मेरे लिये वह गिर्दा नहीं, ठसकदार ‘नानू मम्मा’ था / रमेश चन्द्र मिश्र

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मेरे लिये वह गिर्दा नहीं, ठसकदार ‘नानू मम्मा’ था
लेखक: रमेश चन्द्र मिश्र

‘‘न जाने क्यों, होता है ये जिन्दगी के साथ ? अचानक से मन, किसी के जाने के बाद, करे फिर उसकी याद, छोटी-छोटी सी बात, न जाने क्यों?’’ यह संस्मरण लिखते समय यह गीत बार-बार मेरी चेतना को सहला रहा है। अपना बचपन और अपने मामा का तारुण्य याद आ रहा है। मेरा सबसे छोटा मामा….जिसे हम नानू मम्मा कहते थे। घर में वह सबका भव्वा था। नाम था उसका गिरीश तिवाड़ी…….. बन गया वह जनकवि ‘गिर्दा’।

देखा उसे पहले भी होगा, मगर स्मृति पटल पर पहली छाप तब की है, जब मैं लगभग 5 वर्ष का था और अगले दिन मुझे स्कूल में प्रवेश लेना था। लकड़ी की पाटी में मोसा और घोटा लग चुका था। तागा कमेट में डुबा कर पाटी पर रूल खिंच गये थे। कमेट के डब्बे के ऊपरी सिरे में छेद कर पकड़ने के लिये मोटा डोरा भी बाँध दिया गया था। स्कूल जाते समय मैं रोने लगा। शायद पहली बार माँ से अलग होने से ऐसा हो रहा होगा। तब मेरी माँ ने अपने सबसे छोटे भाई, जो शायद गाँव से उससे मिलने आया था, से मुझे स्कूल छोड़ आने को कहा। जैसा मैं आज याद कर पा रहा हूँ, वह लगभग 15-16 वर्ष की उम्र का एक दर्शनीय किशोर था…..लम्बा कद, गोरा चिट्टा रंग, सुरुचिपूर्ण पहनावा। नानू मम्मा मेरी पाटी और कमेट की दवात उठा, मुझे चूमता पुचकारता स्कूल तक छोड़ गया।

मेरी माँ गिरीश तिवाड़ी की सबसे बड़ी बहन थी, सभी भाई-बहन की ‘ठुलि दी’। मेरी माँ के जन्म के बाद ही मेरी नानी जीवन्ती देवी ने अपनी आँखें खो दी थीं। उन्होंने अपने चार पुत्रों और एक पुत्री का चेहरा नहीं देखा। मेरे नाना हंसादत्त तिवाड़ी सी.पी.डब्ल्यू.डी. में, प्रारम्भ में सिक्किम में कार्यरत थे। उनकी पाँच संतानें वहीं पैदा र्हुइं। सबकी प्रारम्भिक शिक्षा वहीं के विद्यालयों में हुई। कालान्तर में मेरे नाना ने अपना परिवार अपने छोटे भाई बद्रीदत्त तिवाड़ी (वैद्य जी) के संरक्षण में अपने पैतृक गाँव ज्योली (अल्मोड़ा में हवालबाग से ढाई-तीन किमी. दूर) रख दिया। वहाँ विद्यालय न होने से अन्य शिक्षार्थियों की भाँति गिरदा के बड़े भाई भी अल्मोड़ा में पढ़े। गिर्दा के बड़े भाई रजनी कुमार तिवाड़ी बताते थे कि गिर्दा की प्रारम्भिक शिक्षा ज्योली में अपने हुक्का गुड़गुड़ाते चाचा वैद्यजी के साथ शुरू हुई। यह क्रम वर्षों चला। विद्यालय में प्रवेश उसने विलम्ब से ही लिया होगा, इसी वजह से नानू मम्मा अपने सहपाठियों से शारीरिक दृष्टि से भारी पड़ता था। मेरे दो मामा, रजनी कुमार और गिर्दा हमारे यहाँ रह कर ही पढ़ा करते थे। हमारे घर चौधरी खोला में 3-4 वर्ष रह कर ही गिर्दा ने हाईस्कूल पास किया। उन्होंने भले ही इंटरमीडिएट न किया हो, लेकिन ग्यारहवीं में प्रवेश अवश्य लिया था, यह मुझे इस लिये याद है कि घर में मिली एस.एल. लोदी लिखित त्रिकोणमिति की पुस्तक में गिर्दा का नाम लिखा था। मैं उसे हमेशा तू कह कर ही सम्बोधित करता था।

जी.आई.सी. अल्मोड़ा में पढ़ रहे गिर्दा का मन किताबों में कम ही रमता होगा, क्योंकि मेरे पिता सुरेश चन्द्र मिश्र के व्यंग्य बाण मेरी माँ को अपने लाड़ले भाई की खातिर झेलने पड़ते थे। मेरे चाचा घनश्याम बल्लभ जी.आई.सी. में विज्ञान-गणित के अध्यापक थे। नानू मम्मा की परीक्षा की कापियाँ वे माँ के सामने पटकते हुए कहते थे, ‘‘यो छन तुमार भाइक् करतूत।’’

नानू मम्मा को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता था। वह अपने जीजाओं से दूर ही रहता था। सुबह उठते ही वह जाखन देवी स्थित मुछन्दर गुरू की चाय की दुकान पर जा बैठता। जहाँ मुहल्ले के लड़के सुबह का सारा समय चाय पीने, गप्पें लड़ाने और धुआँ उड़ाने में बिताते थे। पढ़ाई के अतिरिक्त उस उम्र के नवयुवक जो कुछ भी करते हैं, उन सब में मम्मा अव्वल था। एक दिन उसके हाथ में एक बड़ी सी पुडि़या थी। हम बच्चे खुश हुए कि मामा मूँगफली खिलायेगा करके। मगर जब उसने पुडि़या खोली तो ‘मोती बिखर गए रंग महल में, चुन रही सखियाँ सारी’ का दृश्य उपस्थित हो गया। रंग-बिरंगे कंचे थे, जो शायद क्लास बंक करके दिन भर में उसने कमाये होंगे। गिल्ली-डंडा खेलने में सुबह से शाम कर देने की क्षमता रखता था नानू मम्मा।

खेल-कूद और गाने-बजाने में उसकी सक्रिय भागीदारी हुआ करती थी। उसके भीतर का कवि हाईस्कूल तक आते जाग चुका था। मैं उसी के साथ सोता था, इसलिये कभी-कभी मुझे भी कुछ सुना देता। कुछ मेरी समझ में आता, कुछ नहीं आता था। जी.आई.सी. में पाठ्य सहगामी क्रियायें साल भर चला करती थीं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में नानू मम्मा की भागीदारी बढ़-चढ़ कर होती थी। संगीत, नाटक के शौक के कारण वह कुछ अध्यापकों का प्रेम भाजन हो गया, जिनमें चारु चन्द्र पाण्डे जी मुख्य हैं। गिर्दा के भीतर छिपे कलाकार, गायक और कवि को सर्वप्रथम उन्हीं ने पहचाना और सराहा। बकौल मम्मा वही उसके साहित्यिक गुरु थे। चारु चन्द्र जी की एक हास्य कविता मैंने उसी की डायरी से पढ़ी थी ‘यार, मेरी पैंट से तेरा पजामा ही भला है।’

शाम का समय गाँव के शांत वातावरण में घर के आँगन के भीड़े पर बैठ कर उसका हारमोनियम बजाना हम बच्चों के लिये कौतुहल का कारण होता था। ऊँचे स्वर में बाजा बजाकर मुझे भी गाने के लिये उकसाना, फिर मेरे गले की फूली नसों को देख कर मजा लेना भी याद आता है। तार सप्तक के स्वरों पर बच्चे की आवाज की लड़खड़ाहट पर उसका अट्टहास गुस्सा भी दिलाता था। एक धुँधली सी याद आ रही है कि वह बाँसुरी भी ठीक ठाक बजा लेता था।

होली मम्मा का प्रिय त्यौहार था। उन दिनों वह अपने गाँव में ही रहता था। गाँव वाले बताते हैं कि धुलंडी का दिन उसके लिये उदासी का होता था। वह रो तक देता था।

उन दिनों गिर्दा एक सुदर्शन और ठाठ-बाट से रहने वाला विद्यार्थी था। एक सम्पन्न घर का सबसे छोटा, सबका लाड़ला बेटा….किसी का कोई अंकुश नहीं। संरक्षक ऐसे चाचा थे, जिनका उसकी पढ़ाई-लिखाई से कोई खास लेना-देना नहीं था। पिता से अबोला था और माँ अंधी। जब 9-10 में पढ़ता था तब 18-20 वर्ष का युवक लगता था। लम्बा-चौड़ा डील-डौल। गबरडीन और सर्ज की सूट पहनने वाला, जो फटे तो मैं माँग कर हरदा टेलर से अपने लिये सिलवा लूँ, ऐसी नीयत मेरी रहती थी। हमारे पिता की आर्थिक स्थिति अपने साले से बेहतर नहीं थी।

केश विन्यास में उसके कम से कम 20 मिनट खर्च होते थे सुबह स्कूल जाने से पहले। बाल पहले पीछे की ओर किये जाते थे। माँग निकलती थी। माँग के दोनों ओर के बालों में 4-5 खम, कंधे के पिछले हिस्से से दबा कर और हथेली का प्रयोग करके दिये जाते थे। जैसे एक पहाड़ी के पीछे चार-पांच और बराबर ऊँचाई की पहाडि़याँ। जूते में पहले पॉलिश हुई फिर कपड़े से जूते की टो रगड़ी गयी। टो पर थूका गया फिर कपड़ा दोनों हाथों में पकड़ कर टो पर रगड़ा गया। फिर मुझ से पूछा जाता था, मिश्री देख तो जूते में तेरी सूरत दिखाई दे रही है या नहीं ?

बाद के सालों में जब वह गिर्दा बन गया तो मैं सोचता कि क्या यह वही नानू मम्मा है ? कुछ भी पहन कर, कंधे में झोला लटकाये कहीं भी नजर आ जाने वाला! बचपन में साबुन से हाथ-मुँह धोये बगैर घर से पाँव न निकालने वाला नानू मम्मा गिर्दा बन कर शायद स्नान भी साल में एक दिन, छलड़ी के दिन ही करता होगा। सामान्यतया वह कभी किसी से नाराज नहीं होता था। मगर यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि वह अपने सीधे-सादे पिता से बचपन में नाराज हुआ तो उनके मरने तक उनसे नहीं बोला। नाराजी शायद इस बात की थी कि बड़े भाइयों को रिस्ट वॉच मिली और उसे नहीं। पिता की मृत्यु से पूर्व वह उनके कमरे में गया, यही संतोष की बात थी परिवार वालों के लिये। पिता की मृत्यु के बाद लिखी गई कविता उसने सभी को सुनाई थी।

‘‘माँ की आँखों के आगे झूली,

तेरी चूड़ी रहित कलाई।’’

उसी दिन नीरज के ‘‘कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे’’ की व्याख्या भी हम लोगों ने सुनी थी।

हाईस्कूल के बाद नानू मम्मा स्कूल छोड़ कर गाँव चला गया। कोई ताकत उसे आगे पढ़ने के लिये मजबूर नहीं कर सकती थी। गाँव में उसने अपने चाचा वैद्य जी के काम में हाथ बँटाना शुरू कर दिया। गाय, भैंसों और खेती-बाड़ी का काम अपने हाथों में ले लिया। हम लोग ननिहाल जाते रहते थे स्कूलों की छुट्टियों में। उस बार गये तो लगा ही नहीं कि छोटा मामा सामने खड़ा है। एक अजीब सी वेशभूषा! पायजामा और लम्बी कमीज, कभी सफेद रही होगी मगर गोबर मिट्टी से सनी थी। चौड़ी मोहरी के पायजामा के फटे पाँयचों को और अधिक फटने से बचाने के लिये उसने एक नायाब तरीका इजाद किया था कि कपड़ा जहाँ पर फटे, वहाँ पर दोनों सिरे पकड़ कर पक्की गाँठ लगा दो…..अब कपड़े को चैलेंज अब फट कर दिखा। पायजामे के दोनों पायचों में बड़ी-बड़ी गाँठें और लम्बी कमीज के सामने भी वही गाँठ कपड़ों में। ज्योली का ‘भव्वा’ गिर्दा बनने की ओर कदम बढ़ा चुका था।

तीन-चार साल गाँव में बिता कर वह आजीविका की खोज में निकल गया। तब से मेरा सम्पर्क उससे नगण्य ही रहा। लोक कलाकार संघ से वह जुड़ चुका था, जब वह हाईस्कूल का छात्र था। पढ़ाई छोड़ने के बाद जिन वर्षों में वह गाँव में रहा, उन दिनों बृजेन्द्र लाल साह जी हवालबाग में कार्यरत थे। संभवतः वहीं दोनों का परिचय हुआ। उसी परिचय से बाद में नानू मम्मा को नैनीताल में ड्रामा एंड सौंग डिवीजन में नौकरी मिली।

नौकरी में आने के बाद सामान्य तौर पर नानू मम्मा नाते रिश्तेदारों से दूर-दूर ही रहा। अगर अल्मोड़ा में हुआ तो भय्या दूज के दिन आशा की जा सकती थी कि शायद वह आये। माँ टीका करती थी तो वह हँस कर कहता- ‘‘दिदी, उधार रै पै शगुन।‘‘ हाँ, अपनी चचेरी बहन चंपा पंत, अर्थात् अपने प्रिय चाचा बद्रीदत्त जी की पुत्री से उसका बहुत लगाव था। हमारी यह मौसी विवाह के लंबे समय के बाद तक मायके में ही रही। घर के सारे काम उसी के जिम्मे थे। मम्मा पढ़ाई छोड़ कर कुछ वर्ष गाँव में ही रहा तो स्नेह की प्रगाढ़ता भी बढ़ी होगी। गाँव में गिर्दा की परवरिश उसी ने की थी। रिश्तेदारों में एक वही थी जिसके घर उसका आना-जाना अंत तक बना रहा।

धर्म-कर्म जैसी बातों के लिये नानू मम्मा के जीवन में कोई स्थान नहीं था। वह अनीश्वरवादी था। किसी के घर भी मंगल कार्यों में जाना पसंद नहीं करता था। गया भी तो गृह स्वामी का मन रखने के लिये पिठ्याँ लगवा तो लेता था मगर थोड़ी ही देर के बाद मुँह पलटकर मिटा भी देता था। कई लोगों को उसका यह व्यवहार नागवार गुजरता होगा।

अपनी माँ की मृत्यु के साल वह एक दिन अल्मोड़ा में मिल गया। उसके मन की एक पर्त उस दिन मेरे सामने खुली। कहने लगा, लाली आज तुझे दूध पिलाने का मन हो रहा है। मेरे लिये यह ताज्जुब की बात थी। मिलते ही बीड़ी पेश करने वाला मामा दूध पिलाने की बात कर रहा था। मैंने सवाल किया तो बोला, लाली, आज माताजी (अपनी माँ को वह माताजी ही कहता था) की याद आ रही है। इस साल मैं दूध नहीं पी सकता, भांजे को पिलाना चाहता हूँ। मृतात्मा की तृप्ति के लिये कुमाऊँ में व्याप्त इस अंधविश्वास को गिर्दा भी नहीं तोड़ पाया। यह घटना मेरे लिये वैसी ही थी कि जहर का प्याला पीने से पहले सिक्रेटीज अपने शिष्य से कहे कि मैंने मन्नत माँगी थी, पूरी नहीं कर पाया। एक मुर्गे की बलि उस देवी के मंदिर में मेरी तरफ से दे देना!

भाव भंगिमा के साथ, मानो नृत्य कर रहा हो, शब्दों के अर्थ खोलने में उसे महारत थी। ‘‘आज पेट अच्छी तरह साफ हुआ,’’ कहते हुए हाथ को ऐसी हरकत देता कि मुझे भी पेट साफ होने से प्राप्त होने वाला सुख मिल जाता। बीड़ी पीने की उसकी आदत से मामी (हीरा तिवाड़ी) परेशान रहती थीं। एक बार उसे हृदयाघात हो चुका था। एक बार अपने घर रानीधारा में मुझे मिल गया कमरे में। मामी कमरे में आयीं। गिर्दा चर्चा में व्यस्त थे और बीड़ी के बंडल की तलाश भी जारी थी, जिसे शायद मामी ने छिपा दिया था। पति-पत्नी में कुछ गुटरगूँ हुई। जैसा मैं सुन पाया वह कुछ इस तरह था- मुझ पर ध्यान न देकर तुम बीड़ी के बंडल के लिये परेशान हो। गिर्दा का जवाब था- जहाँ काम आये सुई क्या करे तलवार ? उसके मजाक भी अद्भुत थे।

गिर्दा के परिवारजन 1971-72 में अपने रानीधारा अल्मोड़ा स्थित नये निवास में गिर्दा की बीमार माताजी को लेकर आये थे और यहीं पर उनका स्वर्गवास हुआ था। फिर कोई गाँव नहीं लौटा। गाँव के उनके मकान का एक पत्थर भी अब शेष नहीं है। मकान के स्थान पर जंगली झाडि़याँ और बिच्छू घास के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचा है। आँगन में एक बड़ा आम का पेड़ अभी है। अब उस घर के किसी सदस्य की गाँव वापस जाने की कोई संभावना भी नहीं है। काश, वहाँ पर कोई स्मारक बन जाता!

नैतीताल समाचार से साभार