समाज सेवा─ आक्षेपों के उत्तर / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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पहले तो मेरी धारणा दूसरी ही थी। जहाँ तक मुक्ति या ज्ञान का प्रश्न था। मैं उन्हीं स्वार्थियों में एक था जो एकांत में बस कर जिंदगी गुजार देते और ध्यान धारणा ही जिनके जीवन का काम है। शुरू में तो इसी बात को ले कर घर छोड़ा था और जंगलों की खाक छानता फिरा ─कहाँ-कहाँ नहीं भटका। लेकिन सिर्फ यह विचार ही न था! पुस्तकों और ग्रंथों के पढ़ने के बाद भी यह धारणा बदलती न थी। प्रत्युत दृढ़ होती जाती थी। असल में जिस दृढ़ धारणा से लोग पोथियाँ पढ़ते हैं वही धारणा दृढ़ होती हैं। हाँ, यदि पहले से कोई धारणा न हो, तब बात दूसरी है। लेकिन मैं तो इसी विचार से पढ़ने लगा था। फिर दूसरी बात होती कैसे? पीछे इस धारणा को ताक पर रख के जब मैंने ग्रंथों का मंथन किया तो बात कुछ और ही निकली। यह बात गीता को ले कर आगे लिखी जाएगी।

हाँ, तो जब मैं ईधर की घटनाओं में पड़ा, फलत: मेरे भीतर महाभारत मचा, तो बात और ही हो गई। श्रीमद्भागवत के कुछ वचन मिले जिन्होंने मेरी आँख का पर्दा खोल दिया। नरसिंह और प्रह्लाद के प्रसंग में एक श्लोक भागवत में आता है जिसमें भक्तप्रवर-प्रह्लाद ने नरसिंह भगवान को उत्तर देते हुए स्पष्ट कर दिया हैं कि जनता की सेवा ही भगवान की सेवा और आराधना है। वह कहते हैं ─

“प्रायेण देवमुनय: स्वविमुक्तिकामा मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठा:। नैतान् विहाय कृपणान् विमुमुक्ष एको नान्यत्त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये।“

इसका सारांश यही है कि ऋषि-मुनि लोग तो स्वार्थी बन के अपनी ही मुक्ति के लिए एकांतवास करते हैं। उन्हें औरों की फिक्र नहीं होती। लेकिन मैं हर्गिज ऐसा नहीं कर सकता। सभी दुखियों को छोड़ मुझे सिर्फ अपनी मुक्ति नहीं चाहिए। मैं तो इन्हीं के साथ रहूँगा और मरूँगा, जीऊँगा। इसी प्रकार राजा रहूगण और जडभरत के संवाद में भी यह बात मिलती हैं कि अपने कर्त्तव्यों का ईमानदारी से पालन करना ही भगवान की पूजा है 'स्वधर्म आराधन-मच्युतस्य'। गीता का तो पूछना ही नहीं। उसमें तो बार-बार इस बात की घोषणा की गई है कि भगवान की आराधना, ध्यान, समाधि या पूजा-पाठ में नहीं हैं, किंतु दिल लगा कर अपने कर्त्तव्यों के पालन करने में ही है। गीता ने तो यहाँ तक कह दिया कि “चाहे जो कुछ भी करो, खाओ,पीओ, दान दो, यज्ञ करो, तप करो, सभी भगवान की पूजा हो जाती है, यदि उसी भावना से आसक्ति छोड़ कर ये काम किए जाए।”

“यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत। यत्तापस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्“ (9/27)

इसलिए मेरा विचार अब बदला और धार्मिक तथा सामाजिक कामों में समय लगाने का मैंने निश्चय कर लिया, सन 1915 ई. बीतते-न-बीतते ही। इस प्रकार देखा जाए तो मैं कहाँ से कहाँ जा निकला। योगी की धुन, प्राणायाम और समाधि की चाट को छोड़ परिस्थितिवश शास्त्रमंथन में लगा कि ब्रह्मज्ञान में मस्त रहूँगा। लेकिन शास्त्रमंथन समाप्त होते न होते जनसेवा की ओर जा झुका। अभी आगे बहुत कुछ होना था। यह तो श्रीगणेशमात्र था ─ईब्तदाए इश्क मात्र था। मेरा यह भी स्वभाव है कि जिस काम में पड़ता हूँ उसमें सारी शक्ति लगा कर पड़ता हूँ।”आधा तीतर आधा बटेर” मुझे पसंद नहीं।

यह भी जान लेना चाहिए कि यह जो जनसेवा की बात मेरे दिल में उठी वह पहले पहल जनसाधारण की सेवा न थी। मैंने तो यही सोचा कि चलो एक भूमिहार ब्राह्मण समाज का उद्धार कर दो। फिर अपने पठन-पाठन और ब्रह्मज्ञान का मजा उठाएँगे। यह तो एक प्रकार का मनफेर (diversion) मात्र था। लेकिन किसे मालूम था कि यह मनफेर स्थायी हो जाएगा और शास्त्रभ्यास का मजा फिर न मिल सकेगा?'यह इब्तदाए इश्क है' यह बात किसे मालूम थी?असल में सिर्फ सेवाभाव और कर्त्तव्य बुद्धि से ही इस काम में परिस्थितिवश खिंच गया, न कि किसी और मतलब से। इसीलिए स्वभावत: आगे बढ़ना ही पड़ा। यदि रागद्वेष किसी तुच्छस्वार्थ या नीच मनोवृत्ति से इसमें पड़ा होता तो शायद ही आगे बढ़ पाता, ऐसी मेरी दृढ़ धारणा है।

बहुतों का यह कहना है कि संन्यासी हो कर जाति-पाँति के काम में पड़ना ठीक न था, मेरी समझ में नहीं आया। उनके इस कथन के लिए गुंजाईश रही कहाँ जाती है? जिन घटनाओं का मैंने उल्लेख किया है उन पर मेरा वश ही क्या था? वह तो आकस्मिक थी और उन्होंने मुझे धर दबाया। क्या पहले से कोई तैयारी कर के मैं इस काम में पड़ा? यदि कोई ऐसा समझता हो तो वह भूलता है। मैंने तो दिखलाया है कि कहाँ से कहाँ खिंच गया। लेकिन कहा जा सकता है कि यों ही आकस्मिक तौर पर किसी बुरे काम में खिंच जाने से मनुष्य निर्दोष नहीं हो सकता है। बात तो सही है। लेकिन इसका उत्तर भी दे ही चुका हूँ।

मैं तो किसी और मतलब से उसमें पड़ा न था। एक बहुत बड़े समाज को-एक उच्च और कुलीन ब्राह्मण समाज को ─मैंने औरों से पददलित पाया और देखा कि वह तिलमिला रहा है, अपमानित हो रहा है। मगर कुछ कर नहीं पाता। अपमानित होता है बुरी तरह। मगर उसका प्रतिकार नहीं कर पाता। मेरा दिल तड़प उठा और मैंने उसे उठाया। उठाने की कोशिश की और अपमानित करनेवालों को ठीक-ठीक उत्तर दे दिया, उनके होश ठिकाने कर दिए। इसमें क्या अपराध हु? क्या बुराई हु? आखिर सारे मुल्क को भी तो ऊँचा उठाना ही है। आजादी की लड़ाई का आखिर मतलब ही क्या, अगर मुल्क को उठाना नहीं है? जिसका हक छीना जाए या छीना गया हो उसे तैयार कर के उसका हक उसे वापस दिलाना यही तो मेरे जानते आजादी की लड़ाई और असली समाज सेवा का रहस्य है।

समष्टि रूप में समस्त समाज को ऊँचा उठाने को ही मैं समाज-सेवा और सामाजिक कार्य मानता हूँ और यही मैंने शुरू में किया। इसीलिए तो पीछे छोटे से समाज को छोड़ समस्त देश के काम में खिंच गया या कूद पड़ा। हाँ, यदि उस समाज सेवा में कोई राजनीतिक दाँवपेंच या औरों के दबाने की मनोवृत्ति रहती तो वह अवश्य ही निंदित और बुरी होती। मगर वह बात मैंने सपने में भी न सोची।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि उस समय राजनीति का ककहरा भी मैं न जानता था। दूसरों के दबाने का प्रश्न तो सामने था नहीं। गिरे को उठाने से ही फुर्सत न थी। वही एक महान समस्या थी। इतना ही नहीं। सबसे पहली पुस्तक जो इस सिलसिले में मैंने लिखी उस भूमिहार ब्राह्मण परिचय को आद्योपांत अच्छी तरह पढ़ कर कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति कह सकता है कि क्या (आया) किसी और दल या व्यक्तियों के दबाने की गंध भी उसमें पाई जाती है। प्रत्युत इससे विपरीत बात की ही सूचना उसमें स्थान-स्थान पर दी गई है। पीछे चल कर भी दबाने का प्रश्न कभी न उठा। राजनीति की बात तो शुरू से अंत तक मेरे दिल में कभी आई भी नहीं कि इसके द्वारा उस राजनीति का काम निकालने की सोचता।