लोहे का स्वाद लोहार से नहीं, घोड़े से पूछो / संतलाल करुण

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गावों में प्रचलित है “झाड़े फिरना” — जहाँ झाड़ियों में या उसके आसपास लोग बैठते थे। जहाँ नदी थी, वहाँ “नदी जाने” का प्रचलन रहा। जहाँ टटिया की आड़ में बैठते थे, वहाँ “टट्टी जाना” वज़ूद में आया। इसी तरह “दिशा-मैदान जाना”, “पोखरे जाना”, “बगिया जाना”, “शौच जाना”, “बाहर जाना”, (“पाकिस्तान जाना”) - जैसे पदबंधों का चलन रहा है। लेकिन जब शब्द गंदे लगने लगते, तो लोगों द्वारा नए-नए शब्द तलाशने का क्रम कभी थमा नहीं। कदाचित समाज संस्कृति को अपने उत्स से उपजाता रहता है, इसलिए नए शालीन शब्द या शब्द्बंधों की अपेक्षा बनी रहती है। पहले “लेट्रिन” फिर “टॉयलेट” आया, और फिर “बाथरूम” और आज-कल “वाशरूम” प्रचलन में है। होता यह है कि जब शब्द या पदबंधों से वही अर्थध्वनि ज्यादा सुनाई देने लगती है, जिससे समाज बचना चाहता है, तब वह शालीनता आदि के चक्कर में नवीन शब्द या पदबंधों या वाक्यों को गढ़ लेता है।

इसी प्रकार समझें कि जब गांधी जी ने अछूतोद्धार के उपक्रम में नव सांस्कृतिक “हरिजन” शब्द दिया, तब बड़ा अच्छा लगा कथित अछूतों को भी, किन्तु कालांतर में उसमें भी घृणित भाव भर जाने के कारण हरिजनों को वह गाली-जैसा लगने लगा। शासन से आरक्षणतथा अन्य आर्थिक लाभ लेने के लिए जाति प्रमाण-पत्र में घृणास्पद जाति-उपजाति सूचक शब्द का उल्लेख उनकी मजबूरी थी, किन्तु आज़ादी के बाद घृणित भावदृष्टि के कारण कथित निम्न जातियाँ जातिसूचक शब्दों से अपना पिंड छुड़ाने के लिए अनेक प्रयासों में से एक सरनेम के तौर पर बाल्मीकी, मौर्य, आर्या, सूर्या और ऋषियों आदि के नाम अपनाने लगीं। अतएव दलित समाज के पीड़ित मनोविज्ञान को समझे बिना उनके द्वारा जातिसूचक शब्दों के सहर्ष अपनाने या प्रबल विरोध करने के तथ्य पर चौतरफा प्रहार उचित नहीं है। निश्चित ही दलितों के जातिसूचक शब्द उनके लिए अपमानजनक हैं। सरकारी दस्तावेजों में आरक्षण आदि के लिए उनके द्वारा जाति के उल्लेख पर निशाना साधे और घन उठाये लाल करके पीटने पर उतारू अयस्कार की भाँति प्रहार करना कतई ठीक नहीं कहा जा सकता; यही तो धूमिल ने कहा था –-

“लोहे का स्वाद

लोहार से मत पूछो

उस घोड़े से पूछो

जिसके मुहँ में लगाम है।”

जिस पीड़ा को जिसने न भोगा हो वह व्याख्याकार चाहे कितना ही प्रतिभाशाली क्यों न हो, उसमें पीड़ा और पीड़ित को पर्याप्त समझने की संवेदना की कमी निश्चित है । कहना-सुनना, देखना-परखना, अध्ययन-अध्यापन आदि किसी सीमा तक ले जा सकते हैं, किन्तु पीड़ा की अनुभूति तो पीड़ा माँगती है।

केन्द्रीय हिन्दी संस्थान द्वारा हिन्दी-अहिन्दी क्षेत्रों में भाषा का प्रचार-प्रसार, हिन्दी समाज और उसके साहित्य में प्रयुक्त जातिगत शब्दों को पढ़ना-पढ़ाना, प्रेमचंद आदि के साहित्य में आये जातिसूचक शब्दों के अर्थ बताना, साहित्य-सृजन ,फ़िल्म-निर्माण आदि सब कहाँ मनाही है; यह सब कुछ सद्भावना के साथ चलते रहना चाहिए। पर यदि कोई बहाने से दुर्भावानाग्रस्त प्रयोग के साथ ऐसा कुछ करता है, तो पीड़ित पक्ष द्वारा और अधिक विरोध की संभावना है। ज़रा सोचिए, जो दलित समाज हज़ारों वर्षों तक शिक्षा से वंचित रहा हो और श्रमजीवी होने के बावजूद बराबर अपमान झेलता रहा हो, उसमें सम्मान की कितनी भूख होगी।