श्री बल्लभ भाई का दौरा / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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सोनपुर के बाद हमने पटनामें कार्यकारिणी की मीटिंग की और कुछ लोगों के नाम और जोड़े। एक प्रस्ताव के द्वारा यह भी तय पाया कि राजनीतिक मामलों में किसान-सभा कांग्रेस के विरुद्धनजाएगी। इस प्रकार किसान-सभा कांग्रेस की समकक्ष स्वतंत्रराजनीतिक संस्था न बनजाएइस खतरे को रोकने या मिटा देने की कोशिश हुई।

लेकिन, हम संबंध में एक बहुत जरूरी बात कहनी है। सन 1929 ई. के दिसंबर में लाहौर में कांग्रेस का अधिवेशन होनेवाला था। उसके ठीक पहले और सोनपुर के बाद ही सरदार बल्लभ भाई पटेल का दौरा बिहार में हुआ। उनके लिए हर जिले में मीटिंगों का प्रबंध किया गया। ठीक उसी अवसर पर मैंने भी दौरा किया और उनके आने के पहले हर जगह किसानों को किसान-सभा का महत्त्व समझाया। यह भी जान लेना चाहिए कि उस समय के बल्लभ भाई आजवाले न थे। दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। उस बल्लभ भाई ने तो हाल में ही बारदौली में किसानों की लड़ाई जीती थी─उनके हकों के लिए सत्याग्रह संग्राम लड़कर उसमें विजय पाई थी। फलत: सब जगह किसानों की ही बातें बोलते थे। उन्होंने एक सभा में तो 'एक संन्यासी'कह के हमारी किसान-सभा का उल्लेख भी किया था और अगर मैं भूलता नहीं तो इस संन्यासी के काम का स्वागत किया था। लोगों को यह भी कहा था कि इसमें मदद करें। हालाँकि, आज तो इस संन्यासी को और इस किसान-सभा को वे सहन नहीं कर सकते।

उन्होंने सीतामढ़ी की सभा में साफ ही कहा था कि बिहार में या हमारे मुल्क में इन जमींदारों की क्या जरूरत है? ये लोग कौन-सा काम हमारे मुल्क के लिए करते हैं? सुना है, किसानों को बहुत सताते हैं और इनसे किसान बहुत डरते हैं। इनसे क्या डरना? ये तो बड़े कमजोर हैं। यदि हाथ से इनका सिर पकड़ के दबा दिया जाए तो भेजा बाहर निकल आए।

इतना ही नहीं। मुंगेर में बिहार प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन था। और किसान सम्मेलन भी। वे जब किसान सम्मेलन में शामिल हुए तो उन्होंने साफ कहा कि किसानों की जो माँगें वहाँ पेश की जा रही हैं वह राजनीतिक सम्मेलन में ही क्यों नहीं पेश की जाती हैं? और अगर जैसा कि बताया गया है, वहाँ ये पेश की जा सकती हैं नहीं, तो फिर राजनीतिक सम्मेलन की जरूरत ही क्या है। लेकिन वही बल्लभ भाई अब ऐसी भूल शायद ही करेंगे। कदाचित उस समय उन्हें इतना अनुभव न था जितना अब है! अनुभव ने शायद उन्हें गंभीर और दूरंदेश बना दिया है। वह बारदौलीवाली गर्मी भी तो थी। 'सरदार' भी तो हाल में ही उसी के करते बने थे। फिर इतनी जल्दी उसे भूल कैसे जाते? बंबई में, बिहार जैसी प्रत्यक्ष रूप में जमींदारी प्रथा न रहने के कारण वे इसे समझ भी नहीं सकते थे कि क्या बला है, भारत के तीन चौथाई से अधिक बाशिंदे तो किसान ही हैं और उनकी मदद से कांग्रेस को शक्तिशाली बनाना अभी बाकी ही था भी तो। खैर, चाहे जो भी हो। उनके दौरे से हमारी बिहार प्रांतीय किसान-सभा को काफी सहायता मिली। हमें प्रोत्साहन भी पूरा प्राप्त हुआ।

उसके बाद ही हम लोग लाहौर कांग्रेस में सम्मिलित होने के लिए गए। वहाँ जो जोश और उमंग देखने का मौका मिला वह अकथनीय है। खासकर पूर्ण स्वतंत्रता के प्रस्ताव के पास होने पर तो दुनियाँ ही पलट गई, ऐसा प्रतीत हुआ। मैं तो चुपचाप गौर से कांग्रेस की कार्यवाही को देखता रहा। अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी का मेंबर होते हुए भी कुछ बोला-चाला नहीं। मैं तो शुरू से ही प्राय: उस कमिटी का सदस्य और कांग्रेस का प्रतिनिधि बराबर ही रहा हूँ। मगर सन् 1934 ई. वाली बंबई की कांग्रेस के पहले कभी न बोला था।

1934 ई. में गाँधी जी कांग्रेस से हटने के पूर्व उसके विधान का जो आमूल परिवर्तन कर रहे थे, उसमें मुझे खतरा दीखा किसानों और गरीबों के लिए। इसीलिए पहले-पहल वहीं बोला और उसका विरोध किया। तब से यह बोलना और विरोध किसी-न-किसी रूप में बराबर जारी रहा है। मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि कांग्रेस के विवाद में अगर मेरी दिलचस्पी शुरू हुई तो किसानों और शोषितों की बात को लेकर ही। यह संयोग की बात है कि कांग्रेस को विशेष रूप से जब पहले मैंने देखा और पहचाना तो किसानों या दलितों के विरोध के रूप में ही। फिर चाहे वह विरोध आंशिक ही क्यों न हो? लेकिन था बुनियादी। क्योंकि मैंने कांग्रेस की उस नई मेंबरी को ही ऐसा देखा, जिसे गाँधी जी नए सिरे से कांग्रेस में ला रहे थे। आज वह मेरा भय कितना सच्चा निकला!

लाहौर कांग्रेस से लौटते ही ता. 26-1-30 को पहले-पहल 'पूर्ण स्वतंत्रता दिवस' देश भर में मनाए जाने को था। इसलिए उससे पहले ही हमने किसान-सभा की मीटिंग की और उसमें दो जरूरी काम किए। एक तो एक प्रस्ताव के जरिए हमने कौंसिल में पेश नए काश्तकारी कानून के संशोधान बिल को अस्वीकार किया और उसका विरोध किया। सरकार से यह भी माँग की कि उसे वापस ले ले। दूसरा काम यह किया कि देश के वातावरण का खयाल करते हुए कुछ समय के लिए किसान-सभा का काम एक प्रस्ताव के जरिए स्थगित कर दिया। ताकि अबाध रूप से सभी लोग आजादी की आनेवाली लड़ाई में भाग ले सकें। किसान-सभा का काम चालू रहने से कुछ लोग तो उसमें फँस जाते ही। इस प्रकार शुरू में जो कुछ लोग यह सोचते थे कि किसान-सभा के करते कांग्रेस के काम में बाधा पहुँचेगी उनके डर को हमने व्यवहारत: निर्मूल सिध्द कर दिया।

असल बात तो यह थी कि बिहार प्रांतीय किसान-सभा को जो जन्म दिया गया उसमें यह खयाल ही था कि इसके द्वारा कांग्रेस काफी मजबूत हो। सभी लोग यही सोचते थे। अपना विचार तो मैं पहले ही कह चुका हूँ। लेकिन हमें तो इतने दिनों बाद मालूम हुआ है कि कांग्रेस को कैसा होना चाहिए, यदि वह किसान-सभा की सहायता बराबर चाहती है। पहले यह बात कौन समझ सकता था? कांग्रेस की प्रतिद्वंद्विता किसान-सभा न करे, यह प्रस्ताव पास होने की भी बात तो पहले ही कह चुका हूँ।

हमारी बैठक के बाद ही स्वराज्य पार्टी ने कौंसिल में जाकर उस काश्तकारी कानून के संशोधान का विरोध किया। फिर तो सरकार ने यह कह के उस बिल को लौटा लिया कि जब किसान-सभा और कांग्रेस दोनों ही उसके विरोधी हैं तो सरकार को क्या पड़ी है कि उसे पेश करे या पास करे इस प्रकार किसान-सभा के जन्म के साथ ही एक तो उसे पहली खासी सफलता यही मिली और वह बिल खत्म हुआ। दूसरे, सरकार ने किसान-सभा के अस्तित्व को मान लिया कि वह किसानों की ओर से बोलनेवाली संस्था है, सभा के इतिहास से यह सिध्द है कि उसने अपने इसर कर्तव्य को कितनी सुंदरता से पाला है। उससे यह भी सिध्द है कि पहले पहल टेनेन्सी बिल को खत्म करने के रूप में जो विजय इसे जन्म काल में मिली वह बार-बार मिलती रही। न जानें,कितने ऐसे बिलों को या तो इसने धवंस किया, या उनके जहर का अधिकांश खत्म किया।

इतना तो पक्का ही है कि लड़नेवाली संस्था के रूप में इसका जन्म हुआ और आज भी वह लड़नेवाली ही है। अंतर इतना ही है कि शुरू में हम लोगों ने जिस लड़ाई का सपने में भी खयाल न किया था वही लड़ाई आज इसकी अपनी हो गई है। इसीलिए इसके पुराने सूत्रधार प्राय: सभी के सभी आज इसके शत्रु हैं। लड़ाई के दौरान में जन्म लेने के कारण ही यह लड़ाकू सिध्द हुई है। यह भी खुशी की बात है कि किसी भी उद्योग में इसे अब तक विफलता नहीं मिली है। पूरी यह आंशिक सफलता बराबर मिलने से ही आज यह इतनी मजबूत भी है।