मेरा बचपन मेरे कंधों पर / श्योराज सिंह बेचैन / पृष्ठ 3

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(समीक्षा)

श्यौराज सिंह बेचैन की चार सौ इक्कीस पेज की आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ जल्दी खत्म होने वाली नहीं थी। उस आत्मकथा ने मेरी तमाम निराशा को धूल की तरह उड़ा दिया और लगा की दुख की जिस गड़ही में हम डूब-उतरा रहे थे उसके सामने श्यौराज सिंह बेचैन का संघर्ष विपत्तियों के महासागर से होकर निकलने जैसा है।

शायद हम सवर्ण बिरादरी के लोग यह समझ ही नहीं सकते कि किसी दलित का संघर्ष कैसा होता है। हम ऊपर देखते हुए अपने करियर और संघर्ष गाथाओं में इतने खोए रहते हैं कि हमें हमारा ही दर्द बहुत बड़ा लगता है। इसलिए मेरा सुझाव है कि जो इस तरह चिंताओं में उलझे रहते हैं उन्हें श्यौराज सिंह बेचैन की इस आत्मकथा को जरूर पढ़ना चाहिए।

यह आत्मकथा आपको भीतर तक झक झोरती है और रुला कर विह्वल कर देती है। हम सवर्णों का बचपन तो अपने दलित हलवाहों के कंधों पर बीता होगा, लेकिन श्यौराज का बचपन खुद उनके कंधों पर बीता है। एक ऐसा बालक जिसके पिता को अंधविश्वास के तहत पीट-पीटकर मार डाला गया हो और उसका बचपन अनाथ हो गया हो, उसकी मर्मस्पर्शी पीड़ा का लेखक ने अद्वितीय वर्णन किया है। जब भी वह अपनी मां से कुछ चाहता है तो उनकी उलाहना और लाचारी भरी डांट इस तरह सुनने को मिलती है:-

‘‘सुन सौराज, कान खोल के सुन। तेरो बाप मरि चुको है। वो तेरी सुनन कूं अब क बऊ लौटि के नॉंय आवैगो समझो। मैं तेरी कोई जिद पूरी नांय कर पाऊंगी। अब तोइ अपनी जिद अपनी कमाई से गुजारनी है। जिद छोड़ कछू काम सीख ले। कछू नॉंय तो साइकिल में पिंजर जोड़नों ही सीख ले।’’

श्यौराज लिखते हैं कि

‘इस तरह बोलते-बोलते वे रोने लगीं और आंसुओं से डबडबाई ऑंखें लेकर घर के अंदर चली गईं। इस प्रकार मेरा बचपन मेरा बोझ लेकर मेरे कंधों पर सवार होना शुरू हो गया था। बचपन मैं छोड़ नहीं सकता था और भार लेकर दौड़ नहीं सकता था।’

ग्रामीण परिवेश से आए तमाम लोगों ने बचपन में गन्ने का बोझ उठाया होगा, गेहूं का बोझ उठाया होगा, धान का बोझ उठाया होगा और चक्की पर पिसाई के लिए ले जाते हुए गेहूं के बोरे का भी बोझ उठाया होगा। लेकिन श्यौराज ने इस देश की जाति व्यवस्था का बोझ जिस तरह उठाया वह या तो वे ही उठा सकते थे या उनकी बिरादरी में पैदा होने वाले लोग। अनाथ होकर अश्पृश्यता और गरीबी के अभिशाप को ढो़ना कितना भारी होता है इसकी वास्तविक अनुभूति श्यौराज ने ही की है हम तो उसकी फोटोकापी ही कर सकते हैं। शायद वह भी नहीं। उनका पेशा गांव के मरे हुए जानवरों को उठाना, उनकी खाल उतारना और चमड़े का शोधन करना था। मरे हुए जानवरों का मांस खाना भी उनकी मजबूरी थी। इस काम का वर्णन वे खुद इस तरह करते हैं:–

‘‘मेरे कच्चे कंधे संगटा (जानवरों का उठाने वाला बांस) तो नहीं संभाल पाते थे, लेकिन मुर्दा पशु के सींग, पैर या पूंछ पकड़ने का काम मैं डोरी ताऊ, प्यारे चच्चा, टुंडी व गंगी बब्बा के साथ करता रहता था। मांस निकालने के लालच से भी मैं पशुओं के काम में रुचि लेता रहता था। सींग पूंछ पकड़ते-पकड़ते आने दो आने के लालच में लंबे संगेटे के नीचे कब मेरे खुद के कंधे आ गए, पता ही नहीं चला था। यह मेरी अनौपचारिक ट्रेनिंग हुई।’’

वैसे तो यह श्यौराज के बचपन से शुरू होकर दसवीं पास होने की कथा है लेकिन इसमें गरीबी, अश्पृश्यता और अंधविश्वास से पीड़ित पूरा का पूरा दलित समाज है। उसके हर उम्र के लोग हैं और उन पर होने वाले हर तरह से अत्याचार की तमाम कहानियां हैं। अगर जाति-व्यवस्था का अत्याचार झेलती श्यौराज की तीन पीढ़ियां हैं, तो उनकी जाति और पुरुष सत्ता दोनों का दमन झेलती उनकी मां का दारुण नारी संघर्ष भी है। यह वर्णन उन आपत्तियों को खामोश कर देता है जो कौशल्या वैसंत्री जैसी दलित लेखिकाओं के बहाने दलित लेखकों पर लगाए जाते हैं।

कहा जाता है नामदेव ढसाल जैसे दलित लेखक भी अपनी पत्नी और प्रेमिका के प्रति वैसी संवेदना और समता का भाव नहीं रखते जैसी वे बाकी समाज से अपेक्षा करते हैं। यानी दलित स्त्री दोहरे शोषण से गुजरती है। एक तो ब्राह्मणवादी सत्ता का शोषण और फिर पुरुष सत्ता का शोषण। श्यौराज जाति-व्यवस्था के खिलाफ अपने संघर्ष में खुन्नस और कटुता से अलग करुणा का भाव उत्पन्न करते हैं, जो बाद में प्रेम में बदलता हुआ लगता है। वे शहर आकर पढ़-लिखकर सभ्य बनने के बाद उन सबसे मिलते हैं जिन्होंने उन पर या उनकी मां पर अत्याचार किया था। वे जानते हैं कि बदलते युग में मनुष्य को बदलने का यही सबसे अच्छा और लोकतांत्रिक तरीका भी है। वे अपनी पत्नी रजतरानी मीनू और बच्चों अजातिका, पारो के साथ अपनी मां के दूसरे पति यानी उस सौतेले पिता भिकारी लाल के पास भी जाते हैं जिसने उनकी मां और स्वयं श्यौराज पर भीषण अत्याचार किए थे। वही पिता जिसने श्यौराज को स्कूल जाने से रोकने के लिए हर तरह की प्रताड़ना दी थी। अपनी वास्तविकता और अतीत को पूरे साहस के साथ स्वीकार करना, उससे भरसक लड़ना और बदलना लेकिन उसके प्रति किसी तरह की कुंठा का भाव न रखना यही इस आत्मकथा की विशेषता है। जो श्यौराज को जानते हैं वे मानते हैं कि यही उनकी भी विशेषता है। यह स्थिति उनकी पत्नी की उस टिप्पणी से और प्रकट होती है जो उनके बचपन के विविध रूपों को देखकर हतप्रभ हो जाती हैं।

‘मीनू ने उस दिन कहा था-

‘‘अजीब बात है कहीं कोई राजमिस्त्री मिलता है तो कहते हो राजमिस्त्री था। नीबू खरीदने जाओ तो कहते हो मैं भी नीबू बेचा करता था। अखबार डालने वाले को कहते हो कि मैं दूसरी मंजिल पर फेंक नहीं पाता था। होटल में खाना खाने गए तो कहा कि मैं वहां बर्तन साफ करता था। गांव गए तो बताने लगे कि प्रेमपाल सिंह यादव का हल जोतता था। अब मोची मिला तो कहते हो कि जाना पहचाना लगता है। क्या-क्या करते थे तुम शादी से पहले? ’’

यह आत्मकथा है कोई उपन्यास नहीं। पर किसी उपन्यास से ज्यादा रोचक है और जो चीजें हमारी कल्पनाओं से ओझल हो गई थीं वे साझात सामने खड़ी हो जाती हैं। हो सकता है मीनू की तरह ही या पूर्वाग्रह के वशीभूत होकर कोई इनके होने पर संदेह भी करे, पर श्यौराज की विश्वसनीयता ऐसे किसी संदेह को खारिज करने के लिए काफी है।

डॉ धर्मवीर मानते हैं कि इस आत्मकथा पर गालिब का वह शेर खूब फबता है-

‘रंज से खूंगर हुआ इंसा तो मिट जाता है रंज,

मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसां हो गईं।’

श्यौराज चाहते हैं कि उनकी आत्मकथा को अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की आत्मकथा ‘पिता से मिले सपने’ के साथ रखकर देखा जाए। डॉ धर्मवीर इसे मराठी क्या हिंदी में आई तमाम आत्मकथाओं से श्रेष्ठ बताते हैं। इस टिप्पणीकार ने भी ऐसी आत्मकथा आज तक नहीं पढ़ी है। इसमें युद्ध भी है और साहित्यिक सौंदर्य भी। श्यौराज की यह आत्मकथा निश्चित तौर पर श्रेष्ठ है और यह न सिर्फ हमें करुणा से भर देती है, कई जगहों पर मनोरंजन भी करती है, बल्कि हमें हमारे समाज को बदलने के लिए जगाती भी है। यह एक समाजशात्रीय दस्तावेज है जिसके हर सफे पर बहस और कार्रवाई होनी चाहिए। श्यौराज नाहक ओबामा से तुलना में फंसे हैं मुझे तो उनकी आत्मकथा ओबामा से कहीं ज्यादा बांधती है।

लेकिन हमारे सवर्ण मित्रों को यह बात आसानी से नहीं समझ में आएगी कि श्यौराज ने अपना भविष्य किसी ज्योतिष के आधार पर नहीं इस अन्यायी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करते हुए लिखा है। वे अपने जैसे तमाम लोगों के आगे बढ़ने के लिए एक प्रेरणा बने हैं।

नियति में फंसे होते तो आज वे पीएचडी और डीलिट कर दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ा नहीं रहे होते, न ही अंधविश्वास और अन्याय के खिलाफ संघर्ष के लिए ललकार रहे होते।

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