शह और मात के खेल में फंसकर रह गई है औरत / संतोष श्रीवास्तव
बर मज़ारे माँ गरीबां, ने चिराग़े ने गुले
ने परे परवाना सोज़त, ने सदा ए बुलबुले
आज से आठ सौ बरस पहले हिन्दुस्तान की पहली महिला शासक रजिया सुल्तान की मजार पर यह फारसी अशआर लिखा है जो उसकी बदनसीबी का बिल्कुल सटीक बयान है। सल्तनत-कालीन इतिहासकार मिन्हास सिराज ने अपनी पुस्तक तबकाते नासिरी में लिखा है कि रजिया तमाम राजनीतिक गुणों से संपन्न थी पर उसका स्त्री होना ही उसकी कमजोरी बन गया।
रजिया, इल्तुतमिश की लड़की थी जो बेहद चतुर और सर्वगुणसंपन्न थी। यह वह जमाना था जब कट्टरपंथियों और उलेमाओं के औरत की आजादी को लेकर फतवे जारी होते थे। औरत पैर की जूती थी और नित नई जूती पहनना मर्द की शान थी। औरत को मुंह सीकन... सर से पैर तक खुद के शरीर को ढंके केवल सांस लेने की आजादी थी। लेकिन इल्तुतमिश प्रगतिशील विचारों का था। उसने तत्कालीन मान्यताओं के खिलाफ जाकर अपनी बेटी रजिया को सुल्तान की गद्दी पर बिठाया। रजिया पिता के उसूलों ें खरी उतरी। उसने वक्त की नब्ज पहचानी। उस समय दलित तबका मुसलमानों में उफेक्षित था। रजिया ने इस तबके को तवज्जो देकर अपनी शक्ति बढ़ाने की गरज से याकूब नामक दलित गुलाम को अपना खासोखास अंगरक्षक बनाया जो कि कट्टरपंथियों को बर्दाश्त नहीं हुआ। याकूब भले ही दलित वर्ग का था पर था तो मुसलमान। एक औरत के सामने एक मुसलमान, अफगान मर्द आधा झुककर सलाम ठोके यह उन्हें बर्दाश्त न हुआ। रजिया को कमजोर करने की गरज से उन्होंने याकूब की हत्या करवा दी। रजिया समझ गई परिस्थितियाँ उसके अनुकूल नहीं हैं। रजिया के भाई भी रजिया को सिंहासन पर बैठाने के खिलाफ थे। वे दिल्ली में सामंतों से जा मिले और रजिया के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। रजिया ने युक्ति से काम लिया और भटिंडा के सामंत अल्तूनिया का विवाह प्रस्ताव स्वीकार करते हुए उसने अल्तूनिया कि मदद से दिल्ली पर आक्रमण किया लेकिन वह हार गई। वह अल्तूनिया के साथ जंगलों में जा छिपी जहाँ रात के समय डकैतों ने सोई हुई रजिया कि हत्या कर दी। उसका स्त्री होना उसके लिए अभिशाप सिद्ध हुआ।
इस अभिशाप को आज भी औरत झेल रही है। परिवर्तनशील समय ने कई करवटें बदलीं पर औरत की नैया तूफान में हिचकोले खाती रही। कभी ऊंची उठती है तो मर्द घबरा जाते हैं... न जाने क्या करने वाली है... कभी नीची होती है तो बेचारी औरत यह कहकर खामोश हो जाते हैं।
बीसवीं और इक्कीसवीं सदी की महिलाओं ने अपनी कर्मठता, कार्य के प्रति लगन और योग्यता सिद्ध कर दी है। फिर भी ऐसा क्यों है कि सौ करोड़ की आबादी वाले इस महादेश में केवल दस-बीस महिला नेताओं के नाम ही उमड़-घुमड़ कर सामने आते हैं। क्यों नहीं अन्य महिलाएँ भी आगे बढ़कर राजनीति में भाग लेती हैं? महिला ही महिला कि समस्याओं को अच्छी तरह समझ सकती है। आज जिन समस्याओं को लेकर समाज में महिला वर्ग जूझ रहा है क्या उसका हल राजनीति में नहीं है? या हल निकाला नहीं जा सकता? राजनीति में तो और भी मार्ग विस्तृत रूप से खुले दिखाई देते हैं। केवल 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग से स्थिति मजबूत नहीं होती, तब होगा यही कि 33 प्रतिशत की जगह अशिक्षित उम्मीदवारों को पद पर बैठने के लिए मजबूर किया जाएघा और पुरुषों के द्वारा उन्हें कठपुतली बनाया जाएगा। न तो इससे देश का उद्धार होगा न महिलाओं की प्रगति। सच पूछा जाए तो आरक्षण की आवश्यकता ही क्या है? आरक्षण के बिना, योग्यता रखने वाली महिलाएँ आगे आकर चुनाव लड़ें। अपनी दक्षता, योग्यता, क्षमता दिखाएँ और अफने अधिकार हासिल करें। जहाँ लक्ष्मीबाई, कित्तूर, चैन्नम्मा जैसी वीर महिलाओं ने अंग्रेज़ी हुकूमत को हिलाकर रख दिया था, उनका जीना दूभर कर दिया था वहाँ की महिलाओं का आरक्षण के लिए लड़ना हैरत में डालता है। आरक्षण कमजोर वर्ग के लिए होता है। आरक्षण मांग कर खुद को कमजोर साबित करती औरत पुरुष की दृष्टि में हेय ही होगी।
लेकिन गांवों में औरत की आत्मशक्ति की लहर उठ चुकी है। राष्ट्र निर्माण में हाथ बंटाने तथा गांवों के विकास में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए गांवों की महिलाएँ आगे आई हैं। अपनी आत्मशक्ति के बल पर जागरूक हो वे पंच, सरपंच, मुखिया, प्रधान भी बनने लगी हैं। उन्होंने अनेक ऐसे कार्य किए हैं जिससे उनके समूचे क्षेत्र की सामाजिक संरचना प्रभावित हुई है। अपने गाँव और गाँव की भीतरी क्षेत्रों, दूर-दराज के इलाकों की स्त्रियों की ज़िन्दगी में बुनियादी परिवर्तन लाने, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मूलभूत विषयों पर उनमें जागृति उत्पन्न करने और कानून और संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों से उन्हें परिचित कराने में इन महिला सरपंचों ने विशेष भूमिका अदा कि है।
अभी हाल ही में गांवों में औरतों के प्रतिनिधित्व को ध्यान में रखते हुए पंचायती राज मंत्रालय ने एक सर्वेक्षण करवाया। 23 राज्यों की ग्राम पंचायतों के कार्यों का लेखा-जोखा करने वाला यह सर्वेक्षण हमारे जनतंत्र के पिरामिड का सशक्त आधार पंचायती राज में महिलाओं की स्थिति और महत्ता को रेखांकित करता है। यह सर्वेक्षण बताता है कि पंचायती राज से जुड़े संदर्भों में महिलाएँ पुरुषों से कहीं पीछे नहीं हैं। कई ऐसे राज्य हैं-जहाँ महिलाएँ पुरुषों की बराबरी का काम कर रही हैं। लेकिन उड़ीसा, अरुणाचल प्रदेश, बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश जैसे राज्य भी हैं जहाँ महिला प्रधानों को अपना काम दिखाने का पर्याप्त अवसर नहीं मिलते या शिक्षा, प्रशिक्षण आदि की दृष्टि से महिलाएँ अभी इतनी सक्षम नहीं बन पाई हैं कि पुरुषों की बराबरी कर सकें। अपवाद यहाँ भी हैं, लेकिन कुल मिलाकर जो स्थिति बनती है वह यह है कि औरत ने जितना पाया है उससे कहीं ज़्यादा उशे पाने की कोशिश करनी है।
औरतों का पंच या प्रधान बनना अपने आप में कम महत्त्वपूर्ण घटना नहीं है और जिम्मेदारियों के इन पदों पर पहुँचने वाली औरतों द्वारा बहुत कुछ कर दिखाने के उदाहरण भी आए दिन अखबारों की सुर्खियाँ बनते हैं। पंचायती राज सर्वेक्षण के द्वारा यह भी पता चला है कि औरतें परोक्ष रूप से तो पदों पर आसीन हैं पर नेपथ्य से पुरुष उनकी लगाम अपने हाथ में रखे हैं। पंचायतों में औरतों के लिए तीस से पचास प्रतिशत तक आरक्षण की व्यवस्था है। इस व्यवस्था के तहत पुरुषों को पद तो छोड़ने पड़े हैं लेकिन वे अधिकार नहीं छोड़ना चाहते हैं। सर्वेक्षण के अनुसार देश भर में लगभग बीस प्रतिशत महिला प्रधान सरपंच, मुखिया ने अफने कार्यकाल में महिला होने के कारण स्वयं को उपेक्षित महसूस किया है। इस अपेक्षा में अयोग्य समझा जाना, काम करने का अवसर न देना और उपहास उड़ाना तक शामिल है। कई बार उनके औरत होने और औरतों में अक्ल कम होने जैसे भद्दे आक्षेप भी उन पर लगाए गए। हरियाणा के नीमखेड़ा ने पूरी पंचायत औरतों के हाथ में देकर एक नया इतिहास ज़रूर रचा है। पिछले वर्ष इस पंचायत को सर्वश्रेष्ठ पंचायत का पुरस्कार भी मिला है लेकिन इसकी सरपंच और पंच प्रशासनिक राजनीतिक मशीनरी की असंवेदनशीलता से त्रस्त होकर यहाँ की सरपंच आशु बी का कथन है कि-बहुत हो गया, अभ और नहीं... हमें ये अधिकारी कुछ समझते ही नहीं। एक तो हम अनपढ़ हैं, दूसरे औरत हैं और फिर मैं तो मुसलमान औरत हूँ।
आशु बी के इस कथन से साफ प्रगट होता है कि औरत होना स्वतंत्र भारत में अक्षमता का कारण माना जाता है। बात सिर्फ़ सरकारी मशीनरी की असंवेदनशीलता या राजनीतिक स्वार्थ की नहीं है, बात उस सामाजिक सोच की है जो पुरुष नारी के प्रति आज भी अपनाए हुए हैं। इन औरतों के हौसले से लम्बे कालखण्ड से अंधेरे की शिकार महिलाओं के बीच सूरज की पहली किरण उगी तो है पर... सरपंच महिला के सशक्त हाथ फ्रि भी अन्य पदाधिकारियों या पद पर आसीन उनके पतियों के रबर स्टैम्प मात्र हैं ऐसा भी देखा गया है। फिर भी ये महिलाएँ ग्राम सभाओं में खुलकर भाग लेती हैं, अपनी समस्याएँ रखती हैं। लेकिन इस मुकाम तक पहुँचने के लिए उन्हें भारी संघर्ष करना पड़ा।
बिहार में 2001 में बाइस साल बाद हुए पंचायत चुनाव में विजयी हुई चौवन हजार सात सौ पचासी महिला प्रतिनिधियों में से अधिकांश को पूरे पांच वर्ष तक अपने अधिकारों की रक्षा और जनसेवा के लिए कभी अपने परिवार से जूझना पड़ा तो कभी सरकारी अमले की हिकारत से दो-दो हाथ करना पड़ा। कुछ ने आगे बढ़कर विषम परिस्थितियों में भी सार्वजनिक कामों का जोखिम उठाया लेकिन पुरुष प्रधान समाज और प्रशासन के पथरीले रास्तों पर उनके लड़खड़ाते, फिर-फिर संभलते कदमों की आहट साफ सुनी जा सकती थी। जो महिलाएँ पंचायत के चुनाव में खड़ी होती हैं उनमें अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाएँ भी होती हैं। इन्हें घर से भी जूझना पड़ता है और सरकारी अमलों से भी। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी जो महिला जागृति की एक उज्ज्वल मिसाल है।
पहले जहाँ महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण और उनका जीतना पुरुष समाज में मजाक का बायस था वहीं अब उनका अपने पति और परिवारजनों के हाथों की कठपुतली बने रहना और उनकी मर्जी अनुसार जीना, कामों को अंजाम देना खुद उनके लिए हिकारत का विषय है। इसीलिए पंचायत के चुनावों में उनकी भागीदारी बढ़ चढ़कर है। वे वहाँ भी अपनी जिम्मेदारियों को अपने दम पर बखूबी अंजाम दे रही हैं। निर्वाचित महिला प्रतिनिधि पंचायतों में बजट तैयार करने में भी प्रभावी भूमिका का निर्वाह कर रही हैं और इसमें भी वे ऐसे उपायों पर जोर दे रही हैं जो महिलाओं के प्रति ज़्यादा हितकर हो। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस समारोह के अवसर पर जारी ताजा आंकड़ों से यही निष्कर्ष निकलता है कि बहुत से राज्यों में पंचायतों में राजनीतिक भूमिका निभा रही महिला प्रतिनिधियों के साथ-साथ महिला स्व-सहायता समूहों के अभियान से लिंग भेद की समाप्ति और समानता कि ओर जोरदार कदम उठाए जा रहे हैं।
महिला सरपंचों के ऐसे ही एक उद्घाटन समारोह में राष्ट्रपति ने महिलाओं को भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाए जाने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए राजनीति में आमंत्रित किया। महिला सरपंचों को रचनात्मक नेता के रूप में उभरना चाहिए क्योंकि इससे वे केंद्र और राज्य सरकारों और गैर सरकारी संगठनों की सहायता से अपने-अपने गांवों में शहरी सुविधाएँ उपलब्ध करवाने में, अग्रणी भूमिका निभा सकती हैं। राष्ट्रपति ने उन्हें राष्ट्र निर्माण में हाथ बंटाने तथा गांवों के विकास में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए एक शपथ भी दिलवाई।
जब महिलाएँ सशक्त होती हैं तो समाज को सही दिशा और स्थायित्व मिलता है। चाहे गाँव हो, दलित और पिछड़ा वर्ग हो... महिलाओं में जागृति ही इन क्षेत्रों के विकास में अहम बात है। गाँव में उठी महिला जागृति की इस खइसबू ने पूरे देश में फैलकर लोगों को चमत्कृत कर दिया है। अब वे अपने अधिकारों के प्रति सचेत हैं। डायरेक्टर सेंटर फॉर सोशल रिसर्च वर्ल्ड इकॉनामिक फोरम के एक सर्वे में भारतीय महिलाओं को अमेरिका और जापान की तुलना में राजनीतिक दृष्टि से ज़्यादा सशक्त बताया गया है। उसके अपने कुछ आधार हैं... इस सर्वे की तह तक जाते हुए उसे खंगालना होगा ताकि सही स्थिति उभरकर आए। ऐसा नहीं है कि महिलाओं की स्थिति में सुधार नहीं हुआ। सुधार भी हुआ है और जागरुकता भी आई है। कम से कम पंचायती राज के जरिए उन्होंने अपने राजनीतिक अधिकार को महसूस किया है। यह एक बड़ी बात है। कई महिलाएँ स्थानीय स्तर पर मिले अपने इस अधिकार का बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल भी कर रही हैं। लेकिन इसी शुरुआती कदम के रूप में ही देखना होगा। पंचायती राज के तहत उन्हें जो अधिकार मिले हैं वे काफी नहीं हैं। उन्हें किसी भी प्रकार की नीति के निर्धारण का अधिकार नहीं हैं। इस अधिकार का इस्तेमाल सिर्फ़ पुरुष ही करते हैं। उन पर तो पुरुषों के द्वारा तय किए निर्णयों को अमल में लाने की जवाबदेही भर है। असल सशक्तिकरण तो तब आएगा जब वे नीति निर्धारण में भी शामिल हों। यह तभी मुमकिन है जब उन्हें संसद और विधानसभाओं में ज़्यादा से ज़्यादा प्रतिनिधित्व मिले इनमें उनकी भागीदारी बढ़ाने के लिए आरक्षण देने की बात उठी है।
विभिन्न राजनीतिक दलों का इस बारे में नजरिया साफ नहीं है। वे आज भी पर्याप्त संख्या में महिलाओं को टिकट नहीं देते। पार्टी संगठन के भीतर भी उन्हें समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। आज अगर कुछ महिलाएँ जीतकर आ भी जाती हैं तो इसका यह अर्थ नहीं है कि बड़े पैमाने पर महिलाओं का राजनीतिक सशक्तिकरण हो चुका है। दरअसल आज भी महिलाओं की बहुत कम संख्या राजनीति के गलियारे तक पहुँच पाई है। डब्लू. ई. एफ. (वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम) का कहना है कि पहले उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य और जागरुकता के स्तर पर ऊंचा उठाना होगा। उनके द्वारा किए गए सर्वे में यह बात सामने आई है कि इन स्तरों पर अभी भी महिलाएँ पीछे हैं। जब वे इन स्तरों पर सचेत होंगी तभी उनमें पर्याप्त राजनीतिक चेतना आएगी।
राजनीति में महिलाओं के 33 प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा हमेशा बहस का विषय बना है। हर चुनाव में मिलने वाली सीटों के आंकड़े इस चर्चा पर सवालिया निशान लगा जाते हैं। सरकारी रिपोर्टों को लेकर वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट तक में यह सवाल चमक रहा है। कुछ का कहना है कि महिलाएँ ही राजनीति में दिलचस्पी नहीं लेती। 33 प्रतिशत पहुँचने की नौबत तो तब आए जब वे ये आंकड़ा पार करें। वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम ने दावा किया है कि राजनीति के लिहाज से भारतीय महिलाएँ अन्य देशों, यहाँ तक कि अमेरिका और जापान की तुलना में भी ज़्यादा सशक्त हैं। इस पर अपनी पीठ थपथपाने की बजाय यह देखना चाहिए कि इस सर्वे में किस आधार पर ऐसे नतीजे निकाले गए हैं। सर्वे में तो यह भी बताया गया है कि भारत में महिला सांसदों-विधायकों, सीनियर अधिखारियों और मैनेजरों की संख्या केवल तीन प्रतिशत है। इसके बावजूद महिला सशक्तिकरण के मामले में दुनिया के अव्वल बीस मुल्कों में भारत को इसलिए रखा गया, क्योंकि यहाँ महिला प्रधानमंत्री रह चुकी हैं और देश के सर्वोच्च पद यानी कि राष्ट्रपति के पद पर भी महिला ही है। इसके विपरीत अमेरिका का स्थान 66वीं है। वहाँ कभी कोई महिला राष्ट्रपति के पद तक नहीं पहुँची। भारत की करोड़ों महिलाएँ जिस स्थिति में जी रही हैं उसे अनदेखा कर इतने संकीर्ण आधार पर जो नतीजे निकाले जाएंगे, वे भ्रम पैदा करने वाले होंगे। भारत ही नहीं बल्कि कई अन्य एशियाई मुल्कों जैसे पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका में भी कई महिलाएँ प्रधानमंत्री रही हैं, लेकिन वहाँ महिलाओं की दशा काफी खराब है। हकीकत तो यह भी है कि प्रधानमंत्री बनने वाली ये सभी महिलाएँ राजनीतिक दृष्टि से ताकतवर घरों अर्थात् पहले से प्रतिष्ठित और महिलाओं को आजादी देने वाले परिवारों से ताल्लुक रखती हैं। चंद उदाहरण महिला सशक्तिकरण के उदाहरण नहीं कहलाए जा सकते। पंचायती स्तर पर महिलाओं के आरक्षण से एक नई बहू-बेटी ब्रिगेड का जन्म हुआ है, हालांकि इस कानून ने तहलका मचा दिया है और कई गरीब महिलाएँ सामंती ढांचे से लड़ भी रही हैं। आॅल इंडिया प्रोग्रेसिव वुमन एसोसिएशन की नेता मंजू देवी की शहादत को कौन भूल सकता है?
राजनीति का क्षेत्र महिलाओं के लिए वर्जित तो नहीं पर विवादित ज़रूर बन गया है। जो गिनी चुनी महिलाएँ इस क्षेत्र में आई हैं उन्होंने अपनी कर्मठता, कार्य के प्रति लगन और योग्यता के आधार पर अपना सिक्का जमा लिया है। राजधानी में महिला वर्चस्व एक मिसाल बन गया है। जहाँ की मुख्यमंत्री महिला हैं। नौकरशाही मुख्य सचिव, दिल्ली नगर की महापौर, नई दिल्ली नगरपालिका परिषद की अध्यक्ष सभी महिलाएँ ही हैं। इनके अलावा दिल्ली सचिवालय के कई महत्त्वपूर्ण विभाग भी महिलाओं के हवाले हैं। परिवहन सचिव, शिक्षा सचिव, पर्यावरण सचिव, कला, संस्कृति व भाषा विभाग की सचिव, आबकारी विभाग की आयुक्त आदि पदों पर वे महिलाएँ हैं जिनकी कलम एक करोड़ से ज़्यादा लोगों को आबादी वाली दिल्ली का भविष्य तय करती है। सत्ता के गलियारों में महिलाओं का राज है। इनके कदमों की आहट और पलकों का उठना गिरना हो इनकी योग्यताओं का सबूत है। राजनीति की शतरंज हो अथवा प्रशासनिक जिम्मेदारी, पुलिस का दफ्तर हो या रेल विभाग, दिल्ली के जीवन से जुड़े महत्त्वपूर्ण पदों पर आज महिलाओं का बोलबाला है।
दिल्ली की मुख्यमंत्री ने हाल ही में एक महिला सम्मेलन में कहा कि जिस प्रकार दिल्ली में महिलाओं ने राजनीति में खुद को साबित किया है, पूरे देश की महिलाओं को इसी तरह हिस्सा लेना चाहिए और देश की प्रगति में महत्त्वपूर्ण साझेदारी (पुरुषों के साथ) करनी चाहिए।
मुख्यमंत्री के बयान को अनदेखा नहीं किया जा सकता। सौ करोड़ से भी अधिक की आबादी वाले महादेश में केवल दस-बीस नाम ही उमड़-घुमड़ कर सामने आते हैं। राजधानी को छोड़ शेष भारत में महिलाएँ इस क्षेत्र में क्यों नहीं आगे आतीं? कुछ अपवाद तो हर जगह मौजूद हैं। इन अपवादों पर सरसरी नजर यही बयान करती है कि जिन-जिन राज्यों में महिला मुख्यमंत्री हैं वहाँ की महिलाएँ अधिक पीड़ित हुई हैं जबकि महिला ही महिला कि समस्याओं को अच्छी तरह समझ सकती है। नेशनल सेंटर फॉर एडवोकेसी स्टडीज (एनसीएएस) के आंकड़ों पर गौर करें तो यही विडम्बना उजागर होती है कि दीया तले अंधेरा। 2006 में एक सर्वे के आधार पर महिला मुख्यमंत्रियों के राज्य में सबसे अधिक पीड़ित महिलाओं का ब्यौरा कुछ इस प्रकार है। मायावती का उत्तर प्रदेश 5587 शिकायतों के साथ पहले नंबर पर, शीला दीक्षित का दिल्ली 1578 शिकायतों के साथ दूसरे नंबर पर और वसुंधरा राजे का राजस्थान 1044 शिकायतों के साथ तीसरे नंबर पर है।
क्या वजह है कि घरेलू हिंसा कानून के बावजूद जुल्मो सितम में कमी नहीं। दिलचस्प पहलू यह भी है कि अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और सिक्किम के पूर्वोत्तर राज्यों में महिला आयोग में एक भी शिकायत दर्ज नहीं हुई। क्या वहाँ मातृसत्तात्मक समाज है इसलिए? यह वजह तो पितृसत्तात्मक समाज पर पारे की तरह थरथरा रही है। पितृसत्तात्मक समाज से राजनीति की ओर उठे महिलाओं के कदम पूरे तंत्र की खामियों को देख ठिठक जाते हैं। वे इस खेल में मोहरा बनकर रह जाती हैं। निष्पक्ष रूप से देखा जाए तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी को छोड़कर किसी ने भी अपना सिक्का नहीं जमाया। पार्टी संगठन में अपनी भूमिका के साथ थोड़ी-सी उठापटक और कुछ अदद बयानों और भाषणों से वे अपनी नुमाइंदी के प्रति आश्वस्त हो जाती है। जयललिता नये लिबास, नई सैंडिलों को लेकर जितनी चर्चा में रहीं उतनी ही राजनीतिक दुश्मनी को लेकर भी। ममता बनर्जी को धरने, अनशन और बांग्ला-हिंदी-इंग्लिश की कॉकटेल से फुर्सत नहीं। उमा भारती भगवे रंग का साथ लेकर कोयला विभाग में रमी हैं और किसी बात का हल न मिलने पर बद्रीनाथ धाम जा बैठती हैं। सुषमा स्वराज शुद्ध हिन्दुस्तानी रूप में आकृष्ट तो करती हैं पर वे भाषणबाजी और पार्टी समर्थक बयानबाजी से आगे नहीं बढ़ पाईं। मेनका गांधी आज के सबसे ज्वलंत मुद्दे पर्यावरण संरक्षण पर बहुत कुछ कर सकती थी, किया भी, पर अंत में देश के महान घराने के सास बहू का त्रिकोण का हिस्सा बनकर रह गईं। मायावती दलितोद्धार के लिए सत्ता का इस्तेमाल करने से नहीं चूकीं... यह ग़लत भी नहीं था पर इसका निदान वे नहीं खोज पाईं। शह और मात का खेल अगर राजनीति बन जाए तो क्या ठोस परिणामों की अपेक्षा कि जा सकती है? सारी चिंता कुर्सी बचाने की... सारा खेल सामने वालों को पटकनी देने का तो महिला नेता के हाथ लगेगा क्या? मात्र सिफर। कई महिला नाम हैं जिनका जिक्र होता है, जो अपने गुणों से चर्चा में बनी रहती हैं, पर शह और मात के खेल से परे इन्होंने अपने सबल व्यक्तित्व का परिचय नहीं के बराबर दिया। गंभीर विश्लेषण और तह तक जाने से यही बात स्पष्ट होती है कि महिलाएँ राजनीति की बिसात पर केवल मोहरा बनी बैठी हैं। पंचायती स्तर पर तो राबड़ी देवी की तर्ज पर अधिकांश महिलाएँ डमी बनकर रह गई हैं। पुरुष वर्चस्व से आतंकित राजनीति में महिलाओं का वजूद कब उभरकर सामने आएगा?
जबकि विदेशों में भारतीय मूल की महिलाएँ अधिक तेजस्विता से काम करती रही हैं। जब भारत परतंत्र था तब अंग्रेज अपना व्यापार बढ़ाने और पत्थर भरे द्वीपों को हरियाली में बदलने के लिए भारतीय श्रमिकों को मॉरीशस, सूरीनाम आदि द्विपों पर भेजते थे। इसी तरह त्रिनिडाड-टोबेगो जाने वाले जहाज के एक अंधेरे तंग कोने में दबी सिमटी, गोद में बच्चा लिए, अपनी पोटली संभाले घूंघट में से इधर उधर भयभीत नजरों से देखती औरतों में एक औरत ऐसी भी थी जो बिहार के एक छोटे से गाँव से त्रिनिडाड तक का लम्बा सफ़र तय कर रही थी। त्रिनिडाड पहुँचकर उसने अंग्रेज़ी जुल्म के खिलाफ अपने छोटे से घर के आंगन में हनुमान जी की मूर्ति स्थापित कर एक केसरिया पताका फहराते हुए कसम खाई थी कि वह जीवन भर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ेगी और औरतों की शक्ति संगठित करेगी। आज इसी महिला के खानदान की तीसरी पीढ़ी वहाँ की संसद के अध्यक्ष पद तक जा पहुँची है। बल्कि त्रिनिडाड की पहली महिला सांसद भारतीय मूल की ही है। मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम, त्रिनिडाड, हॉलैंड जैसे देशों में भारतीय मूल की महिलाएँ बड़ी संख्या में राजनीति में आई हैं। उन्हीं में से एक लिंडा बाबूलाल छह बार देश की कार्यवाहक राष्ट्रपति बनीं। कोका सीपाल प्रतिनिधि सभा कि पहली महिला एटर्नी जनरल हैं। इन सब भारतीय मूल की महिलाओं ने विदेशों में भारत को गौरवान्वित किया है।