स्वभाव, बाधाएँ और मधुकरी / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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मेरा तो कुछ ऐसा स्वभाव ही रहा है कि एकांत में रहूँ और दिन-रात के भीड़-भक्कड़ से बचूँ। अधिक-से-अधिक कुछ समय तक ही भीड़ चाहिए। मगर दिन-रात नहीं। एक बात और। पहले तो समझता था कि संन्यासी लोग महात्मा ही होते हैं। मगर पीछे निकट से देखा कि उनमें भी वही संसार है। पुत्र के स्थान पर चेले, परिवार की जगह गुरुभाई, साथी और भक्तजन, मकान की जगह मठ नहीं तो कुटिया─ये चीजें उन्हें परेशान किए रहती हैं। रुपया-पैसा एकत्र करने की फिक्र भी कम नहीं रहती। प्रत्युत मठ बनने पर तो यह चिंता गृहस्थों की अपेक्षा भी बढ़ जाती है। अंतर इतना ही रहता है कि वेदांत के ब्रह्मज्ञान की भागीरथी की धारा में स्नान कर लेने के कारण नरक और यम यातना की चिंता उन्हें नहीं रहती। वे साँड़ की तरह निश्चिंत विचरते रहते हैं। मरने पर गृहस्थों की ही तरह उनके भी कोई-न-कोई मरणोत्तर संस्कार और भोज (भंडारे) होते ही हैं। इन सब बातों को देख कर मैं ऊबा। अपारनाथ में दूसरी बाधाएँ एवं नियंत्रण भी थे। फलत: कुछी दिनों बाद मैं एक अलग स्थान में स्वतंत्र रूप से रहने लगा। वहाँ भीड़ कम थी, स्वतंत्रता थी और निराश्रय संन्यासी ही रहते थे, जो इच्छानुसार चले भी जाते थे। पीछे तो वहाँ भी रहना असंभव हो गया और एक रुपया किराए का एक मकान ले कर ललिताघाट के ऊपर फूटे गणेश मुहल्ले में फूटे गणेश के ऊपरवाले छोटे से कमरे में रहने लगा। वहीं तो एक बार नीचे गिर जाने से मेरी टाँग टूटी। इसका उल्लेख आगे होगा।

अपारनाथ में रहने के समय तो क्षेत्रों में ही भिक्षा (भोजन) करता था। लेकिन वहाँ से हटने पर मैंने मधुकरी वृत्ति का आश्रय लिया। मगर वह भी कुछ दिन तक चल कर फूटे गणेश पर आने के बाद बंद हो गई। फिर कुछ चुने-चुनाए ब्राह्मण गृहस्थों के घर भोजन करना शुरू किया। यह अंत तक चलता रहा। संन्यासियों के लिए मधुकरी भिक्षा सर्वोत्तम मानी गई।

जैसे मधु कर (भ्रमर) अनेक फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस ले कर अपना काम चलाता है। इससे फूलों की क्षति जरा भी होने नहीं पाती, यहाँ तक कि मालूम भी नहीं पड़ता कि उनसे रस लिया गया है। ठीक उसी प्रकार अनेक गृहस्थों के घर से एक-एक रोटी या थोड़ा-थोड़ा पका-पकाया भोजन ले कर अपना काम चला लेने को मधुकरी वृत्ति कहते हैं। काशी में प्राय: अनेक संन्यासी और गैरिक वस्त्रधारी ऐसा बराबर करते आए हैं। मकान के पास जा कर 'नारायण हरे' कहते ही गृहस्थ समझ जाते और रोटी, भात, दाल, साग कुछ-न-कुछ दे जाते हैं। जिन महल्लों में बराबर ऐसा होता आया है वहीं पर इसमें आसानी होती है। इसमें कई प्रकार के पदार्थ मिल जाते और खाने में भी मजा आता है। बहुत साधु लोग तो भीषण वैराग्य की बदहजमी मिटाने के लिए मधुकरी का अन्न जमा करने के बाद जिस झोले में वह रहता है उसे ही गंगा में डुबो कर निकाल लेते हैं। फिर खाते हैं। इससे अन्न में स्वाद नहीं रह जाता। फलत: जिह्वा चसकने नहीं पाती। लेकिन मैंने ऐसा कभी नहीं किया।

संन्यासियों की दो पाठशालाएँ थीं ─एक अपारनाथ में और दूसरी टेढ़ी नीम मुहल्ले में। उनके दो दलों की प्रतिद्वंदता से ही यह बात हुई थी। असल में दसनामी संन्यासियों में, जो दंडी नहीं होते हैं, यह प्रणाली है कि कुछ लोग पढ़-लिख के एक दल कुछ साधुओं और पंडितों का बना लेते हैं और अपने आप उसके अधिष्ठाता बन के जहाँ-तहाँ घूमते तथा पुजवाते फिरते हैं। उस दल को मंडली और उन्हें मंडलीश्वर कहते हैं। ऐसे दो मंडलीश्वर बन गए थे। उनकी आपस में होड़ चली थी। इसी से दो पाठशालाएँ थीं। उनमें उनका अपना-अपना आधिपत्य चलता था। वहाँ रहने और पढ़नेवालों को भी कभी-कभी उनके पास जा कर विधिवत अभिवादन आदि करना पड़ता था।

मैं पहले एक में पीछे दूसरी में पढ़ता रहा। लेकिन यह सब शिष्टाचार मुझसे निभ नहीं सकता था। मैं क्यों ऐसा करने लगा?उन मंडलीश्वरों को तो मैं एक प्रकार से पतित और पथभ्रष्ट समझता। संन्यासी बन कर इस प्रपंच और धन संग्रह से, इस ठाटबाठ से क्या मतलब?फलस्वरूप पहले अपारनाथ में बाधा आई तो उसे छोड़ा। पीछे दूसरी में भी, जो पीछे से खुली थी, बाधा देख उसे भी त्यागा। फिर तो यों ही पंडितों के घर जा-जा कर पढ़ा करता था।

कुछ दिनों के बाद मैंने यह समझा कि ब्राह्मण को तो दंडग्रहण करना आवश्यक है। दंडग्रहण किए (दंडी बने) बिना संन्यासी होई नहीं सकता। कारण, धर्मशास्त्रों की यही आज्ञा है जो मैंने स्वयमेव बार-बार पढ़ी थी। इसलिए मैंने श्री दंडी स्वामी अद्वैतानंद जी सरस्वती महाराज के चरणों में जा कर फिर से संन्यास की संक्षिप्त विधि के अनुसार दंड धारण कर लिया और स्वामी सहजानंद सरस्वती के नाम से प्रसिद्धि पाई। इस बात से दसनामी साधु लोगों से और भी तनाव हो गया। फलत: उनकी पाठशालाएँ मुझे छोड़नी पड़ीं। इस दंडी ग्रहण का हाल आगे मिलेगा। इसलिए भी अलग मकान ले कर रहने की नौबत आई।