शेखर: एक जीवनी / भाग 1 / प्रकृति और पुरुष / अज्ञेय

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शेखर था, और सरस्वती थी और कहीं कोई नहीं था। जिसे हम संसार कहते हैं, उसका अस्तित्व मिट गया था।

होने का बहुत कुछ था। वह अवर्णनीय वातावरण था, जो तब उत्पन्न होता था, जब शेखर सरस्वती को अकेला पाकर उससे निर्बाध बातचीत करने लगता था। वह आनन्द था, जो बात का उत्तर न पाकर भी केवल यही जानने में था कि सरस्वती ने उसकी बात सुन ली है। वह विस्मय था कि सरस्वती के पास क्या इतना कुछ सोचने को है, जो शेखर को नहीं कह सकती, जबकि वह शेखर को ऐसी बातें कहती है, जो और किसी के आगे नहीं कहती। और वह खीझ थी, जो तब भभक उठती थी, जब वह सरस्वती से कुछ कहना चाहता था, और पाता था कि वह रसोई में कुछ काम में लगी है, या छोटी बहिन के...जिसका नाम कमला रखा गया था-लत्ते धो रही है-या यों ही सिलाई-कढ़ाई के लिए माँ के पास बैठी है...

और माँ थी...

शेखर को लगता था कि जिस प्रकार जो वांछित है, प्रिय है और समझने और सहानुभूति करने वाला है, उसका पुंजीभूत रूप सरस्वती है; उसी प्रकार जो अवांछित, अप्रिय, न समझने वाला और कठोर है, उसका साकार रूप एक घनीभूत विघ्न, उसकी माँ है। प्रत्येक काम में जब भंग होता था तो खोजकर शेखर पाता था कि उसकी जड़ में कहीं पर माँ है...वही सरस्वती को रसोई में लगाती है, वही कमला के लत्ते धुलाती है, वही कढ़ाई करने को कहती है। शेखर को रसोई में लगाती है, वही कमला के लत्ते धुलाती है, वही कढ़ाई करने को कहती है। शेखर को नहीं समझ आता कि क्यों “लड़कियों को वे सब काम सीखने चाहिए, नहीं तो उनकी कद्र नहीं होती...” और जब सरस्वती शेखर के पास होती है, तब वही उसे बुला लेती है-शेखर के जान-बूझकर, क्योंकि वह कई बार शेखर को चिड़चिड़े स्वर में कहती है-”क्या हर समय सरस्वती की बगल में छिपा रहता है। भाइयों के साथ बैठ तो?”

पिता भी शिकायत के स्वर में कहते थे, “यह कोई आदमी है? इसे तो लड़की बनना है। सूथन पहनकर बैठा करे।”

भाई भी चिढ़ाते हैं-”बहिन जी की दुम? बहिन जी की दुम!”

लेकिन सरस्वती ने कभी उससे कुछ नहीं कहा। जब भाई चिढ़ाते हैं, तब वह मुस्करा भर देती है। कभी-कभी शेखर से कहती भी है, “देख, तुझे सब चिढ़ाते हैं।” तब शेखर के प्राण मुँह को आ जाते हैं कि कहीं बहिन भी उसका मजाक करते हुए हँस न दे-कहीं उसका संकेत-भर भी न कर दे-नहीं तो...

और हाँ, थी सरस्वती के प्रति शेखर की व्यापक कृतज्ञता...

शेखर नास्तिक है, और मूर्तिपूजक है। और सरस्वती ही वह उपास्य मूर्ति है।

उपासना जब हद तक पहुँचती है, तब उपास्य ठीक उतना ही मानवीय होता है। जितना की उपासक-बल्कि उपासक के लिए तो, वह उसी का एक प्रक्षेपण (Projection) मात्र रह जाता है जो उसके भीतर न होकर, बिलकुल घटनावश उसके सामने हो गया है और इस सामने होने में, जाने कैसे अस्पृश्य हो गया है, जैसे शीशे में अपना प्रतिबिम्ब, पर साथ ही विस्तीर्ण और अबाध भी हो गया है...

वैसी ही थी सरस्वती। शेखर को कभी लगता ही नहीं था कि वह भिन्न है या उसकी अनुभूतियाँ भिन्न हैं; उसे भूख लगती, तो वह कहता, “बहिन रोटी खाओगी?” और जब वह सोने जाता, तो कहता “बहिन तुम्हें नींद लगी है...”

पर सरस्वती की ओर से यह ऐक्य, सम्मिश्रण, इतना आत्यन्तिक नहीं रहा था, वह आजकल जाने क्यों चिंतित-सी रहती थी, जाने क्या-क्या मन में फेरती रहती थी। शेखर पूछता था, पूछता था, झुँझलाता था, लेकिन देवता पर झुँझलाहट कितनी देर...फिर वह सोचने लगता, बहिन मुझसे बड़ी न होकर एक आध वर्ष छोटी होती-इतनी कि कहने को मैं बड़ा होता, पर होते हम समवस्यक-तो कितना अच्छा होता...क्योंकि किसी बहुत गहरे, बहुत छिपे और अप्रकट रूप से वह एक बड़े सत्य की ड्योढ़ी पर खड़ा था? कि आदमी बनते हैं, तो वे अपने को प्यार करनेवाली, अपने से छोटी किसी स्त्री के लिए बनते हैं, जो उनमें आस्था रखती है, और जिस आस्था के योग्य होने की चेष्टा में वे जान लड़ा देते हैं...माताएँ हैं, होती हैं, अपना स्थान रखती हैं, लेकिन बनाती वे बहिनें या बहिनों के बराबर और कन्याएँ जो बहिनों के बराबर होने में बहिनों से बढ़कर होती हैं...माँ जन्म देती है, परिवरिश देती है, पिता बुद्धि देते हैं; लेकिन व्यक्तित्व अपने ही को सहने की सामर्थ्य-वह वहाँ से नहीं मिलती...

कभी शेखर बहिन से कहना चाहता, “बहिन, मुझे मूर्ति उतनी नहीं चाहिए, मुझे मूर्तिपूजक चाहिए। मुझे कोई ऐसा उतना नहीं चाहिए, जिसकी ओर मैं देखूँ, मुझे वह चाहिए, जो मेरी ओर देखे! यह नहीं कि मुझे आदर्श पुरुष नहीं चाहिए-पर उन्हें मैं स्वयं बना सकता हूँ। मुझे चाहिए आदर्श का उपासक, क्योंकि वह मैं नहीं बना सकता। अपने लिए ईश्वर-रचना मेरे बस में है, मेरी ईश्वरता का पुजारी-वह नहीं...पर ये विचार उसके मन में स्पष्ट न होते, वह स्वयं उन्हें न समझता, और जीवन चलता जाता...

जो आस्तिक है, उसके लिए ईश्वर कहाँ नहीं है? और ईश्वर बिना जीवन की कल्पना उसके लिए कब असम्भव है? लेकिन ईश्वर का घर जो आकाश है, उसके आगे भी बादल जाते हैं..

शेखर के पिता दौरे पर गये थे। एक दिन शेखर ने उनकी डाक पर पते ठीक करते हुए एक कार्ड पढ़ा, और पढ़कर सन्न रह गया।

सरस्वती की शादी की बात थी।

“शादी के बाद रमा अपने पति के घर चली गयी।” जाने कौन-से कब के पढ़े किसी किस्से का यह एक वाक्य शेखर के सामने नाचने लगा। उसे लगा, इसमें एक कठोर निर्णय है-शादी के बाद अपने पति के घर चली गयी। बस, चली गयी। जीवन समाप्त हो गया। हरेक को ऐसे ही जाना है। और उस किस्से में यह ऐसे लिखा था, जैसे बिलकुल मामूली बात है-बस, चली गयी और क्या?

शेखर ने डाक पटकी और घर के बाहर चला गया। उन दिनों शेखर के पिता की बदली दक्षिण में हो गयी थी-पश्चिमी घाट के पहाड़ों में ही वे रहते थे। वहाँ की पहाड़ियों में शेखर भटका किया।

“शादी के बाद रमा अपने पति के घर चली गयी।” इस वाक्य को शेखर बार-बार मन में फेरने लगा और सोचने लगा, “मुझे क्या है इस वाक्य से?”

उसने एक पेड़ की ओर देखा। पेड़ ने मानो कहा, “रमा अपने पति के घर चली गयी।”

शेखर ने एक दूसरे पेड़ की ओर देखा, उसने मानो मुस्कराकर यही वाक्य दोहरा दिया।

इसी प्रकार तीसरा पेड़, चौथा पेड़, अधिकाधिक ढिठाई से...

तब एक ने धीरे से, कुछ हिचकिचाते हुए कहा, “रमा? तुम भूल तो नहीं करते?”

और तब सबने स्वर मिलाकर कहा-”सरस्वती अपने पति के घर चली गयी।”

सरस्वती! सरस्वती!

शेखर आखेट के मृग की तरह इधर-उधर कहीं पनाह की खोज में भागने लगा। शाम हो गयी, लेकिन पीछे लगे हुए उस शिकारी ने पीछा नहीं छोड़ा, नहीं छोड़ा।

अँधेरा होने लगा, तब शिकार को लगा, दूर एक स्थान दीखता है, जहाँ शायद वह छिप सकता है। ठीक पता नहीं है, शायद...और वह घर की ओर भागा।

पर, घर आकर शेखर वह प्रश्न पूछ नहीं सका। और किसी से तो पूछना नहीं था, सरस्वती से ही पूछना था, फिर भी साहस नहीं हुआ। वह भरा हुआ चुपचाप रह गया। उसका नित्य का प्रोग्राम था कि रात को दिन-भर के कामों की आलोचना करे, वहाँ भी शेखर चुप रहा। सरस्वती ने भी बात छोड़ दी।

सोने के समय से कुछ ही पहले एकान्त पाकर सरस्वती ने उत्सुक स्वर में पूछा, “क्या है, शेखर?”

“...”

“मैं जानती हूँ, तुम्हारे मन में कुछ बात है। कहो न?”

जैसे सदियों में नदी में नहाते है, वैसे ही शेखर एकदम से कह गया, “तुम यहीं क्यों नहीं किसी से शादी कर लेतीं?”

सरस्वती का मुँह पहले लाल हो गया, फिर गम्भीर हो गया, फिर शेखर के गाल पर एक हलकी चपत जमाकर वह खिलखिलाकर हँस पड़ी।

और शिकारी को पता नहीं लगा कि आश्रय मिल गया है, या इंकार हो गया है...

पति की खोज में दो हजार मील...

सब लोग लाहौर पहुँचे। तैयारी की दौड़-धूप में शेखर बीमार हो गया और चारपाई पर पड़े-पड़े ही वह सुनने लगा कि क्या-क्या मिठाइयाँ बनी हैं, कैसी बारात आयी है, कैसा दूल्हा है, (रमा अपने पति के घर चली गयी-नहीं, रमा नहीं, सरस्वती, सरस्वती!) बारातियों को कैसे उल्लू बनाया गया, पकौड़ियाँ कैसे कम हो गयी, और उस समय कैसे बुद्धिमानी से काम लिया गया, और दूल्हा कैसी शानदार तुर्रेवाली, लुंगी बाँधकर आया था (-शब्द कुछ भिन्न थे, ‘जैसे ऊँट के सींग’-) और...केवल यही उसने नहीं सुना कि सरस्वती कहाँ है, कैसी है और क्या करती सोचती है...

जिस रात भाँवरें पड़नी थीं, उस रात शेखर ने कहा, “मैं भी चलूँगा।”

उसे 103 डिग्री का बुखार था। सबने मना किया, पर वह नहीं माना। “मेरी बहिन की शादी है और मैं नहीं देखूँगा?” यह उसने कहा। इसके नीचे कितना गहरा अर्थ था, यह औरों ने नहीं समझा, पर हार उन्हें माननी पड़ी। मंडप के एक कोने में कुरसी रखकर कम्बल उढ़ाकर उसे बिठा दिया गया। और वह मानो झिल्ली में छाई-सी हुई आँखों से सामने होते हुए अर्थहीन तमाशे को देखने लगा।

शेखर के चचा लाल फुलवारी में लिपटी हुई एक पोटली उठाकर लाए, और वेदी के पास आसन पर रखकर हट गये! दूल्हे के साथ सटाकर वह रखी गयी थी। (शादी के बाद रमा अपने पति के घर चली गयी-रमा नहीं, सरस्वती!) इससे शेखर ने जाना कि उस पोटली के भीतर सरस्वती है और थोड़ी देर में दूल्हे के पीछे-पीछे उस पोटली ने भी, बिना किसी ओर से भी अपना पोटलीपन कम होने दिये, आग के चक्कर काट लिये...

शेखर के पीछे एक बड़े-से घूँघट ने आह्लाद-भरे स्वर में कहा, “हो गयी...”

शेखर ने लौटकर देखा-घूँघट मानो आह्लाद से और भी फूला जा रहा था...

और शेखर के भीतर एक स्वर ने दुर्भेद्य निश्चय से कहा, “शादी के बाद रमा अपने पति के साथ चली गयी-रमा नहीं, सरस्वती! समझे, सरस्वती...”

उसने कहा, “बस, मैं देख चुका-अब जाऊँगा।”

उसे वहाँ से हटा दिया गया।

सरस्वती थोड़ी देर के लिए उसके पास आयी-उस समय और कोई नहीं था। शेखर ने कितना चाहा कि मान करे, बोले न; पर उस सरस्वती से, जो उस समय बिना हल्दी के भी पीली ही दीखती, उससे मान!

शेखर को तो पता नहीं लगा कि वह कहे क्या। मानो पैंतरा करते हुए उसने कहा, “बहिन, तो तुम्हारी शादी हो गयी?”

सरस्वती ने ऐसी पीड़ित दृष्टि से उसकी ओर देखा-फिर बोली, “कैसी तबीयत है?”

शेखर ने मुँह फेरकर घुटते गले से निकाला-”सरस...”

सरस्वती ने उसके माथे पर हाथ रखा, और उसे धीरे-धीरे नीचे लें जाते हुए शेखर की आँखें बन्द कर दीं, यद्यपि शेखर का मुँह फिर हुआ ही था और आँखें बन्द करते हुए उसके आँसू भी छू लिये।

शेखर ने मानो पलकों से हाथ को पकड़ने की चेष्टा करते हुए कहा, “मुझे कुछ नहीं है।” फिर थोड़ी देर बाद, “तुम-चली जाओगी-तब भी कुछ नहीं होगा।”

सरस्वती ने कहा, “तुम्हारा हाथ कहाँ है?”

शेखर ने अपने दोनों हाथों से बड़े जोर से उसका हाथ पकड़कर अपनी आँखों पर दबा लिया।

तब धीरे से हाथ छुड़ाकर वह चली गयी।

उस रात शेखर को न्यूमोनिया हो गया।

कहते हैं, ‘शादी’। शाद का अर्थ है आनन्द।

सब लोग और शादी के बाद रमा अपने पति के घर चली गयी-रमा नहीं, सरस्वती...और सब लौट आये...

महीने भर के बाद शेखर के दोनों भाई कॉलेज में दाखिल होने चले गये। पीछे रह गये माँ, बाप, शेखर, रवि, चन्द्र, कमला; और जो शादी के बाद अपने पति के घर चली गयी थी, उस सरस्वती की याद।

जब शेखर के भाई वहाँ थे, तब वे हर तीसरे दिन सरस्वती को पत्र लिखते थे। सरस्वती के भी पत्र उन्हें आते रहते थे। शेखर उन्हें आये हुए पत्र सुन लेता, या चुराकर पढ़ लेता, पर उसे सरस्वती ने कोई पत्र नहीं लिखा, न उसने ही कोई लिख पाया।

पर जब वे भी कॉलेज चले गये, तब शेखर को उस बहिन का समाचार पाने का कोई रास्ता न रहा। वह कभी आशा किया करता कि सरस्वती अब स्वयं उसे पत्र लिखेगी, लेकिन भीतर कहीं उसका अन्तरतम जानता था कि जैसे वह नहीं लिखता है, वैसे वह भी नहीं लिखेगी; जब वह लिखेगा तब उत्तर दे सकेगी।

तब एक दिन वह पत्र लिखने बैठा।

बड़ी मेहनत से ठीक आकार-प्रकार का कागज चुनकर उसने आरम्भ किया, ‘पूजनीया बहिन-’

वह सदा से पत्र ऐसे आरम्भ करने का अभ्यासी है। लेकिन कागज पर ये दो शब्द देखकर वह अपने से पूछने लगा, यह मैं क्या कर रहा हूँ? किसे लिख रहा हूँ? ‘पूजनीया बहिन’ कौन है?

उसने कागज के चीथड़े कर डाले। दूसरा लिया। कलम स्याही से भरकर सोचने लगा। कुछ सूझा नहीं। वह कलम को यों ही घसीटने लगा। देखा, वह सूख गयी है। फिर भरी; वह फिर सूख गयी।

एकाएक कलम भरकर उसने लिख डाला ‘सरस-’

लेकिन-लेकिन-यह तो मैं अपने अन्तरतम में भी कहकर काँप उठता हूँ, इसे इस अश्लील ढंग से कागज पर रखूँगा, और भेजूँगा, उस पति के घर, जिसके पास वह चली गयी है?

शेखर ने वह पत्र भी फाड़ डाला। और तब उसे पता लगा कि ‘शादी के बाद रमा अपने पति के घर चली गयी’ का क्या अभिप्राय है...

उसने माँ के पास जाकर कहा, “मुझे कोई चिट्ठी नहीं भेजनी है, आप अपनी चिट्ठी भेज दीजिए।”

माँ ने यों ही कहा, “क्यों, बहिन को चिट्ठी लिखने में हर्ज होता है?”

शेखर कमरे के कोने में बैठकर रोने लगा।

शेखर को जाने क्या हो गया। वह, जो कभी रोता नहीं था, अब अकारण रोने लग पड़ता-कभी रोटी खाते-खाते छोड़कर उठ जाता और कमरे में आकर रोने लगता; कभी रोटी खाता तो एकाएक फूट पड़ता; कभी पिता कहते जाओ, लेटर बाक्स में से डाक निकाल लाओ तो उसकी खिड़की खोलकर रो उठता। और उसे स्वयं नहीं पता लगता कि क्यों रोता है वह। कभी पिता पूछते, “क्यों शेखर, भाई बहुत याद आते हैं!” तो उसे लगता, हाँ यही कारण है कि मैं रो रहा हूँ-भाई याद आते हैं। माँ पूछती, “सरस्वती के पास जाना है!” तो उसे लगता, वह सरस्वती को देखने के लिए ही तो हो रहा है। और कभी रविदत्त, कहता, ‘हमें यों ही पीट देते हैं सब कोई’ तो उसे लगता, वह इसलिए रोता है कि उससे बहुत अन्याय होता है...एक दिन उसने रवि ठाकुर की एक कहानी का अनुवाद पढ़ा ‘छुट्टी’ जिसमें लिखा था :

“मानवीय संसार में चौदह वर्ष के लड़के से बढ़कर बला दूसरी नहीं है। उसमें न सौन्दर्य है, न उपयोगिता। उसे छोटे बालक की भाँति दुलराया नहीं जा सकता; न उसके संग की विशेष चाह होती है। अगर वह बच्चों के बालकोचित तोतले ढंग से बात करे तो उसे दुधमुँहा कहा जाता है, और अगर बड़ों की-सी पक्की बात कहे तो उद्धत समझा जाता है। मतलब यह है कि उसका बोलना ही प्रगल्भता है। सहसा कपड़े-लत्तों के माप का ख्याल न करके इस भद्दे ढंग से बढ़ते जाना लोगों की दृष्टि में बेहूदा दीखता है; बचपन का लालित्य और कंठ की मधुरता चली जाने के लिए लोग मन-ही-मन उसे अपराधी समझते हैं। शैशव के बहुत-से दोष क्षम्य समझे जाते हैं, पर इस वयस के लड़के की अनिवार्य त्रुटि भी असह्य मालूम होती है। वह स्वयं भी सर्वदा इसे अनुभव करता रहता है कि वह कहीं भी ठीक-ठीक जँचता नहीं, इसलिए अपने अस्तित्व पर वह सर्वदा लज्जित और क्षमाप्रार्थी-सा बना रहता है। किन्तु इसी उमर में ही मन में स्नेह और सम्मान के लिए उसके हृदय में अत्यधिक व्याकुलता होती है।...”

उसे पढ़कर उसने देखा, उसके रोने का यही कारण है...एक दिन किसी से उसने सुना, कॉलेज के जीवन में बड़ा सुख है और बड़ी स्वच्छन्दता है। उसे ध्यान हुआ कि उसके भाई मजे में होंगे, बिलकुल स्वच्छन्द होंगे, और वह इसी बात से रोने लगा...

लेकिन जहाँ वह यह निश्चय नहीं कर पाया कि वह रोता क्यों है, वहाँ उसकी यह भावना धीरे-धीरे बढ़ने लगी कि संसार में अन्याय-ही-अन्याय है, और यह अन्याय विशेष उस पर किया जाने के लिए है! मानो संसार का पहिया उसी को धुरा मानकर उसके आसपास घूम रहा है, जो कुछ है, केवल इसलिए है कि शेखर है...और साथ-ही-साथ उसकी असहिष्णुता बढ़ने लगी-वह जलने लगा उस अन्याय के विरुद्ध...

एक दिन अकारण ही उसने देखा, अब वह और नहीं सह सकता। उसके मन में भाव हुआ, क्या इतने बड़े संसार में मेरे लिए जगह नहीं है, जो मैं यहाँ रहकर अन्याय सहूँ? और वह एक ओवरकोट, एक बिस्कुट का पैकट, एक डबल रोटी लेकर घर से निकल खड़ा हुआ...

कहाँ के लिए? उसने स्वयं नहीं जाना। उसे इतना ही मालूम था कि वह कहीं को नहीं; कहीं से जाना चाहता है...कहीं से जिसे वह सदा के लिए पीछे छोड़ आया है...

दिन-भर चलकर वह थककर सो गया। दूसरे दिन वह एक जलप्रपात के नीचे पहुँचा और दिन-भर उसी को देखा किया।

लेकिन सौन्दर्य खाया नहीं जा सकता, और डबल रोटी खत्म हो गयी थी...

शेखर जलप्रपात को देखा किया। पहले उसके प्रति आदर था, आकर्षण था, फिर उसमें एकस्वरता, परिवर्तनहीनता, इसलिए अधमता दीखने लगी। फिर शेखर को हुई एक ग्लानि, एक क्षोभ...

और वह लौट पड़ा, एक रात कहीं राह में काटकर दूसरे दिन सवेरे घर पहुँच गया।

उसने घर के जीवन को स्वीकार नहीं किया, लेकिन उसके प्रति एक नये आदर और विस्मय का भाव उसके मन में हुआ...

उसके पिता ने उसके भागने को और उसे चुपचाप स्वीकार कर लिया। उससे पूछा नहीं कि वह कहाँ गया था, क्यों गया था...

अपनी ही अशान्तचित्तता, अस्थिरता शेखर के लिए असह्य होने लगी। उसे लगने लगा, वह कुछ चाहता है, लेकिन क्या चाहता है, यह नहीं जान पाया। और इसी को जानने के लिए वह अनेक प्रकार की की चेष्टाएँ करने लगा-अनेक रास्तों पर एक साथ ही भटकने लगा...

दूर से देखा जाय, तो मानवता का सारा विकास ही, कम-से-कम अभी तक, यही है। मानवता कुछ चाहती है, लेकिन जानती नहीं कि क्या, और उसे जानने की खोज में, अनेक रास्तों पर एक साथ ही भटक रही है...मानो सारी मानवता, अपने जीवन की गति में, किसी दीर्घ वयःसन्धि पर खड़ी है और अपने से उलझ रही है; उसका यौवन, उसके कृतित्व के दिन अभी आगे हैं।

और उस विशाल का एक छोटा-सा प्रतिरूप-समुद्र का अविरल मर्मर अपने भीतर छिपाए छोटी-सी सीपी-शेखर भी अपने से उलझ रहा था, और अपने को पाना चाह रहा था।

उसे लगता, उसके शरीर में कोई परिवर्तन हो रहा है। उसे लगता, वह बीमार है; उसे लगता, उसमे बहुत शक्ति और स्फूर्ति आ गयी है; उसे लगता, उसे जीवन की एक नयी किश्त मिलनेवाली है...और वह अपने ही मद से उन्मद कस्तूरी मृग की तरह, या प्लेग से आक्रान्त चूहे की तरह, या अपनी दुम का पीछा करते हुए कुत्ते की तरह, अपने ही आसपास चक्कर काटकर रह जाता...

जब रात खूब घनी हो जाती-तब शेखर उठता, दबे पाँव बैठक में जाकर ग्रामोफोन उठाकर अपने कमरे में ले आता, दरवाजे बन्द कर लेता, और एक विशेष रिकार्ड को बार-बार बजाया करता...किसी अँग्रेजी संगीतकार का वायलिन का रिकार्ड था, जिसका नाम देखने का उसे कभी ध्यान नहीं हुआ, और जिसकी तर्ज असंख्य बार सुनकर भी याद नहीं हुई। लेकिन उसके आरम्भ में ही जब एक भरे हुए मन्द स्वर के बाद एकाएक तीखी पुकार-सी होती, तब शेखर को लगता, उसके इस अकस्मात् बलिष्ठ तीखेपन ने मानो शेखर के बाहर कोई झिल्ली-सी चीर दी है, और वह रेशम के कीड़े की तरह, या तितली की तरह, किसी परकीय बन्धन के बाहर निकल आया है...और वह उसी रिकार्ड को, कभी-कभी उस उतने अंश को, बार-बार बजाता जाता, और पाता कि वह पुराना नहीं होता है, शेखर उस तल पर से भूमि पर नहीं उतरता है...वह बत्ती बहुत धीमी कर देता और कभी रोने लगता। उसके स्वप्न भागते-ओ तू संगीत, तू कहाँ की, किसकी पुकार है? कहाँ जाने की प्रेरणा मुझे देता है? मैं जो बद्ध हूँ, किस मुक्ति का वचन, किस अबाध का दिया वचन, मुझे सुनाता है?

तब वह एकाएक रिकार्ड बन्द करके कविता लिखने लगता...

लेकिन वह समाप्त होते ही उसे लगता, उसका शरीर फिर जाग उठा है, वह फिर झिल्ली के भीतर बँध गया है। अपने शरीर की माँग वह नहीं समझता, लेकिन उसे लगता, वह कुछ अनुचित है, कुछ निषिद्ध है, कुछ पापमय। और वह चाहता कि किसी तरह उसे दबा डाले, कुचल डाले, धूल में ऐसा मिला डाले कि उसका पता भी न लगे-चाहे शरीर ही उसके साथ क्यों न नष्ट हो जाय...

वह मन उस पर से हटाना चाहता। यह तो वह जानता नहीं था कि इसका साधन क्या है, लेकिन कविता में रुचि थी, और इसलिए उसे आशा थी कि वह उसमें अपने को भुला सकेगा। वह हर समय, हर प्रकार की कविता पढ़ने लगा। उसने संस्कृत-कवि पढ़े, उसने उर्दू से अनुवाद पढ़े, उसने जो कवि उसकी पाठ्य-पुस्तकों में थे-टेनिसन, वर्डस्वर्थ, शेली, क्रिस्टिना रोज़ेटी, स्काट-सब समूचे पढ़ डाले। फिर उसने वे कवि पढ़ने आरम्भ किये, जो उसकी पुस्तकों में नहीं थे, लेकिन जिनके नाम उसने पढ़े और सुने थे-कीट्स, बालरन रोज़ेटी, स्विनबर्ग, अनुवाद में टासो और दाँते तक...कुछ उसने समझा, अधिकांश नहीं समझा, लेकिन जहाँ नहीं समझा वहाँ मानो अपने को दबाने, दंडित करने के लिए और भी निष्ठा से पढ़ा।

लेकिन यहाँ भी कुछ कविताएँ उसके मन में बैठ गयीं, और उसे उसी अशान्ति की ओर खींचने लगीं...टेनिसन की ‘लेडी आफ शैलाट’, ‘में क्वीन,’ और ‘इनोनी की मृत्यु’ की ये पंक्तियाँ-

Ah me, my mountain shepherd, that my arms

Were wound about thee, and my hot lips prest

Close, close to thine in that quick-falling dew

Of fruitful kisses, thick as autumn rains

Flash in the pools of whirling simois—*

  • ओ प्रिय चरवाहे, काश कि मेरी बाँहें तुझे बाँधे होतीं और मेरे तप्त ओठ-तेरे-ओठ से मिले हुए होते सफल चुम्बनों की तीखी बौछार में, जैसे सिमाई के सरोवरों पर शिशर की घनी वृष्टि :

इन्हें पढ़कर उसका शरीर तन उठता, उसकी बाँहें काँपने लगतीं और उसका सिर घूम उठता...और जिस दिन पहले-पहल रोजेटी की दो पंक्तियाँ उसने कहीं उद्धृत देखीं :

Beneath the glowing throat the breasts half-globed

Like folded lilies deep-set in stream,*

उस दिन उसे लगा, उसके भीतर एकाएक बल का इतना असह्य स्रोत उमड़ आया है कि उसे रोमांच हो आया...वह विवश बाहर निकला, कुछ न पाकर उसने कुल्हाड़ी उठायी, और रसोई के पीछे जाकर कितनी ही लड़कियों की चैलियाँ बना डालीं। तब आकर वह फिर लेडी नार्टन की एक कविता पढ़ने लगा-‘I do not love thee’ और उसे लगा, वह कुछ शान्ति पा रहा है...

कुछ कविताएँ ऐसी भी थीं, जिन्हें पढ़कर उन्हें न समझने पर भी उसे शान्ति मिलती थी, यद्यपि वह बहुधा एक व्यथित और अस्थिर-सी ही शान्ति होती थी। रोज़ेटी की ‘Blessed Damozel’ और ये पंक्तियाँ-

Like a vapour wan and mute

Like a flame, so let it pass,

One low sigh across her lute,

One dull breath against her glass,

And to my sad soul alas? One salute,

Cold as when Death’s foot shall pass.**

यो वे जहाँ प्रेमी अपनी अत्यन्तगता प्रेयसी के केशों का स्पर्श अनुभव करता है, और एकाएक जानता है-

Nothing : the autumn fall of leaves...***

और स्विनबर्न की कुछ कविताएँ, जिन्हें पढ़ते हुए वह सहसा जोर से पढ़ने लगता- उसके शब्दों में ही ऐसी वाध्य करनेवाली लय थी...और हाँ, कालिदास का अजविलाप, जो उसे अब याद आया, सरस्वती भी कई बार गाया करती थी :

तगियं यदि जीवितापहा हृदये किं निहिता न हन्ति माम््?

और मानो एकाएक उसका सारा व्यक्तित्व ही मृत्यु माँग उठता था और दुहराता था-‘किं...न हन्ति माम्?’

  • शुभ्र कंठ के नीचे कुचों की गोलाई, जैसे सोते के जल में अर्धमुकुलित कुमुदिनी...
    • दुर्बल, मूक, वाष्प-सा, आग की लौ-सा (मेरा प्यार) बीत जाय; उसकी वीणा पर काँपती लम्बी साँस और मेरी आत्मा के लिए प्रणति-मृत्यु के चरण-चाप-सी शीतल!
      • कुछ नहीं; केवल शिशिर के पत्तों का झरना...

इस प्रकार शेखर अपने ही प्रवाह में बहा जा रहा था। लेकिन बीच-बीच में ऐसे भी क्षण आते थे, जब सब कुछ उसके लिए जैसे बहुत स्पष्ट, बहुत सीधा, बहुत परिचित हो उठता था-वैसे क्षण जैसे एक क्षण का चित्र रोज़ेटी ने भी अपनी एक कविता में खींचा है-‘आकस्मिक आलोक’। और तब इस अत्यधिक प्रकटता से ही उसे दुःख होता था...एक दिन रोज़ेटी पढ़ते-पढ़ते उसने किताब बन्द कर दी, और आँखें भी बन्द करके गुनगुनाने लगा-

Such a small lamp illumines on this high way,

So dimly so few steps in front of my feet,

Yet shows me that her way is parted from my way,

Out of sight, beyond light, at what goal may we meet;*

तभी उसे वैसा एक क्षण प्राप्त हुआ, उसके भीतर किसी ने कहा, Shekhar you are in love! (शेखर, तुम प्रेम करते हो!)

और फिर समूचे शरीर ने तनकर कहा, ‘हाँ हाँ, प्रेम करता हूँ।’

लेकिन किससे?

कुछ ही दिन बाद उसने कहीं एक कविता पढ़ी-

A lad there is, and I am that poor groom :

That's fallen in love and knows not with whom.**

उसे क्रोध हो आया कि मेरी यह जो अभूतपूर्व दशा थी, यह क्यों और किसी की भी हो चुकी है...

तब शेखर ने कहा, “नहीं, मैं प्रेम नहीं करता। नहीं करूँगा।”

और, क्योंकि कविता उसे हर समय इसकी याद दिलाती थी, इसीलिए उसने कविता पढ़ना भी छोड़ दिया। अब उसने गहन-से-गहन विषयों की पुस्तकें निकालकर पढ़नी शुरू कीं। सबसे पहले नीत्शे का Thus spake zarathustra, डारविन की विकासवाद-सम्बन्धी किताबों से शंकर, विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस की जीवनियों, डॉक्टरी की किताबों, होमियोपैथी, मानसिक रोग-सम्बन्धी साहित्य, शरीर-विज्ञान, प्राणायाम और यौगिक क्रियाओं और खाद्य-विज्ञान तक पुस्तक कोई हो, कैसी हो,

    • इस राजपथ पर एक बहुत छोटा-सा दीप आलोकित करता है,

बहुत क्षीण प्रकाश में बहुत थोड़े-से कदम मेरे सामने,

किन्तु फिर भी स्पष्ट दीखता है कि मेरा मार्ग उसके मार्ग से अलग है-

क्षितिज के पार, आलोक से परे किस ध्रुव पर फिर हमारा मिलन होगा!

    • एक व्यक्ति है-और मैं ही वह अभागा हूँ-जो प्रेम करता है और जानता नहीं कि किससे!

जरूरी केवल यह था कि वह ऐसी हो कि पढ़ने में रुचि न हो, मन को ठोक-पीटकर पढ़ी जा सके...

और वह अपने ही पर वे सारे प्रयोग करने लगा, जो उसे इन विभिन्न पुस्तकों में मिले...

उसने अपनी दिनचर्या को बड़े कठिन नियन्त्रण में बाँधा। प्रातः पाँच बजे उठना, और ठंडे पानी से नहाकर (जब कि वहाँ पर गर्मियों में भी कोई ठंडा पानी नहीं सहता था, और स्वयं शेखर को उसका बिलकुल अभ्यास नहीं था) तौलिये से बदन रगड़ना; साढ़े पाँच बजे खिड़की के बाहर कूदकर घूमने जाना (किवाड़ खोलने पर पिता जाग जाते-और शेखर अपना पता किसी को देना नहीं चाहता था-उसे डर था, पिता फौरन उसके प्रोग्राम में दखल देंगे, और ठंडे पानी का स्नान तो अवश्यमेव बन्द कर देंगे, जिस पर शेखर का खास जोर इसलिए है कि वह सबसे अप्रिय काम है उसकी दिनचर्या में...; सवेरे नाश्ता नहीं करना, दस बजे भोजन, यदि दस बजे के पाँच मिनट तक न मिल जाय तो उपोषण, फिर चाहे माँ कुछ ही कहे; और इसी प्रकार सारा दिन नियम से बाहर कोई वस्तु नहीं खानी (पानी पीने के भी समय नियत थे) किसी से बोलना नहीं, ताश नहीं खेलनी (ऐसा ‘फिजूल’ कोई खेल नहीं खेलना) गरज यह कि चर्य्या के बाहर कोई भी बात नहीं हो सकती थी, और चर्य्या ब्रिटिश शासन की तरह, मनोनीत अर्थ को अनुमति भी नहीं देती थी। उसमें परिवर्तन के लिए स्थान था तो एक-कि जिस काम में बहुत अनिच्छा हो, उसे दो बार किया जाय। प्रायः शेखर को दो बार नहाना पड़ जाता था-जिसका तरीका यह था कि पहली बार नहाकर बदन सुखाकर कपड़े पहन ले, और गर्म होते ही उन्हें उतारकर फिर नहाये...

कभी रोटी में देर हो जाती, तो वह नहीं खाता। माँ आग्रह करती, तो नहीं सुनता-सुनता ‘मोह’ था-और तब वह समझ लेती कि मुझ ही पर क्रोध है और वह भी न खाती...एक बार उन्होंने तीन दिन खाना नहीं खाया, पर शेखर टस से-मस नहीं हुआ, उसने माँ से यह भी कहा कि तुम खा लो। वह इसी पर झुँझलाता रहा कि माँ क्यों मुझे डिगाना चाहती है। तीसरे दिन माँ ने कुढ़कर कहा, “अच्छा मुझे क्या, मरे चाहे जिये; मुझसे नहीं ये ढंग सहारे जाते,” और रोटी खा ली। उसके बाद उसने शेखर के काम में कुछ भी रुचि रखना छोड़ दिया-कम-से-कम मुँह से कभी कोई शब्द नहीं निकाला...

एक दिन शेखर ने माँ को पिता से कहते सुना, ‘यह लड़का तो पागल हो जायगा। इसे किसी को दिखाओ-इसका दिमाग खराब हो रहा है।’

शेखर ने जाकर Moore's Family Medicine निकाली और आरम्भ से उसके पन्ने उलटने लगा (अनुक्रमणिका देखनी उसे तब नहीं आती थी)। किसी नये रोग का नाम पढ़कर उसका निदान पढ़ता और निश्चय हो जाता कि वह उसे है। इसी प्रकार सौ-पचास रोगों के लक्षण अपने में पाकर वह मानसिक रोगों तक पहुँचा, तब उसने देखा, melancholia भी उसे है। उसके बाद वह hypochondria पर पहुँचा, और उसके लक्षण पढ़ते हुए उसने पढ़ा : “इस रोग का रोगी प्रायः डॉक्टरी की किताबें पढ़ता है, और उसे वहम रहता है कि प्रत्येक रोग उसे हुआ है”...शेखर ने कहा, “अरे, यही तो मुझे है!”

उसने किताब बन्द कर दी। तब एकाएक उसके सब रोग दूर हो गये, वह ठठा कर हँस पड़ा...

लेकिन वह शरीर के भीतर-ही-भीतर कुछ अशान्ति, कुछ प्रस्फुटन...वह बन्द नहीं हुआ। वह वैसा ही अनुभव करता रहा, जैसा भूमि के नीचे-ही-नीचे अंकुर फूटने से पहले कोई बीज करता होगा-एक नये जीवन की उत्पत्ति के दबाव से फटता हुआ सा...

वह एक नयी दृष्टि से अपने माता-पिता की ओर देखने लगा। उसके सारे उत्तरहीन प्रश्न, जिन्हें उसने किसी तरह दबा रखा था और निरन्तर दबाने की चेष्टा करता जाता था, दुगने दबाव से, दुगुनी शक्ति से, उसे सताने में एक पाशविक हिंस्र सुख पाते हुए लौट-लौटकर आने लगे...और उसके कुछ-एक प्रश्नों के जो अधूरे उत्तर उसे नौकरों से, या पिता के चपरासियों से, या चुराकर पढ़ी हुई किताबों से मिले, उनसे उसकी उग्रता और भी बढ़ गयी...

एक दिन शेखर के माता-पिता में लड़ाई हो गयी।

झगड़े उनके कई हुए थे। गर्जन-तर्जन, कुछ वर्षा, कभी कुछ दिन अनबोला और माँ की ओर से अनाहार-या कोई बड़ी बात नहीं थी। शेखर को इसकी विशेष चिन्ता नहीं होती थी-सिवाय इसके कि ऐसे दिनों में वह दोनों से बचकर रहने की, जहाँ तक हो सके, उनके सामने न आने की-चेष्टा में रहता था।

पर उस दिन, उसकी बातों की भनक कान में पड़ते ही शेखर ने जान लिया कि यह झगड़ा कुछ और प्रकार का है। वह जो कुछ थोड़ा-बहुत वहीं से सुन सकता था, सुनने की चेष्टा करने लगा-पास आने की उसे हिम्मत नहीं हुई। वह अधिक नहीं सुन पाया; केवल कभी जब उनके स्वर बहुत ऊँचे हो जाते, तभी वह कुछ सुन लेता...

माँ ने कहा, “तब मुझे मार डालो...”

पिता ने कहा, “कुछ शर्म करो, कोई-”

आगे कुछ कहा जरूर, पर शेखर सुन नहीं पाया। वह दबे पाँव उठकर किवाड़ के पीछे आया और उसकी आड़ में से झाँककर, धक् से होकर एकदम लौट गया।

छोटी गोल मेज के एक ओर पिता खड़े थे, और उनके सामने दूसरी ओर माँ थी-उनका आँचल सिर पर नहीं था, और छाती खोलकर खड़ी वे कह रही थीं, “तो मुझे मार डालो...”

पिता एकदम दफ्तर चले गये। शेखर ने कमरे में एक विचित्र-सा स्वर सुना- शायद माँ छाती पीट रही थीं...दो-चार बार पीटकर वे कहीं दूसरे कमरे में चली गयीं।

शेखर खिड़की के आगे बैठा था। वहीं से बाहर देखता हुआ इस घटना को मन में फेरने लगा...उसे याद आया, कुछ दिनों से माता-पिता में जाने क्यों कुछ खिंचाव-सा था। वैसे उसने महत्त्व नहीं दिया था, लेकिन आज उसे जान पड़ने लगा कि इस विस्फोट का मूल कई दिनों से फैलता चला आ रहा है...

खिड़की के सामने से होकर माँ निकली। शेखर ने देखा, उनकी चाल में एक दृढ़ता है जो सदा नहीं होती, और वे सीधी, तेजी से चली जा रही हैं। और फिर वह सोचने लग गया...

शाम को पिता दफ्तर से लौटे। उन्हें द्वार पर मिलने कोई नहीं आया। भीतर गये। नौकर ने चाय तैयार कर रखी थी, पर वहाँ कोई नहीं बैठा था। सोने के कमरे में गये। वहाँ कोई नहीं था। रसोई के आँगन में गये। वहाँ कोई नहीं था। बाहर झाँका, नौकर चुपचाप खड़ा था। शेखर ने स्वयं न प्रकट होते हुए भी यह सब देख लिया।

पिता ने आकर पूछा, “तुम्हारी माता कहाँ है?”

“पता नहीं।”

“रविदत्त, चन्द्र, यहाँ आओ!”

“जी?”

“तुम्हारी माता कहाँ है?”

“पता नहीं, अन्दर होंगी।”

“अन्दर तुम्हारा सिर?” पिता धधक उठे। उन्होंने पूरे हाथ से एक तमाचा चन्द्र के लगाया, एक रवि के, जिससे दोनों भन्ना गये। फिर शेखर के पास आकर उसे छाती में इतनी जोर से धक्का दिया कि वह दूर कुरसी से टकराकर गिरा!

“तुम सब यहाँ किसलिए मरे हो, जब माँ का पता नहीं रख सकते?”

विवश क्रोध की चरम सीमा एक आदर माँगने वाली चीज है। शेखर ने उठकर बिना प्रतिहिंसा के पिता की ओर देखते हुए कहा, “आप दफ्तर गये थे तब घूमने गयी थीं।”

पिता ने कान के पास घूँसा लगाते हुए कहा, “पहले क्यों नहीं कहा था?”

फिर एकाएक उनका स्वर टूट गया। बोले, “वह गयी...चली गयी...”

ये शब्द मानो उन्हें और भी जड़ित करने लगे। उन्होंने कहा, “गयी-जरा-सी बात पर यों ही लड़कर चली गयी...” ऐसा जान पड़ने लगा, मानो वे हिलना चाहते हैं, और हिल नहीं सकते। तीर से आहत उठने से विवश हिरन की तरह वे शेखर की ओर देखने लगे, “शेखर तुम्हारी माँ चली गयी...”

तब एकदम से उनका जड़ित क्रोध सजीव क्रिया में परिणत हो गया। गिरकर नीचे ही बैठे हुए शेखर को बालों से पकड़कर उठाते और बाहर की ओर ढकेलते हुए उन्होंने कहा, “मरते क्यों नहीं तुम, जाओ उसे ढूँढ़ो?” किवाड़ को लात मारकर खोलते हुए कहा, “किधर गयी थी वह!” और बाहर दौड़ पड़े। शेखर एक ओर गया, वे दूसरी ओर। नौकर भी कुछ समझकर एक ओर को चल पड़ा...

घर से दो मील पर एक जंगल था, उसी के पास एक खुली जगह में माँ इधर-उधर घूम रही थीं।

शेखर ने दूर से उन्हें देखा और साथ ही देखा कि और दूर, ओर से पिता चले आ रहे हैं। वहीं से वह उलटे पाँव लौट पड़ा-उसे लगा कि वह मर भी जाय तो उससे आगे का दृश्य देखने के लिए नहीं रुक सकेगा।

अँधेरा होते-होते दोनों लौट आये। पिता ने बाहर ही से नौकर को आवाज दी, ‘हम खाना नहीं खाएँगे-माँजी की तबियत ठीक नहीं है।’ और सोने के कमरे में चले गये। द्वार बन्द कर लिया।

सवेरे शेखर ने देखा, कुछ नहीं है। लड़ाई के चिह्न ही नहीं, वह पहले के बादल भी मिट गये हैं। शेखर के जीवन में पहली बार, पिता ने चाय का आधा प्याला पीकर माँ से कहा, “आज बहुत अच्छी बनी है-ले, यह प्याला तू पी।”

शेखर ने कुछ और भी देखा। घर की एक जो युवती नौकरानी है-जो कमला को खिलाती है और सदा हँसती रहती है-वह बड़ी सहमी हुई-सी और ‘दूर-दूर’ हो रही है, यद्यपि उसे किसी ने कुछ कहीं कहा।

शेखर घर के बाहर खड़ा था, दुपहर का समय था।

तारवाले ने एक तार लाकर दिया। शेखर ने पिता की ओर से दस्तखत किये और तार लेकर भागा हुआ भीतर गया।

पिता सोने के कमरे में थे-द्वार बन्द था! शेखर ने जल्दी से द्वार खोला और और कहा, “पिता जी-”

माता-पिता अलग हट गये। पिता ने एक बार घूरकर उसकी ओर देखा, फिर सहज स्वर में कहा, “क्या है?” लेकिन माँ लज्जा से सकपकाई हुई सिर झुकाये और मुँह फेर खड़ी रही।

पिता ने फिर कहा, “क्या है?”

शेखर ने लपककर तार पिता को दे दिया।

उन्होंने बढ़कर कहा, “सुनो, सरस्वती के लड़की हुई है।”

माँ ने विस्मय से कहा, “अँय, अभी?”

पिता ने कहा, “शेखर तुम जाओ।”

शेखर धड़कते हुए हृदय से बाहर चला आया-पीछे द्वार बन्द करता हुआ ताकि उसकी आड़ में खड़ा होकर सुन सके।

माँ ने कहा, “अभी तो आठ महीने हुए हैं-”

पिता ने विस्मय दिखाते कहा, “हाँ, देखो-”

शेखर को लगा, वे द्वार की ओर आ रहे हैं। वह भाग गया।

सरस्वती के लड़की हुई है। सरस्वती के।

और शादी के बाद रमा अपने पति के घर चली गयी।

शेखर सोचने लगा, तब सरस्वती के शरीर में भी लड़की छिपी हुई थी? और उस दिन सरस्वती ने कहा था, मुझे नहीं पता! आज होती तो शेखर पूछता-आज तो उसे पता है ही, अगर उस दिन नहीं भी था। पर क्या वह बताती? और उसी उलझन में शेखर को याद आया-उस समय जब उसने द्वार खोला तब क्या था, जिससे वे सहमे? क्यों माँ लज्जित हुई?

था कुछ नहीं-उसने देखा था। पिता की बाँहें माँ को घेरे हुए थीं, और पिता कुछ कर रहे थे, बस, शेखर जानता है कि कभी स्वयं उसकी बाँहें मानो किसी को घेर लेने को, दबा डालने को फड़क उठती हैं, और इसकी कल्पना में उसे सुख होता है, अभिमान होता है, अपने प्रति आदर होता है। तब वह डर; वह लज्जा क्यों, क्यों? क्यों? बाँहें बाँहें हैं, सामर्थ्य सामर्थ्य है, क्या था जो छिपा रहा, जो शेखर ने नहीं देखा, और जो लज्जास्पद है...

अभी ये प्रश्न गूँज ही रहे थे कि सरस्वती का पत्र आया-लड़की मर गयी है।

माँ ने पढ़कर पिता से कहा, “उसने लिखा है, लड़की अठमासी थी।” फिर कुछ ऐसे भाव से कि “यही होना था,” उन्होंने कहा-”हाँ-आँ!”

चार दिन और छः घंटे की होकर लड़की मर गयी है। और माँ कहती है, सरस्वती ने लिखा है कि लड़की अठमासी थी। यह और नया रहस्य क्या है?

शेखर ने मौका पाकर रसोइए से पूछा, “अठमासा बच्चा कैसा होता है?”

“जो आठ मास बाद पैदा हो जाय।”

“क्या मतलब? किससे आठ मास बाद?”

“बच्चा नौ महीने माँ के पेट में रहता है न-”

इसे गाँठ में बाँधते हुए शेखर ने पूछा, “वहाँ कैसे आता है?”

रसोइया हँसने लगा...बोला, “शेखर बाबू, यह अत्ती से पूछो”, और उस युवती नौकरानी की ओर इशारा करके और भी जोर से हँसने लगा...

शेखर उससे कुछ शरमाता था, पर उसके पास भी गया। वह शेखर की भाषा नहीं जानती थी, शेखर किसी तरह उसकी भाषा में इतना ही कह पाया-”बच्चा-किस तरह?”

अत्ती हँसने लगी, उसे शेखर का प्रश्न नहीं समझ आया। उसने शेखर की नकल लगाते हुए कहा, ‘बच्चा-किस तरह?’ और फिर दोनों हाथ-घुमाकर बताया कि मैं नहीं समझी...

शेखर किसी तरह अपना प्रश्न समझाने की चेष्टा ही में था कि माँ ने आकर पूछा, “तू यहाँ क्या कर रहा है?”

शेखर सकपका गया-अत्ती अपने काम में लग गयी। माँ ने और भी सन्दिग्ध स्वर में कहा, “क्या कर रहा तू अत्ती के पास? क्यों री अत्ती, क्या कहता है यह?”

अत्ती ने सिर झुकाते हुए कहा, “मुझे तो पता नहीं।”

शेखर चला आया।

इस अँधकार के पट पर बिजली की तरह थिरकती हुई आयी एक रेखा-शारदा।

शेखर के पिता का बँगला बबूल के वृक्षों और झाड़ियों से घिरे हुए एक पहाड़ के अंचल में है। उनके घर के सामने, तलहटी के पार के पहाड़ के शिखर पर एक छोटा-सा पेड़ है, जिसकी शाखाएँ और पत्तियाँ मिलकर आकाश की पृष्ठभूमि पर अँग्रेजी ‘एस’ (स्) अक्षर का आकार बना देती हैं। शिखर से कुछ उतरकर चारों ओर यह पहाड़ देवदारु, चीड़ और युकलिप्टस वृक्षों के वन से घिरा हुआ है। यही सुदूर चित्र शेखर की चंचल आँखों का एकमात्र खाद्य है, आँखें जो किसी नूतनता की, किसी परिवर्तन की भूखी हैं, और जो अपने सब ओर परिव्याप्त एकस्वरता से उकताई हुई हैं। शेखर के पिता उस देश में परदेशी हैं, उनकी उत्तर भारत की प्रांतीयता यहाँ दक्षिणी प्रान्तीयता और साम्प्रदायिकता में खो गयी हैं, वे आदरणीय होकर भी बहिष्कृत हैं। और इससे उत्पन्न अकेलेपन के अलावा शेखर अकेलेपन की उस भयंकर अवस्था में भी है, जिसमें संसार का सारा अन्याय, सारा धैर्य और भय, साहस और कायरता, उद्दंडता और विश्वास और सन्देह, स्नेह और क्रोध, प्रेम और विद्वेष एक साथ ही भरा हुआ है...

अनेक भूखों भूखा शेखर, स्वयं अपनी भूख को न पहचानने वाला शेखर, अपने किसी प्रश्न का उत्तर न पाकर, सब ओर उपेक्षा और निराशा की दीवारें खड़ी पाकर अपने कमरे की खिड़की के आगे बैठ जाता था और आकाश में बिखरे-से उस स् चिह्न को देखता हुआ सोचा करता था, यह क्या मेरा ही नाम विधाता ने उस विराट् शून्यता में लिख डाला है, क्या डेमाक्लीज की तलवार की तरह यह शाप सदा ही मेरे ऊपर मँडराता रहेगा?

तभी एक दिन माँ को एकाएक याद आया कि संसार में उनके अलावा भी कोई बसता है, और उन्होंने मिलने की ठानी।

शेखर के पड़ोस में-उस बिखरे हुए पहाड़ी इलाके में पाँच-पाँच मील का पड़ोस होता था!-एक मद्रासी परिवार रहता था। उसके वयस्क प्राणियों को शेखर देख चुका था-वे एक-आध बार मिलने आये थे। विदेश में शिक्षा पाकर उन्होंने सीखा था कि संसार यदि पृथ्वी पर फैला हुआ नहीं तो कम-से-कम अपने घर की परिधि से अधिक ही विस्तृत है और उन्हीं की इस भेंट को ‘लौटाने’ के लिए माँ उनसे मिलने जा रही थीं। शेखर को साथ जाने की आज्ञा मिली थी, क्योंकि जिनके यहाँ जाना था वे हिन्दी नहीं जानते थे, और शेखर की माँ न उनकी भाषा जानती थीं, न अँग्रेज़ी।

नूतनता का भूखा शेखर, खुशी-खुशी साथ चल पड़ा।

वे वहाँ पहुँच चुके हैं। युकलिप्टस के वृक्षों का छोटा-सा कुंज पार करके वे उनके बँगले में घुस आये हैं और प्रारम्भिक परिचय इत्यादि हो चुका है। जब वह और उनकी माँ बँगले के बाहर लगे हुए तख्ते पर बँगले का नाम ‘गरुड़ नीड़’ पढ़कर भीतर घुसे, तब उन्होंने देखा, बँगले के सामने घास पर गृहस्वामिनी बैठी है, और उसके पास एक युवती, और इन दोनों से कुछ दूर पर मटर की बेलों के मध्य में खड़ी एक लड़की फूल तोड़ रही है। पैरों की आहट सुनकर उसने चौंककर नवागंतुकों की ओर देखा, फिर जल्दी से अपने खुले बालों में अटके हुए फूलों को छिपाती हुई अन्दर भाग गयी, तब दोनों बैठी हुई स्त्रियाँ उठीं और स्वागत को बढ़ आयीं। किसी तरह परिचय हो ही गया, क्योंकि परिचय प्राप्त करने के लिए अधिक बोलने की आवश्यकता नहीं है, वह तो मुस्करा भर देने से हो जाता है।

सब लोग भीतर चले गये हैं। एक सजे हुए कमरे में बैठे हैं। माँ कुरसी पर बैठी है, पुत्र उसके पास ही खड़ा है (यद्यपि उसे कुरसी दिखाकर बैठने का इशारा किया जा चुका है); गृहस्वामिनी अँगीठी के पास लकड़ी के चौखट पर बैठी हैं, और युवती उसकी पुत्री फर्श पर।

और सब चुप हैं। गृहस्वामिनी प्रतीक्षा में, पुत्री इसलिए कि उसका कोई कर्तव्य नहीं है; माँ इसलिए कि वह अँग्रेजी नहीं जानतीं, पुत्र पर ही आशा लगाए बैठी हैं, और पुत्र इसलिए कि इस नये संसार की अत्यधिक नूतनता में उसे कुछ भी कहने को नहीं मिलता है। वह कभी अपने पैरों की ओर देखता है, वे उसे अत्यन्त भद्दे जान पड़ते हैं, तब वह दाहिने पैर को बाएँ पैर के और बाएँ को दाहिने के पीछे छिपाने का प्रयत्न करता है, और फिर यह सोचकर कि सब लोग मेरे उजड्डपन पर हँस रहे होंगे, अपने को कोसता है; कभी अपने हाथों की ओर देखता है, तो वे उसे बहुत बड़े-बड़े बेहूदा और निकम्मे जान पड़ते हैं, वह एक हाथ से दूसरे को पकड़कर सोचता है कि इन्हें कहीं छिपा दूँ, या काट डालूँ। और कभी उसका ध्यान अपने कपड़ों की ओर जाता है, तो संसार में कभी किसी ने ऐसे भद्दे कपड़े नहीं पहने होंगे; अपने खड़े होने के ढंग की ओर ध्यान जाता है तो ऐसे खड़ा है, जैसे किसी सरकस का जिराफ...और यह सोचकर वह धम्म से बैठ जाता है; गृहस्वामिनी उसकी ओर देखती है, तो सोचता है, यह सोच रही हैं कि इस जंगली को बैठना भी नहीं आता! अभागा बेचारा, और अभागी वयःसन्धि!

ऐसे तो काम नहीं चलेगा। कुछ बात चली न देखकर गृहस्वामिनी ही एक चेष्टा करती है।

“तुम कौन-सी क्लास में पढ़ते हो?”

जिस घोर मनःशक्ति को लगाकर उसने उत्तर में कहा, “मैं घर ही पढ़ता हूँ” उसकी कोई क्या कल्पना करेगा।

“कोई परीक्षा दोगे?”

उत्तर में एक शब्द, और वह सोच रहा है कि यह शब्द भी बहुत है-‘मैट्रिक।’

तब उसकी माँ पूछती है, वे क्या कह रही हैं? और वह बताने लगता है। उसे क्षण-भर जीवन मिल जाता है।

एक दूसरा स्वर कहता है, “बिना स्कूल गये परीक्षा दी जा सकती है?” यह उस युवती का प्रश्न है।

“हाँ।”

एक तीसरा स्वर कहता है, “अरे, यह कैसे?”

वह चौंककर देखता है। कमरे में उस लड़की ने प्रवेश किया है, जो बाहर फूल तोड़ती हुई भाग गयी थी। वह एक बार बड़ी-बड़ी खुली हुई आँखों से जल्दी-जल्दी उसे देख जाता है-कहीं आँखें न मिल जायें!-और फिर अपने पैरों की ओर देखने लगता है-भद्दे पैर! अपने हाथों की ओर-निकम्मे हाथ!

उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दिया गया है। उसकी माँ कहती है, “यह मेरी लड़की है-शारदा।” पर किसी के कुछ कहने के पहले ही वह अपना प्रश्न दुहराती है, “बिना स्कूल जाये परीक्षा कैसे दी जा सकती है?”

थोड़ी देर के मौन के बाद उसे ध्यान आता है, इस प्रश्न का उत्तर अब भी नहीं दिया गया है। यह अशिष्टता है, इस बात को सोचकर वह और भी घबरा जाता है, और उत्तर देने में सर्वथा असमर्थ हो जाता है। तब वह कहती है, “क्या सोच रहे हो, उत्तर क्यों नहीं देते?”

कैसी बेहया है यह लड़की! मैं उत्तर नहीं दे रहा हूँ, तब भी इतने प्रश्न पूछती जा रही है! यही सोचते हुए वह देखता है कि लड़की के वेष्टन में भी लज्जा नहीं है। उसके अभी तक कुछ गीले बाल, जो बाहर खुले हुए थे, अब एक रेशमी रिबन से बँधे हैं, शरीर पर वह एक सफेद कुरती पहने है, और एक एड़ियों से ऊँचा सफेद लँहगा-या पेटिकोट। और वह बिलकुल निर्लज्ज कौतूहल से उनकी ओर देख रही है, ऐसी दृष्टि से, जो उसे अधिकाधिक व्यस्त करती जाती है और क्रोध भी दिलाती जाती है।

और इस अवकाश में सब चुप हैं। माँ शेखर से पूछती है, “ये क्या? रहे हैं?” तो वह अपनी चुप्पी छिपाने के लिए टालते हुए धीरे से कहता है, “कुछ नहीं।”

माँ भी तो माँ है। वह समझती है। बेटे से पूछती है-”शर्मीले को अँग्रेजी में क्या कहते हैं?”

च्स्द्ध4ज्

और कहते ही वह समझ जाता है, और अपने को कोसने लगता है। और उसकी माँ मुस्कराकर उसकी ओर उँगली उठाकर कहती है, “यह स्द्ध4 है।”

वे सब समझती हैं और हँस पड़ती हैं। पर अभी उसके अपमान का प्याला नहीं भरा है, अभी उसके धूल में पड़े हुए शरीर को दौंरा भी जाएगा! शारदा हँसकर उसकी ओर देखती हुई कहती है ÒÒGood gracious such a big silly boy like you?ÓÓ (अरे, इतना बड़ा होकर भी!)

माँ धरित्री! तू फट क्यों नहीं जाती? वह अपना अपमान नहीं सह सकता, उसे तू कैसे सह रही है? और वह बेहया लड़की तो पता नहीं क्या कह डालेगी...

आह! उसकी जान-में-जान आयी-शारदा की माँ उसे डाँट रही है। अवश्य चाहिए। नूतनता, नूतनता है, पर ऐसी बेहयाई!

शारदा कुछ अप्रतिभ-सी होकर उठी और चली गयी।

तब, किसी-न-किसी तरह, सभ्यता द्वारा निर्दिष्ट इस भेंट को पूरा करने के लिए बातचीत चलने लगी।

पर उसका समापन अभी दूर था। शारदा फिर आयी, अबकी बार अपने बाएँ कन्धे पर बहँगी की तरह वीणा रखे हुए। आकर उसके पैरों से कुछ ही दूर हटकर फर्श पर बैठ गयी।

माँ ने बेटे से कहा, “पूछो, कोई वीणा बजाता है? बड़ी अच्छी लगती है।”

बेटा, शारदा की माँ की ओर उन्मुख होकर कहता है, “पूछती हैं, कोई वीणा बजाता है? बड़ी अच्छी लगती है।”

“हाँ, शारदा बजाती है।”

वह चुप। इसके बाद वार्त्तालाप की स्वाभाविक गति क्या प्रेरणा करती है, वह नहीं सोचता। शारदा से प्रार्थना करने का, कुछ भी कहने का, काम उससे नहीं होगा...

शारदा हँसती है। वीणा की तारें काँपने लगती हैं।

उसका आत्मसम्मान कहता है, “यह अपनी मुखरता पर लज्जित है।” उसकी बुद्धि कहती है, “अपनी माँ को प्रसन्न करने की चेष्टा कर रही है!”

ये वयःसन्धि के दिन थे, तभी तो। नहीं तो शायद वह समझता कि ये दोनों ही कारण नहीं हैं, कारण है स्त्री-प्रकृति का एक निगूढ़ तत्त्व, उसका अत्यन्त सुलभ एक बाहरी वैपरीत्य, जिसमें उसका सौन्दर्य और उसकी सामंजसता छिपी हुई है...

क्या कुछ छिपा हुआ है, जो फूट निकला है वीणा के झंकृत तारों में से?

सिनेमा की क्रमशः केन्द्रित हुई ‘स्पॉट लाइट’ की भाँति, उसके हृदय की भावनाएँ संसार के विस्तार से सिमटकर एक छोटे-से बिम्ब पर केन्द्रित हो जाती हैं, और फिर धीरे-धीरे उस पर से भी हट जाती हैं, अंधकार में कहीं खो जाती हैं, बह जाती है। वह बिम्ब है शारदा के अधभीगे, रिबन से बँधे हुए केशों का एक गुच्छ, जो उसके कन्धे से फिसलकर उसके कान के नीचे छिपने का प्रयत्न कर रहा है। उसे देखते ही वह अनुभव करता है, संगीत की जिस लहर में वह बहा जा रहा है, वह एक कोमल सफेद धुएँ की भाँति, पहाड़ से टकराकर भागते हुए नये बादल की भाँति है; और उसमें शारदा के शरीर से उड़ती हुई एक सुरभित भाप मिल रही है, और केशों का गीला-गीला, सोंधा-सोंधा सौरभ...

उसे जान पड़ता है, उस एक धनपुंज ने उन दोनों को घेर लिया है। उसे जान पड़ता है, शारदा के केशों का सौरभ उसके सारे शरीर को एक स्नेह-भरे स्पर्श से छूता जा रहा है, किन्तु जहाँ वह छूता है, शरीर झुलस जाता है...और वह उन असुगन्धित केशों के स्वाभाविक सौरभ को पी रहा है, उसको जिसमें नीम के बौर की-सी, दबी-सी सुगन्ध आ रही है, और उससे उसकी अन्तरात्मा जल उठी है...और ऐसा जलता हुआ भी वह एक अकथ आनन्द से भरा हुआ उसी बादल के साथ आकाश में बहा जा रहा है, शारदा के पार्श्व में संसार पार हो चुका है, अब वह बादल का टुकड़ा आकाश की सीमा को, अनन्त को, पार करने बढ़ा चला जा रहा है...

उसे जान पड़ता है, वह आग की लपटों की साँसें ले रहा है। उसे जान पड़ता है, उसका दम घुट रहा है। और वह देख रहा है शारदा के बालों के उस उद्दंड गुच्छ की ओर। एक अनन्त को पार करके, अनन्त के पार तक...

पर लम्बी-से-लम्बी यात्रा भी समाप्त होती है। वह रुक गया है, कहाँ पहुँच गया है। वीणा भी चुप हो गयी है। शारदा तनिक घूमकर उसकी ओर देखती है, एक चिढ़ाने वाली हँसी से, जो उसे देखते ही लुप्त हो जाती है। उनकी आँखें मिलती हैं! वह जो अब इसी डर से किसी की ओर अधिक देर तक नहीं देखता कि वह जान न जाय कि कोई मेरी ओर देख रहा है, आज इतने लोगों के सामने इस लड़की को देख रहा है, आँख झपकाता भी नहीं, झुकाने की बात ही क्या...

पर अनन्त के पार झुला देने वाले क्षण लम्बे नहीं होते। दोनों एक साथ ही आँख झुका लेते हैं-

ठीक उसी समय माँ कहती है, कहो, “बहुत अच्छा बजाती है।”

यह तो वह मरकर भी नहीं कह सकता-शारदा से नहीं, किसी भी व्यक्ति से नहीं...

माँ एक बार दबे क्रोध से उसकी ओर देखती है, पर कुछ कहने का समय तो है ही नहीं, इसलिए फिर कहती है, “पूछो कौन सिखाता है?”

वह पूछ लेता है-गृहिणी से।

“मैं ही सिखाती हूँ।”

माँ के कहे अनुसार-”तो आप भी जानती हैं?”

“थोड़ा-थोड़ा।”

आदेशानानुसार-”आपसे भी फिर किसी दिन सुनेंगे।” और मन ही मन “आज तो नहीं, आज के लिए बहुत सुन लिया है, और नहीं सुन सकता...”

अबकी बार बिना आदेश, “संगीत सीखने की मेरी भी बहुत इच्छा है, पर अवसर नहीं हाथ आता-कोई सिखाने वाला नहीं मिलता।” यह बिना आदेश के, क्योंकि शारदा उठकर फिर भीतर चली गयी है।

अब भेंट समाप्त करने की तैयारी है। माँ उठ खड़ी हुई हैं। वह चाहता है कि शारदा के लौट आने तक रुका जाय, उसे विश्वास है कि वह आएगी; पर जिस प्रकार यहाँ आते समय राय नहीं ली गयी थी, उसी प्रकार अब भी नहीं ली जाएगी।

जब तक वह बँगले के फाटक तक पहुँचे, उसे जान पड़ता है कि किसी की शरारत-भरी आँखें उसकी ओर देख रही हैं-उसकी पीठ पर ऐसी गुदगुदी-सी हो रही है...वह लौटकर देखता है, उसका भ्रम था। और एक आवाज उसके कान में गूँजती है-—”Such a big silly boy like you!”

और वह अपने घूमने की सफाई देने के लिए माँ से कहता है, “माँ, इस बँगले के नाम का अर्थ है गरुड़ का घोंसला? कैसा विचित्र नाम है?”

“हाँ तो!”

नास्तिक जब विश्वास करने पर आता है, तो बड़े पंडित उसके आगे नहीं टिक सकते। उसकी अन्धविश्वास की सर्वग्राहिणी लहर के आगे सन्देह की कन्दराएँ, बुद्धि के पहाड़, सब समतल हो जाते हैं और डूब जाते हैं।

वैसा ही है वयःसन्धि का-व्यक्ति मात्र के प्रति घृणा और विद्वेष के काल का-प्रेम!

जिस पहाड़ के आँचल में उसका घर है, उसकी चोटी पर से शारदा के घर के सामने वाले युकलिप्टस वृक्षों का कुँज दीख जाता है, और उनके ऊपर बँगला तो नहीं, बँगले का कोई अंश भी नहीं, किन्तु उसकी चिमनी से उठता हुआ धुआँ अवश्य नज़र आता है...

इसीलिए वह पहाड़ की चोटी पर बैठकर उधर देखा करता है। और बैठकर इस नूतनता पर विचार किया करता है...

क्योंकि वह अभी तक नहीं जानता कि उसे क्या हुआ है, वह क्या चाहता है, क्योंकि जब वह उस घर की याद, उस भेंट की याद करता है, तब उसे दीखता है गृहिणी का मुख, याद आता है उसी का स्वागत, शारदा का तो कुछ भी याद नहीं आता। सिवाय इसके कि जब उसके सब ओर अत्यन्त निःस्तब्धता छाई होती है, तब उसे जान पड़ता है कि वह कहीं से-कहीं से वीणा का स्वर सुन रहा है। और वह उसी की तरंग में बहने लगता है, उड़ने लगता है, भूल जाता है, तीन-तीन मिनट के लिए उसी अतीन्द्रिय, निर्वेद, परम शून्यत्वमय अनुभूति को पा लेता है जिसे क्षण भर पाने के लिए ऋषि-मुनि तरसते थे, उस अनुभूति को जिसमें वह संसार से एकरस हो जाता है और कुछ नहीं रहता, और जिसका ज्ञान उसे उसी समाप्ति के बाद ही होता है; तब जब सफेद रेशमी रिबन का एक झटका उसे चौंकाकर कहता है-”Such a big silly boy like you!”

और इतना हो जाने पर भी वह इस भावना को शारदा के साथ नहीं सम्बद्ध कर पाता! अपने औपन्यासिक ज्ञान की याद आ जाने पर वह यदि कभी सोचता है कि कहीं मैं प्रेम तो नहीं करता? तो इस प्रश्न के उत्तर में उसे एक प्रश्न ही मिलता है, किससे? माँ से, या शारदा से! और वह उत्तर नहीं दे पाता और झुँझलाता है।

और फिर उसी शून्यत्व में खो जाता है, वीणा के संगीत के भ्रम से उत्पन्न उस निर्वेद जगत् में। और फिर जागता है।

तब एक दिन, उसे इस चिमनी का धुआँ भर देखने से सन्तोष नहीं होता। वह खोया हुआ-सा उस घोंसले की ओर चल देता, जिसमें उसकी सारी भावनाएँ सोती हैं।

युकलिप्टस के कुँज में घुसकर वह एक बड़े-से वृक्ष की छाया में बैठ जाता है। ये पतझड़ के दिन हो रहे हैं, इसलिए वृक्ष के नीचे लाल, भूरे और पीले पत्तों का ढेर लगा हुआ है, जिस पर वह बैठा है। यहाँ से वह घोंसला दीखता है। उसके सामने एक बड़ी-सी खिड़की है, जिसके शीशों के भीतर एक फूलदार परदा पड़ा हुआ है।

परदे के पीछे, शायद कमरा खाली ही है। किन्तु जो कुछ परदे के पीछे है, वह दीख सकता नहीं, कल्पना को झूठा तो कर सकता नहीं, इसलिए वह अपनी अन्तर्दृष्टि से देखता है कि तीनों स्त्रियाँ उसी कमरे में बैठी होंगी...

और फिर उड़ जाता है वीणा के स्वर में घुली हुई अपनी कविता की उड़ान में, क्योंकि वयःसन्धि-काल में कौन नहीं कवि होता!

उसके शरीर में एक बिजली-सी दौड़ जाती है। इस युकलिप्टस कुंज में दूसरे सिरे..., कौन प्रवेश करने लगा है।

रूप नया है, वेश नया है, विन्यास नया है और प्रकाश नया है, किन्तु बिजली की तरह दमककर चेतना कहती है-शारदा!

और वह लज्जा से घुला जा रहा है, कि कहीं वह उसे ऐसी परिस्थिति में देख न ले। वह पेड़ के पीछे छिपता है, फिर भागता है, दम साधकर भागता है, और वहाँ से बहुत दूर आकर, अपने घर के बाहर पहुँचकर रुकता है।

तब फिर एक आवाज कसती है-‘Such a big silly boy like you!’ और वह धीरे-धीरे अपने घर के अन्दर चला जाता है।

और उस अभागे को अब भी नहीं मालूम हुआ कि उसके जीवन में जो परिवर्तन, जो नूतनता आ गयी है, वह क्या है, किस अपार शक्ति का अवतरण है!

उसने एक नई बात सीखी है। उसके पिता जिस समय दफ्तर गये होते हैं, तब दुपहर के बारह-एक बजे, वह अपने घर से निकलकर अपने पहाड़ की चोटी से कुछ दूर पर, एक पथ के किनारे काही के बिस्तर पर बैठा रहता है। उसके तपे हुए बदन को उसकी नरम शीतलता अच्छी लगती है। और वह इसी प्रतीक्षा में रहता है कि कब शारदा उस पथ से होकर जाय।

शारदा उस पथ से स्कूल जाती है, और एक बजे स्कूल से छुट्टी हो जाने पर उसी पथ से अकेली घर लौटती है। जहाँ पर वह बैठकर उसकी प्रतीक्षा किया करता है, वहाँ से होकर वह लगभग दो बजे जाती है-स्कूल से वह दो मील होगी, और शारदा का घर उस स्थान से मील भर से अधिक। वह कभी सोचा करता है, उतनी दूर चलते-चलते शारदा थक जाती होगी-यद्यपि वह स्वयं बीसियों मील का चक्कर यों ही काट आता है।

शारदा जब वहाँ आती है, तब रुकती नहीं। वह भी कुछ बोलता नहीं। चुपचाप वहीं पड़ा उसकी गति को देखा करता है; तब से जब पहले-पहल मोड़ से निकलकर उसकी एक थकी हुई बाँह बस्ता सम्भाले हुए दीखती है, तब तक जबकि उसका श्वेत वसन, दुबला शरीर एक बड़े से बबूल वृक्ष के पीछे छिपकर अदृश्य नहीं हो जाता और उसका पदरव, उसके पदरव की प्रतिध्वनि तक चुप नहीं हो जाती...

पहले, वह दूर ही से उसे देखा करता था, स्वयं प्रकट नहीं होता था। पर एक दिन, जब वह प्रतीक्षा करते-करते सड़क के किनारे पर एक ही जगाती तन्द्रा में लीन हो गया था, तब शारदा ने उसे देखा था, और दबे पाँव पास आकर, किताबों का बस्ता उसकी पीठ पर रख दिया था। और वह चौंक उठा, झेंप गया था, फिर एकाएक साहस ने भर गया था। वह किताबें लेकर उसके साथ हो लिया था और वात्सल्य भाव से पूछ रहा था, “तुम इतना बोझ लादे-लादे थक नहीं जातीं?” इसी प्रकार चलते हुए वे शारदा के घर से कुछ ही दूर, युकलिप्टस के झुरमुट के पास तक गये थे, और एक ही प्रेरणा से रुक गये थे। शारदा ने किताबें ले ली थीं, फिर इस क्षणिक मौन को भंग करते हुए, एक शरारत-भरी हँसी हँसकर कहा था-‘The big silly boy is kind’और भाग गयी थी...और वह अपने हाथ को देखता रह गया था-क्योंकि उसे भागती हुई शारदा का वस्त्र छू गया था...

उस दिन के बाद वे नहीं बोले हैं, किन्तु उनका मूक मिलन नित्य हो जाता है। वह जब उस मोड़ से निकलकर, घनी छाया से अँधियारे उस काही के विस्तार के पास से होकर जाती है तब उधर देखकर मुस्करा देती है और चली जाती है। रुकती नहीं, वह भी नहीं बुलाता। जिस दिन से उसके हाथ से शारदा का वस्त्र छू गया है उनमें एक मूक समझौता हो गया है कि वे उसकी पुनरावृत्ति का अवसर नहीं आने देंगे। यद्यपि वे शायद स्वयं नहीं जानते थे कि वे एक-दूसरे से बचते-से हैं, एक झिझक-सी को छिपाते हैं...

शेखर को मालूम है कि आज उसका स्कूल बड़े दिन की छुट्टियों के लिए बन्द होगा। आज से, दो सप्ताह के लिए उसे शारदा के दर्शन नहीं होंगे। वह सोच रहा है कि ये दो सप्ताह कितने लम्बे होंगे, जिसमें वह उसके दर्शन भी नहीं कर पाएगा। और इस विचार में वह खो गया है, कविता भूल गया है, कल्पना भी भूल गया है, शून्य बैठा है।

उसकी आँखें भी आज उस पथ पर नहीं लगी हुई हैं। प्रतीक्षा है, किन्तु शायद इस भाव ने कि वह दृश्य जरा-सी देर में आँखों की ओट हो जाएगा, उसके ध्यान को दूसरी ओर प्रेरित कर दिया है। वह आज अपने पुराने सखा, परली पहाड़ी के शेखर पर लगे हुए स् आकार के वृक्ष की ओर देख रहा है, और पुरानी बातें की सोच रहा है...

वह आकर उसके शून्यत्व को देखकर उसके पास खड़ी हो गयी है, पर उसे सुध नहीं है। सुध आती है तब जब वह पूछती है, ÒÒSilly, क्या देख रहे हो?”

पर सुध में आकर भी वह एक दूरत्व से उत्तर देता है, “उस पेड़ को देख रहा हूँ-सामने पहाड़ पर।”

“हूँ-क्यों?”

“यों ही। अच्छा लगता है। मैं वहाँ बहुत जाया करता हूँ।” फिर तनिक रुककर “बड़े दिन की छुट्टियों में वहीं जाया करूँगा।”

जिस कंटकमय पथ पर न जाने का उनका मूक समझौता है, वह उससे बहुत निकट है। वह हटती है। फीके स्वर में कहती है, “हमारा स्कूल पाँच तारीख को खुलेगा।”

“तुम क्या करोगी?”

“छुट्टियों में? पढूँगी। और-”

“मैं आजकल कविता पढ़ता हूँ।”

शारदा उसकी ओर सन्दिग्ध दृष्टि से देखती हैं-कहीं फिर उसी पथ की ओर तो गति नहीं है? और कहती है, ‘मुझे तो टेनिसन की कविता अच्छी लगती है।’

वह उसे कहने को है, ‘मैं टासो के अनुवाद पढ़ रहा हूँ,’ पर उसकी एक कविता का स्मरण करके शरमाकर चुप रहता है।

वह जाती है। वह कहता है, ‘Goodbye’ (विदा!) और फिर टासो की कविता का स्मरण करके मन-ही-मन में, ‘One long goodbye?’

उसने कोई उत्तर दिया या नहीं, वह नहीं सुन पाया।

उसने घर की किताबें टटोल-टटोलकर, टेनिसन का एक संग्रह पाया है, ‘मॉड और अन्य कविताएँ।’ टासो कहाँ पड़ा है, उसे नहीं याद। वह इसी पुस्तक को लेकर अपने स् आकार वाले वृक्ष के नीचे जाकर बैठता है और विमनस्क-सा होकर पढ़ता है। उसकी आँखें पढ़ती है, कान किसी शब्द की प्रतीक्षा में रहते हैं, और मस्तिष्क सोचता है, वह आएगी?

उसने उसे आने के लिए नहीं कहा है, न शारदा ने ही कोई ऐसी इच्छा प्रकट की थी। पर वह तीन दिन से यही सोचकर प्रतीक्षा में है कि शायद वह आये...क्योंकि उसने उसे यह तो बता दिया है कि वह यहीं दिन व्यतीत करेगा-यानी यहीं प्रतीक्षा करेगा। क्या वह इतना भी नहीं समझ सकेगी?

इसी विचार में उसकी आँखों का पढ़ा हुआ भी उसके मन में समाता जा रहा है, और वह चौंककर देखता है कि वह उसी का एक छन्द गुनगुना रहा है, जिसे उसकी बुद्धि ने नहीं पहचाना, किन्तु उसकी मनःशक्ति ने परख लिया :

Come into the garden Maud

For the black bat, Night, has flown :

And the woodbine spices are wafted abroad

And the musk of the roses blown;

Come into the garden Maud,

I am here at the gate, alone.*

और वह आती है। आती है उतावली से, किन्तु उसे बैठा देकर ठिठकती है; रुकती है और विस्मय दिखाकर कहती है, ‘अरे, तुम यहाँ कहाँ!’

  • मॉड उद्यान में आ, क्योंकि रात का साँवला पखेरू उड़ गया है; और वनचमेली की गन्ध फैल गयी है। गुलाब का पराग उड़ रहा है। उद्यान में आ, मॉड, मैं द्वार पर प्रतीक्षा में अकेला खड़ा हूँ।

और वे घूमने लगते हैं-इधर-उधर भटकते हैं और निरर्थक बातें करते हैं-यद्यपि एक-दूसरे की बात नहीं सुनते। इसी में प्रसन्न हैं कि दोनों साथ हैं...

वे उस चोटी से उतरकर साथ के एक शिखर पर चढ़ते हैं। तब एकाएक न जाने कैसे उसे विचार आता है, शारदा का नाम भी स् से आरम्भ होता है। और घूमकर देखता है-उसका सखा स्-वृक्ष वहाँ से आधा ही दीखता है। वह सहसा कहता है, S for Sharda!’

“क्या?”

“उस पहाड़ पर तुम्हारा नाम लिखा हुआ है।”

“देखूँ-कहाँ?”

“वह देखो, दीखता है-स् लिखा है?”

“नहीं तो, स् तो नहीं है।”

“यहाँ से ठीक नहीं दीखता। ठहरो मैं पेड़ पर चढ़कर देखता हूँ।”

उसने पहले बहुत बार देखा हुआ है; और यदि वह पेड़ पर चढ़कर देख भी लेगा, तो शारदा को तो दीखेगा नहीं। ये सब तर्क उसके ध्यान में नहीं आते। वयःसन्धि के अहंकार में वह एक ही बात सोचता है, कि उसके कथन की प्रामाणिकता स्वयं उनके लिए अकाट्य होनी चाहिए।

वह जल्दी-जल्दी पास के एक देवदारु के वृक्ष पर चढ़ने लगता है। उस वृक्ष पर चढ़ना आसान नहीं है, उसका बदन छिल रहा है, पर वह रुकता नहीं, कुछ सोचता भी नहीं।

काफी ऊपर चढ़कर वह देखता है, स् स्पष्ट दीख रहा है। विजय की हुंकार की तरह वह कहता है, ‘वह है तो।’

लो अपने परिश्रम का पुरस्कार। वह कहती है, ‘मैं कैसे देख सकती हूँ,

पता नहीं कैसे, शारदा की डाँट से, या अपने पन से, वृक्ष के दोष से, या भाग्य की वामता से, वह उतरते-उतरते फिसलकर गिरता है अर्रर्र-धम्म! और हँसने को उसके ऊपर गिरती हैं देवदारु की कुछ फुनगियाँ!

वह पीड़ा की अनुभूति से पहले ही सिर उठाकर देखता है, शारदा ने देखा तो नहीं? और वह दोनों हाथों से पेट पकड़े बड़े जोर से हँस रही है...

उसे इस बात का भी ध्यान नहीं कि उसका मुँह छिल गया है, कि उसके चोट आयी हैं, कि बायीं एड़ी में मोच आ गयी है, वह उठकर पागल-सा तीव्र गति से एक ओर चल देता है....

शारदा हँसी भूलकर पूछती है, “चोट तो नहीं लगी?” तो उत्तर नहीं देता “इधर आओ, देखूँ?” तो, “नहीं आऊँगा!”

“नहीं आओगे?”

“नहीं आऊँगा।” और चलता जा रहा है।

“मेरे पास नहीं आओगे?”

“नहीं, कभी नहीं, अनन्त काल तक नहीं!” और चलता जा रहा है। पर पहले से भी जरा धीमी चाल से।

वह फिर हँसती है-एक काँपती हँसी, किन्तु हँसी तो है। -और उसकी गति फिर तीव्र हो जाती है, यद्यपि पीड़ा बहुत होने लगी है...

सन्ध्या।

चार दिन से शेखर वहाँ नहीं जा सका है। उसका पैर बहुत दुःख रहा है! पर आज उसने निश्चय किया है, अवश्य वहाँ जाएगा। मुट्ठियाँ घूँट-घूँटकर, दाँत पीस-पीसकर निश्चय किया है...

वह घूमने के बहाने घर से निकला है। एक छोटी कुल्हाड़ी उसने अपने बड़े कोट में छिपा ली है, और घर से बाहर तक, किसी-न-किसी तरह बिना लँगड़ाए चला आया है। अब वह स्थिर दृष्टि से उस वृक्ष की ओर देखता हुआ और काफी लँगड़ाता हुआ चला आ रहा है।

वह एक बड़ा भयंकर निश्चय करके निकला है। उसे क्रोध न जाने किस पर आ रहा है, किन्तु उसकी इस प्रतिहिंसा-वृत्ति ने क्या निश्चय किया है, यह वह जानता है...

वह पेड़ के पास पहुँच गया है। इतने समीप से उसका स्-सा आकार स्पष्ट नहीं दीखता, पत्तियाँ और शाखें अलग-अलग नजर आती हैं।

उसने कोट उतार दिया है, जूते उतार दिये हैं। एक हाथ में कुल्हाड़ी थामे वह पेड़ पर चढ़ गया है। एक लम्बी साँस लेकर, और जोर से दाँत भींचकर उसने अपना कार्य आरम्भ कर दिया है...वह उस वृक्ष को अपंग कर रहा है, उसकी शाखें काट रहा है, शारदा के नाम से उसकी पर्यायता को मिटा रहा है...

जब वह बहुत-सी शाखें काट चुकता है, तब वह उतरता है, कपड़े पहनता है, कुल्हाड़ी छिपाता है, और शराबी की तरह लड़खड़ाता हुआ, बिना फिरकर देखे जल्दी-जल्दी घर की ओर चल देता है...

घर से कुछ दूर, बाहर के फाटक के पास, उसका उन्माद उतर जाता है-उसके मन पर से शाप का बोझ उठ जाता है। वह रुककर उस शिखर की ओर देखता है, उसकी आँखें मानो उसी से आँख बचाकर एक चिह्न को ढूँढती हैं...

और उसके, शारदा के, और उन दोनों के एकत्व के उस चिह्न का आकार स् से बदलकर एक अधूरे सिफर-सा, एक औंधे रिक्त प्याले-सा, खड़ा आकाश को देख रहा है...

और वह एक बड़ी-सी सिसकी लेकर, अपने अथाह आँसुओं को पीकर कहता है, “शारदा, मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूँ!”

वयःसन्धि का एक क्षण असीम जितना विस्तीर्ण है, और असीम एक क्षण भर-सा छोटा। जिस दिन शेखर ने निश्चय किया था कि अब कभी शारदा से मिलने नहीं जाएगा, उसके सप्ताह-भर बाद ही वह अपने स्थान पर बैठा था।

पर वह नहीं आयी। एक दिन, तीन दिन, सप्ताह, तीन सप्ताह-अब दो महीने हो चले थे, और वह नहीं आयी थी...

इस बीच में बहुत कुछ हो गया था। पहले तो यह निश्चय हुआ था, शेखर मैट्रिक की परीक्षा दे और कॉलेज जाने की तैयारी करे। इसके लिए वह कुछ ही दिन में उतर जाने वाला था। पर पढ़ाई और भावी परिवर्तन की चिन्ता से बढ़कर भी कुछ उसके जीवन में हुआ था-कुछ जो कहीं अधिक व्यक्तिगत और गहरा था।

उस पेड़ को काट देने के बाद शेखर की मनोवृत्ति बदल गयी थी। वह सम्भल गया था, समझ गया था। वह पहले की-सी उलझन, जिसमें गृहिणी के मुख के साथ बड़ी कन्या की वाणी और वीणा की झंकार, और शारदा के शब्द उसके मनःक्षेत्र में आते थे, अब नहीं थी। उसने अपने भीतर के उपद्रव को पढ़ लिया था, अपने भीतर छिपे सत्य को प्रत्यक्ष करके स्वीकार कर लिया था-कि वह शारदा को प्यार करता है? अब उसे वैसे मिश्रित स्वप्न नहीं आते थे। वह सारे शरीर में फैलनेवाली अवर्णनीय अशान्ति उसे नहीं सताती थी। अशान्ति का प्रकार तो अब भी वैसा ही अकथ, खिंचाव-भरा और शरीर-व्यापी था; पर अब वह वह अकारण और असमय नहीं आती थी। अब शेखर जानता था कि उसका अभिन्न सम्बन्ध शारदा से और शारदा के विचार से है। और अब वह अपने जीवन की एकस्वरता से उकताकर पुराण-संसार में अपने को भुला देने की चेष्टा नहीं करता था, ग्रीक-पुराण में से नरगिस और प्रतिध्वनि, या होरो और लिएंडर या डेपनी और एपोलो, या ईरोस और साइकी की गाथाएँ नहीं पढ़ता था, अब उसने टासो और टेनिसन तक को छोड़ दिया था। अब तो जब भी एकान्त पाता, वह ग्रामोफोन पर वायलिन के रेकार्ड सुना करता था, या कभी रात्रि के अत्यन्त एकान्त में शेषन्ना की बजायी हुई वीणा का एक रेकार्ड सुनता हुआ एक तुलना किया करता, जिसका निर्णय सदा ही शेषन्ना के विपक्ष में होता। जब घर में उसे ऐसे अवसर नहीं प्राप्त होते, तब वह उस पवित्र स्थान पर जाकर रवि ठाकुर की गीतांजलि पढ़ा करता। अब इस रहस्यवादी कविता में उसे एक ऐसा रस मिलता, जो उसने कभी किसी वस्तु में नहीं पाया था-एक पद पढ़ते ही उसका सारा पिछला जीवन मानो मैल की तरह धुलकर उससे अलग हो जाता, और उसे अनुभव होता कि वह किसी देवता की अर्चना के लिए मनसा, वाचा, कर्मणा पवित्र होकर खड़ा है...

shall ever try to keep my body pure, knowing that thy living touch is upon all my limbs*...

और कभी एक उल्लास उसके रक्त में नाचने लगता-

O the waves, the sky-devouring waves, glistening with light, dancing with life, the waves of eddying joy...**

डेढ़ महीने की प्रतीक्षा के बाद भी वह नहीं आयी है। और अपनी उग्र उत्कंठा लिए हुए भी शेखर वहीं पर प्रतीक्षा करता है; उसके घर की ओर नहीं जाता, उसके स्कूल के पथ में भी नहीं।

आज शेखर से प्रतीक्षा नहीं सही जाती। दो-चार दिन में ही वह परीक्षा के लिए उत्तर चला जानेवाला है। फिर भी उसे विचार नहीं आता कि वह स्वयं जाकर शारदा से मिल आये, या देख ही आये।

वह आएगी, क्यों नहीं आएगी? क्या शेखर ने एक बार क्रोध में कह दिया कि नहीं आऊँगा, इसीलिए?

इतने दिन क्यों नहीं आयी?

उस समय शेखर को कौन बताता कि वह उसके दूसरे दिन भी आयी थी, तीसरे दिन भी, और चौथे दिन भी, निराश होकर, बहुत देर रोकर, और स् वाले वृक्ष के पत्ते लेकर चली गयी थी-बिना यह सोचे कि फिर कब आएगी?

शेखर रवि ठाकुर का वही पद्य पढ़ रहा था, और उसे किसी वृक्ष को, कभी नीचे बिखरी पत्तियों को, और कभी आकाश को सुना रहा था-

I shall ever try to keep my body pure, knowing that thy living touch is upon all my limbs.

लम्बे-लम्बे वृक्षों की वर्णहीन-सी शाखों की उलझी हुई छाया; लाल नसवारी और पीले रंगों के झरे हुए पत्तों पर अलसाई सूर्य-किरणों की स्निग्ध बिछलन; उनमें जान डाल देनेवाले पृष्ठभूमि के देवदारु-वृक्षों का गाढ़ा मूँगिया रंग ये सब टोडा जाति के शब्दहीन संगीत की भाँति एक राग बनकर उसकी चेतना में समाए जा रहे थे...

वह आयी। मुरझाई हुई-सी, खोई हुई-सी। और एकाएक अविश्वास से खिल उठी। फिर अविश्वास तो बुझ गया, वह खिली रह गयी।

वह शेखर के पास बैठ गयी। दोनों चुप रह गये। शेखर कुछ कहना चाहता था, लेकिन जिसे अपनी भाषा में भी नहीं कहा जा सकता, जिसकी व्यंजना के लिए मौन भी एक रूखा उपाय है, उसे कैसे एक विदेशी भाषा में कहा जाय...

  • तेरा जीवित-स्पर्श मेरे अंग-अंग पर है; यह जानता हुआ मैं अपनी देह को सदा पवित्र रखूँगा...
    • हिल्लोल, गगन-चुम्बी हिल्लोल, आलोक से दीप्त जीवन से नाचती हुई, आनन्द से विभोर...

शेखर उसे गीतांजलि सुनाने लगा। वह वैसे ही खोयी हुई-सी सुनती रही।

On the day the lotus bloomed, alas, my mind was straying and I knew it not....*

तब धीमे अस्फुट स्वर में टूटे वाक्यों में, शारदा उसे बताने लगी कि कैसे वह तीन दिन तक उसे देखने आती रही और निराश हुई। और शेखर के हृदय में जो कृतज्ञता भर गयी, उसे छिपाता हुआ वह चुपचाप गम्भीर बना बैठा रहा...

तब धीमे अस्फुट स्वर में टूटे वाक्यों में, शारदा उसे बताने लगी कि कैसे वह तीन दिन तक उसे देखने आती रही और निराश हुई। और शेखर के हृदय में जो कृतज्ञता भर गयी, उसे छिपाता हुआ वह चुपचाप गम्भीर बना बैठा रहा...

पर वयःसन्धि के दिनों में, ऐसे बैठे हुए, यह गम्भीरता कब तक? वे दोनों उठे और हाथ में किताब लिए हुए शेखर कभी इधर, कभी उधर, शारदा के पकड़ने के लिए भागने लगा, वह चंचला पकड़ में न आती। दौड़ते-दौड़ते वे अपने परिचित संकेत-स्थल से बहुत दूर निकल आये, एक दूसरी ही पहाड़ी के आँचल में, जिसके नीचे झील थी और जिसके ऊपर फैली हुई घास में स्थान-स्थान पर सुदर्शन-जैसे आकार की लिली खिल रही थी-अधिकांश बिलकुल श्वेत, किन्तु कोई-कोई ऐसी, जिसकी पँखुड़ियों में एक आड़ी लाल रेखा में खिची हुई होती।

शारदा हाँफती हुई घास में लेट गयी। शेखर उसके पास ही खड़ा हो गया; लेकिन इतने व्यायाम से उसके शरीर की तृप्ति नहीं हुई। उसमें संचित हो रही उत्तेजना बिखरी नहीं। शेखर किताब घास में फेंककर, जल्दी-जल्दी फूल तोड़कर समेटने लगा। जब-जब उसके हाथ भर जाते, वह उन्हें ले जाकर शारदा के आगे डाल देता, और-फिर-और समेटने लगता।

वहाँ पड़े-पड़े शारदा को आसपास जहाँ तक दीख सकता था, वहीं के कुल फूल शेखर ने तोड़ लिए थे और उन्हें शारदा के सब और, और शारदा के ऊपर डाल दिया था। वह हँसकर उठ बैठी थी, और एक हाथ पर अपने शरीर का बोझ डाले, दूसरे को फूलों में दबाए, मुस्कराती हुई बैठी कुछ सोच रही थी।

शेखर उससे कुछ दूर जाकर बैठ गया, फिर घास में लेट गया। और दोनों उस नीरवता में, अपने-अपने रहस्य दुहराने लगे...

एक नशा-सा शेखर पर छा गया, उसके शरीर में फैल गया। उसकी साँस तीव्र गति से चलने लगी; उसका सारा शरीर तप-सा गया, उसे लगने लगा कि उसकी छाती के भीतर कहीं सीसा उबल रहा है। यह औंधा हो गया, अपने शरीर की सारी शक्ति से धरती से चिपटने लगा, क्रमशः अपने दोनों गाल और माथा...उस गीली और शीतल घास पर दबाने लगा कि उनका ज्वर कुछ कम हो जाय...

  • जिस दिन शतदल खिला, उस दिन मैं अनमना था, मैंने नहीं जाना...

वह पर्याप्त नहीं है, बिलकुल नहीं है...उसका रक्त माँगता है कुछ और उत्कट अनुभूति...

वह अपने सारे मनोबल से पृथ्वी के आलिंगन को दृढ़तर करने का विचार करता जाता है, पर उठ खड़ा होता हैं। शारदा के पीछे जाकर, झपटकर दोनों हाथों से उसकी आँखें मूँद लेता है-वह चौंककर चुप रहती है-शेखर और भी जोर से उसकी आँखें दबा लेता है...

शारदा का शरीर जलता क्यों है, काँपता क्यों है?

एक दुर्दम्य प्रेरणा से शेखर झुकता है, अपनी ठोड़ी शारदा के सिर पर टेक देता है। उसके रूखे केशों को सूँघता है। फिर अपनी नाक उन केशों में दबा देता है और दो, तीन, चार, पाँच बहुत लम्बी साँसें खींचता है...

वह, नये मधुमास में नीम के बौर-सा सौरभ...बहुत मीठी, पुरानी शराब के फेन सा वह शेखर के नयनों में प्रविष्ट होकर उसके मस्तिष्क में छा जाता है, और जैसे किसी पागल को बहुत-सी शराब पिला दी जाय, वैसी ही दशा शेखर की हो जाती है-दो उन्मादों से उन्मत्त...

वह बहुत अधिक काँप रही है-और जितना ही काँपती है, शेखर उतना ही अधिक आँखों को दबाता जाता है...मानो अपने दो हाथों और अपनी ठोड़ी के दबाव से उसका कम्पन शान्त कर देगा, उस छोटे से सुन्दर सिर को कुचल डालेगा...

वह एक हाथ से शेखर के हाथ हटाने का प्रयत्न करती है-पर कहाँ?

यह क्या है-कम्पन या सिसकी? उसकी साँस बड़े-बड़े, टूटे-से झोंकों में खिंचती है, और उनमें क्या है यह ‘हुक्! हुक्’ जैसे हिचकी?

शेखर एकदम उसे छोड़ देता है, उसके पास ही फूलों के ढेर पर ही बैठ जाता है, और एकटक उसके मुख की ओर देखता जाता है...

फिर कल्प बीत जाते हैं, वह हिचकी-सिसकी बन्द हो जाती है, और शारदा बड़ी-बड़ी आँसू-भरी आँखें उसकी ओर फेरकर एक गम्भीर विषाद की मुस्कराहट से, एक कोमल उलहने-भरी आवाज से कहती है-‘तुमने सब फूल कुचल डाले!’

एक बहुत लम्बे क्षण तक उनकी आँखें मिली रहती हैं और उसी क्षण में वह उठ खड़ी होती है। शेखर न उसकी बात का उत्तर दे पाता है, न फूलों पर से उठ ही पाता है। वह धीरे-धीरे मुड़कर चलने लगती है, शेखर उसे रोकने को अँगुली भी नहीं उठा पाता। वह विदा भी नहीं माँगती, पर शेखर की जिह्वा में उससे इतना पूछने की शक्ति भी नहीं है कि तुम कहाँ जा रही हो?

दूसरे दिन समाचार आया कि परीक्षा की तारीख बदल गयी है, और शेखर को तत्काल जाना होगा। एक ओर घर के कुचल देनेवाले वातावरण से निकल जाने की उत्सुकता और दूसरी शारदा के विचार से उत्पन्न उद्वेग, दोनों को मन में छिपाए ही तीसरे दिन शेखर लाहौर की ओर चल पड़ा।

किवाड़ खटखटाकर शेखर, अन्धकार में खड़ा प्रतीक्षा करने लगा कि कोई आकर द्वार खोले। थोड़ी देर बाद उसे दीखा कि भीतर से एक दीये का प्रकाश द्वार की ओर आ रहा है, फिर किवाड़ चर्राए और साँकल खटकी; द्वार खुल गया। एक लड़की दीया हाथ में लिए एक ओर हटकर खड़ी थी; शेखर ने आँख भर उसकी ओर देखा और आगे बढ़ गया।

थोड़ा ही आगे बढ़कर उसे लगा, वह उस लड़की को पहचानता है। उसने रुक कर, बिना लौटे, झेंपे हुए-से स्वर में कहा, “शशि!”

शशि ने दीयेवाले हाथ के साथ दूसरा हाथ जोड़कर कहा, ‘प्रणाम।’ शेखर को एकाएक वह लोटे की लड़ाई का दृश्य, याद आ गया, जो उनका एकमात्र परिचय था। वह जल्दी से आगे बढ़कर ऊपर चला गया। शशि द्वार पर खड़ी रही।

शेखर ने मौसी विद्यावती को और उनके पति देवनाथ को प्रणाम किया, अपना कमरा देखकर उसमें सामान इत्यादि खोला, किताबें सजाकर मेज पर रखीं और पढ़ने बैठ गया।

मौसी ने आकर कहा, “कुछ आराम तो करते-पढ़ायी तो हो ही जाएगी।”

शेखर ने शर्माते हुए कहा, “दिन बहुत थोड़े रह गये हैं-मैंने कुछ पढ़ा नहीं।”

मौसी चली गयी। शेखर किताब सामने खोलकर सोचने लगा-उस दिन शारदा को क्या हुआ था? वह क्यों रोई थी?

तभी नीचे से किसी के खिलखिला कर हँसने की आवाज आयी। शेखर चौंका, फिर किताब उठकर जोर-जोर से पढ़ने लगा।

शशि कितना हँसती है...

शारदा और तरह हँसती थी। उस दिन जब परीक्षा की बात हुई थी-

परीक्षा! पढ़ाई। ज्यामेट्री की किताब।

शशि ने आकर कहा-”भाईजी, माँ रोटी खाने को बुलाती हैं।”

शेखर सोचने लगा, यदि शशि उसे भाईजी न कहकर शेखर कहे, तो हर्ज है? वह उससे बहुत बड़ा नहीं। प्रकट बोला, “चलिए, मैं अभी आया।”

उसे नहीं समझ आया कि शशि किस प्रसंग में कह रही है, “मैं आपसे बड़ी थोड़े ही हूँ?”

शशि चली गयी। शेखर फिर ज्यामेट्री की किताब की ओर देखने लगा।

शेखर दिन में सोलह-सोलह घंटे पढ़ता था और तब उठता था, जबकि उसका मस्तिष्क बिलकुल थक जाता था, काम से जवाब दे देता था। फिर भी चारपाई पर लेटते ही उसका मस्तिष्क इतने विचारों से, चित्रों से भर जाता था; इतनी जिज्ञासाएँ उसके मन में जाग उठती थीं...

उसके पड़ोस में एक लड़की रहती थी। वह कुछ पागल-सी थी, उसकी आँखें भी भैंगी थीं, और आसपास के लड़के उसे आती-जाती देखते, तो एक स्वर से पुकार उठते, “सुमित्री-कानी तीतरी!”

शेखर यह सुनकर या उसे देखकर एकाएक हँस उठता था। पर जाने क्यों, वह और किसी की परवाह नहीं करती थी, शेखर को हँसता देखकर उसकी आँखों में पीड़ा के आँसू आ जाते थे। एक-दो बार यह देखकर शेखर ने हँसना छोड़ दिया था। तब सावित्री उसे कहीं बैठा या पढ़ता देखकर, उसके पास चली आती थी और चुपचाप खड़ी रहती थी। कोई और आ जाता तो भाग जाती, नहीं तो लगातार घंटा-भर भी खड़ी रहती। शेखर उसे कभी बुलाता भी नहीं, वह भी कभी नहीं बोलती, केवल शेखर को पढ़ते देखती रहती।

धीरे-धीरे शेखर उसके वहाँ होने का अभ्यस्त हो गया। बल्कि उसकी प्रतीक्षा भी करने लगा। पढ़ते समय यदि वह न होती, शेखर का ध्यान पढ़ने में न लगता, वह उसकी प्रतीक्षा करता और सोचता रहता, वह क्यों नहीं आयी अभी तक?...

बीच-बीच में कभी उसे शारदा का ध्यान आ जाता, वह अपने को कोसने लगता। क्यों मैं और किसी की कल्पना भी करता हूँ? मैं शारदा को प्यार करता हूँ-और दुनिया में कोई नहीं है, कोई नहीं होना चाहिए...तब वह दाँत पीसकर अपने को पढ़ाई में लगाने की चेष्टा करता था-पढ़ाई में और सभी को भुला देने की, ताकि शारदा के अतिरिक्त कोई उसके भीतर कहीं स्थान न पाये...

शशि दोनों समय उसकी रोटी लाती। सब लोग चौके में खाते थे, वह कमरे में खाता था। और रोटी खिलाने का काम शशि के सिपुर्द किया गया था। शशि उससे कभी पूछती नहीं कि खाना ले आऊँ? जब समय हो जाता, या जब वह उचित समझती, तब खाना लाकर शेखर की मेज पर से किताबें एक ओर हटाकर रख देती और कुछ दूर पर खड़ी रहती। शेखर कोशिश करता कि उसकी उपस्थिति को भूल जाय, पढ़ता रहे, पर कुछ ही देर बाद कितना बन्द करके चुपचाप खाने लगता। जो चीज क़म हो जाती, शशि स्वयं ला देती, उसे माँगने की जरूरत नहीं पड़ती, बल्कि उसके इनकार करने का भी कुछ असर नहीं होता। शशि को चीज देनी होती दे जाती, वह चाहे लाख रोकता रहे। पर बोलती वह कभी नहीं थी। कभी शेखर बात करने के लिए कह देता, “बहिनजी, अमुक चीज ला दीजिए”, तो वह चुपचाप ही आज्ञा का पालन कर देती, हाँ-न कभी न करती।

यह भी शेखर की पढ़ाई में विघ्न डालने लगा। वह इसी को लेकर सोचता रहता है कि क्यों, कब, कैसे, क्या; और भूल जाता कि उसे पढ़ाई करनी है...एक दिन तंग आकर उसने मौसी के पास नालिश की, “मौसी, बहिन हमसे बोलती नहीं है। इन्हें कहिए, बोला करें।”

मौसी ने हँस दिया। लेकिन उस दिन शाम को जब शेखर खाना खा रहा था, तब शशि ने कहा, “मैंने आपकी शिकायत की है,” और बाहर चली गयी। उसके बाद शेखर को स्वयं दाल-रोटी इत्यादि माँगनी पड़ी। दूसरे दिन उसने कहा, “मैं भी चौंके में भोजन करूँगा।”

वह चौके में गया, तो मौसी ने कहा, तो मौसी ने कहा, “शेखर, शशि कहती है कि तुम उसे बहिन जी मत कहा करो, वह तुमसे छोटी है।”

“लेकिन मुझसे तो वह बोलती ही नहीं?”

“इसलिए नहीं बोलती।” कहकर मौसी हँसने लगीं।

शेखर बोला, “तो हमें पहले ही बता देतीं।” लेकिन उसके बाद उसे जब भी मौका मिलता, वह शशि के पास से जाते हुए खामखह कह देता, “बहिनजी!” और वह भी कभी नहीं बोलती...

इस प्रकार, जब शेखर सावित्री की प्रतीक्षा न कर रहा होता, तब इस ताक में होता कि शशि, उसके पास आये वह उसे चिढ़ा सके। उसे नहीं जान पड़ता कि पढ़ाई के समय का कितना अंश पढ़ने में बीतता है और कितना इन प्रतीक्षाओं में...

और कभी शारदा का ध्यान आ जाता, तो वह अनुपात और क्रोध से जल उठता कि क्यों उसने अपने समय का एक क्षण भी शारदा के अतिरिक्त किसी को दिया है...

इसी प्रकार उसकी पढ़ाई होती रही, और परीक्षा भी हो गयी।

शेखर जब लौटने लगा, तब उसने सबसे विदा माँगी, केवल शशि से नहीं माँगी। माँग ही नहीं सका, क्योंकि जभी उसने आरम्भ किया, ‘बहिनजी-’ तभी शशि वहाँ से चली गयी।

पर स्टेशन पर वह उसे छोड़ने आयी। जब वह गाड़ी पर बैठ गया, सब लोगों को प्रणाम-नमस्कार कर चुका, तब शशि ने पास आकर, हाथों की अँगुलियाँ मात्र जोड़कर अधूरा-सा प्रणाम करते हुए कहा, “अब भी आप बहिनजी कहेंगे!”

शेखर जैसे भर आया। उसने जल्दी से कहा, “शशि!”

गाड़ी चल पड़ी।

शेखर ने देखा, शशि के मुख पर मधुर-सी मुस्कराहट है। तब उसने एकाएक पुकारकर कहा, “बहिनजी!”

उतनी दूर से वह शशि की आकृति नहीं देख सका, यद्यपि शशि ने उसकी आवाज सुनी जरूर।

लेकिन जब गाड़ी स्टेशन से निकल गयी, तब शेखर को सावित्री, शशि, मौसी, पढ़ाई, परीक्षाफल, सब कुछ भूल गया। एक ही बात उसके मन में रह गयी-कि वह दक्षिण लौट रहा है, और दक्षिण में शारदा है।

यह बात उसके शरीर, मस्तिष्क, मन और आत्मा में इस प्रकार छा गयी कि उस भौतिक संसार का उसे ज्ञान ही न रहा।

और घर पहुँचकर भी, जब उसने जाना कि एक तार इस आशय का आया है कि उसका बड़ा भाई ईश्वर कॉलेज से लापता हो गया है, तब इस समाचार की कोई विशेष छाप उस पर नहीं पड़ सकी; उसे समझ ही नहीं आया कि उसके माता-पिता इतने उद्भ्रान्त-से क्यों हैं, और उसके छोटे भाई क्यों दबे-से, चुपके-से रहते हैं...उसके मानो पैर ही पृथ्वी पर नहीं पड़ते, वह धरती से एक खास ऊँचाई पर चल रहा था, जिससे संसार की कुल शक्तियाँ मिलकर भी उसे नीचे नहीं खींच सकतीं...उसका शरीर मानो अभी तक उसके हाथों के दबाव के नीचे का कम्पन अनुभव कर रहा था, उसकी घ्राणेन्द्रियाँ मानो अभी तक नीम के नये बौर की सुगन्ध से उसे बेहोश किये जा रही थीं...

किसी तरह उसने वह पहला दिन घर ही में बिताया। दूसरे दिन सवेरे ही उठकर घूमने निकला। वह वृक्ष पर गया। वहाँ वह नहीं था। कोई कारण भी नहीं था कि हो। तब वह अपने पहाड़ की चोटी पर गया। वहाँ से सामने युकलिप्टस के पेड़ों का वह कुंज तो दिखता था, लेकिन उसके ऊपर से ‘गरुड़-नीड़’ की चिमनी से उठे हुए धुएँ का स्तम्भ नहीं दीख रहा था।

शेखर उतरकर भागता हुआ कुंज की ओर चला। ‘गरुड़-नीड़’ के पास पहुँचकर उसने देखा, वहाँ बड़ी घनी शान्ति है। कहीं कोई नहीं है। घर में ताला लगा हुआ है। शीशों में से झाँककर देखा, कहीं सामान इत्यादि भी नहीं पड़ा है, मकान बिलकुल खाली है।

वहाँ भी वह नहीं था। शेखर सीढ़ियों पर बैठ गया।

जब वह उठा, तब वयःसन्धि का ज्वार समाप्त हो गया था।

रसोई के साथवाले कमरे में अकेला बैठा हुआ शेखर भोजन कर रहा है। रसोई-घर में माँ बैठी रोटी कर रही है।

शेखर के हाथ और मुँह तो खाने की क्रिया में सहयोगी हैं, पर उसका मन वहाँ नहीं है। वह कहीं भी है, इसका निश्चय नहीं है। रोटी खत्म होती है, तो शेखर को ध्यान नहीं रहता। माँ रसोई से आवाज देती है, ‘रोटी ले जाओ’ तो जाकर ले आता है।

हाथ में गुलाबी रंग के दो-तीन कागज लेकर शेखर के पिता शेखर के पास से होकर रसोईघर में चले गये। उनकी आकृति से शेखर को जान पड़ा कि कोई असाधारण समाचार है, और वह रोटी चबाना भूलकर अनमना-सा बैठकर सुनने लगा कि क्या बात होती है।

ईश्वरदत्त का पता मिला है। वह बम्बई में है, वहाँ पुलिस में भरती होने की कोशिश कर रहा है। वहाँ उसने कॉलेज का पता तो दिया है, पर पिता का नाम झूठ बताया था। कॉलेज में कुछ जाँच हुई थी, वहीं से तार आया है।

थोड़ी देर मौन रहता है। शेखर समझता है, बात समान हो गयी; पर फिर माँ बोलती है-”अबकी बार वह लौटकर आये तो उसकी शादी कर लो।”

पिता-”उँह, शादी से क्या होगा?”

फिर थोड़ा-सा चुप। फिर कहती हैं; ऐसे जैसे किसी और ही विषय की बात हो, “अजीब लड़का है। भला ऐसे का कोई विश्वास करे?”

पिता एक धीमा, कुछ अनिश्चित, कुछ विचार-भरा एक ही अक्षर कहते हैं, “हूँ?”

फिर एक मौन-अभिप्राय से भरा हुआ। फिर माँ कहती हैं, और सच पूछो तो-एकाएक उनका स्वर बहुत धीमा हो जाता है, पर इतना नहीं कि शेखर न सुन सके, “सच पूछो तो मुझे इसका भी विश्वास नहीं है।”

इसका!

शेखर का मुँह खुला रह जाता है, आँखें फट-सी जाती हैं, दुनिया भूल जाती है-वह कहीं बहुत ऊपर से गिरता है। एक धधकती हुई नेत्रहीन अनुभूति से दीवार को भेदकर वह देखता है, माँ की मुख-मुद्रा, उनकी आँखों का एकाएक थम गया-सा भाव और शेखर की ओर इंगित किया हुआ अँगूठा।

इसका!

शेखर ने उसे देखा नहीं; एक नेत्रहीन, कर्णहीन, मनहीन अनुभूति से उसे सोखा-सा गया-विष को!

इसका!

वह लड़खड़ाता-सा उठा और उस कमरे से बाहर चल दिया! हाथ धोने को रसोईघर की ओर नहीं गया। पीछे माँ ने पूछा, ‘रोटी लेगा?’ और उत्तर न पाकर झुँझला कर कहा, “यह मुआ मुझे बहुत सताता है-इसके ढंग समझ ही नहीं आते।”

पिता ‘मुआ’ शब्द के प्रयोग का क्षीण विरोध करने लगे...

यह सब शेखर ने मानो द्वैतीयिक चेतना से सुना। उसके बाद उसके भीतर-बाहर सर्वत्र एक अन्धकार-सा छा गया...

इसका!

इस एक शब्द ने उस जड़ता को तोड़ दिया, जो शारदा के जाने से शेखर पर कब्जा कर बैठी थी, पर उसे कहाँ ले जा फेंका, कहाँ गिरा दिया, उसके भीतर उसके जीवन में क्या कुछ तोड़ दिया! जिधर जिसे वह देखता, एक ‘कुछ’ अपना अँगूठा उसकी ओर दिखाकर कहता, “इसका”!

“इसका! इसका! इसका!”

रात हो गयी। शेखर उस समय से अपने कमरे में बैठा है, बिलकुल पाषाण-सा। उसने कुछ खाया-पिया नहीं और इसके लिए गालियाँ सुनीं, जो उसे छू नहीं गयीं, यद्यपि वे बहुत जली-कटी और आँसुओं का भार लिए हुए थीं। पिता डाँट-डपटकर चले गये; माँ भी कह-सुनकर, रो-पीट-झींककर चुप हो गयी। सब सो गए। शेखर ने अपने कमरे के दरवाजे बन्द कर लिये और बती बुझाकर बिस्तर पर बैठा सुलगने लगाँ उसके भीतर वह अथक भाव, जो पता नहीं, क्रोध था या ग्लानि, या घृणा, या क्या, इतना उग्र था कि विचारों में नहीं बँधता था उसका मस्तिष्क नहीं, समूचा शरीर ही एक साथ खिंच रहा था और कुचला जा रहा था; उस भावना की अनुभूति ही इतनी व्यापिनी और स्तम्भित कर देने वाली थी कि उसने किसी प्रकार की भी इच्छा (ष्टशठ्ठड्डह्लद्बशठ्ठ) के लिए स्थान नहीं छोड़ा; शेखर की सम्पूर्णता ही अवसाद का एक फफोला बनी हुई थी...जो फूट गया। शेखर अन्धकार में ही उठा और मेज के खाने का ताला खोलकर एक कापी निकालकर अँधेरे में ही लिखने बैठ गया...।

पता नहीं कितनी देर तक-पता नहीं, क्या-क्या?

वह कापी शेखर की डायरी थी-उस वर्ष में उस पर किए गए अन्यायों और अत्याचारों का इतिहास (क्योंकि उसे इतना सुरक्षित रखने पर भी शारदा की बात उसमें लिखने का साहस उसे नहीं हुआ)-और दो-तीन महीनों में कितना अत्याचार किया जा सकता है!

जब रात समाप्त हुई, तब शेखर बहुत देर से लिखना समाप्त कर चुका था, और अँधेरे को फाड़कर देखता रहा था, सोया नहीं था। और लिखे हुए में से एक वाक्य घूम-घूमकर, मरुभूमि में गर्म आँधी की तरह हू-हू करता हुआ उसके सिर में गूँज रहा था-

Better to be a dog, a pig, a rat, a stinking worm than to be a man whom no one trusts... (अविश्वसनीय मनुष्य होने से कुत्ता, सुअर, चूहा, दुर्गन्धित कृमि-कीट होना अच्छा है...।)

एकएक शेख उठ खड़ा हुआ और दीवार से अँग्रेजी में बोला, (जाने क्यों वह घृणा का भाव और किसी भाषा में व्यक्त कर ही नहीं सकता।)

‘I hate her. I hate her.’

फिर, जब अभी कोई नहीं उठा था, उसने कपड़े पहने और अपने कमरे की खिड़की के रास्ते बाहर कूदकर किसी ओर को चल पड़ा।

सूर्योदय तक शेखर सात-आठ मीर चला आया था। एक बड़े-से बाग में एक कीच भरे पोखरे के पास वह बैठ गया था। उसने बहुत कुछ सोच डाला था-स्त्री-हत्या से लेकर आत्महत्या तक सभी प्रकार के साधनों पर विचार कर चुका था।

शेखर की मानसिक गढ़न की किरा सामर्थ्य ने या शिक्षा के किस सिद्घान्त ने, या किस अपर शक्ति की किस प्रेरणा ने उस दिन उसे बचाया, यह वह नहीं जान सका। किस चीज, किस दुर्घटना से बचाया, इसकी भी कल्पना सह नहीं कर सका। इतना अनुमान उसका अवश्य है कि उस दिन उसके भीतर जो जिघांसु असुर जागा था, उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं था, कुछ भी जघन्य नहीं था, कुछ भी नीतिभ्रष्ट नहीं था; क्योंकि वह असुर जघन्य और अनुकरणीय नीति और अनीति के विचार से, विचारशक्ति मात्र से, कहीं अधिक पुराना था...।

शेखर ने जेब से कागज पेंसिल निकाली और एक प्रतिज्ञा लिखने लगा।

“माँ का कोई काम नहीं करूँगा; कोई काम नहीं करूँगा, जिसमें कि उसे बाध्य होकर भी मेरा रत्ती-भर विश्वास करना पड़े; उससे बोलूँगा ही नहीं; कभी कोई पूछेगा तो भी कहूँगा कि वह मेरी माँ ही नहीं है-”

और किसी उपन्यास में से निकलकर एक आवाज बार-बार कहती जाती थी-”विमाता है! विमाता है! विमाता है!”

एकाएक स्वयं उसके बिना जाने, उसमें एक परिवर्तन होता है। उसके शरीर पर कुछ छा जाता है, रंग की तरह, लाल रंग की तरह, जैसे सूर्य की किरणें एकाएक शीशे में से छनकर आने लगी हों...।

वह उस प्रतिज्ञापत्र को फाड़कर गीली नरम भूमि पर पटक देता है, और अपने बड़े-बड़े बूटों से कुचलता है, कूटता है, जब तक कि वे टुकड़े मिट्टी के नीचे दब नहीं जाते, अदृश्य नहीं हो जाते...।

मैं क्यों हार मानूँ? कोई विश्वास नहीं करता, न करे। मैं योग्य हूँ। योग्य बनूँगा, रहूँगा। इस चोट को चुपचाप सहूँगा, इस अपमान को पिऊँगा और दीखने नहीं दूँगा। और सारे संसार का विश्वास और आदर पाकर उसे माँ के मुँह पर पटक दूँगा और कहूँगा, “यह देख! मैं इसे ठुकराता हूँ!”

अपनी विकसित होती हुई आत्मा में एक भाग और छिपाकर एक प्रशान्त विद्रोही बनकर शेखर घर लौट आया।

अगर शेखर ने मौत नहीं माँगी तो इसीलिए कि उसकी दशापहले ही मौत से बुरी थी-वह मौत माँगने लायक भी जीता नहीं था।

प्रेम की और त्याग की विरुदावली बहुतों ने गायी है, घृणा और वासना की प्रशंसा कभी किसी ने नहीं की। लेकिन शेखर के जीवन को उन दिनों इन्हीं दो शक्तियों ने सम्भव बनाया-घृणा ने ही उसे इतनी शक्ति दी कि वह सब कुछ खोकर भी संसार को ललकारे और वासना ने उसे जगाया कि वह चोट का सामना करे, जो उसके हृदय को लगी है।

शेखर पिता, माता, सरस्वीत, शारदा और अन्त में स्वयं अपने को खो चुका था। इतना अपंग होकर वह इस लायक नहीं रहा था कि कुछ सोच भी सके। लेकिन धीरे-धीरे इन दो विषों के प्रताप से उसमें जान जाने लगी...स्वस्थ आदमी को शराब पागल कर देती है, लेकिन बेहोश आदमी को स्वस्थ करने के लिए उसकी जरूरत पड़ती है...

कविता और संगीत शेखर के लिए निरर्थक हो गये थे। अपने अत्यन्त प्रिय रेकार्ड सुनकर उसे तनिक भी सुख नहीं हुआ-पर क्रोध में उन्हीं रेकार्डोको पटककर और तोड़कर उसे कुछ थोड़ी-सी शान्ति मिल गयी थी...वह निष्प्राण-सा अपने कमरे में या बाहर-या कहीं भी, सब स्थान उसके लिए एक से थे-बैठा रहता, और बस बैठा रहता...

कोई उसे कुछ कहता तो वह सुनता ही नहीं था। लेकिन कभी-कभी उसके पास कहीं कोई और बातें कर रहे हों, तो वे उसे सुन जाती थीं।

माता-पिता बैठे कुछ बात कर रहे थे; शेखर अलग बैठा था। एकाएक उसे ध्यान आया कि उसने उनकी बात सुन भी ली है, समझ भी ली है।

शेखर के पिता तभी दौरे से आये थे। माँ उनकी लायी हुई वस्तुओं की आलोचना कर रही थीं। मदुरा की एक महीन धोती की बात करते हुए पिता ने कहा, “वह मैं सरस्वती के लिए लाया हूँ, तुम कपटी थीं न कि एक उसे भेजनी है-”

माँ बोलीं, “वह? उसे क्यों भेजनी है, ऐसी सुन्दर धोती? उसे तो रस्म पूरी करने के लिए भेजनी है-मामूली धोती से काम चल जाएगा। वह मैं आप न पहनूँगी?”

कई दिन तक शेखर इस ताक में रहा कि किसी तरह वह साड़ी उसके हाथ लगे तो वह उसे जला डाले, या फाड़ डाले, माँ पहन न पाए...पर वह जाने कौन-से बक्स में धर दी गयी, फिर कभी नहीं निकली, न माँ ने कभी पहनी। और शेखर ताक में ही रह गया।

शेखर वैसे ही बैठा था, और ‘गीतगोविन्द’ के दो पद धीरे-धीरे गुनगुना रहा था-इतना अन्यमनस्क कि वह स्वयं भी नहीं जानता था-

ललित-लवंग-लता-परिशीलन कोमल-मलय-समीरे-

मधुकर-निकर-करम्बित-कोकिल कूजित-कुंज-कुटीरे।

उसने कई बार पिता को ये पद गाते सुना था। इनका अर्थ वह नहीं जानता था, पर इनके शब्दों में कुछ ऐसा माधुर्य था कि वे उसे पहली बार सुनने पर ही याद हो गये थे, और वह बहुधा उन्हें दोहराया करता था।

तभी पिता आये और शेखर को गाते सुनकर बोले, “यह तुमने कहाँ से पढ़ा?”

“मुझे याद है।”

“और भी कोई याद है?”

“हाँ”

“कौन-सा?”

“धीर समीरे यमुना तीरे वसति वने वनमाली, गोपी-”

पिता ने टोककर क्रुद्ध स्वर में पूछा, “तुमने ‘गीतगोविन्द’ पढ़ा है?”

“नहीं।”

“फिर ये कहाँ से सीखा?”

“आप गाया करते हैं-मैंने सुनकर याद कर लिए।”

बहुत दिन से पिता ने शेखर को पीटा नहीं था। वे शायद उसे वयस्क समझने लग गये थे।

लेकिन उस समय उन्हें ऐसा क्रोध आया कि उन्होंने तीन-चार तमाचे उसके लगा दिये।

“पता नहीं, हो क्या गया है सब लड़कों को। गन्दी-गन्दी बातें ही सीखते हैं।”

शेखर ने मन-ही-मन निश्चय किया कि कैसे भी हो, ‘गीतगोविन्द’ अवश्य पढ़ना होगा।

खोद-खादकर उसने पिता की संस्कृत पुस्तकों में से ‘गीतगोविन्द’ निकाल लिया-सटीक। पहले तो वह सारी पुस्तक पढ़ गया, वह उसे इतनी मधुर लगी कि अधिकांश उसे कंठस्थ भी हो गयी। फिर उसे यह जानने की चिन्ता हुई कि पिता क्यों क्रुद्ध हुए थे, और तब वह टीका पढ़कर पुस्तक समझने की चेष्टा करने लगा। टीका संस्कृत में थी, पर कुछ मूल, कुछ टीका और कुछ अटकल से वह अर्थ करता हुआ बढ़ने लगा...

वह समझा और नहीं समझा। उसमें एक उद्वेग, एक जुगुप्सा भरने लगी, और उसे नहीं समझ आया कि क्यों। पढ़कर उसे ग्लानि होती, ग्लानि से वह और पढ़ता; कृष्ण से उसे घृणा होती, घृणा में वह अपने को कृष्ण के स्थान में रखता; और अनवरत उसकी आत्मा अपने आपसे ही पूछती जाती, क्यों, क्यों, क्यों...

उसकी आँखों के आगे असंख्य चित्र नाचने लगे-असंख्य भूली हुई बातें, संकेत, प्रकाश और अँधकार के छोटे-छोटे पुंज...

पिता...

माँ...

रसोइया...

नौकरानी अत्ती...

काश्मीरिन आया जिन्निया...

फिर अमृतसर में कन्हैया के कटरे का एक दृश्य...

वह परीक्षा देकर लौट रहा था। रास्ते में अमृतसर देखने के लिए उतरा-साथ लाहौर से भेजा हुआ एक व्यक्ति था, जिसे अमृतसर दिखाने का काम सिपुर्द किया गया था। स्वर्ण-मन्दिर, जलियाँवाला इत्यादि स्थान देख चुकने के बाद साथी ने कहा था, “अब एक नयी चीज देखें,” और शेखर को साथ लिए उस कटरे में घुस आया था।

शाम का वक्त था। कटरे में निचली मंजिलों में कुछ दुकानें खुली थीं-बजाजों की, हलवाइयों की, पकौड़ीवालों की, और जहाँ-तहाँ गजरेवाले बैठे चिल्ला रहे थे। पर बाजार की शोभा थी ऊपर की मंजिलें-वहाँ प्रकाश जगमगा रहा था और प्रत्येक खिड़की या छज्जे पर बैठी थीं सुन्दरियाँ...शेखर की अनभ्यस्त और भोली आँखों को लगा कि इतना विपुल सौन्दर्य उसने कभी नहीं देखा। एकाएक वह एक जगह ठिठक गया। ऊपर से एक अत्यन्त मुस्कराता हुआ मुख उसकी ओर देख रहा था। शेखर देखता रहा-स्थिर, अपलक, स्तब्ध, विस्मय में डूबा हुआ देखता रहा। इतना सौन्दर्य! उसकी भोली आँखों ने भी देखा कि आँखों के आसपास नीले-से वृत्त बने हुए थे-लेकिन उसके मन ने कहा कि शायद काजल के आधिक्य से है-और फिर, वहाँ आलोचना करना सम्भव कब था उसके लिए? वह स्वच्छ, आनन्दित विस्मय, इतना सौन्दर्य! लेकिन उसके साथी ने उसकी ओर देखा, एक कर्कश भद्दी हँसी हँसकर उसे खींचते हुए कहा, “ये साली बच्चे-बूढ़े का भी ख्याल नहीं करतीं-” और अभी शेखर चलता हुआ इस वाक्य का अभिप्राय सोच ही रहा था कि साथी ने फिर कहा, “जिम्मेदारी है, नहीं तो-” आप चुप हो गया।

फिर पिता के संग्रह में चोरी से देखा हुआ छिन्नमस्ता का एक चित्र, जिसके अधोभाग को एक कागज की पत्ती लगाकर पिता ने ढका हुआ था, शेखर ने उघाड़कर देखा था...

शेखर मानो काँपने लगा, उसका जी मिचला-सा उठा, उसे लगा कि असंख्य बिच्छू उसे काट रहे हैं, लेकिन उनके दंश में विष नहीं, मधु है-इतना मीठा था वह दंश...

अत्ती की आयु कोई बीस वर्ष की थी। अपने देश और जात की स्त्रियों की तरह वह एकवसना रहती थी। एक रंगबिरंगी चारखानी धोती से सारा शरीर ढँके रहती थी, सिर उसका खुला रहता था और बहुधा एक कन्धा भी उघड़ा रहता था।

उसका बदन साधारण था, न लम्बा, न नाटा, न दुबला, न बहुत भरा हुआ। लेकिन वह खूब स्वस्थ थी। और उसके शरीर में रक्त खूब था। उसके बाल कुछ मोटे और खून घने काले थे, माथा बहुत छोटा, भौंहें भी छोटी, पर काली, नाक भी छोटी, पर कुछ उठी हुई-सी, और ठोड़ी पीछे हटती हुई-सी थी। यों कहा जा सकता है कि उसके चेहरे में कुछ बड़ा था तो उसकी आँखें ही, बाकी सब कुछ छोटा था। वह सुन्दर नहीं कही जा सकती थी, लेकिन उसमें एक चंचल आकर्षण था, जो दृश्य होते ही इसकी गुंजाइश ही नहीं रहने देता था कि कोई उसकी सुन्दरता या असुन्दरता की विवेचना करने की ओर जाय।

वह सदा हँसती रहती थी। हरेक बात में, हरेक के साथ हँसी ही उसका निगध और साधन था। शेखर के साथ बात करते भी (या बात न करते भी, शेखर को देखकर) वह हँसा करती थी। कभी-कभी शेखर को लगता था, उस हँसी में कुछ गम्भीरता है, कुछ अभिप्राय है। वह समझ नहीं पाता था कि क्या, लेकिन सदा यह विचार आते ही वह अशान्त और उद्विग्न हो उठता था...

कभी, जब वह अत्ती के पास कहीं होता, तब अत्ती काम में ऐसे लगी रहती, जैसे उसे मालूम ही न हो कि वहाँ है। वह कभी तो देखता रहता, और उसे चौंकाने के लिए कोई शब्द करता; लेकिन अत्ती कभी चौंकती नहीं, शब्द सुनकर अपनी धोती ठीक करके उसमें सिमट जाती और मुस्कराती हुई काम करती जाती...

एक दिन वह शेखर के कमरे में बुहारी दे रही थी, जब शेखर बाहर से आया। अत्ती की पीठ द्वार की ओर थी, और वह झुककर बुहारी दे रही थी, इसलिए उसकी धोती का छोर पीठ पर से फिसलकर गर्दन पर जा रुका था और पीठ उघड़ी हुई थी। शेखर वह खड़ा देखने लगा, और यह जानकर कि अत्ती को उसके आने की खबर नहीं, वह धीरे-धीरे उसके पास आने लगा।

पास आकर वह सोचने लगा कि कैसे वह उसे चौंकाए, कोई शब्द करे या अत्ती की पीठ गुदगुदा दे।

गुदगुदाने का निश्चय करके वह आगे झुका ही कि उसने देखा, अत्ती दबे ओठों से मुस्कराती जा रही है-उसे शेखर का वहाँ होना मालूम है...उसे चोट-सी पहुँची, उसका बढ़ा हुआ हाथ रुक गया। अत्ती ने झट से सीधी होकर अपनी पीठ और कन्धे खूब अच्छी तरह ढक लिए, और छोरवाला कन्धा शेखर की ओर करके, उसके ऊपर अपनी ठोड़ी सटाकर हँसने लगी।

मेरे आने का इसे पता है, इस विचार से जहाँ शेखर को चोट पहुँची, वहाँ एकाएक बड़ी तीखी उत्तेजना भी मिली; जानकर ही तो वह वैसे खड़ी थी। शेखर ने बढ़कर उसकी धोती का छोर पकड़ लिया, कि उसे खींचकर पहले-सा ही उधाड़ दे। अत्ती जैसे अपने बचाव के लिए उसकी ओर को कुछ झुक गयी। उसका सिर शेखर के मुँह के बहुत पास आ गया-

एकाएक शेखर उसका आँचल छोड़कर पीछे हट गया।

दोनों हाथों से पकड़े हुए एक छोटे-से सिर और नीम के सौरभ की याद उसके आगे नाच गयी...

शेखर जल्दी से कमरे से बाहर निकल गया, अपने पीछे किवाड़ उसने धड़ाक से बन्द कर दिये...

शेखर के घर से कुछ दूर पर दूसरा घर था, जिसके बाहर धूप में आराम-कुर्सी पर प्रायः एक 18-19 वर्ष की लड़की लेटी रहती थी। नाम उसका शान्ति था। शेखर ने सुना था कि वह तपेदिक से आक्रान्त थी और तभी वैसे पड़ी रहती थी। शेखर ने यह भी सुना था कि वह बहुत दिन जिएगी नहीं और जबसे उसने यह सुना, तबसे अक्सर सबकी आँख बचाकर वह अपने घर के एक ओर खड़ा होकर शान्ति की ओर देखा करता था। कभी उसके मन में दया उत्पन्न होती, कभी सहानुभूति, कभी बहुत खिन्न होने पर वह शान्ति से ईर्ष्या भी कर लेता कि उसे इस जीवन से जल्दी छुटकारा मिल जाएगा...

शान्ति कभी आँख उठाकर उसकी ओर देख लेती, तो वह तत्काल वहाँ से हट जाता। उसे डर था कि उसे देखता पाकर वह वहाँ बैठना न छोड़ दे...

एक दिन शान्ति ने उसकी ओर देखा, और मुस्करा दी। शेखर सोच ही रहा था कि वहाँ से हट जाय या तनिक ठहर जाय, कि उसने हाथ के इशारे से उसे बुलाया, और शायद पुकारा भी।

शेखर ने एक बार सशंक नेत्रों से अपने घर की ओर देखा, फिर चला गया।

शान्ति ने अपनी कुरसी के पास फैली हुई घास की ओर इशारा करते हुए कहा, “बैठो।”

शेखर बैठ गया। बैठकर उसने देखा, वह अपने घर से दीख नहीं सकता, एक कनेर के झाड़ की ओट उसे प्राप्त है, वह कुछ और आराम से बैठ गया।

शान्ति ने कहा, “तुम्हारा नाम शेखर है न?”

शेखर ने कुछ विस्मय से कहा, “हाँ।”

“मैं तुम्हारे घर की कई बातें यहाँ से सुन लेती हूँ-तुम्हारी माँ बहुत जोर से बोलती हैं।”

शेखर चुप रहा।

थोड़ी देर बाद शान्ति फिर बोली, “तुम क्या देखा करते हो?”

शेखर झेंप गया, सिर झुकाकर अपने पैरों के नाखून गिनने लगा।

शान्ति ने कुछ कोमल स्वर से कहा, “बताओ, क्या देखा करते हो?”

“कुछ नहीं।”

“कुछ कैसे नहीं? मैं तुम्हारी तरफ देखती हूँ, तो भाग क्यों जाते हो फिर? इसलिए मैं कई बार उधर नहीं देखा करती।”

शेखर चुप रहा।

“बताओ भी, इतना शर्माते क्यों हो?”

“मेरे पास एक चित्र है, उससे तुम इतनी मिलती हो”-कहकर शेखर रह गया।

“कौन सा चित्र?”

“लाता हूँ-” कहकर शेखर उठा और घर से चित्र लेता आया।

“यह देखो।”

शान्ति ने चित्र ले लिया, और देखते ही बोली, “अरे! यह तो मेरे पास भी है।”

“सच?” कहकर शेखर अपने स्थान पर बैठ गया।

चित्र रोजेटी का बनाया हुआ ‘बीएटा बीएट्रिक्स’ था, जिसे प्रायः ‘ग्लोरी आफ डेथ’ कहते हैं।

शान्ति ने कहा-”किसी दिन यह ग्लोरि मेरी भी होगी।” और एक विषादपूर्ण हँसी हँस दी।

शेखर कुछ उदास-सा हो गया। फिर बोला, “इसे ‘ग्लोरी आफ डेथ’ कहते हैं, वह गलत नाम है! असली नाम है ‘बीएटा-बीएट्रिक्स’ यानी बोएट्रिक्स की समाधि, रोजेटी की स्त्री एक बार बेहोश हो गयी थी, उसी का चित्र उसने बनाया था।”

शान्ति ने कहा, “अच्छा?” मानो कह रही हो, “तुम बहुत कुछ जानते हो।”

थोड़ी देर बाद शान्ति बोली, “कुछ बात सुनायी-मैं यहाँ अकेली पड़ी रहती हूँ, कभी-कभी आ जाया करो न। तुम बात किया करना, मैं सुनूँगी। मुझमें सुनने की पेशेंस बहुत है।”

“आया करूँगा लेकिन सुनाऊँगा क्या?”

“कुछ भी-कुछ अपनी बात, नहीं तो कहानी या कोई कविता ही।”

शेखर चुपचाप सोचने लगा। थोड़ी देर उसे देखते रहकर शान्ति ने कहा, “कुछ न सूझे तो चुप ही बैठे रहो-थोड़े ही दिन तो हैं।”

चौंककर-”क्यों!”

“हाँ और क्या! फिर तो मैं कितनी अकेली होऊँगी!”

शेखर उतना उदास हो गया कि चुपचाप वहीं बैठा रह गया, कुछ बोला नहीं, और कोई आधे घंटे बाद घर लौट आया।

शेखर बहुत बार शान्ति के पास जाने लगा। कभी वह कोई कहानी या कविता की पुस्तक ले जाता और उसे सुनाता, कभी चित्रों की किताब ले जाता, या कभी चुप ही बैठा रहता...उसे लगता, वह शान्ति का रक्षक है; कि शान्ति का शरीर नहीं है, एक शिशु-आत्मा है और वह उसका फरिश्ता...कभी शान्ति उसकी बात सुनते-सुनते कुरसी की पीठ पर सिर टेककर आँखे बन्द कर लेती, तब वह रुककर कुछ देर उसके सफेद मुख की ओर देखता रहता, फिर चिन्तित स्वर से पढ़ने लगता, मानो उसके पढ़ते रहने से शान्ति के प्राण भी सुनते रहने के लिए अटके रहेंगे-उसके पढ़ना छोड़ते ही वह उड़ जाएँगे...

एक दिन शान्ति ने कहा, ‘लाओ, आज मैं कुछ सुनाऊँ? तुम सुनो।’

शेखर उस समय अँग्रेज़ी कविताओं का एक संग्रह लिये था, वह उसने शान्ति की ओर बढ़ा दिया। शान्ति कुछ देर पन्ने उलटती रही-फिर बोली, ‘हाँ, यह सुनाती हूँ-मुझे जवानी याद है।’ उसने किताब बन्द करके गोद में रख ली, लेटकर सिर पीछे टेककर, आँखें मूँदकर, धीरे-धीरे पाठ करने लगी :

Break, break, break,

On the cold grey crags, O sea!

And I would that my tongue could utter

The thoughts that arise in me,

Oh, well for the fisherman' s boy,

That he shouts with his sister at play!

Oh, well for the sailor lad

That he sings in his boat on the day!

क्षण भर रुककर वह आगे चली :

And the stately ships go on

To their haven under the hill—*

और फिर रुक गयी। शेखर कुछ देर प्रतीक्षा में रहा कि वह आगे बढ़ेगी (आगे की पंक्तियाँ शेखर को याद थीं) लेकिन वह चुप ही रही, और शेखर भी कुछ बोल नहीं सका...

  • टकरा, टकरा, टकरा तट की ठंडी घूसर चट्टानों से, ओ सागर! काश कि मेरी वाणी भी वे विचार प्रकट कर सकती, जो मेरे भीतर उठते हैं!

मछुए का बेटा सुखी है कि वह अपनी बहिन के साथ हँसता-खेलता है, नाविक सुखी है कि वह खाड़ी में अपनी नौका में बैठा गाता है;

और महाकाय जहाज पहाड़ी के नीचे बन्दरगाह की ओर बढ़े चले जाते हैं-

(शेष दो पंक्तियों का आशय यह है-

किन्तु कहाँ है एक तिरोभूत हाथ का स्पर्श, और एक मूक हो गये कंठ का स्वर।)

शेखर शान्ति के कंठ की ओर देखने लगा। कितना श्वेत, चाँदनी की तरह शुभ्र था वह! और त्वचा मानो पारदर्शी थी-शेखर को उसमें नाड़ियों की स्पन्दनयुक्त नीली-नीली रेखाएँ साफ दीख रही थीं...

सारे संसार की कितनी उपेक्षा है उस स्पन्दन में-कितनी लापरवाही, अपने ही में कितनी तन्मयता!

इस समय वह कितनी सम्पूर्णतया उस चित्र जैसी लग रही है...

प्रत्येक स्पन्दन उसे लिए जा रहा है मूर्च्छा की ओर-समाधि की ओर...

या कि-ग्लोरि आफ डेथ...मृत्यु का गौरव...

एकाएक शान्ति ने आँखें खोलीं-शेखर को वह खोलना ऐसा चेष्टाहीन लगा मानो अपने-आप खुल गयी हों-और एक क्षीण, कोमल स्वर ने कहा, “क्या देख रहे हो?”

वह अनपेक्षित था; लेकिन इतना कोमल था कि शेखर चौंका नहीं। उसने रुकते हुए स्वर में कहा, “शान्ति, मैं तुम्हें छू सकता हूँ?”

शान्ति ने आँखों से ही अनुमति देते हुए कहा, “आओ।”

शेखर ने पास जाकर बड़े आदर से, डरते-डरते अपना एक हाथ शान्ति की ठोड़ी के नीचे, कंठ पर रख दिया-रख नहीं दिया, उँगलियों से कंठ छुआ भर।

शान्ति ने सिर आगे झुकाकर उसकी उँगलियाँ ठोड़ी से दबा लीं-बहुत ही हल्के, कोमल, कृतज्ञ-से दबाव से...

शेखर खड़ा रहा।

शेखर के हाथ पर टप-से एक बड़ा-सा आँसू गिरा, और हाथ के नीचे कंठ एक बार कुछ काँप गया।

शेखर के हाथ पर दबाव नहीं था, पर वह हाथ नहीं छुड़ा सका।

थोड़ी देर बाद शान्ति ने सिर उठाकर पीछे टेक लिया! शेखर ने हाथ उठाया और धीरे-धीरे अपने घर की ओर चला गया-उसे लगा कि उसके बाद कुछ होना हो ही नहीं सकता।

रात को, स्वप्न में शेखर ने देखा कि शारदा तपेदिक से आक्रान्त होकर मर रही है, वह उसके पास गया है, और शारदा उसे कह रही है, “तुम मुझे भूल गये न, नहीं तो मैं मरती?” और उसके बड़े-बड़े गर्म आँसू टप्-टप् शेखर के हाथ झर रहे हैं...

शेखर जागकर उठ बैठा। उसने देखा, उसका सारा शरीर काँप रहा है। और अन्धकार, मानो उसे काटने लगा। उसने जल्दी से उठकर लैम्प जलाया, और उसे मेज पर रखकर बड़ी-बड़ी आँखों से उसकी ओर देखता हुआ बैठ गया...

सप्ताह भर वह शान्ति को देखने नहीं गया। दिन भर अपने कमरे के किवाड़ बन्द किये बैठा रहता...उसने सुना कि शान्ति को तेज बुखार हो गया है, माँ जाकर शान्ति को देख भी आयी और सहानुभूति भी प्रकट कर आयी, लेकिन वह कमरे से नहीं निकला।

अत्ती अब उसके सामने नहीं आती थी, न वह ही कभी अत्ती का सामना करता, या उसे कुछ कहता था। अब शेखर यह भी देखता था कि कभी सामना हो जाने पर अत्ती एक तिरस्कार या उपहास-भरी हँसी लिए रहती है, उसकी दृष्टि में एक अवज्ञा, एक ताना-सा रहता है।

इसीलिए वह उस दिन अपने कमरे में किवाड़ बन्द किये हुए बैठा इस बात के लिए तय्यार नहीं था कि अत्ती वहाँ आये। अत्ती ने किवाड़ खोलकर भड़भड़ाते हुए भीतर आकर कर्कश और ताने-भरे स्वर में कहा, “तुम्हारी वह शान्ति मर गयी है।”

साथ ही बाहर दूर से आयी चीखने की आवाजें...

अत्ती ठोड़ी उठाए हुए बाहर निकल गयी।

यह शेखर को तीन-चार मास बाद मालूम होना था कि अत्ती अपने घर चली गयी है, शादी करने के लिए-कि उसे नौकरी से बेइज्जत करके निकाल दिया गया है।

शेखर के मन में यह बिलकुल स्पष्ट था कि यदि वह शारदा से प्रेम करता है, तो शारदा के अतिरिक्त किसी भी स्त्री का विचार भी उसे नहीं होना चाहिए। और यह भी उसे स्पष्ट दीख रहा था कि ये विचार बराबर उसके मन में आते रहे हैं।

तब क्या वह शारदा से प्रेम नहीं करता?

इस विचार मात्र से उसका हृदय द्रोह कर उठता था-वह चाह उठता था अपने समूचे व्यक्तित्व से इस विश्वास को पा लेना, अपने में धारण कर लेना, कि वह शारदा से, केवल शारदा से प्रेम करता है...

या फिर, दूसरों का विचार मन में आने देना पाप नहीं है।

तब क्यों वह उत्तेजना और ग्लानि? क्यों वे अस्पष्ट माँगें, और उनसे उत्पन्न जुगुप्सा? क्यों उसी के मन में यह भाव रहता था कि वह पाप कर रहा है?

पर शान्ति का जो आकर्षण था, वह पापमय था? क्या उसके पास अन्त समय में न जाना ही पाप नहीं हुआ? उसने शान्ति को छुआ-छूने की अभिलाषा प्रकट की, क्या वह शारदा के प्रति विश्वासघात था? या शारदा की आड़ लेकर उसके पास न जाना ही शारदा के प्रति अन्याय था...क्यों वह स्वप्न...

शेखर का मन रुक गया-इससे आगे कुछ पूछा नहीं। लेकिन स्वयं शेखर को स्पष्ट जान पड़ रहा था कि उसके मन की गति बन्द नहीं हुई है, वह एक बड़े भारी प्रश्न के छोर पर है, जिसे वह पकड़ने की चेष्टा में है-व्यक्तिगत से वह एक बहुत बड़ा कदम बढ़ाकर व्यापक में जाना चाहता है...

पर-सतीत्व- chastity -है क्या चीज?

शेखर फिर सदा की भाँति पुस्तकों की शरण गया। उसने एक किताब देखी हुई थी, ‘What All Married People Should Know’ यही किताब उसने निकाली, और घर से बाहर जाकर एकान्त स्थल में बैठ पढ़ने लगा। वह जानता था कि यह पुस्तक उसके लिए नहीं है, लेकिन अनुभव से उसने यह भी सीख लिया था कि जो बातें वह जानना चाहता है, वे उन्हीं पुस्तकों में हैं जो ‘उसके लिए नहीं हैं।’

ज्ञान में न सुख है, न जुगुप्सा; लेकिन पढ़ते हुए शेखर को एक जुगुप्सामय सुख और एक सुखमय जुगुप्सा का अनुभव हो रहा था। वह कारण दोनों का नहीं जानता था, लेकिन एक विचित्र कँपकँपी, एक रोमांच-सा उसके कन्धों से लेकर भुजाओं और पीठ को कँपाता हुआ पैरों तक चला जाता था, और उसके अवयवो में जहाँ-तहाँ एक विवश, अनियन्त्रित स्पन्दन या फड़कन उठ रही थी...

वह जो कुछ पढ़ रहा था, सब ठीक-ठीक नहीं समझ रहा था, लेकिन काफी कुछ समझता जा रहा था, और अधिकाधिक व्यग्रता से पढ़ता जा रहा था...

एक-एक अध्याय-निर्वाचन; वर में क्या गुण देखने चाहिए; कन्या में क्या गुण देखने चाहिए; दोष जिनसे बचना चाहिए; वरण-कोर्टशिप, विवाह, संयम, और तब गर्भाधान...

तब बिजली की कौंध-से एक क्षण में, शेखर के हाथ से किताब छूट गयी, धरती उसके पैरों के नीचे से खिसक गयी, आँखों के आगे अँधकार छा गया-

दुनिया शेखर के आगे खुल गयी। वह सब कुछ समझ गया-जो अस्पष्ट संकेत उसने देखे थे, जो पुकारें सुनी थीं, जो उत्तेजनाएँ पायी थीं, जो दंश सहे थे, सब सुलझ गये माँ का छाती पीटना, पिता का क्रोध, नाचती हुई जिन्निया की नंगी टाँगें, अमृतसर की वेश्या, रसोइया का व्यंग्य, अत्ती की नंगी पीठ, गीतगोविन्द के पद, अठमासा बच्चा, छिन्नमस्ता के नीचे पुरुष और प्रकृति का चित्र, कविता का सुख...और हाँ, सरस्वती की लज्जा, शान्ति के आँसू, सावित्री का मौन, शशि का आग्रह, शारदा का कम्पन-सब एक ही सूत्र में गुँथ गये, स्पष्ट हो गये, समझ में आ गये न...सबकी गति एक ही ओर है, एक ही घृणित पाप-कर्म की ओर, जिसे उसके माता-पिता ने किया है, शारदा के माता-पिता ने किया है, सृष्टि के आरम्भ से प्रत्येक माता-पिता करते आये हैं। यही है प्यार, यही जिसके लिए वह शारदा को चाहता था; यह-अकथ्य, घृणित, अचिन्तनीय, भ्रष्टाचार...अच्छा है कि तुम मर जाओ, अच्छा है कि शारदा मर जाय, अच्छा है कि सारा संसार मर जाय-यदि यही होना है तो...

यह है ज्ञान; यह है सत्य, वास्तव; यह है यथार्थता, यह है ज्ञान...

इसके आगे अँधकार का एक परदा है। उस परदे के नीचे एक गति है, हलचल है, संघर्ष है, लेकिन वह व्यक्ति का इतना अभिन्नतम अंग है कि उसे कहना, उसे सोचना भी घोर अश्लीलता है...

उस परदे के नीचे-ही-नीचे भाटा भी उतर गया। जिस दिन शेखर ने कॉलेज जाने की तैयारी में पुस्तकें देखते हुए, रोमाँ का यह वाक्य पढ़ा कि-”सत्य उनके लिए है, जिनमें उसे सह लेने की शक्ति है।” उस दिन उसने सिर उठाकर देखा कि वह समुद्र पार कर आया है, कि वह सम्पूर्ण है, मुक्त है और पुरुष है।