हमारे युग का खलनायक : राजेन्द्र यादव / साधना अग्रवाल / पृष्ठ 2

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खलनायक की असली कहानी
समीक्षा:पाखी सितम्बर 2011

राजेन्द्र यादव के संपूर्ण कृतित्व और व्यक्तित्व को यदि तीन शब्दों में विश्लेषित करना हो तो शुक्ल जी के ये शब्द 'विरु(ों का सामंजस्य' उनके लिए सबसे उपयुक्त होगा। जो लोग इस मुगालते में हैं कि उन्होंने राजेन्द्र जी को ठीक से समझ लिया है या वैसे लोग जिन्हें भ्रम है कि वे राजेन्द्र जी के सबसे करीब हैं, दोनों अंततः गलत साबित होंगे क्योंकि राजेन्द्र जी की बनावट इतनी जटिल और संशिलष्ट है, आप चाहें तो इसमें पेंचदार शब्द भी जोड़ सकते हैं, क्योंकि जितनी हार्दिकता से वे मिलते हैं, उतनी ही हार्दिकता से वे आपसे बिछुड़ते भी हैं। यदि मेरी बात पर आपको विश्वास न हो तो अब तक जिन्दगी के सबसे लंबे सपफर में उनके सबसे करीबी दोस्त मोहन राकेश और कमलेश्वर से भी उनकी नहीं बनी और तो और जवाहर चौधरी, जिनके साथ उन्होंने अक्षर प्रकाशन आरंभ किया था, अंततः उनसे भी उनका संबंध विच्छेद हो गया। यह सूची बहुत लंबी है

हिन्दी के प्रतिष्ठित कथाकार और 'हंस' के संपादक राजेन्द्र यादव को मैं जानती तो अरसे से थी यानी 'हंस' के पुनर्प्रकाशन के कुछ वर्ष बाद से ही। यह संभवतः ९० की बात होगी, मैं कुमाऊं वि. वि. से 'वर्तमान हिन्दी कथा लेखन और दाम्पत्य जीवन' विषय पर पी.एच.डी. के लिए शोध कर रही थी। शोध के सिलसिले में मुझे कुछ लेखिकाओं के पतों की जरूरत थी जिसके लिए मैंने 'हंस' के तत्कालीन सहायक संपादक हरिनारायण से संपर्क किया और उन्होंने मेरी सहायता भी की। मैं 'हंस' नियमित मंगाने लगी। राजेन्द्र जी की भी चर्चा मिलने-जुलने वालों से प्रायः होती रहती थी लेकिन तब तक उन्हें देखने और उनसे व्यक्तिगत परिचय का सुयोग नहीं बना था। कथाक्रम २००० के आयोजन में जब मैं लखनऊ गई तो पहली बार उन्हें देखने-मिलने और बातचीत का ही अवसर मुझे नहीं मिला बल्कि एक छोटा सा इंटरव्यू भी मैंने राजेन्द्र जी का लिया। तब तक राजेन्द्र जी के बारे में जो कुछ सुना था, उनको देखकर, उनसे मिलकर और बातचीत करने के बाद मेरे मन में उनकी पूर्वनिर्मित छवि खंडित नहीं हुई बल्कि और मजबूत हुई। पिफर तो दिल्ली आने के बाद हम लगभग पड़ोसी हो गए पहले हिंदुस्तान टाइम्स अपार्टमेंट्स में और अब उना के ठीक बगल आकाश दर्शन में।


राजेन्द्र जी के ७५वें जन्मदिन के अवसर पर उन पर केन्द्रित पुस्तक संपादित करने की योजना भारत भारद्वाज के साथ मिलकर जब हमने बनाई थी, तब हमारे सामने योजना की रूपरेखा स्पष्ट नहीं थी। पहली बात यह थी कि राजेन्द्र यादव के लेखन की तरह उनके जीवन के भी अनेक दृश्य और अदृश्य रूप और आयाम हैं, जिनको एक खास परिधि के भीतर समेटना हमारे लिए ही नहीं बल्कि किसी के लिए भी मुश्किल होता। जब कुछ मित्राों और खुद राजेन्द्र जी के साथ विचार-विमर्श के बाद कुछ बातें सापफ हुईं तो एक दूसरी दिक्कत दरपेश आई। कुछ बुजुर्ग साहित्यकारों को यह योजना पसंद नहीं आई। सहयोग की बात तो दूर उन्होंने अपने भरसक चुनौती देते हुए हमें हतोत्साहित करने का भरपूर प्रयास किया। चूंकि इस योजना के प्रति हम दृढ़ संकल्प थे, इस कारण न हम निराश हुए और न उदास बल्कि पूरे प्राणप्रण से हम इसमें जुट गए। यह सच है कि हमें अपने प्रयास में लेखकों का अपेक्षित सहयोग नहीं मिला लेकिन जो मिला वह कम नहीं था। सच्चाई यह भी है कि 'हमारे युग का खलनायक राजेन्द्र यादव' शीर्षक पुस्तक उनके ७५वें जन्मदिन पर नहीं बल्कि एक वर्ष विलंब से यानी उनके ७६वें जन्मदिन पर ;२००५द्ध भेंट की गई।

इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद इसके शीर्षक को लेकर खासकर हिन्दी संसार में दो तरह की प्रतिक्रियाएं हुईं। पहली प्रतिक्रिया उन साहित्यकारों की थी जो राजेन्द्र यादव को अपने युग का प्रतिनिधि साहित्यकार चाहे वह नायक न होकर खलनायक ही क्यों न हों, मानने को तैयार नहीं थे क्योंकि संभवतः वे महसूस करते थे कि 'खलनायक' के पीछे हमारे युग का दरअसल यह नायक ही है। दूसरी श्रेणी में ऐसे लोग थे जो राजेन्द्र यादव के द्घनद्घोर प्रशंसक, अंधभक्त और पफैन थे जो अपने नायक के लिए प्रयुक्त 'खलनायक' शब्द से बिदक ही नहीं गए थे बल्कि महसूस करते थे कि एक बड़े साहित्यकार के जन्मदिन पर इस पुस्तक का प्रकाशन वस्तुतः उसका अपमान है। वे कहीं इस बात से भी आहत थे कि इसके पीछे एक बड़ा षडयंत्रा है जो राजेन्द्र यादव जैसे विराट कृती-व्यक्तित्व का कद छोटा करने पर उतारू है।

पुस्तक के लोकार्पण के तुरन्त बाद ये दोनों तरह की प्रतिक्रियाएं हवा में गूंज रही थीं। हैरानी की बात यह है कि इनके बीच खुद राजेन्द्र यादव कहीं नहीं थे जबकि उनकी ओर से कुरुक्षेत्रा के मैदान में मुगदर भांजने वाले अनेक शूरवीर उतर आए थे। पुस्तक के शीर्षक का विरोध करने वाले या आपत्ति करने वाले इस तथ्य से अनभिज्ञ थे कि पुस्तक का शीर्षक कैसे रखा गया। चूंकि हम जानते थे कि 'शब्दों से पुस्तक बनती है और शब्दों की लड़ाई शब्दों से ही लड़ी जानी चाहिए और अकेले शब्दों से।' इसलिए भी तमाम मुखर और मौन विरोध के बावजूद हम शांत रहे। बल्कि कभी-कभी यह सोचकर भीतर-भीतर हंसी के पफव्वारे छूटते थे कि जब इन्हें असलियत का पता चलेगा कि इस पुस्तक का शीर्षक खुद राजेन्द्र यादव का सुझाया हुआ था तब पता न हीं उन पर क्या बीतेगी।

उन दिनों मैं राजकीय स्नात्तोकोत्तर कालेज बेरीनाग जिला पिथौरागढ़ में अध्यापन कर रही थी और मेरी बेटी मानसी दिल्ली में पढ़ रही थी जिससे मिलने मैं, बीच-बीच में आती-जाती रहती थी। मेरी पुस्तक 'बेतरतीब तिथियों में कहीं मैं पिफर मिलूं' में १० मई, २००३ की डायरी में दर्ज है-'आज सुबह मैं दिल्ली पहुंची। जब अपराह्‌न में बंगाली मार्केट में भारत भारद्वाज के द्घर पर गई तो देखा कि 'हंस' के सदाबहार स्तंभकार भारत भारद्वाज बेड रेस्ट पर हैं और साहित्य की दुनिया वीरान है। वे पिछले तीन महीने से अपनी क्षयरोग की बीमारी से जूझ रहे हैं। आजकल मौजमस्ती छोड़कर पूर्णतया न केवल संयम का जीवन जीने के लिए मजबूर हैं बल्कि नियमित रूप से दवा सेवन और इंजेक्शन लगवाने के लिए विवश भी। मुझे उनकी इस दयनीय हालत पर तरस आ रहा है। मुझे नहीं मालूम 'हंस' संपादक राजेन्द्र यादव, जो प्रायः उनको देखने आते हैं, उनको देखकर उनकी क्या प्रतिक्रिया रही होगी। लेकिन मुझे लगता है कि उन्होंने अपने खिलंदड़े अंदाज में जरूर कहा होगा कि तुम अब यह दुनिया छोड़ ही दो ताकि आगे का रास्ता सापफ हो सके।


जब मैं उनके कमरे में पहुंची, उनके अबोध नाती बल्लू ने उन्हें जगाया-नाना जी, यह कहकर वह अदृश्य हो गया।

आंखे खोलते हुए उन्होंने पूछा-साधना, पहाड़ से कब और कैसे इस भंयकर गर्मी में तुम नीचे उतरीं, इस पहाड़ी को देखने के लिए।

जब हंसी-मजाक का दौर खत्म हुआ तो मेरे सामने इस बीच आई पत्रा-पत्रिाकाएं पुस्तकें और पत्रा सरकाते हुए उन्होंने कहा,

इन सबका जवाब अब तुम्हें ही देना है।

लेकिन इन बातों से अन्यमनस्क होते हुए मैंने पूछा आप इन सबको छोड़िए, पहले यह बताइए आप स्वस्थ तो हैं न? अब कैसा महसूस कर रहे हैं?

ठीक राजेन्द्र यादव के लहजे में पलट कर उन्होंने जबाव दिया-हम न मरैं, मरिहै संसारा।

उनकी इस बात से मुझे लगा साहित्य अब भी उनसे नहीं छूटा है। इसी बीच बातचीत के क्रम में राजेन्द्र यादव पर एक पुस्तक संपादित करने की योजना हमने बनाई और राजेन्द्र जी को पफोन किया-छूटते ही राजेन्द्र जी ने कहा यदि तुम लोग अभिनंदन की तरह कोई योजना बना रहे हो तो 'आई रिफ्रयूज इट'। पिफर विस्तार से जब हमने अपनी योजना उन्हें बताई तो उनकी प्रतिक्रिया थी साले, डेथ बैड पर पड़े रहने पर भी तुम शैतानी से बाज नहीं आओगे। मेरा ही सत्यानाश करने पर क्यों तुले हो? सत्यानाश ही अगर करना है तो पहले नामवर सिंह, निर्मल वर्मा, अशोक वाजपेयी का सत्यानाश क्यों नहीं करते।

अंततः राजेन्द्र जी द्घेर लिए गए और इस तरह तय हुई उन पर केन्द्रित पुस्तक 'हमारे युग का खलनायक राजेन्द्र यादव' पुस्तक की योजना। इस योजना से भारत जी के बीमार चेहरे पर मुस्कान खिल गई जैसे अपने दुश्मन को उन्होंने परास्त कर दिया हो। मैंने लक्ष्य किया कि इस आदमी में गजब का जीवट है और शायद साहित्य का संसार ही इसे जीने की ताकत देता है। मेरे मना करने के बावजूद यह आदमी मुझे सीढ़ियों तक छोड़ने आया और यह कहते विदा ली-'अरे यायावर रहेगा याद।'

स्पष्टतः इसी बातचीत के दौरान राजेन्द्र जी ने यह शीर्षक सुझाया जो हम लोगों को भी अच्छा लगा। बेशक संपूर्ण हिन्दी संसार अज्ञेय को सबसे ज्यादा जीवन में और लेखन में प्रयोगवादी मानता है लेकिन मुझे लगता है कि राजेन्द्र यादव बेशक उम्र में और प्रसि(ि में उनसे पीछे हैं लेकिन प्रयोग के मामले में बिल्कुल उनके हमकदम हैं। यह बात बिल्कुल अलग है कि अज्ञेय की पुस्तकों के शीर्षक के बिल्कुल उलट उनकी पुस्तकों के शीर्षक हैं। पहले उपन्यास का ही शीर्षक देखिए-'प्रेत बोलते हैं' पिफर 'उखड़े हुए लोग', कुलटा' आदि नकारात्मक हैं।

शेक्सपियर भी भूत-प्रेत में बहुत विश्वास करते थे। पाठकों को यह जानकर हैरानी नहीं होगी कि भले राजेन्द्र यादव भूत-प्रेत पर विश्वास न करते हों लेकिन तिलिस्म-ऐक्षयारी की भूल-भुलैया वाली अंधेरी गलियों से गुजरना उन्हें अच्छा लगता है। मुझे लगता है कि जासूसी उपन्यास ही नहीं बल्कि अपराधियों और पतितों की दुनिया उन्हें सबसे ज्यादा आकृष्ट करती है। निश्चयपूर्वक यह बात नहीं कही जा सकती लेकिन यह अनुमान लगाना गलत नहीं होगा कि जब राजेन्द्र यादव ने अपने पहले उपन्यास का शीर्षक 'प्रेत बोलते हैं', रखा तो इसके पीछे देवकीनंदन खत्राी के उपन्यास 'चंद्रकांता संतति' का असर था, बाद में उन्हें यह शीर्षक कुछ अटपटा लगा और यही कारण है कि १९५९ ई. में यह उपन्यास 'सारा आकाश' के नाम से प्रकाशित हुआ, जिस पर पिफल्म भी बनी। ऐसा नहीं है कि जासूसी उपन्यास या अपराध कथाओं में सिपर्फ राजेन्द्र यादव की रुचि है बल्कि दुनिया के अनेक मार्क्सवादी आलोचकों ने जासूसी उपन्यासों का समाजशास्त्राीय दृष्टिकोण से विश्लेषण करके यह निष्कर्ष निकाला है कि अपराध भी हमारे समाज का ही एक अंतर्विरोध है। प्रसंगवश नोबेल पुरस्कार विजेता पाब्लो नेरुदा से एक बार जब किसी ने पूछा कि यदि आपके द्घर में आग लग जाए तो आप क्या बचाना पसंद करेंगे? उनका जवाब था-कुछ जासूसी उपन्यास।'

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में एक जगह 'विरु(ों का सामंजस्य' पद का इस्तेमाल किया है। मुझे लगता है कि राजेन्द्र यादव के संपूर्ण कृतित्व और व्यक्तित्व को यदि तीन शब्दों में विश्लेषित करना हो तो शुक्ल जी के ये शब्द 'विरु(ों का सामंजस्य' उनके लिए सबसे उपयुक्त होगा। जो लोग इस मुगालते में हैं कि उन्होंने राजेन्द्र जी को ठीक से समझ लिया है या वैसे लोग जिन्हें भ्रम है कि वे राजेन्द्र जी के सबसे करीब हैं, दोनों अंततः गलत साबित होंगे क्योंकि राजेन्द्र जी की बनावट इतनी जटिल और संश्लिष्ट है, आप चाहें तो इसमें पेंचदार शब्द भी जोड़ सकते हैं, क्योंकि जितनी हार्दिकता से वे मिलते हैं, उतनी ही हार्दिकता से वे आपसे बिछुड़ते भी हैं। यदि मेरी बात पर आपको विश्वास न हो तो जान लें कि अब तक जिन्दगी के सबसे लंबे सपफर में उनके सबसे करीबी दोस्त मोहन राकेश और कमलेश्वर से भी उनकी नहीं बनी और तो और जवाहर चौधरी, जिनके साथ उन्होंने अक्षर प्रकाशन आरंभ किया था, अंततः उनसे भी उनका संबंध विच्छेद हो गया। यह सूची बहुत लंबी है। राजेन्द्र जी जितने सहज, सरल और स्वाभाविक दिखते हैं, उतने वस्तुतः हैं नहीं।

यह सच है कि राजेन्द्र जी ने कई कथा-पीढ़ियों का निर्माण किया लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि उन्होंने अनेक प्रतिभाशाली लेखकों की द्घनद्घोर उपेक्षा भी की है। मैं यह तो नहीं कहूंगी कि वे पूर्णतः सेडिस्ट हैं लेकिन उन्हें 'कारथूजियन प्लेजर' में मजा आता है। खलनायक के प्रकाशन के बाद एक रोज मैंने उनसे पूछा कि आपको जानने के लिए क्या जरूरी है तो उन्होंने तपाक से कहा कि मुझसे प्रेम करना जरूरी है। उनकी यह सापफगोई मुझे अच्छी लगी थी। यह जानते हुए भी कि उनके प्रेम का अर्थ कबीर के प्रेम के अर्थ में नहीं था। लेकिन राजेन्द्र जी कब आपसे नाराज हो जाएंगे, कहा नहीं जा सकता।

मुझे ठीक से नहीं मालूम असली प्रसंग क्या था। मैत्रोयी पुष्पा के विवादास्पद वक्तव्य पर मेरे द्वारा आयोजित परिचर्चा को लेकर राजेन्द्र जी की नाराजगी थी। पिफर क्या था 'हंस' के संपादकीय में मुझ पर बरस पड़े। 'हंस' के जुलाई २००६ के 'अपनी नियति पहचानो, मैत्रोयी' शीर्षक संपादकीय में मैत्रोयी को लिखे पत्रा में लिखते हैं-'तुम 'दिखाई जाने वाली लड़की की तरह मेरे सामने बैठी थीं। तब तो मैंने ध्यान नहीं दिया लेकिन तुमने बाद में बताया कि तुम कापफी सज-संवरकर, अपनी सबसे अच्छी साड़ी-वाड़ी पहनकर आई थीं। इस बात पर साधना अग्रवाल ने ऐसा तूपफान उठाया कि न जाने किन-किन लेखिकाओं की जली-कुढ़ी प्रतिक्रियाएं लेकर सैकड़ों पर्चे देश के कोने-कोने में भेज डाले। कुछ छोटी-मोटी पत्रिाकाओं में उसे लेख के रूप में छपा लिया। क्या यह सचमुच कोई ऐसा साहित्यिक मुद्दा था जिसे लेकर इतना हंगामा खड़ा किया जाए? शु( व्यक्तिगत स्कैंडल में जल कुक्कड़ किस्म की महिलाएं कितना रस लेती हैं। मनोरंजक लगता है कि राजेन्द्र यादव नाम के विश्वामित्रा का तप-भंग करने कोई मेनका अपने सारे नारी-सुलभ हरबे-हथियारों के साथ गई थी मगर मुंह की खाकर लौट आई। माई पफुट... तुम तो सिपर्फ बताती हो, किरण अग्रवाल ने तो बाकायदा लिख डाला था एक लंबे चौड़े काल्पनिक संस्मरण में।

मैंने ध्यान नहीं दिया हो, यह दूसरी बात है, मगर तुम सज-संवरकर आईं, मुझे इसमें न कुछ गलत लगता है, न अस्वाभाविक। कौन सी महिला है जो नई जगह, परिवार या रिश्तेदारी, बाजार या सेमिनार में अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में नहीं जाती? मैंने साधना से पूछा भी था कि तुम क्या पफटे कपड़े और चेहरे पर काले-पीले दाग पोतकर मुझसे मिलने आई थीं? किसी भी जगह मैंने तो तुम्हें कभी पफूहड़ रूप में नहीं देखा। तुम कहती हो मैत्रोयी हर जगह पहुंच जाती है। क्या तुम्हें पता है कि वह बिना बुलाए पहुंची? हां, तुम खुद वहां पहले से क्यों मौजूद थीं, तभी तो तुमने उसे देखा... तुम जाओ तो सही, दूसरा बुलाया भी जाए तो गलत। खैर छोड़ो, मैं भी क्या औरताना बातें ले बैठा, यह तो हर गैर बौ(कि स्त्राी का स्थायी शगल है और वे कपड़े-लत्ते ओढ़ने-पहनने को लेकर द्घंटों कतर-ब्योंत करती रह सकती हैं... छोटी जगह से आई बेचारी साधना अग्रवाल... शायद इसी तरह की व्यक्तिगत कीचड़ से लोगों का ध्यान आकर्षित हो...।'

यह तो रहा राजेन्द्र जी का मैत्रोयी प्रसंग। एक बार जब मैं राजेन्द्र जी के साथ उनकी गाड़ी में दरियागंज जा रही थी तो मेरी किसी बात से नाराज होकर उन्होंने कहा, 'तुम यहां दिल्ली में क्या कर रही हो? तुम्हें वापस पहाड़ लौट जाना चाहिए। लेकिन मैंने राजेन्द्र जी की बात नहीं मानी और मैं यहीं दिल्ली में डटी रही।

अब मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि राजेन्द्र जी ने हमारे युग के खलनायक बनने की भरपूर कोशिश की लेकिन उनके भीतर बैठा एक अच्छा मनुष्य भी है जो उन्हें खलनायक बनने से अब तक रोकता रहा है। यह उनके व्यक्तित्व का अंतर्विरोध 'विरु(ों का सामंजस्य' ही है जो उनको आगे-पीछे खींचता रहता है। 'हंस' जैसी बड़ी पत्रिाका का संपादक या लेखक होने का दंभ उनमें नहीं है इसका एक ताजा उदाहरण है-जस्टिस लीला सेठ की पुस्तक 'द्घर और अदालत' पर उन्होंने 'हंस' में एक लंबा संपादकीय लिखा जिसमें अनेक तथ्यात्मक भूलें थीं क्योंकि पुस्तक उन्होंने सावधानीपूर्वक नहीं पढ़ी थी। इस पर अपनी प्रतिक्रिया जब 'हंस' को मैंने भेजी तो न केवल इसे उन्होंने ज्यों-का-त्यों प्रकाशित किया बल्कि संपादकीय भूलों के लिए 'हंस' में सार्वजनिक रूप से मापफी भी मांगी। ऐसा साहस शायद ही कोई दूसरा संपादक कर सके। राजेन्द्र जी हमारे युग के ऐसे एकमात्रा लेखक हैं जो पुरुषों से अधिक महिलाओं के प्रिय लेखक हैं। यदि मेरी बात पर आपको यकीन न हो तो गीताश्री के संपादन में प्रकाशित पुस्तक '२३ लेखिकाएं और राजेन्द्र यादव' देख सकते हैं। जब तक राजेन्द्र जी हमारे बीच हैं 'हंस' के पृष्ठों पर क्या, हमारे जीवन में भी मस्ती छलकती रहेगी और यौवन की पफसल लहलहाती रहेगी। अब यह उन पर निर्भर करता है कि वे अपने सुयोग्य उत्तराधिकारी का चुनाव करें। कौन जाने पागल तुगलक के सुयोग्य उत्तराधिकारी बलबन की तरह उन्हें भी कोई समानधर्मा मिल ही जाए। ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि राजेन्द्र जी अपना पार्ट और पार्टनर बदले बिना अपनी भूमिका ऐसे ही बदस्तूर निभाते रहें।


४-सी उना एन्क्लेव, मयूर विहार पफेज-१, दिल्ली-११००९१ मो. ०९८९१३४९०५८

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