महादेवी वर्मा की नीर भरी दुःख की बदली : एक पाठ / विनोद दास

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महादेवी वर्मा की कविताएँ दुःख का एक ऐसा नीरंध्र और बन्द घर है, जिसके बाहर सिसकियाँ सुनाई देती हैं, लेकिन रोनेवाला दिखाई नहीं देता । घर की साँकलें नहीं खुलतीं । इन सिसकियों की गहराई, तीव्रता और पीड़ा से हम भीतर ही भीतर मर्माहत होते हैं, उसकी वेदना और पीड़ा में गहराई से डूबते-उतराते रहते हैं । हालाँकि हमें यह पता चल जाता है कि दुःख के इस बन्द घर की दीवारों के पीछे कोई स्त्री रो रही है और वह शारीरिक रूप से आहत स्त्री भी नहीं है । इस स्त्री को बन्द घर में कोई पीट नहीं रहा है अर्थात् इसके साथ शारीरिक हिंसा नहीं हो रही है लेकिन जो हो रहा है, वह शारीरिक हिंसा से कमतर नहीं है । यह एक ऐसी हिंसा है जो मन के कोमल तन्तुओं को तार-तार कर देती है । इसका प्रभाव क्षणिक नहीं, इतना स्थायी होता है कि पीड़ित की आत्मा पर पड़े ज़ख़्म आजीवन सूखते नहीं बल्कि दुखानुभूति के साथ धीरे-धीरे पकते हुए नानारूपों में व्यक्त होते रहते हैं ।

समीक्ष्य कविता की पहली पंक्ति नीर भरी दुःख की बदली में कवयित्री अपनी कविता का केन्द्रीय भाव प्रकट करती हैं । यही पंक्ति कविता की संरचना को भी निर्धारित करती है । पहली पंक्ति विक्षुब्ध मनोभूमि को व्यक्त करती है, जिसमें उदास गीत की लय है । फिर अपने अगले पद-खण्ड में तनाव के छोटे-छोटे गहरे आघातों से इस उदास मनोभूमि को कवयित्री गहरा करती जाती है । अपने आत्म साक्षात्कार के पल में वह महसूस करती है कि उसके जीवन में जो स्पन्दन है, वह चिरकाल से निष्प्राण है । वह जी रही है, लेकिन साँस लेना जैसे उसका केवल जैविक कर्म भर है, वैसे उसका जीवन निस्पन्द है । जीवन आग में जलती हुई जब वह कराहती है, तो उसके ज़ख़्मों पर संसार के उपहास की धूल उड़ती है । उपहास से मन में क्रोध के दीपक जलते हैं और फिर पलकों से आँसुओं की निर्झरणी बहती है ।

महादेवी के आँसू छायावादी अन्य कवियों से अलग हैं । सुमित्रानन्दन पन्त तो हाड़-माँस के मनुष्य से प्रेम करने की जगह प्रकृति से रागात्मक सम्बन्ध बनाते हैं । वह पपीहों की पीन-पुकार और निर्झरों की भारी झर-झर में रमे रहते हैं और स्त्री की मोह-माया में अपनी आँखें अरझाना नहीं चाहते हैं । वह कहते हैं कि “हाय किसके उर में उतारूँ अपने उर का भार।” वह सिर्फ भावी पत्नी की कल्पना कर सन्तुष्ट रहते हैं । दूसरी तरफ जयशंकर प्रसाद की कृति “आँसू” में काव्य नायक रो-रो कर सिसकता है और प्रेयसी उनकी अनदेखी करती रहती है । वह मादक भी है और मोहमयी भी है । यह काव्य नायक मधुर प्रेम की स्मृति से दुखी रहता है । महादेवी वर्मा की इस कविता में भी कटु स्मृति है, लेकिन उस पुरुष को लेकर नहीं है । उसका ज़िक्र नहीं है ।

इस कविता के दूसरे पद-खण्ड में कवयित्री अपने उस कालखण्ड को याद करती हैं, जब उनके जीवन में पग-पग पर संगीत भरा था । साँसों से सपनों के पराग झरते थे । जीवन आकाश के क्षितिज पर नए-नए रंगों की छटाएँ बिखरी रहती थीं । चन्दन की हवा चलती थी । कवयित्री के यौवन काल का यह टटका स्वतःस्फूर्त जीवन था, जिसकी कसक और टीस उसके कोमल मन को चीरती है । भीतर ही भीतर वह मर्माहत होती है । तब उसके पास अनुभूति का जल था । उसकी अनुभूति का यह तरल सोता सामाजिक अन्याय की गर्मी से सूख जाता है और दुख की बदली के रूप में छा जाता है । दरअसल यह कालखण्ड कवयित्री को अपने को पाने, अपने को स्वायत्त करने और अपने से जुड़ने का समय था । लेकिन उड़ने के लिए उसे अपना आकाश नहीं मिलता । इस पद-खण्ड में कवयित्री अपने मार्मिक अतीत को प्रकाश में लाती है और उसे अपने वर्तमान की पीड़ा से जोड़ती है ।

चूंकि कवयित्री के लेखे स्त्री होना ही दुःख की बदली होना है । वह जैसे-जैसे बड़ी होती है, परिवार-समाज की भौंहों पर चिन्ता की सतत लकीर की तरह दिखती रहती है । कविता के तीसरे पद-खण्ड में इस अनुभव की ट्रेजडी का बयान है । जिस युवाकाल में किशोरी के उड़ने के पँख निकल रहे हों, उसी समय उसके गले में विवाह की रस्सी डाल दी जाती है । विवाह के बारे में न तो उससे राय ली जाती है और न ही उसकी इच्छा का सम्मान किया जाता है । किशोरी का कच्चा मन कसमसाता रहता है । उसकी भावनाएँ लहुलुहान होती हैं । यहाँ याद करना अप्रासांगिक न होगा कि महादेवी का विवाह मात्र नौ वर्ष की आयु में कर दिया गया था । इस पदबन्ध में एक किशोरी की चित्तवृत्ति का अंकन है । एक किशोर स्मृति के बोझ के साथ-साथ उन सामाजिक अपेक्षाओं का बोझ भी है, जिनमें स्त्री जीवन का सर्वोपरि कर्तव्य — प्रजनन और मातृत्व है । इसीलिए वह कहती हैं कि रजकण पर जलकण हो बरसीं । दूसरे शब्दों में, जब तक वह धरा पर बरसती नहीं अर्थात् उसका विवाह नहीं हो जाता और उसके जीवन में सन्तान के रूप में नई ज़िन्दगी का अँकुर नहीं खिलता, समाज में स्त्री के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाएगा । रजकण महादेवी का प्रिय शब्द है और उससे जुड़े नव अंकुर की कल्पना भी ।

कविता के चौथे पदबंध में कवयित्री अपने होने के न होने का कारण बताती है कि उसे समाज के सर्वस्वीकृत रास्ते को मलिन करना नहीं आता । दूसरे शब्दों में, जीवन समर में समाजरूपी चट्टान से टकराने के लिए उसके पास तैयारी नहीं है । उस रास्ते पर जीवन की नई यात्रा को चरितार्थ करने के लिए भी काव्य-नायिका तत्पर नहीं है । ऐसे में उसके जीवन-संसार में सुख की सिहरन ही स्मृति के रूप में अन्ततः बचती है । इससे जाहिर होता है कि स्मृति पर निर्भर जीवन में जटिल संसार से निबटने लायक सख़्ती उनकी काव्य नायिका के पास नहीं है । वह उसकी आँच महसूस करती हैं । उनका यह स्मृति-द्रव्य वाष्पित होकर दुःख की बदली बन जाता है।

यह ऐसा दुःख है जिसे काव्य नायिका सीधे नहीं व्यक्त करती । बाहरी यथार्थ पर कड़ा पहरा है । समाज की कड़ी बन्दिशें हैं । इस बन्दिश की दीवारें भी कवयित्री ने स्वयं चिनी हैं । उसे भीतर ही भीतर घुलना है । वह एक ऐसे सामन्ती, धार्मिक और सामाजिक ढाँचे में रहती है, जहाँ वह अपनी दबी-घुटी इच्छाओं को अभिव्यक्त नहीं कर पाती । स्त्री को मुँह सीकर अन्यायों-अपमानों को सहना है । सीधे व्यक्त करने पर उसके प्रेम भरे उजले मन के संवेगों को लोक-उपहास की गन्दी छीटें मलिन कर देती हैं या तानों के कोड़ों से लहुलुहान कर देती हैं । ऐसे में एक स्त्री मन के पास अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का एक ही उपाय बचता है कि वह अपनी आत्मपीड़ा पर पर्दा डालकर बात करे । महादेवी अपनी कविताओं में यही राह अपनाती हैं । कभी तुम-मैं के सर्वनामों का पर्दा करके आत्मानुभूति को रहस्यमय आकाश में तिरा देती हैं और कभी उन प्रतीकों और रूपकों के माध्यम से अपनी पीड़ा को साझा करती हैं, जो आम ज़िन्दगी से जुड़े होते हैं । उनकी कविताओं को समझने का यह प्रवेश-द्वार है । उनके मन के अन्तर्घातों को रूपक प्रकट कर देते हैं, लेकिन वे इतने पारदर्शी नहीं होते कि वे काँच की तरह साफ़-साफ़ दिखें । एक धुन्ध बनी रहती है, जो कविता को रहस्य के क़रीब ले जाती है । इस कविता का एकमात्र चरित्र कवयित्री स्वयं है । इसलिए यह रहस्य पाठक को कचोटता है । हमें यहाँ यह विस्मृत नहीं करना चाहिए कि महादेवी वर्मा यह काम एक शताब्दी पहले कर रही थीं, जब देश में स्त्री मुक्ति की प्रक्रिया आरम्भिक अवस्था में थी । यह भी रेखांकित करना ज़रूरी है कि कवयित्री अध्यात्म का आँचल पकड़कर जीवन की वैतरणी पार करने पर यक़ीन नहीं करती, जबकि अक्सर ऐसा देखा गया है कि भारतीय समाज में सामाजिक रूप से पीड़ित स्त्रियाँ अध्यात्म की नदी में डुबकी लगाकर अपने दुःख को शमित करने की कोशिश करती हैं ।

कहना न होगा कि महादेवी वर्मा अपनी कविता “मैं नीर भरी दुःख की बदली” में भी अप्रत्यक्ष रूप से अपने अन्तर्लोक को व्यक्त करने का यही काव्य-शिल्प अपनाती हैं और बादल के रूपक के माध्यम से अपनी व्यथा-कथा कहती हैं । अपनी बहुविध कविताओं में अपनी सम्वेदनाओं को व्यक्त करने के लिए प्रयोग में लाए गए अपने कुछ और उपादानों में “दीप-बाती” उनका प्रिय रूपक रहा है। दीप-बाती का रूपक स्त्री मन के बहुत क़रीब होता है । गाँव-घरों में बिजली आने के पहले दिया जलाकर घर को प्रकाशित करने का काम अधिकतर स्त्रियाँ ही करती थीं । शायद यही कारण है कि दिया-बाती का यह रूपक स्त्रियों के भाव संस्कार के अत्यन्त क़रीब है । यह अकारण नहीं है कि महादेवी वर्मा इस रूपक का सर्वाधिक उपयोग अपनी कविताओं में करती हैं । जहाँ तक इस समीक्ष्य कविता में बादल की बात है, यह रूपक भी स्त्री मन की कोमल भावनाओं से गहरा जुड़ा है । स्त्री मन के घुमड़ते तनाव और मनोदशाएँ बादल की प्रकृति से बहुत मिलती-जुलती हैं । बादल दरअसल कवयित्री के लिए एक ओट है । वह बादल से अपनी अनुभूति का तादात्म्य स्थापित कर उसमें अपने आपको आरोपित करती है । वह अपनी बात सीधे न कहकर बादल के बहाने से कहती है । इस तरह फिर बादल और उसके बीच कोई अन्तर नहीं रह जाता है । इस एकात्म से एक ओर कवयित्री की अनुभूतियाँ सम्प्रेषित हो जाती हैं तो दूसरी ओर वह वास्तविक वस्तु जगत से सामना करने से बच जाती है ।

कविता के अन्तिम पदबन्ध में काव्यनायिका का आर्तनाद सभी स्त्रियों की आवाज़ बन जाता है । यहाँ उसकी निजता व्यष्टि से समष्टि की ओर बढ़ती है, जब वह कहती है कि इतने बड़े संसार में मेरे लिए कोई कोना भी नहीं है । यह एक स्त्री की पछाड़ खाकर दुखी मन की कही हुई बात है । इतना बड़ा विद्रूप कि एक शताब्दी के बाद भी कवयित्री का यह कथन आज भी दुर्भाग्य से सही है । समाज में स्त्री की निजता के लिए कोई जगह नहीं है । यह एक भारतीय स्त्री की आत्मा का भूगोल है । यह एक पहचान भी है । स्त्री-पीड़ा की एक गहरी साझेदारी इस कविता की शक्ति है और इस कविता की लोकप्रियता का रहस्य भी यही है कि आम भारतीय सतायी नारी इसमें अपना अक्स देखती है । कविता के आरम्भ में जिस दुःख की बदली का ज़िक्र है, उसका पर्यवसान उमड़कर अपने को मिटाकर उत्सर्ग करने में होता है । उसका परिचय और कथा बस इतनी भर है । यहाँ कवयित्री और बादल एक दूसरे के पर्याय बन जाते हैं । दुःख की बदली की अन्तःसंगति को पूरी कविता में बनाए रखते हुए इसके बहाने कवयित्री अपने भीतर की उठती-गिरती लहरों और क्षोभ को पूरी तीव्रता के साथ उजागर करती हैं । रूपक के इस निर्वाह से उनकी इस गीति रचना में आन्तरिक गत्यात्मक संघटन और कसावट आती है और साथ ही अपनी वैयक्तिक दुखानुभूति को वह सार्वजनीन बना देती हैं । इस पदबन्ध में इतिहास शब्द का प्रयोग चौंकाता है । महादेवी वर्मा यहाँ स्मृति की बात नहीं कर रही हैं, जबकि उनकी कविता स्मृतिजीवी रही है । उनकी कविता में “सुधि” शब्द की आवृत्ति बार-बार होती है । इस कविता में भी सुधि शब्द आया है । लेकिन यहाँ महादेवी स्त्री-पीड़ा के इतिहास की बात कर रही हैं । महादेवी की प्रिय शब्दावली में इतिहास जैसे तथ्यपरक और रुक्ष शब्द का आना उनकी प्रौढ़ सोच की गवाही देता है, लेकिन आगे की पंक्तियाँ पढ़ते ही यह साफ़ हो जाता है कि यह इतिहास वह नहीं है जो अतीत की बुनियाद पर भविष्य की इमारत खड़ी करता है । यह इतिहास आँसुओं के साथ उमड़कर मिट जाने के लिए बना है ।

महादेवी बार-बार अपनी काव्य सम्वेदना के परिचित दायरों में घूमती रहती हैं । गीतिधर्मी अभिव्यक्ति की सघनता, तीव्रता, भावनाओं के आरोह-अवरोह तथा प्रवाहयुक्त चित्रात्मकता के इर्द-गिर्द घूमती हैं । नीर भरी दुःख की बदली कविता भी उस पैटर्न का उदाहरण है । दरअसल महादेवी पूरे जीवन भर एक ही कविता लिखती रही हैं । उनकी कविता में बार-बार वही शब्द, रूपक और शब्द विन्यास घूम-फिरकर लौटते हैं । भाषा का रूप उसके आचरण से निर्धारित होता है, यह आचरण कुछ सामाजिक शक्तियों और कुछ व्यक्ति-चेतना द्वारा परिचालित होती है । महादेवी के यहाँ इसी व्यक्ति-चेतना के कारण अपनी कविता में कुछ नया पाने के लिए कोई बैचैनी नहीं है । उनकी काव्यभाषा में अर्थ सुनिश्चित हैं । एक कविता पढ़कर उनकी दूसरी और कविताएँ भी पढ़ लेने की अनुभूति होती है । इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि दूसरी कविता पढ़ने की ज़रूरत पाठक को नहीं लगती । कवयित्री के मन का कमरा बन्द है । आँसुओं से तर-बतर रहता है लेकिन वह खुलता नहीं । जीवन के उबड़-खाबड़ प्रदेश में भटकता नहीं । वह एक सुरक्षित दुनिया में रहता है । नई भाव-स्थिति प्रस्तुत करने या मानसिक द्वन्द्व रचने को लेकर उनके यहाँ कोई सृजनात्मक प्रयत्न नहीं दिखता ।

यह दिलचस्प है कि महादेवी गद्य में खुलती हैं और उसमें पितृसतात्मक समाज के प्रति रोष और आग है । किन्तु ऐसा कोई क्रिटीक वह कविता में नहीं रचतीं । उनकी पीड़ा में एक सुन्दर रचाव दिखता और महसूस होता है । सब कुछ चुस्त-दुरुस्त । कुछ-कुछ एक साँचा जैसा । इनमें अर्थ की नई गहराइयाँ नहीं उभरती हैं । एक निश्चित और इकरस अनुभववृत्त में बनी उनकी काव्य-दुनिया नसों को झनझनाती नहीं, झिंझोड़ती नहीं । वह एक ठहरी हुई और अपरिवर्तनशील सम्वेदना लगती है, जो करुणा को पीछे छोड़कर आत्मदया की सरहद को छूने लगती है । इस आत्मदया की लहर भी अनायास उनकी कविता में नहीं आती । इसके पीछे उनकी सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि है । जीवन की चुनी हुई अपनी राह है । वह अपने दुःख में रस लेने लगती हैं । समाज की चुभती हुई नोकों को वह अपने भाव-जगत पर झेलती हैं । वह समाज से सामना करने के बजाय ख़ुद बदल जाती हैं । विवाहित होने के बावजूद आजीवन अविवाहित रहने का निर्णय लेती हैं । लेकिन सामाजिक व्यवस्था को लेकर न तो उनके मन में कोई संकल्प है और न ही कोई कार्य योजना । वह अपनी कविता में कभी सामाजिक व्यवस्था पर न तो कोई चोट करती हैं और न ही सवाल उठाती हैं, जिसके कारण वह एक दुख की बदली बनी हैं । वह उन कारणों की छानबीन, पड़ताल और पहचान भी नहीं करतीं । ज़िन्दगी से लड़ने के लिए उनके पास आँसुओं की गगरी है । कुछ गीली तरल अनुभूतियाँ हैं, जिन्हें ढरकाने में उन्हें ज़्यादा कुछ नहीं करना होता । लगता है कि अपने दुःख के विरेचन का उनके पास जैसे यही एक मात्र साधन है । ऐसे में उनके जीवन की टूटन उन्हें कुछ आत्मदया की ओर ले जाती है और उसी में वह सन्तुष्ट भी दिखती हैं । यह उनकी काव्य व्यक्तित्व की सीमा है । उनसे यह अपेक्षा इसलिए भी अधिक है क्योंकि उनकी सम्पूर्ण कविता किसी दूसरे के बारे में नहीं, खुद अपने बारे में है । महादेवी वर्मा महात्मा गांधी जी के भी क़रीब रही थीं, जिनके नेतृत्व में बड़ी संख्या में महिलाएँ सक्रिय राजनीति से जुड़ी थीं । सुनते हैं कि उन्होंने महात्मा गांधी जी से एक कवि सम्मेलन में आने का अनुरोध किया था और वह किसी कारण नहीं आ पाए थे । इसी दिन महादेवी वर्मा जी ने यह निर्णय लिया था कि वह आज के बाद कभी भी सार्वजनिक काव्य-पाठ नहीं करेंगी। यही नहीं, उसी दौर में उनके पड़ोस में प्रेमचन्द कथा-साहित्य में स्त्री को लेकर नया विमर्श रच रहे थे । कहना न होगा कि महादेवी स्त्री जीवन की उन असंख्य और सुदीर्घ जीवननाड़ियों की धड़कन नहीं सुन सकीं जो जीवनबोध को अधिक जटिल, संश्लिष्ट और सम्पूर्ण बनाती हैं। अपने राजनीतिक और सामाजिक परिवेश से आँख मून्दकर यथार्थमूलक जटिल जीवन दृष्टि के इलाके में जाने से वह सायास कतराती रहीं और अन्ततः जीवन संघर्षों और विषमताओं को अपने आँसुओं की बदली तले ढँक कर उसे करुण परिणति में बदलती रहीं।