संयुक्त वामपक्षी मोर्चे की स्थापना / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती
भारतीय जनता को विश्वास दिलाया गया था कि 15 अगस्त, 1947 से वह आजाद हो रही है। मगर अब उसका यह विश्वास टूटने लगा है। इस तथाकथित आजादी से उसे मिला है चीजों का बढ़ता हुआ अकाल, बढ़ती हुई महँगाई, मजदूरी और तनख्वाह की कमी, बढ़ती हुई बेरोजगारी, चारों ओर फैला हुआ चोर बाजारी का जाल, हर जगह खूनी सांप्रदायिक दंगे, और हर तरह का कष्ट, अभाव और बरबादी। राजनीतिक क्षेत्र में, जनता को नागरिक अधिकारों पर गहरा हमला किया गया है; हर प्रांत में राजनीतिक कार्यकर्ता बिना मुकदमा चलाए जेलों में बंदकिए जा रहे हैं, शांत जुलूसों और प्रदर्शनों पर गोलियों का चलाना रोजमर्रा की बात हो गई है। लोग जनता के हकों के लिए लड़ने के कारण जेलों में डाल दिएगए हैं और जनता के संगठनों को घोर दमन का शिकार बनाया गया है।
भारतीय संघ और पाकिस्तान की तथा विभिन्न प्रांतों की सरकारों ने, जिनकी बागडोर कांग्रेस और लोगों की नेताशाही के हाथ में है, वादा किया कि वे मजदूरों और कर्मचारियों को जीवन-निर्वाह योग्य मजदूरी दिलाएँगे, किसानों को भूमि देंगे, चोर-बाजारी के खिलाफ जेहाद बोलेंगे, शासन की मशीन तथा पुलिस-फौज का आजादी के आधार पर पुनर्गठन करेंगे और तीव्र गति से देश की सामाजिक और सांस्कृतिक उन्नति के लिए अनुकूल हालत पैदा करेंगे। मगर जनता के प्रति अपने इन वादों को नेताओं ने त्याग दिया है। इन वादों को पूरा करने के बदले वे पूँजीपतियों, चोरबाजारियों और सामंती मुफ्तखोरों का हित साधन कर रहे हैं। वे मजदूरों का पेट काटने, चोर-बाजार की कानूनी स्थिति देने, मुख्य उद्योगों का राष्ट्रीकरण करने से इन्कार करने आदि की नीति पर चल रहे हैं। वे देशी नरेशों को खुश करने की कोशिश कर रहे हैं और इस प्रकार रियासती जनता के संघर्ष को धक्का लगा रहे हैं। जोतनेवालों को जमीन देने से इन्कार कर वे जमींदारों और दूसरे सामंती वर्गों को खुश करने की नीति पर चल रहे हैं। उन्होंने शासन की पुरानी मशीन को बरकरार रखा है और देश में वही पुलिस-पलटन और नौकरशाही कायम है। वे विधान-परिषद में एक ऐसा विधान तैयार कर रहे हैं। जिसका तत्व जनविरोधी है और जिसमें विदेशी और देशी पूँजीपतियों को पूर्ण मुआवजे का अधिकार प्रदान किया गया है, शासन विभाग को असाधारण अधिकार दिएगए हैं, प्रांतीय स्वराज्य में बहुत बड़ी कमी की गई है और जनता को केवल लंबी मुद्दतों के बाद वोट देने का हक दिया गया है।
नेताओं ने साम्राज्यशाही से लड़कर आजादी छीन लेने से इन्कार किया और ब्रिटिश साम्राज्यशाही से समझौता कर लिया है। इसी का नतीजा है कि देश में भीषण सांप्रदायिक दंगे हुए जिसमें लाखों जनता को भय, मुसीबत और बरबादी का सामना करना पड़ा मगर लीग के नेता जो संप्रदायवाद के समर्थक हैं, और कांग्रेस के नेता जो राष्ट्रीयता की दुहाई देते हैं, दोनों ही ने संप्रदायवाद से लड़ने के बदले संप्रदायवादी प्रतिगामियों को खुश करने की नीति अपनायी है। नेताशाही के अधिक जोरदार अंग ने स्वयं संप्रदायवादी और हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच युध्द का प्रचार कर दंगों को बढ़ावा दिया है।
विदेशी शासन से पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करने की कोशिश करने के बदले भारतीय संघ और पाकिस्तान की सरकारें कांग्रेस और लीगी नेताशाही के नेतृत्व में विश्व साम्राज्यवाद की पिछलग्गू बन गई है। उन्होंने विदेशी पूँजी की आर्थिक सत्ता बरकरार रखी है, विदेशियों से राष्ट्र के लिए अपमानजनक व्यापारिक संधियाँ की हैं और साम्राज्यवादी सरकारों के साथ सैनिक गठबंधन करने के लिए दाँव-पेंच खेले हैं और इस प्रकार अमरीकी-ब्रिटिश साम्राज्यशाही की पिछलगुआगीरी की है। हाल की घटनाओं से यह भी पता चलता है कि युध्द छिड़ने की हालत में वे अमरीकी-ब्रिटिश साम्राज्यवादी गुट में शामिल होने की ओर कदम बढ़ा रही हैं, जिसका नतीजा देश की जनता की भयानक बरबादी होगा।
आज के भारत की यही तस्वीर है। कांग्रेस और लीग की नेताशाही के नेतृत्व में वह स्थिर स्वार्थ वर्ग के हाथों की कठपुतली है और अमरीकी-ब्रिटिश साम्राज्यशाही के दामन में बँध गया है। इस स्थिति मंल दुनिया में पूँजीवाद के तीव्रतर होते हुए संकट के असर से जनता की हालत और भी खराब होने का सामान मुहैया है। भारतीय संघ और पाकिस्तान की पूँजीवादी नेताशाही उसे अकाल, बढ़ती हुई महँगी, चीजों का उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ अकाल, मजदूरों और कर्मचारियों की आम छँटनी, दमन का राज और सांप्रदायिक दंगों के नए दौर की खंदक की ओर घसीट रही है। यह भी स्पष्ट हो चुका है कि मौजूदा नेताशाही या सरकार न तो जनता को इस खंदक की ओर जाने से बचा सकती है न बचाना चाहती है। मुल्क को इस बरबादी और सत्यनाश से बचाने और साम्राज्यशाही की मातहती से छुड़ाने के लिए मौजूदा सरकार को हटाना ही पड़ेगा और उसकी जगह ऐसी सरकार बनानी पड़ेगी जो कि शोषित जनता के अधिकारों की रक्षा करेगी। सरकार के निर्मम हमलों और दमन के बावजूद जनता का असंतोष और बेकारी बढ़ रही है और विभिन्न अंगों का संघर्ष और आंदोलन जोर पकड़ रहा है। मजदूरों की हड़तालें, व्यापक किसान आंदोलन, रियासती जनता के तूफानी आंदोलन, दमनकारी कानूनों के खिलाफ जनता के विशाल प्रदर्शन, मध्यमवर्गी कर्मचारियों और विद्यार्थियों की लड़ाइयाँ और कांग्रेसी तथा लीगी जनता में उठती हुई उथल-पुथल-ये सभी इस बात के स्पष्ट चिद्द हैं कि क्रांतिकारी शक्तियाँ मजबूत हो रही हैं और उनको मिल-जुलकर और एक स्वर तथा एक ताल पर चलकर आगे बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए।