वह सफर था कि मुकाम था / मैत्रेयी पुष्पा / पृष्ठ 1
समीक्षक:कण्डवाल मोहन मदन
सारिका, हंस, कादम्बिनी और साप्ताहिक हिन्दुस्तान,धर्मयुग, इलुस्टेट्रेड वीकली, ब्लिट्ज की लत कक्षा आठवीं – नवीं में ही लग गयी थी। गावं के एक नाते में लघु पर उम्र में बड़े भाई साहब से, जो मुझे काकाभाई कहके बुलाते थे। महाभारत रामचंद्र चाचाजी के घर में रात-रात जागकर, रामचरित मानस ताऊ जी की पूजा किताबों में से चुनकर, सूर सागर पिताजी के संग्रह की कतिपय किताबों में से, कल्याण के ढेरों संस्करण और गीताप्रेस की छपी किताबों का पारायण सूरज मणि प्रधान/ सरपंच भाई साहब की स्व-नामधन्य खुली लाइब्रेरी से और आचार्य रजनीश की ‘सम्भोग से समाधि तक’ भी पढ़ ली थी बारहवीं आते आते तक तपती दोपहरों में जाग-जागकर या देर रात गए तक। ये बात और थी कि मानव जननांगों और इतर प्रजनन विधियों और क्रियाओं के बारे में अपना ज्ञान कच्चा और निरा-निचट था ग्रामीण गणित के विद्यार्थी होने से भी शायद।
पूर्व-माध्यमिक और माध्यमिक शिक्षा की हिंदी सहित्य की कक्षाओं में आदरणीय जगदीश प्रसाद डेवरानी जी और आदरणीय कुकरेती जी का बड़ा योगदान रहा है हिंदी साहित्य के प्रति रूचि जागरण में। श्रुतलेख रूप में क्लास को, जब एक प्रतिभाशील पुराने छात्र के पुराने नोट्स की जब कॉपी करवाता था, तो परंपरागत हिंदी साहित्य के गद्य /पद्य के विभिन्न कालों और प्रेमचंद, गुलेरी जी, आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी, रामचंद्र शुक्ल, प्रताप नारायण मिश्र, श्यामसुंदर दास. परसाई जी, बच्चन, शरदचन्द्र जोशी, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, ख्वाजा अहमद अब्बास, पीताम्बर दत्त बडथ्वाल, महादेवी, निराला, दिनकर, पन्त, प्रसाद, गुप्त, हरिऔध जी के अलावा नयी कहानी , नयी विधाओं में अध्यतन हस्ताक्षरों, यथा..... मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव कि त्रयी और महिला लेखकों में मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग, उषा प्रियंवदा, मैत्रेयी पुष्पा, ममता कालिया के नाम कहानी, व्यंग्य, लघुकथा, उपन्यास की विधा में अमूमन, आम होते थे रटने के लिए। इनके कभी कोई कहानी /उपन्यास या रचना तो पढ़ी ही ना थी।
जैंसे कि अमूमन जब आप शहरी हो जाते उच्च-शिक्षा प्राप्ति हेतु, तब यही सब साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं सर्व-सुलभ होने से आपके रक्तधमनियों-शिराओं में सुबहो-शाम रचना - बसना कोई आश्चर्य की बात नहीं हो सकती, तो साहित्यिक जगत में खेमाबन्दी, नवाचारों, वाद –विवादों के बारे में हर किसी से सीमित अर्थों में परिचित होना परोक्ष रूप में लाजिमी था, और जाहिर है मै भी अपवाद ना था। वृंदा कारंत (भारत-भवन) प्रकरण, भोपाल गैस काण्ड, आपरेशन ब्रास टैक्स, इंदिरा जी की शहादत, अमिताभ का राजनीति में पदार्पण और हेमवती नंदन बहुगणा की हार, मंडल-आयोग और आगजनी, बाबरी मस्जिद ध्वंश, आपरेशन पवन, राजीव गांधी की ह्त्या, मुंबई ब्लास्ट्स, गुजरात दंगे, मुंबई अटैक्स और कई प्राकृतिक त्रासदियाँ मसलन लातूर, उत्तरकाशी, कश्मीर, सिक्किम भूकम्पों, केदारनाथ त्रासदी, कई साहित्यिक, साँस्कृतिक मनीषियों का अविर्भाव और अवसान भी। मसलन 2013 अंत में राजेंद्र प्रसाद जी का अवसान भी (अब हंस/ दलित विमर्श/ स्त्री-विमर्श/ पत्रकारिता की मुक्तता का क्या होगा?), सभी तो जेहन में समाई हुयी है क्रमवार तारीखों के रूप में। राजेंद्र जी का अवसान इसलिए भी याद है, क्योंकि नवम्बर प्रथम सप्ताह में 2013 या 2014 में बीकानेर में हुए अशोक जी द्वारा आयोजित साहित्यिक जमावड़े में उनकी सुपुत्री रचना यादव जी आयी थी कत्थक प्रस्तुति देने। वही बात साहित्य जगत की ज्वलंत और इतर घटनाओं पर भी समान- रूपेण लागू होती है। मसलन राजेंद्र-मैत्रेयी संवाद क्या याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद सा कुछ “आत्मन कामाय सर्वंप्रियम भवतु” या इतर – एकदैशिक या बहुदैशिक ?
प्रस्तुत संस्मरण को नवांकुर मैत्रेयी जी और लेखक/ सम्पादक राजेंद्र यादव जी के संबंधों में कई परिपेक्ष्यों में देखा जा सकता है, एक परिपेक्ष्य है आधुनिकता का दंभ ओढ़े साहित्यिक समाज द्वारा, मैत्रेयी जी और राजेन्द्र जी के संबंधों को लेकर बनी बनाई चटपटी कहानियों पर अब मैत्रेयी जी का स्पष्टीकरण। पर यह उनके गहन अन्तर से। उपजा रेखाचित्र, स्पष्टीकरण तो कतई नहीं है, बल्कि रिश्तों के बड़े कैनवास पर उनके द्वारा, खुली किताब सा, एक दमदार, मोटी, बेबाक, सुस्पष्ट खींची लकीर सा है। जिसमे अल्पायुगत, लघु दोषपूर्ण लकीरे अपना अस्तित्व खोकर साहित्य-समाज की परपीड़क आनंदम - स्मृतियों से स्वयमेव विलीन हो गयी है। शेष है तो एक पाठकों द्वारा हाथों-हाथ लिए जाने वाला एक संस्मरण (इस पुस्तक को लेने के लिए विश्व पुस्तक मेला 2017 में युवा पाठकों की लम्बी कतारों को देखकर लगा हमें), जो मैत्रेयी जी के अन्य रचना-कर्मों सा ही सुयशकर है।
दूसरा परिपेक्ष्य है, मैत्रेयी जी के रचना-कर्म को लेखक सम्पादक संबंधों से, मार्गदर्शक, प्रेरक/ अध्यापक, आलोचक की ओर बढ़ता सम्बन्ध, और एक निर्द्वंद सखा का सम्बन्ध भी ( ‘राजेंद्र जी! आप तो हमारी सहेली है’)......इस परिपेक्ष्य में मैत्रेयी जी के रचनाकर्म कि निष्पत्ति को रेखांकित करना सुखद है, और उन सभी रचनाओं को पढ़ने के प्रति एक पाठक के अनुराग को हवा देता है। मेरा ज्यादा ध्यान इस पक्ष पर ज्यादा है और मै इस समीक्षा को यहीं फोकस करता हूँ।
पुरोवाक के (जिसकी जरूरत है भी नही उन्हें), राजकमल प्रकाशन से पेपरबैक और हार्ड बाउंड दोनों तरह छपी उनका यह पलाश सा दहकता और अहेरी मन को सतर्क करता/ साधता रेखाचित्र समीचीन साहित्यिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक घटनाक्रमों को साथ लेता हुआ, सात सोपानों में फैला हुआ है। क्रमशः, “सेव/डिलीट/राजेंद्र यादव”, “दौरे-सफ़र : एक दास्तान”, “सफ़र था, आवारगी नहीं”, “मैंने मीता को देखा है”, “हमें मालूम है उनका पता”, “अनबन” और “वह सफ़र था कि मुकाम था” शीर्षकों से। (पेज 8 पर ‘दहकता है’, त्रुटिवश ‘दकहता है’ छपा है. और पेज 59 पर ‘मीता’ को ‘मीटा’ छापा गया है)।
‘हंस’, प्रविष्टि की प्रारम्भिक एक- दो आरंभिक रचनाओ के बाद किताबो की खेप से चेतना को हुए स्वास्थ्यलाभ से जनित और पलाशवन की दहकन से उपजी रचनाये तब के समय की समीक्षा करते हुए अपने समाज को परिभाषित करते हुए कब बीहड़ों और गावों कि लोकगाथाओं को कहानियों में ढालने लगा यह पढ़ना सुखकर है। “गोमा हंसती है” की रचना प्रविधि और उपसंहार आँखे खोलने वाला वाकया है, और समृद्ध सम्पादकीय भी, नवलेखकों हेतु आज भी. मैत्रेयी जी का कथन..............
“ आज मेरे घर की बुकरैक्स में जो किताबें है, मेरी है, मगर इनकी पांडुलिपियाँ आपकी नज़रों से गुज़री है। पढ़ने की आवृतियों में आप भी कितने –कितने थकते होंगे। माना कि, मुझे लेखक होने की धुन सवार थी जैंसे कि नए लेखकों को होती है और अरसे तक रहती है, लिखते जाने का अरमान था क्योंकि अनुभवों का भण्डार था, लेकिन आप पर कौन सा जनून सवार था? ”
अपनी लगन के लिए पद-पदवियों/ पारितोषिकों का मोह त्यागकर धूल-मिट्टी से सने अनगढ़ से मनुष्यों कि खोज में दलित, नीच, शोषित वर्ग का हंस की मुख्य रचना-धारा में शामिल होना और “नीचों का खुदा” विशेषण मिलना इसका प्रमाण था। अच्छी स्त्री से आवारा स्त्रियों, देहमुक्ति के आख्यानों ने अपने हिस्से की रेचन-जमीन ले ली। स्त्री जाति हर युग/ देश-काल/अंचल/जाति में लोकगीतों और लोककथाओं में परोक्ष/अपरोक्ष रूपेण मुखर रही है और यहीं से निकले निर्भीक सम्पादकीय के संबल संग और रविवासरीय चटपटी इतर अख़बारों / पत्रिकाओं के स्तंभों में कई विरोधाभासी वाकये ।
लेखन की शर्त हुनर होता है, हुस्न नहीं (सूरत –सीरत में अंततः सीरत ही बाजी मारती)। अपंगता में भी सामर्थ्य की हद रखना और बेबाक बोलते जाना स्त्री सम्बंधित प्रसंगों पर, जहाँ लेखिका को (दँतियाँ 1994 के सफ़र में) “सांची-सांची बात है, पुरखि नारी से हीन/ सत्रह बिस्वे इस्तिरी पुरिख है बिस्वे तीन” याद दिलाता है, वहीं राजेंद्र जी की नवोढ़ा मादक प्यार-जनित, आम पुरुषजनित आत्ममुग्धता और ‘इश्क और मुश्क छिपाए न छुपे’ की उक्ति को चरितार्थ करवाता भी दिग्दर्शित होता है। यहाँ रवींद्र कालिया जी द्वारा संपादित, “वर्तमान-साहित्य” का कहानी महा-विशेषांक का जिक्र भी है, आश्चर्य पर, फलस्वरूप हंस में जमावड़ा बढ़ता गया नव-लेखकों का। साथ ही सुबोध कुमार द्वारा आयोजित कटिहार महा-संगोष्ठी में मैनेजर पाण्डेय का आलोचक-लेखक ‘कूड़ा-लेखन’ विवाद, रामधारीसिंह दिवाकर का “इदन्नमम” को फनीश्वरनाथ रेणु जी की नज़रों के समकक्ष आँकना और ‘अप्प दीपो भव’ से लेखिका का अध्यतन स्वमूल्यांकन संग साहित्य अकादमी पुरस्कार हेतु टॉप पर रहते हुए भी राजेंद्र फैक्टर के चलते, पुरस्कार से वंचित होना, और मैत्रेयी जी पर लेखन में व्यावसायिक एप्रोच का लेबल लगना और कालांतर में अब हाय-हाय, वाह-वाह से आगे, विषपायी इंसान नीलकंठी साहित्यकार विशेषण का उपजना सब रोमांचक है पढ़ना। वापसी यात्रा में रेल-पीड़ित/बाढ़-पीड़ित के बजाय रैली-पीड़ित तंज भी रोचक बिहार में रेलों में आरक्षित डिब्बों के सन्दर्भ में आज भी।
1997-98 मयूर-विहार, लेखकों की आमद के हिसाब से दंडस्वरूप ही सही, जीवन- संगीतमय वरदान सा सिद्ध हुआ बेफिक्र, बेख़ौफ़, सींग समाये तहाँ जाने वाले आदमी के लिए। राजेंद्र जी कि आत्मकथा “मुड-मुड के देखता हूँ” में मीता का रहस्योद्घाटन डाक्टरनी को रोचक बन पडा है, जहाँ उनका परिवार विरोधी, पत्नी को सताने वाले पति और बिटिया का ख्याल न रखने वाले पिता का रूप दिखता है, वहीं जम्मू साहित्यिक-यात्रा में “चाक” (मैनेजर पाण्डेय द्वारा रेखांकित,यह रचना, सुरेन्द्र वर्मा जी के “मुझे चाँद चाहिए” से आगे लगी भारत भारद्वाज जी को) पर होने वाले जबानी हमलों की की भूमिका बनती दिखती है। दो वियोगी अलग अलग कसक लिए पत्नीत्यक्त्या पुरूषों मध्य. ‘चाक (समय-चक्र)’ की सारंग, का भाग्य ‘त्यागपत्र’ की मृणाल से विलग क्यों? और ‘उधौ मोहे बृज बिसरत नाही’ से प्रारंभ हुए ‘चाक’ की नायिका का सामंती युग से विद्रोह, और लेखिका के नैतिक-अनैतिक उद्घाटन करने के संशय का मन-संघर्ष, राजेंद्र जी से मिली विध्यानिवास शरणम की उलाहना फलस्वरूप, यथार्थ रूप में सप्त आवृत्तियों के बाद फलित होता है। यहीं पर राजेंद्र यादव जी की फ्लैपी अनाम सम्पादकीय टिप्पणी “अचल है चलने का व्यापार” पढ़ना सुखद है। हंस में तीन –तीन समीक्षाएं छपना और यादव जी का जम्मू सभा में बुलबुल के चहकने को उद्धृत करना लेखिका को दिपदिपाता और खुशियों के आंसू भी लाता है, बहुत ही आत्मीय बन पडा है, यह प्रसंग।
आदर और प्रेम साथ साथ ही चले, जरूरी नहीं. वटवृक्ष, लम्पट के उपाधि से नवाजे राजेंद्र जी के साथ संबंधों का ताना – बाना एक भद्र महिला का, अपने परिवार संग कैंसे सामंजस्य बिठा पाती होगी, वाकई कौतुहल का विषय सबके लिए ?......'ज्ञानार्जन हेतु गुरुतर की दोष-संधानता से बचना', उन्होंने शायद माँ का सिखाया यही एक रास्ता चुना । उन्हें, कमलेश्वर जी भी तो शुचिता के धुले नहीं, द्वंद भी बराबर मथता है। मन्नू दी, मीता, प्रेम, शादी के उलझे समीकरण, विछोह के भारीपन से मुक्त यह वटवृक्ष, अमृता प्रीतम के लेखन को नकारता हुआ, जैनेन्द्र जी के कथन पर अक्षरशः सही उतरता हुआ सा लगता है। बांग्ला –लेखिका मैत्रेयी देवी कि किताब ‘न हन्यते’ का जिक्र, और अपंग/बैसाखी-संबल होने से पिता से मिले उपालम्भ-वश शादी में बंधने वाले राजेंद्र जी विरोधाभास के प्रतीक रहकर भी स्त्री-विमर्शकार की ख्यातिलब्धता को प्राप्त हुए। यह भी एक अजीब गोरखधंधा है। मन्नू जी की ‘एक कहानी यह भी’ में लेखन के प्रशस्त राजमार्ग का जिक्र का उल्लेख भी है, तो मीता जी के एकल समर्पित प्रेम- परिपेक्ष्य को भी यहाँ गहनता से टटोला गया है। प्रेम की परिणति शादी में चाहकर, फिर साथ से मुक्तता कि कामना में विरोधाभास तो है ही। और वही परिलक्षित होता गया हर बार, उनके पूरे जीवन और रचना-कर्म भी।
“मैंने मीता को देखा है “ में लेखिका अक्टूबर 1998 में सफ़र में है, यादव जी की बीमारी का उपचार, ‘गुडिया भीतर गुडिया’ का प्रसंग और मन्नू दी द्वारा दिवस-उपचारिका भार कि सहमति, और उपचारान्त किनारा कर बिटिया के घर में स्वास्थ्य-लाभ हेतु टिकवाना, पुनश्च तबियत बिगड़ने पर एम्स और फिर मयूर विहार ही रहना और राजेंद्र यादव जी की अपनी आत्मकथा में/ मन्नू जी की लिखी सवयं की कहानी में मीता का अनामिका बने रहना भी पता चलता है।
राजेंद्र जी की मीता जी से मुलाकात की जिद पालना, उसका आगमन और सेवा-सुश्रूषा का अशर्त उपचारिका भाव “मन रे! तू काहे ना धीर धरे” भी पठनीय बन पड़ा है। साथ ही “समकालीन साहित्य समाचार” में मन्नू जी के राजेंद्र जी द्वारा मीता प्रेम को शादी में ना परिवर्तित करने के तंज भरे साक्षात्कार से उपजा क्षोभ, और मन्नू भंडारी जी के साहित्यरेचन यात्रा में अड़ंगे /अवरोध की राजेंद्र जी की गैर-जिम्मेदारी और कभी मन्नू जी पर लिखे राजेंद्र यादव जी के सम्पादकीयों का परस्पर अन्तर्निहित विरोधाभास, पाठक को सोचने को विवश कर देता रचनाकारों की जीवन और रेचन विसंगतियों की ओर। विवाह और प्रेम की बारीकी से पड़ताल, प्रभा खेतान की आत्मकथा द्वारा भी मंगलसूत्र कि महिमा का पुनर्गान भी सौ सोच में डाल देता है। मीता जी का स्त्री मुक्तता का सूत्र परोक्ष रूप में राजेंद्र यादव जी जैसे साहित्यिक वटवृक्ष को पकडवाना भी बहुत ही आत्मीयता भरे क्षणों में लिखा गया है मैत्रेयी जी की कथ्य शैली में। इस अध्याय को समग्रता से आत्मसात करने हेतु, कई- कई बार पढ़ना लाजिमी है ।
‘हमें मालूम है उनका पता’ की शुरुआत है, राजेंद्र जी द्वारा लेखिका को दी सलाह, कि लेखन के खिलाफ विध्वंसक टिप्पणियों को कामयाबी समझाना चाहिए। और “ओ कि कहानी” के मार्फ़त स्त्री चेतना लोप की बात कह देना भी काफी रोचक है। मोहन, कमलेश्वर, राजेंद्र त्रयी कि तुलनात्मकता की बात भी यहाँ आती है। लोकगीतों की नायिका चंदना का अपराधबोध-हीन ‘सारंग नैनी’ में कायांतरित होना भी कम रोचक नहीं है। राजेंद्र यादव जी का स्त्री विमर्श कृष्णवेणु सा हो गया नव-लेखकों और खासकर लेखिकाओं हेतु , यह तथ्य सहेजने योग्य है दिमाग में मात्र यह चेताने को , कि कितना लोकप्रिय हुआ उनका यह हथियार। ‘तेरी मेरी उसकी कहानी’ और इस कथानक की नायिका द्वारा किताबों में उतारी इबारत को देह में उतारना व्यावहारिकता के धरातल पर एक नयी बात थी। फलस्वरूप नैना साहनी, रूपकुंवर की हत्याओं पर यादव जी के तीखे सम्पादकीय झकझोरने वाले होते आये थे। प्रेम और उभयपक्षी वांछित सेक्स, यौन -शुचिता के साथ उपजा पुरुष लम्पटगीरी का वैचारिक सवाल और भारत की आजादी संग स्त्री आजादी का सवाल मानीखेज है यहाँ। इन सबके गहन जांच-पड़ताल मध्य ‘ओ’ और ‘मुक्त स्त्री’ की देहमुक्ति से परे ‘मै चुप रहूँगी’ का खोल त्याजकर ‘ ‘कितने कमलेश्वर’ से वर्जिनिया वुल्फी "गृह- सम्पति का अधिकार- विमर्श", लेखक के 'स्त्री विमर्श' के ऊपर भारी पड जाने को चरितार्थ देखना भी कम दुखद और लोमहर्षक नहीं है। फलस्वरूप चाहना की मुहर सा मिलता है उन्हें, छत्तीस साल का दांपत्य सम्बन्ध / संग त्यागने का वनवास। जो ( सम्मोहन की बांसुरी बजने का उत्सव) सा शायद मिला उन्हें। और यह मन्नू जी का कदम, समाज द्वारा, परिचित मित्रों द्वारा भी सराहा गया ।
राजेंद्र यादव जी के द्वारा, फूलबानों की इज्जत को बचाने की जुगत में , लेखिका (मैत्रेयी जी ) को अनचाहा और व्यर्थ में मिला अपयश, तथा-कथित 'गुंडी' का सम्बोधन और 'कुटान्ट', 'फूलनदेवी' का सम्बोधन लेखिका के हिस्से में आया। जिसे उन्होंने चुपचाप बिना कुछ कहे चलते रहने दिया भी। राजेंद्र जी का बचपना, समर्पण और अपराधबोध, पहले प्यार का खुमार, और उनके द्वारा इस प्रसंग में मनमोहन ठाकौर की किताब का उल्लेख, (गुस्से में पिता द्वारा अपंग जनित उपालंभ प्रेम को विवाह में तब्दील ना होने पर समरुचि साथी संग वैवाहिक बंधन में बंधना और निभाने की इच्छा भी न करना विभ्रम की महा स्थिति है उनके जीवन में। अतीत, संस्कार-विरोधी खुद संस्कार ग्रास बन बैठा। 'प्रेम में चोरी ना होती, सेक्स में होती है', सार्थक कथन है यहाँ पर। प्रसंगवश, तीन आत्मकथाओं ‘एक कहानी यह भी (मन्नू भंडारी)’, ‘अन्या से अनन्या (प्रभा खेतान)’ और ‘गुडिया भीतर गुडिया (मैत्रेयी पुष्पा)’ का सम -कथ्य पर भिन्न - सारतत्व भी रोचक और उसे जीवन में तीनो लेखिकाओं द्वारा कापी कर लेना भी साधारण मानविक-त्रुटि का समावेश भी रोचक है। बाद के प्रसंगों में “मुराद” का पदार्पण और अल्प समय में बड़ी जिम्मेदारियां संभाल लेना भी कम रोचक नहीं है। राजेंद्र जी को भेंटने वालों में असीमा भट्ट जी, मुक्ता जी, का उल्लेख भी आया है। हंस की जिम्मेदारी में बेटी, पंकज बिष्ट, संजय सहाय के साथ लेखिका को भी लेने की उनकी मंशा पर लेखिका द्वारा मना करना, नोट करने वालेी बात है, जो कालांतर में सही सिद्ध भी हुयी।
‘होना, सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ’ सा पोर्न लेखन, सहेली, संबल, मार्गदर्शक, कितने विरोधाभास है एक ही समय में एक ही व्यक्ति में। गार्गी, मैत्रेयी प्रसंगों में एक पितृसत्तात्मक आप्तवाक्य , "औकात में रहो" का जिक्र, मनु, याज्ञवल्क्य के नियम, धर्म आदि का और औरत- वशीकरण, सिद्धियाँ, आसन, औषधियां सब पुरुष समर्थक उपाय ही , कहीं भी महिला समर्थक उपायों का जिक्र नहीं होने के विचार का अच्छा विवेचन है इन पृष्ठों पर। , राजेंद्र, यादव के लिए लज्जाजनक विशेषण (औरतखोर) मिलने पर भी उनका एक साहित्यिक मार्गदर्शन में एक ज्ञान का पुंज होना भी जरूरी और मानने वाली बात है, लेखिका के सन्दर्भ में। इन्ही पन्नों में, राजेंद्र जी की “आदमी की निगाह में औरत’ किताब के ‘एक धार्मिक अनुष्ठान के लिए निमंत्रण –पत्र’ का उल्लेख भी समसामयिक है। आदि विद्रोही (स्पार्टाकस) , रूप कुंवर सती प्रसंग, पद्मिनी जौहर के बहाने महल को आग लगाकर भाग निकलने की कथा से यादव जी का खुश हो जाना और और इससे कबूतर –बस्ती से उपजी भूरी कबूतरी से जनित, लेखिका के उपन्यास “अल्मा-कबूतरी” का अविर्भाव मन को हुलसाता है। जो कालांतर में राजेंद्र जी का प्रिय उपन्यास भी रहा है। सच में, नामवर जी का आलेख , “रात, चोर और चांद”, गुरुदयाल जी का ‘परसा’ और बलवंत सिंह जी के उपन्यास पर बुरी तरह राजेंद्र जी के रीझ जाने के साथ, साहित्यिक- अकेलेपन को महसूसते राजेंद्र जी का सोचकर, लेखिका के उनसे कतराते मन संग यह अध्याय ख़त्म होता है।
‘अनबन’ की शुरुआत होती है ३१ जुलाई २०१० ‘हंस –महोत्सव’ वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति में उपजे हिंसा वक्तव्यों और दृश्यों से, एक अनबन में सहायक होने वाले कथन से। विभूति नारायण राय के ‘छिनाल शब्द से, उसके प्रति कृष्णा सोबती ,मन्नू भंडारी जी के प्रतिकार से और मैत्रेयी जी के जल्दी ना प्रतिकार से। पहले-पहल, सलवा –जडूम, चिदंबरम, विश्वरंजन, छिनाल, उमाशंकर सिंह, जनसत्ता और एक अगस्त विरोध दर्ज से मन्नू, मैत्रेयी, सोबती, तीनो लेखिकाओं द्वारा। ‘कितने बिस्तरों में कितनी बार’, ‘निम्फोजिक कुतिया’ के विशेषण और वर्धा कुलपति का यह गैर-जिम्मेदाराना वक्तव्य, ज्ञानोदय का इंटरव्यू और रवींद्र कालिया के इस्तीफे की मांग, अखबारों का लेखिका –पक्ष, ‘गुडिया भीतर गुडिया ‘ में मैत्रेयी जी को नंबर एक छिनाल सिद्ध करने की भरद्वाज जी कि गीदड़ – भभकी, चित्रा मुद्गल जी का छिनाल पर ठंडा वक्तव्य, राजेंद्र यादव जी का विभूति रॉय जी को कुलपति से हटाने के राय के प्रस्ताव का विरोध सब साफ़- साफ़ अंकित किया है लेखिका ने।
मन्नू भंडारी जी का विरोध से पीछे हटना और मैत्रेयी जी को बहुतेरे नव-लेखिकाओं और लेखकों का साथ मिलना, अंततः राजेंद्र जी का मैत्रेयी जी हेतु राय के ‘छिनाल’ वक्तव्य का इस्तेमाल, हंस में ‘रंडीयां’ कहानी का छापना और उसे लेखिका को पढ़ने का आग्रह करना सब दिमाग का दही बनाने के लिए काफी है आम पाठक के लिए। पर चारित्रिक दृढ़ता की पुष्टि भी होती इन सभी बातों से लेखिका के पक्ष में । संवाद , अवरोध आदि, नया ज्ञानोदय का बेवफाई अंक (एक और दो ), राजेंद्र यादव का लेखिका के विरुद्ध सितम्बर २०१० का सम्पादकीय और फिर ‘तुम्ही ने तो दिए है ये हथियार’ की जन असहमति से बौखलाना, और गुरु का शिष्य पर रूठने की पराकाष्ठा का चरम संग ‘रूठी हुयी लेखिका’ का संबोधन भी, लेखिका द्वारा पुरुष ट्रेनिंग सेंटर, करनाल जाने पर आपत्तियां भी बहुत ही मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है, राजेंद्र जी की मन की परतों का। "‘जाति में पैदा होना किसी का अपना चुनाव नहीं होता" (राजेंद्र), "वैश्या स्वतंत्र नारी है" (यशपाल) कथन उल्लेखनीय यहाँ ।
लेखिका का प्रतिभा पाटिल जी से मोहभंग, वृंदा कारत से बंधी आश, प्रख्यात आलोचक नामवर जी कि अनामवारियाँ, लेखिका का राजेंद्र जी से मोहभंग और ‘आउटलुक’ २०११ में राजेंद्र जी द्वारा, मैत्रेयी को रेणु संग तुलना योग्य ना पाना, पर उन्ही के द्वारा पूर्व में ‘चाक’ की मुक्तकंठ प्रशंसा , उनके द्रोणाचार्यी- विरोधाभासों को दिखाती है। आगे ‘कहीं ईशुरी फाग’ में ईशुरी को लम्पट कहने पर राजेंद्र जी के खिलाफ आंचलिक लोगों का उमड़ा जन आक्रोश भी पठनीय बन पड़ा है। राजेंद्र जी का लेखिका को उद्बोधन, ‘तेरे लिए मैंने लाखों के बोल सहे’ और फ्लैप की बजाय शिलालेख लिखने की हसरत, और ताने दे दे मना लेने की कला का बखान भी तो कम आत्मीय नहीं है।
आखिरी अध्याय, “वह सफ़र था कि मुकाम था”, में , नारी के प्रति भय और घृणा की धारणा का प्रतिपादन करते राजेंद्र जी, नीत्से का प्यार और पराक्रम की नीति का भान भी दिलाता है। राजेंद्र जी का बीमार होना, रचनाकारों में मैत्रेयी जी को तरजीह देना औरों को अखरना स्वाभाविक ही था। और यही सब आत्मीयता भरी कसकेँ मैत्रेयी जी को मिलवाते है उन्हें फिर एक बार और शायद , अन्तिम बार। रसियन सेण्टर एक कार्यक्रम में आने की गुजारिश और लेखिका का स्वास्थ्य ख़राब होने पर भी स्वोक्त वाक्य ‘तेरे पावं जहाँ जाना चाहें, तू चल वहां’ से प्रेरित होकर वहां अलप समय हेतु जाना, शामिल होना उनके श्रद्धा भाव को परिलक्षित कर देता है बखूबी।
राजेंद्र जी के लिए प्रेमचंद सहजबाला का आयोजन, और राजेंद्र जी का 'स्वस्थ आदमी के बीमार विचार’ का सह –लेखन, नामवर सिंह जी की इस किताब की भूमिका सब कचोटता है लेखिका को। और राजेंद्र यादव जी का मौन -मुद्रा आशीष बरसते रहने की भूमिका, आशीर्वादी मुद्रा भी काफी इमेज ब्रेकिंग करती राजेंद्र यादव जी की। संजय सहाय जी की" हंस" सम्भालाने में मुख्य भूमिका ने लेखिका को जन्मजात सहज मनुज चित्तवृत्ति की कमजोरी की ओर ध्यान दिलाकर बहुत कुछ स्मृत करवा दिया। परख - प्रस्नाग में , लेखिका की पाण्डुलिपि को राजेंद्र जी द्वारा लौटाना भी सहज बात लगती उनकी। निर्भया काण्ड के बाद जस्टिस वर्मा वाले नियम से शायद मन ही मन दहलना, चंद्रमुखी- प्रकरण, उन पर हमला होना, पिट जाना, और लेखिका को साहित्यिक आत्महत्या का उलाहना देने संग, लेखिका के हैदराबाद में होने से चिर-परिचित उलाहनाओं का दौर, तिरुपति ऑय सेंटर में उनका इलाज, और आँखों की रौशनी की वापसी के बाद २८ अगस्त के जन्मदिन की खुशियाँ भी तो सहेजने योग्य यादें है लेखिका के पास।
इसी जन्मदिन में , आलोचक भरद्वाज जी का मैत्रेयी जी के पति से मिलना, मन्नू भंडारी जी का आना, कहानी प्रतियोगिता में किरण कि कहानी को प्रथम पुरस्कार और मैत्रेयी- राजेंद्र सुलह की कानाफूंसी, और जन्मदिन की सुबह की बधाइयाँ तथा लेटेस्ट उपन्यास, “फ़रिश्ते निकले” का शीर्षक सुझाना, मैत्रेयी जी का गुरु को अपनी रॉयल्टी में से पांच हजार रुपये देना, चश्मे के एवज में बहुत ही मार्मिक बन पड़ा है। अपनत्व और साजिश का महीन विरोधाभासी रिश्ता आखिर दम तोड़ ही गया २८ अक्टूबर २०१३ को।
जिंदगी भर रीति- रिवाजो की खिलाफत करता व्यक्ति, अपनी बिटिया के हाथों उन्ही रीति- रिवाजों से पार पाया इस जगती से। शेष रह गया है, तो "लिखो", "लिखो", "लिखो" का उनका आवाहन और लेखिका का उस मार्ग पे चलते जाने की अदम्य जिजीविषा। सद्य- प्रकाशित ‘फ़रिश्ते निकले’ और ‘इदन्नमम ‘ कि बुंदेलखंड विश्वविध्यालय के बी ए और एम् ए कक्षाओं में पाठ्यक्रम में शामिल होने की बात शुकून भरी है। और बहुत कुछ अभी भी आना शेष बुंदेलखंड से, मिथकों से, लोकगीतों से, स्त्रियों से। लेखिका को कोई शिकायत नहीं राजेंद्र यादव जी के प्रति, बल्कि एक श्रद्धा, आत्मीयता और कृतज्ञता का भाव है क्षणिक अनबन के साथ, अंततः वो अनमना भाव भी नहीं है।