शेखर: एक जीवनी / भाग 1 / बीज और अंकुर / अज्ञेय

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शेखर का जीवन बहुत सूना हो गया था, और इसीलिए जीवन में जो कुछ आता था, वह मानो उसके रस की अन्तिम बूँद तक निचोड़ लेना चाहता था। हँसी की बात होती, तो आवश्यकता से अधिक हँसता था; घूमने निकलता, तो पागल कुत्ते की तरह दौड़ता था; लड़ता, तो लड़ाई का कारण भूल जाने पर भी विरोध बनाये रखता...उसके जीवन में इससे एक झूठी तेजी आ गयी थी, गति का एक भ्रम, जबकि वास्तव में वह निश्चल खड़ा था।

खंडहरों से घिरे हुए टीले की एक चोटी पर शेखर खड़ा था, और उसके पैरों के पास उसका कुत्ता। चारों ओर फैले हुए अरहर के खेत थे। कभी हवा का झोंका आता, तो अरहर के पौधों की चोटियाँ कुछ झुक जातीं और फिर सीधी हो जातीं, मानो हरी वर्दी पहने हुए बहुत से सिपाही पहरा देते-देते एक साथ ही ऊँघ गये हों, और फिर जागकर सावधान खड़े हो गये हों।

कुत्ते का नाम था तैमूर। शेखर उसे विशेष प्यार नहीं करता था, किन्तु कुत्ता सदा उसके पीछे रहता था, न-जाने क्यों उसने शेखर को अपना स्वामी मान लिया था।

शेखर के खड़े-खड़े ही कुत्ते ने शायद दूर कुछ देखा, और सीधा नीचे अरहर के खेतों की ओर भागा। पीछे-पीछे शेखर भी भागा। उसे कुछ करने की भीतरी प्रेरणा तो कोई थी नहीं, बाहर से जो धक्का उसे लगता, उसी के आगे वह बह जाता था...

हाथों से अरहर के पौधों में रास्ता बनाते हुए शेखर ने देखा कि तैमूर क्यों भागा आया था। बहुत-से बटेर अनेक दिशाओं में आगे जा रहे थे, और तैमूर कभी एक के पीछे, कभी दूसरे के पीछे दौड़ा फिरता था, पर पकड़ किसी को नहीं पाता था।

जिधर-जिधर तैमूर भागता, उधर-उधर शेखर बहता। अरहर धीरे-धीरे बहुत घने हो गये, शेखर कन्धे बढ़ाये, सिर झुकाए हाथों से उन्हें चीरता हुआ, बौराए साँड़ की तरह बढ़ने लगा, फिर भी तैमूर का साथ नहीं पा सका। उसकी कमीज के चिथड़े हो गये, बाँहें और टाँगें भी छिल गयीं, मुँह खरौंच गया, पर बटेर कोई हाथ न आया। पर अपने कुत्ते से भी अधिक ढीठ शेखर बढ़ता ही गया, उसके नंगे पैर भूमि पर रक्त की लाल छाप छोड़ते हुए चले, पर अभी बटेर कोई हाथ नहीं आया था...

तैमूर ने उकताकर खेल छोड़ दिया-हार मान ली। शेखर भी झख मारकर रह गया।

खंडहरों के ऊपर सूर्य स्वर्ण बरसाता हुआ डूब रहा था। घर के पथ पर शेखर खून से लथपथ, थका हुआ, सिर झुकाए चला जा रहा था; और सदा आगे रहनेवाला तैमूर उसके पीछे-पीछे मुँह लटकाए आ रहा था...बटेर कोई हाथ नहीं आया था, लेकिन खेल हो गया था, दिन बीत गया था।

फिर अरहर के खेत; फिर आगे-आगे शेखर और पीछे-पीछे शेखर का कुत्ता तैमूर। अब तैमूर ही शेखर का भाई है, गुरु है, साथी है और सेवक है। शेखर की माँ सरस्वती को लेकर अपने पिता के गाँव गयी हुई है, और शेखर पर किसी का नियन्त्रण नहीं है।

शेखर निरुद्देश्य भटक रहा है, लेकिन उस उद्देश्यहीनता में एक प्रतीक्षा है। शेखर गनेसी की बाट देख रहा है।

गनेसी जात का डोम है। शेखर के पिता की देख-रेख में कुली का काम करता है। छुट्टी के समय वह आतिशबाजी तैयार करता है। इसी नाते वह शेखर का मित्र है, क्योंकि वह बहुधा शेखर को साथ ले जाता है और उसके सामने चीजों की तैयार करता है-बारूद बनाता है, अनारों में भरता है, पटाखे लपेटता है; और साथ-साथ शेखर को बताता भी जाता है कि शोरा, गन्धक, कोयला, अलग-अलग कूटने चाहिए और मिलाते समय लकड़ी की चीजें काम में लानी चाहिए, कि आग न लग जाय; और 'छछूंदर' लपेटने के लिए कागज को शोरे और सिरके के घोल में भिगोकर सुखा लेना चाहिए...कभी वह शेखर के आग्रह करने पर उसे बारूद कूटने भी देता है, और कभी-कभी कुछ पटाखे उसे दे देता है। उनकी दोस्ती इतनी बढ़ गयी है कि कभी-कभी शेखर पिता से कहकर गनेसी को छुट्टी दिला देता है और साथ घूमने ले जाता है।

आज उसकी प्रतीक्षा यों हुई कि शेखर ने एक गोह लाने के लिए भेजा था। गनेसी ने ही उसे बताया था कि गोह कैसी भी दीवार चढ़ सकती है और उससे चिपक जाती है। अगर कोई उसकी दुम पकड़कर लटक जाय तो भी नहीं छोड़ती, बल्कि पुराने जमाने में लोग उसकी दुम में रस्सी बाँधकर उसके सहारे किले की दीवारें फाँदा करते थे। यह सुनकर स्वाभाविक ही था कि शेखर गोह देखना चाहता। जब गनेसी ने बताया कि गोह जिन्दा नहीं आ सकती, क्योंकि उसका काँटा जहरीला होता है, तब शेखर की आज्ञा हुई कि गनेसी उसे मारकर ले आये।

शेखर अरहर का खेत पार करके निकला तो देखा, सामने से गनेसी चला आ रहा है-दुबला-पतला, काला भूत, एक हाथ में लाठी लिए और दूसरे में दुम पकड़कर मरा हुआ गिरगिट-सा लटकाये। पास आते ही बोला, “बबुआ यह लो गोह।”

शेखर थोड़ी देर उसकी ओर देखता रहा। उसे कुछ निराशा-सी हुई। यही है गोह! फिर वह बोला, “इसकी चमड़ी उतारो, हम रखेंगे।”

गनेसी ने हँसकर बताया कि गोह की चमड़ी बहुत पतली होती है, खाल नहीं उतर सकती। पर शेखर उसकी बातों में आनेवाला नहीं था। खाल चीते की भी उतर सकती है, वह नित्य एक पर बैठता है, तब गोह की क्या बिसात! बोला, “हम जो कहते हैं, उतारो!”

गनेसी ने देखा, मानना पड़ेगा। उसने एक चाकू निकाला और गोह का पेट चीर डाला। शेखर कुत्ते को पकड़कर खड़ा रहा।

आधे घंटे में खाल खिंच गयी। शेखर ने कहा, “इसे धूप में सूखने डाल दो; सूख जायगी तब धो लेंगे।”

गनेसी ने कुछ कहे बिना मुस्कराकर उसे सूखने के लिए फैला दिया।

तीन दिन बाद वहाँ जो शेखर ने देखा, वह कहने की जरूरत नहीं है। जब गनेसी ने हँसते हुए पूछा, “बबुआ, तुम देख आये, वह गोह की खाल सूख गयी है कि नहीं।” तब उसने विस्मय दिखाते हुए कहा, “कैसी खाल। कौन गोह?” बुद्धिमान गनेसी मुस्कराकर चुप हो गया।

शेखर ने नोट किया कि चमड़ी सभी की होती है, लेकिन चीता चीता है, और गोह गोह।

जिस घर में शेखर रहता था, उसके साथ आमों का एक बगीचा था। आम देशी थे और घटिया किस्म के; केवल वृक्ष कलमी आमों का था।

उन दिनों आम पकने को हो रहे थे। शेखर रोज जाकर उन्हें ललचाई आँखों से देख आता था और उस दिन की कल्पना किया करता था, जब वह पेड़ों पर न होकर उसके हाथों में होंगे...

एक दिन अकेले वृक्ष पर कुछ पके-से आम देखकर शेखर ने माली से कहा, “हमें आम दो।”

लेकिन माली को सर्वथा उचित माँग से सहानुभूति नहीं हुई। बोला, “बबुआ कल तोडूँगा वो आम, और डाली लगाकर साहब के पास ले जाऊँगा।”

साहब के पास! शेखर को यह सरासर अन्याय लगा कि आमों को चाहनेवाले शेखर से छीने जाकर वे आमों की उपेक्षा करनेवाले उसके पिता के पास जायँ। बोला, “देते हो कि नहीं?”

“नहीं बबुआ-”

शेखर स्वयं पेड़ पर चढ़ने लगा। माली दूर खड़ा हँसता रहा, क्योंकि वह जानता था कि यह लड़का पेड़ पर क्या चढ़ेगा।

लेकिन शेखर के हाथों-पैरों में क्रोध का बल था। वह ऊपर पहुँचा, आराम से एक डाल पर बैठा और चुन-चुनकर पके आम खाने लगा।

माली की मुस्कान चिन्ता में बदल गयी। उसे देखकर शेखर का सारे आम खा डालने का निश्चय और भी पक्का हो गया।

पर पेट ने साथ नहीं दिया। तब शेखर ने कच्चे, अधकचरे, पके सब प्रकार के आम तोड़-तोड़कर मुँह से जूठे कर-करके इधर-उधर फेंकने आरम्भ किये। प्रत्येक आम फेंकते हुए वह चिल्लाकर माली से कहता जाता, “यह लो! और यह लो! और यह लो!”

माली यह नहीं सह सका, और शेखर को पकड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ने लगा। उसे आते देखकर शेखर ने कहा, “आओ, आओ, बेशक आओ”, और ऊपर चढ़कर एक डाल के बिलकुल सिरे पर ऐसा जा बैठा, कि तनिक और भार पड़ने से वह टूट जाय। माली ने पुकारा, “लौट आओ, नहीं तो गिरोगे!”

“नहीं, तुम आओ, पकड़ो, देखूँ मैं भी-” और-कुछ-और आगे सरक गया।

माली डर गया। बोला, “बबुआ, उतर आओ, ईश्वर के वास्ते उतर आओ।”

“तुम उतर जाओ, नहीं तो मैं और आगे जाता हूँ।”

माली उतर गया। वहाँ से चला गया। शेखर धीरे-धीरे नीचे उतरा। वह अभी भूमि पर पहुँचा नहीं था कि उसने देखा, माली के साथ पिता चले आ रहे हैं।

वह दार्शनिक हो गया था। उसने एक बार अपने गिराए हुए आमों की ओर देखा, फिर तैयार होकर खड़ा हो गया। और मन-ही-मन गणित का एक सवाल करने लगा, कि कितने आम फी थप्पड़, या कितने थप्पड़ फी आम पड़ेंगे। पड़ेंगे या नहीं पड़ेंगे, यह सम्भावना विचार में लाने की नहीं थी।

लेकिन थप्पड़ नहीं पड़े। पिता ने सारी कहानी सुनकर हँस दिया। शेखर से बोले, “तुमने खाए-सो-खाए, फेंके क्यों?” और माली से कहा, “तुमने उसे क्यों कहा कि मेरे लिए डाली बनानी है, इसलिए नहीं मिलेंगे।”

यह एक अवसर था जब कि शेखर ने मार की आशा की और हँसी पायी। प्रायः इससे उलटा ही हुआ करता था। फिर भी पिता के लिए शेखर के हृदय में अपार स्नेह था।

शेखर के पिता ने नया मकान ले लिया है-पटना शहर में गंगा के किनारे पर। अब शेखर का मुख्य काम है अपने बगीचे में से केले के पेड़ काटना और उनके स्तम्भों पर लेटकर गंगा में बहना (उसे बहना ही कहना चाहिए, क्योंकि तैरना अभी तक सीखा नहीं)। कई बार स्तम्भ पर से फिसलकर उसने गोते खाये हैं, लेकिन सदा ही किसी ने उसे देखकर घसीट निकाला है। पिता के बहुत मना करने पर भी वह यह आदत नहीं छोड़ता, क्योंकि इतनी बड़ी नदी पर अकेले बिना हाथ-पाँव हिलाए बहने के विचार में सामर्थ्य का कुछ ऐसा आकर्षक अनुभव है कि शेखर उसका मोह नहीं छोड़ सकता।

उसने तीन स्तम्भों को बाँधकर एक नाव बनायी। गंगा में उसे ले जाकर, उस पर सीधा लेटकर, हाथ से उसे धार में खेकर ले गया, और फिर हाथ समेटकर निश्चल कभी इधर, कभी उधर देखने लगा। दोनों किनारे धीर गति से प्रवाह से उलटी दिशा में चलते हुए जान पड़ रहे थे। बहुत देर उनकी ओर देखकर, शेखर आकाश की ओर देखने लगा। वर्षा हो चुकी थी, बादल के छोटे-छोटे टुकड़े इधर-उधर भागे फिरते थे। कभी एक-दूसरे से भिड़कर एक हो जाते थे। कभी देखते-देखते आकाश की प्रगाढ़ नीलिमा में घुल जाते थे। ओह, कितना सुन्दर था उस प्रकार उस विस्तीर्ण नीलाकाश में घुलकर लुप्त हो जाना...शेखर ने भूले हुए-सा सोचा, ऐसे मरूँगा, जहाँ बाधा नहीं होगी...

बाधा-उसे लगा, जो जीवन वह जी रहा है, वह बाधा के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। आज उसे मौका मिला है उसके बन्धन से निकल भागने का, आज वह तीन कटे हुए वृक्षों का सहारा लेकर उस सुन्दर देश में जा रहा है, जहाँ गंगा जाती है, जहाँ वह समुद्र में मिल जाती है, जहाँ सूर्यास्त के सोने का टापू है और जहाँ इन्हीं नीलिमा में घुल जानेवाले बादलों से बने हुए सूत के वस्त्र पहननेवाली राजकन्या रहती है...शेखर उसके पास जाएगा और उससे कहेगा, मैं शेखर हूँ, बन्धनों के देश से आया हूँ, और वह उसे अपने पास बिठा लेगी और कहेगी, यहाँ तुम अबाध हो-उस सिरिस के फूलों के महल में तुम रहोगे और जो चाहो करोगे...

पर, शायद राजकन्या उसे नहीं देखेगी-वह बन्धनों के देश के एक मामूली लड़के से क्यों मिलने लगी?

वहाँ और भी तो लोग होंगे और भी कन्याएँ होंगी, उस बाधाहीनता के देश में कोई भी क्यों राजकन्या से कम होगी?

शेखर ने आँखें बन्द कर लीं...

फिर उसे ध्यान आया, अरे वह देश तो बड़ी दूर है, वहाँ पहुँचने में तो दिनों लग जाएँगे, गंगा इतनी धीमी बहती है...

लेकिन चिन्ता जहाँ वश कर सके, उस दशा से वह परे निकल गया था। आकाश की, मुक्त वातावरण की, अबाध विशालता उसके प्राणों में भर गयी थी। वह स्वयं अबाध था, विशाल था, मुक्त था और यथार्थता पीछे ली...

उसके मन में कविता की एक पंक्ति आ गयी अँग्रेजी में-

‘O mother Ganges, vast and slow!’

(मन्दगति और विशाल माँ गंगे!)

और वह धीरे-धीरे बड़ी मेहनत से, पंक्ति जोड़कर कविता पूरी करने लगा...

जिस क्षण में शेखर को मालूम हुआ कि कविता पूरी हो गयी है, उसी क्षण में उसने यह भी अनुभव किया कि उसकी पीठ ठंड से अकड़ गयी है, और उसके हाथ सफेद, सुन्न पड़ रहे हैं। उसने जाना कि वह घर से बहुत दूर बह आया है।

घबराहट यथार्थता के संसार में है, उस सूर्यास्त के सोने के टापू के पथ पर नहीं। शेखर धीरे-धीरे अनैच्छिक-सी क्रिया से अपने को किनारे की ओर खेने लगा। जब किनारे लगा, तब किसी तरह सूखी भूमि पर आया और धूप में औंधा लेट गया।

जब वह नींद से उठा, तब सूर्य ढल गया था। वह उठा और थका-माँदा-सा घर की ओर चल पड़ा। जब घर के पास पहुँचा तब चाँद निकल रहा था, और घर में बिलकुल सन्नाटा था, यद्यपि बत्तियाँ जल रही थीं। घर के भीतर घुसते ही उसने देखा, बरामदे में माता-पिता खड़े हैं, स्थिर दृष्टि से बाहर देखते हुए, और मानो एकाएक बूढ़े हुए-इतनी झुर्रियाँ उनके मुँह पर पड़ी हुई थीं...शेखर को देखते ही वे खिंचे हुए चेहरे कुछ ढीले पड़े, माँ की आँखों में आँसू आ गये और पिता एकदम से लौटकर ऊपर चले गये।

उनके पीछे-पीछे शेखर ने जाकर देखा, घर में कोई नहीं है। यह उसे दूसरे दिन मालूम हुआ कि उसे खोजने के लिए लोग लालटेन लेकर नदी के किनारे बहुत दूर तक गये हुए थे...घर पर किसी तरह पता लगा था कि वह अकेला केले की नाव पर बैठकर बह गया है, और घर में खलबली मच गयी थी। यह समाचार सुनकर शेखर अपने को इतना भूल गया कि उसे बहुत चेष्टा करने पर भी वह कविता याद नहीं आ सकी, जो उसने गंगा के वक्ष पर लिखी थी, केवल स्मारक-सी पहली लाइन ही उसके मन में रह गयी :

O mother Ganges, vast and slow!

जो बहुत दूर है, जिस तक पहुँचने में बहुत दिन लगते हैं, बहुत-से ऐसे दिन, जिनमें पहले ही दिन में पहले ही कुछ घंटों में पीठ अकड़ जाती है और हाथ सुन्न पड़ जाते हैं; उस सूर्यास्त के सोने के टापू तक कैसे पहुँचा जाय? कैसे देखा जाय उस राजकन्या को, जो उसे सिरिस के फूलों के महल में रखेगी और अपने पास बिठाएगी?

शेखर जानता है कि वह कभी नहीं होगा, लेकिन वह यह भी जानता है कि इसका होना जरूरी है, उसके जीवन के शून्य को भरने के लिए अवश्यमेव कुछ होना चाहिए। और विवश वह सोचा करता है कि क्यों नहीं कोई ऐसी घटना होती, जिससे वह टापू कहीं निकट आ जाय...जब वह सैर करने जाता है, तब इतनी गाड़ियाँ उसके पास से होकर जाती हैं, क्यों नहीं किसी में से वह राजकन्या झाँककर कहती, ‘शेखर चलो मेरे टापू में, जहाँ बाधा नहीं है!’ राजकन्या न सही, जब वह मैदान में घूम रहा होता है, तब वहाँ इतनी लड़कियाँ खेल रही होती हैं, क्यों नहीं उनमें ही कोई छिपी हुई टापूवासिनी आकर उसे बुलाती, ‘आओ। तुम हमारे अबाध खेल में शामिल होओ!’ इतना भी न सही, क्यों नहीं जब वह राह चलता ठोकर खाता है तब कोई इसी संसार की लड़की उसके पास आकर स्नेह से उसे कहती, ‘आओ शेखर, मैं और कुछ नहीं कर सकती, पर तुम्हारे इस एकरस जीवन में कुछ नयापन ला सकती हूँ।’ या सिर्फ इतना ही उससे पूछती, ‘चोट बहुत तो नहीं लग गयी क्या?’

वह छिपकर सुन्दर कागज पर रंगबिरंगी फूल-पत्तियाँ बनाता और उनसे घिरे हुए स्थान में पत्र लिखता। किसे? वह स्वयं नहीं जानता। लेकिन अपने हृदय की सारी भूख वह उस पत्र में भर देता, और उस अज्ञात के स्वागत की सारी विह्वलता...वह लिखता, ‘ओ कल्पित, ओ अज्ञात्, जिसे मैं मन में नहीं देख पाता, तुम इस पत्र को पढ़ोगी और समझोगी? मैं शेखर हूँ, मैं अकेला हूँ, जाने कब से तुम्हें ढूँढ रहा हूँ, तुम्हारी ही प्रतीक्षा में हूँ, तुम्हारे ही लिए हूँ। तुम दिव्य-लोक में हो, लेकिन क्या दिव्य-लोक भी तुम्हें उसी तरह माँगता है जिस तरह मैं? ओ अज्ञेय, ओ अकल्पनीय!’

तब वह पत्र को एक लिफाफे में बन्द करता, उसके कोने में अपना पूरा पता लिखता और एक लकड़ी के साथ उसे बाँधकर गंगा में बहा देता कि डूब न जाय। और कई दिन तक प्रतीक्षा में रहता कि कोई उसे पढ़ेगा, पढ़ेगी,-और फिर उसे उसका उत्तर मिलेगा-न सही स्वप्न-लोक की कन्या से, कम-से-कम उसकी अपरिचित किसी का तो होगा ही! और जब कई दिन तक कुछ न होता, तब वह दूसरा पत्र लिखता और दूसरी तख्ती के साथ भेजता कि कहीं पहला डूब न गया हो...

और कभी कुछ न होता, और उसके विश्वास में कमी न होती...

कभी कोई तितली कमरे के भीतर आ फँसती है, तब पहले वह खिड़की के या किवाड़ के शीशों से, जिनसे प्रकाश आ रहा होता है और जिन्हें इसलिए वह बाहर की राह समझती है, जा-जा टकराती है, फिर और टकराती है। फिर हारकार वह कमरे के एक-दो चक्कर काटती है, और फिर वहीं लौट आती है, और शीशों पर सिर पटकती विवश पंख फड़फड़ाती है, गिर-गिरकर भी नहीं गिरती...

वही दशा शेखर की थी। मुक्ति की खोज में पहले वह उन वस्तुओं से उलझा, जो स्थूल थीं, जिन्हें वह देख सकता था, और उनसे हारकर वह कल्पना के क्षेत्र में गया; वहाँ से निराश होकर वह फिर यथार्थता में, स्थूल और प्रत्यक्ष में लौट आया।

शेखर के पिता मियादी बुखार से बीमार पड़े थे, और ईश्वरदत्त कभी-कभी टेलीफोन पर डॉक्टर को बुलाया करता था। उसी से शेखर ने टेलीफोन के बारे में कुछ जानकारी हासिल की थी। उसे जान पड़ रहा था कि जो उसे अन्यत्र नहीं मिला, वह टेलीफोन द्वारा शायद मिल जाय-क्योंकि टेलीफोन में नयापन था, रहस्य था।

पिता बीमार थे, इसलिए जब दफ्तर बन्द होता था, तब जमादार सब दरवाजे बन्द करके चाभी शेखर को दे देता था कि पिता के पास पहुँचा दे। वह चाभी दफ्तर की नहीं, शेखर के रहस्यलोक की चाभी थी।

करीब पाँच बजे थे। दफ्तर बन्द हो गया था, चाभी शेखर के हाथ में थी। जमादार चला गया था।

शेखर ने दफ्तर का द्वार खोला, और सीधा पिता के कमरे में गया। टेलीफोन का रिसीवर उठाकर सुनने लगा।

उन दिनों वहाँ आटोमेटिक एक्सचेंज नहीं था। एक्सचेंज से स्वर आया-‘नम्बर?’ शेखर ने एक दवाइयों की दुकान का नम्बर दे दिया।

“फरमाइए?”

“आपके पास थर्मामीटर है? क्या कीमत है?”

“...”

“सबकी अलग-अलग कीमत बताइए।”

“...”

अच्छा, और डाक्टरी दस्ताने कैसे हैं?

“...”

“आपका सूचीपत्र भी है?”

“जी हाँ। आपके पास भिजवा दें?”

“हाँ।”

“किस पते पर भेजना होगा?”

इस प्रश्न की आशा-आशंका-शेखर को नहीं थी। उसे यह बताया गया था कि जिसे फोन किया जाय, उसे करनेवाले का नम्बर तब तक नहीं ज्ञात होता, जब तक कि स्वयं न बताया जाय, और इसी विश्वास के आधार पर उसने फोन करके का साहस किया था। यह प्रश्न सुनकर वह एकाएक घबरा गया, समझ नहीं पाया कि क्या कहे; बोला ‘दफ्तर के पते पर’ और रिसीवर लटकाकर भाग गया।

दूसरी बार।

शेखर ने फिर चाभी प्राप्त करके दफ्तर खोला और टेलीफोन पर जाकर बैठ गया। अबकी उसने फायर स्टेशन को पुकारा। वह यह देखना चाहता था कि उसके भाइयों ने जो उसे बताया था कि टेलीफोन करने के बाद पाँच मिनट के अन्दर फायर इंजन पहुँच जाता है, वह ठीक है या नहीं।

उसने चिल्लाकर फोन में कहा-च्च्स्नद्बह्म्द्ग! ष्टशद्वद्ग ड्डह्लशठ्ठष्द्ग! (आग! जल्द आओ!)”

एक भारी-सी आवाज ने पूछा, “कहाँ?”

एकाएक शेखर को अपनी करतूत के फल का ध्यान आया, वह डर गया। उसने रिसीवर मेज पर रक्खा और जल्दी दफ्तर का दरवाजा बन्द करके चाभी दे आया।

दूसरे दिन एक्सचेंज से रिपोर्ट आयी कि फोन का दुरुपयोग किया जा रहा है। पिता ने सबसे पड़ताल की, लेकिन मौन के सिवा कोई उत्तर नहीं पाया। बात वहीं समाप्त हो गयी, उस दिन से जमादार स्वयं चाभी पिता तक पहुँचाने लगा।

शेखर पतंग उड़ाने लगा।

पतंग उड़ानी उसे आती नहीं थी। लेकिन यह उसके पथ में विघ्न नहीं था इससे तो उसका आकर्षण बढ़ता ही था। और फिर पतंग उड़ाने में एक दूसरा मजा भी था-कि वह शेखर को मना थी। शेखर के पिता कहते थे कि यह खरतनाक खेल है, पतंग उड़ाते-उड़ाते कई लड़के कोठे पर से गिर पड़ते हैं।

शेखर का पतंग उड़ाने का ढंग यह था कि वह घर के बगीचे में किसी को बुलाकर कहता कि पतंग उड़ा दो, जब वह खूब ऊँची उड़ जाती, तब चरखड़ी अपने हाथ में ले लेता और डोर को झटकाकर, नाचती हुई पतंग को देखकर अपने को विश्वास दिला लेता कि वही उड़ा रहा है (अतः उसी ने उड़ायी है)।

उसे आज्ञा थी कि पिता के पास बैठे और समय-समय पर दवा पिलाया करे। इसलिए नहीं कि वह इस काम में विशेष दक्ष था, इसलिए कि उसके पिता उसे अपने पास रखना चाहते थे। लेकिन पतंग उड़ाने में वह सब भूला हुआ था।

पिता के चपरासी ने आकर विघ्न डाला।

“शेखर बाबू, ऊपर चलो, साहब बुलाते हैं।”

“ठहरो, हम जरा पतंग उड़ा लें,” कहकर शेखर उसे भूल गया।

“चलो शेखर बाबू!” मिनट-भर बाद चपरासी फिर बोला।

“ठहर जाओ, कह तो दिया!”

चपरासी बार-बार कहने लगा।

“जाओ, जाके कह दो कि हम पतंग उतारकर आएँगे।”

चपरासी चला गया और थोड़ी देर में लौट आया।

“शेखर बाबू, साहब का हुक्म है कि नहीं आये तो पकड़कर ले आओ। चलो।”

चपरासी ने एक-दूसरे नौकर को बुलाकर, पतंग की डोर तोड़कर उसके हाथ में दे दी कि वह उतारे, और शेखर को उठाकर ले चला : शेखर की टाँगें ही मुक्त थीं, वह उन्हें पटकने लगा, लेकिन वे हवा से टकराकर रह गयीं। तब उसने सारा जोर लगाकर अपनी पकड़ी हुई बाँह को झटका, वह छूट गयी, और जाकर चपरासी की नाक पर लगी। और चपरासी ने उसे झट से जमीन पर रख दिया, जैसे बर्रे ने काट खाया हो, और चीखता हुआ ऊपर भागा, क्योंकि नाक से खून छूट रहा था।

आधी सीढ़ियाँ चढ़ा हुआ शेखर जँगले से सटकर खड़ा हो गया। इस आकस्मिक घटना का क्या फल होगा, यह सोचकर वह स्तब्ध हो गया। पिता इसने सख्त बीमार हैं, चारपाई पर हिल नहीं सकते, लेकिन उनका क्रोध...

तभी शेखर ने देखा, उसके पिता सीढ़ियों पर उतर रहे हैं। हाथ में एक छड़ी। हाथ काँप रहा है, दीवार पर कुहनी टेककर सम्भल-सम्भलकर पैर बढ़ाते हैं और दुबले कितने हो गये हैं! और उनकी आँखें न इधर देखती हैं, न उधर, न छत की ओर, न सीढ़ी की ओर, केवल शेखर पर स्थिर हैं, और उनके पीछे सीढ़ियों के ऊपर सरस्वती खड़ी है, जिसका मुख ऐसा हो रहा है कि पहचाना नहीं जाता, और उसकी मौन, विस्फारित आँखें शेखर की आँखों पर जमी हुई कुछ कहना चाहती हैं, कुछ कह रही हैं जो, वह मुँह से नहीं निकाल सकती। शेखर ने जान लिया कि उसे वहीं खड़े रहना है, हिलना नहीं है, सिर नहीं उठाना है, प्रतिवाद नहीं करना है, अपनी रक्षा नहीं करनी है।

वह खड़ा रहा। छः बार छड़ी उठी और गिरी, छः बार शेखर के शरीर में एक रोमांच-सा हो आया, पर वह हिला नहीं। छड़ी रुक गयी। पिता ने एक तीखी दृष्टि से शेखर के मुख की ओर देखा। केवल चपरासी वहाँ खड़ा रह गया, जिसे यह घटना समझ नहीं आयी, लेकिन जो न-जाने क्यों लज्जित हो गया।

शेखर ऊपर नहीं जा सका। थोड़ी देर बाद जब सरस्वती ने आकर कहा, ‘शेखर, चपरासी को कहो कि डॉक्टर को ले आये,’ तब वह नहीं पूछ सका कि क्या हुआ है...

दो घंटे बाद पिता ने शिखर को ऊपर बुलाया। सुलह करने के लिए। वे कभी क्षमा नहीं करते-क्षमा छोटे को किया जाता है। जिस प्रकार क्रोध में वे छोटे को छोटा नहीं समझते, उसी प्रकार क्रोध के उतरने पर भी...कितनी स्वच्छ, एहसान के भाव से मुक्त, कितनी विशाल सर्वव्यापी होती है उनकी उदारता! इसीलिए शेखर पिटकर भी उन्हें पूजता है, जैसे वह माँ को कभी नहीं पूज सकता, माँ जो पीटती नहीं, पर जो ‘क्षमा’ देती है अनुग्रह की चक्की में पीसकर...

शेखर को अनुमति मिली कि नाटक देख आये।

गाँव की एक नाटक-मंडली है, जो साल में दो-बार खेल करती है-होली के दिनों और दशहरे के दिनों। शेखर के पिता बड़े आदमी हैं, उस गाँव के पड़ोस में रहनेवाले सबसे बड़े आदमी, इसीलिए स्वाभाविक है कि उनकी आशीर्वादपूर्ण अनुमति माँगकर खेल किया जाय। वे स्वयं तो नहीं जाते, किन्तु ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ का खेल है, इसलिए लड़कों को जाना मिल गया।

एक फूस की टट्टियों से घेरकर बनाए गये थिएटर-हॉल में सबसे अगली कतार में भाइयों के साथ शेखर बैठा है। जब परदा उठता है और बीस फुट लम्बे और दस फुट चौड़े इन्द्रलोक का दृश्य सामने आता है, तब शेखर को लगता है कि वह अवश्यमेव उसके टापू के निकट कहीं होगा...

दृश्य आते हैं और चले जाते हैं। और शेखर की विवेक-बुद्धि को, विवेचन-शक्ति को, साथ ले जाते हैं। वह मुग्ध, विश्वासी, परिणत, बैठा रहता है और देखता जाता है। दुनिया से कुछ ऊपर जहाँ जीवन-से-जीवन का अभिनय अधिक यथार्थ है। उसके सामने रहता है एक बड़ा भारी संघर्ष, एक मौलिक विरोध, और अपने मरते हुए पुत्र के लिए माँ का विलाप...जब मरता हुआ रोहित अपने साथियों से जाकर कहता है-

‘माता को हाल सुनाइयो-

साँप ने मुझको डस लिया, हाय गजब सितम गजब!’

तब उसे विरति नहीं होती, हँसी नहीं आती, उसका गला भर जाता है और वह रोने लगता है-बहुत चुपचाप, कि कोई उसकी यह पराजय देख न ले...

खेल समाप्त हो जाता है, और वे घर की ओर चल पड़ते हैं। लेकिन शेखर भाइयों के साथ नहीं सह सकता, वह अलग चलता है, न देखता हुआ, भरा हुआ, असन्तुष्ट...

उस अँधियारे युग में जुगनुओं की तरह ये कुछ एक दृश्य चमक जाते हैं; लेकिन सब दृश्य ही हैं, सब आकर चले ही जाते हैं, स्थायी कुछ नहीं है, सिवाय उस असन्तोष के जो प्रगट होकर भी बढ़ता है, दबकर भी बढ़ता ही जाता है...

तितली फिर चक्कर काटने लगी...लेकिन कहाँ है वह अबाध की खिड़की, कहाँ है वह मुक्ति का मार्ग?

असहयोग की एक लहर आयी, और देश उसमें बह गया। शेखर भी उसमें बहने की चेष्टा करने लगा और जब नहीं बह पाया, तब हाथों से खेकर अपने को बहाने लगा-

उसने विदेशी कपड़े उतारकर रख दिये, जो दो-चार मोटे देशी कपड़े उसके पास थे, वही पहनने लगा। बाहर घूमने-मिलने जाना उसने छोड़ दिया, क्योंकि इतने देशी कपड़े उसके पास नहीं कि बाहर जा सके। प्रायः दुपहर को वह ऊपर की एक खिड़की के पास जाकर खड़ा हो जाता और बाहर देखा करता। कभी दूर से जब बहुत-से कंठों की समवेत पुकार उस तक पहुँचती;

“गाँधी का बोलबाला! दुश्मन का मुँह हो काला!”

तब उसके प्राण पुलकित हो उठते, और वह भी अपनी खिड़की से पुकार उठता-

“गाँधी का बोलबाला। दुश्मन का मुँह हो काला!”

इससे आगे वह जा नहीं सकता था-घर से अनुमति नहीं थी। लेकिन अनुमति का न होना ही तो एक अंकुश था, जो निरन्तर उसे कोई मार्ग ढूँढ़ने के लिए प्रेरित किया करता था...

माँ के अतिरिक्त सब लोग बाहर गये हुए थे। माँ ऊपर कोठे पर बैठी हुई थी। शेखर ने घर के सब कमरों में से विदेशी कपड़े बटोरे और नीचे एक खुली जगह ढेर लगा दिया। फिर लैम्प लाकर उन पर मिट्टी का तेल उँडेला (तेल का पीपा नौकरों के पास रहता था, वहाँ जाने की हिम्मत नहीं हुई), और आग लगा दी।

आग एकदम भभक उठी। शेखर का आह्लाद भी भभक उठा। वह आग के चारों ओर नाचने लगा, और गला खोलकर गाने लगा :

“गाँधी का बोलबाला! दुश्मन का मुँह हो काला!”

थोड़ी ही देर में माँ आयी। और थोड़ी देर में शेखर के गाल भी मानों विदेशी हो गये-जलने लगे...

लेकिन ढेर राख हो गया था।

शेखर के मन में विदेशी मात्र के प्रति घृणा हो गयी। उसने देखा कि हमारी नस-नस में विदेशी का प्रभुत्व नहीं, आतंक भरा हुआ है। उसे पुरानी बातें भी याद आयीं और नयी भी। वह देखने लगा। उसे यह भी ध्यान हुआ कि पिता उसे घर में भाइयों से अँग्रेजी में बात करने को कहा करते हैं, यह भी कि यह शैशव से अँग्रेजी बोलना जानता है, पर हिन्दी अभी सीख रहा है। उसकी पहली आया ईसाई थी और अँग्रेजी ही बोलती थी, उसका पहला गुरु, जिसके साथ उसे दिन-भर बिताना होता था, एक अमरीकन मिशनरी था, जो पढ़ाता चाहे कुछ नहीं था, दिन-भर अँग्रेजी की शिक्षा तो देता था। शेखर ने देखा कि यदि मातृभाषा वह है, जो हम सबसे पहले सीखते हैं, तब तो अँग्रेजी ही उसकी मातृभाषा है और विदेशी ही उसकी माँ...उसके आत्मभिमान को बहुत सख्त धक्का लगा...जिसे मैं घृणित समझता हूँ, उसी विदेशी को माँ कहने को बाध्य होऊँ। उसने उसी दिन से बड़ी लगन से हिन्दी पढ़ना आरम्भ किया, और चेष्टा से अपनी बातचीत में से अँग्रेजी शब्द निकालने लगा, अपनी आदतों में से विदेशी अभ्यासों को दूर करने लगा...

और अपने हिन्दी-ज्ञान को प्रमाणित करने के लिए, और गाँधी के प्रति अपनी श्रद्धा-जिसे व्यक्त करने का और कोई साधन उसे प्राप्त नहीं था-प्रकट करने के लिए उसने एक राष्ट्रीय नाटक लिखना आरम्भ किया। जीवन में देखे हुए एकमात्र खेल की स्मृति अभी ताजी थी, इसलिए उसे लिखने में विशेष कठिनाई नहीं हुई। प्रस्तावना तो ज्यों-की-त्यों हथिया ली, केवल कहीं-कहीं कुछ मामूली परिवर्तन करना पड़ा। उसके बाद नाटक आरम्भ हुआ-एक स्वाधीन लोकतन्त्र भारत का विराट् स्वप्न, जिसके राष्ट्रपति गाँधी हैं और सिद्धि के लिए साधन है अनवरत कताई और बुनाई, विदेशी माल और मनुष्य का परित्याग, और प्रत्येक अवसर पर दूसरा गाल आगे कर देना। और ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ का इन्द्रलोक आरम्भ से हटकर अन्त में आ गया था-अपने ऊपर शेखर की प्रतिभा द्वारा के सुनहरे टापू की छाप लेकर। शेखर के नाटक का अन्तिम दृश्य था स्वाधीन और बाधाहीन भारत-एक स्थूल आकार-प्राप्त स्वप्न...

नाटक पूरा हो गया। शेखर ने सुन्दर देशी स्याही से उसकी प्रतिलिपि तैयार की और उसे अपनी पुस्तकों के नीचे छिपाकर रख दिया। पहले साहित्यिक प्रयत्नों की गति उसे अभी याद थी, इसलिए उसने अपना यह नाटक, यह अमूल्य रत्न किसी को नहीं दिखाया-सरस्वती को भी नही! और हर समय, जब जहाँ वह जाता, उसके मन में एक ध्वनि गूँजा करती, मैं शेखर हूँ, एक अपूर्व नाटक का लेखक चन्द्रशेखर! और मैंने अकेले ही, बिना किसी की सहायता के अपने हाथों से उसका निर्माण किया है, स्वाधीन बाधाहीन भारत के उस चित्र का, मैंने।

शेखर के पिता एक दिन के दौरे पर जा रहे थे, और शेखर साथ था। बाँकीपुर स्टेशन पर सामान रखकर, पिता और पुत्र वेटिंग-रूम के बाहर टहल रहे थे-शेखर कुछ आगे, पिता पीछे-पीछे।

पास से एक लड़का आया, और शेखर की ओर उन्मुख होकर अँग्रेजी में बोला, “तुम्हारा नाम क्या है?”

शेखर ने सिर से पैर तक उसे देखा। लड़का एक अच्छा-सा सूट पहने था, सिर पर अँग्रेजी टोपी। और उसके स्वर में अहंकार था, शायद वह अपने अँग्रेजी-ज्ञान का परिचय देना चाहता था।

शेखर को प्रश्न बुरा और अपमानजनक लगा। उसने उत्तर नहीं दिया। कुछ इस लिए भी नहीं दिया कि पीछे पिता थे, और पिता की उपस्थिति में बात करते वह झिझकता था।

उस लड़के ने समझा, उसका सामना करनेवाला कोई नहीं है-यह लड़का शायद अँग्रेजी जानता ही नहीं। उसने तनिक और रोब में कहा, “My name is... Do you go to School?” (मेरा नाम है...तुम स्कूल में पढ़ते हो?)

शेखर के पिता वहाँ न होते तो वह प्रश्न का उत्तर चाहे न देता पर (हिन्दी में) कुछ उत्तर अवश्य देता। उसके मन में यह सन्देह उठ भी रहा था कि वह लड़का शायद कोई पाठ ही दुहरा रहा है, अँग्रेजी उतनी जानता नहीं। पर उसने घृणा से उस लड़के की ओर देखा, उत्तर कोई नहीं दिया।

पिता के क्रुद्ध स्वर ने कहा-शायद उस लड़के को जताने के लिए कि मेरा लड़का अँग्रेजी जानता है-‘जवाब क्यों नहीं देते!’

शेखर और भी चिढ़ गया, और भी चुप हो गया। वह लड़का मुस्कराकर आगे बढ़ गया। पिता ने कहा, “इधर आओ।” शेखर उनके पीछे-पीछे वेटिंगरूम में गया तो पिता ने उसका कान पकड़कर पूछा, “जवाब क्यों नहीं दिया? मुँह टूट गया है?”

तभी ट्रेन आ गयी और शेखर कुछ उत्तर देने से-या उत्तर न देने की गुस्ताखी करने से बच गया।

दूसरे दिन घर पर पिता ने माँ से कहा, “हमारे लड़के सब बुद्धू हैं। किसी के सामने तो बोल नहीं निकलता।”

शेखर ने सुन लिया।

नहीं, कहीं नहीं है वह अबाध, कहीं नहीं है छुटकारा, कहीं नहीं है मुक्ति! न बुद्धिमत्ता में, न बेवकूफी में; न एकान्त में, न साथ में; न कविता में, न नाटक में; न काम में, न निठल्लेपन में; न घृणा में, न प्यार में-उस विशाल, आततायी, उदार पिता के प्यार में भी नहीं...

शेखर के पिता लम्बे कद के, गौर वर्ण, गठे हुए और उद्यमी शरीर के थे। उनकी तीखी आँखें, बंकिम नाक, मोटा किन्तु दबा हुआ अधरोष्ठ उनके उस अभिमानी और गुस्सैल आर्यत्व का परिचय देते थे, जिसे लेकर किसी प्रागैतिहासिक काल में एक लोलुप, लुटेरी, बर्बर जाति भारत में घुसी थी और यहाँ प्रभुत्व जमाकर बैठ गयी थी। स्वभावतः वे उदार थे, लेकिन एक-दो बार चोट खाकर वे शक्की स्वभाव के हो गये थे। और जब कोई आहत होकर शक्की होता है, तब संसार में शक से मुक्त कुछ नहीं रह जाता। इसीलिए स्वयं ईमानदार होकर वे सारे संसार को बेईमान और उठाईगीर समझते थे-मानो निरन्तर अपने मन से कहते रहते हों, ‘देखो, तुम ईमानदार थे, तभी तुमने धोखा खाया। यह बेईमानों का संसार है। यहाँ किसी का विश्वास नहीं करना!’-और इसीलिए मन में मैल रखनेवाले न होकर भी वे सदा हर एक की बुराई पर विश्वास कर लेने को तत्पर रहते थे। बड़ा होकर शेखर उनसे कहा करता था, “देखिए, मानव-स्वभाव विश्वासी तो है ही। और जब विश्वासी है, तब पक्षपात लेकर चलता ही है, Prejudiced होता ही है।” तब क्यों न हम संसार को अच्छा ही समझकर चलें? तर्क-सिद्ध तो कोई भी बात नहीं है, पर एक से हम प्रसन्न तो रह सकते हैं, आराम से जी तो सकते हैं, हर वक्त बिस्तर पर तो नहीं पड़े रहते!’ पर पिता उत्तर देते थे, ‘तुम बच्चे हो, तुम्हें पता क्या है! तुम्हीं न दस पैसे की सीटी के आठ आने दे आये थे!’ शेखर कहता, “मान भी लीजिए, मैं दे आया, लेकिन मैं अभी तक प्रसन्न हूँ, अभी तक उस सीटी की याद मुझे खुश करती है; और आपने आठ आने नहीं गँवाए, फिर भी आप अभी तक वह बात मन में रखे हैं। यह इसलिए न कि आप किसी पर विश्वास नहीं कर सकते?” और पिता यह कहकर टाल जाते थे कि तुम “तुम निरे आदर्शवादी हो-कभी सीखोगे!”

वे आर्य थे, इसलिए बल को, सामर्थ्य को आदर की दृष्टि से देखते थे। शायद इसीलिए उन्हें ‘साहब’ कहलाना अच्छा लगता था, यद्यपि साथ ही उनके अभिमान ने उन्हें हैंट कभी नहीं पहनने दिया, वे सदा पगड़ी ही बाँधते रहे। शेखर को कई बार याद आता था, एक बार उसके पिता ने एक कुली को इसीलिए पीट दिया था कि उसने उन्हें ‘साहब’ न कहकर ‘बाबू’ सम्बोधन किया था। ये वही पिता थे, जिन्होंने एक दूसरे अवसर पर अपने किसी अफसर से मिलने जाने से इसलिए इनकार कर दिया था कि उसके निमन्त्रण में कुछ इस भाव की बू थी कि “तुम मिलने आ सकते हो-यद्यपि मैं चाहूँ तो तुमसे न भी मिलूँ।”

इसी सामर्थ्य की उपासना का एक रूप यह भी था कि उन्हें यह अनुभव करना अच्छा लगता था कि उनके पास शक्ति है। इसी भावना से वे कई बार अपने बच्चों के खेल में दखल दिया करते थे। वे यह नहीं चाहते थे कि बच्चे न खेलें या न पढ़ें, या ऐसा न करें, वैसा न करें; वे यह चाहते थे कि खेलें तो इसलिए कि उन्होंने कहा, पढ़ें तो इसलिए कि उन्होंने कहा। स्वाभाविकता-किसी बात का केवल इसीलिए होना कि वह उस समय हो रही है, या उसे करनेवाला उसे कर रहा है-के लिए उनके निकट कोई स्थान नहीं था। तभी, जब वे आते, तब बालक आतंक से एकाएक चुप हो जाते, खेल बन्द हो जाता, पुस्तक आगे से हट जाती, पैर सिमट जाते, कुर्सी या बिस्तर छूट जाता...कोई नहीं जानता था, कब किस बात की मनाही हो जाएगी। उनके जाने अच्छी या बुरी, क्योंकि उचित या अनुचित, कोई बात नहीं थी-बातें थीं दो प्रकार की, एक जिनके लिए उनकी अनुमति है, दूसरी जिनके लिए अनुमति नहीं है। बस, इसके आगे न तर्क था, न बुद्धि।

‘ये लड़के मेरे हैं, मेरे ही हैं, नितान्त मेरा अधिकार है इन पर’ यह भाव उनमें सदा रहता था। कुछ इसी भावना से उन्होंने सन्तान का नाम एक (उनके लिए) विदेशी ढंग पर रखा था, जिसमें नाम के साथ पिता का नाम भी रहता है। शेखर को अपना पूरा नाम लिखना हो तो लिखना पड़ता था ‘चन्द्रशेखर हरिदत्त पंडित-या अँग्रेजी में ‘सी. एच. पंडित।’ शेखर ने इस बात को इस रोशनी में उस दिन देखा, जब उसने अपनी एक किताब पर, जिस पर उसने सहज भाव से अपना नाम ‘चन्द्रशेखर पंडित’ लिखा हुआ था, पाया कि पिता ने लाल रोशनाई से दोनों शब्दों के बीच भूल का चिह्न लगाकर ऊपर लिखा है ‘हरिदत्त’...और एक बार फिर, उसने अपने ही हाथ से तैयार किये हुए कविताओं के संग्रह पर, जिस पर उसने भावावेश के किसी क्षण में लिख दिया था Shekhar, son of nature (शेखर, प्रकृति की सन्तान) ‘nature’ शब्द के स्थान में लिखा हुआ पाया ‘पंडित हरिदत्त’। उस दिन तो उसे ऐसा लगा था कि पता ने उसके एक पवित्र क्षण को भ्रष्ट कर दिया है, और इस अत्याचार को सहने में असमर्थ उसने वह कॉपी फाड़ डाली थी...

पता नहीं, यह लड़कों के निमित्त से सिद्ध होते हुए अपने अभिमान के कारण था, या लड़कों के विकास में निःस्वार्थ लगन के कारण, कि जब कभी किसी लड़के की कोई बात उन्हें पसन्द आ जाती थी, तब बहुत ही प्रसन्न होते थे, लड़के का जरूरत से अधिक सम्मान करते थे, सबके आगे उसकी प्रशंसा करते थे, ठीक उसी प्रकार जैसे क्रुद्ध होने पर वे इसके विपरीत भावनाओं को अति की मात्रा पर पहुँचा देते थे...

लेकिन जैसा कि जल्द भड़क उठनेवाले लोगों का स्वभाव होता है, वे अन्ततः उदार थे। वैमनस्य कभी अधिक देर उनके मन में नहीं रहता था। और वे लड़कों को खूब अच्छी तरह पीटकर दो मिनट बाद यह कह सकते थे, “कुछ हो, हमारे लड़के औरों से हजार अच्छे हैं।”

यह एक बात थी जिस पर शेखर के माता-पिता में बहुत बार झगड़ा होता था। शेखर की माँ को दृढ़ विश्वास था कि उनकी सन्तान संसार की सब सन्तान से गयी-बीती हैं। जब भी कोई बात लड़के करते, जिसकी आलोचना हो सकती हो, तभी वे यह कहने को तैयार रहतीं-‘लोगों के लड़के होते हैं, ऐसा करते हैं।’ वह ‘ऐसा’ चाहे यह हो कि हँसते-खेलते रहते हैं; या आराम से बैठते हैं, सताते नहीं; या कि सवेरे उठकर आप ही मुँह-हाथ धोकर अपने काम में लगते हैं; या कि हर काम में ‘आपाधापी’ नहीं डालते, जो काम जिसका होता है उसी को करने देते हैं...पिता प्रतिवाद किया करते थे कि ‘तुम तो ऐसे ही कहती रहती हो’, तब वह और भी भड़क उठती थीं, ‘हाँ, आपको भी मुझे ही कहना आता है-उन्हें इतना बिगाड़ रखा है। आपको कुछ पता भी हो लड़कों का; आती तो आखिर मेरे सिर ही है न? अमुक के लड़के देखे हैं।’ इसके बाद पड़ोस के सब कुटुम्बों के लड़के गिना दिये जाते, और बिचारे तीनों भाई और सरस्वती देखते कि संसार में उनके अपनाने लायक कोई गुण ही नहीं बचा है, सब तो औरों के बच्चों ने हथिया लिए हैं...

शेखर की माँ मँझले कद की थीं, स्थूलकाय, कुछ आलसी स्वभाव की। नीचा माथा, नाक से बहुत सटी हुई, कुछ बाहर उभरी हुई-सी आँखें, सीधी किन्तु छोटी नाक, ओठ सुन्दर गढ़े हुए, लेकिन मुँह कुछ बड़ा, और कानों पर कुछ ढीला-सा, ठोड़ी छोटी और पीछे हटती-सी। सारे चेहरे में एक चंचल और वाचाल सुघरता थी, जिसमें गाम्भीर्य और विशालता न होने से उसे सुन्दरता नहीं कहा जा सकता था। और मुद्रा में, चाल-ढाल में, सारे व्यक्तित्व में चारित्र्य और प्रवाह की कमी दीखती थी...

माँ अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थीं। न पढ़ाई के लिए उसके मन में बहुत आदर था। वैसे तो स्त्रियाँ सभी कामकाजी और यथार्थवादी होती हैं, पर शेखर की माँ के मन में मस्तिष्क की अपेक्षा हाथों का आदर विशेष रूप से अधिक था। कोई व्यक्ति तीन सेकेंड में बता सकता है कि आठ सौ इकहत्तर रुपये तेरह आने में कितनी दमड़ियाँ हुईं, यह उनके लिए उतनी आदर की बात नहीं थी, जितनी यह कि कोई सचा चार आने में तीन प्राणियों को रोटी खिलाकर दो पैसे बचा सकता है...

माँ और पिता के विरोध का एक स्रोत यह भी था। माँ चाहती थीं कि लड़के फुर्तीले, चालाक, टिट-फिट हों, और पिता को इसमें एक ओछापन दीखता था...माँ को रुचता था कि लड़के इधर-उधर मिलें, हरेक की बात जानें, पता रखें कि फलाने को कितनी तनखाह मिलती है, फलाने के घर में क्या पका, फलाने की भौजाई का फुफेरा भाई क्या करता है; पिता कहते थे कि तुम किसी के घर मत जाओ, किसी से बात मत करो, और इस सबसे तुमको क्या? कभी-कभी माँ किसी को चोरी से पड़ोसी के घर भेजती थी कि ‘अमुक काम तो कर आ’ या ‘अमुक बात तो पूछ आ’; और कभी पिता को पता लग जाता, तो लम्बी-चौड़ी जिरह करते थे कि क्यों गया था? क्या करने गया था? किससे पूछकर गया था? नौकर नहीं जा सकता था?

माँ उदार नहीं थीं। वे क्रोधी नहीं थीं। उन्हें आपे से बाहर किसी ने नहीं देखा, लेकिन किसी अपराध को वे कभी भूलती नहीं थीं। उनके स्वभाव में इतनी विशालता ही न थी कि बड़ा क्रोध कर सकें, इसलिए अनुकम्पा भी उनकी बड़ी नहीं थी। पिता किसी दोषी पर भी क्रुद्ध होकर बाद में ‘सुलह’ करते थे, माँ स्वयं गलत होने पर भी यह प्रकट नहीं होने देती थीं, और जिसे डाँटा होता था, उस पर अपनी अप्रसन्नता बनाए रखती थीं।

माँ के लिए आकारों का महत्त्व बहुत था। कभी लड़कों को सन्ध्या और पूजा-पाठ की शिक्षा दी गयी थी; तब पिता ने धीरे-धीरे यह देखकर कि उस अवस्था में उनके लिए उसमें ध्यान लगाना असम्भव है, अन्त में उन्हें बाध्य करना छोड़ दिया था, बहुत क्रुद्ध होकर कहा था, ‘यदि मन से नहीं कर सकते तो क्या फायदा है? मत किया करो?’ और लड़कों के इस बात को मानकर पूजा छोड़ देने पर, दुबारा उनसे नहीं कहा था। तब माँ ही थीं जिन्होंने बाध्य किया था कि वे नियम से आसन लगाकर पूजा के स्थान में बैठ जाया करें और पूजा की क्रियाएँ पूरी किया करें।

पिता आवेश में आततायी थे, माँ आवेश की कमी के कारण निर्दय। पिता का क्रोध जब बरस जाता था, तब शेखर जानता था, हम फिर सखा हैं; माँ जब कुछ नहीं कहती थीं, तब उसे लगता था कि वह मीठी आँच पर पकाया जा रहा है।

और इन दो भिन्न प्रकृतियों के मेल और संघर्ष से उत्पन्न हुई थीं छः सन्तान-सरस्वती, ईश्वरदत्त, प्रभुदत्त, शेखर, रविदत्त और चन्द्र। ये ही उस संघर्ष के फल थे, और ये ही उसके विकास के क्रीड़ास्थल भी।

जीवन वैचित्र्य का दूसरा नाम है। जिनके जीवन एकरूपता के बोझ से कुचले जाकर नष्ट हो गये हैं, उनके जीवन में भी इतनी घटनाएँ हुई होंगी कि एक सुन्दर उपन्यास बन सके। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी जीवनी लिखने लगे, तो संसार में सुन्दर पुस्तकों की कमी न रहे।

लेकिन तब, जब हरेक को लिखना आता हो।

हमने कालिजों में पढ़ा है कि आजकल इतनी कहानियाँ बनती हैं कि उनके लिए सामग्री आसानी से मिल जाती है। मैं अब भी कल्पना में देख सकता हूँ, हमारे दुबले-पतले अँग्रेजी के प्रोफेसर; मोटे सींग के फ्रेम की ऐनक के पीछे अपनी मेंढक की-सी आँखें फैलाए, बोलने में मुँह की अपेक्षा नाक का अधिक प्रयोग करते हुए कह रहे हैं, ‘तुममें से प्रत्येक के जीवन में कम-से-कम एक महत्त्वपूर्ण घटना हुई होगी, जो औरों से अलग, विशिष्ट खड़ी रहती है। और इसलिए तुममें से प्रत्येक कम-से-कम एक अच्छी गल्प लिख सकता है। इतनी विराट्, इतनी विशिष्ट, इतनी सनसनीदार जीवनियाँ कम लोगों की होती हैं कि उनसे अच्छा उपन्यास बन सके...’

लेकिन मुझे जान पड़ता है, मेरे जीवन की जो भी घटना मेरे सामने आती है, वह मेरी है, मौलिक है, अपने में सम्पूर्ण एक कहानी है, और मेरा सारा जीवन बढ़िया उपन्यास। शायद मुझ ही को ऐसा जान पड़ता हो, अपने जीवन के प्रति मोह उसे इतना विशिष्ट बनाता हो। लेकिन साथ ही मैं यह देखता हूँ कि वह इतना विशिष्ट, इतना एकान्त मेरा भी नहीं है कि दूसरे उसमें रुचि न रख सकें; मेरे व्यक्तिगत जीवन में मानव के समष्टिगत जीवन का भी इतना अंश है कि समष्टि उसे समझ सके और उसमें अपने जीवन की एक झलक पा सके। मेरे जीवन में भी व्यक्ति और टाइप का वह अविश्लेषण घोल है, जिसके बिना कला नहीं है, और उसके बिना, फलतः उपन्यास नहीं है।

बिलकुल सम्भव है कि ऐसी सामग्री पाकर भी मैं उपन्यास न बना पाऊँ। लेकिन मेरा उद्देश्य उपन्यास लिखना कब है? मैं केवल एक बोझ अपने ऊपर से उतारना चाहता हूँ; मैं अपना जीवन किसी को देना नहीं चाहता, स्वयं पाना चाहता हूँ, क्योंकि मुझे अब उसे वैसे देना है, जैसे देकर वह फिर मुझे मिलेगा नहीं। बिलकुल पूर्णतया नष्ट हो जाएगा-कुछ नहीं रहेगा...यह अब शेखर नहीं है, यह मैं हूँ। कलाकार बनने का इच्छुक, कवियशः प्रार्थी, शेखर समाप्त हो गया है, अब वह बचा है जो मैं हूँ, जो फाँसी चढ़ेगा; जो मैं हूँ, जिसे मैं ‘मैं’ कहता हूँ और कहकर अर्थ नहीं समझता कि मैं क्या हूँ।

लोग प्रायः भूल ही जाते हैं उनके जीवन क्या रहे। तभी समाज अपने लिए यह सम्भव पाता है कि विधान करे, ‘योग्य माता-पिता वे हैं, जो बच्चों को वयःप्राप्त लोगों की तरह रहना सिखाएँ।’ इस एक भावना ने यौवन का जितना अपघात किया है, उतना शायद ही किसी और कानून या प्रथा या विधान ने किया हो। अपनी सन्तान को वयःप्राप्त लोगों-सा बर्ताव सिखाते समय वे भूल जाते हैं कि उनके अपने जीवन क्या थे, कि वे भी कभी बच्चे थे, उनमें भी बच्चों की निष्पाप शरारत थी; कि बच्चों का कोई दोष है तो यही है कि वे इतने पोले, इतने अछूते, इतने स्वच्छ, निष्पाप हैं कि वे अपने माता-पिता को अपने कपट पर लज्जित कर देते हैं। यदि माता-पिता अपना बचपन याद भर रख सकते तो उनकी सन्तान और वे स्वयं, कितने सुखी होते!

माता-पिता प्रायः समझते हैं कि बचपन बड़े सुख का समय है, क्योंकि वह उत्तरदायित्व-शून्य है। और यह विचार उनके हाथों बचपन के प्रति कितने अन्याय करवाता है! इसी विचार के कारण वे बहुधा मनाया करते हैं, “काश कि वे दिन फिर आ जाते!” यदि कभी कुछ दिन के लिए उनकी इच्छा पूरी की जा सकती, तो वे एक बड़ा उपादेय सबक सीखकर आते!

कभी तो विवश पूछना पड़ता है कि वे आखिर बच्चों को समझते क्या हैं? जहाँ एक और वे कहते हैं कि बच्चे सब बदमाश और पाजी होते हैं, वहाँ दूसरी ओर वह ऐसा भी बर्ताव करते हैं, मानो बच्चे मिट्टी के लोदे से अधिक कुछ न हों। बच्चों के सामने ऐसी हरकतें करते हैं, जो यदि वे बच्चे को तनिक भी समझते, तो कल्पना में लाते भी लज्जित होते! किसने नहीं सुना, ‘अरे, इसके सामने कहने में क्या हर्ज है, यह तो बच्चा है!’ ‘अरे, उसे क्या पता, वह तो बच्ची है!’ ‘उत्तरदायित्व शून्य’ बच्चे की निष्कपटता का उत्तरदायित्व कितना बड़ा है, वे भला क्या समझें! वे कोमल, अविकसित मस्तिष्क, अपनी कोमलता के कारण ही अधिक भयंकर होते है! हम लोग पक्की सड़क पर चलते हैं, तब हमारे पाँवों की छाप नहीं पड़ती, लेकिन जब गीली मिट्टी पर, धूल पर, रेत पर चलते हैं, तब पैर बहुत गहरा धँस जाता है। पक्की सड़क पर पानी बह जाता है, कच्ची सड़क पर जहाँ-जहाँ धँसे हुए पैरों से गढ्ढे बने होते हैं, वहाँ कीच बनती है...

कभी-कभी मैं सोचता हूँ, ये पन्ने मेरे पिता तक पहुँच सकते! अपने पुत्र का हृदय इस प्रकार खुश हुआ देखकर उन पर क्या बीतती? उन असंख्य घटनाओं को, जिनमें अपने पुत्र के हृदय को न समझकर, जिनके द्वारा उन्होंने उसके चिथड़े करके, उसे अपने से ढूर ढकेला था, वे कैसे देखते? और उन घटनाओं को जिनमें पुत्र होने के कारण पिता के पितृत्व को समझने में असमर्थ होता था, और दुःख देता और पाता था?...

और माँ...वह माँ जो उसे एक बोझ और वह भी कँटीला बोझ मात्र समझती थी...

अच्छा ही है कि वे नहीं देखेंगे इन्हें। मैं तो अब संसार से अलग हो गया हूँ, मैं कौन हूँ जो उसमें किसी भी व्यक्ति का सुख छीनूँ? करोड़ों वर्षों से मानव की एक ही चेष्टा रही है-कि या तो सुख पा ले, या उसकी कामना को खो दे; और इन दोनों में ही वह असफल रहा है...

शेखर अपने पिता का उपासक था।

प्रायः लोग सन्तान पर माँ के प्रभाव की बात कहा करते हैं। बहुतों का विश्वास है कि सभी असाधारण व्यक्तियों पर उनकी माँ का प्रभाव रहा होता है। लेकिन जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, पुत्रों पर माँ का प्रभाव, पुत्रियों पर पिता के प्रभाव की तरह नकारात्मक होता है। वह स्थिरता देता है, उत्थान में भी उतना ही बाधक होता है, जितना कि पतन में। यों कहना चाहिए माँ की ओर आकर्षित पुत्र और पिता की ओर आकर्षित पुत्र और पिता की ओर आकर्षित कन्या साधारणता की ओर, सामान्यता की ओर जाते हैं, और पिता की ओर आकृष्ट पुत्र, माता की ओर आकृष्ट कन्या, असाधारण होते हैं। पहली श्रेणी में मिलेंगे सीधे-सादे शान्त आदमी सामान्य स्त्रियाँ, जिनमें कोई खास बुराई नहीं है, जो साधारणतया प्रसन्न और सन्तुष्ट हैं; जो जीते हैं, रहते हैं और मर जाते हैं; दूसरी में मिलेंगे प्रतिभावान् लेखक और कवि, देश और संसार को बदल देनेवाले सुधारक, क्रान्तिकारी, डाकू, जुआरी, पतित-से-पतित मानवता के प्रेत...अच्छे या बुरे, उनके लिए साधारणता नहीं है; वे सुलग नहीं सकते, फट ही सकते हैं...

अच्छे और बुरे का निर्णायक कौन है? शेखर साधारण नहीं था।

और वह अपने पिता का उपासक था।

धीरे-धीरे पिता को भी जान पड़ने लगा कि गाँधीवाद शेखर का हृदय में घर करता जा रहा है। एक दिन शेखर को बुलाकर पूछा, ‘तुम हर वक्त गाँधी का नाम क्यों चिल्लाया करते हो?’

“मैं गाँधी को मानता हूँ! मैं उसके बताए पथ पर चलूँगा।”

पिता ने हँसकर कहा, “उस पथ पर चलोगे! गाँधी की शिक्षा तुमने समझी भी है? कोई तुम्हारे गाल पर एक थप्पड़ लगाए तो क्या करोगे?”

शेखर ने बिना हिचकिचाहट के कहा, “दूसरा गाल आगे कर दूँगा।”

उद्धत शेखर के मुँह से यह सुनकर पिता गम्भीर हो गये। बोले, “जाओ, खेलो, इन सब बातों की अभी तुम्हें क्या पड़ी है। बड़े होओगे तो सब कुछ करना; अभी अपने खेल में रहो!”

यह नुस्खा शेखर ने कई बार सुना है, और वह जानता है कि इसके पीछे सदा कोई उलझन या असमर्थता छिपी होती है। लेकिन वह यह भी जानता है कि इससे आगे कुछ कहना बेकार है।

एक दिन पिता के एक मित्र आये। बैरिस्टर थे, खूब भड़कीले कपड़े पहनते थे, बहुत फूले हुए पहाड़ी चूहे-से-दीखते थे, और भारतीय कला के पारखी होने का दावा करते थे। साथ में उनका लड़का, और ऊँची फ्राक पहने लड़की भी थी।

परस्पर सामना होते ही जिस क्षण में दोनों बच्चों ने कहा, ‘गुड ईवनिंग’, उसी क्षण में शेखर भुन गया। पर कुछ बोला नहीं, उन्हें अपने साथ बगीचे में ले गया और अपने पालतू खरगोश दिखाने लगा। बैरिस्टर साहब पिता के साथ चले गये।

लेकिन वे कुछ ही मिनट के लिए आये थे। शेखर और दोनों भाई-बहन खरगोशों से खेलने लगे ही थे कि वे उतर आये। गाँधीवादी शेखर द्वार तक सबको छोड़ने चला।

द्वार पर पहुँचकर उसने शुद्ध स्वदेशी ढंग से दोनों हाथ जोड़कर, सिर कुछ झुकाकर कहा, “नमस्ते!”

लड़के ने कुछ मुस्कराकर कहा, “गुडनाइट, डियर।”

शेखर को गाँधीवाद भूल गया। उस मुस्कराहट में जो अहंमन्यता थी, वह उसे सह्य नहीं हुई। और वह अन्तिम ‘डियर’-यह, यह नामहीन जन्तु मुझे डियर कहने का साहस करे! शेखर ने तड़पकर अँग्रेजी में कहा, “You dirty, You sneak” (दम्भी! कमीना!) और ऐसा ही बहुत कुछ, और एक तमाचा उसके मुख पर जड़ दिया।

वह डरे हुए पिल्ले की तरह चीखने लगा।

थोड़ी देर बाद शेखर भी पिटा और खूब पिटा। लेकिन वह मन-ही-मन कहता रहा, मैं कुत्ते का पिल्ला नहीं हूँ, मैं चूँ-चूँ नहीं करता; और मार खा गया।

पिता ने जिस दिन से शेखर का दूसरा गाल बढ़ा देने की बात सुनी थी, उस दिन से जब कोई आया करता था, तब उसका प्रदर्शन किया करते थे। मित्रों के सामने बुला कर उससे पूछते, “अगर कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ लगाए तो क्या करोगे?” और उसका उत्तर सुनकर सब लोग हँसते, तब उसे जाने की अनुमति मिल जाती। कुछ तो वे उसका प्रदर्शन ही करना चाहते थे, कुछ शायद उन्हें यह भी आशा थी कि इस बात को बार-बार दुहराने से शायद उसका अक्खड़पन कुछ कम हो जाय, उसमें कुछ नम्रता आ जाय। शेखर को पहले तो यह प्रदर्शन बहुत बुरा लगता था, पर धीरे-धीरे इसके बारे में उसने दार्शनिक का तटस्थ भाव स्थापित कर लिया था। वह आता, उत्तर देता, और बिना किसी की ओर देखे तुरन्त लौट जाता, क्योंकि वह जानता था, इससे आगे मेरी जरूरत नहीं है, मुझमें जो कुछ हुनर, जो करामात इन लोगों को देखनी थी, वह दिखायी जा चुकी...

एक दिन बैरिस्टर साहब फिर आये। अबकी बार वे अकेले थे। उन्होंने शेखर को देखा नहीं, शेखर ने उनको नहीं ‘देखा’। ऊपर चले गये।

लेकिन थोड़ी देर बाद शेखर की बुलाहट हुई। वह पिता के पास पहुँचकर खड़ा हो गया, बैरिस्टर साहब की ओर उसने देखा भी नहीं।

पिता ने पूछा, “क्यों बेटा शेखर, अगर कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ लगाए तो क्या करोगे?”

शेखर ने देखा, बैरिस्टर की आँखें उस पर स्थिर हैं, और मानो कह रही हैं, “हाँ, मैं जानता हूँ तुम क्या उत्तर दोगे, फिर भी कहो-”

नहीं। इस पहाड़ी चूहे के सामने नहीं। वह जन्तु है, प्रदर्शन के लिए है, लेकिन इसके सामने...नहीं पिता, नहीं। मुझे बाध्य मत करो।

पिता ने प्रश्न दुहराया। फिर, विशेष शेखर के लिए, धीमे स्वर में (जिसका धीमापन क्रोध को छिपाता नहीं था।) कहा, “बोलो, गधे!”

शेखर ने पहाड़ी चूहे की ओर देखते हुए कहा, “मैं उसके दोनों गालों पर लगाऊँगा।”

उसके स्वर में हिंसा थी, दृष्टि में रोप, मानो वे काल्पनिक दो थप्पड़ वह बैरिस्टर साहब के फूले गालों पर लगा रहा हो, लेकिन बात कहते हो उसने जो लम्बी साँस ली, उसमें कितनी गहरी हताशा, कितना प्रगाढ़ नैराश्य था, वह किसने समझा?

शेखर सीढ़ियाँ उतर गया। जैसा काम उसने किया था, उसके अनुरूप चाहिए था कि उसकी चाल में उद्धतता होती, लेकिन वह ऐसे उतरा, जैसे वर्षों का थका हो, टूटा हुआ हो...

अपने कमरे में जाकर, शेखर ने आलमारी में से किताबें निकालकर नीचे गिरा दी और दबा हुआ अपना नाटक निकाला। क्षण-भर सोचता रहा कि क्या करे। दरवाजे के बाहर खड़ी गऊ को देखकर उसके पास गया, और नाटक की कॉपी उसकी ओर बढ़ा दी। गऊ ने मुँह से उसे पकड़कर झपटकर शेखर के हाथ से छुड़ा लिया, और अपनी बड़ी-बड़ी भोली, बेवकूफ आँखों से शेखर की ओर देखती हुई खा गयी...

शेखर आकर कमरे में बैठ गया और, सामने की दीवार की ओर देखता हुआ रोने लगा-बिना आँसुओं के, बिना स्वर के, किन्तु मानो सारे शरीर से-उसका सारा पिंजर यों हिलने लगा...

शाम हो गयी। शेखर अभी वहीं बैठा था। उसका हिलता हुआ पिंजर शान्त हो गया था। आँसू एक भी नहीं आया था। और उसे पता नहीं था कि वह जीता है या मर गया है।

निराशा इतनी बढ़ गयी थी कि वह निराश नहीं रहा था। वह अनुभूति से परे चला गया था।

सरस्वती बत्ती लेकर कमरे में आ रही थी। शेखर को वहाँ वैसे बैठा देखकर उसने बत्ती बाहर ही रख दी और पास आकर स्नेह से बोली, “शेखर?”

शेखर ने नहीं सुना।

सरस्वती ने उसके कन्धे पर धीरे से हाथ रखकर कहा, “शेखर?”

उसने फिर भी नहीं सुना।

सरस्वती ने एक उँगली से धीरे से उसकी ठोड़ी उठाते हुए कहा, “बोलोगे नहीं शेखर?”

क्रोध होता तो शेखर उसका हाथ झटक देखा। लेकिन उसने मुँह ऊपर उठने न दिया, और शून्य दृष्टि से सरस्वती की ओर देखा किया।

उसने सरस्वती को नहीं देखा।

सरस्वती ने एक बार फिर अनिश्चित-से स्वर में कहा, “शेखर,” और परे हट गयी। कमरे के एक दूसरे कोने में जाकर निश्चल बैठ गयी।

बहुत देर तक कमरे के दो ओर दोनों बैठे रहे।

ऊपर से आवाज आयी, ‘सरस्वती।’

वह नहीं हिली। आवाज फिर आयी, फिर भी नहीं हिली। फिर आयी और साथ आया, “कहाँ मर गयी है?”

शेखर ने कहा, “बहिन?”

वह नहीं बोली।

फिर कहा, “बहिन?”

फिर उठकर पास आकर कहा, “बहिन?”

“नहीं बोलोगी बहिन?”

“गुस्सा हो गयी क्या?”

“अबकी नहीं बोलोगी तो-मैं भी-नहीं बोलूँगा। बोलो बहिन?”

सरस्वती उठी और ऊपर चली गयी।

थोड़ी देर बाद शेखर भी उठा, मुँह धोकर चला गया, और रोटी खाने लगा।

उस एक छोटी-सी घटना में शेखर के भीतर क्या टूट गया था, और इस एक और भी घटना ने किस चीज से उसे बचा लिया, कौन कहे?

लेकिन गाँधी जी गये, और गाँधीवाद भी गया। और श्ेाखर के देवता उसके पिता भी, फिर वही कभी नहीं हुए।

मैं अपनी कोठरी के बाहर सूनी दीवार की ओर देख रहा हूँ। रोजेटी की कुछ पंक्तियाँ मेरे भीतर गूँज रही हैं :

Who shall dare to search through what sad maze

Jenceforth their incommunicable ways

Follow the desultory feet of Death....*

मृत्यु! एक स्तिमित कर देनेवाली घटना। एक हल न होनेवाली पहेली।

जिन्हें दुःख है, दर्द है, वे सदा मृत्यु माँगते रहते हैं। उसके लिए प्रार्थी होते हैं, लेकिन उनके लिए मृत्यु बड़ी भयंकर चीज होती है, वे उसके विचार से ही काँपते हैं। लेकिन मुझे लगता है, मृत्यु बड़ी भयंकर चीज होती है, वे उसके विचार से ही काँपते हैं। लेकिन मुझे लगता है, मृत्यु एक ऑपरेशन है, जैसे दाँत उखड़वा देना। कुरसी पर बैठना पड़ता है, डाक्टर एक झटका देता है, एक तीखा दर्द होता है, और फिर शान्ति मिलती है, छुटकारा हो जाता है। मृत्यु भी वैसी ही है...

लेकिन अच्छा डाढ़ निकलवाने पर रक्त बहता है और सूजन होती है। तब असमय में जीवन छिनने पर भी...

शायद मृत्यु का ज्ञान, और जीवन की कामना एक ही चीज है। यह बहुत बार सुनने में आता है कि जीना वही जानता है, जो मरना जानता है। यह नहीं सुना जाता कि जीवन सबसे अधिक प्यारा उसको होता है, जो मरना जानता है; पर है यह भी ध्रुव सत्य। लोग समझते हैं, जो जीवन से प्यार करते हैं, वे मृत्यु से डरते हैं। बिलकुल गलत। जो मृत्यु से डरते हैं वो जीवन से प्यार कर ही नहीं सकते; क्योंकि जीवन में उन्हें क्षण-भर भी शान्ति नहीं मिल सकती। जीवन प्यारा है या नहीं, इसकी कसौटी यही है कि उसे बिना खेद के लुटा दिया जाय, क्योंकि विराट् प्रेम मौन ही हो सकता है, जो अपना प्यार कह सकते हैं, उनका प्यार ओछा है...

The desultory feet of Death......

  • किसमें साहस कि खोजे

अब किस भूलभुलैयाँ में से रहस्यमय पथ खोजते हुए बढ़ते हैं

मृत्यु के भटकते चरण...

मृत्यु के भटके हुए उदास पैर द्वार-द्वार पर जाते हैं, और यौवन मुरझा जाता है, और जीवन धुल जाता है, और वेदना है अनन्त...एक नीरवता का क्षण आता है; जिसमें उन श्याम पंखों की उड़ान का रव सुन पड़ता है, जिन्हें देखना सो जाना है...हर कोई ऊँघता है और सो जाता है, हर व्यक्ति और हर वस्तु : केवल यह तृप्त न होनेवाली भूख, यह किसी चरम ध्येय की पागल माँग, यह मुक्ति का विवश आकर्षण, यह नहीं बस होता...मृत्यु के पंख उस पर से बीत जाते हैं, लेकिन उनकी छाया उसे नहीं ग्रसती, वैसा ही उद्दीप्त छोड़ जाती है...

मृत्यु के पंखों में बसा है अनन्त निशीथ का अन्धकार, लेकिन मुक्ति है एक देदीप्यमान ज्वाला...

लेकिन मैं मरना नहीं चाहता। मैं दीवारों से कहता हूँ, मैं सींखचों से कहता हूँ, मैं हवा से कहता हूँ, मैं सुननेवाली न सुनती हुई हृदयहीन उपेक्षा से कहता हूँ, मैं मरना नहीं चाहता; मैं जीवन को प्यार करता हूँ; मैं मरना नहीं चाहता!

मैं घृणा के संसार से इतना कुचला गया हूँ कि प्यार मेरा अपरिचित हो गया है। लेकिन कल्पना की आँखों से जब देखता हूँ, शिशिर कालीन फीकी चाँदनी में गेहूँ के पके हुए खेत में से कोई स्वर अपने प्रियतम को बुलाता है, तब मेरे हृदय में कोई सुप्त प्रतिध्वनि जागकर कहती है, “तुमने भी कभी प्यार पाया है।”

मैं पीड़ा से इतना घिरा हुआ हूँ कि आनन्द मेरा अपरिचित हो गया है। लेकिन कल्पना की आँखों से जब अँधियारे आकश के पट पर दो उलझे हुए शरीरों का चित्र देखता हूँ, तब मेरे अन्तरतम में भी कोई शब्दहीन स्वर मानो चौंककर अपने आपको पा लेता है, ‘तुमने कभी आनन्द जाना है!’

प्रभात...

पूर्व में एक दिव्य दीप्ति, घुलती हुई धुन्ध, शीतल समीर, हँसते हुए ओस-कण, मान करती हुई-सी मालती-कलियाँ, पागल गुंजार करते हुए भौंरे, जंगल पर होकर बस्ती की ओर उड़ते हुए असंख्य पक्षी-मैं कल्पना में इन सबको देख सकता हूँ, अपनी कोठरी की नंगी दीवार पर बिखरे हुए लाल प्रकाश के एक चौकोर टुकड़े में...

मेरे लिए इतना ही बहुत है कि रात बीत गयी है, और मैं उस लाल टुकड़े को देख सकता हूँ। मैं उसी नींव पर स्वप्न खड़े करता हूँ...

मालती-फल...उनका मधुर सौरभ...लेकिन कहाँ है नीम के बराबर सौरभ-वह सौरभ जिसे मैं भूल नहीं सकता, जो मुझ में परिव्याप्त है।

नीम का स्वाद कटु है, गन्ध मधुर। ऐसा ही प्रेम है, जिसका रंग सुन्दर है और स्पर्श कठोर...

लेकिन मुझे जीवन और प्रेम से क्या-जिसका परिणाम मृत्यु की कठोर यथार्थता से होनेवाला है?...

ईश्वर को और अपने जीवन को ‘नाऽस्ति’ कहकर शेखर मानो अपने चारों ओर के जीवन के लिए नंगा हो गया। मानो अपने किसी धोंधे में से बाहर निकल आया, प्रत्येक चोट, प्रत्येक झोंका, प्रत्येक आघात के लिए प्राप्य स्पृश्य...यह मानो संसार का एक दर्शक मात्र हो गया, दर्शक भी नहीं, केवल एक छाप लेनेवाली, अंकित करनेवाली मशीन। स्वयं उसमें कोई शक्ति नहीं रही थी, उसका कोई आवरण, कोई कवच कोई बचाव नहीं था; और मानो उसमें अनुभूति नहीं थी, प्राण ही नहीं थे। वह मानो एक विराट आँख मात्र हो गया था, जो सब कुछ देखती जाती थी, सब कुछ स्वीकार करती जाती थी, और कुछ भी प्रभावित नहीं होती थी।

वह वास्तव में पूरी सच्चाई से वैसा हो गया कि कवि शब्दों में-

I am like a read through which thy spirit breaths : it cometh and it goeth....

मैं एक बाँस की पोरी हूँ, जिसमें तेरी आत्मा साँस फूँकती है-वह आती है और चली जाती है...

लेकिन उसके मस्तिष्क के किसी अँधेरे कोने में एक साटिंग दफ्तर था, जहाँ प्रत्येक दृश्य, प्रत्येक वस्तु छँटकर अलग होती, नाम और लेबिल पाती, और ठीक-ठिकाने रख जाती थी...

आत्मा की साँस आती थी और चली जाती थी, और अनछूती भूमि में नया बीज जड़ पकड़ रहा था...

शेखर वैसा हो गया जिसे कि माँ, यदि उन्हें कभी किसी को किसी बात का श्रेय देने की आदत होती, आदर्श सन्तान कहतीं। वह कभी ज्यादा बात नहीं करता, कभी प्रश्न नहीं पूछता, भाजी कम हो जाने पर कभी नहीं माँगता। बिना शिकायत किये सर्दी में भी ठंडी पानी से नहा लेता है, यथासमय पढ़ता है, बल्कि पढ़ाई के समय में तनिक भी देर हो जाने पर सरस्वती को बुलाकर कहता है, ‘बहिन जी, पढ़ाने का वक्त हो गया’, दोनों वक्त यथानियम सन्ध्या करने बैठता है, संक्षेप में ऐसे रहता है कि माँ को ऐसा लगे, उसके पाँच ही सन्तान हैं, शेखर की देख-रेख उसे करनी ही न पड़े।

शेखर मानो जीवन के स्लेट पर से, भूल से या गलत लिखे गये अक्षर की तरह अपने को मिटा देना चाहता था।

लेकिन कितनी बातें थी, जो वह जानना चाहता था और पूछने से रह जाता था! कभी कोई प्रश्न उसके ओठों पर आ जाता था, तब वह दाँत पीसता था, फिर भी वश न चलने पर ओठ काटता था-यहाँ तक कि खून बह आता था...और प्रश्न नहीं पूछा जाता था। कभी पिता उसे ओठ चबाते देखते तो मना करते और जब बहुत कहने पर भी उस पर असर होता न देखते, तब क्रुद्ध होकर कहते, ‘अच्छा, फिर मैं ठीक कर दूँ?’ और चुटकी में भरकर उसका ओठ मसल डालते थे। वह मन में समझता था, जैसे पीड़ा हुई ही नहीं, लेकिन उसके बाद वह पिता की ओर ऐसी आँखों से देखता था, मानो उन्हें पहचानता न हो...

पहले तो यह, कि माँ क्या कभी-कभी सबसे अलग जा बैठती हैं, रसोई में नहीं आतीं, अलग बर्तनों में खाना खाती हैं और कोई उनके पास जाता है-और तो कोई जाता ही नहीं, प्रायः शेखर के छोटे भाई ही जाते हैं-तो कहती हैं, ‘मेरे पास मत आओ, जाओ खेलो’ सो सब क्यों! पता नहीं किसने शेखर को बताया था कि वे बीमार होती हैं, लेकिन शेखर बीमारी के लक्षण तो देखता नहीं। और फिर, दो-चार दिन बाद एक दिन सवेरे उठकर शेखर देखता है, माँ नहा-धोकर रसोई में बैठी हैं और काम कर रही हैं-यदि कल रात तक बीमार थीं तो सबेरे क्या हो गया?

दूसरे यह है कि शेखर को याद आ रहा है, ऐसी बात अब बहुत दिनों से नहीं हुई। लेकिन अब जैसे माँ कुछ बीमार जान पड़ने लगी हैं। उनका मुँह पीला पड़ गया है, और वे काम बहुत वज्र करती हैं, प्रायः ढीली-सी और कुछ उदास रहती हैं।

तीसरे यह कि एक दिन उसने सहज ही सरस्वती से कहा, “माँ बीमार हैं क्या?” तो सरस्वती ने ऐसी तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखा और बिना कुछ कहे चली गयी।

वह पूछेगा नहीं-उसे क्या?-लेकिन वह जानना चाहता है, क्यों...

और भी बहुत कुछ जानता चाहता है। जिन कमरे में माँ प्रायः रहती हैं, उसमें एक आलमारी है, जिसमें ताला लगा रहता है। शेखर ने माँ को कभी-कभी उसे खोलते देखा है-उसमें निचले खाने में वे अपने गहने इत्यादि रखा करती हैं, और कभी-कभी बिस्कुट के डिब्बे, गुलकन्द, च्यवनप्राश का डिब्बा, और अन्य ऐसी चीजें जो लड़कों से बचाने की हैं। लेकिन उसके ऊपर दो खानों में किताबें भरी पड़ी हैं, वे क्या हैं, जब घर-भर में किताबें बिखरी पड़ी हैं, अच्छी-से-अच्छी, बहुमूल्य; जब एन्साइक्लोपीडिया तक खुली रहती है, तब वे किताबें क्यों ऐसी सँभालकर रखी जाती हैं? वे अच्छी हैं, तो क्यों नहीं उन्हें पढ़ने को दी जातीं! बुरी हैं तो क्यों रखी गयी हैं?

और शेखर कहाँ से आया? कैसे आया? उसे वे दिन याद आये, जब चन्द्र का जन्म हुआ था। उसने माँ से पूछा था, “माँ, वह कहाँ से आया?” और माँ ने बताया था कि “माँ, वह कहाँ से आया?” और माँ ने बताया था कि “दाई ने ने लाकर दिया था।” लेकिन जब उसने दाई से पूछा था कि वह उसे इतना छोटा क्यों लायी, कुछ और बड़ा लाती, तब उसने उत्तर दिया था, “मैं नहीं लायी, वह जो डाक्टर आया था, वह अपने बैग में रखकर लाया था। उस बैग में इससे बड़ा आ ही नहीं सकता।” तब शेखर को दोनों पर ही विश्वास नहीं हुआ था, लेकिन वह चुप रह गया था। उसके काफी दिन बाद, जब उसने पहले-पहल अंडे से चिड़िया का बच्चा निकलते देखा था, तब उसे निश्चय हो गया था कि माँ उससे झूठ बोली है। और, माँ को आजमाने के लिए वह उसके पास गया था और पूछ बैठा था, “माँ, डॉक्टर चिड़ियों के पास भी जाते हैं?”

माँ उसका प्रश्न समझी नहीं थी। बोली, “नहीं तो, क्यों?”

“तब चिड़ियों के बच्चे कहाँ से आते हैं?”

“अंडो में से निकलते हैं।”

यहाँ तक तो माँ सच बोल रही हैं! शेखर ने फिर कुछ अधिक आशा से पूछा, “और अंडे कहाँ से आते हैं?”

“ईश्वर भेज देता है।”

फिर वही दीवार-ज्ञान के पथ में सबसे बड़ा विघ्न-ईश्वर! तब उसने बहिन से पूछा था-”ईश्वर अंडे कैसे देता है?”

“बारिश के साथ बरसा देता होगा।”

लेकिन थोड़े दिन बाद शेखर जान गया कि यह भी गलत है। बारिश सब जगह एक-सी होती है, तब अंडे क्यों अलग-अलग घोंसलों में और-और तरह के होते हैं? और, एक दिन उसने एक घोंसला देखा जो खाली था, दूसरे दिन उसमें अंडे थे, और बीच की रात में बारिश नहीं हुई थी...

शेखर समझ गया कि सब लोग उससे झूठ बोलते हैं! और वह जानना चाहता था...

एक कमरा अलग कर दिया, साफ किया गया, गोबर से लीपा गया, खिड़कियाँ बन्द कर दी गयीं, और माँ उसमें चली गयीं। एक दाई आकर उनके पास रहने लगी और सब लोगों को वहाँ आने-जाने की मनाही हो गयी। चन्द्र के जन्म की बात याद करके इन लक्षणों से शेखर ने जान लिया कि दाई, या डाक्टर, या कोई और शक्ति, उनके परिवार पर एक बार फिर कृपादृष्टि करनेवाली है। और वह डाक्टर के आने की प्रतीक्षा करने लगा।

रात में एकाएक शेखर चौंककर जागा। वह नहीं समझ सका कि वह क्यों जागा, लेकिन उसे ऐसा लगा, अवश्य कुछ हुआ है, वातावरण में किसी दबाव-से की भनक उसे मिली...

वह उठकर बैठ गया, चारों ओर देखने लगा। उसने पाया, उसके साथ वाली चारपाई खाली है, सरस्वती वहाँ नहीं है। वह चारपाई से उतरा और दूसरे कमरे में गया जहाँ पिता सोते थे।

पिता वहाँ नहीं थे। निचली मंजिल में प्रकाश था।

न-जाने क्यों, शेखर को साहस नहीं हुआ कि वह नीचे जाकर देखे। पहले कभी ऐसी बात हुई होती, तो वह अवश्यमेव नीचे जाकर देखता, लेकिन अब नहीं। अब वह बुझ जाना चाहता है, दीखना नहीं चाहता; कोई उससे पूछे कि वह क्या करने आया, इसका उत्तर देना तो क्या, यह प्रश्न सुनने का भी साहस उसमें नहीं रहा है-अपने आप में उसका विश्वास टूट गया है।

लेकिन जिज्ञासा...वह चढ़े हुए चिल्ले की तरह तना हुआ खड़ा रह गया...

एक बड़ी तीखी, भेदक, किन्तु फिर भी निर्बल और जैसे झुँझलाई हुई-सी चीख...

शेखर ने जान लिया कि जिस किसी शक्ति का भी वह काम था, उसने शेखर को धोखा दे दिया है। और उसके प्रश्न का उत्तर अब भी नहीं है...

सीढ़ियों पर सरस्वती के पैर की आहट हुई। सरस्वती से डर नहीं था, फिर भी शेखर का दिल धड़क उठा, वह भागकर चारपाई पर जाकर लेट गया।

सरस्वती आयी। चारपाई पर बैठ गयी, पाँव समेटकर, घुटने भुजाओं से घेरकर घुटनों पर ठोड़ी टेककर।

शेखर नहीं रह सका। उसने पूछा, “क्या हुआ?” मानो अभी जागा हो।

सरस्वती चौंक गयी। फिर बोली, “शेखर, तुम्हारी एक और बहिन हो गयी है।”

बहिन? बहिनें भी ‘होती’ हैं? शेखर ने पूछा, “तुम्हारे जैसी?”

“दुर पागल! अभी तो इतनी छोटी है-पिद्दी-सी? जब बड़ी होगी-”

शेखर ने बड़े गम्भीर स्वर में कहा, “सरस्वती!”

सरस्वती विस्मित-सी होकर, बोली, “क्या है?” शेखर ने कभी उसे नाम लेकर नहीं बुलाया था।

“जो मैं पूछूँगा बताओगी? झूठ मत बताना, चाहे बताना मत।”

सरस्वती ने कुछ संदिग्ध स्वर में कहा, “क्या?”

शेखर बड़े प्रयास से कह पाया, “बच्चे कैसे आते हैं?”

सरस्वती ने सहसा कोई उत्तर न दिया।

प्रतीक्षा करते-करते शेखर के भीतर एकदम शब्दों की बाढ़-सी आ गयी। बोला, “दाई लाती है, डाक्टर लाता है, ईश्वर देता है, यह सब मैं सुन चुका हूँ, यह मत बताना! यह सब झूठ है, मुझे पता है। बताओ, अगर ऐसे आते हैं, तो इतने छिपा-छिपाकर क्यों आते हैं? और हमको क्यों नहीं आते? और-कहती थीं कि हमें और बच्चे नहीं चाहिए, उनको क्यों आये। उन्होंने वापस क्यों नहीं कर दिये? ईश्वर क्यों भेजता है? मैं बहिन माँगा करता था, तो भाई क्यों आया था? चिड़ियों के बच्चे अंडों में से निकलते हैं, मैंने आप देखे हैं। माँ अंडे तोड़कर निकालती है। अंडे कहाँ से आते हैं? अब बहिन आयी है, इतनी रात को क्यों आयी, दिन तें क्यों नहीं आयी? और हमें वहाँ जाना क्यों नहीं मिलता? और सब लोग झूठ क्यों बोलते हैं? बताओ, तुम्हें पता है?” फिर एकाएक लज्जित-सा होकर वह चुप हो गया। इतनी लम्बी स्पीच उसने शायद कभी नहीं दी थी...

सरस्वती ने कुछ टालते हुए से कहा-”क्यों, ईश्वर नहीं भेजता?”

“झूठ मत बोलो, बहिन!”

सरस्वती ने किसी तरह कहा, “माँ के शरीर में से निकलते हैं।”

शेखर उठ बैठा।

“कहाँ से? कैसे?”

“मुझे नहीं पता!” कहकर मुँह, सिर लपेटकर लेट गयी। फिर शेखर ने बहुत बुलाया, उठकर जाकर हिलाया भी, लेकिन वह नहीं बोली, नहीं बोली।

शेखर लेट गया और छत की ओर देखने लगा। और मानो अपने ही व्यक्तित्व के जोर से, अपने को वहाँ छत पर टाँगकर, उससे कहने लगा, शेखर, तू सोच। किसी से पूछ मत, तू सोच। तू बता, तू कहाँ से आया? कैसे आया?

सवेरा हो गया, और शेखर तब भी अपनी आँखों से उसे वहाँ स्थापित किये हुए, छत पर टँगे अपने प्रतिरूप से वही प्रश्न पूछ रहा था।

“बच्चे माँ के शरीर में से निकलते हैं।”

सरस्वती ने झूठ नहीं कहा था, नहीं तो वह इतनी लज्जित न होती। इतने दुःख और कष्ट जलन के बाद, एक बात शेखर के हाथ आयी है जो सच है; जो है, और बस है, बदल नहीं सकती।

“बच्चे माँ के शरीर में से निकलते हैं।”

लेकिन इससे आगे?

इसके आगे एक दीवार है, जिसकी एक-एक ईंट है ईश्वर और समाज, और कुटुम्ब, और माँ-बाप, और परम्परा, और जिसे तोड़कर एक रखने वाला सिरमट है डर...

और इस दीवार के आगे जो भी स्त्री जाती है, शेखर उसकी ओर देखता है, और सोचता है, इसके शरीर में भी कहीं छिपे होंगे। लेकिन कहाँ?...

शेखर चोरी करने लगा।

अब तक शेखर के लिए यह सम्भव नहीं था कि वह छिपाकर कोई बुरा काम करे। क्योंकि जब वह अकेला होता था, तभी उसके कर्मों पर उसकी अपनी आत्मा का नियन्त्रण सबसे अधिक होता था। पर अब-वह ऊपर की दृष्टि से शरीफ, संस्कृत और भला-मानस होने लगा-जिसे कहते हैं ‘हमारा बेटा तो बेटियों-जैसा है?’-और भीतर-ही-भीतर कहीं गिरने लगा।

उसे उत्तरदायित्व के काम मिलने लगे। पहले जहाँ एक छोटा-सा काम पाकर वह इतना प्रसन्न होता था और इतनी लगन से उसे करता था कि वह बहुधा बिगड़ भी जाता था, वहाँ अब वह प्रत्येक अवसर पर यही सोचता था कि मैं कैसे छिपे-छिपे नुकसान कर सकता हूँ।

उसे कभी सन्दूकची की चाभी दी जाती, तो कुछ एक पैसे निकाल लेता। इसलिए नहीं कि वे उसे चाहिए, केवल इसलिए कि चाभी उसके पास है और वह उसका दुरुपयोग कर सकता है। रात को उसे कहा जाता था कि ईश्वर और प्रभुदत्त के मास्टर को (वे उन दिनों परीक्षा की तैयारी कर रहे थे) दूध दे आये, तो वह रास्ते में एक-दो घूँट पी लेता था। इसलिए नहीं कि घर में उसे दूध नहीं मिलता, बल्कि इसलिए कि वह बिना किसी के देखे कुछ बुरा काम कर सकता है। यहाँ तक कि वह कभी रसद के कमरे में जाता, तो किसी बक्स के पीछे थोड़ा घी गिरा आता। ऐसी हरएक हरकत में मानो उसका मन कह रहा होता था, ‘तुम मुझे अच्छा मत समझो, मैं अब भी बुरा हूँ। तुम बेवकूफ हो, जो मुझे अच्छा कहते हो,’ इससे मानो उसके अभिमान की पुष्टि होती थी।

और ये सब काम छिपे ही रहते थे और घर में उसका सम्मान बढ़ता जाता था, और ज्यों-ज्यों वह बढ़ता जाता था, त्यों-त्यों शेखर का पतन भी अधिकाधिक होता जा रहा था...

उसे उस आलमारी की चाभी दी गयी, जिसमें किताबें बन्द थीं। बादाम या कुछ ऐसी चीज निकालने के लिए उसे कहा गया था। उसने आलमारी खोली, दो-तीन किताबें निकालकर आलमारी के नीचे ढकेल दीं, बादाम निकाले और चाभी दे आया।

बाद में मौका पाकर उसने वे किताबें उठायीं और छिपकर पढ़ने लगा।

रद्दी गुलाबी या पीले कागज पर, बड़े-बड़े लखनऊ टाइप में छपे हुए उन किस्सों को पढ़कर, शेखर सोचने लगा कि क्या है इनमें, जो ये इतने सुरक्षित रखे जाते हैं?

‘मालिन की बेटी’। ‘दो जोरू का पति’। ‘बगदाद की बुढ़िया’। ‘साढ़े तीन यार’। ‘साढ़े सात खून’। ‘सुन्दरी डाकू’। ‘बैताल-पचीसी’। ‘तोता-मैना’। ‘सिंहासन बत्तीसी’। ‘तिलस्मी-अँगूठी’। ‘मिस्र का जादू।’

दो-दो, तीन-तीन करके, शेखर ने सब किताबें देख डालीं। इतनी रद्दी, इतनी भद्दी, इतनी बेहूदी थीं वे, कि शेखर का जी मिचला, उठा, वह ऊब उठता, वे उससे पढ़ी नहीं जातीं, फिर सी केवल इसीलिए कि वे मना थीं, उन्हें पढ़कर शेखर बुरा काम कर रहा था, वह उन्हें पढ़ता जाता था, और उसने सब पढ़ डालीं। और कितना सुख होता था उसे जब वह मन-ही-मन माँ को सम्बोधन करके कहता था, “तुम बड़ा अच्छा, बड़ा भोला समझती हो न मुझे? मैं बदमाश हूँ, बिगड़ा हुआ हूँ और मैंने ये सब किताबें पढ़ डाली हैं, जो तुमने बचाकर रखी हुई हैं...”

शेखर चुगलखोर हो गया।

जब कभी किसी भाई से कोई छोटी-सी गलती हो जाती, तो शेखर भागा हुआ माँ के पास जाता और कहता, “माँ, माँ,-ने यह कर दिया है, देखो-तो!” कभी अकारण भी किसी की शिकायत कर देता और तब उसे फटकार खाते या पिटते देखकर मन-ही-मन कहता, ठीक है। अच्छा, पिटना ही चाहिए। मैं बुरा हूँ, मुझे सब मानते हैं, मेरा आदर होता है। तुम अच्छे क्यों हो?

और जब भाई कभी उसकी ओर आशंका या अविश्वास की दृष्टि से देखते तो उसे लगता, हाँ मैं भी कुछ हूँ...

एक सीढ़ी और।

शेखर भद्दी-भद्दी तुकबन्दी भी करने लगा। अश्लील नहीं थी-अश्लीलता से अभी शेखर का परिचय नहीं हुआ था...केवल भद्दी थी, वीभत्स थी। इसे वह किसी के सामने पढ़ नहीं सकता था, कभी एकान्त पाकर जोर-जोर से बोला करता था। और ऐसे अवसरों पर वह हवा को गालियाँ भी दिया करता था-कुछ ऐसी, जिनका वह अर्थ भी नहीं जानता था, लेकिन जो उसने सुनी थीं और जिनके बारे में उसे मालूम था कि उन्हें कहना बुरी बात है...

अच्छे या बुरे होने का, शेखर के लिए कोई महत्त्व नहीं रह गया था। उसके लिए बड़ी बात यह थी कि वह कुछ हो सही-और वह अनुभव करे कि वह कुछ है। इस विश्वास का सहारा उसके लिए बहुत जरूरी हो गया था।

चन्द्र के फेंके हुए पत्थरों से मकान के बाहर फूलों के गमले टूट गये। तब वह भोला-भाला भागा हुआ माँ के पास गया और हाँफता हुआ बोला, “माँ, माँ, मैंने गमले नहीं तोड़े!”

माँ ने पूछा, “कौन-से गमले?”

“मैंने नहीं तोड़े वे।”

तभी शेखर भी पहुँचा। “माँ, वे जो बाहर गमले थे न, नीले फूलों के, जो पिता जी ने दफ्तर से मँगाए थे, वे चन्द्र ने पत्थर मारकर तोड़ दिए हैं।”

चन्द्र ने कहाँ, “माँ, मैं पहले कह चुका हूँ कि मैंने नहीं तोड़े।” मानो पहले कही जाने के कारण उसकी बात अधिक मान्य हो।

शेखर मुड़कर बाहर जाने लगा, कुछ ऐसे भाव से कि मैंने अपना कर्तव्य कर दिया है, मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं है।

माँ ने चन्द्र से पूछा, “झूठ बोलता है? चल देखूँ, कौन-से गमले तोड़े हैं तूने।”

और उसका हाथ पकड़कर घसीटती हुई बाहर चलीं।

चन्द्र काफी पिट चुका था। माँ ने न जाने क्या-क्या धमकियाँ दी थीं उसे कि वह कह दे कि गमले उसी ने तोड़े हैं, पर वह नहीं कहता था। यह माँ को सह्य नहीं था कि उनकी आज्ञा के उल्लंघन ऐसे हों-उनके मत था कि अगर इसने नहीं भी तोड़े तब भी इसे स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि मेरा निर्णय है, इसी ने तोड़े हैं...

शेखर कुछ दूर बैठा हुआ, सामने एक किताब रखे, यह दृश्य देख रहा था; और उसे विस्मय हो रहा था उस माँ पर, जिसके चेहरे पर क्रोध नहीं है, वाणी में रोष नहीं है, किन्तु जो बच्चे को पीटती जा रही है, और जिसके लिए यह इज्जत का सवाल हो रहा है कि बच्चा कह दे, जो वह कहलाना चाहती है...

बच्चे क्रुद्ध माता-पिता से पिटते हैं, तब पिट लेते हैं, उनकी आत्मा पर आघात नहीं पहुँचता। लेकिन बिना क्रोध के, निर्मम, दूरस्थ-भाव से पिटकर उनके मानसिक क्षेत्र में सदा के लिए एक दरार-सी फट जाती है। यह बात तब शेखर भी नहीं जानता था, उसकी माँ भी नहीं जानती थी, पर इससे उसकी सच्चाई कम नहीं हो गयी थी।

माँ ने पुकारा, “सरस्वती! चिमटे में एक अंगार तो लाना।”

सरस्वती ले आयी।

माँ ने चिमटा हाथ से पकड़कर कहा, “बोलो सच, नहीं तो मैं यह रख दूँगी जबान पर।”

“सच बोल रहा हूँ!”

और शेखर सोच रहा है, क्या माँ सचमुच अंगार रख देगी? विश्वास तो नहीं होता लेकिन वह क्रोधहीन, निर्गुण मुख...

“कह, मैंने तोड़े थे गमले?”

“मैंने नहीं तोड़े?”

माँ ने एक हाथ से चन्द्र का जबड़ा दबाकर मुँह खोला और अंगारा बहुत पास लाती हुई बोली, “कह!”

सरस्वती खड़ी थी, यद्यपि उधर नहीं देख रही थी। और अंगारा चन्द्र के इतना पास था कि उसका ताप उसे लग रहा था और उसका सिर ऐसे हिल रहा था, जैसे मिरगी के रोगी का कभी-कभी हिला करता है। माँ उसका जबड़ा दबाए हुए थी, और मुँह खुला था, अंगारे की प्रतीक्षा में था।

विश्वास बच्चों की चीज है। दिखावट और सच्चाई में भेद करना, यह बड़ों का अधिकार है। शेखर को एकाएक विश्वास हो आया...

“कह!”

शेखर तड़पकर उठा, एक हाथ से माँ को धक्का दिया, दूसरे से चिमटे को थप्पड़ मारकर दूर गिरा दिया, और रूखे स्वर में चन्द्र से बोला, “चल यहाँ से!”

और उसके मन में हुआ, चन्द्र शाबाश? डूब मर, शेखर?

शायद माँ को कुछ हुआ। वह कुछ बोली नहीं, शेखर को भी कुछ नहीं कहा, भीतर चली गयीं। बात खत्म हो गयी।

आधे घंटे बाद।

शेखर अपने को पढ़ाई में लगाने की चेष्टा कर रहा था। कलम हाथ में लिए हुए, कॉपी के ऊपर एक लाइन लिखी हुई देखते हुए उसे ही दुबारा लिखने का यत्न कर रहा था। पर मन में उसके गूँज रही थी बातें, और आँखों के आगे थे कई एक खुले हुए मुँह, कभी चन्द्र के, कभी शेखर के, कभी माँ के, और उनके बहुत पास-पास कई एक जलते हुए अंगारे...जब शेखर सोचता था, “वह चन्द्र का मुँह-” तब एकाएक मुँह बदलकर माँ का हो जाता था, और वह सोचता था, ‘माँ-’ तो शेखर का हो जाता था। और सरस्वती खड़ी थी, मुँह फेरे, उधर न देखने की चेष्टा करते हुए...और कानों में ‘कह?’ ‘शाबाश चन्द्र?’ ‘डूब मर!’ ‘सच कह रहा हूँ।’ बिना किसी क्रम के, बिना सम्बन्ध के लौट-लौटकर आते थे...

वैसे शेखर लिखाई कर रहा था...

चन्द्र ने आकर कहा, “कलम दो।”

शेखर ने जाग-से कर कहा, “मैं लिख रहा हूँ।”

“दो? मुझे लिखना है।”

“दूसरी ले लो।”

“नहीं, यही लेनी है। दो-”

“ठहर के ले लेना, मुझे लिख लेने दो।”

चन्द्र ने सरस्वती के पास शिकायत की, “बहिन जी, भइया कलम नहीं देता।”

सरस्वती पढ़ रही थी। उसने बिना किताब से दृष्टि हटाए ही कहा, शेखर दे दे कलम!

चन्द्र ने फिर आकर कहा, “दो-”

शेखर ने कुछ झुँझलाकर कहा, “कह तो दिया लिख लेने दो-”

चन्द्र ने वहीं से पुकारकर कहा, “देखिए बहिनजी, देता नहीं है-”

सरस्वती ने वैसे ही कहा, “दे दो, शेखर! मेरा सिर मत खाओ।”

शेखर ने कहा, “मैंने कहा है, अभी लिखकर दे देता हूँ, मानता नहीं है, मानता नहीं है; और आप भी मुझी को डाँट रही हैं!”

पर सरस्वती पढ़ने में लग गयी थी और चन्द्र माँ के पास शिकायत करने चला गया था; उसकी बात किसी ने नहीं सुनी।

माँ ने कहीं भीतर से चिल्लाकर कहा, “शेखर, दे दे उसे कलम।”

शेखर कहने लगा, “माँ, मैंने उसे कहा है-”

माँ लपककर आयी, “क्या?”

“मैंने उसे कहा है कि-”

“मैं कुछ नहीं जानती। पहले उसे कलम दे दे-”

“मैं-”

माँ ने उसके मुँह पर एक चपत लगाकर कहा, “देता है कि नहीं-”

“माँ-”

माँ ने प्रत्येक शब्द पर जोर देते हुए कहा, “मैं कहती हूँ, पहले उसे कलम दे दे; फिर तेरी बात सुनूँगी।”

माँ ने तड़ातड़ दो-चार थप्पड़ उसके लगा दिये और बोली, “अभी उसकी हिमायत करने आया था; अब-”

शेखर को मन-ही-मन लगा कि यह बात उसका पक्ष दृढ़ करती है, लेकिन वहाँ सुनता कौन था?

“है कहाँ वह कलम?”

चन्द्र ने फुर्ती से कहा, “भइया ने हाथ में दबाई हुई है।”

माँ उसकी मुट्ठी खोलने की कोशिश करने लगीं। असफल होकर उन्होंने शेखर कागज मेज पर रखा, और उसे पहले घूँसे से, फिर पट्टी के सिरे से मारने लगीं। वह नहीं बुला।

लेकिन उसकी पीड़ा, और अपनी विवशता पर क्रोध, शेखर से नहीं सहा गया! उसे कहा, “नहीं दूँगा, कह दिया नहीं दूँगा, चाहे जान से मार डालो।”

माँ ने एकाएक उसका हाथ छोड़ दिया, और भौंचक उसकी ओर देखने लगीं। उसके स्वर में, उस एक शब्द ‘जान’ में कुछ था कि वे लज्जित हो गयीं। चन्द्र की बाँह पकड़ ले जाती हुई बोलीं, “आ, मैं तुझे नयी कालम देती हूँ।”

शेखर उठकर बाहर चला गया। सारा दिन सड़क पर बेमालिक के कुत्ते की तरह भटका किया। शाम को थका हुआ-सा घर आया ही था कि पिता ने कहा, “क्यों वे, जान देने का बहुत शौक है?”

शेखर ने निष्प्राण स्वर में कहा, “हाँ, है।” और आगे चला गया। पिता देखते रह गये।

शेखर ने खाना नहीं खाया। न किसी ने उससे पूछा ही। रात हुई, सब सो गये, तब वह भी थका हुआ-सा चारपाई पर लेट गया और अन्धकार को फाड़ने की चेष्टा करता रहा...

उसके सिरहाने की ओर कहीं से अनिश्चित-सा स्वर आया, ‘शेखर?’ और सरस्वती उसकी चारपाई के सिरे पर बैठ गयी।

शेखर ने उसकी गोद में सिर रख दिया!

तब आँसू आये...

सरस्वती ने उसका सिर उठाकर बहुत धीरे से तकिये पर रखा। वह सो गया।

रात को शेखर ने एक स्वप्न देखा।

एक विस्तीर्ण मरुस्थल। दुपहर की कड़कड़ाती हुई धूप।

शेखर एक ऊँट पर सवार उस मरुस्थल को चीरता हुआ भागा जा रहा है, भागा जा रहा है...सवेरे से, या कि पिछली रात से, वह वैसे ही भागा जा रहा है।

और उसके पीछे कोई आ रहा है। शेखर को नहीं मालूम कि कौन, लेकिन वह जानता है कि कोई उसका पीछा कर रहा है, और कभी वह मुड़कर देखता है, तो पीछे बहुत-से ऊँटों के पैरों से उड़ी धूल उसे दीखती है...

तीसरा पहर। धूप कम नहीं हुई, और भी तीखी हो गयी जान पड़ती है। और शेखर भागता जा रहा है; और पीछे वह ‘कुछ’ भी बढ़ा आ रहा है।

एकाएक सामने सेब के वृक्षों का बाग, जिसके चारों ओर मिट्टी की ऊँची बाड़ लगी हुई है, जिसमें कहीं-कहीं बिलें हैं, और कहीं-कहीं आयरिस जैसा कोई पौधा है। शेखर ऊँट पर से उतरकर, बाड़ पार करके बाग में घुस जाता है।

बाग में वृक्ष फूलों से लदे हुए हैं। इतने अधिक लदे हैं, कि सारी जमीन पर भी फूल बिछे हैं, और वह बिलकुल शुभ्र हो रही है...

शेखर थकी साँस लेकर एक पेड़ के नीचे फूलों की शय्या पर लेटता है और सो जाता है...

सन्ध्या। सारा आकाश आरक्त हो गया है। प्रतिबिम्बत लाली से भूमि भी लाल जान पड़ रही है, और सेब के वृक्ष मानो जंगली गुलाब के हो गये हैं-प्रत्येक फूल ऐसा सुन्दर लालिम हो गया है....

शेखर उठ बैठा है। खतरे का आतंक उस पर फिर छा गया है वह जानता है कि उस ‘कुछ’ ने बाग घेर लिया है, और उसमें प्रवेश करने की ताक में है। और उसके ऊँटों के पैरों से उड़ी धूल चारों ओर छायी हुई है, उससे आकाश भरा जा रहा है...

शेखर उठकर एक ओर को भागता है, बाग में से निकल जाता है।

पथरीला रास्ता, चढ़ाई, शेखर चढ़ता जा रहा है। यह ‘कुछ’ पीछे रह गया है, लेकिन शेखर को बहुत आगे जाना है-बहुत आगे...किसी खोज में, यद्यपि वह नहीं जानता कि किस वस्तु की खोज...

सन्ध्या घनी हो जाती है। शेखर अब-भी चला जा रहा है। वह प्यासा है, पर पानी कहीं दीखता नहीं। हाँ, दूर कहीं जैसे झरने का रव हो रहा है...

एक चट्टान के ऊपर चढ़कर शेखर आगे देखता है, और एकाएक रुक जाता है।

सामने, नीचे घहराता हुआ एक पहाड़ी झरना बह रहा है, शुभ्र, स्वच्छ, निर्मल...

शेखर घुटने टेककर बैठता है, और हाथ टेककर उझककर सिर नीचे लटकाता है, जैसे वन्य पशु पानी पीने के लिए करते हैं। पर पानी बहुत नीचे है, और वह उस तक पहुँचता नहीं...

उसके हाथ पर सरस्वती का हाथ है। वह भी उसके पास उसी तरह घुटने टेके बैठी है, यद्यपि अभी तक वहाँ नहीं थी। और दोनों प्यासी आँखों से पानी की ओर देख रहे हैं...

शेखर देखता है, पानी के मध्य में प्रवाह से किसी प्रकार भी प्रभावित न होता हुआ, पतले-से नाल पर एक अकेला फूल खड़ा है। बहुत बड़ा-लिपटी हुई-सी एक ही बड़ी सफेद पत्ती, जिसके बीचोंगीच में एक तपे सोने-से वर्ण की एक डंडी है।

और देखते-देखते, एक दिव्य शान्ति उसके ऊपर छा जाती है, और वह जानता है कि यही है जिसे खोजने वह आया था, जिसके लिए वह भाग रहा था...और वह शान्ति इतनी मधुर है कि शेखर को रोमांच हो आता है, वह दबाकर सरस्वती का हाथ पकड़ लेता है...

वह जाग पड़ा। स्वप्न इतना सजीव, इतना यथार्थ था, कि शेखर ने हाथ बढ़ाया कि सरस्वती का हाथ पकड़े। वह उसने नहीं पाया।

तब वह चारपाई पर उठ बैठा। इधर-उधर देखा। उठकर सरस्वती की चारपाई के पास गया। वह सोई हुई थी। शेखर ने उसका मुख देखने की चेष्टा की पर देख नहीं सका। लौट आया, एक सन्तुष्ट-सी साँस लेकर लेट गया, और फौरन निःस्वप्न नींद में अचेत हो गया।