http://www.gadyakosh.org/gk/api.php?action=feedcontributions&user=%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0+%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9C&feedformat=atomGadya Kosh - सदस्य योगदान [hi]2024-03-29T00:52:08Zसदस्य योगदानMediaWiki 1.24.1http://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B0_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=35789जान बहादुर फुर्र / सुशील कुमार फुल्ल2018-06-02T07:35:17Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>एक शान्त स्थली पर चिड़ियों का झुण्ड मस्ती से अनाज के दाने चुग रहा था । अचानक एक गिद्व आकाश से नीचे उतरने लगा । उस की दृष्टि उसी झुण्ड पर टिकी हुई थी । किसी विपति के पूर्वाभास से चिन्तित नन्हे पक्षी उड़ान भरने के लिए आतुर दिखाई दिए परन्तु गिद्व के डैने उन्हें लपेट लेने के लिए व्याकुल थे ।<br />
<br />
बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाने के लिए कब लालायित नहीं होती । जिजीविषा का अन्त शिकारी की जीत बनती है और हर शिकारी सफलता के लिए कुछ भी करने के लिए तत्पर हो जाता है । और जान बहादुर भी इस का अपवाद नहीं था बल्कि वह तो एक अभ्यस्त व्याध था ।<br />
<br />
संस्थान के परिसर में कुछ लोग काले झण्डे ले कर खड़े थे और थोड़े थेड़े अन्तराल के बाद नारे लगा रहे थे: हेरा फेरी नहीं चलेगी ,गुण्डागर्दी नहीं चलेगी<br />
जो हम से टकराएगा, चूरचूर हो जाए गा ।<br />
<br />
दरवाजे पर ही कार रोक दी गई । वह हड़बड़ाया सा बाहर निकला और बोला - यहां कोई वर्क कल्चर ही नहीं । तभी तो इण्डिया फिसड्उी देशों की लिस्ट में बहुत उपर आता है । वह कार से उतर कर पैदल ही अन्दर चला गया ।<br />
<br />
अन्दर जाते ही उस ने जुल्फी राम की क्लास लनी शुरु कर दी । कहा - तुम इतने से लोगों को भी संभाल नहीं सकते । स्थिति से निपटने के बीस तरीके होते हैं । और ये हैं कौन लोग जो बेवजह यहां नारेबाजी कर रहे हैं ?<br />
<br />
‘सर,ये मैगज़ीन सैक्शन के वह लोग हैं, जिन्हें आप ने रिटरेंच करने का निर्णय लिया है । ‘<br />
<br />
‘ उस सेक्शन में तो तीन-चार ही लोग थे परन्तु यह भीड़ ? और फिर जब मैगजीन ही नहीं छपेगी तो इन लोगों का यहां क्या काम? मैं फालतू का बोझ नहीं ढो सकता ।‘स्टेनली ने अपने अन्दाज में कहा ।<br />
‘सर, ये तो सरकारी कर्मचारियों के समकक्ष वेतन के अनुसार मुआवजे की मांग कर रहे हैं ,जो बहुत ज्यादा बने गा ।‘ <br />
‘मांगने से ही सब कुछ मिल जाए ,फिर तो मैं भी आकाश मांग लूं । दिमाग मैं लगाउं और जो पैसा मैं ने मेहनत से कमाया है , वह सारा इन्हीं में बांट दूं ? हरगिज़ नहीं । मेरी रगों में अमरीकी खून प्रवाहित है । ससुरों को ऐसा सबक सिखांउगा कि ताउम्र याद रखेंगे|<br />
बाहर अब भी नारे लग रहे थे । जुल्फी राम परेशान था परन्तु स्टेनली पर इस सब का ज्यादा असर दिखाई नहीं दे रहा था ।<br />
<br />
<br />
‘क्या ? कोई पैसा नहीं बचा ? क्या सारा चोगा आप ही चुग जाओ गे ?‘ क्षण भर रुक कर फिर बोला-तो क्या मैं यहां खाक छानने आता हूं । दरअसल यहां किसी को पैसे की कद्र ही नहीं । सब बिना काम किए अपनी जेबें भर कर ले जाना चाहते हैं ।‘स्टेनली का पारा चढ़ रहा था ।<br />
‘सर, इस में हम कुछ कर ही नहीं सकते । कागज़्ा़ के रेट दो गुना बढ़ गए और... और फिर हर काम पर अतिरिक्त टैक्स और सैस लगने से सब गड़ब्ड़ा गया है ।'' जुल्फी राम ने मरियल सा मुह बना कर कहा ।<br />
‘कल से सब का वेतन आधा कर दो ।‘ स्टेनली गर्जा ।<br />
‘जी,सर लेकिन'<br />
‘लेकिन क्या ? मैं ने भी कैसा बिज़नेस पार्टनर चुना है । गधे को घोड़ा समझने की भूल मुझी पर भौरी पड़ रही है । लोग भी कितने अजीब हैं । अैर यहां के नेताओं की तो बात ही अलग है। चुनाव क्या आते हैं कि बाकी सब कुछ भूल कर आवारा पशुओं की भांति यहां वहां भटकते फिरते हैं । चौबीस घंटे बक बक । रैलियां ही रैलियां । रोड शो करते हुए हाथ ऐसे हिलाते हैं , मानो कोई हिलने की बीमारी लग गई हो । बस कुर्सी चाहिए । अंट संट बकना आम बात है । जो भी दिमाग में आए, , बिना सोचे समझे कुछ भी घोषणा कर देते हैं । तभी तो सैंकड़ों वर्ष अ्रगेजों के चाकर बन कर रहे । बे पंेदे के लोटे ।‘स्टेनली खुद भाषण देने के मूड में था ।<br />
‘सर, वेतन आधा करने के विरोध में कर्मचारी कोर्ट में चले जांए गे ।‘<br />
‘तो चले जांए ।कोर्ट में दस बीस साल केस सड़ता रहेगा और हम अपना सामान बटोर कर चलते बने गे । यह तो भारतीय न्याय की महानता है कि फरियादी मर भी जाता है और फाइल धूल चाटती रहती है ।‘<br />
<br />
‘सर, एक बार फिर सोच लो ।पहले ही कई केस कोर्ट में विचाराधीन हैं ।‘ जुल्फी राम बुदबुदाया ।<br />
‘एक बार फैसला कर दिया ,सो कर दिया । स्टेनली अपना निर्णय कभी बदलता नहीं । मजदूर आदमी अपने आप थक कर घर बैठ जांए गे ।‘ भेड़ की खाल में भेड़िया गुर्राया ।<br />
<br />
संस्थान में भगदड़ मची हुई थी ।<br />
कोई अस्फुट स्वर में कह रहा था -व्यापारी कहीं का भी हो वह अन्दर से जल्लाद ही होता है , बाहर भले ही वह मेमने की खाल ओढ़ कर रखे ।<br />
‘ नहीं,नहीं ,ऐसा कुछ नहीं । हमारे अन्नदाता तो बहुत भले इन्सान हैं । हमारे दयानिधि तो देश के प्रति अपने ऋृण से उऋृण होने के लिए आये है।‘ तोता राम ने आंखों में आर्द्रता का भाव छलकाते हुए कहा ।<br />
‘ तुम्हारी मौलिकता की दाद देनी पड़े गी । हर बार तुम स्टेनली को एक नया नाम दे देते हो और एक एक्सटरा इन्ंक्रीमेंट का जुगाड़ बना लेते हो । क्या नाम दिया है दयानिधि । इसे दयानिधि नहीं विष निधि या विष सागर कहो ‘ मधुसूदन ने मुंह बनाते हुए कहा |<br />
‘ तुम कभी सकारात्मक नहीं होते । जानते हो स्टेनली तो अपना प्रकाशन संस्थान बेचने के लिए भी तैयार हो गया था परन्तु बात ही नहीं बनी ।‘‘<br />
‘ बात इस लिए नहीं बनी क्यों कि जो वह दे रहे थे , स्टेनली उस का दस गुना मांग रहा था । यह सब कर्मचारियों के लिए दिखावा था । और तुम समझते हो कि लाट साहब ने तुम्हें नौकरी दे दी और तुम भूखे मरने से बच गए । ऐसा नहीं है । वास्तव में काम तोे उसे मिला है । ज़मीन हमारी ,मेहनत हमारी और अधिकार उस का । देखना एक न एक दिनवह सब कुछ बटोर कर फुर्र हो जाए गा ।‘‘मधुसूदन ने उदास स्वर में कहा ।<br />
उसे प्रायः लगता था कि उस के साथी उस की बात को गम्भीरता से नहीं लेते थे । उसे अन्तरमुखी कह कर टाल देते । और कभी कभी तो उसे लाल सलाम तक कह देते । लेकिन वे सब लाट साहब की अर्दल में लगे रहते । कुछ तो जुल्फी राम के भी पाले हुए थे । वह भी बराबर फीड बैक लेता रहता था ।<br />
सब की निगाहें अब आकाश पर लगी हुई थीं । किसी भी समय हवाई जहाज़ गगल ऐयर पोर्ट पर उतर सकता था । स्टेनली के भारतीय पार्टनर जुल्फी राम ताजे फूलों का मोटा सा हार ले कर पहले ही वहां पंहुुच चुके थे ।<br />
<br />
आदमी के हौसले को सलाम । कोलम्बस और वास्को डी गामा और ऐसे ही और कितने ही सिर फिरे, जिन्हों ने दुनिया का इतिहास ही बदल दिया । मध्यकालीन कवियों की कल्पना कितनी उर्वरा थी । सागर संतरण कर के नायक नायिका की प्राप्ति के लिए निकलता है और अपने पराक्रम के बल पर विषम स्थितियों पर विजय प्राप्त कर घर लौटता है । ऐसे ही जान कम्पनी के जान बहादुर भी कभी विजय अभियान पर निकले हों गे ।<br />
31 दिसम्बर, सन 1600 का दिन कैसा रहा हो गा जिसने विश्व का इतिहास ही बदल दिया | कई बार छोटे छोटे फैसले बड़े कारनामों का कारण बन जाते हैं । लन्दन के एक पार्क में बैठे चार पांच मित्रों के दिमाग में एक खुराफात आई । एक मित्र ने कहा- देखो, हम यहां तो बिल्कुल निकम्मे हैं । सुना है कि एशिया और खास कर भारत में बहुत सम्पन्नता है । क्यों न व्यापार के लिए उधर ही निकल जांए ?<br />
‘बात तो सौ टके की है ।लेकिन यदि हम अपने रसूख से महारानी से अनुमति ले लें एशिया में व्यापार करने के लिए तो बात पक्की भी हो जाए गी और सहज भी ।‘ हेडली ने सुझाया ।<br />
‘ बिल्कुल ठीक ।हम कल ही अनुमति के लिए प्रयत्न करते हैं ‘। चार्ल्टन ने कहा ।<br />
‘ कमाई का कोई आसान तरीका ढूँढना चाहिए । यहां सर पटक पटक कर थक गए ।‘हेडली ने थके हुए स्वर में कहा ।<br />
उन्होंने खूब मंथन किया और अन्ततः अपने मिशन ठगी ठोरी को अमली जामा पहनाने के लिए अंग्रेजो की टोली निकल पड़ी । धीरे धीरे सरकते हुए ये आगे बढ़ते गए और अपने पैर जमाते गए ।<br />
बस फिर क्या था । ईस्ट इंडिया कम्पनी के पूर्वजों ने आकार लेना शुरु कर दिया था । व्यापारी कब शासक बन गए , जनता को पता ही नहीं चला और एक के बाद एक देश उन का उपनिवेश बनता चला गया । एक बार पांव जम गए, तो सैंकड़ों वर्षों का जुगाड़ फिट हो गया ।<br />
ईस्ट इण्डिया कम्पनी से मुक्ति प्राप्त करने में कितना खून पसीना बहाना पड़ा ।और अब स्वतंत्र भारत में शोषण अब किसी और रुप में फिर लौट रहा था । पश्चिम के मुंह भारत का खून कुछ इस प्रकार लगा कि छोड़ते नहीं बनता । एक जान कम्पनी गई तो अब अमरीकी जान साहब आ गए खून चूसने । यह क्या विडम्बना है कि आर्थिक शोषण निरन्तर चलता ही रहता है । यह क्या बात बनी कि मैगजीन बन्द हो गई तो उस सेक्शन वालों को सड़क पर फैंक दो ।<br />
स्टेनली का असली नाम अर्जुन था । उस के दादा लटकते फटकते बहुत पहले अमरीका चले गए थे । जैसा कि होता है उन्हों ने खूब संघर्ष किया और परिवार को स्थापित कर दिया । वर्षों तक वह भारत नहीं आए । इतना अवश्य था कि उन्हों ने जब भी किसी बच्चे की शादी करनी होती तो वे विज्ञापन के माध्यम से कोई न कोई रिश्ता ढंूढ लेते और समधियों को अमरीका बुला कर वहीं पर विवाह संस्कार सम्पन्न करवा देते ।<br />
अर्जुन का जन्म अमरीका में ही हुआ था । वहीं पला बढ़ा , अतः उस के विचार रहन सहन अंग्रेजों सा ही था ा बड़ा हुआ तो उस ने अपना नाम अर्जुन से बदल कर स्टेनली रख लिया । पिता ने विरोध भी किया परन्तु अर्जुन को भारतीय नाम हरगिज पसंद नहीं था । वह इसे पिछड़ेपन से जोड़ता था ।<br />
एक दिन वह इरोज़ नाम की युवती को अपने घर ले आया । घर वालों ने नाक भौं सिकोर्ड़ी परन्तु स्टेनली ने कहा - पापा ,आप को इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए । मैं और इरोज एक दूसरे को पसन्द करते हैं और जल्दी ही शादी करने का विचार रखते हैं ।इरोज दो चार दिन हमारे साथ रहे गी तथा माहौल को परखे गी। फिर अपना निर्णय करे गी । आप चिन्ता न करे वह मेरे कमरे में मेरे ही साथ रह ले गी । आप को परेशान होने की जरुरत नहीं ।<br />
वह इरोज़ के साथ बहुत खुश था ।<br />
<br />
वेे दोनों व्यवसाय से प्रशिक्षित पत्रकार थे । स्टेनली ने एमबीए भी कर रखा था । दोनो बोस्टन से सिटी न्यूज़ निकालने लगे, जो थेाड़े ही समय में खूब चल निकला । उस में प्रवासी भारतीयों पर विशेष सामग्री रहती थी । वैसे भी घर से दूर रहने वाले लोग प्रायः होम सिक्नेस से ग्रस्त रहते हैं और जब उन्हें पत्र पत्रिकाओे में अपने देश के बारे में या विदेश में रह रहे अन्य लोगों के बारे में सूचनांए मिलती हैं तो अच्छा ही लगता है ।<br />
बोस्टन सिटी न्यूज़ की सफलता से उत्साहित हो कर एक दिन इरोज़ ने ही कहा - अर्जुन ,उसे स्टेनली की बजाए भारतीय नाम अधिक पसंद था , क्यों न हम भारत में जा कर तम्हारे पुरखों के प्रदेश में एक समाचार पत्र निकालें । हमें अनुभव भी है और हम कमाई भी खूब कर सकेंगे ।<br />
स्टेनली को आइडिया भा गया। उस ने इस पर खोजबीन शुरु कर दी । और जल्दी ही कौड़ियों के भाव उसे जमीन मिल गई और एक बड़ा संस्थान आकार लेने लगा। आसपास के लोगों की आंखे खुलने लगीं ।<br />
जुल्फी राम का काम पिम्प का सा था । कभी कभी वह पिम्प शब्द के बारे में सोचता, तो मन ही मन उसे घिन हो आती । परन्तु उस ने अपना जुगाड़ भी तो फिट करना था । लोगों को ललचाना और शानदार नौकरी का वायदा कर के उन से दुंगुना कम लेना । अखबार चलने लगा और स्टेनली की जेबें लबालब भरने लगीं । जो भी नया पछी फंसाना होता, उसे इमोशनल स्तर पर भी प्रभावित किया जाता । ‘देखो, स्टेनली, अमरीका से यहां आ कर यहां के लोगों के लिए रोजगार खोल रहा है । आप का फर्ज भी बनता है कि आप भी अपने प्रदेश की सेवा करें । इस पत्र को अपना ही समझें और इस का प्रचार प्रसार करें ।<br />
और लोग थे कि अपनी फोटो छपवाने के लिए या अपनी कोई खबर छपवाने के लिए दीवाने हुए जा रहे थे । गली गली में संवाददाता हो गए । उन्हें वेतन तो कुछ देना नहीं होता था बल्कि उल्टे उन पर दवाब बनाया जाता कि वे विज्ञापन लांए ।धीरे धीरे ब्लैक मेल करने वाले संवाददाताओं की एक जमात ही तैयार हो गर्ह जो डरा धमका कर या प्यार से विज्ञापन का पैसा इकट्ठा करते और जान साहब यानि अपने आका को खुश रखते । इस प्रकार जल्दी ही पैसा बरसने लगा । कर्मचारियों ने जी तोड़ मेहनत की और स्टेनली-इरोज के खजाने भर दिए ।<br />
काम का इतना जुनून कि दोनों बाल बच्चों समेत भारत में ही आ गए और वर्षों तक यहीं डटे रहे । फिर अचानक इरोज ने कहा - अर्जुन , हमें वापिस लौटना हो गा ।<br />
‘क्यों ?‘<br />
‘क्योंकि बच्चों की पढ़ाई की बात है । यहां तो ऐसे स्कूल हैं नहीं जो अमरीकी स्कूलों का मुकाबला कर सकें । पैसा खूब हो गया है। यहां किसी को दायित्व संभाल दो और आप अमरीका से इस का संचालन करो ।<br />
‘लेकिन कोई भरोसे का आदमी भी तो मिले ।‘<br />
‘जुल्फी राम को ही गांठ लो ।पहले भी तो सारे षडयंन्त्रकारी काम यही करता करवाता है ।इसे कुछ शेयर दे दो ।बंधा रहेगा।‘<br />
‘बात तो तुम्हारी ठीक है । ‘<br />
और काम बन गया था । जुल्फी राम तो चाहता ही था कि उस के हाथ में पावर आए और वह अपने रिश्तेदारों को स्टाफ में भर ले ।<br />
इस बार ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लोग अमरीका से आए थे और लूटपाट कर के वापिस जाने की तैयारी में थे क्यों कि अब उन का इधर उधर से आया पैसा सफंेद नहीं हो रहा था ।सरकार ने बहुत से ऐसे कानून बना दिए थे कि सारा लेनदेन चैक के माध्यम से होता था । बोरियों में भर कर पैसा रखने की गुंजायश नहीं थी । आधार और पैन ने भी नकेल कस दी थी । और हर तीन महीने बाद उसे अमरीका से भारत आना पड़ता था । बूढ़ी हड्डियां भी कड़कने लगी थीं ।<br />
वह संस्थान परिसर में पहुंचा ही था कि कुछ कर्मचारियों ने चिल्लाना शुरु किया - स्टेनली ,हाय हाय ।हमें सरकारी वेतनमान के हिसाब से हमारा बकाया दो । हमारा सात साल का बकाया दो ।<br />
स्टेनली,हाय हाय । जुल्फी राम हाय हाय । जुल्फी राम मन ही मन खुश हो रहा था कि यदि स्टेनली छोड़ छाड़ कर चला जाए तो संस्थान पर उस का कब्जा हो जाए गा । परन्तु स्टेनली के मन में तो कुछ और ही था । उस ने सभी कर्मचारियों को बुलाया और कहा - अब यह प्रकाशन का बोझ मुझ से नहीं ढोया जाता । कल से अंग्रेजी सेक्शन बन्द कर दो । आप जहां चाहांे नौकरी ढूंूढ लो । आप को बढ़िया सिफारिशी चिट्ठियां हम देंगे ।‘<br />
‘नहीं ,नहीं । हमें चिटिठयां नहीं काम चाहिए । हमें दूसरे अखबार में एब्जार्ब करो नहीं कर सकते तो जो बीस साल में हम ने आप के लिए कमाया है, उस में से हमें हमारा हिस्सा दो ।‘<br />
‘ हां, हां, हमारा हक हमें दो ।‘<br />
‘आप का हक आप को मिले गा । उस से कौन इन्कार कर सकता है लेकिन परिस्थितियां ही कुछ ऐसी बन गई हैं कि कारोबार बन्द करना पड़े गा । कसूर मेरा नहीं लेकिन यहां सरकारें गिरगिट की तरह रंग बदलती हैं । आप मुझे दो दिन का समय दो । फिर बैठ कर बात करें गे । जुल्फी राम जी भी कुछ सोचें गे । आप निश्चिन्त रहें|’<br />
स्टेनली के मन में चल कुछ और ही रहा था - यहां से माल्या, मोदी जैसे करोड़ों रुपया ले कर भाग गए और और सरकार कुछ भी नहीं कर सकी । बच निकलने के लिए यही रास्ता क्यों न मैं भी ,उस के मन में यह कौंध आई । <br />
अखबार के गेट पर कर्मचारियों की हाय हाय सियापे का सीन क्रियेट कर रही थी निरन्तर । मधुसूदन जानता था कि इस योजना के पीछे भी पिम्प का ही दिमाग काम कर रहा था । उस ने अपने साथियों से कहा- यदि हम अब पीछे हट गए ,तो हमारे हाथ कुछ भी नहीं आए गा ।<br />
‘फिर क्या करें ? दो दिन इन्तजार करें ?‘एक साथी ने प्रश्नवाचक दृष्टि में कहा ।‘फिर तो इन्तजार ही करते रह जाओगे । लुहार का हथौड़ा सही समय पर ही चलना चाहिए । यदि बाद में इसे हवा में घुमाते फिरो गे, तो अपनी ही हड्डियां तुड़वाओ गे ।‘<br />
‘सुना है वह तो निकल गया बहाना बना कर|' ठाकुर ने कहा । ‘ वह तो यहीं बैठा है, जो हमें बुला बुला कर लाया था, बड़े बड़े वायदों के साथ ।‘ मधुसूदन ने अपने मन की बात कही ।<br />
उन्हें समझ आ गया था कि अब क्या करना था । तोता राम के हाथ में तला और चाबी थी और वे सब हर हर जुल्फी, बस अब कर कर जुल्फी, नही ंतो मर मर जुल्फी का शंखनाद करते हुए संस्थान के प्रथम तल पर चढ़े जा रहे थे, जहां वह अपने कमरे में दुबका बैठा था ।<br />
गिद्ध तो चिड़ियों के झुण्ड पर पहले ही झपट्टा मार कर उड़ गया था ।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B0_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=35788जान बहादुर फुर्र / सुशील कुमार फुल्ल2018-06-02T07:32:51Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
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<div>एक शान्त स्थली पर चिड़ियों का झुण्ड मस्ती से अनाज के दाने चुग रहा था । अचानक एक गिद्व आकाश से नीचे उतरने लगा । उस की दृष्टि उसी झुण्ड पर टिकी हुई थी । किसी विपति के पूर्वाभास से चिन्तित नन्हे पक्षी उड़ान भरने के लिए आतुर दिखाई दिए परन्तु गिद्व के डैने उन्हें लपेट लेने के लिए व्याकुल थे ।<br />
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बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाने के लिए कब लालायित नहीं होती । जिजीविषा का अन्त शिकारी की जीत बनती है और हर शिकारी सफलता के लिए कुछ भी करने के लिए तत्पर हो जाता है । और जान बहादुर भी इस का अपवाद नहीं था बल्कि वह तो एक अभ्यस्त व्याध था ।<br />
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संस्थान के परिसर में कुछ लोग काले झण्डे ले कर खड़े थे और थोड़े थेड़े अन्तराल के बाद नारे लगा रहे थे: हेरा फेरी नहीं चले गी ,गुण्डागर्दी नहीं चले गी<br />
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जो हम से टकराए गा, चूरचूर हो जाए गा ।<br />
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दरवाजे पर ही कार रोक दी गई । वह हड़बड़ाया सा बाहर निकला और बोला - यहां कोई वर्क कल्चर ही नहीं । तभी तो इण्डिया फिसड्उी देशों की लिस्ट में बहुत उपर आता है । वह कार से उतर कर पैदल ही अन्दर चला गया ।<br />
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अन्दर जाते ही उस ने जुल्फी राम की क्लास लनी शुरु कर दी । कहा - तुम इतने से लोगों को भी संभाल नहीं सकते । स्थिति से निपटने के बीस तरीके होते हैं । और ये हैं कौन लोग जो बेवजह यहां नारेबाजी कर रहे हैं ?<br />
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‘सर,ये मैगज़ीन सैक्शन के वक लोग हैं, जिन्हें आप ने रिटरेंच करने का निर्णय लिया है । ‘<br />
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‘ उस सेक्शन में तो तीन-चार ही लोग थे परन्तु यह भीड़ ? और फिर जब मैगजीन ही नहीं छपेगी तो इन लोगों का यहां क्या काम? मैं फालतू का बोझ नहीं ढो सकता ।‘स्टेनली ने अपने अन्दाज में कहा ।<br />
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‘सर, ये तो सरकारी कर्मचारियों के समकक्ष वेतन के अनुसार मुआवजे की मांग कर रहे हैं ,जो बहुत ज्यादा बने गा ।‘<br />
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‘मांगने से ही सब कुछ मिल जाए ,फिर तो मैं भी आकाश मांग लूं । दिमाग मैं लगाउं और जो पैसा मैं ने मेहनत से कमाया है , वह सारा इन्हीं में बांट दूं ? हरगिज़ नहीं । मेरी रगों में अमरीकी खून प्रवाहित है । ससुरों को ऐसा सबक सिखांउगा कि ताउम्र याद रखेंगे|<br />
बाहर अब भी नारे लग रहे थे । जुल्फी राम परेशान था परन्तु स्टेनली पर इस सब का ज्यादा असर दिखाई नहीं दे रहा था ।<br />
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‘क्या ? कोई पैसा नहीं बचा ? क्या सारा चोगा आप ही चुग जाओ गे ?‘ क्षण भर रुक कर फिर बोला-तो क्या मैं यहां खाक छानने आता हूं । दरअसल यहां किसी को पैसे की कद्र ही नहीं । सब बिना काम किए अपनी जेबें भर कर ले जाना चाहते हैं ।‘स्टेनली का पारा चढ़ रहा था ।<br />
‘सर, इस में हम कुछ कर ही नहीं सकते । कागज़्ा़ के रेट दो गुना बढ़ गए और... और फिर हर काम पर अतिरिक्त टैक्स और सैस लगने से सब गड़ब्ड़ा गया है ।'' जुल्फी राम ने मरियल सा मुह बना कर कहा ।<br />
‘कल से सब का वेतन आधा कर दो ।‘ स्टेनली गर्जा ।<br />
‘जी,सर लेकिन'<br />
‘लेकिन क्या ? मैं ने भी कैसा बिज़नेस पार्टनर चुना है । गधे को घोड़ा समझने की भूल मुझी पर भौरी पड़ रही है । लोग भी कितने अजीब हैं । अैर यहां के नेताओं की तो बात ही अलग है। चुनाव क्या आते हैं कि बाकी सब कुछ भूल कर आवारा पशुओं की भांति यहां वहां भटकते फिरते हैं । चौबीस घंटे बक बक । रैलियां ही रैलियां । रोड शो करते हुए हाथ ऐसे हिलाते हैं , मानो कोई हिलने की बीमारी लग गई हो । बस कुर्सी चाहिए । अंट संट बकना आम बात है । जो भी दिमाग में आए, , बिना सोचे समझे कुछ भी घोषणा कर देते हैं । तभी तो सैंकड़ों वर्ष अ्रगेजों के चाकर बन कर रहे । बे पंेदे के लोटे ।‘स्टेनली खुद भाषण देने के मूड में था ।<br />
‘सर, वेतन आधा करने के विरोध में कर्मचारी कोर्ट में चले जांए गे ।‘<br />
‘तो चले जांए ।कोर्ट में दस बीस साल केस सड़ता रहेगा और हम अपना सामान बटोर कर चलते बने गे । यह तो भारतीय न्याय की महानता है कि फरियादी मर भी जाता है और फाइल धूल चाटती रहती है ।‘<br />
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‘सर, एक बार फिर सोच लो ।पहले ही कई केस कोर्ट में विचाराधीन हैं ।‘ जुल्फी राम बुदबुदाया ।<br />
‘एक बार फैसला कर दिया ,सो कर दिया । स्टेनली अपना निर्णय कभी बदलता नहीं । मजदूर आदमी अपने आप थक कर घर बैठ जांए गे ।‘ भेड़ की खाल में भेड़िया गुर्राया ।<br />
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संस्थान में भगदड़ मची हुई थी ।<br />
कोई अस्फुट स्वर में कह रहा था -व्यापारी कहीं का भी हो वह अन्दर से जल्लाद ही होता है , बाहर भले ही वह मेमने की खाल ओढ़ कर रखे ।<br />
‘ नहीं,नहीं ,ऐसा कुछ नहीं । हमारे अन्नदाता तो बहुत भले इन्सान हैं । हमारे दयानिधि तो देश के प्रति अपने ऋृण से उऋृण होने के लिए आये है।‘ तोता राम ने आंखों में आर्द्रता का भाव छलकाते हुए कहा ।<br />
‘ तुम्हारी मौलिकता की दाद देनी पड़े गी । हर बार तुम स्टेनली को एक नया नाम दे देते हो और एक एक्सटरा इन्ंक्रीमेंट का जुगाड़ बना लेते हो । क्या नाम दिया है दयानिधि । इसे दयानिधि नहीं विष निधि या विष सागर कहो ‘ मधुसूदन ने मुंह बनाते हुए कहा |<br />
‘ तुम कभी सकारात्मक नहीं होते । जानते हो स्टेनली तो अपना प्रकाशन संस्थान बेचने के लिए भी तैयार हो गया था परन्तु बात ही नहीं बनी ।‘‘<br />
‘ बात इस लिए नहीं बनी क्यों कि जो वह दे रहे थे , स्टेनली उस का दस गुना मांग रहा था । यह सब कर्मचारियों के लिए दिखावा था । और तुम समझते हो कि लाट साहब ने तुम्हें नौकरी दे दी और तुम भूखे मरने से बच गए । ऐसा नहीं है । वास्तव में काम तोे उसे मिला है । ज़मीन हमारी ,मेहनत हमारी और अधिकार उस का । देखना एक न एक दिनवह सब कुछ बटोर कर फुर्र हो जाए गा ।‘‘मधुसूदन ने उदास स्वर में कहा ।<br />
उसे प्रायः लगता था कि उस के साथी उस की बात को गम्भीरता से नहीं लेते थे । उसे अन्तरमुखी कह कर टाल देते । और कभी कभी तो उसे लाल सलाम तक कह देते । लेकिन वे सब लाट साहब की अर्दल में लगे रहते । कुछ तो जुल्फी राम के भी पाले हुए थे । वह भी बराबर फीड बैक लेता रहता था ।<br />
सब की निगाहें अब आकाश पर लगी हुई थीं । किसी भी समय हवाई जहाज़ गगल ऐयर पोर्ट पर उतर सकता था । स्टेनली के भारतीय पार्टनर जुल्फी राम ताजे फूलों का मोटा सा हार ले कर पहले ही वहां पंहुुच चुके थे ।<br />
<br />
आदमी के हौसले को सलाम । कोलम्बस और वास्को डी गामा और ऐसे ही और कितने ही सिर फिरे, जिन्हों ने दुनिया का इतिहास ही बदल दिया । मध्यकालीन कवियों की कल्पना कितनी उर्वरा थी । सागर संतरण कर के नायक नायिका की प्राप्ति के लिए निकलता है और अपने पराक्रम के बल पर विषम स्थितियों पर विजय प्राप्त कर घर लौटता है । ऐसे ही जान कम्पनी के जान बहादुर भी कभी विजय अभियान पर निकले हों गे ।<br />
31 दिसम्बर, सन 1600 का दिन कैसा रहा हो गा जिसने विश्व का इतिहास ही बदल दिया | कई बार छोटे छोटे फैसले बड़े कारनामों का कारण बन जाते हैं । लन्दन के एक पार्क में बैठे चार पांच मित्रों के दिमाग में एक खुराफात आई । एक मित्र ने कहा- देखो, हम यहां तो बिल्कुल निकम्मे हैं । सुना है कि एशिया और खास कर भारत में बहुत सम्पन्नता है । क्यों न व्यापार के लिए उधर ही निकल जांए ?<br />
‘बात तो सौ टके की है ।लेकिन यदि हम अपने रसूख से महारानी से अनुमति ले लें एशिया में व्यापार करने के लिए तो बात पक्की भी हो जाए गी और सहज भी ।‘ हेडली ने सुझाया ।<br />
‘ बिल्कुल ठीक ।हम कल ही अनुमति के लिए प्रयत्न करते हैं ‘। चार्ल्टन ने कहा ।<br />
‘ कमाई का कोई आसान तरीका ढूँढना चाहिए । यहां सर पटक पटक कर थक गए ।‘हेडली ने थके हुए स्वर में कहा ।<br />
उन्होंने खूब मंथन किया और अन्ततः अपने मिशन ठगी ठोरी को अमली जामा पहनाने के लिए अंग्रेजो की टोली निकल पड़ी । धीरे धीरे सरकते हुए ये आगे बढ़ते गए और अपने पैर जमाते गए ।<br />
बस फिर क्या था । ईस्ट इंडिया कम्पनी के पूर्वजों ने आकार लेना शुरु कर दिया था । व्यापारी कब शासक बन गए , जनता को पता ही नहीं चला और एक के बाद एक देश उन का उपनिवेश बनता चला गया । एक बार पांव जम गए, तो सैंकड़ों वर्षों का जुगाड़ फिट हो गया ।<br />
ईस्ट इण्डिया कम्पनी से मुक्ति प्राप्त करने में कितना खून पसीना बहाना पड़ा ।और अब स्वतंत्र भारत में शोषण अब किसी और रुप में फिर लौट रहा था । पश्चिम के मुंह भारत का खून कुछ इस प्रकार लगा कि छोड़ते नहीं बनता । एक जान कम्पनी गई तो अब अमरीकी जान साहब आ गए खून चूसने । यह क्या विडम्बना है कि आर्थिक शोषण निरन्तर चलता ही रहता है । यह क्या बात बनी कि मैगजीन बन्द हो गई तो उस सेक्शन वालों को सड़क पर फैंक दो ।<br />
स्टेनली का असली नाम अर्जुन था । उस के दादा लटकते फटकते बहुत पहले अमरीका चले गए थे । जैसा कि होता है उन्हों ने खूब संघर्ष किया और परिवार को स्थापित कर दिया । वर्षों तक वह भारत नहीं आए । इतना अवश्य था कि उन्हों ने जब भी किसी बच्चे की शादी करनी होती तो वे विज्ञापन के माध्यम से कोई न कोई रिश्ता ढंूढ लेते और समधियों को अमरीका बुला कर वहीं पर विवाह संस्कार सम्पन्न करवा देते ।<br />
अर्जुन का जन्म अमरीका में ही हुआ था । वहीं पला बढ़ा , अतः उस के विचार रहन सहन अंग्रेजों सा ही था ा बड़ा हुआ तो उस ने अपना नाम अर्जुन से बदल कर स्टेनली रख लिया । पिता ने विरोध भी किया परन्तु अर्जुन को भारतीय नाम हरगिज पसंद नहीं था । वह इसे पिछड़ेपन से जोड़ता था ।<br />
एक दिन वह इरोज़ नाम की युवती को अपने घर ले आया । घर वालों ने नाक भौं सिकोर्ड़ी परन्तु स्टेनली ने कहा - पापा ,आप को इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए । मैं और इरोज एक दूसरे को पसन्द करते हैं और जल्दी ही शादी करने का विचार रखते हैं ।इरोज दो चार दिन हमारे साथ रहे गी तथा माहौल को परखे गी। फिर अपना निर्णय करे गी । आप चिन्ता न करे वह मेरे कमरे में मेरे ही साथ रह ले गी । आप को परेशान होने की जरुरत नहीं ।<br />
वह इरोज़ के साथ बहुत खुश था ।<br />
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वेे दोनों व्यवसाय से प्रशिक्षित पत्रकार थे । स्टेनली ने एमबीए भी कर रखा था । दोनो बोस्टन से सिटी न्यूज़ निकालने लगे, जो थेाड़े ही समय में खूब चल निकला । उस में प्रवासी भारतीयों पर विशेष सामग्री रहती थी । वैसे भी घर से दूर रहने वाले लोग प्रायः होम सिक्नेस से ग्रस्त रहते हैं और जब उन्हें पत्र पत्रिकाओे में अपने देश के बारे में या विदेश में रह रहे अन्य लोगों के बारे में सूचनांए मिलती हैं तो अच्छा ही लगता है ।<br />
बोस्टन सिटी न्यूज़ की सफलता से उत्साहित हो कर एक दिन इरोज़ ने ही कहा - अर्जुन ,उसे स्टेनली की बजाए भारतीय नाम अधिक पसंद था , क्यों न हम भारत में जा कर तम्हारे पुरखों के प्रदेश में एक समाचार पत्र निकालें । हमें अनुभव भी है और हम कमाई भी खूब कर सकेंगे ।<br />
स्टेनली को आइडिया भा गया। उस ने इस पर खोजबीन शुरु कर दी । और जल्दी ही कौड़ियों के भाव उसे जमीन मिल गई और एक बड़ा संस्थान आकार लेने लगा। आसपास के लोगों की आंखे खुलने लगीं ।<br />
जुल्फी राम का काम पिम्प का सा था । कभी कभी वह पिम्प शब्द के बारे में सोचता, तो मन ही मन उसे घिन हो आती । परन्तु उस ने अपना जुगाड़ भी तो फिट करना था । लोगों को ललचाना और शानदार नौकरी का वायदा कर के उन से दुंगुना कम लेना । अखबार चलने लगा और स्टेनली की जेबें लबालब भरने लगीं । जो भी नया पछी फंसाना होता, उसे इमोशनल स्तर पर भी प्रभावित किया जाता । ‘देखो, स्टेनली, अमरीका से यहां आ कर यहां के लोगों के लिए रोजगार खोल रहा है । आप का फर्ज भी बनता है कि आप भी अपने प्रदेश की सेवा करें । इस पत्र को अपना ही समझें और इस का प्रचार प्रसार करें ।<br />
और लोग थे कि अपनी फोटो छपवाने के लिए या अपनी कोई खबर छपवाने के लिए दीवाने हुए जा रहे थे । गली गली में संवाददाता हो गए । उन्हें वेतन तो कुछ देना नहीं होता था बल्कि उल्टे उन पर दवाब बनाया जाता कि वे विज्ञापन लांए ।धीरे धीरे ब्लैक मेल करने वाले संवाददाताओं की एक जमात ही तैयार हो गर्ह जो डरा धमका कर या प्यार से विज्ञापन का पैसा इकट्ठा करते और जान साहब यानि अपने आका को खुश रखते । इस प्रकार जल्दी ही पैसा बरसने लगा । कर्मचारियों ने जी तोड़ मेहनत की और स्टेनली-इरोज के खजाने भर दिए ।<br />
काम का इतना जुनून कि दोनों बाल बच्चों समेत भारत में ही आ गए और वर्षों तक यहीं डटे रहे । फिर अचानक इरोज ने कहा - अर्जुन , हमें वापिस लौटना हो गा ।<br />
‘क्यों ?‘<br />
‘क्योंकि बच्चों की पढ़ाई की बात है । यहां तो ऐसे स्कूल हैं नहीं जो अमरीकी स्कूलों का मुकाबला कर सकें । पैसा खूब हो गया है। यहां किसी को दायित्व संभाल दो और आप अमरीका से इस का संचालन करो ।<br />
‘लेकिन कोई भरोसे का आदमी भी तो मिले ।‘<br />
‘जुल्फी राम को ही गांठ लो ।पहले भी तो सारे षडयंन्त्रकारी काम यही करता करवाता है ।इसे कुछ शेयर दे दो ।बंधा रहेगा।‘<br />
‘बात तो तुम्हारी ठीक है । ‘<br />
और काम बन गया था । जुल्फी राम तो चाहता ही था कि उस के हाथ में पावर आए और वह अपने रिश्तेदारों को स्टाफ में भर ले ।<br />
इस बार ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लोग अमरीका से आए थे और लूटपाट कर के वापिस जाने की तैयारी में थे क्यों कि अब उन का इधर उधर से आया पैसा सफंेद नहीं हो रहा था ।सरकार ने बहुत से ऐसे कानून बना दिए थे कि सारा लेनदेन चैक के माध्यम से होता था । बोरियों में भर कर पैसा रखने की गुंजायश नहीं थी । आधार और पैन ने भी नकेल कस दी थी । और हर तीन महीने बाद उसे अमरीका से भारत आना पड़ता था । बूढ़ी हड्डियां भी कड़कने लगी थीं ।<br />
वह संस्थान परिसर में पहुंचा ही था कि कुछ कर्मचारियों ने चिल्लाना शुरु किया - स्टेनली ,हाय हाय ।हमें सरकारी वेतनमान के हिसाब से हमारा बकाया दो । हमारा सात साल का बकाया दो ।<br />
स्टेनली,हाय हाय । जुल्फी राम हाय हाय । जुल्फी राम मन ही मन खुश हो रहा था कि यदि स्टेनली छोड़ छाड़ कर चला जाए तो संस्थान पर उस का कब्जा हो जाए गा । परन्तु स्टेनली के मन में तो कुछ और ही था । उस ने सभी कर्मचारियों को बुलाया और कहा - अब यह प्रकाशन का बोझ मुझ से नहीं ढोया जाता । कल से अंग्रेजी सेक्शन बन्द कर दो । आप जहां चाहांे नौकरी ढूंूढ लो । आप को बढ़िया सिफारिशी चिट्ठियां हम देंगे ।‘<br />
‘नहीं ,नहीं । हमें चिटिठयां नहीं काम चाहिए । हमें दूसरे अखबार में एब्जार्ब करो नहीं कर सकते तो जो बीस साल में हम ने आप के लिए कमाया है, उस में से हमें हमारा हिस्सा दो ।‘<br />
‘ हां, हां, हमारा हक हमें दो ।‘<br />
‘आप का हक आप को मिले गा । उस से कौन इन्कार कर सकता है लेकिन परिस्थितियां ही कुछ ऐसी बन गई हैं कि कारोबार बन्द करना पड़े गा । कसूर मेरा नहीं लेकिन यहां सरकारें गिरगिट की तरह रंग बदलती हैं । आप मुझे दो दिन का समय दो । फिर बैठ कर बात करें गे । जुल्फी राम जी भी कुछ सोचें गे । आप निश्चिन्त रहें|’<br />
स्टेनली के मन में चल कुछ और ही रहा था - यहां से माल्या, मोदी जैसे करोड़ों रुपया ले कर भाग गए और और सरकार कुछ भी नहीं कर सकी । बच निकलने के लिए यही रास्ता क्यों न मैं भी ,उस के मन में यह कौंध आई । <br />
अखबार के गेट पर कर्मचारियों की हाय हाय सियापे का सीन क्रियेट कर रही थी निरन्तर । मधुसूदन जानता था कि इस योजना के पीछे भी पिम्प का ही दिमाग काम कर रहा था । उस ने अपने साथियों से कहा- यदि हम अब पीछे हट गए ,तो हमारे हाथ कुछ भी नहीं आए गा ।<br />
‘फिर क्या करें ? दो दिन इन्तजार करें ?‘एक साथी ने प्रश्नवाचक दृष्टि में कहा ।‘फिर तो इन्तजार ही करते रह जाओगे । लुहार का हथौड़ा सही समय पर ही चलना चाहिए । यदि बाद में इसे हवा में घुमाते फिरो गे, तो अपनी ही हड्डियां तुड़वाओ गे ।‘<br />
‘सुना है वह तो निकल गया बहाना बना कर|' ठाकुर ने कहा । ‘ वह तो यहीं बैठा है, जो हमें बुला बुला कर लाया था, बड़े बड़े वायदों के साथ ।‘ मधुसूदन ने अपने मन की बात कही ।<br />
उन्हें समझ आ गया था कि अब क्या करना था । तोता राम के हाथ में तला और चाबी थी और वे सब हर हर जुल्फी, बस अब कर कर जुल्फी, नही ंतो मर मर जुल्फी का शंखनाद करते हुए संस्थान के प्रथम तल पर चढ़े जा रहे थे, जहां वह अपने कमरे में दुबका बैठा था ।<br />
गिद्ध तो चिड़ियों के झुण्ड पर पहले ही झपट्टा मार कर उड़ गया था ।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B0_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=35787जान बहादुर फुर्र / सुशील कुमार फुल्ल2018-06-02T07:23:25Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: 'एक शान्त स्थली पर चिड़ियों का झुण्ड मस्ती से अनाज क...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<div>एक शान्त स्थली पर चिड़ियों का झुण्ड मस्ती से अनाज के दाने चुग रहा था । अचानक एक गिद्व आकाश से नीचे उतरने लगा । उस की दृष्टि उसी झुण्ड पर टिकी हुई थी । किसी विपति के पूर्वाभास से चिन्तित नन्हे पक्षी उड़ान भरने के लिए आतुर दिखाई दिए परन्तु गिद्व के डैने उन्हें लपेट लेने के लिए व्याकुल थे ।<br />
बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाने के लिए कब लालायित नहीं होती । जिजीविषा का अन्त शिकारी की जीत बनती है और हर शिकारी सफलता के लिए कुछ भी करने के लिए तत्पर हो जाता है । और जान बहादुर भी इस का अपवाद नहीं था बल्कि वह तो एक अभ्यस्त व्याध था ।<br />
संस्थान के परिसर में कुछ लोग काले झण्डे ले कर खड़े थे और थोड़े थेड़े अन्तराल के बाद नारे लगा रहे थे: हेरा फेरी नहीं चले गी ,गुण्डागर्दी नहीं चले गी<br />
जो हम से टकराए गा, चूरचूर हो जाए गा ।<br />
दरवाजे पर ही कार रोक दी गई । वह हड़बड़ाया सा बाहर निकला और बोला - यहां कोई वर्क कल्चर ही नहीं । तभी तो इण्डिया फिसड्उी देशों की लिस्ट में बहुत उपर आता है । वह कार से उतर कर पैदल ही अन्दर चला गया ।<br />
अन्दर जाते ही उस ने जुल्फी राम की क्लास लनी शुरु कर दी । कहा - तुम इतने से लोगों को भी संभाल नहीं सकते । स्थिति से निपटने के बीस तरीके होते हैं । और ये हैं कौन लोग जो बेवजह यहां नारेबाजी कर रहे हैं ?<br />
‘सर,ये मैगज़ीन सैक्शन के वक लोग हैं, जिन्हें आप ने रिटरेंच करने का निर्णय लिया है । ‘<br />
‘ उस सेक्शन में तो तीन-चार ही लोग थे परन्तु यह भीड़ ? और फिर जब मैगजीन ही नहीं छपेगी तो इन लोगों का यहां क्या काम? मैं फालतू का बोझ नहीं ढो सकता ।‘स्टेनली ने अपने अन्दाज में कहा ।<br />
‘सर, ये तो सरकारी कर्मचारियों के समकक्ष वेतन के अनुसार मुआवजे की मांग कर रहे हैं ,जो बहुत ज्यादा बने गा ।‘<br />
‘मांगने से ही सब कुछ मिल जाए ,फिर तो मैं भी आकाश मांग लूं । दिमाग मैं लगाउं और जो पैसा मैं ने मेहनत से कमाया है , वह सारा इन्हीं में बांट दूं ? हरगिज़ नहीं । मेरी रगों में अमरीकी खून प्रवाहित है । ससुरों को ऐसा सबक सिखांउगा कि ताउम्र याद रखेंगे|<br />
बाहर अब भी नारे लग रहे थे । जुल्फी राम परेशान था परन्तु स्टेनली पर इस सब का ज्यादा असर दिखाई नहीं दे रहा था ।<br />
<br />
‘क्या ? कोई पैसा नहीं बचा ? क्या सारा चोगा आप ही चुग जाओ गे ?‘ क्षण भर रुक कर फिर बोला-तो क्या मैं यहां खाक छानने आता हूं । दरअसल यहां किसी को पैसे की कद्र ही नहीं । सब बिना काम किए अपनी जेबें भर कर ले जाना चाहते हैं ।‘स्टेनली का पारा चढ़ रहा था ।<br />
‘सर, इस में हम कुछ कर ही नहीं सकते । कागज़्ा़ के रेट दो गुना बढ़ गए और... और फिर हर काम पर अतिरिक्त टैक्स और सैस लगने से सब गड़ब्ड़ा गया है ।'' जुल्फी राम ने मरियल सा मुह बना कर कहा ।<br />
‘कल से सब का वेतन आधा कर दो ।‘ स्टेनली गर्जा ।<br />
‘जी,सर लेकिन'<br />
‘लेकिन क्या ? मैं ने भी कैसा बिज़नेस पार्टनर चुना है । गधे को घोड़ा समझने की भूल मुझी पर भौरी पड़ रही है । लोग भी कितने अजीब हैं । अैर यहां के नेताओं की तो बात ही अलग है। चुनाव क्या आते हैं कि बाकी सब कुछ भूल कर आवारा पशुओं की भांति यहां वहां भटकते फिरते हैं । चौबीस घंटे बक बक । रैलियां ही रैलियां । रोड शो करते हुए हाथ ऐसे हिलाते हैं , मानो कोई हिलने की बीमारी लग गई हो । बस कुर्सी चाहिए । अंट संट बकना आम बात है । जो भी दिमाग में आए, , बिना सोचे समझे कुछ भी घोषणा कर देते हैं । तभी तो सैंकड़ों वर्ष अ्रगेजों के चाकर बन कर रहे । बे पंेदे के लोटे ।‘स्टेनली खुद भाषण देने के मूड में था ।<br />
‘सर, वेतन आधा करने के विरोध में कर्मचारी कोर्ट में चले जांए गे ।‘<br />
‘तो चले जांए ।कोर्ट में दस बीस साल केस सड़ता रहेगा और हम अपना सामान बटोर कर चलते बने गे । यह तो भारतीय न्याय की महानता है कि फरियादी मर भी जाता है और फाइल धूल चाटती रहती है ।‘<br />
‘सर, एक बार फिर सोच लो ।पहले ही कई केस कोर्ट में विचाराधीन हैं ।‘ जुल्फी राम बुदबुदाया ।<br />
‘एक बार फैसला कर दिया ,सो कर दिया । स्टेनली अपना निर्णय कभी बदलता नहीं । मजदूर आदमी अपने आप थक कर घर बैठ जांए गे ।‘ भेड़ की खाल में भेड़िया गुर्राया ।<br />
संस्थान में भगदड़ मची हुई थी ।<br />
कोई अस्फुट स्वर में कह रहा था -व्यापारी कहीं का भी हो वह अन्दर से जल्लाद ही होता है , बाहर भले ही वह मेमने की खाल ओढ़ कर रखे ।<br />
‘ नहीं,नहीं ,ऐसा कुछ नहीं । हमारे अन्नदाता तो बहुत भले इन्सान हैं । हमारे दयानिधि तो देश के प्रति अपने ऋृण से उऋृण होने के लिए आये है।‘ तोता राम ने आंखों में आर्द्रता का भाव छलकाते हुए कहा ।<br />
‘ तुम्हारी मौलिकता की दाद देनी पड़े गी । हर बार तुम स्टेनली को एक नया नाम दे देते हो और एक एक्सटरा इन्ंक्रीमेंट का जुगाड़ बना लेते हो । क्या नाम दिया है दयानिधि । इसे दयानिधि नहीं विष निधि या विष सागर कहो ‘ मधुसूदन ने मुंह बनाते हुए कहा ।े<br />
‘ तुम कभी सकारात्मक नहीं होते । जानते हो स्टेनली तो अपना प्रकाशन संस्थान बेचने के लिए भी तैयार हो गया था परन्तु बात ही नहीं बनी ।‘‘<br />
‘ बात इस लिए नहीं बनी क्यों कि जो वह दे रहे थे , स्टेनली उस का दस गुना मांग रहा था । यह सब कर्मचारियों के लिए दिखावा था । और तुम समझते हो कि लाट साहब ने तुम्हें नौकरी दे दी और तुम भूखे मरने से बच गए । ऐसा नहीं है । वास्तव में काम तोे उसे मिला है । ज़मीन हमारी ,मेहनत हमारी और अधिकार उस का । देखना एक न एक दिनवह सब कुछ बटोर कर फुर्र हो जाए गा ।‘‘मधुसूदन ने उदास स्वर में कहा ।<br />
उसे प्रायः लगता था कि उस के साथी उस की बात को गम्भीरता से नहीं लेते थे । उसे अन्तरमुखी कह कर टाल देते । और कभी कभी तो उसे लाल सलाम तक कह देते । लेकिन वे सब लाट साहब की अर्दल में लगे रहते । कुछ तो जुल्फी राम के भी पाले हुए थे । वह भी बराबर फीड बैक लेता रहता था ।<br />
सब की निगाहें अब आकाश पर लगी हुई थीं । किसी भी समय हवाई जहाज़ गगल ऐयर पोर्ट पर उतर सकता था । स्टेनली के भारतीय पार्टनर जुल्फी राम ताजे फूलों का मोटा सा हार ले कर पहले ही वहां पंहुुच चुके थे ।<br />
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आदमी के हौसले को सलाम । कोलम्बस और वास्को डी गामा और ऐसे ही और कितने ही सिर फिरे, जिन्हों ने दुनिया का इतिहास ही बदल दिया । मध्यकालीन कवियों की कल्पना कितनी उर्वरा थी । सागर संतरण कर के नायक नायिका की प्राप्ति के लिए निकलता है और अपने पराक्रम के बल पर विषम स्थितियों पर विजय प्राप्त कर घर लौटता है । ऐसे ही जान कम्पनी के जान बहादुर भी कभी विजय अभियान पर निकले हों गे ।<br />
31 दिसम्बर, सन 1600 का दिन कैसा रहा हो गा जिसने विश्व का इतिहास ही बदल दिया | कई बार छोटे छोटे फैसले बड़े कारनामों का कारण बन जाते हैं । लन्दन के एक पार्क में बैठे चार पांच मित्रों के दिमाग में एक खुराफात आई । एक मित्र ने कहा- देखो, हम यहां तो बिल्कुल निकम्मे हैं । सुना है कि एशिया और खास कर भारत में बहुत सम्पन्नता है । क्यों न व्यापार के लिए उधर ही निकल जांए ?<br />
‘बात तो सौ टके की है ।लेकिन यदि हम अपने रसूख से महारानी से अनुमति ले लें एशिया में व्यापार करने के लिए तो बात पक्की भी हो जाए गी और सहज भी ।‘ हेडली ने सुझाया ।<br />
‘ बिल्कुल ठीक ।हम कल ही अनुमति के लिए प्रयत्न करते हैं ‘। चार्ल्टन ने कहा ।<br />
‘ कमाई का कोई आसान तरीका ढूँढना चाहिए । यहां सर पटक पटक कर थक गए ।‘हेडली ने थके हुए स्वर में कहा ।<br />
उन्हां ने खूब मंथन किया और अन्ततः अपने मिशन ठगी ठोरी को अमली जामा पहनाने के लिए अंग्रेजो की टोली निकल पड़ी । धीरे धीरे सरकते हुए ये आगे बढ़ते गए और अपने पैर जमाते गए ।<br />
बस फिर क्या था । ईस्ट इंडिया कम्पनी के पूर्वजों ने आकार लेना शुरु कर दिया था । व्यापारी कब शासक बन गए , जनता को पता ही नहीं चला और एक के बाद एक देश उन का उपनिवेश बनता चला गया । एक बार पांव जम गए, तो सैंकड़ों वर्षों का जुगाड़ फिट हो गया ।<br />
ईस्ट इण्डिया कम्पनी से मुक्ति प्राप्त करने में कितना खून पसीना बहाना पड़ा ।और अब स्वतंत्र भारत में शोषण अब किसी और रुप में फिर लौट रहा था । पश्चिम के मुंह भारत का खून कुछ इस प्रकार लगा कि छोड़ते नहीं बनता । एक जान कम्पनी गई तो अब अमरीकी जान साहब आ गए खून चूसने । यह क्या विडम्बना है कि आर्थिक शोषण निरन्तर चलता ही रहता है । यह क्या बात बनी कि मैगजीन बन्द हो गई तो उस सेक्शन वालों को सड़क पर फैंक दो ।<br />
स्टेनली का असली नाम अर्जुन था । उस के दादा लटकते फटकते बहुत पहले अमरीका चले गए थे । जैसा कि होता है उन्हों ने खूब संघर्ष किया और परिवार को स्थापित कर दिया । वर्षों तक वह भारत नहीं आए । इतना अवश्य था कि उन्हों ने जब भी किसी बच्चे की शादी करनी होती तो वे विज्ञापन के माध्यम से कोई न कोई रिश्ता ढंूढ लेते और समधियों को अमरीका बुला कर वहीं पर विवाह संस्कार सम्पन्न करवा देते ।<br />
अर्जुन का जन्म अमरीका में ही हुआ था । वहीं पला बढ़ा , अतः उस के विचार रहन सहन अंग्रेजों सा ही था ा बड़ा हुआ तो उस ने अपना नाम अर्जुन से बदल कर स्टेनली रख लिया । पिता ने विरोध भी किया परन्तु अर्जुन को भारतीय नाम हरगिज पसंद नहीं था । वह इसे पिछड़ेपन से जोड़ता था ।<br />
एक दिन वह इरोज़ नाम की युवती को अपने घर ले आया । घर वालों ने नाक भौं सिकोर्ड़ी परन्तु स्टेनली ने कहा - पापा ,आप को इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए । मैं और इरोज एक दूसरे को पसन्द करते हैं और जल्दी ही शादी करने का विचार रखते हैं ।इरोज दो चार दिन हमारे साथ रहे गी तथा माहौल को परखे गी। फिर अपना निर्णय करे गी । आप चिन्ता न करे वह मेरे कमरे में मेरे ही साथ रह ले गी । आप को परेशान होने की जरुरत नहीं ।<br />
वह इरोज़ के साथ बहुत खुश था ।<br />
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वेे दोनों व्यवसाय से प्रशिक्षित पत्रकार थे । स्टेनली ने एमबीए भी कर रखा था । दोनो बोस्टन से सिटी न्यूज़ निकालने लगे, जो थेाड़े ही समय में खूब चल निकला । उस में प्रवासी भारतीयों पर विशेष सामग्री रहती थी । वैसे भी घर से दूर रहने वाले लोग प्रायः होम सिक्नेस से ग्रस्त रहते हैं और जब उन्हें पत्र पत्रिकाओे में अपने देश के बारे में या विदेश में रह रहे अन्य लोगों के बारे में सूचनांए मिलती हैं तो अच्छा ही लगता है ।<br />
बोस्टन सिटी न्यूज़ की सफलता से उत्साहित हो कर एक दिन इरोज़ ने ही कहा - अर्जुन ,उसे स्टेनली की बजाए भारतीय नाम अधिक पसंद था , क्यों न हम भारत में जा कर तम्हारे पुरखों के प्रदेश में एक समाचार पत्र निकालें । हमें अनुभव भी है और हम कमाई भी खूब कर सकेंगे ।<br />
स्टेनली को आइडिया भा गया। उस ने इस पर खोजबीन शुरु कर दी । और जल्दी ही कौड़ियों के भाव उसे जमीन मिल गई और एक बड़ा संस्थान आकार लेने लगा। आसपास के लोगों की आंखे खुलने लगीं ।<br />
जुल्फी राम का काम पिम्प का सा था । कभी कभी वह पिम्प शब्द के बारे में सोचता, तो मन ही मन उसे घिन हो आती । परन्तु उस ने अपना जुगाड़ भी तो फिट करना था । लोगों को ललचाना और शानदार नौकरी का वायदा कर के उन से दुंगुना कम लेना । अखबार चलने लगा और स्टेनली की जेबें लबालब भरने लगीं । जो भी नया पछी फंसाना होता, उसे इमोशनल स्तर पर भी प्रभावित किया जाता । ‘देखो, स्टेनली, अमरीका से यहां आ कर यहां के लोगों के लिए रोजगार खोल रहा है । आप का फर्ज भी बनता है कि आप भी अपने प्रदेश की सेवा करें । इस पत्र को अपना ही समझें और इस का प्रचार प्रसार करें ।<br />
और लोग थे कि अपनी फोटो छपवाने के लिए या अपनी कोई खबर छपवाने के लिए दीवाने हुए जा रहे थे । गली गली में संवाददाता हो गए । उन्हें वेतन तो कुछ देना नहीं होता था बल्कि उल्टे उन पर दवाब बनाया जाता कि वे विज्ञापन लांए ।धीरे धीरे ब्लैक मेल करने वाले संवाददाताओं की एक जमात ही तैयार हो गर्ह जो डरा धमका कर या प्यार से विज्ञापन का पैसा इकट्ठा करते और जान साहब यानि अपने आका को खुश रखते । इस प्रकार जल्दी ही पैसा बरसने लगा । कर्मचारियों ने जी तोड़ मेहनत की और स्टेनली-इरोज के खजाने भर दिए ।<br />
काम का इतना जुनून कि दोनों बाल बच्चों समेत भारत में ही आ गए और वर्षों तक यहीं डटे रहे । फिर अचानक इरोज ने कहा - अर्जुन , हमें वापिस लौटना हो गा ।<br />
‘क्यों ?‘<br />
‘क्योंकि बच्चों की पढ़ाई की बात है । यहां तो ऐसे स्कूल हैं नहीं जो अमरीकी स्कूलों का मुकाबला कर सकें । पैसा खूब हो गया है। यहां किसी को दायित्व संभाल दो और आप अमरीका से इस का संचालन करो ।<br />
‘लेकिन कोई भरोसे का आदमी भी तो मिले ।‘<br />
‘ जुल्फी राम को ही गांठ लो ।पहले भी तो सारे षडयंन्त्रकारी काम यही करता करवाता है ।इसे कुछ शेयर दे दो ।बंधा रहे गा ।‘<br />
‘बात तो तुम्हारी ठीक है । ‘<br />
और काम बन गया था । जुल्फी राम तो चाहता ही था कि उस के हाथ में पावर आए और वह अपने रिश्तेदारों को स्टाफ में भर ले ।<br />
इस बार ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लोग अमरीका से आए थे और लूटपाट कर के वापिस जाने की तैयारी में थे क्यों कि अब उन का इधर उधर से आया पैसा सफंेद नहीं हो रहा था ।सरकार ने बहुत से ऐसे कानून बना दिए थे कि सारा लेनदेन चैक के माध्यम से होता था । बोरियों में भर कर पैसा रखने की गुंजायश नहीं थी । आधार और पैन ने भी नकेल कस दी थी । और हर तीन महीने बाद उसे अमरीका से भारत आना पड़ता था । बूढ़ी हड्डियां भी कड़कने लगी थीं ।<br />
वह संस्थान परिसर में पहंुंचा ही था कि कुछ कर्मचारियों ने चिल्लाना शुरु किया - स्टेनली ,हाय हाय ।हमें सरकारी वेतनमानें के हियाब से हमारा बकाया दो । हमारा सात साल का बकाया दो ।<br />
स्टेनली,हाय हाय । जुल्फी राम हाय हाय । जुल्फी राम मन ही मन खुश हो रहा था कि यदि स्टेनली छोड़ छाड़ कर चला जाए तो संस्थान पर उस का कब्जा हो जाए गा । परन्तु स्टेनली के मन में तो कुछ और ही था । उस ने सभी कर्मचारियों को बुलाया और कहा - अब यह प्रकाशन का बोझ मुझ से नहीं ढोया जाता । कल से अंग्रेजी सेक्शन बन्द कर दो । आप जहां चाहांे नौकरी ढूंूढ लो । आप को बढ़िया सिफारिशी चिट्ठियां हम देंगे ।‘<br />
‘नहीं ,नहीं । हमें चिटिठयां नहीं काम चाहिए । हमें दूसरे अखबार में एब्जार्ब करो नहीं कर सकते तो ो जो बीस साल में हम ने आप के लिए कमाया है, उस में से हमें हमारा हिस्सा दो ।‘<br />
‘ हां, हां, हमारा हक हमें दो ।‘<br />
‘ आप का हक आप को मिले गा । उस से कौन इन्कार कर सकता है लेकिन परिस्थितियां ही कुछ ऐसी बन गई हैं कि कारोबार बन्द करना पड़े गा । कसूर मेरा नहीं लेकिन यहां सरकारें गिरगिट की तरह रंग बदलती हैं । आप मुझे दो दिन का समय दो । फिर बैठ कर बात करें गे । जुल्फी राम जी भी कुछ सोचें गे । आप निश्चिन्त रहें|’<br />
स्टेनली के मन में चल कुछ और ही रहा था - यहां से माल्या, मोदी जैसे करोड़ों रुपया ले कर भाग गए और और सरकार कुछ भी नहीं कर सकी । बच निकलने के लिए यही रास्ता क्यों न मैं भी ,उस के मन में यह कौंध आई । <br />
अखबार के गेट पर कर्मचारियों की हाय हाय सियापे का सीन क्रियेट कर रही थी निरन्तर । मधुसूदन जानता था कि इस योजना के पीछे भी पिम्प का ही दिमाग काम कर रहा था । उस ने अपने साथियों से कहा- यदि हम अब पीछे हट गए ,तो हमारे हाथ कुछ भी नहीं आए गा ।<br />
‘ फिर क्या करें ? दो दिन इन्तजार करें ?‘एक साथी ने प्रश्नवाचक दृष्टि में कहा ।<br />
‘फिर तो इन्तजार ही करते रह जाओ गे । लुहार का हथौड़ा सही समय पर ही चलना चाहिए । यदि बाद में इसे हवा में घुमाते फिरो गे, तो अपनी ही हड्डियां तुड़वाओ गे ।‘<br />
‘ सुना है वह तो निकल गया बहाना बना कर । ‘ठाकुर ने कहा ।<br />
‘ वह तो यहीं बैठा है, जो हमें बुला बुला कर लाया था, बड़े बड़े वायदों के साथ ।‘ मधुसूदन ने अपने मन की बात कही ।<br />
उन्हें समझ आ गया था कि अब क्या करना था । तोता राम के हाथ में तला और चाबी थी और वे सब हर हर जुल्फी, बस अब कर कर जुल्फी, नही ंतो मर मर जुल्फी का शंखनाद करते हुए संस्थान के प्रथम तल पर चढ़े जा रहे थे, जहां वह अपने कमरे में दुबका बैठा था ।<br />
गिद्ध तो चिड़ियों के झुण्ड पर पहले ही झपट्टा मार कर उड़ गया था ।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=35786सुशील कुमार फुल्ल2018-06-02T07:17:00Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Sushil-kumar-phull-gadyakosh.jpg<br />
|नाम=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=15 अगस्त 1941<br />
|जन्मस्थान=गांव काईनौर, ज़िला रोपड़, पंजाब<br />
|मृत्यु=<br />
|कृतियाँ=<br />
|विविध=<br />
|जीवनी=[[सुशील कुमार फुल्ल / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Sushil Kumar Phull<br />
|shorturl=<br />
|kavitakosh=<br />
|copyright=<br />
}}<br />
====कहानियाँ====<br />
* [[बसेरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बढ़ता हुआ पानी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[मेमना / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फंदा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ठूँठ / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[कोहरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बांबी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[रिज पर फौजी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[माटी के खिलौने / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[चिड़ियों का चोगा / सुशील कुमार फुल्ल]] <br />
* [[दान पुन्न / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अटकाव / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अनुपस्थित / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[प्रेम का अन्तर्राष्ट्रीय संस्करण / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अपने-अपने दुःख / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फ़ासला / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ककून / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[जिजीविषा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[जंगल / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बाहर का आदमी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[सांप / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[किलेबन्दी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[मुण्डू / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बोक / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ब्रेक-डाउन / सुशील कुमार फुल्ल ]]<br />
* [[अलबेला / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[दण्डकीला / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[जान बहादुर फुर्र / सुशील कुमार फुल्ल]]</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9F_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%A8%E0%A4%88_%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%95_/_%E0%A4%B9%E0%A5%88%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%BC_%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%A8_%E0%A4%8F%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%A8_/_%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9C&diff=32564सम्राट की नई पोशाक / हैंज़ क्रिश्चियन एंडरसन / द्विजेन्द्र द्विज2016-11-03T14:13:54Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार= हैंज़ क्रिश्चियन एंडरसन<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
'''अनुवाद:''' [[द्विजेन्द्र द्विज]]<br />
<br />
<br />
वर्षों पहले एक सम्राट था, जिसे नए परिधानों की ऐसी ललक थी कि वह नये परिधानों को प्राप्त करने के लिए अपना सारा धन व्यय कर देता था; उसकी एक मात्र अभिलाषा सदा भव्य-वस्त्रों में सजे रहना ही थी। उसे अपने सैनिकों की चिन्ता नहीं थी, और नाट्यशाला भी उसका मन बहलाने में असमर्थ थी, वास्तव में, उसकी एक मात्र ललक थी बाहर जाना और अपने वस्त्रों के नए जोड़े का प्रदर्शन करना| उसके पास दिन के प्रत्येक घण्टे के बाद बदलने के लिए एक नया कोट था; और जहाँ एक सम्राट के लिए यह कहा जाना चाहिये, “वे मंत्री-मंडल में हैं। ” वहीं उसके बारे में कहा जा सकता था, “सम्राट अपने श्रृंगार-कक्ष में हैं।”<br />
<br />
वह महानगर जिसमें उसका आवास था, बहुत भड़कीला था; जहाँ भूमण्डल के सभी भागों से प्रतिदिन नए विदेशी आते थे। एक दिन इस नगर में दो झाँसिये(ठग) आये; उन्होंने नगरवासियों को आश्वस्त कर लिया कि वे बुनकर हैं, और बताया कि वे कल्पनातीत मनोहर वस्त्र बुन सकते हैं। उनके रंग और नमूने, उन्होंने कहा, न केवल अपवाद-स्वरूप सुन्दर होते हैं अपितु उनके बुने कपड़े से बने हुए वस्त्र, अपने पद के लिए अयोग्य अथवा अक्षम्य रूप से अल्प-बुद्धि व्यक्ति को दिखाई ही न देने के अद्भुत गुण से भी सम्पन्न हैं।<br />
<br />
“वह कपड़ा तो अद्भुत होना चाहिए,” सम्राट ने सोचा, “अगर मैं इस कपड़े से बने वस्त्र पहन लूँ तो मुझे अपने साम्राज्य में पदों के लिए अयोग्य व्यक्तियों का पता चलेगा ही साथ ही मैं चतुर तथा अल्प-बुद्धि लोगों में अन्तर भी कर पाऊँगा। मुझे तो यह कपड़ा अविलम्ब बुनवा लेना चाहिए।" और उसने एक भारी भरकम अग्रिम धनराशि भी उन झाँसियों को सौंप दी तकि वे अविलम्ब अपना काम आरम्भ कर सकें। उन झाँसियों ने दो करघे लगा लिए और कठोर परिश्रम करने का अभिनय करते रहे, परन्तु करघों पर उन्होंने कुछ भी नहीं बुना। सम्राट से उन्होंने बहुत-सा स्वर्ण-वस्त्र माँगा; जो मिला हड़प लिया, और खाली करघों पर रात गये देर तक व्यस्त रहने का नाटक करते।<br />
<br />
“ मैं यह जानना चाहूँगा कि उनका कपड़ा बुनने का काम कैसा चल रहा है,” सम्राट ने सोचा| परन्तु वह असहज हो उठा जब उसे याद आया कि पद के लिए अयोग्य व्यक्ति तो इस वस्त्र को देख ही नहीं सकता। व्यक्तिगत रूप से उसका मत था कि उसे किसी भी प्रकार का कोई डर नहीं है, फिर भी उसे यही उपयुक्त लगा कि वस्तुस्थिति को देखने के लिए उसे पहले किसी और को भेजना चाहिए । कपड़े के विशिष्ट गुण से सब नगरवासी परिचित थे और हर व्यक्ति यह देखने के लिए उत्सुक था कि उसके पड़ोसी कितने बुरे अथवा अल्प-बुद्धि हैं|<br />
<br />
"मैं अपने ईमानदार वृद्ध मन्त्री को बुनकरों के पास भेजूँगा,” सम्राट ने सोचा। ''वही अच्छी तरह से निर्णय कर सकता है कि वह कपड़ा दिखाई कैसा देता है, क्योंकि वह बुद्धिमान है, और उससे बेहतर अपने पद के बारे में कोई नहीं जानता। " <br />
<br />
वह बूढ़ा भला मंत्री ख़ाली करघों के सामने बैठे झाँसियों के कमरे में गया। "भगवान हमारी रक्षा करे!” उसने सोचा। विस्फारित नेत्रों से उसने देखा, ”मैं तो कुछ देख ही नहीं पा रहा हूँ," परन्तु उसने ऐसा कहा नहीं। दोनों झाँसियों ने उससे अपने पास आने का अनुरोध किया और ख़ाली करघों की ओर संकेत करते हुए पूछा कि क्या उसे कपड़े का उत्कृष्ट नमूना और आकर्षक रंग प्रशंसनीय नहीं लग रहे| बूढे मन्त्री ने भरसक प्रयास किया परन्तु उसे कुछ भी तो दिखाई नहीं दिया, क्योंकि वहाँ देखने के लिए कुछ था ही नहीं। ”अरे, मैं इतना अल्पबुद्धि हूँ क्या? मुझे तो कभी ऐसा सोचना भी नहीं चाहिए था, और किसी को यह पता भी नहीं चलना चाहिए! क्या यह संभव है कि मै अपने पद के लिए अयोग्य हूँ? नहीं, नहीं, मैं यह नही कह सकता कि मैं कपड़े को नहीं देख पाया।”<br />
"तो क्या आपको कुछ भी नहीं कहना है? ” करघों पर बुनने का अभिनय करते हुए झाँसियों में से एक ने पूछा।<br />
<br />
“वाह, यह बहुत सुन्दर है! अत्यन्त-सुन्दर!” अपने चश्मे में से देखते हुए बूढ़े मन्त्री ने उत्तर दिया, ”क्या ही उत्कृष्ट नमूना है! कितने चटकीले रंग हैं! मैं सम्राट को बताउँगा कि मुझे तो कपड़ा बहुत ही अच्छा लगा।”<br />
<br />
“हमें यह सुन कर प्रसन्नता हुई।” दोनों बुनकरों ने कहा, और उन्होंने मन्त्री को रंगों और नमूनों का विवरण दिया। बूढ़े मन्त्री ने बड़े ध्यान से उनकी बात को सुना, ताकि वह जाकर सम्राट को बता सके कि उन्होंने क्या कहा है; और ऐसा ही उसने किया भी।<br />
<br />
अब उन्होंने और धन, रेशम और स्वर्ण-वस्त्र बुनाई के लिए माँगे। सब कुछ उन्होंने हड़प लिया। एक धागा भी वे करघों के पास तक नहीं लाये परन्तु, पहले की तरह ख़ाली करघों पर बुनाई करने का अभिनय करते रहे।<br />
<br />
बुनाई-कार्य की प्रगति का आकलन करने के लिए और यह पता लगाने के लिए कि कार्य कब तक पूर्ण होगा, सम्राट ने एक और सत्यवादी दरबारी को भेजा। वह भी देखता ही रह गया परन्तु कुछ भी देख नहीं पाया, क्योंकि देखने के लिए कुछ था ही नहीं। <br />
<br />
“क्या यह कपड़ा सुन्दर नहीं है? ” दोनों झाँसियों ने राजसी नमूना दिखाते हुए और उसका विवरण देते हुए जो वास्तव में था ही नहीं, उससे पूछा ।<br />
<br />
“मैं अल्पबुद्धि नहीं हूँ।” दरबारी ने कहा। ”मैं एक अच्छे पद पर हूँ और उसके लिए मैं अयोग्य हूँ। है तो यह बहुत स्तब्ध करने वाली बात, परन्तु मुझे इस बात का पता किसी को चलने नहीं देना चाहिए।”<br />
उसने अदृश्य कपड़े की बहुत प्रशंसा की, और सुन्दर रंगों और आकर्षक नमूने पर अपना हर्ष व्यक्त किया।<br />
“यह परम-श्रेष्ठ है महाराज!” उसने जाकर सम्राट को बताया। <br />
बहुमूल्य वस्त्र के चर्चे पूरे नगर में थे। अन्तत: सम्राट ने स्वयं उस वस्त्र को करघे पर देखना चाहा। पहले उस वस्त्र को देख चुके दोनों मंत्रियों के साथ बहुत से अन्य दरबारियों के झुण्ड में , सम्राट, दोनों चालाक झाँसियों से मिलने गया जो अब और भी कठोर परिश्रम करने में व्यस्त थे परन्तु किसी भी धागे का प्रयोग नहीं कर रहे थे। <br />
“क्या यह भव्य नहीं है?” पहले इस वस्त्र को देख चुके दोनों बूढ़े राजनेताओं ने पूछा।“ महाराज को रंगों और नमूने की प्रशंसा करनी चाहिए,” ख़ाली करघों की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा क्योंकि वे कल्पना कर रहे थे कि अन्य लोग उस वस्त्र को देख पा रहे होंगे।<br />
“यह क्या है?” सम्राट ने सोचा,“ मुझे तो कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा! यह तो बहुत भयानक है! क्या मैं अल्प-बुद्धि हूँ? क्या मैं सम्राट होने के योग्य नहीं हूँ? सच-मुच इससे अधिक भयानक मेरे साथ कुछ और हो ही नहीं सकता।”<br />
<br />
“ यह सत्य है,” बुनकरों की ओर मुड़ते हुए उसने कहा, ”तुम्हारे बुने वस्त्र को हमारे अनुमोदन की कृपा प्राप्त हो चुकी है; ”और सन्तुष्ट भाव से सिर हिलाते हुए उसने खाली करघों की ओर देखा, क्योंकि यह कहना उसे पसन्द नहीं था कि उसने कुछ भी नहीं देखा था। और उसके साथ आए समस्त दरबारी और परिचर, देखते ही रह गए, और भले ही वे अन्य लोगों के देखे हुए से कुछ भी अधिक नहीं देख पाए थे, उन्होंने भी सम्राट की भाँति कहा, “यह तो बहुत सुन्दर है! ” और सबने सम्राट को उन भव्य वस्त्रों को अत्यन्त निकट भविष्य में निकाली जाने वाली शोभायात्रा में धारण करने का परामर्श दिया। <br />
<br />
“यह भव्य है,” “यह अतिसुन्दर है,” “यह अत्यन्त श्रेष्ठ है,” के स्वर गूँजने लगे। प्रत्येक नागरिक अति-प्रसन्न प्रतीत हो रहा था। और सम्राट ने उन दोनों झाँसियों को “शाही दरबारी बुनकर” नियुक्त कर लिया। <br />
<br />
राजसी शोभा यात्रा से पहले की एक पूरी रात, झाँसियों ने करघे पर काम करने का अभिनय किया और सोलह से अधिक मोमबत्तियाँ जलाईं। नागरिकों को दिखाई देना चाहिए कि सम्राट की नई पोषाक के कार्य को सम्पन्न करने में वे कितने व्यस्त हैं। उन्होंने कपड़े को करघे से हटाने का अभिनय किया, और फिर उस वस्त्र पर बड़ी-बड़ी कैंचियों से कतर-ब्योंत का नाटक किया और बिना धागों की सूइयों से उसे सिला, और अन्तत: कहा: “अब सम्राट की नई पोशाक बनकर तैयार है।” <br />
<br />
सम्राट और उसके सब सामन्त कक्ष में आए; झाँसियों ने अपने बाजू इस मुद्रा में उठाए मानो वे अपने हाथों में कुछ उठाकर दिखा रहे हों और कहा: “यह पतलून है !” ” यह कोट है!” और “ यह चोगा है!” “ये सब वस्त्र मकड़ी के जाले की तरह हलके हैं, और यूँ लगना चाहिए कि शरीर पर कुछ धारण ही नहीं किया हुआ है; अपितु उनकी सुन्दरता ही यही है।”<br />
“वास्तव में!” दरबारियों ने कहा; परन्तु वे देख कुछ भी नहीं पाये क्योंकि देखने के लिए कुछ था ही नहीं।<br />
“क्या सम्राट अब कपड़े उतारने की कृपा करेंगे?” झाँसियों ने कहा, “ताकि हम बड़े दर्पण के सामने नये कपड़े पहनने में आपकी सहायता कर सकें?”<br />
सम्राट ने कपड़े उतार दिए,और झाँसियों ने उसे नई पोशाक पहनाने का अभिनय किया, पहले पतलून , फिर कोट फिर चोगा और सम्राट ने स्वयं को दर्पण के सामने हर दिशा से निहारा।<br />
कितने सुन्दर हैं ये वस्त्र!” “कितना सटीक नाप है!" सबने कहा,” “ कितना उत्कृष्ट नमूना है! कितने आकर्षक रंग हैं । कितनी भव्य पोशाक है!" <br />
विधिनायक ने उद्घोषणा की ,“ शोभायात्रा में ले जाये जाने वाले छत्र के वाहक तैयार हैं।”<br />
“मैं तैयार हूँ” सम्राट ने कहा। “क्या मेरी पोशाक मुझ पर भव्य नहीं लग रही?” वह एक बार फिर दर्पण की ओर मुड़ा ताकि नागरिक सोचें कि उसे अपनी पोशाक बहुत पसन्द है। पुछल्ला उठा कर चलने वाले प्रबन्धकों ने भी अपने हाथ ज़मीन की ओर यूँ फैलाए मानो उन्होंने पुच्छला उठा लिया हो और अपने हाथों में कुछ उठाकर चलने का अभिनय करने लगे| उन्हें भी लोगों का यह पता लगाना पसन्द नहीं था कि वे कुछ भी देख नहीं पा रहे थे।<br />
<br />
सम्राट शोभा यात्रा में सुन्दर छत्र के नीचे बढ़े जा रहा था । उसे गली में और खिड़कियों में से देखने वाले चिल्लाये: “वास्त्व में, अतुलनीय है सम्राट की नई पोशाक!” ” कितना लम्बा है इस पोशाक का पुछ्ल्ला!” “यह सम्राट पर कितनी बढिया लग रही है! ” कोई भी दूसरों को यह पता लगने नहीं देना चाहता था कि उसने कुछ भी नहीं देखा है क्योंकि अगर वह ऐसा कहता तो अपने पद के लिए अयोग्य पाया जाता अथवा अल्प-बुद्धि माना जाता। सम्राट के वस्त्रों की इससे पहले इतनी प्रशंसा नहीं हुई थी।<br />
“परन्तु सम्राट ने तो कुछ पहना ही नहीं है,” अंतत: एक बच्चे ने कहा। "भगवान के लिए! बच्चे की आवाज तो सुनिये,” उसके पिता ने कहा, और जो बच्चे ने कहा था, सब नागरिक एक-दूसरे के कान में फुसफुसाने लगे। "परन्तु सम्राट ने तो कुछ पहना ही नहीं है,” अंतत: सब चिल्ला उठे। इससे सम्राट बहुत प्रभावित हुआ क्योंकि उसे लगा कि वे सब सत्य कह कह रहे थे; परन्तु उसने सोचा, "मुझे अंत तक यूँ ही बने रहना चाहिए।" और पुछल्ला-प्रबन्धक और भी शान के साथ चलने लगे, मानो वे पुछ्ल्ला (जो था ही नहीं ) उठाए चले जा रहे हों।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%95%E0%A5%80%E0%A4%B2%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31623दण्डकीला / सुशील कुमार फुल्ल2016-08-26T03:31:59Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
'''अ'''ब वह लटका हुआ था ।<br />
आस पास वाले रिश्तेदार तो आ गए थे । उसे भी तुरन्त सन्देश कर दिया गया था परन्तु उसने नहीं आना था और नहीं वह आई लेकिन रिश्तेदार लोकलाज रखने के लिए जो भी पूछता यही कहते- हां, आ रही है । दूर है न ।<br />
<br />
फिर कोई दूसरा बात को ढकने के लिए कहता- पंचकूला दूर है । आने में तो टाईम लगता ही है ।<br />
कोई बुजुर्ग महिला कह रही थी - बीस साल से नहीं आई, तो अब क्यों आएगी । कैसे भूखा रखता था उसे और उस के बेटे को । कहता था अपना अपना कमाओ और खाओ ।<br />
<br />
‘सिरफिरा था । हर बात में लक्कड़ फँसाता था । ऐसे भी लोग होते हैं । लाखों रुपया कमाना लेकिन न खुद सुख उठाना न परिवार को लेने देना । अब ले जा जहां ले जाना है ।’ दूसरी किसी रिश्तेदार ने कहा ।<br />
<br />
टेबल पर टिफिन पड़ा था और वह पंखे से झूल रहा था ।<br />
<br />
<br />
गले में फंदा डाल पेड़ से लटक रहा अधेड़ का शव कितना वीभत्स लग रहा था ।<br />
पड़ोस में आ कर नये नये बसे प्रोफ़ेसर विभूति नारायण ने वृक्ष पर लटके शव पर कटाक्ष किया था-मरने के और भी सहज तरीके होते हैं ।<br />
<br />
आस पास खड़े किसी भी व्यक्ति ने उस की टिप्पणी पर ध्यान नहीं दिया था । मरने वाला पहले से तरीके तो सोच कर नहीं रखता । यह तो क्षणिक आवेश में लिया गया इम्पल्सिव निर्णय होता है । एक बार एक्शन हो गया तो उस पर पश्चाताप करने का अवसर भी नहीं मिलता ।<br />
<br />
अधेड़ एक पेड़ पर लटका हुआ था और दूसरे पेड़ पर बैठे पक्षी कांय कांय कर रहे थे ।भीड़ जमा होती जा रही थी ।<br />
<br />
<br />
<br />
वह अजीब ही आदमी था । बारह बहन भाइयों में आठवीं सन्तान । सब में परस्पर बड़ा स्नेह था । उस में पता नहीं यह प्रवृत्ति कहां से प्रवेश कर गई थी कि वह हर काम अलग ढंग सेे करता, आस पास की हर चीज उसे अपने टेरूट के अनुसार चाहिए थी । और दूसरों से अलग दिखना भी उसे पसंद था ।<br />
<br />
कभी कभी बाकी बहन भाइयों में से कोई न कोई उसे टुनका लगा देता- मास्टर बिशम्बर दास की घनी सन्तान में विभूति तो एक ही है ।<br />
<br />
वह शरारत को समझता और बचने के लिए बिना प्रतिवाद किए वहां से खिसक लेता ।<br />
आज सुबह जब उस का स्कूल का सहपाठी आया तो वह बेहद खुश था। बिल्कुल स्वच्छन्द भाव से बोला था - मणि, वर्षों बाद आज इस घर में किसी दोस्त के पांव पड़े हैं । मैं धन्य हो गया ।<br />
<br />
मणि राम बोला- विभूति, तुम स्कूल में तो इतने साफ सुथरे नहीं रहते थे परन्तु यहां तुम्हारा घर बार एकदम स्फटिक जैसा लगता है ।<br />
‘अरे, छोड़ो उन दिनों की बातें ।’ कह कर चुप हो गया । उस ने मन ही मन सोचा- तब मैं बहन भाइयों के साथ तबेले में रहता था । दो छोटे छोटे कमरे और भीड़ में फंसा आठवां बच्चा । और अब मैं अपने घर में रहता हूं ।<br />
<br />
तभी टिफिन आ गया था । मणि राम ने फिर पूछा-टिफिन ? भाभी यहां नहीं है क्या ?<br />
‘यहीं है। यह उसी की तो माया है । तुम जल्दी से फ़्रेश हो लो । फिर दोनों भोजन करेंगे ।’ विभूति ने स्नेहपूर्ण शब्दों में कहा ।<br />
<br />
‘जो आज्ञा, प्रभु ।’ कहकर मणि वाशरूम में चला गया ।<br />
दोनों ने प्यारपूर्वक भोजन किया । विभूति ने कहा - तुम अपना बैग यहीं रख जाओ । दोपहर को यहीं आ जाना । भोजन भी करेंगे और बातें भी ।<br />
<br />
‘अब बैग जो यहां छोड़ दिया है । अब तो आना ही पड़ेगा ।’ मणि चला गया लेकिन उस के मन में उथल-पुथल मची रही कि इतना बड़ा प्रोफ़ेसर भी टिफिन मंगवाता है। उसे आश्चर्य हुआ कि पहाड़ के छोटे से गांव में भी टिफिन का रिवाज चल निकला है । सुविधा के लिए लोग ठण्डा मण्डा खाना भी खा लेते हैं । संभव है यह विभूति की कोई मजबूरी हो ।<br />
नाश्ता करने के बाद वह धर्मशाला के लिए चल पड़ा जहां कोर्ट में उस की पेशी थी ।<br />
<br />
<br />
वह नहीं मानता था कि हर बच्चे का अपना अपना भाग्य होता है । भाग्य तो बनाया जाता है । जो लोग अपने बच्चों को विलायत में पढ़ने के लिए भेजते थे,वे स्वयं अपने बच्चों का भाग्य बनाते थे । मेरे बड़े भाई मेडिकल कालेज में भेजे गए तभी तो वे डाक्टर बनें । मुझे नहीं भेजा गया तो मैं नहीं बना डाक्टर ।<br />
वह अपने पिता से भिड़ गया था ।<br />
<br />
‘आप ने मेरे तीन बड़कों को डाक्टरी करवाई है । मुझे क्यों नहीं करवाते ?’ विभूति ने सीधा आक्षेप जड़ा था ।<br />
<br />
‘ बेटा, अपना बित्ता भी तो देखना पड़ता है । पहले भी जमीन बेच कर इन को पढ़ाया है । पुरखों की जमीन का दर्द तुम क्या जानो ।’ मास्टर बिशम्बर दास ने रोनी सी सूरत बना कर कहा ।<br />
<br />
‘उनके लिए पुरखों को बेच सकते हो लेकिन मेरे लिए...वह कहता कहता रुक गया । कहने की इच्छा तो हुई कि अपना बित्ता देख कर फौज खड़ी करनी थी परन्तु उस के संस्कारों ने उसे चुप रहने का ही आदेश दिया ।<br />
<br />
विभूति पहाड़ से बाहर निकल जाना चाहता था ताकि कुछ खास बन सके । जो लोग बाहर निकले थे , वे बहुत आगे बढ़ने में सफल हुए थे । अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की कविता ‘एक बूंद’ उसे बहुत अच्छी लगती थी । उसे लगता था पिता उसे पहाड़ में ही रखना चाहते थे । बाग बगीचों, घर बार और बूढ़ों की देख रेख के लिए भी तो किसी न किसी बेटे को अपने पास रखना जरुरी था ।<br />
<br />
इसे संयोग कहें या उस का भाग्य कि उसी वर्ष प्रदेश में पहला एग्रीकल्चर कालेज खुल गया । पिता ने कहा ‘ यह तुम्हारे लिए ही खुला है । चलो कल तुम्हें दाखिल करवा आउं । बाप दादा का व्यवसाय भी बचा रहेगा । घर में ही डिग्री करने पर खर्चा भी कम आए गा ।<br />
‘मैं डाक्टरी कर के अपना क्लिनिक खोलना चाहता हॅं ।’<br />
‘अब मुझ में सामर्थ्य नहीं है ।’‘तब था । उन के लिए सब कुछ और मेरे लिए घास फूस की डिग्री । मैं अनपढ़ ही भला । ’ ‘तो क्या करोगे ?’<br />
‘भीख मांगूगा । नहीं तो मनाली में आवारागर्दी करुंगा । बाग बगीचा तो है ही ।’‘कुछ और सोच लो ।’‘होटल खोल लूंगा ।’<br />
<br />
‘बहुत पैसा चाहिए और फिर होटल आदि चलाना आसान काम नहीं ।’ मास्टर जी सोच रहे थे कि इस व्यवसाय में गुण्डागर्दी होती है, देह व्यापार होता है । ये नशे के अड्डे बन जाते हैं । तरह तरह के पर्यटक आते हैं । शराब ,चरस,स्मैक न जाने क्या क्या लफड़े होते हैं । लड़ाई झगड़े होते हैं । वह इस व्यवसाय के पक्ष में हरगिज नहीं थे । वास्तव में हर आदमी अपने अपने ढंग से सोचता है और अंततः उस की अपनी धारणाएं बन जाती हैं और वह फिर उन्हीं के अनुरूप आचरण करना पसन्द करता है ।<br />
<br />
पिता परेशान था और विभूति था कि वह पानी की बूंद जमीन पर नहीं गिरने दे रहा था । बस उसे तो पिता के हर प्रस्ताव का विरोध करना था । कभी उसे लगता कि उस का बाप कहीं उसे हरामी समझ कर तो नहीं ऐसा बर्ताव कर रहा । इनसान भी क्या खोपड़ी है । कैसे कैसे तर्क कुतर्क ढूंढ लेता है । खुद को हरामी कहने में भी उसे संकोच नहीं होता है ।<br />
<br />
विभूति के मामा ने समझाया कि एग्रीकल्चर में बहुत स्कोप है । पंजाब में हरित क्रांति जब से आई है एग्रीकल्चर में नौकरियों की भरमार हो गई है ।<br />
जब तक मैं डिग्री करुंगा उसे कुत्ता भी नहीं पूछेगा ।’ विभूति ने प्रतिवाद किया । थोड़ा सोच कर वह फिर बोला- आप हरित क्रांति की बात करते हो । कितने किसानों ने इस वर्ष आत्महत्या की है , पता भी है । कपास की फसल फेल हो गई, सात परिवारों ने एक साथ आत्महत्या कर ली । गन्ना किसान उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र में गल फाहे ले रहे हैं ।<br />
<br />
‘तुम ने किसानी थोड़े करनी है । तुम पी.एच.डी. कर के प्रोफ़ेसर लग जाना । चाहो तो अमरीका भी पढ़ आना ।’ मामा ने चुग्गा डाला ।<br />
‘मैं मास्टर नहीं बनना चाहता ’ वह गुस्से में बोला था । पिता स्कूल मास्टर थे। प्रायः बच्चों को मां- बाप का व्यवसाय अच्छा नहीं लगता । इसी लिए वे कई बार गलत धारणाएं बना लेते हैं । उसे लगता मास्टर लोग सनकी हो जाते हैं । अपने आप को समाज के निर्माता समझते हैं , जबकि उस का मानना था कि वे समाज में वर्ग भेद को बढ़ावा देते हैं और एक प्रकार से अशान्ति का प्रसार करते हैं ।<br />
<br />
वे लोग उस पर प्रेशर बनाते रहे, तो उस ने चिढ़ कर कहा - हां, मैं एग्रीकल्चर कालेज में दाखिल हो जाउंगा लेकिन यह मेरी मर्जी कि परीक्षा पास करुं या न करुं ।<br />
<br />
पिता सहम गया था । इय सिरफिरे का क्या पता , जानबूझ कर ही फेल होता रहे । यह दण्डकीला कहां से आ गया हमारे परिवार में । इस की कोई भी कल सीधी नहीं हर किसी को लक्कड़ देने के लिए तैयार रहता है ।<br />
<br />
विभूति एक बार कालेज में चला गया तो धीरे धीरे सारी हेकड़ी भूल गया । उसे अध्ययन में रस आने लगा । अच्छी अच्छी खबरें आतीं तो मास्टर बिशम्बरदास की छाती गर्व से फूल जाती । एक बार तो छात्रपाल से रिपोर्ट आई कि विभूति छात्रावास में आदर्श छात्र के रूप में चयनित हुआ है । अनुशासन,शालीनता तथा विनम्रता इस के व्यक्तित्व के गुण हैं ।<br />
<br />
मास्टर बिशम्बर दास को लगा उस जैसा तो कोई पिता ही नहीं था । उन्हें लगा विभूति अब एक स्वतन्त्र पंछी था जो अपने परों के बल पर आकाश में उड़ने में सक्षम था । पिता के मन में विचार आया कि उस की डिग्री पूरी होते ही उसे विवाह बंधन में बांध देना उचित होगा । सही समय पर सही काम श्रेष्ठ होता है । मन में कौंध आई, यह लड़का लक्कड़ है । सिर्फ मेरे सोच लेने से ही तो यह काम सम्पन्न नहीं हो जाएगा । कोई जुगाड़ फिट करना पड़ेगा ।<br />
<br />
<br />
वह फिर अड़ गया था ।<br />
शायद यह उस का स्वभाव ही बन गया था । वह निर्णय लेने में अपने आप को सब से बेहतर मानता था । घर वालों ने एक सुशील सुन्दर कन्या देख कर उस से विभूति का टिप्पड़ा भी मिलवा लिया था । मां ने कहा - विभूति, एक बार लड़की से मिल लो । फिर तुम्हारा रिश्ता पक्का कर देंगे ।<br />
‘कौन सी लड़की ? और कैसी लड़की ?’<br />
‘बेटा, तुम्हारी डिग्री हो गई । नौकरी लग जाएगी । मां बाप तो चाहेंगे कि तुम्हारी शादी हो जाए।’ पिता ने समझाया ।<br />
‘मैं कोई दूध पीता बच्चा तो हूं नहीं । क्यों मुझ पर अपने निर्णय थोंपते हो ?’वह गुर्राया था ।<br />
‘तुम्हारी नजर में है कोई लड़की, तो भी बता दो ।’‘नहीं कोई नहीं ।’<br />
‘तो फिर उस लड़की को देखने में हर्ज ही क्या है ।’ मां ने मासूमियत से कहा ।‘इतनी भी क्या जल्दी है । पहले भी कौन सा आप के बच्चों ने शादियां आप की मर्जी से की है । फिर मुझी पर सारा दबाव क्यों ?’<br />
<br />
उस के भाइयों ही ने ही नहीं अपितु उस की बहनों ने भी जहां ठीक लगा वहां अपना रिश्ता खुद तय कर लिया और बाद में माता पिता को बताया । मां बाप चीखते ही रह गए । पूरे रीति रिवाज से विवाह करना चाहते थे ताकि रिश्तेदारी में अपनी साख बचा सकें । वे बार बार विभूति को पुचकार रहे थे ।<br />
<br />
कभी कभी मां बाप अजीब सी दुविधा में फंस जाते हैं । जैसा सोचा होता है , कई बार वैसा नहीं होता । मास्टर बिशम्बर दास का मानना था कि परिवार जितना बड़ा हो गा, मां बाप तथा बिरादरी को उतना ही ज्यादा सुख होगा ।<br />
<br />
किसी हद तक बात ठीक भी थी । उन्हें कभी लगा ही नहीं कि वे कभी अकेले थे । उन के बड़े भाई रामेश्वर के कोई सन्तान नहीं थी, तो उन्हें हमेशा लगता था कि उनका घर हमेशा खाली ही रहा । भाभी की मृत्यु पहले हो गई । बुढ़ापे में जो एकान्त भाई ने झेला, वह बहुत ही दर्दनाक था ।<br />
<br />
विभूति ने अभी कोई निर्णय नहीं लिया था ।<br />
एक दिन अचानक लड़की वाले आ गए । लड़की को भी साथ ही लाए थे । मास्टर बिशम्बर दास ने उन की खूब आवभगत की ।<br />
विभूति नारायण मन ही मन भड़का हुआ था लेकिन बाहर से वह शान्त बना रहा ।कोई बोल नहीं रहा था । विभूति ने ही श्रेष्ठा से पूछा - आप की भावी पति से क्या अपेक्षाएं हैं ?‘कोई विशेष नहीं । बस ऐसा पति चाहिए जो परस्पर विश्वास रखे और शान्त भाव से जीवन की नैया को पार लगा दे ।’ श्रेष्ठा संभल कर बोली ।<br />
‘तो पति को आप खेवट समझती हैं ’। वह शरारती स्वर में बोला ।<br />
‘‘पति पत्नी तो रथ के दो पहिए हैं, दोनों का सह अस्तित्व होता है ।’ लड़की के पिता ने कहा ।<br />
‘अंकल, आज जमाना बहुत आगे निकल गया है । ये बातें आप के जमाने में सच थीं लेकिन आज नहीं । आज तो सब की अपनी अपनी पेस है ।’ विभूति ने विनम्रता से कहा ।‘फिर भी सतुलन तो रखना ही पड़ता है । ’ मास्टर बिशम्बर दास ने कहा ।<br />
‘संतुलन का मूल आधार तो अर्थ ही होता है । मैं नहीं जानता श्रेष्ठा कितने पैसे कमा सकती है और कितनी स्वावलम्बी हो सकती है । मैं तो विवाह को अपने अपने स्वावलम्बन पर सहवास का अनुबन्ध मानता हूँ । ’ पता नहीं उस के दिमाग में बर्नार्ड शॉ के विचार कहां से आ कर घुस गए थे ।<br />
सभी उसे हैरान नजरों से देख रहे थे ।<br />
<br />
‘ विभूति बेटा, तू बनिया कब से बन गया ?’ मां ने आश्चर्य से कहा ।‘ यहां तो सभी बनिए लगते हैं मुझे । मेरे सभी बहन भाई ढेरों पैसे कमाते हैं परन्तु कभी किसी ने मुझे दमड़ी नहीं दी । तो वैसे ही संस्कार मुझ में आंएगे । मेरा तो मानना है कि सभी अपने अपने स्तर पर स्वार्थी होते हैं । तो पति पत्नी को भी उसी तुला पर क्यों न तोला जाए ।’ उस के विचार काफी उग्र लग रहे थे ।<br />
श्रेष्ठा को बेबाक लड़का अच्छा लगा । और विभूति को लड़की भी ठीक ठाक लगी । दोनो ने कहा कि वे फाइनल निर्णय थोड़े समय बाद लेगे ।मां बाप को आस बंध गई ।<br />
आंगन में चिड़ियां चहक रही थीं मानो मंगल गीत गा रही हों ।<br />
<br />
मणि ने फोन पर कहा था - मुझे धर्मशाला थोड़ा सा काम है कचहरी में । बहुत साल हो गए मुताकात ही नहीं हुई । सोचता हूँ आप से भी मिल लूं ।<br />
<br />
‘अरे मणि, तुम आओगे तो मेरा घर महक जाएगा । यहां है ही कौन । तुम एक दिन पहले आ जाओ ।’ ‘मैं सुबह जल्दी पहुंच जाउंगा । मैं घुमारवी से रात्रि बस से चलूंगा ।’‘ठीक है मैं तुम्हारा इन्तजार करुंगा ।’<br />
<br />
मणि रास्ते में सोचता रहा कि उस ने ऐसा क्यों कहा कि घर में और है ही कौन ? वह जानता है विभूति का विवाह वर्षों पहले हुआ था । उसे एक बेटे के होने की भी खबर थी । फिर उस ने सोचा - ओह मैं भी कितना मूर्ख हूँ । हो सकता है भाभी कहीं और नौकरी करती हो।सरकारी नौकरी में तो बदली होती रहती है ।<br />
<br />
वह विभूति का घर देख कर दंग रह गया । कितने करीने से फुलवारी बनाई गई थी । बाहर आंगन में बैठने के लिए सीमेंट और पत्थरों के रंग बिरंगे बैंच बने हुए थे । एकदम प्राकृतिक परिवेश । घर आंगन तपस्थली लग रहा था ।<br />
<br />
कमरे एक दम साफ । किताबें करीने से लगी हुईं । एक दीवार पर लिखा हुआ - आप आए, मैं धन्य हो गया ।<br />
मणि ने कहा - विभूति सब बातें ठीक परन्तु तुम्हारे घर तक पहुंचना बहुत मुश्किल है । कोई कहीं भी फिसल कर गिर सकता है ।’’<br />
<br />
‘मणि तुम बिल्कुल ठीक कहते हो लेकिन तुम जानते ही हो कि जमीन बेचने वाले कई तरह की ठगियां करते हैं । मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ । मुझे दिखाया गया था कि रास्ता दस फुट है परन्तु जब पैमायश ली गई वहां कागजों में रास्ता था ही नहीं । बाद में कुछ हो नहीं सकता था । सो मन मार लिया ।’फिर कुछ देर पटवारियों के किस्से चलते रहे ।टिफिन आ गया था ।<br />
<br />
इतनी बड़ी कोठी और किचन में कोई हलचल नहीं । बैठक में भी न तो किसी बच्चे की फोटो लगी थी और न ही कोई फैमली फोटो । मणि पूछना चाहता था परन्तु चुप ही रहा । पता नहीं क्या भेद था । वह उस के ज़ख्मों को नहीं कुरेदना चाहता था । टिफिन आने का मतलब था घर में कोई महिला नहीं थी । उसे याद है विभूति की फिलास्फी ही अलग थी । वह कहता था परिवार के हर सदस्य को अपना अपना खर्च वहन करना चाहिए । बच्चों का भी आधा- आधा । क्या अजीब थियूरी है । इस से तो परिवार की परिभाषा ही गड़बड़ा जाएगी ।<br />
<br />
<br />
विभूति ने कहा था - परिभाषा गड़बडाती है तो गड़बड़ा जाए । मेरे मां बाप ने बारह बच्चे पैदा किए । सब अपना अपना खाते कमाते हैं । किसी को कुछ नहीं देते ।<br />
<br />
मणि ने कहा - पति पत्नी तो परस्पर निर्भर रहते होंगे । यह भी तो सहयोग ही हुआ ।<br />
<br />
‘नहीं, वे सब चालाक थे । उन्होंने शादियां कमाने वाली लड़कियों से ही की । मेरे पल्ले ही खोटा सिक्का मढ़ दिया गया । मां बाप भी अपने बच्चे के साथ कसाइयों जैसा बर्ताव करते हैं ।<br />
<br />
तर्क का कोई अन्त नहीं होता । मणि ही चुप कर गया । दोनों मित्र वर्षों बाद मिले थे । दोनों के चेहरे पर एक चमक थी ।वह बैग रख कर धर्मशाला चला गया था । विभूति अपनी क्यारियों में लग गया था । धूप चढ़ने लगी थी ।<br />
<br />
<br />
धर्मशाला से काम निपटा कर मणि कोई चार बने सांय वापिस लौटा । उसे बड़ी भूख लगी थी । वह जल्दी जल्दी डग भरता हुआ विभूति की कोठी के प्रांगण में पहुंचा । कोई हलचल नहीं थी । सब कुछ एक दम शान्त । उस ने जोर से आवाज लगाई - डा. साहब । विभूति भाई । लेकिन कोई जवाब नहीं ।<br />
उस ने फिर दरवाजा जोर से खटखटाया लेकिन कोई जवाब नहीं ।<br />
<br />
सोचा शायद सो गया हो । फिर घंटी बजाई । जोर से दरवाजा खटखटाया लेकिन कोई आवाज नहीं । जाली वाला दरवाजा अन्दर से बन्द था ।<br />
मणि घबरा गया । दौड़ कर अड़ोस पड़ोस मे गया । एक महिला मिली । मणि ने सारी कहानी उसे बताई ।<br />
महिला ने खेत में काम कर रहे एक व्यक्ति को आवाज लगाई - हरिए, दौड़ कर यहां आ । वह धान की पनीरी को खेत की मेंढ़ पर रख कर दौड़ा आया । पंच बुला लिए थे । थाने में खबर कर दी थी ।<br />
<br />
इस बीच सरपंच दीनू राम ने जाली काट कर हाथ अन्दर डाला और कुण्डी खोल दी । वह बड़ी चौकसी से अन्दर गया । देखा मेज़ पर टिफिन पड़ा था और साहब पंखें से लटक रहे थे ।<br />
<br />
मणि राम की चीख निकलते निकलते रही । बोला - यह क्या किया विभूति तूने । ओह नो ।<br />
‘आत्महत्या करना पाप है ।’ कोई बोला ।धीरे धीरे भीड़ इकट्ठी होने लगी ।<br />
‘अभी रिटायर हुए छः महीने भी नहीं हुए ।’‘घर में कभी कोई औरत या बच्चा नहीं देखा । कहते हैं बीवी भी है और बेटा भी । फिर यहां क्यों नहीं आए कभी ?’<br />
‘शायद वह बच्चे को ले कर चली गई होगी । अनबन भी तो हो जाती है । आज कल तो यह आम बात है ।’ कोई अनुभवी व्यक्ति कह रहा था ।‘सुना है दोनों आपस में भिड़ते रहते थे ।’‘अब तो कहानी ही खत्म हो चुकी है । सालों साल हो गए उन्हें अलग हुए । अब भी शायद ही आए वह ।’<br />
<br />
तभी पुलिस आ गई थी । पंचनामा हुआ । और शव को उतार कर नीचे रख दिया गया । फिर पुलिस ने इसे पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया |<br />
<br />
डायरियां देख कर उन्होंने रिश्तेदारों का पता लगाया और फिर पत्नी को फोन किया गया । श्रेष्ठा ने तो साफ ही कह दिया कि लाश को लावारिस समझ कर दाह संस्कार कर दिया जाए । हमारा कोई रिश्ता नहीं है ।<br />
<br />
गाँव की एक महिला कह रही थी - जो अपने बीवी बच्चों का नहीं हो पाया, वह अपना भी कैसे हो सकता था । अच्छा ही हुआ पंछी फड़फड़ा कर उड़ गया । यहां भी भटकी हुई आत्मा की तरह घूमता रहता था । न यहां कोई रिश्तेदार आता था और न वह गांव वालों से मेल जोल रखता था ।पेड़ पर लटके हुए अधेड़ और पंखे से झूल रहे प्रोफेसर में कोई अन्तर नहीं लग रहा था ।<br />
उसके आंगन के पेड़ों पर बैठे कौए अचानक कांय कांय करने लगे ।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%95%E0%A5%80%E0%A4%B2%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31622दण्डकीला / सुशील कुमार फुल्ल2016-08-26T03:28:52Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
'''अ'''ब वह लटका हुआ था ।<br />
आस पास वाले रिश्तेदार तो आ गए थे । उसे भी तुरन्त सन्देश कर दिया गया था परन्तु उसने नहीं आना था और नहीं वह आई लेकिन रिश्तेदार लोकलाज रखने के लिए जो भी पूछता यही कहते- हां, आ रही है । दूर है न ।<br />
<br />
फिर कोई दूसरा बात को ढकने के लिए कहता- पंचकूला दूर है । आने में तो टाईम लगता ही है ।<br />
कोई बुजुर्ग महिला कह रही थी - बीस साल से नहीं आई, तो अब क्यों आएगी । कैसे भूखा रखता था उसे और उस के बेटे को । कहता था अपना अपना कमाओ और खाओ ।<br />
<br />
‘सिरफिरा था । हर बात में लक्कड़ फँसाता था । ऐसे भी लोग होते हैं । लाखों रुपया कमाना लेकिन न खुद सुख उठाना न परिवार को लेने देना । अब ले जा जहां ले जाना है ।’ दूसरी किसी रिश्तेदार ने कहा ।<br />
<br />
टेबल पर टिफिन पड़ा था और वह पंखे से झूल रहा था ।<br />
<br />
<br />
गले में फंदा डाल पेड़ से लटक रहा अधेड़ का शव कितना वीभत्स लग रहा था ।<br />
पड़ोस में आ कर नये नये बसे प्रोफ़ेसर विभूति नारायण ने वृक्ष पर लटके शव पर कटाक्ष किया था-मरने के और भी सहज तरीके होते हैं ।<br />
<br />
आस पास खड़े किसी भी व्यक्ति ने उस की टिप्पणी पर ध्यान नहीं दिया था । मरने वाला पहले से तरीके तो सोच कर नहीं रखता । यह तो क्षणिक आवेश में लिया गया इम्पल्सिव निर्णय होता है । एक बार एक्शन हो गया तो उस पर पश्चाताप करने का अवसर भी नहीं मिलता ।<br />
<br />
अधेड़ एक पेड़ पर लटका हुआ था और दूसरे पेड़ पर बैठे पक्षी कांय कांय कर रहे थे ।भीड़ जमा होती जा रही थी ।<br />
<br />
<br />
<br />
वह अजीब ही आदमी था । बारह बहन भाइयों में आठवीं सन्तान । सब में परस्पर बड़ा स्नेह था । उस में पता नहीं यह प्रवृत्ति कहां से प्रवेश कर गई थी कि वह हर काम अलग ढंग सेे करता, आस पास की हर चीज उसे अपने टेरूट के अनुसार चाहिए थी । और दूसरों से अलग दिखना भी उसे पसंद था ।<br />
<br />
कभी कभी बाकी बहन भाइयों में से कोई न कोई उसे टुनका लगा देता- मास्टर बिशम्बर दास की घनी सन्तान में विभूति तो एक ही है ।<br />
<br />
वह शरारत को समझता और बचने के लिए बिना प्रतिवाद किए वहां से खिसक लेता ।<br />
आज सुबह जब उस का स्कूल का सहपाठी आया तो वह बेहद खुश था। बिल्कुल स्वच्छन्द भाव से बोला था - मणि, वर्षों बाद आज इस घर में किसी दोस्त के पांव पड़े हैं । मैं धन्य हो गया ।<br />
<br />
मणि राम बोला- विभूति, तुम स्कूल में तो इतने साफ सुथरे नहीं रहते थे परन्तु यहां तुम्हारा घर बार एकदम स्फटिक जैसा लगता है ।<br />
‘अरे, छोड़ो उन दिनों की बातें ।’ कह कर चुप हो गया । उस ने मन ही मन सोचा- तब मैं बहन भाइयों के साथ तबेले में रहता था । दो छोटे छोटे कमरे और भीड़ में फंसा आठवां बच्चा । और अब मैं अपने घर में रहता हूं ।<br />
<br />
तभी टिफिन आ गया था । मणि राम ने फिर पूछा-टिफिन ? भाभी यहां नहीं है क्या ?<br />
‘यहीं है। यह उसी की तो माया है । तुम जल्दी से फ़्रेश हो लो । फिर दोनों भोजन करेंगे ।’ विभूति ने स्नेहपूर्ण शब्दों में कहा ।<br />
<br />
‘जो आज्ञा, प्रभु ।’ कहकर मणि वाशरूम में चला गया ।<br />
दोनों ने प्यारपूर्वक भोजन किया । विभूति ने कहा - तुम अपना बैग यहीं रख जाओ । दोपहर को यहीं आ जाना । भोजन भी करेंगे और बातें भी ।<br />
<br />
‘अब बैग जो यहां छोड़ दिया है । अब तो आना ही पड़ेगा ।’ मणि चला गया लेकिन उस के मन में उथल-पुथल मची रही कि इतना बड़ा प्रोफ़ेसर भी टिफिन मंगवाता है। उसे आश्चर्य हुआ कि पहाड़ के छोटे से गांव में भी टिफिन का रिवाज चल निकला है । सुविधा के लिए लोग ठण्डा मण्डा खाना भी खा लेते हैं । संभव है यह विभूति की कोई मजबूरी हो ।<br />
नाश्ता करने के बाद वह धर्मशाला के लिए चल पड़ा जहां कोर्ट में उस की पेशी थी ।<br />
<br />
<br />
वह नहीं मानता था कि हर बच्चे का अपना अपना भाग्य होता है । भाग्य तो बनाया जाता है । जो लोग अपने बच्चों को विलायत में पढ़ने के लिए भेजते थे,वे स्वयं अपने बच्चों का भाग्य बनाते थे । मेरे बड़े भाई मेडिकल कालेज में भेजे गए तभी तो वे डाक्टर बनें । मुझे नहीं भेजा गया तो मैं नहीं बना डाक्टर ।<br />
वह अपने पिता से भिड़ गया था ।<br />
<br />
‘आप ने मेरे तीन बड़कों को डाक्टरी करवाई है । मुझे क्यों नहीं करवाते ?’ विभूति ने सीधा आक्षेप जड़ा था ।<br />
<br />
‘ बेटा, अपना बित्ता भी तो देखना पड़ता है । पहले भी जमीन बेच कर इन को पढ़ाया है । पुरखों की जमीन का दर्द तुम क्या जानो ।’ मास्टर बिशम्बर दास ने रोनी सी सूरत बना कर कहा ।<br />
<br />
‘उनके लिए पुरखों को बेच सकते हो लेकिन मेरे लिए...वह कहता कहता रुक गया । कहने की इच्छा तो हुई कि अपना बित्ता देख कर फौज खड़ी करनी थी परन्तु उस के संस्कारों ने उसे चुप रहने का ही आदेश दिया ।<br />
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विभूति पहाड़ से बाहर निकल जाना चाहता था ताकि कुछ खास बन सके । जो लोग बाहर निकले थे , वे बहुत आगे बढ़ने में सफल हुए थे । अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की कविता ‘एक बूंद’ उसे बहुत अच्छी लगती थी । उसे लगता था पिता उसे पहाड़ में ही रखना चाहते थे । बाग बगीचों, घर बार और बूढ़ों की देख रेख के लिए भी तो किसी न किसी बेटे को अपने पास रखना जरुरी था ।<br />
<br />
इसे संयोग कहें या उस का भाग्य कि उसी वर्ष प्रदेश में पहला एग्रीकल्चर कालेज खुल गया । पिता ने कहा ‘ यह तुम्हारे लिए ही खुला है । चलो कल तुम्हें दाखिल करवा आउं । बाप दादा का व्यवसाय भी बचा रहेगा । घर में ही डिग्री करने पर खर्चा भी कम आए गा ।<br />
‘मैं डाक्टरी कर के अपना क्लिनिक खोलना चाहता हॅं ।’<br />
‘अब मुझ में सामर्थ्य नहीं है ।’‘तब था । उन के लिए सब कुछ और मेरे लिए घास फूस की डिग्री । मैं अनपढ़ ही भला । ’ ‘तो क्या करोगे ?’<br />
‘भीख मांगूगा । नहीं तो मनाली में आवारागर्दी करुंगा । बाग बगीचा तो है ही ।’‘कुछ और सोच लो ।’‘होटल खोल लूंगा ।’<br />
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‘बहुत पैसा चाहिए और फिर होटल आदि चलाना आसान काम नहीं ।’ मास्टर जी सोच रहे थे कि इस व्यवसाय में गुण्डागर्दी होती है, देह व्यापार होता है । ये नशे के अड्डे बन जाते हैं । तरह तरह के पर्यटक आते हैं । शराब ,चरस,स्मैक न जाने क्या क्या लफड़े होते हैं । लड़ाई झगड़े होते हैं । वह इस व्यवसाय के पक्ष में हरगिज नहीं थे । वास्तव में हर आदमी अपने अपने ढंग से सोचता है और अंततः उस की अपनी धारणाएं बन जाती हैं और वह फिर उन्हीं के अनुरूप आचरण करना पसन्द करता है ।<br />
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पिता परेशान था और विभूति था कि वह पानी की बूंद जमीन पर नहीं गिरने दे रहा था । बस उसे तो पिता के हर प्रस्ताव का विरोध करना था । कभी उसे लगता कि उस का बाप कहीं उसे हरामी समझ कर तो नहीं ऐसा बर्ताव कर रहा । इनसान भी क्या खोपड़ी है । कैसे कैसे तर्क कुतर्क ढूंढ लेता है । खुद को हरामी कहने में भी उसे संकोच नहीं होता है ।<br />
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विभूति के मामा ने समझाया कि एग्रीकल्चर में बहुत स्कोप है । पंजाब में हरित क्रांति जब से आई है एग्रीकल्चर में नौकरियों की भरमार हो गई है ।<br />
जब तक मैं डिग्री करुंगा उसे कुत्ता भी नहीं पूछेगा ।’ विभूति ने प्रतिवाद किया । थोड़ा सोच कर वह फिर बोला- आप हरित क्रांति की बात करते हो । कितने किसानों ने इस वर्ष आत्महत्या की है , पता भी है । कपास की फसल फेल हो गई, सात परिवारों ने एक साथ आत्महत्या कर ली । गन्ना किसान उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र में गल फाहे ले रहे हैं ।<br />
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‘तुम ने किसानी थोड़े करनी है । तुम पी.एच.डी. कर के प्रोफ़ेसर लग जाना । चाहो तो अमरीका भी पढ़ आना ।’ मामा ने चुग्गा डाला ।<br />
‘मैं मास्टर नहीं बनना चाहता ’ वह गुस्से में बोला था । पिता स्कूल मास्टर थे। प्रायः बच्चों को मां- बाप का व्यवसाय अच्छा नहीं लगता । इसी लिए वे कई बार गलत धारणाएं बना लेते हैं । उसे लगता मास्टर लोग सनकी हो जाते हैं । अपने आप को समाज के निर्माता समझते हैं , जबकि उस का मानना था कि वे समाज में वर्ग भेद को बढ़ावा देते हैं और एक प्रकार से अशान्ति का प्रसार करते हैं ।<br />
<br />
वे लोग उस पर प्रेशर बनाते रहे, तो उस ने चिढ़ कर कहा - हां, मैं एग्रीकल्चर कालेज में दाखिल हो जाउंगा लेकिन यह मेरी मर्जी कि परीक्षा पास करुं या न करुं ।<br />
<br />
पिता सहम गया था । इय सिरफिरे का क्या पता , जानबूझ कर ही फेल होता रहे । यह दण्डकीला कहां से आ गया हमारे परिवार में । इस की कोई भी कल सीधी नहीं हर किसी को लक्कड़ देने के लिए तैयार रहता है ।<br />
<br />
विभूति एक बार कालेज में चला गया तो धीरे धीरे सारी हेकड़ी भूल गया । उसे अध्ययन में रस आने लगा । अच्छी अच्छी खबरें आतीं तो मास्टर बिशम्बरदास की छाती गर्व से फूल जाती । एक बार तो छात्रपाल से रिपोर्ट आई कि विभूति छात्रावास में आदर्श छात्र के रूप में चयनित हुआ है । अनुशासन,शालीनता तथा विनम्रता इस के व्यक्तित्व के गुण हैं ।<br />
<br />
मास्टर बिशम्बर दास को लगा उस जैसा तो कोई पिता ही नहीं था । उन्हें लगा विभूति अब एक स्वतन्त्र पंछी था जो अपने परों के बल पर आकाश में उड़ने में सक्षम था ।<br />
पिता के मन में विचार आया कि उस की डिग्री पूरी होते ही उसे विवाह बंधन में बांध देना उचित होगा । सही समय पर सही काम श्रेष्ठ होता है । मन में कौंध आई, यह लड़का लक्कड़ है । सिर्फ मेरे सोच लेने से ही तो यह काम सम्पन्न नहीं हो जाएगा । कोई जुगाड़ फिट करना पड़ेगा ।<br />
<br />
<br />
वह फिर अड़ गया था ।<br />
शायद यह उस का स्वभाव ही बन गया था । वह निर्णय लेने में अपने आप को सब से बेहतर मानता था । घर वालों ने एक सुशील सुन्दर कन्या देख कर उस से विभूति का टिप्पड़ा भी मिलवा लिया था । मां ने कहा - विभूति, एक बार लड़की से मिल लो । फिर तुम्हारा रिश्ता पक्का कर देंगे ।<br />
‘कौन सी लड़की ? और कैसी लड़की ?’<br />
‘बेटा, तुम्हारी डिग्री हो गई । नौकरी लग जाएगी । मां बाप तो चाहेंगे कि तुम्हारी शादी हो जाए।’ पिता ने समझाया ।<br />
‘मैं कोई दूध पीता बच्चा तो हूं नहीं । क्यों मुझ पर अपने निर्णय थोंपते हो ?’वह गुर्राया था ।<br />
‘तुम्हारी नजर में है कोई लड़की, तो भी बता दो ।’‘नहीं कोई नहीं ।’<br />
‘तो फिर उस लड़की को देखने में हर्ज ही क्या है ।’ मां ने मासूमियत से कहा ।‘इतनी भी क्या जल्दी है । पहले भी कौन सा आप के बच्चों ने शादियां आप की मर्जी से की है । फिर मुझी पर सारा दबाव क्यों ?’<br />
<br />
उस के भाइयों ही ने ही नहीं अपितु उस की बहनों ने भी जहां ठीक लगा वहां अपना रिश्ता खुद तय कर लिया और बाद में माता पिता को बताया । मां बाप चीखते ही रह गए । पूरे रीति रिवाज से विवाह करना चाहते थे ताकि रिश्तेदारी में अपनी साख बचा सकें । वे बार बार विभूति को पुचकार रहे थे ।<br />
<br />
कभी कभी मां बाप अजीब सी दुविधा में फंस जाते हैं । जैसा सोचा होता है , कई बार वैसा नहीं होता । मास्टर बिशम्बर दास का मानना था कि परिवार जितना बड़ा हो गा, मां बाप तथा बिरादरी को उतना ही ज्यादा सुख होगा ।<br />
<br />
किसी हद तक बात ठीक भी थी । उन्हें कभी लगा ही नहीं कि वे कभी अकेले थे । उन के बड़े भाई रामेश्वर के कोई सन्तान नहीं थी, तो उन्हें हमेशा लगता था कि उनका घर हमेशा खाली ही रहा । भाभी की मृत्यु पहले हो गई । बुढ़ापे में जो एकान्त भाई ने झेला, वह बहुत ही दर्दनाक था ।<br />
<br />
विभूति ने अभी कोई निर्णय नहीं लिया था ।<br />
एक दिन अचानक लड़की वाले आ गए । लड़की को भी साथ ही लाए थे । मास्टर बिशम्बर दास ने उन की खूब आवभगत की ।<br />
विभूति नारायण मन ही मन भड़का हुआ था लेकिन बाहर से वह शान्त बना रहा ।कोई बोल नहीं रहा था । विभूति ने ही श्रेष्ठा से पूछा - आप की भावी पति से क्या अपेक्षाएं हैं ?<br />
‘कोई विशेष नहीं । बस ऐसा पति चाहिए जो परस्पर विश्वास रखे और शान्त भाव से जीवन की नैया को पार लगा दे ।’ श्रेष्ठा संभल कर बोली ।<br />
‘तो पति को आप खेवट समझती हैं ’। वह शरारती स्वर में बोला ।<br />
‘‘पति पत्नी तो रथ के दो पहिए हैं, दोनों का सह अस्तित्व होता है ।’ लड़की के पिता ने कहा ।<br />
‘अंकल, आज जमाना बहुत आगे निकल गया है । ये बातें आप के जमाने में सच थीं लेकिन आज नहीं । आज तो सब की अपनी अपनी पेस है ।’ विभूति ने विनम्रता से कहा ।‘फिर भी सतुलन तो रखना ही पड़ता है । ’ मास्टर बिशम्बर दास ने कहा ।<br />
‘संतुलन का मूल आधार तो अर्थ ही होता है । मैं नहीं जानता श्रेष्ठा कितने पैसे कमा सकती है और कितनी स्वावलम्बी हो सकती है । मैं तो विवाह को अपने अपने स्वावलम्बन पर सहवास का अनुबन्ध मानता हूँ । ’ पता नहीं उस के दिमाग में बर्नार्ड शॉ के विचार कहां से आ कर घुस गए थे ।<br />
<br />
सभी उसे हैरान नजरों से देख रहे थे ।<br />
‘ विभूति बेटा, तू बनिया कब से बन गया ?’ मां ने आश्चर्य से कहा ।<br />
‘ यहां तो सभी बनिए लगते हैं मुझे । मेरे सभी बहन भाई ढेरों पैसे कमाते हैं परन्तु कभी किसी ने मुझे दमड़ी नहीं दी । तो वैसे ही संस्कार मुझ में आंएगे । मेरा तो मानना है कि सभी अपने अपने स्तर पर स्वार्थी होते हैं । तो पति पत्नी को भी उसी तुला पर क्यों न तोला जाए ।’ उस के विचार काफी उग्र लग रहे थे ।<br />
<br />
श्रेष्ठा को बेबाक लड़का अच्छा लगा । और विभूति को लड़की भी ठीक ठाक लगी । दोनो ने कहा कि वे फाइनल निर्णय थोड़े समय बाद लें गे ।<br />
मां बाप को आस बंध गई ।<br />
<br />
आंगन में चिड़ियां चहक रही थीं मानो मंगल गीत गा रही हों ।<br />
<br />
मणि ने फोन पर कहा था - मुझे धर्मशाला थोड़ा सा काम है कचहरी में । बहुत साल हो गए मुताकात ही नहीं हुई । सोचता हूँ आप से भी मिल लूं ।<br />
<br />
‘अरे मणि, तुम आओगे तो मेरा घर महक जाएगा । यहां है ही कौन । तुम एक दिन पहले आ जाओ ।’ ‘मैं सुबह जल्दी पहुंच जाउंगा । मैं घुमारवी से रात्रि बस से चलूंगा ।’‘ठीक है मैं तुम्हारा इन्तजार करुंगा ।’<br />
<br />
मणि रास्ते में सोचता रहा कि उस ने ऐसा क्यों कहा कि घर में और है ही कौन ? वह जानता है विभूति का विवाह वर्षों पहले हुआ था । उसे एक बेटे के होने की भी खबर थी । फिर उस ने सोचा - ओह मैं भी कितना मूर्ख हूँ । हो सकता है भाभी कहीं और नौकरी करती हो । सरकारी नौकरी में तो बदली होती रहती है ।<br />
<br />
वह विभूति का घर देख कर दंग रह गया । कितने करीने से फुलवारी बनाई गई थी । बाहर आंगन में बैठने के लिए सीमेंट और पत्थरों के रंग बिरंगे बैंच बने हुए थे । एकदम प्राकृतिक परिवेश । घर आंगन तपस्थली लग रहा था ।<br />
<br />
कमरे एक दम साफ । किताबें करीने से लगी हुईं । एक दीवार पर लिखा हुआ - आप आए, मैं धन्य हो गया ।<br />
मणि ने कहा - विभूति सब बातें ठीक परन्तु तुम्हारे घर तक पहुंचना बहुत मुश्किल है । कोई कहीं भी फिसल कर गिर सकता है ।’’<br />
<br />
‘मणि तुम बिल्कुल ठीक कहते हो लेकिन तुम जानते ही हो कि जमीन बेचने वाले कई तरह की ठगियां करते हैं । मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ । मुझे दिखाया गया था कि रास्ता दस फुट है परन्तु जब पैमायश ली गई वहां कागजों में रास्ता था ही नहीं । बाद में कुछ हो नहीं सकता था । सो मन मार लिया ।’फिर कुछ देर पटवारियों के किस्से चलते रहे ।टिफिन आ गया था ।<br />
<br />
इतनी बड़ी कोठी और किचन में कोई हलचल नहीं । बैठक में भी न तो किसी बच्चे की फोटो लगी थी और न ही कोई फैमली फोटो । मणि पूछना चाहता था परन्तु चुप ही रहा । पता नहीं क्या भेद था । वह उस के ज़ख्मों को नहीं कुरेदना चाहता था । टिफिन आने का मतलब था घर में कोई महिला नहीं थी । उसे याद है विभूति की फिलास्फी ही अलग थी । वह कहता था परिवार के हर सदस्य को अपना अपना खर्च वहन करना चाहिए । बच्चों का भी आधा- आधा । क्या अजीब थियूरी है । इस से तो परिवार की परिभाषा ही गड़बड़ा जाएगी ।<br />
<br />
<br />
विभूति ने कहा था - परिभाषा गड़बडाती है तो गड़बड़ा जाए । मेरे मां बाप ने बारह बच्चे पैदा किए । सब अपना अपना खाते कमाते हैं । किसी को कुछ नहीं देते ।<br />
<br />
मणि ने कहा - पति पत्नी तो परस्पर निर्भर रहते होंगे । यह भी तो सहयोग ही हुआ ।<br />
<br />
‘नहीं, वे सब चालाक थे । उन्होंने शादियां कमाने वाली लड़कियों से ही की । मेरे पल्ले ही खोटा सिक्का मढ़ दिया गया । मां बाप भी अपने बच्चे के साथ कसाइयों जैसा बर्ताव करते हैं ।<br />
<br />
तर्क का कोई अन्त नहीं होता । मणि ही चुप कर गया । दोनों मित्र वर्षों बाद मिले थे । दोनों के चेहरे पर एक चमक थी ।वह बैग रख कर धर्मशाला चला गया था । विभूति अपनी क्यारियों में लग गया था । धूप चढ़ने लगी थी ।<br />
<br />
<br />
धर्मशाला से काम निपटा कर मणि कोई चार बने सांय वापिस लौटा । उसे बड़ी भूख लगी थी । वह जल्दी जल्दी डग भरता हुआ विभूति की कोठी के प्रांगण में पहुंचा । कोई हलचल नहीं थी । सब कुछ एक दम शान्त । उस ने जोर से आवाज लगाई - डा. साहब । विभूति भाई । लेकिन कोई जवाब नहीं ।<br />
उस ने फिर दरवाजा जोर से खटखटाया लेकिन कोई जवाब नहीं ।<br />
<br />
सोचा शायद सो गया हो । फिर घंटी बजाई । जोर से दरवाजा खटखटाया लेकिन कोई आवाज नहीं । जाली वाला दरवाजा अन्दर से बन्द था ।<br />
मणि घबरा गया । दौड़ कर अड़ोस पड़ोस मे गया । एक महिला मिली । मणि ने सारी कहानी उसे बताई ।<br />
महिला ने खेत में काम कर रहे एक व्यक्ति को आवाज लगाई - हरिए, दौड़ कर यहां आ । वह धान की पनीरी को खेत की मेंढ़ पर रख कर दौड़ा आया । पंच बुला लिए थे । थाने में खबर कर दी थी ।<br />
<br />
इस बीच सरपंच दीनू राम ने जाली काट कर हाथ अन्दर डाला और कुण्डी खोल दी । वह बड़ी चौकसी से अन्दर गया । देखा मेज़ पर टिफिन पड़ा था और साहब पंखें से लटक रहे थे ।<br />
<br />
मणि राम की चीख निकलते निकलते रही । बोला - यह क्या किया विभूति तूने । ओह नो ।<br />
‘ आत्महत्या करना पाप है ।’ कोई बोला ।धीरे धीरे भीड़ इकट्ठी होने लगी ।<br />
‘अभी रिटायर हुए छः महीने भी नहीं हुए ।’‘घर में कभी कोई औरत या बच्चा नहीं देखा । कहते हैं बीवी भी है और बेटा भी । फिर यहां क्यों नहीं आए कभी ?’<br />
‘शायद वह बच्चे को ले कर चली गई होगी । अनबन भी तो हो जाती है । आज कल तो यह आम बात है ।’ कोई अनुभवी व्यक्ति कह रहा था ।‘सुना है दोनों आपस में भिड़ते रहते थे ।’‘अब तो कहानी ही खत्म हो चुकी है । सालों साल हो गए उन्हें अलग हुए । अब भी शायद ही आए वह ।’<br />
<br />
तभी पुलिस आ गई थी । पंचनामा हुआ । और शव को उतार कर नीचे रख दिया गया । फिर पुलिस ने इसे पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया |<br />
<br />
डायरियां देख कर उन्होंने रिश्तेदारों का पता लगाया और फिर पत्नी को फोन किया गया । श्रेष्ठा ने तो साफ ही कह दिया कि लाश को लावारिस समझ कर दाह संस्कार कर दिया जाए । हमारा कोई रिश्ता नहीं है ।<br />
<br />
गाँव की एक महिला कह रही थी - जो अपने बीवी बच्चों का नहीं हो पाया, वह अपना भी कैसे हो सकता था । अच्छा ही हुआ पंछी फड़फड़ा कर उड़ गया । यहां भी भटकी हुई आत्मा की तरह घूमता रहता था । न यहां कोई रिश्तेदार आता था और न वह गांव वालों से मेल जोल रखता था ।पेड़ पर लटके हुए अधेड़ और पंखे से झूल रहे प्रोफेसर में कोई अन्तर नहीं लग रहा था ।<br />
उसके आंगन के पेड़ों पर बैठे कौए अचानक कांय कांय करने लगे ।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%95%E0%A5%80%E0%A4%B2%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31621दण्डकीला / सुशील कुमार फुल्ल2016-08-26T03:24:04Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल |अनुवाद= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
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अब वह लटका हुआ था ।<br />
आस पास वाले रिश्तेदार तो आ गए थे । उसे भी तुरन्त सन्देश कर दिया गया था परन्तु उसने नहीं आना था और नहीं वह आई लेकिन रिश्तेदार लोकलाज रखने के लिए जो भी पूछता यही कहते- हां, आ रही है । दूर है न ।<br />
<br />
फिर कोई दूसरा बात को ढकने के लिए कहता- पंचकूला दूर है । आने में तो टाईम लगता ही है ।<br />
कोई बुजुर्ग महिला कह रही थी - बीस साल से नहीं आई, तो अब क्यों आएगी । कैसे भूखा रखता था उसे और उस के बेटे को । कहता था अपना अपना कमाओ और खाओ ।<br />
<br />
‘सिरफिरा था । हर बात में लक्कड़ फँसाता था । ऐसे भी लोग होते हैं । लाखों रुपया कमाना लेकिन न खुद सुख उठाना न परिवार को लेने देना । अब ले जा जहां ले जाना है ।’ दूसरी किसी रिश्तेदार ने कहा ।<br />
<br />
टेबल पर टिफिन पड़ा था और वह पंखे से झूल रहा था ।<br />
<br />
<br />
गले में फंदा डाल पेड़ से लटक रहा अधेड़ का शव कितना वीभत्स लग रहा था ।<br />
पड़ोस में आ कर नये नये बसे प्रोफ़ेसर विभूति नारायण ने वृक्ष पर लटके शव पर कटाक्ष किया था-मरने के और भी सहज तरीके होते हैं ।<br />
<br />
आस पास खड़े किसी भी व्यक्ति ने उस की टिप्पणी पर ध्यान नहीं दिया था । मरने वाला पहले से तरीके तो सोच कर नहीं रखता । यह तो क्षणिक आवेश में लिया गया इम्पल्सिव निर्णय होता है । एक बार एक्शन हो गया तो उस पर पश्चाताप करने का अवसर भी नहीं मिलता ।<br />
<br />
अधेड़ एक पेड़ पर लटका हुआ था और दूसरे पेड़ पर बैठे पक्षी कांय कांय कर रहे थे ।भीड़ जमा होती जा रही थी ।<br />
<br />
<br />
<br />
वह अजीब ही आदमी था । बारह बहन भाइयों में आठवीं सन्तान । सब में परस्पर बड़ा स्नेह था । उस में पता नहीं यह प्रवृत्ति कहां से प्रवेश कर गई थी कि वह हर काम अलग ढंग सेे करता, आस पास की हर चीज उसे अपने टेरूट के अनुसार चाहिए थी । और दूसरों से अलग दिखना भी उसे पसंद था ।<br />
<br />
कभी कभी बाकी बहन भाइयों में से कोई न कोई उसे टुनका लगा देता- मास्टर बिशम्बर दास की घनी सन्तान में विभूति तो एक ही है ।<br />
<br />
वह शरारत को समझता और बचने के लिए बिना प्रतिवाद किए वहां से खिसक लेता ।<br />
आज सुबह जब उस का स्कूल का सहपाठी आया तो वह बेहद खुश था। बिल्कुल स्वच्छन्द भाव से बोला था - मणि, वर्षों बाद आज इस घर में किसी दोस्त के पांव पड़े हैं । मैं धन्य हो गया ।<br />
<br />
मणि राम बोला- विभूति, तुम स्कूल में तो इतने साफ सुथरे नहीं रहते थे परन्तु यहां तुम्हारा घर बार एकदम स्फटिक जैसा लगता है ।<br />
‘अरे, छोड़ो उन दिनों की बातें ।’ कह कर चुप हो गया । उस ने मन ही मन सोचा- तब मैं बहन भाइयों के साथ तबेले में रहता था । दो छोटे छोटे कमरे और भीड़ में फंसा आठवां बच्चा । और अब मैं अपने घर में रहता हूं ।<br />
<br />
तभी टिफिन आ गया था । मणि राम ने फिर पूछा-टिफिन ? भाभी यहां नहीं है क्या ?<br />
‘यहीं है। यह उसी की तो माया है । तुम जल्दी से फ़्रेश हो लो । फिर दोनों भोजन करेंगे ।’ विभूति ने स्नेहपूर्ण शब्दों में कहा ।<br />
<br />
‘जो आज्ञा, प्रभु ।’ कहकर मणि वाशरूम में चला गया ।<br />
दोनों ने प्यारपूर्वक भोजन किया । विभूति ने कहा - तुम अपना बैग यहीं रख जाओ । दोपहर को यहीं आ जाना । भोजन भी करेंगे और बातें भी ।<br />
<br />
‘अब बैग जो यहां छोड़ दिया है । अब तो आना ही पड़ेगा ।’ मणि चला गया लेकिन उस के मन में उथल-पुथल मची रही कि इतना बड़ा प्रोफ़ेसर भी टिफिन मंगवाता है। उसे आश्चर्य हुआ कि पहाड़ के छोटे से गांव में भी टिफिन का रिवाज चल निकला है । सुविधा के लिए लोग ठण्डा मण्डा खाना भी खा लेते हैं । संभव है यह विभूति की कोई मजबूरी हो ।<br />
नाश्ता करने के बाद वह धर्मशाला के लिए चल पड़ा जहां कोर्ट में उस की पेशी थी ।<br />
<br />
<br />
वह नहीं मानता था कि हर बच्चे का अपना अपना भाग्य होता है । भाग्य तो बनाया जाता है । जो लोग अपने बच्चों को विलायत में पढ़ने के लिए भेजते थे,वे स्वयं अपने बच्चों का भाग्य बनाते थे । मेरे बड़े भाई मेडिकल कालेज में भेजे गए तभी तो वे डाक्टर बनें । मुझे नहीं भेजा गया तो मैं नहीं बना डाक्टर ।<br />
वह अपने पिता से भिड़ गया था ।<br />
<br />
‘आप ने मेरे तीन बड़कों को डाक्टरी करवाई है । मुझे क्यों नहीं करवाते ?’ विभूति ने सीधा आक्षेप जड़ा था ।<br />
<br />
‘ बेटा, अपना बित्ता भी तो देखना पड़ता है । पहले भी जमीन बेच कर इन को पढ़ाया है । पुरखों की जमीन का दर्द तुम क्या जानो ।’ मास्टर बिशम्बर दास ने रोनी सी सूरत बना कर कहा ।<br />
<br />
‘उनके लिए पुरखों को बेच सकते हो लेकिन मेरे लिए...वह कहता कहता रुक गया । कहने की इच्छा तो हुई कि अपना बित्ता देख कर फौज खड़ी करनी थी परन्तु उस के संस्कारों ने उसे चुप रहने का ही आदेश दिया ।<br />
<br />
विभूति पहाड़ से बाहर निकल जाना चाहता था ताकि कुछ खास बन सके । जो लोग बाहर निकले थे , वे बहुत आगे बढ़ने में सफल हुए थे । अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की कविता ‘एक बूंद’ उसे बहुत अच्छी लगती थी । उसे लगता था पिता उसे पहाड़ में ही रखना चाहते थे । बाग बगीचों, घर बार और बूढ़ों की देख रेख के लिए भी तो किसी न किसी बेटे को अपने पास रखना जरुरी था ।<br />
<br />
इसे संयोग कहें या उस का भाग्य कि उसी वर्ष प्रदेश में पहला एग्रीकल्चर कालेज खुल गया । पिता ने कहा ‘ यह तुम्हारे लिए ही खुला है । चलो कल तुम्हें दाखिल करवा आउं । बाप दादा का व्यवसाय भी बचा रहेगा । घर में ही डिग्री करने पर खर्चा भी कम आए गा ।<br />
‘मैं डाक्टरी कर के अपना क्लिनिक खोलना चाहता हॅं ।’<br />
‘अब मुझ में सामर्थ्य नहीं है ।’<br />
‘तब था । उन के लिए सब कुछ और मेरे लिए घास फूस की डिग्री । मैं अनपढ़ ही भला । ’<br />
‘तो क्या करोगे ?’<br />
‘भीख मांगूगा । नहीं तो मनाली में आवारागर्दी करुंगा । बाग बगीचा तो है ही ।’<br />
‘कुछ और सोच लो ।’<br />
‘होटल खोल लूंगा ।’<br />
<br />
‘बहुत पैसा चाहिए और फिर होटल आदि चलाना आसान काम नहीं ।’ मास्टर जी सोच रहे थे कि इस व्यवसाय में गुण्डागर्दी होती है, देह व्यापार होता है । ये नशे के अड्डे बन जाते हैं । तरह तरह के पर्यटक आते हैं । शराब ,चरस,स्मैक न जाने क्या क्या लफड़े होते हैं । लड़ाई झगड़े होते हैं । वह इस व्यवसाय के पक्ष में हरगिज नहीं थे । वास्तव में हर आदमी अपने अपने ढंग से सोचता है और अंततः उस की अपनी धारणाएं बन जाती हैं और वह फिर उन्हीं के अनुरूप आचरण करना पसन्द करता है ।<br />
<br />
पिता परेशान था और विभूति था कि वह पानी की बूंद जमीन पर नहीं गिरने दे रहा था । बस उसे तो पिता के हर प्रस्ताव का विरोध करना था । कभी उसे लगता कि उस का बाप कहीं उसे हरामी समझ कर तो नहीं ऐसा बर्ताव कर रहा । इनसान भी क्या खोपड़ी है । कैसे कैसे तर्क कुतर्क ढूंढ लेता है । खुद को हरामी कहने में भी उसे संकोच नहीं होता है ।<br />
<br />
विभूति के मामा ने समझाया कि एग्रीकल्चर में बहुत स्कोप है । पंजाब में हरित क्रांति जब से आई है एग्रीकल्चर में नौकरियों की भरमार हो गई है ।<br />
जब तक मैं डिग्री करुंगा उसे कुत्ता भी नहीं पूछेगा ।’ विभूति ने प्रतिवाद किया । थोड़ा सोच कर वह फिर बोला- आप हरित क्रांति की बात करते हो । कितने किसानों ने इस वर्ष आत्महत्या की है , पता भी है । कपास की फसल फेल हो गई, सात परिवारों ने एक साथ आत्महत्या कर ली । गन्ना किसान उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र में गल फाहे ले रहे हैं ।<br />
<br />
‘तुम ने किसानी थोड़े करनी है । तुम पी.एच.डी. कर के प्रोफ़ेसर लग जाना । चाहो तो अमरीका भी पढ़ आना ।’ मामा ने चुग्गा डाला ।<br />
‘मैं मास्टर नहीं बनना चाहता ’ वह गुस्से में बोला था । पिता स्कूल मास्टर थे। प्रायः बच्चों को मां- बाप का व्यवसाय अच्छा नहीं लगता । इसी लिए वे कई बार गलत धारणाएं बना लेते हैं । उसे लगता मास्टर लोग सनकी हो जाते हैं । अपने आप को समाज के निर्माता समझते हैं , जबकि उस का मानना था कि वे समाज में वर्ग भेद को बढ़ावा देते हैं और एक प्रकार से अशान्ति का प्रसार करते हैं ।<br />
<br />
वे लोग उस पर प्रेशर बनाते रहे, तो उस ने चिढ़ कर कहा - हां, मैं एग्रीकल्चर कालेज में दाखिल हो जाउंगा लेकिन यह मेरी मर्जी कि परीक्षा पास करुं या न करुं ।<br />
<br />
पिता सहम गया था । इय सिरफिरे का क्या पता , जानबूझ कर ही फेल होता रहे । यह दण्डकीला कहां से आ गया हमारे परिवार में । इस की कोई भी कल सीधी नहीं हर किसी को लक्कड़ देने के लिए तैयार रहता है ।<br />
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विभूति एक बार कालेज में चला गया तो धीरे धीरे सारी हेकड़ी भूल गया । उसे अध्ययन में रस आने लगा । अच्छी अच्छी खबरें आतीं तो मास्टर बिशम्बरदास की छाती गर्व से फूल जाती । एक बार तो छात्रपाल से रिपोर्ट आई कि विभूति छात्रावास में आदर्श छात्र के रूप में चयनित हुआ है । अनुशासन,शालीनता तथा विनम्रता इस के व्यक्तित्व के गुण हैं ।<br />
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मास्टर बिशम्बर दास को लगा उस जैसा तो कोई पिता ही नहीं था । उन्हें लगा विभूति अब एक स्वतन्त्र पंछी था जो अपने परों के बल पर आकाश में उड़ने में सक्षम था ।<br />
पिता के मन में विचार आया कि उस की डिग्री पूरी होते ही उसे विवाह बंधन में बांध देना उचित होगा । सही समय पर सही काम श्रेष्ठ होता है । मन में कौंध आई, यह लड़का लक्कड़ है । सिर्फ मेरे सोच लेने से ही तो यह काम सम्पन्न नहीं हो जाएगा । कोई जुगाड़ फिट करना पड़ेगा ।<br />
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वह फिर अड़ गया था ।<br />
शायद यह उस का स्वभाव ही बन गया था । वह निर्णय लेने में अपने आप को सब से बेहतर मानता था । घर वालों ने एक सुशील सुन्दर कन्या देख कर उस से विभूति का टिप्पड़ा भी मिलवा लिया था । मां ने कहा - विभूति, एक बार लड़की से मिल लो । फिर तुम्हारा रिश्ता पक्का कर देंगे ।<br />
‘कौन सी लड़की ? और कैसी लड़की ?’<br />
‘बेटा, तुम्हारी डिग्री हो गई । नौकरी लग जाएगी । मां बाप तो चाहेंगे कि तुम्हारी शादी हो जाए।’ पिता ने समझाया ।<br />
‘मैं कोई दूध पीता बच्चा तो हूं नहीं । क्यों मुझ पर अपने निर्णय थोंपते हो ?’वह गुर्राया था ।<br />
‘तुम्हारी नजर में है कोई लड़की, तो भी बता दो ।’<br />
‘नहीं कोई नहीं ।’<br />
‘तो फिर उस लड़की को देखने में हर्ज ही क्या है ।’ मां ने मासूमियत से कहा ।<br />
‘इतनी भी क्या जल्दी है । पहले भी कौन सा आप के बच्चों ने शादियां आप की मर्जी से की है । फिर मुझी पर सारा दबाव क्यों ?’<br />
<br />
उस के भाइयों ही ने ही नहीं अपितु उस की बहनों ने भी जहां ठीक लगा वहां अपना रिश्ता खुद तय कर लिया और बाद में माता पिता को बताया । मां बाप चीखते ही रह गए । पूरे रीति रिवाज से विवाह करना चाहते थे ताकि रिश्तेदारी में अपनी साख बचा सकें । वे बार बार विभूति को पुचकार रहे थे ।<br />
<br />
कभी कभी मां बाप अजीब सी दुविधा में फंस जाते हैं । जैसा सोचा होता है , कई बार वैसा नहीं होता । मास्टर बिशम्बर दास का मानना था कि परिवार जितना बड़ा हो गा, मां बाप तथा बिरादरी को उतना ही ज्यादा सुख होगा ।<br />
<br />
किसी हद तक बात ठीक भी थी । उन्हें कभी लगा ही नहीं कि वे कभी अकेले थे । उन के बड़े भाई रामेश्वर के कोई सन्तान नहीं थी, तो उन्हें हमेशा लगता था कि उनका घर हमेशा खाली ही रहा । भाभी की मृत्यु पहले हो गई । बुढ़ापे में जो एकान्त भाई ने झेला, वह बहुत ही दर्दनाक था ।<br />
<br />
विभूति ने अभी कोई निर्णय नहीं लिया था ।<br />
एक दिन अचानक लड़की वाले आ गए । लड़की को भी साथ ही लाए थे । मास्टर बिशम्बर दास ने उन की खूब आवभगत की ।<br />
विभूति नारायण मन ही मन भड़का हुआ था लेकिन बाहर से वह शान्त बना रहा ।कोई बोल नहीं रहा था । विभूति ने ही श्रेष्ठा से पूछा - आप की भावी पति से क्या अपेक्षाएं हैं ?<br />
‘कोई विशेष नहीं । बस ऐसा पति चाहिए जो परस्पर विश्वास रखे और शान्त भाव से जीवन की नैया को पार लगा दे ।’ श्रेष्ठा संभल कर बोली ।<br />
‘तो पति को आप खेवट समझती हैं ’। वह शरारती स्वर में बोला ।<br />
‘‘पति पत्नी तो रथ के दो पहिए हैं, दोनों का सह अस्तित्व होता है ।’ लड़की के पिता ने कहा ।<br />
‘अंकल, आज जमाना बहुत आगे निकल गया है । ये बातें आप के जमाने में सच थीं लेकिन आज नहीं । आज तो सब की अपनी अपनी पेस है ।’ विभूति ने विनम्रता से कहा ।<br />
‘फिर भी सतुलन तो रखना ही पड़ता है । ’ मास्टर बिशम्बर दास ने कहा ।<br />
‘ संतुलन का मूल आधार तो अर्थ ही होता है । मैं नहीं जानता श्रेष्ठा कितने पैसे कमा सकती है और कितनी स्वावलम्बी हो सकती है । मैं तो विवाह को अपने अपने स्वावलम्बन पर सहवास का अनुबन्ध मानता हूँ । ’ पता नहीं उस के दिमाग में बर्नार्ड शॉ के विचार कहां से आ कर घुस गए थे ।<br />
<br />
सभी उसे हैरान नजरों से देख रहे थे ।<br />
‘ विभूति बेटा, तू बनिया कब से बन गया ?’ मां ने आश्चर्य से कहा ।<br />
‘ यहां तो सभी बनिए लगते हैं मुझे । मेरे सभी बहन भाई ढेरों पैसे कमाते हैं परन्तु कभी किसी ने मुझे दमड़ी नहीं दी । तो वैसे ही संस्कार मुझ में आंएगे । मेरा तो मानना है कि सभी अपने अपने स्तर पर स्वार्थी होते हैं । तो पति पत्नी को भी उसी तुला पर क्यों न तोला जाए ।’ उस के विचार काफी उग्र लग रहे थे ।<br />
<br />
श्रेष्ठा को बेबाक लड़का अच्छा लगा । और विभूति को लड़की भी ठीक ठाक लगी । दोनो ने कहा कि वे फाइनल निर्णय थोड़े समय बाद लें गे ।<br />
मां बाप को आस बंध गई ।<br />
<br />
आंगन में चिड़ियां चहक रही थीं मानो मंगल गीत गा रही हों ।<br />
<br />
मणि ने फोन पर कहा था - मुझे धर्मशाला थोड़ा सा काम है कचहरी में । बहुत साल हो गए मुताकात ही नहीं हुई । सोचता हूँ आप से भी मिल लूं ।<br />
<br />
‘अरे मणि, तुम आओगे तो मेरा घर महक जाएगा । यहां है ही कौन । तुम एक दिन पहले आ जाओ ।’<br />
<br />
‘मैं सुबह जल्दी पहुंच जाउंगा । मैं घुमारवी से रात्रि बस से चलूंगा ।’<br />
‘ठीक है मैं तुम्हारा इन्तजार करुं गा ।’<br />
मणि रास्ते में सोचता रहा कि उस ने ऐसा क्यों कहा कि घर में और है ही कौन ? वह जानता है विभूति का विवाह वर्षों पहले हुआ था । उसे एक बेटे के होने की भी खबर थी । फिर उस ने सोचा - ओह मैं भी कितना मूर्ख हूँ । हो सकता है भाभी कहीं और नौकरी करती हो । सरकारी नौकरी में तो बदली होती रहती है ।<br />
<br />
वह विभूति का घर देख कर दंग रह गया । कितने करीने से फुलवारी बनाई गई थी । बाहर आंगन में बैठने के लिए सीमेंट और पत्थरों के रंग बिरंगे बैंच बने हुए थे । एकदम प्राकृतिक परिवेश । घर आंगन तपस्थली लग रहा था ।<br />
<br />
कमरे एक दम साफ । किताबें करीने से लगी हुईं । एक दीवार पर लिखा हुआ - आप आए, मैं धन्य हो गया ।<br />
मणि ने कहा - विभूति सब बातें ठीक परन्तु तुम्हारे घर तक पहुंचना बहुत मुश्किल है । कोई कहीं भी फिसल कर गिर सकता है ।’’<br />
<br />
‘मणि तुम बिल्कुल ठीक कहते हो लेकिन तुम जानते ही हो कि जमीन बेचने वाले कई तरह की ठगियां करते हैं । मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ । मुझे दिखाया गया था कि रास्ता दस फुट है परन्तु जब पैमायश ली गई वहां कागजों में रास्ता था ही नहीं । बाद में कुछ हो नहीं सकता था । सो मन मार लिया ।’<br />
<br />
फिर कुछ देर पटवारियों के किस्से चलते रहे ।<br />
टिफिन आ गया था ।<br />
<br />
इतनी बड़ी कोठी और किचन में कोई हलचल नहीं । बैठक में भी न तो किसी बच्चे की फोटो लगी थी और न ही कोई फैमली फोटो । मणि पूछना चाहता था परन्तु चुप ही रहा । पता नहीं क्या भेद था । वह उस के ज़ख्मों को नहीं कुरेदना चाहता था । टिफिन आने का मतलब था घर में कोई महिला नहीं थी । उसे याद है विभूति की फिलास्फी ही अलग थी । वह कहता था परिवार के हर सदस्य को अपना अपना खर्च वहन करना चाहिए । बच्चों का भी आधा- आधा । क्या अजीब थियूरी है । इस से तो परिवार की परिभाषा ही गड़बड़ा जाएगी ।<br />
<br />
<br />
विभूति ने कहा था - परिभाषा गड़बडाती है तो गड़बड़ा जाए । मेरे मां बाप ने बारह बच्चे पैदा किए । सब अपना अपना खाते कमाते हैं । किसी को कुछ नहीं देते ।<br />
<br />
मणि ने कहा - पति पत्नी तो परस्पर निर्भर रहते होंगे । यह भी तो सहयोग ही हुआ ।<br />
<br />
‘नहीं, वे सब चालाक थे । उन्होंने शादियां कमाने वाली लड़कियों से ही की । मेरे पल्ले ही खोटा सिक्का मढ़ दिया गया । मां बाप भी अपने बच्चे के साथ कसाइयों जैसा बर्ताव करते हैं ।<br />
<br />
तर्क का कोई अन्त नहीं होता । मणि ही चुप कर गया ।<br />
दोनों मित्र वर्षों बाद मिले थे । दोनों के चेहरे पर एक चमक थी ।<br />
वह बैग रख कर धर्मशाला चला गया था । विभूति अपनी क्यारियों में लग गया था ।<br />
धूप चढ़ने लगी थी ।<br />
<br />
<br />
धर्मशाला से काम निपटा कर मणि कोई चार बने सांय वापिस लौटा । उसे बड़ी भूख लगी थी । वह जल्दी जल्दी डग भरता हुआ विभूति की कोठी के प्रांगण में पहुंचा । कोई हलचल नहीं थी । सब कुछ एक दम शान्त । उस ने जोर से आवाज लगाई - डा. साहब । विभूति भाई । लेकिन कोई जवाब नहीं ।<br />
उस ने फिर दरवाजा जोर से खटखटाया लेकिन कोई जवाब नहीं ।<br />
<br />
सोचा शायद सो गया हो । फिर घंटी बजाई । जोर से दरवाजा खटखटाया लेकिन कोई आवाज नहीं । जाली वाला दरवाजा अन्दर से बन्द था ।<br />
मणि घबरा गया । दौड़ कर अड़ोस पड़ोस मे गया । एक महिला मिली । मणि ने सारी कहानी उसे बताई ।<br />
महिला ने खेत में काम कर रहे एक व्यक्ति को आवाज लगाई - हरिए, दौड़ कर यहां आ । वह धान की पनीरी को खेत की मेंढ़ पर रख कर दौड़ा आया । पंच बुला लिए थे । थाने में खबर कर दी थी ।<br />
<br />
इस बीच सरपंच दीनू राम ने जाली काट कर हाथ अन्दर डाला और कुण्डी खोल दी । वह बड़ी चौकसी से अन्दर गया । देखा मेज़ पर टिफिन पड़ा था और साहब पंखें से लटक रहे थे ।<br />
<br />
मणि राम की चीख निकलते निकलते रही । बोला - यह क्या किया विभूति तूने । ओह नो ।<br />
‘ आत्महत्या करना पाप है ।’ कोई बोला ।<br />
धीरे धीरे भीड़ इकट्ठी होने लगी ।<br />
‘अभी रिटायर हुए छः महीने भी नहीं हुए ।’<br />
‘घर में कभी कोई औरत या बच्चा नहीं देखा । कहते हैं बीवी भी है और बेटा भी । फिर यहां क्यों नहीं आए कभी ?’<br />
‘शायद वह बच्चे को ले कर चली गई होगी । अनबन भी तो हो जाती है । आज कल तो यह आम बात है ।’ कोई अनुभवी व्यक्ति कह रहा था ।<br />
‘सुना है दोनों आपस में भिड़ते रहते थे ।’<br />
‘अब तो कहानी ही खत्म हो चुकी है । सालों साल हो गए उन्हें अलग हुए । अब भी शायद ही आए वह ।’<br />
तभी पुलिस आ गई थी । पंचनामा हुआ । और शव को उतार कर नीचे रख दिया गया । फिर पुलिस ने इसे पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया ।<br />
डायरियां देख कर उन्होंने रिश्तेदारों का पता लगाया और फिर पत्नी को फोन किया गया । श्रेष्ठा ने तो साफ ही कह दिया कि लाश को लावारिस समझ कर दाह संस्कार कर दिया जाए । हमारा कोई रिश्ता नहीं है ।<br />
<br />
गाँव की एक महिला कह रही थी - जो अपने बीवी बच्चों का नहीं हो पाया, वह अपना भी कैसे हो सकता था । अच्छा ही हुआ पंछी फड़फड़ा कर उड़ गया । यहां भी भटकी हुई आत्मा की तरह घूमता रहता था । न यहां कोई रिश्तेदार आता था और न वह गांव वालों से मेल जोल रखता था ।पेड़ पर लटके हुए अधेड़ और पंखे से झूल रहे प्रोफेसर में कोई अन्तर नहीं लग रहा था ।<br />
उसके आंगन के पेड़ों पर बैठे कौए अचानक कांय कांय करने लगे ।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31620सुशील कुमार फुल्ल2016-08-26T03:13:13Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Sushil-kumar-phull-gadyakosh.jpg<br />
|नाम=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=15 अगस्त 1941<br />
|जन्मस्थान=गांव काईनौर, ज़िला रोपड़, पंजाब<br />
|मृत्यु=<br />
|कृतियाँ=<br />
|विविध=<br />
|जीवनी=[[सुशील कुमार फुल्ल / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Sushil Kumar Phull<br />
|shorturl=<br />
|kavitakosh=<br />
|copyright=<br />
}}<br />
====कहानियाँ====<br />
* [[बसेरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बढ़ता हुआ पानी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[मेमना / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फंदा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ठूँठ / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[कोहरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बांबी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[रिज पर फौजी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[माटी के खिलौने / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[चिड़ियों का चोगा / सुशील कुमार फुल्ल]] <br />
* [[दान पुन्न / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अटकाव / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अनुपस्थित / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[प्रेम का अन्तर्राष्ट्रीय संस्करण / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अपने-अपने दुःख / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फ़ासला / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ककून / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[जिजीविषा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[जंगल / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बाहर का आदमी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[सांप / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[किलेबन्दी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[मुण्डू / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बोक / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ब्रेक-डाउन / सुशील कुमार फुल्ल ]]<br />
* [[अलबेला / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[दण्डकीला / सुशील कुमार फुल्ल]]</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%B2%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%B2%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31396अलबेला / सुशील कुमार फुल्ल2016-07-16T00:40:26Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल |अनुवाद= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
<br />
<br />
<br />
'''को'''र्ट का निर्णय आ गया था ।<br />
<br />
वह टुकुर टुकुर देखता रहा । वह भी पेंशनर है, उसे भी उस की रिटायरल राशि मिलनी चाहिए । दो वर्ष हो गए रिटायर हुए लेकिन पल्ले कुछ भी नहीं पड़ा । बीस पच्चीस लाख इकट्ठा पैसा मिलेगा , यही सोच कर कामिनी की शादी भी रख दी थी । और भी कई काम जो पेडिंग पड़े थे, अब उन्हें आराम से निपटाया जा सकता था ।<br />
<br />
थक हार कर पेंशनर्ज ने सभा बना ली थी, जिसे उन्होंने पंजीकृत भी करवा लिया था । अब वह संगठित हो कर अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठा सकते थे । एक मंच बन गया था ।<br />
अधिकांश पेंशनर सभा के सदस्य बन गए थे लेकिन वह किन्तु-परन्तु में ही लगा रहा ।<br />
<br />
‘लब्बुआ,फिरि मेम्बर बनी जाणा था ?’ भीम सिंह ने कहा ।<br />
<br />
‘राणा जी मैं सोचगा । मैं अप्पूं औंगा तुहां वल्ल’ लब्बू ने अनमने भाव से कहा ।<br />
<br />
वह उखड़ गया था । उसे उम्र भर अपना नाम ही पसन्द नहीं आया । मां-बाप भी क्या चीज़ होते हैं । बिना सोचे समझे ऐसे नाम रख देते हैं जिन्हें न तो बाद में आसानी से बदला जा सकता है और न ही उस नाम के कटाक्ष से बचा जा सकता है । राणा कैसे बोल रहा था लब्बुआ, जैसे मैं उस का बंधुआ हूं । उससे बड़े ओहदे पर से रिटायर हुआ हूं । वह सहायक था और मैं अनुभाग अधिकारी ।ससुरा आगे पीछे भागा फिरता था । और अब सभा का कोषाध्यक्ष बन गया है, तो दिमाग चढ़ गया है ।<br />
<br />
एल आर सोचने लगा - सारी उम्र नौकरी करो और रिटायरमेंट पर अपने पैसे के लिए भी कोर्ट में जाओ ।<br />
<br />
यह कैसी विडम्बना है । सरकार कहती है कि उसने हर क्षेत्र में विकास के डग भरे हैं और जी डी पी निरन्तर बढ़ रही है । कोई इन से पूछे मैंने जी डी पी से क्या लेना । मुझे तो बेटी की शादी के लिए तुरन्त पांच लाख रुपया चाहिए ।<br />
<br />
दोे साल पहले सेवानिवृत हुआ तो क्या मिला? केवल पन्द्रह हजार रुपया और वह भी अपनी ही कल्याण निधि का ।<br />
<br />
पेंशनर परेशान थे । रिटायरमेंट पर उमीद होती है कि उम्र भर की कमाई का इकटठा पैसा एक साथ मिले गा तो जीवन के कई काम आसानी से हो जांएगे लेकिन कुछ ऐसी गबड़बड़ हुई कि संस्थान का पेेशन फण्ड ही जी़रो हो गया और पेंशन मिलना बन्द हो गई ।<br />
<br />
अब एक ही रास्ता रह गया था कि कोर्ट कचहरियों के चक्कर लगााए जांए । कुछ वरिष्ठ लोगों ने विचाार विमर्श कर के पेंशनर्ज़ सभा बना ली और रजिस्टर करवा ली । भीम सिंह कार्यकारिणी का सदस्य था । उसका काम था सेवा निवृत कर्मचारियों को सभा का सदस्य बनाना । आम तौर पर अधिकतर लोग इस के मेम्बर बन गए लेकिन कुछ किन्तु-परन्तु में फंसे रहे । एल आर भारद्वाज भी उन्हीं लोगों में से था। शेर शिकार मार कर लाएगा तो गीदड़ों को भी तो कुछ न कुछ मिल ही जाता है । प्रयत्न कोई भी करे लेकिन फल तो सभी को मिलेगा, एल आर सोचता । सभा याचिका दायर करेगी तो जो भी निर्णय होगाा वह तो सभी पर लागू हो गा । वह मन ही मन अपनी चतुराई पर आत्मविभोर हो गया ।<br />
<br />
<br />
<br />
पिछले सात महीने से पेंशन बन्द थी । शहर में हाहाकार मच गया था । दुकानदारों ने छोटे कर्मचारियों को उधार देना बन्द कर दिया था ।<br />
जब भी पेंशनर सभा के प्रनिनिधि कुलपति से पेंशन के लिए गुहार लगाते तो एक ही उत्तर मिलता - सरकार पैसा ही नहीं दे रही तो हम कहां से लायें पैसे । जब ग्रांट आएगी तो पेंशन रिलीज़ कर देंगे । मैं भी कुछ दिनों में आप का साथी बन जाऊंगा ।<br />
<br />
बड़ी अजीब स्थिति थी । मेशी की बेटी की शादी थी । वह धप- धप कर के प्रथम तल पर पहुंच गया था और लगा दहाड़ें मारने कुलपति के दफ़्तर के सामने । मुझे यह इनाम दिया है यूनिवर्सिटी ने । सारी उम्र गन्दगी उठाता रहा तुम लोगों की और अब मुझे कह रहे हैं पैसा नहीं तो पेंशन कहां से दें । अपने लिए तो पैसा निकल आता है । हाय बो । मैं तो जीते जी मर गया लेकिन मैं जीने तुम्हें भी नहीं दूंगा<br />
ओए लोको कुछ तो करो मेरी बेटी की शादी है । स्यापा ही है गरीब की जिन्दगी । और वह बिलख- बिलख कर रोने लगा |<br />
<br />
उसे रिटायर हुए कई महीने हो गए थे । उस जैसे और भी कई लोग थे ।<br />
<br />
यूनिवर्सिटी में जो भी कोई सरकारी अफसर आता तो पेंशनर सभा के प्रतिनिधि उस से मिलते और अपनी समस्याओं को रखते । प्रदेश के वित सचिव सदाशिव कुप्पाराम आए तो अध्यक्ष सहित कार्यकारिणी के और सदस्य भी उनके पास पहुँच गए । सारी बात बताई ।चेहरे पर बिना कोई भाव लाए कुप्पाराम ने कहा - देखो यूनिवर्सिटी परिवहन निगम जैसी है और इसे भी चाहिए कि किसी भी तरह पैसा कमाए और अपने कर्मचारियों और पेंशनर्ज को खिलाए, पाले-पोसे । हमें कोई एतराज नहीं होगा । सरकार तो पहले ही करोड़ों के कर्ज तले डूबी हुई है ।<br />
<br />
‘फिर तो सरकार जब कमाए तभी अपने कर्मचारियों को वेतन और पेंशन दे । लेकिन आप लोगों को तो बराबर वेतन मिल रहा है जब कि सरकार करोड़ों के ऋण के बोझ तले दबी है । अध्यक्ष सदानन्द सरकारी अफसरों के तर्कों -कुतर्कों से पहले ही दुखी था ।<br />
<br />
कुप्पाराम को गुस्सा आ गया । बोला - तुम दो टके के आदमी ,अपनेआप को बहुत बड़ा लीडर समझते हो । बात करनी हैं तो शिमला आना मेरे दफ़्तर में । तुम्हारी सब अकड़ निकल जाएगी ।<br />
<br />
तंग आ कर सभा ने कोर्ट में याचिका डाल दी ।<br />
सभा के वकील ने जज महोदय के सामने पेंशनर्ज की समस्याएं रखी और बताया कि रिटायरमेंट के बाद कई लोगों ने तो एक भी बार पेंशन नहीं ली और चल बसे । फैमिली पेंशनर्ज भूखे मर रहे हैं । कितना अजीब है कि उम्र भर नौकरी करने के बाद भी पेंशनर्ज को खाली हाथ घर जाना पड़े । सात आदमियों ने तो अब तक आत्म ह्त्या भी कर ली है।<br />
जज महोदय ने अपना निर्णय दिया कि यूनिवर्सिटी जब तक सारी पेंशनन रिलीज नहीं करती ,कुलपति और कुलसचिव का भी वेतन रिलीज न किया जाए । और दोनों की सरकारी गाड़ियां भी अटैच की जाती हैं । इसके अतिरिक्त वित सचिव के सन्दर्भ में कोर्ट ने आदेश दिया कि तीन दिन के अन्दर वित सचिव व्यक्तिगत रूप में कोर्ट में हाजिर होकर ग्रांट न रिलीज करने का कारण बताए ।<br />
<br />
यूनिवर्सिटी के वकील ने उछल उछल कर तर्क दिए थे कि सरकार पैसा ही नहीं देती तो हम पेंशन कहां से दें । ग्रांट इन ऐड मिलते ही हम पेंशनर्ज की पेंशन रिलीज कर देंगे । लेकिन इन तर्कों का जज साहिब पर कोई असर नहीं हुआ और पेंशनर्ज को आस बंध गई ।<br />
<br />
एल आर भारद्वाज भी बड़ा प्रसन्न था कि अब तो उसे भी सब कुछ बिना मेंबर बने ही मिल जाएगा । दरअसल पिछली बार जब 37 आदमियों का रिटायरल बेनिफिट के लिए कोर्ट में केस डाला गया तो फैसला आने पर कुलपति ने अपने पैसे निकलवाने के लिए 37 की बजाय 93 लोगों को कोर्ट के निर्णय का लाभ दे दिया । अपने लिए बेईमानी तो ईमानदारी ही लगती है । वह भी रिटायर हो कर कुलपति लग गया था ।<br />
<br />
इस बार जो निर्णय आया, वह वैसा ही था जैसा पिछली बार था कि इतने और इन इन याचिकाकर्ताओं को तुरन्त रिटायरल बेनिफिट रिलीज कर दिए जायें । और कुलपति ने वैसा ही किया । साथ ही आदेश में लिख दिया कि क्योंकि यूनिवर्सिटी के पास थोड़ा पैसा है, इस लिए कोर्ट के आदेशानुसार सूची में लिखित व्यक्तियों को ही रिलीफ दिया जाएगा ।<br />
<br />
सभा के पेंशनर प्रसन्न थे लेकिन एल आर भारद्वाज उर्फ लब्बू का मुंह लटक गया था । वह बार बार सूची को पढ़ रहा था लेकिन वह तो मेम्बर बना ही नहीं था ।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31395सुशील कुमार फुल्ल2016-07-16T00:33:45Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: /* कहानियाँ */</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
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|नाम=सुशील कुमार फुल्ल<br />
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|जन्म=15 अगस्त 1941<br />
|जन्मस्थान=गांव काईनौर, ज़िला रोपड़, पंजाब<br />
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|जीवनी=[[सुशील कुमार फुल्ल / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Sushil Kumar Phull<br />
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}}<br />
====कहानियाँ====<br />
* [[बसेरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बढ़ता हुआ पानी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[मेमना / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फंदा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ठूँठ / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[कोहरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बांबी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[रिज पर फौजी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[माटी के खिलौने / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[चिड़ियों का चोगा / सुशील कुमार फुल्ल]] <br />
* [[दान पुन्न / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अटकाव / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अनुपस्थित / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[प्रेम का अन्तर्राष्ट्रीय संस्करण / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अपने-अपने दुःख / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फ़ासला / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ककून / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[जिजीविषा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[जंगल / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बाहर का आदमी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[सांप / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[किलेबन्दी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[मुण्डू / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बोक / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ब्रेक-डाउन / सुशील कुमार फुल्ल ]]<br />
* [[अलबेला / सुशील कुमार फुल्ल]]</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%95-%E0%A4%A1%E0%A4%BE%E0%A4%89%E0%A4%A8_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31299ब्रेक-डाउन / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-24T03:39:59Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div><br />
{{GKGlobal}}<br />
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|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
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|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
'''न'''गर की छत पर विलीन हो रहा पुच्छल तारा, लहरियाँ बिखेरता हुआ। बत्तियाँ धुधियायी हुईं। बर्फीली हवा में भी पसीने से तर-बतर। साँस घुटता हुआ-सा। तभी वह हड़बड़ा कर उठ बैठा। असहाय दृष्टि इधर-उधर घूम रही थी। पापा का सोये अभी कुछ ही क्षण हुए होंगे। उसने धीमे से अलमारी खोली...वह कुछ ढूँढ रहा था.... शायद मम्मी ने अलमारी साफ की थी और सब दवाइयाँ बेकार समझ कर बाहर फेंक दी थीं। घर में दवाईयों का अम्बार लगा रहता है और वे सब भाई यों ही दवाई लेते रहते..... मम्मी खीझ उठती और कभी-कभी तो प्रवचन हो जाता- मैं पचास की हो गयी लेकिन कभी दवाई नहीं खाई। बहुत हुआ तो चाय में तुलसी के पत्ते उबाल कर पी लिये। और तुम हो कि घर को दवाइयों की दुकान बना बैठे हो।<br />
<br />
बाहर तेज़ हवा थी, एकदम बर्फ। दूर वृक्ष की शाखाओं में बये का घोंसला लटक रहा था, झूलता-सा। उसने खिड़की में से पुच्छत तारे की चिंगारियाँ लहरियाँ बनकर बिखरती हुई देखीं और संस्कारवश वह अन्दर ही अन्दर काँप गया।<br />
<br />
उसकी इच्छा हुई कि पिंजरे में बन्द खरगाश को कठिनाई हो तो वह शरीर को फैलाकर लेट जाता है।.... आकार में बड़ा लगने लगता है... वह एकदम हृष्ट-पुष्ट था परन्तु उसकी आँखें बन्द होती जा रही थीं। कब तक यातना को झेलता... वह धीमे से फुसफुसाया- पापा।<br />
<br />
‘‘क्यों क्या हुआ?’’ अलसाई सी आवाज और पापा ने करवट बदल ली!<br />
‘‘मेरा साँस घुट रहा है...सभी खिड़कियाँ खोल दूँ। तुम ठीक तो हो।’’<br />
‘‘इतनी ठण्ड में सभी खिड़कियाँ खोल दूँ। तुम ठीक तो हो।’’<br />
‘‘हूँ।’’ बेटा बुदबुदाया।<br />
<br />
बाप एकदम उठ बैठा.... भयाक्रांत, आशंकित। साँस की शिकायत उसे पहले भी हो जाती थी परन्तु इतना शिथिल वह पहले कभी दिखायी नहीं दिया। पापा का हृदय दहल गया परन्तु सान्तवना देते हुए कहा- बिट्टू मैं अभी एम्बुलैंस लाता हूँ और तुम्हें अस्पताल ले चलूँगा।<br />
<br />
बये का घोंसला आँगन के पेड़ में बुरी तरह से झूल रहा था। नयी-नयी कोंपलों वाला बिरवा धुंधियायी बत्तियों में धूमिल सा जान पड़ा। पुच्छल तारा टूट कर न जाने कहाँ विल्पुत हो गया था... उस आत्मा की तरह जो एक शरीर छोड़ कर न जाने कब कहाँ.... गायब हो जाती है। पिता ने बेटे की कुर्सी में सीधा करके बिठा दिया ताकि साँस लेने में दिक्कत न हो और कहा- बिट्टू...तुम बहादुर हो...थोड़ी देर इन्तज़ार करो... मैं गया और आया।<br />
बेटा निरीह... विवश... लाचार... आँखों से देखता हुआ बैठ गया कुर्सी पर सीध होकर।<br />
<br />
पहाड़ को काटकर बनायी हुई सरकारी आवास कालोनी, न कार पहुंच सके, न स्कूटर .... साँप सी सीढीनुमा चढ़ती पगडण्डी। अस्पताल से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी.... पहाड़ की चोटी पर टिके मकान.... एक लम्बे सेवाकाल के बाद सरकारी आवास मिला था... और वह भी संयोग से। सीनियारिटी में तो वर्मा जी बहुत आगे थे परन्तु हर बार कोई न कोई सिफारशी बाजी मार ले जाता। हाऊस-एलाटमेंट भी स्वास्थ्यमंत्री खुद करता था और वर्मा जी कभी अपने लिए कह न पाए।<br />
<br />
मंत्री ने अपने गांव में स्वास्थ्य-शिविर का उद्घाटन किया था। मुफ्त दवाईयाँ बाँटी जा रही थीं लेकिन गांव के लोग दवाइयों की अपेक्षा अपनी छोटी-मोटी माँगे लेकर मंत्री के सामने पेश हो रहे थे और मंत्री थे कि कल्प वृक्ष बने बैठे थे। चुनाव की तलवार हवा में लटकी हुई थी और अब किसी प्रार्थी को ‘न’ का सवाल नहीं था। मंत्री उपस्थित थे। तो सभी अधिकारी भी मौके पर उपस्थित थे। एक-एक अर्जी प्रस्तुत होती, निवेदक गिड़गिड़ाता और राजा जी प्रसन्न होकर आदेश लिख देते। सब लोग सन्तुष्ट होकर चले गए तो मंत्री जी ने कहा- वर्मा जी.... नयी हवा के रूख का क्या पता। आप भी कुछ माँगो न।<br />
<br />
वर्मा जी सकुचा गए। उनके एक सहयोगी ने कहा- राजा जी, वर्मा जी पचास से ऊपर हो गए, इन्होंने काम भी बहुत किया है परन्तु अभी तक सरकारी क्वार्टर नहीं मिला है। आठ सौ रुपये किराया देकर दो कमरों के सीलन भरे मकान में रहते हैं।<br />
मंत्री जी ने तुरन्त अपने सेकेटरी को कहा- वर्मा जी को क्वार्टर अलाटमेंट के आर्डर कर दो।<br />
<br />
वर्मा जी सन्तुष्ट। नये क्वार्टर में आ गए थे। किराया भी बहुत कम था। पहाड़ के सोलन जैसे शहर में क्वार्टर मिल जाए, तो आदमी बादशाह हो जाता है.... लेकिन क्वार्टर बने थे पहाड़ की चोटी पर। पैदल चलना पड़ता।<br />
<br />
ऊपर से नीचे उतरो तो भी दम निकलता था, नीचे से ऊपर जाओ तो रास्ते में कई-कई बार बैठना पड़ता। अस्पताल तीन किलोमीटर की दूरी पर था। वह परेशान हो उठते। उन्हें पहाड़ के साथ ही जीना था। बचपन में कभी जन्म-पत्री दिखायी थी, तो ज्योतिषी ने कहा था- वर्मा जी, आप तो जंगलों में जीवन काटेंगे। अब उन्हें इस आशय का अर्थ समझ आने लगे थे... सारा हिमाचल एक तरह से जंगल ही तो था.... एकदम घना होता.... झाड़ियों सा सिमटता हुआ।<br />
रात के ग्यारह बजे थे। शहर सन्नाटे में डूबा हुआ था।<br />
<br />
वह नीचे की ओर भाग रहे थे। कुर्सी में बैठा हुआ बिट्टू...बस मैं अभी अस्पताल पहुंच कर एम्बुलैंस ले आऊँगा। फिर डॉक्टर इन्जेक्शन दे देगा और सब ठीक हो जाएगा। पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था। वे अस्पताल पहुँचे थे.... इन्जेक्शन देते ही बिट्टू की साँस ठीक हो गयी थी।<br />
<br />
पगडण्डी नीचे उतरती हुई पक्की सड़क में विलीन हो गयी लेकिन यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते उनका अपना साँस फूल गया था। वह क्षण-भर के लिए ठिठके परन्तु बेटे को ध्यान आते ही तेज़-तेज़ चल पड़े। सड़क पर मरे हुए कुत्ते से टकराए और हकबकाए से बोले- ओम् नमो शिवायः अच्छा शगुन नहीं था। सड़क के बीच मौत। कुत्ते का जीवन.... योनि दर योनि भटकता हुआ जीव। नश्वर संसार... कौन जाने कब कहाँ किसका अन्त हो जाए। संसार तो मकड़ी का जाला है। हम स्वयं अपने इर्द-गिर्द जाल बुनते हैं और अन्ततः उसी में घुट कर मर जाते हैं, उन्होंने सोचा और फिर तेज़-तेज़ चलने लगे!<br />
<br />
पगडण्डी चढ़कर वह ऊपर पहुँचे, अस्पताल के आँगन में!<br />
<br />
चमचम रोशनी में नहाया हुआ अस्पताल, अभी दो महीने पहले ही मुख्यमंत्री ने इसका उद्घाटन किया था... सौ बिस्तर का आलीशान अस्पताल। अब किसी मरीज को शिमला या चण्डीगढ़ नहीं जाना पड़ेगा।<br />
<br />
पुच्छल तारे की पूँछ अब भी आकाश में अलसायी हुई सी लटकी थी। शरह में घुस आये गीदड़ों की चिंघाड़ सन्नाटे को भंग कर रही थी।<br />
अस्पताल सोया पड़ा था।<br />
<br />
वर्मा जी ने चौकीदार को जगाया और ड्यूटी-रूम में चले गये। नर्स कुर्सी पर ऊँघ रही थी।<br />
डाक्टर राउण्ड लेकर अपने क्वार्टर में चली गयी थी।<br />
<br />
‘‘सर, आप इस समय यहाँ।’’ चौकीदार चौंका। इस बीच नर्स भी जाग गयी थी। <br />
‘‘सिनकू, रामदीन को बुलाओ। मुझे एम्बुलैंस लेकर जाना है। बिट्टू की हालत खराब है।’’<br />
‘‘सर, एम्बुलैंस तो खराब है शायद।’’ नर्स ने सूचना दी।<br />
‘‘तो कोई गाड़ी तो होगी।’’<br />
‘‘हाँ... मैं पता करती हूँ... अगर कोई ड्राइवर आस-पास हो।’’ और नर्स बड़े इत्मीनान से टेलीफोन मिलाती रही।<br />
अचानक रामदीन आ गया था। उसकी ड्यूटी तो आठ बजे शुरू होती थी परन्तु वह शिमला से ही लेट हो गया था। आते ही बोला- साहब! आप टेलीफोन ही कर देते। मैं खुद एम्बुलैंस लेकर पहुँच जाता।<br />
<br />
वर्मा साहिब के पास बहस के लिये समय नहीं था... रामदीन जल्दी चलो... कहकर वह एम्बुलैंस में बैठ गए और नर्स से बोले- डॉक्टर साहिबा को तुरन्त लगा रखे।<br />
शुक्र खुदा का कि एम्बुलैंस ठीक थी लेकिन गाड़ी घर से आधा किलो-मीटर इधर रूक गयी। वर्मा साहिबा और रामदीन पगडन्डी पर दौड़ने लगे। घर पहुँचे बिट्टू कुर्सी में वैसे ही बैठा था, जैसे वह छोड़ गए थे... एक आज्ञाकारी बेटा...चेहरा थोड़ा नीला पड़ गया था... आँखें आधी बन्द हो चुकी थीं लेकिन नाड़ी चल रही थी!<br />
‘‘बिट्टू। मैं आ गया। एम्बुलैंस पहुँच गयी है। मैं अभी तुम्हें अस्पताल ले चलूँगा। फिर सब ठीक हो जाएगा। तुम थोड़ी देर और हौंसला रखो। उनकी आवाज धँसती चली गयी!<br />
<br />
बिट्टू की आँखों में कोई चमक नहीं थी... कोई हरकत नहीं... मानो कह रहा हो... पापा, तुम अपने रक्त-चाप की चिन्ता करो... मेरा क्या है।<br />
<br />
रामदीन और वर्मा साहिब उसे उठाने लगे लेकिन सत्ताईस वर्षीय भरा-पूरा जवान उनके लिए भारी पड़ रहा था। अब वे दोनों घबराए। वर्मा साहिब पसीने से नहा गए। रामदीन चिल्लाया... अरे, कोई तो बाहर आओ। ऊपरी मंजिलों की कुछ खिड़कियाँ खुली.... लोगों ने बाहर झाँका...एक दो आदमी तुरन्त नीचे पहुँच गये।<br />
वे बिट्टू को उठा रहे थे।<br />
<br />
जहाँ क्वार्टर बने थे...वहाँ पगडण्डी के साथ कर डंगा बारिशों में गिर गया था। मलबा गिरने से पगडण्डी सिकुड़ गयी थी। वहाँ चलने में दिक्कत होती परन्तु लोक-निर्माण विभाग के एस्टीमेट अभी बने नहीं थे...हर साल डंगा बनता.... नये एस्टीमेट बनते और काम शुरू हो जाता लेकिन इस साल का बजट सूख गया था।<br />
<br />
मरीज़ को उठाकर उतरने में दिक्कत हो रही थी परन्तु कोई चारा नहीं था। पहाड़ की जिन्दगी... झाने सी स्वच्छ एवं कल-कल करती हुई... तो कभी पहाड़ के बोझ के नीचे दबती हुई... इस पार और उस पार... बीच मँझधार।<br />
उसे नीचे एम्बुलैंस तक लाने में आधा घण्टा लग गया। नब्ज अभी चल रही थी.... ‘रामदीन’ फुसफुसाहट भरा स्वर।<br />
<br />
‘‘वर्मा साहिब। आप चिन्ता न करें। हम अभी अस्पताल पहुँच जाएँगे और सब ठीक हो जाएगा।’’ और रामदीन ने गाड़ी स्टार्ट कर दी।<br />
वर्मा जी आप तो जंगलों में जीवन व्यतीत करेंगे। ज्योतिषी की आवाज़ उभर रही थी...जन्म ही मैदान में लिखा था... ठीक ही तो कहा था... जंगल ही जंगल...उभरते हुए पहाड़...जंगलों से घिरा शहर और शहर में उग आया जंगल। उन्हें लगा कि वह बाँस के झुरमुटों में फंस गए थे और निकलने का कोई रास्ता दिखायी नहीं दे रहा था...उनकी स्थिति बाँस की जड़ में फँसे चूहे जैसी हो गयी थी!<br />
<br />
पुच्छल तारे की पूँछ आकाश में कब की विलुप्त हो चुकी थी परन्तु उन्हें लगा पुच्छल तारे की पूँछ अभी भी हवा में लहरियाँ बिखराती हुई आग सी भभक उठी थी... सारा शहर अग्निकुण्ड में डूब गया था...<br />
<br />
बये का घोंसला तूफान में झूल रहा था... बिखरने के लिए व्याकुल... बुरी तरह से झूलता हुआ और घोंसले में नवजात बये...<br />
मुझे फोन ही कर देना चाहिए था...आने-जाने में ही दो घण्टे लग गए... लेकिन जब वहाँ ड्राइवर ही नहीं था, तो फोन भी व्यर्थ था... या फिर बिट्टू के पास किसी को बिठा कर आना चाहिए था... दर्द हर व्यक्ति को अकेले ही झेलना पड़ता है लेकिन किसी की उपस्थिति से थोड़ा ढाढस तो बँधता है।<br />
परकाया प्रवेश... काश! वह बिट्टू के शरीर में प्रवेश कर पाते... फिर उन्हें लगा अग्नि-कुण्ड जलने लगा था... सदियों से अग्नि-कुण्ड जलता आ रहा है।<br />
शरीर तो भस्म हो जाता है परन्तु आत्मा वस्त्र बदल लेती है.... फिर उन्होंने भीगे नयनों से रामदीन से कहा- गाड़ी रोको। रामदीन... तुमने बहुत जिन्दगी देखी है... पके फल तो गिरते ही हैं परन्तु क्या गदरा हुए कच्चे फल भी गिर जाते हैं। बोलो न, तुम चुप क्यों हो... क्या गदराए हुए कच्चे फल भी गिर जाते हैं। बोलो न, तुम चुप क्यों हो... क्या कच्चे फल भी गिरते हैं।<br />
<br />
रामदीन की आँखें झर-झर कर बहने लगीं। बोला- वर्मा साहिब.... आप धैर्य रखो... हम पहुँचने ही वाले हैं! एक चोटी से दूसरी.... दूसरी से तीसरी.... तक फलाँगते हुए बन्दर...बये का हिलता हुआ घोंसला... पिंजरे में बन्द खरगोश की धुँधली पड़ती हुई आँखे... पुच्छल तारे की बिखरती... सिमटती लहरियाँ.... योनि दर योनि भटकता जीव... अनेक बिम्ब वर्मा साहिब की आँखों के आगे धुँधियाये से घूम गए!<br />
एम्बुलैंस अस्पताल के आँगन में पहँच गयी... रामदीन के चहरे पर सन्तोष झलक गया। स्ट्रेचर पर मरीज़ को उतारा जा रहा था। डॉक्टर साहिबा मरीज़ को एटैण्ड करने के लिए तैयार खड़ी थीं...सब कुछ तैयार था।<br />
<br />
अचानक सारा शहर अंधकार में डूब गया था...अस्पताल भी... शायद कहीं बड़ा ब्रेक-डाउन हो गया था...मरघट-सा सन्नाटा... अन्धकार में पुच्छल तारे की लहरियाँ आकाश में चिंगारियों की तरह बिखरकर जंगल की गहराइयों में लीन हो गयीं!</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%95-%E0%A4%A1%E0%A4%BE%E0%A4%89%E0%A4%A8_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31298ब्रेक-डाउन / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-24T03:39:07Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: ' {{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल |अनुवाद= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<br />
<br />
नगर की छत पर विलीन हो रहा पुच्छल तारा, लहरियाँ बिखेरता हुआ। बत्तियाँ धुधियायी हुईं। बर्फीली हवा में भी पसीने से तर-बतर। साँस घुटता हुआ-सा। तभी वह हड़बड़ा कर उठ बैठा। असहाय दृष्टि इधर-उधर घूम रही थी। पापा का सोये अभी कुछ ही क्षण हुए होंगे। उसने धीमे से अलमारी खोली...वह कुछ ढूँढ रहा था.... शायद मम्मी ने अलमारी साफ की थी और सब दवाइयाँ बेकार समझ कर बाहर फेंक दी थीं। घर में दवाईयों का अम्बार लगा रहता है और वे सब भाई यों ही दवाई लेते रहते..... मम्मी खीझ उठती और कभी-कभी तो प्रवचन हो जाता- मैं पचास की हो गयी लेकिन कभी दवाई नहीं खाई। बहुत हुआ तो चाय में तुलसी के पत्ते उबाल कर पी लिये। और तुम हो कि घर को दवाइयों की दुकान बना बैठे हो।<br />
<br />
बाहर तेज़ हवा थी, एकदम बर्फ। दूर वृक्ष की शाखाओं में बये का घोंसला लटक रहा था, झूलता-सा। उसने खिड़की में से पुच्छत तारे की चिंगारियाँ लहरियाँ बनकर बिखरती हुई देखीं और संस्कारवश वह अन्दर ही अन्दर काँप गया।<br />
<br />
उसकी इच्छा हुई कि पिंजरे में बन्द खरगाश को कठिनाई हो तो वह शरीर को फैलाकर लेट जाता है।.... आकार में बड़ा लगने लगता है... वह एकदम हृष्ट-पुष्ट था परन्तु उसकी आँखें बन्द होती जा रही थीं। कब तक यातना को झेलता... वह धीमे से फुसफुसाया- पापा।<br />
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‘‘क्यों क्या हुआ?’’ अलसाई सी आवाज और पापा ने करवट बदल ली!<br />
‘‘मेरा साँस घुट रहा है...सभी खिड़कियाँ खोल दूँ। तुम ठीक तो हो।’’<br />
‘‘इतनी ठण्ड में सभी खिड़कियाँ खोल दूँ। तुम ठीक तो हो।’’<br />
‘‘हूँ।’’ बेटा बुदबुदाया।<br />
<br />
बाप एकदम उठ बैठा.... भयाक्रांत, आशंकित। साँस की शिकायत उसे पहले भी हो जाती थी परन्तु इतना शिथिल वह पहले कभी दिखायी नहीं दिया। पापा का हृदय दहल गया परन्तु सान्तवना देते हुए कहा- बिट्टू मैं अभी एम्बुलैंस लाता हूँ और तुम्हें अस्पताल ले चलूँगा।<br />
<br />
बये का घोंसला आँगन के पेड़ में बुरी तरह से झूल रहा था। नयी-नयी कोंपलों वाला बिरवा धुंधियायी बत्तियों में धूमिल सा जान पड़ा। पुच्छल तारा टूट कर न जाने कहाँ विल्पुत हो गया था... उस आत्मा की तरह जो एक शरीर छोड़ कर न जाने कब कहाँ.... गायब हो जाती है। पिता ने बेटे की कुर्सी में सीधा करके बिठा दिया ताकि साँस लेने में दिक्कत न हो और कहा- बिट्टू...तुम बहादुर हो...थोड़ी देर इन्तज़ार करो... मैं गया और आया।<br />
बेटा निरीह... विवश... लाचार... आँखों से देखता हुआ बैठ गया कुर्सी पर सीध होकर।<br />
<br />
पहाड़ को काटकर बनायी हुई सरकारी आवास कालोनी, न कार पहुंच सके, न स्कूटर .... साँप सी सीढीनुमा चढ़ती पगडण्डी। अस्पताल से लगभग तीन किलोमीटर की दूरी.... पहाड़ की चोटी पर टिके मकान.... एक लम्बे सेवाकाल के बाद सरकारी आवास मिला था... और वह भी संयोग से। सीनियारिटी में तो वर्मा जी बहुत आगे थे परन्तु हर बार कोई न कोई सिफारशी बाजी मार ले जाता। हाऊस-एलाटमेंट भी स्वास्थ्यमंत्री खुद करता था और वर्मा जी कभी अपने लिए कह न पाए।<br />
<br />
मंत्री ने अपने गांव में स्वास्थ्य-शिविर का उद्घाटन किया था। मुफ्त दवाईयाँ बाँटी जा रही थीं लेकिन गांव के लोग दवाइयों की अपेक्षा अपनी छोटी-मोटी माँगे लेकर मंत्री के सामने पेश हो रहे थे और मंत्री थे कि कल्प वृक्ष बने बैठे थे। चुनाव की तलवार हवा में लटकी हुई थी और अब किसी प्रार्थी को ‘न’ का सवाल नहीं था। मंत्री उपस्थित थे। तो सभी अधिकारी भी मौके पर उपस्थित थे। एक-एक अर्जी प्रस्तुत होती, निवेदक गिड़गिड़ाता और राजा जी प्रसन्न होकर आदेश लिख देते। सब लोग सन्तुष्ट होकर चले गए तो मंत्री जी ने कहा- वर्मा जी.... नयी हवा के रूख का क्या पता। आप भी कुछ माँगो न।<br />
<br />
वर्मा जी सकुचा गए। उनके एक सहयोगी ने कहा- राजा जी, वर्मा जी पचास से ऊपर हो गए, इन्होंने काम भी बहुत किया है परन्तु अभी तक सरकारी क्वार्टर नहीं मिला है। आठ सौ रुपये किराया देकर दो कमरों के सीलन भरे मकान में रहते हैं।<br />
मंत्री जी ने तुरन्त अपने सेकेटरी को कहा- वर्मा जी को क्वार्टर अलाटमेंट के आर्डर कर दो।<br />
<br />
वर्मा जी सन्तुष्ट। नये क्वार्टर में आ गए थे। किराया भी बहुत कम था। पहाड़ के सोलन जैसे शहर में क्वार्टर मिल जाए, तो आदमी बादशाह हो जाता है.... लेकिन क्वार्टर बने थे पहाड़ की चोटी पर। पैदल चलना पड़ता।<br />
<br />
ऊपर से नीचे उतरो तो भी दम निकलता था, नीचे से ऊपर जाओ तो रास्ते में कई-कई बार बैठना पड़ता। अस्पताल तीन किलोमीटर की दूरी पर था। वह परेशान हो उठते। उन्हें पहाड़ के साथ ही जीना था। बचपन में कभी जन्म-पत्री दिखायी थी, तो ज्योतिषी ने कहा था- वर्मा जी, आप तो जंगलों में जीवन काटेंगे। अब उन्हें इस आशय का अर्थ समझ आने लगे थे... सारा हिमाचल एक तरह से जंगल ही तो था.... एकदम घना होता.... झाड़ियों सा सिमटता हुआ।<br />
रात के ग्यारह बजे थे। शहर सन्नाटे में डूबा हुआ था।<br />
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वह नीचे की ओर भाग रहे थे। कुर्सी में बैठा हुआ बिट्टू...बस मैं अभी अस्पताल पहुंच कर एम्बुलैंस ले आऊँगा। फिर डॉक्टर इन्जेक्शन दे देगा और सब ठीक हो जाएगा। पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था। वे अस्पताल पहुँचे थे.... इन्जेक्शन देते ही बिट्टू की साँस ठीक हो गयी थी।<br />
<br />
पगडण्डी नीचे उतरती हुई पक्की सड़क में विलीन हो गयी लेकिन यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते उनका अपना साँस फूल गया था। वह क्षण-भर के लिए ठिठके परन्तु बेटे को ध्यान आते ही तेज़-तेज़ चल पड़े। सड़क पर मरे हुए कुत्ते से टकराए और हकबकाए से बोले- ओम् नमो शिवायः अच्छा शगुन नहीं था। सड़क के बीच मौत। कुत्ते का जीवन.... योनि दर योनि भटकता हुआ जीव। नश्वर संसार... कौन जाने कब कहाँ किसका अन्त हो जाए। संसार तो मकड़ी का जाला है। हम स्वयं अपने इर्द-गिर्द जाल बुनते हैं और अन्ततः उसी में घुट कर मर जाते हैं, उन्होंने सोचा और फिर तेज़-तेज़ चलने लगे!<br />
<br />
पगडण्डी चढ़कर वह ऊपर पहुँचे, अस्पताल के आँगन में!<br />
<br />
चमचम रोशनी में नहाया हुआ अस्पताल, अभी दो महीने पहले ही मुख्यमंत्री ने इसका उद्घाटन किया था... सौ बिस्तर का आलीशान अस्पताल। अब किसी मरीज को शिमला या चण्डीगढ़ नहीं जाना पड़ेगा।<br />
<br />
पुच्छल तारे की पूँछ अब भी आकाश में अलसायी हुई सी लटकी थी। शरह में घुस आये गीदड़ों की चिंघाड़ सन्नाटे को भंग कर रही थी।<br />
अस्पताल सोया पड़ा था।<br />
<br />
वर्मा जी ने चौकीदार को जगाया और ड्यूटी-रूम में चले गये। नर्स कुर्सी पर ऊँघ रही थी।<br />
डाक्टर राउण्ड लेकर अपने क्वार्टर में चली गयी थी।<br />
<br />
‘‘सर, आप इस समय यहाँ।’’ चौकीदार चौंका। इस बीच नर्स भी जाग गयी थी। <br />
‘‘सिनकू, रामदीन को बुलाओ। मुझे एम्बुलैंस लेकर जाना है। बिट्टू की हालत खराब है।’’<br />
‘‘सर, एम्बुलैंस तो खराब है शायद।’’ नर्स ने सूचना दी।<br />
‘‘तो कोई गाड़ी तो होगी।’’<br />
‘‘हाँ... मैं पता करती हूँ... अगर कोई ड्राइवर आस-पास हो।’’ और नर्स बड़े इत्मीनान से टेलीफोन मिलाती रही।<br />
अचानक रामदीन आ गया था। उसकी ड्यूटी तो आठ बजे शुरू होती थी परन्तु वह शिमला से ही लेट हो गया था। आते ही बोला- साहब! आप टेलीफोन ही कर देते। मैं खुद एम्बुलैंस लेकर पहुँच जाता।<br />
<br />
वर्मा साहिब के पास बहस के लिये समय नहीं था... रामदीन जल्दी चलो... कहकर वह एम्बुलैंस में बैठ गए और नर्स से बोले- डॉक्टर साहिबा को तुरन्त लगा रखे।<br />
शुक्र खुदा का कि एम्बुलैंस ठीक थी लेकिन गाड़ी घर से आधा किलो-मीटर इधर रूक गयी। वर्मा साहिबा और रामदीन पगडन्डी पर दौड़ने लगे। घर पहुँचे बिट्टू कुर्सी में वैसे ही बैठा था, जैसे वह छोड़ गए थे... एक आज्ञाकारी बेटा...चेहरा थोड़ा नीला पड़ गया था... आँखें आधी बन्द हो चुकी थीं लेकिन नाड़ी चल रही थी!<br />
‘‘बिट्टू। मैं आ गया। एम्बुलैंस पहुँच गयी है। मैं अभी तुम्हें अस्पताल ले चलूँगा। फिर सब ठीक हो जाएगा। तुम थोड़ी देर और हौंसला रखो। उनकी आवाज धँसती चली गयी!<br />
<br />
बिट्टू की आँखों में कोई चमक नहीं थी... कोई हरकत नहीं... मानो कह रहा हो... पापा, तुम अपने रक्त-चाप की चिन्ता करो... मेरा क्या है।<br />
<br />
रामदीन और वर्मा साहिब उसे उठाने लगे लेकिन सत्ताईस वर्षीय भरा-पूरा जवान उनके लिए भारी पड़ रहा था। अब वे दोनों घबराए। वर्मा साहिब पसीने से नहा गए। रामदीन चिल्लाया... अरे, कोई तो बाहर आओ। ऊपरी मंजिलों की कुछ खिड़कियाँ खुली.... लोगों ने बाहर झाँका...एक दो आदमी तुरन्त नीचे पहुँच गये।<br />
वे बिट्टू को उठा रहे थे।<br />
<br />
जहाँ क्वार्टर बने थे...वहाँ पगडण्डी के साथ कर डंगा बारिशों में गिर गया था। मलबा गिरने से पगडण्डी सिकुड़ गयी थी। वहाँ चलने में दिक्कत होती परन्तु लोक-निर्माण विभाग के एस्टीमेट अभी बने नहीं थे...हर साल डंगा बनता.... नये एस्टीमेट बनते और काम शुरू हो जाता लेकिन इस साल का बजट सूख गया था।<br />
<br />
मरीज़ को उठाकर उतरने में दिक्कत हो रही थी परन्तु कोई चारा नहीं था। पहाड़ की जिन्दगी... झाने सी स्वच्छ एवं कल-कल करती हुई... तो कभी पहाड़ के बोझ के नीचे दबती हुई... इस पार और उस पार... बीच मँझधार।<br />
उसे नीचे एम्बुलैंस तक लाने में आधा घण्टा लग गया। नब्ज अभी चल रही थी.... ‘रामदीन’ फुसफुसाहट भरा स्वर।<br />
<br />
‘‘वर्मा साहिब। आप चिन्ता न करें। हम अभी अस्पताल पहुँच जाएँगे और सब ठीक हो जाएगा।’’ और रामदीन ने गाड़ी स्टार्ट कर दी।<br />
वर्मा जी आप तो जंगलों में जीवन व्यतीत करेंगे। ज्योतिषी की आवाज़ उभर रही थी...जन्म ही मैदान में लिखा था... ठीक ही तो कहा था... जंगल ही जंगल...उभरते हुए पहाड़...जंगलों से घिरा शहर और शहर में उग आया जंगल। उन्हें लगा कि वह बाँस के झुरमुटों में फंस गए थे और निकलने का कोई रास्ता दिखायी नहीं दे रहा था...उनकी स्थिति बाँस की जड़ में फँसे चूहे जैसी हो गयी थी!<br />
<br />
पुच्छल तारे की पूँछ आकाश में कब की विलुप्त हो चुकी थी परन्तु उन्हें लगा पुच्छल तारे की पूँछ अभी भी हवा में लहरियाँ बिखराती हुई आग सी भभक उठी थी... सारा शहर अग्निकुण्ड में डूब गया था...<br />
<br />
बये का घोंसला तूफान में झूल रहा था... बिखरने के लिए व्याकुल... बुरी तरह से झूलता हुआ और घोंसले में नवजात बये...<br />
मुझे फोन ही कर देना चाहिए था...आने-जाने में ही दो घण्टे लग गए... लेकिन जब वहाँ ड्राइवर ही नहीं था, तो फोन भी व्यर्थ था... या फिर बिट्टू के पास किसी को बिठा कर आना चाहिए था... दर्द हर व्यक्ति को अकेले ही झेलना पड़ता है लेकिन किसी की उपस्थिति से थोड़ा ढाढस तो बँधता है।<br />
परकाया प्रवेश... काश! वह बिट्टू के शरीर में प्रवेश कर पाते... फिर उन्हें लगा अग्नि-कुण्ड जलने लगा था... सदियों से अग्नि-कुण्ड जलता आ रहा है।<br />
शरीर तो भस्म हो जाता है परन्तु आत्मा वस्त्र बदल लेती है.... फिर उन्होंने भीगे नयनों से रामदीन से कहा- गाड़ी रोको। रामदीन... तुमने बहुत जिन्दगी देखी है... पके फल तो गिरते ही हैं परन्तु क्या गदरा हुए कच्चे फल भी गिर जाते हैं। बोलो न, तुम चुप क्यों हो... क्या गदराए हुए कच्चे फल भी गिर जाते हैं। बोलो न, तुम चुप क्यों हो... क्या कच्चे फल भी गिरते हैं।<br />
<br />
रामदीन की आँखें झर-झर कर बहने लगीं। बोला- वर्मा साहिब.... आप धैर्य रखो... हम पहुँचने ही वाले हैं! एक चोटी से दूसरी.... दूसरी से तीसरी.... तक फलाँगते हुए बन्दर...बये का हिलता हुआ घोंसला... पिंजरे में बन्द खरगोश की धुँधली पड़ती हुई आँखे... पुच्छल तारे की बिखरती... सिमटती लहरियाँ.... योनि दर योनि भटकता जीव... अनेक बिम्ब वर्मा साहिब की आँखों के आगे धुँधियाये से घूम गए!<br />
एम्बुलैंस अस्पताल के आँगन में पहँच गयी... रामदीन के चहरे पर सन्तोष झलक गया। स्ट्रेचर पर मरीज़ को उतारा जा रहा था। डॉक्टर साहिबा मरीज़ को एटैण्ड करने के लिए तैयार खड़ी थीं...सब कुछ तैयार था।<br />
<br />
अचानक सारा शहर अंधकार में डूब गया था...अस्पताल भी... शायद कहीं बड़ा ब्रेक-डाउन हो गया था...मरघट-सा सन्नाटा... अन्धकार में पुच्छल तारे की लहरियाँ आकाश में चिंगारियों की तरह बिखरकर जंगल की गहराइयों में लीन हो गयीं!</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%95_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31297बोक / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-24T03:26:52Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
<br />
<br />
प्राण! <br />
<br />
सितम्बर लौट आया है। लेकिन तुम ऐसे गये कि कभी लौटने का नाम ही नहीं लिया। बादलों की घटाएँ धमाचौकड़ी मचाने लगी हैं। मौल-खड्ड गर्माने लगी है। याद है तुम्हें जब मैं पहली बार तुम्हारे मौलखड्ड वाले कबाड़खाने में प्रविष्ट हुई थी तो तुम ने कहा था- छवि! मौलखड्ड की छल-छलाहट, इसका भड़का हुआ रूप मुझे बहुत प्रिय है। यौवन का ज्वार। और तुमने फिर मेरे यौवन की तुलना मौलखड्ड की खरमस्ती से कर दी थी।<br />
<br />
मैं डर गयी थी। अथाह जल-राशि। रात भर पानी का दहाड़ना। और बीच में गीदड़ों की सहमी-सी मरी हुई-सी आवाजें! मानों प्राणरक्षा के लिए व्याकुल जीव कोई शरण ढूँढ रहे हों। मैं कभी खड्ड के किनारे रही नहीं थी। मुझे भला नींद कैसे आती। तुम्हारा दुलार प्यार शायद विश्वस्त कर पाता! तुम्हारा प्यार कथन- ‘‘ छवि क्या नये सम्बन्धों की गर्माहट के कारण तुम्हें नींद नहीं आती!’’ अब तक शायद समझ गये होगे कि तुम्हारा यह कथन कितना मूर्खतापूर्ण या कहो अज्ञानपूर्ण था। सम्बन्धों की गर्मी और नींद न आए। वास्तव में सम्बन्धों की गर्मी हमें आश्वस्त करती है निरस्त नहीं! मैं तुम्हें भुलाने के लिये कह देती। बिल्कुल ठीक। मैं इसे भोगना चाहती हूँ। और तुम उल्लू की तरह छाती फुला कर मेरी बात को सच मान लेते हो। नर्म-नर्म गद्दों पर सुरक्षित कमरों में सोने वाली छवि को पत्थर की स्लेटों से ढकी छत के नीचे, लहराती-गहराती खड्ड के किनारे नींद कैसे आती?<br />
<br />
फिर कुछ दिनों बाद मैंने यह जताना भी चाहा था परन्तु तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं था। अतः खड्ढ की प्राकृतिकता के गुणगान करके मुझे बहलाया करते। चण्डीगढ़ से उखड़कर आने वाली लड़की के लिए धौलाधार का आँचल तथा खड्डों की सरसराहट निश्चित रूप से मनमोहक थी परन्तु तुम क्या जानो कि मैं उन दिनों कितनी भयभीत थी। साँपों की सर्र...सर्र! और तुम थे कि एक दिन डेढ़ गज़ साँप पूँछ से पकड़ कर उठा लाए थे! तुम्हें याद होगा तुमने साँप झुला दिया था और मेरी चीख निकल गई थी। मैं कितनी ही देर बेहोश रही थी।<br />
<br />
लेकिन मैं अब पहले वाली छवि नहीं हूँ। मैंने साँपों में रहकर साँप होना सीख लिया है। अब साँप मुझसे डरते हैं क्योंकि पता नहीं मैं कब उन्हें काट छीलकर कढ़ाही में डाल लूँ लेकिन प्राण! तुम तो साँपों के भी बाप निकले। तुम्हें महासाँप कहूँ तो तुम खुश हो जाओगे। प्रशंसा सुनना तो तुम्हारी आदत रही है, भले उस प्रशंसा में तुम्हारे नकारात्मक गुणों का ही आख्यान हो।<br />
<br />
महासाँप संज्ञा को तुम सहज ही स्वीकार कर लोगे, ऐसा विश्वास है। तुम मुझे उखाड़ कर नहीं लाए थे, बल्कि खदेड़ कर। जबकि मैंने कहा था- प्राण! पहले अपने माँ-बाप की सहमति ले लो।<br />
<br />
‘‘शादी मैंने करनी है, माँ-बाप ने नहीं। उनका जमाना निकल गया है।’’ तुम फुंफकार रहे थे।<br />
‘‘फिर भी।’’<br />
‘‘फिर भी क्या। मैं नये जमाने का नयी विचारधारा वाला हूँ।’’<br />
‘‘अच्छा।’’ मैंने चुस्की ली थी।<br />
‘‘तुम्हारे विचार इतने घटिया हैं, मैं नहीं जानता था।’’<br />
‘‘चलो अब तो जान गये।’’<br />
‘‘हाँ, जान गया हूँ।’’<br />
‘‘लेकिन सही ढंग से पहचाने नहीं।’’<br />
‘‘बको मत। मैं शादी करूंगा अपने ढंग से। कोई मन्दिर नहीं, मस्जिद नहीं, पुजारी-मुल्ला नहीं, कोई बाराती नहीं, कोई कचहरी जज नहीं।’’ न तुमसे कोई बोलने लगा था। याद है। ‘‘तो फिर।’’ मैंने पूछा था। <br />
<br />
‘‘मैं तुम्हें चुपचाप बकरी की तरह हाँककर ले जाऊंगा।’’<br />
‘‘तुम्हारा सामन्त अभी मरा नहीं। मैं बकरी हूँ और तुम दुर्गन्ध सने बोक। वाह रे प्राण! मैं तुम से हरगिज शादी नहीं करूंगी।’’<br />
<br />
‘‘ मैंने तो यों ही कहा था। दरअसल मुझे बकरी और बोक शब्द बहुत अच्छे लगते हैं। इनसे कम ऊर्जा का अहसास होता है। चलो मैं तुम्हें अपनी गाय समझकर ले जाऊँगा।’’ और तुम मुस्करा दिये थे। मैं जानती थी आदमी के अन्दर का अहं बार-बार किसी प्रतीक के माध्यम से बाहर निकल रहा था। और तुम्हारे अहं ने भी झुकना नहीं सीखा लेकिन याद है जब मैं तुम्हारे साथ समाज के विधि-विधान ठुकराकर आयी थी तो तुम ने नाक रगड़ का सात बार कहा था- हे मेरी बकरी! मुझं अपने साथ ले चल! हे मेरी गाय, मेरी जीवन साथी बन! इस प्रकार वास्तव में तुम मेरे साथ आये थे, मैं तुम्हारे साथ नहीं।<br />
<br />
परन्तु नहीं! तुम में तो सात काढ़ियों जितना गुस्सा भरा था तुम्हारा सामन्त तो कछुए की तरह सिमट गया था, उसने कुछ ही दिन में अपने पैर फैलाने शुरू किसे! तुम हर रोज कहते थे- खड्ड के किनारे घर किसका।<br />
<br />
मैं कहती... मेरा...मेरा।<br />
‘‘नहीं, मेरा और तेरा... तेरा... मेरा... यानि सच में मेरा और झूठ में तेरा। छवि तुम नहीं जानती! आदमी महान होता है। औरत.... औरत तो साधन है जीवन की सुखमय एवं मनोरंजक बनाने का।<br />
‘‘औरत खिलौना है?’’<br />
‘‘खिलौना कहो। इसे खूबसूरत सेब कहो.... केला कहो या चाहो तो भुट्टा कह लो।<br />
‘‘तुम पागल हो गये हो! मैं चिल्लायी थी- मैं तुम्हें यहां लायी थी, तुम्हारे साथ नहीं आयी थी। तुम्हारा दरिन्दा जाग उठा था। देखो- चाहे तुम लाई थीं या तुम मेरे पास आई थीं। जो सच्चाई है, वह सच्चाई। सेब पर छुरी या छुरी पर सेब। बात एक ही है! अब फैसला तुम कर लो कि छुरी हो या सेब, फैसला कर लेने से भी अर्थ नहीं बदल पाएँगे, यह मैं जानता हूँ।<br />
<br />
तुम्हारा असली रूप प्रकट होने लगा था। तुम चाहते थे कि मैं मध्यकालीन नायिकाओं की भान्ति किसी राजकुमार के लिए किले में बन्द रहती। मेरा पिंजरे से बाहर निकलना तुम्हें बिल्कुल नहीं सुहाता था। दरअसल तुम संकीर्ण होते जा रहे थे! मैं समझ नहीं पायी थी कि जो व्यक्ति समाज के विधि-विधानों को ठुकराकर मुझे बकरी की भांति हाँककर लाया था, वह मुझे बकरी-सा स्वच्छन्द जीवन क्यों नहीं जीने देना चाहता था। वैसे मैंने कभी ऐसा चाहा भी नहीं था कि किसी अन्य पुरुष से सम्बन्ध स्थापित करूँ परन्तु शंकालु मन बार-बार मुझ पर आरोप लगाता था.... मुझे छेक डालना चाहते थे।<br />
<br />
सिडनी तुम्हारा दोस्त था, मेरा नहीं लेकिन धीरे-धीरे तुमने मुझे विवश कर दिया कि मैं सिडनी को अपना दोस्त स्वीकार कर लूं! सिडनी ने कहा भी था- भाभी! प्राण को क्या हो गया है। सनकी हो गया लगता है। इसके नये विचारों के पीछे इसकी संकीर्णता छिपी है। कोई इसकी पत्नी को देखे तक न, छुए तक न, बतियाएं तक न!<br />
‘‘कौन पत्नी? किसकी पत्नी?’’<br />
‘‘भाभी।’’<br />
‘‘मर गयी भाभी! छवि ने फिर जन्म लिया! प्राण की पत्नी मर गयी।’’<br />
‘‘भाभी ऐसा मत कहो।’’<br />
‘‘सिडनी! खबरदार! जो मुझे भाभी कहा, चाहो तो बराबरी के रिश्ते में मुझे छवि कह सकते हो।’’<br />
सिडनी काँप गया था। फिर तुम्हें बुला लाया था! लेकिन तुम्हारी गीदड़-भभकियाँ सिर्फ अपनी नंपुसकता को दबाने के लिए थीं। दरअसल शरीर के मर्द होकर भी मन से तुम मर्द नहीं थे! तुम्हें औरत होना चाहिए था! औरत जो अन्धकार से डरती है, औरत तो हर मर्द से मन-ही-मन भयभीत रहती है। और तुम हो कि मुझे चण्डीगढ़ से उठा कर ले आए! मैं सोचती थी अपना संसार बुनेंगे! कोई छल-कपट नहीं होगा लेकिन तुम तो कुछ ही महीनों में फिसल गये थे.... तुम्हारा प्रेमी मर गया था। तुम्हारा काम शान्त हो गया था! तुम्हें सारा मिल चुका था! तुम्हें गर्व होना चाहिए था परन्तु तुम में हीनता की ग्रन्थियों ने घर कर लिया था।<br />
अपनी सामन्ती प्रवृति को तुमने फिर भी नहीं छोड़ा था! कहा था- तुम माँ बनने वाली हो! सन्तान का क्या होगा। तुम्हारा क्या होगा?<br />
‘‘तुम्हें क्यों इतनी चिन्ता है?’’<br />
<br />
‘‘वह सन्तान हम दोनों की होगी!’’<br />
‘‘लेकिन मेरी सन्तान तुम्हारे जैसी डरपोक नहीं होगी! अपने आप जी लेगी!’’<br />
‘‘फिर भी! छवि! दुनिया बड़ी भंयकर है। चलो, एक वायदा कर लेते हैं! यदि लड़की हुई तो मैं ले लूंगा। लड़का हुआ तो तुम रख लेना। तुम्हारा सहारा हो जाएगा। तुम दानवीर बन गए थे, युधिष्ठर का अभिनय करने लगे थे!’’<br />
‘‘तो हमारा परस्पर सम्बन्ध टूट गया!’’<br />
‘‘नहीं, जब तुम्हारी इच्छा हो मेरे पास आ जाओ! मेरी इच्छा होगी तो मैं उपस्थित हो जाऊंगा!’’ <br />
‘‘इकट्ठे समझो! खड्डे के किनारे एक कमरे में तुम, एक में मैं!’’<br />
<br />
मुझे कोई इतराज नहीं था लेकिन मैं इसके पीछे की घटनाओं से परिचित थी! सिडनी की बीन क्लाइडा पर तुम्हारा मन फिसल रहा था! सिडनी ने तुम्हें बढ़ावा दिया। बहन को भी बहकाया- प्राण, तो देवता है! छवि से उसकी कभी शादी नहीं हुई पत्नी कैसे हो गयी। इतना अच्छा लड़का है! जल्दी ही कहीं नौकरी लग जाएगी। पैसा काफी है! और फिर तुम प्राण को संभाल लोगी तो सारे जिन्दगी मज़े करोगी।<br />
<br />
फिर तुम पर क्लाइडा का रंग चढ़ने लगा था! मेरे प्रसव के दिन नज़दीक आ रहे थे और तुम क्लाइडा के साथ धौलाधार के जंगलों में खो जाने का अभिनय करते! प्रतिदिन कोई बहाना बनाकर बाहर निकल जाते! फिर क्लाइडा की देह भरने लगी थी!<br />
सिडनी मेरे इर्द-गिर्द मंडराता रहता। पता नहीं क्यों! मैंने उसे कभी प्रोत्साहित नहीं किया! वैसे नारी का शरीर कांई तरकारी नहीं है, जो किसी भी ग्राहक के सामने परोस दिया जाए! शायद! प्राण! तुमने कभी इस तथ्य को महसूस नहीं किया!<br />
<br />
सुरभि के जन्म पर तुम्हें कोई खुशी नहीं हुई थी। बल्कि तुमने कहा था- इसे चुपचाप मौलखड्ड में बहा देते हैं। पता नहीं तुम्हारा दरिन्दा क्यों बार-बार बाहर आ जाता था!<br />
मैंने तुम पर थूक दिया था। कहा था- मैं रखूँगी सुरभि को! सुरभि मेरे शरीर का अंश है! मैं उसे तुम्हारी दुर्गन्ध से दूर रखूँगी!<br />
तुमने मुझे भुला दिया था! क्लाइडा दीवार बन गयी थी! तुम क्लाइडा के शरीर की गन्ध की प्रशंसा किए न थकते थे! फिर वह दिन! हा... हा... तुम्हारे सामन्त के दमन का दिन..... अहँ का साँप कुचला जा रहा था!<br />
मैं अपने कमरे में थी! तुम्हारा कमरा खाली था! तुम कहीं बाहर जाने वाले थे! सिडनी मेरे पास गया था! किसी सोच-विचार में उलझा हुआ था। मैंने ही कहा था- सिडनी! मुर्दनी क्यों छाई है?<br />
‘‘मैं परेशान हूँ।’’<br />
<br />
‘‘क्यों?’’<br />
‘‘क्लाइडा की वजह से।’’<br />
‘‘उसकी पटने लगी है। प्राण तो उस पर प्राण न्योछावर करता है।’’<br />
‘‘लेकिन वह ऊब गई है।’’<br />
‘‘तुम भी अच्छे छछून्दर हो, सिडनी!’’<br />
‘‘क्यों?’’<br />
‘‘तुम अपनी चिन्ता करो।’’<br />
‘‘लेकिन क्लाइडा नरेश को चहाने लगी है!’’<br />
‘‘तो भी क्या है!’’<br />
‘‘छवि, तुम कह रही हो?’’<br />
‘‘हाँ, मैं कह रही हूँ। आदमी कई औरतों से प्रेम का ढोंग रच सकता है तो औरत क्यों नहीं! क्लाइडा प्राण को न छोड़ती तो प्राण छोड़ देता।’’<br />
‘‘तो औरत मधुमक्खी है जो कभी एक फूल पर कभी दूसरे फूल पर बैठकर रस का सेवन करती है! मुझे बड़ा अटपटा लगता है!’’<br />
‘‘अटपटेपन की क्या बात है! आदमी भी भवरें की भाँति कभी एक कलिका पर कभी दूसरी पर मुग्ध होता है!’’<br />
‘‘तो बात बराबरी की है! चलने दें?’’<br />
<br />
‘‘चलने क्या? यह स्वाभाविक है! क्लाइडा ही प्राण को सबक सिखा सकती है!’’<br />
अचानक तुम आ गए थे। तुम सिडनी को मेरे पास बैठा देखकर भड़क उठे थे। और बोल उठे थे- हरामज़ादे। उल्लू के पट्ठे ! तुम अपनी माँ के पास बैठै क्या कर रहे हो?<br />
‘‘इस हिसाब से तो मैं तुम्हारी भी माँ हुई।’’<br />
‘‘बको मत! नागिन! मैं तुम्हें क्या समझा कर लाया था!’’<br />
‘‘रखैल?’’<br />
‘‘नहीं... धर्मपत्नी!’’<br />
‘‘तो क्लाइडा तुम्हारी क्या लगती है?’’<br />
‘‘मेरी होने वाली बीवी!’’<br />
‘‘होने वाली! वाह रे मजनँू! वह तुम्हारी बीवी नहीं होगी।’’<br />
सिडनी ने भी तभी तुम्हारा मोह भंग किया था।<br />
‘‘क्योंकि अब यह मुझे चाहने लगी है! मैं इसे बहुत दूर ले जाऊंगा!’’<br />
<br />
नरेश ने क्लाइडा की गाल थपथपाते हुए तुम्हारे मुँह पर तमाचा मार दिया था! मैं बहुत खुश हुई थी! तुम्हारे चेहरे के रंग बदलने लगे थे। सिडनी कुप्पा हो गया था!<br />
‘‘मैं तुम्हें छोडूँगा नहीं!’’ तुमने धमकी दी थी और फिर जब पुलिस तुम्हें पकड़ने आई तो तुम बिल्कुल बुझ गए थे। गिड़गिड़ाने लगे थे! तुम्हारा सामन्त एकाएक परिचर बन गया था! तुम्हारे सम्बन्ध की गर्मी बर्फ की तरह जम गयी थी! तुमने कातर नज़रों से मेरी ओर यदि मैं पैरवी न करती तो तुम्हें पता नहीं क्या सज़ा मिलती! क्लाइडा नरेश के साथ खो गयी थी! उन्होंने विदेश में जा कर घर बसा लिया था। अभी कुछ महीने पहले यहाँ आए थे। उनके तीन गोलमटोल बच्चे बहुत ही सुन्दर लगते थे! क्लाइडा तुम्हारी कायरता को याद कर रही थी। पूछ रही थी- तुम्हारा नपंुसक सामन्त कहाँ विश्राम कर रहा है?<br />
‘‘क्यों मिलना चाहती हो?’’ मैंने पूछा था! न भाई न वह क्लाइडा को भगा ले जाए!<br />
नरेश ने कहकहा था।<br />
<br />
मेरे मन मस्तिष्क में बकरी को हाँकने वाले बोक का चित्र उतर गया था। और तेईस वर्ष पुरानी छवि मन में उभर आई। मैं रस विभोर हो गयी। बड़ी इच्छा हुई कि सुरभि की शादी में तुम्हें बुलाती लेकिन शायद तुम्हारा सामन्त फुँफकार उठता...कि शायद शादी में व्यय के लिए आमन्त्रित कर रही है। इसलिए नहीं लिखा। सुरभि की शादी विधिवत हो चुकी है, वह खुश है। समाज के बन्धन... ‘‘प्रतिबन्ध संयमति करते हैं...हमारे अहं का स्वच्छ विचरण... तुमने मेरे साथ करके देख लिया खैर... कोई किसी के अनुभव से नहीं सीखता... लेकिन फिर भी बच्चों को सही ढाँचे में ढालना माँ-बाप का फर्ज तो है ही। मैंने अपना कर्तव्य पूरा किया है... और साथ ही तुम्हारा भी!<br />
सुरभि चली गयी है! सिडनी को मैंने कभी चाहा नहीं बहुत वर्षों तक आवारा कुत्तों सा मण्डराता रहा परन्तु छवि का शरीर यों ही पिघल-पिघल नहीं पड़ता। हाँ... तुम इस बात को नहीं मानोगे... ना मानो... तुम्हारे मानने से न मानने से कोई विशेष अन्तर भी नहीं पड़ता!<br />
मैं जानती हूँ तुम दिल्ली की गन्दी नालियों में सड़ रहे हो... शायद तुम छोटा-मोटा काम भी करते हो.... ठीक है तुम्हें पश्चाताप होगा.... वह तो तुम्हारी निजी बात है!<br />
किसी तुमने बकरी को हाँकने का प्रतीक प्रयुक्त किया था। शब्द तो भ्रमजाल पैदा करते हैं। मौलखड्ड के किनारे सुरभि के साथ रहते हुए मुझे समय का पता ही न चला। अब निन्तात अकेली हूँ। सुरभि के जाने के बाद यह पहला सितम्बर आया है।<br />
<br />
अब खड्ड का गहराना, गर्भाना गर्वित कर जाता है, भयभीत नहीं करता! मेरी धमनियों में पर्वतीय बारिश की धड़कन समा गयी है। हाँ, शायद तुम्हें भय लगेगा। इसलिए लिखो तुम्हें आकर कब ले आऊँ?<br />
मैं तुम्हें सहारा दूँगी। क्या नए विधि-विधान के अनुसार रहने का अपना वचन पूरा नहीं करना! अब तो शरीर की आवश्यकताएँ भी नहीं भड़कातीं। शायद तुम्हारा शरीर भी संयमित हो गया होगा! <br />
बादल फिर घुमड़ने लगे हैं। <br />
मैं अकेली.... खड्ड गहराने लगी है... सच, प्राण.... तुम आ जाओ तो फिर से हम..... हम दोनों अपने बिखरते हुए सपनों को एक नया रूप देने का प्रयत्न करेंगे!<br />
देखना कहीं फिर सामन्ती फुँफकार से मुझे दुत्कार न देना.... बकरी को हाँकने वाला बोक।<br />
<br />
तुम्हारी ही<br />
<br />
छवि</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%95_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31296बोक / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-24T02:52:50Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
<br />
<br />
प्राण! सितम्बर लौट आया है। लेकिन तुम ऐसे गये कि कभी लौटने का नाम ही नहीं लिया। बादलों की घटाएँ धमाचौकड़ी मचाने लगी हैं। मौल-खड्ड गर्माने लगी है। याद है तुम्हें जब मैं पहली बार तुम्हारे मौलखड्ड वाले कबाड़खाने में प्रविष्ट हुई थी तो तुम ने कहा था- छवि! मौलखड्ड की छल-छलाहट, इसका भड़का हुआ रूप मुझे बहुत प्रिय है। यौवन का ज्वार। और तुमने फिर मेरे यौवन की तुलना मौलखड्ड की खरमस्ती से कर दी थी।<br />
<br />
मैं डर गयी थी। अथाह जल-राशि। रात भर पानी का दहाड़ना। और बीच में गीदड़ों की सहमी-सी मरी हुई-सी आवाजें! मानों प्राणरक्षा के लिए व्याकुल जीव कोई शरण ढूँढ रहे हों। मैं कभी खड्ड के किनारे रही नहीं थी। मुझे भला नींद कैसे आती। तुम्हारा दुलार प्यार शायद विश्वस्त कर पाता! तुम्हारा प्यार कथन- ‘‘ छवि क्या नये सम्बन्धों की गर्माहट के कारण तुम्हें नींद नहीं आती!’’ अब तक शायद समझ गये होगे कि तुम्हारा यह कथन कितना मूर्खतापूर्ण या कहो अज्ञानपूर्ण था। सम्बन्धों की गर्मी और नींद न आए। वास्तव में सम्बन्धों की गर्मी हमें आश्वस्त करती है निरस्त नहीं! मैं तुम्हें भुलाने के लिये कह देती। बिल्कुल ठीक। मैं इसे भोगना चाहती हूँ। और तुम उल्लू की तरह छाती फुला कर मेरी बात को सच मान लेते हो। नर्म-नर्म गद्दों पर सुरक्षित कमरों में सोने वाली छवि को पत्थर की स्लेटों से ढकी छत के नीचे, लहराती-गहराती खड्ड के किनारे नींद कैसे आती?<br />
<br />
फिर कुछ दिनों बाद मैंने यह जताना भी चाहा था परन्तु तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं था। अतः खड्ढ की प्राकृतिकता के गुणगान करके मुझे बहलाया करते। चण्डीगढ़ से उखड़कर आने वाली लड़की के लिए धौलाधार का आँचल तथा खड्डों की सरसराहट निश्चित रूप से मनमोहक थी परन्तु तुम क्या जानो कि मैं उन दिनों कितनी भयभीत थी। साँपों की सर्र...सर्र! और तुम थे कि एक दिन डेढ़ गज़ साँप पूँछ से पकड़ कर उठा लाए थे! तुम्हें याद होगा तुमने साँप झुला दिया था और मेरी चीख निकल गई थी। मैं कितनी ही देर बेहोश रही थी।<br />
<br />
लेकिन मैं अब पहले वाली छवि नहीं हूँ। मैंने साँपों में रहकर साँप होना सीख लिया है। अब साँप मुझसे डरते हैं क्योंकि पता नहीं मैं कब उन्हें काट छीलकर कढ़ाही में डाल लूँ लेकिन प्राण! तुम तो साँपों के भी बाप निकले। तुम्हें महासाँप कहूँ तो तुम खुश हो जाओगे। प्रशंसा सुनना तो तुम्हारी आदत रही है, भले उस प्रशंसा में तुम्हारे नकारात्मक गुणों का ही आख्यान हो।<br />
<br />
महासाँप संज्ञा को तुम सहज ही स्वीकार कर लोगे, ऐसा विश्वास है। तुम मुझे उखाड़ कर नहीं लाए थे, बल्कि खदेड़ कर। जबकि मैंने कहा था- प्राण! पहले अपने माँ-बाप की सहमति ले लो।<br />
<br />
‘‘शादी मैंने करनी है, माँ-बाप ने नहीं। उनका जमाना निकल गया है।’’ तुम फुंफकार रहे थे।<br />
‘‘फिर भी।’’<br />
‘‘फिर भी क्या। मैं नये जमाने का नयी विचारधारा वाला हूँ।’’<br />
‘‘अच्छा।’’ मैंने चुस्की ली थी।<br />
‘‘तुम्हारे विचार इतने घटिया हैं, मैं नहीं जानता था।’’<br />
‘‘चलो अब तो जान गये।’’<br />
‘‘हाँ, जान गया हूँ।’’<br />
‘‘लेकिन सही ढंग से पहचाने नहीं।’’<br />
‘‘बको मत। मैं शादी करूंगा अपने ढंग से। कोई मन्दिर नहीं, मस्जिद नहीं, पुजारी-मुल्ला नहीं, कोई बाराती नहीं, कोई कचहरी जज नहीं।’’ न तुमसे कोई बोलने लगा था। याद है। ‘‘तो फिर।’’ मैंने पूछा था। <br />
<br />
‘‘मैं तुम्हें चुपचाप बकरी की तरह हाँककर ले जाऊंगा।’’<br />
‘‘तुम्हारा सामन्त अभी मरा नहीं। मैं बकरी हूँ और तुम दुर्गन्ध सने बोक। वाह रे प्राण! मैं तुम से हरगिज शादी नहीं करूंगी।’’<br />
<br />
‘‘ मैंने तो यों ही कहा था। दरअसल मुझे बकरी और बोक शब्द बहुत अच्छे लगते हैं। इनसे कम ऊर्जा का अहसास होता है। चलो मैं तुम्हें अपनी गाय समझकर ले जाऊँगा।’’ और तुम मुस्करा दिये थे। मैं जानती थी आदमी के अन्दर का अहं बार-बार किसी प्रतीक के माध्यम से बाहर निकल रहा था। और तुम्हारे अहं ने भी झुकना नहीं सीखा लेकिन याद है जब मैं तुम्हारे साथ समाज के विधि-विधान ठुकराकर आयी थी तो तुम ने नाक रगड़ का सात बार कहा था- हे मेरी बकरी! मुझं अपने साथ ले चल! हे मेरी गाय, मेरी जीवन साथी बन! इस प्रकार वास्तव में तुम मेरे साथ आये थे, मैं तुम्हारे साथ नहीं।<br />
<br />
परन्तु नहीं! तुम में तो सात काढ़ियों जितना गुस्सा भरा था तुम्हारा सामन्त तो कछुए की तरह सिमट गया था, उसने कुछ ही दिन में अपने पैर फैलाने शुरू किसे! तुम हर रोज कहते थे- खड्ड के किनारे घर किसका।<br />
<br />
मैं कहती... मेरा...मेरा।<br />
‘‘नहीं, मेरा और तेरा... तेरा... मेरा... यानि सच में मेरा और झूठ में तेरा। छवि तुम नहीं जानती! आदमी महान होता है। औरत.... औरत तो साधन है जीवन की सुखमय एवं मनोरंजक बनाने का।<br />
‘‘औरत खिलौना है?’’<br />
‘‘खिलौना कहो। इसे खूबसूरत सेब कहो.... केला कहो या चाहो तो भुट्टा कह लो।<br />
‘‘तुम पागल हो गये हो! मैं चिल्लायी थी- मैं तुम्हें यहां लायी थी, तुम्हारे साथ नहीं आयी थी। तुम्हारा दरिन्दा जाग उठा था। देखो- चाहे तुम लाई थीं या तुम मेरे पास आई थीं। जो सच्चाई है, वह सच्चाई। सेब पर छुरी या छुरी पर सेब। बात एक ही है! अब फैसला तुम कर लो कि छुरी हो या सेब, फैसला कर लेने से भी अर्थ नहीं बदल पाएँगे, यह मैं जानता हूँ।<br />
<br />
तुम्हारा असली रूप प्रकट होने लगा था। तुम चाहते थे कि मैं मध्यकालीन नायिकाओं की भान्ति किसी राजकुमार के लिए किले में बन्द रहती। मेरा पिंजरे से बाहर निकलना तुम्हें बिल्कुल नहीं सुहाता था। दरअसल तुम संकीर्ण होते जा रहे थे! मैं समझ नहीं पायी थी कि जो व्यक्ति समाज के विधि-विधानों को ठुकराकर मुझे बकरी की भांति हाँककर लाया था, वह मुझे बकरी-सा स्वच्छन्द जीवन क्यों नहीं जीने देना चाहता था। वैसे मैंने कभी ऐसा चाहा भी नहीं था कि किसी अन्य पुरुष से सम्बन्ध स्थापित करूँ परन्तु शंकालु मन बार-बार मुझ पर आरोप लगाता था.... मुझे छेक डालना चाहते थे।<br />
<br />
सिडनी तुम्हारा दोस्त था, मेरा नहीं लेकिन धीरे-धीरे तुमने मुझे विवश कर दिया कि मैं सिडनी को अपना दोस्त स्वीकार कर लूं! सिडनी ने कहा भी था- भाभी! प्राण को क्या हो गया है। सनकी हो गया लगता है। इसके नये विचारों के पीछे इसकी संकीर्णता छिपी है। कोई इसकी पत्नी को देखे तक न, छुए तक न, बतियाएं तक न!<br />
‘‘कौन पत्नी? किसकी पत्नी?’’<br />
‘‘भाभी।’’<br />
‘‘मर गयी भाभी! छवि ने फिर जन्म लिया! प्राण की पत्नी मर गयी।’’<br />
‘‘भाभी ऐसा मत कहो।’’<br />
‘‘सिडनी! खबरदार! जो मुझे भाभी कहा, चाहो तो बराबरी के रिश्ते में मुझे छवि कह सकते हो।’’<br />
सिडनी काँप गया था। फिर तुम्हें बुला लाया था! लेकिन तुम्हारी गीदड़-भभकियाँ सिर्फ अपनी नंपुसकता को दबाने के लिए थीं। दरअसल शरीर के मर्द होकर भी मन से तुम मर्द नहीं थे! तुम्हें औरत होना चाहिए था! औरत जो अन्धकार से डरती है, औरत तो हर मर्द से मन-ही-मन भयभीत रहती है। और तुम हो कि मुझे चण्डीगढ़ से उठा कर ले आए! मैं सोचती थी अपना संसार बुनेंगे! कोई छल-कपट नहीं होगा लेकिन तुम तो कुछ ही महीनों में फिसल गये थे.... तुम्हारा प्रेमी मर गया था। तुम्हारा काम शान्त हो गया था! तुम्हें सारा मिल चुका था! तुम्हें गर्व होना चाहिए था परन्तु तुम में हीनता की ग्रन्थियों ने घर कर लिया था।<br />
अपनी सामन्ती प्रवृति को तुमने फिर भी नहीं छोड़ा था! कहा था- तुम माँ बनने वाली हो! सन्तान का क्या होगा। तुम्हारा क्या होगा?<br />
‘‘तुम्हें क्यों इतनी चिन्ता है?’’<br />
<br />
‘‘वह सन्तान हम दोनों की होगी!’’<br />
‘‘लेकिन मेरी सन्तान तुम्हारे जैसी डरपोक नहीं होगी! अपने आप जी लेगी!’’<br />
‘‘फिर भी! छवि! दुनिया बड़ी भंयकर है। चलो, एक वायदा कर लेते हैं! यदि लड़की हुई तो मैं ले लूंगा। लड़का हुआ तो तुम रख लेना। तुम्हारा सहारा हो जाएगा। तुम दानवीर बन गए थे, युधिष्ठर का अभिनय करने लगे थे!’’<br />
‘‘तो हमारा परस्पर सम्बन्ध टूट गया!’’<br />
‘‘नहीं, जब तुम्हारी इच्छा हो मेरे पास आ जाओ! मेरी इच्छा होगी तो मैं उपस्थित हो जाऊंगा!’’ <br />
‘‘इकट्ठे समझो! खड्डे के किनारे एक कमरे में तुम, एक में मैं!’’<br />
<br />
मुझे कोई इतराज नहीं था लेकिन मैं इसके पीछे की घटनाओं से परिचित थी! सिडनी की बीन क्लाइडा पर तुम्हारा मन फिसल रहा था! सिडनी ने तुम्हें बढ़ावा दिया। बहन को भी बहकाया- प्राण, तो देवता है! छवि से उसकी कभी शादी नहीं हुई पत्नी कैसे हो गयी। इतना अच्छा लड़का है! जल्दी ही कहीं नौकरी लग जाएगी। पैसा काफी है! और फिर तुम प्राण को संभाल लोगी तो सारे जिन्दगी मज़े करोगी।<br />
<br />
फिर तुम पर क्लाइडा का रंग चढ़ने लगा था! मेरे प्रसव के दिन नज़दीक आ रहे थे और तुम क्लाइडा के साथ धौलाधार के जंगलों में खो जाने का अभिनय करते! प्रतिदिन कोई बहाना बनाकर बाहर निकल जाते! फिर क्लाइडा की देह भरने लगी थी!<br />
सिडनी मेरे इर्द-गिर्द मंडराता रहता। पता नहीं क्यों! मैंने उसे कभी प्रोत्साहित नहीं किया! वैसे नारी का शरीर कांई तरकारी नहीं है, जो किसी भी ग्राहक के सामने परोस दिया जाए! शायद! प्राण! तुमने कभी इस तथ्य को महसूस नहीं किया!<br />
<br />
सुरभि के जन्म पर तुम्हें कोई खुशी नहीं हुई थी। बल्कि तुमने कहा था- इसे चुपचाप मौलखड्ड में बहा देते हैं। पता नहीं तुम्हारा दरिन्दा क्यों बार-बार बाहर आ जाता था!<br />
मैंने तुम पर थूक दिया था। कहा था- मैं रखूँगी सुरभि को! सुरभि मेरे शरीर का अंश है! मैं उसे तुम्हारी दुर्गन्ध से दूर रखूँगी!<br />
तुमने मुझे भुला दिया था! क्लाइडा दीवार बन गयी थी! तुम क्लाइडा के शरीर की गन्ध की प्रशंसा किए न थकते थे! फिर वह दिन! हा... हा... तुम्हारे सामन्त के दमन का दिन..... अहँ का साँप कुचला जा रहा था!<br />
मैं अपने कमरे में थी! तुम्हारा कमरा खाली था! तुम कहीं बाहर जाने वाले थे! सिडनी मेरे पास गया था! किसी सोच-विचार में उलझा हुआ था। मैंने ही कहा था- सिडनी! मुर्दनी क्यों छाई है?<br />
‘‘मैं परेशान हूँ।’’<br />
<br />
‘‘क्यों?’’<br />
‘‘क्लाइडा की वजह से।’’<br />
‘‘उसकी पटने लगी है। प्राण तो उस पर प्राण न्योछावर करता है।’’<br />
‘‘लेकिन वह ऊब गई है।’’<br />
‘‘तुम भी अच्छे छछून्दर हो, सिडनी!’’<br />
‘‘क्यों?’’<br />
‘‘तुम अपनी चिन्ता करो।’’<br />
‘‘लेकिन क्लाइडा नरेश को चहाने लगी है!’’<br />
‘‘तो भी क्या है!’’<br />
‘‘छवि, तुम कह रही हो?’’<br />
‘‘हाँ, मैं कह रही हूँ। आदमी कई औरतों से प्रेम का ढोंग रच सकता है तो औरत क्यों नहीं! क्लाइडा प्राण को न छोड़ती तो प्राण छोड़ देता।’’<br />
‘‘तो औरत मधुमक्खी है जो कभी एक फूल पर कभी दूसरे फूल पर बैठकर रस का सेवन करती है! मुझे बड़ा अटपटा लगता है!’’<br />
‘‘अटपटेपन की क्या बात है! आदमी भी भवरें की भाँति कभी एक कलिका पर कभी दूसरी पर मुग्ध होता है!’’<br />
‘‘तो बात बराबरी की है! चलने दें?’’<br />
<br />
‘‘चलने क्या? यह स्वाभाविक है! क्लाइडा ही प्राण को सबक सिखा सकती है!’’<br />
अचानक तुम आ गए थे। तुम सिडनी को मेरे पास बैठा देखकर भड़क उठे थे। और बोल उठे थे- हरामज़ादे। उल्लू के पट्ठे ! तुम अपनी माँ के पास बैठै क्या कर रहे हो?<br />
‘‘इस हिसाब से तो मैं तुम्हारी भी माँ हुई।’’<br />
‘‘बको मत! नागिन! मैं तुम्हें क्या समझा कर लाया था!’’<br />
‘‘रखैल?’’<br />
‘‘नहीं... धर्मपत्नी!’’<br />
‘‘तो क्लाइडा तुम्हारी क्या लगती है?’’<br />
‘‘मेरी होने वाली बीवी!’’<br />
‘‘होने वाली! वाह रे मजनँू! वह तुम्हारी बीवी नहीं होगी।’’<br />
सिडनी ने भी तभी तुम्हारा मोह भंग किया था।<br />
‘‘क्योंकि अब यह मुझे चाहने लगी है! मैं इसे बहुत दूर ले जाऊंगा!’’<br />
<br />
नरेश ने क्लाइडा की गाल थपथपाते हुए तुम्हारे मुँह पर तमाचा मार दिया था! मैं बहुत खुश हुई थी! तुम्हारे चेहरे के रंग बदलने लगे थे। सिडनी कुप्पा हो गया था!<br />
‘‘मैं तुम्हें छोडूँगा नहीं!’’ तुमने धमकी दी थी और फिर जब पुलिस तुम्हें पकड़ने आई तो तुम बिल्कुल बुझ गए थे। गिड़गिड़ाने लगे थे! तुम्हारा सामन्त एकाएक परिचर बन गया था! तुम्हारे सम्बन्ध की गर्मी बर्फ की तरह जम गयी थी! तुमने कातर नज़रों से मेरी ओर यदि मैं पैरवी न करती तो तुम्हें पता नहीं क्या सज़ा मिलती! क्लाइडा नरेश के साथ खो गयी थी! उन्होंने विदेश में जा कर घर बसा लिया था। अभी कुछ महीने पहले यहाँ आए थे। उनके तीन गोलमटोल बच्चे बहुत ही सुन्दर लगते थे! क्लाइडा तुम्हारी कायरता को याद कर रही थी। पूछ रही थी- तुम्हारा नपंुसक सामन्त कहाँ विश्राम कर रहा है?<br />
‘‘क्यों मिलना चाहती हो?’’ मैंने पूछा था! न भाई न वह क्लाइडा को भगा ले जाए!<br />
नरेश ने कहकहा था।<br />
<br />
मेरे मन मस्तिष्क में बकरी को हाँकने वाले बोक का चित्र उतर गया था। और तेईस वर्ष पुरानी छवि मन में उभर आई। मैं रस विभोर हो गयी। बड़ी इच्छा हुई कि सुरभि की शादी में तुम्हें बुलाती लेकिन शायद तुम्हारा सामन्त फुँफकार उठता...कि शायद शादी में व्यय के लिए आमन्त्रित कर रही है। इसलिए नहीं लिखा। सुरभि की शादी विधिवत हो चुकी है, वह खुश है। समाज के बन्धन... ‘‘प्रतिबन्ध संयमति करते हैं...हमारे अहं का स्वच्छ विचरण... तुमने मेरे साथ करके देख लिया खैर... कोई किसी के अनुभव से नहीं सीखता... लेकिन फिर भी बच्चों को सही ढाँचे में ढालना माँ-बाप का फर्ज तो है ही। मैंने अपना कर्तव्य पूरा किया है... और साथ ही तुम्हारा भी!<br />
सुरभि चली गयी है! सिडनी को मैंने कभी चाहा नहीं बहुत वर्षों तक आवारा कुत्तों सा मण्डराता रहा परन्तु छवि का शरीर यों ही पिघल-पिघल नहीं पड़ता। हाँ... तुम इस बात को नहीं मानोगे... ना मानो... तुम्हारे मानने से न मानने से कोई विशेष अन्तर भी नहीं पड़ता!<br />
मैं जानती हूँ तुम दिल्ली की गन्दी नालियों में सड़ रहे हो... शायद तुम छोटा-मोटा काम भी करते हो.... ठीक है तुम्हें पश्चाताप होगा.... वह तो तुम्हारी निजी बात है!<br />
किसी तुमने बकरी को हाँकने का प्रतीक प्रयुक्त किया था। शब्द तो भ्रमजाल पैदा करते हैं। मौलखड्ड के किनारे सुरभि के साथ रहते हुए मुझे समय का पता ही न चला। अब निन्तात अकेली हूँ। सुरभि के जाने के बाद यह पहला सितम्बर आया है।<br />
<br />
अब खड्ड का गहराना, गर्भाना गर्वित कर जाता है, भयभीत नहीं करता! मेरी धमनियों में पर्वतीय बारिश की धड़कन समा गयी है। हाँ, शायद तुम्हें भय लगेगा। इसलिए लिखो तुम्हें आकर कब ले आऊँ?<br />
मैं तुम्हें सहारा दूँगी। क्या नए विधि-विधान के अनुसार रहने का अपना वचन पूरा नहीं करना! अब तो शरीर की आवश्यकताएँ भी नहीं भड़कातीं। शायद तुम्हारा शरीर भी संयमित हो गया होगा! <br />
बादल फिर घुमड़ने लगे हैं। <br />
मैं अकेली.... खड्ड गहराने लगी है... सच, प्राण.... तुम आ जाओ तो फिर से हम..... हम दोनों अपने बिखरते हुए सपनों को एक नया रूप देने का प्रयत्न करेंगे!<br />
देखना कहीं फिर सामन्ती फुँफकार से मुझे दुत्कार न देना.... बकरी को हाँकने वाला बोक।<br />
<br />
तुम्हारी ही<br />
<br />
छवि</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%95_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31295बोक / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-24T02:51:53Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल |अनुवाद= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
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<br />
<br />
प्राण! सितम्बर लौट आया है। लेकिन तुम ऐसे गये कि कभी लौटने का नाम ही नहीं लिया। बादलों की घटाएँ धमाचौकड़ी मचाने लगी हैं। मौल-खड्ड गर्माने लगी है। याद है तुम्हें जब मैं पहली बार तुम्हारे मौलखड्ड वाले कबाड़खाने में प्रविष्ट हुई थी तो तुम ने कहा था- छवि! मौलखड्ड की छल-छलाहट, इसका भड़का हुआ रूप मुझे बहुत प्रिय है। यौवन का ज्वार। और तुमने फिर मेरे यौवन की तुलना मौलखड्ड की खरमस्ती से कर दी थी।<br />
<br />
मैं डर गयी थी। अथाह जल-राशि। रात भर पानी का दहाड़ना। और बीच में गीदड़ों की सहमी-सी मरी हुई-सी आवाजें! मानों प्राणरक्षा के लिए व्याकुल जीव कोई शरण ढूँढ रहे हों। मैं कभी खड्ड के किनारे रही नहीं थी। मुझे भला नींद कैसे आती। तुम्हारा दुलार प्यार शायद विश्वस्त कर पाता! तुम्हारा प्यार कथन- ‘‘ छवि क्या नये सम्बन्धों की गर्माहट के कारण तुम्हें नींद नहीं आती!’’ अब तक शायद समझ गये होगे कि तुम्हारा यह कथन कितना मूर्खतापूर्ण या कहो अज्ञानपूर्ण था। सम्बन्धों की गर्मी और नींद न आए। वास्तव में सम्बन्धों की गर्मी हमें आश्वस्त करती है निरस्त नहीं! मैं तुम्हें भुलाने के लिये कह देती। बिल्कुल ठीक। मैं इसे भोगना चाहती हूँ। और तुम उल्लू की तरह छाती फुला कर मेरी बात को सच मान लेते हो। नर्म-नर्म गद्दों पर सुरक्षित कमरों में सोने वाली छवि को पत्थर की स्लेटों से ढकी छत के नीचे, लहराती-गहराती खड्ड के किनारे नींद कैसे आती?<br />
<br />
फिर कुछ दिनों बाद मैंने यह जताना भी चाहा था परन्तु तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं था। अतः खड्ढ की प्राकृतिकता के गुणगान करके मुझे बहलाया करते। चण्डीगढ़ से उखड़कर आने वाली लड़की के लिए धौलाधार का आँचल तथा खड्डों की सरसराहट निश्चित रूप से मनमोहक थी परन्तु तुम क्या जानो कि मैं उन दिनों कितनी भयभीत थी। साँपों की सर्र...सर्र! और तुम थे कि एक दिन डेढ़ गज़ साँप पूँछ से पकड़ कर उठा लाए थे! तुम्हें याद होगा तुमने साँप झुला दिया था और मेरी चीख निकल गई थी। मैं कितनी ही देर बेहोश रही थी।<br />
<br />
लेकिन मैं अब पहले वाली छवि नहीं हूँ। मैंने साँपों में रहकर साँप होना सीख लिया है। अब साँप मुझसे डरते हैं क्योंकि पता नहीं मैं कब उन्हें काट छीलकर कढ़ाही में डाल लूँ लेकिन प्राण! तुम तो साँपों के भी बाप निकले। तुम्हें महासाँप कहूँ तो तुम खुश हो जाओगे। प्रशंसा सुनना तो तुम्हारी आदत रही है, भले उस प्रशंसा में तुम्हारे नकारात्मक गुणों का ही आख्यान हो।<br />
<br />
महासाँप संज्ञा को तुम सहज ही स्वीकार कर लोगे, ऐसा विश्वास है। तुम मुझे उखाड़ कर नहीं लाए थे, बल्कि खदेड़ कर। जबकि मैंने कहा था- प्राण! पहले अपने माँ-बाप की सहमति ले लो।<br />
<br />
‘‘शादी मैंने करनी है, माँ-बाप ने नहीं। उनका जमाना निकल गया है।’’ तुम फुंफकार रहे थे।<br />
‘‘फिर भी।’’<br />
‘‘फिर भी क्या। मैं नये जमाने का नयी विचारधारा वाला हूँ।’’<br />
‘‘अच्छा।’’ मैंने चुस्की ली थी।<br />
‘‘तुम्हारे विचार इतने घटिया हैं, मैं नहीं जानता था।’’<br />
‘‘चलो अब तो जान गये।’’<br />
‘‘हाँ, जान गया हूँ।’’<br />
‘‘लेकिन सही ढंग से पहचाने नहीं।’’<br />
‘‘बको मत। मैं शादी करूंगा अपने ढंग से। कोई मन्दिर नहीं, मस्जिद नहीं, पुजारी-मुल्ला नहीं, कोई बाराती नहीं, कोई कचहरी जज नहीं।’’ न तुमसे कोई बोलने लगा था। याद है। ‘‘तो फिर।’’ मैंने पूछा था। <br />
<br />
‘‘मैं तुम्हें चुपचाप बकरी की तरह हाँककर ले जाऊंगा।’’<br />
‘‘तुम्हारा सामन्त अभी मरा नहीं। मैं बकरी हूँ और तुम दुर्गन्ध सने बोक। वाह रे प्राण! मैं तुम से हरगिज शादी नहीं करूंगी।’’<br />
<br />
‘‘ मैंने तो यों ही कहा था। दरअसल मुझे बकरी और बोक शब्द बहुत अच्छे लगते हैं। इनसे कम ऊर्जा का अहसास होता है। चलो मैं तुम्हें अपनी गाय समझकर ले जाऊँगा।’’ और तुम मुस्करा दिये थे। मैं जानती थी आदमी के अन्दर का अहं बार-बार किसी प्रतीक के माध्यम से बाहर निकल रहा था। और तुम्हारे अहं ने भी झुकना नहीं सीखा लेकिन याद है जब मैं तुम्हारे साथ समाज के विधि-विधान ठुकराकर आयी थी तो तुम ने नाक रगड़ का सात बार कहा था- हे मेरी बकरी! मुझं अपने साथ ले चल! हे मेरी गाय, मेरी जीवन साथी बन! इस प्रकार वास्तव में तुम मेरे साथ आये थे, मैं तुम्हारे साथ नहीं।<br />
<br />
परन्तु नहीं! तुम में तो सात काढ़ियों जितना गुस्सा भरा था तुम्हारा सामन्त तो कछुए की तरह सिमट गया था, उसने कुछ ही दिन में अपने पैर फैलाने शुरू किसे! तुम हर रोज कहते थे- खड्ड के किनारे घर किसका।<br />
<br />
मैं कहती... मेरा...मेरा।<br />
‘‘नहीं, मेरा और तेरा... तेरा... मेरा... यानि सच में मेरा और झूठ में तेरा। छवि तुम नहीं जानती! आदमी महान होता है। औरत.... औरत तो साधन है जीवन की सुखमय एवं मनोरंजक बनाने का।<br />
‘‘औरत खिलौना है?’’<br />
‘‘खिलौना कहो। इसे खूबसूरत सेब कहो.... केला कहो या चाहो तो भुट्टा कह लो।<br />
‘‘तुम पागल हो गये हो! मैं चिल्लायी थी- मैं तुम्हें यहां लायी थी, तुम्हारे साथ नहीं आयी थी। तुम्हारा दरिन्दा जाग उठा था। देखो- चाहे तुम लाई थीं या तुम मेरे पास आई थीं। जो सच्चाई है, वह सच्चाई। सेब पर छुरी या छुरी पर सेब। बात एक ही है! अब फैसला तुम कर लो कि छुरी हो या सेब, फैसला कर लेने से भी अर्थ नहीं बदल पाएँगे, यह मैं जानता हूँ।<br />
<br />
तुम्हारा असली रूप प्रकट होने लगा था। तुम चाहते थे कि मैं मध्यकालीन नायिकाओं की भान्ति किसी राजकुमार के लिए किले में बन्द रहती। मेरा पिंजरे से बाहर निकलना तुम्हें बिल्कुल नहीं सुहाता था। दरअसल तुम संकीर्ण होते जा रहे थे! मैं समझ नहीं पायी थी कि जो व्यक्ति समाज के विधि-विधानों को ठुकराकर मुझे बकरी की भांति हाँककर लाया था, वह मुझे बकरी-सा स्वच्छन्द जीवन क्यों नहीं जीने देना चाहता था। वैसे मैंने कभी ऐसा चाहा भी नहीं था कि किसी अन्य पुरुष से सम्बन्ध स्थापित करूँ परन्तु शंकालु मन बार-बार मुझ पर आरोप लगाता था.... मुझे छेक डालना चाहते थे।<br />
<br />
सिडनी तुम्हारा दोस्त था, मेरा नहीं लेकिन धीरे-धीरे तुमने मुझे विवश कर दिया कि मैं सिडनी को अपना दोस्त स्वीकार कर लूं! सिडनी ने कहा भी था- भाभी! प्राण को क्या हो गया है। सनकी हो गया लगता है। इसके नये विचारों के पीछे इसकी संकीर्णता छिपी है। कोई इसकी पत्नी को देखे तक न, छुए तक न, बतियाएं तक न!<br />
‘‘कौन पत्नी? किसकी पत्नी?’’<br />
‘‘भाभी।’’<br />
‘‘मर गयी भाभी! छवि ने फिर जन्म लिया! प्राण की पत्नी मर गयी।’’<br />
‘‘भाभी ऐसा मत कहो।’’<br />
‘‘सिडनी! खबरदार! जो मुझे भाभी कहा, चाहो तो बराबरी के रिश्ते में मुझे छवि कह सकते हो।’’<br />
सिडनी काँप गया था। फिर तुम्हें बुला लाया था! लेकिन तुम्हारी गीदड़-भभकियाँ सिर्फ अपनी नंपुसकता को दबाने के लिए थीं। दरअसल शरीर के मर्द होकर भी मन से तुम मर्द नहीं थे! तुम्हें औरत होना चाहिए था! औरत जो अन्धकार से डरती है, औरत तो हर मर्द से मन-ही-मन भयभीत रहती है। और तुम हो कि मुझे चण्डीगढ़ से उठा कर ले आए! मैं सोचती थी अपना संसार बुनेंगे! कोई छल-कपट नहीं होगा लेकिन तुम तो कुछ ही महीनों में फिसल गये थे.... तुम्हारा प्रेमी मर गया था। तुम्हारा काम शान्त हो गया था! तुम्हें सारा मिल चुका था! तुम्हें गर्व होना चाहिए था परन्तु तुम में हीनता की ग्रन्थियों ने घर कर लिया था।<br />
अपनी सामन्ती प्रवृति को तुमने फिर भी नहीं छोड़ा था! कहा था- तुम माँ बनने वाली हो! सन्तान का क्या होगा। तुम्हारा क्या होगा?<br />
‘‘तुम्हें क्यों इतनी चिन्ता है?’’<br />
<br />
‘‘वह सन्तान हम दोनों की होगी!’’<br />
‘‘लेकिन मेरी सन्तान तुम्हारे जैसी डरपोक नहीं होगी! अपने आप जी लेगी!’’<br />
‘‘फिर भी! छवि! दुनिया बड़ी भंयकर है। चलो, एक वायदा कर लेते हैं! यदि लड़की हुई तो मैं ले लूंगा। लड़का हुआ तो तुम रख लेना। तुम्हारा सहारा हो जाएगा। तुम दानवीर बन गए थे, युधिष्ठर का अभिनय करने लगे थे!’’<br />
‘‘तो हमारा परस्पर सम्बन्ध टूट गया!’’<br />
‘‘नहीं, जब तुम्हारी इच्छा हो मेरे पास आ जाओ! मेरी इच्छा होगी तो मैं उपस्थित हो जाऊंगा!’’ <br />
‘‘इकट्ठे समझो! खड्डे के किनारे एक कमरे में तुम, एक में मैं!’’<br />
<br />
मुझे कोई इतराज नहीं था लेकिन मैं इसके पीछे की घटनाओं से परिचित थी! सिडनी की बीन क्लाइडा पर तुम्हारा मन फिसल रहा था! सिडनी ने तुम्हें बढ़ावा दिया। बहन को भी बहकाया- प्राण, तो देवता है! छवि से उसकी कभी शादी नहीं हुई पत्नी कैसे हो गयी। इतना अच्छा लड़का है! जल्दी ही कहीं नौकरी लग जाएगी। पैसा काफी है! और फिर तुम प्राण को संभाल लोगी तो सारे जिन्दगी मज़े करोगी।<br />
<br />
फिर तुम पर क्लाइडा का रंग चढ़ने लगा था! मेरे प्रसव के दिन नज़दीक आ रहे थे और तुम क्लाइडा के साथ धौलाधार के जंगलों में खो जाने का अभिनय करते! प्रतिदिन कोई बहाना बनाकर बाहर निकल जाते! फिर क्लाइडा की देह भरने लगी थी!<br />
सिडनी मेरे इर्द-गिर्द मंडराता रहता। पता नहीं क्यों! मैंने उसे कभी प्रोत्साहित नहीं किया! वैसे नारी का शरीर कांई तरकारी नहीं है, जो किसी भी ग्राहक के सामने परोस दिया जाए! शायद! प्राण! तुमने कभी इस तथ्य को महसूस नहीं किया!<br />
<br />
सुरभि के जन्म पर तुम्हें कोई खुशी नहीं हुई थी। बल्कि तुमने कहा था- इसे चुपचाप मौलखड्ड में बहा देते हैं। पता नहीं तुम्हारा दरिन्दा क्यों बार-बार बाहर आ जाता था!<br />
मैंने तुम पर थूक दिया था। कहा था- मैं रखूँगी सुरभि को! सुरभि मेरे शरीर का अंश है! मैं उसे तुम्हारी दुर्गन्ध से दूर रखूँगी!<br />
तुमने मुझे भुला दिया था! क्लाइडा दीवार बन गयी थी! तुम क्लाइडा के शरीर की गन्ध की प्रशंसा किए न थकते थे! फिर वह दिन! हा... हा... तुम्हारे सामन्त के दमन का दिन..... अहँ का साँप कुचला जा रहा था!<br />
मैं अपने कमरे में थी! तुम्हारा कमरा खाली था! तुम कहीं बाहर जाने वाले थे! सिडनी मेरे पास गया था! किसी सोच-विचार में उलझा हुआ था। मैंने ही कहा था- सिडनी! मुर्दनी क्यों छाई है?<br />
‘‘मैं परेशान हूँ।’’<br />
<br />
‘‘क्यों?’’<br />
‘‘क्लाइडा की वजह से।’’<br />
‘‘उसकी पटने लगी है। प्राण तो उस पर प्राण न्योछावर करता है।’’<br />
‘‘लेकिन वह ऊब गई है।’’<br />
‘‘तुम भी अच्छे छछून्दर हो, सिडनी!’’<br />
‘‘क्यों?’’<br />
‘‘तुम अपनी चिन्ता करो।’’<br />
‘‘लेकिन क्लाइडा नरेश को चहाने लगी है!’’<br />
‘‘तो भी क्या है!’’<br />
‘‘छवि, तुम कह रही हो?’’<br />
‘‘हाँ, मैं कह रही हूँ। आदमी कई औरतों से प्रेम का ढोंग रच सकता है तो औरत क्यों नहीं! क्लाइडा प्राण को न छोड़ती तो प्राण छोड़ देता।’’<br />
‘‘तो औरत मधुमक्खी है जो कभी एक फूल पर कभी दूसरे फूल पर बैठकर रस का सेवन करती है! मुझे बड़ा अटपटा लगता है!’’<br />
‘‘अटपटेपन की क्या बात है! आदमी भी भवरें की भाँति कभी एक कलिका पर कभी दूसरी पर मुग्ध होता है!’’<br />
‘‘तो बात बराबरी की है! चलने दें?’’<br />
<br />
‘‘चलने क्या? यह स्वाभाविक है! क्लाइडा ही प्राण को सबक सिखा सकती है!’’<br />
अचानक तुम आ गए थे। तुम सिडनी को मेरे पास बैठा देखकर भड़क उठे थे। और बोल उठे थे- हरामज़ादे। उल्लू के पट्ठे ! तुम अपनी माँ के पास बैठै क्या कर रहे हो?<br />
‘‘इस हिसाब से तो मैं तुम्हारी भी माँ हुई।’’<br />
‘‘बको मत! नागिन! मैं तुम्हें क्या समझा कर लाया था!’’<br />
‘‘रखैल?’’<br />
‘‘नहीं... धर्मपत्नी!’’<br />
‘‘तो क्लाइडा तुम्हारी क्या लगती है?’’<br />
‘‘मेरी होने वाली बीवी!’’<br />
‘‘होने वाली! वाह रे मजनँू! वह तुम्हारी बीवी नहीं होगी।’’<br />
सिडनी ने भी तभी तुम्हारा मोह भंग किया था।<br />
‘‘क्योंकि अब यह मुझे चाहने लगी है! मैं इसे बहुत दूर ले जाऊंगा!’’<br />
<br />
नरेश ने क्लाइडा की गाल थपथपाते हुए तुम्हारे मुँह पर तमाचा मार दिया था! मैं बहुत खुश हुई थी! तुम्हारे चेहरे के रंग बदलने लगे थे। सिडनी कुप्पा हो गया था!<br />
‘‘मैं तुम्हें छोडूँगा नहीं!’’ तुमने धमकी दी थी और फिर जब पुलिस तुम्हें पकड़ने आई तो तुम बिल्कुल बुझ गए थे। गिड़गिड़ाने लगे थे! तुम्हारा सामन्त एकाएक परिचर बन गया था! तुम्हारे सम्बन्ध की गर्मी बर्फ की तरह जम गयी थी! तुमने कातर नज़रों से मेरी ओर यदि मैं पैरवी न करती तो तुम्हें पता नहीं क्या सज़ा मिलती! क्लाइडा नरेश के साथ खो गयी थी! उन्होंने विदेश में जा कर घर बसा लिया था। अभी कुछ महीने पहले यहाँ आए थे। उनके तीन गोलमटोल बच्चे बहुत ही सुन्दर लगते थे! क्लाइडा तुम्हारी कायरता को याद कर रही थी। पूछ रही थी- तुम्हारा नपंुसक सामन्त कहाँ विश्राम कर रहा है?<br />
‘‘क्यों मिलना चाहती हो?’’ मैंने पूछा था! न भाई न वह क्लाइडा को भगा ले जाए!<br />
नरेश ने कहकहा था।<br />
<br />
मेरे मन मस्तिष्क में बकरी को हाँकने वाले बोक का चित्र उतर गया था। और तेईस वर्ष पुरानी छवि मन में उभर आई। मैं रस विभोर हो गयी। बड़ी इच्छा हुई कि सुरभि की शादी में तुम्हें बुलाती लेकिन शायद तुम्हारा सामन्त फुँफकार उठता...कि शायद शादी में व्यय के लिए आमन्त्रित कर रही है। इसलिए नहीं लिखा। सुरभि की शादी विधिवत हो चुकी है, वह खुश है। समाज के बन्धन... ‘‘प्रतिबन्ध संयमति करते हैं...हमारे अहं का स्वच्छ विचरण... तुमने मेरे साथ करके देख लिया खैर... कोई किसी के अनुभव से नहीं सीखता... लेकिन फिर भी बच्चों को सही ढाँचे में ढालना माँ-बाप का फर्ज तो है ही। मैंने अपना कर्तव्य पूरा किया है... और साथ ही तुम्हारा भी!<br />
सुरभि चली गयी है! सिडनी को मैंने कभी चाहा नहीं बहुत वर्षों तक आवारा कुत्तों सा मण्डराता रहा परन्तु छवि का शरीर यों ही पिघल-पिघल नहीं पड़ता। हाँ... तुम इस बात को नहीं मानोगे... ना मानो... तुम्हारे मानने से न मानने से कोई विशेष अन्तर भी नहीं पड़ता!<br />
मैं जानती हूँ तुम दिल्ली की गन्दी नालियों में सड़ रहे हो... शायद तुम छोटा-मोटा काम भी करते हो.... ठीक है तुम्हें पश्चाताप होगा.... वह तो तुम्हारी निजी बात है!<br />
किसी तुमने बकरी को हाँकने का प्रतीक प्रयुक्त किया था। शब्द तो भ्रमजाल पैदा करते हैं। मौलखड्ड के किनारे सुरभि के साथ रहते हुए मुझे समय का पता ही न चला। अब निन्तात अकेली हूँ। सुरभि के जाने के बाद यह पहला सितम्बर आया है।<br />
<br />
अब खड्ड का गहराना, गर्भाना गर्वित कर जाता है, भयभीत नहीं करता! मेरी धमनियों में पर्वतीय बारिश की धड़कन समा गयी है। हाँ, शायद तुम्हें भय लगेगा। इसलिए लिखो तुम्हें आकर कब ले आऊँ?<br />
मैं तुम्हें सहारा दूँगी। क्या नए विधि-विधान के अनुसार रहने का अपना वचन पूरा नहीं करना! अब तो शरीर की आवश्यकताएँ भी नहीं भड़कातीं। शायद तुम्हारा शरीर भी संयमित हो गया होगा! <br />
बादल फिर घुमड़ने लगे हैं। <br />
मैं अकेली.... खड्ड गहराने लगी है... सच, प्राण.... तुम आ जाओ तो फिर से हम..... हम दोनों अपने बिखरते हुए सपनों को एक नया रूप देने का प्रयत्न करेंगे!<br />
देखना कहीं फिर सामन्ती फुँफकार से मुझे दुत्कार न देना.... बकरी को हाँकने वाला बोक।<br />
<br />
तुम्हारी ही<br />
<br />
छवि</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A5%82_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31289मुण्डू / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-22T03:21:49Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
<br />
'''अ'''न्दर मनन चल रहा था और वह बाहर खड़ा था! तश्तरी में रखे पान अन्दर जाने के लिये कुलबुला रहे थे। रात गहराने लगी थी और बर्फ के फाहे गिरने लगे थे। उसकी धमनियों मे रक्त जमने लगा था... शायद अब... कन्धे से लटका हुआ थैला भारी पड़ने लगा तो उसे उतार कर नीचे रख दिया। फिर भी तश्तरी लेकर बराबर डटा रहा था।<br />
<br />
पहाड़ की टीसी पर बना डाक बंगला धुंधियाता जा रहा था...यह भी अच्छा ही हुआ कि उन्होंने पहले ही पूछ लिया था...तीन सौ नम्बर का पान तो मिलेगा न?<br />
‘‘सर...’’<br />
<br />
‘‘सर... क्या... श्रीमान कहो... लेखक हिन्दी के बनना चाहते हो और सम्बोधन अंग्रेज़ी में। यह तो असहनीय है... एकदम अशोभनीय...<br />
<br />
भोलू का गला सूख गया। कहीं सारा काम बनते-बनते बिगड़ न जाए। वह सोचने लगा- नास्तिक को साथ ले आता तो वह सब संभाल लेता। ये सारे प्रबन्ध तो उसने विरासत में सीखे हैं... वह जानता है कि किस प्रदेश के लेखक क्या पसन्द करते हैं... संपादकों की चाहत क्या है... ससुरा किसी को नाराज ही नहीं होने देता। जहाँ देखो उसी का नाम छपता है...व्यवस्था भी क्या कुत्ती चीज़ है और वह तो उससे बड़ी शय है... व्यवस्था से ऐसा जुड़ा है... यदि उसे उनके आने की भनक ही मिल गयी होती तो उसने कोई न कोई जुगाड़ बना ही लेना था और आ टपकता यहां... और भालू को उखाड़ फेंकता! यह सोच कर वह खिल उठा तथा बोला सर, अंग्रेजी आसान भाषा है और सुविधाजनक भी। वैसे आप श्रीमान् शब्द से प्रसन्न होते हैं, तो मैं इसी शब्द का उपयोग करूँगा।<br />
<br />
‘‘तुम तो जोंक की तरह शब्द-जाल में ही उलझ कर रह गये। मैंने पूछा है कि तीन सौ नम्बर का पान मिलेगा। मैं भारत के दूसरे छोर से इस दरिद्र प्रदेश में इसलिए तो नहीं आया कि जंगल में कुत्तों की तरह रिरियाता फिरूँ। बड़ी पत्रिका की सैंकड़ों व्यवस्ताएं हैं... मेरी मेज़ पर ढेरों निमन्त्रण पत्र पड़े रहते हैं...तुम हो कि... पता नहीं कैसा व्यक्ति ‘स्टेट-गैस्ट’ के साथ लगाया है...उल्लू कहीं का... कोई प्रबन्ध हो सकता है, तो करो... नहीं तो अभी मुख्यमन्त्री को फोन करता हूँ...<br />
<br />
‘स्टेट-गैस्ट’ इसने भी तो अंग्रेजी शब्द का प्रयोग किया है... भोलू मुस्कुरा दिया मन ही मन परन्तु प्रत्यक्ष में बोला- आप निश्चिन्त रहें मैं अभी पान का प्रबन्ध करता हूँ।<br />
<br />
‘‘पान का बीड़ा ही काफी नहीं होता... और भी बहुत कुछ होता है... समझे... और वे आक्रोश, असन्तोष जताते हुए बंगले के आहाते में निकल गये!<br />
भोलू को महसूस हुआ वह उनके सामने नोल हो गया था। उसने अपने पिता को दूसरों का हुक्का-पानी भरते तो देखा था परन्तु इतने तल्ख ढंग से किसी को पेश आते नहीं देखा था...पुश्त दर पुश्त बेगार... और फिर उसके पिता पढ़े-लिखे थे... छोटा-बड़ा कोई भी आता...वह अच्छी खातिर करते...फिर भी कभी-कभार उसके कान में पड़ता... ससुरा...चमारड़ी में जन्मा है.... साला राज करने लगा है.... लेकिन सामने कोई कुछ नहीं कहता। भोलू को अब सब कुछ समझ आने लगा था!<br />
<br />
वह कभी-कभार कुछ लिखता था...कभी कविता... कभी कहानी... यत्र-तत्र छप भी जाता था परन्तु उसे लगता था कि कहीं कोई पहचान नहीं बन सकी थी या बन नहीं पा रही थी... फिर एक बड़ी पत्रिका का छोटा सम्पादक उसका परिचित हो गया था... आना-जाना... खाना-पीना... कई वर्षों तक चलता रहा.... तब एक बार कहा था... मैं अच्छा लेखक बन सकता हूँ पर...<br />
<br />
‘‘पर क्या... क्या बैसाखियाँ नहीं हैं।’’<br />
‘‘नहीं... ऐसी बात नहीं! मैं कोई लंगड़ा तो हूं नहीं।’’<br />
<br />
‘‘सुनो... लेखन का अकेले दम भरने वाले सब लोग लंगड़े होते हैं... कम से कम आज के युग में... समझे! किसी कुर्सी को पकड़ लो... अन्धे की तरह...पहले कोई सरकारी कुर्सी काबू करो... फिर माध्यम बनने पर महत्वपूर्ण लोग अपने आप निकट सरक आते हैं।’’<br />
<br />
भोलू को अपने मित्र की बात आज सार्थक होते लगी... उसने कुर्सी पर आसीन एक बड़े अफसर को चुन लिया था... वह पूरी आत्मीयता एवं निष्ठा के साथ अपने प्रभु द्वारा रचित साहित्य की प्रशंसा करता... एक दिन कुर्सी ने उसकी स्वामीभक्ति से प्रसन्न होकर कहा था... मेरे प्यारे-प्यारे नोल.... नहीं मुण्डू... मैं तुमसे प्रसन्न हुआ। हमारी सरकार ने दरबार पत्रिका के सम्पादक को स्टेट-गैस्ट बुलाया है... उन्हें भ्रमण करवाना है... यह सुनहरी अवसर है.... उनके लेखों से सरकारें गिरती हैं... बनती हैं, बिगड़ती हैं.... भारी भरकम सम्पादक हैं..... मैंने उनके साथ तुम्हें लगाया है.... कुछ दिन उनका मुण्डू बनो... फिर देखो साहित्य में तुम कैसे जगमगाते हो!<br />
<br />
अभी यह पहला ही पड़ाव था.... भोलू को तीन सौ नम्बर का पान लेने गम्बर जाना था.... डाक-बंगले के आस-पास पनवाड़ी की दूकान नहीं थी... शिमला का मालरोड़ तो था नहीं..... सात-आठ किलो मीटर पर पान मिलने की संभावना थी... वह चलने लगा... थोड़ा रास्ता ही निकला होगा... उसे लगा वह बहुत लेट हो जाएगा। वह तुरन्त पीछे लौटा... डाक-बंगले के चौकीदार से मिला... ये अनुभवी लोग होते हैं... इनसे पूछना ठीक होगा... बोला- मुंशीराम जी, मैं एक विकट समस्या में फंस गया हूँ। साहब तीन सौ नम्बर का पान माँग रहे हैं!<br />
<br />
‘‘तुम्हें पहले ही लाना चाहिए था... साहब अब भी कुछ नहीं बिगड़ा... तुम्हें गाड़ी में इसीलिए सरकार ने भेजा है...<br />
भोलू मंत्र-मुग्ध सा सुनता रहा!<br />
<br />
‘‘देखो... पान के शौकीन तो कोई-कोई साहब ही होते हैं... यहाँ आने वाले तो और भी बहुत कुछ माँगते हैं...’’<br />
‘‘मैं समझा नहीं!’’<br />
‘‘ये बात तो डाक बंगले के ढोर भी समझते हैं! रात होते ही इन साहबों को सुरसुरी होने लगती है... साहब आप समझ गये न... यहाँ तो इशारों से ही काम चलता है!’’<br />
भोलू चलने लगा! तभी मुंशीराम ने आवाज़ दी- ‘‘जनबा, आप सरकारी ड्यूटी पर हैं। पैदल क्यों जाएँगे। गाड़ी ले जाओ न। फिर ड्राइवर से बोला- थोड़ी मेरे लिए भी लेते आना! ड्राइवर ने आँखों में सब समझ लिया!<br />
<br />
एक बार वह अपने लेखक दोस्तों के साथ देर रात ऐसे ही पान लेने निकला था। तो स्पेशल चैकिंग में इलाके के एस. डी. एम. ने कहा था... इतनी रात गये टैक्सियों में पान ढूँढने निकलते हो... बड़े लेखक बने फिरते हो... ससुरों को चौबीस घण्टे हवालात में रखूँगा... और पान...<br />
<br />
लेकिन आज ऐसी कोई बात नहीं! भोलू हंस दिया! अगर एस. डी. एम. ने अन्दर कर ही दिया होता... तो कितना अच्छा होता... कुछ और कहानियाँ फूटती... व्यवस्था विरोधी...<br />
<br />
वह बहुत खुश था! पान मिल गये थे! ड्राइवर की सलाह पर उसने सौ-सौ के नोट और खर्च कर दिये थे!<br />
रात के नौ साढ़े नौ बज गये और वह तश्तरी लिये बरामदे में खड़ा था। मुंशीराम उस पर मुस्करा रहा था- बोला, ‘‘साहब, मैं तुम्हारी मदद करता हूं। नहीं, तो तुम जिन्दगी भर यहीं खड़े रहोगे।’’<br />
<br />
मुन्शीराम ने दरवाजे पर दस्तक दी। अलसाये से मल्लराज ने द्वार खोला तथा कहा- क्यों भई... क्या तीन सौ नम्बर का पान आ गया। इतनी देर कर दी... तीन सौ नम्बर पान ही न खाया हो तो मनन क्या खाक होगा...सोचा था शहर से दूर जाकर पर्वतीय प्रदेश पर अपनी पाण्डु-लिपि से हम बिस्तर हो सकूँगा लेकिन...<br />
‘‘सर... श्रीमान् यह लीजिए...’’ भोलू ने पिघलती हुई मोमबत्ती की तरह बिछते हुए कहा।<br />
<br />
‘‘जनाब! आप खाएंगे क्या।’’ मुंशीराम ने पूछा!<br />
‘‘पहले यह बताओ कि है क्या-क्या।’’<br />
‘‘साग है, गोभी है, आलू हैं...<br />
‘‘बस... बस...आलू है... कचालू है... उल्लू... स्टेट-गैस्ट को कचालू खिलाओगे।’’<br />
‘‘सर गोश्त...’’<br />
<br />
मुंशीराम ने उछलते हुए कहा, "देखा न... मेरा अन्दाज़ा सही निकला। सरकार को सुरसुरी हो रही है... हो भी क्यों न... इतनी ठण्ड तो बरसों बाद देखी है... अब फिर जाओ!<br />
<br />
‘‘नहीं भोलू... अब तुम नहीं...मुंशीराम जाएगा’’ उसने भोलू को कन्धे से थपथपाते हुए कहा- ‘‘बरखुरदार...शायद तुम्हारी ड्यूटी पहली बार लगी है... तुम कुछ कह रहे थे कि तुम भी कुछ लिखते हो...’’<br />
<br />
‘‘जी हाँ...’’<br />
‘‘तो ले आओ न... लेकिन... ससुरी सुरसुरी जग रही है... कहानी सुनने के लिये भी माहौल चाहिए... सुनने के लिये तो चाहिए ही चाहिए!’’<br />
‘‘जी... सर... मैं अभी लाया!’’<br />
<br />
मेज पर दो गिलास टिक गये थे! बर्फानी मौसम में भी बर्फ आ गयी थी... मल्लराज चहकते हुए बोले- घर में तो सब बवाल कर नहीं पाता.... बाहर आकर साँस मिलता है.... तो इच्छा भड़क उठती है... और फिर तो तुम जानते ही हो कि अन्दर के साँप बाहर निकलने का यही तो मौका होता है...<br />
शरीर की बर्फ पिघलने लगी थी... गोश्त गर्म होने लगा था।<br />
<br />
भोलू ने पूछा- सर, कहानी पढूँ।<br />
‘‘कहानी... कहानी... सारी जिन्दगी भर क्या करोगे।’’<br />
‘‘सर आप सुन लेते तो मेरा हौसला बढ़ जाता।’’<br />
<br />
‘‘सब सुन लेंगे.... फिलहाल अपनी दो तीन कहानियों के नाम बता दें... छाप देंगे... तुम चिन्ता मत करो!’’<br />
‘‘सर मेरी कहानियों के शीर्षक सिम्बॉलिक होते हैं... यथा म्हास्ति, जंगल में दंगल, कछुए की चाल, तश्तरी... मुण्डू...’’<br />
<br />
‘‘हां... आह! मुण्डू क्या प्यारा शब्द है... यह छप सकती है... उसका अर्थ क्या होता है?’’ मल्लराज ने खँखालते हुए गिलास खाली कर दिया!<br />
<br />
‘‘सर, मुण्डू का अर्थ है परम्परा से चली आ रही बेगार... अरदली होना.... इसका सही अर्थ तो मैं नहीं समझा सकता... लेकिन...’’<br />
‘‘लेकिन तुम तश्तरी लेकर बाहर खड़े थे... क्या तुम्हें मुण्डू कहा जा सकता है।’’<br />
‘‘आप कह सकते है!’’<br />
‘‘अच्छा शब्द है।’’<br />
<br />
‘‘लेकिन सर इसे ज्यादा अच्छा नहीं समझा जाता...यह बेचारगी का प्रतीक है।’’<br />
‘‘तब तो और भी सार्थक है...हर आदमी में मुण्डू होता है.... दो ही विकल्प हैं या तो आप मुण्डू हो जाए या गुण्डू...अपने सीनियर के सामने मैं भी मुण्डू होता हूँ... और अपनी उसके सामने भी...’’ तभी हिचकोले खाते हुए वह बोला- अरे...भई अभी तक वह आई नहीं...<br />
‘‘कौन सर?’’<br />
<br />
‘‘तुम तो बातें प्रतीकों की कर रहे थे... और तुम्हारा भेजा... मैंने तो सुना था यहाँ नयी लेखिकाएँ उगाई जा रही हैं।’’ मल्लराज की साँसे... शायद गर्माने की इन्तजार में धधक रही थी...<br />
<br />
भोलू को कुछ-कुछ स्पष्ट होता लगा... फिर अस्पष्टता की छाया...नयी लेखिकाएं...और वह... फिर उसे लगा उसके शरीर पर औरत के अंग उगने लगे थे...वह भाव-विभोर हो उठा!</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A5%82_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31288मुण्डू / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-22T03:00:51Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल |अनुवाद= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
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<br />
'''अ'''न्दर मनन चल रहा था और वह बाहर खड़ा था! तश्तरी में रखे पान अन्दर जाने के लिये कुलबुला रहे थे। रात गहराने लगी थी और बर्फ के फाह गिरने लगे थे। उसकी धमनियों मे रक्त जमने लगा था... शायद अब... कन्धे से लटका हुआ थैला भारी पड़ने लगा तो उसे उतार कर नीचे रख दिया। फिर भी तश्तरी लेकर बराबर डटा रहा था।<br />
<br />
पहाड़ की टीसी पर बना डाक बंगला धुंधियाता जा रहा था...यह भी अच्छा ही हुआ कि उन्होंने पहले ही पूछ लिया था...तीन सौ नम्बर का पान तो मिलेगा न।<br />
‘‘सर...’’<br />
‘‘सर... क्या... श्रीमान कहो... लेखक हिन्दी के बनना चाहते हो और सम्बोधन अंग्रेज़ी में। यह तो असहनीय है... एकदम अशोभनीय...<br />
<br />
भोलू का गला सूख गया। कहीं सारा काम बनते-बनते बिगड़ न जाए। वह सोचने लगा- नास्तिक को साथ ले आता तो वह सब संभाल लेता। ये सारे प्रबन्ध तो उसने विरासत में सीखे हैं... वह जानता है कि किस प्रदेश के लेखक क्या पसन्द करते हैं... संपादकों की चाहत क्या है... ससुरा किसी को नाराज ही नहीं होने देता। जहाँ उसी का नाम छपता है...व्यवस्था भी क्या कुत्ती चीज़ है और वह तो उससे बड़ी शय है... व्यवस्था से ऐसा जुड़ा है... यदि उसे उनके आने की भनक ही मिल गयी होती तो उसने कोई न कोई जुगाड़ बना ही लेना था और आ टपकता यहां... और भालू को उखाड़ फेंकता! यह सोच कर वह खिल उठा तथा बोला सर, अंग्रेजी आसान भाषा है और सुविधाजनक भी। वैसे आप श्रीमान् शब्द से प्रसन्न होते हैं, तो मैं इसी शब्द का उपयोग करूँगा।<br />
<br />
‘‘तुम तो जोंक की तरह शब्द-जाल में ही उलझ कर रह गये। मैंने पूछा है कि तीन सौ नम्बर का पान मिलेगा। मैं भारत के दूसरे छोर से इस दरिद्र प्रदेश में इसलिए तो नहीं आया कि जंगल में कुत्तों की तरह रिरियाता फिरूँ। बड़ी पत्रिका की सैंकड़ों व्यवस्ताएं हैं... मेरी मेज़ पर ढेरों निमन्त्रण पत्र पड़े रहते हैं...तुम हो कि... पता नहीं कैसा व्यक्ति ‘स्टेट-गैस्ट’ के साथ लगाया है...उल्लू कहीं का... कोई प्रबन्ध हो सकता है, तो करो.... नहीं तो अभी मुख्यमन्त्री को फोन करता हूँ...<br />
<br />
‘स्टेट-गैस्ट’ इसने भी तो अंग्रेजी शब्द का प्रयोग किया है... भोलू मुस्कुरा दिया मन ही मन परन्तु प्रत्यक्ष में बोला- आप निश्चिन्त रहें मैं अभी पान का प्रबन्ध करता हूँ।<br />
<br />
‘‘पान का बीड़ा ही काफी नहीं होता.... और भी बहुत कुछ होता है.... समझे.... और वे आक्रोश, असन्तोष जताते हुए बंगले के आहाते में निकल गये!<br />
भोलू को महसूस हुआ वह उनके सामने नोल हो गया था। उसने अपने पिता को दूसरों का हुक्का-पानी भरते तो देखा था परन्तु इतने तल्ख ढंग से किसी को पेश आते नहीं देखा था...पुश्त दर पुश्त बेगार... और फिर उसके पिता पढ़े-लिखे थे... छोटा-बड़ा कोई भी आता...वह अच्छी खातिर करते...फिर भी कभी-कभार उसके कान में पड़ता... ससुरा...चमारड़ी में जन्मा है.... साला राज करने लगा है.... लेकिन सामने कोई कुछ नहीं कहता। भोलू को अब सब कुछ समझ आने लगा था!<br />
<br />
वह कभी-कभार कुछ लिखता था.... कभी कविता.... कभी कहानी.... यत्र-तत्र छप भी जाता था परन्तु उसे लगता था कि कहीं कोई पहचान नहीं बन सकी थी या बन नहीं पा रही थी... फिर एक बड़ी पत्रिका का छोटा सम्पादक उसका परिचित हो गया था.... आना-जाना... खाना-पीना.... कई वर्षों तक चलता रहा.... तब एक बार कहा था... मैं अच्छा लेखक बन सकता हूँ पर...<br />
‘‘पर क्या... क्या बैसाखियाँ नहीं हैं।’’<br />
‘‘नहीं..... ऐसी बात नहीं! मैं कोई लंगड़ा तो हूं नहीं।’’<br />
<br />
‘‘सुनो... लेखन का अकेले दम भरने वाले सब लोग लंगड़े होते हैं... कम से कम आज के युग में... समझे! किसी कुर्सी को पकड़ लो... अन्धे की तरह...पहले कोई सरकारी कुर्सी काबू करो... फिर माध्यम बनने पर महत्वपूर्ण लोग अपने आप निकट सरक आते हैं।’’<br />
<br />
भोलू को अपने मित्र की बात आज सार्थक होते लगी... उसने कुर्सी पर आसीन एक बड़े अफसर को चुन लिया था.... वह पूरी आत्मीयता एवं निष्ठा के साथ अपने प्रभु द्वारा रचित साहित्य की प्रश्ंासा करता.... एक दिन कुर्सी ने उसकी स्वामी भक्ति से प्रसन्न होकर कहा था... मेरे प्यारे-प्यारे नोल.... नहीं मुण्डू... मैं तुमसे प्रसन्न हुआ। हमारी सरकार ने दरबार पत्रिका के सम्पादक को स्टेट-गैस्ट बुलाया है... उन्हें भ्रमण करवाना हैं... यह सुनहरी अवसर हैं.... उनके लेखों से सरकारें गिरती हैं... बनती हैं, बिगड़ती हैं.... भारी भरकम सम्पादक हैं..... मैंने उनके साथ तुम्हें लगाया है.... कुछ दिन उनका मुण्डू बनो... फिर देखो साहित्य में तुम कैसे जगमगाते हो!<br />
<br />
अभी यह पहला ही पड़ाव था.... भोलू को तीन सौ नम्बर का पान लेने गम्बर जाना था.... डाक-बंगले के आस-पास पनवाड़ी की दूकान नहीं थी... शिमला का मालरोड़ तो था नहीं..... सात-आठ किलो मीटर पर पान मिलने की संभावना थी... वह चलने लगा... थोड़ा रास्ता ही निकला होगा... उसे लगा वह बहुत लेट हो जाएगा। वह तुरन्त पीछे लौटा... डाक-बंगले के चौकीदार से मिला... ये अनुभवी लोग होते हैं... इनसे पूछना ठीक होगा... बोला- मुंशीराम जी, मैं एक विकट समस्या में फंस गया हूँ। साहब तीन सौ नम्बर का पान माँग रहे हैं!<br />
‘‘तुम्हें पहले ही लाना चाहिए था... साहब अब भी कुछ नहीं बिगड़ा.... तुम्हें गाड़ी में इसीलिए सरकार ने भेजा है....<br />
भोलू मंत्र-मुग्ध सा सुनता रहा!<br />
<br />
‘‘देखो... पान के शौकीन तो कोई-कोई साहब ही होते हैं.... यहाँ आने वाले तो और भी बहुत कुछ माँगते हैं...’’<br />
‘‘मैं समझा नहीं!’’<br />
‘‘ये बात तो डाक बंगले के ढोर भी समझते हैं! रात होते ही इन साहबों को सुरसुरी होने लगती है... साहब आप समझ गये न... यहाँ तो इशारों से ही काम चलता है!’’<br />
भोलू चलने लगा! तभी मुंशीराम ने आवाज़ दी- ‘‘जनबा, आप सरकारी ड्यूटी पर हैं। पैदल क्यों जाएँगे। गाड़ी ले जाओ न। फिर ड्राइवर से बोला- थोड़ी मेरे लिए भी लेते आना! ड्राइवर ने आँखों में सब समझ लिया!<br />
एक बा रवह अपने लेखक दोस्तों के साथ देर रात ऐसे ही पान लेने निकला था। तो स्पेशल चैकिंग में इलाके के एस. डी. एम. ने कहा था.... इनती रात गये टैक्सियों में पान ढूँढने निकलते हो... बड़े लेखक बने फिरते हो... ससुरों को चौबीस घण्टे हवालात में रखूँगा... और पान....<br />
लेकिन आज ऐसी कोई बात नहीं! भोलू हंस दिया! अगर एस. डी. एम. ने अन्दर कर ही दिया होता... तो कितना अच्छा होता... कुछ और कहानियाँ फूटती..... व्यवस्था विरोधी...<br />
<br />
वह बहुत खुश था! पान मिल गये थे! ड्राइवर की सलाह पर उसने सौ-सौ के नोट और खर्च कर दिये थे!<br />
रात के नौ साढ़े नौ बज गये और वह तश्तरी लिये बरामदे में खड़ा था। मुंशीराम उस पर मुस्करा रहा था- बोला, ‘‘साहब, मैं तुम्हारी मदद करता हूं। नहीं, तो तुम जिन्दगी भर यहीं खड़े रहोगे।’’<br />
<br />
मुन्शीराम ने दरवाजे पर दस्तक दी। अलसाये से मल्लराज ने द्वार खोला तथा कहा- क्यों भई... क्या तीन सौ नम्बर का पान आ गया। इतनी देर कर दी... तीन सौ नम्बर पान ही न खाया हो तो मनन क्या खाक होगा...सोचा था शहर से दूर जाकर पर्वतीय प्रदेश पर अपनी पाण्डु-लिपि से हम बिस्तर हो सकूँगा लेकिन...<br />
<br />
‘‘सर... श्रीमान् यह लीजिए...’’ भोलू ने पिघलती हुई मोमबत्ती की तरह बिछते हुए कहा।<br />
<br />
<br />
‘‘जनाब! आप खाएंगे क्या।’’ मुंशीराम ने पूछा!<br />
‘‘पहले यह बताओ कि है क्या-क्या।’’<br />
‘‘साग है, गोभी है, आलू हैं...<br />
‘‘बस... बस...आलू है... कचालू है... उल्लू... स्टेट-गैस्ट को कचालू खिलाओगे।’’<br />
‘‘सर गोश्त...’’<br />
<br />
मुंशीराम ने उछलते हुए कहा, "देखा न... मेरा अन्दाज़ा सही निकला सरकार को सुरसुरी हो रही है... हो भी क्यों न... इतनी ठण्ड तो बरसों बाद देखी है... अब फिर जाओ!<br />
‘‘नहीं भोलू... अब तुम नहीं...मुंशीराम जाएगा’’ उसने भोलू को कन्धे से थपथपाते हुए कहा- ‘‘बरखुरदार...शायद तुम्हारी ड्यूटी पहली बार लगी है... तुम कुछ कह रहे थे कि तुम भी कुछ लिखते हो...’’<br />
<br />
‘‘जी हाँ...’’<br />
‘‘तो ले आओ न... लेकिन... ससुरी सुरसुरी जग रही है... कहानी सुनने के लिये भी माहौल चाहिए... सुनने के लिये तो चाहिए ही चाहिए!’’<br />
‘‘जी... सर... मैं अभी लाया!’’<br />
<br />
मेज पर दो गिलास टिक गये थे! बर्फानी मौसम में भी बर्फ आ गयी थी... मल्लराज चहकते हुए बोले- घर में तो सब बवाल कर नहीं पाता.... बाहर आकर साँस मिलता है.... तो इच्छा भड़क उठती है... और फिर तो तुम जानते ही हो कि अन्दर के साँप बाहर निकलने का यही तो मौका होता है...<br />
शरीर की बर्फ पिघलने लगी थी... गोश्त गर्म होने लगा था।<br />
<br />
भोलू ने पूछा- सर, कहानी पढूँ।<br />
‘‘कहानी... कहानी... सारी जिन्दगी भर क्या करोगे।’’<br />
‘‘सर आप सुन लेते तो मेरा हौसला बढ़ जाता।’’<br />
<br />
‘‘सब सुन लेंगे.... फिलहाल अपनी दो तीन कहानियों के नाम बता दें... छाप देंगे... तुम चिन्ता मत करो!’’<br />
‘‘सर मेरी कहानियों के शीर्षक सिम्बॉलिक होते हैं... यथा म्हास्ति, जंगल में दंगल, कछुए की चाल, तश्तरी... मुण्डू...’’<br />
<br />
‘‘हां..... आह! मुण्डू क्या प्यारा शब्द है... यह छप सकती है.... उसका अर्थ क्या होता है।’’ मल्लराज ने खँखालते हुए गिलास खाली कर दिया!<br />
<br />
‘‘सर, मुण्डू का अर्थ है परम्परा से चली आ रही बेगार... अरदली होना.... इसका सही अर्थ तो मैं नहीं समझा सकता... लेकिन...’’<br />
‘‘लेकिन तुम तश्तरी लेकर बाहर खड़े थे... क्या तुम्हें मुण्डू कहा जा सकता है।’’<br />
‘‘आप कह सकते है!’’<br />
‘‘अच्छा शब्द है।’’<br />
<br />
‘‘लेकिन सर इसे ज्यादा अच्छा नहीं समझा जाता...यह बेचारगी का प्रतीक है।’’<br />
‘‘तब तो और भी सार्थक है...हर आदमी में मुण्डू होता है.... दो ही विकल्प हैं या तो आप मुण्डू हो जाए या गुण्डू...अपने सीनियर के सामने मैं भी मुण्डू होता हूँ... और अपनी उसके सामने भी...’’ तभी हिचकोले खाते हुए वह बोला- अरे...भई अभी तक वह आई नहीं...<br />
‘‘कौन सर?’’<br />
<br />
‘‘तुम तो बातें प्रतीकों की कर रहे थे.... और तुम्हारा भेजा... मैंने तो सुना था यहाँ नयी लेखिकाएँ उगाई जा रही हैं।’’ मल्लराज की साँसे... शायद गर्माने की इन्तजार में धधक रही थी...<br />
<br />
भोलू को कुछ-कुछ स्पष्ट होता लगा... फिर अस्पष्टता की छाया...नयी लेखिकाएं...और वह... फिर उसे लगा उसके शरीर पर औरत के अंग उगने लगे थे...वह भाव-विभोर हो उठा!</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31287किलेबन्दी / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-22T02:36:35Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल |अनुवाद= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
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|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
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<br />
रात के ग्यारह बजे होंगे।<br />
शहर मर चुका था और श्मशान में उसकी अधजली लाश भूतों के उग आने का अहसास पैदा कर रही थी!<br />
घर में सब सो गये थे। उन्होंने कई बार घर वालों को देखा...कोई नहीं जाग रहा था... फिर लगता शायद सहमे-डरे हुए लोग जागते हुए भी सोने का अभिनय कर रहे हैं...उनको हंसी आ गयी...जीते हुए मर जाना... लेकिन यह मुहावरा तो उन्होंने किसी दूसरे अर्थ में ही पढ़ा था... समय के साथ मुहावरों के भी अर्थ बदलते हैं...सब कुछ बदल जाता है... देस-परदेस हो जाता है...प्रजा बदल जाती है... राजा बदलता इतिहास में उन्होंने अनेक बार सुना था...परन्तु प्रजा को बाँटना पहली बार सुना था...<br />
<br />
प्रजा बँट गयी थी... देश बाँट लिया गया था... इधर के लोग उधर तथा उधर के लोग इधर...क्या अजीब जनून था...धरती तो वहीं की वहीं रहती है... बस... महत्वकांक्षी इन्सान... कुर्सी और राजसी ठाठ-बाट का भूखा इन्सान क्या नहीं कर देता...अनंत दौड़...? लाला जी आँखों में आँसू छलछला आए!<br />
<br />
लोग भाग रहे थे... गठरियां उठाए... किसी-न-किसी प्रकार अपनी बहू-बेटियों को छिपाए...फिर भी दरिन्दे कहीं-न-कहीं उन्हें आ घेरते थे...सारा देश जंगल हो गया था...सारे इन्सान हैवान हो गये थे.... सही और गलत की पहचान खो गयी थी... शायद नेताओं ने एक भ्रम पैदा कर दिया था...<br />
<br />
लाला जी भी परिवार के साथ गिरते-पड़ते चले हुए थे...उनकी बहन रामदुलारी भी उनके साथ भी... खुदाबख्श उनका दोस्त था.... जो उन्हें सरहद तक छोड़ने आया था...सब एक खौफ के साय में चल रहे थे.... तभी तूफान आ गया था...उनका काफिला घिर गया था... मार काट होने लगी थी... रामदुलारी आहत हिरनी-सी भागने लगी थी...तभी खुदाबख्श ने लाला जी से कहा था- रामदुलारी मेरे हवाले कर दो... बच जायेगी... मैं निकाह रचा लूँगा.... लाला जी चुप हो गये थे...उनका निरीह आँखें... टपटप आँसू बरसा रही थीं... वह बोली भैया तुम चिन्ता न करो...मैंने अपना इन्तजाम कर लिया है...और वह वहीं ढेर हो गयी थी...<br />
<br />
वह उनकी पहली मौत थी शायद...जीते जी मर जाना...अब तो उन्हें लगता है कि वह हर रोज़ मर रहे हैं...फिर उग पड़ते हैं...फिर मर जाते हैं... शायद उनका दाह-संस्कार ठीक से नहीं हो पाता... शायद इसीलिए...<br />
<br />
जालंधर का सेंट्रल टाउन! गली नम्बर 7... यही तो है वह रण-स्थली जहाँ उन्होंने दादन खाँ से उखड़ कर फिर अपनी जड़ों को जमाने का प्रयत्न किया है... सारी जवानी पुनः जमने में लग गयी... और अब यह शहर मुर्दा हो गया है...बेटा कहता है... पापा...बस घर मे बन्द रहो... बाहर खतरा ही खतरा है... सायं पाँच बजते ही किवाड़ बन्द हो जाते हैं...... सड़कें मर जाती हैं.... बसें डर जाती हैं... तथा सड़कों पा उग आते हैं अधजली लाशों के भूतहा साये... अपने ही साय से भागता आदमी...<br />
<br />
उन्होंने देखा घर के सब लोग सो गये थे.... वे धीमे से किवाड़ खोलकर गली में निकले.... अपनी खाँसी को दबाते हुए वे धीमे-धीमे नेहरू गार्डन की ओर चले....<br />
बन्दूकें यत्र-यत्र खड़ी थीं!<br />
<br />
काश! हरदयालसिंह ही इस समय मिल जाता..... तो चहलकदमी करते हुए विस्तार से बातचीत हो जाती..... बहुत दिनों से उससे मिलना ही नहीं हुआ... पता नहीं.... वह स्वस्थ है या नहीं- साठ के पार कर लिये कि घर वाले बाहर ही नहीं निकलने देते। हम कोई सरकारी नौकरी से रिटायर हुए हैं, हमने तो खुद मेहनत करके घर-बार दोबारा बनाया है...हरदयाल भी बेवकूफ ही है...चाहता था.... वह अपने बेटों को बुलन्दियों पर देखना अरे! कौन नहीं देखना चाहता..... सभी माँ-बाप ऐसा ही चाहते हैं... और उस दिन कैसे रो रहा था... गुरूमुख फरार हो गया... ये आज के नौजवान...पता नहीं क्या चाहते हैं.... एक ही दिन में धनवान हो जाना चाहते हैं.... अरे.... धन के लिए मेहनत भी तो करो..... डाके डकैती से क्या होता है...<br />
<br />
उनके पीछे एक बन्दूक चलती रही.... वे बेखबर नेहरू-गार्डन की ऐसी बेंच पर जा बैठे जहाँ वे अक्सर हरदयालसिंह के साथ ग्यारह-बारह बजे तक बैठे रहते थे..... वे निश्चिन्त होकर बैठ गये.... अक्तूबर की ठण्ड में भी उन्हें वहाँ बैठने में मज़ा आया..... बहुत दिनों बाद वे खुले आकाश का आनन्द ले रहे थे.... वे ताज़ी हवा को अपने अन्दर भर लेना चाहते थे... आस-पास कोई चहल-पहल नहीं थी.... उनकी आँखें बन्द होने लगी थीं....<br />
<br />
‘‘हरदयाल.....’’<br />
‘‘हूं....’’<br />
मैं तो कैदी हो गया हूँ... पाँच बजे नहीं कि किवाड़ बन्द... मुझे घुटन महसूस होती हैं...’’<br />
‘‘हूँ....’’<br />
तुम बोलते क्यों नहीं... बड़े चालाक हो न..... हूँ करके ही बात को टाल जाते हो.... और मैं बकवास करता रहता हूँ... लेकिन हरदयाल इन वर्षों में तो चुप ही रहा... लोग अर्थ का अनर्थ निकाल लेते हैं... व्यर्थ की दीवारें खड़ी कर देते हैं... हवा की दीवारों को लोहे की बना देते हैं...इसीलिए मैं तो आज ही किलेबन्दी से बाहर निकल आया... कौन घुटता रहे अन्दर-ही-अन्दर...’’<br />
<br />
‘‘हूँ...’’<br />
‘‘अपने ही शहर में बन्द हो जाना... अपने ही घर में घुट जाना..... बहुत दिनों बाद नेहरू गार्डन में आया हूँ..... और देखो.... तुम भी कितने नखरे से निकले हो..... हालाँकि वे कहते हैं कि तुम रात को घूम सकते हो... लेकिन मैं नहीं... भाई.... भाई..... भाई में ही दीवार..... मैं तो दीवार गिरा दूँगा.... तुम भी..’’<br />
‘‘हूँ...’’<br />
<br />
‘‘हूँ, क्या, तुम कभी नहीं बोलते.... मुझे अब मरने से कोई डर नहीं लगता..... रोज़ अन्दर मरने से एक बार बाहर मर जाना कहीं बेहतर है.....’’<br />
एक बन्दूक उसके पास आ गयी थी.... फिर अनेक बन्दूके उसके इर्द-गिर्द तन गयी थीं....लाला जी की आँखें खुल गई थीं.... इजनी बन्दूकें तन जाने के बावजूद उन्हें कोई डर नहीं लगा... बचपन में कभी सिपाही भी देख लेते... तो काँप जाते थे... लेकिन आज ऐसे नहीं लगा...<br />
‘‘ तुम किससे बात कर रहे थे...?’’ एक बन्दूक ने पूछा!<br />
<br />
‘‘अपने दोस्त हरदयालसिंह से...’’<br />
‘‘कहाँ है वो?’’ बन्दूके फिर तन गयीं!<br />
<br />
हरदयालसिंह उर्फ हिरदा... वहीं होगा... कहाँ गया वह...! बोलो... वह खतरनाक... कहीं भाग न जाए...<br />
बन्दूकें उनके शरीर के नजदीक आती जा रही थीं... लेकिन लाला जी तो ठहाके लगा रहे थे... सेंट्रल टाउन की गली नं. सात के घुटने भरे कमरे में मरने से नेहरू गार्डन में... या जी. टी. रोड़ पर... घूमना कितना प्यारा लगता है... वह ठहाके लगा रहे थे... कह रहे थे... क्यों रौब जमाते हो,.... मैं तो सैर-सपाटे के लिए निकला हूँ... और हरदयाल... और मैं... तो सदियों सं ऐसे ही रातों में घूमते रहे हैं.. घूमते रहेंगे...<br />
शहर फिर मर गया था! वे अकेले रात को जी. टी. रोड़ पर घूम रहे थे... और अधजली लाशों के भूत उसे घूमता देख... अब चिल्ला नहीं रहे थे... शायद यह सोचकर खुश थे कि उनकी रात गुजर जायेगी... मज़े से।<br />
<br />
लाला जी हरदयाल के साथ प्रायः रात देर गये चाय पीने बाबे की दूकान पर जाया करते! लाला जी की आज भी वैसी ही इच्छा हुई! वे चौक की ओर बढ़ गये... अरे! सब सुनसान... बाबा वहाँ नहीं था...भट्ठी गर्म नहीं थी... लोग चाय की चुस्कियाँ नहीं ले रहे थे... शायद आज नौकर न आया हो... वे आगे बढ़े... तम्बू के नीचे लोग अलसाये से तनकर खड़े हो गये!<br />
लाला जी ठहाका लगाकर आगे बढ़ गये!</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%AA_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31286सांप / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-22T02:15:41Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
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<br />
<br />
उसकी रीढ़ की हड्डी पर सांप फुंफकार रहा था। वह हड़बड़ा कर बैठा तथा अंधकार को टटोलने लगा। वह चौथी मंजिल के कमरे में बन्द था। आकाश में लटका हुआ-सा।<br />
<br />
सांप के रेशमी स्पर्श से उसकी रीढ़ की हड्डी एकाएक निर्जीव होने लगी। फिर सैंकड़ो सांप उसके मस्तिष्क में घुस गये तथा जीभ लपलपाते हुए उसकी धमनियों में उतरने लगे।<br />
<br />
विद्यापीठ की चौथी मंजिल अपने आकार से विश्रृंखलित होकर और ऊंची उठने लगी... फिर सारा भवन मुंह कटे धड़-सा थरथराने लगा। शायद भटकी हुई आत्मा फिर मंडराने लगी थी।<br />
<br />
धुंधलेपन में भी अजित को उसका आकार स्पष्ट दिखाई देने लगा। भोला-भाला सीधा-सादा सीता राम। अकेली जान। काफी जमीन का सौदा तय हो रहा था। मुख्य अधिकारी ने कहा था- पेड़-पौधा लगाना पुण्य का प्रतीक है। विद्या का प्रचार भी जनहित है।<br />
<br />
उसने बिना पढ़े कागज पर हस्ताक्षर कर दिये थे। कम पैसे लेकर भी वह बहुत खुश था। फिर एक दिन आयकर वालों ने उसे दबोच लिया था फिर जमीन का जितना भी पैसा मिला था, वह सारा आयकर में चला गया। वह आयकर अधिकारियों के आगे गिड़गिड़ाता रहा था उन्हें असली वस्तुस्थिति से परिचित करवाने के लिए चिल्लाता रहा परन्तु वह व्यर्थ। वह रसीदों को नकारने में असमर्थ था।<br />
<br />
उसकी जमीन पर विद्यापीठ का भवन उग आया था। वह संतप्त-सा आस-पास ही मंडराता रहता। बार-बार अधिकारियों से मिलता परन्तु वह हंस कर टाल देते। फिर वह फूट पड़ता- वह एक-न-एक दिन तुम्हें ले डूबेगा और फिर मैं झूम-झूम कर गाऊंगा, मुस्कराऊंगा।<br />
<br />
एक दिन वह बहुत ही दुखी था। पता नहीं वह कहां से एक मरा सांप उठा लाया तथा धप्प-धप्प करता हुआ चौथी मंजिल पर जा पहुंचा था। उसने वह मरा हुआ सांप अध्यक्ष के मुंह पर दे मारा।<br />
<br />
वह अट्टहास कर रहा था। अधिकारी दशहत से बेहोश हो गया था।<br />
<br />
‘‘इतनी सारी जमीन के लिए तुमने मुझे मरा हुआ सांप ही तो दिया है...... पैसा तो तुम पी गये.... लो सांप पी लेना। मैं जानता हूं तुम्हें फिर भी क</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%AA_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31285सांप / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-22T02:12:22Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल |अनुवाद= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
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|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
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<br />
<br />
सांप<br />
उसकी रीढ़ की हड्डी पर सांप फुंफकार रहा था। वह हड़बड़ा कर बैठा तथा अंधकार को टटोलने लगा। वह चौथी मंजिल के कमरे में बन्द था। आकाश में लटका हुआ-सा।<br />
<br />
सांप के रेशमी स्पर्श से उसकी रीढ़ की हड्डी एकाएक निर्जीव होने लगी। फिर सैंकड़ो सांप उसके मस्तिष्क में घुस गये तथा जीभ लपलपाते हुए उसकी धमनियों में उतरने लगे।<br />
<br />
विद्यापीठ की चौथी मंजिल अपने आकार से विश्रृंखलित होकर और ऊंची उठने लगी....... फिर सारा भवन मुंह कटे धड़-सा थरथराने लगा। शायद भटकी हुई आत्मा फिर मंडराने लगी थी।<br />
<br />
धुंधलेपन में भी अजित को उसका आकार स्पष्ट दिखाई देने लगा। भोला-भाला सीधा-सादा सीता राम। अकेली जान। काफी जमीन का सौदा तय हो रहा था। मुख्य अधिकारी ने कहा था- पेड़-पौधा लगाना पुण्य का प्रतीक है। विद्या का प्रचार भी जनहित है।<br />
<br />
उसने बिना पढ़े कागज पर हस्ताक्षर कर दिये थे। कम पैसे लेकर भी वह बहुत खुश था। फिर एक दिन आयकर वालों ने उसे दबोच लिया था फिर जमीन का जितना भी पैसा मिला था, वह सारा आयकर में चला गया। वह आयकर अधिकारियों के आगे गिड़गिड़ाता रहा था उन्हें असली वस्तुस्थिति से परिचित करवाने के लिए चिल्लाता रहा परन्तु वह व्यर्थ। वह रसीदों को नकारने में असमर्थ था।<br />
<br />
उसकी जमीन पर विद्यापीठ का भवन उग आया था। वह संतप्त-सा आस-पास ही मंडराता रहता। बार-बार अधिकारियों से मिलता परन्तु वह हंस कर टाल देते। फिर वह फूट पड़ता- वह एक-न-एक दिन तुम्हें ले डूबेगा और फिर मैं झूम-झूम कर गाऊंगा, मुस्कराऊंगा।<br />
<br />
एक दिन वह बहुत ही दुखी था। पता नहीं वह कहां से एक मरा सांप उठा लाया तथा धप्प-धप्प करता हुआ चौथी मंजिल पर जा पहुंचा था। उसने वह मरा हुआ सांप अध्यक्ष के मुंह पर दे मारा।<br />
<br />
वह अट्टहास कर रहा था। अधिकारी दशहत से बेहोश हो गया था।<br />
<br />
‘‘इतनी सारी जमीन के लिए तुमने मुझे मरा हुआ सांप ही तो दिया है...... पैसा तो तुम पी गये.... लो सांप पी लेना। मैं जानता हूं तुम्हें फिर भी कुछ नहीं होगा क्योंकि तुम तो सांप के भी बाप हो।’’ वह दहाड़ता रहा था।<br />
<br />
विद्यापीठ के कर्मचारियों ने उसे रोकना चाहा परन्तु असफल। फिर उसने मरा हुआ सांप उठाया तथा उसकी पूंछ अधिकारी के मुंह में ठूंसते हुए कहा- ‘‘तुम मुझे खा गये। लो सांप को भी खाओ, सांप जो जहरीला होता है..... तभी तुम्हारा जहर मर सकेगा...... नहीं तो तुम सारी सृष्टि को डस खाओगे।’’<br />
वह नीचे नहीं उतरा था सभी परेशान थे। फिर पुलिस को बुला लिया गया था। <br />
<br />
अजित को याद है कुछ दिन बाद विद्यापीठ के पिछवाड़े जंगल में लोगों ने दो पैर धरती को चीर कर उगते जरूर देखे थे परन्तु सबको सांप सूंघ गया था..... वह सहम गये थे।<br />
भवन फिर थरथराने लगा।<br />
अजित को सांप का रेशम लिजलिजा-सा लगा। उसने पूरी शक्ति से सांप को उठा कर पटक दिया, फिर अपने आस-पास की जगह को हाथ से टटोल कर देखा। अरे, यह इतना बड़ा सांप फिर कहां से आ गया। वह एक सांप उठा कर फेंकता, तो दूसरा उसके हाथ में आ जाता। उसे लगा वह नाग लोक में पहुंच गया है....... किस-किस से बचेगा वह।<br />
मेंढ़क तथा सांप, मेमना तथा भेड़िया... सांप तथा भेड़िया।<br />
<br />
<br />
वह हतप्रभ हो गया था। अध्यक्ष के अन्दर पल रहा भेड़िया अचानक बाहर आ गया था- ‘‘तुम संस्था को हड़प जाना चाहते हो..... और यह मैं हरगिज नहीं होने दूंगा।’’<br />
‘‘आप तो हड़प कर डकार भी नहीं लेना चाहते।’’<br />
<br />
‘‘तुम दो कौड़ी के आदमी अपनी औकात नहीं पहचानते। मै। एक-एक से निपट लूंगा। मैं देखूंगा तुम नौकरी कैसे करते हो?’’<br />
‘‘संस्था किसी के बाप की नहीं है यह जानता की अमानत है।’’<br />
‘‘तुम भी रक्षक नहीं, भक्षक हो।’’<br />
<br />
‘‘बेवकूफ... तुम क्या जानो कि भक्षक ही रक्षक हो सकता है.... भूखा व्यक्ति किसी की क्या रक्षा करेगा?’’<br />
‘‘बिल्कुल ठीक है तभी तो संस्था......।’’<br />
‘‘तुम दफा हो जाओ। तुम्हें बोलने की भी तमीज नहीं।’’<br />
भेड़िया मेमने को निगल जाना चाहता था परन्तु मेमना छिटक कर एक ओर हट गया।<br />
अजगर की फुंफकार सुनाई देने लगी थी। क्षण-भर के लिए खरगोश दुबक गये थे। फिर अचानक मेमनों में शेर घुस गये थे तथा खरगोश में हाथी चिंघाड़ने लगे थे।<br />
<br />
और फिर जुलूस की बरसाती नदियां बहने लगीं। हर चौंक में धुंआ-धार भाषण होता। बार-बार एक ही बात की चर्चा। नाथ काला नाग है। अन्दर गुण्डे अपने क्षेत्र के छोटे बदमाशों से बंधा-बंधाया ‘महीना’ लेते हैं, वैसे ही यह नारा हम से ‘नाथ टैक्स’ लेता है। नाथ क्या- अनाथ टैक्स। हर मास वेतन का दस प्रतिशत... जैसे धर्माथ दशमांश लेता हो।<br />
<br />
नाथ के कान बड़े तेज थे और दिमाग बड़ा फुर्तीला। तुरन्त एक प्रेस-कांफ्रेस बुलाई गई। इधर-उधर की बातों के बाद कहा गया- ‘‘मैं तो धार्मिक प्रवृति का आदमी हूं, परमात्मा से डरने वाला। क्षर्म-कर्म में दो पैसे लग जायें तो प्रसन्नता होती है। मैं भला गरीबों का पेट कैसे काट सकता हूं। मैं तो गरीब विद्यार्थियों को आर्थिक सहायता भी देता हूं। मुझे तो यह सब अजित की शरारत लगती है।’’<br />
<br />
चौथी मंजिल के कमरे में बन्द अजित सांप रेशम को भूल कर ठहाका लगा उठा। ऐसा व्यक्ति गरीबों से दस प्रतिशत कैसे ले सकता है? भेड़ों में घुस आया भेड़िया। सांप की फुंफकार में नाथ बोल उठा। अजित ने उसे एकदम दबोच लिया। फिर मेमने मिलकर भीड़ सांप के रेशमी शरीर पर फिसलने लगी... वाह क्या मुलायम है...। अजित को लगा सारे मेमने मिलकर अध्यक्ष को धराशाही कर सकते थे। फिर उसे लगा कि वह नाथ को पकड़ कर हवा में उड़ गया। नाथ चिल्लाता रहा- अरे क्या मजाक है। मुझे छोड़ दो। जो मांगोगे वही मिलेगा। मैं तुम्हें पदोन्नतियां दूंगा...लेकिन मुझे छोड़ दो।<br />
<br />
ज्यों ही नाथ के पांव पृथ्वी पर लगे, वह फिर फुंफकारने लगा- तुम सब चोर हो तुम संस्था को हड़प जाना चाहते हो। मैं ऐसा हरगिज नहीं होने दूंगा।<br />
मेमने खिलखिला कर रह गये।<br />
नाथ ने फिर कांफ्रेंस बुलाई- ये सब कर्मचारी विद्रोही हैं। संस्था के प्रति इनके मन में कोई निष्ठा नहीं इन्हें भड़काया गया है। अजित इन्हें मरवाने पर तुला है। कल रात ये लोग मुझे उठा कर ले गये थे... इन्होंने मुझ पर कई वार भी किये।<br />
<br />
‘‘आप इन पर हत्या का केस दर्ज क्यों नहीं करवाते।’’<br />
‘‘यह मेरे अपने बच्चे हैं। मैं इतना क्रूर नहीं। हो सकता है मैं इन्हें समझा-बुझा कर ठीक कर दूंगा।’’<br />
सम्वाददाता नाथ की आदर्शवादिता के आगे नतमस्तक थे। फिर भी उनमें से एक ने धीमे से पूछा- ‘आप पर......’’<br />
‘‘बड़े आदमियों पर आरोप तो लगते ही रहते हैं। मेरा काम तो संस्था को चमकाना है। इनको तो कहीं भी नौकरी मिल सकती है..... और फिर जिन चयन समितियों ने इन्हें नौकरी दी है- उनका चेयरमैन होना तो दूर मैं तो साधारण सदस्य भी न था। मैं तो आदर्श अध्यक्ष बनना चाहता हूं।’’<br />
<br />
‘‘ऊं..... हूं...।’’ एक सम्वाददाता ने अविश्वास से देखते हुए कहा- ‘‘पदोन्नतियां बन्द हो जाने से कर्मचारियों में निराशा तो बढ़ेगी।’’<br />
‘‘तो जहां इनको पदोन्नतियां मिलती हैं वहां चले जाएं।’’<br />
<br />
मेमने फिर और भी भड़क उठे थे। हड़ताल का पैंतालीसवां दिन था। कर्मचारियों का प्रण था कि शान्ति से पदोन्नति करते रहेंगे ...किसी-न-किसी दिन अधिकारी बुला कर बात करेंगे परन्तु नाथ का अचूक नुस्खा तथा अटल विश्वास अधिकाधिक उपेक्षा करने से कर्मचारी खुद ही मर जाएंगे... वेतन बन्द... फाके की नौबत... फिर अपने आप नाक रगड़ेंगे... विद्रोह की पराकाष्ठा। समाचार पत्रों में भूकम्प आ गया था।<br />
<br />
नाथ को गिरगिट का रंग बदलना दिन-प्रतिदिन लुभावना लगने लगा था। बराबर न्यूज-फ्लैश करवाता रहा। केवल कुछ प्रतिशत लोग ही हड़ताल पर हैं।<br />
नाथ के चन्द समर्थक समय की विकरालता को भुलाने में लगे थे। बराबर कहे जा रहे थे- स्ट्राईक तो टूट गई है। वह भूखे मरने लगे हैं।<br />
जंगल में आग भड़क उठी थीं संस्था चौथी मंजिल की बिल्डिंग थरथराने लगी थी।<br />
<br />
वे टिड्डी दल की तरह सीढ़ियों पर चढ़ रहे थे हाहाकार मचाते हुए, नारे लगाते हुए।<br />
अजित ज्यों ही चौथी मंजिल पर पहंुचा था, तो पांच-सात आदमियों ने उसे पकड़ कर कमरे में बन्द कर दिया था...और फिर डंडों, घूंसों की आवाज आने लगी थी।<br />
कमरे में सिपाही मधु-मक्खियों की तरह चिपक गये थे। अजित ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। एक सिपाही कह रहा था- बड़ा नेता बना फिरता है। साला उल्लू का पट्ठा। बेवकूफ।<br />
<br />
‘‘मेरा जो भी हश्र हो। यह नाथ बच नहीं सकता। इसका मुखौटा अब उतरा कि अब उतरा।’’ अजित ने हांफते हुए कहा।<br />
‘‘सुबह तुम्हारी बगल से औरत निकलवा देगा वह और फिर...।’’<br />
<br />
सिपाही ने फिर उसे मारना शुरू कर दिया। अजित को लगा सिपाही महीन हो गया है, मात्र एक लोहे का टुकड़ा जो उसके मारा भी जा रहा है तथा अपने विद्रोह को भी व्यक्त किये जा रहा है। अजित की इच्छा हुई कि वह उस सिपाही से बतियाते परन्तु वह तो उसे मारे जा रहा था। फिर उसे नहीं पता क्या हुआ तथा कब बेहोश होकर गिर पड़ा था।<br />
<br />
विद्यापीठ का भवन फिर डगमगाने लगा है। सीताराम की आत्मा वायु में कम्पन पैदा करने लगी है...हड्डियों का कंकाल हवा में खड़खड़ाने लगा है।<br />
<br />
जमीन में से पैर बाहर फुटने लगते हैं। अजित को लगा यह पैर नाथ के हैं। वह प्रसन्नता से उस स्थल की ओर बढ़ गया। क्षण-भर के लिए अपने विजयोल्लास में डूब गया। उसने पैरों को छुकर देखने का प्रयत्न किया। अरे, यह क्या... पैरों का रंग बदलने लगा, गिरगिट की भांति। अजित बदहवास- सा बिना पैरों के ही भागने लगा है। उसके पैर तो जमीन में से फूट रहे थे। ...फिर भी वह भाग रहा था।<br />
<br />
पौ फूटने वाली थी.... सीढ़ियों पर बूटों की टाप सुनाई दे रही थी। फिर सीताराम की चेतावनी- ‘‘अजित वे आ गये...अपने हाथों में लपलपाती जीभों वाले सांप लिये।... सांप... सांपों को पकड़े हुए सांप।’’<br />
अजित के मस्तिष्क में लपलपाती जीभों वाले अनेक सांप घुस गये तथा फिर धीरे-धीरे उसकी धमनियों में प्रवाहित होने लगे।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31284सुशील कुमार फुल्ल2016-06-22T02:09:42Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: /* कहानियाँ */</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=<br />
|नाम=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=15 अगस्त 1941<br />
|जन्मस्थान=गांव काईनौर, ज़िला रोपड़, पंजाब<br />
|मृत्यु=<br />
|कृतियाँ=<br />
|विविध=<br />
|जीवनी=[[सुशील कुमार फुल्ल / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Sushil Kumar Phull<br />
|shorturl=<br />
|kavitakosh=<br />
|copyright=<br />
}}<br />
====कहानियाँ====<br />
* [[बसेरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बढ़ता हुआ पानी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[मेमना / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फंदा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ठूँठ / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[कोहरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बांबी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[रिज पर फौजी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[माटी के खिलौने / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[चिड़ियों का चोगा / सुशील कुमार फुल्ल]] <br />
* [[दान पुन्न / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अटकाव / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अनुपस्थित / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[प्रेम का अन्तर्राष्ट्रीय संस्करण / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अपने-अपने दुःख / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फ़ासला / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ककून / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[जिजीविषा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[जंगल / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बाहर का आदमी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[सांप / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[किलेबन्दी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[मुण्डू / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बोक / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ब्रेक-डाउन / सुशील कुमार फुल्ल ]]</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%B2%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31279फ़ासला / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-20T03:57:49Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
<br />
<br />
वह पहली बस से चला था सुबह पाँच बजे। टिकट लेते हुए क्षण भर के लिए वह हिचकिचा गया। सीधा शिमला का टिकट ले ले यार फिर आज बिलासपुर ही रुक जाएं। उन्हें देख भी लेगा। परन्तु फिर उसने एकाएक कहा था- एक सीट शिमला।<br />
<br />
उसे अपनी मनःस्थिति पर क्षोभ हुआ था। जब उसने लिखा ही नहीं, न ही कभी कोई उत्सुकता दिखाई है, वह वह क्यों बिना बुलाए चला जाएं। भाई हुआ तो क्या है? उसने कौन सा भाई का धर्म निभाया है। वह नहीं रुकेगा, कभी नहीं। वह पैसे वाला होगा तो अपने लिए। कौन किसी को कुछ देता है। सब अपने-अपने परिवार में लीन हो जाते हैं। सब रिश्ते नाते पीछे छूट जाते हैं। गृहणी घर आई नहीं कि बस मां-बाप, भाई-बहिन सब व्यर्थ हो जाते हैं। अपना ही खून पानी हो जाता है। गलती तो मेरी है, उसने सोचा।<br />
<br />
वह खिड़की में से उभरते-सरकते। फैले पहाड़ों की श्रृंखलाओं को निहार रहा था। भले भले से, मासूम से पहाड़, जिसमें कोई छल-कपट नहीं, कोई घृणा नहीं। सब को स्वीकार लेना ही मानो इस का धर्म है। अपनी छाती पर नये-नये पेड़-पौधों को उगते देख लहलहाना...... हर्षित होना...... पर्वतों का नाचना-झूमना........ कितना भला लगता है। मैंने भी तो पर्वत की भान्ति अपने नन्हें-मुन्हें बहिन-भाईयों को आगे बढ़ते देखने का स्वप्न संजोया था, माधव ने सोचा। हां, और इस ध्येय में कुछ सीमा तक सफलता भी मिली। राघव की ही बात ही ले लो। गाँव की जमीन बेच कर इसे इतना पढ़ाया लिखाया। अब बिलासपुर में इंजीनियर लगा है। खूब पैसे कमाता हैं। ठाठ से रहता है, ठाठ से रहे, यह तो अच्छा ही है परन्तु... एकाएक सब को विस्मृत कर दे, यह कहाँ का बड़प्पन हुआ? बिना सम्बधों के भी कोई बात होती है? माँ-बाप तो माँ-बाप ही होते हैं। विवाह से पहले बूढ़े माँ-बा पतो मन्दिर के भगवान हैं। इन की जितनी भी सेवा करूं थोड़ी है। बस मेरी शादी हों जाए, फिर मैं इन्हें गदियाड़ा में नहीं रहने दूंगा। न खाने ने का ढ़ंग, न रहने का ढ़ंग। कोई बीमार हो जाए तो...तो कितनी मुसीबत होगी।<br />
<br />
माधव हर्षित हो गया था। भाव-विभोर। आज के युग में माँ-बाप के प्रति ऐसा स्वस्थ दृष्टिकोण पा कर माधव अपने छोटे भाई राघव को देखता ही रह गया था। फिर बोला था- क्या भाई और भावज को नहीं रखोगे अपने पास।<br />
<br />
‘वाह! क्या खूब कही। यदि माँ-बाप मन्दिर के भगवान हैं, तो भाई-भाभी भगवान के साथ रहने वाले देवी-देवता हैं। राघव ने आस्थावादी स्वर में कहा था।<br />
माधव सारे गाँव में अपने भाई के सद-विचारों का ढिंढोरा पीटता रहा था, गुण-गान करता रहा था।<br />
<br />
पहली बार राघव घर आया था, तो परिवार के सब सदस्यों के लिए कुछ न कुछ उपहार लाया था। अपने भाई के लिए बढ़िया पट्टु भी। वह सब को दिखाता फिरा था। वह पट्टु अब भी बैग में है। शिमला में ठण्ड अधिक है न। और क्या पता राम मिले या न मिले। फिर कहीं इधर-उधर टिकना पड़ेगा। वैसे राम दूर के रिश्ते में भाई लगता है। जब भी शिमला जाओ, तो उसके पास ही ठहरना पड़ता है। वह कहीं और जाने ही नहीं देता। माधव पहुंचा नहीं कि राम चाय बनाएगा, दाल-चावल तैयार करेगा। और फिर माल रोड़ पर घुमाने ले जाएगा। कितना अच्छा है वह।<br />
<br />
ऐेसे ही एक बार शिमला जाते हुए वह बिलासपुर रुक गया था। राघव के घर मेहमान देखकर उसे कुछ अजीब सा लगा था। अभी शादी हुई नहीं कि कुछ अजीब सा लगा था। अभी शादी हई नहीं कि साली साहिबा पहले ही आ धमकीं। और राघव को भी कुछ अच्छा नहीं लगा था। दुबके-दुबके बोला था- आपने आना ही था, तो पहले तो लिख दिया होता।<br />
<br />
‘घर के लिए भी क्या पहले लिखना जरूरी होता है। तुम गदियाड़ा आते हो तो पहले लिखकर आते हो? माधव को गुस्सा आया था।<br />
‘वहाँ तो माँ-बाप। राघव ने कहा था।<br />
<br />
‘तो यहां मेरा कोई नहीं है? ... घबराओ नहीं मैं तुम्हारे पास नहीं टिकूंगा। और माधव ने अपना थैला उठाया था, तथा धनी राम गद्दी के घर की ओर चल दिया था।<br />
<br />
राघव की साली खड़ी मुस्करा रही थी। राघव ने इतना भर कहा था- भईया। आप यहीं रुकते न। वहां जगह तंग है।<br />
राघव ने रूक कर कहा था- जगह की तंगी की कोई बात नहीं दिल तंग नहीं होना चाहिए।<br />
<br />
खिसियानी सी, मरी सी हंसी हंसते हुए रघू इतना ही बोल पाया- भाई सुबह आ जाना।<br />
<br />
‘तुम अपना काम करो, भईया की चिन्ता छोड़ दो।’ कह कर वह चला गया था।<br />
<br />
वह दिन और आज का दिन। वह कभी। उसके घर नहीं गया। लेकिन अब तो बात दूसरी है। राघव के पुत्र ने जन्म लिया है। सोच कर वह फिर गद्गद् हो गया।<br />
बस टेड़े-मेढ़े पहाड़ों को चीरती हुई घूम रही थी। फासला कम होता जा रहा था। वह सोचने लगा शायद बस अड्डे पर कहीं मिल जाये। शायद किसी को मिलने पर चढ़ाने आया हो। यदि आया हो तो अच्छा ही है। वह उसे देखेभर लेगा। उससे बोले या नहीं। ऐसा भी क्या कि भाई को पत्र भी न दो। पैसा नहीं तो क्या है? भाई-भाई प्रेम तो है। प्रेम के बिना है भी क्या? एकाएक उसकी आँखों में चमक आ गई।<br />
<br />
बस मण्डी से बहुत आगे निकल गई थी। कब सुन्दरनगर आया, उसे पता ही न चला। बस अब थोड़ी देर में बिलासपुर आ जाएगा। यदि मिल गया तो...तो मैं उसे ही पाँच रुपये का शगुन उसके पुत्र के लिए पकड़ा दूंगा। घर तो जा नहीं पाऊंगा। अजीब आदमी है। बुलाया ही नहीं। सालियां कब की होकर चली गईं...ये चीज ही ऐसी है। आदमी को उल्लू जो बनाती हैं। उसने अपनी जेबें टटोली। हां, पाँच का एक नोट तो था जेब में। वह प्रसन्न हो गया।<br />
<br />
अभी बिलासपुर पाँच छः किलोमीटर था। उसने बस की खिड़की खोल ली ठण्डी हवा चल रही थी, अतः बाकी सवारियों ने उसे बन्द करवाना चाहा। माधव ने बहाना बनाया- मुझे उलटिया आती हैं। और उसने वैसा ही अभिनय भी कर दिया। लेकिन वह बड़ी से बाहर देख रहा था। बिलासपुर का पुलिस-स्टेशन निकल गया, डाकघर भी...बाजार भी किन्तु वह दिखाई नहीं दिया। बस अड्डे पर जा लगी। वह बहुत बैचेन हो उठा। इधर-उधर टटोलने लगा...भीड़ में कोई परिचित चेहरा उसे दिखाई नहीं दिया। उसने पाँच का नोट बाहर निकाला, बड़े ध्यान से देखा। फिर हाथ में ही पकड़ लिया। अपने भतीजे को देगा।<br />
<br />
तभी उसे भीड़ में घूमता पाँच-छः साल का एक छोटा बच्चा दिखाई दिया। जिसके शरीर पर कम से कम आधा इंच मैल जीम हुई थी, पैर नंगे, वस्त्र फटे हुए और गन्दगी में चीकट लेकिन आँखों में एक चमक...एक जिजीविषा... माधव की इच्छा हुई कि वह नोट अपने भतीजे के स्थान पर उसे दे दे... भतीजे के नाम पर...वह खिल उठा। उसने ज्यों ही नोट उस बच्चे की और बढ़ाया... तभी एक पेंटधारी परन्तु फटे कमीज़ वाले व्यक्ति ने वह नोट छीन कर अट्टहास किया... तथा बड़ी-बड़ी आँखों से घूरता हुआ उस पर मुस्कराता रहा... हा... हा... हा...माधव डर गया... फासला घटा नहीं बल्कि बढ़ता ही गया...बढ़ता ही गया।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%95%E0%A5%82%E0%A4%A8_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31278ककून / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-20T03:56:54Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
<br />
ककून<br />
<br />
कुत्तों के सरपाट दौड़ने तथा बीच-बीच में भौंकने की आवाज छन-छन कर उस तक पहुंचने लगी तथा धीरे-धीरे दशहत का कोहरा उसकी नसों में जमने लगा। उसने चढ़यार रोड़ के तीनों तरफ अपनी दृष्टि घुमाई। नीचे को उतर गयी। सड़क के दोनों ओर घटाटोप झाड़-झंखाड़ों में से अनेक अजगर चिर उठाये उसे दबोचने के लिए तैयार खड़े थे। इस स्थिति से उबरने के लिए उसने धौलाधार पर्वत-श्रृंखला को निहारना चाहा परन्तु काले स्याह जंगलों में से उभरती हुई चिन्दियों में से भुतहा सांय-सांय का ही आभास हुआ।<br />
<br />
दशहत का कोहरा उसकी नसों में निरन्तर नीचे उतर रहा था। सरपट दौड़ते कुत्तों की भों-भों उसके और नजदीक आ रही थी। झाड़ी में से फुदक कर बेचने के लिए प्रयास में कोई खरगोश कुत्तों की लपेट में आ गया था...... उसके कीं-कीं कर शान्त हो जाने का एहसास उसे लिजलिजा-सा लगा।<br />
<br />
वह स्वयं खरगोश बन गया था। वह कब तक भागता रहेगा। कुत्तों की लार बढ़ती ही जा रही थी और फुदकता हुआ वह कई बार थका-हारा सह सोचने पर विवश हो जाता कि इस भागम-भाग से तो पहले ही बार धराशायी हो जाना कहीं अच्छा है। फिर उसक संस्कार जोर मारते- ऐसा करना कायरता है। जूझन्त कहीं बेहतर है। चुपचाप अपने सिद्धान्तों को ताक पर रख देना या अजगर केे मुंह में धकेल देना हार का पर्याय है। उससे तो खरगोश ही अच्छे हैं जो छलांगते-छलांगते कहां से कहां जा निकलते हैं लेकिन उसे खरगोशों का रोशनी के आगे दुबक कर बैठ जाना तथा आत्म-समर्पण कर देना कुछ अटपटा-सा लगता है शायद वह भी तो खरगोश-सा एक दिन दुबक कर शान्त हो जाएगा। यह भी कोई जिन्दगी हुई। घास-पात की तरह उगो और कट जाओ। कोई प्रतिरोध नहीं, कोई विरोध नहीं। हूं...<br />
<br />
कुत्ते सरपट दौड़े आ रहे थे और उसकी नसों में दशहत का विष निरन्तर फैल रहा था। स्कूटर को भी यहीं, खराब होना था। चढ़यार रोड़ पर रात के अन्धकार में बिच्छुओं के झुण्ड खलबली मचा रहे थे।<br />
<br />
कोई गाड़ी ही आ जाए परन्तु शायद किसी तांत्रिक ने सड़क को कील दिया था। कहीं से कोई रोशनी नहीं, कोई आता-जाता नहीं। सरयू प्रसाद को जंगलों से सदा मोह रहा है। उसने बहुत से ऐसे पौधे खोज निकाले हैं, जो रात में प्रकाश रश्मियां विकीर्ण करते हैं परन्तु आज किसी पौधे से प्रकाश नहीं निकल रहा था। ठण्ड में जुगनू भी शायद कहीं विलुप्त हो गए थे।<br />
<br />
कुत्ते सरपट दौड़ रहे थे।<br />
<br />
वह एकाएक कांप गया। उसने एक ओर हट जाना चाहा। शायद वे निकल जाएं। लेकिन वह आ गए थे। बड़े-बड़े ओवरकोट पहने तथा हाथों में टार्च लिये हुए। एक के पास बन्दूक भी थी। वह पहले तो घबराया लेकिन फिर सम्भल कर बोला- ‘‘आप लोग?’’<br />
वे कुछ नहीं बोले। उन्होंने केवल ही... ही...ही... हे...हे... का स्वर किया।<br />
<br />
‘‘लेकिन इस वक्त शिकार... ?’’<br />
‘‘शिकार का कोई टाइम होता है क्या?’’ उसमें से एक चिंघाड़ा।’’<br />
‘‘फिर भी।’’<br />
‘‘फिर भी क्या?’’ पहले ने ही पूछा।<br />
<br />
‘‘तुम यहां क्या कर रहे हो? अपनी बहन को ढूँढने आए हो?’’ दूसरे ने प्रश्न उछाला।<br />
‘‘देखो ढंग से बात करो। नहीं तो अपना रास्ता नापो।’’<br />
<br />
उनमें से एक ने बन्दूक उसकी और तान दी। उसे लगा वह गलत आदमियों में फंस गया है। शिकारियों पर उसे शुरू से ही सन्देह रहा है। न जाने किस की आड़ में वे क्या कर बैठें। विश्वास से एक महीन दीवार ही तो होती है।<br />
कुत्ते सरपट दौड़ रहे थे।<br />
<br />
उस दिन वे तीनों रात दो बजे ही धौलाधार जंगलों की तरफ चल दिए थे। घने जंगल, ऊबड़-खाबड़ पगडंडियां, पेचदार उतराई-चढ़ाई लेकिन फत्तू तो तूफानी चाल से दौड़ा जा रहा था। उसका दोस्त रमिया बहुत बर्षों के बाद उसके पास आया था। आया क्या फत्तू ने ही उसे आमचित्र किया थ वैसे उनकी भेंट तो प्रायः होती रहती थी। रमिया दिल्ली के जिस कॉलेज में पढ़ाता था वहीं फत्तू की पत्नी सुनहरी भी गृह-विज्ञान पढ़ाया करती थी। जब भी फत्तू की छुट्टियां होतीं, तो वह प्रायः दिल्ली चला जाया करता था परन्तु सुनहरी तो अपनी छुट्टियां भी दिल्ली में ही व्यतीत कर देती थी। कभी उसका पति प्रोफेसर नाराज भी होता, तो वह प्यार से घुड़क देती- माई डियर फत्तू! दिल्ली और पालमपुर की दूरी तुम क्या जानो लेकिन सच मानो तो कहूं। मैं कल्पना में हर रोज पालमपुर आया करती हूं। जिन्दगी क्या है? बस एक भरम को पालना एवं ढोना है। अपने ही कवच में सिमट कर अपने ही रंगों का इन्द्रधनुषी ककून बुनना कितना प्रिय लगता है।<br />
<br />
‘‘ककून बुनने का अर्थ मृत्यु को आमंत्रित करना है सुनहरी।’’<br />
<br />
‘‘मैंने कहा न मृत्यु को टालने का भ्रम ही जीवन है। तुम अपने कन्धे पर भ्रम की लाशें ढो रहे हो- लाश को स्वप्न मानकर चलना भरम नहीं तो और क्या है?’’<br />
‘‘तो कल्पना में तुम्हारा पालमपुर आगमन भी एकमात्र एक छलावा है।’’<br />
<br />
‘‘मेरे प्यारे फत्तुआ, छलावा है वह सत्य कैसे हो सकता है।’’<br />
‘‘तो तुम छलावा हो?’’<br />
‘‘फत्तू राम जी, तुम तो निरे तोताराम हो, एकदम भोले-भाले। औरत छलावा नहीं तो और क्या है?’’<br />
‘‘यह तुम कहती हो सुनह.....’’वह अवाक् रह गया था।’’<br />
‘‘हां मैं कहती हूं, जिसके हाड़-मांस में भी रक्त प्रवाहित होता है।<br />
क्या कभी तुमने मेरे दिल की धड़कन सुनी है?’’ सुनहरी ने पूछा।<br />
‘‘क्या कभी तुमने कुत्तों के सरपट दौड़ने का संगीत सुना है?’’<br />
<br />
<br />
‘‘तुम्हारे दिल-दिमाग पर शिकार छाया रहता है। मेरे दिल की धड़कन तथा कुत्तों के सरपट दौड़ने मे तुम्हें कोई अन्तर नहीं आता। तुम जानवर हो, जानवर।’’<br />
‘‘हां, मैं जानवर हूं लेकिन मेरे अन्दर का जानवर अभी पगलाया नहीं। जब वह पगला उठेगा तो तुम्हें रौंद कर रख देगा।’’<br />
‘‘वह दिन कभी नहीं आएगा। तुम्हारा जानवर मर चुका है। तुम्हारा आदमी भी मर चुका है।’’<br />
<br />
फत्तू को सुनहरी की बातों पर विश्वास नहीं होता था। वह इतनी दबंग हो सकती है, यह उसकी कल्पना से बाहर था। उसके मन में नारी की मूर्ति थी मुलायम-सी, लाजवन्ती-सी लाजवन्ती के पौधे-सी छुई-मुई हो जाने वाली, बर्फ का पिघलना या मोम का तरल हो उठना उसे नारी का पर्याय लगता था परन्तु जब उसे सुनहरी में देह की फुंफकार तथा कच्ची लस्सी की डंकार सुनायी दी तो वह चौंक उठा था। अचानक पालमपुर तथा दिल्ली की दूरी कम हो गयी थी। वह सुनहरी पर छा जाना चाहता था। दिल्ली नगर लिजलिजा एवं बेतहाशा तेज जिन्दगी को न चाहता हुआ भी अब वह पालमपुर से दिल्ली तक की सड़कों की लम्बाई में फैल जाता। सुनहरी ने एक बार कहा भी- क्यों व्यर्थ में अपने आप को तोड़ते हो?<br />
<br />
‘‘तुम उसे तोड़ना कहती हो?’’<br />
‘‘और क्या तुम इसे जुड़ जाना कहोगे?’’<br />
‘‘किससे?’’<br />
‘‘किसी से भी। क्या जुड़ जाना किसी एक पुरुष से ही होता है? तोड़ कर फिर जुड़ना तो भावनात्मक संधि पर आधारित होता है।’’<br />
‘‘तुम में क्रूर जानवर है और तुम जानती हो मैं शिकार का शौकीन हूं। जानवर और शिकारी का भावनात्मक संधि-स्थल दोनों में से किसी एक की मौत होती है।’’<br />
‘‘होती होगी।’’<br />
दोनों एक-दूसरे की बातें समझते थे। परन्तु दोनों अपने अस्तित्व को, अपनी पहचान को बनाए रखना चाहते थे। फिर पालमपुर और दिल्ली में दूरी बढ़ती ही गयी। सड़कें और लम्बी हो गयीं, हां, पत्र-व्यवहार बराबर बना हुआ था। सुनहरी प्रायः अपने पत्रों में जीवन के नये क्षितिज देखने का उल्लेख करती। निरन्तर विस्तार.......... विस्तार ही, विस्तार और अपनी दार्शनिक मुद्राओं द्वारा वह फतहचन्द ‘अफलातून’ को कील कर रखना चाहती थी। फिर एक पत्र में उसने अपने पति को लिखा था- क्या आत्मा को कभी बांधा जा सकता है? और फिर यह व्यर्थ के सामाजिक अंकुश, क्या कभी तुमने सोचा है कि ये सब अव्यावहारिक एवं अवांछित हैं। शायद तुमने कभी देश-धर्म की तरलता एवं स्निग्धता को महसूस नहीं किया। तुम कर ही नहीं सकते। जो आदमी दिल की धढ़कन को कुत्तों के सरपट दौड़ने से मिलाता हो, क्या वह आदमी कहलवाने का हकदार है। फिर भी फत्तू, मैं एक बात की कायल हूं- तुम हो महान। तुम्हारा शिकारी जब जानवर हो उठता है न, तो मुझे बड़ा आनन्द आता है। तुम पता नहीं धोलाधार के आंचल में सिकुड़े-सिमटे क्या करते हो, मैं तो आजकल तुम्हारे दोस्त रमिया से योग सीख रही हूं। आह! कितनी आनन्द-दायक घड़ियां होती हैं। बस, इन्ही क्रियाओं में अपना समय व्यतीत हो जाता है। <br />
<br />
कुत्तों का सरपट दौड़ना युद्ध-भूमि में टैंको के दहाड़ने-सी ध्वनि पैदा करने लगा।<br />
<br />
फत्तू को चिट्ठी मिली थी या वह बौखला उठा था। साले रमिया से योग सीखती है। रामनाथ को रमिया लिखती है। लोक-लज्जा की भी कोई हद होती है। उसके सामने योग करती होगी, उल्टी-सीधी टंगती होगी या फिर रमिया उसे पकड़-पकड़ कर टांगें ऊंची करके हवा में उल्टे लटकना तथा अंग-संचालन सिखाता होगा। बड़ा शिकारी आया है। जानवर कहीं का। और वह दिल्ली पहुंच गया।<br />
बस सुबह पांच बजे इण्टर-स्टेट बस-अड्डे पर जा लगी थी। और घण्टे में फत्तु अपने घर था। घर के बरामदे में सुनहरी वृश्चिक-आसन कर रही थी और रमिया जी उसे सब सिखा रहे थे।<br />
<br />
‘‘अरे अफलातून! तुम.....’’<br />
‘‘हां, मैं।’’<br />
‘‘फत्तू, पहले लिखा तो होता।’’<br />
‘‘क्यों क्या पत्नी के पास आने के लिए पहले डेट लेनी होती है?’’<br />
‘‘तुम तो जानवर ही रहे।’’<br />
‘‘हूं, अब मैं तुम दोनों को जानवर दिखाई देता हूं।’’<br />
‘‘हूं, अब मैं तुम दोनों को जानवर दिखाई देता हूं। और तुम दोनों शायद शिकारी हो गए हो।’’ उसकी आँखों में खून उतर आया था।<br />
रमिया स्थिति को भांप गया। वहां से गायब हो गया था। फत्तू ने अपने अन्दर के जानवर को अस्थायी तौर पर दबा लिया था वह शान्त दिखाई देने लगा था। वह एक-दो दिन दिल्ली रह कर लौट आया था।<br />
सरयू प्रसाद को याद है कि फत्तू ने उसे विशेष रूप से आमंत्रित किया था। रमिया को भी दिल्ली से बुलाया था। धौलाधार पर बर्फ की परतें जम गयी थीं और शिकार की सम्भावना बढ़ गयी थी। फत्तू ने सरयू प्रसाद से कहा था- तुम भी साथ चलना। तुम्हारा मन बहल जाएगा।<br />
<br />
‘‘अगर दहल गया तो?’’<br />
‘‘नहीं... तुम तो व्यर्थ में परेशान रहते हो। अच्छी नौकरी है। गऊ-सी बीबी तुम्हारे पास है, पुत्र है, पुत्री है, तुम्हारा अपना मकान है। फिर भी परेशान रहते हो।’’<br />
‘‘परेशान क्यों रहता हूं यह तो तुम जानती ही हो। सच को सच कहना भी आजकल गुनाह है। मैंने यही तो कहा था कि विभाग का सीमेंट, लकड़ी आदि न जाने कहां गायब हो गया।’’<br />
<br />
‘‘सबको पता होता है कि कहां जाता है परन्तु सब चुप रहते हैं। परन्तु तुम नौकरी का अर्थ नहीं जानते क्या?’’<br />
‘‘अब थोड़ा-थोड़ा समझ में आने लगा है।’’<br />
‘‘क्या?’’<br />
‘‘यही, कि जितना बड़ा अधिकारी, सुविधाओं के प्रति उतना ही बलात्कारी। सब अधिकारियों की कुण्डली एक-सी होती है।’’<br />
‘‘तुम महात्मा गांधी हो क्या? बुद्ध हो या ईसा? तुम सरासर बेवकूफ हो। क्यों व्यर्थ में सलीब पर गड़ जाना चाहते हो।<br />
‘‘हां, मैं सलीब पर गड़ जाना चाहता हूं। सच्चाई के लिए मैं ईसा हो जाना चाहता हूं।’’<br />
‘‘बातों में तुम्हें कौन जीत सका है। शायद तुम्हारे पीतल के दांत ने तुम्हें कानूनी बना दिया है। जंगल में जाओगे तो सब भूल जाओगे, वहां जंगल का कानून लगता है।’’<br />
‘‘मैंने कभी शिकार नहीं खेला है।’’<br />
<br />
‘‘यह सब झूठ है। हर आदमी जिन्दगी भर शिकार की तलाश में रहता है और पता नहीं क्या-क्या दांव पेच अपनाता है।’’ थोड़ा रूक कर वह बोला था- ‘‘मुझे प्रायः लगता है कि मेरा भी शिकार किया जा रहा है। मैं धीरे-धीरे शिकारी के मुंह में धंसता जाता हूं।’’<br />
<br />
सरयू प्रसाद को लगा था फत्तू ने उसकी मनःस्थिति का बिल्कुल सही चित्रण कर दिया था। उसका अपना सिर भी तो शेर के जबड़ों में फंसा हुआ है। सिर बाहर खींचता है तो लहूलुहान हो जाने का भय है और यदि अन्दर जाने देता है, तो उसका अन्त है।<br />
<br />
खरगोश का कुत्ते के मुंह में लटक जाना......... अजगर की जीव को लपक जाना....... छिपकली का मुंहबाए दीवार पर लटके रहना........ या फिर बड़ी मछली का छोटी मछली को निगल जाना....... क्या विधान है? शायद आदमी ने शिकार खेलना जीव-जन्तुओं से ही सीखा हैः जीव-जन्तु जो निरीह होते हैं, सीधे-सादे........ आदमी बहुमुखी जानवर है, जो रूप बदल-बदलकर हर प्रकार का शिकार करता है- जीवनभर घात लगाए बैठा रहता है। सर्पिणी की तरह अपनों को खा जाता है। सोचकर सरयू प्रसाद चौंक उठा था।<br />
<br />
रात के दो बजे वे धौलाधार पर्वत-श्रृंखला पर चढ़ रहे थे। फत्तू, रमिया तथा सरयू प्रसाद। कड़कड़ाती ठण्ड। थोड़ी दूर जाकर फत्तू ने कहा था- ‘‘अरे भई, वाटरमैन लाओ तो घूंट-घूंट।’’ सरयू प्रसाद ने पालमपुरी तोड़ की ड्रमी आगे कर दी थी। फत्तू मुंह लगाकर दो-चार घूंट पी गया था। फिर उसने ड्रमी रमिया की ओर बढ़ा दी थी। रमिया बोला था- ‘‘फत्तू! मैं ऐसे नहीं पी सकता। मुझे उबकाई आती है।’’<br />
<br />
‘‘हूं। मैं तुझे बार में ले चलूंगा। वहां कच्चे पनीर की लम्बी-लम्बी टुकड़िया होंगी, कलेजी होगी और फिर तुम मजे से बैठ कर चढ़ा लेना।’’<br />
रमिया ने अविश्वास से उसकी ओर देखा। सरयू प्रसाद ने मुस्कराते हुए कहा था- ‘‘बातों ही बातों में फत्तू महल खड़े कर देता है।’’<br />
‘‘क्या अपनी बात को सच कर दूं।’’<br />
‘‘कैसे?’’<br />
‘‘जानते नहीं अभी तो हम पहली धार पर ही हैं। यहां से नीचे धक्का दूं तो रमिया ‘न्यूगल कैफ’ में जा घुसेगा।’’<br />
रमिया ने लुढ़कते हुए पत्थर की कल्पना की तथा वह बहल गया। गड्र-गड्र गड् गड्। फिर उसने धीमे से सरयू प्रसाद से कहा था- ‘‘मुझे जंगल भयावना लगता है।’’<br />
फत्तू ने सुन लिया था। जंगल तो सदा सुहावना होता है। मुझे तो शहरी जानवर ज्यादा भयावने लगते हैं।<br />
‘‘अच्छा।’’ रमिया संकेत पा गया था।<br />
<br />
जंगल में किसी जानवर के ‘रड़ाने’ (कातर हो चिल्लाने) की आवाज से रमिया दहल उठा। उसे कुत्ते के मुंह में लटकता हुआ खरगोश दिखाई दिया, जो कोई आवाज नहीं कर पा रहा था परन्तु किसी जानवर के रड़ाने की आवाज ने उसे बैचेन कर दिया।<br />
फत्तू भागा जा रहा था। अ बवह बिल्कुल चुप था। वे आवा-खड्ड के निकास स्थल के नजदीक थे। सात फुहारे एक स्थान पर आकर गिरते थे। पहाड़ की ऊंचाई कुछ ज्यादा ही टेड़ी-तिरछी हो गयी थी।<br />
<br />
पिज का पीछा करते-करते वे पर्वत-शिखर पर पहुंच गए थे। फिर वे सरपट दौड़ रहे थे। सरयू प्रसाद पीछे रह गया था... वह बुरी तरह से हांफ गया था। वह पहली बार शिकार के लिए गया था...और वह भी वाटरमैन के रूप में। फिर भी वह प्रसन्न था। वह क्षण भर के लिए रूका। तभी धड़ाम्-से किसी के नीचे खड्ड में लुढ़कने की आवाज सुनाई दी। वह पत्थरा गया था। शायद फत्तू का पांव फिसल गया था। वह चीख रहा था?<br />
लेकिन फत्तू तो नीचे उतर रहा था और चिल्ला रहा था- ‘‘सरयू, हम लुट गए। रमिया नीचे जा गिरा खड्ड में। उसका पांव फिसल गया। बेचारा।’’<br />
<br />
‘‘चलो नीचे उतरें।’’<br />
‘‘तुम बेवकूफ हो।’’<br />
‘‘क्यों?’’ <br />
’’जो गया सो गया।’’<br />
‘‘क्या?’’ सरयू प्रसाद लगभग रो पड़ा।<br />
‘‘हां, यह जंगल है। शिकार स्थल है। क्या पता कब किसका शिकार हो जाए। बेचारा कितना अच्छा था।’’<br />
‘‘अभी तो वह जीवित होगा। सिसकियां तो सुनायी दे रही हैं।’’<br />
‘‘तुम पागल हो। सिसक-सिसक कर जीना भी कोई जीना होता है।’’<br />
‘‘फिर?’’<br />
‘‘फिर क्या? थोड़ी रोशनी होगी तो मैं नीचे उतरकर देख आऊंगा।’’<br />
सरयू प्रसाद डर गया था। वह वापस लौटने लगा। फत्तू के विकराल रूप से वह घबरा गया था। वह नीचे सरकता रहा। फत्तू ने कहा- ‘‘यदि तूने गांव में जरा भी हो-हल्ला मचाया तो तुम्हारा क्या हश्र होगा, जाओ और चुपके से जाकर अपनी माँ की रजाई में छिप जाओ।’’<br />
सरयू प्रसाद पालमपुर से कुछ मित्रों को लेकर घटना-स्थल पर पहुंचा तो खड्ड में से धुआं उठ रहा था- एक तरफ फत्तू बैठा था। धुआं धीरे-धीरे लपटों में बदल गया। लपटों में से चीखें निकलती हुई सरयू प्रसाद ने सुनी थीं परन्तु उसे तो सांप सूंघ गया था।<br />
<br />
सांस चलते आदमी को जला दिया गया था- सरयू ने सोचा। कुत्ता जीवित खरगोश को चबा सकता है, छिपकली जीवित जीवों को निगल जाती है...यह सब क्या है? एक कुत्ता एक और खरगोश को मुंह में लपकाए चढियार रोड़ पर आ पहुंचा था।<br />
‘‘तुम्हें वह अच्छी लगती है?’’ ओवर-कोट पहने एक व्यक्ति ने पूछा।<br />
<br />
<br />
‘‘कौन?’’<br />
‘‘लक्ष्मी।’’<br />
‘‘मैं समझा नहीं।’’<br />
‘‘अभी समझाते हैं तुम्हें।’’<br />
‘‘तुम असम में थे?’’<br />
‘‘लेकिन इन बातों का यहां क्या सम्बन्ध है?’’<br />
‘‘सम्बन्ध है, तभी तो पूछ रहे हैं।’’<br />
‘‘हां, मैं वहां था।’’<br />
‘‘तो रिपोर्ट ठीक है।’’ <br />
‘‘कैसी रिपोर्ट?’’<br />
‘‘यही कि तुम नक्सली हो।’’<br />
‘‘मैं? नक्सली?’’<br />
‘‘नहीं, तो क्या हम नक्सली हैं।’’<br />
सन्नाटा और भी गहराने लगा। सरयू प्रसाद को लगा कि चढियार रोड़ पर कुत्ते ही कुत्ते घूम रहे हैं तथा उनके मुंह में खरगोश लटके हुए हैं। लक्ष्मी, सुनहरी, फत्तू, रमिया...यह सब क्या जाल है... उसे लगा वह ककून बुनता उसी में बन्द हो जाएगा। उसने पहले ही अपने आपको सारे सामाजिक संसर्ग में काट लिया है। वह अपने आप में सिमट जाता है...और सिमटा रहना चाहता है। हां, एक बार कहीं बातचीत में उसने यह अवश्य कह दिया था- लक्ष्मी के लक्षण अच्छे नहीं लगते।<br />
<br />
<br />
‘‘क्यों?’’ एक सहयोगी ने पूछा था।<br />
‘‘देखते नहीं कैसे गंधाती फिरती है। अभी अविवाहित है फिर भी नंग-धड़ंग-सी हवा में घूमती रहती है... प्रायः नर मादा को सूंघता है, यहां बात ही उल्टी है। बाप की नाक कटवायेगी।’’<br />
‘‘नहीं ऐसी कोई खास बात नहीं। तुम तो व्यर्थ में परेशान होते हो।’’<br />
दरबारी लाल ने लक्ष्मी के दुश्चरित्र होने की बात सरयू प्रसाद के बकौल सारी हवा में फैला दी.. साथ ही वह स्वयं लक्ष्मी की देह में पिघलता चला गया था। उसने कहा था- देह नश्वर है। परस्पर आकर्षण शाश्वत है।<br />
‘‘मैं सब समझती हूं।’’ लक्ष्मी ने कहा था।<br />
‘‘तुम कुछ नहीं समझती! क्षण का ठहर जाना ही आनन्दवाद का पर्याय है।’’<br />
‘‘क्षण का ठहर जाना निश्चय का शरण मात्र है। फिर भी आकर्षण की बात मुझे जंचती है।’’<br />
<br />
और उन दोनों में आकर्षण की आम चर्चा होने लगी थी परन्तु नाम सरयू प्रसाद का ही लगता है। अब उसे समझ आने लगा था कि ओवरकोट पहने व्यक्ति में विभिन्न रूपों में दरबारी लाल ही थे। ऊंची कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की इज्जत के संरक्षण सरयू प्रसाद को धराशाही करने के लिए तैयार खड़े थे।<br />
<br />
ऊंची कुर्सी पर बैठा व्यक्ति और ऊंचा होने लगा था। सरयू प्रसाद उसके सामने बौना लग रहा था। हूं। तुम मुझे धराशाही करना चाहते हो? उल्लू की दुम। तुम्हारी सात पुश्तों में भी कोई अफसर हुआ है? तुम क्या जानो अफसर तथा उनके अधिकार होते हैं? तुम्हारे बाप-दादा ने कभी लहराती कन्यायें देखी हैं। जिन बातों को तुम सुविधा का दुरूपयोग कहते हो, वे ही तो वास्तव मे अफसरी का सही रंग होती हैं। तुम्हें लक्ष्मी का देह-धर्म चौंकाता है न। एक वर्ग से ऊपर उठ कर देह का कोई धर्म नहीं रहता... बस, हम तो कर्म में विश्वास रखते हैं और तुम व्यर्थ में लक्ष्मी का नाम लेकर अपनी उच्छृंखललता को अभिव्यक्त करते हो। तुम्हारी विचारधारा...?<br />
<br />
सरयू प्रसाद को अब असम, नक्सलवादी, लक्ष्मी आदि शब्दों का अर्थ खुलने लगा था। ओवरकोट पहने लोग...चुपचाप उसे ललकारते लोग...कुत्तों के मुंह में लटके खरगोश.... चुपचाप उसे ललकारते लोग...कुत्तों के मुंह में लटके खरगोश...बिम्बों का एक अपार सिलसिला। सरयू प्रसाद सोचता है तो अनेकों बिम्ब उसके मस्तिष्क में उभरने लगते हैं। कभी ककून में बन्द होता कीड़ा... गुफा में गायब होता आदमी, ककून से बाहर निकलता... छटपटा कर बेसुध हो जाता जीव...लक्ष्मी का देह धर्म मोम का पिघलना...रमिया को सुनहरी का ख्याल...फत्तू का अपनी कल्पना में रमिया को धड़ाम-धड़ाम कर देना...दरबारी लाल का आनन्दवाद... उसका अपना आदर्शवाद... पिछड़ापन... ऊपरी वर्ग के लोगों का देह धर्म...आम आदमी का हवा में उलटे लटक जाना...भ्रम की लाश एवं लालसा को ढोना...<br />
<br />
उसे सब गड्ड-गड्ड लगा। सब व्यर्थ एवं महत्वहीन। उसकी अपनी आदर्श भूमिका भी धीरे-धीरे-धूसारित होने लगी। तभी उसकी इच्छा हुई कि वह अपने ही ककून में बन्द हो जाये। बन्द हो जाने का अभिप्रायः उसका न होना होगा लेकिन होने न होने से क्या फरक पड़ता हैं। क्या यह मात्र भ्रम ही नहीं कि हम बहुत प्रासंगिक हैं, महत्वपूर्ण हैं। उसके सिर में कान खजूरे रेंगने लगे और वह जल्दी से अपने ककून में बन्द हो जाने की सोचने लगा।<br />
‘‘तुम लक्ष्मी में खो गए?’’ ओवरकोट पहने एक व्यक्ति ने फिर पूछा।<br />
<br />
‘‘सुनहरी। कौन सुनहरी?’’<br />
‘‘अरे लक्ष्मी तो थी, यह सुनहरी कहां से आ गई।’’<br />
‘‘कोई होगी। यह भी पूरा घाघ है। पता नहीं कहां-कहां भटकता रहा है।’’<br />
‘‘हूं। देखो इस समय पौधों में प्रकाश-रश्मियां ढूंढ रहा है। बड़ा न्यूटन बिना फिरता है।’’<br />
‘‘क्यों समय नष्ट करते हो? जाओ अपना शिकार ढूंढो।’’<br />
‘‘शिकार तो स्वयं हमारे सामने आकर खड़ा हो गया है।’’<br />
‘‘मुंह में खरगोश लटकाये कुत्ते खड़े थे। जरा-जरा चहलकदमी करते हुए।’’<br />
सरयू प्रसाद की इच्छा हुई कि वह अपने ही ककून में बन्द हो जाये... अन्दर बाहर की व्यथा कथा को एक कर दे। तभी बैजनाथ की ओर से दौड़ते हुए सांड आये...तथा सब में भगदड़ मच गई। ओवरकोट पहने लोग हकबका गए। कुत्ते मुंह में खरगोश लटकाए इधर-उधर सरपट दौड़े।<br />
कुत्तों के सरपट दौड़ने की आवाज अब भी आ रही थी। कीं-कीं की आवाज करता कोई खरगोश शान्त हो गया था।<br />
<br />
उसकी धमनियों में दशहत का कोहरा जमने लगा था ककून अपना आकार लेने लगा था। गुफा के दरवाजे धीरे-धीरे बन्द हो रहे थे और महानगर की सड़क पर मरे हुए कुत्ते-सा वह किसी जमादार द्वारा बेरहमी से घसीटा जा रहा था...निरन्तर।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%86%E0%A4%A6%E0%A4%AE%E0%A5%80_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31277बाहर का आदमी / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-20T03:54:49Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल |अनुवाद= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
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|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
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<br />
'''इ'''तना बड़ा परिवर्तन। उसने कभी कल्पना में भी नहीं सोचा था कि क्षण-भर में। रेडियों में घोषणा मात्र से इतना बड़ा परिवर्तन हो सकता है। यह गत सत्रह वर्ष से इसी नगर मे रहता आया है तथा यहीं के जीवन में रच-बस गया परन्तु एकाएक उसे यह अनुभूति काटने लगी है कि वह यहां का है भी या नहीं? वह विवश-सा महसूस करता परन्तु उसका मन हठात कह उठता- मैं यहीं का तो हूं। मैंने अपने जीवन के सत्रह वर्ष यहीं तो व्यतीत किये हैं। मेरे बच्चों ने इसी नगर में आंखें खोली हैं। यहीे पालन-पोषण हुआ है। शिक्षा-दीक्षा सब कुछ तो इसी नगर से बंधा हुआ है। सब कुछ ही तो। परन्तु यहां के लोग इस बात को स्वीकारते, तभी न। द्विविधा की स्थिति में उसका अन्तर्मन और भी चीत्कार कर उठता।<br />
<br />
रेडियो पर राज्य के पुर्नगठन की घोषणा मात्र से लोगों में अजीब-सी हलचल थी, अजीब उल्लास था। 20 लाख लोगों की प्रादेशिकता क्षण-भर में बदल गयी थी। उनकी संस्कृति, मातृ-भाषा, रहन-सहन ने एक-दम नया रूप धारण कर लिया था। जो कोई छोटे-मोटे कवि थे, उन्होंने मातृभाषा में तुकबंदिया करके जनता का मनोरंजन किया था तथा विशेषतः नेता वर्ग की चाटुकरिता। मनोज ने भी उल्लास-समारोह में भाग लिया था। उसे आश्चर्य हुआ कि ये इतने कवि एक दिन में कहीं से उग आये। कवियों में एक-दो ऐसे भी दिखाई दिये जो कल तक अन्य भाषा में कविता करते थे तथा आज नये प्रदेश की घोषणा होने पर नयी भाषा में। उनका यह दोगलापन है अथवा अवरवादिता का सफल अनुसरण। यह इस विषय में निर्णय लेने में असमर्थ हैं।<br />
क्षण-भर में प्रादेशिकता, संस्कृति, मातृभाषा आदि का परिवर्तन निश्चय ही बहुत बड़ा परिवर्तन है।<br />
<br />
कवि वह सोचता है कि इतना बड़ा परिवर्तन एकाएक नहीं हो सकता। प्रत्येक परिवर्तन, लहर, धारा धीरे-धीरे विकासोन्मुख होती है। समय की गति में परिवर्तन का एहसास तभी होता है, जब कुछ टकराकर खनखना जाए या फिर समय के क्षण-क्षण को यदि कुरेद कर देखा जाए तो संभव है उसकी परतों में से क्रान्ति, तथा परिवर्तन के अंकुर मिल जायें।<br />
<br />
तब उसने अपने ही संस्थान में किसी उच्च-पद के लिए प्रार्थना पत्र दिया है। इन्टरव्यू से तीन-चार दिन पहले उसने प्रिंसिपल से मिल लेना उचित समझा था। वह लगभग पन्द्रह वर्षों से इसी संस्थान में कार्य कर रहा है, अतः प्रिंसिपल से मिलने में किसी प्रकार का संकोच नहीं हुआ था।<br />
‘‘तुम्हे इन्टरव्यू आ गया है?’’ प्रिंसिपल ने पूछा था, हालांकि इन्टरव्यू भेजने का निर्णय करने वाले वे स्वयं ही थे।<br />
‘‘जी, हां।’’ मनोज बोला था।<br />
<br />
थोड़ी देर ओढ़ा हुआ मौन- फिर प्रिंसिपल ने धीमे से कहना आरम्भ किया- ‘‘मनोज जी, आप तो अपने ही आदमी हैं। अतः आपसे क्या छिपाना। स्थानीय लोग अब जागरूक हो गये हैं। बाहर के आदमी को सहन करने के लिए वे अब तैयार नहीं हैं। वैसे तुम तो अपने ही आदमी हो। तुम्हें तो यहीं का समझा जा सकता है।’’<br />
<br />
‘‘प्रिंसिपल साहब, मैं गत पन्द्रह वर्ष से इसी संस्था में काम कर रहा हूं। और उसमें फिर स्थानीय और अस्थानीय का प्रश्न कहां उठता है।’’ उसकी आवाज में थोड़ी तल्खी आ गई थी।<br />
‘‘शर्मा जी, मैं तुम्हारी राष्ट्रीय भावना को भली-भांति जानता हूं परन्तु समय ही ऐसा आ गया है कि एक प्रदेश का व्यक्ति दूसरे प्रदेश में नौकरी सहज ही प्राप्त नहीं कर सकता।’’ प्रिंसिपल साहब थोड़े गम्भीर हो गये थे।<br />
<br />
‘‘परन्तु प्रिंसिपल साहब हम तो एक ही प्रदेश के हैं। मैंने तो किसी दूसरे प्रदेश में एप्लाई नहीं किया।’’<br />
‘‘सो तो मैं जानता हूं। परन्तु तुम्हें शायद पता होगा कि आजकल नेता लोग किसी बात पर मुख्यमन्त्री से रूष्ट हो गये हैं तथा उन्होंने नये प्रदेश का अभियान चला रखा है। ऐसी अफवाहें सुनने में आ रही हैं कि प्रधान-मन्त्री ने उनकी बात सिद्धान्त रूप से स्वीकार कर ली है तथा इस चुनाव के बाद कभी नये प्रदेश का उद्घाटन हो सकता है।’’ प्रिंसिपल ने बड़ी ही गम्भीर मुद्रा बनाकर कहा।<br />
<br />
मनोज को यह अजीब-सा लग रहा था। वह अपने इन्टरव्यू के विषय में प्रार्थना करने आया था कि वह थोड़ा ध्यान रखे और यहां नये प्रदेश की बातें, जो अभी गर्भ में ही हैं स्थानीय-अस्थानीय लोगों की समस्या बाहर और अन्दर के आदमी। सोचकर वह निराश हो गया था। उसने पूछ ही लिया- ‘प्रिंसीपल साहब, यह तो सब ठीक है परन्तु योग्यता के अनुसार तो मेरे चांसेज हैं?’’<br />
‘‘हां, हां, पेपर क्वालिफिकेशन में तो तुम बहुत अच्छे हो।’’ मन-ही-मन मनोज ने प्रिंसिपल के शब्दों को दोहरा दिया। उसका मन प्रिंसिपल के मुंह पर एक झापड़ देने को हुआ।<br />
<br />
‘‘शर्मा जी, यदि बुरा न मानें तो स्पष्ट कह दूं। एक व्यक्ति तो संस्था के निर्देशक-संचालक की सिफारशी-चिट्ठी लाया है। दूसरे दो व्यक्ति इसी नगर से अथवा इसी क्षेत्र से कह लो। अतः चौथे नम्बर पर मैं तुम्हारी सिफारिश कर सकता हूं।’’ प्रिंसिपल ने बड़ी आत्मीयता से कहा था।<br />
‘‘जी, आपकी बड़ी कृपा होगी। हमारे अधिकारों की रक्षा आपके अतिरिक्त और कौन कर सकता है।’’ कहकर वह चला गया था।<br />
प्रिंसीपल से मनोज का जो वार्तालाप हुआ था, उससे मनोज अशांत हो उठा था। यद्यपि प्रिंसिपल में जो कुछ कहा विशेष नहीं कहा था परन्तु जो कहा था, वह ही कम था। प्रिंसिपल के विषय मे जो उसकी धारणा थी, वांछित होने लगी थी। इतनी बड़ी शिक्षा एवं शोध संस्था कर अध्यक्ष ऐसी बातें कर सकता है, उसने कभी सोचा भी नहीं था।<br />
<br />
प्रदेश का विभाजन अभी हुआ नहीं परन्तु लोगों के मन पहले से ही विभाजित हो गए हैं। हो नहीं जाते, कर दिए जाते हैं। भला कोई पूछे राष्ट्र प्रमुख हाना चाहिए अथवा प्रदेश। उसकी आंखांे के आगे सरदार पटेल की आकृति उभर आती है। छोटी-छोटी रियासतों को मिलाकर बड़े राज्यों का संगठन दूरदर्शिता का परिचायक जान पड़ता है। परन्तु आज लगता है सरदार पटेल का यह भागीरथ प्रयत्न व्यर्थ ही हैं, तो कहीं अच्छा होता है कि स्वतन्त्रता के समय ही राज्यों के गठन का कार्य नहीं किया जाता। सभी राज्य अलग-अलग टुकड़ियों में बनी राष्ट्रीय-भावनात्मक-एकता की कहीं अधिक आवश्यकता होती है। मनोज सोचता है।<br />
वह इस बात को स्वीकार करने में अपने आपको असमर्थ पाता है कि वह बाहर का आदमी है। एक दिन मित्र-मण्डली में कुछ ऐसी ही बात चली थी, तो उसने कहा था- ‘‘मैं बाहर का आदमी भावना से बहुत घृणा करता हूं। पता नहीं यह स्थानीयता की प्रवृति कहां से उभर आई है।’’<br />
<br />
‘‘आप इसलिए घृणा करते हैं, क्योंकि आप स्वयं बाहर के आदमी हैं।’’ उसके एक बहुत ही निकट के मित्र ने चुनौती दी थी।<br />
वह तिलमिला उठा था। बोला था- ‘‘हरामजादो, अभी प्रदेश का विभाजन हुआ नहीं...... और यदि हो भी जाये तो क्या हमारी राष्ट्रीयता बदल जायेगी, भाषा बदल जायेगी या क्या बदल जायेगा? हमस ब अपने ही घर में बाहर के आदमी हो गये हैं तथाकथित प्रबुद्ध-वर्ग की गर्जना उन कलुषित वास्तविकता की परिचायक लगती है।’’<br />
<br />
‘‘शर्मा! गाली मत बको।’’ एक अन्य मित्र का स्वर।<br />
‘‘मैं सच कहता हूं।’’ मनोज का कांपता हुआ स्वर।<br />
‘‘वास्तविकता को नकारा नहीं जाता।’’<br />
<br />
‘‘वास्तविकता याद आई आज तुम्हें। यह भी खूब रही मनूं, तुम तो मेरे स्कूल के सहपाठी रहे हो। याद है तुम्हें जब हमारे स्कूल में एक बंगाली अध्यापक आया था, तो हम सभी कितने प्रसन्न थे। उसकी थोड़ी भिन्न प्रकार की वाणी, भिन्न प्रकार का उच्चारण सुनकर हम कितने प्रसन्न होते थे।’’ मनोज ने अपने मित्र को मनाने के स्वर में कहा।<br />
<br />
‘‘शर्मा! उन्नीस सौ पचास की बात में और आज की बात में बहुत अन्तर है। आज यदि हमें अपने क्षेत्र में, अपने ही प्रदेश में ही नौकरी न मिले तो दूसरे प्रदेश में कैसे मिल सकती है। अपने प्रदेश में नौकरी प्राप्त करना सभी अधिकार समझते हैं। दूसरे प्रदेश में यदि किसी को नौकरी मिल जाये तो वह उस प्रदेश की कृपा अथवा उदारता माननी होगी। वास्तविकता तो वास्तविकता ही है। कोई माने या न माने।’’ मित्र की आंखें बदलती हुई लग रही थीं।<br />
उस दिन शर्मा जी एक असमर्थता का अनुभव कर रहे थे। अभी प्रदेश के टुकड़े भी नहीं हुए थे और उन्हें बाहर का आदमी घोषित कर दिया गया। वह इसे मानने के लिए कदापि तैयार नहीं थे। आदमी जहां जीवन के सत्रह-बीस वर्ष व्यतीत करता है, उस स्थान का ही हो जाता है। यदि वह स्थान उसे अचानक अस्वीकार कर दे तो उसके अस्तित्व के टुकड़े-टुकड़े होना स्वाभाविक है। बहुत दिनों तक उन्होंने मौन बनाये रखा था। वह किसी प्रकार इस संकीर्ण भावना से अपने आपको बचाकर रखना चाहते थे। कई ऐसे अवसर भी आते कि स्वयं का विश्लेषण करते। शायद वह इसलिए सोचते हैं, क्योंकि उनका अपना हित-अहित इस भावना से बन-बिगड़ सकता है।<br />
<br />
फिर उन्हें बदलते तेवरों का पता चलने लगा था। प्रिंसिपल की बातें समझ में आने लगी थीं। संस्था में केवल दो प्रकार के आदमी रह गये थे, बाहर के आदमी एवं स्थानीय आदमी। मनोज शर्मा अपने आपको किसी में भी फिट नहीं कर पाये थे। आदमी आदमी है, वह किसी भी स्थान का हो, किसी भी प्रदेश का हो- वह सोचते परन्तु उनका कोई समर्थक नहीं था।<br />
<br />
उनका इन्टरव्यू निकट आ गया था। अनेक प्रकार की बातें वायुमण्डल में तैरने लगी थीं। बाहर के आदमी एवं स्थानीय आदमी बढ़-चढ़कर भाग ले रहे थे।<br />
‘‘मनोज समझता है, उसकी नियुक्ति हो जाएगी।’’ स्थानीय समूह में से उभरता एक स्वर।<br />
‘‘साले को प्रिंसिपल ने उल्लू बना रखा है।’’ दूसरा स्वर।<br />
<br />
‘‘अकादमिक-क्वालिफिकेशन में तो उसे कोई बीट नहीं कर सकता।’’ तीसरा स्वर।<br />
‘‘अकादमिक-बकादमिक क्वालिफिकेशन का क्या है? आदमी के पीछे कुछ दम होना चाहिए।’’ चौथा आदमी।<br />
‘‘नियुक्ति तो सुन्दर सिंह की होगी। प्रिंसिपल ने ऐसा प्रचार कर रखा है कि मान जाए। कहता है कि सुन्दर सिंह विश्वविद्यालय के उपकुलपति का आदमी है तथा संस्था के संचालक-निर्देशक ने भी उसी की सिफारिश की है।’’ पांचवां आदमी।<br />
<br />
‘‘एम. ए. छोड़ का सुन्दर सिंह थ्रू-आउट थर्ड डिवीजनर हैं।’’ प्रथम व्यक्ति का स्वर पुनः उभरा।<br />
‘‘डिवीजन को कौन पूछता है।’’ दूसरा स्वर।<br />
<br />
‘‘इतना क्या कम है कि उसने एम.ए. कर रखी है। वह प्रिंसिपल की साली का लड़का है।’’<br />
सब खिलखिलाकर हंसते हैं। इतने में मनोज शर्मा वहां पहुंच जाता है। सभी ऐ बार पुनः खिलखिलाकर हंस पड़ते हैं। वह कुछ समझ नहीं पाता। उसे अजीब प्रकार की अनुभूति होती है। ‘‘इन्टरव्यू कब है?’’ एक स्वर।<br />
‘‘परसों।’’ मनोज कहता है।<br />
<br />
‘‘इनके बड़े चांसेज हैं।’’ दूसरा व्यक्ति कहता है।<br />
‘‘यह तो कुछ नहीं कहा जा सकता।’’ मनोज गम्भीर हो गया है।<br />
‘‘विश यू वैस्ट ऑफ लक्क।’’ समवेत स्वर।<br />
मनोज उन्हें अशंक नेत्रों से देखता है। जान नहीं पाता उनमें से कोन मित्र है, कौन नहीं। एक अजीब-सी उलझन में फंसा रहता है। कुछ दिन पहले लोगों की एक स्कीम थी- अब उसके दो भाग हो गये हैं। एक दरार पड़ गई परन्तु इसकी आवश्यकता क्या है। यहां के लोगों को नौकरी में प्राथमिकता देना। तो क्या यहां के लोगों को किसी दूसरी जगह नौकरी देना कानून देना कानूनन बन्द कर दिया जाये। नहीं ऐसा नहीं, सम्भव। कूंप-मंडूक क्षेत्रीय-वाद नहीं पनपना चाहिए- वह कराह उठता।<br />
<br />
इन्टरव्यू से एक दिन पहले उसके हितैषी बाहर के आदमी उसके निवास पर पहुंचे थे शुभ कामनाएं देने। एक ने पूछ ही लिया था- ‘‘मनोज, तुम्हारा क्या हाल है?’’<br />
<br />
‘‘मैं कुछ नहीं कह सकता।’’<br />
‘‘मैंने सुना है सुन्दर सिंह को ले रहे हैं।’’ एक स्वर।<br />
‘‘मुझे नहीं पता।’’ मनोज का निराश स्वर।<br />
‘‘हां, उसे तो लेंगे ही। वह प्रिंसिपल का बेटा जो है।’’ दूसरा स्वर।<br />
<br />
‘‘हां, प्रिंसिपल का बेटा। इस बूढ़े ने जवानी में अपनी साली को भी नहीं छोड़ा। उससे यह सुन्दर सिंह, प्रिंसिपल का बेटा।’’<br />
मनोज कुछ नहीं बोला था। उसे ऐसे रिमार्कस पसन्द नहीं आये थे। काफी देर तक इधर-उधर की बातें चलती रही थीं। इधर का आदमी, उधर का आदमी। धांधली बढ़ता हुआ क्षेत्रवाद। ढेर-सी बातों को लेकर मित्र-मण्डली ने अपनी-अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी- सबके पीछे एक ही प्रमुख भावना जान पड़ती थी, यह थी असुरक्षा की भावना, अन्याय की संभावना। आपस में बातचीत कर लेने पर उन्हें थोड़ा बल मिलता था। मानसिक शक्ति भी।<br />
<br />
फिर वही हुआ था, जो होना था। उसकी नियुक्ति नहीं हुई। सुन्दर सिंह को ले लिया गया था। मनोज शर्मा को लगा इस न्याय की मांग करे। अन्दर-ही-अन्दर कहीं खोखला महसूस करने लगा था- कभी-कभी तो वह अन्दर की कांति की ज्वाला से धधक उठता परन्तु कुछ न कर पाने की स्थिति के आभास से फिर परिस्थितियों से समझौता करने का प्रयत्न करता....... बहुत जोर लगाकर वह अपने कांतिपूर्ण विद्रोह को शांत करता। उसे हर बार लगता कि उसने भ्रूण की हत्या कर दी है...भ्रूण की हत्या।<br />
<br />
राज्य के पुर्नगठन की घोषणा। घोषणा होते ही इतना बड़ज्ञ परिवर्तन। आदमियों का व्यक्तिगत अस्तित्व समाप्त हो गया। वे स्पष्टतः एवं निश्चय रूप से दो वर्गाें में बंट गया- स्थानीय आदमी एवं बाहर के आदमी। क्षण-भर में लोग ही घर में बाहर के आदमी हो गये थे।<br />
नया प्रदेश, नयी संभावनाएं। चारों ओर उल्लास। जुलूस में अनेक टोपियां उभर आयी हैं। धन्य हैं नेता लोग भी, जो क्षण-भर में नई-नई संभावनाओं को जन्म देते हैं। प्रदेश के उद्घाटन का दिवस ऐसे मनाया गया जैसे प्रदेश का मुक्ति दिवस हो। मनोज को नेताओं के भाषणों के कतिपय अंश अब तक भी याद हैं। एक नेता चिल्ला-चिल्लाकर भाषण दे रहा था- ‘‘भाइयो तथा बहनो! भारत को स्वतन्त्र हुए 25 वर्ष हा गये परन्तु आप जानते हैं, आप देख रहे हैं तथा बहुत से भाइयों ने महसूस किया होगा कि हमारा क्षेत्र उपेक्षित ही रहा है। इसके पिछड़ेपन मे सुधार की अपेक्षा गड़बड़ी अधिक हुई है। अब हमने इसकी बागडोर संभाल ली है। हम हर क्षेत्र में भारत के शेष प्रांतों से आगे निकल जायेंगे।’’<br />
मनोज का अब हंसी आयी थी। मन-ही-तन इसने सोचा था- नया प्रदेश बन जाने से साधारण लोगों को कोई लाभ नहीं होने का, कतिपय लोगों की गद्दियां भले ही मिल जाएं।<br />
<br />
‘‘भाइयो! मैं तुम सबको बधाई देता हूं। हमारा संघर्ष सफल हुआ इस बहुत बड़ी दुनिया में विकास तभी हो सकता है, जब प्रत्येक कार्य का विकेन्द्रियकरण कर दिया जाए। टुकड़े-टुकड़े करने से देश कमजोर नहीं होता। इससे तो प्रत्येक टुकड़ा अपने-अपने ढ़ंग से मजबूत हो जायेगा। अपने प्रदेश की सेवा करने का लोगों को अधिक अवसर मिलेगा... जिसे अश्रु-गैस को आपने सहन किया, जो गोलियां आपने खाईं वे व्यर्थ नहीं गई परन्तु अभी हमें बहुत कुछ करना है। हमें आपका विश्वास चाहिए....’’ दूसरा नेता लगभग एक घण्टे तक बोलता रहा था।<br />
<br />
मनोज ने सोचा था- यह नेता निश्चय ही लोगों को उल्लू बनाने में सफल होगा।<br />
<br />
‘‘मेरे नव-उद्घाटित प्रदेश के वासियो! मैं तुम सबको बधाई किन शब्दों में दूं। मैं तो मात्र इतना ही कहना चाहता हूं कि मैंने आपकी सेवा का प्रण लिया है। आप शायद कहें कि मैं तो यहां पर रहने वाला नहीं... लेकिन नहीं, आप मेरी कुल-परम्परा को नहीं जानते। मेरे शरीर की संरचना में इसी प्रदेश की मिट्टी की महक है। मेरे दादा के पड़दादा सन् 1810 में इसी प्रदेश में जन्मे थे। आप चाहें तो उस समय के किसी पंडित की पुरानी लाइब्रेरी की छानबीन करवा सकते हैं।’’<br />
<br />
‘‘आप सच मानें या न मानें लेकिन मैं तो स्वप्नों में बड़ा विश्वास रखता हूं। कुछ मास पूर्व मुझे स्वप्न में दादाजी दिखायी दिये थे। उन्होंने मुझसे कहा था- ‘बेटा, तुम्हें तो आजकल तक महान नेता होना चाहिए था। शायद तुम्हें अवसर नहीं मिला होगा लेकिन अब तैयार हो जाओ। तुम्हारा मातृ प्रदेश तुम्हें बुला रहा है। लोगों की भलाई में ही तुम्हारी भलाई है। बस स्वप्न के बाद मैंने आपके प्रदेश में ही नहीं, अपने पूर्वजों के प्रदेश में नहीं, अपने ही प्रदेश में लोक-सेवा का प्रण ले लिया।’’ ऐसा कहकर नेता बैठ गये थे। लोग खिलखिलाकर हंस पड़े थे। मनोज जानता है कि उक्त नेता महोदय अपने प्रदेश में अनेक बार पिट चुके थे। यहां उन्हें राजनीति में अधिक स्कोप की सम्भावना लगी, अत: छलांग आए थे।<br />
<br />
मनोज को सब अजीब-अजीब लगता था। राजनीति के बदलते हुए दांव-पेच गिरगिट के-से रंग। प्रदेश में एकाएक नेता उग आये थे। जैसे रात्रि-भर के समय अनेक छत्रक अचानक उग आये हों। उसे याद है कि स्वप्न बघारने वाले नेता ने अजीब नारा दिया था, लोगों को, वस्तुतः स्वयं अपने पैर जमाने का यह अचूक फार्मूला था। नारा था- बाहर के आदमी बाहर करो।<br />
<br />
नारे से सभी लोग प्रसन्न थे। भय था तो केवल बाहर के लोगों को। बाहर के लोग... मनोज सोचकर कांप उठता। सत्रह वर्ष एक स्थान पर रहने पर भी कोई बाहर का आदमी ही कहलबाता रहेगा... अच्छा।<br />
मनोज शर्मा प्रसन्न हैं कि उनके पुत्र ने उस वर्ष प्री-मेडिकल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की है। किसी जमाने में उनकी स्वयं बड़ी इच्छा थी कि वह डॉक्टर बनकर रूग्ण जनता की सेवा करे परन्तु गणित में रूचि न होने के कारण ऐसा सम्भव न हो सका था। अतः अब राजीव के माध्यम से उनकी इच्छा पूर्ण होती दिखाई देती है।<br />
<br />
प्रदेश में नया मेडिकल कॉलेज खुला है। बहुत से लोगों को पहले दूर-दूर स्थानों पर स्थित कॉलेजों में प्रवेश लेना पड़ता था। किन्हीं विद्यार्थियों को तो प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में ही प्रवेश मिल पाता था। ये विद्यार्थी प्रायः धनी होते थे, जो दस पन्द्रह हजार रुपये डोनेशन देकर एक सीट खरीद लेते थे। अब मनोज को कोई ऐसा भय नहीं। उसके पास इतना पैसा भी तो नहीं है कि वह डोनेशन दे सकता। राजीव को नये कॉलेज में सीट मिल ही जाएगी- सोचकर वह खिल उठता है।<br />
<br />
उनका यह भ्रम भी अधिक देर नहीं बना रह सका। सबसे पहली कठिनाई मेडिकल कॉलेज के लिए राजीव के आवेदन-पत्र को अटैस्ट करवाने में आई। उसमें एक प्रमाण-पत्र देना था। स्थायी निवास-स्थान के बारे में तथा यदि कोई नये प्रदेश का स्थायी निवासी नहीं था, तो उसे डोमिसाइल सार्टिफिकेट देना था।<br />
शर्मा जी ने इस नगर में कोई सम्पत्ति नहीं बनाई थी- नौकरी में बन ही कैसे सकती थी। अतः सत्रह वर्ष से इस नगर में रहने पर भी वे स्थायी निवासी नहीं माने जा सकते। अब एक ही चारा था कि वह डोमिसाइल सार्टिफिकेट ले। उन्हें यह प्रमाणित करवाना था कि वे नये प्रदेश में लगातार तीन वर्ष अथवा इससे अधिक समय तक रहते हैं। <br />
<br />
दीनानाथ नगरपालिका के सदस्य थे तथा वर्षों से उनका शर्मा जी से मेलजोल था। शादी-ब्याह, त्यौहार आदि पर अपना आना-जाना भी था। शर्मा जी तुरन्त उनके पास पहुंचे तथा उन्होंने उससे स्पष्ट ही कहा- ‘‘तुम्हारे हस्ताक्षरों की आवश्यकता है।’’<br />
‘‘जहां चाहो करवा लो।’’ प्रत्युत्तर मिला।<br />
‘‘अच्छा, यहां.... यहां कर दो।’’ जहां-जहां प्रमाण-पत्र की आवश्यकता थी, उस-उस स्थान की ओर शर्मा जी ने संकेत कर दिया।<br />
‘‘अरे, तुम्हारा काम नहीं करेंगे तो किसका काम करेंगे।’’ कहकर वह हस्ताक्षर करने लगे परन्तु कुछ शब्द पढ़ते ही एकदम रूक गये।<br />
शर्मा जी ने आश्चर्य से उनकी ओर देखा।<br />
<br />
‘‘अरे यह तो डोमिसाइल सार्टीफिकेट है। यह प्रमाण-पत्र में बिना प्रमाण के कैसे दे सकता हूं।’’ नगरपालिका सदस्य ने पेंतरा बदलते हुए कहा।<br />
‘‘तो यह नहीं कर सकेंगे आप?’’ शर्मा जी ने पूछा।<br />
‘‘मैं अपने दोस्त के लिए क्या नहीं कर सकता परन्तु मेरी बात मानो। अपनी संस्था से एक प्रमाण-पत्र ले आओ कि इतने बर्षों से आप यहां नौकरी में हैं...<br />
‘‘क्या आप नहीं जानते मुझे?’’<br />
‘‘मैं तो जानता हूं। और तुम्हारे लिए कुछ भी कर सकता हूं परन्तु अच्छा तो यही रहेगा कि आप संस्था से प्रमाण-पत्र ले लें। फिर मेरे साथ कचहरी चलें। वहां क्षण-भर में तुम्हारा काम करवा दूंगा।’’<br />
<br />
शर्मा जी को आश्चर्य हुआ था, मन-ही-मन एक कुढ़न भी। वह इतने वर्षों से वहीं है। परन्तु देश का विभाजन हो गया है तथा स्थान वही होते हुए भी नाम बदल गया हे। देश एक ही है। प्रदेश उसी का अंग है परन्तु आदमी दो तरह के, बाहर के आदमी तथा अन्दर के आदमी, अजीब उलझन हैं। कोई नहीं समझ पाता... कोई समझना नहीं चाहता। आत आदमी की अनुभूति नहीं होती। नेताओं एवं सरकार के पास छोटे-छोटे मामलों के लिए कोई समय नहीं। अजीब उलझन है।<br />
<br />
अनमने से शर्मा जी ने संस्था से प्रमाण-पत्र लिया तथा अपने मित्र के पास पहुंचे। फिर वही टालमटोल।<br />
‘‘शर्मा जी, मैं टेलीफोन कर देता हूं। तुम्हारा काम हो जाएगा।’’<br />
‘‘अच्छा।’’ शर्मा जी पहले की भांति जोर देकर नहीं कह सके।<br />
कचहरी में उनका काम तो हो गया परन्तु बाबुओं ने जी भर कर दौड़ाया। दौड़ने से भी वह नहीं घबराये परन्तु कचहरी के सदस्यों की बातचीत, जो वस्तुतः शर्मा जी को ही सुनाने के लिए की गयी थी, वह उन्हें कहीं बहुत गहरे काट गयी थी।<br />
‘‘साले चले आते हैं दूसरों का हक मारने।’’ एक स्वर।<br />
‘‘कोई स्थानीय व्यक्ति मारा जाएगा।’’<br />
‘‘पता नहीं यह लोग कब वापस जाएंगे।’’ तीसरा स्वर।<br />
‘‘साले हमारे प्रदेश का पैसा अपने प्रदेश में ले जाते हैं।’’ चौथा स्वर।<br />
शर्मा जी ने मन-ही-मन उन लागों पर थूक दिया।<br />
<br />
इतना बड़ा परिवर्तन।<br />
<br />
क्षण-भर मे लोगों की प्रादेशिकता, प्रतिबद्धता एवं निष्ठा बदल सकती है शर्मा जी इसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं। परन्तु उन्हीं के साथ प्रति-दिन जो घटित होता है, वे कैसे नकार दें। हर बात में, हर प्रकार से घृणा से भरी आंखें उनकी ओर उभरती रहती हैं। कहीं से सहानुभूति के शब्द भी आते हैं, तो बाद में शर्मा जी को पता चलता है कि यह तो उनसे कुछ उगलवाने मात्र था। उन्होंने कई बार सोचा अब किसी से मन की बात नहीं कहेंगे। जो कुद कभी भी उन्होंने अपने मित्रों तक से भी कहा है- वह भी अधिकारियों तक अविलम्ब पहुंचता रहा है, पहुंचता रहता है। उस दिन जरा सी बात ने उन्हें परेशान कर दिया था।<br />
‘‘तुम्हारी नियुक्ति हो जानी चाहिए थी।’’एक स्थानीय व्यक्ति ने सहानुभूति जताई थी, हालांकि उस बात की मृत्यु को तीन साल हो चुके थे।<br />
‘‘मैं भी यही सोचता था।’’<br />
‘‘बहुत अन्याय हुआ।’’ उसने उन्हें कुरेदने का प्रयत्न किया।<br />
<br />
‘‘न्याय है ही कहां।’’ थोड़ा रूक कर उन्होंने फिर कहा- ‘सब जगह भाई-भतीजावाद चलता है। यहां मेरे जैसे आदमी का अस्तित्व ही क्या है।’’<br />
‘‘कोई तुम्हारी ओर आंख उठा कर तो देखे।..... थोड़ी गड़बड़ बाहर के आदमियों की ही पैदा की हुई है। कोई बाहर से आकर यहां रहना चाहता है तो आदमी बन कर रहे। स्थानीय व्यक्तियों को दबाने का प्रयत्न सफल नहीं होने दिया जायेगा।<br />
<br />
शर्मा जी चुप थे। यह आदमी उनको भड़काना चाहते हैं। न चाहते हुए भी उसने भी उनसे इतना कहे बिना न रह गया- ‘‘भाई! बाहर या अन्दर की बात निरर्थक है। कोई किसी अन्य प्रदेश अथवा स्थान का है, इसीलिए बुरा नहीं समझा जाना चाहिए हर स्थान पर बुरे एवं अच्छे लोग होते हैं।’’<br />
‘‘शर्मा जी, क्या घटिया बात को आपने भुला दिया। सभी बाहर के आदमियों को नौकरी से निकाल दिया जाए तो देखो हमारे प्रदेश के लगभग सभी बेरोजगारों को नौकरी मिल सकती है। इसका अर्थ होगा छोटी उमर में बड़े पद।’’<br />
<br />
‘‘इसका अर्थ यह हुआ कि जो इस प्रदेश के, जो भारत के अन्य प्रदेशों में नौकरी कर रहे हैं, उन सबको भी यहां से निकाल दिया जाये तो यह बड़ी अजीब एवं बेढ़ब समस्या उत्पन्न हो जाएगी।’’ शर्मा जी ने उसे बहुत प्यार से समझाने का प्रयत्न किया परन्तु वह तर्क से विमुख हो चुका था। उसका मन बहुत अशान्त हो गया था- क्योंकि बहुत-सी बातें अनकही रह गई थीं।<br />
<br />
दूसरे ही दिन प्रिंसिपल ने उन्हें अपने दफ्तर बुला लिया था। उनके दो-तीन चेहते व्यक्ति वहां पहले ही बैठे थे। शर्मा जी को हैरानी हुई थी। <br />
‘‘आपको ऐसी बातें शोभा नहीं देतीं। इतने पुराने आदमी होने पर भी न तो आप मेरे प्रति तथा न संस्था के प्रति निष्ठावान हैं।’’ प्रिंसिपल ने कहा।<br />
‘‘मैंने तो ऐसा कुछ नहीं किया।’’ शर्मा जी ने कहा था।<br />
‘‘प्रतिदिन सभी स्थानीय आदमियों को गालियां निकालते हो तथा फिर बड़े घमण्ड से कहते हो- कुछ नहीं किया।’’<br />
‘‘यह झूठ है।’’<br />
<br />
‘‘इनसे पूछिए। ठाकुर जी ने मुझे सब बता दिया है।... हर बात पर विष उगलते हो, तुम्हे लज्जा आनी चाहिए।’’<br />
‘‘लज्जा तो उन आदमियों को आनी चाहिए जो बाहर एवं अन्दर के आदमी कहकर दो वर्ग बनाना चाहते हैं।’’<br />
‘‘शर्मा जी, इसमें काई सन्देह नहीं! बाहर का आदमी बाहर का है, स्थानीय आदमी स्थानीय है।’’ प्रिंसिपल ने व्याख्या की।<br />
‘‘लेकिन हैं तो दोनों आदमी। और वे एक ही राष्ट्र के।’’ शर्मा क्रोध में बोल रहा था।<br />
‘‘बन्द करो बकवास। लगे सिखाने राष्ट्रवाद। यदि इतना ही मान है, तो वहां नौकरी कर लो, जहां ज्यादा राष्ट्रवाद है।’’ प्रिंसिपल ने कटुता-पूर्ण स्वर से कहा।<br />
‘‘मैं तुम्हारे...’’ शर्मा जी ने अपनी वाणी पर काबू कर लिया तथा बिना कुछ कहे दफ्तर से बाहर आ गए। सोचने लगे- बाहर का आदमी, अन्दर का आदमी अजीब हैं यह आदमी।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31276जंगल / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-20T03:44:33Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल |अनुवाद= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
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}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
<br />
'''उ'''न्होंने आकाश के अनन्त विस्तार को अपनी मिचमिचाती आंखों में समेटने का प्रयत्न किया। आकाश एकाएक मटमैला हो गया। अरे! डार से एक पक्षी बिछुड़ गया, फिर क्षत-विक्षत हवा में लटक गया। कल्पना के बिम्ब एकाएक भुरभुरा गये। पक्षी का हवा में लटक जाना, अथाह सागर में ओर-छोर न मिल पाने की छटपटाहट, बीच भंवर में भंवर बन जाने की घबराहट। उन्हें लगा वह स्वयं हवा में लटक गये हैं तथा उनके चारों ओर बीहड़ जंगल उग आया है।<br />
वह अचानक आ खड़ा हुआ था, पूरे तीस वर्षों के बाद।<br />
<br />
उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था। होता भी कैसे? कल्पना के बिम्बों के सहारे कब तक किसी के अस्तित्व एवं व्यक्तित्व को स्वीकार किया जा सकता है। कोई बीहड़ जंगल में खो जाये और लौटकर न आये। तीस वर्ष पहले अपने भाई को बम्बई के एक मैडिकल कॉलेज में प्रवेश दिलवाकर घर लौट थे, तो वे बहुत प्रफल्लित थे। इतना सम्पन्न परिवार और फिर घर का कोई डॉक्टर न हो। गांव भर में चर्चा थी कि बिहारी डॉक्टरी करने इतनी दूर गया है, पन्द्रह सौ मील से भी दूर, बड़े नगर बम्बई में। लेकिन उनकी यह खुशी बहुत दिल नहीं टिकी। अचानक बर्मा से उन्हें एक पत्र मिला था। लिखा था- भैया, आपको खुशी होगी। मैंने आई. एन. ए. ज्वाईन कर ली है तथा कॉलेज छोड़ दिया है। सुभाष बोस के व्यक्तित्व में सम्मोहन है। दीवानों की मदमस्त टोली। मैं हर प्रकार से खुश हूं। जय हिन्द।<br />
यह उसका पहला तथा अन्तिम पत्र था। भाई की प्रतिक्रिया अधिकांशतः सुखानुभूति की ही थी परन्तु जब उन्होनें बिहारी के निर्णय की सूचना अपने मां-बाप को दी तो वे चुप्पी साध गये थे। मां ने इतना भर कहा, अब वह नहीं लौटेगा। पिता ने दार्शनिक अंदाज में कहा- जो ऊपर वाले की इच्छा। एक तो पहले ही द्वितीय विश्व यु़द्ध ने लील लिया और फिर यह...सन्तान का मोह...आत्म-मोह। अपने ही शरीर के टुकड़े को होम होते देखना कितना कष्टप्रद है।<br />
<br />
<br />
फिर वे चुप हो गये थे और यह चुप्पी अन्त तक नहीं टूटती। हां, उनकी आंखोें में कुछ खो जाने का अहसास बराबर उजागर रहता। उसके लौट आने की प्रतीक्षा थी। शायद आ जाये परन्तु नहीं, स्वतन्त्रता के बाद भी वह नहीं लौटा था। बहुत पता किया परन्तु नहीं, स्वतन्त्रता के बाद भी नहीं लौटा था। बहुत पता किया परन्तु कोई समाचार नहीं मिला था। मां ने घोषणा कर दी थी- ‘‘तुम तो व्यर्थ में चिन्ता में डूबे रहते हो। वह नहीं आयेगा। क्या पता कब का वीर-गति को प्राप्त हो गया है। समझ लो एक कम ही पैदा हुआ था।’’<br />
<br />
‘‘मैं कैसे भूल जाऊं, अपने ही शरीर के एक टुकड़े को, जिसकी धमनियों में मेरा रक्त प्रवाहित होता है। तुम... तुम में मां नहीं बोल रही... काश! तुमने उसे जन्म ही नहीं दिया होता... मैं उसका बाप ना होता। बच्चों को जन्म देकर मौत के मुंह में झोंक देना, ओह!’’ पिताजी बिलख पड़े थे। आज सारे बांध टूट गये थे।<br />
<br />
‘‘सारी उमर गीता का पाठ करते रहे हो। फिर भी डरपोक के डरपोक रहे। शरीर तो मिट्टी है। मिट्टी के प्रति मोह अनावश्यक है।’’<br />
मिट्टी ने जब कल्पना के बिम्ब उगने लगते है, तो जीवन साकार होने लगता है। यदि कोई विशिष्ट आकार लेने से पहले ही मिट्टी भुरभुराकर बिखर जाए, बिम्ब खण्डित हो जाये तो ऐसी स्थिति में सारा जीवनदर्शन ही गड्ड-मड्ड हो जायेगा। आधार ही विश्रृंख्लित हो जायेगा।’’<br />
‘‘तुम डरपोक हो, डरपोक।’’<br />
<br />
‘‘हां, मैं डरपोक हूं। तुम सही कहती हो। मैं अपने शरीर के टुकड़े को होम होते नहीं देख सकता।’’<br />
बहुत दिनों तक मां भी कुछ न बोली थी। पिताजी अपने आप में सिमट गये थे तथा अपने आप से ही बतियाते रहते- वह बर्मा के जंगलों में कैसे रहा होगा। बीहड़ जंगल और वह नन्ही जान। जंगल में खो जाना, दुनियां से अलग-थलग पड़ जाना। ओह! किसी बन्द कमरे में सांस का घुट जाना। शत्रु के हाथ पड़ गया होगा तो कितनी यातनाओं को सहन करना पड़ा होगा। ओह! मेरे ही शरीर का एक टुकड़ा कुलबुलाता रहा होगा। लेकिन उसकी आवाज जंगलों में खो गई होगी। तुम्हारी मां कहती है- मैं डरपोक हूं। बिहारी सच बताना। जब मिटने की घड़ी आई होगी तो कया एकाएक तुम्हारे मन में जिजीविषा नहीं कौंधी होगी? जीने की ललक ही न हो तो मिट्टी में स्पंदन कैसा?<br />
<br />
फिर पिता ने अपने आप को स्टोर में बन्द कर लिया था। वे बिहारी की यातना को स्वयं भोगना चाहते थे। उनका रंग काला पड़ता गया, जिजीविषा मटमैली होती गई, मानो सांप की फुंफकार से स्याह हो गया हो। एक बिम्ब धूमिल हो गया था।<br />
वह आ गया था।<br />
<br />
दोनों भाई बहुत देर तक एक-दूसरे से लिपटे रहे। आंसुओं की धारा बहती रही तथा मौन संवाद चलता रहा।<br />
आस्थाओं का जंगल उग आया तथा घर-भर में मधु-मास की गन्ध फैल गयी।<br />
<br />
भतीजे ने चाचा के चरण छुए तथा उसकी सुख-सुविधा के प्रबन्ध में जुट गये। बिहारी की आंखें इधर-उधर दौड़ रही थीं। किसी की खोज लेने की ललक में। जब बड़े भाई ने विस्तार से मां-बाप की मृत्यु के बारे में उसे बताया तो वह अन्दर-ही-अन्दर धंसता चला गया। लहू-लुहान होता चला गया। कुछ खो जाने का अहसास, किसी अवसर को चूक जाने की दर्दानुभूति...अव्यक्त को अन्दर-ही-अन्दर पी जाने की कुलबुलाहट।<br />
<br />
रात देर गये तक दोनों भाई बतियाते रहे, बीते समय को पंख लगाते रहे। भतीजे अपने चाचा की बातों को परलोक की कहानियों की भान्ति सुनते रहे। स्वतन्त्रता-संग्राम के उस अध्याय में डूबते-उतरते रहे जिसे बिहारी ने कर्मठता से जिया था। बिहारी कह रहा था- अपनी मिट्टी से किसे प्यार नहीं होता? कौन नहीं घर लौटना चाहता? मैं भी कसमसाता रहा। जब इण्डियन नेशनल आर्मी बिखर गयी तो हम जवान भी जहां-तहां बिखर गये। मैं बर्मा के जंगलों में था, अभी शहर पहुंचने की योजना बना ही रहा था कि नामुराद बुखार ने मुझे दबोच लिया। कोई साथी नहीं था, कोई सम्बन्धी नहीं था। मैं अपने छोटे से टैण्ट में कांप रहा था, मुत्यु से जूझ रहा था। युद्ध में मैं कई खतरों से बच निकला था परन्तु अब विवश था, असहाय था। मेरी कल्पना में अपना गांव, अपना घर, सम्बन्धी बार-बार कौंधते थे...लगता था यह दूरी अब बढ़ती ही जायेगी, कभी कम न होगी।<br />
<br />
‘‘फिर वह देवी आ प्रकट हुई। पता नहीं कितने महीने वह मेरी सेवा करती। मैं स्वस्थ हो गया था। मैंने जब उसे भारत लौटने की बात कही तो वह चुप हो गयी, कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की परन्तु उसकी आंखों में पीड़ा के बिम्ब उभर आये थे... वह मुझसे अलग नहीं होना चाहती थी... मुझसे बंध गयी थी। मैं उसकी आंखों का तिरस्कार नहीं कर सका और उसका होकर रह गया।<br />
<br />
‘‘तुमने उससे विधिवत शादी कर ली या यों ही रख लिया?’’ बड़े भाई ने आश्चर्य से पूछा।<br />
‘‘आपके विधि-विधान जंगल में नहीं चलते। वैसे भी शादी तो परस्पर आस्था-विश्वास की बात है।’’<br />
‘‘तुम उसे छोड़ नहीं सकते?’’<br />
‘‘भैया, वह मेरी अर्द्धांगिनी है। मेरा घर-परिवार है, बाल-बच्चे हैं।’’ बिहारी के मुंह का स्वाद फीका होने लगा।<br />
‘‘तुम्हारी यहीं शादी करवा देंगे।’’<br />
‘‘नहीं भैया, नहीं। शादी तो रिश्ते की पवित्रता का नाम है। बीवी गाय-भैंस तो नहीं, जो एक को त्याग कर दूसरी खरीद लूं।’’<br />
‘‘वह तो ठीक है लेकिन...’’<br />
<br />
बिहारी लाल चौंक गया। उसे लगा उसके चारों ओर सागर की लहरें उठने लगी है, जो कभी भी उसे लील सकती है। अथाह जंगलों में भटकता हुआ, अवश्यकता पड़ने पर सांपों को अपना भोजन बनाने वाला अनुशासन-प्रिय सैनिक चौंक उठा। वह अपने नन्हें से बेटे को कैसे छोड़ दे... उसकी बेटियां उसकी प्रतीक्षा कर रही होंगी...और पत्नी रात देर गये तक करवटें बदलती रहती होगी, शायद मेरी आहट सुनने के लिए लालायित थी। घर के निकट ही झील है। कहीं बेटा वहां न जाता हो। कोई दुर्घटना हो गई तो वह कहीं का नहीं रहेगा। पाल-पोसकर बड़ा किया पौधा यदि एकाएक सूख जाये तो कितना दुख होता है। बड़े भैया भी अजीब हैं, जो उसे यहीं बस जाने के लिए कहते हैं।<br />
<br />
शायद मैंने यहां आकर गलती की है। वृक्ष की टूटी शाख भला वृक्ष से फिर कैसे जुड़ सकती है। डार से बिछुड़ा पक्षी एक बार भटक गया तो भटक गया। वह भी तो डार से उखड़ा हुआ पक्षी है जिसने अपना अलग नीड़ बसा लिया है। पता नहीं वे कैसे क्षण थे, जब वह भारत आने का निर्णय कर बैठा। इतना उतावलापन कि वह घर में बता कर भी नहीं आया, पैदल ही, चोरी-छिपे बर्मा-नेपाल की सीमा को पार कर भारतीय क्षेत्र में आ गया था। जोश में उसे इतना भी ध्यान न रहा था कि इस प्रकार सीमा पार करने से किसी क्षण गोली एसके आर-पार हो सकती थी परन्तु वह सकुशल आ पहुंचा था।<br />
<br />
आ तो गया, शायद खून की पुकार थी परन्तु जब धीरे-धीरे नीड़ से कट जाने की उत्कंठा उभरने लगी। साथ ही एक गलती का एहसास। बिना कागज-पत्र पूरे किये सीमा पार करने का अपराध। बनारसी दास को वस्तुःस्थिति का पता चला, तो उन्होनें कहा बिहारी तुमने अच्छा नहीं किया। किसी ने रिपोर्ट कर दी तो मुश्किल हो जाएगी।<br />
<br />
‘‘चाचा जी, आप खुद ही थाने में सूचना दें दे।’’<br />
‘‘बिहारी हैरान, परेशान। बस इतना भर बोला- मैं तो खुद लौट जाना चाहता हूं। आपको डर लगता है तो मैं कहीं और चला जाता हूं।’’<br />
‘‘नहीं बिहारी, नहीं। यह बात नहीं है। मैं खुद अधिकारियों से मिल लूंगा... मैं भी तो कुछ और ही सोच रहा था। आई. एन. ए. के सैनिकों की पेंशन लगती है...... उसके लिए प्रयत्न किया जा सकता है, तुम्हें पासपोर्ट बनवाकर आना चाहिए था।’’<br />
‘‘मैं पेंशन के लिए नहीं आया हूं।’’<br />
<br />
बिहारी अजीब संकट में फंस गया था। बड़े भाई की बात तो ठीक है। वह पासपोर्ट बनवाकर आता तो अधिक दिन कट सकता था, बिना किसी हिचकिचाहट के। वैसे हर वर्ष वह भारत आने की योजना बनाता परन्तु किसी-न-किसी कारणवश योजना ही रह जाती। पत्नी का सम्मोहन था, या फिर नन्हे-मुन्हें का मोह। आदमी लौटे या न लौटें... लेकिन शायद वह बिहारी को पूरी तरह जान ही नहीं पाई। आदमी पारदर्शी नहीं है। बाहर शालीन मुखौटा ओढ़कर अन्दर शैतान का रूप भी बनाए रख सकता है परन्तु नहीं... वह चाहता तो पहले उसे छोड़ कर भारत लौट सकता था। भारत जिसकी मिट्टी की गन्ध के लिए वह तड़प उठता था। तिलमिला उठता था लेकिन नहीं अभी नन्हीं कोपलें विकासमान थीं। उन्हें एक संरक्षण की आवश्यकता थी और वह तो अचानक उसकी प्राणरक्षा के लिए आ उपस्थित हुई थी... उसके प्रति विश्वास-घात करना अपने ही व्यक्तित्व को खंडित करना होता। वह पासपोर्ट का नवीकरण करवाता रहा था...बहुत वर्षों तक फिर उसने पासपोर्ट के नवीकरण के लिए शहर जाना था... पता नहीं उसे क्या हुआ कि वह सीमा की ओर बढ़ आया। भावनाओं के सम्बन्ध भौतिक सीमा रेखाओं से कहीं ऊपर हैं। और फिर घर वालों की एक झलक देखकर वह वापस लौट जायेगा। बिहारी ने सोचा था।<br />
<br />
भारत पहुंचने पर उसे पता चला कि सम्बन्धों का जंगल जो वर्षों के अन्तराल से सुलझ गया था, उसमें फिर अंकुर निकलने लगे थे, वह मोह-पाश में बंधता चला जा रहा था।<br />
<br />
बड़े भाई का आग्रह है- इतने वर्षों बाद लौटे हो, अब कहीं नहीं जाना। नया घर बसा लो। मैं अपने हिस्से में से तुम्हें हिस्सा दूंगा। तुम्हारा हिस्सा तो दूसरे भाई बेचकर खा गये हैं। मेरा मन कहता था तुम एक दिन जरूर आओगे लेकिन उन्होंने तो समझ लिया था कि... बस इतना भर कहा बिहारी ने- जो ठीक ही किया उन्होंने। मैं डार से बिछुड़ा पक्षी, मेरी पहचान ही मिट गई है। मैं लौट आऊंगा। मेरा घर-बार, खेती-बारी, बच्चे और बीवी सब वहीं तो हैं।<br />
<br />
बनारसीदास ने उसकी आंखों में मोह की झलक देखी तथा कहा, ‘‘देखो बिहारी, तुम आ गये हो, यह हमारे लिए बहुत खुशी की बात है लेकिन तुम्हारा लौट जाना हमसे सहन नहीं होगा। तुमने आकर सम्बन्धों की चिनगारी सुलगाई हैं... या तो आते ही नहीं... आये हो तो यहीं रहो...यदि उसके बिना नहीं रह सकते, तो बीवी-बच्चों को भी यहां ले आओ... तुम्हें पेंशन भी मिलने लगेगी। काम का भी जुगााड़ हो ही जायेगा।<br />
बिहारी को लगा उसके इर्द-गिर्द भयानक जंगल उभरने लगा है... जिसमें शीघ्र ही उसकी पहचान खो जायेगी।<br />
<br />
रात का सन्नाटा छाया हुआ था। तभी बड़ा लड़का उठा। अपने पिता को जगाया। फिर अपने दोनों भाइयों को भी। तब धीमे से वह झांककर देख आया कि बिहारी चाचा सोए हुए थे। फिर उसने धीमे से अपने पिता से कहा- आपका प्रस्ताव तो अच्छा है कि बिहारी चाचा अपने परिवार को लेकर यहां आ जायें। लेकिन आपने सोचा कि उनका खर्च कैसे चलेगा? वे किस घर में रहेंगे? उनका हिस्सा तो बेचकर खा गये। और फिर बिहारी चाचा को क्या नौकरी मिलेगी। एम. सी. सी. पास को कौन पूछता है?<br />
<br />
‘‘और फिर तो आप भी रिटायर हो चुके हैं।’’ दूसरे भाई ने धीमे से कहा।<br />
‘‘और आपको तो पेंशन भी नहीं मिलती।’’<br />
‘‘ऐसी स्थिति में तो अपने ही खर्च पूरे नहीं होते। उनका भरा-पूरा परिवार आ गया तो घर में ही बेघर होने की परिस्थिति पैदा हो जायेगी।’’<br />
‘‘बनारसीदास चुप।’’<br />
‘‘अतः भलाई इसी में ही है कि वे वहीं रहंे। हां, कभी मिलने की इच्छा हो तो साल बाद आकर मिल जाया करें।’’<br />
‘‘वैसे भी रिश्ते दूर से अच्छे लगते हैं। बीच में घुलमिल कर रहने से सम्बन्ध बिखर जाते हैं। यहां अपने दूसरे भाइयों को ही देख लो। कोई मिलकर भी राजी नहीं।’’<br />
<br />
उनके चेहरे पर विषाद की रेखायें उभर आईं परन्तु आंखों में नपुसक सी सख्ती झलक आई। उन्हें पहली बार महसूस हुआ मानो सारे शरीर में कांटे उग आये हों। भाई इतने वर्ष बाद आया है और ये मेरे ही शरीर के अंश मुझे आंखे दिखाते हैं। जरा भी संकोच नहीं, जो मन में आया उगल दिया। ये क्या जाने मेले में आत्मज के खो जाने पर कितना दुख होता है तथा अचानक आत्मज के घर लौटने पर कितनी खुशी। कोई जंगल में जाये... अपना ही अंश बिछुड़ जाये... उन्हें लगा वह स्वयं दुनिया की भीड़ में खो गयें हों...उन्हें कोई परिचित दिखाई नहीं देता।<br />
<br />
किसी के खोजने कि अनुभूति... अपने ही शरीर को कुछ भंग हो जाने की तिलमिलाहट। ये दुधमुंहे क्या जाने? ये तो धन की चकाचौंध से हकबकाये-से- पैसा बटोरने में लगे हैं। शायद सम्बन्धों की सरलता तथा खून की घनिष्ठता को इन्होंने महसूस करना शुरू नहीं किया है। मां बिहारी को देखने की लालसा लिये चल बसी, बा पतो कोठरी में बन्द होकर बैठ गया था। बिहारी की संभावित यातनाओं की कल्पना ने ही आतंकित कर दिया था। और ये चूजे उसके हिस्से की बात करने लगे है। और मेरी पेंशन का न होना इन्हें सताने लगा है। आर्थिक सम्बन्धों का आधार, बेचारा क्षत-विक्षत पक्षी, डार से पुनः मिलने के लिए लालायित पक्षी।<br />
<br />
सम्बन्धों के बिखराव का जंगल उसके इर्द-गिर्द लिपटने लगा।<br />
वे अपने-अपने कमरों में चले गये। वह उठकर बिहारी के कमरे में गये। बिना बत्ती जलाये उन्होंने अपना हाथ बिहारी की छाती पर रख दिया...... बहुत देर तक वह दिल की धड़कन को महसूस करते रहे। सोये बच्चों के दिल की धड़कन को महसूस करना उन्होंने अपने पिता से सीखा था। जो हर रात सारे बच्चों के दिल की धड़कन महसूस किये बिना नहीं सोया करते थे। शायद उसके एक पुत्र की मृत्यु नींद में हो गई थी। और फिर एक बहम आदत बन गया था।<br />
धड़कन महसूस कर लेने के बाद उन्होंने आश्वस्त होने के लिए पुकारा, ‘‘बिहारी।’’<br />
<br />
‘‘हां भैया।’’<br />
‘‘तो अभी जाग रहा है? सोया नहीं क्या?’’<br />
‘‘नहीं। आप लोग भी तो सभी जाग रहे थे न?’’<br />
उन्हें लगा वे क्षत-विक्षत पक्षी की भांति हवा में उल्टे लटक रहे हैं। तथा बिहारी फिर जंगल में खो गया है तथा वे भी ‘बिहारी’ ‘बिहारी’ पुकारते हुए जंगल की गहनता में डूब जाते हैं।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31275जिजीविषा / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-20T03:29:13Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल |अनुवाद= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
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<br />
उठते-बैठते चलते-फिरते हर समय उसे यह महसूस होता रहता कि वह मर रहा है, मरता ही जा रहा है, परन्तु उसे अचम्भा होता है कि मरने की प्रक्रिया का अन्तहीन अन्त निरन्तर बना रह सकता है। उसका मन होता है कि वह अपनी अनुभूति अपनी पत्नी से बताये, अपने मित्रों से कहे परन्तु उनकी प्रतिक्रिया शायद ही सहानुभूति हो, ऐसी सम्भावना की कल्पना-मात्र से वह चुप रह जाता है।<br />
<br />
आज जब वह घर पहुंचा तो बिल्कुल सहज जान पड़ता था। आते ही उसने एक प्याला चाय लिया परन्तु चाय ठण्डी होने के कारण उसका मन नहीं भरा। न चाहते हुए भी उसने ऐसा व्यक्त कर दिया परन्तु पत्नी के चेहरे से साफ झलकता था....... क्या साफ झलकता था, यह वह महसूस करता है परन्तु अनुभूति को शब्द नहीं देता। व्यर्थ का बवंडर खड़ा हो जाएगा। एक बार तर्क-वितर्क शुरू हो गया, फिर शीघ्र अन्त होने का नहीं। कई बार तो अपने आपको रोकते हुए भी वह कहीं आगे तक उलझता ही चला जाता है। तब उसे ‘मर रहे होने’ का अहसास और भी गहराई से होता तथा वह दिल की धड़कन को हाथ से महसूस करता हुआ सोचता कि वह मर नहीं रहा बल्कि घुल-घुल कर मर रहा है।<br />
<br />
वह कुछ देर तक इधर-उधर टहलता रहा। खाने के लिए कुछ ढूंढ़ता रहा। उसके हाथ थोड़ी-सी मूंगफली लगी। वह मूंगफली ही खाने लगा। मेज पर पड़े अखबार पर वह छिलके रखने लगा। पत्नी ने उसे घूर कर देखते हुए कहा- ‘‘कभी सफाई का ध्यान भी रख लिया करो।’’ यहां दिन भर नौकरी करो और सुबह शाम सफाइयाँ करो। कभी यह करो, कभी वह करो।<br />
<br />
उसने सिर्फ अपनी पत्नी की ओर देखा, बोला नहीं।<br />
‘‘अखबार अगर कूड़ा-कर्कट रखने के लिए ही लेते हो तो बन्द ही क्यों नहीं कर देते?’’<br />
वह फिर भी नहीं बोला।<br />
‘‘मैं नौकरी इसलिए तो नहीं करती कि तुम सब गुलछर्रे उड़ाओ और मैं कलपती रहूं।’’<br />
‘‘तुम्हें किसी ने कहा था नौकरी करो।’’ वह कुछ और बोलता- बोलता रूक गया।<br />
<br />
‘‘मैं नौकरी न करूं तो तुम्हारा दिवाला पिट जाए। तुम्हारे तीन-चार सौ रुपये से क्या बनता है। यह तो मेरे पांच सौ रुपये आ जाते हैं, तो घिसटते-पिसटते निर्वाह हो जाता है अन्यथा......’’<br />
उसकी पत्नी ने थोड़े में ही बहुत कुछ कह दिया था। कहे से अनकहा कहीं अधिक पीड़ादायक था, कहीं अधिक मारक।<br />
वह चुप हो गया। कहीं बहुत गहरे धंस गया, जहां उसे अपने दिल की धड़कन भी सुनाई नहीं दे रही थी।<br />
‘‘आप ही सुरेश्वर जी हैं?’’ उसने घर के अन्दर प्रवेश करते हुए पूछा था।<br />
‘‘जी।’’ वह किसी अपरिचित युवती के इस प्रकार के सम्बोधन से खिल उठा था।<br />
‘‘मुझे आपकी कहानी ‘एक सन्यासी और’ बहुत पसन्द आई।’’<br />
<br />
‘‘जो ‘कल्पवृक्ष’ में छपी है?’’<br />
‘‘जी।’’<br />
वह बहुत प्रसन्न था। उसकी पहली ही कहानी छपी थी परन्तु जिस पत्रिका में वह छपी थी उसमें एक ही कहानी का प्रकाशित होना क्षणभर में लेखक को प्रसिद्ध कर देने का पर्याय था। कहानियां तो उसने पहले भी लिखी थीं परन्तु उसका कभी साहस नहीं हुआ था कि वह उन्हें प्रकाश-नार्थ किसी बड़ी पत्रिका में भेजे। यह तो भला हो उसके मित्र का जिसने उसका हाथ देखकर कहा था- तुम्हें तो बहुत ही कल्पनाशील होना चाहिए। क्या कभी कुछ लिखते भी हो?<br />
‘‘हां।’’ सुरेश्वर के हर्ष की सीमा नहीं थी।<br />
<br />
‘‘तुम्हें प्रयत्न करना चाहिए। लेखन में तुम्हारी सफलता निश्चित है।’’ <br />
और हुआ भी वैसा ही। उसकी पहली कहानी ही देश की सबसे बड़ी कहानी पत्रिका में प्रकाशित हो गयी। वह एकाएक अपने-आप को कहानीकार महसूस करने लगा।<br />
<br />
वे दोनों बैठक में कुर्सियों पर आमने-सामने जा बैठे थे।<br />
‘‘आपका शुभनाम?’’<br />
‘‘करूणा।’’<br />
‘‘आप कहां से आई हैं?’’<br />
‘‘मैं इसी मोहल्ले में रहती हूं। पत्रिका में कहानी के साथ आपका पता पढ़ा तो सोचा इतना निकट होते हुए भी एक महान कहानीकार से न मिलना मूर्खता होगी।’’ अब वह खुलकर हंसने लगी थी।<br />
<br />
सुरेश्वर ने सोचा था वह कहीं दूर से, किसी दूसरे नगर से उसी मोहल्ले में उससे मिलने आई होगी परन्तु जब यह पता चला कि वह उसी मोहल्ले में रहती थी, तो उसका सारा उत्साह जाता रहा। वह एकाएक अपने-आप को बहुत ही छोटा कहानीकार महसूस करने लगा। करूणा द्वारा उसके प्रयुक्त ‘महान कहानीकार’ शब्द भी उसे बांध नहीं पाए।<br />
<br />
दोनों लगभग एक घण्टे तक बैठे रहे परन्तु बातचीत औपचारिकता सीमा में सिमट आई थी।<br />
‘‘आप क्या करती हैं।’’<br />
‘‘बी. एड. में हूं।’’<br />
‘‘क्या बी. एड. जरूरी है?’’<br />
‘‘हां।’’<br />
‘‘क्यों?’’<br />
‘‘शादी के लिए पासपोर्ट है।’’<br />
‘‘दोनों भरपूर हंसी हंसे थे।’’<br />
सुरेश्वर के चेहरे पर एक अपरिचित मुस्कान फैल गई। उसकी पत्नी ने तुरन्त उसे पकड़ लिया। बोली- ‘‘कल्पना की दुनियां में ही खोये रहते हो। कभी घर का भी किया है। आज किस कल्पना सुन्दरी की याद में मुस्कराहटें फैला रहे हो?’’<br />
‘‘तुम्हारी ही।’’ वह गम्भीरता से बोला। <br />
<br />
‘‘बिल्कुल झूठ। मेरे सिवाय तुम्हें दुनिया की सभी औरतें सुन्दर लग सकती हैं।’’<br />
‘‘सच।’’<br />
‘‘तो और झूठ।’’<br />
वह अपनी पत्नी के अविश्वास के आगे टुकड़े-टुकड़े हो गया। थोड़ी देर के लिए मौन। फिर बोला- ‘‘अच्छा, आज जल्दी खाना बना लो, कुछ लिखने का विचार है।’’<br />
‘‘लिखना न हुआ पागलपन हो गया। कभी साल में सौ-पचास रुपये आ गये, उससे क्या होता है।’’ कुछ सोचते हुए पत्नी ने फिर कहा- ‘‘और जो सौ-पचास आते भी हैं, वे कहानियों के आने-जाने पर डाक टिकट लगते हैं, उसी में निकल जाते हैं। छोड़ो कहानियों का चक्कर और कोई कम्पीटीटिव परीक्षा दे डालो। बत्रा कब का सुपरिटेंडेंट बन गया और तुम क्लर्क के क्लर्क बैठे हो।’’<br />
<br />
‘‘अरे भाग्यवान! देखना तो मेरे दिल की धड़कन रूकती जान पड़ती है। सच! मैं मर रहा हूं।’’<br />
‘‘बहुत देखे हैं ऐसे मरने वाले। पता नहीं कहां से सीख आये हो, बार-बार यही रट ‘मैं मर रहा हूं।’ मरने वाले कभी ऐसे नहीं कहते। और फिर मरना सभी को है। तुम्हारे मरने में विशेष क्या है?’’<br />
उसकी पत्नी सच ही तो कहती है। वह चौबीसों घण्टे मरने की बात कहता है..... कोई तुक है।<br />
वह उठकर टहलने लगा है।<br />
वर्ष का अन्त चल रहा था। इन दिनों में दफ्तरों में काम की रफ्तार बढ़ जाती है। दफ्तर के बाबू फिर कई-कई घण्टे अतिरिक्त समय भी काम में लगे रहते हैं। सुरेश्वर इस दफ्तर में अभी नया-नया बदल कर आया था। वह अपना इंप्रेशन बनाना चाहता है। उसने बहुत-सा बकाया काम निपटाने का दायित्व भी ले लिया था।<br />
<br />
अब उसे न दिन में फुर्सत, न सुबह-शाम। इन दिनों वह कहानियां लिखना भी भूल गया। रात को बहुत देर तक वह दफ्तर में बैठा काम करता रहता। बहुत थक जाता। कभी-कभी तो वह वहीं सो लेता और फिर शाम काम करने बैठ जाता लेकिन फिर लगता था निश्चित समय में वह काम निपटा नहीं पाएगा।<br />
अचानक उसे डॉ. सुमनवीर की याद आयी। वह प्राइवेट तौर पर एम. एस. डिग्री के लिए पेपरों की तैयारी कर रहा था। सारी-सारी रात को पढ़ता रहता। दिन में अस्पताल में भी पूरी ड्यूटी देता। सुरेश्वर पड़ोस में ही रहता था। उसने जिज्ञासावश डॉ. सुमनवीर से रहस्य जानना चाहा था। उसके रहस्य पूछने पर डॉ. सुमनवीर ने हंसते हुए कहा था- मेरे पास एक ‘ड्रग ऑफ कान्फिडेन्स’ है (विश्वासोत्पादिनी दवा) जिसे खाने से न नींद उड़ जाती है बल्कि पढ़ने से मन मरने लगता है। उसका नाम है- मैथाड्रीन ‘अलादीन का चिराग’ के समतुल्य है मेरी यह संजीवनी।’’<br />
<br />
सुरेश्वर उस समय तो अविश्वास से मुस्करा दिया था परन्तु अब उसे रहस्य समझ में आया। वह बाजार से दस-बीस गोलियां मैथाड्रीन की ले आया। सांय खाना खाने के बाद एक गोली खाकर वह दफ्तर में जाकर काम करने लगा। रात चार बजे तक वह बड़े आराम से बैठा रहा। फिर एक-आध घण्टा लेट लिया। फिर नहा-धोकर दफ्तर में जा बैठा।<br />
<br />
वह संजीवनी के सहारे कई दिन तक लगातार दफ्तर का काम निपटाता रहा। उसे अफसोस था कि उसने पहले ही संजीवनी बूटी का प्रयोग क्यों नहीं किया। नहीं, तो आज तक काम ही समाप्त हो गया होता।<br />
<br />
अब काम समाप्त करने की सीमा-रेखा आ ही पहुंची थी लेकिन उसमें भी काम होता दिखाई नहीं देता था। संजीवनी के सहारे लगभग अड़तालीस घण्टे लगातार बैठा रहा। सुबह के नौ बज चुके थे। वह अपने काम की समाप्ति पर था तभी मि. हाण्डा आते दिखाई दिए। उसने गर्दन उठाकर उनकी ओर देखा। वह देखता ही रह गया। उसे लगा मानो उसके सिर में लहरियां चलने लगी हों...लहरियां जो बढ़ती ही जा रही थीं।<br />
<br />
‘‘अच्छा, भाई सुरेश्वर! आप तो काम कर रहे हैं। मैं तो यों ही इधर निकल आया था। अभी दफ्तर लगने में एक घण्टा है।’’ कहकर मि. हाण्डा जाने लगे।<br />
सुरेश्वर के मस्तिष्क में लहरियां धूम-धड़ाका करने पर तुली हुई थीं। उसने मि. हाण्डा से कहा- ‘‘मुझे अजीब-सा महसूस हो रहा है। सिर में अजीब-सी सरसराहट है।’’<br />
‘‘चलो, डॉक्टर के पास चलते हैं।’’ मि. हाण्डा ने परामर्श दिया।<br />
<br />
दोनों डॉक्टर के पास पहुंचे। मि. हाण्डा प्रतीक्षालय में बैठे रहे और सुरेश्वर की जांच अन्दर हो रही थी। उसने जाते ही डॉक्टर से बता दिया था- डॉक्टर साहब मैंने मैथाड्रीन खाई थी...कई महीनों से लगातार खाता आ रहा हूं।<br />
<br />
डॉक्टर ने घूर कर उसे देखा था। फिर रक्तचाप की जांच की थी। सुरेश्वर की भुजा पर रक्तचाप यंत्र पहली बार लगा था। वह चौंक गया था। पारे के चढ़ने उतरने की प्रक्रिया को देखकर वह सहम गया था। मैथड्रीन का भला रक्तचाप से क्या सम्बन्ध? रक्तचाप तो बड़ा बुरा होता है। कहीं वह..... वह दिल का मरीज तो नहीं बन जाएगा। लेकिन नहीं...तीस-बत्तीस की आयु में ये बिमारियां नहीं होती- उसने मन-ही-मन सोचा था। फिर डरते-डरते डॉक्टर से पूछ ही लिया था- ‘‘रक्तचाप तो ठीक है न।’’<br />
<br />
‘‘नहीं। नार्मल से बहुत ऊंचा उठ गया है। तुम्हें मैथाड्रीन नहीं खानी चाहिए थी। इससे गुर्दे एवं दिल खराब हो सकता है।’’ डॉक्टर ने सहज स्वभाव से कहा था।<br />
‘‘हाण्डा साहब! आप इन्हें ले जाइये तथा पूरा आराम करवाइए। यह दवाई दो-दोे घण्टे बाद देते रहें। कल फिर चेक करवाना।’’ डॉक्टर ने हाण्डा साहब को अन्दर बुलाकर सब कुछ समझा दिया था।<br />
<br />
‘‘सुरेश्वर जब डॉक्टर के पास आया था, तो स्थिति उसे इतनी गम्भीर नहीं लग रही थी। सोचा था कि सोने-न-सोने के कारण ही मस्तिष्क में लहरियां दौड़ती महसूस हो रही हांेगी। लेकिन क्लिनिक से बाहर निकलते ही उसे लगा मानो वह गिरा कि अब गिरा। उसे अपने दिल की धड़कन बहुत तेज लगी। उसे याद है वह हाण्डा साहब की साहयता से घर पहुंच गया था। फिर उसे कुछ नहीं पता था। जब वह लगभग छः घण्टे बाद होश में आया तो काफी स्वस्थ लग रहा था। हाण्डा साहब सारा दिन उसक पास बैठे रहे थे। दफ्तर के बाकी लोग नहीं आ सके थे। काम का निपटारा बहुत जरूरी था।<br />
<br />
वह भौचक्का रह गया जब मि. हाण्डा ने उसे बताया कि इन छः घण्टों में दो बार डॉक्टर को बुलाना पड़ा।<br />
‘‘लेकिन ऐसी बात क्या थी?’’ सुरेश्वर ने पूछा।<br />
मि. हाण्डा ने बताया, ‘‘बात तो कुछ भी नहीं थी और देखा जाए तो थी भी। तुम बिल्कुल अचेत पड़े थे। बीच-बीच में कुछ बोलते जाते थे।’’<br />
‘‘क्या?’’<br />
‘‘यही कि मैं मर रहा हूं। अब नहीं बचूंगा। देखो, मेरे हाथ-पांव एकदम ठण्डे हो गये हैं। ओह! मैं नहीं जानता था कि इतनी जल्दी मर जाऊंगा लेकिन...’’<br />
‘‘और भी कुछ कहा?’’<br />
‘‘चलो छोड़ो। परमात्मा की कृपा से समय टल गया।’’<br />
‘‘मैंने कुछ करूणा तथा बच्चों के बारे में भी सुनायी नहीं दिया।’’<br />
‘‘कहा तो था लेकिन हमें साफ-साफ सुनायी नहीं दिया।’’<br />
सुरेश्वर समझ गया कि मि. हाण्डा जान-बूझकर उसे नहीं बता रहे हैं ताकि फिर उस पर कोई प्रभाव न हो जाए। परन्तु उसे याद है कि बेहोशी में भी बार-बार करूणा तथा बच्चों के प्रति चिन्तित दिखाई देता था। वह बुदबुदाया था- करूणा से कहना वह दूसरी शादी जरूर कर ले। दो बच्चे हैं वे भी पल जायेंगे। मैं उसे क्षणभर का सुख भी नहीं दे पाया। अभी जाने की योजना बन रही थी कि बुलावा आ गया। करूणा से अवश्य कहना कि वह विवाह कर ले।<br />
<br />
दोपहर में ही उसकी पत्नी को स्कूल से बुला लिया गया था परन्तुउस समय सुरेश्वर गहरी नींद में सोया था। डॉक्टर ने इंजेक्शन दे दिया था। सांय उठा तो उसका चेहरा अजीब-अजीब लग रहा था। उसकी पत्नी ने बड़े प्रेम से उसे देखा था... प्रेम नहीं, शायद उसमे दया की भावना अधिक थी।<br />
<br />
उसे अब आराम की आवश्यकता थी। जो भी मित्र आदि उससे मिलने आते- बराबर परामर्श देते रहते। देखो अ बनमक बिल्कुल नहीं खाना। घी बहुत बुरा है। बड़ी नामुराद बीमारी है। बचकर चलो तो शायद ठीक हो जाओ। कभी हो सकने वाले खतरे से वह प्रायः शंकित रहता। मित्रों की सावधानी के परामर्श से वह और भयभीत हो जाता। ऐसी स्थिति में उसकी पत्नी ने उसे पूरी तरह से सम्भाला था। उसी के परामर्श से वह कुछ दिन बच्चों सहित घर से बाहर चला गया था। वे दिन उसके अच्छे, शान्तिपूर्ण ढ़ंग से निकल गए थे, हालांकि उसे कई बार अचानक लगता कि पता नहीं कौन-सा पल आखिरी पल साबित हो। वह कभी अकेले में अपनी पत्नी को अपना भय बताता- करूणा! मैं मर रहा हूं। मरना कितना अनिश्चित एवं कितना अवश होता है।<br />
<br />
‘‘जो हो चुका है, उसे भूल जाओ। और फिर तुम्हारा रक्तचाप तो गोलियां खाने से हुआ था, वैसे नहीं, अब गोलियां खाना छोड़ दी हैं, तो कुछ नहीं होगा। सब ठीक हो जाएगा।’’ वह उसे समझाती।<br />
वह ध्यान से उसे सुनता परन्तु बोलता कुछ नहीं। हां, मन में एक बंवडर अवश्य उठ जाता है। शायद करूणा उसका मन रखने के लिए कहती है। पता नहीं वह कब आर-पार हो जाए। उसका मन कहता- मुझे अभी बहुत कुछ करना है, बहुत कुछ लिखना है। अभी नहीं...फिर उसकी पत्नी ने अपने पति का हाथ एक ज्योतिषी को दिखाया था। हस्तरेखाओं को देखते हुए उसने कहा था- तुम मर सकते थे परन्तु वह समय निकल गया है। तुम्हारी जीवन रेखा बड़ी लम्बी है।<br />
<br />
सुरेश्वर ने हस्तरेखा विशेषज्ञ को बड़ी कृतज्ञता से देखा था... फिर एक विचार कौंध गया था...शायद उसकी पत्नी ने हस्तरेखा विशेषज्ञ को ऐसा कहने के लिए पहले ही कह दिया हो। उसे लगता- डॉ. सुमनवीर झूठ कहता था कि संजीवनी खाकर सफलता की सीढ़िया चढ़ते जाना चाहिए। अजीब आदमी था। कहता था- ‘‘भले ही संजीवनी खाने से दस-पन्द्रह वर्ष आयु कम हो जाए परन्तु महत्वकांक्षांए तो पूरी हो जाएंगी।’’ सब गलत- सुरेश्वर ने सोचा। जब सचमुच मरण की स्थिति आ जाती है, तो कितनी तिलमिलाहट होती है। विवशता की चरम-स्थिति मृत्यु-बोध का अद्भुत अनुभव। ऐसा सोचकर कांप उठता है।<br />
<br />
उसने कई महीनों बाद अपनी पत्नी को बताया था, ‘‘अजीब बात है, जीने के लिए भी संजीवनी बूटी की आवश्यकता है और मरने के लिए भी...मैं जीवन चाहता हूं परन्तु अनिश्चितता में जीना मरने जैसा ही लगता है।’’<br />
<br />
‘‘जीना कौन नहीं चाहता?’’ उसकी पत्नी ने फिर कहा- ‘‘लेकिन तुम्हारा यह उलट-पुलट सोचना और अंट-संट बोलना मुझे अच्छा नहीं लगता। अब स्वस्थ्य हो गए हो। क्यों हमारा जीवन भी दूभर करते हो।’’<br />
वह चुप हो गया था।<br />
<br />
‘‘पापा! खाना खा लो।’’ मनु ने आकर कहा। सुरेश्वर एकाएक अपने खोल से बाहर आ गया। बोला, ‘‘बन गया?’’<br />
‘‘हां’’ अनु ने कहा।<br />
खाना खाकर वह उठा। कुल्ला करने के लिए पानी का गिलास लिया। अरे! अचानक गिलास छूट का फर्श पर गिर गया तथा चूर-चूर हो गया। सुरेश्वर तुरन्त बोला, ‘‘करूणा, मुझे जीवन बिल्कुल ऐसा ही लगता है, कांच के गिलास-सा। जो कभी भी फर्श पर पड़ कर टूट सकता है, चकनाचूर हो सकता है।’’<br />
‘‘तुम्हारे मुख से कभी अच्छी बात निकलेगी। सदा मरी-झुलसी बातें ही सोचते हो। पता नहीं एक बार क्या बीमार हो गए कि बस वही रोना लगाए रहते हो। और दुनियां भी तो बीमार होती है। मैं कितनी बार मरती-मरती बची हूं परन्तु कभी मैंने आप जैसी बेसिर-पैर की बातें की हैं।’’ करूणा ने थोड़ा डांटने के स्वर में अपने पति से कहा।<br />
सुरेश्वर उठकर चला गया था। वह कुछ लिखना चाहता था, कुछ तनाव ढीला करना चाहता था। उसका विचार था कि कोई संजीवनी कहानी लिख डाले। कई बार उसने यह कहानी शुरू की परन्तु पूरी नहीं हो पा रही थी। कहीं-न-कहीं व्यवधान हो जाता था। वह अपने आपको आस्थावादी लेखक कहता था परन्तु कहानी का अन्त नायक की मृत्यु की ओर बढ़ रहा था। वह बलात् इस विचार को झटक देता परन्तु कोई अन्त भी नहीं सूझता था।<br />
<br />
आहट से ही उसने जान लिया था कि उसकी पत्नी खाना खाने के बाद दूसरे कमरे में सोने चली गयी थी। वह अपनी लिखने की मेज पर बैठ गया। बड़ा उतावलापन था कुछ लिखने के लिए परन्तु ज्यों ही उसने लिखने के लिए कलम खोला, वह ठिठक गया। अचानक यशंवत सिंह की धुंधली-सी तस्वीर उभर आई। यशंवत ही उसका खास मित्र था। हनीमून के लिए वह पहाड़ों पर गया था। कहते हैं एक दिन बड़ी खड्ड में नहाने उतरा। लोगों ने रोका भी कि बारिश के दिनों में नहाना बुद्धिमत्ता नहीं। वह नहीं माना था। जैसे संयोग की ही बात थी...खड्ड में अचानक पानी आ गया था इसी के साथ कांच का गिलास टूट गया था। सुरेश्वर को पता चला था तो उसे बड़ा अजीब-सा लगा था। लगा था मानो उसकी मृत्यु हो गयी हो।<br />
<br />
सुरेश्वर कोहनियों के बल मेज पर बैठ गया है। वह उस बार गांव गया था, कई वर्षों के बाद। वहां वह जिस भी बड़े-बूढ़े के बारे में पूछें, उसी के विषय में पता चलता- वह तो तीन वर्ष पहले चल बसा या चार वर्ष पहले। वह कारण पूछता रहा था परन्तु मृत्यु का कोई विशेष कारण उसे नहीं मिल रहा था। उसे सग से ज्यादा दुख उस लड़की की मृत्यु के समाचार से मिला था, जो सत्रह-अठारह वर्ष से अधिक नहीं जा सकी थी। कई वर्ष पहले उस लड़की के सिर पर ऊपर से गिरती हुई ईंट लगी थी। उसके बाद वह लड़की सीधे दिमाग वाली हो गई थी। जब कभी सुरेश्वर गांव गया, वह उससे अवश्य मिलता था। पिछली बार प्रेमलता अधिक व्याकुल दिखाई देती थी। बोली, ‘‘बीर जी! मैं जीना नहीं चाहती।’’<br />
‘‘क्यों?’’ उसने पूछा था।<br />
<br />
‘‘कहते हैं मैं अब जवान हो गई हूं। मुझे अब लड़कों में नहीं घूमना-फिरना चाहिए।’’ कहकर वह चुप हो गयी थी। फिर बोली थी, ‘‘बीर जी! मैं सारा दिन एक ही स्थान पर कैसे बैठी रहूं। मेरी मां कहती है- तू बड़ी सीधी है। कहीं लड़कों की बातों में न फंस जाना। मेरी मां बड़ी चतुर बनती हैं। होंगी ही। लेकिन मैं क्या करूं, कहां जाऊं? सुरेश बीर जी! क्या मुझे तुम्हीं शहर नहीं ले जा सकते? मैं भाभी के पास रहूंगी। बिल्कुल तंग नहीं करूंगी।’’<br />
<br />
सुरेश्वर उसके प्रस्ताव से चौंक गया था परन्तु उसने सांत्वना देते हुए कहा था, ‘‘कोई बात नहीं। निराश नहीं होना। मैं तुझे अगली बार शहर अवश्य दिखाऊंगा।’’ और इस बार वह गांव आया था, तो उसकी मृत्यु का समाचार सुनकर निराश हो गया था। उसे लगा था- मानो संजीवनी के अभाव में वह स्वयं मर गया था। शहर लौटने पर उसकी इच्छा थी कि प्रेमलता की मृत्यु का दुखद समाचार वह अपनी पत्नी को सुनाये परन्तु उसने नहीं सुनाया था। करूणा को ऐसी खबरें व्यर्थ की लगती थीं लेकिन सह समाचार सुरेश्वर के लिए मात्र समाचार नहीं था, एक अदृश्य मानवीय सम्पर्क एवं सम्वेदना के चटक जाने का पर्याय था।<br />
<br />
उसने मस्तिष्क में अचानक लहरियां उठने लगीं। वह अब अपनी कहानी को पूरा करने में जुट गया। उसे भय था कि कहीं कहानी अधूरी न रह जाए। वह रात भर बैठा लिखता रहा...... लिखता रहा।<br />
<br />
रात की मैं-मैं तू-तू बहुत पीछे छूट गई। प्रातः होने पर करुणा ने चाय बनाई तथा सुरेश्वर के कमरे में पहुंची। सुरेश्वर अपनी कोहनियां मेज पर टिकाये कहानी के कागजों पर ही झुका हुआ सो रहा था। करूणा बोली, ‘‘अब उठो भी। सारी रात भी यों ही काट दी। भला कहानी फिर नहीं लिख सकते थे।’’<br />
लेकिन सुरेश्वर नहीं बोला।<br />
<br />
करुणा ने सोचा शायद वह अभी भी उससे नाराज है। अतः उसने चाय मेज पर रखकर सुरेश्वर को गुदगुदी की, परन्तु सुरेश्वर नहीं हिला...गुदगुदी उसे भाव-विभोर नहीं कर पायी। करुणा ने फिर गुदगुदी की परन्तु नहीं...... कोई प्रतिक्रिया नहीं।<br />
‘‘नहीं। नहीं।’’ करुणा चिल्लाई और अचानक गिर पड़ी। सुरेश्वर अब भी कुर्सी पर बैठा था, बिना किसी प्रतिक्रिया के।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31274बसेरा / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-20T03:24:54Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
<br />
<br />
'चमारू। ओ चमारू। जरा जल्दी बाहर आओ।’ चौकीदार पुकार रहा था।<br />
<br />
वह बाहर निकला तो सेक्रेटरी को सामने देख अवाक् रह गया। फिर अपने आपको समेटते-सहेजते हुए उसने कहा, मुझे संदेसा भिजवा देते तो मैं ही आ जाता।’<br />
<br />
तुम्हें तो चेक चाहिए था न, सो मिल गया। फिर क्यों देखोगे पीछे मुड़कर कि प्रधान बुला रहा है या सेक्रटरी। बीसीयों बार बुलाया पर तू नहीं आया। यह जात ही ऐसी है।’<br />
<br />
स्थिति का जायजा लेते हुए फिर कहा, दोबारा भी चेक कर लेना है या जमीन में ही घर छोड़ देना है?’ कहकर सेक्रटरी ने बिदके हुए सांड की तरह देखा।<br />
<br />
चमारू जानता है उसे कोई संदेश नहीं मिला है अन्यथा वह दौड़ा-दौड़ा जाता। पंचायत ने उस पर इतना बड़ा उपकार किया है। वह इतना छिदला तो हो नहीं सकता कि पंचायत के बुलाने पर भी न पहुँचे। जब चेक नहीं भी मिला था तो भी वह कई दिन तक लगातार प्रधान के घर काम करता रहा था। कोई एक किलोमीटर से मिट्टी की बोरियाँ भर-भर कर लाता रहा था। प्रधान का आँगन समतल करना था। कितने लोग आते हैं हर रोज प्रधान से मिलने। घर का आगा-पीछा तो ठीक ही होना चाहिए। और चमारू ने कितने ही दिन बेगार में होम कर दिए थे। फिर भी संतुष्ट था कि चलो मैं कुछ करूँगा, तो मेरा भी कुछ बनेगा!'<br />
<br />
वह कुछ नहीं बोला।<br />
<br />
सेक्रेटरी तुनकू राम फुफकारा, ’तुम्हारा तो नाम ही नहीं आ रहा था इस योजना में यह तो बेघरों के लिए योजना थी। मैं चाहूँ तो अब भी नाम कटवा सकता हूँ। तुम्हें जो चेक मिला है ना उसके पैसे भी वापस जमा करवाने पडेंगे।’<br />
<br />
हाकिम जी! आप इनता नाराज क्यों होते हो? चमारू सीधा आदमी है। मैं इसे समझा दूँगा। इसे लेन-देन के पेंच नहीं आते। ”चौकीदार मकोड़ी राम ने तुनकू को शांत करते हुए कहा।<br />
<br />
साँप की फुंफकार थम गई थी। <br />
चमारू ने उपकृत आँखों से मकोड़ी राम को देखा। वह भूकंप के विनाश से बच गया था।<br />
<br />
शायद कहीं गणित गलत हो गया था लेकिन उसने तो कभी दूर-पार की सोची ही नहीं थी। जैसा किसी ने कहा वैसा मान लेता था। वे चार भाई थे। माँ को उसने कभी देखा नहीं था। सदा पिता के साथ चिपका रहता। और पिता था कि सुबह पाँच बजते ही घराट के लिए निकल जाता। पानी बाँधता और पिसाई शुरू कर देता।<br />
<br />
चमारू को याद है वह भी लोगों के घरों से पीहन उठाकर लाता और पिस जाने पर वापस छोड़ के आता। गाँव की ढलान पर चढ़ने में उसे विशेष माजा आता। पीहन उठा कर वह धड़म-धड़म चढ़ जाता था और उसका बापू था कि हाँफता हुआ चलता। वह पूछता: ’बापू! तुम्हारी साँस खराब घराट की तरह क्यों चलती है?’<br />
<br />
‘बेटा! यह पहाड़ की नियति है और फिर यह दालमपुर तो वास्तव में जालमपुर है। पहाड़ का इतना बेढब मौसम न कभी देखा, न कभी सुना। <br />
<br />
जिन्हें धौंकनी नहीं नगीए उनके फेफड़े गल जाते हैं।’ चमारू राम का पिता कहता।<br />
<br />
चमारू अविश्वास से उसकी ओर देखता और फुदकता हुआ गाँव की टिब्बी पर जा चढ़ता।<br />
एक दिन कैंप से एक फौजी आया था। बोला, ’साहब को एक आदमी की जरूरत है। मुझे पता चला है कि तुम्हारा बेटा कुछ खास नहीं कर रहा।”<br />
'फिर?’ चमारू के पिता ने पूछा था।<br />
’ साब मेजर है आर्मी में । वह चाहे तो चमारू को भरती करवा सकता है”<br />
’लेकिन वह तो गँवार है। पाँच पढ़ा।’<br />
<br />
’अपने आप सीख जाएगा सब कुछ। और साब को दया आ गई तो इसे पढ़ने भी डाल देंगे।’ फौजी ने चमारू के पिता को ललचाना चाहा।<br />
’बापू, मैं भी फौजी वर्दी पहनूँगा?’ चमारू ने चमत्कृत आँखों से पूछा।<br />
<br />
’हाँ हाँ, क्यों नहीं?’ उत्तर फौजी ने दिया।<br />
चमारू के तीन छोटे भाई स्कूल में पढ़ते थे। पिता ने सोचा बड़ा भाई फौजी में चला जाएगा तो घर पर काम-काज ठीक हो जाएगा। घराट का काम वह अकेला ही देख लेगा।<br />
<br />
फौजी उसे अपने साथ ही ले गया था।<br />
मेजर के घर में चमारू को सब सुख-आराम था। पहले ही दिन उसे पुरानी खाकी वर्दी मिल गई थी। ठक-ठक करते बूट। परंतु घर में बूट पहनने पर मनाही थी। आवाज से मैडम के सिर में दर्द होने लगता था।<br />
<br />
पंद्रह दिन बाद वह पहली बार घर जाने लगा तो मेजर भूप्रेद्र सिंह ने कहा,’तुम कह रहे थे तुम्हारा पिता बीमार रहता है, साँस की तकलीफ है। एक बोतल दवाई ले जाओ।<br />
<br />
'आप डॉक्टर भी हैं?”<br />
'हाँ,विश्वास नहीं होता।’<br />
मेजर सिंह भी हर रोज मैडम से कहते थे,’जरा दवाई तो देना। और खाने से पहले दो-चार घूँट पी लेते थे।<br />
चमारू के लिए यह शब्द नया था। फिर भी उसने कहा,’ठीक है सर दे दो।बापू खुश हो जाएगा।’<br />
और सचमुच बापू की तो बांछें खिल गई थी। मेजर ने तो कहा था कि एक-दो खुराक ही हर रोज ले लेकिन चमारू के बापू ने कभी पहले ब्रांडी देखी नहीं थी तो ताबड़तोड़ खुराकें पी गया और हवा में उछलने लगा।<br />
<br />
फिर तो जब भी चमारू आता तो उसका बाप उसका थैला टटोलने लगता और कभी थैला खाली होता तो बेटे से झगड़ने लगता। पूरे घर को सिर पर उठा लेता।<br />
<br />
जब मेजर का ट्रांसफर अमृतसर में हुआ तो चमारू ने सुख की साँस ली। पर सप्ताह आने की नौबत नहीं थी। ऐसा नहीं कि वह अपने पिता को दारू लेकर नहीं देना चाहता था परंतु तभी लाता जब साब उसे खुद कहते और फिर अब समझने लगा था कि दारू कोई अच्छी चीज नहीं है। गाँव का रूलदू हर रोज पी कर आता था। एक दिन नाली में लुढ़क गया तो बोला था,’ दारू गरीबों के लिए जहर होती है! एक बार मुँह से लगी फिर नहीं छूटती।<br />
<br />
चमारू ने उसे उठा कर बिठा दिया था। फिर घर छोड़े आया था। अगली सुबह जब पता चला कि रुलदू मर गया तो चमारू दहाड़ मार कर रो पड़ा और जोर-जोर से चिल्लाने लगा । दारू गरीबों के लिए जहर होती है ! ओ लोको जहर होती है।<br />
<br />
वह भाग रहा था। यहाँ-वहाँ। पागलों की तरह। तब चमारू के पिता ने उसे पकड़ कर कहा था,’तू तो ऐसे रो रहा है, जैसे तुम्हारा बाप मर गया है।<br />
’हाँ, तुम भी मर जाओगे। दारू गरीबों के लिए जहर होती है ।’ यह फिर चिल्लाया।<br />
<br />
’और अमीरों के लिए अमृत।’ फिर अपने आप को धिक्कारते हुए बोला, अमीर पिए तो टानिक, गरीब पिए तो जहर। सब लटके हैं अमीरों के। चमारू, तुम नहीं जानते, यह गरीबों को भरमाने के नुस्खे हैं।<br />
चमारू की आँखों में अविश्वास टपक रहा था। परंतु वह कहीं अपने आप को अपराधी भी महसूस कर रहा था। आखिर यह लटक लगाई भी तो उसी ने थी। मुफ्त में लाकर देता था और दवाई समझता था। शब्दों का हेर-फेर भी कभी अंधकूप में धकेल सकता है। वह जानने लगा था।<br />
<br />
’भले ही यह सब ठीक नहीं है परंतु तुम तो जानते ही हो।’<br />
’क्या !’ विस्मय से देखते हुए चमारू ने पूछा।<br />
कि प्रधान को कोई वेतन तो मिलता नहीं। वह तो जनसेवा में लीन रहता है।’<br />
’मकोड़ी राम! झूठ तो न बोला। अगर वेतन नहीं मिलता है, तो प्रधान बनते ही क्यों हैं? बिना वेतन भी कोई काम करता है?’<br />
<br />
’हाँ, करता है। ग्राम प्रधान करता है।’<br />
’ तो खाता कहाँ से है? कोई-न-कोई जुगाड़ तो करना ही पड़ता है। और फिर देखा सौड-पचास आदमी हर रोज प्रधान के घर आता है। एक-एक कप भी चाय पिलाए तो चार-पाँच किलो दूध और आधा किलो शक्कर लग जाती होगी।’<br />
<br />
<br />
‘अब तो प्रधान दरवेश होता है।’ चमारू ने कहा।<br />
‘हाँ, दरवेश ही होता है।’<br />
’फिर तुनकू राम इतनी धोंस क्यों दिखाता है? क्या इसे भी वेतन नहीं मिलता?’<br />
सेक्रेटरी को तो वेतन मिलता है लेकिन यह तो वही बोलता है, जो प्रधान कहता है।’<br />
’क्या दरवेश ऐसे होते हैं?’<br />
’तुम बेवकूफ हो। तुम्हें कुछ समझ नहीं आएगा।’<br />
’आप नाराज क्यों हो गए, मुझे बताओं न मैंने क्या करना है?’ चमारू ने गंभीरता से पूछा।<br />
मकोड़ी राम सीधे-सीधे नहीं कहना चाहता था।<br />
<br />
’तुम चार भाई हो।’<br />
’हाँ।’<br />
’तो घर बनाने के लिए पैसा तुम्हें ही क्यों मिला है?’<br />
’क्योंकि चारों में से मैं ही ऐसा हूँ जिसके पास घर नहीं है। और फिर वे तीनों तो खाते कमाते हैं।’<br />
’तुम्हें छोड़ भी तो सकते थे। यह पंचायत की कृपा होती है।’<br />
<br />
पंचायत की या गाँधी बाबा की। मैंने सुना है यह गाँधी कुटीर योजना है। तो कृपा तो गाँधी बाबा की हुई न!’<br />
मकोड़ी राम भी तंग आ गया। बोला,’ अगला चेक लेने के लिए गाँधी बाबा को बुला लाना। फिर बना लेना दीवारें और छत।’<br />
’अच्छा।’चमारू ने सिर हिलाया।<br />
’तुम मुझे फिर मिलना।’ मकोड़ी राम कह कर चला गया।<br />
चमारू को यह गोरखधंधा समझ नहीं जा रहा था। उसे लगा कि वे लोग कुछ छिपा रहे थे, कुछ चाह रहे थे। परंतु बोल नहीं रहे थे।<br />
<br />
मेजर साहिब के साथ ही चमारू अमृतसर चला गया था।<br />
चमारू के लिए खाने-पाने की कमी नहीं थी और वह खुश था कि कोई काम तो मिला। वह भी लगभग सरकारी।<br />
'तुम्हारी हाजरी तो पल्टन में लग रही है। काम तुम घर में ही करते रहो। चिंता नहीं करनी। तुम्हारी पेंशन पक्की है।’<br />
<br />
चमारू मेजर की इन बातों से प्रसन्न हो जाता तथा खूब मन लगाकर तरकारियाँ बनाता। घर के दूसरे काम भी वह करता। हर महीने कुछ न कुछ पैसे बापू को भेजता रहता और घर आता तो दवाई की बोतलें ले आता।<br />
<br />
गाँव में चर्चा होती है। कि चमारू तो सेना में भर्ती हो गया। कितना अच्छा रहा। छुट्टी आता तो सब बड़े-बूढ़े उससे शहर की कहानियाँ सुनते। वह बताता अमृतसरी लोग खाने-पीने के शौकीन है। इसीलिए मोटे ताजे होते हैं। मेजर साहिब तो खूब खर्चीले हैं। खाने-पीने के रसिया। और चटकारे ले-लेकर नई-नई तरकारियों के नाम बताता।<br />
<br />
ग्रामीण भाव-विभोर होकर उसकी बातें सुनते।<br />
उन्नीस साल बाद वह अचानक गाँव लौट आया था, बेहद थका हुआ। गुम सुम। घर वाली ने पूछा,’तुम क्यों आ गए?”<br />
'तुम्हें अच्छा नहीं लगता मेरा आना ?’ चमारू ने सहमे स्वर में कहा।<br />
<br />
'अच्छा तो लगता है परंतु कोई नौकरी छोड़ता है और वह भी सरकार की, सेना की, जहाँ भर पेट खाना मिलता है।<br />
<br />
'अच्छा तो मुझे भी नहीं लगता।’<br />
'तो क्या पेंशन पा गए हो?’<br />
'नहीं।’<br />
'तो भगोड़े होकर आए हो?’<br />
'नहीं! नहीं! वह चीख उठा। कुछ बता भी नहीं पा रहा था। एक लावा फूट रहा था मन ही मन। कुछ साहस करके बोला,’चौपट हो गया। बिगड़ गया, मेरा भाग्य।’<br />
'क्या बिगड़ गया?’<br />
'पंजाब में ही सब कुछ बिगड़ गया। लोग एक-दूसरे को भय से देखते हैं और घरों में घुसे रहते है। तुम खबरें नहीं सुनती?’ चमारू चिल्लाया।<br />
'मैं नहीं जानती खबरें क्या होती है। पर फौजियों को तो कोई कुछ नहीं कह सकता। वे तो दूसरों की रक्षा करते है।’<br />
'पच्चीस तीस साल से वर्दी पहन कर घूम रहे हो और जब कहते हो, फौजी हो ही नहीं। क्या मेरे बापू से झूठ बोला था?’<br />
चमारू क्या कहे कि वह तो इतने वर्षों तक मेजर भूपेंद्र के घर में ही बर्तन मलता रहा था। कभी दफ्तर गया ही नहीं था। मालिक ही कहता था कि उसकी हाजिरी वह खुद लगा देता है, लेकिन फिर एक दिन उसने ही कह दिया था”पंजाब के हालात बिगड़ रहे हैं। पता नहीं क्या जुननू है लोगों में। चमारूए तुम भले आदमी हो। चुपचाप खिसक लो।’<br />
'मेरी नौकरी का क्या होगा?’ उसने पूछा था।<br />
'कौन-सी नौकरी?’<br />
'यही जो मैं। सेना में लांगरी हूँ।’<br />
'सेना में? तुम सपने देख रहे हो। तुम्हारी गरीबी की वजह से मैंने तुम्हें अपने घर में रखा। पुरानी वर्दी देता रहा।क्या इसी से तुम फौजी हो गए?’<br />
चमारू एकदम चकरा गया। इतना बड़ा धोखा। छल-कपट के गोरख धंधे उस अबोध पहाड़ी को नहीं आते थे। वह रात भर आँसू टपकाता रहा था टप-टप ।<br />
सुबह जब भूपेंद्र सिंह ने उसे चाय के लिए आवाज दी तो कोई नहीं आया था। वह रात के अंधेरे में ही निकल पड़ा था।<br />
गाँव में चारों ओर चर्चा थी। चमारू अचानक डर कर भाग आया। पंजाब में तनाव था न। शायद भगोड़ा होकर आ गया परंतु चमारू चुप-गुप हो गया था, कुछ नहीं बोलता था।<br />
घर वालों ने सोचा शायद वह सहम गया था। पहली बार जब बस में से मुसाफिरों को उतारा गया तो वह भी उसी बस में था। भला हो मेजर का जिसने उसे पगड़ी बाँधने के लिए कहा था तथा दाढ़ी-मूँछ बढ़ाने की सलाह दी थी।<br />
उसके भाईयों ने कहा-सनक गया है चमारू। बेवकूफ है जो नौकरी छोड़कर आया। यहाँ बैठा ईट बजाता रहे या करे पंचायत की बेगार।<br />
किसी ने कहा था, कोई कोठा बना लो और फिर काम ढँढो।<br />
'पैसा भी तो चाहिए’<br />
पुश्तैनी घर में जो कमरा उसके हिस्से आया था, उसकी ईंटे तक भाईयों ने उधेड़ दी थीं तथा जमीन सफाचट कर दी थी। चमारू की बीवी अपने मायके ही रहती थी। उसने तो कभी अमृतसर भी नहीं देखा था।<br />
गाँव के एक बुजुर्ग ने ही पंचायत को सलाह दी थी कि चमारू राम को बसेरे के लिए राहत दी जाए। बात प्रधान को जँच गई थी और वह दयालु हो गया था। उसने खुद ही चमारू से कागज-पत्र भरवाए थे तथा पंद्रह सोलह हजार की राशि स्वीकृत करवा दी जो किश्तों में दी जानी थी।<br />
पहाड़ की बरसात घुमड़-घुमड़ कर चढ़ी जा रही थी। चमारू चाहता था सावन से पहले छत पड़ जाए ताकि आराम से टिक सके। इसीलिए पहली किश्त से ही उसने नींव भी डाल दी थी। बिना छत के दीवारें भी उठा लीं। दिन-रात मिस्तरी के साथ मजदूरी करता रहा। सो एक किश्त में ही दो किश्तों का काम कर दिया। लकड़ी गाँव के किसी सज्जन से मुफ्त मिल गई थी।<br />
दूसरी किश्त मिलने से पहले काम का निरीक्षण सेक्रेटरी ने करना था। दीवारों को देख वह आग उगने लगा । तुम्हें तो अनुदान मिलना ही नहीं चाहिए था। तुम गाँधी कुटीर योजना में फिट ही नहीं बैठते हो।<br />
'देखो, मैंने मजदूरी खुद करके पैसा बचाया है। उसी से दीवारें खड़ी हुई हैं।’<br />
'अब तो दीवारें गिरानी ही पडेंगी। तभी दूसरी किश्त मिल सकती है। जो दीवार बन ही गई है, खिड़की लग ही गई है, उसके लिए कैसा अनुदान?’ वह फुँफकार रहा था। फिर बोला,’तुम्हें प्रधान ने कितनी बार बुलाया, तुम एक बार भी नहीं आए।’<br />
'मैं। अपने काम में लगा था।’<br />
'हाँ, पैसा आसमान से टपकता है। जो दाता है, उसकी बात सुनने की भी तुम्हें फुर्सत नहीं। बड़े फौजी बने फिरते हो’<br />
मकोड़ी राम ने कहा, ’हाकिम जी, नाराज क्यों होते हो? शहर से आया है। इसे गाँव के कायदे-कानून नहीं पता। अपने आप आने लगेगा आप के पास। एक किश्त तो निकाल ही दो।’<br />
'हूँ, निकाल देंगे लेकिन पहले दीवार गिरानी पड़ेगी। आखिर कानून तो सबके लिए एक-सा है।’ कहकर वह बिना कुछ देखे चला गया।<br />
'तुम मालिक के पास अपनी बेटी को क्यों नहीं भेज देते?’<br />
'बेटी को क्यों?’ तुम नहीं समझोगे चमारू।’ कह कर मकोड़ी राम खिसक लिया।<br />
चमारू को लगा दीवारों की ईंटे उखड़-उखड़ कर नीचे गिरने लगी थीं तथा वह पहाड़ की ढलान पर बैठा था...मूसलाधार बारिश में भीगता हुआ..बिना छत, बिना दीवार के बसेरे में।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31273सुशील कुमार फुल्ल2016-06-20T03:23:44Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=<br />
|नाम=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=15 अगस्त 1941<br />
|जन्मस्थान=गांव काईनौर, ज़िला रोपड़, पंजाब<br />
|मृत्यु=<br />
|कृतियाँ=<br />
|विविध=<br />
|जीवनी=[[सुशील कुमार फुल्ल / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Sushil Kumar Phull<br />
|shorturl=<br />
|kavitakosh=<br />
|copyright=<br />
}}<br />
====कहानियाँ====<br />
* [[बसेरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बढ़ता हुआ पानी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[मेमना / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फंदा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ठूँठ / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[कोहरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बांबी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[रिज पर फौजी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[माटी के खिलौने / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[चिड़ियों का चोगा / सुशील कुमार फुल्ल]] <br />
* [[दान पुन्न / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अटकाव / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अनुपस्थित / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[प्रेम का अन्तर्राष्ट्रीय संस्करण / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अपने-अपने दुःख / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फ़ासला / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ककून / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[जिजीविषा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[जंगल / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बाहर का आदमी / सुशील कुमार फुल्ल]]</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%95%E0%A5%82%E0%A4%A8_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31211ककून / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-17T14:27:11Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
<br />
ककून<br />
<br />
कुत्तों के सरपाट दौड़ने तथा बीच-बीच में भौंकने की आवाज छन-छन कर उस तक पहुंचने लगी तथा धीरे-धीरे दशहत का कोहरा उसकी नसों में जमने लगा। उसने चढ़यार रोड़ के तीनों तरफ अपनी दृष्टि घुमाई। नीचे को उतर गयी। सड़क के दोनों ओर घटाटोप झाड़-झंखाड़ों में से अनेक अजगर चिर उठाये उसे दबोचने के लिए तैयार खड़े थे। इस स्थिति से उबरने के लिए उसने धौलाधार पर्वत-श्रृंखला को निहारना चाहा परन्तु काले स्याह जंगलों में से उभरती हुई चिन्दियों में से भुतहा सांय-सांय का ही आभास हुआ।<br />
<br />
दशहत का कोहरा उसकी नसों में निरन्तर नीचे उतर रहा था। सरपट दौड़ते कुत्तों की भों-भों उसके और नजदीक आ रही थी। झाड़ी में से फुदक कर बेचने के लिए प्रयास में कोई खरगोश कुत्तों की लपेट में आ गया था...... उसके कीं-कीं कर शान्त हो जाने का एहसास उसे लिजलिजा-सा लगा।<br />
<br />
वह स्वयं खरगोश बन गया था। वह कब तक भागता रहेगा। कुत्तों की लार बढ़ती ही जा रही थी और फुदकता हुआ वह कई बार थका-हारा सह सोचने पर विवश हो जाता कि इस भागम-भाग से तो पहले ही बार धराशायी हो जाना कहीं अच्छा है। फिर उसक संस्कार जोर मारते- ऐसा करना कायरता है। जूझन्त कहीं बेहतर है। चुपचाप अपने सिद्धान्तों को ताक पर रख देना या अजगर केे मुंह में धकेल देना हार का पर्याय है। उससे तो खरगोश ही अच्छे हैं जो छलांगते-छलांगते कहां से कहां जा निकलते हैं लेकिन उसे खरगोशों का रोशनी के आगे दुबक कर बैठ जाना तथा आत्म-समर्पण कर देना कुछ अटपटा-सा लगता है शायद वह भी तो खरगोश-सा एक दिन दुबक कर शान्त हो जाएगा। यह भी कोई जिन्दगी हुई। घास-पात की तरह उगो और कट जाओ। कोई प्रतिरोध नहीं, कोई विरोध नहीं। हूं...<br />
<br />
कुत्ते सरपट दौड़े आ रहे थे और उसकी नसों में दशहत का विष निरन्तर फैल रहा था। स्कूटर को भी यहीं, खराब होना था। चढ़यार रोड़ पर रात के अन्धकार में बिच्छुओं के झुण्ड खलबली मचा रहे थे।<br />
<br />
कोई गाड़ी ही आ जाए परन्तु शायद किसी तांत्रिक ने सड़क को कील दिया था। कहीं से कोई रोशनी नहीं, कोई आता-जाता नहीं। सरयू प्रसाद को जंगलों से सदा मोह रहा है। उसने बहुत से ऐसे पौधे खोज निकाले हैं, जो रात में प्रकाश रश्मियां विकीर्ण करते हैं परन्तु आज किसी पौधे से प्रकाश नहीं निकल रहा था। ठण्ड में जुगनू भी शायद कहीं विलुप्त हो गए थे।<br />
<br />
कुत्ते सरपट दौड़ रहे थे।<br />
<br />
वह एकाएक कांप गया। उसने एक ओर हट जाना चाहा। शायद वे निकल जाएं। लेकिन वह आ गए थे। बड़े-बड़े ओवरकोट पहने तथा हाथों में टार्च लिये हुए। एक के पास बन्दूक भी थी। वह पहले तो घबराया लेकिन फिर सम्भल कर बोला- ‘‘आप लोग?’’<br />
वे कुछ नहीं बोले। उन्होंने केवल ही... ही...ही... हे...हे... का स्वर किया।<br />
<br />
‘‘लेकिन इस वक्त शिकार... ?’’<br />
‘‘शिकार का कोई टाइम होता है क्या?’’ उसमें से एक चिंघाड़ा।’’<br />
‘‘फिर भी।’’<br />
‘‘फिर भी क्या?’’ पहले ने ही पूछा।<br />
<br />
‘‘तुम यहां क्या कर रहे हो? अपनी बहन को ढूँढने आए हो?’’ दूसरे ने प्रश्न उछाला।<br />
‘‘देखो ढंग से बात करो। नहीं तो अपना रास्ता नापो।’’<br />
<br />
उनमें से एक ने बन्दूक उसकी और तान दी। उसे लगा वह गलत आदमियों में फंस गया है। शिकारियों पर उसे शुरू से ही सन्देह रहा है। न जाने किस की आड़ में वे क्या कर बैठें। विश्वास से एक महीन दीवार ही तो होती है।<br />
कुत्ते सरपट दौड़ रहे थे।<br />
<br />
उस दिन वे तीनों रात दो बजे ही धौलाधार जंगलों की तरफ चल दिए थे। घने जंगल, ऊबड़-खाबड़ पगडंडियां, पेचदार उतराई-चढ़ाई लेकिन फत्तू तो तूफानी चाल से दौड़ा जा रहा था। उसका दोस्त रमिया बहुत बर्षों के बाद उसके पास आया था। आया क्या फत्तू ने ही उसे आमचित्र किया थ वैसे उनकी भेंट तो प्रायः होती रहती थी। रमिया दिल्ली के जिस कॉलेज में पढ़ाता था वहीं फत्तू की पत्नी सुनहरी भी गृह-विज्ञान पढ़ाया करती थी। जब भी फत्तू की छुट्टियां होतीं, तो वह प्रायः दिल्ली चला जाया करता था परन्तु सुनहरी तो अपनी छुट्टियां भी दिल्ली में ही व्यतीत कर देती थी। कभी उसका पति प्रोफेसर नाराज भी होता, तो वह प्यार से घुड़क देती- माई डियर फत्तू! दिल्ली और पालमपुर की दूरी तुम क्या जानो लेकिन सच मानो तो कहूं। मैं कल्पना में हर रोज पालमपुर आया करती हूं। जिन्दगी क्या है? बस एक भरम को पालना एवं ढोना है। अपने ही कवच में सिमट कर अपने ही रंगों का इन्द्रधनुषी ककून बुनना कितना प्रिय लगता है।<br />
<br />
‘‘ककून बुनने का अर्थ मृत्यु को आमंत्रित करना है सुनहरी।’’<br />
<br />
‘‘मैंने कहा न मृत्यु को टालने का भ्रम ही जीवन है। तुम अपने कन्धे पर भ्रम की लाशें ढो रहे हो- लाश को स्वप्न मानकर चलना भरम नहीं तो और क्या है?’’<br />
‘‘तो कल्पना में तुम्हारा पालमपुर आगमन भी एकमात्र एक छलावा है।’’<br />
<br />
‘‘मेरे प्यारे फत्तुआ, छलावा है वह सत्य कैसे हो सकता है।’’<br />
‘‘तो तुम छलावा हो?’’<br />
‘‘फत्तू राम जी, तुम तो निरे तोताराम हो, एकदम भोले-भाले। औरत छलावा नहीं तो और क्या है?’’<br />
‘‘यह तुम कहती हो सुनह.....’’वह अवाक् रह गया था।’’<br />
‘‘हां मैं कहती हूं, जिसके हाड़-मांस में भी रक्त प्रवाहित होता है।<br />
क्या कभी तुमने मेरे दिल की धड़कन सुनी है?’’ सुनहरी ने पूछा।<br />
‘‘क्या कभी तुमने कुत्तों के सरपट दौड़ने का संगीत सुना है?’’<br />
<br />
<br />
‘‘तुम्हारे दिल-दिमाग पर शिकार छाया रहता है। मेरे दिल की धड़कन तथा कुत्तों के सरपट दौड़ने मे तुम्हें कोई अन्तर नहीं आता। तुम जानवर हो, जानवर।’’<br />
‘‘हां, मैं जानवर हूं लेकिन मेरे अन्दर का जानवर अभी पगलाया नहीं। जब वह पगला उठेगा तो तुम्हें रौंद कर रख देगा।’’<br />
‘‘वह दिन कभी नहीं आएगा। तुम्हारा जानवर मर चुका है। तुम्हारा आदमी भी मर चुका है।’’<br />
<br />
फत्तू को सुनहरी की बातों पर विश्वास नहीं होता था। वह इतनी दबंग हो सकती है, यह उसकी कल्पना से बाहर था। उसके मन में नारी की मूर्ति थी मुलायम-सी, लाजवन्ती-सी लाजवन्ती के पौधे-सी छुई-मुई हो जाने वाली, बर्फ का पिघलना या मोम का तरल हो उठना उसे नारी का पर्याय लगता था परन्तु जब उसे सुनहरी में देह की फुंफकार तथा कच्ची लस्सी की डंकार सुनायी दी तो वह चौंक उठा था। अचानक पालमपुर तथा दिल्ली की दूरी कम हो गयी थी। वह सुनहरी पर छा जाना चाहता था। दिल्ली नगर लिजलिजा एवं बेतहाशा तेज जिन्दगी को न चाहता हुआ भी अब वह पालमपुर से दिल्ली तक की सड़कों की लम्बाई में फैल जाता। सुनहरी ने एक बार कहा भी- क्यों व्यर्थ में अपने आप को तोड़ते हो?<br />
<br />
‘‘तुम उसे तोड़ना कहती हो?’’<br />
‘‘और क्या तुम इसे जुड़ जाना कहोगे?’’<br />
‘‘किससे?’’<br />
‘‘किसी से भी। क्या जुड़ जाना किसी एक पुरुष से ही होता है? तोड़ कर फिर जुड़ना तो भावनात्मक संधि पर आधारित होता है।’’<br />
‘‘तुम में क्रूर जानवर है और तुम जानती हो मैं शिकार का शौकीन हूं। जानवर और शिकारी का भावनात्मक संधि-स्थल दोनों में से किसी एक की मौत होती है।’’<br />
‘‘होती होगी।’’<br />
दोनों एक-दूसरे की बातें समझते थे। परन्तु दोनों अपने अस्तित्व को, अपनी पहचान को बनाए रखना चाहते थे। फिर पालमपुर और दिल्ली में दूरी बढ़ती ही गयी। सड़कें और लम्बी हो गयीं, हां, पत्र-व्यवहार बराबर बना हुआ था। सुनहरी प्रायः अपने पत्रों में जीवन के नये क्षितिज देखने का उल्लेख करती। निरन्तर विस्तार.......... विस्तार ही, विस्तार और अपनी दार्शनिक मुद्राओं द्वारा वह फतहचन्द ‘अफलातून’ को कील कर रखना चाहती थी। फिर एक पत्र में उसने अपने पति को लिखा था- क्या आत्मा को कभी बांधा जा सकता है? और फिर यह व्यर्थ के सामाजिक अंकुश, क्या कभी तुमने सोचा है कि ये सब अव्यावहारिक एवं अवांछित हैं। शायद तुमने कभी देश-धर्म की तरलता एवं स्निग्धता को महसूस नहीं किया। तुम कर ही नहीं सकते। जो आदमी दिल की धढ़कन को कुत्तों के सरपट दौड़ने से मिलाता हो, क्या वह आदमी कहलवाने का हकदार है। फिर भी फत्तू, मैं एक बात की कायल हूं- तुम हो महान। तुम्हारा शिकारी जब जानवर हो उठता है न, तो मुझे बड़ा आनन्द आता है। तुम पता नहीं धोलाधार के आंचल में सिकुड़े-सिमटे क्या करते हो, मैं तो आजकल तुम्हारे दोस्त रमिया से योग सीख रही हूं। आह! कितनी आनन्द-दायक घड़ियां होती हैं। बस, इन्ही क्रियाओं में अपना समय व्यतीत हो जाता है। <br />
<br />
कुत्तों का सरपट दौड़ना युद्ध-भूमि में टैंको के दहाड़ने-सी ध्वनि पैदा करने लगा।<br />
<br />
फत्तू को चिट्ठी मिली थी या वह बौखला उठा था। साले रमिया से योग सीखती है। रामनाथ को रमिया लिखती है। लोक-लज्जा की भी कोई हद होती है। उसके सामने योग करती होगी, उल्टी-सीधी टंगती होगी या फिर रमिया उसे पकड़-पकड़ कर टांगें ऊंची करके हवा में उल्टे लटकना तथा अंग-संचालन सिखाता होगा। बड़ा शिकारी आया है। जानवर कहीं का। और वह दिल्ली पहुंच गया।<br />
बस सुबह पांच बजे इण्टर-स्टेट बस-अड्डे पर जा लगी थी। और घण्टे में फत्तु अपने घर था। घर के बरामदे में सुनहरी वृश्चिक-आसन कर रही थी और रमिया जी उसे सब सिखा रहे थे।<br />
<br />
‘‘अरे अफलातून! तुम.....’’<br />
‘‘हां, मैं।’’<br />
‘‘फत्तू, पहले लिखा तो होता।’’<br />
‘‘क्यों क्या पत्नी के पास आने के लिए पहले डेट लेनी होती है?’’<br />
‘‘तुम तो जानवर ही रहे।’’<br />
‘‘हूं, अब मैं तुम दोनों को जानवर दिखाई देता हूं।’’<br />
‘‘हूं, अब मैं तुम दोनों को जानवर दिखाई देता हूं। और तुम दोनों शायद शिकारी हो गए हो।’’ उसकी आँखों में खून उतर आया था।<br />
रमिया स्थिति को भांप गया। वहां से गायब हो गया था। फत्तू ने अपने अन्दर के जानवर को अस्थायी तौर पर दबा लिया था वह शान्त दिखाई देने लगा था। वह एक-दो दिन दिल्ली रह कर लौट आया था।<br />
सरयू प्रसाद को याद है कि फत्तू ने उसे विशेष रूप से आमंत्रित किया था। रमिया को भी दिल्ली से बुलाया था। धौलाधार पर बर्फ की परतें जम गयी थीं और शिकार की सम्भावना बढ़ गयी थी। फत्तू ने सरयू प्रसाद से कहा था- तुम भी साथ चलना। तुम्हारा मन बहल जाएगा।<br />
<br />
‘‘अगर दहल गया तो?’’<br />
‘‘नहीं... तुम तो व्यर्थ में परेशान रहते हो। अच्छी नौकरी है। गऊ-सी बीबी तुम्हारे पास है, पुत्र है, पुत्री है, तुम्हारा अपना मकान है। फिर भी परेशान रहते हो।’’<br />
‘‘परेशान क्यों रहता हूं यह तो तुम जानती ही हो। सच को सच कहना भी आजकल गुनाह है। मैंने यही तो कहा था कि विभाग का सीमेंट, लकड़ी आदि न जाने कहां गायब हो गया।’’<br />
<br />
‘‘सबको पता होता है कि कहां जाता है परन्तु सब चुप रहते हैं। परन्तु तुम नौकरी का अर्थ नहीं जानते क्या?’’<br />
‘‘अब थोड़ा-थोड़ा समझ में आने लगा है।’’<br />
‘‘क्या?’’<br />
‘‘यही, कि जितना बड़ा अधिकारी, सुविधाओं के प्रति उतना ही बलात्कारी। सब अधिकारियों की कुण्डली एक-सी होती है।’’<br />
‘‘तुम महात्मा गांधी हो क्या? बुद्ध हो या ईसा? तुम सरासर बेवकूफ हो। क्यों व्यर्थ में सलीब पर गड़ जाना चाहते हो।<br />
‘‘हां, मैं सलीब पर गड़ जाना चाहता हूं। सच्चाई के लिए मैं ईसा हो जाना चाहता हूं।’’<br />
‘‘बातों में तुम्हें कौन जीत सका है। शायद तुम्हारे पीतल के दांत ने तुम्हें कानूनी बना दिया है। जंगल में जाओगे तो सब भूल जाओगे, वहां जंगल का कानून लगता है।’’<br />
‘‘मैंने कभी शिकार नहीं खेला है।’’<br />
<br />
‘‘यह सब झूठ है। हर आदमी जिन्दगी भर शिकार की तलाश में रहता है और पता नहीं क्या-क्या दांव पेच अपनाता है।’’ थोड़ा रूक कर वह बोला था- ‘‘मुझे प्रायः लगता है कि मेरा भी शिकार किया जा रहा है। मैं धीरे-धीरे शिकारी के मुंह में धंसता जाता हूं।’’<br />
<br />
सरयू प्रसाद को लगा था फत्तू ने उसकी मनःस्थिति का बिल्कुल सही चित्रण कर दिया था। उसका अपना सिर भी तो शेर के जबड़ों में फंसा हुआ है। सिर बाहर खींचता है तो लहूलुहान हो जाने का भय है और यदि अन्दर जाने देता है, तो उसका अन्त है।<br />
<br />
खरगोश का कुत्ते के मुंह में लटक जाना......... अजगर की जीव को लपक जाना....... छिपकली का मुंहबाए दीवार पर लटके रहना........ या फिर बड़ी मछली का छोटी मछली को निगल जाना....... क्या विधान है? शायद आदमी ने शिकार खेलना जीव-जन्तुओं से ही सीखा हैः जीव-जन्तु जो निरीह होते हैं, सीधे-सादे........ आदमी बहुमुखी जानवर है, जो रूप बदल-बदलकर हर प्रकार का शिकार करता है- जीवनभर घात लगाए बैठा रहता है। सर्पिणी की तरह अपनों को खा जाता है। सोचकर सरयू प्रसाद चौंक उठा था।<br />
<br />
रात के दो बजे वे धौलाधार पर्वत-श्रृंखला पर चढ़ रहे थे। फत्तू, रमिया तथा सरयू प्रसाद। कड़कड़ाती ठण्ड। थोड़ी दूर जाकर फत्तू ने कहा था- ‘‘अरे भई, वाटरमैन लाओ तो घूंट-घूंट।’’ सरयू प्रसाद ने पालमपुरी तोड़ की ड्रमी आगे कर दी थी। फत्तू मुंह लगाकर दो-चार घूंट पी गया था। फिर उसने ड्रमी रमिया की ओर बढ़ा दी थी। रमिया बोला था- ‘‘फत्तू! मैं ऐसे नहीं पी सकता। मुझे उबकाई आती है।’’<br />
<br />
‘‘हूं। मैं तुझे बार में ले चलूंगा। वहां कच्चे पनीर की लम्बी-लम्बी टुकड़िया होंगी, कलेजी होगी और फिर तुम मजे से बैठ कर चढ़ा लेना।’’<br />
रमिया ने अविश्वास से उसकी ओर देखा। सरयू प्रसाद ने मुस्कराते हुए कहा था- ‘‘बातों ही बातों में फत्तू महल खड़े कर देता है।’’<br />
‘‘क्या अपनी बात को सच कर दूं।’’<br />
‘‘कैसे?’’<br />
‘‘जानते नहीं अभी तो हम पहली धार पर ही हैं। यहां से नीचे धक्का दूं तो रमिया ‘न्यूगल कैफ’ में जा घुसेगा।’’<br />
रमिया ने लुढ़कते हुए पत्थर की कल्पना की तथा वह बहल गया। गड्र-गड्र गड् गड्। फिर उसने धीमे से सरयू प्रसाद से कहा था- ‘‘मुझे जंगल भयावना लगता है।’’<br />
फत्तू ने सुन लिया था। जंगल तो सदा सुहावना होता है। मुझे तो शहरी जानवर ज्यादा भयावने लगते हैं।<br />
‘‘अच्छा।’’ रमिया संकेत पा गया था।<br />
<br />
जंगल में किसी जानवर के ‘रड़ाने’ (कातर हो चिल्लाने) की आवाज से रमिया दहल उठा। उसे कुत्ते के मुंह में लटकता हुआ खरगोश दिखाई दिया, जो कोई आवाज नहीं कर पा रहा था परन्तु किसी जानवर के रड़ाने की आवाज ने उसे बैचेन कर दिया।<br />
फत्तू भागा जा रहा था। अ बवह बिल्कुल चुप था। वे आवा-खड्ड के निकास स्थल के नजदीक थे। सात फुहारे एक स्थान पर आकर गिरते थे। पहाड़ की ऊंचाई कुछ ज्यादा ही टेड़ी-तिरछी हो गयी थी।<br />
<br />
पिज का पीछा करते-करते वे पर्वत-शिखर पर पहुंच गए थे। फिर वे सरपट दौड़ रहे थे। सरयू प्रसाद पीछे रह गया था... वह बुरी तरह से हांफ गया था। वह पहली बार शिकार के लिए गया था...और वह भी वाटरमैन के रूप में। फिर भी वह प्रसन्न था। वह क्षण भर के लिए रूका। तभी धड़ाम्-से किसी के नीचे खड्ड में लुढ़कने की आवाज सुनाई दी। वह पत्थरा गया था। शायद फत्तू का पांव फिसल गया था। वह चीख रहा था?<br />
लेकिन फत्तू तो नीचे उतर रहा था और चिल्ला रहा था- ‘‘सरयू, हम लुट गए। रमिया नीचे जा गिरा खड्ड में। उसका पांव फिसल गया। बेचारा।’’<br />
<br />
‘‘चलो नीचे उतरें।’’<br />
‘‘तुम बेवकूफ हो।’’<br />
‘‘क्यों?’’ <br />
’’जो गया सो गया।’’<br />
‘‘क्या?’’ सरयू प्रसाद लगभग रो पड़ा।<br />
‘‘हां, यह जंगल है। शिकार स्थल है। क्या पता कब किसका शिकार हो जाए। बेचारा कितना अच्छा था।’’<br />
‘‘अभी तो वह जीवित होगा। सिसकियां तो सुनायी दे रही हैं।’’<br />
‘‘तुम पागल हो। सिसक-सिसक कर जीना भी कोई जीना होता है।’’<br />
‘‘फिर?’’<br />
‘‘फिर क्या? थोड़ी रोशनी होगी तो मैं नीचे उतरकर देख आऊंगा।’’<br />
सरयू प्रसाद डर गया था। वह वापस लौटने लगा। फत्तू के विकराल रूप से वह घबरा गया था। वह नीचे सरकता रहा। फत्तू ने कहा- ‘‘यदि तूने गांव में जरा भी हो-हल्ला मचाया तो तुम्हारा क्या हश्र होगा, जाओ और चुपके से जाकर अपनी माँ की रजाई में छिप जाओ।’’<br />
सरयू प्रसाद पालमपुर से कुछ मित्रों को लेकर घटना-स्थल पर पहुंचा तो खड्ड में से धुआं उठ रहा था- एक तरफ फत्तू बैठा था। धुआं धीरे-धीरे लपटों में बदल गया। लपटों में से चीखें निकलती हुई सरयू प्रसाद ने सुनी थीं परन्तु उसे तो सांप सूंघ गया था।<br />
<br />
सांस चलते आदमी को जला दिया गया था- सरयू ने सोचा। कुत्ता जीवित खरगोश को चबा सकता है, छिपकली जीवित जीवों को निगल जाती है...यह सब क्या है? एक कुत्ता एक और खरगोश को मुंह में लपकाए चढियार रोड़ पर आ पहुंचा था।<br />
‘‘तुम्हें वह अच्छी लगती है?’’ ओवर-कोट पहने एक व्यक्ति ने पूछा।<br />
<br />
<br />
‘‘कौन?’’<br />
‘‘लक्ष्मी।’’<br />
‘‘मैं समझा नहीं।’’<br />
‘‘अभी समझाते हैं तुम्हें।’’<br />
‘‘तुम असम में थे?’’<br />
‘‘लेकिन इन बातों का यहां क्या सम्बन्ध है?’’<br />
‘‘सम्बन्ध है, तभी तो पूछ रहे हैं।’’<br />
‘‘हां, मैं वहां था।’’<br />
‘‘तो रिपोर्ट ठीक है।’’ <br />
‘‘कैसी रिपोर्ट?’’<br />
‘‘यही कि तुम नक्सली हो।’’<br />
‘‘मैं? नक्सली?’’<br />
‘‘नहीं, तो क्या हम नक्सली हैं।’’<br />
सन्नाटा और भी गहराने लगा। सरयू प्रसाद को लगा कि चढियार रोड़ पर कुत्ते ही कुत्ते घूम रहे हैं तथा उनके मुंह में खरगोश लटके हुए हैं। लक्ष्मी, सुनहरी, फत्तू, रमिया...यह सब क्या जाल है... उसे लगा वह ककून बुनता उसी में बन्द हो जाएगा। उसने पहले ही अपने आपको सारे सामाजिक संसर्ग में काट लिया है। वह अपने आप में सिमट जाता है...और सिमटा रहना चाहता है। हां, एक बार कहीं बातचीत में उसने यह अवश्य कह दिया था- लक्ष्मी के लक्षण अच्छे नहीं लगते।<br />
<br />
<br />
‘‘क्यों?’’ एक सहयोगी ने पूछा था।<br />
‘‘देखते नहीं कैसे गंधाती फिरती है। अभी अविवाहित है फिर भी नंग-धड़ंग-सी हवा में घूमती रहती है... प्रायः नर मादा को सूंघता है, यहां बात ही उल्टी है। बाप की नाक कटवायेगी।’’<br />
‘‘नहीं ऐसी कोई खास बात नहीं। तुम तो व्यर्थ में परेशान होते हो।’’<br />
दरबारी लाल ने लक्ष्मी के दुश्चरित्र होने की बात सरयू प्रसाद के बकौल सारी हवा में फैला दी.. साथ ही वह स्वयं लक्ष्मी की देह में पिघलता चला गया था। उसने कहा था- देह नश्वर है। परस्पर आकर्षण शाश्वत है।<br />
‘‘मैं सब समझती हूं।’’ लक्ष्मी ने कहा था।<br />
‘‘तुम कुछ नहीं समझती! क्षण का ठहर जाना ही आनन्दवाद का पर्याय है।’’<br />
‘‘क्षण का ठहर जाना निश्चय का शरण मात्र है। फिर भी आकर्षण की बात मुझे जंचती है।’’<br />
<br />
और उन दोनों में आकर्षण की आम चर्चा होने लगी थी परन्तु नाम सरयू प्रसाद का ही लगता है। अब उसे समझ आने लगा था कि ओवरकोट पहने व्यक्ति में विभिन्न रूपों में दरबारी लाल ही थे। ऊंची कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की इज्जत के संरक्षण सरयू प्रसाद को धराशाही करने के लिए तैयार खड़े थे।<br />
<br />
ऊंची कुर्सी पर बैठा व्यक्ति और ऊंचा होने लगा था। सरयू प्रसाद उसके सामने बौना लग रहा था। हूं। तुम मुझे धराशाही करना चाहते हो? उल्लू की दुम। तुम्हारी सात पुश्तों में भी कोई अफसर हुआ है? तुम क्या जानो अफसर तथा उनके अधिकार होते हैं? तुम्हारे बाप-दादा ने कभी लहराती कन्यायें देखी हैं। जिन बातों को तुम सुविधा का दुरूपयोग कहते हो, वे ही तो वास्तव मे अफसरी का सही रंग होती हैं। तुम्हें लक्ष्मी का देह-धर्म चौंकाता है न। एक वर्ग से ऊपर उठ कर देह का कोई धर्म नहीं रहता... बस, हम तो कर्म में विश्वास रखते हैं और तुम व्यर्थ में लक्ष्मी का नाम लेकर अपनी उच्छृंखललता को अभिव्यक्त करते हो। तुम्हारी विचारधारा...?<br />
<br />
सरयू प्रसाद को अब असम, नक्सलवादी, लक्ष्मी आदि शब्दों का अर्थ खुलने लगा था। ओवरकोट पहने लोग...चुपचाप उसे ललकारते लोग...कुत्तों के मुंह में लटके खरगोश.... चुपचाप उसे ललकारते लोग...कुत्तों के मुंह में लटके खरगोश...बिम्बों का एक अपार सिलसिला। सरयू प्रसाद सोचता है तो अनेकों बिम्ब उसके मस्तिष्क में उभरने लगते हैं। कभी ककून में बन्द होता कीड़ा... गुफा में गायब होता आदमी, ककून से बाहर निकलता... छटपटा कर बेसुध हो जाता जीव...लक्ष्मी का देह धर्म मोम का पिघलना...रमिया को सुनहरी का ख्याल...फत्तू का अपनी कल्पना में रमिया को धड़ाम-धड़ाम कर देना...दरबारी लाल का आनन्दवाद... उसका अपना आदर्शवाद... पिछड़ापन... ऊपरी वर्ग के लोगों का देह धर्म...आम आदमी का हवा में उलटे लटक जाना...भ्रम की लाश एवं लालसा को ढोना...<br />
<br />
उसे सब गड्ड-गड्ड लगा। सब व्यर्थ एवं महत्वहीन। उसकी अपनी आदर्श भूमिका भी धीरे-धीरे-धूसारित होने लगी। तभी उसकी इच्छा हुई कि वह अपने ही ककून में बन्द हो जाये। बन्द हो जाने का अभिप्रायः उसका न होना होगा लेकिन होने न होने से क्या फरक पड़ता हैं। क्या यह मात्र भ्रम ही नहीं कि हम बहुत प्रासंगिक हैं, महत्वपूर्ण हैं। उसके सिर में कान खजूरे रेंगने लगे और वह जल्दी से अपने ककून में बन्द हो जाने की सोचने लगा।<br />
‘‘तुम लक्ष्मी में खो गए?’’ ओवरकोट पहने एक व्यक्ति ने फिर पूछा।<br />
<br />
‘‘सुनहरी। कौन सुनहरी?’’<br />
‘‘अरे लक्ष्मी तो थी, यह सुनहरी कहां से आ गई।’’<br />
‘‘कोई होगी। यह भी पूरा घाघ है। पता नहीं कहां-कहां भटकता रहा है।’’<br />
‘‘हूं। देखो इस समय पौधों में प्रकाश-रश्मियां ढूंढ रहा है। बड़ा न्यूटन बिना फिरता है।’’<br />
‘‘क्यों समय नष्ट करते हो? जाओ अपना शिकार ढूंढो।’’<br />
‘‘शिकार तो स्वयं हमारे सामने आकर खड़ा हो गया है।’’<br />
‘‘मुंह में खरगोश लटकाये कुत्ते खड़े थे। जरा-जरा चहलकदमी करते हुए।’’<br />
सरयू प्रसाद की इच्छा हुई कि वह अपने ही ककून में बन्द हो जाये... अन्दर बाहर की व्यथा कथा को एक कर दे। तभी बैजनाथ की ओर से दौड़ते हुए सांड आये...तथा सब में भगदड़ मच गई। ओवरकोट पहने लोग हकबका गए। कुत्ते मुंह में खरगोश लटकाए इधर-उधर सरपट दौड़े।<br />
कुत्तों के सरपट दौड़ने की आवाज अब भी आ रही थी। कीं-कीं की आवाज करता कोई खरगोश शान्त हो गया था।<br />
<br />
उसकी धमनियों में दशहत का कोहरा जमने लगा था ककून अपना आकार लेने लगा था। गुफा के दरवाजे धीरे-धीरे बन्द हो रहे थे और महानगर की सड़क पर मरे हुए कुत्ते-सा वह किसी जमादार द्वारा बेरहमी से घसीटा जा रहा था...निरन्तर।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%95%E0%A5%82%E0%A4%A8_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31210ककून / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-17T14:22:07Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: '{{GKRachna |रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
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<br />
ककून<br />
<br />
कुत्तों के सरपाट दौड़ने तथा बीच-बीच में भौंकने की आवाज छन-छन कर उस तक पहुंचने लगी तथा धीरे-धीरे दशहत का कोहरा उसकी नसों में जमने लगा। उसने चढ़यार रोड़ के तीनों तरफ अपनी दृष्टि घुमाई। नीचे को उतर गयी। सड़क के दोनों ओर घटाटोप झाड़-झंखाड़ों में से अनेक अजगर चिर उठाये उसे दबोचने के लिए तैयार खड़े थे। इस स्थिति से उबरने के लिए उसने धौलाधार पर्वत-श्रृंखला को निहारना चाहा परन्तु काले स्याह जंगलों में से उभरती हुई चिन्दियों में से भुतहा सांय-सांय का ही आभास हुआ।<br />
<br />
दशहत का कोहरा उसकी नसों में निरन्तर नीचे उतर रहा था। सरपट दौड़ते कुत्तों की भों-भों उसके और नजदीक आ रही थी। झाड़ी में से फुदक कर बेचने के लिए प्रयास में कोई खरगोश कुत्तों की लपेट में आ गया था...... उसके कीं-कीं कर शान्त हो जाने का एहसास उसे लिजलिजा-सा लगा।<br />
<br />
वह स्वयं खरगोश बन गया था। वह कब तक भागता रहेगा। कुत्तों की लार बढ़ती ही जा रही थी और फुदकता हुआ वह कई बार थका-हारा सह सोचने पर विवश हो जाता कि इस भागम-भाग से तो पहले ही बार धराशायी हो जाना कहीं अच्छा है। फिर उसक संस्कार जोर मारते- ऐसा करना कायरता है। जूझन्त कहीं बेहतर है। चुपचाप अपने सिद्धान्तों को ताक पर रख देना या अजगर केे मुंह में धकेल देना हार का पर्याय है। उससे तो खरगोश ही अच्छे हैं जो छलांगते-छलांगते कहां से कहां जा निकलते हैं लेकिन उसे खरगोशों का रोशनी के आगे दुबक कर बैठ जाना तथा आत्म-समर्पण कर देना कुछ अटपटा-सा लगता है शायद वह भी तो खरगोश-सा एक दिन दुबक कर शान्त हो जाएगा। यह भी कोई जिन्दगी हुई। घास-पात की तरह उगो और कट जाओ। कोई प्रतिरोध नहीं, कोई विरोध नहीं। हूं...<br />
<br />
कुत्ते सरपट दौड़े आ रहे थे और उसकी नसों में दशहत का विष निरन्तर फैल रहा था। स्कूटर को भी यहीं, खराब होना था। चढ़यार रोड़ पर रात के अन्धकार में बिच्छुओं के झुण्ड खलबली मचा रहे थे।<br />
<br />
कोई गाड़ी ही आ जाए परन्तु शायद किसी तांत्रिक ने सड़क को कील दिया था। कहीं से कोई रोशनी नहीं, कोई आता-जाता नहीं। सरयू प्रसाद को जंगलों से सदा मोह रहा है। उसने बहुत से ऐसे पौधे खोज निकाले हैं, जो रात में प्रकाश रश्मियां विकीर्ण करते हैं परन्तु आज किसी पौधे से प्रकाश नहीं निकल रहा था। ठण्ड में जुगनू भी शायद कहीं विलुप्त हो गए थे।<br />
<br />
कुत्ते सरपट दौड़ रहे थे।<br />
<br />
वह एकाएक कांप गया। उसने एक ओर हट जाना चाहा। शायद वे निकल जाएं। लेकिन वह आ गए थे। बड़े-बड़े ओवरकोट पहने तथा हाथों में टार्च लिये हुए। एक के पास बन्दूक भी थी। वह पहले तो घबराया लेकिन फिर सम्भल कर बोला- ‘‘आप लोग?’’<br />
वे कुछ नहीं बोले। उन्होंने केवल ही... ही...ही... हे...हे... का स्वर किया।<br />
<br />
‘‘लेकिन इस वक्त शिकार... ?’’<br />
‘‘शिकार का कोई टाइम होता है क्या?’’ उसमें से एक चिंघाड़ा।’’<br />
‘‘फिर भी।’’<br />
‘‘फिर भी क्या?’’ पहले ने ही पूछा।<br />
<br />
‘‘तुम यहां क्या कर रहे हो? अपनी बहन को ढूँढने आए हो?’’ दूसरे ने प्रश्न उछाला।<br />
‘‘देखो ढंग से बात करो। नहीं तो अपना रास्ता नापो।’’<br />
<br />
उनमें से एक ने बन्दूक उसकी और तान दी। उसे लगा वह गलत आदमियों में फंस गया है। शिकारियों पर उसे शुरू से ही सन्देह रहा है। न जाने किस की आड़ में वे क्या कर बैठें। विश्वास से एक महीन दीवार ही तो होती है।<br />
कुत्ते सरपट दौड़ रहे थे।<br />
<br />
उस दिन वे तीनों रात दो बजे ही धौलाधार जंगलों की तरफ चल दिए थे। घने जंगल, ऊबड़-खाबड़ पगडंडियां, पेचदार उतराई-चढ़ाई लेकिन फत्तू तो तूफानी चाल से दौड़ा जा रहा था। उसका दोस्त रमिया बहुत बर्षों के बाद उसके पास आया था। आया क्या फत्तू ने ही उसे आमचित्र किया थ वैसे उनकी भेंट तो प्रायः होती रहती थी। रमिया दिल्ली के जिस कॉलेज में पढ़ाता था वहीं फत्तू की पत्नी सुनहरी भी गृह-विज्ञान पढ़ाया करती थी। जब भी फत्तू की छुट्टियां होतीं, तो वह प्रायः दिल्ली चला जाया करता था परन्तु सुनहरी तो अपनी छुट्टियां भी दिल्ली में ही व्यतीत कर देती थी। कभी उसका पति प्रोफेसर नाराज भी होता, तो वह प्यार से घुड़क देती- माई डियर फत्तू! दिल्ली और पालमपुर की दूरी तुम क्या जानो लेकिन सच मानो तो कहूं। मैं कल्पना में हर रोज पालमपुर आया करती हूं। जिन्दगी क्या है? बस एक भरम को पालना एवं ढोना है। अपने ही कवच में सिमट कर अपने ही रंगों का इन्द्रधनुषी ककून बुनना कितना प्रिय लगता है।<br />
<br />
‘‘ककून बुनने का अर्थ मृत्यु को आमंत्रित करना है सुनहरी।’’<br />
<br />
‘‘मैंने कहा न मृत्यु को टालने का भ्रम ही जीवन है। तुम अपने कन्धे पर भ्रम की लाशें ढो रहे हो- लाश को स्वप्न मानकर चलना भरम नहीं तो और क्या है?’’<br />
‘‘तो कल्पना में तुम्हारा पालमपुर आगमन भी एकमात्र एक छलावा है।’’<br />
<br />
‘‘मेरे प्यारे फत्तुआ, छलावा है वह सत्य कैसे हो सकता है।’’<br />
‘‘तो तुम छलावा हो?’’<br />
‘‘फत्तू राम जी, तुम तो निरे तोताराम हो, एकदम भोले-भाले। औरत छलावा नहीं तो और क्या है?’’<br />
‘‘यह तुम कहती हो सुनह.....’’वह अवाक् रह गया था।’’<br />
‘‘हां मैं कहती हूं, जिसके हाड़-मांस में भी रक्त प्रवाहित होता है।<br />
क्या कभी तुमने मेरे दिल की धड़कन सुनी है?’’ सुनहरी ने पूछा।<br />
‘‘क्या कभी तुमने कुत्तों के सरपट दौड़ने का संगीत सुना है?’’<br />
<br />
<br />
‘‘तुम्हारे दिल-दिमाग पर शिकार छाया रहता है। मेरे दिल की धड़कन तथा कुत्तों के सरपट दौड़ने मे तुम्हें कोई अन्तर नहीं आता। तुम जानवर हो, जानवर।’’<br />
‘‘हां, मैं जानवर हूं लेकिन मेरे अन्दर का जानवर अभी पगलाया नहीं। जब वह पगला उठेगा तो तुम्हें रौंद कर रख देगा।’’<br />
‘‘वह दिन कभी नहीं आएगा। तुम्हारा जानवर मर चुका है। तुम्हारा आदमी भी मर चुका है।’’<br />
<br />
फत्तू को सुनहरी की बातों पर विश्वास नहीं होता था। वह इतनी दबंग हो सकती है, यह उसकी कल्पना से बाहर था। उसके मन में नारी की मूर्ति थी मुलायम-सी, लाजवन्ती-सी लाजवन्ती के पौधे-सी छुई-मुई हो जाने वाली, बर्फ का पिघलना या मोम का तरल हो उठना उसे नारी का पर्याय लगता था परन्तु जब उसे सुनहरी में देह की फुंफकार तथा कच्ची लस्सी की डंकार सुनायी दी तो वह चौंक उठा था। अचानक पालमपुर तथा दिल्ली की दूरी कम हो गयी थी। वह सुनहरी पर छा जाना चाहता था। दिल्ली नगर लिजलिजा एवं बेतहाशा तेज जिन्दगी को न चाहता हुआ भी अब वह पालमपुर से दिल्ली तक की सड़कों की लम्बाई में फैल जाता। सुनहरी ने एक बार कहा भी- क्यों व्यर्थ में अपने आप को तोड़ते हो?<br />
<br />
‘‘तुम उसे तोड़ना कहती हो?’’<br />
‘‘और क्या तुम इसे जुड़ जाना कहोगे?’’<br />
‘‘किससे?’’<br />
‘‘किसी से भी। क्या जुड़ जाना किसी एक पुरुष से ही होता है? तोड़ कर फिर जुड़ना तो भावनात्मक संधि पर आधारित होता है।’’<br />
‘‘तुम में क्रूर जानवर है और तुम जानती हो मैं शिकार का शौकीन हूं। जानवर और शिकारी का भावनात्मक संधि-स्थल दोनों में से किसी एक की मौत होती है।’’<br />
‘‘होती होगी।’’<br />
दोनों एक-दूसरे की बातें समझते थे। परन्तु दोनों अपने अस्तित्व को, अपनी पहचान को बनाए रखना चाहते थे। फिर पालमपुर और दिल्ली में दूरी बढ़ती ही गयी। सड़कें और लम्बी हो गयीं, हां, पत्र-व्यवहार बराबर बना हुआ था। सुनहरी प्रायः अपने पत्रों में जीवन के नये क्षितिज देखने का उल्लेख करती। निरन्तर विस्तार.......... विस्तार ही, विस्तार और अपनी दार्शनिक मुद्राओं द्वारा वह फतहचन्द ‘अफलातून’ को कील कर रखना चाहती थी। फिर एक पत्र में उसने अपने पति को लिखा था- क्या आत्मा को कभी बांधा जा सकता है? और फिर यह व्यर्थ के सामाजिक अंकुश, क्या कभी तुमने सोचा है कि ये सब अव्यावहारिक एवं अवांछित हैं। शायद तुमने कभी देश-धर्म की तरलता एवं स्निग्धता को महसूस नहीं किया। तुम कर ही नहीं सकते। जो आदमी दिल की धढ़कन को कुत्तों के सरपट दौड़ने से मिलाता हो, क्या वह आदमी कहलवाने का हकदार है। फिर भी फत्तू, मैं एक बात की कायल हूं- तुम हो महान। तुम्हारा शिकारी जब जानवर हो उठता है न, तो मुझे बड़ा आनन्द आता है। तुम पता नहीं धोलाधार के आंचल में सिकुड़े-सिमटे क्या करते हो, मैं तो आजकल तुम्हारे दोस्त रमिया से योग सीख रही हूं। आह! कितनी आनन्द-दायक घड़ियां होती हैं। बस, इन्ही क्रियाओं में अपना समय व्यतीत हो जाता है। <br />
<br />
कुत्तों का सरपट दौड़ना युद्ध-भूमि में टैंको के दहाड़ने-सी ध्वनि पैदा करने लगा।<br />
<br />
फत्तू को चिट्ठी मिली थी या वह बौखला उठा था। साले रमिया से योग सीखती है। रामनाथ को रमिया लिखती है। लोक-लज्जा की भी कोई हद होती है। उसके सामने योग करती होगी, उल्टी-सीधी टंगती होगी या फिर रमिया उसे पकड़-पकड़ कर टांगें ऊंची करके हवा में उल्टे लटकना तथा अंग-संचालन सिखाता होगा। बड़ा शिकारी आया है। जानवर कहीं का। और वह दिल्ली पहुंच गया।<br />
बस सुबह पांच बजे इण्टर-स्टेट बस-अड्डे पर जा लगी थी। और घण्टे में फत्तु अपने घर था। घर के बरामदे में सुनहरी वृश्चिक-आसन कर रही थी और रमिया जी उसे सब सिखा रहे थे।<br />
<br />
‘‘अरे अफलातून! तुम.....’’<br />
‘‘हां, मैं।’’<br />
‘‘फत्तू, पहले लिखा तो होता।’’<br />
‘‘क्यों क्या पत्नी के पास आने के लिए पहले डेट लेनी होती है?’’<br />
‘‘तुम तो जानवर ही रहे।’’<br />
‘‘हूं, अब मैं तुम दोनों को जानवर दिखाई देता हूं।’’<br />
‘‘हूं, अब मैं तुम दोनों को जानवर दिखाई देता हूं। और तुम दोनों शायद शिकारी हो गए हो।’’ उसकी आँखों में खून उतर आया था।<br />
रमिया स्थिति को भांप गया। वहां से गायब हो गया था। फत्तू ने अपने अन्दर के जानवर को अस्थायी तौर पर दबा लिया था वह शान्त दिखाई देने लगा था। वह एक-दो दिन दिल्ली रह कर लौट आया था।<br />
सरयू प्रसाद को याद है कि फत्तू ने उसे विशेष रूप से आमंत्रित किया था। रमिया को भी दिल्ली से बुलाया था। धौलाधार पर बर्फ की परतें जम गयी थीं और शिकार की सम्भावना बढ़ गयी थी। फत्तू ने सरयू प्रसाद से कहा था- तुम भी साथ चलना। तुम्हारा मन बहल जाएगा।<br />
<br />
‘‘अगर दहल गया तो?’’<br />
‘‘नहीं...... तुम तो व्यर्थ में परेशान रहते हो। अच्छी नौकरी है। गऊ-सी बीबी तुम्हारे पास है, पुत्र है, पुत्री है, तुम्हारा अपना मकान है। फिर भी परेशान रहते हो।’’<br />
‘‘परेशान क्यों रहता हूं यह तो तुम जानती ही हो। सच को सच कहना भी आजकल गुनाह है। मैंने यही तो कहा था कि विभाग का सीमेण्ट, लकड़ी आदि न जाने कहां गायब हो गया।’’<br />
<br />
‘‘सबको पता होता है कि कहां जाता है परन्तु सब चुप रहते हैं। परन्तु तुम नौकरी का अर्थ नहीं जानते क्या?’’<br />
‘‘अब थोड़ा-थोड़ा समझ में आने लगा है।’’<br />
‘‘क्या?’’<br />
‘‘यही, कि जितना बड़ा अधिकारी, सुविधाओं के प्रति उतना ही बलात्कारी। सब अधिकारियों की कुण्डली एक-सी होती है।’’<br />
‘‘तुम महात्मा गांधी हो क्या? बुद्ध हो या ईसा? तुम सरासर बेवकूफ हो। क्यों व्यर्थ में सलीब पर गड़ जाना चाहते हो।<br />
‘‘हां, मैं सलीग पर गड़ जाना चाहता हूं। सच्चाई के लिए मैं ईसा हो जाना चाहता हूं।’’<br />
‘‘बातों में तुम्हें कौन जीत सका है। शायद तुम्हारे पीतल के दांत ने तुम्हें कानूनी बना दिया है। जंगल में जाओगे तो सब भूल जाओगे, वहां जंगल का कानून लगता है।’’<br />
‘‘मैंने कभी शिकार नहीं खेला है।’’<br />
<br />
‘‘यह सब झूठ है। हर आदमी जिन्दगी भर शिकार की तलाश में रहता है और पता नहीं क्या-क्या दांव पेच अपनाता है।’’ थोड़ा रूक कर वह बोला था- ‘‘मुझे प्रायः लगता है कि मेरा भी शिकार किया जा रहा है। मैं धीरे-धीरे शिकारी के मुंह में धंसता जाता हूं।’’<br />
<br />
सरयू प्रसाद को लगा था फत्तू ने उसकी मनःस्थिति का बिल्कुल सही चित्रण कर दिया था। उसका अपना सिर भी तो शेर के जबड़ों में फंसा हुआ है। सिर बाहर खींचता है तो लहूलुहान हो जाने का भय है और यदि अन्दर जाने देता है, तो उसका अन्त है।<br />
<br />
खरगोश का कुत्ते के मुंह में लटक जाना......... अजगर की जीव को लपक जाना....... छिपकली का मुंहबाए दीवार पर लटके रहना........ या फिर बड़ी मछली का छोटी मछली को निगल जाना....... क्या विधान है? शायद आदमी ने शिकार खेलना जीव-जन्तुओं से ही सीखा हैः जीव-जन्तु जो निरीह होते हैं, सीधे-सादे........ आदमी बहुमुखी जानवर है, जो रूप बदल-बदलकर हर प्रकार का शिकार करता है- जीवनभर घात लगाए बैठा रहता है। सर्पिणी की तरह अपनों को खा जाता है। सोचकर सरयू प्रसाद चौंक उठा था।<br />
रात के दो बजे वे धौलाधार पर्वत-श्रृंखला पर चढ़ रहे थे। फत्तू, रमिया तथा सरयू प्रसाद। कड़कड़ाती ठण्ड। थोड़ी दूर जाकर फत्तू ने कहा था- ‘‘अरे भई, वाटरमैन लाओ तो घूंट-घूंट।’’ सरयू प्रसाद ने पालमपुरी तोड़ की ड्रमी आगे कर दी थी। फत्तू मुंह लगाकर दो-चार घूंट पी गया था। फिर उसने ड्रमी रमिया की ओर बढ़ा दी थी। रमिया बोला था- ‘‘फत्तू! मैं ऐसे नहीं पी सकता। मुझे उबकाई आती है।’’<br />
<br />
‘‘हूं। मैं तुझे बार में ले चलूंगा। वहां कच्चे पनीर की लम्बी-लम्बी टुकड़िया होंगी, कलेजी होगी और फिर तुम मजे से बैठ कर चढ़ा लेना।’’<br />
रमिया ने अविश्वास से उसकी ओर देखा। सरयू प्रसाद ने मुस्कराते हुए कहा था- ‘‘बातों ही बातों में फत्तू महल खड़े कर देता है।’’<br />
‘‘क्या अपनी बात को सच कर दूं।’’<br />
‘‘कैसे?’’<br />
‘‘जानते नहीं अभी तो हम पहली धार पर ही हैं। यहां से नीचे धक्का दूं तो रमिया ‘न्यूगल कैफ’ में जा घुसेगा।’’<br />
रमिया ने लुढ़कते हुए पत्थर की कल्पना की तथा वह बहल गया। गड्र-गड्र गड् गड्। फिर उसने धीमे से सरयू प्रसाद से कहा था- ‘‘मुझे जंगल भयावना लगता है।’’<br />
फत्तू ने सुन लिया था। जंगल तो सदा सुहावना होता है। मुझे तो शहरी जानवर ज्यादा भयावने लगते हैं।<br />
‘‘अच्छा।’’ रमिया संकेत पा गया था।<br />
<br />
जंगल में किसी जानवर के ‘रड़ाने’ (कातर हो चिल्लाने) की आवाज से रमिया दहल उठा। उसे कुत्ते के मुंह में लटकता हुआ खरगोश दिखाई दिया, जो कोई आवाज नहीं कर पा रहा था परन्तु किसी जानवर के रड़ाने की आवाज ने उसे बैचेन कर दिया।<br />
फत्तू भागा जा रहा था। अ बवह बिल्कुल चुप था। वे आवा-खड्ड के निकास स्थल के नजदीक थे। सात फुहारे एक स्थान पर आकर गिरते थे। पहाड़ की ऊंचाई कुछ ज्यादा ही टेड़ी-तिरछी हो गयी थी।<br />
<br />
पिज का पीछा करते-करते वे पर्वत-शिखर पर पहुंच गए थे। फिर वे सरपट दौड़ रहे थे। सरयू प्रसाद पीछे रह गया था... वह बुरी तरह से हांफ गया था। वह पहली बार शिकार के लिए गया था...और वह भी वाटरमैन के रूप में। फिर भी वह प्रसन्न था। वह क्षण भर के लिए रूका। तभी धड़ाम्-से किसी के नीचे खड्ड में लुढ़कने की आवाज सुनाई दी। वह पत्थरा गया था। शायद फत्तू का पांव फिसल गया था। वह चीख रहा था?<br />
लेकिन फत्तू तो नीचे उतर रहा था और चिल्ला रहा था- ‘‘सरयू, हम लुट गए। रमिया नीचे जा गिरा खड्ड में। उसका पांव फिसल गया। बेचारा।’’<br />
<br />
‘‘चलो नीचे उतरें।’’<br />
‘‘तुम बेवकूफ हो।’’<br />
‘‘क्यों?’’ <br />
’’जो गया सो गया।’’<br />
‘‘क्या?’’ सरयू प्रसाद लगभग रो पड़ा।<br />
‘‘हां, यह जंगल है। शिकार स्थल है। क्या पता कब किसका शिकार हो जाए। बेचारा कितना अच्छा था।’’<br />
‘‘अभी तो वह जीवित होगा। सिसकियां तो सुनायी दे रही हैं।’’<br />
‘‘तुम पागल हो। सिसक-सिसक कर जीना भी कोई जीना होता है।’’<br />
‘‘फिर?’’<br />
‘‘फिर क्या? थोड़ी रोशनी होगी तो मैं नीचे उतरकर देख आऊंगा।’’<br />
सरयू प्रसाद डर गया था। वह वापस लौटने लगा। फत्तू के विकराल रूप से वह घबरा गया था। वह नीचे सरकता रहा। फत्तू ने कहा- ‘‘यदि तूने गांव में जरा भी हो-हल्ला मचाया तो तुम्हारा क्या हश्र होगा, जाओ और चुपके से जाकर अपनी माँ की रजाई में छिप जाओ।’’<br />
सरयू प्रसाद पालमपुर से कुछ मित्रों को लेकर घटना-स्थल पर पहुंचा तो खड्ड में से धुआं उठ रहा था- एक तरफ फत्तू बैठा था। धुआं धीरे-धीरे लपटों में बदल गया। लपटों में से चीखें निकलती हुई सरयू प्रसाद ने सुनी थीं परन्तु उसे तो सांप सूंघ गया था।<br />
<br />
सांस चलते आदमी को जला दिया गया था- सरयू ने सोचा। कुत्ता जीवित खरगोश को चबा सकता है, छिपकली जीवित जीवों को निगल जाती है...यह सब क्या है? एक कुत्ता एक और खरगोश को मुंह में लपकाए चढियार रोड़ पर आ पहुंचा था।<br />
‘‘तुम्हें वह अच्छी लगती है?’’ ओवर-कोट पहने एक व्यक्ति ने पूछा।<br />
<br />
<br />
‘‘कौन?’’<br />
‘‘लक्ष्मी।’’<br />
‘‘मैं समझा नहीं।’’<br />
‘‘अभी समझाते हैं तुम्हें।’’<br />
‘‘तुम असम में थे?’’<br />
‘‘लेकिन इन बातों का यहां क्या सम्बन्ध है?’’<br />
‘‘सम्बन्ध है, तभी तो पूछ रहे हैं।’’<br />
‘‘हां, मैं वहां था।’’<br />
‘‘तो रिपोर्ट ठीक है।’’ <br />
‘‘कैसी रिपोर्ट?’’<br />
‘‘यही कि तुम नक्सली हो।’’<br />
‘‘मैं? नक्सली?’’<br />
‘‘नहीं, तो क्या हम नक्सली हैं।’’<br />
सन्नाटा और भी गहराने लगा। सरयू प्रसाद को लगा कि चढियार रोड़ पर कुत्ते ही कुत्ते घूम रहे हैं तथा उनके मुंह में खरगोश लटके हुए हैं। लक्ष्मी, सुनहरी, फत्तू, रमिया...यह सब क्या जाल है... उसे लगा वह ककून बुनता उसी में बन्द हो जाएगा। उसने पहले ही अपने आपको सारे सामाजिक संसर्ग में काट लिया है। वह अपने आप में सिमट जाता है...और सिमटा रहना चाहता है। हां, एक बार कहीं बातचीत में उसने यह अवश्य कह दिया था- लक्ष्मी के लक्षण अच्छे नहीं लगते।<br />
<br />
<br />
‘‘क्यों?’’ एक सहयोगी ने पूछा था।<br />
‘‘देखते नहीं कैसे गंधाती फिरती है। अभी अविवाहित है फिर भी नंग-धड़ंग-सी हवा में घूमती रहती है... प्रायः नर मादा को सूंघता है, यहां बात ही उल्टी है। बाप की नाक कटवायेगी।’’<br />
‘‘नहीं ऐसी कोई खास बात नहीं। तुम तो व्यर्थ में परेशान होते हो।’’<br />
दरबारी लाल ने लक्ष्मी के दुश्चरित्र होने की बात सरयू प्रसाद के बकौल सारी हवा में फैला दी.. साथ ही वह स्वयं लक्ष्मी की देह में पिघलता चला गया था। उसने कहा था- देह नश्वर है। परस्पर आकर्षण शाश्वत है।<br />
‘‘मैं सब समझती हूं।’’ लक्ष्मी ने कहा था।<br />
‘‘तुम कुछ नहीं समझती! क्षण का ठहर जाना ही आनन्दवाद का पर्याय है।’’<br />
‘‘क्षण का ठहर जाना निश्चय का शरण मात्र है। फिर भी आकर्षण की बात मुझे जंचती है।’’<br />
और उन दोनों में आकर्षण की आम चर्चा होने लगी थी परन्तु नाम सरयू प्रसाद का ही लगता है। अब उसे समझ आने लगा था कि ओवरकोट पहने व्यक्ति में विभिन्न रूपों में दरबारी लाल ही थे। ऊंची कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की इज्जत के संरक्षण सरयू प्रसाद को धराशाही करने के लिए तैयार खड़े थे।<br />
ऊंची कुर्सी पर बैठा व्यक्ति और ऊंचा होने लगा था। सरयू प्रसाद उसके सामने बौना लग रहा था। हूं। तुम मुझे धराशाही करना चाहते हो? उल्लू की दुम। तुम्हारी सात पुश्तों में भी कोई अफसर हुआ है? तुम क्या जानो अफसर तथा उनके अधिकार होते हैं? तुम्हारे बाप-दादा ने कभी लहराती कन्यायें देखी हैं। जिन बातों को तुम सुविधा का दुरूपयोग कहते हो, वे ही तो वास्तव मे अफसरी का सही रंग होती हैं। तुम्हें लक्ष्मी का देह-धर्म चौंकाता है न। एक वर्ग से ऊपर उठ कर देह का कोई धर्म नहीं रहता....... बस, हम तो कर्म में विश्वास रखते हैं और तुम व्यर्थ में लक्ष्मी का नाम लेकर अपनी उच्छृंखललता को अभिव्यक्त करते हो। तुम्हारी विचारधारा...?<br />
<br />
सरयू प्रसाद को अब असम, नक्सलवादी, लक्ष्मी आदि शब्दों का अर्थ खुलने लगा था। ओवरकोट पहने लोग...चुपचाप उसे ललकारते लोग...कुत्तों के मुंह में लटके खरगोश.... चुपचाप उसे ललकारते लोग...कुत्तों के मुंह में लटके खरगोश...बिम्बों का एक अपार सिलसिला। सरयू प्रसाद सोचता है तो अनेकों बिम्ब उसके मस्तिष्क में उभरने लगते हैं। कभी ककून में बन्द होता कीड़ा... गुफा में गायब होता आदमी, ककून से बाहर निकलता... छटपटा कर बेसुध हो जाता जीव...लक्ष्मी का देह धर्म मोम का पिघलना...रमिया को सुनहरी का ख्याल...फत्तू का अपनी कल्पना में रमिया को धड़ाम-धड़ाम कर देना...दरबारी लाल का आनन्दवाद... उसका अपना आदर्शवाद... पिछड़ापन... ऊपरी वर्ग के लोगों का देह धर्म...आम आदमी का हवा में उलटे लटक जाना...भ्रम की लाश एवं लालसा को ढोना...<br />
<br />
उसे सब गड्ड-गड्ड लगा। सब व्यर्थ एवं महत्वहीन। उसकी अपनी आदर्श भूमिका भी धीरे-धीरे-धूसारित होने लगी। तभी उसकी इच्छा हुई कि वह अपने ही ककून में बन्द हो जाये। बन्द हो जाने का अभिप्रायः उसका न होना होगा लेकिन होने न होने से क्या फरक पड़ता हैं। क्या यह मात्र भ्रम ही नहीं कि हम बहुत प्रासंगिक हैं, महत्वपूर्ण हैं। उसके सिर में कान खजूरे रेंगने लगे और वह जल्दी से अपने ककून में बन्द हो जाने की सोचने लगा।<br />
‘‘तुम लक्ष्मी में खो गए?’’ ओवरकोट पहने एक व्यक्ति ने फिर पूछा।<br />
<br />
‘‘सुनहरी। कौन सुनहरी?’’<br />
‘‘अरे लक्ष्मी तो थी, यह सुनहरी कहां से आ गई।’’<br />
‘‘कोई होगी। यह भी पूरा घाघ है। पता नहीं कहां-कहां भटकता रहा है।’’<br />
‘‘हूं। देखो इस समय पौधों में प्रकाश-रश्मियां ढूंढ रहा है। बड़ा न्यूटन बिना फिरता है।’’<br />
‘‘क्यों समय नष्ट करते हो? जाओ अपना शिकार ढूंढो।’’<br />
‘‘शिकार तो स्वयं हमारे सामने आकर खड़ा हो गया है।’’<br />
‘‘मुंह में खरगोश लटकाये कुत्ते खड़े थे। जरा-जरा चहलकदमी करते हुए।’’<br />
सरयू प्रसाद की इच्छा हुई कि वह अपने ही ककून में बन्द हो जाये..... अन्दर बाहर की व्यथा कथा को एक कर दे। तभी बैजनाथ की ओर से दौड़ते हुए सांड आये...तथा सब में भगदड़ मच गई। ओवरकोट पहने लोग हकबका गए। कुत्ते मुंह में खरगोश लटकाए इधर-उधर सरपट दौड़े।<br />
कुत्तों के सरपट दौड़ने की आवाज अब भी आ रही थी। कीं-कीं की आवाज करता कोई खरगोश शान्त हो गया था।<br />
<br />
उसकी धमनियों में दशहत का कोहरा जमने लगा था ककून अपना आकार लेने लगा था। गुफा के दरवाजे धीरे-धीरे बन्द हो रहे थे और महानगर की सड़क पर मरे हुए कुत्ते-सा वह किसी जमादार द्वारा बेरहमी से घसीटा जा रहा था...निरन्तर।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31209सुशील कुमार फुल्ल2016-06-17T14:06:44Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: /* कहानियाँ */</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=<br />
|नाम=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=15 अगस्त 1941<br />
|जन्मस्थान=गांव काईनौर, ज़िला रोपड़, पंजाब<br />
|मृत्यु=<br />
|कृतियाँ=<br />
|विविध=<br />
|जीवनी=[[सुशील कुमार फुल्ल / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Sushil Kumar Phull<br />
|shorturl=<br />
|kavitakosh=<br />
|copyright=<br />
}}<br />
====कहानियाँ====<br />
* [[बसेरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बढ़ता हुआ पानी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[मेमना / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फंदा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ठूँठ / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[कोहरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बांबी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[रिज पर फौजी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[माटी के खिलौने / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[चिड़ियों का चोगा / सुशील कुमार फुल्ल]] <br />
* [[दान पुन्न / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अटकाव / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अनुपस्थित / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[प्रेम का अन्तर्राष्ट्रीय संस्करण / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अपने-अपने दुःख / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फ़ासला / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ककून / सुशील कुमार फुल्ल]]</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%B2%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31208फ़ासला / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-17T14:04:54Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: '{{GKRachna |रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
<br />
<br />
वह पहली बस से चला था सुबह पाँच बजे। टिकट लेते हुए क्षण भर के लिए वह हिचकिचा गया। सीधा शिमला का टिकट ले ले यार फिर आज बिलासपुर ही रुक जाएं। उन्हें देख भी लेगा। परन्तु फिर उसने एकाएक कहा था- एक सीट शिमला।<br />
<br />
उसे अपनी मनःस्थिति पर क्षोभ हुआ था। जब उसने लिखा ही नहीं, न ही कभी कोई उत्सुकता दिखाई है, वह वह क्यों बिना बुलाए चला जाएं। भाई हुआ तो क्या है? उसने कौन सा भाई का धर्म निभाया है। वह नहीं रुकेगा, कभी नहीं। वह पैसे वाला होगा तो अपने लिए। कौन किसी को कुछ देता है। सब अपने-अपने परिवार में लीन हो जाते हैं। सब रिश्ते नाते पीछे छूट जाते हैं। गृहणी घर आई नहीं कि बस मां-बाप, भाई-बहिन सब व्यर्थ हो जाते हैं। अपना ही खून पानी हो जाता है। गलती तो मेरी है, उसने सोचा।<br />
<br />
वह खिड़की में से उभरते-सरकते। फैले पहाड़ों की श्रृंखलाओं को निहार रहा था। भले भले से, मासूम से पहाड़, जिसमें कोई छल-कपट नहीं, कोई घृणा नहीं। सब को स्वीकार लेना ही मानो इस का धर्म है। अपनी छाती पर नये-नये पेड़-पौधों को उगते देख लहलहाना...... हर्षित होना...... पर्वतों का नाचना-झूमना........ कितना भला लगता है। मैंने भी तो पर्वत की भान्ति अपने नन्हें-मुन्हें बहिन-भाईयों को आगे बढ़ते देखने का स्वप्न संजोया था, माधव ने सोचा। हां, और इस ध्येय में कुछ सीमा तक सफलता भी मिली। राघव की ही बात ही ले लो। गाँव की जमीन बेच कर इसे इतना पढ़ाया लिखाया। अब बिलासपुर में इंजीनियर लगा है। खूब पैसे कमाता हैं। ठाठ से रहता है, ठाठ से रहे, यह तो अच्छा ही है परन्तु... एकाएक सब को विस्मृत कर दे, यह कहाँ का बड़प्पन हुआ? बिना सम्बधों के भी कोई बात होती है? माँ-बाप तो माँ-बाप ही होते हैं। विवाह से पहले बूढ़े माँ-बा पतो मन्दिर के भगवान हैं। इन की जितनी भी सेवा करूं थोड़ी है। बस मेरी शादी हों जाए, फिर मैं इन्हें गदियाड़ा में नहीं रहने दूंगा। न खाने ने का ढ़ंग, न रहने का ढ़ंग। कोई बीमार हो जाए तो...तो कितनी मुसीबत होगी।<br />
<br />
माधव हर्षित हो गया था। भाव-विभोर। आज के युग में माँ-बाप के प्रति ऐसा स्वस्थ दृष्टिकोण पा कर माधव अपने छोटे भाई राघव को देखता ही रह गया था। फिर बोला था- क्या भाई और भावज को नहीं रखोगे अपने पास।<br />
<br />
‘वाह! क्या खूब कही। यदि माँ-बाप मन्दिर के भगवान हैं, तो भाई-भाभी भगवान के साथ रहने वाले देवी-देवता हैं। राघव ने आस्थावादी स्वर में कहा था।<br />
माधव सारे गाँव में अपने भाई के सद-विचारों का ढिंढोरा पीटता रहा था, गुण-गान करता रहा था।<br />
<br />
पहली बार राघव घर आया था, तो परिवार के सब सदस्यों के लिए कुछ न कुछ उपहार लाया था। अपने भाई के लिए बढ़िया पट्टु भी। वह सब को दिखाता फिरा था। वह पट्टु अब भी बैग में है। शिमला में ठण्ड अधिक है न। और क्या पता राम मिले या न मिले। फिर कहीं इधर-उधर टिकना पड़ेगा। वैसे राम दूर के रिश्ते में भाई लगता है। जब भी शिमला जाओ, तो उसके पास ही ठहरना पड़ता है। वह कहीं और जाने ही नहीं देता। माधव पहुंचा नहीं कि राम चाय बनाएगा, दाल-चावल तैयार करेगा। और फिर माल रोड़ पर घुमाने ले जाएगा। कितना अच्छा है वह।<br />
<br />
ऐेसे ही एक बार शिमला जाते हुए वह बिलासपुर रुक गया था। राघव के घर मेहमान देखकर उसे कुछ अजीब सा लगा था। अभी शादी हुई नहीं कि कुछ अजीब सा लगा था। अभी शादी हई नहीं कि साली साहिबा पहले ही आ धमकीं। और राघव को भी कुछ अच्छा नहीं लगा था। दुबके-दुबके बोला था- आपने आना ही था, तो पहले तो लिख दिया होता।<br />
<br />
‘घर के लिए भी क्या पहले लिखना जरूरी होता है। तुम गदियाड़ा आते हो तो पहले लिखकर आते हो? माधव को गुस्सा आया था।<br />
‘वहाँ तो माँ-बाप। राघव ने कहा था।<br />
<br />
‘तो यहां मेरा कोई नहीं है? ... घबराओ नहीं मैं तुम्हारे पास नहीं टिकूंगा। और माधव ने अपना थैला उठाया था, तथा धनी राम गद्दी के घर की ओर चल दिया था।<br />
<br />
राघव की साली खड़ी मुस्करा रही थी। राघव ने इतना भर कहा था- भईया। आप यहीं रुकते न। वहां जगह तंग है।<br />
राघव ने रूक कर कहा था- जगह की तंगी की कोई बात नहीं दिल तंग नहीं होना चाहिए।<br />
<br />
खिसियानी सी, मरी सी हंसी हंसते हुए रघू इतना ही बोल पाया- भाई सुबह आ जाना।<br />
<br />
‘तुम अपना काम करो, भईया की चिन्ता छोड़ दो।’ कह कर वह चला गया था।<br />
<br />
वह दिन और आज का दिन। वह कभी। उसके घर नहीं गया। लेकिन अब तो बात दूसरी है। राघव के पुत्र ने जन्म लिया है। सोच कर वह फिर गद्गद् हो गया।<br />
बस टेड़े-मेढ़े पहाड़ों को चीरती हुई घूम रही थी। फासला कम होता जा रहा था। वह सोचने लगा शायद बस अड्डे पर कहीं मिल जाये। शायद किसी को मिलने पर चढ़ाने आया हो। यदि आया हो तो अच्छा ही है। वह उसे देखेभर लेगा। उससे बोले या नहीं। ऐसा भी क्या कि भाई को पत्र भी न दो। पैसा नहीं तो क्या है? भाई-भाई प्रेम तो है। प्रेम के बिना है भी क्या? एकाएक उसकी आँखों में चमक आ गई।<br />
<br />
बस मण्डी से बहुत आगे निकल गई थी। कब सुन्दरनगर आया, उसे पता ही न चला। बस अब थोड़ी देर में बिलासपुर आ जाएगा। यदि मिल गया तो...तो मैं उसे ही पाँच रुपये का शगुन उसके पुत्र के लिए पकड़ा दूंगा। घर तो जा नहीं पाऊंगा। अजीब आदमी है। बुलाया ही नहीं। सालियां कब की होकर चली गईं...ये चीज ही ऐसी है। आदमी को उल्लू जो बनाती हैं। उसने अपनी जेबें टटोली। हां, पाँच का एक नोट तो था जेब में। वह प्रसन्न हो गया।<br />
<br />
अभी बिलासपुर पाँच छः किलोमीटर था। उसने बस की खिड़की खोल ली ठण्डी हवा चल रही थी, अतः बाकी सवारियों ने उसे बन्द करवाना चाहा। माधव ने बहाना बनाया- मुझे उलटिया आती हैं। और उसने वैसा ही अभिनय भी कर दिया। लेकिन वह बड़ी से बाहर देख रहा था। बिलासपुर का पुलिस-स्टेशन निकल गया, डाकघर भी...बाजार भी किन्तु वह दिखाई नहीं दिया। बस अड्डे पर जा लगी। वह बहुत बैचेन हो उठा। इधर-उधर टटोलने लगा...भीड़ में कोई परिचित चेहरा उसे दिखाई नहीं दिया। उसने पाँच का नोट बाहर निकाला, बड़े ध्यान से देखा। फिर हाथ में ही पकड़ लिया। अपने भतीजे को देगा।<br />
<br />
तभी उसे भीड़ में घूमता पाँच-छः साल का एक छोटा बच्चा दिखाई दिया। जिसके शरीर पर कम से कम आधा इंच मैल जीम हुई थी, पैर नंगे, वस्त्र फटे हुए और गन्दगी में चीकट लेकिन आँखों में एक चमक...एक जिजीविषा... माधव की इच्छा हुई कि वह नोट अपने भतीजे के स्थान पर उसे दे दे... भतीजे के नाम पर...वह खिल उठा। उसने ज्यों ही नोट उस बच्चे की और बढ़ाया... तभी एक पेंटधारी परन्तु फटे कमीज़ वाले व्यक्ति ने वह नोट छीन कर अट्टहास किया... तथा बड़ी-बड़ी आँखों से घूरता हुआ उस पर मुस्कराता रहा... हा... हा... हा...माधव डर गया... फासला घटा नहीं बल्कि बढ़ता ही गया...बढ़ता ही गया।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31207सुशील कुमार फुल्ल2016-06-17T13:53:11Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: /* कहानियाँ */</p>
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|नाम=सुशील कुमार फुल्ल<br />
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|जन्म=15 अगस्त 1941<br />
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}}<br />
====कहानियाँ====<br />
* [[बसेरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बढ़ता हुआ पानी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[मेमना / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फंदा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ठूँठ / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[कोहरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बांबी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[रिज पर फौजी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[माटी के खिलौने / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[चिड़ियों का चोगा / सुशील कुमार फुल्ल]] <br />
* [[दान पुन्न / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अटकाव / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अनुपस्थित / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[प्रेम का अन्तर्राष्ट्रीय संस्करण / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अपने-अपने दुःख / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फ़ासला / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ / सुशील कुमार फुल्ल]]</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A5%87-%E0%A4%85%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A5%87_%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%83%E0%A4%96_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31206अपने-अपने दुःख / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-17T13:48:57Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल |अनुवाद= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
<br />
'''ला'''ला जी छिटक कर एक ओर जा बैठे। क्षण भर सोचने के बाद फिर उठे चिलम भर कर हुक्का गुड़गुड़ाने लगे। हुक्के के श्वास-निश्वास की धमाचौकड़ी से स्पष्ट झलकता था कि लाला जी के मन में कोई बहुत बड़ा तूफान उठ खड़ा हुआ था जिसे वह नियन्त्रण में नहीं ला पा रहे थे। अस्तित्व की नपुंसकता ने उन्हें बुरी तरह झकझोर दिया था।<br />
<br />
यह संयोग मात्र ही था कि उनके तीनों लड़के आज अचानक उनसे मिलने आ गए थे। लगभग ग्यारह बजे होंगे जब मंझला लड़का अशान्त अपनी पत्नी सहित आ पहंुचा था। पिता के चेहरे पर उदासी के चिन्ह देखकर उसे दुःख हुआ परन्तु फिर स्थिति की गम्भीरता एवं सम्बन्धों की तरलता को समझता हुआ वह चुप ही रहा। माँ ने तुरन्त चाय के पानी रख दिया तथा फिर अपने पति से बोली- कुछ नमकीन ले आओ।<br />
<br />
<br />
लाला जी ने आग्नेय नेत्रों से अपनी पत्नी की ओर देखा। फिर बाले- नमकीन? अपना सिर देकर ले आऊं? आज पन्द्रह हो गई है परन्तु साहिबजादों में से किसी को भी ध्यान नहीं आया कि पैसे भेज दें। जैसे इनके बाप ने रोकड़े जमा कर रखी हों।<br />
<br />
<br />
‘तो कर लेते रोकड़ें जमा। किसी ने रोका था क्या? मुझे भी तुम्हारी वजह से ही लड़कों को मुंह ताकना पड़ता है।’ माँ के स्वर में खीझ थी।<br />
<br />
‘अशान्त से बहुत आशाऐं थीं परन्तु इसने सब कुछ गड़मड़ कर दिया। योवन मैं मैंने जो भविष्य का सपना संजोया था, वह चकनाचूर कर दिया। पति-पत्नी दोनों लगभग दो हज़ार रुपये प्रति माह कमाते हैं, परन्तु माँ-बा पके लिए पचास रुपये से ज्यादा कभी एक कौड़ी नहीं निकालते।’ लाला जी का अभी मूड था भाषण देने का परन्तु उनकी पत्नी स्थिति को भाँपते हुए दो का नोट निकाल कर दे दिया।<br />
<br />
लाला जी के चेहरे पर क्षण भर के लिए सन्तोष फैल गया और वह नमकीन लेने बाजार चले गए। माँ ने स्थिति की गम्भीरता को हल्का करने के लिए कहा- बेटा, अपने पिता की बातों का बुरा नहीं मानना। इन को तो ऐसी आदत ही लग गई है। किसी भी बात से सन्तुष्ट नहीं होते। जरा-जरा बात पर झगड़ा। यह तो मैं ही हूँ जो काट रही हूँ। कोई ओर होती तो कब की चली गई होती।<br />
<br />
अशान्त अपनी माँ की दार्शनिक मुद्रा पर खुब कर मुस्करा दिया। उसने यही वार्तालाप माँ से पिछले पन्द्रह साल में कई बार सुना था। बहु को भी हंसने की मुद्रा बनी परन्तु वह हंसी को टाल गयी।<br />
<br />
अभी चाय बनी ही थी कि अशान्त का छोटा भाई आ पहुंचा। सुभाष के आगमन से लाला जी का चेहरा खिल उठा। वही तो है तीनों में से जो माँ-बा पके खान-पान पर अथिकाँश खर्च करता है। उस के आने से वैसे भी घर चहकाने लगता है।<br />
<br />
भाभी ने देवर से कहा- तुम्हें लड़की पसन्द आ गई, हमें आश्चर्य हुआ, बधाई हो।<br />
<br />
सुभाष ठहका लगाकर हंसा। फिर गम्भीर होता हुआ बोला- मुझे तो अब भी लड़की पसन्द नहीं। हाँ, पिता जी को पसन्द है।<br />
<br />
‘अरे विवाह तुम करवा रहे हो, पिता जी नहीं।’ अशान्त ने तीर छोड़ा।<br />
‘अपनी लड़कियों जैसी तो है।’ माँ ने बीच-बचाव किया।<br />
‘पता नहीं आजकल के लड़के अपने आप को क्या समझते हैं पाँच सौ रुपये क्या मिलने लगता है, बस दिमाग ही आसमान पर चढ़ जाता है। इतने नखरे इस सुभाष ने कोई चालीस-पैंतालीस लड़कियां देखी होंगी और पसन्द कोई नहीं। लड़की का कद इतना होना चाहिए, रंग रूप ऐसा हों, नाक इतनी लम्बी हो, कान बाहर निकले हुए न हों, मुख पर कोई दाग न हों, रंग गुलाब की तरह दहकना चाहिए......... और न जाने क्या-क्या। जैसे लड़की आर्डर दे कर बनवानी हो। अशान्त। इसे कहो यह शीशे में अपनी शक्ल तो देख ले।’ लाला जी फुँफकारते हुए कहा।<br />
<br />
सुभाष ने चीरती नजर से अपने पिता को देखा तथा कुछ सोचते हुए कहा- पिता जी, आप पढ़े लिखे होकर भी अन-पढ़ों सी बाते करते हैं। वक्त को भी पहचानना चाहिए।<br />
बेटा मैं वक्त से पिछड़ गया हूँ। क्योंकि मेरी गाँठ में पैसे नहीं, इस लिए मैं अनपढ़ हो गया हूं। वाह बेटा। इसी दिन की प्रतीक्षा में तो मैं बूढ़ा हो गया। जानते हो सन् अठाईस में सारे क्षेत्र में मैं ही केवल बी. ए. पास था। रात नाथ के लड़के को मैंने ही इंग्लैण्ड जाने की सलाह दी थी। अब देखो राम नाथ के पुत्र एवं उसके पौत्र कितना धन कमा कर लाए हैं। कई पीढ़ियाँ बिना कमाएं आराम से बैठी खा सकती हैं। और आज यह छोकरा ही मुझे वक्त को पहचानने का उपदेश दे रहा है।<br />
‘तो ठीक ही तो कहता है। राम नाथ के बेटे को इंग्लैण्ड भिजवा दिया और अपना बना बनाया पासर्पोट भी रद्द करवा दिया क्योंकि समुद्र पार जाने में तुम्हें डर लगता था। कहीं जहाज डूब गया...... फिर सारे यात्री घुट-घुट कर मर जाएंगे। वाह रे कल्पना के पंखों पर उड़ने वाले। न अपना कुछ बनाया और न ही मेरा।’ कह कर माँ रुआँसी हो कर उठ गयी।<br />
<br />
<br />
‘मेरी तो कई बार इच्छा होती है कि सिर में राख डाल कर स्त्रूं सन्यासी बन जाऊं....... खो जाऊं....... इसकी शक्ल भी न देखूं। लाला जी ने आहत स्वर से कहा।<br />
दोनों बेटे शान्त बैठे थे।<br />
माँ ने लाला जी की बात सुन ली थी। उनके पास जाकर बोली- चलो राख में दे देती हूं। ये धमकियां सौ बार सुन चुकी हूं।<br />
<br />
‘हां हाँ तू तो यही चाहती है कि मैं घर-बार छोड़ कर चला जाऊं ताकि तुझे मन्दिरों में घूमने, नाचने-गाने को स्वतन्त्रता मिल जाए। मैं कहता हूं, घर मैं बैठकर ही पूजा क्यों नहीं कर लेती। भगवान का वास मन में होता है। नाचने गाने से वह ज्यादा प्रसन्न नहीं होंगे।’<br />
<br />
‘तुम तो नास्तिक हो। सत्तर साल के हो गये हो कभी परमात्मा का नाम लिया, कभी मन्दिर नहीं गये। सारा दिन हुक्का गुड़गुड़ाते रहते हो।’<br />
‘तो तुम्हें मेरा हुक्का भी बुरा लगता है। सारे दिन में दस पैसे का तम्बाकू खत्म नहीं होता। पैसे की वजह से तो मैं सिगरेट नहीं पीता। अब यह हुक्का भी तुम्हें भारी लगने लगा। मैंने कब सोचा था कि मेरा बुढ़ापा ऐसा निकलेगा... पता होता तो भविष्य का गला पहले ही घोंट देता।’<br />
‘पिता जी, जब भी हम घर आते हैं तभी आप व्यर्थ की बातें ले बैठते हैं। इसीलिए... कहता कहता अशान्त चुप हो गया।<br />
<br />
‘इसीलिए तुम यहाँ नहीं आते, यही न? लेकिन मैं सब जानता हूं ये सब बहाने हैं। तुम अपने ससुराल में पन्द्रह दिन पड़े रह सकते हो परन्तु अपने माँ-बाप के पास एक रात नहीं काट सकते। तुम्हें कमरे में दुर्गन्ध आती है, यहां जगह की तंगी लगती है... मैं पूछता हूं जब तुम तीनों भाई तथा चारों बहनें यहीं रहते थे...तब, तब भी तो यही घर था... और अब... कहते-कहते लाला जी रुक गये।<br />
<br />
अशान्त ने जब कहा कि दुनियाँ भर के लोगों ने अपने-अपने मकान बना लिए हैं लेकिन लाला जी ने दो कमरे भी नहीं बनवाए तो लाला जी कराह उठे- मैंने अपनी सब कमाई तुम्हें खिला दी। तुम्हें देखूंगा जब बड़ी बिल्डिंग बना लोगे।<br />
<br />
घर में शान्ति व्याप गयी थी। कहीं कुछ भी शेष नहीं था कहने को। सब कुछ बाँध तोड़ कर पहले ही बह निकला था। हाँ, लाला जी डयोढ़ी में चले गये थे। हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे तथा बीच-बीच में कुछ अस्पष्ट स्वरों में बड़बड़ा रहे थे...जवानी यों ही काट ली। व्यर्थ में सारे पैसे इनके लिए खर्च कर दिए। सोचा कुछ और ही था। हुआ कुछ और ही। बुढ़ापा। हाय, बुढ़ापे में बेटे भी साथ छोड़ जाएंगे... कभी कल्पना भी न की थी।<br />
<br />
शायद दोनों भाई अन्दर बैठे पिता की अस्फुट बड़बड़ाहट को सुन रहे थे। अशान्त ने सुभाष से कहा- जब भी आओ, पैसों के लिए झगड़ा आज तक इन्होंने कभी भी यह नहीं कहा कि सब ठीक है, अच्छा है।<br />
सुभाष ने गहरी आँखों से अपनी भाई की ओर देखा तथा कहा- लेकिन आप पैसे भी तो नाम-मात्र ही भेजते हैं। फिर ऐसी स्थिति में सारा बोझ मुझे उठाना पड़ता है। मैं तो थक गया हूं, क्या करूं एक नया पैसा नहीं बचता।<br />
अशान्त ने विस्मय से अपने छोटे भाई की ओर देखा परन्तु वह बोला नहीं।<br />
माँ ने तीनों की ओर दीन-हीन नज़रों से देखा।<br />
<br />
दोपहर तक तीसरा भाई आ गया। माँ ने वर्षों बाद अपने तीनों बेटों को एक साथ देखा था। वह क्षण भर के लिए खिल गयी सब अभाव भूल गयी परन्तु लाला जी की निराशा बढ़ गयी लगती थी।<br />
जब सब ने खाना खा लिया तथा बातचीत के लिये सभी लाला जी के आस-पास बैठ गये तो लाला जी ने सब से बड़े पुत्र रमेश की ओर देखते हुए पूछा- कोई फैसला हुआ?<br />
‘कैसा फैसला?’ रमेश ने आश्चर्य व्यक्त किया।<br />
‘रिइन्सटेट हो गये या अभी नहीं?’<br />
‘... रिइन्सटेट का अभी कहां प्रश्न है। अभी चार्जशीट भी नहीं हुआ।’ रमेश ने कहा।<br />
‘चार्जशीट? क्यों क्या बात हो गयी? पहेलियां क्यों डालते हो साफ बताओ।’ अशान्त ने अधीर स्वर में पूछा।<br />
सुभाष भी मानों आसमान से नीचे गिरा। उसने कुछ भी न पूछना ही उचित समझा।<br />
लाला जी ने फिर कहा- जो आज तक किसी ने नहीं किया, वह तूने कर दिखाया। भला नौकरी में भी कभी नखरे चले हैं।<br />
‘तो मैं चुपचाप मार खा लेता,’ रमेश गुर्राया।<br />
<br />
‘‘तुमने उसे कुछ न कुछ कहा होगा अन्यथा वह मूर्ख तो है नहीं जो व्यर्थ में इतना फसाद खड़ा करता।’ लाला जी को रमेश पर विश्वास नहीं हो रहा था।<br />
‘उसने मुझे चोर कहा। जब कि स्वयं वह चोर है। कापियां दो-गुने दाम पर बेचना चाहता था, मैंने कहा- मैं अपनी कक्षा को तुम्हारे लिए लूट नहीं सकता...और... फिर...<br />
<br />
<br />
लाला जी अन्दर ही अन्दर प्रसन्न हो गये। सिद्धान्ध के लिये डट जाना निश्चित ही नैतिक विजय होती हैं, भले ही उसके लिऐ थोड़ी बहुत हानि भी हो जाये। टूट जाना कहां बेहतर है परन्तु झुक जाना नहीं, मरण है- ऐसा उनका अपना विश्वास था। बेटे की बात सुन कर छाती फूल गयी...परन्तु उन्हें थोड़ा दुख भी हुआ। आर्थिक संकट की भयाबहता के कारण। अभाव के सामने सग सिद्धान्त चरमरा जाते हैं परन्तु...वह उसे स्वीकार नहीं करना चाहते थे।<br />
अशान्त और सुभाष को इस घटना का पता चला कि रमेश ने अपने स्कूल के प्रिंसीपल को पीट दिया है तथा इसी सिलसिले में प्रिंसीपल ने उसे सस्पैंड करवा दिया है, तो वे चिन्तित हो उठे। रमेश, रमेश की बीबी तथा चार बच्चे। पहले ही उनका निर्वाह नहीं होता, अब क्या होगा। कैसे खर्च चलेगा। अशान्त ने तो कह दिया- भाई साहिब यह तो बड़ा बुरा हुआ।<br />
<br />
मैंने कब कहा कि अच्छा हुआ। रमेश के स्वर में खीझ थी।<br />
‘कई मास तक वेतन अटका रहेगा।‘ सुभाष बोला।<br />
‘तो तुम्हें क्या चिन्ता है? तुम नहीं दे सकते, न सही।’<br />
‘फिर भी विपत्ति में सहायता करना तो हमारा फर्ज है...लेकिन मुसीबत तो यह है कि पिता जी ने सुभाष की शादी भी जल्दी ही रखी है। ऐसी स्थिति में..अशान्त अटक-अटक कर अपनी स्थिति साफ कर रहा था।<br />
‘तो ठीक है। विवाह धूम-धाम से करो। मैं अपने आप देख लूंगा।’<br />
<br />
‘तुम क्या खाक देखोगे। तुम्हें चार हज़ार रुपये एरियर मिला था परन्तु तुमने सब के सब यों ही उजाड़ दिये। मैं तो सोचता था तुम दोनों सुभाष के विवाह पर पैसे दोगे। लाला जी ने कहा।<br />
‘मैं तो खुद फंसा हूं।’ रमेश बोला।<br />
‘तो फंसने से पहले सोच लेना चाहिए था।’ अशान्त ने कहा।<br />
‘आप के पास भविष्य की आँखें हांेगी, मेरे पास तो वर्तमान समझने देखने की क्षमता नहीं। इतना छल, इतना कपट... मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सकता था।’ रमेश आहत स्वर में कह गया।<br />
‘पिता जी, हमने अब तक के सभी विवाह उधार ले ले कर किये हैं। कई-कई वर्ष उधार चुकाने में ही दब रहे हैं। इस बार हमें उधार नहीं लेना चाहिए।’<br />
‘एक मास का वेतन। आठ सौ रुपये या एक हजार। इससे क्या होगा बैंक से लोन ले दो। बहु के लिये हाथ-कान तो बनवाने ही पड़ेगे- लाला जी बोले।’<br />
‘मैं उधार के हक में नहीं।’ अशान्त फिर बोला।<br />
‘तो विवाह कैसे होगा।’<br />
<br />
‘जैसे आजकल के सभी विवाह होते हैं। लड़के के साथ दो आदमी चले जाएं। लड़की ले आएं। बस आडम्बर की जरूरत नहीं।’ रमेश ने व्याख्या की...’<br />
‘अपनी शादी भूल गये। तब जब मैंने यही परामर्श दिया था तो जनाब ने कहा था- यह कोई गुड्डे-गुड़ियों का विवाह नहीं, तो बस...’ लाला जी ने कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया।<br />
‘अब जमाना बदल गया है।’ रमेश का धीमा स्वर।<br />
‘अच्छा ऽऽ।’ अब की बार सुभाष बोला।<br />
<br />
‘तीनों जने कम से कम दो-दो हज़ार रुपया दो। इससे कम नहीं चलेंगे। लाला जी ने आदेशपूर्ण स्वर में कहा।<br />
‘दो-दो हज़ार। मेरे पास तो है नहीं। अशान्त ने कहा।’<br />
‘मेरे पास भी नहीं हैं, मैं तो सस्पैंड हुआ हूं। मुझे ही पैसे दो। तभी कुछ बनेगा। रमेश बोला।<br />
मुझे तुमसे ऐसी आशा नहीं थी। मैं...खुद ही सारा प्रबन्ध कर लूँगा। ‘मुझे तुम्हारे पैसों की जरूरत नहीं। फिर रूक कर बोले- मैं सारी प्रापर्टी बेच दूंगा, मकान गिरवी रख दूंगा।<br />
<br />
‘बिल्कुल ठीक। टूटा-फूटा मकान है। उसे बेच ही दें। रमेश ने मुक्ति का साँस लिया।’<br />
<br />
घर में सांय तक फिर कोई नहीं बोला। सभी अपने आप में उलझ गये थे। तीनों भाई जाने की तैयारी करने लगे थे।<br />
अशान्त ने चुपचाप सौ रुपये का नोट निकाल कर पिता की ओर बढ़ा दिया तथा दस रुपये का नोट माँ की ओर। सुभाष ने भी सौ रुपये का नोट पिता के हाथ में थमा दिया।<br />
<br />
रमेश सब देख रहा था लेकिन बोला कुछ नहीं। लाला जी ने उसकी ओर पचास रुपये बढ़ाते हुए कहा- बेटा, चार्जशीट का जबाव सोच समझ कर देना। गर्मी खाने से काम नहीं बनते।<br />
<br />
फिर लाला जी ने धीमे से सुभाष तथा अशान्त से कहा- अच्छा जितने-जितने पैसे इकट्ठे कर सकते हो करो तथा जल्दी-जल्दी मुझे भेज देना। दो-दो हजार तो फिर भी जैसे तैसे इकट्ठे करने ही होंगे। तभी सुभाष का विवाह हो पायेगा। हाँ इतने तो कर ही लेना।<br />
इस बार लाला जी के कहने पर उसकी पत्नी भी हंस दीं।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31205सुशील कुमार फुल्ल2016-06-17T13:34:46Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: /* कहानियाँ */</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=<br />
|नाम=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=15 अगस्त 1941<br />
|जन्मस्थान=गांव काईनौर, ज़िला रोपड़, पंजाब<br />
|मृत्यु=<br />
|कृतियाँ=<br />
|विविध=<br />
|जीवनी=[[सुशील कुमार फुल्ल / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Sushil Kumar Phull<br />
|shorturl=<br />
|kavitakosh=<br />
|copyright=<br />
}}<br />
====कहानियाँ====<br />
* [[बसेरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बढ़ता हुआ पानी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[मेमना / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फंदा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ठूँठ / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[कोहरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बांबी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[रिज पर फौजी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[माटी के खिलौने / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[चिड़ियों का चोगा / सुशील कुमार फुल्ल]] <br />
* [[दान पुन्न / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अटकाव / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अनुपस्थित / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[प्रेम का अन्तर्राष्ट्रीय संस्करण / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अपने-अपने दुःख / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ / सुशील कुमार फुल्ल]]</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AE_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%AF_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31204प्रेम का अन्तर्राष्ट्रीय संस्करण / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-17T13:32:53Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल |अनुवाद= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
<br />
<br />
<br />
'''इ'''स बार उसका पत्र लम्बे अन्तराल के बाद आया है। सन्दर्भ वहीं रहते हुये मात्र एक आध-पात्र के बदल जाने से इतना बड़ा परिवर्तन हो सकता है, यह जानकर आश्चर्य हुआ। लगता है कि उसका दृष्टिकोण एवं विचार-धारा एकाएक धुंधला गयी है।<br />
<br />
कालेज के दिनों वह मेरा सहपाठी था। सभी उसे ‘किताबी कीड़ा’ करके जानते थे। उसने भी कभी इस जनमत का विशेष विरोध अथवा खंडन नहीं किया था परन्तु मैं भली-भांति जानता था कि वह केवल पुस्तकों में ही नहीं खोया रहता था अपितु राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय समस्याओं एवं घटनाओं के प्रति जागरूक रहता। उसका विश्वास था कि दो-चार वर्ष तक किताबी कीड़ा बन कर यदि अच्छी डिग्रियाँ प्राप्त कर ली जाएं, तो कोई बुराई नहीं। बल्कि ऐसा करने से सारे रास्ते खुल जाते हैं। वह प्रायः कहा करता था- हमें गाँव या राष्ट्र के ऊपर उठ कर अन्तर्राष्ट्रीय-स्तर पर जीना चाहिए।<br />
अन्तर्राष्ट्रीय-स्तर पर उसके जीने का अभिप्राय यही था कि मनुष्य को अपने ही देशों में जा कर भी रहना चाहिए। ऐसा करने से दृष्टि-विस्तार होता है। उसके दृष्टि-विस्तार को मैं प्रायः धनाकर्षण का पयार्य मानता था या फिर जब मैं उसे महत्वाकाँक्षी कह कर बुलाता, तो वह मुस्करा कर इस विशेषण को स्वीकारता हुआ जान पड़ता।<br />
<br />
हम सभी मित्र डाक्टरी की डिग्रियाँ लेकर यहां वहां फैल गए थे परन्तु कोई भी सन्तुष्ट नहीं जान पड़ता था। किसी को वेतन कम मिलता था, तो कोई गाँव में होने के कारण दुखी था। मि. जैन दिल्ली के कई चक्कर लगा आया था। एक-बार मैंने पूछा कोई विशेष प्रोग्राम लगता है?<br />
‘‘डा. जैन आदमी विशिष्ट है।’’ उसने मुस्कराते हुए बात टाल दी थी।<br />
<br />
फिर एक दिन उसी ने बताया था कि वह एक सप्ताह के भीतर ही अमरीका के लिए प्रस्थान कर देगा। मुझे आश्चर्य हुआ था, थोड़ी कुढ़न थी। इतनी मैत्री होने पर भी उसने मुझे इस सन्दर्भ में कुछ भी बताना उचित नहीं समझा था। मैंने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उसे कहा था- मुझे तुम से ऐसी आशा नहीं थी।<br />
‘‘कैसी? मेरे जाने की?’’ वह हंसी दबा कर बोला।<br />
‘‘डालरों के आकर्षण से मित्र जा रहा है, यह प्रसन्नता की बात है। मैं सोचता था तुम मुझ से कुछ नहीं छिपाते। खैर........................।’<br />
‘‘मैं यहीं ठीक हूं। मुझे डालर खरीद नहीं सकते। और फिर अपने-अपने सिद्धान्त की बात है।’’<br />
डा. जैन चला गया था। वहाँ पहुंचते ही उसने मुझे पत्र लिखा। पत्र संक्ष्पित था परन्तु बोलता बहुत कुछ था। पत्र पाकर मैं बड़ा प्रसन्न था। लिखा था:<br />
<br />
न्यूयार्क,<br />
20-9-57<br />
माई डियर बड्डी,<br />
नरक से स्वर्ग में, धरती से आकाश पर, पृथ्वी से चन्द्रमा पर, मृत्युलोक से परलोक में पहुंचने पर जो सुख............. जो आनन्द मिलता है उससे भी अधिक सुख एवं आनन्द वहां से यहां आने पर मिला है। प्यारे लाल, शब्द कितना भी ज़ोर लगाएं.............. सुख का सही वर्णन नहीं कर सकते। सच यार जन्म कहीं भी लो परन्तु विश्वभ्रमण परमावश्यक है। काश। तुम भी आज यहाँ होते।<br />
मधुर चुम्बन। शेष फिर,<br />
आप का <br />
जैनेश्वर जैन<br />
<br />
मैं उस की प्रसन्नता का अनुमान सहज ही लगा सकता था। घुटन एवं आर्थिक कठिनाइयों के वातावरण से निकल कर अचानक ही वैभव-सम्पन्न परिवेश में पहुंच जाना निश्चय ही किसी के लिये भी अद्भुत आनन्दाभूति प्रदान करने वाला हो सकता है। और फिर जैनेश्वर तो वैसे भी अर्थ को विशेष महत्व देता रहा है। मैंने अभी उसके पत्र का उत्तर नहीं दिया था, कि उसका दूसरा पत्र भी आ गया।<br />
लिखा था:<br />
<br />
<br />
न्यूयार्क<br />
17-10-57 <br />
<br />
मेरा 20-9 का पत्र मिला होगा। इन दिनों तुम्हारें पत्र की प्रतीक्षा रही है परन्तु तुम तो गाँव-गाँव में जन-सेवार्थ भ्रमण कर रहे होंगे। जानता हूं तुम्हारा आदर्शवाद तुम्हें कही नहीं पहंुचने देगा। स्वयं पीड़ित रह कर पीड़ित जनता की सेवा करना मुझे विरोधाभास के अतिरिक्त और कुछ नहीं लगता खैर,<br />
कामेश्वर प्यारे। काम के ईश्वर बने फिरते हो, कभी काम की दुनियाँ देखी भी है। काम-पिपासा का तांडव-नृत्य देखना हो तो यहाँ आओ। कामेश्वर या काम देवता या मदन आदि नाम रखने से भी कोई सचमुच सेक्स की दुनियाँ का प्रतिनिधि नहीं हो जाता। यहां सभी युवक युवतियाँ मुझे कामदेवता एंव कामदेवियां लगते हैं। कोई सामाजिक प्रतिबन्ध नहीं। कोई हिचक नहीं। माँ-बाप की ओर से भी कोई रोक-टोक नहीं। लड़कियां स्वयं अपने वर चुनती हैं। भारत से एकदम अलग परम्पराएं। विवाह के रोचक प्रंसग।<br />
<br />
बेटा। डेंटिग सुनी है कभी। वही जिसके विषय में हम कभी होस्टल में बैठ का अनुमान लगाया करते थे। नंग-धडं़ग गोरी-चिट्टी देह वाली परियां जब अपने चेहते युवको के साथ सट कर लौटती है, चुम्बनों का आदान-प्रदान करती हैं... तथा ऐसे दृश्य देखकर हम तो मंत्र मुग्ध से देखते ही रह जाते हैं, पश्चिमी जगत वालों के लिए यह दृश्य सहज-स्वाभाविक है, इन में कुछ भी चौंकाने वाला नहीं। वे संभवतः इस बात में बहुत विश्वास रखते हैं कि शारीरिक भूख की तृप्ति नैसर्गिक प्रवृत्ति है, इस में संकोच की क्या बात है। मैं जानता हूं कि तुम भी इस मत का समर्थन करोगे परन्तु फिर भी भारतीय संस्कार स्वच्छन्द कामतृप्ति के आड़े होते हैं। काम-काम के लिये नहीं, सन्तानोत्पत्ति के धर्म के रूप में लिया जाना चाहिए- ऐसे कितने ही भारतीय संस्कार उभर आते हैं परन्तु सच तो सच ही है। काम जीवन का आधार है, काम के बिना पुरुष एंव नारी अधूरे हैं। काम की महिमा अपरम्पार है। काम की शक्ति असीम है...<br />
<br />
यार, एक बात मुझे यहां की बहुत अच्छी लगती है। आप किसी युवती के साथ जा रहे हैं या बैठे हैं। उसका कोई सम्बन्धी अथवा माता-पिता भी मिल जाएं, तो वे हरगिज भी लड़की के काम में दखल नहीं देते। कोई लड़की किसी लड़के के साथ डेंटिग पर जाती हैं, जरा भी नहीं चिढ़ते। हैं न वण्डर-लैंड, स्वर्णपुरी...परलोक। सब अपने में मस्त एवं व्यस्त।<br />
<br />
डियर कन्दर्पसेन जी, मैं इन दिनों डेंटिग का आनन्द लेने के चक्कर में हूं। तुम भी आ जाओ तो इकट्ठे चलेंगे।<br />
ढेरों सामग्री है लिखने को। क्या लिखूं क्या लिखूं धीरे-धीरे सब लिखूंगा। लिखने से अजीब प्रकार का आनन्द मिलता है।<br />
अच्छा, शेष फिर सही।<br />
आपका <br />
जैनेश्वर जैन<br />
<br />
<br />
मैंने लगभग एक-डेढ़ महीने के बाद पत्र दे दिया था। फिर थोड़े विलम्ब से उसका पत्र आया था।<br />
न्यूयार्क<br />
25-3-59<br />
डियर कामू,<br />
तुम्हारा पत्र दिसम्बर के अन्तिम सप्ताह में मिला था। अनेक धन्यवाद। तुम्हारी शैली निश्चय ही बहुत अच्छी लगी। प्रत्युत्तर में मुझे आवश्यकता से अधिक विलम्ब हो गया हैं, क्षमा प्रार्थी हूं।<br />
<br />
तुमने अपने पत्र में फिर अपने थोथे आदर्शवाद की दुहाई दी है कि हमें अपने ही देश मे रह कर जनता की सेवा करनी चाहिए। ऐसा करने के लिए चाहे हमें अपने संभावित सुखों का हनन ही क्यों न करना पड़े। भाई, मैं कूप मण्डूक बने रहने में विश्वास नहीं रखता। जनता की सेवा, कामू डियर। तुम्हें मुबारिक। तुम्हारा दृष्टिकोण वास्तव में बहुत ही संकुचित है। तुम तो मानों वैभव को ठुकराने पर तुले हो। किसी दिन मैं भारत आया तो तुम मेरे धन-दौलत को देखते रह जाओगे। तुम तो निरे सिधान्तवादी हो। ऐसा जीना भी क्या जीना है। मनुष्य को महत्वाकांक्षी होना चाहिए। कुछ विशिष्ट कर गुजरना चाहिए। देश नही ंतो कम से कम अपने परिवार की आने वाली पीढ़ियां तो गौरव से हमारा स्मरण करेंगी। मैं फिर यही कहूंगा कि यदि तुम्हारी जरा भी इच्छा यहां आने की हो तो मैं सारा प्रबन्ध कुछ ही दिनों में कर दूंगा। यहाँ के नग्नता में डूबे नाच-गाने देखोगे तो सचमुच ‘कामेश्वर’ शब्द को सार्थक करते हुए जान पड़ेंगे। यथा नाम तथा काम।<br />
तुम्हारे लिये खुशखबरी- मैं डेंटिग पर हो आया हूं। यार, क्या नाम है। क्लाइडा की देह की गर्मी............ प्यार में सराबोर चुम्बन........... मुझे उसे गुदगुदाने में ज़रा संकोच हो रहा था परन्तु उसने तो चुम्बनों की बौछार ही कर दी। खैर, इस पक्ष को तो छोड़ो....... तुम स्वयं कल्पना द्वारा इसे समझ सकते हो.......... मेरे वर्णन की आवश्यकता नहीं।<br />
<br />
जानते हो क्लाइडा मुझे क्यों चाहतीं है, क्यों पसन्द करती है? तुम हैरान हो जाओगे। वह मुझे इस के लिए नहीं चाहती कि मैं सुन्दर हूं हृष्ट-पुष्ट हूं। न ही इसलिये कि मैं अच्छा वेतन लेता हूं बल्कि इसलिए, उसी के शब्दों में- इण्डियनज आर वल्गर टु दी एक्सटेंट आव लवलीनैस। क्लाइडा की यह बात सुनकर मैं हंस दिया था। उसे वल्गेरिटी पसन्द है........... वाह् क्या चीज है।<br />
क्या और........... क्लाइडा का मैं सातवाँ इण्डियन लवर हूं। सातवाँ......... कोई फर्क नहीं पड़ता। कितना उन्मुक्त समाज। कोई अनावश्यक प्रतिबन्ध नहीं। काश। भारत में भी ऐसा ही हो पाता......... बिल्कुल ऐसा ही, तो समाज की सड़न ही निकल जाती।<br />
कामेश्वर। मेरी माँ की चिट्ठी आई है। लिखा है- अब अच्छा वेतन लेने लगे हो, शादी करवा लो। उन्होनें मेरे लिए लड़की भी देख रखीं है। यार मैं अभी शादी नहीं करवाना चाहता। नई सोसाइटी मे मैं शादी को कोई आवश्यकता भी नहीं समझता लेकिन माँ-बाप भी मानने वाली मिट्टी के नहीं बने हैं। बताओ क्या करूं। मैं तुम्हारे पत्र की प्रतीक्षा करूंगा।<br />
घर में सब को यथायोग्य अभिवादन।<br />
आपका<br />
जैनश्वर जैन<br />
<br />
जैनेश्वर जैन के इस पत्र के बाद घटनाओं ने बड़ी तेजी से मोड़ लिया। वह अभी विवाह करवाना नही चाहता था। माँ-बाप अपनी जिद पर अड़े हुए थे। वे बार-बार लिख रहे थे कि या तो वह जल्दी भारत आकर विवाह करवा जाए या फिर वे कोई और उपाए सोचंेगे। पत्र व्यवहार में कई मास और निकल गए।<br />
जैनेश्वर नहीं आया था। उसके माँ-बाप ने और अधिक प्रतीक्षा व्यर्थ समझी थी। घर में अमरीका से कोई जैनेश्वर की रंगीन फोटो थी। उस फोटो को जैनेश्वर के स्थान पर बिठा कर एक लड़की से विवाह करवा दिया गया। मैंने उसके माँ-बाप को समझाना चाहा था परन्तु कोई प्रभाव नहीं हुआ था। मैंने, सीधा सादा तर्क दिया था यदि लड़के को लड़की पसन्द नहीं आई ता बुरा होेगा। जैनेश्वर के पिता ने एक वाक्य में ही सब समाप्त कर दिया था। कहा था- जैनेश्वर का बाप भी ऐसी हिमाकत नहीं कर सकता।<br />
<br />
लड़की भी उत्साही एवं साहसिक थी। वह अकेली ही अमरीका पहुंच गई थी। जैनेश्वर की प्रारंभिक प्रतिक्रिया कोई विशेष अनुकूल नहीं थी परन्तु कपिला ने उसे अपने व्यवहार, शक्ल-सूरत के आकर्षण एवं दृढ़ प्रेम के आधार पर जीत लिया था। अधिकाँश भारतीयों की भाँति जैनेश्वर ने भी यह सोच कर संतोष कर लिया था कि परमात्मा जो भी करता है, ठीक ही करता है। और फिर एक न एक दिन तो उसे शादी करनी ही थी। इस सन्दर्भ में उसने मुझे एक पत्र लिखा था, जिससे लगता था कि वह अपनी हार को स्वीकार ने के मूड में कम से कम पत्र लिखने के समय तो नहीं था। उसने लिखा था।<br />
<br />
<br />
न्यूयार्क<br />
7-8-60<br />
डियर कामेश्वर जी,<br />
मेरे विवाह पर प्रेंषित आप की बधाइयां यथा समय मिल गयी थीं। हार्दिक धन्यवाद। विलम्ब से प्रत्युत्तर देना मानों मेरी नियति ही बन गयी है, अतः इस सन्दर्भ में खेद-प्रकाश व्यर्थ ही होगा।<br />
तुम तो जानते ही हो कि मैं अभी विवाह करवाने के पक्ष में ही नहीं था परन्तु बिरादरी एंव माता-पिता ने बरबस मुझे झुका ही दिया। उन्होंने वास्तव में, कपिला को मुझ पर थोंप ही दिया है। पहले मैं इस मूड में था कि भले ही यहां भेज दी जाए, मैं उसे अपने साथ नहीं रखूंगा। परन्तु कपिला मुझे भोली लड़की लगी। जरा भी अहम् भाव नहीं। डाँटने पी भी मुस्कराने वाली। ऐसी स्थिति में भला कौन उसे अस्वीकार करता।<br />
तुम्हें जान कर प्रसन्नता ही होगी कि हमारे घर कन्या-रत्न ने जन्म लिया है। कपिला ने प्यार से उसका नाम गोल्डी रखा है। गोल्डी बहुत प्यारी लड़की है।.............................<br />
जैनेश्वर जैन।<br />
<br />
उसने और भी बहुत कुछ लिखा था। इस पत्र के बाद भी कभी-कभार उस का पत्र आता रहता है। अभिप्राय यह है कि इन पन्द्रह बर्षों में हमारा सम्पर्क बराबर बना रहा है। यद्यपि सात समुद्रों के पार रहने वाला व्यक्ति भला कब तक अपने भारतीयों मित्रों की औपचारिकता का निर्वाह कर सकता है, यह कोई भी सोच सकता है। जैनेश्वर अपवाद ही था।<br />
<br />
उसे वहाँ गए सोलह-सत्रह वर्ष हो गए हैं। इस बार उस का जो पत्र मुझे मिला है, वह निश्चय चौंका देने वाला है। इतने वर्षों में ऐसा पत्र उसने पहले कभी नहीं देखा बल्कि वह सदा अन्तर्राष्ट्रीयता का ही गुणगान करता रहा है। मानों हर बात को वह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हीं तोलने लगा है। मैं आप को उसके उक्त पत्र से और अधिक वंचित नहीं रखना चाहता आप स्वयं ही पढ़ कर मत बना लें।<br />
न्यूयार्क।<br />
25 अगस्त, 1975<br />
प्रिय श्री कामेश्वर प्रसाद जी,<br />
आशा है आप सपरिवार सकुशल एवं सानन्द होंगे। क्षमा-प्रार्थी हूं कि इतने दिनों बाद पत्र दे रहा हंू तीन-चार वर्षों से पत्र नहीं लिख सका परन्तु तुम ने भी तो जैसे सौगन्ध ही खा ली हो।<br />
<br />
मैं तुरन्त भारत लौटना चाहता हूं। मेरे लिए जो भी प्रबन्ध कर सको कर दो। मैं एक क्षण भी यहां नहीं रहना चाहता। मेरा क्लिनिक बहुत बड़ा है, बहुत नाम है, पैसा है परन्तु कई बार सब कुछ ठुकराना पड़ जाता है। सिद्धान्त की बात है। पैसा ही सब कुछ नहीं। मैं जब यहां आया था तो सोचता था रोमांस की दुनियां से गया, वैभव की दुनियां में आ गया। बात भी ठीक ही थी। इतने वर्षों में मैंने दो कारें, एक बड़ा भवन, एक पूरा क्लिनिक बना लिया और तुम हो कि अभी तक इन सारी सुविधाओं से वंचित हो और न ही निकट भविष्य में शायद तुम ऐसी आशा कर सको।<br />
यहां सब कुछ है यार। बिल्कुल ठीक है। लेकिन आजकल मैं बहुत परेशान हूं। कामेश्वर भाई, आप से मेरा कोई पर्दा नहीं। शायद आप मेरी मनः स्थिति को समझ सकेंगे लेकिन बेटे मज़ाक नहीं उड़ाना। कहीं मुझे ही भाषण देने लगो। इस विषय पर लिखते हुए मेरा दिल बहुत बुरी तरह से धड़क रहा हैं।<br />
तुम जानते ही हो कि मेरी बेटी पन्द्रहवें वर्ष में है। गोल्डी सुन्दर है, स्वस्थ है। पाश्चात्य वातावरण एवं सभ्यता में जन्मी पली है। वह एक बार भी भारत नहीं गयी। हमें यहां रहते लगभग सत्रह वर्ष हो गए हैं लेकिन यार, मैं सोचता हूं कि मेरे भारतीय संस्कार वैसे के वैसे हैं या फिर हो सकता है नयी परिस्थितियों के कारण वे पुनः उभर आए हैं।<br />
<br />
गत रविवार की बात है। गोल्डी का एक अंग्रेज दोस्त आया। उसका नाम वाल्टरमैन है। लम्बा-चौड़ा युवक। वह हमारे घर पहली बार आया था। बाहर वह एक दूसरे से मिलते रहे होंगे। उसने आते ही गोल्डी को हमारे सामने चूम लिया। हम तो ज़मीन में गड़े जा रहे थे। थोड़ी तो शर्म होनी चाहिए थी। गोल्डी ने भी निस्संकोच उसे चूम लिया था। वे कुछ देर बैठे बातचीत करते रहे। मैंने गोल्डी को संकेत से अपने कमरे में बुलाया और कहा- गोल्डी, यह क्या कर रही हो? तुम्हारी माँ क्या कहेगी? हम भारतीय हैं, हमें यह बातें शोभा नहीं देती।<br />
‘‘फारगेट एबाउट इण्डिया, डैड। वी आर इन अमेरिका, दी लेंड आव रोमाँस एण्ड एडवेंचर।’’ फिर रूक कर बोली- मम्मी क्यों नाराज़ होगी? उन्हें तो खुश होना चाहिए।<br />
‘शट-अप गोल्डी।’’ मैं चिल्लाया।<br />
<br />
‘‘डैडी, यू आर एन आरथोडाक्स। आई एम गोइंग फार डेंटिग विद हिम। आई रियली लव हिम, अन्डास्टैंड! मोर ओवर यू हैंव नो राइट टू इन्टरफियर।’’<br />
वाल्टरमैन तथा गोल्डी चले गए थे। मैं ओर मेरी पत्नी अवाक खड़े थे।<br />
कामेश्वर, तुम्हीं बताओ ऐसी स्थिति में मैं यहां कैसे रूक सकता हूं। गोल्डी कुछ भी कर सकती है। मैं बहुत परेशान हूं। मैं तुरन्त उसे भारत भेजना चाहता हूं। उस के लिए हम सभी भारत लौट आएंगे। मैं, मैं यह सब नहीं देख सकूंगा। जल्दी से जल्दी कोई घर आदि ढूंढ दो। नौकरी भी तुम्हारे सहारे मिल जाएगी शायद।<br />
<br />
कहीं तुम मेरी मनः स्थिति पर हंस ही न देना। मैं, मैं जानता हूं कि जीवन की स्वच्छन्दता सब के लिए समान होनी चाहिए परन्तु मैं इस बात को गले नहीं उतार पाता कि मेरी लड़की वाल्टरमैन या किसी भी युवक के साथ घूमती रहे। लड़कों की बात कुछ और है। वे कुछ कर भी बैठें, तो भी उन का कुछ नहीं बिगड़ता। इस सिलसिले में भारतीय रीति-रिवाज अधिक अच्छे लगते हैं मुझे। तुम फिर मेरा इसे आदर्शवाद कहोगे।<br />
हम कभी भी भारत लौट सकते हैं। मेरे घर भी बता देना। बहुत दिन हो गए माँ-बाप से मिले हुए। कहीं पिता जी से गोल्डी की बात न कह देना। सम्भव हो तो अपने लड़के राजेश के लिए गोल्डी को स्वीकार कर लो। मेरा बेड़ा पार हो जाएगा। ठीक है न दोस्त।<br />
भाभी जी को नमस्कार। बच्चों को प्यार।<br />
तुम्हारें पत्र की ही प्रतीक्षा में,<br />
तुम्हारा,<br />
जैनेश्वर जैन।<br />
<br />
जैनेश्वर का पत्र मैंने कई बार पढ़ा है। मेरे सामने बार-बार जैनेश्वर एवं क्लाइडा तथा गोल्डी और वाल्टामैन दो जोड़े उभर आते हैं। दोनों अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के। दोनों भारत से बहुत हट कर।<br />
समझ नहीं आता जैनेश्वर की सहायता किस प्रकार और कैसे करूं।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31203सुशील कुमार फुल्ल2016-06-17T13:27:57Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=<br />
|नाम=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=15 अगस्त 1941<br />
|जन्मस्थान=गांव काईनौर, ज़िला रोपड़, पंजाब<br />
|मृत्यु=<br />
|कृतियाँ=<br />
|विविध=<br />
|जीवनी=[[सुशील कुमार फुल्ल / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Sushil Kumar Phull<br />
|shorturl=<br />
|kavitakosh=<br />
|copyright=<br />
}}<br />
====कहानियाँ====<br />
* [[बसेरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बढ़ता हुआ पानी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[मेमना / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फंदा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ठूँठ / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[कोहरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बांबी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[रिज पर फौजी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[माटी के खिलौने / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[चिड़ियों का चोगा / सुशील कुमार फुल्ल]] <br />
* [[दान पुन्न / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अटकाव / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अनुपस्थित / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[प्रेम का अन्तर्राष्ट्रीय संस्करण / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ / सुशील कुमार फुल्ल]]</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%AA%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%BF%E0%A4%A4_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31187अनुपस्थित / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-11T02:33:58Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल |अनुवाद= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
<br />
सैरी के टिड्डे की गीत-लहरियाँ वायु में कम्पन उत्पन्न कर रही थीं।<br />
<br />
बस उसे उतार कर सर्पाकार सड़क पर आगे बढ़ गई है। छः घण्टे की यात्रा यों ही कट गई। उसे यह जान कर प्रसन्नता हुई कि पठानकोट से जैसिंहपुर तक सीधी बस चलने लगी है। रास्ते में आलमपुर से थोड़ा आगे उसका गांव पड़ता है। अब उसे एक कन्धे पर एअर बैग लटका कर तथा दूसरे हाथ में अटैची केस पकड़ कर एक के बाद दूसरी खड्ड पार नहीं करनी पड़ेगी। फिर कहीं अन्दर से आवाज आई थी- बिना पुल के खड्ड पार करने में जिस प्रकार की आत्मीयता की अनुभूति होती है, वह बस में बैठ का फुर्र से खड्ड पार करने में कहां।<br />
<br />
वह क्षण-भर के लिए ठिठक गया है। धान के पके हुए खेत चिरपरिचित से लगे। मन होता है कि दौड़ कर चील के जंगल में खो जाए। नीचे मौल खड्ड के किनारे पर पाप कार्न की भांति बिखरे हुए घर अच्छे लगे। संगतरे का बगींचा। उसके पास ही तीन कमरों का छोटा सा घर। उसी में वह रहती है।<br />
शैलजा उस दिन बहुत गम्भीर थी। यों तो गाँव में युवक-युवतियों का बातचीत के लिए अवसर जुटा पाना कठिन ही होता है उस दिन तो वह उसके घर ही पहुंच गई थी। माँ के सामने उसे आया देख प्रीतम को संकोच हुआ था।<br />
<br />
वह चुप बैठी थी।<br />
माँ ने ही मौन भंग किया था, ‘‘शैल तुम उदास क्यों हो? ’’<br />
‘‘प्रीतम जा रहा है? ’’माँ की बात को अनसुनी करते हुए उसने अपने मन की बात कह दी थी।<br />
उसे उसकी उद्विग्नता अच्छी लगी थी लेकिन अभी वह बोला कुछ नहीं था।<br />
‘‘वह पढ़-लिख कर जल्दी ही लौट आएगा। तुम्हें तो खुश होना चाहिए। इन गाँवों में से पहली बार कोई इतनी दूर पढ़ने जा रहा है। ’’फिर सहज स्वभाव माँ ने कहा था, ‘‘प्रीतम, लौटते समय इसके लिए भी कोई बढ़िया सी चीज लेते आना।’’<br />
‘‘लेकिन मेरी मुर्गियों का क्या होगा? ’’अनमनी शैलजा ने पूछा था।<br />
<br />
तब वह बी. एस-सी. (कृषि) में पढ़ता था। कालेज के मुर्गी-पालन केन्द्र से उसने कुछ चूजे तथा मुर्गियाँ हकीम जी के कहने पर ला कर दी थीं। मुर्गियों को बीमारी से कैसे बचाया जाये, खुराक में कौन-कौन से अंश आवश्यक हैं, आदि बातों के लिए वह परामर्श लिया करती थी।<br />
‘‘तुम्हारी मुर्गियां मेरे जाने के बाद भी अंडें देती रहेंगी। ’’इस बार वह बोला था।<br />
सभी खिलखिला कर हँस पड़े थे।<br />
<br />
आकाश में छिटपुट पक्षी तेजी से अपने घोंसलों की ओर दौड़ रहे हैं।<br />
उसका मन हुआ कि वह दौड़ कर शैलजा को देख आए। अब वह पतली दुबली नहीं होगी। उसका शरीर भर गया होगा- ठीक वैसे ही जैसे जुलाई मास में मौल खड्ड ठाठें मारने लगती है। पतली-दुबली शैलजा जब बौड़ी से पानी भरने आतीं थी, तो दो-दो घड़े उठाए चढ़ाई चढ़ती हुई कितनी सुन्दर लगती थी। मोटी औरत दो-दो घड़े उठाकर उस फुर्ती से ऊपर नहीं पहुंच सकती। उसका साँस फूल जाएगा।<br />
<br />
संगतरे के बगीचे के पास वाला घर उभरने लगा है।<br />
<br />
उसका मन हुआ कि जोर से उसका नाम लेकर पुकारे परन्तु वह झेंप गया। इस समय शैलजा क्या कर रही होगी? शायद खाना बना रही हो। उसके हाथ के बने ऐंकलू कितने स्वादिष्ट होते हैं। सोचकर उसकी लार टपकने लगी। कभी-कभी वह चिढ़ाने के लिए घमीरड़ियां तोड़ कर फैंक देती थी। वह उठा का चख लेता था। कैसा अजीब खट्टा होता हैं। उसे लगा दांत खट्टे हो गये हैं।<br />
<br />
शायद वह अपनी माँ की पीठ दबा रही होगी। अजीब हकीम है उसका पिता जो अपनी पत्नी का उपचार नहीं कर सकता। शायद अब तक वह स्वस्थ हो गई होगी। उसे अपनी बुद्धि पर हंसी आई। वह पाँच साल पहले की बात को उसी दृष्टि से देखता है।<br />
<br />
यदि वह अभी चली जाए तो वह कितनी प्रसन्न होगी परन्तु अपनी पुरानी आदत को छोड़ देगी। वही मौन अभिवादन होगा, मौन संकेत कि चुपचाप चले जाओ, नहीं तो ये लोग कुछ और ही समझ लेंगे। सोच कर वह हंस दिया है।<br />
<br />
मौल खड्ड के उस पार वाली ऊंची पहाड़ी के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर दिन भर चरने के बाद भेंड़ें मोतियों की लड़ी सी बनती हुई नीचे सरकती चली आ रही हैं।<br />
‘ हुआ’, ‘हुआ’ की ध्वनि करते हुए सियार उसके पास से गुजर गए।<br />
<br />
अपना अटेची केस तथा एयर बैग उठा कर वह तेजी से चलने लगा है। सेठ झौंपी अपनी दुकान पर बैठा सिगरेट पी रहा है। पहले वह हुक्का गुड़-गड़ाया करता है और घंटों उसके अनुभव सुना करता था- किस प्रकार एक अंग्रेज उसका दोस्त बन गया था, कैसे उसने अकेले ही चीते को मार गिराया था आदि। जिस आदमी का जीवन घर से दूकान से घर तक सिमट कर रह गया हो, उसके मुख से शिकार की बातें सुनकर उसे हंसी आती थी परन्तु झौंफी की बातचीत इतनी रोचक होती थी कि कम आयु के लड़के उसकी बातों को सच मान लेते थे।<br />
<br />
लेकिन अब वह आंख बचा कर उसकी दूकान के पास से निकल गया है। उसे अजीब प्रकार का संकोच होने लगा है। वह बाईं ओर पत्थर की पगडंडी पर मुड़ गया है। नंग-धड़ंग बच्चे खेल रहे हैं। इन्हें ठण्ड नहीं महसूस होती, वह सोचता है।<br />
इधर-उधर के घरों से कुछ आंखें उसे घूरने लगीं हैं। वह आंखें नीची किए चुपचाप आगे बढ़ गया हैं। अब पत्थर की बनी सींढ़ियां उतरने लगा है।<br />
<br />
चंपा अब भी खूंटे पर बंधी है। उसने आगन्तुक की ओर देखा है। उसकी आंखें सिकुड़ गई हैं। प्रीतम को उस पर दया आती है। यह भी कोई बात है कि निरीह पशु को स्वार्थ के लिए सारी उमर खूंटे पर बांधें रखो। उसका मन हुआ कि वह चंपा को मुक्त कर दे परन्तु नहीं..... वह मुक्त कर भी देगा तो भी वह खूंटे से ही बंधी रहेगी, कोई और बांध लेगा।<br />
<br />
समय के आवारण को भेद कर घर की प्रत्येक वस्तु से एकाकार हो जाने के लिए वह लालायित हो उठा है। धीमे से अपना सामान रख कर वह रसोई में झांकने लगा है।<br />
<br />
माँ रसोई में बैठी कुछ सोच रही है। शायद मेरे विषय में ही। मुझे कल यहां पहुंचना था। आज महेश के पास दिल्ली ठहरने का विचार था। परन्तु ठहर नहीं सका, ठहर ही नहीं सकता था। मन तो कुलांचे भरता था घर पहुंचने के लिए, माँ से लिपटने के लिए और..... औैर.... महेश तो आने ही नहीं देता था। कहता था- मान लिया तुम उद्यान-विज्ञान में डाक्ट्रेट कर आए हो, ओटावा हो आए हो परन्तु हमंे भी वहां की सैर करवाओ। सचमुच न सही, कम से कम बातों में तो करवा ही डालो। बात तो उसकी भी ठीक ही थी परन्तु यहाँ आने की आतुरता, माँ को चौंकाने की इच्छा। दिल्ली कौन सी दूर है- कभी फिर हो जाऊंगा।<br />
उसकी आँखों के आगे किसी गद्दिन का चित्र तैर गया है, जो यौवन में डट कर काम करती रही हो और अब उसकी गालों पर सलवटें चमकने लगी हों। माँ ने पांच वर्ष में बीस यात्रा तय कर ली हैं।<br />
<br />
कोयला तिड़क गया है। चिंगारी माँ के कपड़ों पर जा गिरी है। माँ का ध्यान टूट गया है।<br />
प्रीतम को अचानक आया देख कर उसकी आँखें खुशी से फैल गई हैं।<br />
‘‘माँ, चरण वन्दना,’’ कह कर वह माँ के चरणों में झुक गया है।<br />
‘‘क्यों रे, कितनी देर से खड़ा है यहां?’’<br />
‘‘बस दो चार मिनट से। मैं तुम्हें सहज मुद्रा में जी भर देख लेना चाहता था।’’ थोड़ा रूक कर मुस्कराते हुए उसने फिर कहा,’’ माँ, तुम समाधि कब से लगाने लगी हो?’’<br />
‘‘जिस दिन से तुम्हारा पत्र मिला है, मैं तो उसी दिन से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूं। अच्छा हुआ तुम आ गए।’’<br />
प्रीतम माँ को अपनी आँखों में समेट लेना चाहता है।<br />
‘‘सत्या, ओ सत्या। प्रीतम आ गया है।’’<br />
उसने महसूस किया कि सत्या को पुकारते हुए माँ की आवाज़ धंसती जा रही थी।<br />
अन्दर से कोई आवाज़ नहीं आई।<br />
उसे यह जान कर खुशी हुई कि सत्या आई हुई है। वह कितनी खुश होगी।<br />
<br />
माँ ने उसे गले नहीं लगाया। उसे दुख हुआ। कहीं कुछ गड़बड़ हो गई है। शायद मेरा ही भ्रम है। अब तो माँ को चिन्तामुक्त होना चाहिए। खुश ही होंगी। शायद सारा दिन काम करते थक गई है। जब वह माँ को चैक-बुक देगा तो माँ कहेगी- यह भी कोई चीज़ है। फिर मुझे हंसी आएगी और मैं कहूंगा- माँ, इससे जो चाहो खरीद सकती हो। चाहो तो नया सा बंगला बनवा लो। चाहो तो सोने की चूड़ियां ही बनवा लो। तुम्हारी चूड़ियां ही तो थीं, जिन्होनें मुझे उच्च शिक्षा के लिए विदेश भिजवा दिया।<br />
<br />
माँ चुप बैठी है। अंगीठी पर चाय के लिए पानी रख दिया है।<br />
प्रीतम को मौन अच्छा नहीं लगता। रसोई में इधर-उधर नज़र दौड़ाता है। शिवजी की मूर्ति अब भी वहीं है। धूप जल रही है। माँ की गम्भीरता को तोड़ने के लिए उसने कहा,‘‘ माँ, तुम अभी तक शिवजी की पूजा करती हो।’’<br />
‘‘ क्यों रे, तू अपने भगवान को भी भूल गया। जाने से पहले तो तू भी यहीं माथा टेका करता था।’’<br />
<br />
वह हंस दिया है। उसे याद है, वह कहा करता था- माँ, तेरे शंकर भगवान मुझे विदेश भिजवा दें तो देखना यहाँ कितनी बड़ी, सुन्दर सी मूर्ति रखवा दूंगा। उसे अपनी ही बात पर संकोच होता है। माँ प्रायः कहा करती थी- विश्वास के बिना जीवन में है ही क्या। जीने के लिए कोई न कोई आधार तो आवश्यक है।<br />
माँ अधिक पढ़ी-लिखी नहीं परन्तु मन्त्र आदि सब याद हैं। शायद यह संस्कार परम्परा के रूप में उसे मिले हैं। माँ के विश्वास को नकारा नहीं जा सकता- वह सोचता है।<br />
<br />
उसे याद आया वह दिन जब भारतीय साध्वियों की वेश-भूषा में कुछ एक पश्चिमी लड़कियां उसके पास आई थीं। वे कितनी भोलीं तथा भली लग रही थीं। बड़े श्रद्धा-भाव से उनमें से एक ने पूछा था, ‘‘ आप भारत से आए हैं? ’’<br />
‘‘जी हां।’’<br />
‘‘किस प्रान्त से?’’<br />
‘‘हिमाचल से।’’<br />
‘‘जिसे देव भूमि भी कहते हैं।’’<br />
‘‘समग्र भारत ही देव भूमि है, एक इकाई में बंधा हुआ।’’ उसे उनके ज्ञान पर आश्चर्य हुआ था। साथ ही इस बात पर दुख भी कि वह स्वयं इस विषय में अधिक स्पष्ट नहीं था। परन्तु शीघ्र ही उसके मन ने उसकी बात का समर्थन कर दिया था।<br />
‘‘आपने देख लिया है कि यहाँ धन की कमी नहीं परन्तु फिर भी हमारा मन शांत नहीं रहता। हमें अपने अस्तित्व की व्यर्थता, उद्देश्यहीनता सदा कचोटती रहती है। भारत के धर्म हमारे लिए आशा की किरण है। हम भगवान राम तथा कृष्ण के विषय में जानना चाहती हैं’’- बड़े ही भाव-भीने स्वर में उन्होंने कहा था। <br />
धर्म में इतना विश्वास न होते हुए भी उसने उन्हें विस्तार से राम तथा कृष्ण की जीवन-गाथाएं सुनाई थीं। अधिक ज़ोर उसने इस पक्ष पर दिया था कि वे महा-पुरुष थे, उनका जीवन आदर्श था, वे परमार्थ के लिए अवतरित हुए थे।<br />
<br />
फिर तो वे लड़कियाँ प्रायः उसके पास आतीं। धर्म चर्चा करतीं तथा सन्तुष्ट होकर लौटतीं। प्रीतम को कुछ कचोटने लगता। वह आत्मा-विश्लेषण करने पर विवश हो जाता। भगवान? है भी नहीं, कौन जाने? पश्चिम के लोग पूर्व से शांति ढूंढते हैं किन्तु पूर्व वाले कहां जाएं। विज्ञान में नया विश्वास नहीं दिया परन्तु जो विश्वास का आधार था, उसे छिन्न-भिन्न अवश्य कर दिया है। माँ कहती है- जीवन में विश्वास के बिना है ही क्या। शायद ठीक ही कहती है। ऐसा सोचता है तो संशय का ज्वार-भाटा क्षण भर के लिए शान्त हो जाता है।<br />
<br />
माँ उस की ओर देख रही है। वह अपने विचारों में खो गया है। माँ ही बोलती है, ‘‘बेटा चाय पी लो।’’<br />
‘‘मैं सत्या को बुला लाऊं।’’ कह कर उसने अपना सामान उठाया तथा अन्दर चला गया।<br />
सत्या चारपाई पर लेटी शून्य आंखों से छत को घूर रही है। पास ही बच्ची दुबकी पड़ी है।<br />
प्रीतम के निकट पहुँचने पर भी सत्या ने उसकी ओर नहीं देखा। उसे अपनी अनुपस्थिति का अहसास हुआ।<br />
‘‘उठो बहन जी। अभी से सो कर रात कैसे निकलेगी।’’ प्रीतम ने कहा।<br />
‘‘डैडी,’’ बच्ची ने पुकारा।<br />
<br />
‘‘डैडी तेरा भाड़ में।’’ सत्या ने अपनी पुत्री को डाँटा।<br />
<br />
प्रीतम ने बच्ची को उठा लिया। बच्ची ने घूर कर अपने मामा की ओर देखा। वह अपनत्व पा कर शीघ्र ही सहज हो गई।<br />
‘‘माँ तो कहती है मैं गन्दी हूं।’’ भोलेपन में बच्ची ने कहा।<br />
सत्या ने पहले बच्ची की ओर देखा, फिर प्रीतम की ओर देखकर बोली, ‘‘तो मेरा आना तुम्हें अच्छा नहीं लगा।’’<br />
‘‘कोई आए या जाए मुझे क्या?’’<br />
‘‘चल बेटा। तू थका हुआ है। चाय पी ले। यह तो पगली है।’’ माँ ने प्रीतम के कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा।<br />
सत्या की आँखें अग्नि बरसाने लगीं।<br />
प्रीतम चाय की चुस्कियां ले रहा है परन्तु रस नहीं आ रहा। कहता है, ‘‘माँ, बस सूखी चाय।’’<br />
‘‘चाय भी कभी सूखी होती है। मैं जानती हूं तुम्हारा मन ऐंकलू खाने को हो रहा होगा। इधर बहुत देर से कभी कुछ बनाया ही नहीं। बनाती भी किस लिए। अब जो तू कहेगा, बनाऊंगी।’’<br />
‘‘माँ, विदेश में तो मैं तरस गया तुम्हारे हाथ की बनी चीजें खाने के लिए। एक बार हम ऐंकलू बनाने लगे थे परन्तु बने ही नहीं। बन भी जाते तो भी क्या मजा आता। वहां प्रायः ठण्डा दूध पीते हैं, बिना मीठा ड़ाले।’’<br />
‘‘तब तो तुम्हें बड़ी कठिनाई हुई होगी।’’<br />
‘‘नहीं, धीरे-धीरे वैसी ही आदत बन गई।’’<br />
बच्ची बैठी मामा की बातें सुन रही है।<br />
गाए रम्भाने लगी है। मां उठकर बाहर चली गई है।<br />
वह मां से शैलजा के विषय में पूछना चाहता है परन्तु बात करने के लिए कोई सूत्र ही नहीं मिलता। सीधे बात पूछने में उसे संकोच होता है। मन तो है कि अभी दौड़ कर उसे मिल आए किन्तु मां क्या सोचेगी।<br />
<br />
वह उपस्थित होकर भी अनुपस्थित महसूस करता है।<br />
उस दिन वह मौल खड्ड में हनुमान जी के मंचाकार पत्थर पर बैठा था।<br />
शैलजा खड्ड में बैठकर कपड़े धो रही थी। प्रीतम उसके रूप वैभव का निखर रहा था। वह भी कभी कभी आंख बचाकर उसकी ओर देख लेती थी। प्रीतम उसे चिढ़ाने के लिए गुनगुना उठता- अगाडुआ पछाडुआ तू कजो झाकदी।<br />
वह गुस्से होने का अभिनय करती। उसके गाल कोटगढ़ के सेब की तरह रक्तिम हो उठते। फिर वह प्रीतम को दिखा कर अपने छोटे भाई की ओर संकेत करती।<br />
<br />
‘‘तुम उठो जी। मैने यहां कपड़े फैलाने हैं। पत्थर कोई तुम्हारे घर वालों ने ला कर नहीं रखा है।’’ वह बोली थी।<br />
‘‘तो हकीम जी ने ला कर रखा है?’’<br />
फिर वह धीमे स्वर में बोली थी, ‘‘कोई आ गया तो गांव में यों ही चर्चा होने लगेगी।’’<br />
चर्चा की बात से प्रीतम को गुदगुदी हुई थी। वह भी चाहती तो है। कहीं यों ही तो उल्लू नहीं बना रही। मन ने कहा- नहीं, उसके मौन संकेत झूठे नहीं हो सकते। उसे आत्मीयता अनुभव हुई थी। <br />
वह वहां से उठ कर चला गया था। थोड़ी दूर पर खड्ड के किनारे एक चील के वृक्ष के नीचे बैठा शैलजा को निहारता रहा था।<br />
‘‘बेटा तुम कपड़े बदल लो। इतनी देर में मैं रोटियां पका लूं।’’<br />
<br />
‘‘पकाती रहो रोटियां। कुछ और भी सीखा है?’’ सत्या बोल रही थी।<br />
‘‘साग की भुज्जी बना ली है। थोड़े पत्तरोड़े भी पड़े हैं। कुछ और खाना हो तो बोलो।’’ मां ने सत्या की ओर ध्यान न देकर प्रीतम से पूछा।<br />
‘‘ठीक है मां।’’<br />
‘‘क्या ठीक है? यहां कुछ ठीक नहीं होता। दुनिया को आग क्यों नहीं लग जाती। ये इतने जंगल खड़े हैं, कभी आग नहीं लगती। जिस दिन आग लगेगी, मैं उस दिन नहीं नाचूंगी।’’ सत्या कह रही थी।<br />
‘‘तू भी मर जाएगी फिर।’’<br />
‘‘मैं तो उस दिन मर गई थी जिस दिन उस ‘मुए’ के साथ भेज दिया था मुझे.... अब तो एक ही इलाज है, आग। जितने भी पुरुष दूसरों के कानों से सुनते हैं, उन सब का स्वाहा हो जाएगा। मैं उन लागों की राख को इकट्ठी कर के न्युगल तथा मौल खड्ड के संगम में बहा आऊंगी।’’<br />
प्रीतम ने गहरा निश्वास लिया।<br />
<br />
सत्या ने चंपा को पुचकारा तथा कहने लगी, ’’वह मुझे छोड़ गया। कहता है तुम पतित हो चुकी हो। भला पति के बिना भी कोई पतित हो सकता है। बड़ा मेजर बना फिरता है। तीन साल के बाद घर आया। मैंने आंखों का तेल डाल मन का दीप जलाया, हाँ, हां आंखों का तेल डाल कर....... जानती हो उसने क्या कहा। कहता है- तुम जुल्फी को जानती हो? मैंने कह दिया- हां, जानती हूं। गांव के सब लोगों को जानती हूं। फिर बोला हूं। तुम जुल्फी को जानती हो। पागल कहीं का। बड़ा बना फिरता है। जो किसी ने कह दिया सो मान लिया।’’<br />
<br />
‘‘अरी चंपा। तू तो बोलती ही नहीं। बोल भी न। तुम्हारे साथ कभी ऐसा हुआ है? जरूर हुआ होगा। कोई बच सकता है भला? आग लग जाए तब ठीक होगा। प्रीतम को तो कुछ पता नहीं, यों ही हर बात को ठीक कह देता है।’’<br />
<br />
माँ असहाय दृष्टि से प्रीतम की ओर देखती है। प्रीतम के मस्तिष्क में आतिशबाजियां चलने लगी हैं।<br />
<br />
यहाँ विवाह हो जाता है परन्तु जरा सी गड़बड़ हुई नहीं कि दाम्पत्य जीवन क्षण भर में बिखर जाता है। समझने की कोई कोशिश नहीं करता। यहाँ एड-जस्टमेण्ट को झुकना समझा जाता है। विदेश में पति-पत्नी की न बने तो दोनों एक दूसरे से दूर हो जाते हैं। कोई बखेड़ा नहीं करता। शायद मैं गलत सोच रहा हूं। वहां और बुराइयां हैं। पैसा ही सब कुछ है। प्रेम.... प्रेम तो शायद होगा ही। उसकी आंखों के आगे डेजी का चित्र उभर आया हैं।<br />
<br />
तब वह ओटावा में था। वह डेजी के घर ‘पेइंग गेस्ट’ बन कर रह रहा था। वह उसे प्रायः कहा करती थी- तुम बहुत सुन्दर हो। भावकुता में बह का वह और भी बहुत कुछ कह जाती थी परन्तु प्रीतम को सदा संकोच होता था।<br />
फिर एक दिन डेजी ने ही प्रस्ताव रखा था- डेटिंग का प्रोग्राम।<br />
<br />
वह झेंप गया था। परन्तु अनुभव मात्र के लिए उसने हाँ कर दी थी। वह कई घण्टे तक उसके साथ रहा था।<br />
‘‘तुम्हारी राशि ‘विरगो’ (कन्या) है न। तुम बहुत भाग्यशाली हो। मैं राशि में बहुत विश्वास रखती हूं। क्यों न हम दोनों शादी कर लें।’’<br />
‘‘मैं?’’ वह चौंक पड़ा था।<br />
‘‘मैं देश-विदेश नहीं मानती।’’ प्रीतम को चुप देखकर वह फिर बोली थी, ‘‘क्या मैं अच्छी नहीं हूं?’’<br />
‘‘डेजी, मैं किसी और से प्रेम करता हूं। वह दूर भारत में मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी।’’ अपराध भावना महसूस करते हुए उसने कहा था।<br />
‘‘तो तुम्हें मेरे साथ ‘डेटिंग’ का प्रोग्राम नहीं बनाना चाहिए था।’’ उसने शिथिल स्वर में कहा था।<br />
सैरी के टिड्डे की ट्रीं ट्रीं अब भी सुनाई दे रही है।<br />
सत्या चुप लेटी है। प्रीतम खाना खा रहा है। छोटी बच्ची भी छोटे-छोटे ग्रास मुंह में डालने लगी है। थोड़े चावल मिल जाते, अरहर की खट्टी दाल होती और पलदा होता तो कितनी अच्छी बात थी। उसका मन बहुत सी चीज़े खाने को हुआ- जैसे पहले कभी कुछ देखा ही न हो।<br />
माँ गुमसुम बैठी है।<br />
उसने एक ग्रास तोड़ कर माँ के मुख में डाल दिया है। माँ के चेहरे पर हंसी बिखर गई है।<br />
‘‘आज तो तू खिला रहा है, कल तू नौकरी पर चला जाएगा। फिर कौन इतने प्यार से मेरे मुख में ग्रास डालेगा?’’ माँ की आँखें सजल हो आई हैं।<br />
‘‘माँ, मैं अब कहीं नहीं जाने का।’’<br />
<br />
प्रीतम ने अपनी माँ के चेहरे पर आए भावों को पढ़ लिया है। उसके पिता की आकृति उसकी आँखों केे आगे तैर गई। वह कांप-कांप गया।<br />
शैलजा से प्रथम मिलन जिन परिस्थितियों में हुआ, उन्हें वह कभी नहीं भूल सकता।<br />
तब वह दसवीं में पढ़ता था। उस साल बहुत बारिश हुई थी- लोग कहते थे- इस बार ‘कुरला’ ‘कुरली’ उठने का नाम ही नहीं लेते। उसका मन हुआ था कि ‘कुरला’ ‘कुरली’ को देखे परन्तु प्रयत्न करने पर भी देख नहीं पाया था। फिर सोचा था- शायद ये कल्पित पक्षी हैं, जो बारी-बारी नौ-नौ दिन बैठते है। उतने ही लगातार बारिश होती रहती है।<br />
<br />
उस दिन उसके पिता जी बारिश में खेतों में काम करते रहे थे। कहीं बाँध लगाना था, जो कहीं पानी को निकालने के लिए रास्ता बनाना था। थके हारे जब सांय घर लौटे तो आते ही पशुओं को चारे का प्रबन्ध करने लगे। कमरें में दीपक की मन्द रोशनी थी, बिजली अभी तक गांव में नहीं पहुंची थी। अचानक उसकी चीख निकल गई थी।<br />
वैसे तो खेतों में अनेक बार साँप निकलते थे, मिलते थे- उन्हें उसके पिता आसानी से मार देते थे परन्तु आज कोई गलसाट नहीं थी बल्कि खड़पा था और फिर आज उन्हें दो-दो हाथ होने का अवसर ही नहीं मिला था। उसका पाँव साँप पर टिक गया था।<br />
माँ ने कस कर घाव से थोड़ा ऊपर रस्सी बाँध दी थी। उनका रंग नीला पड़ता जा रहा था।<br />
<br />
तब वह दौड़ा-दौड़ा गया था बसोंटी वाले हकीम जी के पास। बड़ी ही मुश्किल से वह सारी बात हकीम जी को बता पाया था। उसकी आँखों में आंसू देखकर हकीम जी ने ढाढस बंधवाया था।<br />
शैलजा ने सारी बात सुन ली थी। उसने प्रीतम को दयार्द्र आँखों से देखा था।<br />
शायद उसी समय दोनों में आकर्षण कर सूत्रपात हुआ था परन्तु नहीं- वह तो दया का भाव था, सहानुभूति थी। मृत्यु सब को निकट ला देती है।<br />
जड़ी-बूटियां तथा दवाई लेकर हकीम जी चलने लगे तो शैलजा ने कहा, ‘‘पिता जी, मैं भी साथ ही चलती हूं। वापिसी पर आप को देर हो सकती हैं।’’ हकीम जी ने उसके प्रस्ताव का विरोध नहीं किया था।<br />
<br />
प्रीतम की निगाह उड़-उड़ का अपने गांव पहुँच जाती।<br />
शैलजा ने कहा था- घबराइये नहीं। भगवान सब ठीक करेगा।<br />
प्रीतम ने कृतज्ञता भरी दृष्टि से शैलजा की ओर देखा था।<br />
थोड़ी दवाई देने के बाद हकीम जी उसके पिता को थोड़ी-थोड़ी बूटी खिलाने लगे थे। साथ ही साथ वह उसका स्वाद भी पूछते जाते थे। परन्तु कड़वी जड़ी-बूटियां मीठा ही स्वाद देती रहीं।<br />
<br />
अनेक प्रयत्न करने के बाद भी हकीम जी प्रीतम के पिता को नहीं बचा सके।<br />
याद आते ही प्रीतम काँप उठा है। माँ वैसे ही चुप बैठी है। आज पिता जी जीवित होते तो कितने खुश होते। गांव भर में मिठाइयां बाँटते और बार-बार सबको बतलाते- मेरा बेटा कनाडा हो आया है। पी-एच.डी. की डिग्री लेकर आया है। इतना योग्य है कि सरकार ने विदेश में ही नियुक्ति पत्र भेज दिया। एसे बड़ी नौकरी मिल गई है।<br />
उसे पता ही नहीं चला कि कब उसने खाना खा कर हाथ धो लिए। सत्या अभी लेटी हुई है। माँ भी किसी चिन्ता में डूबी बैठी है। अपने ही घर में अपने आपको अजनबी महसूस करता है।<br />
माँ की आँख बचाकर उसने कच्ची मिट्टी की दीवार को स्पर्श किया है। उसके हाथ में बुढ़िया सी मिट्टी आ गई, छत के स्लेट भुरभुरे जान पड़े। कहीं-कहीं छत से तारे झाँक रहे हैं। कहीं से सीलन की बू आई और उसके नथुनों से चिपक गई।<br />
उसने घुटन को कम करने के लिए लम्बे-लम्बे साँस लेने शुरू कर दिए। फिर एकदम उठा तथा अटैची-केस खोल कर बैठ गया। वह अभी अपने साथ अटैची-केस तथा एअर बैग ही लाया है। बाकी सामान समुद्री जहाज़ से आ रहा है। फिर कस्टम के लिए उसे जाना होगा। शायद तब तक वह नौकरी पर चला जाए परन्तु...<br />
<br />
‘‘बेटा’’ धीमे स्वर में उसकी माँ बोली।<br />
‘‘हां माँ।’’<br />
‘‘सत्या की बिटिया के लिए कुछ लाए हो?’’ माँ नहीं चाहती थी कि सत्या को उसकी बात सुनाई पड़े।<br />
‘‘हां मां। उसके लिए भक् भक् कर दौड़ने वाली गाड़ी लाया हूँ। कुछ रंगबिरंगी फ्राकें भी।’’<br />
माँ की आँखों में चमक आ गई। बच्ची गाड़ी से खेलने लगी है।<br />
‘‘खेल बेटे, खेल। गाड़ी तुम्हें गढ़े में ले जाएगी। खड्ड में धड़ाम गिरना......’’ सत्या अपने आप से कहे जा रही है।<br />
बच्ची ने अपनी माँ की बात को नहीं सुना है।<br />
प्रीतम का मन हुआ कि माँ से शैलजा के बारे में पूछे। शैल इस समय तक सो गई होगी। शायद बुनाई का काम कर रही हो। उसे उसकी मुर्गियों का ख्याल हो आया। परन्तु मेरी मुर्गियों का तो बहाना था। शायद उसने अपने विषय में ही चिन्ता प्रकट की थी। <br />
स्पष्ट रूप से वह कह भी कैसे सकती थी। जाने से पहले भी वह एक दिन मिली थी- मेले में देहरू के पीपल के नीचे। उसने मुंह दूसरी तरफ घुमा लिया था। मैंने ही उसे बुलाया था, ‘‘शैल, तुम मुझ से नाराज हो?’’<br />
‘‘मैं क्यों होने लगी नाराज़।’’<br />
‘‘तो फिर बात क्यों नहीं करती?’’<br />
‘‘मेरी बात अब तुम्हें कहां अच्छी लगेगी। मैं तो गांव की रहने वाली और तुम्हारे मन में अब फुर्र फुर्र अंग्रेज़ी बोलने वाली गोरी-चिट्टी मेमें घूमती हैं। इसीलिए अब तुम कभी दिखाई नहीं देते।’’<br />
‘‘मेरी मेम तो तुम ही हो।’’ प्रीतम ने धीमे से उसे कहा था। सुनते ही वह वहाँ से गायब हो गई थी। <br />
उसने एक गुलाबी रंग की साड़ी निकाली तथा माँ को थमा दी।<br />
‘‘अरे यह रंग बूढ़ों के पहनने का है।’’ माँ ने खुल कर कहा।<br />
‘‘माँ, कोई बूढ़ा नहीं होता। यह तो मन की बात हैं।’’<br />
‘‘बूढ़ा कोई नहीं होता परन्तु दुनियाँ सभी को बूढ़ा कर देती है। देखो मैं माँ से पहले बूढ़ी हो गई हूं।’’ सत्या उठ आई थी।<br />
प्रीतम ने ध्यान से अपनी बहन को देखा। नाम वही है, शक्ल वही परन्तु यह पाँच बर्ष पहले वाली सत्या नहीं। उसे अजीबपन का अहसास होता है।<br />
उसने माँ के हाथ में ढेर से नोट पकड़ा दिए और हंस कर कहा, है ‘माँ, अब जो चाहो खरीद सकती हो।’’<br />
‘‘तू लौट आया है, मेरे लिए यही नोट हैं। अब मैं अकेली नहीं हूं।’’<br />
माँ फिर किसी सोच में डूब गई है। वह शैलजा के बारे में पूछना चाहता है। उसने अटैची-केस से एक डिबिया निकाली है। उसमें एक सुन्दर सी अंगूठी है शैलजा के लिए। उसे संकोच होता है। वह डिबिया को छिपाने का प्रयत्न करता है।<br />
‘‘माँ’’- उसने कहना चाहा परन्तु उसका स्वर दब गया है।<br />
‘‘अंगूठी लाए हो।’’ वाक्य लटका कर सत्या ने कहा। उसने प्रीतम को पकड़ लिया था।<br />
‘‘क्या?’’ माँ पूछती है।<br />
‘‘अंगूठी।’’ सत्या ही बोलती है।<br />
‘‘किसके लिए?’’ थोड़ा-थोड़ा समझते हुए भी माँ पूछ ही लेती है।<br />
‘‘माँ उसी के लिए।’’ हर्षतिरेक के कारण वह वाक्य पूरा नहीं कर पाया फिर माँ की ओर देख कर बोला,‘‘ जिसके लिए तुमने सिफारिश की थी।<br />
माँ चौंक पड़ी है।<br />
<br />
‘‘सोने की अंगूठी है न। कोई भी ले लेगी। रोनी सी सूरत बनाने की क्या जरूरत है?’’ सत्या ने अपनी दार्शनिकता बघार दी।<br />
किसी पत्थर के लुढ़क कर खड्ड में गिरने की आवाज हुई।<br />
‘‘माँ देखो भी न। शैलजा कैसी है?’’ प्रीतम से अब रहा न गया।<br />
‘‘बेटा, वह तो चली गई।’’ माँ ने संकेत भर कर देना उचित समझा।’’<br />
‘‘कहां चली गई? क्यों चली गई?’’ उसने चिल्लाना चाहा परन्तु स्वर उसका साथ नहीं दे रहा। तो शैलजा चली गई, उसे नहीं जाना चाहिए था परन्तु उसकी सुनी भी किसने होगी।<br />
<br />
‘‘यह भी कोई नई बात है। अंगूठी आती किसी के लिए है और ले कोई और जाता है।’’ थोड़ा रूक कर सत्या फिर बोली, क्यों पागल बनते हो? वह नहीं तो कोई और सही।’’<br />
<br />
वह अपने आपको अजनबी महसूस करता है। शैलजा की अनुपस्थिति बसोंटी गांव के धुंधियाये चित्र में से उभर-उभर जाती है।<br />
किसी पत्थर के लुढ़क कर खड्ड में गिरने की गड़गड़ाहट सियारों की ‘हुआ-हुआ’ की ध्वनि में विलीन हो गई है।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31186सुशील कुमार फुल्ल2016-06-11T02:30:04Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=<br />
|नाम=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=15 अगस्त 1941<br />
|जन्मस्थान=गांव काईनौर, ज़िला रोपड़, पंजाब<br />
|मृत्यु=<br />
|कृतियाँ=<br />
|विविध=<br />
|जीवनी=[[सुशील कुमार फुल्ल / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Sushil Kumar Phull<br />
|shorturl=<br />
|kavitakosh=<br />
|copyright=<br />
}}<br />
====कहानियाँ====<br />
* [[बसेरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बढ़ता हुआ पानी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[मेमना / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फंदा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ठूँठ / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[कोहरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बांबी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[रिज पर फौजी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[माटी के खिलौने / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[चिड़ियों का चोगा / सुशील कुमार फुल्ल]] <br />
* [[दान पुन्न / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अटकाव / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अनुपस्थित / सुशील कुमार फुल्ल]]</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%9F%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B5_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31183अटकाव / सुशील कुमार फुल्ल2016-06-09T15:54:56Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल |अनुवाद= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
<br />
उसने चिल्लाना चाहा लेकिन वह चिल्लाई नहीं। मन हुआ कि दौड़ जाए परन्तु वह दौड़ी भी नहीं। जब भी वह अखिलेश के विषय में सोचती है, तो प्रायः उसे ऐसा महसूस होता है। उसने कितनी बार चाहा कि निर्वसन हो कर ठंडे-ठंडे फर्श पर लेट जाए परन्तु एक...दो...तीन का भय उसे ऐसा करने से रोक देता था....।<br />
<br />
सुषमा ने मेज पर पड़ी पुस्तकों पर से मिट्टी झाड़ी-पोंछी। जब कभी वह इन पुस्तकों को देखती है, तो वह उन्हें उलटे-पलटे बिना न रह पाती। जाने उसे इन पुस्तकों से क्या सन्तुष्टि मिलने लगी है। अब भी उसका ध्यान एक पुस्तक पर अटक गया है- किसी चुम्बकीय शक्ति से आकर्षित सा। उसके माथे पर रेखाएं उभरने लगी हैं। वह विद्रूप हंसी हंसे जा रही है। समय की स्लेट पर वह घटना उघड़ आई है।<br />
<br />
अखिलेश की बहन उठ कर चाय बनाने लगी। एकान्त... पूर्ण एकान्त। क्षण भर के लिए वातावरण घुटा सा था, उसी भांति जैसे तूफान आने के पूर्व सागर शांत हो जाता है। मानसिक तनाव ढीला पड़ गया। अखिलेश बोले बिना नहीं रह सका था।‘ सुषमा आपको पढ़ने का बड़ा चाव है’। इतना ही कह पाया था वह। है तो सही- प्रत्युत्तर दिया सुषमा ने। दोनों चुप। एक युग बीत गया। बात आगे बढ़ी। उपन्यास अधिक पसन्द करती हो या कहानियाँ? यह भी कोई प्रश्न है- सोचा था सुषमा ने। प्रकाश में बोली- दोनों का अपना-अपना स्थान है। वैसे मुझे कहानियाँ अधिक पसन्द हैं। फिर दूसरे ही दिन अखिलेश ने उसके हाथ में एक कहानी संग्रह थमा दिया था। उसने दो शर्तें भी लगाई थीं। एक तो यह कि सब कहानियों को पढ़े, दूसरे यह कि वह पुस्तक वापिस नहीं लेगा। सुषमा मान गई थी। परिचय अभी नया था इसलिए उसने तर्क करना उचित नहीं समझा। अखिलेष द्वारा लगाई गई शर्तों को सोच-सोच कर खूब हंसी आ गई थी।<br />
<br />
शर्तों में बन्धी गांठें जब खुलीं तो सुषमा को आश्चर्य भी कम नहीं हुआ। उसने चाहा था कि वह वीणा से बात करे। अखिलेश की शरारत वह छुपाना नहीं चाहती थी। उसे दिखाएगी वह कहानी जो अखिलेश द्वारा दी गई पुस्तक में प्रकाशित थी.... नायक-नायिका का नाम अखिलेश-सुषमा ही था। संयोग मात्र ने अखिलेश को भावुक बना दिया था। कहानी की मुख्य पंक्तियां उसने रेखाअंकित कर रखी थीं। सुषमा ने बार-बार कहानी को पढ़ा था। पता नहीं क्यों उसने वीणा को यह सब नहीं बताया। शायद इस आशंका से कि वीणा को यदि पता चला तो वह सचमुच ऐसा ही न समझ बैठे। शायद इसका कारण उसका संकोच था। मन ही मन उसे गुदगुदी हुई थी कि अखिलेश उसे चाहता है। इंजीनियरिंग का कोर्स पूरा कर कर आया है। शीघ्र ही बड़ी सी नौकरी पर लग जाएगा। देखने में सुन्दर है। स्वस्थ है। सुशील है। फिर उसे यह जान कर हैरानी हुई थी कि अखिलेश को इतना पढ़-लिख लेने पर भी कोई नौकरी नहीं मिल पा रही थी। वास्तव में तुम नौकरी करना ही नहीं चाहते- सुषमा ने कहा था। मैं तुम्हारी नौकरी करने को भी प्रस्तुत हूं- सुषी, फिर यह बेकार इंजीनियरों के आंकड़े दिखा देता।<br />
<br />
वह फफक-फफक कर रो पड़ी। दम घुटा-घुटा सा लगा था उसे। मन का गुब्बार निकल पड़ा था अश्रु- जल धारा बन कर। किसी से कुछ न कहा, उसे अपने पिता को बता ही देना चाहिए था- आज तक तो। तुम्हारा गला घोंट दूंगा, सुषमा तुम.... तुम मेरी पुत्री नहीं- नागिन निकली। मैं तुम्हें जीवित नहीं रख सकता। तुम्हें जीवित रखता हूं तो मैं नहीं रह सकता। उसका पिता पागलों की भांति रो पड़ा। सुषमा ने अपने पिता के पैर पकड़ लिए। उसका पिता एकदम पीछे हट गया। सुषमा के हाथ से पुस्तक नीचे गिर पड़ी। वह चौंक गई। हकबकाई सी खड़ी रही क्षण-भर के लिए। नॉर्मल हुई तो काम में लग गई क्योंकि बेकार बैठती है तो सोचा करती है कह नहीं पाती- भय जो है एक....दो....तीन का।<br />
<br />
‘सुषमा, अभी तक कमरा साफ नहीं हो पाया।’ सुषमा की मां माया ने कहा परन्तु सुषमा ने सुना-अनसुना कर दिया। क्षण-भर को चैन भी तो नहीं मिलता। किस-किस की बात सुने वह मन की बातें समाप्त होने नहीं आती छिड़ जाएं तो चींटियों के ढेर सी बिखर जाती हैं। वह तो स्वयं भी बिखर-बिखर जाती हैं।<br />
‘सुषमा-सुनाई नहीं दिया।’ मां फिर चिल्लाई।<br />
<br />
सुषमा ने शून्य आंखों से अपनी मां की ओर देखा, अपने-आपको समेट लिया सुषमा ने। ‘‘मां, जो आपने कहा वह सुन तो लिया मैंने परन्तु उसमें ऐसी बात ही कौन सी थी, जिसका उत्तर दिया जाए।’’<br />
<br />
‘‘ तू तो मुंहफट होती चली जा रही हैं।’’ माया बुड़बुड़ाती रही। आजकल जो लड़कियों के नाक में जल्दी नकेल डाल देनी चाहिए। नहीं तो मां-बाप को घूर-घूर कर देखा करती हैं- मानों कह रही हों- तुम हो हमारे दुःखों का कारण। दुख पूछो तो कहेंगीं- मेरा दम घुटा जा रहा है। मैं मरी जा रहीं हूं- घबरायी सी, अजनबी सी। सब परिचित चेहरे धोखा हैं। माया का मन लैक्चर देने को हुआ परन्तु जानती थी कि सुषमा कड़ा उत्तर देगी।<br />
<br />
‘‘मां जो बना दे, वही बन जाऊंगी।’’ अधिक नहीं बोली सुषमा। कुछ काम किया जाए। काम कोई हो भी न। मां को ऐसे ही बोलने की आदत है। कुछ पढ़ा जाए। एक पत्रिका उठाई। ऊं हूं पढ़ने वाला है ही क्या। खिड़की में से देखा उसने- आकाश में बना हुआ इन्द्रधनुष। स्वप्निल रंग। संध्या उतर रही थी। इन्द्रधनुष पर कालिमा पुतती चली जा रही थी- रात्रि के आलिंगन-पाश की सूचक। धुंधियाया-सा वायु-मण्डल। अनेकों कीट-पतंग। वह सिहर गई। उसे भूलता नहीं वह समय जब उसने अखिलेश से कहा था- अन्धकार हम दोनों को समेट लेता है- भटकाने के लिए। अशान्ति की दीवार प्रतिदिन खड़ी हो जाती है। प्रकाश में मिल लेते हैं- हम दोनों निर्भय। प्रकाश-अन्धकार। इन दोनांे में एक खाई। यह खाई, अखिलेश, अभी और कितनी देर बनी रहेगी? तो उसने उत्तर दिया था। अन्धकार पर प्रकाश हॉवी होने ही वाला है। प्रकाश होगा- हम दोनों के मिलन का, प्रभात फूटेगी नए सपने संजो कर.... इसके लिए प्रतीक्षा अपेक्षित है।<br />
<br />
<br />
वह बिस्तर पर फैल गई। उसे अपना शरीर अधिक स्थान घेरता हुआ लगा। थकी-थकी सी आंखें बन्द होती जा रही थीं। वीणा पास होती तो हंसा-हंसा कर मार देती। उससे सारी बातें कह के मन हल्का किया जा सकता था। परन्तु वह जो यहां से ऐसे गई कि वापिस ही न आना हो। फिर सुषमा को लगा कि वह ठीक से नहीं सोच पा रही। वीणा को गए अभी एक ही सप्ताह हुआ है। वह उसे तब भी बता सकती थी। बता देती तो अच्छा ही था। शायद वह बुरा मानती। बुरा मानना स्वाभाविक ही था। मैं जो फंस गई हूं। इधर भय बना रहता है- एक....दो...तीन का। अखिलेश मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकती। किसी भी मूल्य पर नहीं छोड़ सकती। मैंने तुम्हें अपना सब कुछ, सब कुछ, समझा है। तुम सब कुछ मेरे हो। जो तुम कहोगे वैसा ही करूंगी लेकिन उसका साथ छोड़ दो। मैं उसे सहन नहीं कर सकती- अखिलेश। माना वह मेरे से अधिक सुन्दर है (क्योंकि तुम ऐसा कहते हो)। उसके अंग मेरे से अधिक गठित हैं परन्तु..... एक बात बताओगे? यदि तुम्हें कल इससे भी अधिक सुन्दर स्त्री दिखाई पड़े तो क्या तुम इसे भी छोड़ दोगे? तुम्हारा ऐसा करना उचित होगा? तुम... तुम तो वही हो जो कभी मुझे कहा करते थे- परमात्मा ने खूब बनाया है तुम्हें। तुम किसी कवि की कल्पना का साकार रूप हो- सच्। तुम झूठ कहते हो- अखिलेश। सुषमा बोली।‘‘ विश्वास से बड़ी कोई बात नहीं। तुम्हारे साथ इतने दिन घुमता रहा हूं, कुछ घुटन सी अनुभव होने लगी थी। इसके साथ तो मैं शूगल में घूमता रहा हूं। मेरा मन तुम्हारा है। मन की शुद्धि से बड़ी होती है।’’ अखिलेश ऐसा कह कर चल दिया है। सुषमा का नारी-सुलभ हृदय तड़प उठा है- सर्प दंश समान। पुकारती है- अखिलेश? तुम... तुम.... मुझे क्यों छोड़ रहे हो। अखिलेश ऽऽऽऽ !<br />
<br />
सुषमा इतने ज़ोर से चिल्लाई कि नम्बर दो दौड़ा आया। हरि ओम्! लड़कियों को अपने मां-बाप की भी शर्म नहीं रही। माँ बेटी को तरेरती हुई बोली- अभी क्या बक रही थी- सारा घर सिर पर उठा दिया। सुषमा ने कहा कुछ भी तो नहीं। मैं तो सो रही थी। सपना याद करके वह घबरा गई। उसका मुख पीला पड़ गया। सहम गई- खरगोश की तरह।<br />
<br />
<br />
नम्बर एक-क्रोध-सर्प फुँफकार रहा था। कौन है अखिलेश। बोलती क्यों नहीं। नहीं बोलेगी? मैं पूछ रहा हूं- तुमने किसका नाम लिया।<br />
नम्बर तीन बीच में ही बोल पड़ा- इसे बन्द रखो कमरे में, नहीं तो घर की इज्जत को चार चांद लगा देगी। पहले ही बहुत कुछ सुन चुके हैं।<br />
सुषमा चुप आज तीनों बरस पड़े। मन हुआ कि कह दे कि तुम्हें फुर्सत हो तब न। उसने घूर कर इधर-उधर देखा। उसका पिता लाल-पीला हुआ जा रहा था। धप्प्.... धप्प्। सुषमा सन्न रह गई। उसका बाप यहां तक पहुंच सकता है- नहीं सोचा सुषमा ने। इतने दिन से दबती-दबाती चली आ रही सुषमा फूट पड़ी- तुम मुझे मारते हो। तुम कंजर-कंजरियां हो। तुम बाप नहीं दुश्मन हो। तुम्हारा हो जाए सबका सत्यानाश। मैं तुम्हारी जवान बेटी हूं न। पूरे सत्ताईस वर्ष की। इतनी बड़ी को मारते तुम्हें शर्म नहीं आती। सुषमा हंसने लगी- एकाएक। अखिलेश की ही तो माया- कहीं धूप कहीं छाया। उसने गा कर कहा। मूर्खो सूनो- मीरा के देवर ने उसे तंग करके घर से निकाल दिया था- शायद वह स्वयं बाहर निकल आई थी- लोकलाज को तिलांजलि देकर। वह तुम जैसों के मुंह पर थूकती थी। भगवान् ने उसे शरण दी। वह उसी में एकाकार हो गई। पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे- नाचीऽऽऽरे।<br />
<br />
उठो बेटा- माया ने कहा। सुषमा गाने से रूकती ही न थी।<br />
<br />
बड़ी आई है बेटी वाली। कुलच्छनी कहीं की। मुझे कहते हैं- अखिलेष कौन हैं? वह तुम्हारा बाप हैं, बाप। तेरा खसम। हां, तुम्हारा ही नहीं मेरा भी खसम हैं खसम।<br />
नम्बर एक और तीन तो दौड़े अपने कमरे की ओर। नम्बर दो कांप गया। ऐसा भी हो सकता है- उसने नहीं सोचा था। सुषमा समझदार है। कभी आंख ऊंची करके नहीं देखती। तीनों की बैठक हुई। विचार-विमर्श हुआ। सुषमा को आपस में पागल घोषित कर दिया गया। नम्बर एक ने तो कहा था- चरित्र रचती हैं। कहो तो मरम्मत कर देता हूं। न, न-पुकार उठे नम्बर दो और तीन। तीनों में समझौता हो गया। परन्तु किया क्या जाए? नम्बर दो ने सुझाया- सुषमा का विवाह कर दो। नम्बर तीन ने स्वीकृति में सिर हिलाया। नम्बर एक ने प्रतिक्रिया व्यक्त की- आजकल तो सभी देर से लड़कियों के विवाह करते हैं। और फिर कौन सी यह बूढ़ी हो गई।<br />
<br />
<br />
‘‘विवाह समय पर कर दिया जाए तभी उचित हैं।’’ मां बोली।<br />
‘‘समय नहीं मिलता तो उस समय ख्याल करना चाहिए था, जब एक के बाद दूसरा बच्चा पैदा करते चले गए।’’<br />
‘‘कुदरत जो चाहती है, वही होता है।’’<br />
सुषमा को आती देख नम्बर तीन तो भाग गया था।<br />
<br />
‘‘ तो मैं तुम्हें प्रार्थना करने आई थी कि मुझे पैदा करो। मुझे दुनिया की रोशनी दिखाओ। तुम दोनों नरक के कीड़े हो, जो.... जो और कीड़े पैदा किए जाते हो। फिर कीड़े तो स्वेच्छा से रेंग भी सकते हैं।’’ सुषमा बोली।<br />
<br />
भंयकर जीव, सागर की गहराई। दो प्राणी सहम-सहम गए। उन्हें पता नहीं था कि सुषमा उनकी बातों को सुन रही हैं। कोहरे में दुनिया डूब गई। उन्हें अन्धेपन की गर्मी महसूस हुई।<br />
<br />
एक रबड़ की गुड़िया को सहारा देकर बिठाया गया है। नई चूनर ओढ़ायी गई है। गोटा-तिल्ला मढ़ा हुआ। शरीर में उभार दिया हैं। तुम वीणा हो- हो न। कृष्ण की वीणा। ऐसी वीणा जिसको चटखा दिया गया हो। नहीं, माधुरी हो। अरी बोली भी। बोलती क्यों नहीं। बालो। बोलेगा तेरा बाप भी। अखिलेश से तो आंख- मटकाते अघाती नहीं थी। इधर बोलना भी छोड़ दिया है। अखिलेश तुम्हें गुदगुदाता है। क्या मैं नहीं गुदगुदा सकती। अरी, लेट तो सही। सुषमा ने गुड़िया को लिटा दिया और उसे अपने वक्ष से दबाने लगी। ओह! तुम्हारी तो सांस गर्म हो गई है। ऐसा ही होता है बेटे। घबरा नहीं। तू माँ बनेगी। मैं इस बच्चे का बाप। कितना प्यारा होगा वह बच्चा। फिर तुम मुझे उस बच्चे को पकड़ाकर कहा करोगे- जरा पकड़ो जी। मैं तो सारा दिन थक जाती हूं इसके पोतड़े धोते-धोते। पता है फिर मैं क्या कहूंगा- तो जन्म क्यों दिया था सरकार। ऐसा कहकर मैं उसे पकड़ भी लूंगा।<br />
<br />
सुषमा ज़ोर से हंस पड़ी। कमरा गूंज उठा।<br />
<br />
‘‘ सुषमा।’’ नम्बर तीन यानि सुषमा का भाई ज़ोर से चिल्लाया। वह बोली नहीं। फर्श पर कोहनी के बल अध-लेटी सी पड़ी रही।<br />
‘‘बोलेगी या नहीं।’’<br />
‘‘नहीं। नहीं। नहीं।’’ <br />
‘‘सुषमा वीणा आई है।’’<br />
<br />
‘‘तो तुम उससे विवाह रचा लों।’’ उसका भाई आंखे फाड़-फाड़ कर देख रहा था। सुषमा फिर बोली- तुमने प्यार किया है कभी?<br />
वह शर्म के मारे गड़ा जा रहा था। सुषमा को क्या हो गया। मां-बाप के बुझे-बुझे, लटके चेहरों पर उसे तरस आया। शायद सुषमा पर भी। ‘ क्यों संकोच होता है क्या? बहन कर रिश्ता ही ऐसा है। तुम भी निरे बुद्धू ही रहे। बहन भी तो स्त्री होती हैं। नहीं होती क्या?’’<br />
<br />
‘ सुषमा होश से बात करो।’ नरेश से रहा न गया।<br />
<br />
‘ मैं होश में हूं। शायद नहीं हूं। (क्योंकि तुम ऐसा कहते हो) तुम भी झूठ बोल सकते हो। सारी दुनिया के होश गुम हैं। प्यार का ढकोसला रचा जाता है। एक बात बताओ, नरेश क्या कभी तुम मेले में गए हो?’<br />
<br />
संज्ञाहीन सा, बौखलाया सा नरेश उठ कर चला गया। सुषमा बोलती ही रही- जानते हो मेले में लोग-वाग क्यों जाते हैं? बढ़े भोले हो। तुम दूसरों की बहनों को छेड़ते हो और दूसरे....... बहनें भी तो छेड़-छाड़ पसन्द करती हैं। उस दिन की बात याद है जब मां के साथ मैं सत्-संग मन्दिर में गई थी। तुम शायद नहीं गए थे। शायद गए थे। नहीं गए थे। तुम साथ हाते तो मैं नंग-धड़ंग कैसे नहाती। ऐसे घूमने में, पानी की धार के नीचे बैठने में कितना मजा आता है। विशेष बात तो बतानी मैं भूल ही गई। मैं भी कैसी होती जा रही हूं।<br />
<br />
सुषमा ने अतृप्त आंखों से देखा। उसकी माँ तनी खड़ी थी। बस भी करोगी या बकती ही जाओगी। किसी की तो परवाह करो। बहुत ही सम्भल कर कह दिया है सुषमा की माँ ने।<br />
<br />
गुड़िया को वक्ष से भींच कर सुषमा बोली- ‘ नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली, ’बिल्ली हज को चली। मां, तुम तो समझ सकती हो। इस लिए खास बात तुम्हें बताती हूं। दुनिया की कोई औरत ऐसा किए बिना रह ही नहीं सकती। मैंने कहा न- मैं वहो सत्-संग मन्दिर में नहा रही थी पता है उस पास वाले वृक्ष पर कौन बैठा था। वह था- अखिलेश। मुझे देख-देख कर वह हंस रहा था। मुझे बड़ा ही अच्छा लगा। मैं पानी में चुहलबाजी करने लगी। और कर भी क्या सकती थी? तुम मन्दिर में बैठी पूजा मग्न थी। शायद भगवान् के चरणों में नाक रगड़ रही थीं। रगड़ा कर। नाक। तुम्हारे लिए यही उचित है। जिन्दगी भर पाप करो और फिर........ राख की ढेरी में शोला है न चिंगारी।’<br />
<br />
माँ उठ कर जाने लगी तो खींच लिया सुषमा ने। माँ की स्थिति जाल-फंसे पक्षी जैसी थी। सुषमा के गोल-गोल मुख को देखकर उसकी माँ प्रसन्न होती थी परन्तु उसे लगता है कि उसकी बेटी का अंग-प्रत्यंग विद्रोह कर उठा है। वह अपनी बेटी की सहयता करना चाहती है परन्तु उपाय नहीं सोच पाती।<br />
<br />
‘माँ, तुम तो पत्थर हो, पत्थर। तुम्हारे पति क्लब में चले जाते हैं और तुम घर बैठे जम्हाइयां लिया करती हो। पतिदेव के गुण गाते नहीं अघाती। वहां जो कुछ वह करते हैं- तुम नहीं जानती। नाचा करते हैं- बन्दरों की भांति। फिर अचानक बिजली चली जाती है। चली नहीं जाती। जान-बूझ कर ऐसा किया जाता है। सब अन्धेरे में अंधिया जाते हैं। कोई भी स्त्री किसी भी पुरुष की बाहों में आ गिरती है- जैसे युगों-युगों से इसी क्षण की प्रतीक्षा करती आई हो। ऐ पत्थर! कभी तूने भी किसी की बाहों में गिर कर देखा है। तुम्हारा पति अगर मेरा पति होता तो मैं उसे वहीं से घसीट लाती। तुम हो कि जी रही हो- किसी का नाम लेकर’ उसके पैरों की मिट्टी तुम्हारे लिए सोना है। मैं सत्य कहती हूं न।’’<br />
<br />
उसकी माँ ने चाहा कि जोर से कहे- सुषमा, परमात्मा के लिए चुप हो जाओ बेटी। परन्तु आवाज गले में ही रूक गई। तरल होकर आंखों में फैल गई। सुषमा से कुछ भी कहा, तो सुनेगी नहीं। इतने में वीणा आती दिखाई दी। माँ ने संतोष की सांस ली। शायद उसकी बातचीत करके इसका मन हल्का हो जाए। वीणा आई। सुषमा के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई। वह बहुत कुछ कहना चाहती थी वीणा से परन्तु क्या कहती।<br />
<br />
‘तुम वीणा हो।’ धीमे से सुषमा बोली और अपने मुंह को वीणा के मुंह के पास ले जा कर उसे पहचानने का प्रयत्न करने लगी।<br />
‘मैं वीणा ही हूं- ऐसे क्यों घूरते हो’- वीणा ने आश्चर्य से कहा।<br />
‘तुम वीणा नहीं हो। तुम तो माधुरी हो।’<br />
<br />
वीणा घबराई क्षण भर के लिए, लेकिन समझते देर नहीं लगी। माधुरी ने सचमुच अच्छा नहीं किया। उसे चाहिए था सुषमा का ध्यान रखती। ऐसे समय में, ऐसी स्थिति में ध्यान रखता भी कौन है। या फिर अखिलेश को सोचना चाहिए था। इसमें तो मैं भी दोषी ठहरती हूं। न सुषमा मुझ से मिलने आती। न मैं उसे अपने भाई से मिलाती। और न ही.... परन्तु जैसा हम विचारते हैं, सदा वैसा भी नहीं होता। उसने सुषमा की बुझी-बुझी आंखों की ओर देखा। फिर उसकी दृष्टि उस रबड़ की गुड़िया पर जा टिकी जिसे सुषमा ने पकड़ रखा था। उसकी इच्छा हुई कि सुषमा को सान्त्वना दे परन्तु ज्यों ही सुषमा की ओर देखती- वह कांप जाती।<br />
वीणा। ओ माधूरी। तुम भी धोखे में न आ जाना। पुरुष तो अपने आपको पागल कुत्ते से कम नहीं समझता। डांट-फटकार। दिन-भर यही काम। अंधकार में पालतू जानवर।<br />
<br />
गुड़िया को सम्बोधित करके बोली- माँ, तुम्हारा जमाना लद गया है। सोचती हूं कि एक ऐसा नारी दल तैयार किया जाए जो मर्द को नारी बना दे। उसके होश ठिकाने लगा दे। मैं अखिलेश जैसों की हड्डियां मरोड़ दूंगी। अब जो नारी पुरुष की इच्छा का भक्षण है। फिर नारी की इच्छा सुप्रीम होगी। नर विवश सा हड्डी के टुकड़े को तरसेगा। नारी के पंजों में, शिकंजे में फँसे मानव की अवस्था कैसी होगी?<br />
<br />
मां, तुम मेरी बात को तो सुनती ही नहीं। इतने दिनों से सोच रही हूं, नारी-दल बनाने की। जो मर्द नारी बन कर रहेगा उसे पालतू कुत्तों की भांति रखा जाएगा। जो नर खूंखार बनने का प्रयत्न करेगा, उसकी खाल उधड़वा कर सूखने के लिए डाल दी जाएगीं। फिर देखूंगी- साले कैसे धोखे देते हैं।<br />
‘ सुषमा- तुम्हें क्या हो गया?’ उदास वीणा ने पूछा।<br />
<br />
‘‘ तुम्हें पता तो है।’’<br />
‘ तुम इतना बोलने क्यों लगी हो?’<br />
‘ मैं कहां बोलती हूँ। चुप रहना मुझे बहुत अच्छा लगता है। तुम आई हो- क्या तुम्हारे साथ न बोलूं। यह गुड़िया है मेरी। कहीं यह बोर न हा जाए इसलिए इससे भी बात-चीत करती हूं। इसका प्रेमी आ जाएगा, तो इसे उसके हवाले कर दूंगी। फिर इसे कोई दुख नहीं होगा। मैं ही इसकी मां हूं, मैं ही इसका बाप।’ सुषमा ने बड़ी गम्भीरता से समझाया- वीणा को।<br />
<br />
वीणा के आगे बिछ गया है अतीत। सुषमा का शर्मीलापन। दोनों साथ पढ़ती थीं। एक दिन वीणा ने मजाक से पूछा था- तुम विवाह करवाओगी। छिः छिः मैं क्यों किसी की दासी बनने लगी- सुषमा बोली थी और फिर छुई-मुई सी हो गई थी। ‘‘ और तुम? ’’ मैं तो करवाऊंगी ही- वीणा ने हंस कर कहा था। फिर वीणा को पता चल गया था कि अखिलेश और सुषमा बंधे-बंधे से रहते हैं।<br />
<br />
‘‘ सुषमा- तुम्हारे मन में प्रेम का देवता उग आया है? ’’<br />
यह भी कोई- पौधा है जो उग आया है- प्रत्युत्तर मिला। फिर तो सुषमा ने अखिलेश की प्रशंसा के पुल बांध दिए थे।<br />
‘ उससे मिला करती हो न।’ मजाक करना चाहा था सुषमा से। <br />
‘ मिलना कोई बुरी बात थोड़े है। मेरा अर्थ है कि यदि घर वाले तुम्हें नहीं मिलने देते तो मैं प्रबन्ध कर सकती हूं।’ दोनों के मुख से हंसी के फव्वारे छूट पड़े थे। वीणा ने सुषमा की ओर देखा। यह कांप उठी। यह सब उसके लिए कल्पनातीत था। भाई से भी कहती लेकिन वह यहां था ही कहां?<br />
<br />
सुषमा अभी सो रही थी। रात को बहुत देर बोलती रही थीं। आजकल उसे चैन ही नहीं पड़ता। मां चिन्ताग्रस्त रहने लगी है। दिन-रात उसे सुषमा का ध्यान रखना पड़ता है। रात को देर से सोती है। सुबह जल्दी उठती है। प्रातः उठते ही उसे लगता है, मानों थकान का पहाड़ टूट कर उस पर गिर पड़ा हो। नरेश को सामान सम्भालते देखकर पूछा बेटा, क्या कर रहे हो? मां, मैं चला जाना चाहता हूं।’ नरेश बोला। लेकिन क्यों? क्या यहां रहना अच्छा नहीं लगता। सुषमा की हालत तो देखो। मैं तो मर जाऊंगी। ऐसा कहना चाहा उसकी मां ने पर कह नहीं पाई। इतना ही बोली- अभी तो तुम्हें अवकाश है, कुछ दिन और रह लेते। मां, मैं तो जाना चाहता ही नहीं था परन्तु मां समझ गई। नहीं बोली। नरेश ने झुकी आर्द्र आँखों को पोंछा और चल दिया। एक शून्य दृष्टि उसका बहुत दूर तक पीछा करती रही।<br />
मां को लगा घर की दीवारों पर से लिपी-पुतीं मिट्टी की परत गिर पड़ी हो। उसका गला रूआँसा सा हो गया। एक बेचैनी ने उसे आ दबोचा। वह एक दम उठी और सुषमा के कमरे में गई। सुषमा सो रही थी। मां का दिल धड़का। थोड़ा आगे बढ़ी। आहट हुई। चोरी पकड़ी गई। सुषमा की आँखें चमक रही थीं। मां लौट पड़ी। सुषमा का विवाह कर देना चाहिए। अब उससे कौन विवाह करवाएगा? तब लड़के वाले स्वयं आकर रिश्ता मांगते थे- परन्तु उन्हें कोई पसन्द ही नहीं आता था। कहते थे- जो स्वयं चल कर रिश्ता मांगता है, वह या तो लालची है या उसके लड़के मे कोई नुक्स है। माया को अपने विवाह की याद हो आई। मेरा विवाह चौदह वर्ष की आयु में हो गया था। तब मुझे कुछ भी पता नहीं था। सुषमा सत्ताईस वर्ष की हो गई है। अब तक विवाह हो जाना चाहिए था। फिर इतना कुछ न बोलती। विवाह लज्जाश्शील बनाता है नारी को। अपनी प्रथम भेंट को स्मरण करके हंस पड़ी।<br />
<br />
जब भी वह अपने पति से मिलती है, तो उसका पहला प्रश्न सुषमा होती है। अब उसके पति ने स्वयं ही पूछ लिया- माया, सुषमा का क्या किया जाए?<br />
‘‘हमारा दुर्भाग्य है।’’<br />
‘‘पागल है।’’ <br />
‘‘बातें तो पूरा तर्क से करती है।’’<br />
‘‘तर्क करती है। निरा बकवास करती है।’’<br />
‘‘उसके साथ भी अंट-संट बकेगी। बात सारे शहर में फैल जाएगी।’’<br />
दोनों चुप हो गए।<br />
<br />
पति ने संकेत किया स्टोर की ओर। वह कुछ कहना चाहते थे। दोनों वहां खड़े रहे। फिर सुषमा की मां बोली धीमे से- क्या बात है? यों परेशान क्यों हो? <br />
‘माया, सुषमा से मैं बहुत तंग आ गया हूं। मैं और अधिक सहन नहीं कर सकता।’ उसने फिर अपनी पत्नी की ओर ध्यान दिया, मानों पूछ रहा हो कि अर्थ समझ गई या नहीं।<br />
‘नहीं, नहीं? ऐसा नहीं हो सकता। मैं उसकी मां हूं। उसे डॉक्टर के पास ले जाऊंगी। उसका उपचार करवाऊंगी।’ भयभीत मां का हृदय दहल उठा था।<br />
सुषमा अपनी मां की आवाज सुन कर आ गई थी। उसने अपनी माँ का अन्तिम वाक्य सुन लिया था।<br />
<br />
‘देखा न मां, मैंने तुम्हें कहा था न कि ये पति जल्लाद होते हैं। सारी उमर औरत को दबाते रहते हैं। औरत न दबे तो हर प्रकार का ढ़ंग अपनाते हैं। उसके स्वाभिमान को मिटाने के लिए। बन्दर घुड़की देंगे- मैं जा मरता हूं फिर। तुम सुखी होकर रहना। जिस यार से चाहो गुलछर्रे उड़ाना उसको इतना कहना कि तुम जैसी औरतें पैर पकड़ लेती हैं। ‘प्राणनाथ! मेरे से भूल हो गई। मैंने ऐसे शब्द क्यों कहे? मेरी जल जाए जवान।’ फिर पतिदेव और चौड़े हो जाते हैं।<br />
जूते का जवाब जूते से दिया जाए तो ठीक रहते हैं। नारी दल की व्यवस्था हो जाए तो मैं भी अखिलेश की खाल उधड़वा दूंगी। उससे अन्याय नहीं न्याय होगा। उसे कठघरे में खड़ा किया जाएगा। उससे बोलने के लिए कहा जाएगा, तो वह सिर झुकायेगा। झूठा आदमी कभी बोल नहीं सकता है। दो-दो, तीन-तीन से प्रेम करना सिखलाऊंगी। उसकी औरत को उसी के सामने किसी और मर्द के साथ फिर देखूं क्या करता है। बोलेगा कुछ न कुछ। इलाज वही किया जाएगा जो तुम्हें बता चुकी हूं। तुम तो पत्थर हो मां। तुम्हें तो कुछ समझ में ही नहीं आता।<br />
<br />
‘सुषमा! सुषमा! चलो अपने कमरे में।’ क्रोध में उसका पिता बोला।<br />
‘दीवार मुझको बांध सकती है आज क्योंकर’ गाती हुई सुषमा चल दी अपने कमरे की ओर। उसका ध्यान कमरे में लगे कैलेण्डर पर चला गया हैं। हैरान हुई कि उसका ध्यान पहले वहां क्यों नहीं गया। कितना सुन्दर चित्र है। मत्स्य जीवी औरत मछली पकड़ रही है। एक मछली पानी के बाहर तड़प रही है। स्त्री के हाव-भाव बतलाते है कि मछली तथा उसकी अपनी मनः स्थिति में साम्य है। स्त्री जवान है।<br />
<br />
सुषमा ध्यानपूर्वक देखतीं रही। फिर आचानक बोलने लगी- तुम्हारा शरीर शीघ्र ही थुलथुल हो जाएगा। शरीर का गठन सदा एक सा नहीं रहता। तुम दमयन्ती जो नहीं। हाँ, वही हो सकती हो। परमात्मा ने तुम्हें कितना सुन्दर बनाया है। ‘‘छोड़ गया नल सा निष्ठुर कोई ’’ तुम्हारा भला चाहता होगा। ये लोग भलाई का ढ़ोंग मात्र रचते हैं। मुझे भी छोड़ गया जालिम। एक दिन उसने कहा था- सुषमा मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता। तुम मेरी जान हो। दुनिया इधर की उधर हो जाए परन्तु मैं तुम्हारे साथ हूं। हर औरत जानती है कि उसे फुसलाने के लिए लोग बीसियों बातें करते हैं। फिर भी वह मृग-मरीचिका को सच मान लेती हैं। फिर जानती हो क्या हुआ? मैंने उसे अन्य लड़की के साथ देखा। फिर किसी और के साथ। मुझे विश्वास नहीं होता था। मैं कांप-कांप गई। एक दिन मैंने पूछ ही लिया- उन लड़कियों से तुम्हारा क्या सम्बन्ध है? ‘जो तुम्हारे से। ’गम्भीर हो गई। नहीं बाबा नहीं। तुम कहां वह कहां? ‘तुम्हें तो मैंने चाहा है। उनके साथ तो शुगल मात्र है। केवल मन-बहलावा है। अखिलेश ने कहा था। लेकिन जानती हो उसने अपने आप को भी, मुझे तथा पता नहीं और किस-किस को धोखा दिया। अरे, जहां तुम मन-बहलाव करते हो, वहीं प्रेम करते हो। प्रेम तो बहाना मात्र है। भूख तो तुम्हें शरीर की है। फिर जानती हो क्या हुआ- एक उसे ले गई अपने साथ। शायद वह गर्भवती हो गई थी। इसलिए भागना ही उन्होंने सही समझा। दौड़ कर कहां अपने बाप के घर बैठ जाते। पुलिस पकड़ लाई थी- ऐसा मेरा विश्वास है। उसकी पिटाई भी हुई होगी। साले को नानी याद आई होगी। अभी तो नारी दल बन जाए फिर देखना क्या दण्ड देती हूं। इसका भी दिल तोड़ा जाएगा। इसकी अग्नि बढ़ा दी जाएगी। तड़पेगा। मर जाएगा, दम घुट-घुट कर अपनी ही आग में। सुषमा ने पैन्सल से कलैण्डर पर बनी औरत में छेद करते हुए कहा- शर्म नहीं आती इस प्रकार शरीर को उघाड़ते हुए। पुरुष बड़ा मक्कार है। नारी.... वह गाती-गाती एक दम रूक गई। नारी पर पुरुष के शासन की बात को मुख से निकालना तक नहीं चाहती थी।<br />
<br />
सुषमा ने रबड़ की गुड़िया को सहलाया। कहने लगी- घबरा नहीं, बेटे तुझे तुम्हारा सब कुछ मिलेगा। मैं जो हूँ तुम्हारे साथ। पुरुष लाख कोशिश करे- हम अपनी जिद से नहीं हटेंगी। अच्छा बेटे। देखना तुम भी किसी के साथ न भाग जाना।<br />
<br />
सुषमा को याद आया वह दिन जब उसका जीजा आया हुआ था। झेंपते हुए उसने कहा था- सुषमा तुम्हें क्या दुख है? दुख? जीजा जी आप क्या बातें करते हैं? दुख पूछना है तो जीजी से पूछो, मैं कौन हूं जिससे दुख पूछते हो। कंवर लाल चुप था। कहता तो कहता। साहस बटोर कर फिर बोला- तुम्हारा विवाह करवा दें। ‘किस से? तुम्हारे साथ चलूं। तुम्हें शर्म नहीं आती। एक लड़की से विवाह करवा लिया- थोड़ा है। देख, कैसे घूर रहा है जैसे चील रोटी को। आंखें निकाल दूंगी। ’ सोच कर, मन ही मन घटना को दोहरा कर वह पुलकित हो उठी। उसकी विजय जो निहित थी।<br />
<br />
कंवर लाल ने ससुर से कह दिया था कि सुषमा का कुछ नहीं बन सकता। वह तो बातें ही ऐसी करती है, जो सुनी नहीं जा सकतीं। उसका उपचार करवाया जाना चाहिए। उसका ससुर बोला नहीं था। सास भी चुप रही थी। उन्हें पहले से ही सब पता था। सोचा था शायद कंवर लाल से कुछ कहे।<br />
<br />
रबड़ की गुड़िया सजी-संवरी पड़ी थी। लाल चूनर डाल दी थी सुषमा ने। कई दिनों से सुषमा की दुनियां केवल गुड़िया तक ही सीमित रह गई थी। वीणा भी मिलने नहीं आती थी। एक दिन घर आई थी लेकिन मां से मिलकर लौट गई। मेरी बड़ी बहन को आए भी एक अरसा हो गया है। चलो उनकी इच्छा! सब अपने-अपने प्रेम में मस्त हैं। गंड़िया में ही सभी के चरित्र आरोपित करके सुषमा उससे बातें करती रहती है। कई बार उसे लगता है कि वह स्वयं भी तो गुड़िया है- रबड़ की गुड़िया। जो तोड़ी-मरोड़ी जा सकती है। जो चुपचाप सहन कर लेती है प्रहारों को। किसी से शिकायत नहीं करती। शिकायत कर ही नहीं पाती। करे भी तो किस से।<br />
<br />
तुम जवान हो गई हो। सत्ताईस की। माँ का कहना है कि विवाह कर देना चाहिए। पिता कहते हैं- कर हीं देना चाहिए। डॉक्टर ने परामर्श दिया है- विवाह नहीं करोगे तो परिणाम कुछ भी हो सकता है। सुषमा हंस दी। अरी, तुम भी हंसो। विवाह नहीं करवाना चाहती! एक बार कहो तो सही। मैं तुम्हारी इच्छा के विरूद्ध नहीं जा सकती। तुम्हारी भावनाओं को मैं सब समझती हूं। मैंने भी प्रेम किया था। मुझे कहते थे- तुम्हारा विवाह कर देते हैं। लेकिन उससे नहीं कहते थे- वैसे तो वह भी ऐसे ही निकला। दोष इनका भी नहीं हैं? कहीं तुम्हारा दिल टूटा हुआ तो नहीं, जो रोने लगी हो। अरे, संकोच क्यों करती हो। बड़ीं मुश्किल से इन्हें ध्यान आया है तुम्हारा विवाह करने का। अब यदि तुम चुप हो गई तो फिर ऐसा अवसर आएगा नहीं। खुश हो गई न विवाह की बात से। मैंने तो सोचा था तुम मेरे पास से जाना नहीं चाहती होगी। तुम्हारा प्रेम मैं भूल नहीं सकती। तुम न होती तो मैं पागल हो जाती। वहां तो जाओजी। एक बात मेरी भी मानों। अपने पति का दिल अवश्य तोड़ देना।<br />
<br />
सुषमा ने इधर-उधर देखा। घुटन के मारे बुरा हाल था। मन में लपटें भड़क रही थीं। मैं भांप गई हूं। बारात आएगी। दुल्हा आएगा, गुड़िया! ओह हो! तुम पति को देखना चाहती हो? अब क्या लाभ? अब तो सब कुछ होने वाला है। दुल्हा होगा ऐसा-वैसा टी. वी. का मरीज। अखिलेश...... को एक नहीं कई लड़कियां मिल सकती हैं....... मिली हैं....... क्या मुझे कोई लड़का न मिले- शुगल तो हम भी कर सकती हैं, लेकिन.....?<br />
<br />
सुषमा ने तिमंज़ले मकान की छत से नीचे तारकोल की चौड़ी सड़क पर जाते हुए प्राणियों को देखा। दूरी एक बार बढ़ी, फिर कम हो गई। गुड़िया को छाती से सहलाया। फिर एक दम नीचे सड़क पर फैंक दिया। सुषमा की हंसी बन्द नहीं हो रही थी- कहीं कोई अटकाव आ गया था।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31182सुशील कुमार फुल्ल2016-06-09T15:51:28Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=<br />
|नाम=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=15 अगस्त 1941<br />
|जन्मस्थान=गांव काईनौर, ज़िला रोपड़, पंजाब<br />
|मृत्यु=<br />
|कृतियाँ=<br />
|विविध=<br />
|जीवनी=[[सुशील कुमार फुल्ल / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Sushil Kumar Phull<br />
|shorturl=<br />
|kavitakosh=<br />
|copyright=<br />
}}<br />
====कहानियाँ====<br />
* [[बसेरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बढ़ता हुआ पानी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[मेमना / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फंदा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ठूँठ / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[कोहरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बांबी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[रिज पर फौजी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[माटी के खिलौने / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[चिड़ियों का चोगा / सुशील कुमार फुल्ल]] <br />
* [[दान पुन्न / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[अटकाव / सुशील कुमार फुल्ल]]</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31024दान पुन्न / सुशील कुमार फुल्ल2016-05-02T16:42:30Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
<br />
<br />
मेज़ पर गुड़ की पेसी पड़ी थी, जो अब चींटियों का भौन ही बन गई थी ।<br />
<br />
मियां बीवी जाने लगे तो आदित्य ने अपनी मां से कहा - ज़रा निन्नी के यहां जाना है पटेल नगर । बस दो घण्टे में वापिस आ जांए गे । आप अन्दर बैठ कर टी. वी. देखते रहें ।मैं बाहर से ताला लगा देता हूँ ।<br />
<br />
‘बाहर से ताला क्यों ?’वह चौंकी ।गांव में ऐसा नहीं होता । हम स्वयं अन्दर से कुडी लगा लें तो घबराहट नहीं होती लेकिन कोई बाहर से ताला लगा दे तो अजीब सी अनुभूति होती है ।<br />
‘यह दिल्ली है । यहां हर रोज़ लुटेरे घरों में घुस कर लूटपाट करते हैं और बाद में बुजुर्गों का मर्डर भी । बड़े बेरहम और जालिम लोग हैं । हम गए और आए । आप आराम से बैठे ।’ कह कर उसने कमरे को बाहर से ताला लगा दिया ।<br />
<br />
ओम अन्दर से चिल्लाती ही रर्ही- अरे मेरा सांस घुटा जाता है । मैं मर जाउंगी ।मैं हूँ न यहां । फिर ताले की क्या जरुरत है ।लेकिन उन पर कोई असर नहीं हुआ । वे दोनों धप धप करते हुए सीढ़ियां उतर गए । कमरे में बन्द मां के लिए आर के पुरम का वह सरकारी आवास शमशान की सां सां में डूब गया था ।<br />
<br />
उसे लगा वह गलत दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ था| सीढियां चढ़ते चढ़ते उस का सांस फूल गया था । एक बार ओम ने कहा भी थ्रा -तुम डाक्टर को दिखा क्यों नहीं लेते ?<br />
‘तुम्हारी लाडली बहू ने तो बहुत पहले ही डिक्लंअर कर दिया था कि मुझे श्वासी है और इसी लिए उसने वर्षों तक अपने बच्चों को मेरे पास नहीं आने दिया । कहती थी कि पापा गुल्फे फैंकते हैं । दमा नामुराद बीमारी है ।’ थोड़ा रुक कर उस ने फिर कहा -आज कल इस लिए सहन करती हैं क्यों कि उस की नज़र मेरे बैंक बैलंस पर है । जीवन शैली में कितना अन्तर आ गया है । आज कल हर बच्चे को अलग अलग तौलिए चाहिएं। अलग कमरा चाहिए। हम आठ बहन भाई एक ही तौलिए से काम चला लेते थे ।<br />
उस ने प्रथम तल पर पहुंचते ही घंटी बजाई ।<br />
अन्दर से कविता बाहर आई ।ससुर के पांव छूने के बाद उस ने बैग पकड़ा और बिना किसी संकोच के कहा -पापा, आप बुरा न मानना । दौड़ कर पास वाली मार्कीट से पांच किलो आटा तो ले आओ ।आज इन्हें दफतर में बहुत काम था, इस लिए बाजार नहीं जा पाए ।<br />
<br />
<br />
कबीर ने कुछ नहीं कहा । उसने केवल कविता की ओर आश्चर्य से देखा । आह कितने बेबाक हैं ये षहरी लोग । उसे लाहौरी राम की याद आ गई । किसी ने उस के नाम पत्र दे दिया था कि कबीर और उस की धर्मपत्नी आंए तो उन्हें घर पर ठहरा लेना ।<br />
<br />
उन्होंने मसूरी जाना था । एक रात देहरादून में काटनी थी । वह मित्र की चिटठी ले कर लाहौरी राम के घर पहुंचे । चिटठी देखते ही उसने कहा - मैं नहीं जानता यह व्यक्ति कौन है, जिसने तुम्हें चिटठी दी है ।<br />
<br />
<br />
कबीर ने कई सन्दर्भ दिए परन्तु उस ने पहचानने से साफ इन्कार कर दिया ।<br />
वह बहुत परेशान हुआ था ।उन दिनों आम आदमी कहां ठहरते थे होटलों में । दूर पार की पहचान वाले के पास रुक जाना आम बात थी लेकिन आज कल तो सभी होटलों या गैस्ट हाउस में ही ठहरना पसन्द करते हैं । उसे याद है वह रात उसे रेलवे स्टेशन पर ही बितानी पड़ी थी ।कविता बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए अन्दर चली गई थी । कबीर धीरे धीरे सीढियां उतर रहा था ।<br />
<br />
<br />
<br />
वह बार बार अन्दर बाहर आ जा रहा था ।वह शायद अपनी मां से कुछ कहना चाहता था परन्तु कह नहीं पा रहा था । उस की जीभ पर झेंप चिपक गई थी । मां ने ही पूछ लिया - बेटा, क्या बात है ? तुम परेशान लगते हो ।तभी कविता ने अन्दर आते हुए बिना किसी भूमिका के कहना ष्ुरु किया- मां जी पैसे पेड़ पर तो नहीं लगते । और फिर बीमारी पर खर्च तो निरन्तर झरतें हुए पत्तों की तरह होता है ।<br />
आदित्य उसे अवाक देखता रहा । बोला कुछ नहीं ।‘तो फिर क्या चाहती हो ?’<br />
<br />
‘मां जी ,सारा खेल पैसे का है । रिइम्बर्समेंट आते आते तो देर लगे गी । फिर नेहा ने नया पंगा डाल दिया है । पति से लड़ झगड़ कर घर आ बैठी है ।एक साल हुआ नहीं । अब डाइवोर्स चाहती है ।’‘तो रिइम्बर्समेंट के पेपर भर दो न ।’‘सरकारी पैसा है , इतनी आसानी से नहीं मिलता ।’<br />
‘आश्रितों के बिल जल्दी पास नहीं होते ।’ आदित्य ने दबी ज़बान में कहा । थोड़ा रुक कर कुछ सोचने का अभिनय करते हुए बोला - दर असल पापा ने तुम्हारे खाते में बहुत सा सरप्लस मनी डाल रखा है’ । वह साहस नहीं बटोर पा रहा था ।वह जानता थ्रा कि वह झूठ बोल रहा था परन्तु कविता का उस पर दवाब था । वास्तव में जब हमारे मन में चोर होता है, तो उस की उपस्थिति हमें किसी न किसी रूप में झकझोरती अवश्य है ,भले ही हम स्वार्थवश मन की उस बात को अनसुना कर देते हैं ।<br />
<br />
ओम समझ गई । वह जानती है कि उस का बेटा अपने बाप से पैसा निकलवाता रहता है,कभी कोई बहाना बना कर,कभी कोई ।अब उस की नजर बुढापे के लिए रखे पैसे पर टिक गई है । वह सोचने लगी कि खुद इतना पैसा कमाने वाला बेटा भी पैसे के लिए जीभ लपलपाने लगा है । शायद मां बाप का पैसा भी बच्चों को सरकारी पैसा लगने लग जाता है । दरअसल बिगाड़ा तो खुद इन्होंने ही है ।<br />
<br />
‘फिर क्या ? वह तो किसी और काम के लिए रखे हैं ।फरीदाबाद वाला जो प्लाट बेचा था, उस के पैसे भी तो तुम्हारे पास ही हैं । उस में से खर्च कर लो ।’ ओम ने सुझाया ।<br />
‘मां, वह तो मैंने बच्चों की षादियों के लिए फिक्सड डिपाज़िट में रख दिए । कुछ अपने पी पी एफ में जमा करवा दिए ।और फिर रवि अमरीका में एडमिशन लेना चाहता है ।<br />
‘सो तो ठीक है परन्तु तुम्हारे पापा ने सब कुछ तो तुम्हें दे दिया है । तुम इतने बड़े अफसर हो । खुद भी कुछ करना चाहिए । हम ने तो उम्र भर पेट काट काट कर जो पैसा जोड़ा , वह सब आप लोगों को दे दिया । अभी लड़कियों को तो कुछ भी नहीं दिया ; ओम की आवाज़ में उपालम्भ भी था और एक आक्रोश भी ।<br />
कविता ने अपनी सास की बात अनसुनी करते हुए कहा - मां जी, आप चलने फिरने लायक हो गईं , यही क्या कम है ।घुटने बेकार हो जाएं तो ज़िदंगी बेकार हो जाती है । अब इतना पैसा लगा है, तो उस की रिइम्बर्समेंट तो लेनी ही है न । सरकारी पैसा मिलता है, तो क्यो छोड़ें ।‘तो ले लो न कौन रोकता है ।’ ओम ने सहज भाव से कहा ।‘सरकारी पैसा ऐसे ही थोड़े मिल जाता है । इस के बड़े सख्त कायदे कानून होते हैं ।’ वह फिर बोली ।‘तो कायदे कानून से भर दो न कागज़’ ।<br />
<br />
‘रिइम्बर्समेंट तो हो जाएगी लेकिन मां तुम्हारे अपने खाते में ज्यादा पैसे रहेंगे , तो बिल पास नहीं होगा ।’ भोली सी सूरत बना कर आदित्य ने कहा ।<br />
‘फिर क्या चाहिए ?'‘तुम्हारे खाते में जो बीस लाख जमा है न । उसे टेम्पोरेरेली मेरे खाते में डाल दो । जब मैडिकल बिल का भुगतान हो जाए गा तो मैं पैसा वापिस आप के खाते में डाल दूंगा । आप इस ट्रांस्फर वाउचर पर हस्ताक्षर कर दो । फिर सब ठीक हो जाएगा ।’<br />
<br />
<br />
ओम ने क्षण भर के लिए चौंक कर देखा लेकिन फिर सभलते हुए बोली -मैं ने तो ऐसा कानून कभी देखा सुना नहीं । तुम्हारे पापा से पूछ लूंगी ।<br />
वह जानती है कि एक बार पैसा गया तो फिर तो वापिस आने का प्रश्न ही नहीं । आज तक इस ने कोई पैसा हाथ पर नहीं रखा और न ही कभी ले कर लौटाया है ।कविता को लगा बना बनाया खेल बिगड़ गया परन्तु सोचा जरा चालाकी से काम लेना हो गा ।सोने का अण्डा चाहिए तो मुर्गी को पुचकारना भी तो होगा ।<br />
<br />
<br />
सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते वह हांपने लगा था । जब भी वह किसी से अपने दम चढ़ने की बात करता तो तुरन्त सलाह मिलती कि यह तो नामुराद बीमारी दमा है,जिस का कोई सहज इलाज नहीं । वह चुप हो जाता ।<br />
<br />
कबीर खड़ा देखता रहा । आर के पुरम की बत्तियां झिलमिल झिलमिल कर रही थ्रीं । उसे लगा कि वह गलत दरवाज़े पर आ कर खड़ा हो गया था ।<br />
कैसे लोग हैं, जो समय पर रसोई का सामान भी पूरा नहीं रखते । मैं छः सौ किलोमीटर का सफर कर के आया हूँ और आते ही हुक्म मिल गया कि पहले आटा लाउं तो रोटी मिलेगी ।<br />
वह धीरे धीरे सीढ़ियां उतरने लगा ।<br />
<br />
घर में कोहराम मचा हुआ था । कबीर वापिस आ गया था । भाइयों को यह ज़रा भी अच्छा नहीं लगा । राजन ने तो कहा था- इतना पढ़ लिख बीमारी चिपक गई । मैं ड्रिल करता तो सांस फूलने लगता । हांप कर बैठ जाता परन्तु यह सब तो फौज मे नहीं चलता । सो वापिस आ गया हूँ|<br />
<br />
वह हैरान था कि उस के भाइयों में उस के प्रति जरा भी हमदर्दी नहीं थी । वह तो उन्हें अवांछित लग रहा था । मानो वह सब का हक छीन लेगा ।<br />
<br />
पढ़ लिख कर भी अगर घर में ही बैठना था, तो व्यर्थ में क्यों इतना खर्च करवाया ।<br />
<br />
कबीर सेना में भर्ती हो गया था । बहुत खुश थ्रा । सेना में मिलने वाली सुख सुविधांए भला किसे अच्छी नहीं लगतीं । अनुशासन भरा जीवन । लेकिन दो साल बाद ही उसे डिस्चार्ज दे दिया गया क्यों कि वह अनफिट घोषित कर दिया गया था । उस ने कहा - मैं कब वापिस आना चाहता थ्रा । पता नहीं कहां से सांस की नामुराद बीमारी लग गई । <br />
<br />
<br />
मां बाप के लिए तो सभी बच्चें बराबर होते हैं । बूढ़े पिता ने पूछा - बच्चा,क्या करना चाहते हो । मैं ने तो परमात्मा का लाख शुकर मनाया था कि तुम्हारी सरकारी नौकरी लग गई परन्तु कौन जानता था कि तुम यहीं लौट आओ गे । तुम्हीं बताओ मैं तुम्हारे लिए क्या करुं ?<br />
<br />
‘आप मुझे भी थोड़ी ज़मीन खेती के लिए दे दें ,तो काम चल जाए गा।बाद में कोई नौकरी मिल गई तो देख लूं गा ।’<br />
‘ बावड़ी के पास वाली ज़मीन ही खाली है, वह ले लो । वैसे है तो पत्थ्रीली लेकिन उसे खेती लायक बनाया जा सकता है । थोड़ी मेहनत ज़्यादा करनी पड़े गी ।’<br />
<br />
‘मुझे मंजूर है । खाली तो मैं बैठ नहीं सकता ।’<br />
उसने खूब मेहनत करनी शुरु कर दी । जल्दी ही उस के अन्न के भण्डार भरने लगे परन्तु जेब में पैसे फिर भी नहीं होते थे । कुछ खरीदना हो या बच्चों को फीस आदि के लिए पैसे भेजने होते तो वह इन्तजाम तो कर लेता परन्तु थोड़ी मुश्किल जरुर होती ।<br />
<br />
घर में कोई उत्सव था । उस के सेना वाले दोस्त भी आए हुए थे । बातों ही बातों में रमणीक ने कहा - कबीर , कई बार मेरा मन होता है कि मैं भी फौज की नौकरी छोड़ कर खेती बाड़ी शुरु कर लूं । कितना सुखमय एवं शान्त जीवन होता है और स्वतंत्र भी ।<br />
<br />
‘बात तो ठीक है परन्तु ऐसी गलती मत कर बैठना । ठीक है खेती तपस्या है । इस में षान्ति भी है और स्वतंत्रता भी । परन्तु किसान की जान तो महाजन के पिंजरे में बन्द रहती है ।<br />
‘क्या मतलब ?’‘किसान के पास हार्ड कैश तो होता नहीं । अनाज है लेकिन यह मण्डियों में जाएगा । महाजन की कृपा होगी , तभी खरीदा जाएगा । तुम्हारी तन्ख्वाह तो हर महीने की पहली तारीख को सिरहाने के नीचे पड़ी होती है ।’ कबीर ने टिप्पणी की ।<br />
‘वेतन भी तो काम करने पर ही मिलता है ।’<br />
<br />
‘सो तो ठीक है परन्तु आज भी इतने किसान आत्महत्या क्यों करते है ? जानते हो पूस की रात का हल्कू आज भी महाजन की ‘बाकी’ चुकाते चुकाते मर जाता है पर बाकी है कि खत्म ही नहीं होती ।फर्क सिर्फइतना है कि आज बैंक महाजन बन गए हैं और उन के रिकवरी एजेंट यमदूत ।कबीर रुआंसे स्वर में बोला था ।गटारियां मस्ती से खेतों में कीड़े मकौड़े चुग रही थ्रीं और कबीर उन्हें खड़ा गडरिये सा निहार रहा था अपलक ।<br />
<br />
<br />
वह आया तो इस बार ओम ने फिर बात छेड़ दी कि बेटियों को भी उन का हिस्सा मिलना चाहिए ।<br />
आदित्य भड़क उठा - कैसा हिस्सा ? उनके विवाह पर इतना तो खर्च कर दिया गया है । अब और क्या देना बाकी है ?‘खर्च तो तुम्हारे विवाह पर भी हुआ है ।’कबीर ने कहा ।<br />
‘यदि आपने जमीन या घर उन के नाम किया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा ।पहले ही आप ने तीन लाख रुपये बाजार में डंुबो दिए हैं ।ज्यादा ब्याज के लालच में बाजार में पैसा फैंकना कहां की अक्लमन्दी है ।’ बेटे के तेवर ही बदले हुए थे ।<br />
कबीर को बुरा तो बहुत लगा लेकिन वह चुप ही रहा । बोला - वह मेरा पैसा है ।तुम्हारे से तो नहीं लिया ।‘यह मेरी बनाई कमाई हुई जायदाद है । मैं चाहूं तो तुम्हें भी हिस्सा न दूं ।' ‘तो क्या छाती पर रख कर ले जाओ गे ? या पड़ोसियों को खुश कर जाओगे ?’ बौखलाया हुआ आदित्य बोला था । और हरि पाधे का हाल तो आप ने देखा ही है । बेटों ने ही उसे पंखे से लटका दिया था । औा बाद में उन में से एक बहन ने अपने भाई को ही ... ।<br />
<br />
कबीर सोचने लगा कि उस ने गलती की । दरअसल इज़ी मनी मिलते रहने से इन्सान की प्यास वैसे ही बढ़ती है जैसे नमकीन पानी पीने से प्यास भड़कती है । आदित्य नहीं जानता उस के पापा ने किस प्रकार डाक घर के खाताधारकों का एजेंट बन कर कैसे पैसा कमाया । बस उसे तो पता है कि पापा से जब भी जितना मांगा उस से दुगुना तिगुना ही मिला ।अब लहू मुंह को लग गया है ,तो पैसा न मिलने पर तल्खी भी दिखाने लगा है ।<br />
<br />
मेज़ पर पड़ी गुड़ की पेसी और उस से लिपटी असंख्य काली भूरी चींटियां ।यह उन के लिए दान पुन्न ही तो है । और मां बाप से लिपटी सन्तान ।उन्हें पैसा देना दान पुन्न ही है क्या ? या रैनज़म । शब्दों का हेर फेर हो सकता है परन्तु बात तो वहीं पहुँच जाती है ।<br />
<br />
<br />
आदित्य आता तो कबीर और ओम एकदम खिल जाते । मां बाप के लिए तो सन्तान सुख सब से बड़ा सुख होता है लेकिन कभी कभी कबीर को लगता कि बेटे का व्यवहार अलग अलग समय पर अलग अलग होने लगा । कभी वह कठोर षब्दों का प्रयोग करता और कभी बिल्कुल कोमल पदावली का । इस बार वह आया तो बड़ा मिठास भरा था । बोला - पापा, मां के घुटनों में तकलीफ बढ़ गई लगती है । मैं चाहता हॅू कि मैं उन का चैक अप दिल्ली के किसी बड़े अस्पताल में करवा दूं ।<br />
<br />
कबीर सोचने लगा बात तो ठीक है परन्तु पिछली बार बात चली थ्री तो कविता ने कहा था अब तो पहाड़ में भी सुपर स्पैशिलिटी अस्पताल हैं । शायद वह नहीं चाहती कि कोई उस के पास दिल्ली में ठहरे हालांकि आदित्य को बड़ा घर मिला हुआ है, पांच बैड रूम वाला । उस ने कहा -यहीं करवा दें गे ।दिल्ली बहुत दूर है ।<br />
‘पापा, क्या बात करते हो । बस या टैक्सी में यदि सफर मुश्किल लगता है, तो हम बाई एयर भी जा सकते हैं ।’ उसे पता था पैसा तो बापू ने ही देना था ।<br />
ओम ने कहा-दर्द तो सचमुच बहुत होता है परन्तु डर भी लगता है कि यदि आप्रेशन के बाद भी ठीक न हुआ तो ? मिसेज़ हांडा ने दोनो घुटनो का आप्रेशन करवाया और बिल्कुल ही बैठ गई ।<br />
<br />
<br />
‘सब के साथ ऐसा थेाड़े होता है । बाकी अपने अपने भाग्य की बात है ।’ आदित्य ने कहा । फैसला दिल्ली के ही पक्ष में हुआ ।<br />
जाने से पहले आदित्य ने कहा - पापा,मम्मी की चैक बुक और अपना ए टी एम दे देना । कोई एमरजेंसी हो सकती है ।पिता ने पुत्र की ओर घूर कर देखा परन्तु कहा कुछ नहीं ।<br />
<br />
पैसा लेना हो तो इन्सान कितना मधुर हो जाता है ।और यह कोई नई बात तो नहीं । दरअसल आदत तो खुद कबीर ने ही बिगाड़ी थी । बेटा क्लास वन अधिकारी है । हर वर्श आय कर भी भरना होता है । एक बार उस ने कह दिया था -बेटा अगर जरुरत हो तो इन्कम टैक्स भरने के लिए पैसे मुझ स ेले लेना । फिर तो उसे चटक ही पड़ गई थी । वह न केवल टैक्स के लिए हर साल पैसा मंगवा लेता बल्कि पीपीएफ में जमा करने के लिए भी लाख दो लाख रुपये मंगवा लेता । कोई न कोई बहाना बना कर पैसा मंगवाना आम बात हो गई थी । बाद में कबीर को पता चला कि कविता अपने मां बाप के लिए भी उसी पैसे का उपयोग कर लेती थी ।<br />
कबीर बड़ा दुखी होता परन्तु कर कुछ नहीं सकता था । आदित्य के लिए टकसाल खुल गई थी ।<br />
<br />
<br />
<br />
ओम का एक घुटना बदल दिया गया था और आदित्य ने कोई तीन लाख रुपये अपनी मां के खाते से निकाल लिए थे । उसने पूरी बिरादरी में यह सूचना फेैलाने में कोई कोर कसर न छोड़ी कि आदित्य ने अपनी मां का इलाज एम्ज़ में करवाया है और अब उस की मां घोड़ी की तरह दौड़ सकती है ।<br />
सब ने कहा बेटा हो तो ऐसा । कलयुग में अन्यथा कौन किस की परवाह करता है । अब घर में ओम थी जो चौबीस घण्टे अपने कमरे में बन्द रहती और कविता को मटरगश्ती के लिए खूब टाइम मिल जाता। थैरेपी के लिए एक महिला आती और ओम उस से ही बातचीत कर के सन्तुष्ट हो जाती ।<br />
<br />
ओम को एक पुराना फोन आदित्य ने दे दिया था और वह अपने बहन भाइयों से कभी कभार बात कर लेती । उस का मन वापिस अपने घर आने को करता लेकिन अभी उपचार चला हुआ था और फिर बीच बीच में कबीर भी आ जाता था ।<br />
<br />
पहाड़ में घरों को ताला लगाने की जरुरत बहुत कम पड़ती है लेकिन दिल्ली में लोग अपने-आप से भी डरते हैं । और अगर एक ही सदस्य ने पीछे घर पर रहना हो तो वे बाहर से ताला लगा जाते हैं । पहली बार उन्हों ने ओम को ताले में बन्द किया तो वह चिल्ला उठी थी -नहीं मेरा सांस घुट जाएगा । मैं ऐसे बन्द नहीं रह सकती । मैं तो मर जाउंगी ।<br />
<br />
आदित्य ने कहा था -मां,चिन्ता न करो । अन्दर से भी यह चाबी से खुल सकता है ।‘जब मैं घर में हूं, तो ताला लगाते ही क्यों हो ?’ उस ने ताला नही लगाने दिया था । आर के पुरम के सेक्टर चार में पहंुचते पहंुचते रात के नौ बज गए थे । वह सरकारी आवास के बाहर खड़ा था । हैरान परेशान ।मुख्य द्वार पर ताला लटका हुआ था ।<br />
फिर उसे लगा घर के अन्दर कोई हलचल थी । एक छाया बेचैनी से इधर उधर घूम रही थी। कबीर चिल्लाया -ओम, ओम लेकिन कोई जवाब नहीं आया ।<br />
थका हारा कबीर धड़ाम से फर्श पर बैठ गया ।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31023दान पुन्न / सुशील कुमार फुल्ल2016-05-02T16:37:41Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
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मेज़ पर गुड़ की पेसी पड़ी थी, जो अब चींटियों का भौन ही बन गई थी ।<br />
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मियां बीवी जाने लगे तो आदित्य ने अपनी मां से कहा - ज़रा निन्नी के यहां जाना है पटेल नगर । बस दो घण्टे में वापिस आ जांए गे । आप अन्दर बैठ कर टी. वी. देखते रहें ।मैं बाहर से ताला लगा देता हूँ ।<br />
‘बाहर से ताला क्यों ?’वह चौंकी ।गांव में ऐसा नहीं होता । हम स्वयं अन्दर से कुडी लगा लें तो घबराहट नहीं होती लेकिन कोई बाहर से ताला लगा दे तो अजीब सी अनुभूति होती है ।<br />
‘यह दिल्ली है । यहां हर रोज़ लुटेरे घरों में घुस कर लूटपाट करते हैं और बाद में बुजुर्गों का मर्डर भी । बड़े बेरहम और जालिम लोग हैं । हम गए और आए । आप आराम से बैठे ।’ कह कर उसने कमरे को बाहर से ताला लगा दिया ।<br />
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ओम अन्दर से चिल्लाती ही रर्ही- अरे मेरा सांस घुटा जाता है । मैं मर जाउंगी ।मैं हूँ न यहां । फिर ताले की क्या जरुरत है ।लेकिन उन पर कोई असर नहीं हुआ । वे दोनों धप धप करते हुए सीढ़ियां उतर गए । कमरे में बन्द मां के लिए आर के पुरम का वह सरकारी आवास शमशान की सां सां में डूब गया था ।<br />
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उसे लगा वह गलत दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ था| सीढियां चढ़ते चढ़ते उस का सांस फूल गया था । एक बार ओम ने कहा भी थ्रा -तुम डाक्टर को दिखा क्यों नहीं लेते ?<br />
‘तुम्हारी लाडली बहू ने तो बहुत पहले ही डिक्लंअर कर दिया था कि मुझे श्वासी है और इसी लिए उसने वर्षों तक अपने बच्चों को मेरे पास नहीं आने दिया । कहती थी कि पापा गुल्फे फैंकते हैं । दमा नामुराद बीमारी है ।’ थोड़ा रुक कर उस ने फिर कहा -आज कल इस लिए सहन करती हैं क्यों कि उस की नज़र मेरे बैंक बैलंस पर है । जीवन शैली में कितना अन्तर आ गया है । आज कल हर बच्चे को अलग अलग तौलिए चाहिएं। अलग कमरा चाहिए। हम आठ बहन भाई एक ही तौलिए से काम चला लेते थे ।<br />
उस ने प्रथम तल पर पहुंचते ही घंटी बजाई ।<br />
अन्दर से कविता बाहर आई ।ससुर के पांव छूने के बाद उस ने बैग पकड़ा और बिना किसी संकोच के कहा -पापा, आप बुरा न मानना । दौड़ कर पास वाली मार्कीट से पांच किलो आटा तो ले आओ ।आज इन्हें दफतर में बहुत काम था, इस लिए बाजार नहीं जा पाए ।<br />
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कबीर ने कुछ नहीं कहा । उसने केवल कविता की ओर आश्चर्य से देखा । आह कितने बेबाक हैं ये षहरी लोग । उसे लाहौरी राम की याद आ गई । किसी ने उस के नाम पत्र दे दिया था कि कबीर और उस की धर्मपत्नी आंए तो उन्हें घर पर ठहरा लेना ।<br />
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उन्होंने मसूरी जाना था । एक रात देहरादून में काटनी थी । वह मित्र की चिटठी ले कर लाहौरी राम के घर पहुंचे । चिटठी देखते ही उसने कहा - मैं नहीं जानता यह व्यक्ति कौन है, जिसने तुम्हें चिटठी दी है ।<br />
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कबीर ने कई सन्दर्भ दिए परन्तु उस ने पहचानने से साफ इन्कार कर दिया ।<br />
वह बहुत परेशान हुआ था ।उन दिनों आम आदमी कहां ठहरते थे होटलों में । दूर पार की पहचान वाले के पास रुक जाना आम बात थी लेकिन आज कल तो सभी होटलों या गैस्ट हाउस में ही ठहरना पसन्द करते हैं । उसे याद है वह रात उसे रेलवे स्टेशन पर ही बितानी पड़ी थी ।कविता बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए अन्दर चली गई थी । कबीर धीरे धीरे सीढियां उतर रहा था ।<br />
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वह बार बार अन्दर बाहर आ जा रहा था ।वह शायद अपनी मां से कुछ कहना चाहता था परन्तु कह नहीं पा रहा था । उस की जीभ पर झेंप चिपक गई थी । मां ने ही पूछ लिया - बेटा, क्या बात है ? तुम परेशान लगते हो ।तभी कविता ने अन्दर आते हुए बिना किसी भूमिका के कहना ष्ुरु किया- मां जी पैसे पेड़ पर तो नहीं लगते । और फिर बीमारी पर खर्च तो निरन्तर झरतें हुए पत्तों की तरह होता है ।<br />
आदित्य उसे अवाक देखता रहा । बोला कुछ नहीं ।<br />
‘तो फिर क्या चाहती हो ?’<br />
‘मां जी ,सारा खेल पैसे का है । रिइम्बर्समेंट आते आते तो देर लगे गी । फिर नेहा ने नया पंगा डाल दिया है । पति से लड़ झगड़ कर घर आ बैठी है ।एक साल हुआ नहीं । अब डाइवोर्स चाहती है ।’‘तो रिइम्बर्समेंट के पेपर भर दो न ।’‘सरकारी पैसा है , इतनी आसानी से नहीं मिलता ।’<br />
‘आश्रितों के बिल जल्दी पास नहीं होते ।’ आदित्य ने दबी ज़बान में कहा । थोड़ा रुक कर कुछ सोचने का अभिनय करते हुए बोला - दर असल पापा ने तुम्हारे खाते में बहुत सा सरप्लस मनी डाल रखा है’ । वह साहस नहीं बटोर पा रहा था ।वह जानता थ्रा कि वह झूठ बोल रहा था परन्तु कविता का उस पर दवाब था । वास्तव में जब हमारे मन में चोर होता है, तो उस की उपस्थिति हमें किसी न किसी रूप में झकझोरती अवश्य है ,भले ही हम स्वार्थवश मन की उस बात को अनसुना कर देते हैं ।<br />
ओम समझ गई । वह जानती है कि उस का बेटा अपने बाप से पैसा निकलवाता रहता है,कभी कोई बहाना बना कर,कभी कोई ।अब उस की नजर बुढापे के लिए रखे पैसे पर टिक गई है । वह सोचने लगी कि खुद इतना पैसा कमाने वाला बेटा भी पैसे के लिए जीभ लपलपाने लगा है । शायद मां बाप का पैसा भी बच्चों को सरकारी पैसा लगने लग जाता है । दरअसल बिगाड़ा तो खुद इन्होंने ही है ।<br />
‘फिर क्या ? वह तो किसी और काम के लिए रखे हैं ।फरीदाबाद वाला जो प्लाट बेचा था, उस के पैसे भी तो तुम्हारे पास ही हैं । उस में से खर्च कर लो ।’ ओम ने सुझाया ।<br />
‘मां, वह तो मैंने बच्चों की षादियों के लिए फिक्सड डिपाज़िट में रख दिए । कुछ अपने पी पी एफ में जमा करवा दिए ।और फिर रवि अमरीका में एडमिशन लेना चाहता है ।<br />
‘सो तो ठीक है परन्तु तुम्हारे पापा ने सब कुछ तो तुम्हें दे दिया है । तुम इतने बड़े अफसर हो । खुद भी कुछ करना चाहिए । हम ने तो उम्र भर पेट काट काट कर जो पैसा जोड़ा , वह सब आप लोगों को दे दिया । अभी लड़कियों को तो कुछ भी नहीं दिया ; ओम की आवाज़ में उपालम्भ भी था और एक आक्रोश भी ।<br />
कविता ने अपनी सास की बात अनसुनी करते हुए कहा - मां जी, आप चलने फिरने लायक हो गईं , यही क्या कम है ।घुटने बेकार हो जाएं तो ज़िदंगी बेकार हो जाती है । अब इतना पैसा लगा है, तो उस की रिइम्बर्समेंट तो लेनी ही है न । सरकारी पैसा मिलता है, तो क्यो छोड़ें ।‘तो ले लो न कौन रोकता है ।’ ओम ने सहज भाव से कहा ।‘सरकारी पैसा ऐसे ही थोड़े मिल जाता है । इस के बड़े सख्त कायदे कानून होते हैं ।’ वह फिर बोली ।‘तो कायदे कानून से भर दो न कागज़’ ।<br />
‘रिइम्बर्समेंट तो हो जाए गी लेकिन मां तुम्हारे अपने खाते में ज्यादा पैसे रहेंगे , तो बिल पास नहीं होगा ।’ भोली सी सूरत बना कर आदित्य ने कहा ।<br />
‘फिर क्या चाहिए ?'‘तुम्हारे खाते में जो बीस लाख जमा है न । उसे टेम्पोरेरेली मेरे खाते में डाल दो । जब मैडिकल बिल का भुगतान हो जाए गा तो मैं पैसा वापिस आप के खाते में डाल दूंगा । आप इस ट्रांस्फर वाउचर पर हस्ताक्षर कर दो । फिर सब ठीक हो जाएगा ।’<br />
<br />
<br />
ओम ने क्षण भर के लिए चौंक कर देखा लेकिन फिर सभलते हुए बोली -मैं ने तो ऐसा कानून कभी देखा सुना नहीं । तुम्हारे पापा से पूछ लूंगी ।<br />
वह जानती है कि एक बार पैसा गया तो फिर तो वापिस आने का प्रश्न ही नहीं । आज तक इस ने कोई पैसा हाथ पर नहीं रखा और न ही कभी ले कर लौटाया है ।कविता को लगा बना बनाया खेल बिगड़ गया परन्तु सोचा जरा चालाकी से काम लेना हो गा ।सोने का अण्डा चाहिए तो मुर्गी को पुचकारना भी तो होगा ।<br />
<br />
सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते वह हांपने लगा था । जब भी वह किसी से अपने दम चढ़ने की बात करता तो तुरन्त सलाह मिलती कि यह तो नामुराद बीमारी दमा है,जिस का कोई सहज इलाज नहीं । वह चुप हो जाता ।<br />
<br />
कबीर खड़ा देखता रहा । आर के पुरम की बत्तियां झिलमिल झिलमिल कर रही थ्रीं । उसे लगा कि वह गलत दरवाज़े पर आ कर खड़ा हो गया था ।<br />
कैसे लोग हैं, जो समय पर रसोई का सामान भी पूरा नहीं रखते । मैं छः सौ किलोमीटर का सफर कर के आया हूँ और आते ही हुक्म मिल गया कि पहले आटा लाउं तो रोटी मिलेगी ।<br />
वह धीरे धीरे सीढ़ियां उतरने लगा ।<br />
<br />
घर में कोहराम मचा हुआ था । कबीर वापिस आ गया थ्रा । भाइयों को यह ज़रा भी अच्छा नहीं लगा । राजन ने तो कहा था- इतना पढ़ लिख बीमारी चिपक गई । मैं ड्लि करता तो सांस फूलने लगता । हांप कर बैठ जाता परन्तु यह सब तो फौज मे नहीं चलता । सो वापिस आ गया हूँ|<br />
वह हैरान था कि उस के भाइयों में उस के प्रति जरा भी हमदर्दी नहीं थ्री । वह तो उन्हें अवांछित लग रहा था ।मानो वह सब का हक छीन लेगा ।<br />
<br />
पढ़ लिख कर भी अगर घर में ही बैठना था, तो व्यर्थ में क्यों इतना खर्च करवाया ।<br />
कबीर सेना में भर्ती हो गया था । बहुत खुश थ्रा । सेना में मिलने वाली सुख सुविधांए भला किसे अच्छी नहीं लगतीं । अनुशासन भरा जीवन । लेकिन दो साल बाद ही उसे डिस्चार्ज दे दिया गया क्यों कि वह अनफिट घोषित कर दिया गया था । उस ने कहा - मैं कब वापिस आना चाहता थ्रा । पता नहीं कहां से सांस की नामुराद बीमारी लग गई । <br />
मां बाप के लिए तो सभी बच्चें बराबर होते हैं । बूढ़े पिता ने पूछा - बच्चा,क्या करना चाहते हो । मैं ने तो परमात्मा का लाख शुकर मनाया था कि तुम्हारी सरकारी नौकरी लग गई परन्तु कौन जानता था कि तुम यहीं लौट आओ गे । तुम्हीं बताओ मैं तुम्हारे लिए क्या करुं ?<br />
<br />
‘आप मुझे भी थोड़ी ज़मीन खेती के लिए दे दें ,तो काम चल जाए गा।बाद में कोई नौकरी मिल गई तो देख लूं गा ।’<br />
‘ बावड़ी के पास वाली ज़मीन ही खाली है, वह ले लो । वैसे है तो पत्थ्रीली लेकिन उसे खेती लायक बनाया जा सकता है । थोड़ी मेहनत ज़्यादा करनी पड़े गी ।’<br />
‘मुझे मंजूर है । खाली तो मैं बैठ नहीं सकता ।’<br />
उसने खूब मेहनत करनी षुरु कर दी । जल्दी ही उस के अन्न के भण्डार भरने लगे परन्तु जेब में पैसे फिर भी नहीं होते थे । कुछ खरीदना हो या बच्चों को फीस आदि के लिए पैसे भेजने होते तो वह इन्तजाम तो कर लेता परन्तु थोड़ी मुश्किल जरुर होती ।<br />
<br />
घर में कोई उत्सव था । उस के सेना वाले दोस्त भी आए हुए थे । बातों ही बातों में रमणीक ने कहा - कबीर , कई बार मेरा मन होता है कि मैं भी फौज की नौकरी छोड़ कर खेती बाड़ी शुरु कर लूं । कितना सुखमय एवं शान्त जीवन होता है और स्वतंत्र भी ।<br />
<br />
‘बात तो ठीक है परन्तु ऐसी गलती मत कर बैठना । ठीक है खेती तपस्या है । इस में षान्ति भी है और स्वतंत्रता भी । परन्तु किसान की जान तो महाजन के पिंजरे में बन्द रहती है ।<br />
‘क्या मतलब ?’‘किसान के पास हार्ड कैश तो होता नहीं । अनाज है लेकिन यह मण्डियों में जाएगा । महाजन की कृपा होगी , तभी खरीदा जाएगा । तुम्हारी तन्ख्वाह तो हर महीने की पहली तारीख को सिरहाने के नीचे पड़ी होती है ।’ कबीर ने टिप्पणी की ।<br />
‘वेतन भी तो काम करने पर ही मिलता है ।’<br />
<br />
‘सो तो ठीक है परन्तु आज भी इतने किसान आत्महत्या क्यों करते है ? जानते हो पूस की रात का हल्कू आज भी महाजन की ‘बाकी’ चुकाते चुकाते मर जाता है पर बाकी है कि खत्म ही नहीं होती ।फर्क सिर्फइतना है कि आज बैंक महाजन बन गए हैं और उन के रिकवरी एजेंट यमदूत ।कबीर रुआंसे स्वर में बोला था ।गटारियां मस्ती से खेतों में कीड़े मकौड़े चुग रही थ्रीं और कबीर उन्हें खड़ा गडरिये सा निहार रहा था अपलक ।<br />
<br />
<br />
वह आया तो इस बार ओम ने फिर बात छेड़ दी कि बेटियों को भी उन का हिस्सा मिलना चाहिए ।<br />
आदित्य भड़क उठा - कैसा हिस्सा ? उनके विवाह पर इतना तो खर्च कर दिया गया है । अब और क्या देना बाकी है ?‘खर्च तो तुम्हारे विवाह पर भी हुआ है ।’कबीर ने कहा ।<br />
‘यदि आपने जमीन या घर उन के नाम किया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा ।पहले ही आप ने तीन लाख रुपये बाजार में डंुबो दिए हैं ।ज्यादा ब्याज के लालच में बाजार में पैसा फैंकना कहां की अक्लमन्दी है ।’ बेटे के तेवर ही बदले हुए थे ।<br />
कबीर को बुरा तो बहुत लगा लेकिन वह चुप ही रहा । बोला - वह मेरा पैसा है ।तुम्हारे से तो नहीं लिया ।‘यह मेरी बनाई कमाई हुई जायदाद है । मैं चाहूं तो तुम्हें भी हिस्सा न दूं ।' ‘तो क्या छाती पर रख कर ले जाओ गे ? या पड़ोसियों को खुश कर जाओगे ?’ बौखलाया हुआ आदित्य बोला था । और हरि पाधे का हाल तो आप ने देखा ही है । बेटों ने ही उसे पंखे से लटका दिया था । औा बाद में उन में से एक बहन ने अपने भाई को ही ... ।<br />
<br />
कबीर सोचने लगा कि उस ने गलती की । दरअसल इज़ी मनी मिलते रहने से इन्सान की प्यास वैसे ही बढ़ती है जैसे नमकीन पानी पीने से प्यास भड़कती है । आदित्य नहीं जानता उस के पापा ने किस प्रकार डाक घर के खाताधारकों का एजेंट बन कर कैसे पैसा कमाया । बस उसे तो पता है कि पापा से जब भी जितना मांगा उस से दुगुना तिगुना ही मिला ।अब लहू मुंह को लग गया है ,तो पैसा न मिलने पर तल्खी भी दिखाने लगा है ।<br />
<br />
मेज़ पर पड़ी गुड़ की पेसी और उस से लिपटी असंख्य काली भूरी चींटियां ।यह उन के लिए दान पुन्न ही तो है । और मां बाप से लिपटी सन्तान ।उन्हें पैसा देना दान पुन्न ही है क्या ? या रैनज़म । शब्दों का हेर फेर हो सकता है परन्तु बात तो वहीं पहुँच जाती है ।<br />
<br />
<br />
आदित्य आता तो कबीर और ओम एकदम खिल जाते । मां बाप के लिए तो सन्तान सुख सब से बड़ा सुख होता है लेकिन कभी कभी कबीर को लगता कि बेटे का व्यवहार अलग अलग समय पर अलग अलग होने लगा । कभी वह कठोर षब्दों का प्रयोग करता और कभी बिल्कुल कोमल पदावली का । इस बार वह आया तो बड़ा मिठास भरा था । बोला - पापा, मां के घुटनों में तकलीफ बढ़ गई लगती है । मैं चाहता हॅू कि मैं उन का चैक अप दिल्ली के किसी बड़े अस्पताल में करवा दूं ।<br />
<br />
कबीर सोचने लगा बात तो ठीक है परन्तु पिछली बार बात चली थ्री तो कविता ने कहा था अब तो पहाड़ में भी सुपर स्पैशिलिटी अस्पताल हैं । शायद वह नहीं चाहती कि कोई उस के पास दिल्ली में ठहरे हालांकि आदित्य को बड़ा घर मिला हुआ है, पांच बैड रूम वाला । उस ने कहा -यहीं करवा दें गे ।दिल्ली बहुत दूर है ।<br />
‘पापा, क्या बात करते हो । बस या टैक्सी में यदि सफर मुश्किल लगता है, तो हम बाई एयर भी जा सकते हैं ।’ उसे पता था पैसा तो बापू ने ही देना था ।<br />
ओम ने कहा-दर्द तो सचमुच बहुत होता है परन्तु डर भी लगता है कि यदि आप्रेशन के बाद भी ठीक न हुआ तो ? मिसेज़ हांडा ने दोनो घुटनो का आप्रेशन करवाया और बिल्कुल ही बैठ गई ।<br />
<br />
<br />
‘सब के साथ ऐसा थेाड़े होता है । बाकी अपने अपने भाग्य की बात है ।’ आदित्य ने कहा । फैसला दिल्ली के ही पक्ष में हुआ ।<br />
जाने से पहले आदित्य ने कहा - पापा,मम्मी की चैक बुक और अपना ए टी एम दे देना । कोई एमरजेंसी हो सकती है ।पिता ने पुत्र की ओर घूर कर देखा परन्तु कहा कुछ नहीं ।<br />
<br />
पैसा लेना हो तो इन्सान कितना मधुर हो जाता है ।और यह कोई नई बात तो नहीं । दरअसल आदत तो खुद कबीर ने ही बिगाड़ी थी । बेटा क्लास वन अधिकारी है । हर वर्श आय कर भी भरना होता है । एक बार उस ने कह दिया था -बेटा अगर जरुरत हो तो इन्कम टैक्स भरने के लिए पैसे मुझ स ेले लेना । फिर तो उसे चटक ही पड़ गई थी । वह न केवल टैक्स के लिए हर साल पैसा मंगवा लेता बल्कि पीपीएफ में जमा करने के लिए भी लाख दो लाख रुपये मंगवा लेता । कोई न कोई बहाना बना कर पैसा मंगवाना आम बात हो गई थी । बाद में कबीर को पता चला कि कविता अपने मां बाप के लिए भी उसी पैसे का उपयोग कर लेती थी ।<br />
कबीर बड़ा दुखी होता परन्तु कर कुछ नहीं सकता था । आदित्य के लिए टकसाल खुल गई थी ।<br />
<br />
<br />
<br />
ओम का एक घुटना बदल दिया गया था और आदित्य ने कोई तीन लाख रुपये अपनी मां के खाते से निकाल लिए थे । उसने पूरी बिरादरी में यह सूचना फेैलाने में कोई कोर कसर न छोड़ी कि आदित्य ने अपनी मां का इलाज एम्ज़ में करवाया है और अब उस की मां घोड़ी की तरह दौड़ सकती है ।<br />
सब ने कहा बेटा हो तो ऐसा । कलयुग में अन्यथा कौन किस की परवाह करता है । अब घर में ओम थी जो चौबीस घण्टे अपने कमरे में बन्द रहती और कविता को मटरगश्ती के लिए खूब टाइम मिल जाता। थैरेपी के लिए एक महिला आती और ओम उस से ही बातचीत कर के सन्तुष्ट हो जाती ।<br />
<br />
ओम को एक पुराना फोन आदित्य ने दे दिया था और वह अपने बहन भाइयों से कभी कभार बात कर लेती । उस का मन वापिस अपने घर आने को करता लेकिन अभी उपचार चला हुआ था और फिर बीच बीच में कबीर भी आ जाता था ।<br />
<br />
पहाड़ में घरों को ताला लगाने की जरुरत बहुत कम पड़ती है लेकिन दिल्ली में लोग अपने-आप से भी डरते हैं । और अगर एक ही सदस्य ने पीछे घर पर रहना हो तो वे बाहर से ताला लगा जाते हैं । पहली बार उन्हों ने ओम को ताले में बन्द किया तो वह चिल्ला उठी थी -नहीं मेरा सांस घुट जाएगा । मैं ऐसे बन्द नहीं रह सकती । मैं तो मर जाउंगी ।<br />
<br />
आदित्य ने कहा था -मां,चिन्ता न करो । अन्दर से भी यह चाबी से खुल सकता है ।‘जब मैं घर में हूं, तो ताला लगाते ही क्यों हो ?’ उस ने ताला नही लगाने दिया था । आर के पुरम के सेक्टर चार में पहंुचते पहंुचते रात के नौ बज गए थे । वह सरकारी आवास के बाहर खड़ा था । हैरान परेशान ।मुख्य द्वार पर ताला लटका हुआ था ।<br />
फिर उसे लगा घर के अन्दर कोई हलचल थी । एक छाया बेचैनी से इधर उधर घूम रही थी। कबीर चिल्लाया -ओम, ओम लेकिन कोई जवाब नहीं आया ।<br />
थका हारा कबीर धड़ाम से फर्श पर बैठ गया ।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31022दान पुन्न / सुशील कुमार फुल्ल2016-05-02T13:53:43Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
<br />
<br />
मेज़ पर गुड़ की पेसी पड़ी थी, जो अब चींटियों का भौन ही बन गई थी ।<br />
<br />
मियां बीवी जाने लगे तो आदित्य ने अपनी मां से कहा - ज़रा निन्नी के यहां जाना है पटेल नगर । बस दो घण्टे में वापिस आ जांए गे । आप अन्दर बैठ कर टी. वी. देखते रहें ।मैं बाहर से ताला लगा देता हूँ ।<br />
‘बाहर से ताला क्यों ?’वह चौंकी ।गांव में ऐसा नहीं होता । हम स्वयं अन्दर से कुडी लगा लें तो घबराहट नहीं होती लेकिन कोई बाहर से ताला लगा दे तो अजीब सी अनुभूति होती है ।<br />
‘यह दिल्ली है । यहां हर रोज़ लुटेरे घरों में घुस कर लूटपाट करते हैं और बाद में बुजुर्गों का मर्डर भी । बड़े बेरहम और जालिम लोग हैं । हम गए और आए । आप आराम से बैठे ।’ कह कर उसने कमरे को बाहर से ताला लगा दिया ।<br />
<br />
ओम अन्दर से चिल्लाती ही रर्ही- अरे मेरा सांस घुटा जाता है । मैं मर जाउंगी ।मैं हूँ न यहां । फिर ताले की क्या जरुरत है ।लेकिन उन पर कोई असर नहीं हुआ । वे दोनों धप धप करते हुए सीढ़ियां उतर गए । कमरे में बन्द मां के लिए आर के पुरम का वह सरकारी आवास शमशान की सां सां में डूब गया था ।<br />
<br />
उसे लगा वह गलत दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ था| सीढियां चढ़ते चढ़ते उस का सांस फूल गया था । एक बार ओम ने कहा भी थ्रा -तुम डाक्टर को दिखा क्यों नहीं लेते ?<br />
‘तुम्हारी लाडली बहू ने तो बहुत पहले ही डिक्लंअर कर दिया था कि मुझे श्वासी है और इसी लिए उसने वर्षों तक अपने बच्चों को मेरे पास नहीं आने दिया । कहती थी कि पापा गुल्फे फैंकते हैं । दमा नामुराद बीमारी है ।’ थोड़ा रुक कर उस ने फिर कहा -आज कल इस लिए सहन करती हैं क्यों कि उस की नज़र मेरे बैंक बैलंस पर है । जीवन शैली में कितना अन्तर आ गया है । आज कल हर बच्चे को अलग अलग तौलिए चाहिएं। अलग कमरा चाहिए। हम आठ बहन भाई एक ही तौलिए से काम चला लेते थे ।<br />
उस ने प्रथम तल पर पहुंचते ही घंटी बजाई ।<br />
अन्दर से कविता बाहर आई ।ससुर के पांव छूने के बाद उस ने बैग पकड़ा और बिना किसी संकोच के कहा -पापा, आप बुरा न मानना । दौड़ कर पास वाली मार्कीट से पांच किलो आटा तो ले आओ ।आज इन्हें दफतर में बहुत काम था, इस लिए बाजार नहीं जा पाए ।<br />
<br />
<br />
कबीर ने कुछ नहीं कहा । उसने केवल कविता की ओर आश्चर्य से देखा । आह कितने बेबाक हैं ये षहरी लोग । उसे लाहौरी राम की याद आ गई । किसी ने उस के नाम पत्र दे दिया था कि कबीर और उस की धर्मपत्नी आंए तो उन्हें घर पर ठहरा लेना ।<br />
<br />
उन्होंने मसूरी जाना था । एक रात देहरादून में काटनी थी । वह मित्र की चिटठी ले कर लाहौरी राम के घर पहुंचे । चिटठी देखते ही उसने कहा - मैं नहीं जानता यह व्यक्ति कौन है, जिसने तुम्हें चिटठी दी है ।<br />
<br />
<br />
कबीर ने कई सन्दर्भ दिए परन्तु उस ने पहचानने से साफ इन्कार कर दिया ।<br />
वह बहुत परेशान हुआ था ।उन दिनों आम आदमी कहां ठहरते थे होटलों में । दूर पार की पहचान वाले के पास रुक जाना आम बात थी लेकिन आज कल तो सभी होटलों या गैस्ट हाउस में ही ठहरना पसन्द करते हैं । उसे याद है वह रात उसे रेलवे स्टेशन पर ही बितानी पड़ी थी ।कविता बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए अन्दर चली गई थी । कबीर धीरे धीरे सीढियां उतर रहा था ।<br />
<br />
<br />
<br />
वह बार बार अन्दर बाहर आ जा रहा था ।वह शायद अपनी मां से कुछ कहना चाहता था परन्तु कह नहीं पा रहा था । उस की जीभ पर झेंप चिपक गई थी । मां ने ही पूछ लिया - बेटा, क्या बात है ? तुम परेशान लगते हो ।तभी कविता ने अन्दर आते हुए बिना किसी भूमिका के कहना ष्ुरु किया- मां जी पैसे पेड़ पर तो नहीं लगते । और फिर बीमारी पर खर्च तो निरन्तर झरतें हुए पत्तों की तरह होता है ।<br />
आदित्य उसे अवाक देखता रहा । बोला कुछ नहीं ।<br />
‘तो फिर क्या चाहती हो ?’<br />
‘मां जी ,सारा खेल पैसे का है । रिइम्बर्समेंट आते आते तो देर लगे गी । फिर नेहा ने नया पंगा डाल दिया है । पति से लड़ झगड़ कर घर आ बैठी है ।एक साल हुआ नहीं । अब डाइवोर्स चाहती है ।’‘तो रिइम्बर्समेंट के पेपर भर दो न ।’‘सरकारी पैसा है , इतनी आसानी से नहीं मिलता ।’<br />
‘आश्रितों के बिल जल्दी पास नहीं होते ।’ आदित्य ने दबी ज़बान में कहा । थोड़ा रुक कर कुछ सोचने का अभिनय करते हुए बोला - दर असल पापा ने तुम्हारे खाते में बहुत सा सरप्लस मनी डाल रखा है’ । वह साहस नहीं बटोर पा रहा था ।वह जानता थ्रा कि वह झूठ बोल रहा था परन्तु कविता का उस पर दवाब था । वास्तव में जब हमारे मन में चोर होता है, तो उस की उपस्थिति हमें किसी न किसी रूप में झकझोरती अवश्य है ,भले ही हम स्वार्थवश मन की उस बात को अनसुना कर देते हैं ।<br />
ओम समझ गई । वह जानती है कि उस का बेटा अपने बाप से पैसा निकलवाता रहता है,कभी कोई बहाना बना कर,कभी कोई ।अब उस की नजर बुढापे के लिए रखे पैसे पर टिक गई है । वह सोचने लगी कि खुद इतना पैसा कमाने वाला बेटा भी पैसे के लिए जीभ लपलपाने लगा है । शायद मां बाप का पैसा भी बच्चों को सरकारी पैसा लगने लग जाता है । दरअसल बिगाड़ा तो खुद इन्हों ने ही है ।<br />
‘फिर क्या ? वह तो किसी और काम के लिए रखे हैं ।फरीदाबाद वाला जो प्लाट बेचा था, उस के पैसे भी तो तुम्हारे पास ही हैं । उस में से खर्च कर लो ।’ ओम ने सुझाया ।<br />
‘मां, वह तो मैंने बच्चों की षादियों के लिए फिक्सड डिपाज़िट में रख दिए । कुछ अपने पी पी एफ में जमा करवा दिए ।और फिर रवि अमरीका में एडमिशन लेना चाहता है ।<br />
‘सो तो ठीक है परन्तु तुम्हारे पापा ने सब कुछ तो तुम्हें दे दिया है । तुम इतने बड़े अफसर हो । खुद भी कुछ करना चाहिए । हम ने तो उम्र भर पेट काट काट कर जो पैसा जोड़ा , वह सब आप लोगों को दे दिया । अभी लड़कियों को तो कुछ भी नहीं दिया ; ओम की आवाज़ में उपालम्भ भी था और एक आक्रोश भी ।<br />
कविता ने अपनी सास की बात अनसुनी करते हुए कहा - मां जी, आप चलने फिरने लायक हो गईं , यही क्या कम है ।घुटने बेकार हो जाएं तो ज़िदंगी बेकार हो जाती है । अब इतना पैसा लगा है, तो उस की रिइम्बर्समेंट तो लेनी ही है न । सरकारी पैसा मिलता है, तो क्यो छोड़ें ।‘तो ले लो न कौन रोकता है ।’ ओम ने सहज भाव से कहा ।‘सरकारी पैसा ऐसे ही थोड़े मिल जाता है । इस के बड़े सख्त कायदे कानून होते हैं ।’ वह फिर बोली ।‘तो कायदे कानून से भर दो न कागज़’ ।<br />
‘रिइम्बर्समेंट तो हो जाए गी लेकिन मां तुम्हारे अपने खाते में ज्यादा पैसे रहें गे , तो बिल पास नहीं होगा ।’ भोली सी सूरत बना कर आदित्य ने कहा ।<br />
‘फिर क्या चाहिए ?’<br />
‘तुम्हारे खाते में जो बीस लाख जमा है न । उसे टेम्पोरेरेली मेरे खाते में डाल दो । जब मैडिकल बिल का भुगतान हो जाए गा तो मैं पैसा वापिस आप के खाते में डाल दूंगा । आप इस टरांस्फर वाउचर पर हस्ताक्षर कर दो । फिर सब ठीक हो जाएगा ।’<br />
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ओम ने क्षण भर के लिए चौंक कर देखा लेकिन फिर सभलते हुए बोली -मैं ने तो ऐसा कानून कभी देखा सुना नहीं । तुम्हारे पापा से पूछ लूं गी ।<br />
वह जानती है कि एक बार पैसा गया तो फिर तो वापिस आने का प्रश्न ही नहीं । आज तक इस ने कोई पैसा हाथ पर नहीं रखा और न ही कभी ले कर लौटाया है ।<br />
कविता को लगा बना बनाया खेल बिगड़ गया परन्तु सोचा जरा चालाकी से काम लेना हो गा ।सोने का अण्डा चाहिए तो मुर्गी को पुचकारना भी तो होगा ।<br />
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सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते वह हांपने लगा था । जब भी वह किसी से अपने दम चढ़ने की बात करता तो तुरन्त सलाह मिलती कि यह तो नामुराद बीमारी दमा है,जिस का कोई सहज इलाज नहीं । वह चुप हो जाता ।<br />
कबीर खड़ा देखता रहा । आर के पुरम की बत्तियां झिलमिल झिलमिल कर रही थ्रीं । उसे लगा कि वह गलत दरवाज़े पर आ कर खड़ा हो गया था ।<br />
कैसे लोग हैं, जो समय पर रसोई का सामान भी पूरा नहीं रखते । मैं छः सौ किलोमीटर का सफर कर के आया हूँ और आते ही हुक्म मिल गया कि पहले आटा लाउं तो रोटी मिलेगी ।<br />
वह धीरे धीरे सीढ़ियां उतरने लगा ।<br />
<br />
घर में कोहराम मचा हुआ था । कबीर वापिस आ गया थ्रा । भाइयों को यह ज़रा भी अच्छा नहीं लगा । राजन ने तो कहा था- इतना पढ़ लिख बीमारी चिपक गई । मैं ड्लि करता तो सांस फूलने लगता । हांप कर बैठ जाता परन्तु यह सब तो फौज मे नहीं चलता । सो वापिस आ गया हूँ|<br />
वह हैरान था कि उस के भाइयों में उस के प्रति जरा भी हमदर्दी नहीं थ्री । वह तो उन्हें अवांछित लग रहा था ।मानो वह सब का हक छीन लेगा ।<br />
<br />
पढ़ लिख कर भी अगर घर में ही बैठना था, तो व्यर्थ में क्यों इतना खर्च करवाया ।<br />
कबीर सेना में भर्ती हो गया था । बहुत खुश थ्रा । सेना में मिलने वाली सुख सुविधांए भला किसे अच्छी नहीं लगतीं । अनुशासन भरा जीवन । लेकिन दो साल बाद ही उसे डिस्चार्ज दे दिया गया क्यों कि वह अनफिट घोषित कर दिया गया था । उस ने कहा - मैं कब वापिस आना चाहता थ्रा । पता नहीं कहां से सांस की नामुराद बीमारी लग गई । <br />
मां बाप के लिए तो सभी बच्चें बराबर होते हैं । बूढ़े पिता ने पूछा - बच्चा,क्या करना चाहते हो । मैं ने तो परमात्मा का लाख शुकर मनाया था कि तुम्हारी सरकारी नौकरी लग गई परन्तु कौन जानता था कि तुम यहीं लौट आओ गे । तुम्हीं बताओ मैं तुम्हारे लिए क्या करुं ?<br />
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‘आप मुझे भी थोड़ी ज़मीन खेती के लिए दे दें ,तो काम चल जाए गा।बाद में कोई नौकरी मिल गई तो देख लूं गा ।’<br />
‘ बावड़ी के पास वाली ज़मीन ही खाली है, वह ले लो । वैसे है तो पत्थ्रीली लेकिन उसे खेती लायक बनाया जा सकता है । थोड़ी मेहनत ज़्यादा करनी पड़े गी ।’<br />
‘मुझे मंजूर है । खाली तो मैं बैठ नहीं सकता ।’<br />
उसने खूब मेहनत करनी षुरु कर दी । जल्दी ही उस के अन्न के भण्डार भरने लगे परन्तु जेब में पैसे फिर भी नहीं होते थे । कुछ खरीदना हो या बच्चों को फीस आदि के लिए पैसे भेजने होते तो वह इन्तजाम तो कर लेता परन्तु थोड़ी मुष्किल जरुर होती ।<br />
घर में कोई उत्सव था । उस के सेना वाले दोस्त भी आए हुए थे । बातों ही बातों में रमणीक ने कहा - कबीर , कई बार मेरा मन होता है कि मैं भी फौज की नौकरी छोड़ कर खेती बाड़ी शुरु कर लूं । कितना सुखमय एवं शान्त जीवन होता है और स्वतंत्र भी ।<br />
<br />
‘बात तो ठीक है परन्तु ऐसी गलती मत कर बैठना । ठीक है खेती तपस्या है । इस में षान्ति भी है और स्वतंत्रता भी । परन्तु किसान की जान तो महाजन के पिंजरे में बन्द रहती है ।<br />
<br />
‘क्या मतलब ?’<br />
‘किसान के पास हार्ड कैषश तो होता नहीं । अनाज है लेकिन यह मण्डियों में जाएगा । महाजन की कृपा होगी , तभी खरीदा जाएगा । तुम्हारी तन्ख्वाह तो हर महीने की पहली तारीख को सिरहाने के नीचे पड़ी होती है ।’ कबीर ने टिप्पणी की ।<br />
‘वेतन भी तो काम करने पर ही मिलता है ।’<br />
‘सो तो ठीक है परन्तु आज भी इतने किसान आत्महत्या क्यों करते है ? जानते हो पूस की रात का हल्कू आज भी महाजन की ‘बाकी’ चुकाते चुकाते मर जाता है पर बाकी है कि खत्म ही नहीं होती ।फर्क सिर्फइतना है कि आज बैंक महाजन बन गए हैं और उन के रिकवरी एजेंट यमदूत ।कबीर रुआंसे स्वर में बोला था ।गटारियां मस्ती से खेतों में कीड़े मकौड़े चुग रही थ्रीं और कबीर उन्हें खड़ा गडरिये सा निहार रहा था अपलक ।<br />
<br />
<br />
व्ह आया तो इस बार ओम ने फिर बात छेड़ दी कि बेटियों को भी उन का हिस्सा मिलना चाहिए ।<br />
आदित्य भड़क उठा - कैसा हिस्सा ? उनके विवाह पर इतना तो खर्च कर दिया गया है । अब और क्या देना बाकी है ?<br />
‘खर्च तो तुम्हारे विवाह पर भी हुआ है ।’कबीर ने कहा ।<br />
‘यदि आपने जमीन या घर उन के नाम किया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा ।पहले ही आप ने तीन लाख रुपये बाजार में डंुबो दिए हैं ।ज्यादा ब्याज के लालच में बाजार में पैसा फैंकना कहां की अक्लमन्दी है ।’ बेटे के तेवर ही बदले हुए थे ।<br />
क्बीर को बुरा तो बहुत लगा लेकिन वह चुप ही रहा । बोला - वह मेरा पैसा है ।तुम्हारे से तो नहीं लिया ।‘यह मेरी बनाई कमाई हुई जायदाद है । मैं चाहूं तो तुम्हें भी हिस्सा न दूं ।’<br />
‘तो क्या छाती पर रख कर ले जाओ गे ? या पड़ोसियों को खुश कर जाओगे ?’ बौखलाया हुआ आदित्य बोला था । और हरि पाधे का हाल तो आप ने देखा ही है । बेटों ने ही उसे पंखे से लटका दिया था । औा बाद में उन में से एक बहन ने अपने भाई को ही ... ।े<br />
कबीर सोचने लगा कि उस ने गलती की । दरअसल इज़ी मनी मिलते रहने से इन्सान की प्यास वैसे ही बढ़ती है जैसे नमकीन पानी पीने से प्यास भड़कती है । आदित्य नहीं जानता उस के पापा ने किस प्रकार डाक घर के खाताधारकों का एजेंट बन कर कैसे पैसा कमाया । बस उसे तो पता है कि पापा से जब भी जितना मांगा उस से दुगुना तिगुना ही मिला ।अब लहू मुंह को लग गया है ,तो पैसा न मिलने पर तल्खी भी दिखाने लगा है ।<br />
<br />
मेज़ पर पड़ी गुड़ की पेसी और उस से लिपटी असंख्य काली भूरी चींटिया ।यह उन के लिए दान पुन्न ही तो है ।और मां बाप से लिपटी सन्तान ।उन्हैं पैसा देना दान पुन्न ही है क्या ? या रैंज़म । शब्दों का हेर फेर हो सकता है परन्तु बात तो वहीं पहंुच जाती है ।<br />
<br />
<br />
आदित्य आता तो कबीर और ओम एकदम खिल जाते । मां बाप के लिए तो सन्तान सुख सब से बड़ा सुख होता है लेकिन कभी कभी कबीर को लगता कि बेटे का व्यवहार अलग अलग समय पर अलग अलग होने लगा । कभी वह कठोर षब्दों का प्रयोग करता और कभी बिल्कुल कोमल पदावली का । इस बार वह आया तो बड़ा मिठास भरा था । बोला - पापा, मां के घुटनों में तकलीफ बढ़ गई लगती है । मैं चाहता हॅू कि मैं उन का चैक अप दिल्ली के किसी बड़े अस्पताल में करवा दूु ।<br />
<br />
कबीर सोचने लगा बात तो ठीक है परन्तु पिछली बार बात चली थ्री तो कविता ने कहा था अब तो पहाड़ में भी सुपर स्पैशिलिटी अस्पताल हैं । शायद वह नहीं चाहती कि कोई उस के पास दिल्ली में ठहरे हालांकि आदित्य को बड़ा घर मिला हुआ है, पांच बैड रूम वाला । उस ने कहा -यहीं करवा दें गे ।दिल्ली बहुत दूर है ।<br />
‘पापा, क्या बात करते हो । बस या टैक्सी में यदि सफर मुश्किल लगता है, तो हम बाई एयर भी जा सकते हैं ।’ उसे पता था पैसा तो बापू ने ही देना था ।<br />
ओम ने कहा-दर्द तो सचमुच बहुत होता है परन्तु डर भी लगता है कि यदि आप्रेशन के बाद भी ठीक न हुआ तो ? मिसेज़ हांडा ने दोनो घुटनो का आप्रेशन करवाया और बिल्कुल ही बैठ गई ।<br />
<br />
<br />
‘सब के साथ ऐसा थेाड़े होता है । बाकी अपने अपने भाग्य की बात है ।’ आदित्य ने कहा । फैसला दिल्ली के ही पक्ष में हुआ ।<br />
जाने से पहले आदित्य ने कहा - पापा,मम्मी की चैक बुक और अपना ए टी एम दे देना । कोई एमरजेंसी हो सकती है ।पिता ने पुत्र की ओर घूर कर देखा परन्तु कहा कुछ नहीं ।<br />
<br />
पैसा लेना हो तो इन्सान कितना मधुर हो जाता है ।और यह कोई नई बात तो नहीं । दरअसल आदत तो खुद कबीर ने ही बिगाड़ी थी । बेटा क्लास वन अधिकारी है । हर वर्श आय कर भी भरना होता है । एक बार उस ने कह दिया था -बेटा अगर जरुरत हो तो इन्कम टैक्स भरने के लिए पैसे मुझ स ेले लेना । फिर तो उसे चटक ही पड़ गई थी । वह न केवल टैक्स के लिए हर साल पैसा मंगवा लेता बल्कि पीपीएफ में जमा करने के लिए भी लाख दो लाख रुपये मंगवा लेता । कोई न कोई बहाना बना कर पैसा मंगवाना आम बात हो गई थी । बाद में कबीर को पता चला कि कविता अपने मां बाप के लिए भी उसी पैसे का उपयोग कर लेती थी ।<br />
कबीर बड़ा दुखी होता परन्तु कर कुछ नहीं सकता था । आदित्य के लिए टकसाल खुल गई थी ।<br />
<br />
<br />
<br />
ओम का एक घुटना बदल दिया गया था और आदित्य ने कोई तीन लाख रुपये अपनी मां के खाते से निकाल लिए थे । उसने पूरी बिरादरी में यह सूचना फेैलाने में कोई कोर कसर न छोड़ी कि आदित्य ने अपनी मां का इलाज एम्ज़ में करवाया है और अब उस की मां घोड़ी की तरह दौड़ सकती है ।<br />
सब ने कहा बेटा हो तो ऐसा । कलयुग में अन्यथा कौन किस की परवाह करता है । अब घर में ओम थी जो चौबीस घण्टे अपने कमरे में बन्द रहती और कविता को मटरगश्ती के लिए खूब टाइम मिल जाता। थैरेपी के लिए एक महिला आती और ओम उस से ही बातचीत कर के सन्तुष्ट हो जाती ।<br />
<br />
ओम को एक पुराना फोन आदित्य ने दे दिया था और वह अपने बहन भाइयों से कभी कभार बात कर लेती । उस का मन वापिस अपने घर आने को करता लेकिन अभी उपचार चला हुआ था और फिर बीच बीच में कबीर भी आ जाता था ।<br />
<br />
पहाड़ में घरों को ताला लगाने की जरुरत बहुत कम पड़ती है लेकिन दिल्ली में लोग अपने-आप से भी डरते हैं । और अगर एक ही सदस्य ने पीछे घर पर रहना हो तो वे बाहर से ताला लगा जाते हैं । पहली बार उन्हों ने ओम को ताले में बन्द किया तो वह चिल्ला उठी थी -नहीं मेरा सांस घुट जाएगा । मैं ऐसे बन्द नहीं रह सकती । मैं तो मर जाउंगी ।<br />
<br />
आदित्य ने कहा था -मां,चिन्ता न करो । अन्दर से भी यह चाबी से खुल सकता है ।‘जब मैं घर में हूं, तो ताला लगाते ही क्यों हो ?’ उस ने ताला नही लगाने दिया था । आर के पुरम के सेक्टर चार में पहंुचते पहंुचते रात के नौ बज गए थे । वह सरकारी आवास के बाहर खड़ा था । हैरान परेशान ।मुख्य द्वार पर ताला लटका हुआ था ।<br />
फिर उसे लगा घर के अन्दर कोई हलचल थी । एक छाया बेचैनी से इधर उधर घूम रही थी। कबीर चिल्लाया -ओम, ओम लेकिन कोई जवाब नहीं आया ।<br />
थका हारा कबीर धड़ाम से फर्श पर बैठ गया ।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31021दान पुन्न / सुशील कुमार फुल्ल2016-05-02T13:43:49Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatKahani}}<br />
<br />
<br />
मेज़ पर गुड़ की पेसी पड़ी थी, जो अब चींटियों का भौन ही बन गई थी ।<br />
<br />
मियां बीवी जाने लगे तो आदित्य ने अपनी मां से कहा - ज़रा निन्नी के यहां जाना है पटेल नगर । बस दो घण्टे में वापिस आ जांए गे । आप अन्दर बैठ कर टी. वी. देखते रहें ।मैं बाहर से ताला लगा देता हूँ ।<br />
‘बाहर से ताला क्यों ?’वह चौंकी ।गांव में ऐसा नहीं होता । हम स्वयं अन्दर से कुडी लगा लें तो घबराहट नहीं होती लेकिन कोई बाहर से ताला लगा दे तो अजीब सी अनुभूति होती है ।<br />
‘यह दिल्ली है । यहां हर रोज़ लुटेरे घरों में घुस कर लूटपाट करते हैं और बाद में बुजुर्गों का मर्डर भी । बड़े बेरहम और जालिम लोग हैं । हम गए और आए । आप आराम से बैठे ।’ कह कर उसने कमरे को बाहर से ताला लगा दिया ।<br />
<br />
ओम अन्दर से चिल्लाती ही रर्ही- अरे मेरा सांस घुटा जाता है । मैं मर जाउंगी ।मैं हूँ न यहां । फिर ताले की क्या जरुरत है ।<br />
लेकिन उन पर कोई असर नहीं हुआ । वे दोनों धप धप करते हुए सीढ़ियां उतर गए ।<br />
कमरे में बन्द मां के लिए आर के पुरम का वह सरकारी आवास शमशान की सां सां में डूब गया था ।<br />
<br />
उसे लगा वह गलत दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ थ्रा ।<br />
सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते उस का सांस फूल गया था । एक बार ओम ने कहा भी थ्रा -तुम डाक्टर को दिखा क्यों नहीं लेते ?<br />
‘तुम्हारी लाडली बहू ने तो बहुत पहले ही डिक्लंअर कर दिया था कि मुझे श्वासी है और इसी लिए उसने वर्षों तक अपने बच्चों को मेरे पास नहीं आने दिया । कहती थी कि पापा गुल्फे फैंकते हैं । दमा नामुराद बीमारी है ।’ थोड़ा रुक कर उस ने फिर कहा -आज कल इस लिए सहन करती हैं क्यों कि उस की नज़र मेरे बैंक बैलंस पर है । जीवन शैली में कितना अन्तर आ गया है । आज कल हर बच्चे को अलग अलग तौलिए चाहिएं। अलग कमरा चाहिए। हम आठ बहन भाई एक ही तौलिए से काम चला लेते थे ।<br />
उस ने प्रथम तल पर पहुंचते ही घंटी बजाई ।<br />
अन्दर से कविता बाहर आई ।ससुर के पांव छूने के बाद उस ने बैग पकड़ा और बिना किसी संकोच के कहा -पापा, आप बुरा न मानना । दौड़ कर पास वाली मार्कीट से पांच किलो आटा तो ले आओ ।आज इन्हें दफतर में बहुत काम था, इस लिए बाजार नहीं जा पाए ।<br />
<br />
कबीर ने कुछ नहीं कहा । उसने केवल कविता की ओर आश्चर्य से देखा । आह कितने बेबाक हैं ये षहरी लोग । उसे लाहौरी राम की याद आ गई । किसी ने उस के नाम पत्र दे दिया था कि कबीर और उस की धर्मपत्नी आंए तो उन्हें घर पर ठहरा लेना ।<br />
<br />
उन्होंने मसूरी जाना था । एक रात देहरादून में काटनी थी । वह मित्र की चिटठी ले कर लाहौरी राम के घर पहुंचे । चिटठी देखते ही उसने कहा - मैं नहीं जानता यह व्यक्ति कौन है, जिसने तुम्हें चिटठी दी है ।<br />
<br />
<br />
कबीर ने कई सन्दर्भ दिए परन्तु उस ने पहचानने से साफ इन्कार कर दिया ।<br />
वह बहुत परेशान हुआ था ।उन दिनों आम आदमी कहां ठहरते थे होटलों में । दूर पार की पहचान वाले के पास रुक जाना आम बात थी लेकिन आज कल तो सभी होटलों या गैस्ट हाउस में ही ठहरना पसन्द करते हैं । उसे याद है वह रात उसे रेलवे स्टेषन पर ही बितानी पड़ी थी ।<br />
कविता बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए अन्दर चली गई थी । कबीर धीरे धीरे सीढियां उतर रहा था ।<br />
<br />
<br />
<br />
वह बार बार अन्दर बाहर आ जा रहा था ।वह षायद अपनी मां से कुछ कहना चाहता था परन्तु कह नहीं पा रहा था । उस की जीभ पर झेंप चिपक गई थी । मां ने ही पूछ लिया - बेटा, क्या बात है ? तुम परेषान लगते हो ।<br />
तभी कविता ने अन्दर आते हुए बिना किसी भूमिका के कहना ष्ुरु किया- मां जी पैसे पेड़ पर तो नहीं लगते । और फिर बीमारी पर खर्च तो निरन्तर झरतें हुए पत्तों की तरह होता है ।<br />
आदित्य उसे अवाक देखता रहा । बोला कुछ नहीं ।<br />
‘तो फिर क्या चाहती हो ?’<br />
‘मां जी ,सारा खेल पैसे का है । रिइम्बर्समेंट आते आते तो देर लगे गी । फिर नेहा ने नया पंगा डाल दिया है । पति से लड़ झगड़ कर घर आ बैठी है ।एक साल हुआ नहीं । अब डाइवोर्स चाहती है ।’<br />
‘तो रिइम्बर्समेंट के पेपर भर दो न ।’<br />
‘सरकारी पैसा है , इतनी आसानी से नहीं मिलता ।’<br />
‘आश्रितों के बिल जन्दी पास नहीं होते ।’ आदित्य ने दबी ज़बान में कहा । थोड़ा रुक कर कुछ सोचने का अभिनय करते हुए बोला - दर असल पापा ने तुम्हारे खाते में बहुत सा सरप्लस मनी डाल रखा है’ । वह साहस नहीं बटोर पा रहा था ।वह जानता थ्रा कि वह झूठ बोल रहा था परन्तु कविता का उस पर दवाब था । वास्तव में जब हमारे मन में चोर होता है, तो उस की उपस्थिति हमें किसी न किसी रूप में झकझोरती अवश्य है ,भले ही हम स्वार्थवश मन की उस बात को अनसुना कर देते हैं ।<br />
ओम समझ गई । वह जानती है कि उस का बेटा अपने बाप से पैसा निकलवाता रहता है,कभी कोई बहाना बना कर,कभी कोई ।अब उस की नजर बुढापे के लिए रखे पैसे पर टिक गई है । वह सोचने लगी कि खुद इतना पैसा कमाने वाला बेटा भी पैसे के लिए जीभ लपलपाने लगा है । शायद मां बाप का पैसा भी बच्चों को सरकारी पैसा लगने लग जाता है । दरअसल बिगाड़ा तो खुद इन्हों ने ही है ।<br />
‘फिर क्या ? वह तो किसी और काम के लिए रखे हैं ।फरीदाबाद वाला जो प्लाट बेचा था, उस के पैसे भी तो तुम्हारे पास ही हैं । उस में से खर्च कर लो ।’ ओम ने सुझाया ।<br />
‘मां, वह तो मैंने बच्चों की षादियों के लिए फिक्सड डिपाज़िट में रख दिए । कुछ अपने पी पी एफ में जमा करवा दिए ।और फिर रवि अमरीका में एडमिशन लेना चाहता है ।<br />
‘सो तो ठीक है परन्तु तुम्हारे पापा ने सब कुछ तो तुम्हें दे दिया है । तुम इतने बड़े अफसर हो । खुद भी कुछ करना चाहिए । हम ने तो उम्र भर पेट काट काट कर जो पैसा जोड़ा , वह सब आप लोगों को दे दिया । अभी लड़कियों को तो कुछ भी नहीं दिया ; ओम की आवाज़ में उपालम्भ भी था और एक आक्रोश भी ।<br />
कविता ने अपनी सास की बात अनसुनी करते हुए कहा - मां जी, आप चलने फिरने लायक हो गईं , यही क्या कम है ।घुटने बेकार हो जाएं तो ज़िदंगी बेकार हो जाती है । अब इतना पैसा लगा है, तो उस की रिइम्बर्समेंट तो लेनी ही है न । सरकारी पैसा मिलता है, तो क्यो छोड़ें ।<br />
‘तो ले लो न कौन रोकता है ।’ ओम ने सहज भाव से कहा ।<br />
‘सरकारी पैसा ऐसे ही थोड़े मिल जाता है । इस के बड़े सख्त कायदे कानून होते हैं ।’ वह फिर बोली ।<br />
‘तो कायदे कानून से भर दो न कागज़’ ।<br />
‘रिइम्बर्समेंट तो हो जाए गी लेकिन मां तुम्हारे अपने खाते में ज्यादा पैसे रहें गे , तो बिल पास नहीं होगा ।’ भोली सी सूरत बना कर आदित्य ने कहा ।<br />
‘फिर क्या चाहिए ?’<br />
‘तुम्हारे खाते में जो बीस लाख जमा है न । उसे टेम्पोरेरेली मेरे खाते में डाल दो । जब मैडिकल बिल का भुगतान हो जाए गा तो मैं पैसा वापिस आप के खाते में डाल दूंगा । आप इस टरांस्फर वाउचर पर हस्ताक्षर कर दो । फिर सब ठीक हो जाएगा ।’<br />
ओम ने क्षण भर के लिए चौंक कर देखा लेकिन फिर सभलते हुए बोली -मैं ने तो ऐसा कानून कभी देखा सुना नहीं । तुम्हारे पापा से पूछ लूं गी ।<br />
वह जानती है कि एक बार पैसा गया तो फिर तो वापिस आने का प्रश्न ही नहीं । आज तक इस ने कोई पैसा हाथ पर नहीं रखा और न ही कभी ले कर लौटाया है ।<br />
कविता को लगा बना बनाया खेल बिगड़ गया परन्तु सोचा जरा चालाकी से काम लेना हो गा ।सोने का अण्डा चाहिए तो मुर्गी को पुचकारना भी तो होगा ।<br />
<br />
सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते वह हांपने लगा था । जब भी वह किसी से अपने दम चढ़ने की बात करता तो तुरन्त सलाह मिलती कि यह तो नामुराद बीमारी दमा है,जिस का कोई सहज इलाज नहीं । वह चुप हो जाता ।<br />
कबीर खड़ा देखता रहा । आर के पुरम की बत्तियां झिलमिल झिलमिल कर रही थ्रीं । उसे लगा कि वह गलत दरवाज़े पर आ कर खड़ा हो गया था ।<br />
कैसे लोग हैं, जो समय पर रसोई का सामान भी पूरा नहीं रखते । मैं छः सौ किलोमीटर का सफर कर के आया हूँ और आते ही हुक्म मिल गया कि पहले आटा लाउं तो रोटी मिलेगी ।<br />
वह धीरे धीरे सीढ़ियां उतरने लगा ।<br />
<br />
घर में कोहराम मचा हुआ था । कबीर वापिस आ गया थ्रा । भाइयों को यह ज़रा भी अच्छा नहीं लगा । राजन ने तो कहा था- इतना पढ़ लिख बीमारी चिपक गई । मैं ड्लि करता तो सांस फूलने लगता । हांप कर बैठ जाता परन्तु यह सब तो फौज मे नहीं चलता । सो वापिस आ गया हूँ|<br />
वह हैरान था कि उस के भाइयों में उस के प्रति जरा भी हमदर्दी नहीं थ्री । वह तो उन्हें अवांछित लग रहा था ।मानो वह सब का हक छीन लेगा ।<br />
<br />
पढ़ लिख कर भी अगर घर में ही बैठना था, तो व्यर्थ में क्यों इतना खर्च करवाया ।<br />
कबीर सेना में भर्ती हो गया था । बहुत खुश थ्रा । सेना में मिलने वाली सुख सुविधांए भला किसे अच्छी नहीं लगतीं । अनुशासन भरा जीवन । लेकिन दो साल बाद ही उसे डिस्चार्ज दे दिया गया क्यों कि वह अनफिट घोषित कर दिया गया था । उस ने कहा - मैं कब वापिस आना चाहता थ्रा । पता नहीं कहां से सांस की नामुराद बीमारी लग गई । <br />
मां बाप के लिए तो सभी बच्चें बराबर होते हैं । बूढ़े पिता ने पूछा - बच्चा,क्या करना चाहते हो । मैं ने तो परमात्मा का लाख शुकर मनाया था कि तुम्हारी सरकारी नौकरी लग गई परन्तु कौन जानता था कि तुम यहीं लौट आओ गे । तुम्हीं बताओ मैं तुम्हारे लिए क्या करुं ?<br />
<br />
‘आप मुझे भी थोड़ी ज़मीन खेती के लिए दे दें ,तो काम चल जाए गा।बाद में कोई नौकरी मिल गई तो देख लूं गा ।’<br />
‘ बावड़ी के पास वाली ज़मीन ही खाली है, वह ले लो । वैसे है तो पत्थ्रीली लेकिन उसे खेती लायक बनाया जा सकता है । थोड़ी मेहनत ज़्यादा करनी पड़े गी ।’<br />
‘मुझे मंजूर है । खाली तो मैं बैठ नहीं सकता ।’<br />
उसने खूब मेहनत करनी षुरु कर दी । जल्दी ही उस के अन्न के भण्डार भरने लगे परन्तु जेब में पैसे फिर भी नहीं होते थे । कुछ खरीदना हो या बच्चों को फीस आदि के लिए पैसे भेजने होते तो वह इन्तजाम तो कर लेता परन्तु थोड़ी मुष्किल जरुर होती ।<br />
घर में कोई उत्सव था । उस के सेना वाले दोस्त भी आए हुए थे । बातों ही बातों में रमणीक ने कहा - कबीर , कई बार मेरा मन होता है कि मैं भी फौज की नौकरी छोड़ कर खेती बाड़ी शुरु कर लूं । कितना सुखमय एवं शान्त जीवन होता है और स्वतंत्र भी ।<br />
<br />
‘बात तो ठीक है परन्तु ऐसी गलती मत कर बैठना । ठीक है खेती तपस्या है । इस में षान्ति भी है और स्वतंत्रता भी । परन्तु किसान की जान तो महाजन के पिंजरे में बन्द रहती है ।<br />
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‘क्या मतलब ?’<br />
‘किसान के पास हार्ड कैषश तो होता नहीं । अनाज है लेकिन यह मण्डियों में जाएगा । महाजन की कृपा होगी , तभी खरीदा जाएगा । तुम्हारी तन्ख्वाह तो हर महीने की पहली तारीख को सिरहाने के नीचे पड़ी होती है ।’ कबीर ने टिप्पणी की ।<br />
‘वेतन भी तो काम करने पर ही मिलता है ।’<br />
‘सो तो ठीक है परन्तु आज भी इतने किसान आत्महत्या क्यों करते है ? जानते हो पूस की रात का हल्कू आज भी महाजन की ‘बाकी’ चुकाते चुकाते मर जाता है पर बाकी है कि खत्म ही नहीं होती ।फर्क सिर्फइतना है कि आज बैंक महाजन बन गए हैं और उन के रिकवरी एजेंट यमदूत ।कबीर रुआंसे स्वर में बोला था ।गटारियां मस्ती से खेतों में कीड़े मकौड़े चुग रही थ्रीं और कबीर उन्हें खड़ा गडरिये सा निहार रहा था अपलक ।<br />
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व्ह आया तो इस बार ओम ने फिर बात छेड़ दी कि बेटियों को भी उन का हिस्सा मिलना चाहिए ।<br />
आदित्य भड़क उठा - कैसा हिस्सा ? उनके विवाह पर इतना तो खर्च कर दिया गया है । अब और क्या देना बाकी है ?<br />
‘खर्च तो तुम्हारे विवाह पर भी हुआ है ।’कबीर ने कहा ।<br />
‘यदि आपने जमीन या घर उन के नाम किया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा ।पहले ही आप ने तीन लाख रुपये बाजार में डंुबो दिए हैं ।ज्यादा ब्याज के लालच में बाजार में पैसा फैंकना कहां की अक्लमन्दी है ।’ बेटे के तेवर ही बदले हुए थे ।<br />
क्बीर को बुरा तो बहुत लगा लेकिन वह चुप ही रहा । बोला - वह मेरा पैसा है ।तुम्हारे से तो नहीं लिया ।‘यह मेरी बनाई कमाई हुई जायदाद है । मैं चाहूं तो तुम्हें भी हिस्सा न दूं ।’<br />
‘तो क्या छाती पर रख कर ले जाओ गे ? या पड़ोसियों को खुश कर जाओगे ?’ बौखलाया हुआ आदित्य बोला था । और हरि पाधे का हाल तो आप ने देखा ही है । बेटों ने ही उसे पंखे से लटका दिया था । औा बाद में उन में से एक बहन ने अपने भाई को ही ... ।े<br />
कबीर सोचने लगा कि उस ने गलती की । दरअसल इज़ी मनी मिलते रहने से इन्सान की प्यास वैसे ही बढ़ती है जैसे नमकीन पानी पीने से प्यास भड़कती है । आदित्य नहीं जानता उस के पापा ने किस प्रकार डाक घर के खाताधारकों का एजेंट बन कर कैसे पैसा कमाया । बस उसे तो पता है कि पापा से जब भी जितना मांगा उस से दुगुना तिगुना ही मिला ।अब लहू मुंह को लग गया है ,तो पैसा न मिलने पर तल्खी भी दिखाने लगा है ।<br />
मेज़ पर पड़ी गुड़ की पेसी और उस से लिपटी असंख्य काली भूरी चींटिया ।यह उन के लिए दान पुन्न ही तो है ।और मां बाप से लिपटी सन्तान ।उन्हैं पैसा देना दान पुन्न ही है क्या ? या रैंज़म ।षब्दों का हेर फेर हो सकता है परन्तु बात तो वहीं पहंुच जाती है ।<br />
आदित्य आता तो कबीर और ओम एकदम खिल जाते । मां बाप के लिए तो सन्तान सुख सब से बड़ा सुख होता है लेकिन कभी कभी कबीर को लगता कि बेटे का व्यवहार अलग अलग समय पर अलग अलग होने लगा । कभी वह कठोर षब्दों का प्रयोग करता और कभी बिल्कुल कोमल पदावली का । इस बार वह आया तो बड़ा मिठास भरा था । बोला - पापा, मां के घुटनों में तकलीफ बढ़ गई लगती है । मैं चाहता हॅू कि मैं उन का चैक अप दिल्ली के किसी बड़े अस्पताल में करवा दूु ।<br />
कबीर सोचने लगा बात तो ठीक है परन्तु पिछली बार बात चली थ्री तो कविता ने कहा था अब तो पहाड़ में भी सुपर स्पैशिलिटी अस्पताल हैं । शायद वह नहीं चाहती कि कोई उस के पास दिल्ली में ठहरे हालांकि आदित्य को बड़ा घर मिला हुआ है, पांच बैड रूम वाला । उस ने कहा -यहीं करवा दें गे ।दिल्ली बहुत दूर है ।<br />
‘पापा, क्या बात करते हो । बस या टैक्सी में यदि सफर मुश्किल लगता है, तो हम बाई एयर भी जा सकते हैं ।’ उसे पता था पैसा तो बापू ने ही देना था ।<br />
ओम ने कहा-दर्द तो सचमुच बहुत होता है परन्तु डर भी लगता है कि यदि आप्रेशन के बाद भी ठीक न हुआ तो ? मिसेज़ हांडा ने दोनो घुटनो का आप्रेशन करवाया और बिल्कुल ही बैठ गई ।<br />
<br />
‘सब के साथ ऐसा थेाड़े होता है । बाकी अपने अपने भाग्य की बात है ।’ आदित्य ने कहा । फैसला दिल्ली के ही पक्ष में हुआ ।<br />
जाने से पहले आदित्य ने कहा - पापा,मम्मी की चैक बुक और अपना ए टी एम दे देना । कोई एमरजेंसी हो सकती है ।पिता ने पुत्र की ओर घूर कर देखा परन्तु कहा कुछ नहीं ।<br />
पैसा लेना हो तो इन्सान कितना मधुर हो जाता है ।और यह कोई नई बात तो नहीं । दरअसल आदत तो खुद कबीर ने ही बिगाड़ी थी । बेटा क्लास वन अधिकारी है । हर वर्श आय कर भी भरना होता है । एक बार उस ने कह दिया था -बेटा अगर जरुरत हो तो इन्कम टैक्स भरने के लिए पैसे मुझ स ेले लेना । फिर तो उसे चटक ही पड़ गई थी । वह न केवल टैक्स के लिए हर साल पैसा मंगवा लेता बल्कि पीपीएफ में जमा करने के लिए भी लाख दो लाख रुपये मंगवा लेता । कोई न कोई बहाना बना कर पैसा मंगवाना आम बात हो गई थी । बाद में कबीर को पता चला कि कविता अपने मां बाप के लिए भी उसी पैसे का उपयोग कर लेती थी ।<br />
कबीर बड़ा दुखी होता परन्तु कर कुछ नहीं सकता था । आदित्य के लिए टकसाल खुल गई थी ।<br />
<br />
<br />
<br />
ओम का एक घुटना बदल दिया गया था और आदित्य ने कोई तीन लाख रुपये अपनी मां के खाते से निकाल लिए थे । उसने पूरी बिरादरी में यह सूचना फेैलाने में कोई कोर कसर न छोड़ी कि आदित्य ने अपनी मां का इलाज एम्ज़ में करवाया है और अब उस की मां घोड़ी की तरह दौड़ सकती है ।<br />
सब ने कहा बेटा हो तो ऐसा । कलयुग में अन्यथा कौन किस की परवाह करता है । अब घर में ओम थी जो चौबीस घण्टे अपने कमरे में बन्द रहती और कविता को मटरगश्ती के लिए खूब टाइम मिल जाता। थैरेपी के लिए एक महिला आती और ओम उस से ही बातचीत कर के सन्तुष्ट हो जाती ।<br />
<br />
ओम को एक पुराना फोन आदित्य ने दे दिया था और वह अपने बहन भाइयों से कभी कभार बात कर लेती । उस का मन वापिस अपने घर आने को करता लेकिन अभी उपचार चला हुआ था और फिर बीच बीच में कबीर भी आ जाता था ।<br />
पहाड़ में घरों को ताला लगाने की जरुरत बहुत कम पड़ती है लेकिन दिल्ली में लोग अपने-आप से भी डरते हैं । और अगर एक ही सदस्य ने पीछे घर पर रहना हो तो वे बाहर से ताला लगा जाते हैं । पहली बार उन्हों ने ओम को ताले में बन्द किया तो वह चिल्ला उठी थी -नहीं मेरा सांस घुट जाएगा । मैं ऐसे बन्द नहीं रह सकती । मैं तो मर जाउंगी ।<br />
आदित्य ने कहा था -मां,चिन्ता न करो । अन्दर से भी यह चाबी से खुल सकता है ।<br />
‘जब मैं घर में हूं, तो ताला लगाते ही क्यों हो ?’ उस ने ताला नही लगाने दिया था ।<br />
<br />
आर के पुरम के सेक्टर चार में पहंुचते पहंुचते रात के नौ बज गए थे ।<br />
वह सरकारी आवास के बाहर खड़ा था । हैरान परेषान ।मुख्य द्वार पर ताला लटका हुआ था ।<br />
फिर उसे लगा घर के अन्दर कोई हलचल थी । एक छाया बेचैनी से इधर उधर घूम रही थी। कबीर चिल्लाया -ओम, ओम लेकिन कोई जवाब नहीं आया ।<br />
थका हारा कबीर धड़ाम से फर्ष पर बैठ गया ।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31020दान पुन्न / सुशील कुमार फुल्ल2016-05-02T13:33:54Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल |अनुवाद= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
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{{GKRachna<br />
|रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
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<br />
<br />
मेज़ पर गुड़ की पेसी पड़ी थी, जो अब चींटियों का भौन ही बन गई थी ।<br />
<br />
मियां बीवी जाने लगे तो आदित्य ने अपनी मां से कहा - ज़रा निन्नी के यहां जाना है पटेल नगर । बस दो घण्टे में वापिस आ जांए गे । आप अन्दर बैठ कर टी वी देखते रहें ।मैं बाहर से ताला लगा देता हॅंू ।<br />
‘बाहर से ताला क्यों ?’वह चौंकी ।गांव में ऐसा नहीं होता । हम स्वयं अन्दर से कुडी लगा लें तो घबराहट नहीं होती लेकिन कोई बाहर से ताला लगा दे तो अजीब सी अनुभूति होती है ।<br />
‘यह दिल्ली है । यहां हर रोज़ लुटेरे घरों में घुस कर लूटपाट करते हैं और बाद में बुजुर्गों का मर्डर भी । बड़े बेरहम और जालिम लोग हैं । हम गए और आए । आप आराम से बैठे ।’ कह कर उसने कमरे को बाहर से ताला लगा दिया ।<br />
ओम अन्दर से चिल्लाती ही रर्ही- अरे मेरा सांस घुटा जाता है । मैं मर जाउं गी ।मैं ेहूं न यहां । फिर ताले की क्या जरुरत है ।<br />
लेकिन उन पर कोई असर नहीं हुआ । वे दोनों धप धप करते हुए सीढ़ियां उतर गए ।<br />
कमरे में बन्द मां के लिऐ आर के पुरम का वह सरकारी आवास शमशान की सां सां में डूब गया था ।<br />
<br />
<br />
<br />
उसे लगा वह गलत दरवाज़े पर आ खड़ा हुआ थ्रा ।<br />
सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते उस का सांस फूल गया था । एक बार ओम ने कहा भी थ्रा -तुम डाक्टर को दिखा क्यों नहीं लेते ?<br />
‘तुम्हारी लाडली बहू ने तो बहुत पहले ही डिक्लंअर कर दिया था कि मुझे श्वासी है और इसी लिए उसने वर्षों तक अपने बच्चों को मेरे पास नहीं आने दिया । कहती थी कि पापा गुल्फे फैंकते हैं । दमा नामुराद बीमारी है ।’ थोड़ा रुक कर उस ने फिर कहा -आज कल इस लिए सहन करती हैं क्यों कि उस की नज़र मेरे बैंक बैलंस पर है । जीवन शैली में कितना अन्तर आ गया है । आज कल हर बच्चे को अलग अलग तौलिए चाहिएं।अलग कमरा चाहिए। हम आठ बहन भाई एक ही तौलिए से काम चला लेते थे ।<br />
उस ने प्रथम तल पर पहुंचते ही घंटी बजाई ।<br />
अन्दर से कविता बाहर आई ।ससुर के पांव छूने के बाद उस ने बैग पकड़ा और बिना किसी संकोच के कहा -पापा, आप बुरा न मानना । दौड़ कर पास वाली मार्कीट से पांच किलो आटा तो ले आओ ।आज इन्हें दफतर में बहुत काम था, इस लिए बाजार नहीं जा पाए ।<br />
कबीर ने कुछ नहीं कहा । उसने केवल कविता की ओर आश्चर्य से देखा । आह कितने बेबाक हैं ये षहरी लोग । उसे लाहौरी राम की याद आ गई । किसी ने उस के नाम पत्र दे दिया था कि कबीर और उस की धर्मपत्नी आंए तो उन्हें घर पर ठहरा लेना ।<br />
<br />
उन्होंने मसूरी जाना था । एक रात देहरादून में काटनी थी । वह मित्र की चिटठी ले कर लाहौरी राम के घर पहुंचे । चिटठी देखते ही उसने कहा - मैं नहीं जानता यह व्यक्ति कौन है, जिसने तुम्हें चिटठी दी है ।<br />
<br />
<br />
कबीर ने कई सन्दर्भ दिए परन्तु उस ने पहचानने से साफ इन्कार कर दिया ।<br />
वह बहुत परेशान हुआ था ।उन दिनों आम आदमी कहां ठहरते थे होटलों में । दूर पार की पहचान वाले के पास रुक जाना आम बात थी लेकिन आज कल तो सभी होटलों या गैस्ट हाउस में ही ठहरना पसन्द करते हैं । उसे याद है वह रात उसे रेलवे स्टेषन पर ही बितानी पड़ी थी ।<br />
कविता बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए अन्दर चली गई थी । कबीर धीरे धीरे सीढियां उतर रहा था ।<br />
<br />
<br />
<br />
वह बार बार अन्दर बाहर आ जा रहा था ।वह षायद अपनी मां से कुछ कहना चाहता था परन्तु कह नहीं पा रहा था । उस की जीभ पर झेंप चिपक गई थी । मां ने ही पूछ लिया - बेटा, क्या बात है ? तुम परेषान लगते हो ।<br />
तभी कविता ने अन्दर आते हुए बिना किसी भूमिका के कहना ष्ुरु किया- मां जी पैसे पेड़ पर तो नहीं लगते । और फिर बीमारी पर खर्च तो निरन्तर झरतें हुए पत्तों की तरह होता है ।<br />
आदित्य उसे अवाक देखता रहा । बोला कुछ नहीं ।<br />
‘तो फिर क्या चाहती हो ?’<br />
‘मां जी ,सारा खेल पैसे का है । रिइम्बर्समेंट आते आते तो देर लगे गी । फिर नेहा ने नया पंगा डाल दिया है । पति से लड़ झगड़ कर घर आ बैठी है ।एक साल हुआ नहीं । अब डाइवोर्स चाहती है ।’<br />
‘तो रिइम्बर्समेंट के पेपर भर दो न ।’<br />
‘सरकारी पैसा है , इतनी आसानी से नहीं मिलता ।’<br />
‘आश्रितों के बिल जन्दी पास नहीं होते ।’ आदित्य ने दबी ज़बान में कहा । थोड़ा रुक कर कुछ सोचने का अभिनय करते हुए बोला - दर असल पापा ने तुम्हारे खाते में बहुत सा सरप्लस मनी डाल रखा है’ । वह साहस नहीं बटोर पा रहा था ।वह जानता थ्रा कि वह झूठ बोल रहा था परन्तु कविता का उस पर दवाब था । वास्तव में जब हमारे मन में चोर होता है, तो उस की उपस्थिति हमें किसी न किसी रूप में झकझोरती अवश्य है ,भले ही हम स्वार्थवश मन की उस बात को अनसुना कर देते हैं ।<br />
ओम समझ गई । वह जानती है कि उस का बेटा अपने बाप से पैसा निकलवाता रहता है,कभी कोई बहाना बना कर,कभी कोई ।अब उस की नजर बुढापे के लिए रखे पैसे पर टिक गई है । वह सोचने लगी कि खुद इतना पैसा कमाने वाला बेटा भी पैसे के लिए जीभ लपलपाने लगा है । शायद मां बाप का पैसा भी बच्चों को सरकारी पैसा लगने लग जाता है । दरअसल बिगाड़ा तो खुद इन्हों ने ही है ।<br />
‘फिर क्या ? वह तो किसी और काम के लिए रखे हैं ।फरीदाबाद वाला जो प्लाट बेचा था, उस के पैसे भी तो तुम्हारे पास ही हैं । उस में से खर्च कर लो ।’ ओम ने सुझाया ।<br />
‘मां, वह तो मैंने बच्चों की षादियों के लिए फिक्सड डिपाज़िट में रख दिए । कुछ अपने पी पी एफ में जमा करवा दिए ।और फिर रवि अमरीका में एडमिशन लेना चाहता है ।<br />
‘सो तो ठीक है परन्तु तुम्हारे पापा ने सब कुछ तो तुम्हें दे दिया है । तुम इतने बड़े अफसर हो । खुद भी कुछ करना चाहिए । हम ने तो उम्र भर पेट काट काट कर जो पैसा जोड़ा , वह सब आप लोगों को दे दिया । अभी लड़कियों को तो कुछ भी नहीं दिया ; ओम की आवाज़ में उपालम्भ भी था और एक आक्रोश भी ।<br />
कविता ने अपनी सास की बात अनसुनी करते हुए कहा - मां जी, आप चलने फिरने लायक हो गईं , यही क्या कम है ।घुटने बेकार हो जाएं तो ज़िदंगी बेकार हो जाती है । अब इतना पैसा लगा है, तो उस की रिइम्बर्समेंट तो लेनी ही है न । सरकारी पैसा मिलता है, तो क्यो छोड़ें ।<br />
‘तो ले लो न कौन रोकता है ।’ ओम ने सहज भाव से कहा ।<br />
‘सरकारी पैसा ऐसे ही थोड़े मिल जाता है । इस के बड़े सख्त कायदे कानून होते हैं ।’ वह फिर बोली ।<br />
‘तो कायदे कानून से भर दो न कागज़’ ।<br />
‘रिइम्बर्समेंट तो हो जाए गी लेकिन मां तुम्हारे अपने खाते में ज्यादा पैसे रहें गे , तो बिल पास नहीं हो गा ।ेे ।’ भोली सी सूरत बना कर आदित्य ने कहा ।<br />
‘फिर क्या चाहिए ?’<br />
‘तुम्हारे खाते में जो बीस लाख जमा है न । उसे टेम्पोरेरेली मेरे खाते में डाल दो । जब मैडिकल बिल का भुगतान हो जाए गा तो मैं पैसा वापिस आप के खाते में डाल दूंगा । आप इस टरांस्फर वाउचर पर हस्ताक्षर कर दो । फिर सब ठीक हो जाए गा ।’<br />
ओम ने क्षण भर के लिए चौंक कर देखा लेकिन फिर सभलते हुए बोली -मैं ने तो ऐसा कानून कभी देखा सुना नहीं । तुम्हारे पापा से पूछ लूं गी ।<br />
वह जानती है कि एक बार पैसा गया तो फिर तो वापिस आने का प्रश्न ही नहीं । आज तक इस ने कोई पैसा हाथ पर नहीं रखा और न ही कभी ले कर लौटाया है ।<br />
कविता को लगा बना बनाया खेल बिगड़ गया परन्तु सोचा जरा चालाकी से काम लेना हो गा ।सोने का अण्डा चाहिए तो मुर्गी को पुचकारना भी तो होगा ।<br />
<br />
सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते वह हांपने लगा था । जब भी वह किसी से अपने दम चढ़ने की बात करता तो तुरन्त सलाह मिलती कि यह तो नामुराद बीमारी दमा है,जिस का कोई सहज इलाज नहीं । वह चुप हो जाता ।<br />
कबीर खड़ा देखता रहा । आर के पुरम की बत्तियां झिलमिल झिलमिल कर रही थ्रीं । उसे लगा कि वह गलत दरवाज़े पर आ कर खड़ा हो गया था ।<br />
कैसे लोग हैं, जो समय पर रसोई का सामान भी पूरा नहीं रखते । मैं छः सौ किलोमीटर का सफर कर के आया हॅंू और आते ही हुक्म मिल गया कि पहले आटा लाउं तो रोटी मिलेगी ।<br />
वह धीरे धीरे सीढ़ियां उतरने लगा ।<br />
<br />
घर में कोहराम मचा हुआ था । कबीर वापिस आ गया थ्रा । भाइयों को यह ज़रा भी अच्छा नहीं लगा । राजन ने तो कहा था- इतना पढ़ लिख बीमारी चिपक गई । मैं ड्लि करता तो सांस फूलने लगता । हांप कर बैठ जाता परन्तु यह सब तो फौज मे नहीं चलता । सो वापिस आ गया हू।ं<br />
वह हैरान था कि उस के भाइयों में उस के प्रति जरा भी हमदर्दी नहीं थ्री । वह तो उन्हें अवांछित लग रहा था ।मानो वह सब का हक छीन लेगा ।<br />
<br />
पढ़ लिख कर भी अगर घर में ही बैठना था, तो व्यर्थ में क्यों इतना खर्च करवाया ।<br />
कबीर सेना में भर्ती हो गया था । बहुत खुश थ्रा । सेना में मिलने वाली सुख सुविधांए भला किसे अच्छी नहीं लगतीं । अनुशासन भरा जीवन । लेकिन दो साल बाद ही उसे डिस्चार्ज दे दिया गया क्यों कि वह अनफिट घोषित कर दिया गया था । उस ने कहा - मैं कब वापिस आना चाहता थ्रा । पता नहीं कहां से सांस की नामुराद बीमारी लग गई । <br />
मंा बाप के लिए तो सभी बच्चें बराबर होते हैं । बूढ़े पिता ने पूछा - बच्चा ,क्या करना चाहते हो । मैं ने तो परमात्मा का लाख शुकर मनाया था कि तुम्हारी सरकारी नौकरी लग गई परन्तु कौन जानता था कि तुम यहीं लौट आओ गे । तुम्हीं बताओ मैं तुम्हारे लिए क्या करुं ?<br />
‘आप मुझे भी थोड़ी ज़मीन खेती के लिए दे दें ,तो काम चल जाए गा।बाद में कोई नौकरी मिल गई तो देख लूं गा ।’<br />
‘ बावड़ी के पास वाली ज़मीन ही खाली है, वह ले लो । वैसे है तो पत्थ्रीली लेकिन उसे खेती लायक बनाया जा सकता है । थोड़ी मेहनत ज़्यादा करनी पड़े गी ।’<br />
‘मुझे मंजूर है । खाली तो मैं बैठ नहीं सकता ।’<br />
उसने खूब मेहनत करनी षुरु कर दी । जल्दी ही उस के अन्न के भण्डार भरने लगे परन्तु जेब में पैसे फिर भी नहीं होते थे । कुछ खरीदना हो या बच्चों को फीस आदि के लिए पैसे भेजने होते तो वह इन्तजाम तो कर लेता परन्तु थोड़ी मुष्किल जरुर होती ।<br />
घर में कोई उत्सव था । उस के सेना वाले दोस्त भी आए हुए थे । बातों ही बातों में रमणीक ने कहा - कबीर , कई बार मेरा मन होता है कि मैं भी फौज की नौकरी छोड़ कर खेती बाड़ी शुरु कर लूं । कितना सुखमय एवं षान्त जीवन होता है और स्वतंत्र भी ।<br />
‘बात तो ठीक है परन्तु ऐसी गलती मत कर बैठना । ठीक है खेती तपस्या है । इस में षान्ति भी है और स्वतंत्रता भी । परन्तु किसान की जान तो महाजन के पिंजरे में बन्द रहती है ।<br />
‘क्या मतलब ?’<br />
‘किसान के पास हार्ड कैषश तो होता नहीं । अनाज है लेकिन यह मण्डियों में जाएगा । महाजन की कृपा हो गी ,तभी खरीदा जाएगा ।तुम्हारी तन्ख्वाह तो हर महीने की पहली तारीख को सिरहाने के नीचे पड़ी होती है ।’कबीर ने टिप्पणी की ।<br />
‘वेतन भी तो काम करने पर ही मिलता है ।’<br />
‘ सो तो ठीक है परन्तु आज भी इतने किसान आत्महत्या क्यों करते है ? जानते हो पूस की रात का हल्कू आज भी महाजन की ‘बाकी’ चुकाते चुकाते मर जाता है पर बाकी है कि खत्म ही नहीं होती ।फर्क सिर्फइतना है कि आज बैंक महाजन बन गए हैं और उन के रिकवरी एजेंट यमदूत ।कबीर रुआंसे स्वर में बोला था ।<br />
गटारियां मस्ती से खेतों में कीड़े मकौड़े चुग रही थ्रीं और कबीर उन्हें खड़ा गडरिये सा निहार रहा था अपलक ।<br />
<br />
<br />
व्ह आया तो इस बार ओम ने फिर बात छेड़ दी कि बेटियों को भी उन का हिस्सा मिलना चाहिए ।<br />
आदित्य भड़क उठा - कैसा हिस्सा ? उनके विवाह पर इतना तो खर्च कर दिया गया है । अब और क्या देना बाकी है ?<br />
‘खर्च तो तुम्हारे विवाह पर भी हुआ है ।’कबीर ने कहा ।<br />
‘यदि आपने जमीन या घर उन के नाम किया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा ।पहले ही आप ने तीन लाख रुपये बाजार में डंुबो दिए हैं ।ज्यादा ब्याज के लालच में बाजार में पैसा फैंकना कहां की अक्लमन्दी है ।’ बेटे के तेवर ही बदले हुए थे ।<br />
क्बीर को बुरा तो बहुत लगा लेकिन वह चुप ही रहा । बोला - वह मेरा पैसा है ।तुम्हारे से तो नहीं लिया ।‘यह मेरी बनाई कमाई हुई जायदाद है । मैं चाहूं तो तुम्हें भी हिस्सा न दूं ।’<br />
‘तो क्या छाती पर रख कर ले जाओ गे ? या पड़ोसियों को खुश कर जाओगे ?’ बौखलाया हुआ आदित्य बोला था । और हरि पाधे का हाल तो आप ने देखा ही है । बेटों ने ही उसे पंखे से लटका दिया था । औा बाद में उन में से एक बहन ने अपने भाई को ही ... ।े<br />
कबीर सोचने लगा कि उस ने गलती की । दरअसल इज़ी मनी मिलते रहने से इन्सान की प्यास वैसे ही बढ़ती है जैसे नमकीन पानी पीने से प्यास भड़कती है । आदित्य नहीं जानता उस के पापा ने किस प्रकार डाक घर के खाताधारकों का एजेंट बन कर कैसे पैसा कमाया । बस उसे तो पता है कि पापा से जब भी जितना मांगा उस से दुगुना तिगुना ही मिला ।अब लहू मुंह को लग गया है ,तो पैसा न मिलने पर तल्खी भी दिखाने लगा है ।<br />
मेज़ पर पड़ी गुड़ की पेसी और उस से लिपटी असंख्य काली भूरी चींटिया ।यह उन के लिए दान पुन्न ही तो है ।और मां बाप से लिपटी सन्तान ।उन्हैं पैसा देना दान पुन्न ही है क्या ? या रैंज़म ।षब्दों का हेर फेर हो सकता है परन्तु बात तो वहीं पहंुच जाती है ।<br />
आदित्य आता तो कबीर और ओम एकदम खिल जाते । मां बाप के लिए तो सन्तान सुख सब से बड़ा सुख होता है लेकिन कभी कभी कबीर को लगता कि बेटे का व्यवहार अलग अलग समय पर अलग अलग होने लगा । कभी वह कठोर षब्दों का प्रयोग करता और कभी बिल्कुल कोमल पदावली का । इस बार वह आया तो बड़ा मिठास भरा था । बोला - पापा, मां के घुटनों में तकलीफ बढ़ गई लगती है । मैं चाहता हॅू कि मैं उन का चैक अप दिल्ली के किसी बड़े अस्पताल में करवा दूु ।<br />
कबीर सोचने लगा बात तो ठीक है परन्तु पिछली बार बात चली थ्री तो कविता ने कहा था अब तो पहाड़ में भी सुपर स्पैशिलिटी अस्पताल हैं । शायद वह नहीं चाहती कि कोई उस के पास दिल्ली में ठहरे हालांकि आदित्य को बड़ा घर मिला हुआ है, पांच बैड रूम वाला । उस ने कहा -यहीं करवा दें गे ।दिल्ली बहुत दूर है ।<br />
‘पापा, क्या बात करते हो । बस या टैक्सी में यदि सफर मुष्किल लगता है, तो हम बाई एयर भी जा सकते हैं ।’ उसे पता था पॅसा तो बापू ने ही देना था ।<br />
ओम ने कहा-दर्द तो सचमुच बहुत होता है परन्तु डर भी लगता है कि यदि आप्रेशन के बाद भी ठीक न हुआ तो ? मिसेज़ हांडा ने दोनो घुटनो का आप्रेशन करवाया और बिल्कुल ही बैठ गई ।<br />
‘सब के साथ ऐसा थेाड़े होता है । बाकी अपने अपने भाग्य की बात है ।’<br />
आदित्य ने कहा ।<br />
फैसला दिल्ली के ही पक्ष में हुआ ।<br />
जाने से पहले आदित्य ने कहा - पापा,मम्मी की चैक बुक और अपना ए टी एम दे देना । कोई एमरजेंसी हो सकती है ।<br />
पिता ने पुत्र की ओर घूर कर देखा परन्तु कहा कुछ नहीं ।<br />
पैसा लेना हो तो इन्सान कितना मधुर हो जाता है ।और यह कोई नई बात तो नहीं । दरअसल आदत तो खुद कबीर ने ही बिगाड़ी थी । बेटा क्लास वन अधिकारी है । हर वर्श आय कर भी भरना होता है । एक बार उस ने कह दिया था -बेटा अगर जरुरत हो तो इन्कम टैक्स भरने के लिए पैसे मुझ स ेले लेना । फिर तो उसे चटक ही पड़ गई थी । वह न केवल टैक्स के लिए हर साल पैसा मंगवा लेता बल्कि पीपीएफ में जमा करने के लिए भी लाख दो लाख रुपये मंगवा लेता । कोई न कोई बहाना बना कर<br />
पैसा मंगवाना आम बात हो गई थी । बाद में कबीर को पता चला कि कविता अपने मां बाप के लिए भी उसी पैसे का उपयोग कर लेती थी ।<br />
कबीर बड़ा दुखी होता परन्तु कर कुछ नहीं सकता था । आदित्य के लिए टकसाल खुल गई थी ।<br />
$ $ $<br />
ओम का एक घुटना बदल दिया गया था और आदित्य ने कोई तीन लाख रुपये अपनी मां के खाते से निकाल लिए थे । उसने पूरी बिरादरी में यह सूचना फेैलाने में कोई कोर कसर न छोड़ी कि आदित्य ने अपनी मां का इलाज एम्ज़ में करवाया है और अब उस की मां घोड़ी की तरह दौड़ सकती है ।<br />
सब ने कहा बेटा हो तो ऐसा । कलयुग में अन्यथा कौन किस की परवाह करता है ।<br />
अब घर में ओम थी जो चौबीस घण्टे अपने कमरे में बन्द रहती और कविता को मटरगश्ती के लिए खूब टाइम मिल जाता। थैरेपी के लिए एक महिला आती और ओम उस से ही बातचीत कर के सन्तुष्ट हो जाती ।<br />
ओम को एक पुराना फोन आदित्य ने दे दिया था और वह अपने बहन भाइयों से कभी कभार बात कर लेती । उस का मन वापिस अपने घर आने को करता लेकिन अभी उपचार चला हुआ था और फिर बीच बीच में कबीर भी आ जाता था ।<br />
पहाड़ में घरों को ताला लगाने की जरुरत बहुत कम पड़ती है लेकिन दिल्ली में लोग अपने-आप से भी डरते हैं । और अगर एक ही सदस्य ने पीछे घर पर रहना हो तो वे बाहर से ताला लगा जाते हैं । पहली बार उन्हों ने ओम को ताले में बन्द किया तो वह चिल्ला उठी थी -नहीं मेरा सांस घुट जाएगा । मैं ऐसे बन्द नहीं रह सकती । मैं तो मर जाउंगी ।<br />
आदित्य ने कहा था -मां,चिन्ता न करो । अन्दर से भी यह चाबी से खुल सकता है ।<br />
‘जब मैं घर में हूं, तो ताला लगाते ही क्यों हो ?’ उस ने ताला नही लगाने दिया था ।<br />
<br />
आर के पुरम के सेक्टर चार में पहंुचते पहंुचते रात के नौ बज गए थे ।<br />
वह सरकारी आवास के बाहर खड़ा था । हैरान परेषान ।मुख्य द्वार पर ताला लटका हुआ था ।<br />
फिर उसे लगा घर के अन्दर कोई हलचल थी । एक छाया बेचैनी से इधर उधर घूम रही थी। कबीर चिल्लाया -ओम, ओम लेकिन कोई जवाब नहीं आया ।<br />
थका हारा कबीर धड़ाम से फर्ष पर बैठ गया ।</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=31019सुशील कुमार फुल्ल2016-05-02T13:11:35Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=<br />
|नाम=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=15 अगस्त 1941<br />
|जन्मस्थान=गांव काईनौर, ज़िला रोपड़, पंजाब<br />
|मृत्यु=<br />
|कृतियाँ=<br />
|विविध=<br />
|जीवनी=[[सुशील कुमार फुल्ल / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Sushil Kumar Phull<br />
|shorturl=<br />
|kavitakosh=<br />
|copyright=<br />
}}<br />
====कहानियाँ====<br />
* [[बसेरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बढ़ता हुआ पानी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[मेमना / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फंदा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ठूँठ / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[कोहरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बांबी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[रिज पर फौजी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[माटी के खिलौने / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[चिड़ियों का चोगा / सुशील कुमार फुल्ल]] <br />
* [[दान पुन्न / सुशील कुमार फुल्ल]]</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%9A%E0%A5%8B%E0%A4%97%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=30976चिड़ियों का चोगा / सुशील कुमार फुल्ल2016-04-17T09:29:36Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुशील कुमार फुल्ल |अनुवाद= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<br />
दीवार और टीन की छत के खोखल में एक उल्लू आकर बैठ गया था। पता नहीं वह कब से बैठा होगा लेकिन जिस दिन वह दिखाई दे गया, चारों तरफ चर्चा होने लगी। एक दहशत व्याप गई थी। लोगों ने उसे वहाँ से उड़ाना चाहा...पत्थर भी मारे परंतु वह थोड़ा अंदर सरक गया और कुछ दिन तक फिर दिखाई नहीं दिया। कुछ दिनों बाद एक और उल्लू वहाँ बैठा दिखाई दिया। सहमें हुए लोगों ने उस तरफ देखना ही बंद कर दिया। वे सब बिल्ली के सामने कबूतर हो गए थे।<br />
हरिहर सोचता रहा...जीव-जंतु, पशु-पक्षी इतने ही अनिष्ठ हों, तब तो प्रकृति का संतुलन ही बिगड़ जाए। जो आया है, वह जाएगा तो जरूर। और फिर ईरान-इराक पर उल्लू बैठ गए थे या फिर नजदीक की सोचें तो क्या पंजाब पर उल्लू ही मँडराने लगे थे? यह सब कोरी बकवास है, उन्होंने सोचा। फिर कहीं अंदर ही अंदर सोचना-शायद उल्लू उनके लिए ही आया है। इतने वर्षों से वह बेकार बैठे हैं। निरर्थक। महासागर में भटके हुए पंछी की तरह। तभी तेजस्वी ने आकर कहा-पिता जी, उल्लू ने करिश्मा कर दिया।<br />
<br />
‘‘क्या कहा?’’<br />
‘‘वह मेंटल बीमार हो गई है।’’<br />
‘‘उसे तुम भी मेंटल कहते हो, यह मुझे अच्छा नहीं लगता।’’<br />
‘‘यह तो जग-जाहिर है। सभी उसे मेंटल ही कहते हैं।’’<br />
<br />
‘‘पर बेटा, हर आदमी किसी न किसी उमर में मेंटर होता ही है। मेंटल का अर्थ है अपने आप से सिमट जाना।’’<br />
‘‘आप तो अपना दर्शन बधारने लगे। जानते हो आज वह अपने घर से बाहर आई थी। सबसे कहने लगी-अपने-अपने घर की बत्तियाँ बुझो देा। इन पर उल्लू का साया पड़ा रहा है। कोई स्विच को हाथ न लगाओ.....नहीं तो साथ ही चिपक जाओगे।<br />
<br />
इतना ही नहीं वह खुद घरों में जाकर बत्तियाँ बुझा आई। लेकिन अपने घर खुद हाथ नहीं लगाया तथा दूसरों से बंद करवाई।’’<br />
‘‘ओह।’’<br />
‘‘बस उसके बाद अँधेरे बंद कमरे में लेट गई और कहते हैं बेहोश हो गई।’’ आँगन में चिड़ियाँ चुग्गा चुग रही थी। अपने नन्हों के मुँह में चोंच से नर्म-नर्म ग्रास डाल रही थी। हरिहर को सदा यह प्रिय लगा है। वह अपने भोजन में से रोटी एक एक टुकड़ा बचा लेते तथा उनके बेटे-बेटियाँ जब उन्हें नहीं देख रहे होते तो छोटे-छोटे ग्रास बनकर आँगन में रख देते। कभी-कभी उठने की इच्छा न होती। तो कमरे में ही फर्श पर रख देते और वही चिड़ियाँ चहकने लगतीं और वे भाव-विभागर से देखते रहते।<br />
<br />
तेजस्वी कहकर चला गया था और उनके मन में लावा उमड़ने लगा था। जीवन की बिडंबनाएँ उभरने लगी थीं। हाँ! मेंटल कौन नहीं होता? जो जरा लकीर से हट गया, वह मेंटल हो गया। एक धुन, एक सनक ही सवार न हो तो उपलब्धि कैसे होती? किसी ध्येय के लिए मर मिटना ही तो मेंटल होना है। शब्द भी क्या चीज है। विभिन्न संदर्भों में भिन्न अर्थ धारण करने लगते हैं।<br />
<br />
शायद चिड़ियाँ भी मेंटल हो जाती हैं। किसी दिन शीशे वाली खिड़की बंद हो जाए तो चिड़ियाँ सर पटक-पटक कर लहू-लुहान हो जाती हैं। तब उन्हें उसकी व्यथा का अहसास होता है। वह उन्हें पकड़ कर पानी पिलाते हैं, फिर खिड़की खोल देते हैं और फुर्र से उड़ जाती हैं।<br />
एक दिन चुग्गा चुगती-चुगती चिड़िया एकाएक लुढ़क गई थी। वे घबरा गए थे। फिर चित शांत होने पर सोचने लगे....आवागमन तो निश्चित है। मर-मर कर मिटना और मिट-मिट कर मरना।<br />
<br />
खोखल में उल्लू बैठा था, बिलकुल उल्लू की तरह।<br />
धुनधुनाता हुआ उमंग आ गया था। बोला-‘‘पिता जी, इस बस्ती में उल्लू आ बसे हैं। मै। यहाँ नहीं रहना चाहता।’’<br />
‘‘तो क्या बस्ती खाली हो जाएगी?’’<br />
‘‘हो या न हो। मैं यहाँ नहीं रहूँगा।’’<br />
‘‘तो कहाँ जाओगे?’’<br />
‘‘आप मेरे हिस्से का पैसा दे दो, मैं कहीं भी जाकर बस जाऊँगा।’’<br />
‘‘पैसा तो कमाना पड़ता है। दरख्तों पर नहीं लगता।’’<br />
‘‘तो क्या आप सारी उमर दरख्त पर उल्लू की तरह ही बैठे रहे?’’ उमंग मेंटल हो गया था। छोटे-बड़े का विचार किए बिना बोले जा रहा था।<br />
हरिहर को लगा एक उल्लू उसके कंधे पर आकर बैठ गया था और उसका कंधा दबता ही चला जा रहा था। उन्होंने कभी बैंक में खाता नहीं खोला था। इतने बड़े परिवार का पालन-पोषण हो गया, इतना ही बहुत था। पैसा ही तो सब कुछ नहीं होता। बुढ़ापा काटना है तो कोई सहारा तो होना चाहिए। संतान को ही उन्होंने बुढ़ापे का संबल माना था, जो अब बिखरता-सा दिखाई दिया।<br />
<br />
जब भी उदास होते तो चिड़ियों को चुग्गा डालते। उन्हें आवाज दी-‘‘बहू कोई रोटी का टुकड़ा तो दे जाओ।’’<br />
‘‘पिता जी, अभी सुबह तो दिया था। अनाज कितना महँगा हो गया है और आप बेकार बैठे चिड़ियों को ही चोगा डालते रहते है।’’ वह कुनमुनाती चली गई। <br />
<br />
वह इंतजार करते रहे कि शायद दे ही जाए। <br />
<br />
जब वह नहीं आई तो उन्होंने एक कौली में पानी भर कर रख दिय मानों चिड़ियों को कह रहे हों कि आज पानी से ही काम चलाओ। उनकी तो यह इच्छा होती कि कुत्ते को भी रोटी डाले लेकिन घर में बहस शुरू हो जाती-आप कभी मंदिर तो गए नहीं। कुत्ते-बिल्लियों में ही उलझे रहते हैं। वह कहते-कुत्ता दरवेश होता है, द्वारपाल और मृत्यु के बाद परलोक गमन में स्वर्ग दिलवाता है। नई पीढ़ी के लोग उन पर हँस देते।<br />
<br />
शायद वह मेंटल हो गए हैं।<br />
एक दिन वह अचानक आ गई थी। बोली-तुम छोटे बच्चे का ख्याल करो। इसे ठीक से खिलाया-पिलाया करो। ठंड से बचाओ। ये तो रूई होते हैं....हवा चले तो उड़ जाएँ.....पानी पड़े तो चिपक जाएँ.....नन्हे-नन्हे प्राण......नन्ही-नन्हीं कोपलें। फिर बोली थी-तुमने कभी पौधा रोपा है?<br />
<br />
‘‘हाँ।’’ हरिहर ने कहा।<br />
‘‘क्या वह फला-फूला?’’<br />
‘हाँ।’’<br />
‘‘तुम खुशकिस्मत हो।’’<br />
‘‘क्यों?’’<br />
‘‘मैं जीवन में एक भी पौधा न रोप सकी।’’<br />
‘‘क्यों प्रयत्न नहीं किया?’’<br />
<br />
‘‘प्रयत्न तो किया। पौधा बढ़ा भी फूलने भी लगा फिर अचानक मुर्झा गया।’’ उसकी आँखों में आँसू आ गए थे।<br />
‘‘कोई बीमारी लग गई होगी।’’<br />
<br />
‘‘नहीं, आधार ही सप्पड़ निकला। पत्थर पर भी कभी पौधा उगता है।’’ फिर बोली-सब व्यर्थ हो गया.....आधार ही बिखर गया।<br />
‘‘तो और पौधा रोप लो।’’ सहज भाव से हरिहर ने सुझाया।<br />
<br />
‘‘नहीं, जीवन की संध्या में पौधा रोप दूँ। ऐसा संभव ही नहीं। अब तो अगले जन्म का इंतजार है।’’<br />
<br />
फिर वह आँगन में निकल आई थी। आँखें बंद कर नतमस्तक हो बोली-पेड़ो, नमस्कार, वायु देवता नमस्कार, जल देवता नमस्कार! पत्तियों नमो नमः।<br />
<br />
वह बहुत देर तब बुदबुदाती रही। आँखों से आँसू टप-टप गिरने लगेे थे और वह चली गई थी।<br />
खोखल में बैठा उल्लू बरकरार था।<br />
<br />
वह अचानक उठा और हरिहर के कंधे पर आ बैठा। इतना बड़ा उल्लू, कंधा फिर दबने लगा....घर का कोई सदस्य नजदीक नहीं आया। फिर उन्होंने खुद ही उसे कपड़े में लपेट कर बाहर फेंक दिया। वह फिर आ बैठा। उन्हें लगा....सरा जीवन कशमकश में ही निकल गया। फिर उन्हें लगा जीवन में हर आदमी के कंधे पर उल्लू बैठा रहता है और उसे हटाने के संघर्ष में ही आदमी दम तोड़ देता है....या फिर मेंटल हो जाता है।<br />
<br />
‘‘पिताजी आप भी सनकी हो गए है। सौ साल हो गए आपको चोग डालते। क्या मिलता है आपको?’’<br />
<br />
‘‘सनकी नहीं, मेंटल कहो बेटा। बुढ़ापा मेंटल हो जाता है। मैं भी बहक जाता हूँ। मैं चोगा नहीं डालूँगा तो चिड़ियाँ क्या खाएँगी। उनके नन्हों का क्या होगा।’’ बहू तो जा चुकी थी। परंतु वह बुदबुदाते रहे।<br />
<br />
हरिहर ने उसके बाद चिड़ियों के लिए रोटी का टुकड़ा नहीं माँगा परंतु चिड़ियाँ उनके कमरे में चहचाहती ही रहीं।<br />
<br />
आकाश में उल्लू ही उल्लू लटक गए थे। मेंटल औरत बेहोश हो गई थी...बीच-बीच में बड़बड़ाती ही रही-रौशन लौटकर आएगा जरूर...मैंने उसे जन्म दिया था. नौ मास का गर्भ...और पालमपुर से अंबाला की यात्रा...ये तो साथ गए ही नहीं थे...डर गए थे ससुर से ...प्रोफेसर बाप...आर्य समाज की रोशनी में पला-बढ़ा। लाहौर में थे तो भी अकेले आने के लिए कहते....पाँच साल की थी, तो अकेली लाहौर पहुँची....स्टेशन पर भी लेने न आए। कोई किसी पर निर्भर न हो....आदमी-औरत सब बराबर.....स्वावलंबन सीखो....पशु-पक्षियों की कौन अँगुली पकड़ता है....मैं अंबाला अकेली गई थी।<br />
<br />
उसने जन्म लिया था......रोशन ने.......रोशनी कर दी थी....अब तो सब बत्तियाँ बुझ चुकी हैं। लेकिन वह आएगा जरूर.....तीस साल तक वह फलता-फूलता रहा.....फिर कहीं कोई सप्पड़ निकल आया.....लेकिन वह आएगा जरूर.....इतना निर्मम वह नहीं हो सकता......फिर अचानक बोली-रोशन आ गया....वह....वह जोर से चिल्लाई और बेहोश हो गई।<br />
<br />
उसकी इसी प्रलाप मेें उसके मेंटल् होने की गुत्थी थी.....रोशन पेड़ होने लगा था, उसे भी आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया गया......परमात्मा ने शरीर दिया है....दवाइयाँ साथ नहीं भेजी....तो दवाईयाँ क्यों खाओ.....शरीर में सब कुछ है.....अपने आप ठीक हो जाता है।’’<br />
<br />
एक दिन रोशन ने कहा था-‘‘माँ, मेरा दिल घटता रहता है। बाजू में दर्द रहता है।’’<br />
<br />
‘‘तो क्या हुआ?’’ मैंने कहा।<br />
‘‘इसे डॉकटर को दिखाना चाहिए।’’ पिता ने कहा।<br />
‘‘नहीं, यह मेरा बेटा है। दवाई का प्रश्न ही नहीं होता।’’<br />
<br />
रोशन घुलता चला गया। उसके अंदर ही कहीं कुछ-कुछ गड़बड़ थी परंतु माँ तो अड़ी हुई थी....इतनी पढ़ी-लिखी होकर भी वह अपने बेटे के उपचार से सहमत नहीं थी। एक रात बेटे को बड़ी परेशानी हुई तो वह तड़ उठा.....घर में जो भी दवाई पड़ी थी.....वह पी गया था। माँ से डरते-डरते....और जब उसे अस्पताल ले गए तो एक मुठ्ठी भर रेत के अतिरिक्त वह कुछ नहीं था। <br />
अब वह इतना ही बोलती....समय से पहले वह क्यों चला गया....यह सरासर अन्याय है। वह लौटेगा जरूर...।<br />
<br />
वे हरिहर के पड़ोस में आकर बसे थे, तो उसे कभी ऐसा नहीं लगा कि वह मेंटल थी। वह कभी हाल-चाल पूछने जाता तो मियाँ कभी अपने दुःखों को व्यक्त् न करते...और पेड़-पौधों-फूलों की चर्चा में ही समय बिता देते।<br />
<br />
हरिहर को लगा-दुनिया में सभी लोग मेंटल हैं...रिटायरमेंट के बाद बहुत दिनों तक बुजुर्गों को झेलना मुश्किल होता है...कमजोर पौधों को उखाड़ फेंकना ही शायद मुनुष्य की विवशता है।<br />
<br />
उन्हें लगा की वीणा की बेहोशी शायद उस पार जाने की तैयार है...उनके अपने मन में बहुत पहले से चिड़ियों के प्रति स्नेह रहा है...आँधी-तूफान में नन्हें जीव कहाँ जाएँ...चिड़ियों को चोगा...इनके लिए जीवन का पर्याय था। पहले तो बहुएँ ही उनकी इस आदत का विरोध करती थीं। अब बेटे भी करने लगे थे...पता नहीं क्यों उन्हें यह अच्छा लगता था। हरिहर कभी मंदिर नहीं गए थे, परंतु परमात्मा में पूरी आस्था थी और परलोक के लिए चिड़ियों का चोगा डालना उन्हें संतुष्ट करता था।<br />
<br />
हड़बड़ाता हुआ-सा तेजस्वी उनके कमरे में प्रविष्ट हुआ और बोला-पिता जी, मेंटल तो अब जाने ही वाली है। उसने सात दिन से कुछ नहीं खाया और न ही बोलती है...बेहोशी में हैं। हरिहर तो स्वयं समाधि में थे...थोड़ा-सा एक और लुढ़के हुए...तेजस्वी भौंचक्का रह गया। चारपाई पर यदि प्राण त्याग दिए तब तो बहुत बुरा होगा...चारपाई भी चार्ज-ब्राह्मण को देनी पड़ेगी...उसने तुरंत अपने पिता को उठाकर जमीन पर लिटा देना चाहा...इसी प्रयत्न में बिस्तर की चादर उठ गई और उसने देखा चादर के नीचे रोटियों के छोटे-छोटे टुकड़े पड़े थे...उसी आकार के जैसे वे चिड़ियों को डाला करते थे...चिड़ियों का चोगा।<br />
</div>द्विजेन्द्र द्विजhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%AB%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2&diff=30975सुशील कुमार फुल्ल2016-04-17T09:22:44Z<p>द्विजेन्द्र द्विज: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=<br />
|नाम=सुशील कुमार फुल्ल<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=15 अगस्त 1941<br />
|जन्मस्थान=गांव काईनौर, ज़िला रोपड़, पंजाब<br />
|मृत्यु=<br />
|कृतियाँ=<br />
|विविध=<br />
|जीवनी=[[सुशील कुमार फुल्ल / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Sushil Kumar Phull<br />
|shorturl=<br />
|kavitakosh=<br />
|copyright=<br />
}}<br />
====कहानियाँ====<br />
* [[बसेरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बढ़ता हुआ पानी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[मेमना / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[फंदा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[ठूँठ / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[कोहरा / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[बांबी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[रिज पर फौजी / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[माटी के खिलौने / सुशील कुमार फुल्ल]]<br />
* [[चिड़ियों का चोगा / सुशील कुमार फुल्ल]]</div>द्विजेन्द्र द्विज