मेरी आत्मकथा / अध्याय 13 / चार्ली चैप्लिन / सूरज प्रकाश

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म्यूचुअल कांट्रैक्ट के खत्म होने के बाद मेरी बहुत इच्छा थी कि मैं फर्स्ट नेशनल शुरू करूं लेकिन हमारे पास कोई स्टूडियो नहीं था। मैंने फैसला किया कि मैं हॉलीवुड में ज़मीन खरीद कर एक स्टूडियो बनवाऊंगा। ये ज़मीन सनसेट और लॉ ब्री के कोने में थी और इसमें बहुत ही शानदार 10 कमरे का घर बना हुआ था और दस एकड़ में नींबू, संतरे और आड़ू के दरख्त थे। हमने हर तरह से चुस्त-दुरुस्त यूनिट बनायी और इसमें डेवलपिंग प्लांट, संपादन कक्ष और दफ्तर बनवाये।

जिस वक्त स्टूडियो बन रहा था, मैं आराम करने के वास्ते एक महीने के लिए एडना पुर्विएंस के साथ होनोलुलु की सैर पर निकल गया। उन दिनों हवाई बेहद खूबसूरत द्वीप हुआ करता था। फिर भी, मुख्य धरती से दो हज़ार मील दूर बेपनाह खूबसूरती, उसके चीड़ के दरख्तों, गन्ने, मस्त करने देने वाले फलों और फूलों के बावजूद वहां रहने के ख्याल मात्र से मेरा दिल डूबा जा रहा था। मुझे ऐसे लग रहा था मानों किसी तंग जगह में फंस गया हूं, जैसे किसी लिली के फूल में कैद कर लिया गया हूं। मैं वापिस आने के लिए बेचैन था।

इसमें कोई शक नहीं था कि एडना पूर्विएंस जैसी खूबसूरत ल़ड़की की मौजूदगी मेरे दिल को अपनी गिरफ्त में न ले लेती। जब हम पहली बार लॉस एजेंल्स में काम करने के लिए आये तो एडना ने एथलेटिक क्लब के पास ही एक अपार्टमेंट किराये पर ले लिया और कमोबेश हर रात मैं उसे वहां पर डिनर के लिए ले जाता। हम एक दूसरे के बारे में गम्भीर थे। और मेरे दिमाग में कहीं यह बात भी थी कि किसी दिन हम शादी कर लेंगे लेकिन एडना के बारे में मेरे खुद के कुछ पूर्वाग्रह थे। मैं उसके बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कह सकता था और इसलिए मैं अपने खुद के बारे में भी अनिश्चित था।

1916 में यह हालत हो गयी थी कि हम एक दूजे से जुदा नहीं हो सकते थे। हम तब रेड क्रॉस के और दूसरे हर तरह के मेले-ठेलों में घूमते फिरे। इन भीड़-भरे मेलों में एडना ईर्ष्या से भर उठती और इसे दिखाने का उसका खुद का नाज़ुक और खतरनाक तरीका था। अगर कोई मेरी तरफ कुछ ज्यादा ही ध्यान देने लगता तो एडना गायब हो जाती और मेरे पास तब एक संदेशा आता कि वह बेहोश हो गयी है और मुझे पूछ रही है। मैं उसके पास भागा-भागा जाता और बाकी शाम उसके सिरहाने बिताता। एक ऐसे ही मौके पर एक आकर्षक मोहतरमा ने मेरे सम्मान में एक गार्डन पार्टी दी। मुझे एक सोसाइटी सुंदरी से दूसरी सुंदरी के पास घुमाती फिरी और आखिरकार मुझे एक लता मंडप के भीतर ले गयी। एक बार फिर संदेशा आया कि एडना बेहोश हो गयी है। हालांकि मैं इस बात से फूला नहीं समाता था कि जब भी वह खूबसूरत लड़की बेहोश होती थी, हमेशा मुझे ही पूछती थी। लेकिन उसकी ये आदत अब कोफ्त में डालने लगी थी।

इसकी अंतिम परिणति फेनी वार्ड की पार्टी में हुई जहां कई हसीनाएं और सुदर्शन युवक बहुत बड़ी संख्या में मौजूद थे। एक बार फिर एडना बेहोश हो गयी। लेकिन इस बार जब वह बेहोश हुई तो उसने पैरामाउंट के लम्बे, आकर्षक हीरो थॉमस मीघन को बुलवाया। उस वक्त मैं इस सब के बारे में कुछ भी नहीं जानता था। ये तो अगले दिन फेनी वार्ड ने ही मुझे सब कुछ बताया। एडना के लिए मेरी भावनाओं को जानने की वजह से वह नहीं चाहती थी कि इस तरह से मुझे बेवकूफ बनाया जाये।

मैं इस पर विश्वास ही न कर सका। मेरे आत्म सम्मान को ठेस लगी थी। मैं गुस्से से आग बबूला हो रहा था। अगर इसमें सच्चाई होगी तो ये हमारे संबंधों पर विराम होगा। लेकिन इसके बावज़ूद मैं उसे इतनी आसानी से नहीं छोड़ सका। उसके जाने से जो खालीपन आता, वह बहुत ज्यादा होता। जो कुछ हम दोनों के बीच घटा था, उन सबके ख्याल मुझे सताने लगे।

इस घटना के अगले दिन मैं काम ही न कर सका। दोपहर के वक्त उससे सफाई मांगने के इरादे से मैंने उसे फोन किया। मैं ऐसा जताने लगा मानो मैं बेहद गुस्से में हूं, लेकिन इसके बजाये मेरे अहं ने बाजी मार ली और मैं ताने मारता जैसा लगा। यहां तक कि मैंने मामले के बारे में एकाध मज़ाक भी कर दिया,"मेरा ख्याल है कि फेनी वार्ड की पार्टी में तुमने गलत आदमी को बुलवा लिया था - लगता है तुम्हारी याददाश्त कमज़ोर हो रही है।"

वह हँसी और मैंने परेशानी का हल्का-सा झटका महसूस किया।

"आप किस बारे में बात कर रहे हैं?" कहा उसने।

मैं तो यही उम्मीद कर रहा था कि वह एक सिरे से ही मुकर जायेगी लेकिन उसने चालाकी से काम लिया। उसने उलटे मुझसे ही सवाल कर डाला कि कौन है वो जो मुझे इस तरह की बेसिर-पैर की बातें बताता रहता है।

"इससे क्या फर्क पड़ता है कि मुझे किसने बताया। लेकिन मेरा ख्याल है कि मैं तुम्हारे लिए ज्यादा मायने रखता हूं बजाये इसके कि तुम सरे आम मुझे मूरख बनाती फिरो।"

वह बेहद शांत रही और यही कहती रही कि मैं आजकल इधर-उधर की बातों पर कुछ ज्यादा ही ध्यान दे रहा हूं।

मैं उसकी तरफ उदासीनता दिखा कर उसे चोट पहुंचाना चाहता था,"तुम्हें मेरे सामने ज्यादा बनने की ज़रूरत नहीं है," कहा मैंने,"तुम कुछ भी करने के लिए आज़ाद हो। तुम मेरी ब्याहता तो हो नहीं। जब तक तुम अपने काम के प्रति ईमानदार हो, वही मेरे लिए मायने रखता है।"

इस सब के प्रति एडना पूरी तरह से सहमत थी और हमारे एक साथ काम करने पर उसे कोई एतराज़ नहीं था। उसने कहा कि हम हमेशा ही अच्छे दोस्त बने रह सकते हैं। और इस बात ने मुझे पहले से भी ज्यादा बेचारा बना दिया।

मैं नर्वस और हैरान-परेशान फोन पर एक घंटे तक बात करता रहा और समझौता करने के लिए कोई बहाना तलाशता रहा। जैसा कि इस तरह की परिस्थितियों में आम तौर पर होता है, मैं उसमें नये सिरे से और ज्यादा शिद्दत से रुचि लेने लगा। और जब बातचीत खत्म हुई तो मैं उससे पूछ रहा था कि क्या शाम को वह मेरे साथ डिनर पर चलेगी ताकि हम मामले पर और बात कर सकें।

वह हिचकिचायी लेकिन मैं ही अड़ा रहा। सच तो ये है कि मैं गिड़गिड़ा रहा था और मिन्नतें कर रहा था। उस समय मेरा सारा आत्म सम्मान और मेरे सारे तर्क पता नहीं कहां चले गये थे। आखिरकार वह मान गयी। उस रात हम दोनों ने हैम और अंडों का डिनर लिया जोकि उसने अपने अपार्टमेंट में तैयार किया था।

हम दोनों में एक तरह का समझौता-सा हो गया था और अब मैं कम परेशान था। कम से कम इतना तो था ही कि मैं अगले दिन काम कर पाया। इसके बावजूद हताशा से उपजे गुस्से का और आत्म ग्लानि का तंज बाकी था। मुझे अपने आप पर ग्लानि हो रही थी कि मैं ही क्यों बीच-बीच में उसकी उपेक्षा करने लगता था। मैं गहरे असमंजस में था। क्या मैं उससे पूरी तरह से नाता तोड़ दूं या न तोड़ूं। शायद मीघम के बारे में जो किस्सा बताया गया था, वह सच नहीं था।

लगभग तीन सप्ताह के बाद वह स्टूडियो में अपना चेक लेने के लिए आयी। जिस समय वह वापिस जा रही थी तभी मैं रास्ते में उससे टकरा गया। वह अपने किसी दोस्त के साथ थी। "आप जानते हैं टॉमी मीघम को?" उसने सौम्यता से पूछा। मुझे हल्का-सा झटका लगा। उस नन्हें से पल में एडना अजनबी बन गयी मानो मैं उससे पहली बार मिल रहा होऊं।

"बेशक," मैंने कहा।

"कैसे हो टॉमी?" वह थोड़ा-सा परेशानी में पड़ गया। हमने हाथ मिलाये और उसके बाद हमने एकाध सुख-दुख की बातें कीं और वे दोनों एक साथ स्टूडियो से चले गये।

अलबत्ता, ज़िंदगी संघर्ष का ही दूसरा नाम है जो हमें बहुत कम परिणाम देती है। अगर ये समस्या प्रेम की नहीं होती तो किसी और चीज़ की होती है। सफलता हैरान करने वाली थी लेकिन उसके साथ ही सफलता नाम के इस शिशु के साथ गति बनाये रखने की कोशिश करने का तनाव भी जुड़ा हुआ था। इसके बावजूद मेरी सान्त्वना मेरे काम में ही थी।

लेकिन बरस-भर में बावन हफ्ते तक लेखन करने, अभिनय करने और निर्देशन करने का काम थका देने वाला था। इसके लिए नसों को तोड़ कर रख देने वाली बेइन्तहां ऊर्जा की ज़रूरत थी। एक फिल्म के पूरा होते ही मैं गहरे अवसाद और थकान से घिर जाता। और नतीजा ये होता कि मुझे एकाध दिन के लिए बिस्तर के हवाले हो जाना पड़ जाता।

शाम के वक्त मैं उठता और शांत चहल कदमी के लिए निकल जाता। मैं तन्हा-तन्हा और उदास महसूस करते हुए शहर में मारा-मारा फिरता, दुकानों की खिड़कियों में सूनी-सूनी आंखों से देखता रहता। मैं ऐसे मौकों पर कभी भी कुछ सोचने की कोशिश न करता। मेरा दिमाग सुन्न पड़ जाता। लेकिन मैं जल्दी ही ठीक भी हो जाता। आम तौर पर अगली सुबह गाड़ी में स्टूडियो की तरफ आते हुए मेरी उत्तेजना लौट चुकी होती और मेरा दिमाग फिर से तेज़ी से काम करना शुरू कर देता।

सिर्फ़ एक ख्याल मात्र आ जाने से भी मैं सेट बनाने का ऑर्डर दे देता और जब तक सेट बन रहे होते, कला निर्देशक मेरे पास ब्यौरे लेने के लिए आ जाता। मैं उस वक्त यूं ही कुछ भी हांक देता और इस तरह के ब्यौरे देने लगता कि मुझे दरवाजे कहां पर चाहिये और मेहराब कहां चाहिये। इस तरह की बेहद हताशा के आलम में मैंने कई कॉमेडी शुरू कीं।

कई बार मेरा दिमाग बुनी हुई रस्सी की तरह कड़ा पड़ जाता और तब उसे ढीला करने के लिए किसी उपाय की ज़रूरत पड़ती। ऐसे मौकों पर रात बाहर गुज़ारना राहत का काम करता। शराब के नशे से नसें ढीली करना मुझे कभी भी नहीं रास नहीं आया। दरअसल, काम करते समय ये मेरा अंधविश्वास सा था कि किसी भी किस्म का नशा व्यक्ति की कुशाग्रता को प्रभावित करता है। किसी कॉमेडी को सोचने और उसे निर्देशित करने से ज्यादा दिमाग की सतर्कता किसी और काम में ज़रूरी नहीं होती।

जहां तक सेक्स का सवाल है, इसका ज्यादातर हिस्सा तो मेरे काम में ही चला जाता था। और कभी सैक्स अपना शानदार सिर उठाता भी तो मेरी ज़िंदगी इतनी अनियमित थी कि या तो मुझे बाज़ार में ही मुंह मारना पड़ता या फिर सैक्स का घनघोर अकाल होता। अलबत्ता, मैं पक्का अनुशासन पसंद व्यक्ति था और अपने काम को गम्भीरता से लेता। बालज़ाक की तरह, जो यह मानता था कि सैक्स वाली एक रात का मतलब होता है कि आपके उपन्यास का एक अच्छा पन्ना कम होगा, इसी तरह मैं भी विश्वास करता था कि सैक्स का मतलब स्टूडियो में एक अच्छे-भले दिन के काम का कबाड़ा।

एक सुविख्यात महिला उपन्यासकार को जब पता चला कि मैं अपनी आत्म कथा लिख रहा हूं तो उसने कहा, "मेरा विश्वास है कि आप में सच बताने का साहस तो होगा ही।" मैंने सोचा कि वह राजनैतिक रूप से कह रही है लेकिन वह तो मेरे सैक्स जीवन की बात कर रही थी। मेरा ख्याल है कि आत्म कथा में व्यक्ति से ये उम्मीद की जाती है कि वह अपनी ऐन्द्रिकता पर पूरा शोध प्रबंध ही लिख डाले। हालांकि मैं ये नहीं जानता कि ऐसा क्यों होता है। मेरे ख्याल से तो सैक्स से चरित्र को समझने में या उसे सामने लाने में शायद ही कोई मदद मिलती हो। फ्रायड की तरह मैं यह नहीं मानता कि सैक्स ही व्यवहार की जटिलता का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण तत्व है।

ठंड, भूख और गरीबी की शर्म से व्यक्ति के मनोविज्ञान पर कहीं अधिक असर पड़ सकता है।

हर दूसरे व्यक्ति की तरह मेरे जीवन में भी सैक्स के दौर आते-जाते रहे। कभी-कभी मैं पूर्ण पुरुष होता और कई बार मैं बेहद निराश कर बैठता। लेकिन एक बात थी कि मेरे जीवन में सारी दिलचस्पियों का केन्द्र सैक्स ही नहीं था। मेरे जीवन में सृजनात्मक दिलचस्पियां भी थीं जो मुझे उतना ही उलझाये रहती थीं। लेकिन इस किताब में मेरी ऐसी कोई मंशा नहीं है कि मैं अपने सैक्स के कारनामों का एक-एक करके बखान करूं। मुझे ऐसे वर्णन अकलात्मक, नैदानिक और अकविता जैसे लगते हैं। हां, जो परिस्थितियां आपको सैक्स की तरफ ले जाती हैं, वे मुझे ज्यादा रोमांचक लगती हैं।

इसी विषय के प्रसंग के अनुकूल, जब मैं न्यू यार्क से लॉस एंजेल्स वापिस लौटा तो एलेक्जेंड्रा होटल में पहली ही रात मेरे साथ एक बहुत ही शानदार वाक्या घटा। मैं कमरे में जल्दी ही लौट आया था और हाल ही के न्यू यार्क के एक गाने की धुन गुनगुनाते हुए कपड़े उतार रहा था। ख्यालों में खोया हुआ बीच-बीच में मैं रुक जाता। और जब मैं रुकता तो साथ वाले कमरे से एक महिला स्वर उस धुन को वहीं से उठा लेता जहां मैंने उसे छोड़ा होता। और तब मैं उस धुन को वहां से उठाता जहां उसने छोड़ा होता। और इस तरह से ये एक मज़ाक बन गया। और आखिरकार हमने उस धुन को इस तरह से समाप्त किया। क्या मैं उससे परिचय पाऊं? इसमें जोखिम था। इसके अलावा मुझे रत्ती भर भी ख्याल नहीं था कि वह देखने में कैसी होगी? मैंने एक बार फिर धुन बजायी तो फिर से वही हुआ। उस तरफ से भी धुन को आगे बढ़ाया गया।

"हा हा हा। क्या मज़ेदार किस्सा हो गया ये तो!" मैं हँसा और अपनी आवाज़ में इस तरह का उतार-चढ़ाव रखा कि ऐसा लगे कि मैं खुद से बात कर रहा हूं और ऐसा भी लगे कि उससे मुखातिब हूं।

दूसरी तरफ से आवाज आयी, "माफ कीजिये, कुछ कहा आपने?"

तब मैं चाभी की झिर्री में से फुसफुसाया,"मेरा ख्याल है आप हाल ही में न्यू यार्क से लौटी हैं!"

"मैं आपकी आवाज नहीं सुन पा रही हूं!" वह बोली।

"तब तो ज़रा दरवाजा खोलिये।" मैंने जवाब दिया।

"मैं ज़रा-सा दरवाजा खोलूंगी लेकिन खबरदार जो अंदर आने की ज़ुर्रत की।"

"वादा करता हूं।"

उसने चार इंच के करीब दरवाजा खोला और मेरे सामने एक बेहद खूबसूरत लाल बालों वाली नवयौवना लड़की खड़ी थी। मुझे नहीं पता कि उसने ठीक-ठीक किस तरह के कपड़े पहने हुए थे लेकिन उसने ऊपर से नीचे तक रेशमी ढीला ढाला सा गाउन पहना हुआ था और उसका जो असर हुआ, वह एकदम स्वप्निल था।

"अंदर मत आना, नहीं तो मैं आपकी पिटाई कर दूंगी," उसने बेहद आकर्षण के साथ कहा। वह अपनी प्यारी दंत पंक्ति झलका रही थी।

"आप कैसी हैं?" मैं फुसफुसाया और अपना परिचय दिया। वह पहले ही से जानती थी कि मैं कौन हूं और उसे पता था कि मैं उसके साथ वाले कमरे में ठहरा हुआ हूं।

बाद में उसने उस रात बताया कि किसी भी हालत में मैं सार्वजनिक रूप से उसे पहचानूंगा नहीं। यहां तक कि अगर हम होटल के गलियारे में एक-दूसरे के पास से गुज़रें भी तो मैं उसकी तरफ देख कर सिर न हिलाऊं। उसने अपने बारे में बस, सिर्फ यही बताया था।

दूसरी रात भी जब मैं अपने कमरे में लौटा तो उसने नि:संकोच मेरा दरवाजा खटखटाया और हम एक बार फिर रूमानी और जिस्मानी रिश्ते में बंध गये।

तीसरी रात मुझे कुछ-कुछ ऊब-सी होने लगी थी। इसके अलावा, मेरे पास सोचने के लिए कैरियर और काम थे। इसलिए चौथी रात मैं दबे पांव अपने कमरे में आया और ये सोचता रहा कि उसे मेरे आने के बारे में पता नहीं चलेगा। मैं उम्मीद कर रहा था कि उसे पता भी नहीं चलेगा और मैं अपने बिस्तर में घुस जाऊंगा लेकिन उसे मेरे आने की खबर मिल गयी थी। उसने दरवाजा खटखटाना शुरू कर दिया। इस बार मैंने उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया और सीधे ही सोने के लिए बिस्तर में घुस गया। अगले दिन जब वह होटल के गलियारे में मेरे पास से गुज़री तो उसकी आंखों में बरफ का-सा ठंडा परिचय था।

अगली रात उसने दरवाजा तो नहीं खटखटाया लेकिन मेरे दरवाजे के हैंडल के घूमने की आवाज़ आयी और मैंने दरवाजे की घुंडी घूमते हुए देखी। हालांकि मैंने अपनी तरफ से दरवाजे को अंदर से बंद कर रखा था। उसने बेरहमी से दरवाजे का हैंडल घुमाया और फिर ज़ोर-ज़ोर से दरवाजा पीटने लगी।

अगली सुबह मैंने यही बेहतर समझा कि होटल से ही बोरिया-बिस्तर बांध लिया जाये। और मैं एक बार फिर एथलेटिक क्लब के क्वार्टर्स में आ गया।

मेरे स्टूडियो में बनी मेरी पहली फिल्म थी ए डॉग्स लाइफ। कहानी में थोड़ा-बहुत व्यंग्य का पुट था और उसमें एक ट्रैम्प की जिंदगी की तुलना कुत्ते की ज़िंदगी से की गयी थी। यह प्रधान कथा वस्तु ही वह ढांचा था जिस पर मैंने छोटे-मोटे हँसी के पल और प्रहसन के रूप में हास्य पैदा किये थे। मैं एक विधिवत ढांचे की शक्ल देते हुए कॉमेडी बनाने की सोच रहा था और इसलिए उसके ढांचागत स्वरूप के बारे में बहुत सतर्क हो गया था। प्रत्येक दृश्य से अगले दृश्य का आभास हो जाता था और इस तरह से एक पूरी कड़ी एक दूजे से जुड़ती चलती थी।

पहले दृश्य में दिखाया गया था कि कुछ कुत्ते झगड़ रहे हैं और उनमें से एक कुत्ते को बचाया जाता है। दूसरे दृश्य में एक डाँस हॉल में एक ऐसी लड़की की रक्षा करते हुए दिखाया गया था जो कि कुत्ते का-सा जीवन जी रही थी। इस तरह के बहुत सारे दृश्य थे जो आपस में मिल कर घटनाओं को एक तर्क संगत परिणति में पहुंचाते थे। हालांकि देखने में ये दृश्य एक दम सीधे-सादे और स्पष्ट से जान पड़ते थे लेकिन इनके पीछे गहरी सोच और खोज लगी हुई थी। अगर हँसी की कोई बात घटनाओं के तर्क में आड़े आती थी तो मैं उसे इस्तेमाल नहीं करता था बेशक वह कितनी भी मज़ाकिया क्यों न हो।

कीस्टोन के दिनों में मेरा ट्रैम्प ज्यादा आज़ाद हुआ करता था और प्लॉट से बंधा हुआ नहीं होता था। उस वक्त उसका दिमाग शायद ही कभी इस्तेमाल में आता हो। केवल उसके मूल भाव ही होते थे जो मूल ज़रूरतों, खाने, गर्मी और सोने की जगह से ही ताल्लुक रखते थे। लेकिन आगे बढ़ती हरेक कॉमेडी के साथ ट्रैम्प और अधिक जटिल होता चला जा रहा था। अब संवेदनाएं उसके चरित्र में से निथर कर आने लगी थीं। ये मेरे लिए समस्या बन गयी थी क्योंकि वह प्रहसन की सीमाओं से बंधा हुआ था। ये बात कुछ बड़बोलापन लग सकती है लेकिन प्रहसन के लिए एकदम सही मनोविज्ञान की ज़रूरत होती है।

इसका समाधान तब मिला जब मैंने ट्रैम्प को एक तरह के भाँड़ के रूप में सोचा। इस संकल्पना के साथ अब मेरे पास अभिव्यक्ति के लिए और ज्यादा आज़ादी थी और मैं अब संवेदनाओं के पिरोते हुए कॉमेडी कर सकता था। लेकिन तार्किक रूप से देखें तो ट्रैम्प में दिलचस्पी रखने वाली कोई खूबसूरत लड़की खोज पाना मुश्किल काम था। मेरी फिल्मों में ये हमेशा की समस्या रही है। द गोल्ड रश में लड़की ट्रैम्प में इस रूप में दिलचस्पी लेना शुरू करती है कि वह पहले ट्रैम्प पर एक फिकरा कसती है। बाद में वही फिकरा उसे बेचारगी की तरफ ले जाता है और ट्रैम्प इसे उसका प्यार समझ बैठता है। सिटी साइट्स में लड़की अंधी है। इस संबंध में ट्रैम्प लड़की के प्रति तब तक रोमांटिक और शानदार है जब तक उसकी आँखों की रौशनी नहीं लौट आती।

जैसे-जैसे कहानी के गठन में मेरा हाथ साफ होता गया, वैसे-वैसे ही कॉमेडी की मेरी आज़ादी कम होती चली गयी। मेरे एक प्रशंसक ने, जो कीस्टोन के वक्त की मेरी हास्य फिल्मों को हाल ही की हास्य फिल्मों की तुलना में ज्यादा पसंद करता था, लिखा,"उस वक्त जनता आपकी गुलाम थी और इस वक्त आप जनता के गुलाम हैं।"

अपनी शुरुआती हास्य फिल्मों के लिए भी मैं मूड पकड़ने के लिए छटपटाता था और आम तौर पर संगीत ही मुझे राह सुझाता था। मिसेज ग्रुंडी नाम के एक पुराने गाने ने द इमिग्रेंट के लिए मूड तैयार किया। इसकी धुन में गज़ब की नरमी थी और बताती थी कि किस तरह से दो अकेले सड़क छाप एक मनहूस बरसात के दिन शादी करते हैं।

कहानी में दिखाया जाता है कि एक चार्लोट अमेरिका की तरफ जा रहा है। जहाज में वह एक लड़की और उसकी मां से मिलता है जो उसी की तरह फटेहाल हैं। जब वे न्यू यार्क में पहुंचते हैं तो दोनों बिछुड़ जाते हैं। बाद में वह उस लड़की से एक बार फिर मिलता है लेकिन इस बार लड़की अकेली है। और खुद उसकी तरह ज़िंदगी में असफल है। जिस वक्त वे बात करने के लिए बैठते हैं, वह अनजाने में काले कोने वाला रुमाल इस्तेमाल करती है जिससे वह यह संदेशा देती है कि उसकी मां मर चुकी है। और हां, आखिर में वे एक मनहूस बरसात के दिन शादी कर लेते हैं।

छोटी-छोटी, आसान-सी लगने वाली धुनों ने मुझे दूसरी हास्य फिल्मों के लिए छवियां दीं। ट्वेंटी मिनट्स ऑफ लव नाम की एक फिल्म थी। ये पार्कों में, पुलिस वाले और नर्सनुमा नौकरानियों की फालतू की और बेसिर-पैर की लतीफेबाजी से भरी हुई फिल्म थी। इस फिल्म में मैंने 1914 की एक मशहूर दो लाइनों वाली धुन टू मच मस्टर्ड पर परिस्थितियां बुनी थीं। वायोलेट्रा नाम के गीत ने सिटी लाइट्स के लिए मूड बनाने में मदद की थी जबकि गोल्ड रश के लिए मूड ऑल्ड लैंग साइन की मदद से बना था।

बहुत पहले, 1916 में फीचर फिल्मों के लिए मेरे मन में ढेरों ख्यालात थे। एक फिल्म में चंद्रमा का एक दौरा दिखाया जाता जहां पर ओलम्पिक खेलों के हंसी-मज़ाक भरे दृश्य होते और वहां गुरुत्वाकर्षण के नियमों के साथ खिलवाड़ करने की संभावनाओं का पता लगाया जाता। यह प्रगति पर एक तरह का कटाक्ष होता। मैंने खाना खिलाने वाली एक फीडिंग मशीन के बारे में भी सोचा था। एक रेडियोइलैक्ट्रिक हैट का भी ख्याल मेरे मन में था। इस हैट को लगाते ही उसमें व्यक्ति के विचार दर्ज होने शुरू हो जाते। और उस वक्त की मुसीबत के बारे में बताया जाता जब मैं इस हैट को सिर पर पहनता हूं और मेरा परिचय चंद्रमा पर रहने वाले आदमी की बेहद कमनीय बीवी से कराया जाता है। बाद में मैंने इस फीडिंग मशीन को माडर्न टाइम्स में इस्तेमाल किया था।

साक्षात्कार करने वाले मुझसे पूछते हैं कि मुझे अपनी फिल्मों के लिए विचार या आइडिया कहां से मिलता है और मैं आज दिन तक इस बात का कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाया हूं। बरसों के बाद मैंने यही पाया है कि विचार तभी आते हैं जब आप में विचारों के लिए उत्कट इच्छा हो। लगातार इच्छा करते रहने से आपका दिमाग ऐसी घटनाओं की तलाश में भटकने वाला बुर्ज हो जाता है जिनमें आपकी कल्पना को उत्तेजित करने का माद्दा हो। संगीत और सूर्यास्त भी विचारों को अमली जामा पहना सकते हैं।

मैं तो यही कहूंगा कि कोई भी ऐसा विषय लीजिये जो आपको उत्तेजित करे। इसे फैलाइये और इसमें रम जाइये। और अगर आप इसे और आगे नहीं बढ़ा पा रहे हैं तो इसे छोड़ दीजिये और दूसरे विचार पर काम करना शुरू कर दीजिये। जो कुछ आप संजोते हैं, उसमें से उलीचते रहना ही वह प्रक्रिया है जिसमें आपको वह मिल जाता है जो आप खोजना चाहते हैं।

तो आदमी के पास विचार आते कैसे हैं। पागलपन की हद तक जाने के बाद अचानक ही। आदमी में तकलीफ सहने की कूव्वत होनी चाहिये और उत्साह को देर तक बरकरार रखने का माद्दा होना चाहिये। हो सकता है ऐसा कर पाना कुछ व्यक्तियों के लिए दूसरों की तुलना में आसान होता होता हो लेकिन मुझे इसमें शक है।

हां, इसमें कोई शक नहीं कि प्रत्येक संभावनाशील कॉमिक को कॉमेडी के बारे में आध्यात्मिक साधारणीकरण से हो कर गुज़रना पड़ता है। कीस्टोन में जो फिल्में बनती थीं, उनमें हर दूसरे दिन एक जुमला उछाला जाता था कि "आश्चर्य और रहस्य का तत्व होना चाहिये फिल्मों में।"

मैं मानव व्यवहार को समझाने के लिए मनोविश्लेषण की गहराइयों में उतरने की कोशिश नहीं करूंगा जो कि अपने आप ही ज़िंदगी की तरह विवेचना से परे है। सैक्स या बाल सुलभ मतिभ्रंश से भी अधिक। मेरा यह मानना है कि हमारे अधिकांश विचारशील दबाव पूर्वज अनुरूप कारणों से होते हैं। अलबत्ता, मुझे यह जानने के लिए किताबें पढ़ने की ज़रूरत नहीं है कि ज़िदंगी की थीम संघर्ष और तकलीफ है। ये सहज संवेदनाओं का ही कमाल था कि मेरा सारा जोकरपना इन्हीं पर आधारित था। कॉमेडी बुनने के मेरे साधन सरल थे। यह प्रक्रिया थी आदमियों को तकलीफों के भीतर ले जाने की और उससे बाहर ले आने की।

लेकिन हास्य थोड़ा-सा अलग और ज्यादा बारीक होता है। मैक्स ईस्टमैन ने अपनी किताब द सेंस ऑफ ह्यूमर में इसका विश्लेषण किया है। वे इसका निचोड़ इस तरह से निकालते हैं कि ये मानो खिलंदड़े दर्द में से निकाला गया हो। वे लिखते हैं कि आदमी नाम का यह प्राणी आत्मपीड़क होता है और वह दर्द का कई रूपों में आनंद उठाता है। और दर्शक भी वैसे ही दूसरे का चोला धारण करके पीड़ा भोगना पसंद करते हैं जिस तरह से बच्चे खेल-खेल में उठाते हैं। बच्चे खेल-खेल में मारा जाना और मौत की भयावहता से गुज़रना पसंद करते हैं।

मैं इस सब से सहमत हूं। लेकिन ये हास्य के बजाये ड्रामा का ज्यादा विश्लेषण है। हालांकि दोनों देखने में एक जैसे ही लगते हैं लेकिन हास्य के बारे में मेरा विश्लेषण थोड़ा अलग है। जो साधारण व्यवहार लगता है ये उससे मामूली-सा हट कर होता है। दूसरे शब्दों में, हास्य के जरिये जो तार्किक होता है, उसमें हम अतार्किक देखते हैं और जो महत्त्वपूर्ण लगता है उसमें अमहत्त्वपूर्ण देख लेते हैं। ये हमारी जीजिविषा के स्तर को भी ऊपर उठाये रहता है और हमारे होशो-हवास को बचाये रखता है। ये हास्य ही होता है जिसकी वजह से हम ज़िंदगी की बदतमीजियों को देख कर खुशी से बहुत ज्यादा खुश नहीं होते। इससे अनुपात की हमारी सोच को गति मिलती है और ये बात हमारे सामने रखता है कि गम्भीरता से कही गयी किसी बात में भी वाहियातपना छुपा होता है।

मिसाल के तौर पर, किसी व्यक्ति के अंतिम संस्कार का दृश्य है। मित्र और संबंधीगण मृतक की चिता के आस-पास सम्मान से सिर झुकाये जमा हैं। तभी कोई लेट लतीफ ठीक उसी वक्त वहां आ पहुंचता है जब कि प्रार्थनाएं, बस, शुरू होने ही वाली हैं। वह हड़बड़ी में एक खाली सीट की तरफ लपकता है जहां संवेदना प्रकट करने आया कोई व्यक्ति अपना हैट भूल गया है। अपनी हड़बड़ी में लेट लतीफ अचानक उसी हैट के ऊपर जा बैठता है। तब मूक क्षमा याचना के साथ वह मुचड़ा हुआ हैट उस व्यक्ति को सौंपता है। हैट का मालिक मूक गुस्से के साथ हैट ले लेता है और अपना ध्यान प्रार्थनाओं की तरफ लगाये रखता है। और आप देखते हैं कि उस पल की गम्भीरता हास्यास्पद हो गयी है।