सूखते चिनार / युद्ध और बुद्ध / भाग 3 / मधु कांकरिया

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हिन्दू विवाह की यह विशेषता कि वह परिवार को एक सूत्र में बाँध देता है। सभी रिश्तेदारों को बारी-बारी से किसी-न-किसी रस्म में सम्मिलित कर वह सबको न केवल उनकी अहमियत बता देता है, वरन सभी को आत्मीयता के धागे में भी पिरो देता है। विचारों का काफ़िला साथ-साथ बहने लगता है कि तभी स्पीड ब्रेकर की तरह एक और रस्म झटका देती है सन्दीप को। विचारों का ताना-बाना टूट जाता है। हुलसित हो देखते हैं सन्दीप। चुहलबाजी चल रही है। जुआ-जुई का खेल चल रहा है, दुल्हा-दुल्हन के बीच। पतले दूध से भरी बड़ी-सी परात में कुछ कौड़ियाँ, कुछ हल्दी-आटे से बने सूखे फल। कुछ लोहे के रिंग और इस भीड़ के बीच एक चाँदी का छल्ला। दूल्हे को एक हाथ और दुल्हन को दोनों हाथों की सहायता से खोजना है इस छल्ले को।

सात बार फेंका जाता है छल्ला। अभी तक लगातार जीत रही है दुल्हन।

यह सातवीं बार।

कोई स्त्री कह रही है - यह आख़िरी बार है। इसमें जिताना ज़रूरी है सिद्धार्थ को। क्यों? मुस्करा कर कहती है चाची, इसमें हार गया तो फिर सारी उम्र हारता ही रहेगा दुल्हन से।

वाह! इन खेलों में भी कितने अर्थ कितनी सोच और कितनी सीख छुपी है।

एक और रस्म। सिद्धार्थ के हाथ में कपड़े से बना चाबुक जिसे वह लहरा रहा है और चला रहा है दुल्हन पर। दुल्हन बचने का नाटक करती भाग रही है, चाबुक से बचने के लिए। लोग हँस रहे हैं, हर बार चाबुक पड़ते-पड़ते रह जाता है दुल्हन के जिस्म पर।

ये रस्म-रिवाज़ भी हमारे समाज के दर्पण हैं। किस प्रकार जीवन के प्रभात में ही पुरुष सत्ता के हाथ में थमा दिया जाता है चाबुक जिससे ताउम्र वह अपने अधीन रख सके अर्द्धांगिनी को।

हर रस्म का अपना निहित अर्थ ढूँढ़ रहे हैं सन्दीप कि तभी फिर शुरू हुई, एक और रस्म।

यह रस्म है पग पकड़ाई की रस्म।

इसमें दुल्हन घर के सभी बुज़ुर्गों के पाँव पकड़ती है और तब तक पकड़ी रहती है जब तक बुज़ुर्ग दुल्हन को आशीर्वादस्वरूप कुछ न कुछ उसे भेंट नहीं कर देते हैं।

शेखर बाबू ने भेंट स्वरूप एक सोने की गिन्नी दी। पत्नी ने सोने का हार दिया।

अब बारी सन्दीप की।

अविवाहित जेठ! जाने कहाँ से शब्द गूँजा। सब हो-हो कर हँस पड़े। झेंप गये सन्दीप। मारवाड़ी समाज में अविवाहित रहना भी जैसे अपराध है। 'अविवाहित' शब्द की नोक भाले की तरह गड़ी सिद्धार्थ के सीने में भी। यहाँ जमा इतने लोगों में है कोई ऐसा जो बराबरी कर सके भैया के नाखूनों की भी? फिर चिन्ता के बादल मँडराए, सिद्धार्थ के मानसिक क्षितिज पर। कुछ कुछ अन्देशा उसे भी था कि भैया किसी के इन्तज़ार में ही लुटा रहे हैं ज़िन्दगी के ये बहुमूल्य वसन्त। भैया के ही मित्र मेज़र सुखवन्त की आवाज़ कानों में फिर गूँजने लगी - अज़ीब पागल है यह सन्दीप भी। यह इन्तज़ार नहीं, बेवकूफ़ी है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो पूरे समाज का बोझ ढोते हैं अपने सिर पर। अब पूछो इनसे कि ज़मील का परिवार बर्बाद हुआ तो इसकी ज़िम्मेदारी सन्दीप पर कहाँ आती है? पर जनाब हैं कि बैठे हैं उसी रूबीना के इन्तज़ार में। कहते हैं कि मैं प्यार करता हूँ उससे। रूबीना से।

रूबीना? रूबीना कौन? चौंक गये थे सिद्धार्थ। क्या आपको कुछ नहीं मालूम?

अब चौंकने की बारी थी मेज़र सुखवन्त सिंह की।

यार, इतने भी क्या डूबे रहते हो अपनी ही दुनिया में, कि सगे भाई की ज़िन्दगी में इतने तूफ़ान उठ रहे हैं, उसकी भी कोई जानकारी नहीं। अरे, जब से उस ज़मील को मार गिराया है सन्दीप ने, तभी से वह जैसे चिपक कर बैठ गया है सन्दीप की रूह से। मैंने बहुतेरा समझाया, पर वह यही कहता रहा कि देखो उसे मारकर मैंने एक फ़ौजी का धर्म बखूबी निभाया, अब उस परिवार को सहारा देकर एक अच्छे नागरिक का धर्म भी निभाना चाहता हूँ। मैंने पूछा भी कि सहारे का मतलब यह तो नहीं कि तू ज़मील की बहन को ही अपनी बीवी बना ले। अरे, ये मुल्ले ऐसे ही होते हैं, कर दिया होगा उन्होंने अपनी लड़की को ही इसके आगे, डोरे डालने को, अरे जो परिवार अपने सुख के ख़ातिर मरवा डाले अपने ही बेटे को, वह कुछ भी कर सकता है। जानते हो क्या कहा उसने? सन्दीप ने कहा, कई बार किसी और को तो क्या ख़ुद अपने को भी हम कहाँ पहचान पाते हैं। मैंने भी यही सोचा था कि जैसे ही मैं ज़माने से लुटी-फुटी दुख और भुखमरी से टूट चुकी उस रूबीना के सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रखूँगा, वह झूम उठेगी, पर जानते हो मेज़र, स्त्री की अन्तर्निहित गरिमा से भरपूर उस गर्वीली लड़की ने क्या जवाब दिया? उसने कहा, कि मुझे बहुत पहले से ही पता था कि तुम मुसलमान नहीं, हिन्दू हो, मैं यह भी जानती हूँ कि तुमने सिर्फ़ एक 'आर्डर' का पालन किया जिसके लिए तुम वचनबद्ध थे। एक इनसान के तौर पर मैं तुम्हारा सम्मान भी करती हूँ क्योंकि जिस प्रकार ज़मील भाई की शहादत के बाद भी तुम हमेशा हमारे यहाँ आते रहे हमें सँभालने की वापस खड़ा करने की चेष्टा भी करते रहे, पर मैं यह कैसे भूल सकती हूँ यह हिन्दुस्तानी फ़ौज ही थी जिसने हमारे भाईजान को मार डाला, इसलिए जब तक तुम इस वर्दी से ख़ुद को अलग नहीं कर लेते, मैं तुम्हें नहीं अपना सकती। यदि तुम्हें अपना लिया तो क़यामत के दिन भाईजान को क्या मुँह दिखाऊँगी?

रह-रहकर सारी बातें याद आ रही हैं सिद्धार्थ को। भाई के क्षत-विक्षत और घाव खाये खंडित व्यक्तित्व को आवश्यकता है एक स्त्री मित्र की, प्रेयसी की, पत्नी की जिसके प्रेम की धीमी-धीमी आँच में पुनर्निमित हो उठे वह, पुनर्जीवित हो उठे, पर कहाँ से जुगाड़ करे वह भाई के लिए ऐसी स्त्री? भाई तो जाने किस रूबीना की रूह से चिपक कर बैठ गये हैं।

“कहाँ खो गये जीजू?” शोख सालियों ने फिर खींचा सिद्धार्थ का ध्यान?

सामने दिलचस्प मंजर था। दुल्हन सन्दीप का पाँव छोड़ ही नहीं रही थी। उसने अजीब-सी माँग कर परेशानी में डाल दिया था जेठ जी को। बाक़ी दुल्हनों की तरह उसने अपने जेठ से न सोना-चाँदी माँगा, न हीरे-जवाहरात माँगे और न ही विदेश यात्रा के लिए टिकट। माँगा तो यह कि जब तक जेठ जी जल्दी से ही उसे एक प्यारी-सी जेठानी देने का वादा नहीं करते, वह नहीं छोड़ेगी जेठ जी का पाँव।

झेंप और हास्य का मिला जुला कत्थई रंग पुत गया सन्दीप के चेहरे पर। कहना चाहा, कुछ कहानियाँ ज़िन्दगी में शुरू ही इसलिए होती हैं कि कभी पूरी नहीं हो सकें, पर कहा यही - पाँव नहीं छोड़ोगी तो कहाँ से लाऊँगा तुम्हारी जेठानी को?

सिद्धार्थ ने सोच लिया था, आज खोलना ही होगा उसे भाई के जीवन का वह दरवाज़ा जिसके तहख़ाने तक आज तक कोई भी नहीं पहुँच पाया था। बहुत हुआ, अब और टालमटोल नहीं। आज बनकर रहेगा वह भाई के अँधेरे जीवन का हिस्सा। हाँ आज की ही रात, क्योंकि यही रात सबसे अचूक अस्त्र की तरह है उसके पास!

शाम ढलते-ढलते फिर पहुँचा वह सन्दीप के पास, “भाई जब तक तुम मुझे सारी बातें नहीं बताओगे कि क्यों नहीं कर रहे तुम शादी, मैं भी अपनी सुहागरात नहीं मनाऊँगा, शादी तो मैंने घरवालों और तुम्हारे दबाब में आकर कर ली, पर...” बोलते-बोलते आवाज़ अचानक भर गयी थी सिद्धार्थ की।

यह क्या? सिटपिटा गये सन्दीप। अच्छा पकड़ा। क्या कुछ सुगबुगाहट मिल गयी है उसे? कहाँ से मिली होगी। फिर ग़ौर से गहरे देखा चेहरा सिद्धार्थ का। नयी शादी की उमंग, उत्तेजना, थिरकन सब पर छायी हुई थी उदासी की झीनी-सी चादर।

क्या तुम मेरा ब्लैकमेल कर रहे हो? कड़क आवाज़ में पूछा सन्दीप ने। आर्मी में रहते -रहते भावनाओं को नियन्त्रण में रखना ख़ूब साध लिया था उन्होंने।

“मैं ब्लैकमेल नहीं कर रहा, पर जीवन के सवालों से इस प्रकार भागा नहीं जाता है भैया, मैं आपको यह बताना चाहता हूँ, क्योंकि आपका जीवन आपके अकेले का नहीं है, वरन हम सबसे जुड़ा हुआ है। मुझे पता है कि आप किसी का इन्तज़ार कर रहे हैं। मेज़र सुखवन्त सिंह से मैं बहुत कुछ सुन चुका हूँ, पर जनश्रुतियों की लहरों पर उछलती आयी सच्चाइयाँ काफ़ी कुछ विकृत और फैल चुकी होती हैं। मैं ठोस सचाई जानना चाहता हूँ।”

सन्दीप का चेहरा बुझा और राख बन गया। रुमाल से ललाट का पसीना पोंछते हुए कहा उसने - देखो, मैं तुमसे वादा करता हूँ कि यहाँ से जाने के पहले मैं तुम्हारे सामने अपने सारे सत्य, सारे रहस्य खोलकर रख दूँगा, पर आज की रात को तुम बर्बाद मत करो, जतन से पाली तमन्नाओं की रात है यह, जाओ सीमा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही होगी, इस रात की नोक पर उसके भी सपने टँगे होंगे जिनको सँभालना तुम्हारी नैतिक ज़िम्मेदारी है। बोलते-बोलते गला भर आया सन्दीप का। शब्द बिखरने लगे। अपने आवेग पर क़ाबू पाने के लिए सिद्धार्थ के माथे पर हाथ फेरा उन्होंने। एक गहरी साँस ली और किसी प्रकार अपनी बात पूरी की - देखो, मेरा विश्वास करो, एक रात में कुछ नहीं उखड़ने वाला, कल दोपहर तक मेहमान विदा हो जाएँगे, शाम तक मैं तुमको सबकुछ बता दूँगा यह वादा रहा मेरा। एक फ़ौजी का। एक भाई का।

ढीली रात के बाद तनी तनी सुबह।

सिद्धार्थ को घर के सेवक रामलखन ने एक मोटा-सा लिफ़ाफ़ा पकड़ाया। सिद्धार्थ ने उसे खोला तो हैरान रह गया, उसमें सन्दीप का एक लम्बा-सा पत्र था, जो इस प्रकार था -

भाई मेरे,

इस पत्र में मैं स्वयं को पूरी ईमानदारी के साथ पेश कर रहा हूँ। जब-जब मैं अपने अभी तक के पूरे जीवन पर एक नज़र फेंकता हूँ तो यह बात साफ़ समझ में आती है कि कुछ जीवन ऐसे होते हैं जो कभी जिये नहीं जाते हैं, जो जीवन को समझने और उसकी तैयारी करने में ही बीत जाते हैं। मेरे जीवन की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। जितना अधिक मैं ज़िन्दगी को समझने की चेष्टा करता रहा, उलझता रहा। जितना अधिक मैं इसके क़रीब आना चाहा, यह मुझे दूर धकेलती रही।

मेरी कहानी के बीज़ शायद तभी पड़ गये थे जब अपने अल्हड़ और तितलियों को पकड़ने की उम्र में मैंने अपने लिए एक सपना पाल लिया, बिना सोचे-विचारे। पर वह स्वप्न ही क्या जिसे सोच-समझकर पाला जाए। बहरहाल, मैंने स्वप्न पाला एक कड़क फ़ौजी बन जीवन के उन अनजाने रास्तों पर चलने का जो ख़तरों से भरा था, अनजाना था।

यह तो मैं आज समझ पाया हूँ कि पिता का जीवन बच्चों को किस प्रकार प्रभावित करता है। घनघोर सांसारिकता वाले मेरे पिता का जीवन मुझे शून्य लगता और उनके सारे तर्क इस शून्यता को सजावट से ढँकने की कोशिश। मैं किसी 'महान' के लिए किसी 'शिव' के लिए, किसी सत्य के लिए जीना चाहता था, और वह था, 'फ़ौजी'। यदि मेरे पूज्य पिता का जीवन वैसा नहीं होता तो सम्भवतः मेरा जीवन भी ऐसा नहीं होता। जानते हो, इसीलिए हमारे फ़ौज में जितने भी आर्मी ऑफ़िसर्स हैं, उनमें से अधिकांश के बच्चे अब फ़ौज में नहीं जा रहे हैं। वे जा रहे हैं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में, केन्द्रीय सेवाओं में, राजकीय सेवाओं में, या फिर प्राइवेट प्रतिष्ठानों में। क्योंकि उन्हें वितृष्णा हो चुकी है उस जीवन से जो उनके पिता जी रहे हैं। शायद हर पीढ़ी के स्वप्न अपनी पूर्व पीढ़ी से अलग होते हैं, क्योंकि उसका मोहभंग हो चुका रहता है। इसीलिए फ़ौज प्रेमी कर्नल बाजपेयी फ़ौज में उच्च स्थानों पर रिक्ति का रोना हमेशा रोते रहते हैं। जानते हो जिस समय मैंने कर्नल बाजपेयी से फ़ौज से त्यागपत्र देने की इच्छा ज़ाहिर की तो उन्होंने यह सोचने तक कि जहमत नहीं उठायी कि मैं किन गम्भीर व्यक्तिगत कारणों से फ़ौज को अलविदा कहना चाहता हूँ कि आज मैं ऐसे मुकाम पर खड़ा हूँ कि या तो ज़िन्दगी का चुनाव कर सकता हूँ या फ़ौज का। उनकी सोच वहाँ तक जा ही नहीं सकती थी कि मैं ज़िन्दगी से मुलाक़ात करने के लिए फ़ौजी ज़िन्दगी को छोड़ना चाहता हूँ। हाँ, ठीक समझा तुमने, मैं रूबीना की बात कर रहा हूँ, जो अब मेरी ज़िन्दगी का सबसे हसीन स्वप्न बन चुकी है, पर वह तब तक मेरा वरण नहीं करेगी जब तक मेरे ज़िस्म पर यह फ़ौजी वर्दी और तमगे चिपके हुए हैं। नहीं, उसे ग़लत समझने की भूल मत करना। बड़ी ठोस नैतिकता वाली लड़की है वह जिसने भूख झेली, टूटन झेली, यातनाओं का ज़हर पिया पर अपने विश्वास के साथ विश्वासघात नहीं किया।

कर्नल वाजपेयी मेरी मजबूरी नहीं समझ पाए, उन्हें लगा कि मैं हाई ग्रोथ के लिए, उच्च वेतन के लिए, फ़ौजी नौकरी छोड़ना चाहता हूँ। मुझे ज्ञान पिलाते हुए कहा उन्होंने, गहरे दुख और अफ़सोस के साथ - मैं जानता हूँ कि तुम क्यों निकलना चाहते हो, पर इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। आज आर्मी कुछ भी ऐसा नहीं देती कि युवक उसकी ओर आकर्षित हो। आज भारत की नम्बर वन प्रतिभा की फ़ौज में कोई दिलचस्पी नहीं है। इसलिए आज चालीस हज़ार अफ़सरों में ग्यारह हज़ार अफ़सरों के पद ख़ाली पड़े हैं। कई बार मैं ख़ुद यह सोचकर परेशान हो जाता हूँ कि जिस रैंक में आर्मी में मैं बाईस साल बाद पहुँचा हूँ, मेरे आई.ए.एस. दोस्त छह साल में पहुँच जाते हैं। और मुझसे 20 प्रतिशत अधिक वेतन पाते हैं। मैं आज भी उन लमहों को याद कर सकता हूँ जब चाय का घूँट भरते हुए बड़ी पीड़ा के साथ उन्होंने मुझे कहा था, भई, इफ यू गिव पीनट्स, ओनली मंकीज विल कम (यदि आप मूँगफली देंगे तो सिर्फ़ बन्दर ही आएँगे)। बड़े दर्द के साथ कहा था उन्होंने कि देखना आज से बीस वर्षों बाद इन्हीं बन्दरों के हाथों में देश की प्लानिंग, डिफेंस और स्ट्रेटजी रहेगी। देखना यदि सिलसिला इसी प्रकार चलता रहा तो एक समय बाद हमारे जाने कितने टुकड़े हो जाएँगे क्योंकि धीरे -धीरे हमारा निकृष्ट आर्मी में आता जाएगा और हमारे दुश्मन का उत्कृष्ट आर्मी में जाएगा। पाकिस्तान अपनी जीडीपी का साढ़े तीन प्रतिशत आर्मी पर खर्च करता है जबकि हम महज 1.99 प्रतिशत खर्च करते हैं। तो आप ही कहिए, हमारा निकृष्ट उनके सर्वोत्कृष्ट का मुक़ाबला कैसे कर सकेगा?

तो मेरे भाई, विडम्बना यह है इस समय कि कोई भी सत्य सुनने को तैयार नहीं। और यह अभी ही नहीं, शुरू से ही मेरे साथ हो रहा है। मैं चाहकर भी जो है और जो सत्य है, के बीच की दीवार को नहीं गिरा पाया। हालत यह है कि पहले मैं अकेलेपन से डरता था, अब दुनिया से डरता हूँ। मैं आँखें बन्द करता हूँ तो मेरी बन्द पलकों के बीच युवा सुलभ स्वप्न नहीं, वरन सत्य तैरने लगता है, वह सत्य जिसे चीख़ -चीख़ कर मैंने अपने वरिष्ठ अफ़सरों को सुनाना चाहा, पर उन्होंने अपने कानों में उँगली डाल ली।

जिस समय हम 'ऑपरेशन फ्राइडे' पर थे, हम पर ज़बरदस्त राजनैतिक दबाव था आतंकियों को पकड़ने का। हमने गाँव के एक नौजवान को पकड़ा, उसका अपराध सिर्फ़ इतना भर था कि उसके दोस्त का भाई आतंकी था और वह अपने दोस्त के घर आया-जाया करता था। बहरहाल, हमारी नज़रें उस घर पर टिकीं थी, जैसे ही वह निकला हमारे कमांडर ने उसे ढेर कर दिया और उसके शव के पास हमने वह एके - सैंतालीस रख दी जिसे हमने कभी ढेर हुए आतंकवादियों के पास से पायी थी। हम कभी भी उतने हथियारों की रजिस्टर में एंट्री नहीं करते जितने हमें किसी वारदात या मुठभेड़ के दौरान मिलते हैं। वक़्त-बे-वक़्त इन्हीं हथियारों को हम किसी निर्दोष को आतंकवादी सिद्ध करने में काम लेते हैं। हमारे कमांडर ने उस नौजवान की लाश के पास एके - सैंतालीस रख फोटो खिंचवाई और मीडिया को बताया कि हमने एक खूँखार आतंकवादी को ढेर किया।

ताज्जुब! इसी धरती पर कभी हमारे पुरखों ने सत्य, शिव और सौन्दर्य की माँग की थी।

तो मेरे भाई, यह दुनिया झूठ से भरी पड़ी है। अमानवीयता से अटी पड़ी है। यहाँ अँधेरे सिर उठाकर चलते हैं और उजाले आत्महत्या करने को विवश हैं। यहाँ हर वह आदमी घुटन महसूस करता है जो सत्य जानता है पर उसे बोल नहीं सकता है। मैंने अपने सभी वरिष्ठ अफ़सरों, रक्षा मन्त्रालय और यहाँ तक कि राष्ट्रपति तक के पास अपील भेजी है कि मुझे फ़ौज से मुक्ति दिला दी जाए जिससे मैं ज़िन्दगी में घुस सकूँ। पिछले पाँच वर्षों से मैं गुहार लगा रहा हूँ, पर कोई मुझे सुनने को तैयार नहीं। मुझे तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी जब तक अनुबन्ध की शर्त के अनुसार मेरे फ़ौजी जीवन के 20 वर्ष पूरे न हो जाएँ।

आज मुझे लगता है कि मैं बुद्धू बना दिया गया हूँ। मैंने अपना सबकुछ फ़ौज को समर्पित किया, अपना सुविधा-सम्पन्न जीवन, कैरियर, सुख, स्वप्न, रातों की नींद, दिन का चैन यहाँ तक कि अपनी आत्मा की आवाज़ तक का गला घोंट दिया। हर पल मौत की आहट में जीया। तन-मन-आत्मा सबको लहूलुहान किया। भयंकर मानसिक यातना में जिया। अपने मनुष्य बोध तक को कुचल डाला। मैंने वह सबकुछ किया जो व्यवस्था मुझसे चाहती थी और इसी का परिणाम है कि आज मैं न जी पा रहा हूँ, न मर पा रहा हूँ। यही सम्मान है हमारे देश में एक फ़ौजी का। उस फ़ौजी का जो अपनी जान हथेली पर रख, सरहदों की रक्षा करता है। विकसित देश अपने बहादुर सैनिकों के नाम पर खिलौने निकालते हैं, कॉमिक निकालते हैं, जिससे किशोरों में सेना के प्रति सम्मान भाव और रुचि पैदा हो जबकि हमारे देश की युवा पीढ़ी अपने जांबाज फ़ौजियों के नाम तक नहीं जानती।

तो मेरे भाई, हम सभी एक पतनोन्मुख समाज में जी रहे हैं। ऐसा समाज जिसकी संवेदनाएँ मर चुकी हैं। आर्मी भी तो उसी समाज का हिस्सा है। कई बार मैं स्वयं को मानवीय नियति का दार्शनिक जामा पहनाकर सान्त्वना देने की कोशिश करता हूँ। मैं स्वयं को यह समझाने का प्रयास भी करता हूँ कि मानव जीवन सम्पूर्ण कभी नहीं होता, आन्तरिक अधूरापन बना ही रहता है। महाभारत युद्ध के बाद कुरुक्षेत्र विजेता भी उल्लसित नहीं थे। उन्हें भी लग रहा था कि सब ठीक नहीं हुआ है, कहीं धोखा हुआ है।

पर मैं ख़ुद को समझा नहीं पाता। मुझे मेरा वर्तमान रह रह कर कचोटता है। मैं क्या करूँ उस जीवन का जो एक उचटी हुई नींद बनकर रह गया है। मैं भूल नहीं पाता कि एक परिवार को उजाड़ डाला है मैंने। एक माँ से उसी के पुत्र को मरवा डाला। दो किशोरों के जीवन को झुलसा दिया।

इन कीलों और कसकों के साथ मैं आनेवाली ज़िन्दगी कैसे जी पाऊँगा? यह तो तभी सम्भव है कि मैं मानसिक रूप से इतना ठंडा, ठस्स हो जाऊँ कि कुछ भी अमानवीय मुझे बेचैन न करे, पर यह तो अपने मनुष्य होने को ही नकारना होगा। उफ़! मैंने आर्मी ज्वाइन की थी, अमन, मुहब्बत, करुणा, सहअस्तित्व और इनसानियत के अर्थ को समझने के लिए।

अपने मनुष्य होने को नकारने के लिए नहीं।

मैं क्या करूँ?

विडम्बना यह है कि मैं कुछ कर भी नहीं पा रहा हूँ सिवाय सवालों से घिरे रहने के।

असीम सम्भावनाओं से भरी यह ज़िन्दगी क्यों सत्ता में बैठे चन्द लोगों के स्वार्थ और बनते-बिगड़ते मिजाज़ के चलते रेत के क़िले-सी ढ़ह जाती है क्यों? क्यों?

क्या कसूर मेरा?

क्या चाहा था मैंने? सिवाय यही कि वृहत्तर लक्ष्यों के प्रति जीवन को समर्पित कर सकूँ। आज भी चाह रहा हूँ सिर्फ़ यही कि मैं मनुष्य बना रहूँ... कि सौन्दर्य और इनसानियत की डोर मेरे हाथों से कभी न छूटे कि जो संवेदनाएँ मेरे भीतर सुप्त पड़ी थीं और रूबीना के प्रति प्रेम या कर्तव्य भावना ने जिन्हें पूरी ताक़त से जगा दिया है, उनके प्रति मैं ईमानदार बना रहा हूँ कि हिंसा की बारिश में भींग-भींग कर मैं इतना भारी हो गया हूँ कि मेरे पैर एक क़दम भी आगे बढ़ने को तैयार नहीं, इसलिए भारतीय फ़ौज मुझे मुक्त करे।

और अन्त में मेरे भाई, मेरी ज़िन्दगी के सबसे बड़े राजदां! तुम समझ ही गये होगे कि रूबीना किस प्रकार मेरे जीवन का सत्य बन चुकी है। यद्यपि मैं उससे अभी तक सिर्फ़ छह बार ही मिला हूँ। पाँच बार श्रीगर के गुंड गाँव में पोस्टिंग के दौरान और छठी बार चंडीगढ़ पोस्टिंग में रहते हुए। पर हमारे रिश्ते की ख़ूबसूरती यह है कि यह रिश्ता ख़ामोश भूमि पर पनपा है।

उसने मुझे बहुतेरा समझाया है कि उसकी तबाही के लिए मैं किसी भी सूरत में ज़िम्मेदार नहीं हूँ, इसलिए मैं यह बोझ अपनी आत्मा से उतार फेंकूँ। पर मेरी विडम्बना यह है मैं ऐसा नहीं मानता। मैं यह मानता हूँ कि ज़मील को ढेरकर मैंने चाहे एक फ़ौजी के सीमित उद्देश्य और कर्तव्य को पूरा किया हो, पर ऐसा कर मैंने सम्पूर्ण मानवता का अपमान किया है। कि मैंने ख़ुद अपने ही हाथों अपने भीतर के ईश्वर को मार डाला है।

जब-जब प्रकृति के निःशब्द मौन के बीच मैं ख़ुद को पाता हूँ, मेरे भीतर हाहाकार मचा रहता है। जब-जब सिन्धु और झेलम की कल-कल सुनता हूँ मेरे भीतर से एक आवाज़ उठती है - कि मैंने एक अधूरा जीवन जीया है, कि मैंने पवित्र जीवन नहीं जीया... कि मैंने झेलम, सिन्धु और हिमालय के सौन्दर्य के साथ विश्वासघात किया है। जाने कैसी पीड़ा और अपराधबोध गहन एकान्तिक क्षणों में मेरे भीतर उफ़ान मारते हैं कि मेरा मन अवसादग्रस्त रोगी की तरह फूट-फूट कर रो पड़ने को होता है।

शायद तुम समझ पाओ मेरे वर्तमान जीवन को। कुछ अनुमान लगा पाओ उस पीड़ा का जो इनसान को बन्द दरवाज़े के बाहर खड़े रहने को विवश कर रही है।

जाने किस कवि ने कहा था, “मैं एक फूल को बचाने के लिए युद्ध कर रहा हूँ। क्या मैं भी यही नहीं कर रहा?”

एक फूल को बचाने की चेष्टा!

सोचो, जिस तिरंगे की हिफ़ाज़त और गरिमा के लिए मैं फ़ौज में आया, आज अरुणाचल से नगालैंड और असम से कश्मीर तक - उस तिरंगे की रक्षा कना कठिन होता जा रहा है। नगालैंड में खुले आम भारत से अलग होनेवाले आतंकवादी और अलगाववादी गुट अपनी सेनाएँ रखते हैं और चीन से हथियार मँगवाते हैं। आतंकवाद ने एक लाख से अधिक भारतीयों की जान ली... पर क्या हुआ?

कितना दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब हम सैनिक युद्ध के लिए नहीं, शत्रु के लिए नहीं, वरन देश की आन्तरिक सुरक्षा के लिए शहीद हो रहे हैं।

और अन्त में, कभी नचिकेता ने पूछा था, मृत्यु क्या है?

सुकरात ने पूछा था - सत्य क्या है?

बुद्ध ने पूछा था - जरा, रोग और मरण क्या है?

मार्क्स ने पूछा था - भूख क्या है?

मेरा प्रश्न है - आज़ाद भारत में एक फ़ौजी के लिए आज़ादी का मतलब क्या है?

तो भाई, सुन ली तुमने मेरी कहानी, स्वप्न, स्मृति और यथार्थ की भूलभुलैया में भटकती मेरी कहानी। क्या तुम अब भी माँ-पापा की तरह यही कहोगे कि मेरी बर्बादी के पीछे औरत है? मेरी बर्बादी के पीछे औरत नहीं, मनुष्य बने रहने की मेरी ज़िद्द है। और सच कहूँ तो मैं इसे अपनी बर्बादी भी नहीं मानता, मेरी नियति की रचना सम्भवतः इसी प्रकार होनी थी। क्योंकि रूबीना पूरी तरह खँडहर बन चुकी थी और मैं भी शायद दो खंडहर मिलकर ही एक नयी दुनिया का निर्माण कर पाएँ!

नहीं जानता मैं कि अपने इस जीवन की व्याख्या मैं किस प्रकार करूँ। नहीं जानता मैं कि कितना कह पाया मैं अपने जीवन को। पूरी ईमानदारी के साथ मैं सिर्फ़ यही कह सकता हूँ कि रूबीना ने मेरी ज़िन्दगी से न कुछ लिया, न कुछ दिया, बस एक बार फिर मुझे ख़ुद से मिला दिया। कितना चाहा मैंने उसे ख़ुद से दूर धकेलना। पर वह तो दूने वेग से मुझमें उदित होती गयी। शायद इसीलिए कि ज़मील के ओझल होने के बाद मैं अपनी मूल सत्ता में वापस लौट सकूँ।

मेरे पास अब दो ही विकल्प हैं। या तो अगले आठ वर्षों तक और इन्तज़ार करूँ तब तक मेरे फ़ौजी जीवन को 20 वर्ष पूरे हो चुके होंगे और अनुबन्ध के अनुसार मैं स्वाभाविक रूप से फ़ौज से ससम्मान निकल जाऊँगा, या फ़ौज पर मुक़दमा चलाऊँ। सोच कर मन उदास होता है कि जो फ़ौज कभी मेरा सबसे बड़ा हसीन स्वप्न थी, आज उसी पर मैं मुक़दमा चलाने की सोच रहा हूँ। हर सत्य क्या इसी प्रकार अपने विरोधी सत्य में दम तोड़ता है? पर मैं क्या करूँ? आज मेरे समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यही है कि मनुष्य एक सम्पूर्ण मनुष्य की तरह मैं जी सकूँ। बहुत ज़रूरी है कि आदमी अपने परिवेश के साथ जुड़ सके, तभी वह इनसान बनकर जीवित रह सकता है। पर यही चीज़ है जो आज सबसे अधिक ख़तरे में है। कहाँ जाऊँ मैं? किसके पास आश्रय लूँ? कोई ईश्वरीय सत्ता? कोई गुरु? कोई अध्यात्म? पुस्तक? कहाँ मिलेगा मुझे जीवित रहने का आधार? ख़त्म होगी यह भटकन? यह उचाटपन?

नहीं जानता कि मैं अपने को कितना कह पाया हूँ, पर मैंने अपने सारे भेदों को तुम्हारे सामने खोल दिया है। माँ, पापा को तुम समझाने की चेष्टा करना। परिवार को कुछ दे नहीं पाया, इसका दुख सर्वदा रहेगा।

तुम्हारा भाई

सन्दीप

बह गये और पाँच वर्ष!

चिनार के सूखे पत्तों की तरह गुज़र रहे हैं साल-दर-साल। मेज़र सन्दीप हुए अब कर्नल लेकिन खड़े हैं अभी भी बन्द दरवाज़ों के बाहर। बहुत कुछ हुआ इन पाँच वर्षों में, पर वह मन लौटकर नहीं आया जो फ़ौज ज्वाइन करने से पहले था। गुंड गाँव से चंडीगढ़ पोस्टिंग हुई, लेकिन कुछ तार अभी भी जुड़े हैं रूबीना से। अभी भी चेष्टारत हैं सन्दीप कि रूबीना को चंडीगढ़ ले आएँ, पर कैसे? वह अपनी ज़िद से इंच भर हिलने को तैयार नहीं और पिछले आठ-नौ महीनों से तो उसने सन्दीप के पत्रों और फोन तक का जवाब नहीं दिया है। परेशान हैं सन्दीप।

रात फिर खुली डायरी - कुछ अतीत ऐसे होते हैं जो बीतकर भी व्यतीत नहीं होते।

कुछ उद्देश्य ऐसे होते हैं जो सिर्फ़ स्वप्न बनकर ज़िन्दगी भर कसक देते हैं। कुछ प्रतीक्षाएँ ऐसी होती हैं जो कभी सम्बन्धों में नहीं ढल पाती।

कौन जाने क्या होगा इस कहानी का पटाक्षेप?