मुल्क और कांग्रेस मालदारों के हाथ में / अब क्या हो? / सहजानन्द सरस्वती

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कांग्रेस के कर्णधारों की जो बातें अब तक कही गई हैं, उनसे स्पष्ट है कि कांग्रेस को वे भी मालदारों की संस्था मानते हैं, यद्यपि स्पष्टत: इसे स्वीकार नहीं करते। उसके प्रधानमंत्री का कहना है कि अनेक दलों के बनने से कांग्रेस की ताकत घटेगी। नतीजा यह होगा कि स्थायी स्वार्थवाले पूँजीवादी अपनी संगठित शक्ति को मजबूत बना लेंगे-'The Vested interests will organise and consolidate their position'। लेकिन स्वतंत्र भारतीय सरकार के रेलवे विभाग के मंत्री डा. जॉन मथाई ने इसी अगस्त की 8 वीं तारीख को दिल्ली के रोटरी क्लब में जो भाषण दिया, उसे सही मानें या श्री देव की बात को? वे तो कहते हैं कि 'गत डेढ़ सौ साल के राष्ट्रीय आंदोलनों की प्रगति का दारमदार उस देश के स्थायी स्वार्थवालों के प्रभाव, साहाय्य और साधन-सामग्री पर ही रहता है। ये स्थायी स्वार्थवाले इसे एक प्रकार का व्यापार या पूँजी लगान ही मानते हैं और आंदोलन के दौरान में भी स्वदेशी आदि के प्रचार से लाभ उठाते हैं। लेकिन याद रखने की बात है कि जब इस तरह इनके ऊपर निर्भर रहने से उस आंदोलन को सफलता मिलती और देश आजाद होता है, तो मुल्क उनके चंगुल में पहले से भी ज्यादा फँस जाता है। भारत की यही दशा कुछ हद तक आज है। आजादी के कुछ मानी नहीं हैं, यदि स्थिर स्वार्थवालों का यह चंगुल कम-से-कम ढीला नहीं हो जाता, अगर खत्म न भी हो सके। इसके लिए लंबी मुद्दत तक सख्त और भारी लड़ाई लड़नी होगी। विदेशी सत्ता खत्म हो जाने पर भी राष्ट्रीयता की नकाब के भीतर जो स्वार्थपरायणता है, वह ठोस और निर्दय वस्तु है।'-'If we examine the progress of national movements in any country since the beginning of the 19th century, you will find that a national movement, While it is in progress, is almost inspite of itself, made to depend on the influence, support and resources which it gets from the vested interests of the country.

It is a very good investment for those large organised vested interests, nationalism invariably has an economic side to it and, while being engaged in a national movement, it is possible for vested interests to secure a certain amount of shelter from the competition that comes from foreign interests.

But the point to remember is that when you have established your national movement, when you have been able to achieve success as a result of being dependent to a large extent upon the support of vested interests, when you have achieved that victory, when you have come to the end of the struggle, you find you are more than in the grip of those vested interests on whom you had depended during the period of your struggle.

That to my mind, to some extent, is the stage that we have reached in India today and I think the main part of the task that remains before us today.

If freedom is to find full expression, we should carry our fight forward that the grip that vested interests have been able to establish over our people is loosened if not eliminated. That is going to be a long, hard and strenuous fight.

Although the foreign domination had disappeared or had almost entirely disappeared, the kind of selfishness that lay behind nationalism was a hard and cruel one.'

डा. मथाई ने जो कुछ कहा है, वह ठोस स्थिति का विश्लेषण-मात्र है। वह कोई अपनी निजी बात नहीं कहते हैं। उनने तो इतिहास के अनुभव को संक्षेप में बतला दिया है। उनके शब्दों में न सिर्फ कांग्रेस, प्रत्युत सारा मुल्क आज भारतीय मालदारों के चंगुल में है और जब इस चंगुल को ढीला करने की लड़ाई लंबी, सख्त और थका देनेवाली होगी, ऐसा वे खुद मानते हैं, तो फिर इस चंगुल को खत्म करे देने के लिए लड़ी जानेवाली लड़ाई कितनी भयंकर और खूनी होगी, कौन बताएगा? राष्ट्रीयता के पीछे कितना नीच स्वार्थ और कितनी हृदयहीनता है! फिर भी, इसी राष्ट्रीयता और इसी कांग्रेस के बल पर हमारे पुराने लीडर जनता को देश की सत्ता सौंपने के सुखद स्वप्न देख रहे हैं! मालदारों के हथकंडे के नीचे फली-फूली एवं तगड़ी बनी कांग्रेस उनके हाथ से कैसे निकलेगी? यह तो असंभव है। चाहे चवनियाँ मेंबरी रखिए या खत्म कीजिए, चाहे हजार उपाय कीजिए। मगर उनका हथकंडा हटने के बजाय दिनों दिन मजबूत होगा।

खूबी तो यह है कि उसी कांग्रेस के द्वारा अब वर्ग-संगठनों का पँवारा खड़ा किया जाएगा, धोके की टट्टी खड़ी की जाएगी। जमींदारों और मालदारों के पैसे से पालतू बहाल होंगे और किसान सभा एवं मजदूर सभा के नाम पर नकली संस्थाएँ खड़ी की जाएँगी। किसान सभा के नए स्वयंभू नेता मालदार-जमींदारों की मोटरों पर चढ़ कर उनके पैसे के ही बल पर बुलाईगई किसान मीटिंगों में लेक्चर तो देंगे खासा, किसानों के लिए गला फाड़ेंगे और आँसू भी बहाएँगे मगर काम करेंगे पैसा देने वाले प्रभुओं का ही। यह एक भयंकर जाल तैयार होगा, बड़ा खतरा खड़ा होगा। पहले कांग्रेस की शुध्दि हो लेती और उसके ऊपर से मालदार-जमींदारों का भूत उतर जाता, तो शायद किसान-मजदूर संगठन काम लायक बन सकते। मगर यह भूत तो तभी उतरेगा, जब वर्ग-संस्थाओं का प्रतिनिधित्व कांग्रेस में हो, जब किसान सभा और मजदूर सभा के प्रतिनिधि कांग्रेस में स्वतंत्र रूप से लिए जाएँ और जब उसकी चवनियाँ मेंबरी हटा कर काम करनेवाले किसानों और मजदूरों के बालिग मताधिकार के आधार पर ही कांग्रेस के प्रतिनिधि चुने जाएँ। मगर श्रीयुत देव तो इसी से घबराते हैं। वे तो घोड़े के आगे गाड़ी खड़ी कर के उसे खिंचवाना चाहते हैं! उनकी 'जनतांत्रिक समाजवाद' की आवाज, उसका नारा उनका अपना नहीं है। यह तो उन्हीं मालदारों की आवाज है, जिनका चंगुल कांग्रेस पर कसके जमा है।