राजेंद्र यादव : हम जा मिले खुदा से दिलवर बदल बदल कर / दिनेश कुशवाह

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


राजेंद्र यादव के बारे में मैं जब भी सोचता हूँ, प्रसिद्ध शायर शहरयार की ये पंक्तियाँ मेरे जेहन में उभरने लगती हैं -

उम्र भर देखा किए उसकी तरफ यूँ जैसे,

   सारे आलम की हकीकत निगाहे यार में है।
   एक आलम है कि उस सिम्त खिंचा जाता है
   जाने वो कौन सी खूबी रसन-ओ-दार में है।

सारी धरती का गुरुत्वाकर्षण और संपूर्ण आकाश की विशालता एक आदमी में कैसे समाहित हो सकती हैं? ऐसा क्या है राजेंद्र यादव में? जो काले चश्में से ढकीं उनकी आँखों में निगाहे यार की तरह सारे आलम की हकीकत सिमट आई! जो हो पर यह सच है कि उन्होंने 'राहे यार' को कदम-कदम यादगार बना दिया। भले ही उस रास्ते में 'रसन-ओ-दार' हों, हम उस तरफ खिंचे चले जाते हैं। यही कारण है कि आज पच्चीस वर्षों से दिल्ली में 'हंस' और 'अक्षर' की गली, लेखकों के लिए महबूब की गली बन गई है। जहाँ तमाम उदीयमान और स्थापित कवि-कथाकार-समीक्षक एक अद्भुत रोमांच, उत्कंठा और रचनात्मक आवेश से भरे पहुँचते हैं। ज़िगर के शब्दों में कहूँ तो -

हदूद-ए-कूचा-ए महबूब है वहीं से शुरू,

   जहाँ से पड़ने लगें पाँव डगमगाये हुए।

कितनों के पाँव डगमगाए पर माना कोई नहीं! सोचता हूँ कुछ लोगों को तो तौबा करना था! पर ताज्जुब कि यह दिवानगी कम होने के बजाय विगत वर्षों में लगातार बढ़ती गयी। इसलिए कि राजेंद्र यादव के व्यक्तित्व में एक अद्भुत सामंजस्य है। कभी वे शेख की भूमिका में होते हैं, तो कभी साकी की भूमिका में आने में उन्हें संकोच नहीं होता। वे नशा पिलाकर गिराना जानते हैं। और गिरतों को थाम भी लेते हैं। अपने प्रियजनों की उपेक्षा उनसे हो सकती है पर अपने दुश्मनों को ऊँचा आसन देना वे कभी नहीं भूलते। कुल मिलाकर इस मिट्टी के पुतले में कुछ तो ऐसा है जो सामने वाले को सम्मोहित कर लेता है।

आइए, राजेंद्र जी के साथ थोड़ा अनौपचारिक और थोड़ा आत्मीय हो लें। 'हंस' संपादक, प्रख्यात कथाकार राजेंद्र यादव को मैं 'भंते' कहता हूँ। इसलिए नहीं कि वे भिक्षु हैं, या बौद्ध धर्मावलंबी। इसलिए भी नहीं कि 'आनंद' जो गौतम का परम प्रिय, प्रधान शिष्य था; महामानव सिद्धार्थ को भंते कहता था। यह संबोधन अगर बुद्ध और कुटुंबी बालक आनंद के बीच भाई, भतीजावाद जैसा कुछ रहा भी होगा, तो भी हमारे बीच ऐसा कुछ कतई नहीं है। 'सरस्वती' के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी और 'हंस' के पुरोधा संपादक प्रेमचंद के पांक्तेय, कहानी के महोमहापाध्याय राजेंद्र यादव को मैं इसलिए भंते कहता हूँ कि उन्होंने हिंदी साहित्य में दलितों और स्त्रियों के लिए उसी तरह जगह बनाई जैसे हमारी धरती पर बुद्ध ने पहली बार वंचितों के लिए करुणा की हाँक लगाई थी। यह बात कहते हुए मुझे 'बुद्धचरित' के महाकवि और बौद्ध धर्म के महान चिंतक अश्वघोष की याद आती है। वे सम्राट कनिष्क के समकालीन थे। कनिष्क के समय बौद्ध विद्वानों की जो ऐतिहासिक महासभा हुई थी, उसकी अध्यक्षता अश्वघोष ने ही की थी। बौद्ध धर्म के विद्वान, इस महान दार्शनिक और अप्रतिम कवि ने 'बुद्धचरित' में बड़े ओजस्वी शब्दों में कहा कि परवर्ती पीढ़ी अपने पूर्ववर्ती पीढ़ी से बढ़कर हो सकती है। जो काम पूर्वज नहीं कर सके वह काम उनके वंशजों ने कर दिया। स्वर्णयुग अतीत में ही नहीं भविष्य में भी हो सकता है। जिस 'राजशास्त्र' की रचना भृगु और अंगिरा जैसे महान ऋषि नहीं कर सके उसे उनके वंशज शुक्राचार्य और वृहस्पति ने कर दिखाया। जिस ब्राह्मणत्व को कुशिक और गाधि जैसे प्रसिद्ध पूर्वज न प्राप्त कर सके उसे गाधितनय विश्वामित्र ने प्राप्त कर अभूतपूर्व उपलब्धि हासिल की। विश्वामित्र से पहले कोई गैरब्राह्मण ब्राह्मण न हो सका था और न बाद में हुआ। इस तरह राजाओं और ऋषिओं के अनेकशः उदाहरण हैं कि पुत्रों ने वह कर दिखाया जो पिताओं से संभव न हो सका। अश्वघोष लिखते हैं कि लोक में श्रेष्ठता की उपलब्धि के लिए वय और काल बाधा नहीं बन सकते। उन्हीं के शब्दों में -

तस्मात् प्रमाणं न वयो न कालः

   कश्चित् क्वचिच्छ्रैष्ठ्यमुपैति लोके।
   राज्ञामृषीणां चहि तानि तानि
   कृतानि पुत्रैरकृतानि पूर्वैः।

कहने का आशय यह है कि जिस 'हंस' को अपने प्राणपण से प्रयत्न कर भी प्रेमचंद दीर्घजीवी न कर सके, अमृत राय जैसे योद्धा भी जिसे लंबे समय तक न निकाल सके, उस 'हंस' को लगातार पच्चीस वर्षों तक मासिक रूप में निकालकर राजेंद्र यादव ने उसकी रजतजयंती का इतिहास रच दिया। इस दौरान उन्होंने 'हंस' में लगभग तीन सौ संपादकीय लिखे। उनमें 'तुम्हारे गले में यह किसकी आवाज है उमा भारती?' जैसे शताधिक संपादकीय तो अवस्मिरणीय हैं। इस क्रम में धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका का भी ध्यान आना लाजमी हैं। धर्मवीर भारती, मोहन राकेश और कमलेश्वर को संपादक के रूप में विस्मृत नहीं किया जा सकता। परंतु राजेंद्र यादव ने 'हंस' को जिस प्रकार जनांदोलन बना दिया, यह साहित्यिक पत्रकारिता के इतिहास में अभूतपूर्व है। जहाँ तक दलितों और स्त्रियों की आवाज, अस्मिता और रचनात्मकता का प्रश्न है राजेंद्र यादव के 'हंस' से बड़ा मंच उन्हें कभी नहीं मिला। इससे पहले गीता सिर्फ उन लोगों की थी जिनके पास गदा और गांडीव थे। दलितों और वंचितों की अस्मिता का प्रतीक 'मूकनायक' था। इस बात का रोना ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे प्रतिभावान लेखक भी रोते थे। मुझे लगता है कि 'हंस' के पुनर्प्रकाशन और संपादन का विचार ही राजेंद्र यादव के 'बुद्धत्व' प्राप्त होने का सुयोग है, जिसने हमारे समय और समाज को वाणी प्रदान किया। यह कहते हुए आज मुझे शाक्यमुनि महामना गौतम बुद्ध और भंते राजेंद्र यादव में ललाट के दिव्य प्रकाश और श्रवणों की सुदीर्घता का साम्य भाषित हो रहा है। बनारस के अनोखे भोजपुरी कवि और 'वीर कुँवर सिंह' महाकाव्य के रचयिता स्वर्गीय चंद्रशेखर मिश्र के खंडकाव्य 'द्रोपदी' की पंक्तियाँ याद आ रही हैं - दुर्योधन की सभा में पांडव द्रोपदी को जुए में हारने के बाद सिर झुकाए बैठे हैं। दुशासन द्रोपदी को राजमहल से घसीटते हुए राजसभा में ले आता है और पटक देता है। दुर्योधन अपनी जाँघ निरावृत्त किए हुए नंगी की जा रही द्रोपदी का घोर अपमान कर रहा है। दुशासन चीरहरण करने पर तुला है। निसहाय द्रोपदी भीष्म पितामह से लेकर भीम-अर्जुन सबसे सहायता की गुहार लगाते हुए हार गई है। सर्वांत में वह आर्त स्वर में कृष्ण को पुकारती है। कवि के शब्दों में -

नंगी हमें सब देखन चाहेलें, खींच ले धोती इहै चरचा बा,

   जानि न मो बिरना मोरि भागि में, कइसन कौन विधान रचा बा।
   एक तोहें तजि देस-देसंतर के ठकुरान इहाँ ढकचा बा,
   बीरन जादव वंश के नाहर एक भरोस तोहर बचा बा।

द्रोपदी कहती है कि हे भइया! यहाँ सब मुझे नंगी देखना चाहते हैं। सारी सभा में शोर मचा है कि हे दुशासन! इसकी साड़ी खींच लो। भइया! मैं नहीं जानती कि विधाता ने मेरे भाग्य में कैसा और कौन सा विधान लिखा है। केवल आप को छोड़कर यहाँ आर्यावर्त के सारे क्षत्रियों का जमावड़ा है। हे यादव वंश के सिंह। हे भाई!! अब तो मात्र आप ही हैं जिनका भरोसा है कि आप मेरी लाज बचा लेंगे।

एक ऐसे समय में जबकि बेचैनी की लाज बचाने के रास्ते भी हमारे पास नहीं थे, भंते राजेंद्र यादव ने 'हंस' को असंख्य दलितों, वंचितों और औरतों की आवाज बना दिया। उनके मित्र दुष्यंत कुमार कहते हैं -

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,

   मैं बेकरार हूँ, आवाज में असर के लिए।

राजेंद्र यादव ने अपने रचनाकर्म की शुरुआत कविता से प्रिया को संबोधित 'शब्द तुम्हारे हैं' से की थी। आज वे घोषित कविता द्रोही हैं फिर भी कविता से कहानी और उपन्यास तक आते-आते और 'हंस' के अंक दर अंक छपाते-छपाते इस विषपायी ने लाखों के बोल सहे। इनमें उनके दुश्मनों, और दिलजलों से लेकर शरीक-ए-हयात के बोल भी थे। परंतु इस 'जनम के विषपाई' के कंठ से इस तरह की बेकरारी फूटी, जो उसे लाख आरोपों से बरी कर (यशोधरा और राहुल के प्रति हुए अन्याय से भी) साहित्य में बुद्ध बना दिया। देखिए तो सही; राजेंद्र यादव को क्या सिर्फ बुद्ध जैसे ललाट और कान ही मिले हैं! आधुनिक युग के इस अकिंचन को क्या बुद्ध की थोड़ी भी आन-बान नहीं मिली? अगर न मिली होती तो आज यह परिदृश्य जो हमें दिखाई देता है, पचास वर्ष बाद भी न दिखता।

कुछ मित्र राजेंद्र यादव पर लेखिकाओं की अनौचित्य भरी पक्षधरता का आरोप लगाते हैं। सच जो हो पर संसार की सुंदर स्त्रियाँ मानवीय सरोकारों और अगाध करुणा से भरे बोधिसत्वों को भी प्रभावित करती रही हैं। चाहे वह सुजाता हो या आम्रपाली।

हसीन चेहरों से मिलने पे एतराज न कर

   ये जुर्म वो है, जो शादी शुदा भी करता है।

जिस बुद्ध ने गौतमी और यशोधरा तक की प्रार्थनाएँ अनसुनी कर दी वही बुद्ध आम्रपाली की प्रार्थना सुनकर स्त्रियों के संघ में प्रवेश पर सहर्ष सहमत हो गये थे। यह आम्रपाली के साहस, विवेक और सौंदर्य का सुफल था। पर यह भी उतना ही सच है कि अनिकेत यायावर गौतम, आम्रपाली को सम्राटों से भी अधिक सुंदर लगे थे। मैं अपनी महिला मित्रों से कहता रहा हूँ कि बुद्ध इतने सुंदर हैं कि उनकी सखी बनकर उनसे प्रेम करने का मन करता है। वे इतने उदार चारागर हैं कि उनका बीमार हो जाने का मन करता है। इसी तरह भंते राजेंद्र यादव इतने मिलनसार हैं कि कोई लेखक या लेखिका उन पर सौ जान से निछावर हो जाता है। और सच तो यह है, दोस्तो! आप चाहे जितने बड़े लेखक हों; अज्ञेय, नामवर या अशोक वाजपेयी हों, किसी लेखक को क्या दे देंगे? आपसे थर-थर काँपता नवोदित क्या पा जायेगा आपसे? अगर थोड़ी-सी आत्मीयता आपने उसे नहीं दी! सौ टके की बात यह है कि अगर किसी में प्रतिभा, कला, अभ्यास और राजनीतिक समझ नहीं है तो उसे लेखक न प्रेमिका बना सकती है न कोई परम आचार्य। (कृपया काशीनाथ सिंह कृत 'परम' का अर्थ 'चूतिया' न लिया जाय) कोई साँड़ संपादक भी उसे अकाल मृत्यु से नहीं बचा सकता। बहुत हुआ तो वह साहित्य में 'सत्यनारायण की कथा' बाँच सकता है। उसे खुश रखने के लिए अधिक से अधिक आप उसे अपनी लँगोट साफ करने का सौभाग्य दे सकते हैं। इसी तरह राजेंद्र यादव भी किसी को लेखक या लेखिका नहीं बना सकते। लेकिन उनसे मिलकर लगता है कि वे जिंदादिली और आत्मीयता बाँटने के लिए ही बने हैं। हर नये लेखक को उनसे मिलकर लगता ही नहीं कि वह उनसे पहली बार मिल रहा है। वे अज्ञात कुलशीलों के गोत्रबंधु हैं। देश के किसी कोने-अँतरे से आये लेखक, भंते से इसी अधिकार से मिलते हैं। आज न जाने कितने ऐसे लेखक-लेखिका हैं जो साहित्य के आकाश में चमक रहे हैं। कल उनमें से कुछ पद्मश्री और राज्यसभा की शोभा भी बढ़ा सकते हैं। उन्होंने ही कहा कि एक दिन वे डरते-सकुचते 'हंस' सपादक से मिलने आये थे। यह दीगर बात है कि उन लेखकों में से कुछ आज उनके परम अभिन्न हैं तो कुछ द्रोही। इसका कारण यह है कि राजेंद्र यादव ने अपनी आत्मीयता और 'हंस' की निष्ठुरता में कभी घालमेल नहीं किया। यह दीगर बात है कि कुछ भिक्षुणियों पर वे परम कृपालु रहे। हे कृष्ण! हे यादव! हे सखेति! आपकी जय हो! जय हो!! जय हो!!!

शायद सन् 2002 के अगस्त महीने की कोई तारीख थी जब भंते पहली बार गंभीर रूप से बीमार हो जाने के कारण अस्पताल में भर्ती किये गये। मैत्रेयी पुष्पा के फोन से पता चला की वे गहन चिकित्सा कक्ष में हैं। दो दिन बाद मन्नूजी को मैंने पहली बार फोन किया। शायद उनसे सुनकर कुछ ज्यादा आश्वस्त हो पाता कि वे अब ठीक हैं। मैंने पहले ही दिन मैत्रेयी जी से पूछा था; मन्नू जी वहाँ हैं न? और उन्होंने कहा, 'पूरी तरह'। मैं कुछ दिन पहले राजेंद्र जी के घर में उनके साथ चार दिन रहकर आया था। वे ठीक-ठाक थे। चार साल पहले जब वे रीवा मेरे यहाँ आये थे तो हर तरह से स्वस्थ-सानंद थे। उनकी वापसी की यात्रा हेतु पत्नी गीता, चने के सत्तू की 'मकुनी' बना रही थी। उसने कहा कि दादा से पूछ लो, घी लगेगा या नहीं। आतिथेय की मर्यादा में संकोचपूर्वक जब मैंने भंते से पूछा तो बोले, “तुम साले पुरबिये, हमेशा दिल को लेकर क्यों बैठे रहते हो? तुमसे किसने कह दिया कि घी खाने से ही 'हार्ट अटैक' होता है। मुझे तो आज तक सरदर्द नहीं हुआ। गीता से कह दो रोटियाँ घी में डूबो दे।”

मन बार-बार सोचता, लो; वही भंते आज 'लाल कंबल' के नीचे चले गये। अब 'हंस' का क्या होगा? दस साल और चल जाते तो क्या हो जाता! दो तीन दिन बाद मन्नू जी से फोन पर पता चला कि वे ठीक हो कर घर चले गये।

मित्रो! विकट जीव हैं राजेंद्र यादव तो अद्भुत जीवट के धनी भी हैं। 'हंस' के शुरुआती चार सालों में बार-बार यह आशंका घेर लेती थी कि शायद उसे वे अब नहीं चला पायेंगे! पर भंते 'हंस' और खुद को आजतक 'टनाटन' चला रहे हैं। परंतु इधर एक-दो वर्षों से उनकी तबियत के बारे में रोज जानने की इच्छा होती है। मर्त्य मानव के अंतिम सच का डर बार-बार बेधता है। शायद यह हैतुक प्रेम है। अहैतुक तो मूर्धन्यों को होता है। हम तो 'पामर' जीव हैं। 'अधम से अधम अधम अतिनारी' (तुलसी कथन) की तरह। फिर परम शक्तिमान के संरक्षण में विश्वास है भी नहीं। परंतु राजेंद्र यादव से बिछोह का इतना डर? शायद यह भी 'विकटप्रेम' ही है। आप शायद न मानें। किसका साक्ष्य दूँ? कालिदास के 'मेघदूत' के व्याज से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं। यक्ष प्रिया से निवेदन करता है, “हे चकितनयने, इस सहिदानी से ही तुम समझ लेना कि मैं सकुशल हूँ। दूसरों के कहने से मेरे ऊपर अविश्वास मत कर बैठना। न जाने लोग क्यों कहा करते हैं कि वियोग काल में प्रेम क्षीण हो जाता है। ऐसा कहने वाले न तो प्रेम का सच्चा स्वरूप जानते हैं, न विरह के अद्भुत उन्नायक गुणों का स्वरूप ही। सच्ची बात तो यह है कि जब मनचाही वस्तु नहीं मिलती, तभी उसके पाने के लिए चित्त की व्याकुलता बढ़ जाती है। रस उपचित होने लगता है और प्रेम राशीभूत होकर समृद्ध हो उठता है। रम्य वस्तु के प्रति देखते रहने की जो असाधारण चाह है उसे ही प्रेम कहते हैं, उसकी चिंता को 'अभिलाषा' कहते हैं, उसी का संग पाने की बुद्धि को 'राग' कहते हैं, उसकी ओर ढरक पड़ने की क्रिया को 'स्नेह' कहते हैं, उसका वियोग सहन न कर सकने की दुर्बलता प्रेम कहलाती है।”

इस प्रेम के कारण ही मन में एक विश्वास बना रहता है कि पाँच बार मृत्यु को दरवाजे से लौटाने वाले भंते अभी उसे दो-चार बार और ठेंगा दिखा देंगे। अभी उन्हें अपने बहुत सारे 'रफ ड्राफ्ट' फेयर करने हैं। वे अक्सर चेखव के नाटक 'तीन बहनें' की पात्र मारी ईरीनी के इस सम्वाद की चर्चा करते हैं, “काश जो कुछ हमने जिया है, वह सिर्फ जिंदगी का रफ ड्राफ्ट होता और इसे फेयर करने का एक अवसर हमें और मिलता!”

जिंदगी बहुत कम लोगों को यह अवसर देती हैं। परंतु जीवन में ही कभी कोई क्षण ऐसा आता है जब आदमी अतीत से सबक लेकर भविष्य की ओर नये संकल्पों के साथ चल पड़ता है। महाभारत में कृष्ण, कर्ण से कहते हैं कि जो लोग इतिहास के चुनौती पूर्ण समय पर चुप रहते हैं उन्हें धर्म की बात करने का अधिकार नहीं है। समय-समय पर 'हंस' के संपादकीय इस बात के साक्षी हैं कि राजेंद्र यादव ने अपनी जिंदगी के इस पच्चीस वर्षीय कालखंड में किसी भी चुनौती पूर्ण समय पर चुप्पी नहीं साधी।

आज दुनिया में भूमंडलीकरण के नाम पर मनुष्य को छोड़कर हर चीज की चिंता की जा रही है। 'पर्सनालिटी बिल्डिंग' की क्लास चलाने वाले, लोगों को यह बताते हैं कि उन्हें क्या पहनना चाहिए, कैसे बोलना चाहिए, कैसे चलना चाहिए, कैसे मुस्कुराना चाहिए। वे सब कुछ बताते हैं। पर यह नहीं बताते कि आदमी को मनुष्य कैसे बनना चाहिए?

मनुष्य सर्वोपरि है। सभ्यता, संस्कृति, शास्त्र, ईश्वर धर्म और विज्ञान सब मनुष्य के बाद पैदा हुए हैं। और आज उसकी छाती पर चढ़कर बैठ गये हैं। मनीषी तो कहते हैं कि वेद, पुराण, स्मृति, उपनिषद, कुरान, बाइबिल, संविधान कुछ भी उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना मनुष्य और मनुष्यता। मानव और मानवता बचे रहेंगे तो ये सारे, एक बार फिर रच लिए जायेंगे। पर अगर आदमी ही नहीं होगा तो ये सब व्यर्थ हैं। परंतु जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा और राष्ट्र के नाम पर हर जगह मुसीबत में आदमी है। भूमंडलीकरण के सेठों को सिर्फ सफल एवं संपन्न लोग चाहिए। ऐसा जमाना आ गया है कि सारे देशों की सरकारों और सेठों का वश चले तो वे असफल और गरीब लोगों को समुद्र में डाल दें। ऐसे जटिल एवं कुटिल समय में अगर कोई मनुष्य और मनुष्यता की लड़ाई लड़ रहा है तो हमारे लिए यह गहरे संतोष का विषय है। इस अर्थ में राजेंद्र यादव एक सफल नहीं सार्थक मनुष्य हैं।

आपने सुना होगा कि ऐश्वर्या राय इसलिए सुंदर हैं। प्रियंका चोपड़ा इसलिए सुंदर हैं। पर आपने यह कभी सुना है कि मेधा पाटकर सुंदर हैं? हाँ! मेधा सुंदर हैं। जब विश्व सुंदरियों में कोई नहीं बचेंगी तो भी मेधा बची रहेंगी। वह दुनिया की खूबसूरती के लिए लड़ रहीं हैं। इसी अर्थ में राजेंद्र यादव सार्थक और सुंदर दोनों हैं कि वे साहित्य में जनतंत्र के लिए लड़ रहे हैं। साहित्य अकादमी बाँटने वाले, साहित्य अकादमी पाने वाले और साहित्य की सत्ता सँभालने वाले जब कोई नहीं बचेंगे तो भी राजेंद्र यादव बचे रहेंगे। जो लोग कहते हैं कि, 'यादव 'हंस' पर साँप की तरह कुंडली मारकर बैठ गया है,' या जो लोग हंस की पत्र-पेटियों में आग लगवाते रहे हैं, या जो लोग विद्वत गोष्ठियों से लेकर पान-गोष्ठियों तक में 'हंस-प्रपंच' पर उपदेश झाड़ते रहे हैं, उनसे तो राजेंद्र यादव बहुत अच्छे हैं। बाल स्वरूप राही की पंक्तियाँ हैं शायद -

इन शेखों बिरहमन से राही हमें क्या लेना

   हम अज्म-ओ-यकीं वाले, वो वहम-ओ-गुमां वाले।
   इजहारे तमन्ना पर कटती थीं जुबाने जब
   उस वक्त कहाँ थे ये अंदाज-ए बयाँ वाले।

आज से चार हजार वर्ष पूर्व ऋग्वेद के 'पुरुष सूक्त' की रचना से लेकर भारतीय संविधान की रचना तक भारत का इतिहास शूद्रों, स्त्रियों और मानवीय संवेदना की दृष्टि से भयावह क्रूरता, अमानवीयता और असभ्यता का इतिहास है। इस बात को राजेंद्र यादव ने लोगों की आँखों में अँगुली डालकर दिखाया तो लगा कि लोग उनके हलक में हाथ डालकर जबान खींच लेंगे। हिंदी साहित्य के शुरुआती दौर से ही बड़ी राजनीति और चालाकियाँ हैं। आलोचकों और संपादकों के मठ हैं। महंथी है। वे नहीं चाहते कि वे चीजें प्रचारित-प्रसारित हों, जिससे कि एक पाखंड रहित सार्थक मानवीय सम्वेदना का जन्म हो। यह अनायास नहीं है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद सबसे अधिक गालियों और अपशब्दों से जिस व्यक्ति को नवाजा गया है उसका नाम राजेंद्र यादव है।

संस्कृत की लोकधर्मी कविता परंपरा के कवि धर्मकीर्ति ने कभी लिखा था -

शैलेर्बन्धयति स्म वानर भटैर्वल्मीकिरम्बोनिधिं

   व्यासः पार्थशरैरपि तयोनत्यिुक्तिरुद्भात्यते
   शब्दार्थौ च तुलाधृताविव च नः
   लोको दूषयतीह तुम्यं प्रतिष्ठे नमः।

वाल्मीकि ने वानर वीरों द्वारा पत्थरों से समुद्र बंधवा दिया और व्यास ने पार्थ के वाणों से। फिर भी इसमें किसी को अतियुक्ति दिखाई नहीं देती। मैं शब्द और अर्थ तुला पर तौलकर प्रयोग करता हूँ तो भी लोगो को इसमें दोष दिखाई पड़ता है। हे प्रतिष्ठे! तुम्हें नमस्कार। शायद उस समय राजेंद्र यादव भी ऐसा ही सोच रहे थे।

शायर-ए-आजम फ़िराक गोरखपुरी ने एक निराली बात अपने लिए कही। वे कहते हैं कि ऐ मेरे जानने वालों! आने वाली कौमें तुमसे इस बात पर ईर्ष्या करेंगी कि तुमने फ़िराक को देखा था। जनपक्षधरता और मानवीय सरोकारों से भरे राजेंद्र यादव को देखने वालों को भी एक दिन इसी तरह का गौरव महसूस होगा। वे रवींद्रनाथ टैगोर की कविता में आये उस मिट्टी के छोटे दीये की तरह हैं जिसने सभ्यता की शुरुआत पर प्रकाश का सूर्य संकल्प लिया था।

सूर्यास्त होने पर घोर अँधेरा छा गया

   सूर्य ने पूछा
   मेरे बाद प्रकाश कौन करेगा
   सभी तरफ खामोशी
   तभी मिट्टी के छोटे दीये ने कहा
   प्रकाश में करुँगा।

और इस मिट्टी के दीये को मैंने जलते और बुझते दोनों रूपों में देखा है। इस दावे के लिए तौबा! पर मैंने फ़िराक को देखा है। गाँठ से परम कंजूस पर दिल से औढ़रदानी राजेंद्र यादव को मैंने हर हाल में देखा है। भंते ने मेरी बेरोजगारी के दिनों में गौतम नवलखा और मैत्रेयी पुष्पा के सहयोग से दिल्ली की वाल्मीकि बस्ती और सालिमपुर अहरा में 'कथा कथन' कराकर समकालीन कहानी में एक नया प्रयोग किया। इसी बहाने कुछ दिन मेरे जीवन यापन की व्यवस्था भी की। वे कहते हैं कि अति उत्साह आत्महंता होता है और : इसी उत्साह में मैं उनके आग्रह पर एक बार दिल्ली आ गया। पर लौटने का टिकट ही न मिले। चार-पाँच दिन दिल्ली में इधर-उधर भटकने के बाद मैंने राजेंद्र जी से कहा, “भंते अब आप ही कुछ करिए। इतनी भीड़ में जनरल बोगी में कैसे जाऊँगा।” राजेंद्र जी पूरी तरह निर्विकार रहे। बोले, “गालिब की तरह घोड़े से बनारस चला जा।”

“अच्छा! अब कब आओगे दिल्ली?”

“क्यों आयेंगे दिल्ली? दिल्ली वाले तो हाथ में अटैची देखकर भी पूछते हैं, कहाँ ठहरे हैं।” राजेंद्र जी चुप। और मैं बस में दिल्ली-लखनऊ-इलाहाबाद-मिर्जापुर होते हुए किश्तों में तीसरे दिन बनारस पहुँचा।

वही राजेंद्र जी एक बार हंस कार्यालय पहुचते ही कुशल क्षेम से पहले हाँक देने लगे, “किशन! दिनेश की अटैची अभी से गाड़ी में रख लो। किसी दूसरे के यहाँ भागने न पाये। इसे पाँच दिन से पहले नहीं छोड़ना है। फिर मेरे स्तब्ध भाव पर ठहाका मार कर हँस पड़े -

उन्होंने मिलने का वादा किया है पाँचवें दिन

   किसी से सुन लिया होगा कि दुनिया चार दिन की है।

“बोलो प्यारे कैसा रहा? साले हर बात में शेर या श्लोक पेलते हो। अब बोलो!”

मैंने किंचित मुस्कुराते हुए उन्हें देखा तो बोले,

   “चल बे! मजे करेंगे, मन्नू दिल्ली में नहीं हैं।”

मित्रों! पति-पत्नी एक दूसरे को क्षमा करने के लिए अभिशप्त होते हैं। संवादहीनता दांपत्य की नियति है। अगर आपस में समझदारी नहीं बनती तो। और अगर बहुत अधिक तालमेल है तो मुँह खोलने की जरूरत ही नहीं पड़ती। मीता हों या कोई और माननी (या)। उसके बाद भी मन्नू जी, राजेंद्र जी में लगभग पैंतीस वर्षों का निर्वाह कम बड़ी बात नहीं है। जबकि दोनों भास्वर हैं। राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी जैसी दूसरी लेखक जोड़ी हिंदी में न थी, न है, न होगी। इन दोनो के बीच विवादों पर मजा लेने वालों से भेंट होती रहती है। पर वे बेचारे क्या जानें कि अलग-अलग घरों में रहने के बावजूद भी ये कभी अलग नहीं रहे। और राजेंद्र यादव तो मनाने और मान करने, दोनों में अनूठे हैं। परवीन शाकिर कहती हैं -

वो कहीं भी गया, लौटकर मेरे पास आया

   बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई में।

राजेंद्र जी स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर इतने खुले और उदार हैं कि उन्हें सिर्फ 'निष्पाप' कहा जा सकता है। जैसे वे 'टार्च' को 'ज्योतिर्लिंग' कहते हैं उसी तरह प्रेम को 'दिग्विजय' कहते हैं। एक बार मुझसे बोले, “अभी तुम्हारी पुरानी दिग्विजयों के रासो लिखे नहीं गये कि तुम दूसरी (वि) जय यात्रा पर निकल पड़े। ऐसी खबरें मगध और अंग देश से आ रही हैं।”

“दिग्विजयी बालक! हमारे पंडीजी (हरिनारायण) के लिए कोई कन्या पटा दो। अगर ये कुँवारे रह गये तो तुम घोर नरक में जाओगे।” अंग देश पर भागलपुर की याद आयी। वहीं रहते हैं 'किस्सा' के संपादक चर्चित कथाकार शिवकुमार शिव। अद्भुत तिलस्मी व्यक्तित्व है शिव का। शमशानवासी दिगंबर शिव की तरह वे 'कुंद इंदु सम देह' वाले 'उमा रमण' हैं। कभी भिखारी और कभी औढ़रदानी मंजू भाभी जैसी कौशल्या और राम जैसे पुत्र वंटी (आनंद सिंहानिया) के चक्रवर्ती पिता शिवकुमार सिंहानिया जिन्हें साहित्य में शिव के नाम से जाना जाता है। शिव किंवदंती पुरुष है। एक बार उन्होंने एक दारोगा जी की रिवाल्वर छीनकर झापड़ रसीद कर दिया। वे जूते पहने उनके मित्र की गद्दी पर चढ़ गये थे। शिव कुमार शिव के बार में कहा जाता है कि वे जिसे चाहते हैं उसे अपनी गर्दन काटकर दे देते हैं। अगर कोई उनका अतिथि हैं तो उसके लिए लाल कालीन नहीं पलकें बिछाते हैं। अगर उनका आपसे प्रेम है, वे आपको अपने साथ ले जाना चाहते हैं और आप नहीं जाना चाहते तो आपका अपहरण कर उठा ले जायेगें। इस हादसे के शिकार राजेंद्र यादव भी एक बार हुए। हालाँकि उस घटना को घटे आज युग बीत गये। कोसी के किनारे बसे एक नगर से हमें पतित पावनी गंगा के किनारे बसे एक प्राचीन नगर में जाना था। भंते कन्याराग में दिल्ली से वीतराग हो यहाँ आये थे। उत्सव के अवसान की सुबह थी। बहुत सारे आगंतुक स्त्री-पुरुषों में वह सुकन्या भी थी। वह अपने नगर आज ही लौटने पर बाजिद थी और शिव राजेंद्र यादव का अपहरण करने पर आमादा। राजेंद्र जी आग्रह कर रहे थे कि वह भी साथ चले उन्होंने शिव से कहा, 'दिनेश और उसे भी उठालो।' पर भगवती बार-बार हजार बहाने बनाये। खुलकर मना भी न करे। भंते उदास-परेशान। अन्य वीर घोड़ो पर सवार इंतजार कर रहे थे। भंते बोले - “दिनेश! व्यर्थ में डर रही है। अच्छी लड़की है। तुमसे पुराना परिचय है। कहो न। इतने महिला-पुरुष तो चल रहे हैं। चलती तो यात्रा खुशगवार हो जाती।”

क्षमा! बोधिसत्व। और अगर नहीं तो वह सुजाता तो माफ कर ही देगी।

एकबार बोले, “यार दिनेश! कौलाचार्य शिवमूर्ति का बाजीकरण फार्मूला क्या है?

मैंने कहा, “अरे छोड़िये। मनुष्य योनि में वह संभव नहीं है। आज आपनी प्रेम कहानियाँ बताइए।”

पहली बार मैंने धीरे से हँसते हुए देखा राजेंद्र यादव को। बोले, 'मुड़-मुड़ के देखता हूँ' और 'एक कहानी यह भी' के बाद अब क्या जानना चाहते हो -

अपनी तो आशिकी का किस्सा ए मुख्तसर है

हम जा मिले खुदा से दिलवर बदल-बदलकर।

मैंने कहा, “कितने दिलवर बदलने के बाद खुदा का नंबर आया था?” और महफिल ठहाकों से गूँज उठी।