http://www.gadyakosh.org/gk/api.php?action=feedcontributions&user=%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%A4+%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&feedformat=atomGadya Kosh - सदस्य योगदान [hi]2024-03-29T09:35:37Zसदस्य योगदानMediaWiki 1.24.1http://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%A6%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE:%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%82%E0%A4%A4_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=14227सदस्य वार्ता:हेमंत जोशी2012-09-24T01:12:33Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>Kripya, aap Krishna Bajpayee ji ke naam ke baare mein request Anil Janvijay ji ko email ke zariye bhej dijiye...<br />
<br />
Saadar <br />
<br />
--[[सदस्य:सम्यक|सम्यक]] ०७:३०, २७ अप्रैल २००९ (UTC)<br />
<br />
नमस्कार, भाषा की अशुद्धियाँ बढ़ रही हैं। जैसे पन्ने को पन्नें लिखा गया है अनेक जगहों पर कृपया उसे ठीक कर लें। कुछ समय बाद फिर से कुछ सहयोग करूँगा। -हेमंत जोशी</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%B7%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0&diff=14226मनीषा कुलश्रेष्ठ2012-09-24T01:07:13Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Manisha-kulshreshtha.jpg<br />
|नाम=मनीषा कुलश्रेष्ठ<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=26 अगस्त 1967<br />
|जन्मस्थान=जोधपुर, राजस्थान, भारत<br />
|कृतियाँ='''कहानी संग्रह:''' बौनी होती परछांई, कठपुतलियाँ, कुछ भी तो रूमानी नहीं, केयर ऑफ स्वात घाटी, गंधर्व–गाथा; '''उपन्यास:''' शिगाफ़, शालभंजिका<br />
|विविध=हिन्दी वेबपत्रिका 'हिन्दीनेस्ट' का दस वर्षों से संपादन<br />
|shorturl=mkulshreshtha<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Manisha Kulshreshtha<br />
|जीवनी=[[मनीषा कुलश्रेष्ठ / परिचय]]<br />
}}<br />
'''कहानियाँ'''<br />
* [[बिगड़ैल बच्चे / मनीषा कुलश्रेष्ठ]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A4%BE_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%AA%E0%A5%87%E0%A4%AF%E0%A5%80&diff=3543कृष्णा बाजपेयी2009-05-05T20:01:13Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र= <br />
|नाम=कृष्णा वाजपेयी<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=26 दिसम्बर 1930<br />
|मृत्यु=<br />
|जन्मस्थान=कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)<br />
|कृतियाँ=एक कमज़ोर लड़की पागल-सी(कहानी संग्रह) <br />
|विविध=पंडित अम्बिका प्रसाद बाजपेयी की पुत्री<br />
|जीवनी=[[कृष्णा वाजपेयी / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
<br />
* '''[[एक कमज़ोर लड़की पागल-सी / कृष्णा वाजपेयी]]''' (कहानी संग्रह)<br />
<br />
* [[ / कृष्णा वाजपेयी]] <br />
* [[ / कृष्णा वाजपेयी]] <br />
* [[ / कृष्णा वाजपेयी]] <br />
* [[ / कृष्णा वाजपेयी]] <br />
* [[ / कृष्णा वाजपेयी]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A4%BE_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%AA%E0%A5%87%E0%A4%AF%E0%A5%80&diff=3542कृष्णा बाजपेयी2009-05-05T19:58:29Z<p>हेमंत जोशी: नया पृष्ठ: {{GKGlobal}} {{GKParichay |चित्र= |नाम=कृष्णा वाजपेयी |उपनाम= |जन्म=26 दिसम्बर 1930 |मृत...</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
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|नाम=कृष्णा वाजपेयी<br />
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|जन्म=26 दिसम्बर 1930<br />
|मृत्यु=<br />
|जन्मस्थान=कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)<br />
|कृतियाँ=एक कमज़ोर लड़की पागल-सी(कहानी संग्रह) <br />
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|जीवनी=[[कृष्णा वाजपेयी / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
<br />
* '''[[एक कमज़ोर लड़की पागल-सी / कृष्णा वाजपेयी]]''' (कहानी संग्रह)<br />
<br />
* [[ / कृष्णा वाजपेयी]] <br />
* [[ / कृष्णा वाजपेयी]] <br />
* [[ / कृष्णा वाजपेयी]] <br />
* [[ / कृष्णा वाजपेयी]] <br />
* [[ / कृष्णा वाजपेयी]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A1%E0%A4%BC-%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A1%E0%A4%BC_%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%AD%E0%A4%B0_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=3541कंकड़-कंकड़ ताल भर जाता / हेमन्त जोशी2009-05-05T19:43:10Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=हेमन्त जोशी<br />
}}<br />
[[Category:कहानी]]<br />
<br />
बबली और बंटी रामेश्वर करकेटिया के नटखट बच्चे हैं। बबसी छोटी है और घर-भर की लाड़ली है। बंटी बड़ा है। शैतानी से उसका मन अभी पूरी तरह से भरा नहीं है। बंटी अपनी बहन को बहुत प्यार करता है, पर उसे लगता है कि बबली के आने के बाद से उसकी शान में कुछ कमी आ गई है। वह अपनी माँ से कई बार पूछ चुका है कि जब भी उन दोनों के बारे में कोई बात होती है तो बबली और बंटी ही क्यों कहा जाता है, बंटी और बबली क्यों नहीं?<br />
<br />
जैसे ही मार्च का महीना ख़त्म होने को आया और गर्मियों कि छुट्टियाँ पास आने लगीं, बबली और बंटी की सैर-सपाटे की योजनाएँ भी ज़ोर पकड़ने लगीं। उनकी फरमाइश थी कि इस बार छुट्टियों में किसी पहाड़ पर चला जाए।<br />
<br />
“पापा इस बार शिमला चलेंगे” बंटी ने कहा।<br />
<br />
“नहीं पापा, नैनीताल चलो ना” बबली ने बंटी की बात काटी।<br />
<br />
बच्चों की बातें सुन-सुन कर रामेश्वर करकेटिया मन ही मन मुस्काते थे, क्योंकि वह जानते थे कि बच्चे बस सैर करना चाहते हैं। कहाँ जाएँगे, यह तय करना तो है, पर उससे कोई ज्य़ादा फ़र्क नहीं पड़ता। बच्चों का मकसद तो किसी भी हिल स्टेशन पर जा कर मौज करना है। वह यह भी जानते थे कि बबली जो कहेगी, उससे ठीक उल्टा बंटी को कहना है, क्योंकि यह उन दोनों का पुराना खेल है जिसमें दोनों को मज़ा आता है।<br />
<br />
यह बात केवल रामेश्वर जानते थे कि कहाँ जाना है। क्योंकि यह बच्चों और स्वयं उनकी इच्छा पर नहीं है बल्कि इस बात से तय होगा कि कहाँ के टिकट मिल पाएँगे और कहाँ रहने की जगह मिल पाएगी।<br />
<br />
फिर एक दिन आया जब रात साढ़े दस बजे बंटी-बबली रानीखेत एक्सप्रेस पर सवार हो पहाड़ों की सैर पर निकल पड़े। करकेटिया साहब जब कुली को सामान ढुलाई के पैसे दे कर लौटे तो देखा कि भाई-बहन में खिड़की की सीट के लिए झगड़ा हो रहा था।<br />
<br />
[[चित्र:Ballkahani1.jpg]]<br />
<br />
“तुम मम्मी के पास जाओ। यहाँ मैं बैठूँगा।“ बंटी ने बबली को घुड़क कर कहा।<br />
<br />
“मम्........मी, देखो बंटी मुझे यहाँ बैठने नहीं दे रहा है।” बबली ने अपना दाँव खेला।<br />
<br />
पापा ने दोनों को समझाया कि रात में बाहर कुछ भी नहीं दिखेगा, लेकिन वह कहाँ मानने वाले थे। माँ ने दोनों का ध्यान वहाँ से हटाने के लिए उन्हें खाने के लिए पूरियाँ और आलू की सब्ज़ी दे दी। खाना खाने के बाद दोनों को नींद आने लगी और वे कहीं भी सोने को तैयार हो गए। गाड़ी ने भी पूरी रफ्तार पकड़ ली थी।<br />
<br />
बंटी और बबली की नींद अभी पूरी भी नहीं हुई होगी कि काठगोदाम आ गया। स्टेशन से बाहर निकले तो हलका-हलका उजाला हो रहा था। नैनीताल की बस में बैठते ही खिड़की के लिए फिर से झगड़ा होना तय था। सो हुआ भी। लेकिन इस बार झगड़ा ज्य़ादा देर तक इसलिए नहीं चल पाया कि बस लगभग खाली थी। बंटी पीछे खिड़की के पास जा बैठा।<br />
<br />
नैनीताल में बबली और बंटी ने दस दिन खूब मौज की। आस-पास के तालाब और कस्बे देखे, नाव पर बैठे, आइसक्रीम खाई, बंदूक से निशाना लगाया और भी जो कुछ मौज वह कर सकते वह सब की।<br />
<br />
फिर वह भीमताल के पास ही नौकुचिया ताल की सैर करने गए। उस दिन दोनों बहुत शांत थे और एक बार कहने पर ही पापा या माँ का कहना मान रहे थे। पापा के आश्चर्य को कम करते हुए माँ ने बताया कि यह सब इसलिए हो रहा है कि पापा खुश होकर उन्हें पैडल बोट पर सैर करने दें। इसमें रामेश्वर को भला क्या आपत्ति हो सकती थी।<br />
<br />
नौकुचिया ताल में एक नाव घंटे भर के लिए किराए पर ली गई और बच्चों ने ताल का कोना-कोना छान मारा। धूप तेज़ थी मगर बादल भी छाए हुए थे। बीच-बीच में बादलों की छाया में तालाब की सैर करने में बहुत मज़ा आ रहा था। आखिरकार थक कर दोनों ने कहा कि अब किनारे चला जाए। वजह शायद केवल थकान ही नहीं थी। तालाब की सैर करते-करते उन्होंने वह दुकान देख ली थी जहाँ पेप्सी, फैंटा या लिमका पिया जा सकता था। किनारे पर पहुँचते ही कहा गया कि प्यास लग रही है। मतलब साफ था। पर माँ ने अनजान बनते हुए पानी की बोतल आगे बढ़ा दी। इस पर छोटी यानी बबली ने बेहद उदास होकर पापा की ओर देखा। फिर क्या था, सब चाय की दुकान पर थे।<br />
<br />
जब तक कोल्ड ड्रिंक्स आते, बंटी चुप कैसे बैठता। उसने कुछ कंकड़ उठाए और तालाब के किनारे जा कर उन्हें तालाब में फैंकने लगा। इस पर पापा ने उसे डाँटा और अपने पास बुलाया।<br />
<br />
पास आने पर उन्होंने समझाने की कोशिश की “बंटी बेटे, यह काम अच्छा नहीं है।“<br />
<br />
लेकिन कारण जाने बिना बंटी मानने को तैयार नहीं था। इस पर पापा ने उसे बताया कि ऐसा करने से तालाब भर जाएगा और फिर वह उसमें सैर नहीं कर पाएगा।<br />
<br />
आश्चर्य से बंटी ने कहा “पापा मैं तो तालाब के पानी को ऊपर ला रहा हूँ।”<br />
<br />
पापा ने कहा, “माना कि तुम्हारे कंकड़ फैकने से पानी ऊपर आएगा, पर यह भी तो देखो कि ऐसा करने से तालाब की गहराई कम हो जाएगी।”<br />
<br />
बंटी के पास आजकल हर सवाल का जवाब रहता है। उसने पलट कर दलील दी “पापा मेरे कुछ कंकड़ फेकने से तालाब क्यों भरेगा वह तो कितना गहरा है।”<br />
<br />
[[चित्र:Balkahani2.jpg]]<br />
<br />
पापा ने समझाया “देखो बेटा, यहाँ हर साल तुम्हारे जैसे लाखों बंटी आते हैं और मान लो कि हरेक बच्चा चार-चार कंकड़ भी तालाब में फैके तो हर साल तालाब में लाखों कंकड़ भर जाएँगे। फिर क्या कुछ सालों में ही यह तालाब पूरा नहीं भर जाएगा?”<br />
<br />
अब तो बात बंटी की समझ में आ गई थी। उसने पापा से कहा “पापा, पापा, अब मैं तालाब में कभी कंकड़ या कचरा नहीं फैकुँगा। और हाँ पापा! मैं अपने दोस्तों को भी समझाऊँगा कि तालाब में क्यों कंकड़-पत्थर या कचरा नहीं फैकना चाहिए।”<br />
<br />
“शाबाश” पापा कुछ कहते इससे पहले ही बबली बोली।<br />
<br />
बंटी उसकी तरफ़ बढ़ा ही था कि पापा ने उसे रोकते हुए कहा “लो एक कहावत और बना लो अपने दोस्तों के लिए।”<br />
<br />
बंटी ने फिर पूछा “कौन सी कहावत?”<br />
<br />
इस पर पापा ने पूछा “तुमने वह कहावत सुनी है?”<br />
<br />
बंटी ने पूछा “कौन सी पापा?”<br />
<br />
“बूँद-बूँद सागर भर जाता” पापा ने कहा।<br />
<br />
“हाँ पापा, पर इससे उस कहावत का क्या?”<br />
<br />
“अरे बुद्धू इसका नहीं” पापा ने प्यार से समझाया, “कहावत तो अब यह बन गई कि कंकड़-कंकड़ ताल भर जाता। <br />
<br />
रामेश्वर ने बबली की ओर देखा “कहो बबली, कैसी लगी यह कहावत?”<br />
<br />
“बहुत अच्छी पापा बबली चहकी इस कहावत की मदद से मैं भी अपनी सहेलियों को तालाब में कूड़ा-करकट औऱ पत्थर फैकने से रोक सकती हूँ।”<br />
<br />
[[श्रेणी:बाल कथाएँ]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%B8%E0%A4%97%E0%A4%B0_%E0%A4%B5%E0%A4%9C%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%A4&diff=3540असगर वज़ाहत2009-05-05T19:35:30Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र= Asgarw.jpg<br />
|नाम=असगर वज़ाहत<br />
|उपनाम=--<br />
|जन्म=5 जुलाई 1946<br />
|मृत्यु=<br />
|जन्मस्थान=फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)<br />
|कृतियाँ=गरजत बरसत(उपन्यास), कैसी आगी लगाई(उपन्यास), चलते तो अच्छा था (यात्रा संस्मरण), मैं हिन्दू हूँ(कहानी संग्रह) <br />
|विविध=<br />
|जीवनी=[[असगर वज़ाहत / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
<br />
'''लघुकथाएँ'''<br />
* [[गुरू-चेला संवाद/ असग़र वज़ाहत]]<br />
* [[आग/ असग़र वज़ाहत]]<br />
* [[राजा/ असगर वज़ाहत]]<br />
* [[योद्धा / असगर वज़ाहत]] <br />
* [[बंदर / असगर वज़ाहत]] <br />
'''कहानियाँ'''<br />
<br />
* [[मैं हिन्दू हूँ / असगर वज़ाहत]] (कहानी संग्रह)<br />
* [[केक / असगर वज़ाहत]] <br />
* [[सरगम-कोला / असगर वज़ाहत]] <br />
* [[दिल्ली पहुँचना है / असगर वज़ाहत]] <br />
* [[चन्द्रमा के देश में / असगर वज़ाहत]] <br />
* [[हरिराम गुरू संवाद / असगर वज़ाहत]] <br />
* [[स्विमिंग पूल / असगर वज़ाहत]] <br />
* [[ज़ख्म़ / असगर वज़ाहत]] <br />
* [[मुश्किल काम / असगर वज़ाहत]] <br />
* [[होज वाज पापा / असगर वज़ाहत]] <br />
* [[तख्त़ी / असगर वज़ाहत]] <br />
* [[विकसित देशों की पहचान / असगर वज़ाहत]] <br />
* [[मुर्गाबियों के शिकारी / असगर वज़ाहत]] <br />
* [[लकड़ियाँ / असगर वज़ाहत]] <br />
* [[शाह आलम कैम्प की रूहें / असगर वज़ाहत]] <br />
* [[सारी तालीमात / असगर वज़ाहत]]<br />
<br />
<br />
'''उपन्यास'''<br />
* [[मन-माटी / असग़र वजाहत]]<br />
* [[गरजत बरसत / असगर वज़ाहत]]<br />
* [[कैसी आगी लगाई / असगर वज़ाहत]]<br />
<br />
<br />
'''आत्मकथा'''<br />
*[[कहानी लिखने का कारण / असगर वज़ाहत]]<br />
<br />
<br />
'''यात्रा-संस्मरण '''<br />
* [[चलते तो अच्छा था / असगर वज़ाहत]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=3535हेमन्त जोशी2009-05-04T13:37:31Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Hj08 2new.JPG<br />
|नाम=हेमन्त जोशी<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म= 27 मार्च 1954<br />
|जन्मस्थान= नैनीताल, उत्तराखंड, भारत<br />
|कृतियाँ=महायुद्धों के आस-पास<br />
|विविध= कविताएँ, कहानियाँ, फ़्रांसीसी से अनेक कवियों के अनुवाद, स्तंभ लेखन <br />
|जीवनी=[[हेमन्त जोशी / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
'''कहानियाँ '''<br />
* [[अनास नदी क्यों सूख गई? / हेमन्त जोशी]]<br />
* [[उलझनें / हेमन्त जोशी]]<br />
<br />
'''बाल कहानियाँ '''<br />
* [[कंकड़-कंकड़ ताल भर जाता / हेमन्त जोशी]]<br />
<br />
'''व्यंग्य '''<br />
* [[फ़ील गुड, मूरख! / हेमन्त जोशी]]<br />
* [[ / हेमन्त जोशी]]<br />
* [[ / हेमन्त जोशी]]<br />
<br />
'''लेख '''<br />
* [[भाषा : जीवन संगीत का एक रूप / हेमन्त जोशी]]<br />
* [[ / हेमन्त जोशी]]<br />
* [[ / हेमन्त जोशी]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Hj08_2new.JPG&diff=3534चित्र:Hj08 2new.JPG2009-05-04T13:36:09Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div></div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE:%E0%A4%8F%E0%A4%95_%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B0_%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%AE_/_%E0%A4%85%E0%A4%9C%E0%A4%AF_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE&diff=3522वार्ता:एक देर शाम / अजय नावरिया2009-04-28T18:11:13Z<p>हेमंत जोशी: नया पृष्ठ: 'मीडिया की भूमिका देखकर दंग रह गया था। उसे अपने जैसे समाजों की चिं...</p>
<hr />
<div>'मीडिया की भूमिका देखकर दंग रह गया था। उसे अपने जैसे समाजों की चिंता हुई थी।'<br />
<br />
यह पंक्तियाँ दो बार टाइप हो गई थीं उन्हें निकाला गया है। -हेमंत जोशी</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%8F%E0%A4%95_%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B0_%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%AE_/_%E0%A4%85%E0%A4%9C%E0%A4%AF_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE&diff=3521एक देर शाम / अजय नावरिया2009-04-28T18:07:25Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=अजय नावरिया <br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
[[Category:कहानी]]<br />
<poem><br />
सूरज बुझने लगा था, जैसे दिये में तेल कम होने पर लौ मद्धिम हो जाती है। दूर पेड़ों के झुरमुट के पीछे सूरज उतरता चला था। उजाले की परछाई धीरे-धीरे फैलती जा रही थी। लेकिन उधर ... उस तरफ ... पेड़ों के उस झुरमुट के पीछे सूरज अब भी होगा... नीचे गिरता हुआ ... अपनी गर्म राख में लिपट... वहाँ उजाला भी होगा, यहाँ से ज़्यादा...और उधर, उस पार, वहाँ तो यह उगता हुआ सूरज होगा और उस तरफ शायद मध्याह्न का। <br />
<br />
'सच...सच भी, सच में, एक सा नहीं।' उसके मुँह से अनायास यह वाक्य छिटक कर पीछे हटते उजाले की सँवलाई परछाई पर गिरा था, जैसे पसीने की कोई बूंद टपक जाती है, माथे से होती हुई, नाक तक आने के बाद... टप्प...। 'सिर्फ़ दृष्टि का एक कोण है सच भी... यानी सिर्फ एक दृष्टिकोण... इतना टुच्चा होता है यह सच भी... तब झूठ।' उसे यह सोचकर अरूचि, वितृष्णा और विक्षोभ हुआ। -फिर सही ग़लत क्या है?`<br />
<br />
उसने दूर तक नज़रें दौड़ाई थीं। वहाँ दूर दो-चार ग्रामीण आकृतियाँ प्लास्टिक की पानी की बोतलें लिए उकडूँ बैठी, हाथ से मक्खियाँ उड़ा रही थीं। महानगर के कोलाहल से बाहर यह एक छोटा सा गाँव है। गाँव कहने को गाँव है, पर गाँव नहीं बचा है अब वहाँ। कहने को वह महानगर की परिभाषा में ही है, लेकिन परिधि में नहीं है, हाशिए पर पड़ा है। पास ही दूसरी तरफ़, राष्ट्रीय राजमार्ग है। इस तरफ़ नहर है, जिसमें महानगर की सभ्य कालोनियों का कूड़ा-कचरा और कई इलाकों से मल भी बहता आता है। 'ये भी कहाँ जाएँ, बेचारे!' -उसकी निगाहें फिर मक्खी उड़ाती उन्हीं उकडूँ बैठी इन्सानी आकृतियों पर पड़ी थी। गाँव से बहुत सारे परिवार अब भी 'फ़ारिग` होने के लिए, नहर किनारे के खेतों पर आश्रित थे। उनके घर इतने छोटे हैं कि वहाँ मुश्किल से रहा ही जा सकता है। औरतों के बारे में सोचकर वह और उदास हो गया। 'ये कौन लोग हैं? क्या गरीब...? क्या बिना जात के हैं ये गरीब?' उसने माथे पर आई पसीने की चमचमाहट को साफ़ किया। हालाँकि यह पसीने का मौसम नहीं था। पसीना, पिछले महीने विदा हो चुका था, यह तो पसीना निकालने के महीने की शुरूआत थी। जुलाई का उफनता और अगस्त का सीझता मौसम समाप्त हो चुका था। दूर तक फ़सल की हरियाली दिखाई देने लगी थी।<br />
<br />
'ये सब हमारे ही लोग हैं। कुछ बदला है कहीं...हम अब भी वैसे ही हैं... गाँव वैसा ही है, शहर वैसा ही है। गांव के नए-नए चौधरी जब मर्जी अबे-तबे कर देते हैं...उनके साले बिलांद भर के लौंडे, हमारी बहन-बेटियों को दिखा-दिखाकर मूतते हैं...कहीं कुछ बदला है...क्या बदला है...घंटा बदला है बाबाजी का।` वह बड़बड़ाता ही चला गया था। उस सुनसान में कोई था नहीं, जो उसकी सुनता और सुनता भी तो क्या कहता। <br />
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'कहीं मैं सनक तो नहीं गया हूं।` उसने खुद से पूछा और फिर उधर ही निगाहें जमा दी, जहां सूरज की रोशनी, पानी के किसी सोते की तरह फूट रही थी। क्या सुबह और शाम एक से होते हैं? इस जगह पर बैठते हुए, उसने पहले ही आसपास देख लिया था कि दूर तक कोई न हो, जो बेवजह और बेमौके उसके अकेलेपर में खलल डाले। पर यह वाकई क्या एकांत था? इसमें सूरज की रोशनी थी, गांव के हाजत निपटाते लोग थे, इसमें नहर थी, हरियाली थी और नौकरी से मिली घृणा थी। 'आ ह नौकरी।` वह भुनभुनाया। `कमबख्त यह शब्द ही घृणित है...कोई इज्जत नहीं...साले नौकर हैं...पर...पर नौकरशाह भी तो नौकर हैं...नहीं नहीं, यह सच नहीं है...यह सरासर झूठ है... वहीं सच और सच की दृष्टिकोण और झूठ की तरह उसका दुच्चा होना...नौकर और नौकरशाह अलग है, बिल्कुल अलग दो दुनियाओं की तरह...अमरीका और तीसरी दुनियां के देशों की तरह ...पुरोहित की तरह जो हम पर हुक्म चलाता है...हमारी हडि्डयां चिंचोडता है भूखे भेडिए की तरह...हरामी मेरी नौकरी खा गया...नहीं...ऐसे नहीं।` वह झुंझलाहट में बड़बड़ाते हुए उठा खड़ा हुआ। <br />
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उसने दोनों हथेलियों को मुंह के पास किया, जैसे किसी को पुकारने के लिए किया जाता है। फिर उसने छाती में लम्बी सांस भरने की कोशिश की, परंतु वह सांस भर नहीं पाया। वह पलभर रूका और गरदन झटक कर खुद को हल्का करने की व्यर्थ कोशिश की। उसने गला खखारकर साफ किया, जो उसे भरा-भरा महसूस हो रहा था। उसने फिर हथेलियों को मुंह के पास किया और फेफेड़ों में सांस भरी, इस बार भर गई और वह जोर से चिल्लाया, '...कुत्ते ...हरा ...। वह तब तक चिल्लाते-चिल्लाते पस्त नहीं हो गया। क्या वह जान गया था कि अब हमें रोने की बजाय चिल्लाना चाहिए? क्या वह जान गया था कि चीख, अत्याचारी के मन की दहशत भरती है? या फिर क्या वह बस खुद को हल्का करने की कोशिश भर थी? वह निढ़ाल होकर चट्टानी ढाल पर पसर गया। <br />
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'पिता जी।` रोकते-रोकते भी उसकी आत्मा रो पड़ी थी। पर वह सुनसान और प्यासी चट्टान, उसके रोने की आवाज को चुपचाप पी गए थे। <br />
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उसके जेहन में, पिता की छवि चमकी थी। पिता एक सरकारी विद्यालय में चपरासी थे और अपने बेटे-बेटियों के आइ.ए.एस. बनने का सपना देखते थे। वह कहते थे कभी-कभी 'दिनकर, मेरा ख्वाब है रे पगले, कि तू एक दिन एजूकेशन डायरेक्टर बनकर ठाठ से, कुर्सी पर बैठे और घंटी बजाकर तू अपने चपरासी को बुलाए।` इससे बड़ा पद उनकी सोच से बाहर था। यह भावुकता के क्षण थे। तब उसने बारहवीं की परीक्षा पास की थी। अपने विद्यालय में सबसे ज्यादा अंक उसी के आये थे। हिन्दी और इतिहास में पचहत्तर प्रतिशत से ऊपर आये थे। <br />
विद्यालय में जाट जाति के छात्रों का बाहुल्य था। अधिकतर अध्यापक भी इसी जाति के थे। दूसरे नम्बर पर ब्राहमण अध्यापक थे। छात्रों में जाटों के अलावा सबसे ज्यादा संख्या में चमार जाति के लोग थे। इक्के-दुक्के तो सभी जातियों के छात्र थे। ग्रामीण क्षेत्र के इस विद्यालय की हालत एक ग्राम व्यवस्था से अलग नहीं थी। 'भई तुझे बधाई हो सुमेर सिंह।` प्रधानाचार्य अमर सिंह टोकस ने दिनकर के पिता को बुझे मन से बधाई दी थी। 'इस बार फिर निकल गए, हरजनों के बालक आगे।` अधिकतर अध्यापकों की आवाज में अफसोस था। <br />
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उसके पिता सुनकर बाहर निकल आये थे, खुशी-खुशी। उन्होंने अध्यापकों के अफसोस पर ध्यान नहीं दिया था। 'सुमेर...।` अपने नाम की पुकार सुनकर वह रूके थे। पीछे से गणित के अध्यापक जयकिशन बाल्मीकि लंबे लंबे डग भरते आ रहे थे। 'बधाई हो भाई`। उन्होंने उन्हें गले लगाते हुए कहा। 'इस प्रिंसीपल के बहकावे में मत आना, अभी थोड़ी देर पहले कह रहा था कि ये हरिजनों के छोरे हर बार हमारे छोरों को पछाड़ रहे हैं और हम कुछ कर भी नहीं सकते, बोर्ड की परीक्षाएं जो ठहरी, साईंस वालों को तो प्रेक्टिकल में नम्बर कम देकर हमने ठिकाने लगाया पर आर्ट्स वालों का क्या करें। वह एक ही सांस में बता गए थे। <br />
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'क्या रमाकांत शर्मा जी भी वहां थे?` उसके पिता ने एक अन्य अध्यापक के बारे में पूछा था। <br />
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'थे क्यों ना...पर वे बेचारे क्या करते, जब सारे एक तरफा हो लिए, अकेले पड़ गए, पहले काफी कुछ हमारे पक्ष में बोले, पर शीशपाल के आगे कुछ बोल सके हैं। <br />
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'वह के कहवै था?<br />
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'कहवै के था, मजाक उड़ावै था, कहवै था कि ये भी थारी ही औलादें हैं...के फरक पड़े हैं।` सुनकर सब हो हो करके हंसने लगे थे। जयकिशन की बात सुनकर उसके पिता भीतर तक हिल गये थे। जयकिशन बाल्मीकि लौटे गए थे। पिता ने उसे बताया था बाद में। साथ ही कुछ कमजोर शब्दों में यह भी समझाया था कि यहां सब जातियां एक दूसरे को छोटा-बड़ा मानती हैं। बामन बामन तक से छूआछूत करता है, बाकी दूसरी जातियों की तो बात ही दूर है। उन्होंने यह भी समझाया था कि यह जाति कभी भारत से खत्म नहीं होगी, पर जातिवाद खत्म हो सकता है। जातिवाद खत्म होगा, शिक्षा और आर्थिक स्तर पर बराबरी हो, जैसे शरीर में निश्चित तापमान से ज्यादा बढ़ जाने को ही बुखार कहते हैं, वैसा ही बुखार यह जातिवाद है। निश्चित तापमान खतरनाक नहीं है, खराब है उस तापमान की सीमा से बढ़ना। इन कमजोर शब्दों ने धीरे-धीरे उसमें एक मजबूत समझ भरी थी। <br />
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वह पिता की आई.ए.एस. अधिकारी बनने की ख्वाहिश पूरी नहीं कर सका था। बी.ए. करने के दौरान, मंडल कमीशन के मामले पर वह मीडिया की भूमिका देखकर दंग रह गया था। उसे अपने जैसे समाजों की चिंता हुई थी। मीडिया, आरक्षण विरोधी होकर, आरक्षण विरोधियों का ही साथ दे रहा था। अधिकतर लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी या तो इसमें नंगमनंग होकर कूद पड़े थे या फिर खामोश हो गए थे। प्रगतिशीलता और जनवादिता की घज्जियां उड़ गई थी। <br />
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दलितों का इससे कुछ लेना देना नहीं था। यह लड़ाई पिछड़े वर्गों की थी, परंतु भाई-बंदी की खुजली और शायद भविष्य के भय से आक्रांत, वे इसे अपनी लड़ाई मानकर जान दिए बैठे थे। उसे शुरू में यह सब समझ नहीं आया था। उसे जैन लड़के - लड़कियों का आरक्षण विरोध भी समझ नहीं आया था। पर धीरे-धीरे, परत दरपरत यह उसके सामने खुलता चला गया था। <br />
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क्या वाकई आरक्षण की व्यवस्था गलत है? क्या वाकई यह प्रतिभाओं के साथ बलात्कार है? क्या वाकई यह केवल अयोग्यों का चुनाव बनकर रह गया है? उसके सामने कई सवाल फूटे थे। उसे पल भर को, सच में आरक्षण गलत लगा था। पर आखिर वही आरक्षण, आर्थिक आधार पर कैसे जायज हो जाता है? हजारों समाजों के लाखों-करोड़ों लोगों की, क्या इस देश को बनाने में कोई भूमिका नहीं है? फिर क्यों उन्हें हर क्षेत्र में भागीदारी नहीं दी जानी चाहिए? जब सभ्य समाज, एक जन्म के अपाहिज के लिए, आसान जिंदगी जीने के लिए इतनी सहूलियतें देता है, तब ये समाज तो हजारों सालों से लहूलुहान है। पर फिर एक कलेक्टर के बेटे को आरक्षण क्यों मिलना चाहिए? क्या यह व्यवस्था, जाति को बढ़ा रही है? क्या जिन्हें आरक्षण नहीं मिलता, वे समाज इसे अपने हिस्से को हड़प होने के रूप में नहीं देखते हैं? क्या यह कोई नया ब्राहमण वाद हहै... पीढ़ी दर पीढ़ी सुविधापूर्ण व्यवस्था...।` वह घिर गया था। 'सरकारी नौकरी, सरकारी होती है।` पिता ने उसके अखबार की दुनिया चुनने के फैसले पर अपनी असहमति जताई थी। 'वक्त अभी ऐसा भी नहीं बदला है।` फिर वह कुछ पल रूक कर बोले थे, 'तू नहीं तो कोई और करेगा मेरा सपना पूरा।` इतना कहकर उन्होंने उसके कंधे पर हाथ रखा था। इस हाथ का वजन बहुत ज्यादा लगा था उसे। क्या यह पिता के सपनों का बोझ था? उसके जेहन में अचानक आज इतने दिनों बाद सवाल चिल्लाया था। <br />
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वह चट्टान पर निस्पंद बैठा था, किसी बुत की तरह या किसी ऐसे दर्शक की तरह, जो डरावनी फिल्म देख रहा हो। दोपहर का दृश्य फिर एक बार पलट गया था। 'दिनकर, तुम्हें एडिटर साहब बुला रहे हैं?` चपरासी की आवाज सुनकर उसने नजरें उठाकर चपरासी की तरफ देखा था, वहां उपहास था। `साला चपरासी भी आप से तुम पर उतर आया। 'वह भुनभुनाया था। 'यह भी जानता है कि मैं इसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। लोग उसी की कद्र करते हैं जो कुछ दे सकता हो या फिर बिगाड़ने की ताकत रखता हो। बाकी तो साले कीड़े हैं।` वह बड़बड़ाता रहा था। 'यहां ऊपर से नीचे तक ब्राहमणों के गोत्र फन फैलाए बैठे हैं। संपादक के केबिन की तरफ बढ़ते हुए, उसके भारी मन से ये अल्फाज हुए, उसके भारी मन से ये अल्फाज गिर ही पड़े थे। यह एक भारी, नक्काशीर दरवाजा था, जिस पर सुनहरी नेमप्लेट में परशुराम पुरोहित लिखा था।<br />
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उसने दरवाजा खटखटाने से पहले पलटकर चारों तरफ देखा था। प्लास्टिक के वर्गाकार केबिनों में, कम्प्यूटर खोले ज्यादातर चेहरे उसी की तरफ देख रहे थे। इन चेहरों में टकी ज्यादातर आंखों में हिंसा थी, हरकत थी, हंसी थी, जैसे किसी भोजन जीमने बैठी पंगत में, बीचोंबीच, सुअर के अचानक घुस आने पर होती है। <br />
<br />
`हां अंदर आओ। उसके अंदर झांकते ही, पुरोहित की पैनी नजर ने उसे छील दिया था। उसके होने को भी। `अब क्या यही काम रह गया है, तुम्हें प्रूफ चेक करना सिखाऊं क्या? पुरोहित चिल्लाया था। आज यह लगातार तीसरा दिन था, जब उसकी प्रूफ पर गलती दिखायी जा रही थी। यह तीसरा दिन था, उसे पड़ती लगातार फटकार का। यह तीसरा दिन था, इस निश्चय का कि वह और सतर्क होकर प्रूफ पढ़ेगा। <br />
<br />
`सर, मैंने कई बार चेक किया था।` वह पहले वाली निर्भीकता खो गई थी। अब वह पुरोहित से डरने लगा था। रोज पड़ने वाली फटकार ने उसके हौसले तोड़ दिए थे धीरे-धीरे। क्या गुलाम बनने की शुरूआत इसी हौसले के टूट जाने से होती है। `तो मैं झूठ बोल रहा हूं... मुझे पढ़ना नहीं आता...तू मुझे सिखाएगा... मेरा इतना वक्त खराब कर दिया... एक तो तू, एक घंटे का काम पूरे दिन में करता है और उस पर मुझे झूठा बोलता है।` पुरोहित फट पड़ा था बुरी तरह। वह तीन दिनों, में, आप से तू पर उतर आया था। <br />
<br />
'जन जागरण` अखबार में काम करते हुए उसे सात महीने हो गये थे और इन पिछले दिनों के अलावा न उससे कभी ऐसा व्यवहार हुआ था और न उससे कोई गलती हुई थी। शायद होती भी होगी, तो कोई उसे पकड़ता नहीं था। एक दिन पुरोहित ने उसकी तैयार कापी पर एक शब्द लाल निशान के घेरे में लेकर उसे ठीक करने को कहा और वह हैरान रह गया कि वह तीन बार में उसे ठीक से नहीं लिख सका। वह चकरा गया था और शब्द हर बार एकदम नया और अलग लगने लगा था। <br />
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'दिनकर, उस दोगले को तुम्हारी कास्ट का पता चल गया है।` शशि शर्मा ने उसे बाद में बताया था।` `यह पक्का भगवाधारी है।` शशि ने पुरोहित के केबिन की तरफ मुट्ठी तानते हुए कहा। `यह प्रूफ की नहीं, उन रिपोर्ट का मामला है जो तुमने छापी थी प्रमुखता से...दलित उत्पीड़न वाली है।<br />
<br />
शशि शर्मा के कमजोर दिलासे ने उस कठिन वक्त में सम्बल दिया था। उसने रूमाल निकालकर अपनी गर्दन के पास से चिपचिपाहट को साफ किया था। `नहीं शशि, गलती मुझसे हुई तो है ही...।` वह पल भर ढका था। ` नौकरशाह में, मैंने 'औ` की जगह 'ओ` लगा दिया था।`<br />
<br />
'एक दो गलती किससे नहीं होती?` शशि शर्मा हाथ झटकता चला गया था। तीन दिनों में उसका दो सीटों पर ट्रांसफर किया था पुरोहित ने। यह सबसे ऊबाऊ और बेकार सीट थी। यहां सिर्फ बाहर से आई खबरों को दोबारा लिखना भर था, पर पुरोहित को इस पर भी संतोष नहीं था। वह उसे निकाल बाहर करना चाहता था। `आगे ख्याल रखूंगा...।` यह कहते हुए, जैसे वह जमीन में धंस गया था। यह बिल्कुल ऐसी आवाज थी जो किसी गहरी खुदी कब्र से किसी के बोलने पर आती है। 'गेट आउट... आज से तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है यहां।` पुरोहित ने गुस्से में अपनी कुर्सी से उठते हुए कह ही दिया। उसकी उंगली का इशारा दरवाजे की तरफ था। <br />
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पुरोहित का ऐसा रौद्र रूप देखकर वह पल भर को सहम गया था। फिर जैसे उसे सब कुछ गवां देने का एहसास हुआ था और पल के इसी सौंवे हिस्से में, उसने फाइल पुरोहित की मेज पर फेंक मारी थी। <br />
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'बैठ जा चुपचाप, नहीं तो जहां से निकला है वहीं गाड़ दूंगा तुझे।` वह पुरोहित से कहना चाहता था, पर कह नहीं सका था। पुरोहित उसकी गुस्से में निकलती भाप को देखकर चुपचाप कुर्सी पर बैठ गया। वह बचाव की मुद्रा में आ गया था। आखिर वह बूढ़ा था। उसने दरवाजा खोला और बाहर निकल गया था। <br />
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'दिनकर, तुम्हें जमा देने थे साले के।` शशि शर्मा भी उसके पीछे-पीछे दफ्तर से बाहर चला गया था। दिनकर का मन भारी था, वह कुछ बोलने की हालत में नहीं था। `अब कहां जा रहे हो?` शशि के स्वर में चिंता थी। <br />
<br />
`वापस...घर।` दिनकर को बचपन में पढ़ी उसे चूहे की कहानी याद आई थी, जिसे ऋषि ने अपने मंत्र से शेर से फिर चूहा बना दिया था। वह ऋषि के बहुरूपिये होने का क्षोभ से भर गया था। वह ऋषि दुष्ट था, चूहा नहीं। <br />
<br />
शशि शर्मा ने चलते वक्त शाम सात बजे किंग्स सर्किल पर मिलने को कहा था। `एक दिन हमारा होगा।` शशि ने दिनकर के कंधे थपथपाए थे। इन शब्दों में भरोसे से ज्यादा दिलासा था। <br />
<br />
शशि का जन्म कहने को बिहार के एक सुदूर पिछड़े गांव में हुआ था, पर आधुनिकता, जिसका राजनीतिक रूप लोकतांत्रिकता है, उसमें कूट-कूट कर भरी थी। शशि के व्यवहार ने उसके कई भ्रमों को तोड़ा था। <br />
<br />
<br />
'सात बजने में तो अभी लगभग सवा धंटा है।` दिनकर ने अपने मोबाइल में वक्त देखते हुए सोचा। `मेट्रो ट्रेन से पैंतीस-चालीस मिनट में पहुंच जाऊंगा...अभी वक्त है।` बुदबुदाते हुए कुछ देर, वह औंधी पड़ी चट्टान पर लेट गया था। <br />
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वह थका-थका सा, घुटने पर हाथ रखकर उठ गया था। उसने पलटकर उस चट्टानी पत्थर की तरफ देखा, जिस पर वह इतनी देर से बैठा हुआ था। तेज बारिशों या किसी नमी के कारण उसके आसपास किनारों पर हरियाली फूट रही थी। `अगर यह मुलायम मिट्टी न होती तो शायद यह हरियाली भी न होती।` फिर एकाएक उसे अपने प्यारे दोस्त शशि शर्मा की याद आई थी। `मैं किसी से रूकूंगा नहीं अब।` उसने निश्चय किया। <br />
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जब वह किंग्स सर्किल के मेट्रो स्टेशन पर उतरा, तब साढ़े सात बजने को आये थे। शहर में मेट्रो के आने से शहर की पूरी व्यवस्था में बदलाव आ गया था। वरना किंग्स सर्किल से उसके गांव पहुंचने में पहले ढाई घंटा लगता था। अब सिर्फ पैंतीस मिनट में, एकदम तरोताजा वह पहुंच जाता है। पहले तो वह पहुंचते-पहुंचते पसीने से लथपथ और बेदम हो जाता था। मेट्रो के चलते उसके गांव की जमीनों के भाव आसमान छूने लगे हैं। लोगों के काम करने की क्षमता बढ़ गई है। क्या टेक्नोलॉजी ही हमारा उद्धार करेगी?<br />
<br />
`एकदम पका दिया यार दिनकर।` शशि ने दिनकर को देखकर घड़ी दिखाते हुए कहा। <br />
<br />
'मन नहीं था आने का।` दिनकर ने धम्म से कुर्सी पर बैठते हुए स्पष्टीकरण दिया। <br />
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'गम न कर...जो बीत गई सो बात गई।` शशि ने कंधे पर हाथ रखकर हिम्मत बंधाई।<br />
<br />
सड़क पर धीरे-धीरे अंधेरा उतर चुका था। सड़क किनारे लगे बिजली के खंभों और आसपास की दुकानों से दूधिया रोशनी के सोते छूट रहे थे। दिनकर की आंखों में यह रोशनी चुभ रही थी। दिनकर ने मन ही मन बच्चनजी की इस कविता को दो-चार बार गुनगुनाया। उसने भीतर कुछ ऊर्जा महसूस की थी। क्या वाकई ये शब्द उसके हारे हुए मन को ताकत दे रहे हैं? 'चलें कहीं?` शशि की आंखों में सवाल था और जवाब में दिनकर उठ गया था। <br />
<br />
उन्होंने मुख्य सड़क से एक आटोरिक्शा किया, जो पांच-पांच रूपये में सेन्ट्रल मार्केट सवारियां पहुंचाता था। पांच-सात मिनट में, दोनों वहां पहुंच गए थे। वहां से उन्होंने मेजिक मोमेंट वोदका का एक अद्धा और एक लिम्का और एक सोड़ा खरीदा, साथ ही एक नमकीन का पैकेट भी। सारा सामान उन्होंने अपने-अपने बैग में डाल लिया। <br />
<br />
दोनों पैदल चलते हुए फ्लाई ओवर के नीचे जा पहुंचे थे, जहां रेलवे लाइन थी और कभी-कभार मालगाड़ी ही वहां से गुजरती थी। सिर्फ पचास कदम की दूरी पर दृश्य एकदम बदल गया था। यहां काफी अंधेरा था, पर दसियों लोग इधर-उधर खड़े थे। कुछ दो-चार के समूहों में और कुछ अकेले। उन्होंने वहीं वोदका, लिम्का और सोडा को आपस में मिला कर दो बोतलें तैयार कीं और बोदका की खाली बोलत झाड़ी में फेंक दी। उनके बोतल फेंकते ही दो पांच छह साल के लड़के उसे उठाने के लिए आपस में लड़ पड़े। वह पास मेज पर चलने वाली एक दुकान वाले आदमी के बच्चे थे शायद। वह उन्हें नाम से पुकार कर गालियां दे रहा था। उस मेज पर उबले अंडे, नमकीन और आमलेट बनाने की सामग्री थी। यह एक दुकाननुमा मेज थी। <br />
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'प्लास्टिक क्रांति` लिम्का और सोड़ा की प्लास्टिक बोतलें आपस में टकराते हुए उनके चेहरे पर 'चीयर्स` की चमक आई। दोनों ने इधर-उधर देखा और गट-गटकर काफी माल गटक गए। बोलत बंद कर वापस अपने-अपने बैग में डालकर निश्चिंत हो गए। दोनों का ध्यान इस ओर बराबर बना था कि कहीं पुलिस वाले न आ जायें। यहां इसका खतरा हमेशा बना रहता था। हालांकि पुलिस वाले ज्यादा कुछ नहीं करते थे, बस आदमी की हैसियत देखकर पैसे ऐंठ लेते थे। बाकी लोग भी शायद इधर-उधर, बार-बार यही देख रहे थे। कुछ बेखौफ थे, शायद उन्हें नशा चढ़ चुका था और वे `जो होएगा देखा जाएगा` की परम अवस्था में जा चुके थे। <br />
<br />
`यहां से चलो।` दिनकर ने शशि से कहा तो दोनों बढ़ चले। 'आजकल यहां छापा पड़ता है, वो 'मर्डर` हुआ था न उसके बाद से। <br />
'पर साले हमारे जैसे लोग जायं तो जायं कहां। बार में पीने की औकात नहीं और घर में पी नहीं सकते।` शशि ने मन मसोसते हुए कहा। <br />
<br />
वे दोनों रेल लाइन पार कर चुके थे कि तभी पीछे से पुलिस का छापा पड़ा। लोग इधर-उधर भागने लगे थे। कुछेक को पुलिस वालों ने पकड़ लिया था। <br />
<br />
'अच्छा हुआ।` दिनकर ने सांस छोड़ी। <br />
<br />
'कुछ नहीं साले ठुल्ले हैं, बीस पचास लेकर भाग जायेंगे।` शशि को हल्का सा नशा हो गया था। <br />
<br />
फ्लाई ओवर के उस तरफ कई रिक्शे वाले खड़े थे। उन्होंने एक ऐसा रिक्शा चुना जो ऊपर से ढका हो और चलाने वाला जवान हो। <br />
<br />
'रॉक व्यू होटल।` शशि ने जान बूझकर, सेन्ट्रल मार्केट के दूसरे कोने तक चलने के बारे में पूछा, जो लगभग डेढ़ किलोमीटर के फासले पर था।<br />
<br />
'आइए साहेब।` रिक्शेवाला सीटा पर हाथ मारते हुए बोला।<br />
<br />
'क्या लोगे?`<br />
<br />
'जो मन आए दे देना साहेब।` रिक्शेवाला इस बार सीट पर एक बार और हाथ मारकर चढ़ गया। वह उन्हें नशे में समझ रहा था। वह तेज आदमी था। `नहीं वे पहले तै कर।` शशि की आवाज में कठोरता थी। 'दस रूपये।` रिक्शेवाले ने यह कठोरता भांप ली थी। यह उसके अनुमान और समय से मेल नहीं खा रही थी।<br />
<br />
'सात रूपये।` शशि ने फिर कड़े स्वर में पूछा। `चलना है। 'कहकर वह आगे को बढ़ने को हुआ। <br />
<br />
'ठीक है बाबूजी आइए।` तीन रूपये घटते ही वे दोनों साहेब से बाबू जी हो गए। <br />
<br />
दिनकर कहना चाहता था शशि से कि दस रूपये ठीक हैं, पर इस बीच यह सब तय हो गया था। 'यह लोग हमारे ही तो लोग हैं।` उसने सोचा था। 'क्या यह भी दलित ही नहीं होगा?`<br />
<br />
रिक्शा चल पड़ा था और उन्होंने अपनी-अपनी बोतलें फिर थाम ली थी, इस बार खुले-आम। लोग देखते थे, पर या तो वे इसे समझ नहीं पाते थे या उनसे वास्ता नहीं रखना चाहते थे, तो पुलिस थी बेइज्जती का डर था और अब ये सब कुछ नहीं। लोग कार चलाते हुए शराब पीते रहते हैं। सब मार गरीब पर।` दिनकर घूंट भरते हुए सोच रहा था। <br />
<br />
'वापस पुल पर चलो।` शशि ने रिक्शेवाले से कहा तो कभी वह शशि और कभी दिनकर के मुंह की तरफ टुकुर-टुकुर देखता रहा। शशि ने वहां तक का किराया उसके हाथ में रख दिया था। रिक्शा फिर मुड़ गया। रिक्शेवाले ने अब सारी स्थिति भांप ली थी। <br />
<br />
इस बार उसने भीड़ वाला रास्ता चुना चुना, पर अब तक उनका डर भी भाग चुका था। बाजार अपने शबाब पर था, किसी खूबसूरत मॉडल की तरह, जो रैंप जाने को तैयार हुई हो। खूबसूरत और खूबसूरती से कहीं ज्यादा आकर्षक पंजाबी लड़कियों और औरतों की भीड़ ने बाजार में एक जादू भर दिया था। `ये भरे-भरे जिस्म वाली खूबसूरत लड़कियां न हों तो ये बाजार खाली हो जाय।` यह दिनकर की नशे में लहकती आवाज थी, किसी हिंसक पशु की गुर्राहट जैसी। इसमें प्रतिशोध भी चिलक रहा था। <br />
<br />
मार्केट के आस-पास का सारा इलाका पाकिस्तान के बंटवारे के वक्त आये रिफ्यूजियों का था। जब वह आये थे, तो उनमें से ज्यादातर फटेहाल और दाने-दाने को मोहताज थे, पर अपनी लगन, मेहनत और बुद्धि के बल पर उन्होंने जल्द ही अपना साम्राज्य शहर में खड़ा कर लिया था। शहर के खाने से लेकर नाच गाने तक पर पंजाबियों का प्रभाव था। <br />
<br />
'ये सब बेईमान लोगों के महल हैं शशि। इनकी कोई नैतिकता नहीं...सारी शर्म लिहाज घोलकर पी गए... सिर्फ पैसा चाहिए इन्हें...जा पुत्तर पैसा कमा कर ला...जा कुछ कुछ कमा...इसके लिए चाहे वह खुद को बेचे, इससे कोई मतलब नहींं।` दिनकर की यह सोच प्रतिशोध के कारण बनी थी शायद। वह प्रतिहिंसा में सुलग रहा था शराब के नशे ने इसे बढ़ावा दिया था। <br />
<br />
शशि यह सब सुनकर हैरान था कि दिनकर एक पूरी कौम के बारे में ऐसी टिप्पणी कैसे कर सकता है। उसने हस्तक्षेप करते हुए कहा, `दिनकर सब लोग ऐसे नहीं हैं।`<br />
<br />
'तुम्हें क्या पता? मैं यहां पैदा हुआ हूं। मैं जानता हूं इनके बारे में। इनके रंग-रूप, कद-काठी में इतनी भिन्नता इसीलिए है।` दिनकर ने खास आशय से आंख मारते हुए कहा। `टके टके पर बिकी थी इनकी औरतें...।` पर तुम्हें इनकी परेशानी भी देखनी चाहिए?` शशि ने दिनकर की बात काटी। `अबे साले बिहारी।` सुनकर शशि और दिनकर की बातचीत का क्रम अचानक टूटा और जब तक वे दोनों समझ पाते, तब तक दो गोल-मटोल पंजाबी लड़कों में से एक ने रिक्शे वाले के थप्पड़ जमा दिया था। `दिखता नहीं साले बिहारी, अभी बिहार से छूटकर आया है क्या?` दोनों में से वही थप्पड़ मारने वाला लड़का गुर्रा रहा था। रिक्शेवाले ने कान पकड़कर माफी मांग ली थी और आगे बढ़ गया था। शशि यह देखकर शर्मिंदगी महसूस कर रहा था। <br />
<br />
'कहा के हो भय्या?` यह सवाल शशि का था और अतिरिक्त आत्मीयता से भरा था। क्या इस `परदेस` में शशि को `देस` से प्रीत हुई थी?<br />
<br />
`इलाहाबाद के हैं सर।` रिक्शेवाले के सर में कोई तुर्शी न थी और कोई तल्खी भी नहीं। क्या उसने अपनी नियति को स्वीकार कर लिया था? क्या वह घुटने टेक चुका था, इस नई दुनिया के सामने? या फिर यह दिखाई देने वाली रणनीति सच्चाई है? `वह बिहार का नहीं है, पर यहां सब लोग गरीबों, मजदूरों को `बिहारी` कहकर बुलाते हैं। इसमें कितनी घृणा है...क्या यह गाली नहीं है, जैसे मुम्बई में किसी को भय्या कहना।` शशि के चेहरे पर अब भी अवसाद था। वह दिनकर की बात पर कोई टिप्पणी नहीं कर सका। <br />
<br />
बाजार में शोर था, लेकिर रिक्शे पर चुप्पी चढ़ बैठी थी। वे चुपचाप अपने घूंट भरते रहे। उनके हाथ में कसैलेपन का स्वाद था और आंखें नमकीन हो चुकी थीं। कुछ देर के सन्नाटे के बाद, पुरोहित के लिए गालियां छूटने लगी, जैसे जमीन से पानी का सोता फूटता है, बुल बुल बुल... ल ।<br />
<br />
'कितना पैसा हुआ भय्या?` शशि की आवाज में पहले जैसी हिंसा और हिकारत नहीं थी। रॉक व्यू की सीढ़ियां भी रोशनी से चमक रही थी। अंदर पूरा होटल दूधिया रोशनी से जगमगा रहा था। शशि उसी दूधिया सीढ़ी पर खड़ा था। रिक्शेवाला रिक्शे की गद्दी से उतर गया था और आगे हैंडिल पर कपड़ा मार रहा था। वह अपने दोनों ग्राहकों की असली औकात और पी गई बादशाहत के बीच कहीं झूल रहा था। <br />
<br />
'चालीस रूपये।` आखिर वह कह गया था। <br />
<br />
`बस्स!` यह शशि के शब्द थे। <br />
<br />
`रूक शशि...ये आज हमारे साथ खाना खाएगा।` दिनकर के शब्दों से तीनों ही चौंक गए थे। शशि की आंखों में आश्चर्य था। रिक्शेवाले के चेहरे पर से चमक चली गई थी, जो अभी कुछ देर पहले तक भी थी, शायद होटल की रोशनी की तेजी से । दिनकर भी खुद पर हैरानी से हंस पड़ा था। <br />
<br />
रिक्शेवाला भतीर जाने से मना कर रहा था, बार बार लगातार। उसकी आंखों में रिरियाहट थी और आवाज में कातरता। उसकी जीभ पर कामना थी और पसीने में डर। इस डर को भांपते हुए दिनकर ने पहले उसके चालीस रूपये किराये के रख दिए। शशि इस बीच चुपचाप खड़ा रहा। इस बीच दो-चार खाली खड़े रिक्शे वाले भी वहां आ गए थे। उनके चेहरे पर अफसोस था, कौतुक था और उत्सुकता भी थी। <br />
<br />
'चले काहे नहीं जाते, जब बाबूजी लोग कह रहे हैं?` रिक्शेवालों ने अपनी हसरतों के बीच से उसे हौंसला दिया। <br />
<br />
यह सुनकर उसने रिक्शा होटल के सामने ताला लगाकर खड़ा कर दिया था। वे दोनों आगे बढ़ चुके थे। <br />
<br />
`साहेब...।`उनके कान में रिक्शेवाले की आवाज पड़ी तो वे पलटे। दरवाजे पर दरबान ने उसे रोक दिया था। उन्होंने दरबान की तरफ छूटकर इस भाव से देखा कि `यह हमारे साथ है` और दरबान ने उसे आने दिया था। वह अब उसे मना नहीं कर सकता था। <br />
<br />
'यहां बैठो!` यह एक आलीशान वातानुकूलित होटल का हॉल था। रिक्शेवाला सकुचाता हुआ बैठ गया था। उसकी आंखों में आनंद ज्यादा था या दुश्चिंताएं, यह कहा नहीं जा सकता था। होटल के दूसरे ग्राहकों की आंखों में हिकारत, हिंसा और उपेक्षा थी। उनकी नजर में वह अवांछित और गंदे कीड़े की तरह था। दिनकर ने दफ्तर में अपनी स्थिति का इससे विपर्यय किया। उनके सामने खाना लगने लगा था। रिक्शेवाला हुक्म के इंताजर में था ताकि जल्दी से वह भाग सके। शशि का इशारा पाकर वह शुरू हो गया। वह सहमा हुआ था, पर तेजी से खा रहा था। लोगों की खा जाने वाली नजरों को वह अनदेखा कर रहा था। वेटर बार-बार आकर रिक्शेवाले से ही पूछ रहा था 'और कुछ लेंगे सर`- इसमें कुछ व्यंग्य भरा खेल था। क्या दिनकर अपना घाव सहला रहा था? उसकी आंखों में शांति और संतोष था, जैसे किसी सद्यप्रसवा मां को अपने शिशु को दूध पिलाते हुए होता है या फिर किसी बाघ को, जिसने अपना शिकार खाया हो और अब पेड़ की छांव में बैठकर जीभ से दांत साफ कर रहा हो। दिनकर को कबीर को वह दोहा याद आया था जिसमें 'बाजार के किसी से दोस्ती या दुश्मनी न करने` के भाव को साफ किया गया था। <br />
<br />
<br />
'बाजार लिबरेट करता है।` सहसा उसके मन में यह हिंसक विचार उछला। <br />
<br />
खाना हो चुका था। हाथ धोने के लिए, एक कटोरी में गुनगुना पानी और आधा टुकड़ा नींबू रख दिया था। रिक्शेवाले की आंख में जिज्ञासा थी। दोनों की देखदेख, उसने भी उसमें हाथ धो लिए थे, सौंफ और मिश्री भी उठा ली थी। <br />
<br />
'यह वेटर को दे दो।` दिनकर ने दस रूपये का नोट रिक्शे वाले को पकड़ाया। <br />
<br />
'थैंक्यू सर।` जब रिक्शेवाले ने वेटर को दस रूपये दिए तो उसने झुकर उसका अभिवादन किया। इस बार उसकी आंखों में व्यंग्य की जगह आदर आ बैठा था। रिक्शेवाले ने उन दोनों की तरफ देखा, जिसमें सवाल था कि 'क्या वह जा सकता है` और उनकी आंखों ने इसकी अनुमति दे दी थी। वह तुरंत दरवाजे पर पहुंच गया था। दरबान ने झुककर सलाम किया था। वह खी खी करते हुए बाहर उतर गया था। वह तेजी से रिक्शे पर चढ़ा और तेज-तेज पैडल मारते हुए, अमगता-अफनता, रिक्शे को ले उड़ा था। वह शायद सूरज के सातवें घोड़े पर सवार था। <br />
<br />
'हो गई क्षतिपूर्ति?` शशि के सवाल ने दिनकर को दूर जाते रिक्शे से वापस खींचा। <br />
<br />
'भरपाई।` दिनकर हंसा। `यहां हमें कौन जानता है?...पर इसे सब जानते हैं।` उसने अंगूठे से तर्जनी के पोर को दो बार ऊपर-नीचे करते हुए छुआ, जिसका अर्थ था पैसा। <br />
<br />
<br />
कमबख्त, सच भी सच में एक सा नहीं होता, वह नजरिए का एक टुच्चा सा खेल भर है।` दिनकर ने पतलून की दोनों खाली जेबें बाहर की तरफ पलट दी थी, जो बकरी के निचुड़े थनों की तरह लग रही थी।</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BE_:_%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%A8_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%8F%E0%A4%95_%E0%A4%B0%E0%A5%82%E0%A4%AA_/_%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=3518भाषा : जीवन संगीत का एक रूप / हेमन्त जोशी2009-04-27T17:47:13Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=हेमन्त जोशी<br />
}}<br />
[[Category:लेख]]<br />
<br />
''' भाषा : जीवन संगीत का एक रूप<br />
<poem><br />
जहाँ-जहाँ मनुष्य है उसने अपने आसपास की छोटी से छोटी बात को अभिव्यक्त करने के लिए जो भाषाएँ विकसित की हैं उनके समवेत से एक ऐसा संगीत निकलता है जिसे किसी व्याकरण की आवश्यकता नहीं। एक नज़रिए से अख़बार, रेडियो और टेलीविज़न जैसे सभी संचार माध्यमों को इसी संगीत का विस्तार माना जा सकता है। <br />
<br />
इस संसार में जीवन की अगाध धारा को बहने के लिए प्रकृति से इतर नियमों की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह मानवीय समाजों में भी भाषा और संस्कृति के नियामक की तरह व्यवहार से बढ़कर कोई और रूढ़ि या व्याकरण नहीं। इस सबके बावजूद हम प्रकृति में व्याप्त संगीत को आत्मसात् करके अपने लिए नियमबद्ध संगीत रचते हैं। यह जानते हुए भी कि ईश्वर सर्वव्यापी है, कण-कण में मौजूद है लोग उसे नए-नए रूप और आकार देते हैं, उसकी इबादत के अलग-अलग ढंग बनाते हैं और फिर उन्हीं कर्मकांडों में उलझ कर रह जाते हैं। पर जब भाषा की बात आती है तो हमें उसमें संस्कार और परिष्कार की इच्छा कम ही होती है।<br />
<br />
भाषा विज्ञान जैसे विषय का विद्यार्थी होने के बावजूद मैं जीवन के संगीत का रस लेने वाला व्यक्ति हूँ लेकिन जब अपने आस-पास लोगों को भाषा का प्रयोग करते नहीं बल्कि चाहे-अनचाहे उसके अटपटे मानक गढ़ते हुए पाता हूँ तब कुछ कहने को लालायित हो उठता हूँ।<br />
<br />
जब तक भाषाएँ रहेंगी लोग उनका प्रयोग अपनी योग्यता के अनुरूप करते रहेंगे। कुछ सही प्रयोग होंगे, कुछ ग़लत, तो कुछ असहनीय। भाषाओं के अध्येता हमेशा ही सही-ग़लत, प्रचलित और वरेण्य जैसी धारणाओं में उलझे रहते हैं और भविष्य में भी ऐसा ही करेंगे और उधर भाषा बोलने वालों का कारवाँ आगे बढ़ता रहेगा। तिस पर भी पिछले दस वर्षों में किसी न किसी अख़बार में भाषा के सवालों पर स्तंभ छपते रहे हैं। वागर्थ को भी इसी कड़ी का हिस्सा माना जा सकता है। आने वाले दिनों में भी लोग भाषा के सवालों और प्रयोगों पर लिखते रहेंगे।<br />
<br />
संचार माध्यमों में काम करने वालों को अपने-अपने माध्यम में भाषा का प्रयोग करते समय अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है क्योंकि उनके भाषा प्रयोग लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुँचते है और लोगों की भाषिक क्षमता पर सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। हम यह कह सकते हैं कि जहाँ व्याकरणाचार्य और बड़ी-बड़ी पोथियाँ काम न आ पाएँ वहाँ संचार माध्यम ही किसी भाषा के विशाल व्याकरणों का काम कर सकते हैं। साथ ही इन संचार माध्यमों के संपादकों की भी यह ज़िम्मेदारी है कि वह भाषा के नित नए प्रयोगों को अपनाने या नकारने से पहले अच्छी तरह विचार करें।<br />
<br />
मेरे लिए हर्ष की बात यह है कि भारत सरकार ने इंटरनेट पर हिन्दी और अन्य भाषाओं के प्रयोग को आसान बनाने के लिए अपनी वचनबद्धता दर्शाई है और तमिल और हिन्दी के मुफ्त फ़ोंट जन साधारण को मुहैया कराए हैं। आने वाले दिनों में भारतीय भाषाओं को अपने प्रसार के लिए जहाँ एक ओर सूचना प्रौद्योगिकी का सहारा मिलेगा वहीं भाषाओं के मानक के प्रयास भी तेज़ होंगे। जब भाषाएँ वापरी जाएँगी तब उनमें क्लिष्ट से क्लिष्ट विचारों को भी संप्रेषणीय बनाने के लिए उन्हें सरल बनाना होगा। भले ही साहित्य, विज्ञान और समाज विज्ञान के अमूर्त विचार भाषा की सर्जनात्मक शक्ति का भरपूर उपयोग करते रहें लेकिन संचार माध्यमों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचने के लिए भाषा को सरल और शुद्ध लिखने की चुनौती का सामना करना पड़ेगा।<br />
<br />
सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने कंप्यूटर में हिन्दी में काम कर पाने के लिए जो युक्तियाँ (औज़ार नहीं) जनता जनार्दन के लिए निशुल्क जारी कीं उनका मुआइना करने पर हिन्दी के अनेक अजीब प्रयोग दिखाई दिए। टूल बार के लिए 'औजार पट्टी', केरेक्टर के लिए 'विशेष अक्षर' और प्रिव्यू के लिए 'पृष्ठ पूर्वदृश्य' आदि बहुत सटीक तो नहीं फिर भी चल सकते हैं लेकिन 'अक्षरें', 'परिवर्तनें', 'पसंदें', 'सुझावें' और 'विकल्पें' जैसे प्रयोग तो निश्चय ही आने वाले दिनों में हिन्दी के भविष्य की गाथा कह रहे हैं। फ़ुल स्क्रीन के लिए 'संपूर्ण पर्दा', इंपोर्ट के लिए 'निर्यात', हेडर के लिए 'पृष्ठ के ऊपर की टीका' और फ़ुटर के लिए 'पृष्ठ के नीचे की टीका' जैसे अद्भुत प्रयोग इसमें हैं। वाक्यों के स्तर पर 'कनेक्शन टूट गया है, होस्ट से कनेक्टेड नहीं कर पाया' या 'आपके इंटरनेट कनेक्शन की गली चुनिए' मज़ेदार ही नहीं भ्रष्ट प्रयोग भी हैं। ऐसे प्रयोग भाषा के वाद्यवृंद में बेसुरे बाजों से प्रतीत होते हैं और इन्हें दुरुस्त करना किसी की भी प्राथमिकता होनी चाहिए।<br />
<br />
</poem><br />
<br />
''' (2006)</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BE_:_%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%A8_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%8F%E0%A4%95_%E0%A4%B0%E0%A5%82%E0%A4%AA_/_%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=3516भाषा : जीवन संगीत का एक रूप / हेमन्त जोशी2009-04-26T09:54:16Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=हेमन्त जोशी<br />
}}<br />
[[Category:लेख]]<br />
<br />
''' भाषा : जीवन संगीत का एक रूप<br />
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जहाँ-जहाँ मनुष्य है उसने अपने आसपास की छोटी से छोटी बात को अभिव्यक्त करने के लिए जो भाषाएँ विकसित की हैं उनके समवेत से एक ऐसा संगीत निकलता है जिसे किसी व्याकरण की आवश्यकता नहीं। एक नज़रिए से अख़बार, रेडियो और टेलीविज़न जैसे सभी संचार माध्यमों को इसी संगीत का विस्तार माना जा सकता है। <br />
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इस संसार में जीवन की अगाध धारा को बहने के लिए प्रकृति से इतर नियमों की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह मानवीय समाजों में भी भाषा और संस्कृति के नियामक की तरह व्यवहार से बढ़कर कोई और रूढ़ि या व्याकरण नहीं। इस सबके बावजूद हम प्रकृति में व्याप्त संगीत को आत्मसात् करके अपने लिए नियमबद्ध संगीत रचते हैं। यह जानते हुए भी कि ईश्वर सर्वव्यापी है, कण-कण में मौजूद है लोग उसे नए-नए रूप और आकार देते हैं, उसकी इबादत के अलग-अलग ढंग बनाते हैं और फिर उन्हीं कर्मकांडों में उलझ कर रह जाते हैं। पर जब भाषा की बात आती है तो हमें उसमें संस्कार और परिष्कार की इच्छा कम ही होती है।<br />
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भाषा विज्ञान जैसे विषय का विद्यार्थी होने के बावजूद मैं जीवन के संगीत का रस लेने वाला व्यक्ति हूँ लेकिन जब अपने आस-पास लोगों को भाषा का प्रयोग करते नहीं बल्कि चाहे-अनचाहे उसके अटपटे मानक गढ़ते हुए पाता हूँ तब कुछ कहने को लालायित हो उठता हूँ।<br />
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जब तक भाषाएँ रहेंगी लोग उनका प्रयोग अपनी योग्यता के अनुरूप करते रहेंगे। कुछ सही प्रयोग होंगे, कुछ ग़लत, तो कुछ असहनीय। भाषाओं के अध्येता हमेशा ही सही-ग़लत, प्रचलित और वरेण्य जैसी धारणाओं में उलझे रहते हैं और भविष्य में भी ऐसा ही करेंगे और उधर भाषा बोलने वालों का कारवाँ आगे बढ़ता रहेगा। तिस पर भी पिछले दस वर्षों में किसी न किसी अख़बार में भाषा के सवालों पर स्तंभ छपते रहे हैं। वागर्थ को भी इसी कड़ी का हिस्सा माना जा सकता है। आने वाले दिनों में भी लोग भाषा के सवालों और प्रयोगों पर लिखते रहेंगे।<br />
संचार माध्यमों में काम करने वालों को अपने-अपने माध्यम में भाषा का प्रयोग करते समय अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है क्योंकि उनके भाषा प्रयोग लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुँचते है और लोगों की भाषिक क्षमता पर सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। हम यह कह सकते हैं कि जहाँ व्याकरणाचार्य और बड़ी-बड़ी पोथियाँ काम न आ पाएँ वहाँ संचार माध्यम ही किसी भाषा के विशाल व्याकरणों का काम कर सकते हैं। साथ ही इन संचार माध्यमों के संपादकों की भी यह ज़िम्मेदारी है कि वह भाषा के नित नए प्रयोगों को अपनाने या नकारने से पहले अच्छी तरह विचार करें।<br />
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मेरे लिए हर्ष की बात यह है कि भारत सरकार ने इंटरनेट पर हिन्दी और अन्य भाषाओं के प्रयोग को आसान बनाने के लिए अपनी वचनबद्धता दर्शाई है और तमिल और हिन्दी के मुफ्त फ़ोंट जन साधारण को मुहैया कराए हैं। आने वाले दिनों में भारतीय भाषाओं को अपने प्रसार के लिए जहाँ एक ओर सूचना प्रौद्योगिकी का सहारा मिलेगा वहीं भाषाओं के मानक के प्रयास भी तेज़ होंगे। जब भाषाएँ वापरी जाएँगी तब उनमें क्लिष्ट से क्लिष्ट विचारों को भी संप्रेषणीय बनाने के लिए उन्हें सरल बनाना होगा। भले ही साहित्य, विज्ञान और समाज विज्ञान के अमूर्त विचार भाषा की सर्जनात्मक शक्ति का भरपूर उपयोग करते रहें लेकिन संचार माध्यमों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचने के लिए भाषा को सरल और शुद्ध लिखने की चुनौती का सामना करना पड़ेगा।<br />
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सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने कंप्यूटर में हिन्दी में काम कर पाने के लिए जो युक्तियाँ (औज़ार नहीं) जनता जनार्दन के लिए निशुल्क जारी कीं उनका मुआइना करने पर हिन्दी के अनेक अजीब प्रयोग दिखाई दिए। टूल बार के लिए 'औजार पट्टी', केरेक्टर के लिए 'विशेष अक्षर' और प्रिव्यू के लिए 'पृष्ठ पूर्वदृश्य' आदि बहुत सटीक तो नहीं फिर भी चल सकते हैं लेकिन 'अक्षरें', 'परिवर्तनें', 'पसंदें', 'सुझावें' और 'विकल्पें' जैसे प्रयोग तो निश्चय ही आने वाले दिनों में हिन्दी के भविष्य की गाथा कह रहे हैं। फ़ुल स्क्रीन के लिए 'संपूर्ण पर्दा', इंपोर्ट के लिए 'निर्यात', हेडर के लिए 'पृष्ठ के ऊपर की टीका' और फ़ुटर के लिए 'पृष्ठ के नीचे की टीका' जैसे अद्भुत प्रयोग इसमें हैं। वाक्यों के स्तर पर 'कनेक्शन टूट गया है, होस्ट से कनेक्टेड नहीं कर पाया' या 'आपके इंटरनेट कनेक्शन की गली चुनिए' मज़ेदार ही नहीं भ्रष्ट प्रयोग भी हैं। ऐसे प्रयोग भाषा के वाद्यवृंद में बेसुरे बाजों से प्रतीत होते हैं और इन्हें दुरुस्त करना किसी की भी प्राथमिकता होनी चाहिए।<br />
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''' (2006)</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE:%E0%A4%B0%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%82_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%9A%E0%A5%80&diff=3515वार्ता:रचनाकारों की सूची2009-04-26T09:14:57Z<p>हेमंत जोशी: </p>
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<div>कृपया कृष्णा बाजपेयी और हरिवंश राय बच्चन के नाम रचनाकारों की सूची में जोड़ दें। बाकी की सूचनाएँ मैं भर दूँगा। -हेमंत जोशी</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BE_:_%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%A8_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%8F%E0%A4%95_%E0%A4%B0%E0%A5%82%E0%A4%AA_/_%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=3514भाषा : जीवन संगीत का एक रूप / हेमन्त जोशी2009-04-26T09:02:07Z<p>हेमंत जोशी: नया पृष्ठ: {{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=हेमन्त जोशी }} Category:लेख ''' भाषा : जीवन संगीत का एक र...</p>
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<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=हेमन्त जोशी<br />
}}<br />
[[Category:लेख]]<br />
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''' भाषा : जीवन संगीत का एक रूप<br />
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जहाँ-जहाँ मनुष्य है उसने अपने आसपास की छोटी से छोटी बात को अभिव्यक्त करने के लिए जो भाषाएँ विकसित की हैं उनके समवेत से एक ऐसा संगीत निकलता है जिसे किसी व्याकरण की आवश्यकता नहीं। एक नज़रिए से अख़बार, रेडियो और टेलीविज़न जैसे सभी संचार माध्यमों को इसी संगीत का विस्तार माना जा सकता है। <br />
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इस संसार में जीवन की अगाध धारा को बहने के लिए प्रकृति से इतर नियमों की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह मानवीय समाजों में भी भाषा और संस्कृति के नियामक की तरह व्यवहार से बढ़कर कोई और रूढ़ि या व्याकरण नहीं। इस सबके बावजूद हम प्रकृति में व्याप्त संगीत को आत्मसात् करके अपने लिए नियमबद्ध संगीत रचते हैं। यह जानते हुए भी कि ईश्वर सर्वव्यापी है, कण-कण में मौजूद है लोग उसे नए-नए रूप और आकार देते हैं, उसकी इबादत के अलग-अलग ढंग बनाते हैं और फिर उन्हीं कर्मकांडों में उलझ कर रह जाते हैं। पर जब भाषा की बात आती है तो हमें उसमें संस्कार और परिष्कार की इच्छा कम ही होती है।<br />
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भाषा विज्ञान जैसे विषय का विद्यार्थी होने के बावजूद मैं जीवन के संगीत का रस लेने वाला व्यक्ति हूँ लेकिन जब अपने आस-पास लोगों को भाषा का प्रयोग करते नहीं बल्कि चाह-अनचाहे उसके अटपटे मानक गढ़ते हुए पाता हूँ तब कुछ कहने को लालायित हो उठता हूँ।<br />
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जब तक भाषाएँ रहेंगी लोग उनका प्रयोग अपनी योग्यता के अनुरूप करते रहेंगे। कुछ सही प्रयोग होंगे, कुछ ग़लत, तो कुछ असहनीय। भाषाओं के अध्येता हमेशा ही सही-ग़लत, प्रचलित और वरेण्य जैसी धारणाओं में उलझे रहते हैं और भविष्य में भी ऐसा ही करेंगे और उधर भाषा बोलने वालों का कारवाँ आगे बढ़ता रहेगा। तिस पर भी पिछले दस वर्र्षों में किसी न किसी अख़बार में भाषा के सवालों पर स्तंभ छपते रहे हैं। वागर्थ को भी इसी कड़ी का हिस्सा माना जा सकता है। आने वाले दिनों में भी लोग भाषा के सवालों और प्रयोगों पर लिखते रहेंगे।<br />
संचार माध्यमों में काम करने वालों को अपने-अपने माध्यम में भाषा का प्रयोग करते समय अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है क्योंकि उनके भाषा प्रयोग लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुँचते है और लोगों की भाषिक क्षमता पर सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। हम यह कह सकते हैं कि जहाँ व्याकरणाचार्य और बड़ी-बड़ी पोथियाँ काम न आ पाएँ वहाँ संचार माध्यम ही किसी भाषा के विशाल व्याकरणों का काम कर सकते हैं। साथ ही इन संचार माध्यमों के संपादकों की भी यह ज़िम्मेदारी है कि वह भाषा के नित नए प्रयोगों को अपनाने या नकारने से पहले अच्छी तरह विचार करें।<br />
<br />
मेरे लिए हर्ष की बात यह है कि भारत सरकार ने इंटरनेट पर हिन्दी और अन्य भाषाओं के प्रयोग को आसान बनाने के लिए अपनी वचनबद्धता दर्शाई है और तमिल और हिन्दी के मुफ्त फ़ोंट जन साधारण को मुहैया कराए हैं। आने वाले दिनों में भारतीय भाषाओं को अपने प्रसार के लिए जहाँ एक ओर सूचना प्रौद्योगिकी का सहारा मिलेगा वहीं भाषाओं के मानक के प्रयास भी तेज़ होंगे। जब भाषाएँ वापरी जाएँगी तब उनमें क्लिष्ट से क्लिष्ट विचारों को भी संप्रेषणीय बनाने के लिए उन्हें सरल बनाना होगा। भले ही साहित्य, विज्ञान और समाज विज्ञान के अमूर्त विचार भाषा की सर्जनात्मक शक्ति का भरपूर उपयोग करते रहें लेकिन संचार माध्यमों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचने के लिए भाषा को सरल और शुद्ध लिखने की चुनौती का सामना करना पड़ेगा।<br />
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सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने कंप्यूटर में हिन्दी में काम कर पाने के लिए जो युक्तियाँ (औज़ार नहीं) जनता जनार्दन के लिए निशुल्क जारी कीं उनका मुआइना करने पर हिन्दी के अनेक अजीब प्रयोग दिखाई दिए। टूल बार के लिए 'औजार पट्टी', केरेक्टर के लिए 'विशेष अक्षर' और प्रिव्यू के लिए 'पृष्ठ पूर्वदृश्य' आदि बहुत सटीक तो नहीं फिर भी चल सकते हैं लेकिन 'अक्षरें', 'परिवर्तनें', 'पसंदें', 'सुझावें' और 'विकल्पें' जैसे प्रयोग तो निश्चय ही आने वाले दिनों में हिन्दी के भविष्य की गाथा कह रहे हैं। फ़ुल स्क्रीन के लिए 'संपूर्ण पर्दा', इंपोर्ट के लिए 'निर्यात', हेडर के लिए 'पृष्ठ के ऊपर की टीका' और फ़ुटर के लिए 'पृष्ठ के नीचे की टीका' जैसे अद्भुत प्रयोग इसमें हैं। वाक्यों के स्तर पर 'कनेक्शन टूट गया है, होस्ट से कनेक्टेड नहीं कर पाया' या 'आपके इंटरनेट कनेक्शन की गली चुनिए' मज़ेदार ही नहीं भ्रष्ट प्रयोग भी हैं। ऐसे प्रयोग भाषा के वाद्यवृंद में बेसुरे बाजों से प्रतीत होते हैं और इन्हें दुरुस्त करना किसी की भी प्राथमिकता होनी चाहिए।<br />
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''' (2006)</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A1,_%E0%A4%AE%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%96!_/_%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=3513फ़ील गुड, मूरख! / हेमन्त जोशी2009-04-26T08:59:01Z<p>हेमंत जोशी: </p>
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}}<br />
[[Category:व्यंग्य]]<br />
<br />
''' फ़ील गुड, मूरख!<br />
<poem><br />
चुनाव के दिन आ रहे हैं। गठबंधन की कोशिशें हो रही हैं। लोग बता रहे हैं कि देश भर में फील गुड का माहौल है। हर कोई फील गुडिया रहा है सत्तारूढ़ राजनेता, व्यापारी, पत्रकार सभी इस खुशनुमा अहसास का दोहन कर रहे हैं। पिछले चुनावों का विश्लेषण करते हुए लोग बता रहे हैं कि दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकार इस लिए बच गई कि लोग अच्छा महसूस कर रहे थे। आने वाले दिनों में भी लोग अच्छा ही महसूस करते रहेंगे और लोग फिर चुनाव जीत जाएँगे। जिस किसी को भी बुरा लग रहा हो वह निश्चय ही पागल है। इसीलिए जब भी मैं घर से निकलता हूँ तो अपने बाबा कबीर का मंत्र याद कर लेता हूँ। बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोय, जो दिल खोजा आपनो मुझ से बुरा न कोय। घर से निकलते ही चौराहे पर पहुँचता हूँ तो देखता हूँ कि मेरे देश के बच्चे दिसम्बर की ठिठुरती सर्दी में नंगे बदन घूम रहे हैं। सोचता हूँ कि भारत 2020 तक महाशक्ति बनने वाला है इसीलिए तो हमें ऐसे बच्चे चाहिए (मेरे और आपके बच्चों को छोड़कर सभी अन्य) जो सर्दी-गर्मी-बरसात प्रूफ़ हों। फ़ील गुड वाले अंदाज़ में एक ऐसे ही बच्चे से पूछता हूँ ‘क्यों बालक अच्छा लग रहा है न इस शीत लहर में?’ <br />
<br />
घर के पास ही एक मंदिर के सामने कोई धर्मात्मा लोगों को कंबल बाँट कर ग़रीबों की आदत ख़राब कर रहे हैं। कुहासे की इतनी मोटी चादर होते हुए भी लोग कंबल पाने के लिए एथलेटिक्स और कुश्ती की प्रेक्टिस कर रहे हैं। 100 करोड़ के देश में 10 कंबल बाँट कर लौटते हुए मैंने उनके चेहरे पर फ़ील गुड फैक्टर की चमक देखी। जिन्हें कंबल मिल गया था वह गद्दे और तकिए तलाशने किसी और मंदिर की ओर निकल पड़े और जिन्हें नहीं मिला वह यह सोच कर खुश थे कि चलो आदत बिगड़ने से बच गई।<br />
<br />
एक साहब ने तो रट ही लगा रखी थी महँगाई बढ़ गई है, भ्रष्टाचार छलाँगे मार रहा है और देश में भीषण बेरोज़गारी है। ऐसे में गुड कौन फ़ील कर सकता है? मैंने उन्हें बहुत समझाया। भाई साहब आपको पता है सेंसेक्स 6000 का ऑंकड़ा पार कर गया है और अब बुद्धु की भाँति घर लौटने लगा है। अब तो हमारा विदेशी पूँजी का भंडार भी 100 अरब से ज़्यादा हो गया है। फिर लोग गुड-गुड फ़ील कर रहे हैं तभी तो हर काम के लिए पैसा दे रहे हैं। यह भ्रष्टाचार थोड़े ही है। इसीलिए अब लोग परदे के पीछे, टेबल के नीचे से नहीं बल्कि टेलीविज़न के कैमरे के सामने पैसा ले-दे रहे हैं। कहने लगे अच्छा उसकी छोड़ो यह मुई बेरोज़गारी कहाँ ले जाएगी हमें। <br />
<br />
‘भाई साहब आप भी यूँही बात का बतंगड़ बनाते है। देखिए हमने पता लगाया है कि सरकारी नौकरियों में लोग काम नहीं करते इसलिए हमने धीरे-धीरे सभी सरकारी कर्मचारियों को निकालना शुरू कर दिया है, फिर मानवीयता के आधार पर हम उन्हीं को उनके काम पर ठेके पर रख रहे हैं। तो रोज़गार तो नए पैदा हो रहे हैं न?’हमने कहा। <br />
<br />
यह बात अलग है कि अभी तो हमें जिनके पास काम था उन्हीं को फिर से काम पर लगाने का काम करना है। जितने नेता लोग चुनाव जीत नहीं पाए हैं वही यह दुष्प्रचार कर रहे हैं क्योंकि वह लोग बेरोज़गार हो गए हैं ना!! और देखिए, पहले एक घूस लेने वाला होता था और एक देने वाला होता था। हमें भी खयाल है भाई साहब रोज़गार बढ़ाने का इसीलिए तो हमने इनके साथ कैमरामैन, टेलीफोन टैप करने वाले, ओडियो और विडियो का संपादन करने वाले, घूस देने के लिए एक एजेंट और घूस लेने के लिए दूसरे एजेंट जैसे पदों का सृजन किया है। इसकी जाँच भी सी.बी.आई. कहाँ तक करेगी, इसलिए भविष्य में हम एक बड़ा दफ्तर बनाएँगे जहाँ भ्रष्टाचारीजी को ऑंच न आए ऐसी जाँच करने वाले बहुत से लोगों को रोज़गार देंगे। हमने यह भी सुझाया है कि घूस लेने वाले और देने वाले दोनों की तरफ़ से ही ऑडियो और विडियो टेप तैयार किए जाएँ ताकि हम ज़्यादा कैमरामैन और ‘ध्वन्यांकनकर्मियों’ को रोज़गार दे पाएँ। फिर भाई साहब सौ बात की एक बात तो यो सैं कि लोग हमन से पूछ के बच्चे पैदा तो करें ना, तो यह हमार ज़िम्मेदारी है का?<br />
<br />
इधर प्रवासी भारतीयों को हमने बुलाया और बताया कि आजकल हम लोग गुड फील कर रहे हैं। कल ही तो पाकिस्तान को भी इसका एहसास करवा के आए हैं। भला प्रवासियों को यह बात कहाँ गुड लगने वाली थी बोले जी वह तो रहने दो कुछ काम-शाम करो ये गुड दी फीलिंग तो हमारे लिए रहने दो।<br />
<br />
कुछ भी हो पिछले कई दिनों की शीत लहर के बाद जब पहली बार धूप निकली तो मैं इतना अच्छा महसूस कर रहा था कि यदि उस दिन मतदान हो रहा होता तो मैं हर किसी को वोट डाल आता। फिर अब तो बसंत भी आ गया है हल्का-हल्का मौसम, हर कहीं फूल हैं खिल उठे। तो मैं क्या जानूँ अर्थशास्त्र, राजनीति मैं तो करूँ सूँ भाया फील गुडो-गुड।<br />
</poem><br />
<br />
''' (2004)</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE:%E0%A4%B0%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%82_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%9A%E0%A5%80&diff=3512वार्ता:रचनाकारों की सूची2009-04-26T08:57:03Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>कृपया कृष्णा बाजपेयी का नाम रचनाकारों की सूची में जोड़ दें। बाकी की सूचनाएँ मैं भर दूँगा। -हेमंत जोशी</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE:%E0%A4%B0%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%82_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%9A%E0%A5%80&diff=3511वार्ता:रचनाकारों की सूची2009-04-26T08:55:32Z<p>हेमंत जोशी: नया पृष्ठ: कृपया कृष्णा बाजपेयी का नाम रचनाकारों की सूची में जोड़ दें। बाकी ...</p>
<hr />
<div>कृपया कृष्णा बाजपेयी का नाम रचनाकारों की सूची में जोड़ दें। बाकी की सूचनाएँ में भर दूँगा। -हेमंत जोशी</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=3510हेमन्त जोशी2009-04-26T08:54:53Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र= Hemant Joshi1.gif<br />
|नाम=हेमन्त जोशी<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म= 27 मार्च 1954<br />
|जन्मस्थान= नैनीताल, उत्तराखंड, भारत<br />
|कृतियाँ=महायुद्धों के आस-पास<br />
|विविध= कविताएँ, कहानियाँ, फ़्रांसीसी से अनेक कवियों के अनुवाद, स्तंभ लेखन <br />
|जीवनी=[[हेमन्त जोशी / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
'''कहानियाँ '''<br />
* [[अनास नदी क्यों सूख गई? / हेमन्त जोशी]]<br />
* [[उलझनें / हेमन्त जोशी]]<br />
<br />
'''बाल कहानियाँ '''<br />
* [[कंकड़-कंकड़ ताल भर जाता / हेमन्त जोशी]]<br />
<br />
'''व्यंग्य '''<br />
* [[फ़ील गुड, मूरख! / हेमन्त जोशी]]<br />
* [[ / हेमन्त जोशी]]<br />
* [[ / हेमन्त जोशी]]<br />
<br />
'''लेख '''<br />
* [[भाषा : जीवन संगीत का एक रूप / हेमन्त जोशी]]<br />
* [[ / हेमन्त जोशी]]<br />
* [[ / हेमन्त जोशी]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A1,_%E0%A4%AE%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%96!_/_%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=3509फ़ील गुड, मूरख! / हेमन्त जोशी2009-04-26T08:17:53Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=हेमन्त जोशी<br />
}}<br />
[[Category:व्यंग्य]]<br />
<br />
''' फ़ील गुड, मूरख!<br />
<poem><br />
चुनाव के दिन आ रहे हैं। गठबंधन की कोशिशें हो रही हैं। लोग बता रहे हैं कि देश भर में फील गुड का माहौल है। हर कोई फील गुडिया रहा है सत्तारूढ़ राजनेता, व्यापारी, पत्रकार सभी इस खुशनुमा अहसास का दोहन कर रहे हैं। पिछले चुनावों का विश्लेषण करते हुए लोग बता रहे हैं कि दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकार इस लिए बच गई कि लोग अच्छा महसूस कर रहे थे। आने वाले दिनों में भी लोग अच्छा ही महसूस करते रहेंगे और लोग फिर चुनाव जीत जाएँगे। जिस किसी को भी बुरा लग रहा हो वह निश्चय ही पागल है। इसीलिए जब भी मैं घर से निकलता हूँ तो अपने बाबा कबीर का मंत्र याद कर लेता हूँ। बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोय, जो दिल खोजा आपनो मुझ से बुरा न कोय। घर से निकलते ही चौराहे पर पहुँचता हूँ तो देखता हूँ कि मेरे देश के बच्चे दिसम्बर की ठिठुरती सर्दी में नंगे बदन घूम रहे हैं। सोचता हूँ कि भारत 2020 तक महाशक्ति बनने वाला है इसीलिए तो हमें ऐसे बच्चे चाहिए (मेरे और आपके बच्चों को छोड़कर सभी अन्य) जो सर्दी-गर्मी-बरसात प्रूफ़ हों। फ़ील गुड वाले अंदाज़ में एक ऐसे ही बच्चे से पूछता हूँ ‘क्यों बालक अच्छा लग रहा है न इस शीत लहर में?’ <br />
घर के पास ही एक मंदिर के सामने कोई धर्मात्मा लोगों को कंबल बाँट कर ग़रीबों की आदत ख़राब कर रहे हैं। कुहासे की इतनी मोटी चादर होते हुए भी लोग कंबल पाने के लिए एथलेटिक्स और कुश्ती की प्रेक्टिस कर रहे हैं। 100 करोड़ के देश में 10 कंबल बाँट कर लौटते हुए मैंने उनके चेहरे पर फ़ील गुड फैक्टर की चमक देखी। जिन्हें कंबल मिल गया था वह गद्दे और तकिए तलाशने किसी और मंदिर की ओर निकल पड़े और जिन्हें नहीं मिला वह यह सोच कर खुश थे कि चलो आदत बिगड़ने से बच गई।<br />
एक साहब ने तो रट ही लगा रखी थी महँगाई बढ़ गई है, भ्रष्टाचार छलाँगे मार रहा है और देश में भीषण बेरोज़गारी है। ऐसे में गुड कौन फ़ील कर सकता है? मैंने उन्हें बहुत समझाया। भाई साहब आपको पता है सेंसेक्स 6000 का ऑंकड़ा पार कर गया है और अब बुद्धु की भाँति घर लौटने लगा है। अब तो हमारा विदेशी पूँजी का भंडार भी 100 अरब से ज़्यादा हो गया है। फिर लोग गुड-गुड फ़ील कर रहे हैं तभी तो हर काम के लिए पैसा दे रहे हैं। यह भ्रष्टाचार थोड़े ही है। इसीलिए अब लोग परदे के पीछे, टेबल के नीचे से नहीं बल्कि टेलीविज़न के कैमरे के सामने पैसा ले-दे रहे हैं। कहने लगे अच्छा उसकी छोड़ो यह मुई बेरोज़गारी कहाँ ले जाएगी हमें। <br />
‘भाई साहब आप भी यूँही बात का बतंगड़ बनाते है। देखिए हमने पता लगाया है कि सरकारी नौकरियों में लोग काम नहीं करते इसलिए हमने धीरे-धीरे सभी सरकारी कर्मचारियों को निकालना शुरू कर दिया है, फिर मानवीयता के आधार पर हम उन्हीं को उनके काम पर ठेके पर रख रहे हैं। तो रोज़गार तो नए पैदा हो रहे हैं न?’हमने कहा। <br />
यह बात अलग है कि अभी तो हमें जिनके पास काम था उन्हीं को फिर से काम पर लगाने का काम करना है। जितने नेता लोग चुनाव जीत नहीं पाए हैं वही यह दुष्प्रचार कर रहे हैं क्योंकि वह लोग बेरोज़गार हो गए हैं ना!! और देखिए, पहले एक घूस लेने वाला होता था और एक देने वाला होता था। हमें भी खयाल है भाई साहब रोज़गार बढ़ाने का इसीलिए तो हमने इनके साथ कैमरामैन, टेलीफोन टैप करने वाले, ओडियो और विडियो का संपादन करने वाले, घूस देने के लिए एक एजेंट और घूस लेने के लिए दूसरे एजेंट जैसे पदों का सृजन किया है। इसकी जाँच भी सी.बी.आई. कहाँ तक करेगी, इसलिए भविष्य में हम एक बड़ा दफ्तर बनाएँगे जहाँ भ्रष्टाचारीजी को ऑंच न आए ऐसी जाँच करने वाले बहुत से लोगों को रोज़गार देंगे। हमने यह भी सुझाया है कि घूस लेने वाले और देने वाले दोनों की तरफ़ से ही ऑडियो और विडियो टेप तैयार किए जाएँ ताकि हम ज़्यादा कैमरामैन और ‘ध्वन्यांकनकर्मियों’ को रोज़गार दे पाएँ। फिर भाई साहब सौ बात की एक बात तो यो सैं कि लोग हमन से पूछ के बच्चे पैदा तो करें ना, तो यह हमार ज़िम्मेदारी है का?<br />
इधर प्रवासी भारतीयों को हमने बुलाया और बताया कि आजकल हम लोग गुड फील कर रहे हैं। कल ही तो पाकिस्तान को भी इसका एहसास करवा के आए हैं। भला प्रवासियों को यह बात कहाँ गुड लगने वाली थी बोले जी वह तो रहने दो कुछ काम-शाम करो ये गुड दी फीलिंग तो हमारे लिए रहने दो।<br />
कुछ भी हो पिछले कई दिनों की शीत लहर के बाद जब पहली बार धूप निकली तो मैं इतना अच्छा महसूस कर रहा था कि यदि उस दिन मतदान हो रहा होता तो मैं हर किसी को वोट डाल आता। फिर अब तो बसंत भी आ गया है हल्का-हल्का मौसम, हर कहीं फूल हैं खिल उठे। तो मैं क्या जानूँ अर्थशास्त्र, राजनीति मैं तो करूँ सूँ भाया फील गुडो-गुड।<br />
</poem><br />
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''' (2004)</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A5%80%E0%A4%B2_%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A1,_%E0%A4%AE%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%96!_/_%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=3508फ़ील गुड, मूरख! / हेमन्त जोशी2009-04-26T08:16:09Z<p>हेमंत जोशी: नया पृष्ठ: {{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=अनिल जनविजय }} Category:लघुकथा ''' फ़ील गुड, मूरख! <poem> चु...</p>
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<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=अनिल जनविजय<br />
}}<br />
[[Category:लघुकथा]]<br />
<br />
''' फ़ील गुड, मूरख!<br />
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चुनाव के दिन आ रहे हैं। गठबंधन की कोशिशें हो रही हैं। लोग बता रहे हैं कि देश भर में फील गुड का माहौल है। हर कोई फील गुडिया रहा है सत्तारूढ़ राजनेता, व्यापारी, पत्रकार सभी इस खुशनुमा अहसास का दोहन कर रहे हैं। पिछले चुनावों का विश्लेषण करते हुए लोग बता रहे हैं कि दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकार इस लिए बच गई कि लोग अच्छा महसूस कर रहे थे। आने वाले दिनों में भी लोग अच्छा ही महसूस करते रहेंगे और लोग फिर चुनाव जीत जाएँगे। जिस किसी को भी बुरा लग रहा हो वह निश्चय ही पागल है। इसीलिए जब भी मैं घर से निकलता हूँ तो अपने बाबा कबीर का मंत्र याद कर लेता हूँ। बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोय, जो दिल खोजा आपनो मुझ से बुरा न कोय। घर से निकलते ही चौराहे पर पहुँचता हूँ तो देखता हूँ कि मेरे देश के बच्चे दिसम्बर की ठिठुरती सर्दी में नंगे बदन घूम रहे हैं। सोचता हूँ कि भारत 2020 तक महाशक्ति बनने वाला है इसीलिए तो हमें ऐसे बच्चे चाहिए (मेरे और आपके बच्चों को छोड़कर सभी अन्य) जो सर्दी-गर्मी-बरसात प्रूफ़ हों। फ़ील गुड वाले अंदाज़ में एक ऐसे ही बच्चे से पूछता हूँ ‘क्यों बालक अच्छा लग रहा है न इस शीत लहर में?’ <br />
घर के पास ही एक मंदिर के सामने कोई धर्मात्मा लोगों को कंबल बाँट कर ग़रीबों की आदत ख़राब कर रहे हैं। कुहासे की इतनी मोटी चादर होते हुए भी लोग कंबल पाने के लिए एथलेटिक्स और कुश्ती की प्रेक्टिस कर रहे हैं। 100 करोड़ के देश में 10 कंबल बाँट कर लौटते हुए मैंने उनके चेहरे पर फ़ील गुड फैक्टर की चमक देखी। जिन्हें कंबल मिल गया था वह गद्दे और तकिए तलाशने किसी और मंदिर की ओर निकल पड़े और जिन्हें नहीं मिला वह यह सोच कर खुश थे कि चलो आदत बिगड़ने से बच गई।<br />
एक साहब ने तो रट ही लगा रखी थी महँगाई बढ़ गई है, भ्रष्टाचार छलाँगे मार रहा है और देश में भीषण बेरोज़गारी है। ऐसे में गुड कौन फ़ील कर सकता है? मैंने उन्हें बहुत समझाया। भाई साहब आपको पता है सेंसेक्स 6000 का ऑंकड़ा पार कर गया है और अब बुद्धु की भाँति घर लौटने लगा है। अब तो हमारा विदेशी पूँजी का भंडार भी 100 अरब से ज़्यादा हो गया है। फिर लोग गुड-गुड फ़ील कर रहे हैं तभी तो हर काम के लिए पैसा दे रहे हैं। यह भ्रष्टाचार थोड़े ही है। इसीलिए अब लोग परदे के पीछे, टेबल के नीचे से नहीं बल्कि टेलीविज़न के कैमरे के सामने पैसा ले-दे रहे हैं। कहने लगे अच्छा उसकी छोड़ो यह मुई बेरोज़गारी कहाँ ले जाएगी हमें। <br />
‘भाई साहब आप भी यूँही बात का बतंगड़ बनाते है। देखिए हमने पता लगाया है कि सरकारी नौकरियों में लोग काम नहीं करते इसलिए हमने धीरे-धीरे सभी सरकारी कर्मचारियों को निकालना शुरू कर दिया है, फिर मानवीयता के आधार पर हम उन्हीं को उनके काम पर ठेके पर रख रहे हैं। तो रोज़गार तो नए पैदा हो रहे हैं न?’हमने कहा। <br />
यह बात अलग है कि अभी तो हमें जिनके पास काम था उन्हीं को फिर से काम पर लगाने का काम करना है। जितने नेता लोग चुनाव जीत नहीं पाए हैं वही यह दुष्प्रचार कर रहे हैं क्योंकि वह लोग बेरोज़गार हो गए हैं ना!! और देखिए, पहले एक घूस लेने वाला होता था और एक देने वाला होता था। हमें भी खयाल है भाई साहब रोज़गार बढ़ाने का इसीलिए तो हमने इनके साथ कैमरामैन, टेलीफोन टैप करने वाले, ओडियो और विडियो का संपादन करने वाले, घूस देने के लिए एक एजेंट और घूस लेने के लिए दूसरे एजेंट जैसे पदों का सृजन किया है। इसकी जाँच भी सी.बी.आई. कहाँ तक करेगी, इसलिए भविष्य में हम एक बड़ा दफ्तर बनाएँगे जहाँ भ्रष्टाचारीजी को ऑंच न आए ऐसी जाँच करने वाले बहुत से लोगों को रोज़गार देंगे। हमने यह भी सुझाया है कि घूस लेने वाले और देने वाले दोनों की तरफ़ से ही ऑडियो और विडियो टेप तैयार किए जाएँ ताकि हम ज़्यादा कैमरामैन और ‘ध्वन्यांकनकर्मियों’ को रोज़गार दे पाएँ। फिर भाई साहब सौ बात की एक बात तो यो सैं कि लोग हमन से पूछ के बच्चे पैदा तो करें ना, तो यह हमार ज़िम्मेदारी है का?<br />
इधर प्रवासी भारतीयों को हमने बुलाया और बताया कि आजकल हम लोग गुड फील कर रहे हैं। कल ही तो पाकिस्तान को भी इसका एहसास करवा के आए हैं। भला प्रवासियों को यह बात कहाँ गुड लगने वाली थी बोले जी वह तो रहने दो कुछ काम-शाम करो ये गुड दी फीलिंग तो हमारे लिए रहने दो।<br />
कुछ भी हो पिछले कई दिनों की शीत लहर के बाद जब पहली बार धूप निकली तो मैं इतना अच्छा महसूस कर रहा था कि यदि उस दिन मतदान हो रहा होता तो मैं हर किसी को वोट डाल आता। फिर अब तो बसंत भी आ गया है हल्का-हल्का मौसम, हर कहीं फूल हैं खिल उठे। तो मैं क्या जानूँ अर्थशास्त्र, राजनीति मैं तो करूँ सूँ भाया फील गुडो-गुड।<br />
</poem><br />
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''' (2004)</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=3507हेमन्त जोशी2009-04-26T08:09:51Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र= Hemant Joshi1.gif<br />
|नाम=हेमन्त जोशी<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म= 27 मार्च 1954<br />
|जन्मस्थान= नैनीताल, उत्तराखंड, भारत<br />
|कृतियाँ=महायुद्धों के आस-पास<br />
|विविध= कविताएँ, कहानियाँ, फ़्रांसीसी से अनेक कवियों के अनुवाद, स्तंभ लेखन <br />
|जीवनी=[[हेमन्त जोशी / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
'''कहानियाँ '''<br />
* [[अनास नदी क्यों सूख गई? / हेमन्त जोशी]]<br />
* [[उलझनें / हेमन्त जोशी]]<br />
<br />
'''बाल कहानियाँ '''<br />
* [[कंकड़-कंकड़ ताल भर जाता / हेमन्त जोशी]]<br />
<br />
'''व्यंग्य '''<br />
* [[फ़ील गुड, मूरख! / हेमन्त जोशी]]<br />
* [[ / हेमन्त जोशी]]<br />
<br />
'''लेख '''<br />
* [[ / हेमन्त जोशी]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A1%E0%A4%BC-%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A1%E0%A4%BC_%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%AD%E0%A4%B0_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=3404कंकड़-कंकड़ ताल भर जाता / हेमन्त जोशी2009-04-15T14:19:07Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=हेमन्त जोशी<br />
}}<br />
[[Category:कहानी]]<br />
<br />
बबली और बंटी रामेश्वर करकेटिया के नटखट बच्चे हैं। बबसी छोटी है और घर-भर की लाड़ली है। बंटी बड़ा है। शैतानी से उसका मन अभी पूरी तरह से भरा नहीं है। बंटी अपनी बहन को बहुत प्यार करता है, पर उसे लगता है कि बबली के आने के बाद से उसकी शान में कुछ कमी आ गई है। वह अपनी माँ से कई बार पूछ चुका है कि जब भी उन दोनों के बारे में कोई बात होती है तो बबली और बंटी ही क्यों कहा जाता है, बंटी और बबली क्यों नहीं?<br />
<br />
जैसे ही मार्च का महीना ख़त्म होने को आया और गर्मियों कि छुट्टियाँ पास आने लगीं, बबली और बंटी की सैर-सपाटे की योजनाएँ भी ज़ोर पकड़ने लगीं। उनकी फरमाइश थी कि इस बार छुट्टियों में किसी पहाड़ पर चला जाए।<br />
<br />
“पापा इस बार शिमला चलेंगे” बंटी ने कहा।<br />
<br />
“नहीं पापा, नैनीताल चलो ना” बबली ने बंटी की बात काटी।<br />
<br />
बच्चों की बातें सुन-सुन कर रामेश्वर करकेटिया मन ही मन मुस्काते थे, क्योंकि वह जानते थे कि बच्चे बस सैर करना चाहते हैं। कहाँ जाएँगे, यह तय करना तो है, पर उससे कोई ज्य़ादा फ़र्क नहीं पड़ता। बच्चों का मकसद तो किसी भी हिल स्टेशन पर जा कर मौज करना है। वह यह भी जानते थे कि बबली जो कहेगी, उससे ठीक उल्टा बंटी को कहना है, क्योंकि यह उन दोनों का पुराना खेल है जिसमें दोनों को मज़ा आता है।<br />
<br />
यह बात केवल रामेश्वर जानते थे कि कहाँ जाना है। क्योंकि यह बच्चों और स्वयं उनकी इच्छा पर नहीं है बल्कि इस बात से तय होगा कि कहाँ के टिकट मिल पाएँगे और कहाँ रहने की जगह मिल पाएगी।<br />
<br />
फिर एक दिन आया जब रात साढ़े दस बजे बंटी-बबली रानीखेत एक्सप्रेस पर सवार हो पहाड़ों की सैर पर निकल पड़े। करकेटिया साहब जब कुली को सामान ढुलाई के पैसे दे कर लौटे तो देखा कि भाई-बहन में खिड़की की सीट के लिए झगड़ा हो रहा था।<br />
<br />
[[चित्र:Ballkahani1.jpg]]<br />
<br />
“तुम म्मी के पास जाओ। यहाँ मैं बैठूँगा।“ बंटी ने बबली को घुड़क कर कहा।<br />
<br />
“मम्........मी, देखो बंटी मुझे यहाँ बैठने नहीं दे रहा है।” बबली ने अपना दाँव खेला।<br />
<br />
पापा ने दोनों को समझाया कि रात में बाहर कुछ भी नहीं दिखेगा, लेकिन वह कहाँ मानने वाले थे। माँ ने दोनों का ध्यान वहाँ से हटाने के लिए उन्हें खाने के लिए पूरियाँ और आलू की सब्ज़ी दे दी। खाना खाने के बाद दोनों को नींद आने लगी और वे कहीं भी सोने को तैयार हो गए। गाड़ी ने भी पूरी रफ्तार पकड़ ली थी।<br />
<br />
बंटी और बबली की नींद अभी पूरी भी नहीं हुई होगी कि काठगोदाम आ गया। स्टेशन से बाहर निकले तो हलका-हलका उजाला हो रहा था। नैनीताल की बस में बैठते ही खिड़की के लिए फिर से झगड़ा होना तय था। सो हुआ भी। लेकिन इस बार झगड़ा ज्य़ादा देर तक इसलिए नहीं चल पाया कि बस लगभग खाली थी। बंटी पीछे खिड़की के पास जा बैठा।<br />
<br />
नैनीताल में बबली और बंटी ने दस दिन खूब मौज की। आस-पास के तालाब और कस्बे देखे, नाव पर बैठे, आइसक्रीम खाई, बंदूक से निशाना लगाया और भी जो कुछ मौज वह कर सकते वह सब की।<br />
<br />
फिर वह भीमताल के पास ही नौकुचिया ताल की सैर करने गए। उस दिन दोनों बहुत शांत थे और एक बार कहने पर ही पापा या माँ का कहना मान रहे थे। पापा के आश्चर्य को कम करते हुए माँ ने बताया कि यह सब इसलिए हो रहा है कि पापा खुश होकर उन्हें पैडल बोट पर सैर करने दें। इसमें रामेश्वर को भला क्या आपत्ति हो सकती थी।<br />
<br />
नौकुचिया ताल में एक नाव घंटे भर के लिए किराए पर ली गई और बच्चों ने ताल का कोना-कोना छान मारा। धूप तेज़ थी मगर बादल भी छाए हुए थे। बीच-बीच में बादलों की छाया में तालाब की सैर करने में बहुत मज़ा आ रहा था। आखिरकार थक कर दोनों ने कहा कि अब किनारे चला जाए। वजह शायद केवल थकान ही नहीं थी। तालाब की सैर करते-करते उन्होंने वह दुकान देख ली थी जहाँ पेप्सी, फैंटा या लिमका पिया जा सकता था। किनारे पर पहुँचते ही कहा गया कि प्यास लग रही है। मतलब साफ था। पर माँ ने अनजान बनते हुए पानी की बोतल आगे बढ़ा दी। इस पर छोटी यानी बबली ने बेहद उदास होकर पापा की ओर देखा। फिर क्या था, सब चाय की दुकान पर थे।<br />
<br />
जब तक कोल्ड ड्रिंक्स आते, बंटी चुप कैसे बैठता। उसने कुछ कंकड़ उठाए और तालाब के किनारे जा कर उन्हें तालाब में फैंकने लगा। इस पर पापा ने उसे डाँटा और अपने पास बुलाया।<br />
<br />
पास आने पर उन्होंने समझाने की कोशिश की “बंटी बेटे, यह काम अच्छा नहीं है।“<br />
<br />
लेकिन कारण जाने बिना बंटी मानने को तैयार नहीं था। इस पर पापा ने उसे बताया कि ऐसा करने से तालाब भर जाएगा और फिर वह उसमें सैर नहीं कर पाएगा।<br />
<br />
आश्चर्य से बंटी ने कहा “पापा मैं तो तालाब के पानी को ऊपर ला रहा हूँ।”<br />
<br />
पापा ने कहा, “माना कि तुम्हारे कंकड़ फैकने से पानी ऊपर आएगा, पर यह भी तो देखो कि ऐसा करने से तालाब की गहराई कम हो जाएगी।”<br />
<br />
बंटी के पास आजकल हर सवाल का जवाब रहता है। उसने पलट कर दलील दी “पापा मेरे कुछ कंकड़ फेकने से तालाब क्यों भरेगा वह तो कितना गहरा है।”<br />
<br />
[[चित्र:Balkahani2.jpg]]<br />
<br />
पापा ने समझाया “देखो बेटा, यहाँ हर साल तुम्हारे जैसे लाखों बंटी आते हैं और मान लो कि हरेक बच्चा चार-चार कंकड़ भी तालाब में फैके तो हर साल तालाब में लाखों कंकड़ भर जाएँगे। फिर क्या कुछ सालों में ही यह तालाब पूरा नहीं भर जाएगा?”<br />
<br />
अब तो बात बंटी की समझ में आ गई थी। उसने पापा से कहा “पापा, पापा, अब मैं तालाब में कभी कंकड़ या कचरा नहीं फैकुँगा। और हाँ पापा! मैं अपने दोस्तों को भी समझाऊँगा कि तालाब में क्यों कंकड़-पत्थर या कचरा नहीं फैकना चाहिए।”<br />
<br />
“शाबाश” पापा कुछ कहते इससे पहले ही बबली बोली।<br />
<br />
बंटी उसकी तरफ़ बढ़ा ही था कि पापा ने उसे रोकते हुए कहा “लो एक कहावत और बना लो अपने दोस्तों के लिए।”<br />
<br />
बंटी ने फिर पूछा “कौन सी कहावत?”<br />
<br />
इस पर पापा ने पूछा “तुमने वह कहावत सुनी है?”<br />
<br />
बंटी ने पूछा “कौन सी पापा?”<br />
<br />
“बूँद-बूँद सागर भर जाता” पापा ने कहा।<br />
<br />
“हाँ पापा, पर इससे उस कहावत का क्या?”<br />
<br />
“अरे बुद्धू इसका नहीं” पापा ने प्यार से समझाया, “कहावत तो अब यह बन गई कि कंकड़-कंकड़ ताल भर जाता। <br />
<br />
रामेश्वर ने बबली की ओर देखा “कहो बबली, कैसी लगी यह कहावत?”<br />
<br />
“बहुत अच्छी पापा बबली चहकी इस कहावत की मदद से मैं भी अपनी सहेलियों को तालाब में कूड़ा-करकट औऱ पत्थर फैकने से रोक सकती हूँ।”<br />
<br />
[[श्रेणी:बाल कथाएँ]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%86%E0%A4%AA%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%A7&diff=3403आपका अनुरोध2009-04-14T21:57:44Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div> कृपया कृष्णा वाजपेयी का नाम कहानीकारों की सूची में जोड़ें। बाद में मैं उनके संग्रह आदि के बारे में प्रविष्टियाँ जोड़ दुँगा। हेमन्त जोशी 14-04-09</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%86%E0%A4%AA%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%A7&diff=3402आपका अनुरोध2009-04-14T21:56:19Z<p>हेमंत जोशी: नया पृष्ठ: कृपया कृष्णा बाजपेयी का नाम कहानीकारों की सूची में जोड़ें। बाद म...</p>
<hr />
<div> कृपया कृष्णा बाजपेयी का नाम कहानीकारों की सूची में जोड़ें। बाद में मैं उनके संग्रह आदि के बारे में प्रविष्टियाँ जोड़ दुँगा। हेमन्त जोशी 14-04-09</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Ballkahani1.jpg&diff=3401चित्र:Ballkahani1.jpg2009-04-11T20:16:42Z<p>हेमंत जोशी: "चित्र:Ballkahani1.jpg" का नया अवतरण अपलोड किया: coyright:Hemant Joshi</p>
<hr />
<div>copyright:Hemant Joshi</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A1%E0%A4%BC-%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A1%E0%A4%BC_%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%AD%E0%A4%B0_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=3400कंकड़-कंकड़ ताल भर जाता / हेमन्त जोशी2009-04-11T20:13:04Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=हेमन्त जोशी<br />
}}<br />
[[Category:कहानी]]<br />
<br />
बबली और बंटी रामेश्वर करकेटिया के नटखट बच्चे हैं। बबसी छोटी है और घर-भर की लाड़ली है। बंटी बड़ा है। शैतानी से उसका मन अभी पूरी तरह से भरा नहीं है। बंटी अपनी बहन को बहुत प्यार करता है, पर उसे लगता है कि बबली के आने के बाद से उसकी शान में कुछ कमी आ गई है। वह अपनी माँ से कई बार पूछ चुका है कि जब भी उन दोनों के बारे में कोई बात होती है तो बबली और बंटी ही क्यों कहा जाता है, बंटी और बबली क्यों नहीं?<br />
<br />
जैसे ही मार्च का महीना ख़त्म होने को आया और गर्मियों कि छुट्टियाँ पास आने लगीं, बबली और बंटी की सैर-सपाटे की योजनाएँ भी ज़ोर पकड़ने लगीं। उनकी फरमाइश थी कि इस बार छुट्टियों में किसी पहाड़ पर चला जाए।<br />
<br />
“पापा इस बार शिमला चलेंगे” बंटी ने कहा।<br />
<br />
“नहीं पापा, नैनीताल चलो ना” बबली ने बंटी की बात काटी।<br />
<br />
बच्चों की बातें सुन-सुन कर रामेश्वर करकेटिया मन ही मन मुस्काते थे, क्योंकि वह जानते थे कि बच्चे बस सैर करना चाहते हैं। कहाँ जाएँगे, यह तय करना तो है, पर उससे कोई ज्य़ादा फ़र्क नहीं पड़ता। बच्चों का मकसद तो किसी भी हिल स्टेशन पर जा कर मौज करना है। वह यह भी जानते थे कि बबली जो कहेगी, उससे ठीक उल्टा बंटी को कहना है, क्योंकि यह उन दोनों का पुराना खेल है जिसमें दोनों को मज़ा आता है।<br />
<br />
यह बात केवल रामेश्वर जानते थे कि कहाँ जाना है। क्योंकि यह बच्चों और स्वयं उनकी इच्छा पर नहीं है बल्कि इस बात से तय होगा कि कहाँ के टिकट मिल पाएँगे और कहाँ रहने की जगह मिल पाएगी।<br />
<br />
फिर एक दिन आया जब रात साढ़े दस बजे बंटी-बबली रानीखेत एक्सप्रेस पर सवार हो पहाड़ों की सैर पर निकल पड़े। करकेटिया साहब जब कुली को सामान ढुलाई के पैसे दे कर लौटे तो देखा कि भाई-बहन में खिड़की की सीट के लिए झगड़ा हो रहा था।<br />
<br />
[[चित्र:Ballkahani1.jpg]]<br />
<br />
“तुम म्मी के पास जाओ। यहाँ मैं बैठूँगा।“ बंटी ने बबली को घुड़क कर कहा।<br />
<br />
“मम्........मी, देखो बंटी मुझे यहाँ बैठने नहीं दे रहा है।” बबली ने अपना दाँव खेला।<br />
<br />
पापा ने दोनों को समझाया कि रात में बाहर कुछ भी नहीं दिखेगा, लेकिन वह कहाँ मानने वाले थे। माँ ने दोनों का ध्यान वहाँ से हटाने के लिए उन्हें खाने के लिए पूरियाँ और आलू की सब्ज़ी दे दी। खाना खाने के बाद दोनों को नींद आने लगी और वे कहीं भी सोने को तैयार हो गए। गाड़ी ने भी पूरी रफ्तार पकड़ ली थी।<br />
<br />
बंटी और बबली की नींद अभी पूरी भी नहीं हुई होगी कि काठगोदाम आ गया। स्टेशन से बाहर निकले तो हलका-हलका उजाला हो रहा था। नैनीताल की बस में बैठते ही खिड़की के लिए फिर से झगड़ा होना तय था। सो हुआ भी। लेकिन इस बार झगड़ा ज्य़ादा देर तक इसलिए नहीं चल पाया कि बस लगभग खाली थी। बंटी पीछे खिड़की के पास जा बैठा।<br />
<br />
नैनीताल में बबली और बंटी ने दस दिन खूब मौज की। आस-पास के तालाब और कस्बे देखे, नाव पर बैठे, आइसक्रीम खाई, बंदूक से निशाना लगाया और भी जो कुछ मौज वह कर सकते वह सब की।<br />
<br />
फिर वह भीमताल के पास ही नौकुचिया ताल की सैर करने गए। उस दिन दोनों बहुत शांत थे और एक बार कहने पर ही पापा या माँ का कहना मान रहे थे। पापा के आश्चर्य को कम करते हुए माँ ने बताया कि यह सब इसलिए हो रहा है कि पापा खुश होकर उन्हें पैडल बोट पर सैर करने दें। इसमें रामेश्वर को भला क्या आपत्ति हो सकती थी।<br />
<br />
नौकुचिया ताल में एक नाव घंटे भर के लिए किराए पर ली गई और बच्चों ने ताल का कोना-कोना छान मारा। धूप तेज़ थी मगर बादल भी छाए हुए थे। बीच-बीच में बादलों की छाया में तालाब की सैर करने में बहुत मज़ा आ रहा था। आखिरकार थक कर दोनों ने कहा कि अब किनारे चला जाए। वजह शायद केवल थकान ही नहीं थी। तालाब की सैर करते-करते उन्होंने वह दुकान देख ली थी जहाँ पेप्सी, फैंटा या लिमका पिया जा सकता था। किनारे पर पहुँचते ही कहा गया कि प्यास लग रही है। मतलब साफ था। पर माँ ने अनजान बनते हुए पानी की बोतल आगे बढ़ा दी। इस पर छोटी यानी बबली ने बेहद उदास होकर पापा की ओर देखा। फिर क्या था, सब चाय की दुकान पर थे।<br />
<br />
जब तक कोल्ड ड्रिंक्स आते, बंटी चुप कैसे बैठता। उसने कुछ कंकड़ उठाए और तालाब के किनारे जा कर उन्हें तालाब में फैंकने लगा। इस पर पापा ने उसे डाँटा और अपने पास बुलाया।<br />
<br />
पास आने पर उन्होंने समझाने की कोशिश की “बंटी बेटे, यह काम अच्छा नहीं है।“<br />
<br />
लेकिन कारण जाने बिना बंटी मानने को तैयार नहीं था। इस पर पापा ने उसे बताया कि ऐसा करने से तालाब भर जाएगा और फिर वह उसमें सैर नहीं कर पाएगा।<br />
<br />
आश्चर्य से बंटी ने कहा “पापा मैं तो तालाब के पानी को ऊपर ला रहा हूँ।”<br />
<br />
पापा ने कहा, “माना कि तुम्हारे कंकड़ फैकने से पानी ऊपर आएगा, पर यह भी तो देखो कि ऐसा करने से तालाब की गहराई कम हो जाएगी।”<br />
<br />
बंटी के पास आजकल हर सवाल का जवाब रहता है। उसने पलट कर दलील दी “पापा मेरे कुछ कंकड़ फेकने से तालाब क्यों भरेगा वह तो कितना गहरा है।”<br />
<br />
[[चित्र:Balkahani2.jpg]]<br />
<br />
पापा ने समझाया “देखो बेटा, यहाँ हर साल तुम्हारे जैसे लाखों बंटी आते हैं और मान लो कि हरेक बच्चा चार-चार कंकड़ भी तालाब में फैके तो हर साल तालाब में लाखों कंकड़ भर जाएँगे। फिर क्या कुछ सालों में ही यह तालाब पूरा नहीं भर जाएगा?”<br />
<br />
अब तो बात बंटी की समझ में आ गई थी। उसने पापा से कहा “पापा, पापा, अब मैं तालाब में कभी कंकड़ या कचरा नहीं फैकुँगा। और हाँ पापा! मैं अपने दोस्तों को भी समझाऊँगा कि तालाब में क्यों कंकड़-पत्थर या कचरा नहीं फैकना चाहिए।”<br />
<br />
“शाबाश” पापा कुछ कहते इससे पहले ही बबली बोली।<br />
<br />
बंटी उसकी तरफ़ बढ़ा ही था कि पापा ने उसे रोकते हुए कहा “लो एक कहावत और बना लो अपने दोस्तों के लिए।”<br />
<br />
बंटी ने फिर पूछा “कौन सी कहावत?”<br />
<br />
इस पर पापा ने पूछा “तुमने वह कहावत सुनी है?”<br />
<br />
बंटी ने पूछा “कौन सी पापा?”<br />
<br />
“बूँद-बूँद सागर भर जाता” पापा ने कहा।<br />
<br />
“हाँ पापा, पर इससे उस कहावत का क्या?”<br />
<br />
“अरे बुद्धू इसका नहीं” पापा ने प्यार से समझाया, “कहावत तो अब यह बन गई कि कंकड़-कंकड़ ताल भर जाता। <br />
<br />
रामेश्वर ने बबली की ओर देखा “कहो बबली, कैसी लगी यह कहावत?”<br />
<br />
“बहुत अच्छी पापा बबली चहकी इस कहावत की मदद से मैं भी अपनी सहेलियों को तालाब में कूड़ा-करकट औऱ पत्थर फैकने से रोक सकती हूँ।”</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Balkahani2.jpg&diff=3399चित्र:Balkahani2.jpg2009-04-11T20:11:55Z<p>हेमंत जोशी: "चित्र:Balkahani2.jpg" का नया अवतरण अपलोड किया: copyright:Hemant Joshi</p>
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<div>copyright:Hemant Joshi</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Balkahani2.jpg&diff=3398चित्र:Balkahani2.jpg2009-04-11T20:05:02Z<p>हेमंत जोशी: copyright:Hemant Joshi</p>
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<div>copyright:Hemant Joshi</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Ballkahani1.jpg&diff=3397चित्र:Ballkahani1.jpg2009-04-11T20:00:44Z<p>हेमंत जोशी: copyright:Hemant Joshi</p>
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<div>copyright:Hemant Joshi</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Kktbj_storyhj1r.GIF&diff=3396चित्र:Kktbj storyhj1r.GIF2009-04-11T19:44:37Z<p>हेमंत जोशी: copyright:Hemant Joshi</p>
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<div>copyright:Hemant Joshi</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A1%E0%A4%BC-%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A1%E0%A4%BC_%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%AD%E0%A4%B0_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=3395कंकड़-कंकड़ ताल भर जाता / हेमन्त जोशी2009-04-11T19:41:33Z<p>हेमंत जोशी: </p>
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<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=हेमन्त जोशी<br />
}}<br />
[[Category:कहानी]]<br />
<br />
बबली और बंटी रामेश्वर करकेटिया के नटखट बच्चे हैं। बबसी छोटी है और घर-भर की लाड़ली है। बंटी बड़ा है। शैतानी से उसका मन अभी पूरी तरह से भरा नहीं है। बंटी अपनी बहन को बहुत प्यार करता है, पर उसे लगता है कि बबली के आने के बाद से उसकी शान में कुछ कमी आ गई है। वह अपनी माँ से कई बार पूछ चुका है कि जब भी उन दोनों के बारे में कोई बात होती है तो बबली और बंटी ही क्यों कहा जाता है, बंटी और बबली क्यों नहीं?<br />
<br />
जैसे ही मार्च का महीना ख़त्म होने को आया और गर्मियों कि छुट्टियाँ पास आने लगीं, बबली और बंटी की सैर-सपाटे की योजनाएँ भी ज़ोर पकड़ने लगीं। उनकी फरमाइश थी कि इस बार छुट्टियों में किसी पहाड़ पर चला जाए।<br />
<br />
“पापा इस बार शिमला चलेंगे” बंटी ने कहा।<br />
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“नहीं पापा, नैनीताल चलो ना” बबली ने बंटी की बात काटी।<br />
<br />
बच्चों की बातें सुन-सुन कर रामेश्वर करकेटिया मन ही मन मुस्काते थे, क्योंकि वह जानते थे कि बच्चे बस सैर करना चाहते हैं। कहाँ जाएँगे, यह तय करना तो है, पर उससे कोई ज्य़ादा फ़र्क नहीं पड़ता। बच्चों का मकसद तो किसी भी हिल स्टेशन पर जा कर मौज करना है। वह यह भी जानते थे कि बबली जो कहेगी, उससे ठीक उल्टा बंटी को कहना है, क्योंकि यह उन दोनों का पुराना खेल है जिसमें दोनों को मज़ा आता है।<br />
<br />
यह बात केवल रामेश्वर जानते थे कि कहाँ जाना है। क्योंकि यह बच्चों और स्वयं उनकी इच्छा पर नहीं है बल्कि इस बात से तय होगा कि कहाँ के टिकट मिल पाएँगे और कहाँ रहने की जगह मिल पाएगी।<br />
<br />
फिर एक दिन आया जब रात साढ़े दस बजे बंटी-बबली रानीखेत एक्सप्रेस पर सवार हो पहाड़ों की सैर पर निकल पड़े। करकेटिया साहब जब कुली को सामान ढुलाई के पैसे दे कर लौटे तो देखा कि भाई-बहन में खिड़की की सीट के लिए झगड़ा हो रहा था।<br />
<br />
“तुम म्मी के पास जाओ। यहाँ मैं बैठूँगा।“ बंटी ने बबली को घुड़क कर कहा।<br />
<br />
“मम्........मी, देखो बंटी मुझे यहाँ बैठने नहीं दे रहा है।” बबली ने अपना दाँव खेला।<br />
<br />
पापा ने दोनों को समझाया कि रात में बाहर कुछ भी नहीं दिखेगा, लेकिन वह कहाँ मानने वाले थे। माँ ने दोनों का ध्यान वहाँ से हटाने के लिए उन्हें खाने के लिए पूरियाँ और आलू की सब्ज़ी दे दी। खाना खाने के बाद दोनों को नींद आने लगी और वे कहीं भी सोने को तैयार हो गए। गाड़ी ने भी पूरी रफ्तार पकड़ ली थी।<br />
<br />
बंटी और बबली की नींद अभी पूरी भी नहीं हुई होगी कि काठगोदाम आ गया। स्टेशन से बाहर निकले तो हलका-हलका उजाला हो रहा था। नैनीताल की बस में बैठते ही खिड़की के लिए फिर से झगड़ा होना तय था। सो हुआ भी। लेकिन इस बार झगड़ा ज्य़ादा देर तक इसलिए नहीं चल पाया कि बस लगभग खाली थी। बंटी पीछे खिड़की के पास जा बैठा।<br />
<br />
नैनीताल में बबली और बंटी ने दस दिन खूब मौज की। आस-पास के तालाब और कस्बे देखे, नाव पर बैठे, आइसक्रीम खाई, बंदूक से निशाना लगाया और भी जो कुछ मौज वह कर सकते वह सब की।<br />
<br />
फिर वह भीमताल के पास ही नौकुचिया ताल की सैर करने गए। उस दिन दोनों बहुत शांत थे और एक बार कहने पर ही पापा या माँ का कहना मान रहे थे। पापा के आश्चर्य को कम करते हुए माँ ने बताया कि यह सब इसलिए हो रहा है कि पापा खुश होकर उन्हें पैडल बोट पर सैर करने दें। इसमें रामेश्वर को भला क्या आपत्ति हो सकती थी।<br />
<br />
नौकुचिया ताल में एक नाव घंटे भर के लिए किराए पर ली गई और बच्चों ने ताल का कोना-कोना छान मारा। धूप तेज़ थी मगर बादल भी छाए हुए थे। बीच-बीच में बादलों की छाया में तालाब की सैर करने में बहुत मज़ा आ रहा था। आखिरकार थक कर दोनों ने कहा कि अब किनारे चला जाए। वजह शायद केवल थकान ही नहीं थी। तालाब की सैर करते-करते उन्होंने वह दुकान देख ली थी जहाँ पेप्सी, फैंटा या लिमका पिया जा सकता था। किनारे पर पहुँचते ही कहा गया कि प्यास लग रही है। मतलब साफ था। पर माँ ने अनजान बनते हुए पानी की बोतल आगे बढ़ा दी। इस पर छोटी यानी बबली ने बेहद उदास होकर पापा की ओर देखा। फिर क्या था, सब चाय की दुकान पर थे।<br />
<br />
जब तक कोल्ड ड्रिंक्स आते, बंटी चुप कैसे बैठता। उसने कुछ कंकड़ उठाए और तालाब के किनारे जा कर उन्हें तालाब में फैंकने लगा। इस पर पापा ने उसे डाँटा और अपने पास बुलाया।<br />
<br />
पास आने पर उन्होंने समझाने की कोशिश की “बंटी बेटे, यह काम अच्छा नहीं है।“<br />
<br />
लेकिन कारण जाने बिना बंटी मानने को तैयार नहीं था। इस पर पापा ने उसे बताया कि ऐसा करने से तालाब भर जाएगा और फिर वह उसमें सैर नहीं कर पाएगा।<br />
<br />
आश्चर्य से बंटी ने कहा “पापा मैं तो तालाब के पानी को ऊपर ला रहा हूँ।”<br />
<br />
पापा ने कहा, “माना कि तुम्हारे कंकड़ फैकने से पानी ऊपर आएगा, पर यह भी तो देखो कि ऐसा करने से तालाब की गहराई कम हो जाएगी।”<br />
<br />
बंटी के पास आजकल हर सवाल का जवाब रहता है। उसने पलट कर दलील दी “पापा मेरे कुछ कंकड़ फेकने से तालाब क्यों भरेगा वह तो कितना गहरा है।”<br />
<br />
पापा ने समझाया “देखो बेटा, यहाँ हर साल तुम्हारे जैसे लाखों बंटी आते हैं और मान लो कि हरेक बच्चा चार-चार कंकड़ भी तालाब में फैके तो हर साल तालाब में लाखों कंकड़ भर जाएँगे। फिर क्या कुछ सालों में ही यह तालाब पूरा नहीं भर जाएगा?”<br />
<br />
अब तो बात बंटी की समझ में आ गई थी। उसने पापा से कहा “पापा, पापा, अब मैं तालाब में कभी कंकड़ या कचरा नहीं फैकुँगा। और हाँ पापा! मैं अपने दोस्तों को भी समझाऊँगा कि तालाब में क्यों कंकड़-पत्थर या कचरा नहीं फैकना चाहिए।”<br />
<br />
“शाबाश” पापा कुछ कहते इससे पहले ही बबली बोली।<br />
<br />
बंटी उसकी तरफ़ बढ़ा ही था कि पापा ने उसे रोकते हुए कहा “लो एक कहावत और बना लो अपने दोस्तों के लिए।”<br />
<br />
बंटी ने फिर पूछा “कौन सी कहावत?”<br />
<br />
इस पर पापा ने पूछा “तुमने वह कहावत सुनी है?”<br />
<br />
बंटी ने पूछा “कौन सी पापा?”<br />
<br />
“बूँद-बूँद सागर भर जाता” पापा ने कहा।<br />
<br />
“हाँ पापा, पर इससे उस कहावत का क्या?”<br />
<br />
“अरे बुद्धू इसका नहीं” पापा ने प्यार से समझाया, “कहावत तो अब यह बन गई कि कंकड़-कंकड़ ताल भर जाता। <br />
<br />
रामेश्वर ने बबली की ओर देखा “कहो बबली, कैसी लगी यह कहावत?”<br />
<br />
“बहुत अच्छी पापा बबली चहकी इस कहावत की मदद से मैं भी अपनी सहेलियों को तालाब में कूड़ा-करकट औऱ पत्थर फैकने से रोक सकती हूँ।”</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A1%E0%A4%BC-%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A1%E0%A4%BC_%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%AD%E0%A4%B0_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=3394कंकड़-कंकड़ ताल भर जाता / हेमन्त जोशी2009-04-11T19:40:16Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=हेमन्त जोशी<br />
}}<br />
[[Category:कहानी]]<br />
<br />
बबली और बंटी रामेश्वर करकेटिया के नटखट बच्चे हैं। बबसी छोटी है और घर-भर की लाड़ली है। बंटी बड़ा है। शैतानी से उसका मन अभी पूरी तरह से भरा नहीं है। बंटी अपनी बहन को बहुत प्यार करता है, पर उसे लगता है कि बबली के आने के बाद से उसकी शान में कुछ कमी आ गई है। वह अपनी माँ से कई बार पूछ चुका है कि जब भी उन दोनों के बारे में कोई बात होती है तो बबली और बंटी ही क्यों कहा जाता है, बंटी और बबली क्यों नहीं?<br />
<br />
जैसे ही मार्च का महीना ख़त्म होने को आया और गर्मियों कि छुट्टियाँ पास आने लगीं, बबली और बंटी की सैर-सपाटे की योजनाएँ भी ज़ोर पकड़ने लगीं। उनकी फरमाइश थी कि इस बार छुट्टियों में किसी पहाड़ पर चला जाए।<br />
<br />
“पापा इस बार शिमला चलेंगे” बंटी ने कहा।<br />
<br />
“नहीं पापा, नैनीताल चलो ना” बबली ने बंटी की बात काटी।<br />
<br />
बच्चों की बातें सुन-सुन कर रामेश्वर करकेटिया मन ही मन मुस्काते थे, क्योंकि वह जानते थे कि बच्चे बस सैर करना चाहते हैं। कहाँ जाएँगे, यह तय करना तो है, पर उससे कोई ज्य़ादा फ़र्क नहीं पड़ता। बच्चों का मकसद तो किसी भी हिल स्टेशन पर जा कर मौज करना है। वह यह भी जानते थे कि बबली जो कहेगी, उससे ठीक उल्टा बंटी को कहना है, क्योंकि यह उन दोनों का पुराना खेल है जिसमें दोनों को मज़ा आता है।<br />
<br />
यह बात केवल रामेश्वर जानते थे कि कहाँ जाना है। क्योंकि यह बच्चों और स्वयं उनकी इच्छा पर नहीं है बल्कि इस बात से तय होगा कि कहाँ के टिकट मिल पाएँगे और कहाँ रहने की जगह मिल पाएगी।<br />
<br />
फिर एक दिन आया जब रात साढ़े दस बजे बंटी-बबली रानीखेत एक्सप्रेस पर सवार हो पहाड़ों की सैर पर निकल पड़े। करकेटिया साहब जब कुली को सामान ढुलाई के पैसे दे कर लौटे तो देखा कि भाई-बहन में खिड़की की सीट के लिए झगड़ा हो रहा था।<br />
<br />
“तुम म्मी के पास जाओ। यहाँ मैं बैठूँगा।“ बंटी ने बबली को घुड़क कर कहा।<br />
<br />
“मम्........मी, देखो बंटी मुझे यहाँ बैठने नहीं दे रहा है।” बबली ने अपना दाँव खेला।<br />
<br />
पापा ने दोनों को समझाया कि रात में बाहर कुछ भी नहीं दिखेगा, लेकिन वह कहाँ मानने वाले थे। माँ ने दोनों का ध्यान वहाँ से हटाने के लिए उन्हें खाने के लिए पूरियाँ और आलू की सब्ज़ी दे दी। खाना खाने के बाद दोनों को नींद आने लगी और वे कहीं भी सोने को तैयार हो गए। गाड़ी ने भी पूरी रफ्तार पकड़ ली थी।<br />
<br />
बंटी और बबली की नींद अभी पूरी भी नहीं हुई होगी कि काठगोदाम आ गया। स्टेशन से बाहर निकले तो हलका-हलका उजाला हो रहा था। नैनीताल की बस में बैठते ही खिड़की के लिए फिर से झगड़ा होना तय था। सो हुआ भी। लेकिन इस बार झगड़ा ज्य़ादा देर तक इसलिए नहीं चल पाया कि बस लगभग खाली थी। बंटी पीछे खिड़की के पास जा बैठा।<br />
<br />
नैनीताल में बबली और बंटी ने दस दिन खूब मौज की। आस-पास के तालाब और कस्बे देखे, नाव पर बैठे, आइसक्रीम खाई, बंदूक से निशाना लगाया और भी जो कुछ मौज वह कर सकते वह सब की।<br />
<br />
फिर वह भीमताल के पास ही नौकुचिया ताल की सैर करने गए। उस दिन दोनों बहुत शांत थे और एक बार कहने पर ही पापा या माँ का कहना मान रहे थे। पापा के आश्चर्य को कम करते हुए माँ ने बताया कि यह सब इसलिए हो रहा है कि पापा खुश होकर उन्हें पैडल बोट पर सैर करने दें। इसमें रामेश्वर को भला क्या आपत्ति हो सकती थी।<br />
<br />
नौकुचिया ताल में एक नाव घंटे भर के लिए किराए पर ली गई और बच्चों ने ताल का कोना-कोना छान मारा। धूप तेज़ थी मगर बादल भी छाए हुए थे। बीच-बीच में बादलों की छाया में तालाब की सैर करने में बहुत मज़ा आ रहा था। आखिरकार थक कर दोनों ने कहा कि अब किनारे चला जाए। वजह शायद केवल थकान ही नहीं थी। तालाब की सैर करते-करते उन्होंने वह दुकान देख ली थी जहाँ पेप्सी, फैंटा या लिमका पिया जा सकता था। किनारे पर पहुँचते ही कहा गया कि प्यास लग रही है। मतलब साफ था। पर माँ ने अनजान बनते हुए पानी की बोतल आगे बढ़ा दी। इस पर छोटी यानी बबली ने बेहद उदास होकर पापा की ओर देखा। फिर क्या था, सब चाय की दुकान पर थे।<br />
<br />
जब तक कोल्ड ड्रिंक्स आते, बंटी चुप कैसे बैठता। उसने कुछ कंकड़ उठाए और तालाब के किनारे जा कर उन्हें तालाब में फैंकने लगा। इस पर पापा ने उसे डाँटा और अपने पास बुलाया।<br />
<br />
पास आने पर उन्होंने समझाने की कोशिश की “बंटी बेटे, यह काम अच्छा नहीं है।“<br />
<br />
लेकिन कारण जाने बिना बंटी मानने को तैयार नहीं था। इस पर पापा ने उसे बताया कि ऐसा करने से तालाब भर जाएगा और फिर वह उसमें सैर नहीं कर पाएगा।<br />
<br />
आश्चर्य से बंटी ने कहा “पापा मैं तो तालाब के पानी को ऊपर ला रहा हूँ।”<br />
<br />
पापा ने कहा, “माना कि तुम्हारे कंकड़ फैकने से पानी ऊपर आएगा, पर यह भी तो देखो कि ऐसा करने से तालाब की गहराई कम हो जाएगी।”<br />
<br />
बंटी के पास आजकल हर सवाल का जवाब रहता है। उसने पलट कर दलील दी “पापा मेरे कुछ कंकड़ फेकने से तालाब क्यों भरेगा वह तो कितना गहरा है।”<br />
<br />
पापा ने समझाया “देखो बेटा, यहाँ हर साल तुम्हारे जैसे लाखों बंटी आते हैं और मान लो कि हरेक बच्चा चार-चार कंकड़ भी तालाब में फैके तो हर साल तालाब में लाखों कंकड़ भर जाएँगे। फिर क्या कुछ सालों में ही यह तालाब पूरा नहीं भर जाएगा?”<br />
<br />
अब तो बात बंटी की समझ में आ गई थी। उसने पापा से कहा “पापा, पापा, अब मैं तालाब में कभी कंकड़ या कचरा नहीं फैकुँगा। और हाँ पापा! मैं अपने दोस्तों को भी समझाऊँगा कि तालाब में क्यों कंकड़-पत्थर या कचरा नहीं फैकना चाहिए।”<br />
<br />
“शाबाश” पापा कुछ कहते इससे पहले ही बबली बोली।<br />
<br />
बंटी उसकी तरफ़ बढ़ा ही था कि पापा ने उसे रोकते हुए कहा “लो एक कहावत और बना लो अपने दोस्तों के लिए।”<br />
<br />
बंटी ने फिर पूछा “कौन सी कहावत?”<br />
इस पर पापा ने पूछा “तुमने वह कहावत सुनी है?”<br />
बंटी ने पूछा “कौन सी पापा?”<br />
“बूँद-बूँद सागर भर जाता” पापा ने कहा।<br />
“हाँ पापा, पर इससे उस कहावत का क्या?”<br />
<br />
“अरे बुद्धू इसका नहीं” पापा ने प्यार से समझाया, “कहावत तो अब यह बन गई कि कंकड़-कंकड़ ताल भर जाता। <br />
<br />
रामेश्वर ने बबली की ओर देखा “कहो बबली, कैसी लगी यह कहावत?”<br />
<br />
“बहुत अच्छी पापा बबली चहकी इस कहावत की मदद से मैं भी अपनी सहेलियों को तालाब में कूड़ा-करकट औऱ पत्थर फैकने से रोक सकती हूँ।”</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A1%E0%A4%BC-%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%A1%E0%A4%BC_%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%AD%E0%A4%B0_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=3393कंकड़-कंकड़ ताल भर जाता / हेमन्त जोशी2009-04-11T19:31:02Z<p>हेमंत जोशी: नया पृष्ठ: {{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=हेमन्त जोशी }} Category:कहानी बबली और बंटी रामेश्वर ...</p>
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<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=हेमन्त जोशी<br />
}}<br />
[[Category:कहानी]]<br />
<br />
बबली और बंटी रामेश्वर करकेटिया के नटखट बच्चे हैं। बबसी छोटी है और घर-भर की लाड़ली है। बंटी बड़ा है। शैतानी से उसका मन अभी पूरी तरह से भरा नहीं है। बंटी अपनी बहन को बहुत प्यार करता है, पर उसे लगता है कि बबली के आने के बाद से उसकी शान में कुछ कमी आ गई है। वह अपनी माँ से कई बार पूछ चुका है कि जब भी उन दोनों के बारे में कोई बात होती है तो बबली और बंटी ही क्यों कहा जाता है, बंटी और बबली क्यों नहीं?<br />
जैसे ही मार्च का महीना ख़त्म होने को आया और गर्मियों कि छुट्टियाँ पास आने लगीं, बबली और बंटी की सैर-सपाटे की योजनाएँ भी ज़ोर पकड़ने लगीं। उनकी फरमाइश थी कि इस बार छुट्टियों में किसी पहाड़ पर चला जाए।<br />
“पापा इस बार शिमला चलेंगे” बंटी ने कहा।<br />
“नहीं पापा, नैनीताल चलो ना” बबली ने बंटी की बात काटी।<br />
बच्चों की बातें सुन-सुन कर रामेश्वर करकेटिया मन ही मन मुस्काते थे, क्योंकि वह जानते थे कि बच्चे बस सैर करना चाहते हैं। कहाँ जाएँगे, यह तय करना तो है, पर उससे कोई ज्य़ादा फ़र्क नहीं पड़ता। बच्चों का मकसद तो किसी भी हिल स्टेशन पर जा कर मौज करना है। वह यह भी जानते थे कि बबली जो कहेगी, उससे ठीक उल्टा बंटी को कहना है, क्योंकि यह उन दोनों का पुराना खेल है जिसमें दोनों को मज़ा आता है।<br />
यह बात केवल रामेश्वर जानते थे कि कहाँ जाना है। क्योंकि यह बच्चों और स्वयं उनकी इच्छा पर नहीं है बल्कि इस बात से तय होगा कि कहाँ के टिकट मिल पाएँगे और कहाँ रहने की जगह मिल पाएगी।<br />
फिर एक दिन आया जब रात साढ़े दस बजे बंटी-बबली रानीखेत एक्सप्रेस पर सवार हो पहाड़ों की सैर पर निकल पड़े। करकेटिया साहब जब कुली को सामान ढुलाई के पैसे दे कर लौटे तो देखा कि भाई-बहन में खिड़की की सीट के लिए झगड़ा हो रहा था।<br />
“तुम म्मी के पास जाओ। यहाँ मैं बैठूँगा।“ बंटी ने बबली को घुड़क कर कहा।<br />
“मम्........मी, देखो बंटी मुझे यहाँ बैठने नहीं दे रहा है।” बबली ने अपना दाँव खेला।<br />
पापा ने दोनों को समझाया कि रात में बाहर कुछ भी नहीं दिखेगा, लेकिन वह कहाँ मानने वाले थे। माँ ने दोनों का ध्यान वहाँ से हटाने के लिए उन्हें खाने के लिए पूरियाँ और आलू की सब्ज़ी दे दी। खाना खाने के बाद दोनों को नींद आने लगी और वे कहीं भी सोने को तैयार हो गए। गाड़ी ने भी पूरी रफ्तार पकड़ ली थी। <br />
बंटी और बबली की नींद अभी पूरी भी नहीं हुई होगी कि काठगोदाम आ गया। स्टेशन से बाहर निकले तो हलका-हलका उजाला हो रहा था। नैनीताल की बस में बैठते ही खिड़की के लिए फिर से झगड़ा होना तय था। सो हुआ भी। लेकिन इस बार झगड़ा ज्य़ादा देर तक इसलिए नहीं चल पाया कि बस लगभग खाली थी। बंटी पीछे खिड़की के पास जा बैठा।<br />
नैनीताल में बबली और बंटी ने दस दिन खूब मौज की। आस-पास के तालाब और कस्बे देखे, नाव पर बैठे, आइसक्रीम खाई, बंदूक से निशाना लगाया और भी जो कुछ मौज वह कर सकते वह सब की।<br />
फिर वह भीमताल के पास ही नौकुचिया ताल की सैर करने गए। उस दिन दोनों बहुत शांत थे और एक बार कहने पर ही पापा या माँ का कहना मान रहे थे। पापा के आश्चर्य को कम करते हुए माँ ने बताया कि यह सब इसलिए हो रहा है कि पापा खुश होकर उन्हें पैडल बोट पर सैर करने दें। इसमें रामेश्वर को भला क्या आपत्ति हो सकती थी।<br />
नौकुचिया ताल में एक नाव घंटे भर के लिए किराए पर ली गई और बच्चों ने ताल का कोना-कोना छान मारा। धूप तेज़ थी मगर बादल भी छाए हुए थे। बीच-बीच में बादलों की छाया में तालाब की सैर करने में बहुत मज़ा आ रहा था। आखिरकार थक कर दोनों ने कहा कि अब किनारे चला जाए। वजह शायद केवल थकान ही नहीं थी। तालाब की सैर करते-करते उन्होंने वह दुकान देख ली थी जहाँ पेप्सी, फैंटा या लिमका पिया जा सकता था। किनारे पर पहुँचते ही कहा गया कि प्यास लग रही है। मतलब साफ था। पर माँ ने अनजान बनते हुए पानी की बोतल आगे बढ़ा दी। इस पर छोटी यानी बबली ने बेहद उदास होकर पापा की ओर देखा। फिर क्या था, सब चाय की दुकान पर थे।<br />
जब तक कोल्ड ड्रिंक्स आते, बंटी चुप कैसे बैठता। उसने कुछ कंकड़ उठाए और तालाब के किनारे जा कर उन्हें तालाब में फैंकने लगा। इस पर पापा ने उसे डाँटा और अपने पास बुलाया।<br />
पास आने पर उन्होंने समझाने की कोशिश की “बंटी बेटे, यह काम अच्छा नहीं है।“<br />
लेकिन कारण जाने बिना बंटी मानने को तैयार नहीं था। इस पर पापा ने उसे बताया कि ऐसा करने से तालाब भर जाएगा और फिर वह उसमें सैर नहीं कर पाएगा।<br />
आश्चर्य से बंटी ने कहा “पापा मैं तो तालाब के पानी को ऊपर ला रहा हूँ।”<br />
पापा ने कहा, “माना कि तुम्हारे कंकड़ फैकने से पानी ऊपर आएगा, पर यह भी तो देखो कि ऐसा करने से तालाब की गहराई कम हो जाएगी।”<br />
बंटी के पास आजकल हर सवाल का जवाब रहता है। उसने पलट कर दलील दी “पापा मेरे कुछ कंकड़ फेकने से तालाब क्यों भरेगा वह तो कितना गहरा है।”<br />
पापा ने समझाया “देखो बेटा, यहाँ हर साल तुम्हारे जैसे लाखों बंटी आते हैं और मान लो कि हरेक बच्चा चार-चार कंकड़ भी तालाब में फैके तो हर साल तालाब में लाखों कंकड़ भर जाएँगे। फिर क्या कुछ सालों में ही यह तालाब पूरा नहीं भर जाएगा?”<br />
अब तो बात बंटी की समझ में आ गई थी। उसने पापा से कहा “पापा, पापा, अब मैं तालाब में कभी कंकड़ या कचरा नहीं फैकुँगा। और हाँ पापा! मैं अपने दोस्तों को भी समझाऊँगा कि तालाब में क्यों कंकड़-पत्थर या कचरा नहीं फैकना चाहिए।”<br />
“शाबाश” पापा कुछ कहते इससे पहले ही बबली बोली।<br />
बंटी उसकी तरफ़ बढ़ा ही था कि पापा ने उसे रोकते हुए कहा “लो एक कहावत और बना लो अपने दोस्तों के लिए।”<br />
बंटी ने फिर पूछा “कौन सी कहावत?”<br />
इस पर पापा ने पूछा “तुमने वह कहावत सुनी है?”<br />
बंटी ने पूछा “कौन सी पापा?”<br />
“बूँद-बूँद सागर भर जाता” पापा ने कहा।<br />
“हाँ पापा, पर इससे उस कहावत का क्या?”<br />
“अरे बुद्धू इसका नहीं” पापा ने प्यार से समझाया, “कहावत तो अब यह बन गई कि कंकड़-कंकड़ ताल भर जाता। <br />
रामेश्वर ने बबली की ओर देखा “कहो बबली, कैसी लगी यह कहावत?”<br />
“बहुत अच्छी पापा बबली चहकी इस कहावत की मदद से मैं भी अपनी सहेलियों को तालाब में कूड़ा-करकट औऱ पत्थर फैकने से रोक सकती हूँ।”</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80&diff=3392हेमन्त जोशी2009-04-11T19:25:43Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र= Hemant Joshi1.gif<br />
|नाम=हेमन्त जोशी<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म= 27 मार्च 1954<br />
|जन्मस्थान= नैनीताल, उत्तराखंड, भारत<br />
|कृतियाँ=महायुद्धों के आस-पास<br />
|विविध= कविताएँ, कहानियाँ, फ़्रांसीसी से अनेक कवियों के अनुवाद, स्तंभ लेखन <br />
|जीवनी=[[हेमन्त जोशी / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
'''कहानियाँ '''<br />
* [[अनास नदी क्यों सूख गई? / हेमन्त जोशी]]<br />
* [[उलझनें / हेमन्त जोशी]]<br />
<br />
'''बाल कहानियाँ '''<br />
* [[कंकड़-कंकड़ ताल भर जाता / हेमन्त जोशी]]<br />
<br />
'''व्यंग्य '''<br />
* [[ / हेमन्त जोशी]]<br />
* [[ / हेमन्त जोशी]]<br />
<br />
'''लेख '''<br />
* [[ / हेमन्त जोशी]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%86%E0%A4%96%E0%A4%BF%E0%A4%B0_%E0%A4%B0%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82_/_%E0%A4%97%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%A8_%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%B5_%27%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%A7%27&diff=3389आखिर रचना क्यों / गजानन माधव 'मुक्तिबोध'2009-04-10T21:27:21Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=मुक्तिबोध<br />
}}<br />
<br />
{{GKPustak<br />
|चित्र= Muktibodh Arkyon1.jpg<br />
|नाम=आख़िर रचना क्यों <br />
|रचनाकार=[[मुक्तिबोध]]<br />
|प्रकाशक=राधाकृष्ण प्रकाशन<br />
|वर्ष= 1982<br />
|भाषा=हिन्दी<br />
|विषय=आलोचनात्मक निबंध <br />
|शैली=--<br />
|पृष्ठ=152<br />
|ISBN=<br />
|विविध=<br />
}}<br />
<br />
* [[साहित्य के दृष्टिकोण / गजानन माधव मुक्तिबोध]]<br />
* [[प्रगतिवाद: एक दृष्टि / गजानन माधव मुक्तिबोध]]<br />
* [[सामाजिक विकास और साहित्य / गजानन माधव मुक्तिबोध]]<br />
* [[समाज और साहित्य / गजानन माधव मुक्तिबोध]]<br />
* [[जनता का साहित्य किसे कहते हैं / गजानन माधव मुक्तिबोध]]<br />
* [[प्रगतिशीलता और मानव सत्य / गजानन माधव मुक्तिबोध]]<br />
* [[समीक्षा की समीक्षा / गजानन माधव मुक्तिबोध]]<br />
* [[आत्मबद्ध आलोचना के ख़तरे / गजानन माधव मुक्तिबोध]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A5%80_/_%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0&diff=3388जाह्नवी / जैनेन्द्र कुमार2009-04-10T21:24:54Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=जैनेन्द्र कुमार<br />
}}<br />
<br />
{{GKPustak<br />
|चित्र= Jainendra jhanvi1.jpg<br />
|नाम=जान्हवी <br />
|रचनाकार=[[जैनेन्द्र कुमार]]<br />
|प्रकाशक= पूर्वोदय प्रकाशन<br />
|वर्ष= 2001 (1955)<br />
|भाषा=हिन्दी<br />
|विषय=कहानी <br />
|शैली=गद्य<br />
|पृष्ठ=112<br />
|ISBN=<br />
|विविध=<br />
}}<br />
<br />
* [[मास्टरजी / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[घुंघरू / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[अकेला / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[समाप्ति / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[रेल में / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[संबोधन / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[ग्रामाफोन का रिकार्ड / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[जाह्नवी (कहानी)/ जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[दृष्टि-दोष / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[विस्मृति / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[पूर्ववृत्त / जैनेन्द्र कुमार]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%86%E0%A4%96%E0%A4%BF%E0%A4%B0_%E0%A4%B0%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82_/_%E0%A4%97%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%A8_%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%B5_%27%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%A7%27&diff=3387आखिर रचना क्यों / गजानन माधव 'मुक्तिबोध'2009-04-10T21:23:48Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=मुक्तिबोध<br />
}}<br />
<br />
{{GKPustak<br />
|चित्र= Muktibodh Arkyon1.jpg<br />
|नाम=आख़िर रचना क्यों <br />
|रचनाकार=[[मुक्तिबोध]]<br />
|प्रकाशक=राधाकृष्ण प्रकाशन<br />
|वर्ष= 1982<br />
|भाषा=हिन्दी<br />
|विषय=आलोचनात्मक निबंध <br />
|शैली=--<br />
|पृष्ठ=152<br />
|ISBN=<br />
|विविध=<br />
}}<br />
<br />
* [[साहित्य के दृष्टिकोण / गजानन माधव मुक्तिबोध]]<br />
* [[प्रगतिवाद: एक दृष्टि / गजानन माधव मुक्तिबोध]]<br />
* [[सामाजिक विकास और साहित्य / गजानन माधव मुक्तिबोध]]<br />
* [[समाज और साहित्य / गजानन माधव मुक्तिबोध]]<br />
* [[जनता का साहित्य किसे कहते हैं / गजानन माधव मुक्तिबोध]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A5%80_/_%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0&diff=3384जाह्नवी / जैनेन्द्र कुमार2009-04-10T21:13:20Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=जैनेन्द्र कुमार<br />
}}<br />
<br />
{{GKPustak<br />
|चित्र= Jainendra jhanvi1.jpg<br />
|नाम=जान्हवी <br />
|रचनाकार=[[जैनेन्द्र कुमार]]<br />
|प्रकाशक= पूर्वोदय प्रकाशन<br />
|वर्ष= 2001 (1955)<br />
|भाषा=हिन्दी<br />
|विषय=कहानी <br />
|शैली=<br />
|पृष्ठ=112<br />
|ISBN=<br />
|विविध=<br />
}}<br />
<br />
* [[मास्टरजी / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[घुंघरू / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[अकेला / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[समाप्ति / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[रेल में / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[संबोधन / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[ग्रामाफोन का रिकार्ड / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[जाह्नवी (कहानी)/ जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[दृष्टि-दोष / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[विस्मृति / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[पूर्ववृत्त / जैनेन्द्र कुमार]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Jainendra_jhanvi1.jpg&diff=3383चित्र:Jainendra jhanvi1.jpg2009-04-10T21:11:31Z<p>हेमंत जोशी: scan:hemant joshi</p>
<hr />
<div>scan:hemant joshi</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0_/_%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%B0_%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF&diff=3382पिता-पुत्र / ताराशंकर वंद्योपाध्याय2009-04-10T21:02:23Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=ताराशंकर वंद्योपाध्याय <br />
}}<br />
<br />
{{GKPustak<br />
|चित्र= Scan0003r.jpg<br />
|नाम=पिता-पुत्र<br />
|रचनाकार=[[ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
|प्रकाशक=प्रयंक प्रकाशन गृह<br />
|वर्ष= 2002<br />
|भाषा=हिन्दी<br />
|विषय=कहानी <br />
|शैली=<br />
|पृष्ठ=127<br />
|ISBN=<br />
|विविध=<br />
}}<br />
<br />
* [[पिता-पुत्र (कहानी) / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
* [[आखिरी बात / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
* [[दिग्विजयी और नग्न सन्यासी / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
* [[संध्यामणि / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
* [[वह क्षण / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
* [[आलोकाभिसार / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0_/_%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%B0_%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF&diff=3381पिता-पुत्र / ताराशंकर वंद्योपाध्याय2009-04-10T20:52:25Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=ताराशंकर वंद्योपाध्याय <br />
}}<br />
<br />
{{GKPustak<br />
|चित्र= Scan0003r.jpg<br />
|नाम=पिता-पुत्र<br />
|रचनाकार=[[ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
|प्रकाशक=प्रयंक प्रकाशन गृह<br />
|वर्ष= २००2<br />
|भाषा=हिन्दी<br />
|विषय=कहानी <br />
|शैली=<br />
|पृष्ठ=127<br />
|ISBN=<br />
|विविध=<br />
}}<br />
<br />
* [[पिता-पुत्र (कहानी) / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
* [[आखिरी बात / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
* [[दिग्विजयी और नग्न सन्यासी / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
* [[संध्यामणि / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
* [[वह क्षण / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
* [[आलोकाभिसार / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Scan0003r.jpg&diff=3380चित्र:Scan0003r.jpg2009-04-10T20:50:26Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div></div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A4%E0%A5%82%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%95%E0%A5%87_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6_/_%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A5%88%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%9F_%E0%A4%B9%E0%A5%88%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A5%87&diff=3379तूफ़ान के बाद / अरनैस्ट हैमिंगवे2009-04-10T18:13:21Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=अरनैस्ट हैमिंगवे<br />
}}<br />
<br />
{{GKPustak<br />
|चित्र= Hemingway1.jpg<br />
|नाम=तूफ़ान के बाद <br />
|रचनाकार=[[अरनैस्ट हैमिंगवे]]<br />
|प्रकाशक=विश्व पुस्तक केंद्र<br />
|वर्ष= 2002<br />
|भाषा=हिन्दी<br />
|विषय=कहानी <br />
|शैली=<br />
|पृष्ठ=88<br />
|ISBN=<br />
|विविध= इस संग्रह की कहानियों का रूपांतर रीमा पाराशर ने किया है।<br />
}}<br />
<br />
* [[पिकनिक / अरनैस्ट हैमिंगवे]]<br />
* [[दूसरे देश में / अरनैस्ट हैमिंगवे]]<br />
* [[तूफान के बाद / अरनैस्ट हैमिंगवे]]<br />
* [[आदिवासी बस्ती / अरनैस्ट हैमिंगवे]]<br />
* [[बर्फ़ से ढके मैदान / अरनैस्ट हैमिंगवे]]<br />
* [[प्रतिक्षा / अरनैस्ट हैमिंगवे]]<br />
* [[पागल / अरनैस्ट हैमिंगवे]]<br />
* [[अब ज़रा मैं सो लूँ / अरनैस्ट हैमिंगवे]]<br />
* [[उसे दौरा पड़ता था / अरनैस्ट हैमिंगवे]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A4%E0%A5%82%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%95%E0%A5%87_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6_/_%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A5%88%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%9F_%E0%A4%B9%E0%A5%88%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B5%E0%A5%87&diff=3378तूफ़ान के बाद / अरनैस्ट हैमिंगवे2009-04-10T18:09:59Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=अरनैस्ट हैमिंगवे<br />
}}<br />
<br />
{{GKPustak<br />
|चित्र= Hemingway1.jpg<br />
|नाम=तूफ़ान के बाद <br />
|रचनाकार=[[अरनैस्ट हैमिंगवे]]<br />
|प्रकाशक=विश्व पुस्तक केंद्र<br />
|वर्ष= २००2<br />
|भाषा=हिन्दी<br />
|विषय=कहानी <br />
|शैली=<br />
|पृष्ठ=88<br />
|ISBN=<br />
|विविध= इस संग्रह की कहानियों का रूपांतर रीमा पाराशर ने किया है।<br />
}}<br />
<br />
* [[पिकनिक / अरनैस्ट हैमिंगवे]]<br />
* [[दूसरे देश में / अरनैस्ट हैमिंगवे]]<br />
* [[तूफान के बाद / अरनैस्ट हैमिंगवे]]<br />
* [[आदिवासी बस्ती / अरनैस्ट हैमिंगवे]]<br />
* [[बर्फ़ से ढके मैदान / अरनैस्ट हैमिंगवे]]<br />
* [[प्रतिक्षा / अरनैस्ट हैमिंगवे]]<br />
* [[पागल / अरनैस्ट हैमिंगवे]]<br />
* [[अब ज़रा मैं सो लूँ / अरनैस्ट हैमिंगवे]]<br />
* [[उसे दौरा पड़ता था / अरनैस्ट हैमिंगवे]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Hemingway1.jpg&diff=3377चित्र:Hemingway1.jpg2009-04-10T18:08:42Z<p>हेमंत जोशी: scan:hemant joshi</p>
<hr />
<div>scan:hemant joshi</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A5%80_/_%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0&diff=3376जाह्नवी / जैनेन्द्र कुमार2009-04-10T17:59:44Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=जैनेन्द्र कुमार<br />
}}<br />
<br />
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|रचनाकार=[[जैनेन्द्र कुमार]]<br />
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|भाषा=हिन्दी<br />
|विषय=कहानी <br />
|शैली=<br />
|पृष्ठ=126<br />
|ISBN=<br />
|विविध=<br />
}}<br />
<br />
* [[मास्टरजी / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[घुंघरू / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[अकेला / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[समाप्ति / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[रेल में / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[संबोधन / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[ग्रामाफोन का रिकार्ड / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[जाह्नवी (कहानी)/ जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[दृष्टि-दोष / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[विस्मृति / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[पूर्ववृत्त / जैनेन्द्र कुमार]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0&diff=3375जैनेन्द्र कुमार2009-04-10T17:58:42Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र= <br />
|नाम=जैनेन्द्र कुमार<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म= 2 जनवरी 1905<br />
|मृत्यु= 24 दिसम्बर 1988<br />
|जन्मस्थान= अलीगढ़, उत्तर प्रदेश<br />
|कृतियाँ=कहानियाँ एवं उपन्यास<br />
|विविध= <br />
|जीवनी=[[जैनेन्द्र कुमार / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
* [[जाह्नवी / जैनेन्द्र कुमार]] (कहानी संग्रह)<br />
'''कहानियाँ <br />
* [[कफ़न प्रेमचन्द / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[जाह्नवी (कहानी)/ जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[ध्रुवयात्रा / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[पत्नी / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[पाजेब / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[फ़ोटोग्राफ़ी / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[त्रिबेनी / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[दो सहेलियाँ / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[एक रात / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[समाप्ति / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[खेल / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[बाहुबलि / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[अपना-अपना भाग्य / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
* [[रुकिया बुढ़िया / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
<br />
'''उपन्यास'''<br />
* [[सुखदा / जैनेन्द्र कुमार]]<br />
<br />
'''संस्मरण'''<br />
* [[एक शांत नास्तिक संत / जैनेन्द्र कुमार]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0_/_%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%B0_%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF&diff=3374पिता-पुत्र / ताराशंकर वंद्योपाध्याय2009-04-10T17:49:33Z<p>हेमंत जोशी: </p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=ताराशंकर वंद्योपाध्याय <br />
}}<br />
<br />
{{GKPustak<br />
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|विषय=कहानी <br />
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|पृष्ठ=127<br />
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|विविध=<br />
}}<br />
<br />
* [[पिता-पुत्र (कहानी) / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
* [[आखिरी बात / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
* [[दिग्विजयी और नग्न सन्यासी / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
* [[संध्यामणि / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
* [[वह क्षण / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
* [[आलोकाभिसार / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0_/_%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%B0_%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF&diff=3373पिता-पुत्र / ताराशंकर वंद्योपाध्याय2009-04-10T17:46:40Z<p>हेमंत जोशी: नया पृष्ठ: {{GKRachna |रचनाकार=ताराशंकर वंद्योपाध्याय }} {{GKPustak |चित्र= |नाम=पिता-पुत्...</p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=ताराशंकर वंद्योपाध्याय <br />
}}<br />
<br />
{{GKPustak<br />
|चित्र= <br />
|नाम=पिता-पुत्र<br />
|रचनाकार=[[ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
|प्रकाशक=प्रयंक प्रकाशन गृह<br />
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|भाषा=हिन्दी<br />
|विषय=कहानी <br />
|शैली=<br />
|पृष्ठ=127<br />
|ISBN=<br />
|विविध=<br />
}}<br />
<br />
* [[ / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]<br />
* [[ / ताराशंकर वंद्योपाध्याय ]]</div>हेमंत जोशीhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%B0_%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF&diff=3372ताराशंकर वंद्योपाध्याय2009-04-10T17:13:21Z<p>हेमंत जोशी: नया पृष्ठ: {{GKGlobal}} {{GKParichay |चित्र= |नाम=ताराशंकर वंद्योपाध्याय |उपनाम= |जन्म= |मृत्य...</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=<br />
|नाम=ताराशंकर वंद्योपाध्याय<br />
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|जीवनी=[[ताराशंकर वंद्योपाध्याय / परिचय]]<br />
}}<br />
* [[पिता-पुत्र / ताराशंकर वंद्योपाध्याय]](कहानी संग्रह)</div>हेमंत जोशी