मेरा बचपन मेरे कंधों पर / श्योराज सिंह बेचैन / पृष्ठ 1

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भोगे हुए यथार्थ की कसौटी (समीक्षा)

पंजाबी के कवि अवतार सिंह पाश ने लिखा है ‘...सबसे खतरनाक होता है/ हमारे सपनों का मर जाना’ लेकिन आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ के लेखक श्यौराज सिंह बेचैन ने अपने सपनों और हकीकत की दुनिया को न तो दफन होने दिया और न ही कुछ और...। चार सौ इक्कीस पन्नों में दलित जिंदगी को बखूबी शब्दों में पिरोकर पाठकों के सामने रखने वाले श्यौराज जानते हैं कि सपनों का मरना कितना खतरनाक होता है।

पिता की मौत की त्रासदी से लेकर हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण होने तक की बाल व युवा जिंदगी की जद्दोजहद उनसे अधिक कौन जान सकता है। कमोबेश लेखक ने अपने जीवन के हर पहलू की चर्चा इस पुस्तक में की है, जो अक्सर उन्हें अपनी अतीत के सामने खड़ा करता है, चाहे भूख में मरे हुए जानवरों का मांस खाना हो, पढ़ाई के लिए मास्टर प्रेमपाल सिंह के मधुरवाणी में फंसकर बेगारी करना, यहां तक कि सुंदरिया का प्रसंग।

डा. धर्मवीर ने गालिब से तुलना करते हुए गालिब का शेर लेखक के लिए अर्ज किया है

‘रंज से खूंगर हुआ इंसान तो मिट जाता है रंज/

मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसां हो गई’।

गरीब और दलित व्यक्ति कुछ पाना चाहता है तो उसका जीवन कितना कष्टप्रद होगा, वह लेखक की जीवटता, विषम परिस्थितियों से संघर्ष, अमानवीय और विवेकहीन समाज में धैर्य और आत्मविश्वास के सहारे समझा जा सकता है। वजूद से हटकर कुछ करना है तो कहना पड़ेगा

‘तकाजा है वक्त का तूफानों से जूझो,

कब तलक चलोगे किनारे-किनारे।

यूं तो आत्मकथा में कई प्रसंग हैं लेकिन ‘बेवक्त गुजर गया माली’ शीर्षक अध्याय में समाज के सामने एक प्रश्न उठाते हुए डॉक्टरों से तुलना कर उन्होंने लिखा है ‘डाक्टर मनुष्य की लाश का पोस्टमार्टम करता है तो इज्जतदार होता है। भंगिन सफाई करती है तो दुत्कारी जाती है। चमार पशु की खाल उतारता है, तो वह बहिष्कृत और अछूत बना रहता है’। इस प्रश्न का जवाब आज भी किसी के पास नहीं है।

शोषण और धिक्कार के बीच अछूत का स्पर्श, जातीय व्यवस्था की झूठी योग्यता के सामने विनीत और संकोची लेकिन आत्मविश्वास और दृढ़ निश्चयी श्यौराज एक उदाहरण हैं। वर्तमान में दलित साहित्य धीरे-धीरे मुखर रूप लेने लगा है। हिन्दी के अलावा मराठी, पंजाबी आदि भाषाओं में भी दलित साहित्य लिखा जा रहा है और अपेक्षा से अधिक पढ़ा भी जा रहा है। श्यौराज सिंह बेचैन की आत्मकथा दलित साहित्य में एक क्रांति ही मानी जानी चाहिए। गरीबी अपने आप में एक समस्या है। गरीब होने के साथ-साथ व्यक्ति दलित समाज में पैदा हुआ हो, समाज कभी उसे आदम जात में गिनता ही नहीं है। जिंदगी ‘एक तो करेला वह भी नीम चढ़ा’ कहावत जैसी चरितार्थ हो जाती है। लेखक को दलित होने से कहीं ज्यादा गरीब होना अखरता था तभी तो गरीबी में जी रहे अंधे चाचा की तुलना वे अंधे मुनीम से करते थे जिससे जरूरत पड़ने पर सूद पर कर्ज लिया करते थे।

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 17 के तहत ‘अपृस्श्यता का अंत’ भले कर दिया गया हो, लेकिन आज भी देश और समाज में जातीय क्रूरता खत्म नहीं हुई है। हां, क्रूरता का तीखापन और कड़वापन थोड़ा कम जरूर हुआ है। संख्या बल के लोकतांत्रिक व्यवस्था में दलित समाज के उभरते नेता भी क्रूर जातीय व्यवस्था को समाप्त करने में सक्षम नहीं है। कहते हैं किसी जाति विशेष का नेता जाति का सबसे बड़ा दुश्मन होता है, इसलिए वो इस जख्म को हरा रखना चाहता है। दलित वर्ग के लोग प्यास से तड़पते रहने के बाद आज भी स्वर्णों के घरों से पानी मांगने में झिझकते हैं। आज भी अधिकांशत: उनके परिवार गांवों के बाहर ही बसे हैं। पशुचर्म का काम और मरे हुए जानवरों का मांस खाकर परिवार का भरण पोषण करने वाले परिवार के मुखिया की मौत, त्रासदी भरे जीवन से रू-ब-रू होने का मौका पाठक को मिलता है आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ में। पेट की आग बुझाने के लिए रोटी की जुगाड़ में जुटे नन्हें हाथ छोटी सी उम्र में फेरी लगाकर नींबू बेचने से लेकर स्टेशन पर जूते पालिश करना, मरे हुए जानवरों की खाल निकालने का काम करने वाला सौराज एक दलित की जिंदगी की हकीकत है।

वैश्विक मंदी के हताशा भरे दौर में परेशान युवाओं के लिए श्यौराज के जीवन की दास्तान आत्मसम्बल प्रदान करने में सहायक हो सकती है। यादों के सहारे समय कालक्रम का विशेष ध्यान रखे बिना, परत-दर-परत कटु अनुभवों को शब्दों में बयां कर पुस्तक का रूप दिया गया है जो पठनीय है। लेखनी, शब्द और भाषा शैली की दृष्टि से पुस्तक स्तरीय है। जरूरत के अनुसार स्थानीय शब्दों का संयोजन भी है। लेखक के संघर्ष की कहानी अपने आप दलितों के व्यापक अनुभवों से जुड़कर भोगे हुए यथार्थ की कसौटी भी है।

साभार : राष्ट्रीय सहारा, दिनांक : २७ रविवार २००९

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