भाग 9 / एक पुलिस अधिकारी के संस्मरण / महेश चंद्र द्विवेदी

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यह तो अपनी-अपनी इंटेलीजेंस की बात है

तेईस बटालियन पी.ए.सी., मुरादाबाद में मेरे एडजूटेंट श्री बाबूराम शर्मा थे - सब-इंस्पेक्टर से प्रोन्नत डिप्टी एस.पी., जो रिटायरमेट के निकट थे। कुछ मेरठिया होने के कारण, कुछ रिटायरमेट के निकट होने के कारण और कुछ ब्राह्मण (मेरी जाति) का होने के कारण मेरे समक्ष यदा-कदा मुँहफट हो जाते थे। वह एक दिन मेरे आफिस में आकर बोले, 'सर, मुझे कंटिंजेंट चेक करने गढ़ जाना है। मेरा गाँव वहाँ से तीन-चार किलोमीटर पर ही है। अगर आप इजाजत दें तो मैं वहाँ से अपने गाँव जाकर रात्रि विश्राम कर लूँगा।'

मैंने सरकारी गाड़ी को व्यक्तिगत स्थान पर ले जाने की इजाजत देने में कुछ अनमनापन दिखाते हुए कहा, 'इससे तो सरकारी कार्य के दौरान आप व गाड़ी रात्रि में आप के घर पर रुकेंगे।'

एडजूटेंट एकदम बोल पड़े, 'सर, मुझे वहाँ कहीं न कहीं तो रात में रुकना ही है, फिर मैं अपने घर रुक लूँगा तो क्या हर्ज है। सरकारी कार्य के साथ घर का कुछ कार्य भी देख लूँगा। यह तो अपनी-अपनी इंटेलीजेंस की बात है।'

मैंने अविलम्ब मुस्कराते हुए उन्हें अनुमति दे दी क्योंकि ऐसा न करने पर मेरी इंटेलीजेंस पर प्रश्नचिह्न लग रहा था। उनके जाने के बाद मैंने ध्यानपूर्वक उनकी बात पर गौर किया और मुझे उनकी बात में बडा़ सार नजर आया। पुलिसकर्मियों को प्रायः छुट्टी के लाले पड़े रहते हैं - ऐसे में स्वतःउपलब्ध अवसरों का उपयोग परिवार के हित में कर लेने में मुझे कोई हर्ज दिखाई नहीं दिया और धीरे-धीरे इस हेतु मैं भी अपनी इंटेलीजेंस का भरपूर उपयोग करने लगा। फिर तो मेरे हर दौरे पर मेरी कार पर मेरे परिवार के लोग अथवा मित्रगण जाने लगे जो उस समय डाकबँगलों, जो प्रायः नहर, नदी, जंगल या पहाड़ के निकट स्थित होते हैं, पर पिकनिक मनाते थे, जब मैं अपराध के घटनास्थलों का निरीक्षण, जाँच अथवा मीटिंग किया करता था। फिर जब मैं इंटेलीजेंस के उपयोग में एक्सपर्ट हो गया तो नाते-रिश्तेदारों के यहाँ के शादी-विवाह-मुंडन आदि के कार्यक्रमों के अनुसार मेरे दौरे के कार्यक्रम बनने लगे।

मैं अपने मन में इन कार्यक्रमों को यह सोचकर उचित ठहराता था कि अपने कार्यक्षेत्र में दौरा करना, जनता से मिलना एवं अपराध व शांति-व्यवस्था की स्थिति का ज्ञान करना मेरा प्रशासकीय कर्तव्य है, तब व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अनुसार शासकीय कार्यों को रिशेड्यूल कर लेने में क्या हर्ज है। यद्यपि यह तर्क पूर्णतः सीधा नहीं है, परंतु यह बात मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि अपनी इस इंटेलीजेंस के सदुपयोग की आदत के कारण मैं अन्य अधिकारियों की तुलना में डिस्ट्रिक्ट हेडक्वार्टर के बाहर अधिक रुकता था जिससे जनता को मुझसे मिलने का अधिक अवसर मिलता था और उनमें सुरक्षा की भावना भी बढ़ती थी।

विभाग में उच्च पदों पर पहुँचने पर मेरे समक्ष कभी-कभी ऐसे अवसर आए जिनसे मैंने जाना कि इंटेलीजेंस का सदुपयोग केवल अधिकारी ही नहीं करते हैं वरन जनता के लोग भी इंटेलीजेंस का सदुपयोग करना जानते हैं तथा अधीनस्थ कर्मचारी भी। वर्ष 1978 में मैं एस.एस.पी., गोरखपुर था और वर्ष 1991 में आई.जी., गोरखपुर जोन। वर्ष 1991 में एक दिन आई.जी.कार्यालय में मेरे समक्ष गाँव से आए हुए एक सज्जन उपस्थित हुए, और अन्य कोई बात करने से पहले मेरे समक्ष कुछ फोटोग्राफ प्रस्तुत कर दिए, जिनमें मैं उनके साथ खडा़ था और ग्राम सुरक्षा समिति को सम्बोधित कर रहा था। उन्होंने बताया कि जब मैं एस.एस.पी., गोरखपुर था तो उन्होंने अपने गाँव में ग्राम सुरक्षा समिति की मीटिंग आयोजित कराई थी, जिसके ये फोटाग्राफ हैं। फिर उन्होंने धीरे से एक संदिग्ध अपराधी की सिफारिश यह कहकर प्रारम्भ कर दी कि वह निर्दोष है। उनके चले जाने पर मुझे ज्ञात हुआ कि उनके द्वारा सिफारिश किए जाने वाला व्यक्ति सज्जन नहीं है और वह स्वयं भी कोई विशेष सज्जन नहीं हैं।

इसी प्रकार जब मैं डी.जी., पुलिस था तो एक सिपाही मेरे समक्ष उपस्थित हुआ और उसने अन्य कोई बात प्रारम्भ करने से पहले मेरे द्वारा उसे लिखित कतिपय पुराने पत्रों की प्रतिलिपियाँ प्रस्तुत कर दीं। वे पत्र उसके द्वारा मुझे नववर्ष पर भेजे गए ग्रीटिंग कार्ड के उत्तर में लिखे गए मेरे पत्र थे। मेरे द्वारा उन्हें देख लेने के बाद उसने शिकायत पर हुए अपने स्थानांतरण को रद्द करने का प्रार्थना पत्र यह कहते हुए पेश कर दिया कि वह हर वर्ष मुझे ग्रीटिंग कार्ड भेजता रहा है।

इस प्रकार मैंने पाया कि व्यक्तिगत लाभ प्राप्त करने हेतु इंटेलीजेंस का उपयोग करने में सभी वर्ग के लोग, अधिकारी और कर्मचारी बड़े मनोयोग से लगे रहते हैं।