रूस पर जर्मनी का हमला / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
जब हम जेल गए थे तो यही मानते थे कि इस यूरोपीय महायुध्द के खिलाफ हमें युध्द करना है और इस प्रकार अंग्रेजी सरकार के युध्दोद्योग में जहाँ तक हो सके बाधा पहुँचानी है। इसे ही अंग्रेजी में (war against-war) कहते हैं। मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन के लेखों तथा मंतव्यों से हमने यही सीखा था कि साम्राज्यवादी युध्द को सफल होने न देना। हमने यह भी देखा था कि यदि सन 1917 ई. में रूसी जनता-किसान-मजदूरों-को जारशाही एवं पूँजीशाही को उठा फेंकने में सफलता मिली तो इसी सिध्दांत के चलते। वहाँ की जनता ने इसी पर अमल किया और वह पहले जार के और पीछे पूँजीपतियों के तख्त को उलट फेंकने में समर्थ हुई। यह तो इस मंतव्य की ताजी परीक्षा थी। फिर हम इस पर अमल क्यों न करते? फलत: यही करते-कराते हमें जेल चला आना पड़ा। वहाँ भी हमारी यही धारणा तब तक बनी रही जब तक हिटलर ने रूस पर हमला नहीं किया। हमले के एक सप्ताह के बाद ही हमारा यह खयाल जड़ से बदल गया। 21वीं जून, सन 1941 ई. की आधी रात के बाद यानी 22वीं जून को हिटलर का आक्रमण हुआ और जून के बीतते-न-बीतते हम स्वतंत्र रूप से-बिना किसी से पूछे या वाद-विवाद किए ही-इस नतीजे पर पहुँचे कि हमें अब वह सिध्दांत छोड़ना ही होगा। हिटलर और उसकी गत दो वर्षों की सामरिक गतिविधि के सूक्ष्म पर्यवेक्षण ने हमें ऐसा सोचने एवं निश्चय करने को बाधय किया।