मन की वीणा पर सधे संवेदना के गीत-‘गाएगी सदी’ / रश्मि विभा त्रिपाठी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आदरणीया डॉ. सुरंगमा यादव का सद्य प्रकाशित हाइकु- संग्रह ‘गाएगी सदी’ पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ। यह सप्रेम भेंट पाकर आल्हादित हुए मन को संवेदना की डोर ने इस तरह खींचा कि एक बार में पूरा संग्रह पढ़ने पर तृप्ति नहीं हुई और मैंने पुस्तक दुबारा पढ़ी।

संवेदना ही वह डोर है जो कवि को व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि से जोड़कर एक अटूट रागात्मक बंधन में बाँध देती है। संवेदना की यही डोर पाठक को भी निरंतर कवि की रचना की ओर खींचती है। जिस रचना में संवेदना नहीं, वह रचना पाठक के मन पर अपनी अमिट छाप नहीं छोड़ सकती।

जिस साहित्य में पावन भावों के चन्दन की चौकी पर आदर्शों की प्राण प्रतिष्ठा हो, आशा का घट स्थापन हो, अमंगल के नाश का आह्वान हो, सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की स्तुति हो, मन्थन का मंत्रोच्चार हो, जागृति की जोत जगे, नैतिकता का नीराजन हो और पूरे विश्व के कल्याण की प्रार्थना हो, रचना रचने के वृत को धारण करने से पूर्व लिया गया यह शुभ संकल्प ही संवेदना है। ऐसी रचना साहित्य के मन्दिर में सदैव श्रद्धा के साथ पूजी जाती है।

उत्तर प्रदेश सरकार के रामधारी सिंह ‘दिनकर’ पुरस्कार से सम्मानित डॉ. सुरंगमा यादव का काव्य इसी संवेदना का संकल्प लेकर रचा गया है। उन्होंने इस पुस्तक की भूमिका में स्वयं भी काव्य में संवेदना का महत्त्व रेखांकित किया है- “जीवन हो या काव्य, संवेदनायुक्त होने पर ही सार्थक है। संवेदनायुक्त काव्य ही जनवादी काव्य कहलाता है।”

उनकी इसी संवेदना का राग है- ‘गाएगी सदी’ हाइकु- संग्रह।

उनके मन की वीणा पर सधे संवेदना के गीत पुस्तक में पाँच उपशीर्षकों के अंतर्गत रचे गए हैं- ढाई आखर, वक्त की धूप, हरित कथा, जग की रीत एवं सुधियों की सुरभि।

डॉ. सुरंगमा यादव का यह तीसरा हाइकु- संग्रह है जिसमें उन्होंने अपने श्रेष्ठ काव्य कौशल से संवेदना के इन गीतों को रचा है। जड़- चेतन, जगत इन गीतों का आधार हैं। जगत एक स्वर्णमृग के समान है, जिसकी छलना में व्यक्ति उम्रभर इधर- उधर भटकाता रहता है और अपने ही भीतर की छिपी हुई कस्तूरी को कभी ढूँढ नहीं पाता। इसी यथार्थ का प्रकटीकरण करके जीवन का उद्देश्य बताता हुआ महत्त्वपूर्ण हाइकु है-

ढूँढी कस्तूरी/ निज अंतर छोड़/ दुनिया पूरी। (पृष्ठ 17)

इस ध्वन्यात्मक हाइकु में स्वयं को न पहचान कर व्यर्थ इधर- उधर भटकने वालों को आत्मचिंतन, आत्मनिरीक्षण कर जीवन के उद्देश्य को जानने का उद्बोधन ध्वनित है।

जीवन की माला में सुख और दुख के दो मोती अपनी- अपनी आभा से मन को हमेशा प्रभावित करते हैं। जहाँ सुख के मोती की चमक मन को खूब जुड़ाती है, वहीं दुख के मोती पर नजर पड़ते ही उसकी चौंध मन को इस कदर दुखाती है, रुलाती है, कि मन टूटकर बिखर जाता है। मन को टूटकर बिखरने से बचाने के लिए डॉ. सुरंगमा यादव धीरज के धागे में मन को पिरोने की युक्ति बताती हैं-

जब भी रोया/ धीरज के धागे में/ मन पिरोया। (पृष्ठ 17)

धीरज के धागे में यदि मन को पिरोकर उसे बाँधा न जाए तो मन कहीं भी टिककर नहीं रहेगा। पूरे संसार में घूम- घूमकर, जो वश में नहीं है, उसे ही पाने की ठानेगा-

रुक लहर/ रेत पर लिखा नाम/ देखूँ जीभर। (पृष्ठ 17)

रेत पर लिखे नाम का क्या ठिकाना है? वह कितनी देर तक रह सकता है? किसी भी पल कोई लहर आकर उसे अपने साथ बहा ले जाती है। मन की हठ तो इस हाइकु में निहित है ही, जीवन की क्षणभंगुरता भी है। जीवन भी रेत पर लिखे नाम की तरह है जिसका अस्तित्व केवल तभी तक है, जब तक कोई लहर उस तक नहीं आती! ऐसे में एक ही विधि है कि उस लहर के आने तक भवसागर के तट पर जीवन को जीभर जी लें।

प्रेम सावन की वह ऋतु है, जिसके रिमझिम बरसते ही जीवन के मरुथल में हरियाली आ जाती है, आस का पौधा हरा हो जाता है, अकेलेपन, उदासी की तपन मिट जाती है और प्रेम की इस बारिश में भीगता मन खुशियों का झूला झूलते हुए मल्हारें गाता है। इस सावन में प्रिय को पाकर तृप्ति का बादल उमड़ उमड़कर रोम- रोम को पुलकित करता है और बरसकर तपते मन को ठहराव देता है-

तुम्हें जो पाया/ झील- सा ठहराव/ मन में आया। पृष्ठ (18)

स्पर्श तुम्हारा/ रोम- रोम में फूटी/ नेह की धारा। (पृष्ठ 19)

इस हाइकु में नवजीवन के मुरझाए सपनों को सींचने के लिए जीवन के मरुथल में प्रेम के सावन की आस है-

प्रेम का जल/ जीवन मरुथल/ ढूँढता मन। (पृष्ठ 20)

हम प्राय: अपनी सोच के साँचे में जीवन को ढालने का प्रयास करते हैं, परन्तु जीवन उस साँचे में पूरी तरह कभी नहीं ढल पाता! जीवन को अपने अनुसार चलाने वाली वृत्ति कैसी है, यह कवयित्री ने इस सुंदर हाइकु के माध्यम से हमें बताया है-

कितना सींचे/ पत्थरों पर कब/ उगे बगीचे। (पृष्ठ 21)

जीवन में प्रेम का महत्त्व कितना है, ऊपर लिखे अपने हाइकु में कवयित्री इसे बता ही चुकी हैं कि प्रेम के अभाव में जीवन मरुथल है। अगले हाइकु में कवयित्री जीवन में प्रेम को सहेजकर रखने के जतन का आग्रह करती हैं-

प्रेम नगीना/ मन- मुद्रिका बीच/ सजा रखना। (पृष्ठ 22)

चाँद पर कवियों ने कई कविताएँ लिखी हैं, जिनमें उन्होंने चाँद को अलग- अलग रूपों में गढ़कर, अलग- अलग भाव- भंगिमाओं के साथ अपनी कविता की जमीन पर उतारा है। यहाँ कवयित्री ने चाँद का मानवीकरण एक नए ढंग से करके हाइकु की सुन्दरता में चार चाँद लगा दिए हैं। नवीन भावबोध के इस हाइकु की चमक देखिए-

पूनो को देख/ दे रहा क्लोजअप/ चाँद सलोना। (पृष्ठ 23)

इस क्लोजअप शब्द के प्रयोग से चाँद के फोटोजेनिक फेस पर अपनी अंतर्दृष्टि का कैमरा फोकस कर पूनो की रात में बादल की ओट से निकलकर आए चाँद का एक सुन्दर चित्र सुरंगमा जी ने क्लिक किया है।

संवेदना जीवन में क्यों ज़रूरी है, निम्न हाइकु पढ़कर जाना जा सकता है-

मन की पीर/ संवेदना की ऊष्मा/ मिली, पिघली। (पृष्ठ 29)

संवेदना की ऊष्मा मिलते ही मन की पीर पिघल जाती है। आज इसी संवेदना के अभाव में जीव जगत जल रहा है।

संग्रह के उपशीषर्क वक्त की धूप में तपते जीवन का रूप देखकर हमें अनुभूति होती है कि सूरज की धूप जब ढलती है तो झुलसे हुए तन- मन को साँझ की बेला में राहत मिलती है लेकिन वक्त की यह धूप जब ढलती है तो संवेदनहीनता की काली छाया आकर डराने लगती है-

साँझ की बेला/ नीड़ निहारे पंछी/ बैठ अकेला। (पृष्ठ 31)

जीवन की साँझ में मनुष्य पंछी की तरह अकेला बैठा अपना नीड़ ताकता रह जाता है और जिनके लिए तिनका- तिनका चुनकर नीड़ बनाया था, वे चूजे पंख निकलते ही उसे छोड़कर उड़कर दूर चले जाते हैं। आज के नारी सशक्तीकरण के युग में नारी की वास्तविक स्थिति का आंकलन कवयित्री ने अपने हाइकु में किया है-

चाँद को छुआ/ भू पे नारी संघर्ष/ कम न हुआ। (पृष्ठ 40)

यह बड़े गर्व की बात है कि कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स ने चाँद पर कदम रखा परन्तु उससे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि धरती पर आज भी नारी को कदमों तले रौंदा जा रहा है।

नन्ही- सी कली/ वासना की सेज पे/ गई मसली। (पृष्ठ 32)

नारी की स्थिति में आज भी कोई बदलाव नहीं! उसका जीवन पीड़ा का एक शपथ- पत्र है-

नारी जीवन/ एक शपथ-पत्र/ पीड़ा के नाम। (पृष्ठ 39)

इसलिए कवयित्री का नारी जाति के लिए आह्वान है-

नारी कहो न!/ क्या लता ही रहोगी?/ वृक्ष बनो ना। (पृष्ठ 42)

वह नारी को वृक्ष का सहारा लेकर खड़ी होने वाली लता बनते नहीं देखना चाहतीं बल्कि वे चाहती हैं कि नारी स्वयं एक मजबूत वृक्ष बने, जिसकी जड़ें कोई हिला न पाए।

समाज की परंपराओं पर कवयित्री प्रश्न उठाती हैं-

क्यों ये रिवाज/ मृत- देह का साज/सधवा- बेवा। (पृष्ठ 41)

जीते जी स्त्री की बुनियादी ज़रूरतों तक के लिए घर, परिवार, समाज उसे तिल- तिल मारता है, अंतिम साँस तक उसके मन पर काँटे चुभोकर उसे पीड़ा पहुँचाता है, उसके सम्मान को तार- तार करता है और मरने के बाद उसको नए वस्त्र, आभूषण पहनाकर उसकी देह को फूलों से सजाकर श्मशान घाट लेकर जाता है। कितनी विचित्र रीत है!

कवयित्री ने अपने हाइकु में अपने पर्यावरण के प्रति गहरी चिंता व्यक्त की है। लोलुप दृष्टि के वनों पर गहराने से वृष्टि लगातार घट रही है। इसका परिणाम कितना विनाशकारी होगा?

घटती वृष्टि/ वनों पे गहराई/ लोलुप दृष्टि। (पृष्ठ 44)

पाँव पसारे/ कंक्रीट आ पहुँचा/ वन के द्वारे। (पृष्ठ 59)

कंक्रीट अपने पाँव पसारते हुए वन के द्वारे तक पहुँच गया है। इसे देखकर पंक्षी व्यथित हैं। पंक्षी की व्यथा बताते अत्यंत मार्मिक हाइकु-

लेकर तृण/ कंक्रीट के वन में/ भटकें पंछी। (पृष्ठ 45)

खंभे से पूछे/ हाँफता हुआ पंक्षी/ छाँव का पता। (पृष्ठ 49)

कवयित्री ने अपनी सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति से आकाश में धूप, बादल और सूरज का व्यावहारिक मूल्यांकन कर अपनी एक अहम रिपोर्ट तैयार की है। उन्हें घने कोहरे में भी सर्दी की धूप के व्यवहार में अनियमितता दिखी है। अपनी रिपोर्ट में उन्होंने लिखा है कि सर्दी की धूप एक कामचोर कर्मचारी की तरह है-

सर्दी की धूप/ उपस्थिति लगाके/ चली झट से। (पृष्ठ 46)

सूरज क्वारंटीन है और उसका अपने स्वभाव के विपरीत व्यवहार है-

नभ में मेघ/ क्वारंटीन सूरज/ हुआ निस्तेज। (पृष्ठ 54)

बादलों को उन्होंने नभ का सर्वे करते हुए पाया है-

बादल छाए/ नभ का सर्वे कर/ वापस चले। (पृष्ठ 58)

जीवन के तूफान से लड़ने के लिए मनुष्य को सदैव एक वृक्ष की भाँति डटकर खड़े होना चाहिए और इस तूफान में अपनी जिजीविषा का दीप कभी बुझने नहीं देना चाहिए क्योंकि जिजीविषा वह वृक्ष है जिसके ठूँठ होने पर भी उसमें फिर से नई कोंपलें निकल आती हैं और वह हरा हो जाता है-

वृक्ष हैं वही/ जो तूफान से लड़े/ आज हैं खड़े (पृष्ठ 54)

जिजीविषाएँ/ ठूँठ पर कोंपल/ निकल आए। (पृष्ठ 71)


आज के युग में रिश्तों में कुछ बचा है, तो केवल संवादहीनता, उदासीनता, तनाव और स्वार्थ-

एक ही घर/ छत और फर्श- सी/ दूरी हममें। (पृष्ठ 33)

संवादहीनता में हाइकुकार ने एक धीमे जहर की पुष्टि की है जो धीरे- धीरे रिश्तों का दम घोंट रहा है। उदासीनता ने रिश्तों की तरलता को सोखकर उन्हें बेजान बना दिया है। रिश्ते आज बड़े मकानों में सिर्फ शो पीस की तरह सजने के लिए रह गए हैं। एक तो वैसे ही रिश्ते कम हो रहे हैं, उस पर भी उनमें बढ़ते तनाव से कम हो रहा लगाव उनका वजूद मिटा रहा है, रही- सही कसर स्वार्थ के चूहे पूरी कर रहे हैं जो रिश्तों की डोर को कुतर रहे हैं।

वृद्धों के प्रति नई पीढ़ी की उदासीनता इस हाइकु में झलकती है-

वृद्ध लाचार/ अपनों की उपेक्षा/ देह भी भार। (पृष्ठ 33)

धुँधली आँखें/ कर गया किनारा/ आँख का तारा। (पृष्ठ 34)

वृद्धाश्रम को जाते बुजुर्गों का रुदन अन्तरात्मा को झकझोर देता है। जिनको उँगली पकड़कर चलना सिखाया, अपने पाँवों पर खड़े होते ही उन्होंने वृद्धाश्रम का रास्ता दिखाकर अपना कर्ज चुका दिया।

भाव, भाषा, छन्द की कसौटी पर कसे बिम्ब योजना, सादृश्य विधान एवं प्रतीकात्मक शैली में संवेदना के इन गीतों की लय में जीवन के रंगमंच पर हँसने- रोने के अभिनय के साथ- साथ मृत्यु का शाश्वत सत्य स्वीकार करने, अटल मृत्यु की चिंता छोड़ जीवन को जीते हुए नैतिक मूल्यों को बचाए रखने, कर्म का राग सुनाकर भाग्य को जगाने, वंचितों का सहारा बनने, बेटे- बेटी को एक समान मानने, आज के समय में मानव- मन पर हावी स्वार्थ, आभासी प्रेम के छलावे, मन की दीवारों पर लगे क्रोध, घृणा के जाले हटाने, गर्व के गिरि पर चढ़कर सबसे दूर हो जाने, दर्द की पगडंडी पर चलकर मिले सुख के गाँव, जीवन के सिंधु में सुख- दुख की लहरों के उठने, निराशा के सिंधु में आशा की पतवार से पार पहुँचने, अँधियारी रात के पीछे छिपे हुए सवेरे को देख आशावान रहने, निडर पग देख दुर्गम राहों के बाहें फैलाने, क्षमताओं के पंख खोल विस्तृत नभ को छूने, युद्ध में मानवता के हारने से सदियों के रोने, ‘मानवता बचाएँ’ दिवस मनाने, सीमा पर डटे जवान के भारत माँ की सेवा में समर्पित होने, साहित्य में भी राजनीति होने, गाँव की चौपाल के खोने, गाँव से आए फुटपाथ पर पड़े स्वप्नों और गुलाब- सी यादों के महकने का स्वर अनुगुंजित है। ‘गाएगी सदी’ में संवेदना के ये गीत निस्संदेह सुर, लय, ताल से प्रबुद्ध पाठक की भावनाओं को झंकृत करेंगे।

गाएगी सदी’ (हाइकु- संग्रह) : डॉ. सुरंगमा यादव, पृष्ठ: 112, मूल्य: 320 रुपये, आईएसबीएन: 978-81-968022-9-5, प्रथम संस्करण: 2024, प्रकाशक: अयन प्रकाशन, जे- 19/39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली- 110059

-0-