मेरा बचपन मेरे कंधों पर / श्योराज सिंह बेचैन / पृष्ठ 2

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दलित बाल शोषण का दस्तावेज : केदार प्रसाद मीणा (समीक्षा)

हिंदी का दलित साहित्य ही नहीं, मराठी के मशहूर दलित साहित्य की शुरुआत भी आत्मकथ्य से ही हुई है। अब इसकी शुरुआत चाहे हीरा डोम की कविता 'अछूत की शिकायत' से समझी जाय या पिफर संपादक डॉ. गंगाधर पानतावड़े की पत्रिाका 'अस्मितादर्श' के दीपावली विशेषांक ;१९७६द्ध में छपे आत्मकथ्यों से। तब से लेकर आज तक दलित साहित्यकार सही मायने में आत्मकथ्य ही करता आ रहा है। कहना न होगा कि यह कार्य दलित लेखकों की मजबूरी भी रही और उनकी ताकत भी बना। मजबूरी इसलिए क्योंकि साहित्य उनके लिए अपनी पीड़ा के बखान का साधन सबसे पहले है और ताकत इसलिए क्योंकि अस्तित्व के लिए संद्घर्ष का रास्ता यहीं से गुजरता है।

आज भी अगर दलित लेखक लगातार आत्मकथा लिख रहे हैं तो यह अच्छी बात है। उनके पास अभी कहने को बहुत कुछ है। तीन हजार साल की यातना का पूरा लेखा-जोखा तीन दशकों में तैयार हो भी नहीं सकता है। दलित साहित्य कोई नचनिया का नाच नहीं है कि कोई ताकतवर कुछ 'सिक्के' उछालकर उसका गान बदल दें। यह यातना का रोना है और रोना रोके नहीं रुका करता है। हाँ, यह जरूर है कि उद्देश्य के लिहाज से स्वयं आत्मकथाकारों को अपने आत्मकथ्य का ढंग समय के साथ बदलना चाहिए था। अगर समय रहते ऐसा हो जाता तो दलित चिंतक डॉ. धर्मवीर को बौखलाकर यह कहने की नौबत नहीं आती कि

एक तरपफ, दलित रोने से भी कुछ ज्यादा रोते हैं और दूसरी तरपफ, मतलब के रोने इन्हें रोने नहीं आये। उन्होंने ;दलित आत्मकथाकारोंद्ध संसार को कोई ऐसी रूदन काव्य नहीं दिया जिसे सुनकर कसाई भी रो उठे।

अब यह डॉ. धर्मवीर जैसे चिंतकों का ही असर हो या समय के साथ सचमुच रोने का ढंग सीख जाने वाली बात हो, हिन्दी में एक ऐसी दलित आत्मकथा आ चुकी है जिसे पढ़कर एक बारगी कसाई ही नहीं जल्लाद भी रो उठेगा। यह आत्मकथा है श्यौराज सिंह बेचैन की 'मेरा बचपन मेरे कंधों पर'।

'मेरा बचपन मेरे कंधों पर' दलित बालक 'सौराज' के बचपन का एक ऐसा कारुणिक दस्तावेज है जिसे बाल संद्घर्ष का विश्वस्तरीय दस्तावेज कहा जा सकता है। मेरा विश्वास है कि दुनिया के किसी भी कोने में, किसी भी वर्ग के, किसी भी धर्म और संस्कृति के व्यक्ति ने अपने बचपन में अगर किसी भी तरह का संद्घर्ष किया है तो वह इस आत्मकथा के किसी-न-किसी प्रसंग से अपने-आप को जुड़ा हुआ महसूस करेगा। वैसे तो इस आत्मकथा में वह सबकुछ है जो दलित समाज ने अब तक भोगा और जीया है। लेकिन बाल संद्घर्ष और बाल शोषण का कोई रूप ऐसा नहीं है जो इस आत्मकथा में न हो। अनाथ होने की पीड़ा, भूख, गरीबी, बीमारी, दलित होने की पीड़ा तथा पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ा होने की तीव्र आकांक्षा इस आत्मकथा को एक ऐसे महाकाव्य का रूप देती है जिसके स्थायी रस का पता पाठक को अंत तक नहीं चल पाता है। कहीं शांत रस है, तो कहीं करुण रस, कहीं विभत्सता है तो कहीं वीर रस। दलित बालक 'सौराज' कहीं कमजोर और लाचार है तो कहीं योद्धा भी नजर आता है। बालक 'सौराज' के पास कुछ नहीं है। वह दुनिया का सबसे गरीब और असहाय बालक है। अगर कुछ है तो बस पढ़ने-लिखने का सपना और सपने से भी अधिक यह एक जिद है जिसे वह हर हाल में खुद पूरी करते हुए नजर आता है। उसका यह सपना कभी भूख पर भारी पड़ता है तो कभी भूख इस सपने पर भारी पड़ती नजर आती है।

भूख और सपने की यात्रा लगभग एक साथ तब शुरू होती है जब शराब की वजह से उसकी छोटी बुआ की ससुराल प्रेमनगर में उसके पिता राधेश्याम की मृत्यु हो जाती है। वह सही समय पर उचित इलाज की बजाय झाड़पफूक के टोटकों का शिकार होकर अकाल मौत को प्राप्त हो जाता है।

मैं जब द्घर से गया था तो बारात देखने की खुशी में हँसता-खेलता चाचा ;पिता के कंधों पर सवार होकर गया था और अब पिता के चले जाने पर लौट रहा था तो मेरा बचपन खुद मेरे ही कंधों पर आ पड़ा था।

अनाथ होने का अहसास और भूख उसके टूटे-पफूटे द्घर पर सबसे पहले डेरा डालती है। उसके पिता का चला जाना उसके परिवार के लिए भयंकर त्राासदी लेकर आता है। लेखक का यह दुःख दुनिया के हर अनाथ बालक जैसा है। लेकिन दूसरे संपन्न समाजों में ऐसे बालकों को सामान्यतः बस्ती में ही कहीं आसरा मिल जाया करता है। कभी पास के परिवार का या रिश्तेदारी में तो कभी गाँव में कहीं भी। लेकिन एक ऐसे दलित बालक को जिसकी माँ को उसके नाना कहीं दूसरी और तीसरी-जगह ब्याह दें और दूसरा पिता अगर पहले के बच्चों का किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी से इंकार कर दे तो अनाथ होने की यह पीड़ा कितना गुना बढ़ जाती होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। बालक 'सौराज' का बाकी परिवार भी कंगाल है, भुखमरी का शिकार है। उसके बाबा और ताऊ अंधे या लंगड़े हैं। वे खुद पराश्रित हैं। जबकि गाँव में बाकी संपन्न आबादी सवर्णों या यादवों की है। ये वे सांमती तत्व हैं जो दलितों की छाया से भी दूर रहना पसंद करते हैं।

जाटव बने चमार तो अपनी उच्चता के अहम् के चलते सवर्णों से भी दो कदम आगे हैं। वे तो इन अनाथ बालकों से कतई कोई मतलब नहीं रखते हैं। ऐसी स्थिति में इन अनाथ बालकों को कहीं आसरा नहीं मिलता है। लेखक की माँ कुछ दिनों तक जैसे-तैसे उनका पालन-पोषण करना चाहती है। लेकिन वह जानती है कि वह लम्बे समय तक ऐसा नहीं कर सकेगी। इसलिए समय से पहले ही वह बालक 'सौराज' को आने वाली चुनौतियों के लिए तैयार करने लगती है। कहती,

अब तू आज से बेटा अपने पेट की आग खुद बुझावन की तरकीब सोच, जहाँ जो काम मिले करि, रुखी-सूखी जहाँ मिलै तहाँ खा, पफटो-पुरानो जैसों जो लत्ता-गुदड़ा मिलै सो पहन, पर काऊ तें कबऊँ कछु माँगै मत। याद रखिए तोइ बिना मतलब के कोई कछु नाँय देगो।

यहीं से बालक 'सौराज' का संद्घर्ष शुरू हो जाता है। भूखों मरता परिवार कभी धान कटे खेतों में से बिखरी बालियाँ चुनकर भूख मिटाता है तो एक बार ठड़ायन के जहरीले 'ढेचा' जैसे बीज खाकर अपने आप को लगभग मौत के मुँह में ढकेल देता है। बालक 'सौराज' अपने अंधे मंगी बाबा के साथ जातिगत अपमान बर्दाश्त करता है। यादवों की गुड़ पकाने की भट्ठी पर गुड़ की धोवन के लिए रात भर भट्ठी में जलावन झोंकता है। एक बार गुड़ पकाने की भट्ठी में जलावन झोंकते समय अंधे गंगी बाबा के कपड़ों में आग लग जाती है। रात-दिन अंधे गंगी से काम लेने वाले यादव उसकी नग्नता पर एक छोटा कपड़ा भी नहीं डालते हैं। यादवों की निगाहें बालक 'सौराज' पर ही लगी हैं। वे उसे गुलाम बनाने को उत्सुक रहते हैं।

'सौराज' की माँ मुखी को उसके नाना चंदौसी ले जाते हैं। उसका दूसरा ब्याह गाँव नौरा-बौरा के रामलाल चमार से कर दिया जाता है, पिफर तीसरा ब्याह पाली-मुकीमपुर के भिकारी से। माँ पाली-मुकीमपुर रहने लगती है। बालक 'सौराज' अकेला अपनी किस्मत से लड़ता रहता है। वह पैरों में गठिया बाय की बीमारी से लगभग अपाहिज होकर कभी नदरौली तो कभी पाली, कभी डिबाई, तो कभी मिर्जापुर में पड़ा रहता है। यहीं से वह अपने पढ़ने-लिखने का सपना देखने लगता है। उसका सपना भूख पर काबू पाकर पढ़ना-लिखना है या पढ़-लिख कर भूख पर काबू पाना है। इसका निर्णय कभी बालक 'सौराज' भी नहीं कर पाया और न ही आत्मकथा का पाठक कर पाता है।

बालक 'सौराज' देश के शहरों और गाँवों में शोषित हो अपना बचपन खपा रहे बालकों का प्रतिनिधि है। वह शहर और गाँव, हर जगह काम करता है। हर प्रकार का काम करता है। गाँव में मरे हुए पशुओं को ढोता है, उनकी खाल उतारकर पकाता है। कभी मजबूरन तो कभी चाहकर पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए।

ग्रामीण क्षेत्रा के यातनापूर्ण माहौल से अपने आप को बचाता हुआ 'सौराज' दिल्ली शहर में आता है। यहाँ भी वह हर वह काम करता है जो सैकड़ों-हजारों अनाथ और गरीब बालक कर रहे हैं। 'सौराज' में भारत के इन करोड़ों अनाथ और शोषित बालकों का अक्श नजर आता है। आत्मकथा का पाठक यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि अगर इन करोड़ों बच्चों को सही समय पर उचित सुविधाएँ मुहैया की गयी होतीं तो क्या इस देश का वर्तमान कुछ और बेहतर नहीं होता? बालक 'सौराज' दिल्ली में आढ़तियों और दुकानदारों के जूते पॉलिश करता है। पढ़ने और महाकवि बनने की उसकी आकांक्षा, उसकी प्रतिभा गली-कूचों में लंबे समय तक दपफन होती रही। डी.टी.सी. में ड्राइवर बनने के लिए पफस्ट एड पास करता है और पता नहीं किस रास्ते जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ;जे.एन.यू.द्ध में अपना ठीकाना बनाता है। आगे वह शिक्षक भी बनता है। ऐसी परिस्थितियों वाले बालक के जीवन में ऐसे क्षण का आना देश के लिए पंद्रह अगस्त सन् उन्नीस सौ सैंतालीस के आने जैसा है।

वह मार्क्सवादी साहित्य पढ़ता है, पिफर भी वह इस वर्ण व्यवस्था के खिलापफ कहीं दहाड़ते-चिल्लाते हुए नजर नहीं आता है। वह क्रांति करने की बात नहीं करता है। वह कहीं भी इतना दंभ नहीं भरता है कि वह पढ़-लिखकर कौम के लिए ऐसा कर देगा या वैसा कर देगा। दलित समाज का यह स्वाभाविक पात्रा है। दंभ भरने का उसके पास अवकाश नहीं है और ऐसा करना उसे शोभा भी नहीं देता। वह खुद जानता है कि उसकी कौम में भी कई खामियाँ है। उसकी यह चुप्पी उसकी ताकत बनी और दृष्टि भी। वह जानता है कि उसकी कौम का हाल अभी तक बुरा है। इसलिए वह अपने परिवार वालों के न चाहने पर भी मास्टर प्रेमपाल सिंह यादव के द्घर बेगार और पढ़ाई करने पहुँच जाता है। वह जानता है कि उसे कौम के लिए संदेश बनने के लिए, भूख मिटाने के लिए पढ़ना-लिखना होगा। वह प्रेमपाल यादव की बेगार करने को तैयार हो जाता है। वह बद और बदतर में से बद का चयन करता है। वह जानता है कि मास्टर प्रेमपाल यादव और उनकी भाभी 'बऊ' उसकी पढ़ने की कमजोरी का इस्तेमाल कर रहे हैं। पर वह यह भी जानता है कि शोषण तो दूसरी जगहों पर भी है। अगर वह पाली जाता है तो उसका सौतेला बाप भिकारी और उसका भाई डालचंद उसकी पढ़ाई से नपफरत करते हैं। भिकारी तो एक बार 'सौराज' की किताबें भी जला देता है। भिकारी एक दिन मास्टर प्रेमपाल यादव से भी कहता है,

याहू अपनी माँ को पेट भरन देउ। अब या की उमरि पढ़िवे की नॉय रई है साब। मेरी हाथ-जोड़े की मानो, सौराज को पढ़िवे के झंझट में मत डालो।

सौराज अगर अपनी बुआ के द्घर जाता है तो बुआ खाली द्घर में भी ताला लगवा कर उसके लिए रहने को मनाही करवा देती है, अगर वह सुंदरिया भाभी के द्घर में रहकर पढ़ना चाहता है वह उस बालक से शारीरिक संबंध बनाने का कुचक्र रचती है। भिकारी का भाई डालचंद 'सौराज' के नवीं पास करने से चिढ़कर उसे यातना देना चाहता है। वह उसे बधाई देने की बजाय मरे हुए पशुओं की खाल उतारने के लिए अपने साथ ले जाता है। मरे हुए पशु को उठा न पाने पर उसे मारता-पीटता है। यहाँ तक कहता है कि 'सौराज' इस कठिन कार्य से बचने के लिए ही स्कूल जाता है।

अरे देह कूँ कछु कसालो दे करि। जे स्कूल की किताबें नाँइ है जो पटवारी के बसता की तरह बगल में दवाई कें चल देइगो। हम जान्तु है तू कर्रे काम तें बचिवे कूँ ही स्कूल गयौ है।

ऐसी सोच वाली कौम से बालक 'सौराज' क्या उम्मीद कर सकता था? बालक 'सौराज' इस कौम से बचकर अगर मास्टर प्रेमपाल यादव के कहने पर 'आर्य' बना रहा तो उसका यह निर्णय बाद में स्वयं अपने लिए भी और अपनी कौम के लिए भी सही साबित हुआ। इस तरह यहाँ रहकर बालक 'सौराज' दसवीं पास कर जाता है।

पिफलहाल यह कहा जा सकता है कि हिन्दी आत्मकथा साहित्य में यह पहली रचना है जो देश की एक बड़ी भयानक बाल शोषण की समस्या को अपनी तमाम जटिलताओं के साथ सामने रखती है। बाल शोषण पर काम करने वाले अधिकारियों, बु(जिीवियों व संस्थानों को चाहिए कि वे इस रचना को जरूर देखें। यह अकेली रचना उनके सर्वेक्षणों और आंकड़ों पर भारी पड़ेगी। यह साहित्यिक रचना उनके देखने-समझने का नजरिया बदलने में सक्षम है।

यह बाल समस्या की जड़ों तक ले जाती है। वे अपने रुखे-सूखे आंकड़ों से पार जाकर देखेंगे कि एक शोषित बालक कहाँ से अाता है? वे अनाथ या आवारा क्यों है? उनकी जरूरतें क्या हैं? वे अनाथ बालक अपराधी कैसी परिस्थिति में बनते होंगे, वे हत्याएँ या आत्महत्याएँ क्यों कर लेते हैं, क्या सरकारी अनाथालय, सुधार गृह या एन.जी. ओ. इस समस्या का समाधान हैं या कुछ और भी किये जाने की जरूरत है। यह आत्मकथा इन सर्वेक्षणों की प(तियों, इनके सुधार कार्यों और योजनाओं पर नये तरीके से सोचने को बाध्य करती है। क्या यह एक सवाल नहीं है कि देश के ज्यादातर शोषित बालक दलित-आदिवासी समाज से ही आ रहे हैं और क्या यह सापफ नहीं है कि भारतीय समाज का रवैया इनके प्रति क्या है? तो क्या हमारे बाल आयोगों ने, एन.जी. ओ. ने समस्या को इस तरह देखकर समाधान खोजे हैं? यह आत्मकथा बाध्य करती है कि इस तरह समस्या को देखिए, समाधान जरूर मिलेंगे। इन आयोगों, एन.जी. ओ. व एक्टिविस्टों को इस आत्मकथा की प्रतियां भेजी जानी चाहिए।

श्यौराज सिंह बेचैन की यह आत्मकथा महज एक साहित्यिक निधि नहीं है। वे आलोचक जो कहने लगे हैं कि दलित लेखक आखिर कब तक आत्मकथा लिखते रहेंगे।' वे इस आत्मकथा को पढ़कर एक बार पिफर सोचने पर मजबूर हो जायेंगे।

असिस्टेंड प्रोपफेसर, शहीद भगत सिंह कॉलेज प्रातः दिल्ली विश्वविद्यालय

शेख सराय-२, नयी दिल्ली-१७, मो. ९८६८९५९८९०