मसरख कॉन्फ्रेंस तथा कांग्रेसी मंत्रिमंडल / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चुनाव खत्म होते ही सारन (राजेंद्र बाबू के) जिले के मसरख में प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन हुआ। उसमें एक प्रस्ताव था कि कीमत देकर जमींदारी खत्म की जाए। उस पर जो संशोधान किसान-सभावालों का था कि बिना कीमत दिए ही जमींदारी खत्म की जाए वही पास हुआ। असली प्रस्ताव गिर गया! अजीब जोश था। लोग हमारा भाषण सुनने को आतुर थे। कुछ जमींदारों ने पुरानी पोथियों से जमींदारी सिध्द करनी चाही। मैंने मुँहतोड़उत्तर दिया! मगर नेता लोगों ने उस प्रस्ताव को अमल में ठुकरा दिया। यह भी देखा किमंत्रीबनने के पूर्व किसानों की सभाओं और कॉन्फ्रेंसों में भावीमंत्रीलोग जाते थे और जमींदारी मिटाने का प्रस्ताव पास करवाते थे! हालाँकि, सभी जानते हैं कि दिल से वे लोग नहीं चाहते थे। पर, किसानों पर मोहनी डालने का यह अच्छा रास्ता था। लेकिनमंत्रीहोते ही जमींदारों से समझौते पर समझौते होने लगे! ऐसी पैंतरेबाजी! ऐसी नटलीला!

चुनाव के बाद कुछ ही दिन के लिए दूसरा मंत्रिमंड बन पाया था। क्योंकि हमारे दोस्तों के लिए कुछ अड़चनें थीं। पीछे वे हट गईं और कांग्रेसी लोग गद्दी पर आ विराजे। पहले तो कांग्रेस का फैसला कुछ हुआ न था। इसीलिए सन 1937 के मार्च में दिल्ली में आल इंडिया कांग्रेस कमिटी की मीटिंग हुई। वहीं इसका फैसला हो गया कि कांग्रेसी लोग मंत्री पद स्वीकार कर सकते हैं! उस बैठक में जो दलीलें मंत्रीपद के लिए दी जाती थीं उन्हें सुन के हँसी आती थी। खद्दर का खूब प्रचार होगा। सरकारी इमारतों पर राष्ट्रीय झंडे उड़ेंगे। गोया, राजनीति और आजादी की लड़ाई का यही अर्थ है। “किसानों और मजदूरों को कानून आदि के जरिए आराम देंगे। वह थक गए हैं। परेशान हैं। कुछ राहत उन्हें देना जरूरी है। हमीं यह काम बखूबी कर सकते हैं”। आदि की लेक्चरबाजी खूब ही हुई! असल में थके थे तो लीडर लोग और उनके दोस्त। मगर किसानों के मत्थे पार हो रहे थे। यही आसान बहाना जो था!

लेकिन हुआ क्या? सरकारी मकानों पर राष्ट्रीय झंडे उड़े? क्या गवर्नर के मकान,सेक्रेटेरियट, असेंबली के मकान और कचहरियों पर ये झंडे दीखे भी? और जगह तो, तथा खासकर युक्त प्रांत में कॉलेजों पर ये झंडे उड़े भी। मगर बिहार में वह भी नहीं हुआ! कचहरियों आदि का तो कहना ही नहीं। प्राइवेट स्कूलों वगैरह की बात छोड़िए। वहाँ भी कहीं-कहीं उड़े। मगर पीछे तो खटाई में पड़ गए। कहा गया कि मैनेजिंग कमिटी चाहे तो तिरंगे झंडे लगा सकती है। तो फिर कांग्रेसी मंत्रिमंड को क्या करना था? दिल्ली में तो भावी मंत्रियों ने ही यह बीड़ा उठाया था। अब मैनेजिंग कमिटी के मत्थे वह बला फेंकी गई। सो भी यदि लड़कों में मतभेद न हो तभी! सारांश, जितनी ज्यादा राष्ट्रीय झंडे की अप्रतिष्ठा कांग्रेसी मंत्रियों के काल में हुई, उतनी कभी न हुई थी! जलाए और पाँव तले रौंदे तक गए वही झंडे, जिनकी शान के लिए मुल्क ने पहले बड़े-से-बड़ा त्याग किया था! कहीं-कहीं तो हमारे लीडरों ने अपने हाथों स्कूल से यह झंडा उतारा, जब कि और कोई तैयार न हुआ! इस तरह झंडेवाली बात तो यों गई।

रह गई किसानों और मजदूरों की बात। सो तो बंबई और कानपुर की गोली और आँसू लानेवाली गैस के प्रयोग आदि ही बताते हैं कि मजदूरों ने क्या पाया। उनकी हड़ताल को तोड़ने, विफल बनाने में बंबई में सारी ताकत लगा दी गई। कानून भी ऐसा बना कि मजदूरों को उसका खुले आम विरोध करना पड़ा और जब उनने उसके विरोध में हड़ताल की तो कांग्रेसी सरकार और कांग्रेस की सारी ताकत उसे तोड़ने में लगी! हालाँकि,फिर भी उनकी हड़ताल सफल हो के ही रही! जमशेदपुर,झरिया,डेहरी,बिहटा आदि के मिलों के मजदूर बिहार मंत्रिमंड को क्या कभी भूलेंगे?

किसानों की सेवा की बात तो कुछ कहिए मत। मंत्रिमंड की तारीफ के पुल तो बहुत बाँधो गए कि यह किया, वह किया। मगर इस संबंध में मैंने दो पुस्तिकाएँ अंग्रेजी में लिखकर सारा पर्दाफाश कर दिया है। उनका हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है। उनके नाम हैं (1) 'The other side of the shield' (2) 'Rent reduction in Bihar : How it works.' दोनों में एक की भी एकाध बातका भी उत्तर न तो अब तकमंत्री लोग ही दे सके हैं और न उसके पृष्ठपोषक ही।

जमींदारों से इस बीच में दो-दो बार गठबंधन कर के किसानों के गले पर जो भोथरी छुरी चलाई गई उसे कौन नहीं जानता? खड़ी फसल की जब्ती को कानून के जरिए आसान कर के किसानों को जो लाभ पहुँचाया गया उसे तो वे पुश्त दर पुश्त न भूलेंगे। लगान घटाने में जो गोलमाल मचा तथा सब मिलाकर अंत में किसानों के हाथ कुछ भी न लगा, वह कभी भूलने का नहीं! जो भी कानून की एकाध बातें किसानों के फाएदे की बनी, उनकी भी शब्दावली ऐसी बनी कि जमींदारों ने सब कुछ मिट्टी में मिला दिया। भावली जमीन की नगदी में आसानी की गई। मगर हजार चिल्लाने पर भी फसल के काटने की मजदूरी और दूसरी बातों का कोई निर्णय न करने से किसानों को लेने के देने पड़ गए।

इन बातों का तो लंबा इतिहास है, जो बिहार प्रांतीय किसान-सभा के इतिहास का एक महत्त्व पूर्ण अंग है। मगर संक्षेप में ये सभी और दूसरी बातें उक्त दोनों पुस्तिकाओं में लिखी गई हैं।

लोग कहते हैं कि मैंने तो शुरू से ही तय कर लिया था कि मंत्रियों का विरोध और उनकी बदनामी करूँगा। मगर मेरे विचार का पक्का सबूत तो यह है कि जुलाई के अंत में, मंत्रिमंड बनने के बाद ही, मैं पंजाब होता विश्राम के लिए काश्मीर चला गया। साथियों से विश्वासपूर्वक कहता गया कि फैजपुर का प्रोग्राम और कांग्रेस की चुनाव घोषणा ये दोनों तो हईं। वे लोग इन पर अमल करेंगे ही। आप लोग सलाह देते रहेंगे। फिलहाल मेरा काम ही क्या है? थोड़ा विश्राम कर आऊँ।

इतना ही नहीं। वहाँ से आकर प्रीमियर से दो बार मिला और मैंने साफ कहा कि एक-दो वर्ष या जितने दिनों के भीतर, एके बाद दीगरे जो कुछ करना चाहते हैं वह हमें साफ बता दें। ताकि हम किसानों को समझा दें कि कब क्या होगा। क्योंकि किसान घबराए हुए हैं। हमें भी कोई जानकारी न होने से हम भी उन्हें क्या कह के समझाएँ? मगर कुछ उत्तर न पा सके। तब आखिर करते क्या? हमें तो उनके साथ डूबना न था। हमारी मजबूरी थी। फिर भी जिस ठंडक से हमने काम लिया उसे लोग जानते हैं। यों तो बदनाम करने का काम कुछ लोगों ने उठा ही लिया है।

हम तो दिल्ली होते हुए पंजाब गए। वहाँ लाहौर तथा रावलपिंडी में सभाएँ कर के श्रीनगर चले गए। एक महीने के बाद ही कई कारणों से वहाँ से वापस आना पड़ा। काश्मीर यात्रा की बात दिलचस्प होने से आगे उसे लिखेंगे। लौटने पर हमें मालूम हुआ कि मंत्रियों पर प्रभाव डालने के लिए हमारे साथियों ने 23-8-37 को पचास हजार किसानों का एक अच्छा प्रदर्शन किया खास पटने के मैदान में। किसानों को लेकर असेंबली भवन तक भी गए! मगर परिणाम कुछ न हुआ! जरा-सा आगे बढ़के मंत्री लोग किसानों से मिले तक नहीं और न उन्हें ढाँढ़स ही दिया! उलटे बदनाम किया! इन प्रदर्शनों का भी संक्षिप्त जिक्र आगे मिलेगा। इससे क्षोभ होना जरूरी था।

इसी बीच में 24-8-37 को काश्मीर से लौट आया। देखा कि न कुछ हुआ और नहीं लक्षण ही अच्छे हैं। इसलिए मुझे गुस्सा जरूर आया। मैं घबराया और सोचने लगा कि समूचे कार्यक्रम पर कहीं पानी तो न फिरेगा। आखिर मंत्रियों को जानता तो खूब ही था। जमींदारों से उनका सट्टापट्टा पहले से था ही। इधर और भी चलने लगा था। इसलिए पहली सितंबर को सन 1937 ई. में जो आल इंडिया किसान दिवस मनाया गया उस समय मैंने गया में किसानों के एक बहुत बड़े जमाव में कस के सुनाया और साफ कह दिया कि हम यों न मानेंगे। अगर यही रवैया रहा तो नतीजा बुरा होगा! इससे मंत्री दोस्तों और उनके पिट्ठुओं को बहुत बुरा लगा कि खुले आम शिकायत की गई। मगर करता क्या? मेरी तो मजबूरी थी।

खैर, उसके बाद साथियों की राय और आग्रह से मंत्रियों से बातें हुईं। मैंने उनसे साफ कहा कि मैं सरकारी आदमियों से मिलता शायद ही हूँ। इसी से अब तक न मिला। फिर भी जब जरूरत होगी और आप लोग चाहेंगे आ सकता हूँ। मेरे स्वभाव की मजबूरी ही तो ठहरी। उनने कहा कि हम सरकारी आदमी हैं? मैंने कहा कि जरूर!

खैर बातें हुईं और कह दिया कि जो कुछ पूछना हो मेरे साथियों से पूछ लें। यह भी बात तय हुई कि कास्तकारी कानून में संशोधान करने का बिल मुझे दिखा कर बातें करने के बाद यदि उसे प्रकाशित करें तो दिक्कत कम होगी। नहीं तो खुल के विरोध करना पड़ेगा। मगर क्या कुछ किया गया? उलटे संशोधान में लगान वसूली के केसों को दिवानी अदालतों से हटाकर माल महकमे के अफसरों के जिम्मे करने की कोशिश की गई! ऐसा बिल बन भी गया! पीछे बड़ी दिक्कत से वह रुक सका!

पार्लिमेंटरी सेक्रेटरी श्रीकृष्ण वल्लभ सहाय ने दलील में कहा कि मालमहकमा तो हमारे अधीन होगा! इसलिए अफसरों से जो चाहें करवा लेंगे। मगर अदालतें तो स्वतंत्र हैं! मैंने उत्तर दिया कि क्या स्वराज्य मिल गया? सदा गद्दी पर बैठे ही रहिएगा?अब आजादी के लिए लड़ना नहीं है? और अगर आप गद्दी पर हों तो क्या होगा? जरा सोचिए तो भला। इस पर चुप रहे। मगर उनकी बात से यह भी पता चला कि अब उन लोगों ने लड़ने का खयाल छोड़ ही दिया है।

एक और सुंदर घटना हो गई और मैंने उन लोगों के दृष्टिकोण का अंदाज पा लिया। जब एक-दो बार बड़े-बड़े प्रदर्शन पटने में हो गए जिनमें लाखों किसान आए तो बाद में मुलाकात होने पर प्राइम मिनिस्टर ने मुझसे कहा कि स्वामी जी, इस हंगामे (Mob) से सजग रहिए! मैं चुप सुनता रहा! मगर भीतर-ही-भीतर सोचा कि एक दिन इसी किसान समूह को मास (Mass)कहते थे यही लोग। आज वही माब (Mob) हो गया! ये किसान समूह पहले भी माब ही थे। बीच में प्रयोजनवश मास बने! फिर वही माब के माब रह गए! क्योंकि शायद अब इनकी जरूरत इन नेताओं को नहीं और जिनकी जरूरत न हो उन्हें इसी नाम से स्थिर स्वार्थवाले सदा से पुकारते ही चले आते हैं! सरकार भी इन्हें सदा माब कहती है और अब हमारे मंत्री लोग भी सरकार बने हैं! शायद इसलिए भी यह माब शब्द आ गया है! लेकिन किमाश्चर्यमत: परम।

जो सबसे पहला संशोधान काश्तकारी कानून में किया गया और उसके लिए जो बिल पेश हुआ वह कांग्रेस पार्टी के सामने मंजूरी के लिए कभी आया ही नहीं! यह विचित्र बात थी! इस पर हमने श्री यमुनाकार्यी एम.एल.ए. के द्वारा असेंबली के दो तिहाई (69) सदस्यों के हस्ताक्षर के द्वारा प्रार्थना करवाई कि वह पार्टी में पेश किया जाए। मगर नतीजा कुछ न हुआ! इन्हीं मेंबरोंने उसी प्रार्थना में फैजपुर प्रोग्राम और कांग्रेस की चुनाव घोषणा के आधार पर किसानों की माँगों को गिनाकर उनकी पूर्ति की माँग भी की। मगर कौन सुने?

कर्ज के बारे में जो कानून बना वह किसानों के लिए तो खास तौर से बना ही नहीं! मगर उसमें सूद की दर जो दस्तावेजी और गैर दस्तावेजी कर्जों के लिए 9 और 12 फीसदी रखी गई थी उसे कांग्रेस पार्टी ने यद्यपि 6 और 7 कर दिया। फिर घुमाफिराकर वही रखी गई। वह कानून तो इतना रद्दी बना कि दो-दो बार हाईकोर्ट को उसकी जरूरी धाराएँ गैर-कानूनी बतानी पड़ीं। तीसरी बार तो उसकी ऐसी टीका उसने की है कि शर्म मालूम पड़ती है!

वे लोग (मंत्रीगण और उनके साथी) फैजपुर के प्रोग्राम को तो भूल ही गए। कई बातें उन्हें याद दिलानी पड़ीं। फिर भी आश्चर्य है कि 'ऐसा है?' कह के भी कोई परवाह न की! आखिरकार विवश होकर टेनेन्सी कानून के संशोधानों में दो-तीन मौके ऐसे आए जब कांग्रेस पार्टी के किसान-सभावादी सात-आठ सदस्यों ने किसान कौंसिल की राय से पार्टी की आज्ञा के विरुध्द भाषण किया और पार्टी के साथ वोट नहीं किया! मगर उनके विरुध्द कुछ करने की हिम्मत वे लोग कर न सके!