सूखते चिनार / युद्ध और बुद्ध / भाग 4 / मधु कांकरिया

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्यों नहीं किया उसने पिछले आठ महीनों से मुझसे सम्पर्क? क्या कभी कामनाओं के बादल बरसेंगे मेरे मन की मुँडेर पर भी? अनमने से फिर बैठ जाते हैं सन्दीप लैपटॉप पर। मेल चेक करने के लिए वेबसइईट खोलते हैं कि आँखें चमक जाती हैं - सामने सिद्धार्थ का ई- मेल। दम साधे पढ़ते हैं इसे -

भाई,

डेढ़ महीने चीन रहकर पिछले सप्ताह सीमा वापस भारत लौटी। ऑफ़िस के किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में गयी थी वह वहाँ। आते ही मैंने देखा, उसके चेहरे की रंगत उड़ी हुई थी। एकदम बुझी-बुझी-सी रहने लगी थी वह। दिन भर अपने पलंग पर लेटी सीलिंग पंखे को ताक़ती रहती। यह क्या हुआ? मैं घबरा-सा गया। जिसकी ज़िन्दगी इतनी तेज़ घूमती थी कि कई बार एक दिन में वह चार-चार महानगर की हवा खा लेती थी वह पूरे चौबीस घंटे पलंग से नीचे नहीं उतरी। क्या कुछ अनहोनी घट गयी उसके साथ? मैंने उससे बार-बार पूछना चाहा पर वह गुमसुम थी। एकदम सुन्न। एकदम हताश। पराजित एवं ध्वस्त।

दूसरे दिन मैं उसे उसी भयंकर अवसाद की हालत में डॉक्टर के पास ले गया। फेमिली डॉक्टर ने कहा आप तुरन्त न्यूरोलॉजिस्ट के पास ले जाइए। न्यूरॉलाजिस्ट ने बताया कि वह सैरिब्रलएट्रोजी की शिकार हैं, यानी उसके दिमाग़ की कोशिकाओं का क्षरण तेज़ी से हो रहा है। पर ऐसा कैसे हुआ? मैं जानने को छटपटा रहा था।

डॉक्टर ने बताया कि बढ़ते तनाव, अन्धे भोग एवं आधुनिक जीवन शैली के चलते युवक-युवतियाँ इसके शिकार हो रहे हैं।

पर हमें कोई ऐसा तनाव नहीं है, हम दोनों अच्छी नौकरी में है।

डॉक्टर ने फिर सहानुभूति से मुझे देखते हुए कहा, अत्यधिक, कृत्रिम और तेज़ जीवन शैली के चलते तीस वर्ष की उम्र में ही इन्हें 'मेनोपॉज' हो गया है, इस सदमे को ये सह नहीं पायी, इसीलिए...।

क्या बताऊँ भाई, याद है, जिस समय मैंने सीमा का प्रोफाइल आपको बताया था, आपने झिझकते हुए मुझसे कहा था कि मैं इतनी हाई प्रोफाइल वाली लड़की से शादी न करूँ, क्योंकि यदि पति-पत्नी दोनों ही भयंकर रूप से व्यस्त रहेंगे तो बच्चे अपराधी हो जाएँगे। आपकी चिन्ता व्यर्थ हो गयी, भैया...। अपनी ज़िन्दगी में हम सन्तान का मुँह नहीं देख पाएँगे, अब तो उम्मीद सिर्फ़ आप लोगों से हैं कि माँ को दादी बनने का सुख नसीब हो।

ई-मेल पढ़ अन्तर्मन आर्त्तनाद कर उठा सन्दीप का - सब कुछ क्या इसी घर में होना था? दूसरी बहू का ठिकाना नहीं और पहली बहू के साथ यह हादसा। फलने-फूलने के पहले ही बाँझ हुई कोख। दोष किसका? जाने कितनी बार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से कहना चाहा था उन्होंने सीमा को, सिद्धार्थ को कि जीवन स्टाइल पर नहीं, जीवन पर ध्यान दो। पिछले दिनों ही पढ़ा था एक आर्टिकल कि अति आधुनिक जीवन शैली युवकों को समय पूर्व ही नपुंसक बना रही है। क्या यही है कलियुग? समय पूर्व ही सूख रही है नदियाँ, घट रहे हैं सरोवर।

रात खाना नहीं खाया गया उनसे। बॉस से दस दिनों की छुट्टी के लिए बात की और दूसरे दिन ही पहुँच गये सिद्धार्थ के पास मुम्बई में।

वही घर। वही मुम्बई। वही सिद्धार्थ और सीमा, पर जैसे सब कुछ बदला हुआ था।

सब कुछ वही था।

पर स्वप्नविहीन था।

न हवा थी, न घूप थी।

न चाँद था न आसमान था।

न चिड़ियाँ थीं, न दीवारों पर छिपकलियाँ।

थी केवल बुझी-बुझी सी सीमा और उदासी जो ख़ास सहेली की तरह उससे लिपटी थी और जिसकी मुहब्बत पल-प्रतिपल फैलती जा रही थी और फैलते-फैलते इतनी फैल गयी थी कि चन्दोबे की तरह तन गयी थी पूरे घर पर।

कितना चाहा था सन्दीप ने कि वह बात करे उम्मीदों की, हौसलों की, भरोसों की, पर जैसे उम्मीद और हौसले घर के कोने में मुँह छिपाए सिसक रहे थे।

कितना चाहते थे सन्दीप कि सान्त्वना दे सीमा को, पर जाने कैसा तो संकोच था कि आड़े आ जाता। छोटी बहन सी सीमा और हादसा असमय आ धमके मीनोपॉज का।

दिनभर मन की मुँडेर पर जब तब आ धमके स्मृतियों के कबूतरों को उड़ाते रहते। घर की छोटी-मोटी व्यवस्था में हाथ बँटाते रहते। किसी प्रकार बीते आठ दिन और एक फीकी सुबह 'सब ठीक होगा' का सूखा औपचारिक आशीर्वाद और अपनी बची-खुची नींद और चैन देकर लौट गये वे।

फिर चंडीगढ़

पर वापस आकर भी क्या पूरी तरह वापस लौट पाए वे। जाने क्यों लगता है कि आत्मा का एक अंश वहीं छूट गया, भाई के पास। काम करते-करते मन के स्क्रीन पर रह रह कर कौंध जाती है उदासी से भरी सीमा की आँखें और रौंदी हुई फसल की तरह जगह-जगह से धचके खायी हुई उसकी देह। लैपटॉप को परे खिसका देते हैं सन्दीप। आँखें पीछे घूम जाती हैं और देखने लगती हैं पीछे फैले समय को।

उफ़! क्या यह वही सीमा है जिसकी रग-रग में ज़िन्दगी चिड़िया की तरह चहकती थी। चंचल पहाड़ी नदी की तरह जो पल-पल उद्दाम वेग से बहती थी। वही सीमा आज किस प्रकार पंख टूटी चिड़िया की तरह औंधी पड़ी है। क्यों हुआ ऐसा? क्या उबर पाएगी वह इस सदमे से? जितने दिन रहे सन्दीप मुम्बई, एक दिन भी बैठा नहीं देखा उन्होंने सीमा को।

क्यों हुआ ऐसा? क्या इसीलिए कि दोनों जी नहीं रहे थे, वरन ज़िन्दगी को तेज़ी से निगल रहे थे। जितने वेग से बही उतने ही झटके से लगी ब्रेक।

कहाँ हुई चूक। हर कोई यही पूछ रहा है सन्दीप से।

सिद्धार्थ। सीमा। शेखर बाबू

क्या जवाब दे सन्दीप! कहीं न कहीं ख़ुद उसकी ज़िन्दगी पूछ रही है उससे यही सवाल 'कहाँ हुई चूक?'

उसने देखा था सिद्धार्थ को - रात-रात पढ़ाई करते। परीक्षा की तैयारी में घानी के बैल की तरह जुटते। फिर सफल होते। आगे बढ़ते। देश की क्रीमी लेयर बनते। और फिर दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित बहुराष्ट्रीय कम्पनी के सेल्स टार्गेट को पूरा करने के लिए दिन-रात मरते खपते। और लगभग यही हाल था सीमा का भी। सप्ताह के पाँचों दिन कम्पनी के खाते में। इसी चिन्तन में कि कम्पनी का मुनाफ़ा कैसे बढ़ाएँ? रेड़ मार आगे बढ़ने का दबाब। कुछ न कर पाने पर प्रोमोशन न होने का ख़ौफ़। देश की क्रीमी लेयर की कमाई राजा की तरह पर जीवन गधे की तरह। न खाने की सुध। न सोने की। दिन भर कान में मोबाइल। आँखों के आगे लैपटॉप और दिमाग़ में कम्पनी।

याद आ रहा है पिछली बार जब मिलने गये थे भाई से तो आधे घंटे के लिए भी पास नहीं बैठ पाया था भाई। उन दिनों पीठ और कमर में ज़बरदस्त दर्द था सिद्धार्थ के, शायद दिन भर झुककर लैपटॉप पर काम करने के चलते। पर इतना भी समय नहीं था भाई के पास कि डॉक्टर के दिये सारे परीक्षण करवा पाए। बस पेन किलर खाता, इंजेक्शन लेता और निकल जाता काम पर।

किस महान काम के लिए गला रहा है तू अपने को... पूछना चाहा था सन्दीप ने भाई से। पर पूछता किससे? भाई तो हर वक़्त यह जा, वह जा।

अब कैसे समझाया जाए सीमा को? माना, जो गया वापस नहीं लौटाया जा सकता, पर जो बचा है उसे तो सुन्दर बनाया ही जा सकता है। ठीक है, नहीं जन पाएगी बच्चा पर माँ तो वह अब भी बन ही सकती है। क्या कभी भूल पाएँगे वे डॉ. महेश वाडवानी को जिनका सपना है सौ बच्चों का पिता बनना।

पत्नी के देहान्त के बाद 48 वर्षीय निस्सन्तान महेश जी संसार से विरक्त होकर उद्भ्रान्त से इधर-उधर भटकने लगे थे। कुछ दिन शराब, टीवी और सट्टेबाजी का दौर भी चला। एक दिन मन की इसी उखड़ी-उखड़ी स्थिति में कानपुर स्टेशन पर खड़े-खड़े आलू-पूरी खा रहे थे। खाने के बाद ज्यों ही पत्ते के दोनों को फेंका एक बच्चा उस पर झपट पड़ा और पत्ते पर लगे अवशिष्ट को कुत्ते की तरह चाटने लगा। बस वही क्षण बन गया उनके जीवन का शाश्वत क्षण। उस एक क्षण ने समझा दिया उन्हें जीवन का मर्म। अपने अवशिष्ट दम-खम के साथ अपने अवशिष्ट जीवन को उन्होंने भूखे-नंगे बच्चों को समर्पित कर दिया। कड़ी मेहनत और संचित पूँजी से निवेदिता आश्रम की स्थापना की। बाद में कई और हाथ उनसे जुड़ते गये। आज बाईस अनाथ आदिवासी बच्चे इनके आश्रम में हैं और उनका स्वप्न है सौ बच्चों के पिता बनने का।

काश! सीमा के जीवन में भी आ जाए कोई ऐसा क्रान्तिकारी मोड़। कोई टर्निंग प्वाइंट!

भीतर उठ रही है एक प्रार्थना! जुड़ रहे हैं हाथ!

धीर -धीरे लहरें सम पर आ रही हैं। मनस्थिति सामान्य हो रही हैं।

अपने चेम्बर में बैठे कुछ ज़रूरी दस्तावेज देख रहे थे कर्नल सन्दीप कि पोस्टमैन ने एक मोटा-सा लिफ़ाफ़ा पकड़ाया। लिफ़ाफ़े पर भेजनवेाले का नाम देख जहाँ आँखें चमकीं कि क्षण भर में ही उस चमक पर धुआँ पसर गया। लिफ़ाफ़ा किश्तवाड़ा जेल से भेजा गया था। धड़कते दिल से खोला। ख़त रूबीना का था। उर्दू में लिखे पत्र को अनुवाद करवाने में, अनुवादक को खोजने में कई घंटे लग गये। इस बीच जाने कितनी बार मर-मर कर जिये सन्दीप। अनूदित पत्र इस प्रकार था,

सलाम वालेकुम सन्दीप,

मैंने ज़िन्दगी को समझने में भारी भूल की। मैंने तुम्हें समझने में भूल की। और तो और, कश्मीर की आज़ादी को, इस्लाम को, सबकुछ को मैंने समझने में भारी भूल की। मेरा आज तक का इतिहास सिर्फ़ भूलों, छलावों और यातनाओं का ही इतिहास है। तुम इस लिफ़ाफ़े पर जेल का पता देख घबराना नहीं, मुझे सिर्फ़ उस अपराध के लिए जेल दिया गया है, जो अपराध मैंने किया ही नहीं। तुम्हें जानकर ताज्जुब होगा कि मुझे घर में आतंकवादियों को पनाह देने के अपराध में जेल में डाल दिया गया है। यह सब कैसे हुआ, कैसे मेरे सख़्त विरोध के बावज़ूद हुआ। इस सारी कहानी के बीज शायद उसी दिन पड़ गये थे जब ज़मील भाई को हिन्दुस्तानी फ़ौज द्वारा मार डाला गया।

तुम तो जानते हो कि ज़मील भाई की शहादत के बाद घर के चप्पे-चप्पे पर किस प्रकार ख़ौफ़, बर्बादियों, आँसुओं और उदासियों की कहानी लिखी गयी। अम्मी का तीन महीने के भीतर ही इन्तकाल हो गया। अम्मी के बाद अब्बू भी अधिक दिन जी नहीं सके। घर पर अब मैं और हमीद थे और थी भूख, बेकारी, और हताशा। ऐसे में एक मैली सुबह अब्दुल रशीद हमारे घर आया, उसने हमीद की हथेली पर ढेर सारे नोट रखे, और उसे सुझाव दिया कि यदि हमीद अपने घर के अन्दर जिहादियों के लिए तहख़ाना बनवा ले तो इतने पैसे उसे नियमित रूप से मिल सकेंगे। मैं पूरी ताक़त से अपने अस्तित्व के अंश-अंश से चिल्लायी कि हमें पाप की कमाई नहीं खानी, जिस घर की दीवारें एक नहीं तीन-तीन लाशें देख चुकी हैं, उस घर में ऐसा हर्गिज नहीं होगा। पर भूख के पास न धैर्य होता है न विवेक। मैंने देखा भूख आदमी से बड़ी थी। भूख पाताल से गहरी थी। भूख सूर्य से भी तेज़ थी जिसका सामना यथार्थ की आग में झुलसा हमीद नहीं कर सका। मेरी एक नहीं सुनी। वरन मुझे ही समझाया कि पुलिस को ज़रा भी शक नहीं होगा और यूँ भी गाहे-बगाहे आतंकी हमारे यहाँ आकर ठहरकर हमें परेशान कर ही रहे थे, क्या हर्ज़ यदि साथ में नियमित रूप से कुछ पैसे भी हाथ में आ जाएँ। भूख का इतना डरावना और दयनीय रूप मैंने पहले कभी नहीं देखा था। कीड़े की तरह बिलबिलाती मेरी पीड़ा को कीड़े की तरह ही मसलकर भाई ने भुखमरी से मोर्चा लेने की ठानी।

कुछ सप्ताह में तहख़ाना बनकर तैयार हो गया। मैं अम्मी के इन्तकाल के बाद तुम्हें दिये वचन के अनुसार नियमित रूप से स्कूल जाने लगी, अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने लगी। मुझे उम्मीद थी कि अगले वर्ष मुझे कॉलेज में दाख़िला मिल जाएगा। एक दोपहर मैं जैसे ही स्कूल से लौटी कि हमीद ने मुझसे कहा, पाँच आदमियों का खाना बना दे। मैं भौंचक्क, पर मुझे समझते देर नहीं लगी कि उसे उसके तहखाने में छिपे चार आतंकवादियों के लिए खाना चाहिए। मुझ पर बिजली गिरी। मैंने सख़्ती से मना कर दिया कि किसी भी हालत में किसी भी क़ीमत पर यह मुझसे नहीं होगा। आधे घंटे तक शोर-शराबा हुआ पर मैं टस से मस नहीं हुई। आख़िरकार पाँव पटकता हुआ वह बाहर से खाना लाने चला गया। मैं पढ़ने में ध्यान लगाने लगी कि तभी किसी ने पीछे से मेर मुँह में रूमाल ठूँस दिया। मुझे चार बलिष्ठ हाथों ने पकड़ा और घसीटते हुए मुझे नीचे तहख़ाने ले गये और वहाँ बारी-बारी से...।

हमीद ने दीवारों से सिर पीट-पीट ख़ुद को लहूलुहान कर लिया। उसने पाँव पकड़ मुझसे माफ़ी भी माँगी। जिल्लत और अपमान के घूँट को पीकर भी मैंने पढ़ाई जारी रखनी चाही, पर हमीद पर अवसाद का इतना भयंकर दौरा पड़ा कि उसे अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। इस बीच जाने किस ख़बरिया ने मोटी रकम के लालाच में पुलिस को ख़बर कर दी और 3 अक्टूबर 2008 की एक शाम हमारे घर पर छापा पड़ा और मुझे और हमीद को गिरफ़्तार कर किश्तवाड़ा की जेल में डाल दिया गया।

सन्दीप, आज जब ज़िन्दगी हाथ से निकल गयी है तो समझ पायी हूँ कि मैंने ज़िन्दगी को समझने में कितनी भूल की। जिस समय ज़िन्दगी तुम्हारे रूप में बाँह फैलाए मुझे अपने आगोश में बाँधने को तत्पर थी, मैंने तुम्हें ठुकराया क्योंकि मुझे लगता था कि हमारी तबाही के लिए हिन्दुस्तानी सरकार और फ़ौज ज़िम्मेदार है, पर मेरे साथ जो कुछ हुआ वह किसी फ़ौज या हिन्दुस्तानी ने नहीं किया, वरन हमारे अपनों ने किया। ख़ुद जिहादियों ने किया। मुझे अफ़सोस, गहरा अफ़सोस है कि मैंने तुम्हारा यक़ीन नहीं किया। कितना समझाया था तुमने मुझे कि कश्मीर को समझने के लिए मुझे 1947 से आज तक की राजनीति के लम्बे, छिपे खेल और षड्यन्त्र को समझना होगा, कि अच्छा होगा कि हम कश्मीर की आज़ादी और जिहादियों के सवालों को अफ़ीम पिलाकर सुला दें और दो अच्छे इनसानों की तरह एक हो जाएँ, ज़िन्दगी का राग दुबारा छेड़ें। पर ज़िद्दी पौधे-सा मेरा मन तुम्हारे दलीलों की माटी में नहीं जमा सो नहीं ही जमा।

उस समय जाने क्यों मुझे लगा कि तुम्हारे भीतर से एक प्रेमी नहीं, वरन एक हिन्दुस्तानी बोल रहा है जो अपनी आत्मिक शान्ति के लिए, प्रायश्चितस्वरूप मेरा वरण करना चाहता है। क्योंकि तब हिन्दुस्तानी फ़ौज के लिए हमारे दिल में नफ़रत सुलगती थी, पर तब भी पुलिस तो हमारी अपनी थी, उसने क्या कम जुल्म ढहाए हम पर। इतना ख़ौफ़ था उसका कि उसकी दस्तक के अन्दाज़ से हम समझ जाते थे कि यह पुलिस की दस्तक है और हमारी रूह काँप उठती थी। पर तब भी मेरी आँखों से जाला नहीं उतरा, पर आज जब किसी काफ़िर ने नहीं, हिन्दू ने नहीं, हिन्दुस्तानी फ़ौज ने नहीं, वरन अपने ही लोगों ने, कश्मीर की आज़ादी का नारा लगाने वालों ने ही वहशियों की तरह मुझे नोंच डाला तो मैं समझ पायी हूँ तुम्हारे बातों की सचाई को कि 'कश्मीर की आज़ादी और इनसान की हिफ़ाज़त कितना बड़ा भ्रम है, छलावा है जिसे कुछ विशेष लोगों ने जाल की तरह फैला रखा है। ये शैतान क्या इस्लाम को बचाएँगे जो ख़ुद औरत की इज़्ज़त से खेलते हैं और नमाजियों और दरगाहों पर ग्रेनेड फेंकते हैं। जो 'आकबत' (मरने के बाद की दुनिया) और इस्लाम की दुहाई दे देकर ज़मील भाई जैसे मासूमों को बहला बहलाकर जेहादी बना देते हैं, कश्मीर के सबसे बड़े गुनाहगार वे ही लोग हैं। 'आकबत' को किसने देखा है, पर उस अनजाने 'आकबत' के लिए जीती-जागती दुनिया को दोज़ख में धकेल देना कहाँ की बुद्धिमानी है?

आज समझ पायी हूँ सन्दीप कि कभी मिलिटेंसी पाक इरादों के साथ शुरू हुई होगी, पर आज लोग इससे ऊब गये हैं आज जिहादियों, पीरों, मौलवियों और मिलिटेंटों के दोहरे चेहरे सामने आ रहे हैं। आज आतंकवाद सिर्फ़ पैसा और रुतबा हासिल करने का ज़रिया बन गया है। ज़मील भाई जान ने भी इसी इरादे से गन उठायी होगी। हमीद के घर में तहख़ाना बनाने के बाद मुझे कई दिनों तक प्राग पहाड़ के जंगलों में छिपना पड़ गया था। मैंने देखा था वहाँ पुलिस और मिलिटेंट की साँठ-गाँठ से जंगलों को काटते हुए देवदारु के पेड़ों को गिरते हुए। जंगलों की सुरक्षा के लिए तैनात पुलिस वहाँ पहुँच ही नहीं रही थी जहाँ कट रहे थे जंगल।

इसीलिए देखते-देखते कश्मीर क्या हो गया? पैसा ज़रूर कश्मीर में आया, पर कैसा पैसा? फ़िजाओं में गीत नहीं, खेतों में मजदूर नहीं, स्कूलों में बच्चे नहीं, घरों में चिराग़ नहीं, चारों और नज़र आती है विधवाओं की ताज़ा फसल। हर घर के पीछे नज़र आती है एक ताज़ा क़ब्र। जश्न मनाती, शिकारे पर गाती वह कश्मीरी औरत अब कहीं नहीं दिखती। अब दिखते हैं सिर्फ़ रात के अँधेरे में रेंगते, दरवाज़ा खटखटाते जिहादी, या दिन के उजाले में गश्त लगाते बूट ठकठकाते, एके - सैंतालिस तानते हिन्दुस्तानी फ़ौजी।

सोचो, क़ब्रों से अटे, जवानी से शून्य, ख़ूनी नींव पर खड़ा आज़ाद कश्मीर मिल भी जाए तो क्या? अच्छा हो, इस मामले में हम वर्तमान की सत्यता को स्वीकार कर लें। क्योंकि कश्मीर आज एक खुला चरागाह बन चुका है जहाँ सभी ने, राजनेताओं ने, मुल्लाओं ने, मौलवियों ने, दहशतगर्दों ने, पाकिस्तान ने, और आतंकवादियों ने अपने-अपने स्वार्थों की बकरियों को चरने के लिए छोड़ रखा है। इसलिए आज हर वह चीज़ बिक रही है जिसके केन्द्र में आतंकवाद है। कोई आतंकी को पकड़वाने की फ़ीस वसूल रहा है तो कोई उससे मिलवाने की तो कोई उसे अपने घर ठहराने की। इस नापाक पैसे ने यदि हमीद की बुद्धि भ्रष्ट न की होती तो मैं आज जेल की सलाखों के पीछे न होती।

अब धुन्ध छँट गयी है। तुम्हारी आभारी हूँ सन्दीप कि तुमने मुझे जीना ही नहीं, सोचना भी सिखाया है। इसीलिए समझ पा रही हूँ कि यदि आज़ाद कश्मीर एक सचाई है तो उससे कहीं ज़्यादा सुलगती सचाइयाँ और भी हैं। यह भी समझ रही हूँ सन्दीप कि मजहब के सारे ताजिए हम ग़रीबों की देह के ऊपर ही टिके हुए हैं। मुझे मेरी अम्मी ने कभी तस्वीर तक नहीं खिंचवाने दी कि यह इस्लाम के ख़िलाफ़ है। तुमने मुझे एक बार कहा था कि मैं पीरों, मौलवियों और नेताओं के सुनने के साथ ज़रा देखना भी शुरू करूँ और यदि सम्भव हो तो थोड़ी शक की निगाह से भी देखूँ, उस दिन मुझे यही लगा था कि तुम सिर्फ़ मुझे अपने मजहब के ख़िलाफ़ भड़का रहे हो, लेकिन अनजाने ही मैं सुनते-सुनते देखने भी लगी। मैंने देखा कि तस्वीर खिंचवाने के ख़िलाफ़ फतवे जारी करनेवाले मुल्ले, मौलवी बड़े चाव से राजनेताओं के साथ न केवल तस्वीर खिंचवा रहे हैं, वरन उन्हें अख़बारों में छपवा भी रहे हैं। जब मैं मदरसे में थी तो हमारे मुल्लाओं ने लाऊडस्पीकर को 'आला एक शैतानी' यानी शैतानी यन्त्र कहकर उसका पुरजोर विरोध किया था लेकिन आज मुल्ले, मौलवियों की आवाज़ सरेआम लाउडस्पीकरों पर गूँजती रहती है। इन मुल्लाओं और मौलवियों से बढ़कर पाखंडी कोई नहीं है। ये तो रक्तदान और सर्जरी को भी इस्लाम के ख़िलाफ़ ठहरा चुके हैं। बैंक के सूद और जीवन बीमा के ख़िलाफ़ भी फ़तवा पहले ही निकल चुका है। लेकिन सारे जिहादियों और नेताओं के बैंक में खाता है। मेरी आँखें अब खुल गयी हैं। मुझे अब इस्लाम से नहीं, वरन इनसान से प्यार है।

सन्दीप, भाई जान की शहादत के बाद जब तुम दूसरी बार हमारे घर आये थे, सूरज की किरणें हलके-हलके ढुलक रही थीं तुम्हारे चेहरे पर, तभी - तभी दिल से हलकी-सी आवाज़ निकली थी कि ऐसी रूह दूसरों के दुख से इस क़दर ढह जानेवाली रूह हत्यारिन नहीं हो सकती।

काश! उसी समय सुन ली होती मैंने अपने भीतर की आवाज़!

तुमसे गुजारिश है सन्दीप कि तुम फ़ौज से मुक़दमा वापस ले लो। क्योंकि अब यह शादी मुमकिन नहीं।

क़ाश! समय रहते मैं तुम्हें समझ पाती। तुम्हारी लय, ताल और सुर के साथ जुड़कर ज़िन्दगी के अर्थ को समझ पाती। मैंने तुम्हें समझने में भूल की ऐसी भूल जो कालिख की तरह मेरी ज़िन्दगी पर पुत गयी। आज अपने सारे सपनों और चाँदी को लुटा चुकी हूँ मैं। परिवार को तो पहले ही गँवा चुकी थी। तीन-तीन लाशों का बोझ ढो चुकी यह ठंडी ठस्स और नापाक हुई काया आपके लायक बची भी कहाँ है? मेरे भीतर यदि अब कुछ है तो बस एक भयावह ख़ालीपन। न दुख, न सुख। न ख़्वाब, न खयाल न गति, न आवेग। सारे एहसास मर चुके हैं।

अब कोई तसव्वुर (सपना) नहीं बचा भीतर।

बस फना होने को, माटी में मिल जाने को जी चाहता है।

नहीं जानती कि तुम कौन हो? ख़ुदा के रूप में बन्दे हो या बन्दे के रूप में ख़ुदा। ख़ैर... जो भी हो इसे मेरा आख़िरी पत्र समझना और मुझसे मिलने की चेष्टा अब कभी मत करना। जो कुछ आधे-अधूरे पल साथ-साथ गुज़ारे हमने, वही हमारी कहानी है, अमानत है।

अलविदा,

तुम्हारी रूबीना

ओह ज़िन्दगी!! ज़िन्दगी के उदास पन्ने फड़फड़ा रहे हैं। क्या है ज़िन्दगी? सिर्फ़ कुछ स्मृतियों का सफ़र? कुछ आवेग? और कुछ काँपते-थरथराते पल। हैरत भरी कहानी? उदास लमहे! नहीं, ज़िन्दगी इससे बहुत ऊपर है। आँख मूँदे टेबिल से सिर टिकाए सोच रहे हैं सन्दीप। क्या चाहा था उन्होंने ज़िन्दगी से, सिर्फ़ यही कि तिरंगे और ज़िन्दगी को सजा सके। पर न तिरंगे को सजा सके न ज़िन्दगी को। दोष किसका? कहाँ हुई भूल उनसे? क्या ज़िन्दगी को समझने में भूल की उन्होंने? या रूबीना को अपने खयालों में, अपने सपनों में शामिल कर भूल की उन्होंने? नहीं, वे ऐसा नहीं मानते। रूबीना ख़ुद व ख़ुद शामिल हो गयी उनकी ज़िन्दगी में, ख़्यालों में। पर क्या वे दावा कर सकते हैं कि रूबीना को पूरी तरह समझ लिया है उन्होंने, पढ़ लिया है ग़ज़ल की उस किताब का पृष्ठ-दर-पृष्ठ। नहीं, वे सिर्फ़ इतना भर जान पाए हैं कि रूबीना उससे कहीं आगे हैं, कुछ और भी है पर वहाँ तक पहुँच नहीं है उनकी। तभी तो रूबीना ने उन्हें अपनी दुगर्ति की सिर्फ़ आधी कहानी ही लिखी, आधी छिपा गयी। सच्चाई किसी बिजली की तरह ही गिरी थी सन्दीप पर जब अपने फ़ौजी दोस्त मेज़र अमर प्रताप सिंह की मार्फ़त पता चला था कि रूबीना ने सप्ताह भर पूर्व ही जेल में एक नाज़ायज बच्चे को जन्म दिया है।

सिर झुकाए आँखें मूँद बैठे हैं सन्दीप। बन्द आँखों के भीतरी पर्दे पर काँपने लगती है रूबीना की आँखें, जब पहली बार ग़ौर से देखा था उन्होंने रूबीना को, जब बताया था उसे कि उसके भाईजान मिलिटेंट बन चुके हैं, कितनी भयभीत हो गयी थी वे आँखें, जैसे सारी सृष्टि की वेदना समा गयी हो उन आँखों में। नहीं भूल पाते हैं वे उन आँखों को जो सृष्टि की सबसे उदास आँखें थी।

ओह ईश्वर!

इतना ही कुछ काफ़ी नहीं था कि इस सिसकती ज़िन्दगी पर एक और गाज गिरा दी। पर नहीं, वे हिम्मत नहीं हारेंगे। लाख रूबीना लिखे कि ज़िन्दगी से उसे कोई उम्मीद नहीं, पर वे ख़ुद को और रूबीना को उम्मीद से और ज़िन्दगी से जोड़ कर रखेंगे। रूबीना के बच्चे को बाप का नाम प्यार और संरक्षण देंगे। अपनी माँ को दादी बनने का सुख! पर सबसे पहले वे रूबीना के लिए क़ानूनी लड़ाई लड़ेंगे।

समाप्त।