सूखते चिनार / युद्ध और बुद्ध / भाग 1 / मधु कांकरिया

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पिछले कई दिनों से सन्दीप बशीर अहमद नामक एक बीस वर्षीय युवक की खोज में था। इत्तफ़ाक़ से उस युवक का पता चल गया था। वह किसी पुराने आतंकवादी के चचेरे भाई का दोस्त था। सन्दीप उससे पूछताछ करना चाहता था और उसे आर्मी द्वारा खोले गये वर्कशाप से भी जोड़ना चाहता था, जिससे गाँव में आर्मी के प्रति सद्भावना फैले, साथ ही ग़रीबी के चलते जो आतंकवाद की तरफ़ आकर्षित होते हैं उसकी सम्भावना भी शेष हो। सन्दीप का यह विश्वास था कि आतंकवाद से लड़ने के लिए ज़रूरी है कि पहले अन्धविश्वास, अशिक्षा, भूखमरी और बेकारी से लड़ा जाए। बहरहाल, कई बार ख़बर भिजवाने के बाद भी जब बशीर अहमद मेज़र सन्दीप से मिलने नहीं आया तो सन्दीप ने धमकी दी - यदि अब भी वह उससे मिलने नहीं आया तो वह उसे जवान भेजकर उठवा लेगा अपने घर से।

अन्ततः आया वह। बेहद डरा। सहमा और सिकुड़ा हुआ। तुम क्यों नहीं आये? क्यों तुम्हें बुलवाना पड़ा इतनी बार, नरम आवाज़ में पूछा सन्दीप ने, पर जो जवाब आया उसे सुनकर सन्न रह गया मेज़र। उन्हें लगा, दुनिया को, लोगों को, कश्मीर की समस्या को शायद फिर से समझना होगा उन्हें। बशीर अहमद ने जवाब दिया, “साहब जी, मैं बहुत डर गया था। मुझे गाँववालों ने कहा, मत जाओ वहाँ सारे हिन्दू मिलकर पीटेंगे तुम्हें।”

“क्या?” सनाका खा गये सन्दीप। तो यह है मेरी पहचान? मैं भारतीय नहीं, इनसान भी नहीं, मेज़र भी नहीं, मैं हूँ सिर्फ़ एक हिन्दू! क्या ये वही कश्मीरी हैं जिनका मिजाज़ सूफ़ियाना था। काश! यह शहर अपने उस इतिहास को याद रख पाता जो सुदीर्घ समय तक समन्वय, भाईचारे और सह-अस्तित्व का इतिहास रहा था।

बहरहाल, इस घटना के मानसिक आघात से उबर भी नहीं पाया था सन्दीप। कैंसरग्रस्त रोगी के-से दिन बीत ही रहे थे कि एक मटमैली शाम एक मुखबिर ने उसे गुंड गाँव के ही एक ऐसे परिवार के बारे में जानकारी दी जिसका बड़ा लड़का ज़मील सिर्फ़ छह महीने पूर्व ही ताज़ा टटका आतंकवादी बना था।

“ताज्जुब, इतनी सख़्ती, चौकसी, दहशत और हिदायतों के बावजूद ख़ुद उसके एरिया में कोई जैहादी कैसे बन गया? ऐन उसकी नाक के नीचे।” आश्चर्य से पूछा सन्दीप ने ख़बरिये से।

“साहब जी, एक तो यहाँ इस्लाम का चाबुक हर घर में लटका रहता है। लोग यहाँ ज़िन्दगी से ज़्यादा अल्लाह, कुरान, नमाज़ और दाढ़ी-टोपी में दिलचस्पी रखते हैं। दूसरा जेहादी बनते ही सारा गाँव उसे और उसके परिवार को डर और इज़्ज़त से देखने लगते हैं। क्योंकि जेहादी बनते ही उनके घर की ताक़त और रईसी दोनों बढ़ जाती है। सुना है कि ज़मील ने भी जानलेवा भूखमरी और ज़िन्दगी की जिल्लत से तंग आकर उठा ली गन और अब वह भी थिरक रहा है आतंकवाद की ताल पर।”

मुखबिर बोलता जा रहा था पर सन्दीप के दिमाग़ में दो विरोधी विचार एक साथ कौंधने लगे। बन्द करना होगा केंचुए की तरह रात के अँधेरों में रेंगते इस आतंकवाद को। पर दूसरे ही क्षण उसने चश्मा उतारा और अफ़सोस के साथ एक उच्छ्वास ली। काश, यहाँ की ख़ूबसूरती, ये हवाएँ, पहाड़ियाँ, घाटियाँ, वादियाँ बादल और पत्तियों की ख़ूबसूरती दे पाती यहाँ के युवाओं को कुछ सुकून! कुछ चैन!

दूर रख पाती उन्हें इस ख़ून-खच्चर से।


मेज़र सन्दीप ने अपनी निगाहें टिका दीं उस घर पर। उस परिवार का इतिहास, भूगोल, वर्तमान यहाँ तक कि उसके हर सदस्य की जन्म कुंडली तक हाजिर थी सन्दीप की टेबल पर। एक ग़रीब बीपीएल (ग़रीबी रेखा के नीचे का) परिवार। एक छोटा भाई ज़मील का, हमीद। एक युवा बहन, रूबीना। माँ, रुक्साना। जीविका के लिए मात्र दो घोड़े जो गुलमर्ग और नारायण नाग में सैलानियों की सवारी के लिए सीजन में निकलते और परिवार को भुखमरी से बचाते। घर के आगे थोड़ी-सी ख़ाली ज़मीन, जहाँ कभी सब्ज़ियाँ लहरातीं तो कभी मुर्गे कुड़कुड़ाते रहते। ज़मील के जेहादी बनने के बाद से परिवार की खस्ता हालत में थोड़ी तब्दीली हुई घर की टूटी छत की मरम्मत हुई।

क्या सम्भव है आत्मसमर्पण। मेज़र सन्दीप चाहता था कि ऐसी कच्ची कोपलों को समझा बुझाकर उनसे आत्मसमर्पण करवाया जाए... उन्हें एक बार कम से कम मौक़ा अवश्य दिया जाए, ज़िन्दगी पर पुनर्विचार करने का। इसी बिन्दु पर एक बार फिर वे भिड़ गये कर्नल आर्य से। कर्नल आर्य ने चश्मा उतार उसे ऐसे देखा जैसे पहाड़ी चोटी पर खड़ा इनसान नीचे खड़े इनसान को देखता है। उनकी मूँछ के कोने फड़फड़ाएँ, आँखों में सर्प रेंगने लगे। फिर भी अपने को संयत रखते हुए समझाया उन्होंने सन्दीप को, “पागल मत बनो। सफ़ाया करना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। बिना जड़ से उखाड़े बात नहीं बनती। आत्मसमर्पण की तो तभी सोचनी चाहिए जब किसी कारण से हम ऐसा नहीं कर पाएँ। देखो हमें यहाँ सामाजिक कल्याण के लिए नहीं भेजा गया है। तुम पता लगाओ, क्या है परिवार की वीक लिंक और फिर अपनी स्ट्रैटेजी बनाओ। ओ.के.।”

गुंड जैसे उजड़े और वीरान गाँव में सन्दीप के लिए ऐसी किसी भी वीक लिंक का पता लगाना सचमुच टेढ़ी खीर था क्योंकि उस गाँव के अधिकतर युवा या तो मारे जा चुके थे या एके सैतालिस उठाए गाँव के बाहर थे। बची रह गयी थी बेवाएँ या सिर्फ़ बूढ़े-बूढ़ियाँ।


कड़कती आवाज़ में मेज़र सन्दीप ने ज़मील के अब्बू से पूछा, “वन से कछी, छुई नेहू (बता, तेरा बेटा कहाँ है?) वह थर-थर काँपा। सारा घर काँपा। घर की छत झुक गयी। हिचकी लेते हुए हकलाते हुए ज़मील के अब्बू ने जवाब दिया, मैं छुन पता। (मुझे नहीं पता!)

एके सैंतालिस को उसकी पसलियों से छुआ, उसकी आँख में आँख डाल उसे घूरते हुए जब फिर पूछा वही सवाल तो थर-थर काँपते, जार -जार रोते ज़मील के अब्बू ने आयं-सायं जाने क्या-क्या कहा कि कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा ज़मील के। अनुवादक ने समझाया सन्दीप को, “सर जी, यह कह रहा है कि क़सम ले लो, जो छह महीने से नन्हें मियाँ की शक्ल भी देखी हो।”

“तो फिर घर में पैसे कहाँ से आये? दिखा मनी ऑर्डर की रसीद!” बोलते-बोलते सन्दीप की आवाज़ के कोने इतने नुकीले हो गये कि ज़मील के अब्बू के डर का रंग और भी गाढ़ा हो गया। अपने मटमैले फिरन से आँसू पोंछते और सामने के दो टूटे दाँतों को दिखाते हुए वह फिर कलपा, “साहब जी, पैसे तो बेटे ने अपने किसी आदमी की मार्फ़त भिजवाए थे। बोलते-बोलते किसी अनिष्ट की आशंका से वह फिर काँपने लगा। उसके काँपते होंठ, लड़खड़ाते क़दम और झर-झर झड़ती आँखों से दुख की महागाथा फूट रही थी। वह सदी का सबसे अभिशप्त पिता लग रहा था। सन्दीप के भीतर से आवाज़ उठी, दुखी मत हो बाबा। तेरा बेटा सकुशल लौट आएगा तेरे पास, पर उसकी वर्दी कह रही थी, सच-सच बता, कब मिला था तू उससे आख़िरी बार... कहाँ मिला था? वह फिर कलपा और अपने छोटे बेटे के सिर पर हाथ रख रोया - साहब जी, क़सम ले लो, छह महीने हो गये जो उसकी शक्ल भी देखी हो।

ठीक ही कह रहा था ज़मील का अब्बू कि छह महीने से उसने ज़मील का चेहरा भी नहीं देखा। मिलिटेंसी के अपने सख़्त नियम-कायदे, जिसके अनुसार कभी भी मिलिटेंट का एरिया ऑफ ऑपरेशन (कार्य क्षेत्र) उसके घर के पास नहीं रखा जाता कि कहीं उसमें भावनात्मक कमज़ोरी न जाग जाए। ममता को ढेले मार -मार कर दूर किया जाता है और उसकी जड़ें काटी जाती हैं। इसी प्रकार चाबुक-सा सख़्त बनाया जाता है उन्हें। पर अभी वह कहाँ है, इसका थोड़ा-बहुत अन्दाज़ा ज़मील के अब्बू को ज़रूर होगा...सोचते हुए सन्दीप का दिमागी बल्व एकाएक फक से जल उठा। छह महीने से ज़मील यदि अभी तक घर नहीं आया है तो निश्चित ही आनेवाले दिनों में वह घर आने की योजना बना रहा होगा। आख़िर आदमी कितना भी कठोर क्यों न हो जाए एकदम कंकड़-पत्थर तो बन नहीं सकता है और यदि बनता भी है तो बनते-बनते बनता है। ज़मील तो अभी महज़ बाईस साल का है। कोमल पत्ता है।

अब्बू से बतियाकर सन्दीप उसकी अम्मी की तरफ़ मुखातिब हुआ। वह मरते हुए कबूतर की तरह फड़फड़ा उठी। उसकी आँखें डर से फटी पड़ रही थीं।

एक बार तो वह समझ ही नहीं पाई कि माजरा क्या है। न किसी से दुश्मनी, न झगड़ा -टंटा। न ज़मीन-जायदाद। किसी से 'धत् तेरी की' तक नहीं। फिर क्यों आर्मी उसके यहाँ? क्या काम यहाँ? क्या घर में जवान लड़के का होना मतलब ही आर्मी का आना-जाना? उसने उन घरों में देखा था आर्मी और पुलिस को अकसर आते-जाते जहाँ लड़के जवान थे या जिहाद के रास्ते पर थे।

तो क्या उसके घर में भी कोई जिहादी... ख़ुदा रहम करे। क्या ज़मील? उसका सर्वांग काँप उठा। रीढ़ की हड्डी में कुछ रेंगने लगा। और जब उसकी अठारह वर्षीया बेटी रूबीना ने उससे कश्मीरी में कहा, “भाईजान जिहादी हो गये हैं” तो वह इस क़दर चीख़ी कि आसमान शामियाने की तरह हिल उठा। उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि कल तक जिसे उँगली से पकड़ते-पकड़ते वह मदरसे छोड़कर आती थी जाने कब उसने उठा ली गन और बन गया जिहादी।

और उसके बाद यातना की अन्धी सुरंग में लुढ़के उस परिवार का जीना मौत से बदतर हो गया। ख़ुशियाँ तो उस परिवार में शायद ही कभी उगी हों पर थोड़ा-बहुत सुकून-शान्ति जो थी वह भी बसेरा छोड़ टहलने निकल चुकी थी। और अब वहाँ था एक ठंडा, गहरा और अन्तहीन अँधेरा जिसमें ज़िन्दगी से ख़ौफ़ खाए चार जीव थे। आँतरे-पाँतरे सन्दीप अपनी टीम के साथ पहुँच जाता उस घर। उसके जवान उन्हें धमकाते। उसके छोटे भाई को अपने फौलादी हाथों के झन्नाटेदार थप्पड़ का स्वाद चखाते और पूछते, “वनछे कैटि छुई ज़मील? (बता तेरा ज़मील कहाँ है)” उसका छोटा भाई थप्पड़ खा बिलबिलाता, ज़मीन पर गिर पड़ता। चीखता-चिल्लाता पर मुँह नहीं खोलता। उसकी अम्मी कफ़न की तरह ओढ़े अपने फटे बुरके से थोड़ी देर के लिए बाहर निकलती। छाती-माथा पीटती। बच्चों को खींचती फिर उसी कफन को वापस ओढ़ लेती। उसका बस चलता तो कंगारू की तरह अपने दोनों बच्चों को अपनी थौली में रख लेती और बचा लेती उन्हें फ़ौज और जिहादियों से।

यहाँ तक तो फिर भी ग़नीमत थी क्योंकि मामला आर्मी वालों के अधीन था। वे कलफ़ लगी चमचम लकदक वर्दी वाले थे। शरीफ़ थे। वे मारते तो भी सभ्यता से। शराफ़त से लेकिन बहुत शीघ्र ही इस मामले में पुलिस भी आ गयी और अब यह केस आर्मी और पुलिस का ज्वाइंट वेंचर था। यूँ भी आर्मी वाले पुलिस को साथ ही लेकर चलते थे जिससे उनकी किसी भी कार्यवाही पर पुलिस एक्शन नहीं ले सके। कोई उन्हें कोर्ट में घसीट नहीं सके।

पुलिस के अपने तौर-तरीक़े। अपनी भाषा और अपना शिल्प। पुलिसवालों ने बहुत जल्दी ही उस परिवार की वीक लिंक यानी कमजोर कड़ी खोज निकाली - रूबीना की जवानी और वयःसन्धि की ओर बढ़ते ज़मील के छोटे भाई हमीद का कच्चा मन।

अब पुलिस ने अपने टार्चर, हिंसा, ख़ौ और जिल्लत का वह चँदोबा ताना कि घर की ईंट-ईंट खिसक गयी। वह हर सप्ताह हमीद को थाने पर बुलाती, उसे पीट-पीट नीला कर देती। उसके बदन पर पिटाई के निशान न उभरें इसलिए पुलिस उसे गीले कम्बल में लपेट कर पीटती, जिससे किसी भी सूरत में मानवाधिकार हस्तक्षेप नहीं कर सके। यूँ भी वह बेहद ग़रीब परिवार था, विरोध और सामर्थ्य से कोसों दूर। हमीद मार खाता रहता, पर मुँह नहीं खोलता। पुलिस का ग़ुस्सा और बढ़ जाता। वह उसके घर आ धमकती। वहाँ अड्डा मारती। सिगरेट के छल्ले उड़ाती। उसकी जवान बहन रूबीना को घूरती। उससे गन्दे-गन्दे मज़ाक करती। भद्दे इशारे करती। उसके सामने माँ-बहन की ऐसी अश्लील और भद्दी गालियाँ निकालती कि ज़मील के अब्बू रो पड़ते। सिर पीटने लगते।

पुलिस के जवान उसकी माँ को समझाते कि यदि वह अपने परिवार, अपनी बेटी और बाक़ी बच्चों की ख़ैरियत चाहती है तो बता दे कि ज़मील कहाँ है या कब आनेवाला है। ज़मील की माँ माटी के लोंदे-सी घर के कोने में पड़ी रहती और पथरायी आँखों से देखती रहती दीवारों को।

सिलसिला चलता रहा। परिवार स्वप्नविहीन और भविष्यविहीन होता रहा। यातना और उत्पीड़न का अँधेरा अमावस्या की रात की तरह बढ़ता रहा। हर नये दिन के साथ घना होता रहा।

एकाएक उन दिनों आतंकवादी वारदातों में इजाफ़ा हो गया। राजौरी में हुए एनकाउंटर में दो मेज़र शहीद हो गये। एक कैप्टन बुरी तरह से जख़्मी हो गया। इस घटना से सन्दीप पर उसके वरिष्ठ अफ़सरों का दबाव एकाएक बढ़ गया था।

वरिष्ठ अफ़सरों का ग़ुस्सा बढ़ता जा रहा था। उस पर परिवार की चुप्पी ने सन्दीप की टीम के भीतर दुबके बैठे पशु को हिंसक कर डाला। उनका टार्चर इतना बढ़ा कि परिवार मुर्दा हो गया। जीवन के चिह्न दिन पर दिन मिटते गये।

झेलम-सी इठलाती रूबीना सूखती चली गयी। उसके चेहरे पर बदसूरत रेखाएँ खिंचने लगी। अत्यधिक पुलिसिया मार से हमीद सुन्न और विक्षिप्त रहने लगा। उसकी पढ़ाई छूट गयी।

दोनों बूढ़े घोड़े सैलनानियों को घुमाने के बजाय बाहर बँधे मिलते। उसके अब्बू घर के कोने में कम्बल ओढ़े अपने आप से बतियाते मिलते।

मेज़र सन्दीप जब भी घुसता उस घर में उसे मरी हुई सभ्यता की बदबू आती। उसका दम घुटने लगता क्योंकि वहाँ हवाएँ रुकी हुई थीं और ज़िन्दगी किसी कोने में मुँह छिपाए सुबक रही थी।

एक बार तो इन्तिहा ही हो गयी।

जैसे ही सन्दीप और उसके साथी जवान पुलिस के साथ उस घर में घुसे, उन्हें देखते ही डर के मारे हमीद का पेशाब निकल गया। ऊपर से चट्टान की तरह दृढ़ रहते हुए भी मेज़र सन्दीप ने उन क्षणों स्वयं को धिक्कारा उसका पेशाब नहीं, वरन आदमी होने की जो शुरुआत कभी की थी मैंने उसकी डोर पूरी तरह से निकल चुकी है मेरे हाथों से...।

उस रात नींद उससे परहेज करती रही। उसे लानत भेजती रही। गरियाती रही। गहन रात के सन्नाटे में उसके भीतर से प्रार्थना उठने लगी, ईश्वर मुझे सत्य कहने की शक्ति दे।

दूसरी शाम अपने कमांडिंग अफ़सर से पिनपिनाते हुए कहा उसने, “सर, मुझे लग रहा है कि हम उस परिवार पर कुछ ज़्यादा ही जुल्म ढा रहे हैं। सवाल सिर्फ़ यही नहीं कि ज़मील आतंकवादी है। हमें यह भी सोचना चाहिए कि वह आतंकवादी क्यों बना? आतंकवाद से लड़ने के लिए क्या ज़रूरी नहीं कि हम भूख, ग़रीबी, अन्धविश्वास और अशिक्षा से भी लड़ें।”

“बस... बस...” कर्नल आर्य ने शायद पहली बार सन्दीप के साथ संवाद करने में अपना आपा खोया। उनकी आँखों का कोण तिरछा हुआ, मूँछ के कोने फड़फड़ाए चेहरा एकाएक कठोर हुआ। कमरे का तापमान अचानक बढ़ा। कर्नल आर्य एकाएक गरजे, “जेंटलमैन, तुमने वह आग उगलता कश्मीर नहीं देखा। वह बारूदी विस्फोट। उड़ते मांस के टुकड़े और बदबू नहीं देखी जो हमने देखी। हमने बहाया है इस धरती पर अपना ख़ून, इतना ख़ून बहाया है तब जाकर यह स्थिति आयी है कि आज कश्मीर में चहल पहल है, सैलानी आ जा रहे हैं, बच्चे स्कूल जा रहे हैं। शाम सात-आठ बजे के बाद भी श्रीनगर इठला रहा है। राष्ट्रीय राइफल्स में मेरी चौथी पोस्टिंग है। आज भी भूल नहीं सकता, पहली पोस्टिंग का वह मंजर। हम जीप में बैठे जा रहे थे, हमारे आगे भी हमारी ही एक जीप थी, मेरा एक साथी भी था उस जीप में, कैप्टन अभिषेक। एकाएक पहलेवाली जीप आग की लपटों में घिर गयी। हरामज़ादों ने ज़मीन पर डायनामाइट की छड़ें बिछा दी थी और तब हमारे पास ROP यानी road opening party जैसी सुविधाएँ भी नहीं थीं (आज आर्मी के कन्वॉय जाने से पहले Rop क्लियरेंस दे दती है) हमारे सारे साथी शहीद हो गये। ख़ैर, वे तो पुरानी बात हुई, पर भूल गये कारगिल में शहीद हुए कैप्टन अनुज को। दरिन्दों ने कितनी नृशंसता से मार डाला था उन्हें। कैसे निकाल डाली थीं उनकी आँखें और कैसे काट डाला था सलाद की तरह उसके अंग-अंग को। याद रखो हमें यहाँ सभ्यता और उच्च कोटि के समाज निर्माण के लिए नहीं, वरन मिलिटेंसी का सफ़ाया करने के लिए भेजा गया है। हम अगर एक मिलिटेंट को भी बख़्श देंगे तो वह हमें न केवल मार गिराएगा वरन भविष्य में भी न जाने कितनी हिंसक वारदातों को अंजाम देगा। इसलिए सोचो मत और सोचना ही है तो यही सोचो कि हमारा काम है राष्ट्र को एक उज्ज्वल भविष्य देना।”

“पर सर, हम किसका दंड किसको दे रहे हैं?" नहीं चाहते हुए भी मेज़र सन्दीप के मुँह से हठात निकल गया था। यद्यपि आर.आर. पोस्टिंग में इस प्रकार अपने कमांडिंग अफ़सर से तर्क करना भी अनुशासन के ख़िलाफ़ था, पर शायद कर्नल आर्य ने मेज़र सन्दीप के भीतर उठने वाले तूफ़ान को भाँप लिया था। इस कारण उसे शान्त करने की फिर एक कोशिश की - देखो मेज़र, हम यहाँ करुणा, दया, मानवता और सह-अस्तित्व का पाठ पढ़ने और पढ़ाने नहीं आये हैं। देखो, हमें इस गाँव में एक मिसाल क़ायम करनी है। इतना डर इस धरती पर बो देना है कि आनेवाले सालों में यहाँ इनसान तो क्या परिन्दा भी मिलिटेंट बनने की न सोचे। मेरी बात याद रखना, तभी तुम एक क़ामयाब फ़ौजी अफ़सर बन पाओगे और वह बात यह है कि युद्ध और बुद्ध एक साथ नहीं चल सकते।”

बेहद हताशा में एक सवाल फिर मेज़र के मुँह से फूट पड़ा - सर, कब तक चलेगी यह मिलिटेंसी? दरअसल, आज सुबह ही उसने एक बैनर देखा था जिसमें लश्करे तैबा का खंजर हिन्दुस्तान, अमेरिका, इंगलैंड, रूस और इज़राइल के झंडे में गड़ा हुआ था। इस बैनर ने बहुत ही उदास और हताश कर डाला था उसे।

कर्नल आर्य अवाक रह गये। इस सवाल ने शायद उन्हें भी परेशान कर डाला था। और कितनी आर.आर. पोस्टिंग लेंगे वे? वैवाहिक जीवन के पिछले 19 सालों में 19 महीने भी चैन और सुकून के साथ पत्नी के साथ नहीं रह पाए थे। बच्चों को बड़ा होते नहीं देख पाए थे। उनकी आँखों में बादल घिर गये। मन भारी हुआ, फिर भी बड़े ही सन्तुलित, संयमित और निर्णायक स्वरों में जवाब दिया उन्होंने, “देखो, आर्मी और मिलिटेंट दोनों लड़ रहे हैं। जो पहले थक गया वही तो हटेगा मैदान से। अब आर्मी तो असीमित है, वह तो थक नहीं सकती।" कुछ देर रुककर सिगरेट के धुएँ के छल्ले बनाते हुए फिर बात जारी रखी उन्होंने - देखो, हमारी मिलिटेंसी तो फिर भी साठ वर्ष ही पुरानी है, पैलेस्टियन को देखो, अभी तक लड़ रहे हैं।


'युद्ध और बुद्ध एक साथ नहीं चल सकते' यही उन दिनों सन्दीप का मूलमन्त्र था जिसे जाप- जापकर उन घायल दिनों पर अपनी घायल आत्मा और लहूलुहान विश्वचेतना की मलहम-पट्टी किया करता था वह। मेज़र सन्दीप अभी तक एक भी मिलिटेंट को ढेर नहीं कर पाया था, अभी तक एक भी ऑपरेशन को सफल अंजाम तक नहीं पहुँचा पाया था जबकि उसके ही कुलिग मेज़र विक्रम पालीवाल को चौदह आतंकवादियों को अकेले मार गिराने के पराक्रम के लिए शौर्यचक्र मिल चुका था।

बहरहाल... दिन पर दिन सन्दीप पर यूनिट का दबाब बढ़ता जा रहाथा। हिन्दुस्तान की सुरक्षा उसका पहला कर्तव्य था और कश्मीर के गुंड, सोपोर, राजौरी और अनन्तनाग जैसे संवेदनशील इलाक़े उसे पल भर के लिए भी भूलने नहीं देते थे कि वह सबसे पहले एक अच्छा इनसान नहीं, वरन एक हिन्दुस्तानी है कि उसका अपना न कोई वजूद है और न ही कोई आत्मा। कि वह एक सामूहिक नियति और भविष्य से बँधा है, कि व्यक्ति स्वातन्त्र्य और व्यक्ति मन के लिए यहाँ कोई स्पेस नहीं है। उसे हर दिन लगता कि वह ग़लत जगह पर आ गया है, कि यह दुनिया उसकी नहीं, पर जिस शपथ पत्र पर वह 20 वर्ष की उम्र में जीवन के सीमित अनुभवों के आधार पर हस्ताक्षर कर चुका था, उसे लौटाया नहीं जा सकता था और उसके अनुसार बीस वर्ष की सेवाओं के पूर्व वह यहाँ से निकल भी नहीं सकता था।

बहरहाल... उसका तत्काल लक्ष्य था ज़मील का सफ़ाया। इस कारण उस परिवार पर आर्मी शिकंजा कसता गया। ज़्यादतियाँ, उत्पीड़न, यातनाएँ, पूछताछ, मारपीट और बदसलूकियाँ बढ़ती गयीं। ये सब उसकी रणनीति के तहत अदृश्य गोलाबारियाँ थीं जो हर दिन परिवार का कन्धा जरा-जरा कर तोड़ रही थी। उस घर की ईंट-ईंट पर एक ही इबारत साफ़-साफ़ लिख रही थी कि उस परिवार के पास अब एक ही विकल्प बचा है - या ज़मील की मौत या पूरे परिवार की तबाही।

ठंडी क्रूरता और असभ्य शालीनता के साथ मेज़र सन्दीप ने एक धूल भरी दोपहर ज़मील की अम्मी को समझाया भी - देखो, ज़मील को तो देर सबेर मरना ही है, पर तुम चाहो तो अपने बाक़ी दोनों बच्चों को तबाही से बचा सकती हो। देखो हमीद को, उसकी छाती की हड्डियाँ निकल चुकी हैं, लगभग पागल ही हो चुका है वह, देखकर लगता है जैसे सालों से बीमार हो। कहीं ऐसा न हो कि ज़मील भी न बचे और बाक़ी बच्चे भी जीवन के क़ाबिल न रहें।

“नहीं, ख़ुदा रहम करे...” ज़मील की माँ ने अपने कानों को हथेलियों से ढाँप लिया था। कमज़ोर जड़ों वाले पौधे की तरह वह काँपने लगी थी। और यदि पास ही खड़ी रूबीना ने उसे सहारा न दिया होता तो वह शायद गिर ही पड़ती।

बहरहाल, मेज़र का निशाना ठिकाने पर लगा था। परिवार हर घड़ी टूट रहा था। बुद्ध हर क्षण ढह रहे थे। मानवीय हलचलें हर क्षण क्षीण होती जा रही थीं। बच्चे तेज़ी से ज़िन्दगी से डरे हुए चूहों में तब्दील होने जा रहे थे। जमील की माँ टुकड़े-टुकड़े हो रही थी। एक टुकड़ा जमील के लिए सोचता तो दूसरा बचे-खुचे परिवार के लिए।

और एक दोपहर कमाल हो गया। साल बीतते न बीतते सरोवर का सारा पानी सूख गया। हवाएँ रुक गयीं। सारे एहसास मर गये। जिल्लत, डर, उत्पीड़न और यातना की नोक पर टँगा वह परिवार पूरी तरह ढह गया।

शायद धरती भी अपनी धुरी पर घूमती हुई उन क्षणों कुछ देर आहत अचम्भित हो ठिठकी होगी, शायद कुम्हार का चाक भी उन पलों घूमते-घूमते रुक गया होगा जब जीने की चरम विवशता में जीने की अन्तिम चेष्टा के रूप में एक रचनाकार को अपनी ममता के कण-कण से सँवारी हुई अपनी ही रचना का गला घोंट देने का निर्णय लेना पड़ा होगा। जब एक क़ामयाब शाम ख़ुद ज़मील की अम्मा ने आँखों में जल और हृदय में असह्य ज्वाला लिए उन्हें बताया - वह आ रहा है... कल... हमसे मिलने। क्या? कौन? ज़मील???

अविश्वसनीय!

मेज़र हैरान! गद्गद! मेज़र के साथ आये चारों लांसनायकों और नायकों की आँखें सर्चलाइट-सी चमकीं। चेहरे पर कमल खिले। महीन हँसी चिड़िया-सी फुदकी।

समझ नहीं पाया मेज़र कि इस सूचना पर वह क्या कहें। उसे एहसास था कि वह इनसानियत के सबसे निचले पायदान पर खड़ा था और ज़मील की माँ बेबसी और यातना की पराकष्ठा पर खड़ी अपने बाक़ी दोनों बच्चों को बचा पाने की नसतोड़ मुहिम में अपने ही हाथों अपनी ममता का गला घोंट रही थी।

“तो ज़मील कल आ रहा है तुमसे मिलने?” वह जैसे पूरी तरह आश्वस्त हो जाना चाहता था।

उसने गर्दन हिलायी और घुटने में सिर दबाए रोने लगी। उसके दोनों बच्चे उससे चिपक सुबकने लगे। दुख के आवेग को सह न पाने के कारण उसके अब्बू हाँफते हुए अपनी छाती मलने लगे थे।

घर में हवाएँ रुक गयी थीं।

मौत की बदबू भर गयी थी।

पर मेज़र और उसकी टीम चहक रही थी।

पूरे साल भर की मशक्कत के बाद सफलता मिली थी मेज़र को।

एक सफल ऑपरेशन आनेवाला था मेज़र के खाते में।

बाईस घंटे। पूरे बाईस घंटे थे मेज़र के पास। मौत के इन्तज़ाम के लिए। काली रात के सर्पीले सन्नाटे में मेज़र ने उसके आसपास पूरी घेराबन्दी की। वे जातने थे कि ज़मील रात के अँधेरे में ही घुसेगा। दो सौ किलोमीटर की दूरी पर एच.एच.टी.आई., पी.एन.एन.जी. (अँधेरी रात में दूर तक देखनेवाला चश्मा) हैंड, ग्रिनेड, रॉकेट लांचर, एके-47 आदि सामान के साथ पूरी टीम अपनी पोजीशन लिए अँधेरे में दुबकी रही। और ज़मील के घर पर नज़र गड़ाए रही।

ठीक आधी रात के ठंडे ठिठुरते अँधेरे में घर का शहजादा रेंगते-छुपते घर में घुसा।

उन्होंने उसे घुसने दिया।