शेखर: एक जीवनी / भाग 1 / पुरुष और परिस्थिति / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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एकान्त शेखर के लिए कोई नयी बात नहीं थी। जबसे उसे होश हुआ, तबसे वह प्रत्येक बात में अकेला ही रहने का अभ्यस्त था, और यह भी कहा जा सकता है कि तबसे वह अपने पर ही निर्भर करता आया था। लेकिन मद्रास जैसे बड़े शहर में आकर उसे एकाएक लगा; वह बहुत अकेला है।

उसकी आयु तब कुल पन्द्रह वर्ष की थी। और इन पन्द्रह वर्षों में वह कभी घर की छाया से बाहर भी नहीं निकला था। व्यक्ति का जो भीतरी हिस्सा है, जो आत्मा का क्षेत्र है, उसमें वह सदा अकेला रहा था, उसमें उसने किसी को नहीं आने दिया था-या कम-से कम उसमें कोई आया ही नहीं था-और किसी पर निर्भर करने की आवश्यकता उसकी आत्मा ने इसलिए नहीं जानी थी! लेकिन दूसरी ओर उसे कभी चिन्ता नहीं थी कि वह खाएगा क्या, पहनेगा क्या, खर्च क्या करेगा और बचाएगा क्या। उसे ऐसी ‘छोटी’ बातों पर चिन्ता करने का अवसर ही नहीं हुआ था, अपना ‘काम चलाने’ की नौबत ही नहीं आयी थी,और कभी उसके पास थोड़े भी पैसे नहीं हुए थे कि वह उनके खर्च पर किसी तरह का नियन्त्रण करना जानता। उसे पैसे केवल दो बार मिले थे-एक बार एक अठन्नी, जिसे उसने खुशी-खुशी दस पैसे की एक सीटी के लिए दे डाला था; और दूसरी बार जब उसके बड़े भाई ईश्वर ने सिगार पीने के लिए पैसे चुराये थे, और चोरी पकड़े जाने पर कुछ देर के लिए उसके पास जमा कर दिये थे...

मैट्रिक की परीक्षा के लिए वह लाहौर गया था अवश्य, लेकिन वहाँ मास्टर साथ था, और फिर वहाँ वह मौसी विद्यावती के कारण यह जान ही नहीं पाया था कि वह घर से बाहर है। विद्यावती उसकी सगी मौसी नहीं थीं, लेकिन किसी ने कब उसमें ‘सगेपन’ की कमी का अनुभव किया था? उसमें वह क्षमता थी कि सभी उसे अपना सगा जानते थे; और फिर माँ से अधिक शशि ने भी वहाँ रहना शेखर के लिए सुखकर बना रखा-वह शशि जो उससे छोटी थी, और नहीं थी; जो उसके साथ कभी खेलती नहीं थी, पर उसकी सखी बनती जा रही थी।...

रिक्शा में बैठक कॉलेज की ओर बढ़ता हुआ शेखर यही सब सोच रहा था, और उसका अन्तस्तल घबराहट से भर रहा था। कैसा होगा कॉलेज? कैसा होगा बोर्डिंग? कैसे लड़के, नौकर-रसोइया, खाने का ढंग, रहने का कमरा...और उस दिन मौसम भी उसकी सहायता नहीं कर रहा था-वह भी मलिन था। जून का महीना था, आकाश में खूब बादल छाये थे। न बारिश थी, न हवा, गर्मी बड़ी सख्त थी, और...और शेखर पहाड़ पर से आ रहा था...

कॉलेज में नाम लिखाकर, फीस चुकाकर, होस्टल में अपने कमरे में सामान रखकर शेखर बिस्तर बिना खोले ही उसे चारपाई पर डालकर धप्-से उस पर बैठ गया और छुटकारे की लम्बी साँस लेते हुए बोला, “हफ्!”

तभी दूसरी ओर से आवाज आयी, ‘रामा, एक और नया जानवर आ गया है।’

शेखर ने नहीं समझा कि इशारा उसी की ओर है, फिर भी उसने दो-तीन जनों के आने की आहट सुनी और जैसे प्रतीक्षा में रहा।

तीन लड़के उसके कमरे में आये। शेखर कुछ सशंक-सा उनकी ओर देख ही रहा था कि प्रश्नों की बौछार हुई-

“आप कहाँ से आये?”

“कौन-से स्कूल से पास किया है?”

“क्लास कौन-सा है?”

“आपका नाम?”

शेखर से ये प्रश्न एक-एक करके पूछे गये होते तब भी वह उत्तर न देता, क्योंकि एक तो उसे उनका लहजा अच्छा नहीं लगा, दूसरे इस प्रकार के प्रश्नों से वह कुछ सकुचाता भी था। वह कुछ नहीं बोला, उनकी ओर देखता रहा।

“आप बोलना नहीं जानते क्या?”

“अजी फर्स्ट इयर में होंगे, तभी तो-”

“तो नवाब तो नहीं हैं, हैं तो आदमी ही आखिर-”

“वाह भई, खूब पहचाना। आदमी? तब तो तुम्हें भी आदमी ही कहना पड़ेगा, क्यों न?”

शेखर ने कहा, “मैं थका हूँ, मुझे आराम करने दीजिए। आपको प्रश्नों का उत्तर कल मिल ही जाएगा।”

“अच्छा, यों है बात!”

“चलो भाई, इन्हें आराम करने दो, थके हैं। हमारे प्रश्नों का उत्तर कल मिल ही जाएगा!”

“तो हम क्या आपकी टाँग पकड़े हैं-कीजिए आराम-”

“भला यह भी कोई शराफत है? अरे भाई, नाम ही तो पूछा है, कोई खा तो नहीं जाएँगे”

शेखर ने क्रुद्ध होकर कहा, “निकल जाइए आप सब मेरे कमरे से।”

एक ने कहा, “ओफ्-फो!” लेकिन उसकी मुखमुद्रा की ओर देखकर तीनों बाहर चले गये। जो आलोचनाएँ उनके मुँह पर आयीं, वे बाहर ही जाकर प्रकट हो सकीं। शेखर उनको न सुनने की चेष्टा करते हुए, दीवार की ओर मुँह करके लेट गया। पर उनकी अनसुनी न हो सकी...

शेखर का मन बहुत उदास हो गया। वह अनजाने में इस स्वागत की तुलना उस स्वागत से करने लगा, जो उसे लाहौर में प्राप्त हुआ था। शशि की बड़ी-बड़ी, भोली आँखें, उसका वह एक हाथ में दिया थामे, दोनों हाथ आधे जोड़कर प्रणाम करना; उसकी वह साग्रह अवज्ञा, और कई बातें...उसे लगने लगा जैसे माता-पिता ने उसे घर से निकाल दिया है-उसको निर्वासित किया है, क्योंकि वह उनके निकट अपराधी था...क्योंकि वह सदा से अवज्ञाशील था, क्योंकि वह अपनी माँ से इसलिए घृणा करता था कि वह उसका विश्वास नहीं करती थी, क्योंकि पिता पर उसका स्नेह इसलिए टूट गया था कि...पता नहीं...क्या...

उसकी आस्था रही किस पर थी-किसी पर भी तो नहीं! और, जिन-जिनको वह मान सकता था, जिन-जिनका वह आदर कर सकता था, वे सब उसके सामने कितने घोर अपराधी हो गये थे उस समय, जबकि उसने वह पुस्तक पढ़कर जाना था कि सन्तान की उत्पत्ति कैसे होती है-किस जघन्य पाप कर्म से...उसके माता-पिता, भाई बहिन,-वह भी-शशि-और हाँ, शारदा भी-सब उसी पाप कर्म के द्वारा उत्पन्न हुए थे...

वह गलत है, घृणित है, पापमय है, पर...तब ईश्वर ने स्त्रियाँ-तब स्त्रियाँ बनी क्यों है? क्यों?

शेखर को लगा कि स्त्रियाँ जब हैं, तब उन्हें स्वीकार तो करना ही होगा। लेकिन क्यों है वे?

लेकिन...और उसे याद आता, यद्यपि स्त्रियों के होने के कारण उसे इतना कष्ट हुआ है, फिर भी यदि स्त्रियाँ न होतीं, तो शायद वह जी नहीं सकता...

क्या यह आवश्यक है कि स्त्रियों को एक ही दृष्टि से देखा जाय, एक ही प्रश्न उनसे पूछा जाय? उसने कहीं पढ़ा था कि डाकू जब किसी नये आदमी से मिलते हैं, तब यही सोचते हैं कि यह हमारा मित्र है या शत्रु, हमारे पाप-कर्म में सम्मिलित होगा या उसमें विघ्न डालेगा। क्या यह जरूरी है कि स्त्रियों की ओर उसी डाकू वृत्ति से देखा जाय-समझा जाय कि तो वे एक पापकर्म-विशेष में पुरुषों की संगिनी हैं-और या पुरुषों की शत्रु हैं, भयंकर हैं?

पुरुष क्या स्त्रियों के संसार में, स्त्रियों के बिना नहीं जी सकता...

वह बहुत अकेला है। इतने बड़े मद्रास शहर में, इतने बड़े मद्रास शहर में, इतने भीड़-भड़क्के में वह पहली बार बिलकुल अकेला धँस आया है; और यहाँ सब ओर विरोध, उपेक्षा ही है; यहाँ पुरुष, हैं जो विरोधी हैं, और वह चाहता है-पता नहीं क्या चाहता है, वह तो नहीं चाहता कि कोई स्त्री वहाँ उपस्थित हो, लेकिन चाहता है-चाहता है-पता नहीं क्या...

वह चिन्तित-सी तन्द्रा में ऊँघने लगा...

किसी खड़खड़ाहट का शब्द सुनकर वह चौंककर उठ बैठा।

द्वार पर एक युवक खड़ा था, और भीतर आने की अनुमति पाने की प्रतीक्षा में था। उसके चेहरे पर एक विनयपूर्ण मुस्कराहट थी।

शेखर ने कहा, “आइए।” और इधर-उधर देखने लगा कि उसे बैठने के लिए कौन सा स्थान इंगित करे।

उसने पास आकर शेखर के ट्रंक पर बैठते हुए कहा, “चिन्ता नहीं-मैं मजे में हूँ। आपका नाम सी.एच. पंडित है?”

शेखर ने कुछ विस्मय से कहा, “हाँ।” और कुछ कुतूहल से युवक का अवलोकन करने लगा।

युवक का चेहरा सुन्दर था, आँखें सुडौल और स्वच्छ, नीली, प्रायः हँसती हुई, नाक सीधी और छोटी, ओठ पतले, लम्बे और चंचल। सिर पर लम्बे-लम्बे घुँघराले बाल थे, जिन्हें उसने ढंग से काढ़ रखा था।

दाढ़ी-मूँछ उसके नहीं थी-अभी फूट भी नहीं रही थी। कद और गठन से भी वह चौदह-पन्द्रह वर्ष से अधिक नहीं जान पड़ता था।

शेखर कुछ पूछने को ही था कि युवक ने कहा, “मेरा नाम है कुमार। आपके नाम में सी.एच. से क्या अभिप्राय है?”

“चन्द्रशेखर।”

“अच्छा! मेरे बड़े भाई का नाम यही है। आप कौन-सी क्लास में पढ़ते हैं?”

“मैं अभी फर्स्ट इयर में भरती होने आया हूँ।”

“ओ हो-तब साथ ही हैं, मैं भी फर्स्ट इयर में हूँ।”

शेखर को कुछ और विस्मय हुआ-यह देखकर कि इस लड़के में ज़रा भी संकोच या घबराहट नहीं प्रकट होती, यद्यपि वह भी अभी कॉलेज में आ रहा है। बोला, “यह तो अच्छी बात हुई।”

उस लड़के ने पूछा, “आपने सारा बोर्डिंग देख लिया-कुछ परिचय प्राप्त किया?”

“नहीं तो, मैं कुछ भी नहीं जानता। और थका भी हूँ।”

“अच्छा, तब रहने दीजिए। आप चाहें तो मैं आपको मिला लाऊँ। मैं प्रायः सभी को जानता हूँ।”

शेखर ने चाहा, पूछे, “कैसे?” पर चुप ही रहा। फिर उसे विचार आया, बिना इसकी सहायता के मुझे शायद बहुत कठिनाई होगी; फिर यह भी कि मुझे कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए। बोला, “अगर आप कुछ ठहरकर चलें, तो मैं चलूँगा। आपको कष्ट तो होगा। मुझे स्वयं आपसे ही बात करने का अधिक मोह है, इसलिए कहता हूँ कि औरों से ठहरकर मिल लेंगे। आपकी कृपा के लिए मैं कृतज्ञ हूँ, मिस्टर कुमार।”

“नहीं, नहीं, सो क्या! और आप ‘मिस्टर कुमार’ क्यों कहते हैं? सहपाठियों में भी ‘मिस्टर’ का बन्धन लगा तब तो मुश्किल है, केवल कुमार कहिए न! सभी कहते हैं।”

शेखर ने कहा, “अच्छा तो-कुमार।” फिर कुछ रुककर बोला, “आप पहले व्यक्ति हैं यहाँ, जिसने मुझसे शिष्टता का बर्ताव किया है...”

कुमार हँस दिया।

शेखर का मन इस युवक के प्रति कृतज्ञता से भरता गया। एकाएक उसे लगा कि मद्रास में यदि यह न होता तो शायद उसे कॉलेज छोड़कर भागना पड़ता...कुमार ने उससे बातें करने के सिवाय कुछ नहीं किया था, फिर भी जिस अवस्था में शेखर था, उसमें उसे लगा कि उन बातों पर ही उसका सुख और जीवन निर्भर रहा था, और वही कुमार ने उसे दिया। थोड़ी ही देर में उसने पाया कि वह कुमार से अपने घर की बातें, अपने घर की पढ़ाई, अपना अकेलापन, अपनी विवशता, सब कुछ कह रहा था! उसके विश्वासी हृदय ने कुमार को अपना भाई मान लिया था-वही अकल्पनीय भाई, जो उसे घर में नहीं मिला था, और उसका स्थान बहिनें किसी प्रकार भी नहीं भर सकती थीं...

कुमार ने शेखर का परिचय सबसे करा दिया। उसे साथ ले जाकर भोजन भी कराया और फिर कमरे में लाकर, जाते हुए यह वायदा ले गया कि जब भी किसी बात में शेखर को कुछ पूछने-जानने की जरूरत होगी, वह उसे बुलाएगा। शेखर ने वायदा करते पूछा, “आप, जान पड़ता है, यहाँ पहले भी रहते रहे हैं?”

“हाँ, मैं पिछले साल भी यहीं था।” फिर कुछ झेंप-सा कर, “मेरा यह फर्स्ट इयर में दूसरा साल है।”

“अच्छा? आपकी आयु तो बहुत थोड़ी लगती है-”

“मैं सोलह वर्ष का हूँ। आप?”

“मैं पन्द्रह का। लेकिन मैं आपसे बड़ा लगता हूँ,” और कुछ हँसकर, “और मन भी नहीं मानता कि छोटा हूँ।”

“अच्छी बात है-आज से आप मेरे बड़े भाई रहे-क्यों मंजूर?”

कृतज्ञ शेखर कुछ बोल नहीं सका। उसने कुमार का हाथ पकड़कर धीरे से दबा दिया।

कुमार चला गया। शेखर किवाड़ बन्द करके अपनी चारपाई पर बैठ गया और सोचने लगा, इस अकारण वरदान के लिए वह किसके प्रति कृतज्ञ हो कि इतने बड़े मद्रास में, पहले ही दिन, बिना खोजे ही, उसने अपना सखा पा लिया है-किस अज्ञात शक्ति के प्रति...

“शेखर, सिनेमा चलोगे?”

शेखर ने विरक्त स्वर में कहा, “क्या रोज-रोज सिनेमा देखा करें? अभी परसों तो गये थे!”

कुमार ने कहा, “बात तो तुम्हारी ठीक है। और, मेरी अवस्था ऐसी नहीं है कि बहुत बार जा सकूँ। पर आज की फिल्म बहुत अच्छी थी, इसलिए मैंने सोचा कि शेखर को साथ लेकर-” कहकर उसने एक लम्बी साँस ली।

उस साँस के पीछे निराशा का भाव था, वह शेखर के दिल में चुभ गया। उसे याद आया, कुमार ने एक दिन बताया था कि उसके माता-पिता निर्धन हैं, और वह मुश्किल से पढ़ाई का खर्च-भर उनसे पाता है। पिछले वर्ष उसने तनिक भी मनोरंजन नहीं किया-यहाँ तक कि चिन्ताओं के कारण ही उसकी पढ़ाई नहीं हुई, और वह फेल हो गया। उसी दिन से, शेखर ने मन-ही मन संकल्प कर लिया था कि जहाँ तक हो सकेगा, वह कुमार को प्रसन्न रखेगा, और उसे कम-से-कम आर्थिक कष्ट कोई नहीं होने देगा। आज एकाएक उस बात का ध्यान आ जाने से उसका हृदय पिघल गया, उसे लगा कि अपने सुख के लिए किसी एक पर निर्भर करना ही इतनी दयनीय अवस्था है, कि बाहरी चोट के द्वारा उसकी याद दिलाना एक बिलकुल अक्षम्य अपराध है। उसने जल्दी से कहा, “तब अवश्य चलो कुमार। और यह बात मेरे आगे मत कहा करो कि-” कुछ रुककर, “मुझे बहुत दुःख होता है।”

कुमार ने कहा, “जो सच्ची बात है, उसे कहने में क्या हर्ज? लेकिन तुम मना करते हो, तो नहीं कहता।”

दोनों बाहर चल दिये।

महीना भर हो चला।

एक दिन शेखर ने कुमार के कमरे में जाकर कहा, “कुमार आज समुद्र पर चलें। सिनेमा-थिएटर, रोज देख-देखकर मैं तो उकता गया।”

कुमार ने कहा, “अच्छा चलो।”

ट्राम में बैठकर दोनों चल पड़े।

पहुँचकर वे पैदल चलने लगे। बस्ती से निकलकर वे निर्जन-सी सड़क पर आ गये थे। सन्ध्या होने लगी थी-पथ पर दोनों ओर लगे हुए वृक्षों की लम्बी-लम्बी छायाएँ पड़ रही थीं। ऐसा लग रहा था कि धूल के कारण असमतल उस पृथ्वी की कंचन-मेखला पर चित्रकारी की हुई थी...भूमि की ओर देखता हुआ, एक हाथ में कुमार का हाथ थामे हुए, जाने क्या कुछ सोचता हुआ, शेखर चुपचाप चला जा रहा था। कुमार बोलने की इच्छा से बार-बार उसकी ओर देखता था, लेकिन उसकी मुद्रा देखकर चुप हो जाता था।

जब समुद्र का गम्भीर नाद उन्हें सुनाई पड़ने लगा, तब सन्ध्या हो चुकी थी और आकाश में लालिमा अधिक घनी होकर ज्योतिहीन होने लगी थी। वे कुछ जल्दी चलने लगे, और थोड़ी देर में तट पर पहुँचकर, एक चट्टान की आड़ में समतल रेत पर बैठकर, लहरों की ओर देखने लगे। देखत-देखते आकाश में सन्ध्या का अन्तिम प्रकाश भी बुझ गया।

शान्ति थी। हवा नहीं चल रही थी। लोग भी धीरे-धीरे चले गये थे। तट का वह अंश बस्ती से काफी दूर था। अन्धकार में समुद्र की ओर देखता हुआ शेखर सोच रहा था कि वहाँ पर कुमार के साथ बिलकुल अकेला है और जैसे समुद्र का गम्भीर चिरन्तन गर्जन उन्हें घेरे हुए है...

क्योंकि पवन के निश्चल होने पर भी समुद्र में एक गहरा असन्तोष-सा था, फेनिल लहरें दूर से भागी हुई नहीं आ रही थीं, लेकिन दूर फेन-हीन हलचल थी, और तट के पास-पास निरन्तर फेन का जैसे कड़ाह उबल रहा था, फुफकार रहा था, बढ़ रहा था...और जाने कहाँ से वह विशाल, गम्भीर घोष-सा हो रहा था-लहरों के स्वर से अधिक, भारी, धीर...

उस दिन पूर्णिमा थी, और समुद्र के पार, पूर्व में चन्द्रोदय होनेवाला था-उसकी अगुवानी करने को एक अकेला बादल, चारों ओर एक चाँद की झालर से विभूषित, क्षितिज पर खड़ा था, और उसके पीछे, शीघ्र प्रकट होनेवाली किसी अभूतपूर्व सौन्दर्य राशि की आभा आप फूटी पड़ती थी...

शेखर स्वयं चुप था, कुमार उसके कारण चुप था।

शेखर धीरे-धीरे कुमार के लम्बे बालों में उँगलियाँ फेरकर उन्हें उलझा रहा था। और उसे लग रहा था कि कुमार के बाल एक सिहरन-सी द्वारा उसके स्पर्श का प्रतिदान दे रहे हैं, वैसे ही जैसे कुत्ते कभी-कभी स्वामी के स्नेहपूर्ण स्पर्श की कृतज्ञता बताया करते हैं...

शेखर बोला तो कुमार जैसे चौंक उठा “देखो कुमार, ऐसे लगता है, जैसे इस दुनिया में तीसरा कोई नहीं है।”

कुमार ने उत्तर नहीं दिया।

शेखर ने मुट्ठी में उसके बाल धरते हुए एक हलका-सा झटका देकर कहा, “क्यों, बोलते क्यों नहीं?” यद्यपि उसे यह नहीं लगा कि कुमार के कुछ कहने की जरूरत है...

शेखर ने फिर कहा, “यह है भी ठीक। हरएक की दुनिया उतनी ही होती है, जितनी कि वह जानता है। क्योंकि अपनी अनुभूति से बाहर जो है, उसे हम कैसे जानें कि वह है भी? मुझे पता है कि मैं पीछे बहुत-सी दुनियाएँ छोड़ आया हूँ, और यह भी है ही कि आगे भी बहुत-सी दुनियाएँ होंगी, लेकिन एक को मैं अभी जानता नहीं, दूसरी इस क्षण में मुझे मिथ्या लगती है-मेरे अनुभव में नहीं आती। इस समय मेरी दुनिया की सीमाएँ हैं, पीछे यह चट्टान, सामने वह बादल और उसके पीछे उदय होनेवाला चाँद, इधर मैं, और उधर तुम...”

वह चुप हो गया। कुमार अब भी कुछ नहीं बोला। शेखर ने अपना हाथ उसके बालों में से निकालकर भूमि पर टेक दिया, और ध्यानस्थ-सा हो गया।

थोड़ी देर बाद वह फिर बोला, “कुमार, आज कुछ भी सच्चा नहीं लगता, सभी स्वप्न है। लेकिन जिस स्वप्न का मैं इस समय एक अंग हूँ, वह कितना मधुर लग रहा है? बताओ, तुम मुझे अपने से बड़े क्यों नहीं लगते? मुझे क्यों लगता है कि तुम छोटे हो, और मैं जैसे तुम्हारा संरक्षक, तुम्हारा गार्जियन एंजेल (दैवी रक्षक) हूँ, और तुम मुझ पर निर्भर करते हो?”

कुमार ने जल्दी से कहा, “ठीक तो है-मैं तुम्हीं पर तो निर्भर करता हूँ।”

शेखर की विचार-तरंग के अनुकूल ही था यह उत्तर, लेकिन यह उसे बुरा-सा लगा। जैसे उसमें कुछ जल्दी था, कुछ अकुलाहट, कुछ बनियापन, जिसे वह उसे विराट् स्वप्न के संसार में क्षुद्र यथार्थता में खींचे ला रहा था। वह बोला, “कुमार, तुमने, मालूम होता है, मेरी कोई बात सुनी नहीं।”

कुमार ने चौंककर कहा, “सो तुमने कैसे जाना? नहीं सुनी होती, तो जवाब ऐसे ही दे देता?”

शेखर ने और गम्भीर होकर कहा, “सच-सच बताओ, तुम अभी क्या सोच रहे थे?”

“बताऊँ-नाराज तो नहीं होओगे?”

“मैं-तुमसे नाराज?”

कुमार ने कुछ हिचकते हुए कहा, “बात यह है कि मेरी माँ थी बहुत बीमार, और उनके इलाज में पिता ने अपनी सारी तनखाह खर्च कर डाली-शायद कुछ कर्ज भी लिया। इस महीने में कुछ भी नहीं भेजा उन्होंने, शायद अगले महीने में भी नहीं भेजेंगे। मैं फीस भी नहीं दे पाया, इसलिए शायद कॉलेज से-”

“मुझे अब तक क्यों नहीं बताया?”

कुछ और हिचक से-”मैं हरएक बात में तुम्हारी ही तो सहायता माँगता हूँ-और मेरा है कौन यहाँ? लेकिन-मुझे यह भी विचार रहता है कि कहाँ तक-”

शेखर ने कुछ रुष्ट होकर कहा-”मुझे तुमने ‘कोई और’ समझा?” फिर “कितना रुपया चाहिए तुम्हें?”

कुमार ने कुछ अटकते हुए कहा, “ठीक पता नहीं। शायद पचास में-या शायद कुछ-यही पचास-साठ एक-”

“सौ रुपये काफी होंगे?”

कुछ संकोच से, “सौ का मैं क्या-”

“अच्छा बस, अब छोड़ो इस बात को! कल सब ठीक हो जाएगा। ख़बरदार अब ऐसी बात सोची तो!”

“शेखर, मैं तुम्हारा-”

इस वाक्य के अगले शब्द जानकर शेखर ने उसे रोकते हुए कहा-”बस चुप अब! कह जो दिया कि इस बारे में कोई बात नहीं होगी अब।”

दोनों फिर चुप हो गये...

धीरे-धीरे चाँद निकल आया। शेखर ने देखा, चाँद के बाहर आते ही वह बादल का टुकड़ा, जो अभी तक एक चाँदी की झालर से सजा हुआ था, काला पड़ गया है। और चाँद के प्रकाश में आसपास तट की रेत की बिछलन में काले धब्बे-से पत्थर बिखरे हुए दीखने लगे थे। उसने कुमार की ओर देखा, वह चाँद की ओर देख रहा था।

शेखर ने एकाएक कहा-कहकर वह स्वयं विस्मित-सा हो गया कि उसने क्या कहा है। इतना कम समय लगा था विचार के शब्दबद्ध और प्रकट होने में-”कुमार, यदि मेरे अतिरिक्त तुम और किसी के हुए, तो मैं तुम्हारा गला घोंट दूँगा।”

कुमार ने भीत-से स्वर में कहा-”तुम क्या कह रहे हो, शेखर!”

शेखर ने कुमार को अपनी ओर खींचकर उसका मुँह चूम लिया। लेकिन साथ ही उसके मन में एक शंका हुई-स्वर में यह भय क्यों? और उसे यह भी लगा कि जो कुछ उसकी ओर से है, दूसरी ओर से वह नहीं है, जैसे झील में उसका प्रतिबिम्ब मात्र, जिसमें कम्पन है, लेकिन कम्पन जीवन का नहीं, माया का। पर उसने इन दोनों सन्देहों को तत्काल दबा दिया...

कुमार ने कहा, “चलो अब चलें। देर बहुत हो गयी।”

शेखर ने यत्न से समुद्र की ओर से आँख हटाते हुए कहा, “चलो।” वह जाना नहीं चाहता था, लेकिन अभी जो उसने कहा था, जिस दबाव के कारण वह कहा था, उसका ध्यान करने उसे लगा कि वह कुमार की बात का खंडन नहीं कर सकता।

वे दोनों होस्टल लौट आये। किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा।

शेखर ने सौ रुपये कुमार को दिये। कुछ दिन बाद बीस और दिये। इनमें पचास रुपये उसे जमा रखने के लिए दिए गये थे-कभी जरूरत पड़ जाने पर उपयोग के लिए। बाकी उसका अपना महीने का खर्च था। रुपया इस प्रकार देकर उसने घर से रुपये मँगाने के लिए पत्र लिख दिया।

दो दिन में पत्र का उत्तर आ गया, रुपये नहीं आये। पिता ने लिखा था कि शेखर रुपया बरबाद कर रहा है, रुपया जरूरी खर्च के लिए है, मित्रों को लुटाने के लिए नहीं, और-ऐसी ही कई-एक बातें...और यह भी कि वह दुबारा सोचकर लिखे कि कितना रुपया चाहिए, वे भेज देंगे।

शेखर ने आहत अभिमान से भरकर लिख दिया कि वह जो कुछ लिखता है, सोचकर लिखता है। उसे उतने रुपये चाहिए; दुबारा सोचने की जरूरत नहीं है। यदि भेजने हों, तो भेज दें, नहीं तो न भेजें।

इस पत्र का कोई उत्तर नहीं आया था-और पैसे भी नहीं आये थे। शेखर ने कमरे से बाहर निकलना छोड़ दिया था।

कुमार ने आकर कहा, “चलो, आज सर्कस चलें।”

शेखर ने कहा, “आज तो जाने की बिलकुल तबीयत नहीं है।”

“क्यों, क्या हुआ? आजकल तुम बाहर ही नहीं निकलते, बात क्या है?”

“कुछ नहीं, यों ही, तबीयत ही नहीं होती।”

“आज तो चले चलो। तबीयत तो यहीं बैठे-बैठे खराब होती है। अब तो सिनेमा गये भी दस-पन्द्रह दिन हो गये हैं।”

शेखर ने मुँह फेरकर कहा, “मेरे पास पैसे नहीं है। और, शीघ्र आ जायँगे, इसकी कोई सम्भावना भी नहीं दीखती।”

कुमार ने थोड़ी देर रुककर पूछा, “क्या बात हुई?”

“पिता ने लिखा था, मैं बहुत फिजूल खर्च कर रहा हूँ, वे उतने रुपये नहीं भेज सकते। मैंने लिख दिया कि अगर आप उतने नहीं भेज सकते तो बिलकुल मत भेजिए। बस।”

थोड़ी देर फिर दोनों चुप रहे। फिर कुमार ने उठकर कहा, “मैं जाता हूँ, मुझे ज़रा-”

“बैठो न! मेरा जी नहीं लगता, आज शाम यहीं बैठकर बातें करेंगे। या चलो समुद्र पर-”

“नहीं, मुझे याद आ गया, मुझे एक जरूरी काम से जाना है। अच्छा ही हुआ, सर्कस नहीं गये, नहीं तो-” कहकर, जल्दी से वह बाहर चला गया।

शेखर कमरे में लेटा हुआ छत की ओर देखने लगा।

क्यों हैं गरीबी? क्यों है धन? क्यों ऐसा है कि एक आदमी, मनोरंजन की इच्छा रहने पर, सिनेमा-सर्कस नहीं जा सकता, और क्यों एक दूसरा आदमी, उसका जाना सम्भव बनाने की सामर्थ्य रखते हुए, उसे जाने से रोक देता है?

लेकिन, मनोरंजन क्या सिनेमा-थिएटर में ही हैं? बिना वहाँ जाये क्या व्यक्ति सुखी नहीं हो सकता? पहले भी तो ऐेसे दिन थे, जब वह सिनेमा नहीं जाता था, तब क्या उसका मनोरंजन नहीं हुआ? जब वह परीक्षा देने लाहौर गया था, तब भी पढ़ते-पढ़ते उकताकर वह मनोरंजन चाहता था, तब तो उसके लिए इतना ही पर्याप्त होता था कि शशि बिना कुछ बोले ही उसके पास से हो जाया करे, और वह उसे ‘बहिनजी?’ कहकर चिढ़ा लिया करे, या इतना भी नहीं, वह दूर से ही उसकी हँसी सुन लिया करे...अब क्यों नहीं वह ऐसा कर सकता?

कुमार वहाँ होता, तब शायद वह ये सब बातें नहीं सोचता। कुमार की निकटता, कुमार की बातचीत, कुमार की हँसी, उसके लिए पर्याप्त होती...

पर कुमार के लिए?

पर शशि के लिए?

क्या है यह प्यार की आकस्मिक घटना, जो आदमी को इस प्रकार दूसरे का आश्रित बना देती है, पर साथ ही शक्ति भी देती है, आश्रयदाता भी बनती है...

और, क्या है वह प्यार से भी बढ़कर आकस्मिक घटना, प्यार से भी बढ़कर शक्ति, जो प्यार को सम्भव बनाती है, जो परिस्थिति उत्पन्न करती है, जिसमें प्यार हो सके, जिसमें दो आत्माएँ मिल सकें?

लेकिन, क्या वह और कुमार एक हैं? क्या उस एकत्व में, बहुत नीचे कहीं, एक खोखलापन नहीं है? क्या वे एक ही वस्तु चाहते हैं? एक ही तरह चाहते हैं? क्या-

लेकिन, क्या जरूरी है कि प्यार के लिए कोई दो परस्पर एक-दूसरे के हाथ बिकें, एक-दूसरे के गुलाम बनें? क्या दासता के बिना प्यार नहीं है?

यदि है, तब फिर यह सीमा भी क्यों हो कि प्यार दो इकाइयों के बीच हो? क्यों यह जरूरी है कि किसी को ही प्यार किया जाय-क्या प्यार की भावना किसी स्थूल, एकाकी विषय से अलग नहीं की जा सकती? क्या जरूरी है कि ‘मैं प्यार करता हूँ’ इस वाक्य का अनिवार्य अनुवर्ती हो यह प्रश्न कि ‘किसे प्यार?’ और वह ‘कौन’ भी एक ही हो? क्या सारी मानवता को ही प्यार नहीं किया जा सकता, क्या प्यार को ही प्यार नहीं किया जा सकता...

वह सदा अपने ही भीतर घुलता रहा है, अपने से बाहर आने की, जीवन को अपनाने की, संसार को अपना बनाने की चेष्टा छोड़कर अपने को संसार का बनाने की चेष्टा उसने कभी नहीं की। वह प्यार को माँगता ही रहा है, प्यार देना उसने जाना ही नहीं...

लेकिन, यह जो इस क्षण उसकी परिस्थिति है, यह उसका दोष है या कुमार का, या और किसी का?...यह जो सूनापन उसे इस समय लग रहा है, वह क्या उसकी प्यार करने की अयोग्यता से है, या प्यार की असमर्थता से?

कविता की एक पंक्ति शेखर के मस्तिष्क में नाच गयी। वह उठा, और लिखने लगा...

“ओ तू मानव, ओ आकारहीन घनीभूत भावना मात्र, जिसका मैं एक अंग हूँ, मैं अपने को, अपने प्रियों को भूलकर तेरा ही होना चाहता हूँ; तुझे प्यार करता हूँ; तुझे प्यार करने की इच्छा और अपनी सामर्थ्य को प्यार करता हूँ...ओ तू, मुझे शक्ति दे कि तुझे ही प्यार करूँ और तेरे प्यार को सह सकूँ...”

रात को शेखर भोजन के लिए उतरा तो उसने होस्टल के चपरासी से पूछा, “कुमाराप्पा नहीं आये?”

“अभी? वे तो सर्कस देखने गये हुए हैं।”

“किसके साथ?”

“कृष्णमूर्त्ति के साथ।”

शेखर बिना भोजन किये ही ऊपर लौट गया, और कमरे की खिड़की पर बैठकर बाहर दौड़ती हुई अनेक ट्रामगाड़ियों को देखते हुए, उनकी घरघराहट, मोटरों के हॉर्न, रिक्शावालों की पुकारें सुनते हुए, लेकिन अपने को कुछ भी देखने-सुनने, समझने में असमर्थ पाते हुए, अर्थहीन प्रलाप की तरह अपनी लिखी हुई एक पंक्ति दुहराने लगा...‘ओ तू, मुझे शक्ति दे कि तुझे प्यार करूँ, और तेरे प्यार को सह सकूँ...’

शेखर दो दिन कॉलेज नहीं गया। कमरे में ही इस प्रतीक्षा में बैठा रहा कि कुमार उसके पास आवे; क्षमा माँगे, या कुछ सफाई दे, पर कुमार नहीं आया।

तीसरे दिन, बहुत उकताकर शेखर शाम को बाहर निकला! उसने निश्चय किया कि समुद्र पर जाकर बैठेगा, और अपने उलझे हुए मस्तिष्क को साफ करेगा। कुमार की ओर उसका ध्यान ही नहीं गया-न उसके कमरे में प्रवेश करके उसे देखने की इच्छा उसे हुई।

उतरते हुए उसने एक कमरे में से दो-तीन कंठों की हँसी सुनी, और उसमें कुमार का भी स्वर सुनकर ठिठक गया।

एक स्वर-”आजकल शेखर बाहर नहीं निकलता, क्या बात है?”

“अरे तुमने नहीं सुना? उसके पिता ने उसका खर्च बन्द कर दिया है?”-कुमार कहता है।

“तब तो ठीक ही बात होगी”-और एक हँसी का ठहाका।

“तभी आजकल कृष्णमूर्ति के गहरे हैं-क्यों कुमार?” फिर एक ठहाका...

तब कुमार का स्वर “अरे यार, छोड़ो भी इन बेवकूफी बातों को। शेखर तो बुद्धू है।”

शेखर धीरे-धीरे, रेलिंग के सहारे, नीचे उतर गया। नीचे जाकर उसने एक परचा लिखा, और चपरासी को देकर कहा, “यह कुमाराप्पा को दे आओ-मैं यही खड़ा हूँ।”

परचे पर लिखा था, “हाँ, मैं बुद्धू और बेवकूफ हूँ। लेकिन किस दिन मैं बेवकूफ बना जानते हो? मैंने समुद्र-तट पर कहा था “कुमार, यदि तुम और किसी के हुए तो मैं तुम्हारा गला घोंट दूँगा।” उसी समय अपने ही वाक्य को न समझने की बेवकूफी की थी मैंने...कीड़े किसके हैं?”

क्षण ही भर में कुमार ने आकर कहा, “इसके क्या अर्थ हैं, शेखर?”

“अर्थ? क्या काफी साफ नहीं लिखा है मैंने?”

“मैं तुम्हारा कर्जदार हूँ, इसी बूते पर तुमने मेरा इतना अपमान किया है न? अगर मैं-”

शेखर ने धधककर कहा, “कर्जदार?” लेकिन फौरन ही शान्त होकर बोला, “ठीक है। तुम्हारी पैसों के मोल बिकी आत्मा अगर उससे बड़ी बात नहीं सोच सकती, तो उसका दोष नहीं है।”

वह घूमकर लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ समुद्र-तट की ओर चल पड़ा।

अँधेरा था। बादल छाये थे। तट सूना निर्जन था। पवन बिलकुल शान्त था। और समुद्र भी असाधारण शान्त था, शान्त और प्रायः मूक, यद्यपि ऐसा जान पड़ रहा था कि उसके भीतर कहीं प्रकाश जल रहा है, या अवगुंठित बिजलियाँ नाच रही हैं-विस्फोट की तैयारी थी वह...

और शेखर को लगा, यदि समुद्र की दशा ठीक वैसी न होती, तो वह क्षण-भर भी उसके किनारे न ठहर सकता...

जब शेखर उस तन्द्रा से जागा, तब वह सुनने लगा कि होस्टल में उसको लेकर अनेक प्रकार की बातें चल रही हैं-विचारों का आदान-प्रदान हो रहा है।

वह ब्राह्मण है, उसका नाम भी चन्द्रशेखर पंडित है, लेकिन उसकी चुटिया कहाँ है? जनेऊ कहाँ है? वह अपना पूजा-पाठ कब और कहाँ करता है? उसने ईश्वर का सबसे बड़ा उपहार-द्विजत्व-पाया होगा, लेकिन उसने अपने आचार से उसे खो दिया है, वह भ्रष्ट है...

जिस बोर्डिंग में शेखर था, वह ब्राह्मणों के लिए था। इसलिए, पिता की आज्ञानुसार, शेखर वहाँ आकर रहा था। अब तक उसके ब्राह्मणत्व के विषय में किसी को आपत्ति भी नहीं हुई थी। अन्य छात्र ब्राह्मणत्व के और संस्कारों का पालन तो करते थे, लेकिन भीतर उनका आदर उतना गहरा नहीं था। उनका भोजनागार सब ओर से घिरा हुआ था, ताकि किसी आते-जाते व्यक्ति के कारण उनके भोजन में ‘दृष्टिदोष’ न हो जाय-वह छोटी जाति द्वारा देखा जाकर भ्रष्ट न हो जाय। कभी ऐसा हो जाता, तो वह भोजन उतना ही अखाद्य हो जाता, जैसे किसी कुत्ते ने उसे जूठा कर दिया तो। यद्यपि कुत्ते कई बार भोजनागार में घुस आते थे और उन्हें ‘हिश’ करके भगा देना ही पर्याप्त होता था...

शेखर को जानते देर नहीं लगी कि इन शंकाओं का अंकुर कहाँ है। लेकिन कुमार से बात करने की, या उसका मुख देखने की भी उसकी प्रवृत्ति कभी नहीं हुई। वह देखने लगा कि सभी छात्र उसकी ओर ऐसे देख रहे हैं, जैसे वह कोई विदेशी जन्तु है, और उसे लगता, मन-ही-मन वे सोच रहे हैं कि अगले जन्म में शेखर क्या होगा-कुत्ता या कौआ या कीड़ा, और जैसे उसके भाग्य पर दया से भर रहे हैं। तब वह उस ‘दया’ का ध्यान करके जल उठता, और सोचता, मैं नरक में जाऊँ तो इनका क्या?

पर उनकी ‘दया’ इतनी नहीं थी कि उसके नरकवास की कल्पना से द्रवित होकर अपना परलोक भूल जाय। उन्होंने निश्चय किया कि वे शेखर से साथ भोजन नहीं करेंगे, और शेखर को एक दिन मालूम हुआ कि सब छात्रों की ओर से प्रिंसिपल के पास एक अर्जी दी गयी है कि उसका अलग प्रबन्ध किया जाय, नहीं तो वे होस्टल छोड़ने को बाध्य होंगे। उन्होंने रसोइए को भी कह दिया कि जब तक उसका निर्णय नहीं होता, तब तक शेखर का आसन औरों से कुछ हटाकर लगाया जाय।

शेखर को यह बिलकुल स्वीकार नहीं हुआ। लेकिन रसोइए को वह झगड़े में घसीटना नहीं चाहता था, इसलिए वह निर्णय होने तक एक होटल में जाकर भोजन करने लगा।

निर्णय हो गया। प्रिंसिपल ने निश्चय किया कि होटल ब्राह्मणों के लिए है, और ब्राह्मणत्व का निर्णय केवल कुल से ही हो सकता है, क्योंकि आचार ब्राह्मणों में भी कई प्रकार के हैं; शेखर जन्मतः ब्राह्मण है, इसलिए वहीं रहेगा और वहीं भोजन करेगा, उसे हटने का बाध्य नहीं किया जा सकता।

शेखर की जीत हुई। लड़कों को भी अधिक लड़ाई-झगड़ा करने से लाभ नहीं जान पड़ा। बात यहाँ समाप्त हो गयी-यद्यपि लड़कों ने कभी शेखर को उसकी विजय के लिए क्षमा नहीं किया, और उस पर वह जताने का कोई अवसर नहीं खोया कि प्रिंसिपल चाहे कुछ कहें, वे उसे ब्राह्मण नहीं समझते।

जीतकर शेखर को कोई उल्लास नहीं हुआ-यह सोचकर भी नहीं कि उसने कुमार पर विजय पायी है। उस पर विजय पाने का अब कोई महत्त्व नहीं रह गया था। उसने कॉलेज से सप्ताह भर की छुट्टी ली, और सैर करने के लिए मालाबार की ओर चल दिया। पैसे उसके पास थे, क्योंकि कुमार से झगड़ा होने के बाद उसने पिता से क्षमा माँग ली थी।

मालाबार बहुत सुन्दर प्रदेश है, लेकिन शेखर वहाँ सौन्दर्य देखने नहीं गया था। कॉलेज में ही मालाबार में छुआछूत सम्बन्धी जो कहानियाँ-उसके लिए वे बातें इतनी असम्भव थीं कि वह उन्हें कहानियों से अधिक कुछ नहीं समझ पाता था-उसने सुनी थीं, उन्हीं के कारण वह उधर आकृष्ट हुआ था। वहाँ के अछूत-‘पंचम’-किसी कुलीन ब्राह्मण के पास दायरे के भीतर नहीं आ सकते-कुछ गज दूर रहना होता है; ब्राह्मणों के लिए अलग सड़कें हैं, जिन पर ‘पंचम’ नहीं चल सकते, ‘पंचमों’ को नदियाँ नाव में बैठकर या और किसी प्रकार पार करनी होती हैं, क्योंकि पुल ऊँची जातियों के लिए सुरक्षित होते हैं; ब्राह्मणों के पड़ोस में अछूत भूमि नहीं ले सकते; और कभी ब्राह्मण और ‘पंचम’ का सामना हो ही जाए तो ‘पंचम’ को अपना पंचमत्व घोषित करना पड़ता है कि अनजाने में उसकी छाया ब्राह्मण पर न पड़ जाए...वह सब उसने सुना था, लेकिन सुनकर विश्वास नहीं कर सका था। जब कॉलेज में छुआछूत के प्रश्न पर ही उसका झगड़ा हुआ और उसकी जीत हो गयी, तब वह मालाबार की दशा देखने के लिए चल पड़ा।

वहाँ पहुँचकर उसने आर्यसमाज मिशन के भवन में अपना सामान रखा। कुछ देर वह प्रतीक्षा में रहा कि मिशन के कोई कार्यकर्ता मिलें तो उनसे बातचीत करे, लेकिन वे सभी बाहर गये हुए थे। अन्त में यह देखकर कि दिन-भर की होती हुई बारिश कुछ थम गयी है, उसने झट से कपड़े बदले, साधारण मद्रासी पोशाक पहनी, और नंगे पैर घूमने चल पड़ा।

शाम हो चली। शेखर भटकता हुआ एक सूनी-सी सड़क पर निकल गया था, और सोच रहा था कि किधर से लौटने में सुभीता रहेगा। सड़कों पर प्रायः कीचड़ था-कहीं-कहीं पूर्णतया पानी से ढकी हुई थी, और कहीं धान के खेतों में जाती हुई कोई सड़क उनकी मेंड़ से बढ़कर फैले हुए पानी में खो जाती थीं। शेखर सिर झुकाए कुछ सोचता हुआ चला जा रहा था!

सन्ध्या थी, पानी में आकाश के रंग कुछ धुँधले होकर चमक रहे थे। पेड़ों की हरियाली पर एक ताम्रता-सी छा चली थी, और धनखेतों पर भी एक मधुर-सी उदासी धीरे-धीरे ओस की तरह घनीभूत हो रही थी। सन्नाटा था। पक्षी पुकार रहे थे, मेंढक अपने कर्कश फटे हुए स्वर से अनवरत टर्रा रहे थे। नीरवता नहीं थी, फिर भी बड़ा गहरा सन्नाटा था।

शेखर कीच-भरी सड़क से हटकर एक पथ पर हो लिया। यह कुछ सूखा था, इसलिए शेखर के पैर अपने आप ही उधर मुड़ गये-यद्यपि यह उसे ठीक निश्चय नहीं था कि डेरे पर लौटने का वही छोटा रास्ता है। पथ के दोनों ओर पानी बहा जा रहा था।

एक कराहने की आवाज सुनकर उसका ध्यान टूटा, और वह रुककर सुनने लगा कि यह स्वर कहाँ से आया था। क्षण ही भर बाद फिर वह आया, और शेखर ने पथ के एक ओर बहती हुई नाली पर छायी हुई एक झाड़ी के पास आकर देखा, मैली लाल धोती से आधा आवृत्त रक्त और माँस का एक लोंदा पड़ा है, जो कभी एक स्त्री रहा होगा-और उस लोंदे में प्राण है, और पीड़ा की अनुभूति है...

एक ही क्षण के लिए, लेकिन बहुत-से कारणों से, जिनमें उस लोंदे का स्त्री होना भी एक था, शेखर हिचकिचाया। फिर किसी तरह उस शरीर को अपनी पीठ पर लादा, और लौटकर सड़क-सड़क होता हुआ मिशन भवन तक ले गया! वहाँ उसकी मरहम-पट्टी की गयी, लेकिन भोर होते-होते वह मर गयी। मिशन वालों ने उसके जलाने का प्रबन्ध किया-वह अछूत थी।

पुलिस को सूचित किया गया था। लेकिन शेखर रुका नहीं, उसने अपना बोरिया-बिस्तर उठाया और फौरन मद्रास लौट पड़ा-वहाँ क्षण भर भी और ठहरना उसे असम्भव जान पड़ने लगा...

ट्रेन में उसने अखबार में पढ़ा कि लाश की जाँच के बाद यह घोषणा की गयी थी कि ‘मृत्यु किसी भोंतर औजार की चोट से हुई है; हत्या के कारण का पता नहीं लग सका है।’ लेकिन साथ ही यह भी समाचार था कि शरीर एक ‘वर्जित’ सड़क पर पाया गया था, और स्त्री अछूत थी...

शेखर को याद आया कि किस प्रकार उस स्त्री के रक्त और कीच से उसका शरीर, उसके वस्त्र सन गये थे-और एक कँपकँपी उसके अंगों में दौड़ गयी...वह थी अछूत, और वह था ब्राह्मण, और वह उसके रक्त में सन गया था...और उसके हत्यारे थे ब्राह्मण, जिन्होंने उसके पास आने की छूत के बचने के लिए, स्वयं उसके पास जाकर उसे पत्थरों से मारा होगा...ब्राह्मण...वही ब्राह्मण जो शेखर है...और अछूत...वही अछूत जिसे शेखर ने कन्धे पर लादा था...और उसका रक्त...

बोर्डिंग पहुँचकर शेखर ने अपना सामान इत्यादि बाँधकर तैयार किया, रिक्शा मँगाकर उसमें लादा, और रिक्शावाले को पता देकर स्वयं ट्राम में बैठकर दूसरे होस्टल में चला गया-जो अछूतों के लिए था, और जहाँ कार्यकर्त्ता भी सब अछूते थे। यहाँ पहले तो सबने उसकी ओर सन्देह की दृष्टि से देखा, लेकिन शीघ्र ही वह दिन आ गया जबकि शेखर ने पाया कि उसके मित्र और सखा और सहायक सब अछूत हैं, उसके भाई अछूत हैं...

और कि, जिस समाज का उसे होना चाहिए, उसमें वह अछूत है, और यह सह नहीं सकता कि वह इसके अतिरिक्त कुछ भी हो...

“कहते हैं कि धीरे-धीरे सब कुछ हो जाएगा; कि धीरे-धीरे अज्ञान दूर होगा, यह आत्मा पर छाया हुआ कुहरा उठ जाएगा। कहते हैं बहुत कुछ; पर हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहते हैं, प्रतीक्षा को युग बीत जाते हैं, और कुछ नहीं होता। कुहरा उठ सकता है, परदा भी उठ सकता है; पर दीवार नहीं उठ सकती, उसे फाड़ना ही पड़ता है, गिराना ही पड़ता है, नहीं तो वह नहीं मिटती...।”

शेखर बोल रहा है। वह स्वभावतः चुप रहनेवाला है, लेकिन उसके भीतर कुछ है जो उसे चुप नहीं रहने देता, जो उसके संकोच के पीछे से निरन्तर चोट करता हुआ उसे बाध्य किए जाता है...

उन ‘अछूतों’ में से शेखर ने मित्र बनाने आरम्भ किये हैं। और अपने भीतर की इस बाध्यता को, उसके प्रत्येक बदलते हुए पर्दे को, वह उन पर प्रकट करता है। कुछ एक लड़के इकट्ठे करके उसने एक समिति-सी बना ली है, जिसका नाम-नियम कोई नहीं है, लेकिन जो प्रायः उसके कमरे में सम्मिलित होती है, और जिनसे निरन्तर विचारों का विनिमय और रुचियों, भावों और भावनाओं का संघर्षण रहता है...

शेखर उनका नेता नहीं है-न अपने मन में, न उनके मन में, लेकिन नेतृत्व किसी तरह उसी की ओर से उद्भूत होता है-वह जो आकारहीन-सी समिति है, वह इसलिए चलती है कि शेखर है।

एक समतल उजाड़ भूमि के मध्य में जिसे होस्टल के छात्र अपना ‘प्लेग्राउंड’ कहते हैं, अछूतों का तिमंजिला होस्टल खड़ा है, और उसकी छत के पक्के फर्श पर बिना कुछ बिछाए चार लड़के लेटे हैं। यह शेखर की नामहीन समिति की कार्यकारिणी है। कार्यकारिणी कहने का अभिप्राय इतना ही है कि इन चारों में अशान्ति भीतरी है, वे जाग रहे हैं और आसपास देखकर स्वभावतया चिन्तित हैं। समिति के दूसरे दो-तीन सदस्य अपनी गति, अपना प्रवाह नहीं रखते, उनमें लहर तब उठती है जब कोई हाथ से हिला देता है, या दूर से ही एक ढेला उनके ऊपर छायी हुई शान्त निस्तब्धता में गिरा देता है...

शेखर के अतिरिक्त बाकियों के नाम हैं, सदाशिव, राघवन् और देवदास। इनमें सदाशिव कद में सबसे छोटा किन्तु बुद्धि में सबसे तीव्र था। उसके प्रायः खुले हुए टेनिस कालर के ऊपर उसकी पतली ग्रीवा, उसके ऊपर बिखरे हुए बालों के कारण और भी बड़े दीखनेवाले सिर की छाया में शान्त अंडाकार चेहरा, जिसकी छोटी किन्तु खूब खुली-सी रहनेवाली आँखों में एक समझदार-करुणा का भाव रहता है, मानो आँखें कह रही हों, मैं तुम्हें कष्ट नहीं पहुँचाऊँगी, केवल निकट से देखकर जानना चाहती हूँ-इन सबको देखकर हठात् शेली के एक चित्र की याद आती थी, और शेखर ने उसका नाम ही शेली रख दिया था। सदाशिव इस नाम से बहुत झेंपता था-उसे लगता था यह शायद उसके आत्म विस्मृति कर देने वाले प्रकृति-प्रेम पर कटाक्ष है-इसलिए यह नाम स्थायी हो गया था।

राघवन और देवदास कुछ भिन्न थे। दोनों ही तामिल प्रान्त के शहरों के रहनेवाले थे, और शहर की छाप उन पर पर्याप्त मात्रा में थी, और राघवन की आँखें चंचल मछलियों की तरह चमकती थीं और देवदास की आँखें तो मानो हर समय किसी शरारत की खोज में रहती थीं। उनमें विष नहीं था, मानव जाति के प्रति एक स्नेह का भाव ही था; लेकिन स्वभाव से ही देवदास का स्नेह उस प्रकार का नहीं था, जो अलग रहकर अपनी अभिमान-भरी नीरवता से ही अपने को कह डालता है; उस तरह की ‘सेंटिमेंटलिज्म’ उसे बुरा लगता था; स्नेह निरन्तर चुलबुलाहट में, बातचीत, हँसी-मजाक में अपने को छिपाए रखे, यही उसे ठीक लगता था। कभी कोई उसकी ‘हृदयहीनता’ पर आक्षेप कर देता तो वह हँसकर कहता था, “भाई, एक प्रेम होता है जो साष्टांग करके रास्ते में बिछ जाता है, एक होता है जो हर समय गुदगुदाता और चुटकियाँ काटता चलता है। पहले ढंग का प्रेम मेरे बस का नहीं है।” और यह बहाना नहीं था, इसमें सत्यता थी। प्रकृति-दोष-या गुण-से ही वह सत्य भी सीधे-सच्चे ढंग से नहीं कह सकता।

अपनी संकोचशील किन्तु पैनी बुद्धि के कारण और त्रावनकोर की विस्तीर्ण हरियाली और नीलिमा में पले हुए उदार सौन्दर्य प्रेम के कारण सदाशिव शेखर के अधिक निकट था। लेकिन शेखर जानता था, कि देवदास और राघवन के बिना जीवन में पूर्णता नहीं आ सकती, और उसे प्रसन्नता थी कि वे भी उसकी समिति में हैं, क्योंकि जीवन की पूर्णता का पाना ही समिति का ध्येय था।

छत पर लेटे-लेटे शेखर बीच-बीच में सदाशिव की ओर देखता जाता था कि कहीं वह सूर्यास्त में ही तो नहीं खो गया और कहता जाता था-”उस स्टीवेनसन की किताब में एक कहानी चार सुधारकों की है, जो सोचने बैठे कि दुनिया को कैसे सुधारा जाए। एक ने समाज की कुछ बुराइयाँ बताकर कहा कि समाज को मिटा देना चाहिए; दूसरे ने संशोधन किया कि समाज तो तब बिगड़ता है जब धर्म रूढ़ हो जाता है, धर्म ही कुल बुराइयों की जड़ है और उसी को मेटना चाहिए, तीसरे ने कहा कि धर्म तो केवल संस्कृति का आदर्श नियम होता है, अगर संस्कृति खराब होगी तो धर्म ठीक कैसे हो सकता है, इसलिए संस्कृति ही गलत चीज है। अन्त में वे इस नतीजे पर पहुँचे कि मानव जहाँ आगे बढ़ना चाहेगा वहाँ संस्कृति तो होगी ही, इसलिए मानव-जाति ही मूल अपराधी है और उसी को मटियामेट कर देना चाहिए! अपने आपमें यह नतीजा बहुत ठीक है। मानव जाति को मिटा दीजिए, तब न हम यहाँ सुधार पर बहस करने को रहेंगे, न-”

सदाशिव ने मानो संलग्नता प्रमाणित करने के लिए कहा, “और न शेखर किसी का ध्यान दूसरी जगह समझकर उसे गालियाँ दे सकेगा।”

सब हँस पड़े। शेखर फिर कहने लगा, “मुझे लगता है कि इस तरह के आमूल परिवर्तन न करने में खतरा है। यह मैं नहीं कहता कि केवल सतह पर सुधार किया जाए, वह भी बेवकूफी है। परिवर्तन होना मूल में ही चाहिए लेकिन वहाँ जहाँ पर बुराई साफ लक्ष्य हो, केवल तर्क से सिद्ध करके दीखनेवाली नहीं।”

राघवन् ने कहा, “यानी?”

“इसी कहानी में देखो, धर्म संस्कृति का आदर्श नियम है, इसलिए धर्म की बुराइयाँ संस्कृति से पैदा होतीं, इसलिए संस्कृति बुरी है, यह केवल तर्कना-शक्ति का, नट का तमाशा है। संस्कृति की बुराई अगर हमें देखनी है, तो संस्कृति में स्पष्ट देखनी होगी, इस प्रकार दूर से सिद्ध नहीं करनी होगी। नहीं तो, कहीं अच्छा कुछ है ही नहीं, बुराई-ही-बुराई है, और यह हमारी अशान्ति भी तो उस बुराई में पैदा हुआ मनोविकार है, मानव बुरा होकर अच्छी बात सोच कैसे सकता है? आप अन्धकार दूर करना चाहें तो यही कर सकते हैं कि रोशनी जला दें; यह नहीं कर सकते कि अन्धकार का अन्धियारापन मिटा दें।”

सदाशिव ने रोककर कहा, “लेकिन, शेखर, यह तर्क भी तुम्हारा खतरनाक है। नैतिक दृष्टि से यह हिंसा का सिद्धान्त प्रतिपादित करना है। तुम्हारे कहने के अनुसार चलें तो हमारा काम सिर्फ यथार्थ बुराई का नाश ही है, ध्वंसलीला ही है, वह बुराई पैदा ही न हो, इसका प्रबन्ध तुम्हारी दृष्टि में ख़ामख़याली है।”

“अम्-नहीं। किसी हद तक तो तुम्हारी बात ठीक भी है, ध्वंस को मैं गलत नहीं मानता, न उसे हिंसा ही कहता हूँ। हिंसा वहाँ है जहाँ प्रेरणा हिंसा की है, जहाँ अनिष्ट करने की चेष्टा है। इष्ट के लिए की हुई हत्या भी हिंसा नहीं है, बशर्ते कि वह इष्ट व्यक्ति का नहीं सृष्टि-मात्र का हो! लेकिन यह गलत है कि इस प्रकार बुराई पैदा होने से रोकी जाने की गुंजाइश नहीं रहती। मैं यह कहता हूँ कि बुराई को रोकने की चेष्टा भी आप तभी कर सकते हैं, जब आप जानते हों कि वह बुराई है क्या। यानी एक बार वह आपके सामने आ जाएगी, तभी आप उसे रोकने की चेष्टा कर सकेंगे। आपकी बचाव की कोशिश एक आदिम आक्रमण से शुरू होगी, क्योंकि बिना इसके आप बचाव करेंगे किससे? अज्ञात शून्य से बचने का आयोजान वैसा ही है जैसे छाया से लठैती करना।”

“हूँ, यह बात तो जँचती है। लेकिन पहली बात फिर भी नहीं जँची। इष्ट के मामले में, तुम समझते हो, व्यक्ति के लिए अपने को धोखे में रखना कुछ बहुत कठिन है? ऐसे भी लोग हैं जो समाज को शुद्ध रखने के नाम पर वेश्याओं के पास जाते हैं। जो आदमी वेश्याओं के पास नहीं जाता, वह शायद ऑब्जेक्टिव दृष्टि से देखकर कह सकता है कि वेश्याएँ समाजशुद्धि का अप्रत्यक्ष साधन हैं। लेकिन जो आदमी अपनी सब्जेक्टिव वासना का गुलाम कहा जाता है, उसे क्या हक है कि वह समाज को ऐसी ऑब्जेक्टिव दृष्टि से देखे? फिर भी लोग हैं जो इस बात पर अपने को विश्वास दिला देते हैं, और तुम्हारे हिसाब से वे लोग निर्दोष हैं। इष्ट और अनिष्ट, व्यक्तिगत इष्ट और विश्वहित में फैसला करनेवाला कौन?” सदाशिव धीरे-धीरे बात करता जा रहा था और देख रहा था सूर्यास्त की तरफ ही, मानो उसी से प्रश्न कर रहा हो।

राघवन् दाद देता हुआ बोला, “हूँ, दैट इज दि क्वेश्चन।”

शेखर जैसे कुछ सोचता हुआ-सा कहने लगा, “वैसे तो, व्यक्ति के हित और विश्व के हित में भेद नहीं होना चाहिए-”

सदाशिव ने बैठकर कहा, “यह फिर वही गलती है-भेद तब नहीं है, अगर आब्जेक्टिव व्यापक दृष्टि से देखे। लेकिन जब देखनेवाला एक व्यक्ति है, और सवाल उसके हित का है, तब वह इतना दूर दृष्टि से देख कैसे सकता है?”

देवदास ने कहा, “मैं देखता हूँ, तुम लोग उस कहानी के रिफार्मरों से कम नहीं हो। यह तुम लोगों का बहस-मुबाहसा तुम्हारे आत्मसम्मान को भले ही बढ़ाए, किसी काम का नहीं है। इसमें व्यक्ति का हित है; विश्वहित नहीं है। चाहे तुम किसी दृष्टि से देखो। विश्वहित काम करने में है। कार्यशीलता की सौ गलतियाँ निकम्मेपन की एक अच्छाई से बढ़कर हैं; क्योंकि कार्यशीलता में अपनी गलती को दूर करने की भी सामर्थ्य है, और निकम्मापन अपनी अच्छाई को कायम भी नहीं रख सकता। इसलिए अगर तुम्हें कुछ करना-धरना है, तो कार्यक्रम नियत कर लो। इस सारी बहस का फायदा विश्वहित में उठाना चाहो तो यह हो सकता है कि किसी भी कार्यक्रम को अन्तिम और अकाट्य मत समझो। संशय मानव का अधिकार है, लेकिन अगर वह उदारता नहीं पैदा करता तो वह मानव का शाप है। शेखर हमेशा यही चिल्लाया करता है। अब जरूरत है इस पर अमल करने की। कार्यक्रम बनाओ और उसमें पहला कार्य लिख लो उदारता, ताकि वह बाकी सबको अनुप्राणित करती है। दि आरेकल हैज स्पोकेन।”

देवदास की बात से बहस का तल कुछ नीचे उतर आया, जहाँ वह कोरे तर्क के खारे पानी में नहीं, कार्य के मीठे रस में हाथ-पैर हिलाए। चारों सुधारक उठकर एक-दूसरे के निकट आ गये; शेखर ने कहा, “अच्छा बताओ, पहला काम क्या हम लोग करें?”

अन्त में वे इस नतीजे पर पहुँचे कि मुख्य कार्य यही हो सकता है कि नौजवानों को जगाया जाए, उनमें एक गम्भीरता पैदा की जाए और उनके जीवन को सोद्देश्य बनाया जाए। उन्होंने देखा कि जैसा आमूल परिवर्तन वे चाहते हैं, वह इसी प्रकार हो सकेगा, और आवश्यक हिंसाकार्य से भी वे बचेंगे। और शेखर के साहित्य-प्रेम से, सदाशिव के कला-प्रेम से, राघवन् के विज्ञान और देवदास के इतिहास से यह भी तय हुआ कि जीवन में एकरसता आना उसके उद्देश्य को गहरा नहीं करता, उसके लिए घातक सिद्ध होता है, ठीक वैसे ही जैसे एक ईंट पर खड़ी की हुई दीवार पक्की नहीं हो सकती। उद्देश्य को दृढ़ करने के लिए, कार्य को स्थायी बनाने के लिए जरूरी है कि जीवन कई जगह पर पृथ्वी में जड़ें जमाए, वटवृक्ष की तरह हरेक दिशा में जाकर एक जिह्वा लटकाकर धरती से भोजन और बल खींचता रहे। उन्होंने गम्भीर होकर इन सब विषयों का अध्ययन करना आरम्भ किया, और दूसरों को भी प्रोत्साहित करने लगे।

लेकिन शेखर के लिए यह ठीक-ठाक सुचारु रूप से चलनेवाला कार्य बोझा हो गया। न जाने क्यों उसका स्वभाव ही ऐसा था कि वह सिर्र्फ पर्याप्त काम लेकर ही सुखी नहीं हो सकता था। वह चाहता था इतना काम, इतना काम कि सिर उठाना मुश्किल हो जाए, साँस लेने में भी काम का कुछ हर्ज हो जाने का अन्देशा रहे-इतना कि उसके मन में आनेवाले सोच, सन्देह, तड़पा देनेवाले असम्भव स्वप्न, ये सब अवकाश की कमी के कारण मुरझाकर सूख जाएँ...अपने कुल सोलह-एक वर्षों के अनुभव से भी वह समझ रहा था कि उसका यह गर्वीला, अधीर यौवन का सामर्थ्यज्ञान असल में अपनी ही पराजय का निशान था, क्योंकि वह माँग रहा था विश्वास-उसमें उठनेवाले प्रश्न भी इसीलिए थे कि कहीं पहुँचकर वे प्रश्न न रहें, समाधान हो जाएँ, उसकी सारी गति उस ‘कहीं’ पर पहुँचने के लिए थी...उसे लगा कि यह समिति का प्रोग्राम आरम्भ में ही ऐसा हो चला है, मानो कहीं पहुँच गया है, और वह सह नहीं सका कि उसके आगे तक पहुँचने का स्वप्न असम्भव हो जाए। एक दिन वह अकेला ही घूमने निकला और सबसे पहले उधर चला, जहाँ बोर्डिंग से करीब मील-भर दूरी पर अछूतों का मुहल्ला था। वहाँ पहुँच कर उसने देखा, मुहल्ले सिरे पर एक हिन्दू मिडिल स्कूल की इमारत हैं, जो पक्की है, बाकी सब मकान अधकच्चे या बिलकुल कच्चे हैं और उनके पास तथा बीच में होता हुआ एक नाला बह रहा है।

शाम हो रही थी। नाले का पानी पुराने ताँबे-सा होकर सुलग रहा था। दुर्गन्ध न होती तो शायद उस समय कहना कठिन होता कि पानी गन्दा है। उसके किनारे खड़े शेखर ने एकाएक देखा कि वह अकेला है, आसपास बच्चे नहीं दीखते हैं। उसे कुछ अचम्भा-सा लगा कि शाम के समय बच्चे बाहर न खेल रहे हों। क्यों नहीं हैं वे बाहर? और खासकर इस अछूत मुहल्ले में जहाँ ‘भीतर’ और चाहे कैसा हो, बच्चों के लायक नहीं है।

और सोचते-सोचते जैसे उसके संचित बल के आगे फिर कोई दीवार टूटने लगी, मार्ग दीखने लगा। उसे बाइबिल में से ईसा के दूत जान की बात याद आयी-उस उन्मत्त आँखों, रुखे बिखरे बालों और कठोर शरीर वाले मृग-चर्मधारी युवक ने ऐसे ही किसी स्थान पर खड़े होकर आह्वान किया होगा, “आओ! जीवन के पानी से तुम्हारा अभिषेक करूँगा!” और ऐसी ही किसी लोहित मैली सन्ध्या में मानवता के उच्छिष्ट छोटी जाति के लोगों ने उसकी सुनी-अनसुनी कर दी होगी, कहा होगा कि पागल है; लेकिन उसका निरन्तर चिल्लाना सुनकर बाहर निकले होंगे कि देखें यह जीवन का पानी है क्या बला...

शेखर को यह बिलकुल ठीक लगा कि वहाँ उसे ऐसी याद आये, क्योंकि जीवन का पानी क्या है? गंगा, यमुना, गोदावरी, कृष्णा, नर्मदा, इन सबका पानी तो धर्म और भक्ति में धुल-धुलकर प्राणहीन हो गया है; जीवन, चिरन्तन जीवन कहीं है तो ऐसे ही गँदले नालों में, जो समाज की नींव इन अछूतों के बीच में से होते हुए चिर-उपेक्षित बहे जा रहे हैं...उन पतित-पावनी कहलानेवाली नदियों का पानी तो वैसा ही मरा हुआ है जैसा पंडितों का पांडित्य, तभी तो वह पानी चिताओं को सीचंने में, अस्थियों को बहाने में काम आता है...

शेखर के सामने यह प्रकट हो गया कि वह सप्ताह-भर के अन्दर ही उस मुहल्ले के बीच में अछूत बच्चों के लिए स्कूल खोलेगा और वहाँ स्वयं पढ़ाएगा। कैसे प्रबन्ध होगा, किताबें कहाँ से आएँगी, यह सब उसने नहीं सोचा। निश्चय करके उसने आगे घूमने की जरूरत नहीं समझी, सीधा होस्टल की ओर लौटा।

राह में मिडिल स्कूल की इमारत देखकर एकाएक उसने पुकारा-”दरबान!”

ठीक पाँचवें दिन मिडिल स्कूल की इमारत में ही शेखर की रात्रि-पाठशाला खुल गयी। मिडिल स्कूल के हिन्दू संरक्षकों ने उसे इमारत के दो कमरों में अछूत क्लास बिठाने की अनुमति इस शर्त पर दे दी थी कि वह दरबान को तीन रुपये मासिक दिया करे-सवेरे उठकर उन कमरों को विशेष रूप से झाड़-बुहारकर और पानी छिड़ककर साफ कर देने के लिए, ताकि गन्दे बालकों की छूत स्कूल के साधारण विद्यार्थियों को न लग जाए।

पुस्तकें दो थीं, दोनों तस्वीरों के एलबम। अध्यापक दो थे-शेखर और सदाशिव। अक्षर-ज्ञान बोर्ड की सहायता से कराया जाता था; बाकी शिक्षा मौखिक थी या कई तरह के खेलों द्वारा होती थी। सात विद्यार्थी थे।

जिन लोगों की बुद्धि अशान्त है, जिन्हें हमेशा नयी समस्याओं से टक्कर लेने में मजा आता है, उनके सामने पहली समस्या हमेशा एक ही होती है-दुःख दर्द की समस्या। संसार का पहला दर्शन सदा ही उसके पीड़ा-भरे रूप का दर्शन होता है।

और इसके बाद जो दूसरी समस्या होती है, वह भी सदा एक ही होती है-पहली समस्या एक तरफ से उसकी भूमिका तैयार करती है-और वह समस्या है नारी की समस्या। संसार का दूसरा दर्शन नारी की मूर्ति का दर्शन है।

और शेखर की बुद्धि बहुत जल्दी इस दूसरी समस्या के सामने आ खड़ी हुई।

दशहरे की पाँच-सात दिन की छुट्टियों में शेखर घर गया था, और वहाँ से लौट रहा था। मद्रासियों की भीड़ से खचाखच भरे हुए रेल के डिब्बों के चार-पाँच द्रविड़ माताओं के कोलाहल में गूँजते हुए वातावरण में शेखर का मस्तिष्क अपनी रात्रि-पाठशाला, अपने शिशु और वयस्क विद्यार्थियों और उनकी पाठ्य-पुस्तकों-अब पचीस विद्यार्थी थे, जिनमें से कुछ वयस्क लोग पहले ही साक्षर थे-के प्रश्न में लीन था। छोटी लाइन की वह गाड़ी इतना सब भार खींचती झिकझिक करती हुई चल रही थी, उसकी गति की लय से शेखर के विचारों को सहारा मिलता था और वह आस-पास छाए कोलाहल से ऊपर उठ सकता था। जब ट्रेन खड़ी होती थी, तब वह थोड़ी देर लिए सोचना स्थगित करके चढ़ने-उतरनेवाली भीड़ को देख लेता था।

एक बड़े स्टेशन पर गाड़ी रुकी, तो शेखर ने देखा कि दरवाजे और खिड़कियों से भीतर घुसती हुई पुरुषों की भीड़ के पीछे एक महिला खड़ी है और बेबस आँखों से भीड़ की ओर देख रही है। उसके दोनों हाथों में दो बैग हैं, पीछे कुली ट्रंक और बिस्तर लिए खड़ा है। स्त्री कभी साहस करके आगे बढ़ने को होती है, फिर रुक जाती है, कभी दूसरे डिब्बे की ओर भी देख लेती है, जिसमें और भी भीड़ है और समय गाड़ी का हो चला है। गार्ड ने एक सीटी भी दे दी है।

शेखर उठा, खिड़की पर खड़ा होकर उसने कहा, “लाइए, मुझे दीजिए सामान।” बैग उसने अन्दर खींच लिया, कुली से सामान पकड़कर नीचे रख दिया, और गाड़ी के चलने तक दरवाजे पर पहुँचकर उसे खोल और भीड़ को धक्का देकर बोला, “चली आइए।”

धन्यवाद की बात से घबराकर शेखर ने अपनी सीट इंगित करते हुए कहा, “वहाँ बैठ जाइए।”

“नहीं, आपने इतनी तकलीफ उठाकर मुझे गाड़ी में बिठा दिया, इतना ही पर्याप्त है। अब आपकी जगह ले लेना नीचता होगी-”

“मैं बहुत अच्छी तरह से हूँ” कहकर शेखर खिड़की के पास पड़े हुए ट्रंक और बिस्तर पर बैठकर बाहर देखने लगा, ताकि उसे दूसरी तरफ ध्यान किये पाकर महिला अपने आप बैठ जाएगी।

उसका अनुमान ठीक निकला। वह बैठ गयी। शेखर ने लौटकर उधर देखा तब वह धन्यवाद देने को हुई; पर शेखर ने फौरन मुँह फिरा लिया, मानो इधर देखा ही नहीं था, और चुप हो गयीं वे। थोड़ी देर में एक पुस्तक निकाल ली और पढ़ने लगीं। शेखर भी अपनी पाठशाला में पहुँच गया।

लेकिन फौरन ही वह चौंका। कुछ दूर पर खड़ा हुआ एक अधगोरा जिसे शेखर ने अपने पास की सीट पर इसलिए बैठने नहीं दिया था कि वह दो-तीन आदमियों को धक्का देकर भीतर घुसा था और एक को उसने गाली भी दी थी, अब उस महिला को वहाँ बैठा देखकर बड़बड़ा रहा था। वह शेखर के अपनी सीट छोड़ देने पर अपनी गन्दी गोराशाही भाषा में टीका कर रहा था। शेखर ने देखा कि टीका सुनकर उस महिला का चेहरा तमतमा उठा है, लेकिन वह किताब के पीछे छिपकर अनसुनी कर देना चाहती है।

शेखर ने भी गोराशाही (यद्यपि बहुत हल्के रंग की) भाषा का आसरा लेकर उठते-उठते कहा, “शट अप, यू कैड!”

वह आग में ईंधन हुआ। अधगोरा और भी बकने लगा। शेखर ने आगे बढ़कर कहा-”तो तुम्हें चुप कराना पड़ेगा”, और एक जोर का घूँसा जबड़े की बायीं ओर मारा। उसने भी शेखर पर वार किया, लेकिन उसे छाती पर लेकर शेखर ने दूसरा घूँसा उसकी ठोड़ी में मारा, जिससे उसका मुँह गाड़ी की छत का ध्यान करने लगा, पीठ सीट के पीठ से टकरायी और वह धम से गिर गया, थोड़ी देर उठा नहीं।

गाड़ी की चाल धीमी हो गयी थी; स्टेशन पर हो-हल्ला सुनकर पुलिस आयी। लेकिन स्टेशन पर जो पंजाबी सब-इंस्पेक्टर था, वह शेखर को जानता था; उसने कहानी सुनकर कहा, “अच्छा किया आपने, दो और लगानी चाहिए थीं बदमाश को”, और गोरे को डब्बे से उतारकर ट्रेन को जाने दिया।

बात यहाँ समाप्त हो जानी चाहिए थी, लेकिन समस्या यहीं से आरम्भ हुई। शेखर को बैठने की जगह मिल गयी थी, उस महिला से उतना परिचय भी हो गया था कि उसने अपना नाम बताया था और यह भी बताया था कि वह अमुक स्कूल में अध्यापिका है, और शेखर ने कहा था कि वह वहीं पास ही रहता है। इसके बाद दोनों चुप हो गये और वह अध्यापिका फिर पढ़ने में लग गयी थी। शेखर ने चाहा था कि फिर अपने विचारों में लीन हो जाए, लेकिन अब वह देख रहा था कि लोग विचित्र-सी सहमी हुई दृष्टि से उसकी ओर देखते हैं, कि कई भाषाओं में धीमे स्वर में उसकी आलोचना हो रही है। कहीं एक कह रहा है कि यह पंजाबी है (मद्रासी वेश में होने के कारण शेखर का पंजाबीपन तब तक दीखा नहीं था।) और इस सब देखने और आलोचना में किसी को भी यह नहीं पता लगा है कि शेखर ने साधारण औचित्य निभाया है, जो उस महिला को बिठा दिया है और उस गोरे की बकवास को बन्द करा दिया है। कुछ की दृष्टि में वह एक धूर्त है, जो इस छोटी-सी बात के सहारे उस महिला से सम्बन्ध जोड़ना चाहता है, कुछ के लिए वह एक मूर्ख नौजवान है, जो आजकल की पढ़ी-लिखी चरित्रहीन औरतों के चंगुल में फँसकर रहेगा; कुछ के लिए शेखर और वह स्त्री दोनों ही नीच हैं और अपने कपटपूर्ण व्यवहार से कोई जघन्य अपराध छिपाना चाहते हैं...यह सब उनकी बातों में नहीं है, लेकिन उनके इशारे-आँखों के भी और शब्दों के भी-ऐसा ही कह रहे हैं। शेखर के सुनने के लिए नहीं कह रहे हैं, उससे चोरी ही कर रहे हैं, इसलिए शेखर को वह और भी तीखा लग रहा है...

शेखर मुड़कर सिर खिड़की से बाहर निकाल लेता है। बादलों से ओझल पहाड़ी हवा उसके तपे हुए कानों के पास से सनसनाती हुई निकलती है, तो वह सोचने लगता है कि क्या बात है। इस तरह का नैतिक अविश्वास उसने अब तक जाना ही नहीं। पाप उसने बहुत जगह देखा है, किया भी है, लेकिन पाप ही मानव की हरेक प्रेरणा का मूल है, ऐसा भयानक सन्देह-ऐसा असन्दिग्ध अविश्वास-वह अपने हृदय में नहीं जमा सका है। समझ में नहीं आता कि ऐसा करके कोई जी कैसे सकता है-जिसके हृदय की नाड़ियों में कीड़े कुलबुला रहे हों, वह शान्त कैसे रह सकता है...पुरुष और स्त्री का सम्बन्ध-इस घातक अविश्वास के रूप में शेखर के सामने पहली बार आया; आज उसने देखा कि संसार के कष्ट के प्रश्न से भी बड़ा यह संसार के अविश्वास का प्रश्न है, यह बड़ी भारी समस्या जो मानव-मात्र ने उस व्यक्ति में केन्द्रित कर दी है, जिसे शेखर ने अब तक सिर्फ सहारे के रूप में जाना है-नारी में। और इस विचार से ही उसका दम ऐसा घुटने लगा कि जैसे उसके नासापुटों में, फेफड़ों में, कीड़े घुसे जा रहे हों...

शेखर की समिति के सामने उसके उद्देश्य धीरे-धीरे कुछ अधिक स्पष्ट होने लगे। नौजवानों में जितना गम्भीर असन्तोष और परिवर्तनशीलता जगाने की जरूरत है, उतना ही स्त्रियों में भी जगाना चाहिए। इस पुरुषप्रधान सभ्यता का अपनी सम्पूर्णता में सन्तोष तोड़ देना होगा, उसका यह औचित्य का दावा झूठा कर दिखाना होगा, तभी हमें आगे बढ़ने का मार्ग मिलेगा। यह नारी-मात्र में अविश्वास, नारीत्व को ही पापात्मा मानने का संगठित षड्यन्त्र नष्ट करना होगा। पौरुष के मद में पागल हमारे दार्शनिक और समीक्षक कहते हैं, स्त्री को पापमयी दुरभिप्रेरणा समझना रोमांटिक युग की देन है; जब पुरानी रूढ़ियों में हमारा विश्वास टूटने लगता है, पुराना धर्म, पुराना ज्ञान, पुराना दैवी विधान हमें अपने नये विधान के कारण अपर्याप्त और झूठा लगने लगता है, जब हमें पहले-पहल मालूम होता है कि इस अब तक सुव्यवस्थित जान पड़नेवाले विश्व में कुछ अव्यवस्थित, बेठीक भी है, तब हम उसे पाप कहते हैं; लेकिन जब वह हमें मधुर भी लगता है, आकर्षित भी करता है, तब हम रोमांटिक बनकर आकर्षण का अनौचित्य छिपाते हैं। हम कहते हैं, सौन्दर्य में आकर्षण है, वह हमें बाँध लेता है, उसमें पड़कर हम नियति के गुलाम हो जाते हैं और वह हमें गड्ढे में ढकेल देता है। और सौन्दर्य का सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ, सर्वशक्तिमान प्रतीक नारी नहीं तो क्या है? इसलिए नारी मूल पाप-भावना है, महामाया है, पतन है और इस प्रकार हम अपने में सन्तुष्ट रहते हैं। और संगठित अविश्वास की दीवार खड़ी करते हैं। वह दीवार हमें तोड़नी होगी।

शेखर बोलता है। सदाशिव कभी-कभी दाद देता है, नहीं तो चुप रहता है। उसकी चुप में शेखर अपना सहयोगी पहचान लेता है। देवदास हँस देता है, पर जो काम सिपुर्द होता है, लगन से करता है। केवल राघवन् का उत्साह कुछ घट रहा है। समिति के उद्देश्य ज्यों-ज्यों साफ होते जाते हैं, उसके मेम्बर भी बढ़ते जाते हैं, क्योंकि उन्हें कोई सुस्पष्ट सिद्धान्त चाहिए, जिसके अग्नियान में वे अपनी-अपनी डोंगियाँ बाँध दें और समाज के समुद्र के पार घिसटते चलें। लेकिन उससे काम कुछ अधिक अच्छा होने लगा है, ऐसा नहीं जान पड़ता; बल्कि विरोधियों को अब विरोध के लिए कोई बात मिलना अधिक आसान हो गया है।

फिर भी, ये अनेक तरह के जाल-जंजाल काटता हुआ और काला धुआँ उगलता हुआ अग्नियान चला ही जा रहा है, और उसका कप्तान शेखर सदाशिव जैसा सहकारी पाकर अपने को धन्य मानता है।

शेखर और उसके साथियों का एक दिन एकाएक ही नामकरण हो गया-‘एंटीगोनम क्लब’।

बात यों हुई...

समिति बहस-मुबाहसे के बाद धीरे-धीरे इस नतीजे पर पहुँच रही थी कि उनका युवक समाज स्त्रियों के प्रति वही भाव रखे, जो एक आदरणीय अतिथि के प्रति रखा जाता है-वे रहें कुछ अपरिचित ही, लेकिन सम्मान पाएँ, कष्ट में सहायता पाएँ, विपत्ति में संरक्षण पाएँ और इतना सब होते हुए भी स्वाधीन रहें, किसी तरह उनके प्रति बाधित न हों। अपनी ओर से शेखर ने यह भी तय कर लिया कि वह विवाह नहीं करेगा, उसकी बात भी नहीं सोचेगा। इस निश्चय पर पहुँचने के बाद ही उसने होस्टल के एक ओर लगी हुई बेल के नीचे एक छोटी-सी मीटिंग-सी की थी और उसमें अपने विचार प्रकट किये थे। जब तक अविवाहित रहने और स्त्रियों के प्रति दूरस्थ भाव का यत्न करने की बात आयी तब तक श्रोता ऊब गये थे और एक-एक दो-दो करके चले गये थे। रह गये थे केवल उसके तीनों मित्र। शेखर फिर भी कहे जा रहा था-

आप देखिए, हमारे साहित्य में, कहानी में उपन्यास में, नाटक में, मंच और पट पर, सब जगह आप यही पाएँगे कि लेखक नैतिकता का प्रपंच खड़ा करता है-नरक की यातनाएँ भोगती हुई लड़कियाँ लम्बी-लम्बी, सुनने में खूब बढ़िया स्पीचें देकर बताती हैं कि वे पातिव्रत के लिए मर रही है, क्योंकि पातिव्रत ही उनकी सबसे बड़ी सम्पत्ति है, सबसे बड़ा धर्म है, जिसके लिए सैकड़ों मर गयीं, सैकड़ों सती हो गयीं या जौहर करके भस्म हो गयीं, सैकड़ों हाथियों के पैरों तले रौंदी गयीं...पुरुष दर्शकों के लिए पुरुषों द्वारा तैयार की गयी मरीचिका। अपनी बड़ाई और अपनी महत्ता के दर्प में मदमत्त बेवकूफ पुरुष-साँड देखता है, सुनता है, पढ़ता है, और झूम उठता है...क्यों? कहानी या नाटक की नायिका का यह पातिव्रत क्या है? यह एक गुलामी है, चाहे सहर्ष स्वयं स्वीकार की हुई गुलामी, जिसके द्वारा वह अपने को पति के, यानी दर्शक के, पुरुष जाति के, और इस प्रकार अन्ततः दर्शक के अधीन करती है! क्योंकि अपने पुरुषत्व के कारण दर्शक ही प्रतिनिधि रूप में (Vicariously) वह पति है, और नायिका की दारुण यातनाओं का वह वीभत्स दिग्दर्शन सब उसी के लिए है, उसके व्यक्तिगत अहंकार की पुष्टि करता है...

“यही पतन है, यही सबसे बड़ा पाप है। यह एक मौलिक अपराध को बनाए रखने और अमर करने के लिए एक विराट् षड्यन्त्र-पुरुष के अधिकार को बनाए रखने के लिए...”

सदाशिव ने बीच में ही, लेकिन बिना विरोध के कहा, “पर स्त्री इसे स्वीकार तो कर लेती है।”

“हम ठोकरें मारकर स्वीकृति लेते हैं। तभी स्त्रियों के बनाए हुए साहित्य में वह शक्ति नहीं आती। वे लिखती हैं तो पुरुष के आदर्श में अपने को बाँधकर, तभी उनका लिखा हुआ झूठ और बेजान होता है, सुन्दर चाहे हो-कागज के बने हुए फूल की तरह।”

“लेकिन-” कहकर सदाशिव मानो कुछ सोचने लग गया।

देवदास ने कहा, “भई तुम्हारी बात तो जीना मुश्किल कर देगी। हर वक्त, हर बात में हम आदर्श खोजनें बैठेंगे तो काम कैसे चलेगा? और कहीं कभी कोई स्त्री तुमसे कुछ बात पूछ बैठेगी, तो तुम जवाब भी नहीं दे पाओगे, यही सोचते रहोगे कि कहीं जवाब में पुरुष का दर्प तो नहीं आ गया! मैं कहता हूँ, तुम पाँच मिनट में उल्लू बन जाओगे। राह चलना मुश्किल हो जाएगा।”

शेखर बेल को हाथ से पकड़े बैठा था। देवदास की बात सुनकर थोड़ा-सा मुस्कराया, फिर गम्भीर होकर बोला, “तो उल्लू बनने से डरना क्यों? कुछ करना है तो उल्लू बनना ही होगा। हमें चाहिए उसी में अभिमान कर सकें-अपन अपमान वैसे ही धारण करें, जैसे यह बेल इन आरक्त फूलों को।” कहकर उसने फूलों का एक गुच्छा तोड़कर चुप बैठे राघवन् के बटन में खोंस दिया।

मजाक में ही औरों ने भी फूल तोड़े और बटन में लगा लिये। हँसी में सभा भंग हो गयी। जब चारों जन होस्टल में जाने लगे, तब किसी ने एंटिगोनम लता के वे फूल देखकर कहा, “यह एंटीगोनम क्लब चला आ रहा है।”

और क्षण-भर में नाम प्रसिद्ध हो गया, स्वीकार भी हो गया, और स्वीकृति से उसमें जो उपहास का डंक था, वह टूट गया।

लेकिन उपहास ही शान्त हो जाय, ऐसा नहीं हुआ।

क्लब की सदस्य-संख्या बढ़ने लगी। शेखर को शक होने लगा कि इस वृद्धि का कारण क्लब के आदर्श नहीं, बल्कि क्लब का संकेत वह एंटीगोनम का फूल है। उसने कई बार देखा था, आप राष्ट्र के नाम पर लोगों को बुलाइए, कोई नहीं आएगा; लेकिन राष्ट्रीय झंडा लेकर चलिए तो बहुत लोग नीचे आ खड़े होंगे, और अपने कोट के कालर में तिरंगा बिल्ला भी लगा लेंगे। फिर भी शेखर के पास कोई उपाय नहीं था कि वह पहचान कर सके; अग्नि-परीक्षा के सिवाय कोई परीक्षा नहीं है, और सिर्फ परीक्षा के लिए अग्नि भड़काना उसकी दृष्टि में इतना बड़ा पाप है कि वह अब राम का भी आदर करने में अपने को असमर्थ पाता है।

बहुत सोचकर शेखर ने एक हस्तलिखित पत्र निकालने का निश्चय किया, जो क्लब के आदर्शों का प्रचार करे। मेम्बरों से उसने लेख माँगे, और स्वयं भी लिखने लगा। सदाशिव को चित्रण का काम सिपुर्द हुआ-टाइटिल के लिए आरक्त एंटीगोनम का एक गुच्छ, भीतर जो उसकी इच्छा हो।

अंक करीब-करीब तैयार हो गया था, और बड़ी आतुरता से उसकी प्रतीक्षा हो रही थी। यहाँ तक कि होस्टल के कई छात्र इस ताक में थे कि शेखर के कमरे से लिपी उड़ा ली जाय, क्योंकि प्रकाशन के बाद बहुत दिन तक तो मेम्बरों में ही चक्कर काटेगा, उसके बाद कहीं उन्हें देखने को मिलेगा। पत्र में इतनी दिलचस्पी है, इससे शेखर बहुत प्रसन्न था, लेकिन उसी प्रसन्नता के कारण उसके कार्य में एक विघ्न भी हो रहा था। सम्पादकीय लेख तैयार नहीं हुआ था, और जितनी ही प्रतीक्षा बढ़ती थी, उतना ही शेखर का विकल्प; क्योंकि वह चाहता था, सम्पादकीय लेख पढ़कर तहलका मच जाय, क्लब के विरोधियों के मुँह टूट जायें, उपहास गले में घुट जाय...

तब एक दिन घटना घटी।

राघवन् ने कॉलेज से लौटकर बिस्तर बाँधना शुरू किया। पूछने पर मालूम हुआ कि उसने उस दिन की छुट्टी ली है और घर जा रहा है।

“क्या बात है? कुशल तो है? एकदम ऐसे जा रहे हो-”

“सब ठीक है-काम से जा रहा हूँ।”

“अरे भई, बताओ तो क्या काम है?”

बहुत पूछने पर राघवन् ने रुकते-रुकते कहा, “भाई, मेरी शादी हो रही है।”

शेखर ने अचकचाकर कहा, “एँ?”

थोड़ी देर बाद कुछ स्वस्थ होकर उसने प्रश्न पूछना आरम्भ किया, कब, किससे, कैसे तय हुई, क्यों इत्यादि। राघवन् पहले तो चुप रहा, फिर उसने बताना आरम्भ किया कि पिता ने पाँच-छः वर्ष पहले सगाई कर दी थी, लड़की बड़े मालदार घर की है, राघवन् ने उसे देखा नहीं है, न वह शादी करना ही चाहता है, पर पिता जोर दे रहे हैं, तारीख भी तय कर दी है, इसलिए वह जा रहा है।

“तुम्हारी आयु कितनी है?”

“आयु तो काफी है, बीस वर्ष, लेकिन मैं अभी-”

शेखर अब क्रोध नहीं सँभाल सका। “आयु काफी है, यह कहते तुम्हें शर्म नहीं आती? बीस वर्ष के हो गये और अभी इतना दम नहीं कि जबर्दस्ती शादी होने से रोक दो! नहीं करना चाहते शादी, तो क्यों नहीं कहते कि नहीं करेंगे? नहीं, मैं नहीं सुनता बात-एक बार कह दिया तो क्या बहादुरी की? तुम कोई भेड़-बकरी हो कि गले में रस्सी डालकर खींच ले जाएँगे और बलि दे देंगे? तुम आदमी-हो-आदमी! और तुम कहते थे, नौजवानों को दृढ़ बनाएँगे! तुम साथी बने थे हमारे इस काम में कि स्त्रियों को समर्थ बनाएँगे। तुम-तुम्हारी स्त्री उस आदमी का क्या आदर कर सकेगी, जो उसकी चोटी मैं गूँथे जाने से इनकार नहीं कर सका? क्योंकि मैं इसे शादी नहीं कहूँगा-शादी तब होती जब तुम स्वयं अपनी इच्छा से उधर बढ़ते, स्वयं अपनी संगिनी चुनते, और फिर सारी दुनिया से लड़कर उसे ग्रहण करते! तुम-”

राघवन् को यह फटकार अच्छी नहीं लगी। झुँझलाए हुए स्वर में बोला, “कहना आसान है। माँ-बाप की इच्छा के खिलाफ मैं कैसे जाऊँ? उन्होंने मुझे पाला-पोसा, बड़ा किया, पढ़ाया, क्या उनके प्रति मेरा कोई ऋण नहीं है? मैं इस बुढ़ापे में उन्हें चोट नहीं पहुँचा सकता। तुम इसे कायरता समझो, मैं नहीं समझता। तुम-सा हृदयहीन मैं न हूँ, न होना चाहता हूँ।”

“ऋण! लेकिन बीस वर्ष तक मेहनत करके उन्होंने तुम्हें इस लायक बनाया कि तुम अपने पैरों पर खड़े हो सको, स्वाधीन हो सको, क्या उसके प्रति तुम्हारा ऋण नहीं है? मानवता के प्रति तुम्हारा ऋण नहीं है? कल्पना करो कि बीस वर्ष बाद माता-पिता यह पाएँ कि हमने अब तक एक नर नहीं, एक भेड़ की सेवा की है। कल्पना करो, बीस साल के विवाहित जीवन के बाद स्त्री यह जाने कि मेरा और इस आदमी का साथ केवल इसलिए हुआ कि इसके पिता ने एक भेड़ मेरे पल्ले बाँध दी। मैं ऐसा अभागा पिता या स्त्री होऊँ तो आत्महत्या कर लूँ। राघवन् तुम-”

“भाई, मुझे कुछ मत कहो। मुझसे यह नहीं हो सकता। मैं उनका विरोध नहीं कर सकता। जब तुम्हें ऐसी मजबूरी का सामना करना पड़ेगा तब जानोगे!”

“मजबूरी। हाँ, मजबूरी। तब माता-पिता को क्यों बदनाम करते हो? मजबूरी उनकी ओर नहीं है; तुम्हारी ओर से है, इस सूट के भीतर दुबकी हुई मिमियाती भेड़ की लाचारी है!”

शेखर पैर पटकता हुआ बाहर निकल गया। अपने कमरे में जाकर उसने क्लब का पत्र उठाया, और सम्पादकीय के लिए खाली पेज खोलकर सामने रखा-कलम उठायी और लिखने लगा। तब तक सब लेख लिखकर संशोधन के बाद सुन्दर अक्षरों में नकल किये जा रहे थे, लेकिन इस समय शेखर के भीतर मानो एक भट्ठी धधक रही थी, जिससे उसके विचार सीसे की तरह उबल रहे थे और ठीक ढले-ढलाए बाहर आ रहे थे, उनमें जरा भी संशोधन-संवर्धन करने की जरूरत नहीं थी, गुंजाइश नहीं थी...

“साहित्य में, समाज में, कला में, जीवन में, सब जगह वही मनमोहक आरम्भ, वही मनमोहक प्रवाह, और अन्त में वही गहरी खड्ड! प्राणों का पक्षी उड़ान भरता है, लगता है कि वह आकाश की छत को छू लेगा, लेकिन एकाएक वह टूटकर गिर जाता है, मानो बिजली की मार से नष्ट हो गया हो। हम लोग खूब बढ़िया इमारत बनाते हैं, एक-एक पत्थर जोड़कर मन्दिर सजाते हैं, लेकिन अन्त में जब पलस्तर होने लगता है, तब सारा घटाटोप पैरों की धूल हो जाता है, मिट्टी में मिल जाता है...यह क्यों? यह इसलिए है कि हमारे आदर्श डर की भीत पर कायम हैं, हमारे विशाल भवनों की नींव खोखली है, और जैसे कि शास्त्र भी कहते हैं, हमारे देवताओं के पैर भूमि पर नहीं टिकते हैं। समाज की सड़ती हड्डियों को भड़कीले लाल रेशम में लपेटकर हम कहते हैं-देखो, हमारा युवक-समुदाय...”

शेखर ने अभी लिखना समाप्त नहीं किया था कि अँधेरा हो गया। वह बत्ती जलाने के लिए उठा कि उसे मालुम हुआ, उसके माथे और नाक पर पसीने की बड़ी-बड़ी बूँदें हैं। वह ज़रा हवा लेने के लिए बाहर उठकर बरामदे में टहलने लगा।

और भी कुछ एक लड़के घर जा रहे थे। मालूम हुआ कि उन दिनों शादी के लिए साइत अच्छी है, उसके बाद कई महीने तक ब्याह नहीं हो सकेंगे। यह भी मालूम हुआ कि किसी लड़के ने अपनी भविष्यवत् पत्नी को देखा नहीं है, और न किसी की इतनी जल्दी ब्याह कर लेने की इच्छा है।

शेखर एक लम्बी साँस लेकर लौट आया, और फिर लिखने लगा।

“...प्रत्येक भारतीय नौजवान अपनी शादी पर पछताता है, और प्रत्येक उसके लिए माँ-बप को दोषी ठहराता है। मैं तो नहीं चाहता था लेकिन माँ-बाप ने जोर दिया, परिस्थिति ऐसी हो गयी...इत्यादि।” इसका अर्थ यही है कि प्रत्येक भारतीय नौजवान अपने माँ-बाप का गुलाम है। और चाहते हैं, शासक की गुलामी से निकलना, समाज की गुलामी से निकलना, अज्ञान की और प्रकृति की गुलामी से निकलना-स्वयं परमात्मा की गुलामी से निकलने की बात करते हैं वे! वे जो जीवन के अन्धकूप में खचाखच भरे हुए हैं, और जो अपने ऊपर कुटुम्बरूपी ढक्कन देकर उस अन्धकुप को और भी अँधेरा और प्राणघातक बना रहे हैं...

कलम में स्याही चुक गयी। लेकिन सम्पादकीय भी समाप्त हो गया था। उसकी आखिरी पंक्तियों को सूखती हुई कलम से ही किसी प्रकार घसीटकर शेखर ने कलम रख दी। तब एक क्षण के लिए उसे एकाएक लगा कि वह अकेला है और एक सखा चाहता है। उसने मेज पर अपने खुले हुए सम्पादकीय लेख पर सिर टेक दिया, और एक बड़ी लम्बी साँस ली। फिर वह उठा, कोट की जेब से कुछ पैसे निकालकर जेब में डाले और होस्टल की सीढ़ियाँ उतर आया। नीचे ‘कामन रूम’ के बाहर दो-तीन लड़कों के बीच सदाशिव खड़ा था, उससे शेखर ने कहा, ‘एंटिगोनम’ प्रकाशित हो गया है, मेरी मेज पर रखा है, ले लो। और इस समाचार से जागे हुए कुतूहल को न देखता हुआ बाहर निकल गया।

एंटिगोनम की उस बहुप्रदा बेल से उसने फूलों का एक गुच्छा तोड़ा और फिर समुद्र की ओर चल दिया।

शेखर ने देखा कि वह बेवकूफ है, और सिर्फ होस्टल ही नहीं, सारी क्लास और सारा कॉलेज इस बात को जानता है कि वह बेवकूफ है। कॉलेज में वह एक क्लास से दूसरी क्लास में जाता है, तब उसे लगता है कि आने-जाने वाले सब लोगों की आँखें उस पर लगी हैं, और उन सब आँखों में उपहास है। क्या उस एंटिगोनम के फूल के कारण; लेकिन वह तो बहुत-से लड़के लगाते हैं, उन पर कोई नहीं हँसता। मानो लोग जानते हैं कि एंटिगोनम फूल चाहे हो किसी के बटन में, लगा वह शेखर के ही कारण है। और सब लोग क्लब की बात भी जानते हैं, उसके पत्र की बात भी जानते हैं। कुछ एक ऊँची क्लासों के लड़के, जो दूसरे कॉलेजों से आते हैं, वे तक उसकी ओर देखकर मुस्करा देते हैं, और उनकी मुस्कराहट में शेखर को दीख जाता है कि वे भी उसकी बेवकूफी जानते हैं। कभी-कभी कोई आवाजें भी कसता है-‘ब्रह्मचारी जी!’ ‘वह प्रोफेसर साहब जा रहे हैं!’ कभी दो-चार लड़के साथ चल रहे होते तो एक सुनाकर कहता, ‘यार, तुम सब तो भेड़ें हो, भेड़ें!’ और बाकी भेड़ों की तरह मिमियाने लगते। शेखर दुःख और ग्लानि से भरकर सोचता, इन लोगों को मुझसे कब का बैर है? मैं बेवकूफ हूँ सही, ये लोग जानते भी हैं सही, लेकिन ये लोग हर समय उसकी याद क्यों दिलाते हैं जब कि मैं भूलता नहीं हूँ?

और वह अपने पीड़ित अभिमान को छिपाने के लिए और भी तनकर चलता, उसके बटन में एंटिगोनम का फूल मानो और भी आरक्त चमक उठता और तब शेखर देखता कि कॉलेज में पढ़नेवाली लड़कियाँ भी शायद उसका उपहास कर रही हैं। लेकिन इसमें उसे दुःख नहीं, एक जलन होती थी। पुरुष उसे बेवकूफ समझकर हँसें, यह बात उसकी समझ में आती थी, क्योंकि वह उनके अधिकारों का खंडन करता था; लेकिन ये लड़कियाँ-वे अपनी आजादी का आदर नहीं करतीं तो क्या उसकी सद्भावना के प्रति क्षमाभाव भी नहीं रख सकतीं? कभी वह सोचता, पुरुषों ने ही उन्हें इतना कमीना बना दिया है कि उदारता उनमें रही ही नहीं, लेकिन न जाने क्यों उसे लगता कि यह तर्क झूठ है, कमीनापन भले ही पुरुष ने पैदा किया हो, लेकिन यह उपहासवृत्ति उनकी स्वाभाविक है...और यह उससे नहीं होता था कि नारी में, भारत की उस नारी में, जिसमें वह भविष्य की आशा देखता था, इस प्रकार की मौलिक कठोरता हो। वे उससे घृणा करें, यह उसे स्वीकार्य था; यह नहीं...

लेकिन एक दिन उसके एक सहपाठी ने उसे कहा, “भई, सोची तुमने दूर की।”

शेखर ने क्षीण विस्मय से कहा, “क्या?”

“यही सब सुधार-उधार की बातें, शादी न करना, औरतों से दूर रहना, वगैरह-वगैरह-”

“क्या मतलब?”

“हाँ भाई, है गजब की चाल।”

“आखिर बात क्या है?” शेखर कुछ खीझकर बोला।

“अरे भाई, एक हम हैं कि कोई कभी हमारी तरफ देखता भी नहीं, तरस के रह जाते हैं; एक तुम हो कि हर वक्त तुम्हारी चर्चा रहती है-कॉलेज-भर की लड़कियाँ तुम्हारी राह देखती हैं, और कला की लड़कियाँ तो तुम पर मरती हैं-”

शेखर ने कुछ और खीझकर, और काफी-सा विस्मित होकर कहा, “तुम एक ही बेवकूफ निकले। अरे, उन्हें कैसे मुझ जैसे आदमी में दिलचस्पी होगी? मैं तो उनके पास नहीं फटकता, न मुझे-”

“अजी रहने दो, बहुत बनो मत! क्या लड़कियाँ उन लोगों को पसन्द करती हैं, जो उनके पीछे जूते चटकारते फिरते हैं? वैसे लोगों की तो वे परवाह नहीं करतीं, वे जानती हैं कि ये तो बेदाम के गुलाम हैं। उन्हें वह आदमी पसन्द होता है, जिसे जीतने में शिकार का लुत्फ आये-कुछ खतरा हो, कुछ तकलीफ हो। तुमको किसी ने लड़की की छाँह के पास भी नहीं देखा, इससे जो लड़की अपनी किताबें तुम्हारी खोपड़ी पर लादकर तुम्हें अपने पीछे-पीछे घसीट सकेगी, वह अपने को रानी क्रिस्टिना से कम नहीं समझेगी, तुम निश्चय मानो। तुम्हारी पाँचों घी में हैं-”

शेखर को एकदम क्रोध आ गया। लेकिन साथ ही उसे यह भी याद आया तीन-चार दिन पहले क्लास की एक लड़की ने उससे पूछा था, “समाज के बारे में आपके विचार क्या हैं? मैं एक निबन्ध लिखना चाहती हूँ उसके लिए-” शेखर ने उत्तर दिया, मैं अपने लेख ला दूँगा, पढ़ लीजिएगा,’ लेकिन उसने जोर दिया था कि वह स्वयं शेखर से सुनना चाहती है। और तब शेखर ने लाइब्रेरी में बैठकर मेहनत और काफी कष्ट से अपने विचार उसे सुनाए थे, और पढ़ने के लिए क़ुछ किताबें बतायी थीं। उसने बातें काफी कड़वी कही थीं, और चलने पर यह देखकर हैरान हुआ था कि नमस्कार के साथ उसे इतनी मधुर हँसी क्यों मिली हैं...अब याद आते ही उसका हृदय एक संशय से भर गया कि कहीं सहपाठी की बात ठीक तो नहीं है? उसने क्रोध में उसे कहा, “तुम अपने गन्दे विचार अपने पास रखो, समझे! मुझे इस सब बकवास से मतलब नहीं है।” लेकिन उसका मन एक उद्वेग से भर गया, कि लोग उसके विचारों को, उद्देश्यों को न देखकर उसे ही देख रहे हैं...

वह क्लास की लड़कियों से और भी बचने लगा। जहाँ तक हो सकता, ऐसे समय क्लास में आता कि कोई उससे बात न कर सके, और सबसे पहले उठकर पिछवाड़े से बाहर निकल जाता; अपनी ओर से ध्यान हटाने के लिए उसने एंटिगोनम का फूल लगाना भी छोड़ दिया, लेकिन उसे लगने लगा कि इसका असर उलटा ही हो रहा है...जिस दिन वह पहले-पहल बिना फूल लगाए आया, उस दिन उसने देखा-बोर्ड पर तीन-चार गुच्छे एंटिगोनम के टँगे हैं, और सामने लड़कियों की बेंच पर भी दो-एक फूल किसी ने रख दिए हैं। दूसरे दिन किसी ने बोर्ड पर लिख दिया था, “शेखर के फूल कहाँ हैं? अगली बेंचों से पूछो।” अगली बेंचों पर लड़कियाँ बैठती थीं।

उसने देखा कि उसका निस्तार कहीं नहीं है। कभी वह कहीं भाग जाना चाहता, कभी वह चाहता कि किसी लड़की से पूछे, सब लड़कियों से पूछे, वे क्या सोचती हैं, क्या चाहती हैं उससे? क्या सचमुच उनका वही विचार है, जो लड़के अनुमान करते हैं; जो लड़कों के बोर्ड पर लिखे वाक्यों से ध्वनित होता है? फिर कभी उसे लगता कि अगर सचमुच वही बात है, तब तो वह पूछकर और बेवकूफ बनेगा...

यह सब परिणामहीन उलझन उसे खाने लगी। एक दिन उसने पाया कि वह अकारण हर समय उन लड़कियों की बात सोचता रहता है, क्लास में कुछ पूछता है या प्रोफेसर के प्रश्न का उत्तर देता है, तो अपने को इस ध्यान में लगा पाता है कि उसका असर उन लड़कियों पर कैसा होता है। जिस दिन उसने पहले-पहल यह जाना, उस दिन वह कुछ देर के लिए स्तब्ध रह गया-क्या मैं सचमुच हार गया? क्या यह रोमांटिक विचार ठीक है, और स्त्री नियति बनकर पुरुष को अनजाने अपना गुलाम बनाती है और उसके प्राण ले लेती है? वह नहीं मानेगा इसे! वह नियति का गुलाम नहीं है, उसका प्रतिद्वन्द्वी है।

वह उसी दम क्लास से उठकर बाहर चला गया, दो-तीन घंटे बाहर भटकता रहा, और अन्त में मानो अभिभूत-सा होकर समुद्र की ओर चल पड़ा।

लेकिन उस दिन उसे समुद्र से भी सान्त्वना नहीं मिली; तब वह लौटकर अपनी रात्रि-पाठशाला में जा बैठा और बच्चों से बातें करने लगा। परीक्षा के दिन निकट आ रहे थे, शेखर का कॉलेज तैयारी की छुट्टियों के लिए बन्द होनेवाला था, और निश्चय हो गया था कि छुट्टियाँ होती ही रात्रि-पाठशाला भी बन्द कर दी जाय और कॉलेज दुबारा खुलने पर खुले। इस शीघ्र आनेवाली चार महीने की लम्बी अवधि पर बालक कुछ खिन्न थे, इसलिए शेखर का स्वागत उन्होंने अधिक उत्साह से किया, और शेखर थोड़ी देर के लिए नारी जाति को और अपनी मुसीबतों को भूल गया। उन बच्चों के मध्य में उसे लगा कि वह रक्षक है, समर्थ है, वह भूल गया कि वह एक भाराक्रान्त, थका हुआ और बेवकूफ शिकार है, जिसके पीछे कई शिकारी लगे हैं...

समुद्र के किनारे खुली धूप में दुपहर-भर नंगे बदन भटककर शेखर शाम को घर लौटा। वह नहाने गया था, पर नहाने पर भी उसकी अशान्ति दूर नहीं हुई थी और वह अपने कपड़े कन्धे पर लादकर तपती हुई रेत में भटका किया था; जब उसका बदन धूप से जलकर स्याह पड़ने लगा था, तब दुबारा नहाकर और कपड़े पहनकर वह घर आया था।

होस्टल के जीने पर चढ़ते ही उसने देखा, उसके कमरे के बाहर रात्रि-पाठशाला की उसकी क्लास के दो लड़के खड़े हैं। उसने जल्दी में पास जाकर पूछा, ‘क्या है शाम्ब!’

शाम्बशिव ने चुपचाप एक लिफाफा उसकी ओर बढ़ा दिया। शेखर खोलकर पढ़ने लगा।

बड़ी मेहनत से काटकर बनाए गये कार्ड पर बड़े-बड़े अपढ़ अक्षरों में लिखा था कि उसी रात रात्रि-पाठशाला के छात्रों की ओर से अध्यापकों की विदाई का जलसा होगा, और उसमें अध्यापक चन्द्रशेखर की प्रतीक्षा है।

शेखर के हृदय को एक मीठी करुणा ने छू दिया। उसने पूछा, “औरों को भी बुलाया है?”

“जी हाँ, सबको बुलाया है, पर अध्यापक सदाशिव के सिवाय बाकी नहीं आएँगे।”

“क्यों?”

लड़कों ने उत्तर नहीं दिया। तब शेखर ने पूछा, “जलसे में क्या होगा?”

“अभिनन्दन पढ़ा जाएगा।”

“और?”

दोनों लड़के एक-दूसरे की ओर देखकर रह गये। बोले नहीं। शेखर ने मुस्कराकर पूछा, “क्यों, कोई भेद है क्या? कुछ शरारत सूझी है?”

लड़कों ने कहा, “बताने को मना किया है।” पर साथ ही शेखर के मुस्कराने से जैसे कुछ खुलकर उन्होंने कहा, “जलपान भी होगा।”

“ऐं!” कहकर शेखर चुप हो गया। उसके मन में आया कि पूछे, इतने पैसे कहाँ से आये, लेकिन उनके इस स्नेह के ख्याल से वह ऐसा भर गया कि यह प्रश्न पूछना अपमान सा लगा। उसने कहा, “अच्छा, तुम लोग चलो, मैं अभी थोड़ी देर में आता हूँ।” लड़के चले गये।

शेखर ने अविश्वास करना नहीं सीखा था, लेकिन आज न जाने क्यों उसके मन में आया कि जो लोग निमन्त्रण नहीं स्वीकार कर रहे हैं, वे खाने के डर से ही वैसा कर रहे हैं। उस बोर्डिंग में अछूत वर्गों के ही लोग रहते थे, उनमें भी यह भाव कि स्कूल के लड़के अछूत हैं, और शायद यह भी कि कंगाल हैं और गन्दे हैं...मन-ही-मन शेखर ने तय किया कि वह अगले वर्ष इन लोगों का सहयोग नहीं माँगेगा, बल्कि मिलने पर अस्वीकार कर देगा।

उसने फिर स्नान किया, अच्छे सफेद कपड़े पहने। फिर उसने अपने एक नये एलबम में तीन चित्र निकाले, नीचे उतरकर एंटिगोनम के बहुत-से फूल लिए और रात्रि-पाठशाला की ओर चल पड़ा। सदाशिव कहीं बाहर गया था और वहाँ से सीधा ही पाठशाला पहुँचनेवाला था।

जब जलपान करते-करते शेखर और सदाशिव मीठे उलहने के साथ उन छब्बीस-सत्ताईस छात्रों और छात्राओं-स्कूल में तीन छोटी लड़कियाँ भी आती थीं-को कह चुके कि उन्होंने बिना उनसे पूछे जलपान के लिए आपस में चन्दा इकट्ठा करके ठीक नहीं किया और जलपान के बाद शेखर सब छात्र-छात्राओं को चित्र और फूल बाँट चुका, उनके अभिवादन के लिए जुड़े हुए हाथों को पकड़कर रूँधे गले से कह चुका, ‘देखो, पागल मत बनो!’ और इसके बाद सदाशिव भी थोड़े-से शब्दों में उन सबको धन्यवाद दे चुका, तब शेखर को चलने के लिए तैयार पाकर बच्चों ने कहा-”शेखर दादा, आज चुप ही रहेंगे?”

‘अध्यापक शेखर’ से ‘शेखर दादा’ बनकर वह चुप नहीं रह सका, लेकिन बोलना तो पहले ही उसे असम्भव हो रहा था; और फिर शेखर अक्षर-ज्ञान कराने और थोड़ा बहुत काम चलाने लायक तामिल तो जानता था, इतनी कहाँ जानता था कि अपने उस समय के भाव व्यक्त कर सके, जिन्हें कि वह अपनी भाषा में भी नहीं कर सकता, लेकिन अपने पर जमी एकटक भोली आँखों से मानो वह संवेदन की एक नयी भाषा सीखने लगा, और वह हिन्दी, अँग्रेजी, तामिल की विचित्र खिचड़ी बनकर उसके मुँह से निकल पड़ी...

“पहले मैं समझता था, मैं आपकी सेवा करने आया हूँ, यह मेरी देन है। लेकिन आप लोगों ने मुझे सिखाया है कि वह झूठ था। हम लोग अपने घमंड में रहकर बूढ़े हो गये हैं, सूखे काठ की तरह अकड़ गये हैं; अब हमें आपसे विनय सीखना है, आपसे नरमाई पानी है, आपसे नया जीवन और नया यौवन पाना है। आज मैं आपकी जबान पर यह छोटे-छोटे बिना अर्थ के अक्षर देखता हूँ, जो हम कायदे में से आपको सिखाते हैं, लेकिन एक दिन ऐसा आएगा, जब आपकी इसी जबान पर एक नयी भाषा के शब्द होंगे जिनमें अर्थ होगा, वह ताकत होगी, जो उथल-पुथल मचा देगी और जाति और सम्प्रदाय का नाश कर देगी, एक नया धर्म पैदा करेगी, जिसमें हम और आप भाई होंगे, सगे होंगे। आज वह दिन नहीं आया है, तो इसलिए कि हमारे और आपके दिलों में वह नहीं है, लेकिन वह आएगा शीघ्र...”

शेखर ने अपने भारी होते हुए गले को जरा-सा आराम देने के लिए चुप होकर चारों ओर देखा, कुछ लड़के उसकी बात समझ रहे थे, कुछ नहीं समझ रहे थे, लेकिन फिर भी स्नेह से उसकी ओर देख रहे थे। यह देखकर उसके भीतर कुछ उमड़ आया, उसने सदाशिव को पुकारा, “सदाशिव, मेरी बात ये नहीं समझ रहे हैं, तुम सुनो और मेरी ओर से अनुवाद कर देना।” और फिर कहने लगा...

“जिन लोगों के साथ रहना और खाना मैंने स्वयं चुना है, ये सभी अछूत हैं, आदर्शनीय हैं, लेकिन मैं आपसे कहता हूँ, उनमें मैंने मित्र पाए हैं। कोई उन्हें पूछता नहीं है, देखता नहीं है, उसके पास नहीं जाता है, इसलिए उनके दिल सच्चे हैं, ताजे हैं, और आग से भरे हैं। उन लोगों से कोई बात नहीं करता, इसलिए उनमें अनुभूति और भी तीखी है। आप ही वे लोग हैं, आप ही मेरे संगी और स्नेही हैं, आप ही मेरा कार्यक्षेत्र हैं, और आप ही मेरी शक्ति। मैंने आपको अपनाया है, पहचाना है, और मैं इसमें सुखी हूँ। लेकिन आप इसके लिए कृतज्ञ मत होइए, आप उस तरह अपने को छोटा मत बनाइए। मैं ब्राह्मण होकर आप लोगों को अपने साथ ले रहा हूँ, ऐसा भाव मुझमें नहीं है। मैं स्वयं आपके साथ आया हूँ। भीतर कहीं मैं भी अछूत हूँ, आपका भाई हूँ। मैंने अपने आप आपको दान नहीं किया, मैंने आपको पाया है...”

शेखर चुप हो गया। सदाशिव आगे आकर उसके व्यक्तव्य का अनुवाद करने लगा; लड़के उसे सुनने लगे; जो वयस्क थे, वे कुछ करुणा से, स्नेह से शेखर की ओर देखने लगे। उनके पीछे शेखर ने देखा कि एक लड़का दो हार लिए खड़ा है, और एकाएक वह अभिभूत हो गया; हल से जोती हुई भूमि की तरह टूटा हुआ-सा अनुभव करने लगा...सदाशिव के बाद समाप्त करने से पहले वह उठा और तेजी से बाहर निकल गया, पीछे उसने अनुमान से जाना कि कुछ गड़बड़ फैली है, कुछ लोग उसे रोकने निकले हैं-वह भागा...

भूलना गलत है; भूलना असम्भव है; वह भाराक्रान्त है, थका हुआ है, बेवकूफ है, और चारों तरफ से घिरा हुआ है...

फिर समुद्र पर, लेकिन आज समुद्र जैसे उसे दीखता नहीं है, आज यह भीतर की घुमड़ती हुई घटा उसका क्षितिज भर रही है, उसे लीलने बढ़ती चली आ रही है...वह लौटकर बोर्डिंग आया, दो-एक कपड़े, किताबें और एक तौलिया लपेटकर उसने गठरी बनायी और अडयार नदी पर पहुँचकर महाबलिपुर जानेवाली रात की नाव पर सवार हो गया। महाबलिपुर में एकान्त समुद्र है, किनारे पर बहुत-से मन्दिर हैं, पीछे पोखरे हैं, जिनमें कमल के पत्ते छाए होंगे-वहाँ शायद वह कुछ शान्त हो सके, कुछ पढ़ सके, परीक्षा के लिए तैयार हो सके...

गर्मी है। नाव के भीतर बैठना असम्भव है। छत के ऊपर बैठने की जगह नहीं है, छत दोनों तरफ को ढालू है। माँझी की उस ढलाव पर ही न जाने कैसे लेटे रहते हैं और सोये भी रहते हैं, यह देखकर शेखर भी जा लेटता है। बीच के ऊँचे स्थान पर बाँहें अटकाकर वह लेट जाता है। जब तक बाँहें वहाँ रहें तब तक ठीक है, पर छोड़ने पर उसे लगता है कि वह फिसलकर नदी में गिर जाएगा। वह गिरने का खतरा मानो जगह को और ग्रहणीय बना देता है। शेखर एक हाथ से छत पकड़कर और किनारे की ओर सरक आता है, आगे क्षितिज तक गयी हुई नदी को देखता है।

चाँद निकल रहा है। नाव की गति से नदी पर उठी हुई छोटी-छोटी मछलियाँ चाँदनी में चमककर परे हट जाती हैं, मानो बुला रही हों। सतह के नीचे भी छोटी-छोटी बिजली से चमकनेवाली मछलियाँ इधर-उधर भागकर मानो हरी आग से कुछ लिखती जाती हैं। उनके भागने से आलोड़ित पानी भी किसी प्रकाश से चमक उठता है, मानो उसमें भी वह हरी आग लगी हुई है...नाव भी चाँदनी में धुल-सी गयी है, और आलोक में उसकी गति मानो और शब्दहीन हो गयी है। गर्मी के कारण मल्लाह भी चुप हैं...रहस्य, रहस्य, रहस्य...शेखर मानो धीरे-धीरे अपने आपमें से निकलने लगता है, खुलने लगता है, इस व्याप्त रहस्यमय मौन से मिलकर स्वस्थ होने लगता है...होस्टल के लड़के, कॉलेज की लड़कियाँ, शहर के लोग, सब उसकी चेतना में से मिटने लगते हैं, उनके द्वारा पाए हुए आघात, घाव, इस स्वच्छ चाँदनी में मैल की तरह धुलने लगते हैं...उसकी बाँह थक रही है, वह हाथ की बजाय अपनी गर्दन वहाँ अटकाकर, और पैर छत के सिरे में बँधी हुई एक रस्सी की गाँठ में अटकाकर सीधा लेट जाता है और पाता है कि वह फिसलता नहीं, लेट सकता है...थकान उसे आती है बड़ी मीठी थकान, पर मस्तिष्क उसका भरा आ रहा है उन स्कूल के बच्चों से, उनकी मुग्ध दृष्टि से, इस मुग्ध चाँदी से, और आज न जाने क्यों शारदा के ध्यान से भी...शारदा को देखे दो वर्ष हो गये, न जाने वह है कहाँ, शेखर ने याद नहीं किया, लेकिन आज इतने दिन बाद, इतनी कलह और कटुता के बाद, इस एक स्वच्छ, शान्त, स्नेह-भरे क्षण में, वह इस इस सारे रहस्य का हिस्सा बनकर आयी है...

शारदा...थकान...चाँदनी...शारदा

अगर वह सो सकता-शारदा को स्वप्न में देख सकता-सो सकता...

महाबलिपुर को सहस्र मन्दिरों का स्थान कहते हैं, वह बेजा नहीं है, लेकिन उन अगणित मन्दिरों का अवतंस है समुद्र-तट पर बना हुआ शिव का मन्दिर, जिसका द्वार समुद्र की ओर खुलता है, जिसके अनगढ़ पत्थर के चौखटे के बीच समुद्र का विस्तार दिखता है और उसके पार सूर्य और चन्द्रमा का उदय...

शेखर ने एक ही दिन में दोनों देखे हैं। फिर रात-भर वहीं मन्दिर की देहली में पड़े रहकर चाँद का क्रमशः ऊपर उठते हुए छोटा होते जाना देखा है, मानो वह परे हटता जा रहा हो। और देखते-देखते उसे फिर शारदा की याद ने ओस की तरह मीठे स्पर्श से भिगो दिया है...

महाबलिपुर में आने के दूसरे दिन शेखर सवेरे सूर्योदय देखकर ही मन्दिर से लौटा और सो गया। दस-ग्यारह बजे उठकर उसने मुँह-हाथ धोकर जलपान किया, और फिर घूमता हुआ समुद्र-तट पर जा पहुँचा। एक किताब उसने साथ ले ली, यद्यपि वह जानता था कि वह पढ़ेगा नहीं।

समुद्र-तट पर मन्दिर की छाया में बैठकर वह समुद्र में खड़े हुए एक पत्थर के स्तम्भ की ओर देखने लगा। कभी वह स्तम्भ एक मन्दिर के गोपुरम् का अंग था, लेकिन समुद्र आगे बढ़ता हुआ उस गोपुरम् और मन्दिर को लील गया और शिव-मन्दिर के द्वार तक आ पहुँचा। उसी का स्मारक वह स्तम्भ अभी शिव-मन्दिर तक अजय खड़ा था; दो सौ वर्षों से अरोक सागर के वारों को अचल भाव से सहता हुआ...

शेखर को उस स्तम्भ तक तैरकर जाने की प्रबल इच्छा हुई। वहाँ से मन्दिर का दृश्य कितना सुन्दर होगा, और फिर मन्दिर के पीछे जब सूर्यास्त होगा, तब मन्दिर की सीढ़ियों पर स्वर्ण-किरीट पहने हुए लहरों की क्रीड़ा कितनी मनमोहक...तीन बज चुके थे, एक घंटा-भर उसने किसी तरह पढ़ने के बहाने को रोका, फिर उसने कपड़े उतारकर एक पोटली बनाकर रख दी और पानी में उतर पड़ा।

तैरना उसने अभी तक ठीक तरह से नहीं सीखा था, थोड़ी-थोड़ी दूर तक ही किसी प्रकार चला जाता था। आधा रास्ता तय करते-करते उसकी साँस फूलने लगी, लेकिन वह यह सोच आगे बढ़ता गया कि अब तो जैसा पीछे लौटना, वैसा ही आगे बढ़ना। आखिर जब उसकी शक्ति बिलकुल खर्च हो गयीं, जब हाथ उठाना भी एक यातना बन गया, तब किसी तरह वह स्तम्भ के पास पहुँच गया, बची हुई शक्ति से उस स्तम्भ के चबूतरे को पकड़ा और अपने को खींचकर उस पर बिठा लिया।

लेकिन बैठकर भी वह सुस्ता नहीं सका। ज्वार उठ रहा था, लहरों का वेग बढ़ता जा रहा था और स्तम्भ का चबूतरा भी धीरे-धीरे डूब रहा था। अपनी जगह कायम रहने के लिए अब शेखर खम्भे को जकड़कर बैठा था, पर प्रत्येक लहर मानो उसे स्थानच्युत करने के लिए अधिक क्रुद्ध फुफकार करती थी। थोड़ी ही देर में शेखर ने पाया कि सिर्फ वहाँ टिके रहने के लिए जितना जोर उसे लगाना पड़ रहा है, वह उसे शीघ्र थका देगा, और तब उसका वहीं डूबना निश्चित हो जाएगा। उसके मन में मानो तटस्थभाव से यह बात आयी कि वह वहाँ वैसे मरना नहीं चाहता है, उसकी मृत्यु और किसी तरह होने को है, और उसे अभी कुछ करना बाकी है।

शेखर ने स्तम्भ को छोड़ दिया और किनारे की ओर तैरने लगा। सूर्यास्त में अभी देर थी, लेकिन धूप का प्रकाश कुछ लाल-सा होने लगा था और किनारे पर मछुओं के कुछ नंगे बच्चे इकट्ठे होकर नाच रहे थे। शेखर उनका स्वर नहीं सुन सकता था, लेकिन उसे लगा कि वे उसे ही खम्भे के पास खड़ा देखकर चिल्ला रहे थे। उसे इससे सुख-सा हुआ। वह तैरते हुए अपने को भी उन बच्ची में एक बच्चा अनुभव करने लगा...

वह थक गया। हाथों ने उठने से इनकार कर दिया, वह गोते खाने लगा। उसे याद आया कि ऐसी हालत में घबराना नहीं चाहिए, गोता खाकर फिर साँस के लिए ऊपर उठना चाहिए। वह लहर के नीचे डूब गया, थोड़ी देर बाद फिर ऊपर आया, तब साँस की कमी से उसके सारे शरीर में सुइयाँ चुभ उठी थीं। उसने हवा के एक बड़े-से झोंके के लिए मुँह खोला-

कि एक लहर आयी जिसके ऊपर वह उठ नहीं सका, मुँह में हवा के साथ पानी भर गया, वह फिर डूब गया-

और फिर ऊपर उठा, फिर मुँह खोला कि एक गहरी साँस ले ले-

कि फिर लहर में छिप गया, तिलमिला गया, डूब गया।

तब एकाएक उसने अपने को छोड़ दिया। कोई लाभ नहीं इसका। आगे मृत्यु है। फिर उठेगा, फिर पानी भर जाएगा, बेहोश हो जाऊँगा और अनजाने में मर जाऊँगा। व्यर्थ। साँस क्यों लूँ-मृत्यु यहीं सही-मृत्यु। मैं जान लूँगा कि मृत्यु क्या होती है, अनुभव कर लूँगा। यहाँ घबराना नहीं चाहिए। ऐसा शायद किसी ने बतलाया है-घबराना नहीं-

उसने आँखें खोलीं। खारा पानी उनमें चुभ गया। विस्तीर्ण, कड़वा नीलपन। मृत्यु मैं देख लूँगा। घबराना नहीं होता-मृत्यु...

बच्चों का कोलाहल। क्या ये फरिश्ते हैं?-

शेखर ने उठने की कोशिश की, लेकिन सफलता इतनी ही मिली कि घबराकर मुँह से और नाक से खारा पानी उलट दिया। पीठ में बड़ा दर्द हो रहा था, छाती पर मानो पत्थर रखा हुआ था, बदन सारा चरमरा रहा था।

वह अवश्य मर रहा है। लेकिन मर गया क्यों नहीं है?

उसनें फिर उठ बैठने की कोशिश की। आँखें खोलीं।

मछुओं के बच्चे उसके छिले हुए बदन को घेरे हुए थे, एक आदमी उसकी छाती दबा रहा था।

समुद्र को उसकी जरूरत नहीं थी। लहरों ने उसे निकालकर बाहर फेंक दिया था।

वह एक बड़ी जलती हुई यातना-भरी कोशिश से उठ बैठा।

वह चाहता था, उसी रात मद्रास लौट जाए। लेकिन उठना भी उसके लिए असम्भव था। मछुए उसे धर्मशाला तक पहुँचा गये थे, वहीं वह पड़ा था। सारा बदन बुरी तरह दुख रहा था, लेकिन उसे लगता था, जो कुछ हुआ था, ठीक हुआ था। अब वह जी सकेगा, बढ़ सकेगा। उसने मानो पुनर्जन्म पाया था, और अब वह जीवन का सामना दुबारा करने के लिए तैयार था। वह जो चला आया था, उसने सौन्दर्य में जो वेदना को भुला देने की, संघर्ष से बच भागने की कोशिश की थी, वह व्यर्थ थी, गलत थी। सौन्दर्य कुछ नहीं है अगर वह शक्ति नहीं है, प्रेरणा नहीं है; यह समुद्र ने सिखा दिया था, उस आदि गुरु, आदि सत्य, आदि शिव, आदि सुन्दर समुद्र ने! सौन्दर्य वहीं हैं जहाँ संग्राम है, और उसे वही देख सकता है, जिसके भीतर शक्ति है। उस आद्य शक्ति को जिसने एक बार देखा है, उसने अपने को सदा के लिए समर्थ बना लिया है, वह पथ-भ्रष्ट नहीं हो सकता, मर सकता है, पर झुक नहीं सकता; नष्ट हो सकता है, पर कीच में नहीं रेंग सकता...

लेकिन जीवन न जानें क्यों सूना हो गया। शेखर ने अपने को होस्टल के लोगों से किसी प्रकार के भी सम्पर्क के खींच लिया, एंटिगोनम क्लब छोड़ दिया। पत्र भी बन्द कर दिया और निर्मम होकर अपनी पाठ्य-पुस्तकें चाटना शुरू कियाः लेकिन वह शून्य कुरेद-कुरेदकर कहने लगा, लोगों से बच लोगे, मुझसे कैसे बचोगे...दिन भर पढ़कर, या पढ़ने की कठोर और व्यर्थप्राय तपस्या करके? वह शाम को उदास-सा मुँह लेकर कभी समुद्र किनारे जा बैठता, कभी होस्टल से कुछ दूर पर एक सरोवर के बीच में बने हुए मन्दिर के पीछे, जहाँ घंटाध्वनि और आरती तो सुन पड़े, और झील में दीपकों का प्रतिबिम्ब भी दिखे, लेकिन आने-जाने वाले लोग न दीखें। उस पर एक दुःख की छाप थी, यद्यपि वह नहीं जानता था कि उसे क्या दुःख है, समझ नहीं पाता था। कभी उसे लगता, वह सौन्दर्य चाहता है; सौन्दर्य शक्ति है, लेकिन वह शक्ति नहीं माँगता, सौन्दर्य माँगता है; कभी उसे लगता, वह एक संगी चाहता है, लेकिन वह संगी भी देवदास नहीं है, सदाशिव भी नहीं है, और शारदा-शारदा भी नहीं हो सकती, यद्यपि...वह चाहता है कुछ और इनसे भिन्न कुछ, इनसे ऊपर कुछ-लेकिन वैसा क्या हो सकता है? अपने से झल्लाकर वह पूछता, क्या मैं देवता चाहता हूँ जबकि वे होते नहीं, हो सकते नहीं?

एक दिन सदाशिव ने कहा, “देखो शेखर, अभी परीक्षा के तीन सप्ताह बाकी हैं। काफी पढ़ाई हो सकती है। क्यों न मेरे साथ घर चलो, वहाँ त्रावनकोर की शान्ति में ठीक से पढ़ सकोगे।”

शेखर ने ख़ाहमख़ाह अप्रसन्न स्वर में कहा, “क्या मैं पढ़ता नहीं हूँ?”

“पढ़ते तुम हो। लेकिन पढ़ाई नहीं होती। क्लास में तुम सदा अच्छे रहते आये हो। अब देखता हूँ...”

शेखर ने कुछ उदासीन-से स्वर में, बिना विरोध के कहा, “पास हो तो जाऊँगा कि नहीं...”

सदाशिव ने इसका उत्तर नहीं दिया। बोला, “मैं कल-परसों चले जाने की बात सोच रहा था! तुम भी चलो तो अच्छा हो। इकट्ठे होंगे तो दोनों को प्रोत्साहन भी मिलता रहेगा। तुम्हें अच्छी तरह पास होना ही चाहिए, शेखर!”

शेखर कुछ देर तक चुप रहा। उसने देखा कि सदाशिव का निमन्त्रण सच्चा है, उसकी सत्कामना भी सच्ची है। और त्रावनकोर-शारदा का जन्मस्थान, उसके शैशव की क्रीड़ा-स्थली और शायद उसका वर्तमान निवास...एकाएक वह सदाशिव के प्रति अपनी रुखाई के लिए शर्मिन्दा हो गया। लेकिन ‘हाँ’ वह नहीं कह सकेगा, शारदा के कारण भी नहीं। बल्कि उस प्रलोभन के कारण और भी नहीं। समुद्र ने उसे वापस यहाँ फेंक दिया है, यहीं वह रहेगा, अधमरी इस अवस्था में ऐसा ही अकेला...

“नहीं, सदाशिव, मैं नहीं जाऊँगा।”

“क्यों नहीं जाओगे?”

“नहीं। मैं बहुत बदतमीज आदमी हूँ-तुमसे लड़ूँगा, तुम्हें भी नहीं पढ़ने दूँगा, मुझे तो पास होना नहीं है। मैं खत्म हो गया हूँ, और उसका क्रोध तुम पर निकालूँगा। मैं-” एकाएक शेखर लौट पड़ा और चलने लगा।

सदाशिव ने उसके कन्धे पर हाथ रखकर कहा, “शेखर, मुझे बताओ, तुम्हें क्या दुःख है?”

शेखर पिघल गया। उसने चाहा कि कन्धे पर से उस हाथ को झटक दे जिसके सहारे सदाशिव एकदम इतना पास आ गया है, पर वैसा कर नहीं सका। उस पर हाथ के स्पर्श ने उसका निश्चय बदल दिया, लेकिन इनकारी की रुख अब स्वीकृति में आ गयी। शेखर ने ढीले स्वर में कहा, “अच्छा, चलता हूँ। लेकिन एक शर्त है।”

“क्या?”

‘कि आज ही चल पड़ो-अभी शाम की गाड़ी से।’

सदाशिव ने एक स्निग्ध मुस्कान लेकर कहा, “चलो। बाँधो बिस्तर।”

त्रिवेन्द्रम पहुँचकर सदाशिव ने घर में शेखर को अलग कमरा दिलवा दिया, और कह दिया कि वह जितना चाहे, एकान्त ले सकता है, सदाशिव भी बुलाने पर ही आएगा। केवल नौकर अपने काम के लिए आया करेगा। शेखर ने नजर फिराकर चारों ओर देखा, बड़ी शीशेदार खिड़की से बाहर झाँककर वहाँ खड़े युकेलिप्टस के पेड़ और उसके नीचे पड़ी कैनवस की आरामकुर्सी को भी, और सन्तुष्ट होकर पूछा, “यह कमरा है किसका?”

“पहले मेरा था, अब तुम्हारा है। पढ़ाई के लिए ठीक रहेगा-”

शेखर ने जैसे जागकर कहा, “सदाशिव, तुम हो दोस्त कहलाने काबिल!” और यह कहने के प्रयास से झेंप-सा गया। सदाशिव चला गया।

पढ़ाई कुछ ठीक होने लगी। वह पाता कि सदाशिव के अलावा उसके घर के लोग उससे स्नेह करते हैं। उसने स्वयं कहकर भोजन उनके साथ ही करना आरम्भ किया, उसके बाद कुछ देर वह उनके साथ-सदाशिव की वृद्धा और कुछ-कुछ पागल किन्तु, स्नेह-भरी माँ के साथ और सदाशिव के छोटे भाई के साथ-गपशप भी कर लेता। (सदाशिव की एक बहिन थी जिससे माँ को बहुत प्रेम था, उसके मरने पर ही वह दुःख से पागल हो गयी थी और तबसे मस्तिष्क का विकार पूर्णतया ठीक नहीं हुआ था।) केवल शाम को घूमने जाते समय उसे किसी का साथ सह्य नहीं होता-वह अकेला ही न जाने किधर-किधर भटककर रात तक लौट आता, कभी कोई पूछता कि किधर गया था, तो कह देता, ‘यों ही, शहर की तरफ-’ या, ‘यों ही, पता नहीं कहाँ, कोठियाँ-ही-कोठियाँ थी-

छः दिन की पढ़ाई के बाद उसे फिर एक धक्का लगा।

घूमते-घूमते वह याददाश्त के लिए अक्सर राह की कोठियों-दूकानों के बोर्ड पढ़ा करता था, यद्यपि बहुत ध्यान से नहीं, और अक्सर पढ़ते ही भूल जाता था। उस दिन भी वह अनसना-सा बोर्ड देख रहा था कि दिल धक् से हुआ, उस धड़कन से चौंककर उसने दुबारा बोर्ड पढ़ा-शारदा के पिता!

वह ठिठक गया। फाटक के पास आकर दुबारा नाम पढ़ा। फिर खड़ा रह गया। भीतर जाने को हुआ लेकिन इतना उद्विग्न था कि जा नहीं सका। फिर धीरे-धीरे वह वापस लौट गया।

उस शाम और अगले दिन वह किसी से मिला नहीं। शाम को वह फिर निकला घूमने और उधर ही चला।

अहाते के भीतर घुसकर देखा, कोई नहीं था। कोठी के बरामदे में जाकर उसने किवाड़ खटखटाया।

नौकर ने किवाड़ खोलकर नाम पूछा, शेखर ने बता दिया। कुछ क्षण बाद उसने देखा कि वह शारदा की माँ के सामने खड़ा है।

माँ ने बहुत-सी इधर-उधर की बातें की। स्वास्थ्य पूछा, परीक्षा का नतीजा पूछा, अबकी पढ़ाई की बात पूछी, माता-पिता का कुशल-क्षेम पूछा, वहाँ आने का कारण और रहने का ठिकाना पूछा, चाय के लिए पूछा; शेखर को सिर्फ एक ही बात पूछनी थी, लेकिन वह उसके लिए साहस न बटोर सका, वह उत्तर-ही-उत्तर दे सका...आधे घंटे बाद लौट आया।

आठवें और नवें दिन भी पढ़ाई नहीं हुई, तब उसे याद आया, सदाशिव ने दस दिन के लिए वहाँ आने की बात कही थी। क्या कल लौटना होगा?

वह जल्दी कपड़े पहनकर फिर उधर चला। फाटक के भीतर घुसते ही उसने देखा, कोठी के एक ओर शारदा खड़ी हैं। उसने यह भी लक्ष्य किया कि शारदा ने भी उसे देख लिया है, पहचान लिया है, और क्षण भर भी रुके बिना फौरन भीतर चली गयी है...

वह भीतर जाकर बैठ गया। माँ थी, उनसे बातचीत करने लगा। आज चाय को भी उसने इनकार नहीं किया-उसमें कुछ समय तो लगेगा!

शारदा कमरे में आयी, और अब मानो उसने पहले-पहल शेखर को देखा, विस्मय के स्वर में बोली, “तुम यहाँ कहाँ, कब आये?”

शेखर के उत्तर देने से पहले ही माँ ने मीठे स्वर में कहा, “बेटी, इनके लिए चाय बनवाकर भेज तो!” शेखर ने लक्ष्य किया कि माँ के स्वर की वह मिठास सभ्यता के बरसों के अनुभव से प्राप्त की हुई है...

चाय पीकर वह चला। शारदा फिर नहीं दीखी।

घर पहुँचकर शेखर ने सदाशिव से कहा, “क्या कल ही चलना होगा? दो-एक दिन ठहर नहीं सकते?”

“दो छोड़ के तीन दिन ठहरो! पढ़ाई ठीक हो रही है?”

“हाँ?”

“कितने घंटे पढ़ते हो? हफ्ते-भर में ही क्या सूरत निकल आयी है। कुछ मद्रास के लिए भी छोड़ दो न!”

“हूँ।” कहकर शेखर फिर एकान्तवास में घुस गया।

शेखर रोज वहाँ जाता, लेकिन बँगले के भीतर न घुसता। उसने समझ लिया कि शारदा और उसके मिलने का बड़े सभ्य, मीठे लेकिन दृढ़ ढंग से विरोध हो रहा है। वह फाटक से कुछ दूर बाहर खड़ा होकर प्रतीक्षा करता...

तीसरे दिन शारदा अकेली बाहर निकली। उसके हाथ में एक सैटिन का मनीबेग था, शायद बाजार के लिए वह निकली थी।

शेखर एक पेड़ की आड़ में था, जब शारदा बिलकुल पास आ गयी, तब वहाँ से निकलकर उसने पुकारा, “शारदा!”

शारदा का चेहरा खिल उठा, लेकिन फौरन ही उसने मुड़कर एक भीत दृष्टि से पीछे बँगले की ओर देखा।

शेखर ने कहा, “तुम तो ऐसे डरती हो, जैसे मैं कोई भूत होऊँ।”

शारदा ने उत्तर नहीं दिया।

“तुम मुझे बताए बिना ही क्यों चली आयी थीं?” मीठे उलहने से शेखर ने कहा।

“और तुम मुझे बताए बिना कहाँ गुम हो गये थे? मैं तो जानती भी नहीं थी कि तुम कहाँ हो!”

शेखर ने लक्ष्य किया कि वे पास के एक पार्क की ओर जा रहे हैं।

““आजकल क्या कर रही हो?’

“परीक्षा की तैयारियाँ! दस-पन्द्रह दिन रह गये हैं।”

“मैट्रिक?”

“हाँ।”

“मेरी भी परीक्षा होनेवाली है।”

“इंटर की?”

“हाँ।”

थोड़ी देर की शान्ति के बाद शेखर ने कहा, “परीक्षा के बाद तुम मद्रास आ जाना, वहीं कॉलेज में पढ़ना।”

“क्यों?”

“मैं भी वहाँ हूँगा-”

“और जो न आऊँ तो?” शारदा थोड़ा-सा मुस्कराई।

“तो मैं समझूँगा, मैं तुम्हारा कोई नहीं हूँ।”

“तुम हो कौन?”

शेखर उसी फीकी रोशनी में देख नहीं सका कि शारदा मुस्करा रही है या नहीं। वह पार्क के फाटक की चरखड़ी घुमाने लगा।

लेकिन शारदा ने कहा, “नहीं, अब नहीं। मैं जाती हूँ-माँ बिगड़ेगी-फिर आऊँगी।” और जल्दी-जल्दी लौट गयी।

शेखर भी धीरे-धीरे घर लौट आया।

सवेरे पार्क में वे फिर मिले। बातें रुक-रुककर शुरू हुईं, लेकिन धीरे-धीरे बाँध खुल गया। शारदा ने बताया कि बड़ी बहिन की शादी के लिए वे चले आये थे, और उसी समय पिता की बदली यहाँ हो गयी थी, तब से वे यहीं थे। उसने यह भी बतलाया कि शेखर के परीक्षा देने चले जाने के बाद वह बहुत रोयी थी। रो-रोकर बीमार हो गयी थी, तब माँ ने कुछ-कुछ समझ लिया था कि उसे क्या हो रहा है, और तबसे उसका व्यवहार कुछ बदल गया था। उसने शारदा को बच्चा समझना छोड़ दिया था, अब वह उससे बराबरी का विनयपूर्ण बर्ताव करती थी, लेकिन उस विनय में कितना शासन था...कहते-कहते एकाएक मुस्कराकर बोली, ‘अब मैं बड़ी हो गयी हूँ न!’ और अब शेखर अपनी बातें कहने लगा, कैसे उसकी माँ भी कठोर शासन करती है जिसमें विनय भी नहीं है, कैसे उसने कॉलेज में मित्र बनाए हैं; अपने एंटिगोनम लीग की बातें, उसके आदर्श; उसकी रात्रि-पाठशाला, उसकी निराशा, उसके सखा समुद्र और मन्दिर और कमल के पत्ते...और फिर वह सुनाने लगा कि किस तरह वह महाबलिपुर गया था, किस तरह वहाँ समुद्र में तैरने लगा था और डूब गया था...

शारदा के मुँह से एक हल्की-सी चीख निकली जो शेखर को बड़ी प्रिय लगी, उसमें शेखर के लिए इतनी चिन्ता थी...तब वह और भी रोमांचकारी कहानियाँ सुनने लगा; अपने घर से भागने की, काश्मीर में झील में डूबने की...

शारदा ने कहा, “बस करो! और नहीं सुनूँगी ऐसी बातें!”

“क्यों?”

“वायदा करो कि मनोगे-”

“बताओ तो-”

“तुमसे कुछ माँगना है, वायदा करो कि दोगे-”

“दूँगा।”

“वचन दो कि अपने जीवन से ऐसा खिलवाड़ नहीं करोगे-उसे खतरे में नहीं डालोगे-”

शेखर का हृदय सुख से भरा आ रहा था, और उसके साथ-ही-साथ उसमें एक साहस का भी उदय हो रहा था। लेकिन उसका दिल धड़कन के मारे फट जाएगा...उसने एकाएक कह ही तो दिया-”शारदा, तुम मुझे प्यार करती हो?”

शारदा ने उत्तर नहीं दिया।

“बताओ, शारदा, प्यार करती हो?”

शारदा ने हड़बड़ाकर उठते हुए कहा, “मैं घर जाती हूँ-अब बड़ी देर हो गयी। माँ नाराज होगी। फिर कभी बाहर भी नहीं निकल सकूँगी। इतनी देर-”

शेखर के दिल की धड़कन धीरे-धीरे शान्त हो रही थी। आरम्भ वह कर चुका था, अब आगे बढ़ना उतना कठिन नहीं था। शारदा के प्रश्न टालने से वह कुछ अप्रतिभ तो हुआ, लेकिन फिर भी आग्रह से कहने लगा, “पहले मैं नहीं जानता था कि प्यार क्या होता है, अब जानता हूँ।” मैं तुम्हारा आदर कर सकूँगा, शारदा, बताओ प्यार करती हो?

“और जो मैं कहूँ कि नहीं करती, तो?”

“तो-तो...” शेखर से कुछ कहते नहीं बना। वह काफी देर तक चुप रहा, भीतर-ही-भीतर न जाने क्या उलट-फेर करता रहा...फिर उसने कहा, “शायद अभी मुझे पूछना नहीं चाहिए। पर मद्रास तो आओगी न?”

यह विषय-परिवर्तन शायद उसे अच्छा नहीं लगा, लेकिन शेखर ने यह नहीं देखा। शारदा ने खंडित-सी होकर कहा, ‘और अगर न आयी तो?’

‘आयी कैसे नहीं! आना पड़ेगा?’ शेखर ने कुछ क्रोध में, कुछ अपने से ही उस क्रोध को छिपाने के लिए हँसी में कहा।

और धागे धीरे-धीरे उलझने लगे। शारदा ने कहा, “नहीं आऊँगी, यहीं पढूँगी। वहाँ आना व्यर्थ है। और मैं अकेली कहाँ रहूँगी? और-”

“तुम नहीं आओगी तो मैं समझूँगा तुम मुझे बिलकुल नहीं चाहती।”

शारदा ने और भी कुंठित स्वर में जैसे उसकी बात दुहराते हुए कहा, “अब तो जान पड़ता है, तुम्हें ऐसा सोचने का मौका देना ही पड़ेगा कि मैं तुम्हें बिलकुल नहीं चाहती।”

“शारदा?”

शारदा चुप।

“शारदा!”

वह फिर चुप।

शारदा! अबकी बार काँपते हुए स्वर से, ‘शारदा, तुम्हें वे दिन याद हैं?’ और शेखर जल्दी-जल्दी दो वर्ष पहले की कितनी ही बातें गिना गया-स्कूल से आती हुई शारदा की प्रतीक्षा चीड़ के वन में उनका मिलना, इकट्ठे बैठकर, गीतांजलि का पाठ, फूलों का बिनना और अन्त में वह क्षण, जब उसने एकाएक उठाकर दोनों हाथों से शारदा की आँखें भींच ली थीं और उसके केशों में अपना मुँह छिपा लिया था उनके सौरभ से अभिभूत होकर...

शारदा ने भी मुँह फेरकर व्यथित काँपते हुए स्वर में रुक-रुककर कहा, “जिन बातों का न हुआ होना ही अधिक उचित है, उन्हें याद करने में कुछ लाभ है, ऐसा मैं नहीं समझती।”

शेखर ने आगे बढ़कर शारदा की दोनों कलाइयाँ पकड़ लीं। उसके आवेग में उसके स्पर्श में उसके स्वर में, एक साथ ही यत्न से दबाया कोप भी था और व्याकुल अभ्यर्थना-”शारदा! यह तुम्हें क्या हुआ है? तुम मुझे प्यार करती हो! कहो कि तुम मुझे प्यार करती हो-”

“छोड़ दो मेरा हाथ-”

“कहती क्यों नहीं, कहो-” शेखर ने अपनी पकड़ और भी कड़ी कर ली।

तब एकाएक रोष और आँसुओं से रुँघे स्वर से, ‘तुम्हें? प्यार? मुझे खेद है कि मैंने तुमसे कभी बात भी की!’ शारदा ने झटककर अपने हाथ छुड़ा लिए, और अपनी कलाइयों पर पड़ी हुई शेखर की उँगलियों की गहरी छाप की ओर देखती हुई घर की ओर दौड़ी!

शेखर कुछ देर वहीं स्तब्ध खड़ा रहा, समझने की कोशिश करता हुआ कि यह क्या हो गया, फिर धीरे-धीरे घर लौटा गया।

अगले दिन सुबह और शाम, उससे अगले दिन फिर सुबह और शाम शेखर पार्क में जाकर प्रतीक्षा करता रहा। शारदा नहीं आयी। तब शेखर को एकाएक विश्वास हो गया कि सब कुछ समाप्त हो गया है। उसे अचम्भा नहीं हुआ। समुद्र ने उसे स्वीकार नहीं किया था, समुद्र अपनी नीलिमा में सब कुछ अपना लेता है, उसने भी शेखर को अस्वीकार करके बाहर फेंक दिया था! वह उच्छिष्ट है। उसे शारदा नहीं स्वीकार करती, तो अचम्भा क्या?

शेखर ने सदाशिव ने कहा “अब वापस चलना चाहिए।”

“तैयारी पूरी हो गयी! तुम-” सदाशिव एकाएक रुक गया, शेखर की आँखों में देखता रह गया। थोड़ी देर बाद उसने दुःखी से स्वर में कहा, “अच्छा चलो। वहीं चलकर देखेंगे कि कैसी तैयारी हुई।” और वह जाने लगा।

“सदाशिव, तुम पूछते नहीं कि क्या हुआ है?”

“तुम दुःखी हो। इस दुःख में अकेले ही रहोगे, मेरा पास आना बुरा लगेगा।”

“सदाशिव, तुम इतनी बातें जानते कैसे हो?”

सदाशिव ने धीरे से कहा, “अपनी माँ के पागलपन से मैंने बहुत कुछ सीखा है। जो भोग चुके हैं, वही गुरु होने के काबिल होते हैं।”

चलते समय जब शेखर प्रणाम करने के लिए झुका, तब सदाशिव की माँ ने कहा, “बेटा, फिर कब आओगे, यह तो तुमने बताया ही नहीं?”

शेखर का जी भर आया, उसने एकाएक झुककर माँ के पैर छू लिये।

माँ ने आर्द्र होकर उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया।

शेखर ने लक्ष्य-किया एक ऐसे भाव से भरकर जो कृतज्ञता के बहुत निकट था-कि माँ ने उसे वहाँ का साधारण आशीर्वचन ‘तुम सुखी होओ’ नहीं कहा; माँ ने कहा, “तुम यशस्वी होओ...”

कुछ दिन और वह निरर्थक उद्देश्यहीन मेहनत, वह अनदेखती आँखों की पढ़ाई उसके बाद आकांक्षाहीन होकर परीक्षा में बैठना; फिर उसका भी अन्त...शेखर ने जान लिया कि वह पास हो जाएगा, लेकिन पास भर होगा, उससे अधिक कुछ नहीं। उसने संगी-साथियों से विदा ली।

फिर मद्रास से विदा लेने के लिए वह समुद्र-तट पर गया।

मद्रास के प्रान्त से उसे उपरति हो गयी थी, वह जानता था कि अब वहाँ नहीं लौटेगा। अब परिस्थिति से उसका संग्राम, उस उच्छिष्ट की मानलीला, अब किसी दूसरे युद्ध-मुख पर होगी। शारदा से विदा, शारदा के देश से विदा...

बहुत देर तक वह समुद्र के उमड़ने और उतरने को देखा किया, और उसकी अगाध रहस्यमयता को...

शेखर: एक जीवनी / भाग 1 (उत्थान) समाप्त। भाग 2 (संघर्ष) के लिए आगे बढ़ें