स्वास्थ्य विधान / आदर्श जीवन / डेविड ई शी / रामचंद्र शुक्ल

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'धर्मार्थकाममोक्षाणां शरीरं साधानं परम्'

इस बात का विश्वास उन्नति के लिए परम आवश्यक है कि स्वास्थ्य रक्षा मनुष्य का प्रधान धर्म है। बहुत कम लोग यह अच्छी तरह समझते हैं कि शरीर का संयम भी मनुष्य के कत्ताव्यों में से है। जब तक शरीर है, तभी तक मनुष्य सब कुछ कर सकता है। लोग बात बात में प्रकट करते हैं कि शरीर उनका है, वे जिस तरह चाहें, उसे रखें। प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन करने से जो बाधा होती है, उसे वे एक आकस्मिक आपत्ति समझते हैं, अपने किए का फल नहीं समझते। यद्यपि इस शारीरिक व्यतिक्रम का कुफल भी कुटुंब और परिवार के लोगों को उतना ही भोगना पड़ता है जितना और अपराधों का, पर इस प्रकार का व्यतिक्रम करनेवाला अपने को अपराधी नहीं गिनता। मद्यपान से जो शारीरिक व्यतिक्रम होता है, उसकी बुराई तो सब लोग स्वीकार करते हैं; पर यह नहीं समझते कि जैसे यह शारीरिक व्यतिक्रम बुरा है, वैसे ही सब शारीरिक व्यतिक्रम बुरे हैं। बात यह है कि स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन भी पाप है। आत्मसंस्कार की वह शिक्षा अधूरी ही समझी जायगी जिसमें शरीर संयम की व्यवस्था और स्वास्थ्य रक्षा का विधान न होगा। इसी से बड़े-बड़े विद्यालयों में, जिनमें वैज्ञानिक शिक्षा का पूर्ण प्रबन्ध है, शरीर विज्ञान को अच्छा स्थान दिया जाता है। हमारे कल्याण के लिए जैसे गणित के नियमों और शब्दों के रूप का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है, वैसे ही शरीर यन्त्र की उन क्रियाओं का जानना भी परम आवश्यक है जिनके द्वारा जीवन की स्थिति रहती है। जब शरीर अस्वस्थ रहता है, तब चित्त भी ठीक नहीं रहता। प्रौढ़ बुध्दि और सूक्ष्म विवेक के लिए पुष्ट शरीर का होना आवश्यक है। शरीर की रक्षा करना प्रत्येक धार्मिक का कर्तव्या है; क्योंकि 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।' ईश्वर के सामने हमें इसका हिसाब देना होगा कि हमने उससे प्राप्त की हुई शक्तियों का ठीक ठीक उपयोग किया है। इसके लिए समाज के प्रति भी हम उत्तरदाता हैं, क्योंकि उसका कल्याण प्रत्येक व्यक्ति के कल्याण पर निर्भर है। सबसे अधिक तो हमारे व्यतिक्रम का परिणाम हमारे ही ऊपर पड़ेगा; क्योंकि हमारा यह कर्तव्ये है कि हम किसी शारीरिक शक्ति पर अत्यन्त अधिक जोर न डालें।

स्वास्थ्य का बड़ा भारी नियम इस रूप में कहा जा सकता है। शरीर की शक्तियों का जो नित्यश: क्या प्रतिक्षण क्षय होता रहता है, उसकी पूर्ति का ठीक ठीक प्रबन्ध परम आवश्यक है। शरीर की जो गरमी बराबर निकलती रहती है और उसके संयोजक द्रव्यों का जो क्षय होता रहता है, उसकी कड़ी सूचना भूख और प्यास के वेग द्वारा मिलती है। जिस प्रकार किसी सेना के सिपाही अधिपति से कहते हैं कि और सामग्री लाओ, नहीं तो हड़ताल कर देंगे, उसी प्रकार शारीरिक शक्तियाँ भी शरीर से अपनी पुकार सुनाती हैं और काम बन्द करने की धामकी देती हैं। बुध्दिमान् मनुष्य अपना लाभ सोचकर उनकी सूचना पर ध्याकन देता है और उन्हें आवश्यकता के अनुसार ताजी हवा अन्न और जल पहुँचाता है। जिन अवयवों से स्वच्छ वायु का उपयोग होता है, उन्हें श्वास वाहक अवयव कहते हैं, जो भोजन ग्रहण करते और उसका रस तैयार करते हैं, उन्हें पाचक अवयव कहते हैं; जो सारे शरीर में रक्त द्वारा वायु और रस का संचार करते हैं, संचारक अवयव कहलाते हैं; और जो शरीर के अनावश्यक द्रव्यों को बाहर करते हैं, वे मलवाहक अवयव कहलाते हैं। बहुत सी अवस्थाओं में तो अधिकतर यह मनुष्यों ही के वश की बात है कि वे इन अवयवों को स्वस्थ दशा में रखें, जिसमें वे अपना काम ठीक ठीक कर सकें। यदि वे ऐसा न करेंगे तो उनके शरीर के भीतर जो क्षय होता है, वह पोषण की अपेक्षा अधिक होगा, जिसका परिणाम रोग और मृत्यु है। उनका मस्तिष्क और हृदय भी, जो जीवन के आधार हैं, अशक्त होने के कारण अपना काम छोड़ देंगे। पर जो लोग इस विषय में अपने लाभ और कर्तव्यउ को विचारेंगे, वे दो बातों का पूरा ध्याोन रखेंगे, भोजन का और व्यायाम का। व्यायाम संचारक अवयवों को रस का ठीक-ठीक संचार करने में सहायता देता है। भोजन संचारक और मलवाहक अवयवों की क्रिया का उपक्रम करता है। स्वास्थ्य के लिए और बहुत सी बातों का विचार रखना होता, जैसे ताजी हवा और ऋतु के अनुकूल कपड़े लत्तो का, विश्राम और नींद का इत्यादि इत्यादि। पर मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि यदि मनुष्य भोजन और व्यायाम के विषय में पूरी चौकसी रखे तो वह भलाचंगा रह सकता है। यह भी आवश्यक है कि मनुष्य सफाई से रहे और कोई ऐसा व्यवसाय न करे जो स्वास्थ्य के लिए हानिकर हो।

भोजन के विषय में पक्का सिध्दान्त यह है कि न बहुत अधिक खाय और न बहुत कम। अधिक खाने से कभी कभी जितनी हानि हो जाती है, उतनी कम खाने से नहीं होती। यदि तुम पक्वाशय और ऍंतड़ियों पर इतना बोझ डालोगे कि वे उसे सँभाल न सकें, तो उनका काम बन्द हो जायेगा। इस विषय में संयम का ध्या न बराबर रखना चाहिए और इस बात को समझना चाहिए कि हम जीने के लिए खाते हैं, खाने के लिए नहीं जीते। भोजन उतना ही करना चाहिए जितने में तुष्टि हो जाय; उसके ऊपर केवल मजे के लिए खाते जाना ठीक नहीं है। शरीर के पोषण के लिए यह आवश्यक है कि जो कुछ हम खायँ, उसमें कई प्रकार के द्रव्य हों, जैसे सत्ता (जो आटे, मांस, अण्डे, छेने आदि में होता है), चिकनाई (जो दूधा, घी, चरबी, तेल आदि में होती है,) लसी (जो चीनी, साबूदाने, शहद आदि में होती है), और खनिज पदार्थ (जो पानी, नमक, क्षार आदि में होता है)।

स्वास्थ्य के लिए जैसे यह आवश्यक है कि भोजन बहुत अधिक न किया जाय, वैसे ही यह बात भी आवश्यक है कि कोई एक ही प्रकार की वस्तु बहुत अधिक न खाई जाय। हमें मिलाजुला भोजन करना चाहिए; अर्थात् हमारे भोजन में कई प्रकार की चीजें रहनी चाहिएँ जिसमें आवश्यक मात्रा में वे सब द्रव्य पहुँचें जिनसे शरीर का पोषण होता है और उसमें शक्ति आती है। कोई पदार्थ बराबर भोजन का काम नहीं दे सकता अर्थात् शरीर के क्षय को नहीं रोक सकता, जब तक कि उसमें शरीर तन्तु बनाने वाला सत्ता न हो। जिस पदार्थ में यह सत्ता आवश्यक मात्रा में होता है, वही बराबर आहार के लिए उपयोगी हो सकता है। खनिज अंश का भी उसमें रहना आवश्यक है। लसी वा चिकनाई दो में से एक भी हो, तो काम चल सकता है।

यद्यपि भोजन में सत्तावाले पदार्थों का उपयोग बहुत होता है, पर उन्हें अधिक मात्रा में खाने से खर्च भी अधिक होता है। एक जवान आदमी को शरीर की पूर्ति के लिए 4000 ग्रेन कारबन और 8000 ग्रेन नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है। सत्तावाले पदार्थों में साधारणत: सैकड़े पीछे 53 भाग कारबन और 15 भाग नाइट्रोजन होता है। अत: 4000 ग्रेन कारबन के लिए मनुष्य को 7500 ग्रेन सत्ता खाना चाहिए। 7500 ग्रेन में 1100 ग्रेन नाइट्रोजन होता है जो आवश्यक से चौगुना है। इससे सत्ता ही अधिक खाने के मेदे पर बहुत जोर पड़ता है और ऑंतों को फालतू नाइट्रोजन निकालने में बड़ा परिश्रम पड़ता है। स्निग्धा पदार्थों (घी, मक्खन, तेल आदि) तथा चीनी आदि में कारबन का भाग बहुत अधिक होता है और नाइट्रोजन कुछ भी नहीं होता। भोजन के साथ घी वा मक्खन आदि मिला लेने से सत्ता की बहुत कुछ आवश्यकता पूरी हो जाती है। भोजन में कुछ चीनी आदि का रहना भी उपकारी है।

भोजन के विषय में ठीक ठीक कोई नियम निर्धारित करना असम्भव है। प्रत्येक मनुष्य को अपने निज के अनुभव द्वारा यह देखना चाहिए कि उसे क्या क्या वस्तु कितनी कितनी खानी चाहिए। लोगों की प्रकृति जुदा-जुदा होती है। कुछ लोग मांस नहीं खा सकते, कुछ लोग रोटी नहीं पचा सकते। बहुत से लोग ऐसे होते हैं जिनका पेट उरद की दाल खाते ही बिगड़ जाता है। सारांश यह कि प्रत्येक मनुष्य आप यह निश्चित कर सकता है कि उसे कौन सी वस्तु अनुकूल पड़ती है और कौन प्रतिकूल। उसे यह उपदेश देने की उतनी आवश्यकता नहीं है कि तुम यह खाया करो, यह न खाया करो। ध्यावन रखने की बात इतनी ही है कि भोजन भिन्न भिन्न प्रकार का हो और उसमें संयम रखा जाय। दो चार बातें बतलाने की हैं। एक भोजन के उपरान्त फिर दूसरा भोजन कुछ अन्तर देकर किया जाय जिसमें पहले भोजन को पचने का समय मिले। जब तक एक बार किया हुआ भोजन पच न जाय, तब तक दूसरा भोजन न करना चाहिए। यदि तुमने सबेरे छ: बजे कुछ जलपान कर लिया है तो दस बजे के पहले भोजन न करो। इसी प्रकार संध्याब के समय यदि कुछ जलपान कर लिया है तो रात को नौ बजे से पहले भोजन न करो। कसरत करने के पीछे तुरन्त ही भोजन न करो, शरीर को थोड़ा ठिकाने हो लेने दो; तब उस पर भोजन पचाने का बोझा डालो। इस बात का ध्याशन रखो कि खाने की जो चीजें आवें, वे ताजी और अच्छी हों, सड़ी-गली न हों। भोजन अच्छी तरह से पका हो, कच्चा न रहे। जो लोग मांस खाते हैं, उन्हें बीच बीच में मछली भी खानी चाहिए। अनाज के साथ साग, भाजी, तरकारी का रहना भी आवश्यक है। खाली सेर दो सेर दूधा पी जाने की अपेक्षा उसे भोजन के साथ मिलाकर खाना अच्छा है। जाड़े के दिनों में स्निग्धा पदार्थों का सेवन कुछ बढ़ा देना चाहिए और गरमी में कम कर देना चाहिए। बिना भूख के भोजन करना ठीक नहीं। भोजन का उतना ही अंश उपकारी होता है जितना पचता है; बिना पचे भोजन से हानि को छोड़ लाभ नहीं। बहुत से लोग यह समझते हैं कि जितना ही भोजन पेट में जाय, उतना ही अच्छा; और वे दिनभर कुछ न कुछ पेट में डालने की चिन्ता में रहा करते हैं। फल यह होता है कि उनकी पाचनशक्ति बिगड़ जाती है और उन्हें मन्दाग्नि, संग्रहणी आदि कई प्रकार के रोग लग जातेहैं।

खाद्य पदार्थों पर विचार करके अब मैं पेय पदार्थों के विषय में कुछ कहना चाहता हूँ। प्राचीन यूनानियों का यह सिध्दान्त था कि पीने के लिए पानी से बढ़कर और कोई पदार्थ नहीं। गरम देश के लोगों के लिए यह सिध्दान्त बड़े काम का है। ठण्डे देशों के लोग चाय, कॉफी, शराब आदि उत्तेसजक पदार्थों का सेवन करते हैं। स्वस्थ और हृष्टपुष्ट मनुष्य के लिए उत्ते जक पदार्थों की उतनी आवश्यकता नहीं होती। थोड़ी चाय या कॉफी का पीना अच्छा है, क्योंकि उससे शरीर में फुरती आती है और शरीर के क्षय का कुछ अवरोध होता है। पर चाय अधिक नहीं पीनी चाहिए अधिक पीने से भय रहता है। चाय से क्षुधाा की पूर्ति होती है, इससे यात्रा आदि में उसका व्यवहार अच्छा है। एक साहब चाय की प्रशंसा इस प्रकार करते हैं-'चाय पीनेवाला थोड़ा खाकर भी शरीर को बनाए रख सकता है।' पर यह स्मरण रखना चाहिए कि पानी जिस सुगमता से पिया जाता है, उस सुगमता से चाय आदि नहीं पी जा सकती। पानी सब प्रकृति के लोगों के स्वभावत: अनुकूल होता है, पर बहुत से लोग चाय आदि नहीं पी सकते। बहुत से छात्रा आजकल रात को जागने के लिए खूब चाय पी लेते हैं। यह साधन बुरा है। कसरत के समय भी चाय नहीं पीनी चाहिए। लगातार बहुत देर तक परिश्रम करते करते यदि शरीर शिथिल हो गया हो तो थोड़ी सी चाय पी लेने से शरीर स्वस्थ हो जाता है; पर प्यास लगने पर पानी ही पीना ठीक होता है। गरमी के दिनों में थोड़ा शरबत पी लेने से शरीर में ठण्ढक आ जाती है और घबराहट दूर हो जाती है। सारांश यह है कि खाने पीने में भी हमें उसी प्रकार विचार से काम लेना चाहिए, जिस प्रकार और सब कामों में। हमें अति कभी न करनी चाहिए और अनुभव से जो बात पाई जाय, उसी को स्वीकार करना चाहिए। केवल फलाहार करना, केवल पयाहार करना, जल ही को समस्त व्याधियों का नाशक बतलाना ये सब सनक की बातें हैं। ऐसी ऐसी बात उन्हीं को शोभा दे सकती है जो कहते हैं कि मोक्ष किसी एक ही प्रकार के साम्प्रदायिक विश्वास से हो सकता है। मनुष्य के लिए सबसे पक्का सिध्दान्त तो यह है कि वह संयम रखे। यदि कोई युवा पुरुष खान पान के असंयम द्वारा अपने सोने का शरीर मिट्टी कर दे तो यह उसका बड़ा भारी अपराधा है। खान पान के विषय में जितनी व्यर्थ की बकवाद होती है उतनी धर्म को छोड़कर और किसी विषय में नहीं होती। बात यह है कि जो लोग ऐसी बकवाद किया करते हैं, वे शरीर शास्त्र के नियमों को कुछ भी नहीं जानते। यदि युवा पुरुष थोड़ी सी जानकारी इस शास्त्र के विषय में प्राप्त कर लें, तो उन्हें फिर खान पान के विषय में बहुत सा उपदेश सुनने की आवश्यकता न रह जाय, और वे आप ही निश्चित कर लिया करें कि क्या खाना चाहिए, क्या पीना चाहिए, किससे बचना चाहिए। खानपान में समय का नियम बाँधो और सादा भोजन संयम के साथ करो।

अब मैं भाँग, शराब आदि उत्तेरजक पदार्थों के विषय में दो चार बातें कहता हूँ। यह तो सर्वसम्मत है कि इनका अनियमित और अधिक मात्रा में सेवन दोषों का घर है। जिन्हें इनके अधिक सेवन की लत लग जाती है, उनका सारा जीवन सत्यानाश हो जाता है। पर यह कभी नहीं कहा जा सकता कि जो चित्त के उदास होने वा शरीर के शिथिल होने पर कभी थोड़ी ठण्डाई पी लेते हैं, वे सीधो काल के मुख में ही जा पड़ते हैं। हाँ, जो लोग अपने को वश में नहीं रख सकते, जिनके लिए संयम बहुत कठिन है, जिन्हें थोड़े से बहुत करते कुछ देर नहीं, ऐसे लोगों के लिए उचित यही है कि वे एकदम बचे रहें। उत्तेसजक पदार्थों से बचना युवा पुरुषों के लिए तो बहुत ही अच्छा है, पर एक चुल्लू भाँग को विष का घूँट कहना अत्युक्ति है। किसी दिन भर के थके माँदे मनुष्य को संध्याल के समय थोड़ी ठण्डाई पीते देख यह कहना कि 'बस अब यह चौपट हो गया' आडम्बर ही जान पड़ेगा। मैंने बहुत से बुङ्ढों को देखा है जो सबेरे थोड़ी सी अफीम ले लेने से दिन भर अपना काम बड़ी फुरती के साथ करते हैं। ऐसे बुङ्ढों को हम अफीमची नहीं कह सकते। ठण्डे देशों के लोग भोजन के साथ, पाचन आदि के लिए, थोड़ी मात्रा में मद्य का सेवन करते हैं। उनकी वह मात्रा जब बढ़ जाती है, तब वे शराबी कहलाने लगते हैं और घृणा की दृष्टि से देखे जाते हैं।

उत्तेतजक पदार्थों के पक्ष में इतना कहने के उपरान्त मैं यह बतलाना आवश्यक समझता हूँ कि हृष्ट पुष्ट मनुष्य को, जिसे उपयुक्त भोजन और ताजी हवा मिलती है तथा विश्राम और व्यायाम करने को मिलता है, ऐसे पदार्थों की आवश्यकता नहीं। पाठक मेरे कथन में कुछ विरोधाभास देखकर चकित होंगे; पर बात यह है कि इस संसार में ऐसे लोग बहुत हैं जिनका शरीर हृष्ट पुष्ट नहीं, जिन्हें बहुत अधिक काम करना पड़ता है, जो चिन्ता से पीड़ित रहते हैं। ऐसे लोग उत्ते जक पदार्थों का थोड़ा बहुत सेवन करें तो हानि नहीं। चालीस वर्ष की अवस्था के उपरान्त बहुत लोगों को उत्तेहजक पदार्थों के सेवन की आवश्यकता होती है; क्योंकि उनसे भोजन पचता और शरीर में लगता है तथा शिथिल अंगों में काम करने की फुरती आती है। ऐसी अवस्था में भी उत्तेतजक द्रव्य की मात्रा थोड़ी हो और वह क्रमश: बढ़ने न पावे।

अब रही हुक्के, सिगरेट आदि पीने की बात। इस सम्बन्ध में तो यह जानना चाहिए कि भले चंगे आदमी को तम्बाकू से किसी रूप में भी कोई लाभ नहीं पहुँच सकता। तम्बाकू का व्यसन चाहे खाने का हो, चाहे पीने का, चाहे सूँघने का, व्यर्थ और निष्प्रयोजन ही है। इससे युवा पुरुषों को अपने कार्य में कोई सहायता नहीं मिल सकती। सिगरेट पीनेवाले व्यर्थ कड़घआ धुऑं उड़ाकर परमेश्वर की स्वच्छ वायु को दूषित करते हैं और सुकुमार नासिकावालों को कष्ट पहुँचाते हैं। सुनते हैं कि चित्रकूट के पास के जंगल में दो ऍंगरेज सिगरेट पीते हुए सैर को निकले। रास्ते के किनारे दोनों ओर मधुमक्खियों के छत्तो थे। सिगरेट के धाुएँ से मक्खियाँ इतनी बिगड़ीं कि सब छत्तों को छोड़कर निकल आईं और उन्होंने डंकों से उन दोनों साहबों को मार डाला। अधिक तम्बाकू पीने से हानि होती है, इसे कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता। पर इक्कीस वर्ष से ऊपर की अवस्थावाले प्राय: बहुत से लोगों को परिमित मात्रा में तम्बाकू पीने से कोई हानि नहीं पहुँचती। पर यदि हानि न भी पहुँचे तो भी लाभ कोई नहीं है।

इस देश में पान खाने की प्रथा बहुत दिनों से है। भोजन के उपरान्त लोग पान खाते हैं, आए गए का सत्कार भी पान इलायची देकर करते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भोजन के पीछे वा कुछ खाने के पीछे दो बीड़े पान खा लेने से मुख शुध्द हो जाता है; मुख में किसी प्रकार की दुर्गन्ध नहीं रह जाती और भोजन के उपरान्त जो एक प्रकार का आलस्य वा भारीपन आता है, वह दूर हो जाता है। पान पाचन में भी सहायता देता है। पर अधिक मात्रा में पान खाना हानिकारक होता है। बहुत अधिक पान खाने से अग्नि मन्द हो जाती है, भूख पूरी नहीं लगती, एक प्रकार की घबराहट सी बनी रहती है जिससे किसी काम में चित्त नहीं लगता, जीभ स्तब्ध हो जाती है जिससे शब्दों का उच्चारण अस्पष्ट और रुक रुककर होने लगता है।

जिस प्रकार ऐसे लोग मिलते हैं जो दिन रात क्षण क्षण पान चबाया करते हैं, उसी प्रकार ऐसे लोग भी मिलते हैं जो पान के नाम से कोसों दूर भागते हैं और सौ तरह से नाक भौं सिकोड़ते हैं। पहले प्रकार के लोगों पर यदि दुर्वव्यससन सवार रहता है, तो दूसरे प्रकार के लोगों पर अपने को संयमी प्रकट करने की एक झूठी धुन।

अब व्यायाम का विषय लेता हूँ जिस पर ध्याकन देने की विद्यार्थी वा युवा पुरुष को सबसे अधिक आवश्यकता है। शरीर और चित्त की स्वस्थता, मन की फुरती और शक्ति की उमंग, बुध्दि की तीव्रता और मनन शक्ति की सूक्ष्मता इत्यादि नियमित व्यायाम ही से हो सकती है। व्यायाम भी हमारी शिक्षा का एक अंग है। जैसे खाने और सोने के बिना हमारा काम नहीं चल सकता, वैसे ही व्यायाम के बिना भी नहीं चल सकता। व्यायाम ही के द्वारा हम अपने अंगों, अवयवों और नाड़ियों की शक्ति को स्थिर रख सकते हैं। व्यायाम ही के द्वारा हम शरीर के प्रत्येक भाग में रक्त का संचार समान रूप से कर सकते हैं; क्योंकि व्यायाम से पेशियों का दबाव रक्तवाहिनी नाड़ियों पर पड़ता है जिससे रक्त का संचार तीव्र होता है। व्यायाम ही के सहारे जीवन सुखमय प्रतीत हो सकता है, क्योंकि व्यायाम से पाचन में सहायता मिलती है और पाचन ठीक होने से उदासी नहीं रह सकती। व्यायाम ही के प्रभाव से मस्तिष्क अपना काम ठीक ठीक कर सकता है। संसार में जितने प्रसिध्द पुरुष हो गए हैं, सबने व्यायाम का कोई न कोई ढंग निकाल रखा था। गोस्वामी तुलसीदास का नियम था कि नित्य सबेरे उठकर वे शौच के लिए कोस दो कोस निकल जाते थे। शौच ही से लौटते समय उनका प्रेत से साक्षात्कार होना प्रसिध्द है। भूषण कवि को घोड़े पर चढ़ने का अच्छा अभ्यास था। महाकवि भवभूति को यदि विन्धय पर्वत की घाटियों में घूमने का अभ्यास न होता, तो वे दण्डकारण्य आदि का ऐसा सुन्दर वर्णन न कर सकते। महाराज पृथ्वीराज शिकार खेलते खेलते कभी कभी अपने राज्य की सीमा के बाहर निकल जाते थे। जब तक तुम आनन्ददायक और नियमित व्यायाम द्वारा अपने को स्वस्थ न कर लिया करोगे, तब तक तुम्हारा अंग वा तुम्हारा मस्तिष्क ठीक नहीं रह सकेगा, तुम बातों का ठीक ठीक विचार और उचित निर्णय नहीं कर सकोगे। पीले पड़े हुए छात्रा से मैं यही कहूँगा-'गेंद खेलो, कबड्डी खेलो, पेड़ों में पानी दो, किसी न किसी तरह की कसरत करो।' जो शारीरिक परिश्रम तुमसे सहज में हो सके, उसी को कर चलो; शरीर को किसी न किसी तरह हिलाओ डुलाओ। मुझसे जो पूछते हो तो मैं टहलना वा घूमना सबसे अधिक स्वास्थ्यवर्धाक और आनन्ददायक समझता हूँ; पर तुम रुचि के अनुसार फेरफार कर लिया करो। कभी उछलो कूदो, कभी निशाना लगाओ, कभी तैरो, कभी घोड़े की सवारी करो। यह कभी न कहो कि तुम्हें समय नहीं मिलता या तुम्हारे पढ़ने में रुकावट होती है। पढ़ने में रुकावट जरूर होती है, पर यह रुकावट होनी चाहिए। यह न कहो कि व्यायाम तुमसे हो नहीं सकता। तुमसे हो नहीं सकता, इसीलिए तो तुम्हें करना चाहिए। बुध्दि को पुराने समय की पोथियों के बोझ से दबाने की अपेक्षा उत्तम यह होगा कि तुम थोड़ा शरीर विज्ञान जान लो और स्वास्थ्य के नियमों का ज्ञान प्राप्त कर लो। तब तुम्हें मालूम होगा कि नौ नौ, दस दस घण्टे तक सिर नीचा किए और कमर झुकाए हुए इस प्रकार बैठे रहने से कि नाड़ियों का रक्त स्तम्भित होने लगे, तुम बहुत दिनों तक पृथ्वी पर नहीं रह सकते।

पाठक व्यायाम के लाभों को अच्छी तरह समझकर मुझसे इसके नित्य नियम के विषय में पूछेंगे। वे कहेंगे कि हम टहलने को तो तैयार हैं, पर यह जानना चाहते हैं कि कितनी दूर तक और कितनी देर तक टहलें। यहाँ मैं फिर भी यही बात कहता हूँ कि हर एक की प्रकृति जुदा जुदा होती है; इससे कोई ऐसा नियम बताना, जो सबको बराबर अनुकूल पड़े प्राय: असम्भव सा है। मैं बहुतों को जानता हूँ जिन्हें अत्यन्त अधिक कसरत करने से उतनी ही हानि पहुँची है जितनी न करने से पहुँचती है। पहले पहल एकबारगी बहुत सा श्रम करने लगना हानिकारक क्या भयानक है। जो मनुष्य कई सप्ताह तक बराबर कलम दवात लिए बैठा रहा है, उसका एकबारगी उठकर बड़ी लम्बी दौड़ लगाना ठीक नहीं है। यदि किसी कारण से शारीरिक परिश्रम कुछ दिन तक बराबर बन्द रहा हो, तो उसे फिर थोड़ा थोड़ा करके आरम्भ करना चाहिए और सामर्थ देखकर धीरे धीरे बढ़ाना चाहिए। एक डॉक्टर की राय है कि एक भले चंगे आदमी के लिए नित्य नौ मील तक पैदल चलना बहुत नहीं है। इस नौ मील में वह चलना फिरना भी शामिल है जो काम काज के लिए होता है। पर जो लोग मस्तिष्क वा बुध्दि का काम करते हैं, उनके लिए नित्य इतना अधिक परिश्रम करना न सहज ही है और न निरापद ही। मैं तो समझता हूँ कि नित्य के लिए कोई हिसाब बाँधना उतना उपकारी नहीं है। यदि टहलते समय हमें इस बात का ध्या न रहेगा कि आज हमें इतने मील अवश्य चलना है, तो टहलना भी एक बोझ या कोल्हू के बैल का चक्कर हो जायेगा। जो बात आनन्द के लिए की जाती है, वह इस प्रतिबन्ध के कारण पिसाई हो जायगी। मनुष्य को दो घण्टे खुली हवा में बिताने चाहिए और उन दो घण्टों के बीच कोई हल्का परिश्रम करना चाहिए तथा किसी प्रकार के प्रतिबन्ध वा हिसाब का भाव चित्त में न आने देना चाहिए। तीन मील प्रति घण्टे के हिसाब से टहलना अच्छा है।

एक डॉक्टर ने जिन जिन अंगों पर परिश्रम पड़ता है, उनके अनुसार व्यायाम के तीन भेद किए हैं। पहला वह जिसमें शरीर के सब भागों पर समान परिश्रम पड़ता है; जैसे तैरना, कुश्ती लड़ना, पेड़ पर चढ़ना। दूसरा वह जिसमें हाथ पैर को परिश्रम पड़ता है; जैसे गेंद खेलना, निशाना लगाना आदि। तीसरा वह जिसमें पैर और धाड़ पर जोर पड़ता है, ऊपर का भाग केवल सहायक होता है; जैसे उछलना, कूदना, दौड़ना, टहलना आदि। तीनों में से प्रत्येक प्रकार का व्यायाम रुचि और अवस्था के अनुसार चुना जा सकता है। यह बात भी देखनी चाहिए कि किस प्रकार की कसरत लगातार कुछ देर तक हो सकती है, किस प्रकार की कसरत से मन में फुरती आती है और किस प्रकार की कसरत सहज में और सब जगह हो सकती है। इन सब बातों पर विचार करने से टहलना ही सबसे अच्छा पड़ता है। पर फेर फार के लिए और और प्रकार का परिश्रम भी बीच में कर लेना अच्छा है। जिमनास्टिक वा लकड़ी पर की कसरत को मैं बहुत अच्छा नहीं समझता; क्योंकि एक तो वह अस्वाभाविक (कृत्रिम) है, दूसरे उसमें श्रम अत्यन्त अधिक पड़ता है।

स्नान का स्वास्थ्यवर्ध्दक गुण सब स्वीकार करते हैं, इससे उसके सम्बन्ध में अति के निषेधा के सिवा और बहुत कुछ कहने की जरूरत नहीं है। बहुत से युवा पुरुष जब नदी, तालाब आदि में पैठते हैं, तब बहुत देर तक नहीं निकलते। यह बुरा है। इससे त्वचा की क्रिया में सुगमता नहीं, बाधा होती है। भोजन के उपरान्त तुरन्त स्नान नहीं करना चाहिए। ठण्ढे पानी से स्नान उतना ही करना चाहिए जितने से नहाने के पीछे खून में मामूली गरमी जल्दी आ जाय। मनुष्य के रक्त में साधारणत: 98 या 99 दरजे की गरमी होती है। यदि यह गरमी बहुत घट जाय या बढ़ जाय तो मनुष्य की अवस्था भयानक हो जाय और वह मर जाय। ठण्डे पानी में स्नान करने से त्वचा शीतल होती है, पर साथ ही खून की गरमी बढ़ती है। पर थोड़ी देर पानी में रहने के पीछे खून की गरमी घटने लगती है। नाड़ी मन्द हो जाती है और एक प्रकार की शिथिलता जान पड़ने लगती है। पानी से निकलने पर खून में गरमी आने लगती है और शरीर में फुरती जान पड़ती है। तौलिए या ऍंगोछे की रगड़ से यह गरमी जल्दी आ जाती है। गरम पानी से नहाने से इसका उलटा असर होता है। नहाते समय त्वचा और रक्त दोनों की गरमी साथ ही बढ़ती है, नाड़ी तीव्र होती है। गरम पानी से निकलने से त्वचा अत्यन्त सुकुमार हो जाती है और रक्तवाहिनी नाड़ियों के फिर ठण्डी होकर सिकुड़ने वा स्तब्ध होने का भय रहता है। इससे गरम पानी से नहाने के पीछे शरीर को कपड़े से ढक लेना चाहिए वा किसी गरम कोठरी में चला जाना चाहिए, एकबारगी ठंढी हवा में न निकल पड़ना चाहिए।

हृष्ट पुष्ट मनुष्य को सबेरे ठंढे पानी में स्नान करने से बड़ी फुरती रहती है, पर अशक्त और दुर्बल मनुष्यों तथा गठिया आदि के रोगियों को इस प्रकार के स्नान से बहुत भय रहता है। स्नान करना बहुत ही अधिक लाभकारी है, पर यदि समझ बूझकर किया जाय तो। अत्यन्त अधिक स्नान करने से शरीर की अवस्था का विचार करने से, लाभ के बदले हानि होती है।

स्वास्थ्य के सम्बन्ध में जितनी आवश्यक बातें थीं, उनका उल्लेख मैं संक्षेप में कर चुका। केवल एक निद्रा का विषय और रह गया है। भला चंगा आदमी जैसे यह नहीं जानता कि पेट कैसे बिगड़ता है, वैसे ही यह भी नहीं जानता कि लोगों को नींद कैसे नहीं आती है। नींद के लिए उसे कोई उपाय करने की आवश्यकता ही नहीं होती। खेद के साथ कहना पड़ता है कि मस्तिष्क से काम करनेवाले लोग नींद की चिन्ता और चर्चा बहुत किया करते हैं; क्योंकि उन्हें नींद बार बार बुलाने पर भी नहीं आती। वे एक करवट से दूसरी करवट बदला करते हैं, थकावट से उनके अंग अंग शिथिल रहते हैं, पर नींद उनके पास नहीं फटकती। नींद भी क्या सुन्दर वस्तु है! जिस समय हम नींद में झपकी लेते हुए बिस्तर पर पड़ते हैं, उस समय कैसी शान्ति मिलती है! हम हाथ पैर हिलाना डुलाना नहीं चाहते, एक अवस्था में कुछ देर पड़े रहना चाहते हैं। संज्ञा भी धीरे धीरे विदा होने लगती है, चेतना हमें छोड़कर अलग जा पड़ती है और न जाने कहाँ कहाँ भरमती है। जब मनुष्य देखे कि उसे नींद जल्दी नहीं आती तो उसे तुरन्त उसके कारण का पता लगाना चाहिए। क्योंकि नींद की ही एक ऐसी अवस्था है जब मस्तिष्क की शक्ति के क्षय की पूर्ति होती है। यदि पूर्ति न होगी तो पागल होने में कुछ देर नहीं। मस्तिष्क का काम करनेवालों को हाथ पैर का काम करनेवालों की अपेक्षा नींद की अधिक आवश्यकता होती है। पर जिनको अधिक आवश्यकता होती है, उन्हीं को नींद न आने की शिकायत भी होती है। तब फिर ऐसे लोगों को करना क्या चाहिए? जिसे उन्निद्र रोग हो, उसे अपने रोग के कारण का पता लगाना चाहिए और सोने के पहले उसे गरम पानी से स्नान कर लेना वा थोड़ा टहल आना चाहिए। कभी कभी कोठरी बदल देने से भी उपकार होता है। ऐसे रोगी को नींद लाने के लिए अफीम, मरफिया आदि का सेवन कभी नहीं करना चाहिए।

अब यह बात अच्छी तरह से प्रमाणित हो गई है कि निद्रा मस्तिष्क के रक्तकोशों के खाली होने से आती है; अर्थात् मस्तिष्क में जब रक्त नहीं पहुँचता, तभी निद्रा आती है। इससे निद्राभिलाषी रोगी को चाहिए कि वह कोई ऐसा काम न करे जिससे मस्तिष्क में रक्त का संचार तीव्र हो। यदि ऐसा रोगी अच्छी तरह पता लगाकर देखेगा, तो उसे मालूम होगा कि उसके रोग का कारण काम का अधिक बोझ, व्यायाम का अभाव, रात को बहुत देर तक पढ़ना लिखना, बन्द कमरे में बहुत देर तक बैठना इन्हीं में से कोई है। जब कारण मालूम हो जायेगा, तब उपाय सुगम हो जायेगा। पर यदि उन्निद्रता की मात्रा बहुत अधिक बढ़े तो समझना चाहिए कि शरीर में कोई व्याधि लग गई है और तुरन्त किसी अच्छे चिकित्सक को दिखाना चाहिए। मैं यहाँ पर ऐसे उन्निद्र रोग की चर्चा करता हूँ जो प्राय: लिखने पढ़नेवाले लोगों को उनकी भूलों के कारण हो जाया करता है। रात को बहुत देर तक काम करने या सोने के समय मन में बहुत सी बातों की चिन्ता रखने से यह रोग प्राय: हो जाता है। कभी कभी छात्रागण साँस लेने के लिए कैसी और कितनी हवा चाहिए, इसका कुछ भी ध्या न नहीं रखते। वे जाड़े के दिनों में कोठरी के किवाड़ बन्द करके सो रहते हैं, जिससे उन्हें साँस लेने के लिए ताजी हवा नहीं मिलती।

अब यह प्रश्न रहा कि कितने घंटे सोना चाहिए। इसका भी कोई ऐसा उत्तर नहीं दिया जा सकता जो सब लोगों पर बराबर ठीक घटे। बहुत से लोग ऐसे होते हैं जिनमें अधिक काम करने की शक्ति होती है और जो कम सोते हैं। सोने की आवश्यकता जब पूरी हो जाती है, तब प्रकृति प्राय: आप जगा देती है। पर साधारणत: यह कहा जा सकता है कि लिखने पढ़नेवाले लोगों को कम से कम सात घंटे सोने की आवश्यकता होती है। यदि वे ग्यारह बजे सोवेंगे तो छह बजे उठ जाने में उन्हें कोई कठिनता न होगी। जाड़े के दिनों में यदि सबेरे आधा घंटा और सोया जाय तो कोई हर्ज नहीं है। कृष्णपक्ष में शुक्लपक्ष की अपेक्षा सोने की अधिक आवश्यकता होती है। सबेरे उठना बहुत अच्छी बात है, पर इस प्रकार सबेरे उठना नहीं कि सोने के लिए पूरा समय ही न मिले। सबेरे वही उठ सकता है जो रात को जल्दी सो जाता है। यदि विद्यार्थी दस बजे दिया बुझा दे, तो पाँच बजे सबेरे उठ सकता है।

समाप्त।