सूखते चिनार / स्वप्न और उड़ान / भाग 4 / मधु कांकरिया

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अन्दर बैठे-बैठे घुटन हो रही थी सिद्धार्थ को। बहुत समय बाद ख़ाली समय मिला था। मन कर रहा था उसका चीड़ के वनों में घूमने का और पहाड़ी चश्मों को देखने का। भाई की बात की बीच में ही काटते हुए कहा उसने, “भाई, किसी से गाड़ी माँग लो, चलो निकलते हैं ड्राइव पर। खाना भी बाहर ही खा लेंगे।”

परेशानी में सन्दीप। माथे पर उभरी तीन सिलवटें। कैसे समझाए भाई को कि वह चाहे तो भी बाहर नहीं निकल सकता। कितना संवेदनशील इलाका है यह गुंड गाँव। यहाँ की हवा में ही घुला हुआ है शक़, दहशत, नफ़रत और ख़ौफ़। मुलायम-मुलायम शब्दों में समझाते हुए कहा उसने, “देखो मेरा बिना बॉडी गार्ड और फ़ौजी जीप के सिविल ड्रेस में निकलना ख़तरे से ख़ाली नहीं। फिर मुझे इसके लिए इजाज़त भी नहीं मिलेगी। आते-आते यदि अँधेरा घिर गया तो हम फँस सकते हैं। देखो, सारा आतंकवाद अँधेरे में ही रेंगता है। इस पार से उस पार। एक गाँव से दूसरे गाँव। कुछ संवेदनशील इलाक़ों, जिनमें गुंड गाँव भी है, में ऐसा घोषित कर दिया गया है। यहाँ नागरिकों को रात के समय बाहर घूमने की इजाज़त नहीं है। यदि निकलना ही पड़ जाए तो हाथ में टॉर्च या दीपक होना चाहिए नहीं तो आर्मी आपको गोली मार सकती है, क्योंकि अँधेरे में मिलिटेंट ही बाहर निकलता है। और तो और, टैक्सी वाले ख़ुद भी ऐसे इलाकों में जाने से मना कर देते हैं। यहाँ हम अकेले बाहर नहीं निकलते हैं, हमें इसकी इजाज़त भी नहीं है। अब यदि मुझे भी अपनी यूनिट के अलावा किसी दूसरी यूनिट की टेरिटरी में जाना पड़ जाए तो मैं बिना ख़बर दिये वहाँ नहीं जाऊँगा, नहीं तो सम्भव है कि मुझे भी मिलिटेंट समझकर मार दिया जाए क्योंकि मिलिटेंट भी कई बार स्थिति को कन्फ़्यूज्ड बनाए रखने के लिए आर्मी की वर्दी पहन लेते हैं। इसलिए जब भी आर्मी का कोई कन्वॉय निकलता है तो सबको ख़बर रहती है। मान लो चालीस कन्वायॅ हमारे निकल रहे हैं तो कोई बड़ी बात नहीं कि इकतालीसवाँ कन्वायॅ मिलिटेंट का भी लग जाए, इसलिए क़दम-क़दम पर चौकसी बरती जाती है।

“बाप रे! यह कश्मीर है या कारागार। फिर भाई के प्रति सहानुभूति की एक लहर उठी भीतर। कितना मना किया था घरवालों ने पर जनाब पर भूत सवार था देश सेवा का। क्या मिला उसे? गिनी-चुनी तनख़्वाह और सिर पर हर पल लटकती ख़तरे की तलवार।

भीतर काफ़ी कुछ दरक गया। कहाँ फँस गया भाई।”

रात।

सोने गया सिद्धार्थ तो देखा भाई के बगल में माशूका की तरह लेटी है एके 47। मन पर फिर पट्टियाँ बँध गयी।

चिहुंक उठा वह। बाप-दादाओं ने शक्ल तक नहीं देखी एके 47 की, और ये जनाब बगल में लेटाए सो रहे हैं। तभी उसने ग़ौर किया कि कैम्प के बाहर भी नीम अँधेरा है, हालाँकि कमरे के भीतर हलकी रोशनी की ट्यूब लाइट जल रही थी। उसने फिर कुरेदा भाई को।

“यह क्या? बाहर नीम अँधेरा और भीतर एके 47?” हँस पड़ा सन्दीप।

“जैसे यहाँ जग -जगह कुदरती सुन्दरता बिखरी पड़ी है न। कहीं गुलाब, कहीं चिनार, कहीं चीड़, कहीं दूधिया बादल कहीं चश्मे तो कहीं झेलम वैसे ही यहाँ जगह-जगह कहीं हिंसा, कहीं नफ़रत कहीं शक तो कहीं ख़ून-खराबा और नफ़रत की बारूद बिछी हुई है। पता नहीं कब विस्फोट हो जाए। अभी पिछले सप्ताह की ही एक घटना बताता हूँ। जरा-सी चूक हो गयी होती तो हम सबके चिथड़े हो चुके होते। हम सभी कैम्प में बैठे हुए थे। हलके मूड में थे कि तभी इंटरसेप्ट पर मैसेज आया - ‘कबूतर बैठे हुए हैं।’

यानी कुछ होने वाला है।

हम ऑफ़िसर्स में से एक उठा और खिड़की के पास तक गया साफ़-साफ़ सुनने के लिए, कि तभी दूसरा मैसेज आया - ‘एक कबूतर उड़ रहा है। उड़ा दूँ?’ तुरन्त वहाँ से दूसरा मैसेज आता है - ‘रुको।’

हम चौकन्ने हो गये। समझ गये कि हमला हम पर ही होने वाला है। आनन-फानन में हमारी कम्पनी ने फ्रीक्वेंसी से लोकेशन का पता लगाया। पता लगा, मिलिटेंट बस तीन किलोमीटर की दूरी पर ही हैं और हमले की योजना बना रहे हैं। थोड़ी ही ऊँचाई पर मिलिटेंट था। पकड़ा भी गया, लेकिन उसने चालाकी से ग्रिनेड पास के ही डस्टबिन में डाल दिया। इस कारण हम पकड़ कर भी उसे मिलिटेंट प्रूव नहीं कर सके। उसे सज़ा मिली, मिलिटेंट के समर्थक के रूप में। तो बरख़ुरदार यहाँ चौकसी है तो जीवन है नहीं तो हर क़दम पर बिछी है मौत।

एकाएक सन्दीप ने महसूस किया कि इस प्रकार खुलकर उसे सिद्धार्थ से नहीं कहना चाहिए था, सिद्धार्थ चिन्तित था, सहमा हुआ था। तनावग्रस्त था। भाई के लिए। लेकिन वह भी क्या करता। सिद्धार्थ को नहीं बताने का मतलब होता उसे लेकर बाहर घूमना जो ज़्यादा ख़तरनाक सिद्ध हो सकता था। सत्य सदैव सुन्दर होता है, उसने फिर ख़ुद को दिलासा दी और भाई को हलका करने की गरज से फिर कहने लगा - चिन्ता करने की कोई बात नहीं है, क्योंकि स्थिति अब काफ़ी नियन्त्रण में है, बस हमें सदैव सतर्क, सावधान एवं सख़्त अनुशासन में रहने की हिदायत दी जाती है क्योंकि यहाँ कोई नहीं कह सकता है कि कब क्या हो जाए। र्क्वाटर के बाहर यह जो अँधेरा है न यह भी इसी सतर्कता और सावधानी का परिणाम है। तुमने तो अभी नहीं देखा है हम लोगों का बेस कैम्प बूशन। कल दिखाऊँगा। एकदम क़िले की तरह। ज़बरदस्त सुरक्षा। कड़ी निगरानी। चारों तरफ़ कँटीले तारों की घेराबन्दी। चारों तरफ़ एके 47 लिए सन्तरी। पर इसके बावजूद बेस कैम्प पर फ़ियादीन का हमला हो चुका है। घनी रात के अँधेरे में रेंगते हुए घुस आये थे साले। अब जो मरने-मिटने पर तुला हो उससे निपटना मुश्किल। तो उसके बाद से कमरे में चाहे बत्ती जले पर बाहर खुले में अँधेरा कर दिया जाता है। जिससे यहाँ की गतिविधियों का पता न चले। सन्दीप अब कतराने लगा था यहाँ कि स्थितियों के बारे में विस्तार से बताने से। इस कारण बात के रुख़ को बदलते हुए कहा उसने - अब छोड़ ये गोला-बारूद की बातें मैं। सिर्फ़ अपनी ही कहे जा रहा हूँ। तू बता कैसी चल रही है तेरी कम्पनी। कम्पनी का धन्धा-पानी।”

“बता दूँगा, बस एक बात बता दे, तू तो सिग्नल में था। टेक्नीकल लाइन में था, इंजीनियर था फिर तुम्हें फ़ौज ने हाथों में एके 47 क्यों पकड़ा दी? क्या यह धोखा नहीं?”

“नहीं, यह धोखा नहीं है। यह हमारे अनुबन्ध की शर्त के अनुसार ही हुआ है। यहाँ हर ऑफ़िसर इन्फेन्ट्री ऑफ़िसर। (गन उठानेवाला) हो जाता है, क्यों? इसे समझने के लिए पहले तुम्हें राष्ट्रीय राइफल्स की हिस्ट्री जाननी होगी। ढीले-ढाले शब्दों में बस इतना समझ लो कि मुझे इंडियन आर्मी ने यहाँ कश्मीर में यानी राष्ट्रीय राइफल्स में डेपूट किया है। राष्ट्रीय राइफल्स सीधी होम मिनिस्ट्री के अन्तर्गत आती है। यह विशेष रूप से जम्मू और कश्मीर के लिए बनाई गयी थी। 1990 में इसकी स्थापना हुई, कश्मीर के आतंकवाद से मुस्तैदी से निपटने के लिए। यहाँ की कमज़ोर एवं अविश्वसनीय स्थानीय पुलिस की पूरक के रूप में। इसका इम्बलेम भी अलग है इंडियन आर्मी के इम्बलेम से। हमारा इम्बलेम है, दो क्रास करती एके 47 और हमारा मोटो है, ‘वीरता और दृढ़ता’। जबकि जब मैं इंडियन आर्मी में था, तो हमारा मोटो था ‘वीरता और विवेक’। आर.आर (राष्ट्रीय राइफल्स) इकलौती ऐसी रेजीमेंट है जहाँ फ़ौजी किसी भी अनुशासन में हो - चाहे ई.एम.ई. से हो चाहे सिग्नल से हो - उसे आर.आर. बैनर के अन्तर्गत आतंकवाद से लड़ना ही होगा।

“लेकिन यह कैसे सम्भव है? एक बन्दा तू अपने को ही ले जो सिग्नल में है, वह कैसे एकाएक एके 47 लेकर आतंकवादियों से भिड़ सकता है?”

हवा में ठंडक बढ़ने लगी थी। दरवाज़ा बन्द किया सन्दीप ने। भाई के पाँवों पर मोटी-सी रजाई डाली और लेटे-लेटे कहने लगा, देख, यूँ तो हमें वेपन ट्रेनिंग पहले से ही मिल चुकी होती है पर यहाँ पोस्टिंग होने के तुरन्त बाद हमें महीने भर बहुत ही सख़्त और रिगरस फ्री इंडक्शन कोर्स कोर्प्स बैटल स्कूल में करवाया जाता है। जँभाई लेते-लेते सन्दीप ने कहा, अब बस भी कर गोला बारूद की बातें। सुना अपने हाल।

सिद्धार्थ ने आई.आई.एम., कोलकाता से एम.बी.ए. किया था। लगे हाथों उसे देश की सबसे बड़ी कम्पनी इंडिया यूनीलीवर ने भारी-भरकम पैकेज देकर लपक लिया था। और साल बीतते न बीतते उसे ए.एस.एम. यानी एरिया सेल्स मैनेजर बना दिया गया था।

सिद्धार्थ को इस बात का बड़ा फ़ख्र था कि वह एक ऐसी कम्पनी का ए.एस.एम. है जो एफ.एम.सी.जी. (फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स) में सबका बाप है। देश में अस्सी प्रतिशत इंडिया लीवर का मार्केट शेयर है।

इसलिए नाक फुलाते हुए गर्वीले स्वर में कहा उसने, मेरी कम्पनी का क्या पूछते हो भाई, देश की कोई भी दुकान बिना हमारे प्रोडक्ट के चल ही नहीं सकती। अकेला मैं अड़तीस करोड़ का सेल्स हैंडिल करता हूँ।

“बाप रे! अड़तीस करोड़? कैसे एचीव कर पाते हो इतना भारी-भरकम सेल्स टारगेट?” आँखें बाहर निकल आयीं सन्दीप की।

“मैं इस टारगेट को टुकड़े-टुकड़े में अपने सेल्स ऑफ़िसर को बाँट देता हूँ।”

“किस आधार पर?”

“उनके पूर्व इतिहास के आधार पर।”

“कोई समस्या नहीं आती इतने बड़े टारगेट को पकड़ने में?”

अपने माथे को सहलाते हुए कहा सिद्धार्थ ने, “हाँ, समस्या तो आती ही है। इन दिनों थोड़ी और बढ़ गयी है। दरअसल हमारे सबसे बड़े कंप्टटीटर हैं छोटे-छोटे खुदरा बिक्रेता। उनकी लागत हमसे बहुत कम आती है। उनकी न तो विज्ञापन लागत, न वितरण लागत, न रिसर्च कोस्ट, न इंवेंटरी कोस्ट। वे होते भी लोकल हैं। वहीं बनाया तेल, साबुन और वहीं बेच दिया। अब सोचो, हमारा फाइन एंड लवली बनता है हरिद्वार एवं गौहाटी में और हम उसे बिक्री करते हैं धुर कश्मीर तक, आन्ध्र प्रदेश के छोटे-छोटे गाँवों तक तो हमारी वितरण लागत सोचो कितनी बढ़ जाती है। इसलिए कोकाकोला की ही तरह हमारा भी लक्ष्य है भारत के आख़िरी गाँव की आख़िरी दुकान तक पहुँचना। इसलिए ज़रूरी है गाँवों के सारे छोटे-छोटे खुदरा निर्माताओं एवं विक्रेताओं का सफाया करना। देश की क़रीब एक करोड़ दुकानों तक हमारी पहुँच है। 26 हज़ार दुकान तो मैं अकेला हैंडिल करता हूँ। हमारा टारगेट इस फिगर को और फैलाना है, इतना कि धरती के किसी भी टुकड़े पर, किसी भी गाँव के आख़िरी छोर पर भी यदि कोई मोदी की भी दुकान हो तो वहाँ भी हमारा ब्राइट या लाइफ़मैन या फ़ाइन एंड लवली का पाउच झूलता दिखे।”

“पर तुम पहुँचोंगे कैसे, आख़िरी गाँव की आख़िरी दुकान तक।”

फिर गर्वीली मुस्कान बिखरेते हुए कहा सिद्धार्थ ने।

“इसके लिए हम समय-समय पर कई योजनाएँ निकालते हैं। हर तीसरे महीने हमारा विज्ञापन बदलता है, यह एक तरीक़ा है। विज्ञापन पर हम ख़ूब खर्च करते हैं क्योंकि हमारा विश्वास है कि जो दिखता है, वही बिकता है। इसलिए तुम देखो हर दुकान पर हमारा माल पहली क़तार में दिखता है। लेकिन हमारी सबसे सफल योजना है महाशक्ति माँ योजना, जिसके अन्तर्गत हम गाँव की ही किसी पढ़ी-लिखी असरदार महिला को पकड़ते हैं, उसे मासिक वेतन और कमीशन के आधार पर नियुक्त करते हैं। उसका काम होता है घर-घर जाकर हमारे उत्पाद के छोटे-छोटे पाउचों को नगण्य मूल्य या फ्री में ही वितरित करना। एक बार ग्राहक यदि हमारे साबुन के चमत्कार और चमक का आदी हो जाए तो स्थानीय साबुन ख़ुद ही दुम दबाकर भाग जाते हैं।

“वाह गुरु! छोटे-छोटे मेहनती स्वावलम्बी और स्वाभिमानी घरेलू निर्माताओं का सफाया कर अपनी कम्पनी को मालामाल करना... बड़े अच्छे मिशन के लिए समर्पित कर रखी है तुमने अपनी ज़िन्दगी!”

एक कसक के समय सन्दीप बड़बड़ाया। सिद्धार्थ उठकर बाथरूम की ओर मुड़ गया था, इस कारण पूरी तरह सुन नहीं पाया सन्दीप को।

“कुछ कहा?”

“नहीं, कुछ नहीं। बस यही कहा कि तुम्हारी सारी थकान तो सेल्स टारगेट पूरा हो जाने पर मिट जाती होगी।”

“हाँ, जैसे तुम लोगों की सारी थकान। आतंकी को ढेर कर मिट जाती है।”

सन्दीप हँसा।

सिद्धार्थ हँसा।

फिर दोनों साथ-साथ हँसे। बातचीत का रुख़ फिर बदला।

दोनों घर की घरवालों की दीन-दुनिया की बातों में मशगूल हो गये। बतियाते-बतियाते जाने कब आँख लग गयी सन्दीप की। सिद्धार्थ भी सोने की कोशिश करने लगा पर जाने कहाँ से एक मच्छर घुस आया था कमरे में और ठीक उसके कान के पास गुंजन करने लगा था। सिद्धार्थ ने हलके से भाई को हिलाया कि पूछ ले कि आलआउट कहाँ रखा हुआ है। पर यह क्या? जैसे ही उसने भाई को हिलाया, बुरी तरह सहम गया वह, नींद से झटका खाए भाई का हाथ सीधा एके 47 पर। अरे, अरे, चला मत देना। माई गॉड... भाई, क्या रात में स्वप्न में भी तुम्हें मिलिटेंट ही दिखते हैं? नींद में भी पीछा नहीं छोड़ते वे तुम्हारा?

झेंप गये सन्दीप। सचमुच क्या होता जा रहा है उन्हें। किस प्रकार बदलता जा रहा है व्यक्तित्व उनका। जिन आँखों में सुन्दर सुहाने स्वप्न भरे रहते थे, जिस मस्तिष्क में सबके लिए अच्छे विचार भरे रहते थे, कितना शंकालु हो गया है वह मस्तिष्क और कितनी ख़ूनी हो गयी हैं वे आँखें कि स्वप्न में भी यह खयाल पीछा नहीं छोड़ता कि उन्हें मार गिराना है किसी को उसके पूर्व कि कोई मार गिराए उन्हें। उफ़! यह कश्मीर तो उन्हें इनसान भी नहीं रहने देगा। सोख लेगा ज़िन्दगी के सारे सौन्दर्य और संवेदन को। नहीं सोने देगा एक मीठी स्वाभाविक नींद! जाने किस मनहूस रात ईश्वर ने रचा धरती के इस टुकड़े को... जितना सुन्दर उतना घातक! जितने पेड़ उतनी क़ब्रें!

हर घर के पीछे एक जवान क़ब्र!

कितने दिन हो गये उन्हें, किसी अच्छी किताब से गुज़रते हुए। उफ़! कश्मीर क्या आये, स्वप्न सौन्दर्य, काव्य, संगीत सब अच्छी चीज़ें छूटती जा रही हैं हाथ से, सब पर छाता जा रहा है आतंकवाद।

फिर झिंझोड़ा सिद्धार्थ ने, कहाँ खो गये? क्या सोच रहे हो?

क्या हुआ?

“कुछ नहीं।”

“हुआ तो कुछ ज़रूर है। तुम मुझे स्वाभाविक नहीं लग रहे। क्या चल रहा है तुम्हारे भीतर।

गहरे से देखा सन्दीप ने सिद्धार्थ को। कितनी अच्छी तरह से पढ़ लेता है वह उसका चेहरा। शायद उसे समझता भी है औरों से अधिक।

नहीं चाहते हुए भी भीतर अटके शब्द निकल आये बाहर।

“यही कि हम लोग यहाँ चाहकर भी स्वाभाविक जीवन नहीं जी सकते। हर दिन कुछ न कुछ ऐसा घट ही जाता है कि आतंकवाद हमारी चेतना और मानसिकता का हिस्सा बनता जाता है। पिछले सप्ताह ही घटी एक घटना। ख़बर मिली कि पहारन गाँव में मिलिटेंट पहाड़ पर चढ़ने की तैयारी में हैं। मैं, कैप्टन अमरीक सिंह, मेज़र कुलवन्त और दस जवानों के साथ उस पहाड़ी पर पहुँचा। हमने अपनी-अपनी पोजीशन ली, जगह का घेराव किया। एच.एच.टी.आई. को सेट किया, उसे ऑन मोड में रखा। मतलब कहीं कोई चूक नहीं थी। पर ऐसे मौक़ों पर वीरता और पराक्रम का नहीं, वरन पोजीशन का बहुत महत्त्व होता है। हमने पोजीशन नीचे की ली क्योंकि ख़बर थी कि वे ऊपर चढ़ने की तैयारी में हैं। इसलिए हमारा सारा ध्यान नीचे की तरफ़ था। लेकिन हरामजादे ऊपर थे। पहाड़ों पर ऊपरवाला हमेशा फ़ायदे की पोजीशन में रहता है तो भी हमने एक आतंकी को ढेर कर डाला और दूसरे को अधमरा। हम थोड़े बेफिक्र होकर ऊपर बढ़ने लगे कि तभी दूसरे आतंकी ने मरते-मरते भी फ़ायर कर डाला और गोली कैप्टन अमरीक को लगी। लमहे भर की चूक एक ईंच इधर-उधर और वे उस पार। शहीद। तिरंगे में लिपटाकर उसके शव को मैं ही पहुँचाने गया था उनके घर।”

बोलते-बोलते फिर संजीदा हो गये सन्दीप। आँखें फिर घूरने लगी - एके 47 को।

कमरे की खिड़की से देखा उन्होंने खिला हुआ चाँद। धरती पर सोई चाँदनी। छिटके हुए तारे। सौन्दर्य कहीं भी हो पुलक जगाता है। मेज़र पुलकित हुए। झाँकने लगे अपने भीतर। आज भाई से मिलकर बहुत दिनों बाद उन्हें अपने इनसान होने की प्रतीती हुई। याद आया बचपन का वह माऊथ आर्गेन... कितना बजाया करते थे वे उसे। काश! एक बार फिर होंठों से लगा पाते उसे... बड़े क्या हुए, ज़िन्दगी निकल गयी हाथों से।

अपने खयालों से जाने कब तक खेलते रहे सन्दीप कि तभी भाई ने फिर झंझोड़ा उन्हें। अच्छा, यह बताओ भाई, यदि आर्मी ज्वाइन करते वक़्त तुम्हें पता होता कि इस प्रकार तुम्हें गन उठाकर हर पल आतंकियों को मौत के घाट उतारना पड़ेगा तो भी क्या तुम ज्वाइन करते आर्मी?

गहरे सोच में डूब गये मेज़र। क्या जवाब दें? चेहरे पर धूप-छाँव। भीतर डूबने लगे। क्या सचमुच ख़ून की होली खेलने के लिए ज्वाइन की उन्होंने आर्मी? क्या पता होता कि उन्हें आर. आर. में डेपुट किया जाएगा तो आते वे आर्मी में?

शायद हाँ। शायद नहीं।

आँखें फिर घूमीं पीछे।

अठारह साल की स्वप्न देखने की उम्र? क्या सोच पाती इतना?

समझ पाती तब, जो समझ रहे हैं वे आज। जो हो रहा है क्या उसके बीज अतीत में ही नहीं पड़ चुके थे? वर्तमान क्या है? अतीत की तार्किक परिणति। नहीं?

शायद हाँ... पर ज़िन्दगी की सुन्दरता भी इसी में है कि रहस्य पर से समय पूर्व पर्दा न उठे।

सिद्धार्थ ने फिर कोंचा उसे - जवाब दो भाई।

सन्दीप ने पलटकर रेड़ मारी - कई सवाल ऐसे होते हैं भाई कि जिनका जवाब ज़िन्दगी में कभी नहीं मिलता। अब तुम्हीं बताओ यदि तुम्हें पता होता कि अपनी कम्पनी के फ़ायदे के लिए तुम्हें अपने ही देश के छोटे-छोटे निर्माताओं, खुदरा विक्रेताओं, स्थानीय व्यापारियों और घरेलू उद्योग-धन्धों का सफ़ाया करना होगा, उनके पेट पर लात मारनी होगी तो क्या तू ज्वाइन करता यह कम्पनी? भाई, मुझे तो लगता है कि हम सभी कहीं-न-कहीं अनचाहे, अनजाने फँसे हुए लोग हैं। दरअसल, जब तक हम समझ पाते हैं उन रास्तों को, जान पाते हैं अपने ‘स्व’ के भाव को, अपने स्वभाव को, प्रकृति को, जीवन बहुत आगे बढ़ चुका होता है। ज़िन्दगी के ढेर सारे परिन्दे उड़ चुके होते हैं। घिसते-घिसते हम इतना घिस चुके होते हैं ज़िन्दगी की रगड़ में कि हमारे पास न इतनी ऊर्जा बचती है और न ही ऐसा सपना कि हम एक ज़िन्दगी से निकलकर दूसरी ज़िन्दगी में चले जाएँ। हमारे पास न लौट जाने का विकल्प बचता है न रास्ते बदलने का। हम बस ज़िन्दगी के स्रष्टा नहीं, ज़िन्दगी की कठपुतलियाँ भर रह जाते हैं।

“हम आर्मी वाले राजनेताओं के हाथों की कठपुतलियाँ हैं तो तुम बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों की, फ़र्क़ क्या है?”

“क्या-क्या?” जैसे बिजली छू गयी हो! आहत सिद्धार्थ! इतना कठोर सत्य उसकी उस नौकरी के लिए जिसे पाकर वह फूला नहीं समाया था, जाने कितनों को पछाड़कर उसने प्रवेश पाया था आई.आई.एम. कोलकाता में? वह देश का क्रिमी लेयर और यह उसका काम? इस नज़रिये से तो उसने कभी सोचा ही न था?

“क्या दुबारा सोचना होगा उसे अपने बारे में?”

लेकिन वह इतनी जल्दी हार माननेवालों में से न था। अपने बचे-खुचे दम के साथ फिर उसने पलटवार करना चाहा।

तुम्हारी शिकायत है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की नज़र सिर्फ़ फ़ायदे पर रहती है। पर एक सचाई यह भी है भाई कि प्रोफ़िट सबसे ज़बरदस्त फ़ोर्स है। यदि प्रोफ़िट मोटिव नहीं रहे तो लोग इतनी दौड़-धूप क्यों करें? भारत में ही देखो न, जबसे ग्लोबल इकॉनॉमी हुई है, इंडिया कितनी उन्नति कर रहा है। जी.डी.पी. को देखो, सेंसेक्स को देखो।

तो यह भी देखो कि इस देश में अभी भी 223 करोड़ लोग भूखे सोते हैं। बाल श्रमिक बढ़ रहे हैं। गाँव उजड़ रहे हैं। आदिवासी विस्थापित हो रहे हैं। कन्या भ्रूणहत्याएँ बढ़ रही हैं। करोड़ों लोगों की प्रति व्यक्ति आय महज़ 20 रुपये प्रतिदिन है। यदि ख़ुशहाली होती तो माओवादी नहीं बढ़ते। भूखा आदमी ही उठाता है गन।

सिद्धार्थ ने हारकर अन्त में तुरुप का कार्ड फेंका।

“लेकिन मैं तुम्हारी तरह भारत सरकार के किसी अनुबन्ध से नहीं बँधा हूँ, जब भी चाहूँ मैं, त्यागपत्र दे सकता हूँ।”

“तो फिर क्यों तू अपनी विलक्षण प्रतिभा को सुन्दरियों को गोरापन देने के भ्रम में जाया कर रहा है?” सन्दीप की नज़र उसके हाथ में रखे महँगे ब्लैकबेरी मोबाइल पर थी जो श्रीनगर में निष्क्रिय हो गया था।

“क्या?” जम गया सिद्धार्थ। फिर गहरा देखा भाई को। यह भाई बोल रहा है या बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रति उसकी वितृष्णा? या कोई कुंठा? नहीं, कुंठा का शिकार तो हो नहीं सकता है उसका भाई। अच्छी तरह जानता है वह। तो क्या फ़ौज के कठोर जीवन ने बना दिया है भाई को इतना कठोर कि चाबुक-दर-चाबुक वार किया जा रहा है उस पर। न वह फ़ौज का बन पाया है और न ही भाई रह पाया है। क्या इसीलिए बन गया है वह इतना कठोर!

गीला सन्नाटा।

जमे-से बैठे रहे दोनों भाई जैसे दोनों दो हाड़-मांस के इनसान नहीं, बर्फ़ के दो टुकड़े हों।

सन्दीप को भी लगा कि अनायास ही चाकू चला दिया उसने भाई पर। ऐसा नंग-धड़ंग बड़बोलापन। बहुत कड़वा कह गया वह! भारत के सबसे प्रतिष्ठित संस्थान से एम.बी.ए.! इतना हाई पैकेज! देश का क्रीमी लेयर! और किस प्रकार शून्य कर डाला उसने भाई को। जबकि वह जानता है कि भाई अमानवीय नहीं, पर उसकी सोच की धुरी को ही उलटा दिया गया है। भोग पर आधारित विकास की सोच ने उसे एक ऐसी तिलिस्मी दुनिया में पहुँचा दिया है जहाँ करुणा, संवेदना, इनसानी एहसास और कोमल भावनाएँ सब माया है। सत्य है सिर्फ़ आमदनी का उठता हुआ ग्राफ़। पर वह भी क्या करे?

जाने क्यों उसे लगता है कि ये सारे प्रतिष्ठान देश की ज़रूरत के अनुसार नहीं, वरन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की ज़रूरत के अनुसार डिजाइन किये गये हैं। जाने क्यों उसे लगता है कि आज नैतिकता किसी भी प्रोफ़ेशन में नहीं रह गयी है। पिछले दशकों में यदि किसी चीज़ को देश निकाला मिला है तो वह है नैतिकता। भाई की सारी काबिलियत, प्रतिभा और हुनर जाया हो रहा है मरे हुए चूहे को बेचने के कौशल में और कश्मीर की युवा पीढ़ी का हुनर जाया हो रहा है बन्दूक के घोड़े को दबाने में।

पर क्या कश्मीर सम्पूर्ण भारत है? नहीं, फिर क्यों इतनी कड़ुवाहट और नकारात्मकता भरती जा रही है उसके भीतर? क्या कश्मीर पोस्टिंग का साइड इफेक्ट है यह? नहीं, वह निकालेगा कोई राह इस भटकी हुई दुनिया के बीच!

नींद आ रही थी उसे, फिर भी नींद को परे सरकाकर वह जुट गया भाई के जख़्मों पर मलहम-पट्टी करने में। बातें करता रहा उससे मुलायम मुलायम स्वरों में। इधर-उधर की, बेसिर-पैर की।

और देखते-देखते हलका-सा मनमुटाव, जो दोनों के बीच हो गया था, एक दुर्बल लहर की तरह विलीन हुआ। फिर हवाएँ चलने लगी। फूल मुस्कराने लगे। भाई फिर भाई बन गये। और सुबह तक दोनों ने नींद, मुस्कराहट और सपनों का एक पूरा दौर साथ -साथ पूरा किया।

सुबह।

कमांडिंग अफ़सर कर्नल आप्टे ने तुरन्त बुलाया सन्दीप को, बेस कैम्प बूशन में। सिद्धार्थ को साथ लेकर पहुँचे सन्दीप अपने बेस कैम्प बूशन में। सिद्धार्थ को उसकी कॉटेज दिखायी। पहली नज़र में बूशन कैम्प बड़ा मनभावन लगा सिद्धार्थ को। गाढ़े लाल और गाढ़े हरे रंगों से रँगा हुआ गोलाकर मुख्य द्वार। सबसे ऊपर अर्र्द्ध वृत्ताकार में लिखा हुआ - कर्म ही धर्म। दरवाज़े के पहले ठीक गुंड गाँव के आर्मी कैम्प की तरह यहाँ भी बड़ी-सी लकड़ी की अर्गला। स्टैंड पर आड़ी टिकाई हुई। वह तभी उठेगी जब आप ‘प्लीज़ शो योर आइडेंटिटी कार्ड’ का फन्दा पार कर लेंगे।’ दाईं तरफ़ छोटा-सा ऑफ़िस (मुख्य द्वार के बाहर) जिसमें एके 47 हाथों में लिये कई कमांडनुमा गार्ड। मुख्य दरवाज़े के बाहर सड़क पर छोटा-सा होर्डिंग, जिस पर दो चुस्त कमांडो और नीचे लिखा हुआ, ‘दि स्टोर्मी ट्रूप्स’।

थोड़ा आगे की तरफ़ फिर एक बोर्ड जिस पर लिखा हुआ था, ‘क़दम से क़दम मिलाओ, कश्मीर को जन्नत बनाओ।’ मुख्य द्वार पर ज़बरदस्त नाकेबन्दी। हर तरफ़ एके 47 से लैस जवान। जब तक अन्दर से आदेश नहीं मिल जाता, परिन्दा भी पर नहीं फैला सकता।

मुख्य दरवाज़े के ऊपर राष्ट्रीय राइफल्स का इम्बलेम, दो एके 47, एक दूसरे को काटती हुई, ऊपर अशोक चक्र। बीच में लिखा हुआ, ‘14 राष्ट्रीय राइफल्स आपका स्वागत करता है।’ उसके ऊपर लिखा हुआ, ‘वीरता और दृढ़ता।’ उसके ऊपर अंकित, ‘कर्म ही धर्म।’

बुशन कैम्प के भीतर घुसते हुए मन फिर खिल उठा। बाईं तरफ़ फूलों का सुन्दर संसार। तरह-तरह के फूल महकते गुलाबों की क्यारियाँ। कहीं सूरजमुखी, कहीं जवाफूल तो कहीं रातरानी। सुन्दर ख़ूबसूरत गमले। कालीन-सी बिछी ताज़ा कटी घास। उसकी लय ताल में बहते जगह-जगह गहरे लाल कत्थई रंगों के मिले-जुले खम्भे। गोल-गोल घुमावदार रास्ते। बीच-बीच में मोती-सी आब लिये चिकने सफ़ेद पत्थरों की कतार। और तभी सिद्धार्थ की नज़र पड़ी एक और बोर्ड पर, जिस पर लिखा हुआ था - ‘उँगली ट्रिगर पर, सिर्फ़ कॉन्टेक्ट होने पर’ यानी वीरता और दृढ़ता के साथ-साथ व्यर्थ के ख़ून-खराबे से बचने की चेतावनी भी।

कुछ क़दम आगे बढ़ने पर देखा उसने - छोटे-छोटे कॉटेजनुमा घर, गुड़ियों के घर से, आर्मी के ऑफिसर्स के लिए। साथ-साथ एक क़तार में छोटे-छोटे ऑफ़िस। रिक्रिएशन रूम, कम्प्यूटर रूम। पीआरआई ऑफ़िस, टीएनटी ऑफ़िस। रेक्रिएशन रूम में देखा, एक मिलिटेंट की तस्वीर। तस्वीर के ऊपर लिखा था - वांटेड। ख़ूबसूरत। बढ़ी हुई दाढ़ी। नीचे लिखा था - अहमद रशीद, जिसने घाटी में कई घातक विस्फोटों को अंजाम दिया था।

अपनी कॉटेज में घुसा तो चहक गया सिद्धार्थ - सेब और अखरोट के पेड़ों पर ढेरों ढेर, ख़ूबसूरत चिड़ियाँ, जिनकी चहचहाहट वातावरण को जीवन ताज़गी और उमंग से भर रही थी। उन लम्हों में कैम्प में इतनी शान्ति, सुकून और सम्पूर्णता थी कि यह कल्पना तक कर पाना मुश्किल था सिद्धार्थ के लिए कि इसी श्रीनगर की घाटियों और वादियों में हर क्षण हिंसा, अशान्ति, ख़ून-खराबा और नफ़रत फैलाने की साजिश भी रची जा सकती है। वह भूल चुका था, युद्ध को, अशान्ति को, एके 47 को। फूलों, हिमालयी हवाओं और गुनगुनी धूप की मौज़ में तरंगित हो आगे बढ़ रहा था कि क़दम फिर ठिठक गये। सामने, पी.आर.आई. ऑफ़िस के बाहर लिखे थे जवानों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण निर्देश। वह पढ़ने लगा।

थलसेनाध्यक्ष के दस महत्त्वपूर्ण निर्देश :

- बलात्कार नहीं।

- छेड़छाड़ या दुर्व्यवहार नहीं।

- किसी को भी शारीरिक उत्पीड़न नहीं।

- हथियार या पोस्ट का नुकसान नहीं हो, अन्यथा सेना की बदनामी होगी।

- आम जनता के झगड़ों में न पड़े।

- नागरिकों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहें।

- संचार का माध्यम जैसे टेलीफोन, रेडियो, दैनिक आदि का इस्तेमाल अपने ऑपरेशन के फ़ायदे के लिए करना चाहिए।

- व्यक्तिगत अधिकारों को बढ़ावा एवं इज़्ज़त देनी चाहिए।

- केवल ईश्वर से डरना चाहिए। धर्म के रास्ते पर चलना और ख़ुश होकर देश की रक्षा का आनन्द लेना हमारा कर्तव्य है।

वाऊ! सुपर्ब! मन ही मन चुटकी ली सिद्धार्थ ने। यही अन्तर है फ़ौज और पुलिस में। सच है कि कोई भी व्यक्ति आम आदमी के साथ कैसा सुलूक करता है, यह बहुत कुछ निर्भर करता है, उस मानसिकता और व्यक्तित्व पर जो उसके वरिष्ठ अफ़सर उसकी तैयार करते हैं। कितने मानवीयता से भरे हैं ये निर्देश! सत्य तो यह है कि यदि कश्मीर में फ़ौज स्थिति को इतना कुछ नियन्त्रित कर पायी तो इसका बहुत कुछ श्रेय कर्नल केदार आप्टे जैसे कमांडिंग अफ़सरों को ही है जिन्होंने अनुशासन और शराफ़त दोनों को अपने फ़ौजियों में साधा है।

बस जरा-सा रिस्क एलीमेंट कम हो तो उसे कोई गिला नहीं भाई के फ़ौजी होने से। पहली बार उसे भाई के इस दावे में दम लगा कि उसकी अपेक्षा उसके भाई का जीवन कहीं बड़े और वृहत्तर लक्ष्य को समर्पित है।

मन की तरंग में आगे बढ़ रहा था कि नज़र पड़ी एक और कॉटेज पर। बाहर लिखा था, ड्यूटी रूम। जिसकी बाहरी दीवार पर एक पेपर कटिंग चिपकायी हुई थी। शायद कमान अधिकारी ने फ़ौजियों का मनोबल बढ़ाने के लिए चिपकायी थी यह कटिंग। उसमें ज़िक्र था कि कंगन गाँव में पुलिस की मुठभेड़ में मारे गये मिलिटेंट को दफ़नाने के लिए गाँववालों ने ज़मीन देने से इनकार कर दिया था। जबकि एक समय ऐसा भी था कि जब इसी गाँव में कोई मिलिटेंड पुलिस मुठभेड़ में मारा जाता तो गाँव वाले रैली निकालते कि यह हमारे लिए शहीद हुआ। गाँव की बूढ़ियाँ उसके शव से लिपट जातीं थीं।

क्या यह लोगों की मानसिकता का बदलाव है या आर्मी का डर? क्योंकि आर्मी मिलिटेंट से सहानुभूति रखनेवालों पर कड़ी नज़र रखती है। सामने बहती सिन्धु नदी की तरह बहने लगी विचारों की नदी। उसे एक ईरानी कहानी याद आयी जिसमें एक बाप अपने बाग़ी बेटे की लाश लिये दर-ब-दर भटकता रहा पर किसी ने भी तानाशाह के डर के मारे उसे दफ़नाने की इजाज़त नहीं दी।

उफ़! कब तक टकराते रहेंगे विरोधी सत्य, रँगी रहेगी ख़ून से यह दुनिया!

बुशन कैम्प का अहाता जितना लुभावना था उतना ही रोमांचित करने वाला भी था। एक अलग ही दुनिया थी वह जो क़दम-क़दम पर यह एहसास कराती थी कि वह एक ऐसी भूमि के टुकड़े पर खड़ा है जहाँ हिन्दुस्तानी होना सबसे अधिक ख़तरनाक है। नागरिक जीवन जीनेवालों के लिए यह सचमुच एक अलग तरह का अनुभव था, डर और गौरव की मिली जुली अनुभूति से भरपूर।

थोड़ा और आगे बढ़ा सिद्धार्थ तो फिर एक दिशा निर्देश। क्या यहाँ सबकुछ दीवारों पर ही लिखकर टाँग दिया जाता है? कोई बाहरी व्यक्ति पढ़ ले तो? फिर खयाल आया उसे कि वह आर्मी का बेस कैम्प है जहाँ सिवाय अफ़सरों के निजी पारिवारिक सदस्यों के परिन्दा भी नहीं घुस सकता है, और निजी सदस्यों को भी बहुत ही कम समय दो या तीन दिन तक ही ठहरने की इजाज़त मिलती थी। वे दिशा निर्देश भी काफ़ी महत्त्वपूर्ण और रोचक थे। वह पढ़ने लगा -

- एचएचटीआई को हमेशा रेडी मोड में रखें, अन्यथा जबतक इसे रेडी मोड में आप लाएँगे दो-तीन मिनट निकल चुके होंगे, तब तक मिलिटेंट क़रीब आ चुके होंगे। इसलिए रेडी मोड में रखें जिससे दूर तक नज़र रखी जा सके और फ़ायर किया जा सके।

- एक एड हॉक (कामचलाऊ) योजना हमेशा अपने दिमाग़ में रखें जिससे कभी अचानक त्वरित एक्शन लेना पड़े तो आप ले सकें।

- कन्वॉय में सबसे पहले वह चढ़े जिसे सबसे बाद में उतरना हो और सबसे बाद में वह जिसे सबसे पहले उतरना हो।

- गाड़ी को हमेशा कन्वॉय लाइट पर चलाएँ जिससे दूर से गाड़ी नज़र न आए।

- रात को फुसफुसाकर बात करें क्योंकि अँधेरे में आवाज़ दूर तक जाती है। पंजों के बल चलें जिससे घात में बैठे मिलिटेंट को कोई आवाज़ न सुनाई पड़े। खाँसी या छींक आये तो मुँह में दबाकर रखें।

- जवान अपने साथ छोटी-सी टार्च हमेशा रखें - चाहे दिन हो या रात। यहाँ कश्मीर में अपना सिर्फ़ एक मकसद हैं - मिलिटेंट को मार गिराना।

तत्लीन हो पढ़ रहा था सिद्धार्थ कि तभी पीछे से सन्दीप ने धौल जमाया - अरे, यह क्या? क्यों पढ़ रहे हो इन्हें, ये सिर्फ़ आर्मी वालों के लिए हैं। सिविलियन्स को मनाही है इन्हें पढ़ने की। एकदम गोपनीय दिशा-निर्देश।

तो फिर इन्हें बाहर खुले में क्यों टाँग रखा है?