हसीना पारकर- आखिर इस बॉयोपिक को बनाने की जरूरत ही क्या थी? / नवल किशोर व्यास

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हसीना पारकर- आखिर इस बॉयोपिक को बनाने की जरूरत ही क्या थी?


अपूर्व लखिया की दाऊद इब्राहिम की बहिन के जीवन पर बनी फिल्म हसीना पारकर को सिनेमा के विधार्थियो को इस रूप में दिखाना जाना चाहिए कि फिल्म या कला के किसी भी माध्यम से विषय या कहानी को पोएट्रेट और एज्यूक्यूट करते समय किन-किन गलतियों से बचना ही चाहिए। ये फिल्म सिनेमाई गलतियों से सजा-धजा एक बहुत बुरा हादसा है जिसे खुद अपूर्व लखिया जितनी जल्दी भूल जाये, बेहतर होगा। फिल्म बनाना एक बेहद जटिल, कलात्मक और बौद्धिक विचार प्रक्रिया है जिसमे कई सारे अलग अलग कला पक्ष मिलकर एक प्रोजेक्ट पर काम करते है। इसे इतना हल्के में नही लिया जाना चाहिए जितना शायद इस फिल्म के जरिये इसके निर्माता-निर्देशको ने ले लिया है। इस फिल्म में सारे तकनीकी पक्ष कमजोर है। स्क्रिप्ट, स्क्रीनप्ले, डायलॉग्स, फिल्म के चरित्र, घटनाये, घटनाओं की ग्रेवेटी, कथ्य, ड्रामा, अभिनय, बैकग्राउंड स्कोर,पृष्ठभूमि और स्थानीयता सभी पर ठोस काम किये जाने की जरूरत थी, जिसको हर स्तर पर नजरअंदाज किया गया जिससे फिल्म और किरदार असरदार न होकर कॉस्टमेटिक और कैरीकेचर बन गए। फिल्म तो खराब कास्टिंग के उदाहरण के तौर पर भी याद रखी जाएगी। हसीना के रोल में श्रद्धा कपूर, दाऊद के रोल में उसके भाई सिद्धांत कपूर, वकील केशवानी के रोल में राजेश तैलंग, एब्राहिम पारकर के रोल मे अखिल भाटिया के साथ-साथ बहुत से छोटे किरदार तक मिसफिट थे। श्रद्धा कपूर ने बहुत सी जगह ठीक बेस और स्पीच से डायलॉग बोले पर लगातार उसी एक नोट पर ही बोलने रहने से मामला मोनोटोनस हो गया। वॉइस मोडूलेशन की कमी साफ तौर पर दिखी। दाऊद के रोल में सिद्धान्त कपूर बहुत खराब चयन था। फिल्म में उसकी आवाज तक नही है। वो भी किसी और से डब कराई गई है। उसने अपनी खराब बॉडी लैंग्वेज से दाऊद के किरदार को उतना ही हल्का बना दिया जितना कि फिल्म थी। दाऊद पर बनी फिल्मों में ये अब तक का सबसे कमजोर दाऊद था। जॉनी एलएलबी, शाहिद और अलीगढ़ के उम्दा कोर्ट रूम के बाद इस कोर्ट रूम को झेलना मुश्किल था। हसीना के पुलिस की पूछताछ से बाहर आने पर लोगो का उसकी और उंगली उठाकर ताने मारने का सीन बेहद बचकाना था और फिल्म ऐसे बचकाने दृश्यों से भरी पड़ी है।


दाऊद की बहिन हसीना पारकर पर फिल्म क्यों बनाई गई है, इस पर भी बात होनी चाहिए। हसीना पारकर कोई ऐसा किरदार नही है जिसको लेकर आम लोगो में कोई उत्सुकता थी और न उसके जीवन या उसके चरित्र का कोई ऐसा खास मजबूत सबल पक्ष है जिसको लेकर बात होनी चाहिए। मुम्बई अंडरवर्ल्ड पर काफी किताबे लिख चुके पत्रकार हुसैन जैदी ने अपनी किताब 'माफिया क्वीन्स ऑफ मुंबई' में हसीना पारकर को लेकर कुछ खुलासे किए थे जिसमे कहा गया कि दाऊद की बहन का दक्षिण मुंबई के कुछ इलाकों में दबदबा था और इस वजह से उसे नागपाड़ा की 'गॉडमदर' के नाम से भी बुलाया जाता था। हसीना का जुर्म से सीधे तौर पर कोई नाता नहीं था और उस पर पूरे जीवन मे केवल एक केस चला जिसमें भी वो बरी हो गई। फिल्म में उसी एक केस का जिक्र है। उसे केवल लोगो में दाऊद के आतंक का फायदा मिला। कहा जाता है कि हसीना को नागपाड़ा में एक घर इतना पसंद आया था कि उसने सीधे घर का ताला तोड़कर उसमें रहना शुरू कर दिया था। दाऊद के डर से किसी ने किसी ने कोई भी शिकायत नहीं की उनके खिलाफ। इन सब के अलावा कोई विशेष घटनाएं या ड्रामा था ही नही उसके जीवन में और जब ड्रामा था नही तो फिर फिर स्क्रिप्ट को रबर की तरह बेवजह खींचा जाना ही था।  


एक तथ्य ये भी है कि फिल्म खराब होने के साथ साथ गैर जिम्मेदार भी है। बहुत सी जगह फिल्म दाऊद और हसीना के चरित्र का महिमामंडन करने लग जाती है। उनके हिंसक अपराधो को उनके हालात का हवाला देकर बचाव करती दिखती है। अभिव्यक्ति की इस स्वतंत्रता पर जरूर बहस होनी चाहिए। इतने गंभीर अपराधो और देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त देश के सबसे बडे मुजरिमो को कैसे आप उठकर अचानक से हीरो बनाने की कोशिश में लग जाएंगे। सिनेमा केवल सपने दिखाने और मनोरंजन करने का ही माध्यम नही है। विषयो और चरित्रों को गलत तथ्यो के साथ परोसना भी घोर लापरवाही है जो कि इस फिल्म में हुई है। कम से कम इसकी कड़ी निंदा तो की ही जा सकती है। जब देश के जरूरी मसले और गंभीर चूक केवल कड़ी निन्दा से निकल जाते है तो ये तो एक फिल्म ही है। अच्छी बात ये है कि इस माध्यम को पहले से ही कड़ी निन्दा की आदत है। ये ज्यादा बुरा नही मानेगा।