मेरा दागिस्तान / खंड - 1 / भाग-6 / रसूल हमजातोव

Gadya Kosh से
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बच्‍चा यहाँ अरे, रोता है, हँसता है

मुँह से लेकिन शब्‍द नहीं कह सकता है

आएगा, वह दिन भी आखिर आएगा

कौन, किसलिए जग में आया, सबको यह बतलाएगा।

पालने पर आलेख

दुनिया में अगर शब्‍द न होता,

तो वह वैसी न होती, जैसी अब है।

संसार की सृष्टि के एक सौ बरस पहले कवि का जन्‍म हुआ।

भाषा-ज्ञान के बिना कविता रचने का

निर्णय करनेवाला व्‍यक्ति उस पागल के समान है,

जो तैरना न जानते हुए

तूफानी नदी में कूद पड़ता है।


कुछ लोग इसलिए नहीं बोलते हैं कि उनके दिमाग में महत्‍वपूर्ण विचारों का जमघट होता है, बल्कि इसलिए कि उनकी जबान खुजलाती है। कुछ लोग इसलिए काव्‍य-रचना नहीं करते हैं कि उनके हृदयों में प्रबल भावनाएँ उमड़ती-घुमड़ती होती हैं, बल्कि इसलिए कि... वास्‍तव में यह कहना भी मुश्किल है कि क्‍यों वे अचानक कविता रचने लगते हैं। उनकी कविताओं की गूँज भेड़ की कच्‍ची खाल की थैली में डाले गए अखरोटों की नीरस सरसराहट के समान होती है।

ये लोग अपने इर्द-गिर्द देखना और पहले इस चीज पर नजर नहीं डालना चाहते कि दुनिया में क्‍या हो रहा है। वे उन समस्‍वरों, गीतों और धुनों को सुनना और जानना नहीं चाहते, जिनसे यह दुनिया भरपूर है।

यह पूछा जाता है कि आदमी को आँखें, कान और जबान किसलिए दिए गए है? किसलिए आ‍दमी की दो आँखें और दो कान हैं, मगर जबान एक है? इसका कारण यह है कि जबान से एक भी शब्‍द दुनिया के सामने निकालने के पहले दो आँखों को देखना और दो कानों को सुनना चाहिए।

जबान से निकला हुआ शब्‍द तो तंग और खड़ी पहाड़ी पगडंडी से खुले मैदान में उतर आनेवाले घोड़े के समान ही है। पूछा जा सकता है कि क्‍या उस शब्‍द को दुनिया में भेजना ठीक होगा, जो दिल में से होकर नहीं आया?

महज शब्‍द नाम की कोई चीज नहीं है। वह या तो शाप है या बधाई, सुंदरता है या पीड़ा, गंदगी है या फूल, झूठ है या सच, प्रकाश है या अंधकार।

अपने बीहड़, विकट क्षेत्र में सुना कभी यह

हम पापी जन के हित केवल शब्‍द रचा संसार,

कैसी है बस, गूँज शब्‍द की?

पूजा जैसी? या कि कसम-सी? या आदेश, पुकार?

इस दुनिया की रक्षा को हम डटते हैं

घायल दुनिया, सभी बुराइयों से जर्जर,

हमें शब्‍द दो-पूजा का हो, या उसमें संकल्‍प छिपा हो

बेशक हो अभिशाप, मगर वह दुनिया की दे रक्षा कर!

मेरे एक दोस्‍त ने एक बार कहा था, अपने शब्‍द का मैं खुद मालिक हूँ, चाहूँ तो उसे पूरा करूँ, चाहूँ तो न पूरा करूँ। मेरे दोस्‍त के लिए तो शायद ऐसा ही ठीक रहे, मगर लेखक को तो अपने शब्‍दों, अपने वचनों-शापों का स्‍वामी होना चाहिए। एक ही चीज के लिए वह दो बार तो कसमें नहीं खा सकता। वैसे, जो अक्‍सर कसमें खाता है, मेरे ख्‍याल में वह महज झूठा होता है।

अगर इस किताब की तुलना कालीन से की जाए, तो मैं अवार भाषा के रंग-बिरंगे धागों से उसे बुन रहा हूँ। अगर इसे भेड़ की खाल का कोट मान लिया जाए, तो अवार भाषा के मजबूत धागों से मैं इस खाल की सिलाई कर रहा हूँ।

सुनने में आता है कि बहुत-बहुत पहले अवार भाषा में बहुत ही थोड़े शब्‍द थे। 'स्‍वतंत्रता', 'जीवन', 'साहस', 'मैत्री', 'नेकी' जैसी अवधारणाओं को एक ही शब्‍द या अर्थ की दृष्टि से एक-दूसरे से अत्‍यधिक मिलते-जुलते शब्‍दों द्वारा व्‍यक्‍त किया जाता है। दूसरे लोग बेशक यह कहते रहें कि हमारी छोटी-सी जाति की भाषा समृद्ध नहीं। मगर मैं तो अपनी भाषा में जो चाहूँ, वही कह सकता हूँ और अपने विचारों तथा भावनाओं को व्‍यक्‍त करने के लिए मुझे किसी दूसरी भाषा की जरूरत नहीं।

दागिस्‍तान में लाक नाम की एक बहुत छोटी जाति है। लगभग पचास हजार लोग लाक भाषा बोलते हैं। इससे अधिक सही गिनती करना कठिन होगा, क्‍योंकि वहाँ बच्‍चे भी हैं, जो अभी बोलना नहीं सीखे और ऐसे लोग भी हैं, जो अपनी पिताओं की जबान भूल चुके हैं।

लाकों की संख्‍या तो थोड़ी है, फिर भी दुनिया के बहुत-से हिस्‍सों में उनसे मुलाकात हो सकती है। पथरीली जमीन पर गरीबी की जिंदगी ने उन्‍हें दुनिया भर में भटकने के लिए मजबूर किया। वे सभी बहुत अच्‍छे कारीगर, बढ़िया मोची, सुनार और कलईसाज हैं। कुछ गीत गाते हुए जहाँ-तहाँ भटकते फिरा करते थे। दागिस्‍तान में ऐसा कहा जाता है - 'तरबूज को सावधानी से काटना, कहीं उसमें से लाक उछलकर न बाहर आ जाए।'

किसी लाक बेटे को परदेस भेजते हुए उसकी माँ यह हिदायत करती थी - 'शहरी तश्‍तरी में दलिया खाते समय यह देख लेना कि दलिए के नीचे हमारा कोई लाक तो नहीं है।'

यह किस्‍सा सुनाया जाता है। किसी बड़े शहर, मास्‍को या लेनिनग्राद में एक लाक घूम रहा था। अचानक उसे दागिस्‍तानी पोशाक पहने एक आदमी दिखाई दिया। उसे तो जैसे अपने वतन की हवा का झोंका-सा महसूस हुआ, बातचीत करने को मन ललक उठा। बस, भागकर हमवतन के पास गया और लाक भाषा में उससे बात करने लगा। इस हमवतन ने उसकी बात नहीं समझी और सिर हिलाया। लाक ने कुमीक, फिर तात और लेजगीन भाषा में बात करने की कोशिश की... लाक ने चाहे किसी भी जबान में बात करने की कोशिश क्‍यों न की, दागिस्‍तानी पोशाक में उसका हमवतन बातचीत को आगे न बढ़ा सका! चुनांचे रूसी भाषा का सहारा लेना पड़ा। तब पता चला कि लाक की अवार से मुलाकात हो गई थी। अवार अचानक ही सामने आ जानेवाले इस लाक को भला-बुरा कहने और शर्मिंदा करने लगा -

'तुम भी कैसे दागिस्‍तानी हो, कैसे हमवतन हो, अगर अवार भाषा ही नहीं जानते! तुम दागिस्‍तानी नहीं मूर्ख ऊँट हो।'

इस मामले में मैं अपने अवार भाई के पक्ष में नहीं हूँ। बेचारे लाक को भला-बुरा कहने का उसे कोई हक नहीं था। अवार भाषा की जानकारी हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती। महत्‍वपूर्ण बात तो यह है कि उसे अपनी मातृभाषा, लाक भाषा आनी चाहिए। वह तो दूसरी कई भाषाएँ भी जानता था, जबकि अवार को वे भाषाएँ नहीं आती थीं।

अबूतालिब एक बार मास्‍को में थे। सड़क पर उन्‍हें किसी राहगीर से कुछ पूछने की आवश्‍यकता हुई। शायद यही कि मंडी कहाँ है। संयोग से कोई अंग्रेज ही उनके सामने आ गया। इसमें हैरानी की तो कुछ बात नहीं, मास्‍को की सड़कों पर तो विदेशियों की कुछ कमी नहीं है।

अंग्रेज अबूतालिब की बात न समझ पाया और पहले तो अंग्रेजी, फिर फ्रांसीसी, स्‍पेनी और शायद दूसरी भाषाओं में भी पूछताछ करने लगा।

अबूतालिब ने शुरू में रूसी, फिर लाक, अवार, लेजगीन, दार्गिन और कुमीक भाषाओं में अंग्रेज को अपनी बात समझाने की कोशिश की।

आखिर एक-दूसरे को समझे बिना वे दोनों अपनी-अपनी राह चले गए। एक बहुत ही सुसंस्‍कृत दागिस्‍तानी ने जो अंग्रेजी भाषा के ढाई शब्‍द जानता था, बाद में अबूतालिब को उपदेश देते हुए यह कहा -

'देखा, संस्‍कृति का क्‍या महत्‍व है। अगर तुम कुछ अधिक सुसंस्‍कृत होते, तो अंग्रेज से बात कर पाते। समझे न?'

'समझ रहा हूँ,' अबूतालिब ने जवाब दिया। 'मगर अंग्रेज को मुझसे अधिक सुसंस्‍कृत कैसे मान लिया जाए? वह भी तो उनमें से एक भी जबान नहीं जानता था, जिनमें मैंने उससे बात करने की कोशिश की?'

मेरे लिए विभिन्‍न जातियों की भाषाएँ आकाश के सितारों के समान हैं। मैं यह नहीं चाहता कि सभी सितारे आधे आकाश को घेर लेनेवाले अतिकाय सितारे में मिल जाएँ। इसके लिए सूरज है। मगर सितारों को भी तो चमकते रहना चाहिए। हर व्‍यक्ति को अपना सितारा होना चाहिए।

मैं अपने सितारे - अपनी अवार मातृभाषा को प्‍यार करता हूँ। मैं उन भूतत्‍ववेत्ताओं पर विश्‍वास करता हूँ, जो यह कहते हैं कि छोटे-से पहाड़ में भी बहुत-सा सोना हो सकता है।

'अल्‍लाह, तुम्‍हारे बच्‍चों को उनकी माँ की भाषा से वंचित कर दे,' एक नारी ने दूसरी को कोसा।

कोसनों के बारे में। जब मैंने अपनी लंबी कविता 'पहाड़िन' लिखी, तो उसकी एक गुस्‍सैल पात्र के मुँह से कहलवाने के लिए कोसनों की जरूरत महसूस हुई। मुझे बताया गया कि एक गाँव में एक बुजुर्ग पहाड़िन रहती है, जिसे उसकी पड़ोसिनों में से कोई भी कोसनों के मामले में मात नहीं दे सकती। मैं फौरन इसी अद्भुत औरत की तरफ चल दिया।

वसंत की एक प्‍यारी सुबह को, जब भला-बुरा कहने और गालियाँ बकने के बजाय खुश होने और गाने को मन होता है, मैं उस बुजुर्ग औरत के घर पहुँचा। मैंने निष्‍कपट भाव से अपने आने का उद्देश्‍य कह दिया। मैं तो आपसे कुछ जोरदार गालियाँ सुनना चाहता हूँ। मैं उन्‍हें लिख लूँगा और अपनी लंबी कविता में उनका उपयोग करूँगा।

'अल्‍लाह करे कि तुम्‍हारी जबान सूख जाए, कि तुम अपनी प्रेमिका का नाम भूल जाओ, कि जिस आदमी के पास तुम्‍हें काम से भेजा जाए, वह तुम्‍हारी बात को सही ढंग से न समझे। कि जब तुम दूर-दराज का सफर कर लौटो, तो अपने गाँव को अभिनंदन के शब्‍द कहने भूल जाओ, कि जब तुम्‍हारे मुँह में दाँत न रहें, तो उसमें हवा सीटियाँ बजाए... गीदड़ के बेटे, अगर मेरा मन खुश नहीं, तो क्‍या मैं हँस सकती हूँ (अल्‍लाह तुम्‍हें इस खुशी से महरूम रखे!)? जिस घर में कोई मरा नहीं, वहाँ रोने-धोने में क्‍या तुक है? अगर किसी ने मेरा दिल नहीं दुखाया, मुझे ठेस नहीं लगाई, तो क्‍या मैं अपने मन से गालियाँ गढ़ूँ? जाओ, अपना रास्‍ता नापो, फिर कभी ऐसे अनुरोध लेकर मेरे पास नहीं आना।'

'शुक्रिया मेहरबान दादी,' मैंने कहा और उसके घर से बाहर आ गया।

रास्‍ते में मैं यह सोचने लगा, 'अगर किसी तरह के गुस्‍से-गिले के बिना, यों ही, अचानक ही उसने मुझ पर ऐसी बढ़िया गालियों की बारिश कर दी, तो इसे सचमुच ही नाराज कर देनेवाले का क्‍या हाल होता होगा?'

मैं सोचता हूँ कि कभी-न-कभी कोई लोक-साहित्‍य संग्राहक पहाड़ी कोसनों-शापों का संग्रह करेगा और तब लोगों को इस बात का पता चलेगा कि पहाड़ी कितनी दूर-दूर की कौड़ी लाते हैं, जबान का कैसा कमाल दिखाते हैं, कल्‍पना की कितनी ऊँची-ऊँची उड़ानें भरते हैं और यह भी कि हमारी भाषा कितनी अभिव्‍यक्तिपूर्ण है।

हर गाँव के अपने कोसने - शाप हैं। एक में अदृश्‍य सूत्रों से आपके हाथ-पाँव जकड़े जाते हैं, दूसरे में आप ताबूत में जा पहुँचते हैं और तीसरे में आपकी आँखें निकलकर उसी तश्‍तरी में जा गिरती हैं, जिसमें से आप खा रहे होते हैं और चौथे गाँव में आपकी आँखें नुकीले पत्‍थरों पर से लुढ़कती हुई खड्ड में जा गिरती हैं। आँखों के शाप सबसे भयानक शापों में माने जाते हैं। मगर उनसे ज्‍यादा बुरे शाप भी हैं। एक गाँव मैंने दो नारियों को ऐसे कोसते सुना :

'अल्‍लाह तुम्‍हारे बच्‍चों को उससे महरूम करे, जो उन्‍हें उनकी जबान सिखा सकता हो।'

'नहीं, अल्‍लाह तुम्‍हारे बच्‍चों को उससे महरूम करे, जिसे वे अपनी जबान सिखा सकते हों!'

तो ऐसे भयानक होते हैं शाप। मगर पहाड़ों में तो किसी तरह के शाप के बिना भी उस आदमी की कोई इज्‍जत नहीं रहती, जो अपनी जबान की इज्‍जत नहीं करता। पहाड़ी माँ विकृत भाषा में लिखी हुई अपने बेटे की कविताएँ नहीं पढ़ेगी।

नोटबुक से। एक बार पेरिस में एक दागिस्‍तानी चित्रकार से मेरी भेंट हुई। क्रांति के कुछ ही समय बाद वह पढ़ने के लिए इटली गया था, वहीं एक इतालवी लड़की से उसने शादी कर ली और अपने घर नहीं लौटा। पहाड़ों के नियमों के अभ्‍यस्‍त इस दागिस्‍तानी के लिए अपने को नई मातृभूमि के अनुरूप ढालना मुश्किल था। वह देश-देश में घूमता रहा, उसने दूर-दराज के अजनबी मुल्‍कों की राजधानियाँ देखीं, मगर जहाँ भी गया, सभी जगह घर की याद उसे सताती रही। मैंने यह देखना चाहा कि रंगों के रूप में यह याद कैसे व्‍यक्‍त हुई है। इसलिए मैंने चित्रकार से अपने चित्र दिखाने का अनुरोध किया।

एक चित्र नाम ही था - 'मातृभूमि की याद'। चित्र में इतालवी औरत (उसकी पत्‍नी) पुरानी अवार पोशाक में दिखाई गई थी। वह होत्‍सातल के मशहूर कारीगरों की नक्‍काशीवाली चाँदी की गागर लिए एक पहाड़ी चश्‍मे के पास खड़ी थी। पहाड़ी ढाल पर पत्‍थरों के घरोंवाला उदास-सा अवार गाँव दिखाया गया था और गाँव के ऊपर पहाड़ तो और भी ज्‍यादा उदास-से लग रहे थे। पहाड़ी चोटियाँ कुहासे में लिपटी हुई थीं।

'पहाड़ों के आँसू ही कुहासा है,' चित्रकार ने कहा, 'वह जब ढालों को ढक देता है, तो चट्टानों की झुर्रियों पर उजली बूँदें बहने लगती हैं। मैं कुहासा ही हूँ।'

दूसरे चित्र में मैंने कँटीली जंगली झाड़ी मैं बैठा हुआ एक पक्षी देखा। झाड़ी नंगे पत्‍थरों के बीच उगी हुई थी। पक्षी गाता हुआ दिखाया गया था और पहाड़ी घर की खिड़की से एक उदास पहाड़िन उसकी तरफ देख रही थी। चित्र में मेरी दिलचस्‍पी देखकर चित्रकार ने स्‍पष्‍ट किया -

'यह चित्र पुरानी अवार किंवदंती के आधार पर बनाया गया है।'

'किस किंवदंती के आधार पर?'

'एक पक्षी को पकड़कर पिंजरे में बंद कर दिया गया। बंदी पक्षी दिन-रात एक ही रट लगाए रहता था - मातृभूमि, मेरी मातृभूमि, मातृभूमि, मातृभूमि, मातृभूमि... बिल्‍कुल वैसे ही, जैसे कि इन तमास सालों के दौरान मैं भी यही रटता रहा हूँ... पक्षी के मालिक ने सोचा, 'जाने कैसी है उसकी मातृभूमि कहाँ है, अवश्‍य ही वह कोई फलता-फूलता हुआ बहुत ही सुंदर देश होगा, जिसमें स्‍वर्गिक वृक्ष और स्‍वर्गिक पक्षी होंगे। तो मैं इस परिंदे को आजाद कर देता हूँ और फिर यह देखूँगा कि वह किधर उड़कर जाता है। इस तरह वह मुझे उस अद्भुत देश का रास्‍ता दिखा देगा।' उसने पिंजरा खोल दिया और पक्षी बाहर उड़ गया। दसेक कदम की दूरी तक उड़कर वह नंगे पत्‍थरों के बीच उगी जंगली झाड़ी में जा बैठा। इस झाड़ी की शाखाओं पर उसका घोंसला था... अपनी मातृभूमि को मैं भी अपने पिंजरे की खिड़की से ही देखता हूँ' चित्रकार ने अपनी बात खत्‍म की।

'तो आप लौटना क्‍यों नहीं चाहते?'

'देर हो चुकी है। कभी मैं अपनी मातृभूमि से जवान और जोशीला दिल लेकर आया था। अब मैं उसे सिर्फ बूढ़ी हड्डियाँ कैसे लौटा सकता हूँ?'

पेरिस से घर लौटकर मैंने चित्रकार के सगे-संबंधियों को खोज निकाला। मुझे इस बात की बड़ी हैरानी हुई कि उसकी माँ अभी तक जिंदा थी। अपनी मातृभूमि को छोड़ देने और विदेश में जा बसनेवाले बेटे के बारे में उसके सगे-संबंधियों ने उदास होते हुए मेरी बातें सुनीं। ऐसा लगता था कि उन्‍होंने मानो उसे माफ कर दिया था और इस बात से खुश थे कि वह जिंदा तो है। पर तभी उसकी माँ अचानक पूछ बैठी -

'तुम दोनों ने अवार भाषा में बातचीत की?'

नहीं। हमारी बातचीत दुभाषिये के जरिए हुई। मैं रूसी बोलता था और तुम्‍हारा बेटा फ्रांसीसी।'

माँ ने काले दुपट्टे से मुँह ढक लिया, जैसा कि बेटे की मौत की खबर मिलने पर किया जाता है। पहाड़ी घर की छत पर बारिश पटापट ताल दे रही थी। हम अवारिस्‍तान में बैठे थे। अपनी मातृभूमि को त्‍याग देनेवाला दागिस्‍तान का बेटा भी शायद पृथ्‍वी के दूसरे छोर पर, पेरिस में बारिश का राग सुन रहा था : बहुत देर तक चुप रहने के बाद चित्रकार की माँ ने कहा -

'तुम्‍हें गलतफहमी हुई है, रसूल, मेरा बेटा तो कभी का मर चुका। वह मेरा बेटा नहीं था। मेरा बेटा वह जबान नहीं भूल सकता था, जो उसे मैंने, अवार माँ ने सिखाई थी।'

संस्‍मरण। कभी मैं एक अवार थियेटर में काम करता था। मंच-सज्‍जा की चीजों, पोशाकों और दूसरी चीजों के साथ (जिन्‍हें गधों पर लादा जाता था, मगर फिर भी उनमें से कुछ कलाकारों के उठाने के लिए भी बच जाती थीं) हम गाँव-गाँव घूमकर पहाड़ी लोगों को नाटक कला से परिचित कराया करते थे। थियेटर में इस तरह बिताए गए एक साल की मुझे अक्‍सर याद आती है।

कुछ नाटकों में मुझे छोटी-मोटी भूमिकाएँ दे दी जाती थीं, मगर ज्‍यादातर तो मैं प्रोंपटर बाँक्‍स में बैठा रहता था। मुझे, युवा कवि को, बाकी सभी भूमिकाओं के मुकाबले में प्रोंपटर का काम ज्‍यादा पसंद था। कलाकारों को मैं बहुत महत्‍वपूर्ण नहीं मानता था, गौण स्‍थान देता था। पोशाकें, मेक-अप और मंच-सज्‍जा भी कम महत्‍व रखते थे। शब्‍दों को ही मैं सबसे ऊँचा स्‍थान देता था और मंच-सज्‍जा भी कम महत्‍व रखते थे। शब्‍दों को ही मैं सबसे ऊँचा स्‍थान देता था और इस बात की बेहद चिंता करता था कि अभिनेता शब्‍दों को न गड़बड़ाएँ, उनका सही-सही उच्‍चारण करें। अगर कोई अभिनेता शब्‍दों को छोड़ जाता या उन्‍हें गलत ढंग से कहता, तो मैं बॉक्‍स में से आगे की ओर झुककर इतने जोर से और सही तौर पर इन शब्‍दों को कहता कि वे सारे हॉल में गूँज जाते।

हाँ, मूल पाठ और शब्‍द को ही मैं सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण मानता था, क्‍योंकि शब्‍द पोशाक और मेक-अप के बिना भी जिंदा रह सकता है - उसका भाव दर्शकों की समझ में आ जाएगा।

मुझे एक घटना याद आ रही है। उन दिनों हम 'पहाड़ी लोग' नाटक दिखा रहे थे, जिसका अवार जाति के अतीत से संबंध था। जैसे कि आमतौर पर होता था, मैं प्रोंपटर था। नाटक में एक ऐसा स्‍थल आता था, जब नायक आईगाजी, जो खून के प्‍यासे दुश्‍मनों से बचने के लिए पहाड़ों में छिपा रहता था, रात के वक्‍त अपनी प्रेयसी से मिलने के लिए गाँव में आया। प्रेयसी ने उसकी मिन्‍नत की कि वह जल्‍दी से पहाड़ों में वापस चला जाए, वरना दुश्‍मन उसे मार डालेंगे। मगर आईगाजी (अभिनेता मागायेव यह भूमिका निभा रहे थे) अपनी प्रेमिका को बारिश से बचाने के लिए उसे नमदे के लबादे से ढक देता है और उससे अपने प्‍यार, अपनी विरह-वेदना की चर्चा करने लगता है।

इसी वक्‍त एक अनहोनी-सी बात हो गई। अभिनेता मागायेव की पत्‍नी अचानक रंगमंच पर आ पहुँची। गुस्‍से में वह अपने पति पर इसलिए झपटी कि वह किसी दूसरी नारी के सामने प्रणय-निवेदन कर रहा था। मागायेव अपनी पत्‍नी का हाथ पकड़कर उसे नेपथ्‍य में खींच ले गए ताकि उसे बात समझा सकें। उन्‍हें आशा थी कि वे उसी क्षण रंगमंच पर लौट आएँगे और नाटक चलता रहेगा। किंतु पत्‍नी तो पति से लिपट गई और उसे रंगमंच पर नहीं लौटने दिया। नाटक की प्रेयसी रंगमंच के बीच अकेली खड़ी रह गई। सो नाटक रुक गया।

मैं अपने प्रोंपटर के बॉक्‍स में थियेटरी पोशाक और मेक-अप के बिना मामूली पतलून और खुले कालर की सफेद कमीज पहने बैठा था। लगता है कि पैरों में स्‍लीपर थे। बेशक मागायेव का पार्ट मुझे जबानी याद था, मगर जिस हाल में मैं बैठा था, उसमें मागायेव की जगह लेना मेरे लिए मुमकिन नहीं था। पर चूँकि मेरे लिए पोशाक नहीं, शब्‍द ही सबसे अधिक महत्‍व रखते थे, मैं अपने बॉक्‍स से निकलकर रंगमंच पर आ गया और उस बेचारी प्रेमिका से वे शब्‍द कहे, जो आईगाजी यानी अभिनेता मागायेव को कहने चाहिए थे।

मुझे मालूम नहीं कि दर्शकों को संतोष हुआ या नहीं, या नाटक उनके लिए खासा मजाक ही बनकर रह गया, मगर मुझे तो खुशी हुई। दर्शक नाटक का सार समझ गए थे, एक भी शब्‍द से वंचित नहीं हुए थे और मैं इसी को सबसे अधिक महत्‍वपूर्ण बात मानता था।

मुझे याद है कि इसी थियेटर के साथ मैं पहली बार विख्‍यात, ऊँचे पहाड़ी गाँव गूनीब में गया था। यह तो सभी जानते हैं कि बेशक कवि एक-दूसरे से अपरिचित भी हों, फिर भी एक-दूसरे के यार होते हैं। गूनीब में एक ऐसा ही शायर रहता था, जिसके बारे में मैंने सुना तो था, मगर मिलने का मौका नहीं हुआ था। मैं इस कवि से मिलने गया और जब तक हमारा थियेटर वहाँ रहा, मैं उसी के घर में रहा।

मेहरबान मेजबानों ने मेरी इतनी ज्‍यादा खातिरदारी की कि मुझे परेशानी-सी होने लगी, मेरी समझ में यही नहीं आता था कि कैसे अपनी झेंप छिपाऊँ। कवि की माँ के स्‍नेह की तो मेरे मन पर विशेषतः बहुत गहरी छाप थी।

वहाँ से रवाना होने के समय मुझे अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए शब्‍द नहीं मिल रहे थे। कुछ ऐसा हुआ कि जब मैंने कवि की माँ से विदा ली, तो कमरे में कोई नहीं था। मैं जानता था कि अगर उसके बेटे के बारे में कुछ अच्‍छे शब्‍द कहूँ, तो माँ के लिए इससे ज्‍यादा खुशी की बात और कुछ नहीं हो सकती। बेशक मैं यह अच्‍छी तरह समझता था कि गूनीब का वह कवि साधारण है, फिर भी मैं उसकी प्रशंसा करने लगा। मैंने उसकी माँ से यह कहना शुरू किया कि उसका बेटा बहुत अग्रगामी कवि है, सदा ज्‍वलंत विषयों पर कविताएँ रचता है।

'संभव है कि अग्रगामी ही हो,' माँ ने उदासी से मुझे टोकते हुए कहा, 'मगर प्रतिभा उसमें नहीं है। बेशक उसकी कविताएँ ज्‍वलंत समस्‍याओं से संबंधित हों, मगर जब मैं उन्‍हें पढ़ती हूँ, तो मुझे ऊब महसूस होने लगती है। रसूल, तुम ही जरा गौर करो कि जब मेरा बेटा पहले शब्‍द बोलना सीख रहा था, जिन्‍हें तो समझना भी मुश्किल था, तो मुझे इतनी खुशी हुई थी कि बयान से बाहर। मगर अब, जब वह बोलना ही नहीं, कविता रचना भी सीख गया है, तो मुझे ऊब महसूस होती है। कहते हैं कि औरत की अक्‍ल उसके फ्राक के पल्‍ले पर होती है। जब वह बैठी होती है, तो उसकी अक्‍ल लुढ़ककर फर्श पर जा गिरती है। मेरे बेटे का भी यही हाल है। जब तक वह खाने की मेज पर बैठा रहता है, खाते हुए साधारण ढंग से बातचीत करता है, मैं खुशी से उसकी बातें सुनती हूँ। मगर खाने की मेज से लिखने-पढ़ने की मेज तक जाते-जाते वह सीधे-सादे और अच्‍छे-अच्‍छे सभी शब्‍द खो बैठता है। बस, दुर्बोध, नीरस और ऊबभरे शब्‍द ही उसके पास रह जाते हैं।'

इस घटना को याद करके मैं अल्‍लाह से यही दुआ करता हूँ कि वह मेरी जबान मेरे पास बनी रहने दे। मैं ऐसे लिखना चाहता हूँ कि मेरी कविताओं, मेरी इस किताब को तथा इनके अलावा मैं और भी जो कुछ लिखूँ, उसे भी माँ, बहन, हर पर्वतवासी और हर वह व्‍यक्ति, जिसके हाथ में मेरी किताब जाए, समझे, प्‍यार करे। मैं ऊब पैदा करना नहीं चाहता, लोगों को खुशी देना चाहता हूँ। अगर मेरी भाषा बिगड़ जाती है, प्राणहीन, दुर्बोध और ऊबभरी हो जाती है - थोड़े में यह कि अगर मैं अपनी मातृभाषा को बिगाड़ता हूँ, तो मेरे लिए जीवन में इससे अधिक भयानक बात और कुछ नहीं हो सकती।

बहुत पहले की बात है, तब मैं छोकरा ही था। हमारे गाँव के लोग मसजिद के करीब जमा होकर अपने साझे मसलों पर सोच-विचार किया करते थे। तब मैं वहाँ अपने पिता की कविताएँ पढ़कर सुनाया करता था। छोकरा होते हुए भी मैं बड़े जोश से (जरूरत से ज्‍यादा जोश के साथ) खूब ऊँचे और उन शब्‍दों तथा आवाजों पर खास जोर देकर कविताएँ पढ़ता था, जो मुझे पसंद आती थीं। उदाहरण के लिए, पिता जी की नई कविता 'त्‍सादा में भेड़िये का शिकार' का पाठ करते हुए मैं सभी शब्‍दों में 'त्‍स' ध्‍वनि का दाँत भींचकर ऐसे उच्‍चारण करता कि वे थर्राते, आपस में टकराते और झनझनाते। मुझे लगता कि इन ध्‍वनियों के ऐसे तीव्र और जोरदार उच्‍चारण से अधिक प्रभाव पैदा होता है।

पिता जी हर बार यह कहते हुए मुझे समझाने की कोशिश करते -

'शब्‍द क्‍या कोई अखरोट या बादाम है, जिसे दाँतों तले दबाकर तोड़ा जाए? फिर शब्‍द क्‍या कोई लहसुन है कि उसे बट्टे से सिल पर पीसा जाए? या शब्‍द कोई सूखी पथरीली जमीन है कि एड़ी-चोटी का जोर लगाकर उस पर हल चलाया जाए? शब्‍दों को चबाए बिना ऐसे सहज ढंग से उनका उच्‍चारण करो कि तुम्‍हारे दाँत बजें नहीं, उनमें से झनझनाहट न पैदा हो।'

मैं फिर से कविता पढ़ता, मगर फिर से वही नतीजा निकलता। एक बार मेरी माँ इस वक्‍त घर की छत के सिरे पर खड़ी थीं। पिता जी ने पुकारकर माँ से कहा -

'तुम ही इसे किसी तरह यह सिखा दो!'

माँ ने मेरे लिए कठिन शब्‍दों का वैसे उच्‍चारण किया, जैसे पिता जी चाहते थे।

'सुना? अब तुम इन्‍हें ऐसे ही दोहराओ।'

मुझे फिर भी कामयाबी नहीं मिली

'छिः,' पिता जी झल्‍ला उठे। 'शब्‍दों को बिगाड़नेवाले एक जालातूरीवासी की मैंने झाड़ू से पिटाई की थी। अपने बेटे का मैं क्‍या करूँ?'

वे दुखी होकर सभा से चले गए।

पिता जी ने जालातूरीवासी की कैसे पिटाई की

वसंत के मौसम में पैंठ लगने का दिन था। जैसा कि सभी जानते हैं, वसंत में पिछली फसल की बची-बचाई सभी चीजें खत्‍म हो जाती हैं और नई फसल अभी आई नहीं होती। वसंत में पतझर की तुलना में सभी चीजें बाजार में महँगी होती हैं, यहाँ तक कि हाँडियाँ भी, यद्यपि वे खेत में पैदा नहीं होतीं।

मेरे पिता जी ने, जो उस वक्‍त जवान आदमी थे, बाजार जाने का इरादा बनाया। पड़ोसी ने उनसे झाड़ू खरीदने को कहा और इसके लिए बीस कोपेक दिए।

'अगर झाड़ू सस्‍ती मिल जाए, तो बाकी पैसे अपने पास रख लेना,' पड़ोसी ने जवान हमजात से कहा। खैर वे बाजार पहुँचे।

झाड़ू बेचनेवाले को उन्‍होंने जल्‍दी ढूँढ़ लिया और लगे उससे मोल-तोल करने।

यह तो शायद सभी जानते हैं कि पूर्वी बाजार में किसी भी चीज के लिए माँगे जानेवाले पहले मूल्‍य का कोई महत्‍व नहीं होता। पाँच कोपेक की चीज के लिए सौ रूबल भी बताए जा सकते हैं।

पिता जी ने अच्‍छी और मजबूत-सी झाड़ू चुनकर पूछा -

'बेचते हो?'

'तो और किसलिए यहाँ खड़ा हूँ?'

'क्‍या कीमत है?'

'चालीस कोपेक।'

'झाड़ू तो घोड़ा नहीं है कि ऊँची कीमत से सौदाबाजी शुरू की जाए। एक बार ही असली दाम कह दो और मामला तय करो।'

'चालीस कोपेक।'

'मजाक छोड़ो।'

'चालीस कोपेक।'

'बीस में दे दो।'

'चालीस कोपेक।'

'मगर मेरे पास तो सिर्फ बीस कोपेक हैं।'

'चालीस कोपेक।'

'मगर मेरे पास तो सचमुच ही और पैसे नहीं हैं।'

'जब हों, तो तब आना।'

यह समझ में आ जाने पर कि झाड़ू नहीं खरीदी जा सकेगी, मेरे पिता जी बाजार में घूमने लगे और जल्‍दी ही दुकानों के करीब एक ऊँची जगह पर उन्‍हें लोगों की भीड़ दिखाई दी। वे नजदीक गए, धकियाकर आगे बढ़े और समझ गए कि लोग गायक महमूद का गाना सुन रहे हैं।

महमूद पंदूर हाथों में लिए भीड़ के बीच बैठा था। वह कभी पंदूर बजाता और कभी तारों पर हाथ रखकर गाने लगता। सभी दम साधे सुन रहे थे। अपने हर दिन के धंधे के सिलसिले में बाजार के ऊपर उड़नेवाली मधुमक्‍खी की भिनभिनाहट भी सुनाई दे रही थी। गाने के दौरान एक तरुण खाँसने लगा, तो पके बालोंवाले एक पहाड़ी ने, जो शायद तरुण का बाप था, उसे फौरन दूर भगा दिया।

ऐसी गहरी खामोशी में ही, जब महमूद के गाने के सिवा और कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था, कोई जालातूरीवासी अपने पास खड़े आदमी से बातें करने लगा। वैसे तो वह जालातूरीवासी नेक इरादे से ही ऐसा कर रहा था। उसके पास खड़ा हुआ आदमी अवार भाषा का एक भी शब्‍द नहीं समझता था और महमूद जो कुछ गाता था, यह जालातूरीवासी उसे साथ-साथ वह सब कुछ समझाता जाता था। मगर मुसीबत तो यह थी कि उसके लगातार बोलते जाने से गाने का रंग-भंग होता था और बाकी लोग उसका पूरी तरह मजा नहीं ले पाते थे।

मेरे भावी पिता, जवान हमजात को जालातूरीवासी की यह हरकत बहुत बुरी लगी। उन्‍होंने उसे चुप कराने के लिए उसकी आस्‍तीन खींची, मगर बेकार, उसके कान में यह कहा कि वह चुप रहे। मगर उसने इस पर भी कोई ध्‍यान नहीं दिया। हमजात की समझ में नहीं आ रहा था कि उसे कैसे चुप कराए। इसी परेशानी में उन्‍होंने इधर-उधर नजर दौड़ाई, तो देखा कि झाड़ू बेचनेवाला भी गाना सुनने के लिए करीब ही आ खड़ा हुआ है। पिता जी भागकर उसके पास गए, सबसे बड़ी झाड़ू उसके हाथ से झपट ली और उससे लोगों के रंग में भंग डालनेवाले इस जालातूरीवासी की पिटाई करने लगे।

जालातूरीवासी धमकियाँ देता हुआ पीछे हटने लगा, मगर पिता जी ऐसे आग-बबूला हो उठे थे कि उन्‍होंने उसकी धमकियों की जरा भी परवाह न करते हुए गाने में खलल डालनेवाले उस आदमी को वहाँ से खदेड़ दिया। इसके बाद पिता जी झाड़ू बेचनेवाले के पास झाड़ू लौटाने गए।

'अपने पास ही रख लो।'

'मगर मेरे पास तो सिर्फ बीस कोपेक हैं और तुम चालीस माँगते हो।'

'मुफ्त ही ले जाओ। तुमने जो काम किया है, वह तो मेरे सारे माल से ज्‍यादा कीमत रखता है।'

गीत का मजा किरकिरा करनेवाले जालातूरीवासी तो अब इस दुनिया में बहुत हैं। अफसोस तो इस बात का है कि उनके लिए झाड़ू और ऐसा

आदमी नहीं है, जो उस झाड़ू का इस्‍तेमाल करता।

पहाड़ों में बढ़िया, तीर की तरह निशाने पर बैठनेवाले और पैने शब्‍द की तारीफ में यह कहा जाता है -

'जीन कसे घोड़े के बराबर कीमत है इसकी।'

नोटबुक से। मखचकला में मेरा पड़ोसी अली अलीयेव बहुत ही शानदार पहलवान है, चार बार विश्‍व-चैंपियन रह चुका है। एक बार इस्‍तांबूल में उसे तुर्की के सबसे तगड़े पहलवान से कुश्‍ती करनी पड़ी। तुर्क पहलवान सचमुच ही बहुत ताकतवर और फुर्तीला था। किंतु शांतचित्‍त और साहसी अली अलीयेव ने तुर्क को डोरी के गोले की तरह कालीन पर चित फेंक दिया। तुर्क ने उठते हुए अवार भाषा में धीरे-से कुछ भला-बुरा कहा। अपनी भाषा सुनकर अली अलीयेव को बड़ी हैरानी हुई। मगर जब विजेता ने भी अवार भाषा में यह कहा, 'हमवतन, कोसते क्‍यों हो, खेल तो खेल ठहरा,' तो तुर्क को और भी ज्‍यादा हैरानी हुई।

फिर जब एक जमाने से बिछुड़े हुए दो भाइयों की तरह दोनों पहलवानों ने अचानक एक-दूसरे को बाँहों में भर लिया, तो उन दोनों से भी ज्‍यादा हैरानी हुई रेफरी और दर्शकों को।

मालूम यह हुआ कि तुर्क उस अवार परिवार से संबंध रखता था, जो शामिल की गिरफ्तारी के बाद तुर्की चला गया था। अब भी जब कभी इन दोनों पहलवानों की मुलाकात होती है, तो वे दोस्‍तों की तरह मिलते हैं।

पिता जी का संस्‍मरण। 1939 में मेरे पिता जी एक पदक पाने के लिए मास्‍को गए। उस वक्‍त तो यह एक बहुत बड़ी घटना थी। जब वे छाती पर पदक लगाए हुए लौटे, तो गाँव की मजलिस हुई और लोगों ने उनसे मास्‍को, क्रेम्लिन और मिखाईल इवानोविच कालीनिन के बारे में, जो उस वक्‍त पदक भेंट किया करते थे, तथा यह भी बताने को कहा कि किस चीज ने उनके दिल पर सबसे गहरी छाप छोड़ी।

जो कुछ हुआ था, पिता जी ने वह सभी सिलसिलेवार सुनाया और फिर यह भी कहा -

'सबसे बड़ी बात तो यह है कि मिखाईल इवानोविच कालीनिन ने रूसी में नहीं, अवार भाषा में मेरे नाम का उच्‍चारण किया। उन्‍होंने मुझे हमजात त्‍सादासा नहीं, त्‍स' अदासा हमजात कहा।'

गाँव के बड़े-बूढ़े हैरान हुए और उन्‍होंने सिर हिलाकर अपनी खुशी जाहिर की।

'देखा न,' पिता जी ने कहा, 'मेरी जबान से यह सुनकर ही तुम्‍हें कितनी खुशी हो रही है। क्रेम्लिन में खुद कालीनिन के मुँह से यह सुनकर मुझ कितना अच्‍छा लगा होगा। आप लोगों से ईमान की बात कहता हूँ कि इतनी ज्‍यादा खुशी हुई थी इससे कि पदक के बारे में खुश होने की सुध ही नहीं रही।'

पिता जी की भावनाओं को मैं बहुत ही अच्‍छी तरह समझता हूँ।

कुछ साल पहले मैं सोवियत लेखकों के एक प्रतिनिधिमंडल के सदस्‍य के नाते पौलेंड गया। एक दिन क्रेको में किसी ने होटल में मेरे कमरे के दरवाजे पर दस्‍तक दी। मैंने दरवाजा खोला। किसी अपरिचित ने शुद्ध अवार भाषा में पूछा -

'हमजातील रसूल यहीं रहते हैं?'

मैं चकराया और साथ ही बेहद खुश हुआ -

'अल्‍लाह करे कि तुम्‍हारे अब्‍बा के घर को कभी आग न लगे, वह कभी तबाह न हो! यह बताओ कि तुम अवार यहाँ क्रैको में कैसे आ बसे?'

मैंने लपककर अपने मेहमान को लगभग गले लगा लिया, कमरे में खींच ले गया और सारा दिन तथा सारी शाम हम बातें करते रहे।

मगर मेरे मेहमान अवार नहीं थे। वे दागिस्‍तान की भाषा और साहित्‍य का अध्‍ययन करनेवाले पोलिश विद्वान थे। अवार भाषा उन्‍होंने नजरबंद कैंप के दो अवार कैदियों से ही पहले पहल सुनी थी। भाषा उन्‍हें अच्‍छी लगी और खुद अवार तो और भी ज्‍यादा पसंद आए। वे अवार भाषा सीखने लगे। बाद में एक अवार तो चल बसा, दूसरा कैदी रहा, सोवियत सेना ने उसे मुक्ति दिलाई और वह अभी तक जिंदा है।

पोलिश विद्वान के साथ हमने केवल अवार भाषा में ही बातचीत की। मेरे लिए यह अनूठी और असाधारण-सी बात थी। मैंने उन्‍हें दागिस्‍तान आने की दावत दी।

हाँ, तो उस दिन हम दोनों ने अवार भाषा में बातचीत की। मगर मेरी और उनकी भाषा में बहुत बड़ा अंतर था। वे विद्वानों की, शुद्ध, बहुत सही, बहुत ही ज्‍यादा सही, यहाँ तक कि बेजान भाषा बोलते थे। वे भाषा की रंगीनी और हर शब्‍द की धड़कन की तुलना में व्‍याकरण, शब्‍द-क्रम और वाक्‍य-रचना की तरफ ज्‍यादा ध्‍यान देते थे।

मैं ऐसी पुस्‍तक लिखना चाहता हूँ, जिसमें भाषा व्‍याकरण के अधीन न होकर व्‍याकरण भाषा के अधीन हो।

अन्‍यथा मैं व्‍याकरण को सड़क पर पैदल जानेवाले और साहित्‍य को खच्‍चर पर सवार मुसाफिर की उपमा दूँगा। पैदल चलनेवाले ने खच्‍चर पर सवार मुसाफिर से अनुरोध किया कि वह उसे खच्‍चर पर बैठा ले। उसने उसे अपने पीछे जीन पर बैठा लिया। पैदल मुसाफिर की धीरे-धीरे हिम्‍मत बढ़ी, उसने खच्‍चर सवार को जीन से नीचे धकेल दिया और फिर यह चिल्‍लाते हुए उसे दुतकारने लगा -

'यह खच्‍चर और जीन के साथ बँधा हुआ सारा माल-मता भी मेरा है!'

मेरी प्‍यारी अवार भाषा! तुम मेरी दौलत हो, बुरे दिनों के लिए सँजोकर रखा गया खजाना हो, सभी रोगों के लिए रामबाण हो। अगर आदमी गायक की आत्‍मा लेकर गूँगा पैदा हुआ है, तो उसका न जन्‍म लेना ही बेहतर होता। मेरी आत्‍मा में ढेरों गीत हैं और मुझे आवाज भी मिली है। यह आवाज तुम हो, मेरी प्‍यारी अवार भाषा। एक लड़के की तरह मेरा हाथ थामकर तुम मुझे मेरे गाँव से बड़ी दुनिया में, लोगों के पास ले गई हो और मैं उन्‍हें अपनी मातृभूमि के बारे में बताता हूँ। तुम ही मुझे उस देव के पास ले गईं, जिसका नाम महान रूसी भाषा है। वह भी मेरे लिए मातृभाषा बन गई। उसने मेरा दूसरा हाथ पकड़ा और मुझे दुनिया के सभी देशों में ले गई। मैं उसका उसी तरह आभारी हूँ, जैसे हारादारीह गाँव की उस नारी का, जो मेरी धाय थी। मगर फिर भी मैं यह अच्‍छी तरह जानता हूँ कि मेरी सगी माँ भी है।

कारण कि अपने चूल्‍हे में आग जलाने के लिए हम पड़ोसी से दियासलाई ला सकते हैं। मगर हम ऐसी दियासलाई माँगने के लिए दोस्‍तों के पास नहीं जा सकते, जिससे दिल में आग जलाई जा सके।

लोगों की भाषाएँ बेशक अलग-अलग हों, मगर दिल एक होने चाहिए। मैं ऐसे कई दोस्‍तों को जानता हूँ, जो अपना गाँव छोड़कर बड़े शहरों में जा बसे हैं। इसमें कोई खास बुरी बात नहीं है। पक्षियों के बच्‍चे भी पंख निकलने तक ही घोंसलों में रहते हैं। मगर इस बात का क्‍या किया जाए कि बड़े शहरों में रहनेवाले मेरे दोस्‍तों में से कुछेक अब दूसरी भाषा में लिखते हैं! जाहिर है कि यह उनका अपना मामला है और मैं उन्‍हें कोई सीख नहीं देना चाहता। मगर फिर भी वे एक हाथ में तरबूज सँभालने की कोशिश करनेवाले लोगों के समान हैं।

मैंने इन बेचारों से बात की और इस नतीजे पर पहुँचा कि जिस भाषा में वे अब लिखते हैं, वह अवार तो है ही नहीं, मगर रूसी भी नहीं। वे मुझे ऐसे वन की याद दिलाते हैं, जहाँ लकड़हारों ने बड़े अटपटे ढंग से काम किया है।

हाँ, मैंने ऐसे लोग देखे हैं, जिनके लिए अपनी मातृभाषा अशक्‍त और अपर्याप्‍त थी और वे सशक्‍त तथा समृद्ध भाषा की खोज में निकल पड़े। मगर नतीजा निकला उस अवार लोक-कथा जैसा, जिसमें एक बकरी भेड़िये जैसी दुम बढ़ाने के लिए जंगल में गई। मगर लौटी सींगों से भी हाथ धोकर।

या फिर वे पालतू हंसों जैसे हैं, जो तैर और डुबकी भी लगा सकते हैं, मगर मछली की तरह तो नहीं, कुछ उड़ भी सकते हैं, मगर उन्‍मुक्‍त पक्षियों की तरह तो नहीं, कुछ गा भी सकते हैं, मगर फिर भी बुलबुल तो नहीं हैं। वे कुछ भी तो ढंग से नहीं कर सकते।

'कैसा हाल-चाल है?' एक बार मैंने अबूतालिब ने पूछा।

'बस, ऐसा ही। न तो भेड़िये जैसा, न खरगोश जैसा। दोनों के बीच का सा।' अबूतालिब कुछ देर चुप रहकर बोले, 'लेखक के लिए यह बीच की स्थिति ही सबसे बुरी होती है। उसे या तो खरगोश को हड़प जानेवाले भेड़िये या भेड़िये से बच निकलनेवाले खरगोश की तरह अपने को महसूस करना चाहिए।'

नोटबुक से। एक बार पड़ोस के गाँव के कुछ किशोर मेरे पिता जी के पास आए और उन्‍हें बताया कि उन्‍होंने एक गायक की पिटाई कर डाली है।

'किसलिए पीटा है तुमने उसे?' पिता जी ने पूछा।

'वह गाते हुए मुँह बनाता था, जान-बूझकर खाँसता था, शब्‍दों को तोड़ता-मरोड़ता था, कभी चीखने, तो कभी कुत्‍ते की तरह भौंकने लगता था। उसने गाने का सत्‍यानाश कर दिया था, इसीलिए हमने उसकी मरम्‍मत की।'

'किस चीज से मरम्‍मत की तुमने उसकी?'

'किसी ने पेटी से, किसी ने घूँसों से।'

'कोड़े से भी पिटाई करनी चाहिए थी। मगर मैं यह जानना चाहता हूँ कि किन जगहों पर तुमने उसकी ठुकाई की?'

'ज्‍यादा तो धड़ के नीचेवाले हिस्‍सों पर। मगर जाहिर है कि गर्दन भी बची नहीं रही।'

'मगर सबसे ज्‍यादा कुसूर तो सिर का था।'

संस्‍मरण। एक और घटना अगर याद आ ही गई है, तो यहाँ उसका भी उल्‍लेख क्‍यों न कर दिया जाए? मखचकला में एक अवार गायक रहते हैं... मैं उनका नाम नहीं बताना चाहता। वे तो खैर जान ही जाएँगे कि यहाँ उन्‍हीं का जिक्र किया गया है और आपको नाम जानने या न जानने से फर्क ही क्‍या पड़ता है? ये गायक अक्‍सर मेरे पिता जी के पास आते और उनसे अपनी धुनों पर गीत रचने का अनुरोध करते। पिता जी राजी हो जाते और इस तरह गानों का जन्‍म होता।

एक दिन हम चाय पी रहे थे, जब रेडियो पर यह घोषणा हुई कि विख्‍यात गायक हमजात त्‍सादासा का लिखा गीत गाएँगे। ह‍म सभी और पिता जी भी ध्‍यान से सुनने लगे। मगर गाना ज्‍यों-ज्‍यों आगे बढ़ता था, हमारी हैरानी भी उतनी ही ज्‍यादा बढ़ती जाती थी। गायक ऐसे गा रहे थे कि एक भी शब्‍द पल्‍ले नहीं पड़ता था। बस, कुछ चीजें ही सुनाई देतीं और गायक शब्‍दों को ऐसे निगल जाते, जैसे कोई मुर्गा अपने सारे चुग्‍गे को पहले तो इधर-उधर बिखरा दे और फिर दाना-दाना करके उन्‍हें चुगने लगे।

गायक से मुलाकात होने पर पिता जी ने उनसे पूछा कि उनके गीत के साथ उन्‍होंने ऐसी ज्‍यादती क्‍यों की।

'मैं इसलिए ऐसा करता हूँ' गायक ने जवाब दिया, 'कि दूसरे न तो कुछ समझ सकें और न ही याद रख पाएँ। अगर दूसरे गायकों को गीत याद हो गया, तो वे भी गाने लगेंगे, मगर मैं चाहता हूँ कि सिर्फ मैं ही उसे गाऊँ।'

कुछ समय बाद पिता जी ने अपने दोस्‍तों की दावत की। गायक भी आए थे। दावत जब खत्‍म होने की थी, तो पिता जी ने दीवार पर से टूटे तारोंवाला कुमज उतारा और वह गीत गाने लगे, जिसकी धुन गायक ने रची थी। पिता जी शब्‍दों का तो बहुत स्‍पष्‍ट उच्‍चारण करते, मगर बेसुरे साज पर बजाई जानेवाली धुन का पूरी तरह हुलिया बिगड़ गया। गायक को बहुत बुरा लगा, कहने लगे कि टूटे तारोंवाले, बेसुरे कुमुज पर उनकी रची हुई धुन नहीं बजाई जानी चाहिए, कि ऐसा कुमुज उनके गाने का माधुर्य प्रस्‍तुत करने में असमर्थ है। पिता जी ने बड़े इतमीनान से जवाब दिया -

'यह तो मैं जान-बूझकर ऐसे गाता और साज बजाता हूँ। ताकि दूसरे तुम्‍हारी धुन को समझकर याद न कर लें। अगर ऐसा गाना चल सकता है, जिसमें शब्‍द पल्‍ले न पड़ें, तो भला ऐसा गाना क्‍यों नहीं चलेगा, जिसमें धुन का सिर-पैर मालूम न हो सके।'

दागिस्‍तानी लेखक दस भाषाओं में लिखते हैं और नौ में अपनी रचनाएँ छापते हैं। मगर ऐसी स्थिति में वे क्‍या करते हैं, जो दसवीं भाषा में लिखते हैं? और यह भाषा क्या है?'

दसवीं भाषा में वे लिखते हैं, जो अपनी मातृभाषा - वह चाहे अवार, लाक या तात कोई भी क्‍यों न हो - भूल चुके हैं, मगर पराई भाषा सीख नहीं पाए हैं। वे न घर के हैं, न घाट के।

अगर आप पराई भाषा को अपनी मातृभाषा से ज्‍यादा अच्‍छी तरह जानते हैं, तो उसमें लिखें। या फिर अगर कोई दूसरी भाषा ढंग से नहीं जानते, तो मातृभाषा में लिखिए। मगर दसवीं भाषा में नहीं लिखिए।

हाँ, मैं दसवीं भाषा का दुश्‍मन हूँ। भाषा पुरानी, एक हजार साल की होनी चाहिए। तभी वह काम आ सकती है।

निश्‍चय ही भाषा बदलती रहती है और इसके खिलाफ मैं किसी तरह की बहस नहीं करूँगा। वृक्ष के पत्‍ते भी तो हर साल बदलते हैं, कुछ गिरते हैं और दूसरे उनकी जगह आते हैं। मगर वृक्ष तो ज्‍यों-का-त्‍यों बना रहता है। वह साल-दर-साल अधिकाधिक ऊँचा होता जाता है, उसकी शाखाएँ बढ़ती जाती हैं। आखिर उस पर फल आ जाते हैं।

मैं आपको अपने गीत, अपनी किताबें देता हूँ, अवार भाषा के छोटे, मगर प्राचीन वृक्ष पर उगाए हुए फल आपकी भेंट करता हूँ।


मातृभाषा

सपनों में तो सदा अनोखी और अटपटी बातें होतीं

आज अचानक मैंने अपने को सपने में मरते देखा

दागिस्‍तानी घाटी थी, मैं था, औ' धूप झुलसती थी

सीना गोली से छलनी था, मिटती थी जीवन की रेखा।

कलछल कलछल नदिया बहती, वह अबाध ही दौड़ी जाती

नहीं जरूरत जिसकी जग को, और सभी ने जिसे भुलाया,

मेरे नीचे थी मेरी ही, अपनी मिट्टी, अपनी धरती

उसका हिस्‍सा बनने की थी, कुछ क्षण में मेरी भी काया।

गिनता हूँ मैं अपनी साँसें, मगर न कोई इतना जाने

पास न कोई मेरे आए, सहलाए न प्‍यारी बाँहें,

सिर्फ उकाब कहीं दूरी पर, ऊँची-ऊँची भरे उड़ानें

और कहीं पर एक तरफ को, हिरन भर रहे ठंडी आहें।

अपनी भरी जवानी में मैं छोड़ रहा हूँ इस दुनिया को

फिर भी मेरी इस मिट्टी पर, मेरे शव पर और कब्र पर,

माँ भी नहीं, नहीं प्‍यारी भी, नहीं दोस्‍त कोई रोने को

अरे, न क्‍यों वे भी आती हैं, जो रोती हैं पैसे लेकर।

बेबस पड़ा-पड़ा ऐसे ही, तोड़ रहा था मैं दम अपना

तभी अचानक, कहीं निकट ही कुछ आवाजें पड़ीं सुनाई,

चले जा रहे थे दो साथी, वे कुछ कहते, कुछ बतियाते

भाषा उनकी भी अवार थी, मेरे कानों को सुखदाई

आग उगलती दोपहर में उस दागिस्‍तानी घाटी में

मैं मरता था, मगर लोग तो, हँसते, बतियाते जाते थे,

किसी हसन की मक्‍कारी की, किसी अली की सूझ-बूझ की

मजे-मजे चर्चा करते वे किस्‍से कह मन बहलाते थे।

अपनी ही भाषा में सुनकर कुछ धीमी-धीमी आवाजें

मुझे लगा कुछ ऐसे, जैसे जान जिस्‍म में फिर से आए,

समझ गया मैं वैद्य, डॉक्‍टर, मुझे न कोई बचा सकेगा

केवल मेरी अपनी भाषा, मुझे प्राण दे सके, बचाए।

शायद और किसी को दे दे, सेहत कहीं अजनबी भाषा

पर मेरे सम्‍मुख वह दुर्बल, नहीं मुझे तो उसमें गाना,

और अगर मेरी भाषा के, बदा भाग्‍य में कल मिट जाना

तो मैं केवल यह चाहूँगा, आज, इसी क्षण ही मर जाना।

मैंने तो अपनी भाषा को, सदा हृदय से प्‍यार किया है

बेशक लोग कहें, कहने दो, मेरी यह भाषा दुर्बल है,

बड़े समारोहों में इसका, हम उपयोग नहीं सुनते हैं

मगर मुझे तो मिली दूध में, माँ के, वह तो बड़ी सबल है।

आनेवाली नई पीढ़ियाँ, क्‍या अनुवादों के जरिए ही

समझेंगी महमूद और उसकी कविता का रंग निराला?

क्‍या मैं ही वह अंतिम कवि हूँ, जो अपनी प्‍यारी भाषा में

जो अवार भाषा में लिखता, उसमें छंद बनानेवाला।

प्‍यार मुझे बेहद जीवन से, प्‍यार मुझे सारी पृथ्‍वी से

उसका कोना-कोना प्‍यारा, प्‍यारा उसका साया, छाया,

फिर भी सोवियत देश अनूठा मुझको सबसे ज्‍यादा प्‍यारा

अपनी भाषा में उसका ही, मैंने जी भर गौरव गाया।

बाल्टिक से ले, सखालीन तक, इस स्‍वतंत्र, खिलती धरती का

हर कोना मुझको प्‍यारा है, हर कोना ही मन भरमाए,

इसके हित हँसते-हँसते ही, दे दूँगा मैं प्राण कहीं भी

पर मेरे ही जन्‍म-गाँव में, बस मुझको दफनाया जाए।

ताकि गाँव के लोग कभी आ, करें कब्र पर चर्चा मेरी

कहें हमारी भाषा में यह, यहाँ रसूल अपना सोता है,

अपनी भाषा में ही जिसने, अपने मन-भावों को गाया

त्‍सादा के हमजात सुकवि का, अरे वही बेटा होता है।

नोटबुक से। एक पहाड़ी नौजवान के माँ-बाप इस बात के खिलाफ थे कि वह रूसी लड़की से शादी करे। मगर वह लड़की शायद अपने अवार प्रेमी को बहुत प्‍यार करती थी। एक दिन उस नौजवान को अपनी प्रेमिका से अवार भाषा में लिखा हुआ एक खत मिला। नौजवान ने माँ-बाप को वह खत दिखाया। उन्‍होंने उसे पढ़ा और बहुत हैरान हुए। इस खत ने उनके दिल पर इतना असर किया कि उन्‍होंने उस असाधारण पत्र को हाथ में लिए हुए उसी समय उस लड़की को अपने घर लाने की इजाजत दे दी।

नोटबुक से। लेखक के लिए भाषा वैसे ही है, जैसे किसान के लिए खेत में फसल। हर बाली में बहुत-से दाने होते हैं और इतनी अधिक बालियाँ होती हैं कि गिनना नामुमकिन। पर किसान अगर हाथ-पर-हाथ रखकर बैठा हुआ अपनी फसल को देखता रहे, तो एक भी दाना उसे नहीं मिलेगा। रई की फसल को काटना और फिर माँड़ना चाहिए। मगर इतने पर ही तो काम समाप्‍त नहीं हो जाता। माँड़े अनाज को ओसाना और दानों को भूसे, घास-फूस से अलग करना जरूरी होता है। इसके बाद आटा पीसने, गूँधने और रोटी पकाने की जरूरत होती है। पर शायद सबसे ज्‍यादा जरूरी तो यह याद रखना होता है कि रोटी की चाहे कितनी भी अधिक जरूरत क्‍यों न हो, सारा अनाज इस्‍तेमाल नहीं करना चाहिए। किसान सबसे अच्‍छे दानों को बीजों के रूप में इस्‍तेमाल करने के लिए रख लेता है।

भाषा पर काम करनेवाला लेखक सबसे अधिक तो किसान जैसा ही होता है।

कहते हैं कि बालकों ने उस वृक्ष को काट डाला, जिस पर एक पक्षी रहता था और उसका घोंसला तबाह कर डाला।

'वृक्ष, तुम्‍हें क्‍यों काट डाला गया?'

'क्‍योंकि मैं बेजबान हूँ।'

'पक्षी, तुम्‍हारा घोंसला क्‍यों बरबाद कर दिया गया?'

'क्‍योंकि मैं बहुत बकबक करता था।'

कहते हैं कि शब्‍द तो बारिश के समान होते हैं : एक बार - महान वरदान है, दूसरी बार - अच्‍छी रहती है, तीसरी बार - सहन हो सकती है, चौथी बार - दुख और मुसीबत बन जाती है।