वह सफर था कि मुकाम था / मैत्रेयी पुष्पा / पृष्ठ 2

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मैनें मीता को देखा है
मैत्रेयी पुष्पा

वह सन् 1998 का साल था और अक्टूबर का महीना. वह महीना राजेन्द्र जी के लिए बीमारी लेकर आया था तो उससे पहले वे प्रसार भारती के सदस्य चुने गए थे. खुशखबरी और बीमारी गड्डमड्ड थीं. और राजेन्द्र जी अपने स्वभाव में अलमस्त.

जब रोग बर्दाश्त के बाहर हो गया, अपने साथ बुखार और कँपकँपी ले आया तब वे जैसे अपने हंस कार्यालय में बेचैन हुए.

‘डाक्टरनी’ उनकी आवाज में अपने लिए पुकार. ऐसा जब भी होता मैं समझ लेती, राजेन्द्र जी को छींक आने से लेकर लिवर, शुगर, ब्लडप्रेशर, बुखार-खाँसी कुछ भी हो सकता है. कोई छोटा फोड़ा-फुंसी ही हो-‘डाक्टरनी’ की बाँग आ ही जाती है.

‘‘आप हमारे ‘तिरुपति आई सेंटर’ आ जाइए राजेन्द्र जी.’’ ‘‘तुम भूखे पेट बुलाओगी.’’ ‘‘वह तो है. मगर टेस्ट के बाद नाश्ता कराने की मेरी जिम्मेदारी.’’ वे आए, टेस्ट हुआ. शुगर लेबल खतरनाक स्तर पर मिला - 400

राजेन्द्र जी को किसी भी भयानक या खतरनाक आदमी या बीमारी की खबर देना उनको दुखी करने या डराने जैसा नहीं होता था, रोमांचित होते तो लगता खुश हो रहे हैं. जैसे बिना दहशतों के रास्ता क्या और बिना खतरों के जिन्दगी क्या!

तब की बात करते हुए मुझे आज अर्चना वर्मा का वह लेख याद आ रहा है जिसमें उसने लिखा है कि राजेन्द्र जी का शुगर लेवल खतरनाक ढ़ंग से बढ़ा रहा था और मैत्रेयी ने अपने यहाँ टेस्ट कराकर उसे नार्मल बता दिया.

अब कोई बताए कि ऐसे दुष्प्रचार के लिए मैं क्या करूँ!

पूछ ही सकती हूँ कि अगर उनके टेस्ट नार्मल थे तो डॉक्टर साहब (मेरे पति) उनको लेकर एम्स क्यों गए थे? जल्दी से जल्दी कैज्युअलिटी में दाखिल क्यों कराया था? कमरा तो बाद में मिला

ऐसी बिना सिर-पैर की बातें मेरे पास तमाम जमा हैं, उनका उल्लेख करना जरूरी नहीं क्योंकि मैं फिर ‘राजेन्द्र कथा’ से भटक जाऊँगी.

राजेन्द्र जी के लिवर के ऊपर एब्सिस (फोड़ा) बन गया. मामला गम्भीर था.

राजेन्द्र यादव तब तक कैज्युअलिटी में ही थे कि मैं और डॉक्टर साहब अपनी गाड़ी लेकर मन्नू को लिवाने पहुँचे. हौजखास तक जाते हुए भी हम घबराए हुए थे. माना कि हम बहुत नजदीकी शुभचिन्तक थे लेकिन परिवारी या किसी तरह से संबंधी तो नहीं थे. हमारी औकात इस समय ‘निजी’ के नाम पर कुछ नहीं थी. मन्नू भंडारी लाख दर्जे अलग रहती हैं उनसे मगर हैं तो उनकी पत्नी ही. उनका संबंध आधिकारिक है. हमने उनको नहीं बताया तो जवाबदेह हम होंगे. एकदम अपराधी घोषित कर दिए जाएँगे और बेपर की आशंकाएँ उठेंगी. ऐसे समय आपका प्रेम भले पहाड़ जैसा बना रहे मगर उसकी वकत राई भर भी नहीं होती.

उफ! मन्नू दी तैयार नहीं थीं आने के लिए. बात भी ठीक थी कि जब वे अपनी बीमारी में राजेन्द्र जी को नहीं आने दे रहीं तो उनकी बीमारी में क्यों जाएँ ? हम दोनों थे कि घबराहट के मारे हुए. गिड़गिड़ाने लगे कि मन्नू दी किसी तरह चलें. डॉक्टर साहब तो ‘चलिए-चलिए’ की रटन लगाए हुए थे.

मैनें डॉक्टर साहब से कहा -‘‘तुम अस्पताल चलो राजेन्द्र जी के पास, मैं मन्नू दी को लिवा लाऊँगी. डॉक्टर नवल से कहना डायबिटीज एक्सपर्ट को बुला लें.’’

मन्नू दी अब तैयार हों, जब तैयार हों, हमें भी हड़बड़ी मची थी. वे जो भी कुछ सोच-समझ रही हों, हमें देर हो रही थी.

खैर, मन्नू दी तैयार हुईं. हमारी जान में जान आई कि जिन्दगी भर साथ निभाने के वादे पर विवाहिता होनेवाली पत्नी ने हमारी अरज सुन ली, इन अलगाव भरे दिनों में कड़वे अनुभवों से गुजरते हुए. मुश्किल लम्हे उनके लिए भी और हमारे लिए भी. सद्भाव ने मुश्किल हल कर दी.

यह बात प्रसंगवश यहाँ आ रही है जिसे मैं कुछ पंक्तियों में ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ में भी लिख चुकी हूँ.

इसके बाद मन्नू दी रोज आती रहीं सबेरे के दस या ग्यारह बजे और उनके पतिव्रत की महिमा ने साहित्य का एरिया ऐसा पुण्य-पवित्र बना डाला जैसा कि पौराणिक कथा की सती शांडिनी की पति भक्ति ने. मन्नू दी के भाग्य में अकूत यश है, यह भी मैनें तभी जाना कि हर हाल में हर दिशा से उनकी ओर ख्याति खिंची चली जाती है.

रात के समय का जिम्मा किशन पर रहा जो राजेन्द्र जी का ड्राइवर था और घर में रहकर तीमारदार की भूमिका बखूबी निभाता रहा उनके अन्त समय तक.

अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद मन्नू जी ने अपने अलगाव को सुरक्षित रखा. आने-जाने की औपचारिकता या लोक-लाज अस्पताल तक ही थी जहाँ तमाम साहित्यकार आते-जाते. वे इस नाजुक मौके की नब्ज पहचानती थी कि राजेन्द्र जी के आसपास दिखने में उनके बड़प्पन और पति की बेजा हरकतों के ग्राफ की नाप-तौल होगी और वे उत्तम कोटि नारी की उपमा बनेंगी.

यदि इस तरह से सोची-समझी नीति न होती तो अस्पताल से छुट्टी होने के बाद राजेन्द्र जी को वे अपने घर हौजखास में आने देतीं जो कि उन्होंने किसी भी तरह राजेन्द्र जी को अपने घर टिकाना मंजूर नहीं किया. हाँ, इतना उपकार जरूर किया कि बेटी रचना से कह दिया कि वह कुछ दिन पिता को अपने घर रहने दे. काश, ऐसा तब भी कहा होता जब राजेन्द्र यादव हौजखास से निकलकर मयूर विहार केदारनाथ जी के फ्लैट में किराए पर आए थे. रचना तो तब भी मन्नू जी के घर के ठीक सामने वाले घर में रहती थी मगर तब उनका निकाला जाना दोनों ने तय किया था. और आज तक यह खुलासा नहीं हुआ कि वे क्यों निकाले गए?

मैं चाहती थी एम्स से डिस्चार्ज होने के बाद राजेन्द्र जी हौजखास ही रहें क्योंकि आगे कोई दिक्कत आती है और अस्पताल ले जाने की अनिवार्यता होती है तो हौजखास ही सबसे नजदीकी जगह है. डी.एल.एफ. तो कोसो-कोस दूर....

और हुआ भी यही. उनकी तबियत फिर बिगड़ी. रचना के घर से उनको किसी तरह लाया गया और एम्स में भर्ती कराया फिर से. अब पारी की दूसरी शुरुआत थी.

अबकी बार वे अस्पताल से निकलकर रचना के घर हरगिज न जाना चाहते थे. और यह भी कि पत्नी या बेटी में से कोई भी उनके साथ आने को तैयार है या नहीं ? राजेन्द्र जी न जाने क्या-क्या विकल्प खोज रहे थे? या कि वास्तविक संबंधों को ही विकल्पों में तब्दील किए जा रहे थे?

वे अस्पताल में ही मुझसे कुछ गोपनीय कहना चाहते थे मगर समय ने इतना एकान्त दिया ही नहीं कि वे अपने मन की बात कह पाते. मयूर विहार आकर उन्होंने मुझे बुलाया. ‘‘आप ठीक तो हैं न ?’’ ‘‘हाँ, बीमारी के बाद मरीज जैसा होता है, वैसा ही हूँ.’’ वे बिस्तर पर लेटे हुए थे. ‘‘तो मुझे किसलिए बुलाया ?’’ ‘‘तुम मेरी घनिष्ठ मित्र हो न, इसलिए.’’ ‘‘ठीक है, मान लिया, अब बताइए भी न! कोई जरूरत ?’’ ‘‘नहीं डाक्टरनी, कोई जरूरत नहीं. बस एक काम था, तुम ही कर सकती हो.’’ उनकी आवाज थी कि एक अनुनय... ‘‘मैं कर सकती हूँ तो जरूर करूँगी.’’ कहने के बाद मैं कई ऐसे काम सोचने लगी जिन्हें वे मुझे सौंप सकते थे, मसलन-कुछ दवाएँ, कुछ खास खाने की चीजें जैसा कुछ. उन्होंने मेरी ओर कागज की एक बहुत छोटी चिट बढ़ाई. हाथ काँप रहा था. ‘‘इसमें एक नम्बर लिखा है, टेलीफोन कर दो.’’ ‘‘कहाँ करना है ? अच्छा, मैं घर से मोबाइल फोन ले आऊँगी, आप ही कर देना बिस्तर पर लेटे-लेटे.’’ ‘‘आगरा करना है, लेकिन मैं नहीं करूँगा.’’ ‘‘क्यों, आप क्यों नहीं ?’’ ‘‘अरे यार, तुम भी! सारी बात पूछकर मानोगी. उसकी भाभी मेरी आवाज पहचानती है, उसे फोन नहीं देगी.’’ ‘‘उसको किसको ?’’

उन्होंने मुझ नाम बताया लेकिन मैं यहाँ लिखूँगी नहीं क्योंकि उन्होंने हमेशा उनका नाम छिपाया और उनको मीता नाम से लिखा.

मुझे हँसी आ रही थी, इस उम्र में भी भाभी का पहरा.प्यार करने वालों को किसी भी उम्र में आजादी नहीं मिलती...

फोन करने का जिम्मा मैनें ले लिया. क्या-क्या कहना है, यह भी सोच लिया-बीमार हैं. आपको याद करते हैं, बहुत याद करते हैं. मुश्किल से जिंदगी बची है. यहाँ मयूर विहार वाले घर में अकेले हैं. उधर से प्रश्न आएगा - तो ? कहूँगी, आपको बुला रहे हैं, आप आएँगी न ?

वे कहते हैं कि आपने उनको बिना किसी दुविधा के अपनाया है. यहाँ तक कि उनकी अपंगता से उपजी कुंठा से भी बचाती रही हैं. वे बताते हैं-कभी देखा-देखी हुई, तब से अब तक संग-साथ नहीं हुआ.

उसे भूल नहीं पाया मैं. कहाँ-कहाँ नहीं बुलाया था उसे रात-बेरात, जगह-बेजगह, वह हाजिर रही है. मई की चिलचिलाती धूप में भर दोपहर रेतीले मैदान में दो मील तक मेरे रिक्शे का धक्का देते हुए ले जाना पड़ा था उसे. रेत में पाँव धँस जाते थे.

इतनी सारी बातें. तमाम यादें और उद्गार.

मैं सोचने लगी हूँ, राजेन्द्र जी ने इनका असली नाम क्यों छिपाया , मन्नू दी ने भी उनको ‘मीता’ ही लिखा है. दलील यह कि उनकी बदनामी होगी. अरे, जिसने मोहब्बत में जीवन होम कर डाला, उसको बदनामी डराएगी ? प्रेम करने की सजा में प्रेमी ने ही गुमनाम कर दिया या शादी न करने का दंड दिया है.

अगर मन्नू भंडारी राजेन्द्र यादव से प्रेम करती रहतीं, शादी नहीं करतीं, तो उनका नाम मन्नू की जगह कुछ और रख दिया जाता ? राजेन्द्र यादव का नाम जस का तस क्यों रहा ? उनको बदनामी का डर नहीं ? राजेन्द्र जी की यह कायरता चरम पर है. शादीशुदा जिन्दगी ने उन्हें अपने शिंकंजे में ऐसा कसा है कि सिर उठाने तक साहस नहीं. मन्नू जी ने ब्याह रचाया, यह हिम्मत भारी से भारी हुई कि मोहब्बत हौसला हार बैठी. जिसका नाम फख्र से लेना चाहिए था, उसको छिपाकर क्या सिद्ध किया ? क्या आपका दाम्पत्य उसकी प्रेम तपस्या से भयभीत होने लगा ? या आपको अपनी शादी प्रेम की हिलती-डुलती कीली पर टिकी महसूस होती रही?

एक निर्भीक स्त्री को लांछन, बदनामी और तोहमतों के झूठे पर्दे के पीछे छिपाना आपके द्वारा स्थापित किए स्त्री विमर्श पर कलंक है. अपने प्रेमपत्र लौटाने का तकाजा करना, आपको किस ऊँचाई पर ले जाता है ? ऐसी कुछ बातें, ऐसे ही कुछ अपमान आपके विश्वासघात बन गए जिन्हें आपने समझा ही नहीं, जिया भी. खोए हुए रास्तों पर बार-बार जाने की अदम्य आकांक्षा आखिरकार भटकन बनकर रह गई.

फोन आया, राजेन्द्र जी बोले-‘‘डाक्टरनी, आओ देखो, कौन आया है.’’

डनकी मोटी मर्दानी आवाज में मिश्री घुली थी. हिन्दुस्तान अपार्टमेंट के उस घर में खील-मखाने की ब्रजमंडल से कोई गोपिका आई है इस इन्द्रप्रस्थ में.

राजेन्द्र जी का घर खील-मखाने हो रहा है. दरो-दीवार पुलकित हैं, द्वार और झरोखे मुस्करा रहे हैं. बहुत लोग आते-जाते रहे हैं यहाँ, इस तरह अपना कोई पहली बार आया है. चिड़िया कौआ भी अपनी लय, धुन बजा रह हैं या आज ही सुनाई दे रही है.

मीता! गोरा रंग, लम्बा कद और अंडाकार के साथ गोलाई लिए चेहरा. आँखों में तैरती मुस्कराहट. बिना आवाज वाली बोली जैसा कुछ. वे हँस तो नहीं रहीं, घर ही खिलखिला उठा है. मैं गौर से देखती हूँ कि एक स्त्री को स्त्री की तरह. साड़ी बाँधने का सलीका और उठने-बैठने का आकर्षक अन्दाज. गरिमा से दीप्त व्यक्तित्व की स्वामिनी, मीता! कन्धे तक कटे बालों वाली आधुनिका की छवि. राजेन्द्र जी ने बताया कॉलेज में प्रिंसिपल ...

मैं बराबर उनको देख रही हूँ. घूरना जैसा न लगे, नजर दूसरी ओर मोड़ लेती हूँ. यह मीता, रेणु की हीराबाई ? आधी सदी से ज्यादा वक्त गुजर गया, राजेन्द्र यादव से लगा नेह फीका नहीं पड़ा या जीया जा रहा है अपने मन का जीवन ? प्रमाणित कर डाला है कि प्रेम कहानियाँ न झूठी होती हैं, न काल्पनिक. इस तरह की प्रेमकथा में टूटन-फूटन के लिए भी जगह नहीं.

किससे प्रेम किया मीता ? साहित्य-जगत के खलनायक से ? पत्नी के मुजरिम से ? बेटी के गुनहगार से ? नहीं-नहीं, और भी इल्जाम...सती सावित्रियों का शील भंग करने वाले से ? इस ‘सेक्स मास्टर’ से मोहब्बत कैसे चलती रही मीता, यहाँ के नैतिकता के पुजारी आपकी निष्ठा पर भौचक हैं. ऐसी बहुत सी बातें मीता सुनती रही हैं फिर भी मानती रही हैं कि उनको राजेन्द्र से प्रेम है. निश्छल, निष्कपट प्रेम ने मानो कुछ नहीं सुना.

बीमारी से जूझकर उठे हैं राजेन्द्र जी. लगता है, बीमारी के बाद मीता का दरस-परस उनके लिए ताकत देने वाला टानिक है, नहीं तो कमजोर आवाज खनक कैसे उठती.

घर की रसोई महक उठी है, मीता अपने हाथों भोजन की व्यवस्था कर रही है. वे राजेन्द्र जी की पसंद की सब्जियाँ बनाने के जनत में रोज ही रहती है. मेंथी-पालक चुनती हैं. आटा भी खुद ही गूँथना है, मरीज के पथ्य के लिए जरूरी जो है.

और वह गीत वे गुनगुना रही हैं- मन रे, तू काहे न धीर धरे... वो निरमोही मोह न जाने, जिनका मोह करे... इतना ही उपकार समझ जितना कोई साथ निभा दे...

मेरी समझ में आ गया कि उन्होंने इतना ही साथ स्वीकार किया है जितना राजेन्द्र जी ने दिया या मीता ने माना. राजेन्द्र जी खुद लिखते हैं -

‘‘मेरे आग्रह पर वह कलकत्ता भी आई और साथ ही ठहरी भी. सारे दिन हम लोग कलकत्ता घूमते और रात की बातें करते हुए प्रतीक्षा करते कि कौन विवाह के लिए पहल करता है. ऐसी बातों के लिए उसमें स्त्रियोचित संकोच नहीं था. आखिर बात मैनें ही उठाई. बहुत खूबसूरती से उसने जो कुछ कहा, उसका आशय यही था कि हम मित्र हैं और जिन्दगी भर हमें एक दूसरे की मित्रता की जरूरत पड़ेगी. शायद मेरे सिवा उसने इतनी गहराई से किसी को जाना भी नहीं है इसलिए यह सवाल भी बेमानी है कि कहीं कोई और उसके मन में है.’’

तब ? वे तो मित्र थीं, मित्र रहीं, साथ नहीं छोड़ा. यों तो कई बार उमड़ आया होगा इस प्रेमिका के दिल का हाहाकार...राजेन्द्र जी, आप ही बेवफा हो गए.

कोई ईर्ष्या ...डाह...कैसे पूछा जाए इस मुस्कराते होठोंवाली स्त्री से ? मैनें मान लिया राजेन्द्र जी बेघर हो गए पत्नी के घर से, मगर प्रेमिका के दिल में बड़े आराम से रहते हैं. मीता, अपने आसपास के लोगों में कि पढ़ते समय सहपाठियों में शेरनी का दर्जा पाए रहीं. दबंग और दुस्साहसी, बेबाक ऐसी कि छल-कपट दूर-दूर भागे. राजेन्द्र यादव के प्रेमपाश की बुलबुल बनी रहीं. आज भी अपनी मोहब्बत की आजादी को बचाए हुए. राजेन्द्र जी बड़े लेखक तो मीता बड़े कॉलेज की प्रिंसिपल, एक दूसरे को लूटने-खाने के लिए साथ-साथ यात्राओं पर नहीं निकलते थे. शक-सुबहों से दामन छुड़ाकर ‘अपना केवल प्यार’ ही बचाने के उपक्रम थे.

मेरी निगाह में ‘समकालीन साहित्य समाचार’ में छपा मन्नू भंडारी का साक्षात्कार आ गया. वे कहती हैं-‘‘राजेन्द्र ने अलग होकर मीता से शादी क्यों नहीं कर ली ?’’ यह कैसा क्षुब्ध शहीदाना जुम्ला फेंका है! मन्नू जी ने! किसी की जीवन भर की बनाई प्रेम तस्वीर पर गंदे धब्बे की तरह पड़ा यह वाक्य. जीवन की संध्या और शादी जैसा क्रूर मजाक! कैसे पूछा जाए कि राजेन्द्र यादव ने तलाक लिया या नहीं ?

मुझे ही नहीं पढ़ना चाहिए था यह साक्षात्कार क्योंकि मैं मीता की सादगी और सहिष्णुता गरिमा के डूबी थी. एक प्रेम सरोवर राजेन्द्र जी के घर लहराया था और उस सरोवर में प्यार का जीवित पंछी अपनी प्यास बुझाता था, यह लालन-पालन किसके बस का होगा ? होंगी राधा, मीरा भी होंगी और मोहब्बत की मंजिल में लैला, हीरा और सोहनी भी एकतारा बजाती हैं, लेकिन राजेन्द्र जी की मीता का प्रणय गीत आज हम लिख रहे हैं और आशा करते हैं. उनके प्यार की दास्तान की वजह से मेरी किताब जिंदा रहेगी. कहते हैं न ‘न हयन्ते हन्यमाने शरीरे’-प्यार आत्मा की तरह कभी मरता नहीं.

आपके इस प्रेम में कितना सेक्स था, कितनी मोहब्बत और यह सब कब था, कब नहीं, इसके ब्यौरे तो आप ही जाने! हम तो इतना ही जान पाए हैं कि अपनी इस प्रेम-कहानी को पूरी करते हुए आप दोनों काँटों की सेज पर सोए हैं. कोई नहीं समझ पाया कि तन-मन को मिलन की इतनी ही लालसा रहती होगी, जितनी कि मछली को पानी की रहती है, जितनी कि फूल को हवा की रहती है, जितनी कि आँखों को दर्शन की रहती है. लेकिन इन सबके बिना भी जिंदा रहना केवल उस मोहब्बत भरी जिंदगी का ही साहस हैं. जो आपने और आपकी मीता ने जी है.

एक जगह की बात है, संभवतः मुंबई के कल्याण की, जहाँ एक कॉलेज में मन्नू जी पर लेख पढ़ा जा रहा था या जहाँ कहीं भी पर्चे पढ़े जाते हैं वहाँ अक्सर यह सुनने को मिल जाता है कि राजेन्द्र यादव ने अपनी दुष्टता और लम्पटता के चलते मन्नू जी को छला है. लेखन को क्षति पहुँचाई है, उनकी थीम चुराई है, नहीं तो आज मन्नू जी साहित्य को कितना कुछ दे चुकी होतीं! बेशक हम भी यह मानते हैं कि निरंतर लेखन करता हुआ रचनाकार समाज को समय के बदलाव के साथ साहित्य के बदलाव को चित्रित करता जाता है. मन्नू जी भी आवाज बुलंद करती हुई अपनी रचना साहित्य को अर्पित करतीं.

लेकिन मन्नू जी का काम राजेन्द्र यादव ने रोका, उनके लेखन में अड़ंगा लगाए, ये सब बेकार की बातें हैं. कोई किसी को नहीं रोक सकता. रोकेगा तो कब तक रोकेगा और फिर मन्नू भंडारी इतनी निरीह, मासूम और नादान नहीं हैं कि रुक जाएँ. उन्होंने अपने रसूखवाले पिता से विद्रोह किया है जिनके मुकाबले राजेन्द्र यादव किस खेत की मूली हैं! और फिर जो मैनें देखा है, राजेन्द्र जी को तो संपर्क में आया आदमी बिना लेखन किए सुहाता नहीं. दफ्तर में वीना, दुर्गा और किशन भी लेखक हो जाएँ तो उनका मन और कार्यालय खिल उठे.

मन्नू जी के लिए तो राजेन्द्र जी के लिखे सम्पादकीय गवाही देते हैं कि किसी न किसी बहाने वे मन्नू भंडारी का जिक्र ले ही आते हैं. यह बात सारे पाठक जानते हैं, निहितार्थ न समझ पाते हो, यह दीगर बात है. अब किसने किस को छला ?

पति-पत्नी का रिश्ता सीधा-सादा चले तो इससे आसान कोई राह नहीं और अगर कुछ उलझ जाए तो दाम्पत्य लड़खड़ाने लगता है. धोखे बाजियों के हाथ और छल-प्रपंचों के जाल में यहाँ कौन आया कौन नहीं, इसका फैसला एकतरफा नहीं होना चाहिए. क्या मीता इस प्रपंच की शिकार नहीं हुई ? उन्हें अपने नाम तक से बेदखल कर दी यादव दम्पती ने. कौन है मीता ? कैसी है मीता ? कितनी मीताएँ हैं शामिल? आप कल्पना करते रहिए, मीता को असली नाम पर गुमशुदा ही पाएंगे. पाठक भी ठगा सा रह जाता है और मीता भी क्या आश्वस्त होती होगी ?

बेशक, विवाह प्रेमी-प्रेमिकाओं को अपने वजूद से बेदखल करके ही मानता है. प्रेमियों के अस्तित्व का खात्मा यहीं होता है. हवन कुंड की आग में स्मृतियों को जलाने का नियम है. इसलिए तो वैवाहिक प्रेम की जिंदगी को सुरक्षित मान लिया गया है. इसी प्रकार के प्रेम को साधते रहना विवाह की आदर्श स्थिति है. सवाल उठता है कि साधने की जरूरत क्यों पड़ती है ? क्या वैवाहिक प्रेम में अपना बल नहीं होता कि उसे तमाम व्रत-उपवासों, सुहागिक गहनों और मांग सिंदूर और माथे की बिंदियों के रूप में पताका-सा फहराते रहना होता है.

मगर यह प्रेम होता है हम नहीं मानते क्योंकि जहाँ स्त्री-पुरुष को साथ रहकर सेक्स करने और बच्चा पैदा करने की सामाजिक अनुमति मिलती है, वहाँ प्यार की तड़प का क्या मतलब ?

राजेन्द्र जी, सोचना तो यह भी लाज़मी है कि आप विवाह की ओर बढ़ लिए, लेकिन मोहब्बत की तलब से छुटकारा नहीं पा सके. मीता छूट गई लेकिन प्यार ने अपना पीछा नहीं छोड़ा क्योंकि वह आपकी अनुभूत भावना थी. इसी भावना की खोज में कभी आप भरे-पूरे हुए तो कभी आप लुट-पिटकर बेघर हो गए. कभी प्रेम के शहंशाह तो कभी गृहस्थ से धक्के खाते फकीर. ऐसे में ही जब कभी किसी स्त्री में आपकी डगमगाती कश्ती की पतवार थाम ली तो आप किनारों की आस में बह उठे.

आप मानने लगे कि आप शादी के लिए नहीं बने थे. शादी का फैसला आपको ता जिंदगी चिढ़ाता रहा. क्या यहाँ हम यह न मान लें कि प्रेम की पहचान में आप चूक गए या विवाह और प्रेम के मामले में आप कनफ्यूज्ड रहे. कितने बुद्धिशील और तर्कवादी आप थे, स्त्री के मामले में आपकी समझदारी पर प्रश्नचिन्ह लगते रहेंगे. किसी स्त्री ने आपकी प्रतिभा का लोहा माना और आपको वर के रूप में चुना. यह कैसा तालमेल है ? पत्नी का अधिकार लेकर अपनी लेखकीय आकांक्षाओं को आसान गति देने के लिए राजमार्ग खोज लिया. बहुत खूब, उनका सोचा-समझा सब कुछ हुआ, आप ही सद्गृहस्थ नहीं बन पाए. पिता बने पर पिता के कर्तव्ष्य क्या होते हैं, कंटस्थ नहीं किए. आप प्रेमी कदापि नहीं थे यहाँ, पति थे, याद क्यों नहीं रहा ?

वैसे यह तो होता आया है जो आपके मामले में भी हुआ कि पाणिग्रहण संस्कार के बाद पति-पत्नी के बीच लाख छल-छदमों का दौर चले, पत्नी घाटे में नहीं रहती. वह हक रखती है अपने कैसे भी व्यवहार-बर्ताव का, मोह का या क्रूरता का, इंसाफ का या नाइंसाफी का, वह बदनाम नहीं होती क्योंकि वह धर्मपत्नी होती है. क्योंकि उसके पास सारे हकों और गरिमामय जीवन के लिए वैवाहिक सनद के रूप में अचूक ताबीज होता है जिसे मंगलसूत्र या सुहाग कहते हैं.

मगर प्रेमिका ? प्रभा खेतान की आत्मकथा यहीं तो कहती है कि मंगलसूत्र की महिमा युगों-युगों से है...

फिर क्यों प्रेम करती हैं स्त्रियाँ ? प्रेम के बिना जिन्हें जीवन सूना लगता है, वे ऐसी ही योद्धा होती हैं जैसे एक वीर आदमी का युद्ध के मैदान में जाए बिना दिल नहीं मानता.

बहरहाल, इसमें कोई संदेह नहीं कि मन्नू भंडारी का नाम ख्यात लेखिका के लिए तो रहेगा ही लेकिन राजेन्द्र यादव की पत्नी के रूप में अमर रहेगा, ऐसे ही जैसे कि पत्नी का नाम रहता है. मीता को कितने लोग जान पाएंगे ? कितने लोगों को पता चलेगा कि मीता ने ही स्त्री की स्वतंत्रता का सूत्र राजेन्द्र यादव को पकड़ाया था ?

मैं यह दावा करती हूँ कि राजेन्द्र यादव नाम का व्यक्ति, जिसे आप महान लेखक और चिंतक और अद्भुत विचारक मान रहे हैं, वह आजीवन मीता की जैसी मोहब्बत के लिए तरसता और तड़पता रहा. यहाँ न कोई छल था, न छदम था, न धोखेबाजी का खेल, सब कुछ मोहब्बत के रसायन में घुला हुआ और ईमानदार पछतावे.

मीता! आपके पास आज भी वह साड़ी जरूर होगी जो बिहार से आई खास मधुबनी चित्रकारी में सज्जित थी. मेरे सामने वह दृश्य ज्यों का त्यों है कि राजेन्द्र जी की तीमारदारी के बाद विदा बेला आती जा रही थी. मगर मनुहार थे कि नित नए ताजा.‘ ठहर जाओ कुछ दिन और.’

‘अभी ना जाओ छोड़कर...’ किसी ने गाया नहीं, लेकिन हर कोने से पुकार...

हम लोग मयूर विहार के हिन्दुस्तान अपार्टमेंट के फ्लैट के ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठे थे. राजेन्द्र जी सामने वाले सोफे पर ऐन मीता के सामने...दृश्य था कि मुग्ध समय!! सुनहरे रेशम की साड़ी पर मधुबनी कलाकारी. राजेन्द्र जी को मीता के लिए यही साड़ी पसंद आई.

उनकी गोद में धर दी वह सौगात.

हमे लगा वे अपनी प्रीति का दुशाला ओढ़ा रहे है. मीता की अपनी मोहब्बत की चादर के ऊपर जिस पर दूजा रंग चढ़ा ही नहीं.

साड़ी, साड़ी नहीं थी, मोहब्बत का परचम थी. राजेन्द्र जी का बीमार चेहरा अपनी रंगत में पीला-पीला नहीं था. प्रेम ही प्रेम था जिसके हम चश्मदीद गवाह बने. न जाने कितने अधूरी इच्छाओं और दमन से बनी लौह कड़ियाँ टूटती चली जा रहीं थी. वे चुपचाप बैठी थी और मेरा दिल भर आया. राजेन्द्र जी उन्हें निहार रहे थे कि अब न जाने कब मिले...

पूरे बीस दिन का साथ रहा, एक अरसा जैसा गुलजार दिन और तारो भरी रातें! प्यार की अपनी माँग, अपनी जिद, घर ने आजादी दे दी. जिन्दगी का बढ़ा हिस्सा है बिछोह, मोहब्बत ने समय का हिसाब माँग लिया. अलग होना था, अलग हो गए .

दूर जाना था, दूर चले गए मगर मन गुँथा रह गया आपस में. वियोग की एक न चली. राजेन्द्र जी मीता का गीत गाते रहें.