युनाइटेड पार्टी और नकली किसान-सभा / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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युनाइटेड पार्टी और नकली किसान-सभा

इस प्रकार मैंने जो पहले ही संकल्प कर लिया था वह ज्यों का त्यों बना रहा। लाख कोशिश होने पर भी मैं कांग्रेस में या उसकी लड़ाई में सन 1932 ई. में शामिल न हुआ। मगर जो तूफान था और जनता के जोश को ठंडा करने के लिए आर्डिनेन्स राज्य के जरिए सरकार ने जो आतंक कायम कर रखा था वह वर्णनातीत था। लाठीचार्ज, गोली कांड, जेल, जायदाद की जब्ती और जुर्माने आदि के जरिये सरकार ने इस बार आंदोलन को दबाया ही आखिर। फलत: सन 1930 ई. वाला रंग न रहा। बेशक इस बार जो प्रोग्राम एके बाद दीगरे लड़ाई के लिए आते गए वह शुध्द राजनीतिक थे। युक्त प्रांत की लगान बंदी और बिहार में चौकीदारी टैक्स का जहाँ-तहाँ बंद किया जाना, नमक बनाने जैसी अराजनीतिक चीज थोड़े ही थी। रेलगाड़ियों की जंजीर खींचकर उन्हें रोक देना तो और भी उग्र चीज थी। सारांश आंदोलन गहराई में पहुँच रहा था। उसी के साथ दमन भी भीषण रूप धरण कर रहा था।

ऐसी हालत में सत्य की बात कहाँ तक निभ सकती थी और अहिंसा भी कहाँ तक चल सकती थी? यह ठीक है कि हिंसा का बाहरी रूप असंभव और घातक था। मगर भीतर से दबाव डाल के करवाना और धमकी आदि से काम लेना जरूरी हो गया। अगर सरकार अधीर एवं उतावली (desperate) थी तो नेताओं और कार्यकर्ताओं का भी वैसा ही हो जाना स्वाभाविक था। इसलिए छिपकर काम होने लगा। विलायती कपड़े पर शराब डालकर पहनना तथा इस प्रकार डाक ले जाने में सुविधा प्राप्त करना आम बात थी। इसी प्रकार चोरी-चोरी सभी काम होने लगे। यह बात अनिवार्य थी। जब आजादी की लड़ाई गहराई में पहुँचती है तो ऐसा होता ही है। यह बात गाँधीजी को भी मालूम होती रही। सत्याग्रह स्थगित करने में यह भी एक कारण उन्होंने बताया था।

खैर, मैं लड़ाई में तो शामिल न हुआ। मगर उसका परिणाम भी दूसरे रूप में अच्छा ही होनेवाला था। जब बिहार की सरकार ने देखा कि कांग्रेस इसमें फँसी है और प्राय: सभी नेता जेलों में बंद हैं तो उसने एक चाल चली। उसने अपने दोस्त जमींदारों की पीठ ठोंक के खड़ा किया कि यही मौका है, बिहार प्रांत में अपना नेतृत्व और अपनी धाक जमा ले। मैदान खाली है। इसलिए एक नई पार्टी बनाकर उसके द्वारा अपना प्रभुत्व कायम करें। पटने में तो सलाह हुई ही। मगर जाड़ा आते-न-आते राँची में भी सभी बड़े जमींदार और सरकार के पिट्ठू जमा हुए। वहीं गवर्नर से गुपचुप सलाह-मशविरा कर के 'युनाइटेड पार्टी' (संयुक्त दल) की स्थापना की घोषण की गई। यह प्रचार किया गया कि इस पार्टी में जमींदार, किसान, पूँजीपति, मजदूर,हिंदू, मुस्लिम, ईसाई सभी शामिल हैं। इसीलिए यही तो असली संयुक्त दल है। सीधा मतलब इसका यह था कि कांग्रेस को भी नीचा दिखाया जाय। जहाँ-तहाँ इसके लेक्चर भी हुए और समाचार-पत्रों आदि के द्वारा खूब ढिंढोरा भी पीटा गया।

मगर इतने से ही तो कुछ होने-जाने का था नहीं। पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए कोई आधार और जरिया भी तो होना चाहिए। फिर सोचा गया कि सिवाय टेनेन्सी (काश्तकारी) कानून के संशोधान के और हो क्या सकता है? यह झमेला बहुत दिनों से चलता था कि किसानों को पेड़ों में हक मिले या नहीं, जमीन की खरीद-बिक्री वे बेरोकटोक करें या नहीं,ईंट, खपड़ा, कुआँ,तालाब और पक्का मकान अपनी कायमी जमीन में बनावें या नहीं। जमींदार भी चाहते थे कि सर्टिफिकेट का हक उन्हें आसानी से मिले, सलामी काफी पाएँ और जोत जमीन का दस प्रतिशत तक जीरात बना सकें। ये और इसी प्रकार की बातें किसान जमींदार समस्या को सदा पेचीदा बनाए रहती थी। यारों ने सोचा कि यही मौका है, किसानों को थोड़ी-बहुत ये चीजें देकर अपनी जड़ मजबूत कर लें, खास कर जीरात और सर्टिफिकेट के बारे में।

मौजूदा कानून के अनुसार जमींदार की जीरात, जिसे कामत और सीर भी कहते हैं, एक इंच भी बढ़ नहीं सकती थी। जो पहले थी, वही रह सकती है। सर्टिफिकेट का अधिकार कहने को तो था मगर मिलता न था। उसके लिए जो दिक्कतें थीं, उन्हें दूर करना जमींदारों के लिए जरूरी था। ऐसा होने पर, बकाया लगान की नालिश करने की जरूरत रही न जायगी। बेखटके वसूली हो जायगी। इसके लिए किसानों को कायमी जमीन में मकान,ईंट, खपड़ा वगैरह बनाने का हक कुछ शर्तों के साथ देने, पेड़ों और बाँसों में भी कुछ ऐसा ही करने और एक मुकर्रर सलामी देने पर जमीन की खरीद-बिक्री का हक स्वीकार कर लेने में भी कोई हर्ज नहीं, ऐसा उन्होंने तय किया। ये अधिकार देने में कुछ-न-कुछ कानूनी दाँव-पेंच तो रखे ही जाते। कान छेदने के समय जब बच्चे रोते हैं और छटपट कर के छेदने नहीं देते तो गुड़ या मिठाई के बहाने वे शांत किए जाते हैं। वही चाल यहाँ भी चलने के लिए सोचा गया।

मगर, आखिर यह हो कैसे? सोचा गया, कांग्रेस ने तो संशोधान का विरोध किया था। किसान-सभा का तो कहना ही क्या?लेकिन कांग्रेस तो लड़ाई में फँसी है। फलत: वह तो कुछ कर सकती नहीं। वह किसान-सभा भी तो इस समय खटाई में पड़ी है। उसका काम बंद है। उसका सभापति इन कामों से विरागी हो रहा है। ऐसी दशा में जो उसके एकाध और आदमी हैं उन्हें मिलाकर एक नकली (bogus) किसान-सभा खड़ी की जाय। फिर जो बिल युनाइटेड पार्टी के नाम से जमींदार तैयार करें उस पर उसी बनावटी किसान-सभा और उसके स्वयंभू लीडरों की मुहर दिला कर उसे ही कौंसिल में पास कर लिया जाय। कौंसिल में कांग्रेस पार्टी के न रहने से जैसा भी बिल चाहेंगे पास कर ही लेंगे। इस प्रकार जमींदारों और सरकार के दोस्तों का काम भी बन आयगा और यह ढिंढोरा भी चारों तरफ पिट जायगा कि किसानों को जो हक कांग्रेस और पुरानी किसान-सभा न दिला सकी उसे ही युनाइटेड पार्टी ने इस नई किसान-सभा और उसके नेताओं की सहायता से दे दिया। इसका अनिवार्य परिणाम यही होगा कि यूनाइटेड पार्टी और उसकी पुछल्ला यह नकली किसान-सभा, ये दोनों ही, किसानों में प्रिय बनजाएँगी। बस, यही तो चाहिए। इतने से ही तो काम बन जायगा।

इसके बाद उन लोगों ने─जमींदारों और उनके सलाहकारों ने दो काम किए। एक तो किसानों के नाम पर कभी-कभी कौंसिल में बोलकर सस्ती किसान लीडरी का सेहरा अपने सिर बाँधनेवाले श्री शिवशंकर झा, जो पहले भी करते थे और आज भी जमींदारों की सहायता और मैनेजरी करते हैं को, और बाबू गुरुसहाय लाल, जो हमारी सभा के सहायक मंत्रियों में एक थे को,युनाइटेड पार्टी का मेंबर बना लिया। गो यह बात छिपाई गई। क्योंकि इससे किसान और दूसरे लोग भड़क जाते। दूसरे उन्हें और खासकर श्री गुरुसहाय बाबू को उकसाकर तैयार किया गया कि चटपट एक नकली किसान-सभा बना डालें। बाद में उसी की ओर से बिहार के किसानों के नाम पर जमींदारों से टेनेन्सी कानून के बारे में समझौता करने का ढोंग रचकर युनाइटेड पार्टी का मनोरथ पूरा करें। जहाँ तक याद पड़ता है सन 1933 ई. के शुरू में ही बनावटी सभा खड़ी की गई।

आगे बढ़ने के पहले प्रसंगवश एक बात कह देना जरूरी है। सन 1931 ई. में पहला सत्याग्रह स्थगित होने के बाद जब कांग्रेस की तरफ से पटना एवं गया में किसानों की तकलीफों की जाँच हुई तो उस समय कुछ नए लोग, जिनका कांग्रेस से संबंध था और पीछे तो सोशलिस्ट बनने का भी दावा करने लगे थे, किसान सेवक बन बैठे। ये लोग किसान-सभा चलाने के स्वप्न भी देखने लगे थे। उनकी हरकतें यों तो बाहर खुली तौर पर मालूम न हुईं। फिर भी इधर-उधर की बातों से उनकी इस दिली अरमान और तमन्ना का पता लगता रहता था। उनमें कुछ ने एकाध बार मुझसे भी शिष्टाचार के नाते कहा कि हमारा पथ प्रदर्शन करें। श्री अंबिकाकांत सिन्हा ने तो यह भी कहा कि हमें जमींदार फुसला लेंगे। इसलिए हमें रास्ता बताते चलिए। मैं तो खूब समझता था कि उनके कथन का क्या मतलब है और वे कहाँ तक किसानों की सेवा कर सकते हैं। फिर भी मैंने उसमें पड़ने से साफ इनकार किया। उन्हीं की तरह एक और भी सज्जन, श्री देवकी प्रसाद सिन्हा किसान नेता होने का सपना देखते थे। कभी-कभी वह भी किसानों की भाषा बोल चुके थे। वकील तो थे ही। बस, नए सिरे से सेहरा बाँधने के लिए इतना ही पर्याप्त था।

जमींदार तो इस ताक में थे ही कि कुछ लोग मिल जाएँ जिससे बिहार प्रांतीय किसान-सभा के नाम पर आसानी से धोखे की टट्टी खड़ी की जा सके। उनके लिए ये दोनों सिन्हा और गुरुसहाय बाबू पर्याप्त थे। उनने इनकी पीठ ठोंक दी। इन्हें पैसे भी दिए। ताकि उसी से ये लोग सभा बनाएँ। फलत: एक दिन अचानक सन 1932 के अंत या सन 1933 के शुरू में अखबारों में पढ़ा कि पटने में बाबू गुरुसहाय लाल के घर पर किसानों और किसान सेवकों का जमाव हुआ और पुनपुन (पटने के निकट) के श्री डोमा सिंह किसान की अध्यक्षता में सभा होकर बिहार प्रांतीय किसान-सभा की स्थापना हुई। जिसके सभापति वही डोमा बाबू बने और मंत्री पूर्वोक्त तीन महारथी─श्री अंबिकाकांत सिन्हा, श्री देवकी प्रसाद सिन्हा और श्री गुरुसहाय लाल बनाएगए। किसी अजनबी स्वामी का भी नाम पढ़ा कि मीटिंग में मौजूद थे। पहले तो एक किसान को कहीं से ढूँढ़ लिया, ताकि लोग समझें कि सचमुच किसान-सभा बनी। दूसरे असली चीज─मंत्री ─यार लोग जो बने!

मुझे पढ़ कर हवा के रुख का कुछ पता लगा। क्योंकि हजार अलग रहने पर भी किसानों की बात थी न? इसलिए उस पर दृष्टि रखना मेरे लिए स्वाभाविक था। युनाइटेड पार्टी की बातों को भी बड़ी सतर्कता से देख रहा था। मुझे सारा अंदाज लग गया कि कैसा षडयंत्र है और क्या होने जा रहा है। मगर थोड़ा ताज्जुब जरूर हुआ कि श्री गुरुसहाय लाल जैसे वकील और पढ़े-लिखे आदमी ने, जो अभी तक हमारी सभा के सहायक मंत्री थे, ऐसा काम कैसे कर डाला और एक प्रतिद्वंद्वी किसान-सभा बना डाली। तुर्रा तो यह कि न तो हमसे पूछा ही और न हमारी सभा से इस्तीफा ही दिया। वे कौंसिल में स्वराज्य पार्टी के मेंबर भी रह चुके थे और उसी की आज्ञा से कौंसिल से इस्तीफा भी दिया था। उन्हें ऐसा करने के पूर्व या तो हमारी सभा से पहले इस्तीफा देना था, या कम-से-कम हमसे पूछना तो था। नहीं तो उसी की मीटिंग बुलाकर यह प्रश्न उसी में पेश करना था। इससे मरी धारणा और भी दृढ़ हो गई कि इन लोगों ने पूरी तैयारी कर ली है और कुछ-न-कुछ होनेवाला है। लेकिन फिर भी मैं तटस्थ ही रहा और इसकी परवाह न की कि क्या हो रहा है। हालाँकि, न जाने क्यों दिल थोड़ा सा बेचैन सा हो जाता था।

इसके बाद एकाएक एक दिन पूर्व के अखबारों में पढ़ा कि ता. 14-2-33 को बिहार प्रांतीय किसान-सभा की बैठक गुलाबबाग, पटना में दोपहर के बाद होगी। उसी में किसान-जमींदार समझौते पर विचार होगा। मुझे पीछे यह भी मालूम हुआ कि इस बारे में एक छोटी सी छपी नोटिस भी हिंदी में बँटी थी। खास कर बिहटा के आस-पास के इलाके में। लेकिन मुझे इस सभा की खबर न मिले इसकी पूरी कोशिश की गई। इसीलिए न तो मेरे पास ही नोटिस पहुँची और न बिहटा में ही या पास के गाँवों में ही। हाँ, उसी रास्ते बिक्रम और मसौढ़ा में जाकर कोई बाँट आया। यह भी पता लगा कि कुछ लोगों ने किसानों के नाम पर जमींदारों से कोई समझौता किया है। उसकी कुछ शर्ते भी ठीक की गई हैं। मगर सिवाय आश्चर्य करने के मैंने और कुछ नहीं किया। देखता रहा कि क्या होता है।

इस बीच एक घटना घटी, जिसने यारों के सारे किए-किराए पर पानी ही फेर दिया। किसान-सभा के इतिहास में इससे एक भारी पलटा भी हुआ। इसी के करते मैं उसमें फिर सारी शक्ति के साथ खिंच आया। या यों कहना ज्यादा ठीक होगा कि असली बिहार प्रांतीय किसान-सभा और किसान-आंदोलन का इसी से सूत्र पात हुआ। मैं पहले गया के डॉ. युगल किशोर सिंह का जिक्र कर चुका हूँ। ठीक 13 फरवरी को ही, पं. यदुनंदन शर्मा ने जो आज हमारे किसान आंदोलन के प्रधान स्तंभ हैं, तथा अन्य कई किसान सेवकों ने भी पटने की इस किसान-सभा में किसानों के लिए भारी खतरा देखा और क्या अब करना चाहिए,सोचा। अंत में यही तय किया कि डॉ. युगल किशोर सिंह फौरन स्वामी जी के पास जाकर यदि किसी प्रकार उन्हें उस किसान-सभा में लाने में सफल हों तभी यह खतरा टल सकता है। दूसरा उपाय है नहीं; फलत: डॉक्टर साहब को मेरे पास भेजा। उनके पाँव में भारी जख्म था। फिर भी न जानें कैसे वे मरते-जीते चल पड़े और पटने में पहुँचे। सबसे पहले देवकी बाबू के डेरे में गए जहाँ अंबिका बाबू भी हाजिर थे। उन्होंने सभा के बारे में पूछताछ की खासतौर से यह जानना चाहा कि स्वामी जी और कार्यी जी को खबर दी गई है या नहीं और वे लोग इसमें शामिल होंगे या नहीं। उनसे मिथ्या ही कहा गया कि जरूर खबर दी गई है और वे लोग जरूर आएँगे। आप निश्चिंत रहें। डॉक्टर साहब ने मिलने पर मुझसे ये बातें कही थीं। लेकिन उन्हें कुछ शक हुआ। फलत: बिहटा चलने के लिए इच्छा जाहिर की। इस पर वे रोके गए कि जाने की जरूरत नहीं। स्वामी जी तो कल आएँगे ही। मगर जब उन्होंने हठ किया कि खामख्वाह जाएगे तो हारकर वे लोग चुप हो गए। इस प्रकार डॉक्टर साहब 13 फरवरी सन 1933 ई. की शाम को मेरे पास पहुँचे और दंड प्रणाम के बाद बैठे।

जब मैंने उनसे आने का कारण पूछा तो सारी दास्तान उनने सुनाई। पटना कल जरूर चलिए यह भी कहा। मैंने साफ इनकार किया और कहा कि नहीं जाता। एक तो मैं किसान-सभा से अलग हूँ, गो इस्तीफा नहीं दिया है। दूसरे जब मुझे उन लोगों ने खबर तक देना उचित नहीं समझा, हालाँकि, सभी जानते हैं कि यहीं हूँ, तो फिर मेरा वहाँ बिना बुलाए जाना उचित नहीं। इसलिए हर्गिज नहीं जा सकता। इस पर उस बेचारे की मानसिक दशा क्या हुई यह कौन बताए? मैंने कोरा उत्तर दे तो दिया मगर वे ठंडे न पड़े। रह-रह के आह भरने जैसे एकाध शब्द बोलकर चलने का आग्रह करते। वह शब्द भी आधा बाहर होता और आधा मुँह के भीतर ही रह जाता। पाँव के जख्म से उन्हें ज्वर भी हो आया था। इसलिए दो कष्टों के बीच आहें भरते थे। कभी कहते 'किसान मारे जाएगे'। कभी बोलते 'चलते तो भला होता' फिर कराहते कि 'उन्हें कौन बचाएगा?' सारांश, जब तक मैं जगा रहा वह ऐसा ही करते रहे। पर मैं इनकार ही करता रहा। फिर सो गया। मगर उनकी मार्मिक व्यथा पूर्ण अपील ने धीरे-धीरे मुझ पर असर किया। खासकर बीमारी की दशा में जो आह निकलती थी वह हृदय में जा बिंधी। फलत: सवेरे उठने पर नित्य कर्म करते-करते मैं पिघला और उनसे कह दिया कि “लो अब चलूँगा।” फिर तो उनका चेहरा खिल गया।

आखिर, खा-पी के दोनों ही दस बजे के करीब ट्रेन से रवाना हुए और पटने में पहुँचकर इधर-उधर घूमते-घामते निश्चित समय से पूर्व ही गुलाब बाग में पहुँचे। वहाँ देखा कि तीनों मंत्री बैठे हैं और सारी तैयारी है। देखते ही, 'आइए आइए' हुआ। मैंने गुरु सहाय बाबू और अंबिका बाबू के पास बैठकर फौरन कहा कि “भई, खबर भी न दी। यह क्या? यह तो डॉक्टर का काम था कि सत्याग्रह कर के बलात घसीट लाया”। इस पर जो भी बहानेबाजी हो सकती थी दोस्तों ने की। इतने में ही मेरी ऑंख एक लेटरपेपर पर सहसा गई तो देखा कि बाबू गुरु सहाय लाल का नाम धाम उस पर छपा है और उसी के नीचे अंग्रेजी में कई बातें हाथ से लिखी हुई हैं। नीचे किसी का हस्ताक्षर नहीं था। तब तक उन्होंने उसे उठाकर उस पर छपा हुआ अपना नाम और पता फाड़ दिया। बाकी छोड़ दिया। उस समय मैं इसे समझ न सका। परंतु पीछे इसका रहस्य मालूम हो गया।

असल में तथाकथित समझौते की शर्ते उस पर लिखी थीं और कहीं मैं यह न समझ लूँ कि गुरु सहाय बाबू ने ही वह शर्ते तय की हैं फलत: वह भी उनमें एक पार्टी हैं,इसीलिए अपना नाम-धाम उनने फाड़ लिया। इतने में ही देखा कि बिहार लैंड होल्डर्स असोसियेशन के स्तंभ श्री सच्चिदानंद सिन्हा और राजा सूर्यपुरा,श्री राधिकारमण प्रसाद सिंह भी सभा में पधारे। मैं आश्चर्य में था और कुछ समझ न सका कि ये महानुभाव यहाँ क्यों पधारे जब कि यह किसान-सभा है। मगर कुछ बोला नहीं।