विज्ञापन की भाषा स्त्री की देह से शुरू होती है / संतोष श्रीवास्तव

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तेजी से बदलते समाज में मीडिया ने अपना जो वर्चस्व कायम किया है उससे सबसे अधिक प्रभावित हुई है स्त्री। एक ओर सीरियल और विज्ञापन स्त्री की रूढ़िगत स्थिति को स्पष्ट करते हैं वहीं दूसरी ओर उस रूढ़ि को तोड़ने का प्रयास में स्त्री को एक उपभोक्तावादी सामग्री के रूप में प्रस्तुत कर डालते हैं। धारावाहिकों में अभिनय करने वाली अभिनेत्री और विज्ञापनों में काम करने वाली मॉडल इसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कि गुलाम नजर आती है। कई बोल्ड स्त्रियाँ इस स्वतंत्रता के मद्देनजर स्वयं को लाइम लाइट में लाने की कोशिश में कुछ ज़्यादा ही स्वतंत्र नजर आती हैं। जैसे इला अरुण जिन्होंने अपने एक वीडियो कैसेट का नाम ही रख दिया वोट फॉर घाघरा और तर्क दिया कि यह नाम बड़ा पॉवरफुल है क्योंकि घाघरा स्त्री शक्ति का प्रतीक है। अब इसके पीछे उनकी जो भी मंशा रही हो, इसकी समीक्षा लोगों ने अपने नजरिये से की।

कुकुरमुत्ते की तरह उभरते टीवी चैनलों व उनकी प्रतिस्पर्धात्मक द्वेषता उनमें नई से नई उत्तेजनात्मक एँ सनसनी फैलाने वाली खबरों की होड़ पैदा करती है और उत्तेजना फैलाने का सीधा सरल माध्यम है-स्त्री। लगभग सभी विज्ञापनों में चाहे वह प्रेशर कुकर का विज्ञापन हो या मोटर बाइक का स्त्री को ही कामुक रूप में प्रस्तुत किया जाता है। एक ठंडे पेय के विज्ञापन में एक पुरुष की साथी स्त्री मोटर बाइक पर ठंडा पेय पीते हुए दूसरे पुरुष की बाइक में बैठकर चली जाती है। यानी मुझे जीतना कितना आसान है। मैं एक ठंडे पेय में उपलब्ध हूँ। स्त्री परंपरा में शक्ति की प्रतीक है। किन्तु विज्ञापनों में तो वह उपभोक्ता को ललचा कर बाज़ार के उत्पादों की मांग पैदा करने के लिए कामुक उत्पाद के रूप में परोसी जा रही है।

स्त्री को पुरुष की बराबरी का दर्जा हासिल करने में जिन अवरोधों का सामना करना पड़ा, उसके तरीके और उपकरण बदल गए हैं। इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने स्त्री को कमजोर और पिछड़ा साबित करने के लिए परोक्ष में बहुत खतरनाक भूमिका अदा कि है। स्त्री को भोलेपन, मासूम और संस्कारवान कहकर जिस महिमा से मंडित किया गया है। उसका कुल जमा अर्थ यही सिद्ध करता है कि वह अनपढ़ और पिछड़ी हुई है। विज्ञापन में बेटा ठंडे पेय या उसकी उम्र से असंगत किसी चीज के लिए मचलता है तो साड़ी पहने, आरती की थाली हाथ में लिए माँ उसे रोकती है। अंतत: पिता उसे होठों पर उंगली रख कर चुपके से इसारा करता है। फिर माँ की पीठ फिरते ही उसे वांछित चीज थमा देता है और दोनों बाप-बेटे माँ के भोलेपन पर ठहाका लगाते हैं। बाथरूम में स्त्री देह पर साबुन मल-मल कर दिखाती है और खुद भी एक जीवित साबुन की तरह नजर आती है। यानी आधुनिक होने का अर्थ साबुन बेचना है। सांवली स्त्री न तो स्वाभिमानी होती है और न आत्मविश्वास से भरी। जैसे ही वह गोरेपन की क्रीम लगाती है एक ही हफ्ते में खिली-खिली नजर आती है और शादी के योग्य सिद्ध कर दी जाती है।

सांवले रंग का मीडिया ने बहुत अपमान किया है। अब सांवलेपन को हताशा के मनोविज्ञान में गोरेपन की क्रीम की भूमिका बढ़ गई है। बढ़ते बच्चों को दिए जाने वाले बेबी फूड के विज्ञापन में घर में बेटे के जन्म पर बेटी खुद को उपेक्षित पाती है। एक दिन वह शिशु हौले से अपनी उपेक्षित बहन को छू लेता है और उसकी नाराजगी और नादानी स्पर्श मात्र से दूर कर देता है। एक दस वर्षीय लड़की की नादानी, नासमझी को आठ-दस माह का शिशु दूर करे ये कैसी मानसिकता है। क्या यह पुरुष अहम की ओर बढ़ते उस नन्हे शिशु के कदम तो नहीं? क्या यह लड़की की नासमझी दिखाकर उसे नासमझ औरत सिद्ध करने का प्रयत्न तो नहीं? जबकि मीडिया जनता तक पहुँचने का एक सशक्त साधन है। दरअसल यह सारा खेल सुविधा का है। अपनी सुविधा से सारे तर्क तैयार कर दिए जाते हैं। महत्त्वपूर्ण यह नहीं कि दर्शकों की रुचि या व्यवस्था बदलना है बल्कि स्थापित रुचि और सोच को गहरा करके, उसका लाभ उठाकर अपना माल बाज़ार में बेचना है। रातोंरात प्रसिद्धि और पैसे की लालच में स्त्री अपनी सहमति देकर खुद को वस्तु होने, पुरातन मूल्यों में जकड़े रहने से निकाल ही नहीं पाती। इक्कीसवीं सदी के उजास में आधी आबादी (स्त्री) उत्पाद में तब्दील हो रही है। यही हश्र है तमाम नारी मुक्ति, नारी शक्ति आंदोलन का।

जहाँ एक ओर मीडिया नारी की कामुकता, भव्यता और मुनाफे के जाल में फंसी स्त्री की छवि गढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर परंपराओं और रूढ़िवादिता कि जंजीरों में उसे और कसा जा रहा है। दर्द निवारक बाम के एक विज्ञापन में स्त्री पूरे घर के सदस्यों के तरह-तरह के काम निपटाती कमर दर्द से कराह उठती है। उसका पति उसे बाम लाकर देता है ताकि उशका दर्द मिट सके और वह फिरसे मशीन बन सके। यह मानसिकता स्त्री को वापस उसी चौखट पर ला पटकती है जिसे पार कर उसने चलना शुरू किया था। मीडिया में अभिनेत्रियों और मॉडलों के अलावा इस पूरे तंत्र को सम्भालने वाली महिला पत्रकार पर भी क्यों न एक नजर डाली जाए। पूरे समाज और संस्कृति पर छा जाने वाले इस तंत्र में महिलाएँ एक विशिष्ट रोल अदा कर रही हैं। पर इस मुकाम तक पहुँचने के लिए वे कितनी अधिक शोषण का शिकार होती हैं, इस बात पर शायद किसी की नजर नहीं जाती। जबकि सबसे ज़्यादा महिलाओं की उपस्थिति आज इसी क्षेत्र में है।

आज दूरदर्शन चालीस की उम्र पार कर चुका है। विदेशी चैनलों के भारत में धूम मचा देने के बाद अब समाचार चैनलों की बाढ़-सी आ गई है। इन चैनलों पर सबसे अधिक शिरकत महिलाओं की ही दिखाई देती है। स्टार न्यूज की बरखा दत्ता कारगिल तक हो आई जहाँ आॅपरेशन विजय को गोलियों की बौछार के बीच आॅन द स्पॉट रिपोर्टिंग की थी। चाहे प्रिंट मीडिया हो या इलैक्ट्रॉनिक मीडिया महिलाएँ सिर्फ़ सौंदर्य, खान-पान, गृहसज्जा तक ही सीमित न रहकर राजनीति, उद्योग, खेल, अपराध और यहाँ तक कि युद्ध की रिपोर्टिंग तक में नये-नये आयाम स्थापित कर रही हैं पर उनके प्रति पुरुषओं का भोगवादी दृष्टिकोण फ़िल्मों या फूहड़ विज्ञापनों की तरह ही बिल्कुल भी नहीं बदलता। इस क्षेत्र में स्त्री के आने की पहली शर्त है उसका सुंदर होना। यानी भाषा का ज्ञान और इस क्षेत्र से जुड़े तमाम डिप्लोमा, डिग्रियाँ उसकी योग्यता में दूसरे स्थान पर आते हैं। यदि वे प्रेजेंटेबिल नहीं हैं तो इस पद के लिए अयोग्य है। एक समाचार चैनल ने तो शिष्टता कि सभी सीमाएँ तोड़कर स्त्री समाचार वाचक के चयन के लिए चंड़ीगढ़ में तीन दिन तक फैशन परेड कराई। उन्हें तरह-तरह के छोटे-बड़े पारिधानों में कामुक अधाओं के साथ चयन मंडली के सामने प्रस्तुत होना पड़ा। जाहिर है कि इस समाचार चैनल की पहली शर्त यही थी कि वे आकर्षक दिखें। इतनी अधिक कि उनके चैनल के लिए ड्राइंग रुम में दर्शक जुड़ते जाए। उनका पत्रकारिता ज्ञान, भाषा प्रवाह और समझदारी बाद में देख ली जाएगी क्योंकि जब देशी-विदेशी कंपनियाँ और काफी बड़े पैमाने पर कोल्ड ड्रिंक कंपनियाँ सुंदर आकर्षण मॉडलों के माध्यम से अपना माल बेच लेती है तो समाचार चैनल ऐसा क्यों नहीं कर सकते? और जब सौंदर्य को अङम योग्यता मान न्यूज एंकर का चुनाव होता है तो तर्क यही दिया जाता है कि दर्शक सास भी कभी बहू थी, कहानी घर-घर की जैसे कहानीविहीन, फूहड़, चटपटे, मसालेदार सीरियल देखने के लिए तो समय निकाल लेते हैं लेकिन समाचार कोई नहीं देखता तो क्यों न समाचार चैनल को ग्लैमरस बनाया जाए।

छोटे परदे पर दिखाए जाने वाले धारावाहिकों में एक ही पल में करोड़ों के हेर-फेर कर देने वाली, विवाहेत्तर सम्बंध रखने वाली स्त्री खइस है, सफल है लेकिन दिखाते हैं उसे षडयंत्र रचने वाली ही। यानी जीवन में सफलता पाना हो तो खलनायिका बनो। यह खलनायिका पारंपरिक मूल्यों की ओर रूढ़िवादिता तो तोड़कर समाज में उच्च स्थान हासिल करने वाली स्वतंत्र नारी है। उसकी पलकों पर विष का आभास देता नीला या सुनहरा मस्करा रहता है। माथे पर सर्पाकृति बिंदी और भड़काऊ वेशभूषा। यह अक्सर परिवार के उन सदस्यों के खाने में लुक छिपकर जहर मिलाती रहती है जो उशके विरोधी हैं या जिन्हें वह औरों की नजरों में गिराना चाहती है। जहर की बड़ी-सी शीशी उसे सहज उपलब्ध है। कहाँ से? कैसे? यह जानकर क्या करना है। दूसरी ओर मांग में ढेर सारा सिंदूर भरे, खूब सारे जेवर, बनारसी साड़ी पहने पारंपरिक आदर्श स्त्री है। वह त्याग की देवी है, सबकी डांट-फटकार सुनती है और अपने अस्तित्व को नकारती है।

ये धारावाहिक युवा पीढ़ी को क्या बताना चाह रहे हैं? यही कि स्त्रियों की आजादी का अर्थ उनका नैतिक पतन है। क्योंकि ऐसे समाज में जहाँ हर एक घंटे में एक स्त्री के साथ बलात्कार होता हो, कुल मिलाकर सिर्फ़ पांच फीसदी मुकदमे निपटते हों, वहाँ ऐसे धारावाहिक क्या यथार्थ से मेल खाते हैं? स्त्री को लगातार षडयंत्रकारी बनाकर प्रस्तुत करना मुक्त बाज़ार के संचार माध्यमों की संरचना द्वारा उशके सृजनात्मक एवं रचनात्मक रूपों को नकारना है। धारावाहिक के सम्मोहक जाल में फंसी स्त्री समझ ही नहीं पाती कि पितृसत्ता कि जड़े जो अब चरमराने लगी हैं-मजबूत करने के लिए उनका नकारात्मक रूप प्रस्तुत कर उनका बेजा इस्तेमाल किया जा रहा है। अभिनेत्रियाँ भले ही इसे कहानी की मांग कहें, चैलेजिंग रोल मानें पर करोड़पति औद्योगिक घरानों पर आधारित धारावाहिकों की सास, बहू या बेटी की ऐसी खलनायिकाओं की कल्पना तक हमारी संस्कृति में दूभर है।

म्यूजिक चैनलों पर रीमिक्स अल्बमों की भरमार है। कर्णप्रिय धुनों वाले, रसीले, सहाबहार पुराने गीतों पर नाममात्र के वस्त्रों में नवयुवतियाँ भद्दे एक्शन वाले सेक्सी, उत्तेजक नृत्य प्रस्तुत कर रही हैं। मां-बाप अपनी टीनएजर्स बेटियों को आइटम गर्ल बनाकर बहुत गर्व का अनुभव कर रहे हैं। वे सोच ही नहीं पाते कि यह कला नहीं, कला कि तौहीन है। सेंसर बोर्ड भी इस नग्नता पर खामोश है। उसकी खामोशी एक विकृत मानसिकता को जन्म दे रही है। यह मानसिकता नन्हीं, मासूम छोटी-छोटी बच्चियों, युवतियों और प्रौढ़ाओं के संग बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की जिम्मेदार बन रही है। क्या कर पा रहा है महिला सशक्तिकरण वर्ष या महिला दिवस या नारी मुक्ति आंदोलन? भारतीय उद्योग संघ फिक्की के महिला संगठन एफ.एल.ओ. के अनुसार ऐसे नृत्यों और स्त्री छवि को ठेस पहुँचाई है। उन्होंने ऐसे सीरियलों, विज्ञापनों पर लगाम लगाने के लिए सरकार से एस सेंसर कमेटी बनाने की मांग की है जो इन सीरियलों की सामग्री जांच कर इन्हें टी.वी. में प्रदर्शित होने के लिए प्रमाण-पत्र जारी करेगी। यह महिला संगठन इन सीरियलों के खिलाफ लोगों को जागरूक करने के लिए जगह-जगह सेमीनार आयोजित कर रही है। हाल ही में राजधानी में आयोजित एक सेमिनार में फ़िल्मी और टीवी की दुनिया से जुड़ी कई महिला कलाकारों ने भाग लिया और मीडिया में स्त्री के ग़लत इस्तेमाल पर जमकर बहस की। इनके इस विरोध में मशहूर फ़िल्म निर्देशिका तनूजा चंद्रा और मृणाल सेन भी शामिल थीं। विरोध का स्वर बस यही था कि जिस तरह सीरियलों में औरतों की नकारात्मक भूमिका को बढ़-चढ़ाकर दिखाया जा रहा है वह हमारी संस्कृति और परंपरा के खिलाफ है। अपना उत्पादन बेचने के लिए विज्ञापनों में औरत की भोगवादी, बिकाऊ छवि, समझ में न आने वाले द्विअर्र्र्थी संवाद, उन्हें पतन के गर्त में ढकेल रहे हैं और रीमिक्स अल्बमों में युवतियाँ मुगलकालीन औरतों की मंडी का इतिहास दोहरा रही हैं। अपना एक-एक अंग उभारकर दिखाना और लुभाने वाले उत्तेजक एक्शन एक विकृत रोगी मानसिकता को जन्म दे रहे हैं। इसी मुद्दे पर कई मीडियाकर्मी के बीच एक लंबी बहस हुई। उनका दावा है कि...

मीडिया को सरासर दोष देना ग़लत है। आज जो बदलाव स्त्री छवि में नजर आ रहा है वह मीडिया के द्वारा ही है। मीडिया, स्त्री पहचान तेज कर रहा है। यदि मीडिया का विस्फोट न होता तो बदलाव इस तरह नहीं होता। स्त्री की तमाम कामनाओं को कल तक दबाकर रखा जाता था। अब मीडिया उसकी कामना को जगत में ला रहा है तो इसमें ग़लत क्या है? मीडिया छवि ही बना सकता है, सूचना ही बना सकता है। उससे यह उम्मीद करना कि वह संस्थान बना डालेगा ग़लत है। धारावाहिकों और विज्ञापनों को यदि नैतिकता, अनैतिकता कि बहस से बाहर निकाल कर देखा जाए तो हम कह सकते हैं कि इतिहास में पहली बार स्त्री अपने बारे में चिंताओं को व्यक्त करती नजर आती है। लेकिन मूलत: मर्द को अफील करने के बदले खुद को ज़्यादा अफील करती नजर आती है। लगातार अपनी रूप चिंताओं में लगी छवियाँ यही बताती हैं कि मीडिया ने स्त्री की असुरक्षा कि भावना को सामाजिक कर दिया है और प्रोएक्टिव न होने पर भी उसने असुरक्षा से जुड़े सवालों को उठा दिया है।

मीडियाकर्मियों के इस दावे ने चौंका दिया है। स्त्री को असुरक्षा को लेकर आश्चर्य होता है कि रूप की आड़ में मात्र यहाँ मानसिकता तो दिखाई जा रही है। विज्ञापनों में कि कोई लड़का काली लड़की से शादी नहीं करेगा और गोरी लड़की मिलने पर घर की वृद्धा कहेगी-लकी ब्वॉय... यानी मीडिया ने स्त्री के सौंदर्य को शादी तक समेटकर यह दावा किया है कि उसने स्त्री के लिए एक नया इतिहास रचा है? क्यों नहीं नारी मुक्ति आंदोलन से जुड़ी महिलाओं ने यह सवाल उठाया कि जो रंग-रूप हमें ईश्वर ने दिया है, हम उसे ही स्वीकार क्यों नहीं कर सकते? क्यों यह ज़रूरी है कि हम शादी की मंडी में बेहतरीन वस्तु बनकर आएँ... क्यों हमारे शील, गुण, शिक्षा को दरकिनार कर गोरी-काली, सुंदर-असुंदर के पलड़े में तौला जाए.। और मीडियाकर्मी कहते हैं कि उन्होंने स्त्री को सुरक्षा दी?

इस अश्लीलता के विरोध में जगह-जगह महिला संगठन उठ खड़े हुए हैं। इसकी पहली सीढ़ी महिलाओं की मानव शृंखला बनाकर चढ़ी गई। मुंबई में विश्व महिला दिवस के अवसर पर आॅल इंडिया वूमेंस कांफ्रेंस, बीजेपी महिला मोर्चा तथा अन्य महिला संगठनों ने महिलाओं की एकता दिखाने के लिए एक मानव शृंखला बनाई। मुंबई में ही राष्ट्रीय महिला आयोग की एक बैठक आयोजित की गई जिसमें सोलह राज्यों की महिला आयोग की प्रमुख महिलाएँ शामिल थीं। बैठक में इस बात पर खासी चर्चा हुई कि मीडिया द्वारा हमें क्या परोसा जा रहा है। बैठक में विवादास्पद म्यूजिक वीडियो की क्लिपिंग पर भी चर्चा हुई... इस वीडियो कैसेट में वह सब है जिससे महिलाओं की प्रतिष्ठा आहत होती है। अत: म्यूजिक वीडियो, विज्ञापन या टीवी सीरियलों पर सेंसरशिप लगाई जानी चाहिए। हर राज्य में एक मीडिया पर्यवेक्षक रखा जाएगा जो समय-समय पर वैसे क्लिपिंग राष्ट्रीय महिला आयोग को भेजता रहेगा जो आपत्तिजनक है।

सवाल यह है कि यह बात कैसे तय हो कि अश्लीलता कि परिभाषा क्या है? मीडिया में अश्लीलता दिखाए और छापे जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में भेजे गए महिला संगठनों के आवेदनों पर ध्यान देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अखबारों में भडकाऊ तस्वीरें छापे जाने पर रोक लगाने का मुद्दा उठाया और बाद में इंकार कर दिया, यानी कि सब किया धरा बेकार गया। आवेदनों को यह कहकर खारिज कर दिया गया कि बच्चों पर ग़लत असर पड़ने की दलील देकर बड़ों से उनके हिस्से का मनोरंजन नहीं छीना जा सकता। सुप्रीम कोर्ट की इस दलील ने पुन: बहस का मुद्दा गर्मा दिया है। एक तरफ तो बच्चों में अखबार पढ़ने की आदत का विकास करना है और दूसरी तरफ उन पर पड़ने वाले मानसिक असर की परवाह न कर बड़ों के मनोरंजन के लिए अश्लील तस्वीरें छापना है। कुछ विद्वानों का मत है कि यह कला है और कला से परहेज कैसा? कला का अर्थ नग्नता तो नहीं। कहीं न कहीं सीमा तो तय होनी ही चाहिए। मनोरंजन के नाम पर कुछ भी नहीं छापा जा सकता। अत: इन माध्यमों पर लगाम लगानी ही चाहिए।

जब स्त्री ने मीडिया के क्षेत्र में पदार्पण कर ही लिया है जो उसे यह मानकर चलना चाहिए कि जब पिंजड़े में बंद पंछी पिंजरे की सलाखों से बाहर निकलता है तो जहाँ एक ओर असीमित आकाश उसकी उड़ान की प्रतीक्षा करता है वहीं कुछ परिंदे उसे दबोच लेने की ताक में भी रहते हैं। स्त्री को स्वयं ही तय करना है कि वह कैसे इनका मुकाबला करते हुए अपनी प्रतिभा व योग्यता को बनाए रखे। चूंकि वह औरत है, अत: उसका हर उठा कदम पुरुष नजरिए से समाज में तौला जाएगा।

मीडिया एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ के कार्यकर्ताओं यानी मीडियाकर्मियों से सरकार भी जवाब मांगती है और जनता भी। औरत होने के नाते उसकी जिम्मेदारी अधिक बढ़ जाती है क्योंकि आम और खास औरत अपनी तमाम समस्याओं के लिए उसका मुंह जोहने लगती है। इस आशा में कि वह औरत है तो औरत की समस्या को अच्छे से समझेगी। इन समस्याओं में सबसे अधिक जिस समस्या ने मुंह बाया है वह है विचाराधीन औरत कैदी की समस्या।