हम जहाँ हैं : पवन शर्मा का लघुकथा -संग्रह / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
हम हैं जहाँ: पवन शर्मा , प्रकाशक; पंकज बुक्स 109-ए , पटपड़गंज ,दिल्ली-110091
पृष्ठ: 160(सजिल्द) , मूल्य :300 रुपए, संस्करण :2009
‘हम हैं जहाँ’ पवन शर्मा का यह तीसरा लघुकथा -संग्रह है ।वर्त्तमान सदी मूल्यों के ह्रास एवं मनुष्य के निरन्तर संवेदनहीन , असहाय होने की सदी है ।संवेदना और जीवनमूल्यों के बीच अर्थपिशाच की अनर्थकारी भूमिका किसी से छुपी नहीं है ।आपसी सद्भाव ,प्रेम, आत्मीयता ,सम्बन्धों की ऊर्जा और ऊष्मा सब कुछ अर्थार्जन का ब्लैकहोल निगलता जा रहा है।मध्यमवर्ग में एक और वर्ग है निम्न मध्यम वर्ग । यह वर्ग न तो अमीरों में शामिल हो सका न गरीबों में; क्योंकि अमीर वह है नहीं तथा नए तौर तरीके भी उसका बहुत दूर तक साथ नहीं देते । गरीब वह बनना नहीं चाहता , चाहे इसके लिए उसे कुछ भी क्यों न करना पड़े ।उसमें दया-धर्म है ,पर किसी की सहायता करने के लिए पास में कुछ है ही नहीं। जब अपना ही पेट नहीं भरता तो चाहकर भी किसी की सहायता करे भी तो कैसे ? यह हीनभावना उसे मथती है । एक ओर‘कर्म’ के वे कूड़ा बीनने वाले बच्चे हैं ,
जो कबाड़ी के लिए काम करते हैं , आवारागर्दी भी करते हैं ;क्योंकि उनका कल क्या होगा उन्हें न पता है और न चिन्ता । वे कबाड़ी से सौ रुपया उधार लेकर एक घायल को अस्पताल तक पहुँचाते हैं ।उसका सामान भी नहीं हड़पते । जिसे अस्पताल में भरती किया गया , उसने यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि उसे अस्पताल तक लेकर कौन आया ? इससे एक तथ्य तो यह उभारकर आता है कि अच्छे काम करने की यदि मन में इच्छा है तो साधनहीनता आड़े नहीं आती ; जबकि ‘निष्ठुर’ का नायक जेब में रखी तनख्वाह को मुट्ठी मे कस लेता है, पीड़िता के भाई की करुणा भरी फ़रियाद को अनसुना कर देता है और इलाज के लिए एक भी पैसा नहीं देता ।‘पगडण्डी’ के नायक ने गिड़गिड़ाने पर भी नौ -दस साल के उस बालक को छिपाने की ज़हमत नहीं उठाई , जिसको मारने के लिए कुछ लोग घात लगाए हुए थे । उसकी हत्या होने पर वह पश्चात्ताप की अग्नि में जलने को बाध्य है ।
एक ओर ‘ बेहतर लोगों के बीच’ का वह समाज है जो दारू और अय्याशी को बड़े होने का स्टेटस मानता हैं और अपना काम निकालने के लिए पतन की सारी हदें पार कर जाता हैं।पद की शक्ति के मद में चूर इनका व्यवहार पशु-प्रवृत्ति की ओर ध्यान दिलाता है ।‘चीखें’ केखूबसूरत बंगले में रहने वाले गोयल साहब चोरी के शक में नौकर को बेरहमी से पीटते हैं । रही सही क्रूरता की कसर पुलिस वाले पूरी कर देते हैं। यह है खूबसूरत ब।ब्गले का बदनुमा चेहरा ।‘बोध’ का सरेआम पिटने वाला नौकर जब प्रतिकार करने के लिए एकान्त में अपने ढाबे के मालिक को पीटने के लिए उद्यत हो जाता है तो वह सारी हेकड़ी भूलकर वहाँ से हटने में ही हित समझता है ।वैसे प्रतिकार के स्थान पर तटस्थ रहकर चुपचाप सहनेवाला वर्ग पवन शर्मा की लघुकथाओं में ज़्यादा है । ‘चेहरे’ में घटना की सही रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार को भी पुलिस की मार खानी पड़ती है, ऊपर से रेप के केस में फँसाने का भी बन्दोबस्त कर दिया जाता ।शायद पत्रकार की स्पष्टवादिता और नौसीखियापन भी इसका कारण है ,जिसकी पुलिस स्टेशन में ज़रूरत नहीं थी ।यही हैं वे बेहतर लोग जो समाज को नारकीय बनाने में संलग्न हैं ।लघुकथा ‘लोकतन्त्र’ में यही पुलिस सताधारी वर्ग के मन्त्री के कार्यक्रम में भीड़ जुटाने की व्यवस्था करने के लिए सवारियाँ उतारकर गाड़ियों को कब्जे में लेने का भी काम करती है । सवारियाँ चाहे कहीं भी धक्के खाएँ, इसकी चिन्ता किसी को नहीं ।
पवन शर्मा की अधिकतर लघुकथाएँ परिवार की छोटी से छोटी समस्याओं को विभिन्न कोणों से उजागर करती हैं।ये समस्याएँ अक्सर संयुक्त परिवारों की हैं ,जहाँ न चाहकर भी घर परिवार से बँधने की मज़बूरी है । जहाँ तनाव का कारण किसी न किसी सदस्य की बेरोज़गारी है -मज़बूरी ,यथार्थ,उपयोगिता स्थायी तल्ख़ी,खुशी,फाँस लघुकथाएँ इसके उदाहरण हैं। किसी के ऊपर घर के सारे खर्चों का बोझ है या हालत इतनी विकट है कि मर खपकर भी एक साथ रहना और घर चलाना चुनौती बना हुआ है । एडजस्ट्मेण्ट , यह पारी ही तो है ,बोझ,भंग होता अहसास , सारी रात- इसकी पुष्टि करती हैं ;परन्तु ‘सांमजस्य’ का सतीश बेरोज़गार होते हुए भी सन्तुष्ट है , उसकी पत्नी जो नौकरी करती है ।‘गृहस्थी’ का पति पारिवारिक दायित्व के बोझ तले दबे होते हुए भी भाग्यशाली है ;क्योंकि उसकी पत्नी सहजभाव से उसे समझाती है कि गृहस्थी में तो ये सब होता ही है । कहीं एक लिपिक को (चोर निगाहें) पत्नी का अफ़सर बनना खटकता है तो कहीं असिस्टैण्ट मैनेज़र पत्नी बेरोज़गार पति (उलाहने) के लिए अपने दफ़्तर में नौकरी दिलवाना उचित नहीं मानती ।
सास बहू की तकरार अलग से घर को नरक बनाने पर तुली है । बेटा किधर जाए? किसका पक्ष ले ?कहीं कुण्ठा भी है जिसका निष्कासन शराब या बीड़ी के धुँए से प्रकट हो रहा है । किसी न किसी रूप से माता-पिता के प्रति नई पीढ़ी की उपेक्षा आज के कटु यथार्थ को रेखांकित करती है । बेटा आज का जीवन जीना चाहता है , माँ - बाप पुराने ज़माने के संयुक्त परिवार के ढर्रे पर जीना चाहते हैं । सामंजस्य का अभाव नई कटुता और अफ़सोस के साथ उभरता है ।‘बाप ,बेटे और माँ’,अनुभव ,तुम तो कहते थे , मोह ,सुरेन्द्र के पिता -1, सुरेन्द्र के पिता -1,सुरेन्द्र के पिता -2,सुरेन्द्र के पिता -3, सुरेन्द्र के पिता -4 ऐसी ही लघुकथाएँ हैं जो हर घर की दुखती रग पर हाथ रखती हैं। कथ्य और प्रयोग की दृष्टि से स्टेटस ,इसी भीड़ में ,सुरेन्द्र के पिता की चारों लघुकथाएँ उत्कृष्ट हैं ।‘ सुरेन्द्र के पिता’ में पवन शर्मा ने जो विश्लेषण किया है ,उसका विस्तार किसी एक वर्ग विशेष तक न होकर पूरा समाज है; जो ढलती उम्र में एकाकी , और आहत जीवन जीने को विवश है ।
कलह से हटकर ‘अपराधबोध’, सौगात , मेरे बाद , बदलाव जैसी लघुकथाओं में परिवार की ऊष्मा भी कहीं-कहीं नज़र आती है । छुआछूत (शीत, धर्म-जात),दफ़्तरी भ्रष्टाचार (बड़े बाबू और साहब,नींव,स्कूल कथा, कोर्ट -कचहरी), साम्प्रदायिकता (संस्कार) पर कलम चलाई है , वहीं पर बेमेल दाम्पत्य सबन्धों (जीवन है ये ,उनके बीच) की पड़ताल भी की है ।
पवन शर्मा के पास अच्छी भाषा है । आंचलिक भाषा इनकी लघुकथाओं को और भी जीवन्त कर देती है ।ट्राँसफ़र ,आकाँक्षा,शाँत ,निताँत,शाँति,काँति,देहाँत, फ़्राँसिस,गुँजाइश आदि के मुद्रण में चन्द्र बिन्दु का अनावश्यक आग्रह खटकता है ।यहाँ पर केवल ट्रांसफ़र,आकांक्षा,शांत ,नितांत,शांति,कांति,देहांत, फ़्रांसिस,गुंजाइश अनुस्वार होना चाहिए। ‘चाहिए’ का रूप सदा ‘चाहिए’ ही रहता है,चाहिएँ कभी नहीं होता ।लघुकथाओं के कुछ शीर्षक जैसे -समझ,विभाजन लाचारी ,मेरे बाद,कोर्ट-कचहरी,मजबूरी,बदलाव सीधे और अभिधेय होने के कारण विषयवस्तु का संकेत कर देते हैं ।
‘हम जहाँ हैं’ की अधिकतर लघुकथाएँ एक निश्चित वर्ग के दायरे में ही घूमती हैं लेकिन हमें उस वर्ग की आशा , आकांक्षा और व्यथा से बहुत गहरे तक जोड़ती हैं ।आशा की जाती है कि पवन शर्मा आने वाले वर्षों में अन्य विषयों का भी अपनी लघुकथाओं में समावेश करेंगे। -0-