सामाजिक कामों में क्यों पड़ा / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
बलिया की भूमिहार ब्राह्मण सभा का जो प्रभाव मेरे दिल पर हुआ उसमें दूसरी बातों ने भी सहायता की। फलत: एकमात्र ब्रह्मज्ञान में मस्त रहने तथा अपनी ही मुक्ति की परवाह करने की अपेक्षा यह बात दिल में उठने लगी कि कुछ सामाजिक सेवा करना और इस प्रकार गिरे लोगों को उठाना चाहिए। यह बात यहाँ जान लेना चाहिए कि बहुत सी सभाओं में अनेक मौकों पर, धार्मिक व्याख्यान देने का मौका पहले ही पड़ चुका था। एक बार काशी में पढ़ने के समय ही भारत धर्म महामंडल के धार्मिक समारोह में मैंने किसी धार्मिक विषय पर अच्छा उपदेश दिया। उससे लोग आकृष्ट हुए। इसीलिए थोड़े दिनों बाद ही मुलतान में सनातन धर्म सभा के अधिवेशन में मैं आमंत्रित हुआ। इस प्रकार पहली बार उधर जाने का मौका मिला। इसी प्रकार समस्तीपुर, दरभंगा आदि में न जानें कितनी बार ऐसे उपदेश दे चुका था।
लेकिन सामाजिक बातों की तरफ मेरी प्रवृत्ति न थी। धर्म तो मेरा विषय होना ही चाहिए। संन्यासी जो ठहरा। मगर सामाजिक (Social) काम तो स्थूल दृष्टि से धर्म के भीतर आता नहीं। इसलिए उस ओर सहसा प्रवृत्ति न हो सकी थी। असल में तब तक उसका महत्त्व और उसकी असलियत मैं हृदयंगम कर ही न सका था। पोथियों, किताबों और व्याख्यानों से यह बात ठीक-ठीक समझी जाती भी नहीं। यह तो घटनाओं का ही काम है जो मानस-पटल पर उसकी महत्ता, उसकी अहमियत, उसकी कर्त्तव्यता को अंकित कर दें और बलिया में यही बात हुई। बेशक भूमिहार ब्राह्मण समाज में ब्राह्मणोचित अभिमान के अभाव, तदनुकूल कर्त्तव्यों और आचरणों की अत्यंत कमी और अन्यान्य लोगों के द्वारा इसीलिए समस्त समाज के बारे में अत्यंत कुत्सित और निराधार कल्पनाओं ने उस समाज के कितने ही सच्चे सेवकों को विचलित और ममराहत कर दिया था। अत: उनके भीतर एक तड़प थी कि कैसे इसका समुचित प्रतीकार किया जाए। वे लोग अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार यह काम करते भी थे। मगर था यह उनके लिए समुद्रमंथन या हिमालय-आरोहण के समान ही। इसीलिए पार नहीं पा सकते थे। ऐसी धारणा मुझे हुई। मैंने यह भी अनुभव किया कि स्वयं उन लोगों में आत्मविश्वास न था। उनका मन दुविधो में आगा-पीछा करता था। यह सबसे बड़ी कमी उनमें थी। इसीलिए सफलता में बाधा हो रही थी। बलिया में तो यही चीज थी जिसने सबसे ज्यादा मुझे प्रभावित किया।
आगे की बातों से भी मेरी यह धारणा और दृढ़ हो गई। हाँ, उनमें एक ही आदमी के बारे में मुझे पता चला कि अपार आत्मविश्वास और दृढ़संकल्प के साथ वे काम में लगे थे। लेकिन मेरे क्षेत्र में आने के पूर्व ही वे स्वर्गीय हो चुके थे। वे थे मुंगेर जिले के बेगूसराय इलाके के दहिया ग्राम के पं. भाईलाल जी परमहंस। वे थे तो मैथिल ब्राह्मण। मगर भूमिहार ब्राह्मणों के साथ विवाह संबंध के कारण ईधर इनसे भी संबद्ध थे और उधर मैथिलों से भी। इसीलिए उन लोगों के बारे में 'दोगामियाँ' शब्द प्रचलित हो गया था। उसका अर्थ हैं दोनों─भूमिहारों तथा मैथिलों से संबंध रखनेवाले। इसीलिए भूमिहार ब्राह्मणों का पतन और इनकी संस्कार हीनता उन्हें बुरी तरह अखरती थी। इसे ही दूर करने में वे पड़े भी थे। मगर पढ़े-लिखे कम थे। इसीलिए पूर्ण सफलता न मिल सकी।
आज जब सोचता हूँ तो हँसी आती हैं। स्वामी पूर्णानंद जी और दूसरे लोग मुझसे बार-बार यही कहा करते थे कि भूमिहार-ब्राह्मणों के संबंध में हजार-पाँच सौ श्लोकों की रचना कर के एक पुस्तक बना दीजिए और परशुराम जी की कहानी के आधार पर उनका इस प्रकार का एक इतिहास लिख दीजिए। वह समय पा कर स्वयमेव प्रामाणिक हो जाएगा। उनका ख्याल था कि संस्कृत की पद्य रचना होने से ही वह एक प्रामाणिक चीज हो जाएगी और लोग उसे मानने को विवश होंगे। संस्कृत का कुछ ऐसा ही महत्त्व हिंदू समाज और विशेषत: सनातनियों में हैं।'मियाँ की दौड़ मस्जिद तक' के अनुसार उनके लिए यही बहुत था─इसे ही वे पर्याप्त समझते थे। असल में उन्हें स्वयं विश्वास न था कि सचमुच भूमिहार लोग कान्यकुब्ज, मैथिल आदि से किसी भी बात में हीन या छोटे नहीं हैं। उनके संस्कार में ही छोटापन समाया था। इसीलिए बहुत दूर जा नहीं सकते थे। मेरे जानते यह सबसे बड़ी खामी उनमें थी। सुधारक में इस प्रकार की न्यूनता उसे कभी सफल होने नहीं देती। लेकिन मेरा तो बचपन से संस्कार ही कुछ ऐसा था कि मैं दूसरी बात सोच ही न सकता था। मुझमें ब्राह्मणता और उसके लिए उचित अभिमान ये दोनों ही कूट-कूट कर भरे थे। ये बातें स्वभाव और आचरण में समाई थीं। मेरे भीतर से कोई आवाज-सी देता था कि मेरे पूर्वज इतने मूर्ख न थे कि बुंदेलखंड के अपने जुझौतिया भाईयों को छोड़ भूमिहारों से मिले। यदि उनने अपनी जैसी ब्राह्मणता और योग्यता इनमें न पाई होती। मेरा दिल कहता था कि यह हो नहीं सकता। इसलिए मेरा अटल विश्वास था कि ये भूमिहार वैसे ही ब्राह्मण हैं, जैसे कि मैथिल, कान्यकुब्ज आदि। इसीलिए काल्पनिक श्लोकों के आधार पर इनके इतिहास लिखने की बात मेरे दिल में समाती ही न थी, चाहे कोई हजार कहे। इतना ही नहीं, मुझे यह बात सुन कर अपार क्षोभ और दर्द होता था। मगर कहता किससे? जिन्हें स्वयमेव इस बात की धारणा न हो उनसे ये बातें कहना तो व्यर्थ की लड़ाई मोल लेना है। यह भी ठीक है कि मेरे दिल की यह स्वाभाविक पुकार मात्र थी। इसकी पुष्टि में प्रमाण तो कोई था नहीं। फिर, कहता क्या? वे लोग तो बात ही काट देते। इसे ही कहा है कि 'भैंस के आगे बीन बजाए, अरसिकेषु रसस्य निवेदनम'। इसलिए दिल मसोस कर रह जाता और 'अच्छा' कहके उन लोगों को खुश करता। लेकिन भीतर ही भीतर संकल्प कर लिया कि एक ओर शास्त्र-पुराणों को ढूँढ़ कर और दूसरी ओर सर्वत्र घूम कर इसके रहस्य का पता लगाना ही होगा। हाँ, अगर अभाग्यवश इस बात की पुष्टि न हुई और मेरे दिल की पुकार गलत सिद्ध हुई तो फिर देखा जाएगा। तब कोई पुस्तक उस प्रकार की शायद लिखूँ जैसी वे लोग कहते हैं। बनावटी बात लिखना मेरे स्वभाव के विपरीत बात भी तो थी। पर, यदि पूर्वजों की भूल ही सिद्ध हो जाती तो मजबूरी थी। इसलिए पूर्ण विश्वास के साथ मैं अन्वेषण कार्य में प्रवृत्त हुआ। यह काम यों तो पोथी-पुराणों में पहले भी होता रहा। लेकिन सन 1915 ई. में और खास कर उसके उत्तरार्धा में, जोर-शोर से हुआ। अनेक प्रदेशों में घूम कर जाँच-पड़ताल मैंने स्वयं की। दूसरों से भी करवाई। फल यह हुआ कि मेरी धारणा और अंतरात्मा की पुकार सोलहों आने सही साबित हुई। यह बात आगे लिखी है जहाँ भूमिहार ब्राह्मण परिचय और 'ब्रह्मर्षिवंश' विस्तार की बात है।