपस्थित सहमे-से पड़ोसियों से अब कुछ पूछना व्यर्थ था। और तभी अनुकूल अवसर देखकर थानाध्यक्ष ने सलाह दी कि हुजूर थाने पर चलें, मैं वहीं सब गवाह बुला लूँगा। मुझे भी और कोई रास्ता समझ में नहीं आ रहा था और हम थाने चले आए।

थाने पर चोरी की घटना को झूठा बताने और शिकायतकर्ता द्वारा अपने दुश्मनों को फँसाने के उद्येश्य से चोरी की रिपोर्ट लिखाने का प्रयत्न करना बताने वाले अनेक गवाह आनन-फानन में इकट्ठे हो गए। उनमें कई संभ्रांत कहे जाने वाले व्यक्ति भी थे। जाँच की मान्य पद्धति के अनुसार मैंने उनके बयान लिखे। यद्यपि मुझे आज तक विश्वास है कि चोरी की घटना सही रही होगी, परंतु मेरे मन में भी न्याय की यह संस्कृति घर करने लगी थी कि यदि पर्याप्त गवाही उपलब्ध न हो तो अभियुक्त के वास्तविक अपराधी होने का ज्ञान होने पर भी उसे दंडित नहीं किया जा सकता है। इसके पीछे मेरी पिछली रिपोर्ट पर मेरे साथी सर्किल आफीसरों द्वारा दी गई सलाह भी थी। अतः मैंने चोरी की घटना साबित न होने की रिपोर्ट एस.एस.पी. को भेज दी।

उस समय एस.एस.पी., इलाहाबाद के पद पर एक बड़ी स्वच्छ छवि के एवं होशियार अधिकारी विद्यमान थे। उन्होंने मेरी रिपोर्ट को सीन फाइल कर दिया, जिसका प्रशासकीय भाषा में अर्थ होता है कि किसी अग्रिम कार्यवाही की आवश्यकता नहीं है। परंतु एक दिन वह बातों-बातों में मुझसे कहने लगे, 'द्विवेदी, तुम जानते हो कि इतनी सख्ती के बाद भी इलाहाबाद में कम से कम 30 प्रतिशत क्राइम नहीं लिखा जाता है। तुमने जो चोरी वाली रिपोर्ट दी थी, वह घटना सही थी, लेकिन तुमने थानाध्यक्ष के खिलाफ न लिखकर ठीक ही किया। अगर क्राइम छिपाने की हर शिकायत पर सही रिपोर्ट दी जाए तो जल्दी ही सभी सब-इंस्पेक्टर सस्पेंड या रिवर्ट हो जाएँगे और फिर थाने का कार्य कौन चलाएगा?'