http://www.gadyakosh.org/gk/api.php?action=feedcontributions&user=Dr.+Manoj+Srivastav&feedformat=atomGadya Kosh - सदस्य योगदान [hi]2024-03-28T10:48:38Zसदस्य योगदानMediaWiki 1.24.1http://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A7%E0%A4%A4_!_%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%82%E0%A4%B8_%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82_%E0%A4%B9%E0%A5%82%E0%A4%81_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=6719धत ! दकियानूस नहीं हूँ / मनोज श्रीवास्तव2012-06-07T09:53:57Z<p>Dr. Manoj Srivastav: 'धत, दकियानूस नहीं हूँ जब मुंशी जी अपने चैंबर से बाहर ...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
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<div>धत, दकियानूस नहीं हूँ<br />
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जब मुंशी जी अपने चैंबर से बाहर निकले तो उनके कोट के पाकेट रुपयों के भारी बंडलों के कारण लटक रहे थे। उनके इशारे पर ड्राइवर गाड़ी से निकलकर उनके पास आया।<br />
मुंशी जी ने उसके कान से अपना मुँह सटा दिया, "बर्खुरदार, जब तुम कार से बाहर आते हो तो खाली अटैची भी साथ लाया करो..." <br />
ड्राइवर "सारी" कहते हुए फिर वापस कार में से अटैची निकालकर मुंशी जी के हाथों में थमा दिया। मुंशी जी ने एक कोने में खड़े-खड़े नोटों के बंडलों को अटैची में ज़ब्त कर उसे ड्राइवर को सौंप दिया, "दर बैठकर अच्छी तरह गिन लेना। कुल डेढ़ लाख हैं..."<br />
मुंशी जी को जितना भरोसा अपने ड्राइवर पर है, उतना तो उन्हें अपनी बीवी पर भी नहीं है। वरना, इतनी बड़ी रक़म वह सीधे अपने बीवी के बटुए में ही डालते या बैंक खाते में।<br />
वह निश्चिंत होकर वापस चैंबर में आकर अपनी चेयर पर बैठ गए। तभी अर्दली ने आकर उन्हें सलाम दाग़ा, "हज़ूर, पंडिज्जी आए हैं।"<br />
पंडितजी के आगमन की ख़बर सुनकर उनके चेहरे की झुर्रियाँ मुस्कराने के अंदाज़ में सिमट गई और उनके गालों पर कुल खाया-पीया माल-मलाई नज़र आने लगा। उन्होंने झट फाइल बंद कर और गिलास के पानी की घूँट हलक से नीचे उतारकर जैसे ही किसी अपने आत्मीय जन से बतरस का मजा लेने का मूड बनाया, एक अज़ीबोगरीब ताज़गी उनके व्यक्तित्व में घुलने लगी। गालों के उभार का रंग सूर्ख लाल हो गया और आँखों में बल्ब जल उठा। <br />
पंडित जी के आते ही उन्होंने उठकर उन्हें गले लगाया और उन्हें सामने कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। फिर, उठकर ए.सी. का टेम्परेचर डाउन करते हुए नौकर को गुहार लगाई, "मियाँ मुसुद्दी! पंडिज्जी को मलाई मारके अदरख की निखालिस दूध वाली चाय पिलाओ।"<br />
पंडित जी चाय की चुस्कियाँ लेने लगे। उन्हें मुसलमान के हाथ की बनी चाय पीने में अब कोई एतराज़ नहीं है। हाँ, उन्होंने पहली बार अपना एतराज़ ज़रूर दर्ज़ कराया था, "मुंशी जी, मैं शांडिल्य ब्राह्मण हूँ जबकि आप एक मुसलमान के हाथ की बनी चाय पिलाकर मेरा धरम भ्रष्ट कर रहे हैं और मेरा परलोक बिगाड़ रहे हैं।"<br />
तब मुंशी जी ने फलसफाना अंदाज़ में जाति और धर्म के ख़िलाफ जो तर्क-कुतर्क का बवंडर चलाया, उससे पंडित जी का सनातनी संस्कार धूल की माफिक उड़ गया। फिर, उनकी दोबारा हिम्मत नहीं हुई कि मियां मुसुद्दी की चाय का तिरस्कार कर सकें।<br />
उस वाकया के कोई हफ्ते भर बाद मुंशी जी ने मुसुद्दी मियां के खानदानी कद का लेखा-जोखा फिर पेश किया, "पंडित जी, मुसुद्दी के पुरखे ठाकुर जमींदार थे। उनकी आठ सौ गांवों की मनसबदारी थी। पर, कालचक्र ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। औरंगज़ेब के सल्तनत में सियासी फायदा उठाने के लिए उन्होंने इस्लाम कबूल किया था। वरना, तुम क्या, काशी के विश्वनाथ बाबा मठाधिराज को भी उसके हाथ का पानी पीकर फ़ख्र होता। आज इतने रईस खानदान का वारिस तुम जैसे फक्कड़ पंडित को चाय पिला रहा है तो तुम्हें गुरेज हो रहा है..." मुंशी जी ठठाकर हंसने लगे।<br />
पंडित जी के माथे पर पसीने की बूंदें छलछला उठीं। लेकिन, उनकी आँखों से उनका जातीय अहं अभी भी चटख रहा था। वे एकदम से मुँह बिचकाने लगे, "यों तो सभी हिंदुस्तानी मुसलमान मूल रूप से हिंदू हैं; लेकिन, इसका यह मतलब तो नहीं है कि इन मांसभक्षियों के साथ हम ख<br />
आन-पान जैसा संबंधों बनाएं।"<br />
मुंशी जी बेतहाशा फट पड़े, "देखो पंडित जी! मांस-मछरी तो हमलोग भी खाते हैं। चलो, हम तो ठहरे ठाकुर बिरादरी के जिसका खान-पान मांस-मदिरा ही होता है। लेकिन, मैंने तो अस्सी फीसदी खांटी बांभनों को चिकेन-लेग चिचोरते देखा है। अपनी रसोई में तो प्याज-लहसुन का छिलका भी दिख जाए तो तुमलोग तरह-तरह के ढोंग़-पाखंड और फलाना-ढमकाना करने लगते हो। लिहाजा, हाई-फाई स्टार होटलों में तुम्हें नान-वेज़ डिश मंगाने में कोई हिचक नहीं होती। तुम्हाड़े भी कोई अस्सी फीसदी रिश्तेदार मांसखोर ही होंगे; तो क्या तुम उनके यहाँ जाकर इसी तरह परहेज़ करते हो या, उनसे अपनी रिशेदारी तोड़ देते हो?"<br />
"बेशक, पर हम सनातनी हिंदू गायखोरों को अपना दुश्मन ही मानते हैं और मानते आएंगे," पंडित जी का मेहराया चेहरा थोड़ा तल्ख हो गया।<br />
"देखो पंडिज्जी! इंग्लैंड-अमेरिका जाकर ये सारे पाखंडी शांडिल्य क्या खाते होंगे, यह तुमसे ज़्यादा कौन जानता होगा? तुम्हारे दोनों बेटे भी तो विदेश में हैं। अरे, बड़के ने तो ईसाईन से ब्याह तक रचा डाला है। उसके इंडिया आने पर तुम उसकी कितनी खातिरदारी करते हो, यह बात मुझसे नहीं छिपी है। अच्छा, तुम्हीं बताओ, क्या तुम उसकी थाली में फ्राई फिश और मटन कबाब नहीं परोसते होगे?"<br />
"लेकिन, मुंशी जी, कुछ भी हो, गौमांस भक्षण करके तो हर हिंदू आज भी तिरस्कृत होता है..." पंडित जी ने बड़े गुमान से अपने माथे पर हाथ फेरा।<br />
मुंशी जी पीकदान में तांबूलरस उड़ेलते हुए ताव खाने लगे, "पंडिज्जी! हर मुसलमान गायखोर नहीं होता। मैं बताऊँ, बहुतेरे मुसलमान तो प्याज-लहसुन से भी परहेज करते हैं। तुम कश्मीरी मुसलमानों का ही मिसाल ले लो। वहाँ के नब्बे फीसदी मुसलमान ब्रहमिन-कनवर्टेड हैं। अभी भी वहाँ ऐसे मुसलमानों की तादात काफी है जो सुबह उठकर एक-दूसरे का स्वागत 'राम-राम' करके ही करते हैं। उनके यहाँ आज भी मांस-भक्षण नहीं होता।"<br />
उनके मुंह में पान का लबार फिर भर गया। उन्होंने हाथ उठाकर पंडित जी को बोलने से रोकते हुए और पीकदान को दोबारा कृतार्थ करते हुए अपनी बात जारी रखी,"सुनो पंडिज्जी! मांसखोरी अब फैशन में शुमार होने लगा है। जो लोग इससे नाक-भौंह सिकोड़ते हैं, उन्हें उजड्ड और देहाती समझा जाता है और ऐसे लोग हैं कितने! दावतों और मेहफिलों में तो पूजा-पाठ कराने वाले पंडितों को मैंने चुपके से मीट-मछली उड़ाते देखा है..."<br />
उस दिन पंडित जी ने घुटने टेक दिए। मुंशी जी से मन-मुटाव पैदा करने की कुव्वत उनमें कहाँ थी; आख़िर, वे ही तो उनके सारे मुकदमों की पैरवी कर रहे थे। चाहे पंचायत की जमीन कब्ज़ाने वाला मुकदमा हो या अपनी साली की आबरू पर हाथ डालने का लफड़ा; वेलफेयर सोसायटी के फंड से घोटाला करने का केस हो या सड़क-निर्माण के ठेके में ग्राम-पंचायत को चूना लगाने का जग-जाहिर मुआमला, पंडित जी तो चारो और से घनघोर घिरे हुए हैं। अगर मुंषी जी के हाथ में पंडित जी की डगमाती नाव का पतवार नहीं होता तो वे कभी के डूब चुके होते। सो, उन्होंने अपनी नइया के खेवनहार की सारी लंबी ख़ामोशी का बर्फ़ीला पानी उड़ेल दिया और ठंडी चाय की चुस्की ऐसे सुड़क-सुड़क कर लेने लगे जैसेकि अब तक उन्होंने ऐसी जायकेदार चाय कभी पी ही न हो जिसमें मियां मुसुद्दी ने बेशक, अमृत घोल रखा है।<br />
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पंडित जी को मुंशी जी की काबलियत पर बेहद भरोसा है। उन्हें कोई बड़ा कांड करने में कोई हिचक नहीं होती और मुंशी जी को उनका केस हैंडिल करने में तनिक झिझक नहीं होती है। इसकी एक बड़ी वज़ह यह है कि मुंशी जी की वक़ालत जमाने में उन्होंने एड़ी-चोटी के जतन-जुगत भिड़ाए हैं। उन्होंने ही उन्हें सफलता के सारे नुस्खे बताए है कि इस पेशे में मुवक्किलों के साथ किसी प्रकार का बेदभाव उनकी तरक्की में ग्रहण लगा सकता है। इसलिए, मुंशी जी ने अपने चैंबर की दीवारों पर सभी धर्मों की बाकायदा महंगी फ्रेमों में सजी तस्वीरें लगा रखी हैं। अपनी रिवाल्विंग चेयर के ठीक पीछे गणपति बप्पा की भव्य तस्वीर लटका रखी है। उसके बाईं और अमृतसर के स्वर्णमंदिर की और दाईं और पाक मदीने की मस्ज़िद की तस्वीरें समानान्तर लगी हुई हैं। सामने मेज पर क्रूस पर लटकते हुए ईसामसीह की संगमरमरी मूरत और उसी से आसन्न न्याय की प्रतीक, आँखों पर पट्टी-बंधी, तराजू लिए स्त्री की बेहद मनमोहक भाव-भंग़िमा वाली चाँदी की कीमती स्टैच्यू।<br />
भले ही पंडित जी ने मियाँ मुसुद्दी की चाय पर एतराज फरमाया हो, यह उन्हीं के अचूक मशविरे का बेहद असरकारी नतीजा है कि भारत के संविधान, दूसरे देशों के संविधानों और वक़ालत की उर्दू, अंग्रेजी और हिंदी वाली मोटी-मोटी पुस्तकों के बीच सुनहरे ज़िल्दों में क़ुरआन शरीफ़, गीता, ज़ेंद अवेस्ता, रामायण, तालमुद, गुरुग्रंठ साहिब, पवित्र बाइबिल और अथर्व वेद जैसे महान ग्रंठ रंग़ीन मखमली आसन पर बड़े सलीके-करीने से विराजमान किए गए हैं। ये सारे मुंशीजी की प्रकांड विद्वता पर मुहर लगाते हैं। <br />
मुंशीजी और पंडितजी गाढ़े समय में एक-दूसरे पर मर-मिटने वाले ऐसे मिसालिया दोस्त हैं कि उन्हें एक-दूसरे की परछाहीं कहना बेजा न होगा। अगर मुंशीजी की वक़ालत पंडितजी के बदौलत चमकी है तो पंडितजी के गोरखधंधे को इज़्ज़तदार जामा पहनाने में मुंशीजी ने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है।<br />
बहरहाल, वक़ालत के पेशे में मुंशीजी को खानदानी तज़ुर्बा है। उनके वालिद अंग्रेजों के जमाने के जाने-माने वकील थे और उनके वालिद के वालिद यानी नरेंद्र प्रताप बेशक, एक बड़े मुख्तार थे। उस दौर में हिंदुस्तान में जबकि मुग़ल सल्तनत और अंग्रेजी हुकूमत साथ-साथ चल रहे थे, बड़े मुख्तार साहब की अपनी मुकदमेबाजी की हुनर के चलते अंग्रेजों की नई-नई रियासतों में बर्तानी सरकार की तरफ़ से हिंदुस्तान की आज़ादी के दीवानों के खिलाफ़ पैरवी करने में बड़ी दिलचस्पी थी। उनकी पैरवी ज़बरदस्त हो या कमजोर, जीत उन्हीं की होती थी क्योंकि अंग्रेजों को जो अपना साम्राज्य-विस्तार करना होता था।<br />
बड़े मुख्तार साहब बड़े फ़ायदे में थे। अंग्रेज अफ़सरों ने शहर के एक अहम हिस्से में उन्हें पाँच सौ गज में बनी बड़ी आलीशान कोठी मुहैया कराने के अलावा माली, फराश और घरेलू नौकर-चाकर भी उनकी खिदमत में तैनात कर रखे थे। कुल मिलाकर उनका रुतबा बर्तानिया से आए किसी आला अफ़सर से कम न था। कचहरी में उनके चैंबर में जो बाबू तैनात था, उसने उन्हें दफ़्तर के झंझटों से निज़ात दे रखा था। वह सारे ज़रूरी कागजात लेकर रोज शां को कोठी में हाजिरी लगाता था और उनसे ज़रूरी दस्तखत, डिक्टेशन और हिदायतें लेकर अगली सुबह, कचहरी स्थित उनके चैंबर में दूसरे दिन के काम में लग जाता था। इस तरह बड़ॆ मुख्तार साहब नियत दिनों को हीयानी जब किसी मुकदमें की पैरवी करनी होती थी या जब कोई बड़ा अंग्रेज़ अफ़सर उनसे मुलाकात की ख़्वाहिश ज़ाहिर करता था तो वे कोर्ट में अपनी मौज़ूदगी दर्ज़ कराते थे और वह भी मोटर गाड़ी से जिसके खर्चे का बंदोबस्त भी अंग्रेज़ी खर्चे से होता था। <br />
पर, इसे क्या कहा जाए, ऊपर वाले की मर्जी या किस्मत का बदा कि बड़े मुख्तार साहब के साथ सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था कि एक दिन अचानक उनकी सड़क हादसे में मौत हो गई। लिहाजा, उनकी अकाल मौत के बाद अंग्रेज़ों की ख़िदमत करने की ज़िम्मेदारी उनके सुपुत्र के कंधों पर आ गई जो अभी-अभी बिलायत से वक़ालत पढ़कर हिंदुस्तान वापस आए थे। यों तो उनकी मंशा बर्तानिया में ही प्रैक्टिस करने की थी, लेकिन वे अपने वालिद के काम को अधूरा कैसे छोड़ सकते थे? इसलिए, मजबूरन ही सही, बड़े मुख्तार साहब के लायक बेटे वकील साहब अपने वालिद के नक्शे-कदम पर चलते हुए उन सभी ऐशो-आराम के ताउम्र हक़दार बने रहे जो उनके वालिद को मुहैया थी।<br />
बहरहाल, जिस मनहूस घड़ी में आज़ादी का ऐलान हुआ, उसने बड़े मुख्तार साहब के ख़ानदानी ऐश पर फुफुंद उगा दिए। वकील साहब को आज़ादी के ऐलान का जो सदमा लगा, उसके चलते वे बेड पर पड़े तो उठ न सके। कोई बारह साल तक वे रुग्ण घिसटते रहे। अव्वल बात ये थी कि इस दरम्यान उनकी तीमारदारी उनके पुत्र मुंशीजी ने ही की जिन्होंने अपने पिता ख़िलाफ ताउम्र बग़ावत का झंडा गाड़ रखा था।<br />
आख़िरकार, अस्सी सेर से छटाँक भर रह गए वकील साहब ने दुनिया को अलविदा कहने से पहले मुंशीजी को बुलाकर कुछ गुरुमंत्र दिए--"माय सन! इन ज़ाहिल औ' कमबख़्त हिंदुस्तानियों की ख़िदमत करना हमारे ख़ानदानी उसूलों के ख़िलाफ रहा है। हमारी डायरी में कुछ रहम-दिल अंग्रेज़ अफसरों के नाम-पते हैं। तुमसे गुज़ारिश है कि तुम अपना ग़ुरूर छोड़कर उनसे संपर्क करना, मदद की दर्ख़्वास्त करना। अगर उनसे मदद मिलती है तो सीधे बिलायत जा-बसना।"<br />
मुंशीजी को अपने वालिद के मशविरे से बदहज़मी हो गई। जहाँ तक उनका अपने वालिद से बाप-बेटे जैसे ताल्लुकात का संबंध रहा, वह कभी नार्मल नहीं रहा। उन्हें फ़रमान मिला था कि वे बिलायत जाकर तालीम हासिल करें। लेकिन, वे तो हिंदुस्तान की आज़ादी के लिए आवारगी ही करते रहे। उन्हें शादी करके घर बसाने का सबक दिया गया तो वे किसी बिस्मिल्ल का कोई 'सरफ़रोशी की तमन्ना' वाला जुमला सुनाकर सिर पर बंधे कफन की और इशारा कर देते। उन्हें बार-बार सख़्त हिदायतें दी गईं कि वे अपना दोस्ताना सिर्फ़ अंग्रेज़ लौंडों से निभाएं। पर, जब भी वे सैर-सपाटे से दो-तीन दिनों बाद चंद घंटों के लिए घर में नज़र आते तो उनकी गलबहियाँ में कुछ मुसलमान या सिख नौजवान होते। उस वक़्त, वकील साहब का मुँह गुस्से से फूलकर कुप्पा हो जाता। बेशक! इतना बेकहन कपूत इनके रईस ख़ानदान में पिछले सात पुश्तों से पैदा नहीं हुआ था। <br />
मुंशीजी की आवारगी की लत आज़ादी के बाद भी नहीं छूटी। लेकिन, उन्होंने एक काम अपने वालिद के कहे मुताबिक किया। कोई चालीस साल की उम्र में उन्होंने शादॊ का फैसला किया--बाक़ायदा अपने पिता की आदमक़द तस्वीर के सामने संकल्प लेते हुए--"बाबूजी! आप हमेशा हमारे कौम के ख़िलाफ फिरंगी हुक़ूमत की तरफदारी करते रहे। यही बात मुझ पर बेजा गुजरती थी। दरअसल, मुझे अपने वतन से बेइंतेहां मुहब्बत रही है और इसलिए, हमारा आपसे और दादाजी से छत्तीस का आँकड़ा रहा है। हमें इस बात का पूरा इल्म है कि हमारी ख़ुदगर्ज़ी के चलते आपकी रूह आज भी बेचैन होगी। आपकी इसी बेचैनी को दूर करने के लिए आपके मन-मुताबिक मैं शादी करने जा रहा हूँ।"<br />
उनके फैसले से वकील साहब की आत्मा को कितना सुकून मिला होगा, इस बारे में कोई पुख़्ता सबूत नहीं दिया जा सकता। लेकिन, चूँकि मुंशीजी ने बयालीस साल की एक विधवा से इश्क़ फरमाया था, इसलिए उनके बाबूजी की रूह को सुकून के बजाय बेकरारी ही हुई होगी।<br />
शादी के बाद मुंशीजी की ज़िंदगी में बदलाव का खुशनुमा बयार बहने लगा। उन्हें उस उम्र में दो-दो सुपुत्र पैदा हुए। उनके लड़कपन के बारे में सुनकर तो पत्थर को भी रोना आ जाता है जबकि उनके स्वर्गीय पिता उन्हें उस वक़्त भी दिल पर नश्तर चलाने वाली नसीहतें देने से बाज नहीं आते थे जबकि उनके पेट में एक भी दाने का जुगाड़ नहीं रहता था। उनके बदन को ढंकने के लिए चिथड़े भी नहीं होते थे और पैरों में डालने को एक जोड़ी चमरौधा चप्पल भी नहीं। कुल मिलाकर उनकी हालत वकील साहब के नौकर-चाकरों से भी बदतर थी। लेकिन, वे इसई हालत में आज़ादी के दीवानों की टोली में बड़ी तबीयत से शरीक़ हो जाते थे--किसी गाँधी, किसी नेहरू, किसी नेताजी की आवाज़ पर। <br />
लेकिन, उन पर मोहल्ले के एक रईस की रहम-दिल नज़र भी थी। नाम था--सेठ रज्जूमल। उस रईस ने उन्हें रहने के लिए एक कमरा दे रखा था और गद्दी में बैठकर मुंशीगिरी करने की मामूली आमदनी वाली नौकरी भी। यहीं से उन्हें मुंषीजी का तगमा मिला; वरना, मुख्तार साहब अर्थात महेंद्र प्रताप को मुंशीजी पुकारना उनके भारी-भरकम ख़ानदान पर कींचड़ उछालने जैसा था।<br />
मातृभूमि की कसम खाकर फिरंगी हुकूमत को उखाड़ फेंकने की बदतमीज़ी उनके ज़ेहन में तब समाई जबकि वे मिडिल पास कर चुके थे। जब वे पहली बार इन्क़लाबियों की जमात में शामिल हुए थे उनकी उम्र रही होगी कोई चौदह साल की। उन्होंने देखा कि इन्क़लाबियों पर बेरहमी से लाठियाँ बरसाई गईं थी और उन्हें फिरंगी जूतों से रौंदा गया था। पर, उन्हें यानी महेंद्र प्रताप को इन्क़लाबियों के झुंड में देखते हुए कोतवाल आगस्टिन चींख उठा, "अरे! ये तो वकील साहब का छोकरा है।"<br />
वकील साहब के बेटे को सिरक्षित वापस सौंपते हुए कोतवाल ने फरमाया, "वकील सा'ब! अपने बेटे पर लगाम कसिए, वरना, उसकी कमसिन उम्र गोलियों की खुराक बन जाएगी।"<br />
वकील साहब के पैरों तले जमीन खिसकती-सी नज़र आई। उन्होंने पहली बार अपने बेटे के गाल पर झन्नाटेदार तमाचा जड़ा, "हम तुम्हें अपनी जागी-ज़ायदाद से बेदखल कर देंगे। ख़बरदार! अगर तुम्हारे कदम उजड्ड हिंदुस्तानियों की पंगत में बढ़े तो हम उनकी खाल उधेड़ देंगे।"<br />
वकील साहब को क्या मालूम था कि कि उनका तमाचा उनके और उनके बेटे के बीच एक ऐसा दरार बना देगा जिसे कभी नहीं भरा जा सकेगा। <br />
सो, महेंद्र प्रताप, मुंशीजी के नाम से मकबूल होने तक अपने पिता से ताउम्र बग़ावत करते रहे। बहरहाल, अगर ये कहा जाए कि उन्हें अपने पिता से प्यार नहीं था तो यह बात सोलह आने सच नहीं है। अपने पिता की मौत पर वे फूट-फूट कर रोए थे और जब चिता पर सवार उनकी लाश को मुखाग्नि दे रहे थे तो वे पागलों की भाँति चींखने-चिल्लाने लगे थे। दरवक़्त, अगर भीड़ के असंख्य हाथ उन्हें थां न लिए होते तो वे अपने पिता की जलती चिता में छलांग लगाकर लगभग मौत को गले लगा ही चुके थे। आज मुंशीजी के बारे में लोगबाग इस घटना पर बतकही करते हुए सुने जाते हैं। बेशक! इसी कारण घर-बाहर मुंशीजी को बड़ी इज़्ज़त और तरज़ीह दी जाती है। इसकी एक अहम वज़ह यह भी है कि उनकी राष्ट्रभक्ति के किस्से बच्चे-बच्चे की जुबान पर हैं। लोग यह भी जानते हैं कि उनके सिवाय उनके बाप-दादा बेहद अंग्रेज़भक्त थे और हिंदुस्तान की आज़ादी के ख़िलाफ थे। उनके पिता सुरेंद्र प्रताप उनकी राष्ट्रभक्ति पर यहाँ तक ताने कसा करते थे कि हो न हो उनकी माँ ने किसी गाँधी या नेहरू के साथ...तभी तो उन्हें इतना नालायक बेटा पैदा हुआ।<br />
ख़ैर, वह जमाना था जबकि औरतें होठ सीए रहती थीं और पति के हर तरह के लांछन को सहने का दमखम रखती थीं। मुंशीजी अपने पिता के अपनी साध्वी माता के ख़िलाफ ज़ुल्मों पर एकदम बौखला उठते थे। लिहाजा, उन्होंने कभी अपने पिता के ख़िलाफ कोई नागवार हरकत या प्रतिक्रिया नहीं की थी। हाँ, दोनों के बीच जो कोल्डवार छिड़ा, उसने कभी थमने का नाम नहीं लिया। <br />
हिंदुस्तान की आज़ादी के कोई सात साल पहले सुरेंद्र प्रताप उर्फ़ वकील साहब ने यह तय कर रखा था कि वे अपनी सारी ज़मीन-ज़ायदाद अपनी नालायक औलाद के बजाय फिरंगी सरकार के सुपुर्द कर देंगे। इसी कारण, उन्होंने वसीयत का पन्ना कोरा रखा था और जब उनका अचानक इंतकाल हुआ तो आज़ाद हिंदुस्तान की सरकार ने उनकी अकूत संपत्ति की ज़ब्ती फरमान जारी कर दिया। ऐसे में, मुंशीजी के नाम तो बस फुटपाथ रह गई थी।<br />
मुंशीजी बेघर तो हो गए; लेकिन, उनकी बहस-पैरवी करने की महारत पुश्तैनी थी जिससे उनका वास्तविक संरक्षक सेठ रज्जूमल भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। जो उनके पिता की मौत के बाद भी जिंदा रहे। सेठजी ने ही उन्हें सलाह दी थी, "महेंद्र! मेरी जान-पहचान के एक प्रिंसिपल साहब अपने कालेज में मुख्तारी का कोर्स चलाते हैं। अगर तुम वह कोर्स पास कर लो तो जिला कोर्ट में तुम वक़ालत का पेशा शुरू कर सकते हो। मेरी जिला कोर्ट में भी पैठ है। मैं तुम्हें वहाँ जगह दिला दूंगा। वैसे भी, कोर्ट में तुम्हारे पुरखों की बड़ी साख है।"<br />
उस जमाने में हाईस्कूल पास तो विरले ही मिलते थे। सो, मिडिल पास को मुख्तारी के कोर्स में ऐडमीशन में कोई ख़ास एतराज़ नहीं था। इसका फायदा मुंशीजी को भी मिला और वह साल गुजरते-गुजरते मुख्तार साहब बन गए। उन्हें सदर कोर्ट में वकील की हैसियत से रजिस्टर्ड भी कर लिया गया।<br />
बहरहाल, वे कोर्ट में भी मुंशीजी के नाम से ही विख्यात हैं। उम्र पचहत्तर की, लेकिन मुदमेबाजी का ज़ज़्बा उनमें पूरी रवानगी पर है। उन्होंने सफलता के कई मंजर देखे हैं और कानूनी दांव-पेंचों और तिकड़मों ने उन्हें यही सबक सिखाया है कि बदलते जमाने के हिसाब से अपना रंग बदलना कोई नामुराद हरकत नहीं है। वे अपने मुव्वकिलों से खुलेआम ऐलान करते हैं, "हमें दकियानूस बने रहना बिल्कुल बर्दाश्त नहीं है। बदलते जमाने के हिसाब से ख़ुद को बदलने में फायदा ही होगा, नुकसान नहीं।"<br />
इसलिए जब हिंदुस्तान ग़ुलाम था, मुंशीजी उस समय भी आवाम का फायदा ही देखते हुए आज़ादी के जंग में भागीदारी करते रहे और आज जबकि मुल्क में हर कोई अपना उल्लू सीधा करने पर तुला हुआ है, इस चलन से भी वह परहेज़ नहीं करते हैं। फर्क बस, इतना है कि ग़ुलामी के दौर में उन्होंने आवाम का फायदा चाहा जबकि आज वह अपना फायदा देख रहे हैं। कहीं न कहीं उनमें अपने पुरखों की नस्ल का तासीर साफ नज़र आता है। वरना, वह पहले की तरह सीधी चाल चलने से कतई बाज नहीं आते। बिलाशक! आज की तारीख़ में सेठ रज्जूमल ज़िंदा होते तो वह उन्हें कैसी नसीहतें देते, इसका अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। क्योंकि सेठजी तो इनकी वतनपरस्ती पर ही फिदा होकर इनकी तहे-दिल से मदद किया करते थे। <br />
जहाँ तक वक़ालत के पेशे का वास्ता है, मुंशीजी अपने कुछेक चहेते दोस्तों को छोड़कर सभी मुवक्किलों के साथ बराबरी का सलूक करते हैं--चाहे लेन-देन का मामला हो या राय-मशविरा देने का। सीधे मुँह वह तब तक बात करना अपनी औक़ात के खिलाफ समझते हैं जब तककि मियां मुसुद्दी के मार्फ़त नया मुर्गा आते ही पहले से नीयत फीस से उनकी मुट्ठी गरम न कर दे। गत तीन-चार सालों से उनकी जिला मेयर नसीब ख़ान के साथ खूब छनने लगी है। मुंशीजी ने उनके कई मुकदमों में बेहद दिलचस्पी दिखाते हुए उन्हें फ़तह पर फ़तह दिलाई है और मेयर साहब ने उनके अहसानों को चुकाने के लिए उनकी नज़दीकियाँ एम.पी.--खनेजा सा'ब से बनाकर उनकी किस्मत में चार चाँद लगा दिए हैं। जिस मुकदमें की वे निर्णायक पैरवी कर रहे होते हैं, खनेजा सा'ब सीधे जज को फोन मिलाते हैं, "मुंशीजी के फलां-फलां केस के पक्ष में ही तुम्हें फैसला देना होगा; वरना, तुम्हारा तबादला किसी अंटापुर में कराकर तुम्हें सारे ऐशो-आराम का मुहताज़ बना दिया जाएगा।" इस तरह उनके मुव्वकिलों की शर्तिया जीत से सफलता उनके कदम चूम रही है। सो, गुलामी के दिनों में उनके पुरखे जो रबड़ी-मलाई उड़ा रहे थे, वही आज़ादी के इस खुशनुमा माहौल में मुंशीजी उड़ा रहे हैं।<br />
अब उनमें पुराने मुंशीजी को तलाशना बड़ा मुश्किल हो गया है क्योंकि वह कुछ ऐसे बदल गए हैं कि उनके बारे में लोगबाग तरह-तरह की उलटी-सीधी बातें करने लगे हैं कि...उनकी आज़ादी की लड़ाई के सारे किस्से मनगढ़ंत हैं...वे तो वही करेंगे जो उनके पुरखे करते आए हैं, यानी अंग्रेज़ों की मुखबिरी और उनकी कारिस्तानियों की तारीफ और अपने देशवासियों की पीठ में छूरा भोंकना...उन्होंने तिकड़मी चाल बेशक, अंग्रेज़ों से सीखी है, जवानी के दिनों में तो वह देशभक्त बनने की नौटंकी ही खेला करते थे...वे दरिद्र हिंदुस्तानियों का शोषण उसी प्रकार कर रहे हैं, जिस तरह अंग्रेज़ किया करते थे...वे अगर सचमुच वतनपरस्त होते तो अपने बेटों को तालीम दिलाने के बहाने इंग्लैंड नहीं भेजते...अब तो वे मुस्तकिल तौर पर विदेश में बसने की योजना पर गंभीरता से अमल भी कर रहे हैं क्योंकि बड़े बेटे ने स्वीटजरलैंड की नागरिकता ले रखी है और छोटे साहबज़ादे ने अमरीका की...छोटे ने कैलीफोर्निया में अच्छी ख़ासी मिल्कियत भी बना रखी है जबकि बड़े का स्वीटज़रलैंड में भारी-भरकम बैंक-बैलेंस है...वगैरह, वगैरह... <br />
मुंशीजी, पंडितजी से कुछ इस तरह फरमाते हैं, "यार, इस ज़ाहिल मुल्क में क्या रखा है? तुम तो पहले से ही कई मुकदमों में फँसे हो। मेरी राय मानो, तुमने गाहे-ब-गाहे जो जमीन-जायदाद बटोर रखी है, उसे औने-पौने दाम में बेचोगे भी तो कम से कम चार-पाँच करोड़ रुपए मिल ही जाएंगे। वरना, मेरे विदेश में बस जाने के बाद तुम्हारी ग़ैर-कानूनी संपत्ति पर गहण भी लग सकता है। मतलब ये है कि मेरी ज़ोरदार पैरवियों के बदौलत ही तुम और तुम्हारी मिल्कियत महफ़ूज़ है, उन सब से तुम आनन-फानन में हाथ धो बैठ सकते हो और जेल की चक्की भी पीसनी पड़ सकती है। ऐसा करो कि मैं तुम्हारे बाल-बच्चों को स्वीटज़र लैंड की नागरिकता दिलाने के लिए सोर्स-सिफ़ारिश भिड़ाता हूँ। अपने लाडले को अभी फोन मिलाता हूँ। मैं सियासी तिकड़म भी लगा सकता हूँ--आख़िर, नसीब खान कब और किस काम आएंगे? प्रेसीडेंट और पी.एम.तक से अपना टाँका भिड़ा हुआ है। बस, तुम्हारी रज़ामंदी की ज़रूरत है। स्वीटज़र लैंड की खुशनुमा वादियों में हम सब मिलकर खूब मौज उड़ाएंगे, खूब ऐश करेंगे..."<br />
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ताजा ख़बर ये है कि मुंशीजी अपनी सारी जमीन-ज़ायदाद बेच दी है और बैंक की सारी रक़म भी स्वीटज़र लैंड के बैंक में ट्रांसफर करा दी है। परसों उनकी फ्लाइट है जबकि पंडितजी का और उनके परिवारवालों का वीज़ा और पासपोर्ट बस दो-चार दिनों में ही तैयार होने वाला है। आज सुबह उन्हें मुंशीजी की गलबहियाँ में देखा गया है। कह रहे थे, "तूँ चल मैं आता हूँ।" दोनों को यूँ अट्टहास करते हुए पहले कभी नहीं देखा गया गोयाकि उन्हें यह देश काट-खाने को दौड़ रहा है और वे इसे तत्काल गुड बाय करने को बेताब हैं।<br />
अब जाकर मुंशीय़ी के वालिद की रूह को सुकून भी मिलने वाला है। बेशक! परसों जैसे ही मुंशीजी अपनी बेग़म के साथ स्वीटज़र लैंड के लिए उड़ान भरेंगे वैसे ही उनके वालिद की बेचैन रूह भी ज़न्नत में तशरीफ़ ले जाएगी। वह भी ज़ाहिल हिंदुस्तानियों की शोहबत से उकता चुकी थी क्योंकि उसे अपनी मौत के बाद भी जो यहाँ रहना पड़ रहाथा--अपने बेटे के हृदय-परिवर्तन के लिए।</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A8%E0%A4%AF%E0%A4%BE_%E0%A4%A0%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%B0_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=6713नया ठाकुर / मनोज श्रीवास्तव2012-05-25T08:57:37Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
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<div>सुबह के आठ बजते-बजते सूरज भड़भूजे की भट्ठी की तरह दहकने लगा था। वह पूरा जोर लगाकर लगभग भागते हुए, पीछा कर रहे सूरज के लहकते गोले की लपट से अपना पिंड छुड़ाने के लिए जी-तोड़ कोशिश कर रही थी। रेलवे स्टेशन से मड़इया गाँव तक अपने नाज़ुक सिर पर पसेरी भर की गठरी लादे हुए कोई डेढ़ घंटे की पैदल यात्रा के बाद जब उसने जग्गन कुँवर के घर में कदम रखा तब जाकर उसकी साँस में साँस आई। लेकिन, तभी उसे अपनी साँसें टूटती हुई-सी लगीं। आँखों में झाँई पड़ने लगी। दरअसल, एक तो थकान, दूसरे कई घंटों से लगी असह्य प्यास के कारण उसके गले में बबूल के काँटे जैसी चुभन महसूस हो रही थी। उसने जग्गन से टूटती हुई आवाज़ में कहा, "ताऊ! पानी, पानी, पानी।"<br />
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लेकिन, इसके पहले कि जग्गन, उसे घुड़कते हुए फिर मारने को हाथ उठाता, "हम तेरा ताऊ नहीं, तेरा मनसेधू हूँ," झुमका उसकी बात अनसुनी करते हुए वहीं जमीन पर निढाल गिरकर अचेत हो गई। <br />
<br />
जग्गन घबड़ा-सा गया। उसने पहले चितेरा महतो को जोर-जोर से आवाज़ लगाई। जब तक सत्रह साल का गबरू चितेरा वहाँ आता, वह वहीं अपना माथा पकड़कर बैठ गया कि अगर झुमका को कुछ हो गया तो उसका हजारों का घाटा हो जाएगा। उसने गमछे से अपने माथे का पसीना पोछा और फिर उसी गमछे को कई बार चपतकर ळाुमका के सिर के नीचे लगा दिया। फिर, उसने हड़बड़ाकर ळाुमका को हिलाया-डुलाया, यह सोचते हुए कि कहीं वह तेज घमसी और प्यास के कारण मुर्च्छित तो नहीं हो गई। लेकिन, वह मुश्किल से अपनी आँखों पर से आधी पलकें ही हटा पा रही थी। मतलब यह कि थोड़ी-थोड़ी ही होश में थी। जग्गन ने पहले तो उसके चेहरे पर पानी के छींटे मारे और उसका मुँह खोलकर लोटा-भर पानी उसके गले में उड़ेल दिया। यह भी नहीं सोचा कि इससे उसका दम भी घुट सकता है। पर, भूखी-प्यासी ळाुमका अचेतावस्था में ही बकरी की तरह सारा पानी गटागट पी गई थी। पता नहीं, थकाऊ नींद के हावी होने या नीने मुँह डेढ़ सेर पानी पीने के कारण, वह मुर्दा की तरह लस्त-पस्त हो गई थी। उसकी पलकें पूरी तरह बंद भी नहीं हुई थी कि उसके खर्राटे से सारा दालान गूँजने लगा। खरहरी जमीन पर ळाुमका पूरे ढाई घंटे तक नाक बजा-बजाकर बेसुध सोती रही जबकि जग्गन इस बात से आश्वत होकर कि झुमका की तबियत दुरुस्त है, बाहर मचिया पर बैठ गया और अपना हालचाल लेने आए पड़ोसियों को यह सफाई देता जा रहा था कि 'हम झुमका को भगाकर नहीं, बल्कि विधि-विधान से ब्याहकर लाए हैं...।' <br />
<br />
कोई डेढ़ दिन तक खटारा बसों और ढुलक-ढुलक कर चलती छुक-छुक पसिंजर ट्रेनों की धक्कमपेल भीड़ में खड़े-खड़े यात्रा करते हुए झुमका कितनी थक गई थी, इसका उसे खुद अंदाज़ा नहीं था। क्योंकि वह रास्ते भर कौतुहल से हकबकाकर अज़नबी लोगों और नए-नए स्थानों को देखते हुए पल भर को भी नहीं सो पाई थी। अपने गाँव से वह पहली बार ऐसी यात्रा पर निकली थी और हाट-बाजार में दौड़ते-भागते लोगों को आँखें फाड़-फाड़कर देख रही थी। औरत-मर्द, लड़के-लड़कियाँ एक ही तरह के बेढंगे कपड़े यानी जींस पैंट और टी-शर्ट पहने हुए और कानों में मोबाइल का इयरफोन लगाकर खुद से बतियाते हुए एकदम बावले से लग रहे थे; उन्हें कौतुहल से देखते हुए झुमका खुद से ग़ाफ़िल हुई जा रही थी। ऐसे में, जग्गन उसके अल्हड़पन पर बार-बार लाल-पीला हो रहा था कि पूरे दस हजार में इस लौंडिया को अपनी मेहरारू बनाने के लिए खरीदा है। अगर जर, जोरू और जमीन को बुरी नज़र से नहीं बचाया गया तो आदमी हमेशा लफ़ड़े में ही फँसा रहेगा। इसलिए वह उसके सिर से ढल गए आँचल को बार-बार वापस उसके सिर पर रखते हुए भुनभुनाता जा रहा था जैसेकि कोई कुल्फ़ीवाला अपनी कुल्फ़ियों को सूरज की तपिश से बचाने का जतन कर रहा हो, "झुमका रानी! घूँघट में रहना सीख ले। क्या आँखें गड़ा-गड़ाके मर्दों को निहार रही हो? मेहरारू जात को आँखें नीची करके हाट-बाजार से गुजरना चाहिए।" लेकिन, झुमका पर उसकी झिड़क का कोई असर होने वाला नही था। वह या तो फ़िस्स से विहँसकर या खिसियानी चेहरा बनाकर उसकी बातों को टालती जा रही थी।<br />
<br />
झुमका को जग्गन की हिदायतें एकदम नागवार लग रही थी। वह बार-बार झुँझलाकर रह जा रही थी कि 'आख़िर, ये बुढ़ऊ हमें बार-बार मेहरारू और जोरू क्यों कहते आ रहे हैं? मेहरारू तो हमारी माई है जिसने हम जैसे सात-सात बच्चों को जनम दिया है। अब जब हम भी बियाह के बाद माई बनेंगे तो कोई हमें मेहरारू कहे या जोरू, इसका हम पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।'<br />
<br />
स्टेशन से बाहर आते समय जब जग्गन की जान-पहचान के एक अधेड़ आदमी ने उसे लगभग ललकारते हुए उस पर यह छींटाकशी की कि "अरे बुढ़ऊ जग्गन! ई उमर में अब घर बसाने का जी कर रहा है क्या" तब जग्गन उसे भद्दी-भद्दी गालियाँ देते हुए घुड़कने लगा था, "तेरी माँ को! तूँ काहे को जल-भुनकर राख हुआ जा रहा है? हम खानदानी ठाकुर हैं और ठाकुरों में सौ-सौ घर बसाने का दमखम होता है। नौ महीने बाद भेज देना भौजी को, सोहर और बधाई गाने।"<br />
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"ई नौबत कभी न आएगी, जग्गुआ! जब तलक तुम ई लइकी को खिला-पिलाके सयानी औ' जवान बनाओगे, तब तलक तुम कबर में समा जाओगे। तुम अपनी उमर तो जानते ही हो? हमसे भी छे बरिस उमरदराज़ हो।" वह अधेड़ आदमी जग्गन के नहले पे अपना दहला चलने से बाज नहीं आ रहा था।<br />
<br />
बहरहाल, उनकी बेतुकी बातें झुमका के सिर के ऊपर से गुजर रही थीं। उसके भेजे में घर बसाने और नौ महीने बाद सोहर गाने वाला जुमला बिल्कुल नहीं समा रहा था। उसकी समळा में कुछ आता भी कैसे क्योंकि वह अभी इतनी बड़ी नहीं हुई थी कि वह रश्मों-रिवाज़ को समझकर उनका निर्वाह करने की बात सोच सके जबकि उसकी माई परसों घर आए जग्गन को बता रही थी कि 'झुमका भले ही देखने में ठिंगनी और कमसिन लगती है; लेकिन, उसे बारह साल का होने में कुल दो महीने ही बाकी हैं और उसे 'वो' भी आने लगा है? मतलब यह कि इसी उम्र में हम तो माई बन गए थे। फिर, यह झुमका क्यों नहीं?' लेकिन झुमका सोचती जा रही थी कि ग्यारह-बारह साल की भी कोई उम्र होती है क्या? उससे बड़ी-बड़ी उम्र की ठकुराने गाँव की कूल्हे मटकाती चौचक लौंडिया तो अपने बाप-दादों की उंगलियाँ थामकर हाट-मेले से गुड्डा-गुड़िया मोल करने जाती हैं।<br />
<br />
ड्योढ़ी पर बैठी झुमका को 'वो' का मतलब थोड़ा-थोड़ा समळा में आ रहा था क्योंकि इस बारे में ख़ुद माई ने उसे कुछ दिनों तक पहले बतलाया था। वह फ़िस्स से शरमाकर माई पर मन ही मन खिसियाने लगी थी कि किसी ग़ैर आदमी से, भले ही वह उसके बाप की उम्र का हो, ऐसी ऊल-जुलूल बातें बताना अच्छा लगता है क्या? तब उसकी माई उसके गदराए गालों पर हाथ फेरते हुए बड़ी बेशरमी से बकबकाने लगी थी, "बारह बरिस की झुमका बूची इतनी सयानी है कि सोलह साल की उमरदराज़ मेहरारू से कमतर नहीं लगती है। चौका-बासन निपटाने के साथ-साथ, इतना डेलीसन लिट्टी-चोखा बनाती है कि हम सब जने अंगुरी चाटते रह जाते हैं।"<br />
<br />
माई के मुँह से अपनी तारीफ़ सुनकर पल भर को झुमका को लगा था कि वह, सेठ चतुर्भुज मल्ल की दुकान में बोरी में पड़े उस्ना चावल की तरह है जिसे सेठ अपनी मुट्ठी से निकालकर ग्राहकों के सामने इसकी उम्दा गुणवत्ता का प्रदर्शन करता है और वापस बोरी में डाल देता है। उसे नवागंतुक जग्गन से बड़ा कोफ़्त हो रहा था। पहले तो इस आदमी को घर में आते-जाते कभी नहीं देखा था। लेकिन वह, माई से इस तरह आँखें मिचमिचाकर आत्मीयता से बतिया रहा था कि झुमका को उससे बड़ी ईर्ष्या होने लगी--मान न मान, मैं तेरा मेहमान। <br />
<br />
जब झुमका ने तिरछैल शक्की निगाहों से मचिया पर जग्गन को बैठे देखा तो माई ने बड़ी मासूमियत से उसका परिचय उससे कराया, "ई दूर के हमारे पाहुन लगते हैं। सहर से आए हैं--गाँव की बुचियों का भाग सँवारने। बड़े आदमी हैं। सहर के पास मड़इया गाँव में इनका आलीसान कोठी है। नूकर-चाकर भी हैं। ई बूळा लो कि बहुत बड़े जमींदार हैं।" <br />
<br />
वह पल भर को ठिठक गई कि क्या बात है कि माई उससे एक नए मेहमान की जान-पहचान कराकर उसे इतनी अहमियत दे रही है? बच्चों को इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि घर में कौन आ रहा है, कौन जा रहा है? उन पर तो बस, गली-कूचों में अपने संगी-साथियों के साथ खेल-खिलवाड़ करने का धुन सवार रहता है। उसने उस आदमी को कनखिया कर बड़े संदेह से देखा। लिहाजा, माई के मुँह से जग्गन की ठाट-बाट सुनकर उसकी आँखें फटी की फटी रह गई थीं। वह अथाह मन के कल्पना-सागर में उद्वेलित विचार-तरंगों में डूबने-उतराने लगी--'हम मेहनत-मजूरी करने वाले नीच-मलिच्छ जनों को सहरी जिनगी का सुआद चखना और पाँचों अंगुरी घी में डालके दिन-रात बिछौना में पड़े रहना कहाँ मयस्सर है?' तब, माई ने उसके चेहरे पर डूबते-उतराते भावों को तत्काल पढ़ लिया था। वह झटपट अपने होठों की प्रत्यंचा कानों तक खींचकर मुँह चियारते हुए भभककर बोल उठी थी, "बुची! तुम रंचमात्र भी फिकिर मत करो। ई गरीबखाने से तुम्हरी बिदाई जल्दी ही होने वाली है। अब ई बूझ लो कि तुम्हारे भी दिन बहुरने वाले हैं। ई कुँवर साहेब तोहें सहर ले जाने आए हैं--तुम्हरी जिनगी सँवारने। पहिले इस टोले की मनदुखनी और फिर सतपुतिया इनके साथ सहर जाके अपना-अपना भाग चमका चुकी हैं। अब तुम्हरी बारी आई है।"<br />
<br />
शहर जाने की बात पर झुमका एकदम विहँस उठी। उसको लगा कि उसके पंख उग आए हैं और वह कुलांचे भर-भरकर आसमान में उड़ती हुई चाँद-सितारों से बतिया रही है। उसने ठकुराने गाँव की हमउम्र लड़कियों को अपने शहरी रिश्तेदारों के यहाँ आने-जाने की लुभावनी चर्चाएं अपनी सखियों--केतकी और कजरी के मुँह से खूब सुनी है और कल्पनाओं में खुद भी शहर का सैर-सपाटा किया है। <br />
<br />
पर, उसका मन अचानक अधीर हो गया, 'नहीं, वह अपने माई-बाबू और छुटभैयों-बहिनों को छोड़कर कहीं नहीं जाएगी। वह जितने उमंग से डीह बाबा के इनार (कुएँ) के इर्द-गिर्द और पुलिया के नीचे, भुतहे खंडहर में कंचा-गोली, गुल्ली-डंडा और लुका-छिपी खेलती है, क्या ऐसी मौज-मस्ती उसे शहर जाकर मिल पाएगी?' <br />
<br />
उसका दिपदिपाता चेहरा मलिन पड़ गया। उसने जैसे ही मुँह बिचकाया, माई अपना हाथ उसके सिर पर फेरने लगी, "काहे घबराती हो, बबुनी? कुँवरजी तुम्हारा बड़ा ख्याल रखेंगे। कुछ भी ऐसा-वैसा नहीं करेंगे जिससे तुम्हारे जी को दुःख पहुँचे। हाँ! तुम्हारे पढ़ाने-लिखाने का बंदोबस्त भी करेंगे।"<br />
<br />
झुमका मन के भँवर में उलझ गई, "आख़िर, ई कुँवरजी को क्या मिलता है जो गाँव की उजड्ड छोरियों को सहर ले जाने का ज़िम्मा उठाते रहते हैं?" <br />
<br />
तभी, माई फिर जग्गन की तारीफ़ में गाल बजाने लगी, "कुँवरजी को कौन नहीं जानता? ये बहुत बड़े समाजिक कारकर्ता जो ठहरे!" <br />
<br />
झुमका ने जग्गन के चेहरे पर पड़ी ळाुर्रियों और उसके गंजे सिर के पीछे बचे-खुचे चुनिंदा सफेद बालों को बड़ी इज़्ज़त से देखा कि इनका अख़बार और टेलीवीज़न में बड़ा नाम होगा क्योंकि जो काम बाबूजी चाहकर भी नहीं कर पाए, वो ये करेंगे। मतलब, बाबूजी बच्चों को सरकारी पाठशाला में भेजने का जुगत कभी नहीं भिड़ा पाए और हमें खेत-खलिहानों की निराई-गुड़ाई में दिहाड़ी पर लगाते रहे। काम से कुछ ना-नुकर करने पर घोड़े की तरह बिदक जाते थे। फिर, झुमका यह सोचते हुए मन मसोसकर रह गई कि 'चलो, सहर जाकर अंगूठा-छाप रहने से बच जाएंगे। फिर, वापस तो माई के घर ही आना है। हमें तो इस आदमी का उपकार मानना चाहिए जो हमारी जिनगी में खुशी का बयार बहाना चाहता है।'<br />
<br />
जब वह उठकर बाहर नीम तले शीतला मइया की छाँव में जाकर बैठी हुई अपने मन की बात अपनी सहेलियों के साथ बाँटना चाह रही थी तो उसका मन बिल्कुल उचाट लग रहा था। उसने वापस आकर गगरी में से चुन्नी निकाली और ओसारे में पड़ी बँसखट पर लेट गई--मुँह पर चुन्नी डालकर, ताकि भनभनाती मक्खियाँ उसकी नींद में खलल न डाल सकें और वह सपनों की दुनिया में बेख़ौफ़ विचर सके। <br />
<br />
लेकिन, उसे नींद कहाँ आने वाली थी? उसके दिमाग पर शहर जाने का झक सवार होता जा रहा था। उस समय बाबूजी किसी बेहद ज़रूरी काम के बहाने सेठ चतुर्भुज मल्ल से मोहलत लेकर वापस आ चुके थे और सुबह से ही घर में डटे हुए अज़नबी जग्गन कुँवर से दुनियादारी और रोजगार-धंधे की बात कर रहे थे। उनकी बातचीत से साफ लग रहा था कि जग्गन कुँवर बिन बुलाया मेहमान नहीं है। माई-बाबू कई दिनों से उसकी बाट जोह रहे थे।<br />
<br />
झुमका बहुत नहीं तो इस बात को इतना तो समळा ही रही थी कि उसके बाबूजी को दो जून की नून-रोटी के जुगाड़ के लिए आसमान-पाताल एक करने जैसी मशक्कत करनी पड़ रही है। सेठ ने तो उसके सारे बदन की सारी चर्बी निचोड़ ली है। पिछले साल की रोंगटे खड़ी करने वाली घटना उसके बालमन को बार-बार कुरेंद जाती है जैसेकि फफोलों को चाकू से गोद-गोदकर उनमें नमक-मिर्च भरा जा रहा हो।<br />
<br />
बेशक! बीते आषाढ़ का महीना हर प्रकार से तबाहकुन था। एक तो गर्मी सब कुछ लीलने को आतुर थी; दूसरे, आदमी, आदमी का खून चूसने के लिए बेताब हुआ जा रहा था। महीनों से आसमान रेत और रेह से भरे हुए एक भयानक रेगिस्तान की तरह इस कोने से उस कोने तक पसरा हुआ लग रहा था। घटा के घुमड़ने का नज़ारा देखने के इंतज़ार में हजारों आँखें पथरा गई थीं। पूरब दिशा से बादलों के उमड़-घुमड़कर पहुँचने से पहले ही किरणों की लपलपाती जीभ उन्हें निगल जा रही थी। जो मळाोले किसान थे, वे मानसून के इस झन्नाटेदार तमाचे को तो येन-केन-प्रकारेण बरदाश्त कर ले रहे थे--बाकायदा सरकारी ट्यूबवेलों से महंगे दामों पर पानी खरीदकर। लेकिन, खरपत मंडल यानी ळाुमका के बाबूजी के पास अपने खेत में पानी चलाने के लिए पानी मोल लेने का माद्दा नहीं था। वह पहले से ही महाजन के कर्ज़ में आकंठ निमग्न थे क्योंकि दो साल पहले अपनी बड़ी बिटिया धनुकी के ब्याह के लिए सेठ चतुर्भुज से जो कर्ज़ लिया था, उसने ऊँची-ऊँची सुनामी लहरों की तरह तांडव नृत्य करते हुए उसकी गृहस्थी की चादर को तार-तार कर डाला था। फसल की रोपाई के बाद नन्हे-मुन्ने पौधों को सूरज का ग्रास बनने से बचाने के लिए लाख कोशिशों के बावज़ूद, कोई जुगाड़-पानी नहीं बन पा रहा था। उसकी औकात वाले उस इलाके के कोई छः सात लाचार-बेबस किसान पहले ही आत्महत्या कर चुके थे। पर, वह तो ऐसे बुज़दिल किसानों की हमेशा नुक़्ताचीनी करने से बाज नहीं आता था। वह आख़िरी सांस तक ज़बरदार मौसम से पंजा लड़ाने के लिए डटा हुआ था, मन में यह संकल्प लेते हुए कि अपनी मौत से मरेंगे, लेकिन बेमौत नहीं मरेंगे। <br />
<br />
उन दिनों सरकारी बाबू यदा-कदा सूखे क्षेत्रों का दौरा करने के नाम पर वहाँ भी भटककर आ-जा रहे थे ताकि किसी और किसान द्वारा सपरिवार आत्महत्या किए जाने की ख़बर के मीडिया तक पहुँचने से पहले ही उस ख़बर को रफा-दफा किया जा सके क्योंकि किसानों की बढ़ती आत्महत्याओं पर उन्हें मंत्रियों और बड़े-बड़े हाकिमों के यहाँ से बार-बार तलब किया जा रहा था। उनकी मुअत्तली और बरख़ास्तगी का फ़रमान भी वहाँ से जारी हो रहा था। एक दिन, किसी सरकारी बाबू ने सिंकिया पहलवान खरपत का खून यह जानकारी देकर एकदम से बढ़ा दिया कि आजकल सरकार द्वारा किसानों का न केवल कर्ज़ माफ़ किया जा रहा है, बल्कि बेमियाद सूखा से उत्पन्न मुश्किल हालात से निपटने के लिए उन्हें काफ़ी राहत-रक़म भी दी जा रही है। उसका सीना खुशी से फूलकर फुटबाल हो गया। उसने राहत विभाग को इमदाद के लिए फटाफट अर्ज़ी देने के बाद एक योजना बनाई कि इसके पहले कि हमें राहत मुहैया हो, क्यों न हम सेठ चतुर्भुज से कुछ कर्ज़ लेकर अपने खेत के लिए खाद-पानी का बंदोबस्त समय रहते कर ले; वर्ना, जब तक सरकारी मदद दिल्ली से उस तक पहुँचेगी, बेरहम उमसती-घमसती गरमी उसकी फसल की बलि ले लेगी? उसे हाकिमों के आश्वासन पर इतना भरोसा हो गया था कि वह सोचने लगा था कि अब तो उसके एक फूँक मारते ही महाजन के सारे कर्ज़ का वारा-न्यारा हो जाएगा। इस हेकड़ी में उसने सेठ चतुर्भुज के उस इकरारनामे पर भी हँसते-हँसते अंगूठा लगा दिया जिसमें साफ-साफ लिखा हुआ था कि दो माह के भीतर सूद समेत सारा बकाया न मिलने पर उसका डेढ़ बीघा खेत, खड़ी फसल समेत, ज़ब्त हो जाएगा। <br />
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पर, ऊपरवाले को भी धन्नासेठों का घमंड बढ़ाते रहने में ही खूब मजा आता है क्योंकि उसकी पटरी दरिद्रनारायणों के साथ कभी नहीं बैठी है। इसीलिए, उसे फटेहाल खरपत का गुरूर बिल्कुल मंज़ूर नहीं हुआ। पलक झपकते ही दो माह ऐसे बीत गए जैसे चलनी में से सारा पानी बह जाता है। उसने दफ़्तरों से लेकर हाकिमों की कोठियों तक जलती रेत में चल-चलकर अपने गोड़ घिसे और गुहार-मनुहार कर, अपनी ज़ुबान भी छिलकर छोटी की। दरअसल, उसकी राहत राशि तो दफ़्तरों में आई थी; पर, उसे डी.एम., तहसीलदार, कानूनगो और लेखपाल से लेकर सरपंच तक डकार लिए बिना ऐसे पचा-खचा गए थे कि बदहज़मी होने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। सेठ चतुर्भुज की भी बरसों की दिली मंशा पूरी हुई थी। बार-बार चुग्गा डालने पर भी खरपत नाम की मुर्गी उसके जाल में नहीं फँस पा रही थी। पर, यह सब सेठ द्वारा पिछले ही महीने फ़ैज़ बाबा के दरग़ाह में उनके मज़ार पर चादर चढ़ाए जाने का सुपरिणाम था कि आख़िरकार, ऊँट पहाड़ के नीचे से गुजरने के लिए ख़ुद ही राजी हो गया। इकरारनामे के मुताबिक, खरपत मंडल का खेत, फसल समेत उसकी मिल्क़ियत का हिस्सा बन गया।<br />
मरता, क्या न करता? खरपत का दिमाग़ दानापानी की जुगाड़बाज़ी के लिए धारदार छूरी की तरह चल रहा था। उसने हार न मानने की जैसे क़सम खा रखी थी। दिन भर में कम से कम एक बार तो घर में चूल्हा जलाने का बंदोबस्त वह करता ही था। इसके लिए भले ही उसे नाको चने चबाना पड़े। आकाश और पाताल एक करना पड़े। लेकिन, उसने कभी कोई चोरी-चकारी, छिनैती-ळापट्टामारी नहीं की। एक समय ऐसा भी आया कि जबकि खेत-खलिहान छिन जाने की ग़मी मनाते हुए उसका हाल बेहाल हो गया था। फिर, जब कोठियों वाले काश्तकारों की चाकरी करते-करते उसकी नाक में दम आ गया तो वह बेकार-बेग़ार किसानों और मजदूरों के लिए सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों में दिलचस्पी लेने लगा। पर, सरकारी बाबुओं की वहाँ भी चल रही अंधाधुंध लूटमारी से वह बिल्कुल आज़िज़ आ गया। सहकारी फार्मों में चल रहे 'काम के बदले अनाज' कार्यक्रम के तहत आठ घंटे तक तेज लू और घाम में खटने के बाद, जितना उसे अनाज मिलना चाहिए था, उसका आधा तो ठेकेदार रख लेता था और जब वह फार्म से बाहर आता था तो वहाँ बैठे सरपंच के मुस्टंडे गुंडे उसमें से भी आधा हिस्सा ळापट लेते थे। ले-देकर सेर-सवा सेर अनाज इतने बड़े परिवार का मड़ार पेट भरने के लिए और वह भी दो जून तक, ऊँट के मुँह में जीरा के समान था? कहीं और हाथ-पैर मारकर गुजारा नहीं किया जा सकता था। गाँव के सारे ताल-पोखरे भी सूखकर गहरे खड्ड बन गए थे; नहीं तो, फाकामस्ती के दिनों में वहाँ पानी में ळाब्बरदार पैदा होने वाले करेमुआ कासाग खाकर परिवार का पेट पाला जा सकता था। <br />
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एक दिन खरपत न तो कहीं काम के जुगाड़ में गया, न ही उसे कहीं से कोई बेग़ारी करने का न्यौता मिला। वह ओसारे में पुआल पर लाचार, औंधे मुँह, नंग-धड़ंग पड़ा हुआ था जबकि उसके बच्चे हथेली पर नमक लेकर चाटते हुए इस आस में आसपास मँडरा रहे थे कि अभी बाबूजी कहीं जाएंगे और नून-तेल का बंदोबस्त करके आएंगे। माई भी बार-बार रसोईं में जाकर कनस्तर और डिब्बे ठोक-बजाकर यह तसल्ली कर आ रही थी कि कहीं भूलवश, कुछ अनाज रखा तो नहीं रह गया है। जब उसे पूरी तरह तसल्ली हो गई तो वह बाहर ड्योढ़ी पर बैठ, कथरी सिलने में व्यस्त हो गई। <br />
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दोपहर में खरपत ओसारे से निकलकर बाहर नाद पर बैठ गया। तभी एकदम से रामधन कहार ने उधर से गुजरते हुए उसकी तबियत का ज़ायज़ा लिया, "खरपत भाई! आज काम-धंधे से छुट्टी लिया है क्या? सुनते हैं, तुम्हारी बढ़िया कमाई हो रही है। लेकिन, तुम्हारे बदन पर कहीं चर्बी तो नज़र नहीं आ रही! बीमार-उमार चल रहे हो क्या? नुरूल हक़ीम को दिखाया कि नहीं।" उसने उसके प्रति अपनत्व दिखाने का भरसक नाटक किया।<br />
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लेकिन, उसकी व्यंग्य से छौंकी-बघारी बानी खरपत के गले से नीचे नहीं उतर पाई। उसे लगा कि पहले तो रामधन ने उसके गाल पर जोरदार थप्पड़ मारा है; फिर, चोट को सहलाने की कोशिश कर रहा है। इसलिए, उसने पिच्च से नाद में थूका और फिर, अकड़ते हुए खड़ा हो गया, "हाँ, इतना कमा लिया है कि अब बैठे-बैठे रोटी तोड़ रहे हैं।" पर, रामधन समळा गया कि उसके व्यंग्य का जवाब कटाक्ष से दिया जा रहा है। वास्तव में, खरपत की हालत वैसी नहीं है, जैसी कि उसकी है। जब से लालू के रहमो-करम से उसके बेटे की कलकत्ता रेलवे स्टेशन पर कुली की नौकरी पक्की हुई है, उसका सिर आसमान पर चढ़ गया है। सारा मड़इया गाँव जानता है कि हर महीने की चौथी-पाँचवी तारीख तक डाकखाने में उसके बेटे द्वारा भेजा हुआ पैसा आ जाता है जिससे उसकी पाँचों अंगुलियाँ घी में रहती हैं। तेल-फुलेल, दाना-पानी पर खर्चा-वर्चा करने के बाद उसके पास इतना पैसा तो बच ही जाता है कि शाम को ठेके पर जाकर पउवा हलक से नीचे उतार सके। <br />
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उसने तत्काल खरपत की कमर में हाथ डाल दिया, "खरपतुआ! बुरा मान गए क्या? हम तो ळाुट्ठो-मुट्ठो का गाभी (व्यंग्य) बोल रहे थे। हमें तुम्हारा हाल पता नहीं है क्या?"<br />
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उस वक़्त, खरपत, एक मगरूर मर्द होकर भी भलभलाकर आँसू बहाते हुए हिल्ल-हिल्ल कर बिलखने लगा था क्योंकि जब से सूखा, सूखे के बाद अकाल और अकाल के बाद सरकारी हाकिमों की अंधेरगर्दी परवान चढ़ती जा रही थी, किसी ने उससे सीधे मुँह बात तक नहीं की थी। लोगों को सामने से कतराते हुए देख, वह जोर-जोर से बड़बड़ाने लगता था, "ई टोले के लोग भी हमें भिखमंगा बूझते हैं क्या कि हमें देखते ही पैंतरा बदल देते हैं? अरे, हम इनके आगे हाथ पसारने थोड़े ही जाएंगे। छूछे हाथ और नीने मुँह मर जाएंगे; लेकिन, इनकी थाली जुठारेंगे तक नहीं। कोई चीज मांगने-जांचने की तो बात ही दूर रही।"<br />
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पर, आज रामधन सीधे आकर उससे टकरा गया था। वह मन ही मन भुनभुनाने लगा, "आज कोई बात जरूर है। नहीं तो, रामधन जैसा कुरुच्छ प्राणी उससे इस तरह आकर नहीं भेंटता-चिपकता।"<br />
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तभी रामधन ने उससे छिटककर उसके मुँह पर एक जोर का डकार लिया और इस बार मुस्कराते हुए उसको यह अहसास दिलाया कि इस डकार में बैंगन के भुर्ते और शुद्ध देशी घी से चिपड़ी हुई सोंधी-सोंधी लिट्टी की गंध मिली हुई है; इसे लहसुन-मिर्च की चटनी समळाने की भूल कतई मत करना। दरअसल, हरी चटनी तो वो खाते हैं जिनकी टेंटी में अठन्नी से ज़्यादा पैसा नहीं होता। <br />
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उसने अपने झक्क सफेद कुर्ते की बगली में हाथ डालकर बटुए में रेज़ग़ारी खनखनाते हुए, खरपत के उत्तर का इंतज़ार नहीं किया।<br />
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"खरपतुआ! तूं तो पढ़ा-लिखा है। इस टोले में एक तो दंतखपटा कोइरी मिडिल पास है, दूसरा तूं है--जो मिडिल से ज़्यादा पढ़ा-लिखा है; मतलब यह कि हाई स्कूल फेल है। इतना हुनरदार होकर भी तूं सेठ की दुकान पर बेग़ारी करता है, भट्ठों पर ईंटा पाथता है और ठाकुरों के खेत कोड़ता है। अगर हम तेरी तरह पढ़े-लिखे होते तो सरकारी पाठशाला में चपड़ासी की नुकरी तो जरूर कर लेते। हेडमास्टर केशरीलाल साफ हमसे कहते हैं कि पहिले मिडिल पास का सट्टीफीकेट लाओ; फिर, प्यून बनने का ख़ाब देखना। हम चाहते हैं कि हमरे गाँव का ही कोई भला-मानुस पाठशाला का चपड़ासी बने। दँतखपटा कोइरी को इ जानकारी दी तो ऊ कहने लगा कि उसका पूत तो पहले से ही ठेकेदारी कर रहा है। उसके पेट पर तो पहिले से ही चर्बी चढ़ा है। फिर, ऊ नुकरी क्या करेगा?"<br />
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रामधन की इस बकबक से खरपत के हाथ जो बेशकीमती जानकारी हाथ लगी, उससे उसके सीने में भूडोल आ गया। उसने रामधन को फटाफट निपटाया। उसके बाद अंदर जाकर हाथ-मुँह धोया और फ़ैज़ बाबा के दरगाह की ओर मुँह करके मन्नत मांगी। सिर पर अंगोछा लपेटा और मूँछ को पानी से तीखा बनाकर थाली में अपना मुँह देखा; फिर, लगभग भागते हुए सरकारी पाठशाला की सीढ़ियों पर दस्तक दिया।।<br />
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उस समय शाम म्याऊँ-म्याऊँ करते हुए अंधेरे में लपककर छिपने की ताक में थी। उसने खुद को धन्यवाद दिया क्योंकि हेडमास्टर साहब पाठशाले में ताला लगाने के बाद अपनी फटफटहिया (मोटरसाइकिल) पर सवार हो ही रहे थे कि वह उनके आगे साष्टांग लेट गया। फिर, झटपट उठकर करबद्ध खड़ा हो गया।<br />
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"साहेब! हम हैं खरपतुआ, माने कि खरपत मंडल, सुपुत्र रामपुकार मंडल, मिडिल पास, हाई स्कूल फेल...।" वह इतनी तेज से हाँफ रहा था कि आगे कुछ और नहीं बोल सका।<br />
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हेडमास्टर ने फटफटहिया को धकाधक किक मारकर स्टार्ट किया। उसके बाद उसका सांगोपांग जायजा लेते हुए और अपनी मोटी-मोटी मूँछों को सहलाते हुए अचकचाकर रह गए, "मतलब?"<br />
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खरपत ने एक लंबी साँस ली और ख़ुद पर काबू पाते हुए हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, "सरकार! आप हमारा मतलब नहीं समझे क्या?"<br />
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हेडमास्टर केशरी लाल ने मोटर साइकिल बंद कर दी और लगभग गुर्राते हुए अपनी ऐनक उतारकर आँख मलने लगे, "बड़े बकलोल इंसान हो! अरे! तुम तो पहिले से ही मिडिल पास हो; फिर, इहाँ काहे आए हो? अपने किसी लौंडे के लिए कोई फर्ज़ी सर्टीफीकेट चाहिए तो कान खोलकर सुन लो--हमने गोरखधंधा बंद कर दिया है...।"<br />
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खरपत, मोटरसाइकिल के अगले पहिए के आगे घुटनों के बल हाथ जोड़कर बैठ गया, "सरकार! हम सुने हैं कि ई पाठशाला में कौनो प्यून की जगह खाली है। आपको तो अभी हम बताए कि हम मिडिल पास, हाई स्कूल फेल हैं। हम ई चोखा टोला के सबसे दमदार कन्डिडेट हैं। आपके मालूम हो कि हम वोही किसान हैं जिसका खेत-बार सब महाजन के पेट में समा गया; न कोई हाकिम हमारा गुहार पर मदद को आया, न कोई सरकारी रसद-माल मिला। फिर भी हम मर-जी के अपने पलिवार को पास-पोस रहे हैं। हमसे बढ़िया हाल वाले किसान सुसाईड करके जिनगी से हार मान चुके हैं। लेकिन, हम हैं कि लड़ ही रहे हैं, लड़ ही रहे हैं। हम बड़ा जीवट वाला इंसान हूँ। जदि आप हमें प्यून की नुकरी पर रखेंगे तो आपको तनिक भी पछतावा नहीं होगा...।" <br />
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बोलते-बोलते उसके होठ सूखकर फट गए और जब उसने मुँह चियारकर पूरी तन्मयता से अपनी बात पूरी की तो उसके फटे होठों से खून बहने लगा। <br />
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हेडमास्टर का मन जुगुप्सा से भर गया। पता नहीं कैसे अपनी अक्खड़ी और बदमिज़ाजी के लिए कुख्यात हेडमास्टर का दिल टिघर गया? उन्होंने 'हुँह' कहा और आँखें मिचमिचाते हुए किसी विचार-तंद्रा में खो गए। जब तक वे खामोश रहे, खरपत का दिल डूबता जा रहा था। कुछ मिनट बाद, उन्होंने अपनी ऐनक आँखों पर चढ़ाई और एकदम घुड़कने के अंदाज़ में अपनी निग़ाहें खरपत पर जमा दीं, "खड़े हो जाओ। हमने कहा कि खड़े हो जाओ।"<br />
<br />
खरपत को लगा कि वह गलत समय पर आया है जबकि हेडमास्टर जी घर को जा रहे थे। वह उसी समय हाथ जोड़े हुए आतंकित-सा खड़ा हो गया। पर, उसने हिम्मत नहीं हारी, "जी, हमारी दरख़ास्त नामंजूर हो तो हमें माफ़ कर दीजिएगा। आप खिसियांगे तो हमको एकदम्मे अच्छा नहीं लगेगा...।"<br />
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हेडमास्टर ने फटफटहिया के मिरर में आपना चेहरा देखा और फिर, फटफटहिया बंदकर मूँछों पर ताव दिया, "देखो, खरपत मंडल! कल मार्निंग में विद्यालय खुलते ही अपना सर्टीफीकेट लेकर आ जाना।"<br />
<br />
खरपत को जैसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। उसने फटे होठों से रिसते खून पर अपनी जीभ फेरी और फिर जोश से भर गया, "जी बाबू साहेब! आपकी बड़ी मेहरबानी होगी जो हम दुखियारे पर आपका किरिपा होगा...।" वह पेट में हवा भरते हुए घिघिया उठा "परनाम, साहेब!" और करबद्ध नमस्कार करते हुए चलने को हुआ।<br />
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हेडमास्टर की दिलचस्पी खरपत में बढ़ गई थी। उन्होंने खरपत को रोका, "देखो, अगर विद्यालय का चपरासी बनाएंगे तो तुम्हें सारी ड्युटी बजानी होगी...।"<br />
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खरपत फिर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, "जी, मालिक! काहे नहीं? हम सारी ड्युटी बजाएंगे। आपको तनिक भी सिकायत का मौका नही देंगे...।"<br />
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"हाँ, पाठशाला का चपरासी होने का मतलब हमारा भी चपरासी...हमारे घर का भी...।" हेडमास्टर अपने चाबुक का भरपूर प्रयोग कर रहे थे।<br />
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"जी साहेब! हम खूब समझ रहे हैं..." वह हिनहिनाकर रह गया। वह तो जैसे उनकी सारी शर्तें मानने को पहले से तैयार बैठा था।<br />
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उन्होंने गरदन उचकाकर फिर उसे पुकारा, "अरे सुनो, खरपत! पाँच बजे विद्यालय बंद होने के बाद सीधे हमारे घर पर हाजिरी लगानी होगी। गाय-गोरुओं का सानी-पानी लगाना होगा। फुलवारी में पौधे सींचना होगा। सारे घर में झाड़ू-पोछा लगाना होगा। उसके बाद, हाट से साग-सब्जी लाने के बाद ही तुम्हें घर जाने की इज़ाज़त होगी...।"<br />
<br />
"जी बाबूसाहेब! आपका सारा हुकुम सिर-आँखों पर।"<br />
<br />
पाठशाले की चपरासीगिरी से खरपत के खुश होने के दो कारण थे। एक तो उसकी गृहस्थी की गाड़ी ट्रैक पर आने लगी थी; दूसरे, टोले में उसका मान-सम्मान फिर वापस मिलने लगा था। यह सब फ़ैज़ बाबा की मेहरबानी थी। इसलिए, वह हर ज़ुम्मेरात को दरगाह पर मत्था टेकने से कभी नहीं चूकता था। उसकी लुगाई ने भी हर शुक्रवार को बड़े नेम-धरम से संतोषी माँ का व्रत-पाठ शुरू कर दिया था। पूरा घर एक दुःस्वप्न के बाद फिर से अपने सुनहरे भविष्य के प्रति आश्वस्त होता जा रहा था।<br />
<br />
इसी दरमियान एक अज़ीब घटनाचक्र घूमने लगा। हेडमास्टर ने खरपत नाम के बैल को सुबह दस बजे से रात के ग्यारह बजे तक तो हल में जोत ही रखा था। इतने पर भी खरपत को प्रसन्नचित्त देखकर, उन्हें लग रहा था कि साढ़े सात सौ रुपए में वे उससे जो काम ले रहे हैं, वह बहुत कम है और वह उसे खैराती में इतना रुपया दे रहे हैं जबकि वह ऐसा बैल है कि उस पर जितना भी बोळा लादते जाओ, वह घुटने टेकने वाला नहीं है। आख़िर, वह यहाँ से पगहा तोड़ाकर जा भी कहाँ सकता था? जब दऊ बरसेंगे तो वह ऐसा सोच भी सकता है क्योंकि बारिश होने के बाद ही खेत-खलिहानों में काम शुरू होगा और तभी उसे दिहाड़ी पर बेगारी करने का मौका मिल सकेगा। इसलिए, जब हेडमास्टर केशरी लाल ने उस पर बारंबार दबाव डाला कि उसे इसी वेतन में पाठशाला पहुँचने से पहले सेठ चतुर्भुज मल्ल की दुकान पर भी सुबह छः बजे से साढ़े नौ बजे तक ड्युटी बजानी है क्योंकि सेठजी उनके पुराने जिगरी दोस्त हैं तो वह मन मारकर यह बेग़ारी करने के लिए भी राजी हो गया।<br />
दुनियाभर के लोगों को तो इश्क़-मोहब्बत, जुआ-सट्टेबाज़ी, दारू और दंगे की लत होती है; पर खरपत को तो कठिन से कठिन काम करने की लत पड़ी हुई थी। वह ऐसा जुळाारु शख़्स था जिसे बेकार बैठने से अच्छा, बेगारी करना लगता था। सेठ चतुर्भुज तो उसकी जांबाज़ मेहनत देखकर ही दंग हो गया था। उसके दिमाग में एक ख़ुराफ़ात आया कि क्यों न खरपतुआ को येन-केन-प्रकारेण बंधुआ मज़दूर बनाकर आरामतलब ज़िंदगी का आजीवन लुत्फ़ उठाया जाए।<br />
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सो, सेठजी ने एक दिन पूरी तैयारी के साथ अपनी साज़िश का जाल बिछाया। <br />
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खरपत के लिए चढ़ते आषाढ़ का वह दिन एक ख़ौफ़ बनकर आया था। उसकी लुगाई और बच्चों को क्या पता था कि उस दिन जब खरपत काम पर जाएगा तो शाम को उससे उनकी मुलाक़ात घर के बजाए, हवालात में ही होगी? सबेरे से ही खरपत, चतुर्भुज सेठ की दुकान में अपना खून-पसीना एक करने में लगा हुआ था। जब साढ़े नौ बजने को आया तो उसने सेठजी से पाठशाला जाने की अनुमति मंागी। जब तक वह गीले गमछे से हाथ-मुँह पोछकर तैयार होता तब तक सेठ ने चुपके से खूंटी पर टंगे उसके कुर्ते की जेब में तीन सौ रुपए डाल दिए और साथ में, उन नोटों के नंबर भी नोट कर लिए। बुड़भक खरपत कुर्ता पहनकर सीधे पाठशाला पहुँचा। इधर सेठ चतुर्भुज ने पुलिस चौकी में उसके ख़िलाफ़ फ़ौरन चोरी का रपट लिखाकर, उसके पीछे-पीछे कुछ सिपाहियों को भी लगा दिया। बेचारा खरपत पाठशाला में बच्चों को पानी पिलाते वक़्त रंगे-हाथ पकड़ा गया। सिपाहियों ने उसकी बगली से उसी नंबर के नोट बरामद किए, जिसके बाड़े में सेठ नो उन्हें बताया था। उसे चौकी में ले जाकर बड़ी कर्त्तव्यनिष्ठा से पूजा-पाठ की। लेकिन उसी वक़्त, खुद सेठ चतुर्भुज घड़ियाली आँसू बहाते हुए उसे रिहा कराने चौकी पर आ धमके। उन्होंने ळाट कराहते-कलपते खरपत को निचाट में ले जाकर उसकी चोट पर मरहम-पट्टी लगाने की नौटंकी खेली,"खरपतुआ! जो हुआ, सो हुआ--इसमे किसी का दोष नहीं है, आदमी की नीयत का क्या भरोसा--सब क़िस्मत का बदा था। इसलिए, अब आगे की सोच। हमारे पास तुम्हारे फिक्र को ख़त्म करने का एक फार्मूला है। अगर हमारा एक शर्त मान लोगे तो तुम्हारा कल्याण हो जाएगा। हम अभी तुम्हें इहाँ से छुड़ा ले जाएंगे।"<br />
<br />
खरपत तो ताज़्ज़ुब के सैलाब में डूब गया कि ये तिगड़मबाज़ सेठ अब जुआ और पचीसी का कौन-सा दाँव उसके साथ खेलने की फिराक़ में है। अब अगर इसने और कोई चालबाजी चलने की कोशिश की तो उसके परिवार का तो वारा-न्यारा हो जाएगा। चूंकि उसे अपने परिवार के जीवनयापन की दुश्चिंता सता रही थी; इसलिए, वह अपने गुस्से पर धीरज का भारी पहाड़ रखते हुए, गिड़गिड़ा उठा, "आप जिस तरह से भी हो सके, हमें इहाँ से छुड़ाके ले चलिए; नहीं तो हमारे बाल-बच्चे भूखे-पियासे मर जाएंगे...।"<br />
<br />
सेठजी मन ही मन मुस्करा उठे--हरामज़ादे को अपनी कर्मठता पर बड़ा ग़ुरूर था। अब इस मगरूर आदमी को कीड़े-मकोड़े की तरह रेंगते हुए देखने का टाइम आ गया है। वह तो पहला पासा चलकर उसके खेत पर काबिज़ हो ही गए थे; अब यह दूसरा पासा चलकर इसे इस लायक नहीं छोड़ेंगे कि वह फिर किसी जानवर से बेहतर ज़िंदगी जी सके। <br />
<br />
सेठजी का चेहरा चमक उठा, "खरपत! तू कितना होशियार है--यह बात मेरे सिवाय किसको पता है?"<br />
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खरपत, डबडबाई आँखों से सेठ के अंदर छिपे काइएं इंसान का साक्षात दर्शन कर रहा था।<br />
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सेठ ने आदतन बाईं आँख मारते हुए अपनी शर्त का खुलासा किया, "अगर तुम सारी उम्र सेठ चतुर्भुज मल्ल की चाकरी करने को राजी हो जाओ तो हम अभी तुम्हें यहाँ से मुक्ति दिला सकते हैं। बदले में, हम तुम्हें और तुम्हारे परिवार को भूखो नहीं मरने देंगे। हम तुम्हें उतना दाना-पानी देते रहेंगे जितने से तुम ज़िंदा रह सको और हमारी ख़िदमत कर सको। बोलो, है मंजूर; वर्ना, हम तो चलते हैं। हवालात तुम्हें मुबारक हो!"<br />
<br />
खरपत ने सेठ के पाँव पकड़ लिए।<br />
<br />
"हज़ूर! हम फ़ैज़ बाबा की किरिया (कसम) खाते हैं कि हम चाकरी करते-करते आपके ही ड्योढ़ी पर दम तोड़ेंगे। बस, आप हमे इस नरक से उबार लीजिए।" उसने सिर पर हाथ रखकर, वफ़ादार बने रहने का वादा किया; फिर, सेठ के लिए नफ़रत से मुँह में भर आए ख़खार को निगलते हुए अपनी भींगी आँखें रगड़-रगड़ कर पोछी। <br />
<br />
खरपत को अच्छी तरह पता था कि पिछले सात पुश्तों से उसके खानदान में किसी जनानी को ऐसा बुरा समय नहीं देखना पड़ा था जैसाकि उसकी लुगाई यानी मुरळाौंसी को देखना पड़ा। खरपत तो मुँह-अँधेरे उठकर काम पर निकल जाता था और रात ग्यारह बजे ही टायर की चप्पल छपछपाते हुए घर में दाख़िल होता था। इस कमर-तोड़ मेहनत के बदले में उसे क्या मिलता था--बस, तीन पाव आटा, सवा-पाव उस्ना चावल और डेढ़ सौ ग्राम खेसारी की दाल। इससे ज़्यादा के लिए मुँह खोलने पर सेठ चतुर्भुज उसे ताबड़तोड़ गाली-गलौज़ से उसकी ज़ुबान पर ताला लगा देता था। दरअसल, खरपत ख़ुद ही अपनी बेवकूफ़ी की वज़ह से सेठ द्वारा फैलाए गए जाल में फँसता चला गया था। अगर उसने सरकारी बाबुओं की ज़ुबान पर यक़ीन नहीं किया होता और सेठ के साथ इकरारनामे पर आँख मूँदकर अंगूठा नहीं लगाया होता तो आज उसको यह दिन नहीं देखना पड़ता। मौज़ूदा हालात में उसे सेठ को दी गई अपनी ज़ुबान के मुताबिक उसकी जीवनपर्यंत ग़ुलामी करने के सिवाय कोई और चारा नहीं था। उसमें इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि वह कहीं और भागकर किसी रोज़गार की तलाश करे और एक नई ज़िंदगी की शुरुआत करे। सेठ ने उसे धमकियाते हुए कड़े शब्दों में चेतावनी दे रखी थी कि चाहे वह पाताल में चला जाए, वह अपने आदमियों से उसे ढुँढवा ही लेगा और तब वह उससे और बुरी तरह, यानी साँड़ की तरह पेश आएगा। <br />
<br />
इसी दरमियान, एक दिन उसने किसी मुलाकाती को सेठ से उसकी दुकान पर बतकही करते हुए पाया। चूँकि बातचीत से मामला कुछ संवेदनशील-सा लग रहा था, इसलिए उसने काम में व्यस्त रहने का बहाना बनाकर उनकी बातचीत को पूरे ध्यान से सुना। सेठ उस आदमी को आश्वासन दे रहा था कि वह जल्दी ही उसके लिए किसी 'सुगिया' का बंदोबस्त कर देगा; मगर, उसके लिए उसे बढ़िया सेवा-पानी करनी पड़ेगी। प्रत्युत्तर में, मुलाकाती उसे संतुष्ट करने का वादा करते हुए वापस लौट गया। खरपत को यह समझने में ज़्यादा सिर नहीं खपाना पड़ा कि ये 'सुगिया' कोई और नहीं, बल्कि गाँव की लड़कियाँ हैं जिनका सेठ खरीदफ़रोख्त करता है। उसे अचानक याद आया कि कैसे गाँव की कुछ लड़कियाँ एकबैक गायब होती रही हैं जिनकी आज तक कोई खोज-खबर नहीं मिल सकी क्योंकि उनका सौदा करने वाले उनके माँ-बाप ने उनकी तलाश में समाज को दिखाने भर के लिए ही इधर-उधर हाथ-पैर मारे थे। यह अफ़वाह पहले से ही हवा में था कि अमुक ने अपनी बिटिया का शहर में सौदा कर दिया है। नफ़रत से उसका मुँह खखार से भर गया कि कैसे-कैसे लोग हैं जो अपनी बेटियों को बेचकर चैन की बंसी बजा रहे हैं और मजे से रोटी खा रहे हैं।<br />
<br />
दूसरे दिन, जब खरपत दुकान में दुछत्ती से कुछ अनाज की बोरियाँ नीचे उतार रहा था कि तभी सेठ खुद उठकर उसके सामने आया और बड़े प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरा, "खरपतुआ! तनिक सुस्ता-सुस्ताके काम किया कर, नहीं तो पीठ में साल पड़ जाएगा।"<br />
<br />
खरपत समझ गया कि सेठ जरूर कोई मतलब की बात करने वाला है क्योंकि वह मतलब में ही इतनी हमदर्दी से पेश आता है। <br />
<br />
सेठ ने उसके उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की और उसका हाथ पकड़कर और उसे खींचकर अपने बगल में बैठाया।<br />
<br />
"खरपतुआ! हमें तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की चिंता हमेशा सताती रहती है। अब हम तुमसे इतना काम लेते हैं तो इसका माने तो ई नहीं है कि हम तुम्हारी भलाई नहीं चाहते हैं।"<br />
<br />
खरपत ने अपना सिर खुजलाया और पसीना पोछा, "सेठजी, हम इतने में ही खुस्स हैं। आपके इहाँ, हमरी दिहाड़ी चलती रहे, बस इसी में हमरा हित है।"<br />
<br />
"देख, खरपतुआ! हमसे कौनो बात छिपी नहीं है। तुम्हारी बड़की बिटिया जवान हो रही है और उसका चिंता हमें भी खाए जा रहा है। आख़िर, तुमको उसका हाथ पीला करना है कि नहीं?" सेठ ने उसकी ज़िम्मेदारी याद दिलाते हुए उसकी दुखती रग पर हाथ रख ही दिया।<br />
<br />
"सेठजी! हम उसके बियाह-गौने के लिए अपनी मड़ई आपके इहाँ रेहन पर रख देंगे।" खरपत सोच रहा था कि अपने मन की बात सुनकर सेठ की बाँछें खिल जाएंगी; मगर, नखरेबाज सेठ के माथे पर तो उसके लिए चिंता की लकीरें दिखने लगीं। उसे सेठ का इरादा बेहद तबाहकुन लगा।<br />
<br />
"अब तुम हमें एकदम्मे कस्साई समळा बैठे हो क्या? अरे, हमें तुम्हें बेघर थोड़े ही बनाना है।" सेठ ने बड़ी आत्मीयता से उसके कंधे को सहलाया।<br />
<br />
"देख, हमारे पास एक ठो रिस्ता आया है--तुम्हारी बिटिया के लिए। कल जो आदमी हमसे मुलाकात करने आया था, वो अपना घर बसाना चाहता है।"<br />
<br />
खरपत चौंक गया, "सेठजी! अब ई अन्याय हमारे बच्चों के साथ मत कीजिए। अरे! ऊ आदमी तो हमसे भी उमरदराज़ है। हमरी ळाुमका तो अभी बारह बरिस की भी नहीं हुई है। ई बेमेल बियाह के लिए हम कभी तैयार नहीं होंगे। आखिर, ळाुमका बबुनी हमारी बिटिया है, दुस्मन नहीं।"<br />
<br />
"देख, खरपतुआ! तेरे जैसा सोळाभक इंसान तो हम आज तक नहीं देखे। अरे! लड़की को क्या चाहिए? खाने को बढ़िया खाना, पहिनने को चटख-चमकदार कपड़ा, रहने को दुमहला मकान औ' मटरगश्ती करने के लिए हाट-बाजार। तो, ई सब जग्गन कुँवर उसको मुहैया करा देगा। रही उसके उमरदराज होने की बात तो ऊ ऐसा मर्द है जो इतनी ज़ल्दी बूढ़ा होने वाला नहीं है। तुम्हारी बिटिया को वो खूब मौज़ देगा। अब तुम ही बताओ कि आदमी की कीरत देखी जाती है या उसकी सकल-सूरत?"<br />
<br />
खरपत सचमुच गहरे सोच में पड़ गया।<br />
<br />
सेठ फिर बोल उठा, "खूब सोच-विचार ले। अपनी मेहरारू से भी राय-सलाह कर ले। हम ताल ठोंकके कहते हैं कि तुम्हारी बिटिया जग्गन की लुगाई बनके बड़े ठाठ से एक ठाकुर परिवार में राज करेगी। तुम तो ठहरे मलेच्छ जात के जबकि जग्गन खाँटी रघुबंसी छत्री है।"<br />
<br />
खरपत तो उसकी बात सुनकर बेज़ुबान हो गया था। क्योंकि सेठ ने आसमान का रिश्ता पाताल से करने की बात कही थी।<br />
सेठ ने उसके कान से अपना मुँह सटा दिया, "देख, ई बड़े फ़ायदे का सौदा है। मतलब ये कि तुझे एक पैसा भी नहीं खर्चना पड़ेगा। उल्टे, तुझे दस हजार रुपया दिया जाएगा जिससे तूँ अपनी फटेहाली पर बढ़िया से पैबंद लगा सकता है। बोल, अगर ये शर्त तुळो मंजूर है तो हम आगे बात बढ़ाएं; नहीं तो चोखा गाँव के बहुत सारे लोग अपनी बिटिया जग्गन को देने को तैयार हैं।"<br />
<br />
उस दिन खरपत एक पल को भी सुकून से नहीं बैठ पाया। उसका भी मन डोलता जा रहा था कि इतने बड़े घराने से रिश्ता बनाकर उसे बड़ी इज़्ज़त मिलेगी। पर, वह बड़े असमंजस में था। वह यह सोचकर ज़्यादा बेचैन था कि मुरझौंसी झुमका को जग्गन के साथ बियाहने की बात मानेगी कि नहीं। वह उसे किस तरह मनाएगा? पाठशाला में भी वह सेठ चतुर्भुज की बातों में ही खोया हुआ था। उसका मन बार-बार उसे उकसा रहा था कि 'खरपतुआ! अगर तूं अपनी एक बिटिया का ऐसे सौदा कर लेगा तो बाकी परिवार तो राजी-खुशी से जीवन गुजार सकेगा। दस हजार रुपया कम नहीं होता है। इतने रुपए से तूं सेठ की बेग़ारी और पाठशाला में गाँड़घिसाई से निज़ात पा सकता है। बड़े मजे में एक ठेलागाड़ी खरीदकर जूस या कुल्फ़ी बेचने का धंधा शुरू कर सकता है।' <br />
<br />
रात को घर पहुँचकर वह इतना चिंतामग्न था कि जब मुरळाौंसी ने उसके लिए छिपली में लिट्टी-चोखा परोसा तो वह कायदे से कौर बनाकर खा भी नहीं पा रहा था। मुरझौंसी बहुत देर तक उसे ऐसी हालत में देखकर उकता-सी गई, "झुमका के बाऊ! कौनो अनर्गल बात हो गया है क्या? न तो ठीक से खाना खाय रहे हो, न हमसे तबियत से बतियाय रहे हो...।"<br />
तब, खरपत ने छिपली को एक किनारे टरकाकर, लोटाभर पानी पीया और खैनी मसलते हुए होठ के नीचे दबाया। फिर, मुरझौंसी को लेकर बँसखट पर पसर गया। पहले, उसने उसे जी-भर प्यार किया; उसके बाद, एकबैक उठ बैठा। उसकी इस हरकत पर मुरझौंसी मुँह फुलाकर औंधे मुँह लेट गई। तभी खरपत ने बैठे-बैठे झुककर अपना मुँह उसके कान से सटा दिया, "झुमका की माई! एक ठो हमरी बात मान लो तो तुम्हें कुछ दिन तलक मुफ़लिसी और फाकामस्ती से छुटकारा मिल सकता है...।"<br />
<br />
मुरझौंसी का मुँह ताज़्ज़ुब से खुला रहा गया, "ऊ कइसे, झुमका के बाऊजी?"<br />
<br />
उसने मुरझौंसी के कंधे पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा, "झुमका को सहर पठा दो...।"<br />
<br />
मुरझौंसी भभक उठी, "मतलब ये कि तुम उसको कोठे पे बिठाके चैन की नून-रोटी खाना चाहते हो। अरे, तुम उसके बाप हो कि दुस्मन?"<br />
<br />
खरपत ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया, "अरे, सहर का माने कोठा ही नहीं होता है। और ई बात कान खोलके सुनलो! हम झुमका के ही बाप नहीं, बल्कि उससे छोटे-छोटे पाँच और बच्चों के बाप हैं। तुम क्या बूझती हो कि हम ळाुमका को रंडीखाने भेज रहे हैं?"<br />
<br />
मुरझौंसी आँख मिचमिचाते हुए उसे ताकती रह गई, "हम तो इहै बूळा रहे थे।"<br />
<br />
खरपत ने बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा, "उसके लिए एकठो बढ़िया रिस्ता आया है; बदले में दस हजार रुपिया भी मिलेगा।"<br />
<br />
मुरझौंसी ठुड्डी पर हाथ रखकर बड़े हैरत में पड़ गई, "ळाुमका के बाऊजी! ई कौन-सी पहेली बुळाा रहे हो? इस जहान में क्या कोई अइसा भी आदमी है जो हमारी बुचिया से बियाह भी करेगा औ' पइसा भी देगा?"<br />
<br />
खरपत उसकी पीठ सहला-सहलाकर उसे समळााने लगा, "तुम क्या ई बूळाती हो कि जैसे गाँव-जवार में बियाह औ' गौने पे लेन-देन का रसम चल रहा है, वैसे ही सहर में भी चल रहा है? अरे, तुम गाँव में बैठके बुद्धू की बुद्धू ही रह गई। जमाना कितना बदल गया है कि बड़े-बड़े घरानों में लोग लइकी को लछमी मानने लगे हैं!"<br />
<br />
उस रात मुरझौंसी सचमुच अपने आदमी के कहने में आ गई। खरपत ने उसे दिन में ही तारों के दर्शन करा दिए थे। उसने उसे अपने लल्लो-चप्पो में इतना बहला-फुसला लिया कि सारी रात उसकी आँखों के सामने कुरकुरे रुपए ही नाच दिखाते रहे। <br />
अगले दिन, खरपत ने सेठ के मार्फ़त, जग्गन कुँवर को फौरन चोखा गाँव आने का न्यौता भिजवा दिया।<br />
<br />
चंठ जग्गन कुँवर को बड़ी से बड़ी मुसीबत में भी मुस्कराने की आदत थी। रोना तो उसे आता ही नहीं था। किसी ने भी उसको कभी दाँत पीसते हुए, इतने गुस्से में नहीं देखा था। पर, बात ही ऐसी थी कि उस दिन वह गुस्से में मुस्कराना भूल गया। ळाुमका उसके साथ पूरे पाँच साल तक उसकी बीवी का, मन से या बेमन से, फ़र्ज़ निभाती रही। लेकिन एक दिन वह उसके घर से ऐसे चंपत हुई कि किसी को कानो-कान भनक तक नहीं मिली। अगर वह किसी ऐरे-गैरे के साथ भागती तो जग्गन को इस बात का कोई ख़ास मलाल नहीं होता। थाने में रपट लिखाकर चुम्मारके बैठ जाता। लेकिन, वह तो उसके ही घरेलू नौकर--चितेरा महतो के साथ भागी थी। जग्गन चप्पे-चप्पे में ळाुमका की छानबीन खत्म करने के बाद, आख़िरकार, इस नतीजे पर पहुँचा कि ळाुमका बेशक, चितेरा के साथ ही भागी होगी। काफी समय से दोनों के बीच लुका-छिपी चल रही थी और यह सब देखकर भी जग्गन को उनके संबंधों पर यह सोचकर कोई संदेह नहीं हो रहा था कि मलेच्छ चितेरा तो उसका नौकर है; उसकी क्या मज़ाल कि वह हमारी औरत पर हाथ डाले? पर, उनके बीच नाज़ायज़ ताल्लुकात पहले से ही बन गए थे। अगर उसे जरा-सा भी अंदेशा हुआ होता तो वह पहले तो ळाुमका को ज़िंदा आँगन में गाड़ देता; फिर, चितेरा का सिर, धड़ से अलगकर उसकी लाश चील-कौवों को खिला देता। ळाुमका की इस हरकत से उसकी सारे गाँव में थू-थू हो गई थी। गाँववाले ताने और फितरे कसने से बाज़ नहीं आ रहे थे कि...जवान औरत को सम्हालना जग्गन बुढ़ऊ के वश की बात नहीं थी...मरभक्क ळाुमका, जग्गन का दूध-दही, मांस-मछली और माल-मलाई चाँभकर दो बरस में ही बच्ची से पूरी औरत बन गई थी; उसके गदराए ज़िस्म से जवानी फूट-फूट कर बह रही थी...उसे तो चितेरा जैसा ही छरहरा मर्द चाहिए था जो उसे ढूँढे बग़ैर घर में ही मिल गया...ळाुमका पाँच साल तक जग्गन के साथ उठती-बैठती-सोती रही...इतने समय में भी जब वह अपनी मर्दानगी साबित नहीं कर सका तो बेशक! उसमें ही कोई खोट रहा होगा...तभी तो उसने जवानी के दिनों में शादी नहीं की थी...उसे अपनी मर्दानगी पर भरोसा नहीं हो रहा था, वरना, मड़इया गाँव के ठाकुर तो, जवानी क्या, बुढ़ापे में भी इधर-उधर मुँह मारते रहने से बाज नही आते; घर का दूध पीते रहना उन्हें कहाँ रास आता है; उन्हें तो बाहर की गाय-भैसों का मलाईदार दूध गटकना ही भाता है...जग्गन के पड़ोसी ठाकुर पटाखा सिंह को ही देखो; उसका दावा है कि मड़इया गाँव के खेत-खलिहानों में मजूरी करने वाले ज़्यादातर लड़के उसके ही पैदा किए हुए हैं...खेतों की निराई-गुड़ाई करने वाली शायद ही कोई घसियारिन उससे महफ़ूज़ बची होगी--और वे लौंडे तो उन्हीं के पेट से निकले हैं। <br />
<br />
जग्गन कुँवर गलती से पुलिस चौकी रपट लिखाने चला गया। यों तो उसे यह बात अच्छी तरह पता रही होगी कि उसने नाबालिग झुमका को अपनी लुगाई बनाकर एक बड़ा कानूनी जुर्म किया है। पर, ठाकुरी तैश में उसे इसका कुछ ख्याल आया ही नहीं। <br />
लेकिन, <br />
यह क्या? पुलिस चौकी में पहले से मौज़ूद ळाुमका और चितेरा को देख, पल भर को तो उसके होश ही फ़ाख़्ता हो गए कि आख़िर, बात क्या है। क्या चोर ख़ुद थानेदार के पास अपनी ग़ुनाह कबूलने आया है? <br />
<br />
चितेरा ने दीवान के कान में फुसफुसाकर कहा, "सा'ब जी! यही जग्गन है...।"<br />
<br />
दीवान की भौंहें तन गईं, "अच्छा! तूँ खुद चलकर अपना ज़ुर्म कबूलने आया है?" वह लाठी ठकठकाते हुए जग्गन के दाएं-बाएं चहलकदमी करने लगा।<br />
<br />
जग्गन अपना सिर खुजलाने लगा, "आप भी क्या बात करते हैं, दीवानजी? हम तो खुद ही इस हरामज़ादे के ख़िलाफ़ इहाँ रपट लिखाने आए हैं। इसने हमारी लुगाई को भगाया है...।" उसने चितेरा की तरफ़ इशारा किया।<br />
<br />
दीवान ने अपनी लाठी की नोक उसके सीने पर टिका दी, "अच्छा! ये तेरी लुगाई है? तुळो पता है कि ये नाबालिग लड़की है? तेरे ऊपर लगातार पाँच सालों से इसके साथ रेप करने का संगीन ज़ुर्म बनता है। इसके लिए तुळो सात साल की जेल होने से ऊपरवाला भी नहीं रोक सकता...।"<br />
<br />
वह हकला उठा, "लेकिन, दीवानजी! ई हमारी बीबी है...।"<br />
<br />
"हाँ, हमें सब मालूम है कि तू इसे चोखा गाँव से खरीदकर लाया था, ब्याहकर नहीं...।" दीवान ने गुस्से में अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं।<br />
<br />
जग्गन ने चितेरा की ओर बड़े गुस्से में देखा, "आस्तीन का साँप...।"<br />
<br />
दीवान जग्गन को एक भद्दी गाली देते हुए घुड़का, "एक और भारी गुनाह किया है तूने?"<br />
<br />
जग्गन का मुँह खुला रह गया, "क्या?"<br />
<br />
"तूने कोई तेरह साल पहले एक नौ साल के अनाथ बच्चे को अपना यहाँ जबरन बंधक बनाकर नौकर रखा था। वह तेरह सालों से तेरे घर में जी-तोड़ बेग़ारी कर रहा है। तूने तो उस बच्चे मतलब चितेरा की ज़िंदगी ही गुड़ गोबर कर दी। क्या तुझे पता है? चौदह साल से कम उम्र के बच्चों से मेहनत-मज़दूरी कराना कानूनन ज़ुर्म है। इसके लिए भी तुळो दो साल तक जेल की हवा खानी पड़ेगी।" खुद्दार दीवान शेखी बघारने से बाज नहीं आ रहा था।<br />
<br />
जग्गन के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी, "सा'ब जी! आपके मालूम हो कि हम बहुत बड़े रईस ख़ानदान के ठाकुर हैं...।"<br />
"तो क्या हुआ? कानून की नज़र में सभी अपराधी एक-से होते हैं।" दीवान गुर्रा उठा।<br />
<br />
"दीवानजी! कुछ ले-देके मामले को रफ़ा-दफ़ा कर दीज़िए और हमारी लुगाई हमें वापस सौंप दीज़िए...।" उसने उसके कान में फुसफुसाकर कहा।<br />
<br />
"हरामी के पिल्ले! तूँ अब तो सारी हदें लाँघता जा रहा है...।" दीवान ने लाठी को कुर्सी के सहारे टिकाते हुए, एक जोरदार तमाचा जग्गन के मुँह पर जड़ा और उसे धक्का देकर हवालात में डाल दिया।<br />
<br />
जग्गन सारे हिकमत लगाकर भी मुक़दमा हार गया। उसे नौ साल का कठोर कारावास मिला। जबकि कोर्ट के आदेशानुसार झुमका, चितेरा महतो के साथ वापस मड़इया गाँव आकर, जग्गन के ही घर में रहने लगी। हालांकि दोनों ने न तो मंदिर में, न ही कहीं और जाकर सार्वजनिक रूप से शादी की। लेकिन, कोर्ट ने उन्हें पति-पत्नी के रूप में रहने का आदेश जारी कर दिया था। जब गाँववालों ने इस पर आपत्ति की तो दीवान ने गाँववालों को सख़्त चेतावनी देते हुए, दोनों की हिफ़ाज़त के लिए उनके घर पर तब तक एक हवलदार तैनात किए रखा जब तक कि मामला ठंडा नहीं पड़ गया। बहरहाल, बूढ़ा जग्गन कायदे से जेल में तीन साल भी पूरा नहीं कर सका। एक रात जेल में ही उसकी मौत हो गई। चूँकि उसका कोई वारिस नहीं था; इसलिए, ख़ुद चितेरा ने उसे मुखाग्नि दी। <br />
<br />
आजकल चितेरा ने अपने ससुर खरपत मंडल को सपरिवार मड़इया गाँव बुला लिया है। उसने स्वर्गीय जग्गन की मिल्कियत का कानूनन वारिस होने के नाते अपने ससुर को उसके खेतों में खेती करने का मालिकाना हक़ दे दिया है। सेठ चतुर्भुज, जग्गन की अकूत ज़ायदाद पर अपनी गीध नज़र जमाए हुए, अभी भी मड़इया गाँव आते रहते हैं। पर, चितेरा महतो से अपनी दाल न गलने के कारण वे उसकी ख़ुशामद करने से बाज नहीं आते हैं। इसकी वज़ह साफ है: चितेरा ने जग्गन से ही सीखा है कि सेठों के आगे चुग्गा डालकर अपना उल्लू कैसे सीधा किया जाता है। बहरहाल, उसने सेठ से दो टूक शब्दों में ऐलॅान कर रखा है कि 'हम ही ठाकुर जग्गन कुँवर के असली वारिस हैं। मतलब यह कि ठाकुर का वारिस, ठाकुर होता है। कोई शक? इसलिए, तुम्हारे गोरखधंधे से होने वाले मुनाफ़े में हमें उतने का ही हक़ है, जितने का चचा जग्गन को था। हाँ, तुम्हारे धंधे में हम उतने ही मनोयोग से मदद करते रहेंगे, जितने मनोयोग से चचा जग्गन किया करते थे।'<br />
<br />
सेठ वापस चोखा गाँव जाते हुए दबी आवाज़ में बुदबुदाया, "हम अच्छी तरह आपकी बात समझ रहे हैं, नए ठाकुर सा'ब! आपकी मेहरबानी से मिल-बाँट कर खाने में कोई हर्ज़ नहीं है।"<br />
<br />
(समाप्त)</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A8%E0%A4%AF%E0%A4%BE_%E0%A4%A0%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%B0_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=6712नया ठाकुर / मनोज श्रीवास्तव2012-05-25T08:51:45Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div><br />
सुबह के आठ बजते-बजते सूरज भड़भूजे की भट्ठी की तरह दहकने लगा था। वह पूरा जोर लगाकर लगभग भागते हुए, पीछा कर रहे सूरज के लहकते गोले की लपट से अपना पिंड छुड़ाने के लिए जी-तोड़ कोशिश कर रही थी। रेलवे स्टेशन से मड़इया गाँव तक अपने नाज़ुक सिर पर पसेरी भर की गठरी लादे हुए कोई डेढ़ घंटे की पैदल यात्रा के बाद जब उसने जग्गन कुँवर के घर में कदम रखा तब जाकर उसकी साँस में साँस आई। लेकिन, तभी उसे अपनी साँसें टूटती हुई-सी लगीं। आँखों में झाँई पड़ने लगी। दरअसल, एक तो थकान, दूसरे कई घंटों से लगी असह्य प्यास के कारण उसके गले में बबूल के काँटे जैसी चुभन महसूस हो रही थी। उसने जग्गन से टूटती हुई आवाज़ में कहा, "ताऊ! पानी, पानी, पानी।"<br />
<br />
लेकिन, इसके पहले कि जग्गन, उसे घुड़कते हुए फिर मारने को हाथ उठाता, "हम तेरा ताऊ नहीं, तेरा मनसेधू हूँ," झुमका उसकी बात अनसुनी करते हुए वहीं जमीन पर निढाल गिरकर अचेत हो गई। <br />
<br />
जग्गन घबड़ा-सा गया। उसने पहले चितेरा महतो को जोर-जोर से आवाज़ लगाई। जब तक सत्रह साल का गबरू चितेरा वहाँ आता, वह वहीं अपना माथा पकड़कर बैठ गया कि अगर झुमका को कुछ हो गया तो उसका हजारों का घाटा हो जाएगा। उसने गमछे से अपने माथे का पसीना पोछा और फिर उसी गमछे को कई बार चपतकर ळाुमका के सिर के नीचे लगा दिया। फिर, उसने हड़बड़ाकर ळाुमका को हिलाया-डुलाया, यह सोचते हुए कि कहीं वह तेज घमसी और प्यास के कारण मुर्च्छित तो नहीं हो गई। लेकिन, वह मुश्किल से अपनी आँखों पर से आधी पलकें ही हटा पा रही थी। मतलब यह कि थोड़ी-थोड़ी ही होश में थी। जग्गन ने पहले तो उसके चेहरे पर पानी के छींटे मारे और उसका मुँह खोलकर लोटा-भर पानी उसके गले में उड़ेल दिया। यह भी नहीं सोचा कि इससे उसका दम भी घुट सकता है। पर, भूखी-प्यासी ळाुमका अचेतावस्था में ही बकरी की तरह सारा पानी गटागट पी गई थी। पता नहीं, थकाऊ नींद के हावी होने या नीने मुँह डेढ़ सेर पानी पीने के कारण, वह मुर्दा की तरह लस्त-पस्त हो गई थी। उसकी पलकें पूरी तरह बंद भी नहीं हुई थी कि उसके खर्राटे से सारा दालान गूँजने लगा। खरहरी जमीन पर ळाुमका पूरे ढाई घंटे तक नाक बजा-बजाकर बेसुध सोती रही जबकि जग्गन इस बात से आश्वत होकर कि झुमका की तबियत दुरुस्त है, बाहर मचिया पर बैठ गया और अपना हालचाल लेने आए पड़ोसियों को यह सफाई देता जा रहा था कि 'हम झुमका को भगाकर नहीं, बल्कि विधि-विधान से ब्याहकर लाए हैं...।' <br />
<br />
कोई डेढ़ दिन तक खटारा बसों और ढुलक-ढुलक कर चलती छुक-छुक पसिंजर ट्रेनों की धक्कमपेल भीड़ में खड़े-खड़े यात्रा करते हुए झुमका कितनी थक गई थी, इसका उसे खुद अंदाज़ा नहीं था। क्योंकि वह रास्ते भर कौतुहल से हकबकाकर अज़नबी लोगों और नए-नए स्थानों को देखते हुए पल भर को भी नहीं सो पाई थी। अपने गाँव से वह पहली बार ऐसी यात्रा पर निकली थी और हाट-बाजार में दौड़ते-भागते लोगों को आँखें फाड़-फाड़कर देख रही थी। औरत-मर्द, लड़के-लड़कियाँ एक ही तरह के बेढंगे कपड़े यानी जींस पैंट और टी-शर्ट पहने हुए और कानों में मोबाइल का इयरफोन लगाकर खुद से बतियाते हुए एकदम बावले से लग रहे थे; उन्हें कौतुहल से देखते हुए झुमका खुद से ग़ाफ़िल हुई जा रही थी। ऐसे में, जग्गन उसके अल्हड़पन पर बार-बार लाल-पीला हो रहा था कि पूरे दस हजार में इस लौंडिया को अपनी मेहरारू बनाने के लिए खरीदा है। अगर जर, जोरू और जमीन को बुरी नज़र से नहीं बचाया गया तो आदमी हमेशा लफ़ड़े में ही फँसा रहेगा। इसलिए वह उसके सिर से ढल गए आँचल को बार-बार वापस उसके सिर पर रखते हुए भुनभुनाता जा रहा था जैसेकि कोई कुल्फ़ीवाला अपनी कुल्फ़ियों को सूरज की तपिश से बचाने का जतन कर रहा हो, "झुमका रानी! घूँघट में रहना सीख ले। क्या आँखें गड़ा-गड़ाके मर्दों को निहार रही हो? मेहरारू जात को आँखें नीची करके हाट-बाजार से गुजरना चाहिए।" लेकिन, झुमका पर उसकी झिड़क का कोई असर होने वाला नही था। वह या तो फ़िस्स से विहँसकर या खिसियानी चेहरा बनाकर उसकी बातों को टालती जा रही थी।<br />
<br />
झुमका को जग्गन की हिदायतें एकदम नागवार लग रही थी। वह बार-बार झुँझलाकर रह जा रही थी कि 'आख़िर, ये बुढ़ऊ हमें बार-बार मेहरारू और जोरू क्यों कहते आ रहे हैं? मेहरारू तो हमारी माई है जिसने हम जैसे सात-सात बच्चों को जनम दिया है। अब जब हम भी बियाह के बाद माई बनेंगे तो कोई हमें मेहरारू कहे या जोरू, इसका हम पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।'<br />
<br />
स्टेशन से बाहर आते समय जब जग्गन की जान-पहचान के एक अधेड़ आदमी ने उसे लगभग ललकारते हुए उस पर यह छींटाकशी की कि "अरे बुढ़ऊ जग्गन! ई उमर में अब घर बसाने का जी कर रहा है क्या" तब जग्गन उसे भद्दी-भद्दी गालियाँ देते हुए घुड़कने लगा था, "तेरी माँ को! तूँ काहे को जल-भुनकर राख हुआ जा रहा है? हम खानदानी ठाकुर हैं और ठाकुरों में सौ-सौ घर बसाने का दमखम होता है। नौ महीने बाद भेज देना भौजी को, सोहर और बधाई गाने।"<br />
<br />
"ई नौबत कभी न आएगी, जग्गुआ! जब तलक तुम ई लइकी को खिला-पिलाके सयानी औ' जवान बनाओगे, तब तलक तुम कबर में समा जाओगे। तुम अपनी उमर तो जानते ही हो? हमसे भी छे बरिस उमरदराज़ हो।" वह अधेड़ आदमी जग्गन के नहले पे अपना दहला चलने से बाज नहीं आ रहा था।<br />
<br />
बहरहाल, उनकी बेतुकी बातें झुमका के सिर के ऊपर से गुजर रही थीं। उसके भेजे में घर बसाने और नौ महीने बाद सोहर गाने वाला जुमला बिल्कुल नहीं समा रहा था। उसकी समळा में कुछ आता भी कैसे क्योंकि वह अभी इतनी बड़ी नहीं हुई थी कि वह रश्मों-रिवाज़ को समळाकर उनका निर्वाह करने की बात सोच सके जबकि उसकी माई परसों घर आए जग्गन को बता रही थी कि 'झुमका भले ही देखने में ठिंगनी और कमसिन लगती है; लेकिन, उसे बारह साल का होने में कुल दो महीने ही बाकी हैं और उसे 'वो' भी आने लगा है? मतलब यह कि इसी उम्र में हम तो माई बन गए थे। फिर, यह ळाुमका क्यों नहीं?' लेकिन झुमका सोचती जा रही थी कि ग्यारह-बारह साल की भी कोई उम्र होती है क्या? उससे बड़ी-बड़ी उम्र की ठकुराने गाँव की कूल्हे मटकाती चौचक लौंडिया तो अपने बाप-दादों की उंगलियाँ थामकर हाट-मेले से गुड्डा-गुड़िया मोल करने जाती हैं।<br />
<br />
ड्योढ़ी पर बैठी झुमका को 'वो' का मतलब थोड़ा-थोड़ा समळा में आ रहा था क्योंकि इस बारे में ख़ुद माई ने उसे कुछ दिनों तक पहले बतलाया था। वह फ़िस्स से शरमाकर माई पर मन ही मन खिसियाने लगी थी कि किसी ग़ैर आदमी से, भले ही वह उसके बाप की उम्र का हो, ऐसी ऊल-जुलूल बातें बताना अच्छा लगता है क्या? तब उसकी माई उसके गदराए गालों पर हाथ फेरते हुए बड़ी बेशरमी से बकबकाने लगी थी, "बारह बरिस की झुमका बूची इतनी सयानी है कि सोलह साल की उमरदराज़ मेहरारू से कमतर नहीं लगती है। चौका-बासन निपटाने के साथ-साथ, इतना डेलीसन लिट्टी-चोखा बनाती है कि हम सब जने अंगुरी चाटते रह जाते हैं।"<br />
<br />
माई के मुँह से अपनी तारीफ़ सुनकर पल भर को झुमका को लगा था कि वह, सेठ चतुर्भुज मल्ल की दुकान में बोरी में पड़े उस्ना चावल की तरह है जिसे सेठ अपनी मुट्ठी से निकालकर ग्राहकों के सामने इसकी उम्दा गुणवत्ता का प्रदर्शन करता है और वापस बोरी में डाल देता है। उसे नवागंतुक जग्गन से बड़ा कोफ़्त हो रहा था। पहले तो इस आदमी को घर में आते-जाते कभी नहीं देखा था। लेकिन वह, माई से इस तरह आँखें मिचमिचाकर आत्मीयता से बतिया रहा था कि झुमका को उससे बड़ी ईर्ष्या होने लगी--मान न मान, मैं तेरा मेहमान। <br />
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जब झुमका ने तिरछैल शक्की निगाहों से मचिया पर जग्गन को बैठे देखा तो माई ने बड़ी मासूमियत से उसका परिचय उससे कराया, "ई दूर के हमारे पाहुन लगते हैं। सहर से आए हैं--गाँव की बुचियों का भाग सँवारने। बड़े आदमी हैं। सहर के पास मड़इया गाँव में इनका आलीसान कोठी है। नूकर-चाकर भी हैं। ई बूळा लो कि बहुत बड़े जमींदार हैं।" <br />
<br />
वह पल भर को ठिठक गई कि क्या बात है कि माई उससे एक नए मेहमान की जान-पहचान कराकर उसे इतनी अहमियत दे रही है? बच्चों को इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि घर में कौन आ रहा है, कौन जा रहा है? उन पर तो बस, गली-कूचों में अपने संगी-साथियों के साथ खेल-खिलवाड़ करने का धुन सवार रहता है। उसने उस आदमी को कनखिया कर बड़े संदेह से देखा। लिहाजा, माई के मुँह से जग्गन की ठाट-बाट सुनकर उसकी आँखें फटी की फटी रह गई थीं। वह अथाह मन के कल्पना-सागर में उद्वेलित विचार-तरंगों में डूबने-उतराने लगी--'हम मेहनत-मजूरी करने वाले नीच-मलिच्छ जनों को सहरी जिनगी का सुआद चखना और पाँचों अंगुरी घी में डालके दिन-रात बिछौना में पड़े रहना कहाँ मयस्सर है?' तब, माई ने उसके चेहरे पर डूबते-उतराते भावों को तत्काल पढ़ लिया था। वह ळाटपट अपने होठों की प्रत्यंचा कानों तक खींचकर मुँह चियारते हुए भभककर बोल उठी थी, "बुची! तुम रंचमात्र भी फिकिर मत करो। ई गरीबखाने से तुम्हरी बिदाई जल्दी ही होने वाली है। अब ई बूझ लो कि तुम्हारे भी दिन बहुरने वाले हैं। ई कुँवर साहेब तोहें सहर ले जाने आए हैं--तुम्हरी जिनगी सँवारने। पहिले इस टोले की मनदुखनी और फिर सतपुतिया इनके साथ सहर जाके अपना-अपना भाग चमका चुकी हैं। अब तुम्हरी बारी आई है।"<br />
<br />
शहर जाने की बात पर झुमका एकदम विहँस उठी। उसको लगा कि उसके पंख उग आए हैं और वह कुलांचे भर-भरकर आसमान में उड़ती हुई चाँद-सितारों से बतिया रही है। उसने ठकुराने गाँव की हमउम्र लड़कियों को अपने शहरी रिश्तेदारों के यहाँ आने-जाने की लुभावनी चर्चाएं अपनी सखियों--केतकी और कजरी के मुँह से खूब सुनी है और कल्पनाओं में खुद भी शहर का सैर-सपाटा किया है। <br />
<br />
पर, उसका मन अचानक अधीर हो गया, 'नहीं, वह अपने माई-बाबू और छुटभैयों-बहिनों को छोड़कर कहीं नहीं जाएगी। वह जितने उमंग से डीह बाबा के इनार (कुएँ) के इर्द-गिर्द और पुलिया के नीचे, भुतहे खंडहर में कंचा-गोली, गुल्ली-डंडा और लुका-छिपी खेलती है, क्या ऐसी मौज-मस्ती उसे शहर जाकर मिल पाएगी?' <br />
<br />
उसका दिपदिपाता चेहरा मलिन पड़ गया। उसने जैसे ही मुँह बिचकाया, माई अपना हाथ उसके सिर पर फेरने लगी, "काहे घबराती हो, बबुनी? कुँवरजी तुम्हारा बड़ा ख्याल रखेंगे। कुछ भी ऐसा-वैसा नहीं करेंगे जिससे तुम्हारे जी को दुःख पहुँचे। हाँ! तुम्हारे पढ़ाने-लिखाने का बंदोबस्त भी करेंगे।"<br />
<br />
झुमका मन के भँवर में उलझ गई, "आख़िर, ई कुँवरजी को क्या मिलता है जो गाँव की उजड्ड छोरियों को सहर ले जाने का ज़िम्मा उठाते रहते हैं?" <br />
<br />
तभी, माई फिर जग्गन की तारीफ़ में गाल बजाने लगी, "कुँवरजी को कौन नहीं जानता? ये बहुत बड़े समाजिक कारकर्ता जो ठहरे!" <br />
<br />
झुमका ने जग्गन के चेहरे पर पड़ी ळाुर्रियों और उसके गंजे सिर के पीछे बचे-खुचे चुनिंदा सफेद बालों को बड़ी इज़्ज़त से देखा कि इनका अख़बार और टेलीवीज़न में बड़ा नाम होगा क्योंकि जो काम बाबूजी चाहकर भी नहीं कर पाए, वो ये करेंगे। मतलब, बाबूजी बच्चों को सरकारी पाठशाला में भेजने का जुगत कभी नहीं भिड़ा पाए और हमें खेत-खलिहानों की निराई-गुड़ाई में दिहाड़ी पर लगाते रहे। काम से कुछ ना-नुकर करने पर घोड़े की तरह बिदक जाते थे। फिर, झुमका यह सोचते हुए मन मसोसकर रह गई कि 'चलो, सहर जाकर अंगूठा-छाप रहने से बच जाएंगे। फिर, वापस तो माई के घर ही आना है। हमें तो इस आदमी का उपकार मानना चाहिए जो हमारी जिनगी में खुशी का बयार बहाना चाहता है।'<br />
<br />
जब वह उठकर बाहर नीम तले शीतला मइया की छाँव में जाकर बैठी हुई अपने मन की बात अपनी सहेलियों के साथ बाँटना चाह रही थी तो उसका मन बिल्कुल उचाट लग रहा था। उसने वापस आकर गगरी में से चुन्नी निकाली और ओसारे में पड़ी बँसखट पर लेट गई--मुँह पर चुन्नी डालकर, ताकि भनभनाती मक्खियाँ उसकी नींद में खलल न डाल सकें और वह सपनों की दुनिया में बेख़ौफ़ विचर सके। <br />
<br />
लेकिन, उसे नींद कहाँ आने वाली थी? उसके दिमाग पर शहर जाने का झक सवार होता जा रहा था। उस समय बाबूजी किसी बेहद ज़रूरी काम के बहाने सेठ चतुर्भुज मल्ल से मोहलत लेकर वापस आ चुके थे और सुबह से ही घर में डटे हुए अज़नबी जग्गन कुँवर से दुनियादारी और रोजगार-धंधे की बात कर रहे थे। उनकी बातचीत से साफ लग रहा था कि जग्गन कुँवर बिन बुलाया मेहमान नहीं है। माई-बाबू कई दिनों से उसकी बाट जोह रहे थे।<br />
<br />
झुमका बहुत नहीं तो इस बात को इतना तो समळा ही रही थी कि उसके बाबूजी को दो जून की नून-रोटी के जुगाड़ के लिए आसमान-पाताल एक करने जैसी मशक्कत करनी पड़ रही है। सेठ ने तो उसके सारे बदन की सारी चर्बी निचोड़ ली है। पिछले साल की रोंगटे खड़ी करने वाली घटना उसके बालमन को बार-बार कुरेंद जाती है जैसेकि फफोलों को चाकू से गोद-गोदकर उनमें नमक-मिर्च भरा जा रहा हो।<br />
<br />
बेशक! बीते आषाढ़ का महीना हर प्रकार से तबाहकुन था। एक तो गर्मी सब कुछ लीलने को आतुर थी; दूसरे, आदमी, आदमी का खून चूसने के लिए बेताब हुआ जा रहा था। महीनों से आसमान रेत और रेह से भरे हुए एक भयानक रेगिस्तान की तरह इस कोने से उस कोने तक पसरा हुआ लग रहा था। घटा के घुमड़ने का नज़ारा देखने के इंतज़ार में हजारों आँखें पथरा गई थीं। पूरब दिशा से बादलों के उमड़-घुमड़कर पहुँचने से पहले ही किरणों की लपलपाती जीभ उन्हें निगल जा रही थी। जो मळाोले किसान थे, वे मानसून के इस झन्नाटेदार तमाचे को तो येन-केन-प्रकारेण बरदाश्त कर ले रहे थे--बाकायदा सरकारी ट्यूबवेलों से महंगे दामों पर पानी खरीदकर। लेकिन, खरपत मंडल यानी ळाुमका के बाबूजी के पास अपने खेत में पानी चलाने के लिए पानी मोल लेने का माद्दा नहीं था। वह पहले से ही महाजन के कर्ज़ में आकंठ निमग्न थे क्योंकि दो साल पहले अपनी बड़ी बिटिया धनुकी के ब्याह के लिए सेठ चतुर्भुज से जो कर्ज़ लिया था, उसने ऊँची-ऊँची सुनामी लहरों की तरह तांडव नृत्य करते हुए उसकी गृहस्थी की चादर को तार-तार कर डाला था। फसल की रोपाई के बाद नन्हे-मुन्ने पौधों को सूरज का ग्रास बनने से बचाने के लिए लाख कोशिशों के बावज़ूद, कोई जुगाड़-पानी नहीं बन पा रहा था। उसकी औकात वाले उस इलाके के कोई छः सात लाचार-बेबस किसान पहले ही आत्महत्या कर चुके थे। पर, वह तो ऐसे बुज़दिल किसानों की हमेशा नुक़्ताचीनी करने से बाज नहीं आता था। वह आख़िरी सांस तक ज़बरदार मौसम से पंजा लड़ाने के लिए डटा हुआ था, मन में यह संकल्प लेते हुए कि अपनी मौत से मरेंगे, लेकिन बेमौत नहीं मरेंगे। <br />
<br />
उन दिनों सरकारी बाबू यदा-कदा सूखे क्षेत्रों का दौरा करने के नाम पर वहाँ भी भटककर आ-जा रहे थे ताकि किसी और किसान द्वारा सपरिवार आत्महत्या किए जाने की ख़बर के मीडिया तक पहुँचने से पहले ही उस ख़बर को रफा-दफा किया जा सके क्योंकि किसानों की बढ़ती आत्महत्याओं पर उन्हें मंत्रियों और बड़े-बड़े हाकिमों के यहाँ से बार-बार तलब किया जा रहा था। उनकी मुअत्तली और बरख़ास्तगी का फ़रमान भी वहाँ से जारी हो रहा था। एक दिन, किसी सरकारी बाबू ने सिंकिया पहलवान खरपत का खून यह जानकारी देकर एकदम से बढ़ा दिया कि आजकल सरकार द्वारा किसानों का न केवल कर्ज़ माफ़ किया जा रहा है, बल्कि बेमियाद सूखा से उत्पन्न मुश्किल हालात से निपटने के लिए उन्हें काफ़ी राहत-रक़म भी दी जा रही है। उसका सीना खुशी से फूलकर फुटबाल हो गया। उसने राहत विभाग को इमदाद के लिए फटाफट अर्ज़ी देने के बाद एक योजना बनाई कि इसके पहले कि हमें राहत मुहैया हो, क्यों न हम सेठ चतुर्भुज से कुछ कर्ज़ लेकर अपने खेत के लिए खाद-पानी का बंदोबस्त समय रहते कर ले; वर्ना, जब तक सरकारी मदद दिल्ली से उस तक पहुँचेगी, बेरहम उमसती-घमसती गरमी उसकी फसल की बलि ले लेगी? उसे हाकिमों के आश्वासन पर इतना भरोसा हो गया था कि वह सोचने लगा था कि अब तो उसके एक फूँक मारते ही महाजन के सारे कर्ज़ का वारा-न्यारा हो जाएगा। इस हेकड़ी में उसने सेठ चतुर्भुज के उस इकरारनामे पर भी हँसते-हँसते अंगूठा लगा दिया जिसमें साफ-साफ लिखा हुआ था कि दो माह के भीतर सूद समेत सारा बकाया न मिलने पर उसका डेढ़ बीघा खेत, खड़ी फसल समेत, ज़ब्त हो जाएगा। <br />
<br />
पर, ऊपरवाले को भी धन्नासेठों का घमंड बढ़ाते रहने में ही खूब मजा आता है क्योंकि उसकी पटरी दरिद्रनारायणों के साथ कभी नहीं बैठी है। इसीलिए, उसे फटेहाल खरपत का गुरूर बिल्कुल मंज़ूर नहीं हुआ। पलक झपकते ही दो माह ऐसे बीत गए जैसे चलनी में से सारा पानी बह जाता है। उसने दफ़्तरों से लेकर हाकिमों की कोठियों तक जलती रेत में चल-चलकर अपने गोड़ घिसे और गुहार-मनुहार कर, अपनी ज़ुबान भी छिलकर छोटी की। दरअसल, उसकी राहत राशि तो दफ़्तरों में आई थी; पर, उसे डी0एम0, तहसीलदार, कानूनगो और लेखपाल से लेकर सरपंच तक डकार लिए बिना ऐसे पचा-खचा गए थे कि बदहज़मी होने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। सेठ चतुर्भुज की भी बरसों की दिली मंशा पूरी हुई थी। बार-बार चुग्गा डालने पर भी खरपत नाम की मुर्गी उसके जाल में नहीं फँस पा रही थी। पर, यह सब सेठ द्वारा पिछले ही महीने फ़ैज़ बाबा के दरग़ाह में उनके मज़ार पर चादर चढ़ाए जाने का सुपरिणाम था कि आख़िरकार, ऊँट पहाड़ के नीचे से गुजरने के लिए ख़ुद ही राजी हो गया। इकरारनामे के मुताबिक, खरपत मंडल का खेत, फसल समेत उसकी मिल्क़ियत का हिस्सा बन गया।<br />
मरता, क्या न करता? खरपत का दिमाग़ दानापानी की जुगाड़बाज़ी के लिए धारदार छूरी की तरह चल रहा था। उसने हार न मानने की जैसे क़सम खा रखी थी। दिन भर में कम से कम एक बार तो घर में चूल्हा जलाने का बंदोबस्त वह करता ही था। इसके लिए भले ही उसे नाको चने चबाना पड़े। आकाश और पाताल एक करना पड़े। लेकिन, उसने कभी कोई चोरी-चकारी, छिनैती-ळापट्टामारी नहीं की। एक समय ऐसा भी आया कि जबकि खेत-खलिहान छिन जाने की ग़मी मनाते हुए उसका हाल बेहाल हो गया था। फिर, जब कोठियों वाले काश्तकारों की चाकरी करते-करते उसकी नाक में दम आ गया तो वह बेकार-बेग़ार किसानों और मजदूरों के लिए सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों में दिलचस्पी लेने लगा। पर, सरकारी बाबुओं की वहाँ भी चल रही अंधाधुंध लूटमारी से वह बिल्कुल आज़िज़ आ गया। सहकारी फार्मों में चल रहे 'काम के बदले अनाज' कार्यक्रम के तहत आठ घंटे तक तेज लू और घाम में खटने के बाद, जितना उसे अनाज मिलना चाहिए था, उसका आधा तो ठेकेदार रख लेता था और जब वह फार्म से बाहर आता था तो वहाँ बैठे सरपंच के मुस्टंडे गुंडे उसमें से भी आधा हिस्सा ळापट लेते थे। ले-देकर सेर-सवा सेर अनाज इतने बड़े परिवार का मड़ार पेट भरने के लिए और वह भी दो जून तक, ऊँट के मुँह में जीरा के समान था? कहीं और हाथ-पैर मारकर गुजारा नहीं किया जा सकता था। गाँव के सारे ताल-पोखरे भी सूखकर गहरे खड्ड बन गए थे; नहीं तो, फाकामस्ती के दिनों में वहाँ पानी में ळाब्बरदार पैदा होने वाले करेमुआ कासाग खाकर परिवार का पेट पाला जा सकता था। <br />
<br />
एक दिन खरपत न तो कहीं काम के जुगाड़ में गया, न ही उसे कहीं से कोई बेग़ारी करने का न्यौता मिला। वह ओसारे में पुआल पर लाचार, औंधे मुँह, नंग-धड़ंग पड़ा हुआ था जबकि उसके बच्चे हथेली पर नमक लेकर चाटते हुए इस आस में आसपास मँडरा रहे थे कि अभी बाबूजी कहीं जाएंगे और नून-तेल का बंदोबस्त करके आएंगे। माई भी बार-बार रसोईं में जाकर कनस्तर और डिब्बे ठोक-बजाकर यह तसल्ली कर आ रही थी कि कहीं भूलवश, कुछ अनाज रखा तो नहीं रह गया है। जब उसे पूरी तरह तसल्ली हो गई तो वह बाहर ड्योढ़ी पर बैठ, कथरी सिलने में व्यस्त हो गई। <br />
<br />
दोपहर में खरपत ओसारे से निकलकर बाहर नाद पर बैठ गया। तभी एकदम से रामधन कहार ने उधर से गुजरते हुए उसकी तबियत का ज़ायज़ा लिया, "खरपत भाई! आज काम-धंधे से छुट्टी लिया है क्या? सुनते हैं, तुम्हारी बढ़िया कमाई हो रही है। लेकिन, तुम्हारे बदन पर कहीं चर्बी तो नज़र नहीं आ रही! बीमार-उमार चल रहे हो क्या? नुरूल हक़ीम को दिखाया कि नहीं।" उसने उसके प्रति अपनत्व दिखाने का भरसक नाटक किया।<br />
<br />
लेकिन, उसकी व्यंग्य से छौंकी-बघारी बानी खरपत के गले से नीचे नहीं उतर पाई। उसे लगा कि पहले तो रामधन ने उसके गाल पर जोरदार थप्पड़ मारा है; फिर, चोट को सहलाने की कोशिश कर रहा है। इसलिए, उसने पिच्च से नाद में थूका और फिर, अकड़ते हुए खड़ा हो गया, "हाँ, इतना कमा लिया है कि अब बैठे-बैठे रोटी तोड़ रहे हैं।" पर, रामधन समळा गया कि उसके व्यंग्य का जवाब कटाक्ष से दिया जा रहा है। वास्तव में, खरपत की हालत वैसी नहीं है, जैसी कि उसकी है। जब से लालू के रहमो-करम से उसके बेटे की कलकत्ता रेलवे स्टेशन पर कुली की नौकरी पक्की हुई है, उसका सिर आसमान पर चढ़ गया है। सारा मड़इया गाँव जानता है कि हर महीने की चौथी-पाँचवी तारीख तक डाकखाने में उसके बेटे द्वारा भेजा हुआ पैसा आ जाता है जिससे उसकी पाँचों अंगुलियाँ घी में रहती हैं। तेल-फुलेल, दाना-पानी पर खर्चा-वर्चा करने के बाद उसके पास इतना पैसा तो बच ही जाता है कि शाम को ठेके पर जाकर पउवा हलक से नीचे उतार सके। <br />
<br />
उसने तत्काल खरपत की कमर में हाथ डाल दिया, "खरपतुआ! बुरा मान गए क्या? हम तो ळाुट्ठो-मुट्ठो का गाभी (व्यंग्य) बोल रहे थे। हमें तुम्हारा हाल पता नहीं है क्या?"<br />
<br />
उस वक़्त, खरपत, एक मगरूर मर्द होकर भी भलभलाकर आँसू बहाते हुए हिल्ल-हिल्ल कर बिलखने लगा था क्योंकि जब से सूखा, सूखे के बाद अकाल और अकाल के बाद सरकारी हाकिमों की अंधेरगर्दी परवान चढ़ती जा रही थी, किसी ने उससे सीधे मुँह बात तक नहीं की थी। लोगों को सामने से कतराते हुए देख, वह जोर-जोर से बड़बड़ाने लगता था, "ई टोले के लोग भी हमें भिखमंगा बूळाते हैं क्या कि हमें देखते ही पैंतरा बदल देते हैं? अरे, हम इनके आगे हाथ पसारने थोड़े ही जाएंगे। छूछे हाथ और नीने मुँह मर जाएंगे; लेकिन, इनकी थाली जुठारेंगे तक नहीं। कोई चीज मांगने-जांचने की तो बात ही दूर रही।"<br />
<br />
पर, आज रामधन सीधे आकर उससे टकरा गया था। वह मन ही मन भुनभुनाने लगा, "आज कोई बात जरूर है। नहीं तो, रामधन जैसा कुरुच्छ प्राणी उससे इस तरह आकर नहीं भेंटता-चिपकता।"<br />
<br />
तभी रामधन ने उससे छिटककर उसके मुँह पर एक जोर का डकार लिया और इस बार मुस्कराते हुए उसको यह अहसास दिलाया कि इस डकार में बैंगन के भुर्ते और शुद्ध देशी घी से चिपड़ी हुई सोंधी-सोंधी लिट्टी की गंध मिली हुई है; इसे लहसुन-मिर्च की चटनी समळाने की भूल कतई मत करना। दरअसल, हरी चटनी तो वो खाते हैं जिनकी टेंटी में अठन्नी से ज़्यादा पैसा नहीं होता। <br />
<br />
उसने अपने झक्क सफेद कुर्ते की बगली में हाथ डालकर बटुए में रेज़ग़ारी खनखनाते हुए, खरपत के उत्तर का इंतज़ार नहीं किया।<br />
<br />
"खरपतुआ! तूं तो पढ़ा-लिखा है। इस टोले में एक तो दंतखपटा कोइरी मिडिल पास है, दूसरा तूं है--जो मिडिल से ज़्यादा पढ़ा-लिखा है; मतलब यह कि हाई स्कूल फेल है। इतना हुनरदार होकर भी तूं सेठ की दुकान पर बेग़ारी करता है, भट्ठों पर ईंटा पाथता है और ठाकुरों के खेत कोड़ता है। अगर हम तेरी तरह पढ़े-लिखे होते तो सरकारी पाठशाला में चपड़ासी की नुकरी तो जरूर कर लेते। हेडमास्टर केशरीलाल साफ हमसे कहते हैं कि पहिले मिडिल पास का सट्टीफीकेट लाओ; फिर, प्यून बनने का ख़ाब देखना। हम चाहते हैं कि हमरे गाँव का ही कोई भला-मानुस पाठशाला का चपड़ासी बने। दँतखपटा कोइरी को इ जानकारी दी तो ऊ कहने लगा कि उसका पूत तो पहले से ही ठेकेदारी कर रहा है। उसके पेट पर तो पहिले से ही चर्बी चढ़ा है। फिर, ऊ नुकरी क्या करेगा?"<br />
<br />
रामधन की इस बकबक से खरपत के हाथ जो बेशकीमती जानकारी हाथ लगी, उससे उसके सीने में भूडोल आ गया। उसने रामधन को फटाफट निपटाया। उसके बाद अंदर जाकर हाथ-मुँह धोया और फ़ैज़ बाबा के दरगाह की ओर मुँह करके मन्नत मांगी। सिर पर अंगोछा लपेटा और मूँछ को पानी से तीखा बनाकर थाली में अपना मुँह देखा; फिर, लगभग भागते हुए सरकारी पाठशाला की सीढ़ियों पर दस्तक दिया।।<br />
<br />
उस समय शाम म्याऊँ-म्याऊँ करते हुए अंधेरे में लपककर छिपने की ताक में थी। उसने खुद को धन्यवाद दिया क्योंकि हेडमास्टर साहब पाठशाले में ताला लगाने के बाद अपनी फटफटहिया (मोटरसाइकिल) पर सवार हो ही रहे थे कि वह उनके आगे साष्टांग लेट गया। फिर, झटपट उठकर करबद्ध खड़ा हो गया।<br />
<br />
"साहेब! हम हैं खरपतुआ, माने कि खरपत मंडल, सुपुत्र रामपुकार मंडल, मिडिल पास, हाई स्कूल फेल...।" वह इतनी तेज से हाँफ रहा था कि आगे कुछ और नहीं बोल सका।<br />
<br />
हेडमास्टर ने फटफटहिया को धकाधक किक मारकर स्टार्ट किया। उसके बाद उसका सांगोपांग जायजा लेते हुए और अपनी मोटी-मोटी मूँछों को सहलाते हुए अचकचाकर रह गए, "मतलब?"<br />
<br />
खरपत ने एक लंबी साँस ली और ख़ुद पर काबू पाते हुए हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, "सरकार! आप हमारा मतलब नहीं समझे क्या?"<br />
<br />
हेडमास्टर केशरी लाल ने मोटर साइकिल बंद कर दी और लगभग गुर्राते हुए अपनी ऐनक उतारकर आँख मलने लगे, "बड़े बकलोल इंसान हो! अरे! तुम तो पहिले से ही मिडिल पास हो; फिर, इहाँ काहे आए हो? अपने किसी लौंडे के लिए कोई फर्ज़ी सर्टीफीकेट चाहिए तो कान खोलकर सुन लो--हमने गोरखधंधा बंद कर दिया है...।"<br />
<br />
खरपत, मोटरसाइकिल के अगले पहिए के आगे घुटनों के बल हाथ जोड़कर बैठ गया, "सरकार! हम सुने हैं कि ई पाठशाला में कौनो प्यून की जगह खाली है। आपको तो अभी हम बताए कि हम मिडिल पास, हाई स्कूल फेल हैं। हम ई चोखा टोला के सबसे दमदार कन्डिडेट हैं। आपके मालूम हो कि हम वोही किसान हैं जिसका खेत-बार सब महाजन के पेट में समा गया; न कोई हाकिम हमारा गुहार पर मदद को आया, न कोई सरकारी रसद-माल मिला। फिर भी हम मर-जी के अपने पलिवार को पास-पोस रहे हैं। हमसे बढ़िया हाल वाले किसान सुसाईड करके जिनगी से हार मान चुके हैं। लेकिन, हम हैं कि लड़ ही रहे हैं, लड़ ही रहे हैं। हम बड़ा जीवट वाला इंसान हूँ। जदि आप हमें प्यून की नुकरी पर रखेंगे तो आपको तनिक भी पछतावा नहीं होगा...।" <br />
<br />
बोलते-बोलते उसके होठ सूखकर फट गए और जब उसने मुँह चियारकर पूरी तन्मयता से अपनी बात पूरी की तो उसके फटे होठों से खून बहने लगा। <br />
<br />
हेडमास्टर का मन जुगुप्सा से भर गया। पता नहीं कैसे अपनी अक्खड़ी और बदमिज़ाजी के लिए कुख्यात हेडमास्टर का दिल टिघर गया? उन्होंने 'हुँह' कहा और आँखें मिचमिचाते हुए किसी विचार-तंद्रा में खो गए। जब तक वे खामोश रहे, खरपत का दिल डूबता जा रहा था। कुछ मिनट बाद, उन्होंने अपनी ऐनक आँखों पर चढ़ाई और एकदम घुड़कने के अंदाज़ में अपनी निग़ाहें खरपत पर जमा दीं, "खड़े हो जाओ। हमने कहा कि खड़े हो जाओ।"<br />
<br />
खरपत को लगा कि वह गलत समय पर आया है जबकि हेडमास्टर जी घर को जा रहे थे। वह उसी समय हाथ जोड़े हुए आतंकित-सा खड़ा हो गया। पर, उसने हिम्मत नहीं हारी, "जी, हमारी दरख़ास्त नामंजूर हो तो हमें माफ़ कर दीजिएगा। आप खिसियांगे तो हमको एकदम्मे अच्छा नहीं लगेगा...।"<br />
<br />
हेडमास्टर ने फटफटहिया के मिरर में आपना चेहरा देखा और फिर, फटफटहिया बंदकर मूँछों पर ताव दिया, "देखो, खरपत मंडल! कल मार्निंग में विद्यालय खुलते ही अपना सर्टीफीकेट लेकर आ जाना।"<br />
<br />
खरपत को जैसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। उसने फटे होठों से रिसते खून पर अपनी जीभ फेरी और फिर जोश से भर गया, "जी बाबू साहेब! आपकी बड़ी मेहरबानी होगी जो हम दुखियारे पर आपका किरिपा होगा...।" वह पेट में हवा भरते हुए घिघिया उठा "परनाम, साहेब!" और करबद्ध नमस्कार करते हुए चलने को हुआ।<br />
<br />
हेडमास्टर की दिलचस्पी खरपत में बढ़ गई थी। उन्होंने खरपत को रोका, "देखो, अगर विद्यालय का चपरासी बनाएंगे तो तुम्हें सारी ड्युटी बजानी होगी...।"<br />
<br />
खरपत फिर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, "जी, मालिक! काहे नहीं? हम सारी ड्युटी बजाएंगे। आपको तनिक भी सिकायत का मौका नही देंगे...।"<br />
<br />
"हाँ, पाठशाला का चपरासी होने का मतलब हमारा भी चपरासी...हमारे घर का भी...।" हेडमास्टर अपने चाबुक का भरपूर प्रयोग कर रहे थे।<br />
<br />
"जी साहेब! हम खूब समझ रहे हैं..." वह हिनहिनाकर रह गया। वह तो जैसे उनकी सारी शर्तें मानने को पहले से तैयार बैठा था।<br />
<br />
उन्होंने गरदन उचकाकर फिर उसे पुकारा, "अरे सुनो, खरपत! पाँच बजे विद्यालय बंद होने के बाद सीधे हमारे घर पर हाजिरी लगानी होगी। गाय-गोरुओं का सानी-पानी लगाना होगा। फुलवारी में पौधे सींचना होगा। सारे घर में झाड़ू-पोछा लगाना होगा। उसके बाद, हाट से साग-सब्जी लाने के बाद ही तुम्हें घर जाने की इज़ाज़त होगी...।"<br />
<br />
"जी बाबूसाहेब! आपका सारा हुकुम सिर-आँखों पर।"<br />
<br />
पाठशाले की चपरासीगिरी से खरपत के खुश होने के दो कारण थे। एक तो उसकी गृहस्थी की गाड़ी ट्रैक पर आने लगी थी; दूसरे, टोले में उसका मान-सम्मान फिर वापस मिलने लगा था। यह सब फ़ैज़ बाबा की मेहरबानी थी। इसलिए, वह हर ज़ुम्मेरात को दरगाह पर मत्था टेकने से कभी नहीं चूकता था। उसकी लुगाई ने भी हर शुक्रवार को बड़े नेम-धरम से संतोषी माँ का व्रत-पाठ शुरू कर दिया था। पूरा घर एक दुःस्वप्न के बाद फिर से अपने सुनहरे भविष्य के प्रति आश्वस्त होता जा रहा था।<br />
<br />
इसी दरमियान एक अज़ीब घटनाचक्र घूमने लगा। हेडमास्टर ने खरपत नाम के बैल को सुबह दस बजे से रात के ग्यारह बजे तक तो हल में जोत ही रखा था। इतने पर भी खरपत को प्रसन्नचित्त देखकर, उन्हें लग रहा था कि साढ़े सात सौ रुपए में वे उससे जो काम ले रहे हैं, वह बहुत कम है और वह उसे खैराती में इतना रुपया दे रहे हैं जबकि वह ऐसा बैल है कि उस पर जितना भी बोळा लादते जाओ, वह घुटने टेकने वाला नहीं है। आख़िर, वह यहाँ से पगहा तोड़ाकर जा भी कहाँ सकता था? जब दऊ बरसेंगे तो वह ऐसा सोच भी सकता है क्योंकि बारिश होने के बाद ही खेत-खलिहानों में काम शुरू होगा और तभी उसे दिहाड़ी पर बेगारी करने का मौका मिल सकेगा। इसलिए, जब हेडमास्टर केशरी लाल ने उस पर बारंबार दबाव डाला कि उसे इसी वेतन में पाठशाला पहुँचने से पहले सेठ चतुर्भुज मल्ल की दुकान पर भी सुबह छः बजे से साढ़े नौ बजे तक ड्युटी बजानी है क्योंकि सेठजी उनके पुराने जिगरी दोस्त हैं तो वह मन मारकर यह बेग़ारी करने के लिए भी राजी हो गया।<br />
दुनियाभर के लोगों को तो इश्क़-मोहब्बत, जुआ-सट्टेबाज़ी, दारू और दंगे की लत होती है; पर खरपत को तो कठिन से कठिन काम करने की लत पड़ी हुई थी। वह ऐसा जुळाारु शख़्स था जिसे बेकार बैठने से अच्छा, बेगारी करना लगता था। सेठ चतुर्भुज तो उसकी जांबाज़ मेहनत देखकर ही दंग हो गया था। उसके दिमाग में एक ख़ुराफ़ात आया कि क्यों न खरपतुआ को येन-केन-प्रकारेण बंधुआ मज़दूर बनाकर आरामतलब ज़िंदगी का आजीवन लुत्फ़ उठाया जाए।<br />
<br />
सो, सेठजी ने एक दिन पूरी तैयारी के साथ अपनी साज़िश का जाल बिछाया। <br />
<br />
खरपत के लिए चढ़ते आषाढ़ का वह दिन एक ख़ौफ़ बनकर आया था। उसकी लुगाई और बच्चों को क्या पता था कि उस दिन जब खरपत काम पर जाएगा तो शाम को उससे उनकी मुलाक़ात घर के बजाए, हवालात में ही होगी? सबेरे से ही खरपत, चतुर्भुज सेठ की दुकान में अपना खून-पसीना एक करने में लगा हुआ था। जब साढ़े नौ बजने को आया तो उसने सेठजी से पाठशाला जाने की अनुमति मंागी। जब तक वह गीले गमछे से हाथ-मुँह पोछकर तैयार होता तब तक सेठ ने चुपके से खूंटी पर टंगे उसके कुर्ते की जेब में तीन सौ रुपए डाल दिए और साथ में, उन नोटों के नंबर भी नोट कर लिए। बुड़भक खरपत कुर्ता पहनकर सीधे पाठशाला पहुँचा। इधर सेठ चतुर्भुज ने पुलिस चौकी में उसके ख़िलाफ़ फ़ौरन चोरी का रपट लिखाकर, उसके पीछे-पीछे कुछ सिपाहियों को भी लगा दिया। बेचारा खरपत पाठशाला में बच्चों को पानी पिलाते वक़्त रंगे-हाथ पकड़ा गया। सिपाहियों ने उसकी बगली से उसी नंबर के नोट बरामद किए, जिसके बाड़े में सेठ नो उन्हें बताया था। उसे चौकी में ले जाकर बड़ी कर्त्तव्यनिष्ठा से पूजा-पाठ की। लेकिन उसी वक़्त, खुद सेठ चतुर्भुज घड़ियाली आँसू बहाते हुए उसे रिहा कराने चौकी पर आ धमके। उन्होंने ळाट कराहते-कलपते खरपत को निचाट में ले जाकर उसकी चोट पर मरहम-पट्टी लगाने की नौटंकी खेली,"खरपतुआ! जो हुआ, सो हुआ--इसमे किसी का दोष नहीं है, आदमी की नीयत का क्या भरोसा--सब क़िस्मत का बदा था। इसलिए, अब आगे की सोच। हमारे पास तुम्हारे फिक्र को ख़त्म करने का एक फार्मूला है। अगर हमारा एक शर्त मान लोगे तो तुम्हारा कल्याण हो जाएगा। हम अभी तुम्हें इहाँ से छुड़ा ले जाएंगे।"<br />
<br />
खरपत तो ताज़्ज़ुब के सैलाब में डूब गया कि ये तिगड़मबाज़ सेठ अब जुआ और पचीसी का कौन-सा दाँव उसके साथ खेलने की फिराक़ में है। अब अगर इसने और कोई चालबाजी चलने की कोशिश की तो उसके परिवार का तो वारा-न्यारा हो जाएगा। चूंकि उसे अपने परिवार के जीवनयापन की दुश्चिंता सता रही थी; इसलिए, वह अपने गुस्से पर धीरज का भारी पहाड़ रखते हुए, गिड़गिड़ा उठा, "आप जिस तरह से भी हो सके, हमें इहाँ से छुड़ाके ले चलिए; नहीं तो हमारे बाल-बच्चे भूखे-पियासे मर जाएंगे...।"<br />
<br />
सेठजी मन ही मन मुस्करा उठे--हरामज़ादे को अपनी कर्मठता पर बड़ा ग़ुरूर था। अब इस मगरूर आदमी को कीड़े-मकोड़े की तरह रेंगते हुए देखने का टाइम आ गया है। वह तो पहला पासा चलकर उसके खेत पर काबिज़ हो ही गए थे; अब यह दूसरा पासा चलकर इसे इस लायक नहीं छोड़ेंगे कि वह फिर किसी जानवर से बेहतर ज़िंदगी जी सके। <br />
<br />
सेठजी का चेहरा चमक उठा, "खरपत! तू कितना होशियार है--यह बात मेरे सिवाय किसको पता है?"<br />
<br />
खरपत, डबडबाई आँखों से सेठ के अंदर छिपे काइएं इंसान का साक्षात दर्शन कर रहा था।<br />
<br />
सेठ ने आदतन बाईं आँख मारते हुए अपनी शर्त का खुलासा किया, "अगर तुम सारी उम्र सेठ चतुर्भुज मल्ल की चाकरी करने को राजी हो जाओ तो हम अभी तुम्हें यहाँ से मुक्ति दिला सकते हैं। बदले में, हम तुम्हें और तुम्हारे परिवार को भूखो नहीं मरने देंगे। हम तुम्हें उतना दाना-पानी देते रहेंगे जितने से तुम ज़िंदा रह सको और हमारी ख़िदमत कर सको। बोलो, है मंजूर; वर्ना, हम तो चलते हैं। हवालात तुम्हें मुबारक हो!"<br />
<br />
खरपत ने सेठ के पाँव पकड़ लिए।<br />
<br />
"हज़ूर! हम फ़ैज़ बाबा की किरिया (कसम) खाते हैं कि हम चाकरी करते-करते आपके ही ड्योढ़ी पर दम तोड़ेंगे। बस, आप हमे इस नरक से उबार लीजिए।" उसने सिर पर हाथ रखकर, वफ़ादार बने रहने का वादा किया; फिर, सेठ के लिए नफ़रत से मुँह में भर आए ख़खार को निगलते हुए अपनी भींगी आँखें रगड़-रगड़ कर पोछी। <br />
<br />
खरपत को अच्छी तरह पता था कि पिछले सात पुश्तों से उसके खानदान में किसी जनानी को ऐसा बुरा समय नहीं देखना पड़ा था जैसाकि उसकी लुगाई यानी मुरळाौंसी को देखना पड़ा। खरपत तो मुँह-अँधेरे उठकर काम पर निकल जाता था और रात ग्यारह बजे ही टायर की चप्पल छपछपाते हुए घर में दाख़िल होता था। इस कमर-तोड़ मेहनत के बदले में उसे क्या मिलता था--बस, तीन पाव आटा, सवा-पाव उस्ना चावल और डेढ़ सौ ग्राम खेसारी की दाल। इससे ज़्यादा के लिए मुँह खोलने पर सेठ चतुर्भुज उसे ताबड़तोड़ गाली-गलौज़ से उसकी ज़ुबान पर ताला लगा देता था। दरअसल, खरपत ख़ुद ही अपनी बेवकूफ़ी की वज़ह से सेठ द्वारा फैलाए गए जाल में फँसता चला गया था। अगर उसने सरकारी बाबुओं की ज़ुबान पर यक़ीन नहीं किया होता और सेठ के साथ इकरारनामे पर आँख मूँदकर अंगूठा नहीं लगाया होता तो आज उसको यह दिन नहीं देखना पड़ता। मौज़ूदा हालात में उसे सेठ को दी गई अपनी ज़ुबान के मुताबिक उसकी जीवनपर्यंत ग़ुलामी करने के सिवाय कोई और चारा नहीं था। उसमें इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि वह कहीं और भागकर किसी रोज़गार की तलाश करे और एक नई ज़िंदगी की शुरुआत करे। सेठ ने उसे धमकियाते हुए कड़े शब्दों में चेतावनी दे रखी थी कि चाहे वह पाताल में चला जाए, वह अपने आदमियों से उसे ढुँढवा ही लेगा और तब वह उससे और बुरी तरह, यानी साँड़ की तरह पेश आएगा। <br />
<br />
इसी दरमियान, एक दिन उसने किसी मुलाकाती को सेठ से उसकी दुकान पर बतकही करते हुए पाया। चूँकि बातचीत से मामला कुछ संवेदनशील-सा लग रहा था, इसलिए उसने काम में व्यस्त रहने का बहाना बनाकर उनकी बातचीत को पूरे ध्यान से सुना। सेठ उस आदमी को आश्वासन दे रहा था कि वह जल्दी ही उसके लिए किसी 'सुगिया' का बंदोबस्त कर देगा; मगर, उसके लिए उसे बढ़िया सेवा-पानी करनी पड़ेगी। प्रत्युत्तर में, मुलाकाती उसे संतुष्ट करने का वादा करते हुए वापस लौट गया। खरपत को यह समझने में ज़्यादा सिर नहीं खपाना पड़ा कि ये 'सुगिया' कोई और नहीं, बल्कि गाँव की लड़कियाँ हैं जिनका सेठ खरीदफ़रोख्त करता है। उसे अचानक याद आया कि कैसे गाँव की कुछ लड़कियाँ एकबैक गायब होती रही हैं जिनकी आज तक कोई खोज-खबर नहीं मिल सकी क्योंकि उनका सौदा करने वाले उनके माँ-बाप ने उनकी तलाश में समाज को दिखाने भर के लिए ही इधर-उधर हाथ-पैर मारे थे। यह अफ़वाह पहले से ही हवा में था कि अमुक ने अपनी बिटिया का शहर में सौदा कर दिया है। नफ़रत से उसका मुँह खखार से भर गया कि कैसे-कैसे लोग हैं जो अपनी बेटियों को बेचकर चैन की बंसी बजा रहे हैं और मजे से रोटी खा रहे हैं।<br />
<br />
दूसरे दिन, जब खरपत दुकान में दुछत्ती से कुछ अनाज की बोरियाँ नीचे उतार रहा था कि तभी सेठ खुद उठकर उसके सामने आया और बड़े प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरा, "खरपतुआ! तनिक सुस्ता-सुस्ताके काम किया कर, नहीं तो पीठ में साल पड़ जाएगा।"<br />
<br />
खरपत समझ गया कि सेठ जरूर कोई मतलब की बात करने वाला है क्योंकि वह मतलब में ही इतनी हमदर्दी से पेश आता है। <br />
<br />
सेठ ने उसके उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की और उसका हाथ पकड़कर और उसे खींचकर अपने बगल में बैठाया।<br />
<br />
"खरपतुआ! हमें तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की चिंता हमेशा सताती रहती है। अब हम तुमसे इतना काम लेते हैं तो इसका माने तो ई नहीं है कि हम तुम्हारी भलाई नहीं चाहते हैं।"<br />
<br />
खरपत ने अपना सिर खुजलाया और पसीना पोछा, "सेठजी, हम इतने में ही खुस्स हैं। आपके इहाँ, हमरी दिहाड़ी चलती रहे, बस इसी में हमरा हित है।"<br />
<br />
"देख, खरपतुआ! हमसे कौनो बात छिपी नहीं है। तुम्हारी बड़की बिटिया जवान हो रही है और उसका चिंता हमें भी खाए जा रहा है। आख़िर, तुमको उसका हाथ पीला करना है कि नहीं?" सेठ ने उसकी ज़िम्मेदारी याद दिलाते हुए उसकी दुखती रग पर हाथ रख ही दिया।<br />
<br />
"सेठजी! हम उसके बियाह-गौने के लिए अपनी मड़ई आपके इहाँ रेहन पर रख देंगे।" खरपत सोच रहा था कि अपने मन की बात सुनकर सेठ की बाँछें खिल जाएंगी; मगर, नखरेबाज सेठ के माथे पर तो उसके लिए चिंता की लकीरें दिखने लगीं। उसे सेठ का इरादा बेहद तबाहकुन लगा।<br />
<br />
"अब तुम हमें एकदम्मे कस्साई समळा बैठे हो क्या? अरे, हमें तुम्हें बेघर थोड़े ही बनाना है।" सेठ ने बड़ी आत्मीयता से उसके कंधे को सहलाया।<br />
<br />
"देख, हमारे पास एक ठो रिस्ता आया है--तुम्हारी बिटिया के लिए। कल जो आदमी हमसे मुलाकात करने आया था, वो अपना घर बसाना चाहता है।"<br />
<br />
खरपत चौंक गया, "सेठजी! अब ई अन्याय हमारे बच्चों के साथ मत कीजिए। अरे! ऊ आदमी तो हमसे भी उमरदराज़ है। हमरी ळाुमका तो अभी बारह बरिस की भी नहीं हुई है। ई बेमेल बियाह के लिए हम कभी तैयार नहीं होंगे। आखिर, ळाुमका बबुनी हमारी बिटिया है, दुस्मन नहीं।"<br />
<br />
"देख, खरपतुआ! तेरे जैसा सोळाभक इंसान तो हम आज तक नहीं देखे। अरे! लड़की को क्या चाहिए? खाने को बढ़िया खाना, पहिनने को चटख-चमकदार कपड़ा, रहने को दुमहला मकान औ' मटरगश्ती करने के लिए हाट-बाजार। तो, ई सब जग्गन कुँवर उसको मुहैया करा देगा। रही उसके उमरदराज होने की बात तो ऊ ऐसा मर्द है जो इतनी ज़ल्दी बूढ़ा होने वाला नहीं है। तुम्हारी बिटिया को वो खूब मौज़ देगा। अब तुम ही बताओ कि आदमी की कीरत देखी जाती है या उसकी सकल-सूरत?"<br />
<br />
खरपत सचमुच गहरे सोच में पड़ गया।<br />
<br />
सेठ फिर बोल उठा, "खूब सोच-विचार ले। अपनी मेहरारू से भी राय-सलाह कर ले। हम ताल ठोंकके कहते हैं कि तुम्हारी बिटिया जग्गन की लुगाई बनके बड़े ठाठ से एक ठाकुर परिवार में राज करेगी। तुम तो ठहरे मलेच्छ जात के जबकि जग्गन खाँटी रघुबंसी छत्री है।"<br />
<br />
खरपत तो उसकी बात सुनकर बेज़ुबान हो गया था। क्योंकि सेठ ने आसमान का रिश्ता पाताल से करने की बात कही थी।<br />
सेठ ने उसके कान से अपना मुँह सटा दिया, "देख, ई बड़े फ़ायदे का सौदा है। मतलब ये कि तुझे एक पैसा भी नहीं खर्चना पड़ेगा। उल्टे, तुझे दस हजार रुपया दिया जाएगा जिससे तूँ अपनी फटेहाली पर बढ़िया से पैबंद लगा सकता है। बोल, अगर ये शर्त तुळो मंजूर है तो हम आगे बात बढ़ाएं; नहीं तो चोखा गाँव के बहुत सारे लोग अपनी बिटिया जग्गन को देने को तैयार हैं।"<br />
<br />
उस दिन खरपत एक पल को भी सुकून से नहीं बैठ पाया। उसका भी मन डोलता जा रहा था कि इतने बड़े घराने से रिश्ता बनाकर उसे बड़ी इज़्ज़त मिलेगी। पर, वह बड़े असमंजस में था। वह यह सोचकर ज़्यादा बेचैन था कि मुरझौंसी झुमका को जग्गन के साथ बियाहने की बात मानेगी कि नहीं। वह उसे किस तरह मनाएगा? पाठशाला में भी वह सेठ चतुर्भुज की बातों में ही खोया हुआ था। उसका मन बार-बार उसे उकसा रहा था कि 'खरपतुआ! अगर तूं अपनी एक बिटिया का ऐसे सौदा कर लेगा तो बाकी परिवार तो राजी-खुशी से जीवन गुजार सकेगा। दस हजार रुपया कम नहीं होता है। इतने रुपए से तूं सेठ की बेग़ारी और पाठशाला में गाँड़घिसाई से निज़ात पा सकता है। बड़े मजे में एक ठेलागाड़ी खरीदकर जूस या कुल्फ़ी बेचने का धंधा शुरू कर सकता है।' <br />
<br />
रात को घर पहुँचकर वह इतना चिंतामग्न था कि जब मुरळाौंसी ने उसके लिए छिपली में लिट्टी-चोखा परोसा तो वह कायदे से कौर बनाकर खा भी नहीं पा रहा था। मुरझौंसी बहुत देर तक उसे ऐसी हालत में देखकर उकता-सी गई, "झुमका के बाऊ! कौनो अनर्गल बात हो गया है क्या? न तो ठीक से खाना खाय रहे हो, न हमसे तबियत से बतियाय रहे हो...।"<br />
तब, खरपत ने छिपली को एक किनारे टरकाकर, लोटाभर पानी पीया और खैनी मसलते हुए होठ के नीचे दबाया। फिर, मुरझौंसी को लेकर बँसखट पर पसर गया। पहले, उसने उसे जी-भर प्यार किया; उसके बाद, एकबैक उठ बैठा। उसकी इस हरकत पर मुरझौंसी मुँह फुलाकर औंधे मुँह लेट गई। तभी खरपत ने बैठे-बैठे झुककर अपना मुँह उसके कान से सटा दिया, "झुमका की माई! एक ठो हमरी बात मान लो तो तुम्हें कुछ दिन तलक मुफ़लिसी और फाकामस्ती से छुटकारा मिल सकता है...।"<br />
<br />
मुरझौंसी का मुँह ताज़्ज़ुब से खुला रहा गया, "ऊ कइसे, झुमका के बाऊजी?"<br />
<br />
उसने मुरझौंसी के कंधे पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा, "झुमका को सहर पठा दो...।"<br />
<br />
मुरझौंसी भभक उठी, "मतलब ये कि तुम उसको कोठे पे बिठाके चैन की नून-रोटी खाना चाहते हो। अरे, तुम उसके बाप हो कि दुस्मन?"<br />
<br />
खरपत ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया, "अरे, सहर का माने कोठा ही नहीं होता है। और ई बात कान खोलके सुनलो! हम झुमका के ही बाप नहीं, बल्कि उससे छोटे-छोटे पाँच और बच्चों के बाप हैं। तुम क्या बूझती हो कि हम ळाुमका को रंडीखाने भेज रहे हैं?"<br />
<br />
मुरझौंसी आँख मिचमिचाते हुए उसे ताकती रह गई, "हम तो इहै बूळा रहे थे।"<br />
<br />
खरपत ने बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा, "उसके लिए एकठो बढ़िया रिस्ता आया है; बदले में दस हजार रुपिया भी मिलेगा।"<br />
<br />
मुरझौंसी ठुड्डी पर हाथ रखकर बड़े हैरत में पड़ गई, "ळाुमका के बाऊजी! ई कौन-सी पहेली बुळाा रहे हो? इस जहान में क्या कोई अइसा भी आदमी है जो हमारी बुचिया से बियाह भी करेगा औ' पइसा भी देगा?"<br />
<br />
खरपत उसकी पीठ सहला-सहलाकर उसे समळााने लगा, "तुम क्या ई बूळाती हो कि जैसे गाँव-जवार में बियाह औ' गौने पे लेन-देन का रसम चल रहा है, वैसे ही सहर में भी चल रहा है? अरे, तुम गाँव में बैठके बुद्धू की बुद्धू ही रह गई। जमाना कितना बदल गया है कि बड़े-बड़े घरानों में लोग लइकी को लछमी मानने लगे हैं!"<br />
<br />
उस रात मुरझौंसी सचमुच अपने आदमी के कहने में आ गई। खरपत ने उसे दिन में ही तारों के दर्शन करा दिए थे। उसने उसे अपने लल्लो-चप्पो में इतना बहला-फुसला लिया कि सारी रात उसकी आँखों के सामने कुरकुरे रुपए ही नाच दिखाते रहे। <br />
अगले दिन, खरपत ने सेठ के मार्फ़त, जग्गन कुँवर को फौरन चोखा गाँव आने का न्यौता भिजवा दिया।<br />
<br />
चंठ जग्गन कुँवर को बड़ी से बड़ी मुसीबत में भी मुस्कराने की आदत थी। रोना तो उसे आता ही नहीं था। किसी ने भी उसको कभी दाँत पीसते हुए, इतने गुस्से में नहीं देखा था। पर, बात ही ऐसी थी कि उस दिन वह गुस्से में मुस्कराना भूल गया। ळाुमका उसके साथ पूरे पाँच साल तक उसकी बीवी का, मन से या बेमन से, फ़र्ज़ निभाती रही। लेकिन एक दिन वह उसके घर से ऐसे चंपत हुई कि किसी को कानो-कान भनक तक नहीं मिली। अगर वह किसी ऐरे-गैरे के साथ भागती तो जग्गन को इस बात का कोई ख़ास मलाल नहीं होता। थाने में रपट लिखाकर चुम्मारके बैठ जाता। लेकिन, वह तो उसके ही घरेलू नौकर--चितेरा महतो के साथ भागी थी। जग्गन चप्पे-चप्पे में ळाुमका की छानबीन खत्म करने के बाद, आख़िरकार, इस नतीजे पर पहुँचा कि ळाुमका बेशक, चितेरा के साथ ही भागी होगी। काफी समय से दोनों के बीच लुका-छिपी चल रही थी और यह सब देखकर भी जग्गन को उनके संबंधों पर यह सोचकर कोई संदेह नहीं हो रहा था कि मलेच्छ चितेरा तो उसका नौकर है; उसकी क्या मज़ाल कि वह हमारी औरत पर हाथ डाले? पर, उनके बीच नाज़ायज़ ताल्लुकात पहले से ही बन गए थे। अगर उसे जरा-सा भी अंदेशा हुआ होता तो वह पहले तो ळाुमका को ज़िंदा आँगन में गाड़ देता; फिर, चितेरा का सिर, धड़ से अलगकर उसकी लाश चील-कौवों को खिला देता। ळाुमका की इस हरकत से उसकी सारे गाँव में थू-थू हो गई थी। गाँववाले ताने और फितरे कसने से बाज़ नहीं आ रहे थे कि...जवान औरत को सम्हालना जग्गन बुढ़ऊ के वश की बात नहीं थी...मरभक्क ळाुमका, जग्गन का दूध-दही, मांस-मछली और माल-मलाई चाँभकर दो बरस में ही बच्ची से पूरी औरत बन गई थी; उसके गदराए ज़िस्म से जवानी फूट-फूट कर बह रही थी...उसे तो चितेरा जैसा ही छरहरा मर्द चाहिए था जो उसे ढूँढे बग़ैर घर में ही मिल गया...ळाुमका पाँच साल तक जग्गन के साथ उठती-बैठती-सोती रही...इतने समय में भी जब वह अपनी मर्दानगी साबित नहीं कर सका तो बेशक! उसमें ही कोई खोट रहा होगा...तभी तो उसने जवानी के दिनों में शादी नहीं की थी...उसे अपनी मर्दानगी पर भरोसा नहीं हो रहा था, वरना, मड़इया गाँव के ठाकुर तो, जवानी क्या, बुढ़ापे में भी इधर-उधर मुँह मारते रहने से बाज नही आते; घर का दूध पीते रहना उन्हें कहाँ रास आता है; उन्हें तो बाहर की गाय-भैसों का मलाईदार दूध गटकना ही भाता है...जग्गन के पड़ोसी ठाकुर पटाखा सिंह को ही देखो; उसका दावा है कि मड़इया गाँव के खेत-खलिहानों में मजूरी करने वाले ज़्यादातर लड़के उसके ही पैदा किए हुए हैं...खेतों की निराई-गुड़ाई करने वाली शायद ही कोई घसियारिन उससे महफ़ूज़ बची होगी--और वे लौंडे तो उन्हीं के पेट से निकले हैं। <br />
<br />
जग्गन कुँवर गलती से पुलिस चौकी रपट लिखाने चला गया। यों तो उसे यह बात अच्छी तरह पता रही होगी कि उसने नाबालिग झुमका को अपनी लुगाई बनाकर एक बड़ा कानूनी जुर्म किया है। पर, ठाकुरी तैश में उसे इसका कुछ ख्याल आया ही नहीं। <br />
लेकिन, <br />
यह क्या? पुलिस चौकी में पहले से मौज़ूद ळाुमका और चितेरा को देख, पल भर को तो उसके होश ही फ़ाख़्ता हो गए कि आख़िर, बात क्या है। क्या चोर ख़ुद थानेदार के पास अपनी ग़ुनाह कबूलने आया है? <br />
<br />
चितेरा ने दीवान के कान में फुसफुसाकर कहा, "सा'ब जी! यही जग्गन है...।"<br />
<br />
दीवान की भौंहें तन गईं, "अच्छा! तूँ खुद चलकर अपना ज़ुर्म कबूलने आया है?" वह लाठी ठकठकाते हुए जग्गन के दाएं-बाएं चहलकदमी करने लगा।<br />
<br />
जग्गन अपना सिर खुजलाने लगा, "आप भी क्या बात करते हैं, दीवानजी? हम तो खुद ही इस हरामज़ादे के ख़िलाफ़ इहाँ रपट लिखाने आए हैं। इसने हमारी लुगाई को भगाया है...।" उसने चितेरा की तरफ़ इशारा किया।<br />
<br />
दीवान ने अपनी लाठी की नोक उसके सीने पर टिका दी, "अच्छा! ये तेरी लुगाई है? तुळो पता है कि ये नाबालिग लड़की है? तेरे ऊपर लगातार पाँच सालों से इसके साथ रेप करने का संगीन ज़ुर्म बनता है। इसके लिए तुळो सात साल की जेल होने से ऊपरवाला भी नहीं रोक सकता...।"<br />
<br />
वह हकला उठा, "लेकिन, दीवानजी! ई हमारी बीबी है...।"<br />
<br />
"हाँ, हमें सब मालूम है कि तू इसे चोखा गाँव से खरीदकर लाया था, ब्याहकर नहीं...।" दीवान ने गुस्से में अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं।<br />
<br />
जग्गन ने चितेरा की ओर बड़े गुस्से में देखा, "आस्तीन का साँप...।"<br />
<br />
दीवान जग्गन को एक भद्दी गाली देते हुए घुड़का, "एक और भारी गुनाह किया है तूने?"<br />
<br />
जग्गन का मुँह खुला रह गया, "क्या?"<br />
<br />
"तूने कोई तेरह साल पहले एक नौ साल के अनाथ बच्चे को अपना यहाँ जबरन बंधक बनाकर नौकर रखा था। वह तेरह सालों से तेरे घर में जी-तोड़ बेग़ारी कर रहा है। तूने तो उस बच्चे मतलब चितेरा की ज़िंदगी ही गुड़ गोबर कर दी। क्या तुझे पता है? चौदह साल से कम उम्र के बच्चों से मेहनत-मज़दूरी कराना कानूनन ज़ुर्म है। इसके लिए भी तुळो दो साल तक जेल की हवा खानी पड़ेगी।" खुद्दार दीवान शेखी बघारने से बाज नहीं आ रहा था।<br />
<br />
जग्गन के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी, "सा'ब जी! आपके मालूम हो कि हम बहुत बड़े रईस ख़ानदान के ठाकुर हैं...।"<br />
"तो क्या हुआ? कानून की नज़र में सभी अपराधी एक-से होते हैं।" दीवान गुर्रा उठा।<br />
<br />
"दीवानजी! कुछ ले-देके मामले को रफ़ा-दफ़ा कर दीज़िए और हमारी लुगाई हमें वापस सौंप दीज़िए...।" उसने उसके कान में फुसफुसाकर कहा।<br />
<br />
"हरामी के पिल्ले! तूँ अब तो सारी हदें लाँघता जा रहा है...।" दीवान ने लाठी को कुर्सी के सहारे टिकाते हुए, एक जोरदार तमाचा जग्गन के मुँह पर जड़ा और उसे धक्का देकर हवालात में डाल दिया।<br />
<br />
जग्गन सारे हिकमत लगाकर भी मुक़दमा हार गया। उसे नौ साल का कठोर कारावास मिला। जबकि कोर्ट के आदेशानुसार झुमका, चितेरा महतो के साथ वापस मड़इया गाँव आकर, जग्गन के ही घर में रहने लगी। हालांकि दोनों ने न तो मंदिर में, न ही कहीं और जाकर सार्वजनिक रूप से शादी की। लेकिन, कोर्ट ने उन्हें पति-पत्नी के रूप में रहने का आदेश जारी कर दिया था। जब गाँववालों ने इस पर आपत्ति की तो दीवान ने गाँववालों को सख़्त चेतावनी देते हुए, दोनों की हिफ़ाज़त के लिए उनके घर पर तब तक एक हवलदार तैनात किए रखा जब तक कि मामला ठंडा नहीं पड़ गया। बहरहाल, बूढ़ा जग्गन कायदे से जेल में तीन साल भी पूरा नहीं कर सका। एक रात जेल में ही उसकी मौत हो गई। चूँकि उसका कोई वारिस नहीं था; इसलिए, ख़ुद चितेरा ने उसे मुखाग्नि दी। <br />
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आजकल चितेरा ने अपने ससुर खरपत मंडल को सपरिवार मड़इया गाँव बुला लिया है। उसने स्वर्गीय जग्गन की मिल्कियत का कानूनन वारिस होने के नाते अपने ससुर को उसके खेतों में खेती करने का मालिकाना हक़ दे दिया है। सेठ चतुर्भुज, जग्गन की अकूत ज़ायदाद पर अपनी गीध नज़र जमाए हुए, अभी भी मड़इया गाँव आते रहते हैं। पर, चितेरा महतो से अपनी दाल न गलने के कारण वे उसकी ख़ुशामद करने से बाज नहीं आते हैं। इसकी वज़ह साफ है: चितेरा ने जग्गन से ही सीखा है कि सेठों के आगे चुग्गा डालकर अपना उल्लू कैसे सीधा किया जाता है। बहरहाल, उसने सेठ से दो टूक शब्दों में ऐलॅान कर रखा है कि 'हम ही ठाकुर जग्गन कुँवर के असली वारिस हैं। मतलब यह कि ठाकुर का वारिस, ठाकुर होता है। कोई शक? इसलिए, तुम्हारे गोरखधंधे से होने वाले मुनाफ़े में हमें उतने का ही हक़ है, जितने का चचा जग्गन को था। हाँ, तुम्हारे धंधे में हम उतने ही मनोयोग से मदद करते रहेंगे, जितने मनोयोग से चचा जग्गन किया करते थे।'<br />
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सेठ वापस चोखा गाँव जाते हुए दबी आवाज़ में बुदबुदाया, "हम अच्छी तरह आपकी बात समझ रहे हैं, नए ठाकुर सा'ब! आपकी मेहरबानी से मिल-बाँट कर खाने में कोई हर्ज़ नहीं है।"<br />
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(समाप्त)</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A8%E0%A4%AF%E0%A4%BE_%E0%A4%A0%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%B0_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=6711नया ठाकुर / मनोज श्रीवास्तव2012-05-25T08:42:16Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
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<div>नया ठाकुर<br />
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सुबह के आठ बजते-बजते सूरज भड़भूजे की भट्ठी की तरह दहकने लगा था। वह पूरा जोर लगाकर लगभग भागते हुए, पीछा कर रहे सूरज के लहकते गोले की लपट से अपना पिंड छुड़ाने के लिए जी-तोड़ कोशिश कर रही थी। रेलवे स्टेशन से मड़इया गाँव तक अपने नाज़ुक सिर पर पसेरी भर की गठरी लादे हुए कोई डेढ़ घंटे की पैदल यात्रा के बाद जब उसने जग्गन कुँवर के घर में कदम रखा तब जाकर उसकी साँस में साँस आई। लेकिन, तभी उसे अपनी साँसें टूटती हुई-सी लगीं। आँखों में झाँई पड़ने लगी। दरअसल, एक तो थकान, दूसरे कई घंटों से लगी असह्य प्यास के कारण उसके गले में बबूल के काँटे जैसी चुभन महसूस हो रही थी। उसने जग्गन से टूटती हुई आवाज़ में कहा, "ताऊ! पानी, पानी, पानी।"<br />
लेकिन, इसके पहले कि जग्गन, उसे घुड़कते हुए फिर मारने को हाथ उठाता, "हम तेरा ताऊ नहीं, तेरा मनसेधू हूँ," झुमका उसकी बात अनसुनी करते हुए वहीं जमीन पर निढाल गिरकर अचेत हो गई। <br />
जग्गन घबड़ा-सा गया। उसने पहले चितेरा महतो को जोर-जोर से आवाज़ लगाई। जब तक सत्रह साल का गबरू चितेरा वहाँ आता, वह वहीं अपना माथा पकड़कर बैठ गया कि अगर झुमका को कुछ हो गया तो उसका हजारों का घाटा हो जाएगा। उसने गमछे से अपने माथे का पसीना पोछा और फिर उसी गमछे को कई बार चपतकर ळाुमका के सिर के नीचे लगा दिया। फिर, उसने हड़बड़ाकर ळाुमका को हिलाया-डुलाया, यह सोचते हुए कि कहीं वह तेज घमसी और प्यास के कारण मुर्च्छित तो नहीं हो गई। लेकिन, वह मुश्किल से अपनी आँखों पर से आधी पलकें ही हटा पा रही थी। मतलब यह कि थोड़ी-थोड़ी ही होश में थी। जग्गन ने पहले तो उसके चेहरे पर पानी के छींटे मारे और उसका मुँह खोलकर लोटा-भर पानी उसके गले में उड़ेल दिया। यह भी नहीं सोचा कि इससे उसका दम भी घुट सकता है। पर, भूखी-प्यासी ळाुमका अचेतावस्था में ही बकरी की तरह सारा पानी गटागट पी गई थी। पता नहीं, थकाऊ नींद के हावी होने या नीने मुँह डेढ़ सेर पानी पीने के कारण, वह मुर्दा की तरह लस्त-पस्त हो गई थी। उसकी पलकें पूरी तरह बंद भी नहीं हुई थी कि उसके खर्राटे से सारा दालान गूँजने लगा। खरहरी जमीन पर ळाुमका पूरे ढाई घंटे तक नाक बजा-बजाकर बेसुध सोती रही जबकि जग्गन इस बात से आश्वत होकर कि झुमका की तबियत दुरुस्त है, बाहर मचिया पर बैठ गया और अपना हालचाल लेने आए पड़ोसियों को यह सफाई देता जा रहा था कि 'हम झुमका को भगाकर नहीं, बल्कि विधि-विधान से ब्याहकर लाए हैं...।' <br />
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कोई डेढ़ दिन तक खटारा बसों और ढुलक-ढुलक कर चलती छुक-छुक पसिंजर ट्रेनों की धक्कमपेल भीड़ में खड़े-खड़े यात्रा करते हुए झुमका कितनी थक गई थी, इसका उसे खुद अंदाज़ा नहीं था। क्योंकि वह रास्ते भर कौतुहल से हकबकाकर अज़नबी लोगों और नए-नए स्थानों को देखते हुए पल भर को भी नहीं सो पाई थी। अपने गाँव से वह पहली बार ऐसी यात्रा पर निकली थी और हाट-बाजार में दौड़ते-भागते लोगों को आँखें फाड़-फाड़कर देख रही थी। औरत-मर्द, लड़के-लड़कियाँ एक ही तरह के बेढंगे कपड़े यानी जींस पैंट और टी-शर्ट पहने हुए और कानों में मोबाइल का इयरफोन लगाकर खुद से बतियाते हुए एकदम बावले से लग रहे थे; उन्हें कौतुहल से देखते हुए झुमका खुद से ग़ाफ़िल हुई जा रही थी। ऐसे में, जग्गन उसके अल्हड़पन पर बार-बार लाल-पीला हो रहा था कि पूरे दस हजार में इस लौंडिया को अपनी मेहरारू बनाने के लिए खरीदा है। अगर जर, जोरू और जमीन को बुरी नज़र से नहीं बचाया गया तो आदमी हमेशा लफ़ड़े में ही फँसा रहेगा। इसलिए वह उसके सिर से ढल गए आँचल को बार-बार वापस उसके सिर पर रखते हुए भुनभुनाता जा रहा था जैसेकि कोई कुल्फ़ीवाला अपनी कुल्फ़ियों को सूरज की तपिश से बचाने का जतन कर रहा हो, "झुमका रानी! घूँघट में रहना सीख ले। क्या आँखें गड़ा-गड़ाके मर्दों को निहार रही हो? मेहरारू जात को आँखें नीची करके हाट-बाजार से गुजरना चाहिए।" लेकिन, झुमका पर उसकी झिड़क का कोई असर होने वाला नही था। वह या तो फ़िस्स से विहँसकर या खिसियानी चेहरा बनाकर उसकी बातों को टालती जा रही थी।<br />
झुमका को जग्गन की हिदायतें एकदम नागवार लग रही थी। वह बार-बार झुँझलाकर रह जा रही थी कि 'आख़िर, ये बुढ़ऊ हमें बार-बार मेहरारू और जोरू क्यों कहते आ रहे हैं? मेहरारू तो हमारी माई है जिसने हम जैसे सात-सात बच्चों को जनम दिया है। अब जब हम भी बियाह के बाद माई बनेंगे तो कोई हमें मेहरारू कहे या जोरू, इसका हम पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।'<br />
स्टेशन से बाहर आते समय जब जग्गन की जान-पहचान के एक अधेड़ आदमी ने उसे लगभग ललकारते हुए उस पर यह छींटाकशी की कि "अरे बुढ़ऊ जग्गन! ई उमर में अब घर बसाने का जी कर रहा है क्या" तब जग्गन उसे भद्दी-भद्दी गालियाँ देते हुए घुड़कने लगा था, "तेरी माँ को! तूँ काहे को जल-भुनकर राख हुआ जा रहा है? हम खानदानी ठाकुर हैं और ठाकुरों में सौ-सौ घर बसाने का दमखम होता है। नौ महीने बाद भेज देना भौजी को, सोहर और बधाई गाने।"<br />
"ई नौबत कभी न आएगी, जग्गुआ! जब तलक तुम ई लइकी को खिला-पिलाके सयानी औ' जवान बनाओगे, तब तलक तुम कबर में समा जाओगे। तुम अपनी उमर तो जानते ही हो? हमसे भी छे बरिस उमरदराज़ हो।" वह अधेड़ आदमी जग्गन के नहले पे अपना दहला चलने से बाज नहीं आ रहा था।<br />
बहरहाल, उनकी बेतुकी बातें झुमका के सिर के ऊपर से गुजर रही थीं। उसके भेजे में घर बसाने और नौ महीने बाद सोहर गाने वाला जुमला बिल्कुल नहीं समा रहा था। उसकी समळा में कुछ आता भी कैसे क्योंकि वह अभी इतनी बड़ी नहीं हुई थी कि वह रश्मों-रिवाज़ को समळाकर उनका निर्वाह करने की बात सोच सके जबकि उसकी माई परसों घर आए जग्गन को बता रही थी कि 'ळाुमका भले ही देखने में ठिंगनी और कमसिन लगती है; लेकिन, उसे बारह साल का होने में कुल दो महीने ही बाकी हैं और उसे 'वो' भी आने लगा है? मतलब यह कि इसी उम्र में हम तो माई बन गए थे। फिर, यह ळाुमका क्यों नहीं?' लेकिन ळाुमका सोचती जा रही थी कि ग्यारह-बारह साल की भी कोई उम्र होती है क्या? उससे बड़ी-बड़ी उम्र की ठकुराने गाँव की कूल्हे मटकाती चौचक लौंडिया तो अपने बाप-दादों की उंगलियाँ थामकर हाट-मेले से गुड्डा-गुड़िया मोल करने जाती हैं।<br />
ड्योढ़ी पर बैठी झुमका को 'वो' का मतलब थोड़ा-थोड़ा समळा में आ रहा था क्योंकि इस बारे में ख़ुद माई ने उसे कुछ दिनों तक पहले बतलाया था। वह फ़िस्स से शरमाकर माई पर मन ही मन खिसियाने लगी थी कि किसी ग़ैर आदमी से, भले ही वह उसके बाप की उम्र का हो, ऐसी ऊल-जुलूल बातें बताना अच्छा लगता है क्या? तब उसकी माई उसके गदराए गालों पर हाथ फेरते हुए बड़ी बेशरमी से बकबकाने लगी थी, "बारह बरिस की झुमका बूची इतनी सयानी है कि सोलह साल की उमरदराज़ मेहरारू से कमतर नहीं लगती है। चौका-बासन निपटाने के साथ-साथ, इतना डेलीसन लिट्टी-चोखा बनाती है कि हम सब जने अंगुरी चाटते रह जाते हैं।"<br />
माई के मुँह से अपनी तारीफ़ सुनकर पल भर को ळाुमका को लगा था कि वह, सेठ चतुर्भुज मल्ल की दुकान में बोरी में पड़े उस्ना चावल की तरह है जिसे सेठ अपनी मुट्ठी से निकालकर ग्राहकों के सामने इसकी उम्दा गुणवत्ता का प्रदर्शन करता है और वापस बोरी में डाल देता है। उसे नवागंतुक जग्गन से बड़ा कोफ़्त हो रहा था। पहले तो इस आदमी को घर में आते-जाते कभी नहीं देखा था। लेकिन वह, माई से इस तरह आँखें मिचमिचाकर आत्मीयता से बतिया रहा था कि झुमका को उससे बड़ी ईर्ष्या होने लगी--मान न मान, मैं तेरा मेहमान। <br />
जब झुमका ने तिरछैल शक्की निगाहों से मचिया पर जग्गन को बैठे देखा तो माई ने बड़ी मासूमियत से उसका परिचय उससे कराया, "ई दूर के हमारे पाहुन लगते हैं। सहर से आए हैं--गाँव की बुचियों का भाग सँवारने। बड़े आदमी हैं। सहर के पास मड़इया गाँव में इनका आलीसान कोठी है। नूकर-चाकर भी हैं। ई बूळा लो कि बहुत बड़े जमींदार हैं।" <br />
वह पल भर को ठिठक गई कि क्या बात है कि माई उससे एक नए मेहमान की जान-पहचान कराकर उसे इतनी अहमियत दे रही है? बच्चों को इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि घर में कौन आ रहा है, कौन जा रहा है? उन पर तो बस, गली-कूचों में अपने संगी-साथियों के साथ खेल-खिलवाड़ करने का धुन सवार रहता है। उसने उस आदमी को कनखिया कर बड़े संदेह से देखा। लिहाजा, माई के मुँह से जग्गन की ठाट-बाट सुनकर उसकी आँखें फटी की फटी रह गई थीं। वह अथाह मन के कल्पना-सागर में उद्वेलित विचार-तरंगों में डूबने-उतराने लगी--'हम मेहनत-मजूरी करने वाले नीच-मलिच्छ जनों को सहरी जिनगी का सुआद चखना और पाँचों अंगुरी घी में डालके दिन-रात बिछौना में पड़े रहना कहाँ मयस्सर है?' तब, माई ने उसके चेहरे पर डूबते-उतराते भावों को तत्काल पढ़ लिया था। वह ळाटपट अपने होठों की प्रत्यंचा कानों तक खींचकर मुँह चियारते हुए भभककर बोल उठी थी, "बुची! तुम रंचमात्र भी फिकिर मत करो। ई गरीबखाने से तुम्हरी बिदाई जल्दी ही होने वाली है। अब ई बूझ लो कि तुम्हारे भी दिन बहुरने वाले हैं। ई कुँवर साहेब तोहें सहर ले जाने आए हैं--तुम्हरी जिनगी सँवारने। पहिले इस टोले की मनदुखनी और फिर सतपुतिया इनके साथ सहर जाके अपना-अपना भाग चमका चुकी हैं। अब तुम्हरी बारी आई है।"<br />
शहर जाने की बात पर झुमका एकदम विहँस उठी। उसको लगा कि उसके पंख उग आए हैं और वह कुलांचे भर-भरकर आसमान में उड़ती हुई चाँद-सितारों से बतिया रही है। उसने ठकुराने गाँव की हमउम्र लड़कियों को अपने शहरी रिश्तेदारों के यहाँ आने-जाने की लुभावनी चर्चाएं अपनी सखियों--केतकी और कजरी के मुँह से खूब सुनी है और कल्पनाओं में खुद भी शहर का सैर-सपाटा किया है। <br />
पर, उसका मन अचानक अधीर हो गया, 'नहीं, वह अपने माई-बाबू और छुटभैयों-बहिनों को छोड़कर कहीं नहीं जाएगी। वह जितने उमंग से डीह बाबा के इनार (कुएँ) के इर्द-गिर्द और पुलिया के नीचे, भुतहे खंडहर में कंचा-गोली, गुल्ली-डंडा और लुका-छिपी खेलती है, क्या ऐसी मौज-मस्ती उसे शहर जाकर मिल पाएगी?' <br />
उसका दिपदिपाता चेहरा मलिन पड़ गया। उसने जैसे ही मुँह बिचकाया, माई अपना हाथ उसके सिर पर फेरने लगी, "काहे घबराती हो, बबुनी? कुँवरजी तुम्हारा बड़ा ख्याल रखेंगे। कुछ भी ऐसा-वैसा नहीं करेंगे जिससे तुम्हारे जी को दुःख पहुँचे। हाँ! तुम्हारे पढ़ाने-लिखाने का बंदोबस्त भी करेंगे।"<br />
झुमका मन के भँवर में उलझ गई, "आख़िर, ई कुँवरजी को क्या मिलता है जो गाँव की उजड्ड छोरियों को सहर ले जाने का ज़िम्मा उठाते रहते हैं?" <br />
तभी, माई फिर जग्गन की तारीफ़ में गाल बजाने लगी, "कुँवरजी को कौन नहीं जानता? ये बहुत बड़े समाजिक कारकर्ता जो ठहरे!" <br />
ळाुमका ने जग्गन के चेहरे पर पड़ी ळाुर्रियों और उसके गंजे सिर के पीछे बचे-खुचे चुनिंदा सफेद बालों को बड़ी इज़्ज़त से देखा कि इनका अख़बार और टेलीवीज़न में बड़ा नाम होगा क्योंकि जो काम बाबूजी चाहकर भी नहीं कर पाए, वो ये करेंगे। मतलब, बाबूजी बच्चों को सरकारी पाठशाला में भेजने का जुगत कभी नहीं भिड़ा पाए और हमें खेत-खलिहानों की निराई-गुड़ाई में दिहाड़ी पर लगाते रहे। काम से कुछ ना-नुकर करने पर घोड़े की तरह बिदक जाते थे। फिर, झुमका यह सोचते हुए मन मसोसकर रह गई कि 'चलो, सहर जाकर अंगूठा-छाप रहने से बच जाएंगे। फिर, वापस तो माई के घर ही आना है। हमें तो इस आदमी का उपकार मानना चाहिए जो हमारी जिनगी में खुशी का बयार बहाना चाहता है।' <br />
जब वह उठकर बाहर नीम तले शीतला मइया की छाँव में जाकर बैठी हुई अपने मन की बात अपनी सहेलियों के साथ बाँटना चाह रही थी तो उसका मन बिल्कुल उचाट लग रहा था। उसने वापस आकर गगरी में से चुन्नी निकाली और ओसारे में पड़ी बँसखट पर लेट गई--मुँह पर चुन्नी डालकर, ताकि भनभनाती मक्खियाँ उसकी नींद में खलल न डाल सकें और वह सपनों की दुनिया में बेख़ौफ़ विचर सके। <br />
लेकिन, उसे नींद कहाँ आने वाली थी? उसके दिमाग पर शहर जाने का झक सवार होता जा रहा था। उस समय बाबूजी किसी बेहद ज़रूरी काम के बहाने सेठ चतुर्भुज मल्ल से मोहलत लेकर वापस आ चुके थे और सुबह से ही घर में डटे हुए अज़नबी जग्गन कुँवर से दुनियादारी और रोजगार-धंधे की बात कर रहे थे। उनकी बातचीत से साफ लग रहा था कि जग्गन कुँवर बिन बुलाया मेहमान नहीं है। माई-बाबू कई दिनों से उसकी बाट जोह रहे थे।<br />
झुमका बहुत नहीं तो इस बात को इतना तो समळा ही रही थी कि उसके बाबूजी को दो जून की नून-रोटी के जुगाड़ के लिए आसमान-पाताल एक करने जैसी मशक्कत करनी पड़ रही है। सेठ ने तो उसके सारे बदन की सारी चर्बी निचोड़ ली है। पिछले साल की रोंगटे खड़ी करने वाली घटना उसके बालमन को बार-बार कुरेंद जाती है जैसेकि फफोलों को चाकू से गोद-गोदकर उनमें नमक-मिर्च भरा जा रहा हो।<br />
बेशक! बीते आषाढ़ का महीना हर प्रकार से तबाहकुन था। एक तो गर्मी सब कुछ लीलने को आतुर थी; दूसरे, आदमी, आदमी का खून चूसने के लिए बेताब हुआ जा रहा था। महीनों से आसमान रेत और रेह से भरे हुए एक भयानक रेगिस्तान की तरह इस कोने से उस कोने तक पसरा हुआ लग रहा था। घटा के घुमड़ने का नज़ारा देखने के इंतज़ार में हजारों आँखें पथरा गई थीं। पूरब दिशा से बादलों के उमड़-घुमड़कर पहुँचने से पहले ही किरणों की लपलपाती जीभ उन्हें निगल जा रही थी। जो मळाोले किसान थे, वे मानसून के इस झन्नाटेदार तमाचे को तो येन-केन-प्रकारेण बरदाश्त कर ले रहे थे--बाकायदा सरकारी ट्यूबवेलों से महंगे दामों पर पानी खरीदकर। लेकिन, खरपत मंडल यानी ळाुमका के बाबूजी के पास अपने खेत में पानी चलाने के लिए पानी मोल लेने का माद्दा नहीं था। वह पहले से ही महाजन के कर्ज़ में आकंठ निमग्न थे क्योंकि दो साल पहले अपनी बड़ी बिटिया धनुकी के ब्याह के लिए सेठ चतुर्भुज से जो कर्ज़ लिया था, उसने ऊँची-ऊँची सुनामी लहरों की तरह तांडव नृत्य करते हुए उसकी गृहस्थी की चादर को तार-तार कर डाला था। फसल की रोपाई के बाद नन्हे-मुन्ने पौधों को सूरज का ग्रास बनने से बचाने के लिए लाख कोशिशों के बावज़ूद, कोई जुगाड़-पानी नहीं बन पा रहा था। उसकी औकात वाले उस इलाके के कोई छः सात लाचार-बेबस किसान पहले ही आत्महत्या कर चुके थे। पर, वह तो ऐसे बुज़दिल किसानों की हमेशा नुक़्ताचीनी करने से बाज नहीं आता था। वह आख़िरी सांस तक ज़बरदार मौसम से पंजा लड़ाने के लिए डटा हुआ था, मन में यह संकल्प लेते हुए कि अपनी मौत से मरेंगे, लेकिन बेमौत नहीं मरेंगे। <br />
उन दिनों सरकारी बाबू यदा-कदा सूखे क्षेत्रों का दौरा करने के नाम पर वहाँ भी भटककर आ-जा रहे थे ताकि किसी और किसान द्वारा सपरिवार आत्महत्या किए जाने की ख़बर के मीडिया तक पहुँचने से पहले ही उस ख़बर को रफा-दफा किया जा सके क्योंकि किसानों की बढ़ती आत्महत्याओं पर उन्हें मंत्रियों और बड़े-बड़े हाकिमों के यहाँ से बार-बार तलब किया जा रहा था। उनकी मुअत्तली और बरख़ास्तगी का फ़रमान भी वहाँ से जारी हो रहा था। एक दिन, किसी सरकारी बाबू ने सिंकिया पहलवान खरपत का खून यह जानकारी देकर एकदम से बढ़ा दिया कि आजकल सरकार द्वारा किसानों का न केवल कर्ज़ माफ़ किया जा रहा है, बल्कि बेमियाद सूखा से उत्पन्न मुश्किल हालात से निपटने के लिए उन्हें काफ़ी राहत-रक़म भी दी जा रही है। उसका सीना खुशी से फूलकर फुटबाल हो गया। उसने राहत विभाग को इमदाद के लिए फटाफट अर्ज़ी देने के बाद एक योजना बनाई कि इसके पहले कि हमें राहत मुहैया हो, क्यों न हम सेठ चतुर्भुज से कुछ कर्ज़ लेकर अपने खेत के लिए खाद-पानी का बंदोबस्त समय रहते कर ले; वर्ना, जब तक सरकारी मदद दिल्ली से उस तक पहुँचेगी, बेरहम उमसती-घमसती गरमी उसकी फसल की बलि ले लेगी? उसे हाकिमों के आश्वासन पर इतना भरोसा हो गया था कि वह सोचने लगा था कि अब तो उसके एक फूँक मारते ही महाजन के सारे कर्ज़ का वारा-न्यारा हो जाएगा। इस हेकड़ी में उसने सेठ चतुर्भुज के उस इकरारनामे पर भी हँसते-हँसते अंगूठा लगा दिया जिसमें साफ-साफ लिखा हुआ था कि दो माह के भीतर सूद समेत सारा बकाया न मिलने पर उसका डेढ़ बीघा खेत, खड़ी फसल समेत, ज़ब्त हो जाएगा। <br />
पर, ऊपरवाले को भी धन्नासेठों का घमंड बढ़ाते रहने में ही खूब मजा आता है क्योंकि उसकी पटरी दरिद्रनारायणों के साथ कभी नहीं बैठी है। इसीलिए, उसे फटेहाल खरपत का गुरूर बिल्कुल मंज़ूर नहीं हुआ। पलक झपकते ही दो माह ऐसे बीत गए जैसे चलनी में से सारा पानी बह जाता है। उसने दफ़्तरों से लेकर हाकिमों की कोठियों तक जलती रेत में चल-चलकर अपने गोड़ घिसे और गुहार-मनुहार कर, अपनी ज़ुबान भी छिलकर छोटी की। दरअसल, उसकी राहत राशि तो दफ़्तरों में आई थी; पर, उसे डी0एम0, तहसीलदार, कानूनगो और लेखपाल से लेकर सरपंच तक डकार लिए बिना ऐसे पचा-खचा गए थे कि बदहज़मी होने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। सेठ चतुर्भुज की भी बरसों की दिली मंशा पूरी हुई थी। बार-बार चुग्गा डालने पर भी खरपत नाम की मुर्गी उसके जाल में नहीं फँस पा रही थी। पर, यह सब सेठ द्वारा पिछले ही महीने फ़ैज़ बाबा के दरग़ाह में उनके मज़ार पर चादर चढ़ाए जाने का सुपरिणाम था कि आख़िरकार, ऊँट पहाड़ के नीचे से गुजरने के लिए ख़ुद ही राजी हो गया। इकरारनामे के मुताबिक, खरपत मंडल का खेत, फसल समेत उसकी मिल्क़ियत का हिस्सा बन गया।<br />
मरता, क्या न करता? खरपत का दिमाग़ दानापानी की जुगाड़बाज़ी के लिए धारदार छूरी की तरह चल रहा था। उसने हार न मानने की जैसे क़सम खा रखी थी। दिन भर में कम से कम एक बार तो घर में चूल्हा जलाने का बंदोबस्त वह करता ही था। इसके लिए भले ही उसे नाको चने चबाना पड़े। आकाश और पाताल एक करना पड़े। लेकिन, उसने कभी कोई चोरी-चकारी, छिनैती-ळापट्टामारी नहीं की। एक समय ऐसा भी आया कि जबकि खेत-खलिहान छिन जाने की ग़मी मनाते हुए उसका हाल बेहाल हो गया था। फिर, जब कोठियों वाले काश्तकारों की चाकरी करते-करते उसकी नाक में दम आ गया तो वह बेकार-बेग़ार किसानों और मजदूरों के लिए सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों में दिलचस्पी लेने लगा। पर, सरकारी बाबुओं की वहाँ भी चल रही अंधाधुंध लूटमारी से वह बिल्कुल आज़िज़ आ गया। सहकारी फार्मों में चल रहे 'काम के बदले अनाज' कार्यक्रम के तहत आठ घंटे तक तेज लू और घाम में खटने के बाद, जितना उसे अनाज मिलना चाहिए था, उसका आधा तो ठेकेदार रख लेता था और जब वह फार्म से बाहर आता था तो वहाँ बैठे सरपंच के मुस्टंडे गुंडे उसमें से भी आधा हिस्सा ळापट लेते थे। ले-देकर सेर-सवा सेर अनाज इतने बड़े परिवार का मड़ार पेट भरने के लिए और वह भी दो जून तक, ऊँट के मुँह में जीरा के समान था? कहीं और हाथ-पैर मारकर गुजारा नहीं किया जा सकता था। गाँव के सारे ताल-पोखरे भी सूखकर गहरे खड्ड बन गए थे; नहीं तो, फाकामस्ती के दिनों में वहाँ पानी में ळाब्बरदार पैदा होने वाले करेमुआ कासाग खाकर परिवार का पेट पाला जा सकता था। <br />
एक दिन खरपत न तो कहीं काम के जुगाड़ में गया, न ही उसे कहीं से कोई बेग़ारी करने का न्यौता मिला। वह ओसारे में पुआल पर लाचार, औंधे मुँह, नंग-धड़ंग पड़ा हुआ था जबकि उसके बच्चे हथेली पर नमक लेकर चाटते हुए इस आस में आसपास मँडरा रहे थे कि अभी बाबूजी कहीं जाएंगे और नून-तेल का बंदोबस्त करके आएंगे। माई भी बार-बार रसोईं में जाकर कनस्तर और डिब्बे ठोक-बजाकर यह तसल्ली कर आ रही थी कि कहीं भूलवश, कुछ अनाज रखा तो नहीं रह गया है। जब उसे पूरी तरह तसल्ली हो गई तो वह बाहर ड्योढ़ी पर बैठ, कथरी सिलने में व्यस्त हो गई। <br />
दोपहर में खरपत ओसारे से निकलकर बाहर नाद पर बैठ गया। तभी एकदम से रामधन कहार ने उधर से गुजरते हुए उसकी तबियत का ज़ायज़ा लिया, "खरपत भाई! आज काम-धंधे से छुट्टी लिया है क्या? सुनते हैं, तुम्हारी बढ़िया कमाई हो रही है। लेकिन, तुम्हारे बदन पर कहीं चर्बी तो नज़र नहीं आ रही! बीमार-उमार चल रहे हो क्या? नुरूल हक़ीम को दिखाया कि नहीं।" उसने उसके प्रति अपनत्व दिखाने का भरसक नाटक किया।<br />
लेकिन, उसकी व्यंग्य से छौंकी-बघारी बानी खरपत के गले से नीचे नहीं उतर पाई। उसे लगा कि पहले तो रामधन ने उसके गाल पर जोरदार थप्पड़ मारा है; फिर, चोट को सहलाने की कोशिश कर रहा है। इसलिए, उसने पिच्च से नाद में थूका और फिर, अकड़ते हुए खड़ा हो गया, "हाँ, इतना कमा लिया है कि अब बैठे-बैठे रोटी तोड़ रहे हैं।" पर, रामधन समळा गया कि उसके व्यंग्य का जवाब कटाक्ष से दिया जा रहा है। वास्तव में, खरपत की हालत वैसी नहीं है, जैसी कि उसकी है। जब से लालू के रहमो-करम से उसके बेटे की कलकत्ता रेलवे स्टेशन पर कुली की नौकरी पक्की हुई है, उसका सिर आसमान पर चढ़ गया है। सारा मड़इया गाँव जानता है कि हर महीने की चौथी-पाँचवी तारीख तक डाकखाने में उसके बेटे द्वारा भेजा हुआ पैसा आ जाता है जिससे उसकी पाँचों अंगुलियाँ घी में रहती हैं। तेल-फुलेल, दाना-पानी पर खर्चा-वर्चा करने के बाद उसके पास इतना पैसा तो बच ही जाता है कि शाम को ठेके पर जाकर पउवा हलक से नीचे उतार सके। <br />
उसने तत्काल खरपत की कमर में हाथ डाल दिया, "खरपतुआ! बुरा मान गए क्या? हम तो ळाुट्ठो-मुट्ठो का गाभी (व्यंग्य) बोल रहे थे। हमें तुम्हारा हाल पता नहीं है क्या?"<br />
उस वक़्त, खरपत, एक मगरूर मर्द होकर भी भलभलाकर आँसू बहाते हुए हिल्ल-हिल्ल कर बिलखने लगा था क्योंकि जब से सूखा, सूखे के बाद अकाल और अकाल के बाद सरकारी हाकिमों की अंधेरगर्दी परवान चढ़ती जा रही थी, किसी ने उससे सीधे मुँह बात तक नहीं की थी। लोगों को सामने से कतराते हुए देख, वह जोर-जोर से बड़बड़ाने लगता था, "ई टोले के लोग भी हमें भिखमंगा बूळाते हैं क्या कि हमें देखते ही पैंतरा बदल देते हैं? अरे, हम इनके आगे हाथ पसारने थोड़े ही जाएंगे। छूछे हाथ और नीने मुँह मर जाएंगे; लेकिन, इनकी थाली जुठारेंगे तक नहीं। कोई चीज मांगने-जांचने की तो बात ही दूर रही।"<br />
पर, आज रामधन सीधे आकर उससे टकरा गया था। वह मन ही मन भुनभुनाने लगा, "आज कोई बात जरूर है। नहीं तो, रामधन जैसा कुरुच्छ प्राणी उससे इस तरह आकर नहीं भेंटता-चिपकता।"<br />
तभी रामधन ने उससे छिटककर उसके मुँह पर एक जोर का डकार लिया और इस बार मुस्कराते हुए उसको यह अहसास दिलाया कि इस डकार में बैंगन के भुर्ते और शुद्ध देशी घी से चिपड़ी हुई सोंधी-सोंधी लिट्टी की गंध मिली हुई है; इसे लहसुन-मिर्च की चटनी समळाने की भूल कतई मत करना। दरअसल, हरी चटनी तो वो खाते हैं जिनकी टेंटी में अठन्नी से ज़्यादा पैसा नहीं होता। <br />
उसने अपने ळाक्क सफेद कुर्ते की बगली में हाथ डालकर बटुए में रेज़ग़ारी खनखनाते हुए, खरपत के उत्तर का इंतज़ार नहीं किया।<br />
"खरपतुआ! तूं तो पढ़ा-लिखा है। इस टोले में एक तो दंतखपटा कोइरी मिडिल पास है, दूसरा तूं है--जो मिडिल से ज़्यादा पढ़ा-लिखा है; मतलब यह कि हाई स्कूल फेल है। इतना हुनरदार होकर भी तूं सेठ की दुकान पर बेग़ारी करता है, भट्ठों पर ईंटा पाथता है और ठाकुरों के खेत कोड़ता है। अगर हम तेरी तरह पढ़े-लिखे होते तो सरकारी पाठशाला में चपड़ासी की नुकरी तो जरूर कर लेते। हेडमास्टर केशरीलाल साफ हमसे कहते हैं कि पहिले मिडिल पास का सट्टीफीकेट लाओ; फिर, प्यून बनने का ख़ाब देखना। हम चाहते हैं कि हमरे गाँव का ही कोई भला-मानुस पाठशाला का चपड़ासी बने। दँतखपटा कोइरी को इ जानकारी दी तो ऊ कहने लगा कि उसका पूत तो पहले से ही ठेकेदारी कर रहा है। उसके पेट पर तो पहिले से ही चर्बी चढ़ा है। फिर, ऊ नुकरी क्या करेगा?"<br />
रामधन की इस बकबक से खरपत के हाथ जो बेशकीमती जानकारी हाथ लगी, उससे उसके सीने में भूडोल आ गया। उसने रामधन को फटाफट निपटाया। उसके बाद अंदर जाकर हाथ-मुँह धोया और फ़ैज़ बाबा के दरगाह की ओर मुँह करके मन्नत मांगी। सिर पर अंगोछा लपेटा और मूँछ को पानी से तीखा बनाकर थाली में अपना मुँह देखा; फिर, लगभग भागते हुए सरकारी पाठशाला की सीढ़ियों पर दस्तक दिया।।<br />
उस समय शाम म्याऊँ-म्याऊँ करते हुए अंधेरे में लपककर छिपने की ताक में थी। उसने खुद को धन्यवाद दिया क्योंकि हेडमास्टर साहब पाठशाले में ताला लगाने के बाद अपनी फटफटहिया (मोटरसाइकिल) पर सवार हो ही रहे थे कि वह उनके आगे साष्टांग लेट गया। फिर, ळाटपट उठकर करबद्ध खड़ा हो गया।<br />
"साहेब! हम हैं खरपतुआ, माने कि खरपत मंडल, सुपुत्र रामपुकार मंडल, मिडिल पास, हाई स्कूल फेल...।" वह इतनी तेज से हाँफ रहा था कि आगे कुछ और नहीं बोल सका।<br />
हेडमास्टर ने फटफटहिया को धकाधक किक मारकर स्टार्ट किया। उसके बाद उसका सांगोपांग जायजा लेते हुए और अपनी मोटी-मोटी मूँछों को सहलाते हुए अचकचाकर रह गए, "मतलब?"<br />
खरपत ने एक लंबी साँस ली और ख़ुद पर काबू पाते हुए हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, "सरकार! आप हमारा मतलब नहीं समझे क्या?"<br />
हेडमास्टर केशरी लाल ने मोटर साइकिल बंद कर दी और लगभग गुर्राते हुए अपनी ऐनक उतारकर आँख मलने लगे, "बड़े बकलोल इंसान हो! अरे! तुम तो पहिले से ही मिडिल पास हो; फिर, इहाँ काहे आए हो? अपने किसी लौंडे के लिए कोई फर्ज़ी सर्टीफीकेट चाहिए तो कान खोलकर सुन लो--हमने गोरखधंधा बंद कर दिया है...।"<br />
खरपत, मोटरसाइकिल के अगले पहिए के आगे घुटनों के बल हाथ जोड़कर बैठ गया, "सरकार! हम सुने हैं कि ई पाठशाला में कौनो प्यून की जगह खाली है। आपको तो अभी हम बताए कि हम मिडिल पास, हाई स्कूल फेल हैं। हम ई चोखा टोला के सबसे दमदार कन्डिडेट हैं। आपके मालूम हो कि हम वोही किसान हैं जिसका खेत-बार सब महाजन के पेट में समा गया; न कोई हाकिम हमारा गुहार पर मदद को आया, न कोई सरकारी रसद-माल मिला। फिर भी हम मर-जी के अपने पलिवार को पास-पोस रहे हैं। हमसे बढ़िया हाल वाले किसान सुसाईड करके जिनगी से हार मान चुके हैं। लेकिन, हम हैं कि लड़ ही रहे हैं, लड़ ही रहे हैं। हम बड़ा जीवट वाला इंसान हूँ। जदि आप हमें प्यून की नुकरी पर रखेंगे तो आपको तनिक भी पछतावा नहीं होगा...।" <br />
बोलते-बोलते उसके होठ सूखकर फट गए और जब उसने मुँह चियारकर पूरी तन्मयता से अपनी बात पूरी की तो उसके फटे होठों से खून बहने लगा। <br />
हेडमास्टर का मन जुगुप्सा से भर गया। पता नहीं कैसे अपनी अक्खड़ी और बदमिज़ाजी के लिए कुख्यात हेडमास्टर का दिल टिघर गया? उन्होंने 'हुँह' कहा और आँखें मिचमिचाते हुए किसी विचार-तंद्रा में खो गए। जब तक वे खामोश रहे, खरपत का दिल डूबता जा रहा था। कुछ मिनट बाद, उन्होंने अपनी ऐनक आँखों पर चढ़ाई और एकदम घुड़कने के अंदाज़ में अपनी निग़ाहें खरपत पर जमा दीं, "खड़े हो जाओ। हमने कहा कि खड़े हो जाओ।"<br />
खरपत को लगा कि वह गलत समय पर आया है जबकि हेडमास्टर जी घर को जा रहे थे। वह उसी समय हाथ जोड़े हुए आतंकित-सा खड़ा हो गया। पर, उसने हिम्मत नहीं हारी, "जी, हमारी दरख़ास्त नामंजूर हो तो हमें माफ़ कर दीजिएगा। आप खिसियांगे तो हमको एकदम्मे अच्छा नहीं लगेगा...।"<br />
हेडमास्टर ने फटफटहिया के मिरर में आपना चेहरा देखा और फिर, फटफटहिया बंदकर मूँछों पर ताव दिया, "देखो, खरपत मंडल! कल मार्निंग में विद्यालय खुलते ही अपना सर्टीफीकेट लेकर आ जाना।"<br />
खरपत को जैसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। उसने फटे होठों से रिसते खून पर अपनी जीभ फेरी और फिर जोश से भर गया, "जी बाबू साहेब! आपकी बड़ी मेहरबानी होगी जो हम दुखियारे पर आपका किरिपा होगा...।" वह पेट में हवा भरते हुए घिघिया उठा "परनाम, साहेब!" और करबद्ध नमस्कार करते हुए चलने को हुआ।<br />
हेडमास्टर की दिलचस्पी खरपत में बढ़ गई थी। उन्होंने खरपत को रोका, "देखो, अगर विद्यालय का चपरासी बनाएंगे तो तुम्हें सारी ड्युटी बजानी होगी...।"<br />
खरपत फिर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, "जी, मालिक! काहे नहीं? हम सारी ड्युटी बजाएंगे। आपको तनिक भी सिकायत का मौका नही देंगे...।"<br />
"हाँ, पाठशाला का चपरासी होने का मतलब हमारा भी चपरासी...हमारे घर का भी...।" हेडमास्टर अपने चाबुक का भरपूर प्रयोग कर रहे थे।<br />
"जी साहेब! हम खूब समझ रहे हैं..." वह हिनहिनाकर रह गया। वह तो जैसे उनकी सारी शर्तें मानने को पहले से तैयार बैठा था।<br />
उन्होंने गरदन उचकाकर फिर उसे पुकारा, "अरे सुनो, खरपत! पाँच बजे विद्यालय बंद होने के बाद सीधे हमारे घर पर हाजिरी लगानी होगी। गाय-गोरुओं का सानी-पानी लगाना होगा। फुलवारी में पौधे सींचना होगा। सारे घर में ळााड़ू-पोछा लगाना होगा। उसके बाद, हाट से साग-सब्जी लाने के बाद ही तुम्हें घर जाने की इज़ाज़त होगी...।"<br />
"जी बाबूसाहेब! आपका सारा हुकुम सिर-आँखों पर।"<br />
<br />
पाठशाले की चपरासीगिरी से खरपत के खुश होने के दो कारण थे। एक तो उसकी गृहस्थी की गाड़ी ट्रैक पर आने लगी थी; दूसरे, टोले में उसका मान-सम्मान फिर वापस मिलने लगा था। यह सब फ़ैज़ बाबा की मेहरबानी थी। इसलिए, वह हर ज़ुम्मेरात को दरगाह पर मत्था टेकने से कभी नहीं चूकता था। उसकी लुगाई ने भी हर शुक्रवार को बड़े नेम-धरम से संतोषी माँ का व्रत-पाठ शुरू कर दिया था। पूरा घर एक दुःस्वप्न के बाद फिर से अपने सुनहरे भविष्य के प्रति आश्वस्त होता जा रहा था।<br />
इसी दरमियान एक अज़ीब घटनाचक्र घूमने लगा। हेडमास्टर ने खरपत नाम के बैल को सुबह दस बजे से रात के ग्यारह बजे तक तो हल में जोत ही रखा था। इतने पर भी खरपत को प्रसन्नचित्त देखकर, उन्हें लग रहा था कि साढ़े सात सौ रुपए में वे उससे जो काम ले रहे हैं, वह बहुत कम है और वह उसे खैराती में इतना रुपया दे रहे हैं जबकि वह ऐसा बैल है कि उस पर जितना भी बोळा लादते जाओ, वह घुटने टेकने वाला नहीं है। आख़िर, वह यहाँ से पगहा तोड़ाकर जा भी कहाँ सकता था? जब दऊ बरसेंगे तो वह ऐसा सोच भी सकता है क्योंकि बारिश होने के बाद ही खेत-खलिहानों में काम शुरू होगा और तभी उसे दिहाड़ी पर बेगारी करने का मौका मिल सकेगा। इसलिए, जब हेडमास्टर केशरी लाल ने उस पर बारंबार दबाव डाला कि उसे इसी वेतन में पाठशाला पहुँचने से पहले सेठ चतुर्भुज मल्ल की दुकान पर भी सुबह छः बजे से साढ़े नौ बजे तक ड्युटी बजानी है क्योंकि सेठजी उनके पुराने जिगरी दोस्त हैं तो वह मन मारकर यह बेग़ारी करने के लिए भी राजी हो गया।<br />
दुनियाभर के लोगों को तो इश्क़-मोहब्बत, जुआ-सट्टेबाज़ी, दारू और दंगे की लत होती है; पर खरपत को तो कठिन से कठिन काम करने की लत पड़ी हुई थी। वह ऐसा जुळाारु शख़्स था जिसे बेकार बैठने से अच्छा, बेगारी करना लगता था। सेठ चतुर्भुज तो उसकी जांबाज़ मेहनत देखकर ही दंग हो गया था। उसके दिमाग में एक ख़ुराफ़ात आया कि क्यों न खरपतुआ को येन-केन-प्रकारेण बंधुआ मज़दूर बनाकर आरामतलब ज़िंदगी का आजीवन लुत्फ़ उठाया जाए।<br />
सो, सेठजी ने एक दिन पूरी तैयारी के साथ अपनी साज़िश का जाल बिछाया। <br />
खरपत के लिए चढ़ते आषाढ़ का वह दिन एक ख़ौफ़ बनकर आया था। उसकी लुगाई और बच्चों को क्या पता था कि उस दिन जब खरपत काम पर जाएगा तो शाम को उससे उनकी मुलाक़ात घर के बजाए, हवालात में ही होगी? सबेरे से ही खरपत, चतुर्भुज सेठ की दुकान में अपना खून-पसीना एक करने में लगा हुआ था। जब साढ़े नौ बजने को आया तो उसने सेठजी से पाठशाला जाने की अनुमति मंागी। जब तक वह गीले गमछे से हाथ-मुँह पोछकर तैयार होता तब तक सेठ ने चुपके से खूंटी पर टंगे उसके कुर्ते की जेब में तीन सौ रुपए डाल दिए और साथ में, उन नोटों के नंबर भी नोट कर लिए। बुड़भक खरपत कुर्ता पहनकर सीधे पाठशाला पहुँचा। इधर सेठ चतुर्भुज ने पुलिस चौकी में उसके ख़िलाफ़ फ़ौरन चोरी का रपट लिखाकर, उसके पीछे-पीछे कुछ सिपाहियों को भी लगा दिया। बेचारा खरपत पाठशाला में बच्चों को पानी पिलाते वक़्त रंगे-हाथ पकड़ा गया। सिपाहियों ने उसकी बगली से उसी नंबर के नोट बरामद किए, जिसके बाड़े में सेठ नो उन्हें बताया था। उसे चौकी में ले जाकर बड़ी कर्त्तव्यनिष्ठा से पूजा-पाठ की। लेकिन उसी वक़्त, खुद सेठ चतुर्भुज घड़ियाली आँसू बहाते हुए उसे रिहा कराने चौकी पर आ धमके। उन्होंने ळाट कराहते-कलपते खरपत को निचाट में ले जाकर उसकी चोट पर मरहम-पट्टी लगाने की नौटंकी खेली,"खरपतुआ! जो हुआ, सो हुआ--इसमे किसी का दोष नहीं है, आदमी की नीयत का क्या भरोसा--सब क़िस्मत का बदा था। इसलिए, अब आगे की सोच। हमारे पास तुम्हारे फिक्र को ख़त्म करने का एक फार्मूला है। अगर हमारा एक शर्त मान लोगे तो तुम्हारा कल्याण हो जाएगा। हम अभी तुम्हें इहाँ से छुड़ा ले जाएंगे।"<br />
खरपत तो ताज़्ज़ुब के सैलाब में डूब गया कि ये तिगड़मबाज़ सेठ अब जुआ और पचीसी का कौन-सा दाँव उसके साथ खेलने की फिराक़ में है। अब अगर इसने और कोई चालबाजी चलने की कोशिश की तो उसके परिवार का तो वारा-न्यारा हो जाएगा। चूंकि उसे अपने परिवार के जीवनयापन की दुश्चिंता सता रही थी; इसलिए, वह अपने गुस्से पर धीरज का भारी पहाड़ रखते हुए, गिड़गिड़ा उठा, "आप जिस तरह से भी हो सके, हमें इहाँ से छुड़ाके ले चलिए; नहीं तो हमारे बाल-बच्चे भूखे-पियासे मर जाएंगे...।"<br />
सेठजी मन ही मन मुस्करा उठे--हरामज़ादे को अपनी कर्मठता पर बड़ा ग़ुरूर था। अब इस मगरूर आदमी को कीड़े-मकोड़े की तरह रेंगते हुए देखने का टाइम आ गया है। वह तो पहला पासा चलकर उसके खेत पर काबिज़ हो ही गए थे; अब यह दूसरा पासा चलकर इसे इस लायक नहीं छोड़ेंगे कि वह फिर किसी जानवर से बेहतर ज़िंदगी जी सके। <br />
सेठजी का चेहरा चमक उठा, "खरपत! तू कितना होशियार है--यह बात मेरे सिवाय किसको पता है?"<br />
खरपत, डबडबाई आँखों से सेठ के अंदर छिपे काइएं इंसान का साक्षात दर्शन कर रहा था।<br />
सेठ ने आदतन बाईं आँख मारते हुए अपनी शर्त का खुलासा किया, "अगर तुम सारी उम्र सेठ चतुर्भुज मल्ल की चाकरी करने को राजी हो जाओ तो हम अभी तुम्हें यहाँ से मुक्ति दिला सकते हैं। बदले में, हम तुम्हें और तुम्हारे परिवार को भूखो नहीं मरने देंगे। हम तुम्हें उतना दाना-पानी देते रहेंगे जितने से तुम ज़िंदा रह सको और हमारी ख़िदमत कर सको। बोलो, है मंजूर; वर्ना, हम तो चलते हैं। हवालात तुम्हें मुबारक हो!"<br />
खरपत ने सेठ के पाँव पकड़ लिए।<br />
"हज़ूर! हम फ़ैज़ बाबा की किरिया (कसम) खाते हैं कि हम चाकरी करते-करते आपके ही ड्योढ़ी पर दम तोड़ेंगे। बस, आप हमे इस नरक से उबार लीजिए।" उसने सिर पर हाथ रखकर, वफ़ादार बने रहने का वादा किया; फिर, सेठ के लिए नफ़रत से मुँह में भर आए ख़खार को निगलते हुए अपनी भींगी आँखें रगड़-रगड़ कर पोछी। <br />
खरपत को अच्छी तरह पता था कि पिछले सात पुश्तों से उसके खानदान में किसी जनानी को ऐसा बुरा समय नहीं देखना पड़ा था जैसाकि उसकी लुगाई यानी मुरळाौंसी को देखना पड़ा। खरपत तो मुँह-अँधेरे उठकर काम पर निकल जाता था और रात ग्यारह बजे ही टायर की चप्पल छपछपाते हुए घर में दाख़िल होता था। इस कमर-तोड़ मेहनत के बदले में उसे क्या मिलता था--बस, तीन पाव आटा, सवा-पाव उस्ना चावल और डेढ़ सौ ग्राम खेसारी की दाल। इससे ज़्यादा के लिए मुँह खोलने पर सेठ चतुर्भुज उसे ताबड़तोड़ गाली-गलौज़ से उसकी ज़ुबान पर ताला लगा देता था। दरअसल, खरपत ख़ुद ही अपनी बेवकूफ़ी की वज़ह से सेठ द्वारा फैलाए गए जाल में फँसता चला गया था। अगर उसने सरकारी बाबुओं की ज़ुबान पर यक़ीन नहीं किया होता और सेठ के साथ इकरारनामे पर आँख मूँदकर अंगूठा नहीं लगाया होता तो आज उसको यह दिन नहीं देखना पड़ता। मौज़ूदा हालात में उसे सेठ को दी गई अपनी ज़ुबान के मुताबिक उसकी जीवनपर्यंत ग़ुलामी करने के सिवाय कोई और चारा नहीं था। उसमें इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि वह कहीं और भागकर किसी रोज़गार की तलाश करे और एक नई ज़िंदगी की शुरुआत करे। सेठ ने उसे धमकियाते हुए कड़े शब्दों में चेतावनी दे रखी थी कि चाहे वह पाताल में चला जाए, वह अपने आदमियों से उसे ढुँढवा ही लेगा और तब वह उससे और बुरी तरह, यानी साँड़ की तरह पेश आएगा। <br />
इसी दरमियान, एक दिन उसने किसी मुलाकाती को सेठ से उसकी दुकान पर बतकही करते हुए पाया। चूँकि बातचीत से मामला कुछ संवेदनशील-सा लग रहा था, इसलिए उसने काम में व्यस्त रहने का बहाना बनाकर उनकी बातचीत को पूरे ध्यान से सुना। सेठ उस आदमी को आश्वासन दे रहा था कि वह जल्दी ही उसके लिए किसी 'सुगिया' का बंदोबस्त कर देगा; मगर, उसके लिए उसे बढ़िया सेवा-पानी करनी पड़ेगी। प्रत्युत्तर में, मुलाकाती उसे संतुष्ट करने का वादा करते हुए वापस लौट गया। खरपत को यह समळाने में ज़्यादा सिर नहीं खपाना पड़ा कि ये 'सुगिया' कोई और नहीं, बल्कि गाँव की लड़कियाँ हैं जिनका सेठ खरीदफ़रोख्त करता है। उसे अचानक याद आया कि कैसे गाँव की कुछ लड़कियाँ एकबैक गायब होती रही हैं जिनकी आज तक कोई खोज-खबर नहीं मिल सकी क्योंकि उनका सौदा करने वाले उनके माँ-बाप ने उनकी तलाश में समाज को दिखाने भर के लिए ही इधर-उधर हाथ-पैर मारे थे। यह अफ़वाह पहले से ही हवा में था कि अमुक ने अपनी बिटिया का शहर में सौदा कर दिया है। नफ़रत से उसका मुँह खखार से भर गया कि कैसे-कैसे लोग हैं जो अपनी बेटियों को बेचकर चैन की बंसी बजा रहे हैं और मजे से रोटी खा रहे हैं।<br />
दूसरे दिन, जब खरपत दुकान में दुछत्ती से कुछ अनाज की बोरियाँ नीचे उतार रहा था कि तभी सेठ खुद उठकर उसके सामने आया और बड़े प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरा, "खरपतुआ! तनिक सुस्ता-सुस्ताके काम किया कर, नहीं तो पीठ में साल पड़ जाएगा।"<br />
खरपत समझ गया कि सेठ जरूर कोई मतलब की बात करने वाला है क्योंकि वह मतलब में ही इतनी हमदर्दी से पेश आता है। <br />
सेठ ने उसके उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की और उसका हाथ पकड़कर और उसे खींचकर अपने बगल में बैठाया।<br />
"खरपतुआ! हमें तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की चिंता हमेशा सताती रहती है। अब हम तुमसे इतना काम लेते हैं तो इसका माने तो ई नहीं है कि हम तुम्हारी भलाई नहीं चाहते हैं।"<br />
खरपत ने अपना सिर खुजलाया और पसीना पोछा, "सेठजी, हम इतने में ही खुस्स हैं। आपके इहाँ, हमरी दिहाड़ी चलती रहे, बस इसी में हमरा हित है।"<br />
"देख, खरपतुआ! हमसे कौनो बात छिपी नहीं है। तुम्हारी बड़की बिटिया जवान हो रही है और उसका चिंता हमें भी खाए जा रहा है। आख़िर, तुमको उसका हाथ पीला करना है कि नहीं?" सेठ ने उसकी ज़िम्मेदारी याद दिलाते हुए उसकी दुखती रग पर हाथ रख ही दिया।<br />
"सेठजी! हम उसके बियाह-गौने के लिए अपनी मड़ई आपके इहाँ रेहन पर रख देंगे।" खरपत सोच रहा था कि अपने मन की बात सुनकर सेठ की बाँछें खिल जाएंगी; मगर, नखरेबाज सेठ के माथे पर तो उसके लिए चिंता की लकीरें दिखने लगीं। उसे सेठ का इरादा बेहद तबाहकुन लगा।<br />
"अब तुम हमें एकदम्मे कस्साई समळा बैठे हो क्या? अरे, हमें तुम्हें बेघर थोड़े ही बनाना है।" सेठ ने बड़ी आत्मीयता से उसके कंधे को सहलाया।<br />
"देख, हमारे पास एक ठो रिस्ता आया है--तुम्हारी बिटिया के लिए। कल जो आदमी हमसे मुलाकात करने आया था, वो अपना घर बसाना चाहता है।"<br />
खरपत चौंक गया, "सेठजी! अब ई अन्याय हमारे बच्चों के साथ मत कीजिए। अरे! ऊ आदमी तो हमसे भी उमरदराज़ है। हमरी ळाुमका तो अभी बारह बरिस की भी नहीं हुई है। ई बेमेल बियाह के लिए हम कभी तैयार नहीं होंगे। आखिर, ळाुमका बबुनी हमारी बिटिया है, दुस्मन नहीं।"<br />
"देख, खरपतुआ! तेरे जैसा सोळाभक इंसान तो हम आज तक नहीं देखे। अरे! लड़की को क्या चाहिए? खाने को बढ़िया खाना, पहिनने को चटख-चमकदार कपड़ा, रहने को दुमहला मकान औ' मटरगश्ती करने के लिए हाट-बाजार। तो, ई सब जग्गन कुँवर उसको मुहैया करा देगा। रही उसके उमरदराज होने की बात तो ऊ ऐसा मर्द है जो इतनी ज़ल्दी बूढ़ा होने वाला नहीं है। तुम्हारी बिटिया को वो खूब मौज़ देगा। अब तुम ही बताओ कि आदमी की कीरत देखी जाती है या उसकी सकल-सूरत?"<br />
खरपत सचमुच गहरे सोच में पड़ गया।<br />
सेठ फिर बोल उठा, "खूब सोच-विचार ले। अपनी मेहरारू से भी राय-सलाह कर ले। हम ताल ठोंकके कहते हैं कि तुम्हारी बिटिया जग्गन की लुगाई बनके बड़े ठाठ से एक ठाकुर परिवार में राज करेगी। तुम तो ठहरे मलेच्छ जात के जबकि जग्गन खाँटी रघुबंसी छत्री है।"<br />
खरपत तो उसकी बात सुनकर बेज़ुबान हो गया था। क्योंकि सेठ ने आसमान का रिश्ता पाताल से करने की बात कही थी।<br />
सेठ ने उसके कान से अपना मुँह सटा दिया, "देख, ई बड़े फ़ायदे का सौदा है। मतलब ये कि तुळो एक पैसा भी नहीं खर्चना पड़ेगा। उल्टे, तुळो दस हजार रुपया दिया जाएगा जिससे तूँ अपनी फटेहाली पर बढ़िया से पैबंद लगा सकता है। बोल, अगर ये शर्त तुळो मंजूर है तो हम आगे बात बढ़ाएं; नहीं तो चोखा गाँव के बहुत सारे लोग अपनी बिटिया जग्गन को देने को तैयार हैं।"<br />
उस दिन खरपत एक पल को भी सुकून से नहीं बैठ पाया। उसका भी मन डोलता जा रहा था कि इतने बड़े घराने से रिश्ता बनाकर उसे बड़ी इज़्ज़त मिलेगी। पर, वह बड़े असमंजस में था। वह यह सोचकर ज़्यादा बेचैन था कि मुरझौंसी झुमका को जग्गन के साथ बियाहने की बात मानेगी कि नहीं। वह उसे किस तरह मनाएगा? पाठशाला में भी वह सेठ चतुर्भुज की बातों में ही खोया हुआ था। उसका मन बार-बार उसे उकसा रहा था कि 'खरपतुआ! अगर तूं अपनी एक बिटिया का ऐसे सौदा कर लेगा तो बाकी परिवार तो राजी-खुशी से जीवन गुजार सकेगा। दस हजार रुपया कम नहीं होता है। इतने रुपए से तूं सेठ की बेग़ारी और पाठशाला में गाँड़घिसाई से निज़ात पा सकता है। बड़े मजे में एक ठेलागाड़ी खरीदकर जूस या कुल्फ़ी बेचने का धंधा शुरू कर सकता है।' <br />
रात को घर पहुँचकर वह इतना चिंतामग्न था कि जब मुरळाौंसी ने उसके लिए छिपली में लिट्टी-चोखा परोसा तो वह कायदे से कौर बनाकर खा भी नहीं पा रहा था। मुरझौंसी बहुत देर तक उसे ऐसी हालत में देखकर उकता-सी गई, "झुमका के बाऊ! कौनो अनर्गल बात हो गया है क्या? न तो ठीक से खाना खाय रहे हो, न हमसे तबियत से बतियाय रहे हो...।"<br />
तब, खरपत ने छिपली को एक किनारे टरकाकर, लोटाभर पानी पीया और खैनी मसलते हुए होठ के नीचे दबाया। फिर, मुरळाौंसी को लेकर बँसखट पर पसर गया। पहले, उसने उसे जी-भर प्यार किया; उसके बाद, एकबैक उठ बैठा। उसकी इस हरकत पर मुरळाौंसी मुँह फुलाकर औंधे मुँह लेट गई। तभी खरपत ने बैठे-बैठे ळाुककर अपना मुँह उसके कान से सटा दिया, "ळाुमका की माई! एक ठो हमरी बात मान लो तो तुम्हें कुछ दिन तलक मुफ़लिसी और फाकामस्ती से छुटकारा मिल सकता है...।"<br />
मुरझौंसी का मुँह ताज़्ज़ुब से खुला रहा गया, "ऊ कइसे, ळाुमका के बाऊजी?"<br />
उसने मुरझौंसी के कंधे पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा, "झुमका को सहर पठा दो...।"<br />
मुरझौंसी भभक उठी, "मतलब ये कि तुम उसको कोठे पे बिठाके चैन की नून-रोटी खाना चाहते हो। अरे, तुम उसके बाप हो कि दुस्मन?"<br />
खरपत ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया, "अरे, सहर का माने कोठा ही नहीं होता है। और ई बात कान खोलके सुनलो! हम झुमका के ही बाप नहीं, बल्कि उससे छोटे-छोटे पाँच और बच्चों के बाप हैं। तुम क्या बूझती हो कि हम ळाुमका को रंडीखाने भेज रहे हैं?"<br />
मुरझौंसी आँख मिचमिचाते हुए उसे ताकती रह गई, "हम तो इहै बूळा रहे थे।"<br />
खरपत ने बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा, "उसके लिए एकठो बढ़िया रिस्ता आया है; बदले में दस हजार रुपिया भी मिलेगा।"<br />
मुरझौंसी ठुड्डी पर हाथ रखकर बड़े हैरत में पड़ गई, "ळाुमका के बाऊजी! ई कौन-सी पहेली बुळाा रहे हो? इस जहान में क्या कोई अइसा भी आदमी है जो हमारी बुचिया से बियाह भी करेगा औ' पइसा भी देगा?"<br />
खरपत उसकी पीठ सहला-सहलाकर उसे समळााने लगा, "तुम क्या ई बूळाती हो कि जैसे गाँव-जवार में बियाह औ' गौने पे लेन-देन का रसम चल रहा है, वैसे ही सहर में भी चल रहा है? अरे, तुम गाँव में बैठके बुद्धू की बुद्धू ही रह गई। जमाना कितना बदल गया है कि बड़े-बड़े घरानों में लोग लइकी को लछमी मानने लगे हैं!"<br />
उस रात मुरझौंसी सचमुच अपने आदमी के कहने में आ गई। खरपत ने उसे दिन में ही तारों के दर्शन करा दिए थे। उसने उसे अपने लल्लो-चप्पो में इतना बहला-फुसला लिया कि सारी रात उसकी आँखों के सामने कुरकुरे रुपए ही नाच दिखाते रहे। <br />
अगले दिन, खरपत ने सेठ के मार्फ़त, जग्गन कुँवर को फौरन चोखा गाँव आने का न्यौता भिजवा दिया।<br />
<br />
चंठ जग्गन कुँवर को बड़ी से बड़ी मुसीबत में भी मुस्कराने की आदत थी। रोना तो उसे आता ही नहीं था। किसी ने भी उसको कभी दाँत पीसते हुए, इतने गुस्से में नहीं देखा था। पर, बात ही ऐसी थी कि उस दिन वह गुस्से में मुस्कराना भूल गया। ळाुमका उसके साथ पूरे पाँच साल तक उसकी बीवी का, मन से या बेमन से, फ़र्ज़ निभाती रही। लेकिन एक दिन वह उसके घर से ऐसे चंपत हुई कि किसी को कानो-कान भनक तक नहीं मिली। अगर वह किसी ऐरे-गैरे के साथ भागती तो जग्गन को इस बात का कोई ख़ास मलाल नहीं होता। थाने में रपट लिखाकर चुम्मारके बैठ जाता। लेकिन, वह तो उसके ही घरेलू नौकर--चितेरा महतो के साथ भागी थी। जग्गन चप्पे-चप्पे में ळाुमका की छानबीन खत्म करने के बाद, आख़िरकार, इस नतीजे पर पहुँचा कि ळाुमका बेशक, चितेरा के साथ ही भागी होगी। काफी समय से दोनों के बीच लुका-छिपी चल रही थी और यह सब देखकर भी जग्गन को उनके संबंधों पर यह सोचकर कोई संदेह नहीं हो रहा था कि मलेच्छ चितेरा तो उसका नौकर है; उसकी क्या मज़ाल कि वह हमारी औरत पर हाथ डाले? पर, उनके बीच नाज़ायज़ ताल्लुकात पहले से ही बन गए थे। अगर उसे जरा-सा भी अंदेशा हुआ होता तो वह पहले तो ळाुमका को ज़िंदा आँगन में गाड़ देता; फिर, चितेरा का सिर, धड़ से अलगकर उसकी लाश चील-कौवों को खिला देता। ळाुमका की इस हरकत से उसकी सारे गाँव में थू-थू हो गई थी। गाँववाले ताने और फितरे कसने से बाज़ नहीं आ रहे थे कि...जवान औरत को सम्हालना जग्गन बुढ़ऊ के वश की बात नहीं थी...मरभक्क ळाुमका, जग्गन का दूध-दही, मांस-मछली और माल-मलाई चाँभकर दो बरस में ही बच्ची से पूरी औरत बन गई थी; उसके गदराए ज़िस्म से जवानी फूट-फूट कर बह रही थी...उसे तो चितेरा जैसा ही छरहरा मर्द चाहिए था जो उसे ढूँढे बग़ैर घर में ही मिल गया...ळाुमका पाँच साल तक जग्गन के साथ उठती-बैठती-सोती रही...इतने समय में भी जब वह अपनी मर्दानगी साबित नहीं कर सका तो बेशक! उसमें ही कोई खोट रहा होगा...तभी तो उसने जवानी के दिनों में शादी नहीं की थी...उसे अपनी मर्दानगी पर भरोसा नहीं हो रहा था, वरना, मड़इया गाँव के ठाकुर तो, जवानी क्या, बुढ़ापे में भी इधर-उधर मुँह मारते रहने से बाज नही आते; घर का दूध पीते रहना उन्हें कहाँ रास आता है; उन्हें तो बाहर की गाय-भैसों का मलाईदार दूध गटकना ही भाता है...जग्गन के पड़ोसी ठाकुर पटाखा सिंह को ही देखो; उसका दावा है कि मड़इया गाँव के खेत-खलिहानों में मजूरी करने वाले ज़्यादातर लड़के उसके ही पैदा किए हुए हैं...खेतों की निराई-गुड़ाई करने वाली शायद ही कोई घसियारिन उससे महफ़ूज़ बची होगी--और वे लौंडे तो उन्हीं के पेट से निकले हैं। <br />
जग्गन कुँवर गलती से पुलिस चौकी रपट लिखाने चला गया। यों तो उसे यह बात अच्छी तरह पता रही होगी कि उसने नाबालिग ळाुमका को अपनी लुगाई बनाकर एक बड़ा कानूनी जुर्म किया है। पर, ठाकुरी तैश में उसे इसका कुछ ख्याल आया ही नहीं। <br />
लेकिन, यह क्या? पुलिस चौकी में पहले से मौज़ूद ळाुमका और चितेरा को देख, पल भर को तो उसके होश ही फ़ाख़्ता हो गए कि आख़िर, बात क्या है। क्या चोर ख़ुद थानेदार के पास अपनी ग़ुनाह कबूलने आया है? <br />
चितेरा ने दीवान के कान में फुसफुसाकर कहा, "सा'ब जी! यही जग्गन है...।"<br />
दीवान की भौंहें तन गईं, "अच्छा! तूँ खुद चलकर अपना ज़ुर्म कबूलने आया है?" वह लाठी ठकठकाते हुए जग्गन के दाएं-बाएं चहलकदमी करने लगा।<br />
जग्गन अपना सिर खुजलाने लगा, "आप भी क्या बात करते हैं, दीवानजी? हम तो खुद ही इस हरामज़ादे के ख़िलाफ़ इहाँ रपट लिखाने आए हैं। इसने हमारी लुगाई को भगाया है...।" उसने चितेरा की तरफ़ इशारा किया।<br />
दीवान ने अपनी लाठी की नोक उसके सीने पर टिका दी, "अच्छा! ये तेरी लुगाई है? तुळो पता है कि ये नाबालिग लड़की है? तेरे ऊपर लगातार पाँच सालों से इसके साथ रेप करने का संगीन ज़ुर्म बनता है। इसके लिए तुळो सात साल की जेल होने से ऊपरवाला भी नहीं रोक सकता...।"<br />
वह हकला उठा, "लेकिन, दीवानजी! ई हमारी बीबी है...।"<br />
"हाँ, हमें सब मालूम है कि तू इसे चोखा गाँव से खरीदकर लाया था, ब्याहकर नहीं...।" दीवान ने गुस्से में अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं।<br />
जग्गन ने चितेरा की ओर बड़े गुस्से में देखा, "आस्तीन का साँप...।"<br />
दीवान जग्गन को एक भद्दी गाली देते हुए घुड़का, "एक और भारी गुनाह किया है तूने?"<br />
जग्गन का मुँह खुला रह गया, "क्या?"<br />
"तूने कोई तेरह साल पहले एक नौ साल के अनाथ बच्चे को अपना यहाँ जबरन बंधक बनाकर नौकर रखा था। वह तेरह सालों से तेरे घर में जी-तोड़ बेग़ारी कर रहा है। तूने तो उस बच्चे मतलब चितेरा की ज़िंदगी ही गुड़ गोबर कर दी। क्या तुळो पता है? चौदह साल से कम उम्र के बच्चों से मेहनत-मज़दूरी कराना कानूनन ज़ुर्म है। इसके लिए भी तुळो दो साल तक जेल की हवा खानी पड़ेगी।" खुद्दार दीवान शेखी बघारने से बाज नहीं आ रहा था।<br />
जग्गन के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी, "सा'ब जी! आपके मालूम हो कि हम बहुत बड़े रईस ख़ानदान के ठाकुर हैं...।"<br />
"तो क्या हुआ? कानून की नज़र में सभी अपराधी एक-से होते हैं।" दीवान गुर्रा उठा।<br />
"दीवानजी! कुछ ले-देके मामले को रफ़ा-दफ़ा कर दीज़िए और हमारी लुगाई हमें वापस सौंप दीज़िए...।" उसने उसके कान में फुसफुसाकर कहा।<br />
"हरामी के पिल्ले! तूँ अब तो सारी हदें लाँघता जा रहा है...।" दीवान ने लाठी को कुर्सी के सहारे टिकाते हुए, एक जोरदार तमाचा जग्गन के मुँह पर जड़ा और उसे धक्का देकर हवालात में डाल दिया।<br />
जग्गन सारे हिकमत लगाकर भी मुक़दमा हार गया। उसे नौ साल का कठोर कारावास मिला। जबकि कोर्ट के आदेशानुसार झुमका, चितेरा महतो के साथ वापस मड़इया गाँव आकर, जग्गन के ही घर में रहने लगी। हालांकि दोनों ने न तो मंदिर में, न ही कहीं और जाकर सार्वजनिक रूप से शादी की। लेकिन, कोर्ट ने उन्हें पति-पत्नी के रूप में रहने का आदेश जारी कर दिया था। जब गाँववालों ने इस पर आपत्ति की तो दीवान ने गाँववालों को सख़्त चेतावनी देते हुए, दोनों की हिफ़ाज़त के लिए उनके घर पर तब तक एक हवलदार तैनात किए रखा जब तक कि मामला ठंडा नहीं पड़ गया। बहरहाल, बूढ़ा जग्गन कायदे से जेल में तीन साल भी पूरा नहीं कर सका। एक रात जेल में ही उसकी मौत हो गई। चूँकि उसका कोई वारिस नहीं था; इसलिए, ख़ुद चितेरा ने उसे मुखाग्नि दी। <br />
<br />
आजकल चितेरा ने अपने ससुर खरपत मंडल को सपरिवार मड़इया गाँव बुला लिया है। उसने स्वर्गीय जग्गन की मिल्कियत का कानूनन वारिस होने के नाते अपने ससुर को उसके खेतों में खेती करने का मालिकाना हक़ दे दिया है। सेठ चतुर्भुज, जग्गन की अकूत ज़ायदाद पर अपनी गीध नज़र जमाए हुए, अभी भी मड़इया गाँव आते रहते हैं। पर, चितेरा महतो से अपनी दाल न गलने के कारण वे उसकी ख़ुशामद करने से बाज नहीं आते हैं। इसकी वज़ह साफ है: चितेरा ने जग्गन से ही सीखा है कि सेठों के आगे चुग्गा डालकर अपना उल्लू कैसे सीधा किया जाता है। बहरहाल, उसने सेठ से दो टूक शब्दों में ऐलॅान कर रखा है कि 'हम ही ठाकुर जग्गन कुँवर के असली वारिस हैं। मतलब यह कि ठाकुर का वारिस, ठाकुर होता है। कोई शक? इसलिए, तुम्हारे गोरखधंधे से होने वाले मुनाफ़े में हमें उतने का ही हक़ है, जितने का चचा जग्गन को था। हाँ, तुम्हारे धंधे में हम उतने ही मनोयोग से मदद करते रहेंगे, जितने मनोयोग से चचा जग्गन किया करते थे।'<br />
सेठ वापस चोखा गाँव जाते हुए दबी आवाज़ में बुदबुदाया, "हम अच्छी तरह आपकी बात समझ रहे हैं, नए ठाकुर सा'ब! आपकी मेहरबानी से मिल-बाँट कर खाने में कोई हर्ज़ नहीं है।"<br />
<br />
***</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%89%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A5%8D%E0%A4%AB%E0%A4%BC!_%E0%A4%90%E0%A4%B8%E0%A4%BE_%E0%A4%A4%E0%A5%8B_%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82_%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%A8%E0%A4%BE_%E0%A4%A5%E0%A4%BE.../_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5986उफ़्फ़! ऐसा तो नहीं होना था.../ मनोज श्रीवास्तव2011-12-15T08:28:25Z<p>Dr. Manoj Srivastav: 'उफ़्फ़! ऐसा तो नहीं होना था पौ फटते ही आख़िर ...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
<hr />
<div>उफ़्फ़! ऐसा तो नहीं होना था <br />
<br />
<br />
पौ फटते ही आख़िर यह क्या हो गया? किसी को कानो-कान विश्वास नहीं हो रहा था कि राधू जैसा शरीफ़ आदमी इतना घिनौना कृत्य कर सकता है! जब वह पुलिस की जीप में हथकड़ियों वाले हाथ माथे पर टिकाए, सिर ळाुकाए बैठा हुआ था तो उस समय भी कइयों को उस पर दया आ रही थी। लोग तो इस सच को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं थे कि राधू अपनी सौतेली बेटी के साथ इतने समय से व्यभिचार में लिप्त रह सकता है और अपनी जान से प्यारी पत्नी की हत्या कर सकता है। <br />
<br />
पर, लोगों को यक़ीन करना पड़ा क्योंकि इस सच का ख़ुलासा ख़ुद लावनी यानी उसकी सौतेली बेटी ने किया था और वह भी सवेरे-सवेरे। बेशक! लावनी को पुलिस का दरवाज़ा मजबूरन खटखटाना पड़ा था। जब माँ ने ही उसके बाप को उसके साथ देख लिया तो उस समय उसे खुद से इतनी घृणा होने लगी कि वह बेतहाशा चींखने-चिल्लाने लगी, कुछ इस तरह कि जैसे उसके साथ पहली बार जोर-जबरदस्ती किया जा रहा हो, बलात्कार किया जा रहा हो। तब, माँ भी उसके साथ बदहवास-सी चींखने लगी थी। ऐसे में राधू दोनों की चींंख को घर में ही ज़ब्त रखने के लिए पहले लपककर उसकी माँ के मुँह को जोर से दबाया, फिर... <br />
<br />
पर, उफ़्फ़! अफ़रातफ़री में माँ की गरदन पर उसके दाएं हाथ की जकड़ इतनी सख़्त थी कि उसकी गरदन की रीढ़ टूट गई और उसके मुँह से खून भलभलाकर कर बहने लगा। कुछ क्षण तक वह वहीं दर्द से आँखें निकालकर कराहती रही और जमीन पर लुढ़ककर छटपटाती रही। थोड़ी देर बाद उसकी सारी जिस्मानी हरक़त बंद हो गई। पहले तो लावनी अपनी चींख को होठों में भींचकर उसे चुपचाप देखती रही; लेकिन, जब वह माँ के ठंडे पड़े शरीर को हिला-हिलाकर होश में न ला सकी तो वह शलवार के जारबंद को पकड़कर और अपने अधनंगे शरीर की परवाह किए बिना चींखती हुई बाहर भागी। उसने पड़ोस में जो सबसे पहला दरवाज़ा खुला मिला, उसमें घुस गई और वहाँ लोगों को अपने सौतेले बाप के करतूतों को गला फाड़-फाड़कर बता दिया।<br />
<br />
कोई दस मिनट में इस दुर्घटना की चर्चा बच्चे-बच्चे की जुबान पर था। मोहल्ले में ऐसा कांड पहली बार हुआ था और वह भी राधू के घर जिसके बारे में लोगबाग बुरा ख़्याल लाना तक पाप समळाते थे। राधू--जिसके लिए हर मोहल्लेवाले के दिल में बाइज़्ज़त जगह थी, वह आज इस कदर गिर सकता है!<br />
<br />
कम से कम पचास-साठ लोग राधू के घर के आसपास इकट्ठे हो गए। लोग बारी-बारी से घर के अंदर जाकर कमला यानी लावनी की सगी माँ की लाश को देख आने के बाद, बाहर मुँह-हाथ बाँधकर गुमसुम किंकर्त्तव्यविमूढ़-से खड़े हो जाते थे। राधू लाश के सामने बुत बना खड़ा था। लोगों को उससे संबंधित इतनी बातें याद आ रही थीं कि वे उसे घर के भीतर से खीचकर बाहर लाकर उसे उसके किए की सजा देने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। आख़िर, वे उसके साथ सख़्ती से कैसे पेश आएं? <br />
<br />
जब खान के घर में आग लगी थी तो आग के बंवडर के बीच से उसके दुधमुँहे पोते को बचाने के लिए राधू जान पर खेल गया था। चौधरी चाचा की मौत पर उसके घर को ग़मी के माहौल से उबारने के लिए उसने तन-मन-धन से मदद की थी। वर्माजी के लिए तो वह साक्षात भगवान था क्योंकि जब वह अपने गुर्दों के फेल होने के कारण मौत को दस्तक दे रहे थे तो उसने अपना एक गुर्दा मुफ़्त उन्हें दान कर उन्हें एक नया जीवन दिया था। अभी पिछली रात को शिव-मंदिर में जो हादसा होने जा रहा था, अगर राधू वहाँ नहीं होता तो सैकड़ों निर्दोष श्रद्धालु अग्निदेव की खुराक बन चुके होते। इधर मंदिर के भीड़-भरे प्रांगण में सैकड़ों लोग मंदिर की स्वर्ण जयंती समारोह में व्यस्त थे, उधर सुनसान अहाते में बिजली की शार्ट सर्किट के कारण जो आग लगी थी, वह कुछ ही पलों में पूरे मंदिर के पंडाल को अपने आगोश में लेने जा रही थी। यह तो अच्छा हुआ कि मंदिर की सुरक्षा में दत्तचित्त राधू मुआयना करता वहाँ पहुँच गया और उसने कोई हल्लागुल्ला खड़ा किए बिना लोगों को चुपचाप मंदिर से बाहर निकाल दिया। इस दुर्घटना की ख़बर मंदिर के मठाधीश को तब लगी जबकि राधू की समय रहते सूचना पर दमकल की गाड़ी आग बुळााने में तैनात हो चुकी थी। <br />
<br />
कमला के लिए भी राधू किसी फ़रिश्ता से कम नहीं था। जब बिजेंद्र यानी कमला के पति की हार्ट अटैक के कारण मौत हुई थी तो उसके सास-ससुर और देवर ने उसके विरुद्ध कानूनी लड़ाई लड़कर उसे पति की संपत्ति से बेदख़ल कर बाल-बच्चों समेत सड़क पर ला खड़ा किया था। ऐसे गाढ़े समय में बिजेंद्र का दोस्त--राधू ही काम आया। उसने न केवल कमला को खाना-खर्चा के लिए नियमित आर्थिक मदद की बल्कि उसके लिए घर और काम का भी बंदोबस्त किया। <br />
<br />
उस वक़्त राधू की उम्र रही होगी कोई तीस साल की। उसका दिल अपने पिता के बिजनेस में इतना लगा हुआ था कि वह शादी-वादी के चक्कर में पड़कर इसकी तरक्की में कोई अड़ंगा नहीं डालना चाहता था। उसके माँ-बाप भी उसकी इच्छा का ख़ूब मान रखते थे। सो, उन्होंने उसके ऊपर शादी के लिए कोई दबाव नहीं डाला। लेकिन, जब उसने अपने दोस्तों के मशविरे पर मंदिर में जाकर कमला से शादी रचा ली तो उनके पैरों तले से जमीन खिसक गई। उनके बेटे ने एक ऐसी विधवा से शादी रचाई थी, जिसकी दस साल की बेटी थी और जो खुद उससे आठ साल बड़ी थी। वे गुस्से में काफ़ूर होकर उसे तरह-तरह की धमकियाँ और ताना देने लगे। कमला को छोड़ने के लिए उस पर अनुचित दबाव डालने लगे। राधू समळा गया कि उसके सनातनी विचारधारा वाले माँ-बाप कमला को कभी अपनी बहू स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए, वह उनके परिवेश से निकलकर इस नए मोहल्ले में बस गया। यहीं एक दवाई की दुकान खोल ली और अपनी पत्नी और सौतेली बेटी की परवरिश करने लगा।<br />
उस समय राधू की भलमनसाहत को मोहल्लेवालों ने खूब सराहा था। जिस कमला के अपने भी उसके दुर्दिन में न केवल उससे मुख मोड़ गए थे बल्कि उसके जीने का बचा-खुचा सामान भी छीन ले गए थे...मोहल्ले के कुछ नाज़ायज़ मनचले मर्द भी उसके अकेलेपन का फ़ायदा उठाना चाहते थे, उस कमला के लिए राधू ने क्या नहीं किया? सामाजिक संरक्षण व सम्मान दिया और उसे जीने का एक अच्छा बहाना भी दिया। वरना, हालात से टूटी हुई कमला न जाने क्या कर गुजरती...<br />
<br />
जब राधू के घर के बाहर लोगबाग इस ऊहापोह में खड़े थे कि क्या करें और क्या न करें तभी एकबैक घर के अंदर से रोने की चींख उनके दिलों को चीरने लगी। राधू अपने कुकर्मों पर पश्चाताप के आँसू बेतहाशा बहा रहा था। ऐसे में, जो लोग राधू के जघन्य अपराधों की सज़ा देने का मन बना रहे थे, उनका भी दिल पिघलकर मोम हुआ जा रहा था। ज़्यादातर यह सोच रहे थे कि हो-न-हो, ज़्यादा दोषी लावनी ही होगी और उसी ने उसे इस गर्त में ढकेला होगा। वह इस समय है भी खड़ी--उफ़नती जवानी के पड़ाव पर। अलबत्ता, उसकी उम्र और उसके सौतेले बाप की उम्र में कोई ज़्यादा फर्क नहीं है जबकि उसकी माँ उसके तथाकथित बाप से काफ़ी बड़ी है...<br />
<br />
राधू लगातार विलाप करता जा रहा था। वह कमला की लाश के सिरहाने उकड़ूं बैठकर उसके चेहरे को एकटक देखते हुए इस कदर रो रहा था कि उसे यह भी ध्यान नहीं था कि वह रोते हुए लाश के चेहरे पर ढेरों लार और आँसू टपकाए जा रहा है। उसकी इस हालत को देखकर लोगों के रोंगटे खड़े हो रहे थे। उनके पैरों के नीचे की जमीन काँपती-सी लग रही थी...ऐसा लग रहा था कि जैसे सभी भोर में कोई दुःस्वप्न देख रहे हों...<br />
<br />
ऐसे ही हृदय-विदारक माहौल में सभी का ध्यान अचानक भंग हुआ। पहले, बाहर एक धड़धड़ाती जीप के रुकने की आवाज़; फिर, पुलिस के जूतों की खट-खट..्कोई चार पुलिसवालों के साथ-साथ लावनी भी आँगन में आई। अग़र लावनी साथ में नहीं होती तो सभी हैरत में डूब जाते कि आख़िर, इस दुर्घटना के बारे में पुलिस को इत्तला किसने किया? पर, यह लावनी थी जिसने सबसे पहले पूरे मोहल्ले में राधू के करतूतों ढिंढोरा पीटा; फिर, बाहर ही बाहर थाने निकल गई...<br />
<br />
पुलिस को देखते ही राधू के आँसू रुक गए और रोना बंद हो गया। तब जैसे ही लावनी ने ऊँगली से राधू की ओर इशारा किया, एक पुलिसवाले ने अपनी बेंत उसकी पीठ पर घुमाई। उसका तो मुँह ही सूख गया। इसके पहले कि पुलिसवाला उसे जबरन घसीटकर जीप में बैठाता, वह खुद ही खड़ा होकर जीप की ओर बढ़ गया। एक दूसरे पुलिसवाले ने उसके हाथ में हथकड़ी डाल दी। शायद, वह पुलिस इंस्पेक्टर था जिसने जाते-जाते दो अन्य कांस्टेबलों को हिदायत दी : "लाश को सील करके सदर अस्पताल पहुँचाओ। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट हाथों-हाथ लेकर तुरंत थाने पहुँचो, मैं अस्पताल के सुपरिटेंडेंट को अभी फोन करने जा रहा हूँ। मामला बड़ा संगीन है, पहले बलात्कार; फिर हत्या..."<br />
<br />
लोगबाग सुबह की किरणों के फूटते ही अपने मोहल्ले में और वह भी राधू के घर पर ऐसी नाटकीय घटना को देखने को तैयार नहीं थे।<br />
<br />
कुछ पल के लिए इंस्पेक्टर ठहर गया। उसने लोगों से पूछा : "इस वारदात के चश्मदीद गवाह कौन-कौन हैं?"<br />
<br />
पल भर की चुप्पी के बाद जब उसने यही सवाल दोबारा किया तो भीड़ के एक कोने से आवाज़ आई : "सा'बजी! उस वक़्त <br />
<br />
इस लावनी के सिवाय यहाँ कोई नहीं था। मोहल्लेवाले तो रजाइयों में दुबके हुए थे..."<br />
<br />
तब इंस्पेक्टर ने लावनी की ओर घूरकर देखा : "तूँ चल मेरे साथ थाने।"<br />
<br />
जीप घर्र-र्र-र्र-र के साथ चली गई। उस दिन कोई दस बजे तक राधू के घर को सील कर दिया गया। <br />
<br />
लावनी को फिर मोहल्ले में नहीं देखा गया। मोहल्लेवालों ने भी उसके बारे में कुछ जानने की कभी जुर्रत नहीं की। राधू को क्या सजा दी गई--इस बात की भी किसी को जानकारी नहीं है। पर, यह बताया जाता है कि राधू और लावनी को थाने तो ले जाया गया; लेकिन, उन्हें बाहर आते नहीं देखा गया। शायद, उन्हें थाने में ही खपा दिया गया। हाँ, मोहल्लेवाले कमला की अंत्येष्टि विधि-विधान से करना चाहते थे। सो, जब उनमें से कुछ उसकी लाश लेने सदर अस्पताल गए तो सुपरिटेंडेंट ने साफ इन्कार कर दिया कि उस दिन किसी भी लाश को पोस्टमार्टम के लिए नहीं लाया गया।</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0&diff=5985मनोज मोक्षेन्द्र2011-12-15T08:25:59Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
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|नाम=मनोज श्रीवास्तव<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=--<br />
|जन्मस्थान= <br />
|कृतियाँ=धर्मचक्र और राजचक्र, पगली का इंक़लाब (दो कहानी-संग्रह)<br />
|विविध= --<br />
|जीवनी=[[मनोज श्रीवास्तव / परिचय]]<br />
}}<br />
'''कहानियाँ'''<br />
* [[धत ! दकियानूस नहीं हूँ / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[मादरे वतन वापसी के बाद / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[अरे ओ बुड़भक बंभना / मनोज श्रीवास्तव]] <br />
* [[नया ठाकुर / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[गुल्ली डंडा और सियासतदारी / मनोज श्रीवास्तव]] <br />
* [[डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[धिन्तारा/ मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[इस्माइल रिक्शावाला एम.ए. पास / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[परबतिया / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[चरित्र प्रमाण-पत्र / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[प्रेम पचीसी / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[गोरखधंधा / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[यार, डरती क्यों हो? / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[धर्मचक्र, राजचक्र / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[पगली का इन्कलाब / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[प्रेमदंश / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[बकरा / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[कबूतर की फड़फड़ाहट / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[कन्नी और देवा / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[सियासत की बाढ़ / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[भूख का पुनर्जन्म / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[भगजी बगैर काम नहीं चलता / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[बी-टेक टिफिन चोर / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[एक और प्रहलाद / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[जग्गू, तूँ वैसा नहीं रहा.../ मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[उफ़्फ़! ऐसा तो नहीं होना था.../ मनोज श्रीवास्तव]]</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5984बकरा / मनोज श्रीवास्तव2011-12-15T08:19:48Z<p>Dr. Manoj Srivastav: ''''बकरा''' मीनू की आँधी जब कमरे में आई तो उसके हाथ में पै...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
<hr />
<div>'''बकरा'''<br />
<br />
मीनू की आँधी जब कमरे में आई तो उसके हाथ में पैक्ड फूड की एक पैकेट थी। कल सुबह आफ़िस जाते वक़्त उसने मेज पर परोसी गई थाली को हाथ मारकर नीचे गिरा दिया था और जाते-जाते अधीर से गुर्रा गई थी--"आइंदा मेरे लिए खाना मेज पर मत लगाना; वर्ना..."<br />
<br />
अधीर का मूड इतना खराब हो गया था कि उसने भी अन्न का एक दाना हलक से नीचे नहीं उतारा। <br />
सुबह मीनू ने केवल अपने लिए चाय बनाई थी। अधीर को बड़ा कोफ़्त हुआ--थोड़ी-सी और चाय बढ़ाकर बनाई होती तो उसका क्या चला जाता? ख़ैर! ऐसी टुच्ची हरक़त तो वह रोज ही किया करती है। <br />
<br />
उसके बाद वह किचेन में घुस गया था। बाक़ायदा दाल-चावल के साथ-साथ गोभी-आलू-मटर का दो-पियाजा बनाया था। सोचा था कि मीनू का मूड दो-पियाजे की खुशबू से ही बदल जाएगा। पर, उसकी रसोईगिरी की मशक्कत का ऐसा हश्र होगा कि मीनू ने सारा खाना जमीन पर छितरा दिया!<br />
<br />
उसने छितरे खाने को बटोरकर डस्टबिन में डाला। फिर, बचा-खुचा खाना एक पालीथीन बैग में डालकर नीचे पार्क के एक कोने में रख आया। मोहल्ले के खबरहे कुत्तों को लगातार तीसरे दिन भी अच्छी दावत मिल गई थी। बहरहाल, अधीर को कुत्तों और बिल्लियों को खाना खिलाकर बेहद सुकून मिलता था। कम से कम वे उसके खाने को पर्याप्त सम्मान तो देते थे।<br />
सीढ़ियाँ चढ़ते वक़्त ही उसने तय कर लिया कि वह आज भी दफ़्तर नहीं जाएगा। बल्कि, बैठकर कुछ लिखेगा-पढ़ेगा। पिछले कई महीनों से उसने न तो कोई कविता लिखी थी, न ही कोई कहानी। शायद, कुछ लिखने के बाद उसका मूड भी बन जाए। इसलिए, उसने अपने अफ़सर रेड्डी को फोन कर दिया--"सर, मेरा फ़ीवर अभी तक नहीं उतरा है; मैं आज भी..."<br />
रेड्डी ने उसे एक दिन की और छुट्टी की स्वीकृति दे दी थी।<br />
<br />
अधीर पहले से कहीं ज़्यादा हताश होता जा रहा था। पहले उसके मन में उम्मीद की एक धुँधलाती किरण टिमटिमाती रहती थी कि एक-न-एक दिन मीनू के खयालात जरूर बदलेंगे और उनके गृहस्थ जीवन में रस पैदा होगा। पर, वह तो जिस दिन से उसके आँगन में उतरी थी, वह उग्र से उग्रतर होती जा रही थी। पिछले दस सालों से संबंधों में कड़वाहट बढ़ती जा रही थी। इसका अन्य बातों के साथ-साथ, एक मुख्य कारण यह भी था कि अधीर को जो रुपए और सामान दहेज में मिले थे, उन्हें वह या तो अपने घर छोड़ आया था या अपनी छोटी बहन की शादी के लिए सुरक्षित रख दिया था। <br />
<br />
जब उसने शादी के दो दिन बाद ही अपना स्कूटर अपने छोटे भाई के हवाले कर दिया तो मीनू ने पहली बार अपनी नाक-भौं सिकोड़ी थी--"एक दिन, तुम मुळो भी अपने भाइयों के हवाले कर देना..." <br />
<br />
वह यह सोचते हुए चुप रह गया था कि--जब मीनू उसकी लौ में बहेगी तो उसके वस्तु-प्रेम का बुखार उतर जाएगा और वह भौतिक जीवन से उचटकर उसकी बौद्धिक दुनिया में कदम रखेगी जहाँ सुकून है, ज़िंदगी का असल मायने है। <br />
<br />
शादी के बाद वह मीनू के साथ खाली हाथ ही हैदराबाद चला आया था। मीनू ने चलते-चलते कहा था--"तुमने शादी का सारा सामान उन लालची कुत्तों के हवाले कर दिया है, ये अच्छा नहीं किया..."<br />
<br />
पहली बार अधीर उसकी टिप्पणी से ळाल्ला गया था--"मीनू, मेरे घरवाले तो तुम्हारे घरवाले भी हैं। फिर, उन्हें कुत्ता कहकर अपने किस बैकग्राउंड का परिचय दे रही हो? पढ़ी-लिखी लड़की हो; कम से कम कुछ तो शालीनता से पेश आओ..."<br />
<br />
उस पल मीनू का चेहरा पश्चाताप से पसीजने के बजाय एकदम तमतमा गया था। अधीर को पहली बार एहसास हुआ कि वह बेइन्तेहां हिंसक भी हो सकती है। दोनों ने एक-दूसरे की ओर पीठ किए हुए ही उस रिज़र्व कम्पार्टमेंट में यात्रा की। सुबह जब ट्रेन सिकंदराबाद पहुँची तो अधीर ने उठकर उसकी पीठ पर हाथ रखा--"डियर, रेडी हो जाओ। हैदराबाद आने ही वाला है।" तब अधीर ने बर्थ पर बिखरे कंबल, चादर जैसे सामान खुद समेटकर बैग और अटैची में रखे थे। मीनू तो उठकर आइने के सामने सिर्फ़ अपने मेकअप को फ़ाइनल टच देने में मशगूल थी।<br />
<br />
अधीर ने अपनी नवब्याहता पत्नी को ख़ुश करने के लिए हैदराबाद के उस किराए के फ़्लैट में अमूमन सारे इंतज़ामात कर रखे थे। कुआँरा रहते हुए भी उसने किचेन, बेडरूम और ड्राइंगरूम को जरूरी सामानों से सज्जित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। लेकिन, उसे आश्चर्य हो रहा था कि मीनू ने उसके सलीकेदार बंदोबस्त के बारे में तारीफ़ के एक भी लफ़्ज़ नहीं खर्च किए। उसने भी उससे यह नहीं पूछा कि तुम्हारे आने से पहले मैंने जो गृहस्थी सजा रखी है, उसके बारे में तुम्हारी क्या राय है।<br />
<br />
समय--दिन, हफ़्ते, महीने और साल के रास्ते लिसढ़ता चला जा रहा था। तीन साल तक उनकी कोई संतान नहीं हुई तो सारा लांछन अधीर को ही ळोलना पड़ा--'उसी में कोई ऐब होगा।' जब दबंग सास हैदराबाद आई तो वह अधीर को बाक़ायदा यह मशविरा दे बैठी--"इस हैदराबाद में हमारे रिश्ते का एक डाक्टर है, तुम उसीसे अपना चेकअप करा लो। उसने कई बेऔलादों की तक़दीर बदली है।" पर, जब उस डाक्टर ने अपनी रिपोर्ट में यह बताया कि अधीर में कोई कमी नहीं है तो मीनू और उसकी सास का चेहरा ही सूजकर फुटबाल हो गया। मीनू का गुबार तब तक नहीं गया जब तक कि वह मेडिकल जाँच और इलाज के बाद गर्भवती नहीं हो गई। <br />
<br />
पहले बच्चे के बाद दूसरी बिटिया हुई। अफ़सोस कि अधीर के घरवाले दोनों बच्चों के पैदा होते समय उपस्थित नहीं हो सके। मीनू ने तो इस बात पर ख़ूब ताने दिए। जब अधीर सफ़ाई पेश करता तो वह और विस्फ़ोटक हो जाती। पर, इसके पीछे कारण ये था कि अधीर की माँ की कुछ ही वर्षों पहले हुई अकाल मृत्यु के सदमे से उसका परिवार उबर नहीं पाया था और इसके चलते उसके घर के लोगों का मन किसी खुशी में शरीक़ होने में नहीं लगता था। अधीर ने तो शादी केवल इसलिए की थी कि वह हैदराबाद में नौकरी करते हुए अपने एकाकीपन से बोर हो गया था। उसके लिए घर का काम निपटाकर आफ़िस की ड्युटी करना भारी पड़ रहा था। अन्यथा, वह तो यूँ ही खुश था। दरअसल, माँ की असमय मृत्यु के बाद उसकी शादी-वादी में दिलचस्पी ख़त्म-सी हो गई थी।<br />
<br />
पर, उसे विवाह के बाद जो सुकून मिलना चाहिए था, वह कभी नहीं मिला। मीनू की परवरिश ही कुछ ऐसे माहौल में हुई थी कि उसके लिए अपने माँ-बाप, भाई-बहन आदि के अतिरिक्त किसी अन्य से तालमेल बैठा पाना मुश्किल ही नहीं बल्कि बिल्कुल असंभव-सा था। पहले वह मीनू की तानाजनी सुनकर प्रतिक्रियाएं कर देता था, जिससे बात बढ़कर बतंगड़ बन जाती थी। तिल का पहाड़ बन जाता था। धुआँधार बहसा-बहसी में माहौल इतना गरम हो जाता था कि तलाक के लिए वक़ील का दरवाज़ा खटखटाने तक की नौबत आ जाती थी। आख़िरकार, मुंहफट्ट मीनू के आगे उसकी बोलती बंद हो जाती थी। घर का शोरगुल मोहल्ले में चर्चा का विषय बन जाता था। एक अच्छी पोस्ट और तनख़्वाह पर कार्य करने के बावज़ूद उसे समाज और परिवार में वह इज़्ज़त नहीं मिल पाती थी, जिसका वह हक़दार था। <br />
<br />
पर, अधीर बड़े धीरज से काम लेता था। <br />
<br />
सो, उसने उससे ज़बानज़दगी करनी छोड़ दी और मीनू को शांत करने के लिए सारे हिक़मत अपनाने शुरू कर दिए। सुबह उससे पहले उठकर बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना, सुबह की चाय बनाना और लंच के लिए खाना तैयार करने में हाथ बँटाना आदि उसने शुरू कर दिया। वैसे भी, वह आदतन घरेलू कामकाज में मीनू की मदद किया करता था और उसे यहाँ तक कि ळााड़ू-पोछा लगाने तक में कोई हिचक नहीं होती थी। <br />
<br />
बहरहाल, वह उसके स्वभाव को बदलने में हमेशा नाकामयाब रहा। मीनू सारी हदें लाँघकर अमर्यादित तरीके से बर्ताव करने लगी थी। बच्चों और पति को ळिाड़कना और डाँटना तो मामूली बात थी; अब तो वह गाली-गलौज़ करने पर आमादा हो गई थी। उसे बेलगाम विस्फ़ोटक होने से बचाने के लिए अधीर सुबह से ही ऐसे सभी कामों को निपटाने में जुट जाता था जिन्हें करने से मीनू जी चुराती थी। उसे संतुष्ट करने के लिए वह आफ़िस को भी दाँव पर लगा बैठा था। आफ़िस लेट-लतीफ़ जाना, पहले लौट आना और काम को गंभीरतापूर्वक न लेना उसकी आदत बन गई थी। उसकी अनियमितताओं पर इन्क्वायरी भी बैठ गई थी। इतने पर भी, मीनू को अधीर की हर बात से शिकायत थी। अगर वह खाना खाने के बाद जूठे बर्तन किचेन की सिंक में डाल आता तो वह कहती कि उसे जूठे बर्तनों को आँगन में डालना चाहिए था। अगर वह कपड़ों को वाश बेसिन में सुखाए बग़ैर डारे पर फैला आता तो वह कहती--'जब बिजली बचाकर पैसे ही बचाने की चिंता थी तो क्यों नहीं कुआँरे रह गए?' अगर वह खाली समय में कभी-कभार अपनी किन्हीं पुरानी पांडुलिपियों को सहेजना शुरू कर देता तो वह उसे डपटे बिना नहीं रहती थी--'तुम्हें तो किताब-कलम से ही शादी कर लेनी चाहिए थी...' <br />
<br />
कई बार अधीर को एहसास होता था कि वह घर का काम करते-करते औरत बनता जा रहा है। उसे यह भी लगता था कि वह अपनी माँ की तरह कोई सत्तर फ़ीसदी सहनशील और अंतर्मुखी हो गया है। उसे याद है कि पापाजी की यातनाओं को माँ किस ख़ामोशी से बर्दाश्त कर लेती थी! पापाजी तो उसकी देवी-सरीखी माँ के चरित्र पर हमेशा शक किया करते थे। इस वज़ह से घर में कलह के चलते माहौल हमेशा तनावपूर्ण रहता था। वह तनाव तब दूर हुआ जब पापाजी, मम्मी की असमय मौत के बाद अपने पुश्तैनी घर में अकेले ही पेंशन भोगने चले गए। घर के अन्य सदस्य उनके खरीदे गए फ़्लैट में ही ज़िंदगी बसर करने लगे। पापाजी ने तो अपनी बेटियों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों तक से पल्ला ळााड़ लिया था। <br />
<br />
अधीर की तंद्रा तब टूटी जब उसके दोनों बच्चे यानी सात वर्षीय अंकुश और चार वर्षीय अलि घर में दाख़िल हुए। वे एक ही स्कूल में पढ़ते थे और एक ही गाड़ी में साथ-साथ आया करते थे। बच्चों को आश्चर्य हो रहा था कि पापा आफ़िस जाने के बजाए आज घर पर ही जमे हुए हैं। दरअसल, उन्हें यह नहीं मालूम था कि आज पापा-मम्मी के बीच कुछ ज़्यादा ही छिड़ गई थी। वे तो उनके बीच जंग छिड़ने से पहले स्कूल जा चुके थे। <br />
<br />
अंकुश रोज की तरह सीधे किचेन में गया और वहाँ भगौनों और दोंगों में खाना नदारद पाकर भूख से बिलबिला उठा। अधीर ने उसकी पीठ थपथपाई : "मैं अभी खाने का बंदोबस्त करता हूँ।" <br />
<br />
उसने फोन करके रेस्तरॅा से तत्काल भोजन मंगा लिया और बच्चों के हाथ-पैर धुलाते हुए उनका खाने की मेज पर स्वागत किया। जब दोनों बच्चे आराम करने बेड रूम में जाने के बजाए ड्राइंग रूम में टी0वी0 पर कार्टून फ़िल्म देखने में खो गए तो वह शाम का डिनर तैयार करने में जुट गया। सोच रहा था कि शायद आज मीनू का मूड बन जाए। <br />
<br />
तभी मोबाइल की बेल बजी। उसे यह जानकर कोई ख़ास आश्चर्य नहीं हुआ कि मीनू के नंबर पर बिर्जू की आवाज़ आ रही थी और बिर्जू उससे बात न करके अंकुश से बात करना चाह रहा था। तब, मोबाइल पर मीनू ने अंकुश को बताया कि वह आज घर नहीं आएगी। अधीर को यह जानकर बड़ा कोफ़्त हुआ। उसने खाना बनाने का कार्यक्रम स्थगित करके बच्चों को यह समाचार दिया कि वे आज बाहर जाकर खाना खाएंगे।<br />
<br />
होटल से लौटकर अधीर को चैन नहीं था। उसके लिए यह बात छिपी नहीं थी कि मीनू व्यवहार्यतः बिर्जू की रखैल बन चुकी है। बिर्जू उसका बॅास है जो उसका सेक्स एब्यूज़ करता है। वह मीनू की वे सारी जरूरतें पूरी करने की दम भरता है जो वह नहीं कर सकता। वह ऐसी स्थिति में है भी नहीं कि वह उसे मोटी पॅाकेट मनी दे सके और इम्पोर्टेड कास्मेटिकस, कपड़े व घूमने-फिरने के लिए उसे एक आलीशान कार मुहैया करा सके। उसके कंधे पर इतनी ज़िम्मेदारियाँ हैं कि वह अपना मकान और अपनी गाड़ी तक के बारे में कुछ नहीं सोच सक ता।<br />
<br />
देर रात तक उसे नींद नहीं आई। वह बेहद मायूस था। उसे मीनू के साथ एक ही बिस्तर पर सोए हुए कोई साल भर तो गुजर ही गया होगा। इस दरमियान उसने, कभी एक ही मच्छरदानी में सोने के बहाने से भी, उससे साथ-साथ सोने का आग्रह नहीं किया। उसकी लानत सुनते हुए जोर-जबरदस्ती करके उसके साथ हमबिस्तर होना अब उसे रास नहीं आता था। जी करता था कि वह भी अपने किसी आफ़िसकर्मी के साथ गुलछर्रे उड़ाए। मौज़-मस्ती के हुड़दंग में बाकी ज़िंदगी को हँसी-ठठ्ठा में गुजार दे। लेकिन, वह किसी प्रकार का नाज़ायज़ हरक़त करके ख़ुद को या अपने घर के संस्कारों को कलंकित करना नहीं चाहता था। <br />
उसने घड़ी की ओर सिर घुमाया--डेढ़ बज चुके थे। उसे एक बार हल्की नींद भी आई थी। किंतु, वह अपने ही खर्राटों से जग गया। तभी उसे कुछ याद करके हँसी-सी आ गई। कोई दो साल पहले वह अपने साले की शादी में शामिल होने ससुराल गया हुआ था तो एक शाम सोते हुए वह अचानक जग गया था। मीनू उसके सामने खड़ी, अपने रिश्तेदारों से कह रही थी कि--'<br />
<br />
'आओ, मैं तुम्हें बकरे का बिबियाना सुना रही हूँ...' <br />
<br />
वह तो इस मजाक पर रिश्तेदारों के सामने ळोंप गया था; पर, मीनू ठठाकर हँस रही थी। <br />
<br />
अधीर सोच रहा था कि अगर उसके खर्राटे को टेप करके सुनाया जाए तो वह यह तय करना चाहेगा कि वाकई! उसका खर्राटा बकरे के बें-बें जैसा ही सुनाई देता है। <br />
<br />
देर रात सोने के बाद सुबह जब उसकी नींद खुली तो उसे बड़ा अचंभा हो रहा था। उसने एक लंबा सपना देखा था जिसमें मीनू ने उसे जादू की छड़ी से छूकर बकरा बना दिया है और उसके गले में एक पट्टा डाल दिया है। वह उसे डंडे से मार-मारकर घर के सारे कूड़े-कचरे जबरन खिला रही है और उसके बें-बें करने पर उस पर डंडे बरसा रही है। <br />
<br />
सुबह अधीर बच्चों को स्कूल न भेजकर उन्हें अपने साथ आफ़िस ले गया। उन्हें पार्क में बैठा दिया और अपनी स्टेनो को हिदायत दे दी कि वह आज उसके बच्चों का ख्याल रखेगी। उसका काम वह ख़ुद कर लेगा।<br />
<br />
मीनू ने जैसे ही अपने कदम घर में रखे, दोनों बच्चे टी0वी0 आफ़ करके अधीर के साथ बाहर निकल आए और लॅान में सैटी पर बैठ गए। मीनू ने सीधे किचेन में जाकर पैक्ड फूड की पैकेट को डाइनिंग टेबल पर फ़ेंक दिया। कुछ देर तक वह अंदर ही व्यस्त रही। अधीर ने सोचा कि वह कपड़े वग़ैरह बदल रही होगी। <br />
<br />
अंकुश उसके मना करने पर भी अंदर मीनू की ख़बर ले आया--"मम्मी जो खाना लेके आई थी, वह अकेले ही अकेले गड़प रही हैं।" <br />
<br />
अधीर, मीनू पर गुस्सा होने के बजाए अंकुश के बचकानेपन पर ही रहम खाने लगा। वह बुदबुदाए बग़ैर नहीं रह सका--"कैसी भुक्खड़ माँ है!"<br />
<br />
शाम को मीनू को बुलाए बिना अधीर ने बच्चों के साथ खाना खाया। जब तक वह बच्चों के साथ बेडरूम में सोने का प्रबंध करता रहा यानी मच्छरदानी लगाता रहा और सिरहाने पानी की बोतल आदि सहेजता रहा तब तक मीनू से न तो अधीर की, न ही बच्चों की बातचीत हुई थी। अधीर ने बच्चों से फ़ुसफ़ुसाकर कह दिया था : "इस समय वह बहुत ग़ुस्से में है; इसलिए उससे बात करने की ग़ुस्ताख़ी मत करना..."<br />
<br />
पिछली रात को नींद पूरी न होने के कारण और आफ़िस में पेंडिंग काम को निपटाने की ज़द्दोज़हद में अधीर इतना थककर चूर हो गया था कि वह तकिए पर सिर रखते ही नीद में लुढ़क गया। <br />
<br />
कोई 11 बजे होंगे कि एक हृदय-विदारक चींख से अधीर और बच्चे जग गए। चींख मीनू के बेडरूम से आई थी, इसलिए वे उधर ही भागे। वहाँ मीनू अपने पेट को दोनों हाथों से जोर से दबाए हुए काँप रही थी। असह्य दर्द के मारे उसका दम घुटता-सा लग रहा था और चींख मुँह के अंदर ही ज़ज़्ब हुई जा रही था। सारा शरीर पसीने से नहा गया था। बच्चे उसकी हालत देख जोर-जोर से रोने लगे।<br />
<br />
अधीर ने ळाटपट उसे बेहोशी की हालत में अस्पताल में दाख़िल कराया। रात भर वह उसी तरह रुक-रुककर दर्द से चींखती रही जिससे उसकी मेडिकल चेकअप में बार-बार रुकावट आ जाती थी। अधीर ने रात ही ससुराल को उसकी हालत के बारे में फोन पर इत्तला कर दिया था। सुबह जब उसके फोन करने पर मीनू के आफ़िसवाले उसे देखने आए तब तक सारी मेडिकल रिपोर्टें भी आ गईं। डाक्टर की इस सूचना पर अधीर को ग़शी-सी आने लगी कि मीनू के दोनों गुर्दे अत्यधिक शराब पीने के कारण खराब हो गए हैं और उनसे लगातार रक्तस्राव हो रहा है। <br />
<br />
डाक्टर ने अधीर से कहा : "आज शाम तक उसके लिए कम से कम एक गुर्दे का बंदोबस्त हो ही जाना चाहिए ताकि उसका ट्रांसप्लांट किया जा सके।"<br />
<br />
बहरहाल, अधीर को दुःखद आश्चर्य हो रहा था कि आख़िर, मीनू ने कब से शराब पीना शुरू किया जबकि उसे इसकी भनक तक नहीं लगी। बेशक! उसके गुर्दों के ख़राब होने की वज़ह उसका प्रेमी बिर्जू ही होगा।<br />
<br />
अधीर के तो हाथ-पाँव फूल गए। गुर्दे बदलने में कम से कम दस लाख का खर्च आने वाला था जबकि अधीर इतने रुपयों का बंदोबस्त करने में एकदम असमर्थ था। लेकिन, उसे आशा थी कि ससुरालवाले उसके लिए नहीं तो, अपनी बेटी के लिए रुपए का इंतज़ाम तो कर ही देंगे।<br />
<br />
दोपहर तक मीनू के माँ-बाप और भाई पहुँच चुके थे। अधीर ने उनका स्वागत ही इस मांग से किया : "मीनू के इलाज के लिए दस लाख की जरूरत है।"<br />
<br />
पर, आश्चर्य कि उसकी सास ने बड़े बेहूदे ढंग से प्रतिक्रिया की : "अभी तक तुम्हारी दहेज़ की चाह पूरी नहीं हुई? मेरी बेटी को मौत के मुँह में धकेलकर भी तुम अपने लालचीपन से बाज नहीं आ रहे हो?"<br />
<br />
चुनांचे, मीनू के कुछ आफ़िसवालों के समळााने-बुळााने पर ससुरालवाले यह मानने को तैयार हुए कि मीनू की जान की कीमत कोई दस लाख है। <br />
<br />
अधीर के ससुर ने कहा : "अरे! इतने पैसों की क्या जरूरत है? हममें से कोई अपना गुर्दा मीनू को दे देगा..."<br />
उनकी बात सुनते ही अधीर की सास छाती पकड़कर गिर पड़ी। उसे आई सी यू वार्ड में भरती कराने के लिए स्टैचर मंगाना पड़ा।<br />
ससुर ने कहा : "मैं तो ख़ुद ही बी0पी0 और शूगर से अधमरा हूँ। गुर्दा निकलने के बाद तो बचूँगा ही नहीं...तुमलोग जवान हो, तुम्हारे गुर्दे ही उसमें ज़्यादा फिट बैठेंगे। आख़िर, तुम उसके शौहर हो..."<br />
<br />
अभी गुर्दे के बंदोबस्त के संबंध में चर्चा चल ही रही थी कि मीनू का भाई टहलते हुए दूर निकल गया। जब हताश अधीर ने मीनू के ख़िदमतग़ार बॅास--बिजेन्द्र उर्फ़ बिर्जू की ओर रुख किया तो वह तेजी से चलता हुआ अपनी कार में बैठकर कार स्टार्ट करने लगा।<br />
<br />
अधीर ने फिर किसी की ओर नहीं देखा। वह तेज कदमों से चलते हुए डॅाक्टर के कमरे में आ गया। उसने अपने दोनों बच्चों को टाफ़ी, बिस्कुट और अंकल चिप्स के कई पैकेट थमाते हुए कहा : "मैं काफ़ी देर तक तुम्हारी मम्मी के पास रहूँगा। तब तक तुम इसी कमरे में मेरा इंतजार करना। ध्यान रहे, मैं तुम्हारी मम्मी की जान बचाने जा रहा हूँ। अगर तुम दोनों ने कोआपरेट नहीं किया तो तुम्हारी मम्मी का भला नहीं होगा।"<br />
<br />
दोनों बच्चों ने कान पकड़कर वादा किया।<br />
<br />
कोई दो घंटे के आपरेशन के बाद अधीर का एक गुर्दा निकाल लिया गया। उसने बच्चों को बुलवाकर बेड पर लेटे-लेटे बताया : "अब रोना मत । मैंने तुम्हारी मम्मी को बचाने का पुख़्ता इंतजाम कर रखा है..."<br />
<br />
तभी अंकुश ने यह जानकारी दी कि उसकी नानी को हार्ट अटैक नहीं पड़ा था। वह तो नाटक कर रही थी ताकि उसे अपना गुर्दा न देना पड़े। डाक्टर ने उसे एकाध गोली देकर रफ़ा-दफ़ा कर दिया है।<br />
<br />
अधीर मुस्कराकर रह गया। उसने कहा : "ईश्वर ने चाहा तो तुम्हारी मम्मी की तबियत ठीक हो जाएगी। लेकिन, तुम सभी यह प्रार्थना करो कि उसके दिल में रहम और दिमाग़ में समळा पैदा हो..."<br />
<br />
पिछले आठ सालों से मीनू भली-चंगी चल रही है। उसके स्वभाव में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है--सिवाय इसके कि वह लड़ने-ळागड़ने के बाद कोर्ट से कोई कार्रवाई करने का धौंस नहीं देती। बड़ी से बड़ी लड़ाई लड़ने के बाद भी वह रात को अधीर के बेड के किनारे आकर सो जाती है। अधीर के खर्राटा लेने के बावज़ूद वह बेड नहीं छोड़ती है; बल्कि भुनभुनाकर रह जाती है--'बकरा कहीं का।' हाँ, शराब के साथ-साथ बिर्जू से भी तौबा कर लिया है। अस्पताल से छूटकर वह सीधे बिर्जू के पास गई थी और अपना त्याग-पत्र सौंपते हुए उससे जोरशोर से ळागड़ आई थी कि उसने उसकी मुसीबत में क्यों नहीं साथ दिया। एक और बदलाव उसमें यह आया है कि वह बच्चों को डाँटने-फटकारने के बाद उन्हें प्यार से सबक भी देने लगी है। पर, अधीर की दिनचर्या में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है। वह आज भी आफ़िस जाने से पहले और वहाँ से लौटने के बाद किचेन में लगा रहता है। महरी के न आने पर वह बरामदे से बेडरूम तक बड़े मन से ळााड़ू-पोछा लगाता है क्योंकि डाक्टर ने उसे ख़ास हिदायत दे रखी है कि अपने इकलौते गुर्दे को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए उसके लिए व्यायाम करना बहुत जरूरी है और उसे मेहनत से कतई जी नहीं चुराना चाहिए। जब वह थककर सुस्ताने लगता है तो अपने सामने मीनू को हाथ में छड़ी लिए हुए खड़ा पाता है : "अगर ज़िंदा रहना चाहते हो तो काम करो।" <br />
<br />
अधीर को कुछ वर्षों पहले का वह सपना याद आ जाता है जिसमें मीनू उसे जादुई छड़ी घुमाकर बकरा बना देती है और उसे डंडे के बल पर घर में बिखरा कूड़ा-कचरा खाने को मज़बूर करती है।<br />
<br />
***</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%87_%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%A8_%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A4%B8%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A5%87_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5981मादरे वतन वापसी के बाद / मनोज श्रीवास्तव2011-12-05T09:08:44Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
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वह मोहल्ला ऐसा था जो शहर से कोई चार किलो मीटर दूर होने के बावज़ूद हर तरह से तंगहाल था। बुनियादी जरूरतें भी मुहैया नहीं थीं। उल्टे, उसे अप्रत्याशित ख़तरों से निपटने के लिए, चाहे दिन हो या रात, मुस्तैद रहना पड़ता था। शहर रात को बिजली की रोशनी में नहाया रहता था और दिन में, पानी से आकंठ सिंचित रहता था। <br />
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लेकिन, इस हिंदू-बहुल मोहल्ले में लोगबाग़ रात को अंधेरों से और दिन में सूखे से जूळाने के आदी हो चुके थे।<br />
ऐसे ही मोहल्ले में सिर्फ़ एक आदम बसेरा था और वह भी इकलौते हिंदू का, जिसे यह मलाल था कि उसके पड़ोस के सभी हिंदू परिवार बाल-बच्चों समेत हिंदुस्तान कूच कर गए थे। उन्होंने जाते-जाते उससे लाख मिन्नतें की थी कि वह इन दरिंदों के बीच रहकर क्या करेगा। इन जिन्नातों ने तो उसके खेलते-खाते घर को तबाह कर डाला और उसे रोजी-रोटी तक के लिए मोहताज बना दिया।<br />
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पर, उसने साफ़ मना कर दिया कि वह आइंदा मादरे वतन को कभी भी तौबा नहीं करेगा। <br />
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जब उनके जाने के बाद मोहल्ला खाली हो गया और अगल-बगल के घर वीरान हो गए तो आवारा कुत्तों को वहाँ अपना अड्डा बनाने का अच्छा मौका मिला। ऐसे में, कुत्ते ही उसके पड़ोसी बन गए। रात को जब वे आपस में भौंकने लगते तो उसे एहसास होता कि वह किसी आदम बस्ती में न रहकर एक बीहड़ जंगल में रह रहा है जहाँ हर कोने में आदमख़ोर लकड़बघ्घों का डेरा है। <br />
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ऐसा नाख़ुशगवार माहौल कोई पाँच महीने तक बना रहा। उसे यह उम्मीद बिल्कुल नहीं थी कि उन घरों में कभी कोई आदम जात बसने की जुर्रत करेगा। पर, उसे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। एक सुबह काम पर जाते समय अचानक़ उसने देखा कि उसके आसपास के कोई सात-आठ मकानों में कुछ लोग सफ़ाई कर रहे हैं। शाम को दुकान से घर लौटते हुए उसने उन घरों में फ़िर अपनी खोजी नज़रें फेंकी। उसे बड़ी तसल्ली हुई कि उन घरों में कुछ लोग जम गए हैं। उसने पल भर को रुककर, बैसाखी पर अपनी दाढ़ टिकाते हुए सूखी मुस्कान के साथ आह भरी--"चलो, अब इंसानों के बीच रहेंगे, जानवरों के बीच नहीं।" <br />
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वह बैसाखी को दरवाजे के किनारे टिकाते हुए कमरे में दाख़िल हुआ--दीवार को दोनों हाथों से थामे हुए। उसकी पालतू बिल्ली लपककर उसकी गोद में चिपक गई। वह गिरते-गिरते सम्हला। बिल्ली को कुत्तों का ख़ौफ़ कम सता रहा था, क्योंकि उसे यह एहसास हो गया था कि पड़ोस के कुत्ते कहीं और नीड़ की तलाश में या आवारा सड़कों पर चले गए होंगे। <br />
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उसने लालटेन जलाई और बिल्ली को कुर्सी पर बैठाते हुए तिपाई के साथ लगी बेंच पर बैठ गया। वह आदतन कुछ देर तक सामने दीवार पर टंगे भारत के नक्शे को देखता रहा। उसने भारत के बाएं कंधे पर सवार पाकिस्तान के नक्शे पर मुँह बिचकाया। वह कुछ बड़बड़ाया। उसे एकबैक याद आया कि नक्शे को उसके बेटे राजू ने टांग रखा था। उसने पहली बार बड़े ध्यान से देखा कि दोनों देशों के बीच सीमा-रेखा को उसके बेटे ने खरोंचकर धूमिल-सा बना दिया है।<br />
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राजू की याद ने उसके भीतर के सूखे ज़ख़्म को गहराई से कुरेंद दिया। पर, उसके मन में बरसों से दुःख का बर्फ़ीला पहाड़ अटा होने के बावज़ूद उसकी आंखों ने आँसू का एक भी कतरा बहाने से इनकार कर दिया। चाहकर भी न रो पाना उसकी सबसे बड़ी बेबसी थी...बेशक! शारीरिक अक्षमता थी...<br />
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वह यानी हरिहर लालटेन लेकर कोठरी में आ गया। उसने चारपाई पर रखी राजू की तस्वीर को एक बार चूमा और वहीं लेट गया। लेकिन उसे यह बार-बार एहसास हो रहा था कि आज राजू के ख़्याल पर धूल की परत चढ़ती जा रही है और उसके सामने सुम्मी का चेहरा नाच रहा है। उसके चेहरे पर ळाुर्रियाँ रोने के अंदाज़ में फैल गईं--"उफ़्फ़! आज तो तुम्हारे शहादत का दिन है। जिन कमीनों ने तुमको मुळासे ज़ुदा किया, उनके वंश का नाश हो।" आँसुओं ने फिर उसका साथ देना गवारा नहीं किया।<br />
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सुम्मी यानी सुमिता जिसे कोई पंद्रह साल पहले, मंदिर से लौटते समय आवाम के कुछ शुभचिंतकों ने आवाम को ग़ैर-मज़हबदारों से महफ़ूज़ बनाने के नाम पर उसकी अस्मत लूटी और फिर, हलाख कर दिया। गुस्से से उसका चेहरा तपने लगा। चींकट कान गर्म होकर खुजलाने लगे। उसने दंतहीन मुँह से अपने होठों को जोर से चबाया और मुट्ठी भीचकर चारपाई पर कई बार पटका। मुट्ठी की धमक से छत से कुछ धूल ळाड़कर उसकी आँखों में चली गई। वह आँख रगड़ते हुए बिलबिला उठा। मुँह में धूल की कड़वाहट ने उसकी भूख और बढ़ा दी।<br />
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यह घटना सन 1975 की थी जबकि मोहल्ले में अमूमन तीस-पैंतीस हिंदू परिवार रह रहे थे। उसके साथ-साथ सुम्मी भी महाशिवरात्रि का व्रत थी। वह आसपास के जंगलों से शिवलिंग पर चढ़ाने के लिए धतूरे, बेलपत्र, भांगपत्र, बैर, फूल वगैरह इकट्ठे करने के बाद बाजार से धूप, अगरबत्ती, कपूर, जैसी चीजें भी खरीद लाया। मुल्ला दुकानदारों से पूजा के सामान आदि खरीदना बड़ी टेढ़ी खीर होती है। उसे उनको बार-बार सफाई देनी पड़ी कि घर की कच्ची दीवारों के अंदर मरे हुए चूहों की बास को कम करने के लिए इन चीजों का इस्तेमाल करना पड़ता है। पर, उन्हें एक हिंदू की जुबान पर कहाँ यकीन होने वाला था। ख़ैर, दिन के कोई दस बजे, वे घर में स्थापित उस काँसे के शिवलिंग की विधिवत पूजा करने के बाद, जिसे कभी उसके पुरखों द्वारा दिल्ली के चाँदनी चौक से खरीदा गया था, नवाबगंज स्थित शिवाले पर जाने का मूड बनाने लगे। कोई आधे घंटे बाद, वे मच्छरदानी में सोते बच्चे के मुँह में दूध की बोतल डालकर बेफ़िक्र हो गए कि वह कम से कम एक घंटे तक तो सोता रहेगा ही जबकि इस बीच वे शिवजी का दर्शन भी करते आएंगे। <br />
<br />
वे गली-कूचों से पगडंडियों के रास्ते शिवालय की ओर चल पड़े। दोनों ने रास्ते में ही तय कर लिया कि उनमें से कौन सबसे पहले शिवजी को अर्ध्य चढ़ाने जाएगा।<br />
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शिवालय की सीढ़ियों पर दस्तक देने से पहले ही वे ठिठक गए। दरमियाने डील-डौल वाले अक्खड़ किस्म के चुनिंदा दढ़ियल नौजवान वहाँ कुछ इस अंदाज़ में चहकदमी कर रहे थे, जैसेकि वे पहरेदारी कर रहे हों। चुनांचे, वे उन्हें देखकर किसी पतली गली की आड़ में छुप गए या कहीं चले गए। ऐसे में, हरिहर और सुम्मी को शिवजी की निर्विघ्न पूजा करने का अच्छा मौका मिला। उन्हें वहाँ छाई घुप्प ख़ामोशी पर कोई ख़ास ताज़्ज़ुब नहीं हो रहा था क्योंकि वे पहले भी यहाँ आ चुके थे। <br />
जैसाकि उनके बीच तय हो चुका था, पहले सुम्मी शिवालय के अंदर गई और हरिहर बाहर उसकी प्रतीक्षा करता रहा। चार-पाँच मिनट नहीं, पूरे दस मिनट के बाद जब वह बाहर आई तो हरिहर की बेचैनी दूर हुई। उसने आँखों ही आँखों में सुम्मी से शिकायत की--'आख़िर, इतनी देर क्यों लगा दी? मेरी तो जान ही निकल गई थी।' सुम्मी ने मुस्कराकर उसके हाथों में पूजावाली डलिया थमाई और गली के सुन्नसान नुक्कड़ पर जाकर खड़ी हो गई। हरिहर तेजी से अंदर गया और पूजा से यथाशीघ्र निपटकर बाहर आया। पर, उसे नुक्कड़ पर सुम्मी को न देखकर कोई ज़्यादा हड़बड़ी नहीं हुई। उसने सोचा कि वह शायद, चहलकदमी करते हुए घर की ओर रवाना हो चुकी होगी और रास्ते पर खड़े होते ही वह सामने नज़र आ जाएगी। <br />
वह बिल्ली जैसी चपलता से उछलता हुआ रास्ते पर आया। लेकिन, दूर-दूर तक सुम्मी नज़र नहीं आई। आखिर, किस रफ़्तार से सुम्मी गई होगी और वह भी बिना बताए, हरिहर को तो शिवालय में पूजा से निपटने में कोई दो-तीन मिनट से ज़्यादा नही लगे होंगे। <br />
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उसकी साँस अटक-सी गई। उसका दिल घबराहट से धड़क रहा था; लेकिन, उसका मन कह रहा था कि सुम्मी के साथ कोई अनिष्ट नहीं हो सकता। वह शिवालय को जोड़ने वाली दूसरी तीनों गलियों में बारी-बारी से लपक-लपककर भागता रहा। उसे वे नौजवान भी कहीं नज़र नहीं आए जो उसे शिवालय पर दिखाई दिए थे। फिर, आधे घंटे बाद वह वापस शिवालय के सामने आकर खड़ा हो गया। कुछ पल प्रतीक्षा करता रहा कि संभवतः सुम्मी वापस आ ही जाएगी। <br />
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पर, ऐसा नहीं होना था। हरिहर रुआँसा हो गया। तभी, उसे अचानक कुछ सूळाा और वह सुम्मी-सुम्मी पुकारता हुआ घर की ओर चल पड़ा--लगभग भागते हुए। उसे लग रहा था कि शायद, सुम्मी घर में मौज़ूद होगी। <br />
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पर, घर में तो उसका नामो-निशान तक नहीं था। अलबत्ता राजू अभी भी मच्छरदानी में सो रहा था। उसने अफ़रातफ़री में अपने तीन-वर्षीय बेटे को गोद में उठाया और हिम्मत बटोरकर थाने की ओर चल पड़ा। <br />
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वहाँ लाख मिन्नतें करने, दाढ़ी छूने और घिघियाने और टुच्चे पुलिसवालों की ळिाड़कियाँ सुनने के बाद उसकी पत्नी की ग़ुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज़ हुई। <br />
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रात के साढ़े नौ बजे चुके थे। उसकी आँखें सूजकर लाल हो गई थीं। पड़ोसी उसे तसल्ली देकर जा चुके थे। बीवी के ग़ुम हो जाने के बाद अभी उसे उम्मीद थी कि वह जहाँ भी होगी महफ़ूज़ होगी और ज़ल्दी ही वापस आ जाएगी। वह बस! ज़िंदा हो, भले ही उसकी आबरू लुट चुकी हो। उसे सरेआम बेइज़्ज़त किया जा चुका हो। वह उससे कोई शिकायत नहीं करेगा। वह उसे किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता है। <br />
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वह उसके साथ मुहब्बत में गुजारे बेशक़ीमती लमहे याद करते हुए बच्चे को तीसरी बार दूध में वैद्य रामदीन द्वारा दी गई दवा घोलकर पिला रहा था। उसे पिछली रात से ही बुखार आ रहा था और इसी वज़ह से वह दवा के नशे में लस्त पड़ा बेख़बर सो रहा था। एक-दो बार वह अम्मा-अम्मा पुकारकर उसकी थपकियों से आसानी से काबू में आ गया था। वर्ना, अम्मा की ग़ैर-मौज़ूदगी में...<br />
<br />
तभी वह कोई आहट सुनकर दरवाज़े पर आ गया। उसने लालटेन की रोशनी तेज की। एक पुलिसवाले को खड़ा देख राहत की साँस ली--'जरूर उसकी सुम्मी के बारे में अच्छी ख़बर लाया होगा।' उसने आँख मीचकर भगवान शिव का ध्यान किया।<br />
पुलिसवाले ने अकड़बाज़ लहजे में सवाल किया--"क्या तूने ही सुभह थाने में बीवी की ग़ुमशुदगी की रपट लिखवाई थी?"<br />
"हाँ, म...म...मैंने ही..." वह हकलाकर रह गया।<br />
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"तेरी बीवी की लाश को सदर थाने में पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया है। तूँ अलसुभह सात बजे थाने आकर उसकी लाश ले जाना..." पुलिसवाला नफ़रत से थूकते हुए तेज कदमों से लौट गया।<br />
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उसने जाते-जाते इस बात की भी परवाह नहीं की कि उसकी ख़बर सुनने के बाद हरिहर गश खाकर जमीन पर धड़ाम से गिर पड़ा है। उसे कई घंटों बाद होश तब आया जबकि राजू का रोना-बिलखना उसके कानों को बुरी तरह भेदने लगा। <br />
<br />
उस वक़्त रात के दो बजे हुए थे। हरिहर एक बार शिव की मूर्ति के सामने खड़ा होकर भगवान से कुछ शिकायत करने वाला था। लेकिन तभी वह बच्चे की 'अम्मा-अम्मा' की पुकार सुनकर विचलित हो गया। उसने बच्चे को थपकी देकर सुलाते हुए चारपाई पर लिटाया और एक निर्णायक मूड में कुछ कपड़े और दूसरे सामान वग़ैरह एक बक्से में रखने लगा। उसे नींद नहीं आई। थाने में उसकी जवान बीवी की लाश रखी पड़ी हो और वह सोने का ख़याल ला सके। कैसे मुमकिन हो सकता है?<br />
सुबह थाने पहुँचने के बाद उसका दिमाग़ थानेदार की फ़ाइनल जाँच रिपोर्ट सुनकर दंग रह गया।<br />
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"तेरी बीवी ने शिवालय के पीछे वाले कुएं में कूदकर ख़ुदकुशी की थी--उसकी लाश वहीं से बरामद हुई है," थानेदार ने उसे पोस्टमार्टम रिपोर्ट दिखाते हुए कहा।<br />
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"लेकिन, उसे तो ऐसा कोई ग़म नहीं था..." हरिहर का चेहरा उस ळाूठ रिपोर्ट से लाल हो गया। वह गोद में बच्चे को सम्हालते हुए वहाँ जमीन पर उस मुड़ी-तुड़ी गठरी को देखकर रुआँसा हो उठा जिसमें सुम्मी की मुड़ी-तुड़ी लाश पड़ी थी।<br />
थानेदार उसकी प्रतिक्रिया से उबल उठा, "हरामज़ादे! तेरी बेवफ़ाई और टार्चर से ऊबकर ही उसने..."<br />
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"लेकिन, हमदोनों में इतना मुहब्बत था कि कोई भी कभी ऊँची आवाज़ में बात तक नहीं करता था। उसे टार्चर करने का तो सवाल ही नहीं उठता।" बेशक, हरिहर की दलील उसे कतई पसंद नहीं आई।<br />
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थानेदार रिज़वी ग़ुस्से में काफ़ूर होकर और कुर्सी को धड़ाम से पीछे धकेलते हुए चींख उठा, "तेरा कहने का मतलब क्या है? तूँ यहाँ दस्तख़त कर और लाश लेकर चलता बन, वर्ना..." वह लाश पर पैर से ठोकर मारते हुए आपे से बाहर हो रहा था।<br />
हरिहर का जी कर रहा था कि वह अपनी सुरक्षा के लिए अंदर करधनी से लटकती करौली निकालकर उस राक्षस के सीने में घुसेड़ दे। पर, वह सब्र का ज़हर पीकर लाश के साथ वापस घर लौट आया। उसने ख़ुद लाश को खोलकर अपनी पत्नी के ज़िस्म को उलटा-पलटा और उसकी बख़ूबी निग़रानी की। योनिमार्ग से लगातार ख़ून बह रहा था, गरदन की हड्डी टूटी हुई थी और कुएं में गिरने से उसके बदन पर जिस तरह की चोटें आनी चाहिए थी, वैसा कोई निशान मौज़ूद नहीं था। इसलिए, इस सच को सबूत की ज़रूरत नहीं थी कि सुम्मी का सामूहिक बलात्कार करने के बाद उसकी बेरहमी से गला घोंटकर हत्या की गई थी।<br />
<br />
शाम से पहले वह सुम्मी का अंतिम संस्कार करके निपट चुका था। तत्पश्चात, उसने घर पर आए अपने पड़ोसियों को अपना इरादा बताया, "मैंने इस मुल्क को आज और अभी छोड़ने का मन बना लिया है। मैं हिंदुस्तान जा रहा हूँ।"<br />
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पड़ोसियों ने उसे लाख समळााया-बुळााया कि जिस मादरे वतन की माटी में उसकी जान यानी सुम्मी का अंश मिला हुआ है, उसे छोड़कर वह सुकून से नहीं रह पाएगा। लेकिन, वह अपने फ़ैसले पर अडिग था।<br />
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हरिहर ने वतन से तौबा कर लिया था। उसको अपने बच्चे के साथ दिल्ली में पनाह लिए हुए कई साल बीत चुके थे। वह कम से कम दर्जनभर ळाुग्गी बस्तियों में रहने के लिए असफ़ल जुगाड़ बैठाकर उकता चुका था। पर, हर बस्ती में उसे शरणार्थी, रिफ़्यूज़ी, टेररिस्ट आदि का बदनाम तग़मा ओढ़कर निकलने पर मज़बूर होना पड़ता था। जब वह फुटपाथों या रेलवे प्लेटफार्मों की शरण में जाता तो पुलिस की ज़्यादतियाँ उसका स्थायी तौर पर हिंदुस्तान में बसने का मनोबल तोड़ देती। वे उससे भारतीय नागरिक होने का सर्टीफ़ीकेट मांगते, फिर उसके साथ पुलिसयाना बर्ताव करने लगते। पर, वह तो चोरमार्गों से भारत आया था, दोनों देशों की सरकारों की सहमति से नहीं। इस भावना के साथ आया था कि वह जाति से हिंदू और वह भी ब्राह्मण होने के नाते हिंदुस्तान में न केवल सुरक्षित नीड़ तलाश कर पाएगा बल्कि हिंदुस्तानियों के साथ अच्छी तरह खिल्थ-मिल्थ होकर उनकी हमदर्दी भी बटोर सकेगा। दूसरे, वहाँ तो भूख से जूळाने के साथ-साथ मौत के ख़ौफ़ से भी हर पल लड़ना पड़ता था। कम से कम हिंदुस्तान में मौत का डर तो उतना नहीं है। बस, आए दिन उसे पुलिस से दो-चार होना पड़ता है--ख़ामोशी के साथ उनकी भद्दी-भद्दी गालियाँ सुनते हुए और लात-डंडे खाते हुए। लिहाजा, पेट तो देर-सबेर भर ही जाता है। <br />
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उसे कई बार कुछ नेता चुनावों के दरमियान किसी ळाुग्गी बस्ती में रहने का ठिकाना इस वादे के साथ दे जाते कि जब वह चुनाव जीत जाएगा तो वह उसे बाक़ायदा यहाँ की नागरिकता दिला देगा। कुछ ऐसी ही उम्मीद में उसने कितने ही साल यहाँ गुजार दिए। पर, उसने अपनी हिम्मत को कभी टूटने नहीं दिया। वह कई बार दिल्ली स्थित हिंदू संगठनों के पास भी गया और अपना दुखड़ा सुनाया। वहाँ उस जैसे हिंदुओं पर ढाए जा रहे ज़ुल्मों का हृदयविदारक रोना रोया। फिर, अपनी जाति बताई और गोत्र भी। अपने उन ख़ानदानी पुरखों के नाम गिनाए जो अयोध्या और काशी जैसे नगरों के सम्मानित नागरिक थे। वह बस्तियों में गया और बुज़ुर्ग नागरिकों से फ़रियाद की कि मैं और मेरा बेटा हिंदू होने के नाते हिंदुस्तान में ही बसना चाहते हंैं। पर, किसी पर भी उनकी बात का यक़ीन नहीं होता! कोई उनका साथ देने को तैयार नहीं हुआ। उल्टे, कुछ लोग तो दोनों को घुसपैठिया समळा, उन्हें फ़ौरी तौर पर पुलिस को सौंपने पर भी आमादा हो गए। लेकिन, समय रहते वे उनका इरादा भाँपकर भाग निकले वर्ना...<br />
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हरिहर थक चुका था। उसके साथ उसकी बदक़िस्मती का हमसफ़र--राजू, यानी उसका बेटा अब बड़ा हो रहा था और उसकी बातों में सयानापन ज़ाहिर होने लगा था। उसे सारी बातें समळा में आने लगी थीं। कुछ दिनों से वह उसे बार-बार एक ही सबक देने लगा था कि--'बाबू! इससे अच्छा तो अपना ही देस है जहाँ अम्मा की रूह बसी हुई है।' फिर, वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगता--"बाबूजी! हमें इस देस में अब तक क्या मिला है? यहाँ भी लात खा रहे हैं, वहाँ भी लात ही खाएंगे। सो, अच्छा होगा कि हम फिर अपने वतन लौट चलें..."<br />
<br />
हरिहर के कानों में भी खुजुली होने लगी--'राजू क्या ग़लत कह रहा है? यहाँ तो अपना कोई मुस्तकिल ठौर भी नहीं है। वहाँ तो अपना घर है, अपनी जान-पहचान के लोग भी हैं। वहाँ जाकर फिर से अपना धंधा करेंगे और पेट पालेंगे।' <br />
लेकिन, सीमा पार जाने के ख़याल-भर से उसका बदन थर-थर काँपने लगता।<br />
<br />
परंतु, एक घटना ने उसके डर को काफ़ूर कर दिया। एक ठिठुरती रात को कुछ वहशी पुलिसवालों ने उन दोनों को दिल्ली रेलवे स्टेशन के पेशाबखाने के एक कोने में उस समय जमकर धुनाई की जबकि वे घातक ठंड को धता बता, सो रहे थे। वे दोनों दर्द से बिलबिलाते हुए अपनी कथरी छोड़ प्लेटफ़ार्म से बाहर की ओर भागे। हरिहर तो इतने समय से पुलिस की मार बर्दाश्त करने का दमख़म विकसित भी कर चुका था। पर, राजू का पहली बार पुलिस के डंडों से वास्ता पड़ा था। वह दहाड़ें मार-मारकर रोता हुआ भाग रहा था। जब वे किसी तरह भागते हुए पुलिसवालों की पहुँच से दूर निकल आए तो एक बस स्टैंड की बेंच पर बैठते हुए हरिहर फ़फ़क उठा--"हिंदुस्तान के बारे में मैंने ग़लतफ़हमी पाल रखी थी कि यहाँ चैन होगा और सुकून मिलेगा। पर, अब मेरा मोहभंग हो चुका है। यहाँ तो भूख है, यातना है, परायापन है। इससे खराब जमीन कहाँ की होगी? अब, यहाँ और रहना बर्दाश्त नहीं हो पा रहा है..."<br />
<br />
उसने अपने पैरों की चोट सहलाते हुए राजू को खींचकर उठाया। वापस वतन जाने के इरादे ने रोते-बिलखते राजू में भी बेहद जोश पैदा कर दिया। वह पिटाई का दर्द भूलकर उठ खड़ा हुआ--"बाबूजी! हमें सच्चा सुकून वहीं मिलेगा जहाँ मेरी अम्मा की आत्मा मुळो दुलराने के लिए इधर-उधर बेताब-सी मँडरा रही है।"<br />
<br />
कोई महीने भर की जी-तोड़ मशक्कत करने और तरक़ीब तलाशने के बाद एक रात वे लुक-छिपकर अपने वतन की सरहद में प्रवेश कर ही गए। अपने वतन की जमीन पर चलते हुए उन्हें बड़ा सुकून मिल रहा था। लिहाजा, वे तेज कदमों से बढ़ रहे थे कि तभी उन्हें अहसास हुआ कि उनका पीछा किया जा रहा है। इस पर, वे कोई दस मिनट तक ळााड़ियों में दुबके रहे। उसके बाद जब वे उठे तो बेतहाशा भागते हुए। जब उन्हें लगा कि वे मीलों पीछे सरहद को छोड़ चुके हैं और बस्तियों में प्रवेश कर चुके हैं तब उन्होंने अपने पैरों को राहत दी। <br />
<br />
पर, उन्हें क्या पता कि उनका पीछा किया जा रहा है? अभी वे एक पेड़ की आड़ में अपनी हँफ़ाई पर काबू पाने की कोशिश कर ही रहे थे कि तभी एक सनसनाता कारतूस हरिहर के बाएँ पैर की जाँघ में आकर फ़ँस गया। वह इतनी जोर से चींखा कि आसपास के घोसलों में सोते परिंदे भी जागकर बेचैनी से चहचहाने लगे। हरिहर वहीं राजू के सीने पर अपना सिर रखकर उसे आँसुओं से भिंगोते हुए कराहने लगा।<br />
<br />
राजू ने सोचा कि अगर वह कमजोर पड़ गया तो उसके बाप का मनोबल टूट गया। उसने उसके हौसले को बुलंद किया--"बाबूजी! कुछ नहीं हुआ है। घर पहुँचकर सब ठीक हो जाएगा।"<br />
<br />
जैसे-तैसे ळााड़ियों में रात गुजारने के बाद जब सुबह हुई तो हरिहर ने कहा--"बेटे! ऐसा करो कि आज शाम तक हम अपने घर में दाख़िल हो जाएं!" फिर उसने अंगोछे से अपनी जाँघ के ज़ख़्म को कसकर बाँधा और राजू के कंधे का सहारा छोड़कर अपने पैरों पर ऐसे खड़ा हो गया जैसेकि जाँघ में गोली लगने की बात तो ळाूठी थी। असल बात यह है कि वे अब अपने देश वापस आ चुके हैं और ऐसी खुशी हर ग़म को दबा देती है।<br />
<br />
राजू ने देखा कि उसका जाँबाज़ बाप अपनी जाँघ में गोली की टीस को दबाए हुए कितने जोश-ख़रोश से घर पहुँचने के लिए बेताब है। वतन पहुँचने की खुशी ने उसकी पीड़ा को अच्छी तरह दबा दिया था। यद्यपि वे बसों और रेलगाड़ियों में चैन से यात्रा नहीं कर पा रहे थे--क्योंकि टिकट खरीदने के लिए उनके पास एक भी धेला नहीं था लेकिन हरिहर बड़ी चालांकी से कन्डक्टरों की आँखों में धूल ळाोंककर बाल-बाल बचता जा रहा था। अन्यथा, उनकी हुलिया ऐसी थी कि पकड़े जाने पर उनको हिंदुस्तानी घुसपैठिया समळा, न जाने कितनी बड़ी सज़ा भुगतनी पड़ती।<br />
<br />
आख़िरकार, वे अपनी सुरक्षित जान लेकर कोई दस बजे रात को अपने घर के सामने खड़े हुए। जब हरिहर जनेऊ से बँधी चाभी निकाल रहा था कि तभी कुछ पड़ोसी भी वहाँ आ गए। घर में घुसते ही हरिहर को गशी-सी आने लगी क्योंकि जाँघ में फ़ँसे कारतूस की कसक तेज होने लगी थी। वह वहीं जमीन पर चित धराशायी हो गया। राजू ने पड़ोसियों को बताया, "बाबूजी की जाँघ में कल रात से ही एक गोली फ़ँसी हुई है।"<br />
<br />
पड़ोस के वैद्य रामदीन ने जाँच के बाद बताया--"हरिहर के सारे बदन में गोली का ज़हर फैल चुका है। बचने की उम्मीद ना के बराबर है।" <br />
<br />
राजू को तो जैसे साँप सूंघ गया। पर, पड़ोसियों ने उसका पर्याप्त ढाँढस बँधाया और उसे बहला-फ़ुसलाकर किसी पड़ोस के घर में खींच ले गए ताकि वह कुछ देर तक आराम से सोकर अपनी थकान मिटा सके। <br />
रामदीन ने मददग़ार पड़ोसियों को अंतिम फ़ैसला सुनाया--"हरिहर का पैर तत्काल काटकर ही उसकी जान बचाई जा सकती है।"<br />
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कोई एक बजे रात को रामदीन के घर में उपलब्ध चिकित्सीय सुविधाओं की सहायता से हरिहर का एक पैर काट दिया गया। पड़ोसियों ने तन-मन-धन से उसकी मदद की। सुबह जब राजू को लाकर उसके बाप के सिरहाने बैठाया गया तो उसको इतना कुछ होने पर भी बड़े सुकून का अहसास हो रहा था जबकि हरिहर को अभी तक होश नहीं आया था। <br />
<br />
पड़ोस में हरिहर की वतन वापसी के चलते कई दिनों से बड़ी चहलपहल थी। उसका ज़ख़्म अभी तक हरा था। सभी हिंदू परिवार अपने-अपने इष्ट देवताओं से उसकी सलामती के लिए दुआएं मांग रहे थे। लिहाजा, राजू अपना वक़्त अपने उजड़े घर को ठीक-ठाक करने में लगा रहा था। उसने दीवारों पर कैलेंडर टांगे और बिखरे हुए सामानों को करीने से सजाया। कुछ इसी तरह से सुकून और चैन की तलाश चल रही थी कि एक दिन अचानक माहौल में सनसनी फ़ैल गई। चुनिंदा पुलिसवाले यह ऐलान करते हुए कि दो हिंदुस्तानी घुसपैठिए इस मोहल्ले में घुस आए हैं, लकड़बघ्घों की जैसी फ़ुर्ती से घर-घर की तलाशी लेने लगे। वैद्य रामदीन भाँप गया कि यह सब क़वायद हरिहर की धरपकड़ के लिए की जा रही है। इसलिए, उसने एहतियाती तौर पर हरिहर को एक तहखाने में डाल दिया लेकिन, राजू की ओर से बेफ़िक्र हो गया कि इस लड़के पर पुलिसवालों का क्या ध्यान जाएगा। मैं इसे अपना बेटा बताकर बचा लूँगा।<br />
<br />
आख़िरकार, पुलिसवालों ने रामदीन के घर की तलाशी शुरू कर दी। <br />
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इंस्पेक्टर रिज़वी ने अपना पूरा ध्यान राजू पर टिका दिया।<br />
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"ये लौंडा तुम्हारा है?"<br />
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"जी-जी...हाँ..."अब तक अविवाहित रहे अधेड़ रामदीन ने सकारात्मक में सिर हिलाया। दरअसल, उसने आजीवन अविवाहित रहने की क़सम इसलिए खा रखी थी क्योंकि उसे तो अपना सारा जीवन बीमारों की ख़िदमत में गुजारना था।<br />
<br />
"तुम्हारी बीवी नज़र नहीं आ रही है..." रिज़वी ने शक से उसे घूरकर देखा। <br />
रामदीन से कोई उत्तर नहीं बन सका।<br />
<br />
रिज़वी फिर गरजा--"मैं पूछता हूँ कि तुम्हारी बीवी कहाँ है?"<br />
<br />
वहाँ उपस्थित राजू ने पूरे भोलेपन से कहा--"चचा की शादी ही नहीं हुई है।"<br />
<br />
"तो क्या तूँ किसी रंडी का लौंडा है?" रिज़वी ने राजू की गरदन को अपनी मुट्ठी में जकड़ते हुए पूछा। वह घिघियाकर रह गया।<br />
जब रामदीन बदहवास-सा खड़ा कुछ भी नहीं बोल सका तो रिज़वी राजू को घसीटता हुआ बाहर गली में आ गया।<br />
<br />
"एक हरामज़ादा हिंदुस्तानी मिल गया। दूसरा भी यहीं कहीं छिपा होगा।" वह गली में गला फाड़कर चिल्ला रहा था।<br />
<br />
"तुम वतनफ़रोशों! कान खोलकर सुन लो, अगर कल सुभह तक तुमने दूसरे घुसपैठिए को हमें सुपुर्द नहीं किया तो तुमलोगों की ख़ैर नहीं।" <br />
<br />
रिज़वी दीवारों को धमकाते हुए राजू को उठा ले गया। किसी भी शख़्स की हिम्मत नहीं हुई कि वह घर से बाहर निकलकर रिज़वी के सामने विरोध-प्रदर्शन कर सके। राजू को बचाने के लिए कोई दलील दे सके या इंस्पेक्टर का किसी भी तरह से सामना कर सके। पड़ोसी तो समळा गए थे कि राजू का वही हश्र होगा, जो पहले मोहल्ले के कुछ जवान लड़कों का हो चुका है।<br />
<br />
हरिहर बाएं पैर को खोकर उतना बेसहारा नहीं हुआ था, जितना राजू को खोकर। इंस्पेक्टर रिज़वी ने इस बात से साफ़ मना कर दिया कि उसने राजू जैसे शख़्स को कभी हाथ भी लगाया हो। इसलिए यह बात साफ़ थी कि राजू उसकी यातनाओं की भेंट चढ़ चुका है। <br />
<br />
हरिहर के जीने की सारी आशाएं धूल-धूसरित हो चुकी थी। वह कई सालों तक थाने, कोतवाली, बड़े-बड़े आफ़िसों और मिनिस्ट्रियों के चक्कर लगा-लगाकर अपने बुढ़ापे को जार-जार करता रहा। ऊँचे ओहदों पर बैठे अफ़सरों और नेताओं के आगे घुटने टेकता रहा। पर, वही ढाक के तीन पात। राजू का कहीं अता-पता नहीं चला। <br />
<br />
हरिहर के ऊपर इतने सारे ज़ुल्म मुसलमान पैदा न होने की सज़ा के रूप में ढाए जा रहे थे। अंततोगत्वा, वह हार मानकर अपनी बाकी ज़िंदगी फुटपाथों के किनारे बूट-पालिश करते हुए बिताने लगा। जिस गुमटी में वह हिंदुस्तान जाने से पहले चाय-पान की दुकान लगाया करता था, वापसी के बाद तो उसका कहीं अवशेष तक नहीं मिला। इसके अलावा, उसने जब भी शहर के इर्दगिर्द कोई नया रोज़ग़ार शुरू करने की ज़ोख़िम उठाई, उस पर क़ौम के रखवालों ने हर बार पानी फेर दिया। मरता क्या न करता? सो, उसने ऐसा काम शुरू किया जिससे किसी को कोई एतराज़ नहीं होने वाला था।<br />
<br />
ऐसे ही सब कुछ लस्टम-पस्टम चल रहा था कि एक दिन उसके पैरों तले से जमीन खिसक गई जबकि उसके पड़ोसी उसके पास आए।<br />
<br />
रामदीन ने कहा--"भई! हम सभी चाहते हैं कि तुम भी हमारे साथ चलो..."<br />
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"कहाँ?" उसने अपने कान खड़े कर दिए।<br />
<br />
"वहीं से जहाँ से तुमको वापस आना पड़ा था।" <br />
<br />
रामदीन का प्रस्ताव सुनकर, बैसाख़ी पर खड़े हरिहर ने वहाँ मौज़ूद सभी की आँखों में बारी-बारी से ळााँका।<br />
रामदीन ने कहा--"तुम्हारा हिंदुस्तान जाने का ढंग सही नहीं था। हमलोग पूरे इंतज़ामात के साथ यहाँ से कूच कर रहे हैं। वहाँ हम मिलजुलकर कोई धंधा करेंगे, सुख-दुःख के संगी बनेंगे..."<br />
<br />
उनके प्रस्ताव पर लंगड़ा हरिहर आग-बगूला हो उठा।<br />
<br />
"अरे! तुमलोग अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जा रहे हो। हिंदुस्तान में तुम्हें कभी भी क़ुबूल नहीं किया जाएगा। वहाँ के नागरिक तुम्हें ळिाड़कियों से जार-जार कर देंगे। तुम चप्पा-चप्पा छान मारोगे, लेकिन तुम्हें कहीं कोई ठिकाना नहीं मिलेगा। गालियाँ सुन-सुनकर तुमलोग बहरे हो जाओगे। इस बात की गाँठ बाँध लो कि वहाँ तुम्हें रिफ़्यूज़ी कम, घुसपैठिया ज़्यादा <br />
समळाा जाएगा..."<br />
<br />
रामदीन ने कहा--"हरिहर! फ़िज़ूल की बातें मत करो। हम कल सुबह यहाँ से रवाना होंगे। अगर चलना है तो चलो, <br />
वर्ना..."<br />
<br />
उनके जाने के बाद भी हरिहर काफ़ी देर तक बड़बड़ाता रहा। वे समळा गए थे कि उनकी बातों का उस पर कोई असर नहीं होने वाला है। चुनांचे, रामदीन की पूरी इच्छा थी कि हरिहर उसके साथ हिंदुस्तान चले। आख़िर, वह इस मोहल्ले में अकेला हिंदू रह जाएगा और वह भी अपाहिज और बूढ़ा। इसलिए, दूसरे दिन सुबह जब मोहल्लेवाले समूह बनाकर हरिहर के घर के सामने से गुजर रहे थे तो रामदीन उसके दरवाजे पर दोबारा खड़ा हो गया। उस समय हरिहर अपनी बिल्ली को गोद में खिला रहा था। वह रामदीन को देख आपे से बाहर हो गया, "दूर के ढोल बड़े सुहावने लगते हैं। लौटके सारे बुद्धू यहीं आएंगे। मादरे वतन तुम्हें भी वापस बुला लेगी।"<br />
<br />
उसकी दो-टूक बातें सुनने के बाद, रामदीन से कुछ भी कहते नहीं बना। वह आगे बढ़ चुके पड़ोसियों के साथ जा मिला। पर, उनके जाने के बाद हरिहर फूट-फूटकर रोता रहा--"कम से कम उन्होंने जाते-जाते मुळासे दुआ-सलाम तो किया होता!"<br />
लिहाजा, वे कभी लौटकर नहीं आए। हरिहर बरसों उनकी राह ताकता रह गया। जबकि उसे पूरा विश्वास था कि उनमें से हरेक व्यक्ति हिंदुस्तानी महानगरों की फुटपाथों पर कीड़ों की तरह रेंग-रेंगकर अपने आख़िरी पल की प्रतीक्षा कर रहा होगा।<br />
<br />
मोहल्ले से कुत्तों के प्रवास के बाद वहाँ बसने वाले नागरिक पक्के वतनपरस्त थे। वे यदाकदा मज़लिस किया करते थे जिसमें यह मुद्दा अव्वल रहता था कि इस मोहल्ले को ग़ैर-मज़हबदारों से निज़ात दिलाया जाना चाहिए। एक दिन हरिहर के काम पर जाते ही वे उसके घर का ताला तोड़कर उसमें काबिज़ हो गए। उस शाम, हरिहर लौटकर नहीं आया। मालूम नहीं, वह कहाँ खप गया या खपा दिया गया? उसे शहर में भी कभी बूट-पालिश करते हुए नहीं देखा गया।<br />
अगले दिन, मोहल्लेवालों ने रिटायर्ड थानेदार रिज़वी की मौज़ूदगी में एक शानदार पार्टी दी।</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%87_%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%A8_%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A4%B8%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A5%87_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5980मादरे वतन वापसी के बाद / मनोज श्रीवास्तव2011-12-05T09:07:47Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
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वह मोहल्ला ऐसा था जो शहर से कोई चार किलो मीटर दूर होने के बावज़ूद हर तरह से तंगहाल था। बुनियादी जरूरतें भी मुहैया नहीं थीं। उल्टे, उसे अप्रत्याशित ख़तरों से निपटने के लिए, चाहे दिन हो या रात, मुस्तैद रहना पड़ता था। शहर रात को बिजली की रोशनी में नहाया रहता था और दिन में, पानी से आकंठ सिंचित रहता था। <br />
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लेकिन, इस हिंदू-बहुल मोहल्ले में लोगबाग़ रात को अंधेरों से और दिन में सूखे से जूळाने के आदी हो चुके थे।<br />
ऐसे ही मोहल्ले में सिर्फ़ एक आदम बसेरा था और वह भी इकलौते हिंदू का, जिसे यह मलाल था कि उसके पड़ोस के सभी हिंदू परिवार बाल-बच्चों समेत हिंदुस्तान कूच कर गए थे। उन्होंने जाते-जाते उससे लाख मिन्नतें की थी कि वह इन दरिंदों के बीच रहकर क्या करेगा। इन जिन्नातों ने तो उसके खेलते-खाते घर को तबाह कर डाला और उसे रोजी-रोटी तक के लिए मोहताज बना दिया।<br />
<br />
पर, उसने साफ़ मना कर दिया कि वह आइंदा मादरे वतन को कभी भी तौबा नहीं करेगा। <br />
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जब उनके जाने के बाद मोहल्ला खाली हो गया और अगल-बगल के घर वीरान हो गए तो आवारा कुत्तों को वहाँ अपना अड्डा बनाने का अच्छा मौका मिला। ऐसे में, कुत्ते ही उसके पड़ोसी बन गए। रात को जब वे आपस में भौंकने लगते तो उसे एहसास होता कि वह किसी आदम बस्ती में न रहकर एक बीहड़ जंगल में रह रहा है जहाँ हर कोने में आदमख़ोर लकड़बघ्घों का डेरा है। <br />
<br />
ऐसा नाख़ुशगवार माहौल कोई पाँच महीने तक बना रहा। उसे यह उम्मीद बिल्कुल नहीं थी कि उन घरों में कभी कोई आदम जात बसने की जुर्रत करेगा। पर, उसे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। एक सुबह काम पर जाते समय अचानक़ उसने देखा कि उसके आसपास के कोई सात-आठ मकानों में कुछ लोग सफ़ाई कर रहे हैं। शाम को दुकान से घर लौटते हुए उसने उन घरों में फ़िर अपनी खोजी नज़रें फेंकी। उसे बड़ी तसल्ली हुई कि उन घरों में कुछ लोग जम गए हैं। उसने पल भर को रुककर, बैसाखी पर अपनी दाढ़ टिकाते हुए सूखी मुस्कान के साथ आह भरी--"चलो, अब इंसानों के बीच रहेंगे, जानवरों के बीच नहीं।" <br />
<br />
वह बैसाखी को दरवाजे के किनारे टिकाते हुए कमरे में दाख़िल हुआ--दीवार को दोनों हाथों से थामे हुए। उसकी पालतू बिल्ली लपककर उसकी गोद में चिपक गई। वह गिरते-गिरते सम्हला। बिल्ली को कुत्तों का ख़ौफ़ कम सता रहा था, क्योंकि उसे यह एहसास हो गया था कि पड़ोस के कुत्ते कहीं और नीड़ की तलाश में या आवारा सड़कों पर चले गए होंगे। <br />
<br />
उसने लालटेन जलाई और बिल्ली को कुर्सी पर बैठाते हुए तिपाई के साथ लगी बेंच पर बैठ गया। वह आदतन कुछ देर तक सामने दीवार पर टंगे भारत के नक्शे को देखता रहा। उसने भारत के बाएं कंधे पर सवार पाकिस्तान के नक्शे पर मुँह बिचकाया। वह कुछ बड़बड़ाया। उसे एकबैक याद आया कि नक्शे को उसके बेटे राजू ने टांग रखा था। उसने पहली बार बड़े ध्यान से देखा कि दोनों देशों के बीच सीमा-रेखा को उसके बेटे ने खरोंचकर धूमिल-सा बना दिया है।<br />
<br />
राजू की याद ने उसके भीतर के सूखे ज़ख़्म को गहराई से कुरेंद दिया। पर, उसके मन में बरसों से दुःख का बर्फ़ीला पहाड़ अटा होने के बावज़ूद उसकी आंखों ने आँसू का एक भी कतरा बहाने से इनकार कर दिया। चाहकर भी न रो पाना उसकी सबसे बड़ी बेबसी थी...बेशक! शारीरिक अक्षमता थी...<br />
<br />
वह यानी हरिहर लालटेन लेकर कोठरी में आ गया। उसने चारपाई पर रखी राजू की तस्वीर को एक बार चूमा और वहीं लेट गया। लेकिन उसे यह बार-बार एहसास हो रहा था कि आज राजू के ख़्याल पर धूल की परत चढ़ती जा रही है और उसके सामने सुम्मी का चेहरा नाच रहा है। उसके चेहरे पर ळाुर्रियाँ रोने के अंदाज़ में फैल गईं--"उफ़्फ़! आज तो तुम्हारे शहादत का दिन है। जिन कमीनों ने तुमको मुळासे ज़ुदा किया, उनके वंश का नाश हो।" आँसुओं ने फिर उसका साथ देना गवारा नहीं किया।<br />
<br />
सुम्मी यानी सुमिता जिसे कोई पंद्रह साल पहले, मंदिर से लौटते समय आवाम के कुछ शुभचिंतकों ने आवाम को ग़ैर-मज़हबदारों से महफ़ूज़ बनाने के नाम पर उसकी अस्मत लूटी और फिर, हलाख कर दिया। गुस्से से उसका चेहरा तपने लगा। चींकट कान गर्म होकर खुजलाने लगे। उसने दंतहीन मुँह से अपने होठों को जोर से चबाया और मुट्ठी भीचकर चारपाई पर कई बार पटका। मुट्ठी की धमक से छत से कुछ धूल ळाड़कर उसकी आँखों में चली गई। वह आँख रगड़ते हुए बिलबिला उठा। मुँह में धूल की कड़वाहट ने उसकी भूख और बढ़ा दी।<br />
<br />
यह घटना सन 1975 की थी जबकि मोहल्ले में अमूमन तीस-पैंतीस हिंदू परिवार रह रहे थे। उसके साथ-साथ सुम्मी भी महाशिवरात्रि का व्रत थी। वह आसपास के जंगलों से शिवलिंग पर चढ़ाने के लिए धतूरे, बेलपत्र, भांगपत्र, बैर, फूल वगैरह इकट्ठे करने के बाद बाजार से धूप, अगरबत्ती, कपूर, जैसी चीजें भी खरीद लाया। मुल्ला दुकानदारों से पूजा के सामान आदि खरीदना बड़ी टेढ़ी खीर होती है। उसे उनको बार-बार सफाई देनी पड़ी कि घर की कच्ची दीवारों के अंदर मरे हुए चूहों की बास को कम करने के लिए इन चीजों का इस्तेमाल करना पड़ता है। पर, उन्हें एक हिंदू की जुबान पर कहाँ यकीन होने वाला था। ख़ैर, दिन के कोई दस बजे, वे घर में स्थापित उस काँसे के शिवलिंग की विधिवत पूजा करने के बाद, जिसे कभी उसके पुरखों द्वारा दिल्ली के चाँदनी चौक से खरीदा गया था, नवाबगंज स्थित शिवाले पर जाने का मूड बनाने लगे। कोई आधे घंटे बाद, वे मच्छरदानी में सोते बच्चे के मुँह में दूध की बोतल डालकर बेफ़िक्र हो गए कि वह कम से कम एक घंटे तक तो सोता रहेगा ही जबकि इस बीच वे शिवजी का दर्शन भी करते आएंगे। <br />
<br />
वे गली-कूचों से पगडंडियों के रास्ते शिवालय की ओर चल पड़े। दोनों ने रास्ते में ही तय कर लिया कि उनमें से कौन सबसे पहले शिवजी को अर्ध्य चढ़ाने जाएगा।<br />
<br />
शिवालय की सीढ़ियों पर दस्तक देने से पहले ही वे ठिठक गए। दरमियाने डील-डौल वाले अक्खड़ किस्म के चुनिंदा दढ़ियल नौजवान वहाँ कुछ इस अंदाज़ में चहकदमी कर रहे थे, जैसेकि वे पहरेदारी कर रहे हों। चुनांचे, वे उन्हें देखकर किसी पतली गली की आड़ में छुप गए या कहीं चले गए। ऐसे में, हरिहर और सुम्मी को शिवजी की निर्विघ्न पूजा करने का अच्छा मौका मिला। उन्हें वहाँ छाई घुप्प ख़ामोशी पर कोई ख़ास ताज़्ज़ुब नहीं हो रहा था क्योंकि वे पहले भी यहाँ आ चुके थे। <br />
जैसाकि उनके बीच तय हो चुका था, पहले सुम्मी शिवालय के अंदर गई और हरिहर बाहर उसकी प्रतीक्षा करता रहा। चार-पाँच मिनट नहीं, पूरे दस मिनट के बाद जब वह बाहर आई तो हरिहर की बेचैनी दूर हुई। उसने आँखों ही आँखों में सुम्मी से शिकायत की--'आख़िर, इतनी देर क्यों लगा दी? मेरी तो जान ही निकल गई थी।' सुम्मी ने मुस्कराकर उसके हाथों में पूजावाली डलिया थमाई और गली के सुन्नसान नुक्कड़ पर जाकर खड़ी हो गई। हरिहर तेजी से अंदर गया और पूजा से यथाशीघ्र निपटकर बाहर आया। पर, उसे नुक्कड़ पर सुम्मी को न देखकर कोई ज़्यादा हड़बड़ी नहीं हुई। उसने सोचा कि वह शायद, चहलकदमी करते हुए घर की ओर रवाना हो चुकी होगी और रास्ते पर खड़े होते ही वह सामने नज़र आ जाएगी। <br />
वह बिल्ली जैसी चपलता से उछलता हुआ रास्ते पर आया। लेकिन, दूर-दूर तक सुम्मी नज़र नहीं आई। आखिर, किस रफ़्तार से सुम्मी गई होगी और वह भी बिना बताए, हरिहर को तो शिवालय में पूजा से निपटने में कोई दो-तीन मिनट से ज़्यादा नही लगे होंगे। <br />
<br />
उसकी साँस अटक-सी गई। उसका दिल घबराहट से धड़क रहा था; लेकिन, उसका मन कह रहा था कि सुम्मी के साथ कोई अनिष्ट नहीं हो सकता। वह शिवालय को जोड़ने वाली दूसरी तीनों गलियों में बारी-बारी से लपक-लपककर भागता रहा। उसे वे नौजवान भी कहीं नज़र नहीं आए जो उसे शिवालय पर दिखाई दिए थे। फिर, आधे घंटे बाद वह वापस शिवालय के सामने आकर खड़ा हो गया। कुछ पल प्रतीक्षा करता रहा कि संभवतः सुम्मी वापस आ ही जाएगी। <br />
<br />
पर, ऐसा नहीं होना था। हरिहर रुआँसा हो गया। तभी, उसे अचानक कुछ सूळाा और वह सुम्मी-सुम्मी पुकारता हुआ घर की ओर चल पड़ा--लगभग भागते हुए। उसे लग रहा था कि शायद, सुम्मी घर में मौज़ूद होगी। <br />
<br />
पर, घर में तो उसका नामो-निशान तक नहीं था। अलबत्ता राजू अभी भी मच्छरदानी में सो रहा था। उसने अफ़रातफ़री में अपने तीन-वर्षीय बेटे को गोद में उठाया और हिम्मत बटोरकर थाने की ओर चल पड़ा। <br />
<br />
वहाँ लाख मिन्नतें करने, दाढ़ी छूने और घिघियाने और टुच्चे पुलिसवालों की ळिाड़कियाँ सुनने के बाद उसकी पत्नी की ग़ुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज़ हुई। <br />
<br />
रात के साढ़े नौ बजे चुके थे। उसकी आँखें सूजकर लाल हो गई थीं। पड़ोसी उसे तसल्ली देकर जा चुके थे। बीवी के ग़ुम हो जाने के बाद अभी उसे उम्मीद थी कि वह जहाँ भी होगी महफ़ूज़ होगी और ज़ल्दी ही वापस आ जाएगी। वह बस! ज़िंदा हो, भले ही उसकी आबरू लुट चुकी हो। उसे सरेआम बेइज़्ज़त किया जा चुका हो। वह उससे कोई शिकायत नहीं करेगा। वह उसे किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता है। <br />
<br />
वह उसके साथ मुहब्बत में गुजारे बेशक़ीमती लमहे याद करते हुए बच्चे को तीसरी बार दूध में वैद्य रामदीन द्वारा दी गई दवा घोलकर पिला रहा था। उसे पिछली रात से ही बुखार आ रहा था और इसी वज़ह से वह दवा के नशे में लस्त पड़ा बेख़बर सो रहा था। एक-दो बार वह अम्मा-अम्मा पुकारकर उसकी थपकियों से आसानी से काबू में आ गया था। वर्ना, अम्मा की ग़ैर-मौज़ूदगी में...<br />
<br />
तभी वह कोई आहट सुनकर दरवाज़े पर आ गया। उसने लालटेन की रोशनी तेज की। एक पुलिसवाले को खड़ा देख राहत की साँस ली--'जरूर उसकी सुम्मी के बारे में अच्छी ख़बर लाया होगा।' उसने आँख मीचकर भगवान शिव का ध्यान किया।<br />
पुलिसवाले ने अकड़बाज़ लहजे में सवाल किया--"क्या तूने ही सुभह थाने में बीवी की ग़ुमशुदगी की रपट लिखवाई थी?"<br />
"हाँ, म...म...मैंने ही..." वह हकलाकर रह गया।<br />
<br />
"तेरी बीवी की लाश को सदर थाने में पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया है। तूँ अलसुभह सात बजे थाने आकर उसकी लाश ले जाना..." पुलिसवाला नफ़रत से थूकते हुए तेज कदमों से लौट गया।<br />
<br />
उसने जाते-जाते इस बात की भी परवाह नहीं की कि उसकी ख़बर सुनने के बाद हरिहर गश खाकर जमीन पर धड़ाम से गिर पड़ा है। उसे कई घंटों बाद होश तब आया जबकि राजू का रोना-बिलखना उसके कानों को बुरी तरह भेदने लगा। <br />
<br />
उस वक़्त रात के दो बजे हुए थे। हरिहर एक बार शिव की मूर्ति के सामने खड़ा होकर भगवान से कुछ शिकायत करने वाला था। लेकिन तभी वह बच्चे की 'अम्मा-अम्मा' की पुकार सुनकर विचलित हो गया। उसने बच्चे को थपकी देकर सुलाते हुए चारपाई पर लिटाया और एक निर्णायक मूड में कुछ कपड़े और दूसरे सामान वग़ैरह एक बक्से में रखने लगा। उसे नींद नहीं आई। थाने में उसकी जवान बीवी की लाश रखी पड़ी हो और वह सोने का ख़याल ला सके। कैसे मुमकिन हो सकता है?<br />
सुबह थाने पहुँचने के बाद उसका दिमाग़ थानेदार की फ़ाइनल जाँच रिपोर्ट सुनकर दंग रह गया।<br />
<br />
"तेरी बीवी ने शिवालय के पीछे वाले कुएं में कूदकर ख़ुदकुशी की थी--उसकी लाश वहीं से बरामद हुई है," थानेदार ने उसे पोस्टमार्टम रिपोर्ट दिखाते हुए कहा।<br />
<br />
"लेकिन, उसे तो ऐसा कोई ग़म नहीं था..." हरिहर का चेहरा उस ळाूठ रिपोर्ट से लाल हो गया। वह गोद में बच्चे को सम्हालते हुए वहाँ जमीन पर उस मुड़ी-तुड़ी गठरी को देखकर रुआँसा हो उठा जिसमें सुम्मी की मुड़ी-तुड़ी लाश पड़ी थी।<br />
थानेदार उसकी प्रतिक्रिया से उबल उठा, "हरामज़ादे! तेरी बेवफ़ाई और टार्चर से ऊबकर ही उसने..."<br />
<br />
"लेकिन, हमदोनों में इतना मुहब्बत था कि कोई भी कभी ऊँची आवाज़ में बात तक नहीं करता था। उसे टार्चर करने का तो सवाल ही नहीं उठता।" बेशक, हरिहर की दलील उसे कतई पसंद नहीं आई।<br />
<br />
थानेदार रिज़वी ग़ुस्से में काफ़ूर होकर और कुर्सी को धड़ाम से पीछे धकेलते हुए चींख उठा, "तेरा कहने का मतलब क्या है? तूँ यहाँ दस्तख़त कर और लाश लेकर चलता बन, वर्ना..." वह लाश पर पैर से ठोकर मारते हुए आपे से बाहर हो रहा था।<br />
हरिहर का जी कर रहा था कि वह अपनी सुरक्षा के लिए अंदर करधनी से लटकती करौली निकालकर उस राक्षस के सीने में घुसेड़ दे। पर, वह सब्र का ज़हर पीकर लाश के साथ वापस घर लौट आया। उसने ख़ुद लाश को खोलकर अपनी पत्नी के ज़िस्म को उलटा-पलटा और उसकी बख़ूबी निग़रानी की। योनिमार्ग से लगातार ख़ून बह रहा था, गरदन की हड्डी टूटी हुई थी और कुएं में गिरने से उसके बदन पर जिस तरह की चोटें आनी चाहिए थी, वैसा कोई निशान मौज़ूद नहीं था। इसलिए, इस सच को सबूत की ज़रूरत नहीं थी कि सुम्मी का सामूहिक बलात्कार करने के बाद उसकी बेरहमी से गला घोंटकर हत्या की गई थी।<br />
<br />
शाम से पहले वह सुम्मी का अंतिम संस्कार करके निपट चुका था। तत्पश्चात, उसने घर पर आए अपने पड़ोसियों को अपना इरादा बताया, "मैंने इस मुल्क को आज और अभी छोड़ने का मन बना लिया है। मैं हिंदुस्तान जा रहा हूँ।"<br />
<br />
पड़ोसियों ने उसे लाख समळााया-बुळााया कि जिस मादरे वतन की माटी में उसकी जान यानी सुम्मी का अंश मिला हुआ है, उसे छोड़कर वह सुकून से नहीं रह पाएगा। लेकिन, वह अपने फ़ैसले पर अडिग था।<br />
<br />
हरिहर ने वतन से तौबा कर लिया था। उसको अपने बच्चे के साथ दिल्ली में पनाह लिए हुए कई साल बीत चुके थे। वह कम से कम दर्जनभर ळाुग्गी बस्तियों में रहने के लिए असफ़ल जुगाड़ बैठाकर उकता चुका था। पर, हर बस्ती में उसे शरणार्थी, रिफ़्यूज़ी, टेररिस्ट आदि का बदनाम तग़मा ओढ़कर निकलने पर मज़बूर होना पड़ता था। जब वह फुटपाथों या रेलवे प्लेटफार्मों की शरण में जाता तो पुलिस की ज़्यादतियाँ उसका स्थायी तौर पर हिंदुस्तान में बसने का मनोबल तोड़ देती। वे उससे भारतीय नागरिक होने का सर्टीफ़ीकेट मांगते, फिर उसके साथ पुलिसयाना बर्ताव करने लगते। पर, वह तो चोरमार्गों से भारत आया था, दोनों देशों की सरकारों की सहमति से नहीं। इस भावना के साथ आया था कि वह जाति से हिंदू और वह भी ब्राह्मण होने के नाते हिंदुस्तान में न केवल सुरक्षित नीड़ तलाश कर पाएगा बल्कि हिंदुस्तानियों के साथ अच्छी तरह खिल्थ-मिल्थ होकर उनकी हमदर्दी भी बटोर सकेगा। दूसरे, वहाँ तो भूख से जूळाने के साथ-साथ मौत के ख़ौफ़ से भी हर पल लड़ना पड़ता था। कम से कम हिंदुस्तान में मौत का डर तो उतना नहीं है। बस, आए दिन उसे पुलिस से दो-चार होना पड़ता है--ख़ामोशी के साथ उनकी भद्दी-भद्दी गालियाँ सुनते हुए और लात-डंडे खाते हुए। लिहाजा, पेट तो देर-सबेर भर ही जाता है। <br />
<br />
उसे कई बार कुछ नेता चुनावों के दरमियान किसी ळाुग्गी बस्ती में रहने का ठिकाना इस वादे के साथ दे जाते कि जब वह चुनाव जीत जाएगा तो वह उसे बाक़ायदा यहाँ की नागरिकता दिला देगा। कुछ ऐसी ही उम्मीद में उसने कितने ही साल यहाँ गुजार दिए। पर, उसने अपनी हिम्मत को कभी टूटने नहीं दिया। वह कई बार दिल्ली स्थित हिंदू संगठनों के पास भी गया और अपना दुखड़ा सुनाया। वहाँ उस जैसे हिंदुओं पर ढाए जा रहे ज़ुल्मों का हृदयविदारक रोना रोया। फिर, अपनी जाति बताई और गोत्र भी। अपने उन ख़ानदानी पुरखों के नाम गिनाए जो अयोध्या और काशी जैसे नगरों के सम्मानित नागरिक थे। वह बस्तियों में गया और बुज़ुर्ग नागरिकों से फ़रियाद की कि मैं और मेरा बेटा हिंदू होने के नाते हिंदुस्तान में ही बसना चाहते हंैं। पर, किसी पर भी उनकी बात का यक़ीन नहीं होता! कोई उनका साथ देने को तैयार नहीं हुआ। उल्टे, कुछ लोग तो दोनों को घुसपैठिया समळा, उन्हें फ़ौरी तौर पर पुलिस को सौंपने पर भी आमादा हो गए। लेकिन, समय रहते वे उनका इरादा भाँपकर भाग निकले वर्ना...<br />
<br />
हरिहर थक चुका था। उसके साथ उसकी बदक़िस्मती का हमसफ़र--राजू, यानी उसका बेटा अब बड़ा हो रहा था और उसकी बातों में सयानापन ज़ाहिर होने लगा था। उसे सारी बातें समळा में आने लगी थीं। कुछ दिनों से वह उसे बार-बार एक ही सबक देने लगा था कि--'बाबू! इससे अच्छा तो अपना ही देस है जहाँ अम्मा की रूह बसी हुई है।' फिर, वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगता--"बाबूजी! हमें इस देस में अब तक क्या मिला है? यहाँ भी लात खा रहे हैं, वहाँ भी लात ही खाएंगे। सो, अच्छा होगा कि हम फिर अपने वतन लौट चलें..."<br />
<br />
हरिहर के कानों में भी खुजुली होने लगी--'राजू क्या ग़लत कह रहा है? यहाँ तो अपना कोई मुस्तकिल ठौर भी नहीं है। वहाँ तो अपना घर है, अपनी जान-पहचान के लोग भी हैं। वहाँ जाकर फिर से अपना धंधा करेंगे और पेट पालेंगे।' <br />
लेकिन, सीमा पार जाने के ख़याल-भर से उसका बदन थर-थर काँपने लगता।<br />
<br />
परंतु, एक घटना ने उसके डर को काफ़ूर कर दिया। एक ठिठुरती रात को कुछ वहशी पुलिसवालों ने उन दोनों को दिल्ली रेलवे स्टेशन के पेशाबखाने के एक कोने में उस समय जमकर धुनाई की जबकि वे घातक ठंड को धता बता, सो रहे थे। वे दोनों दर्द से बिलबिलाते हुए अपनी कथरी छोड़ प्लेटफ़ार्म से बाहर की ओर भागे। हरिहर तो इतने समय से पुलिस की मार बर्दाश्त करने का दमख़म विकसित भी कर चुका था। पर, राजू का पहली बार पुलिस के डंडों से वास्ता पड़ा था। वह दहाड़ें मार-मारकर रोता हुआ भाग रहा था। जब वे किसी तरह भागते हुए पुलिसवालों की पहुँच से दूर निकल आए तो एक बस स्टैंड की बेंच पर बैठते हुए हरिहर फ़फ़क उठा--"हिंदुस्तान के बारे में मैंने ग़लतफ़हमी पाल रखी थी कि यहाँ चैन होगा और सुकून मिलेगा। पर, अब मेरा मोहभंग हो चुका है। यहाँ तो भूख है, यातना है, परायापन है। इससे खराब जमीन कहाँ की होगी? अब, यहाँ और रहना बर्दाश्त नहीं हो पा रहा है..."<br />
<br />
उसने अपने पैरों की चोट सहलाते हुए राजू को खींचकर उठाया। वापस वतन जाने के इरादे ने रोते-बिलखते राजू में भी बेहद जोश पैदा कर दिया। वह पिटाई का दर्द भूलकर उठ खड़ा हुआ--"बाबूजी! हमें सच्चा सुकून वहीं मिलेगा जहाँ मेरी अम्मा की आत्मा मुळो दुलराने के लिए इधर-उधर बेताब-सी मँडरा रही है।"<br />
<br />
कोई महीने भर की जी-तोड़ मशक्कत करने और तरक़ीब तलाशने के बाद एक रात वे लुक-छिपकर अपने वतन की सरहद में प्रवेश कर ही गए। अपने वतन की जमीन पर चलते हुए उन्हें बड़ा सुकून मिल रहा था। लिहाजा, वे तेज कदमों से बढ़ रहे थे कि तभी उन्हें अहसास हुआ कि उनका पीछा किया जा रहा है। इस पर, वे कोई दस मिनट तक ळााड़ियों में दुबके रहे। उसके बाद जब वे उठे तो बेतहाशा भागते हुए। जब उन्हें लगा कि वे मीलों पीछे सरहद को छोड़ चुके हैं और बस्तियों में प्रवेश कर चुके हैं तब उन्होंने अपने पैरों को राहत दी। <br />
<br />
पर, उन्हें क्या पता कि उनका पीछा किया जा रहा है? अभी वे एक पेड़ की आड़ में अपनी हँफ़ाई पर काबू पाने की कोशिश कर ही रहे थे कि तभी एक सनसनाता कारतूस हरिहर के बाएँ पैर की जाँघ में आकर फ़ँस गया। वह इतनी जोर से चींखा कि आसपास के घोसलों में सोते परिंदे भी जागकर बेचैनी से चहचहाने लगे। हरिहर वहीं राजू के सीने पर अपना सिर रखकर उसे आँसुओं से भिंगोते हुए कराहने लगा।<br />
<br />
राजू ने सोचा कि अगर वह कमजोर पड़ गया तो उसके बाप का मनोबल टूट गया। उसने उसके हौसले को बुलंद किया--"बाबूजी! कुछ नहीं हुआ है। घर पहुँचकर सब ठीक हो जाएगा।"<br />
<br />
जैसे-तैसे ळााड़ियों में रात गुजारने के बाद जब सुबह हुई तो हरिहर ने कहा--"बेटे! ऐसा करो कि आज शाम तक हम अपने घर में दाख़िल हो जाएं!" फिर उसने अंगोछे से अपनी जाँघ के ज़ख़्म को कसकर बाँधा और राजू के कंधे का सहारा छोड़कर अपने पैरों पर ऐसे खड़ा हो गया जैसेकि जाँघ में गोली लगने की बात तो ळाूठी थी। असल बात यह है कि वे अब अपने देश वापस आ चुके हैं और ऐसी खुशी हर ग़म को दबा देती है।<br />
<br />
राजू ने देखा कि उसका जाँबाज़ बाप अपनी जाँघ में गोली की टीस को दबाए हुए कितने जोश-ख़रोश से घर पहुँचने के लिए बेताब है। वतन पहुँचने की खुशी ने उसकी पीड़ा को अच्छी तरह दबा दिया था। यद्यपि वे बसों और रेलगाड़ियों में चैन से यात्रा नहीं कर पा रहे थे--क्योंकि टिकट खरीदने के लिए उनके पास एक भी धेला नहीं था लेकिन हरिहर बड़ी चालांकी से कन्डक्टरों की आँखों में धूल ळाोंककर बाल-बाल बचता जा रहा था। अन्यथा, उनकी हुलिया ऐसी थी कि पकड़े जाने पर उनको हिंदुस्तानी घुसपैठिया समळा, न जाने कितनी बड़ी सज़ा भुगतनी पड़ती।<br />
<br />
आख़िरकार, वे अपनी सुरक्षित जान लेकर कोई दस बजे रात को अपने घर के सामने खड़े हुए। जब हरिहर जनेऊ से बँधी चाभी निकाल रहा था कि तभी कुछ पड़ोसी भी वहाँ आ गए। घर में घुसते ही हरिहर को गशी-सी आने लगी क्योंकि जाँघ में फ़ँसे कारतूस की कसक तेज होने लगी थी। वह वहीं जमीन पर चित धराशायी हो गया। राजू ने पड़ोसियों को बताया, "बाबूजी की जाँघ में कल रात से ही एक गोली फ़ँसी हुई है।"<br />
<br />
पड़ोस के वैद्य रामदीन ने जाँच के बाद बताया--"हरिहर के सारे बदन में गोली का ज़हर फैल चुका है। बचने की उम्मीद ना के बराबर है।" <br />
<br />
राजू को तो जैसे साँप सूंघ गया। पर, पड़ोसियों ने उसका पर्याप्त ढाँढस बँधाया और उसे बहला-फ़ुसलाकर किसी पड़ोस के घर में खींच ले गए ताकि वह कुछ देर तक आराम से सोकर अपनी थकान मिटा सके। <br />
रामदीन ने मददग़ार पड़ोसियों को अंतिम फ़ैसला सुनाया--"हरिहर का पैर तत्काल काटकर ही उसकी जान बचाई जा सकती है।"<br />
<br />
कोई एक बजे रात को रामदीन के घर में उपलब्ध चिकित्सीय सुविधाओं की सहायता से हरिहर का एक पैर काट दिया गया। पड़ोसियों ने तन-मन-धन से उसकी मदद की। सुबह जब राजू को लाकर उसके बाप के सिरहाने बैठाया गया तो उसको इतना कुछ होने पर भी बड़े सुकून का अहसास हो रहा था जबकि हरिहर को अभी तक होश नहीं आया था। <br />
<br />
पड़ोस में हरिहर की वतन वापसी के चलते कई दिनों से बड़ी चहलपहल थी। उसका ज़ख़्म अभी तक हरा था। सभी हिंदू परिवार अपने-अपने इष्ट देवताओं से उसकी सलामती के लिए दुआएं मांग रहे थे। लिहाजा, राजू अपना वक़्त अपने उजड़े घर को ठीक-ठाक करने में लगा रहा था। उसने दीवारों पर कैलेंडर टांगे और बिखरे हुए सामानों को करीने से सजाया। कुछ इसी तरह से सुकून और चैन की तलाश चल रही थी कि एक दिन अचानक माहौल में सनसनी फ़ैल गई। चुनिंदा पुलिसवाले यह ऐलान करते हुए कि दो हिंदुस्तानी घुसपैठिए इस मोहल्ले में घुस आए हैं, लकड़बघ्घों की जैसी फ़ुर्ती से घर-घर की तलाशी लेने लगे। वैद्य रामदीन भाँप गया कि यह सब क़वायद हरिहर की धरपकड़ के लिए की जा रही है। इसलिए, उसने एहतियाती तौर पर हरिहर को एक तहखाने में डाल दिया लेकिन, राजू की ओर से बेफ़िक्र हो गया कि इस लड़के पर पुलिसवालों का क्या ध्यान जाएगा। मैं इसे अपना बेटा बताकर बचा लूँगा।<br />
<br />
आख़िरकार, पुलिसवालों ने रामदीन के घर की तलाशी शुरू कर दी। <br />
<br />
इंस्पेक्टर रिज़वी ने अपना पूरा ध्यान राजू पर टिका दिया।<br />
<br />
"ये लौंडा तुम्हारा है?"<br />
<br />
"जी-जी...हाँ..."अब तक अविवाहित रहे अधेड़ रामदीन ने सकारात्मक में सिर हिलाया। दरअसल, उसने आजीवन अविवाहित रहने की क़सम इसलिए खा रखी थी क्योंकि उसे तो अपना सारा जीवन बीमारों की ख़िदमत में गुजारना था।<br />
<br />
"तुम्हारी बीवी नज़र नहीं आ रही है..." रिज़वी ने शक से उसे घूरकर देखा। <br />
रामदीन से कोई उत्तर नहीं बन सका।<br />
<br />
रिज़वी फिर गरजा--"मैं पूछता हूँ कि तुम्हारी बीवी कहाँ है?"<br />
<br />
वहाँ उपस्थित राजू ने पूरे भोलेपन से कहा--"चचा की शादी ही नहीं हुई है।"<br />
<br />
"तो क्या तूँ किसी रंडी का लौंडा है?" रिज़वी ने राजू की गरदन को अपनी मुट्ठी में जकड़ते हुए पूछा। वह घिघियाकर रह गया।<br />
जब रामदीन बदहवास-सा खड़ा कुछ भी नहीं बोल सका तो रिज़वी राजू को घसीटता हुआ बाहर गली में आ गया।<br />
<br />
"एक हरामज़ादा हिंदुस्तानी मिल गया। दूसरा भी यहीं कहीं छिपा होगा।" वह गली में गला फाड़कर चिल्ला रहा था।<br />
<br />
"तुम वतनफ़रोशों! कान खोलकर सुन लो, अगर कल सुभह तक तुमने दूसरे घुसपैठिए को हमें सुपुर्द नहीं किया तो तुमलोगों की ख़ैर नहीं।" <br />
<br />
रिज़वी दीवारों को धमकाते हुए राजू को उठा ले गया। किसी भी शख़्स की हिम्मत नहीं हुई कि वह घर से बाहर निकलकर रिज़वी के सामने विरोध-प्रदर्शन कर सके। राजू को बचाने के लिए कोई दलील दे सके या इंस्पेक्टर का किसी भी तरह से सामना कर सके। पड़ोसी तो समळा गए थे कि राजू का वही हश्र होगा, जो पहले मोहल्ले के कुछ जवान लड़कों का हो चुका है।<br />
<br />
हरिहर बाएं पैर को खोकर उतना बेसहारा नहीं हुआ था, जितना राजू को खोकर। इंस्पेक्टर रिज़वी ने इस बात से साफ़ मना कर दिया कि उसने राजू जैसे शख़्स को कभी हाथ भी लगाया हो। इसलिए यह बात साफ़ थी कि राजू उसकी यातनाओं की भेंट चढ़ चुका है। <br />
<br />
हरिहर के जीने की सारी आशाएं धूल-धूसरित हो चुकी थी। वह कई सालों तक थाने, कोतवाली, बड़े-बड़े आफ़िसों और मिनिस्ट्रियों के चक्कर लगा-लगाकर अपने बुढ़ापे को जार-जार करता रहा। ऊँचे ओहदों पर बैठे अफ़सरों और नेताओं के आगे घुटने टेकता रहा। पर, वही ढाक के तीन पात। राजू का कहीं अता-पता नहीं चला। <br />
<br />
हरिहर के ऊपर इतने सारे ज़ुल्म मुसलमान पैदा न होने की सज़ा के रूप में ढाए जा रहे थे। अंततोगत्वा, वह हार मानकर अपनी बाकी ज़िंदगी फुटपाथों के किनारे बूट-पालिश करते हुए बिताने लगा। जिस गुमटी में वह हिंदुस्तान जाने से पहले चाय-पान की दुकान लगाया करता था, वापसी के बाद तो उसका कहीं अवशेष तक नहीं मिला। इसके अलावा, उसने जब भी शहर के इर्दगिर्द कोई नया रोज़ग़ार शुरू करने की ज़ोख़िम उठाई, उस पर क़ौम के रखवालों ने हर बार पानी फेर दिया। मरता क्या न करता? सो, उसने ऐसा काम शुरू किया जिससे किसी को कोई एतराज़ नहीं होने वाला था।<br />
<br />
ऐसे ही सब कुछ लस्टम-पस्टम चल रहा था कि एक दिन उसके पैरों तले से जमीन खिसक गई जबकि उसके पड़ोसी उसके पास आए।<br />
<br />
रामदीन ने कहा--"भई! हम सभी चाहते हैं कि तुम भी हमारे साथ चलो..."<br />
<br />
"कहाँ?" उसने अपने कान खड़े कर दिए।<br />
<br />
"वहीं से जहाँ से तुमको वापस आना पड़ा था।" <br />
<br />
रामदीन का प्रस्ताव सुनकर, बैसाख़ी पर खड़े हरिहर ने वहाँ मौज़ूद सभी की आँखों में बारी-बारी से ळााँका।<br />
रामदीन ने कहा--"तुम्हारा हिंदुस्तान जाने का ढंग सही नहीं था। हमलोग पूरे इंतज़ामात के साथ यहाँ से कूच कर रहे हैं। वहाँ हम मिलजुलकर कोई धंधा करेंगे, सुख-दुःख के संगी बनेंगे..."<br />
<br />
उनके प्रस्ताव पर लंगड़ा हरिहर आग-बगूला हो उठा।<br />
<br />
"अरे! तुमलोग अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जा रहे हो। हिंदुस्तान में तुम्हें कभी भी क़ुबूल नहीं किया जाएगा। वहाँ के नागरिक तुम्हें ळिाड़कियों से जार-जार कर देंगे। तुम चप्पा-चप्पा छान मारोगे, लेकिन तुम्हें कहीं कोई ठिकाना नहीं मिलेगा। गालियाँ सुन-सुनकर तुमलोग बहरे हो जाओगे। इस बात की गाँठ बाँध लो कि वहाँ तुम्हें रिफ़्यूज़ी कम, घुसपैठिया ज़्यादा <br />
समळाा जाएगा..."<br />
<br />
रामदीन ने कहा--"हरिहर! फ़िज़ूल की बातें मत करो। हम कल सुबह यहाँ से रवाना होंगे। अगर चलना है तो चलो, <br />
वर्ना..."<br />
<br />
उनके जाने के बाद भी हरिहर काफ़ी देर तक बड़बड़ाता रहा। वे समळा गए थे कि उनकी बातों का उस पर कोई असर नहीं होने वाला है। चुनांचे, रामदीन की पूरी इच्छा थी कि हरिहर उसके साथ हिंदुस्तान चले। आख़िर, वह इस मोहल्ले में अकेला हिंदू रह जाएगा और वह भी अपाहिज और बूढ़ा। इसलिए, दूसरे दिन सुबह जब मोहल्लेवाले समूह बनाकर हरिहर के घर के सामने से गुजर रहे थे तो रामदीन उसके दरवाजे पर दोबारा खड़ा हो गया। उस समय हरिहर अपनी बिल्ली को गोद में खिला रहा था। वह रामदीन को देख आपे से बाहर हो गया, "दूर के ढोल बड़े सुहावने लगते हैं। लौटके सारे बुद्धू यहीं आएंगे। मादरे वतन तुम्हें भी वापस बुला लेगी।"<br />
<br />
उसकी दो-टूक बातें सुनने के बाद, रामदीन से कुछ भी कहते नहीं बना। वह आगे बढ़ चुके पड़ोसियों के साथ जा मिला। पर, उनके जाने के बाद हरिहर फूट-फूटकर रोता रहा--"कम से कम उन्होंने जाते-जाते मुळासे दुआ-सलाम तो किया होता!"<br />
लिहाजा, वे कभी लौटकर नहीं आए। हरिहर बरसों उनकी राह ताकता रह गया। जबकि उसे पूरा विश्वास था कि उनमें से हरेक व्यक्ति हिंदुस्तानी महानगरों की फुटपाथों पर कीड़ों की तरह रेंग-रेंगकर अपने आख़िरी पल की प्रतीक्षा कर रहा होगा।<br />
<br />
मोहल्ले से कुत्तों के प्रवास के बाद वहाँ बसने वाले नागरिक पक्के वतनपरस्त थे। वे यदाकदा मज़लिस किया करते थे जिसमें यह मुद्दा अव्वल रहता था कि इस मोहल्ले को ग़ैर-मज़हबदारों से निज़ात दिलाया जाना चाहिए। एक दिन हरिहर के काम पर जाते ही वे उसके घर का ताला तोड़कर उसमें काबिज़ हो गए। उस शाम, हरिहर लौटकर नहीं आया। मालूम नहीं, वह कहाँ खप गया या खपा दिया गया? उसे शहर में भी कभी बूट-पालिश करते हुए नहीं देखा गया।<br />
अगले दिन, मोहल्लेवालों ने रिटायर्ड थानेदार रिज़वी की मौज़ूदगी में एक शानदार पार्टी दी।</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%87_%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%A8_%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A4%B8%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A5%87_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5979मादरे वतन वापसी के बाद / मनोज श्रीवास्तव2011-12-05T09:07:07Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div> '''मादरे वतन वापसी के बाद''' <br />
वह मोहल्ला ऐसा था जो शहर से कोई चार किलो मीटर दूर होने के बावज़ूद हर तरह से तंगहाल था। बुनियादी जरूरतें भी मुहैया नहीं थीं। उल्टे, उसे अप्रत्याशित ख़तरों से निपटने के लिए, चाहे दिन हो या रात, मुस्तैद रहना पड़ता था। शहर रात को बिजली की रोशनी में नहाया रहता था और दिन में, पानी से आकंठ सिंचित रहता था। <br />
<br />
लेकिन, इस हिंदू-बहुल मोहल्ले में लोगबाग़ रात को अंधेरों से और दिन में सूखे से जूळाने के आदी हो चुके थे।<br />
ऐसे ही मोहल्ले में सिर्फ़ एक आदम बसेरा था और वह भी इकलौते हिंदू का, जिसे यह मलाल था कि उसके पड़ोस के सभी हिंदू परिवार बाल-बच्चों समेत हिंदुस्तान कूच कर गए थे। उन्होंने जाते-जाते उससे लाख मिन्नतें की थी कि वह इन दरिंदों के बीच रहकर क्या करेगा। इन जिन्नातों ने तो उसके खेलते-खाते घर को तबाह कर डाला और उसे रोजी-रोटी तक के लिए मोहताज बना दिया।<br />
<br />
पर, उसने साफ़ मना कर दिया कि वह आइंदा मादरे वतन को कभी भी तौबा नहीं करेगा। <br />
<br />
जब उनके जाने के बाद मोहल्ला खाली हो गया और अगल-बगल के घर वीरान हो गए तो आवारा कुत्तों को वहाँ अपना अड्डा बनाने का अच्छा मौका मिला। ऐसे में, कुत्ते ही उसके पड़ोसी बन गए। रात को जब वे आपस में भौंकने लगते तो उसे एहसास होता कि वह किसी आदम बस्ती में न रहकर एक बीहड़ जंगल में रह रहा है जहाँ हर कोने में आदमख़ोर लकड़बघ्घों का डेरा है। <br />
<br />
ऐसा नाख़ुशगवार माहौल कोई पाँच महीने तक बना रहा। उसे यह उम्मीद बिल्कुल नहीं थी कि उन घरों में कभी कोई आदम जात बसने की जुर्रत करेगा। पर, उसे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। एक सुबह काम पर जाते समय अचानक़ उसने देखा कि उसके आसपास के कोई सात-आठ मकानों में कुछ लोग सफ़ाई कर रहे हैं। शाम को दुकान से घर लौटते हुए उसने उन घरों में फ़िर अपनी खोजी नज़रें फेंकी। उसे बड़ी तसल्ली हुई कि उन घरों में कुछ लोग जम गए हैं। उसने पल भर को रुककर, बैसाखी पर अपनी दाढ़ टिकाते हुए सूखी मुस्कान के साथ आह भरी--"चलो, अब इंसानों के बीच रहेंगे, जानवरों के बीच नहीं।" <br />
<br />
वह बैसाखी को दरवाजे के किनारे टिकाते हुए कमरे में दाख़िल हुआ--दीवार को दोनों हाथों से थामे हुए। उसकी पालतू बिल्ली लपककर उसकी गोद में चिपक गई। वह गिरते-गिरते सम्हला। बिल्ली को कुत्तों का ख़ौफ़ कम सता रहा था, क्योंकि उसे यह एहसास हो गया था कि पड़ोस के कुत्ते कहीं और नीड़ की तलाश में या आवारा सड़कों पर चले गए होंगे। <br />
<br />
उसने लालटेन जलाई और बिल्ली को कुर्सी पर बैठाते हुए तिपाई के साथ लगी बेंच पर बैठ गया। वह आदतन कुछ देर तक सामने दीवार पर टंगे भारत के नक्शे को देखता रहा। उसने भारत के बाएं कंधे पर सवार पाकिस्तान के नक्शे पर मुँह बिचकाया। वह कुछ बड़बड़ाया। उसे एकबैक याद आया कि नक्शे को उसके बेटे राजू ने टांग रखा था। उसने पहली बार बड़े ध्यान से देखा कि दोनों देशों के बीच सीमा-रेखा को उसके बेटे ने खरोंचकर धूमिल-सा बना दिया है।<br />
<br />
राजू की याद ने उसके भीतर के सूखे ज़ख़्म को गहराई से कुरेंद दिया। पर, उसके मन में बरसों से दुःख का बर्फ़ीला पहाड़ अटा होने के बावज़ूद उसकी आंखों ने आँसू का एक भी कतरा बहाने से इनकार कर दिया। चाहकर भी न रो पाना उसकी सबसे बड़ी बेबसी थी...बेशक! शारीरिक अक्षमता थी...<br />
<br />
वह यानी हरिहर लालटेन लेकर कोठरी में आ गया। उसने चारपाई पर रखी राजू की तस्वीर को एक बार चूमा और वहीं लेट गया। लेकिन उसे यह बार-बार एहसास हो रहा था कि आज राजू के ख़्याल पर धूल की परत चढ़ती जा रही है और उसके सामने सुम्मी का चेहरा नाच रहा है। उसके चेहरे पर ळाुर्रियाँ रोने के अंदाज़ में फैल गईं--"उफ़्फ़! आज तो तुम्हारे शहादत का दिन है। जिन कमीनों ने तुमको मुळासे ज़ुदा किया, उनके वंश का नाश हो।" आँसुओं ने फिर उसका साथ देना गवारा नहीं किया।<br />
<br />
सुम्मी यानी सुमिता जिसे कोई पंद्रह साल पहले, मंदिर से लौटते समय आवाम के कुछ शुभचिंतकों ने आवाम को ग़ैर-मज़हबदारों से महफ़ूज़ बनाने के नाम पर उसकी अस्मत लूटी और फिर, हलाख कर दिया। गुस्से से उसका चेहरा तपने लगा। चींकट कान गर्म होकर खुजलाने लगे। उसने दंतहीन मुँह से अपने होठों को जोर से चबाया और मुट्ठी भीचकर चारपाई पर कई बार पटका। मुट्ठी की धमक से छत से कुछ धूल ळाड़कर उसकी आँखों में चली गई। वह आँख रगड़ते हुए बिलबिला उठा। मुँह में धूल की कड़वाहट ने उसकी भूख और बढ़ा दी।<br />
<br />
यह घटना सन 1975 की थी जबकि मोहल्ले में अमूमन तीस-पैंतीस हिंदू परिवार रह रहे थे। उसके साथ-साथ सुम्मी भी महाशिवरात्रि का व्रत थी। वह आसपास के जंगलों से शिवलिंग पर चढ़ाने के लिए धतूरे, बेलपत्र, भांगपत्र, बैर, फूल वगैरह इकट्ठे करने के बाद बाजार से धूप, अगरबत्ती, कपूर, जैसी चीजें भी खरीद लाया। मुल्ला दुकानदारों से पूजा के सामान आदि खरीदना बड़ी टेढ़ी खीर होती है। उसे उनको बार-बार सफाई देनी पड़ी कि घर की कच्ची दीवारों के अंदर मरे हुए चूहों की बास को कम करने के लिए इन चीजों का इस्तेमाल करना पड़ता है। पर, उन्हें एक हिंदू की जुबान पर कहाँ यकीन होने वाला था। ख़ैर, दिन के कोई दस बजे, वे घर में स्थापित उस काँसे के शिवलिंग की विधिवत पूजा करने के बाद, जिसे कभी उसके पुरखों द्वारा दिल्ली के चाँदनी चौक से खरीदा गया था, नवाबगंज स्थित शिवाले पर जाने का मूड बनाने लगे। कोई आधे घंटे बाद, वे मच्छरदानी में सोते बच्चे के मुँह में दूध की बोतल डालकर बेफ़िक्र हो गए कि वह कम से कम एक घंटे तक तो सोता रहेगा ही जबकि इस बीच वे शिवजी का दर्शन भी करते आएंगे। <br />
<br />
वे गली-कूचों से पगडंडियों के रास्ते शिवालय की ओर चल पड़े। दोनों ने रास्ते में ही तय कर लिया कि उनमें से कौन सबसे पहले शिवजी को अर्ध्य चढ़ाने जाएगा।<br />
<br />
शिवालय की सीढ़ियों पर दस्तक देने से पहले ही वे ठिठक गए। दरमियाने डील-डौल वाले अक्खड़ किस्म के चुनिंदा दढ़ियल नौजवान वहाँ कुछ इस अंदाज़ में चहकदमी कर रहे थे, जैसेकि वे पहरेदारी कर रहे हों। चुनांचे, वे उन्हें देखकर किसी पतली गली की आड़ में छुप गए या कहीं चले गए। ऐसे में, हरिहर और सुम्मी को शिवजी की निर्विघ्न पूजा करने का अच्छा मौका मिला। उन्हें वहाँ छाई घुप्प ख़ामोशी पर कोई ख़ास ताज़्ज़ुब नहीं हो रहा था क्योंकि वे पहले भी यहाँ आ चुके थे। <br />
जैसाकि उनके बीच तय हो चुका था, पहले सुम्मी शिवालय के अंदर गई और हरिहर बाहर उसकी प्रतीक्षा करता रहा। चार-पाँच मिनट नहीं, पूरे दस मिनट के बाद जब वह बाहर आई तो हरिहर की बेचैनी दूर हुई। उसने आँखों ही आँखों में सुम्मी से शिकायत की--'आख़िर, इतनी देर क्यों लगा दी? मेरी तो जान ही निकल गई थी।' सुम्मी ने मुस्कराकर उसके हाथों में पूजावाली डलिया थमाई और गली के सुन्नसान नुक्कड़ पर जाकर खड़ी हो गई। हरिहर तेजी से अंदर गया और पूजा से यथाशीघ्र निपटकर बाहर आया। पर, उसे नुक्कड़ पर सुम्मी को न देखकर कोई ज़्यादा हड़बड़ी नहीं हुई। उसने सोचा कि वह शायद, चहलकदमी करते हुए घर की ओर रवाना हो चुकी होगी और रास्ते पर खड़े होते ही वह सामने नज़र आ जाएगी। <br />
वह बिल्ली जैसी चपलता से उछलता हुआ रास्ते पर आया। लेकिन, दूर-दूर तक सुम्मी नज़र नहीं आई। आखिर, किस रफ़्तार से सुम्मी गई होगी और वह भी बिना बताए, हरिहर को तो शिवालय में पूजा से निपटने में कोई दो-तीन मिनट से ज़्यादा नही लगे होंगे। <br />
<br />
उसकी साँस अटक-सी गई। उसका दिल घबराहट से धड़क रहा था; लेकिन, उसका मन कह रहा था कि सुम्मी के साथ कोई अनिष्ट नहीं हो सकता। वह शिवालय को जोड़ने वाली दूसरी तीनों गलियों में बारी-बारी से लपक-लपककर भागता रहा। उसे वे नौजवान भी कहीं नज़र नहीं आए जो उसे शिवालय पर दिखाई दिए थे। फिर, आधे घंटे बाद वह वापस शिवालय के सामने आकर खड़ा हो गया। कुछ पल प्रतीक्षा करता रहा कि संभवतः सुम्मी वापस आ ही जाएगी। <br />
<br />
पर, ऐसा नहीं होना था। हरिहर रुआँसा हो गया। तभी, उसे अचानक कुछ सूळाा और वह सुम्मी-सुम्मी पुकारता हुआ घर की ओर चल पड़ा--लगभग भागते हुए। उसे लग रहा था कि शायद, सुम्मी घर में मौज़ूद होगी। <br />
<br />
पर, घर में तो उसका नामो-निशान तक नहीं था। अलबत्ता राजू अभी भी मच्छरदानी में सो रहा था। उसने अफ़रातफ़री में अपने तीन-वर्षीय बेटे को गोद में उठाया और हिम्मत बटोरकर थाने की ओर चल पड़ा। <br />
<br />
वहाँ लाख मिन्नतें करने, दाढ़ी छूने और घिघियाने और टुच्चे पुलिसवालों की ळिाड़कियाँ सुनने के बाद उसकी पत्नी की ग़ुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज़ हुई। <br />
<br />
रात के साढ़े नौ बजे चुके थे। उसकी आँखें सूजकर लाल हो गई थीं। पड़ोसी उसे तसल्ली देकर जा चुके थे। बीवी के ग़ुम हो जाने के बाद अभी उसे उम्मीद थी कि वह जहाँ भी होगी महफ़ूज़ होगी और ज़ल्दी ही वापस आ जाएगी। वह बस! ज़िंदा हो, भले ही उसकी आबरू लुट चुकी हो। उसे सरेआम बेइज़्ज़त किया जा चुका हो। वह उससे कोई शिकायत नहीं करेगा। वह उसे किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता है। <br />
<br />
वह उसके साथ मुहब्बत में गुजारे बेशक़ीमती लमहे याद करते हुए बच्चे को तीसरी बार दूध में वैद्य रामदीन द्वारा दी गई दवा घोलकर पिला रहा था। उसे पिछली रात से ही बुखार आ रहा था और इसी वज़ह से वह दवा के नशे में लस्त पड़ा बेख़बर सो रहा था। एक-दो बार वह अम्मा-अम्मा पुकारकर उसकी थपकियों से आसानी से काबू में आ गया था। वर्ना, अम्मा की ग़ैर-मौज़ूदगी में...<br />
<br />
तभी वह कोई आहट सुनकर दरवाज़े पर आ गया। उसने लालटेन की रोशनी तेज की। एक पुलिसवाले को खड़ा देख राहत की साँस ली--'जरूर उसकी सुम्मी के बारे में अच्छी ख़बर लाया होगा।' उसने आँख मीचकर भगवान शिव का ध्यान किया।<br />
पुलिसवाले ने अकड़बाज़ लहजे में सवाल किया--"क्या तूने ही सुभह थाने में बीवी की ग़ुमशुदगी की रपट लिखवाई थी?"<br />
"हाँ, म...म...मैंने ही..." वह हकलाकर रह गया।<br />
<br />
"तेरी बीवी की लाश को सदर थाने में पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया है। तूँ अलसुभह सात बजे थाने आकर उसकी लाश ले जाना..." पुलिसवाला नफ़रत से थूकते हुए तेज कदमों से लौट गया।<br />
<br />
उसने जाते-जाते इस बात की भी परवाह नहीं की कि उसकी ख़बर सुनने के बाद हरिहर गश खाकर जमीन पर धड़ाम से गिर पड़ा है। उसे कई घंटों बाद होश तब आया जबकि राजू का रोना-बिलखना उसके कानों को बुरी तरह भेदने लगा। <br />
<br />
उस वक़्त रात के दो बजे हुए थे। हरिहर एक बार शिव की मूर्ति के सामने खड़ा होकर भगवान से कुछ शिकायत करने वाला था। लेकिन तभी वह बच्चे की 'अम्मा-अम्मा' की पुकार सुनकर विचलित हो गया। उसने बच्चे को थपकी देकर सुलाते हुए चारपाई पर लिटाया और एक निर्णायक मूड में कुछ कपड़े और दूसरे सामान वग़ैरह एक बक्से में रखने लगा। उसे नींद नहीं आई। थाने में उसकी जवान बीवी की लाश रखी पड़ी हो और वह सोने का ख़याल ला सके। कैसे मुमकिन हो सकता है?<br />
सुबह थाने पहुँचने के बाद उसका दिमाग़ थानेदार की फ़ाइनल जाँच रिपोर्ट सुनकर दंग रह गया।<br />
<br />
"तेरी बीवी ने शिवालय के पीछे वाले कुएं में कूदकर ख़ुदकुशी की थी--उसकी लाश वहीं से बरामद हुई है," थानेदार ने उसे पोस्टमार्टम रिपोर्ट दिखाते हुए कहा।<br />
<br />
"लेकिन, उसे तो ऐसा कोई ग़म नहीं था..." हरिहर का चेहरा उस ळाूठ रिपोर्ट से लाल हो गया। वह गोद में बच्चे को सम्हालते हुए वहाँ जमीन पर उस मुड़ी-तुड़ी गठरी को देखकर रुआँसा हो उठा जिसमें सुम्मी की मुड़ी-तुड़ी लाश पड़ी थी।<br />
थानेदार उसकी प्रतिक्रिया से उबल उठा, "हरामज़ादे! तेरी बेवफ़ाई और टार्चर से ऊबकर ही उसने..."<br />
<br />
"लेकिन, हमदोनों में इतना मुहब्बत था कि कोई भी कभी ऊँची आवाज़ में बात तक नहीं करता था। उसे टार्चर करने का तो सवाल ही नहीं उठता।" बेशक, हरिहर की दलील उसे कतई पसंद नहीं आई।<br />
<br />
थानेदार रिज़वी ग़ुस्से में काफ़ूर होकर और कुर्सी को धड़ाम से पीछे धकेलते हुए चींख उठा, "तेरा कहने का मतलब क्या है? तूँ यहाँ दस्तख़त कर और लाश लेकर चलता बन, वर्ना..." वह लाश पर पैर से ठोकर मारते हुए आपे से बाहर हो रहा था।<br />
हरिहर का जी कर रहा था कि वह अपनी सुरक्षा के लिए अंदर करधनी से लटकती करौली निकालकर उस राक्षस के सीने में घुसेड़ दे। पर, वह सब्र का ज़हर पीकर लाश के साथ वापस घर लौट आया। उसने ख़ुद लाश को खोलकर अपनी पत्नी के ज़िस्म को उलटा-पलटा और उसकी बख़ूबी निग़रानी की। योनिमार्ग से लगातार ख़ून बह रहा था, गरदन की हड्डी टूटी हुई थी और कुएं में गिरने से उसके बदन पर जिस तरह की चोटें आनी चाहिए थी, वैसा कोई निशान मौज़ूद नहीं था। इसलिए, इस सच को सबूत की ज़रूरत नहीं थी कि सुम्मी का सामूहिक बलात्कार करने के बाद उसकी बेरहमी से गला घोंटकर हत्या की गई थी।<br />
<br />
शाम से पहले वह सुम्मी का अंतिम संस्कार करके निपट चुका था। तत्पश्चात, उसने घर पर आए अपने पड़ोसियों को अपना इरादा बताया, "मैंने इस मुल्क को आज और अभी छोड़ने का मन बना लिया है। मैं हिंदुस्तान जा रहा हूँ।"<br />
<br />
पड़ोसियों ने उसे लाख समळााया-बुळााया कि जिस मादरे वतन की माटी में उसकी जान यानी सुम्मी का अंश मिला हुआ है, उसे छोड़कर वह सुकून से नहीं रह पाएगा। लेकिन, वह अपने फ़ैसले पर अडिग था।<br />
<br />
हरिहर ने वतन से तौबा कर लिया था। उसको अपने बच्चे के साथ दिल्ली में पनाह लिए हुए कई साल बीत चुके थे। वह कम से कम दर्जनभर ळाुग्गी बस्तियों में रहने के लिए असफ़ल जुगाड़ बैठाकर उकता चुका था। पर, हर बस्ती में उसे शरणार्थी, रिफ़्यूज़ी, टेररिस्ट आदि का बदनाम तग़मा ओढ़कर निकलने पर मज़बूर होना पड़ता था। जब वह फुटपाथों या रेलवे प्लेटफार्मों की शरण में जाता तो पुलिस की ज़्यादतियाँ उसका स्थायी तौर पर हिंदुस्तान में बसने का मनोबल तोड़ देती। वे उससे भारतीय नागरिक होने का सर्टीफ़ीकेट मांगते, फिर उसके साथ पुलिसयाना बर्ताव करने लगते। पर, वह तो चोरमार्गों से भारत आया था, दोनों देशों की सरकारों की सहमति से नहीं। इस भावना के साथ आया था कि वह जाति से हिंदू और वह भी ब्राह्मण होने के नाते हिंदुस्तान में न केवल सुरक्षित नीड़ तलाश कर पाएगा बल्कि हिंदुस्तानियों के साथ अच्छी तरह खिल्थ-मिल्थ होकर उनकी हमदर्दी भी बटोर सकेगा। दूसरे, वहाँ तो भूख से जूळाने के साथ-साथ मौत के ख़ौफ़ से भी हर पल लड़ना पड़ता था। कम से कम हिंदुस्तान में मौत का डर तो उतना नहीं है। बस, आए दिन उसे पुलिस से दो-चार होना पड़ता है--ख़ामोशी के साथ उनकी भद्दी-भद्दी गालियाँ सुनते हुए और लात-डंडे खाते हुए। लिहाजा, पेट तो देर-सबेर भर ही जाता है। <br />
<br />
उसे कई बार कुछ नेता चुनावों के दरमियान किसी ळाुग्गी बस्ती में रहने का ठिकाना इस वादे के साथ दे जाते कि जब वह चुनाव जीत जाएगा तो वह उसे बाक़ायदा यहाँ की नागरिकता दिला देगा। कुछ ऐसी ही उम्मीद में उसने कितने ही साल यहाँ गुजार दिए। पर, उसने अपनी हिम्मत को कभी टूटने नहीं दिया। वह कई बार दिल्ली स्थित हिंदू संगठनों के पास भी गया और अपना दुखड़ा सुनाया। वहाँ उस जैसे हिंदुओं पर ढाए जा रहे ज़ुल्मों का हृदयविदारक रोना रोया। फिर, अपनी जाति बताई और गोत्र भी। अपने उन ख़ानदानी पुरखों के नाम गिनाए जो अयोध्या और काशी जैसे नगरों के सम्मानित नागरिक थे। वह बस्तियों में गया और बुज़ुर्ग नागरिकों से फ़रियाद की कि मैं और मेरा बेटा हिंदू होने के नाते हिंदुस्तान में ही बसना चाहते हंैं। पर, किसी पर भी उनकी बात का यक़ीन नहीं होता! कोई उनका साथ देने को तैयार नहीं हुआ। उल्टे, कुछ लोग तो दोनों को घुसपैठिया समळा, उन्हें फ़ौरी तौर पर पुलिस को सौंपने पर भी आमादा हो गए। लेकिन, समय रहते वे उनका इरादा भाँपकर भाग निकले वर्ना...<br />
<br />
हरिहर थक चुका था। उसके साथ उसकी बदक़िस्मती का हमसफ़र--राजू, यानी उसका बेटा अब बड़ा हो रहा था और उसकी बातों में सयानापन ज़ाहिर होने लगा था। उसे सारी बातें समळा में आने लगी थीं। कुछ दिनों से वह उसे बार-बार एक ही सबक देने लगा था कि--'बाबू! इससे अच्छा तो अपना ही देस है जहाँ अम्मा की रूह बसी हुई है।' फिर, वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगता--"बाबूजी! हमें इस देस में अब तक क्या मिला है? यहाँ भी लात खा रहे हैं, वहाँ भी लात ही खाएंगे। सो, अच्छा होगा कि हम फिर अपने वतन लौट चलें..."<br />
<br />
हरिहर के कानों में भी खुजुली होने लगी--'राजू क्या ग़लत कह रहा है? यहाँ तो अपना कोई मुस्तकिल ठौर भी नहीं है। वहाँ तो अपना घर है, अपनी जान-पहचान के लोग भी हैं। वहाँ जाकर फिर से अपना धंधा करेंगे और पेट पालेंगे।' <br />
लेकिन, सीमा पार जाने के ख़याल-भर से उसका बदन थर-थर काँपने लगता।<br />
<br />
परंतु, एक घटना ने उसके डर को काफ़ूर कर दिया। एक ठिठुरती रात को कुछ वहशी पुलिसवालों ने उन दोनों को दिल्ली रेलवे स्टेशन के पेशाबखाने के एक कोने में उस समय जमकर धुनाई की जबकि वे घातक ठंड को धता बता, सो रहे थे। वे दोनों दर्द से बिलबिलाते हुए अपनी कथरी छोड़ प्लेटफ़ार्म से बाहर की ओर भागे। हरिहर तो इतने समय से पुलिस की मार बर्दाश्त करने का दमख़म विकसित भी कर चुका था। पर, राजू का पहली बार पुलिस के डंडों से वास्ता पड़ा था। वह दहाड़ें मार-मारकर रोता हुआ भाग रहा था। जब वे किसी तरह भागते हुए पुलिसवालों की पहुँच से दूर निकल आए तो एक बस स्टैंड की बेंच पर बैठते हुए हरिहर फ़फ़क उठा--"हिंदुस्तान के बारे में मैंने ग़लतफ़हमी पाल रखी थी कि यहाँ चैन होगा और सुकून मिलेगा। पर, अब मेरा मोहभंग हो चुका है। यहाँ तो भूख है, यातना है, परायापन है। इससे खराब जमीन कहाँ की होगी? अब, यहाँ और रहना बर्दाश्त नहीं हो पा रहा है..."<br />
<br />
उसने अपने पैरों की चोट सहलाते हुए राजू को खींचकर उठाया। वापस वतन जाने के इरादे ने रोते-बिलखते राजू में भी बेहद जोश पैदा कर दिया। वह पिटाई का दर्द भूलकर उठ खड़ा हुआ--"बाबूजी! हमें सच्चा सुकून वहीं मिलेगा जहाँ मेरी अम्मा की आत्मा मुळो दुलराने के लिए इधर-उधर बेताब-सी मँडरा रही है।"<br />
<br />
कोई महीने भर की जी-तोड़ मशक्कत करने और तरक़ीब तलाशने के बाद एक रात वे लुक-छिपकर अपने वतन की सरहद में प्रवेश कर ही गए। अपने वतन की जमीन पर चलते हुए उन्हें बड़ा सुकून मिल रहा था। लिहाजा, वे तेज कदमों से बढ़ रहे थे कि तभी उन्हें अहसास हुआ कि उनका पीछा किया जा रहा है। इस पर, वे कोई दस मिनट तक ळााड़ियों में दुबके रहे। उसके बाद जब वे उठे तो बेतहाशा भागते हुए। जब उन्हें लगा कि वे मीलों पीछे सरहद को छोड़ चुके हैं और बस्तियों में प्रवेश कर चुके हैं तब उन्होंने अपने पैरों को राहत दी। <br />
<br />
पर, उन्हें क्या पता कि उनका पीछा किया जा रहा है? अभी वे एक पेड़ की आड़ में अपनी हँफ़ाई पर काबू पाने की कोशिश कर ही रहे थे कि तभी एक सनसनाता कारतूस हरिहर के बाएँ पैर की जाँघ में आकर फ़ँस गया। वह इतनी जोर से चींखा कि आसपास के घोसलों में सोते परिंदे भी जागकर बेचैनी से चहचहाने लगे। हरिहर वहीं राजू के सीने पर अपना सिर रखकर उसे आँसुओं से भिंगोते हुए कराहने लगा।<br />
<br />
राजू ने सोचा कि अगर वह कमजोर पड़ गया तो उसके बाप का मनोबल टूट गया। उसने उसके हौसले को बुलंद किया--"बाबूजी! कुछ नहीं हुआ है। घर पहुँचकर सब ठीक हो जाएगा।"<br />
<br />
जैसे-तैसे ळााड़ियों में रात गुजारने के बाद जब सुबह हुई तो हरिहर ने कहा--"बेटे! ऐसा करो कि आज शाम तक हम अपने घर में दाख़िल हो जाएं!" फिर उसने अंगोछे से अपनी जाँघ के ज़ख़्म को कसकर बाँधा और राजू के कंधे का सहारा छोड़कर अपने पैरों पर ऐसे खड़ा हो गया जैसेकि जाँघ में गोली लगने की बात तो ळाूठी थी। असल बात यह है कि वे अब अपने देश वापस आ चुके हैं और ऐसी खुशी हर ग़म को दबा देती है।<br />
<br />
राजू ने देखा कि उसका जाँबाज़ बाप अपनी जाँघ में गोली की टीस को दबाए हुए कितने जोश-ख़रोश से घर पहुँचने के लिए बेताब है। वतन पहुँचने की खुशी ने उसकी पीड़ा को अच्छी तरह दबा दिया था। यद्यपि वे बसों और रेलगाड़ियों में चैन से यात्रा नहीं कर पा रहे थे--क्योंकि टिकट खरीदने के लिए उनके पास एक भी धेला नहीं था लेकिन हरिहर बड़ी चालांकी से कन्डक्टरों की आँखों में धूल ळाोंककर बाल-बाल बचता जा रहा था। अन्यथा, उनकी हुलिया ऐसी थी कि पकड़े जाने पर उनको हिंदुस्तानी घुसपैठिया समळा, न जाने कितनी बड़ी सज़ा भुगतनी पड़ती।<br />
<br />
आख़िरकार, वे अपनी सुरक्षित जान लेकर कोई दस बजे रात को अपने घर के सामने खड़े हुए। जब हरिहर जनेऊ से बँधी चाभी निकाल रहा था कि तभी कुछ पड़ोसी भी वहाँ आ गए। घर में घुसते ही हरिहर को गशी-सी आने लगी क्योंकि जाँघ में फ़ँसे कारतूस की कसक तेज होने लगी थी। वह वहीं जमीन पर चित धराशायी हो गया। राजू ने पड़ोसियों को बताया, "बाबूजी की जाँघ में कल रात से ही एक गोली फ़ँसी हुई है।"<br />
<br />
पड़ोस के वैद्य रामदीन ने जाँच के बाद बताया--"हरिहर के सारे बदन में गोली का ज़हर फैल चुका है। बचने की उम्मीद ना के बराबर है।" <br />
<br />
राजू को तो जैसे साँप सूंघ गया। पर, पड़ोसियों ने उसका पर्याप्त ढाँढस बँधाया और उसे बहला-फ़ुसलाकर किसी पड़ोस के घर में खींच ले गए ताकि वह कुछ देर तक आराम से सोकर अपनी थकान मिटा सके। <br />
रामदीन ने मददग़ार पड़ोसियों को अंतिम फ़ैसला सुनाया--"हरिहर का पैर तत्काल काटकर ही उसकी जान बचाई जा सकती है।"<br />
<br />
कोई एक बजे रात को रामदीन के घर में उपलब्ध चिकित्सीय सुविधाओं की सहायता से हरिहर का एक पैर काट दिया गया। पड़ोसियों ने तन-मन-धन से उसकी मदद की। सुबह जब राजू को लाकर उसके बाप के सिरहाने बैठाया गया तो उसको इतना कुछ होने पर भी बड़े सुकून का अहसास हो रहा था जबकि हरिहर को अभी तक होश नहीं आया था। <br />
<br />
पड़ोस में हरिहर की वतन वापसी के चलते कई दिनों से बड़ी चहलपहल थी। उसका ज़ख़्म अभी तक हरा था। सभी हिंदू परिवार अपने-अपने इष्ट देवताओं से उसकी सलामती के लिए दुआएं मांग रहे थे। लिहाजा, राजू अपना वक़्त अपने उजड़े घर को ठीक-ठाक करने में लगा रहा था। उसने दीवारों पर कैलेंडर टांगे और बिखरे हुए सामानों को करीने से सजाया। कुछ इसी तरह से सुकून और चैन की तलाश चल रही थी कि एक दिन अचानक माहौल में सनसनी फ़ैल गई। चुनिंदा पुलिसवाले यह ऐलान करते हुए कि दो हिंदुस्तानी घुसपैठिए इस मोहल्ले में घुस आए हैं, लकड़बघ्घों की जैसी फ़ुर्ती से घर-घर की तलाशी लेने लगे। वैद्य रामदीन भाँप गया कि यह सब क़वायद हरिहर की धरपकड़ के लिए की जा रही है। इसलिए, उसने एहतियाती तौर पर हरिहर को एक तहखाने में डाल दिया लेकिन, राजू की ओर से बेफ़िक्र हो गया कि इस लड़के पर पुलिसवालों का क्या ध्यान जाएगा। मैं इसे अपना बेटा बताकर बचा लूँगा।<br />
<br />
आख़िरकार, पुलिसवालों ने रामदीन के घर की तलाशी शुरू कर दी। <br />
<br />
इंस्पेक्टर रिज़वी ने अपना पूरा ध्यान राजू पर टिका दिया।<br />
<br />
"ये लौंडा तुम्हारा है?"<br />
<br />
"जी-जी...हाँ..."अब तक अविवाहित रहे अधेड़ रामदीन ने सकारात्मक में सिर हिलाया। दरअसल, उसने आजीवन अविवाहित रहने की क़सम इसलिए खा रखी थी क्योंकि उसे तो अपना सारा जीवन बीमारों की ख़िदमत में गुजारना था।<br />
<br />
"तुम्हारी बीवी नज़र नहीं आ रही है..." रिज़वी ने शक से उसे घूरकर देखा। <br />
रामदीन से कोई उत्तर नहीं बन सका।<br />
<br />
रिज़वी फिर गरजा--"मैं पूछता हूँ कि तुम्हारी बीवी कहाँ है?"<br />
<br />
वहाँ उपस्थित राजू ने पूरे भोलेपन से कहा--"चचा की शादी ही नहीं हुई है।"<br />
<br />
"तो क्या तूँ किसी रंडी का लौंडा है?" रिज़वी ने राजू की गरदन को अपनी मुट्ठी में जकड़ते हुए पूछा। वह घिघियाकर रह गया।<br />
जब रामदीन बदहवास-सा खड़ा कुछ भी नहीं बोल सका तो रिज़वी राजू को घसीटता हुआ बाहर गली में आ गया।<br />
<br />
"एक हरामज़ादा हिंदुस्तानी मिल गया। दूसरा भी यहीं कहीं छिपा होगा।" वह गली में गला फाड़कर चिल्ला रहा था।<br />
<br />
"तुम वतनफ़रोशों! कान खोलकर सुन लो, अगर कल सुभह तक तुमने दूसरे घुसपैठिए को हमें सुपुर्द नहीं किया तो तुमलोगों की ख़ैर नहीं।" <br />
<br />
रिज़वी दीवारों को धमकाते हुए राजू को उठा ले गया। किसी भी शख़्स की हिम्मत नहीं हुई कि वह घर से बाहर निकलकर रिज़वी के सामने विरोध-प्रदर्शन कर सके। राजू को बचाने के लिए कोई दलील दे सके या इंस्पेक्टर का किसी भी तरह से सामना कर सके। पड़ोसी तो समळा गए थे कि राजू का वही हश्र होगा, जो पहले मोहल्ले के कुछ जवान लड़कों का हो चुका है।<br />
<br />
हरिहर बाएं पैर को खोकर उतना बेसहारा नहीं हुआ था, जितना राजू को खोकर। इंस्पेक्टर रिज़वी ने इस बात से साफ़ मना कर दिया कि उसने राजू जैसे शख़्स को कभी हाथ भी लगाया हो। इसलिए यह बात साफ़ थी कि राजू उसकी यातनाओं की भेंट चढ़ चुका है। <br />
<br />
हरिहर के जीने की सारी आशाएं धूल-धूसरित हो चुकी थी। वह कई सालों तक थाने, कोतवाली, बड़े-बड़े आफ़िसों और मिनिस्ट्रियों के चक्कर लगा-लगाकर अपने बुढ़ापे को जार-जार करता रहा। ऊँचे ओहदों पर बैठे अफ़सरों और नेताओं के आगे घुटने टेकता रहा। पर, वही ढाक के तीन पात। राजू का कहीं अता-पता नहीं चला। <br />
<br />
हरिहर के ऊपर इतने सारे ज़ुल्म मुसलमान पैदा न होने की सज़ा के रूप में ढाए जा रहे थे। अंततोगत्वा, वह हार मानकर अपनी बाकी ज़िंदगी फुटपाथों के किनारे बूट-पालिश करते हुए बिताने लगा। जिस गुमटी में वह हिंदुस्तान जाने से पहले चाय-पान की दुकान लगाया करता था, वापसी के बाद तो उसका कहीं अवशेष तक नहीं मिला। इसके अलावा, उसने जब भी शहर के इर्दगिर्द कोई नया रोज़ग़ार शुरू करने की ज़ोख़िम उठाई, उस पर क़ौम के रखवालों ने हर बार पानी फेर दिया। मरता क्या न करता? सो, उसने ऐसा काम शुरू किया जिससे किसी को कोई एतराज़ नहीं होने वाला था।<br />
<br />
ऐसे ही सब कुछ लस्टम-पस्टम चल रहा था कि एक दिन उसके पैरों तले से जमीन खिसक गई जबकि उसके पड़ोसी उसके पास आए।<br />
<br />
रामदीन ने कहा--"भई! हम सभी चाहते हैं कि तुम भी हमारे साथ चलो..."<br />
<br />
"कहाँ?" उसने अपने कान खड़े कर दिए।<br />
<br />
"वहीं से जहाँ से तुमको वापस आना पड़ा था।" <br />
<br />
रामदीन का प्रस्ताव सुनकर, बैसाख़ी पर खड़े हरिहर ने वहाँ मौज़ूद सभी की आँखों में बारी-बारी से ळााँका।<br />
रामदीन ने कहा--"तुम्हारा हिंदुस्तान जाने का ढंग सही नहीं था। हमलोग पूरे इंतज़ामात के साथ यहाँ से कूच कर रहे हैं। वहाँ हम मिलजुलकर कोई धंधा करेंगे, सुख-दुःख के संगी बनेंगे..."<br />
<br />
उनके प्रस्ताव पर लंगड़ा हरिहर आग-बगूला हो उठा।<br />
<br />
"अरे! तुमलोग अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जा रहे हो। हिंदुस्तान में तुम्हें कभी भी क़ुबूल नहीं किया जाएगा। वहाँ के नागरिक तुम्हें ळिाड़कियों से जार-जार कर देंगे। तुम चप्पा-चप्पा छान मारोगे, लेकिन तुम्हें कहीं कोई ठिकाना नहीं मिलेगा। गालियाँ सुन-सुनकर तुमलोग बहरे हो जाओगे। इस बात की गाँठ बाँध लो कि वहाँ तुम्हें रिफ़्यूज़ी कम, घुसपैठिया ज़्यादा <br />
समळाा जाएगा..."<br />
<br />
रामदीन ने कहा--"हरिहर! फ़िज़ूल की बातें मत करो। हम कल सुबह यहाँ से रवाना होंगे। अगर चलना है तो चलो, <br />
वर्ना..."<br />
<br />
उनके जाने के बाद भी हरिहर काफ़ी देर तक बड़बड़ाता रहा। वे समळा गए थे कि उनकी बातों का उस पर कोई असर नहीं होने वाला है। चुनांचे, रामदीन की पूरी इच्छा थी कि हरिहर उसके साथ हिंदुस्तान चले। आख़िर, वह इस मोहल्ले में अकेला हिंदू रह जाएगा और वह भी अपाहिज और बूढ़ा। इसलिए, दूसरे दिन सुबह जब मोहल्लेवाले समूह बनाकर हरिहर के घर के सामने से गुजर रहे थे तो रामदीन उसके दरवाजे पर दोबारा खड़ा हो गया। उस समय हरिहर अपनी बिल्ली को गोद में खिला रहा था। वह रामदीन को देख आपे से बाहर हो गया, "दूर के ढोल बड़े सुहावने लगते हैं। लौटके सारे बुद्धू यहीं आएंगे। मादरे वतन तुम्हें भी वापस बुला लेगी।"<br />
<br />
उसकी दो-टूक बातें सुनने के बाद, रामदीन से कुछ भी कहते नहीं बना। वह आगे बढ़ चुके पड़ोसियों के साथ जा मिला। पर, उनके जाने के बाद हरिहर फूट-फूटकर रोता रहा--"कम से कम उन्होंने जाते-जाते मुळासे दुआ-सलाम तो किया होता!"<br />
लिहाजा, वे कभी लौटकर नहीं आए। हरिहर बरसों उनकी राह ताकता रह गया। जबकि उसे पूरा विश्वास था कि उनमें से हरेक व्यक्ति हिंदुस्तानी महानगरों की फुटपाथों पर कीड़ों की तरह रेंग-रेंगकर अपने आख़िरी पल की प्रतीक्षा कर रहा होगा।<br />
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मोहल्ले से कुत्तों के प्रवास के बाद वहाँ बसने वाले नागरिक पक्के वतनपरस्त थे। वे यदाकदा मज़लिस किया करते थे जिसमें यह मुद्दा अव्वल रहता था कि इस मोहल्ले को ग़ैर-मज़हबदारों से निज़ात दिलाया जाना चाहिए। एक दिन हरिहर के काम पर जाते ही वे उसके घर का ताला तोड़कर उसमें काबिज़ हो गए। उस शाम, हरिहर लौटकर नहीं आया। मालूम नहीं, वह कहाँ खप गया या खपा दिया गया? उसे शहर में भी कभी बूट-पालिश करते हुए नहीं देखा गया।<br />
अगले दिन, मोहल्लेवालों ने रिटायर्ड थानेदार रिज़वी की मौज़ूदगी में एक शानदार पार्टी दी।</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%9C%E0%A5%80_%E0%A4%AC%E0%A4%97%E0%A5%88%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%AE_%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82_%E0%A4%9A%E0%A4%B2%E0%A4%A4%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5975भगजी बगैर काम नहीं चलता / मनोज श्रीवास्तव2011-12-02T10:38:36Z<p>Dr. Manoj Srivastav: ' '''भगतजी बगैर काम नहीं चलता''' साल भर में कम से क...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
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'''भगतजी बगैर काम नहीं चलता''' <br />
साल भर में कम से कम आठ माह तक तो ऐसा म् ा है। यह हवा भी बदन में बुखार बनकर ऐसे ही थोड़े ही समा जााौसम रहता ही है जबकि किसी न किसी बीमारी-बतास का जोर रहतती है। जरूर इसमें डोलती-भटकती डाईन-प्रेतिन की छाया पड़ने के कारण ही आदमी का हाल बेहाल हो जाता है। बब्बन भगत ठीक ही कहते हैं कि अगर समय रहते इन बुरी छायाओं को ळााड़-फूँककर, डरा-धमकाकर भगाया नहीं गया तो आदमी कितना भी बलवान हो, वह मौत के मुँह में समा ही जाएगा। कुश्ती-कसरत कुछ भी काम नहीं आता। वैद्य-हकीम सब हाथ मलते रह जाते हैं। पर्ची-पुड़िया वाली दवाइयाँ धरी की धरी रह जाती हैं। ऐसे में, बस भगतजी काम आते हैं। पेट की कितनी बड़ी भी व्याधि हो, वह उनकी एक फूँक से उड़न-छूँ हो जाती है। कितना भी पुराना बुखार हो या अधकपारी का दर्द हो, वह दुम दबाकर भाग खड़ा होता है।<br />
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इसलिए, अगर चमरौटी में हर साल दस-बारह लोग ही भगवान को प्यारे होते हैं तो इसे भगतजी का चमत्कार कहना चाहिए। अन्यथा, यह संख्या सैकड़ों में होती। ड्राप्सी राच्छस तो पूरा टोला ही डकार गया होता। ये तो इनके तंत्र-मंत्र का असर था कि कुल तेरह लोग ही ऊपर को सिधारे। बेशक! अपने करामात के कारण ही उन्हें इन्सान के रूप में भगवान माना जाता है। सो, जब कोई रोगी उनसे ळााड़-फूँक और ओळौती कराने आता है तो वह पहले से ही अपना चमत्कार बखानने लगते हैं, "बचवा, हम तुम्ही जनों के लिए जिन्दा हैं। ईस्वर ने हमें तुम इन्सानों को निरोग करने के लिए भेजा है। अगर हम न होते तो जान लो, सृस्टि का कितना बड़ा नुस्कान हो जाता! पिछला साल तो कम जने ही मुए थे। राम आसरे की मुनिया इसलिए मू गई कि ऊ ससुरा डगदर का इलाज कराने हस्पताल चला गवा रहा। अवधू का जवान सहरी बबुआ भी इसलिए मुआ कि उसने हमारा मंतर को मानने से मना कर दिए रहा। ऊ क्या कहने लगा कि हम बंगाली बैदजी से इलाज कराएंगे। अब तुम हमारी सरन आ गए हो तो तुम्हारे परान कोई नहीं छीन पाएगा।"<br />
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भगतजी के व्यक्तिगत जीवन में ताकने की कोई ज़ुर्रत नहीं करता। कोई नहीं जानता कि वह इसी गाँव में पैदा हुए थे। पर, गाँववाले तो यही मानते हैं कि वह काशी से आए हुए कोई सिद्ध-महात्मा हैं जो लोगों की उलळाी ज़िंदगी को सुलळााना चाहते हैं। उनकी कहानी कुछ ऐसे शुरू होती है। इसी गाँव में कोई चालीस साल पहले भदेसर राम नाम का एक मोची रहता था। वह अपने धंधे में निपुण था और उसके हाथ के बनाए जूते-चप्पल खरीदने शहर तक से लोग आते थे। इसलिए, अन्यों की तुलना में उसकी इतनी मोटी कमाई हो ही जाती थी कि उसने अपने परिवार को अच्छा खाना-खुराक देने के साथ-साथ एक बढ़िया रंगा-पुता ईंट का खपरैल मकान भी बनवा लिया था। बताते हैं कि जवानी में ही उसका कुछ औघड़-अवधूतों के साथ उठना-बैठना हो गया था। उनके संगत में वह इतना रम गया था कि उसका धीरे-धीरे अपने परिवार से मन उचटने लगा और वह भी औघड़ बनकर पता नहीं कहाँ चला गया। अब तो वह मर-खप भी गया होगा। गाँववाले बताते हैं कि उस पर अचानक सधुक्कड़ी की सनक सवार हो गई थी। शुरू-शुरू में वह तहसील में अपनी दुकान को शाम होने से पहले ही बंद करके नदी के किनारे टहलने निकल जाया करता था। एक दिन ऐसे ही, उसकी मुलाकात एक औघड़ से हो गई। बातों ही बातों में वह उनसे इतना प्रभावित हुआ कि वह बाकायदा उनसे कंठी-माला लेकर उनकी औघड़ मंडली में शामिल हो गया। पहले उसने अपना रोज़गार छोड़ा; फिर, घर। दरअसल, वह कभी-कभी औघड़ों के साथ कई-कई दिनों तक किसी मुर्दाघाट पर या भुतहे खंडहर में धुनी रमाने और योग-साधना करने निकल जाया करता था। एक दिन वह इसी धुन में कहींं निकला तो फिर उसने वापस अपने घर की ओर मुँह नहीं किया। ऐसे में, घर में काफ़ी समय तक अकेली पड़ी, उसकी भूखी-प्यासी और असहाय पत्नी करती भी क्या? जवान तो थी ही वह। सो, ज़िंदगी पार करने के लिए उसने किसी मर्द का आसरा ढूँढ लिया। उस वक़्त, भदेसर का कोई बारह साल का एक लड़का भी था जो अपनी माँ के किसी दूसरे मर्द के साथ भाग जाने के बाद चमरौटी में अपने जान-पहचान वालों की दया पर अपना पेट पालने लगा। एक रात वह भी कहीं अचानक लापता हो गया। कहते हैं कि एक दिन खुद भदेसर आकर उसे अपने साथ लिवा ले गया था। चुँकि, भदेसर उसे औघड़ों की मंडली में ले गया था इसलिए यह साफ़ कहा जा सकता है कि वह भी साधु बन गया होगा। लेकिन, उसका अपनी चमरौटी के बिरादरी वालों से लगाव कम नहीं हुआ था। इसलिए, एक दिन उसने साधु के भेष में गाँव वापस आकर यहीं अपना स्थायी डेरा जमा लिया। उस डेरे ने अब एक मठ का रूप ले रखा है जहाँ शिवजी का मंदिर स्थापित कर, धुनी रमाने वाला आदमी कोई और नहीं बल्कि खुद भगतजी हैं जिन्होंने अपनी मूल पहचान छिपा रखी है। <br />
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जब उनके अंधभक्त गाँववाले उनकी जन्मभूमि के बारे में सवाल करते हैं तो वह आसमान की ओर देखते हुए और हाथ उठाकर कहते हैं, "हमें उसने पैदा किया है औ' हम वहीं से आए हैं।"<br />
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वे उनकी रहस्यभरी बातें सुनकर कुछ और सवाल करने की साहस नहीं जुटा पाते। बल्कि, उनकी ओर बड़े आश्चर्य से देखते।<br />
भगतजी बड़ी तन्मयतापूर्वक बीमारों के ळााड़-फूँक में लगे रहते हैं। पिछले साल गाँव के कम से कम दो दर्जन लोगों पर भूत का साया आया था। तब, उन्होंने गंगा के किनारे उन सभी का सामूहिक उपचार किया था। पूरे दो महीने तक, यानी तब तक अपना डेरा गंगा नदी के किनारे डाले रखा जब तक कि हर आदमी चंगा नहीं हो गया। मर्दों पर चढ़े भूत को भगाने के लिए तो उन्होंने खुले स्थान पर अपनी ओळाागिरी और गुप्तविद्या का प्रयोग किया था। पर, किसी औरत पर अपनी तिलस्म का प्रयोग वह एकांत में किसी अँधेरी कोठरी में करते थे। उनका कहना है कि जब औरत पर भूत सवार होता है तो वह बेहद ढीठ और हठी हो जाता है और उसे आसानी से नहीं भगाया जा सकता। उसके लिए कुछ ख़ास तंत्र-मंत्र का प्रयोग करना पड़ता है और वह भी एकदम अकेले में अन्यथा भूत कुपित हो जाता है जिसे मनाना आसान नहीं होता!<br />
बहरहाल, अपनी चमत्कारिक शक्ति के बलबूते पर वह पीड़ित आदमी के मुँह से खुलेआम कहला देते हैं कि उस पर किस वज़ह से और किसका भूत सवार है। देखने-सुनने वाले लोग तो दाँतों तले ऊँगली दबाते हैं। तिस पर भी पढ़े-लिखे लोग कहते फिर रहे थे कि इन सबके पीछे भगत का कोई षड़यंत्र है। वह अनपढ़ और अँगूठाछापों को बुद्धू फ़ँसाता है, समळादारों को नहीं। यह सब उसका रोज़गार-धंधा है। गाँव में अपनी अहमियत को बनाए रखने के लिए उसका गोरखधंधा है।<br />
ऐसी आलोचनाओं के तो वह आदी हो चुके हैं। एक पहुँचे हुए फ़कीर की तरह वह मुँह बिचका देते हैं--"ये दुनिया कुछ भलेमानुसों के बल पर ही चल रहा है। नहीं तो, सभी जने पाताल में समा गए होते! अगर संत-महात्मा न होते तो इहाँ सिरफ़ सेर-बाघ, सियार-बिलार औ' भूत-परेत ही होते!" <br />
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उनके सबक सुनने के बाद लोग सिर हिलाकर उनकी पैलगी करते और फिर अपने घर का रास्ता नापते।<br />
जो लोग भगतजी को ढोंगी-औघड़ कहते हैं, वे उनके बारे में तरह-तरह के अफ़वाह फैलाने में भी खूब दिलचस्पी लेते हैं। चमरौटी से आसन्न धोबिया टोला में कहने को तो कई बी0ए0-एम0ए0 पास लोग हैं जिनको धन-यश में खूब बरकत मिली है। ऊँचे-ऊँचे सरकारी पदों पर आसीन हैं। लेकिन, उन्हें संत-महात्माओं का सम्मान करने का संस्कार नहीं मिला है। वे ज़्यादातर इस बात को साबित करने पर तुले रहते हैं कि चमरौटी में अंधविश्वास और पाखंड का भयानक दौर चल रहा है। गाँववाले भगतजी को देवता सरीखा मानकर अधार्मिक-अनैतिक काम करने में तनिक भी नहीं हिचक करते। भूत-प्रेत चमरौटी-वासियों पर ही क्यों सवार होता है, दूसरे गाँववालों पर क्यों नहीं? इस पर भगतजी अपना जवाब कुछ ऐसे देते हैं--'जहाँ देउतागण बसते हैं, भूत वहीं आते हैं--देउताओं का पीछा करते-करते। इसका मतबल इ है कि जहाँ अच्छाई रहती है, बुराई उसके आगा-पीछा घूमती रहती है। अब इ बूळा लो कि इ गाँव में अच्छाई किसके बजह से है? कौन महात्मा के पास देउता लोग रोज़ीना मुल्कात करने आते हैं?'<br />
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गाँववाले मुँह बाकर भगतजी की बातों पर सिर हिला-हिलाकर हामी भरते और चमरौटी में उनकी मौज़ूदगी के एहसानमंद होते। लिहाजा, उन लोगों में भी धोबिया टोला के बाशिंदों के ख़िलाफ़ रोष व्याप्त था। दद्दन राम अपने यारों के बीच इस बाबत चर्चा छिड़ते ही नथुने फड़फड़ाने लगता, "अब, इन धोबियों के भी रंग नहीं मिल रहे हैं। एक तो छोट जात; दूसरे, नीच करम करने वाले...ऊ साले दुनिया भर के लोगों के कपड़े कचारते हैं, हम चमारों के भी गूह-मूत वाले कपड़े धोते हैं। तिस पर भी इतना गुमान! अपने से बड़े लोगों के आगे भी इतरा रहें हैं। हम जैसे ऊँच जात के लोगों से आँख मिलाने में तनिक भी नहीं डर रहे हैं। ऊ ससुरों को पता नहीं है कि घोड़ी के पीछे औ' बड़े लोगों के आगे जाने का क्या नतीजा होता है।"<br />
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दद्दन का रह-रहकर गरम होना भी वाज़िब था। आख़िर, वे उसके देवता-सरीखे महात्माजी पर कींचड़ उछाल रहे हैं। उसके बाप या भाई तक की बेइज़्ज़ती तो वह खुशी-खुशी बरदाश्त कर लेते। पर, भगतजी के बारे में ये कहना कि 'वह कोई ठग हैं और मेहरारुओं से बड़ी बेशरमी औ' बदतमीजी से पेश आते हैं', दद्दन को बिल्कुल नागवार लगता है। इसके प्रतिक्रियास्वरूप, चमरौटी के लोग भी धोबियों को चुन-चुनकर गालियाँ देते हैं।<br />
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इस तनातनी के माहौल में आरोपों-प्रत्यारोपों का यह दौर बरसों से चल रहा था। पर, एक दिन तो चमरौटीवासियों के सब्र की इंतहा ही नहीं रही जबकि धोबिया टोला के गबरू जवान--मलखान कनौजिया ने तहसील के हाट में यह खुलेआम ऐलान किया, "इस बात का हमारे पास पक्का सुबूत है कि भगत जात का मेहतर है और उसने चमरौटी में रहकर गाँव को गंदा कर दिया है। सो, हम सभी जनों को गाँव के चमारों से अछूतों सरीखा बर्ताव करना चाहिए औ' उनके साथ सारे व्यौहार खत्म कर देना चाहिए।"<br />
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वहाँ मौज़ूद दद्दन के दोस्तों को यह सोचकर ही मितली-सी आने लगी कि वे अब तक एक नीच जाति के किसी बहुरुपिए साधु का गोड़ पूजते आए हैं। पहले तो उनके मन में असलियत जानने की इच्छा हुई कि भगतजी से सीधे संपर्क साधकर उनकी जाति पता की जाए। लेकिन, उन्हें दद्दन रास्ते में ही मिल गया जो घाट से चमड़ा कमाकर बिरहा आलापते हुए लौट रहा था। उसको जैसे ही उनसे मलखान के ऐलान के बारे में पता चला तो वह घृणा से जमीन पर थूकते हुए गुस्से में ऐसे चीखने-चिल्लाने लगा जैसेकि कोई ततैया डंक मार गया हो। <br />
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"इ तो ऊ ससुरे ने बड़ा बेजा बात किया है। इन धोबियों औ' मेहतरों के भी सिर आसमान में चढ़ गए हैं। हम पहिले चलके महराजजी से पूछते हैं; फिर, मलखान से मजे से निपटेंगे। जदि मलखान कोई पक्का सुबूत न दे पाया तो हम इसका ऐसा मजा चखाएंगे कि ऊ जिनगी भर ना भूल पाएगा।" दद्दन की इस चुनौती से उसके दोस्तों के बदन में भी आग फूँक गई। उनके भी हाथ मलखान पर उठने के लिए खुजलाने लगे।<br />
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दद्दन के प्रश्न पर भगतजी ने अपने पुराने अंदाज में हाथ उठाकर कहा, "हमका खुद ना मालूम है कि हम कहाँ से आए हैं। हमारे माई हमारे जन्मते सरग में चली गई थी। फिर, जब हम दू बरस के थे तो बाबूजी कासी चले गए औ' लौटके ना आए। पर, इ तो पक्का है कि हम कौनो बाँभन पलिवार से हैं। हमका इ बात ना बिसरत है कि हमारे घर में खूब पूजा-पाठ होता रहता था। धूप-अगरबत्ती औ' दसांग-चंदन से सारा घर गमकता रहता था। फिर, हमका कोई साधूजी उठाके ले गए। हमको पाला-पोसा। बड़ा किया औ' जंतर-मंतर सिखाके हमको चमत्कारी बाबा बनाया। अब इ जान लो कि चाहे हम बाँभन रहे हों; लेकिन, अब तो हम ईस्वर के भगत हैं जिसका कोई जात नहीं होता है।"<br />
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यों तो, भगतजी ने बहुत तोड़-मरोड़कर उड़ी-उड़ी सी बातें की थी। किंतु, उनके भोले अंदाज से दद्दन और उसके दोस्तों को पूरा यकीन हो गया कि मलखान ने उनको बदनीयती से बदनाम करने की गुस्ताखी की है। इसलिए, वे उसको सबक सिखाने के लिए जगह-जगह तलाशने लगे। पर, वह भी उनके पैंतरे को अच्छी तरह भाँप गया था और समय रहते, थाने में यह एफ0आई0आर0 दर्ज़ कराकर कि दद्दन और उसके गुंडे उसकी जान के पीछे पड़े हैं, खुद को पुलिस की हिफ़ाज़त में रहने का पूरा बंदोबस्त भी करा लिया। वह आश्वस्त हो गया कि चाहे जो भी हो, अब कोई उसका एक बाल तक नहीं उखाड़ सकता। ऐसे में, दद्दन समळा गया कि अगर उसने मलखान से मारपीट तो दूर, कोई जबानज़दगी भी की तो वह पुलिस का निशाना बन जाएगा। इसलिए उसने एक चाल चली। वह और उसके साथी इस ताक में रहने लगे कि जब मलखान नदी से कपड़े धोकर लाता है तो रास्ते में ही उसके कपड़ों का गट्ठर गायब कर दिया जाए। फिर, देखना, बम्हरौली और ठकुरौली गाँवों के दबंग लोग कैसे उसके एक-एक बाल नोच लेते हैं क्योंकि वह उन्हीं के कपड़े धोता है। <br />
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उन्हें दूसरे या तीसरे दिन ही अपने षड़यंत्र में सफलता मिल गई। जब मलखान निचाट में अपने गदहे से उतरकर मूत रहा था तभी सरपत की आड़ में छिपे दद्दन और उसके दोस्तों ने उसके गदहे पर लदी कपड़ों की गठरी ऐसे गायब कर दी कि मलखान चक्कर खा गया। वह ढूँढता रह गया। लेकिन, न तो गठरी मिली, न ही कहीं चोर नज़र आया। वह अपना यह शुबहा मिटाने के लिए कि कहीं गठरी उसकी लापरवाही के कारण पीछे तो नहीं गिर गई, वह वापस धोबिया घाट तक उसे ढूँढ आया; पर, निराशा ही हाथ लगी। अलबत्ता, वह भी हार मानने वाला कहाँ था? उसने इस शक के आधार पर कि हो न हो, इसमें उसके दुश्मनों का हाथ होगा, इसकी शिकायत थाने में दर्ज़ करा आई। दद्दन को भी बिल्कुल अंदेशा नहीं था कि मलखान थाने का दरवाज़ा भी खटखटा सकता है। इसलिए, जब तक वह कपड़ों की गठरी को ठिकाने लगाता, पुलिस ने उसके घर पर रातों-रात धावा बोल दिया। गठरी भी बरामद हुई और चोर भी रंगे हाथ पकड़े गए। चोर का मुँह फक्क पड़ गया। दद्दन और उसके दोस्तों ने पुलिस की मार के आगे अपना गुनाह कबूल कर लिया। उन्हें सजा हो गई।<br />
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जब दद्दन और उसके दोस्त दो साल तक जेल की चक्की पीसकर वापस लौटे तो उनमें बदले का ज़ज़्बा उफ़ान पर था। कोई कोइरी, कहार या कुर्मी उन्हें जलील करता तो वे बर्दाश्त कर लेते! उन्हें तो उनसे छोटी जाति के लोगों ने नीचा दिखाया था। भगतजी के सबक के अनुसार कि 'नंगई करने वालों के आगे बलवान भी हार मान लेता है,' सारे चमरौटी वाले ऐहतियात बरत रहे थे। मलखान की दबंगई इतनी बढ़ गई थी कि वे उसे देखते ही एक सुरक्षित दूरी बना लेते थे। अपने गाँववालों को इतना आतंकित देख, दद्दन दाँत किटकिटाकर रह जा रहा था। कई बार हाट-मेले में उसका सामना मलखान से हुआ था जो सीना चौड़ा कर व्यंग्य से उसकी ओर देखकर मुस्करा देता था। ऐसे में उसका तन बदले की लपट से लहकने लगता था। उसे सबसे ज़्यादा जो बात अख़र रही थी, वह यह थी कि मलखान अपनी मर्दानगी दिखाने के लिए उसके ही गाँव के दो-तीन चक्कर रोज़ लगा जाता था और गाँववाले अपनी पीठ फेरकर उसे रास्ता दे देते थे। उसने बड़ी तिकड़म से भगतजी के साथ भी उठना-बैठना शुरू कर दिया था। शुरू-शुरू में दद्दन खुद भगतजी को मना कर आया था कि वह मलखान को खुद से दूर रखें क्योंकि उसकी बदौलत ही सारे गाँव को नीचा दिखाया गया है। पर, पता नहीं क्यों, मलखान को अपने सामने देखकर जैसे उन्हें लकवा मार जाता था। वह एकदम ख़ामोश रहते जबकि उन्हें उस आदमी की मौज़ूदगी बिच्छू के डंक मारने जैसा असह्य लगता था क्योंकि उसने उन्हें सरेबाजार मेहतर ऐलान किया था जबकि वह वास्तव में चमार थे। उससे ऊँची जाति के थे। चमरौटी वालों के सामने तो वह ख़ुद को बाँभन घोषित करने पर तुले हुए थे ताकि वह उनके मन में और भी ऊँचा स्थान बना सकें। पर, वह मन ही मन पछता भी रहे थे कि उन्होंने ळाूठ ही खुद को बाँभन बताया। अगर वह अपनी असली जाति बताते तो वह निश्चय ही चमरौटी वालों के और अधिक आत्मीय होते। <br />
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इसी दरमियान, परिस्थितियों ने कुछ अज़ीबोगरीब ढंग से करवट बदली। मानसून की अप्रत्याशित बारिश से आई बाढ़ ने ज़्यादातर गाँवों को घेर लिया। सबसे बुरी बात यह थी कि बाढ़ की वज़ह से चारो ओर गेहुँवन साँपों का आतंक लरज़ने लगा था। वे खेतों के जलमग्न होने के कारण अपने-अपने बिलों से निकलकर और लोगों के घरों में घुसकर उन्हें डस-डसकर यमलोक का रास्ता दिखा रहे थे। चमरौटी में अब तक जितने लोगों को गेहुँवनों ने डसा था, उनमें से एक भी जीवित नहीं बचा था। सभी मौत के गाल में समा चुके थे। भगतजी के तो हाथ-पाँव फूलने लगे। उनके ळााड-़फूँक बेअसर साबित हो रहे थे। जिन जड़ी-बूटियों के चमत्कारों की वह शेखी बघारा करते थे, वे घास से ज़्यादा कारगर नहीं थीं। गाँववाले जितना अपने लोगों के मरने से दुःखी नहीं हो रहे थे, उससे ज़्यादा तो वे इस कारण से शर्म से पानी-पानी हुए जा रहे थे कि उनके दुश्मनों के गाँव यानी धोबिया टोला में कम से कम चालीस लोगों को जहरीले साँपों ने काटा था जिनमें से मरने वालों की संख्या कुल तीन थी जबकि चमरौटी में जितने लोगों को साँपों ने डसा था, उनमें से एक को भी भगतजी नहीं बचा पाए थे। <br />
इसलिए, लोग भगतजी के उपदेशों को सुनने से बहटियाने लगे थे। उनके सबक सुनकर भुनभुनाने लगे थे कि 'बाबाजी ळाूठमूठ का बकबक करते हैं...उनका टोना-टोटका सब बिरथे चला जाता है...अब, उनके बस में कुछ भी न रहा...उनका चमत्कार खत्म हो चुका है।' इस तरह, उनमें से लोगों का विश्वास डोलने लगा था। वे यहाँ तक कहने लगे थे कि धोबिया टोला के लोग ठीक ही कहते हैं कि भगतजी ढोंगी और पाखंडी है। अन्यथा, उनके मंत्र और बूटी से कम से कम एक भी आदमी की तो जान बची होती! उनके कहने पर ही वे साँप-काटे हुए आदमी को अस्पताल में न ले जाकर उनके पास ले जाते रहे हैं। वह तो पहले यहाँ तक दावा करते रहे हैं कि उनके मंत्र में इतना बल है कि खुद साँप आएगा और आदमी का जहर चूसकर उसे चंगा कर जाएगा। लेकिन, ऐसा एक बार भी न होने पर लोग उन्हें बेहद शक की नज़र से देखने लगे थे। इसी समय, मौके का फ़ायदा उठाते हुए धोबिया टोला के सिरफिरों ने यह अफ़वाह फैलाया कि चमरौटी पर कोई दैवी प्रकोप है--एक तो बाढ़, दूसरे बिसहे साँपों का हमला--दोनों ही घातक साबित हो रहे हैं। दरअसल, उनका इशारा भगतजी की ओर था। वे उन्हें निशाना बनाकर सारे चमारों से खुन्दक निकालना चाह रहे थे। उनका सोचना था कि भगतजी की इज्जत के मिट्टी में मिलते ही उनका ग़ुरूर टूट जाएगा।<br />
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तब, चमरौटी वाले एक अलग नज़रिए से सोच-विचार करने लगे। पहले, उन्होंने ग्राम पंचायत की बैठकें बुलाईं और गाँव पर आई विपत्तियों पर विस्तार से चर्चा की। उन्हें यह यक़ीन होने लगा था कि भगतजी जानबूळाकर उनके साथ छल कर रहे हैं। वे नकली जड़ी-बूटियों और फ़र्ज़ी मंत्रों का प्रयोग करके गाँववालों को जानबूळाकर मौत के मुँह में धकेल रहे हैं। वे तो यह भी सोचने लगे थे कि वह म्लेच्छ मलखान के इशारे पर नाचने लगे हैं क्योंकि दोनों आपस में मिलते-जुलते रहते हैं। फिर, उन्होंने यह तय किया कि आईंदा वे साँप-काटे हुए आदमी को भगतजी के बजाय डाक्टर के पास ले जाएंगे। जब इस फ़ैसले की भनक भगतजी को लगी तो वह समळा गए कि अब उनका अस्तित्त्व खतरे में है। अब उनके कर्मकांडों पर कोई विश्वास करने नहीं वाला है। तब, वह बड़ी चालाकी से गाँववालों को बरगलाने लगे कि गाँव पर आई विपत्तियों का कारण कोई दैवी है। इस गाँव के दुश्मनों ने रुहानी ताकतों को हमारे ख़िलाफ़ भड़काया है। जब दद्दन ने जाकर उनसे दो टूक बात करने को कहा तो उन्होंने अपनी ईमानदारी और ईश्वर-भक्ति की कसम खाते हुए धोबिया टोला की ओर ऊँगली उठाई।<br />
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दद्दन ने कहा कि अब पानी नाक के ऊपर से बहने लगा है। वह कोई ऐसी तरक़ीब निकालने में लग गया जिससे कि धोबियों के सिर पर ऐसा पहाड़ टूटे कि वे दोबारा अपने सिर उठाने लायक न रह जाएँ। उसने रातों-रात अपने दोस्तों को इकट्ठा किया और उन्हें अपनी योजना बताई। फिर, दो दिन उस योजना की तैयारी में लगा दिए।<br />
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तीसरे दिन सुबह, किरणों के फूटने के साथ ही एक लोमहर्षक अफ़वाह ने दूर-दराज के इलाकों तक को किसी अनजाने भुतहे भय से ढँक दिया। वह यह था कि रात के तीसरे पहर, जबकि धोबिया टोला के लोग अपने-अपने घरों में गहरी नींद में सो रहे थे तो अज़ीब-सी शक़्ल वाले कुछ बंदरों ने उन पर हमला किया और उन्हें अपने पंजों और नाखुनों से नोच-नोचकर घायल कर दिया। जब तक ओसारों में सो रहे मर्द चौकस होकर उन्हें लाठी-बल्लमों से मारने दौड़ते, वे ग़ायब हो गए। ज़्यादातर बंदरों ने अपना शिकार औरतों और बच्चों को बनाया था और उनके चेहरों को नोचकर बदशक़्ल बना दिया था। सूरज का उजाला होने तक लोगबाग डाक्टर और अस्पताल जाने की जद्दोजहद में कुहराम मचाते रहे। किसी तरह घरेलू नुस्खों के आधार पर घायलों की मरहम-पट्टी करते रहे। पौ फटते ही वे डाक्टरों और अस्पतालों की ओर दौड़ पड़े। दिन जैसे-जैसे गुजर रहा था, हादसे का ख़ौफ़ लोगों को रह-रहकर सालता जा रहा था और उसकी पुनरावृत्ति के ख़्याल से ही उनके रोंगटे खड़े हो जा रहे थे। वे अपने-अपने कामों में खुद को मशग़ूल रखकर उसे भुलाने की भरसक कोशिश कर रहे थे।<br />
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शाम होते ही औरतें रसोइयों में लिट्टियाँ सेंकने और आलू-बैंगन का भुर्ता बनाने चली गईं जबकि धोबियाघाटों से अपने गदहों पर धुले कपड़ों की गठरियाँ लादकर लौटने वाले मर्द अभी भी रास्ते की धूल फाँक रहे थे। गाँव में बुज़ुर्ग लोग बच्चों को परियों की कहानियाँ सुना-सुनाकर उस घटना की भयप्रद स्मृति पर परदा डालने की चेष्टा कर रहे थे। उन्हें यह एहसास हो चला था कि ख़ौफ़ का वह वाक़या उनकी ज़िंदगी का एक ऐसा हिस्सा था जो दोबारा घटित नहीं होगा। लेकिन, वे उस वहम को ज़्यादा देर तक नहीं पाल सके। घुप्प रात होने से पहले ही, एक बार फिर से खलबली मच गई। अचानक़ भूतों की तरह प्रकट होकर उन अज़ीबोग़रीब बंदरों ने दोबारा उसी तरह हुड़दंग मचाते हुए हमले शुरू कर दिए और अधिकतर रसोइयों में खाना पका रही औरतों और मैदानों में गुल्ली-डंडा और गोली-कंचा खेलने वाले बच्चों के चेहरों को बुरी तरह नोच-नोचकर उन्हें लहूलुहान कर दिया। सारा माहौल बच्चों की चिचियाहट-रिरियाहट और औरतों की दर्दनाक़ घिघियाहट से हृदय-विदारक हो गया। जब तक वे उनसे निपटने के लिए तैयार होते, वे एकबैक ओळाल हो गए। चुँकि शाम के कुहासे से अंधेरा हुआ वातावरण ळाींगुरों की ळानळानाहट के बीच अत्यंत रहस्यमय-सा लग रहा था, इसलिए उन्हें ऐसा लगने लगा कि जैसे ये सारी घटनाएँ किसी दैवी कोप से हुई हों। <br />
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जब थके-माँदे मर्द अपने गदहों को हाँकते हुए गाँव में दाख़िल हुए तो अपने बीवी-बच्चों की दुर्दशा देखकर उनके तो होश ही फ़ाख़्ता हो गए। अफ़वाहों और अटकलों के बुलबुले हर मुँह से फूट रहे थे। अधिकतर लोग यह साबित करने पर तुले हुए थे कि उन बंदरों पर किसी का वश चलने वाला नहीं है। इन्सान उनसे पार नहीं पा सकता। लिहाजा, घायलों की तीमारदारी और इलाज की आपाधापी आधी रात तक चलती रही। अब वे चौकन्ने हो गए थे। हट्टे-कट्टे मर्दों की टोलियाँ बनाई गईं जो सारी रात बारी-बारी से सारे गाँव में पहरेदारी करती रहीं। उन्हें लग रहा था कि किसी भी क्षण उन बंदरों का दोबारा हमला हो सकता है। चुँकि चश्मदीद औरतों और बच्चों ने यह बता रखा था कि उन पर ऊपर से हमला किया गया था इसलिए उन्हें यह विश्वास होने लगा था कि वे ऊपर से अर्थात आकाश मार्ग से आए होंगे। क्योंकि उनके रूप-रंग और पहनावे से कोई भी उन्हें इस जमीन का जीव नहीं कह सकता। वे प्रेत-बेताल ही रहे होंगे। <br />
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मलखान कन्नौजिया इन सब बातों पर विश्वास करने से इनकार करता जा रहा था जबकि इन घटनाओं की गूँज दूर-दराज के इलाकों से भी आने लगी थी। ख़ासतौर से चमरौटीवासी उन बंदरों को मुँहनोचवा का नाम देकर उनके बारे में तरह-तरह की कहानियाँ भी गढ़ने लगे थे। इसी दौरान, दद्दन ने एक चाल चली। यद्यपि उसके गाँव में मुँहनोचवा ने अब तक कोई दस्तक नहीं दिया था, तो भी उसने अपने गाँववासियों से यह कहा कि वे बाहर जाकर लोगों में यह अफ़वाह फैलाएँ कि मुँहनोचवा ने उनके गाँव में भी हमला किया है।<br />
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चमरौटीवासी यह सोचकर हैरान हो रहे थे कि आख़िर, दद्दन उनसे ऐसा क्यों करवाना चाहता है। वे उसे संदेह की दृष्टि से देख रहे थे। क्योंकि वह इधर कुछ अज़ीब-सी हरकत भी करने लगा था। वह रोज़ शाम होते ही अपने दस-बारह दोस्तों के साथ यह कहकर मंदिर चला जाता था कि वे भगतजी से कुछ तंत्र-मंत्र सीखने जा रहे हैं। वे वापस गाँव आधी रात के बाद लौटते थे।<br />
राम आसरे को दद्दन और उसके साथियों की गतिविधियों पर शक तो पहले से हो रहा था। उनका रात को भगतजी के पास जाना उसे बिल्कुल अटपटा-सा लग रहा था। इसलिए, एक रात वह उनके पीछे लग गया। मंदिर में छिपकर उसने देखा कि ढिबरी की रोशनी में भगतजी उनको चमड़े के कुछ पोशाक पहना रहे हैं और उनके चेहरों पर काले बंदरों के चेहरों जैसे मुखौटे बाँध रहे हैं। साथ में, उन्हें कुछ हिदायत भी देते जा रहे हैं। उसने अपना कान दीवार से सटा दिया तो भगतजी की बातें साफ़ सुनाई देने लगी, "बचवा लोग, इ सब काम करके हमका भी बड़ा मलाल हो रहा है। लेकिन, अब कोई चारा नहीं रहा। ऊ नास्तिक धोबियों को सबक सिखाना बहुत जरूरी होइ गवा है। अब ऊ लोग भी बूळा जाएँगे कि भूत-परेत औ' ईस्वर क्या होता है। हम तुमसे सर्तिया कहते हैं कि दू दिन में ही ऊ जने हमारे गोड़ पे आके गिरेंगे। उन जनों के भी पता चले कि अपने से बड़ जात के संग बुरा करने का ख़ामियाज़ा क्या होता है..."<br />
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राम आसरे समळा गया कि मुँहनोचवा की हक़ीक़त क्या है। ये लोग ही उस हिंसक बंदर कि भयानक भूमिका निभाते हैं। उसने साफ़ देखा कि उस पोशाक की बाँह में जो हथेली फिट की गई थी, उसमें नाखुनों के स्थान पर धारदार चाकू लगे हुए थे जिनसे घातक प्रहार किया जा सकता था। वह मुँह पर अंगोछा डालकर बड़बड़ाने लगा, "तो इ सब करतूत बब्बन बगुला भगत का है।" उस ढोंगी साधु का असली चेहरा उसके सामने बेनक़ाब हो चुका था। वह समळा गया कि भगत अब अपने अहं की लड़ाई लड़ रहा है और इसके लिए वह धोबिया टोला के बेकसूरों की ज़िंदगी से एक घिनौना खेल खेल रहा है।<br />
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उसकी आँखों के सामने पिछले साल की सारी घटनाएँ नाचने लगीं जबकि बब्बन भगत की वज़ह से उसकी सात वर्षीय मुनिया की जान चली गई थी। उसका गुनाह केवल इतना था कि उसने अपनी सुरसतिया की मौत के बाद मनरखनी को बग़ैर किसी लगन-ब्याह के अपनी मेहरारू बना लिया था। दरअसल, मनरखनी मेहतर जाति की थी। यह बात चमरौटी वालों के गले से नीचे नहीं उतर रही थी कि उनके गूह-मूत उठाने वाली कोई औरत उनके गाँव की बहू बनकर रहे। पर, राम आसरे के बुलंद हौसले के आगे किसी की भी आवाज़ मुँह से नहीं फूट पाई थी। मनरखनी के प्रति गाँववालों की बेरुखी पर उसने हाट में अपनी लाठी भाँजते हुए ललकार कर कहा था, "हम अपने बिरादरी में सब जने को चेता देते हैं कि हमार मनरखनी के साथ जे लोग परहेज करेंगे, हम उनको सर्तिया जमलोक पठा देंगे। मनरखनी को हम मंदिर में भगवान के सामने बियाह के आए हैं। अब ऊ कौनो अछूत मेहतरानी नहीं है। हमसे बियाह करके ऊ भी ततवाँ हो गई है। एक ठो बड़े खन्दान की मेहरारू बन गई है। चमार हो गई है चमार।" <br />
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उस सार्वजनिक घोषणा के बाद वह निश्चिंत होकर गाँव में बड़े हक से रहने लगा था। इसी बीच उसको एक बिटिया भी हुई जिस पर वह बेटे का प्यार न्यौछावर किया करता था। इस पर, अवधू मजाकिया लहजे में आँख मटकाते हुए कहा करता था, "मर्दवा, 'गर तुमको बेटा होता तो फिर, क्या तुम उसको भी चार बेटे के बरोब्बर का पियार बाँटते?"<br />
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राम आसरे मुँह चियारकर घिघिया उठता, "मुनिया लइकी है तो क्या भया? ऊ हमारी जान है। घर की लच्छमी है..."<br />
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उससे सबसे ज़्यादा जो व्यक्ति चिढ़ता था, वह भगतजी थे। उसे अच्छी तरह पता था कि चुँकि उसने एक मेहतरानी से ब्याह किया है, इसलिए भगतजी उसके साथ कितना भेदभाव करते हैं! जब उसके हाथ में प्रसाद डालते हैं तो यह पूरा ऐहतियात बरतते हैं कि उससे उनकी ऊँगलियाँ छू न जाए। हर साल जब शिवरात्रि को पूरे गाँववालों का भंडारा चलता है तो उसे एक अलग पंगत में बैठाया जाता है। ऐसा ही भेदभाव पिछले साल उसकी मुनिया के साथ भी किया गया था जबकि ड्राप्सी डाईन सभी पर सवार होकर उनकी जान लेना चाहती थी। सारे चमारों का ळााड़-फूँक तो तत्काल कर दिया जाता था; पर, उसकी मुनिया को बार-बार पीछे खदेड़ दिया जाता था। इसका बुरा नतीजा यह निकला कि लाइन में खड़े-खड़े जब मुनिया की हालत बिगड़ने लगी तो वह निराश होकर डाक्टर की ओर भागा। लेकिन, जब तक वह अस्पताल में कदम रखता, ड्राप्सी डाईन मुनिया की नटई टीप चुकी थी। वह परलोक सिधार चुकी थी।<br />
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राम आसरे अपनी भोली-भाली बिटिया का सुघड़ चेहरा ख्याल में आते ही गुस्से में चूर हो गया। मंदिर से घर लौटने के बाद वह इसी उधेड़बुन में सारी रात नहीं सो सका कि अपनी ही बिरादरी वालों को कैसे सबक सिखाया जाए। यों तो, उसने यह तय किया था कि सुबह होते ही वह पहले धोबिया टोला जाएगा और हमलावर बंदरों की असलियत वहाँ सभी को किसी लागलपेट के बिना बता देगा। लेकिन, सुबह उसने अपना इरादा बदल दिया। उसने मंदिर की ओर रुख कर लिया। <br />
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मंदिर में पैर रखते ही वह भगतजी पर बरस पड़ा, "पखंडीबाज बगुला भगत, हम तुम्हारा असली रूप पहिचान गए हैं। जब तुम कल रात गाँव के जवान लौंडों को मुँहनोचवा बनाके धोबिया टोला पठा रहे थे तो हम लुक-छिपके तुम्हारा सारा गोरखधंधा देख रहे थे। हम तुमको आगाह कर देते हैं कि इ खून का होली खेलना बंद कर दो, नहीं तो हम सारे गाँव-जवार में तुम्हारे करतूतों का हल्ला-गुल्ला मचा देंगे..."<br />
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भगतजी को उसकी बात सुनकर तो करेंट-सा मार गया। पहले तो वह अपने कान पकड़कर कसम खाते रहे कि जो कुछ धोबिया टोला में हो रहा है, उसके बारे में उन्हें कुछ भी पता नहीं है। लेकिन, जब वह बारबार उनके करतूतों के भांडाफोड़ की धमकी देता रहा तो उन्होंने घुटने टेक दिए। वह गिड़गिड़ाने लगे--<br />
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"राम आसरे, अब तुमसे क्या छिपाएँ, इ सब दद्दन पहलवान का किया-कराया है। उसने ही हमसे कहा कि बाबा अब तिहारी जिनगी खतरे में है। तुम या तो अपना चमत्कार दिखाओ या अपना बोरिया-बिस्तरा समेटके चलता बनो। सो, हमको इ खेल खेलना पड़ा और ऊ भी दद्दन के इसारे पे, जिसने सारा जोजना बनाया है। हम तो सिरफ़ उसका कठपुतली हैं..."<br />
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राम आसरे एक तरफ़ प्रतिशोध की भावना से तो दूसरी तरफ़ धोबियों पर होने वाले घातक हमलों से मर्मस्थल तक द्रवीभूत हो रहा था। वह ठीक ही सोच रहा था कि अग़र उसने और देर की तो ग़ज़ब हो जाएगा। जब वह दद्दन को डाँट पिलाने उसके घर जा रहा था तो उसे लोगों की कानाफ़ुसियों से पता चला कि धोबिया टोला में कल रात मुँहनोचवा बंदरों का फिर हमला हुआ था और एक बुढ़िया उनसे डरकर भागते समय छत से गिरकर, काल के गाल में समा गई। बहरहाल, जब वह दरवाजा खटखटाए बिना दद्दन के घर में एकबैक दाखिल हुआ तो दद्दन हकबका-सा गया क्योंकि वह अपने दोस्तों से घिरा हुआ बातचीत में मशगूल था। राम आसरे समळा गया कि वे अपनी अगली साजिश को अमली जामा पहनाने के लिए गुप्त मंत्रणा में लिप्त हैं। जब वे उसके अचानक आ टपकने के बारे में अटकलें लगा रहे थे कि तभी वह गरज उठा--<br />
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"अब हम तुम लोगों की कारसाजी जान गए हैं। बाज आ जाओ, नहीं तो हमसे बुरा कोई नहीं होगा। हम सीधे थाना जाएँगे औ' तुम्हारा ख़ौफ़नाक़ खेल जगजाहिर कर देंगे, जब थानेदार हवालात में लात-घूँसों से तुम्हारी खबर लेगा..."<br />
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पहले तो वे सब भोले और अनजान बन रहे थे। पर, जब राम आसरे ने बताया कि भगतजी ने उसे सारी बातें बता दी हैं तो वे खुद भगत को गाली-गुफ़्ता देने लगे। दद्दन, भगत पर ही इल्जाम थोपने लगा कि उसने ही उनको बहला-फुसलाकर मुँहनोचवा का खेल खेलने के लिए राजी किया था। वह वहीं पर राम आसरे के सामने कान पकड़कर उट्ठी-बैठी करने लगा कि वह अब अपने दोस्तों को लेकर आईंदा यह भयानक खेल नहीं खेलेगा। लेकिन, राम आसरे कहाँ मानने वाला था? उसे तो अभी अपनी मुनिया बिटिया की मौत का बदला लेना था जिसके लिए खुद भगत ज़िम्मेदार था। इसलिए, उसने उन्हें धमकाकर वापस घर लौटने के बजाए, वादा-ख़िलाफ़ी की। वह सीधे पंचायत में रपट देने चला गया।<br />
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ग्राम प्रधान अवधू राम तो भगतजी की कारिस्तानी पर एकदम अंगारा हो गया। उसने तत्काल मुनादी कराकर पंचायत में दद्दन और उसके साथियों समेत बब्बन भगत को तलब करवा लिया। जिस समय पंचायत लगने वाली थी, राम आसरे ने चुपके से धोबिया टोला के बड़े-बुजुर्गों को भी वहाँ छिपे तौर पर मौज़ूद रहने की खबर भिजवा दी। भगत को जबरन घसीटकर पंचायत में लाया गया। वह पंचायत में हाजिर होने की सूचना पाते ही भाग खड़ा हुआ था। पर, चमरौटी के दिलेर लौंडों ने उसे रास्ते में ही टाँग लिया और घसीटते हुए भरी पंचायत में ला पटका। इतने पर भी, वह अपनी चालाकी से कहाँ बाज आने वाला था? वह दहाड़ें मार-मार चिल्लाने लगा--<br />
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"हमारे साथ कुछ अनापसनाप काम किया तो इ जान लो कि इसका ख़ामियाजा बहुत बुरा होगा। हम भगत आदमी हैं। औघड़दानी सिवजी के पुजारी हैं। हम सराप देंगे तो सारा संसार भसम हो जाएगा। तिहारे गाँव पर सन्निच्चर सवार हो जाएगा। विसधर अजगर एक-एक जने को निगल जाएगा..."<br />
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पर, गाँववाले उस कपटी साधु की धमकियों में कहाँ आने वाले थे? वे उसके भीतर छिपे राक्षस से भलीभाँति अवगत हो चुके थे। जहाँ उनके मन में वर्षों से धोबिया टोला के लोगों के प्रति नफ़रत भरी हुई थी, वहीं वे अब उनके लिए सहानुभूति जताने लगे थे। क्योंकि वे जान गए थे कि धोबिया टोला के लोग एक धूर्त साधु के अहंकार के चलते उसकी हिंसक वृत्तियों के शिकार हुए हैं। कुछ लोग तो धोबियों की सुलळाी हुई सोच की भी तारीफ़ करने लगे थे। उनका मानना था कि अगर वे भी उनकी तरह साँप-काटे व्यक्तियों को किसी औघड़ के बजाए डाक्टर के पास ले गए होते तो इतनी भारी संख्या में उनके स्वजन नहीं मरे होते।<br />
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लिहाजा, जब पंचायत की कार्रवाई आरंभ हुई तो सरपंच ने बारी-बारी से मुँहनोचवा बंदरों का खेल खेलने वाले दद्दन और उसके साथियों की बातें सुनी। फिर, प्रत्यक्षदर्शी राम आसरे ने उनके खिलाफ़ गवाही दी। आख़िर में, भगत ने अपना अपराध कबूल करना ही बेहतर समळाा। साथ में, उनकी सहानुभूति पाने के लिए उसने यह रहस्य भी उद्घाटित कर डाला कि वह इसी गाँव का जन्मा है यानी, भदेसर मोची का बेटा है जिसके साथ भागकर वह भी औघड़ बन गया था। उसने करबद्ध प्रार्थना की--<br />
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"हम कोई कुजात नहीं हैं, हम भी तुम्हारे जैसे खानदानी चमार हैं। अगर हम सचमुच बाँभन होते तो हम कुछ ना कहते। तुम जो सजा चाहते, हमें देते! लेकिन, अपनी बिरादरी पर तो रहम खाओ..."<br />
जब वह गिड़गिड़ा रहा था तभी वहाँ छिपकर पंचायत का फ़ैसला सुनने आए धोबिया टोला के करीब दर्ज़नभर लोग भी सामने आ गए। उनकी उपस्थिति से तो वहाँ सारे चमरौटीवासी अचकचा-से गए। लेकिन, उसी वक़्त राम आसरे सरपंच के मंच के पास आकर कहने लगा--<br />
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"चुँकि भगत की चुगलखोरी को हम चमरौटीवासी बरसों से ळोलते रहे हैं; लेकिन, इस समय उनके कुकर्मों का ख़ामियाजा धोबिया टोला के लाचार मेहरारुओं और बच्चों को भोगना पड़ा है। सो, हमारा सरपंच अवधू राम से गुजारिश है कि धोबियों के बुजुर्ग श्री मखंचूराम कन्नौजिया ही इहाँ आके जुल्मियों को सजा सुनाएँ।"<br />
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कुछ पल तक राम आसरे के एलान से चुप्पी छाई रही। ज़्यादातर लोगों को समळा में नहीं आ रहा था कि आख़िर, यह सब हो क्या रहा है। किंतु, तभी मंच पर बैठे चमरौटी के सम्मानित लोगों ने तालियाँ बजाकर मखंचूराम को आमंत्रित किया। मखंचूराम के लिए यह बड़े फ़ख़्र की बात थी कि उन्हें चमरौटी की पंचायत का सरपंच चुना गया था।<br />
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उन्होंने चमरौटीवासियों की उदारता से अभिभूत होकर अपनी पूरी भलमनसाहत दिखाई। उन्होंने कहा, "हमलोग भी साधु-संन्यासियों की इज्जत करना जानते हैं। लेकिन, भगतजी ने जैसा असामाजिक काम किया है, वह बड़ा शर्मनाक़ है। संतों के लायक नहीं है। वह हमारे बीच जातिवाद, आपसी भेदभाव और छुआछूत फैलाकर बड़ा बुरा करते रहे हैं। उन्होंने इतने समय तक तो हमारे भोले-भाले चमार भाइयों को बुद्धू बनाके अपना उल्लू सीधा किया ही है, अब तो नई पौध को भी बिगाड़ना शुरू कर दिया है। दद्दन और उसके नादान दोस्तों ने जो कुछ किया है, वह भगतजी के फ़ुसलावे में आकर किया है। इसलिए, असली मुजरिम भगतजी हैं। सरपंच होने के नाते हम उनको ये हुकुम देते हैं कि वह हमारा गाँव-टोला छोड़के काशी चले जाएं। दोबारा यहाँ कभी दिखाई न दें। दूसरे, दद्दन और उसके दोस्तों को हम ये आदेश देते हैं कि वे हमारे घायल लोगों की तीमारदारी करने हमारे गाँव जाएँ। उस काम से फ़ारिग होने के बाद, चमरौटी के शिव मंदिर में पूजा-पाठ से लेकर सभी <br />
बंदोबस्त करने की ज़िम्मेवारी सम्हालें।"<br />
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उस दिन धोबिया टोला और चमरौटी के बीच भेदभाव व नफ़रत की सारी दीवारें गिरा दी गईं। लेकिन, वह सौहार्द का आलम ज़्यादा दिनों तक नहीं कायम रह सका। जब गर्मी आई तो चमरौटी में लोगों पर भूत फिर से आने लगे। लोगों ने कहा कि ये कोई बाई-बतास तो है नहीं कि हक़ीम-वैद्य की बाट जोही जाए। पंचायत में यह आम राय प्रकट की गई कि भगतजी को काशी से ढूँढ़कर दोबारा गाँव में बसाया जाए। क्योंकि भूतों का कोप तो हर साल ळोलना होगा जिनके भगाने के लिए भगतजी जैसे सिद्ध औघड़ की दरकार पड़ती रहेगी।<br />
<br />
सो, धोबिया टोला से संबंधों को दरकिनार कर दिया गया और भगतजी का मान-मनौव्वल कर उन्हें शिव मंदिर में पुनः प्रतिष्ठित किया गया। उन्होंने आते ही गंगा-तीर पर फिर से भूत भगाने के अपने कर्मकांड आरंभ कर दिए। वहाँ, जमा चमरौटीवासियों में धोबियों के ख़िलाफ़ बेहूदी बतकही का बयार फिर बहने लगा। इस बार भगतजी ने बड़े फूँक-फूँककर कदम उठाए। सबसे पहले अपने सबसे बड़े दुश्मन राम आसरे के ख़िलाफ़ चमारों को भड़काया। उसे विधर्मी और कुजात घोषित कर गाँव से बहिष्कृत कराया। उसके बाद, गाँववालों के मन में यह धारणा बैठा दी कि जिन साँपों के काटने से गाँव के चालीस लोग मरे थे, उन्हें काशी के एक बड़े औघड़ द्वारा मंत्रों से पैदा करके भेजा गया था और यह साजिश किसी और के द्वारा नहीं बल्कि धोबियों के बुजुर्ग--मखंचू राम द्वारा तैयार की गई थी। उन्होंने यह भी बताया कि ऐसे साँपों का जहर न तो मंत्र से उतरता है, न ही किसी जड़ी-बूटी से। फिर क्या था, धोबियों के ख़िलाफ़ चमारों का द्वेष बेतहाशा बढ़ गया। चमरौटीवासी मखंचू राम को अपना जानी दुश्मन मानने लगे।<br />
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चुनांचे, बाबा भगतजी चमरौटी में पूरे शानो-शौक़त से विराजमान हैं। कई सालों से बाढ़ भी नहीं आई है। भविष्य में कोई ऐसी उम्मीद भी नहीं है। फिर भी, भगतजी की इस प्रार्थना पर, भगवान ने विशेष कृपादृष्टि दिखाई है कि वह उनके गाँव को बाढ़ के कोप से दूर रखें। न बाढ़ आएगी, न साँपों का क़हर बरपेगा। बेशक! साँपों के आगे तो उनका कोई चारा नहीं चलता।</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%AB%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%AB%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%9F_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5974कबूतर की फड़फड़ाहट / मनोज श्रीवास्तव2011-12-02T10:32:31Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
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<div> '''फड़फड़ाहट कबूतर की'''<br />
...वेटर, वेटर, वेटर...अरे, ये लोग मेरा ठीक-ठीक नाम भी नहीं ले सकते? सब के सब, वही रोज वाले तो हैं। मैं इनसे कई बार कह चुका हूँ कि मेरा नाम वेटर नंबर नाइन नहीं है। भला, यह भी कोई नाम है। अपने मेनू के नाम तो लोग भूलते नहीं--कटलेट, पिज़्ज़ा, बर्गर, आमलेट, फ़्राई फ़िश वगैरह, वगैरह। पर, 'पीटर' जैसा पिद्दी-सा नाम इन्हें नहीं याद रहता। हाँ-हाँ, सब याद रहता है; लेकिन, अपना अफ़सराना रोब तो ये तभी जमा पाएंगे, जब यह कहकर पुकारेंगे कि--'अबे, वेटर नंबर नाइन, इधर आ'...<br />
<br />
पीटर का चेहरा सबेरे-सबेरे बुरी तरह तमतमाया हुआ है। उसका मूड हो रहा है कि वह बाहर जाकर एक और सिगरेट पी ले। पहले भी वह दो बार बाहर जा चुका है और दोनों बार वह आधी सिगरेट भी फूँक नहीं पाया था कि 'बार' का मैनेजर उसे बुला लेता है।<br />
<br />
वह सोचता हुआ कब बाहर निकलकर सड़क-पार वाली दुकान से एक पैकेट सिगरेट लेता है और शेड के नीचे खड़ा होकर एक सुलगा लेता है--उसे कुछ पता नहीं। जोरदार कश के बाद धुआँ छोड़ते हुए उसे बड़ा सुकून मिलता है। वह बार-बार कश लेकर दूर तक धुआँ छोड़ता है। उसके चेहरे पर से तनाव धुलता जाता है।<br />
<br />
वह आँखें गोल-गोल करके धुओं के छल्लों को बड़े ग़ौर से उसी अंदाज़ से देखता है, जिस अंदाज़ से वह युवतियों के सजीले चेहरों को देखता है। उसे आश्चर्य-मिश्रित सुख का एहसास होता है। वह एकांत आलाप से बाज नहीं आता है--'अहा-हा, क्या तासीर है इनमें? यह सिगरेट भी क्या चीज़ है? भीतर की बेचैनी को खदेड़कर बाहर निकाल फेंकती है। ळााड़ू की तरह ळााड़-बुहारकर मन को साफ़-सुथरा कर देती है।' वह कमीज की पॉकिट से सिगरेट की पैकेट हाथ में लेकर घुमा-घुमाकर बड़े विस्मय से देखता है। 'बाकी बचे नौ पूरे दिन भर के लिए काफ़ी हैं। इनमें इतने धुएँ भरे हैं कि ये दिमाग के सारे कचरे को बाहर निकाल फेकेंगे...'<br />
<br />
बेशक! उसे सिगरेट से कितनी मोहब्बत है! आख़िर क्यों न हो? इससे कई फ़ायदों के साथ-साथ, एक फ़ायदा यह भी है कि कश लेते वक़्त उसकी पर्सनैलिटी में चार चाँद लग जाते हैं। मैडम मैरी भी तो यही कहती है कि, 'पीटर! तुम सिगरेट दबाकर बिल्कुल साहब लगते हो।'<br />
<br />
उसका चेहरा रोब से भर जाता है। वह दुकान में लगे आइने के सामने खड़ा होकर सीना फुलाता है और जोरदार कश लेता है। फिर, कंधा सीधा करता है और बाएँ हाथ की अंगुलियों से अस्त-व्यस्त बालों को सँवारता है।<br />
<br />
मैडम मैरी के ख़्याल से उसका चेहरा खिल उठता है। वह अच्छी तरह मुस्कराता है। मुस्कराने से कटोरे जैसे उसके सफ़ेद-सफ़ेद गाल और भी लटक जाते हैं। नाक और होठों के किनारे की रेखाएँ खिंचकर गहरे लाल रंग की हो जाती हैं। ऐसा लगता है कि उसके गाल कबूतर के पंख जैसे हैं जो उसके मुस्कराने पर फड़फड़ाकर उड़ जाना चाहते हैं। बेशक, नाक का ऊपरी भाग तो सफ़ेद है, पर, नथुना इतना लाल और नुकीला है कि उसे देखकर कोई भी कबूतर की चोंच कह सकता है।<br />
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सिगरेट से निपटने के बाद, वह पीछे के पैंट्री रूम में दाखिल होते हुए इस तरह का हाव-भाव बनाता है कि लोगबाग यह समळों कि वह किसी ग्राहक के दिए गए आर्डर को पूरा करने में व्यस्त रहा है। वह कबर्ड खोलकर बंद करता है और इधर-उधर सामान को छेड़ता है। एक तश्तरी में कुछ फ़्राइ फ़िश रखता है और फिर उन्हें वापस कबर्ड में रखते हुए मैनेजर की आँख बचाकर कैंटीन में प्रवेश करता है।<br />
<br />
उसे देखकर यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि उसकी आँखें किसी की प्रतीक्षा में बेहद उतावली हो रही हैं। वह स्टाल के बगल में खड़ा होकर बड़ी निश्चिंततापूर्वक अपने कान खुजलाता है। यहाँ मैनेजर की खोजी नज़रें नहीं पहुँच पाती हैं। काम से जी चुरानेवाले दूसरे वेटर भी यहीं आड़ लेकर दम लेना चाहते हैं। सुस्ताना चाहते हैं। लेकिन, यह जगह मुस्तकिल तौर पर पीटर के लिए रिज़र्व है। इस बाबत, वह अन्य वेटरों से तूं-तूं, मैं-मैं भी कर चुका है। जब कोई वेटर यहाँ ज़बरदस्ती घुसपैठ करने की ग़ुस्ताखी करता है तो वह ळाट यहाँ आ धमकता है और अपनी नीली-नीली आँखों को गोल-गोल करके उस वेटर को गुस्से में ऐसे गुरेरता है जैसेकि वह कह रहा हो कि 'अबे सियार की औलाद, शेर की मांद के पास खड़ा होने का अंजाम तुळो पता नहीं है?' वेटर फ़ौरन दुम दबाकर भाग खड़ा होता है।<br />
<br />
मैनेजर अपनी काँच की पारदर्शी कैबिन में खड़ा होकर चारो ओर की स्थिति का जायजा लेता है। उसकी नज़र आराम फरमाते पीटर पर पड़ती है। वह जोर से बेल बजाते हुए आदतन चींखता है, "वेटर नंबर नाइन।"<br />
<br />
पीटर पर जैसे बम फट पड़ता है। वह इस चेतावनी का अर्थ अच्छी तरह समळाता है। वह हरकत में आने से पहले कुढ़-सा जाता है। उसे अपनी हालत पर तरस आती है। अबे, तूँ कहाँ का शेर है? असली शेर तो उस शीशेदानी में बैठा हुआ गुर्रा रहा है जो अपनी पैनी नज़र से किसी भी वेटर को साँस नहीं लेने देता है। तूँ तो पूरी तरह गीदड़ है। वाकई शेर होता तो सीना तानकर बेख़ौंफ़ इधर-उधर घूमता। आँख बचाकर यहाँ क्यों खड़ा होता?<br />
<br />
उसे मैनेजर की दहाड़ सुनने के बाद अपना सत्तर किलो का शरीर दुर्वह्य-सा लगता है। वह कंधा सीधा करता है और गरदन दाएँ-बाएँ घुमाने के बाद इस बोळा को ढोते हुए कैंटीन के बीचो-बीच आ जाता है। वह इधर-उधर देखता है। सभी उसे यानी वेटर नंबर नाइन को धारदार निग़ाहों से घूर रहे हैं। सबसे ज़्यादा ळोंप उसे अपने साथी वेटरों से उठानी पड़ती है जिन पर वह बात-बात में धौंस जमाता है। लिहाजा, उसकी हालत भींगी बिल्ली-सी न बन जाए, इसकी वह भरसक कोशिश करता है। वह पूर्ववत सामान्य बनने का अभ्यास करता है ताकि लोग यह समळों कि मैनेजर की डाँट उसे नहीं, किसी और वेटर पर पड़ी है।<br />
चुनांचे, फ़टकार की शर्म पचाने के लिए वह व्यस्तता का बहाना बनाने में इतना मशगूल हो चुका है कि वह यह भी भूल गया है कि उसे किसी की प्रतीक्षा है। उसे कोई चीज खोई-खोई सी लगती है। वह यह याद करने की चेष्टा करता है कि वह क्या भूल गया है। वह बारी-बारी से कई ग्राहकों के आर्डर लेता है। लेकिन, वह कुछ भूला हुआ है। शायद वह किसी का मेनू याद रखना भूल गया है। वह ग्राहकों के आर्डर पुनः लेता है। हरेक के पास से गुजरता है। अपनी पॉकेट चेक करता है और हाथ पर लगी पुराने चैन वाली स्विस-मेड घड़ी भी देखता है। वह सिर्फ़ घड़ी चेक करता है। अब वह समय भी देखता है। क्या बजा है? पता नहीं। वह ळाुँळालाकर फ़िर समय देखता है। बड़े ग़ौर से। सुबह के साढ़े आठ बजे हैं। उसे एकबैक कुछ याद आता है। वह बेचैन-सा हो जाता है।<br />
<br />
हाँ-हाँ, यही तो समय है--मैडम के आने का। चल भई, जल्दी से इन महाशयों के आर्डर पूरा कर दे। अन्यथा, देर होने पर कोई 'अबे-तबे' करेगा तो कोई 'सुन-बे' कहेगा। फ़ालतू में मेरी इज्जत डाउन होगी। वह भी ऐसे समय जबकि मैरी आने वाली है।<br />
<br />
वह बड़ी फ़ुर्ती से अन्दर पैंन्ट्री रूम में भागता है।<br />
<br />
मैरी कैंटीन में दाख़िल होती है। उसके साथ उसकी हम-उम्र सहेली नैसी भी है। वह किसी भी व्यक्ति को ध्यान से देखे बिना पूरे हाल का जायजा लेती है। लोग उसे आँखें फ़ाड़-फ़ाड़ देख रहे हैं। लेकिन, इससे उसको न तो कोई कौतुहल होता है, न ही जिळ्ाासा। पर, उसे अच्छी तरह पता है कि लोग उस जैसी चिलबिली और मनमौजी लड़की को क्यों आँखें फाड़-फाड़ देखते हैं।<br />
<br />
दोनों ही प्राइवेसी रखने के लिए कोने की मेज के आमने-सामने बैठ जाती हैं।<br />
<br />
मैरी की ख़ामोशी सभी उपस्थितों को खल रही है। उसकी चंचल फड़फड़ाहट से इस बिल्डिंग का कौन व्यक्ति वाक़िफ़ नहीं है? वह सभी वेटरों को बारी-बारी से देखती है। तभी नैसी एक वेटर को इशारा करती है। मैरी उसे वापस भेज देती है। नैसी उसे सवालिया निग़ाहों से देखती है। बदले में, वह मुस्कराती हैः<br />
<br />
'यह मेरा वेटर नहीं है।'<br />
<br />
'ऑ ... ... ...'<br />
<br />
'देखो, वो आ रहा है।'<br />
<br />
'अहा, वेटर नंबर नाइन'<br />
<br />
'हाँ, मेरा लकी नंबर।'<br />
<br />
'मतलब...'<br />
<br />
'मेरे लिए नौ नंबर बड़ा लकी रहा है।'<br />
<br />
'अच्छा?'<br />
<br />
'हाँ, मेरे कैरियर में नौ नंबर की आश्चर्यजनक भूमिका है।'<br />
<br />
'मैं समळाी नहीं...'<br />
<br />
'मेरी पैदाईश 18 सितंबर, 1963 को हुई, पहली शादी 9 सितंबर, 1981 को और तलाक़ इसके अगले वर्ष इसी तारीख को। यहाँ, 27 सितम्बर 1990 को स्टेनों उस स्मार्ट बॉस की बनी जो चैंबर नंबर 099 में बैठता है। जिस कंप्यूटर पर मैं काम करती हूँ, उसका नंबर भी 9099 है और यहाँ तक कि यह नौवीं मंजिल है जहाँ मैं नौकरी करती हूँ और जहाँ कैथी के साथ मेरा अफ़ेयर चल रहा है।'<br />
<br />
'वाह, क्या कलकुलेशन है? मुळो तो बेहद ताज़्ज़ुब होता है...और हाँ, आज क्या होने वाला है...आज भी तो 9 सितंबर है। देखो कहीं...'<br />
<br />
पीटर के अप्रत्याशित रूप से आ-टपकने पर नैसी के शब्द मुँह में ही ज़ब्त हो जाते हैं।<br />
<br />
पीटर बड़ी आत्मीयतापूर्वक मुस्कराता है--'हैलो, वेटर नंबर नाइन।'<br />
<br />
वह मैरी से मुखातिब है। नैसी को नज़रअंदाज़ करता हुआ मैरी को अपनी नज़रों से पूरी तरह आत्मसात करना चाहता है। जैसेकि वह कह रहा हो कि मेरा सरोकार सिर्फ़ तुमसे है। यह कौन है जो तुम्हारे साथ है? तुम्हारी सहेली कितनी भी ख़ूबसूरत हो, इससे मुळो क्या फ़र्क पड़ता है? हालाँकि वह बेशक! तुमसे आकर्षक है; पर, मैं उसे बिल्कुल नापसंद करता हूँ। मैं तुम्हारे सिवाय किसी दूसरी लड़की को नहीं जानता। सड़क पर, बाजार में, स्टेशन पर, पार्क में, गली में, लिफ़्ट में और कहीं भी मैं बेशुमार लड़कियाँ देखता हूँ। एक-से बढ़कर एक। पर, मैं उनसे कोई वास्ता नहीं रखता, कुछ भी नहीं...'<br />
<br />
मैरी उसकी आँखों में अपनी निग़ाहें उड़ेलते हुए बड़े अर्थपूर्ण ढंग से पलक ळापकाती है जैसेकि उसने सब कुछ समळा लिया हो, सब कुछ स्वीकार कर लिया हो। वह आँखों की इस भाषा से भली-भाँति परिचित है।<br />
<br />
पीटर आत्मसंतोष की साँस लेता है। उसने बचपन में पक्षियों को देखकर उड़ने की अदम्य इच्छा अब पूरी कर ली है। बचपन में, उड़कर आसमान छूने की आशा से वह दोनों हाथों को पंख की तरह हिलाता था; लेकिन, उसकी इच्छा उस समय पूरी नहीं हो पाई थी। आज वह पूरी हो गई है। वह जी-जान से उड़ रहा है। बादलों को छूकर उनकी शीतलता को हृदयंगम कर रहा है। टिमटिमाते सितारों से आँखें मिचमिचाकर बातें कर रहा है। सूरज की रंगबिरंगी किरणों में स्नान कर रहा है। इंद्रधनुष पर खड़ा होकर ऊपर अंतरिक्ष में छलांग लगाना चाहता है, जहाँ वह और मैरी ठंडे-ठंडे समीर में तैर रहे होंगे और नीचे सुदूर जमीन पर लोगों का उपहास उड़ा रहे होंगे जो उन्हें इतना खुश देखकर उनसे ईर्ष्या कर रहे होंगे।<br />
<br />
'पीटर दि ग्रेट! कहाँ खोए हो?' मैरी की आवाज़ उसकी कल्पना के पंखों को छू देती है। उसके संवेदनशील पंख उसके सम्मोहन में उड़ना भूलकर उसकी हथेलियों में आ गिरते हैं। वह अपना होश बरकार रखने की भरसक कोशिश करता हैः<br />
<br />
'मैडम, क्या लाऊँ?'<br />
<br />
'जो जी चाहे ले आओ, मेरे लकी नंबर।'<br />
<br />
'क्या मैं आपका लकी नंबर हूँ?'<br />
<br />
'हाँ, तुम्हारा नौ नंबर मेरे लिए बड़ा लकी है।'<br />
<br />
'वो कैसे?'<br />
<br />
'यह नंबर बड़े महान, भाग्यशाली और दृढ़ इच्छा और मज़बूत इरादे वाले व्यक्तियों का होता है। वो जो सोचे, जो कहे, वही <br />
होता है। जो चाहे, जो छू ले, वही मिल जाता है।'<br />
<br />
नैसी ठहाके मारकर हँसने लगती है--<br />
<br />
'नंबर नाइन, ख़बरदार मेरी सहेली को मत छूना।'<br />
<br />
नैसी के व्यंग्य-कटाक्ष से उसका रोम-रोम सिहर उठता है।<br />
<br />
'आप भी मेरी औकात से बाहर की बात करती हैं।'<br />
<br />
'क्यूँ? औकात तो बनाने से बनती है। मेरा मन कहता है कि यह लकी नंबर तुम्हें बहुत ऊँचा आदमी बनाएगा।'<br />
<br />
पीटर का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। उसकी महत्त्वाकांक्षा कुलांचे भरने लगती है। भावावेश में उसके गाल पंख की तरह फड़फड़ा उठते हैं। चेहरे पर भावों के ज्वार-भाटे में उसका आत्मविश्वास स्पष्ट रूप से ळालकता है। 'हुँह, औकात! इस नैसी को अपनी औकात दिखाऊँगा। इससे मैरी को इतनी दूर ले जाऊँगा कि वह मैरी के संसर्ग के लिए तरस जाएगी। मैरी के ऐशो-आराम से ईर्ष्या करने लगेगी। तब मैं इसका स्वागत हिकारतभरी मुस्कराहट से ही किया करूँगा।'<br />
<br />
लंच टाइम हो चुका है। पीटर का चेहरा किसी द्वंद्व युद्ध में विजय पाने जैसे हर्षातिरेक से खिला हुआ है। उसे आज किसी की परवाह नहीं है। उस शीशेदानी वाले के शेर की भी नहीं। वह यहाँ धौंस जमाकर बातें करेगा। यह भी नहीं जाहिर नहीं होने देगा कि वह एक अदना-सा वेटर है। वेटर तो वह यहाँ अपनी मर्जी से बना है। उसे तो अच्छे-अच्छे ऑफ़र मिले थे। वह कोई सुपरवाइज़र या मार्केटिंग इंस्पेक्टर होता। हाँ, वह न्यूयार्क के एक मर्चेंट कंपनी में कुछ समय पहले ही सीनियर सेल्समैन का ऑफ़र ठुकरा चुका है। आख़िर, वह कोई जाहिल देहाती तो है नहीं। सीनियर स्कूल का सार्टिफ़िकेट है उसके पास। वह आगे ग्रेजुएट भी करना चाहता था। पर, उसके पिता के एक आयरिश अभिनेत्री के साथ पोलैंड चले जाने के बाद और उसकी माँ द्वारा एक शिप कैप्टेन के साथ शादी कर होनोलुलू में बस जाने के बाद वह यहाँ एकदम अकेला रह गया था। उसकी महत्त्वाकांक्षा दफ़्न हो गई थी। उस समय उसकी उम्र ही क्या रही होगी? यही कोई चौदह-पंद्रह साल की। यह तो उसका दमदार मनोबल था जो वह अकेला ही बीहड़ संघर्ष करता रहा। उसे पूरा यकीन है कि एक न एक दिन वह न्यूयार्क का बड़ा आदमी बनकर रहेगा। आख़िर, मूँगा भी तो गंदे सागर में ही पैदा होता है। अब्राहम लिंकन की तरह...<br />
<br />
वह अपने नौ नंबर की बेल्ट पर बड़े प्यार से हाथ फेरता है। वह इसकी तिलस्मी तासीर को आज़माएगा। उसे मैडम मैरी की भविष्यवाणी पर अटूट विश्वास है। क्यों न हो? वह भी तो यही चाहती है कि पीटर कोई बड़ा आदमी बने। हर लड़की अपने प्रेमी के बारे में ऐसा ही चाहती है। उसके उज्ज्वल भविष्य की कामना करती है। उसे भी तो उससे बड़ा प्यार है। इसका अन्दाज़ा तो वह बहुत पहले ही लगा चुका है। समय आने पर वह इस प्यार को हक़ीक़त में बदल कर रहेगा।<br />
<br />
उसके चेहरे पर चमक है, कुछ तनाव की लकीरें भी खिंची हुई हैं। वह टी0 एस0 इलियट की एक कविता में मनहूस प्रेमी अल्फ़्रेड प्रूफ़्रॉक की तरह प्रेम को प्रस्तावित करने में अधिक समय नहीं लगाएगा। वह इसे अब नहीं टालेगा। हाँ, वह अंतिम निर्णय ले चुका है। वह आज ही इस भीड़ में उसका हाथ चूमकर उसे सीने से लगा लेगा। शाम को सन टॉप होटल में उसके साथ डिनर करेगा। रात किसी हसीन नाइट क्लब में गुजारेगा। उसके साथ डांस करेगा। रोमांस करेगा। फिर, इसी सप्ताह, उससे शादी कर लेगा।<br />
<br />
उसके चेहरे का कबूतर फड़फड़ाकर अपनी उत्तेजना प्रकट करता है। उसकी आँखें नीले नाइट बल्ब की तरह टिमटिमा उठती हैं।<br />
तभी मैरी के प्रवेश से वह एकदम उमंगित हो उठता है। पर, वह हैरान हो उठता है। उसके साथ यह आदमी कौन है? बाँह में बाँह डाले हुए। कौन हो सकता है? कोई यांकी (न्यूयार्कवासी) तो नहीं लगता! पहले तो कभी देखा नहीं। इस बिल्डिंग में भी नहीं। जरूर कोई स्वीडिश या आयरिश होगा। लेकिन, दोनों की पहचान पुरानी लगती है। देखो, दोनों आपस में कितने निर्विकार भाव से घुल-मिलकर बातें कर रहे हैं!<br />
<br />
उसकी आँखों की चमक गुल हो जाती है। नीली आँखें गाढ़ी नीली होकर उदास हो जाती हैं।<br />
इसके पहले कि वह आदमी मेज पर विराजमान होने के बाद किसी और वेटर को आवाज़ देता, पीटर उससे मुख़ातिब होता है, 'जी सा'बजी...'<br />
<br />
मैरी उसे कोई लिफ़्ट नहीं देती है। न तो उसे देखती है, न उसको किसी डिश के लिए आर्डर देती है। पीटर का अधीर मन भंवर में फ़ँसे एक भौंरे की तरह सागर-तल पर बैठता जाता है। उसकी इच्छा है कि मैरी उसे एक नज़र देख भर ले। भले ही बातें न करे। आँखों से कोई इशारा तक न करे। लेकिन, यह क्या? वह तो किसी भारतीय स्त्री की तरह अपनी नज़रें ळाुकाए हुए है। उसने भारतीय स्त्रियों की कई कहानियाँ पढ़ी-सुनी है। वे पति के सिवाय, किसी अन्य पुरुष से आँखें मिलाना भी पाप मानती हैं। आयरिश औरतें भी बंद डब्बे की तरह होती हैं। दूसरों से तो अपने ज़ेहन के बारे में कुछ भी बताना अपराध समळाती हैं। बस खुलती हैं तो सिर्फ़ अपने मंगेतर से या पति से।<br />
<br />
पीटर ग़मग़ीन हो जाता है। उसे वह गुपचुप आयरिश लड़की अच्छी तरह याद है जो उसके पिता के जीवन में आई और कोई बड़ा लफ़ड़ा खड़ा किए बग़ैर उन्हें भगा ले गई। सचमुच, उसकी चुप्पी पीटर की माँ को उस मुर्दा बम की तरह लगती थी जिसका बारूद अचानक फट पड़ा। उसकी माँ उसके विस्फ़ोटक परिणाम से बाल-बाल बच पाई थी। क्योंकि उसके ग़म में शरीक होने वाला एक परदेसी उसे तत्काल ही मिल गया था। अब तो उसकी निष्ठुर माँ भी अपने नए पति के साथ ख़ूब मजे से होगी। दोनों को ही पीटर की क्या चिंता होगी? पीटर तो न्यूयार्क का ऐसा कुत्ता है, जिसे कोई पालतू बनाना नहीं चाहता। शायद, यह मैरी भी नहीं...<br />
<br />
पर, पीटर परिस्थितियों के सामने इतनी आसानी से घुटने टेकने वाला नहीं है। हाँ, वह इस बत्तीस साल की आयु में कोई मुस्तकिल नीड़ तलाश रहा है जिसमें एक चहकती बुलबुल भी हो। पर, वह बुलबुल मैरी के सिवाय कोई और नहीं हो सकती। हो भी कैसे सकती है? पूरे न्यूयार्क में तो बस एक ही बुलबुल है--मिस मैरी। दूसरी लड़कियाँ तो ऐसी पंछियाँ हैं जिनकी बू 'सी-बीच' पर बस्साते घोंघों, मूँगों, स्पंजों, शैवालों और समुद्री घासों से भी बुरी है। जिनकी सड़कों और पब्लिक स्थानों पर फड़फड़ाहट, कोयलाखानों में डायनामाइटों के विस्फ़ोटों से भी ज़्यादा कर्णघातक है। जिनकी मौज़ूदगी तेजाबी बारिश की तरह मानसिक शांति का अपरदन कर देती है। आख़िर, वह मैरी को खोकर अपना जीवन नरक क्यों बनाना चाहेगा?<br />
<br />
अन्तर्भूत भावनाओं के धक्कमपेल से उसके नथुने फड़फड़ा उठते हैं। उसके गाल सूर्ख लाल हो जाते हैं। रक्त-प्रवाह इतना बढ़ जाता है कि गरम-गरम साँसें बाहर निकलने लगती हैं। उसके चेहरे का कबूतर पंख फैलाकर मुक्त आसमान में उड़ जाना चाहता है।<br />
<br />
लेकिन, यह क्या? उसके पंख जैसे बाँध दिए गए हों। वह अशक्त हो गया। जमीन से ऊपर एक ईंच भी नहीं उड़ पा रहा है। कोई आवाज ़उसके कानों में गरम तेल उड़ेलकर उसके ख्यालों को चटाकर चूर कर देती है--<br />
<br />
'मैं कम से कम तीन बार तुमसे व्हिस्की के लिए कह चुका हूँ। आख़िर, तुमलोग खोए कहाँ रहते हो? सुनते क्यों नहीं? प्लीज़ व्हिस्की...'<br />
<br />
आदमी उस पर अफ़सराना रोब ग़ालिब करता है। मैरी आदमी की आँखों में शिकायतें उड़ेल देती है, निःशब्द शिकायतें...ये वेटर ऐसे ही ख़फ़्तुलहवास होते हैं...सातवें आसमान पर शीशमहल में विचरण करते हैं।<br />
<br />
पीटर इस शिकायताना अंदाज़ को बख़ूबी पढ़ लेता है। मैरी उसकी तरफ़ से अपनी अनदेखी निग़ाहें फेर लेती है।<br />
... ... ...<br />
<br />
पीटर आपे में नहीं है। शाम ढलने से पहले ही, वह सारी सिगरेटें फूँक चुका है। उसके चेहरे पर खिन्नता उन सागरीय लहरों की तरह है, जिनके नीचे व्हेल मछलियाँ शिकारी मछुआरों के दाहक चूनों को खाने के बाद कलबलाने और बिलबिलाने लगती हैं। मरने के पहले अपने मुँह बाहर निकालकर चिघ्घाड़ने लगती हैं। उसके बाद मछुआरों के बरछों के प्रहार से सागर पर उतरा आती हैं, रक्त से लाल हुए पानी में।<br />
<br />
उसका चेहरा सूर्ख़ शोरबे जैसा हो जाता है। उसके साथी उसे ऐन्टोनी के नाम से नवाज़ते हैं। किंतु, वह ऐन्टोनी की भूमिका में कैसे आ पाएगा? वह तो इंग्लैंड की एलीज़ाबेथयुगीन किसी प्रेमी की तरह है...पेनेलोप के प्रेमी फिलिप सिडनी की तरह। लेकिन, सिडनी की तरह भी नहीं हो सकता। पेनेलोप तो सिडनी के प्रेम-ताप से मर्मस्थल तक पिघल चुकी थी। मैरी को तो उसके प्रेम के बारे में...। नहीं, नहीं, वह मैरी के प्रेम के बारे में कोई अंतिम निर्णय कैसे बना सकता है?<br />
पर, पीटर, ऐन्टोनी कभी नहीं बन सकता। ऐन्टोनी को तो खुद क्लियोपेट्रा ने अपने प्रेमपाश में बाँधा था। ऐन्टोनी ने क्या पहल की थी? कुछ भी नहीं। हाँ, वह क्लियोपेट्रा के सौन्दर्य-जाल में फँसता चला गया था। खिंचता चला गया था। उसके बाद अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्य से विमुख हो गया। क्लियोपेट्रा ने उसे अपने अंतःपुर में प्रेम के बहाने ऐसे कैद कर रखा था जैसेकि उसने उसे कोई सजा दी हो। जैसे वह अपनी प्रजा को देती थी। पीटर ऐसी सजा से घृणा करता है। वह अपने देश के साथ गद्दारी नहीं कर सकता। गद्दार तो उसका बाप था जो एक विदेशी लड़की से शादी करके विदेश में बस गया। अपनी मातृभूमि को भूल गया। अपनी संतान--पीटर को अनाथ कर गया। अब उसकी हालत न्यूयार्क में धुआँ उगलती चिमनियों के ऊपर से गुजरने वाली पंछियों की तरह है जो विषाक्त धुएँ पीने के बाद, पछाड़ खाकर जमीन पर गिर पड़ती हैं। तड़प-तड़पकर जान गवां देती हैं। लेकिन, देश की सरजमी को नहीं त्यागतीं।<br />
<br />
पीटर किन्हीं विरोधाभासों के बीच द्वंद्व कर रहा है। उसके चेहरे पर हर्ष और विषाद की लकीरें समानान्तर खिंची हुई हैं। कुछ पाने और कुछ छोड़ने के भाव उद्वेलित हो रहे हैं। वह सामने बैठी मैरी को ध्यान से देखता है। वह अभी-अभी उसी आदमी के साथ दाख़िल हुई है। साथ में कुछ यार-दोस्त भी हैं जो देखने में संभ्रांत नागरिक जैसे लगते हैं। वे शायद कोई विशेष अवसर आयोजित करना चाहते हैं। बहरहाल, इससे पीटर को क्या लेना-देना है? वह तो एक नाचीज-सा वेटर है। फिर, यहाँ कुछ भी हो। कोई तूफ़ान आए या भूचाल! भले ही कोई फिलिस्तीनी इस बिल्डिंग में घुसकर कोई विस्फ़ोट करे! कोई जापानी हेरोइन या स्मैक की तस्करी करे! कोई चीनी इस बार की नीलामी करना चाहे! उसे कोई एतराज नहीं होगा।<br />
<br />
एतराज भी क्यों हो? आख़िर, यह पूरी बिल्डिंग भी तो किसी चीनीवासी की ही है। चीनियों का तो यहाँ जमावड़ा है। बार का स्टाफ़ भी इनसे भरा पड़ा है। शीशेदानी वाला शेर भी तो चीनी है। स्साला! अमरीकियों पर रोब गाँठता है। पीटर इस चीनी शेर से बेहद नफ़रत करता है। वह ऐसे सभी दोगली नस्ल वाले अमरीकियों से नफ़रत करता है। देखो, वह कितने ताव से चला आ रहा है!<br />
<br />
मैनेजर शीशे की कैबिन से बाहर निकलकर हाल के बीच में बने चबूतरे पर खड़ा हो जाता है। ऐसा यहाँ प्रायः होता है। आमतौर से नवविवाहित दंपतियों को बधाई देने के लिए मैनेजर इस ऊँचे स्थान से ऐलानिया लहजे में उन्हें बधाई देता है। आज भी कुछ ऐसा ही होने जा रहा है। पीटर के कान खड़े हो जाते हैं। अच्छा! वह ख़ुशनसीब दंपती है कौन?<br />
<br />
'भद्रजनों! आपको यह जानकर, बड़ी खुशी होगी कि आज यहाँ आयरलैंड के प्रसिद्ध नाविक नेता, सर बेंजामिन पधारे हुए हैं...' मैनेजर की घोषणा से सभी खामोश हो जाते हैं।<br />
<br />
तभी, तालियों गड़गड़ाहट से छत फड़फड़ा उठती है। मैरी के साथ वाला आदमी खड़ा होकर नेताओं के अंदाज़ में सभी का अभिवादन स्वीकार करता है।<br />
<br />
मैनेजर फिर बोलता है--'और इससे भी बड़ी खुशी की बात यह है कि उन्होंने चार घंटों के अपने अमरीकी प्रवास में, यहीं की एक लड़की से प्यार किया, रोमांस किया और शादी भी की। उस भाग्यशाली लड़की का नाम है--मिस मैरी...'<br />
<br />
मैरी, बेंजामिन से लिपटकर और हाथ उठाकर सभी की बधाइयाँ स्वीकार करती है। तालियों की गूँज से छत फिर से अचानक बज उठती है-- बेसुरे आर्केस्ट्रा की तरह।<br />
<br />
पीटर अपने कानों को हाथों से भींच लेता है। उसे मैरी के चेहरे पर विदेशीपन का रंग साफ़ दिखाई देता है। ऐसा ही कुछ उसने अपनी माँ के चेहरे पर होनोलुलू जाते हुए देखा था। यही रंग वह उन सभी अमरीकी स्त्रियों के चेहरे पर देखेगा जो विदेशी पुरुषों से शादी रचाकर विदेश चली जाएंगी। लेकिन, पीटर किसी विदेशी लड़की से शादी नहीं रचाएगा। उसे तो किसी कोयला खान में काम करने वाले मजदूर की लड़की से शादी करनी है जिसका मन अमरीकी जमीन में रचा-बसा हो। जो उसे सिगरेट पीते समय स्मार्ट न कहे। जो उसके 'नौ' के अंक का उपहास न उड़ाए। जिसके चेहरे पर उसकी माँ और इस मैरी की तरह विदेशीपन का रंग न चढ़ा हो।<br />
<br />
पीटर के चेहरे पर अतीव संतोष ळालकता है। उसकी नीली-नीली आँखें फिर से चमकने लगती हैं। उसकी नाक कबूतर की चोंच की तरह सूर्ख़ चमकदार है। पर, उसके गालों का कबूतर अपने पंख फैलाकर फड़फड़ाना नहीं चाहता।</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%82%E0%A4%A4%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%AB%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%AB%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%9F_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5973कबूतर की फड़फड़ाहट / मनोज श्रीवास्तव2011-12-02T10:31:20Z<p>Dr. Manoj Srivastav: ' '''फड़फड़ाहट कबूतर की''' ...वेटर, वेटर, वेटर...अ...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
<hr />
<div><br />
'''फड़फड़ाहट कबूतर की'''<br />
<br />
...वेटर, वेटर, वेटर...अरे, ये लोग मेरा ठीक-ठीक नाम भी नहीं ले सकते? सब के सब, वही रोज वाले तो हैं। मैं इनसे कई बार कह चुका हूँ कि मेरा नाम वेटर नंबर नाइन नहीं है। भला, यह भी कोई नाम है। अपने मेनू के नाम तो लोग भूलते नहीं--कटलेट, पिज़्ज़ा, बर्गर, आमलेट, फ़्राई फ़िश वगैरह, वगैरह। पर, 'पीटर' जैसा पिद्दी-सा नाम इन्हें नहीं याद रहता। हाँ-हाँ, सब याद रहता है; लेकिन, अपना अफ़सराना रोब तो ये तभी जमा पाएंगे, जब यह कहकर पुकारेंगे कि--'अबे, वेटर नंबर नाइन, इधर आ'...<br />
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पीटर का चेहरा सबेरे-सबेरे बुरी तरह तमतमाया हुआ है। उसका मूड हो रहा है कि वह बाहर जाकर एक और सिगरेट पी ले। पहले भी वह दो बार बाहर जा चुका है और दोनों बार वह आधी सिगरेट भी फूँक नहीं पाया था कि 'बार' का मैनेजर उसे बुला लेता है।<br />
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वह सोचता हुआ कब बाहर निकलकर सड़क-पार वाली दुकान से एक पैकेट सिगरेट लेता है और शेड के नीचे खड़ा होकर एक सुलगा लेता है--उसे कुछ पता नहीं। जोरदार कश के बाद धुआँ छोड़ते हुए उसे बड़ा सुकून मिलता है। वह बार-बार कश लेकर दूर तक धुआँ छोड़ता है। उसके चेहरे पर से तनाव धुलता जाता है।<br />
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वह आँखें गोल-गोल करके धुओं के छल्लों को बड़े ग़ौर से उसी अंदाज़ से देखता है, जिस अंदाज़ से वह युवतियों के सजीले चेहरों को देखता है। उसे आश्चर्य-मिश्रित सुख का एहसास होता है। वह एकांत आलाप से बाज नहीं आता है--'अहा-हा, क्या तासीर है इनमें? यह सिगरेट भी क्या चीज़ है? भीतर की बेचैनी को खदेड़कर बाहर निकाल फेंकती है। ळााड़ू की तरह ळााड़-बुहारकर मन को साफ़-सुथरा कर देती है।' वह कमीज की पॉकिट से सिगरेट की पैकेट हाथ में लेकर घुमा-घुमाकर बड़े विस्मय से देखता है। 'बाकी बचे नौ पूरे दिन भर के लिए काफ़ी हैं। इनमें इतने धुएँ भरे हैं कि ये दिमाग के सारे कचरे को बाहर निकाल फेकेंगे...'<br />
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बेशक! उसे सिगरेट से कितनी मोहब्बत है! आख़िर क्यों न हो? इससे कई फ़ायदों के साथ-साथ, एक फ़ायदा यह भी है कि कश लेते वक़्त उसकी पर्सनैलिटी में चार चाँद लग जाते हैं। मैडम मैरी भी तो यही कहती है कि, 'पीटर! तुम सिगरेट दबाकर बिल्कुल साहब लगते हो।'<br />
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उसका चेहरा रोब से भर जाता है। वह दुकान में लगे आइने के सामने खड़ा होकर सीना फुलाता है और जोरदार कश लेता है। फिर, कंधा सीधा करता है और बाएँ हाथ की अंगुलियों से अस्त-व्यस्त बालों को सँवारता है।<br />
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मैडम मैरी के ख़्याल से उसका चेहरा खिल उठता है। वह अच्छी तरह मुस्कराता है। मुस्कराने से कटोरे जैसे उसके सफ़ेद-सफ़ेद गाल और भी लटक जाते हैं। नाक और होठों के किनारे की रेखाएँ खिंचकर गहरे लाल रंग की हो जाती हैं। ऐसा लगता है कि उसके गाल कबूतर के पंख जैसे हैं जो उसके मुस्कराने पर फड़फड़ाकर उड़ जाना चाहते हैं। बेशक, नाक का ऊपरी भाग तो सफ़ेद है, पर, नथुना इतना लाल और नुकीला है कि उसे देखकर कोई भी कबूतर की चोंच कह सकता है।<br />
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सिगरेट से निपटने के बाद, वह पीछे के पैंट्री रूम में दाखिल होते हुए इस तरह का हाव-भाव बनाता है कि लोगबाग यह समळों कि वह किसी ग्राहक के दिए गए आर्डर को पूरा करने में व्यस्त रहा है। वह कबर्ड खोलकर बंद करता है और इधर-उधर सामान को छेड़ता है। एक तश्तरी में कुछ फ़्राइ फ़िश रखता है और फिर उन्हें वापस कबर्ड में रखते हुए मैनेजर की आँख बचाकर कैंटीन में प्रवेश करता है।<br />
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उसे देखकर यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि उसकी आँखें किसी की प्रतीक्षा में बेहद उतावली हो रही हैं। वह स्टाल के बगल में खड़ा होकर बड़ी निश्चिंततापूर्वक अपने कान खुजलाता है। यहाँ मैनेजर की खोजी नज़रें नहीं पहुँच पाती हैं। काम से जी चुरानेवाले दूसरे वेटर भी यहीं आड़ लेकर दम लेना चाहते हैं। सुस्ताना चाहते हैं। लेकिन, यह जगह मुस्तकिल तौर पर पीटर के लिए रिज़र्व है। इस बाबत, वह अन्य वेटरों से तूं-तूं, मैं-मैं भी कर चुका है। जब कोई वेटर यहाँ ज़बरदस्ती घुसपैठ करने की ग़ुस्ताखी करता है तो वह ळाट यहाँ आ धमकता है और अपनी नीली-नीली आँखों को गोल-गोल करके उस वेटर को गुस्से में ऐसे गुरेरता है जैसेकि वह कह रहा हो कि 'अबे सियार की औलाद, शेर की मांद के पास खड़ा होने का अंजाम तुळो पता नहीं है?' वेटर फ़ौरन दुम दबाकर भाग खड़ा होता है।<br />
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मैनेजर अपनी काँच की पारदर्शी कैबिन में खड़ा होकर चारो ओर की स्थिति का जायजा लेता है। उसकी नज़र आराम फरमाते पीटर पर पड़ती है। वह जोर से बेल बजाते हुए आदतन चींखता है, "वेटर नंबर नाइन।"<br />
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पीटर पर जैसे बम फट पड़ता है। वह इस चेतावनी का अर्थ अच्छी तरह समळाता है। वह हरकत में आने से पहले कुढ़-सा जाता है। उसे अपनी हालत पर तरस आती है। अबे, तूँ कहाँ का शेर है? असली शेर तो उस शीशेदानी में बैठा हुआ गुर्रा रहा है जो अपनी पैनी नज़र से किसी भी वेटर को साँस नहीं लेने देता है। तूँ तो पूरी तरह गीदड़ है। वाकई शेर होता तो सीना तानकर बेख़ौंफ़ इधर-उधर घूमता। आँख बचाकर यहाँ क्यों खड़ा होता?<br />
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उसे मैनेजर की दहाड़ सुनने के बाद अपना सत्तर किलो का शरीर दुर्वह्य-सा लगता है। वह कंधा सीधा करता है और गरदन दाएँ-बाएँ घुमाने के बाद इस बोळा को ढोते हुए कैंटीन के बीचो-बीच आ जाता है। वह इधर-उधर देखता है। सभी उसे यानी वेटर नंबर नाइन को धारदार निग़ाहों से घूर रहे हैं। सबसे ज़्यादा ळोंप उसे अपने साथी वेटरों से उठानी पड़ती है जिन पर वह बात-बात में धौंस जमाता है। लिहाजा, उसकी हालत भींगी बिल्ली-सी न बन जाए, इसकी वह भरसक कोशिश करता है। वह पूर्ववत सामान्य बनने का अभ्यास करता है ताकि लोग यह समळों कि मैनेजर की डाँट उसे नहीं, किसी और वेटर पर पड़ी है।<br />
चुनांचे, फ़टकार की शर्म पचाने के लिए वह व्यस्तता का बहाना बनाने में इतना मशगूल हो चुका है कि वह यह भी भूल गया है कि उसे किसी की प्रतीक्षा है। उसे कोई चीज खोई-खोई सी लगती है। वह यह याद करने की चेष्टा करता है कि वह क्या भूल गया है। वह बारी-बारी से कई ग्राहकों के आर्डर लेता है। लेकिन, वह कुछ भूला हुआ है। शायद वह किसी का मेनू याद रखना भूल गया है। वह ग्राहकों के आर्डर पुनः लेता है। हरेक के पास से गुजरता है। अपनी पॉकेट चेक करता है और हाथ पर लगी पुराने चैन वाली स्विस-मेड घड़ी भी देखता है। वह सिर्फ़ घड़ी चेक करता है। अब वह समय भी देखता है। क्या बजा है? पता नहीं। वह ळाुँळालाकर फ़िर समय देखता है। बड़े ग़ौर से। सुबह के साढ़े आठ बजे हैं। उसे एकबैक कुछ याद आता है। वह बेचैन-सा हो जाता है।<br />
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हाँ-हाँ, यही तो समय है--मैडम के आने का। चल भई, जल्दी से इन महाशयों के आर्डर पूरा कर दे। अन्यथा, देर होने पर कोई 'अबे-तबे' करेगा तो कोई 'सुन-बे' कहेगा। फ़ालतू में मेरी इज्जत डाउन होगी। वह भी ऐसे समय जबकि मैरी आने वाली है।<br />
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वह बड़ी फ़ुर्ती से अन्दर पैंन्ट्री रूम में भागता है।<br />
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मैरी कैंटीन में दाख़िल होती है। उसके साथ उसकी हम-उम्र सहेली नैसी भी है। वह किसी भी व्यक्ति को ध्यान से देखे बिना पूरे हाल का जायजा लेती है। लोग उसे आँखें फ़ाड़-फ़ाड़ देख रहे हैं। लेकिन, इससे उसको न तो कोई कौतुहल होता है, न ही जिळ्ाासा। पर, उसे अच्छी तरह पता है कि लोग उस जैसी चिलबिली और मनमौजी लड़की को क्यों आँखें फाड़-फाड़ देखते हैं।<br />
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दोनों ही प्राइवेसी रखने के लिए कोने की मेज के आमने-सामने बैठ जाती हैं।<br />
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मैरी की ख़ामोशी सभी उपस्थितों को खल रही है। उसकी चंचल फड़फड़ाहट से इस बिल्डिंग का कौन व्यक्ति वाक़िफ़ नहीं है? वह सभी वेटरों को बारी-बारी से देखती है। तभी नैसी एक वेटर को इशारा करती है। मैरी उसे वापस भेज देती है। नैसी उसे सवालिया निग़ाहों से देखती है। बदले में, वह मुस्कराती हैः<br />
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'यह मेरा वेटर नहीं है।'<br />
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'ऑ ... ... ...'<br />
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'देखो, वो आ रहा है।'<br />
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'अहा, वेटर नंबर नाइन'<br />
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'हाँ, मेरा लकी नंबर।'<br />
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'मतलब...'<br />
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'मेरे लिए नौ नंबर बड़ा लकी रहा है।'<br />
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'अच्छा?'<br />
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'हाँ, मेरे कैरियर में नौ नंबर की आश्चर्यजनक भूमिका है।'<br />
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'मैं समळाी नहीं...'<br />
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'मेरी पैदाईश 18 सितंबर, 1963 को हुई, पहली शादी 9 सितंबर, 1981 को और तलाक़ इसके अगले वर्ष इसी तारीख को। यहाँ, 27 सितम्बर 1990 को स्टेनों उस स्मार्ट बॉस की बनी जो चैंबर नंबर 099 में बैठता है। जिस कंप्यूटर पर मैं काम करती हूँ, उसका नंबर भी 9099 है और यहाँ तक कि यह नौवीं मंजिल है जहाँ मैं नौकरी करती हूँ और जहाँ कैथी के साथ मेरा अफ़ेयर चल रहा है।'<br />
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'वाह, क्या कलकुलेशन है? मुळो तो बेहद ताज़्ज़ुब होता है...और हाँ, आज क्या होने वाला है...आज भी तो 9 सितंबर है। देखो कहीं...'<br />
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पीटर के अप्रत्याशित रूप से आ-टपकने पर नैसी के शब्द मुँह में ही ज़ब्त हो जाते हैं।<br />
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पीटर बड़ी आत्मीयतापूर्वक मुस्कराता है--'हैलो, वेटर नंबर नाइन।'<br />
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वह मैरी से मुखातिब है। नैसी को नज़रअंदाज़ करता हुआ मैरी को अपनी नज़रों से पूरी तरह आत्मसात करना चाहता है। जैसेकि वह कह रहा हो कि मेरा सरोकार सिर्फ़ तुमसे है। यह कौन है जो तुम्हारे साथ है? तुम्हारी सहेली कितनी भी ख़ूबसूरत हो, इससे मुळो क्या फ़र्क पड़ता है? हालाँकि वह बेशक! तुमसे आकर्षक है; पर, मैं उसे बिल्कुल नापसंद करता हूँ। मैं तुम्हारे सिवाय किसी दूसरी लड़की को नहीं जानता। सड़क पर, बाजार में, स्टेशन पर, पार्क में, गली में, लिफ़्ट में और कहीं भी मैं बेशुमार लड़कियाँ देखता हूँ। एक-से बढ़कर एक। पर, मैं उनसे कोई वास्ता नहीं रखता, कुछ भी नहीं...'<br />
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मैरी उसकी आँखों में अपनी निग़ाहें उड़ेलते हुए बड़े अर्थपूर्ण ढंग से पलक ळापकाती है जैसेकि उसने सब कुछ समळा लिया हो, सब कुछ स्वीकार कर लिया हो। वह आँखों की इस भाषा से भली-भाँति परिचित है।<br />
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पीटर आत्मसंतोष की साँस लेता है। उसने बचपन में पक्षियों को देखकर उड़ने की अदम्य इच्छा अब पूरी कर ली है। बचपन में, उड़कर आसमान छूने की आशा से वह दोनों हाथों को पंख की तरह हिलाता था; लेकिन, उसकी इच्छा उस समय पूरी नहीं हो पाई थी। आज वह पूरी हो गई है। वह जी-जान से उड़ रहा है। बादलों को छूकर उनकी शीतलता को हृदयंगम कर रहा है। टिमटिमाते सितारों से आँखें मिचमिचाकर बातें कर रहा है। सूरज की रंगबिरंगी किरणों में स्नान कर रहा है। इंद्रधनुष पर खड़ा होकर ऊपर अंतरिक्ष में छलांग लगाना चाहता है, जहाँ वह और मैरी ठंडे-ठंडे समीर में तैर रहे होंगे और नीचे सुदूर जमीन पर लोगों का उपहास उड़ा रहे होंगे जो उन्हें इतना खुश देखकर उनसे ईर्ष्या कर रहे होंगे।<br />
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'पीटर दि ग्रेट! कहाँ खोए हो?' मैरी की आवाज़ उसकी कल्पना के पंखों को छू देती है। उसके संवेदनशील पंख उसके सम्मोहन में उड़ना भूलकर उसकी हथेलियों में आ गिरते हैं। वह अपना होश बरकार रखने की भरसक कोशिश करता हैः<br />
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'मैडम, क्या लाऊँ?'<br />
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'जो जी चाहे ले आओ, मेरे लकी नंबर।'<br />
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'क्या मैं आपका लकी नंबर हूँ?'<br />
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'हाँ, तुम्हारा नौ नंबर मेरे लिए बड़ा लकी है।'<br />
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'वो कैसे?'<br />
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'यह नंबर बड़े महान, भाग्यशाली और दृढ़ इच्छा और मज़बूत इरादे वाले व्यक्तियों का होता है। वो जो सोचे, जो कहे, वही <br />
होता है। जो चाहे, जो छू ले, वही मिल जाता है।'<br />
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नैसी ठहाके मारकर हँसने लगती है--<br />
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'नंबर नाइन, ख़बरदार मेरी सहेली को मत छूना।'<br />
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नैसी के व्यंग्य-कटाक्ष से उसका रोम-रोम सिहर उठता है।<br />
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'आप भी मेरी औकात से बाहर की बात करती हैं।'<br />
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'क्यूँ? औकात तो बनाने से बनती है। मेरा मन कहता है कि यह लकी नंबर तुम्हें बहुत ऊँचा आदमी बनाएगा।'<br />
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पीटर का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। उसकी महत्त्वाकांक्षा कुलांचे भरने लगती है। भावावेश में उसके गाल पंख की तरह फड़फड़ा उठते हैं। चेहरे पर भावों के ज्वार-भाटे में उसका आत्मविश्वास स्पष्ट रूप से ळालकता है। 'हुँह, औकात! इस नैसी को अपनी औकात दिखाऊँगा। इससे मैरी को इतनी दूर ले जाऊँगा कि वह मैरी के संसर्ग के लिए तरस जाएगी। मैरी के ऐशो-आराम से ईर्ष्या करने लगेगी। तब मैं इसका स्वागत हिकारतभरी मुस्कराहट से ही किया करूँगा।'<br />
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लंच टाइम हो चुका है। पीटर का चेहरा किसी द्वंद्व युद्ध में विजय पाने जैसे हर्षातिरेक से खिला हुआ है। उसे आज किसी की परवाह नहीं है। उस शीशेदानी वाले के शेर की भी नहीं। वह यहाँ धौंस जमाकर बातें करेगा। यह भी नहीं जाहिर नहीं होने देगा कि वह एक अदना-सा वेटर है। वेटर तो वह यहाँ अपनी मर्जी से बना है। उसे तो अच्छे-अच्छे ऑफ़र मिले थे। वह कोई सुपरवाइज़र या मार्केटिंग इंस्पेक्टर होता। हाँ, वह न्यूयार्क के एक मर्चेंट कंपनी में कुछ समय पहले ही सीनियर सेल्समैन का ऑफ़र ठुकरा चुका है। आख़िर, वह कोई जाहिल देहाती तो है नहीं। सीनियर स्कूल का सार्टिफ़िकेट है उसके पास। वह आगे ग्रेजुएट भी करना चाहता था। पर, उसके पिता के एक आयरिश अभिनेत्री के साथ पोलैंड चले जाने के बाद और उसकी माँ द्वारा एक शिप कैप्टेन के साथ शादी कर होनोलुलू में बस जाने के बाद वह यहाँ एकदम अकेला रह गया था। उसकी महत्त्वाकांक्षा दफ़्न हो गई थी। उस समय उसकी उम्र ही क्या रही होगी? यही कोई चौदह-पंद्रह साल की। यह तो उसका दमदार मनोबल था जो वह अकेला ही बीहड़ संघर्ष करता रहा। उसे पूरा यकीन है कि एक न एक दिन वह न्यूयार्क का बड़ा आदमी बनकर रहेगा। आख़िर, मूँगा भी तो गंदे सागर में ही पैदा होता है। अब्राहम लिंकन की तरह...<br />
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वह अपने नौ नंबर की बेल्ट पर बड़े प्यार से हाथ फेरता है। वह इसकी तिलस्मी तासीर को आज़माएगा। उसे मैडम मैरी की भविष्यवाणी पर अटूट विश्वास है। क्यों न हो? वह भी तो यही चाहती है कि पीटर कोई बड़ा आदमी बने। हर लड़की अपने प्रेमी के बारे में ऐसा ही चाहती है। उसके उज्ज्वल भविष्य की कामना करती है। उसे भी तो उससे बड़ा प्यार है। इसका अन्दाज़ा तो वह बहुत पहले ही लगा चुका है। समय आने पर वह इस प्यार को हक़ीक़त में बदल कर रहेगा।<br />
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उसके चेहरे पर चमक है, कुछ तनाव की लकीरें भी खिंची हुई हैं। वह टी0 एस0 इलियट की एक कविता में मनहूस प्रेमी अल्फ़्रेड प्रूफ़्रॉक की तरह प्रेम को प्रस्तावित करने में अधिक समय नहीं लगाएगा। वह इसे अब नहीं टालेगा। हाँ, वह अंतिम निर्णय ले चुका है। वह आज ही इस भीड़ में उसका हाथ चूमकर उसे सीने से लगा लेगा। शाम को सन टॉप होटल में उसके साथ डिनर करेगा। रात किसी हसीन नाइट क्लब में गुजारेगा। उसके साथ डांस करेगा। रोमांस करेगा। फिर, इसी सप्ताह, उससे शादी कर लेगा।<br />
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उसके चेहरे का कबूतर फड़फड़ाकर अपनी उत्तेजना प्रकट करता है। उसकी आँखें नीले नाइट बल्ब की तरह टिमटिमा उठती हैं।<br />
तभी मैरी के प्रवेश से वह एकदम उमंगित हो उठता है। पर, वह हैरान हो उठता है। उसके साथ यह आदमी कौन है? बाँह में बाँह डाले हुए। कौन हो सकता है? कोई यांकी (न्यूयार्कवासी) तो नहीं लगता! पहले तो कभी देखा नहीं। इस बिल्डिंग में भी नहीं। जरूर कोई स्वीडिश या आयरिश होगा। लेकिन, दोनों की पहचान पुरानी लगती है। देखो, दोनों आपस में कितने निर्विकार भाव से घुल-मिलकर बातें कर रहे हैं!<br />
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उसकी आँखों की चमक गुल हो जाती है। नीली आँखें गाढ़ी नीली होकर उदास हो जाती हैं।<br />
इसके पहले कि वह आदमी मेज पर विराजमान होने के बाद किसी और वेटर को आवाज़ देता, पीटर उससे मुख़ातिब होता है, 'जी सा'बजी...'<br />
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मैरी उसे कोई लिफ़्ट नहीं देती है। न तो उसे देखती है, न उसको किसी डिश के लिए आर्डर देती है। पीटर का अधीर मन भंवर में फ़ँसे एक भौंरे की तरह सागर-तल पर बैठता जाता है। उसकी इच्छा है कि मैरी उसे एक नज़र देख भर ले। भले ही बातें न करे। आँखों से कोई इशारा तक न करे। लेकिन, यह क्या? वह तो किसी भारतीय स्त्री की तरह अपनी नज़रें ळाुकाए हुए है। उसने भारतीय स्त्रियों की कई कहानियाँ पढ़ी-सुनी है। वे पति के सिवाय, किसी अन्य पुरुष से आँखें मिलाना भी पाप मानती हैं। आयरिश औरतें भी बंद डब्बे की तरह होती हैं। दूसरों से तो अपने ज़ेहन के बारे में कुछ भी बताना अपराध समळाती हैं। बस खुलती हैं तो सिर्फ़ अपने मंगेतर से या पति से।<br />
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पीटर ग़मग़ीन हो जाता है। उसे वह गुपचुप आयरिश लड़की अच्छी तरह याद है जो उसके पिता के जीवन में आई और कोई बड़ा लफ़ड़ा खड़ा किए बग़ैर उन्हें भगा ले गई। सचमुच, उसकी चुप्पी पीटर की माँ को उस मुर्दा बम की तरह लगती थी जिसका बारूद अचानक फट पड़ा। उसकी माँ उसके विस्फ़ोटक परिणाम से बाल-बाल बच पाई थी। क्योंकि उसके ग़म में शरीक होने वाला एक परदेसी उसे तत्काल ही मिल गया था। अब तो उसकी निष्ठुर माँ भी अपने नए पति के साथ ख़ूब मजे से होगी। दोनों को ही पीटर की क्या चिंता होगी? पीटर तो न्यूयार्क का ऐसा कुत्ता है, जिसे कोई पालतू बनाना नहीं चाहता। शायद, यह मैरी भी नहीं...<br />
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पर, पीटर परिस्थितियों के सामने इतनी आसानी से घुटने टेकने वाला नहीं है। हाँ, वह इस बत्तीस साल की आयु में कोई मुस्तकिल नीड़ तलाश रहा है जिसमें एक चहकती बुलबुल भी हो। पर, वह बुलबुल मैरी के सिवाय कोई और नहीं हो सकती। हो भी कैसे सकती है? पूरे न्यूयार्क में तो बस एक ही बुलबुल है--मिस मैरी। दूसरी लड़कियाँ तो ऐसी पंछियाँ हैं जिनकी बू 'सी-बीच' पर बस्साते घोंघों, मूँगों, स्पंजों, शैवालों और समुद्री घासों से भी बुरी है। जिनकी सड़कों और पब्लिक स्थानों पर फड़फड़ाहट, कोयलाखानों में डायनामाइटों के विस्फ़ोटों से भी ज़्यादा कर्णघातक है। जिनकी मौज़ूदगी तेजाबी बारिश की तरह मानसिक शांति का अपरदन कर देती है। आख़िर, वह मैरी को खोकर अपना जीवन नरक क्यों बनाना चाहेगा?<br />
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अन्तर्भूत भावनाओं के धक्कमपेल से उसके नथुने फड़फड़ा उठते हैं। उसके गाल सूर्ख लाल हो जाते हैं। रक्त-प्रवाह इतना बढ़ जाता है कि गरम-गरम साँसें बाहर निकलने लगती हैं। उसके चेहरे का कबूतर पंख फैलाकर मुक्त आसमान में उड़ जाना चाहता है।<br />
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लेकिन, यह क्या? उसके पंख जैसे बाँध दिए गए हों। वह अशक्त हो गया। जमीन से ऊपर एक ईंच भी नहीं उड़ पा रहा है। कोई आवाज ़उसके कानों में गरम तेल उड़ेलकर उसके ख्यालों को चटाकर चूर कर देती है--<br />
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'मैं कम से कम तीन बार तुमसे व्हिस्की के लिए कह चुका हूँ। आख़िर, तुमलोग खोए कहाँ रहते हो? सुनते क्यों नहीं? प्लीज़ व्हिस्की...'<br />
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आदमी उस पर अफ़सराना रोब ग़ालिब करता है। मैरी आदमी की आँखों में शिकायतें उड़ेल देती है, निःशब्द शिकायतें...ये वेटर ऐसे ही ख़फ़्तुलहवास होते हैं...सातवें आसमान पर शीशमहल में विचरण करते हैं।<br />
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पीटर इस शिकायताना अंदाज़ को बख़ूबी पढ़ लेता है। मैरी उसकी तरफ़ से अपनी अनदेखी निग़ाहें फेर लेती है।<br />
... ... ...<br />
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पीटर आपे में नहीं है। शाम ढलने से पहले ही, वह सारी सिगरेटें फूँक चुका है। उसके चेहरे पर खिन्नता उन सागरीय लहरों की तरह है, जिनके नीचे व्हेल मछलियाँ शिकारी मछुआरों के दाहक चूनों को खाने के बाद कलबलाने और बिलबिलाने लगती हैं। मरने के पहले अपने मुँह बाहर निकालकर चिघ्घाड़ने लगती हैं। उसके बाद मछुआरों के बरछों के प्रहार से सागर पर उतरा आती हैं, रक्त से लाल हुए पानी में।<br />
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उसका चेहरा सूर्ख़ शोरबे जैसा हो जाता है। उसके साथी उसे ऐन्टोनी के नाम से नवाज़ते हैं। किंतु, वह ऐन्टोनी की भूमिका में कैसे आ पाएगा? वह तो इंग्लैंड की एलीज़ाबेथयुगीन किसी प्रेमी की तरह है...पेनेलोप के प्रेमी फिलिप सिडनी की तरह। लेकिन, सिडनी की तरह भी नहीं हो सकता। पेनेलोप तो सिडनी के प्रेम-ताप से मर्मस्थल तक पिघल चुकी थी। मैरी को तो उसके प्रेम के बारे में...। नहीं, नहीं, वह मैरी के प्रेम के बारे में कोई अंतिम निर्णय कैसे बना सकता है?<br />
पर, पीटर, ऐन्टोनी कभी नहीं बन सकता। ऐन्टोनी को तो खुद क्लियोपेट्रा ने अपने प्रेमपाश में बाँधा था। ऐन्टोनी ने क्या पहल की थी? कुछ भी नहीं। हाँ, वह क्लियोपेट्रा के सौन्दर्य-जाल में फँसता चला गया था। खिंचता चला गया था। उसके बाद अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्य से विमुख हो गया। क्लियोपेट्रा ने उसे अपने अंतःपुर में प्रेम के बहाने ऐसे कैद कर रखा था जैसेकि उसने उसे कोई सजा दी हो। जैसे वह अपनी प्रजा को देती थी। पीटर ऐसी सजा से घृणा करता है। वह अपने देश के साथ गद्दारी नहीं कर सकता। गद्दार तो उसका बाप था जो एक विदेशी लड़की से शादी करके विदेश में बस गया। अपनी मातृभूमि को भूल गया। अपनी संतान--पीटर को अनाथ कर गया। अब उसकी हालत न्यूयार्क में धुआँ उगलती चिमनियों के ऊपर से गुजरने वाली पंछियों की तरह है जो विषाक्त धुएँ पीने के बाद, पछाड़ खाकर जमीन पर गिर पड़ती हैं। तड़प-तड़पकर जान गवां देती हैं। लेकिन, देश की सरजमी को नहीं त्यागतीं।<br />
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पीटर किन्हीं विरोधाभासों के बीच द्वंद्व कर रहा है। उसके चेहरे पर हर्ष और विषाद की लकीरें समानान्तर खिंची हुई हैं। कुछ पाने और कुछ छोड़ने के भाव उद्वेलित हो रहे हैं। वह सामने बैठी मैरी को ध्यान से देखता है। वह अभी-अभी उसी आदमी के साथ दाख़िल हुई है। साथ में कुछ यार-दोस्त भी हैं जो देखने में संभ्रांत नागरिक जैसे लगते हैं। वे शायद कोई विशेष अवसर आयोजित करना चाहते हैं। बहरहाल, इससे पीटर को क्या लेना-देना है? वह तो एक नाचीज-सा वेटर है। फिर, यहाँ कुछ भी हो। कोई तूफ़ान आए या भूचाल! भले ही कोई फिलिस्तीनी इस बिल्डिंग में घुसकर कोई विस्फ़ोट करे! कोई जापानी हेरोइन या स्मैक की तस्करी करे! कोई चीनी इस बार की नीलामी करना चाहे! उसे कोई एतराज नहीं होगा।<br />
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एतराज भी क्यों हो? आख़िर, यह पूरी बिल्डिंग भी तो किसी चीनीवासी की ही है। चीनियों का तो यहाँ जमावड़ा है। बार का स्टाफ़ भी इनसे भरा पड़ा है। शीशेदानी वाला शेर भी तो चीनी है। स्साला! अमरीकियों पर रोब गाँठता है। पीटर इस चीनी शेर से बेहद नफ़रत करता है। वह ऐसे सभी दोगली नस्ल वाले अमरीकियों से नफ़रत करता है। देखो, वह कितने ताव से चला आ रहा है!<br />
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मैनेजर शीशे की कैबिन से बाहर निकलकर हाल के बीच में बने चबूतरे पर खड़ा हो जाता है। ऐसा यहाँ प्रायः होता है। आमतौर से नवविवाहित दंपतियों को बधाई देने के लिए मैनेजर इस ऊँचे स्थान से ऐलानिया लहजे में उन्हें बधाई देता है। आज भी कुछ ऐसा ही होने जा रहा है। पीटर के कान खड़े हो जाते हैं। अच्छा! वह ख़ुशनसीब दंपती है कौन?<br />
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'भद्रजनों! आपको यह जानकर, बड़ी खुशी होगी कि आज यहाँ आयरलैंड के प्रसिद्ध नाविक नेता, सर बेंजामिन पधारे हुए हैं...' मैनेजर की घोषणा से सभी खामोश हो जाते हैं।<br />
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तभी, तालियों गड़गड़ाहट से छत फड़फड़ा उठती है। मैरी के साथ वाला आदमी खड़ा होकर नेताओं के अंदाज़ में सभी का अभिवादन स्वीकार करता है।<br />
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मैनेजर फिर बोलता है--'और इससे भी बड़ी खुशी की बात यह है कि उन्होंने चार घंटों के अपने अमरीकी प्रवास में, यहीं की एक लड़की से प्यार किया, रोमांस किया और शादी भी की। उस भाग्यशाली लड़की का नाम है--मिस मैरी...'<br />
<br />
मैरी, बेंजामिन से लिपटकर और हाथ उठाकर सभी की बधाइयाँ स्वीकार करती है। तालियों की गूँज से छत फिर से अचानक बज उठती है-- बेसुरे आर्केस्ट्रा की तरह।<br />
<br />
पीटर अपने कानों को हाथों से भींच लेता है। उसे मैरी के चेहरे पर विदेशीपन का रंग साफ़ दिखाई देता है। ऐसा ही कुछ उसने अपनी माँ के चेहरे पर होनोलुलू जाते हुए देखा था। यही रंग वह उन सभी अमरीकी स्त्रियों के चेहरे पर देखेगा जो विदेशी पुरुषों से शादी रचाकर विदेश चली जाएंगी। लेकिन, पीटर किसी विदेशी लड़की से शादी नहीं रचाएगा। उसे तो किसी कोयला खान में काम करने वाले मजदूर की लड़की से शादी करनी है जिसका मन अमरीकी जमीन में रचा-बसा हो। जो उसे सिगरेट पीते समय स्मार्ट न कहे। जो उसके 'नौ' के अंक का उपहास न उड़ाए। जिसके चेहरे पर उसकी माँ और इस मैरी की तरह विदेशीपन का रंग न चढ़ा हो।<br />
<br />
पीटर के चेहरे पर अतीव संतोष ळालकता है। उसकी नीली-नीली आँखें फिर से चमकने लगती हैं। उसकी नाक कबूतर की चोंच की तरह सूर्ख़ चमकदार है। पर, उसके गालों का कबूतर अपने पंख फैलाकर फड़फड़ाना नहीं चाहता।</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A5%80_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5972कन्नी और देवा / मनोज श्रीवास्तव2011-12-02T10:24:39Z<p>Dr. Manoj Srivastav: ' ''' कन्नी और देवा''' कन्नी अपना पर्स सम्हा...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
<hr />
<div> ''' कन्नी और देवा''' <br />
<br />
कन्नी अपना पर्स सम्हालते हुए ऐसी अफ़रातफ़री में बाहर निकली जैसेकि उसे आफ़िस में बेहद देर हो चुकी हो और अफ़सर उसे सेक्शन में घुसते ही डाँट पिलाने वाला हो। निकलते-निकलते उसने देवा को अफ़सराना तेवर में हिदायत दी, "देवा, मैंने दाल फ़्राई कर दी है और चावल कुकर में चढ़ा दिया है। एक सीटी बजते ही स्टोव आफ़ कर देना। रात की सब्जी फ़्रिज़ में पड़ी हुई है। निकालकर खा लेना। और हाँ, जब ड्युटी पर जाना तो बचा-खुचा खाना फ़्रीज़ में डाल देना। वर्ना..."<br />
"वर्ना क्या..." देवा काफ़ी देर तक सोचता रहा। <br />
<br />
कन्नी की बात पर ळाुँळालाने की आदत से वह वर्षों पहले ही तौबा कर चुका है। लिहाजा, कन्नी की आवाज़ में उतनी कड़वाहट नहीं थी। बल्कि, उसमें नरमी के साथ-साथ थोड़ी-बहुत देवा के लिए चिंता जैसी बात भी ळालक रही थी। कन्नी में ऐसा बदलाव उस दिन से आया था जबकि वह उससे अचानक रीगल सिनेमा से बाहर आते हुए टकरा गया था। कन्नी तो एकदम अचकचा-सी गई थी--जैसेकि उसकी कोई चोरी पकड़ी गई हो। तब, उसने अपने साथ वाले आदमी से ऐसे छूटकर जैसेकि उससे उसकी दूर-दूर की कोई पहचान न हो, मुस्कराकर देवा से बोल पड़ी थी, "अरे देवा, तुम्हें तो इस वक़्त नोएडा में होना चाहिए था? तुम्हींं ने तो कहा था कि साल के इस क्लोज़िंग मन्थ में तुम्हें मुळासे टेलीफोन पर बात करने तक की <br />
फ़ुर्सत नहीं है। फिर, यहाँ कैसे..."<br />
<br />
कन्नी आदतन अपने दोष पर परदा डालने के लिए उसके ऊपर बुरी तरह बरस पड़ती रही है ताकि देवा का दोषारोपण करने का मनोबल टूट जाए। उस वक़्त भी, देवा ने उससे कुछ पूछने का बवाल मोल नहीं लिया जबकि उसने उसे एक आदमी के साथ सिनेमा हाल से बाहर आते हुए अच्छी तरह देख लिया था और उसकी थकी-मांदी आँखों ने यह साफ़ बता दिया था कि वह तीन घंटे की फ़िल्म देखकर अभी-अभी फ़ारिग हुई है। बहरहाल, देवा, वहाँ अपनी कंपनी के काम से अचानक आने की वज़ह बताते हुए तत्काल नोएडा की ओर निकल पड़ा। उसने जाते-जाते अपनी कार में से ळााँककर देखा कि उस आदमी ने फिर कन्नी के साथ कदम-दर-कदम चलते हुए उसे अपनी बाइक पर पीछे बैठाया था और गोल मार्केट की ओर रुख कर लिया था। देवा समळा गया कि अब वे दोनों किसी रेस्टोरेंट में गए होंगे और वहाँ से शाम होने तक किसी पार्क वग़ैरह में... <br />
अपने संदेह को सत्यापित करने के लिए देवा ने अपने चैम्बर में घुसते ही कन्नी के सेक्शन में टेलीफोन पर पूछकर पता कर <br />
लिया था कि उस दिन वह सी0एल0 की छुट्टी पर थी।<br />
<br />
उस शाम, देवा कुछ पहले ही आफ़िस से वापस आकर और रसोईं में घुसकर काम में जुट गया था। उसने ड्राइंग रूम में टेबल पर रखी कन्नी की तस्वीर को इतनी घृणा से देखा कि जैसे वह उस पर थूक देगा। पर, उसने उसकी तस्वीर को पलटकर ही अपनी नफ़रत का इज़हार किया। <br />
<br />
उसके मन में कन्नी को कल की तरह उसके आने से पहले ही कोई सरप्राइज़ देने की इच्छा नहीं थी। दरअसल, वह आफ़िस से लौटते समय आधा किलो मीट लेता आया था क्योंकि दोपहर को जो कुछ उसने देखा था, उससे होने वाले अंतर्द्वंद्व के चलते उसका मन बड़ा उचाट-सा हो रहा था। जुबान भी फीकी-फीकी सी लग रही थी जैसेकि किसी बीमारी से ठीक होने के तुरंत बाद लगता है। वह बेशक! कन्नी के आने से पहले अपना मूड बना लेना चाहता था। इसलिए, उसने पर्याप्त मात्रा में लहसुन, अदरक और प्याज पीसकर और मीट में मसाला मिलाकर, उसे पहले कुकर में पका लिया। फिर, प्याज का तड़का लगाकर मीट को अच्छी तरह भुन लिया। भुनते वक़्त, उसने उसमें काफ़ी मात्रा में बुकी हुई डेंगी मिर्च डाली। थोड़ी देर तक पकाने के बाद मीट का शोरबा एकदम सूर्ख़ लाल हो गया। <br />
<br />
उसने एक बड़ी-सी कटोरी में मीट और शोरबा निकाला और सुबह कन्नी द्वारा छोड़ी गईं बासी रोटियाँ खूब छककर खाईं। उसके बाद जैसे ही उसने रम का एक पैग गले के नीचे उतारा, दरवाजे पर कन्नी का दस्तक हुआ। उसने फटाफट डाइनिंग टेबल साफ़ किया और टेबल पर कन्नी की उल्टी पड़ी तस्वीर को सीधा करते हुए दीवाल घड़ी की ओर देखा कि आठ बजने में कोई पाँच मिनट ही बाकी हैं। उसके बाद, उसने ऐसे अलसाते हुए और आँख मलते हुए कुछ मिनट बाद दरवाजा खोला जैसेकि वह बेड रूम में से आराम फ़रमाने के बाद अभी-अभी निकलकर आ रहा हो...<br />
<br />
कन्नी ने घुसते ही नाक सुड़कते हुए ड्राईंग रूम से अटैच्ड रसोई में ळााँककर जायजा लिया और होठ को जबरदस्ती कानों तक फैलाते हुए यह जाहिर किया कि 'मैं बेहद खुश हूँ कि तुमने पहले ही रसोई का काम निपटा दिया है।' बेशक, उसे गंध से आहट मिल गई थी कि देवा ने उसके आने से पहले ही मीट तैयार कर रखा है।<br />
<br />
जब कन्नी अपना जीन्स पैंट उतारकर उसे हैंगर पर टांग रही थी तो देवा ने कनखियों से उसके हुलिए का जायजा किया। उसके बाद वह खिड़की से ळााँकने लगा। बिजली गुल होने के कारण दूर-दूर तक कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था। फिर भी, बहुत दूर पर ळिालमिलाती चुनिन्दा रोशनियों पर वह अपनी नज़र गड़ाने की असफ़ल कोशिश कर रहा था। <br />
<br />
तभी, कन्नी ने पीछे से उसे दोनों बाँहों से जकड़कर अपनी नाक उसकी पीठ में धँसा दी, "देवा, यू आर टू ग्रेट। मुळो भी आज अपना टेस्ट कुछ बिगड़ा-बिगड़ा सा लग रहा है...रीयली, आई हैव बीन अपसेट सिन्स दि आफ़्टरनून। तुमने मीट तैयारकर मेरा मिज़ाज़ ही ठीक कर दिया...थैंक्स ए लॉट..."<br />
<br />
उसने बेड रूम में जाकर कुछ पल तक बेड पर आराम फ़रमाया। देवा को उसका अधनंगा बदन देखकर बड़ी जुगुप्सा-सी हो रही थी। वह न चाहकर भी उसके बदन पर बार-बार अपनी नज़रें पता नहीं क्यों गड़ा दे रहा था। उस पल उसका मन कर रहा था कि वह उसे जोर से ळिाड़क दे, 'कन्नी, तुम अपना यह जिस्म ढंक लो, मुळो तुम्हारी पूरी बॉडी से बैड स्मेल आ रही। मेरे पास दोबारा आने से पहले या तो नहा लेना, या कोई परफ़्युम स्प्रे कर लेना...' पर, वह वहींं खिड़की के सामने खड़े-खड़े शहर की चौंधियाहट में खोने की कोशिश कर रहा था क्योंकि अभी-अभी बिजली आई थी और सड़कों पर शोरगुल बढ़ने लगा था। लेकिन, अभी तक उसमें चेतना का संचार नहीं हुआ था।<br />
<br />
तब तक कन्नी अपने अंडरगारमेंट्स बेड पर फेंककर बाथरूम में घुस चुकी थी। देवा खिड़की से हटकर बेड पर बैठ गया। वह कुछ पल तक उसके अंडरगारमेंट्स टटोलता रहा। फिर, एकबैक वहाँ से उठकर किचेन में चला गया। उसने फटाफट दस-बारह चपातियाँ सेंकीं और कन्नी के बाथरूम से वापस आने से पहले वह फिर खिड़की के सामने आकर खड़ा हो गया। उसे तब तक यह एहसास नहीं हुआ कि कन्नी उसके पीठ-पीछे डाइनिंग टेबल पर खाना लगा चुकी है जब तक कि उसने दोबारा उसे उसी तरह आलिंगनबद्ध करते हुए नहीं कहा, "शुक्रिया, चपातियाँ बनाने के लिए। बहरहाल, मैं अपनी कैंटीन से चिकेन कटलेट औ' कुछ फ्राई फ़िश भी ले आई थी...चलो, उसे फ़्रिज़ में डाल देते हैं। कल आफ़िस जाने से पहले खा लेंगे, बतौर ब्रेकफ़ास्ट..." <br />
<br />
पहली बार देवा ने फ़ीकी मुस्कान से चेहरे की ळाुर्रियों को समेटा।<br />
<br />
जब तक देवा एक नली वाली हड्डी के भीतर का माल चूसने की कोशिश करता रहा, कन्नी तेजी से कोई छः रोटियाँ चट्ट कर चुकी थी और कटोरी का सारा मीट खत्म कर चुकी थी। इस बीच, देवा उसके चेहरे से निकलने वाले पसीने को देखता जा रहा था जो उसके मोटे-मोटे नथुने और ठुड्डी से बहकर टप्प-टप्प उसकी कटोरी में भी गिरता जा रहा था। उसे देखते हुए देवा को गलियों की कुत्तियां याद आ रही थीं। यों भी, बाहर ग्राउंड फ़्लोर पर कुत्ते बेतहाशा भौंक रहे थे। शायद, उन्हें मीट की गंध मिल चुकी थी या कोई एक अदद कुतिया उनके ळाुंड में शामिल हो गई थी।<br />
<br />
*** *** ***<br />
<br />
उस दिन, कन्नी का मूड इतना खराब था कि वह आफ़िस से शार्ट लीव लेकर अपनी गाड़ी इंडिया गेट की ओर लेकर चली गई। सड़क किनारे अपनी कार पार्किंग कर घास पर बैठ गई। कुछ मिनट के बाद लेट गई। ऊपर आसमान देखते हुए उसे मालूम नहीं क्यों कुछ डर-सा लग रहा था? दिल्ली में आने के बाद उसने आसमान देखने की कभी जरूरत ही नहीं समळाी थी। शायद, उसे ऐसा कभी मौका ही नहीं मिला होगा। फ़्लैटों में रहने का यही ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ता है कि जब नींद न आ रही हो तो छत पर टकटकी लगाए हुए ही रातें काटनी पड़ती हैं और आँखों से फिसलती नींद को पकड़ना होता है। बेशक! आसमान में तारे गिनते हुए रातें काटना फ़्लैटवालों को कहाँ मयस्सर होता है? <br />
<br />
जब वह अपने डैड के साथ दिल्ली आई थी तो वह सिर्फ़ ग्यारह साल की बच्ची थी। मम्मी की ब्रेस्ट कैंसर से अचानक़ मौत होने के तीन महीनों बाद ही डैड का लखनऊ से ट्रांसफ़र हो गया था। उसके बाद, उसका दाखिला एक पब्लिक स्कूल में हो गया था। उस वक़्त, दिल्ली की लाइफ़ में उतनी तेजी नहीं आई थी। मीडिया क्रांति सिर्फ़ सुगबुगा-भर रही थी। <br />
<br />
हाँ, 'एशियाड' के आयोजन के ठीक पहले, दिल्ली को थोड़ा-बहुत सजाने-सँवारने का काम जोर पकड़ रहा था। दरअसल, एशियाड के बाद की दिल्ली में आमूलचूल बदलाव आया था। उसी बदलते परिवेश में कन्नी यानी कनुप्रिया तेजी से पल-बढ़ रही थी। जवान हो रही थी। इसी बीच एक दूसरे दुर्भाग्य के कारण उसके डैड की एक सड़क-दुर्घटना में मौत हो गई। उस वक़्त वह पत्रकारिता का डिग्री कोर्स पूरा कर रही थी। तब, उसे नौकरी की तलब लगी और उसे एक अख़बारनवीस की नौकरी कोई बड़ा जद्दोजहद किए बिना ही मिल गई। लिहाजा, ड्युटी करते समय, पहली बार और सिर्फ़ पहली बार उसका दिल देवा यानी देव कुमार को देखकर धड़का था। इश्क़ के एक छोटे से दौर के बाद ही दोनों ने कोर्ट मैरिज़ कर ली। तब, कनुप्रिया को कुछ ऐसा एहसास हुआ कि जैसे किसी डूबते को तिनके का सहारा मिला हो। <br />
<br />
चुनांचे, अफ़रातफ़री में शुरू किए गए दांपत्य जीवन में कुछ ही महीनों के बाद तकरार-ळागड़े होने लगे। कन्नी तो सचमुच इतनी अड़ियल और वहमी थी कि वह कभी देवा के सामने ळाुकने का नाम तक नहीं लेती थी। बेशक! नासमळिायों के चलते दोनों के रिश्ते में शादी की पहली सालगिरह मनाने से पहले ही दरारें पड़ने लगीं और दाम्पत्य की कच्ची दीवार इतनी ज़ल्दी ढह गई कि किसी को भी उनके जीवन में आए इस नाटकीय घटनाक्रम पर आसानी से यक़ीन नहीं होता। कानूनी कार्रवाई के बाद, दोनों अलग-अलग रहने लगे। देवा तो कन्नी के प्रति इतनी घृणा से भर चुका था कि उसे भविष्य में कन्नी का थोपड़ा देखना भी गवाँरा नहीं था। इसलिए, उससे बेहद दूरी बनाए रखने के लिए उसने दूर नोएडा में नौकरी करना ही ज़्यादा उचित समळाा।<br />
<br />
*** *** ***<br />
<br />
फिर, कोई सात साल गुज़र गए। शायद, वे एक-दूसरे को भूल-से गए थे। नफ़रत की बाढ़ उनके बीच इस कदर उमड़ रही थी कि किसी ने भी किसी का चेहरा तक देखना मुनासिब नहींं समळाा। दोस्तों के बीच बैठकर इस बाबत कोई चर्चा नहीं की। <br />
<br />
फिर, अचानक, एक अप्रत्याशित-सा मोड़ उनके जीवन में आया। इतने सालों बाद उनकी मुलाकात एक रेस्तरॉ में ऐसे हुई, जैसेकि वे इतने बरसों से एक-दूसरे से कतराते हुए उस दिन जानबूळाकर मिले हों। या, यूँ कहिए कि क़िस्मत में उनके लिए कुछ ऐसा ही होना बदा था। उस वक़्त, लंच-टेबुल पर दोनों एक-दूसरे को आमने-सामने पाकर अचकचाए नहीं। बातचीत ऐसे शुरू हुई जैसेकि वे प्रायश्चित कर रहे हों। बात-बात में उन्होंने अपनी-अपनी गलतियाँ महसूस कीं। बिल्कुल फ़िल्मी अंदाज़ में...। जब देवा चलने को हुआ तो कन्नी भी उठ खड़ी हुई। देवा ने उससे घर चलने का कोई आग्रह नहीं किया। पर, वह कोई ग़िला-शिकवा किए बग़ैर, उसके पीछे-पीछे बँधी-सी चली आई जैसेकि वह ऐसा कई सालों से करती आ रही हो। उसके बाद दोनों ने कोई भावी योजना नहीं बनाई और वे साथ-साथ रहने लगे। किसी ने भी कभी यह नहीं सोचा या कहा कि वे तलाक़ के बाद मियां-बीवी की तरह साथ-साथ क्यों रह रहे हैं। उन्हें कम से कम ईश्वर को तो साक्षी बना ही लेना चाहिए--बाक़ायदा एक मंदिर में जाकर। आख़िर, एक बार तलाक हो जाने के बाद क्या दोबारा दाम्पत्य जीवन इतनी सहजता से शुरू किया जा सकता है? देखने-सुनने वाले लोग क्या कहेंगे...<br />
<br />
कन्नी ने लेटे-लेटे आँखें बंद कर ली। आसमान देखना उसे बिल्कुल नहीं भा रहा था। पर, मन इतना अशांत था कि जैसे उसके दिमाग में कोई बड़ा बाजार-हाट चल रहा हो। तभी उसका ध्यान सिरहाने दो प्रेमियों के बीच हो रही हरकतों ने भंग कर दिया। उनकी बेहद रोमांटिक बातचीत को सुनकर उसे उबकाई-सी आ रही थी। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि सालों से पुरुषों से दूरी बनाए रखने के कारण उसे मर्दानी गंध तक से मितली-सी आने लगी थी। इसके बावज़ूद वह पिछले माह के अंतिम रविवार को देवा के साथ उसके घर आकर खुद ही रहने लगी थी। तब, उसने कोई गिला-शिकवा किए बिना ही उसके साथ सभी तरह के संबंध बना लिए। सात सालों बाद उससे मिलकर ऐसे पेश आने लगी जैसेकि उनके बीच कभी कोई दूरी रही ही न हो।<br />
<br />
सिरहाने उत्तेजित प्रेमियों ने उसके मन को और भी उद्वेलित बना दिया था। पता नहीं, उसका कौतुहल क्यों बढ़ता जा रहा था? वह हड़बड़ाकर उठ बैठी और एक ळाटके से सिर घुमाकर उनकी गतिविधियों का जायज़ा लेने लगी। लेकिन, उसके तो होश ही उड़ गए। उन प्रेमियों में पुरुष-पात्र कोई और नहीं, बल्कि खुद देवा था। उसने अपनी शुबहा को मिटाने के लिए कई बार अपनी आँखें मल-मलकर उसे देखा और अपने यकीन को पुख्ता किया। वह राग-रोमांस में इतना तल्लीन था कि उसे आसपास की कोई ख़बर ही नहीं थी। कन्नी बिल्कुल उसके पास जाकर खड़ी हो गई। पर, वह तो एक ऐसी दुनिया में मशगूल था कि जहाँ होश में रहना किसे कबूल होता है। कन्नी के जी में आया कि वह उसे उसकी लौंडिया से अलग खीचकर उसके मुँह पर कई तमाचे रसीद कर दे। वह आवेश में आगे बढ़ी भी। पर, वह कुछ सोचकर रुक गई...शायद, यह कि उसका क्या हक़ बनता है। तलाक़नामा तो उनके बीच सात सालों से लागू है। वह किंकर्त्तव्यविमूढ़-सी, कुछ देर तक उन दोनों की प्रेम-पचीसी देखती रही। फिर, उलटे पैर वापस अपनी कार में जा बैठी और कार घर्र से स्टार्ट कर, धूल उड़ाते हुए ओळाल हो गई।<br />
<br />
*** *** ***<br />
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कन्नी कभी पहले इतने गुस्से में नहीं रही। उसने ड्राइंग रूम में घुसते ही टेबल पर सुबह के जूठे-पड़े कप-प्लेटों को जमीन पर गिरा दिया। देवा की लुंगी को खूंटी से खींचकर अंगुलियों और दाँतों से फ़ाड़-चींथ दिया। टी0वी0 के ऊपर बेतरतीब रखे उसके चश्मे, की-रिंग, कलम, डायरी, अंगूठी वग़ैरह को हाथ मारकर जमीन पर बिखेर दिया। उसके जूते पर इतनी तेज लात मारी कि वह पंखे के डैने में फंसकर लटक गया। इस तरह जब वह फ़िज़ूल का गुस्सा करते-करते थक गई तो वह औंधे मुँह बैठ गई। कोई दस मिनट बाद, उसने टी0वी0 स्टार्ट किया और आलमारी से कोई एलबम निकालकर फोटों देखने लगी। जैसेकि वह किन्हीं दस्तावेज़ों का अध्ययन कर रही हो।<br />
<br />
कोई एक घंटे के बाद, जब देवा ने दरवाजा खटखटाया तो उसने कोई देर किए बिना सांकल नीचे गिराया। देवा अंदर सीधे बेड रूम तक चला गया--जमीन पर पड़े हुए सामानों को कुचलते हुए। हाथ में जो भारी-भरकम पालीथीन था, उसे उसने अंदर जाते समय डाइनिंग टेबल पर रख दिया। कन्नी उसके पीछे-पीछे चली आई। उसका मन कर रहा था कि वह उसकी पीठ पर एक बड़े हथौड़े से वार करके उसका काम तमाम कर दे। तभी अचानक देवा ने पीछे मुड़कर उसे अपने आग़ोश में बुरी तरह जकड़ लिया। कन्नी को उसके बदन से एक अज़ीब-सी औरताना गंध आ रही थी। उसने अपनी कुहनियाँ उसके पेट में धँसाते हुए ख़ुद को आज़ाद किया और बेड रूम की ओर भागते हुए बड़बड़ाने लगी, "आई डोन्न लाइक यू। यू आर ए ब्लडी, सेक्सी डाग--व्हिच कान्ट क्रिएट फ़ायडेल्टी..."<br />
<br />
उस वक़्त, देवा अज़ीब-से संवेग में था। शायद, उसे कन्नी का एक भी लफ़्ज़ साफ़ सुनाई नहीं दे रहा था। वह दोबारा कन्नी की ओर ऐसे ळापटा जैसेकि हफ़्तों से भूखे शेर की माद के पास कोई जानवर भटककर आ गया हो। इस बार, वह उसे जबरन बेड पर लिटाने में सफल हो गया। कन्नी ने खुद को आज़ाद करने के लिए बड़ा संघर्ष किया। चिल्लाई, चींखी, गुर्राई। यहाँ तक कि हाथ-पैर भी बेतहाशा चलाए, यह परवाह किए बिना कि इससे देवा को कोई बड़ी चोट भी आ सकती है। पर, आखिरकार वह निढाल हो गई।<br />
<br />
बेड से उठने के बाद देवा बाथरूम में घुस गया और कन्नी फिर टी0वी0 के सामने बैठ गई। वह एक विदेशी चैनल पर चल रही ब्लू फिल्म को मुँह बिचका-बिचकाकर देखने लगी। देवा बाथरूम से निकलकर डाइनिंग चेयर पर बैठ गया। कन्नी इस बात पर बार-बार गुस्सा खा रही थी कि आखिर, देवा ने उसे पालीथीन में लाई हुई चीज अभी तक दिखाई क्यों नहीं। वह एकबैक उसके सामने आई और टेबल पर रखी हुई पालीथीन का सामान टटोलने लगी। तब तक देवा तौलिए से हाथ पोंछते हुए उसके बगल वाली कुर्सी पर बैठ चुका था। उसने पालीथीन से एक नया लेडीज़ सूट निकालते हुए उसकी ओर बढ़ाया--"हैप्पी बर्थडे टू यू..."<br />
<br />
कन्नी एक बच्चे की तरह चहक उठी--"हाऊ सरप्राइज़िंग! टूडे'ज़ माई बर्थडे! आई हैड ऐक्चुअली फ़ारगाटेन। थैंक्स फ़ार रिमाइंडिंग मी ऐन्ड आलसो फ़ार दिस गिफ़्ट।"<br />
<br />
फिर, अचानक वह सुबकने लगी--"ड्युरिंग दि लास्ट सिक्स यियर्स, देयर वाज़ नोबोडी टू विश मी आन माई बर्थडे।"<br />
देवा उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए भावुक हो उठा और एकबैक उठ खड़ा हुआ। "कन्नी डार्लिंग, चलो किसी रेस्तरॅा में तुम्हारा बर्थडे सेलीब्रेट करते हैं।" <br />
<br />
कन्नी ने देवा की गुजारिश पर कोई शिकवा-गिला नहीं किया। वह ळाटपट देवा द्वारा लाए गए नए सूट को पहन, उसके साथ चलती बनी।<br />
<br />
रेस्तरॉ से लगभग बारह बजे तक लौटने के बाद, दोनों नशे में बातें करते रहे। दोनों ने गत सात सालों के दौरान अपने-अपने इतर प्रेम-संबंधों को स्वीकार किया। देवा ने फिलहाल पद्मा के साथ अपने चक्कर का ब्योरा दिल खोलकर दिया। कन्नी की समळा में आ गया कि जिस स्टूडेंट को देवा आफ़िस से लौटते हुए कहीं रुककर टयुशन पढ़ाता है, वही पद्मा है...हाँ, उस दिन, इंडिया गेट पर वह उसी पद्मा के साथ इन्वाल्व रहा होगा...<br />
<br />
कान्फ़ेशन्स के उन लमहों में, कन्नी बेहद जज़्बाती हो चुकी थी। उसने करन के साथ अपने संबंधों की अटूटता और गूढ़ता का वर्णन इतनी मासूमियत से किया कि देवा के मन में उसके प्रति कोई रोष या विद्वेष पैदा ही नहीं हुआ। बजाय इसके, उसने उसे तसल्ली देते हुए कहा, "मैं करन को इस बात के लिए धन्यवाद दूँगा कि उसने तुम्हारे कष्ट और दुर्भाग्य के दौरान तुम्हें सम्हाले रखा। उसने तुम्हें टूटने से बचाया। वर्ना, क्या हो जाता? बड़ा गड़बड़ हो जाता..."<br />
<br />
काफ़ी देर तक बातें करते हुए उनका नशा उतर चुका था। पर, जो कान्फेशन्स उन्होंने किए थे, वे पूरे होशो-हवास में किए थे।<br />
<br />
उस दिन, जब वे अपने दाम्पत्य-संबंधों का आग़ाज़ दोबारा करने के लिए मंदिर में भगवान को साक्षी बना रहे थे तो वहाँ साक्ष्य के रूप में देवा की ओर से उसकी स्टूडेंट--पद्मा और कन्नी की ओर से उसका दोस्त--करन मौज़ूद थे। देवा और कन्नी ने दोनों की ढेरों बधाइयाँ कुबूल कीं। किसी में भी कोई मलाल नज़र नहीं आया। कोई शिकायत नहीं की।<br />
<br />
उसके बाद से कन्नी और देवा साथ-साथ रह रहे हैं। लेकिन, वे एक-दूसरे की गतिविधियों पर हमेशा नज़र रखने सेे बाज भी नहीं आते। कन्नी ने कई बार देवा को पार्कों में पद्मा के साथ आलिंगनबद्ध पाया। देवा ने भी कन्नी को करन के साथ पिक्चरहालों से बाहर निकलकर कनाट प्लेस में बाँह में बाँह डाले घुमते हुए देखा। पर, न तो कन्नी ने घर लौटकर देवा की कभी लुंगी फाड़ी और उसके सामान वगैरह बिखेरे, न ही देवा ने कभी अपनी जुबान फीकी और मन उचाट पाने के बाद मूड ठीक करने के लिए मीट या चिकेन पकाया। ऐसे मूड में वे एक-दूसरे के प्रति आक्रोश प्रकट करने के बजाय, आपस में बड़े प्यार से मिलते हैं। आखिर, वे कोई एतराज क्यों नहीं करते हैं? लिहाजा, उनकी ज़िंदगी में ताक-ळााँक करके और उनके संबंधों का खुलासा करके मुळो कभी-कभी बड़ा पछतावा होता है।</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%87_%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%A8_%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A4%B8%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A5%87_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5971मादरे वतन वापसी के बाद / मनोज श्रीवास्तव2011-12-02T10:19:01Z<p>Dr. Manoj Srivastav: ' '''मादरे वतन वापसी के बाद''' वह मोह...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
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<div> '''मादरे वतन वापसी के बाद''' <br />
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वह मोहल्ला ऐसा था जो शहर से कोई चार किलो मीटर दूर होने के बावज़ूद हर तरह से तंगहाल था। बुनियादी जरूरतें भी मुहैया नहीं थीं। उल्टे, उसे अप्रत्याशित ख़तरों से निपटने के लिए, चाहे दिन हो या रात, मुस्तैद रहना पड़ता था। शहर रात को बिजली की रोशनी में नहाया रहता था और दिन में, पानी से आकंठ सिंचित रहता था। <br />
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लेकिन, इस हिंदू-बहुल मोहल्ले में लोगबाग़ रात को अंधेरों से और दिन में सूखे से जूळाने के आदी हो चुके थे।<br />
ऐसे ही मोहल्ले में सिर्फ़ एक आदम बसेरा था और वह भी इकलौते हिंदू का, जिसे यह मलाल था कि उसके पड़ोस के सभी हिंदू परिवार बाल-बच्चों समेत हिंदुस्तान कूच कर गए थे। उन्होंने जाते-जाते उससे लाख मिन्नतें की थी कि वह इन दरिंदों के बीच रहकर क्या करेगा। इन जिन्नातों ने तो उसके खेलते-खाते घर को तबाह कर डाला और उसे रोजी-रोटी तक के लिए मोहताज बना दिया।<br />
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पर, उसने साफ़ मना कर दिया कि वह आइंदा मादरे वतन को कभी भी तौबा नहीं करेगा। <br />
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जब उनके जाने के बाद मोहल्ला खाली हो गया और अगल-बगल के घर वीरान हो गए तो आवारा कुत्तों को वहाँ अपना अड्डा बनाने का अच्छा मौका मिला। ऐसे में, कुत्ते ही उसके पड़ोसी बन गए। रात को जब वे आपस में भौंकने लगते तो उसे एहसास होता कि वह किसी आदम बस्ती में न रहकर एक बीहड़ जंगल में रह रहा है जहाँ हर कोने में आदमख़ोर लकड़बघ्घों का डेरा है। <br />
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ऐसा नाख़ुशगवार माहौल कोई पाँच महीने तक बना रहा। उसे यह उम्मीद बिल्कुल नहीं थी कि उन घरों में कभी कोई आदम जात बसने की जुर्रत करेगा। पर, उसे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। एक सुबह काम पर जाते समय अचानक़ उसने देखा कि उसके आसपास के कोई सात-आठ मकानों में कुछ लोग सफ़ाई कर रहे हैं। शाम को दुकान से घर लौटते हुए उसने उन घरों में फ़िर अपनी खोजी नज़रें फेंकी। उसे बड़ी तसल्ली हुई कि उन घरों में कुछ लोग जम गए हैं। उसने पल भर को रुककर, बैसाखी पर अपनी दाढ़ टिकाते हुए सूखी मुस्कान के साथ आह भरी--"चलो, अब इंसानों के बीच रहेंगे, जानवरों के बीच नहीं।" <br />
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वह बैसाखी को दरवाजे के किनारे टिकाते हुए कमरे में दाख़िल हुआ--दीवार को दोनों हाथों से थामे हुए। उसकी पालतू बिल्ली लपककर उसकी गोद में चिपक गई। वह गिरते-गिरते सम्हला। बिल्ली को कुत्तों का ख़ौफ़ कम सता रहा था, क्योंकि उसे यह एहसास हो गया था कि पड़ोस के कुत्ते कहीं और नीड़ की तलाश में या आवारा सड़कों पर चले गए होंगे। <br />
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उसने लालटेन जलाई और बिल्ली को कुर्सी पर बैठाते हुए तिपाई के साथ लगी बेंच पर बैठ गया। वह आदतन कुछ देर तक सामने दीवार पर टंगे भारत के नक्शे को देखता रहा। उसने भारत के बाएं कंधे पर सवार पाकिस्तान के नक्शे पर मुँह बिचकाया। वह कुछ बड़बड़ाया। उसे एकबैक याद आया कि नक्शे को उसके बेटे राजू ने टांग रखा था। उसने पहली बार बड़े ध्यान से देखा कि दोनों देशों के बीच सीमा-रेखा को उसके बेटे ने खरोंचकर धूमिल-सा बना दिया है।<br />
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राजू की याद ने उसके भीतर के सूखे ज़ख़्म को गहराई से कुरेंद दिया। पर, उसके मन में बरसों से दुःख का बर्फ़ीला पहाड़ अटा होने के बावज़ूद उसकी आंखों ने आँसू का एक भी कतरा बहाने से इनकार कर दिया। चाहकर भी न रो पाना उसकी सबसे बड़ी बेबसी थी...बेशक! शारीरिक अक्षमता थी...<br />
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वह यानी हरिहर लालटेन लेकर कोठरी में आ गया। उसने चारपाई पर रखी राजू की तस्वीर को एक बार चूमा और वहीं लेट गया। लेकिन उसे यह बार-बार एहसास हो रहा था कि आज राजू के ख़्याल पर धूल की परत चढ़ती जा रही है और उसके सामने सुम्मी का चेहरा नाच रहा है। उसके चेहरे पर ळाुर्रियाँ रोने के अंदाज़ में फैल गईं--"उफ़्फ़! आज तो तुम्हारे शहादत का दिन है। जिन कमीनों ने तुमको मुळासे ज़ुदा किया, उनके वंश का नाश हो।" आँसुओं ने फिर उसका साथ देना गवारा नहीं किया।<br />
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सुम्मी यानी सुमिता जिसे कोई पंद्रह साल पहले, मंदिर से लौटते समय आवाम के कुछ शुभचिंतकों ने आवाम को ग़ैर-मज़हबदारों से महफ़ूज़ बनाने के नाम पर उसकी अस्मत लूटी और फिर, हलाख कर दिया। गुस्से से उसका चेहरा तपने लगा। चींकट कान गर्म होकर खुजलाने लगे। उसने दंतहीन मुँह से अपने होठों को जोर से चबाया और मुट्ठी भीचकर चारपाई पर कई बार पटका। मुट्ठी की धमक से छत से कुछ धूल ळाड़कर उसकी आँखों में चली गई। वह आँख रगड़ते हुए बिलबिला उठा। मुँह में धूल की कड़वाहट ने उसकी भूख और बढ़ा दी।<br />
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यह घटना सन 1975 की थी जबकि मोहल्ले में अमूमन तीस-पैंतीस हिंदू परिवार रह रहे थे। उसके साथ-साथ सुम्मी भी महाशिवरात्रि का व्रत थी। वह आसपास के जंगलों से शिवलिंग पर चढ़ाने के लिए धतूरे, बेलपत्र, भांगपत्र, बैर, फूल वगैरह इकट्ठे करने के बाद बाजार से धूप, अगरबत्ती, कपूर, जैसी चीजें भी खरीद लाया। मुल्ला दुकानदारों से पूजा के सामान आदि खरीदना बड़ी टेढ़ी खीर होती है। उसे उनको बार-बार सफाई देनी पड़ी कि घर की कच्ची दीवारों के अंदर मरे हुए चूहों की बास को कम करने के लिए इन चीजों का इस्तेमाल करना पड़ता है। पर, उन्हें एक हिंदू की जुबान पर कहाँ यकीन होने वाला था। ख़ैर, दिन के कोई दस बजे, वे घर में स्थापित उस काँसे के शिवलिंग की विधिवत पूजा करने के बाद, जिसे कभी उसके पुरखों द्वारा दिल्ली के चाँदनी चौक से खरीदा गया था, नवाबगंज स्थित शिवाले पर जाने का मूड बनाने लगे। कोई आधे घंटे बाद, वे मच्छरदानी में सोते बच्चे के मुँह में दूध की बोतल डालकर बेफ़िक्र हो गए कि वह कम से कम एक घंटे तक तो सोता रहेगा ही जबकि इस बीच वे शिवजी का दर्शन भी करते आएंगे। <br />
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वे गली-कूचों से पगडंडियों के रास्ते शिवालय की ओर चल पड़े। दोनों ने रास्ते में ही तय कर लिया कि उनमें से कौन सबसे पहले शिवजी को अर्ध्य चढ़ाने जाएगा।<br />
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शिवालय की सीढ़ियों पर दस्तक देने से पहले ही वे ठिठक गए। दरमियाने डील-डौल वाले अक्खड़ किस्म के चुनिंदा दढ़ियल नौजवान वहाँ कुछ इस अंदाज़ में चहकदमी कर रहे थे, जैसेकि वे पहरेदारी कर रहे हों। चुनांचे, वे उन्हें देखकर किसी पतली गली की आड़ में छुप गए या कहीं चले गए। ऐसे में, हरिहर और सुम्मी को शिवजी की निर्विघ्न पूजा करने का अच्छा मौका मिला। उन्हें वहाँ छाई घुप्प ख़ामोशी पर कोई ख़ास ताज़्ज़ुब नहीं हो रहा था क्योंकि वे पहले भी यहाँ आ चुके थे। <br />
जैसाकि उनके बीच तय हो चुका था, पहले सुम्मी शिवालय के अंदर गई और हरिहर बाहर उसकी प्रतीक्षा करता रहा। चार-पाँच मिनट नहीं, पूरे दस मिनट के बाद जब वह बाहर आई तो हरिहर की बेचैनी दूर हुई। उसने आँखों ही आँखों में सुम्मी से शिकायत की--'आख़िर, इतनी देर क्यों लगा दी? मेरी तो जान ही निकल गई थी।' सुम्मी ने मुस्कराकर उसके हाथों में पूजावाली डलिया थमाई और गली के सुन्नसान नुक्कड़ पर जाकर खड़ी हो गई। हरिहर तेजी से अंदर गया और पूजा से यथाशीघ्र निपटकर बाहर आया। पर, उसे नुक्कड़ पर सुम्मी को न देखकर कोई ज़्यादा हड़बड़ी नहीं हुई। उसने सोचा कि वह शायद, चहलकदमी करते हुए घर की ओर रवाना हो चुकी होगी और रास्ते पर खड़े होते ही वह सामने नज़र आ जाएगी। <br />
वह बिल्ली जैसी चपलता से उछलता हुआ रास्ते पर आया। लेकिन, दूर-दूर तक सुम्मी नज़र नहीं आई। आखिर, किस रफ़्तार से सुम्मी गई होगी और वह भी बिना बताए, हरिहर को तो शिवालय में पूजा से निपटने में कोई दो-तीन मिनट से ज़्यादा नही लगे होंगे। <br />
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उसकी साँस अटक-सी गई। उसका दिल घबराहट से धड़क रहा था; लेकिन, उसका मन कह रहा था कि सुम्मी के साथ कोई अनिष्ट नहीं हो सकता। वह शिवालय को जोड़ने वाली दूसरी तीनों गलियों में बारी-बारी से लपक-लपककर भागता रहा। उसे वे नौजवान भी कहीं नज़र नहीं आए जो उसे शिवालय पर दिखाई दिए थे। फिर, आधे घंटे बाद वह वापस शिवालय के सामने आकर खड़ा हो गया। कुछ पल प्रतीक्षा करता रहा कि संभवतः सुम्मी वापस आ ही जाएगी। <br />
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पर, ऐसा नहीं होना था। हरिहर रुआँसा हो गया। तभी, उसे अचानक कुछ सूळाा और वह सुम्मी-सुम्मी पुकारता हुआ घर की ओर चल पड़ा--लगभग भागते हुए। उसे लग रहा था कि शायद, सुम्मी घर में मौज़ूद होगी। <br />
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पर, घर में तो उसका नामो-निशान तक नहीं था। अलबत्ता राजू अभी भी मच्छरदानी में सो रहा था। उसने अफ़रातफ़री में अपने तीन-वर्षीय बेटे को गोद में उठाया और हिम्मत बटोरकर थाने की ओर चल पड़ा। <br />
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वहाँ लाख मिन्नतें करने, दाढ़ी छूने और घिघियाने और टुच्चे पुलिसवालों की ळिाड़कियाँ सुनने के बाद उसकी पत्नी की ग़ुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज़ हुई। <br />
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रात के साढ़े नौ बजे चुके थे। उसकी आँखें सूजकर लाल हो गई थीं। पड़ोसी उसे तसल्ली देकर जा चुके थे। बीवी के ग़ुम हो जाने के बाद अभी उसे उम्मीद थी कि वह जहाँ भी होगी महफ़ूज़ होगी और ज़ल्दी ही वापस आ जाएगी। वह बस! ज़िंदा हो, भले ही उसकी आबरू लुट चुकी हो। उसे सरेआम बेइज़्ज़त किया जा चुका हो। वह उससे कोई शिकायत नहीं करेगा। वह उसे किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहता है। <br />
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वह उसके साथ मुहब्बत में गुजारे बेशक़ीमती लमहे याद करते हुए बच्चे को तीसरी बार दूध में वैद्य रामदीन द्वारा दी गई दवा घोलकर पिला रहा था। उसे पिछली रात से ही बुखार आ रहा था और इसी वज़ह से वह दवा के नशे में लस्त पड़ा बेख़बर सो रहा था। एक-दो बार वह अम्मा-अम्मा पुकारकर उसकी थपकियों से आसानी से काबू में आ गया था। वर्ना, अम्मा की ग़ैर-मौज़ूदगी में...<br />
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तभी वह कोई आहट सुनकर दरवाज़े पर आ गया। उसने लालटेन की रोशनी तेज की। एक पुलिसवाले को खड़ा देख राहत की साँस ली--'जरूर उसकी सुम्मी के बारे में अच्छी ख़बर लाया होगा।' उसने आँख मीचकर भगवान शिव का ध्यान किया।<br />
पुलिसवाले ने अकड़बाज़ लहजे में सवाल किया--"क्या तूने ही सुभह थाने में बीवी की ग़ुमशुदगी की रपट लिखवाई थी?"<br />
"हाँ, म...म...मैंने ही..." वह हकलाकर रह गया।<br />
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"तेरी बीवी की लाश को सदर थाने में पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया है। तूँ अलसुभह सात बजे थाने आकर उसकी लाश ले जाना..." पुलिसवाला नफ़रत से थूकते हुए तेज कदमों से लौट गया।<br />
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उसने जाते-जाते इस बात की भी परवाह नहीं की कि उसकी ख़बर सुनने के बाद हरिहर गश खाकर जमीन पर धड़ाम से गिर पड़ा है। उसे कई घंटों बाद होश तब आया जबकि राजू का रोना-बिलखना उसके कानों को बुरी तरह भेदने लगा। <br />
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उस वक़्त रात के दो बजे हुए थे। हरिहर एक बार शिव की मूर्ति के सामने खड़ा होकर भगवान से कुछ शिकायत करने वाला था। लेकिन तभी वह बच्चे की 'अम्मा-अम्मा' की पुकार सुनकर विचलित हो गया। उसने बच्चे को थपकी देकर सुलाते हुए चारपाई पर लिटाया और एक निर्णायक मूड में कुछ कपड़े और दूसरे सामान वग़ैरह एक बक्से में रखने लगा। उसे नींद नहीं आई। थाने में उसकी जवान बीवी की लाश रखी पड़ी हो और वह सोने का ख़याल ला सके। कैसे मुमकिन हो सकता है?<br />
सुबह थाने पहुँचने के बाद उसका दिमाग़ थानेदार की फ़ाइनल जाँच रिपोर्ट सुनकर दंग रह गया।<br />
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"तेरी बीवी ने शिवालय के पीछे वाले कुएं में कूदकर ख़ुदकुशी की थी--उसकी लाश वहीं से बरामद हुई है," थानेदार ने उसे पोस्टमार्टम रिपोर्ट दिखाते हुए कहा।<br />
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"लेकिन, उसे तो ऐसा कोई ग़म नहीं था..." हरिहर का चेहरा उस ळाूठ रिपोर्ट से लाल हो गया। वह गोद में बच्चे को सम्हालते हुए वहाँ जमीन पर उस मुड़ी-तुड़ी गठरी को देखकर रुआँसा हो उठा जिसमें सुम्मी की मुड़ी-तुड़ी लाश पड़ी थी।<br />
थानेदार उसकी प्रतिक्रिया से उबल उठा, "हरामज़ादे! तेरी बेवफ़ाई और टार्चर से ऊबकर ही उसने..."<br />
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"लेकिन, हमदोनों में इतना मुहब्बत था कि कोई भी कभी ऊँची आवाज़ में बात तक नहीं करता था। उसे टार्चर करने का तो सवाल ही नहीं उठता।" बेशक, हरिहर की दलील उसे कतई पसंद नहीं आई।<br />
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थानेदार रिज़वी ग़ुस्से में काफ़ूर होकर और कुर्सी को धड़ाम से पीछे धकेलते हुए चींख उठा, "तेरा कहने का मतलब क्या है? तूँ यहाँ दस्तख़त कर और लाश लेकर चलता बन, वर्ना..." वह लाश पर पैर से ठोकर मारते हुए आपे से बाहर हो रहा था।<br />
हरिहर का जी कर रहा था कि वह अपनी सुरक्षा के लिए अंदर करधनी से लटकती करौली निकालकर उस राक्षस के सीने में घुसेड़ दे। पर, वह सब्र का ज़हर पीकर लाश के साथ वापस घर लौट आया। उसने ख़ुद लाश को खोलकर अपनी पत्नी के ज़िस्म को उलटा-पलटा और उसकी बख़ूबी निग़रानी की। योनिमार्ग से लगातार ख़ून बह रहा था, गरदन की हड्डी टूटी हुई थी और कुएं में गिरने से उसके बदन पर जिस तरह की चोटें आनी चाहिए थी, वैसा कोई निशान मौज़ूद नहीं था। इसलिए, इस सच को सबूत की ज़रूरत नहीं थी कि सुम्मी का सामूहिक बलात्कार करने के बाद उसकी बेरहमी से गला घोंटकर हत्या की गई थी।<br />
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शाम से पहले वह सुम्मी का अंतिम संस्कार करके निपट चुका था। तत्पश्चात, उसने घर पर आए अपने पड़ोसियों को अपना इरादा बताया, "मैंने इस मुल्क को आज और अभी छोड़ने का मन बना लिया है। मैं हिंदुस्तान जा रहा हूँ।"<br />
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पड़ोसियों ने उसे लाख समळााया-बुळााया कि जिस मादरे वतन की माटी में उसकी जान यानी सुम्मी का अंश मिला हुआ है, उसे छोड़कर वह सुकून से नहीं रह पाएगा। लेकिन, वह अपने फ़ैसले पर अडिग था।<br />
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हरिहर ने वतन से तौबा कर लिया था। उसको अपने बच्चे के साथ दिल्ली में पनाह लिए हुए कई साल बीत चुके थे। वह कम से कम दर्जनभर ळाुग्गी बस्तियों में रहने के लिए असफ़ल जुगाड़ बैठाकर उकता चुका था। पर, हर बस्ती में उसे शरणार्थी, रिफ़्यूज़ी, टेररिस्ट आदि का बदनाम तग़मा ओढ़कर निकलने पर मज़बूर होना पड़ता था। जब वह फुटपाथों या रेलवे प्लेटफार्मों की शरण में जाता तो पुलिस की ज़्यादतियाँ उसका स्थायी तौर पर हिंदुस्तान में बसने का मनोबल तोड़ देती। वे उससे भारतीय नागरिक होने का सर्टीफ़ीकेट मांगते, फिर उसके साथ पुलिसयाना बर्ताव करने लगते। पर, वह तो चोरमार्गों से भारत आया था, दोनों देशों की सरकारों की सहमति से नहीं। इस भावना के साथ आया था कि वह जाति से हिंदू और वह भी ब्राह्मण होने के नाते हिंदुस्तान में न केवल सुरक्षित नीड़ तलाश कर पाएगा बल्कि हिंदुस्तानियों के साथ अच्छी तरह खिल्थ-मिल्थ होकर उनकी हमदर्दी भी बटोर सकेगा। दूसरे, वहाँ तो भूख से जूळाने के साथ-साथ मौत के ख़ौफ़ से भी हर पल लड़ना पड़ता था। कम से कम हिंदुस्तान में मौत का डर तो उतना नहीं है। बस, आए दिन उसे पुलिस से दो-चार होना पड़ता है--ख़ामोशी के साथ उनकी भद्दी-भद्दी गालियाँ सुनते हुए और लात-डंडे खाते हुए। लिहाजा, पेट तो देर-सबेर भर ही जाता है। <br />
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उसे कई बार कुछ नेता चुनावों के दरमियान किसी ळाुग्गी बस्ती में रहने का ठिकाना इस वादे के साथ दे जाते कि जब वह चुनाव जीत जाएगा तो वह उसे बाक़ायदा यहाँ की नागरिकता दिला देगा। कुछ ऐसी ही उम्मीद में उसने कितने ही साल यहाँ गुजार दिए। पर, उसने अपनी हिम्मत को कभी टूटने नहीं दिया। वह कई बार दिल्ली स्थित हिंदू संगठनों के पास भी गया और अपना दुखड़ा सुनाया। वहाँ उस जैसे हिंदुओं पर ढाए जा रहे ज़ुल्मों का हृदयविदारक रोना रोया। फिर, अपनी जाति बताई और गोत्र भी। अपने उन ख़ानदानी पुरखों के नाम गिनाए जो अयोध्या और काशी जैसे नगरों के सम्मानित नागरिक थे। वह बस्तियों में गया और बुज़ुर्ग नागरिकों से फ़रियाद की कि मैं और मेरा बेटा हिंदू होने के नाते हिंदुस्तान में ही बसना चाहते हंैं। पर, किसी पर भी उनकी बात का यक़ीन नहीं होता! कोई उनका साथ देने को तैयार नहीं हुआ। उल्टे, कुछ लोग तो दोनों को घुसपैठिया समळा, उन्हें फ़ौरी तौर पर पुलिस को सौंपने पर भी आमादा हो गए। लेकिन, समय रहते वे उनका इरादा भाँपकर भाग निकले वर्ना...<br />
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हरिहर थक चुका था। उसके साथ उसकी बदक़िस्मती का हमसफ़र--राजू, यानी उसका बेटा अब बड़ा हो रहा था और उसकी बातों में सयानापन ज़ाहिर होने लगा था। उसे सारी बातें समळा में आने लगी थीं। कुछ दिनों से वह उसे बार-बार एक ही सबक देने लगा था कि--'बाबू! इससे अच्छा तो अपना ही देस है जहाँ अम्मा की रूह बसी हुई है।' फिर, वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगता--"बाबूजी! हमें इस देस में अब तक क्या मिला है? यहाँ भी लात खा रहे हैं, वहाँ भी लात ही खाएंगे। सो, अच्छा होगा कि हम फिर अपने वतन लौट चलें..."<br />
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हरिहर के कानों में भी खुजुली होने लगी--'राजू क्या ग़लत कह रहा है? यहाँ तो अपना कोई मुस्तकिल ठौर भी नहीं है। वहाँ तो अपना घर है, अपनी जान-पहचान के लोग भी हैं। वहाँ जाकर फिर से अपना धंधा करेंगे और पेट पालेंगे।' <br />
लेकिन, सीमा पार जाने के ख़याल-भर से उसका बदन थर-थर काँपने लगता।<br />
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परंतु, एक घटना ने उसके डर को काफ़ूर कर दिया। एक ठिठुरती रात को कुछ वहशी पुलिसवालों ने उन दोनों को दिल्ली रेलवे स्टेशन के पेशाबखाने के एक कोने में उस समय जमकर धुनाई की जबकि वे घातक ठंड को धता बता, सो रहे थे। वे दोनों दर्द से बिलबिलाते हुए अपनी कथरी छोड़ प्लेटफ़ार्म से बाहर की ओर भागे। हरिहर तो इतने समय से पुलिस की मार बर्दाश्त करने का दमख़म विकसित भी कर चुका था। पर, राजू का पहली बार पुलिस के डंडों से वास्ता पड़ा था। वह दहाड़ें मार-मारकर रोता हुआ भाग रहा था। जब वे किसी तरह भागते हुए पुलिसवालों की पहुँच से दूर निकल आए तो एक बस स्टैंड की बेंच पर बैठते हुए हरिहर फ़फ़क उठा--"हिंदुस्तान के बारे में मैंने ग़लतफ़हमी पाल रखी थी कि यहाँ चैन होगा और सुकून मिलेगा। पर, अब मेरा मोहभंग हो चुका है। यहाँ तो भूख है, यातना है, परायापन है। इससे खराब जमीन कहाँ की होगी? अब, यहाँ और रहना बर्दाश्त नहीं हो पा रहा है..."<br />
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उसने अपने पैरों की चोट सहलाते हुए राजू को खींचकर उठाया। वापस वतन जाने के इरादे ने रोते-बिलखते राजू में भी बेहद जोश पैदा कर दिया। वह पिटाई का दर्द भूलकर उठ खड़ा हुआ--"बाबूजी! हमें सच्चा सुकून वहीं मिलेगा जहाँ मेरी अम्मा की आत्मा मुळो दुलराने के लिए इधर-उधर बेताब-सी मँडरा रही है।"<br />
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कोई महीने भर की जी-तोड़ मशक्कत करने और तरक़ीब तलाशने के बाद एक रात वे लुक-छिपकर अपने वतन की सरहद में प्रवेश कर ही गए। अपने वतन की जमीन पर चलते हुए उन्हें बड़ा सुकून मिल रहा था। लिहाजा, वे तेज कदमों से बढ़ रहे थे कि तभी उन्हें अहसास हुआ कि उनका पीछा किया जा रहा है। इस पर, वे कोई दस मिनट तक ळााड़ियों में दुबके रहे। उसके बाद जब वे उठे तो बेतहाशा भागते हुए। जब उन्हें लगा कि वे मीलों पीछे सरहद को छोड़ चुके हैं और बस्तियों में प्रवेश कर चुके हैं तब उन्होंने अपने पैरों को राहत दी। <br />
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पर, उन्हें क्या पता कि उनका पीछा किया जा रहा है? अभी वे एक पेड़ की आड़ में अपनी हँफ़ाई पर काबू पाने की कोशिश कर ही रहे थे कि तभी एक सनसनाता कारतूस हरिहर के बाएँ पैर की जाँघ में आकर फ़ँस गया। वह इतनी जोर से चींखा कि आसपास के घोसलों में सोते परिंदे भी जागकर बेचैनी से चहचहाने लगे। हरिहर वहीं राजू के सीने पर अपना सिर रखकर उसे आँसुओं से भिंगोते हुए कराहने लगा।<br />
<br />
राजू ने सोचा कि अगर वह कमजोर पड़ गया तो उसके बाप का मनोबल टूट गया। उसने उसके हौसले को बुलंद किया--"बाबूजी! कुछ नहीं हुआ है। घर पहुँचकर सब ठीक हो जाएगा।"<br />
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जैसे-तैसे ळााड़ियों में रात गुजारने के बाद जब सुबह हुई तो हरिहर ने कहा--"बेटे! ऐसा करो कि आज शाम तक हम अपने घर में दाख़िल हो जाएं!" फिर उसने अंगोछे से अपनी जाँघ के ज़ख़्म को कसकर बाँधा और राजू के कंधे का सहारा छोड़कर अपने पैरों पर ऐसे खड़ा हो गया जैसेकि जाँघ में गोली लगने की बात तो ळाूठी थी। असल बात यह है कि वे अब अपने देश वापस आ चुके हैं और ऐसी खुशी हर ग़म को दबा देती है।<br />
<br />
राजू ने देखा कि उसका जाँबाज़ बाप अपनी जाँघ में गोली की टीस को दबाए हुए कितने जोश-ख़रोश से घर पहुँचने के लिए बेताब है। वतन पहुँचने की खुशी ने उसकी पीड़ा को अच्छी तरह दबा दिया था। यद्यपि वे बसों और रेलगाड़ियों में चैन से यात्रा नहीं कर पा रहे थे--क्योंकि टिकट खरीदने के लिए उनके पास एक भी धेला नहीं था लेकिन हरिहर बड़ी चालांकी से कन्डक्टरों की आँखों में धूल ळाोंककर बाल-बाल बचता जा रहा था। अन्यथा, उनकी हुलिया ऐसी थी कि पकड़े जाने पर उनको हिंदुस्तानी घुसपैठिया समळा, न जाने कितनी बड़ी सज़ा भुगतनी पड़ती।<br />
<br />
आख़िरकार, वे अपनी सुरक्षित जान लेकर कोई दस बजे रात को अपने घर के सामने खड़े हुए। जब हरिहर जनेऊ से बँधी चाभी निकाल रहा था कि तभी कुछ पड़ोसी भी वहाँ आ गए। घर में घुसते ही हरिहर को गशी-सी आने लगी क्योंकि जाँघ में फ़ँसे कारतूस की कसक तेज होने लगी थी। वह वहीं जमीन पर चित धराशायी हो गया। राजू ने पड़ोसियों को बताया, "बाबूजी की जाँघ में कल रात से ही एक गोली फ़ँसी हुई है।"<br />
<br />
पड़ोस के वैद्य रामदीन ने जाँच के बाद बताया--"हरिहर के सारे बदन में गोली का ज़हर फैल चुका है। बचने की उम्मीद ना के बराबर है।" <br />
<br />
राजू को तो जैसे साँप सूंघ गया। पर, पड़ोसियों ने उसका पर्याप्त ढाँढस बँधाया और उसे बहला-फ़ुसलाकर किसी पड़ोस के घर में खींच ले गए ताकि वह कुछ देर तक आराम से सोकर अपनी थकान मिटा सके। <br />
रामदीन ने मददग़ार पड़ोसियों को अंतिम फ़ैसला सुनाया--"हरिहर का पैर तत्काल काटकर ही उसकी जान बचाई जा सकती है।"<br />
<br />
कोई एक बजे रात को रामदीन के घर में उपलब्ध चिकित्सीय सुविधाओं की सहायता से हरिहर का एक पैर काट दिया गया। पड़ोसियों ने तन-मन-धन से उसकी मदद की। सुबह जब राजू को लाकर उसके बाप के सिरहाने बैठाया गया तो उसको इतना कुछ होने पर भी बड़े सुकून का अहसास हो रहा था जबकि हरिहर को अभी तक होश नहीं आया था। <br />
<br />
पड़ोस में हरिहर की वतन वापसी के चलते कई दिनों से बड़ी चहलपहल थी। उसका ज़ख़्म अभी तक हरा था। सभी हिंदू परिवार अपने-अपने इष्ट देवताओं से उसकी सलामती के लिए दुआएं मांग रहे थे। लिहाजा, राजू अपना वक़्त अपने उजड़े घर को ठीक-ठाक करने में लगा रहा था। उसने दीवारों पर कैलेंडर टांगे और बिखरे हुए सामानों को करीने से सजाया। कुछ इसी तरह से सुकून और चैन की तलाश चल रही थी कि एक दिन अचानक माहौल में सनसनी फ़ैल गई। चुनिंदा पुलिसवाले यह ऐलान करते हुए कि दो हिंदुस्तानी घुसपैठिए इस मोहल्ले में घुस आए हैं, लकड़बघ्घों की जैसी फ़ुर्ती से घर-घर की तलाशी लेने लगे। वैद्य रामदीन भाँप गया कि यह सब क़वायद हरिहर की धरपकड़ के लिए की जा रही है। इसलिए, उसने एहतियाती तौर पर हरिहर को एक तहखाने में डाल दिया लेकिन, राजू की ओर से बेफ़िक्र हो गया कि इस लड़के पर पुलिसवालों का क्या ध्यान जाएगा। मैं इसे अपना बेटा बताकर बचा लूँगा।<br />
<br />
आख़िरकार, पुलिसवालों ने रामदीन के घर की तलाशी शुरू कर दी। <br />
<br />
इंस्पेक्टर रिज़वी ने अपना पूरा ध्यान राजू पर टिका दिया।<br />
<br />
"ये लौंडा तुम्हारा है?"<br />
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"जी-जी...हाँ..."अब तक अविवाहित रहे अधेड़ रामदीन ने सकारात्मक में सिर हिलाया। दरअसल, उसने आजीवन अविवाहित रहने की क़सम इसलिए खा रखी थी क्योंकि उसे तो अपना सारा जीवन बीमारों की ख़िदमत में गुजारना था।<br />
<br />
"तुम्हारी बीवी नज़र नहीं आ रही है..." रिज़वी ने शक से उसे घूरकर देखा। <br />
रामदीन से कोई उत्तर नहीं बन सका।<br />
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रिज़वी फिर गरजा--"मैं पूछता हूँ कि तुम्हारी बीवी कहाँ है?"<br />
<br />
वहाँ उपस्थित राजू ने पूरे भोलेपन से कहा--"चचा की शादी ही नहीं हुई है।"<br />
<br />
"तो क्या तूँ किसी रंडी का लौंडा है?" रिज़वी ने राजू की गरदन को अपनी मुट्ठी में जकड़ते हुए पूछा। वह घिघियाकर रह गया।<br />
जब रामदीन बदहवास-सा खड़ा कुछ भी नहीं बोल सका तो रिज़वी राजू को घसीटता हुआ बाहर गली में आ गया।<br />
<br />
"एक हरामज़ादा हिंदुस्तानी मिल गया। दूसरा भी यहीं कहीं छिपा होगा।" वह गली में गला फाड़कर चिल्ला रहा था।<br />
<br />
"तुम वतनफ़रोशों! कान खोलकर सुन लो, अगर कल सुभह तक तुमने दूसरे घुसपैठिए को हमें सुपुर्द नहीं किया तो तुमलोगों की ख़ैर नहीं।" <br />
<br />
रिज़वी दीवारों को धमकाते हुए राजू को उठा ले गया। किसी भी शख़्स की हिम्मत नहीं हुई कि वह घर से बाहर निकलकर रिज़वी के सामने विरोध-प्रदर्शन कर सके। राजू को बचाने के लिए कोई दलील दे सके या इंस्पेक्टर का किसी भी तरह से सामना कर सके। पड़ोसी तो समळा गए थे कि राजू का वही हश्र होगा, जो पहले मोहल्ले के कुछ जवान लड़कों का हो चुका है।<br />
<br />
हरिहर बाएं पैर को खोकर उतना बेसहारा नहीं हुआ था, जितना राजू को खोकर। इंस्पेक्टर रिज़वी ने इस बात से साफ़ मना कर दिया कि उसने राजू जैसे शख़्स को कभी हाथ भी लगाया हो। इसलिए यह बात साफ़ थी कि राजू उसकी यातनाओं की भेंट चढ़ चुका है। <br />
<br />
हरिहर के जीने की सारी आशाएं धूल-धूसरित हो चुकी थी। वह कई सालों तक थाने, कोतवाली, बड़े-बड़े आफ़िसों और मिनिस्ट्रियों के चक्कर लगा-लगाकर अपने बुढ़ापे को जार-जार करता रहा। ऊँचे ओहदों पर बैठे अफ़सरों और नेताओं के आगे घुटने टेकता रहा। पर, वही ढाक के तीन पात। राजू का कहीं अता-पता नहीं चला। <br />
<br />
हरिहर के ऊपर इतने सारे ज़ुल्म मुसलमान पैदा न होने की सज़ा के रूप में ढाए जा रहे थे। अंततोगत्वा, वह हार मानकर अपनी बाकी ज़िंदगी फुटपाथों के किनारे बूट-पालिश करते हुए बिताने लगा। जिस गुमटी में वह हिंदुस्तान जाने से पहले चाय-पान की दुकान लगाया करता था, वापसी के बाद तो उसका कहीं अवशेष तक नहीं मिला। इसके अलावा, उसने जब भी शहर के इर्दगिर्द कोई नया रोज़ग़ार शुरू करने की ज़ोख़िम उठाई, उस पर क़ौम के रखवालों ने हर बार पानी फेर दिया। मरता क्या न करता? सो, उसने ऐसा काम शुरू किया जिससे किसी को कोई एतराज़ नहीं होने वाला था।<br />
<br />
ऐसे ही सब कुछ लस्टम-पस्टम चल रहा था कि एक दिन उसके पैरों तले से जमीन खिसक गई जबकि उसके पड़ोसी उसके पास आए।<br />
<br />
रामदीन ने कहा--"भई! हम सभी चाहते हैं कि तुम भी हमारे साथ चलो..."<br />
<br />
"कहाँ?" उसने अपने कान खड़े कर दिए।<br />
<br />
"वहीं से जहाँ से तुमको वापस आना पड़ा था।" <br />
<br />
रामदीन का प्रस्ताव सुनकर, बैसाख़ी पर खड़े हरिहर ने वहाँ मौज़ूद सभी की आँखों में बारी-बारी से ळााँका।<br />
रामदीन ने कहा--"तुम्हारा हिंदुस्तान जाने का ढंग सही नहीं था। हमलोग पूरे इंतज़ामात के साथ यहाँ से कूच कर रहे हैं। वहाँ हम मिलजुलकर कोई धंधा करेंगे, सुख-दुःख के संगी बनेंगे..."<br />
<br />
उनके प्रस्ताव पर लंगड़ा हरिहर आग-बगूला हो उठा।<br />
<br />
"अरे! तुमलोग अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जा रहे हो। हिंदुस्तान में तुम्हें कभी भी क़ुबूल नहीं किया जाएगा। वहाँ के नागरिक तुम्हें ळिाड़कियों से जार-जार कर देंगे। तुम चप्पा-चप्पा छान मारोगे, लेकिन तुम्हें कहीं कोई ठिकाना नहीं मिलेगा। गालियाँ सुन-सुनकर तुमलोग बहरे हो जाओगे। इस बात की गाँठ बाँध लो कि वहाँ तुम्हें रिफ़्यूज़ी कम, घुसपैठिया ज़्यादा <br />
समळाा जाएगा..."<br />
<br />
रामदीन ने कहा--"हरिहर! फ़िज़ूल की बातें मत करो। हम कल सुबह यहाँ से रवाना होंगे। अगर चलना है तो चलो, <br />
वर्ना..."<br />
<br />
उनके जाने के बाद भी हरिहर काफ़ी देर तक बड़बड़ाता रहा। वे समळा गए थे कि उनकी बातों का उस पर कोई असर नहीं होने वाला है। चुनांचे, रामदीन की पूरी इच्छा थी कि हरिहर उसके साथ हिंदुस्तान चले। आख़िर, वह इस मोहल्ले में अकेला हिंदू रह जाएगा और वह भी अपाहिज और बूढ़ा। इसलिए, दूसरे दिन सुबह जब मोहल्लेवाले समूह बनाकर हरिहर के घर के सामने से गुजर रहे थे तो रामदीन उसके दरवाजे पर दोबारा खड़ा हो गया। उस समय हरिहर अपनी बिल्ली को गोद में खिला रहा था। वह रामदीन को देख आपे से बाहर हो गया, "दूर के ढोल बड़े सुहावने लगते हैं। लौटके सारे बुद्धू यहीं आएंगे। मादरे वतन तुम्हें भी वापस बुला लेगी।"<br />
<br />
उसकी दो-टूक बातें सुनने के बाद, रामदीन से कुछ भी कहते नहीं बना। वह आगे बढ़ चुके पड़ोसियों के साथ जा मिला। पर, उनके जाने के बाद हरिहर फूट-फूटकर रोता रहा--"कम से कम उन्होंने जाते-जाते मुळासे दुआ-सलाम तो किया होता!"<br />
लिहाजा, वे कभी लौटकर नहीं आए। हरिहर बरसों उनकी राह ताकता रह गया। जबकि उसे पूरा विश्वास था कि उनमें से हरेक व्यक्ति हिंदुस्तानी महानगरों की फुटपाथों पर कीड़ों की तरह रेंग-रेंगकर अपने आख़िरी पल की प्रतीक्षा कर रहा होगा।<br />
<br />
मोहल्ले से कुत्तों के प्रवास के बाद वहाँ बसने वाले नागरिक पक्के वतनपरस्त थे। वे यदाकदा मज़लिस किया करते थे जिसमें यह मुद्दा अव्वल रहता था कि इस मोहल्ले को ग़ैर-मज़हबदारों से निज़ात दिलाया जाना चाहिए। एक दिन हरिहर के काम पर जाते ही वे उसके घर का ताला तोड़कर उसमें काबिज़ हो गए। उस शाम, हरिहर लौटकर नहीं आया। मालूम नहीं, वह कहाँ खप गया या खपा दिया गया? उसे शहर में भी कभी बूट-पालिश करते हुए नहीं देखा गया।<br />
अगले दिन, मोहल्लेवालों ने रिटायर्ड थानेदार रिज़वी की मौज़ूदगी में एक शानदार पार्टी दी।</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%97%E0%A5%82,_%E0%A4%A4%E0%A5%82%E0%A4%81_%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B8%E0%A4%BE_%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82_%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%BE.../_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5970जग्गू, तूँ वैसा नहीं रहा.../ मनोज श्रीवास्तव2011-12-02T10:10:22Z<p>Dr. Manoj Srivastav: ''''जग्गू, तूँ वैसा नहीं रहा...''' मालूम नहीं कह...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
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<div>'''जग्गू, तूँ वैसा नहीं रहा...''' <br />
<br />
मालूम नहीं कहाँ से उसके दिमाग में इतना फ़ैशनेबल नाम सूळाा था--मेरीडियन सैलून? कुल मिडिल जमात तक की लियाक़त हासिल कर वह अंगूठा-छाप रहने से बच पाया था। बदक़िस्मती से मैट्रिक के बोर्ड के सभी पर्चों में शामिल नहीं हो सका जिससे वह फेल हो गया। बाप तो अव्वल दर्जे का शराबी था। यह उसकी अम्मा का अरमान था कि वह पढ़-लिखकर भले ही किसी आफ़िस में बाबू न बन पाए ; पर, एक सलीकेदार-तहज़ीबदार आदमी तो बन जाए। यों तो, अम्मा को यक़ीन था कि वह निकाह के बाद से लगातार एनीमिया का शिकार रहने के बावज़ूद अपने बेटे--हामिद को मदरसे से लेकर स्कूल-कालेज की पूरी तालीम दिलाकर ही दम लेगी। लेकिन, ख़ुदा को यह बिल्कुल मंजूर नही था। एक रात जब वह सोने के लिए अपना सिर तकिए पर टिकाए हुई थी कि तभी दरवाजे पर अज़ीब से हल्लेगुल्ले ने उसका ध्यान भंग कर दिया। वह उठने का इरादा करने से पहले ही दरवाजे तक जा-पहुँची और सांकल को नीचे गिरा दिया। फिर, सामने जो नज़ारा देखा, वह उसकी समळा से परे था। हाँ, उसे तनिक डर-सा जरूर लग रहा था। अंधेरे के कारण कुछ लोगों के साए मुश्किल से नज़र आ रहे थे।<br />
तभी, एक आदमी आगे आया, "महबूब अली का घर यही है क्या?"<br />
<br />
तब, उसने उसे बड़े कौतुहल से अंधेरे में टटोल-पहचान करते हुए देखा और हामी में सिर हिलाकर उसके सवाल का जवाब दिया। शायद, उसने पहले उस आदमी को अपने शौहर के साथ जाम से जाम लड़ाते हुए देखा रहा होगा।<br />
<br />
"बीवीजी, आपके शौहर अब इस दुनिया में नहीं रहे। ज़्यादा शराब पीने की वज़ह से उनका इन्तकाल हो गया। उनकी लाश सदर हस्पताल में पोस्टमार्टम के लिए रखी है जिसे आप कल सुबह तक बरामद कर सकती हैं..." उस आदमी की बात को दोबारा सुनकर उसके बदन को तेज करेंट-सा ळाटका दिया।<br />
<br />
तफ़सील से बात करने के बाद रज़िया वापस अपने कमरे में आकर सुबगने लगी। जैसे वह ऐसे हश्र से दो-चार होने के लिए पहले से तैयार रही हो। तभी तो वह दहाड़ें मारकर रोने के बजाए, सिर्फ़ सिसक-फ़बकककर काम चला रही थी। अगर वह जोर-जोर से रोती तो बेशक पड़ोस के कुछ लोग उसको ढाँढस बँधाने आते। हामिद खटोले पर टाँग पसारकर बेसुध सोया हुआ था। यों भी, वह उसे जगाकर क्या करती? उसके साथ-साथ वह भी अपने बाप से ऊब गया था। मन ही मन तो दोनों ही चाहते थे कि उस नशेड़ी आदमी से उनका पिण्ड छूट जाए। न कोई नौकरी, न धंधा। बस, वह उसकी अम्मा के आगे जालिम बन हमेशा खड़ा रहा करता था--उसकी ख़ून-पसीने की कमाई पर अपना पूरा हक़ ग़ालिब करने के लिए।<br />
<br />
बिचारी अम्मा करती भी क्या? आख़िरकार, वह उसकी मार-लताड़ खाकर उसके आगे घुटने टेक देती थी और अपने बटुए में से सारा पैसा उसके सामने छितरा देती थी। फिर, वह पैसे बटोरकर वहां से ऐसे ग़ायब हो जाता था जैसे केचुए के सिर से उसकी आँखें। देर रात तक वह नदारद रहता! या, कई बार तो दो-तीन दिनों तक भी वापस नहीं लौटता। उन्हें कोई चिंता न होती! बल्कि, वे और भी सुकून में रहते! क्योंकि उनकी नून-रोटी पर कोई बेजा धावा बोलने वाला न होता! <br />
<br />
रज़िया ने भुखमरी से बचने के लिए कपड़ों की सिलाई करने का अच्छा रोज़ग़ार ढूँढ लिया था। माँ-बेटे का पेट अच्छी तरह पल जाता था। साथ ही, हामिद की पढ़ाई-लिखाई के लिए कुछ पैसे भी यत्नपूर्वक बचा लिए जाते थे। ऐसा तब तक होता रहा, जब तक कि महबूब ज़िंदा रहा।<br />
<br />
महबूब की मौत के बाद रज़िया की सामाजिक ज़िंदगी में जो बदलाव आए थे, उनमें अहम यह था कि पड़ोस से उसका नाता न के बराबर रह गया था। पड़ोसी यह क़यास लगाकर उससे कतरा रहे थे कि रज़िया ने कहने को सिलाई की दुकान खोल रखी है। दरअसल, उसने तो कोई बेजा धंधा चला रखा है। पर, वे अपने मोहल्ले की बेइज्ज़ती के डर से उसके खिलाफ़ कोई सख़्ती करना नहीं चाह रहे थे। बहरहाल, उसके घर वक़्त-बेवक़्त आने-जाने वाले मर्दों से वे हाथापाई तक कर चुके थे। पर, लोगबाग कहाँ मानने वाले थे? दबंग लोग तो बड़े हक़ से उसके दरवाजे पर दस्तक देते थे।<br />
<br />
इसी दरमियान, हामिद ने स्कूल छोड़ दिया। पहले वह अपने अब्बू की आदतों से परेशान था; लेकिन, अब वह अपनी अम्मा की बदचलनी से आज़िज़ आ रहा था। उसे पहले कभी यह एहसास नहीं था कि उसकी खुद्दार अम्मा कभी इस कदर तक गिर सकती है। दोस्तों के बीच उठते-बैठते उसे बड़ी ळोंप उठानी पड़ती थी। जब घर में रहता तो अम्मा के सामने जुबान खोलने की हिम्मत कभी न जुटा पाता। लिहाजा, चुपचाप रहकर उसे हमेशा यह बात सालती रहती कि वह उस नापाक धंधे में ख़ुद ही दलाली कर रहा है और बाजार में अपने ही जिस्म का ग़ोश्त बेच रहा है। उसके जो लंगोटिया यार थे वे उसकी हालत पर तरस खाते हुए उसे ज़्यादातर यह दिलासा देते रहते थे कि एक न एक दिन उसकी अम्मा अपने पेशे को दरकिनार करके एक नई ज़िंदगी की शुरुआत करेगी।<br />
<br />
जब हामिद ने स्कूल छोड़ा तो उसे इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं था कि उसकी यह हरक़त उसकी अम्मा पर इतनी नागवार गुजरेगी। उसने तत्काल उसे फटकार लगाई-<br />
"मैं तो तेरी ही क़िस्मत सँवारने के लिए इस कींचड़ में सिर से पैर तक सन गई हूँ और तूँ है कि अपने ग़ुरूर में स्कूल ही जाना छोड़ दिया। तूँ क्या समळाता है कि मुळो अपना जिस्म नुचवान-छिदवानेे में बड़ा मजा आता है? अरे! जहन्नुम की जलालत कौन बेवा ळोलना चाहेगी..."<br />
<br />
वह बिलख उठी। हामिद पसीने-पसीने हो गया। उसकी समळा में आ गया कि उसकी अम्मा की ख़ुद्दारी में कोई कमी नहीं आई है। यह तो एक लाचार औरत की बेबसी है कि उसे अपनी और अपने लाडले की हस्ती को कायम रखने के लिए अपनी अस्मत को सरेबाजार करना पड़ा। वह तो यह सब सिर्फ़ उसके लिए; हाँ, सिर्फ़ उसके लिए कर रही है। अपनी अम्मा के बलबूते पर, वह जिस सहूलियत से अपनी तालीम पूरी कर रहा था, दूसरे लड़के उससे हमेशा महरूफ़ ही रहे। उसे तो अपनी अम्मा का एहसानमन्द होना चाहिए कि उसने अब्बू की मौत के बाद उसकी परवरिश के लिए अपने से जो भी बन सका, किया। यहाँ तक कि अपना जिस्म भी नीलाम कर डाला। बेटे के लिए मोहब्बत का इससे बढ़िया मिसाल कहाँ मिलेगा? कहानियों में भले ही मिल जाए, असल ज़िंदगी में तो कतई नहीं मिलेगा। वह पल भर के लिए अफ़सोस की दरिया में गोते लगाने लगा। उसने एक नज़र अपनी अम्मा पर डाली और फिर, अपने मज़बूत मर्दाने डीलडौल पर गौर किया। वह भले ही सत्रह की उम्र में बाईस से कम न लगता था; लेकिन, उसकी अम्मा किसी भी नज़रिए से उसकी अम्मा-सरीखी नहीं लगती थी। बेशक, उसे कोई भी उसकी मौसेरी बहन--ख़ालिदा की आपा ही कहेगा। ऐसे में, वह चाहती तो किसी दूसरे मर्द से निकाह करके एक नई ज़िंदगी का आग़ाज़ भी कर सकती थी। उम्दा ज़िंदगी गुजर-बसर कर सकती थी। पर, ऐसा करके वह जीते-जी उसे यतीम बनाना नहीं चाहती थी।<br />
<br />
उस दिन के बाद से अम्मा ने वाक़ई अपना जीने का सलीका बदल डाला। जब बेटे ने ही उसका दिल तोड़ दिया तो वह अनाप-शनाप धंधों में लगकर अपना बदन क्यों तुड़वाए? गुजारे के लिए तो पुराना सिलाई का धंधा ही काफ़ी है। उसके लाख डाँट-फटकार के बावज़ूद, हामिद स्कूल न जाने पर अड़ा रहा। सो, उसने फिर से सिलाई का काम शुरू कर दिया। उसमें अचानक आया यह बदलाव वाक़ई हैरतअंगेज़ था। जब मोहल्ले वालों को असलियत का पता चला कि वह किस वज़ह से धंधा करने लगी थी तो वे भी उसके प्रति लाख खुन्नस रखने के बावज़ूद उसकी मन ही मन तरफ़दारी करने लगे थे। हामिद तो उसे ख़ुदा मानकर उसका इबादत तक करने लगा था। <br />
<br />
वह जज़्बाती हो गया। उसने ठान लिया कि वह आईंदा अपनी अम्मा का दिल नहीं दुःखाएगा। बल्कि, उसे सुकून और आराम की ज़िंदगी मुहैया कराने के वास्ते अपना सुख-चैन सब कुर्बान कर देगा। तब, उसने यह तय किया कि चाहे जो भी हो, वह स्कूल वापस नहीं जाएगा। जब उसकी परवरिश करने के लिए उसकी अम्मा को जहन्नुम की ज़िंदगी गुजारने के लिए मज़बूर होना पड़ा, तो वह फिर उसे ऐसा करने का एक भी मौका नहीं देगा। वह इतना बड़ा तो हो ही गया है कि दो जनों के लिए दो जून की रोटी जुटाने का बंदोबस्त कर सके।<br />
<br />
अम्मा की लताड़ खाकर उसे सिर्फ़ यही मलाल हो रहा था कि उसने उसकी नीयत पर शुबहा किया जिसके लिए परवरदिग़ार भी माफ़ नहीं करेगा। चुनांचे, अम्मा को धंधे से निज़ात दिलाकर हामिद को जिस खुशी का एहसास हो रहा था, उसका बखान वह लफ़्ज़ों में नहीं कर सकता था। उसे और उसके घरवालों को भले ही बदनामी की जलालत ळोलनी पड़ी हो; पर, अब वह सब कुछ भुला देना चाह रहा था। बेशक, उसकी इस इच्छा ने उस पर ज़िम्मेदारियों की दुर्वह्य गठरी लाद दी।<br />
<br />
हामिद, अब्बू की मौत के बाद से ही इस दुश्चिंता में घुलने लगा था कि अब उसे नून-तेल के जुगाड़ के लिए कोई ऐसा काम ढूँढ लेना चाहिए जिसमें पैसे भी न लगाने पड़े और थोड़ी-बहुत आमदनी से खाना-खर्चा भी मजे में चल जाए क्योंकि घर की माली हालत बेहद ख़ौफ़नाक़ थी। अग़र कोई फ़कीर दुआ देने उसके घर का दरवाज़ा भी खटखटा देता तो उसे खाली हाथ ही लौटाना पड़ता। उनके पास तो उसे देने को न तो एक दाना होता, न ही एक धेला। अब्बू ने उसके घर को कौड़ी-कौड़ी का मोहताज बनाकर दुनिया से किनारा कर लिया था। <br />
<br />
इसलिए, वह ज़्यादातर स्कूल छोड़कर अटाला मस्ज़िद चला जाता और सीढ़ी के नीचे अंधेरे-कुप्प में नाशाद बैठकर शाम तक रोज़ी-रोटी की उधेड़बुन में पड़ा रहता। ऐसे ही एक शाम जब वह मस्ज़िद से बाहर निकल रहा था तो उसे सीढ़ियों पर बैठा उसका सहपाठी जग्गू ऐसे मिला जैसेकि वह उसी की राह देख रहा हो। उसने तत्काल हामिद की कमर में हाथ डालते हुए कहा, "यार, चल, मैं तुळो एक रोज़ी देने आया हूँ।"<br />
<br />
हामिद एकदम से सकपका गया। दरअसल, उसने उसकी चप्पे-चप्पे में तलाशने की असफल कोशिश की थी। पर, आज उसे अचानक अपने पास पाकर उसे बड़ा ताज़्ज़ुब हो रहा था। इसके पहले कि वह कुछ बोलता, जग्गू ने अपना हाथ उसके मुँह पर रखकर उसकी चुप्पी को लंबा खींच दिया। वह उसे गली-वीथियों में भटकाते हुए उर्दू बाजार के चौराहे पर ले गया। फिर, उसे सड़क के एक कोने में एक खाली-सी पड़ी गुमटी में ला-बैठाया। जब ग़ुमसुम हामिद उसे बड़े ताज्जुब से देख रहा था कि तभी वह बोल पड़ा--<br />
<br />
"यही है तेरा धंधा। आज से तूँ लोगों की हज़ामत बनाएगा और अपनी अम्मी का और अपना पेट पालेगा..."<br />
<br />
हामिद ने कभी सोचा भी नहीं था कि उसे इतनी आसानी से कोई काम मिल जाएगा। उसने पहले दिन जग्गू के साथ काम करते हुए अठाईस रुपए कमाए, दूसरे दिन बत्तीस रुपए और तीसरे दिन अड़तीस रुपए। पहले दिन, सारी हजामत जग्गू ने बनाई--उसे फिर-फिर यह हिदायत देते हुए कि 'आज तेरे लिए एक ट्रेनिंग का दिन है, तूँ सिर्फ़ मुळो उस्तरा और कैंची चलाते हुए देखेगा। मैं तुळो कुल एक हफ़्ते में इस हुनर में पक्का बना दूँगा।' जब शाम होने लगी तो उसने उसे दो देहाती ग्राहकों की दाढ़ी बनाने का न्यौता दिया। हामिद ने अपने दोस्त की हौसला-आफ़ज़ाई के बीच अपने काम को बखूबी अंजाम दिया। वह बिलाशक अपने हौसले को बुलंद करना चाहता था। उसे दो बातों पर बेहद अचंभा हो रहा था। एक तो जग्गू जैसा लोफ़र लड़का उसकी कितनी संजीदगी से मदद करना चाह रहा था; दूसरे, हजामत जैसी हुनर उसने कब, कहाँ और कैसे सीखी। ग्राहक उसकी कारीगरी की प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। बहरहाल, हामिद ने उससे कुछ भी नहीं कहा कि वह अपनी मस्त और फ़क़ीराना ज़िंदगी छोड़, उसे मज़बूत सहारा देने के बंदोबस्त में क्यों जुटा हुआ है।<br />
<br />
वह जग्गू के प्रति अपना एहसान जाहिर करके किसी तरह का तकल्लुफ़ नहीं दिखाना चाहता था। क्योंकि तकल्लुफ़ रिश्तों को कमजोर बना देता है। जग्गू ने आकर एक डूबते को तिनके का सहारा दिया था।<br />
<br />
जग्गू यानी जोगिन्दर खन्ना उसका ऐसा दोस्त था जिसके सामने वह दिल खोलकर बातें किया करता था। जग्गू के बारे में जो ख़ास बात थी, वह यह थी कि उसके पिता ने उसे आवारा, ग़ैर-ज़िम्मेदार और बेकहन ऐलॉन कर, उसे घर से खदेड़ दिया था और उसे ऐलानिया लहजे में अपनी ज़ायदाद से बेदख़ल कर दिया था। मिडिल में वह मुश्किल से पास हुआ था और हाई स्कूल में तीन बार फेल हो चुका था। इस दरमियान, वह मोहल्ले की लड़कियों के आगे-पीछे मंडरा-मंडराकर अपने रायज़ादे ख़ानदान को बदनाम करता रहा। फिर बाद में, जुआड़ियों की शोहबत में पड़कर, ठर्रा और देसी शराब में डूबा रहने लगा। जब उनके भी संगत से बोर हो गया तो वह छंटाक-छंटाक भर के लौंडों के साथ गोमती के किनारे अपना अड्डा जमाने लगा जहाँ ताड़ के पेड़ों से चोरी-छिपे ताड़ी उतारकर साँळा के ढलने तक अपना गला तर करता रहता। दोपहर को पेट में भूख की मरोड़ उठती तो वह अपने यारों के साथ गोमती में उतरकर अंगोछों से छोटी-छोटी मछलियाँ छानता और उन्हें आग में भुनकर अपनी भूख मिटाता। उसके इन करतूतों में हामिद हमेशा शरीक़ रहता--उसका साया बनकर। दरअसल, वह तो जग्गू से कम से कम पाँच-सात साल छोटा था और स्कूल में वह उसकी फ़राख़दिली का कायल होकर उसकी चमचागिरी करने में मशग़ूल रहता था। वह उसी दिन से जग्गू से अदब से पेश आने लगा था जिस दिन उसने उद्दंड फिरकापरस्तों से उसकी जान बचाई थी।<br />
उस दिन स्कूल में लड़के, रिसेस के दौरान प्रेयर ग्राउंड में बैठकर या तो कलेवा पर टूटे हुए थे या मजे से धूप सेंक रहे थे। जाड़े की वह दोपहरी बड़ी गुमसुम और ख़ामोश थी। तभी कोई 40-45 लोग जो खाकी हाफ़ पैंट और सफ़ेद कमीज पहने हुए थे और हाथों में लंबे-लंबे डंडे लिए हुए थे, 'हर-हर महादेव' के नारे लगाते हुए चिल्ला रहे थे--'...अगर कोई लड़का मुसलमान दिखे तो उसे तुरंत ख़त्म कर दो...कोई भी कोना मत छोड़ो, चप्पा-चप्पा छान मारो...हरेक से पूछो, उसकी आँखों में ळााँककर देखो, अगर वह मुसलमान होगा तो डर उसकी आँखों में समाया होगा, उसे पत्थर पर वहीं पटक-पटककर चिथड़ा कर दो...'<br />
<br />
हामिद तो डरकर पसीने से लथपथ हो गया। जब तक वे वहशी उसके पास पहुँचते, जग्गू उसके गले में हाथ डालकर खड़ा हो गया--एक मज़बूत सहारा बनकर।<br />
<br />
जब उन सिरफ़िरों ने उनके आगे दस्तक दिया तो जग्गू बोल उठा, "अरे! हम सब खांटी पंडे हैं। मैं पंडित दीनानाथ उपाध्याय का लड़का हूँ और ये मेरा दोस्त विनय त्रिपाठी, बड़े हनुमान मंदिर के पुजारी--निरंजन त्रिपाठी का लड़का है।"<br />
<br />
वहाँ मौज़ूद जग्गू के चमचों को तो उसकी हाँ में हाँ मिलाने की आदत पड़ी हुई थी। इसलिए, उन्होंने उसके सफेद ळाूठ पर सच का परदा डाल दिया। आख़िर, वह उनका दबंग छात्रनेता था। <br />
<br />
जब वे चले गए तो हामिद उसके सीने से चिपटकर फ़बक पड़ा। तब, जग्गू ने ख़ुद उसे उसके घर बड़े हिफ़ाज़त से पहुँचाया। शाम तक सांप्रदायिक तनाव के चलते पूरे शहर में मरघटी सन्नाटा छाया हुआ था। अफ़वाहों से पता चला कि सवेरे, एक शिव मंदिर में किसी बछड़े का कटा सिर मिलने के कारण शहर के कतिपय फिरकेपरस्त बेकाबू हो गए थे।<br />
<br />
उस घटना के बाद हामिद, जग्गू के साथ ख़ुद को बिल्कुल महफ़ूज़ समळाने लगा। बलवा के थमने के बाद जब स्कूल खुला तो वह जग्गू का साया बन, हमेशा उसके आगे-पीछे मंडराया करता था। लेकिन, उसने अपने वालिद की मौत के बाद स्कूल को तिलांजलि दे दी। ऐसे हालात में उसका जग्गू से मिलना-जुलना और इस तरह उसके साथ उठना-बैठना भी एकदम बंद हो गया था। यों तो, इसी वक़्त जग्गू भी स्कूल छोड़, शहर से ऐसे ग़ायब हो गया था जैसे गधे के सिर से सींग। हामिद अपनी घरेलू परेशानियांें से तंग आकर उससे बाज़ वक़्त मिलने की भी बहुत कोशिश करता रहता था। क्योंकि ग़र्दिश में वही उसे सच्ची तसल्ली और मशविरा दे सकता था। पर, फक्कड़-मिजाज़ जग्गू के पैर में तो जैसे पंख लगे हुए थे, वह उसे कहाँ मिलने वाला था?<br />
<br />
आज वह अचानक़ उसे ऐसे मिला जैसे चलते-चलते दुर्घटना हो गई हो। उसका ख़ुद चलकर उसके पास आना और उसके लिए काम का बंदोबस्त करना, यह जाहिर करता है कि वह हामिद को कभी भूला नहीं था। उसे उसकी चिंता हमेशा खाए जा रही थी। एक दिन सैलून से घर वापस जाते हुए जग्गू ने हामिद को बताया, "कल मेरी बहन की शादी है। लेकिन, मैं उसे दुल्हन के रूप में नहीं देख पाऊँगा..."<br />
<br />
हामिद ने पूछा, "क्यों...?"<br />
<br />
"क्योंकि मेरे घर वालों ने मुळो एक सड़े घाव की तरह जिस्म से काटकर अलग कर दिया है। उन्होंने इस बात की भी ज़रूरत नहीं समळाी कि बहन की शादी में इकलौते भाई की मौज़ूदगी कितना जरूरी है।" उसकी आँखें गीली हो गईं।<br />
<br />
हामिद को पहली बार एहसास हुआ कि ऊपर से सख़्त दिखाई देने वाला जग्गू कितना जज़्बाती है! कितना नरम दिल है! दुनिया उसे ग़लत समळाती है। लेकिन, उसके दिल में तो सभी के लिए मोहब्बत भरी हुई है। हामिद ख़ुद एक मुसलमान है और शहर भर में उसके अब्बू की चर्चा एक बेहद गिरे हुए इन्सान के रूप में होती रही है। उसकी अम्मी ने भी खानदान की इज़्ज़त पलीद करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। यह सब जानते हुए भी इतने रईस घर का यह जग्गू उससे ऐसे चिपका रहता है जैसेकि वह उसके कुनबे का ही कोई हिस्सा हो, उसका कोई रिश्तेदार हो।<br />
<br />
साथ-साथ काम करते हुए दोनों की अच्छी पटरी बैठ गई थी। पर, मुश्किल से दो महीने ही गुज़रे थे कि जग्गू ने एकबैक सैलून आना छोड़ दिया। इस तरह न केवल सैलून चलाने का सारा जिम्मा हामिद के सिर आ गया बल्कि एक तरह से उसे ही सैलून का मालिकाना हक़ भी मिल गया। उसके बिना कुछ ही दिन बीते होंगे कि हामिद का मन उचटने लगा। पर, वह उसको ढूँढता कहाँ? उसने तो जब-जब उससे उसके ठौर-ठिकाने के बाबत कुछ पूछना चाहा तो उसने टाल-मटौल कर इधर-उधर की बातें शुरू कर दीं। सैलून में ग्राहकों से पल भर की भी मोहलत नहीं मिल पाती थी। फिर, हामिद अपना नया-नया काम छोड़कर कहीं जाना भी नहीं चाहता था। उसी उर्दू चौराहे पर कम से कम दर्ज़नभर सैलून थे। ग्राहक तो किसी के नहीं होते! वे उसके यहाँ नहीं तो कहीं और हजामत बनवाने चले जाएंगे। चुनांचे, उसने अपने गुरू--जग्गू से जो हुनर सीखी थी, उसका वह बेहतरीन इस्तेमाल करके अपने ग्राहकों को लुभाने की सफल कोशिश कर रहा था। हाँ, शाम को लौटते वक़्त वह जग्गू को तलाशने की जुगत जरूर करता। जब हिम्मत बटोरकर उसके घर जाकर पूछताछ की तो उन खन्नाओं ने इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। हामिद को बेहद अचम्भा हुआ। दुःख भी बेतहाशा हुआ। आख़िर, वह गया तो कहाँ गया!<br />
<br />
दिन और सप्ताह बीते तो उसने बरदाश्त कर लिया। लेकिन, जब महीने के महीने गुजरने लगे तो उसे बड़ा मलाल होने लगा। क्या जग्गू की यादें ही बाकी रह जाएंगी? वह उसके बग़ैर कैसे जी सकेगा? इन जौनपुरियों की तरह तो वह पत्थर-दिल है नहीं कि शहर के एक ज़िंदादिल आदमी को इतनी आसानी से दिलो-दिमाग़ से उतार दे। ख़ैर, वह उसकी रहमदिली को याद कर-करके अपना वक़्त काट रहा था।<br />
<br />
एक दिन, एक अज़ीब वाक़या पेश आया। अचानक, उसके सैलून में एक धाकड़ पुलिसवाला आ धमका।<br />
<br />
"मियाँ, मेरी हजामत बनाओ।" उसने आते ही बड़े हक़ से एक खाली कुर्सी पर धम्म से अपनी मौज़ूदगी दर्ज़ की।<br />
हामिद को उसकी हरक़त बिल्कुल पसंद नहीं आई। उसे ख़ासतौर से पुलिसवालों से बेहद ग़ुरेज़ रहा है। वह एक आदमी की हेयर कटिंग में मशग़ूल रहा। पुलिसवाले ने दोबारा उस पर रोब जमाते हुए कहा, "मियाँ, अब और देर मत लगाओ। तुम्हें मेरी हजामत अभी और इसी वक़्त बनानी होगी। यह मेरा हुक्म है, वर्ना..."<br />
<br />
उसकी इस बात से हामिद तिलमिला उठा और यह परवाह किए बिना कि वह आदमी एक पुलिसवाला है, उसने अख़बार उठाकर उसके मुँह पर लगभग फेंकते हुए बड़े ताव से कहा, "अग़र इंतज़ार नहीं कर सकते तो यह अख़बार पढ़ो, वर्ना यहाँ से रफ़ा-दफ़ा हो जाओ। मैंने तो अपने बाप तक की ग़ुलामी की नहीं..."<br />
<br />
हामिद ने बोलते-बोलते जैसे ही उलटकर उस पुलिसवाले से नज़रें मिलाई, उसके अल्फ़ाज़ गले में ही अटक गए। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि सामने खाकी वर्दी में कोई और नहीं, बल्कि ख़ुद जग्गू ही बैठा हुआ मुस्करा रहा था।<br />
वह लगभग चींख उठा, "अरे, जग्गू भइया? इतने दिन बाद? और इस सिपाही की वर्दी में?"<br />
<br />
सवालों से लदे हुए जग्गू ने मुस्कराकर उसे इशारा किया कि पहले वह अपने ग्राहक की हजामत से निपट ले; फिर, कहीं बैठकर दोनों तसल्ली से बतकही करेंगे। उस दिन, हामिद ने ज़ल्दी ही सैलून बंद कर दिया और फिर, जग्गू का हाथ थामकर हनुमान घाट की ओर चला गया। रास्ते में, उसने चहारसू चौराहे की एक रेस्तरा से फ़िश पकौड़े खरीदे और जग्गू की शहर-वापसी की खुशी में उसके लिए बीयर की एक बोतल भी ली। <br />
<br />
मंदिर की ओट में बैठकर जग्गू ने बताया, "मैं बोर हो गया था--लोगों की यह तानाजनी सुनते-सुनते कि मैं आवारा और लोफ़र निकल गया हूँ। अपनी ज़िंदगी में कुछ भी नहीं कर सकता...उस पर से पापा की बेरुख़ी ने भी मुळो बहुत रुलाया। इन सबसे मैं इतना उकता गया था कि पूछो मत। इसी बीच किसी ने मुळो बताया कि इलाहाबाद में पुलिस की भर्ती होने वाली है। तब, मैंने फटाफट हाई स्कूल का एक फ़र्ज़ी सार्टीफ़ीकेट बनवाया और साथ में कुछ जरूरी कागज़ भी तैयार करा लिए। इलाहाबाद के सिविल लाइन में मैं भी अपनी किस्मत आजमाने के लिए लाइन में खड़ा हो गया। किस्मत ने मेरा खूब साथ दिया। पहले, मैंने रिटेन इक्ज़ाम पास किया; फिर, फ़िज़िकल टेस्ट भी बखूबी निकाल लिया। जब रिज़ल्ट आया तो मुळो खुशी का ठिकाना न रहा। एमपी-एमेल्ले की बड़ी-बड़ी सोर्स-सिफ़ारिश वाले लड़के जमीन टापते रह गए जबकि मुळो ट्रेनिंग पर भेज दिया गया। उसके बाद मैंने नौ महीने तक खूब फंटूल मारे और ट्रेनिंग पूरी कर यहाँ ड्यूटी पर तैनात कर दिया गया। मैंने इस बीच तुम्हें कोई सूचना नहीं दी। सोचा कि एक साथ तुम्हें सरप्राइज़ दूँगा..."<br />
<br />
हामिद मंत्रमुग्ध होकर उसकी बात सुनता जा रहा था। उसे दोहरी खुशी हो रही थी। एक तो इतने दिनों बाद अपने ज़िगरी दोस्त से मिलने की; दूसरे, उसके पुलिस में भर्ती होने की। उसका सीना यह सोचकर और चौड़ा हुआ जा रहा था कि अब वह एक पुलिसवाले का दोस्त ठहरा। किसी ऐरे-गैरे की हिम्मत नहीं होगी, उससे ऐंठकर बात करने की।<br />
<br />
जग्गू की तैनाती वहीं के स्थानीय चौकी में हुई थी। पर, उससे हामिद की मुलाकात कभी-कभार ही हो पाती थी। जब वह उसके लिए बेचैन हो जाता तो वह अपना मैरीडियन सैलून बंद करके उसे खोजने निकल पड़ता। वह बेशक, अपनी ड्यूटी के दौरान अपने पुराने अड्डों पर ही अपने पुराने जुआड़ी-शराबी दोस्तों के साथ मौज-मस्ती करते मिलता था। जग्गू को बेहद कोफ़्त होता और उसे एक किनारे लाकर उससे फ़ुसफ़ुसाकर कहता, "अरे, तुम कानून के रखवाले होकर इन लुच्चे-लफ़ंगों के साथ ख़ुद को क्यों बदनाम कर रहे हो? अब तो तुम अपनी आवारगी छोड़़, शहर में अमन-चैन कायम करने में जुट जाओ। ऊपर वाले ने तुमको एक ऐसा मौका दिया है कि तुम अपनी काबलियत दिखाकर सबका मन मोह सकते हो...अपने घरवालों के चहेते बन सकते हो..."<br />
<br />
उसकी बातों पर जग्गू सिर्फ़ 'हाँ' 'हूँ' कहते हुए फीकी-सी मुस्कान छोड़ता या मुँह बिचका देता। लेकिन, पता नहीं क्यों हामिद के रोज़-रोज़ के सबक से वह उकता भी रहा था? हामिद को उसके हाव-भाव से लग रहा था कि किसी दिन उसकी सीख से ऊबकर वह उसे ळिाड़क देगा। पर, उसे तो अब चिंता हो रही थी। वह ग़ौर कर रहा था कि जग्गू का मन बदल-सा गया है। ख़ुद उसमें उसकी दिलचस्पी कम होती जा रही थी। वह सोच रहा था कि ऐसा होना जग्गू के लिए वाज़िब भी है। क्योंकि एक तो वह अकेला है; दूसरे, उसके घरवालों ने उसे अभी तक नहीं अपनाया है। सब कुछ होने के बावज़ूद, उसमें कुंठा भरती जा रही थी। घर में लुगाई हो तो उसकी बिलावज़ह की घुमक्कड़ी और आवारगी पर लगाम कसे। उसे पूर्वाभास-सा होने लगा कि जग्गू जल्दी ही ग़ुमराह हो जाएगा। उसकी गतिविधियों पर शुबहा होते ही हामिद उसके पीछे लगकर उसकी गुप-चुप निगरानी भी करने लगा--एक दोस्त के रूप में उसकी यही ज़िम्मेदारी बनती थी।<br />
<br />
एक शाम, वह अपना सैलून बंद कर मियानी टोला अपने घर जा रहा था कि किला रोड पर अनजाने ही उसकी मुलाकात जग्गू से हो गई। उसे ताज्जुब हुआ कि उसने वर्दी में ड्यूटी के दौरान ही जरूरत से ज़्यादा चढ़ा रखी थी। हामिद ने उसके पास जाकर उसका कंधा जोर से ळिांळाोड़ते हुए बड़े अधिकारपूर्वक सबक दिया, "जग्गू, तूँ या तो अपनी वर्दी फेंक दे, या शराब से तौबा कर ले। देख, तुळो कानून की हिफ़ाज़त करने के लिए तैनात किया गया है और तूँ है कि कानून की धज्जियाँ ही उड़ा रहा है। आखिर, देखने वालों की तो शर्म कर..."<br />
<br />
जग्गू उस पर अप्रत्याशित रूप से बिफ़र पड़ा, "अरे, मियाँ तूँ मुळो सबक देने की गुस्ताख़ी मत कर। मैं तो कानून की खूब हिफ़ाज़त कर रहा हूँ। तूँ अपनी देख...शराबी की नाजायज़ औलाद...जा, जा, अपनी अम्मा की रखवाली कर..."<br />
<br />
हामिद के मुँह का स्वाद ही एकदम कड़वा हो गया। उसे पूरा यक़ीन था कि जग्गू धुत्त नशे में भी उससे बड़े सलीके से पेश आएगा। वह तो उसे सगों से भी सगा समळाता था। पर, उसके जेहन में बेशक उसके लिए बुरी बातें पल रही थीं जो नशे में उसकी जुबान पर आ गईं। उसको न केवल अचंभा हुआ बल्कि दुःख भी हुआ। जी में आया कि उसकी जुबान ही खींच ले। लेकिन, उसके उस पर इतने कर्ज़ थे कि वह उसके ख़िलाफ़ कोई बेजा बात सोच भी नहीं सकता था। थप्पड़ मारना तो दूर की बात रही।<br />
<br />
उस घटना के बाद उसने कई दिनों तक उससे मिलने की कोई कोशिश नहीं की। एक दिन, खुद जग्गू उसके सैलून में आ धमका। उसने उससे ऐसे बात की, जैसेकि कुछ हुआ ही न हो। उसने उससे बेहद जाती मामलों पर चर्चा की और अम्मा की बड़े अदब से हालचाल ली। जब वह चला गया तो हामिद ने सोचा कि उस दिन जग्गू नशे में रहने के कारण अपने होशोहवास में नहीं था। सो, उसने उसे मन ही मन माफ़ कर दिया। हाँ, उसके मन में अभी भी थोड़ा-बहुत मलाल रह गया था। तभी तो उसने उससे पहले की तरह बार-बार मिलने का प्रयास नहीं किया।<br />
<br />
कोई सप्ताह भर बाद जग्गू उसके सैलून में ख़ुद हाज़िर हुआ। वह नशे में बेकाबू हुआ जा रहा था। हामिद नहीं चाहता था कि पुलिस बनने के बाद उसके दोस्त के बारे में लोगबाग अपने मन में ऊलजुलूल के ख्यालात पैदा करें। चुनांचे, जग्गू ने अपनी बदतमीजियों को सरेआम दोहराकर हामिद को धर्मसंकट में डाल दिया कि वह उससे कैसे निपटे। वह आते ही फट पड़ा, "अए मुल्ला, तूँ पिछले सवा साल से मेरी गुमटी में हजामत बना रहा है। आज तक तूने एक भी पैसा किराया नहीं दिया। मुफ़्तखोरी में तुळो बड़ा मजा आ रहा है। अरे, तूँ मेरे सीने पर मूँग क्यों दल रहा है। जा, सड़क की पटरी पर बैठकर अपना धंधा कर..."<br />
<br />
'तो उसके दिल में यह बात भी पक रही थी', सोचते हुए हामिद फिर से ख़ून की घूँट पीकर रह गया। उस वक़्त, उसे और कुछ भी नहीं सूळाा; बस, ळाटपट गुमटी का ताला बंद कर, चाभी जग्गू की पॅाकिट में डालते हुए चलता बना। मदहोश जग्गू उसे गाली-गुफ़्ता देता ही जा रहा था। हामिद तो लगभग रुआँसा-सा हो गया। उसकी हालत पर उसके बाज़ूवाले दुकानदार उस पर रहम खा रहे थे। उन पड़ोसियों को भी जग्गू का चाल-चलन बेहद नागवार लग रहा था। वे फ़ब्तियाँ कस रहे थे-- साँप तो ज़हर ही उगलेगा...रस्सी की ऐंठन कभी नहीं जाती... स्साला, गिरगिट की तरह रंग बदल रहा है...वगैरह, वगैरह।<br />
<br />
अगले दिन से हामिद ने सचमुच सैलून में आना छोड़ दिया। वह जग्गू के बर्ताव से इतना ऊब चुका था कि वह फिर उससे नज़रें चार करना नहीं चाह रहा था। लिहाजा, उसके मन में अभी भी जग्गू के लिए कचोट पैदा होती रहती थी। वज़ह साफ़ थी। जब वह नशे में नहीं रहता था तो वह इन्सानी ज़ज़्बात से सराबोर होता था। अम्मा ने भी हामिद को बार-बार यह एहसास दिलाया कि उसे एक वफ़ादार दोस्त का फ़र्ज़ नहीं भूलना चाहिए। आख़िरकार, जग्गू के उन पर बेशुमार कर्ज़ थे। <br />
जग्गू की ज़िंदगी घटना-प्रधान होती जा रही थी। क्रूर पुलिस के रूप में उसकी चर्चाओं का बाजार गर्म होता जा रहा था। जिस बाजार में उसकी तैनाती होती, बनिए और दुकानदार थर-थर काँपा करते। पता नहीं, किस पर जग्गू का कहर बरप पड़े। अवैध वसूली में वह अव्वल था। बग़ैर रुपए का बंडल लिए वह टस से मस नहीं होता था। हामिद को अच्छी तरह पता था कि वह इन रुपयों का क्या करता होगा। अपने अवांछित दोस्तों के साथ मौज-मस्ती में खर्च करता होगा। जिस मोहल्ले के नुक्कड़ पर जग्गू कदम रखता था, अंदर गलियों में खलबली मच जाती थी। यानी, लोगबाग अपने घरों में समा जाते थे। निःसंदेह, जग्गू के बचपन की उच्छृंखलताएं उसकी जवानी को बरबाद करने पर तुली हुई थीं। हामिद तो उसे रास्ते पर लाने के लिए कोशिश करते-करते थक-हार गया था। सच तो यह था कि रहम-दिल जग्गू में जल्लादों जैसी क्रूरता उतरती जा रही थी। उसके करतूतों की हर ख़बर हामिद के दिल में नश्तर जैसी चल रही थी। इसी बीच पता नहीं उसके किस कारनामे से खुश होकर उसे राष्ट्रपति पदक से नवाज़ा गया। उसके बाद उसे लगातार दो प्रमोशन मिले।<br />
<br />
इसी घटनाक्रम में उसे अफ़सरों ने रिहाइशी इलाकों में अवैध कब्ज़े हटाने का काम सुपुर्द किया। वह क्या सोचकर सबसे पहले अपने दल-बल समेत मियानी टोला पहुँचा, जहाँ हामिद की रिहाईश थी। वहाँ करीब नब्बे फ़ीसदी बाशिंदे या तो बीड़ी बनाने का कारोबार करते थे, या मुर्गियाँ पालकर अंडों का व्यापार करते थे। इस मक़सद से, जिन्होंने अपने छोटे-छोटे घरों के आगे की जमीन का प्रयोग कर मुर्गियों के लिए दर्बे बना रखे थे या बीड़ी सेंकने की भट्टियाँ लगा रखी थीं, उनके ऊपर जग्गू दीवान की पहली गाज़ गिरी। यों तो, टोले के बाशिंदे यह सोचकर बेफिक्र थे कि जग्गू, हामिद का दोस्त होने के नाते उनके साथ नरमी से निपटेगा और उनकी जान बख़्श देगा। इसी ग़रज़ से उन्होंने हामिद को यथासमय गली के मुहाने पर तैनात कर दिया ताकि उससे पहली मुलाक़ात में ही जग्गू नरमी का रुख़ अपना ले। पर, जब जग्गू की आँधी आई तो हामिद तिनके की तरह उड़कर एक किनारे हो गया। जग्गू तो उसे देखकर ऐसे बहटिया गया जैसेकि उससे उसकी दूर-दूर की कोई पहचान न हो। उसके बाद, आधे घंटे में ही पुलिस दल ने टोलेवालों की रोज़ी-रोटी के सारे जुगाड़ को धूल-धूसरित कर दिया। मुर्गे-मुर्गियाँ पतंगों की माफ़िक उड़कर भागने लगे। कुछों को तो खबरहे कुत्तों ने अपना शिकार बना लिया जबकि कइयों को खुद पुलिस वालों ने जाते-जाते अपनी जीप में दबोच लिया--रात के डिनर के लिए। जब वे कार्रवाई कर वहाँ से रुख़्सत हुए तो मियानी टोला वीरान खंडहर में तब्दील हो चुका था। जाते-जाते जग्गू दीवान उनके द्वारा दोबारा अतिक्रमण करने पर सख़्त कार्रवाई की नसीहत दे गया।<br />
<br />
पूरे शहर में जग्गू के निर्देशन में अवैध कब्ज़ों वाली जमीन को खाली कराने के नाम पर ग़रीबों पर इस कदर कहर बरपाए गए कि ज़्यादातर नागरिक बेहद बौख़ला हुए थे। हामिद समळा गया कि इस बौख़लाहट का हश्र जग्गू के लिए अच्छा नहीं होगा। उसने दूसरे मोहल्लों में भी ख़ासतौर से ग़रीबों पर ही ज़्यादती की थी। हामिद को तो आश्चर्य हो रहा था कि उसका दिल ऐसे कैसे बदल गया। अभी कुछ साल पहले ही उसने उसे कीचड़ से निकालकर सीने से लगाया था और उसे ज़िंदगी का असली मायने बताया था। वर्ना, वह मुफ़लिसी में पता नहीं क्या कर गुज़रता? चुनांचे, आज तो वह सरेआम उस पर कीचड़ उछालता है और उसके बीते दिनों का मजाक उड़ाता है। उसने उसे दोबारा वापस बुलाकर मैरीडियन सैलून में नहीं बैठाया ताकि वह हज़ामत बनाकर रोज़ी-रोटी कमाना जारी रख सके। पर, हामिद को तो ग़र्दिश में भी जीने का सलीका आ गया था। उसने फुटपाथ पर एक कुर्सी लगाकर हजामत बनाना शुरू कर दिया। वह बेशक अच्छा खा-कमा रहा था। वह सोच रहा था कि वह फुटपाथ पर आकर भी अपना और अपनी अम्मी का पेट बख़ूबी पाल रहा है। वह बिल्कुल महफ़ूज़ है क्योंकि यहाँ से उसे कोई कहाँ फेंकेगा?<br />
<br />
इसी दरमियान म्युनिसपिल्टी ने एक नया शिगूफ़ा छोड़ा। फुटपाथों पर अतिक्रमण करने वालों को हटाया जाएगा। यह काम भी जग्गू दीवान की काबलियत देखकर ही उसको सौंपा गया। हामिद तो समळा गया कि अगर इस बार जग्गू अपनी आदत से बाज़ नहीं आया तो उसका कुछ बुरा होकर रहेगा। वह चिंतित हो गया--ऊपरवाला जग्गू को सदबुद्धि दे। फुटपाथों पर रोज़ी-रोटी कमाने वाले आपे से बाहर हो रहे थे कि अगर उनके पेट पर लात मारी गई तो वे जग्गू का नामोनिशान तक मिटा देंगे। जब हामिद ने अपनी अम्मा को ये सारी बातें बताई तो वह भी जग्गू की नेक-सलामती के लिए दुआ मांगने लगी। काश! जग्गू उसके बुलाने पर आ जाता तो वह उसे समळााती कि वह अपने हद में रहते हुए ही अपनी ड्युटी किया करे।<br />
पर, जब ज़िद्दी जग्गू ने अपना अभियान उसी लहजे में चालू किया तो शहर के क्रोध का पारा फिर एकदम चढ़ गया। वैसे तो, लोग उसकी कार्रवाई के दौरान भाग खड़े होते थे लेकिन वे दूर से ही उस पर पथराव करने लगते थे। ऐसे में वह और भी बेकाबू हो जाता था। हामिद ने सोचा कि वह आफ़ती जग्गू को अपने इलाके में घुसने से ज़रूर रोकेगा। भले ही उसे अपनी जान पर ही क्यों न खेलना पड़े?<br />
<br />
उस दिन शहर का तापमान इतना गिरा हुआ था कि नल के नीचे हाथ लगाते ही लगता था कि ठंडे पानी से न केवल हाथ ही अकड़ेगा बल्कि सारे बदन का ख़ून जम जाएगा। ग्यारह बजने को था; पर, सूरज घटाटोप था। मनहूसियत चप्पे-चप्पे में समाई हुई थी। मानिक चौक पर हरेक को पता था कि आज जग्गू और उसके पुलिसवालों का जुल्म उन पर ढहेगा। इसी बीच, हामिद अपने ग्राहक की हजामत छोड़ पीछे निचाट में पेशाब करने चला गया। कोई तीन-चार मिनट बाद जब वह लौटा तो वहाँ का नज़ारा ही बदल चुका था। फुटपाथ पर वह जिस कुर्सी पर हजामत बना रहा था, वह नाली में लुढ़की हुई थी और उसका ग्राहक अपने घुटने सहला रहा था। उसने आव देखा न ताव। बस, वहीं खड़े एक पुलिसवाले से लिपटकर उसकी लाठी छीनने लगा। उसे ऐसा करते देख, कुछ और पुलिसवाले आ गए और उसकी पीठ पर लाठियाँ बरसाने लगे। तभी दहाड़ें मारता हुआ जग्गू दीवान भी वहाँ आ गया। उसने आते ही अपनी लाठी भाँजी जो उसके निशाने ठीक विपरीत हामिद के सिर पर लगी। पल भर के लिए उसके बदन में तेज छटपटाहट हुई। फिर, वह अचानक ख़ामोश हो गया। हैरत में जब जग्गू ने उसे पलटा तो उसके होश ही ग़ुम हो गए। उसने उसके सीने पर हाथ रखा तो उसे लगा कि उसका दिल कोई हरक़त नहीं कर रहा है। फिर, नब्ज़ टटोलते ही वह अपने पुलिसवालों से गरज़ उठा, "इसे अभी इसी वक़्त सदर अस्पताल ले चलो।"<br />
<br />
सारा शहर पुलिस की उस वहशी कार्रवाई से उबल रहा था। कोई तीन घंटे बाद यह साफ़ तौर पर लोगों को मालुम हो चुका था कि पुलिस की बेरहमी से पिटाई के कारण एक मुस्लिम हजाम की मौत हो चुकी है। लेकिन, प्रशासन ने अभी तक उसकी मौत की सरकारी घोषणा नहीं की थी। ऐसे में, जहाँ पागल भीड़ कोतवाली को घेरकर दोषी पुलिस को सख़्त दंड देने की मांग कर रही थी वहीं सदर अस्पताल पर भीषण पथराव भी हो रहा था। फिरकेपरस्त इस मामले पर सांप्रदायिक मुलम्मा चढ़ाने पर तुले हुए थे कि चंद हिंदू सिपाहियों ने एक मुसलमान को पीट-पीटकर मौत के घाट उतार दिया। इसलिए, गली-गली में दंगाई जमा हो रहे थे और हमला बोलने की ताक में थे।<br />
<br />
तभी, मियानी टोला से बुरका ओढ़े एक भद्र महिला किला रोड पर एक रिक्शे पर चढ़कर पहले सदर अस्पताल पहुँची; फिर, वहाँ से अकेली कोतवाली में दाखिल हुई--भीड़ को चीरती हुई। लोगों ने उसे रास्ता दे दिया क्योंकि उस महिला के आगे-आगे यह अफ़वाह भी चल रहा था कि हामिद की अम्मा आ रही है...वे तो यह कयास लगा रहे थे कि अब पुलिस को हामिद की मौत की घोषणा करनी ही पड़ेगी। वे दिल थामकर यह प्रतीक्षा कर रहे थे कि हामिद की माँ अभी बाहर नज़र आएगी और रो-रोकर अपने बेटे पर किए गए पुलिस अत्याचार का दुखड़ा सुनाएगी। <br />
<br />
बहरहाल, जब वह कोतवाली-गेट से बाहर निकलकर ऊपर की सीढ़ी पर नज़र आई तो लोगों को आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उसके चेहरे पर बेटे की मौत के ग़म के बजाए मुस्कान खिली हुई थी। उसने वहीं से खड़े होकर एक अप्रत्याशित-सी तेज आवाज में घोषणा की--"आपलोग फ़िज़ूल में मेरे भले-चंगे बेटे के मरने का अफ़वाह फैला रहे हैं। अरे, वह तो पिछले एक माह से अपने मामूजान के यहाँ कानपुर गया हुआ है। अभी दस मिनट पहले ही मैंने उससे फोन पर बात की है। जहाँ तक पुलिस की मार से किसी आदमी के मरने की चर्चा सारे शहर को परेशान कर रही है तो यह भी एक कोरा अफ़वाह है। यह सब एक साज़िश है--पुलिस को बदनाम करने की। अगर जग्गू आज इलाहाबाद ट्रेनिंग पर नहीं गया होता तो वह यहाँ चिल्ला-चिल्लाकर आपको बताता कि आपलोग नाहक अपना वक़्त बर्बाद कर रहे हैं। वह तो बड़ा ही नेक लड़का है और आप सभी जानते हैं कि वह मेरे बेटे हामिद का ज़िगरी दोस्त भी है..."<br />
<br />
जब तक उसकी आवाज़ भर्राकर कमजोर होती, वह सीढ़ियों से नीचे उतरकर रिक्शे में सवार हो चुकी थी। गलियों में दंगाई वापस अपने-अपने घरों को लौट चुके थे। बलवा करने का उनके पास कोई ठोस बहाना नहीं बन पा रहा था। <br />
<br />
बताते हैं कि हामिद की माँ वापस मियानी टोला नहीं गई। उसे कुछ लोगों ने उसी दिन शाम को रेलवे स्टेशन पर रोते हुए देखा था। वहीं जग्गू सादी वर्दी में उसके पैरों से लिपटकर बिलख रहा था। बेशक, जिस अपराधबोध से जग्गू बेचैन था, उसका प्रायश्चित वह हामिद की माँ की आजीवन सेवा करके ही कर सकता था। तभी तो वह भी हामिद की माँ के शहर से जाने के बाद एक कहानी बनकर रह गया है। दरअसल, उसका ट्रांसफ़र किसी और शहर में कभी नहीं किया गया था। उसे तो कभी-कभार पुरानी दिल्ली कि एक मस्ज़िद की सीढ़ियों पर एक बुढ़िया के साथ देखा गया है। वह बूढ़ी औरत कोई और नहीं, बल्कि खुद हामिद की माँ है।<br />
<br />
***</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0&diff=5969मनोज मोक्षेन्द्र2011-12-02T10:06:08Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र= <br />
|नाम=मनोज श्रीवास्तव<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=--<br />
|जन्मस्थान= <br />
|कृतियाँ=धर्मचक्र और राजचक्र, पगली का इंक़लाब (दो कहानी-संग्रह)<br />
|विविध= --<br />
|जीवनी=[[मनोज श्रीवास्तव / परिचय]]<br />
}}<br />
'''कहानियाँ'''<br />
* [[धत ! दकियानूस नहीं हूँ / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[मादरे वतन वापसी के बाद / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[अरे ओ बुड़भक बंभना / मनोज श्रीवास्तव]] <br />
* [[नया ठाकुर / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[गुल्ली डंडा और सियासतदारी / मनोज श्रीवास्तव]] <br />
* [[डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[धिन्तारा/ मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[इस्माइल रिक्शावाला एम.ए. पास / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[परबतिया / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[चरित्र प्रमाण-पत्र / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[प्रेम पचीसी / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[गोरखधंधा / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[यार, डरती क्यों हो? / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[धर्मचक्र, राजचक्र / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[पगली का इन्कलाब / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[प्रेमदंश / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[बकरा / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[कबूतर की फड़फड़ाहट / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[कन्नी और देवा / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[सियासत की बाढ़ / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[भूख का पुनर्जन्म / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[भगजी बगैर काम नहीं चलता / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[बी-टेक टिफिन चोर / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[एक और प्रहलाद / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[जग्गू, तूँ वैसा नहीं रहा.../ मनोज श्रीवास्तव]]</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%8F%E0%A4%95_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%A6_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5968एक और प्रहलाद / मनोज श्रीवास्तव2011-12-01T07:58:52Z<p>Dr. Manoj Srivastav: ''''एक और प्रहलाद''' शहर का वह हिस्सा इतना अलग-थलग था कि प...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
<hr />
<div>'''एक और प्रहलाद'''<br />
<br />
शहर का वह हिस्सा इतना अलग-थलग था कि प्रायः ऐसा लगता था कि वह इस शहर से बाहर का कोई अज़नबी इलाका है। शहर ही नहीं, बल्कि पूरे प्रदेश का, या यूँ कहिए कि इस देश का ही हिस्सा नहीं है। वहाँ का कोई बाशिंदा जब भी अचानक कहीं नज़र आ जाता है तो हम बरबस ही खुद से भुनभुनाने लगते हैं कि हो-न-हो यह शख्स दीवानगंज का ही निवासी होगा! हमारा यह अनुमान सही निकलता जब वह हमारी घूरती निग़ाहें बचाकर किसी गली या भीड़ में छिप जाने की कोशिश करता।<br />
यह तय है कि वहाँ का आदमी ही नहीं, बल्कि सारी आबोहवा विदेशीपन के लिबास से ढँकी हुई थी। वहाँ एक सरहद-सी खिंची हुई लगती थी जहाँ की पहाड़ियों पर खड़े होकर आसमान देखना ही कुछ अज़ीब-सा लगता था। जैसेकि आसमान भी बड़ी ग़ैरियत से चेतावनी दे रहा हो कि सरहद लाँघने की ढिठाई मत करना; वर्ना, दूसरे वतन यानी दुश्मन की जमीं पर कदम रखने का अंजाम जानते ही हो कि क्या होता है...<br />
<br />
दीवानगंज से सनसन आने वाली ख़ामोश हवा भी यह आग़ाह करती थी कि च्वहाँ हादसे होना एक आम बात है। मैं दो घरों में डेढ़ दर्जन मासूमों के जलाए जाने, कम से कम आठ जवान औरतों का बलात्कर कर हलाख़ किए जाने और कुछ मंदिरों से मूर्तियों की तस्करी किए जाने की सनसनीखेज ख़बर लाई हूँ।<br />
<br />
बेशक! हवा के हर झोंके से ख़ौफ़, साँप के ज़हर की तरह बदन में फैलने लगता और धीरे-धीरे इसे सुन्न-सा करने लगता। पर, कईगुना रफ़्तार से धड़कते दिल का एहसास कभी कम नहीं होता!<br />
<br />
दीवानगंज की उस काल्पनिक सरहद से कोई चार मील दूर, शहर का सदर बाजार शुरू होता है। रोज शाम को सदर चौराहे पर लोगों की कानाफ़ुसियों से दीवानगंज में पिछली रात को हुई घटनाओं का खुलासा होता है। जब आठ बजे से पहले कलक्टर के आदेशांें के तहत दुकानों के धड़ाधड़ बंद होते ही भीड़ अपने पीछे गुमसुमी का माहौल छोड़ जाती है तब वहाँ रिज़र्व पुलिस और मिलिटरी के जवानों की सिर्फ़ जमघट ही नज़र आती है। बीच-बीच में कुत्तों की भौंकाहट ख़ामोशी के सीने को चीरकर माहौल को लहूलुहान कर जाती है।<br />
<br />
आठ बजे से एक-डेढ़ घंटे पहले सदर बाजार का बंद होना लाज़मी है। दूर के गाँवों से आए निरीह औरत-मर्दों को जल्द से जल्द घर पहुँचने का भय सताने लगता है। लगभग नौ बजे देश की सीमा से दीवानगंज के दहशतगर्दों की बेधड़क आवाजाही शुरू हो जाती है। साथ में, शुरू हो जाती है हथियारों, गोला-बारूदों, नशीले पदार्थों और चोरी के सामानों की तस्करी। इस काम में सीमा पर तैनात सिपाहियों की मिलीभगत कुछ कम नहीं होती। इन मुट्ठीभर देशद्रोहियों की वज़ह से ही इस देश को दहशतगर्दी से निज़ात नहीं मिल पा रहा है।<br />
<br />
आज सदर चौराहे पर कानाफ़ुसियों का बाजार गर्म है। दीवारें तक चौकन्ना होकर सुन रही हैं कि दीवानगंज का तथाकथित ज़ेहादी सरगना बख़्तियार खान के घर कुछ अप्रत्याशित-सी घटनाएँ घट रही हैं।<br />
<br />
हुसैन की आवाज़ भीड़ की फ़ुसफ़ुसाहट को भेदकर कानों को स्तब्ध कर देती है, अब, बख़्तियार की बरबादी के आसार नज़र आने लगे हैं। उसकी शानो-शौकत के दिन लद गए हैं। उसके घर का ही चिराग़ उसे और उसकी ग़ुरूर को जलाकर राख करने पर आमादा है...<br />
<br />
भीड़ के माथे पर सवलिया लकीरें उभर आती हैं, च्आख़िर, बख़्तियार की मासूम औलाद से उसका क्या बिगड़ने वाला है? उसकी उम्र तो कुल चौदह साल की ही है...<br />
<br />
हुसैन भीड़ को समझाता है, च्फ़रीद मतलब बख़्तियार के जिगर का टुकड़ा जो उसके सारे मंसूबों पर पानी फेरता जा रहा है...<br />
<br />
तभी कुछ फर्लांग दूर पर गोलियों की दनादन धाँय-धाँय सुनाई देती है। ऐसा तब होता है जबकि बख़्तियार के गुर्गे सदर के रास्ते गुजरते हुए अपने आने की चेतावनी देने के लिए हवाई फायर करते हैं।<br />
<br />
हुसैन अपने लफ़्ज़ मुँह में ही ज़ब्त कर लेता है। वह भागकर अपनी पतंग की दुकान को फटाफट बंद करता है और सिर पर कोई बंडल लिए हाँफ़ता हुआ भागता है। दूसरी दुकानें भी धड़ाधड़ बंद होती हैं। लोगबाग सिर पर पैर रखकर भागते हुए पूरे सदर बाज़ार को इस तरह जनशून्य कर जाते हैं जैसेकि वहाँ हफ़्तों से आदमी के पाँव न पड़े हों। वहाँ तैनात वर्दीधारी जवान गलियों, गुमटियों और आधे-अधूरे बंद दुकानों की ओट में किसी अप्रत्याशित स्थिति से निपटने के अंदाज़ में पोजीशन लेकर खड़े हो जाते हैं--बदस्तूर रायफल सम्हाले हुए...<br />
<br />
कुछ मिनट बाद ही बख़्तियार के गुर्गे एक लड़के को खुली जीप में जोर से जकड़े हुए गुजरते हैं। लड़का खुद को उनके चंगुल से छुड़ाने की असफ़ल चेष्टा करता है। उसके चेहरे पर किसी भय या तनाव के भाव के बजाए, एक व्यंग्यमय मुस्कान झलकती है।<br />
<br />
एक जवान हिम्मत बटोरकर गली की ओट से बाहर आता है और जीप को हाथ के इशारे से रोकता है: च्जनाब! इस बच्चे को लेकर आपलोग कहाँ जा रहे हो? इसने क्या कुसूर किया है कि इसे इस तरह..." <br />
एक गुर्गा भड़कता है: तुम्हें पता नहीं है कि यह हमारे डान का लड़का है...<br />
<br />
जवान चुटकी लेता है: च्लेकिन जिस तरह से इसे तुम पकड़कर ले जा रहे हो, उससे तो यही लगता है कि जैसे यह कोई गुनाहगार हो जिसे तुम सजा देने ले जा रहे हो..<br />
<br />
एक गुर्गा खिसियाकर भौंकने के अंदाज़ में बोल उठता है: च्हाँ, हाँ, हम इसे एक बियाबान में खूँख्वार जानवरों के बीच ले जा रहे हैं--इसे डराने-धमकाने ताकि यह बात-बात में हिंदुस्तान का गुणगान और तरफ़दारी करना बंद कर दे और अपने अब्बा हुज़ूर की तिज़ारत में इज़ाफ़ा करे, उनके मक़सद यानी कश्मीर को आज़ाद वतन बनाने के मक़सद को कायमाब करे...<br />
उसकी बात पर लड़का खिलखिला उठता है: च्हाँ, हाँ, मैं बख़्तियार का गुनाहगार हूँ। उसके ये गुलाम मुळो कोई सबक सिखाने ले जा रहे हैं। मालूम नहीं, शायद ये मुळो ज़िबह भी कर सकते हैं। मेरा गुनाह सिर्फ़ यह है कि मैं अपने बाप के गलत कामों की ख़िलाफ़त करता हूँ। मैं उन्हें बताता हूँ कि हमसब भारत माता के बेटे हैं। हमें अपने देशवासियों पर ज़ुल्म नहीं ढाना चाहिए। उनका ख़ून बहाकर हमें क्या मिलेगा? हम सब भाई-भाई हैं। इस हिंदू-संस्कृति के अभिन्न हिस्से हैं। हमें मिलजुलकर इसकी रक्षा करनी चाहिए। इतने लंबे संघर्ष के बाद तो हमें आज़ादी मिली है। इसे बचाने के लिए हमें दोबारा कुर्बानी देनी होगी...<br />
<br />
गुर्गे गुर्राते हैं। पर, वह बोलने से बाज नहीं आता है। रायफल झुलाता जवान उसकी वाकपटुता को सुन दाँतों तले अंगुली दबाता है।<br />
<br />
जीप के दूर निकल जाने के कारण उसकी आवाज़ मद्धिम होती जाती है।<br />
<br />
दीवानगंज के मदरसे में बड़ी अफ़रातफ़री मची हुई है। बख़्तियार खान के पैसों से चलने वाले मदरसे में आजकल उसके मन-मुताबिक कुछ भी नहीं हो पा रहा है। मदरसे के मौलवी अपने शागिर्द फ़रीद से बेहद ख़फ़ा हैं। पर, वे करें भी तो क्या करें! आख़िर, फ़रीद तो उनके मालिक बख़्तियार का ही लाडला है।<br />
<br />
सुबह जब मदरसे में पठन-पाठन शुरू होता है तो फ़रीद बवाल मचा देता है। वह अपने मौलवी से क्लासरूम में ही कुछ बौख़लाने वाले सवाल कर बैठता है।<br />
<br />
जनाब! हमें हिंदी क्यों नहीं पढ़ाई जाती जो सारे हिंदुस्तान में बोली जानी वाली हमारी राष्ट्रभाषा है? छ फ़रीद के सवाल से मौलवी तिलमिला उठता है।<br />
<br />
मेरे दोस्त! इसकी वज़ह साफ़ है कि हम--मुसलमानों की जबान उर्दू होती है, छ मौलवी अपने धैर्य को बरकरार रखता है।<br />
हमें अपना पाठ शुरू करने से पहले वंदे मातरम और जन गण मन का गान करना चाहिए। देश के सभी स्कूलों में तो ऐसा ही होता है, छ उसके दूसरे सवाल से मौलवी हक्का-बक्का रह जाता है।<br />
<br />
दरअसल, हम हिंदुस्तानी कौम नहीं हैं। इसलिए, हम हिंदुस्तानी रिवाज़ नहीं अपना सकते। हम तो वही करेंगे जो हमारे कौम के मुताबिक है। मौलवी उसे भरसक समझाने की कोशिश करता है।<br />
<br />
हमारे किताबी सबक में हिंदुस्तान के महापुरुषों की जीवनगाथाएँ क्यों नहीं शामिल की गई हैं? हमें राम, कृष्ण, अशोक, बुद्ध, अकबर, राणा प्रताप, शिवाजी, कबीर, टैगोर, गाँधी, सुभाष वग़ैरह के आदर्शों से परिचित क्यों नहीं कराया जाता? हमें दूसरे मुल्कों के बड़े लोगों के बारे में ही क्यों बताया जाता है? क्या हमारी किताबें किसी बाहरी मुल्क से छपकर आती हैं? क्या हमारे देश में किताब लिखनेवालों की कमी है? छ फ़रीद एक साँस में सब बोल जाता है।<br />
<br />
मौलवी, जो उसकी बातें सुनना बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था, उसके पास आ जाता है। फ़रीद को लगता है कि जैसे वह उसे पीटने ही उसके पास चलकर आया हो।<br />
<br />
मौलवी उसके कान में फुसफुसाता है, च्मेरे अजीज दोस्त! तुम एक मुसलमां के ही बेटे हो ना! कहीं तेरी अम्मी ने किसी कश्मीरी पंडित के साथ...उफ़्फ़! मुळो तो तुम्हारी पैदाईश में कोई खोट नज़र आती है। मैं तुम्हारे अब्बा से अभी तुम्हारी शिकायत करता हूँ।<br />
<br />
उसके बाद मदरसे के सभी मौलवी तत्काल छुट्टी का ऐलानकर ऐसी अफ़रातफ़री में एक मजलिस बुलाते हैं, जैसेकि कोई बहुत बड़ा हादसा हो गया हो। मजलिस में सभी एकमत से यह निर्णय लेते हैं कि उन्हें बख़्तियार ख़ान से तुरंत मिलना चाहिए।<br />
<br />
बख़्तियार मौलवियों की बातें सुनकर आग बबूला हो उठता है। वह तत्काल फ़रीद को बुलाकर उसके गाल पर कई तमाचे रसीद करता है। पर, हैरत की बात यह कि उन तमाचों से उसका गाल सूज जाने के बाद भी उसकी आँखों से एक बूँद भी आँसू नहीं बहता है। वह अपने बाप के हर तमाचे पर हँसता ही जाता है। थक-हारकर, बख़्तियार अपना माथा पकड़ लेता है।<br />
क्या बताऊँ? अपना ही ख़ून मेरे मक़सद के साथ दगा दे रहा है।छ वह फफक पड़ता है।<br />
<br />
तभी फरीद निरपराध भाव से आगे आकर उसे तसल्ली देने लगता है, च्अब्बा हुज़ूर! आपको अपने बुरे मक़सद से तौबा कर लेना चाहिए। आप हिंदुस्तान से अलग अपनी अस्मिता नहीं बना सकते। बिलाशक! आप हिंदुस्तानी कौम के हैं। आपका पहला मज़हब भारतीयता है जिसकी हिफ़ाज़त के लिए आपको तन-मन-धन सब न्यौछावर कर देना चाहिए। आप अपने गुर्गों से कह दीजिए कि वे देश के सभी हिस्सों में जाएँ और ग़रीब व ज़रूरतमंद देशवासियों की ख़िदमत करें। उनकी सेवा-सुश्रुषा करें। इसी में आपका और हमारे समाज की नेक-सलामती है।<br />
<br />
बख़्तियार सिर उठाकर अपने ढीठ बेटे को बड़े गौर से देखता है और वहाँ मौज़ूद अपने आदमियों से चिल्ला उठता है, च्देखते क्या हो? इस मावाकूल को एक अंधेरी कोठरी में बंद कर दो। जब तक यह अपनी बुरी बातों से तौबा नहीं कर लेता, इसे वहीं भूखा-प्यासा तड़पने दो।<br />
<br />
उसके हुक्म की तुरंत तामील होती है।<br />
<br />
दो दिनों तक फ़रीद अंधेरी कोठरी में बंद रहता है और जब तक दम रहता है, वह वंदे मातरम गाता रहता है। पर, तीसरे दिन कोठरी से फ़रीद की एक भी आवाज़ सुनाई नहीं देती है। ग़मी जैसी छाई मायूसी के चलते उसकी माँ छाती पीट-पीटकर सारे दीवानगंज को सिर पर उठा लेती है। आख़िरकार, बख़्तियार का दिल भी वात्सल्य से भर उठता है। आनन-फानन में दरवाजा खोलकर फ़रीद को बाहर निकाला जाता है। बख़्तियार उसकी कलाई टटोलता है तो उसके नब्ज़ के अभी भी फड़कने का उसे एहसास होता है। डाक्टर येन-केन-प्रकारेण उसकी जान बचाने मे सफल हो जाते हैं।<br />
<br />
बख़्तियार अपने बेटे के दिल में देश के प्रति नफ़रत भरने के सारे हिक़मत अपनाता है। फ़रीद को कई बार मृत्यु जैसी पीड़ा से गुजरना पड़ता है। पर, हर बार किसी करिश्मा के चलते सुरक्षित बच जाता है। अंततोगत्वा बख़्तियार की सख़्त हिदायत के तहत फ़रीद के मदरसा जाने और बाहर घूमने पर पाबंदी लगा दी जाती है। पर, फ़रीद में देशभक्ति के ज़ज़्बे में कोई कमी नहीं आती है। वह जैसेकि देशभक्ति के उन्माद में अपना दर्द तक भूल जाता है। अपने पिता के ख़ूनी साजिशों की पूर्व-सूचना जिला प्रशासन और पुलिस हेडक्वार्टर्स को देकर उसके मंसूबों पर पानी फेर देता है। ये सूचनाएँ वह अपने पिता की अनुपस्थिति में उनके ट्रांसमीटर के माध्यम से देता! बख़्तियार तो सोच भी नहीं सकता था कि उसका बेटा उनके ख़िलाफ़ इस हद तक जा सकता है।<br />
<br />
बख़्तियार का तथाकथित ज़ेहाद लगातार विफ़ल होता जाता है। वह दिल्ली में हवाई अड्डे, रेलवे प्लेटफार्म, बाजार और अहम स्थानों पर बम-धमाके कराने के जो इंतजामात करता है, उन्हें पुलिस के समय-पूर्व हरकत में आने के कारण विफ़ल कर दिया जाता है। इससे विदेश-स्थित उसके हेडक्वार्टर्स को भी उसके ज़ेहादी होने पर शक होने लगता है कि बख़्तियार जानबूझकर उनकी योजनाएँ सफल नहीं होने दे रहा है और ज़ेहाद में उनका साथ देने के वादे से मुकर रहा है। <br />
<br />
एक दिन, हेडक्वार्टर्स से कुछ मिलीटेंट बख़्तियार के घर पर अचानक छापा मारते हैं और उसके बेटे फ़रीद को उस वक़्त रंगे हाथों पकड़ते हैं जबकि वह घर के तहखाने में लगे ट्रांसमीटर से हिंदुस्तानी ख़ुफ़िया विभाग के अधिकारियों से बातें कर रहा होता है। दरअसल, बख़्तियार को तो यह अंदेशा ही था नहीं कि उसका बेटा ही उन्हें इस कदर धूल चटाने पर आमादा है। चुनांचे, मिलीटेंट तो यह समझते हैं कि बख़्तियार के ही निर्देश पर उसका बेटा ऐसा कर रहा है। <br />
एक मिलीटेंट तत्काल बख़्तियार के सीने पर रिवाल्वर टिका देता है।<br />
<br />
वह गरज उठता है, च्तुम हमें डबल-क्रास कर रहे हो। हमारी आँखों पर पट्टी नहीं बँधी है। तुम्हारी ही हिदायत के तहत तुम्हारा लड़का हमारे मंसूबों पर पानी फेर रहा है। आख़िर, तुम हो तो हिंदुस्तानी ही। हिंदुस्तानी मुसलमां दग़ा ही करते हैं। तुम्हारे पुरखे तो हिंदू ही रहे होंगे। ऐसे में तुमसे वफ़ा की उम्मीद कैसे की जा सकती है?<br />
<br />
बख़्तियार उसकी दाढ़ी छूकर गिड़गिड़ाने लगता है, च्मैं अल्लाह की कसम खाकर कहता हूँ कि मुळो इस बात का बिल्कुल इल्म नहीं था कि मेरा बेटा ही मेरे पीठ पर वार कर रहा है। उसने पहले भी कई बार हमारी स्कीमों में दख़लंदाज़ी की है...<br />
अगर ऐसी बात है तो तुम्हें अपने बेटे की कुर्बानी देनी होगी...अगर वह तुम्हारे रास्ते का रोड़ा बन रहा है तो उसे ख़ुदा के नाम पे कुर्बान कर दो...तुम्हारे इस शहादत से तुम्हें और तुम्हारे बेटे को जन्नत नसीब होगी। बोलो, क्या तुम ऐसा कर सकोगे? <br />
<br />
मिलीटेंटों की शर्त सुनकर बख़्तियार के पाँव तले से जमीन खिसक जाती है। बख़्तियार के परिवार के सभी बदहवास सदस्य वहाँ इकट्ठे हो जाते हैं। उस वक़्त पाकिस्तान से आई फ़रीद की बुआ--फातमा भी स्थिति का जायजा लेने आ जाती है।<br />
तभी, वहाँ उपस्थित फ़रीद चिल्ला उठता है, च्हाँ, हाँ, मुळो ऐसी ही मौत चाहिए। अपने देश के वास्ते मैं शहीद होकर जन्नत का दावेदार बनूँगा...देश को विदेशी साजिशों से आज़ाद कराकर मेरी रूह को बेहद सुकून मिलेगा...अब्बा हुज़ूर, मेरी यह तमन्ना पूरी कर दीजिए...छ वह उनके कदमों पर गिरकर गिड़गिड़ाता है।<br />
<br />
मिलीटेंट व्यंग्यपूर्ण अंदाज़ में बख़्तियार को ललकारता है, देखते क्या हो? चला दो, खंजर अपने बेटे के सीने पर। एक सच्चे ज़ेहादी से यही उम्मीद की जाती है। मज़हब की हिफ़ाज़त के लिए सारे रिश्ते-नाते ताक पर रख दिए जाते हैं... <br />
<br />
इसी दरमियान, फातमा अपने भाई बख़्तियार को उस पेंचीदे हालात से उबारने के लिए बीच में ही टपक पड़ती है, च्भाईजान! ये तुम्हारे कामरेड अफ़सर सही फरमाते हैं। तुम्हें अपने बेटे की कुर्बानी देनी ही चाहिए। तुम सच्चा मुसलमां होने का सबूत देकर अपने ज़ेहाद को एक नया मोड़ दे सकते हो..<br />
<br />
बख़्तियार रुआँसा हो जाता है, च्मैं अपने हाथों से ही अपने जिगर का ख़ून कैसे कर सकता हूँ? आख़िर, मैं इसका वालिद हूँ... <br />
<br />
तुम क्या, तुम्हारे खानदान का कोई भी शख़्श फ़रीद का ख़ून नहीं बहा सकता,छ वह बख़्तियार के कान से अपना मुँह सटा देती है, च्पर, मेरे पास एक सूरत है--तुम्हें इस कश्मकश से निजात दिलाने की। साँप भी मर जाएगा, और लाठी भी नहीं टूटेगी।छ फातमा चुटकी बजाते हुए उसकी समस्या का हल निकालने का दावा करती है।<br />
वो कैसे? बख़्तियार पूरे होश में सवाल करता है।<br />
<br />
वह उसके कान में उसी तरह फुसफुसाती है, च्वो ऐसे कि तुम्हारे सालारजंग में जो ख़ूँखार लकड़बग्घा है, उसे मैं बचपन से चारा खिलाती रही हूँ। वह मुळो अच्छी तरह पहचानता है। तुम्हारे आदमी तो उसके पास जाने की हिम्मत तक नहीं जुटा सकते। पर, मैं तो उसे अपनी बाँहों में जकड़कर उसके साथ गलबहियाँ तक खेल सकती हूँ। वह मेरा बाल भी बाँका नहीं कर सकता। मैं फ़रीद को लेकर जैसे ही उसके पिंजरे में घुसूँगी, वह मुळो छोड़ फ़रीद को कच्चा चबा जाएगा...और हाँ, यह सब मैं खेल-खेल में करूँगी। उसे इसकी भनक तक नहीं मिलेगी।<br />
<br />
बख़्तियार सोच में पड़ जाता है। फ़रीद की माँ, जो दूर से फातमा और अपने शौहर के बीच हुई गुपचुप बात नहीं सुन पाती है, एकदम से बिफ़र पड़ती है, च्हाँ, हाँ, तुमलोग मेरे बेटे को मारने की साजिश कर रहे हो। मैं यह कतई बर्दाश्त नहीं कर सकती...<br />
<br />
बख़्तियार उसे एक भद्दी-सी गाली देता है, च्तूने अपने पेट से ये हिंदू का बच्चा कैसे पैदा किया जबकि सारी दुनिया जानती है कि तेरा शौहर मुसलमां है...<br />
<br />
पर, माँ के दिल के हाले-बयाँ को उस समय सुनने के लिए वहाँ कोई आगे नहीं आता है। बख़्तियार एक निर्णायक अंदाज़ में मिलीटेंटों को एक कोने में ले जाकर अपनी योजना बताता है। उसके बाद वे तहखाने में गुप्त मंत्रणा करने चले जाते हैं जबकि फातमा, फ़रीद को चूमती-पुचकारती बरामदे से बाहर ले जाती है। <br />
<br />
<br />
इस दुनिया का सबसे दुःखी प्राणी कोई है तो वह बख़्तियार ही है। जिस लकड़बग्घे पर उसकी बहन फ़ातमा को बेइन्तेहां भरोसा था, उसने ही उसे अपनी खुराक बना ली। विजयोन्माद में जब फ़रीद उस लकड़बग्घे पर सवार होकर दीवानगंज में घूमता हुआ अपने घर पहुँचता है तो किसी को अपनी आँखों पर यकीन नहीं होता है। दीवानगंज में अभी तक ऐसा करिश्मा किसी ने नहीं देखा था। घोड़े की सवारी तो सबने की थी और देखी थी। पर, लकड़बग्घे की सवारी तो...आख़िर, एक लकड़बग्घे में देशद्रोह और देशभक्ति के बीच फर्क करने की क्षमता कहाँ से आई? वह कोई दैवी चमत्कार ही होगा। <br />
बहरहाल, फ़रीद के घर पहुँचने के कोई आठ घंटे बाद दिल्ली से सी आर पी एफ़ के जवान दीवानगंज के चप्पे-चप्पे पर काबिज़ हो जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कल जब मिलीटेंट अचानक फ़रीद को तहखाने से बरामद कर उसे घसीटते हुए लाए थे तो फ़रीद का ईयरफोन नीचे गिर गया था जिससे वहाँ होने वाली सारी अफ़रातफ़री और कहासुनी दिल्ली स्थित अधिकारियों को सुनाई दे गई थी। उसके बाद, रक्षा विभाग तत्काल हरकत में आ गया और मिलीटेंटों को धर-दबोचा गया।<br />
फौज़ पूरे दीवानगंज का घेराव कर लेती है। ऐसा लगता है कि दीवानगंज अपने दहशत से उबरकर पहली बार दुनिया के सामने खड़ा हुआ है। दीवानगंजवासी बंदी बख़्तियार और दशतगर्दों के ख़ौफ़ से मुक्त होकर उसके घर को घेर लेते हैं। भारत के रक्षा विभाग का कमांडेंट बंदी मिलीटेंटों से दहाड़ते हुए कहता है, च्ज़ेहाद के नाम पर भारत के अंदरूनी मामलों में दख़लंदाज़ी करने का अंजाम तो देख ही लिया कि क्या होता है।<br />
<br />
वह सार्वजनिक रूप से फ़रीद की पीठ थपथपाता है, हमें फ़रीद की बहादुरी पर फ़ख्र है। यह लड़का देश के भटके हुए युवावर्ग के लिए जीता-जागता मिसाल है। इसने अपनी जान की बाजी लगाकर यह साबित कर दिया कि राष्ट्रधर्म सबसे ऊँचा है। राष्ट्रभक्ति का स्थान जाति, धर्म, समाज और परिवार सभी से ऊँचा है। मेरा विश्वास है कि भारत माता का यह महान सपूत एक दिन देश का गौरव होगा। इसे तो मैं प्रहलाद का अवतार मानता हूँ। जिस तरह हिरण्यकश्यप के अत्याचार से प्रहलाद को मुक्ति मिली थी, उसी तरह इस बहादुर बच्चे को अपने क्रूर बाप की यातनाओं से छुटकारा मिला है। आज सभी ने देख लिया कि सच, उगते सूरज की तरह काले घटाटोप को फाड़कर देशद्रोहियों की आँखें किस तरह चौंधिया रही हैं। पूरे देश को ही क्या, सारे विश्व को यह सच स्वीकार करना पड़ेगा।<br />
<br />
<br />
दीवानगंज में चहलपहल लौट आई है। लोगबाग सुबह दीवानगंज से लगी पहाड़ी पर चढ़कर उगते सूरज को देखना बड़ा खुशगवार मानते हैं। दीवानगंज से सदर बाजार का रास्ता खुल गया है। रास्ते के दोनों ओर मदारियों का मजमा फिर से लगने लगा है। बीच चौराहे पर हसन और उसके साथी रात ग्यारह बजे तक बेख़ौफ़ बतियाते हैं। वह बताता है कि बख़्तियार को अपनी वतनफ़रोशी पर बड़ा अफ़सोस है और जेल में उसके नेक बर्ताव के मद्देनज़र उसकी सजा कम कर दी गई है। लेकिन उसे अपने फ़रीद के फ़ौजी अफ़सर बनने पर बड़ा नाज़ है।<br />
<br />
<br />
जब फ़रीद छुट्टियों में उससे मिलने जेल जाता है तो वह उसका मुख चूमते हुए भावविभोर हो उठता है, तेरी माँ ने तेरे रूप में एक फरिश्ते को जन्म दिया है। ख़ुदा करे, हर माँ तेरे जैसे बच्चे को ही जन्म दे जो मेरे जैसे ग़ुमराह आदमी को सही रास्ता दिखा सके! <br />
<br />
प्रत्युत्तर में फ़रीद रो उठता है, अब्बा हुज़ूर! अब जब हम दीवानगंज लौटेंगे तो सारी ख़ुशियाँ हमारे दामन में होंगी। अम्मा आपकी बाट बड़ी बेसब्री से जोह रही है। वह कहती है कि आपके लौटने से दीवानगंज में बहार आ जाएगी...</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0&diff=5967मनोज मोक्षेन्द्र2011-12-01T07:53:01Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र= <br />
|नाम=मनोज श्रीवास्तव<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=--<br />
|जन्मस्थान= <br />
|कृतियाँ=धर्मचक्र और राजचक्र, पगली का इंक़लाब (दो कहानी-संग्रह)<br />
|विविध= --<br />
|जीवनी=[[मनोज श्रीवास्तव / परिचय]]<br />
}}<br />
'''कहानियाँ'''<br />
* [[धत ! दकियानूस नहीं हूँ / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[मादरे वतन वापसी के बाद / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[अरे ओ बुड़भक बंभना / मनोज श्रीवास्तव]] <br />
* [[नया ठाकुर / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[गुल्ली डंडा और सियासतदारी / मनोज श्रीवास्तव]] <br />
* [[डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[धिन्तारा/ मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[इस्माइल रिक्शावाला एम.ए. पास / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[परबतिया / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[चरित्र प्रमाण-पत्र / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[प्रेम पचीसी / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[गोरखधंधा / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[यार, डरती क्यों हो? / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[धर्मचक्र, राजचक्र / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[पगली का इन्कलाब / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[प्रेमदंश / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[बकरा / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[कबूतर की फड़फड़ाहट / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[कन्नी और देवा / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[सियासत की बाढ़ / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[भूख का पुनर्जन्म / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[भगजी बगैर काम नहीं चलता / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[बी-टेक टिफिन चोर / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[एक और प्रहलाद / मनोज श्रीवास्तव]]</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B0,_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%9A%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B0_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5966धर्मचक्र, राजचक्र / मनोज श्रीवास्तव2011-12-01T07:50:31Z<p>Dr. Manoj Srivastav: ' '''धर्मचक्र, राजचक्र''' बदलाव के बयार में सारा गाँव बह ...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
<hr />
<div><br />
'''धर्मचक्र, राजचक्र''' <br />
<br />
बदलाव के बयार में सारा गाँव बह गया। लोगबाग ही नहीं, कच्चे-पक्के घर, घास-फूंस के झोपड़े, पेड़-पल्लो, खेत-खलिहान आदि सभी पर बौद्धधर्म का ठप्पा लग गया। दरवाजे-दरवाजे 'बुद्धम् शरणम् गच्छामि' लिखा गया। बच्चों को छोड़, सभी ने मूड़ मुड़वाए। गेरूए लबादे पहने। यहाँ तक कि अंबेडकर की आदमकद प्रतिमा को भी बाकायदा गेरूआ वस्त्र पहनाकर 'बुधबाबा' बनाया गया। इस बौद्धीकरण के खुमार में गाँववालों ने मध्यम मार्ग पर चलकर असीम शांति का अनुभव किया। उन्हें हिन्दुओं की सड़ी-गली संस्कृति से तौबाकर बेहद सुकून मिला। दीर्घकालीन शोषण से निजात मिला। छुआछूत और ऊँच-नीच की घिनौनी परंपरा से छुटकारा मिला। भेदभाव मिटा। जातीय संकीर्णता दूर हुई। बेशक, सारा अंबेडकर गाँव निर्मल हो गया। बौद्धर्धम में स्नानकर तरोताजा हो गया।<br />
<br />
<br />
इस सामूहिक धर्मपरिवर्तन के कुछ महीनों बाद तक वे बौद्धगुरूओं और बौद्धभिक्षुओं की तरह आचरण करते। परस्पर उनके उपदेश सुनते-सुनाते रहते। क्योंकि स्वाजी जी अपने दल-बल समेत जाते-जाते उन्हें बता गए थे कि, "तुमलोग मन-कर्म-वचन से बौद्ध धर्म धारण करना......" इसलिए, जब बिरजू बाप भी बना तो बड़े विधि-विधान और नेम-धरम से.... इस मौके पर अपने परिजनों और गाँववालों को सुअर के माँस की दावत देते हुए उनसे हाथ जोड़कर कहा, "अब आपजने बुधबाबा का सुमिरन करके ईं हमारा भोज जीमिए।" तब, सभी 'अहिंसा परमौ धर्म:' हुंकारते हुए भोज चांभने लगे। भरूके में ठर्रा उड़ेलने लगे।<br />
<br />
<br />
हल्देव सत्यार्थी दाँत पीस रहे थे। क्योंकि यह सब कुछ एकदम उनकी नाक के नीचे घटित हो रहा था जो उन्हें बिल्कुल नागवार गुजर रहा था। अभी उन्हें विधायक बने जुम्मे-जुम्मे तीन साल ही तो हुए हैं। गाँववालों ने उन्हें चुनाव जिताने में क्या-क्या नहीं किया था? यह भी परवाह नहीं की कि उन्हें एक सवर्ण पार्टी से टिकट मिला है। बस, मन में एक धुन था कि वे हल्कू भैया को ताज पहनाने के लिए आकाश-पाताल एक कर देंगे। लेकिन, यह क्या? हल्देव सत्यार्थी गिरगिट-सरीखा रंग बदलने लगे। वह ज्यादातर समय तो लखनऊ में गुजारते। जब अंबेडकर गाँव आते तो मुलाकातियों से सिर दर्द का बहाना बनाकर अपने आरामगाह में दुबके रहते। यों तो, चार-पाँच महीने तक सब ठीक-ठाक चलता रहा। महीने में गाँव का दो-तीन चक्कर तो लगा ही जाते। आते ही कहते कि शहरी रौनक में उनका एकदम जी नहीं लगता है। वह सभी के साथ उठते-बैठते। साथ-साथ खैनी मीसते, खाते। किसी भी परिचित के घर जाकर लिट्टी-चोखा खाते। अपने लंगोटिया यारों का अंगोछा खरहरी जमीन पर बिछाकर और एक-दूसरे को टेककर सूरज के ढलने तक बतियाते रहते कि 'चन्द सालों में ही हम अपने गाँव का नक्शा बदल देंगे'.....'कि हमारे गाँव का धधकता लिलार देखकर बड़े-बड़े सनातनी बांभन भी इसको चमरौटी कहने से बाज आएंगे'.....'कि हमारे गाँव की कीरत दूर-दूर फैलेगी' आदि-आदि। तब, बिरजू का सीना गुरूर से चौड़ा हो जाता और वह एकदम से चिल्लपों करने लगता-'हल्कू भइया, देख लेना, हम मिलजुलकर अपने जीवट और मेनहत से अपन गांव में सरग उतार लाएंगे......'<br />
<br />
<br />
पता नहीं क्या सोचकर हल्देव सत्यार्थी ने गाँववालों की महत्तवाकांक्षाओं को इस तरह एड़ लगाई कि वह फुर्र-फुर्र उड़कर आसमान छूने लगी? वह उन्हें दिवास्वप्न दिखाकर उनकी इच्छाओं को पंख लगा देते। ऐसे मे, खासकर नौजवान बढ़-चढ़कर बातें करने लगते। गाँव के बाहर छाती तानकर घूमते। दूसरे गाँव के बड़े लोग भी उन्हें देख, कतरा जाते। विधायक के गाँव के लौंडों से लफड़ा कौन मोल ले? हल्कू पासवान अब कोई मामूली आदमी नहीं रहा। बड़ा आदमी बन गया है। नाम बदलकर हल्देव सत्यार्थी बन गया है। टुटपुंजिया नेता नहीं, राजनेता बन गया है। कितने बाबूसाहब भी उसकी पैलगी करने से नहीं चूकते!<br />
<br />
<br />
जब यशस्वी सत्यार्थी जी पर कुबेर की दयादृष्टि पड़ी तो उनके तेवर बदलने लगे। आदमी के स्वभाव को समय नहीं बदलता, उसकी उपलब्धियाँ उसे बदलने लगती हैं। जिस बूढ़े बौने का कद अचानक बढ़ने लगे, उसे सारी दुनिया ही ठिगनी दिखने लगती है। उन्होंने गाँव में अपने झोपड़ मकान के स्थान पर ऐसी कोठी खड़ी की कि इसकी चर्चा से दूर-दराज के हवेलीनुमा मकानों की आँखें भी चौंधिया गईं। कोठी के परिसर में पक्का तालाब खुदवाया और तालाब के चारो ओर रंग-बिरंगे फूल-पौधे लगवाए ताकि वह जलक्रीड़ा करके सीधे फूलों से रू्-ब-रू् हो सकें। फिर, कोठी की रौनक में चार-चाँद लगाने की गरज से अपनी हैसियत के मुताबिक एक चमचमाती कार खरीदी। प्रवेशद्वार पर पहाड़ी संतरी तैनात किया। कोठी से मुख्य मार्ग तक पक्का रास्ता बनवाया ताकि उनकी गाड़ी ऊबड़-खाबड़ रास्ते से चलते हुए हिचकोले न खाए।<br />
<br />
<br />
एक दिन जब वह टेलीफोन पर मुख्यमंत्रीजी से गुफ्तगू कर रहे थे तो उन्हें एकबैक एहसास हुआ कि वह बहुत बड़े हो गए हैं। सो, उन्हें आम आदमी और खासकर अपने वाहियात गाँववालों से एक मुनासिब दूरी बनाए रखनी चाहिए। वह गंभीरता से आत्ममंथन करने लगे और बड़ा बनने की कवायद में उन्होंने पहले गंवई बच्चों की उपेक्षा की, फिर अपने दोस्तों की और उसके बाद बुजुर्गों की।<br />
<br />
<br />
गाँववालों की यह बात बेहद अखर गई थी कि हल्कू भइया ने एमेल्ले बनते ही अपना नाम बदलकर हल्देव सत्यार्थी क्यों रख लिया। लेकिन जब वह कुछ समय बाद गाँववालों से मुंह चुराने लगे तो सभी भांप गए कि कुछ दाल में काला जरूर है। बिरजू ने मन ही मन कहा - 'हमारी ही बिरादरी का मनई हमीं से भेदभाव करता है। हमारे बच्चों की हिकारत करता है। बड़े-बुजुर्गों से कतराकर उनकी तौहीन करता है। स्साला देश का नेता बनते ही आसमान में उड़ने लगा। हमसे ऐसे परहेज करता है जैसेकि वह बांभन हो और हमलोग चमार।'<br />
<br />
<br />
चुनांचे, सत्यार्थीजी को जो बात सबसे बेहूदी लगी थी, वह थी - गाँववालों का सामूहिक बौद्धीकरण। दूसरे, जो आदमी आँखों की किरकिरी बना हुआ था, वह था - बिरजू, जो गेरूआ लबादा पहन, मूड़मुड़ाकर खांटी बौद्ध बनने की नौटंकी कर रहा था और लोकप्रियता में उन्हें खुल्लमखुल्ला चुनौती दे रहा था। उन्हें इस बात का बड़ा कोफ्त हो रहा था कि बिरजू ने गांववालों के सामूहिक बौद्धीकरण में शत-प्रतिशत सफलता हासिल करके गाँव के पालिटिक्स में बाजी मार ली है। इसलिए, सियासी उसूलों के मुताबिक रास्ते के ऐसे काँटे को दरकिनार करना ही फायदेमंद होगा। क्योंकि छोटे लोगों में सामाजिक जागरूकता शीघ्र ही राजनीतिक जागरूकता में तब्दील हो जाती है। अत: उनकी बिरजू से व्यक्तिगत स्पर्धा ही उनकी बौद्धधर्म के प्रति नफरत की इकलौती वज़ह बनी।<br />
<br />
<br />
हल्देव के व्यक्तित्व में एक भारी बदलाव यह आया था कि वह स्वर्गीय धनीराम मिसिर की मुक्त कंठ से प्रशंसा करने लगे थे। वह मन से मान चुके थे कि मिसिर जी के ही अदम्य संघर्ष के बदौलत मुसहरों का एक मामूली-सा टोला अंबेडकर गांव में परिणत हुआ और नीच जाति के उपेक्षित लोग सामाजिक स्वीकृति और सम्मान के पात्र बने। बेशक, गाँववालों द्वारा ऐसे आदर्शवादी व्यक्ति की सपरिवार जलाकर हत्या किया जाना बड़ी शर्मनाक घटना थी। उनके घर को हवनकुंड बनाने में बच्चे-बूढ़े, सभी ने योगदान किया था। अर्धरात्रि तक सभी ने नाच-नाचकर, समवेत 'अरे, ओ बुड़भक बंभना......अरे, ओ बुड़भक बंभना' गाया था। सभी ने ठर्रा चढ़ाया था, मूस भुन-भुन खाया था। उस वक्त, हल्कू तो नासमझ लौंडा था। उस उम्र में होश कहाँ रहता है? बस, जोश ही जोश रहता है। उस पर तो सिर्फ माहौल में छा जाने का जुनून सवार था। बेशक, अगर बड़े-बुजुर्गों ने कोई एतराज या रोक-टोक किया होता तो मिसिर परिवार अग्नि की खुराक कभी नहीं बनता।<br />
<br />
<br />
हल्देव सत्यार्थी, स्वर्गीय धनीराम मिसिर के भक्त बन गए। जब वह गाँव में होते तो तड़के विधिवत् नहा-धोकर मिसिरजी के शहीद स्मारक में उपस्थित होते, मिसिरजी की आदमकद प्रतिमा पर माला-फूल चढ़ाते और कम से कम बीस मिनट तक आँख मूदकर प्रार्थना करते। वापस लौटने से पहले वहाँ तैनात गार्ड को हिदायत देते कि पंडिज्जी की मूरत को झाड़-पोंछकर साफ रखना.....कि फूल-पौधों को सुबह-शाम पानी देते रहना.......कि गाँव के लहेड़े लौंडों को पार्क में फटकने मत देना......वगैरह, वगैरह।<br />
<br />
<br />
लोग सत्यार्थीजी के पाखंड को देख, हैरान रहने लगे कि उनकी ही बिरादरी का एक गंवई छोरा जब बड़ा होकर खुशकिस्मती से नेता और विधायक बनेगा तो वह ब्राह्मणों का पिट्टू बन जाएगा। लेकिन कोई उनसे शिकायत करने की हिम्मत नहीं जुटा सका। एक दिन तो गांववालों की जुबान पर लगा ताला एकबैक खुल गया जबकि उन्होंने अखबार में यह खबर पढ़ी कि सत्यार्थी जी का राजधानी में सहजा पांडे नामक किसी लड़की के साथ प्रेम-प्रपंच चल रहा है। उस समय सत्यार्थी जी विधानसभा अधिवेशन में व्यस्त चल रहे थे।<br />
<br />
<br />
उन्हें नीचा दिखाने का एक बढ़िया मुद्दा बिरजू के हाथ लगा। वह चट पंचायत बैठांकर सत्यार्थीजी को कटघरे में खड़ा करने का तिकड़म भिड़ाने लगा। उसने ग्रामप्रधान लखई बाबा के खूब कान भरे और भिक्खू चच्चा की जी-भरकर चम्पी-मालिश की। फिर, भूतपूर्व विधायक धनेसर पासवान के गाँव जाकर उन्हें उनके भांजे यानी हल्देव सत्यार्थी के खिलाफ बरगलाने में अपनी सारी शक्ति लगा दी। जैसे-जैसे बिरजू, धनेसर का कान पकाने में सफल होता गया, वैसे-वैसे वह गरम से गरम होते गए। जब वह एकदम आग-बबूला हो गए तो बिरजू आश्वस्त होकर और उन्हें पंचायत में हाजिर होने की कसम खिलाकर चैन की नींद सोने चला गया।<br />
<br />
<br />
धनेसर बिस्तर पर लेटे-लेटे गुस्से में पागल हुए जा रहे थे। उन्होंने ही अपने भांजे यानी हल्देव सत्यार्थी की शादी अपने दूर के रिश्ते की एक लड़की-मीना से कराई थी। ऐसी सुलक्षणा लड़की पूरे मुसहर समाज में नहीं मिलने वाली थी। हाईस्कूल पास थी और फर्राटेदार बोलती थी। अंगरेजी के शब्द भी पिटर-पिटर चुबलाती थी -- जैसेकि खीर में काजू-पिस्ता-बादाम। हल्देव की माई-परबतिया तो मीना की काबलियत और चिकनी--चुपड़ी सूरत देखते ही उस पर लट्टू हो गई थी। उसने तो हल्कू की 'हाँ' पूछे बगैर ही इस प्रस्ताव पर हामी भर दी थी।<br />
<br />
<br />
यों भी, परबतिया अपने बेटे के ब्याह को लेकर चिंता में घुल-घुलकर चिचुकती जा रही थी। हल्कू के यार-दोस्त उसके कान भर जाते थे कि हल्कू दूसरे गाँवों के ब्राहमण, कायस्थ और ठाकुर की लौंडियों के पीछे मंडराता फिरता है। कालेज के गेट पर अपना अड्डा जमाए रहता है और आने-जाने वाली सुघड़ छोरियों पर इश्क के डोरे डालता रहता है। ऐसे में परबतिया के भाई--धनेसर ने मीना का प्रस्ताव लाकर उस पर बड़ा भारी उपकार किया था। आखिर, विधवा औरत का सहारा तो उसका सगा भाई ही होगा! उसने अपने मनचले बेटे से कोई उल्टा-सीधा होने से पहल ही उसके पैर में बेड़ी डाल दी। ब्याह के दिन तक हल्कू शादी करने से ना-नुकर करता रहा। लेकिन, बड़े-बुजुर्गों के हठ के आगे उसकी एक न चली।<br />
<br />
<br />
ब्याह के बाद हल्कू ने धनेसर मामा से जो मंुह फुलाया, वह अंततोगत्वा दुश्मनी में तब्दील हो गया। भांजा अपने ही मामा की खिलाफत करने लगा। शुरू-शुरू में धनेसर उसे अनाड़ी लौंडा समझकर समझाता-बुझाता रहा कि अपने मामा से खुन्दक मोल लेकर उसका नुकसान ही होगा। आखिर में, उसे अपने मामा के नक्शे-कदम पर चलकर ही राजधानी की राह पकड़नी होगी।<br />
<br />
<br />
हल्कू तो उसी दिन से पालिटिक्स खेलने लगा था जिस दिन उसने धनीराम मिसिर को सपरिवार अग्निदेव की बलि चढ़ाकर गांववालों से अपनी पीठ थपथपवाई थी। लोग कितने खुश थे कि हल्कू ने उनके पुश्तैनी दुश्मन अर्थात् ब्राहमणजाति के एक समूचे खानदान को खाक़ में मिलाकर उनके अहं को पोषित किया था। उनकी निगाहों में हल्कू एक जादू की तरह चढ़ गया था। उसके बाद से हल्कू ने अपनी औकात को भुनाना शुरू किया। स्थानीय नेतागिरी से उसे क्या हासिल होने वाला था? उसने अपने ही मामा--विधायक धनेसर को खुलेआम ललकारना शुरू किया।<br />
<br />
<br />
इस दरमियान, समय अपनी स्वाभाविक गति से कुछ अधिक तेज भाग रहा था। इधर हल्देव और धनेसर के बीच शीतयुद्ध चल रहा था उधर विधानसभा चुनाव सिर पर मंडराने लगा। तब, दोनों में पारिवारिक दुराव राजनीतिक द्वंद्व के रूप में मुखर हुआ। धनेसर को दलित मोर्चे से चुनाव लड़ने का टिकट मिला जबकि राजनीतिक कैरियर की शुरूआत करने वाले हल्देव को सवर्ण पार्टी से टिकट मिला। हल्देव अपने ही मामा के खिलाफ ताल ठोंककर भिड़ गए। गाँववाले आश्चर्य में डूब गए। पर, हल्देव ने उनकी आँखों पर सम्मोहिनी का परदा डाल दिया। दरवाजे-दरवाजे जाकर उनसे यह कहा कि हमारा मकसद तो हुकूमत में हिस्सेदारी करना है। जब हमें पावर मिलेगा तो हम समूचे देश तक का अंबेडरीकरण करने में नहीं हिचकेंगे। जो लुच्चे-लफंगे नेता पार्कों और सड़कों का अंबेडरीकरण करके ही फूले नहीं समा रहे हैं, उन्हें भी हम दिन में तारे दिखा देंगे।<br />
<br />
<br />
गांववाले उसकी बातों पर अंधा विश्वास करके उसे चुनाव जिताने के लिए कमर कसकर भूखे-प्यासे जुट गए। दूरदराज के दीयरों में जा-जाकर लोगों से निष्ठा व ईमानदारी से हल्कू भइया के लिए वोट मांगे। फलस्वरूप, उनकी मेहनत रंग लाई। लगातार तीन-तीन बार विधायक चुने गए धनेसर पासवान चारो खाना चित हो गए। उन्होंने अपने ही भांजे से ऐसी शिकस्त खाई कि उनकी जमानत ज़ब्त हो गई। हल्कू की जीत की खुशी में गांववालों ने बिना होली के रंग खेले और बिना दीवाली के अपने घरों में दीए जलाए।<br />
<br />
<br />
गांववाले हल्देव सत्यार्थी के लिए की गई अपनी मेहनत-मशक्कत को कैसे भूलते? वे सोच-सोचकर उबाल खा रहे थे कि जिस शख्श के लिए उन्होंने इतना कुछ किया उसने ही उनकी ख्वाहिशों का गला घोंट दिया। हल्कू तो रंग बदलने में गिरगिट से भी ज़्यादा माहिर निकला।<br />
<br />
<br />
हल्देव सत्यार्थी के खिलाफ पंचायत बैठ ही गई। गांव के रिवाज़ के मुताबिक, आदमी कितना ही बड़ा हो, अगर उसने अपराध किया है तो उसे पंचायत में उपस्थित होकर न केवल पंचों की बात सुननी होगी बल्कि सरपंच के फैसले को पूरा सम्मान भी देना होगा। हल्देव ने गांववालों की निगाह में संगीन जुर्म किया था। एक ब्याहता के रहते हुए, एक दूसरी औरत और वह भी 'कुजात' औरत से नाजायज संबंध बनाए थे। बिरजू ने भरी भीड़ में हल्देव पर दोषारोपण किया। मीना की तरफदारी की, जिसने अपने मर्द की बेवफाई पर छाती पीट-पीटकर सिर पर आसमान उठा लिया। हल्देव के साथ आईंदा जिंदगी न गुजारने के लिए चिल्ला-चिल्लाकर अपने पुरखों की कसम खाने लगी। पंचों द्वारा गरमजोशी से किए गए जिरह और पूछताछ में सत्यार्थी जी को जोरदार पटकनी मिली। जब तमाम सबूतों और गवाहों के मद्देनजर उन्हें सहजा पांडे के साथ अपने संबंध स्वीकार करने पड़े तब माहौल में खुशी की लहर फैल गई। सरपंच भिक्खू पासवान ने अपना फैसला नंबरवार सुनाया।<br />
<br />
<br />
"नंबर एक, हल्देव, वल्द खुरपन पाशवान ने एक लुगाई के रहते दूसरी मेहरारू से टाँका भिड़ाया है; मतलब हमारे शमाज के खलाफ शंगीन जुरम किया है। नंबर दो, उशकी लुगाई खुद उसके शंग जिनगी बशर करने शे मना करत है; शो, उशको त्याजने के बाद भी हल्देव ओके खाना-खर्चा देगा। ये हमारे कुटुम का रिवाज़ है। नंबर तीन, हल्देव ने कुजात में इशक लड़ाकर हमारे जात का इनशलट किया है। अगर ऊ कुजात की मउगी से ब्याह रचाएगा ता हम ओके अपने शमाज में हिलने-मिलने नहीं देंगे। नंबर चार, हल्देव को अपनी दूशरी मउगी को दिन में गांव में लाने का परमीशन नईं होगा -- इशशे हमारे छोरों पर खराब परभाव पड़ेगा। शो, वह अपनी मेहरारू को रात को लाएगा और रात को ही कहीं भाहर ले जाएगा......"<br />
<br />
<br />
जब पंचों ने सरपंच का फैसला स्वीकार कर लिया तो भीड़ ने भी खुशी से चीत्कार कर हल्देव को दी गई सजा पर अपनी सहमति दी। उसके बाद हल्देव और मीना में वैवाहिक संबंध तोड़ने की रश्म अदा की गई। राख भुरभुराकर एक वृत्त बनाया गया और हल्देव व मीना को आमने-सामने खड़ा करवाया गया। उनसे एक पुरानी धोती के दोनों छोर पकड़वाकर खिंचवाया गया। जब धोती दो फांक में हो गई तो मीना ने एक बंधी पोटली में सिंदूरदानी और कांच की चूड़ियां हल्देव के सुपुर्द किया। तत्पश्चात् उनमें विवाह-विच्छेद लागू हो गया।<br />
<br />
<br />
गांववालों के सामने जलील होकर हल्देव सत्यार्थी ने सारी रात गुस्से में दाँत किटकिटाकर और दीवारों से बड़बड़ाकर गुजारी। प्रतिशोध में उनके बाजू फड़कते रहे, मुट्ठियां बंधी रहीं। रतौंधी से ग्रस्त उसकी माँ--परबतिया ने उनके हाथ-पैर टटोल-टटोलकर ढाँढस बंधाया। वह कर भी क्या सकती थी? जब मीना ने ही उसके बेटे के साथ रहने से इनकार कर दिया तो वह अपने नालायक बेटे को डाँट-फटकार कर उसका जीना और भी दूभर तो नहीं करेगी। आखिर, उसका बेटा बड़ा आदमी बन गया है। अफसरों का अफसर बन गया है। बड़े-बड़े हाकिम आकर उसे सलूट मारते हैं। शायद, बड़े आदमी ऐसे ही औरत बदलते हैं। वह अन्तर्द्वंद्व से विचलित थी। पर, अब उसे अपने बेटे के दुर्गुणों से भी प्यार हो गया है। उसने ही तो उसे एक बड़े आदमी की माँ होने का गौरव प्रदान किया है।<br />
<br />
<br />
गाँव में बस एक ही घर हिंदू का रह गया था। विधायक सत्यार्थीजी का। शेष सभी घर बौद्ध बन गए थे। गाँववालों को मिसिर पार्क में शहीद धनीराम की प्रतिमा से भी बेहद गुरेज था। जब भी चार जने इकट्ठे होते तो इन दो विषयों पर चर्चा छिड़ जाती। बिरजू तो एकदम से फट पड़ता -- "जब अंबेडकर बाबा अपनी महारि जात से तौबा करके बुधबाबा बन गए थे तो इ हरामी हल्देउवा को बुधबाबा बनने से क्यों एतराज है....." सभी को उसकी बात जायज लगती। वे सिर हिलाते और हाँ में हाँ मिलाते। लेकिन, जब कोई शरारती लौंडा हल्देव को 'मिसिर भगत' कहकर बिरजू को छेड़ देता तो वह गुस्से में काफूर हो जाता। "अगर आज मिसिरवा जिन्दा होता तो उसका सिर मुड़ाकर, पहले ददरी मेला में मरकटहा गदहा पर घुमाते, फिर तबियत से उसे बुधबाबा बनाते....."<br />
<br />
<br />
एक दिन बिरजू के दिमाग में शैतान बैठ गया -- "चलो, मिसिर की मूरती को गेरूआ लबादा पेन्हा के उसको बुधबाबा बनाने का डरामा खेलें। हल्देउवा पिनपिना के लाल-पीला हो जाएगा, बड़ा मजा आएगा। देखें, उ ससुरा क्या करता है....." वहाँ मौजूद बुजुर्गों में लल्लन ने उसे तत्काल घुड़का -- "बड़ा बुरा नतीजा भोगना पड़ेगा। सत्यार्थी विधायक के गुंडे तोहें जिंदा कबर में गाड़ देंगे। दीवान और थानेदार उसके सामने लट्टू सरीखा नाचते हैं....." पर, ढीठ बिरजू कहाँ मानने वाला था? उसने अपने कुछ चेले-चपाड़ों की मदद से अपनी योजना को रातों-रात अमली जामा पहनाया।<br />
<br />
<br />
सुबह हंगामा खड़ा हो गया। सत्यार्थी जी के लिए यह घटना चुनौतीपूर्ण थी। उन्होंने पुलिस को फौरन इत्तला किया। पुलिस ने आते ही पार्क को घेर लिया और संतरी को एक झाड़ी में से बरामद किया। जब उसके बंधे हाथ-पैर खोले गए और ठूंसे हुए कपड़े मुंह में से निकाले गए तो उसने रात को पार्क में आए उपद्रवियों को नकाबपोश बताकर अपना पिंड छुड़ाया। बिरजू की जान से मारे जाने की धमकी के चलते ही उसने यह झूठ बोला था। पुलिस को किसी ठोस सबूत के अभाव में कोई धर-पकड़ किए बगैर वापस लौटना पड़ा। हल्देव मुंह ताकते रह गए। हाथ मलने के सिवाय कोई और चारा भी नहीं था। लिहाजा, उनकी विधायकी को बड़ी शर्मींदगी ळोलनी पड़ी।<br />
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विधायक हल्देव सत्यार्थी की दशा कमोवेश मिसिरजी जैसी हो रही थी। गाँव के पैदाइशी मुसहर होकर भी उन्हें मुसहर समाज से अलग समझा जाता था। जब वह सहजा पांडे को बतौर बीवी अपनी कोठी में रखने लगे तो गाँववाले उनसे और भी कुढ़ने लगे। वे लुक-छिपकर उनके खिलाफ पंचायतबाजी करते। बिरजू तो उन्हें हमेशा पंचायत में घसीटने के फिराक में रहता। लेकिन, वह इस बात से एकदम गाफिल था कि वह खुद एक बड़े लफड़े में फंसने जा रहा है।<br />
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उस दिन सूरज अंगारा होकर, सिर पर दनादन धूप का हथौड़ा चला रहा था। यकायक, एक पुलिस की जीप धड़धड़ाती हुई गाँव में दाखिल होकर बिरजू की मड़ई के ठीक सामने धांय से आकर रूकी। गाँववालों को बड़ा अचंभा हुआ कि बिरजू को बलात्कार के मामले में गिरफ्तार कर लिया गया है। किसी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ जबकि उन्होंने यह सुना कि बिरजू ने बम्हरौली गाँव की मधु मिश्रा का बलात्कार तब किया जबकि वह साँझ ढले शौच के लिए जा रही थी। लेकिन, जब बिरजू के खिलाफ जुर्म साबित हो गया तब सभी उसे अपराधी मानने लगे। उसके रोने-गाने पर भिक्खू ने तत्काल ताना कसा - "सत्तर चूहा खाय के बिलरी चली हज करने......" उसके माँ-बाप ने किन-किन हाकिमों के आगे अपनी नाक नहीं रगड़ी कि 'हमारे बुड़भक बबुआ को जानबूझकर फंसाया गया है।' लाचार होकर जब वे हल्देव जी के सामने जाकर उनके पैरों पर साष्टांग गिर पड़े तो उन्होंने हँसकर कहा -- "मामला हाथ से निकल गया है। बहुत देर हो गयी है। अब हम कुछ नहीं कर सकते।" <br />
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सत्यार्थीजी मन ही मन बाग-बाग हो रहे थे क्योंकि पंचायत में उनकी पगड़ी उतारने वाला बिरजू जेल की हवा खा रहा था। अगर उसे यह अंजाम पता होता तो वह उनसे कत्तई झगड़ा मोल नहीं लेता। अपने सगे मामा तक को तो उन्होंने बख्शा नहीं। बड़ी पहँुच वाले एमेल्ले थे। फिर, बिरजू किस खेत की मूली है?<br />
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बिरजू के खुराफाती दोस्तों को उसकी गैर-मौजूदगी बेहद नागवार लग रही थी। उनका मानना था कि चाहे कुछ भी हो बिरजू किसी लौंडिया का बलात्कार नहीं कर सकता। उसे लौंडियों के चक्कर में पड़ते कभी नहीं देखा गया। लौंडियाबाज तो हल्कू था। अपने लड़कपन में उसने क्या-क्या गुल नहीं खिलाए थे? तभी तो उसका जबरन ब्याह कराया गया था। इसलिये, यह बात तो बिल्कुल साफ है कि बिरजू को फंसाया गया है। और फंसाने वाला कोई और नहीं खुद विधायक जी हैं।<br />
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जब यह बात गांव के बुजुर्गों के कान में पड़ी तब वे सच्चाई के तह में जाने के लिए बेचैन हो उठे। एक दिन उनके शुबहा पर सच का ठप्पा तब लगा जबकि कुछ गांववालों ने बम्हरौली गांव की मधु मिश्रा को तहसील में सत्यार्थीजी के साथ विहंस-विहंस अंतरंग बातों में मशगूल देखा। उसके बाद सभी की जुबान पर बस यही प्रश्न था - क्या दोनों ने सांठगांठ कर बिरजू के खिलाफ कोई साजिश रची थी? क्या फर्जी केस में फंसाकर बिरजू को जेल की चक्की पीसने के लिए मजबूर किया गया है? <br />
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सत्यार्थीजी के खिलाफ बगावत का बयार बहने लगा। बुजुर्गों ने विचार-विमर्श करके यह फैसला किया कि सत्यार्थीजी को फिर पंचायत के कटघरे में खड़ा किया जाए। सारा गाँव उन पर नजर रखने लगा कि वह उनके रश्मो-रिवाज़ के खिलाफ कुछ अनापशनाप करें और फिर उनके सिर नाजायज़ हरकत करने का दोष मढ़ा जाए। अब तक उनकी जान इसलिए बख्शी गई थी क्योकि वह उन्हीं की मिट्टी में पले-बढ़े थे। लेकिन, वह भी बड़े फंूक-फूंककर कदम रख रहे थे। उन्हें गांववालों की नाराज़गी का पूरा एहसास था। जब से उन्होंने मीना का परित्याग किया था तब से वह पंचायती फैसले के एक-एक लफ्ज़ पर अमल कर रहे थे। गांव में रहकर भी घूमने-फिरने से परहेज कर रहे थे। घरेलू नौकर शिउवा सिंह तक को हिदायत दे रखी थी कि वह साग-सब्जी की खरीदारी भी गाँव की दुकानों से न करे। यह सब कोई चूक होने से बचने के लिए किया जा रहा था। यों भी, वह गाँववालों से सख्ती से नहीं निपटना चाहते थे क्योंकि एक तो वे संगठित थे दूसरे, वह अगले चुनाव के मद्देनजर अलोकप्रिय होने के भय से सहमे हुए थे। नि:संदेह, अगला चुनाव आसन्न था। <br />
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पर, होनी को कैसे टाला जा सकता है? एक शाम गाँव में दाखिल होते समय उनकी कार की ब्रेक फेल हो गई और वह सामने पार्क को रौंदते हुए अंबेडकर की प्रतिमा से जा टकराई। सत्यार्थी जी ने ड्राइवर की चेतावनी मिलते ही कूदकर अपनी जान बचा ली और ड्राइवर ने भी समय रहते छलांग लगा ली। लेकिन, कार की भीषण टक्कर से प्रतिमा चूर-चूर होकर धराशायी हो गई। लल्लन ने सबसे पहले घटनास्थल पर आकर तानाजनी की -- "बांभन की मेहरारू ब्याह के हरामजादे पर बांभन होने का झख सवार हो गया है......" उसने चिल्ला-चिल्लाकर गाँव को सिर पर उठा लिया। लोगबाग धमाकेदार टक्कर के बाद छाए घुप्प सन्नाटे से आतंकित होकर वहाँ एकत्रित होने लगे। सत्यार्थी जी अपनी क्षतिग्रस्त कार के पास अपनी चोट सहलाते हुए अपराधी की भाँति सिर झुकाए खड़े थे। जब कौतुक भीड़ आपस में घटना की जानकारी ले रही थी, तभी भिक्खू आगे आकर एकदम से चींखने लगा -- "तोड़ दिया, अंबेडकर बाबा की मूरती का कबाड़ा कर दिया। इ ससुरा बांभन का पिट्टू बन गया है। बरहम हत्या करके ब्रह्मन की पूजा करते है। तुम सबजने जान लो इसने बदला लिया है, मिसिर को बुधबाबा बनाने का बदला.....इ अंबेडकर बाबा को मटियामेट करने का काम जानबूझकर किया है....."<br />
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अंबेडकर की अंधभक्त बन चुकी भीड़ गुस्से में पागल हो रही थी। ऐसा आवेश दूसरी बार देखा गया था। उस स्थान से कुछ ही दूर पर मिसिरजी का खपरैल मकान था जो जातीय द्वेष के कारण अग्निदेव की खुराक बन गया था। उस वक्त, हल्कू यानी वर्तमान सत्यार्थी जी उस जातीय उन्माद के पोषक थे। मुसहर समाज के हिमायती और सवर्णों के जानी दुश्मन थे।<br />
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लखई मुसहर ने दोनों हाथ उठाकर भिक्खू को शांत किया।<br />
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"सत्यार्थी ने अंबेडकर बाबा की मूरती को धूर में मिलाके बहुत बुरा किया है। हम सब इसकी सजा देंगे। सत्यार्थी होंगे बहुत बड़े हाकिम। राजा होंगे। सरकार होंगे। गुंडे और पुलिस को नचाते होंगे। पर, उन्हें हमारे पंचायत के सामने जवाब देना पड़ेगा। किसी को दखल नहीं करने देंगे......."<br />
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लल्लन गुर्राकर जवान लौंडों को ललकारने लगे, "अरे, मुस्टंडों देखत क्या हो? धर लो सत्यार्थी को। कहीं भागने न पाए। कल, सुबेरे-सुबेरे इ हरामखोर को पंचायत में तलब करो।"<br />
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सत्यार्थीजी उन्हें आँखें लालकर डराते-धमकाते रहे। कानून और सरकार की दुहाई देते रहे। पर, लौंडों की दमदार बांहों में जकड़कर बेबस हो गए। उन्हें धकिया-घसीटकर उन्हीं की कोठी में कैद कर दिया गया। बाहर भीड़ मुस्तैद होकर चारो ओर चौकसी करने लगी। उनके निकास की नाकाबंदी कर दी गई। कुछ बदमाशों ने लल्लन के इशारे पर सत्यार्थी जी के टेलीफोन का कनेक्शन और बिजली की लाइन काट दी। उन्होंने जैसे ही पुलिस को बुलाने के लिए चोंगा कान से लगाया, वह समझ गए कि गंवार मुसहर कितने चालाक हो गए हैं। उन्होंने पसीना पोछा और नौकर को आवाज लगाई -- "शिउवा, पंखा चला और बलफ जला," तो वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया -- "सरकार, इन लुच्चों ने बिजुरी का तार भी खैंच के तोर दिया है।"<br />
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सत्यार्थीजी माथा पकड़कर बैठ गए। इतिहास स्वयं को दोहरा रहा था। नौ साल पहले उन्होंने धनीराम मिसिर को सपरिवार जलाने के पहले उनके ही घर में कैद कर दिया था। अब, वही घटना उनके साथ भी घटित होने जा रही है। पर, उन्होंने यह सोचकर राहत की साँस ली कि कुछ भी हो जाए, उनके अपने ही समुदाय के लोग उन्हें जिन्दा नहीं जलाएंगे। अभी कल पंचायत के फैसले के बाद ही किसी नतीजे पर पहुँचा जा सकेगा। तब तक वह कोई रास्ता ढूंढ ही लेंगे। उन्होंने अपनी रोती हुई माँ को डाँट लगाई -- "गाँववाले हमारी एक झाँट तक नहीं उपार सकते" और वह रात भर सहजा पांडे के साथ बिस्तरे में लेटे-लेटे सोच-विचार में डूबे रहे।<br />
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दूसरे दिन, सुबह की धूप की मिठास जल्दी ही गायब हो गई। आठ बजे ही धूप की तपिश से सिर चटकने लगा। पंचायत जाते हुए सत्यार्थी जी मुख्य रास्ते पर टकटकी लगाए हुए थे कि शायद कोई मुलाकाती संयोग से उनसे मिलने आ जाए और उनकी दुर्दशा के बारे में पुलिस को इत्तला कर गाँववालों की बर्बरता को सार्वजनिक कर दे। लेकिन, उन्हें क्या मालूम था कि उनसे मिलने आने वाले हर आदमी को पहले ही रोककर यह कह दिया जाता था कि सत्यार्थीजी को अचानक लखनऊ जाना पड़ा -- मुख्यमंत्री जी से जरूरी मीटिंग करने।<br />
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साढ़े आठ बजे पंचायत लग गई। गाँव की सारी भीड़ उमड़ पड़ी थी -- केवल यह देखने-सुनने के लिए कि उनके साथ दग़ा करने वाले के साथ कैसा सलूक किया जाता है। आस्तीन के सांप को कैसे कुचला जाता है। भीड़ कर्णभेदी गुहार कर रही थी कि उनके देवता की प्रतिमा तोड़ने वाले को सख़्त से सख़्त सजा दी जाए।<br />
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लल्लन ने दर्पपूर्वक अपनी पगड़ी पर हाथ फेरते हुए कहा -- "अब आया है ऊँट पहाड़ के नीचे। इसने हमारे साथ धोखा पर धोखा किया है। पहले इ बांभनों की पार्टी से विधायक बना, हमने कुछ नहीं कहा। मिसिरवा के नाम से शहीद पारक बनवाया, हम मुंह सीए बैठे रहे। मिसिर को देउता मानके पूजने लगा, हम कहे कि जाय दो, इ नादान बबुआ है। लेकिन, जब अपनी महरारू को तजके बांभन की छोरी ब्याह लाया तब हमारे सीने पर साँप लोटने लगा। तब भी, हम कहे कि चलो, इ लौंडे को हमी जने जमाए हैं, इसको माफी दे दो। लेकिन, अब इ हरामखोर ने हमारे देउता को धूल चटाया है। इसलिए, हम इसे नहीं बख्शेंगे। कोई मामूली सजा नहीं देंगे। सपोले को पोसके अपने पैर कुल्हाड़ी नहीं मारेंगे। यह हमारे बस की बात नहीं है।"<br />
<br />
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भीड़ की बेतहाशा चिल्लाहट में लल्लन की आवाज डूब गई।<br />
".......हाँ-हाँ, इसके जुर्म की सजा मौत है........"<br />
<br />
".......इसे जिन्दा जला दो........"<br />
<br />
".......कुकरों से नोचना-नोचवाकर खिला दो........"<br />
<br />
".......पत्थर से बाँध के इनार में गिरा दो........"<br />
<br />
".......पेड़ से लटका के फाँसी दे दो; गीध, चील और बाज से नोच-नोचकर खिला दो........"<br />
<br />
<br />
सत्यार्थी जी एक तो चिलचिलाती धूप से, दूसरे डर के मारे दोगुने बहने वाले पसीने से नहा रहे थे। नौजवान लौंडों से घिरे होने के कारण भागने की भी गुस्ताखी नहीं कर सकते थे। अब, उन्हें न चाहते हुए भी मौत का नंगनाच देखना था। वैसे वह लगातार गिड़गिड़ाए जा रहे थे, दया की भीख मांगे जा रहे थे। पर, सभी को उनके खस्ताहाल पर बड़ा मजा आ रहा था। तभी अचानक खामोशी फैल गई। यह क्या? सत्यार्थी जी सरपंच लखई के पैरों से चिपटकर घिघिया रहे थे।<br />
<br />
<br />
लखई ने आँख मारकर कहा "अच्छा तो अब मुजरिम भी कुछ कहना चाहे है। चलो, उसकी भी बात सुन लो। उसकी आखिरी इच्छा पूरी कर दो।"<br />
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<br />
सत्यार्थी जी की आँखों में घड़ों आँसू आ गए। उनकी भर्राई आवाज में ग़ज़ब का आकर्षण पैदा हो गया था।<br />
<br />
<br />
"हाँ, हम अपना कुसूर मानते हैं। हम गुमान में डूबकर अपने को भगवान मानने लगे थे। भूल गए थे कि हम भी मुसहर हैं। हम चाहे गंगासागर नहाएं या काशी में भीख मांग के अपने पाप का प्रायश्चित करें, हम बांभन कभी नहीं बन सकते। मुसहर थे, मुसहर रहेंगे। सिर्फ बांभनी को ब्याहने से कोई बांभन नहीं हो जाता। अरे, आपलोग ये क्यों नहीं समझते कि हमने एक बांभनी को मुसहर बना दिया। उसका धरम भ्रष्ट कर दिया। रही बात धनीराम मिसिर के पूजा करने की, तो इ हमारा राजनीतिक पाखंड है -- जो आप नहीं समळोंगे। इ पाखंड करके ही हम मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनेंगे। इस खातिर हम कभी पंडित बनेंगे तो कभी चमार। हमारा धरम, राजनीति करना है। यही करके हम आपका भला कर सकेंगे......."<br />
<br />
<br />
भिक्खू ने बीच में ही जुबान पकड़ ली -- "लेकिन, बिरजू को फर्जी केश में फंशा के और जेल में शड़ाके उशका क्या भला किया है?"<br />
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<br />
"आप इ बात नहीं समळोंगे, चच्चा। बिरजू के केस में बंभनाइन पर अत्याचार दिखाके औ' बलात्कारी के रूप में बिरजू को जेल पठाके हमने बांभनों की हमदर्दी बटोरी है। इ हमदर्दी को हम अगले चुनाव में भुनाएंगे......" सत्यार्थी जी के आत्मविश्वास से पगे शब्द लोगों के दिल पर असर करने लगे।<br />
<br />
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भिक्खू ने फिर टोका -- "लेकिन, हमारी हमदर्दी तज के तुम कहीं के नहीं रहोगे। विधायक क्या, तुम ग्राम परधान भी नहीं बन पाओगे....."<br />
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<br />
सत्यार्थी जी को एहसास हुआ कि उनके विरोधी नरम होते जा रहे हैं। वह भिक्खू का हाथ थामकर खुशामद करने के मूड में आ गए -- "चच्चा, हम आपकी हमदर्दी नहीं, आपका साथ ले के रहेंगे। क्या आप इ बूझते हैं कि हम कुजात हिंदू बनके आपके साथ रहेंगे? नहीं, नहीं। हम भी बुधबाबा बनेंगें। अंबेडकर बाबा का खांटी चेला बनेंगे। हम पूरी तैयारी करके आए हैं......"<br />
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<br />
सत्यार्थी जी के बौद्ध बनने की घोषणा से भीड़ में एकदम खलबली फैल गई। लोगों के मन में उनके लिए एकबैक मोह पैदा हो गया। सत्यार्थी जी ने पहली बार लोगों के चेहरे पर आँखें गड़ाकर देखा। वे विस्मयपूर्वक उनसे आकर्षित हुए जा रहे थे। उनका उत्साह दोगुना हो गया। उन्होंने आगे कहा --<br />
<br />
<br />
"बिरजू हमारे सगा से भी सगा है। आप क्या समझते हैं कि यह खेल सिरफ मधु मिस्रा औ' हमारे बीच खेला गया था? अरे, नहीं, नहीं। इस खेल में बिरजू भी शामिल था। आपलोग जाके उसी से पूछ लीजिए। अब, देखिए, बिरजू को हम कैसे चुटकी में जेल से छुड़ाके लाते हैं। उ साला हमारे सटेट का कमान सम्हालेगा औ' हम सेंटर की लगाम थामेंगे......"<br />
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<br />
इस बार भिक्खू ने दोबारा प्रश्न नहीं किया। उसे सारी बात समझ में आने लगी थी। लल्लन ने कहा -- "अगर सत्यार्थीजी दो बात पूरा कर दें तो हम उन्हें माफी देके अपने समाज में वापिस रख लेंगे। एक तो, उ बुधबाबा बन जायं; दूसरे, बिरजू को जेल से छुड़ा लायं। अइसा न करने पर, फिर पंचायत बइठेगी औ' फिर से मुकदमा चलेगा। इ बात भी मालूम हो कि हम बड़ा सख़त फैसला देंगे......"<br />
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<br />
जब पंचायत उठी तो लोगों के मन से अपने सत्यार्थीजी के प्रति रोष धुल गया था। वे मन से उनकी प्रशंसा कर रहे थे। वे उन्हें तत्काल गले तो लगा नहीं सकते थे क्योंकि वे अभी-अभी उनकी मौत मांग रहे थे।<br />
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<br />
दोपहर तक अंबेडकर गांव का माहौल बदला-बदला सा था। सहजा पांडे पर से पंचायत की पाबंदी उठा ली गई थी। वह पहली बार बाहर निकलकर गाँव में चुहलकदमी कर रही थी। विधायक जी तो तत्काल लखनऊ रवाना हो गए थे। लेकिन, सहजा पांडे अंबेडकर की दूसरी आदमकद प्रतिमा को यथास्थान प्रतिष्ठापित करने के बंदोबस्त में लगी हुई थी।<br />
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<br />
दूसरे दिन, सत्यार्थीजी के गाँव वापस लौटते ही, लोग हैरत में डूब गए। उनके साथ सचमुच बिरजू था। सत्यार्थीजी राजनीतिक प्रभाव डालकर बिरजू को जेल से रिहा करा लाए थे। उस वक्त, उन्होंने खुद बौद्ध धर्म स्वीकार कर गेरूआ लबादा पहन रखा था। सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि सत्यार्थी जी मिसिरजी की प्रतिमा को अपने हाथों से बौद्ध पोशाक पहना रहे थे। मिसिर स्मारक के प्रवेशद्वार पर पत्थर पर यह सूचना खुदवा दी गई थी कि -- "महान समाजसेवी, श्री धनीराम मिसिर ने अपने अंतिम दिनों में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था।"</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A2%E0%A4%BC_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5965सियासत की बाढ़ / मनोज श्रीवास्तव2011-12-01T07:32:06Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
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<div>'''सियासत की बाढ़'''<br />
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जब मानसून समय से न आए तो फसलों को सूखा रोग लग जाता है और जब असमय आए तो खेत-खलिहानों से लेकर बस्तियों तक जालंधर की बीमारी लग जाती है। पूरे जेठ माह तक आसमान से बारिश का एक कतरा भी नीचे नहीं गिरा। परिणामस्वरूप, आषाढ़ के शुरू होते ही लोग त्राहि-ताहि करने लगे और सरजू नदी के किनारे इकट्ठे होकर इन्द्र देव को रिळााने के लिए सारे उल्टे-सीधे कर्मकांड अपनाने लगे। जब यळ्ा-अनुष्ठान, अखंड रामायण और भजन-कीर्तन से भी इन्द्रदेव का दिल नहीं पसीजा तो पंडित बृजबिहारी ने घोषणा की, "अब तो बरखारानी को रिळााने का बस एक ही उपाय बचा है। पूनम की अर्ध-रात्रि को गाँव के मुखिया की नई-नवेली बहू सरजू में उघारी स्नान करे।"<br />
<br />
बृजबिहारी का यह आखिरी नुस्खा कुछ ही घंटों में बच्चे की जुबान पर था। शोख-मनचले लौंडे इस बात को चुटकियां ले-लेकर कह-सुन रहे थे। रत्नदेव आग-बबूला हो उठे--"अरे, हम ग्राम प्रधान हैं। तो क्या हुआ? अपनी आबरू को नंगा करने का कुव्वत हममें नहीं है। भाड़ में जाए ऐसी प्रधानी। अरे, हम बरखा कराने का कोई ठेका तो नहीं ले रक्खे हैं। यह सब ईश्वर की माया है। हमारे बस में क्या है? कुछ भी नहीं।"<br />
<br />
रत्नदेव का ऐसा कहना स्वाभाविक भी था। अभी उन्हें अपने बेटे प्रकाश का ब्याह रचाए जुम्मे-जुम्मे कितने दिए हुए हैं? बहू के हाथों की मेंहदी के रंग भी फीके नहीं पड़े हैं। कम से कम पहली बार उसके माँ बनने तक तो उसे परदे में ही रखना होगा। फिर, खुले आसमान के नीचे उसे नहाने के लिए विवश करना और वह भी नदी में एकदम नंगी। रत्नदेव के मन में एकबैक उजाला हो गया। वह मन ही मन धार्मिक ढकोसलों को धिक्ारने लगे। सामाजिक पाखंड की बखिया उधेड़ने लगे।<br />
<br />
जब गाँव वाले उनकी प्रतिक्रिया से वाकिफ हुए तो उनमें बढ़ती बेचैनी आंदोलन का रूप लेने लगी। बटुक भैरव के अहाते में इकट्ठी, उत्तेजित भीड़ का बस एक ही फैसला था- अगर ग्राम प्रधान, बृजबिहारी की बात नहीं मानेंगे तो उन्हें गाँव से बहिष्कृत कर दिया जाएगा। राघव तान में आ गया। उसने सिर पर अंगोछा लपेट कर गरदन फुलाते हुए ऐलान किया -'रत्नदेव को अभी हमारे बीच आने को कहो।' आनन-फानन में चार तुनकमिजाज लौंडे ग्राम प्रधान के घर जा धमके। रत्नदेव करते क्या? गाँव का मामला था और गाँव से निकाले जाने की धमकी जो मिली थी। आखिर, अपने पुरखों की जमीन-जायदाद छोड़कर वह जाएंगे कहाँ? भीख तो मांगेंगे नहीं। उँचे खानदान के जो ठहरे। वह भय से सिहर उठे। सो, ग्राम प्रधानी का फर्ज अदा करने के लिए हाजिर होना ही पड़ा।<br />
<br />
अहाते में प्रवेश करते ही उन्होंने बटुक भैरव के मंदिर में अपना मत्था टेकाया - 'हे भैरव बाबा, कुछ भी हो, आप हमारी बहू-बेटी की लाज बचाना।'<br />
<br />
जब उन्होंने भीड़ से नजर मिलाई तो उन्हें वहाँ व्याप्त रोष का पता चल गया। वह अपराधी की भांति सिर ळाुकाए बीचोबीच खड़े हो गए। सवाल अहम था। नष्ट हो रही फसलों तथा पोखरों व कुओं का पानी सूखने के कारण आदमी और मवेशियों के प्यासे मरने का अति मानवीय प्रश्न था।<br />
<br />
पंडित बृजबिहारी रोषपूर्वक अपना जनेऊ खींचते हुए आगे आए- "आपको तो पता ही है कि इन्द्रदेव हमसे कितने कुपित हैं। हम लोग उन्हें मनाने के सारे कर्मकांड करके हार गए हैं। लेकिन, अब हाथ्ं पर हाथ धरे रहने से भी काम नहीं चलेगा। इन्द्रदेव चाहते हैं कि राजा अपने कुनबे की जवान बेटी या पतोहू को पूणिमा की अर्धरात्रि को सरजू में डुबकी लगवाए। चूंकि मुखिया ही गाँव का राजा-सरीखा कर्ता-धर्ता होता है, इसलिए आप ही यह जहमत उठाएं..."<br />
<br />
रत्नदेव ने भैरव देव का ध्यान करते हुए कि -'भगवान, अब हम आपकी शरण हैं', सिर घुमा कर भीड़ पर विहंगम दृष्टि डाली। फिर, खखार घोटते हुए गला साफ किया। "तो आप लोग चाहते हैं कि हम अपनी इज्जत को सरेआम नीलाम करें। अरे, जब सारा यळ्ा-हवन करा के भी कोई नजीजा नहीं निकला तो आप कैसे दावा कर सकते हैं कि उधारी औरत को खुलेआम चाँदनी रात में नहलाने से बरखा हो ही जाएगी।"<br />
<br />
लेकिन, इस समाज-कल्याण के मुद्दे पर सभी की मिली भगत थी। रत्नदेव एकदम अकेले पड़ गए, जैसे हिंसक जानवरों के जंगल में निरीह मेमना। वह भाग कर जाएंगे कहाँ? उन्हें यह धार्मिक नीति तो निभानी ही पड़ेगी। आखिर, गाँव वालों ने ही उन्हें प्रधान की कुर्सी पर बैठाया है। प्रधान की हैसियत से उन्होंने जो भी उल्टा-सीधा किया है, क्या गाँव वालों ने उसे हमेशा मौन सहमति नहीं दी है?<br />
<br />
बृजबिहारी ने कहा, "प्रधान जी हम कैसे बता सकते हैं कि किस कर्मकांड से देवता कब रीळा जाएंगे? कौन-सा कर्मकांड पहले करें और कौन-सा बाद में? अब हम सारे नुस्खे तो आजमा चुके हैं। आखिरी नुस्खा यही बचा है। यानी, यह नुस्खा पहले आजमाया गया होता तो आज सारा गाँव आकंठ जलमग्न होता।"<br />
<br />
उनके आत्मविश्वास-भरे स्वर से रत्नदेव पसीने-पसीने हो गए। उन्होंने पसीने के उफान को अंगोछे से पोछा। चूंकि बृजबिहारी की दलील में दम था, इसलिए उन्होंने पैंतरा बदलना ही उचित समळाा- "पर, क्या यह जरूरी है कि हमारी ही बहू या बेटी को बलि का बकरा बनना पड़ेगा? अरे, गाँव में कितनों के घर नई-नवेली बहुए हैं..."<br />
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"हैं तो क्या हुआ? अरे, आप ठहरे हमारे गाँव के पहले हाकिम। आपको हमारे भले की बात पहले सोचनी चाहिए। क्या आपको नहीं मालूम है कि राजाओं के जमाने में बरखा के लिए राजा-रानी खेत में हल तक चलाते थे? हमें मालूम है कि जो कर्मकांड पंडिज्जी सुळाा रहे हैं, वह पहले भी कई बार आजमाया जा चुका है और प्रजा का मनोरथ भी पूरा हुआ है," राघव जो पहले से ही प्रत्यंचा ताने हुए तीर छोड़ने के लिए बेताब हो रहा था, ने एक ही बार में रत्न सिंह को अवाक कर दिया। वह ऐसी दुविधा में पहले कभी नहीं पउे थे। उन्होंने यह सोच कर जुबान पर ताला लगा लिया कि अगर अब उन्होंने ज्यादा तर्क-कुतर्क किया तो उन्हें गाँव से बहिष्कृत किए जाने की धमकी भी मिलेगी, जैसा कि वह कानाफुसियों से सुनते रहे हैं। गाँव में उनके विरोधियों में गुटबाजी का माहौल तो पहले से ही बना हुआ है। भूतपूर्व प्रधान, ठाकुर जगदंबा हर पल उनका पैर खींचने के फिराक में पड़े रहते हैं।<br />
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रसूल मियां ने रत्नदेव को मनाने की गरज से उनके कंधे पर हाथ रखा। "प्रधान जी, आपके लिए तो यह बड़े फख्र की बात है कि अब आपके हाथों ही गाँव वालों का भला होने वाला है। यकीन कीजिए, गरीबों की दुआ से आपकी बरकत में दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ोत्तरी होगी। हम तो कहते हैं कि इस रसम को अदा करके, आपकी इज्जत में चार-चाँद लग जाएंगे। कौन कहता है कि आपकी बहू की बदनामी होगी? अरे, आपकी बहू तो हमारी भी बिटिया-समान है।"<br />
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रसूल मियां की हौसला आफजाई से रत्नदेव का अड़ियलपन डोल गया। वह भी सोचने लगे कि ऐसे जनहित के सवाल पर पहले उन्हें ही अपना सब कुछ दांव पर लगाना चाहिए। लिहाजा, वह गाँव वालों के खयालात के खिलाफ भी तो नहीं जा सकते हैं। आज उनका परिवार जो भी ऐशो-आराम भोग रहा है। वह सब इस प्रधानी की बदौलत ही तो संभव हो सकता है। पहले की अपेक्षा उनका रूतबा बढ़ा ही है। इसी प्रधानी का चुनाव जीतने के लिए उन्हें क्या-क्या नहीं करना पड़ा है? कैसे-कैसे पापड़ नहीं बेलने पड़े? खेत गिरवी रखा, अपनी जोरू के गहने बेचे। इतना ही नहीं, ऐन मतदान के दिन, अपने लाडले प्रकाश को बी.ए. की परीक्षा में शामिल होने के बजाय गाँव में ही रोक लिया, ताकि वह चुनावी माहौल का सही-सही जायजा लेकर गाँव वालों से उनके पख में वोट डलवा सके। बेचारे की साल भर की पढ़ाई का सत्यानाश हो गया। अन्यथा, वह इस साल ग्रेजुएट हो गया होता। गाँव वाले उनके इस चुनावी जुबून को देख कर न जाने क्या-क्या ताने कसते थे कि सिन्हा जी एकदम बौरा गए हैं... कि रत्नदेव जैसा सुच्चा आदमी पालिटिक्स कैसे कर पाएगा... कि जब रत्नदेव की जमानत जब्त होगी तब वह दर-दर के भिखारी बन जाएंगे, वगैरा, वगैरा। लेकिन, रत्नदेव ने अपना दमखम बरकरार रखा। अपनी किस्मत पर भी कितना भरोसा था उन्हें! इसी प्रडित बृजबिहारी ने उनकी कुंडली और हस्तरेखा देख कर भविष्यवाणी की थी-'जजमान, आप इलेक्शन शतिया जीतेंगे। शुक्र, चन्द्र और बृहस्पति बड़े अनुकूल चल रहे हैं। राजयोग बन चुका है। अगले सप्ताह से साढ़े साती चढ़ने से पहले ही आपका भाग्योदय हो जाएगा और उसके बाद भी शनि आपका बाल बाँका नहीं कर पाएंगे।<br />
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रत्नदेव ने दत्तचित्त हो कर चुनाव लड़ा और वह विजयी हुए, और वह भी दिग्गज महारथी ठाकुर जगदंबा प्रसाद के विरूद्ध जिनका प्रधानी पर एकछत्र अधिकार रहा है।- पूरे पन्द्रह सालों से। इसलिए, इतनी मुश्किल से बाजी जीतने के बाद वह प्रधानी की कुर्सी इतनी आसानी से कैसे छोड़ देंगे? अभी तो जितना चुनाव में खर्च किया था, उसका सूद भी नहीं उगाह पाए हैं।<br />
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जब रत्नदेव उदास-मन वापस लौट रहे थे तो उन्होंने बटुक भैरव का फिर ध्यान किया-'प्रभु, आपकी माया अपरंपार है। हम तो आपके हाथ की कठपुतली मात्र हैं। आपकी हर इच्छा में हमारा भला छिपा होता है। हे भैरव बाबा, इस साल कहर बरपाने वाली ऐसी बाढ़ लाओ कि हम सरकारी राहत, रसद और माली मदद से अपनी किस्मत चमका लें।"<br />
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*** *** ***<br />
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करिश्मा हो गया। देवी चमत्कार का ऐसा नायाब मिसाल न पहले कभी देखा, न सुना। इधर रतनदेव की गोरी-गुनबारी बहू ने चाँदनी रात में सरजू में डुबकी लगाई, उधर पूरब दिशा से कपासी मेघों का घनघोर गुबार उमड़ने लगा।<br />
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पंडित बृजबिहारी सरजू किनाने जमा भीड़ के बीच सीना फुला कर इतराने लगे- "देखा लिया न, हमारा चमत्कार? अब देखना, यह गाँव ही क्या, सारी दुनिया बरखा से लबालब हो जाएगी।"<br />
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चाँदनी उजास में रसूल मियां ने भ्ंीड़ को चीरते हुए बृजबिहारी के पास आकर उनकी पीठ थपथपाई। "मान गए, उस्ताद। आप अपने फन में कितने माहिर हैं? लाजबाब हैं? आपके क्या कहने?"<br />
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इधर बृजबिहारी अपने चापलूसों से घिरे हुए तारीफों के पुल पर खड़े दर्प में ळाूम रहे थे,<br />
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उधर पानी की मोटी-मोटी बूँदे आसमान से टपकने लगीं। रत्नदेव ईर्ष्या से पागल हुए जा रहे थे, सोच रहे थे कि अलोनी दाल में नून हमने डाला, लेकिन लोग धूर्त पंडित की मक्खनबाजी कर रहे हैं। हमारी नहीं, उसकी चम्पी-मालिश कर रहे हैं।<br />
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बूॅंदाबाँदी बारिश का रूप ले रही थी। बृजबिहारी ने समय रहते चट भविष्यवाणी की- "यह कोई मामूली बरखा नहीं होने वाली है। बड़ी मूसलाधार होने वाली है। आखिर, हमारे पूजा-पाठ का जोर लगा है।"<br />
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चूंकि बृजबिहारी में लोगों की आस्था अडिग हो चुकी थी, इसलिए उनकी चेतावनी को सुनते ही लोग भागने लगे। जैसे बारिश नहीं, साक्षात भूत उनका पीछा कर रहा हो।<br />
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बारिश से तर-बतर रत्नदेव ने घर में घुसते ही घूंघट में अपनी बहू को गर्व से देखा- "तूं तो बड़ी भागवान है। तूने तो मेरा कद बढ़ा कर उनचास हाथ का कर दिया।" बेशक, उनकी बहू उनके खानदान में ही क्या, दूर-दराज के इलाकों तक बड़े श्रेय और प्रतिष्ठा की हकदार बन गई थी।<br />
*** *** ***<br />
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रत्नदेव सोने की अथक कोशिश करने के बाद भी नहीं साके सके। बरसात की रिमळिाम उन्हें उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की शहननाई से भी ज्यादा मनभावन लग रही थी। वह देर तक सोचते रहे कि क्या बटुक भैरव ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली है। अगर सरजू में बाढ़ कचक कर आ जाती और उनका गाँव नदी का मंळाधार बन जाता तो वह मान लेते कि भैरव बाबा ने उनकी बहू को धनलक्ष्मी बना कर उनके घर भेजा है। सूखा क्या है, वह तो हर साल अपनी हाजिरी लगा जाता है। लेकिन, उससे उन्हें क्या मिलता है? कुछ भी नहीं। न तो सरकार भूखे-प्यासे लोगों के लिए कोई माल-पानी भेजती है, न ही धन्ना-सेठ सूखा-पीड़ितों के लिए कोई दान-चंदा देते हैं। बहुत हल्लागुल्ला मचाने पर, लावारिस - पड़े चंपाकलों की मरम्मत करा दी जाती है एकाध कुंए खुदवा दिए जाते हैं या पंपिंग मशीन चला कर दो चार दिन पानी चला दिया जाता है। इन सबसे ग्राम प्रधान को क्या फायदा पहुँचता है? इतनी एड़ी चोटी की कोशिश से यह ग्राम प्रधानी हाथ लगी है। पर, तीन साल से छूछे हाथ हैं। कहीं कोई बड़ा हाथ नहीं मार सके। लिहाजा, अगर सूखा लंबा खिच जाता है तो कुछ नेता और अफसर क्षेत्रतीय दोैरा कर जाते हैं। जनसंख्या विभाग के कर्मचारी भूले-भटके यह रिपोर्ट लेने चले आते हैं कि सूखा से कितने लोग भूख-प्यास के शिकार हुए हैं और कितने सूरज के कोप का भाजन बने हैं। फिर, उसके बाद जाड़ा के आने तक सरकार कान में रूई डाल कर खर्राटा भरती है। लेकिन, इस बाढ़ का क्या कहना? वह अपने पीछे अनाज का गोदाम और रूपयों के बंडल बाँध कर आती है। जितनी तबाहकुन और दीर्घजीवी बाढ़, उतना ही ज्यादा ग्राम प्रधान की चाँदी। जैसे यह बाढ़ नहीं, साक्षात कुबेर का खजाना पाूट पड़ा हो। कोई सात साल पहले कुबेर ने बाढ़ के रूप में अपनी दयादृष्टि की थी। तब, गाँव के प्रधान जगदंबा प्रसाद थे। अरे, क्या कमाई की थी उन्होंने? आँखें फटी की फटी रह गई थी। उसी कमाई की बदौलत, उन्होंने शहर में एक सिनेमा हाल खुलवाया, दो-दो ट्रक चलवाए, अपने नाकारा पड़े कोल्ड स्टोरेज का जीर्णोद्धार करवाया। इतना ही नहीं, अपने नायालक बेटे को डोनेशन के जरिए मेडिकल कालेज में दाखिला दिलाया और अपनी सयानी बेटी का इतने छाव-बधानव से ब्याह कराया कि ऐसे आलीशान विवाह की मिसाल दूर-दूर तक दी जाती है। विवाह हो तो ठाकुर की बेटी की तरह, नहीं तो न हो।<br />
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काश! ईश्वर उनकी मनोकामना भी पूरी कर देता! वह भी कम से कम एक भव्य कोठी तो बनवा ही लेते। अपने निठल्ले आलसी बेटे के लिए पेट्रोल पंप खुलवा देते, ईंट के भट्ठे चलवा देते। यानी कुछ ऐसा पक्का जुगाड़ कर लेते कि जब वह प्रधान की कुर्सी पर न भी बैठे हों तो मजे से चिकनी-चुपड़ी रोटी तोड़ सकें।<br />
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सुबह जब रत्नदेव की नींद खुली तो ळामळामाती बरसात ने उन्हें एक सुखद एहसास से आप्लावित कर दिया। घर में जितने भी सदस्य थे, वे सभी यही आस लगाए बैठे थे कि यह बारिश कम से कम सप्ताह भर तो अविराम होती ही रहे। ताकि सरजू नदी भभक कर उन्हें डुबो दे। उनका गाँव देखते -देखते जल समाधि ले ले। लोगबाग हाहाकार करने लगे। मवेशी बाढ़ में बह कर मर-खप जाएं और खड़ी फसल का दम घुट जाए। जब वर्षा में कुछ मंदी जाती तो सभी के चेहरे पर चिंता पसरने लगती। हे भगवान, अब क्या होगा? कहीं इस साल भी बस एक बार बारिश तो हमें कौड़ी-कौड़ी का मोहताज बना कर ही छोड़ेगा। प्रधानी की कुर्सी सिर्फ दो साल ही सलामत रहेगी। फिर, नया चुनाव होगा। पता नहीं कौन प्रधान बनेगा।<br />
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रत्नदेव दरवाजे पर कुर्सी लगाकर बरसात का जायजा ले रहे थे। न तो अखबार पढ़ने में जी लग रहा था, न ही गरम-गरम पकौड़े खाने में। जसोदा बार-बार रसोई से आकर बरामदे में ळााँक जाती। वह अत्यंत चिंतित थी कि आखिर! उसके पति उसके बनाए लजीज पकौड़े क्यों नहीं खा रहे है। और यह पूछ जाती क्या पकौड़े के साथ्ं पुदीने की चटनी चलेगी या टमाटर की मीठी चटनी लाएं। पर, रत्नदेव की आँखे सब बातों से बेखरब, बारिश की धार पर टिकी हुई थीं। मक्खियों का हुजूम उमड़ रहा था, वे न केवल पकौड़ों पर टूट रही थीं बल्कि रत्नदेव के मुंह पर भी अपने डंक चुभो रही थीं। लेकिन, वह थे कि सिर्फ हाथ हिला-हिला कर मक्खियां उड़ा रहे थे। मन तो कहीं और लगा हुआ था।<br />
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चुनांजे, इन्द्रदेव जितने गाँव वालों से नहीं प्रसन्न थे, उससे ज्यादा वह रत्नदेव पर रीळा रहे थे। गोया कि यह कह रहे हों कि 'रत्नदेव, देख! तूने अपनी बहू की चमचमाती देह का दर्शन मुळो कराया और मैने तेरी ळाोली भर दी। इस साल, मैं तुळो मालामाल कर दूंगा।'<br />
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लगातार ळामाळाम बरसात ने उनका अहोभाग्य लिख दिया था। जब रसूल मियां ने आकर उन्हें इत्तला किया कि- 'प्रधान जी ऐसी ताबड़तोड़ बारिश कई सालों बाद देखी है' - तब, रत्नेदव के रोंगटे खड़े हो गए। मन में लड्डू फूटने लगे। लेकिन, चेहने पर कृत्रिम चिंता की रेखा के साथ, वह मेहराई आवाज में बोल उठे- 'अरे मियां, यह तो अच्छी खबर नहीं है । हमारा गाँव तो सबसे पहले बाढ़ का ग्रास बनेगा क्योंकि यह सरजू की घाटी के बराबर फैला हुआ है।" उन्होंने अपने बेटे प्रकाश को आदेश दिया- "ट्रांजिस्टर लाओ।" जब टार्च की पुरानी बेटरियां डालकर ट्रांजिस्टर ऑन किया तो जिले की स्थानीय खबरें ही चल रही थी। खबर भी क्या थी कि बारिश की रनिंग कामेंट्री चल रही थी। उन्होंने कान में उंगली डाल कर जोर से हिलाया ताकि चिपचिपाहट कम हो जाए और वह समाचार का एक-एक हिज्जा सुन सकें। कभी क्रिकेट टेस्ट मैच की कामेंट्री भी इतने चाव से नहीं सुनी होगी। नदी में अचानक बाढ़ की आशंका से प्रशासन के हाथ -पाँव फूल रहे थे। गाँव के गाँव डूबते जा रहे थे। मौसम विभाग यह भविष्यवाणी कर रहा था कि अगर यह बारिश लंबी खिची तो बाढ़ की तबाही पिछले सारे रिकार्ड ध्वस्त कर सकती है। रत्नदेव ने बटुक भैरव का ध्यान कर, उन्हें तहे दिल से शुक्रिया अदा की। इसी दरमियान, एक किशोर कीचड़ और उफनता पानी फलांगता उनसे रूबरू हुआ- "मालिक, मालिक, बड़ा गजब हो गया है। अखडू कुमार का घर ढह गया है और उसके पलिवार के सभी जने उसमें दब गए हैं। मुंशी ताल का पानी उसके ही घर में हड़हड़ा कर भर रहा है।"<br />
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रत्नदेव के कान खड़े हो गए। अभी बाढ़ आई नहीं और भाग्यशाली विप्लव आरंभ हो गया। पास खड़ी जसोदा देवी ने अपने पति से आँखों ही आँखों में इशारा किया- 'बोहनी-बट्टे का मौका है। अब तनिक भी देर मत कीजिए।' रत्नदेव उसका इशारा समळा गए और अखडू के घर गिरने के समाचार से आहत रसूल मियां को ळाकळाोरा - "मिया, इचको भर कोताही मत बरतों, नहीं तो अखड़ू सपरिवार बरखा की बलि चढ़ जाएंगे।'<br />
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वे नंगे पांव निकल पड़े। बरसात में जूता-चप्पल पहनने की कबाहट कौन मोल ले? रास्ते भर "मदद करो, मदद करो, अखड़ू का घर ढह गया है" चिल्लाते हुए जब वे अखडू़ के क्षत-विक्षत मकान के सामने आकर खड़े हुए तो उनके साथ कोई दर्जन भर हट्टे-कट्टे नौजवान भी शामिल हो गए थे। रत्नदेव ने दहाड़ कर कहा- "तुम जने, खड़े-खड़े मुंह क्या ताक रहे हो? काम पर लपट जाओ। पहले, ळाटपट मलवा हटाओ, फिर अखड़ू के परिवारजनों को बाहर निकालो। इसका ख्याल रखना किसी की जान पर कोई खतरा न आए..." वह तहे-दिल से प्रार्थना करते जा रहे थे कि हे भगवान! हमारी प्रधानी में किसी की अकाल मौत न हो।"<br />
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लगभग आधे घंटे की जी-तोड़ मशक्कत के बाद अखड़ू समेत उसके सभी परिवारजनों को बाहर निकाला गया। वे खून से लथपथ थे और उनका कोई न कोई अंग भंग हो चुका था। रत्नदेव ने निढटाल युवकों को फिर पना फरमान सुनाया- "अरे, इतने में ही तुम जनों का कचूमर निकल गया। अब और देर करोगे तो इनमें से कोई न कोई मर जाएगा। इन्हें अपने-अपने कंघे पर उठाओ और अस्पताल पहुंचाओ। इस खराब मौसम में हम तुम्हारे लिए मोटर-गाड़ी तो मंगाएंगे नहीं।"<br />
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XXX XXX XXX<br />
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ग्राम प्रधान- रत्नदेव रातों-रात 'दीनबंधु' के नाम से लोकप्रिय हो गए। लोग उन्हें भूतपूर्व प्रधान ठाकुद जगदंबा प्रसाद से लाख दर्जे बेहतर साबित करने पर तुले हुए थे कि एक स्साला था जो हमें पन्द्रह सालों में लूट-खसोट कर कंगाल बना गया और एक ये ईमानदार प्रधान है जिसे दीन-दु:खियों की सेवा करने में ही परम आनन्द मिलता है।<br />
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रत्नदेव नंगे पाँव अस्पताल में जमे रहे। भूखे-प्यासे, पूरे आठ दिन तक, जब तक कि अखड़ू अपने घायल बाल-बच्चों समेत चंगा हो कर राहत शिविर में स्थानांतरित नहीं हो गया। अस्पताल से राहत शिविर तक रत्नदेव को पत्रकारों से घिरे रहना बेहद रास आया। एक मिसालिया समाज सेवक बनने के लिए वह एड़ी चोटी का प्रयत्न करते रहे। कई घर ढहे, दर्जनों लोग घायल अवस्था में अस्पताल में भर्ती हुए। वह उनकी तीमारदारी में तन-मन से समर्पित रहे। फलस्वरूप, उनकी समाज सेवा की रपट बड़े-बड़े अखबारों में उनकी फोटो समेत छपी। कलक्टर साहब ने उनकी पीठ थपथपाई और ब्लाक प्रमुख ने उन्हें एक सार्वजनिक सभा में आमंत्रित कर सम्मानित किया-'रत्नदेव ऊर्प 'दीनबंधु' एक अदने से गाँव के ही नहीं, बल्कि संपूर्ण जिला के चिराग हैं। उनकी उदार सेवा-भावना से प्रभावित होकर हम उन्हें 'जिला रत्न' की खिताब देते हैं।'<br />
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गड़गड़ाती तालियों की गूंज इतनी दूर तक प्रतिध्वनित हुई कि जिले के सांसद की भी नींद उड़ गई। वह एक बार नहीं, तीन-तीन बार उनसे मिलने आए। उन्हें वचनबद्ध किया कि अगले साल उन्हें इस छोटे से गाँव से उठकर शहर में जमना होगा। वहाँ मेयर बन कर पूरे जिले को कृतार्थ करना होगा। आखिर, लोकप्रियता की चोटी छू रहे रत्नदेव जैसी घातक बला को टालने के लिए उनके आगे हड्डियां तो डाली ही पड़ेंगी। अन्यथा, क्या पता, पार्टी अध्यक्ष उनके बजाय रत्नदेव को ही लोक सभा चुनाव लड़ने के लिए टिकट दे दे और उनका पत्ता ही साफ हो जाए। लेकिन, रत्नदेव के लिए तो मेयर का चुनाव लड़ने का न्यौता मिलना अंधे के हाथ बटेर लगने जैसा था। वह तो सचमुच बटुक भैरव के कृपापात्र बनते जा रहे थे।<br />
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जब बारिश का कहर कुछ मद्धिम हुआ तो बाढ़ ने गाँव के गाँव लीलना शुरू कर दिया। मम्के की इठलाती फसल की कमर पहले ही टूट गई थी। अब बाढ़ ने खतिहरों और मवेशियों को आतंकित करना शुरू कर दिया। छत्तीस टोलों और 30 हजार की जनसंख्या वाला सिम्हौरी गाँव जलमग्न हो गया। पर, दीनबंधु ने बाढ़ में बह रहे विषधर नागों और जहरीले बिच्छुओं व गोजरों से बचाव के लिए सारे बंदोबस्त पहले ही कर दिए। जिन स्कूली भवनों और राहत शिविरों में अपने गाँव वालों को स्थानांतरित किया था, वहाँ डाक्टरों, कम्पाउंडरों और नर्सों की टीम पहले ही तैनात करा दी। फिर, अपने बाढ़-शरणार्थी लोगों को घूम-घूम कर तसल्ली भी देने लगे- "तुम्हारे ढहे घरों की मरम्मत हम कराएंगे... तुम्हारे मरे मवेशियों का मुआवजा हम दिलाएंगे... हमारे जीते-जी तुम लोगों को भूख, महामारी , रोग-आजार से कभी नहीं मरने देंगे..."<br />
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'दीनबंधु' रत्नदेव को अपना भाग्य पलटता सा लग रहा था। यह सब रूद्रावतार भैरवदेव की कृपा थी। सो, उन्होंने अपने बेटे-प्रकाश को शहर भेजकर भैरव बाबा का रेशमी गंडा मंगवाया और पंडित बृजबिहारी से विधि-विधान पूर्वक पूजा-पाठ करा कर उसे अपने गले में धारण किया। गाँव वालों ने उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की कि दीनबंधु जी कष्ट और संघर्ष के दौर में भी ईश्वर को नहीं भूलते। आखिर, दरिद्र और विपन्न ग्रामीणों के हित में ही तो उन्होंने भैरव बाबा का प्रसाद ग्रहण किया है।<br />
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लिहाला, उन्होंने बंद-आँखों से अपने इष्टदेव को वचन दिया- "भगवन, हमारी हार्दिक इच्छा है कि हम अपने गाँव में आपका एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाएँ। बाबा, बस मेरी ळाोली हीरे-मोतियों से भर दो और अगले साल जिला मेयर के चुनाव में हमें तुच्छ मेयर की मुरसी मुहैया करा कर अपना आजीवन दास बना लो।"<br />
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दीनबंधु ने आँखें खोली तो सामने बृजबिहारी को खड़ा पाया जो उनकी मन: स्थिति को बखूबी ताड़ रहे थे।<br />
"जजमान! ईश्वर आप पर रीळा गए हैं। हम तो ठहरे भिखारी बांभन। बस, आप जनों की खुशहाली के वास्ते नारायण से टेर लगाना ही हमारा धर्म है। मालिक! अपने इस गुलाम पर ाी रहम कीजिएगा। हमें ज्यादा नहीं, बस आपकी कमाई में से दो परसेंट चाहिए। हम नाती-पूत समेत आपका गुणगान करते रहेंगे..."<br />
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जब बृजबिहारी ने करबद्ध निवेदन करने के बाद, रत्नदेव को जाने का रास्ता दिया तो दरवाजे पर बी.डी.ओ. साहब का मैसेंजर कोई सरकारी लिफाफा लिए बेताब हो रहा था। रत्नदेव ने एक ळाटके से लिफाफा लेकर उसका मजनून पढ़ा। मन में खुशी की बयार बहने लगी। सरकार ने प्राकृतिक आपदा और बा से पीड़ितों की राहत के लिए पाँच ट्रक अनाज की डिलीवरी मंजूर कर ली थी। साथ में, उजड़े ग्रामीणों के नुनर्वास के लिए आठ लाख रूपए की राशि भी। चालाक बृजबिहारी उनका चेहरा पए कर पत्र के संदेश को भाँपने का यत्न कर रहे थे। पर,रत्नदेव ने एक नाचीज की तरह लिफाफे को कुर्ते की जेब के हवाले कर दिया और बृजबिहारी का ध्यान एक इतन विशय पर बँटाने लगे- "पंडितज्जी! अब हम सचमुच तबाह हो गए हैं। इससुरी बाढ़ ने हमें कहीं का न छोड़ा। सरकार कान में बत्ती डाले बैठी है और हम हैं कि फिजूल गला फाड़ कर चिल्लाए जा रहे हैं। अब तो अम्मा चिल्लाने पर भी बच्चे को दूध नहीं पिलाती। ऐसे में, हमारी जान की हिफाजत भगवान भी करेगा या नहीं..."<br />
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अन्तर्यामी बृजबिहारी सब समळा रहे थे कि अब रत्नदेव कोई बड़ा हाथ मारने से पहले ऐसी ही उड़ी-अड़ी बातें करेंगे। जनता का माल हजम करने से पहले कभी सरकार की बखिया उधेड़ेंगे तो कभी अपना रोना रोएंगे। लेकिन, वह मन ही मन यह भी कहते जा रहे थे- जब हम इस बगुला भगत को रंगे हाथों पकड़ेगे तब पूछेंगे कि 'बच्चू! गुरू दक्षिणा दिये बिना ही सारा माल हड़प कर जाना चाहते हो। अभी हम हल्ला-गुल्ला मचा कर तुम्हारे थोपड़े से ईमानदारी का चोंगा हटा देंगे, तुम्हे सरेआम नंगा कर देंगे...'<br />
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हुआ भी वही, जो रत्नदेव की सामाजिक सेहत के लिए इच्छा नहीं था। जब वह शाम आठ बजे अपने पुरखों के परित्यक्त मकान में पाँचों ट्रक का अनाज छिपाने का जुगत भिड़ा रहे थे, तभी, जैसे साँप दूर से ही आदमी की गंध पहचान लेता है, वैसे ही बृजबिहारी कहीं से आ धमके। रत्नदेव तो हकबका कर रह गए। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि पंडित इतना काइयां निकलेगा।<br />
<br />
बृजबिहारी आते ही अपना पंडिताना राग आलापने लगे- "दीनबंधु जी! ऐसा प्रतीत होता है कि दीन-दु:खियों की दुआओं का असर होने लगा है। क्या यह अनाज सरकार ने भिजवाया है..."<br />
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बृजबिहारीमुक्त कंठ से रत्नदेव को हुई इस आमदनी के लिए बधाई देने पर तुले हुए थे। रत्नदेव ने कनखियों से इधर-उधर ताक-ळााँक कर माहौल का जायजा लिया और बृजबिहारी के कान से अपना मुँह सटा दिया - "पंडिज्जी! आप सुबेरे वाली अपनी दो परसेंट वाली बात भूल गया क्या..."<br />
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बृजबिहारी एकदम से निरीह तोते पर बाज की भाँति टूट पड़े - "ना, ना, लर, इस मामले में तो ऐसा सौदा हमें कत्तई मंजूर नहीं है। हमें तो फिफ्टी-फिफ्टी का हिस्सेदार बनाओ, अन्यथा गाँव में जा कर शोर मचाऊंगा, बखेड़ा खड़ा करूंगा कि..."<br />
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रत्नदेव ने चट अपना हाथ बृजबिहारी के मुंॅह पर रख दिया। लेकिन, उनकी बोलती कहाँ बंद होने वाली थी?<br />
"अब, आप हमारी जुबान पर ताला मत लगाइए, नहीं तो हम आपकी आती लक्ष्मी पर ग्रहण लगा देंगे। हमें भेड़ की खाल उधार कर भेड़िया को नंगा करना भी खूब आता है। तब, लोग आपके 'दीनबंधु' के चोले को बखूबी जान जाएंगे, आपको और आपकी प्रधानी को एक ठिकाने लगा देंगे..."<br />
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रत्नदेव उनके अड़ियलपन के कारण सन्न रह गए। अपराध बोध से बीमार हो गए। वह उन्हें सरपट की ओट में खींच कर ले गए। उन्हें अपने हक पर किसी ऐरे-गैरे द्वारा दावा किया जाना एकदम नागवार लग रहा था। बृजबिहारी को एक दमड़ी देना भी अनुचित लग रहा था। पर, वह करें तो क्या करें? भांडाफोड़ का भय उन्हें बुरी तरह खाए जा रहा था। इसलिए, उन्होंने बृजबिहारी के साथ बहसा-बहसी में अपने घुटने टेक दिए।<br />
<br />
सौदा पट गया। जनता का मुंह बंद करने के लिए एक ट्रक का अनाज बाढ़ पीड़ितों में वितरित किया जाएगा। शेष चार ट्रक में से, तीन ट्रक का अनाज रत्नदेव के हिस्से में जाएगा जाएगा। और एक ट्रक अनाज बृजबिहारी को मिलेगा।<br />
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चुनांचे, रत्नदेव ळाक्की बृजबिहारी से चौकन्ना हो गए। पंडित न तीन में, न तेरह में, फिर भी हराम की कमाई कर गया। लेकिन वह करते भी क्या? गोरख धंधे में वह अभी बहुत कच्चे हैं। गुस्से में उन्होंने अपने होठ काट कर सारा मुँह लहूलुहान कर दिया। बृजबिहारी कटाक्षपूर्वक मुस्कराते रहे।<br />
<br />
"दीनबंधु जी, आप हमें ऐसे ही खुश करते रहिए और हम आपके लिए बटुक भैरव से प्रार्थना करते रहेंगे... अरे आँ, हमारी मिलीभगत के बारे में किसी को कानों-कान खबर न होगी..."<br />
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पल भर के लिए रत्नदेव, बटुक भैरव के जिक्र से ळाुंळाला उठे। लेकिन, अगले ही पल उनकी मन ही मन मक्खनबाजी करने लगे- भगवन, हम अच्दी तरह समळा रहे हैं कि आप हमारी आस्था की परीक्षा ले रहे हैं। पर, चाहे कुछ भी हो, हम अपने गाँव में आपके मंदिर का निर्माण जरूर करवाएंगे..." इस संकल्प ने उनके मनोबल को और दृढ़ किया। शायद, उनकी चापलूसी भगवान को भली लगी।<br />
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लिहाजा, रत्नदेव की तिलमिलाहट वाजिब थी। उनके हक पर कोई तीसरा आदमी बट्टा लगा गया था। वह सर्किट हाउस के बरामदे में टहलते हुए लालटेन की लुप्प-लुप्प में सन्नाटे से सिर टकरा रहे थे। उनके घर वालों को उनकी बेचैनी का कारण पता नहीं था। प्रकाश उनके सामने से ही असलम की दुकान से बकरे का गोश्त लेकर अंदर गया था और महरिन द्वारा सील-लोढ़े से गरम मसाला, प्याज, लहसुन, अदरम आदि के पीसे जाने की महक चारो ओर फैल चुकी थी। उसके बाद, भगौने में प्याज का तड़का लगा कर गोश्त को मसाले में भुनने और उसमें शोरबा लगाने की आहट भी उन्हें मिल चुकी थी। किन्तु, आज उनका मन गोश्त खाने से पहले होने वाली जल्दबाजी से बिल्कुल चंचल नहीं था। उनका मन तो इस ग्लानि से ळाुलस रहा था कि उन जैसे चतुर कायस्थ को एक ब्राह्मण बुद्धू बना गया था। बुद्धि विलास में मात देने के उनके पौराणिक अहं को चकना चूर कर गया था।<br />
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जब सलोनी ने आ कर लालटेन की बत्ती बढ़ाकर रोशनी तेज की और चटाई बिछा कर पानी भरा लोटा और गिलास रखा तो उसके साथ-साथ रोटी का सोंधापन भी ओसारे में फैल गया। अब उनका जीभ पर से संयम टूटने लगा। वह पालथी मार कर खाना खाने बैठ गये। अभी उन्होंने मुश्किल से दो रोटियाँ ही खाई थी और गोश्त के चंद टुकड़े ही चिचोरे थे कि दरवाजे पर हुई दस्तक से उनके मुँह का स्वाद बिगड़ गया। जसोदा खिड़की से ळााँक कर फुसफुसाई- 'ए जी, ठाकुर जगदंबा आए हैं...'<br />
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रत्नदेव ने थाली खिसका कर सलोनी बिटिया को दरवाजा खोलने के लिए इशारा किया और खुद भूतपूर्व प्रधान की अगवानी के लिए खड़े हो गए।<br />
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"तो, दीनबंधु जी, अब आपके सितारे बुलंद हैं। लगे हाथ अपनी सात पीढ़ियों की किस्मत भी चमका लीजिए," ठाकुद जगदंबा ने घुसते ही व्यंग्य कसा और मीट की गंध को नाक से सुड़कने लगे। अभी रत्नदेव उनके आगे स्टूल खिसकाते हुए खुद मचिया पर बैठ ही रहे थे कि जगदंबा फिर बोल उठे-<br />
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"तो, बाबू साहब, कल कलेक्टर सा'ब से चेक लेने कब चल रहे हैं? आपकी हिफाजत के लिए हमारा और हमारे आदिमियों का आपके साथ रहना बड़ा जरूरी है। जानते ही हैं, जमाना कितना खराब हैं?"<br />
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रत्नेदव के पैरों तले से जमीन खिसक गई। सोचने लगे कि आठ लाख रूपयों की सरकारी मदद के बारे में जगदंबा को कैसे भनक मिली? जरूर बृजबिहारी ने चुगलखोरी की होगी। वह मन ही मन उसे गिन-गिन कर गालियाँ देने लगे।<br />
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"अरे हाँ, ठाकुर सा'ब। हम तो आपको इसी खातिर याद करने वाले थे। आखिर, भूतपूर्व प्रधान की देखरेख में ही तो गाँव वालों का भला होगा। फिर, इसी रकम से तो बाढ़ की परवान चढ़े उनके घरों की मरम्मत होगी। टूटी-फूटी गलियों को दुरूस्त किया जाएगा। जो प्राइमरी सकूल ढह गया है, उसे दोबारा खड़ा किया जाएगा। बरसात के बाद आने वाली महामारी से निबटने के लिए दवा-दारू का इंतजाम भी इसी से किया जाएगा..."<br />
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रत्नदेव पूरी ईमानदारी बरतने और अपने मन की खोट छिपाने का ढोंग करते हुए जगदंबा को विश्वास में लेने का भरसक प्रयास कर रहे थे।<br />
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लेकिन, जगदंबा उनकी बातों को बेहटियाते हुए हँस पड़े, "तो, अब आपने गाँव में सुधार आंदोलन चलाने का पूरा विचार बना लिया है। अरे, दीनबंधु जी, आपको अपने बाल-बच्चों का भी कुछ ख्याल है क्या?"<br />
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"ऐं,ऐं, ऐं", उनके इशारे से बिल्कुल अनजान बन कर रत्नदेव ने पूछा, "आपका मतलब हमारी समळा में नहीं आया, जगदंबा जी..."<br />
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"आप ऐसे नहीं समळोंगे" कहते हुए जगदंबा ने अपनी स्टूल उनकी मचिया से सटा दी। उनके मुँह से शराब की भभक से रत्नदेव का मन मितलाने लगा। <br />
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जगदंबा ने कहा, "रतन भाई, आप परधानी की कुरसी बहुत कुछ हार के जीते हैं। आप उस नुकसान की भरपाई कैसे करेंगे?"<br />
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रत्नदेव गंभीर हो गए। उन्हें पहले जो बात थोड़ी-थोड़ी समळा में आ रही थी, अब अच्छी तरह समळा में आने लगी थी। वह यह भी समळा रहे थे कि पंडित की तरह यह ठाकुर भी उनसे बिना मूलधन के, ब्याज ऐंठना चाहता है- उनका हितैषी बनने का स्वांग खेल कर।<br />
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जगदंबा पुन: बोल उठे, "ना, ना, ना। हमें आपसे कुछ भी नहीं चाहिए। हम तो आपको कुछ दे के ही जाएंगे, ले के नहीं। दरअसल, हम आपको अपना तजुर्बा बताने आए हैं। आप समळा रहें हैं, ना..."<br />
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रत्नदेव यंत्रवत् सिर हिला रहे थे और उनका मन टटोलने की कोशिश कर रहे थे।<br />
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जगदंबा लगातार बोलते जा रहे थे, "प्रधान जी, हमारा मतलब ये हैं कि आपको जो जनसेवा करके वाहवाही लूटनी थी, सो आप लूट चुके हैं। अब आप अपनी लोकप्रियता भुनाइए। समय का यही तकाजा है। आप क्या समळाते हैं कि सरकार ये रूपया आपको जनता में लुटाने के लिए दे रही हैं? नहीं, नहीं। वहाँ विकास के नाम पर बड़े-बड़े मंत्री-मंत्री, एम पी-एमेल्ले अरबों की हेराफेरी कर रहे हैं और यहाँ हम लोग क्या लाख दो जीजिए कि सरकार हमें यह रकम हमारी जुबान पर ताला लगाने के लिए दे रही है। ताकि हम उनके घाटोलों की ओर से अपनी आँख फेर लें और हम उनका गुणगान करते रहें। अरे, बाबू साहेब, यही तो खाने-पीने का मौका है1 लक्ष्मी के बरसने का यही तो मौसम है। अब अपनी चादर फैला दीजिए, नहीं तो बाद में कुछ भी हाथ नहीं आएगा..."<br />
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वह सोच रहे रहे थे कि रत्नदेव ईमानदारी की कठपुतली है जिसे बेईमानी की डोरियों से खींच-तान कर नचाना होगा। इसलिए, उन्होंने गुमसुम रत्नदेव को जोर से ळाकळाोरा- "रतन भाई, डरो मत। हम आठ लाख रूपए का पक्का चिट्ठा तैयार करेंगे। पैसे-वैसे देकर रसीद और मैमो बनवाएंगे। बाकायदा चार्टर्ड अकाउंटेंट से ठप्पा लगवाएंगे। बस, बीस-पचीस हजार खर्च करने पड़ेगे। लेकिन, हमें कुछ भी नहीं चाहिए। हम आपको कुछ दे के ही जाएंगे, ले के नहीं..."<br />
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रत्नदेव उनका मनोविळ्ाान पढ़ रहे थे। कयास लगा रहे थे कि इसमें उनका हिस्सा कितना होगा। लेकिन वह भी जनसेवा करने का नखरा दिखाने पर तुले हुए थे," नहीं, नहीं, ठाकुर सा'ब, बेचारी गरीब नवाज जनता के हिस्से का धन ऐंठ कर हमें नरक का भागीदार नहीं बनना है..."<br />
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"...अरे-रे-रे-रे-रे, आप नरक के भागीदार क्यों बनेंगे? अभी आपने जो जनसेवा की है, क्या वह सभी धेलुए में जाएगा? हम तो दावा करते हैं कि जब आप डेढ़ सौ साल जी कर भगवान के यहाँ जाएंगे तो वह आपको अपने बगल में बैठाएंगे," जगदंबा ने उनकी बात बीच में ही कुतर दी।<br />
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रत्नदेव मन ही मन मुस्करा रहे थे कि बेवकूफ जगदंबा उनके ईमानदार होने की गलतफहमी का पूरी तरह शिकार हो गया है। पर, वह तहे दिल से बटुक भैर से प्रार्थना भी करते जा रहे थे कि उनके दूध से धुले होने का यह नाटक कभी सफल न हो क्योंकि आखिरकार, उन्हें कुबेर का कृपापात्र बनने के लिए जगदंबा से ही दीक्षा लेनी होगी। वह अपने मन में बटुक भैरव से यह गुहार करने में कोई चूक नहीं कर रहे थे कि - 'प्रभुवर, हमें इस आठ लाख में से कम से कम साढ़े सात लाख का अधिकारी तो अवश्य बनाओ जिसमें से वह बेशक! पचास हजार खर्च करके पंचायत की दक्षिण कोने वाली जमीन पर आपके मंदिर का निर्माण करवाएंगे और शेष रकम से अपने धर की पुश्तैनी कंगाली दूर करेंगे। हम आपको वचन देते हैं कि जब आप हमें अगले साल मेयर की कुरसी मुहैया कराएंगे और मोटी कमाई के मौकों से कृतकृत्य करेंगे तो हम आपके मंदिर की सजावट न केवल संगमरमर से करवाएंगे बल्कि उस पर स्वर्ण और रजत की कसीदाकारी भी करवाएंगे...'<br />
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जगदंबा प्रसाद हकलाते हुए फिर शुरू हो गए, " दीनबंधु जी, स्वर्ग-नरक के फेर में अभी से पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। इसके बारे में बुढ़ापे में सोचिएगा। अभी आपको अपनी गृहस्थी पार लगानी है। देखिए, आपका पुश्तैनी मकान... शायद, इस बारिश और बाढ़ में, भगवान ना करे... सो समय रहते अपने पुराने मकान का...। सलोनी बिटिया भी सयानी हो रही है... प्रकाश भी बाल-बच्चेदार होने वाला है-- उसके धंधे का जुगाड़ करना है। अब बचा आपका छोटा बेटा संतोष जो इस साल बी.एस.सी. कर चुका है। हाँ, वह है बड़ा जहीन। हम तो कहते हैं कि उसके लिए कोई बढ़िया व्यवस्था कीजिए। मेडिकल में ऐडमीशन क्यों नहीं दिला देते। हमारे बेटे के साथ, वह भी पढ़ लेगा। दिल्ली में आपके पास पैसा भी है और मौका भी। ऐडमीशन की चिंता में मत पड़िए। मैं पी.एम. से सोर्स भिड़ा दूंगा। एक-डेढ़ लाख डोनेशन से बात बन जाएगी। हमें तो बहुत खुशी होगी। अब क्या बताएं- हमारा क्या? हमें आपसे क्या लेना है? हम तो कुछ दे के ही जाएंगे, ले के नहीं..."<br />
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उनकी 'कुछ दे के जाएंगे, ले के नहीं' वाली बात तीसरी बार सुन कर रत्नदेव का सिर चकराने लगा। आखिर, माजरा क्या है? अस्तु, जगदंबा ने उनके घर का आर्थिक चिट्ठा खोलकर उनके स्वांग पर पूर्ण विराम पहले ही लगा दिया। अत: उन्होंने अपने हथियार डाल दिए- "ठीक है, जगदंबा जी, जब आप इतना जोर दे रहे हैं तो कल कलेक्टरेट चल कर आठ लाख का चेक लाते हैं। लेकिन, हमें आपसे एक बात पूछनी है...'<br />
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"क्या?" जगदंबा का कौतुहल अचानक बढ़ गया।<br />
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"आप हमारे ऊपर जो ये सब मेहरबानी कर रहे हैं, उसके बदले में आपको क्या..."<br />
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दरवाजे पर दस्तक से उनकी बात अधूरी रह गई। बृजबिहारी गलत समय तशरीफ लाए थे। रत्नदेव मन ही मन कूढ़ गए- अब यह चंठ पंडित क्या लेने आया है? जब मतलब की बात शुरू हुई तो बेमतलब की बाधा टपक पड़ी।<br />
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बृजबिहारी के चेहरे पर कुटिल मुस्कान फैल गई--" आए-गए प्रधानों के बीच क्या लेन-देन चल रही है? क्या दाँव-पेंच सीखा-सिखाया जा रहा है? क्या इस दीन सुदामा पर भी आपकी दया-दृष्टि होगी?"<br />
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रत्नदेव का मन बेठा जा रहा था क्योंकि अब उनके वश में कुछ भी नहीं रहा। ग्राम-प्रधानी जैसे वह नहीं, कोई और कर रहा हो। वह कभी पंडित तो कभी ठाकुर के हाथ की पतंग की डोर बनते जा रहे थे। वह सशंकित थे कि कहीं बृजबिहारी पाँच ट्रक अनाज वाली बात जगदंबा को न बता दे। इसलिए, अब उसमें जगदंबा का भी एक हिस्सा लगेगा। इसी दरमियान, सलोनी उन्हें अंदर बुला ले गई। जब वह कुनमुनाते हुए अंदर गए तो बृजबिहारी और जगदंबा परस्पर फुसफुसाने लगे और जब वह वापस आए तो दोनों दूर-दूर बैठे हुए खुद में खोए होने का बहाना बनाए हुए थे। वह बखूबी भाँप रहे थे कि दोनों ने क्या तिकड़म बैठायाहोगा। उन्हें अपनी पत्नी जसोदा का मशविरा पसंद आया था- "दोनों को ख्ंलिा-पिला कर इतना टुल्ल कर दीजिए कि वे आपके आगे जुबान खोलने का दुस्साहस न कर सके।" रत्नदेव पहले से ही जानते थे कि ठाकुर तो माँस-मदिरा के पीदे पहले से ही मतवाला है और यह बगुलाभगत पंउति भी गोश्त चिचोर-चिचोर कर खाता है, शराब की बोतल टेट में छिपा कर घूमता है।<br />
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रत्नदेव ने ळाटपट प्रकाश को भेज कर तीन बोतल शराब मंगाई। गोश्त तो पहले से ही तैयार था। फिर, वह बरामदे में आ कर उन अवांछित मेहमानों को गोश्त और शराब की दावत दे बैठे। वहाँ थाली में शोरबेदार गोश्त देख कर ठाकुर के मुँह से तो पहले से ही लार टपक रहा था। इसलिए, दावत के आमंत्रण पर उनहोंने मुस्करा कर और मुँह चियर कर अपनी मौन सहमति दी।<br />
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बृजबिहारी थाली लगने से पहले ही दावत जीमने विराजमान हो गए। जब शराब का दौर शुरू हुआ तो पहले तो वह सतोगुण संपन्न ब्राह्मण होने का ढोंग करते हुए ना-नुकर करते रहे। पर, जब उन्हें लगा कि उनके सामने से जाम हटने ही वाला है तो उन्होंने घिघिया कर रत्नदेव के हाथ से जाम छीन लिया। दोनों माल मुफ्त बेरहम की भांति छक कर दावत निपटा रहे थे और हड्डियों की लुगदियों से थाली भर रहे थे। रत्नदेव ने शराब की सारी बोतलें उनके गले में उतार दीं। वह प्रतिशोध के कारण आपे से बाहर हुए जा रहे थे।<br />
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"रत्नदेव भाई, बस, और नहीं। नहीं तो हम मर जाएंगे," कहते हुए जगदंबा ने रत्नदेव का हाथ थाम लिया। शराब का नशा उनके होश पर भारी पड़ रहा था। रत्नदेव ने उन्हें सहारा देकर चौकी पर बैठाया। यही दशा बृजबिहारी की भी हो रही थी। दोनों के शरीर लुंज-पुंज हो रहे थे, तंत्रिकाएं ढीली पड़ रही थीं। जुबान बेलगाम हो रही थी। जगदंबा लगातार बकबक किए जा रहे थे- "रत्नदेव, हम पूरे सोलह आने सच बोल रहे हैं कि हम तुम्हें कुछ दे के जाएंगे, ले के नहीं..."<br />
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रत्नदेव ने स्वयं से कहा- अच्छा मौका है। इन्ें ताव में लाकर इनके मन की बात उगलवा ही ली जाए। नशे में मन की सारी बातें जुबान पर आ जाती हैं। उन्होंने जगदंबा से कहा, "ठाकुर सा'ब, आप बार-बार हमें कुछ देने और हमसे कुछ भी न लेने की बात कर रहे हैं। आप अपनी बात साफ करिए- आखिर, आप ठाकुर की औलाद हैं, बनिया-बक्काल तो हैं नहीं..."<br />
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प्रत्युत्तर में जगदंबा की बजाए बृजबिहारी ही नशे में मचल उठे- "दीनबंधु जी, ठाकुर जगदंबा अपनी बिटिया को आपकी बहू बनाने का मन बना रहे हैं... आपको समधी और आपके संतोष को अपना जवाई बनाना चाहते हैं..."<br />
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रत्नदेव के कान खड़े हो गए- "और?"<br />
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"और असल बात ये है कि हम तुम्हें अपनी बिटिया देंगे, लेकिन लेंगे कुछ भी नहीं..."<br />
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जगदंबा की बात पूरी होने से पहले ही बृजबिहारी से सारी स्थिति स्पष्ट कर दी, "हाँ, अपनी बिटिया ही देंगे, और कुछ नहीं देंगे। न तिलक, न दहेज, न मोटर न स्कूटर...<br />
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जगदंबा ने बृजबिहारी को तरेर कर देखा। फिर, रेडियो की तरह धर्र-धर्र बजने लगे- "बाबू साहेब, हम-तुम एकदम जोड़-तोड़ के घराने के हैं। तुम कलम के क्षत्रिय हो, हम तलवार के। बस, समळा लो कि जब दोनों घरानों का मूल होगा तो हम लोग पूरे जवार में सबसे ताकतवर बन जाएंगे...<br />
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रत्नदेव आश्चर्य से सराबोर हो रहे थे- 'तो जगदंबा के भ्ंेजे में यही बात कब से पक रही थी।'<br />
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बृजबिहारी नशे में भी होश में बातें कर रहे थे और वह अपेक्षाकृत अधिक मजाक के मूड में थे।<br />
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"अच्छा, तो कायस्थ-क्षत्रिय ऐसे सांठ-गांठ कर पोलाव पका रहे हैं। लेकिन, पोलाव में मिठास हमीं से आएगा। आखिर, हम बांभन जो ठहरे...<br />
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बात से बतकही और बतकही से बतंगड़ बनने के कारण शोर बढ़ता जा रहा था। किन्तु, रत्नदेव वास्तविकता से अवगत होने के बाद चिंतित हो रहे थे। प्रकाश के विवाह पर उन्हें बतौर दहेज मोटी रकम तो मिली थी, भले ही कार के बजाय स्कूटर से संतुष्ट होना पड़ा था। परन्तु, संतोष की शादी करके वह बाकी कसर पूरी करना चाहते हैं। चुनांचे, अगर संतोष का मेउकिल कोर्स में ऐडमीशन हो गया तो उनकी किस्मत का पिटारा खुल जाएगा। उनका सारा परिवार मोटरकार से सैर-सपाटा कर सकेगा। यों तो प्रकाश की शादी करा कर वह सोखन साहू का जर्जर मकान ही खरीद सके थे। अब, संतोष की शादी कराकर उस मकान को आलीशान कोठी में तब्दील कर सकेंगे। बेशक, कोठी बगैर तो उनकी हैसियत ही पलीद होती जा रही है। यह खूंसट जगदंबा तो उन्हें सस्ते में ही निपटाना चाहता है और एक अधन्नी खर्च किए बगैर अपनी फूहड़ बेटी को उनके चिकने-चुपड़े बेटे के साथ बांधना चाहता है। ठाकुर हो कर म्लेच्छों जैसी बातें कर रहा है। जहाँ भंडारा चलता देखा, वहीं जीमने बैठ गए।<br />
<br />
उन्होंने पीछे घूमकर दरवाजे की ओट में जसोदा का चिंतित चेहरा गौर से देखा। उसने आँखों ही आँखों में कहा- 'यह फटीचर आदमी हमारे ओहदे से बहुत छोटा है। यह हमारी मांग क्या पूरी कर पाएगा? ठहरे लखपति प्रधान और यह ठहरा कंगाल और दर-दर का भिखारी।' नि:संदेह, जो जसोदा सोच रही थी, वही वह भी सोच रहे थे। उसने फिर रत्नदेव को कनखियों से इशारा किया- 'फिलहाल, इस बला को रफा-दफा कीजिए। इस बारे में बाद में सोचेंगे। अभी इस आठ लाख के बारे में विचारिये, उस लाख के बारे में फुरसत में सोचेंगे।'<br />
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रत्नदेव ने स्वयं को संयत किया। मन में बटुक भैरव का ध्यान करते हुए खड़े हो गए। "हम तीनों का तालमेल बना रहेगा। हम मिल-जुल कर रहेंगे और मिल-बांॅट कर खाएंगे। किसी को कानों-कान खबर नहीं होने देंगे।" उनकी आँखों में नेता-सुलभ कुटिलता चमकने लगी। उनहोंने सीना फुला कर संकल्प लिया कि उन्हें बगुला भगत बनना ही होगा। समय का यही तकाजा है। ईमानदार बगुला तो भूखों मर जाएगा।<br />
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xxx xxx xxx<br />
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कलमुंही बाढ काहिलों की गृहस्थी चौपट कर, मजरूों और दिहाड़ियों के रोजगार छीन कर सरजू नदी में समा रही थी। लोग राहत शिविरों से निकल गाँव में अपने अपने घरेां के निशान जोह रहे थे। फूंस के छप्पर वाले मिट्टी के घर आखिर कब तक उफनती लहरों का प्रहार बरदाश्त कर पाते? वे जड़ से उजड़ गए। छप्पर तो बह गए, लेकिन बाकी चीजें मिट्टी का हिस्सा बन गईं।<br />
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अखडू कुम्हार फबक पड़ा, "अब, हम लोग कहाँ जाएं? क्या करें? कैसे कमाएं और क्या खाएं?"<br />
रसूल मियां ने उसके हाथ से बैसाखी लेकर उसे मेढ़ पर बैठाते हुए तसल्ली दी- "अखड़ू भाई, तुम हमारे रहते तनिक भी मत घबराओ। जो होना था, सो हो गया। ऊपर वाले की यही मर्जी थी। अब तुम फिर से अपना रोजगार जमाओ। बाढ़ ने चारो ओर चिकनी मिट्टी बिछा दी है। अपना चाक फिर से बेठाओ और अपने हाथों की कारीगरी का करिश्मा दिखा कर मिट्टी के बर्तन, खिलौने, औजार वगैरा बनाना शुरू करो। खुदा का शुक्र मनाओ कि बाढ़ के कहर ने तुम्हें लंगड़ा ही बनाया है, लूला नहीं।"<br />
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रसूल मियां उसे रत्नदेव के पास ले गए। उन्हें विश्वास थ्ंा कि अखड़ू के परिवार के पुनर्वास के लिए दीनबंधु जी सरकार से दरख्वाश्त कर उसके लायक कोई काम का बंदोबस्त जरूर करेंगे।<br />
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उस समय, रत्नदेव उखड़े-उखड़े थे। वह अभी-अभी अपने दल-बल समेत कलेक्टरेट से मायूस लौटे थे। कलक्टर ने साफ-साफ कह दिया था कि पहले बाढ़ से हुए नुकसान का जायजा लेकर उसका पूरा लेखा-जोखा तैयार किया जाएगा। फिर, राहत राशि जारी की जाएगी और वह भी ग्राम प्रधान के हाथ में सीधे नहीं। सारी धनराशि ग्रामीण बैंक में जमा होगी जहाँ से बाढ़ राहत कमेटी की सिफारिश पर ही किस्तों में रूपए निकाले जाएंगे।<br />
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रसूल मियां बेंच पर बैठ गए। अखड़ू अपनी बैसाखी दीवार से टिका कर खुद नीचे बिछी चटाई पर बेठ गया जिस पर कोई दर्जन-भर और ग्रामीण बैठे हुए थे। सबके हाथों में आवेदन पत्र थे, जिनमें वे प्राकृतिक आपदा से हुए अपने-अपने नुकसान का दावा पेश कर रहे थे। रसूल ने अखड़ू के कान में कहा, "अखड़ू भ्ंाई, तुम भी एक अप्लीकेशन तैयार कर लो।" जब अखड़ू ने अंगूठा दिखा कर अपने अंगूठाछाप होने का प्रमाण दिया तो रसूल मियां उसकी ओर से खुद आवेदन पत्र लिखने लगे। उन्हें ऐसा करते देख रत्नदेव एकदम से खीळा उठे- "आए मुल्ला, इ लिखने-पढ़ने का काम तहसील में जा के करो। सरकार ने ठेंगा दिखा दिया है। यहाँ कुछ मिलने-विलने वाला नहीं है। हम क्या तुमको कुबेर दिखते हैं?"<br />
<br />
रसूल ने रत्नदेव को ऐसे ळाक्की मूड को पहले नहीं देखा था। वह कल्पना भी नहीं कर सकते थे बचपन में गलबहियां खेलने वाला शख्स इतनी गैरियत से बोल सकता है। उन्होंने वहाँ बैठे हुए सभी लोगों को गौर से दखा। उनकी आँखें जमीन पर गड़ी हुई थीं। उनके चेहरों पर उतराती उदासी का कारण समळा में आ रहा था। रत्नदेव सभी पर बरसे थे। सभी को निराश किया था।<br />
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रसूल मियां ने हिम्मत बटोरी। "दीनबंधु जी, हम यहाँ भीख मांगने नहीं, अपना हक मांगने आए हैं। आपको हमने परधानी की कुरसी पर इसलिए बैठाया है कि आप हमारा हक दिलाने में हमारी मदद करेंगे। हमारी आवाज सरकार तक पहुंचाएंगे। क्योंकि आप जगदंबा से ज्यादा पढ़े-लिखे हैं, ज्यादा काबिल हैं। अगर आप ही हम बदकिस्मतों की ऐसी बेकद्री करेंगे तो उनमें और आप में क्या फर्क रह जाएगा? हम तों सोच रहे थे..."<br />
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उनका गला रूंध गया। पर, रत्नदेव पर उनकी बात का गहरा असर हुआ। रत्नदेव ने खुद पर काबू किया। मन के किसी कोने से एक आवाज आई- 'रत्नदेव अभी से धैर्य खोने लगे? ऐसा करोगो तो सारे मौके खो दोगे।' उन्हें लगा कि स्वयं बझ्ुक भैरव उन्हें आदेश दे रहे हैं। उन्होंने अपनी ळाुंळालाहट को फीकी मुस्कान से दबाया - "मियां हमारे का बाँध इसलिए टूट रहा है कि हम अपनी जनता की मदद नहीं कर पा रहे हैं। जब सरकार ही पैसा देने से मनाही कर रही है तो हम क्या खुद को नीलाम करके..."<br />
<br />
बीच बात में ही जगदंबा प्रसाद ने वहाँ अप्रत्याशित रूप से उपस्थित हो कर उँचे स्वर में रत्नदेव की कन्नी काट दी, "अरे-रे-रे-रे-रे, ना-ना-ना-ना, प्रधान जी! खुद पर ऐसा जुल्म मत ढाना। खुद को नीलाम मत करना..."<br />
<br />
जगदंबा के तेवर बदले-बदले से थे। उनहें देख रत्नदेव की जुबान तलवे से चिपक गई। जगदंबा ने लोगों को देखा और फिर शुरू हो गए, "दीनबंध जी, आप एकदम बेजा कर रहे हैं। अरे, आप इन मुसीबल के मारों को और क्यों मार रहे हैं? इनसे अप्लीकेशन लेकर तहसील चलिए। बाढ़ राहत कमेटी इन पर तत्काल विचार करेगी..." वह सार्वजनिक रूप से रत्नदेव पर रोब गालिब करने लगे।<br />
<br />
रत्नदेव को लगा कि जैेसे जगदंबा न केवल उनकी पोल खोल कर नंगा करना चाहते हैं, बल्कि लोगों से सहानुभूति भी बोटरना चाहते हैं।' वह उनहें मन ही मन कोसने लगे- 'कल, हरामजादे को इतना खिलाया-पिलाया, लेकिन सब बेकार चला गया। स्साला, कितना नमकहराम निकला!<br />
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जगदंबा की बकबक बंद नहीं हुई - " प्रधान जी, आप सीधे-सीधे इन्हें यह क्यों नहीं बता देते कि अब आपके बस में कुछ भी नहीं रहा। मतलब यह कि सीधे सरकार ही इन्हें मुआवजा दिलाएगी, बैंक के जरिए। सो, ये लोग अपना रोना बाढ़ राहत कमेटी के सामने रोएं..."<br />
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जगदंबा के मुँह से खरी बातें सुनकर सभी का ध्यान उनकी ओर खिंच गया। वर्तमान प्रधान के बजाय भूतपूर्व प्रधान का पलड़ा भारी पड़ने लगा। रत्नदेव का माथा ठनका। साढ़े साती शनिचर का प्रकोप उन्हें अभी से दहलाने लगा। क्या शनिदेव उन्हें मटियामेट करके ही दम लेंगे? वह मन ही मन उन्हें कोसने लगे।<br />
<br />
रसूल मियां ने खुद से कहा- अच्छा तो ये माजरा है। मुजरिम सफेदपोश हैं। वह मुंह को सिले नहीं रह सके, "लेकिन जगदंबा जी आप कर रहे हैं कि हमें मदद मिलेगी और दीनबंधजी कह रहे हैं कि सरकार हमारी मदद करने से मना कर रही है1 अगर सरकार हमें मदद करने को तैयार है तो ये प्रधान जी ळाूठ क्यों बोल रहे हैं? हमें तो इनमें बड़ा खोट नजर आ रहा है कि..."<br />
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जगदंबा, रत्नदेव पर कुटिल दृष्टि डालते हुए मुस्कराए और फिर, रसूल की जुबान पर लगाम कसने लगे, "तौबा, तौबा, आप क्या समळाते हैं कि प्रधान जी कोई हेराफेरी करना चाहते हैं? ना, ना, ना, ये सब फिजूल की बात हैं। अरे, जब दीनबंधु के हाथ में कुछ रहा ही नहीं तो इनके सामने क्यों गिड़ा गिड़ा रहे हैं? ये बिचारे आजकल खुद परेशान चल रहे हैं।" वह आँख मारते हुए रत्नदेव के कान में फुसफुसाने लगे, "दीनबंधु जी, सरकार ने जो पाँच ट्रक अनाज भिवाया है, आप उसे किस तहखाने में छिपा रखे हैं? गाँव में इस बात की चर्चा का बाजार गरम है कि बाढ़-पीड़ितों का अनाज प्रधान जी हड़प गए हैं। अरे, उसे फटाफट बंटवा दीजिए, नहीं तो बेकार में आफत मोल लेनी पड़ेगी।"<br />
<br />
रत्नदेव को ऐसा लगा कि जैसे वह धड़ाम से आसमान से जमीन पर गिर पड़े हों। वह स्तब्ध रह गए। अनाज वाली बात जगदंबा को कैसे पता चली? कहीं बृजबिहारी ने तो ... वह दाँत किटकिटा कर उसे धिक्कारने लगे- 'चुगलखोर पंडित ने हमें कहीं का न छोड़ा। थोड़ी-बहुत जो आमदनी हुई थी, वह भी हाथ से निकल गई। भैरव बाबा ने उनकी मुराद पूरी नहीं की। क्या करें, उनका मंदिर बनवाने का वचन वापस ले लें?<br />
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बाढ़ ने उनकी कमर ही नहीं, उनका मनोबल भी तोड़ दिया। अगर उन्हें पता होता कि उन्हें ठेंगा मिलने वाला है तो वह अस्पताल में घायलों की सेवा क्यों करते, बाढ़-पीड़ितों की मदद क्यों करते? बल्कि आराम से अपने मजिस्ट्रेट भाई के यहाँ खर्राटे भरते होते। अब तो उनकी लुटिया डूबी ही डूबी, इज्जत भी दाँव पर लग गई। लिहाजा, अब उन्हें सिर्फ अपनी इज्जत बचाने की यथाशक्ति युक्ति करनी चाहिए। उनका दिमाग तेजी से दौड़ने लगा - क्यों न एक ही तीर से दो शिकार किए जाएं? वह जगदंबा के मुँह पर हाथ रख कर बतियाने लगे, "क्या बताएं ठाकुर सा'ब? हमने पहले ही एक ट्रक अनाज बृजबिहारी के घर भिजवा दिया है ताकि वह उसे अपने पउोस के बाढ़ पीड़ितों में बंटवा दे। लेकिन, पंडित सारा अनाज खुद हजम कर जाना चाहता है। हम तो अभी सारा अनाज बंटवा देने को तैयार हैं। पर, जब लोग पूछेंगे कि प्रधान जी! चार ट्रक अनाज तो बंटवा दिया, बाकी एक ट्रक का अनाज कहाँ गया तो हम क्या जबाब देंगे?"<br />
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जगदंबा, रत्नदेव को कोने में खींच ले गए।<br />
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"दीनबंधु जी, ऊं पंडित से तो हम लोग बाद में निपटेंगे। अभी हम ऐसा करते हैं कि आपक पास जो चार ट्रक अनाज, उसमें से एक ट्रक अनाज गाँव के दरिद्रों में बंटवा कर हल्ला मचा देते हैं कि पाँचों ट्रक का अनाज गाँव वालों में खपा दिया गया है। कोई हम पर शक तक नहीं करेगा। बाकी तीन ट्रक का अनाज हम दोनों आपस में बाँट लेंगे।"<br />
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बेईमान ठाकुर की इस दुष्ट योजना पर रत्नदेव को बिल्कुल आश्चर्य नहीं हुआ। क्योंकि दोनों ही चोर-चोर मौसेरे भाई थे। चुनांचे, रत्नदेव ने फिर अपना पासा, बड़ी चतुराई से फेंका- "लेकिन, ठाकुर सा'ब! आप तो कल तक कह रहे थे कि हम कुछ दे के ही जाएंगे, ले के नहीं। फिर, आप हमीं से यानी अपने होने वाले समधी से यह अनाज क्यों चाहते हैं? जाइए, आप अपनी बेटी की डोली सजाइए, हम बारात लाने की तैयार कर रहे हैं। अब हमें तो अपने बेटे की बारात सजाने के लिए यही अनाज बेच कर जुगाड़ करना पड़ेगा..."<br />
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जगदंबा एकदम खीळा उठे- "रत्नदेव, कल रात जो कुछ हमने कहा था, वह सब नशे में कहा था। हम अपनी बेटी तुम्हारे दरिद्र खानदान में क्यों ब्याहेंगे? क्या इस जिला-जवार में और धनीमानी परिवार खत्म हो गए हैं? हम तो अपनी बिटिया किसी एस.पी. या थानेदार से ब्याहेंगे, तुम्हारे नाकारा संतोष के साथ क्यों ब्याहेंगे..."<br />
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विवाद तूल पकड़ता जा रहा था। जो घरेलू बातें कान में फुसफुसा कर कही जानी चाहिए थी, वे गला फाड़ कर सरे-आम कही गईं। दोनों परिवारों की अंदरूनी बातें जगजाहिर हो गईं। पर, रत्नदेव का तो कुछ नहीं बिगड़ा। दरअसल, जानबूळा कर की थी ताकि जगदंबा और बृजबिहारी की बेईमानी सार्वजनिक हो जाए और उनकी धूर्तता पर परदा पड़ जाए। उन्होंने बड़ी चतुराई से उन दोनों से पल्ला ळााड़ कर खुद को पाक-साफ साबित कर दिया। जगदंबा सोच रहे थे कि वह भरी भीड़ में रत्नदेव को नंगा करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे। लेकिन, जब रत्नदेव का तेज दिमाग चलने लगा तो वह मुंह ताकते रह गए। रत्नदेव के तिकड़म ने उन्हें पछाड़ दिया। वह मौका पाते ही वहाँ सभी उपस्थितों से चिल्ला उठे--<br />
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"आप लोग हमें बेईमान समळाते हैं, ना। पर, असल बात यह है कि कुछ लोग हमें काधा धंधा करने को मजबूर कर रहे हैं। आपको पता नहीं है, आप लोगों की मदद के लिए सरकार ने पाँच ट्रक अनाज भिजवाया था। लेकिन, जिस पंडित बृजबिहारी को आप लोगा बड़ा धर्मात्मा समळाते हैं, वह हमसे एक ट्रक अनाज जनता में बंटवाने के बहाने पहले ही हड़प ले गया है। बाकी चार ट्रक अनाज में से ये ठाकुर जगदंबा आधा अपने पास और आधा हमारे पास रखने की दुष्ट सलाह द रहे हैं। ऐसे में हम क्या करें? हम तो मर जाएंगे, पर घोटाला कभी नहीं करेंगे। अब, आप ही लोग जो मुनासिब समळाते हैं, वो कीजिए। आखिर, आप जनता जनार्दन हैं..."<br />
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सभी रत्नदेव का इशारा समळा गए। वे बेकाबू हो उठे। उन्होंने जगदंबा को षडयंत्रकारी समळाकर उसकी जम कर पिटाई की। गाँव वालों को असलियत मालूम होते ही वे भारी संख्या में बृजबिहारी के घर पर टूट पड़े और वहाँ से सारा अनाज लूट लिया। जब पुलिस आई तो प्रत्यक्षदर्शी ग्रामीणों की बयानबाजी पर जगदंबा को एक ईमानदार प्रधान से गैर-कानूनी काम कराने के जुर्म में रंगे हाथों पकड़ा गया। जगदंबा जेल की सलाखों के पीछे भेज दिए गए। तदनन्तर, बृजबिहारी को जनता के माल में से हेराफेरी करने के चक्कर में तीन सालों की सळ्ाम सजा मिली। रत्नदेव का मन ठंडा पड़ गया। क्योंकि भले ही वह अनाज की हेराफेरी करने में फिस्स बोल गए, उन्हें अपने प्रतिद्वंद्वियों को सबक सिखा कर बड़ी तसल्ली हुई।<br />
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लेकिन, रत्नदेव के सितारे बुलंद थे। वह दोबारा अखबारों की सूर्खियों में आए। इस बार, सरकारी राहत सामग्री को जनता में ईमानदारी से विरित कराने के काम में उनकी छवि मुखर हुई। उनके सिर एक आदर्श समाज सेवक का तगमा मढ़ा गया। अखबारनवीसों का हुजूम फिर उनकी ओर उमड़ा। उन्होंने रत्नदेव को समाज सेवा की मिसालिया महानियों का नायक बनाया। जिले के सांसद फिर उनसे मिलने आए और एक विशाल जन सभा में उन्हें सम्मानित किया। उनकी नि:स्वार्थ सेवा से प्रभावित होकर प्रशासन ने उन्हें 'जिला बाढ़ राहत कमेटी' का अध्यक्ष बनाया। इसके चलते, वह अपने ही गाँव के ही नहीं, अपितु जिले भर के बाढ़ पीड़ितों के मसीहा बन गए। अब, उनकी ही सिफारिश पर अन्य बाढ़ क्षेत्रों के लिए राहत राशि जारी की जाती थी। इसलिए जहाँ वह लाखों के लिए तरस रहे थे, वहीं वह करोड़ों में खेलने लगे।<br />
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लोग बाढ़ के सदमें से धीरे-धीरे उबर रहे थे। दीनबंधु रत्देव ने बटुक भैरव के मंदिर का भव्य निर्माण करा कर उसके लोकार्पण के अवसर पर जिले भर के सम्मानित व्यक्तियों को आमंत्रित किया। वहाँ विशाल भोज में शामिल जिला सांसद ने उन्हें औपचारिक रूप से अपनी पार्टी की तरफ से मेयर का चुनाव लड़ने का न्यौता दिया। इस घोषणा से सबसे ज्यादा खुशी गाँव वालों को यह सोच कर हुई कि दीनबंधु को मेयर के पद का प्रत्याशी बनाकर उनके गाँव का सिर ऊंचा किया गया है।<br />
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आज दीनबंधु जी जिला मेयर हैं। सांसद उनके समधी हैं। जगदंबा को उनके बेटे को अपना दामाद न बना पाने का बड़ा मलाल है। आखिर, वह अपनी इस भूल का प्रायश्चित कैसे करें? इसलिए, जेल से रिहा होते ही वह सीधे मेयर के सरकारी आवास पर गए और अपनी करनी के लिए उनके सामने गहरा पश्चाताप प्रकट किया। दीनबंधु जी प्रसन्न हुए। अब उन्होंने जगदंबा को क्षमादान कर अपने चमचों की सेना में नियुक्त कर लिया है। जगदंबा को पूरी उम्मीद है कि जब दीनबंधु जी सांसद बनेंगे तो शायद उनकी सिफारिश पर उनकी पार्टी की ओर से उन्हें विधायक का चुनाव लड़ने के लिए टिकट मिल जाए।</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A2%E0%A4%BC_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5964सियासत की बाढ़ / मनोज श्रीवास्तव2011-12-01T07:22:59Z<p>Dr. Manoj Srivastav: ''''सियासत की बाढ़''' जब मानसून समय से न आए तो फसलों को सू...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
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<div>'''सियासत की बाढ़'''<br />
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जब मानसून समय से न आए तो फसलों को सूखा रोग लग जाता है और जब असमय आए तो खेत-खलिहानों से लेकर बस्तियों तक जालंधर की बीमारी लग जाती है। पूरे जेठ माह तक आसमान से बारिश का एक कतरा भी नीचे नहीं गिरा। परिणामस्वरूप, आषाढ़ के शुरू होते ही लोग त्राहि-ताहि करने लगे और सरजू नदी के किनारे इकट्ठे होकर इन्द्र देव को रिळााने के लिए सारे उल्टे-सीधे कर्मकांड अपनाने लगे। जब यळ्ा-अनुष्ठान, अखंड रामायण और भजन-कीर्तन से भी इन्द्रदेव का दिल नहीं पसीजा तो पंडित बृजबिहारी ने घोषणा की, "अब तो बरखारानी को रिळााने का बस एक ही उपाय बचा है। पूनम की अर्ध-रात्रि को गाँव के मुखिया की नई-नवेली बहू सरजू में उघारी स्नान करे।"<br />
बृजबिहारी का यह आखिरी नुस्खा कुछ ही घंटों में बच्चे की जुबान पर था। शोख-मनचले लौंडे इस बात को चुटकियां ले-लेकर कह-सुन रहे थे। रत्नदेव आग-बबूला हो उठे--"अरे, हम ग्राम प्रधान हैं। तो क्या हुआ? अपनी आबरू को नंगा करने का कुव्वत हममें नहीं है। भाड़ में जाए ऐसी प्रधानी। अरे, हम बरखा कराने का कोई ठेका तो नहीं ले रक्खे हैं। यह सब ईश्वर की माया है। हमारे बस में क्या है? कुछ भी नहीं।"<br />
रत्नदेव का ऐसा कहना स्वाभाविक भी था। अभी उन्हें अपने बेटे प्रकाश का ब्याह रचाए जुम्मे-जुम्मे कितने दिए हुए हैं? बहू के हाथों की मेंहदी के रंग भी फीके नहीं पड़े हैं। कम से कम पहली बार उसके माँ बनने तक तो उसे परदे में ही रखना होगा। फिर, खुले आसमान के नीचे उसे नहाने के लिए विवश करना और वह भी नदी में एकदम नंगी। रत्नदेव के मन में एकबैक उजाला हो गया। वह मन ही मन धार्मिक ढकोसलों को धिक्ारने लगे। सामाजिक पाखंड की बखिया उधेड़ने लगे।<br />
जब गाँव वाले उनकी प्रतिक्रिया से वाकिफ हुए तो उनमें बढ़ती बेचैनी आंदोलन का रूप लेने लगी। बटुक भैरव के अहाते में इकट्ठी, उत्तेजित भीड़ का बस एक ही फैसला था- अगर ग्राम प्रधान, बृजबिहारी की बात नहीं मानेंगे तो उन्हें गाँव से बहिष्कृत कर दिया जाएगा। राघव तान में आ गया। उसने सिर पर अंगोछा लपेट कर गरदन फुलाते हुए ऐलान किया -'रत्नदेव को अभी हमारे बीच आने को कहो।' आनन-फानन में चार तुनकमिजाज लौंडे ग्राम प्रधान के घर जा धमके। रत्नदेव करते क्या? गाँव का मामला था और गाँव से निकाले जाने की धमकी जो मिली थी। आखिर, अपने पुरखों की जमीन-जायदाद छोड़कर वह जाएंगे कहाँ? भीख तो मांगेंगे नहीं। उँचे खानदान के जो ठहरे। वह भय से सिहर उठे। सो, ग्राम प्रधानी का फर्ज अदा करने के लिए हाजिर होना ही पड़ा।<br />
अहाते में प्रवेश करते ही उन्होंने बटुक भैरव के मंदिर में अपना मत्था टेकाया - 'हे भैरव बाबा, कुछ भी हो, आप हमारी बहू-बेटी की लाज बचाना।'<br />
जब उन्होंने भीड़ से नजर मिलाई तो उन्हें वहाँ व्याप्त रोष का पता चल गया। वह अपराधी की भांति सिर ळाुकाए बीचोबीच खड़े हो गए। सवाल अहम था। नष्ट हो रही फसलों तथा पोखरों व कुओं का पानी सूखने के कारण आदमी और मवेशियों के प्यासे मरने का अति मानवीय प्रश्न था।<br />
पंडित बृजबिहारी रोषपूर्वक अपना जनेऊ खींचते हुए आगे आए- "आपको तो पता ही है कि इन्द्रदेव हमसे कितने कुपित हैं। हम लोग उन्हें मनाने के सारे कर्मकांड करके हार गए हैं। लेकिन, अब हाथ्ं पर हाथ धरे रहने से भी काम नहीं चलेगा। इन्द्रदेव चाहते हैं कि राजा अपने कुनबे की जवान बेटी या पतोहू को पूणिमा की अर्धरात्रि को सरजू में डुबकी लगवाए। चूंकि मुखिया ही गाँव का राजा-सरीखा कर्ता-धर्ता होता है, इसलिए आप ही यह जहमत उठाएं..."<br />
रत्नदेव ने भैरव देव का ध्यान करते हुए कि -'भगवान, अब हम आपकी शरण हैं', सिर घुमा कर भीड़ पर विहंगम दृष्टि डाली। फिर, खखार घोटते हुए गला साफ किया। "तो आप लोग चाहते हैं कि हम अपनी इज्जत को सरेआम नीलाम करें। अरे, जब सारा यळ्ा-हवन करा के भी कोई नजीजा नहीं निकला तो आप कैसे दावा कर सकते हैं कि उधारी औरत को खुलेआम चाँदनी रात में नहलाने से बरखा हो ही जाएगी।"<br />
लेकिन, इस समाज-कल्याण के मुद्दे पर सभी की मिली भगत थी। रत्नदेव एकदम अकेले पड़ गए, जैसे हिंसक जानवरों के जंगल में निरीह मेमना। वह भाग कर जाएंगे कहाँ? उन्हें यह धार्मिक नीति तो निभानी ही पड़ेगी। आखिर, गाँव वालों ने ही उन्हें प्रधान की कुर्सी पर बैठाया है। प्रधान की हैसियत से उन्होंने जो भी उल्टा-सीधा किया है, क्या गाँव वालों ने उसे हमेशा मौन सहमति नहीं दी है?<br />
बृजबिहारी ने कहा, "प्रधान जी हम कैसे बता सकते हैं कि किस कर्मकांड से देवता कब रीळा जाएंगे? कौन-सा कर्मकांड पहले करें और कौन-सा बाद में? अब हम सारे नुस्खे तो आजमा चुके हैं। आखिरी नुस्खा यही बचा है। यानी, यह नुस्खा पहले आजमाया गया होता तो आज सारा गाँव आकंठ जलमग्न होता।"<br />
उनके आत्मविश्वास-भरे स्वर से रत्नदेव पसीने-पसीने हो गए। उन्होंने पसीने के उफान को अंगोछे से पोछा। चूंकि बृजबिहारी की दलील में दम था, इसलिए उन्होंने पैंतरा बदलना ही उचित समळाा- "पर, क्या यह जरूरी है कि हमारी ही बहू या बेटी को बलि का बकरा बनना पड़ेगा? अरे, गाँव में कितनों के घर नई-नवेली बहुए हैं..."<br />
"हैं तो क्या हुआ? अरे, आप ठहरे हमारे गाँव के पहले हाकिम। आपको हमारे भले की बात पहले सोचनी चाहिए। क्या आपको नहीं मालूम है कि राजाओं के जमाने में बरखा के लिए राजा-रानी खेत में हल तक चलाते थे? हमें मालूम है कि जो कर्मकांड पंडिज्जी सुळाा रहे हैं, वह पहले भी कई बार आजमाया जा चुका है और प्रजा का मनोरथ भी पूरा हुआ है," राघव जो पहले से ही प्रत्यंचा ताने हुए तीर छोड़ने के लिए बेताब हो रहा था, ने एक ही बार में रत्न सिंह को अवाक कर दिया। वह ऐसी दुविधा में पहले कभी नहीं पउे थे। उन्होंने यह सोच कर जुबान पर ताला लगा लिया कि अगर अब उन्होंने ज्यादा तर्क-कुतर्क किया तो उन्हें गाँव से बहिष्कृत किए जाने की धमकी भी मिलेगी, जैसा कि वह कानाफुसियों से सुनते रहे हैं। गाँव में उनके विरोधियों में गुटबाजी का माहौल तो पहले से ही बना हुआ है। भूतपूर्व प्रधान, ठाकुर जगदंबा हर पल उनका पैर खींचने के फिराक में पड़े रहते हैं।<br />
रसूल मियां ने रत्नदेव को मनाने की गरज से उनके कंधे पर हाथ रखा। "प्रधान जी, आपके लिए तो यह बड़े फख्र की बात है कि अब आपके हाथों ही गाँव वालों का भला होने वाला है। यकीन कीजिए, गरीबों की दुआ से आपकी बरकत में दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ोत्तरी होगी। हम तो कहते हैं कि इस रसम को अदा करके, आपकी इज्जत में चार-चाँद लग जाएंगे। कौन कहता है कि आपकी बहू की बदनामी होगी? अरे, आपकी बहू तो हमारी भी बिटिया-समान है।"<br />
रसूल मियां की हौसला आफजाई से रत्नदेव का अड़ियलपन डोल गया। वह भी सोचने लगे कि ऐसे जनहित के सवाल पर पहले उन्हें ही अपना सब कुछ दांव पर लगाना चाहिए। लिहाजा, वह गाँव वालों के खयालात के खिलाफ भी तो नहीं जा सकते हैं। आज उनका परिवार जो भी ऐशो-आराम भोग रहा है। वह सब इस प्रधानी की बदौलत ही तो संभव हो सकता है। पहले की अपेक्षा उनका रूतबा बढ़ा ही है। इसी प्रधानी का चुनाव जीतने के लिए उन्हें क्या-क्या नहीं करना पड़ा है? कैसे-कैसे पापड़ नहीं बेलने पड़े? खेत गिरवी रखा, अपनी जोरू के गहने बेचे। इतना ही नहीं, ऐन मतदान के दिन, अपने लाडले प्रकाश को बी.ए. की परीक्षा में शामिल होने के बजाय गाँव में ही रोक लिया, ताकि वह चुनावी माहौल का सही-सही जायजा लेकर गाँव वालों से उनके पख में वोट डलवा सके। बेचारे की साल भर की पढ़ाई का सत्यानाश हो गया। अन्यथा, वह इस साल ग्रेजुएट हो गया होता। गाँव वाले उनके इस चुनावी जुबून को देख कर न जाने क्या-क्या ताने कसते थे कि सिन्हा जी एकदम बौरा गए हैं... कि रत्नदेव जैसा सुच्चा आदमी पालिटिक्स कैसे कर पाएगा... कि जब रत्नदेव की जमानत जब्त होगी तब वह दर-दर के भिखारी बन जाएंगे, वगैरा, वगैरा। लेकिन, रत्नदेव ने अपना दमखम बरकरार रखा। अपनी किस्मत पर भी कितना भरोसा था उन्हें! इसी प्रडित बृजबिहारी ने उनकी कुंडली और हस्तरेखा देख कर भविष्यवाणी की थी-'जजमान, आप इलेक्शन शतिया जीतेंगे। शुक्र, चन्द्र और बृहस्पति बड़े अनुकूल चल रहे हैं। राजयोग बन चुका है। अगले सप्ताह से साढ़े साती चढ़ने से पहले ही आपका भाग्योदय हो जाएगा और उसके बाद भी शनि आपका बाल बाँका नहीं कर पाएंगे।<br />
रत्नदेव ने दत्तचित्त हो कर चुनाव लड़ा और वह विजयी हुए, और वह भी दिग्गज महारथी ठाकुर जगदंबा प्रसाद के विरूद्ध जिनका प्रधानी पर एकछत्र अधिकार रहा है।- पूरे पन्द्रह सालों से। इसलिए, इतनी मुश्किल से बाजी जीतने के बाद वह प्रधानी की कुर्सी इतनी आसानी से कैसे छोड़ देंगे? अभी तो जितना चुनाव में खर्च किया था, उसका सूद भी नहीं उगाह पाए हैं।<br />
जब रत्नदेव उदास-मन वापस लौट रहे थे तो उन्होंने बटुक भैरव का फिर ध्यान किया-'प्रभु, आपकी माया अपरंपार है। हम तो आपके हाथ्ं की कठपुतली मात्र हैं। आपकी हर इच्छा में हमारा भला छिपा होता है। हे भैरव बाबा, इस साल कहर बरपाने वाली ऐसी बाढ़ लाओ कि हम सरकारी राहत, रसद और माली मदद से अपनी किस्मत चमका लें।"<br />
XXX XXX XXX<br />
करिश्मा हो गया। देवी चमत्कार का ऐसा नायाब मिसाल न पहले कभी देखा, न सुना। इधर रतनदेव की गोरी-गुनबारी बहू ने चाँदनी रात में सरजू में डुबकी लगाई, उधर पूरब दिशा से कपासी मेघों का घनघोर गुबार उमड़ने लगा।<br />
पंडित बृजबिहारी सरजू किनाने जमा भीड़ के बीच सीना फुला कर इतराने लगे- "देखा लिया न, हमारा चमत्कार? अब देखना, यह गाँव ही क्या, सारी दुनिया बरखा से लबालब हो जाएगी।"<br />
चाँदनी उजास में रसूल मियां ने भ्ंीड़ को चीरते हुए बृजबिहारी के पास आकर उनकी पीठ थपथपाई। "मान गए, उस्ताद। आप अपने फन में कितने माहिर हैं? लाजबाब हैं? आपके क्या कहने?"<br />
इधर बृजबिहारी अपने चापलूसों से घिरे हुए तारीफों के पुल पर खड़े दर्प में ळाूम रहे थे,<br />
उधर पानी की मोटी-मोटी बूँदे आसमान से टपकने लगीं। रत्नदेव ईर्ष्या से पागल हुए जा रहे थे, सोच रहे थे कि अलोनी दाल में नून हमने डाला, लेकिन लोग धूर्त पंडित की मक्खनबाजी कर रहे हैं। हमारी नहीं, उसकी चम्पी-मालिश कर रहे हैं।<br />
बूॅंदाबाँदी बारिश का रूप ले रही थी। बृजबिहारी ने समय रहते चट भविष्यवाणी की- "यह कोई मामूली बरखा नहीं होने वाली है। बड़ी मूसलाधार होने वाली है। आखिर, हमारे पूजा-पाठ का जोर लगा है।"<br />
चूंकि बृजबिहारी में लोगों की आस्था अडिग हो चुकी थी, इसलिए उनकी चेतावनी को सुनते ही लोग भागने लगे। जैसे बारिश नहीं, साक्षात भूत उनका पीछा कर रहा हो।<br />
बारिश से तर-बतर रत्नदेव ने घर में घुसते ही घूंघट में अपनी बहू को गर्व से देखा- "तूं तो बड़ी भागवान है। तूने तो मेरा कद बढ़ा कर उनचास हाथ का कर दिया।" बेशक, उनकी बहू उनके खानदान में ही क्या, दूर-दराज के इलाकों तक बड़े श्रेय और प्रतिष्ठा की हकदार बन गई थी।<br />
XXX XXX XXX<br />
रत्नदेव सोने की अथक कोशिश करने के बाद भी नहीं साके सके। बरसात की रिमळिाम उन्हें उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की शहननाई से भी ज्यादा मनभावन लग रही थी। वह देर तक सोचते रहे कि क्या बटुक भैरव ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली है। अगर सरजू में बाढ़ कचक कर आ जाती और उनका गाँव नदी का मंळाधार बन जाता तो वह मान लेते कि भैरव बाबा ने उनकी बहू को धनलक्ष्मी बना कर उनके घर भेजा है। सूखा क्या है, वह तो हर साल अपनी हाजिरी लगा जाता है। लेकिन, उससे उन्हें क्या मिलता है? कुछ भी नहीं। न तो सरकार भूखे-प्यासे लोगों के लिए कोई माल-पानी भेजती है, न ही धन्ना-सेठ सूखा-पीड़ितों के लिए कोई दान-चंदा देते हैं। बहुत हल्लागुल्ला मचाने पर, लावारिस - पड़े चंपाकलों की मरम्मत करा दी जाती है एकाध कुंए खुदवा दिए जाते हैं या पंपिंग मशीन चला कर दो चार दिन पानी चला दिया जाता है। इन सबसे ग्राम प्रधान को क्या फायदा पहुँचता है? इतनी एड़ी चोटी की कोशिश से यह ग्राम प्रधानी हाथ लगी है। पर, तीन साल से छूछे हाथ हैं। कहीं कोई बड़ा हाथ नहीं मार सके। लिहाजा, अगर सूखा लंबा खिच जाता है तो कुछ नेता और अफसर क्षेत्रतीय दोैरा कर जाते हैं। जनसंख्या विभाग के कर्मचारी भूले-भटके यह रिपोर्ट लेने चले आते हैं कि सूखा से कितने लोग भूख-प्यास के शिकार हुए हैं और कितने सूरज के कोप का भाजन बने हैं। फिर, उसके बाद जाड़ा के आने तक सरकार कान में रूई डाल कर खर्राटा भरती है। लेकिन, इस बाढ़ का क्या कहना? वह अपने पीछे अनाज का गोदाम और रूपयों के बंडल बाँध कर आती है। जितनी तबाहकुन और दीर्घजीवी बाढ़, उतना ही ज्यादा ग्राम प्रधान की चाँदी। जैसे यह बाढ़ नहीं, साक्षात कुबेर का खजाना पाूट पड़ा हो। कोई सात साल पहले कुबेर ने बाढ़ के रूप में अपनी दयादृष्टि की थी। तब, गाँव के प्रधान जगदंबा प्रसाद थे। अरे, क्या कमाई की थी उन्होंने? आँखें फटी की फटी रह गई थी। उसी कमाई की बदौलत, उन्होंने शहर में एक सिनेमा हाल खुलवाया, दो-दो ट्रक चलवाए, अपने नाकारा पड़े कोल्ड स्टोरेज का जीर्णोद्धार करवाया। इतना ही नहीं, अपने नायालक बेटे को डोनेशन के जरिए मेडिकल कालेज में दाखिला दिलाया और अपनी सयानी बेटी का इतने छाव-बधानव से ब्याह कराया कि ऐसे आलीशान विवाह की मिसाल दूर-दूर तक दी जाती है। विवाह हो तो ठाकुर की बेटी की तरह, नहीं तो न हो।<br />
काश! ईश्वर उनकी मनोकामना भी पूरी कर देता! वह भी कम से कम एक भव्य कोठी तो बनवा ही लेते। अपने निठल्ले आलसी बेटे के लिए पेट्रोल पंप खुलवा देते, ईंट के भट्ठे चलवा देते। यानी कुछ ऐसा पक्का जुगाड़ कर लेते कि जब वह प्रधान की कुर्सी पर न भी बैठे हों तो मजे से चिकनी-चुपड़ी रोटी तोड़ सकें।<br />
सुबह जब रत्नदेव की नींद खुली तो ळामळामाती बरसात ने उन्हें एक सुखद एहसास से आप्लावित कर दिया। घर में जितने भी सदस्य थे, वे सभी यही आस लगाए बैठे थे कि यह बारिश कम से कम सप्ताह भर तो अविराम होती ही रहे। ताकि सरजू नदी भभक कर उन्हें डुबो दे। उनका गाँव देखते -देखते जल समाधि ले ले। लोगबाग हाहाकार करने लगे। मवेशी बाढ़ में बह कर मर-खप जाएं और खड़ी फसल का दम घुट जाए। जब वर्षा में कुछ मंदी जाती तो सभी के चेहरे पर चिंता पसरने लगती। हे भगवान, अब क्या होगा? कहीं इस साल भी बस एक बार बारिश तो हमें कौड़ी-कौड़ी का मोहताज बना कर ही छोड़ेगा। प्रधानी की कुर्सी सिर्फ दो साल ही सलामत रहेगी। फिर, नया चुनाव होगा। पता नहीं कौन प्रधान बनेगा।<br />
रत्नदेव दरवाजे पर कुर्सी लगाकर बरसात का जायजा ले रहे थे। न तो अखबार पढ़ने में जी लग रहा था, न ही गरम-गरम पकौड़े खाने में। जसोदा बार-बार रसोई से आकर बरामदे में ळााँक जाती। वह अत्यंत चिंतित थी कि आखिर! उसके पति उसके बनाए लजीज पकौड़े क्यों नहीं खा रहे है। और यह पूछ जाती क्या पकौड़े के साथ्ं पुदीने की चटनी चलेगी या टमाटर की मीठी चटनी लाएं। पर, रत्नदेव की आँखे सब बातों से बेखरब, बारिश की धार पर टिकी हुई थीं। मक्खियों का हुजूम उमड़ रहा था, वे न केवल पकौड़ों पर टूट रही थीं बल्कि रत्नदेव के मुंह पर भी अपने डंक चुभो रही थीं। लेकिन, वह थे कि सिर्फ हाथ हिला-हिला कर मक्खियां उड़ा रहे थे। मन तो कहीं और लगा हुआ था।<br />
चुनांजे, इन्द्रदेव जितने गाँव वालों से नहीं प्रसन्न थे, उससे ज्यादा वह रत्नदेव पर रीळा रहे थे। गोया कि यह कह रहे हों कि 'रत्नदेव, देख! तूने अपनी बहू की चमचमाती देह का दर्शन मुळो कराया और मैने तेरी ळाोली भर दी। इस साल, मैं तुळो मालामाल कर दूंगा।'<br />
लगातार ळामाळाम बरसात ने उनका अहोभाग्य लिख दिया था। जब रसूल मियां ने आकर उन्हें इत्तला किया कि- 'प्रधान जी ऐसी ताबड़तोड़ बारिश कई सालों बाद देखी है' - तब, रत्नेदव के रोंगटे खड़े हो गए। मन में लड्डू फूटने लगे। लेकिन, चेहने पर कृत्रिम चिंता की रेखा के साथ, वह मेहराई आवाज में बोल उठे- 'अरे मियां, यह तो अच्छी खबर नहीं है । हमारा गाँव तो सबसे पहले बाढ़ का ग्रास बनेगा क्योंकि यह सरजू की घाटी के बराबर फैला हुआ है।" उन्होंने अपने बेटे प्रकाश को आदेश दिया- "ट्रांजिस्टर लाओ।" जब टार्च की पुरानी बेटरियां डालकर ट्रांजिस्टर ऑन किया तो जिले की स्थानीय खबरें ही चल रही थी। खबर भी क्या थी कि बारिश की रनिंग कामेंट्री चल रही थी। उन्होंने कान में उंगली डाल कर जोर से हिलाया ताकि चिपचिपाहट कम हो जाए और वह समाचार का एक-एक हिज्जा सुन सकें। कभी क्रिकेट टेस्ट मैच की कामेंट्री भी इतने चाव से नहीं सुनी होगी। नदी में अचानक बाढ़ की आशंका से प्रशासन के हाथ -पाँव फूल रहे थे। गाँव के गाँव डूबते जा रहे थे। मौसम विभाग यह भविष्यवाणी कर रहा था कि अगर यह बारिश लंबी खिची तो बाढ़ की तबाही पिछले सारे रिकार्ड ध्वस्त कर सकती है। रत्नदेव ने बटुक भैरव का ध्यान कर, उन्हें तहे दिल से शुक्रिया अदा की। इसी दरमियान, एक किशोर कीचड़ और उफनता पानी फलांगता उनसे रूबरू हुआ- "मालिक, मालिक, बड़ा गजब हो गया है। अखडू कुमार का घर ढह गया है और उसके पलिवार के सभी जने उसमें दब गए हैं। मुंशी ताल का पानी उसके ही घर में हड़हड़ा कर भर रहा है।"<br />
रत्नदेव के कान खड़े हो गए। अभी बाढ़ आई नहीं और भाग्यशाली विप्लव आरंभ हो गया। पास खड़ी जसोदा देवी ने अपने पति से आँखों ही आँखों में इशारा किया- 'बोहनी-बट्टे का मौका है। अब तनिक भी देर मत कीजिए।' रत्नदेव उसका इशारा समळा गए और अखडू के घर गिरने के समाचार से आहत रसूल मियां को ळाकळाोरा - "मिया, इचको भर कोताही मत बरतों, नहीं तो अखड़ू सपरिवार बरखा की बलि चढ़ जाएंगे।'<br />
वे नंगे पांव निकल पड़े। बरसात में जूता-चप्पल पहनने की कबाहट कौन मोल ले? रास्ते भर "मदद करो, मदद करो, अखड़ू का घर ढह गया है" चिल्लाते हुए जब वे अखडू़ के क्षत-विक्षत मकान के सामने आकर खड़े हुए तो उनके साथ कोई दर्जन भर हट्टे-कट्टे नौजवान भी शामिल हो गए थे। रत्नदेव ने दहाड़ कर कहा- "तुम जने, खड़े-खड़े मुंह क्या ताक रहे हो? काम पर लपट जाओ। पहले, ळाटपट मलवा हटाओ, फिर अखड़ू के परिवारजनों को बाहर निकालो। इसका ख्याल रखना किसी की जान पर कोई खतरा न आए..." वह तहे-दिल से प्रार्थना करते जा रहे थे कि हे भगवान! हमारी प्रधानी में किसी की अकाल मौत न हो।"<br />
लगभग आधे घंटे की जी-तोड़ मशक्कत के बाद अखड़ू समेत उसके सभी परिवारजनों को बाहर निकाला गया। वे खून से लथपथ थे और उनका कोई न कोई अंग भंग हो चुका था। रत्नदेव ने निढटाल युवकों को फिर पना फरमान सुनाया- "अरे, इतने में ही तुम जनों का कचूमर निकल गया। अब और देर करोगे तो इनमें से कोई न कोई मर जाएगा। इन्हें अपने-अपने कंघे पर उठाओ और अस्पताल पहुंचाओ। इस खराब मौसम में हम तुम्हारे लिए मोटर-गाड़ी तो मंगाएंगे नहीं।"<br />
XXX XXX XXX<br />
ग्राम प्रधान- रत्नदेव रातों-रात 'दीनबंधु' के नाम से लोकप्रिय हो गए। लोग उन्हें भूतपूर्व प्रधान ठाकुद जगदंबा प्रसाद से लाख दर्जे बेहतर साबित करने पर तुले हुए थे कि एक स्साला था जो हमें पन्द्रह सालों में लूट-खसोट कर कंगाल बना गया और एक ये ईमानदार प्रधान है जिसे दीन-दु:खियों की सेवा करने में ही परम आनन्द मिलता है।<br />
रत्नदेव नंगे पाँव अस्पताल में जमे रहे। भूखे-प्यासे, पूरे आठ दिन तक, जब तक कि अखड़ू अपने घायल बाल-बच्चों समेत चंगा हो कर राहत शिविर में स्थानांतरित नहीं हो गया। अस्पताल से राहत शिविर तक रत्नदेव को पत्रकारों से घिरे रहना बेहद रास आया। एक मिसालिया समाज सेवक बनने के लिए वह एड़ी चोटी का प्रयत्न करते रहे। कई घर ढहे, दर्जनों लोग घायल अवस्था में अस्पताल में भर्ती हुए। वह उनकी तीमारदारी में तन-मन से समर्पित रहे। फलस्वरूप, उनकी समाज सेवा की रपट बड़े-बड़े अखबारों में उनकी फोटो समेत छपी। कलक्टर साहब ने उनकी पीठ थपथपाई और ब्लाक प्रमुख ने उन्हें एक सार्वजनिक सभा में आमंत्रित कर सम्मानित किया-'रत्नदेव ऊर्प 'दीनबंधु' एक अदने से गाँव के ही नहीं, बल्कि संपूर्ण जिला के चिराग हैं। उनकी उदार सेवा-भावना से प्रभावित होकर हम उन्हें 'जिला रत्न' की खिताब देते हैं।'<br />
गड़गड़ाती तालियों की गूंज इतनी दूर तक प्रतिध्वनित हुई कि जिले के सांसद की भी नींद उड़ गई। वह एक बार नहीं, तीन-तीन बार उनसे मिलने आए। उन्हें वचनबद्ध किया कि अगले साल उन्हें इस छोटे से गाँव से उठकर शहर में जमना होगा। वहाँ मेयर बन कर पूरे जिले को कृतार्थ करना होगा। आखिर, लोकप्रियता की चोटी छू रहे रत्नदेव जैसी घातक बला को टालने के लिए उनके आगे हड्डियां तो डाली ही पड़ेंगी। अन्यथा, क्या पता, पार्टी अध्यक्ष उनके बजाय रत्नदेव को ही लोक सभा चुनाव लड़ने के लिए टिकट दे दे और उनका पत्ता ही साफ हो जाए। लेकिन, रत्नदेव के लिए तो मेयर का चुनाव लड़ने का न्यौता मिलना अंधे के हाथ बटेर लगने जैसा था। वह तो सचमुच बटुक भैरव के कृपापात्र बनते जा रहे थे।<br />
जब बारिश का कहर कुछ मद्धिम हुआ तो बाढ़ ने गाँव के गाँव लीलना शुरू कर दिया। मम्के की इठलाती फसल की कमर पहले ही टूट गई थी। अब बाढ़ ने खतिहरों और मवेशियों को आतंकित करना शुरू कर दिया। छत्तीस टोलों और 30 हजार की जनसंख्या वाला सिम्हौरी गाँव जलमग्न हो गया। पर, दीनबंधु ने बाढ़ में बह रहे विषधर नागों और जहरीले बिच्छुओं व गोजरों से बचाव के लिए सारे बंदोबस्त पहले ही कर दिए। जिन स्कूली भवनों और राहत शिविरों में अपने गाँव वालों को स्थानांतरित किया था, वहाँ डाक्टरों, कम्पाउंडरों और नर्सों की टीम पहले ही तैनात करा दी। फिर, अपने बाढ़-शरणार्थी लोगों को घूम-घूम कर तसल्ली भी देने लगे- "तुम्हारे ढहे घरों की मरम्मत हम कराएंगे... तुम्हारे मरे मवेशियों का मुआवजा हम दिलाएंगे... हमारे जीते-जी तुम लोगों को भूख, महामारी , रोग-आजार से कभी नहीं मरने देंगे..."<br />
'दीनबंधु' रत्नदेव को अपना भाग्य पलटता सा लग रहा था। यह सब रूद्रावतार भैरवदेव की कृपा थी। सो, उन्होंने अपने बेटे-प्रकाश को शहर भेजकर भैरव बाबा का रेशमी गंडा मंगवाया और पंडित बृजबिहारी से विधि-विधान पूर्वक पूजा-पाठ करा कर उसे अपने गले में धारण किया। गाँव वालों ने उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की कि दीनबंधु जी कष्ट और संघर्ष के दौर में भी ईश्वर को नहीं भूलते। आखिर, दरिद्र और विपन्न ग्रामीणों के हित में ही तो उन्होंने भैरव बाबा का प्रसाद ग्रहण किया है।<br />
लिहाला, उन्होंने बंद-आँखों से अपने इष्टदेव को वचन दिया- "भगवन, हमारी हार्दिक इच्छा है कि हम अपने गाँव में आपका एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाएँ। बाबा, बस मेरी ळाोली हीरे-मोतियों से भर दो और अगले साल जिला मेयर के चुनाव में हमें तुच्छ मेयर की मुरसी मुहैया करा कर अपना आजीवन दास बना लो।"<br />
दीनबंधु ने आँखें खोली तो सामने बृजबिहारी को खड़ा पाया जो उनकी मन: स्थिति को बखूबी ताड़ रहे थे।<br />
"जजमान! ईश्वर आप पर रीळा गए हैं। हम तो ठहरे भिखारी बांभन। बस, आप जनों की खुशहाली के वास्ते नारायण से टेर लगाना ही हमारा धर्म है। मालिक! अपने इस गुलाम पर ाी रहम कीजिएगा। हमें ज्यादा नहीं, बस आपकी कमाई में से दो परसेंट चाहिए। हम नाती-पूत समेत आपका गुणगान करते रहेंगे..."<br />
जब बृजबिहारी ने करबद्ध निवेदन करने के बाद, रत्नदेव को जाने का रास्ता दिया तो दरवाजे पर बी.डी.ओ. साहब का मैसेंजर कोई सरकारी लिफाफा लिए बेताब हो रहा था। रत्नदेव ने एक ळाटके से लिफाफा लेकर उसका मजनून पढ़ा। मन में खुशी की बयार बहने लगी। सरकार ने प्राकृतिक आपदा और बा से पीड़ितों की राहत के लिए पाँच ट्रक अनाज की डिलीवरी मंजूर कर ली थी। साथ में, उजड़े ग्रामीणों के नुनर्वास के लिए आठ लाख रूपए की राशि भी। चालाक बृजबिहारी उनका चेहरा पए कर पत्र के संदेश को भाँपने का यत्न कर रहे थे। पर,रत्नदेव ने एक नाचीज की तरह लिफाफे को कुर्ते की जेब के हवाले कर दिया और बृजबिहारी का ध्यान एक इतन विशय पर बँटाने लगे- "पंडितज्जी! अब हम सचमुच तबाह हो गए हैं। इससुरी बाढ़ ने हमें कहीं का न छोड़ा। सरकार कान में बत्ती डाले बैठी है और हम हैं कि फिजूल गला फाड़ कर चिल्लाए जा रहे हैं। अब तो अम्मा चिल्लाने पर भी बच्चे को दूध नहीं पिलाती। ऐसे में, हमारी जान की हिफाजत भगवान भी करेगा या नहीं..."<br />
अन्तर्यामी बृजबिहारी सब समळा रहे थे कि अब रत्नदेव कोई बड़ा हाथ मारने से पहले ऐसी ही उड़ी-अड़ी बातें करेंगे। जनता का माल हजम करने से पहले कभी सरकार की बखिया उधेड़ेंगे तो कभी अपना रोना रोएंगे। लेकिन, वह मन ही मन यह भी कहते जा रहे थे- जब हम इस बगुला भगत को रंगे हाथों पकड़ेगे तब पूछेंगे कि 'बच्चू! गुरू दक्षिणा दिये बिना ही सारा माल हड़प कर जाना चाहते हो। अभी हम हल्ला-गुल्ला मचा कर तुम्हारे थोपड़े से ईमानदारी का चोंगा हटा देंगे, तुम्हे सरेआम नंगा कर देंगे...'<br />
हुआ भी वही, जो रत्नदेव की सामाजिक सेहत के लिए इच्छा नहीं था। जब वह शाम आठ बजे अपने पुरखों के परित्यक्त मकान में पाँचों ट्रक का अनाज छिपाने का जुगत भिड़ा रहे थे, तभी, जैसे साँप दूर से ही आदमी की गंध पहचान लेता है, वैसे ही बृजबिहारी कहीं से आ धमके। रत्नदेव तो हकबका कर रह गए। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि पंडित इतना काइयां निकलेगा।<br />
बृजबिहारी आते ही अपना पंडिताना राग आलापने लगे- "दीनबंधु जी! ऐसा प्रतीत होता है कि दीन-दु:खियों की दुआओं का असर होने लगा है। क्या यह अनाज सरकार ने भिजवाया है..."<br />
बृजबिहारीमुक्त कंठ से रत्नदेव को हुई इस आमदनी के लिए बधाई देने पर तुले हुए थे। रत्नदेव ने कनखियों से इधर-उधर ताक-ळााँक कर माहौल का जायजा लिया और बृजबिहारी के कान से अपना मुँह सटा दिया - "पंडिज्जी! आप सुबेरे वाली अपनी दो परसेंट वाली बात भूल गया क्या..."<br />
बृजबिहारी एकदम से निरीह तोते पर बाज की भाँति टूट पड़े - "ना, ना, लर, इस मामले में तो ऐसा सौदा हमें कत्तई मंजूर नहीं है। हमें तो फिफ्टी-फिफ्टी का हिस्सेदार बनाओ, अन्यथा गाँव में जा कर शोर मचाऊंगा, बखेड़ा खड़ा करूंगा कि..."<br />
रत्नदेव ने चट अपना हाथ बृजबिहारी के मुंॅह पर रख दिया। लेकिन, उनकी बोलती कहाँ बंद होने वाली थी?<br />
"अब, आप हमारी जुबान पर ताला मत लगाइए, नहीं तो हम आपकी आती लक्ष्मी पर ग्रहण लगा देंगे। हमें भेड़ की खाल उधार कर भेड़िया को नंगा करना भी खूब आता है। तब, लोग आपके 'दीनबंधु' के चोले को बखूबी जान जाएंगे, आपको और आपकी प्रधानी को एक ठिकाने लगा देंगे..."<br />
रत्नदेव उनके अड़ियलपन के कारण सन्न रह गए। अपराध बोध से बीमार हो गए। वह उन्हें सरपट की ओट में खींच कर ले गए। उन्हें अपने हक पर किसी ऐरे-गैरे द्वारा दावा किया जाना एकदम नागवार लग रहा था। बृजबिहारी को एक दमड़ी देना भी अनुचित लग रहा था। पर, वह करें तो क्या करें? भांडाफोड़ का भय उन्हें बुरी तरह खाए जा रहा था। इसलिए, उन्होंने बृजबिहारी के साथ बहसा-बहसी में अपने घुटने टेक दिए।<br />
सौदा पट गया। जनता का मुंह बंद करने के लिए एक ट्रक का अनाज बाढ़ पीड़ितों में वितरित किया जाएगा। शेष चार ट्रक में से, तीन ट्रक का अनाज रत्नदेव के हिस्से में जाएगा जाएगा। और एक ट्रक अनाज बृजबिहारी को मिलेगा।<br />
चुनांचे, रत्नदेव ळाक्की बृजबिहारी से चौकन्ना हो गए। पंडित न तीन में, न तेरह में, फिर भी हराम की कमाई कर गया। लेकिन वह करते भी क्या? गोरख धंधे में वह अभी बहुत कच्चे हैं। गुस्से में उन्होंने अपने होठ काट कर सारा मुँह लहूलुहान कर दिया। बृजबिहारी कटाक्षपूर्वक मुस्कराते रहे।<br />
"दीनबंधु जी, आप हमें ऐसे ही खुश करते रहिए और हम आपके लिए बटुक भैरव से प्रार्थना करते रहेंगे... अरे आँ, हमारी मिलीभगत के बारे में किसी को कानों-कान खबर न होगी..."<br />
पल भर के लिए रत्नदेव, बटुक भैरव के जिक्र से ळाुंळाला उठे। लेकिन, अगले ही पल उनकी मन ही मन मक्खनबाजी करने लगे- भगवन, हम अच्दी तरह समळा रहे हैं कि आप हमारी आस्था की परीक्षा ले रहे हैं। पर, चाहे कुछ भी हो, हम अपने गाँव में आपके मंदिर का निर्माण जरूर करवाएंगे..." इस संकल्प ने उनके मनोबल को और दृढ़ किया। शायद, उनकी चापलूसी भगवान को भली लगी।<br />
लिहाजा, रत्नदेव की तिलमिलाहट वाजिब थी। उनके हक पर कोई तीसरा आदमी बट्टा लगा गया था। वह सर्किट हाउस के बरामदे में टहलते हुए लालटेन की लुप्प-लुप्प में सन्नाटे से सिर टकरा रहे थे। उनके घर वालों को उनकी बेचैनी का कारण पता नहीं था। प्रकाश उनके सामने से ही असलम की दुकान से बकरे का गोश्त लेकर अंदर गया था और महरिन द्वारा सील-लोढ़े से गरम मसाला, प्याज, लहसुन, अदरम आदि के पीसे जाने की महक चारो ओर फैल चुकी थी। उसके बाद, भगौने में प्याज का तड़का लगा कर गोश्त को मसाले में भुनने और उसमें शोरबा लगाने की आहट भी उन्हें मिल चुकी थी। किन्तु, आज उनका मन गोश्त खाने से पहले होने वाली जल्दबाजी से बिल्कुल चंचल नहीं था। उनका मन तो इस ग्लानि से ळाुलस रहा था कि उन जैसे चतुर कायस्थ को एक ब्राह्मण बुद्धू बना गया था। बुद्धि विलास में मात देने के उनके पौराणिक अहं को चकना चूर कर गया था।<br />
जब सलोनी ने आ कर लालटेन की बत्ती बढ़ाकर रोशनी तेज की और चटाई बिछा कर पानी भरा लोटा और गिलास रखा तो उसके साथ-साथ रोटी का सोंधापन भी ओसारे में फैल गया। अब उनका जीभ पर से संयम टूटने लगा। वह पालथी मार कर खाना खाने बैठ गये। अभी उन्होंने मुश्किल से दो रोटियाँ ही खाई थी और गोश्त के चंद टुकड़े ही चिचोरे थे कि दरवाजे पर हुई दस्तक से उनके मुँह का स्वाद बिगड़ गया। जसोदा खिड़की से ळााँक कर फुसफुसाई- 'ए जी, ठाकुर जगदंबा आए हैं...'<br />
रत्नदेव ने थाली खिसका कर सलोनी बिटिया को दरवाजा खोलने के लिए इशारा किया और खुद भूतपूर्व प्रधान की अगवानी के लिए खड़े हो गए।<br />
"तो, दीनबंधु जी, अब आपके सितारे बुलंद हैं। लगे हाथ अपनी सात पीढ़ियों की किस्मत भी चमका लीजिए," ठाकुद जगदंबा ने घुसते ही व्यंग्य कसा और मीट की गंध को नाक से सुड़कने लगे। अभी रत्नदेव उनके आगे स्टूल खिसकाते हुए खुद मचिया पर बैठ ही रहे थे कि जगदंबा फिर बोल उठे-<br />
"तो, बाबू साहब, कल कलेक्टर सा'ब से चेक लेने कब चल रहे हैं? आपकी हिफाजत के लिए हमारा और हमारे आदिमियों का आपके साथ रहना बड़ा जरूरी है। जानते ही हैं, जमाना कितना खराब हैं?"<br />
रत्नेदव के पैरों तले से जमीन खिसक गई। सोचने लगे कि आठ लाख रूपयों की सरकारी मदद के बारे में जगदंबा को कैसे भनक मिली? जरूर बृजबिहारी ने चुगलखोरी की होगी। वह मन ही मन उसे गिन-गिन कर गालियाँ देने लगे।<br />
"अरे हाँ, ठाकुर सा'ब। हम तो आपको इसी खातिर याद करने वाले थे। आखिर, भूतपूर्व प्रधान की देखरेख में ही तो गाँव वालों का भला होगा। फिर, इसी रकम से तो बाढ़ की परवान चढ़े उनके घरों की मरम्मत होगी। टूटी-फूटी गलियों को दुरूस्त किया जाएगा। जो प्राइमरी सकूल ढह गया है, उसे दोबारा खड़ा किया जाएगा। बरसात के बाद आने वाली महामारी से निबटने के लिए दवा-दारू का इंतजाम भी इसी से किया जाएगा..."<br />
रत्नदेव पूरी ईमानदारी बरतने और अपने मन की खोट छिपाने का ढोंग करते हुए जगदंबा को विश्वास में लेने का भरसक प्रयास कर रहे थे।<br />
लेकिन, जगदंबा उनकी बातों को बेहटियाते हुए हँस पड़े, "तो, अब आपने गाँव में सुधार आंदोलन चलाने का पूरा विचार बना लिया है। अरे, दीनबंधु जी, आपको अपने बाल-बच्चों का भी कुछ ख्याल है क्या?"<br />
"ऐं,ऐं, ऐं", उनके इशारे से बिल्कुल अनजान बन कर रत्नदेव ने पूछा, "आपका मतलब हमारी समळा में नहीं आया, जगदंबा जी..."<br />
"आप ऐसे नहीं समळोंगे" कहते हुए जगदंबा ने अपनी स्टूल उनकी मचिया से सटा दी। उनके मुँह से शराब की भभक से रत्नदेव का मन मितलाने लगा। <br />
जगदंबा ने कहा, "रतन भाई, आप परधानी की कुरसी बहुत कुछ हार के जीते हैं। आप उस नुकसान की भरपाई कैसे करेंगे?"<br />
रत्नदेव गंभीर हो गए। उन्हें पहले जो बात थोड़ी-थोड़ी समळा में आ रही थी, अब अच्छी तरह समळा में आने लगी थी। वह यह भी समळा रहे थे कि पंडित की तरह यह ठाकुर भी उनसे बिना मूलधन के, ब्याज ऐंठना चाहता है- उनका हितैषी बनने का स्वांग खेल कर।<br />
जगदंबा पुन: बोल उठे, "ना, ना, ना। हमें आपसे कुछ भी नहीं चाहिए। हम तो आपको कुछ दे के ही जाएंगे, ले के नहीं। दरअसल, हम आपको अपना तजुर्बा बताने आए हैं। आप समळा रहें हैं, ना..."<br />
रत्नदेव यंत्रवत् सिर हिला रहे थे और उनका मन टटोलने की कोशिश कर रहे थे।<br />
जगदंबा लगातार बोलते जा रहे थे, "प्रधान जी, हमारा मतलब ये हैं कि आपको जो जनसेवा करके वाहवाही लूटनी थी, सो आप लूट चुके हैं। अब आप अपनी लोकप्रियता भुनाइए। समय का यही तकाजा है। आप क्या समळाते हैं कि सरकार ये रूपया आपको जनता में लुटाने के लिए दे रही हैं? नहीं, नहीं। वहाँ विकास के नाम पर बड़े-बड़े मंत्री-मंत्री, एम पी-एमेल्ले अरबों की हेराफेरी कर रहे हैं और यहाँ हम लोग क्या लाख दो जीजिए कि सरकार हमें यह रकम हमारी जुबान पर ताला लगाने के लिए दे रही है। ताकि हम उनके घाटोलों की ओर से अपनी आँख फेर लें और हम उनका गुणगान करते रहें। अरे, बाबू साहेब, यही तो खाने-पीने का मौका है1 लक्ष्मी के बरसने का यही तो मौसम है। अब अपनी चादर फैला दीजिए, नहीं तो बाद में कुछ भी हाथ नहीं आएगा..."<br />
वह सोच रहे रहे थे कि रत्नदेव ईमानदारी की कठपुतली है जिसे बेईमानी की डोरियों से खींच-तान कर नचाना होगा। इसलिए, उन्होंने गुमसुम रत्नदेव को जोर से ळाकळाोरा- "रतन भाई, डरो मत। हम आठ लाख रूपए का पक्का चिट्ठा तैयार करेंगे। पैसे-वैसे देकर रसीद और मैमो बनवाएंगे। बाकायदा चार्टर्ड अकाउंटेंट से ठप्पा लगवाएंगे। बस, बीस-पचीस हजार खर्च करने पड़ेगे। लेकिन, हमें कुछ भी नहीं चाहिए। हम आपको कुछ दे के ही जाएंगे, ले के नहीं..."<br />
रत्नदेव उनका मनोविळ्ाान पढ़ रहे थे। कयास लगा रहे थे कि इसमें उनका हिस्सा कितना होगा। लेकिन वह भी जनसेवा करने का नखरा दिखाने पर तुले हुए थे," नहीं, नहीं, ठाकुर सा'ब, बेचारी गरीब नवाज जनता के हिस्से का धन ऐंठ कर हमें नरक का भागीदार नहीं बनना है..."<br />
"...अरे-रे-रे-रे-रे, आप नरक के भागीदार क्यों बनेंगे? अभी आपने जो जनसेवा की है, क्या वह सभी धेलुए में जाएगा? हम तो दावा करते हैं कि जब आप डेढ़ सौ साल जी कर भगवान के यहाँ जाएंगे तो वह आपको अपने बगल में बैठाएंगे," जगदंबा ने उनकी बात बीच में ही कुतर दी।<br />
रत्नदेव मन ही मन मुस्करा रहे थे कि बेवकूफ जगदंबा उनके ईमानदार होने की गलतफहमी का पूरी तरह शिकार हो गया है। पर, वह तहे दिल से बटुक भैर से प्रार्थना भी करते जा रहे थे कि उनके दूध से धुले होने का यह नाटक कभी सफल न हो क्योंकि आखिरकार, उन्हें कुबेर का कृपापात्र बनने के लिए जगदंबा से ही दीक्षा लेनी होगी। वह अपने मन में बटुक भैरव से यह गुहार करने में कोई चूक नहीं कर रहे थे कि - 'प्रभुवर, हमें इस आठ लाख में से कम से कम साढ़े सात लाख का अधिकारी तो अवश्य बनाओ जिसमें से वह बेशक! पचास हजार खर्च करके पंचायत की दक्षिण कोने वाली जमीन पर आपके मंदिर का निर्माण करवाएंगे और शेष रकम से अपने धर की पुश्तैनी कंगाली दूर करेंगे। हम आपको वचन देते हैं कि जब आप हमें अगले साल मेयर की कुरसी मुहैया कराएंगे और मोटी कमाई के मौकों से कृतकृत्य करेंगे तो हम आपके मंदिर की सजावट न केवल संगमरमर से करवाएंगे बल्कि उस पर स्वर्ण और रजत की कसीदाकारी भी करवाएंगे...'<br />
जगदंबा प्रसाद हकलाते हुए फिर शुरू हो गए, " दीनबंधु जी, स्वर्ग-नरक के फेर में अभी से पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। इसके बारे में बुढ़ापे में सोचिएगा। अभी आपको अपनी गृहस्थी पार लगानी है। देखिए, आपका पुश्तैनी मकान... शायद, इस बारिश और बाढ़ में, भगवान ना करे... सो समय रहते अपने पुराने मकान का...। सलोनी बिटिया भी सयानी हो रही है... प्रकाश भी बाल-बच्चेदार होने वाला है-- उसके धंधे का जुगाड़ करना है। अब बचा आपका छोटा बेटा संतोष जो इस साल बी.एस.सी. कर चुका है। हाँ, वह है बड़ा जहीन। हम तो कहते हैं कि उसके लिए कोई बढ़िया व्यवस्था कीजिए। मेडिकल में ऐडमीशन क्यों नहीं दिला देते। हमारे बेटे के साथ, वह भी पढ़ लेगा। दिल्ली में आपके पास पैसा भी है और मौका भी। ऐडमीशन की चिंता में मत पड़िए। मैं पी.एम. से सोर्स भिड़ा दूंगा। एक-डेढ़ लाख डोनेशन से बात बन जाएगी। हमें तो बहुत खुशी होगी। अब क्या बताएं- हमारा क्या? हमें आपसे क्या लेना है? हम तो कुछ दे के ही जाएंगे, ले के नहीं..."<br />
उनकी 'कुछ दे के जाएंगे, ले के नहीं' वाली बात तीसरी बार सुन कर रत्नदेव का सिर चकराने लगा। आखिर, माजरा क्या है? अस्तु, जगदंबा ने उनके घर का आर्थिक चिट्ठा खोलकर उनके स्वांग पर पूर्ण विराम पहले ही लगा दिया। अत: उन्होंने अपने हथियार डाल दिए- "ठीक है, जगदंबा जी, जब आप इतना जोर दे रहे हैं तो कल कलेक्टरेट चल कर आठ लाख का चेक लाते हैं। लेकिन, हमें आपसे एक बात पूछनी है...'<br />
"क्या?" जगदंबा का कौतुहल अचानक बढ़ गया।<br />
"आप हमारे ऊपर जो ये सब मेहरबानी कर रहे हैं, उसके बदले में आपको क्या..."<br />
दरवाजे पर दस्तक से उनकी बात अधूरी रह गई। बृजबिहारी गलत समय तशरीफ लाए थे। रत्नदेव मन ही मन कूढ़ गए- अब यह चंठ पंडित क्या लेने आया है? जब मतलब की बात शुरू हुई तो बेमतलब की बाधा टपक पड़ी।<br />
बृजबिहारी के चेहरे पर कुटिल मुस्कान फैल गई--" आए-गए प्रधानों के बीच क्या लेन-देन चल रही है? क्या दाँव-पेंच सीखा-सिखाया जा रहा है? क्या इस दीन सुदामा पर भी आपकी दया-दृष्टि होगी?"<br />
रत्नदेव का मन बेठा जा रहा था क्योंकि अब उनके वश में कुछ भी नहीं रहा। ग्राम-प्रधानी जैसे वह नहीं, कोई और कर रहा हो। वह कभी पंडित तो कभी ठाकुर के हाथ की पतंग की डोर बनते जा रहे थे। वह सशंकित थे कि कहीं बृजबिहारी पाँच ट्रक अनाज वाली बात जगदंबा को न बता दे। इसलिए, अब उसमें जगदंबा का भी एक हिस्सा लगेगा। इसी दरमियान, सलोनी उन्हें अंदर बुला ले गई। जब वह कुनमुनाते हुए अंदर गए तो बृजबिहारी और जगदंबा परस्पर फुसफुसाने लगे और जब वह वापस आए तो दोनों दूर-दूर बैठे हुए खुद में खोए होने का बहाना बनाए हुए थे। वह बखूबी भाँप रहे थे कि दोनों ने क्या तिकड़म बैठायाहोगा। उन्हें अपनी पत्नी जसोदा का मशविरा पसंद आया था- "दोनों को ख्ंलिा-पिला कर इतना टुल्ल कर दीजिए कि वे आपके आगे जुबान खोलने का दुस्साहस न कर सके।" रत्नदेव पहले से ही जानते थे कि ठाकुर तो माँस-मदिरा के पीदे पहले से ही मतवाला है और यह बगुलाभगत पंउति भी गोश्त चिचोर-चिचोर कर खाता है, शराब की बोतल टेट में छिपा कर घूमता है।<br />
रत्नदेव ने ळाटपट प्रकाश को भेज कर तीन बोतल शराब मंगाई। गोश्त तो पहले से ही तैयार था। फिर, वह बरामदे में आ कर उन अवांछित मेहमानों को गोश्त और शराब की दावत दे बैठे। वहाँ थाली में शोरबेदार गोश्त देख कर ठाकुर के मुँह से तो पहले से ही लार टपक रहा था। इसलिए, दावत के आमंत्रण पर उनहोंने मुस्करा कर और मुँह चियर कर अपनी मौन सहमति दी।<br />
बृजबिहारी थाली लगने से पहले ही दावत जीमने विराजमान हो गए। जब शराब का दौर शुरू हुआ तो पहले तो वह सतोगुण संपन्न ब्राह्मण होने का ढोंग करते हुए ना-नुकर करते रहे। पर, जब उन्हें लगा कि उनके सामने से जाम हटने ही वाला है तो उन्होंने घिघिया कर रत्नदेव के हाथ से जाम छीन लिया। दोनों माल मुफ्त बेरहम की भांति छक कर दावत निपटा रहे थे और हड्डियों की लुगदियों से थाली भर रहे थे। रत्नदेव ने शराब की सारी बोतलें उनके गले में उतार दीं। वह प्रतिशोध के कारण आपे से बाहर हुए जा रहे थे।<br />
"रत्नदेव भाई, बस, और नहीं। नहीं तो हम मर जाएंगे," कहते हुए जगदंबा ने रत्नदेव का हाथ थाम लिया। शराब का नशा उनके होश पर भारी पड़ रहा था। रत्नदेव ने उन्हें सहारा देकर चौकी पर बैठाया। यही दशा बृजबिहारी की भी हो रही थी। दोनों के शरीर लुंज-पुंज हो रहे थे, तंत्रिकाएं ढीली पड़ रही थीं। जुबान बेलगाम हो रही थी। जगदंबा लगातार बकबक किए जा रहे थे- "रत्नदेव, हम पूरे सोलह आने सच बोल रहे हैं कि हम तुम्हें कुछ दे के जाएंगे, ले के नहीं..."<br />
रत्नदेव ने स्वयं से कहा- अच्छा मौका है। इन्ें ताव में लाकर इनके मन की बात उगलवा ही ली जाए। नशे में मन की सारी बातें जुबान पर आ जाती हैं। उन्होंने जगदंबा से कहा, "ठाकुर सा'ब, आप बार-बार हमें कुछ देने और हमसे कुछ भी न लेने की बात कर रहे हैं। आप अपनी बात साफ करिए- आखिर, आप ठाकुर की औलाद हैं, बनिया-बक्काल तो हैं नहीं..."<br />
प्रत्युत्तर में जगदंबा की बजाए बृजबिहारी ही नशे में मचल उठे- "दीनबंधु जी, ठाकुर जगदंबा अपनी बिटिया को आपकी बहू बनाने का मन बना रहे हैं... आपको समधी और आपके संतोष को अपना जवाई बनाना चाहते हैं..."<br />
रत्नदेव के कान खड़े हो गए- "और?" <br />
"और असल बात ये है कि हम तुम्हें अपनी बिटिया देंगे, लेकिन लेंगे कुछ भी नहीं..."<br />
जगदंबा की बात पूरी होने से पहले ही बृजबिहारी से सारी स्थिति स्पष्ट कर दी, "हाँ, अपनी बिटिया ही देंगे, और कुछ नहीं देंगे। न तिलक, न दहेज, न मोटर न स्कूटर...<br />
जगदंबा ने बृजबिहारी को तरेर कर देखा। फिर, रेडियो की तरह धर्र-धर्र बजने लगे- "बाबू साहेब, हम-तुम एकदम जोड़-तोड़ के घराने के हैं। तुम कलम के क्षत्रिय हो, हम तलवार के। बस, समळा लो कि जब दोनों घरानों का मूल होगा तो हम लोग पूरे जवार में सबसे ताकतवर बन जाएंगे...<br />
रत्नदेव आश्चर्य से सराबोर हो रहे थे- 'तो जगदंबा के भ्ंेजे में यही बात कब से पक रही थी।'<br />
बृजबिहारी नशे में भी होश में बातें कर रहे थे और वह अपेक्षाकृत अधिक मजाक के मूड में थे।<br />
"अच्छा, तो कायस्थ-क्षत्रिय ऐसे सांठ-गांठ कर पोलाव पका रहे हैं। लेकिन, पोलाव में मिठास हमीं से आएगा। आखिर, हम बांभन जो ठहरे...<br />
बात से बतकही और बतकही से बतंगड़ बनने के कारण शोर बढ़ता जा रहा था। किन्तु, रत्नदेव वास्तविकता से अवगत होने के बाद चिंतित हो रहे थे। प्रकाश के विवाह पर उन्हें बतौर दहेज मोटी रकम तो मिली थी, भले ही कार के बजाय स्कूटर से संतुष्ट होना पड़ा था। परन्तु, संतोष की शादी करके वह बाकी कसर पूरी करना चाहते हैं। चुनांचे, अगर संतोष का मेउकिल कोर्स में ऐडमीशन हो गया तो उनकी किस्मत का पिटारा खुल जाएगा। उनका सारा परिवार मोटरकार से सैर-सपाटा कर सकेगा। यों तो प्रकाश की शादी करा कर वह सोखन साहू का जर्जर मकान ही खरीद सके थे। अब, संतोष की शादी कराकर उस मकान को आलीशान कोठी में तब्दील कर सकेंगे। बेशक, कोठी बगैर तो उनकी हैसियत ही पलीद होती जा रही है। यह खूंसट जगदंबा तो उन्हें सस्ते में ही निपटाना चाहता है और एक अधन्नी खर्च किए बगैर अपनी फूहड़ बेटी को उनके चिकने-चुपड़े बेटे के साथ बांधना चाहता है। ठाकुर हो कर म्लेच्छों जैसी बातें कर रहा है। जहाँ भंडारा चलता देखा, वहीं जीमने बैठ गए।<br />
उन्होंने पीछे घूमकर दरवाजे की ओट में जसोदा का चिंतित चेहरा गौर से देखा। उसने आँखों ही आँखों में कहा- 'यह फटीचर आदमी हमारे ओहदे से बहुत छोटा है। यह हमारी मांग क्या पूरी कर पाएगा? ठहरे लखपति प्रधान और यह ठहरा कंगाल और दर-दर का भिखारी।' नि:संदेह, जो जसोदा सोच रही थी, वही वह भी सोच रहे थे। उसने फिर रत्नदेव को कनखियों से इशारा किया- 'फिलहाल, इस बला को रफा-दफा कीजिए। इस बारे में बाद में सोचेंगे। अभी इस आठ लाख के बारे में विचारिये, उस लाख के बारे में फुरसत में सोचेंगे।'<br />
रत्नदेव ने स्वयं को संयत किया। मन में बटुक भैरव का ध्यान करते हुए खड़े हो गए। "हम तीनों का तालमेल बना रहेगा। हम मिल-जुल कर रहेंगे और मिल-बांॅट कर खाएंगे। किसी को कानों-कान खबर नहीं होने देंगे।" उनकी आँखों में नेता-सुलभ कुटिलता चमकने लगी। उनहोंने सीना फुला कर संकल्प लिया कि उन्हें बगुला भगत बनना ही होगा। समय का यही तकाजा है। ईमानदार बगुला तो भूखों मर जाएगा।<br />
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xxx xxx xxx<br />
कलमुंही बाढ काहिलों की गृहस्थी चौपट कर, मजरूों और दिहाड़ियों के रोजगार छीन कर सरजू नदी में समा रही थी। लोग राहत शिविरों से निकल गाँव में अपने अपने घरेां के निशान जोह रहे थे। फूंस के छप्पर वाले मिट्टी के घर आखिर कब तक उफनती लहरों का प्रहार बरदाश्त कर पाते? वे जड़ से उजड़ गए। छप्पर तो बह गए, लेकिन बाकी चीजें मिट्टी का हिस्सा बन गईं।<br />
अखडू कुम्हार फबक पड़ा, "अब, हम लोग कहाँ जाएं? क्या करें? कैसे कमाएं और क्या खाएं?"<br />
रसूल मियां ने उसके हाथ से बैसाखी लेकर उसे मेढ़ पर बैठाते हुए तसल्ली दी- "अखड़ू भाई, तुम हमारे रहते तनिक भी मत घबराओ। जो होना था, सो हो गया। ऊपर वाले की यही मर्जी थी। अब तुम फिर से अपना रोजगार जमाओ। बाढ़ ने चारो ओर चिकनी मिट्टी बिछा दी है। अपना चाक फिर से बेठाओ और अपने हाथों की कारीगरी का करिश्मा दिखा कर मिट्टी के बर्तन, खिलौने, औजार वगैरा बनाना शुरू करो। खुदा का शुक्र मनाओ कि बाढ़ के कहर ने तुम्हें लंगड़ा ही बनाया है, लूला नहीं।"<br />
रसूल मियां उसे रत्नदेव के पास ले गए। उन्हें विश्वास थ्ंा कि अखड़ू के परिवार के पुनर्वास के लिए दीनबंधु जी सरकार से दरख्वाश्त कर उसके लायक कोई काम का बंदोबस्त जरूर करेंगे।<br />
उस समय, रत्नदेव उखड़े-उखड़े थे। वह अभी-अभी अपने दल-बल समेत कलेक्टरेट से मायूस लौटे थे। कलक्टर ने साफ-साफ कह दिया था कि पहले बाढ़ से हुए नुकसान का जायजा लेकर उसका पूरा लेखा-जोखा तैयार किया जाएगा। फिर, राहत राशि जारी की जाएगी और वह भी ग्राम प्रधान के हाथ में सीधे नहीं। सारी धनराशि ग्रामीण बैंक में जमा होगी जहाँ से बाढ़ राहत कमेटी की सिफारिश पर ही किस्तों में रूपए निकाले जाएंगे।<br />
रसूल मियां बेंच पर बैठ गए। अखड़ू अपनी बैसाखी दीवार से टिका कर खुद नीचे बिछी चटाई पर बेठ गया जिस पर कोई दर्जन-भर और ग्रामीण बैठे हुए थे। सबके हाथों में आवेदन पत्र थे, जिनमें वे प्राकृतिक आपदा से हुए अपने-अपने नुकसान का दावा पेश कर रहे थे। रसूल ने अखड़ू के कान में कहा, "अखड़ू भ्ंाई, तुम भी एक अप्लीकेशन तैयार कर लो।" जब अखड़ू ने अंगूठा दिखा कर अपने अंगूठाछाप होने का प्रमाण दिया तो रसूल मियां उसकी ओर से खुद आवेदन पत्र लिखने लगे। उन्हें ऐसा करते देख रत्नदेव एकदम से खीळा उठे- "आए मुल्ला, इ लिखने-पढ़ने का काम तहसील में जा के करो। सरकार ने ठेंगा दिखा दिया है। यहाँ कुछ मिलने-विलने वाला नहीं है। हम क्या तुमको कुबेर दिखते हैं?"<br />
रसूल ने रत्नदेव को ऐसे ळाक्की मूड को पहले नहीं देखा था। वह कल्पना भी नहीं कर सकते थे बचपन में गलबहियां खेलने वाला शख्स इतनी गैरियत से बोल सकता है। उन्होंने वहाँ बैठे हुए सभी लोगों को गौर से दखा। उनकी आँखें जमीन पर गड़ी हुई थीं। उनके चेहरों पर उतराती उदासी का कारण समळा में आ रहा था। रत्नदेव सभी पर बरसे थे। सभी को निराश किया था।<br />
रसूल मियां ने हिम्मत बटोरी। "दीनबंधु जी, हम यहाँ भीख मांगने नहीं, अपना हक मांगने आए हैं। आपको हमने परधानी की कुरसी पर इसलिए बैठाया है कि आप हमारा हक दिलाने में हमारी मदद करेंगे। हमारी आवाज सरकार तक पहुंचाएंगे। क्योंकि आप जगदंबा से ज्यादा पढ़े-लिखे हैं, ज्यादा काबिल हैं। अगर आप ही हम बदकिस्मतों की ऐसी बेकद्री करेंगे तो उनमें और आप में क्या फर्क रह जाएगा? हम तों सोच रहे थे..."<br />
उनका गला रूंध गया। पर, रत्नदेव पर उनकी बात का गहरा असर हुआ। रत्नदेव ने खुद पर काबू किया। मन के किसी कोने से एक आवाज आई- 'रत्नदेव अभी से धैर्य खोने लगे? ऐसा करोगो तो सारे मौके खो दोगे।' उन्हें लगा कि स्वयं बझ्ुक भैरव उन्हें आदेश दे रहे हैं। उन्होंने अपनी ळाुंळालाहट को फीकी मुस्कान से दबाया - "मियां हमारे का बाँध इसलिए टूट रहा है कि हम अपनी जनता की मदद नहीं कर पा रहे हैं। जब सरकार ही पैसा देने से मनाही कर रही है तो हम क्या खुद को नीलाम करके..."<br />
बीच बात में ही जगदंबा प्रसाद ने वहाँ अप्रत्याशित रूप से उपस्थित हो कर उँचे स्वर में रत्नदेव की कन्नी काट दी, "अरे-रे-रे-रे-रे, ना-ना-ना-ना, प्रधान जी! खुद पर ऐसा जुल्म मत ढाना। खुद को नीलाम मत करना..."<br />
जगदंबा के तेवर बदले-बदले से थे। उनहें देख रत्नदेव की जुबान तलवे से चिपक गई। जगदंबा ने लोगों को देखा और फिर शुरू हो गए, "दीनबंध जी, आप एकदम बेजा कर रहे हैं। अरे, आप इन मुसीबल के मारों को और क्यों मार रहे हैं? इनसे अप्लीकेशन लेकर तहसील चलिए। बाढ़ राहत कमेटी इन पर तत्काल विचार करेगी..." वह सार्वजनिक रूप से रत्नदेव पर रोब गालिब करने लगे।<br />
रत्नदेव को लगा कि जैेसे जगदंबा न केवल उनकी पोल खोल कर नंगा करना चाहते हैं, बल्कि लोगों से सहानुभूति भी बोटरना चाहते हैं।' वह उनहें मन ही मन कोसने लगे- 'कल, हरामजादे को इतना खिलाया-पिलाया, लेकिन सब बेकार चला गया। स्साला, कितना नमकहराम निकला!<br />
जगदंबा की बकबक बंद नहीं हुई - " प्रधान जी, आप सीधे-सीधे इन्हें यह क्यों नहीं बता देते कि अब आपके बस में कुछ भी नहीं रहा। मतलब यह कि सीधे सरकार ही इन्हें मुआवजा दिलाएगी, बैंक के जरिए। सो, ये लोग अपना रोना बाढ़ राहत कमेटी के सामने रोएं..."<br />
जगदंबा के मुँह से खरी बातें सुनकर सभी का ध्यान उनकी ओर खिंच गया। वर्तमान प्रधान के बजाय भूतपूर्व प्रधान का पलड़ा भारी पड़ने लगा। रत्नदेव का माथा ठनका। साढ़े साती शनिचर का प्रकोप उन्हें अभी से दहलाने लगा। क्या शनिदेव उन्हें मटियामेट करके ही दम लेंगे? वह मन ही मन उन्हें कोसने लगे। <br />
रसूल मियां ने खुद से कहा- अच्छा तो ये माजरा है। मुजरिम सफेदपोश हैं। वह मुंह को सिले नहीं रह सके, "लेकिन जगदंबा जी आप कर रहे हैं कि हमें मदद मिलेगी और दीनबंधजी कह रहे हैं कि सरकार हमारी मदद करने से मना कर रही है1 अगर सरकार हमें मदद करने को तैयार है तो ये प्रधान जी ळाूठ क्यों बोल रहे हैं? हमें तो इनमें बड़ा खोट नजर आ रहा है कि..."<br />
जगदंबा, रत्नदेव पर कुटिल दृष्टि डालते हुए मुस्कराए और फिर, रसूल की जुबान पर लगाम कसने लगे, "तौबा, तौबा, आप क्या समळाते हैं कि प्रधान जी कोई हेराफेरी करना चाहते हैं? ना, ना, ना, ये सब फिजूल की बात हैं। अरे, जब दीनबंधु के हाथ में कुछ रहा ही नहीं तो इनके सामने क्यों गिड़ा गिड़ा रहे हैं? ये बिचारे आजकल खुद परेशान चल रहे हैं।" वह आँख मारते हुए रत्नदेव के कान में फुसफुसाने लगे, "दीनबंधु जी, सरकार ने जो पाँच ट्रक अनाज भिवाया है, आप उसे किस तहखाने में छिपा रखे हैं? गाँव में इस बात की चर्चा का बाजार गरम है कि बाढ़-पीड़ितों का अनाज प्रधान जी हड़प गए हैं। अरे, उसे फटाफट बंटवा दीजिए, नहीं तो बेकार में आफत मोल लेनी पड़ेगी।"<br />
रत्नदेव को ऐसा लगा कि जैसे वह धड़ाम से आसमान से जमीन पर गिर पड़े हों। वह स्तब्ध रह गए। अनाज वाली बात जगदंबा को कैसे पता चली? कहीं बृजबिहारी ने तो ... वह दाँत किटकिटा कर उसे धिक्कारने लगे- 'चुगलखोर पंडित ने हमें कहीं का न छोड़ा। थोड़ी-बहुत जो आमदनी हुई थी, वह भी हाथ से निकल गई। भैरव बाबा ने उनकी मुराद पूरी नहीं की। क्या करें, उनका मंदिर बनवाने का वचन वापस ले लें?<br />
बाढ़ ने उनकी कमर ही नहीं, उनका मनोबल भी तोड़ दिया। अगर उन्हें पता होता कि उन्हें ठेंगा मिलने वाला है तो वह अस्पताल में घायलों की सेवा क्यों करते, बाढ़-पीड़ितों की मदद क्यों करते? बल्कि आराम से अपने मजिस्ट्रेट भाई के यहाँ खर्राटे भरते होते। अब तो उनकी लुटिया डूबी ही डूबी, इज्जत भी दाँव पर लग गई। लिहाजा, अब उन्हें सिर्फ अपनी इज्जत बचाने की यथाशक्ति युक्ति करनी चाहिए। उनका दिमाग तेजी से दौड़ने लगा - क्यों न एक ही तीर से दो शिकार किए जाएं? वह जगदंबा के मुँह पर हाथ रख कर बतियाने लगे, "क्या बताएं ठाकुर सा'ब? हमने पहले ही एक ट्रक अनाज बृजबिहारी के घर भिजवा दिया है ताकि वह उसे अपने पउोस के बाढ़ पीड़ितों में बंटवा दे। लेकिन, पंडित सारा अनाज खुद हजम कर जाना चाहता है। हम तो अभी सारा अनाज बंटवा देने को तैयार हैं। पर, जब लोग पूछेंगे कि प्रधान जी! चार ट्रक अनाज तो बंटवा दिया, बाकी एक ट्रक का अनाज कहाँ गया तो हम क्या जबाब देंगे?"<br />
जगदंबा, रत्नदेव को कोने में खींच ले गए।<br />
"दीनबंधु जी, ऊं पंडित से तो हम लोग बाद में निपटेंगे। अभी हम ऐसा करते हैं कि आपक पास जो चार ट्रक अनाज, उसमें से एक ट्रक अनाज गाँव के दरिद्रों में बंटवा कर हल्ला मचा देते हैं कि पाँचों ट्रक का अनाज गाँव वालों में खपा दिया गया है। कोई हम पर शक तक नहीं करेगा। बाकी तीन ट्रक का अनाज हम दोनों आपस में बाँट लेंगे।"<br />
बेईमान ठाकुर की इस दुष्ट योजना पर रत्नदेव को बिल्कुल आश्चर्य नहीं हुआ। क्योंकि दोनों ही चोर-चोर मौसेरे भाई थे। चुनांचे, रत्नदेव ने फिर अपना पासा, बड़ी चतुराई से फेंका- "लेकिन, ठाकुर सा'ब! आप तो कल तक कह रहे थे कि हम कुछ दे के ही जाएंगे, ले के नहीं। फिर, आप हमीं से यानी अपने होने वाले समधी से यह अनाज क्यों चाहते हैं? जाइए, आप अपनी बेटी की डोली सजाइए, हम बारात लाने की तैयार कर रहे हैं। अब हमें तो अपने बेटे की बारात सजाने के लिए यही अनाज बेच कर जुगाड़ करना पड़ेगा..."<br />
जगदंबा एकदम खीळा उठे- "रत्नदेव, कल रात जो कुछ हमने कहा था, वह सब नशे में कहा था। हम अपनी बेटी तुम्हारे दरिद्र खानदान में क्यों ब्याहेंगे? क्या इस जिला-जवार में और धनीमानी परिवार खत्म हो गए हैं? हम तो अपनी बिटिया किसी एस.पी. या थानेदार से ब्याहेंगे, तुम्हारे नाकारा संतोष के साथ क्यों ब्याहेंगे..."<br />
विवाद तूल पकड़ता जा रहा था। जो घरेलू बातें कान में फुसफुसा कर कही जानी चाहिए थी, वे गला फाड़ कर सरे-आम कही गईं। दोनों परिवारों की अंदरूनी बातें जगजाहिर हो गईं। पर, रत्नदेव का तो कुछ नहीं बिगड़ा। दरअसल, जानबूळा कर की थी ताकि जगदंबा और बृजबिहारी की बेईमानी सार्वजनिक हो जाए और उनकी धूर्तता पर परदा पड़ जाए। उन्होंने बड़ी चतुराई से उन दोनों से पल्ला ळााड़ कर खुद को पाक-साफ साबित कर दिया। जगदंबा सोच रहे थे कि वह भरी भीड़ में रत्नदेव को नंगा करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे। लेकिन, जब रत्नदेव का तेज दिमाग चलने लगा तो वह मुंह ताकते रह गए। रत्नदेव के तिकड़म ने उन्हें पछाड़ दिया। वह मौका पाते ही वहाँ सभी उपस्थितों से चिल्ला उठे--<br />
"आप लोग हमें बेईमान समळाते हैं, ना। पर, असल बात यह है कि कुछ लोग हमें काधा धंधा करने को मजबूर कर रहे हैं। आपको पता नहीं है, आप लोगों की मदद के लिए सरकार ने पाँच ट्रक अनाज भिजवाया था। लेकिन, जिस पंडित बृजबिहारी को आप लोगा बड़ा धर्मात्मा समळाते हैं, वह हमसे एक ट्रक अनाज जनता में बंटवाने के बहाने पहले ही हड़प ले गया है। बाकी चार ट्रक अनाज में से ये ठाकुर जगदंबा आधा अपने पास और आधा हमारे पास रखने की दुष्ट सलाह द रहे हैं। ऐसे में हम क्या करें? हम तो मर जाएंगे, पर घोटाला कभी नहीं करेंगे। अब, आप ही लोग जो मुनासिब समळाते हैं, वो कीजिए। आखिर, आप जनता जनार्दन हैं..."<br />
सभी रत्नदेव का इशारा समळा गए। वे बेकाबू हो उठे। उन्होंने जगदंबा को षडयंत्रकारी समळाकर उसकी जम कर पिटाई की। गाँव वालों को असलियत मालूम होते ही वे भारी संख्या में बृजबिहारी के घर पर टूट पड़े और वहाँ से सारा अनाज लूट लिया। जब पुलिस आई तो प्रत्यक्षदर्शी ग्रामीणों की बयानबाजी पर जगदंबा को एक ईमानदार प्रधान से गैर-कानूनी काम कराने के जुर्म में रंगे हाथों पकड़ा गया। जगदंबा जेल की सलाखों के पीछे भेज दिए गए। तदनन्तर, बृजबिहारी को जनता के माल में से हेराफेरी करने के चक्कर में तीन सालों की सळ्ाम सजा मिली। रत्नदेव का मन ठंडा पड़ गया। क्योंकि भले ही वह अनाज की हेराफेरी करने में फिस्स बोल गए, उन्हें अपने प्रतिद्वंद्वियों को सबक सिखा कर बड़ी तसल्ली हुई।<br />
लेकिन, रत्नदेव के सितारे बुलंद थे। वह दोबारा अखबारों की सूर्खियों में आए। इस बार, सरकारी राहत सामग्री को जनता में ईमानदारी से विरित कराने के काम में उनकी छवि मुखर हुई। उनके सिर एक आदर्श समाज सेवक का तगमा मढ़ा गया। अखबारनवीसों का हुजूम फिर उनकी ओर उमड़ा। उन्होंने रत्नदेव को समाज सेवा की मिसालिया महानियों का नायक बनाया। जिले के सांसद फिर उनसे मिलने आए और एक विशाल जन सभा में उन्हें सम्मानित किया। उनकी नि:स्वार्थ सेवा से प्रभावित होकर प्रशासन ने उन्हें 'जिला बाढ़ राहत कमेटी' का अध्यक्ष बनाया। इसके चलते, वह अपने ही गाँव के ही नहीं, अपितु जिले भर के बाढ़ पीड़ितों के मसीहा बन गए। अब, उनकी ही सिफारिश पर अन्य बाढ़ क्षेत्रों के लिए राहत राशि जारी की जाती थी। इसलिए जहाँ वह लाखों के लिए तरस रहे थे, वहीं वह करोड़ों में खेलने लगे।<br />
लोग बाढ़ के सदमें से धीरे-धीरे उबर रहे थे। दीनबंधु रत्देव ने बटुक भैरव के मंदिर का भव्य निर्माण करा कर उसके लोकार्पण के अवसर पर जिले भर के सम्मानित व्यक्तियों को आमंत्रित किया। वहाँ विशाल भोज में शामिल जिला सांसद ने उन्हें औपचारिक रूप से अपनी पार्टी की तरफ से मेयर का चुनाव लड़ने का न्यौता दिया। इस घोषणा से सबसे ज्यादा खुशी गाँव वालों को यह सोच कर हुई कि दीनबंधु को मेयर के पद का प्रत्याशी बनाकर उनके गाँव का सिर ऊंचा किया गया है।<br />
XXX XXX XXX<br />
आज दीनबंधु जी जिला मेयर हैं। सांसद उनके समधी हैं। जगदंबा को उनके बेटे को अपना दामाद न बना पाने का बड़ा मलाल है। आखिर, वह अपनी इस भूल का प्रायश्चित कैसे करें? इसलिए, जेल से रिहा होते ही वह सीधे मेयर के सरकारी आवास पर गए और अपनी करनी के लिए उनके सामने गहरा पश्चाताप प्रकट किया। दीनबंधु जी प्रसन्न हुए। अब उन्होंने जगदंबा को क्षमादान कर अपने चमचों की सेना में नियुक्त कर लिया है। जगदंबा को पूरी उम्मीद है कि जब दीनबंधु जी सांसद बनेंगे तो शायद उनकी सिफारिश पर उनकी पार्टी की ओर से उन्हें विधायक का चुनाव लड़ने के लिए टिकट मिल जाए।</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0&diff=5891मनोज मोक्षेन्द्र2011-11-09T09:36:49Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र= <br />
|नाम=मनोज श्रीवास्तव<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=--<br />
|जन्मस्थान= <br />
|कृतियाँ=धर्मचक्र और राजचक्र, पगली का इंक़लाब (दो कहानी-संग्रह)<br />
|विविध= --<br />
|जीवनी=[[मनोज श्रीवास्तव / परिचय]]<br />
}}<br />
'''कहानियाँ'''<br />
* [[धत ! दकियानूस नहीं हूँ / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[मादरे वतन वापसी के बाद / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[अरे ओ बुड़भक बंभना / मनोज श्रीवास्तव]] <br />
* [[नया ठाकुर / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[गुल्ली डंडा और सियासतदारी / मनोज श्रीवास्तव]] <br />
* [[डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[धिन्तारा/ मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[इस्माइल रिक्शावाला एम.ए. पास / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[परबतिया / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[चरित्र प्रमाण-पत्र / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[प्रेम पचीसी / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[गोरखधंधा / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[यार, डरती क्यों हो? / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[धर्मचक्र, राजचक्र / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[पगली का इन्कलाब / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[प्रेमदंश / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[बकरा / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[कबूतर की फड़फड़ाहट / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[कन्नी और देवा / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[सियासत की बाढ़ / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[भूख का पुनर्जन्म / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[भगजी बगैर काम नहीं चलता / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[बी-टेक टिफिन चोर / मनोज श्रीवास्तव]]</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5890धिन्तारा / मनोज श्रीवास्तव2011-11-09T09:35:12Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
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<div><br />
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धिन्तारा के माई-बाप स्वर्ग सिधार गए तो क्या हुआ! सारा गाँव उसका है। वह जिस घर में चाहे, वहाँ जाकर रहे। लेकिन हमें यह मंजूर नहीं है कि वह शहर जाकर नौकरी करे। यह हमारे गाँव की इज़्ज़त का सवाल है...। धीमन केवट ने हाथ उठाकर अपना फैसला सुनाया। उत्तेजित भीड़ की गड़गड़ाती तालियों और कहकहों से सारा चौपाल गूँज उठा। सभी के मन की इच्छा जो पूरी हुई थी। <br />
<br />
तभी पंचों में से रामजियावन ने खुशी से कंधे उचकाते हुए सभी को शांत किया, "पंचों का निर्णय यह है कि आज से धिन्तारा इस गाँव से बाहर नहीं जाएगी, दूसरी जनानियों की तरह। अगर उसे अपनी तालीम के बेकार जाने का पछतावा है तो पंचों का हुकुम है कि वह गाँव के बच्चों को पढ़ाए। बदले में, हम उसे खाना-खर्चा देंगे। उसकी देखरेख करेंगे। हिफ़ाज़त करेंगे।" <br />
<br />
उनकी बातें सुनकर, धिन्तारा की नाक के ऊपर से पानी बहने लगा। चेहरे से लपटें निकलने लगीं। वह सभी बंदिशों को ठोकर मारकर एक अलग रास्ता चुनेगी। उसने न दुपट्टा सम्हाला, न ही बाल समेटे। बस, मुट्ठी भींचकर दौड़ पड़ी और चौपाल के बीच आ-खड़ी हुई। <br />
<br />
उसकी इस शोखी पर सभी ने दाँतों तले अंगुली दबा ली--"कितनी बज़्ज़ात औरत है!" <br />
<br />
"यह सरासर नाइंसाफ़ी है। मेरे ऊपर ज़्यादती है। आपलोग मेरा भविष्य चौपट कर रहे हैं। आखिर, मैंने चूल्हा-चौका करने के लिए तो बी.ए. पास किया नहीं है। कितनी मेहनत के बाद, यह पुलिस इन्स्पेक्टरी की नौकरी मिली है? केवटाना गाँव की कोई लड़की पहली बार पढ़-लिखकर शहर जा रही है, नौकरी करने। आप मर्दों में तो कोई दमखम रहा नहीं। सारे के सारे अंगूठा-छाप हैं। चिट्ठी-पत्री तक तो पढ़ नहीं सकते। बस, पतवार लेकर नावों में सवार रहते हैं। मछली पकड़ने के जुगाड़ में, नदी में जाल डाले हुए, पालघर से झाँकते रहते हैं। <br />
<br />
उसका गुरूर से सिर झटकना सबके गले की हड्डी बन गया। बेशक! उसने केवटों और मछुआरों की सदियों पुरानी आजीविका की खिल्ली उड़ाई थी। उनकी ज़िंदगी को हिकारत से देखा था। <br />
<br />
ठिंगना दुक्खीराम तक आपे से बाहर हो उठा, "पंचों के फ़ैसले का छीछालेदर करने वाले को हम नहीं बख्शेंगे। इस दुधमुँही छोकरी की यह मजाल कि वह हमें सरेआम नंगा करे! इसने अपना लाज-शरम तो उसी दिन बेच दिया था, जिस दिन इसके बाप बब्बन ने इसे पढ़ने तहसील भेजा था। अच्छा हुआ, साला भरी जवानी में ही मर गया। नहीं तो, वह अपनी छोकरी को पढ़ाने-लिखाने के बहाने कोठे पर बैठाकर ही दम लेता। हरामज़ादी नौकरी करेगी, हमारी बिरादरी की औरतों की नाक कटाएगी। साली का झोंटा खींचकर चार लप्पड़ लगाओ, इसका दिमाग ठिकाने लग जाएगा।" <br />
<br />
खिलावन को दुक्खीराम की तैश बहुत भली लगी. धिन्तारा उसकी होने वाली लुगाई जो ठहरी. इसलिए उसके कोई ऊटपटांग करने पर गाँव वालों से पहले उसके आन पर आंच आएगी. खुद बब्बन ने उसके बाप रामजियावन से कह-सुनकर धिन्तारा के साथ उसका रिश्ता तय किया था--"रामजियावन, अगर हमारी मेहरारू ने लड़की पैदा किया तो ऊ तुम्हारी बहू बनेगी." सो, जिस दिन धिन्तारा पैदा हुई, उसी शाम बब्बन, रामजियावन के घर जाकर सगुन भी कर आया था. तब, खिलावन भी हंसता-खेलता बच्चा था, कोई साढ़े चार साल का. <br />
खिलावन की आँखों में ये सारी घटनाएं ताजी थीं. सो, चौपाल में जिसका सबसे ज़्यादा खून उबल रहा था, वह खिलावन ही था. वह वहीं से दहाड़ उठा, "इ सुअरी, शहर जाएगी तो किसी कुजात से इशक लड़ाएगी और ब्याह रचाएगी. इससे हमारी जात पर लांछन आएगा. हम ठहरे खांटी केवट. हमारे ऊपर भगवान राम का आशीर्वाद है. सीता मैया का आशीर्वाद है. सो, हमारा नाक कटाने से पहले ही, हम इसका गला रेत देंगे." <br />
चौपाल में जमा वहशी भीड़ खिलावन की बात सुनकर, धिन्तारा को चुन-चुनकर गालियाँ देने लगी. जवान लौंडे गुस्से से बेकाबू हो रहे थे. खिड़कियाँ झांकती औरतें धिन्तारा के शेखी बघारने पर ताज्जुब कर रही थीं. सोच रहीं थी कि 'चलो, छाती तानकर वह रोज साइकिल से स्कूल जाती थी, हमने बरदाश्त कर लिया. लेकिन, यह तो हैरतअंगेज़ बात है कि वह सिपाही की वर्दी पहन, अपने जनाने अंग झुलाते, पुलिस की ट्रेनिंग लेने शहर जाए और ट्रेनिंग के बाद किसी अनजान चौराहे पर लाठी भांजती फिरे.'<br />
<br />
उत्तेजना केवल पंचायत में ही नहीं थी, बल्कि पूरे गाँव का पारा चढ़ा हुआ था. धिन्तारा ने हरेक को ध्यान से देखा. सभी की आँखें जलती हुई माचिस की तीलियाँ थीं. लेकिन, उसके मन की ज्वाला कहीं अधिक दाहक थी. वह बड़वानल की तरह भीतर-ही-भीतर झुलस रही थी. पहले वह चिंगारी की तरह चटख रही थी. पर, अब वह साबूत जल रही थी--क्रोध और प्रतिशोध में. चार साल पहले पिता की गोताखोरी करते समय डूबकर हुई मौत के बाद वह अनाथ हो गई थी. तब, वह बावली-सी इधर-उधर मंडराती थी. क्या कोई गांववाला उसकी मदद करने आया था? बल्कि, उसका तो जीना और भी दूभर हो गया था. जवान लड़की और वह भी एकदम अकेली. जैसे वहशी बाजों के जंगल में एक अकेली कबूतरी. कोई आगे न पीछे. आते-जाते छीटाकशियों का वार झेलना पड़ता था उसे. कई दफे तो रात को उसके आँगन में गाँव के ही मनचले बदमाश मर्द उतर जाते थे. पर, उसकी जांबाजी ने सभी के छक्के छुड़ा दिए. जनाने जिस्म में मर्दों वाली फुर्ती और ताकत थी. रंधावा को तो उसने बीच हाट में छठी का दूध याद दिलाया था. सभी गाँव वालों की आँखें नीची हो गई थीं. तब, कोई भी सामने नहीं आया, कामांध रंधावा को सबक सिखाने! न पंचायत बैठी, न ही चौपाल. वह गला फाड़-फाड़ चींखती-चिल्लाती रही; लेकिन, सभी अपने-अपने काम में मग्न हो गए--जैसे कुछ हुआ ही न हो. <br />
<br />
धिन्तारा तड़प रही थी. आखिर उसने कौन-सा गुनाह किया था की उसकी माँ उसे जनते ही भगवान् को प्यारी हो गई? माँ का ख्याल आते ही उसके होंठ घृणा से सिकुड़ गए. गाँव में यह अफवाह थी कि उसकी माँ के ठाकुर विक्रमसिंह से नाजायज ताल्लुकात थे और वह उसी का नतीजा है. तभी तो जब वह गलियों से गुजरती थी तो लोग फब्तियां कसते हैं. कानाफूसी करते हैं, "इस कुलच्छनी को देखो ,कैसे ठकुराइन-सरीखी ऐंठकर चल रही है? बब्बन तो नामर्द था. तभी तो उसकी लुगाई विक्रम ठाकुर के साथ गुलछर्रे उड़ाती फिरती थी." <br />
<br />
जब चौपाल में लोगों की जुबान से तानों के बारूद फट रहे थे, तभी ग्रामप्रधान धीमन केवट आवेश में कांपता हुआ खड़ा हुआ. वह धिन्तारा के गुस्ताखी को नहीं बरदाश्त कर सका. खूनी डोरे उसकी आँखों में चमक रहे थे. <br />
<br />
"अब हमारा आख़िरी फैसला सुनो. धिन्तारा को उसके ही घर में कैद कर दो और एक हफ्ते के भीतर इसे जबर खिलावन केवट की खूंटी में बाँध दो. तब तक इस पर इतना सख्त पहरा रखो कि यह इस गाँव से टस से मस न हो सके. " <br />
<br />
चौपाल उठने के काफी देर बाद तक धिन्तारा जड़वत वहीं खड़ी रही. जैसे कैदखाने की रिहाई की आस संजो रहे किसी कैदी को अचानक फांसी की सजा सुना दी गई हो. बदतमीज़ खिलावन की घिनौनी शक्ल उसके दिमाग में कौंध रही थी. उसने अपने होठ भींच कर संकल्प लिया--वह पंचायत के फैसले को कभी नहीं मानेगी. उसका दिमाग सरपट दौड़ रहा था--'क्या करे कि वह नकेल पड़ने से पहले ही भाग खड़ी हो और इन बर्बर लोगों के हाथ जीवनपर्यंत न आए?' उसकी गर्दन निश्चय के भाव से तन गई--'अंगूठाछाप खिलावन के हाथों तबाह होने से पहले ही वह निरंकुश पंचों के अन्यायपूर्ण आदेश पर पानी फेर देगी.' <br />
<br />
<br />
धिन्तारा को उसके ही घर में नजरबन्द कर दिया गया. उसके घर के चारों ओर पहरुए तैनात कर दिए गए. गाँव का चप्पा-चप्पा संवेदनशील हो गया था. सारे गाँव वालों का अहं अट्टहास कर रहा था. खिलावन खुद गलियों से गुरूर से गुजरते हुए दरवाजे-दरवाजे अपनी शादी का न्योता दे रहा था. खास बात यह थी कि उसकी शादी के बंदोबस्त की जिम्मेदारी पंचायत के कंधो पर थी और गाँव के सभी बच्चे-बूढ़े इसमें शामिल होने वाले थे. आखिर पंच रामजियावन के बेटे की शादी थी और वह भी पंचायत के हस्तक्षेप से. <br />
<br />
इस दरमियान, धिन्तारा ने कोई बवाल नहीं खड़ा किया. वह दरवाजे पर खड़ी होकर पहरुओं से सामान्य लहजे में बातें करती और और अपनी शादी की चर्चा पर फिसकारी मारकर हंस देती. इस तरह, वह यह संकेत देती की वह खिलावन के साथ अपनी होने वाली शादी से खुश है. पहरुए क्या, सभी गाँव वाले आश्वस्त हो गए की धिन्तारा ने पंचों के फैसले को सहर्ष स्वीकार कर लिया है. उसने परम्पराओं और प्रथाओं को स्वीकृति देकर गाँव के मान-सम्मान में वृद्धि की है इसलिए, पहरुए लापरवाह हो गए. उस पर चौकसी ढीली पड़ गई. <br />
<br />
लेकिन, ऐन शादी की शाम, जब केवटाना के ग्रामीण एक जश्न मनाने के जद्दोजहद में गाफिल-से हो रहे थे तो धिन्तारा की गैर-मौजूदगी ने सभी को झंकझोर दिया. वह सभी की आँखों में धूल झोंककर फरार हो गई थी. दरवाज़े पर खिलावन अपनी बारात लिए मुंह ताकता रह गया. जिस कोठारी से धिन्तारा सजने-संवरने का नाटक खेल रही थी, उसकी जर्जर खिड़की उखाड़कर वह गुम हो गई. बिल्कुल फिल्मी स्टोरी की नायिका की भाँति. <br />
<br />
रामजियावन अपराध-बोध से पागल हो उठा और धिन्तारा पर निगरानी रखने वाले दो मर्दों की टांगें वहीं लाठी से ताबड़तोड़ चूर कर दी. खिलावन ने पूरे होश में ऐलान किया--"चाहे धिन्तारा पाताल में समा गई हो, मैं उसे ढूंढ कर ही दम लूंगा और ब्याह करूंगा तो केवल उसी से नहीं तो जीवन भर कुंवारा रहूँगा...." <br />
<br />
केवटाना गाँव में मारपीट, हत्या, बलात्कार आदि जैसी घटनाएँ आए-दिन होती रहती थीं. लेकिन, ऐन खड़ी बारात वाली शाम को किसी लड़की का भाग जाना एकदम अजूबा लग रहा था. केवटाना गाँव के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. इसे याद करते ही केवटों के सीने पर सांप लोटने लगता. चुनांचे, धिन्तारा काण्ड का भी सुनते-सुनाते साधारणीकरण हो गया--गाँव में अक्सर घटने वाली सनसनीखेज घटनाओं की तरह. इसलिए, चार साल ऐसे गुजर गए, जैसे बंद मुट्ठी से बालू. इतने समय में तो जिन जवान लौंडों की शादी हुई थी, वे दो-दो बच्चों के बाप बन गए. और जो छोकरियाँ गड़हियों में गुल्ली-डंडा खेलती थीं, वे शादी-लायक जबर-जवान हो गईं और मां-बाप की आँखों की किरकिरी बन गईं. लिहाजा, मेहनतकश मल्लाहों और मछुआरों के लिए तो यह समय चुटकी में बीत गया. लेकिन, खेलावन ने न केवल चार सावन और चार वसंत ही बल्कि, दिन, सप्ताह और महीने तक गिन-गिन कर बिताए. उस पर एक ही धुन सवार थी-- धिन्तारा को तलाश कर उससे जबरन शादी करना. सारे गाँव में उसकी थू-थू कराने के लिए वह उसे आजीवन अपनी दासी बनाकर ही चैन की साँस लेगा. यह संकल्प वह दिन भर में कम से कम सौ बार लेता. <br />
<br />
इस खुमार में खिलावन को होश कहाँ था? रोज उससे कोई न कोई अनापशनाप काम हो जाता. एक शाम जब रामजियावन और बुधराम मछली पकड़कर लौट रहे थे तो नाव पर ही उनमें मछली के बंटवारे को लेकर तू-तू, मै-मै हो गई. इतने सालों से दोनों साझे में एक ही नाव पर मछली पकड़ते रहे. लेकिन, किसी के हिस्से में एक-दो किलो मछली ज्यादा चली जाने पर कोई कुछ भी शिकायत नहीं करता था. किन्तु, आज दोनों के ग्रह-नक्षत्र ठीक नहीं थे. यूं भी, आज अमावस्या के चलते एक तो उफनती लहरों पर कोई वश नहीं चल रहा था; दूसरे, उनके मन में फितूर की बातें भी उमड़ रही थीं. गुस्से पर कोई काबू नहीं था. रामजियावन घुड़क रहा था कि "नाव हमारी है और जाल तुम्हारा. इसलिए, दो-तिहाई हिस्सा हमें चाहिए." दूसरी तरफ, बुधन ताव खा रहा था कि "तुमने तो नाव स्वर्गीय बब्बन से हड़पी है. बब्बन की मौत के बाद धिन्तारा वह नाव किराए पर चलवाती थी. पर, धिन्तारा के भाग जाने के बाद तुमने उसकी नाव पर हक़ जमा लिया है. सो, तुम्हारी न नाव है, न जाल. हाँ, हमारे साथ मछली पकड़ने में थोड़ी मेहनत-मशक्कत ज़रूर की है. इसलिए, तुम्हे तिहाई हिस्सा ही मिलेगा." <br />
<br />
जब नाव बीच नदी में थी तो दोनों में कहासुनी, हाथापाई में तब्दील हो गई. खेवइया बगैर नाव हिचकोलें खा रही थी. किनारे पर उनकी राह अगोर रहा खिलावन उन्हें नाव में मारपीट करते देख, गुस्से में पागल हुआ जा रहा था. जब उसके बरदाश्त की सीमा पार हो गई तो उसने कुर्ता-पाजामा उतार कर नदी में छलांग लगा ली और नाव की ओर तेजी से लपक लिया. <br />
<br />
खिलावन के नाव में दस्तक देते ही, बुधन के हाथ-पाँव फूल गए--"बाप रे! भागो! बाप-बेटे दोनों ही टूट पड़े हैं." उसने मैदान छोड़ दिया. <br />
<br />
पर, खिलावन का प्रतिशोध भी भभक रहा था. इसलिए, वह भी नदी में कूदकर बुधन का बेतहाशा पीछा करने लगा. छप्पन साल का अधबूढ़ा बुधनराम कब तक खैर मनाता? एक तो खिलावन का कोप; दूसरे, बीच मंझधार में लहरों का बढ़ता आतंक! एक ओर कुआँ तो दूसरी ओर खाई. अंततोगत्वा उसकी शक्ति जवाब दे गई। हाथ-पैर नाकारा हो गए। फिर, छब्बीस साल के उद्दण्ड खिलावन के भय ने उसके मनोबल को और तोड़कर रख दिया। खिलावन ने लपककर उसका कुर्ता पकड़ा। आनन-फानन में बुधन की गरदन अपनी बाईं भुजा में दबोच ली और उसे तब तक पानी में डुबोए रखा जब तक कि उसकी सांस फ़ुस्स नहीं बोल गई और बदन लत्ता नहीं हो गया। <br />
<br />
अगले दिन, गाँव के कुछ बच्चे नदी किनारे कबड्डी खेल रहे थे कि उन्होंने यकायक देखा कि कुछ कुत्ते वहीं किनारे पानी में कोई लाश नोच रहे हैं। वैसे भी, बुधन के घर न लौटने पर गाँववाले बड़े सशंकित थे क्योंकि सभी जानते थे कि बुधन और जियावन साथ-साथ मछली मारने जाते थे। लेकिन, जब रामजियावन, बुधन के घर यह बताने गया कि वह नदी-पार अपने साले के घर गया है और वह बुधन के हिस्से की मछली उसके घर वापस आने पर देगा तो सभी को उसकी सूचना से तसल्ली हो गई। पर, जियावन को क्या पता था कि कमबख्त बुधन की लाश कहीं दूर लापता होने के बजाय उसके ही गाँव के किनारे आ लगेगी?<br />
<br />
बच्चे लाश को करीब से देखते ही, सिर पर पैर रखकर गाँव की और भागे--"बुधन चच्चा मर गए।" उनकी चीत्कार पर सारा गाँव भौंचक होकर नदी किनारे उमड़ पड़ा। डरा-सहमा रामजियावन पहले तो बड़बड़ाता रहा कि "कल तक तो बुधन भैया अपने साले के घर भले-चंगे गए थे; फिर, उनकी अचानक मौत कैसे हो गई?" लेकिन, जब धीमन केवट ने उसके सीने पर गड़ांसा रखा तो उसने सच्चाई उगल दी--" कल, हमारे और बुधन के झगड़े के बीच खिलावन टपक पड़ा था। उसने बुधन को नदी में डुबोकर उसकी नटई टीप दी।"<br />
<br />
अपने ही बाप के मुँह से अपना नाम सुनकर खिलावन चौकन्ना हो गया। लेकिन, वह भागकर कहाँ जाता? भीड़ ने उसे दबोच लिया। तभी धीमन केवट ने अपना फैसला सुनाया--"मामला संगीन है। पंचायत कुछ नहीं कर सकती। हत्या का मामला है। पुलिस को सौंप दो।"<br />
<br />
रामजियावन और खिलावन को उसी दिन स्थानीय पुलिस चौकी से तहसील थाना में स्थानान्तरित कर दिया गया। शाम ढलने से पहले उनकी पेशी भी हो गई।<br />
<br />
जब केवटाना की भीड़ ने थाना इन्चार्ज़ का नाम पढ़ा तो उनमें खुसुर-फ़ुसुर होने लगी। इस बाबत पक्की जानकारी रखने वाले धीमन केवट ने कहा, "यह धिन्तारा शुक्ला कोई और नहीं, वही ठाकुर विक्रम की नाज़ायज़ औलाद है, जो ऐन बारात वाले दिन खिलावन की इज़्ज़त गुड़-गोबर करके फरार हो गई थी।" <br />
<br />
खिलावन के रोंगटे खड़े हो गए। उसने गेट पर लगे नेमप्लेट को गौर से देखा। धीमन ने उसे देख, आँख मटकाई--"देखता क्या है, बुड़बक? यही तेरी सात जनम की दुश्मन--धिन्तारा।"<br />
<br />
खिलावन दंग रह गया। सोच-सोच कर उबाल खाने लगा। सोचने लगा कि 'हमारी तलाश पूरी हो गई। अगर पता होता कि बुधन को मारकर ही हम धिन्तारा तक पहुँच पाएंगे तो हम उसे पहले ही ठिकाने लगा देते।' उसका दिल नफ़रत से भर गया--"आखिर, साली ने गैर-बिरादरी में ब्याह करके हमारा किस्सा ही खत्म कर डाला।" उसने नेमप्लेट पर पावभर बलगम उगल दिया।<br />
<br />
वहाँ तैनात सिपाहियों को उसकी हरकत बेहद बेहूदी लगी। उन्होंने उस पर दनादन इतने घूंसे जड़े कि वह दर्द से चींखते हुए फ़र्श पर लोटने लगा। शोरगुल सुनकर जब धिन्तारा आसन्न स्थिति का जायज़ा लेने बाहर निकली तो सिपाहियों ने उसके नेमप्लेट की और इशारा करते हुए खिलावन की बदतमीज़ी की तरफ उसका ध्यान आकृष्ट किया--"मैडम! इतना ही नहीं, यह शख़्स क़त्ल का ख़तरनाक़ मुज़रिम भी है।"<br />
<br />
धिन्तारा गुस्से में काफ़ूर हुई जा रही थी। जब उसने आक्रोश में खिलावन को पैर मारकर पलटा तो वह सिसकारी मारे बग़ैर नहीं रह सकी, "तो अब आया है ऊँट पहाड़ के नीचे।" उसने खिलावन को एक ही नज़र में पहचान लिया था।<br />
<br />
वह तत्काल केवटों की भीड़ को थाना परिसर से बाहर खदेड़ने का आदेश देते हुए पुलिस चौकी से लाए गए एफ़.आई.आर. और रपट का मुआयना करने लगी। इसी बीच, उसका ध्यान भंग हुआ। बाहर जाती भीड़ में से यह भुनभुनाहट साफ सुनाई दे रही थी--"अरे, ठाकुर विक्रम सिंह आ रहे हैं।" उन्हें देख धिन्तारा एक बच्चे की भाँति चंचल हो उठी। जब उसने आगे बढ़कर विक्रमसिंह के पैर छुए और आशीर्वाद लिया तो यह देख, भीड़ फिर रुक गई।<br />
<br />
लोग बुदबुदाने लगे, "अरे, देखो! ये हरामज़ादी अपने असल बाप की पैलगी कितने अदब से कर रही है!"<br />
<br />
"हाँ-हाँ, नामर्द बब्बन तो इसका फ़र्ज़ी बाप था।"<br />
<br />
"अरे, ये ठाकुर विक्रम इसकी अम्मा मनरखनी का आशिक तो पहले से था। अब तो ये इसका भी...।"<br />
<br />
"हाँ-हाँ, ये सब पैलगी तो दुनिया को दिखाने के वास्ते है; असल में तो इसका भी ठाकुर के साथ...।"<br />
<br />
विक्रमसिंह ने बड़ी आत्मीयता के साथ धिन्तारा के सिर पर हाथ फेरा--"बेटा, तुम्हारी माँ को मैंने अपनी धरम-बहिन बनाया था। वह हर साल हमें राखी बाँधने और भाईदूज़ की मिठाई खिलाने आती थी। जब तू नौ बरस की थी तो बात-बात में एक दिन उसने मुझे अपनी ख्वाहिश बताई थी--"विक्रम भैया! मैं अपनी धिन्तारा को कोई बड़ा आदमी बनाना चाहती हूँ...काश! वह जिंदा होती तो आज तुम्हें पुलिस अफ़सर के रूप में देखकर फूली नहीं समाती।"<br />
<br />
"मामाजी! ये सब आपकी बदौलत हुआ है। आप ही मेरा स्कूल से कालिज़ में दाखिला कराने गए थे। आप ही मुझे कापी-किताब दिलाने जाते थे। जब बाबूजी मेरी फीस नहीं जमाकर पाते थे तो आप खुद मेरी फीस अपनी पाकिट से जमा करते थे। मेरे जाहिल बाबूजी क्या यह सब करने लायक थे? बेशक! आपकी मदद के बग़ैर, मैं क्या होती? बस, किसी मेहनतकश मछुआरे के घर झाड़ू-पोंछा लगा रही होती या मछली-भात उसन रही होती। इतना तो मेरा सगा मामा भी होता तो न करता।"<br />
<br />
भीड़ में उपस्थित धीमन, दुक्खीराम, रन्धावा आदि सभी केवट, विक्रम और धिन्तारा के बीच बातचीत को सुनकर आत्मग्लानि से पसीने-पसीने हो रहे थे। वे पहली बार विक्रमसिंह की उदारता और बड़प्पन से अवगत हो रहे थे। रामजियावन ने हथकड़ी से बँधे हाथों से अपनी नम आँखें पोछीं। वह मन-ही-मन पछता रहा था--"बिचारी मनरखनी पर हम नाहक शक करते थे। ठाकुर तो बड़ा पाक-साफ लगता है। क्या वह सच में मनरखनी को अपनी बहिन मानता था? च्च, च्च, च्च, हम फ़िज़ूल उसे ठाकुर की रखैल और धिन्तारा को उसकी नाज़ायज़ औलाद मानते रहे। हमारे पापकर्मों को ईश्वर भी माफ़ नहीं करेगा।"<br />
<br />
धीमन भी रामजियावन की आँखों में आँखें डालकर रुआँसा हो गया। उसे देखते हुए वह भी सोच रहा था--"हम दोनों को भी रामजियावन की तरह सज़ा मिलनी चाहिए। आख़िर, ठाकुर और मनरखनी के मेलमिलाप को हम दोनों ने ही नाज़ायज़ मानकर मनरखनी को जान से मारने की साज़िश रची थी। जहरीला करैत साँप हम पकड़ कर लाए थे जिसे तुमने चुपके से मनरखनी के झोले में डाल दिया था। जैसे ही उसने झोले में हाथ डाला, साँप ने इसे डस लिया।। ज़हर इतना तेज था कि बिचारी को एक भी लहर नहीं आई और वह वहीं खत्म हो गई। गाँववालों को क्या पता कि उसकी मौत का ज़िम्मेदार कौन है?"<br />
<br />
सारे केवट अपराध-बोध से सिर झुकाए मौन खड़े थे। विक्रम सिंह ने उन पर विहंगम दृष्टि डाली और धिन्तारा से पुनः मुखातिब हुआ--"बेटा, तुम्हारे गाँव छोड़कर चले जाने के बाद, मैं तुम्हारे घर गया था। तुम्हारे बारे में सारी बातें सुनकर बड़ा अफ़सोस हुआ। पर, ज़ल्दबाज़ी में तुमने जो फ़ैसला लिया था, वह तुम्हारे भविष्य के लिए अच्छा साबित हुआ।"<br />
<br />
उस क्षण, धिन्तारा अपने बीते वर्षों की दुर्गम अंधगुफ़ा में सिर टकराते हुए भटकने लगी। अपने अभिशप्त अतीत की स्मृति-छाया से बार-बार सिहर रही थी। उन बीहड़ रास्तों पर माँ-बाप तक उसे अकेला और बेसहारा छोड़ गए थे। उसे अच्छी तरह याद है जबकि उसने अपना घर, गृहस्थी के सामान, पिता की नाव, पतवार, पालघर आदि बेचकर अन्यत्र बसने की इच्छा व्यक्त की थी। तब, रामजियावन पहाड़ बन सामने खड़ा हो गया था--"तू हमारी लच्छमी है। होने वाली बहू है। तुझे यानी अपनी इज़्ज़त को हम कैसे यहाँ से जाने दे सकते हैं?"<br />
<br />
धिन्तारा ने घृणा और रोष से हथकड़ियों में बँधे रामजियावन और खिलावन को देखकर मुँह बिचकाया। फिर, स्वतः बह आए आँसुओं को पोंछा और विक्रम सिंह को देखकर गंभीर हो गई।<br />
<br />
"मामाजी! अब आप ही मुझ अनाथ के इकलौते बुजुर्ग हैं। मेरे आदर्श हैं। मेरा क्या? तबादले वाली नौकरी है। कभी इस शहर में तो कभी उस शहर में। इसलिए मैं यह चाहती हूँ कि गाँव में मेरा जो मकान-जमीन है, उसे बेचकर आप वहाँ एक बालिका विद्यालय बनवाने का कष्ट करें ताकि केवटाना की दलित बच्चियाँ पढ़-लिखकर समझदार बन सकें। मैं कोशिश करूंगी कि सरकार से उस विद्यालय के लिए कुछ अनुदान का बंदोबस्त हो सके।"<br />
<br />
उनकी बातचीत पर खिलावन के कान ज़्यादा खड़े थे। ठाकुर की भलमनसाहत और धिन्तारा की निश्छलता देख, उसका गुस्सा पश्चाताप में परिणत हो रहा था। धिन्तारा के प्रति उसका आक्रोश पिघल रहा था। ईर्ष्या गलकर पानी-पानी हो रही थी। सच से अवगत होकर उसका दम्भी पुरुष धिन्तारा के विशालकाय कद के सामने ठिंगना होता जा रहा था। वह सोच रहा था कि जब हमें शक्ति और समर्थन प्राप्त था तब भी हम चाहकर उसका दमन नहीं कर पाए। अब धिन्तारा के पास बल और कानून है, हमारी मौत का चाबुक है। वह हमें दण्डित करने की स्थिति में है और हम उसके दण्ड को मूक भोगने की स्थिति में हैं। ईश्वर ने सदैव उसकी मदद की। पहले उसने खुद को बर्बर हाथों से मुक्त किया और अब वह समाज को उनसे मुक्त कराने में जुटी है। केवटाना गाँव में वह स्वयं असहाय और मज़बूर धिन्ताराओं का उद्धार करने के लिए अपनी जमीन-ज़ायदाद बेचकर बालिका विद्यालय खोलने के लिए उतावली हो रही है। यानी, अपने गाँव से दूर रहकर भी उसका मन केवटों की ज़िंदगी में रमा हुआ है। निःसंदेह, वह गाँव का उत्थान चाहती है। औरतों को पशुतुल्य मर्दानगी से आज़ाद कराना चाहती है। अगर केवटाना के तानाशाह मर्द, औरतों पर मनमर्जी नहीं करते होते तो वहाँ दर्ज़नों धिन्ताराएं जन्म ले चुकी होतीं। गाँव का नाम रोशन कर चुकी होतीं। सारे गाँव को उनमें से एक-एक पर नाज़ होता। मर्द भी सीना चौड़ा करके कह रहे होते, "हमें अपनी धिन्ताराओं पर बेहद फ़ख्र है। इन धिन्ताराओं के कीरत और गुन की बदौलत, हम बड़े लोगों को पछाड़ सकते है। देखो, हमारे गाँव की एक धिन्तारा इतनी बड़ी हो गई है कि वह एक उच्च वर्ग की बहू भी है...।"<br />
<br />
खिलावन सोचते-सोचते बुदबुदाने लगा, "धिन्तारा बड़ी महान है। मैं नीच आदमी उस पर हक़ जमाने चला था। अरे! मैं तो उसका नौकर बनने लायक भी नहीं हूँ।"<br />
<br />
खिलावन ने मन-ही-मन अपना अपराध स्वीकार कर लिया था। सोच रहा था कि उसे मौत की सज़ा भी मिल जाए तो वह खामोश रहेगा। इसलिए, जब उसे चौदह साल की बामशक्कत सज़ा मिली तो उसने कोई गुरेज़ नहीं किया। दूसरी ओर रामजियावन को भी यह अहसास हो चला कि वह खिलावन को बुधनराम की हत्या करने से न रोककर खुद भी उसकी हत्या में शरीक़ है। साथ ही, वह धिन्तारा की पैतृक संपत्ति पर अवैध कब्ज़ा जमाने का भी दोषी है। <br />
<br />
इसलिए, जब रामजियावन अपने अच्छे बात-बर्ताव के कारण सिर्फ़ छः साल की जेल चक्की पीसकर घर लौटा तो वह खुश नहीं था। जब तक वह जेल में रहा, अपराधबोध से पीड़ित रहा। इसलिए, वह जेल से छूटते ही, सीधे धिन्तारा के सामने हाजिर हुआ। <br />
<br />
"बिटिया, हमें तो और सख़त सज़ा मिलनी चाहिए थी। हम और धीमन तुम्हारी माई मनरखनी के भी क़ातिल हैं।"<br />
<br />
धिन्तारा की आँखें क्रोध में न जलकर, भर आईं। "चाचाजी, क्या आप ये समझते हैं कि हमें यह सब नहीं पता है? अम्मा के मरने के बाद, बाबूजी को भी यह सच्चाई मालूम हो गई थी। पर, वह कर भी क्या सकते थे? आप ही लोग पंचायत के सर्वेसर्वा थे। क्या आपलोग पंचायत में बैठकर खुद को हत्यारा साबित करने की जोखिम उठाते?"<br />
<br />
रामजियावन का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। उसकी आँखों से आँसुओं का गुबार उमड़ पड़ा--अपने जुल्मियों के जुल्म जानकर भी बिचारी धिन्तारा ख़ामोश रही।<br />
<br />
धिन्तारा ने आगे कहा--"जब आप जेल में थे तो एक दिन धीमन चाचा आए थे। उन्होंने अपनी जुबानी अपना जुर्म कबूल करके मुझसे सज़ा मांगी थी। लेकिन, मैं उससे बदला लेने वाली कौन होती हूँ? बदला लेने वाली मेरी माँ तो स्वर्ग सिधार गई है। सो, मैंने उन्हें उसी समय माफ़ कर दिया और आपको भी। जो हुआ, सो हुआ। आइन्दा हमारे गाँव में ऐसा वाकया नहीं होना चाहिए। ख़ासतौर से हमारे जैसी मज़बूर धिन्ताराओं पर अत्याचार...।"<br />
<br />
धिन्तारा का गला भर आया। वह फफक पड़ी।<br />
<br />
इस घटना को बीते कोई चालीस साल तो गुजर ही गए हैं। धिन्तारा शुक्ला सीनियर एस.पी. के पद से सेवामुक्त होकर आज भी केवटाना गाँव में रह रही रही है। केवटाना महिला महाविद्यालय की संरक्षिका की हैसियत से। यह वही महाविद्यालय है जिसकी स्थापना बालिका विद्यालय के रूप में हुई थी और जिसके लिए उन्होंने अपनी सारी संपत्ति दान कर दी थी। उक्त विद्यालय को महाविद्यालय को दर्ज़ा दिलाने में खिलावन का अहम योगदान रहा है। चौदह साल की जेल की सज़ा काटकर, वह सीधे केवटाना गाँव में उपस्थित हुआ और उसने अपना सारा जीवन इसके विकास में अर्पित कर दिया। गाँव वाले उसे दलित महिलाओं के मसीहा के रूप में देखते हैं। उससे मिलने पर वह गर्व से कहता है--"आज मैं जो कुछ हूँ, बहन धिन्तारा की बदौलत हूँ। उन्होंने ही मुझे जीने का यह नया अंदाज़ सिखाया है।"<br />
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(साहित्य अमृत, संपादक विद्यानिवास मिश्र, जुलाई, 2004)</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5889धिन्तारा / मनोज श्रीवास्तव2011-11-09T08:30:30Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
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<div><br />
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धिन्तारा के माई-बाप स्वर्ग सिधार गए तो क्या हुआ! सारा गाँव उसका है। वह जिस घर में चाहे, वहाँ जाकर रहे। लेकिन हमें यह मंजूर नहीं है कि वह शहर जाकर नौकरी करे। यह हमारे गाँव की इज़्ज़त का सवाल है...।<br />
धीमन केवट ने हाथ उठाकर अपना फैसला सुनाया। उत्तेजित भीड़ की गड़गड़ाती तालियों और कहकहों से सारा चौपाल गूँज उठा। सभी के मन की इच्छा जो पूरी हुई थी।<br />
<br />
<br />
तभी पंचों में से रामजियावन ने खुशी से कंधे उचकाते हुए सभी को शांत किया, "पंचों का निर्णय यह है कि आज से धिन्तारा इस गाँव से बाहर नहीं जाएगी, दूसरी जनानियों की तरह। अगर उसे अपनी तालीम के बेकार जाने का पछतावा है तो पंचों का हुकुम है कि वह गाँव के बच्चों को पढ़ाए। बदले में, हम उसे खाना-खर्चा देंगे। उसकी देखरेख करेंगे। हिफ़ाज़त करेंगे।"<br />
उनकी बातें सुनकर, धिन्तारा की नाक के ऊपर से पानी बहने लगा। चेहरे से लपटें निकलने लगीं। वह सभी बंदिशों को ठोकर मारकर एक अलग रास्ता चुनेगी। उसने न दुपट्टा सम्हाला, न ही बाल समेटे। बस, मुट्ठी भींचकर दौड़ पड़ी और चौपाल के बीच आ-खड़ी हुई। <br />
<br />
<br />
उसकी इस शोखी पर सभी ने दातों तले अंगुली दबा ली--"कितनी बज़्ज़ात औरत है!"<br />
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<br />
"यह सरासर नाइंसाफ़ी है। मेरे ऊपर ज़्यादती है। आप लोग मेरा भविष्य चौपट कर रहे हैं। आखिर, मैंने चूल्हा-चौका करने के लिए तो बी.ए. पास किया नहीं है। कितनी मेहनत के बाद, यह पुलिस इन्स्पेक्टरी की नौकरी मिली है? केवटाना गाँव की कोई लड़की पहली बार पढ़-लिखकर शहर जा रही है, नौकरी करने। आप मर्दों में तो कोई दमखम रहा नहीं। सारे के सारे अंगूठा-छाप हैं। चिट्ठी-पत्री तक तो पढ़ नहीं सकते। बस, पतवार लेकर नावों में सवार रहते हैं। मछली पकड़ने के जुगाड़ में, नदी में जाल डाले हुए, पालघर से झाँकते रहते हैं।<br />
<br />
<br />
उसका गुरूर से सिर झटकना सबके गले की हड्डी बन गया। बेशक! उसने केवटों और मछुआरों की सदियों पुरानी आजीविका की खिल्ली उड़ाई थी। उनकी ज़िंदगी को हिकारत से देखा था। ठिंगना दुक्खीराम तक आपे से बाहर हो उठा, "पंचों के फ़ैसले का छीछालेदर करने वाले को हम नहीं बख्शेंगे। इस दुधमुँही छोकरी की यह मजाल कि वह हमें सरेआम नंगा करे। इसने अपना लाज-शरम तो उसी दिन बेच दिया था, जिस दिन इसके बाप बब्बन ने इसे पढ़ने तहसील भेजा था। अच्छा हुआ, साला भरी जवानी में ही मर गया। नहीं तो, वह अपनी छोकरी को पढ़ाने-लिखाने के बहाने कोठे पर बैठाकर ही दम लेता। हरामज़ादी नौकरी करेगी, हमारी बिरादरी की औरतों की नाक कटाएगी। साली का झोंटा खींचकर चार लप्पड़ लगाओ, इसका दिमाग ठिकाने लग जाएगा।"<br />
<br />
खिलावन को दुक्खीराम की तैश बहुत भली लगी. धिन्तारा उसकी होने वाली लुगाई जो ठहरी. इसलिए उसके कोई ऊटपटांग करने पर गाँव वालों से पहले उसके आन पर आंच आएगी. खुद बब्बन ने उसके बाप रामजियावन से कह-सुनकर धिन्तारा के साथ उसका रिश्ता तय किया था--"रामजियावन, अगर हमारी मेहरारू ने लड़की पैदा किया तो ऊ तुम्हारी बहू बनेगी." सो, जिस दिन धिन्तारा पैदा हुई, उसी शाम बब्बन, रामजियावन ए घर जाकर सगुन भी कर आया था. तब, खिलावन भी हंसता-खेलता बच्चा था, कोई साढ़े चार साल का. <br />
<br />
खिलावन की आँखों में ये सारी घटनाएं ताजी थीं. सो, चौपाल में जिसका सबसे ज़्यादा खून उबल रहा था, वह खिलावन ही था. वह वहीं से दहाड़ उठा, "इ सुअरी, शहर जाएगी तो किसी कुजात से इशक लड़ाएगी और ब्याह रचाएगी. इससे हमारी जात पर लांछन आएगा. हम ठहरे खांटी केवट. हमारे ऊपर भगवान राम का आशीर्वाद है. सीता मैया का आशीर्वाद है. सो हमारा नाक कटाने से पहले ही, हम इसका गला रेत देंगे." <br />
<br />
चौपाल में जमा वहशी भीड़ खिलावन की बात सुनकर धिन्तारा को चुन-चुनकर गालियाँ देने लगी. जवान लौंडे गुस्से से बेकाबू हो रहे थे. खिड़कियाँ झांकती औरतें धिन्तारा के शेखी बघारने पर ताज्जुब कर रही थीं. सोच रहीं थी कि चलो, छाती तानकर वह रोज साइकिल से स्कूल जाती थी, हमने बरदाश्त कर लिया. लेकिन, यह तो हैरतअंगेज़ बात है कि वह सिपाही की वर्दी पहन, अपने जनाने अंग झुलाते, पुलिस की ट्रेनिंग लेने शहर जाए और ट्रेनिंग के बाद किसी अनजान चौराहे पर लाठी भांजती फिरे. <br />
<br />
उत्तेजना केवल पंचायत में ही नहीं थी, बल्कि पुराना गाँव का पारा चढ़ा हुआ था. धिन्तारा ने हरेक को ध्यान से देखा. सभी की आँखें जलती हुई तीलियाँ थीं. लेकिन, उसके मन की ज्वाला कहीं अधिक दाहक थी. वह बड़वानल की तरह भीतर-ही-भीतर झुलस रही थी. पहले वह चिंगारी की तरह चटख रही थी. पर, अब वह साबुत जल रही थी--क्रोध और प्रतिशोध में. चार साल पहले पिता की गोताखोरी करते समय डूबकर हुई मौत के बाद वह अनाथ हो गई थी. तब, वह बावली-सी इधर-उधर मंडराती थी. क्या कोई गांववाला उसकी मदद करने आया था? बल्कि, उसका तो जीना और भी दूभर हो गया था. जवान लड़की और वह भी एकदम अकेली. जैसे वहशी बाजों के जंगल में एक अकेली कबूतरी. कोई आगे न पीछे. आते-जाते छीटाकशियों का वार झेलना पड़ता था उसे. कई दफे तो रात को उसके आँगन में गाँव के ही मनचले बदमाश मर्द उतर जाते थे. पर, उसकी जांबाजी ने सभी के छक्के छुड़ा दिए. जनाने जिस्म में मर्दों वाली फुर्ती और ताकत थी. रंधावा को तो उसने बीच हाट में छठी का दूध याद दिलाया था. सभी गाँव वालों की आँखें नीची हो गई थीं. तब, कोई भी सामने नहीं आया, कामांध रंधावा को सबक सिखाने! न पंचायत बैठी, न ही चौपाल. वह गला फाड़-फाड़ चींखती-चिल्लाती रही लेकिन सभी अपने-अपने काम में मग्न हो गए--जैसे कुछ हुआ ही न हो.<br />
<br />
<br />
धिन्तारा तड़प रही थी. आखिर उसने कौन-सा गुनाह किया था की उसकी माँ उसे जानते ही भगवान् को प्यारी हो गई? माँ का ख्याल आते हीउसके होंठ घृणा से सिकुड़ गए. गाँव में यह अफवाह थी कि उसकी माँ के ठाकुर विक्रमसिंह से नाजायज ताल्लुकात थे और वह उसी का नतीजा है. तभी तो जब वह गलियों से गुजरती थी तो लोग फब्तियां कसते हैं. कानाफूसी करते हैं,"इस कुलच्छनी को देखो ,कैसे ठकुराइन-सरीखी ऐंठकर चल रही है? बब्बन तो नामर्द था. तभी तो उसकी लुगाई विक्रम ठाकुर के साथ गुलछर्रे उड़ाती फिरती थी."<br />
<br />
जब चौपाल में लोगों की जुबान से तानों के बारूद फट रहे थे, तभी ग्रामप्रधान धीमन केवट आवेश में कांपता हुआ खड़ा हुआ. वह धिन्तारा के गुस्ताखी को नहीं पहचान सका. खूनी डोरें उसकी आँखों में चमक रहे थे. <br />
<br />
"अब हमारा आख़िरी फैसला सुनो. धिन्तारा को उसके ही घर में कैद कर दो और एक हफ्ते के भीतर इसे खिलावन केवट की खूंटी में बाँध दो. तब तक इतना सख्त पहरा रखो कि यह इस गाँव से टस से मस न हो सके. "<br />
<br />
चौपाल उठने के काफी देर बाद तक धिन्तारा जड़वत खड़ी रही. जैसे कैदखाने की रिहाई की आस संजो रहे किसी कैदी को अचानक फांसी की सजा सुना दी गई हो. बदतमीज़ खिलावन की घिनौनी शक्ल उसके दिमाग में कौंध रही थी. उसने अपने होठ भींच कर संकल्प लिया--वह पंचायत के फैसले को कभी नहीं मानेगी. उसका दिमाग सरपट दौड़ रहा था--'क्या करे कि वह नकेल पड़ने से पहले ही भाग खड़ी हो और इन बर्बर लोगों के हाथ जीवनपर्यंत न आए?' उसकी गर्दन निश्चय के भाव से तन गई--'अंगूठाछाप खिलावन के हाथों तबाह होने से पहले ही वह निरंकुश पंचों के अन्यायपूर्ण आदेश पर पानी फेर देगी.'<br />
<br />
<br />
धिन्तारा को उसके ही घर में नजरबन्द कर दिया गया. उसके घर के चारों ओर पहरुए तैनात कर दिए गए. गाँव का चप्पा-चप्पा संवेदनशील हो गया था. सारे गाँव वालों का अहं अट्टहास कर रहा था. खिलावन खुद गलियों से गुरूर से गुजरते हुए दरवाजे-दरवाजे अपनी शादी का न्योता दे रहा था. खास बात यह थी कि उसकी शादी के बंदोबस्त की जिम्मेदारी पंचायत के कंधो पर थी और गाँव के सभी बच्चे-बूढ़े इसमें शामिल होने वाले थे. आखिर पञ्च रामजियावन के बेटे की शादी थी और वह भी पंचायत के हस्तक्षेप से.<br />
<br />
<br />
इस दरमियान, धिन्तारा ने कोई बवाल नहीं खड़ा किया. वह दरवाजे पर खड़ी होकर पहरुओं से सामान्य लहजे में बातें करती और और अपनी शादी की चर्चा पर फिसकारी मारकर हंस देती. इस तरह वह यह संकेत देती की वह खिलावन के साथ अपनी होने वाली शादी से खुश है. पहरुए क्या, सभी गाँव वाले आश्वस्त हो गए की धिन्तारा ने पंचों के फैसले को सहर्ष स्वीकार कर लिया है. उसने परम्पराओं और प्रथाओं को स्वीकृति देकर गाँव के मान-सम्मान में वृद्धि की है इसलिए, पहरुए लापरवाह हो गए. उस पर चौकसी ढीली पड़ गई. <br />
<br />
लेकिन, ऐन शादी की शाम, जब केवटाना के ग्रामीण एक जश्न मनाने के जद्दोजहद में गाफिल-से हो रहे थे तो धिन्तारा की गैर-मौजूदगी ने सभी को झंकझोर दिया. वह सभी की आँखों में धूल झोंककर फरार हो गई थी. दरवाज़े पर खिलावन अपनी बारात लिए मुंह ताकता रह गया. जिस कोठारी से धिन्तारा सजने-संवरने कानाटक खेल रही थी, उसकी जर्जर खिड़की उखाड़कर वह गुम हो गई. बिल्कुल फिल्मी स्टोरी की नायिका की भाँति. <br />
<br />
रामजियावन अपराध-बोध से पागल हो उठा और धिन्तारा पर निगरानी रखने वाले दो मर्दों की टांगें वहीं लाठी से ताबड़तोड़ चूर कर दी. खिलावन ने पूरे होश में ऐलान किया--"चाहे धिन्तारा पाताल में समा गई हो, मैं उसे ढूंढ कर ही दम लूंगा और ब्याह करूंगा तो केवल उसी से नहीं तो जीवन भर कुंवारा रहूँगा...."<br />
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केवटाना गाँव में मारपीट, हत्या, बलात्कार आदि जैसी घटनाएँ आए-दिन होती रहती थीं. लेकिन, ऐन खड़ी बारात वाली शाम को किसी लड़की का भाग जाना एकदम अजूबा लग रहा था. केवटाना गाँव के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. इसे याद करते ही केवटों के सीने पर सांप लोटने लगता. चुनांचे, धिन्तारा काण्ड का भी सुनते-सुनाते साधारणीकरण हो गया--गाँव में अक्सर घटने वाली सनसनीखेज घटनाओं की तरह. इसलिए, चार साल ऐसे गुजर गए, जैसे बंद मुट्ठी से बालू. इतने समय में तो जिन जवान लौंडों की शादी हुई थी, वे दो-दो बच्चों के बाप बन गए. और जो छोकरियाँ गड़हियों में गुल्ली-डंडा खेलती थीं, वे शादी लायक जबर-जवान हो गईं और मां-बाप की आँखों की किरकिरी बन गईं. लिहाजा, मेहनतकश मल्लाहों और मछुआरों के लिए तो यह समय चुटकी में बीत गया. लेकिन, खेलावन ने न केवल चार सावन और चार वसंत ही बल्कि, दिन, सप्ताह और महीने तक गिन-गिन कर बिताए. उस पर एक ही धुन सवार थी-- धिन्तारा को तलाश कर उससे जबरन शादी करना. सारे गाँव में उसकी थू-थू कराने के लिए वह उसे आजीवन अपनी दासी बनाकर ही चैन की साँस लेगा.यह संकल्प वह दिन भर में कम से कम सौ बार लेता. <br />
<br />
इस खुमार में खिलावन को होश कहाँ था? रोज उससे कोई न कोई अनापशनाप काम हो जाता.एक शाम जब रामजियावन और बुधराम मछली पकड़कर लौट रहे थे तो नाव पर ही उनमे मछली के बंटवारे को लेकर तू-तू, मै-मै हो गई. इतने सालों से दोनों साझे में एक ही नाव पर मछली पकड़ते रहे. लेकिन, किसी के हिस्से में एक-दो किलो मछली ज्यादा चली जाने पर कोई कुछ भी शिकायत नहीं करता था. किन्तु, आज दोनों के ग्रह-नक्षत्र ठीक नहीं थे. यूं भी, आज अमावस्या के चलते एक तो उफनती लहरों पर कोई वश नहीं चल रहा था; दूसरे, उनके मन में फितूर की बातें भी उमड़ रही थीं. गुस्से पर कोई काबू नहीं था. रामजियावन घुड़क रहा था कि "नाव हमारी है और जाल तुम्हारा. इसलिए, दो-तिहाई हिस्सा हमें चाहिए." दूसरी तरफ, बुधन ताव खा रहा था कि "तुमने तो नाव स्वर्गीय बब्बन से हड़पी है. बब्बन की मौत के बाद धिन्तारा वह नाव किराए पर चलवाती थी. पर, धिन्तारा के भाग जाने के बाद तुमने उसकी नाव पर हक़ जमा लिया है. सो, तुम्हारी न नाव है, न जाल. हाँ, हमारे साथ मछली पकड़ने में ठेडी मेहनत-मशक्कत ज़रूर की है. इसलिए, तुम्हे तिहाई हिस्सा ही मिलेगा."<br />
<br />
जब नाव बीच नदी में थी तो दोनों में कहासुनी, हाथापाई में तब्दील हो गई. खेवइया बगैर नाव हिचकोलें खा रही थी. किनारे पर उनकी राह अगोर रहा खिलावन उन्हें नाव में मारपीट करते देख, गुस्से में पागल हुआ जा रहा था. जब उसके बरदाश्त की सीमा पार हो गई तो उसने कुर्ता- पाजामा उतार कर नदी में छलांग लगा दी और नाव की ओर तेजी से लपक लिया.<br />
<br />
खिलावन के नाव में दस्तक देते ही, बुधन के हाथ-पाँव फूल गए--"बाप रे! भागो! बाप-बेटे दोनों ही टूट पड़े हैं." उसने मैदान छोड़ दिया. <br />
<br />
पर खिलावन का प्रतिशोध भी भभक रहा था. इसलिए, वह भी नदी में कूदकर बुधन का बेतहाशा पीछा करने लगा. छप्पन साल का अधबुढ़ा बुधनराम कब तक खैर मनाता? एक तो खिलावन का कोप; दूसरे, बीच मंझधार में लहरों का बढ़ता आतंक! एक ओर कुआँ तो दूसरी ओर खाई.अंततोगत्वा उसकी शक्ति जवाब दे गई। हाथ-पैर नाकारा हो गए। फिर, छब्बीस साल के उद्दण्ड खिलावन के भय ने उसके मनोबल को तोड़कर रख दिया। खिलावन ने लपककर उसका कुर्ता पकड़ लिया। आनन-फानन में बुधन की गरदन अपनी बाईं भुजा में दबोच ली और उसे तब तक पानी में डुबोए रखा जब तक कि उसकी सांस फ़ुस्स नहीं बोल गई और बदन लत्ता नहीं हो गया। <br />
<br />
अगले दिन, गाँव के कुछ बच्चे नदी किनारे कबड्डी खेल रहे थे कि उन्होंने यकायक देखा कि कुछ कुत्ते वहीं किनारे पानी में कोई लाश नोच रहे हैं। वैसे भी, बुधन के घर न लौटने पर गाँववाले बड़े सशंकित थे क्योंकि सभी जानते थे कि बुधन और जियावन साथ-साथ मछली मारने जाते थे। लेकिन, जब रामजियावन, बुधन के घर यह बताने गया कि वह नदी-पार अपने साले के घर गया है और उसने बुधन के हिस्से की मछली उसके घर पहुँचा दी है तो सभी को सूचना से तसल्ली हो गई। पर, जियावन को क्या पत था कि कमबख्त बुधन की लाश कहीं दूर लापता होने के बजाय उसके गाँव के किनारे आ लगेगी?<br />
<br />
बच्चे लाश को करीब से देखते ही, सिर पर पैर रखकर गाँव की और भागे--"बुधन चच्चामर गए।" उनकी चीत्कार पर सारा गाँव भौंचक होकर नदी किनारे उमड़ पड़ा। डरा-सहमा रामजियावन पहले तो बड़बड़ाता रहा कि "कल तक तो बुधन भैया अपने साले के घर भले-चंगे गए थे; फिर, उनकी अचानक मौत कैसे हो गई?" लेकिन, जब धीमन केवट ने उसके सीने पर गड़ांसा रखा तो उसने सच्चाई उगल दी--" कल, हमारे और बुधन के झगड़े के बीच खिलावन टपक पड़ा था। उसने बुधन को नदी में डुबोकर उसकी नटई टीप दी।"<br />
<br />
अपने ही बाप के मुँह से अपना नाम सुनकर खिलावन चौकन्ना हो गया। लेकिन, वह भागकर कहाँ जाता? भीड़ ने उसे दबोच लिया। तभी धीमन केवट ने अपना फैसला सुनाया--"मामला संगीन है। पंचायत कुछ नहीं कर सकती। हत्या का मामला है। पुलिस को सौंप दो।"<br />
<br />
रामजियावन और खिलायवन को उसीदिन स्थानीय पुलिस चौकी से तहसील थाना में स्थानान्तरित कर दिया गया। शाम ढलने से पहले उनकी पेशी भी हो गई।<br />
<br />
जब केवटाना की भीड़ ने थाना इन्चार्ज़ का नाम पढ़ा तो उनमें खुसुर-फ़ुसुर होने लगी। इस बाबत पक्की जानकारी रखने वाले धीमन केवट ने कहा, "यह धिन्तारा शुक्ला कोई और नहीं, वही ठाकुर विक्रम की नाज़ायज़ औलाद है, जो ऐन बारात वाले दिन खिलावन की इज़्ज़त गुड़-गोबर करके फरार हो गई थी।" <br />
<br />
खिलावन के रोंगटे खड़े हो गए। उसने गेट पर लगे नेमप्लेट को गौर से देखा। धीमन ने उसे देख आँख मटकाई--"देखता क्या है, बुड़बक? यही तेरी सात जनम की दुश्मन--धिन्तारा।"<br />
<br />
खिलावन दंग रह गया। सोच-सोच कर उबाल खाने लगा। सोचने लगा कि 'हमारी तलाश पूरी हो गई। अगर पता होता कि बुधन को मारकर ही हम धिन्तारा तक पहुँच पाएंगे तो हम उसे पहले ही ठिकाने लगा देते।" उसका दिल नफ़रत से भर गया--"आखिर, साली ने गैर-बिरादरी में ब्याह करके हमारा किस्सा ही खत्म कर डाला।" उसने नेमप्लेट पर पावभर बलगम उगल दिया।<br />
<br />
वहाँ तैनात सिपाहियों को उसकी हरकत बेहद बेहूदी लगी। उन्होंने उस पर दनादन इतने घूंसे जड़े कि वह दर्द से चींखते हुए फ़र्श पर लोटने लगा। शोरगुल सुनकर जब धिन्तारा आसन्न स्थिति का जायज़ा लेने बाहर निकली तो सिपाहियों ने उसके नेमप्लेट की और इशार करते हुए खिलावन की बदतमीज़ी की तरफ उसका ध्यान आकृष्ट किया--"मैडमॅ इतना ही नहीं, यह शख़्स क़त्ल का ख़तरनाक़ मुज़रिम भी है।"<br />
<br />
धिन्तारा गुस्से में काफ़ूर हुई जा रही थी। जब उसने आक्रोश में खिलवन को पैर मारकर पलटा तो वह सिसकारी मारे बग़ैर नहीं रह सकी, "तो अब आया है ऊँट पहाड़ के नीचे।" उसने खिलावन को एक ही नज़र में पहचान लिया था।<br />
<br />
वह तत्काल केवटों की भीड़ को थाना परिसर से बाहर खदेड़ने का आदेश देते हुए पुलिस चौकी से लाए गए एफ़.आई.आर. और रपट का मुआयना करने लगी। इसी बीच, उसका ध्यान भंग हुआ। बाहर जाती भीड़ में से यह भुनभुनाहट साफ सुनाई दे रही थी--"अरे, ठाकुर विक्रम सिंह आ रहे हैं।" उन्हें देख धिन्तारा एक बच्चे की भाँति चंचल हो उठी। जब उसने आगे बढ़कर विक्रमसिंह के पैर छुए और आशीर्वाद लिए तो तो यह देख, भीड़ फिर रुक गई।<br />
<br />
लोग बुदबुदाने लगे, "अरे, देखोऍ ये हरामज़ादी अपने असल बाप की पैलगी कितने अदब से कर रही है!"<br />
<br />
"हाँ-हाँ, नामर्द बब्बन तो इसका फ़र्ज़ी बाप था।"<br />
<br />
"अरे, ये ठाकुर विक्रम इसकी अम्मा मनरखनी का आशिक तो पहले से था। अब तो ये इसका भी...।"<br />
<br />
"हाँ-हाँ, ये सब पैलगी तो दुनिया को दिखाने के वास्ते है; असल में तो इसका भी ठाकुर के साथ...।"<br />
<br />
विक्रमसिंह ने बड़ी आत्मीयता के साथ धिन्तारा के सिर पर हाथ फेरा--"बेटा, तुम्हारी माँ को मैंने अपनी धरम-बहिन बनाया था। वह हर साल हमें राखी बाँधने और भाईदूज़ की मिठाई खिलाने आती थी। जब तू नौ बरस की थी तो बात-बात में एक दिन उसने मुझे अपनी ख्वाहिश बताई थी--"विक्रम भैया! मैं अपनी धिन्तारा को कोई बड़ा आदमी बनाना चाहती हूँ...काश! वह जिंदा होती तो आज तुम्हें पुलिस अफ़सर के रूप में देखकर फूली नहीं समाती।"<br />
<br />
"मामाजी! ये सब आपकी बदौलत हुआ है। आप ही मेरा स्कूल से कालिज़ दाखिला कराने गए थे। आप ही मुझे कापी-किताब दिलाने जाते थे। जब बाबूजी मेरी फीस नहीं जमाकर पाते थे तो आप खुद मेरी फीस अपनी पाकिट से जमा करते थे। मेरे जाहिल बाबूजी क्या यह सब करने लायक थे? बेशक! आपकी मदद के बग़ैर, मैं क्या होती? बस, किसी मेहनतकश मछुआरे के घर झाड़ू-पोंछा लगा रही होती या मछली-भात उसन रही होती। इतना तो मेरा सगा मामा भी होता तो न करता।"<br />
<br />
भीड़ में उपस्थित धीमन, दुक्खीराम, रन्धावा आदि सभी केवट, विक्रम और धिन्तारा के बीच बातचीत को सुनकर आत्मग्लानि से पसीने-पसीने हो रहे थे। वे पहली बार विक्रमसिंह की उदारता और बड़प्पन से अवगत हो रहे थे। रामजियावन ने हथकड़ी से बँधे हाथों से अपनी नम आँखें पोछीं। वह मन-ही-मन पछता रहा था--"बिचारी मनरखनी पर हम नाहक शक करते थे। ठाकुर तो बड़ा पाक-साफ लगता है। क्या वह सच में मनरखनी को अपनी बहिन मानता था? च्च, च्च, च्च, हम फ़िज़ूल उसे ठाकुर की रखैल और धिन्तारा को उसकी नाज़ायज़ औलाद मानते रहे। हमारे पापकर्मों को ईश्वर भी माफ़ नहीं करेगा।"<br />
<br />
धीमन भी रामजियावन की आँखों में आँखें डालकर रुआँसा हो गया। उसे देखते हुए वह भी सोच रहा था--"हम दोनों को भी रांअजियावन की तरह सज़ा मिलनी चाहिए। आख़िर, ठाकुर और मनरखनी के मेलमिलाप को हम दोनों ने ही नाज़ायज़ मानकर मनरखनी को जान से मारने की साज़िश रची थी। जहरीला करैत साँप हम पकड़ कर लाए थे जिसे तुमने चुपके से मनरखनी के झोले में डाल दिया था। जैसे ही उसने झोले में हाथ डाला, साँप ने इसे डस लिया।। ज़हर इतना तेज था कि बिचारी को एक लहर भी नहीं आई और वह वहीं खत्म हो गई। गाँववालों को क्या पता कि उसकी मौत का ज़िम्मेदार कौन है?"<br />
<br />
सारे केवट अपराध-बोध से सिर झुकाए मौन खड़े थे। विक्रम सिंह ने उन पर विहंगम दृष्टि डाली और धिन्तारा से पुनः मुखातिब हुआ--"बेटा, तुम्हारे गाँव छोड़कर चले जाने के बाद, मैं तुम्हारे घर गया था। तुम्हारे बाड़े में सारी बातें सुनकर बड़ा अफ़सोस हुआ। पर, ज़ल्दबाज़ी में तुमने जो फ़ैसला लिया था, वह तुम्हारे भविष्य के लिए अच्छा साबित हुआ।"<br />
<br />
उस क्षण, धिन्तारा अपने बीते वर्षों की दुर्गम अंधगुफ़ा में सिर टकराते हुए भटकने लगी। अपने अभिशप्त अतीत की स्मृति-छाया से बार-बार सिहर रही थी। उन बीहड़ रास्तों पर माँ-बाप तक उसे अकेला बेसहारा छोड़ गए थे। उसे अच्छी तरह याद है जबकि उसने अपना घर, गृहस्थी के सामान, पिता की नाव, पतवार, पालघर आदि बेचकर अन्यत्र बसने की इच्छा व्यक्त की थी। तब, रामजियावन पहाड़ बन सामने खड़ा हो गया था--"तू हमारी लच्छमी है। होने वाली बहू है। तुझे यानी अपनी इज़्ज़त को हम कैसे यहाँ से जाने दे सकते हैं?"<br />
<br />
धिन्तारा ने घृणा और रोष से हथकड़ियों में बँधे रामजियावन और खिलावन को देखकर मुँह बिचकाया। फिर, स्वतः बह आए आँसुओं को पोंछा और विक्रम सिंह को देखकर गंभीर हो गई।<br />
<br />
"मामाजी! अब आप ही मुझ अनाथ के इकलौते बुजुर्ग हैं। मेरे आदर्श हैं। मेरा क्या? तबादले वाली नौकरी है। कभी इस शहर में तो कभी उस शहर में। इसलिए मैं यह चाहती हूँ कि गाँव में मेरा जो मकान-जमीन है, उसे बेचकर वहाँँ एक बालिका विद्यालय बनवाने का कष्ट करें ताकि केवटाना की दलित बच्चियाँ पढ़-लिखकर समझदार बन सकें। मैं कोशिश करूंगी कि सरकार से उस विद्यालय के लिए कुछ अनुदान का बंदोबस्त हो सके।"<br />
<br />
उनकी बातचीत पर खिलावन के कान ज़्यादा खड़े थे। ठाकुर की भलमनसाहत और धिन्तारा की निश्छलता देख, उसका गुस्सा पश्चाताप में परिणात हो रहा था। धिन्तारा के प्रति उसका आक्रोश पिघल रहा था। ईर्ष्या गलकर पानी-पानी हो रही थई। सच से अवगत होकर उसका दम्भी पुरुष धिन्तारा के विशालकाय कद के सामने ठिंगना होता जा रहा था।वह सोच रहा था कि जब हमें शक्ति और समर्थन प्राप्त था तब भी हम चाहकर उसका दमन नहीं कर पाए। अब धिन्तारा के पास बल और कानून है, हमारी मौत का चाबुक है। वह हमें दण्डित करने की स्थिति में है और हम उसके दण्ड को मूक भोगने की स्थिति में हैं। ईश्वर ने सदैव उसकी मदद की। पहले उसने खुद को बर्बर हाथों से मुक्त किया और अब वह समाय़ को उनसे मुक्त कराने में जुटी है। केवटाना गाँव में वह स्वयं असहाय और मज़बूर धिन्ताराओं का उद्धार करने के लिए अपनी जमीन-ज़ायदाद बेचकर बालिका विद्यालय खोलने के लिए उतावली हो रही है। यानी, अपने गाँव से दूर रहकर भी उसका मन केवटों की ज़िंदगी में रमा हुआ है। निःसंदेह, वह गाँव का उत्थान चाहती है। औरतों को पशुतुल्य मर्दानगी से आज़ाद कराना चाहती है। अगर केवटाना के तानाशाह मर्द, औरतों पर मनमर्जी नहीं करते होते तो वहाँ दर्ज़नों धिन्ताराएं जन्म ले चुकी होतीं। गाँव का नाम रोशन कर चुकी होतीं। सारे गाँव को उनमें से एक-एक पर नाज़ होता। मर्द भी सीना चौड़ा करके कह रहे होते, "हमें अपनी धिन्ताराओं पर बेहद फ़ख्र है। इन धिन्ताराओं के कीरत और गुन की बदौलत, हम बड़े लोगों को पछाड़ सकते है। देखो, हमारे गाँव की एक धिन्तारा इतनी बड़ी हो गई है कि वह एक उच्च वर्ग की बहू भी है...।"<br />
<br />
खिलावन सोचते-सोचते बुदबुदाने लगा, "धिन्तारा बड़ी महान है। मैं नीच आदमी उस पर हक़ जमाने चला था। अरे! मैं तो उसका नौकर बनने लायक भी नहीं हूँ।"<br />
<br />
खिलावन ने मन-ही-मन अपना अपराध स्वीकार कर लिय था। सोच रहा था कि उसे मौत की सज़ा भी मिल जाए तो वह खामोप्श रहेगा। इसलिए, जब उसे चौदह साल की बामशक्कत सज़ा मिली उसने कोई गुरेज़ नहीं किया। दूसरी और रामजियावन को भी यह अहसास हो चला कि वह खिलावन को बुधनराम की हत्या करने से न रोककर खुद भी उसकी हत्या में शरीक़ है। साथ ही, वह धिन्तारा की पैतृक संपत्ति पर अवैध कब्ज़ा जमाने का भी दोषी है। <br />
<br />
इसलिए जब रामजियावन अपने अच्छे बात-बर्ताव के कारण सिर्फ़ छः साल की जेल चक्की पीसकर घर लौटा तो वह खुश नहीं था। जब तक वह जेल में रहा, अपराधबोध से पीड़ित रहा। इसलिए, वह जेल से छूटते ही सीधे धिन्तारा के सामने हाजिर हुआ। <br />
<br />
"बिटिया, हमें तो और सख़त सज़ा मिलनी चाहिए थी। हम और धीमन तुम्हारी माई मनरखनी के भी क़ातिल हैं।"<br />
<br />
धिन्तारा की आँखें क्रोध में न जलकर, भ आईं। "चाचाजी, क्या आप ये समझते हैं कि हमें यह सब नहीं पता है? अम्मा के मरने के बाद, बाबूजी को भी यह सच्चाई मालूम हो गई थी। पर, वह कर भी क्या सकते थे? आप ही लोग पंचायत के सर्वेसर्वा थे। क्या आपलोग पंचायत में बैठकर खुद को हत्यारा साबित करने की जोखिम उठाते?"<br />
<br />
रामजियावन का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। उसकी आँखों से आँसुओं का गुबार उमड़ पड़ा--"अपने जुल्मियों के जुल्म जानकर भी बिचारी धिन्तारा ख़ामोश रही।"<br />
<br />
धिन्तारा ने आगे कहा--"जब आप जेल में थे तो एक दिन धीमन चाचा आए थे। उन्होंने अपनी जुबानी अपना जुर्म कबूल करके मुझसे सज़ा मांगी थी। लेकिन, मैं उससे बदला लेने वाली कौन होती हूँ? बदला लेने वाली मेरी माँ तो स्वर्ग सिधार गई है। सो, मैंने उन्हें उसी समय माफ़ कर दिया और आपको भी। जो हुआ सो हुआ। आइन्दा हमारे गाँव में ऐसा वाकय नहीं होना चाहिए। ख़ासतौर से हमारे जैसी मज़बूर धिन्ताराओं पर अत्याचार...।"<br />
<br />
धिन्तारा का गला भर आया। वह फफक पड़ी।<br />
<br />
इस घटना को बईते कोई चालीस साल तो गुजर ही गए हैं। धिन्तारा शुक्ला सीनियर एस.पी. के पद से सेवामुक्त होकर आज भी केवटाना गाँव में रह रही रही है। केवटाना महिला महाविद्यालय की संरक्षिका की हैसियत से। यह वही महाविद्यालय है जिसकी स्थापना बालिका विद्यालय के रूप में हुई थी और जिसके लिए उन्होंने अपनी सारी संपत्ति दान कर दी थी। उक्त विद्यालय को महाविद्यालय को दर्ज़ा दिलाने में खिलावन का अहम योगदान रहा है। चौदह साल की जेल की सज़ा काटकर, वह सीधे केवटाना गाँव में उपस्थित हुआ और उसने अपना सारा जीवन इसके विकास में अर्पित कर दिया। गाँव वाले उसे दलित महिलाओं के मसीहा के रूप में देखते हैं। उससे मिलने पर वह गर्व से कहता है--"आज मैं जो कुछ हूँ, बहन धिन्तारा की बदौलत हूँ। उन्होंने ही मुझे जीने का यह नया अंदाज़ सिखाया है।"<br />
<br />
(साहित्य अमृत, संपादक विद्यानिवास मिश्र, जुलाई, 2004)</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5888धिन्तारा / मनोज श्रीवास्तव2011-11-09T08:29:38Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div>धिन्तारा के माई-बाप स्वर्ग सिधार गए तो क्या हुआ! सारा गाँव उसका है। वह जिस घर में चाहे, वहाँ जाकर रहे। लेकिन हमें यह मंजूर नहीं है कि वह शहर जाकर नौकरी करे। यह हमारे गाँव की इज़्ज़त का सवाल है...।<br />
धीमन केवट ने हाथ उठाकर अपना फैसला सुनाया। उत्तेजित भीड़ की गड़गड़ाती तालियों और कहकहों से सारा चौपाल गूँज उठा। सभी के मन की इच्छा जो पूरी हुई थी।<br />
<br />
<br />
तभी पंचों में से रामजियावन ने खुशी से कंधे उचकाते हुए सभी को शांत किया, "पंचों का निर्णय यह है कि आज से धिन्तारा इस गाँव से बाहर नहीं जाएगी, दूसरी जनानियों की तरह। अगर उसे अपनी तालीम के बेकार जाने का पछतावा है तो पंचों का हुकुम है कि वह गाँव के बच्चों को पढ़ाए। बदले में, हम उसे खाना-खर्चा देंगे। उसकी देखरेख करेंगे। हिफ़ाज़त करेंगे।"<br />
उनकी बातें सुनकर, धिन्तारा की नाक के ऊपर से पानी बहने लगा। चेहरे से लपटें निकलने लगीं। वह सभी बंदिशों को ठोकर मारकर एक अलग रास्ता चुनेगी। उसने न दुपट्टा सम्हाला, न ही बाल समेटे। बस, मुट्ठी भींचकर दौड़ पड़ी और चौपाल के बीच आ-खड़ी हुई। <br />
<br />
<br />
उसकी इस शोखी पर सभी ने दातों तले अंगुली दबा ली--"कितनी बज़्ज़ात औरत है!"<br />
<br />
<br />
"यह सरासर नाइंसाफ़ी है। मेरे ऊपर ज़्यादती है। आप लोग मेरा भविष्य चौपट कर रहे हैं। आखिर, मैंने चूल्हा-चौका करने के लिए तो बी.ए. पास किया नहीं है। कितनी मेहनत के बाद, यह पुलिस इन्स्पेक्टरी की नौकरी मिली है? केवटाना गाँव की कोई लड़की पहली बार पढ़-लिखकर शहर जा रही है, नौकरी करने। आप मर्दों में तो कोई दमखम रहा नहीं। सारे के सारे अंगूठा-छाप हैं। चिट्ठी-पत्री तक तो पढ़ नहीं सकते। बस, पतवार लेकर नावों में सवार रहते हैं। मछली पकड़ने के जुगाड़ में, नदी में जाल डाले हुए, पालघर से झाँकते रहते हैं।<br />
<br />
<br />
उसका गुरूर से सिर झटकना सबके गले की हड्डी बन गया। बेशक! उसने केवटों और मछुआरों की सदियों पुरानी आजीविका की खिल्ली उड़ाई थी। उनकी ज़िंदगी को हिकारत से देखा था। ठिंगना दुक्खीराम तक आपे से बाहर हो उठा, "पंचों के फ़ैसले का छीछालेदर करने वाले को हम नहीं बख्शेंगे। इस दुधमुँही छोकरी की यह मजाल कि वह हमें सरेआम नंगा करे। इसने अपना लाज-शरम तो उसी दिन बेच दिया था, जिस दिन इसके बाप बब्बन ने इसे पढ़ने तहसील भेजा था। अच्छा हुआ, साला भरी जवानी में ही मर गया। नहीं तो, वह अपनी छोकरी को पढ़ाने-लिखाने के बहाने कोठे पर बैठाकर ही दम लेता। हरामज़ादी नौकरी करेगी, हमारी बिरादरी की औरतों की नाक कटाएगी। साली का झोंटा खींचकर चार लप्पड़ लगाओ, इसका दिमाग ठिकाने लग जाएगा।"<br />
<br />
खिलावन को दुक्खीराम की तैश बहुत भली लगी. धिन्तारा उसकी होने वाली लुगाई जो ठहरी. इसलिए उसके कोई ऊटपटांग करने पर गाँव वालों से पहले उसके आन पर आंच आएगी. खुद बब्बन ने उसके बाप रामजियावन से कह-सुनकर धिन्तारा के साथ उसका रिश्ता तय किया था--"रामजियावन, अगर हमारी मेहरारू ने लड़की पैदा किया तो ऊ तुम्हारी बहू बनेगी." सो, जिस दिन धिन्तारा पैदा हुई, उसी शाम बब्बन, रामजियावन ए घर जाकर सगुन भी कर आया था. तब, खिलावन भी हंसता-खेलता बच्चा था, कोई साढ़े चार साल का. <br />
<br />
खिलावन की आँखों में ये सारी घटनाएं ताजी थीं. सो, चौपाल में जिसका सबसे ज़्यादा खून उबल रहा था, वह खिलावन ही था. वह वहीं से दहाड़ उठा, "इ सुअरी, शहर जाएगी तो किसी कुजात से इशक लड़ाएगी और ब्याह रचाएगी. इससे हमारी जात पर लांछन आएगा. हम ठहरे खांटी केवट. हमारे ऊपर भगवान राम का आशीर्वाद है. सीता मैया का आशीर्वाद है. सो हमारा नाक कटाने से पहले ही, हम इसका गला रेत देंगे." <br />
<br />
चौपाल में जमा वहशी भीड़ खिलावन की बात सुनकर धिन्तारा को चुन-चुनकर गालियाँ देने लगी. जवान लौंडे गुस्से से बेकाबू हो रहे थे. खिड़कियाँ झांकती औरतें धिन्तारा के शेखी बघारने पर ताज्जुब कर रही थीं. सोच रहीं थी कि चलो, छाती तानकर वह रोज साइकिल से स्कूल जाती थी, हमने बरदाश्त कर लिया. लेकिन, यह तो हैरतअंगेज़ बात है कि वह सिपाही की वर्दी पहन, अपने जनाने अंग झुलाते, पुलिस की ट्रेनिंग लेने शहर जाए और ट्रेनिंग के बाद किसी अनजान चौराहे पर लाठी भांजती फिरे. <br />
<br />
उत्तेजना केवल पंचायत में ही नहीं थी, बल्कि पुराना गाँव का पारा चढ़ा हुआ था. धिन्तारा ने हरेक को ध्यान से देखा. सभी की आँखें जलती हुई तीलियाँ थीं. लेकिन, उसके मन की ज्वाला कहीं अधिक दाहक थी. वह बड़वानल की तरह भीतर-ही-भीतर झुलस रही थी. पहले वह चिंगारी की तरह चटख रही थी. पर, अब वह साबुत जल रही थी--क्रोध और प्रतिशोध में. चार साल पहले पिता की गोताखोरी करते समय डूबकर हुई मौत के बाद वह अनाथ हो गई थी. तब, वह बावली-सी इधर-उधर मंडराती थी. क्या कोई गांववाला उसकी मदद करने आया था? बल्कि, उसका तो जीना और भी दूभर हो गया था. जवान लड़की और वह भी एकदम अकेली. जैसे वहशी बाजों के जंगल में एक अकेली कबूतरी. कोई आगे न पीछे. आते-जाते छीटाकशियों का वार झेलना पड़ता था उसे. कई दफे तो रात को उसके आँगन में गाँव के ही मनचले बदमाश मर्द उतर जाते थे. पर, उसकी जांबाजी ने सभी के छक्के छुड़ा दिए. जनाने जिस्म में मर्दों वाली फुर्ती और ताकत थी. रंधावा को तो उसने बीच हाट में छठी का दूध याद दिलाया था. सभी गाँव वालों की आँखें नीची हो गई थीं. तब, कोई भी सामने नहीं आया, कामांध रंधावा को सबक सिखाने! न पंचायत बैठी, न ही चौपाल. वह गला फाड़-फाड़ चींखती-चिल्लाती रही लेकिन सभी अपने-अपने काम में मग्न हो गए--जैसे कुछ हुआ ही न हो.<br />
<br />
<br />
धिन्तारा तड़प रही थी. आखिर उसने कौन-सा गुनाह किया था की उसकी माँ उसे जानते ही भगवान् को प्यारी हो गई? माँ का ख्याल आते हीउसके होंठ घृणा से सिकुड़ गए. गाँव में यह अफवाह थी कि उसकी माँ के ठाकुर विक्रमसिंह से नाजायज ताल्लुकात थे और वह उसी का नतीजा है. तभी तो जब वह गलियों से गुजरती थी तो लोग फब्तियां कसते हैं. कानाफूसी करते हैं,"इस कुलच्छनी को देखो ,कैसे ठकुराइन-सरीखी ऐंठकर चल रही है? बब्बन तो नामर्द था. तभी तो उसकी लुगाई विक्रम ठाकुर के साथ गुलछर्रे उड़ाती फिरती थी."<br />
<br />
जब चौपाल में लोगों की जुबान से तानों के बारूद फट रहे थे, तभी ग्रामप्रधान धीमन केवट आवेश में कांपता हुआ खड़ा हुआ. वह धिन्तारा के गुस्ताखी को नहीं पहचान सका. खूनी डोरें उसकी आँखों में चमक रहे थे. <br />
<br />
"अब हमारा आख़िरी फैसला सुनो. धिन्तारा को उसके ही घर में कैद कर दो और एक हफ्ते के भीतर इसे खिलावन केवट की खूंटी में बाँध दो. तब तक इतना सख्त पहरा रखो कि यह इस गाँव से टस से मस न हो सके. "<br />
<br />
चौपाल उठने के काफी देर बाद तक धिन्तारा जड़वत खड़ी रही. जैसे कैदखाने की रिहाई की आस संजो रहे किसी कैदी को अचानक फांसी की सजा सुना दी गई हो. बदतमीज़ खिलावन की घिनौनी शक्ल उसके दिमाग में कौंध रही थी. उसने अपने होठ भींच कर संकल्प लिया--वह पंचायत के फैसले को कभी नहीं मानेगी. उसका दिमाग सरपट दौड़ रहा था--'क्या करे कि वह नकेल पड़ने से पहले ही भाग खड़ी हो और इन बर्बर लोगों के हाथ जीवनपर्यंत न आए?' उसकी गर्दन निश्चय के भाव से तन गई--'अंगूठाछाप खिलावन के हाथों तबाह होने से पहले ही वह निरंकुश पंचों के अन्यायपूर्ण आदेश पर पानी फेर देगी.'<br />
<br />
<br />
धिन्तारा को उसके ही घर में नजरबन्द कर दिया गया. उसके घर के चारों ओर पहरुए तैनात कर दिए गए. गाँव का चप्पा-चप्पा संवेदनशील हो गया था. सारे गाँव वालों का अहं अट्टहास कर रहा था. खिलावन खुद गलियों से गुरूर से गुजरते हुए दरवाजे-दरवाजे अपनी शादी का न्योता दे रहा था. खास बात यह थी कि उसकी शादी के बंदोबस्त की जिम्मेदारी पंचायत के कंधो पर थी और गाँव के सभी बच्चे-बूढ़े इसमें शामिल होने वाले थे. आखिर पञ्च रामजियावन के बेटे की शादी थी और वह भी पंचायत के हस्तक्षेप से.<br />
<br />
<br />
इस दरमियान, धिन्तारा ने कोई बवाल नहीं खड़ा किया. वह दरवाजे पर खड़ी होकर पहरुओं से सामान्य लहजे में बातें करती और और अपनी शादी की चर्चा पर फिसकारी मारकर हंस देती. इस तरह वह यह संकेत देती की वह खिलावन के साथ अपनी होने वाली शादी से खुश है. पहरुए क्या, सभी गाँव वाले आश्वस्त हो गए की धिन्तारा ने पंचों के फैसले को सहर्ष स्वीकार कर लिया है. उसने परम्पराओं और प्रथाओं को स्वीकृति देकर गाँव के मान-सम्मान में वृद्धि की है इसलिए, पहरुए लापरवाह हो गए. उस पर चौकसी ढीली पड़ गई. <br />
<br />
लेकिन, ऐन शादी की शाम, जब केवटाना के ग्रामीण एक जश्न मनाने के जद्दोजहद में गाफिल-से हो रहे थे तो धिन्तारा की गैर-मौजूदगी ने सभी को झंकझोर दिया. वह सभी की आँखों में धूल झोंककर फरार हो गई थी. दरवाज़े पर खिलावन अपनी बारात लिए मुंह ताकता रह गया. जिस कोठारी से धिन्तारा सजने-संवरने कानाटक खेल रही थी, उसकी जर्जर खिड़की उखाड़कर वह गुम हो गई. बिल्कुल फिल्मी स्टोरी की नायिका की भाँति. <br />
<br />
रामजियावन अपराध-बोध से पागल हो उठा और धिन्तारा पर निगरानी रखने वाले दो मर्दों की टांगें वहीं लाठी से ताबड़तोड़ चूर कर दी. खिलावन ने पूरे होश में ऐलान किया--"चाहे धिन्तारा पाताल में समा गई हो, मैं उसे ढूंढ कर ही दम लूंगा और ब्याह करूंगा तो केवल उसी से नहीं तो जीवन भर कुंवारा रहूँगा...."<br />
<br />
केवटाना गाँव में मारपीट, हत्या, बलात्कार आदि जैसी घटनाएँ आए-दिन होती रहती थीं. लेकिन, ऐन खड़ी बारात वाली शाम को किसी लड़की का भाग जाना एकदम अजूबा लग रहा था. केवटाना गाँव के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. इसे याद करते ही केवटों के सीने पर सांप लोटने लगता. चुनांचे, धिन्तारा काण्ड का भी सुनते-सुनाते साधारणीकरण हो गया--गाँव में अक्सर घटने वाली सनसनीखेज घटनाओं की तरह. इसलिए, चार साल ऐसे गुजर गए, जैसे बंद मुट्ठी से बालू. इतने समय में तो जिन जवान लौंडों की शादी हुई थी, वे दो-दो बच्चों के बाप बन गए. और जो छोकरियाँ गड़हियों में गुल्ली-डंडा खेलती थीं, वे शादी लायक जबर-जवान हो गईं और मां-बाप की आँखों की किरकिरी बन गईं. लिहाजा, मेहनतकश मल्लाहों और मछुआरों के लिए तो यह समय चुटकी में बीत गया. लेकिन, खेलावन ने न केवल चार सावन और चार वसंत ही बल्कि, दिन, सप्ताह और महीने तक गिन-गिन कर बिताए. उस पर एक ही धुन सवार थी-- धिन्तारा को तलाश कर उससे जबरन शादी करना. सारे गाँव में उसकी थू-थू कराने के लिए वह उसे आजीवन अपनी दासी बनाकर ही चैन की साँस लेगा.यह संकल्प वह दिन भर में कम से कम सौ बार लेता. <br />
<br />
इस खुमार में खिलावन को होश कहाँ था? रोज उससे कोई न कोई अनापशनाप काम हो जाता.एक शाम जब रामजियावन और बुधराम मछली पकड़कर लौट रहे थे तो नाव पर ही उनमे मछली के बंटवारे को लेकर तू-तू, मै-मै हो गई. इतने सालों से दोनों साझे में एक ही नाव पर मछली पकड़ते रहे. लेकिन, किसी के हिस्से में एक-दो किलो मछली ज्यादा चली जाने पर कोई कुछ भी शिकायत नहीं करता था. किन्तु, आज दोनों के ग्रह-नक्षत्र ठीक नहीं थे. यूं भी, आज अमावस्या के चलते एक तो उफनती लहरों पर कोई वश नहीं चल रहा था; दूसरे, उनके मन में फितूर की बातें भी उमड़ रही थीं. गुस्से पर कोई काबू नहीं था. रामजियावन घुड़क रहा था कि "नाव हमारी है और जाल तुम्हारा. इसलिए, दो-तिहाई हिस्सा हमें चाहिए." दूसरी तरफ, बुधन ताव खा रहा था कि "तुमने तो नाव स्वर्गीय बब्बन से हड़पी है. बब्बन की मौत के बाद धिन्तारा वह नाव किराए पर चलवाती थी. पर, धिन्तारा के भाग जाने के बाद तुमने उसकी नाव पर हक़ जमा लिया है. सो, तुम्हारी न नाव है, न जाल. हाँ, हमारे साथ मछली पकड़ने में ठेडी मेहनत-मशक्कत ज़रूर की है. इसलिए, तुम्हे तिहाई हिस्सा ही मिलेगा."<br />
<br />
जब नाव बीच नदी में थी तो दोनों में कहासुनी, हाथापाई में तब्दील हो गई. खेवइया बगैर नाव हिचकोलें खा रही थी. किनारे पर उनकी राह अगोर रहा खिलावन उन्हें नाव में मारपीट करते देख, गुस्से में पागल हुआ जा रहा था. जब उसके बरदाश्त की सीमा पार हो गई तो उसने कुर्ता- पाजामा उतार कर नदी में छलांग लगा दी और नाव की ओर तेजी से लपक लिया.<br />
<br />
खिलावन के नाव में दस्तक देते ही, बुधन के हाथ-पाँव फूल गए--"बाप रे! भागो! बाप-बेटे दोनों ही टूट पड़े हैं." उसने मैदान छोड़ दिया. <br />
<br />
पर खिलावन का प्रतिशोध भी भभक रहा था. इसलिए, वह भी नदी में कूदकर बुधन का बेतहाशा पीछा करने लगा. छप्पन साल का अधबुढ़ा बुधनराम कब तक खैर मनाता? एक तो खिलावन का कोप; दूसरे, बीच मंझधार में लहरों का बढ़ता आतंक! एक ओर कुआँ तो दूसरी ओर खाई.अंततोगत्वा उसकी शक्ति जवाब दे गई। हाथ-पैर नाकारा हो गए। फिर, छब्बीस साल के उद्दण्ड खिलावन के भय ने उसके मनोबल को तोड़कर रख दिया। खिलावन ने लपककर उसका कुर्ता पकड़ लिया। आनन-फानन में बुधन की गरदन अपनी बाईं भुजा में दबोच ली और उसे तब तक पानी में डुबोए रखा जब तक कि उसकी सांस फ़ुस्स नहीं बोल गई और बदन लत्ता नहीं हो गया। <br />
<br />
अगले दिन, गाँव के कुछ बच्चे नदी किनारे कबड्डी खेल रहे थे कि उन्होंने यकायक देखा कि कुछ कुत्ते वहीं किनारे पानी में कोई लाश नोच रहे हैं। वैसे भी, बुधन के घर न लौटने पर गाँववाले बड़े सशंकित थे क्योंकि सभी जानते थे कि बुधन और जियावन साथ-साथ मछली मारने जाते थे। लेकिन, जब रामजियावन, बुधन के घर यह बताने गया कि वह नदी-पार अपने साले के घर गया है और उसने बुधन के हिस्से की मछली उसके घर पहुँचा दी है तो सभी को सूचना से तसल्ली हो गई। पर, जियावन को क्या पत था कि कमबख्त बुधन की लाश कहीं दूर लापता होने के बजाय उसके गाँव के किनारे आ लगेगी?<br />
<br />
बच्चे लाश को करीब से देखते ही, सिर पर पैर रखकर गाँव की और भागे--"बुधन चच्चामर गए।" उनकी चीत्कार पर सारा गाँव भौंचक होकर नदी किनारे उमड़ पड़ा। डरा-सहमा रामजियावन पहले तो बड़बड़ाता रहा कि "कल तक तो बुधन भैया अपने साले के घर भले-चंगे गए थे; फिर, उनकी अचानक मौत कैसे हो गई?" लेकिन, जब धीमन केवट ने उसके सीने पर गड़ांसा रखा तो उसने सच्चाई उगल दी--" कल, हमारे और बुधन के झगड़े के बीच खिलावन टपक पड़ा था। उसने बुधन को नदी में डुबोकर उसकी नटई टीप दी।"<br />
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अपने ही बाप के मुँह से अपना नाम सुनकर खिलावन चौकन्ना हो गया। लेकिन, वह भागकर कहाँ जाता? भीड़ ने उसे दबोच लिया। तभी धीमन केवट ने अपना फैसला सुनाया--"मामला संगीन है। पंचायत कुछ नहीं कर सकती। हत्या का मामला है। पुलिस को सौंप दो।"<br />
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रामजियावन और खिलायवन को उसीदिन स्थानीय पुलिस चौकी से तहसील थाना में स्थानान्तरित कर दिया गया। शाम ढलने से पहले उनकी पेशी भी हो गई।<br />
<br />
जब केवटाना की भीड़ ने थाना इन्चार्ज़ का नाम पढ़ा तो उनमें खुसुर-फ़ुसुर होने लगी। इस बाबत पक्की जानकारी रखने वाले धीमन केवट ने कहा, "यह धिन्तारा शुक्ला कोई और नहीं, वही ठाकुर विक्रम की नाज़ायज़ औलाद है, जो ऐन बारात वाले दिन खिलावन की इज़्ज़त गुड़-गोबर करके फरार हो गई थी।" <br />
<br />
खिलावन के रोंगटे खड़े हो गए। उसने गेट पर लगे नेमप्लेट को गौर से देखा। धीमन ने उसे देख आँख मटकाई--"देखता क्या है, बुड़बक? यही तेरी सात जनम की दुश्मन--धिन्तारा।"<br />
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खिलावन दंग रह गया। सोच-सोच कर उबाल खाने लगा। सोचने लगा कि 'हमारी तलाश पूरी हो गई। अगर पता होता कि बुधन को मारकर ही हम धिन्तारा तक पहुँच पाएंगे तो हम उसे पहले ही ठिकाने लगा देते।" उसका दिल नफ़रत से भर गया--"आखिर, साली ने गैर-बिरादरी में ब्याह करके हमारा किस्सा ही खत्म कर डाला।" उसने नेमप्लेट पर पावभर बलगम उगल दिया।<br />
<br />
वहाँ तैनात सिपाहियों को उसकी हरकत बेहद बेहूदी लगी। उन्होंने उस पर दनादन इतने घूंसे जड़े कि वह दर्द से चींखते हुए फ़र्श पर लोटने लगा। शोरगुल सुनकर जब धिन्तारा आसन्न स्थिति का जायज़ा लेने बाहर निकली तो सिपाहियों ने उसके नेमप्लेट की और इशार करते हुए खिलावन की बदतमीज़ी की तरफ उसका ध्यान आकृष्ट किया--"मैडमॅ इतना ही नहीं, यह शख़्स क़त्ल का ख़तरनाक़ मुज़रिम भी है।"<br />
<br />
धिन्तारा गुस्से में काफ़ूर हुई जा रही थी। जब उसने आक्रोश में खिलवन को पैर मारकर पलटा तो वह सिसकारी मारे बग़ैर नहीं रह सकी, "तो अब आया है ऊँट पहाड़ के नीचे।" उसने खिलावन को एक ही नज़र में पहचान लिया था।<br />
<br />
वह तत्काल केवटों की भीड़ को थाना परिसर से बाहर खदेड़ने का आदेश देते हुए पुलिस चौकी से लाए गए एफ़.आई.आर. और रपट का मुआयना करने लगी। इसी बीच, उसका ध्यान भंग हुआ। बाहर जाती भीड़ में से यह भुनभुनाहट साफ सुनाई दे रही थी--"अरे, ठाकुर विक्रम सिंह आ रहे हैं।" उन्हें देख धिन्तारा एक बच्चे की भाँति चंचल हो उठी। जब उसने आगे बढ़कर विक्रमसिंह के पैर छुए और आशीर्वाद लिए तो तो यह देख, भीड़ फिर रुक गई।<br />
<br />
लोग बुदबुदाने लगे, "अरे, देखोऍ ये हरामज़ादी अपने असल बाप की पैलगी कितने अदब से कर रही है!"<br />
<br />
"हाँ-हाँ, नामर्द बब्बन तो इसका फ़र्ज़ी बाप था।"<br />
<br />
"अरे, ये ठाकुर विक्रम इसकी अम्मा मनरखनी का आशिक तो पहले से था। अब तो ये इसका भी...।"<br />
<br />
"हाँ-हाँ, ये सब पैलगी तो दुनिया को दिखाने के वास्ते है; असल में तो इसका भी ठाकुर के साथ...।"<br />
<br />
विक्रमसिंह ने बड़ी आत्मीयता के साथ धिन्तारा के सिर पर हाथ फेरा--"बेटा, तुम्हारी माँ को मैंने अपनी धरम-बहिन बनाया था। वह हर साल हमें राखी बाँधने और भाईदूज़ की मिठाई खिलाने आती थी। जब तू नौ बरस की थी तो बात-बात में एक दिन उसने मुझे अपनी ख्वाहिश बताई थी--"विक्रम भैया! मैं अपनी धिन्तारा को कोई बड़ा आदमी बनाना चाहती हूँ...काश! वह जिंदा होती तो आज तुम्हें पुलिस अफ़सर के रूप में देखकर फूली नहीं समाती।"<br />
<br />
"मामाजी! ये सब आपकी बदौलत हुआ है। आप ही मेरा स्कूल से कालिज़ दाखिला कराने गए थे। आप ही मुझे कापी-किताब दिलाने जाते थे। जब बाबूजी मेरी फीस नहीं जमाकर पाते थे तो आप खुद मेरी फीस अपनी पाकिट से जमा करते थे। मेरे जाहिल बाबूजी क्या यह सब करने लायक थे? बेशक! आपकी मदद के बग़ैर, मैं क्या होती? बस, किसी मेहनतकश मछुआरे के घर झाड़ू-पोंछा लगा रही होती या मछली-भात उसन रही होती। इतना तो मेरा सगा मामा भी होता तो न करता।"<br />
<br />
भीड़ में उपस्थित धीमन, दुक्खीराम, रन्धावा आदि सभी केवट, विक्रम और धिन्तारा के बीच बातचीत को सुनकर आत्मग्लानि से पसीने-पसीने हो रहे थे। वे पहली बार विक्रमसिंह की उदारता और बड़प्पन से अवगत हो रहे थे। रामजियावन ने हथकड़ी से बँधे हाथों से अपनी नम आँखें पोछीं। वह मन-ही-मन पछता रहा था--"बिचारी मनरखनी पर हम नाहक शक करते थे। ठाकुर तो बड़ा पाक-साफ लगता है। क्या वह सच में मनरखनी को अपनी बहिन मानता था? च्च, च्च, च्च, हम फ़िज़ूल उसे ठाकुर की रखैल और धिन्तारा को उसकी नाज़ायज़ औलाद मानते रहे। हमारे पापकर्मों को ईश्वर भी माफ़ नहीं करेगा।"<br />
<br />
धीमन भी रामजियावन की आँखों में आँखें डालकर रुआँसा हो गया। उसे देखते हुए वह भी सोच रहा था--"हम दोनों को भी रांअजियावन की तरह सज़ा मिलनी चाहिए। आख़िर, ठाकुर और मनरखनी के मेलमिलाप को हम दोनों ने ही नाज़ायज़ मानकर मनरखनी को जान से मारने की साज़िश रची थी। जहरीला करैत साँप हम पकड़ कर लाए थे जिसे तुमने चुपके से मनरखनी के झोले में डाल दिया था। जैसे ही उसने झोले में हाथ डाला, साँप ने इसे डस लिया।। ज़हर इतना तेज था कि बिचारी को एक लहर भी नहीं आई और वह वहीं खत्म हो गई। गाँववालों को क्या पता कि उसकी मौत का ज़िम्मेदार कौन है?"<br />
<br />
सारे केवट अपराध-बोध से सिर झुकाए मौन खड़े थे। विक्रम सिंह ने उन पर विहंगम दृष्टि डाली और धिन्तारा से पुनः मुखातिब हुआ--"बेटा, तुम्हारे गाँव छोड़कर चले जाने के बाद, मैं तुम्हारे घर गया था। तुम्हारे बाड़े में सारी बातें सुनकर बड़ा अफ़सोस हुआ। पर, ज़ल्दबाज़ी में तुमने जो फ़ैसला लिया था, वह तुम्हारे भविष्य के लिए अच्छा साबित हुआ।"<br />
<br />
उस क्षण, धिन्तारा अपने बीते वर्षों की दुर्गम अंधगुफ़ा में सिर टकराते हुए भटकने लगी। अपने अभिशप्त अतीत की स्मृति-छाया से बार-बार सिहर रही थी। उन बीहड़ रास्तों पर माँ-बाप तक उसे अकेला बेसहारा छोड़ गए थे। उसे अच्छी तरह याद है जबकि उसने अपना घर, गृहस्थी के सामान, पिता की नाव, पतवार, पालघर आदि बेचकर अन्यत्र बसने की इच्छा व्यक्त की थी। तब, रामजियावन पहाड़ बन सामने खड़ा हो गया था--"तू हमारी लच्छमी है। होने वाली बहू है। तुझे यानी अपनी इज़्ज़त को हम कैसे यहाँ से जाने दे सकते हैं?"<br />
<br />
धिन्तारा ने घृणा और रोष से हथकड़ियों में बँधे रामजियावन और खिलावन को देखकर मुँह बिचकाया। फिर, स्वतः बह आए आँसुओं को पोंछा और विक्रम सिंह को देखकर गंभीर हो गई।<br />
<br />
"मामाजी! अब आप ही मुझ अनाथ के इकलौते बुजुर्ग हैं। मेरे आदर्श हैं। मेरा क्या? तबादले वाली नौकरी है। कभी इस शहर में तो कभी उस शहर में। इसलिए मैं यह चाहती हूँ कि गाँव में मेरा जो मकान-जमीन है, उसे बेचकर वहाँँ एक बालिका विद्यालय बनवाने का कष्ट करें ताकि केवटाना की दलित बच्चियाँ पढ़-लिखकर समझदार बन सकें। मैं कोशिश करूंगी कि सरकार से उस विद्यालय के लिए कुछ अनुदान का बंदोबस्त हो सके।"<br />
<br />
उनकी बातचीत पर खिलावन के कान ज़्यादा खड़े थे। ठाकुर की भलमनसाहत और धिन्तारा की निश्छलता देख, उसका गुस्सा पश्चाताप में परिणात हो रहा था। धिन्तारा के प्रति उसका आक्रोश पिघल रहा था। ईर्ष्या गलकर पानी-पानी हो रही थई। सच से अवगत होकर उसका दम्भी पुरुष धिन्तारा के विशालकाय कद के सामने ठिंगना होता जा रहा था।वह सोच रहा था कि जब हमें शक्ति और समर्थन प्राप्त था तब भी हम चाहकर उसका दमन नहीं कर पाए। अब धिन्तारा के पास बल और कानून है, हमारी मौत का चाबुक है। वह हमें दण्डित करने की स्थिति में है और हम उसके दण्ड को मूक भोगने की स्थिति में हैं। ईश्वर ने सदैव उसकी मदद की। पहले उसने खुद को बर्बर हाथों से मुक्त किया और अब वह समाय़ को उनसे मुक्त कराने में जुटी है। केवटाना गाँव में वह स्वयं असहाय और मज़बूर धिन्ताराओं का उद्धार करने के लिए अपनी जमीन-ज़ायदाद बेचकर बालिका विद्यालय खोलने के लिए उतावली हो रही है। यानी, अपने गाँव से दूर रहकर भी उसका मन केवटों की ज़िंदगी में रमा हुआ है। निःसंदेह, वह गाँव का उत्थान चाहती है। औरतों को पशुतुल्य मर्दानगी से आज़ाद कराना चाहती है। अगर केवटाना के तानाशाह मर्द, औरतों पर मनमर्जी नहीं करते होते तो वहाँ दर्ज़नों धिन्ताराएं जन्म ले चुकी होतीं। गाँव का नाम रोशन कर चुकी होतीं। सारे गाँव को उनमें से एक-एक पर नाज़ होता। मर्द भी सीना चौड़ा करके कह रहे होते, "हमें अपनी धिन्ताराओं पर बेहद फ़ख्र है। इन धिन्ताराओं के कीरत और गुन की बदौलत, हम बड़े लोगों को पछाड़ सकते है। देखो, हमारे गाँव की एक धिन्तारा इतनी बड़ी हो गई है कि वह एक उच्च वर्ग की बहू भी है...।"<br />
<br />
खिलावन सोचते-सोचते बुदबुदाने लगा, "धिन्तारा बड़ी महान है। मैं नीच आदमी उस पर हक़ जमाने चला था। अरे! मैं तो उसका नौकर बनने लायक भी नहीं हूँ।"<br />
<br />
खिलावन ने मन-ही-मन अपना अपराध स्वीकार कर लिय था। सोच रहा था कि उसे मौत की सज़ा भी मिल जाए तो वह खामोप्श रहेगा। इसलिए, जब उसे चौदह साल की बामशक्कत सज़ा मिली उसने कोई गुरेज़ नहीं किया। दूसरी और रामजियावन को भी यह अहसास हो चला कि वह खिलावन को बुधनराम की हत्या करने से न रोककर खुद भी उसकी हत्या में शरीक़ है। साथ ही, वह धिन्तारा की पैतृक संपत्ति पर अवैध कब्ज़ा जमाने का भी दोषी है। <br />
<br />
इसलिए जब रामजियावन अपने अच्छे बात-बर्ताव के कारण सिर्फ़ छः साल की जेल चक्की पीसकर घर लौटा तो वह खुश नहीं था। जब तक वह जेल में रहा, अपराधबोध से पीड़ित रहा। इसलिए, वह जेल से छूटते ही सीधे धिन्तारा के सामने हाजिर हुआ। <br />
<br />
"बिटिया, हमें तो और सख़त सज़ा मिलनी चाहिए थी। हम और धीमन तुम्हारी माई मनरखनी के भी क़ातिल हैं।"<br />
<br />
धिन्तारा की आँखें क्रोध में न जलकर, भ आईं। "चाचाजी, क्या आप ये समझते हैं कि हमें यह सब नहीं पता है? अम्मा के मरने के बाद, बाबूजी को भी यह सच्चाई मालूम हो गई थी। पर, वह कर भी क्या सकते थे? आप ही लोग पंचायत के सर्वेसर्वा थे। क्या आपलोग पंचायत में बैठकर खुद को हत्यारा साबित करने की जोखिम उठाते?"<br />
<br />
रामजियावन का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। उसकी आँखों से आँसुओं का गुबार उमड़ पड़ा--"अपने जुल्मियों के जुल्म जानकर भी बिचारी धिन्तारा ख़ामोश रही।"<br />
<br />
धिन्तारा ने आगे कहा--"जब आप जेल में थे तो एक दिन धीमन चाचा आए थे। उन्होंने अपनी जुबानी अपना जुर्म कबूल करके मुझसे सज़ा मांगी थी। लेकिन, मैं उससे बदला लेने वाली कौन होती हूँ? बदला लेने वाली मेरी माँ तो स्वर्ग सिधार गई है। सो, मैंने उन्हें उसी समय माफ़ कर दिया और आपको भी। जो हुआ सो हुआ। आइन्दा हमारे गाँव में ऐसा वाकय नहीं होना चाहिए। ख़ासतौर से हमारे जैसी मज़बूर धिन्ताराओं पर अत्याचार...।"<br />
<br />
धिन्तारा का गला भर आया। वह फफक पड़ी।<br />
<br />
इस घटना को बईते कोई चालीस साल तो गुजर ही गए हैं। धिन्तारा शुक्ला सीनियर एस.पी. के पद से सेवामुक्त होकर आज भी केवटाना गाँव में रह रही रही है। केवटाना महिला महाविद्यालय की संरक्षिका की हैसियत से। यह वही महाविद्यालय है जिसकी स्थापना बालिका विद्यालय के रूप में हुई थी और जिसके लिए उन्होंने अपनी सारी संपत्ति दान कर दी थी। उक्त विद्यालय को महाविद्यालय को दर्ज़ा दिलाने में खिलावन का अहम योगदान रहा है। चौदह साल की जेल की सज़ा काटकर, वह सीधे केवटाना गाँव में उपस्थित हुआ और उसने अपना सारा जीवन इसके विकास में अर्पित कर दिया। गाँव वाले उसे दलित महिलाओं के मसीहा के रूप में देखते हैं। उससे मिलने पर वह गर्व से कहता है--"आज मैं जो कुछ हूँ, बहन धिन्तारा की बदौलत हूँ। उन्होंने ही मुझे जीने का यह नया अंदाज़ सिखाया है।"<br />
<br />
(साहित्य अमृत, संपादक विद्यानिवास मिश्र, जुलाई, 2004)</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5887धिन्तारा / मनोज श्रीवास्तव2011-11-09T07:30:03Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div>धिन्तारा के माई-बाप स्वर्ग सिधार गए तो क्या हुआ! सारा गाँव उसका है। वह जिस घर में चाहे, वहाँ जाकर रहे। लेकिन हमें यह मंजूर नहीं है कि वह शहर जाकर नौकरी करे। यह हमारे गाँव की इज़्ज़त का सवाल है...।<br />
धीमन केवट ने हाथ उठाकर अपना फैसला सुनाया। उत्तेजित भीड़ की गड़गड़ाती तालियों और कहकहों से सारा चौपाल गूँज उठा। सभी के मन की इच्छा जो पूरी हुई थी।<br />
<br />
<br />
तभी पंचों में से रामजियावन ने खुशी से कंधे उचकाते हुए सभी को शांत किया, "पंचों का निर्णय यह है कि आज से धिन्तारा इस गाँव से बाहर नहीं जाएगी, दूसरी जनानियों की तरह। अगर उसे अपनी तालीम के बेकार जाने का पछतावा है तो पंचों का हुकुम है कि वह गाँव के बच्चों को पढ़ाए। बदले में, हम उसे खाना-खर्चा देंगे। उसकी देखरेख करेंगे। हिफ़ाज़त करेंगे।"<br />
उनकी बातें सुनकर, धिन्तारा की नाक के ऊपर से पानी बहने लगा। चेहरे से लपटें निकलने लगीं। वह सभी बंदिशों को ठोकर मारकर एक अलग रास्ता चुनेगी। उसने न दुपट्टा सम्हाला, न ही बाल समेटे। बस, मुट्ठी भींचकर दौड़ पड़ी और चौपाल के बीच आ-खड़ी हुई। <br />
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<br />
उसकी इस शोखी पर सभी ने दातों तले अंगुली दबा ली--"कितनी बज़्ज़ात औरत है!"<br />
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<br />
"यह सरासर नाइंसाफ़ी है। मेरे ऊपर ज़्यादती है। आप लोग मेरा भविष्य चौपट कर रहे हैं। आखिर, मैंने चूल्हा-चौका करने के लिए तो बी.ए. पास किया नहीं है। कितनी मेहनत के बाद, यह पुलिस इन्स्पेक्टरी की नौकरी मिली है? केवटाना गाँव की कोई लड़की पहली बार पढ़-लिखकर शहर जा रही है, नौकरी करने। आप मर्दों में तो कोई दमखम रहा नहीं। सारे के सारे अंगूठा-छाप हैं। चिट्ठी-पत्री तक तो पढ़ नहीं सकते। बस, पतवार लेकर नावों में सवार रहते हैं। मछली पकड़ने के जुगाड़ में, नदी में जाल डाले हुए, पालघर से झाँकते रहते हैं।<br />
<br />
<br />
उसका गुरूर से सिर झटकना सबके गले की हड्डी बन गया। बेशक! उसने केवटों और मछुआरों की सदियों पुरानी आजीविका की खिल्ली उड़ाई थी। उनकी ज़िंदगी को हिकारत से देखा था। ठिंगना दुक्खीराम तक आपे से बाहर हो उठा, "पंचों के फ़ैसले का छीछालेदर करने वाले को हम नहीं बख्शेंगे। इस दुधमुँही छोकरी की यह मजाल कि वह हमें सरेआम नंगा करे। इसने अपना लाज-शरम तो उसी दिन बेच दिया था, जिस दिन इसके बाप बब्बन ने इसे पढ़ने तहसील भेजा था। अच्छा हुआ, साला भरी जवानी में ही मर गया। नहीं तो, वह अपनी छोकरी को पढ़ाने-लिखाने के बहाने कोठे पर बैठाकर ही दम लेता। हरामज़ादी नौकरी करेगी, हमारी बिरादरी की औरतों की नाक कटाएगी। साली का झोंटा खींचकर चार लप्पड़ लगाओ, इसका दिमाग ठिकाने लग जाएगा।"<br />
<br />
खिलावन को दुक्खीराम की तैश बहुत भली लगी. धिन्तारा उसकी होने वाली लुगाई जो ठहरी. इसलिए उसके कोई ऊटपटांग करने पर गाँव वालों से पहले उसके आन पर आंच आएगी. खुद बब्बन ने उसके बाप रामजियावन से कह-सुनकर धिन्तारा के साथ उसका रिश्ता तय किया था--"रामजियावन, अगर हमारी मेहरारू ने लड़की पैदा किया तो ऊ तुम्हारी बहू बनेगी." सो, जिस दिन धिन्तारा पैदा हुई, उसी शाम बब्बन, रामजियावन ए घर जाकर सगुन भी कर आया था. तब, खिलावन भी हंसता-खेलता बच्चा था, कोई साढ़े चार साल का. <br />
<br />
खिलावन की आँखों में ये सारी घटनाएं ताजी थीं. सो, चौपाल में जिसका सबसे ज़्यादा खून उबल रहा था, वह खिलावन ही था. वह वहीं से दहाड़ उठा, "इ सुअरी, शहर जाएगी तो किसी कुजात से इशक लड़ाएगी और ब्याह रचाएगी. इससे हमारी जात पर लांछन आएगा. हम ठहरे खांटी केवट. हमारे ऊपर भगवान राम का आशीर्वाद है. सीता मैया का आशीर्वाद है. सो हमारा नाक कटाने से पहले ही, हम इसका गला रेत देंगे." <br />
<br />
चौपाल में जमा वहशी भीड़ खिलावन की बात सुनकर धिन्तारा को चुन-चुनकर गालियाँ देने लगी. जवान लौंडे गुस्से से बेकाबू हो रहे थे. खिड़कियाँ झांकती औरतें धिन्तारा के शेखी बघारने पर ताज्जुब कर रही थीं. सोच रहीं थी कि चलो, छाती तानकर वह रोज साइकिल से स्कूल जाती थी, हमने बरदाश्त कर लिया. लेकिन, यह तो हैरतअंगेज़ बात है कि वह सिपाही की वर्दी पहन, अपने जनाने अंग झुलाते, पुलिस की ट्रेनिंग लेने शहर जाए और ट्रेनिंग के बाद किसी अनजान चौराहे पर लाठी भांजती फिरे. <br />
<br />
उत्तेजना केवल पंचायत में ही नहीं थी, बल्कि पुराना गाँव का पारा चढ़ा हुआ था. धिन्तारा ने हरेक को ध्यान से देखा. सभी की आँखें जलती हुई तीलियाँ थीं. लेकिन, उसके मन की ज्वाला कहीं अधिक दाहक थी. वह बड़वानल की तरह भीतर-ही-भीतर झुलस रही थी. पहले वह चिंगारी की तरह चटख रही थी. पर, अब वह साबुत जल रही थी--क्रोध और प्रतिशोध में. चार साल पहले पिता की गोताखोरी करते समय डूबकर हुई मौत के बाद वह अनाथ हो गई थी. तब, वह बावली-सी इधर-उधर मंडराती थी. क्या कोई गांववाला उसकी मदद करने आया था? बल्कि, उसका तो जीना और भी दूभर हो गया था. जवान लड़की और वह भी एकदम अकेली. जैसे वहशी बाजों के जंगल में एक अकेली कबूतरी. कोई आगे न पीछे. आते-जाते छीटाकशियों का वार झेलना पड़ता था उसे. कई दफे तो रात को उसके आँगन में गाँव के ही मनचले बदमाश मर्द उतर जाते थे. पर, उसकी जांबाजी ने सभी के छक्के छुड़ा दिए. जनाने जिस्म में मर्दों वाली फुर्ती और ताकत थी. रंधावा को तो उसने बीच हाट में छठी का दूध याद दिलाया था. सभी गाँव वालों की आँखें नीची हो गई थीं. तब, कोई भी सामने नहीं आया, कामांध रंधावा को सबक सिखाने! न पंचायत बैठी, न ही चौपाल. वह गला फाड़-फाड़ चींखती-चिल्लाती रही लेकिन सभी अपने-अपने काम में मग्न हो गए--जैसे कुछ हुआ ही न हो.<br />
<br />
<br />
धिन्तारा तड़प रही थी. आखिर उसने कौन-सा गुनाह किया था की उसकी माँ उसे जानते ही भगवान् को प्यारी हो गई? माँ का ख्याल आते हीउसके होंठ घृणा से सिकुड़ गए. गाँव में यह अफवाह थी कि उसकी माँ के ठाकुर विक्रमसिंह से नाजायज ताल्लुकात थे और वह उसी का नतीजा है. तभी तो जब वह गलियों से गुजरती थी तो लोग फब्तियां कसते हैं. कानाफूसी करते हैं,"इस कुलच्छनी को देखो ,कैसे ठकुराइन-सरीखी ऐंठकर चल रही है? बब्बन तो नामर्द था. तभी तो उसकी लुगाई विक्रम ठाकुर के साथ गुलछर्रे उड़ाती फिरती थी."<br />
<br />
जब चौपाल में लोगों की जुबान से तानों के बारूद फट रहे थे, तभी ग्रामप्रधान धीमन केवट आवेश में कांपता हुआ खड़ा हुआ. वह धिन्तारा के गुस्ताखी को नहीं पहचान सका. खूनी डोरें उसकी आँखों में चमक रहे थे. <br />
<br />
"अब हमारा आख़िरी फैसला सुनो. धिन्तारा को उसके ही घर में कैद कर दो और एक हफ्ते के भीतर इसे खिलावन केवट की खूंटी में बाँध दो. तब तक इतना सख्त पहरा रखो कि यह इस गाँव से टस से मस न हो सके. "<br />
<br />
चौपाल उठने के काफी देर बाद तक धिन्तारा जड़वत खड़ी रही. जैसे कैदखाने की रिहाई की आस संजो रहे किसी कैदी को अचानक फांसी की सजा सुना दी गई हो. बदतमीज़ खिलावन की घिनौनी शक्ल उसके दिमाग में कौंध रही थी. उसने अपने होठ भींच कर संकल्प लिया--वह पंचायत के फैसले को कभी नहीं मानेगी. उसका दिमाग सरपट दौड़ रहा था--'क्या करे कि वह नकेल पड़ने से पहले ही भाग खड़ी हो और इन बर्बर लोगों के हाथ जीवनपर्यंत न आए?' उसकी गर्दन निश्चय के भाव से तन गई--'अंगूठाछाप खिलावन के हाथों तबाह होने से पहले ही वह निरंकुश पंचों के अन्यायपूर्ण आदेश पर पानी फेर देगी.'<br />
<br />
<br />
धिन्तारा को उसके ही घर में नजरबन्द कर दिया गया. उसके घर के चारों ओर पहरुए तैनात कर दिए गए. गाँव का चप्पा-चप्पा संवेदनशील हो गया था. सारे गाँव वालों का अहं अट्टहास कर रहा था. खिलावन खुद गलियों से गुरूर से गुजरते हुए दरवाजे-दरवाजे अपनी शादी का न्योता दे रहा था. खास बात यह थी कि उसकी शादी के बंदोबस्त की जिम्मेदारी पंचायत के कंधो पर थी और गाँव के सभी बच्चे-बूढ़े इसमें शामिल होने वाले थे. आखिर पञ्च रामजियावन के बेटे की शादी थी और वह भी पंचायत के हस्तक्षेप से.<br />
<br />
<br />
इस दरमियान, धिन्तारा ने कोई बवाल नहीं खड़ा किया. वह दरवाजे पर खड़ी होकर पहरुओं से सामान्य लहजे में बातें करती और और अपनी शादी की चर्चा पर फिसकारी मारकर हंस देती. इस तरह वह यह संकेत देती की वह खिलावन के साथ अपनी होने वाली शादी से खुश है. पहरुए क्या, सभी गाँव वाले आश्वस्त हो गए की धिन्तारा ने पंचों के फैसले को सहर्ष स्वीकार कर लिया है. उसने परम्पराओं और प्रथाओं को स्वीकृति देकर गाँव के मान-सम्मान में वृद्धि की है इसलिए, पहरुए लापरवाह हो गए. उस पर चौकसी ढीली पड़ गई. <br />
<br />
लेकिन, ऐन शादी की शाम, जब केवटाना के ग्रामीण एक जश्न मनाने के जद्दोजहद में गाफिल-से हो रहे थे तो धिन्तारा की गैर-मौजूदगी ने सभी को झंकझोर दिया. वह सभी की आँखों में धूल झोंककर फरार हो गई थी. दरवाज़े पर खिलावन अपनी बारात लिए मुंह ताकता रह गया. जिस कोठारी से धिन्तारा सजने-संवरने कानाटक खेल रही थी, उसकी जर्जर खिड़की उखाड़कर वह गुम हो गई. बिल्कुल फिल्मी स्टोरी की नायिका की भाँति. <br />
<br />
रामजियावन अपराध-बोध से पागल हो उठा और धिन्तारा पर निगरानी रखने वाले दो मर्दों की टांगें वहीं लाठी से ताबड़तोड़ चूर कर दी. खिलावन ने पूरे होश में ऐलान किया--"चाहे धिन्तारा पाताल में समा गई हो, मैं उसे ढूंढ कर ही दम लूंगा और ब्याह करूंगा तो केवल उसी से नहीं तो जीवन भर कुंवारा रहूँगा...."<br />
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केवटाना गाँव में मारपीट, हत्या, बलात्कार आदि जैसी घटनाएँ आए-दिन होती रहती थीं. लेकिन, ऐन खड़ी बारात वाली शाम को किसी लड़की का भाग जाना एकदम अजूबा लग रहा था. केवटाना गाँव के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. इसे याद करते ही केवटों के सीने पर सांप लोटने लगता. चुनांचे, धिन्तारा काण्ड का भी सुनते-सुनाते साधारणीकरण हो गया--गाँव में अक्सर घटने वाली सनसनीखेज घटनाओं की तरह. इसलिए, चार साल ऐसे गुजर गए, जैसे बंद मुट्ठी से बालू. इतने समय में तो जिन जवान लौंडों की शादी हुई थी, वे दो-दो बच्चों के बाप बन गए. और जो छोकरियाँ गड़हियों में गुल्ली-डंडा खेलती थीं, वे शादी लायक जबर-जवान हो गईं और मां-बाप की आँखों की किरकिरी बन गईं. लिहाजा, मेहनतकश मल्लाहों और मछुआरों के लिए तो यह समय चुटकी में बीत गया. लेकिन, खेलावन ने न केवल चार सावन और चार वसंत ही बल्कि, दिन, सप्ताह और महीने तक गिन-गिन कर बिताए. उस पर एक ही धुन सवार थी-- धिन्तारा को तलाश कर उससे जबरन शादी करना. सारे गाँव में उसकी थू-थू कराने के लिए वह उसे आजीवन अपनी दासी बनाकर ही चैन की साँस लेगा.यह संकल्प वह दिन भर में कम से कम सौ बार लेता. <br />
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इस खुमार में खिलावन को होश कहाँ था? रोज उससे कोई न कोई अनापशनाप काम हो जाता.एक शाम जब रामजियावन और बुधराम मछली पकड़कर लौट रहे थे तो नाव पर ही उनमे मछली के बंटवारे को लेकर तू-तू, मै-मै हो गई. इतने सालों से दोनों साझे में एक ही नाव पर मछली पकड़ते रहे. लेकिन, किसी के हिस्से में एक-दो किलो मछली ज्यादा चली जाने पर कोई कुछ भी शिकायत नहीं करता था. किन्तु, आज दोनों के ग्रह-नक्षत्र ठीक नहीं थे. यूं भी, आज अमावस्या के चलते एक तो उफनती लहरों पर कोई वश नहीं चल रहा था; दूसरे, उनके मन में फितूर की बातें भी उमड़ रही थीं. गुस्से पर कोई काबू नहीं था. रामजियावन घुड़क रहा था कि "नाव हमारी है और जाल तुम्हारा. इसलिए, दो-तिहाई हिस्सा हमें चाहिए." दूसरी तरफ, बुधन ताव खा रहा था कि "तुमने तो नाव स्वर्गीय बब्बन से हड़पी है. बब्बन की मौत के बाद धिन्तारा वह नाव किराए पर चलवाती थी. पर, धिन्तारा के भाग जाने के बाद तुमने उसकी नाव पर हक़ जमा लिया है. सो, तुम्हारी न नाव है, न जाल. हाँ, हमारे साथ मछली पकड़ने में ठेडी मेहनत-मशक्कत ज़रूर की है. इसलिए, तुम्हे तिहाई हिस्सा ही मिलेगा."<br />
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जब नाव बीच नदी में थी तो दोनों में कहासुनी, हाथापाई में तब्दील हो गई. खेवइया बगैर नाव हिचकोलें खा रही थी. किनारे पर उनकी राह अगोर रहा खिलावन उन्हें नाव में मारपीट करते देख, गुस्से में पागल हुआ जा रहा था. जब उसके बरदाश्त की सीमा पार हो गई तो उसने कुर्ता- पाजामा उतार कर नदी में छलांग लगा दी और नाव की ओर तेजी से लपक लिया.<br />
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खिलावन के नाव में दस्तक देते ही, बुधन के हाथ-पाँव फूल गए--"बाप रे! भागो! बाप-बेटे दोनों ही टूट पड़े हैं." उसने मैदान छोड़ दिया. <br />
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पर खिलावन का प्रतिशोध भी भभक रहा था. इसलिए, वह भी नदी में कूदकर बुधन का बेतहाशा पीछा करने लगा. छप्पन साल का अधबुढ़ा बुधनराम कब तक खैर मनाता? एक तो खिलावन का कोप; दूसरे, बीच मंझधार में लहरों का बढ़ता आतंक! एक ओर कुआँ तो दूसरी ओर खाई.अंततोगत्वा उसकी शक्ति जवाब दे गई। हाथ-पैर नाकारा हो गए। फिर, छब्बीस साल के उद्दण्ड खिलावन के भय ने उसके मनोबल को तोड़कर रख दिया। खिलावन ने लपककर उसका कुर्ता पकड़ लिया। आनन-फानन में बुधन की गरदन अपनी बाईं भुजा में दबोच ली और उसे तब तक पानी में डुबोए रखा जब तक कि उसकी सांस फ़ुस्स नहीं बोल गई और बदन लत्ता नहीं हो गया। <br />
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अगले दिन, गाँव के कुछ बच्चे नदी किनारे कबड्डी खेल रहे थे कि उन्होंने यकायक देखा कि कुछ कुत्ते वहीं किनारे पानी में कोई लाश नोच रहे हैं। वैसे भी, बुधन के घर न लौटने पर गाँववाले बड़े सशंकित थे क्योंकि सभी जानते थे कि बुधन और जियावन साथ-साथ मछली मारने जाते थे। लेकिन, जब रामजियावन, बुधन के घर यह बताने गया कि वह नदी-पार अपने साले के घर गया है और उसने बुधन के हिस्से की मछली उसके घर पहुँचा दी है तो सभी को सूचना से तसल्ली हो गई। पर, जियावन को क्या पत था कि कमबख्त बुधन की लाश कहीं दूर लापता होने के बजाय उसके गाँव के किनारे आ लगेगी?<br />
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बच्चे लाश को करीब से देखते ही, सिर पर पैर रखकर गाँव की और भागे--"बुधन चच्चामर गए।" उनकी चीत्कार पर सारा गाँव भौंचक होकर नदी किनारे उमड़ पड़ा। डरा-सहमा रामजियावन पहले तो बड़बड़ाता रहा कि "कल तक तो बुधन भैया अपने साले के घर भले-चंगे गए थे; फिर, उनकी अचानक मौत कैसे हो गई?" लेकिन, जब धीमन केवट ने उसके सीने पर गड़ांसा रखा तो उसने सच्चाई उगल दी--" कल, हमारे और बुधन के झगड़े के बीच खिलावन टपक पड़ा था। उसने बुधन को नदी में डुबोकर उसकी नटई टीप दी।"<br />
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अपने ही बाप के मुँह से अपना नाम सुनकर खिलावन चौकन्ना हो गया। लेकिन, वह भागकर कहाँ जाता? भीड़ ने उसे दबोच लिया। तभी धीमन केवट ने अपना फैसला सुनाया--"मामला संगीन है। पंचायत कुछ नहीं कर सकती। हत्या का मामला है। पुलिस को सौंप दो।"<br />
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रामजियावन और खिलायवन को उसीदिन स्थानीय पुलिस चौकी से तहसील थाना में स्थानान्तरित कर दिया गया। शाम ढलने से पहले उनकी पेशी भी हो गई।<br />
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जब केवटाना की भीड़ ने थाना इन्चार्ज़ का नाम पढ़ा तो उनमें खुसुर-फ़ुसुर होने लगी। इस बाबत पक्की जानकारी रखने वाले धीमन केवट ने कहा, "यह धिन्तारा शुक्ला कोई और नहीं, वही ठाकुर विक्रम की नाज़ायज़ औलाद है, जो ऐन बारात वाले दिन खिलावन की इज़्ज़त गुड़-गोबर करके फरार हो गई थी।" <br />
<br />
खिलावन के रोंगटे खड़े हो गए। उसने गेट पर लगे नेमप्लेट को गौर से देखा। धीमन ने उसे देख आँख मटकाई--"देखता क्या है, बुड़बक? यही तेरी सात जनम की दुश्मन--धिन्तारा।"<br />
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खिलावन दंग रह गया। सोच-सोच कर उबाल खाने लगा। सोचने लगा कि 'हमारी तलाश पूरी हो गई। अगर पता होता कि बुधन को मारकर ही हम धिन्तारा तक पहुँच पाएंगे तो हम उसे पहले ही ठिकाने लगा देते।" उसका दिल नफ़रत से भर गया--"आखिर, साली ने गैर-बिरादरी में ब्याह करके हमारा किस्सा ही खत्म कर डाला।" उसने नेमप्लेट पर पावभर बलगम उगल दिया।<br />
<br />
वहाँ तैनात सिपाहियों को उसकी हरकत बेहद बेहूदी लगी। उन्होंने उस पर दनादन इतने घूंसे जड़े कि वह दर्द से चींखते हुए फ़र्श पर लोटने लगा। शोरगुल सुनकर जब धिन्तारा आसन्न स्थिति का जायज़ा लेने बाहर निकली तो सिपाहियों ने उसके नेमप्लेट की और इशार करते हुए खिलावन की बदतमीज़ी की तरफ उसका ध्यान आकृष्ट किया--"मैडमॅ इतना ही नहीं, यह शख़्स क़त्ल का ख़तरनाक़ मुज़रिम भी है।"<br />
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धिन्तारा गुस्से में काफ़ूर हुई जा रही थी। जब उसने आक्रोश में खिलवन को पैर मारकर पलटा तो वह सिसकारी मारे बग़ैर नहीं रह सकी, "तो अब आया है ऊँट पहाड़ के नीचे।" उसने खिलावन को एक ही नज़र में पहचान लिया था।<br />
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वह तत्काल केवटों की भीड़ को थाना परिसर से बाहर खदेड़ने का आदेश देते हुए पुलिस चौकी से लाए गए एफ़.आई.आर. और रपट का मुआयना करने लगी। इसी बीच, उसका ध्यान भंग हुआ। बाहर जाती भीड़ में से यह भुनभुनाहट साफ सुनाई दे रही थी--"अरे, ठाकुर विक्रम सिंह आ रहे हैं।" उन्हें देख धिन्तारा एक बच्चे की भाँति चंचल हो उठी। जब उसने आगे बढ़कर विक्रमसिंह के पैर छुए और आशीर्वाद लिए तो तो यह देख, भीड़ फिर रुक गई।<br />
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लोग बुदबुदाने लगे, "अरे, देखोऍ ये हरामज़ादी अपने असल बाप की पैलगी कितने अदब से कर रही है!"<br />
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"हाँ-हाँ, नामर्द बब्बन तो इसका फ़र्ज़ी बाप था।"<br />
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"अरे, ये ठाकुर विक्रम इसकी अम्मा मनरखनी का आशिक तो पहले से था। अब तो ये इसका भी...।"<br />
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"हाँ-हाँ, ये सब पैलगी तो दुनिया को दिखाने के वास्ते है; असल में तो इसका भी ठाकुर के साथ...।"<br />
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विक्रमसिंह ने बड़ी आत्मीयता के साथ धिन्तारा के सिर पर हाथ फेरा--"बेटा, तुम्हारी माँ को मैंने अपनी धरम-बहिन बनाया था। वह हर साल हमें राखी बाँधने और भाईदूज़ की मिठाई खिलाने आती थी। जब तू नौ बरस की थी तो बात-बात में एक दिन उसने मुझे अपनी ख्वाहिश बताई थी--"विक्रम भैया! मैं अपनी धिन्तारा को कोई बड़ा आदमी बनाना चाहती हूँ...काश! वह जिंदा होती तो आज तुम्हें पुलिस अफ़सर के रूप में देखकर फूली नहीं समाती।"<br />
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"मामाजी! ये सब आपकी बदौलत हुआ है। आप ही मेरा स्कूल से कालिज़ दाखिला कराने गए थे। आप ही मुझे कापी-किताब दिलाने जाते थे। जब बाबूजी मेरी फीस नहीं जमाकर पाते थे तो आप खुद मेरी फीस अपनी पाकिट से जमा करते थे। मेरे जाहिल बाबूजी क्या यह सब करने लायक थे? बेशक! आपकी मदद के बग़ैर, मैं क्या होती? बस, किसी मेहनतकश मछुआरे के घर झाड़ू-पोंछा लगा रही होती या मछली-भात उसन रही होती। इतना तो मेरा सगा मामा भी होता तो न करता।"<br />
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भीड़ में उपस्थित धीमन, दुक्खीराम, रन्धावा आदि सभी केवट, विक्रम और धिन्तारा के बीच बातचीत को सुनकर आत्मग्लानि से पसीने-पसीने हो रहे थे। वे पहली बार विक्रमसिंह की उदारता और बड़प्पन से अवगत हो रहे थे। रामजियावन ने हथकड़ी से बँधे हाथों से अपनी नम आँखें पोछीं। वह मन-ही-मन पछता रहा था--"बिचारी मनरखनी पर हम नाहक शक करते थे। ठाकुर तो बड़ा पाक-साफ लगता है। क्या वह सच में मनरखनी को अपनी बहिन मानता था? च्च, च्च, च्च, हम फ़िज़ूल उसे ठाकुर की रखैल और धिन्तारा को उसकी नाज़ायज़ औलाद मानते रहे। हमारे पापकर्मों को ईश्वर भी माफ़ नहीं करेगा।"<br />
<br />
धीमन भी रामजियावन की आँखों में आँखें डालकर रुआँसा हो गया। उसे देखते हुए वह भी सोच रहा था--"हम दोनों को भी रांअजियावन की तरह सज़ा मिलनी चाहिए। आख़िर, ठाकुर और मनरखनी के मेलमिलाप को हम दोनों ने ही नाज़ायज़ मानकर मनरखनी को जान से मारने की साज़िश रची थी। जहरीला करैत साँप हम पकड़ कर लाए थे जिसे तुमने चुपके से मनरखनी के झोले में डाल दिया था। जैसे ही उसने झोले में हाथ डाला, साँप ने इसे डस लिया।। ज़हर इतना तेज था कि बिचारी को एक लहर भी नहीं आई और वह वहीं खत्म हो गई। गाँववालों को क्या पता कि उसकी मौत का ज़िम्मेदार कौन है?"<br />
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सारे केवट अपराध-बोध से सिर झुकाए मौन खड़े थे। विक्रम सिंह ने उन पर विहंगम दृष्टि डाली और धिन्तारा से पुनः मुखातिब हुआ--"बेटा, तुम्हारे गाँव छोड़कर चले जाने के बाद, मैं तुम्हारे घर गया था। तुम्हारे बाड़े में सारी बातें सुनकर बड़ा अफ़सोस हुआ। पर, ज़ल्दबाज़ी में तुमने जो फ़ैसला लिया था, वह तुम्हारे भविष्य के लिए अच्छा साबित हुआ।"<br />
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उस क्षण, धिन्तारा अपने बीते वर्षों की दुर्गम अंधगुफ़ा में सिर टकराते हुए भटकने लगी। अपने अभिशप्त अतीत की स्मृति-छाया से बार-बार सिहर रही थी। उन बीहड़ रास्तों पर माँ-बाप तक उसे अकेला बेसहारा छोड़ गए थे। उसे अच्छी तरह याद है जबकि उसने अपना घर, गृहस्थी के सामान, पिता की नाव, पतवार, पालघर आदि बेचकर अन्यत्र बसने की इच्छा व्यक्त की थी। तब, रामजियावन पहाड़ बन सामने खड़ा हो गया था--"तू हमारी लच्छमी है। होने वाली बहू है। तुझे यानी अपनी इज़्ज़त को हम कैसे यहाँ से जाने दे सकते हैं?"<br />
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धिन्तारा ने घृणा और रोष से हथकड़ियों में बँधे रामजियावन और खिलावन को देखकर मुँह बिचकाया। फिर, स्वतः बह आए आँसुओं को पोंछा और विक्रम सिंह को देखकर गंभीर हो गई।<br />
<br />
"मामाजी! अब आप ही मुझ अनाथ के इकलौते बुजुर्ग हैं। मेरे आदर्श हैं। मेरा क्या? तबादले वाली नौकरी है। कभी इस शहर में तो कभी उस शहर में। इसलिए मैं यह चाहती हूँ कि गाँव में मेरा जो मकान-जमीन है, उसे बेचकर वहाँँ एक बालिका विद्यालय बनवाने का कष्ट करें ताकि केवटाना की दलित बच्चियाँ पढ़-लिखकर समझदार बन सकें। मैं कोशिश करूंगी कि सरकार से उस विद्यालय के लिए कुछ अनुदान का बंदोबस्त हो सके।"<br />
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उनकी बातचीत पर खिलावन के कान ज़्यादा खड़े थे।</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5886धिन्तारा / मनोज श्रीवास्तव2011-11-03T10:44:00Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
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<div>धिन्तारा के माई-बाप स्वर्ग सिधार गए तो क्या हुआ! सारा गाँव उसका है। वह जिस घर में चाहे, वहाँ जाकर रहे। लेकिन हमें यह मंजूर नहीं है कि वह शहर जाकर नौकरी करे। यह हमारे गाँव की इज़्ज़त का सवाल है...।<br />
धीमन केवट ने हाथ उठाकर अपना फैसला सुनाया। उत्तेजित भीड़ की गड़गड़ाती तालियों और कहकहों से सारा चौपाल गूँज उठा। सभी के मन की इच्छा जो पूरी हुई थी।<br />
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तभी पंचों में से रामजियावन ने खुशी से कंधे उचकाते हुए सभी को शांत किया, "पंचों का निर्णय यह है कि आज से धिन्तारा इस गाँव से बाहर नहीं जाएगी, दूसरी जनानियों की तरह। अगर उसे अपनी तालीम के बेकार जाने का पछतावा है तो पंचों का हुकुम है कि वह गाँव के बच्चों को पढ़ाए। बदले में, हम उसे खाना-खर्चा देंगे। उसकी देखरेख करेंगे। हिफ़ाज़त करेंगे।"<br />
उनकी बातें सुनकर, धिन्तारा की नाक के ऊपर से पानी बहने लगा। चेहरे से लपटें निकलने लगीं। वह सभी बंदिशों को ठोकर मारकर एक अलग रास्ता चुनेगी। उसने न दुपट्टा सम्हाला, न ही बाल समेटे। बस, मुट्ठी भींचकर दौड़ पड़ी और चौपाल के बीच आ-खड़ी हुई। <br />
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उसकी इस शोखी पर सभी ने दातों तले अंगुली दबा ली--"कितनी बज़्ज़ात औरत है!"<br />
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"यह सरासर नाइंसाफ़ी है। मेरे ऊपर ज़्यादती है। आप लोग मेरा भविष्य चौपट कर रहे हैं। आखिर, मैंने चूल्हा-चौका करने के लिए तो बी.ए. पास किया नहीं है। कितनी मेहनत के बाद, यह पुलिस इन्स्पेक्टरी की नौकरी मिली है? केवटाना गाँव की कोई लड़की पहली बार पढ़-लिखकर शहर जा रही है, नौकरी करने। आप मर्दों में तो कोई दमखम रहा नहीं। सारे के सारे अंगूठा-छाप हैं। चिट्ठी-पत्री तक तो पढ़ नहीं सकते। बस, पतवार लेकर नावों में सवार रहते हैं। मछली पकड़ने के जुगाड़ में, नदी में जाल डाले हुए, पालघर से झाँकते रहते हैं।<br />
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उसका गुरूर से सिर झटकना सबके गले की हड्डी बन गया। बेशक! उसने केवटों और मछुआरों की सदियों पुरानी आजीविका की खिल्ली उड़ाई थी। उनकी ज़िंदगी को हिकारत से देखा था। ठिंगना दुक्खीराम तक आपे से बाहर हो उठा, "पंचों के फ़ैसले का छीछालेदर करने वाले को हम नहीं बख्शेंगे। इस दुधमुँही छोकरी की यह मजाल कि वह हमें सरेआम नंगा करे। इसने अपना लाज-शरम तो उसी दिन बेच दिया था, जिस दिन इसके बाप बब्बन ने इसे पढ़ने तहसील भेजा था। अच्छा हुआ, साला भरी जवानी में ही मर गया। नहीं तो, वह अपनी छोकरी को पढ़ाने-लिखाने के बहाने कोठे पर बैठाकर ही दम लेता। हरामज़ादी नौकरी करेगी, हमारी बिरादरी की औरतों की नाक कटाएगी। साली का झोंटा खींचकर चार लप्पड़ लगाओ, इसका दिमाग ठिकाने लग जाएगा।"<br />
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खिलावन को दुक्खीराम की तैश बहुत भली लगी. धिन्तारा उसकी होने वाली लुगाई जो ठहरी. इसलिए उसके कोई ऊटपटांग करने पर गाँव वालों से पहले उसके आन पर आंच आएगी. खुद बब्बन ने उसके बाप रामजियावन से कह-सुनकर धिन्तारा के साथ उसका रिश्ता तय किया था--"रामजियावन, अगर हमारी मेहरारू ने लड़की पैदा किया तो ऊ तुम्हारी बहू बनेगी." सो, जिस दिन धिन्तारा पैदा हुई, उसी शाम बब्बन, रामजियावन ए घर जाकर सगुन भी कर आया था. तब, खिलावन भी हंसता-खेलता बच्चा था, कोई साढ़े चार साल का. <br />
<br />
खिलावन की आँखों में ये सारी घटनाएं ताजी थीं. सो, चौपाल में जिसका सबसे ज़्यादा खून उबल रहा था, वह खिलावन ही था. वह वहीं से दहाड़ उठा, "इ सुअरी, शहर जाएगी तो किसी कुजात से इशक लड़ाएगी और ब्याह रचाएगी. इससे हमारी जात पर लांछन आएगा. हम ठहरे खांटी केवट. हमारे ऊपर भगवान राम का आशीर्वाद है. सीता मैया का आशीर्वाद है. सो हमारा नाक कटाने से पहले ही, हम इसका गला रेत देंगे." <br />
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चौपाल में जमा वहशी भीड़ खिलावन की बात सुनकर धिन्तारा को चुन-चुनकर गालियाँ देने लगी. जवान लौंडे गुस्से से बेकाबू हो रहे थे. खिड़कियाँ झांकती औरतें धिन्तारा के शेखी बघारने पर ताज्जुब कर रही थीं. सोच रहीं थी कि चलो, छाती तानकर वह रोज साइकिल से स्कूल जाती थी, हमने बरदाश्त कर लिया. लेकिन, यह तो हैरतअंगेज़ बात है कि वह सिपाही की वर्दी पहन, अपने जनाने अंग झुलाते, पुलिस की ट्रेनिंग लेने शहर जाए और ट्रेनिंग के बाद किसी अनजान चौराहे पर लाठी भांजती फिरे. <br />
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उत्तेजना केवल पंचायत में ही नहीं थी, बल्कि पुराना गाँव का पारा चढ़ा हुआ था. धिन्तारा ने हरेक को ध्यान से देखा. सभी की आँखें जलती हुई तीलियाँ थीं. लेकिन, उसके मन की ज्वाला कहीं अधिक दाहक थी. वह बड़वानल की तरह भीतर-ही-भीतर झुलस रही थी. पहले वह चिंगारी की तरह चटख रही थी. पर, अब वह साबुत जल रही थी--क्रोध और प्रतिशोध में. चार साल पहले पिता की गोताखोरी करते समय डूबकर हुई मौत के बाद वह अनाथ हो गई थी. तब, वह बावली-सी इधर-उधर मंडराती थी. क्या कोई गांववाला उसकी मदद करने आया था? बल्कि, उसका तो जीना और भी दूभर हो गया था. जवान लड़की और वह भी एकदम अकेली. जैसे वहशी बाजों के जंगल में एक अकेली कबूतरी. कोई आगे न पीछे. आते-जाते छीटाकशियों का वार झेलना पड़ता था उसे. कई दफे तो रात को उसके आँगन में गाँव के ही मनचले बदमाश मर्द उतर जाते थे. पर, उसकी जांबाजी ने सभी के छक्के छुड़ा दिए. जनाने जिस्म में मर्दों वाली फुर्ती और ताकत थी. रंधावा को तो उसने बीच हाट में छठी का दूध याद दिलाया था. सभी गाँव वालों की आँखें नीची हो गई थीं. तब, कोई भी सामने नहीं आया, कामांध रंधावा को सबक सिखाने! न पंचायत बैठी, न ही चौपाल. वह गला फाड़-फाड़ चींखती-चिल्लाती रही लेकिन सभी अपने-अपने काम में मग्न हो गए--जैसे कुछ हुआ ही न हो.<br />
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<br />
धिन्तारा तड़प रही थी. आखिर उसने कौन-सा गुनाह किया था की उसकी माँ उसे जानते ही भगवान् को प्यारी हो गई? माँ का ख्याल आते हीउसके होंठ घृणा से सिकुड़ गए. गाँव में यह अफवाह थी कि उसकी माँ के ठाकुर विक्रमसिंह से नाजायज ताल्लुकात थे और वह उसी का नतीजा है. तभी तो जब वह गलियों से गुजरती थी तो लोग फब्तियां कसते हैं. कानाफूसी करते हैं,"इस कुलच्छनी को देखो ,कैसे ठकुराइन-सरीखी ऐंठकर चल रही है? बब्बन तो नामर्द था. तभी तो उसकी लुगाई विक्रम ठाकुर के साथ गुलछर्रे उड़ाती फिरती थी."<br />
<br />
जब चौपाल में लोगों की जुबान से तानों के बारूद फट रहे थे, तभी ग्रामप्रधान धीमन केवट आवेश में कांपता हुआ खड़ा हुआ. वह धिन्तारा के गुस्ताखी को नहीं पहचान सका. खूनी डोरें उसकी आँखों में चमक रहे थे. <br />
<br />
"अब हमारा आख़िरी फैसला सुनो. धिन्तारा को उसके ही घर में कैद कर दो और एक हफ्ते के भीतर इसे खिलावन केवट की खूंटी में बाँध दो. तब तक इतना सख्त पहरा रखो कि यह इस गाँव से टस से मस न हो सके. "<br />
<br />
चौपाल उठने के काफी देर बाद तक धिन्तारा जड़वत खड़ी रही. जैसे कैदखाने की रिहाई की आस संजो रहे किसी कैदी को अचानक फांसी की सजा सुना दी गई हो. बदतमीज़ खिलावन की घिनौनी शक्ल उसके दिमाग में कौंध रही थी. उसने अपने होठ भींच कर संकल्प लिया--वह पंचायत के फैसले को कभी नहीं मानेगी. उसका दिमाग सरपट दौड़ रहा था--'क्या करे कि वह नकेल पड़ने से पहले ही भाग खड़ी हो और इन बर्बर लोगों के हाथ जीवनपर्यंत न आए?' उसकी गर्दन निश्चय के भाव से तन गई--'अंगूठाछाप खिलावन के हाथों तबाह होने से पहले ही वह निरंकुश पंचों के अन्यायपूर्ण आदेश पर पानी फेर देगी.'<br />
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<br />
धिन्तारा को उसके ही घर में नजरबन्द कर दिया गया. उसके घर के चारों ओर पहरुए तैनात कर दिए गए. गाँव का चप्पा-चप्पा संवेदनशील हो गया था. सारे गाँव वालों का अहं अट्टहास कर रहा था. खिलावन खुद गलियों से गुरूर से गुजरते हुए दरवाजे-दरवाजे अपनी शादी का न्योता दे रहा था. खास बात यह थी कि उसकी शादी के बंदोबस्त की जिम्मेदारी पंचायत के कंधो पर थी और गाँव के सभी बच्चे-बूढ़े इसमें शामिल होने वाले थे. आखिर पञ्च रामजियावन के बेटे की शादी थी और वह भी पंचायत के हस्तक्षेप से.<br />
<br />
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इस दरमियान, धिन्तारा ने कोई बवाल नहीं खड़ा किया. वह दरवाजे पर खड़ी होकर पहरुओं से सामान्य लहजे में बातें करती और और अपनी शादी की चर्चा पर फिसकारी मारकर हंस देती. इस तरह वह यह संकेत देती की वह खिलावन के साथ अपनी होने वाली शादी से खुश है. पहरुए क्या, सभी गाँव वाले आश्वस्त हो गए की धिन्तारा ने पंचों के फैसले को सहर्ष स्वीकार कर लिया है. उसने परम्पराओं और प्रथाओं को स्वीकृति देकर गाँव के मान-सम्मान में वृद्धि की है इसलिए, पहरुए लापरवाह हो गए. उस पर चौकसी ढीली पड़ गई. <br />
<br />
लेकिन, ऐन शादी की शाम, जब केवटाना के ग्रामीण एक जश्न मनाने के जद्दोजहद में गाफिल-से हो रहे थे तो धिन्तारा की गैर-मौजूदगी ने सभी को झंकझोर दिया. वह सभी की आँखों में धूल झोंककर फरार हो गई थी. दरवाज़े पर खिलावन अपनी बारात लिए मुंह ताकता रह गया. जिस कोठारी से धिन्तारा सजने-संवरने कानाटक खेल रही थी, उसकी जर्जर खिड़की उखाड़कर वह गुम हो गई. बिल्कुल फिल्मी स्टोरी की नायिका की भाँति. <br />
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रामजियावन अपराध-बोध से पागल हो उठा और धिन्तारा पर निगरानी रखने वाले दो मर्दों की टांगें वहीं लाठी से ताबड़तोड़ चूर कर दी. खिलावन ने पूरे होश में ऐलान किया--"चाहे धिन्तारा पाताल में समा गई हो, मैं उसे ढूंढ कर ही दम लूंगा और ब्याह करूंगा तो केवल उसी से नहीं तो जीवन भर कुंवारा रहूँगा...."<br />
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केवटाना गाँव में मारपीट, हत्या, बलात्कार आदि जैसी घटनाएँ आए-दिन होती रहती थीं. लेकिन, ऐन खड़ी बारात वाली शाम को किसी लड़की का भाग जाना एकदम अजूबा लग रहा था. केवटाना गाँव के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. इसे याद करते ही केवटों के सीने पर सांप लोटने लगता. चुनांचे, धिन्तारा काण्ड का भी सुनते-सुनाते साधारणीकरण हो गया--गाँव में अक्सर घटने वाली सनसनीखेज घटनाओं की तरह. इसलिए, चार साल ऐसे गुजर गए, जैसे बंद मुट्ठी से बालू. इतने समय में तो जिन जवान लौंडों की शादी हुई थी, वे दो-दो बच्चों के बाप बन गए. और जो छोकरियाँ गड़हियों में गुल्ली-डंडा खेलती थीं, वे शादी लायक जबर-जवान हो गईं और मां-बाप की आँखों की किरकिरी बन गईं. लिहाजा, मेहनतकश मल्लाहों और मछुआरों के लिए तो यह समय चुटकी में बीत गया. लेकिन, खेलावन ने न केवल चार सावन और चार वसंत ही बल्कि, दिन, सप्ताह और महीने तक गिन-गिन कर बिताए. उस पर एक ही धुन सवार थी-- धिन्तारा को तलाश कर उससे जबरन शादी करना. सारे गाँव में उसकी थू-थू कराने के लिए वह उसे आजीवन अपनी दासी बनाकर ही चैन की साँस लेगा.यह संकल्प वह दिन भर में कम से कम सौ बार लेता. <br />
<br />
इस खुमार में खिलावन को होश कहाँ था? रोज उससे कोई न कोई अनापशनाप काम हो जाता.एक शाम जब रामजियावन और बुधराम मछली पकड़कर लौट रहे थे तो नाव पर ही उनमे मछली के बंटवारे को लेकर तू-तू, मै-मै हो गई. इतने सालों से दोनों साझे में एक ही नाव पर मछली पकड़ते रहे. लेकिन, किसी के हिस्से में एक-दो किलो मछली ज्यादा चली जाने पर कोई कुछ भी शिकायत नहीं करता था. किन्तु, आज दोनों के ग्रह-नक्षत्र ठीक नहीं थे. यूं भी, आज अमावस्या के चलते एक तो उफनती लहरों पर कोई वश नहीं चल रहा था; दूसरे, उनके मन में फितूर की बातें भी उमड़ रही थीं. गुस्से पर कोई काबू नहीं था. रामजियावन घुड़क रहा था कि "नाव हमारी है और जाल तुम्हारा. इसलिए, दो-तिहाई हिस्सा हमें चाहिए." दूसरी तरफ, बुधन ताव खा रहा था कि "तुमने तो नाव स्वर्गीय बब्बन से हड़पी है. बब्बन की मौत के बाद धिन्तारा वह नाव किराए पर चलवाती थी. पर, धिन्तारा के भाग जाने के बाद तुमने उसकी नाव पर हक़ जमा लिया है. सो, तुम्हारी न नाव है, न जाल. हाँ, हमारे साथ मछली पकड़ने में ठेडी मेहनत-मशक्कत ज़रूर की है. इसलिए, तुम्हे तिहाई हिस्सा ही मिलेगा."<br />
<br />
जब नाव बीच नदी में थी तो दोनों में कहासुनी, हाथापाई में तब्दील हो गई. खेवइया बगैर नाव हिचकोलें खा रही थी. किनारे पर उनकी राह अगोर रहा खिलावन उन्हें नाव में मारपीट करते देख, गुस्से में पागल हुआ जा रहा था. जब उसके बरदाश्त की सीमा पार हो गई तो उसने कुर्ता- पाजामा उतार कर नदी में छलांग लगा दी और नाव की ओर तेजी से लपक लिया.<br />
<br />
खिलावन के नाव में दस्तक देते ही, बुधन के हाथ-पाँव फूल गए--"बाप रे! भागो! बाप-बेटे दोनों ही टूट पड़े हैं." उसने मैदान छोड़ दिया. <br />
<br />
पर खिलावन का प्रतिशोध भी भभक रहा था. इसलिए, वह भी नदी में कूदकर बुधन का बेतहाशा पीछा करने लगा. छप्पन साल का अधबुढ़ा बुधनराम कब तक खैर मनाता? एक तो खिलावन का कोप; दूसरे, बीच मंझधार में लहरों का बढ़ता आतंक! एक ओर कुआँ तो दूसरी ओर खाई.</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5885धिन्तारा / मनोज श्रीवास्तव2011-11-02T09:59:02Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div>धिन्तारा के माई-बाप स्वर्ग सिधार गए तो क्या हुआ! सारा गाँव उसका है। वह जिस घर में चाहे, वहाँ जाकर रहे। लेकिन हमें यह मंजूर नहीं है कि वह शहर जाकर नौकरी करे। यह हमारे गाँव की इज़्ज़त का सवाल है...।<br />
धीमन केवट ने हाथ उठाकर अपना फैसला सुनाया। उत्तेजित भीड़ की गड़गड़ाती तालियों और कहकहों से सारा चौपाल गूँज उठा। सभी के मन की इच्छा जो पूरी हुई थी।<br />
<br />
<br />
तभी पंचों में से रामजियावन ने खुशी से कंधे उचकाते हुए सभी को शांत किया, "पंचों का निर्णय यह है कि आज से धिन्तारा इस गाँव से बाहर नहीं जाएगी, दूसरी जनानियों की तरह। अगर उसे अपनी तालीम के बेकार जाने का पछतावा है तो पंचों का हुकुम है कि वह गाँव के बच्चों को पढ़ाए। बदले में, हम उसे खाना-खर्चा देंगे। उसकी देखरेख करेंगे। हिफ़ाज़त करेंगे।"<br />
उनकी बातें सुनकर, धिन्तारा की नाक के ऊपर से पानी बहने लगा। चेहरे से लपटें निकलने लगीं। वह सभी बंदिशों को ठोकर मारकर एक अलग रास्ता चुनेगी। उसने न दुपट्टा सम्हाला, न ही बाल समेटे। बस, मुट्ठी भींचकर दौड़ पड़ी और चौपाल के बीच आ-खड़ी हुई। <br />
<br />
<br />
उसकी इस शोखी पर सभी ने दातों तले अंगुली दबा ली--"कितनी बज़्ज़ात औरत है!"<br />
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<br />
"यह सरासर नाइंसाफ़ी है। मेरे ऊपर ज़्यादती है। आप लोग मेरा भविष्य चौपट कर रहे हैं। आखिर, मैंने चूल्हा-चौका करने के लिए तो बी.ए. पास किया नहीं है। कितनी मेहनत के बाद, यह पुलिस इन्स्पेक्टरी की नौकरी मिली है? केवटाना गाँव की कोई लड़की पहली बार पढ़-लिखकर शहर जा रही है, नौकरी करने। आप मर्दों में तो कोई दमखम रहा नहीं। सारे के सारे अंगूठा-छाप हैं। चिट्ठी-पत्री तक तो पढ़ नहीं सकते। बस, पतवार लेकर नावों में सवार रहते हैं। मछली पकड़ने के जुगाड़ में, नदी में जाल डाले हुए, पालघर से झाँकते रहते हैं।<br />
<br />
<br />
उसका गुरूर से सिर झटकना सबके गले की हड्डी बन गया। बेशक! उसने केवटों और मछुआरों की सदियों पुरानी आजीविका की खिल्ली उड़ाई थी। उनकी ज़िंदगी को हिकारत से देखा था। ठिंगना दुक्खीराम तक आपे से बाहर हो उठा, "पंचों के फ़ैसले का छीछालेदर करने वाले को हम नहीं बख्शेंगे। इस दुधमुँही छोकरी की यह मजाल कि वह हमें सरेआम नंगा करे। इसने अपना लाज-शरम तो उसी दिन बेच दिया था, जिस दिन इसके बाप बब्बन ने इसे पढ़ने तहसील भेजा था। अच्छा हुआ, साला भरी जवानी में ही मर गया। नहीं तो, वह अपनी छोकरी को पढ़ाने-लिखाने के बहाने कोठे पर बैठाकर ही दम लेता। हरामज़ादी नौकरी करेगी, हमारी बिरादरी की औरतों की नाक कटाएगी। साली का झोंटा खींचकर चार लप्पड़ लगाओ, इसका दिमाग ठिकाने लग जाएगा।"<br />
<br />
खिलावन को दुक्खीराम की तैश बहुत भली लगी. धिन्तारा उसकी होने वाली लुगाई जो ठहरी. इसलिए उसके कोई ऊटपटांग करने पर गाँव वालों से पहले उसके आन पर आंच आएगी. खुद बब्बन ने उसके बाप रामजियावन से कह-सुनकर धिन्तारा के साथ उसका रिश्ता तय किया था--"रामजियावन, अगर हमारी मेहरारू ने लड़की पैदा किया तो ऊ तुम्हारी बहू बनेगी." सो, जिस दिन धिन्तारा पैदा हुई, उसी शाम बब्बन, रामजियावन ए घर जाकर सगुन भी कर आया था. तब, खिलावन भी हंसता-खेलता बच्चा था, कोई साढ़े चार साल का. <br />
<br />
खिलावन की आँखों में ये सारी घटनाएं ताजी थीं. सो, चौपाल में जिसका सबसे ज़्यादा खून उबल रहा था, वह खिलावन ही था. वह वहीं से दहाड़ उठा, "इ सुअरी, शहर जाएगी तो किसी कुजात से इशक लड़ाएगी और ब्याह रचाएगी. इससे हमारी जात पर लांछन आएगा. हम ठहरे खांटी केवट. हमारे ऊपर भगवान राम का आशीर्वाद है. सीता मैया का आशीर्वाद है. सो हमारा नाक कटाने से पहले ही, हम इसका गला रेत देंगे." <br />
<br />
चौपाल में जमा वहशी भीड़ खिलावन की बात सुनकर धिन्तारा को चुन-चुनकर गालियाँ देने लगी. जवान लौंडे गुस्से से बेकाबू हो रहे थे. खिड़कियाँ झांकती औरतें धिन्तारा के शेखी बघारने पर ताज्जुब कर रही थीं. सोच रहीं थी कि चलो, छाती तानकर वह रोज साइकिल से स्कूल जाती थी, हमने बरदाश्त कर लिया. लेकिन, यह तो हैरतअंगेज़ बात है कि वह सिपाही की वर्दी पहन, अपने जनाने अंग झुलाते, पुलिस की ट्रेनिंग लेने शहर जाए और ट्रेनिंग के बाद किसी अनजान चौराहे पर लाठी भांजती फिरे. <br />
<br />
उत्तेजना केवल पंचायत में ही नहीं थी, बल्कि पुराना गाँव का पारा चढ़ा हुआ था. धिन्तारा ने हरेक को ध्यान से देखा. सभी की आँखें जलती हुई तीलियाँ थीं. लेकिन, उसके मन की ज्वाला कहीं अधिक दाहक थी. वह बड़वानल की तरह भीतर-ही-भीतर झुलस रही थी. पहले वह चिंगारी की तरह चटख रही थी. पर, अब वह साबुत जल रही थी--क्रोध और प्रतिशोध में. चार साल पहले पिता की गोताखोरी करते समय डूबकर हुई मौत के बाद वह अनाथ हो गई थी. तब, वह बावली-सी इधर-उधर मंडराती थी. क्या कोई गांववाला उसकी मदद करने आया था? बल्कि, उसका तो जीना और भी दूभर हो गया था. जवान लड़की और वह भी एकदम अकेली. जैसे वहशी बाजों के जंगल में एक अकेली कबूतरी. कोई आगे न पीछे. आते-जाते छीटाकशियों का वार झेलना पड़ता था उसे. कई दफे तो रात को उसके आँगन में गाँव के ही मनचले बदमाश मर्द उतर जाते थे. पर, उसकी जांबाजी ने सभी के छक्के छुड़ा दिए. जनाने जिस्म में मर्दों वाली फुर्ती और ताकत थी. रंधावा को तो उसने बीच हाट में छठी का दूध याद दिलाया था. सभी गाँव वालों की आँखें नीची हो गई थीं. तब, कोई भी सामने नहीं आया, कामांध रंधावा को सबक सिखाने! न पंचायत बैठी, न ही चौपाल. वह गला फाड़-फाड़ चींखती-चिल्लाती रही लेकिन सभी अपने-अपने काम में मग्न हो गए--जैसे कुछ हुआ ही न हो.<br />
<br />
<br />
धिन्तारा तड़प रही थी. आखिर उसने कौन-सा गुनाह किया था की उसकी माँ उसे जानते ही भगवान् को प्यारी हो गई? माँ का ख्याल आते हीउसके होंठ घृणा से सिकुड़ गए. गाँव में यह अफवाह थी कि उसकी माँ के ठाकुर विक्रमसिंह से नाजायज ताल्लुकात थे और वह उसी का नतीजा है. तभी तो जब वह गलियों से गुजरती थी तो लोग फब्तियां कसते हैं. कानाफूसी करते हैं,"इस कुलच्छनी को देखो ,कैसे ठकुराइन-सरीखी ऐंठकर चल रही है? बब्बन तो नामर्द था. तभी तो उसकी लुगाई विक्रम ठाकुर के साथ गुलछर्रे उड़ाती फिरती थी."<br />
<br />
जब चौपाल में लोगों की जुबान से तानों के बारूद फट रहे थे, तभी ग्रामप्रधान धीमन केवट आवेश में कांपता हुआ खड़ा हुआ. वह धिन्तारा के गुस्ताखी को नहीं पहचान सका. खूनी डोरें उसकी आँखों में चमक रहे थे. <br />
<br />
"अब हमारा आख़िरी फैसला सुनो. धिन्तारा को उसके ही घर में कैद कर दो और एक हफ्ते के भीतर इसे खिलावन केवट की खूंटी में बाँध दो. तब तक इतना सख्त पहरा रखो कि यह इस गाँव से टस से मस न हो सके. "<br />
<br />
चौपाल उठने के काफी देर बाद तक धिन्तारा जड़वत खड़ी रही. जैसे कैदखाने की रिहाई की आस संजो रहे किसी कैदी को अचानक फांसी की सजा सुना दी गई हो. बदतमीज़ खिलावन की घिनौनी शक्ल उसके दिमाग में कौंध रही थी. उसने अपने होठ भींच कर संकल्प लिया--वह पंचायत के फैसले को कभी नहीं मानेगी. उसका दिमाग सरपट दौड़ रहा था--'क्या करे कि वह नकेल पड़ने से पहले ही भाग खड़ी हो और इन बर्बर लोगों के हाथ जीवनपर्यंत न आए?' उसकी गर्दन निश्चय के भाव से तन गई--'अंगूठाछाप खिलावन के हाथों तबाह होने से पहले ही वह निरंकुश पंचों के अन्यायपूर्ण आदेश पर पानी फेर देगी.'<br />
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धिन्तारा को उसके ही घर में नजरबन्द कर दिया गया. उसके घर के चारों ओर पहरुए तैनात कर दिए गए. गाँव का चप्पा-चप्पा संवेदनशील हो गया था. सारे गाँव वालों का अहं अट्टहास कर रहा था. खिलावन खुद गलियों से गुरूर से गुजरते हुए दरवाजे-दरवाजे अपनी शादी का न्योता दे रहा था. खास बात यह थी कि उसकी शादी के बंदोबस्त की जिम्मेदारी पंचायत के कंधो पर थी और गाँव के सभी बच्चे-बूढ़े इसमें शामिल होने वाले थे. आखिर पञ्च रामजियावन के बेटे की शादी थी और वह भी पंचायत के हस्तक्षेप से.<br />
<br />
<br />
इस दरमियान, धिन्तारा ने कोई बवाल नहीं खड़ा किया. वह दरवाजे पर खड़ी होकर पहरुओं से सामान्य लहजे में बातें करती और और अपनी शादी की चर्चा पर फिसकारी मारकर हंस देती. इस तरह वह यह संकेत देती की वह खिलावन के साथ अपनी होने वाली शादी से खुश है. पहरुए क्या, सभी गाँव वाले आश्वस्त हो गए की धिन्तारा ने पंचों के फैसले को सहर्ष स्वीकार कर लिया है. उसने परम्पराओं और प्रथाओं को स्वीकृति देकर गाँव के मान-सम्मान में वृद्धि की है इसलिए, पहरुए लापरवाह हो गए. उस पर चौकसी ढीली पड़ गई. <br />
<br />
लेकिन, ऐन शादी की शाम, जब केवटाना के ग्रामीण एक जश्न मनाने के जद्दोजहद में गाफिल-से हो रहे थे तो धिन्तारा की गैर-मौजूदगी ने सभी को झंकझोर दिया. वह सभी की आँखों में धूल झोंककर फरार हो गई थी. दरवाज़े पर खिलावन अपनी बारात लिए मुंह ताकता रह गया. जिस कोठारी से धिन्तारा सजने-संवरने कानाटक खेल रही थी, उसकी जर्जर खिड़की उखाड़कर वह गुम हो गई. बिल्कुल फिल्मी स्टोरी की नायिका की भाँति. <br />
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रामजियावन अपराध-बोध से पागल हो उठा और धिन्तारा पर निगरानी रखने वाले दो मर्दों की टांगें वहीं लाठी से ताबड़तोड़ चूर कर दी. खिलावन ने पूरे होश में ऐलान किया--"चाहे धिन्तारा पाताल में समा गई हो, मैं उसे ढूंढ कर ही दम लूंगा और ब्याह करूंगा तो केवल उसी से नहीं तो जीवन भर कुंवारा रहूँगा...."<br />
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केवटाना गाँव में मारपीट, हत्या, बलात्कार आदि जैसी घटनाएँ आए-दिन होती रहती थीं. लेकिन, ऐन खड़ी बारात वाली शाम को किसी लड़की का भाग जाना एकदम अजूबा लग रहा था. केवटाना गाँव के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. इसे याद करते ही केवटों के सीने पर सांप लोटने लगता. चुनांचे, धिन्तारा काण्ड का भी सुनते-सुनाते साधारणीकरण हो गया--गाँव में अक्सर घटने वाली सनसनीखेज घटनाओं की तरह. इसलिए, चार साल ऐसे गुजर गए, जैसे बंद मुट्ठी से बालू. इतने समय में तो जिन जवान लौंडों की शादी हुई थी, वे दो-दो बच्चों के बाप बन गए. और जो छोकरियाँ गड़हियों में गुल्ली-डंडा खेलती थीं, वे शादी लायक जबर-जवान हो गईं और मां-बाप की आँखों की किरकिरी बन गईं. लिहाजा, मेहनतकश मल्लाहों और मछुआरों के लिए तो यह समय चुटकी में बीत गया. लेकिन, खेलावन ने न केवल चार सावन और चार वसंत ही बल्कि, दिन, सप्ताह और महीने तक गिन-गिन कर बिताए. उस पर एक ही धुन सवार थी-- धिन्तारा को तलाश कर उससे जबरन शादी करना. सारे गाँव में उसकी थू-थू कराने के लिए वह उसे आजीवन अपनी दासी बनाकर ही चैन की साँस लेगा.यह संकल्प वह दिन भर में कम से कम सौ बार लेता. <br />
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इस खुमार में खिलावन को होश कहाँ था? रोज उससे कोई न कोई अनापशनाप काम हो जाता.एक शाम जब रामजियावन और बुधराम मछली पकड़कर लौट रहे थे तो नाव पर ही उनमे मछली के बंटवारे को लेकर तू-तू, मै-मै हो गई. इतने सालों से दोनों साझे में एक ही नाव पर मछली पकड़ते रहे. लेकिन, किसी के हिस्से में एक-दो किलो मछली ज्यादा चली जाने पर कोई कुछ भी शिकायत नहीं करता था. किन्तु, आज दोनों के ग्रह-नक्षत्र ठीक नहीं थे. यूं भी, आज अमावस्या के चलते एक तो उफनती लहरों पर कोई वश नहीं चल रहा था; दूसरे, उनके मन में फितूर की बातें भी उमड़ रही थीं. गुस्से पर कोई काबू नहीं था. रामजियावन घुड़क रहा था कि "नाव हमारी है और जाल तुम्हारा. इसलिए, दो-तिहाई हिस्सा हमें चाहिए." दूसरी तरफ, बुधन ताव खा रहा था कि "तुमने तो नाव स्वर्गीय बब्बन से हड़पी है. बब्बन की मौत के बाद धिन्तारा वह नाव किराए पर चलवाती थी. पर, धिन्तारा के भाग जाने के बाद तुमने उसकी नाव पर हक़ जमा लिया है. सो, तुम्हारी न नाव है, न जाल. हाँ, हमारे साथ मछली पकड़ने में ठेडी मेहनत-मशक्कत ज़रूर की है. इसलिए, तुम्हे तिहाई हिस्सा ही मिलेगा."</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5877धिन्तारा / मनोज श्रीवास्तव2011-10-14T17:34:06Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
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<div>धिन्तारा के माई-बाप स्वर्ग सिधार गए तो क्या हुआ! सारा गाँव उसका है। वह जिस घर में चाहे, वहाँ जाकर रहे। लेकिन हमें यह मंजूर नहीं है कि वह शहर जाकर नौकरी करे। यह हमारे गाँव की इज़्ज़त का सवाल है...।<br />
धीमन केवट ने हाथ उठाकर अपना फैसला सुनाया। उत्तेजित भीड़ की गड़गड़ाती तालियों और कहकहों से सारा चौपाल गूँज उठा। सभी के मन की इच्छा जो पूरी हुई थी।<br />
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तभी पंचों में से रामजियावन ने खुशी से कंधे उचकाते हुए सभी को शांत किया, "पंचों का निर्णय यह है कि आज से धिन्तारा इस गाँव से बाहर नहीं जाएगी, दूसरी जनानियों की तरह। अगर उसे अपनी तालीम के बेकार जाने का पछतावा है तो पंचों का हुकुम है कि वह गाँव के बच्चों को पढ़ाए। बदले में, हम उसे खाना-खर्चा देंगे। उसकी देखरेख करेंगे। हिफ़ाज़त करेंगे।"<br />
उनकी बातें सुनकर, धिन्तारा की नाक के ऊपर से पानी बहने लगा। चेहरे से लपटें निकलने लगीं। वह सभी बंदिशों को ठोकर मारकर एक अलग रास्ता चुनेगी। उसने न दुपट्टा सम्हाला, न ही बाल समेटे। बस, मुट्ठी भींचकर दौड़ पड़ी और चौपाल के बीच आ-खड़ी हुई। <br />
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उसकी इस शोखी पर सभी ने दातों तले अंगुली दबा ली--"कितनी बज़्ज़ात औरत है!"<br />
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"यह सरासर नाइंसाफ़ी है। मेरे ऊपर ज़्यादती है। आप लोग मेरा भविष्य चौपट कर रहे हैं। आखिर, मैंने चूल्हा-चौका करने के लिए तो बी.ए. पास किया नहीं है। कितनी मेहनत के बाद, यह पुलिस इन्स्पेक्टरी की नौकरी मिली है? केवटाना गाँव की कोई लड़की पहली बार पढ़-लिखकर शहर जा रही है, नौकरी करने। आप मर्दों में तो कोई दमखम रहा नहीं। सारे के सारे अंगूठा-छाप हैं। चिट्ठी-पत्री तक तो पढ़ नहीं सकते। बस, पतवार लेकर नावों में सवार रहते हैं। मछली पकड़ने के जुगाड़ में, नदी में जाल डाले हुए, पालघर से झाँकते रहते हैं।<br />
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उसका गुरूर से सिर झटकना सबके गले की हड्डी बन गया। बेशक! उसने केवटों और मछुआरों की सदियों पुरानी आजीविका की खिल्ली उड़ाई थी। उनकी ज़िंदगी को हिकारत से देखा था। ठिंगना दुक्खीराम तक आपे से बाहर हो उठा, "पंचों के फ़ैसले का छीछालेदर करने वाले को हम नहीं बख्शेंगे। इस दुधमुँही छोकरी की यह मजाल कि वह हमें सरेआम नंगा करे। इसने अपना लाज-शरम तो उसी दिन बेच दिया था, जिस दिन इसके बाप बब्बन ने इसे पढ़ने तहसील भेजा था। अच्छा हुआ, साला भरी जवानी में ही मर गया। नहीं तो, वह अपनी छोकरी को पढ़ाने-लिखाने के बहाने कोठे पर बैठाकर ही दम लेता। हरामज़ादी नौकरी करेगी, हमारी बिरादरी की औरतों की नाक कटाएगी। साली का झोंटा खींचकर चार लप्पड़ लगाओ, इसका दिमाग ठिकाने लग जाएगा।"<br />
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खिलावन को दुक्खीराम की तैश बहुत भली लगी. धिन्तारा उसकी होने वाली लुगाई जो ठहरी. इसलिए उसके कोई ऊटपटांग करने पर गाँव वालों से पहले उसके आन पर आंच आएगी. खुद बब्बन ने उसके बाप रामजियावन से कह-सुनकर धिन्तारा के साथ उसका रिश्ता तय किया था--"रामजियावन, अगर हमारी मेहरारू ने लड़की पैदा किया तो ऊ तुम्हारी बहू बनेगी." सो, जिस दिन धिन्तारा पैदा हुई, उसी शाम बब्बन, रामजियावन ए घर जाकर सगुन भी कर आया था. तब, खिलावन भी हंसता-खेलता बच्चा था, कोई साढ़े चार साल का. <br />
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खिलावन की आँखों में ये सारी घटनाएं ताजी थीं. सो, चौपाल में जिसका सबसे ज़्यादा खून उबल रहा था, वह खिलावन ही था. वह वहीं से दहाड़ उठा, "इ सुअरी, शहर जाएगी तो किसी कुजात से इशक लड़ाएगी और ब्याह रचाएगी. इससे हमारी जात पर लांछन आएगा. हम ठहरे खांटी केवट. हमारे ऊपर भगवान राम का आशीर्वाद है. सीता मैया का आशीर्वाद है. सो हमारा नाक कटाने से पहले ही, हम इसका गला रेत देंगे." <br />
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चौपाल में जमा वहशी भीड़ खिलावन की बात सुनकर धिन्तारा को चुन-चुनकर गालियाँ देने लगी. जवान लौंडे गुस्से से बेकाबू हो रहे थे. खिड़कियाँ झांकती औरतें धिन्तारा के शेखी बघारने पर ताज्जुब कर रही थीं. सोच रहीं थी कि चलो, छाती तानकर वह रोज साइकिल से स्कूल जाती थी, हमने बरदाश्त कर लिया. लेकिन, यह तो हैरतअंगेज़ बात है कि वह सिपाही की वर्दी पहन, अपने जनाने अंग झुलाते, पुलिस की ट्रेनिंग लेने शहर जाए और ट्रेनिंग के बाद किसी अनजान चौराहे पर लाठी भांजती फिरे. <br />
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उत्तेजना केवल पंचायत में ही नहीं थी, बल्कि पुराना गाँव का पारा चढ़ा हुआ था. धिन्तारा ने हरेक को ध्यान से देखा. सभी की आँखें जलती हुई तीलियाँ थीं. लेकिन, उसके मन की ज्वाला कहीं अधिक दाहक थी. वह बड़वानल की तरह भीतर-ही-भीतर झुलस रही थी. पहले वह चिंगारी की तरह चटख रही थी. पर, अब वह साबुत जल रही थी--क्रोध और प्रतिशोध में. चार साल पहले पिता की गोताखोरी करते समय डूबकर हुई मौत के बाद वह अनाथ हो गई थी. तब, वह बावली-सी इधर-उधर मंडराती थी. क्या कोई गांववाला उसकी मदद करने आया था? बल्कि, उसका तो जीना और भी दूभर हो गया था. जवान लड़की और वह भी एकदम अकेली. जैसे वहशी बाजों के जंगल में एक अकेली कबूतरी. कोई आगे न पीछे. आते-जाते छीटाकशियों का वार झेलना पड़ता था उसे. कई दफे तो रात को उसके आँगन में गाँव के ही मनचले बदमाश मर्द उतर जाते थे. पर, उसकी जांबाजी ने सभी के छक्के छुड़ा दिए. जनाने जिस्म में मर्दों वाली फुर्ती और ताकत थी. रंधावा को तो उसने बीच हाट में छठी का दूध याद दिलाया था. सभी गाँव वालों की आँखें नीची हो गई थीं. तब, कोई भी सामने नहीं आया, कामांध रंधावा को सबक सिखाने! न पंचायत बैठी, न ही चौपाल. वह गला फाड़-फाड़ चींखती-चिल्लाती रही लेकिन सभी अपने-अपने काम में मग्न हो गए--जैसे कुछ हुआ ही न हो.</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5876धिन्तारा / मनोज श्रीवास्तव2011-10-14T16:51:50Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div>धिन्तारा के माई-बाप स्वर्ग सिधार गए तो क्या हुआ! सारा गाँव उसका है। वह जिस घर में चाहे, वहाँ जाकर रहे। लेकिन हमें यह मंजूर नहीं है कि वह शहर जाकर नौकरी करे। यह हमारे गाँव की इज़्ज़त का सवाल है...।<br />
धीमन केवट ने हाथ उठाकर अपना फैसला सुनाया। उत्तेजित भीड़ की गड़गड़ाती तालियों और कहकहों से सारा चौपाल गूँज उठा। सभी के मन की इच्छा जो पूरी हुई थी।<br />
<br />
<br />
तभी पंचों में से रामजियावन ने खुशी से कंधे उचकाते हुए सभी को शांत किया, "पंचों का निर्णय यह है कि आज से धिन्तारा इस गाँव से बाहर नहीं जाएगी, दूसरी जनानियों की तरह। अगर उसे अपनी तालीम के बेकार जाने का पछतावा है तो पंचों का हुकुम है कि वह गाँव के बच्चों को पढ़ाए। बदले में, हम उसे खाना-खर्चा देंगे। उसकी देखरेख करेंगे। हिफ़ाज़त करेंगे।"<br />
उनकी बातें सुनकर, धिन्तारा की नाक के ऊपर से पानी बहने लगा। चेहरे से लपटें निकलने लगीं। वह सभी बंदिशों को ठोकर मारकर एक अलग रास्ता चुनेगी। उसने न दुपट्टा सम्हाला, न ही बाल समेटे। बस, मुट्ठी भींचकर दौड़ पड़ी और चौपाल के बीच आ-खड़ी हुई। <br />
<br />
<br />
उसकी इस शोखी पर सभी ने दातों तले अंगुली दबा ली--"कितनी बज़्ज़ात औरत है!"<br />
<br />
<br />
"यह सरासर नाइंसाफ़ी है। मेरे ऊपर ज़्यादती है। आप लोग मेरा भविष्य चौपट कर रहे हैं। आखिर, मैंने चूल्हा-चौका करने के लिए तो बी.ए. पास किया नहीं है। कितनी मेहनत के बाद, यह पुलिस इन्स्पेक्टरी की नौकरी मिली है? केवटाना गाँव की कोई लड़की पहली बार पढ़-लिखकर शहर जा रही है, नौकरी करने। आप मर्दों में तो कोई दमखम रहा नहीं। सारे के सारे अंगूठा-छाप हैं। चिट्ठी-पत्री तक तो पढ़ नहीं सकते। बस, पतवार लेकर नावों में सवार रहते हैं। मछली पकड़ने के जुगाड़ में, नदी में जाल डाले हुए, पालघर से झाँकते रहते हैं।<br />
<br />
<br />
उसका गुरूर से सिर झटकना सबके गले की हड्डी बन गया। बेशक! उसने केवटों और मछुआरों की सदियों पुरानी आजीविका की खिल्ली उड़ाई थी। उनकी ज़िंदगी को हिकारत से देखा था। ठिंगना दुक्खीराम तक आपे से बाहर हो उठा, "पंचों के फ़ैसले का छीछालेदर करने वाले को हम नहीं बख्शेंगे। इस दुधमुँही छोकरी की यह मजाल कि वह हमें सरेआम नंगा करे। इसने अपना लाज-शरम तो उसी दिन बेच दिया था, जिस दिन इसके बाप बब्बन ने इसे पढ़ने तहसील भेजा था। अच्छा हुआ, साला भरी जवानी में ही मर गया। नहीं तो, वह अपनी छोकरी को पढ़ाने-लिखाने के बहाने कोठे पर बैठाकर ही दम लेता। हरामज़ादी नौकरी करेगी, हमारी बिरादरी की औरतों की नाक कटाएगी। साली का झोंटा खींचकर चार लप्पड़ लगाओ, इसका दिमाग ठिकाने लग जाएगा।"<br />
<br />
खिलावन को दुक्खीराम की तैश बहुत भली लगी. धिन्तारा उसकी होने वाली लुगाई जो ठहरी. इसलिए उसके कोई ऊटपटांग करने पर गाँव वालों से पहले उसके आन पर आंच आएगी. खुद बब्बन ने उसके बाप रामजियावन से कह-सुनकर धिन्तारा के साथ उसका रिश्ता तय किया था--"रामजियावन, अगर हमारी मेहरारू ने लड़की पैदा किया तो ऊ तुम्हारी बहू बनेगी." सो, जिस दिन धिन्तारा पैदा हुई, उसी शाम बब्बन, रामजियावन ए घर जाकर सगुन भी कर आया था. तब, खिलावन भी हंसता-खेलता बच्चा था, कोई साढ़े चार साल का. <br />
<br />
खिलावन की आँखों में ये सारी घटनाएं ताजी थीं. सो, चौपाल में जिसका सबसे ज़्यादा खून उबल रहा था, वह खिलावन ही था.</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5862धिन्तारा / मनोज श्रीवास्तव2011-10-04T10:42:23Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div>धिन्तारा के माई-बाप स्वर्ग सिधार गए तो क्या हुआ! सारा गाँव उसका है। वह जिस घर में चाहे, वहाँ जाकर रहे। लेकिन हमें यह मंजूर नहीं है कि वह शहर जाकर नौकरी करे। यह हमारे गाँव की इज़्ज़त का सवाल है...।<br />
धीमन केवट ने हाथ उठाकर अपना फैसला सुनाया। उत्तेजित भीड़ की गड़गड़ाती तालियों और कहकहों से सारा चौपाल गूँज उठा। सभी के मन की इच्छा जो पूरी हुई थी।<br />
<br />
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तभी पंचों में से रामजियावन ने खुशी से कंधे उचकाते हुए सभी को शांत किया, "पंचों का निर्णय यह है कि आज से धिन्तारा इस गाँव से बाहर नहीं जाएगी, दूसरी जनानियों की तरह। अगर उसे अपनी तालीम के बेकार जाने का पछतावा है तो पंचों का हुकुम है कि वह गाँव के बच्चों को पढ़ाए। बदले में, हम उसे खाना-खर्चा देंगे। उसकी देखरेख करेंगे। हिफ़ाज़त करेंगे।"<br />
उनकी बातें सुनकर, धिन्तारा की नाक के ऊपर से पानी बहने लगा। चेहरे से लपटें निकलने लगीं। वह सभी बंदिशों को ठोकर मारकर एक अलग रास्ता चुनेगी। उसने न दुपट्टा सम्हाला, न ही बाल समेटे। बस, मुट्ठी भींचकर दौड़ पड़ी और चौपाल के बीच आ-खड़ी हुई। <br />
<br />
<br />
उसकी इस शोखी पर सभी ने दातों तले अंगुली दबा ली--"कितनी बज़्ज़ात औरत है!"<br />
<br />
<br />
"यह सरासर नाइंसाफ़ी है। मेरे ऊपर ज़्यादती है। आप लोग मेरा भविष्य चौपट कर रहे हैं। आखिर, मैंने चूल्हा-चौका करने के लिए तो बी.ए. पास किया नहीं है। कितनी मेहनत के बाद, यह पुलिस इन्स्पेक्टरी की नौकरी मिली है? केवटाना गाँव की कोई लड़की पहली बार पढ़-लिखकर शहर जा रही है, नौकरी करने। आप मर्दों में तो कोई दमखम रहा नहीं। सारे के सारे अंगूठा-छाप हैं। चिट्ठी-पत्री तक तो पढ़ नहीं सकते। बस, पतवार लेकर नावों में सवार रहते हैं। मछली पकड़ने के जुगाड़ में, नदी में जाल डाले हुए, पालघर से झाँकते रहते हैं।<br />
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उसका गुरूर से सिर झटकना सबके गले की हड्डी बन गया। बेशक! उसने केवटों और मछुआरों की सदियों पुरानी आजीविका की खिल्ली उड़ाई थी। उनकी ज़िंदगी को हिकारत से देखा था। ठिंगना दुक्खीराम तक आपे से बाहर हो उठा, "पंचों के फ़ैसले का छीछालेदर करने वाले को हम नहीं बख्शेंगे। इस दुधमुँही छोकरी की यह मजाल कि वह हमें सरेआम नंगा करे। इसने अपना लाज-शरम तो उसी दिन बेच दिया था, जिस दिन इसके बाप बब्बन ने इसे पढ़ने तहसील भेजा था। अच्छा हुआ, साला भरी जवानी में ही मर गया। नहीं तो, वह अपनी छोकरी को पढ़ाने-लिखाने के बहाने कोठे पर बैठाकर ही दम लेता। हरामज़ादी नौकरी करेगी, हमारी बिरादरी की औरतों की नाक कटाएगी। साली का झोंटा खींचकर चार लप्पड़ लगाओ, इसका दिमाग ठिकाने लग जाएगा।"</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5861धिन्तारा / मनोज श्रीवास्तव2011-10-04T10:32:16Z<p>Dr. Manoj Srivastav: ' धिन्तारा के माई-बाप स्वर्ग सिधार गए तो क्या हुआ! सार...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
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<div><br />
धिन्तारा के माई-बाप स्वर्ग सिधार गए तो क्या हुआ! सारा गाँव उसका है। वह जिस घर में चाहे, वहाँ जाकर रहे। लेकिन हमें यह मंजूर नहीं है कि वह शहर जाकर नौकरी करे। यह हमारे गाँव की इज़्ज़त का सवाल है...।<br />
धीमन केवट ने हाथ उठाकर अपना फैसला सुनाया। उत्तेजित भीड़ की गड़गड़ाती तालियों और कहकहों से सारा चौपाल गूँज उठा। सभी के मन की इच्छा जो पूरी हुई थी।<br />
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तभी पंचों में से रामजियावन ने खुशी से कंधे उचकाते हुए सभी को शांत किया, "पंचों का निर्णय यह है कि आज से धिन्तारा इस गाँव से बाहर नहीं जाएगी, दूसरी जनानियों की तरह। अगर उसे अपनी तालीम के बेकार जाने का पछतावा है तो पंचों का हुकुम है कि वह गाँव के बच्चों को पढ़ाए। बदले में, हम उसे खाना-खर्चा देंगे। उसकी देखरेख करेंगे। हिफ़ाज़त करेंगे।"<br />
उनकी बातें सुनकर, धिन्तारा की नाक के ऊपर से पानी बहने लगा। चेहरे से लपटें निकलने लगीं। वह सभी बंदिशों को ठोकर मारकर एक अलग रास्ता चुनेगी। उसने न दुपट्टा सम्हाला, न ही बाल समेटे। बस, मुट्ठी भींचकर दौड़ पड़ी और चौपाल के बीच आ-खड़ी हुई। <br />
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उसकी इस शोखी पर सभी ने दातों तले अंगुली दबा ली--"कितनी बज़्ज़ात औरत है!"<br />
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"यह सरासर नाइंसाफ़ी है। मेरे ऊपर ज़्यादती है। आप लोग मेरा भविष्य चौपट कर रहे हैं। आखिर, मैंने चूल्हा-चौका करने के लिए तो बी.ए. पास किया नहीं है। कितनी मेहनत के बाद, यह पुलिस इन्स्पेक्टरी की नौकरी मिली है? केवटाना गाँव की कोई लड़की पहली बार पढ़-लिखकर शहर जा रही है, नौकरी करने। आप मर्दों में तो कोई दमखम रहा नहीं। सारे के सारे अंगूठा-छाप हैं। चिट्ठी-पत्री तक तो पढ़ नहीं सकते। बस, पतवार लेकर नावों में सवार रहते हैं। मछली पकड़ने के जुगाड़ में, नदी में जाल डाले हुए, पालघर से झाँकते रहते हैं।</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0&diff=5860मनोज मोक्षेन्द्र2011-10-04T10:05:52Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र= <br />
|नाम=मनोज श्रीवास्तव<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=--<br />
|जन्मस्थान= <br />
|कृतियाँ=धर्मचक्र और राजचक्र, पगली का इंक़लाब (दो कहानी-संग्रह)<br />
|विविध= --<br />
|जीवनी=[[मनोज श्रीवास्तव / परिचय]]<br />
}}<br />
'''कहानियाँ'''<br />
* [[धत ! दकियानूस नहीं हूँ / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[मादरे वतन वापसी के बाद / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[अरे ओ बुड़भक बंभना / मनोज श्रीवास्तव]] <br />
* [[नया ठाकुर / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[गुल्ली डंडा और सियासतदारी / मनोज श्रीवास्तव]] <br />
* [[डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[धिन्तारा/ मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[इस्माइल रिक्शावाला एम.ए. पास / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[परबतिया / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[चरित्र प्रमाण-पत्र / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[प्रेम पचीसी / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[गोरखधंधा / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[यार, डरती क्यों हो? / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[धर्मचक्र, राजचक्र / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[पगली का इन्कलाब / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[प्रेमदंश / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[बकरा / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[कबूतर की फड़फड़ाहट / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[कन्नी और देवा / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[सियासत की बाढ़ / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[भूख का पुनर्जन्म / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[भगजी बगैर कां नहीं चलता / मनोज श्रीवास्तव]]<br />
* [[बी-टेक टिफिन चोर / मनोज श्रीवास्तव]]</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A8%E0%A4%AF%E0%A4%BE_%E0%A4%A0%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%B0_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5281नया ठाकुर / मनोज श्रीवास्तव2011-03-31T09:00:22Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div>सुबह के आठ बजते-बजते सूरज भड़भूजे की भट्ठी की तरह दहकने लगा था. वह पूरा जोर लगाकर लगभग भागते हुए, पीछा कर रहे सूरज के लहकते गोले की लपट से अपना पिंड छुड़ाने के लिए जी-तोड़ कोशिश कर रही थी. रेलवे स्टेशन से मड़इया गाँव तक अपने नाज़ुक सिर पर पसेरी भर की गठरी लादे हुए कोई डेढ़ घंटे तक की पैदल यात्रा के बाद जब उसने जग्गन कुंवर के घर में कदम रखा तब जाकर उसकी सांस में सांस आई. लेकिन, तभी उसे अपनी सांस टूटती हुई-सी लगी. आँखों में झांई पड़ने लगी. दरअसल, एक तो थकान, दूसरे कई घंटों से लगी असह्य प्यास के कारण उसके गले में बबूल के कांटें की तरह चुभन महसूस हो रही थी. उसने जग्गन से टूटती हुई आवाज़ में कहा, "ताऊ! पानी, पानी, पानी..."<br />
<br />
लेकिन, इसके पहले कि जग्गन, उसे घुदकते हुए फिर मारने को हाथ उठाता, "हम तेरा ताऊ नहीं, तेरा मनसेधू हूँ," झुमका उसकी बात अनसुनी करते हुए वहीं जमीन पर निढाल गिराकर अचेत हो गयी. <br />
<br />
जग्गन घबड़ा-सा गया. उसने पहले चितेरा महतो को जोर-जोर से आवाज़ लगाई. जब तक सत्रह साल का गबरू चितेरा वहां आता, वह वहीं अपना माथा पकड़ कर बैठ गया कि अगर झुमका कुछ हो गया तो उसका हजारों का घाटा हो जाएगा. उसने गमछे से अपने माथे का पसीना पोंछा और फिर उसी गमछे को कई बार चपतकर झुमका के सिर के नीचे लगा दिया. फिर, उसने हड़बड़ाकर झुमका को हिलाया-दुलाया, यह सोचते हुए कि कहीं वह तेज घमसी और प्यास के कारण मूर्छा तो नहीं खा गई है. लेकिन, वह मुश्किल से अपनी आँखों पर से आधी पलकें ई हटा पा रही थी. मतलब यह कि थोड़ी-थोड़ी ही होश में थी. जग्गन ने पहले तो उसके चेहरे पर पानी के छींटे मारे और लोटाभर पानी उसके गले में उड़ेल दिया.</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A4%B2_%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%9F%E0%A4%AE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5280डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव2011-03-29T09:36:36Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div>'''(मूर्धन्य साहित्यकार विद्यानिवास मिश्र द्वारा संपादित पत्रिका 'साहित्य अमृत' में प्रकाशित)'''<br />
<br />
'''डिस्पोजेबल आइटम'''<br />
<br />
डैड की बीमारी पर किसे खुंदक नहीं थी? उन खबीस को भी ऐसी लाइलाज बीमारी तभी लगनी थी जबकि इतना दिलचस्प क्रिकेट मैच चल रहा था! वह मैच भी कोई मामूली मैच नहीं था. वर्ल्ड कप का मैच था. भारत और पाकिस्तान के बीच सीधा मुकाबला था. इसलिए, मेरा घर ही क्या, सारा मोहल्ला क्रिकेटमय था. मोहल्ले से निकलकर सड़क पर आने के बाद चाहे किसी बस की सवारी की जाए या बाजार में चहलक़दमी की जाए, क्रिकेट की चर्चा हर जुबान पर थी. चाय-पान की गुमटियों से लेकर शहर के चप्पे-चप्पे पर लोगबाग इस वर्ल्डकप को लेकर बहसा-बहसी में जमे हुए थे. मेरे आफिस में भी इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर गलाफोड़ तकरार जारी था. कभी-कभार यह तकरार झगड़ा-फसाद का भी रूप ले लेता था. मेरे आफिस वाले ही क्या, दूसरे कार्यालयों के अधिकारी-कर्मचारी भी छुट्टियां लेकर अपने-अपने घरों में टी० वी० सेटों के आगे वर्ल्ड कप के मैचों का सीधा प्रसारण देखने में जमे हुए थे. ऐसे में ऐसा लगता था कि जैसे सारी दुनिया को क्रिकेट के सिवाय कोई और काम नहीं है. बेशक! मेरा घर भी इस टूर्नामेंट का लुत्फ़ उठाने में जुटा हुआ था--घर के सारे कामकाज को ताक पर रखकर. यहाँ तक कि लोगबाग ने खुद को शौच, स्नान आदि को भी गैर-ज़रूरी समझ, चाय-नाश्ता, खाने-पीने तक ही सीमित कर रखा था. हमें तो यह भी चिंता नहीं थी कि घर में बीमार डैडी की तीमारदारी में सभी को जुट जाना चाहिए ताकि वह ज़ल्दी से भले-चंगे होकर किसी अनिष्ट की आशंका से हमें मुक्त कर दें! घरेलू डाक्टर अष्ठाना ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि अगर उन्हें वक़्त पर दवाइयां नहीं दी गईं और उनकी हालत पर खास निगरानी नहीं रखी गई तो उनकी बीमारी जानलेवा भी हो सकती है. <br />
<br />
शायद, डैडी रोमांचक क्रिकेट का परवान चढ़ते जा रहे थे. यों तो, उन्हें भी क्रिकेट मैचों में बेइन्तेहाँ दिलचस्पी रही है; लेकिन, इस बीमारी के कारण उन्हें वर्ल्ड कप मैचों का मजा न ले पाने की भीतर ही भीतर बेहद कसक होगी, जिसे वे व्यक्त नहीं कर पा रहे होंगे. आखिर, उनके जीर्ण-शीर्ण शरीर में मैचों का आनंद लेने का दमखम कहाँ रहा? <br />
<br />
भारत के फ़ाइनल में पहुंचते ही सभी ने अपनी दिनचर्या को भी किनारे कर दिया. रात को डैडी की देखभाल के लिए किसी को भी अपनी नींद हराम करना गवांरा नहीं था. उधर डैडी कराहते रहते और इधर हम गहरे नींद में खर्राटे भर रहे होते. कई बार तो वह पानी-पानी की रट लगाते रहते; पर, कोई उठने का नाम तक नहीं लेता. ऐसे वक़्त में मम्मी की ज़िम्मेदारी बनती थी कि वह उनके दुःख-दर्द में हाथ बंटाने के लिए उनके सामने मौजूद रहतीं. हमें भी संतोष होता! क्योंकि हमें उनकी सेवा करने की नैतिक दुविधा से मुक्ति मिल जाती--'चलो! हमें डैडी की सेवा करने न करने में धर्म-संकट में फ़िज़ूल नहीं पड़ना पड़ा.'<br />
<br />
जब वर्ल्ड कप की सनसनीखेज़ पारियां रात को शुरू हुईं तो हम सभी की आँखों से नींद ऐसे गायब हो गई जैसे गधे के सिर से सींग. डैडी के बेडरूम में जो ब्लैक एंड व्हाइट टी० वी० लगी हुई महीनों से सीलन खा रही थी (क्योंकि उन्होंने बीमारी के कारण काफी समय से टी०वी० देखना बंद कर दिया था), उसे मेरी बहन हेमा अपने कमरे में उठा ले गयी थी ताकि वह अकेले में मैचों का बेखट मजा ले सके. हमने भी टी०वी० पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित करने के साथ-साथ कानोप्न से मिनी ट्रांजिस्टर चिपका रहा था. <br />
<br />
यह स्थिति और भी भयावह थी. अगर रात को दवा-दारू के अभाव में डैडी के प्राण भी निकल जाते तो उसकी खबर सवेरे ही मिलाती. क्योंकि देर रात तक मैच के ख़त्म होने के बाद हम तत्काल बिस्तरों पर सो जाते थे और सुबह हमारी नींद तब खुलती थी जबकि महरी या ग्वाला दरवाज़ा खटखटाते थे. <br />
<br />
दो दिनों से मैं भी आफिस नहीं जा रहा था. जब तक लीग मैच होते रहे, मैंने आफिस में पाकिट ट्रांजिस्टर से ही काम चलाया. बीच-बीच में अपनी पत्नी सुधा को घर पर फोन करके मैच के बारे में ताजा स्थिति की जानकारी लेकर ही संतोष कर लेता! लेकिन, जब भारत ने साउथ अफ्रीका को सेमी फाइनल में पीटकर फाइनल में प्रवेश पा लिया तो मैंने अपने जूनियर को सेक्शन का चार्ज सौंप कर छुट्टी मार ली. मेरे खाते में छुट्टियों का हमेशा अभाव रहा है जिसके चलते डैडी की हालत बेहद गंभीर होने के बावजूद मैं उन्हें खुद कई बार डाक्टर के पास नहीं ले जा सका और उन्हें ड्राइवर के भरोसे छोड़ कर अपनी ड्यूटी पर निकल पड़ा. <br />
<br />
उस दिन फाइनल में पहुँचने के लिए सेमी फ़ाइनल का मुकाबला पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया के बीच था. सारा देश पाकिस्तान के हारने की उम्मीद लगाए बैठा था क्योंकि लोगों को यकीन था कि अगर फाइनल में भारत का सामना पाकिस्तान से हुआ तो उसके जीतने की आशा धूमिल पड़ जाएगी. मेरे घर में भी सभी, सब कुछ छोड़कर यह प्रार्थना करने में जुटे हुए थे कि काश! पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया के हाथों चारों खाना चित्त हो जाता. <br />
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पता नहीं क्यों? पाकिस्तान के खिलाफ खेलते हुए न केवल हमारे खिलाड़ियों का मनोबल आधा हो जाता है, बल्कि हम भी अपनी हार माँ बैठते हैं. <br />
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सुबह जब मम्मी नहा-धोकर रोज़ की तरह मंदिर को दर्शन करने निकलीं तो हम सोच रहे थे कि वह मंदिर में जाकर ईश्वर से डैड के रोगमुक्त होने के लिए प्रार्थनाएं करेंगी. लेकिन, मंदिर से वापस आते ही वह मरीजखाने में डैड के पास जाने के बजाए सीधे ड्राइंग रूम में तशरीफ़ लाईन जहां भाईसाहब और मेरे बीच इस बाबत जोरदार बहस छिड़ी हुई थी कि सेमी फाइनल में कौन जीतेगा--पाकिस्तान या आस्ट्रेलिया. भाईसाहब तो पाकिस्तान द्वारा सेमी फाइनल में पूर्व वर्ल्ड कप चैम्पियन--आस्ट्रेलिया को शिकस्त दिए जाने के पक्ष में दनादन तर्क दिए जा रहे थे जबकि मेरे द्वारा आस्ट्रेलिया को जिताने के लिए दी जाने वाली सारी दलीलें हल्की पड़ती जा रही थीं. <br />
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बेशक! उस वाक् युद्ध में मैं अपनी हार से बेहद मायूस होता जा रहा था. वहां मौजूद मेरी पत्नी सुधा को भी इससे बड़ा कोफ़्त हो रहा था. मुझे उसके सामने अपनी मात से और भी ज़्यादा आत्मग्लानि हो रही थी. वह भी चाहती थी कि भले ही पाकिस्तान क्रिकेट के मैदान में आस्ट्रेलिया को धूल चटा दे, लेकिन भाईसाहब से तर्क-कुतर्क में मैं मात न खाऊँ. बहरहाल, मुझे अपनी बहन--हेमा पर अत्यंत क्रोध आ रहा था जो बिलावज़ह भाईसाहब का पक्ष ले रही थी और वह भी बड़ी चुटकियाँ ले-लेकर. उसकी व्यंग्य-मुस्कान से यह साफ ज़ाहिर हो रहा था कि वह मुझे चिढ़ाना ज़्यादा चाह रही है और पाकिस्तान को जिताना कम. अन्यथा, वह छोटी बहन होने के बावजूद, भाई साहब को आदतन यह सबक देने की गुस्ताखी तो जरूर करती कि 'भैया, क्रिकेट जैसे पेंचीदे विषय से आपका क्या लेना-देना? जाइए, आप किसी मुकदमे की गुत्थी तलाशिए. वकालत के पेशे वालों को क्रिकेट में कतई दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए.'<br />
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लिहाजा, मुझे यह सोचकर बड़ा सुकून मिला कि चलो, कम से कम मेरे घर में एक तो ऐसा बन्दा है जो क्रिकेट को गंभीरतापूर्वक न लेकर मजाकिया लहजे में ले रहा है. मैं भी इस विश्व कप में भले ही दिलचस्पी ले रहा था, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर मैं क्रिकेट जैसे खेल का आलोचक रहा हूँ. क्योंकि जब कोई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच होता है तो सारे देश की हालत नाबदान में ठहरे हुए पानी जैसी हो जाती है. घर, खेत-खलिहानों, कल-कारखानों, दफ्तरों आदि में सारी गतिविधियाँ ठप्प पड़ जाती हैं. सोचिए, जितने दिन क्रिकेट मैच होता है, देश की कितनी श्रम-ऊर्जा निष्क्रिय होकर व्यर्थ जाती होगी! कितना आर्थिक नुकसान होता होगा!<br />
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बहरहाल, मम्मी के आते ही बहसा-बहसी की फिजां ही बदल गई. सारा पासा ही पलट गया. मंदिर से आने के बाद उनकी बातों में बड़ा दम आ गया था. आखिर, उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ ईश्वर से जो मन्नतें मानी थी, वे व्यर्थ थोड़े ही जाने वाली थी. सो, जब पाकिस्तान भाई साहब को आड़े हाथन लिया तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. उस पल, ऐसा लगा कि जैसे आस्ट्रेलिया के हाथों पाकिस्तान का हारना तय है.<br />
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उस रात, हमने यह निश्चय किया कि हम सब दालान में बैठकर टी.वी. देखेंगे और पाकिस्तान को हारते हुए देखने का असली मज़ा लेंगे. सुधा ने वहीं एक टेबल पर स्टोव, केतली और चाय बनाने का सारा सामान भी जमा कर दिया था ताकि बीच-बीच में चाय पीते हुए मैच देखने का असली लुत्फ़ उठाया जाए. भाई साहब ने पाकिस्तान की जीत को सेलीब्रेट करने के लिए पटाखे छोड़ने का इंतजाम पहले से कर लिया था. मैंने आस्ट्रेलिया की जीत के उपलक्ष्य में ऐसा कुछ भी न करने का इंतजाम किया था. क्योंकि मन ही मन मैं भी आस्ट्रेलिया के हारने के भय से मुक्त नहीं हो पाया था. <br />
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डिनर के बाद, सभी दालान में तशरीफ़ लाए. हेमा भी आ गई. इस दिन वह अकेले मैच देखने से बाज आ रही थी. उसने आते ही अपना आसन भाईसाहब के बगल में जमाया. वह मुझे व्यंग्यपूर्वक देखते हुए भाईसाहब के गुट में शामिल होने का अहसास दिला रही थी. अगर मायके से भाभी आ गयी होतीं तो वह नि:संदेह उनके पल्लू में बैठती. तब, मेरा मनोबल और भी गिर जाता. क्योंकि जब भाईसाहब, भाभी और छोटी बहन की तिकड़ी साथ-साथ बैठती थी तो मैं कोई वाक् युद्ध छेड़ने से पहले ही भींगी बिल्ली बन जाता था. मेरी पत्नी तो बहस में एकदम फिसड्डी थी. सही तर्क न दे पाने के कारण वह बेपेंदे के लोटे की तरह फिस्स मुस्कराकर किसी भे ओर लुढ़क कर उसका पलड़ा भारी कर देती थी. <br />
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आखिर में पानदान लटकाए हुए और ताजे पान की गिलौरी चबाते हुए मम्मी ने बिलकुल टी.वी. के सामने दीवान के ऊपर मसनद पर बड़े आराम से दस्तक दिया. उनके हावभाव में बड़ा सुकून था. क्योंकि उन्होंने कुछ क्षण पहले डैडी के कमरे में जाकर उनके सिरहाने स्टूल पर दवाइयां, चम्मच, कटोरी, गिलास और जग में पानी रखते हुए और उन्हें जोर से झकझोरते हुए चिल्ला-चिल्लाकर बता दिया था कि रात को वे याद कर सारी दवाइयां समय से ले लेंगे वरना रोग लाइलाज हो जाएगा. साथ में यह चेतावनी भी दे दी कि वे फ़िज़ूल में बच्चों की तरह शोर मचा-मचाकर हमारे क्रिकेट मैच का मज़ा किरकिरा नहीं करेंगे और सुबह ग्वाले के आने तक हमारे जगने की प्रतीक्षा करेंगे. पता नहीं, उन्होंने मम्मी की बातें ठीक-ठीक सुनी भी थीं, या नहीं. पर, मम्मी अपना पत्नी-सुलभ फ़र्ज़ अदाकार पूरी तरह आश्वस्त नज़र आ रही थीं. हम सभी ने भी उनके चेहरे पर आत्मसंतोष का जो भाव देखा, उससे हम डैडी की ओर से बेफिक्र होकर मैच में पूरी तरह खोने को तैयार हो गए.<br />
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बेशक! मैच बड़ा रोमांचक था. आस्ट्रेलिया ने टास जीत कर, पहले बल्लेबाजी की और पूरे ३०९ रन का विशाल स्कोर खड़ा किया. भाई साहब के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. और हमलोग खूब खिल्लियाँ उड़ा रहे थे. हम इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थे कि पाकिस्तान चाहे जितना भी जोर लगा ले, वह इतना विशाल स्कोर खड़ा नहीं कर सकता. इस बीच मम्मी कम से कम तीन-चार दफे उठकर आँगन में गई थीं और तुलसी के गमले में रखे शिवलिंग पर बार-बार मत्था टेक आई थीं. लिहाजा, जब पाकिस्तान ने लगभग १४-१५ रन की औसत से धुआंधार बल्लेबाजी शुरू की तो हमलोगों के मुंह से सिसकारी भी निकलनी बंद हो गई. जब तक आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज पाकिस्तानी गेंदबाजों के छक्के छुडाते रहे, हम विस्फोटक हंसी हंसते रहे और भाईसाहब को व्यंग्य-बाण से आहत करते रहे. लेकिन, पाकिस्तान द्वारा धुआंधार बल्लेबाजी देखकर हमें विश्वास होता गया कि उसका मैच जीतना कोई टेढ़ी खीर नहीं है. चूंकि उसके चार सलामी बल्लेबाज पवेलियन वापिस लौट चुके थे; लेकिन, उसकी रन बनाने की गति में कोई कमी नहीं आई थी.भाईसाहब का गुट फिर उत्तेजना में आ गया था. पाकिस्तान के अन्तिम क्रम के बल्लेबाज भी मशीन की तरह रन बना रहे थे. उस दरमियान, मम्मी फिर उठकर शिवलिंग के आगे सिर झुकाने नहीं गईं. मेरी पोतनी सुधा ने आँख मूँद कर भगवान से पाकिस्तान की पराजय नहीं माँगी. मैंने लज्जावश भाईसाहब से नज़रें हटा-हटाकर मिलाईं. <br />
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शायद, भगवान में से विश्वास खोने का का दुष्परिणाम कुछ ऐसा हुआ कि अंत में, पाकिस्तान के दसवें क्रम पर आए बल्लेबाज के छक्के ने आस्ट्रेलिया को फाइनल से बाहर कर दिया.<br />
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भाईसाहब ने जमकर पटाखे छोड़े. उन्होंने यह भी चिंता की कि इससे बीमार डैडी को बेहद तकलीफ हो सकती है. सायद, उन्हें इस बारे में कुछ याद ही नहीं रहा. ऐसे जोश में होश कहाँ रहता है ?<br />
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सुबह जब धूप इतनी तेज हो गई कि हमारा सिर दर्द से फटने लगा, तब कहीं जाकर हमारी नीद खुली. हम पहले ही उठ गए होते. लेकिन, उस दिन महरी छुट्टी पर थी और संयोगवश, ग्वाला भी किसी वज़ह से नौ बजे तक नहीं आया था. अन्यथा, उनमें से किसी के दस्तक देने से हम पहले ही जग गए होते. कहीं हमें खराई न मार दे, इसलिए सुधा ने बासी दूध से ही चाय बनाई और हमें डाइनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए बुलाया गया. चाय-नाश्ता कर चुकने के बाद मैंने फिर अपने बेडरूम में जाकर खिड़कियाँ बंद की और बिस्तर पर पसर गया. मम्मी तो नहाने-धोने गुशालाखाने में चली गई थी. लेकिन, मुझसे किसी ने यह भी नहीं पूछा कि तुम्हें आफिस जाना है या नहीं. क्योंकि सभी को मालूम था कि मई अनिश्चित काल के लिए टायफायड का बहाना बनाकर छुट्टी पर हूँ और आफिस तभी जाऊंगा जबकि वर्ल्ड कप मैच समाप्त होगा. भाईसाहब की कचहरी में पहले से ही हड़ताल चल रही थी जिस कारण, वह भी बड़ी तबियत से फाइनल मैच के होने की प्रतीक्षा कर रहे थे. रही छोटी बहन हेमा... तो वह अपने आख़िरी सेमेस्टर के पेपर्स से फारिग होने के बाद मेडिकल सेमीनारों से कतना चाह रही थी. वह पछता रही थी कि उसने इतनी ज़ल्दी मेडिकल असोसिएशन की मेम्बरशिप क्यों ले ली. वर्ल्ड कप मैच के बाद लेती! इस वज़ह से उसे बेकार में रोज़-रोज़ के सेमीनारों आदि में व्यस्त रहना पड़ता था. वास्तव में! फाइनल मैच चार दिनों बाद होना था जिसकी बेसब्री से प्रतीक्षा करने से मिलने वाली अवर्णनीय खुशी में हम किसी काम की फ़िज़ूल चिंता से खलल नहीं डालने चाहते थे. <br />
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अचानक, कुछ अजीबोगरीब शोर से मेरी नींद उचट गई. मुझे बड़ी झुंझलाहट सी हो रही थी क्योंकि मेरा एक सुन्दर सपना टूट गया था जिसमें मैं भारत और पाकिस्तान के बीच जो मैच देख रहा था, उसमें भारत का पलड़ा भारी पड़ता जा रहा था और वह नि:संदेह! विजय की ओर अग्रसर हो रहा था.<br />
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मै उठकर भीतर आँगन में शोरगुल का जायजा लेने गया तो मम्मी की हालत देखकर हकबका गया. वह बेतहाशा रोने के मूड में लग रही थी. तभी हेमा ने बताया कि डैडी की तबियत ज़्यादा खराब है. वहीं देर से आया ग्वाला भी खड़ा था. दरअसल, उसने कई बार आवाज़ लगाई थी. लेकिन, घर में छाया सन्नाटा देखकर वह आवाज़ लगाता हुआ सीधे डैडी के कमरे में घुस गया था जहां उसने डैडी को बेड के नीचे अचेतावस्था में लुढ़का हुआ औंधे मुंह देखकर प्राय: डर-सा गया था. उसने ही मम्मी को उनकी हालत के बारे में सबसे पहले जानकारी दी थी. वह संभवत: रात से ही वहां पड़े हुए थे. उन्होंने रात को हमें किसी वज़ह से आवाज़ दी होगी जिसे हमने मैच में मस्त होने के कारण नहीं सुना होगा. फिर, उन्होंने उठने की कोशिश की होगी. पर अशक्त होने के कारण गिर पड़े होंगे. दिलचस्प बात यह थी कि हमने सुबह देर से उठने के बावजूद उनके कमरे में जाकर उनकी हालत जानने की जुर्रत महसूस नहीं की. अगर ग्वाला अनजाने में उनके कमरे में दाखिला नहीं हुआ होता तो...<br />
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खैर, हेमा ने अपने नए डाक्टरी अनुभवों का इस्तेमाल कर, हमें तत्काल इत्तला किया कि डैडी की हालत नाज़ुक है और अब उन्हें अस्पताल में अब तो भर्ती करा ही देना चाहिए.<br />
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हमने ड्राइवर की मदद से डैडी को अस्पताल में भर्ती करा ही दिया. उस दिन हम सभी अस्पताल गए. हम सोच रहे थे कि दो-तीन दिनों में डैडी की हालत सम्हल ही जाएगी. फिर, उन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी जाएगी. <br />
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उस दिन उनकी कई जांचें हुईं और सभी में आई रिपोर्टें चिंताजनक थीं. खून में शूगर की मात्रा बहुत बढ़ गई थी. रक्तचाप भी इतना बढ़ गया था कि उनका उपचार कर रहे डा. श्रीवास्तव के माथे पर बार-बार बल पड़ जा रहे थे. करीब एक बजे रात को जब उन्हें सांस लेने में दिक्कत-सी होने लगी तो डाक्टर ने तत्काल नर्स को तलब कर कृत्रिम आक्सीजन की व्यवस्था कर दी. यह सब देख, मम्मी चिंता में पड़ गईं कि शायद, अस्पताल में हफ़्तों लग सकते हैं. वह उनके बगल में बैठकर लगातार ग्लूकोज़ की बोतल पर नज़रें गड़ाई हुईं थी. वह बार-बार वहां बेताबी से लगातार चहलकदमी कर रहे भाईसाहब को सवालिया नज़रों से पूछना चाह रही थीं कि बोतल का पानी इतना धीमे-धीमे क्यों चढ़ाया जा रहा है, एकसाथ उनकी नसों में क्यों नहीं उड़ेल दिया जा रहा है. उनकी इस उधेड़बुन पर मेरा मन बेहद खीझ रहा था. आखिर सभी क्यों चाह रहे थे कि जबकि डैडी तीन सालों से लगातार रुग्ण चल रहे हैं, वे अति शीघ्र ठीक हो जाएं! या यूं कही कि हम सभी किसी तरह डैडी के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से किनारा करना चाह रहे थे. <br />
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सारी रात हम सभी को अस्पताल में बैठकर डैडी की तीमारदारी करनी पड़ी. पिछले तीन सालों से जब से उनकी हालत बाद से बदतर हो गई, किसी ने उनकी तसल्लीबख्श सेवा-सुश्रुषा नहीं की थी. उनके बचपन के दोस्त--डा. अष्ठाना का कहना था कि बदपरहेज़ी ने ही उन्हें इस घातक हालत में ला खड़ा किया है. वरना, उनके मज़बूत कद-काठी को देखते हुए यह कोई नहीं कह सकता था कि मौत का खौफ उन्हें पच्चीस सालों से पहले भी छू सकता है. आज उनका शरीर कई बीमारियों का घर बन गया है. दमा, मधुमेह और अब तपेदिक ने उन्हें बारी-बारी से जकड़ लिया है. <br />
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अस्पताल में दाखिल होने के बाद से उनकी हालत में रत्ती भर भी सुधार नहीं आया. उल्टे, हालत और बिगड़ती जा रही थी. दूसरे दिन, सुबह तक सारी रिपोर्टें आ गईं. डा. श्रीवास्तव ने बताया कि दो दिन पहले की रात को उन्हें दमा का तेज दौरा पड़ा था और अगर उस वक़्त उन्हें उचित दवा मिल गई होती तो उनकी दशा इतनी नहीं बिगड़ती. <br />
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तब, हम सभी अपराधबोध से ग्रस्त होकर एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे थे. क्योंकि दौरे के समय तो हमलोग क्रिकेट मैच का आनंद ले रहे थे. हमारी उस स्थिति पर डाक्टर मुंह बिचकाते हुए चले गए थे. शायद, उन्होंने हमारे बाडी लैंग्विज़ से पढ़ लिया था किहमने उस वृद्ध व्यक्ति के प्रति घोर लापरवाही की थी. उस क्षण, हमें ऐसा लगा कि जैसे डाक्टर एक झन्नाटेदार तमाचा मार गया हो.<br />
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जब से डैडी अस्पताल में लाए गए थे, उन्होंने हममे से किसी से भी बात नहीं की थी, जबकि वह डाक्टर के सवालों का उत्तर बहुत धीमी आवाज़ में या 'हाँ' और 'ना' में दे रहे थे. हमारे बार-बार पूछने पर भी वह कुछ नहीं बोलते थे. बल्कि बड़ी गैरियत से मुंह फेर लेते थे. उनके चेहरे पर हमने घृणा और तिरस्कार के स्पष्ट भाव देखे थे. बेशक! अगर उनमें ताकत होती तो वे हमारे मुंह पर जोर से थूक भी सकते थे. <br />
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उस दिन दोपहर को डाक्टर ने बताया कि डैडी थैलीसीमिया से भी पीड़ित हैं और उनका खून बनना बिल्कुल बंद हो चुका है. सो, शाम से ही उन्हें खून चढ़ाया जाने लगा. भाईसाहब ने कहा कि अभी हमें अपना खून देने की क्या ज़रुरत है. महानगर के रक्त बैंकों में पर्याप्त मात्रा में खून उपलब्ध है. इसलिए ज़्यादा से ज़्यादा कीमतें देकर खून की चार बोतलें मंगाई गईं. रात को करीब दो बजे, उन्हें दमा के दौरे के साथ दर्ज़नों फटी खांसियाँ आईं. डाक्टर ने बताया कि यह लक्षण ठीक नहीं है. अगर ऐसा दोबारा या तिबारा हुआ तो यह घातक भी हो सकता है.<br />
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उस रात उनकी हालत वास्तव में दयनीय थी. वह बड़ी बैचेनी में थे क्योंकि उन्हें सांस लेने में बड़ी परेशानी हो रही थी. मम्मी पिछली रात से बिल्कुल न सो पाने के कारण दस बजे से ही बाहर सोफे पर खर्राटे भर रही थीं. भाईसाहब और मेरी पत्नी सुधा थोड़ी-थोड़ी देर पर डैडी को देखकर, पता नहीं कहाँ घंटों-घंटों तक लापता हो जा रहे थे. हेमा भी डैडी के मर्ज़ पर अलग-अलग डाक्टरों से बातचीत में मशगूल-सी दिखाई दे रही थी. लिहाजा, मैं वहां लगातार डैडी की हालत पर नज़र रखते हुए यह योजना बना रहाथा कि कल सुबह मुझे आफिस ज्वाइन कर ही लेना चाहिए. इसलिए, मैंने चुपके से एक डाक्टर से अपने लिए मेडिकल सर्टीफिकेट और फिटनेस सर्टीफिकेट बनवा लिए ताकि कल ड्यूटी ज्वाइन करने में कोई अड़ंगा न आए. <br />
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तीसरे दिन सुबह, मै किसी को कुछ बताए बगैर आफिस चला गया. वहीं से मैंने फोन पर अस्पताल में मम्मी को सूचित कर दिया कि आफिस के मेसेंजेर ने आकर मुझे कुछ आवश्यक काम के लिए बुलाक था जिससे मुझे अचानक ड्यूटी ज्वाइन करनी पड़ी. शाम, को मैं जानबूझकर देर से लौटा. पहले घर जाकर नहाया-धोया और फिर, नौकर से बाहर से चाय मंगवाकर नाश्ता किया. उसके बाद, तसल्ली से अस्पताल गया. वहां, की हालत देख, मैं घबड़ा-सा गया. डैडी के बेड पर कोई दूसरा डाक्टर उन्हें कृत्रिम सांस देने की कोशिश कर रहा था. पूछने पर पता चला कि डा. श्रीवास्तव छुट्टी पर चले गए हैं. नए डाक्टर बोस ने मुझे जोर की झाड़ लगाई--"आप मेजर चौहान के कैसे बेकहन और बदतमीज़ बेटे हैं कि आपके पिता मौत से जूझ रहे हैं जबकि आप सुबह से ही नदारद हैं? कितने शर्म की बात है कि यहाँ आपके पिता एक लावारिस मरीज़ की तरह यहाँ डेथ-बेड पर पड़े-पड़े हमारे स्टाफ के रहमोकरम की भीख मांग रहे हैं! अगर इस दरमियान इनकी मौत हो जाती तो इनकी बाडी का क्लेम करने के लिए भी कोई आगे आना वाला नहीं था..."<br />
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मैंने लगभग हकलाते हुए खे प्रकट किया और किसी को ढूँढने के बहाने आसपास का चक्कर लगाने लगा. थोड़ी बाद ग्रीन लान में मैंने मम्मी को उनकी कुछ आगंतुक सहेलियों के साथ जोर-जोर से गप्प लड़ाते हुए पाया. बेशक! चर्चा काविशय क्रिकेट ही था. मुझे अपने पास पाकर उन्होंने अपना चेहरा हाथी के सूंड़ की तरह लटका लिया. जैसेकि वह सुबह से ही गम में डूबी हुईं हों. वह मुझे देखते ही उठ खड़ी हुईं. कहने लगीं, "अभी-अभी तो आई हूँ. क्या करती? तुम्हारी आंटियां डैडी को देखने आई थीं जिन्हें छोड़ने बाहर तक आ गई..."<br />
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मैंने सिर्फ उन्हें घूरकर शिकायताना अंदाज़ में देखा. अगर पूचता तो वह भी कह सकती थीं कि तुम भी तो अपनी ज़िम्मेदारी से बचने के लिए आफिस चले गए थे. उन्होंने चलते-चलते मुझे बताया कि तुम्हारे बड़े भाई एक मुवक्किल के साथ कचहरी चले गए हैं. हेमा सुबह से ही एक सेमीनार में गई हुई है और अभी तक लौटी नहीं, जबकि सुधा अपनी किसी सहेली के बेटे केजन्म दिन पर कान्ग्रेट करने गई हुई है.<br />
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डैडी के बेड के पास हमारे कुछ देर तक ठहरने के बाद, डाक्टर बोस ने बताया कि मेजर चौहान यानी मेरे पिता को दोपहर से दो बार तेज दौरा पड़ चुका है और साथ में खान्सियों के साथ खून भी आया है. मैंने मम्मी का चेहरा गौर से देखा. वह इस सूचना से कोई ख़ास प्रभावित नज़र नहीं आ रही थीं. हाँ, कुछ और सुनने की उत्सुकता साफ़ झलक रही थी.<br />
<br />
डा. बोस ने फिर कहा, "अब तो भगवान् ही मालिक है. दवा ने भी असर करना बंद कर दिया है. बेहतर होगा कि आप इन्हें अब घर ही ले जाइए. हमने जी-जान से कोशिश की. अब कुछ भी नहीं कर सकते. हाँ, मैं कुछ दवाइयां लिख दे रहा हूँ, इन्हें देते रहिएगा."<br />
<br />
हमने डाक्टर के मशविरे को आँख मूँद कर मान लिया. यह भी नहीं सोचा कि अस्पताल में जो चिकित्सीय सुविधाएं मिल रही हैं, वे घर में कहाँ से मिल पाएंगी? हमने मम्मी की आँखों में झाँक कर देखा. उनका इशारा साफ़ था कि डैडी को रामभरोसे छोड़ देना ही श्रेयस्कर है. उन्होंने अपनी सूखी आँखों को साड़ी के पल्लू से बार-बार रगडा. उसके बाद हमने डैडी और सारे सामान-असबाब को कार में डाल दिया. ड्राइवर से कहा, "फ़ौरन घर ले चलो!"<br />
<br />
डैडी को उनके बेड पर दोबारा डाल दिया गया. सारा घर फिर से अपनी दिनचर्या में ऐसे व्यस्त हो गया, जैसेकि कुछ हुआ ही न हो. सभी संतुष्ट थे कि चलो! डैडी को बचाने के लिए इतनी कोशिश तो की गई. चालीस-पैंतालीस हजार रूपए भी फूंक-ताप दिए गए. अब भगवान की मर्जी! वह बचें या न बचें!<br />
<br />
चूंकि, डैडी की लाइलाज बीमारी का चतुर्दिक विज्ञापन हो चुका था, इसलिए उन्हें देखने आने वाले शुभचिंतकों का भी तांता लग गया था. मम्मी उन्हें चाय पिलाते-पिलाते कुछ रेट-रटाए जुमले सुना देती थी--जैसेकि 'भगवान की मर्जी', 'विधि का बदा टारे नहीं टरे', 'विधाता को हमें सुहागन देखना नहीं भा रहा है', 'पैतालीस साल साथ-साथ जिए, बस! हेमा बिटिया के हाथ पीले नहीं करा सकेंगे,' वगैरह=-वगैरह. तदुपरांत, वह शुभचिंतकों को बेड की ओर इशारा कर देती जैसेकि यह कहना चाह रही हों कि 'बहुत इस्तेमाल कर चुकी, अब इस डिस्पोजेबल आइटम को निपटाना भर बाकी है.'<br />
<br />
रात के लगभग ग्यारह बजे हेमा आकर अपने दोस्तों के साथ ड्राइंग रूम में सेमीनार हुई चर्चाओं की समीक्षा कर रही थी. थोड़ी देर बाद जब भाईसाहब घर में तशरीफ़ लाए तो उनका मुंह गुस्से में सूजा हुआ था. या, यूं कहिए कि वे जानबूझकर अपने चेहरे पर गुस्सा लाने की असफल कोशिश कर रहे थे. शायद, वे अस्पताल होते हुए आए थे. बेशक! उनके अहं को इस बात से बेहद चोट पहुँची थी कि डैडी को अस्पताल से वापस लाने के फैसले में उनको क्यों नहीं शामिल किया गया. उन्होंने डैडी का हालचाल लेने वालों की मौजूदगी में हममें से एक-एक की खबर ली, "आखिर, इतनी ज़ल्दी क्या थी कि डैडी को वापस लेते आए? अरे, उन्हें पूरी तरह ठीक तो हो जाने दिया होता! हमलोग एक-दो दिन अस्पताल की ज़िल्लत और झेल लेते! यहाँ क्या है? न कोई डाक्टर है, न ही कोई कायदे की दवा? डा. अष्ठाना तो चूतिया और निकम्मा है. बस, ऊपरी तौर पर डैडी का खैरख्वाह बनने का ड्रामा करता रहता है. उसने ही डैडी को इस हालत में ला खड़ा किया है. उल्टे, उनकी बीमार हालत के लिए हमें ज़िम्मेदार ठहराता है."<br />
<br />
मैंने भाईसाहब को एक कोने में ले जाकर बताया, ""हमलोग क्या करते? खुद डाक्टर ने हमें डैडी को घर ले जाने की सलाह दी थी कि अब ईश्वर से प्रार्थना कीजिए. उन्हें कोई करिश्मा ही बचा सकता है, हम जैसे इंसान नहीं..."<br />
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मेरी बात सुनकर वह पहले हमारा चेहरा घूरते रहे. कुछ क्षण तक उन्होंने डैडी के कमरे की ओर भी निर्भाव दृष्टि से देखा. मैंने सोचा कि वह कमरे में जाकर डैडी की हालत का जायजा लेंगे. पर, वे ठिठकते हुए अपने बेडरूम में घुस गए. <br />
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रात के लगभग साढ़े बारह बजे हम लेट-लतीफ़ खाना खाने के बाद सोने का यत्न कर रहे थे. हम यह सोचकर खुश थे कि अच्छा हुआ कि डैडी घर वापस आ गए. कल का फाइनल मैच टी. वी. पर तसल्ली से देख सकेंगे. अस्पताल में तो इतना बढ़िया मौक़ा खटाई में पड़ जाता. शायद, बेड में पड़े-पड़े हर व्यक्ति यह सोच रहा था कि ज़ल्दी से एक ही नींद में रात गुजर जाए, ताकि कल सबेरे तरिताजा मूड में मैच का भरपूर आनंद लिया जा सके. <br />
<br />
अभी हम नींद के कद्रदान बन भी नहीं पाए थे कि एक बौखलाने वाली चींख ने उसमें खलल डाल दिया. हम हड़बड़ाकर उठ बैठे. हमने वाकई एहसास किया किया कि वह चींख डैडी की ही हो सकती है. हम एक झटके से उनके कमरे में दाखिल हुए. डैडी का सारा शरीर तेजी से काँप रहा था. और जबड़ा तेजी से बज रहा था. मम्मी झिझकते हुए उनके हाथ पकड़ कर उनकी कंपकंपाहट को रोकना चाह रही थीं और हमलोग दूर से ही डैडी को तसल्ली दे रहे थे कि 'डैडी, आपको कुछ भी नहीं होगा." पर, वे तो मायूस निगाहों से चारों ओर देखते हुए कुछ अनापशनाप आवाज़ निकाल रहे थे. उस वक़्त, डैडी की इकलौती लाडली बेटी--हेमा की आँखों में आंसुओं का गुबार उमड़ रहा था. इसी बीच सुधा ने बुद्धिमानी दिखाते हुए डाक्टर अष्ठाना को झटपट फोन कर, उन्हें तत्काल बुला लिया. <br />
<br />
जब तक डाक्टर अष्ठाना आए, डैडी के शरीर की हरकत बंद हो गई थी. हाँ, आँखें अधखुली थीं. हमने यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि डैडी अचानक शांत क्यों हो गए या उनकी आँखें पूरी तरह खुली क्यों नहीं हैं या उनके डांट किटकिटा क्यों नहीं रहे हैं. पता नहीं, उन्हें छूकर उनके शरीर का तापमान जानने में हमें तो हिचक हो रही थी; पर, कुंआरी हेमा डाक्टर होकर भी उन्हें हाथ क्यों नहीं लगाना चाह रही थी? डाक्टर के आने से पहले हममें से कोई भी उन्हें टटोलने की ज़हमत नहीं उठा सका. <br />
<br />
डा. अष्ठाना संतोषजनक ढंग से डैडी की जांच करने के बाद ग़मगीन हो गए, "मेजर सा'ब इज नो मोर."<br />
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उनका निष्कर्ष सुनते ही मम्मी दहाड़ें मार-मार कर बिलखने लगीं. रात से उसका सन्नाटा अचानक छीन गया. उस रात हमें पता चला कि मम्मी रोने-धोने में कितनी माहिर हैं. इसके पहले हमें मालूम नहीं था कि उनके शब्दकोश में ग्रामीणता किस हद तक शामिल है. यों तो हम सभी बेहद दुखी थे और नि:संदेह! दुखी होने का इससे अनुकूल मौक़ा और कोई नहीं हो सकता था. लेकिन, मम्मी के रोने का पूरबीपन हमें बिल्कुल नहीं भाया. अगर कोई और मौक़ा होता तो मै निश्चय ही कह देता कि 'मम्मी, किसी और लहजे में रोओ.'<br />
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दु:ख की उस घड़ी में सारा पड़ोस रात के अँधेरे में उमड़ पड़ा. सुबह शहर के कई प्रतिष्ठित व्यक्ति भी आए जो या तो डैडी के जानने वाले थे या दोस्त थे. लिहाजा, हमें यह जानकर बहुत सुकून मिला कि हमारे साथ इतने ढेर सारे लोग पूरी औपचारिकता के साथ शोक मनाने को तैयार हैं.<br />
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सुबह के करीब दस बजे, डैडी के शव पर सेना की तरफ से पुष्पांजलि अर्पित की गई. एक रिटायर्ड मेजर की मृत्यु पर ऐसा करना राज्य का कर्तव्य होता है. हमलोगों का सीना तो फख्र से चौड़ा हो गया. सारे मोहल्ले में हमारी नाक ऊंची हो गई. हमें पहली बार अपने पिता के इतने बड़े आदमी होने का एहसास हुआ. <br />
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लगभग साढ़े दस बजे शव यात्रा आरम्भ हुई. शव यात्रा में जाते समय, हम दु:खी कम, चिंतित ज़्यादा थे. रास्तों से गुजरते हुए हममें से ज़्यादातर लोगों की निगाहें दुकानों में लगी टी.वी. पर जमीं हुई थीं. कुछ लोग तो इस चक्कर में पीछे छूट जा रहे थे. जैसे ही थोड़ी-सी सड़ाका जाम होती, वे शव यात्रा से अलग होकर दुकानों के सामे खड़े हो जाते और मैच का मजा लेने लगते! बेशक! इन दुकानदारों के टी.वी.परस्त हिने का आज हमें शुक्रगुजार होना चाहिए. टुकड़ों में ही सही, इस फाइनल मैच की जानकारी तो हमें मिल रही थी. मै भी शव यात्रियों के शोरगुल के बावजूद, क्रिकेट कमेंटरी के एक-एक लफ्ज़ पर अमल कर रहा था और उसके दो सलामी बल्लेबाज आउट हो चुके थे. जबकि उसका स्कोर चौदह ओवर में १२२ रन था. यानी, भारत की हालत पतली नज़र आ रही थी. यह बात साफ थी कि पाकिस्तान एक बड़ा स्कोर खड़ा करेगा और भारत को मनोवैज्ञानिक दबाव में बल्लेबाजी करने के लिए मज़बूर करेगा. <br />
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इसी दरमियाँ, मैंने अपने आगे भाईसाहब को बड़ी चिंतित मुद्रा में चलते हुए देखा. ऐसा लगा रहा था कि वह डैडी की अर्थी को अपने कंधे पर धोने के बजाय, भारत की भारी हार का दुर्वह्य बोझ खींच रहे हों. यकायक, मेरी निगाह उनके कान में लगे इयर माइक्रोफोन पर गई. मुझे समझने में देर नहीं लगी कि इन्होंने काले कुर्ते की पाकेट में मिनी द्रान्जिस्टर सेट छिपा रखा था. घने बालों के भीतर वह माइक्रोफोन मुश्किल से नज़र आने वाला था. मै हैरत के समंदर में गोते लगाने लगा. इस असीम दु:ख की घड़ी में भी उन्हें<br />
उन्होंने क्रिकेट मैच का दामन नहीं छोड़ा था. वे सिर झुकाए हुए चल रहे थे ताकि सारा ध्यान क्रिकेट कमेंटरी पर केन्द्रित कर सकें. पता नहीं, उस वक़्त वे अच्छी तरह 'राम नाम सत्य' भी बोल रहे थे या नहीं. उस सामूहिक स्वर में किसी को इसका क्या पता चलता? लेकिन, मुझे मन ही मन उनसे ईर्ष्या होने लगी थी. सारे मैच का आनंद एकमात्र वे ही ले रहे थे. मुझे खुद पर बड़ा कोफ़्त हो रहा था कि यह युक्ति मेरे दिमाग में क्यों नहीं आई. मेरे पास भी माचिस के आकार का बढ़िया द्रान्जिस्टर था जिसे मैं या तो कान खुजलाने के बहाने कान से लगाए रखता या भाईसाहब के नक्शेकदम पर माइक्रोफोन के जरिए कान में फिट कर लेता. किसी को इसकी आहट तक नहीं लगने देता!<br />
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दो घंटे की थकाऊ पदयात्रा के बाद हमने श्मशान घाट पर कदम रखा. वहां बिल्कुल ऊपर वाली सीढियों के किनारे जो माला-फूल और पूजन-सामग्री की दुकानें थीं, उनमे लगीं कुछ मिनी टीवियों पर दर्शक उमड़े हुए थे. <br />
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बहरहाल, शव के साथ जो चुनिंदा संस्कार किए गए, उनमे भाईसाहब ने बखूबी शिरकत की. फिर, डैडी को मुखाग्नि देने के के बाद पता नहीं, कहाँ वे गुम हो गए? मैंने इधर-उधर उन्हें ढूँढने की असफल चेष्टा की. कुछ देर तक मैंने ऊपर टी.वी. देखने में मशगूल भीड़ में भी उनको तलाश किया. पर, वे कहीं नहीं दिखाई दिए. बेशक! वे वहीं मौजूद रहे होंगे. लेकिन, मेरा ध्यान बार-बार टी.वी. पर ठहर जाने की वज़ह से मै उन्हें ईमानदारी से नहीं ढूंढ सका. जब पुन: नीचे आया तो मेरा मिजाज़ ठीक नहीं था क्योंकि पाकिस्तान ने चौवालीस ओवरों में दो सौ बानवे रन बना लिए थे और शेष छ: ओवरों में बिलाशक! वह कम से कम सत्तर-अस्सी रन तो बना ही लेगा. भला! इतने बड़े स्कोर का भारत कैसे पीछा कर सकेगा? मेरा मन बिल्कुल बैठा जा रहा था. जी कर रहा था कि वहां से तत्काल उठकर घर चला जाऊं और...<br />
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तभी महापात्र ने जैसे ही कपाल-क्रिया के लिए आवाज़ लगाई, भाईसाहब तत्काल उपस्थित हो गए. मुझे आश्चर्य हुआ. मैंने देखा कि उन्होंने उस संस्कार को बड़ी कुशलता से अंजाम दिया. उसके बाद, सनातनी रीति के अनुसार, हम पीछे मुड़े बगैर, घर की ओर चल पड़े. जब हम ऊपर दुकानों के पास से गुजर रहे थे तो किसी ने भाईसाहब को आवाज लगाई, "वकील सा'ब! आइए, अब तसल्ली से बैठकर मैच का मजा लें..." सभी ने सिर उठाकर एक बार उन्हें देखा जो बड़ी तल्लीनता से इयर माइक्रोफोन से क्रिकेट कमेंटरी सुनते हुए आगे बढ़ रहे थे. <br />
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मेरी समझ में आ गया कि वे बीच-बीच में श्मशान से कहाँ गायब हो जा रहे थे. <br />
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घर पहुंचकर हमें एहसास हुआ कि पिता के विछोह ने हमें अनाथ बना दिया है. गमी के सन्नाटे में सारा माहौल ऐसे डूबा हुआ था जैसेकि अंतरिक्ष में उड़ाते भूतों के बीच कोई गोरैया फंस गई हो. <br />
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मेहमानखाना रिश्तेदारों से भरा हुआ था. आँगन में एक चौकी पर स्वर्गीय डैडी की एक बड़ी-सी माल्यार्पित तस्वीर लगा दी गयी थी. दीपक और अगरबत्तियां जल रही थीं. महापंडित वहां किसी कर्मकांड की रूपरेखा तैयार कर रहा था. मै पता नहीं, किन्हीं अंतर्द्वंद्वों के चलते बाहर दालान में आकर टहलने लगा. अचानक, मुझे लगा कि हेमा के कमरे के पास से कुछ सनसनाहट-भरी आवाज़ आ रही है. तब, मै, गलियारे से होते उए पीछे जा धमाका. मैंने हेमा के कमरे में झांककर देखा तो वहां घुप्प अँधेरा छाया हुआ था. तेज धूप में से अचानक अँधेरे में आने के कारण कुछ भी साफ़-साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था. कुछ पल बाद, मुझे टी.वी. पर क्रिकेट का मैदान स्पष्ट दिखाई देने लगा. मैंने भीतर दाखिल होकर खिड़की से परदा खींचा तो बहन हेमा और पत्नी सुधा कोने में दुबकी हुई नज़र आईं. वे मुझे देख, एकदम से सिटक-सी गईं. मेरे मन में गुस्से का बवंडर उमड़ रहा था. जी में आया कि दोनों को तेज फटकार लगाऊँ. लेकिन, तभी हेमा ने मेरे आगे स्टूल खिसकाते हुए भर्राती हुई आवाज़ में कहा, "भैया! इंडिया इज ग्रेजुअली क्रम्बलिंग डाउन. पाकिस्तान के ३५४ के जवाब में भारत ने पांच विकेट खोकर कुल १०२ रन बनाए हैं. उन्तीसवाँ ओवर चल रहा है. डेफिनिटली इंडिया हज लास्ट द वर्ल्ड कप..."<br />
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उसकी सूचना से मेरा गुस्सा काफूर हो गया. मैंने गिन-गिनकर भारतीय बल्लेबाजों को दो-चार गैयाँ सुनाईं. जब बाहर निकला तो देखा कि मम्मी अहाते में तुलसीदल के पास हाथ जोड़कर शिवलिंग के से कुछ प्रार्थना कर रही थीं. मै दो मिनट तक वहां खड़ा रहा. संभवत: उन्हें वहां मेरी उपस्थिति का अहसास ही नहीं रहा. आखिरकार, मै उसी गलियारे से फिर वापस लौटने लगा. मैंने जाते-जाते पीछे घूमकर देखा कि मम्मी हेमा के कमरे की ओर जा रही हैं. मुझे यकीन हो गया कि वहां मम्मी हाथ जोड़कर डैडी की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना कर रही थीं. बल्कि, भारत के क्रिकेट में विजयी होने के लिए प्रार्थना कर रही थीं. <br />
<br />
जब तक मैच चलता रहा हम बेहतर अंडरस्टैंडिंग के साथ बारी-बारी से कमरे में जाकर मैच देखते रहे. रिश्तेदारों को और यहाँ तक कि भाईसाहब को भी इसकी भनक नहीं लगी. शाम को जब पंडितजी गरुण पुराण सुनाने आए तो हमारी क्रिकेट-भक्ति लगभग समाप्त हो चुकी थी क्योंकि भारत, पाकिस्तान के हाथों शर्मनाक हार, हार चुका था. <br />
<br />
हमने बड़ी श्रद्धा से सांसारिक निस्सारता पर पंडितजी की कथा सुनी. वर्ल्ड कप में भारत का पत्ता साफ़ होने के बाद, सचमुच सारा संसार निस्सार-सा लगने लगा था.<br />
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(समाप्त)</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A4%B2_%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%9F%E0%A4%AE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5279डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव2011-03-29T09:14:04Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
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<div>'''डिस्पोजेबल आइटम'''<br />
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डैड की बीमारी पर किसे खुंदक नहीं थी? उन खबीस को भी ऐसी लाइलाज बीमारी तभी लगनी थी जबकि इतना दिलचस्प क्रिकेट मैच चल रहा था! वह मैच भी कोई मामूली मैच नहीं था. वर्ल्ड कप का मैच था. भारत और पाकिस्तान के बीच सीधा मुकाबला था. इसलिए, मेरा घर ही क्या, सारा मोहल्ला क्रिकेटमय था. मोहल्ले से निकलकर सड़क पर आने के बाद चाहे किसी बस की सवारी की जाए या बाजार में चहलक़दमी की जाए, क्रिकेट की चर्चा हर जुबान पर थी. चाय-पान की गुमटियों से लेकर शहर के चप्पे-चप्पे पर लोगबाग इस वर्ल्डकप को लेकर बहसा-बहसी में जमे हुए थे. मेरे आफिस में भी इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर गलाफोड़ तकरार जारी था. कभी-कभार यह तकरार झगड़ा-फसाद का भी रूप ले लेता था. मेरे आफिस वाले ही क्या, दूसरे कार्यालयों के अधिकारी-कर्मचारी भी छुट्टियां लेकर अपने-अपने घरों में टी० वी० सेटों के आगे वर्ल्ड कप के मैचों का सीधा प्रसारण देखने में जमे हुए थे. ऐसे में ऐसा लगता था कि जैसे सारी दुनिया को क्रिकेट के सिवाय कोई और काम नहीं है. बेशक! मेरा घर भी इस टूर्नामेंट का लुत्फ़ उठाने में जुटा हुआ था--घर के सारे कामकाज को ताक पर रखकर. यहाँ तक कि लोगबाग ने खुद को शौच, स्नान आदि को भी गैर-ज़रूरी समझ, चाय-नाश्ता, खाने-पीने तक ही सीमित कर रखा था. हमें तो यह भी चिंता नहीं थी कि घर में बीमार डैडी की तीमारदारी में सभी को जुट जाना चाहिए ताकि वह ज़ल्दी से भले-चंगे होकर किसी अनिष्ट की आशंका से हमें मुक्त कर दें! घरेलू डाक्टर अष्ठाना ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि अगर उन्हें वक़्त पर दवाइयां नहीं दी गईं और उनकी हालत पर खास निगरानी नहीं रखी गई तो उनकी बीमारी जानलेवा भी हो सकती है. <br />
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शायद, डैडी रोमांचक क्रिकेट का परवान चढ़ते जा रहे थे. यों तो, उन्हें भी क्रिकेट मैचों में बेइन्तेहाँ दिलचस्पी रही है; लेकिन, इस बीमारी के कारण उन्हें वर्ल्ड कप मैचों का मजा न ले पाने की भीतर ही भीतर बेहद कसक होगी, जिसे वे व्यक्त नहीं कर पा रहे होंगे. आखिर, उनके जीर्ण-शीर्ण शरीर में मैचों का आनंद लेने का दमखम कहाँ रहा? <br />
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भारत के फ़ाइनल में पहुंचते ही सभी ने अपनी दिनचर्या को भी किनारे कर दिया. रात को डैडी की देखभाल के लिए किसी को भी अपनी नींद हराम करना गवांरा नहीं था. उधर डैडी कराहते रहते और इधर हम गहरे नींद में खर्राटे भर रहे होते. कई बार तो वह पानी-पानी की रट लगाते रहते; पर, कोई उठने का नाम तक नहीं लेता. ऐसे वक़्त में मम्मी की ज़िम्मेदारी बनती थी कि वह उनके दुःख-दर्द में हाथ बंटाने के लिए उनके सामने मौजूद रहतीं. हमें भी संतोष होता! क्योंकि हमें उनकी सेवा करने की नैतिक दुविधा से मुक्ति मिल जाती--'चलो! हमें डैडी की सेवा करने न करने में धर्म-संकट में फ़िज़ूल नहीं पड़ना पड़ा.'<br />
<br />
जब वर्ल्ड कप की सनसनीखेज़ पारियां रात को शुरू हुईं तो हम सभी की आँखों से नींद ऐसे गायब हो गई जैसे गधे के सिर से सींग. डैडी के बेडरूम में जो ब्लैक एंड व्हाइट टी० वी० लगी हुई महीनों से सीलन खा रही थी (क्योंकि उन्होंने बीमारी के कारण काफी समय से टी०वी० देखना बंद कर दिया था), उसे मेरी बहन हेमा अपने कमरे में उठा ले गयी थी ताकि वह अकेले में मैचों का बेखट मजा ले सके. हमने भी टी०वी० पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित करने के साथ-साथ कानोप्न से मिनी ट्रांजिस्टर चिपका रहा था. <br />
<br />
यह स्थिति और भी भयावह थी. अगर रात को दवा-दारू के अभाव में डैडी के प्राण भी निकल जाते तो उसकी खबर सवेरे ही मिलाती. क्योंकि देर रात तक मैच के ख़त्म होने के बाद हम तत्काल बिस्तरों पर सो जाते थे और सुबह हमारी नींद तब खुलती थी जबकि महरी या ग्वाला दरवाज़ा खटखटाते थे. <br />
<br />
दो दिनों से मैं भी आफिस नहीं जा रहा था. जब तक लीग मैच होते रहे, मैंने आफिस में पाकिट ट्रांजिस्टर से ही काम चलाया. बीच-बीच में अपनी पत्नी सुधा को घर पर फोन करके मैच के बारे में ताजा स्थिति की जानकारी लेकर ही संतोष कर लेता! लेकिन, जब भारत ने साउथ अफ्रीका को सेमी फाइनल में पीटकर फाइनल में प्रवेश पा लिया तो मैंने अपने जूनियर को सेक्शन का चार्ज सौंप कर छुट्टी मार ली. मेरे खाते में छुट्टियों का हमेशा अभाव रहा है जिसके चलते डैडी की हालत बेहद गंभीर होने के बावजूद मैं उन्हें खुद कई बार डाक्टर के पास नहीं ले जा सका और उन्हें ड्राइवर के भरोसे छोड़ कर अपनी ड्यूटी पर निकल पड़ा. <br />
<br />
उस दिन फाइनल में पहुँचने के लिए सेमी फ़ाइनल का मुकाबला पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया के बीच था. सारा देश पाकिस्तान के हारने की उम्मीद लगाए बैठा था क्योंकि लोगों को यकीन था कि अगर फाइनल में भारत का सामना पाकिस्तान से हुआ तो उसके जीतने की आशा धूमिल पड़ जाएगी. मेरे घर में भी सभी, सब कुछ छोड़कर यह प्रार्थना करने में जुटे हुए थे कि काश! पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया के हाथों चारों खाना चित्त हो जाता. <br />
<br />
पता नहीं क्यों? पाकिस्तान के खिलाफ खेलते हुए न केवल हमारे खिलाड़ियों का मनोबल आधा हो जाता है, बल्कि हम भी अपनी हार माँ बैठते हैं. <br />
<br />
सुबह जब मम्मी नहा-धोकर रोज़ की तरह मंदिर को दर्शन करने निकलीं तो हम सोच रहे थे कि वह मंदिर में जाकर ईश्वर से डैड के रोगमुक्त होने के लिए प्रार्थनाएं करेंगी. लेकिन, मंदिर से वापस आते ही वह मरीजखाने में डैड के पास जाने के बजाए सीधे ड्राइंग रूम में तशरीफ़ लाईन जहां भाईसाहब और मेरे बीच इस बाबत जोरदार बहस छिड़ी हुई थी कि सेमी फाइनल में कौन जीतेगा--पाकिस्तान या आस्ट्रेलिया. भाईसाहब तो पाकिस्तान द्वारा सेमी फाइनल में पूर्व वर्ल्ड कप चैम्पियन--आस्ट्रेलिया को शिकस्त दिए जाने के पक्ष में दनादन तर्क दिए जा रहे थे जबकि मेरे द्वारा आस्ट्रेलिया को जिताने के लिए दी जाने वाली सारी दलीलें हल्की पड़ती जा रही थीं. <br />
<br />
बेशक! उस वाक् युद्ध में मैं अपनी हार से बेहद मायूस होता जा रहा था. वहां मौजूद मेरी पत्नी सुधा को भी इससे बड़ा कोफ़्त हो रहा था. मुझे उसके सामने अपनी मात से और भी ज़्यादा आत्मग्लानि हो रही थी. वह भी चाहती थी कि भले ही पाकिस्तान क्रिकेट के मैदान में आस्ट्रेलिया को धूल चटा दे, लेकिन भाईसाहब से तर्क-कुतर्क में मैं मात न खाऊँ. बहरहाल, मुझे अपनी बहन--हेमा पर अत्यंत क्रोध आ रहा था जो बिलावज़ह भाईसाहब का पक्ष ले रही थी और वह भी बड़ी चुटकियाँ ले-लेकर. उसकी व्यंग्य-मुस्कान से यह साफ ज़ाहिर हो रहा था कि वह मुझे चिढ़ाना ज़्यादा चाह रही है और पाकिस्तान को जिताना कम. अन्यथा, वह छोटी बहन होने के बावजूद, भाई साहब को आदतन यह सबक देने की गुस्ताखी तो जरूर करती कि 'भैया, क्रिकेट जैसे पेंचीदे विषय से आपका क्या लेना-देना? जाइए, आप किसी मुकदमे की गुत्थी तलाशिए. वकालत के पेशे वालों को क्रिकेट में कतई दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए.'<br />
<br />
लिहाजा, मुझे यह सोचकर बड़ा सुकून मिला कि चलो, कम से कम मेरे घर में एक तो ऐसा बन्दा है जो क्रिकेट को गंभीरतापूर्वक न लेकर मजाकिया लहजे में ले रहा है. मैं भी इस विश्व कप में भले ही दिलचस्पी ले रहा था, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर मैं क्रिकेट जैसे खेल का आलोचक रहा हूँ. क्योंकि जब कोई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच होता है तो सारे देश की हालत नाबदान में ठहरे हुए पानी जैसी हो जाती है. घर, खेत-खलिहानों, कल-कारखानों, दफ्तरों आदि में सारी गतिविधियाँ ठप्प पड़ जाती हैं. सोचिए, जितने दिन क्रिकेट मैच होता है, देश की कितनी श्रम-ऊर्जा निष्क्रिय होकर व्यर्थ जाती होगी! कितना आर्थिक नुकसान होता होगा!<br />
<br />
बहरहाल, मम्मी के आते ही बहसा-बहसी की फिजां ही बदल गई. सारा पासा ही पलट गया. मंदिर से आने के बाद उनकी बातों में बड़ा दम आ गया था. आखिर, उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ ईश्वर से जो मन्नतें मानी थी, वे व्यर्थ थोड़े ही जाने वाली थी. सो, जब पाकिस्तान भाई साहब को आड़े हाथन लिया तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. उस पल, ऐसा लगा कि जैसे आस्ट्रेलिया के हाथों पाकिस्तान का हारना तय है.<br />
<br />
उस रात, हमने यह निश्चय किया कि हम सब दालान में बैठकर टी.वी. देखेंगे और पाकिस्तान को हारते हुए देखने का असली मज़ा लेंगे. सुधा ने वहीं एक टेबल पर स्टोव, केतली और चाय बनाने का सारा सामान भी जमा कर दिया था ताकि बीच-बीच में चाय पीते हुए मैच देखने का असली लुत्फ़ उठाया जाए. भाई साहब ने पाकिस्तान की जीत को सेलीब्रेट करने के लिए पटाखे छोड़ने का इंतजाम पहले से कर लिया था. मैंने आस्ट्रेलिया की जीत के उपलक्ष्य में ऐसा कुछ भी न करने का इंतजाम किया था. क्योंकि मन ही मन मैं भी आस्ट्रेलिया के हारने के भय से मुक्त नहीं हो पाया था. <br />
<br />
डिनर के बाद, सभी दालान में तशरीफ़ लाए. हेमा भी आ गई. इस दिन वह अकेले मैच देखने से बाज आ रही थी. उसने आते ही अपना आसन भाईसाहब के बगल में जमाया. वह मुझे व्यंग्यपूर्वक देखते हुए भाईसाहब के गुट में शामिल होने का अहसास दिला रही थी. अगर मायके से भाभी आ गयी होतीं तो वह नि:संदेह उनके पल्लू में बैठती. तब, मेरा मनोबल और भी गिर जाता. क्योंकि जब भाईसाहब, भाभी और छोटी बहन की तिकड़ी साथ-साथ बैठती थी तो मैं कोई वाक् युद्ध छेड़ने से पहले ही भींगी बिल्ली बन जाता था. मेरी पत्नी तो बहस में एकदम फिसड्डी थी. सही तर्क न दे पाने के कारण वह बेपेंदे के लोटे की तरह फिस्स मुस्कराकर किसी भे ओर लुढ़क कर उसका पलड़ा भारी कर देती थी. <br />
<br />
आखिर में पानदान लटकाए हुए और ताजे पान की गिलौरी चबाते हुए मम्मी ने बिलकुल टी.वी. के सामने दीवान के ऊपर मसनद पर बड़े आराम से दस्तक दिया. उनके हावभाव में बड़ा सुकून था. क्योंकि उन्होंने कुछ क्षण पहले डैडी के कमरे में जाकर उनके सिरहाने स्टूल पर दवाइयां, चम्मच, कटोरी, गिलास और जग में पानी रखते हुए और उन्हें जोर से झकझोरते हुए चिल्ला-चिल्लाकर बता दिया था कि रात को वे याद कर सारी दवाइयां समय से ले लेंगे वरना रोग लाइलाज हो जाएगा. साथ में यह चेतावनी भी दे दी कि वे फ़िज़ूल में बच्चों की तरह शोर मचा-मचाकर हमारे क्रिकेट मैच का मज़ा किरकिरा नहीं करेंगे और सुबह ग्वाले के आने तक हमारे जगने की प्रतीक्षा करेंगे. पता नहीं, उन्होंने मम्मी की बातें ठीक-ठीक सुनी भी थीं, या नहीं. पर, मम्मी अपना पत्नी-सुलभ फ़र्ज़ अदाकार पूरी तरह आश्वस्त नज़र आ रही थीं. हम सभी ने भी उनके चेहरे पर आत्मसंतोष का जो भाव देखा, उससे हम डैडी की ओर से बेफिक्र होकर मैच में पूरी तरह खोने को तैयार हो गए.<br />
<br />
बेशक! मैच बड़ा रोमांचक था. आस्ट्रेलिया ने टास जीत कर, पहले बल्लेबाजी की और पूरे ३०९ रन का विशाल स्कोर खड़ा किया. भाई साहब के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. और हमलोग खूब खिल्लियाँ उड़ा रहे थे. हम इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थे कि पाकिस्तान चाहे जितना भी जोर लगा ले, वह इतना विशाल स्कोर खड़ा नहीं कर सकता. इस बीच मम्मी कम से कम तीन-चार दफे उठकर आँगन में गई थीं और तुलसी के गमले में रखे शिवलिंग पर बार-बार मत्था टेक आई थीं. लिहाजा, जब पाकिस्तान ने लगभग १४-१५ रन की औसत से धुआंधार बल्लेबाजी शुरू की तो हमलोगों के मुंह से सिसकारी भी निकलनी बंद हो गई. जब तक आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज पाकिस्तानी गेंदबाजों के छक्के छुडाते रहे, हम विस्फोटक हंसी हंसते रहे और भाईसाहब को व्यंग्य-बाण से आहत करते रहे. लेकिन, पाकिस्तान द्वारा धुआंधार बल्लेबाजी देखकर हमें विश्वास होता गया कि उसका मैच जीतना कोई टेढ़ी खीर नहीं है. चूंकि उसके चार सलामी बल्लेबाज पवेलियन वापिस लौट चुके थे; लेकिन, उसकी रन बनाने की गति में कोई कमी नहीं आई थी.भाईसाहब का गुट फिर उत्तेजना में आ गया था. पाकिस्तान के अन्तिम क्रम के बल्लेबाज भी मशीन की तरह रन बना रहे थे. उस दरमियान, मम्मी फिर उठकर शिवलिंग के आगे सिर झुकाने नहीं गईं. मेरी पोतनी सुधा ने आँख मूँद कर भगवान से पाकिस्तान की पराजय नहीं माँगी. मैंने लज्जावश भाईसाहब से नज़रें हटा-हटाकर मिलाईं. <br />
<br />
शायद, भगवान में से विश्वास खोने का का दुष्परिणाम कुछ ऐसा हुआ कि अंत में, पाकिस्तान के दसवें क्रम पर आए बल्लेबाज के छक्के ने आस्ट्रेलिया को फाइनल से बाहर कर दिया.<br />
<br />
भाईसाहब ने जमकर पटाखे छोड़े. उन्होंने यह भी चिंता की कि इससे बीमार डैडी को बेहद तकलीफ हो सकती है. सायद, उन्हें इस बारे में कुछ याद ही नहीं रहा. ऐसे जोश में होश कहाँ रहता है ?<br />
<br />
सुबह जब धूप इतनी तेज हो गई कि हमारा सिर दर्द से फटने लगा, तब कहीं जाकर हमारी नीद खुली. हम पहले ही उठ गए होते. लेकिन, उस दिन महरी छुट्टी पर थी और संयोगवश, ग्वाला भी किसी वज़ह से नौ बजे तक नहीं आया था. अन्यथा, उनमें से किसी के दस्तक देने से हम पहले ही जग गए होते. कहीं हमें खराई न मार दे, इसलिए सुधा ने बासी दूध से ही चाय बनाई और हमें डाइनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए बुलाया गया. चाय-नाश्ता कर चुकने के बाद मैंने फिर अपने बेडरूम में जाकर खिड़कियाँ बंद की और बिस्तर पर पसर गया. मम्मी तो नहाने-धोने गुशालाखाने में चली गई थी. लेकिन, मुझसे किसी ने यह भी नहीं पूछा कि तुम्हें आफिस जाना है या नहीं. क्योंकि सभी को मालूम था कि मई अनिश्चित काल के लिए टायफायड का बहाना बनाकर छुट्टी पर हूँ और आफिस तभी जाऊंगा जबकि वर्ल्ड कप मैच समाप्त होगा. भाईसाहब की कचहरी में पहले से ही हड़ताल चल रही थी जिस कारण, वह भी बड़ी तबियत से फाइनल मैच के होने की प्रतीक्षा कर रहे थे. रही छोटी बहन हेमा... तो वह अपने आख़िरी सेमेस्टर के पेपर्स से फारिग होने के बाद मेडिकल सेमीनारों से कतना चाह रही थी. वह पछता रही थी कि उसने इतनी ज़ल्दी मेडिकल असोसिएशन की मेम्बरशिप क्यों ले ली. वर्ल्ड कप मैच के बाद लेती! इस वज़ह से उसे बेकार में रोज़-रोज़ के सेमीनारों आदि में व्यस्त रहना पड़ता था. वास्तव में! फाइनल मैच चार दिनों बाद होना था जिसकी बेसब्री से प्रतीक्षा करने से मिलने वाली अवर्णनीय खुशी में हम किसी काम की फ़िज़ूल चिंता से खलल नहीं डालने चाहते थे. <br />
<br />
अचानक, कुछ अजीबोगरीब शोर से मेरी नींद उचट गई. मुझे बड़ी झुंझलाहट सी हो रही थी क्योंकि मेरा एक सुन्दर सपना टूट गया था जिसमें मैं भारत और पाकिस्तान के बीच जो मैच देख रहा था, उसमें भारत का पलड़ा भारी पड़ता जा रहा था और वह नि:संदेह! विजय की ओर अग्रसर हो रहा था.<br />
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मै उठकर भीतर आँगन में शोरगुल का जायजा लेने गया तो मम्मी की हालत देखकर हकबका गया. वह बेतहाशा रोने के मूड में लग रही थी. तभी हेमा ने बताया कि डैडी की तबियत ज़्यादा खराब है. वहीं देर से आया ग्वाला भी खड़ा था. दरअसल, उसने कई बार आवाज़ लगाई थी. लेकिन, घर में छाया सन्नाटा देखकर वह आवाज़ लगाता हुआ सीधे डैडी के कमरे में घुस गया था जहां उसने डैडी को बेड के नीचे अचेतावस्था में लुढ़का हुआ औंधे मुंह देखकर प्राय: डर-सा गया था. उसने ही मम्मी को उनकी हालत के बारे में सबसे पहले जानकारी दी थी. वह संभवत: रात से ही वहां पड़े हुए थे. उन्होंने रात को हमें किसी वज़ह से आवाज़ दी होगी जिसे हमने मैच में मस्त होने के कारण नहीं सुना होगा. फिर, उन्होंने उठने की कोशिश की होगी. पर अशक्त होने के कारण गिर पड़े होंगे. दिलचस्प बात यह थी कि हमने सुबह देर से उठने के बावजूद उनके कमरे में जाकर उनकी हालत जानने की जुर्रत महसूस नहीं की. अगर ग्वाला अनजाने में उनके कमरे में दाखिला नहीं हुआ होता तो...<br />
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खैर, हेमा ने अपने नए डाक्टरी अनुभवों का इस्तेमाल कर, हमें तत्काल इत्तला किया कि डैडी की हालत नाज़ुक है और अब उन्हें अस्पताल में अब तो भर्ती करा ही देना चाहिए.<br />
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हमने ड्राइवर की मदद से डैडी को अस्पताल में भर्ती करा ही दिया. उस दिन हम सभी अस्पताल गए. हम सोच रहे थे कि दो-तीन दिनों में डैडी की हालत सम्हल ही जाएगी. फिर, उन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी जाएगी. <br />
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उस दिन उनकी कई जांचें हुईं और सभी में आई रिपोर्टें चिंताजनक थीं. खून में शूगर की मात्रा बहुत बढ़ गई थी. रक्तचाप भी इतना बढ़ गया था कि उनका उपचार कर रहे डा. श्रीवास्तव के माथे पर बार-बार बल पड़ जा रहे थे. करीब एक बजे रात को जब उन्हें सांस लेने में दिक्कत-सी होने लगी तो डाक्टर ने तत्काल नर्स को तलब कर कृत्रिम आक्सीजन की व्यवस्था कर दी. यह सब देख, मम्मी चिंता में पड़ गईं कि शायद, अस्पताल में हफ़्तों लग सकते हैं. वह उनके बगल में बैठकर लगातार ग्लूकोज़ की बोतल पर नज़रें गड़ाई हुईं थी. वह बार-बार वहां बेताबी से लगातार चहलकदमी कर रहे भाईसाहब को सवालिया नज़रों से पूछना चाह रही थीं कि बोतल का पानी इतना धीमे-धीमे क्यों चढ़ाया जा रहा है, एकसाथ उनकी नसों में क्यों नहीं उड़ेल दिया जा रहा है. उनकी इस उधेड़बुन पर मेरा मन बेहद खीझ रहा था. आखिर सभी क्यों चाह रहे थे कि जबकि डैडी तीन सालों से लगातार रुग्ण चल रहे हैं, वे अति शीघ्र ठीक हो जाएं! या यूं कही कि हम सभी किसी तरह डैडी के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से किनारा करना चाह रहे थे. <br />
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सारी रात हम सभी को अस्पताल में बैठकर डैडी की तीमारदारी करनी पड़ी. पिछले तीन सालों से जब से उनकी हालत बाद से बदतर हो गई, किसी ने उनकी तसल्लीबख्श सेवा-सुश्रुषा नहीं की थी. उनके बचपन के दोस्त--डा. अष्ठाना का कहना था कि बदपरहेज़ी ने ही उन्हें इस घातक हालत में ला खड़ा किया है. वरना, उनके मज़बूत कद-काठी को देखते हुए यह कोई नहीं कह सकता था कि मौत का खौफ उन्हें पच्चीस सालों से पहले भी छू सकता है. आज उनका शरीर कई बीमारियों का घर बन गया है. दमा, मधुमेह और अब तपेदिक ने उन्हें बारी-बारी से जकड़ लिया है. <br />
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अस्पताल में दाखिल होने के बाद से उनकी हालत में रत्ती भर भी सुधार नहीं आया. उल्टे, हालत और बिगड़ती जा रही थी. दूसरे दिन, सुबह तक सारी रिपोर्टें आ गईं. डा. श्रीवास्तव ने बताया कि दो दिन पहले की रात को उन्हें दमा का तेज दौरा पड़ा था और अगर उस वक़्त उन्हें उचित दवा मिल गई होती तो उनकी दशा इतनी नहीं बिगड़ती. <br />
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तब, हम सभी अपराधबोध से ग्रस्त होकर एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे थे. क्योंकि दौरे के समय तो हमलोग क्रिकेट मैच का आनंद ले रहे थे. हमारी उस स्थिति पर डाक्टर मुंह बिचकाते हुए चले गए थे. शायद, उन्होंने हमारे बाडी लैंग्विज़ से पढ़ लिया था किहमने उस वृद्ध व्यक्ति के प्रति घोर लापरवाही की थी. उस क्षण, हमें ऐसा लगा कि जैसे डाक्टर एक झन्नाटेदार तमाचा मार गया हो.<br />
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जब से डैडी अस्पताल में लाए गए थे, उन्होंने हममे से किसी से भी बात नहीं की थी, जबकि वह डाक्टर के सवालों का उत्तर बहुत धीमी आवाज़ में या 'हाँ' और 'ना' में दे रहे थे. हमारे बार-बार पूछने पर भी वह कुछ नहीं बोलते थे. बल्कि बड़ी गैरियत से मुंह फेर लेते थे. उनके चेहरे पर हमने घृणा और तिरस्कार के स्पष्ट भाव देखे थे. बेशक! अगर उनमें ताकत होती तो वे हमारे मुंह पर जोर से थूक भी सकते थे. <br />
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उस दिन दोपहर को डाक्टर ने बताया कि डैडी थैलीसीमिया से भी पीड़ित हैं और उनका खून बनना बिल्कुल बंद हो चुका है. सो, शाम से ही उन्हें खून चढ़ाया जाने लगा. भाईसाहब ने कहा कि अभी हमें अपना खून देने की क्या ज़रुरत है. महानगर के रक्त बैंकों में पर्याप्त मात्रा में खून उपलब्ध है. इसलिए ज़्यादा से ज़्यादा कीमतें देकर खून की चार बोतलें मंगाई गईं. रात को करीब दो बजे, उन्हें दमा के दौरे के साथ दर्ज़नों फटी खांसियाँ आईं. डाक्टर ने बताया कि यह लक्षण ठीक नहीं है. अगर ऐसा दोबारा या तिबारा हुआ तो यह घातक भी हो सकता है.<br />
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उस रात उनकी हालत वास्तव में दयनीय थी. वह बड़ी बैचेनी में थे क्योंकि उन्हें सांस लेने में बड़ी परेशानी हो रही थी. मम्मी पिछली रात से बिल्कुल न सो पाने के कारण दस बजे से ही बाहर सोफे पर खर्राटे भर रही थीं. भाईसाहब और मेरी पत्नी सुधा थोड़ी-थोड़ी देर पर डैडी को देखकर, पता नहीं कहाँ घंटों-घंटों तक लापता हो जा रहे थे. हेमा भी डैडी के मर्ज़ पर अलग-अलग डाक्टरों से बातचीत में मशगूल-सी दिखाई दे रही थी. लिहाजा, मैं वहां लगातार डैडी की हालत पर नज़र रखते हुए यह योजना बना रहाथा कि कल सुबह मुझे आफिस ज्वाइन कर ही लेना चाहिए. इसलिए, मैंने चुपके से एक डाक्टर से अपने लिए मेडिकल सर्टीफिकेट और फिटनेस सर्टीफिकेट बनवा लिए ताकि कल ड्यूटी ज्वाइन करने में कोई अड़ंगा न आए. <br />
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तीसरे दिन सुबह, मै किसी को कुछ बताए बगैर आफिस चला गया. वहीं से मैंने फोन पर अस्पताल में मम्मी को सूचित कर दिया कि आफिस के मेसेंजेर ने आकर मुझे कुछ आवश्यक काम के लिए बुलाक था जिससे मुझे अचानक ड्यूटी ज्वाइन करनी पड़ी. शाम, को मैं जानबूझकर देर से लौटा. पहले घर जाकर नहाया-धोया और फिर, नौकर से बाहर से चाय मंगवाकर नाश्ता किया. उसके बाद, तसल्ली से अस्पताल गया. वहां, की हालत देख, मैं घबड़ा-सा गया. डैडी के बेड पर कोई दूसरा डाक्टर उन्हें कृत्रिम सांस देने की कोशिश कर रहा था. पूछने पर पता चला कि डा. श्रीवास्तव छुट्टी पर चले गए हैं. नए डाक्टर बोस ने मुझे जोर की झाड़ लगाई--"आप मेजर चौहान के कैसे बेकहन और बदतमीज़ बेटे हैं कि आपके पिता मौत से जूझ रहे हैं जबकि आप सुबह से ही नदारद हैं? कितने शर्म की बात है कि यहाँ आपके पिता एक लावारिस मरीज़ की तरह यहाँ डेथ-बेड पर पड़े-पड़े हमारे स्टाफ के रहमोकरम की भीख मांग रहे हैं! अगर इस दरमियान इनकी मौत हो जाती तो इनकी बाडी का क्लेम करने के लिए भी कोई आगे आना वाला नहीं था..."<br />
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मैंने लगभग हकलाते हुए खे प्रकट किया और किसी को ढूँढने के बहाने आसपास का चक्कर लगाने लगा. थोड़ी बाद ग्रीन लान में मैंने मम्मी को उनकी कुछ आगंतुक सहेलियों के साथ जोर-जोर से गप्प लड़ाते हुए पाया. बेशक! चर्चा काविशय क्रिकेट ही था. मुझे अपने पास पाकर उन्होंने अपना चेहरा हाथी के सूंड़ की तरह लटका लिया. जैसेकि वह सुबह से ही गम में डूबी हुईं हों. वह मुझे देखते ही उठ खड़ी हुईं. कहने लगीं, "अभी-अभी तो आई हूँ. क्या करती? तुम्हारी आंटियां डैडी को देखने आई थीं जिन्हें छोड़ने बाहर तक आ गई..."<br />
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मैंने सिर्फ उन्हें घूरकर शिकायताना अंदाज़ में देखा. अगर पूचता तो वह भी कह सकती थीं कि तुम भी तो अपनी ज़िम्मेदारी से बचने के लिए आफिस चले गए थे. उन्होंने चलते-चलते मुझे बताया कि तुम्हारे बड़े भाई एक मुवक्किल के साथ कचहरी चले गए हैं. हेमा सुबह से ही एक सेमीनार में गई हुई है और अभी तक लौटी नहीं, जबकि सुधा अपनी किसी सहेली के बेटे केजन्म दिन पर कान्ग्रेट करने गई हुई है.<br />
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डैडी के बेड के पास हमारे कुछ देर तक ठहरने के बाद, डाक्टर बोस ने बताया कि मेजर चौहान यानी मेरे पिता को दोपहर से दो बार तेज दौरा पड़ चुका है और साथ में खान्सियों के साथ खून भी आया है. मैंने मम्मी का चेहरा गौर से देखा. वह इस सूचना से कोई ख़ास प्रभावित नज़र नहीं आ रही थीं. हाँ, कुछ और सुनने की उत्सुकता साफ़ झलक रही थी.<br />
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डा. बोस ने फिर कहा, "अब तो भगवान् ही मालिक है. दवा ने भी असर करना बंद कर दिया है. बेहतर होगा कि आप इन्हें अब घर ही ले जाइए. हमने जी-जान से कोशिश की. अब कुछ भी नहीं कर सकते. हाँ, मैं कुछ दवाइयां लिख दे रहा हूँ, इन्हें देते रहिएगा."<br />
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हमने डाक्टर के मशविरे को आँख मूँद कर मान लिया. यह भी नहीं सोचा कि अस्पताल में जो चिकित्सीय सुविधाएं मिल रही हैं, वे घर में कहाँ से मिल पाएंगी? हमने मम्मी की आँखों में झाँक कर देखा. उनका इशारा साफ़ था कि डैडी को रामभरोसे छोड़ देना ही श्रेयस्कर है. उन्होंने अपनी सूखी आँखों को साड़ी के पल्लू से बार-बार रगडा. उसके बाद हमने डैडी और सारे सामान-असबाब को कार में डाल दिया. ड्राइवर से कहा, "फ़ौरन घर ले चलो!"<br />
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डैडी को उनके बेड पर दोबारा डाल दिया गया. सारा घर फिर से अपनी दिनचर्या में ऐसे व्यस्त हो गया, जैसेकि कुछ हुआ ही न हो. सभी संतुष्ट थे कि चलो! डैडी को बचाने के लिए इतनी कोशिश तो की गई. चालीस-पैंतालीस हजार रूपए भी फूंक-ताप दिए गए. अब भगवान की मर्जी! वह बचें या न बचें!<br />
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चूंकि, डैडी की लाइलाज बीमारी का चतुर्दिक विज्ञापन हो चुका था, इसलिए उन्हें देखने आने वाले शुभचिंतकों का भी तांता लग गया था. मम्मी उन्हें चाय पिलाते-पिलाते कुछ रेट-रटाए जुमले सुना देती थी--जैसेकि 'भगवान की मर्जी', 'विधि का बदा टारे नहीं टरे', 'विधाता को हमें सुहागन देखना नहीं भा रहा है', 'पैतालीस साल साथ-साथ जिए, बस! हेमा बिटिया के हाथ पीले नहीं करा सकेंगे,' वगैरह=-वगैरह. तदुपरांत, वह शुभचिंतकों को बेड की ओर इशारा कर देती जैसेकि यह कहना चाह रही हों कि 'बहुत इस्तेमाल कर चुकी, अब इस डिस्पोजेबल आइटम को निपटाना भर बाकी है.'<br />
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रात के लगभग ग्यारह बजे हेमा आकर अपने दोस्तों के साथ ड्राइंग रूम में सेमीनार हुई चर्चाओं की समीक्षा कर रही थी. थोड़ी देर बाद जब भाईसाहब घर में तशरीफ़ लाए तो उनका मुंह गुस्से में सूजा हुआ था. या, यूं कहिए कि वे जानबूझकर अपने चेहरे पर गुस्सा लाने की असफल कोशिश कर रहे थे. शायद, वे अस्पताल होते हुए आए थे. बेशक! उनके अहं को इस बात से बेहद चोट पहुँची थी कि डैडी को अस्पताल से वापस लाने के फैसले में उनको क्यों नहीं शामिल किया गया. उन्होंने डैडी का हालचाल लेने वालों की मौजूदगी में हममें से एक-एक की खबर ली, "आखिर, इतनी ज़ल्दी क्या थी कि डैडी को वापस लेते आए? अरे, उन्हें पूरी तरह ठीक तो हो जाने दिया होता! हमलोग एक-दो दिन अस्पताल की ज़िल्लत और झेल लेते! यहाँ क्या है? न कोई डाक्टर है, न ही कोई कायदे की दवा? डा. अष्ठाना तो चूतिया और निकम्मा है. बस, ऊपरी तौर पर डैडी का खैरख्वाह बनने का ड्रामा करता रहता है. उसने ही डैडी को इस हालत में ला खड़ा किया है. उल्टे, उनकी बीमार हालत के लिए हमें ज़िम्मेदार ठहराता है."<br />
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मैंने भाईसाहब को एक कोने में ले जाकर बताया, ""हमलोग क्या करते? खुद डाक्टर ने हमें डैडी को घर ले जाने की सलाह दी थी कि अब ईश्वर से प्रार्थना कीजिए. उन्हें कोई करिश्मा ही बचा सकता है, हम जैसे इंसान नहीं..."<br />
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मेरी बात सुनकर वह पहले हमारा चेहरा घूरते रहे. कुछ क्षण तक उन्होंने डैडी के कमरे की ओर भी निर्भाव दृष्टि से देखा. मैंने सोचा कि वह कमरे में जाकर डैडी की हालत का जायजा लेंगे. पर, वे ठिठकते हुए अपने बेडरूम में घुस गए. <br />
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रात के लगभग साढ़े बारह बजे हम लेट-लतीफ़ खाना खाने के बाद सोने का यत्न कर रहे थे. हम यह सोचकर खुश थे कि अच्छा हुआ कि डैडी घर वापस आ गए. कल का फाइनल मैच टी. वी. पर तसल्ली से देख सकेंगे. अस्पताल में तो इतना बढ़िया मौक़ा खटाई में पड़ जाता. शायद, बेड में पड़े-पड़े हर व्यक्ति यह सोच रहा था कि ज़ल्दी से एक ही नींद में रात गुजर जाए, ताकि कल सबेरे तरिताजा मूड में मैच का भरपूर आनंद लिया जा सके. <br />
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अभी हम नींद के कद्रदान बन भी नहीं पाए थे कि एक बौखलाने वाली चींख ने उसमें खलल डाल दिया. हम हड़बड़ाकर उठ बैठे. हमने वाकई एहसास किया किया कि वह चींख डैडी की ही हो सकती है. हम एक झटके से उनके कमरे में दाखिल हुए. डैडी का सारा शरीर तेजी से काँप रहा था. और जबड़ा तेजी से बज रहा था. मम्मी झिझकते हुए उनके हाथ पकड़ कर उनकी कंपकंपाहट को रोकना चाह रही थीं और हमलोग दूर से ही डैडी को तसल्ली दे रहे थे कि 'डैडी, आपको कुछ भी नहीं होगा." पर, वे तो मायूस निगाहों से चारों ओर देखते हुए कुछ अनापशनाप आवाज़ निकाल रहे थे. उस वक़्त, डैडी की इकलौती लाडली बेटी--हेमा की आँखों में आंसुओं का गुबार उमड़ रहा था. इसी बीच सुधा ने बुद्धिमानी दिखाते हुए डाक्टर अष्ठाना को झटपट फोन कर, उन्हें तत्काल बुला लिया. <br />
<br />
जब तक डाक्टर अष्ठाना आए, डैडी के शरीर की हरकत बंद हो गई थी. हाँ, आँखें अधखुली थीं. हमने यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि डैडी अचानक शांत क्यों हो गए या उनकी आँखें पूरी तरह खुली क्यों नहीं हैं या उनके डांट किटकिटा क्यों नहीं रहे हैं. पता नहीं, उन्हें छूकर उनके शरीर का तापमान जानने में हमें तो हिचक हो रही थी; पर, कुंआरी हेमा डाक्टर होकर भी उन्हें हाथ क्यों नहीं लगाना चाह रही थी? डाक्टर के आने से पहले हममें से कोई भी उन्हें टटोलने की ज़हमत नहीं उठा सका. <br />
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डा. अष्ठाना संतोषजनक ढंग से डैडी की जांच करने के बाद ग़मगीन हो गए, "मेजर सा'ब इज नो मोर."<br />
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उनका निष्कर्ष सुनते ही मम्मी दहाड़ें मार-मार कर बिलखने लगीं. रात से उसका सन्नाटा अचानक छीन गया. उस रात हमें पता चला कि मम्मी रोने-धोने में कितनी माहिर हैं. इसके पहले हमें मालूम नहीं था कि उनके शब्दकोश में ग्रामीणता किस हद तक शामिल है. यों तो हम सभी बेहद दुखी थे और नि:संदेह! दुखी होने का इससे अनुकूल मौक़ा और कोई नहीं हो सकता था. लेकिन, मम्मी के रोने का पूरबीपन हमें बिल्कुल नहीं भाया. अगर कोई और मौक़ा होता तो मै निश्चय ही कह देता कि 'मम्मी, किसी और लहजे में रोओ.'<br />
<br />
दु:ख की उस घड़ी में सारा पड़ोस रात के अँधेरे में उमड़ पड़ा. सुबह शहर के कई प्रतिष्ठित व्यक्ति भी आए जो या तो डैडी के जानने वाले थे या दोस्त थे. लिहाजा, हमें यह जानकर बहुत सुकून मिला कि हमारे साथ इतने ढेर सारे लोग पूरी औपचारिकता के साथ शोक मनाने को तैयार हैं.<br />
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सुबह के करीब दस बजे, डैडी के शव पर सेना की तरफ से पुष्पांजलि अर्पित की गई. एक रिटायर्ड मेजर की मृत्यु पर ऐसा करना राज्य का कर्तव्य होता है. हमलोगों का सीना तो फख्र से चौड़ा हो गया. सारे मोहल्ले में हमारी नाक ऊंची हो गई. हमें पहली बार अपने पिता के इतने बड़े आदमी होने का एहसास हुआ. <br />
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लगभग साढ़े दस बजे शव यात्रा आरम्भ हुई. शव यात्रा में जाते समय, हम दु:खी कम, चिंतित ज़्यादा थे. रास्तों से गुजरते हुए हममें से ज़्यादातर लोगों की निगाहें दुकानों में लगी टी.वी. पर जमीं हुई थीं. कुछ लोग तो इस चक्कर में पीछे छूट जा रहे थे. जैसे ही थोड़ी-सी सड़ाका जाम होती, वे शव यात्रा से अलग होकर दुकानों के सामे खड़े हो जाते और मैच का मजा लेने लगते! बेशक! इन दुकानदारों के टी.वी.परस्त हिने का आज हमें शुक्रगुजार होना चाहिए. टुकड़ों में ही सही, इस फाइनल मैच की जानकारी तो हमें मिल रही थी. मै भी शव यात्रियों के शोरगुल के बावजूद, क्रिकेट कमेंटरी के एक-एक लफ्ज़ पर अमल कर रहा था और उसके दो सलामी बल्लेबाज आउट हो चुके थे. जबकि उसका स्कोर चौदह ओवर में १२२ रन था. यानी, भारत की हालत पतली नज़र आ रही थी. यह बात साफ थी कि पाकिस्तान एक बड़ा स्कोर खड़ा करेगा और भारत को मनोवैज्ञानिक दबाव में बल्लेबाजी करने के लिए मज़बूर करेगा. <br />
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इसी दरमियाँ, मैंने अपने आगे भाईसाहब को बड़ी चिंतित मुद्रा में चलते हुए देखा. ऐसा लगा रहा था कि वह डैडी की अर्थी को अपने कंधे पर धोने के बजाय, भारत की भारी हार का दुर्वह्य बोझ खींच रहे हों. यकायक, मेरी निगाह उनके कान में लगे इयर माइक्रोफोन पर गई. मुझे समझने में देर नहीं लगी कि इन्होंने काले कुर्ते की पाकेट में मिनी द्रान्जिस्टर सेट छिपा रखा था. घने बालों के भीतर वह माइक्रोफोन मुश्किल से नज़र आने वाला था. मै हैरत के समंदर में गोते लगाने लगा. इस असीम दु:ख की घड़ी में भी उन्हें<br />
उन्होंने क्रिकेट मैच का दामन नहीं छोड़ा था. वे सिर झुकाए हुए चल रहे थे ताकि सारा ध्यान क्रिकेट कमेंटरी पर केन्द्रित कर सकें. पता नहीं, उस वक़्त वे अच्छी तरह 'राम नाम सत्य' भी बोल रहे थे या नहीं. उस सामूहिक स्वर में किसी को इसका क्या पता चलता? लेकिन, मुझे मन ही मन उनसे ईर्ष्या होने लगी थी. सारे मैच का आनंद एकमात्र वे ही ले रहे थे. मुझे खुद पर बड़ा कोफ़्त हो रहा था कि यह युक्ति मेरे दिमाग में क्यों नहीं आई. मेरे पास भी माचिस के आकार का बढ़िया द्रान्जिस्टर था जिसे मैं या तो कान खुजलाने के बहाने कान से लगाए रखता या भाईसाहब के नक्शेकदम पर माइक्रोफोन के जरिए कान में फिट कर लेता. किसी को इसकी आहट तक नहीं लगने देता!<br />
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दो घंटे की थकाऊ पदयात्रा के बाद हमने श्मशान घाट पर कदम रखा. वहां बिल्कुल ऊपर वाली सीढियों के किनारे जो माला-फूल और पूजन-सामग्री की दुकानें थीं, उनमे लगीं कुछ मिनी टीवियों पर दर्शक उमड़े हुए थे. <br />
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बहरहाल, शव के साथ जो चुनिंदा संस्कार किए गए, उनमे भाईसाहब ने बखूबी शिरकत की. फिर, डैडी को मुखाग्नि देने के के बाद पता नहीं, कहाँ वे गुम हो गए? मैंने इधर-उधर उन्हें ढूँढने की असफल चेष्टा की. कुछ देर तक मैंने ऊपर टी.वी. देखने में मशगूल भीड़ में भी उनको तलाश किया. पर, वे कहीं नहीं दिखाई दिए. बेशक! वे वहीं मौजूद रहे होंगे. लेकिन, मेरा ध्यान बार-बार टी.वी. पर ठहर जाने की वज़ह से मै उन्हें ईमानदारी से नहीं ढूंढ सका. जब पुन: नीचे आया तो मेरा मिजाज़ ठीक नहीं था क्योंकि पाकिस्तान ने चौवालीस ओवरों में दो सौ बानवे रन बना लिए थे और शेष छ: ओवरों में बिलाशक! वह कम से कम सत्तर-अस्सी रन तो बना ही लेगा. भला! इतने बड़े स्कोर का भारत कैसे पीछा कर सकेगा? मेरा मन बिल्कुल बैठा जा रहा था. जी कर रहा था कि वहां से तत्काल उठकर घर चला जाऊं और...<br />
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तभी महापात्र ने जैसे ही कपाल-क्रिया के लिए आवाज़ लगाई, भाईसाहब तत्काल उपस्थित हो गए. मुझे आश्चर्य हुआ. मैंने देखा कि उन्होंने उस संस्कार को बड़ी कुशलता से अंजाम दिया. उसके बाद, सनातनी रीति के अनुसार, हम पीछे मुड़े बगैर, घर की ओर चल पड़े. जब हम ऊपर दुकानों के पास से गुजर रहे थे तो किसी ने भाईसाहब को आवाज लगाई, "वकील सा'ब! आइए, अब तसल्ली से बैठकर मैच का मजा लें..." सभी ने सिर उठाकर एक बार उन्हें देखा जो बड़ी तल्लीनता से इयर माइक्रोफोन से क्रिकेट कमेंटरी सुनते हुए आगे बढ़ रहे थे. <br />
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मेरी समझ में आ गया कि वे बीच-बीच में श्मशान से कहाँ गायब हो जा रहे थे. <br />
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घर पहुंचकर हमें एहसास हुआ कि पिता के विछोह ने हमें अनाथ बना दिया है. गमी के सन्नाटे में सारा माहौल ऐसे डूबा हुआ था जैसेकि अंतरिक्ष में उड़ाते भूतों के बीच कोई गोरैया फंस गई हो. <br />
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मेहमानखाना रिश्तेदारों से भरा हुआ था. आँगन में एक चौकी पर स्वर्गीय डैडी की एक बड़ी-सी माल्यार्पित तस्वीर लगा दी गयी थी. दीपक और अगरबत्तियां जल रही थीं. महापंडित वहां किसी कर्मकांड की रूपरेखा तैयार कर रहा था. मै पता नहीं, किन्हीं अंतर्द्वंद्वों के चलते बाहर दालान में आकर टहलने लगा. अचानक, मुझे लगा कि हेमा के कमरे के पास से कुछ सनसनाहट-भरी आवाज़ आ रही है. तब, मै, गलियारे से होते उए पीछे जा धमाका. मैंने हेमा के कमरे में झांककर देखा तो वहां घुप्प अँधेरा छाया हुआ था. तेज धूप में से अचानक अँधेरे में आने के कारण कुछ भी साफ़-साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था. कुछ पल बाद, मुझे टी.वी. पर क्रिकेट का मैदान स्पष्ट दिखाई देने लगा. मैंने भीतर दाखिल होकर खिड़की से परदा खींचा तो बहन हेमा और पत्नी सुधा कोने में दुबकी हुई नज़र आईं. वे मुझे देख, एकदम से सिटक-सी गईं. मेरे मन में गुस्से का बवंडर उमड़ रहा था. जी में आया कि दोनों को तेज फटकार लगाऊँ. लेकिन, तभी हेमा ने मेरे आगे स्टूल खिसकाते हुए भर्राती हुई आवाज़ में कहा, "भैया! इंडिया इज ग्रेजुअली क्रम्बलिंग डाउन. पाकिस्तान के ३५४ के जवाब में भारत ने पांच विकेट खोकर कुल १०२ रन बनाए हैं. उन्तीसवाँ ओवर चल रहा है. डेफिनिटली इंडिया हज लास्ट द वर्ल्ड कप..."<br />
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उसकी सूचना से मेरा गुस्सा काफूर हो गया. मैंने गिन-गिनकर भारतीय बल्लेबाजों को दो-चार गैयाँ सुनाईं. जब बाहर निकला तो देखा कि मम्मी अहाते में तुलसीदल के पास हाथ जोड़कर शिवलिंग के से कुछ प्रार्थना कर रही थीं. मै दो मिनट तक वहां खड़ा रहा. संभवत: उन्हें वहां मेरी उपस्थिति का अहसास ही नहीं रहा. आखिरकार, मै उसी गलियारे से फिर वापस लौटने लगा. मैंने जाते-जाते पीछे घूमकर देखा कि मम्मी हेमा के कमरे की ओर जा रही हैं. मुझे यकीन हो गया कि वहां मम्मी हाथ जोड़कर डैडी की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना कर रही थीं. बल्कि, भारत के क्रिकेट में विजयी होने के लिए प्रार्थना कर रही थीं. <br />
<br />
जब तक मैच चलता रहा हम बेहतर अंडरस्टैंडिंग के साथ बारी-बारी से कमरे में जाकर मैच देखते रहे. रिश्तेदारों को और यहाँ तक कि भाईसाहब को भी इसकी भनक नहीं लगी. शाम को जब पंडितजी गरुण पुराण सुनाने आए तो हमारी क्रिकेट-भक्ति लगभग समाप्त हो चुकी थी क्योंकि भारत, पाकिस्तान के हाथों शर्मनाक हार, हार चुका था. <br />
<br />
हमने बड़ी श्रद्धा से सांसारिक निस्सारता पर पंडितजी की कथा सुनी. वर्ल्ड कप में भारत का पत्ता साफ़ होने के बाद, सचमुच सारा संसार निस्सार-सा लगने लगा था.<br />
<br />
'''(मूर्धन्य साहित्यकार विद्यानिवास मिश्र द्वारा संपादित पत्रिका 'साहित्य अमृत' में प्रकाशित)'''<br />
<br />
(समाप्त)</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A4%B2_%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%9F%E0%A4%AE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5278डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव2011-03-29T09:13:05Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div>'''डिस्पोजेबल आइटम'''<br />
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डैड की बीमारी पर किसे खुंदक नहीं थी? उन खबीस को भी ऐसी लाइलाज बीमारी तभी लगनी थी जबकि इतना दिलचस्प क्रिकेट मैच चल रहा था! वह मैच भी कोई मामूली मैच नहीं था. वर्ल्ड कप का मैच था. भारत और पाकिस्तान के बीच सीधा मुकाबला था. इसलिए, मेरा घर ही क्या, सारा मोहल्ला क्रिकेटमय था. मोहल्ले से निकलकर सड़क पर आने के बाद चाहे किसी बस की सवारी की जाए या बाजार में चहलक़दमी की जाए, क्रिकेट की चर्चा हर जुबान पर थी. चाय-पान की गुमटियों से लेकर शहर के चप्पे-चप्पे पर लोगबाग इस वर्ल्डकप को लेकर बहसा-बहसी में जमे हुए थे. मेरे आफिस में भी इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर गलाफोड़ तकरार जारी था. कभी-कभार यह तकरार झगड़ा-फसाद का भी रूप ले लेता था. मेरे आफिस वाले ही क्या, दूसरे कार्यालयों के अधिकारी-कर्मचारी भी छुट्टियां लेकर अपने-अपने घरों में टी० वी० सेटों के आगे वर्ल्ड कप के मैचों का सीधा प्रसारण देखने में जमे हुए थे. ऐसे में ऐसा लगता था कि जैसे सारी दुनिया को क्रिकेट के सिवाय कोई और काम नहीं है. बेशक! मेरा घर भी इस टूर्नामेंट का लुत्फ़ उठाने में जुटा हुआ था--घर के सारे कामकाज को ताक पर रखकर. यहाँ तक कि लोगबाग ने खुद को शौच, स्नान आदि को भी गैर-ज़रूरी समझ, चाय-नाश्ता, खाने-पीने तक ही सीमित कर रखा था. हमें तो यह भी चिंता नहीं थी कि घर में बीमार डैडी की तीमारदारी में सभी को जुट जाना चाहिए ताकि वह ज़ल्दी से भले-चंगे होकर किसी अनिष्ट की आशंका से हमें मुक्त कर दें! घरेलू डाक्टर अष्ठाना ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि अगर उन्हें वक़्त पर दवाइयां नहीं दी गईं और उनकी हालत पर खास निगरानी नहीं रखी गई तो उनकी बीमारी जानलेवा भी हो सकती है. <br />
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शायद, डैडी रोमांचक क्रिकेट का परवान चढ़ते जा रहे थे. यों तो, उन्हें भी क्रिकेट मैचों में बेइन्तेहाँ दिलचस्पी रही है; लेकिन, इस बीमारी के कारण उन्हें वर्ल्ड कप मैचों का मजा न ले पाने की भीतर ही भीतर बेहद कसक होगी, जिसे वे व्यक्त नहीं कर पा रहे होंगे. आखिर, उनके जीर्ण-शीर्ण शरीर में मैचों का आनंद लेने का दमखम कहाँ रहा? <br />
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भारत के फ़ाइनल में पहुंचते ही सभी ने अपनी दिनचर्या को भी किनारे कर दिया. रात को डैडी की देखभाल के लिए किसी को भी अपनी नींद हराम करना गवांरा नहीं था. उधर डैडी कराहते रहते और इधर हम गहरे नींद में खर्राटे भर रहे होते. कई बार तो वह पानी-पानी की रट लगाते रहते; पर, कोई उठने का नाम तक नहीं लेता. ऐसे वक़्त में मम्मी की ज़िम्मेदारी बनती थी कि वह उनके दुःख-दर्द में हाथ बंटाने के लिए उनके सामने मौजूद रहतीं. हमें भी संतोष होता! क्योंकि हमें उनकी सेवा करने की नैतिक दुविधा से मुक्ति मिल जाती--'चलो! हमें डैडी की सेवा करने न करने में धर्म-संकट में फ़िज़ूल नहीं पड़ना पड़ा.'<br />
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जब वर्ल्ड कप की सनसनीखेज़ पारियां रात को शुरू हुईं तो हम सभी की आँखों से नींद ऐसे गायब हो गई जैसे गधे के सिर से सींग. डैडी के बेडरूम में जो ब्लैक एंड व्हाइट टी० वी० लगी हुई महीनों से सीलन खा रही थी (क्योंकि उन्होंने बीमारी के कारण काफी समय से टी०वी० देखना बंद कर दिया था), उसे मेरी बहन हेमा अपने कमरे में उठा ले गयी थी ताकि वह अकेले में मैचों का बेखट मजा ले सके. हमने भी टी०वी० पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित करने के साथ-साथ कानोप्न से मिनी ट्रांजिस्टर चिपका रहा था. <br />
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यह स्थिति और भी भयावह थी. अगर रात को दवा-दारू के अभाव में डैडी के प्राण भी निकल जाते तो उसकी खबर सवेरे ही मिलाती. क्योंकि देर रात तक मैच के ख़त्म होने के बाद हम तत्काल बिस्तरों पर सो जाते थे और सुबह हमारी नींद तब खुलती थी जबकि महरी या ग्वाला दरवाज़ा खटखटाते थे. <br />
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दो दिनों से मैं भी आफिस नहीं जा रहा था. जब तक लीग मैच होते रहे, मैंने आफिस में पाकिट ट्रांजिस्टर से ही काम चलाया. बीच-बीच में अपनी पत्नी सुधा को घर पर फोन करके मैच के बारे में ताजा स्थिति की जानकारी लेकर ही संतोष कर लेता! लेकिन, जब भारत ने साउथ अफ्रीका को सेमी फाइनल में पीटकर फाइनल में प्रवेश पा लिया तो मैंने अपने जूनियर को सेक्शन का चार्ज सौंप कर छुट्टी मार ली. मेरे खाते में छुट्टियों का हमेशा अभाव रहा है जिसके चलते डैडी की हालत बेहद गंभीर होने के बावजूद मैं उन्हें खुद कई बार डाक्टर के पास नहीं ले जा सका और उन्हें ड्राइवर के भरोसे छोड़ कर अपनी ड्यूटी पर निकल पड़ा. <br />
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उस दिन फाइनल में पहुँचने के लिए सेमी फ़ाइनल का मुकाबला पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया के बीच था. सारा देश पाकिस्तान के हारने की उम्मीद लगाए बैठा था क्योंकि लोगों को यकीन था कि अगर फाइनल में भारत का सामना पाकिस्तान से हुआ तो उसके जीतने की आशा धूमिल पड़ जाएगी. मेरे घर में भी सभी, सब कुछ छोड़कर यह प्रार्थना करने में जुटे हुए थे कि काश! पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया के हाथों चारों खाना चित्त हो जाता. <br />
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पता नहीं क्यों? पाकिस्तान के खिलाफ खेलते हुए न केवल हमारे खिलाड़ियों का मनोबल आधा हो जाता है, बल्कि हम भी अपनी हार माँ बैठते हैं. <br />
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सुबह जब मम्मी नहा-धोकर रोज़ की तरह मंदिर को दर्शन करने निकलीं तो हम सोच रहे थे कि वह मंदिर में जाकर ईश्वर से डैड के रोगमुक्त होने के लिए प्रार्थनाएं करेंगी. लेकिन, मंदिर से वापस आते ही वह मरीजखाने में डैड के पास जाने के बजाए सीधे ड्राइंग रूम में तशरीफ़ लाईन जहां भाईसाहब और मेरे बीच इस बाबत जोरदार बहस छिड़ी हुई थी कि सेमी फाइनल में कौन जीतेगा--पाकिस्तान या आस्ट्रेलिया. भाईसाहब तो पाकिस्तान द्वारा सेमी फाइनल में पूर्व वर्ल्ड कप चैम्पियन--आस्ट्रेलिया को शिकस्त दिए जाने के पक्ष में दनादन तर्क दिए जा रहे थे जबकि मेरे द्वारा आस्ट्रेलिया को जिताने के लिए दी जाने वाली सारी दलीलें हल्की पड़ती जा रही थीं. <br />
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बेशक! उस वाक् युद्ध में मैं अपनी हार से बेहद मायूस होता जा रहा था. वहां मौजूद मेरी पत्नी सुधा को भी इससे बड़ा कोफ़्त हो रहा था. मुझे उसके सामने अपनी मात से और भी ज़्यादा आत्मग्लानि हो रही थी. वह भी चाहती थी कि भले ही पाकिस्तान क्रिकेट के मैदान में आस्ट्रेलिया को धूल चटा दे, लेकिन भाईसाहब से तर्क-कुतर्क में मैं मात न खाऊँ. बहरहाल, मुझे अपनी बहन--हेमा पर अत्यंत क्रोध आ रहा था जो बिलावज़ह भाईसाहब का पक्ष ले रही थी और वह भी बड़ी चुटकियाँ ले-लेकर. उसकी व्यंग्य-मुस्कान से यह साफ ज़ाहिर हो रहा था कि वह मुझे चिढ़ाना ज़्यादा चाह रही है और पाकिस्तान को जिताना कम. अन्यथा, वह छोटी बहन होने के बावजूद, भाई साहब को आदतन यह सबक देने की गुस्ताखी तो जरूर करती कि 'भैया, क्रिकेट जैसे पेंचीदे विषय से आपका क्या लेना-देना? जाइए, आप किसी मुकदमे की गुत्थी तलाशिए. वकालत के पेशे वालों को क्रिकेट में कतई दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए.'<br />
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लिहाजा, मुझे यह सोचकर बड़ा सुकून मिला कि चलो, कम से कम मेरे घर में एक तो ऐसा बन्दा है जो क्रिकेट को गंभीरतापूर्वक न लेकर मजाकिया लहजे में ले रहा है. मैं भी इस विश्व कप में भले ही दिलचस्पी ले रहा था, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर मैं क्रिकेट जैसे खेल का आलोचक रहा हूँ. क्योंकि जब कोई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच होता है तो सारे देश की हालत नाबदान में ठहरे हुए पानी जैसी हो जाती है. घर, खेत-खलिहानों, कल-कारखानों, दफ्तरों आदि में सारी गतिविधियाँ ठप्प पड़ जाती हैं. सोचिए, जितने दिन क्रिकेट मैच होता है, देश की कितनी श्रम-ऊर्जा निष्क्रिय होकर व्यर्थ जाती होगी! कितना आर्थिक नुकसान होता होगा!<br />
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बहरहाल, मम्मी के आते ही बहसा-बहसी की फिजां ही बदल गई. सारा पासा ही पलट गया. मंदिर से आने के बाद उनकी बातों में बड़ा दम आ गया था. आखिर, उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ ईश्वर से जो मन्नतें मानी थी, वे व्यर्थ थोड़े ही जाने वाली थी. सो, जब पाकिस्तान भाई साहब को आड़े हाथन लिया तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. उस पल, ऐसा लगा कि जैसे आस्ट्रेलिया के हाथों पाकिस्तान का हारना तय है.<br />
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उस रात, हमने यह निश्चय किया कि हम सब दालान में बैठकर टी.वी. देखेंगे और पाकिस्तान को हारते हुए देखने का असली मज़ा लेंगे. सुधा ने वहीं एक टेबल पर स्टोव, केतली और चाय बनाने का सारा सामान भी जमा कर दिया था ताकि बीच-बीच में चाय पीते हुए मैच देखने का असली लुत्फ़ उठाया जाए. भाई साहब ने पाकिस्तान की जीत को सेलीब्रेट करने के लिए पटाखे छोड़ने का इंतजाम पहले से कर लिया था. मैंने आस्ट्रेलिया की जीत के उपलक्ष्य में ऐसा कुछ भी न करने का इंतजाम किया था. क्योंकि मन ही मन मैं भी आस्ट्रेलिया के हारने के भय से मुक्त नहीं हो पाया था. <br />
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डिनर के बाद, सभी दालान में तशरीफ़ लाए. हेमा भी आ गई. इस दिन वह अकेले मैच देखने से बाज आ रही थी. उसने आते ही अपना आसन भाईसाहब के बगल में जमाया. वह मुझे व्यंग्यपूर्वक देखते हुए भाईसाहब के गुट में शामिल होने का अहसास दिला रही थी. अगर मायके से भाभी आ गयी होतीं तो वह नि:संदेह उनके पल्लू में बैठती. तब, मेरा मनोबल और भी गिर जाता. क्योंकि जब भाईसाहब, भाभी और छोटी बहन की तिकड़ी साथ-साथ बैठती थी तो मैं कोई वाक् युद्ध छेड़ने से पहले ही भींगी बिल्ली बन जाता था. मेरी पत्नी तो बहस में एकदम फिसड्डी थी. सही तर्क न दे पाने के कारण वह बेपेंदे के लोटे की तरह फिस्स मुस्कराकर किसी भे ओर लुढ़क कर उसका पलड़ा भारी कर देती थी. <br />
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आखिर में पानदान लटकाए हुए और ताजे पान की गिलौरी चबाते हुए मम्मी ने बिलकुल टी.वी. के सामने दीवान के ऊपर मसनद पर बड़े आराम से दस्तक दिया. उनके हावभाव में बड़ा सुकून था. क्योंकि उन्होंने कुछ क्षण पहले डैडी के कमरे में जाकर उनके सिरहाने स्टूल पर दवाइयां, चम्मच, कटोरी, गिलास और जग में पानी रखते हुए और उन्हें जोर से झकझोरते हुए चिल्ला-चिल्लाकर बता दिया था कि रात को वे याद कर सारी दवाइयां समय से ले लेंगे वरना रोग लाइलाज हो जाएगा. साथ में यह चेतावनी भी दे दी कि वे फ़िज़ूल में बच्चों की तरह शोर मचा-मचाकर हमारे क्रिकेट मैच का मज़ा किरकिरा नहीं करेंगे और सुबह ग्वाले के आने तक हमारे जगने की प्रतीक्षा करेंगे. पता नहीं, उन्होंने मम्मी की बातें ठीक-ठीक सुनी भी थीं, या नहीं. पर, मम्मी अपना पत्नी-सुलभ फ़र्ज़ अदाकार पूरी तरह आश्वस्त नज़र आ रही थीं. हम सभी ने भी उनके चेहरे पर आत्मसंतोष का जो भाव देखा, उससे हम डैडी की ओर से बेफिक्र होकर मैच में पूरी तरह खोने को तैयार हो गए.<br />
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बेशक! मैच बड़ा रोमांचक था. आस्ट्रेलिया ने टास जीत कर, पहले बल्लेबाजी की और पूरे ३०९ रन का विशाल स्कोर खड़ा किया. भाई साहब के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. और हमलोग खूब खिल्लियाँ उड़ा रहे थे. हम इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थे कि पाकिस्तान चाहे जितना भी जोर लगा ले, वह इतना विशाल स्कोर खड़ा नहीं कर सकता. इस बीच मम्मी कम से कम तीन-चार दफे उठकर आँगन में गई थीं और तुलसी के गमले में रखे शिवलिंग पर बार-बार मत्था टेक आई थीं. लिहाजा, जब पाकिस्तान ने लगभग १४-१५ रन की औसत से धुआंधार बल्लेबाजी शुरू की तो हमलोगों के मुंह से सिसकारी भी निकलनी बंद हो गई. जब तक आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज पाकिस्तानी गेंदबाजों के छक्के छुडाते रहे, हम विस्फोटक हंसी हंसते रहे और भाईसाहब को व्यंग्य-बाण से आहत करते रहे. लेकिन, पाकिस्तान द्वारा धुआंधार बल्लेबाजी देखकर हमें विश्वास होता गया कि उसका मैच जीतना कोई टेढ़ी खीर नहीं है. चूंकि उसके चार सलामी बल्लेबाज पवेलियन वापिस लौट चुके थे; लेकिन, उसकी रन बनाने की गति में कोई कमी नहीं आई थी.भाईसाहब का गुट फिर उत्तेजना में आ गया था. पाकिस्तान के अन्तिम क्रम के बल्लेबाज भी मशीन की तरह रन बना रहे थे. उस दरमियान, मम्मी फिर उठकर शिवलिंग के आगे सिर झुकाने नहीं गईं. मेरी पोतनी सुधा ने आँख मूँद कर भगवान से पाकिस्तान की पराजय नहीं माँगी. मैंने लज्जावश भाईसाहब से नज़रें हटा-हटाकर मिलाईं. <br />
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शायद, भगवान में से विश्वास खोने का का दुष्परिणाम कुछ ऐसा हुआ कि अंत में, पाकिस्तान के दसवें क्रम पर आए बल्लेबाज के छक्के ने आस्ट्रेलिया को फाइनल से बाहर कर दिया.<br />
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भाईसाहब ने जमकर पटाखे छोड़े. उन्होंने यह भी चिंता की कि इससे बीमार डैडी को बेहद तकलीफ हो सकती है. सायद, उन्हें इस बारे में कुछ याद ही नहीं रहा. ऐसे जोश में होश कहाँ रहता है ?<br />
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सुबह जब धूप इतनी तेज हो गई कि हमारा सिर दर्द से फटने लगा, तब कहीं जाकर हमारी नीद खुली. हम पहले ही उठ गए होते. लेकिन, उस दिन महरी छुट्टी पर थी और संयोगवश, ग्वाला भी किसी वज़ह से नौ बजे तक नहीं आया था. अन्यथा, उनमें से किसी के दस्तक देने से हम पहले ही जग गए होते. कहीं हमें खराई न मार दे, इसलिए सुधा ने बासी दूध से ही चाय बनाई और हमें डाइनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए बुलाया गया. चाय-नाश्ता कर चुकने के बाद मैंने फिर अपने बेडरूम में जाकर खिड़कियाँ बंद की और बिस्तर पर पसर गया. मम्मी तो नहाने-धोने गुशालाखाने में चली गई थी. लेकिन, मुझसे किसी ने यह भी नहीं पूछा कि तुम्हें आफिस जाना है या नहीं. क्योंकि सभी को मालूम था कि मई अनिश्चित काल के लिए टायफायड का बहाना बनाकर छुट्टी पर हूँ और आफिस तभी जाऊंगा जबकि वर्ल्ड कप मैच समाप्त होगा. भाईसाहब की कचहरी में पहले से ही हड़ताल चल रही थी जिस कारण, वह भी बड़ी तबियत से फाइनल मैच के होने की प्रतीक्षा कर रहे थे. रही छोटी बहन हेमा... तो वह अपने आख़िरी सेमेस्टर के पेपर्स से फारिग होने के बाद मेडिकल सेमीनारों से कतना चाह रही थी. वह पछता रही थी कि उसने इतनी ज़ल्दी मेडिकल असोसिएशन की मेम्बरशिप क्यों ले ली. वर्ल्ड कप मैच के बाद लेती! इस वज़ह से उसे बेकार में रोज़-रोज़ के सेमीनारों आदि में व्यस्त रहना पड़ता था. वास्तव में! फाइनल मैच चार दिनों बाद होना था जिसकी बेसब्री से प्रतीक्षा करने से मिलने वाली अवर्णनीय खुशी में हम किसी काम की फ़िज़ूल चिंता से खलल नहीं डालने चाहते थे. <br />
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अचानक, कुछ अजीबोगरीब शोर से मेरी नींद उचट गई. मुझे बड़ी झुंझलाहट सी हो रही थी क्योंकि मेरा एक सुन्दर सपना टूट गया था जिसमें मैं भारत और पाकिस्तान के बीच जो मैच देख रहा था, उसमें भारत का पलड़ा भारी पड़ता जा रहा था और वह नि:संदेह! विजय की ओर अग्रसर हो रहा था.<br />
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मै उठकर भीतर आँगन में शोरगुल का जायजा लेने गया तो मम्मी की हालत देखकर हकबका गया. वह बेतहाशा रोने के मूड में लग रही थी. तभी हेमा ने बताया कि डैडी की तबियत ज़्यादा खराब है. वहीं देर से आया ग्वाला भी खड़ा था. दरअसल, उसने कई बार आवाज़ लगाई थी. लेकिन, घर में छाया सन्नाटा देखकर वह आवाज़ लगाता हुआ सीधे डैडी के कमरे में घुस गया था जहां उसने डैडी को बेड के नीचे अचेतावस्था में लुढ़का हुआ औंधे मुंह देखकर प्राय: डर-सा गया था. उसने ही मम्मी को उनकी हालत के बारे में सबसे पहले जानकारी दी थी. वह संभवत: रात से ही वहां पड़े हुए थे. उन्होंने रात को हमें किसी वज़ह से आवाज़ दी होगी जिसे हमने मैच में मस्त होने के कारण नहीं सुना होगा. फिर, उन्होंने उठने की कोशिश की होगी. पर अशक्त होने के कारण गिर पड़े होंगे. दिलचस्प बात यह थी कि हमने सुबह देर से उठने के बावजूद उनके कमरे में जाकर उनकी हालत जानने की जुर्रत महसूस नहीं की. अगर ग्वाला अनजाने में उनके कमरे में दाखिला नहीं हुआ होता तो...<br />
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खैर, हेमा ने अपने नए डाक्टरी अनुभवों का इस्तेमाल कर, हमें तत्काल इत्तला किया कि डैडी की हालत नाज़ुक है और अब उन्हें अस्पताल में अब तो भर्ती करा ही देना चाहिए.<br />
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हमने ड्राइवर की मदद से डैडी को अस्पताल में भर्ती करा ही दिया. उस दिन हम सभी अस्पताल गए. हम सोच रहे थे कि दो-तीन दिनों में डैडी की हालत सम्हल ही जाएगी. फिर, उन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी जाएगी. <br />
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उस दिन उनकी कई जांचें हुईं और सभी में आई रिपोर्टें चिंताजनक थीं. खून में शूगर की मात्रा बहुत बढ़ गई थी. रक्तचाप भी इतना बढ़ गया था कि उनका उपचार कर रहे डा. श्रीवास्तव के माथे पर बार-बार बल पड़ जा रहे थे. करीब एक बजे रात को जब उन्हें सांस लेने में दिक्कत-सी होने लगी तो डाक्टर ने तत्काल नर्स को तलब कर कृत्रिम आक्सीजन की व्यवस्था कर दी. यह सब देख, मम्मी चिंता में पड़ गईं कि शायद, अस्पताल में हफ़्तों लग सकते हैं. वह उनके बगल में बैठकर लगातार ग्लूकोज़ की बोतल पर नज़रें गड़ाई हुईं थी. वह बार-बार वहां बेताबी से लगातार चहलकदमी कर रहे भाईसाहब को सवालिया नज़रों से पूछना चाह रही थीं कि बोतल का पानी इतना धीमे-धीमे क्यों चढ़ाया जा रहा है, एकसाथ उनकी नसों में क्यों नहीं उड़ेल दिया जा रहा है. उनकी इस उधेड़बुन पर मेरा मन बेहद खीझ रहा था. आखिर सभी क्यों चाह रहे थे कि जबकि डैडी तीन सालों से लगातार रुग्ण चल रहे हैं, वे अति शीघ्र ठीक हो जाएं! या यूं कही कि हम सभी किसी तरह डैडी के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से किनारा करना चाह रहे थे. <br />
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सारी रात हम सभी को अस्पताल में बैठकर डैडी की तीमारदारी करनी पड़ी. पिछले तीन सालों से जब से उनकी हालत बाद से बदतर हो गई, किसी ने उनकी तसल्लीबख्श सेवा-सुश्रुषा नहीं की थी. उनके बचपन के दोस्त--डा. अष्ठाना का कहना था कि बदपरहेज़ी ने ही उन्हें इस घातक हालत में ला खड़ा किया है. वरना, उनके मज़बूत कद-काठी को देखते हुए यह कोई नहीं कह सकता था कि मौत का खौफ उन्हें पच्चीस सालों से पहले भी छू सकता है. आज उनका शरीर कई बीमारियों का घर बन गया है. दमा, मधुमेह और अब तपेदिक ने उन्हें बारी-बारी से जकड़ लिया है. <br />
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अस्पताल में दाखिल होने के बाद से उनकी हालत में रत्ती भर भी सुधार नहीं आया. उल्टे, हालत और बिगड़ती जा रही थी. दूसरे दिन, सुबह तक सारी रिपोर्टें आ गईं. डा. श्रीवास्तव ने बताया कि दो दिन पहले की रात को उन्हें दमा का तेज दौरा पड़ा था और अगर उस वक़्त उन्हें उचित दवा मिल गई होती तो उनकी दशा इतनी नहीं बिगड़ती. <br />
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तब, हम सभी अपराधबोध से ग्रस्त होकर एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे थे. क्योंकि दौरे के समय तो हमलोग क्रिकेट मैच का आनंद ले रहे थे. हमारी उस स्थिति पर डाक्टर मुंह बिचकाते हुए चले गए थे. शायद, उन्होंने हमारे बाडी लैंग्विज़ से पढ़ लिया था किहमने उस वृद्ध व्यक्ति के प्रति घोर लापरवाही की थी. उस क्षण, हमें ऐसा लगा कि जैसे डाक्टर एक झन्नाटेदार तमाचा मार गया हो.<br />
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जब से डैडी अस्पताल में लाए गए थे, उन्होंने हममे से किसी से भी बात नहीं की थी, जबकि वह डाक्टर के सवालों का उत्तर बहुत धीमी आवाज़ में या 'हाँ' और 'ना' में दे रहे थे. हमारे बार-बार पूछने पर भी वह कुछ नहीं बोलते थे. बल्कि बड़ी गैरियत से मुंह फेर लेते थे. उनके चेहरे पर हमने घृणा और तिरस्कार के स्पष्ट भाव देखे थे. बेशक! अगर उनमें ताकत होती तो वे हमारे मुंह पर जोर से थूक भी सकते थे. <br />
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उस दिन दोपहर को डाक्टर ने बताया कि डैडी थैलीसीमिया से भी पीड़ित हैं और उनका खून बनना बिल्कुल बंद हो चुका है. सो, शाम से ही उन्हें खून चढ़ाया जाने लगा. भाईसाहब ने कहा कि अभी हमें अपना खून देने की क्या ज़रुरत है. महानगर के रक्त बैंकों में पर्याप्त मात्रा में खून उपलब्ध है. इसलिए ज़्यादा से ज़्यादा कीमतें देकर खून की चार बोतलें मंगाई गईं. रात को करीब दो बजे, उन्हें दमा के दौरे के साथ दर्ज़नों फटी खांसियाँ आईं. डाक्टर ने बताया कि यह लक्षण ठीक नहीं है. अगर ऐसा दोबारा या तिबारा हुआ तो यह घातक भी हो सकता है.<br />
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उस रात उनकी हालत वास्तव में दयनीय थी. वह बड़ी बैचेनी में थे क्योंकि उन्हें सांस लेने में बड़ी परेशानी हो रही थी. मम्मी पिछली रात से बिल्कुल न सो पाने के कारण दस बजे से ही बाहर सोफे पर खर्राटे भर रही थीं. भाईसाहब और मेरी पत्नी सुधा थोड़ी-थोड़ी देर पर डैडी को देखकर, पता नहीं कहाँ घंटों-घंटों तक लापता हो जा रहे थे. हेमा भी डैडी के मर्ज़ पर अलग-अलग डाक्टरों से बातचीत में मशगूल-सी दिखाई दे रही थी. लिहाजा, मैं वहां लगातार डैडी की हालत पर नज़र रखते हुए यह योजना बना रहाथा कि कल सुबह मुझे आफिस ज्वाइन कर ही लेना चाहिए. इसलिए, मैंने चुपके से एक डाक्टर से अपने लिए मेडिकल सर्टीफिकेट और फिटनेस सर्टीफिकेट बनवा लिए ताकि कल ड्यूटी ज्वाइन करने में कोई अड़ंगा न आए. <br />
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तीसरे दिन सुबह, मै किसी को कुछ बताए बगैर आफिस चला गया. वहीं से मैंने फोन पर अस्पताल में मम्मी को सूचित कर दिया कि आफिस के मेसेंजेर ने आकर मुझे कुछ आवश्यक काम के लिए बुलाक था जिससे मुझे अचानक ड्यूटी ज्वाइन करनी पड़ी. शाम, को मैं जानबूझकर देर से लौटा. पहले घर जाकर नहाया-धोया और फिर, नौकर से बाहर से चाय मंगवाकर नाश्ता किया. उसके बाद, तसल्ली से अस्पताल गया. वहां, की हालत देख, मैं घबड़ा-सा गया. डैडी के बेड पर कोई दूसरा डाक्टर उन्हें कृत्रिम सांस देने की कोशिश कर रहा था. पूछने पर पता चला कि डा. श्रीवास्तव छुट्टी पर चले गए हैं. नए डाक्टर बोस ने मुझे जोर की झाड़ लगाई--"आप मेजर चौहान के कैसे बेकहन और बदतमीज़ बेटे हैं कि आपके पिता मौत से जूझ रहे हैं जबकि आप सुबह से ही नदारद हैं? कितने शर्म की बात है कि यहाँ आपके पिता एक लावारिस मरीज़ की तरह यहाँ डेथ-बेड पर पड़े-पड़े हमारे स्टाफ के रहमोकरम की भीख मांग रहे हैं! अगर इस दरमियान इनकी मौत हो जाती तो इनकी बाडी का क्लेम करने के लिए भी कोई आगे आना वाला नहीं था..."<br />
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मैंने लगभग हकलाते हुए खे प्रकट किया और किसी को ढूँढने के बहाने आसपास का चक्कर लगाने लगा. थोड़ी बाद ग्रीन लान में मैंने मम्मी को उनकी कुछ आगंतुक सहेलियों के साथ जोर-जोर से गप्प लड़ाते हुए पाया. बेशक! चर्चा काविशय क्रिकेट ही था. मुझे अपने पास पाकर उन्होंने अपना चेहरा हाथी के सूंड़ की तरह लटका लिया. जैसेकि वह सुबह से ही गम में डूबी हुईं हों. वह मुझे देखते ही उठ खड़ी हुईं. कहने लगीं, "अभी-अभी तो आई हूँ. क्या करती? तुम्हारी आंटियां डैडी को देखने आई थीं जिन्हें छोड़ने बाहर तक आ गई..."<br />
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मैंने सिर्फ उन्हें घूरकर शिकायताना अंदाज़ में देखा. अगर पूचता तो वह भी कह सकती थीं कि तुम भी तो अपनी ज़िम्मेदारी से बचने के लिए आफिस चले गए थे. उन्होंने चलते-चलते मुझे बताया कि तुम्हारे बड़े भाई एक मुवक्किल के साथ कचहरी चले गए हैं. हेमा सुबह से ही एक सेमीनार में गई हुई है और अभी तक लौटी नहीं, जबकि सुधा अपनी किसी सहेली के बेटे केजन्म दिन पर कान्ग्रेट करने गई हुई है.<br />
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डैडी के बेड के पास हमारे कुछ देर तक ठहरने के बाद, डाक्टर बोस ने बताया कि मेजर चौहान यानी मेरे पिता को दोपहर से दो बार तेज दौरा पड़ चुका है और साथ में खान्सियों के साथ खून भी आया है. मैंने मम्मी का चेहरा गौर से देखा. वह इस सूचना से कोई ख़ास प्रभावित नज़र नहीं आ रही थीं. हाँ, कुछ और सुनने की उत्सुकता साफ़ झलक रही थी.<br />
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डा. बोस ने फिर कहा, "अब तो भगवान् ही मालिक है. दवा ने भी असर करना बंद कर दिया है. बेहतर होगा कि आप इन्हें अब घर ही ले जाइए. हमने जी-जान से कोशिश की. अब कुछ भी नहीं कर सकते. हाँ, मैं कुछ दवाइयां लिख दे रहा हूँ, इन्हें देते रहिएगा."<br />
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हमने डाक्टर के मशविरे को आँख मूँद कर मान लिया. यह भी नहीं सोचा कि अस्पताल में जो चिकित्सीय सुविधाएं मिल रही हैं, वे घर में कहाँ से मिल पाएंगी? हमने मम्मी की आँखों में झाँक कर देखा. उनका इशारा साफ़ था कि डैडी को रामभरोसे छोड़ देना ही श्रेयस्कर है. उन्होंने अपनी सूखी आँखों को साड़ी के पल्लू से बार-बार रगडा. उसके बाद हमने डैडी और सारे सामान-असबाब को कार में डाल दिया. ड्राइवर से कहा, "फ़ौरन घर ले चलो!"<br />
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डैडी को उनके बेड पर दोबारा डाल दिया गया. सारा घर फिर से अपनी दिनचर्या में ऐसे व्यस्त हो गया, जैसेकि कुछ हुआ ही न हो. सभी संतुष्ट थे कि चलो! डैडी को बचाने के लिए इतनी कोशिश तो की गई. चालीस-पैंतालीस हजार रूपए भी फूंक-ताप दिए गए. अब भगवान की मर्जी! वह बचें या न बचें!<br />
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चूंकि, डैडी की लाइलाज बीमारी का चतुर्दिक विज्ञापन हो चुका था, इसलिए उन्हें देखने आने वाले शुभचिंतकों का भी तांता लग गया था. मम्मी उन्हें चाय पिलाते-पिलाते कुछ रेट-रटाए जुमले सुना देती थी--जैसेकि 'भगवान की मर्जी', 'विधि का बदा टारे नहीं टरे', 'विधाता को हमें सुहागन देखना नहीं भा रहा है', 'पैतालीस साल साथ-साथ जिए, बस! हेमा बिटिया के हाथ पीले नहीं करा सकेंगे,' वगैरह=-वगैरह. तदुपरांत, वह शुभचिंतकों को बेड की ओर इशारा कर देती जैसेकि यह कहना चाह रही हों कि 'बहुत इस्तेमाल कर चुकी, अब इस डिस्पोजेबल आइटम को निपटाना भर बाकी है.'<br />
<br />
रात के लगभग ग्यारह बजे हेमा आकर अपने दोस्तों के साथ ड्राइंग रूम में सेमीनार हुई चर्चाओं की समीक्षा कर रही थी. थोड़ी देर बाद जब भाईसाहब घर में तशरीफ़ लाए तो उनका मुंह गुस्से में सूजा हुआ था. या, यूं कहिए कि वे जानबूझकर अपने चेहरे पर गुस्सा लाने की असफल कोशिश कर रहे थे. शायद, वे अस्पताल होते हुए आए थे. बेशक! उनके अहं को इस बात से बेहद चोट पहुँची थी कि डैडी को अस्पताल से वापस लाने के फैसले में उनको क्यों नहीं शामिल किया गया. उन्होंने डैडी का हालचाल लेने वालों की मौजूदगी में हममें से एक-एक की खबर ली, "आखिर, इतनी ज़ल्दी क्या थी कि डैडी को वापस लेते आए? अरे, उन्हें पूरी तरह ठीक तो हो जाने दिया होता! हमलोग एक-दो दिन अस्पताल की ज़िल्लत और झेल लेते! यहाँ क्या है? न कोई डाक्टर है, न ही कोई कायदे की दवा? डा. अष्ठाना तो चूतिया और निकम्मा है. बस, ऊपरी तौर पर डैडी का खैरख्वाह बनने का ड्रामा करता रहता है. उसने ही डैडी को इस हालत में ला खड़ा किया है. उल्टे, उनकी बीमार हालत के लिए हमें ज़िम्मेदार ठहराता है."<br />
<br />
मैंने भाईसाहब को एक कोने में ले जाकर बताया, ""हमलोग क्या करते? खुद डाक्टर ने हमें डैडी को घर ले जाने की सलाह दी थी कि अब ईश्वर से प्रार्थना कीजिए. उन्हें कोई करिश्मा ही बचा सकता है, हम जैसे इंसान नहीं..."<br />
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मेरी बात सुनकर वह पहले हमारा चेहरा घूरते रहे. कुछ क्षण तक उन्होंने डैडी के कमरे की ओर भी निर्भाव दृष्टि से देखा. मैंने सोचा कि वह कमरे में जाकर डैडी की हालत का जायजा लेंगे. पर, वे ठिठकते हुए अपने बेडरूम में घुस गए. <br />
<br />
रात के लगभग साढ़े बारह बजे हम लेट-लतीफ़ खाना खाने के बाद सोने का यत्न कर रहे थे. हम यह सोचकर खुश थे कि अच्छा हुआ कि डैडी घर वापस आ गए. कल का फाइनल मैच टी. वी. पर तसल्ली से देख सकेंगे. अस्पताल में तो इतना बढ़िया मौक़ा खटाई में पड़ जाता. शायद, बेड में पड़े-पड़े हर व्यक्ति यह सोच रहा था कि ज़ल्दी से एक ही नींद में रात गुजर जाए, ताकि कल सबेरे तरिताजा मूड में मैच का भरपूर आनंद लिया जा सके. <br />
<br />
अभी हम नींद के कद्रदान बन भी नहीं पाए थे कि एक बौखलाने वाली चींख ने उसमें खलल डाल दिया. हम हड़बड़ाकर उठ बैठे. हमने वाकई एहसास किया किया कि वह चींख डैडी की ही हो सकती है. हम एक झटके से उनके कमरे में दाखिल हुए. डैडी का सारा शरीर तेजी से काँप रहा था. और जबड़ा तेजी से बज रहा था. मम्मी झिझकते हुए उनके हाथ पकड़ कर उनकी कंपकंपाहट को रोकना चाह रही थीं और हमलोग दूर से ही डैडी को तसल्ली दे रहे थे कि 'डैडी, आपको कुछ भी नहीं होगा." पर, वे तो मायूस निगाहों से चारों ओर देखते हुए कुछ अनापशनाप आवाज़ निकाल रहे थे. उस वक़्त, डैडी की इकलौती लाडली बेटी--हेमा की आँखों में आंसुओं का गुबार उमड़ रहा था. इसी बीच सुधा ने बुद्धिमानी दिखाते हुए डाक्टर अष्ठाना को झटपट फोन कर, उन्हें तत्काल बुला लिया. <br />
<br />
जब तक डाक्टर अष्ठाना आए, डैडी के शरीर की हरकत बंद हो गई थी. हाँ, आँखें अधखुली थीं. हमने यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि डैडी अचानक शांत क्यों हो गए या उनकी आँखें पूरी तरह खुली क्यों नहीं हैं या उनके डांट किटकिटा क्यों नहीं रहे हैं. पता नहीं, उन्हें छूकर उनके शरीर का तापमान जानने में हमें तो हिचक हो रही थी; पर, कुंआरी हेमा डाक्टर होकर भी उन्हें हाथ क्यों नहीं लगाना चाह रही थी? डाक्टर के आने से पहले हममें से कोई भी उन्हें टटोलने की ज़हमत नहीं उठा सका. <br />
<br />
डा. अष्ठाना संतोषजनक ढंग से डैडी की जांच करने के बाद ग़मगीन हो गए, "मेजर सा'ब इज नो मोर."<br />
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उनका निष्कर्ष सुनते ही मम्मी दहाड़ें मार-मार कर बिलखने लगीं. रात से उसका सन्नाटा अचानक छीन गया. उस रात हमें पता चला कि मम्मी रोने-धोने में कितनी माहिर हैं. इसके पहले हमें मालूम नहीं था कि उनके शब्दकोश में ग्रामीणता किस हद तक शामिल है. यों तो हम सभी बेहद दुखी थे और नि:संदेह! दुखी होने का इससे अनुकूल मौक़ा और कोई नहीं हो सकता था. लेकिन, मम्मी के रोने का पूरबीपन हमें बिल्कुल नहीं भाया. अगर कोई और मौक़ा होता तो मै निश्चय ही कह देता कि 'मम्मी, किसी और लहजे में रोओ.'<br />
<br />
दु:ख की उस घड़ी में सारा पड़ोस रात के अँधेरे में उमड़ पड़ा. सुबह शहर के कई प्रतिष्ठित व्यक्ति भी आए जो या तो डैडी के जानने वाले थे या दोस्त थे. लिहाजा, हमें यह जानकर बहुत सुकून मिला कि हमारे साथ इतने ढेर सारे लोग पूरी औपचारिकता के साथ शोक मनाने को तैयार हैं.<br />
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सुबह के करीब दस बजे, डैडी के शव पर सेना की तरफ से पुष्पांजलि अर्पित की गई. एक रिटायर्ड मेजर की मृत्यु पर ऐसा करना राज्य का कर्तव्य होता है. हमलोगों का सीना तो फख्र से चौड़ा हो गया. सारे मोहल्ले में हमारी नाक ऊंची हो गई. हमें पहली बार अपने पिता के इतने बड़े आदमी होने का एहसास हुआ. <br />
<br />
लगभग साढ़े दस बजे शव यात्रा आरम्भ हुई. शव यात्रा में जाते समय, हम दु:खी कम, चिंतित ज़्यादा थे. रास्तों से गुजरते हुए हममें से ज़्यादातर लोगों की निगाहें दुकानों में लगी टी.वी. पर जमीं हुई थीं. कुछ लोग तो इस चक्कर में पीछे छूट जा रहे थे. जैसे ही थोड़ी-सी सड़ाका जाम होती, वे शव यात्रा से अलग होकर दुकानों के सामे खड़े हो जाते और मैच का मजा लेने लगते! बेशक! इन दुकानदारों के टी.वी.परस्त हिने का आज हमें शुक्रगुजार होना चाहिए. टुकड़ों में ही सही, इस फाइनल मैच की जानकारी तो हमें मिल रही थी. मै भी शव यात्रियों के शोरगुल के बावजूद, क्रिकेट कमेंटरी के एक-एक लफ्ज़ पर अमल कर रहा था और उसके दो सलामी बल्लेबाज आउट हो चुके थे. जबकि उसका स्कोर चौदह ओवर में १२२ रन था. यानी, भारत की हालत पतली नज़र आ रही थी. यह बात साफ थी कि पाकिस्तान एक बड़ा स्कोर खड़ा करेगा और भारत को मनोवैज्ञानिक दबाव में बल्लेबाजी करने के लिए मज़बूर करेगा. <br />
<br />
इसी दरमियाँ, मैंने अपने आगे भाईसाहब को बड़ी चिंतित मुद्रा में चलते हुए देखा. ऐसा लगा रहा था कि वह डैडी की अर्थी को अपने कंधे पर धोने के बजाय, भारत की भारी हार का दुर्वह्य बोझ खींच रहे हों. यकायक, मेरी निगाह उनके कान में लगे इयर माइक्रोफोन पर गई. मुझे समझने में देर नहीं लगी कि इन्होंने काले कुर्ते की पाकेट में मिनी द्रान्जिस्टर सेट छिपा रखा था. घने बालों के भीतर वह माइक्रोफोन मुश्किल से नज़र आने वाला था. मै हैरत के समंदर में गोते लगाने लगा. इस असीम दु:ख की घड़ी में भी उन्हें<br />
उन्होंने क्रिकेट मैच का दामन नहीं छोड़ा था. वे सिर झुकाए हुए चल रहे थे ताकि सारा ध्यान क्रिकेट कमेंटरी पर केन्द्रित कर सकें. पता नहीं, उस वक़्त वे अच्छी तरह 'राम नाम सत्य' भी बोल रहे थे या नहीं. उस सामूहिक स्वर में किसी को इसका क्या पता चलता? लेकिन, मुझे मन ही मन उनसे ईर्ष्या होने लगी थी. सारे मैच का आनंद एकमात्र वे ही ले रहे थे. मुझे खुद पर बड़ा कोफ़्त हो रहा था कि यह युक्ति मेरे दिमाग में क्यों नहीं आई. मेरे पास भी माचिस के आकार का बढ़िया द्रान्जिस्टर था जिसे मैं या तो कान खुजलाने के बहाने कान से लगाए रखता या भाईसाहब के नक्शेकदम पर माइक्रोफोन के जरिए कान में फिट कर लेता. किसी को इसकी आहट तक नहीं लगने देता!<br />
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दो घंटे की थकाऊ पदयात्रा के बाद हमने श्मशान घाट पर कदम रखा. वहां बिल्कुल ऊपर वाली सीढियों के किनारे जो माला-फूल और पूजन-सामग्री की दुकानें थीं, उनमे लगीं कुछ मिनी टीवियों पर दर्शक उमड़े हुए थे. <br />
<br />
बहरहाल, शव के साथ जो चुनिंदा संस्कार किए गए, उनमे भाईसाहब ने बखूबी शिरकत की. फिर, डैडी को मुखाग्नि देने के के बाद पता नहीं, कहाँ वे गुम हो गए? मैंने इधर-उधर उन्हें ढूँढने की असफल चेष्टा की. कुछ देर तक मैंने ऊपर टी.वी. देखने में मशगूल भीड़ में भी उनको तलाश किया. पर, वे कहीं नहीं दिखाई दिए. बेशक! वे वहीं मौजूद रहे होंगे. लेकिन, मेरा ध्यान बार-बार टी.वी. पर ठहर जाने की वज़ह से मै उन्हें ईमानदारी से नहीं ढूंढ सका. जब पुन: नीचे आया तो मेरा मिजाज़ ठीक नहीं था क्योंकि पाकिस्तान ने चौवालीस ओवरों में दो सौ बानवे रन बना लिए थे और शेष छ: ओवरों में बिलाशक! वह कम से कम सत्तर-अस्सी रन तो बना ही लेगा. भला! इतने बड़े स्कोर का भारत कैसे पीछा कर सकेगा? मेरा मन बिल्कुल बैठा जा रहा था. जी कर रहा था कि वहां से तत्काल उठकर घर चला जाऊं और...<br />
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तभी महापात्र ने जैसे ही कपाल-क्रिया के लिए आवाज़ लगाई, भाईसाहब तत्काल उपस्थित हो गए. मुझे आश्चर्य हुआ. मैंने देखा कि उन्होंने उस संस्कार को बड़ी कुशलता से अंजाम दिया. उसके बाद, सनातनी रीति के अनुसार, हम पीछे मुड़े बगैर, घर की ओर चल पड़े. जब हम ऊपर दुकानों के पास से गुजर रहे थे तो किसी ने भाईसाहब को आवाज लगाई, "वकील सा'ब! आइए, अब तसल्ली से बैठकर मैच का मजा लें..." सभी ने सिर उठाकर एक बार उन्हें देखा जो बड़ी तल्लीनता से इयर माइक्रोफोन से क्रिकेट कमेंटरी सुनते हुए आगे बढ़ रहे थे. <br />
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मेरी समझ में आ गया कि वे बीच-बीच में श्मशान से कहाँ गायब हो जा रहे थे. <br />
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घर पहुंचकर हमें एहसास हुआ कि पिता के विछोह ने हमें अनाथ बना दिया है. गमी के सन्नाटे में सारा माहौल ऐसे डूबा हुआ था जैसेकि अंतरिक्ष में उड़ाते भूतों के बीच कोई गोरैया फंस गई हो. <br />
<br />
मेहमानखाना रिश्तेदारों से भरा हुआ था. आँगन में एक चौकी पर स्वर्गीय डैडी की एक बड़ी-सी माल्यार्पित तस्वीर लगा दी गयी थी. दीपक और अगरबत्तियां जल रही थीं. महापंडित वहां किसी कर्मकांड की रूपरेखा तैयार कर रहा था. मै पता नहीं, किन्हीं अंतर्द्वंद्वों के चलते बाहर दालान में आकर टहलने लगा. अचानक, मुझे लगा कि हेमा के कमरे के पास से कुछ सनसनाहट-भरी आवाज़ आ रही है. तब, मै, गलियारे से होते उए पीछे जा धमाका. मैंने हेमा के कमरे में झांककर देखा तो वहां घुप्प अँधेरा छाया हुआ था. तेज धूप में से अचानक अँधेरे में आने के कारण कुछ भी साफ़-साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था. कुछ पल बाद, मुझे टी.वी. पर क्रिकेट का मैदान स्पष्ट दिखाई देने लगा. मैंने भीतर दाखिल होकर खिड़की से परदा खींचा तो बहन हेमा और पत्नी सुधा कोने में दुबकी हुई नज़र आईं. वे मुझे देख, एकदम से सिटक-सी गईं. मेरे मन में गुस्से का बवंडर उमड़ रहा था. जी में आया कि दोनों को तेज फटकार लगाऊँ. लेकिन, तभी हेमा ने मेरे आगे स्टूल खिसकाते हुए भर्राती हुई आवाज़ में कहा, "भैया! इंडिया इज ग्रेजुअली क्रम्बलिंग डाउन. पाकिस्तान के ३५४ के जवाब में भारत ने पांच विकेट खोकर कुल १०२ रन बनाए हैं. उन्तीसवाँ ओवर चल रहा है. डेफिनिटली इंडिया हज लास्ट द वर्ल्ड कप..."<br />
<br />
उसकी सूचना से मेरा गुस्सा काफूर हो गया. मैंने गिन-गिनकर भारतीय बल्लेबाजों को दो-चार गैयाँ सुनाईं. जब बाहर निकला तो देखा कि मम्मी अहाते में तुलसीदल के पास हाथ जोड़कर शिवलिंग के से कुछ प्रार्थना कर रही थीं. मै दो मिनट तक वहां खड़ा रहा. संभवत: उन्हें वहां मेरी उपस्थिति का अहसास ही नहीं रहा. आखिरकार, मै उसी गलियारे से फिर वापस लौटने लगा. मैंने जाते-जाते पीछे घूमकर देखा कि मम्मी हेमा के कमरे की ओर जा रही हैं. मुझे यकीन हो गया कि वहां मम्मी हाथ जोड़कर डैडी की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना कर रही थीं. बल्कि, भारत के क्रिकेट में विजयी होने के लिए प्रार्थना कर रही थीं. <br />
<br />
जब तक मैच चलता रहा हम बेहतर अंडरस्टैंडिंग के साथ बारी-बारी से कमरे में जाकर मैच देखते रहे. रिश्तेदारों को और यहाँ तक कि भाईसाहब को भी इसकी भनक नहीं लगी. शाम को जब पंडितजी गरुण पुराण सुनाने आए तो हमारी क्रिकेट-भक्ति लगभग समाप्त हो चुकी थी क्योंकि भारत, पाकिस्तान के हाथों शर्मनाक हार, हार चुका था. <br />
<br />
हमने बड़ी श्रद्धा से सांसारिक निस्सारता पर पंडितजी की कथा सुनी. वर्ल्ड कप में भारत का पत्ता साफ़ होने के बाद, सचमुच सारा संसार निस्सार-सा लगने लगा था.<br />
<br />
'''(मूर्धन्य साहित्यकार विद्यानिवास मिश्र द्वारा संपादित पत्रिका 'साहित्य अमृत' में प्रकाशित)'''<br />
(समाप्त)</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A4%B2_%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%9F%E0%A4%AE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5277डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव2011-03-29T09:10:01Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div>'''डिस्पोजेबल आइटम'''<br />
<br />
डैड की बीमारी पर किसे खुंदक नहीं थी? उन खबीस को भी ऐसी लाइलाज बीमारी तभी लगनी थी जबकि इतना दिलचस्प क्रिकेट मैच चल रहा था! वह मैच भी कोई मामूली मैच नहीं था. वर्ल्ड कप का मैच था. भारत और पाकिस्तान के बीच सीधा मुकाबला था. इसलिए, मेरा घर ही क्या, सारा मोहल्ला क्रिकेटमय था. मोहल्ले से निकलकर सड़क पर आने के बाद चाहे किसी बस की सवारी की जाए या बाजार में चहलक़दमी की जाए, क्रिकेट की चर्चा हर जुबान पर थी. चाय-पान की गुमटियों से लेकर शहर के चप्पे-चप्पे पर लोगबाग इस वर्ल्डकप को लेकर बहसा-बहसी में जमे हुए थे. मेरे आफिस में भी इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर गलाफोड़ तकरार जारी था. कभी-कभार यह तकरार झगड़ा-फसाद का भी रूप ले लेता था. मेरे आफिस वाले ही क्या, दूसरे कार्यालयों के अधिकारी-कर्मचारी भी छुट्टियां लेकर अपने-अपने घरों में टी० वी० सेटों के आगे वर्ल्ड कप के मैचों का सीधा प्रसारण देखने में जमे हुए थे. ऐसे में ऐसा लगता था कि जैसे सारी दुनिया को क्रिकेट के सिवाय कोई और काम नहीं है. बेशक! मेरा घर भी इस टूर्नामेंट का लुत्फ़ उठाने में जुटा हुआ था--घर के सारे कामकाज को ताक पर रखकर. यहाँ तक कि लोगबाग ने खुद को शौच, स्नान आदि को भी गैर-ज़रूरी समझ, चाय-नाश्ता, खाने-पीने तक ही सीमित कर रखा था. हमें तो यह भी चिंता नहीं थी कि घर में बीमार डैडी की तीमारदारी में सभी को जुट जाना चाहिए ताकि वह ज़ल्दी से भले-चंगे होकर किसी अनिष्ट की आशंका से हमें मुक्त कर दें! घरेलू डाक्टर अष्ठाना ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि अगर उन्हें वक़्त पर दवाइयां नहीं दी गईं और उनकी हालत पर खास निगरानी नहीं रखी गई तो उनकी बीमारी जानलेवा भी हो सकती है. <br />
<br />
शायद, डैडी रोमांचक क्रिकेट का परवान चढ़ते जा रहे थे. यों तो, उन्हें भी क्रिकेट मैचों में बेइन्तेहाँ दिलचस्पी रही है; लेकिन, इस बीमारी के कारण उन्हें वर्ल्ड कप मैचों का मजा न ले पाने की भीतर ही भीतर बेहद कसक होगी, जिसे वे व्यक्त नहीं कर पा रहे होंगे. आखिर, उनके जीर्ण-शीर्ण शरीर में मैचों का आनंद लेने का दमखम कहाँ रहा? <br />
<br />
भारत के फ़ाइनल में पहुंचते ही सभी ने अपनी दिनचर्या को भी किनारे कर दिया. रात को डैडी की देखभाल के लिए किसी को भी अपनी नींद हराम करना गवांरा नहीं था. उधर डैडी कराहते रहते और इधर हम गहरे नींद में खर्राटे भर रहे होते. कई बार तो वह पानी-पानी की रट लगाते रहते; पर, कोई उठने का नाम तक नहीं लेता. ऐसे वक़्त में मम्मी की ज़िम्मेदारी बनती थी कि वह उनके दुःख-दर्द में हाथ बंटाने के लिए उनके सामने मौजूद रहतीं. हमें भी संतोष होता! क्योंकि हमें उनकी सेवा करने की नैतिक दुविधा से मुक्ति मिल जाती--'चलो! हमें डैडी की सेवा करने न करने में धर्म-संकट में फ़िज़ूल नहीं पड़ना पड़ा.'<br />
<br />
जब वर्ल्ड कप की सनसनीखेज़ पारियां रात को शुरू हुईं तो हम सभी की आँखों से नींद ऐसे गायब हो गई जैसे गधे के सिर से सींग. डैडी के बेडरूम में जो ब्लैक एंड व्हाइट टी० वी० लगी हुई महीनों से सीलन खा रही थी (क्योंकि उन्होंने बीमारी के कारण काफी समय से टी०वी० देखना बंद कर दिया था), उसे मेरी बहन हेमा अपने कमरे में उठा ले गयी थी ताकि वह अकेले में मैचों का बेखट मजा ले सके. हमने भी टी०वी० पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित करने के साथ-साथ कानोप्न से मिनी ट्रांजिस्टर चिपका रहा था. <br />
<br />
यह स्थिति और भी भयावह थी. अगर रात को दवा-दारू के अभाव में डैडी के प्राण भी निकल जाते तो उसकी खबर सवेरे ही मिलाती. क्योंकि देर रात तक मैच के ख़त्म होने के बाद हम तत्काल बिस्तरों पर सो जाते थे और सुबह हमारी नींद तब खुलती थी जबकि महरी या ग्वाला दरवाज़ा खटखटाते थे. <br />
<br />
दो दिनों से मैं भी आफिस नहीं जा रहा था. जब तक लीग मैच होते रहे, मैंने आफिस में पाकिट ट्रांजिस्टर से ही काम चलाया. बीच-बीच में अपनी पत्नी सुधा को घर पर फोन करके मैच के बारे में ताजा स्थिति की जानकारी लेकर ही संतोष कर लेता! लेकिन, जब भारत ने साउथ अफ्रीका को सेमी फाइनल में पीटकर फाइनल में प्रवेश पा लिया तो मैंने अपने जूनियर को सेक्शन का चार्ज सौंप कर छुट्टी मार ली. मेरे खाते में छुट्टियों का हमेशा अभाव रहा है जिसके चलते डैडी की हालत बेहद गंभीर होने के बावजूद मैं उन्हें खुद कई बार डाक्टर के पास नहीं ले जा सका और उन्हें ड्राइवर के भरोसे छोड़ कर अपनी ड्यूटी पर निकल पड़ा. <br />
<br />
उस दिन फाइनल में पहुँचने के लिए सेमी फ़ाइनल का मुकाबला पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया के बीच था. सारा देश पाकिस्तान के हारने की उम्मीद लगाए बैठा था क्योंकि लोगों को यकीन था कि अगर फाइनल में भारत का सामना पाकिस्तान से हुआ तो उसके जीतने की आशा धूमिल पड़ जाएगी. मेरे घर में भी सभी, सब कुछ छोड़कर यह प्रार्थना करने में जुटे हुए थे कि काश! पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया के हाथों चारों खाना चित्त हो जाता. <br />
<br />
पता नहीं क्यों? पाकिस्तान के खिलाफ खेलते हुए न केवल हमारे खिलाड़ियों का मनोबल आधा हो जाता है, बल्कि हम भी अपनी हार माँ बैठते हैं. <br />
<br />
सुबह जब मम्मी नहा-धोकर रोज़ की तरह मंदिर को दर्शन करने निकलीं तो हम सोच रहे थे कि वह मंदिर में जाकर ईश्वर से डैड के रोगमुक्त होने के लिए प्रार्थनाएं करेंगी. लेकिन, मंदिर से वापस आते ही वह मरीजखाने में डैड के पास जाने के बजाए सीधे ड्राइंग रूम में तशरीफ़ लाईन जहां भाईसाहब और मेरे बीच इस बाबत जोरदार बहस छिड़ी हुई थी कि सेमी फाइनल में कौन जीतेगा--पाकिस्तान या आस्ट्रेलिया. भाईसाहब तो पाकिस्तान द्वारा सेमी फाइनल में पूर्व वर्ल्ड कप चैम्पियन--आस्ट्रेलिया को शिकस्त दिए जाने के पक्ष में दनादन तर्क दिए जा रहे थे जबकि मेरे द्वारा आस्ट्रेलिया को जिताने के लिए दी जाने वाली सारी दलीलें हल्की पड़ती जा रही थीं. <br />
<br />
बेशक! उस वाक् युद्ध में मैं अपनी हार से बेहद मायूस होता जा रहा था. वहां मौजूद मेरी पत्नी सुधा को भी इससे बड़ा कोफ़्त हो रहा था. मुझे उसके सामने अपनी मात से और भी ज़्यादा आत्मग्लानि हो रही थी. वह भी चाहती थी कि भले ही पाकिस्तान क्रिकेट के मैदान में आस्ट्रेलिया को धूल चटा दे, लेकिन भाईसाहब से तर्क-कुतर्क में मैं मात न खाऊँ. बहरहाल, मुझे अपनी बहन--हेमा पर अत्यंत क्रोध आ रहा था जो बिलावज़ह भाईसाहब का पक्ष ले रही थी और वह भी बड़ी चुटकियाँ ले-लेकर. उसकी व्यंग्य-मुस्कान से यह साफ ज़ाहिर हो रहा था कि वह मुझे चिढ़ाना ज़्यादा चाह रही है और पाकिस्तान को जिताना कम. अन्यथा, वह छोटी बहन होने के बावजूद, भाई साहब को आदतन यह सबक देने की गुस्ताखी तो जरूर करती कि 'भैया, क्रिकेट जैसे पेंचीदे विषय से आपका क्या लेना-देना? जाइए, आप किसी मुकदमे की गुत्थी तलाशिए. वकालत के पेशे वालों को क्रिकेट में कतई दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए.'<br />
<br />
लिहाजा, मुझे यह सोचकर बड़ा सुकून मिला कि चलो, कम से कम मेरे घर में एक तो ऐसा बन्दा है जो क्रिकेट को गंभीरतापूर्वक न लेकर मजाकिया लहजे में ले रहा है. मैं भी इस विश्व कप में भले ही दिलचस्पी ले रहा था, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर मैं क्रिकेट जैसे खेल का आलोचक रहा हूँ. क्योंकि जब कोई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच होता है तो सारे देश की हालत नाबदान में ठहरे हुए पानी जैसी हो जाती है. घर, खेत-खलिहानों, कल-कारखानों, दफ्तरों आदि में सारी गतिविधियाँ ठप्प पड़ जाती हैं. सोचिए, जितने दिन क्रिकेट मैच होता है, देश की कितनी श्रम-ऊर्जा निष्क्रिय होकर व्यर्थ जाती होगी! कितना आर्थिक नुकसान होता होगा!<br />
<br />
बहरहाल, मम्मी के आते ही बहसा-बहसी की फिजां ही बदल गई. सारा पासा ही पलट गया. मंदिर से आने के बाद उनकी बातों में बड़ा दम आ गया था. आखिर, उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ ईश्वर से जो मन्नतें मानी थी, वे व्यर्थ थोड़े ही जाने वाली थी. सो, जब पाकिस्तान भाई साहब को आड़े हाथन लिया तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. उस पल, ऐसा लगा कि जैसे आस्ट्रेलिया के हाथों पाकिस्तान का हारना तय है.<br />
<br />
उस रात, हमने यह निश्चय किया कि हम सब दालान में बैठकर टी.वी. देखेंगे और पाकिस्तान को हारते हुए देखने का असली मज़ा लेंगे. सुधा ने वहीं एक टेबल पर स्टोव, केतली और चाय बनाने का सारा सामान भी जमा कर दिया था ताकि बीच-बीच में चाय पीते हुए मैच देखने का असली लुत्फ़ उठाया जाए. भाई साहब ने पाकिस्तान की जीत को सेलीब्रेट करने के लिए पटाखे छोड़ने का इंतजाम पहले से कर लिया था. मैंने आस्ट्रेलिया की जीत के उपलक्ष्य में ऐसा कुछ भी न करने का इंतजाम किया था. क्योंकि मन ही मन मैं भी आस्ट्रेलिया के हारने के भय से मुक्त नहीं हो पाया था. <br />
<br />
डिनर के बाद, सभी दालान में तशरीफ़ लाए. हेमा भी आ गई. इस दिन वह अकेले मैच देखने से बाज आ रही थी. उसने आते ही अपना आसन भाईसाहब के बगल में जमाया. वह मुझे व्यंग्यपूर्वक देखते हुए भाईसाहब के गुट में शामिल होने का अहसास दिला रही थी. अगर मायके से भाभी आ गयी होतीं तो वह नि:संदेह उनके पल्लू में बैठती. तब, मेरा मनोबल और भी गिर जाता. क्योंकि जब भाईसाहब, भाभी और छोटी बहन की तिकड़ी साथ-साथ बैठती थी तो मैं कोई वाक् युद्ध छेड़ने से पहले ही भींगी बिल्ली बन जाता था. मेरी पत्नी तो बहस में एकदम फिसड्डी थी. सही तर्क न दे पाने के कारण वह बेपेंदे के लोटे की तरह फिस्स मुस्कराकर किसी भे ओर लुढ़क कर उसका पलड़ा भारी कर देती थी. <br />
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आखिर में पानदान लटकाए हुए और ताजे पान की गिलौरी चबाते हुए मम्मी ने बिलकुल टी.वी. के सामने दीवान के ऊपर मसनद पर बड़े आराम से दस्तक दिया. उनके हावभाव में बड़ा सुकून था. क्योंकि उन्होंने कुछ क्षण पहले डैडी के कमरे में जाकर उनके सिरहाने स्टूल पर दवाइयां, चम्मच, कटोरी, गिलास और जग में पानी रखते हुए और उन्हें जोर से झकझोरते हुए चिल्ला-चिल्लाकर बता दिया था कि रात को वे याद कर सारी दवाइयां समय से ले लेंगे वरना रोग लाइलाज हो जाएगा. साथ में यह चेतावनी भी दे दी कि वे फ़िज़ूल में बच्चों की तरह शोर मचा-मचाकर हमारे क्रिकेट मैच का मज़ा किरकिरा नहीं करेंगे और सुबह ग्वाले के आने तक हमारे जगने की प्रतीक्षा करेंगे. पता नहीं, उन्होंने मम्मी की बातें ठीक-ठीक सुनी भी थीं, या नहीं. पर, मम्मी अपना पत्नी-सुलभ फ़र्ज़ अदाकार पूरी तरह आश्वस्त नज़र आ रही थीं. हम सभी ने भी उनके चेहरे पर आत्मसंतोष का जो भाव देखा, उससे हम डैडी की ओर से बेफिक्र होकर मैच में पूरी तरह खोने को तैयार हो गए.<br />
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बेशक! मैच बड़ा रोमांचक था. आस्ट्रेलिया ने टास जीत कर, पहले बल्लेबाजी की और पूरे ३०९ रन का विशाल स्कोर खड़ा किया. भाई साहब के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. और हमलोग खूब खिल्लियाँ उड़ा रहे थे. हम इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थे कि पाकिस्तान चाहे जितना भी जोर लगा ले, वह इतना विशाल स्कोर खड़ा नहीं कर सकता. इस बीच मम्मी कम से कम तीन-चार दफे उठकर आँगन में गई थीं और तुलसी के गमले में रखे शिवलिंग पर बार-बार मत्था टेक आई थीं. लिहाजा, जब पाकिस्तान ने लगभग १४-१५ रन की औसत से धुआंधार बल्लेबाजी शुरू की तो हमलोगों के मुंह से सिसकारी भी निकलनी बंद हो गई. जब तक आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज पाकिस्तानी गेंदबाजों के छक्के छुडाते रहे, हम विस्फोटक हंसी हंसते रहे और भाईसाहब को व्यंग्य-बाण से आहत करते रहे. लेकिन, पाकिस्तान द्वारा धुआंधार बल्लेबाजी देखकर हमें विश्वास होता गया कि उसका मैच जीतना कोई टेढ़ी खीर नहीं है. चूंकि उसके चार सलामी बल्लेबाज पवेलियन वापिस लौट चुके थे; लेकिन, उसकी रन बनाने की गति में कोई कमी नहीं आई थी.भाईसाहब का गुट फिर उत्तेजना में आ गया था. पाकिस्तान के अन्तिम क्रम के बल्लेबाज भी मशीन की तरह रन बना रहे थे. उस दरमियान, मम्मी फिर उठकर शिवलिंग के आगे सिर झुकाने नहीं गईं. मेरी पोतनी सुधा ने आँख मूँद कर भगवान से पाकिस्तान की पराजय नहीं माँगी. मैंने लज्जावश भाईसाहब से नज़रें हटा-हटाकर मिलाईं. <br />
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शायद, भगवान में से विश्वास खोने का का दुष्परिणाम कुछ ऐसा हुआ कि अंत में, पाकिस्तान के दसवें क्रम पर आए बल्लेबाज के छक्के ने आस्ट्रेलिया को फाइनल से बाहर कर दिया.<br />
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भाईसाहब ने जमकर पटाखे छोड़े. उन्होंने यह भी चिंता की कि इससे बीमार डैडी को बेहद तकलीफ हो सकती है. सायद, उन्हें इस बारे में कुछ याद ही नहीं रहा. ऐसे जोश में होश कहाँ रहता है ?<br />
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सुबह जब धूप इतनी तेज हो गई कि हमारा सिर दर्द से फटने लगा, तब कहीं जाकर हमारी नीद खुली. हम पहले ही उठ गए होते. लेकिन, उस दिन महरी छुट्टी पर थी और संयोगवश, ग्वाला भी किसी वज़ह से नौ बजे तक नहीं आया था. अन्यथा, उनमें से किसी के दस्तक देने से हम पहले ही जग गए होते. कहीं हमें खराई न मार दे, इसलिए सुधा ने बासी दूध से ही चाय बनाई और हमें डाइनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए बुलाया गया. चाय-नाश्ता कर चुकने के बाद मैंने फिर अपने बेडरूम में जाकर खिड़कियाँ बंद की और बिस्तर पर पसर गया. मम्मी तो नहाने-धोने गुशालाखाने में चली गई थी. लेकिन, मुझसे किसी ने यह भी नहीं पूछा कि तुम्हें आफिस जाना है या नहीं. क्योंकि सभी को मालूम था कि मई अनिश्चित काल के लिए टायफायड का बहाना बनाकर छुट्टी पर हूँ और आफिस तभी जाऊंगा जबकि वर्ल्ड कप मैच समाप्त होगा. भाईसाहब की कचहरी में पहले से ही हड़ताल चल रही थी जिस कारण, वह भी बड़ी तबियत से फाइनल मैच के होने की प्रतीक्षा कर रहे थे. रही छोटी बहन हेमा... तो वह अपने आख़िरी सेमेस्टर के पेपर्स से फारिग होने के बाद मेडिकल सेमीनारों से कतना चाह रही थी. वह पछता रही थी कि उसने इतनी ज़ल्दी मेडिकल असोसिएशन की मेम्बरशिप क्यों ले ली. वर्ल्ड कप मैच के बाद लेती! इस वज़ह से उसे बेकार में रोज़-रोज़ के सेमीनारों आदि में व्यस्त रहना पड़ता था. वास्तव में! फाइनल मैच चार दिनों बाद होना था जिसकी बेसब्री से प्रतीक्षा करने से मिलने वाली अवर्णनीय खुशी में हम किसी काम की फ़िज़ूल चिंता से खलल नहीं डालने चाहते थे. <br />
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अचानक, कुछ अजीबोगरीब शोर से मेरी नींद उचट गई. मुझे बड़ी झुंझलाहट सी हो रही थी क्योंकि मेरा एक सुन्दर सपना टूट गया था जिसमें मैं भारत और पाकिस्तान के बीच जो मैच देख रहा था, उसमें भारत का पलड़ा भारी पड़ता जा रहा था और वह नि:संदेह! विजय की ओर अग्रसर हो रहा था.<br />
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मै उठकर भीतर आँगन में शोरगुल का जायजा लेने गया तो मम्मी की हालत देखकर हकबका गया. वह बेतहाशा रोने के मूड में लग रही थी. तभी हेमा ने बताया कि डैडी की तबियत ज़्यादा खराब है. वहीं देर से आया ग्वाला भी खड़ा था. दरअसल, उसने कई बार आवाज़ लगाई थी. लेकिन, घर में छाया सन्नाटा देखकर वह आवाज़ लगाता हुआ सीधे डैडी के कमरे में घुस गया था जहां उसने डैडी को बेड के नीचे अचेतावस्था में लुढ़का हुआ औंधे मुंह देखकर प्राय: डर-सा गया था. उसने ही मम्मी को उनकी हालत के बारे में सबसे पहले जानकारी दी थी. वह संभवत: रात से ही वहां पड़े हुए थे. उन्होंने रात को हमें किसी वज़ह से आवाज़ दी होगी जिसे हमने मैच में मस्त होने के कारण नहीं सुना होगा. फिर, उन्होंने उठने की कोशिश की होगी. पर अशक्त होने के कारण गिर पड़े होंगे. दिलचस्प बात यह थी कि हमने सुबह देर से उठने के बावजूद उनके कमरे में जाकर उनकी हालत जानने की जुर्रत महसूस नहीं की. अगर ग्वाला अनजाने में उनके कमरे में दाखिला नहीं हुआ होता तो...<br />
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खैर, हेमा ने अपने नए डाक्टरी अनुभवों का इस्तेमाल कर, हमें तत्काल इत्तला किया कि डैडी की हालत नाज़ुक है और अब उन्हें अस्पताल में अब तो भर्ती करा ही देना चाहिए.<br />
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हमने ड्राइवर की मदद से डैडी को अस्पताल में भर्ती करा ही दिया. उस दिन हम सभी अस्पताल गए. हम सोच रहे थे कि दो-तीन दिनों में डैडी की हालत सम्हल ही जाएगी. फिर, उन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी जाएगी. <br />
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उस दिन उनकी कई जांचें हुईं और सभी में आई रिपोर्टें चिंताजनक थीं. खून में शूगर की मात्रा बहुत बढ़ गई थी. रक्तचाप भी इतना बढ़ गया था कि उनका उपचार कर रहे डा. श्रीवास्तव के माथे पर बार-बार बल पड़ जा रहे थे. करीब एक बजे रात को जब उन्हें सांस लेने में दिक्कत-सी होने लगी तो डाक्टर ने तत्काल नर्स को तलब कर कृत्रिम आक्सीजन की व्यवस्था कर दी. यह सब देख, मम्मी चिंता में पड़ गईं कि शायद, अस्पताल में हफ़्तों लग सकते हैं. वह उनके बगल में बैठकर लगातार ग्लूकोज़ की बोतल पर नज़रें गड़ाई हुईं थी. वह बार-बार वहां बेताबी से लगातार चहलकदमी कर रहे भाईसाहब को सवालिया नज़रों से पूछना चाह रही थीं कि बोतल का पानी इतना धीमे-धीमे क्यों चढ़ाया जा रहा है, एकसाथ उनकी नसों में क्यों नहीं उड़ेल दिया जा रहा है. उनकी इस उधेड़बुन पर मेरा मन बेहद खीझ रहा था. आखिर सभी क्यों चाह रहे थे कि जबकि डैडी तीन सालों से लगातार रुग्ण चल रहे हैं, वे अति शीघ्र ठीक हो जाएं! या यूं कही कि हम सभी किसी तरह डैडी के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से किनारा करना चाह रहे थे. <br />
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सारी रात हम सभी को अस्पताल में बैठकर डैडी की तीमारदारी करनी पड़ी. पिछले तीन सालों से जब से उनकी हालत बाद से बदतर हो गई, किसी ने उनकी तसल्लीबख्श सेवा-सुश्रुषा नहीं की थी. उनके बचपन के दोस्त--डा. अष्ठाना का कहना था कि बदपरहेज़ी ने ही उन्हें इस घातक हालत में ला खड़ा किया है. वरना, उनके मज़बूत कद-काठी को देखते हुए यह कोई नहीं कह सकता था कि मौत का खौफ उन्हें पच्चीस सालों से पहले भी छू सकता है. आज उनका शरीर कई बीमारियों का घर बन गया है. दमा, मधुमेह और अब तपेदिक ने उन्हें बारी-बारी से जकड़ लिया है. <br />
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अस्पताल में दाखिल होने के बाद से उनकी हालत में रत्ती भर भी सुधार नहीं आया. उल्टे, हालत और बिगड़ती जा रही थी. दूसरे दिन, सुबह तक सारी रिपोर्टें आ गईं. डा. श्रीवास्तव ने बताया कि दो दिन पहले की रात को उन्हें दमा का तेज दौरा पड़ा था और अगर उस वक़्त उन्हें उचित दवा मिल गई होती तो उनकी दशा इतनी नहीं बिगड़ती. <br />
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तब, हम सभी अपराधबोध से ग्रस्त होकर एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे थे. क्योंकि दौरे के समय तो हमलोग क्रिकेट मैच का आनंद ले रहे थे. हमारी उस स्थिति पर डाक्टर मुंह बिचकाते हुए चले गए थे. शायद, उन्होंने हमारे बाडी लैंग्विज़ से पढ़ लिया था किहमने उस वृद्ध व्यक्ति के प्रति घोर लापरवाही की थी. उस क्षण, हमें ऐसा लगा कि जैसे डाक्टर एक झन्नाटेदार तमाचा मार गया हो.<br />
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जब से डैडी अस्पताल में लाए गए थे, उन्होंने हममे से किसी से भी बात नहीं की थी, जबकि वह डाक्टर के सवालों का उत्तर बहुत धीमी आवाज़ में या 'हाँ' और 'ना' में दे रहे थे. हमारे बार-बार पूछने पर भी वह कुछ नहीं बोलते थे. बल्कि बड़ी गैरियत से मुंह फेर लेते थे. उनके चेहरे पर हमने घृणा और तिरस्कार के स्पष्ट भाव देखे थे. बेशक! अगर उनमें ताकत होती तो वे हमारे मुंह पर जोर से थूक भी सकते थे. <br />
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उस दिन दोपहर को डाक्टर ने बताया कि डैडी थैलीसीमिया से भी पीड़ित हैं और उनका खून बनना बिल्कुल बंद हो चुका है. सो, शाम से ही उन्हें खून चढ़ाया जाने लगा. भाईसाहब ने कहा कि अभी हमें अपना खून देने की क्या ज़रुरत है. महानगर के रक्त बैंकों में पर्याप्त मात्रा में खून उपलब्ध है. इसलिए ज़्यादा से ज़्यादा कीमतें देकर खून की चार बोतलें मंगाई गईं. रात को करीब दो बजे, उन्हें दमा के दौरे के साथ दर्ज़नों फटी खांसियाँ आईं. डाक्टर ने बताया कि यह लक्षण ठीक नहीं है. अगर ऐसा दोबारा या तिबारा हुआ तो यह घातक भी हो सकता है.<br />
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उस रात उनकी हालत वास्तव में दयनीय थी. वह बड़ी बैचेनी में थे क्योंकि उन्हें सांस लेने में बड़ी परेशानी हो रही थी. मम्मी पिछली रात से बिल्कुल न सो पाने के कारण दस बजे से ही बाहर सोफे पर खर्राटे भर रही थीं. भाईसाहब और मेरी पत्नी सुधा थोड़ी-थोड़ी देर पर डैडी को देखकर, पता नहीं कहाँ घंटों-घंटों तक लापता हो जा रहे थे. हेमा भी डैडी के मर्ज़ पर अलग-अलग डाक्टरों से बातचीत में मशगूल-सी दिखाई दे रही थी. लिहाजा, मैं वहां लगातार डैडी की हालत पर नज़र रखते हुए यह योजना बना रहाथा कि कल सुबह मुझे आफिस ज्वाइन कर ही लेना चाहिए. इसलिए, मैंने चुपके से एक डाक्टर से अपने लिए मेडिकल सर्टीफिकेट और फिटनेस सर्टीफिकेट बनवा लिए ताकि कल ड्यूटी ज्वाइन करने में कोई अड़ंगा न आए. <br />
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तीसरे दिन सुबह, मै किसी को कुछ बताए बगैर आफिस चला गया. वहीं से मैंने फोन पर अस्पताल में मम्मी को सूचित कर दिया कि आफिस के मेसेंजेर ने आकर मुझे कुछ आवश्यक काम के लिए बुलाक था जिससे मुझे अचानक ड्यूटी ज्वाइन करनी पड़ी. शाम, को मैं जानबूझकर देर से लौटा. पहले घर जाकर नहाया-धोया और फिर, नौकर से बाहर से चाय मंगवाकर नाश्ता किया. उसके बाद, तसल्ली से अस्पताल गया. वहां, की हालत देख, मैं घबड़ा-सा गया. डैडी के बेड पर कोई दूसरा डाक्टर उन्हें कृत्रिम सांस देने की कोशिश कर रहा था. पूछने पर पता चला कि डा. श्रीवास्तव छुट्टी पर चले गए हैं. नए डाक्टर बोस ने मुझे जोर की झाड़ लगाई--"आप मेजर चौहान के कैसे बेकहन और बदतमीज़ बेटे हैं कि आपके पिता मौत से जूझ रहे हैं जबकि आप सुबह से ही नदारद हैं? कितने शर्म की बात है कि यहाँ आपके पिता एक लावारिस मरीज़ की तरह यहाँ डेथ-बेड पर पड़े-पड़े हमारे स्टाफ के रहमोकरम की भीख मांग रहे हैं! अगर इस दरमियान इनकी मौत हो जाती तो इनकी बाडी का क्लेम करने के लिए भी कोई आगे आना वाला नहीं था..."<br />
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मैंने लगभग हकलाते हुए खे प्रकट किया और किसी को ढूँढने के बहाने आसपास का चक्कर लगाने लगा. थोड़ी बाद ग्रीन लान में मैंने मम्मी को उनकी कुछ आगंतुक सहेलियों के साथ जोर-जोर से गप्प लड़ाते हुए पाया. बेशक! चर्चा काविशय क्रिकेट ही था. मुझे अपने पास पाकर उन्होंने अपना चेहरा हाथी के सूंड़ की तरह लटका लिया. जैसेकि वह सुबह से ही गम में डूबी हुईं हों. वह मुझे देखते ही उठ खड़ी हुईं. कहने लगीं, "अभी-अभी तो आई हूँ. क्या करती? तुम्हारी आंटियां डैडी को देखने आई थीं जिन्हें छोड़ने बाहर तक आ गई..."<br />
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मैंने सिर्फ उन्हें घूरकर शिकायताना अंदाज़ में देखा. अगर पूचता तो वह भी कह सकती थीं कि तुम भी तो अपनी ज़िम्मेदारी से बचने के लिए आफिस चले गए थे. उन्होंने चलते-चलते मुझे बताया कि तुम्हारे बड़े भाई एक मुवक्किल के साथ कचहरी चले गए हैं. हेमा सुबह से ही एक सेमीनार में गई हुई है और अभी तक लौटी नहीं, जबकि सुधा अपनी किसी सहेली के बेटे केजन्म दिन पर कान्ग्रेट करने गई हुई है.<br />
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डैडी के बेड के पास हमारे कुछ देर तक ठहरने के बाद, डाक्टर बोस ने बताया कि मेजर चौहान यानी मेरे पिता को दोपहर से दो बार तेज दौरा पड़ चुका है और साथ में खान्सियों के साथ खून भी आया है. मैंने मम्मी का चेहरा गौर से देखा. वह इस सूचना से कोई ख़ास प्रभावित नज़र नहीं आ रही थीं. हाँ, कुछ और सुनने की उत्सुकता साफ़ झलक रही थी.<br />
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डा. बोस ने फिर कहा, "अब तो भगवान् ही मालिक है. दवा ने भी असर करना बंद कर दिया है. बेहतर होगा कि आप इन्हें अब घर ही ले जाइए. हमने जी-जान से कोशिश की. अब कुछ भी नहीं कर सकते. हाँ, मैं कुछ दवाइयां लिख दे रहा हूँ, इन्हें देते रहिएगा."<br />
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हमने डाक्टर के मशविरे को आँख मूँद कर मान लिया. यह भी नहीं सोचा कि अस्पताल में जो चिकित्सीय सुविधाएं मिल रही हैं, वे घर में कहाँ से मिल पाएंगी? हमने मम्मी की आँखों में झाँक कर देखा. उनका इशारा साफ़ था कि डैडी को रामभरोसे छोड़ देना ही श्रेयस्कर है. उन्होंने अपनी सूखी आँखों को साड़ी के पल्लू से बार-बार रगडा. उसके बाद हमने डैडी और सारे सामान-असबाब को कार में डाल दिया. ड्राइवर से कहा, "फ़ौरन घर ले चलो!"<br />
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डैडी को उनके बेड पर दोबारा डाल दिया गया. सारा घर फिर से अपनी दिनचर्या में ऐसे व्यस्त हो गया, जैसेकि कुछ हुआ ही न हो. सभी संतुष्ट थे कि चलो! डैडी को बचाने के लिए इतनी कोशिश तो की गई. चालीस-पैंतालीस हजार रूपए भी फूंक-ताप दिए गए. अब भगवान की मर्जी! वह बचें या न बचें!<br />
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चूंकि, डैडी की लाइलाज बीमारी का चतुर्दिक विज्ञापन हो चुका था, इसलिए उन्हें देखने आने वाले शुभचिंतकों का भी तांता लग गया था. मम्मी उन्हें चाय पिलाते-पिलाते कुछ रेट-रटाए जुमले सुना देती थी--जैसेकि 'भगवान की मर्जी', 'विधि का बदा टारे नहीं टरे', 'विधाता को हमें सुहागन देखना नहीं भा रहा है', 'पैतालीस साल साथ-साथ जिए, बस! हेमा बिटिया के हाथ पीले नहीं करा सकेंगे,' वगैरह=-वगैरह. तदुपरांत, वह शुभचिंतकों को बेड की ओर इशारा कर देती जैसेकि यह कहना चाह रही हों कि 'बहुत इस्तेमाल कर चुकी, अब इस डिस्पोजेबल आइटम को निपटाना भर बाकी है.'<br />
<br />
रात के लगभग ग्यारह बजे हेमा आकर अपने दोस्तों के साथ ड्राइंग रूम में सेमीनार हुई चर्चाओं की समीक्षा कर रही थी. थोड़ी देर बाद जब भाईसाहब घर में तशरीफ़ लाए तो उनका मुंह गुस्से में सूजा हुआ था. या, यूं कहिए कि वे जानबूझकर अपने चेहरे पर गुस्सा लाने की असफल कोशिश कर रहे थे. शायद, वे अस्पताल होते हुए आए थे. बेशक! उनके अहं को इस बात से बेहद चोट पहुँची थी कि डैडी को अस्पताल से वापस लाने के फैसले में उनको क्यों नहीं शामिल किया गया. उन्होंने डैडी का हालचाल लेने वालों की मौजूदगी में हममें से एक-एक की खबर ली, "आखिर, इतनी ज़ल्दी क्या थी कि डैडी को वापस लेते आए? अरे, उन्हें पूरी तरह ठीक तो हो जाने दिया होता! हमलोग एक-दो दिन अस्पताल की ज़िल्लत और झेल लेते! यहाँ क्या है? न कोई डाक्टर है, न ही कोई कायदे की दवा? डा. अष्ठाना तो चूतिया और निकम्मा है. बस, ऊपरी तौर पर डैडी का खैरख्वाह बनने का ड्रामा करता रहता है. उसने ही डैडी को इस हालत में ला खड़ा किया है. उल्टे, उनकी बीमार हालत के लिए हमें ज़िम्मेदार ठहराता है."<br />
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मैंने भाईसाहब को एक कोने में ले जाकर बताया, ""हमलोग क्या करते? खुद डाक्टर ने हमें डैडी को घर ले जाने की सलाह दी थी कि अब ईश्वर से प्रार्थना कीजिए. उन्हें कोई करिश्मा ही बचा सकता है, हम जैसे इंसान नहीं..."<br />
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मेरी बात सुनकर वह पहले हमारा चेहरा घूरते रहे. कुछ क्षण तक उन्होंने डैडी के कमरे की ओर भी निर्भाव दृष्टि से देखा. मैंने सोचा कि वह कमरे में जाकर डैडी की हालत का जायजा लेंगे. पर, वे ठिठकते हुए अपने बेडरूम में घुस गए. <br />
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रात के लगभग साढ़े बारह बजे हम लेट-लतीफ़ खाना खाने के बाद सोने का यत्न कर रहे थे. हम यह सोचकर खुश थे कि अच्छा हुआ कि डैडी घर वापस आ गए. कल का फाइनल मैच टी. वी. पर तसल्ली से देख सकेंगे. अस्पताल में तो इतना बढ़िया मौक़ा खटाई में पड़ जाता. शायद, बेड में पड़े-पड़े हर व्यक्ति यह सोच रहा था कि ज़ल्दी से एक ही नींद में रात गुजर जाए, ताकि कल सबेरे तरिताजा मूड में मैच का भरपूर आनंद लिया जा सके. <br />
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अभी हम नींद के कद्रदान बन भी नहीं पाए थे कि एक बौखलाने वाली चींख ने उसमें खलल डाल दिया. हम हड़बड़ाकर उठ बैठे. हमने वाकई एहसास किया किया कि वह चींख डैडी की ही हो सकती है. हम एक झटके से उनके कमरे में दाखिल हुए. डैडी का सारा शरीर तेजी से काँप रहा था. और जबड़ा तेजी से बज रहा था. मम्मी झिझकते हुए उनके हाथ पकड़ कर उनकी कंपकंपाहट को रोकना चाह रही थीं और हमलोग दूर से ही डैडी को तसल्ली दे रहे थे कि 'डैडी, आपको कुछ भी नहीं होगा." पर, वे तो मायूस निगाहों से चारों ओर देखते हुए कुछ अनापशनाप आवाज़ निकाल रहे थे. उस वक़्त, डैडी की इकलौती लाडली बेटी--हेमा की आँखों में आंसुओं का गुबार उमड़ रहा था. इसी बीच सुधा ने बुद्धिमानी दिखाते हुए डाक्टर अष्ठाना को झटपट फोन कर, उन्हें तत्काल बुला लिया. <br />
<br />
जब तक डाक्टर अष्ठाना आए, डैडी के शरीर की हरकत बंद हो गई थी. हाँ, आँखें अधखुली थीं. हमने यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि डैडी अचानक शांत क्यों हो गए या उनकी आँखें पूरी तरह खुली क्यों नहीं हैं या उनके डांट किटकिटा क्यों नहीं रहे हैं. पता नहीं, उन्हें छूकर उनके शरीर का तापमान जानने में हमें तो हिचक हो रही थी; पर, कुंआरी हेमा डाक्टर होकर भी उन्हें हाथ क्यों नहीं लगाना चाह रही थी? डाक्टर के आने से पहले हममें से कोई भी उन्हें टटोलने की ज़हमत नहीं उठा सका. <br />
<br />
डा. अष्ठाना संतोषजनक ढंग से डैडी की जांच करने के बाद ग़मगीन हो गए, "मेजर सा'ब इज नो मोर."<br />
<br />
उनका निष्कर्ष सुनते ही मम्मी दहाड़ें मार-मार कर बिलखने लगीं. रात से उसका सन्नाटा अचानक छीन गया. उस रात हमें पता चला कि मम्मी रोने-धोने में कितनी माहिर हैं. इसके पहले हमें मालूम नहीं था कि उनके शब्दकोश में ग्रामीणता किस हद तक शामिल है. यों तो हम सभी बेहद दुखी थे और नि:संदेह! दुखी होने का इससे अनुकूल मौक़ा और कोई नहीं हो सकता था. लेकिन, मम्मी के रोने का पूरबीपन हमें बिल्कुल नहीं भाया. अगर कोई और मौक़ा होता तो मै निश्चय ही कह देता कि 'मम्मी, किसी और लहजे में रोओ.'<br />
<br />
दु:ख की उस घड़ी में सारा पड़ोस रात के अँधेरे में उमड़ पड़ा. सुबह शहर के कई प्रतिष्ठित व्यक्ति भी आए जो या तो डैडी के जानने वाले थे या दोस्त थे. लिहाजा, हमें यह जानकर बहुत सुकून मिला कि हमारे साथ इतने ढेर सारे लोग पूरी औपचारिकता के साथ शोक मनाने को तैयार हैं.<br />
<br />
सुबह के करीब दस बजे, डैडी के शव पर सेना की तरफ से पुष्पांजलि अर्पित की गई. एक रिटायर्ड मेजर की मृत्यु पर ऐसा करना राज्य का कर्तव्य होता है. हमलोगों का सीना तो फख्र से चौड़ा हो गया. सारे मोहल्ले में हमारी नाक ऊंची हो गई. हमें पहली बार अपने पिता के इतने बड़े आदमी होने का एहसास हुआ. <br />
<br />
लगभग साढ़े दस बजे शव यात्रा आरम्भ हुई. शव यात्रा में जाते समय, हम दु:खी कम, चिंतित ज़्यादा थे. रास्तों से गुजरते हुए हममें से ज़्यादातर लोगों की निगाहें दुकानों में लगी टी.वी. पर जमीं हुई थीं. कुछ लोग तो इस चक्कर में पीछे छूट जा रहे थे. जैसे ही थोड़ी-सी सड़ाका जाम होती, वे शव यात्रा से अलग होकर दुकानों के सामे खड़े हो जाते और मैच का मजा लेने लगते! बेशक! इन दुकानदारों के टी.वी.परस्त हिने का आज हमें शुक्रगुजार होना चाहिए. टुकड़ों में ही सही, इस फाइनल मैच की जानकारी तो हमें मिल रही थी. मै भी शव यात्रियों के शोरगुल के बावजूद, क्रिकेट कमेंटरी के एक-एक लफ्ज़ पर अमल कर रहा था और उसके दो सलामी बल्लेबाज आउट हो चुके थे. जबकि उसका स्कोर चौदह ओवर में १२२ रन था. यानी, भारत की हालत पतली नज़र आ रही थी. यह बात साफ थी कि पाकिस्तान एक बड़ा स्कोर खड़ा करेगा और भारत को मनोवैज्ञानिक दबाव में बल्लेबाजी करने के लिए मज़बूर करेगा. <br />
<br />
इसी दरमियाँ, मैंने अपने आगे भाईसाहब को बड़ी चिंतित मुद्रा में चलते हुए देखा. ऐसा लगा रहा था कि वह डैडी की अर्थी को अपने कंधे पर धोने के बजाय, भारत की भारी हार का दुर्वह्य बोझ खींच रहे हों. यकायक, मेरी निगाह उनके कान में लगे इयर माइक्रोफोन पर गई. मुझे समझने में देर नहीं लगी कि इन्होंने काले कुर्ते की पाकेट में मिनी द्रान्जिस्टर सेट छिपा रखा था. घने बालों के भीतर वह माइक्रोफोन मुश्किल से नज़र आने वाला था. मै हैरत के समंदर में गोते लगाने लगा. इस असीम दु:ख की घड़ी में भी उन्हें<br />
उन्होंने क्रिकेट मैच का दामन नहीं छोड़ा था. वे सिर झुकाए हुए चल रहे थे ताकि सारा ध्यान क्रिकेट कमेंटरी पर केन्द्रित कर सकें. पता नहीं, उस वक़्त वे अच्छी तरह 'राम नाम सत्य' भी बोल रहे थे या नहीं. उस सामूहिक स्वर में किसी को इसका क्या पता चलता? लेकिन, मुझे मन ही मन उनसे ईर्ष्या होने लगी थी. सारे मैच का आनंद एकमात्र वे ही ले रहे थे. मुझे खुद पर बड़ा कोफ़्त हो रहा था कि यह युक्ति मेरे दिमाग में क्यों नहीं आई. मेरे पास भी माचिस के आकार का बढ़िया द्रान्जिस्टर था जिसे मैं या तो कान खुजलाने के बहाने कान से लगाए रखता या भाईसाहब के नक्शेकदम पर माइक्रोफोन के जरिए कान में फिट कर लेता. किसी को इसकी आहट तक नहीं लगने देता!<br />
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दो घंटे की थकाऊ पदयात्रा के बाद हमने श्मशान घाट पर कदम रखा. वहां बिल्कुल ऊपर वाली सीढियों के किनारे जो माला-फूल और पूजन-सामग्री की दुकानें थीं, उनमे लगीं कुछ मिनी टीवियों पर दर्शक उमड़े हुए थे. <br />
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बहरहाल, शव के साथ जो चुनिंदा संस्कार किए गए, उनमे भाईसाहब ने बखूबी शिरकत की. फिर, डैडी को मुखाग्नि देने के के बाद पता नहीं, कहाँ वे गुम हो गए? मैंने इधर-उधर उन्हें ढूँढने की असफल चेष्टा की. कुछ देर तक मैंने ऊपर टी.वी. देखने में मशगूल भीड़ में भी उनको तलाश किया. पर, वे कहीं नहीं दिखाई दिए. बेशक! वे वहीं मौजूद रहे होंगे. लेकिन, मेरा ध्यान बार-बार टी.वी. पर ठहर जाने की वज़ह से मै उन्हें ईमानदारी से नहीं ढूंढ सका. जब पुन: नीचे आया तो मेरा मिजाज़ ठीक नहीं था क्योंकि पाकिस्तान ने चौवालीस ओवरों में दो सौ बानवे रन बना लिए थे और शेष छ: ओवरों में बिलाशक! वह कम से कम सत्तर-अस्सी रन तो बना ही लेगा. भला! इतने बड़े स्कोर का भारत कैसे पीछा कर सकेगा? मेरा मन बिल्कुल बैठा जा रहा था. जी कर रहा था कि वहां से तत्काल उठकर घर चला जाऊं और...<br />
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तभी महापात्र ने जैसे ही कपाल-क्रिया के लिए आवाज़ लगाई, भाईसाहब तत्काल उपस्थित हो गए. मुझे आश्चर्य हुआ. मैंने देखा कि उन्होंने उस संस्कार को बड़ी कुशलता से अंजाम दिया. उसके बाद, सनातनी रीति के अनुसार, हम पीछे मुड़े बगैर, घर की ओर चल पड़े. जब हम ऊपर दुकानों के पास से गुजर रहे थे तो किसी ने भाईसाहब को आवाज लगाई, "वकील सा'ब! आइए, अब तसल्ली से बैठकर मैच का मजा लें..." सभी ने सिर उठाकर एक बार उन्हें देखा जो बड़ी तल्लीनता से इयर माइक्रोफोन से क्रिकेट कमेंटरी सुनते हुए आगे बढ़ रहे थे. <br />
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मेरी समझ में आ गया कि वे बीच-बीच में श्मशान से कहाँ गायब हो जा रहे थे. <br />
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घर पहुंचकर हमें एहसास हुआ कि पिता के विछोह ने हमें अनाथ बना दिया है. गमी के सन्नाटे में सारा माहौल ऐसे डूबा हुआ था जैसेकि अंतरिक्ष में उड़ाते भूतों के बीच कोई गोरैया फंस गई हो. <br />
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मेहमानखाना रिश्तेदारों से भरा हुआ था. आँगन में एक चौकी पर स्वर्गीय डैडी की एक बड़ी-सी माल्यार्पित तस्वीर लगा दी गयी थी. दीपक और अगरबत्तियां जल रही थीं. महापंडित वहां किसी कर्मकांड की रूपरेखा तैयार कर रहा था. मै पता नहीं, किन्हीं अंतर्द्वंद्वों के चलते बाहर दालान में आकर टहलने लगा. अचानक, मुझे लगा कि हेमा के कमरे के पास से कुछ सनसनाहट-भरी आवाज़ आ रही है. तब, मै, गलियारे से होते उए पीछे जा धमाका. मैंने हेमा के कमरे में झांककर देखा तो वहां घुप्प अँधेरा छाया हुआ था. तेज धूप में से अचानक अँधेरे में आने के कारण कुछ भी साफ़-साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था. कुछ पल बाद, मुझे टी.वी. पर क्रिकेट का मैदान स्पष्ट दिखाई देने लगा. मैंने भीतर दाखिल होकर खिड़की से परदा खींचा तो बहन हेमा और पत्नी सुधा कोने में दुबकी हुई नज़र आईं. वे मुझे देख, एकदम से सिटक-सी गईं. मेरे मन में गुस्से का बवंडर उमड़ रहा था. जी में आया कि दोनों को तेज फटकार लगाऊँ. लेकिन, तभी हेमा ने मेरे आगे स्टूल खिसकाते हुए भर्राती हुई आवाज़ में कहा, "भैया! इंडिया इज ग्रेजुअली क्रम्बलिंग डाउन. पाकिस्तान के ३५४ के जवाब में भारत ने पांच विकेट खोकर कुल १०२ रन बनाए हैं. उन्तीसवाँ ओवर चल रहा है. डेफिनिटली इंडिया हज लास्ट द वर्ल्ड कप..."<br />
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उसकी सूचना से मेरा गुस्सा काफूर हो गया. मैंने गिन-गिनकर भारतीय बल्लेबाजों को दो-चार गैयाँ सुनाईं. जब बाहर निकला तो देखा कि मम्मी अहाते में तुलसीदल के पास हाथ जोड़कर शिवलिंग के से कुछ प्रार्थना कर रही थीं. मै दो मिनट तक वहां खड़ा रहा. संभवत: उन्हें वहां मेरी उपस्थिति का अहसास ही नहीं रहा. आखिरकार, मै उसी गलियारे से फिर वापस लौटने लगा. मैंने जाते-जाते पीछे घूमकर देखा कि मम्मी हेमा के कमरे की ओर जा रही हैं. मुझे यकीन हो गया कि वहां मम्मी हाथ जोड़कर डैडी की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना कर रही थीं. बल्कि, भारत के क्रिकेट में विजयी होने के लिए प्रार्थना कर रही थीं. <br />
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जब तक मैच चलता रहा हम बेहतर अंडरस्टैंडिंग के साथ बारी-बारी से कमरे में जाकर मैच देखते रहे. रिश्तेदारों को और यहाँ तक कि भाईसाहब को भी इसकी भनक नहीं लगी. शाम को जब पंडितजी गरुण पुराण सुनाने आए तो हमारी क्रिकेट-भक्ति लगभग समाप्त हो चुकी थी क्योंकि भारत, पाकिस्तान के हाथों शर्मनाक हार, हार चुका था. <br />
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हमने बड़ी श्रद्धा से सांसारिक निस्सारता पर पंडितजी की कथा सुनी. वर्ल्ड कप में भारत का पत्ता साफ़ होने के बाद, सचमुच सारा संसार निस्सार-सा लगने लगा था.<br />
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(समाप्त)</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A4%B2_%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%9F%E0%A4%AE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5276डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव2011-03-29T08:30:27Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
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<div>'''डिस्पोजेबल आइटम'''<br />
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डैड की बीमारी पर किसे खुंदक नहीं थी? उन खबीस को भी ऐसी लाइलाज बीमारी तभी लगनी थी जबकि इतना दिलचस्प क्रिकेट मैच चल रहा था! वह मैच भी कोई मामूली मैच नहीं था. वर्ल्ड कप का मैच था. भारत और पाकिस्तान के बीच सीधा मुकाबला था. इसलिए, मेरा घर ही क्या, सारा मोहल्ला क्रिकेटमय था. मोहल्ले से निकलकर सड़क पर आने के बाद चाहे किसी बस की सवारी की जाए या बाजार में चहलक़दमी की जाए, क्रिकेट की चर्चा हर जुबान पर थी. चाय-पान की गुमटियों से लेकर शहर के चप्पे-चप्पे पर लोगबाग इस वर्ल्डकप को लेकर बहसा-बहसी में जमे हुए थे. मेरे आफिस में भी इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर गलाफोड़ तकरार जारी था. कभी-कभार यह तकरार झगड़ा-फसाद का भी रूप ले लेता था. मेरे आफिस वाले ही क्या, दूसरे कार्यालयों के अधिकारी-कर्मचारी भी छुट्टियां लेकर अपने-अपने घरों में टी० वी० सेटों के आगे वर्ल्ड कप के मैचों का सीधा प्रसारण देखने में जमे हुए थे. ऐसे में ऐसा लगता था कि जैसे सारी दुनिया को क्रिकेट के सिवाय कोई और काम नहीं है. बेशक! मेरा घर भी इस टूर्नामेंट का लुत्फ़ उठाने में जुटा हुआ था--घर के सारे कामकाज को ताक पर रखकर. यहाँ तक कि लोगबाग ने खुद को शौच, स्नान आदि को भी गैर-ज़रूरी समझ, चाय-नाश्ता, खाने-पीने तक ही सीमित कर रखा था. हमें तो यह भी चिंता नहीं थी कि घर में बीमार डैडी की तीमारदारी में सभी को जुट जाना चाहिए ताकि वह ज़ल्दी से भले-चंगे होकर किसी अनिष्ट की आशंका से हमें मुक्त कर दें! घरेलू डाक्टर अष्ठाना ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि अगर उन्हें वक़्त पर दवाइयां नहीं दी गईं और उनकी हालत पर खास निगरानी नहीं रखी गई तो उनकी बीमारी जानलेवा भी हो सकती है. <br />
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शायद, डैडी रोमांचक क्रिकेट का परवान चढ़ते जा रहे थे. यों तो, उन्हें भी क्रिकेट मैचों में बेइन्तेहाँ दिलचस्पी रही है; लेकिन, इस बीमारी के कारण उन्हें वर्ल्ड कप मैचों का मजा न ले पाने की भीतर ही भीतर बेहद कसक होगी, जिसे वे व्यक्त नहीं कर पा रहे होंगे. आखिर, उनके जीर्ण-शीर्ण शरीर में मैचों का आनंद लेने का दमखम कहाँ रहा? <br />
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भारत के फ़ाइनल में पहुंचते ही सभी ने अपनी दिनचर्या को भी किनारे कर दिया. रात को डैडी की देखभाल के लिए किसी को भी अपनी नींद हराम करना गवांरा नहीं था. उधर डैडी कराहते रहते और इधर हम गहरे नींद में खर्राटे भर रहे होते. कई बार तो वह पानी-पानी की रट लगाते रहते; पर, कोई उठने का नाम तक नहीं लेता. ऐसे वक़्त में मम्मी की ज़िम्मेदारी बनती थी कि वह उनके दुःख-दर्द में हाथ बंटाने के लिए उनके सामने मौजूद रहतीं. हमें भी संतोष होता! क्योंकि हमें उनकी सेवा करने की नैतिक दुविधा से मुक्ति मिल जाती--'चलो! हमें डैडी की सेवा करने न करने में धर्म-संकट में फ़िज़ूल नहीं पड़ना पड़ा.'<br />
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जब वर्ल्ड कप की सनसनीखेज़ पारियां रात को शुरू हुईं तो हम सभी की आँखों से नींद ऐसे गायब हो गई जैसे गधे के सिर से सींग. डैडी के बेडरूम में जो ब्लैक एंड व्हाइट टी० वी० लगी हुई महीनों से सीलन खा रही थी (क्योंकि उन्होंने बीमारी के कारण काफी समय से टी०वी० देखना बंद कर दिया था), उसे मेरी बहन हेमा अपने कमरे में उठा ले गयी थी ताकि वह अकेले में मैचों का बेखट मजा ले सके. हमने भी टी०वी० पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित करने के साथ-साथ कानोप्न से मिनी ट्रांजिस्टर चिपका रहा था. <br />
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यह स्थिति और भी भयावह थी. अगर रात को दवा-दारू के अभाव में डैडी के प्राण भी निकल जाते तो उसकी खबर सवेरे ही मिलाती. क्योंकि देर रात तक मैच के ख़त्म होने के बाद हम तत्काल बिस्तरों पर सो जाते थे और सुबह हमारी नींद तब खुलती थी जबकि महरी या ग्वाला दरवाज़ा खटखटाते थे. <br />
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दो दिनों से मैं भी आफिस नहीं जा रहा था. जब तक लीग मैच होते रहे, मैंने आफिस में पाकिट ट्रांजिस्टर से ही काम चलाया. बीच-बीच में अपनी पत्नी सुधा को घर पर फोन करके मैच के बारे में ताजा स्थिति की जानकारी लेकर ही संतोष कर लेता! लेकिन, जब भारत ने साउथ अफ्रीका को सेमी फाइनल में पीटकर फाइनल में प्रवेश पा लिया तो मैंने अपने जूनियर को सेक्शन का चार्ज सौंप कर छुट्टी मार ली. मेरे खाते में छुट्टियों का हमेशा अभाव रहा है जिसके चलते डैडी की हालत बेहद गंभीर होने के बावजूद मैं उन्हें खुद कई बार डाक्टर के पास नहीं ले जा सका और उन्हें ड्राइवर के भरोसे छोड़ कर अपनी ड्यूटी पर निकल पड़ा. <br />
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उस दिन फाइनल में पहुँचने के लिए सेमी फ़ाइनल का मुकाबला पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया के बीच था. सारा देश पाकिस्तान के हारने की उम्मीद लगाए बैठा था क्योंकि लोगों को यकीन था कि अगर फाइनल में भारत का सामना पाकिस्तान से हुआ तो उसके जीतने की आशा धूमिल पड़ जाएगी. मेरे घर में भी सभी, सब कुछ छोड़कर यह प्रार्थना करने में जुटे हुए थे कि काश! पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया के हाथों चारों खाना चित्त हो जाता. <br />
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पता नहीं क्यों? पाकिस्तान के खिलाफ खेलते हुए न केवल हमारे खिलाड़ियों का मनोबल आधा हो जाता है, बल्कि हम भी अपनी हार माँ बैठते हैं. <br />
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सुबह जब मम्मी नहा-धोकर रोज़ की तरह मंदिर को दर्शन करने निकलीं तो हम सोच रहे थे कि वह मंदिर में जाकर ईश्वर से डैड के रोगमुक्त होने के लिए प्रार्थनाएं करेंगी. लेकिन, मंदिर से वापस आते ही वह मरीजखाने में डैड के पास जाने के बजाए सीधे ड्राइंग रूम में तशरीफ़ लाईन जहां भाईसाहब और मेरे बीच इस बाबत जोरदार बहस छिड़ी हुई थी कि सेमी फाइनल में कौन जीतेगा--पाकिस्तान या आस्ट्रेलिया. भाईसाहब तो पाकिस्तान द्वारा सेमी फाइनल में पूर्व वर्ल्ड कप चैम्पियन--आस्ट्रेलिया को शिकस्त दिए जाने के पक्ष में दनादन तर्क दिए जा रहे थे जबकि मेरे द्वारा आस्ट्रेलिया को जिताने के लिए दी जाने वाली सारी दलीलें हल्की पड़ती जा रही थीं. <br />
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बेशक! उस वाक् युद्ध में मैं अपनी हार से बेहद मायूस होता जा रहा था. वहां मौजूद मेरी पत्नी सुधा को भी इससे बड़ा कोफ़्त हो रहा था. मुझे उसके सामने अपनी मात से और भी ज़्यादा आत्मग्लानि हो रही थी. वह भी चाहती थी कि भले ही पाकिस्तान क्रिकेट के मैदान में आस्ट्रेलिया को धूल चटा दे, लेकिन भाईसाहब से तर्क-कुतर्क में मैं मात न खाऊँ. बहरहाल, मुझे अपनी बहन--हेमा पर अत्यंत क्रोध आ रहा था जो बिलावज़ह भाईसाहब का पक्ष ले रही थी और वह भी बड़ी चुटकियाँ ले-लेकर. उसकी व्यंग्य-मुस्कान से यह साफ ज़ाहिर हो रहा था कि वह मुझे चिढ़ाना ज़्यादा चाह रही है और पाकिस्तान को जिताना कम. अन्यथा, वह छोटी बहन होने के बावजूद, भाई साहब को आदतन यह सबक देने की गुस्ताखी तो जरूर करती कि 'भैया, क्रिकेट जैसे पेंचीदे विषय से आपका क्या लेना-देना? जाइए, आप किसी मुकदमे की गुत्थी तलाशिए. वकालत के पेशे वालों को क्रिकेट में कतई दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए.'<br />
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लिहाजा, मुझे यह सोचकर बड़ा सुकून मिला कि चलो, कम से कम मेरे घर में एक तो ऐसा बन्दा है जो क्रिकेट को गंभीरतापूर्वक न लेकर मजाकिया लहजे में ले रहा है. मैं भी इस विश्व कप में भले ही दिलचस्पी ले रहा था, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर मैं क्रिकेट जैसे खेल का आलोचक रहा हूँ. क्योंकि जब कोई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच होता है तो सारे देश की हालत नाबदान में ठहरे हुए पानी जैसी हो जाती है. घर, खेत-खलिहानों, कल-कारखानों, दफ्तरों आदि में सारी गतिविधियाँ ठप्प पड़ जाती हैं. सोचिए, जितने दिन क्रिकेट मैच होता है, देश की कितनी श्रम-ऊर्जा निष्क्रिय होकर व्यर्थ जाती होगी! कितना आर्थिक नुकसान होता होगा!<br />
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बहरहाल, मम्मी के आते ही बहसा-बहसी की फिजां ही बदल गई. सारा पासा ही पलट गया. मंदिर से आने के बाद उनकी बातों में बड़ा दम आ गया था. आखिर, उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ ईश्वर से जो मन्नतें मानी थी, वे व्यर्थ थोड़े ही जाने वाली थी. सो, जब पाकिस्तान भाई साहब को आड़े हाथन लिया तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. उस पल, ऐसा लगा कि जैसे आस्ट्रेलिया के हाथों पाकिस्तान का हारना तय है.<br />
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उस रात, हमने यह निश्चय किया कि हम सब दालान में बैठकर टी.वी. देखेंगे और पाकिस्तान को हारते हुए देखने का असली मज़ा लेंगे. सुधा ने वहीं एक टेबल पर स्टोव, केतली और चाय बनाने का सारा सामान भी जमा कर दिया था ताकि बीच-बीच में चाय पीते हुए मैच देखने का असली लुत्फ़ उठाया जाए. भाई साहब ने पाकिस्तान की जीत को सेलीब्रेट करने के लिए पटाखे छोड़ने का इंतजाम पहले से कर लिया था. मैंने आस्ट्रेलिया की जीत के उपलक्ष्य में ऐसा कुछ भी न करने का इंतजाम किया था. क्योंकि मन ही मन मैं भी आस्ट्रेलिया के हारने के भय से मुक्त नहीं हो पाया था. <br />
<br />
डिनर के बाद, सभी दालान में तशरीफ़ लाए. हेमा भी आ गई. इस दिन वह अकेले मैच देखने से बाज आ रही थी. उसने आते ही अपना आसन भाईसाहब के बगल में जमाया. वह मुझे व्यंग्यपूर्वक देखते हुए भाईसाहब के गुट में शामिल होने का अहसास दिला रही थी. अगर मायके से भाभी आ गयी होतीं तो वह नि:संदेह उनके पल्लू में बैठती. तब, मेरा मनोबल और भी गिर जाता. क्योंकि जब भाईसाहब, भाभी और छोटी बहन की तिकड़ी साथ-साथ बैठती थी तो मैं कोई वाक् युद्ध छेड़ने से पहले ही भींगी बिल्ली बन जाता था. मेरी पत्नी तो बहस में एकदम फिसड्डी थी. सही तर्क न दे पाने के कारण वह बेपेंदे के लोटे की तरह फिस्स मुस्कराकर किसी भे ओर लुढ़क कर उसका पलड़ा भारी कर देती थी. <br />
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आखिर में पानदान लटकाए हुए और ताजे पान की गिलौरी चबाते हुए मम्मी ने बिलकुल टी.वी. के सामने दीवान के ऊपर मसनद पर बड़े आराम से दस्तक दिया. उनके हावभाव में बड़ा सुकून था. क्योंकि उन्होंने कुछ क्षण पहले डैडी के कमरे में जाकर उनके सिरहाने स्टूल पर दवाइयां, चम्मच, कटोरी, गिलास और जग में पानी रखते हुए और उन्हें जोर से झकझोरते हुए चिल्ला-चिल्लाकर बता दिया था कि रात को वे याद कर सारी दवाइयां समय से ले लेंगे वरना रोग लाइलाज हो जाएगा. साथ में यह चेतावनी भी दे दी कि वे फ़िज़ूल में बच्चों की तरह शोर मचा-मचाकर हमारे क्रिकेट मैच का मज़ा किरकिरा नहीं करेंगे और सुबह ग्वाले के आने तक हमारे जगने की प्रतीक्षा करेंगे. पता नहीं, उन्होंने मम्मी की बातें ठीक-ठीक सुनी भी थीं, या नहीं. पर, मम्मी अपना पत्नी-सुलभ फ़र्ज़ अदाकार पूरी तरह आश्वस्त नज़र आ रही थीं. हम सभी ने भी उनके चेहरे पर आत्मसंतोष का जो भाव देखा, उससे हम डैडी की ओर से बेफिक्र होकर मैच में पूरी तरह खोने को तैयार हो गए.<br />
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बेशक! मैच बड़ा रोमांचक था. आस्ट्रेलिया ने टास जीत कर, पहले बल्लेबाजी की और पूरे ३०९ रन का विशाल स्कोर खड़ा किया. भाई साहब के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. और हमलोग खूब खिल्लियाँ उड़ा रहे थे. हम इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थे कि पाकिस्तान चाहे जितना भी जोर लगा ले, वह इतना विशाल स्कोर खड़ा नहीं कर सकता. इस बीच मम्मी कम से कम तीन-चार दफे उठकर आँगन में गई थीं और तुलसी के गमले में रखे शिवलिंग पर बार-बार मत्था टेक आई थीं. लिहाजा, जब पाकिस्तान ने लगभग १४-१५ रन की औसत से धुआंधार बल्लेबाजी शुरू की तो हमलोगों के मुंह से सिसकारी भी निकलनी बंद हो गई. जब तक आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज पाकिस्तानी गेंदबाजों के छक्के छुडाते रहे, हम विस्फोटक हंसी हंसते रहे और भाईसाहब को व्यंग्य-बाण से आहत करते रहे. लेकिन, पाकिस्तान द्वारा धुआंधार बल्लेबाजी देखकर हमें विश्वास होता गया कि उसका मैच जीतना कोई टेढ़ी खीर नहीं है. चूंकि उसके चार सलामी बल्लेबाज पवेलियन वापिस लौट चुके थे; लेकिन, उसकी रन बनाने की गति में कोई कमी नहीं आई थी.भाईसाहब का गुट फिर उत्तेजना में आ गया था. पाकिस्तान के अन्तिम क्रम के बल्लेबाज भी मशीन की तरह रन बना रहे थे. उस दरमियान, मम्मी फिर उठकर शिवलिंग के आगे सिर झुकाने नहीं गईं. मेरी पोतनी सुधा ने आँख मूँद कर भगवान से पाकिस्तान की पराजय नहीं माँगी. मैंने लज्जावश भाईसाहब से नज़रें हटा-हटाकर मिलाईं. <br />
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शायद, भगवान में से विश्वास खोने का का दुष्परिणाम कुछ ऐसा हुआ कि अंत में, पाकिस्तान के दसवें क्रम पर आए बल्लेबाज के छक्के ने आस्ट्रेलिया को फाइनल से बाहर कर दिया.<br />
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भाईसाहब ने जमकर पटाखे छोड़े. उन्होंने यह भी चिंता की कि इससे बीमार डैडी को बेहद तकलीफ हो सकती है. सायद, उन्हें इस बारे में कुछ याद ही नहीं रहा. ऐसे जोश में होश कहाँ रहता है ?<br />
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सुबह जब धूप इतनी तेज हो गई कि हमारा सिर दर्द से फटने लगा, तब कहीं जाकर हमारी नीद खुली. हम पहले ही उठ गए होते. लेकिन, उस दिन महरी छुट्टी पर थी और संयोगवश, ग्वाला भी किसी वज़ह से नौ बजे तक नहीं आया था. अन्यथा, उनमें से किसी के दस्तक देने से हम पहले ही जग गए होते. कहीं हमें खराई न मार दे, इसलिए सुधा ने बासी दूध से ही चाय बनाई और हमें डाइनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए बुलाया गया. चाय-नाश्ता कर चुकने के बाद मैंने फिर अपने बेडरूम में जाकर खिड़कियाँ बंद की और बिस्तर पर पसर गया. मम्मी तो नहाने-धोने गुशालाखाने में चली गई थी. लेकिन, मुझसे किसी ने यह भी नहीं पूछा कि तुम्हें आफिस जाना है या नहीं. क्योंकि सभी को मालूम था कि मई अनिश्चित काल के लिए टायफायड का बहाना बनाकर छुट्टी पर हूँ और आफिस तभी जाऊंगा जबकि वर्ल्ड कप मैच समाप्त होगा. भाईसाहब की कचहरी में पहले से ही हड़ताल चल रही थी जिस कारण, वह भी बड़ी तबियत से फाइनल मैच के होने की प्रतीक्षा कर रहे थे. रही छोटी बहन हेमा... तो वह अपने आख़िरी सेमेस्टर के पेपर्स से फारिग होने के बाद मेडिकल सेमीनारों से कतना चाह रही थी. वह पछता रही थी कि उसने इतनी ज़ल्दी मेडिकल असोसिएशन की मेम्बरशिप क्यों ले ली. वर्ल्ड कप मैच के बाद लेती! इस वज़ह से उसे बेकार में रोज़-रोज़ के सेमीनारों आदि में व्यस्त रहना पड़ता था. वास्तव में! फाइनल मैच चार दिनों बाद होना था जिसकी बेसब्री से प्रतीक्षा करने से मिलने वाली अवर्णनीय खुशी में हम किसी काम की फ़िज़ूल चिंता से खलल नहीं डालने चाहते थे. <br />
<br />
अचानक, कुछ अजीबोगरीब शोर से मेरी नींद उचट गई. मुझे बड़ी झुंझलाहट सी हो रही थी क्योंकि मेरा एक सुन्दर सपना टूट गया था जिसमें मैं भारत और पाकिस्तान के बीच जो मैच देख रहा था, उसमें भारत का पलड़ा भारी पड़ता जा रहा था और वह नि:संदेह! विजय की ओर अग्रसर हो रहा था.<br />
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मै उठकर भीतर आँगन में शोरगुल का जायजा लेने गया तो मम्मी की हालत देखकर हकबका गया. वह बेतहाशा रोने के मूड में लग रही थी. तभी हेमा ने बताया कि डैडी की तबियत ज़्यादा खराब है. वहीं देर से आया ग्वाला भी खड़ा था. दरअसल, उसने कई बार आवाज़ लगाई थी. लेकिन, घर में छाया सन्नाटा देखकर वह आवाज़ लगाता हुआ सीधे डैडी के कमरे में घुस गया था जहां उसने डैडी को बेड के नीचे अचेतावस्था में लुढ़का हुआ औंधे मुंह देखकर प्राय: डर-सा गया था. उसने ही मम्मी को उनकी हालत के बारे में सबसे पहले जानकारी दी थी. वह संभवत: रात से ही वहां पड़े हुए थे. उन्होंने रात को हमें किसी वज़ह से आवाज़ दी होगी जिसे हमने मैच में मस्त होने के कारण नहीं सुना होगा. फिर, उन्होंने उठने की कोशिश की होगी. पर अशक्त होने के कारण गिर पड़े होंगे. दिलचस्प बात यह थी कि हमने सुबह देर से उठने के बावजूद उनके कमरे में जाकर उनकी हालत जानने की जुर्रत महसूस नहीं की. अगर ग्वाला अनजाने में उनके कमरे में दाखिला नहीं हुआ होता तो...<br />
<br />
खैर, हेमा ने अपने नए डाक्टरी अनुभवों का इस्तेमाल कर, हमें तत्काल इत्तला किया कि डैडी की हालत नाज़ुक है और अब उन्हें अस्पताल में अब तो भर्ती करा ही देना चाहिए.<br />
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हमने ड्राइवर की मदद से डैडी को अस्पताल में भर्ती करा ही दिया. उस दिन हम सभी अस्पताल गए. हम सोच रहे थे कि दो-तीन दिनों में डैडी की हालत सम्हल ही जाएगी. फिर, उन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी जाएगी. <br />
<br />
उस दिन उनकी कई जांचें हुईं और सभी में आई रिपोर्टें चिंताजनक थीं. खून में शूगर की मात्रा बहुत बढ़ गई थी. रक्तचाप भी इतना बढ़ गया था कि उनका उपचार कर रहे डा. श्रीवास्तव के माथे पर बार-बार बल पड़ जा रहे थे. करीब एक बजे रात को जब उन्हें सांस लेने में दिक्कत-सी होने लगी तो डाक्टर ने तत्काल नर्स को तलब कर कृत्रिम आक्सीजन की व्यवस्था कर दी. यह सब देख, मम्मी चिंता में पड़ गईं कि शायद, अस्पताल में हफ़्तों लग सकते हैं. वह उनके बगल में बैठकर लगातार ग्लूकोज़ की बोतल पर नज़रें गड़ाई हुईं थी. वह बार-बार वहां बेताबी से लगातार चहलकदमी कर रहे भाईसाहब को सवालिया नज़रों से पूछना चाह रही थीं कि बोतल का पानी इतना धीमे-धीमे क्यों चढ़ाया जा रहा है, एकसाथ उनकी नसों में क्यों नहीं उड़ेल दिया जा रहा है. उनकी इस उधेड़बुन पर मेरा मन बेहद खीझ रहा था. आखिर सभी क्यों चाह रहे थे कि जबकि डैडी तीन सालों से लगातार रुग्ण चल रहे हैं, वे अति शीघ्र ठीक हो जाएं! या यूं कही कि हम सभी किसी तरह डैडी के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से किनारा करना चाह रहे थे. <br />
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सारी रात हम सभी को अस्पताल में बैठकर डैडी की तीमारदारी करनी पड़ी. पिछले तीन सालों से जब से उनकी हालत बाद से बदतर हो गई, किसी ने उनकी तसल्लीबख्श सेवा-सुश्रुषा नहीं की थी. उनके बचपन के दोस्त--डा. अष्ठाना का कहना था कि बदपरहेज़ी ने ही उन्हें इस घातक हालत में ला खड़ा किया है. वरना, उनके मज़बूत कद-काठी को देखते हुए यह कोई नहीं कह सकता था कि मौत का खौफ उन्हें पच्चीस सालों से पहले भी छू सकता है. आज उनका शरीर कई बीमारियों का घर बन गया है. दमा, मधुमेह और अब तपेदिक ने उन्हें बारी-बारी से जकड़ लिया है. <br />
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अस्पताल में दाखिल होने के बाद से उनकी हालत में रत्ती भर भी सुधार नहीं आया. उल्टे, हालत और बिगड़ती जा रही थी. दूसरे दिन, सुबह तक सारी रिपोर्टें आ गईं. डा. श्रीवास्तव ने बताया कि दो दिन पहले की रात को उन्हें दमा का तेज दौरा पड़ा था और अगर उस वक़्त उन्हें उचित दवा मिल गई होती तो उनकी दशा इतनी नहीं बिगड़ती. <br />
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तब, हम सभी अपराधबोध से ग्रस्त होकर एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे थे. क्योंकि दौरे के समय तो हमलोग क्रिकेट मैच का आनंद ले रहे थे. हमारी उस स्थिति पर डाक्टर मुंह बिचकाते हुए चले गए थे. शायद, उन्होंने हमारे बाडी लैंग्विज़ से पढ़ लिया था किहमने उस वृद्ध व्यक्ति के प्रति घोर लापरवाही की थी. उस क्षण, हमें ऐसा लगा कि जैसे डाक्टर एक झन्नाटेदार तमाचा मार गया हो.<br />
<br />
जब से डैडी अस्पताल में लाए गए थे, उन्होंने हममे से किसी से भी बात नहीं की थी, जबकि वह डाक्टर के सवालों का उत्तर बहुत धीमी आवाज़ में या 'हाँ' और 'ना' में दे रहे थे. हमारे बार-बार पूछने पर भी वह कुछ नहीं बोलते थे. बल्कि बड़ी गैरियत से मुंह फेर लेते थे. उनके चेहरे पर हमने घृणा और तिरस्कार के स्पष्ट भाव देखे थे. बेशक! अगर उनमें ताकत होती तो वे हमारे मुंह पर जोर से थूक भी सकते थे. <br />
<br />
उस दिन दोपहर को डाक्टर ने बताया कि डैडी थैलीसीमिया से भी पीड़ित हैं और उनका खून बनना बिल्कुल बंद हो चुका है. सो, शाम से ही उन्हें खून चढ़ाया जाने लगा. भाईसाहब ने कहा कि अभी हमें अपना खून देने की क्या ज़रुरत है. महानगर के रक्त बैंकों में पर्याप्त मात्रा में खून उपलब्ध है. इसलिए ज़्यादा से ज़्यादा कीमतें देकर खून की चार बोतलें मंगाई गईं. रात को करीब दो बजे, उन्हें दमा के दौरे के साथ दर्ज़नों फटी खांसियाँ आईं. डाक्टर ने बताया कि यह लक्षण ठीक नहीं है. अगर ऐसा दोबारा या तिबारा हुआ तो यह घातक भी हो सकता है.<br />
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उस रात उनकी हालत वास्तव में दयनीय थी. वह बड़ी बैचेनी में थे क्योंकि उन्हें सांस लेने में बड़ी परेशानी हो रही थी. मम्मी पिछली रात से बिल्कुल न सो पाने के कारण दस बजे से ही बाहर सोफे पर खर्राटे भर रही थीं. भाईसाहब और मेरी पत्नी सुधा थोड़ी-थोड़ी देर पर डैडी को देखकर, पता नहीं कहाँ घंटों-घंटों तक लापता हो जा रहे थे. हेमा भी डैडी के मर्ज़ पर अलग-अलग डाक्टरों से बातचीत में मशगूल-सी दिखाई दे रही थी. लिहाजा, मैं वहां लगातार डैडी की हालत पर नज़र रखते हुए यह योजना बना रहाथा कि कल सुबह मुझे आफिस ज्वाइन कर ही लेना चाहिए. इसलिए, मैंने चुपके से एक डाक्टर से अपने लिए मेडिकल सर्टीफिकेट और फिटनेस सर्टीफिकेट बनवा लिए ताकि कल ड्यूटी ज्वाइन करने में कोई अड़ंगा न आए. <br />
<br />
तीसरे दिन सुबह, मै किसी को कुछ बताए बगैर आफिस चला गया. वहीं से मैंने फोन पर अस्पताल में मम्मी को सूचित कर दिया कि आफिस के मेसेंजेर ने आकर मुझे कुछ आवश्यक काम के लिए बुलाक था जिससे मुझे अचानक ड्यूटी ज्वाइन करनी पड़ी. शाम, को मैं जानबूझकर देर से लौटा. पहले घर जाकर नहाया-धोया और फिर, नौकर से बाहर से चाय मंगवाकर नाश्ता किया. उसके बाद, तसल्ली से अस्पताल गया. वहां, की हालत देख, मैं घबड़ा-सा गया. डैडी के बेड पर कोई दूसरा डाक्टर उन्हें कृत्रिम सांस देने की कोशिश कर रहा था. पूछने पर पता चला कि डा. श्रीवास्तव छुट्टी पर चले गए हैं. नए डाक्टर बोस ने मुझे जोर की झाड़ लगाई--"आप मेजर चौहान के कैसे बेकहन और बदतमीज़ बेटे हैं कि आपके पिता मौत से जूझ रहे हैं जबकि आप सुबह से ही नदारद हैं? कितने शर्म की बात है कि यहाँ आपके पिता एक लावारिस मरीज़ की तरह यहाँ डेथ-बेड पर पड़े-पड़े हमारे स्टाफ के रहमोकरम की भीख मांग रहे हैं! अगर इस दरमियान इनकी मौत हो जाती तो इनकी बाडी का क्लेम करने के लिए भी कोई आगे आना वाला नहीं था..."<br />
<br />
मैंने लगभग हकलाते हुए खे प्रकट किया और किसी को ढूँढने के बहाने आसपास का चक्कर लगाने लगा. थोड़ी बाद ग्रीन लान में मैंने मम्मी को उनकी कुछ आगंतुक सहेलियों के साथ जोर-जोर से गप्प लड़ाते हुए पाया. बेशक! चर्चा काविशय क्रिकेट ही था. मुझे अपने पास पाकर उन्होंने अपना चेहरा हाथी के सूंड़ की तरह लटका लिया. जैसेकि वह सुबह से ही गम में डूबी हुईं हों. वह मुझे देखते ही उठ खड़ी हुईं. कहने लगीं, "अभी-अभी तो आई हूँ. क्या करती? तुम्हारी आंटियां डैडी को देखने आई थीं जिन्हें छोड़ने बाहर तक आ गई..."<br />
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मैंने सिर्फ उन्हें घूरकर शिकायताना अंदाज़ में देखा. अगर पूचता तो वह भी कह सकती थीं कि तुम भी तो अपनी ज़िम्मेदारी से बचने के लिए आफिस चले गए थे. उन्होंने चलते-चलते मुझे बताया कि तुम्हारे बड़े भाई एक मुवक्किल के साथ कचहरी चले गए हैं. हेमा सुबह से ही एक सेमीनार में गई हुई है और अभी तक लौटी नहीं, जबकि सुधा अपनी किसी सहेली के बेटे केजन्म दिन पर कान्ग्रेट करने गई हुई है.<br />
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डैडी के बेड के पास हमारे कुछ देर तक ठहरने के बाद, डाक्टर बोस ने बताया कि मेजर चौहान यानी मेरे पिता को दोपहर से दो बार तेज दौरा पड़ चुका है और साथ में खान्सियों के साथ खून भी आया है. मैंने मम्मी का चेहरा गौर से देखा. वह इस सूचना से कोई ख़ास प्रभावित नज़र नहीं आ रही थीं. हाँ, कुछ और सुनने की उत्सुकता साफ़ झलक रही थी.<br />
<br />
डा. बोस ने फिर कहा, "अब तो भगवान् ही मालिक है. दवा ने भी असर करना बंद कर दिया है. बेहतर होगा कि आप इन्हें अब घर ही ले जाइए. हमने जी-जान से कोशिश की. अब कुछ भी नहीं कर सकते. हाँ, मैं कुछ दवाइयां लिख दे रहा हूँ, इन्हें देते रहिएगा."<br />
<br />
हमने डाक्टर के मशविरे को आँख मूँद कर मान लिया. यह भी नहीं सोचा कि अस्पताल में जो चिकित्सीय सुविधाएं मिल रही हैं, वे घर में कहाँ से मिल पाएंगी? हमने मम्मी की आँखों में झाँक कर देखा. उनका इशारा साफ़ था कि डैडी को रामभरोसे छोड़ देना ही श्रेयस्कर है. उन्होंने अपनी सूखी आँखों को साड़ी के पल्लू से बार-बार रगडा. उसके बाद हमने डैडी और सारे सामान-असबाब को कार में डाल दिया. ड्राइवर से कहा, "फ़ौरन घर ले चलो!"<br />
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डैडी को उनके बेड पर दोबारा डाल दिया गया. सारा घर फिर से अपनी दिनचर्या में ऐसे व्यस्त हो गया, जैसेकि कुछ हुआ ही न हो. सभी संतुष्ट थे कि चलो! डैडी को बचाने के लिए इतनी कोशिश तो की गई. चालीस-पैंतालीस हजार रूपए भी फूंक-ताप दिए गए. अब भगवान की मर्जी! वह बचें या न बचें!<br />
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चूंकि, डैडी की लाइलाज बीमारी का चतुर्दिक विज्ञापन हो चुका था, इसलिए उन्हें देखने आने वाले शुभचिंतकों का भी तांता लग गया था. मम्मी उन्हें चाय पिलाते-पिलाते कुछ रेट-रटाए जुमले सुना देती थी--जैसेकि 'भगवान की मर्जी', 'विधि का बदा टारे नहीं टरे', 'विधाता को हमें सुहागन देखना नहीं भा रहा है', 'पैतालीस साल साथ-साथ जिए, बस! हेमा बिटिया के हाथ पीले नहीं करा सकेंगे,' वगैरह=-वगैरह. तदुपरांत, वह शुभचिंतकों को बेड की ओर इशारा कर देती जैसेकि यह कहना चाह रही हों कि 'बहुत इस्तेमाल कर चुकी, अब इस डिस्पोजेबल आइटम को निपटाना भर बाकी है.'<br />
<br />
रात के लगभग ग्यारह बजे हेमा आकर अपने दोस्तों के साथ ड्राइंग रूम में सेमीनार हुई चर्चाओं की समीक्षा कर रही थी. थोड़ी देर बाद जब भाईसाहब घर में तशरीफ़ लाए तो उनका मुंह गुस्से में सूजा हुआ था. या, यूं कहिए कि वे जानबूझकर अपने चेहरे पर गुस्सा लाने की असफल कोशिश कर रहे थे. शायद, वे अस्पताल होते हुए आए थे. बेशक! उनके अहं को इस बात से बेहद चोट पहुँची थी कि डैडी को अस्पताल से वापस लाने के फैसले में उनको क्यों नहीं शामिल किया गया. उन्होंने डैडी का हालचाल लेने वालों की मौजूदगी में हममें से एक-एक की खबर ली, "आखिर, इतनी ज़ल्दी क्या थी कि डैडी को वापस लेते आए? अरे, उन्हें पूरी तरह ठीक तो हो जाने दिया होता! हमलोग एक-दो दिन अस्पताल की ज़िल्लत और झेल लेते! यहाँ क्या है? न कोई डाक्टर है, न ही कोई कायदे की दवा? डा. अष्ठाना तो चूतिया और निकम्मा है. बस, ऊपरी तौर पर डैडी का खैरख्वाह बनने का ड्रामा करता रहता है. उसने ही डैडी को इस हालत में ला खड़ा किया है. उल्टे, उनकी बीमार हालत के लिए हमें ज़िम्मेदार ठहराता है."<br />
<br />
मैंने भाईसाहब को एक कोने में ले जाकर बताया, ""हमलोग क्या करते? खुद डाक्टर ने हमें डैडी को घर ले जाने की सलाह दी थी कि अब ईश्वर से प्रार्थना कीजिए. उन्हें कोई करिश्मा ही बचा सकता है, हम जैसे इंसान नहीं..."<br />
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मेरी बात सुनकर वह पहले हमारा चेहरा घूरते रहे. कुछ क्षण तक उन्होंने डैडी के कमरे की ओर भी निर्भाव दृष्टि से देखा. मैंने सोचा कि वह कमरे में जाकर डैडी की हालत का जायजा लेंगे. पर, वे ठिठकते हुए अपने बेडरूम में घुस गए. <br />
<br />
रात के लगभग साढ़े बारह बजे हम लेट-लतीफ़ खाना खाने के बाद सोने का यत्न कर रहे थे. हम यह सोचकर खुश थे कि अच्छा हुआ कि डैडी घर वापस आ गए. कल का फाइनल मैच टी. वी. पर तसल्ली से देख सकेंगे. अस्पताल में तो इतना बढ़िया मौक़ा खटाई में पड़ जाता. शायद, बेड में पड़े-पड़े हर व्यक्ति यह सोच रहा था कि ज़ल्दी से एक ही नींद में रात गुजर जाए, ताकि कल सबेरे तरिताजा मूड में मैच का भरपूर आनंद लिया जा सके. <br />
<br />
अभी हम नींद के कद्रदान बन भी नहीं पाए थे कि एक बौखलाने वाली चींख ने उसमें खलल डाल दिया. हम हड़बड़ाकर उठ बैठे. हमने वाकई एहसास किया किया कि वह चींख डैडी की ही हो सकती है. हम एक झटके से उनके कमरे में दाखिल हुए. डैडी का सारा शरीर तेजी से काँप रहा था. और जबड़ा तेजी से बज रहा था. मम्मी झिझकते हुए उनके हाथ पकड़ कर उनकी कंपकंपाहट को रोकना चाह रही थीं और हमलोग दूर से ही डैडी को तसल्ली दे रहे थे कि 'डैडी, आपको कुछ भी नहीं होगा." पर, वे तो मायूस निगाहों से चारों ओर देखते हुए कुछ अनापशनाप आवाज़ निकाल रहे थे. उस वक़्त, डैडी की इकलौती लाडली बेटी--हेमा की आँखों में आंसुओं का गुबार उमड़ रहा था. इसी बीच सुधा ने बुद्धिमानी दिखाते हुए डाक्टर अष्ठाना को झटपट फोन कर, उन्हें तत्काल बुला लिया. <br />
<br />
जब तक डाक्टर अष्ठाना आए, डैडी के शरीर की हरकत बंद हो गई थी. हाँ, आँखें अधखुली थीं. हमने यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि डैडी अचानक शांत क्यों हो गए या उनकी आँखें पूरी तरह खुली क्यों नहीं हैं या उनके डांट किटकिटा क्यों नहीं रहे हैं. पता नहीं, उन्हें छूकर उनके शरीर का तापमान जानने में हमें तो हिचक हो रही थी; पर, कुंआरी हेमा डाक्टर होकर भी उन्हें हाथ क्यों नहीं लगाना चाह रही थी? डाक्टर के आने से पहले हममें से कोई भी उन्हें टटोलने की ज़हमत नहीं उठा सका. <br />
<br />
डा. अष्ठाना संतोषजनक ढंग से डैडी की जांच करने के बाद ग़मगीन हो गए, "मेजर सा'ब इज नो मोर."<br />
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उनका निष्कर्ष सुनते ही मम्मी दहाड़ें मार-मार कर बिलखने लगीं. रात से उसका सन्नाटा अचानक छीन गया. उस रात हमें पता चला कि मम्मी रोने-धोने में कितनी माहिर हैं. इसके पहले हमें मालूम नहीं था कि उनके शब्दकोश में ग्रामीणता किस हद तक शामिल है. यों तो हम सभी बेहद दुखी थे और नि:संदेह! दुखी होने का इससे अनुकूल मौक़ा और कोई नहीं हो सकता था. लेकिन, मम्मी के रोने का पूरबीपन हमें बिल्कुल नहीं भाया. अगर कोई और मौक़ा होता तो मै निश्चय ही कह देता कि 'मम्मी, किसी और लहजे में रोओ.'<br />
<br />
दु:ख की उस घड़ी में सारा पड़ोस रात के अँधेरे में उमड़ पड़ा. सुबह शहर के कई प्रतिष्ठित व्यक्ति भी आए जो या तो डैडी के जानने वाले थे या दोस्त थे. लिहाजा, हमें यह जानकर बहुत सुकून मिला कि हमारे साथ इतने ढेर सारे लोग पूरी औपचारिकता के साथ शोक मनाने को तैयार हैं.<br />
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सुबह के करीब दस बजे, डैडी के शव पर सेना की तरफ से पुष्पांजलि अर्पित की गई. एक रिटायर्ड मेजर की मृत्यु पर ऐसा करना राज्य का कर्तव्य होता है. हमलोगों का सीना तो फख्र से चौड़ा हो गया. सारे मोहल्ले में हमारी नाक ऊंची हो गई. हमें पहली बार अपने पिता के इतने बड़े आदमी होने का एहसास हुआ. <br />
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लगभग साढ़े दस बजे शव यात्रा आरम्भ हुई. शव यात्रा में जाते समय, हम दु:खी कम, चिंतित ज़्यादा थे. रास्तों से गुजरते हुए हममें से ज़्यादातर लोगों की निगाहें दुकानों में लगी टी.वी. पर जमीं हुई थीं. कुछ लोग तो इस चक्कर में पीछे छूट जा रहे थे. जैसे ही थोड़ी-सी सड़ाका जाम होती, वे शव यात्रा से अलग होकर दुकानों के सामे खड़े हो जाते और मैच का मजा लेने लगते! बेशक! इन दुकानदारों के टी.वी.परस्त हिने का आज हमें शुक्रगुजार होना चाहिए. टुकड़ों में ही सही, इस फाइनल मैच की जानकारी तो हमें मिल रही थी. मै भी शव यात्रियों के शोरगुल के बावजूद, क्रिकेट कमेंटरी के एक-एक लफ्ज़ पर अमल कर रहा था और उसके दो सलामी बल्लेबाज आउट हो चुके थे. जबकि उसका स्कोर चौदह ओवर में १२२ रन था. यानी, भारत की हालत पतली नज़र आ रही थी. यह बात साफ थी कि पाकिस्तान एक बड़ा स्कोर खड़ा करेगा और भारत को मनोवैज्ञानिक दबाव में बल्लेबाजी करने के लिए मज़बूर करेगा. <br />
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इसी दरमियाँ, मैंने अपने आगे भाईसाहब को बड़ी चिंतित मुद्रा में चलते हुए देखा. ऐसा लगा रहा था कि वह डैडी की अर्थी को अपने कंधे पर धोने के बजाय, भारत की भारी हार का दुर्वह्य बोझ खींच रहे हों. यकायक, मेरी निगाह उनके कान में लगे इयर माइक्रोफोन पर गई. मुझे समझने में देर नहीं लगी कि इन्होंने काले कुर्ते की पाकेट में मिनी द्रान्जिस्टर सेट छिपा रखा था. घने बालों के भीतर वह माइक्रोफोन मुश्किल से नज़र आने वाला था. मै हैरत के समंदर में गोते लगाने लगा. इस असीम दु:ख की घड़ी में भी उन्हें<br />
उन्होंने क्रिकेट मैच का दामन नहीं छोड़ा था. वे सिर झुकाए हुए चल रहे थे ताकि सारा ध्यान क्रिकेट कमेंटरी पर केन्द्रित कर सकें. पता नहीं, उस वक़्त वे अच्छी तरह 'राम नाम सत्य' भी बोल रहे थे या नहीं. उस सामूहिक स्वर में किसी को इसका क्या पता चलता? लेकिन, मुझे मन ही मन उनसे ईर्ष्या होने लगी थी. सारे मैच का आनंद एकमात्र वे ही ले रहे थे. मुझे खुद पर बड़ा कोफ़्त हो रहा था कि यह युक्ति मेरे दिमाग में क्यों नहीं आई. मेरे पास भी माचिस के आकार का बढ़िया द्रान्जिस्टर था जिसे मैं या तो कान खुजलाने के बहाने कान से लगाए रखता या भाईसाहब के नक्शेकदम पर माइक्रोफोन के जरिए कान में फिट कर लेता. किसी को इसकी आहट तक नहीं लगने देता!<br />
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दो घंटे की थकाऊ पदयात्रा के बाद हमने श्मशान घाट पर कदम रखा. वहां बिल्कुल ऊपर वाली सीढियों के किनारे जो माला-फूल और पूजन-सामग्री की दुकानें थीं, उनमे लगीं कुछ मिनी टीवियों पर दर्शक उमड़े हुए थे. <br />
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बहरहाल, शव के साथ जो चुनिंदा संस्कार किए गए, उनमे भाईसाहब ने बखूबी शिरकत की. फिर, डैडी को मुखाग्नि देने के के बाद पता नहीं, कहाँ वे गुम हो गए? मैंने इधर-उधर उन्हें ढूँढने की असफल चेष्टा की. कुछ देर तक मैंने ऊपर टी.वी. देखने में मशगूल भीड़ में भी उनको तलाश किया. पर, वे कहीं नहीं दिखाई दिए. बेशक! वे वहीं मौजूद रहे होंगे. लेकिन, मेरा ध्यान बार-बार टी.वी. पर ठहर जाने की वज़ह से मै उन्हें ईमानदारी से नहीं ढूंढ सका. जब पुन: नीचे आया तो मेरा मिजाज़ ठीक नहीं था क्योंकि पाकिस्तान ने चौवालीस ओवरों में दो सौ बानवे रन बना लिए थे और शेष छ: ओवरों में बिलाशक! वह कम से कम सत्तर-अस्सी रन तो बना ही लेगा. भला! इतने बड़े स्कोर का भारत कैसे पीछा कर सकेगा? मेरा मन बिल्कुल बैठा जा रहा था. जी कर रहा था कि वहां से तत्काल उठकर घर चला जाऊं और...<br />
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तभी महापात्र ने जैसे ही कपाल-क्रिया के लिए आवाज़ लगाई, भाईसाहब तत्काल उपस्थित हो गए. मुझे आश्चर्य हुआ. मैंने देखा कि उन्होंने उस संस्कार को बड़ी कुशलता से अंजाम दिया. उसके बाद, सनातनी रीति के अनुसार, हम पीछे मुड़े बगैर, घर की ओर चल पड़े. जब हम ऊपर दुकानों के पास से गुजर रहे थे तो किसी ने भाईसाहब को आवाज लगाई, "वकील सा'ब! आइए, अब तसल्ली से बैठकर मैच का मजा लें..." सभी ने सिर उठाकर एक बार उन्हें <br />
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contd./--</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A4%B2_%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%9F%E0%A4%AE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5275डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव2011-03-29T08:26:25Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
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<div>'''डिस्पोजेबल आइटम'''<br />
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डैड की बीमारी पर किसे खुंदक नहीं थी? उन खबीस को भी ऐसी लाइलाज बीमारी तभी लगनी थी जबकि इतना दिलचस्प क्रिकेट मैच चल रहा था! वह मैच भी कोई मामूली मैच नहीं था. वर्ल्ड कप का मैच था. भारत और पाकिस्तान के बीच सीधा मुकाबला था. इसलिए, मेरा घर ही क्या, सारा मोहल्ला क्रिकेटमय था. मोहल्ले से निकलकर सड़क पर आने के बाद चाहे किसी बस की सवारी की जाए या बाजार में चहलक़दमी की जाए, क्रिकेट की चर्चा हर जुबान पर थी. चाय-पान की गुमटियों से लेकर शहर के चप्पे-चप्पे पर लोगबाग इस वर्ल्डकप को लेकर बहसा-बहसी में जमे हुए थे. मेरे आफिस में भी इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर गलाफोड़ तकरार जारी था. कभी-कभार यह तकरार झगड़ा-फसाद का भी रूप ले लेता था. मेरे आफिस वाले ही क्या, दूसरे कार्यालयों के अधिकारी-कर्मचारी भी छुट्टियां लेकर अपने-अपने घरों में टी० वी० सेटों के आगे वर्ल्ड कप के मैचों का सीधा प्रसारण देखने में जमे हुए थे. ऐसे में ऐसा लगता था कि जैसे सारी दुनिया को क्रिकेट के सिवाय कोई और काम नहीं है. बेशक! मेरा घर भी इस टूर्नामेंट का लुत्फ़ उठाने में जुटा हुआ था--घर के सारे कामकाज को ताक पर रखकर. यहाँ तक कि लोगबाग ने खुद को शौच, स्नान आदि को भी गैर-ज़रूरी समझ, चाय-नाश्ता, खाने-पीने तक ही सीमित कर रखा था. हमें तो यह भी चिंता नहीं थी कि घर में बीमार डैडी की तीमारदारी में सभी को जुट जाना चाहिए ताकि वह ज़ल्दी से भले-चंगे होकर किसी अनिष्ट की आशंका से हमें मुक्त कर दें! घरेलू डाक्टर अष्ठाना ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि अगर उन्हें वक़्त पर दवाइयां नहीं दी गईं और उनकी हालत पर खास निगरानी नहीं रखी गई तो उनकी बीमारी जानलेवा भी हो सकती है. <br />
<br />
शायद, डैडी रोमांचक क्रिकेट का परवान चढ़ते जा रहे थे. यों तो, उन्हें भी क्रिकेट मैचों में बेइन्तेहाँ दिलचस्पी रही है; लेकिन, इस बीमारी के कारण उन्हें वर्ल्ड कप मैचों का मजा न ले पाने की भीतर ही भीतर बेहद कसक होगी, जिसे वे व्यक्त नहीं कर पा रहे होंगे. आखिर, उनके जीर्ण-शीर्ण शरीर में मैचों का आनंद लेने का दमखम कहाँ रहा? <br />
<br />
भारत के फ़ाइनल में पहुंचते ही सभी ने अपनी दिनचर्या को भी किनारे कर दिया. रात को डैडी की देखभाल के लिए किसी को भी अपनी नींद हराम करना गवांरा नहीं था. उधर डैडी कराहते रहते और इधर हम गहरे नींद में खर्राटे भर रहे होते. कई बार तो वह पानी-पानी की रट लगाते रहते; पर, कोई उठने का नाम तक नहीं लेता. ऐसे वक़्त में मम्मी की ज़िम्मेदारी बनती थी कि वह उनके दुःख-दर्द में हाथ बंटाने के लिए उनके सामने मौजूद रहतीं. हमें भी संतोष होता! क्योंकि हमें उनकी सेवा करने की नैतिक दुविधा से मुक्ति मिल जाती--'चलो! हमें डैडी की सेवा करने न करने में धर्म-संकट में फ़िज़ूल नहीं पड़ना पड़ा.'<br />
<br />
जब वर्ल्ड कप की सनसनीखेज़ पारियां रात को शुरू हुईं तो हम सभी की आँखों से नींद ऐसे गायब हो गई जैसे गधे के सिर से सींग. डैडी के बेडरूम में जो ब्लैक एंड व्हाइट टी० वी० लगी हुई महीनों से सीलन खा रही थी (क्योंकि उन्होंने बीमारी के कारण काफी समय से टी०वी० देखना बंद कर दिया था), उसे मेरी बहन हेमा अपने कमरे में उठा ले गयी थी ताकि वह अकेले में मैचों का बेखट मजा ले सके. हमने भी टी०वी० पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित करने के साथ-साथ कानोप्न से मिनी ट्रांजिस्टर चिपका रहा था. <br />
<br />
यह स्थिति और भी भयावह थी. अगर रात को दवा-दारू के अभाव में डैडी के प्राण भी निकल जाते तो उसकी खबर सवेरे ही मिलाती. क्योंकि देर रात तक मैच के ख़त्म होने के बाद हम तत्काल बिस्तरों पर सो जाते थे और सुबह हमारी नींद तब खुलती थी जबकि महरी या ग्वाला दरवाज़ा खटखटाते थे. <br />
<br />
दो दिनों से मैं भी आफिस नहीं जा रहा था. जब तक लीग मैच होते रहे, मैंने आफिस में पाकिट ट्रांजिस्टर से ही काम चलाया. बीच-बीच में अपनी पत्नी सुधा को घर पर फोन करके मैच के बारे में ताजा स्थिति की जानकारी लेकर ही संतोष कर लेता! लेकिन, जब भारत ने साउथ अफ्रीका को सेमी फाइनल में पीटकर फाइनल में प्रवेश पा लिया तो मैंने अपने जूनियर को सेक्शन का चार्ज सौंप कर छुट्टी मार ली. मेरे खाते में छुट्टियों का हमेशा अभाव रहा है जिसके चलते डैडी की हालत बेहद गंभीर होने के बावजूद मैं उन्हें खुद कई बार डाक्टर के पास नहीं ले जा सका और उन्हें ड्राइवर के भरोसे छोड़ कर अपनी ड्यूटी पर निकल पड़ा. <br />
<br />
उस दिन फाइनल में पहुँचने के लिए सेमी फ़ाइनल का मुकाबला पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया के बीच था. सारा देश पाकिस्तान के हारने की उम्मीद लगाए बैठा था क्योंकि लोगों को यकीन था कि अगर फाइनल में भारत का सामना पाकिस्तान से हुआ तो उसके जीतने की आशा धूमिल पड़ जाएगी. मेरे घर में भी सभी, सब कुछ छोड़कर यह प्रार्थना करने में जुटे हुए थे कि काश! पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया के हाथों चारों खाना चित्त हो जाता. <br />
<br />
पता नहीं क्यों? पाकिस्तान के खिलाफ खेलते हुए न केवल हमारे खिलाड़ियों का मनोबल आधा हो जाता है, बल्कि हम भी अपनी हार माँ बैठते हैं. <br />
<br />
सुबह जब मम्मी नहा-धोकर रोज़ की तरह मंदिर को दर्शन करने निकलीं तो हम सोच रहे थे कि वह मंदिर में जाकर ईश्वर से डैड के रोगमुक्त होने के लिए प्रार्थनाएं करेंगी. लेकिन, मंदिर से वापस आते ही वह मरीजखाने में डैड के पास जाने के बजाए सीधे ड्राइंग रूम में तशरीफ़ लाईन जहां भाईसाहब और मेरे बीच इस बाबत जोरदार बहस छिड़ी हुई थी कि सेमी फाइनल में कौन जीतेगा--पाकिस्तान या आस्ट्रेलिया. भाईसाहब तो पाकिस्तान द्वारा सेमी फाइनल में पूर्व वर्ल्ड कप चैम्पियन--आस्ट्रेलिया को शिकस्त दिए जाने के पक्ष में दनादन तर्क दिए जा रहे थे जबकि मेरे द्वारा आस्ट्रेलिया को जिताने के लिए दी जाने वाली सारी दलीलें हल्की पड़ती जा रही थीं. <br />
<br />
बेशक! उस वाक् युद्ध में मैं अपनी हार से बेहद मायूस होता जा रहा था. वहां मौजूद मेरी पत्नी सुधा को भी इससे बड़ा कोफ़्त हो रहा था. मुझे उसके सामने अपनी मात से और भी ज़्यादा आत्मग्लानि हो रही थी. वह भी चाहती थी कि भले ही पाकिस्तान क्रिकेट के मैदान में आस्ट्रेलिया को धूल चटा दे, लेकिन भाईसाहब से तर्क-कुतर्क में मैं मात न खाऊँ. बहरहाल, मुझे अपनी बहन--हेमा पर अत्यंत क्रोध आ रहा था जो बिलावज़ह भाईसाहब का पक्ष ले रही थी और वह भी बड़ी चुटकियाँ ले-लेकर. उसकी व्यंग्य-मुस्कान से यह साफ ज़ाहिर हो रहा था कि वह मुझे चिढ़ाना ज़्यादा चाह रही है और पाकिस्तान को जिताना कम. अन्यथा, वह छोटी बहन होने के बावजूद, भाई साहब को आदतन यह सबक देने की गुस्ताखी तो जरूर करती कि 'भैया, क्रिकेट जैसे पेंचीदे विषय से आपका क्या लेना-देना? जाइए, आप किसी मुकदमे की गुत्थी तलाशिए. वकालत के पेशे वालों को क्रिकेट में कतई दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए.'<br />
<br />
लिहाजा, मुझे यह सोचकर बड़ा सुकून मिला कि चलो, कम से कम मेरे घर में एक तो ऐसा बन्दा है जो क्रिकेट को गंभीरतापूर्वक न लेकर मजाकिया लहजे में ले रहा है. मैं भी इस विश्व कप में भले ही दिलचस्पी ले रहा था, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर मैं क्रिकेट जैसे खेल का आलोचक रहा हूँ. क्योंकि जब कोई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच होता है तो सारे देश की हालत नाबदान में ठहरे हुए पानी जैसी हो जाती है. घर, खेत-खलिहानों, कल-कारखानों, दफ्तरों आदि में सारी गतिविधियाँ ठप्प पड़ जाती हैं. सोचिए, जितने दिन क्रिकेट मैच होता है, देश की कितनी श्रम-ऊर्जा निष्क्रिय होकर व्यर्थ जाती होगी! कितना आर्थिक नुकसान होता होगा!<br />
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बहरहाल, मम्मी के आते ही बहसा-बहसी की फिजां ही बदल गई. सारा पासा ही पलट गया. मंदिर से आने के बाद उनकी बातों में बड़ा दम आ गया था. आखिर, उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ ईश्वर से जो मन्नतें मानी थी, वे व्यर्थ थोड़े ही जाने वाली थी. सो, जब पाकिस्तान भाई साहब को आड़े हाथन लिया तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. उस पल, ऐसा लगा कि जैसे आस्ट्रेलिया के हाथों पाकिस्तान का हारना तय है.<br />
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उस रात, हमने यह निश्चय किया कि हम सब दालान में बैठकर टी.वी. देखेंगे और पाकिस्तान को हारते हुए देखने का असली मज़ा लेंगे. सुधा ने वहीं एक टेबल पर स्टोव, केतली और चाय बनाने का सारा सामान भी जमा कर दिया था ताकि बीच-बीच में चाय पीते हुए मैच देखने का असली लुत्फ़ उठाया जाए. भाई साहब ने पाकिस्तान की जीत को सेलीब्रेट करने के लिए पटाखे छोड़ने का इंतजाम पहले से कर लिया था. मैंने आस्ट्रेलिया की जीत के उपलक्ष्य में ऐसा कुछ भी न करने का इंतजाम किया था. क्योंकि मन ही मन मैं भी आस्ट्रेलिया के हारने के भय से मुक्त नहीं हो पाया था. <br />
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डिनर के बाद, सभी दालान में तशरीफ़ लाए. हेमा भी आ गई. इस दिन वह अकेले मैच देखने से बाज आ रही थी. उसने आते ही अपना आसन भाईसाहब के बगल में जमाया. वह मुझे व्यंग्यपूर्वक देखते हुए भाईसाहब के गुट में शामिल होने का अहसास दिला रही थी. अगर मायके से भाभी आ गयी होतीं तो वह नि:संदेह उनके पल्लू में बैठती. तब, मेरा मनोबल और भी गिर जाता. क्योंकि जब भाईसाहब, भाभी और छोटी बहन की तिकड़ी साथ-साथ बैठती थी तो मैं कोई वाक् युद्ध छेड़ने से पहले ही भींगी बिल्ली बन जाता था. मेरी पत्नी तो बहस में एकदम फिसड्डी थी. सही तर्क न दे पाने के कारण वह बेपेंदे के लोटे की तरह फिस्स मुस्कराकर किसी भे ओर लुढ़क कर उसका पलड़ा भारी कर देती थी. <br />
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आखिर में पानदान लटकाए हुए और ताजे पान की गिलौरी चबाते हुए मम्मी ने बिलकुल टी.वी. के सामने दीवान के ऊपर मसनद पर बड़े आराम से दस्तक दिया. उनके हावभाव में बड़ा सुकून था. क्योंकि उन्होंने कुछ क्षण पहले डैडी के कमरे में जाकर उनके सिरहाने स्टूल पर दवाइयां, चम्मच, कटोरी, गिलास और जग में पानी रखते हुए और उन्हें जोर से झकझोरते हुए चिल्ला-चिल्लाकर बता दिया था कि रात को वे याद कर सारी दवाइयां समय से ले लेंगे वरना रोग लाइलाज हो जाएगा. साथ में यह चेतावनी भी दे दी कि वे फ़िज़ूल में बच्चों की तरह शोर मचा-मचाकर हमारे क्रिकेट मैच का मज़ा किरकिरा नहीं करेंगे और सुबह ग्वाले के आने तक हमारे जगने की प्रतीक्षा करेंगे. पता नहीं, उन्होंने मम्मी की बातें ठीक-ठीक सुनी भी थीं, या नहीं. पर, मम्मी अपना पत्नी-सुलभ फ़र्ज़ अदाकार पूरी तरह आश्वस्त नज़र आ रही थीं. हम सभी ने भी उनके चेहरे पर आत्मसंतोष का जो भाव देखा, उससे हम डैडी की ओर से बेफिक्र होकर मैच में पूरी तरह खोने को तैयार हो गए.<br />
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बेशक! मैच बड़ा रोमांचक था. आस्ट्रेलिया ने टास जीत कर, पहले बल्लेबाजी की और पूरे ३०९ रन का विशाल स्कोर खड़ा किया. भाई साहब के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. और हमलोग खूब खिल्लियाँ उड़ा रहे थे. हम इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थे कि पाकिस्तान चाहे जितना भी जोर लगा ले, वह इतना विशाल स्कोर खड़ा नहीं कर सकता. इस बीच मम्मी कम से कम तीन-चार दफे उठकर आँगन में गई थीं और तुलसी के गमले में रखे शिवलिंग पर बार-बार मत्था टेक आई थीं. लिहाजा, जब पाकिस्तान ने लगभग १४-१५ रन की औसत से धुआंधार बल्लेबाजी शुरू की तो हमलोगों के मुंह से सिसकारी भी निकलनी बंद हो गई. जब तक आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज पाकिस्तानी गेंदबाजों के छक्के छुडाते रहे, हम विस्फोटक हंसी हंसते रहे और भाईसाहब को व्यंग्य-बाण से आहत करते रहे. लेकिन, पाकिस्तान द्वारा धुआंधार बल्लेबाजी देखकर हमें विश्वास होता गया कि उसका मैच जीतना कोई टेढ़ी खीर नहीं है. चूंकि उसके चार सलामी बल्लेबाज पवेलियन वापिस लौट चुके थे; लेकिन, उसकी रन बनाने की गति में कोई कमी नहीं आई थी.भाईसाहब का गुट फिर उत्तेजना में आ गया था. पाकिस्तान के अन्तिम क्रम के बल्लेबाज भी मशीन की तरह रन बना रहे थे. उस दरमियान, मम्मी फिर उठकर शिवलिंग के आगे सिर झुकाने नहीं गईं. मेरी पोतनी सुधा ने आँख मूँद कर भगवान से पाकिस्तान की पराजय नहीं माँगी. मैंने लज्जावश भाईसाहब से नज़रें हटा-हटाकर मिलाईं. <br />
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शायद, भगवान में से विश्वास खोने का का दुष्परिणाम कुछ ऐसा हुआ कि अंत में, पाकिस्तान के दसवें क्रम पर आए बल्लेबाज के छक्के ने आस्ट्रेलिया को फाइनल से बाहर कर दिया.<br />
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भाईसाहब ने जमकर पटाखे छोड़े. उन्होंने यह भी चिंता की कि इससे बीमार डैडी को बेहद तकलीफ हो सकती है. सायद, उन्हें इस बारे में कुछ याद ही नहीं रहा. ऐसे जोश में होश कहाँ रहता है ?<br />
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सुबह जब धूप इतनी तेज हो गई कि हमारा सिर दर्द से फटने लगा, तब कहीं जाकर हमारी नीद खुली. हम पहले ही उठ गए होते. लेकिन, उस दिन महरी छुट्टी पर थी और संयोगवश, ग्वाला भी किसी वज़ह से नौ बजे तक नहीं आया था. अन्यथा, उनमें से किसी के दस्तक देने से हम पहले ही जग गए होते. कहीं हमें खराई न मार दे, इसलिए सुधा ने बासी दूध से ही चाय बनाई और हमें डाइनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए बुलाया गया. चाय-नाश्ता कर चुकने के बाद मैंने फिर अपने बेडरूम में जाकर खिड़कियाँ बंद की और बिस्तर पर पसर गया. मम्मी तो नहाने-धोने गुशालाखाने में चली गई थी. लेकिन, मुझसे किसी ने यह भी नहीं पूछा कि तुम्हें आफिस जाना है या नहीं. क्योंकि सभी को मालूम था कि मई अनिश्चित काल के लिए टायफायड का बहाना बनाकर छुट्टी पर हूँ और आफिस तभी जाऊंगा जबकि वर्ल्ड कप मैच समाप्त होगा. भाईसाहब की कचहरी में पहले से ही हड़ताल चल रही थी जिस कारण, वह भी बड़ी तबियत से फाइनल मैच के होने की प्रतीक्षा कर रहे थे. रही छोटी बहन हेमा... तो वह अपने आख़िरी सेमेस्टर के पेपर्स से फारिग होने के बाद मेडिकल सेमीनारों से कतना चाह रही थी. वह पछता रही थी कि उसने इतनी ज़ल्दी मेडिकल असोसिएशन की मेम्बरशिप क्यों ले ली. वर्ल्ड कप मैच के बाद लेती! इस वज़ह से उसे बेकार में रोज़-रोज़ के सेमीनारों आदि में व्यस्त रहना पड़ता था. वास्तव में! फाइनल मैच चार दिनों बाद होना था जिसकी बेसब्री से प्रतीक्षा करने से मिलने वाली अवर्णनीय खुशी में हम किसी काम की फ़िज़ूल चिंता से खलल नहीं डालने चाहते थे. <br />
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अचानक, कुछ अजीबोगरीब शोर से मेरी नींद उचट गई. मुझे बड़ी झुंझलाहट सी हो रही थी क्योंकि मेरा एक सुन्दर सपना टूट गया था जिसमें मैं भारत और पाकिस्तान के बीच जो मैच देख रहा था, उसमें भारत का पलड़ा भारी पड़ता जा रहा था और वह नि:संदेह! विजय की ओर अग्रसर हो रहा था.<br />
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मै उठकर भीतर आँगन में शोरगुल का जायजा लेने गया तो मम्मी की हालत देखकर हकबका गया. वह बेतहाशा रोने के मूड में लग रही थी. तभी हेमा ने बताया कि डैडी की तबियत ज़्यादा खराब है. वहीं देर से आया ग्वाला भी खड़ा था. दरअसल, उसने कई बार आवाज़ लगाई थी. लेकिन, घर में छाया सन्नाटा देखकर वह आवाज़ लगाता हुआ सीधे डैडी के कमरे में घुस गया था जहां उसने डैडी को बेड के नीचे अचेतावस्था में लुढ़का हुआ औंधे मुंह देखकर प्राय: डर-सा गया था. उसने ही मम्मी को उनकी हालत के बारे में सबसे पहले जानकारी दी थी. वह संभवत: रात से ही वहां पड़े हुए थे. उन्होंने रात को हमें किसी वज़ह से आवाज़ दी होगी जिसे हमने मैच में मस्त होने के कारण नहीं सुना होगा. फिर, उन्होंने उठने की कोशिश की होगी. पर अशक्त होने के कारण गिर पड़े होंगे. दिलचस्प बात यह थी कि हमने सुबह देर से उठने के बावजूद उनके कमरे में जाकर उनकी हालत जानने की जुर्रत महसूस नहीं की. अगर ग्वाला अनजाने में उनके कमरे में दाखिला नहीं हुआ होता तो...<br />
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खैर, हेमा ने अपने नए डाक्टरी अनुभवों का इस्तेमाल कर, हमें तत्काल इत्तला किया कि डैडी की हालत नाज़ुक है और अब उन्हें अस्पताल में अब तो भर्ती करा ही देना चाहिए.<br />
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हमने ड्राइवर की मदद से डैडी को अस्पताल में भर्ती करा ही दिया. उस दिन हम सभी अस्पताल गए. हम सोच रहे थे कि दो-तीन दिनों में डैडी की हालत सम्हल ही जाएगी. फिर, उन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी जाएगी. <br />
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उस दिन उनकी कई जांचें हुईं और सभी में आई रिपोर्टें चिंताजनक थीं. खून में शूगर की मात्रा बहुत बढ़ गई थी. रक्तचाप भी इतना बढ़ गया था कि उनका उपचार कर रहे डा. श्रीवास्तव के माथे पर बार-बार बल पड़ जा रहे थे. करीब एक बजे रात को जब उन्हें सांस लेने में दिक्कत-सी होने लगी तो डाक्टर ने तत्काल नर्स को तलब कर कृत्रिम आक्सीजन की व्यवस्था कर दी. यह सब देख, मम्मी चिंता में पड़ गईं कि शायद, अस्पताल में हफ़्तों लग सकते हैं. वह उनके बगल में बैठकर लगातार ग्लूकोज़ की बोतल पर नज़रें गड़ाई हुईं थी. वह बार-बार वहां बेताबी से लगातार चहलकदमी कर रहे भाईसाहब को सवालिया नज़रों से पूछना चाह रही थीं कि बोतल का पानी इतना धीमे-धीमे क्यों चढ़ाया जा रहा है, एकसाथ उनकी नसों में क्यों नहीं उड़ेल दिया जा रहा है. उनकी इस उधेड़बुन पर मेरा मन बेहद खीझ रहा था. आखिर सभी क्यों चाह रहे थे कि जबकि डैडी तीन सालों से लगातार रुग्ण चल रहे हैं, वे अति शीघ्र ठीक हो जाएं! या यूं कही कि हम सभी किसी तरह डैडी के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से किनारा करना चाह रहे थे. <br />
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सारी रात हम सभी को अस्पताल में बैठकर डैडी की तीमारदारी करनी पड़ी. पिछले तीन सालों से जब से उनकी हालत बाद से बदतर हो गई, किसी ने उनकी तसल्लीबख्श सेवा-सुश्रुषा नहीं की थी. उनके बचपन के दोस्त--डा. अष्ठाना का कहना था कि बदपरहेज़ी ने ही उन्हें इस घातक हालत में ला खड़ा किया है. वरना, उनके मज़बूत कद-काठी को देखते हुए यह कोई नहीं कह सकता था कि मौत का खौफ उन्हें पच्चीस सालों से पहले भी छू सकता है. आज उनका शरीर कई बीमारियों का घर बन गया है. दमा, मधुमेह और अब तपेदिक ने उन्हें बारी-बारी से जकड़ लिया है. <br />
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अस्पताल में दाखिल होने के बाद से उनकी हालत में रत्ती भर भी सुधार नहीं आया. उल्टे, हालत और बिगड़ती जा रही थी. दूसरे दिन, सुबह तक सारी रिपोर्टें आ गईं. डा. श्रीवास्तव ने बताया कि दो दिन पहले की रात को उन्हें दमा का तेज दौरा पड़ा था और अगर उस वक़्त उन्हें उचित दवा मिल गई होती तो उनकी दशा इतनी नहीं बिगड़ती. <br />
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तब, हम सभी अपराधबोध से ग्रस्त होकर एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे थे. क्योंकि दौरे के समय तो हमलोग क्रिकेट मैच का आनंद ले रहे थे. हमारी उस स्थिति पर डाक्टर मुंह बिचकाते हुए चले गए थे. शायद, उन्होंने हमारे बाडी लैंग्विज़ से पढ़ लिया था किहमने उस वृद्ध व्यक्ति के प्रति घोर लापरवाही की थी. उस क्षण, हमें ऐसा लगा कि जैसे डाक्टर एक झन्नाटेदार तमाचा मार गया हो.<br />
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जब से डैडी अस्पताल में लाए गए थे, उन्होंने हममे से किसी से भी बात नहीं की थी, जबकि वह डाक्टर के सवालों का उत्तर बहुत धीमी आवाज़ में या 'हाँ' और 'ना' में दे रहे थे. हमारे बार-बार पूछने पर भी वह कुछ नहीं बोलते थे. बल्कि बड़ी गैरियत से मुंह फेर लेते थे. उनके चेहरे पर हमने घृणा और तिरस्कार के स्पष्ट भाव देखे थे. बेशक! अगर उनमें ताकत होती तो वे हमारे मुंह पर जोर से थूक भी सकते थे. <br />
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उस दिन दोपहर को डाक्टर ने बताया कि डैडी थैलीसीमिया से भी पीड़ित हैं और उनका खून बनना बिल्कुल बंद हो चुका है. सो, शाम से ही उन्हें खून चढ़ाया जाने लगा. भाईसाहब ने कहा कि अभी हमें अपना खून देने की क्या ज़रुरत है. महानगर के रक्त बैंकों में पर्याप्त मात्रा में खून उपलब्ध है. इसलिए ज़्यादा से ज़्यादा कीमतें देकर खून की चार बोतलें मंगाई गईं. रात को करीब दो बजे, उन्हें दमा के दौरे के साथ दर्ज़नों फटी खांसियाँ आईं. डाक्टर ने बताया कि यह लक्षण ठीक नहीं है. अगर ऐसा दोबारा या तिबारा हुआ तो यह घातक भी हो सकता है.<br />
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उस रात उनकी हालत वास्तव में दयनीय थी. वह बड़ी बैचेनी में थे क्योंकि उन्हें सांस लेने में बड़ी परेशानी हो रही थी. मम्मी पिछली रात से बिल्कुल न सो पाने के कारण दस बजे से ही बाहर सोफे पर खर्राटे भर रही थीं. भाईसाहब और मेरी पत्नी सुधा थोड़ी-थोड़ी देर पर डैडी को देखकर, पता नहीं कहाँ घंटों-घंटों तक लापता हो जा रहे थे. हेमा भी डैडी के मर्ज़ पर अलग-अलग डाक्टरों से बातचीत में मशगूल-सी दिखाई दे रही थी. लिहाजा, मैं वहां लगातार डैडी की हालत पर नज़र रखते हुए यह योजना बना रहाथा कि कल सुबह मुझे आफिस ज्वाइन कर ही लेना चाहिए. इसलिए, मैंने चुपके से एक डाक्टर से अपने लिए मेडिकल सर्टीफिकेट और फिटनेस सर्टीफिकेट बनवा लिए ताकि कल ड्यूटी ज्वाइन करने में कोई अड़ंगा न आए. <br />
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तीसरे दिन सुबह, मै किसी को कुछ बताए बगैर आफिस चला गया. वहीं से मैंने फोन पर अस्पताल में मम्मी को सूचित कर दिया कि आफिस के मेसेंजेर ने आकर मुझे कुछ आवश्यक काम के लिए बुलाक था जिससे मुझे अचानक ड्यूटी ज्वाइन करनी पड़ी. शाम, को मैं जानबूझकर देर से लौटा. पहले घर जाकर नहाया-धोया और फिर, नौकर से बाहर से चाय मंगवाकर नाश्ता किया. उसके बाद, तसल्ली से अस्पताल गया. वहां, की हालत देख, मैं घबड़ा-सा गया. डैडी के बेड पर कोई दूसरा डाक्टर उन्हें कृत्रिम सांस देने की कोशिश कर रहा था. पूछने पर पता चला कि डा. श्रीवास्तव छुट्टी पर चले गए हैं. नए डाक्टर बोस ने मुझे जोर की झाड़ लगाई--"आप मेजर चौहान के कैसे बेकहन और बदतमीज़ बेटे हैं कि आपके पिता मौत से जूझ रहे हैं जबकि आप सुबह से ही नदारद हैं? कितने शर्म की बात है कि यहाँ आपके पिता एक लावारिस मरीज़ की तरह यहाँ डेथ-बेड पर पड़े-पड़े हमारे स्टाफ के रहमोकरम की भीख मांग रहे हैं! अगर इस दरमियान इनकी मौत हो जाती तो इनकी बाडी का क्लेम करने के लिए भी कोई आगे आना वाला नहीं था..."<br />
<br />
मैंने लगभग हकलाते हुए खे प्रकट किया और किसी को ढूँढने के बहाने आसपास का चक्कर लगाने लगा. थोड़ी बाद ग्रीन लान में मैंने मम्मी को उनकी कुछ आगंतुक सहेलियों के साथ जोर-जोर से गप्प लड़ाते हुए पाया. बेशक! चर्चा काविशय क्रिकेट ही था. मुझे अपने पास पाकर उन्होंने अपना चेहरा हाथी के सूंड़ की तरह लटका लिया. जैसेकि वह सुबह से ही गम में डूबी हुईं हों. वह मुझे देखते ही उठ खड़ी हुईं. कहने लगीं, "अभी-अभी तो आई हूँ. क्या करती? तुम्हारी आंटियां डैडी को देखने आई थीं जिन्हें छोड़ने बाहर तक आ गई..."<br />
<br />
मैंने सिर्फ उन्हें घूरकर शिकायताना अंदाज़ में देखा. अगर पूचता तो वह भी कह सकती थीं कि तुम भी तो अपनी ज़िम्मेदारी से बचने के लिए आफिस चले गए थे. उन्होंने चलते-चलते मुझे बताया कि तुम्हारे बड़े भाई एक मुवक्किल के साथ कचहरी चले गए हैं. हेमा सुबह से ही एक सेमीनार में गई हुई है और अभी तक लौटी नहीं, जबकि सुधा अपनी किसी सहेली के बेटे केजन्म दिन पर कान्ग्रेट करने गई हुई है.<br />
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डैडी के बेड के पास हमारे कुछ देर तक ठहरने के बाद, डाक्टर बोस ने बताया कि मेजर चौहान यानी मेरे पिता को दोपहर से दो बार तेज दौरा पड़ चुका है और साथ में खान्सियों के साथ खून भी आया है. मैंने मम्मी का चेहरा गौर से देखा. वह इस सूचना से कोई ख़ास प्रभावित नज़र नहीं आ रही थीं. हाँ, कुछ और सुनने की उत्सुकता साफ़ झलक रही थी.<br />
<br />
डा. बोस ने फिर कहा, "अब तो भगवान् ही मालिक है. दवा ने भी असर करना बंद कर दिया है. बेहतर होगा कि आप इन्हें अब घर ही ले जाइए. हमने जी-जान से कोशिश की. अब कुछ भी नहीं कर सकते. हाँ, मैं कुछ दवाइयां लिख दे रहा हूँ, इन्हें देते रहिएगा."<br />
<br />
हमने डाक्टर के मशविरे को आँख मूँद कर मान लिया. यह भी नहीं सोचा कि अस्पताल में जो चिकित्सीय सुविधाएं मिल रही हैं, वे घर में कहाँ से मिल पाएंगी? हमने मम्मी की आँखों में झाँक कर देखा. उनका इशारा साफ़ था कि डैडी को रामभरोसे छोड़ देना ही श्रेयस्कर है. उन्होंने अपनी सूखी आँखों को साड़ी के पल्लू से बार-बार रगडा. उसके बाद हमने डैडी और सारे सामान-असबाब को कार में डाल दिया. ड्राइवर से कहा, "फ़ौरन घर ले चलो!"<br />
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डैडी को उनके बेड पर दोबारा डाल दिया गया. सारा घर फिर से अपनी दिनचर्या में ऐसे व्यस्त हो गया, जैसेकि कुछ हुआ ही न हो. सभी संतुष्ट थे कि चलो! डैडी को बचाने के लिए इतनी कोशिश तो की गई. चालीस-पैंतालीस हजार रूपए भी फूंक-ताप दिए गए. अब भगवान की मर्जी! वह बचें या न बचें!<br />
<br />
चूंकि, डैडी की लाइलाज बीमारी का चतुर्दिक विज्ञापन हो चुका था, इसलिए उन्हें देखने आने वाले शुभचिंतकों का भी तांता लग गया था. मम्मी उन्हें चाय पिलाते-पिलाते कुछ रेट-रटाए जुमले सुना देती थी--जैसेकि 'भगवान की मर्जी', 'विधि का बदा टारे नहीं टरे', 'विधाता को हमें सुहागन देखना नहीं भा रहा है', 'पैतालीस साल साथ-साथ जिए, बस! हेमा बिटिया के हाथ पीले नहीं करा सकेंगे,' वगैरह=-वगैरह. तदुपरांत, वह शुभचिंतकों को बेड की ओर इशारा कर देती जैसेकि यह कहना चाह रही हों कि 'बहुत इस्तेमाल कर चुकी, अब इस डिस्पोजेबल आइटम को निपटाना भर बाकी है.'<br />
<br />
रात के लगभग ग्यारह बजे हेमा आकर अपने दोस्तों के साथ ड्राइंग रूम में सेमीनार हुई चर्चाओं की समीक्षा कर रही थी. थोड़ी देर बाद जब भाईसाहब घर में तशरीफ़ लाए तो उनका मुंह गुस्से में सूजा हुआ था. या, यूं कहिए कि वे जानबूझकर अपने चेहरे पर गुस्सा लाने की असफल कोशिश कर रहे थे. शायद, वे अस्पताल होते हुए आए थे. बेशक! उनके अहं को इस बात से बेहद चोट पहुँची थी कि डैडी को अस्पताल से वापस लाने के फैसले में उनको क्यों नहीं शामिल किया गया. उन्होंने डैडी का हालचाल लेने वालों की मौजूदगी में हममें से एक-एक की खबर ली, "आखिर, इतनी ज़ल्दी क्या थी कि डैडी को वापस लेते आए? अरे, उन्हें पूरी तरह ठीक तो हो जाने दिया होता! हमलोग एक-दो दिन अस्पताल की ज़िल्लत और झेल लेते! यहाँ क्या है? न कोई डाक्टर है, न ही कोई कायदे की दवा? डा. अष्ठाना तो चूतिया और निकम्मा है. बस, ऊपरी तौर पर डैडी का खैरख्वाह बनने का ड्रामा करता रहता है. उसने ही डैडी को इस हालत में ला खड़ा किया है. उल्टे, उनकी बीमार हालत के लिए हमें ज़िम्मेदार ठहराता है."<br />
<br />
मैंने भाईसाहब को एक कोने में ले जाकर बताया, ""हमलोग क्या करते? खुद डाक्टर ने हमें डैडी को घर ले जाने की सलाह दी थी कि अब ईश्वर से प्रार्थना कीजिए. उन्हें कोई करिश्मा ही बचा सकता है, हम जैसे इंसान नहीं..."<br />
<br />
मेरी बात सुनकर वह पहले हमारा चेहरा घूरते रहे. कुछ क्षण तक उन्होंने डैडी के कमरे की ओर भी निर्भाव दृष्टि से देखा. मैंने सोचा कि वह कमरे में जाकर डैडी की हालत का जायजा लेंगे. पर, वे ठिठकते हुए अपने बेडरूम में घुस गए. <br />
<br />
रात के लगभग साढ़े बारह बजे हम लेट-लतीफ़ खाना खाने के बाद सोने का यत्न कर रहे थे. हम यह सोचकर खुश थे कि अच्छा हुआ कि डैडी घर वापस आ गए. कल का फाइनल मैच टी. वी. पर तसल्ली से देख सकेंगे. अस्पताल में तो इतना बढ़िया मौक़ा खटाई में पड़ जाता. शायद, बेड में पड़े-पड़े हर व्यक्ति यह सोच रहा था कि ज़ल्दी से एक ही नींद में रात गुजर जाए, ताकि कल सबेरे तरिताजा मूड में मैच का भरपूर आनंद लिया जा सके. <br />
<br />
अभी हम नींद के कद्रदान बन भी नहीं पाए थे कि एक बौखलाने वाली चींख ने उसमें खलल डाल दिया. हम हड़बड़ाकर उठ बैठे. हमने वाकई एहसास किया किया कि वह चींख डैडी की ही हो सकती है. हम एक झटके से उनके कमरे में दाखिल हुए. डैडी का सारा शरीर तेजी से काँप रहा था. और जबड़ा तेजी से बज रहा था. मम्मी झिझकते हुए उनके हाथ पकड़ कर उनकी कंपकंपाहट को रोकना चाह रही थीं और हमलोग दूर से ही डैडी को तसल्ली दे रहे थे कि 'डैडी, आपको कुछ भी नहीं होगा." पर, वे तो मायूस निगाहों से चारों ओर देखते हुए कुछ अनापशनाप आवाज़ निकाल रहे थे. उस वक़्त, डैडी की इकलौती लाडली बेटी--हेमा की आँखों में आंसुओं का गुबार उमड़ रहा था. इसी बीच सुधा ने बुद्धिमानी दिखाते हुए डाक्टर अष्ठाना को झटपट फोन कर, उन्हें तत्काल बुला लिया. <br />
<br />
जब तक डाक्टर अष्ठाना आए, डैडी के शरीर की हरकत बंद हो गई थी. हाँ, आँखें अधखुली थीं. हमने यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि डैडी अचानक शांत क्यों हो गए या उनकी आँखें पूरी तरह खुली क्यों नहीं हैं या उनके डांट किटकिटा क्यों नहीं रहे हैं. पता नहीं, उन्हें छूकर उनके शरीर का तापमान जानने में हमें तो हिचक हो रही थी; पर, कुंआरी हेमा डाक्टर होकर भी उन्हें हाथ क्यों नहीं लगाना चाह रही थी? डाक्टर के आने से पहले हममें से कोई भी उन्हें टटोलने की ज़हमत नहीं उठा सका. <br />
<br />
डा. अष्ठाना संतोषजनक ढंग से डैडी की जांच करने के बाद ग़मगीन हो गए, "मेजर सा'ब इज नो मोर."<br />
<br />
उनका निष्कर्ष सुनते ही मम्मी दहाड़ें मार-मार कर बिलखने लगीं. रात से उसका सन्नाटा अचानक छीन गया. उस रात हमें पता चला कि मम्मी रोने-धोने में कितनी माहिर हैं. इसके पहले हमें मालूम नहीं था कि उनके शब्दकोश में ग्रामीणता किस हद तक शामिल है. यों तो हम सभी बेहद दुखी थे और नि:संदेह! दुखी होने का इससे अनुकूल मौक़ा और कोई नहीं हो सकता था. लेकिन, मम्मी के रोने का पूरबीपन हमें बिल्कुल नहीं भाया. अगर कोई और मौक़ा होता तो मै निश्चय ही कह देता कि 'मम्मी, किसी और लहजे में रोओ.'<br />
<br />
दु:ख की उस घड़ी में सारा पड़ोस रात के अँधेरे में उमड़ पड़ा. सुबह शहर के कई प्रतिष्ठित व्यक्ति भी आए जो या तो डैडी के जानने वाले थे या दोस्त थे. लिहाजा, हमें यह जानकर बहुत सुकून मिला कि हमारे साथ इतने ढेर सारे लोग पूरी औपचारिकता के साथ शोक मनाने को तैयार हैं.<br />
<br />
सुबह के करीब दस बजे, डैडी के शव पर सेना की तरफ से पुष्पांजलि अर्पित की गई. एक रिटायर्ड मेजर की मृत्यु पर ऐसा करना राज्य का कर्तव्य होता है. हमलोगों का सीना तो फख्र से चौड़ा हो गया. सारे मोहल्ले में हमारी नाक ऊंची हो गई. हमें पहली बार अपने पिता के इतने बड़े आदमी होने का एहसास हुआ. <br />
<br />
लगभग साढ़े दस बजे शव यात्रा आरम्भ हुई. शव यात्रा में जाते समय, हम दु:खी कम, चिंतित ज़्यादा थे. रास्तों से गुजरते हुए हममें से ज़्यादातर लोगों की निगाहें दुकानों में लगी टी.वी. पर जमीं हुई थीं. कुछ लोग तो इस चक्कर में पीछे छूट जा रहे थे. जैसे ही थोड़ी-सी सड़ाका जाम होती, वे शव यात्रा से अलग होकर दुकानों के सामे खड़े हो जाते और मैच का मजा लेने लगते! बेशक! इन दुकानदारों के टी.वी.परस्त हिने का आज हमें शुक्रगुजार होना चाहिए. टुकड़ों में ही सही, इस फाइनल मैच की जानकारी तो हमें मिल रही थी. मै भी शव यात्रियों के शोरगुल के बावजूद, क्रिकेट कमेंटरी के एक-एक लफ्ज़ पर अमल कर रहा था और उसके दो सलामी बल्लेबाज आउट हो चुके थे. जबकि उसका स्कोर चौदह ओवर में १२२ रन था. यानी, भारत की हालत पतली नज़र आ रही थी. यह बात साफ थी कि पाकिस्तान एक बड़ा स्कोर खड़ा करेगा और भारत को मनोवैज्ञानिक दबाव में बल्लेबाजी करने के लिए मज़बूर करेगा. <br />
<br />
इसी दरमियाँ, मैंने अपने आगे भाईसाहब को बड़ी चिंतित मुद्रा में चलते हुए देखा. ऐसा लगा रहा था कि वह डैडी की अर्थी को अपने कंधे पर धोने के बजाय, भारत की भारी हार का दुर्वह्य बोझ खींच रहे हों. यकायक, मेरी निगाह उनके कान में लगे इयर माइक्रोफोन पर गई. मुझे समझने में देर नहीं लगी कि इन्होंने काले कुर्ते की पाकेट में मिनी द्रान्जिस्टर सेट छिपा रखा था. घने बालों के भीतर वह माइक्रोफोन मुश्किल से नज़र आने वाला था. मै हैरत के समंदर में गोते लगाने लगा. इस असीम दु:ख की घड़ी में भी उन्हें<br />
उन्होंने क्रिकेट मैच का दामन नहीं छोड़ा था. वे सिर झुकाए हुए चल रहे थे ताकि सारा ध्यान क्रिकेट कमेंटरी पर केन्द्रित कर सकें. पता नहीं, उस वक़्त वे अच्छी तरह 'राम नाम सत्य' भी बोल रहे थे या नहीं. उस सामूहिक स्वर में किसी को इसका क्या पता चलता? लेकिन, मुझे मन ही मन उनसे ईर्ष्या होने लगी थी. सारे मैच का आनंद एकमात्र वे ही ले रहे थे. मुझे खुद पर बड़ा कोफ़्त हो रहा था कि यह युक्ति मेरे दिमाग में क्यों नहीं आई. मेरे पास भी माचिस के आकार का बढ़िया द्रान्जिस्टर था जिसे मैं या तो कान खुजलाने के बहाने कान से लगाए रखता या भाईसाहब के नक्शेकदम पर माइक्रोफोन के जरिए कान में फिट कर लेता. किसी को इसकी आहट तक नहीं लगने देता!<br />
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दो घंटे की थकाऊ पदयात्रा के बाद हमने श्मशान घाट पर कदम रखा. वहां बिल्कुल ऊपर वाली सीढियों के किनारे जो माला-फूल और पूजन-सामग्री की दुकानें थीं, उनमे लगीं कुछ मिनी टीवियों पर दर्शक उमड़े हुए थे. <br />
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बहरहाल, शव के साथ जो चुनिंदा संस्कार किए गए, उनमे भाईसाहब ने बखूबी शिरकत की. फिर, डैडी को मुखाग्नि देने के के बाद पता नहीं, कहाँ वे गुम हो गए? मैंने इधर-उधर उन्हें ढूँढने की असफल चेष्टा की. कुछ देर तक मैंने ऊपर टी.वी. देखने में मशगूल भीड़ में भी उनको तलाश किया. पर, वे कहीं नहीं दिखाई दिए. बेशक! वे वहीं मौजूद रहे होंगे. लेकिन, मेरा ध्यान बार-बार टी.वी. पर ठहर जाने की वज़ह से मै उन्हें ईमानदारी से नहीं ढूंढ सका. जब पुन: नीचे आया तो मेरा मिजाज़ ठीक नहीं था क्योंकि पाकिस्तान ने चौवालीस ओवरों में दो सौ बानवे रन बना लिए थे और शेष छ: ओवरों में बिलाशक! वह कम से कम सत्तर-अस्सी रन तो बना ही लेगा. भला! इतने बड़े स्कोर का भारत कैसे पीछा कर सकेगा? मेरा मन बिल्कुल बैठा जा रहा था. जी कर रहा था कि वहां से तत्काल उठकर घर चला जाऊं और...<br />
<br />
तभी महापात्र ने जैसे ही कपाल-क्रिया के लिए आवाज़ लगाई, भाईसाहब तत्काल उपस्थित हो गए. मुझे आश्चर्य हुआ. मैंने देखा कि उन्होंने उस संस्कार को बड़ी कुशलता से अंजाम दिया. उसके बाद, सनातनी रीति के अफ्नुसार, हम पीछे मुड़े बगैर, घर की ओर चला पड़े. जब हम ऊपर दुकानोंन के पास से गुजर रहे थे तो किसी ने भाईसाहब को आवाज लगाई, "वकील सा'ब! आइए, अब तसल्ली से बैठकर मैच का मजा लें..." सभी ने सिर उठाकर एक बार उन्हें <br />
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contd./--</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A4%B2_%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%9F%E0%A4%AE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5274डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव2011-03-29T06:58:49Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
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<div>'''डिस्पोजेबल आइटम'''<br />
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डैड की बीमारी पर किसे खुंदक नहीं थी? उन खबीस को भी ऐसी लाइलाज बीमारी तभी लगनी थी जबकि इतना दिलचस्प क्रिकेट मैच चल रहा था! वह मैच भी कोई मामूली मैच नहीं था. वर्ल्ड कप का मैच था. भारत और पाकिस्तान के बीच सीधा मुकाबला था. इसलिए, मेरा घर ही क्या, सारा मोहल्ला क्रिकेटमय था. मोहल्ले से निकलकर सड़क पर आने के बाद चाहे किसी बस की सवारी की जाए या बाजार में चहलक़दमी की जाए, क्रिकेट की चर्चा हर जुबान पर थी. चाय-पान की गुमटियों से लेकर शहर के चप्पे-चप्पे पर लोगबाग इस वर्ल्डकप को लेकर बहसा-बहसी में जमे हुए थे. मेरे आफिस में भी इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर गलाफोड़ तकरार जारी था. कभी-कभार यह तकरार झगड़ा-फसाद का भी रूप ले लेता था. मेरे आफिस वाले ही क्या, दूसरे कार्यालयों के अधिकारी-कर्मचारी भी छुट्टियां लेकर अपने-अपने घरों में टी० वी० सेटों के आगे वर्ल्ड कप के मैचों का सीधा प्रसारण देखने में जमे हुए थे. ऐसे में ऐसा लगता था कि जैसे सारी दुनिया को क्रिकेट के सिवाय कोई और काम नहीं है. बेशक! मेरा घर भी इस टूर्नामेंट का लुत्फ़ उठाने में जुटा हुआ था--घर के सारे कामकाज को ताक पर रखकर. यहाँ तक कि लोगबाग ने खुद को शौच, स्नान आदि को भी गैर-ज़रूरी समझ, चाय-नाश्ता, खाने-पीने तक ही सीमित कर रखा था. हमें तो यह भी चिंता नहीं थी कि घर में बीमार डैडी की तीमारदारी में सभी को जुट जाना चाहिए ताकि वह ज़ल्दी से भले-चंगे होकर किसी अनिष्ट की आशंका से हमें मुक्त कर दें! घरेलू डाक्टर अष्ठाना ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि अगर उन्हें वक़्त पर दवाइयां नहीं दी गईं और उनकी हालत पर खास निगरानी नहीं रखी गई तो उनकी बीमारी जानलेवा भी हो सकती है. <br />
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शायद, डैडी रोमांचक क्रिकेट का परवान चढ़ते जा रहे थे. यों तो, उन्हें भी क्रिकेट मैचों में बेइन्तेहाँ दिलचस्पी रही है; लेकिन, इस बीमारी के कारण उन्हें वर्ल्ड कप मैचों का मजा न ले पाने की भीतर ही भीतर बेहद कसक होगी, जिसे वे व्यक्त नहीं कर पा रहे होंगे. आखिर, उनके जीर्ण-शीर्ण शरीर में मैचों का आनंद लेने का दमखम कहाँ रहा? <br />
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भारत के फ़ाइनल में पहुंचते ही सभी ने अपनी दिनचर्या को भी किनारे कर दिया. रात को डैडी की देखभाल के लिए किसी को भी अपनी नींद हराम करना गवांरा नहीं था. उधर डैडी कराहते रहते और इधर हम गहरे नींद में खर्राटे भर रहे होते. कई बार तो वह पानी-पानी की रट लगाते रहते; पर, कोई उठने का नाम तक नहीं लेता. ऐसे वक़्त में मम्मी की ज़िम्मेदारी बनती थी कि वह उनके दुःख-दर्द में हाथ बंटाने के लिए उनके सामने मौजूद रहतीं. हमें भी संतोष होता! क्योंकि हमें उनकी सेवा करने की नैतिक दुविधा से मुक्ति मिल जाती--'चलो! हमें डैडी की सेवा करने न करने में धर्म-संकट में फ़िज़ूल नहीं पड़ना पड़ा.'<br />
<br />
जब वर्ल्ड कप की सनसनीखेज़ पारियां रात को शुरू हुईं तो हम सभी की आँखों से नींद ऐसे गायब हो गई जैसे गधे के सिर से सींग. डैडी के बेडरूम में जो ब्लैक एंड व्हाइट टी० वी० लगी हुई महीनों से सीलन खा रही थी (क्योंकि उन्होंने बीमारी के कारण काफी समय से टी०वी० देखना बंद कर दिया था), उसे मेरी बहन हेमा अपने कमरे में उठा ले गयी थी ताकि वह अकेले में मैचों का बेखट मजा ले सके. हमने भी टी०वी० पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित करने के साथ-साथ कानोप्न से मिनी ट्रांजिस्टर चिपका रहा था. <br />
<br />
यह स्थिति और भी भयावह थी. अगर रात को दवा-दारू के अभाव में डैडी के प्राण भी निकल जाते तो उसकी खबर सवेरे ही मिलाती. क्योंकि देर रात तक मैच के ख़त्म होने के बाद हम तत्काल बिस्तरों पर सो जाते थे और सुबह हमारी नींद तब खुलती थी जबकि महरी या ग्वाला दरवाज़ा खटखटाते थे. <br />
<br />
दो दिनों से मैं भी आफिस नहीं जा रहा था. जब तक लीग मैच होते रहे, मैंने आफिस में पाकिट ट्रांजिस्टर से ही काम चलाया. बीच-बीच में अपनी पत्नी सुधा को घर पर फोन करके मैच के बारे में ताजा स्थिति की जानकारी लेकर ही संतोष कर लेता! लेकिन, जब भारत ने साउथ अफ्रीका को सेमी फाइनल में पीटकर फाइनल में प्रवेश पा लिया तो मैंने अपने जूनियर को सेक्शन का चार्ज सौंप कर छुट्टी मार ली. मेरे खाते में छुट्टियों का हमेशा अभाव रहा है जिसके चलते डैडी की हालत बेहद गंभीर होने के बावजूद मैं उन्हें खुद कई बार डाक्टर के पास नहीं ले जा सका और उन्हें ड्राइवर के भरोसे छोड़ कर अपनी ड्यूटी पर निकल पड़ा. <br />
<br />
उस दिन फाइनल में पहुँचने के लिए सेमी फ़ाइनल का मुकाबला पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया के बीच था. सारा देश पाकिस्तान के हारने की उम्मीद लगाए बैठा था क्योंकि लोगों को यकीन था कि अगर फाइनल में भारत का सामना पाकिस्तान से हुआ तो उसके जीतने की आशा धूमिल पड़ जाएगी. मेरे घर में भी सभी, सब कुछ छोड़कर यह प्रार्थना करने में जुटे हुए थे कि काश! पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया के हाथों चारों खाना चित्त हो जाता. <br />
<br />
पता नहीं क्यों? पाकिस्तान के खिलाफ खेलते हुए न केवल हमारे खिलाड़ियों का मनोबल आधा हो जाता है, बल्कि हम भी अपनी हार माँ बैठते हैं. <br />
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सुबह जब मम्मी नहा-धोकर रोज़ की तरह मंदिर को दर्शन करने निकलीं तो हम सोच रहे थे कि वह मंदिर में जाकर ईश्वर से डैड के रोगमुक्त होने के लिए प्रार्थनाएं करेंगी. लेकिन, मंदिर से वापस आते ही वह मरीजखाने में डैड के पास जाने के बजाए सीधे ड्राइंग रूम में तशरीफ़ लाईन जहां भाईसाहब और मेरे बीच इस बाबत जोरदार बहस छिड़ी हुई थी कि सेमी फाइनल में कौन जीतेगा--पाकिस्तान या आस्ट्रेलिया. भाईसाहब तो पाकिस्तान द्वारा सेमी फाइनल में पूर्व वर्ल्ड कप चैम्पियन--आस्ट्रेलिया को शिकस्त दिए जाने के पक्ष में दनादन तर्क दिए जा रहे थे जबकि मेरे द्वारा आस्ट्रेलिया को जिताने के लिए दी जाने वाली सारी दलीलें हल्की पड़ती जा रही थीं. <br />
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बेशक! उस वाक् युद्ध में मैं अपनी हार से बेहद मायूस होता जा रहा था. वहां मौजूद मेरी पत्नी सुधा को भी इससे बड़ा कोफ़्त हो रहा था. मुझे उसके सामने अपनी मात से और भी ज़्यादा आत्मग्लानि हो रही थी. वह भी चाहती थी कि भले ही पाकिस्तान क्रिकेट के मैदान में आस्ट्रेलिया को धूल चटा दे, लेकिन भाईसाहब से तर्क-कुतर्क में मैं मात न खाऊँ. बहरहाल, मुझे अपनी बहन--हेमा पर अत्यंत क्रोध आ रहा था जो बिलावज़ह भाईसाहब का पक्ष ले रही थी और वह भी बड़ी चुटकियाँ ले-लेकर. उसकी व्यंग्य-मुस्कान से यह साफ ज़ाहिर हो रहा था कि वह मुझे चिढ़ाना ज़्यादा चाह रही है और पाकिस्तान को जिताना कम. अन्यथा, वह छोटी बहन होने के बावजूद, भाई साहब को आदतन यह सबक देने की गुस्ताखी तो जरूर करती कि 'भैया, क्रिकेट जैसे पेंचीदे विषय से आपका क्या लेना-देना? जाइए, आप किसी मुकदमे की गुत्थी तलाशिए. वकालत के पेशे वालों को क्रिकेट में कतई दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए.'<br />
<br />
लिहाजा, मुझे यह सोचकर बड़ा सुकून मिला कि चलो, कम से कम मेरे घर में एक तो ऐसा बन्दा है जो क्रिकेट को गंभीरतापूर्वक न लेकर मजाकिया लहजे में ले रहा है. मैं भी इस विश्व कप में भले ही दिलचस्पी ले रहा था, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर मैं क्रिकेट जैसे खेल का आलोचक रहा हूँ. क्योंकि जब कोई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच होता है तो सारे देश की हालत नाबदान में ठहरे हुए पानी जैसी हो जाती है. घर, खेत-खलिहानों, कल-कारखानों, दफ्तरों आदि में सारी गतिविधियाँ ठप्प पड़ जाती हैं. सोचिए, जितने दिन क्रिकेट मैच होता है, देश की कितनी श्रम-ऊर्जा निष्क्रिय होकर व्यर्थ जाती होगी! कितना आर्थिक नुकसान होता होगा!<br />
<br />
बहरहाल, मम्मी के आते ही बहसा-बहसी की फिजां ही बदल गई. सारा पासा ही पलट गया. मंदिर से आने के बाद उनकी बातों में बड़ा दम आ गया था. आखिर, उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ ईश्वर से जो मन्नतें मानी थी, वे व्यर्थ थोड़े ही जाने वाली थी. सो, जब पाकिस्तान भाई साहब को आड़े हाथन लिया तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. उस पल, ऐसा लगा कि जैसे आस्ट्रेलिया के हाथों पाकिस्तान का हारना तय है.<br />
<br />
उस रात, हमने यह निश्चय किया कि हम सब दालान में बैठकर टी.वी. देखेंगे और पाकिस्तान को हारते हुए देखने का असली मज़ा लेंगे. सुधा ने वहीं एक टेबल पर स्टोव, केतली और चाय बनाने का सारा सामान भी जमा कर दिया था ताकि बीच-बीच में चाय पीते हुए मैच देखने का असली लुत्फ़ उठाया जाए. भाई साहब ने पाकिस्तान की जीत को सेलीब्रेट करने के लिए पटाखे छोड़ने का इंतजाम पहले से कर लिया था. मैंने आस्ट्रेलिया की जीत के उपलक्ष्य में ऐसा कुछ भी न करने का इंतजाम किया था. क्योंकि मन ही मन मैं भी आस्ट्रेलिया के हारने के भय से मुक्त नहीं हो पाया था. <br />
<br />
डिनर के बाद, सभी दालान में तशरीफ़ लाए. हेमा भी आ गई. इस दिन वह अकेले मैच देखने से बाज आ रही थी. उसने आते ही अपना आसन भाईसाहब के बगल में जमाया. वह मुझे व्यंग्यपूर्वक देखते हुए भाईसाहब के गुट में शामिल होने का अहसास दिला रही थी. अगर मायके से भाभी आ गयी होतीं तो वह नि:संदेह उनके पल्लू में बैठती. तब, मेरा मनोबल और भी गिर जाता. क्योंकि जब भाईसाहब, भाभी और छोटी बहन की तिकड़ी साथ-साथ बैठती थी तो मैं कोई वाक् युद्ध छेड़ने से पहले ही भींगी बिल्ली बन जाता था. मेरी पत्नी तो बहस में एकदम फिसड्डी थी. सही तर्क न दे पाने के कारण वह बेपेंदे के लोटे की तरह फिस्स मुस्कराकर किसी भे ओर लुढ़क कर उसका पलड़ा भारी कर देती थी. <br />
<br />
आखिर में पानदान लटकाए हुए और ताजे पान की गिलौरी चबाते हुए मम्मी ने बिलकुल टी.वी. के सामने दीवान के ऊपर मसनद पर बड़े आराम से दस्तक दिया. उनके हावभाव में बड़ा सुकून था. क्योंकि उन्होंने कुछ क्षण पहले डैडी के कमरे में जाकर उनके सिरहाने स्टूल पर दवाइयां, चम्मच, कटोरी, गिलास और जग में पानी रखते हुए और उन्हें जोर से झकझोरते हुए चिल्ला-चिल्लाकर बता दिया था कि रात को वे याद कर सारी दवाइयां समय से ले लेंगे वरना रोग लाइलाज हो जाएगा. साथ में यह चेतावनी भी दे दी कि वे फ़िज़ूल में बच्चों की तरह शोर मचा-मचाकर हमारे क्रिकेट मैच का मज़ा किरकिरा नहीं करेंगे और सुबह ग्वाले के आने तक हमारे जगने की प्रतीक्षा करेंगे. पता नहीं, उन्होंने मम्मी की बातें ठीक-ठीक सुनी भी थीं, या नहीं. पर, मम्मी अपना पत्नी-सुलभ फ़र्ज़ अदाकार पूरी तरह आश्वस्त नज़र आ रही थीं. हम सभी ने भी उनके चेहरे पर आत्मसंतोष का जो भाव देखा, उससे हम डैडी की ओर से बेफिक्र होकर मैच में पूरी तरह खोने को तैयार हो गए.<br />
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बेशक! मैच बड़ा रोमांचक था. आस्ट्रेलिया ने टास जीत कर, पहले बल्लेबाजी की और पूरे ३०९ रन का विशाल स्कोर खड़ा किया. भाई साहब के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. और हमलोग खूब खिल्लियाँ उड़ा रहे थे. हम इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थे कि पाकिस्तान चाहे जितना भी जोर लगा ले, वह इतना विशाल स्कोर खड़ा नहीं कर सकता. इस बीच मम्मी कम से कम तीन-चार दफे उठकर आँगन में गई थीं और तुलसी के गमले में रखे शिवलिंग पर बार-बार मत्था टेक आई थीं. लिहाजा, जब पाकिस्तान ने लगभग १४-१५ रन की औसत से धुआंधार बल्लेबाजी शुरू की तो हमलोगों के मुंह से सिसकारी भी निकलनी बंद हो गई. जब तक आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज पाकिस्तानी गेंदबाजों के छक्के छुडाते रहे, हम विस्फोटक हंसी हंसते रहे और भाईसाहब को व्यंग्य-बाण से आहत करते रहे. लेकिन, पाकिस्तान द्वारा धुआंधार बल्लेबाजी देखकर हमें विश्वास होता गया कि उसका मैच जीतना कोई टेढ़ी खीर नहीं है. चूंकि उसके चार सलामी बल्लेबाज पवेलियन वापिस लौट चुके थे; लेकिन, उसकी रन बनाने की गति में कोई कमी नहीं आई थी.भाईसाहब का गुट फिर उत्तेजना में आ गया था. पाकिस्तान के अन्तिम क्रम के बल्लेबाज भी मशीन की तरह रन बना रहे थे. उस दरमियान, मम्मी फिर उठकर शिवलिंग के आगे सिर झुकाने नहीं गईं. मेरी पोतनी सुधा ने आँख मूँद कर भगवान से पाकिस्तान की पराजय नहीं माँगी. मैंने लज्जावश भाईसाहब से नज़रें हटा-हटाकर मिलाईं. <br />
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शायद, भगवान में से विश्वास खोने का का दुष्परिणाम कुछ ऐसा हुआ कि अंत में, पाकिस्तान के दसवें क्रम पर आए बल्लेबाज के छक्के ने आस्ट्रेलिया को फाइनल से बाहर कर दिया.<br />
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भाईसाहब ने जमकर पटाखे छोड़े. उन्होंने यह भी चिंता की कि इससे बीमार डैडी को बेहद तकलीफ हो सकती है. सायद, उन्हें इस बारे में कुछ याद ही नहीं रहा. ऐसे जोश में होश कहाँ रहता है ?<br />
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सुबह जब धूप इतनी तेज हो गई कि हमारा सिर दर्द से फटने लगा, तब कहीं जाकर हमारी नीद खुली. हम पहले ही उठ गए होते. लेकिन, उस दिन महरी छुट्टी पर थी और संयोगवश, ग्वाला भी किसी वज़ह से नौ बजे तक नहीं आया था. अन्यथा, उनमें से किसी के दस्तक देने से हम पहले ही जग गए होते. कहीं हमें खराई न मार दे, इसलिए सुधा ने बासी दूध से ही चाय बनाई और हमें डाइनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए बुलाया गया. चाय-नाश्ता कर चुकने के बाद मैंने फिर अपने बेडरूम में जाकर खिड़कियाँ बंद की और बिस्तर पर पसर गया. मम्मी तो नहाने-धोने गुशालाखाने में चली गई थी. लेकिन, मुझसे किसी ने यह भी नहीं पूछा कि तुम्हें आफिस जाना है या नहीं. क्योंकि सभी को मालूम था कि मई अनिश्चित काल के लिए टायफायड का बहाना बनाकर छुट्टी पर हूँ और आफिस तभी जाऊंगा जबकि वर्ल्ड कप मैच समाप्त होगा. भाईसाहब की कचहरी में पहले से ही हड़ताल चल रही थी जिस कारण, वह भी बड़ी तबियत से फाइनल मैच के होने की प्रतीक्षा कर रहे थे. रही छोटी बहन हेमा... तो वह अपने आख़िरी सेमेस्टर के पेपर्स से फारिग होने के बाद मेडिकल सेमीनारों से कतना चाह रही थी. वह पछता रही थी कि उसने इतनी ज़ल्दी मेडिकल असोसिएशन की मेम्बरशिप क्यों ले ली. वर्ल्ड कप मैच के बाद लेती! इस वज़ह से उसे बेकार में रोज़-रोज़ के सेमीनारों आदि में व्यस्त रहना पड़ता था. वास्तव में! फाइनल मैच चार दिनों बाद होना था जिसकी बेसब्री से प्रतीक्षा करने से मिलने वाली अवर्णनीय खुशी में हम किसी काम की फ़िज़ूल चिंता से खलल नहीं डालने चाहते थे. <br />
<br />
अचानक, कुछ अजीबोगरीब शोर से मेरी नींद उचट गई. मुझे बड़ी झुंझलाहट सी हो रही थी क्योंकि मेरा एक सुन्दर सपना टूट गया था जिसमें मैं भारत और पाकिस्तान के बीच जो मैच देख रहा था, उसमें भारत का पलड़ा भारी पड़ता जा रहा था और वह नि:संदेह! विजय की ओर अग्रसर हो रहा था.<br />
<br />
मै उठकर भीतर आँगन में शोरगुल का जायजा लेने गया तो मम्मी की हालत देखकर हकबका गया. वह बेतहाशा रोने के मूड में लग रही थी. तभी हेमा ने बताया कि डैडी की तबियत ज़्यादा खराब है. वहीं देर से आया ग्वाला भी खड़ा था. दरअसल, उसने कई बार आवाज़ लगाई थी. लेकिन, घर में छाया सन्नाटा देखकर वह आवाज़ लगाता हुआ सीधे डैडी के कमरे में घुस गया था जहां उसने डैडी को बेड के नीचे अचेतावस्था में लुढ़का हुआ औंधे मुंह देखकर प्राय: डर-सा गया था. उसने ही मम्मी को उनकी हालत के बारे में सबसे पहले जानकारी दी थी. वह संभवत: रात से ही वहां पड़े हुए थे. उन्होंने रात को हमें किसी वज़ह से आवाज़ दी होगी जिसे हमने मैच में मस्त होने के कारण नहीं सुना होगा. फिर, उन्होंने उठने की कोशिश की होगी. पर अशक्त होने के कारण गिर पड़े होंगे. दिलचस्प बात यह थी कि हमने सुबह देर से उठने के बावजूद उनके कमरे में जाकर उनकी हालत जानने की जुर्रत महसूस नहीं की. अगर ग्वाला अनजाने में उनके कमरे में दाखिला नहीं हुआ होता तो...<br />
<br />
खैर, हेमा ने अपने नए डाक्टरी अनुभवों का इस्तेमाल कर, हमें तत्काल इत्तला किया कि डैडी की हालत नाज़ुक है और अब उन्हें अस्पताल में अब तो भर्ती करा ही देना चाहिए.<br />
<br />
हमने ड्राइवर की मदद से डैडी को अस्पताल में भर्ती करा ही दिया. उस दिन हम सभी अस्पताल गए. हम सोच रहे थे कि दो-तीन दिनों में डैडी की हालत सम्हल ही जाएगी. फिर, उन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी जाएगी. <br />
<br />
उस दिन उनकी कई जांचें हुईं और सभी में आई रिपोर्टें चिंताजनक थीं. खून में शूगर की मात्रा बहुत बढ़ गई थी. रक्तचाप भी इतना बढ़ गया था कि उनका उपचार कर रहे डा. श्रीवास्तव के माथे पर बार-बार बल पड़ जा रहे थे. करीब एक बजे रात को जब उन्हें सांस लेने में दिक्कत-सी होने लगी तो डाक्टर ने तत्काल नर्स को तलब कर कृत्रिम आक्सीजन की व्यवस्था कर दी. यह सब देख, मम्मी चिंता में पड़ गईं कि शायद, अस्पताल में हफ़्तों लग सकते हैं. वह उनके बगल में बैठकर लगातार ग्लूकोज़ की बोतल पर नज़रें गड़ाई हुईं थी. वह बार-बार वहां बेताबी से लगातार चहलकदमी कर रहे भाईसाहब को सवालिया नज़रों से पूछना चाह रही थीं कि बोतल का पानी इतना धीमे-धीमे क्यों चढ़ाया जा रहा है, एकसाथ उनकी नसों में क्यों नहीं उड़ेल दिया जा रहा है. उनकी इस उधेड़बुन पर मेरा मन बेहद खीझ रहा था. आखिर सभी क्यों चाह रहे थे कि जबकि डैडी तीन सालों से लगातार रुग्ण चल रहे हैं, वे अति शीघ्र ठीक हो जाएं! या यूं कही कि हम सभी किसी तरह डैडी के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से किनारा करना चाह रहे थे. <br />
<br />
सारी रात हम सभी को अस्पताल में बैठकर डैडी की तीमारदारी करनी पड़ी. पिछले तीन सालों से जब से उनकी हालत बाद से बदतर हो गई, किसी ने उनकी तसल्लीबख्श सेवा-सुश्रुषा नहीं की थी. उनके बचपन के दोस्त--डा. अष्ठाना का कहना था कि बदपरहेज़ी ने ही उन्हें इस घातक हालत में ला खड़ा किया है. वरना, उनके मज़बूत कद-काठी को देखते हुए यह कोई नहीं कह सकता था कि मौत का खौफ उन्हें पच्चीस सालों से पहले भी छू सकता है. आज उनका शरीर कई बीमारियों का घर बन गया है. दमा, मधुमेह और अब तपेदिक ने उन्हें बारी-बारी से जकड़ लिया है. <br />
<br />
अस्पताल में दाखिल होने के बाद से उनकी हालत में रत्ती भर भी सुधार नहीं आया. उल्टे, हालत और बिगड़ती जा रही थी. दूसरे दिन, सुबह तक सारी रिपोर्टें आ गईं. डा. श्रीवास्तव ने बताया कि दो दिन पहले की रात को उन्हें दमा का तेज दौरा पड़ा था और अगर उस वक़्त उन्हें उचित दवा मिल गई होती तो उनकी दशा इतनी नहीं बिगड़ती. <br />
<br />
तब, हम सभी अपराधबोध से ग्रस्त होकर एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे थे. क्योंकि दौरे के समय तो हमलोग क्रिकेट मैच का आनंद ले रहे थे. हमारी उस स्थिति पर डाक्टर मुंह बिचकाते हुए चले गए थे. शायद, उन्होंने हमारे बाडी लैंग्विज़ से पढ़ लिया था किहमने उस वृद्ध व्यक्ति के प्रति घोर लापरवाही की थी. उस क्षण, हमें ऐसा लगा कि जैसे डाक्टर एक झन्नाटेदार तमाचा मार गया हो.<br />
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जब से डैडी अस्पताल में लाए गए थे, उन्होंने हममे से किसी से भी बात नहीं की थी, जबकि वह डाक्टर के सवालों का उत्तर बहुत धीमी आवाज़ में या 'हाँ' और 'ना' में दे रहे थे. हमारे बार-बार पूछने पर भी वह कुछ नहीं बोलते थे. बल्कि बड़ी गैरियत से मुंह फेर लेते थे. उनके चेहरे पर हमने घृणा और तिरस्कार के स्पष्ट भाव देखे थे. बेशक! अगर उनमें ताकत होती तो वे हमारे मुंह पर जोर से थूक भी सकते थे. <br />
<br />
उस दिन दोपहर को डाक्टर ने बताया कि डैडी थैलीसीमिया से भी पीड़ित हैं और उनका खून बनना बिल्कुल बंद हो चुका है. सो, शाम से ही उन्हें खून चढ़ाया जाने लगा. भाईसाहब ने कहा कि अभी हमें अपना खून देने की क्या ज़रुरत है. महानगर के रक्त बैंकों में पर्याप्त मात्रा में खून उपलब्ध है. इसलिए ज़्यादा से ज़्यादा कीमतें देकर खून की चार बोतलें मंगाई गईं. रात को करीब दो बजे, उन्हें दमा के दौरे के साथ दर्ज़नों फटी खांसियाँ आईं. डाक्टर ने बताया कि यह लक्षण ठीक नहीं है. अगर ऐसा दोबारा या तिबारा हुआ तो यह घातक भी हो सकता है.<br />
<br />
उस रात उनकी हालत वास्तव में दयनीय थी. वह बड़ी बैचेनी में थे क्योंकि उन्हें सांस लेने में बड़ी परेशानी हो रही थी. मम्मी पिछली रात से बिल्कुल न सो पाने के कारण दस बजे से ही बाहर सोफे पर खर्राटे भर रही थीं. भाईसाहब और मेरी पत्नी सुधा थोड़ी-थोड़ी देर पर डैडी को देखकर, पता नहीं कहाँ घंटों-घंटों तक लापता हो जा रहे थे. हेमा भी डैडी के मर्ज़ पर अलग-अलग डाक्टरों से बातचीत में मशगूल-सी दिखाई दे रही थी. लिहाजा, मैं वहां लगातार डैडी की हालत पर नज़र रखते हुए यह योजना बना रहाथा कि कल सुबह मुझे आफिस ज्वाइन कर ही लेना चाहिए. इसलिए, मैंने चुपके से एक डाक्टर से अपने लिए मेडिकल सर्टीफिकेट और फिटनेस सर्टीफिकेट बनवा लिए ताकि कल ड्यूटी ज्वाइन करने में कोई अड़ंगा न आए. <br />
<br />
तीसरे दिन सुबह, मै किसी को कुछ बताए बगैर आफिस चला गया. वहीं से मैंने फोन पर अस्पताल में मम्मी को सूचित कर दिया कि आफिस के मेसेंजेर ने आकर मुझे कुछ आवश्यक काम के लिए बुलाक था जिससे मुझे अचानक ड्यूटी ज्वाइन करनी पड़ी. शाम, को मैं जानबूझकर देर से लौटा. पहले घर जाकर नहाया-धोया और फिर, नौकर से बाहर से चाय मंगवाकर नाश्ता किया. उसके बाद, तसल्ली से अस्पताल गया. वहां, की हालत देख, मैं घबड़ा-सा गया. डैडी के बेड पर कोई दूसरा डाक्टर उन्हें कृत्रिम सांस देने की कोशिश कर रहा था. पूछने पर पता चला कि डा. श्रीवास्तव छुट्टी पर चले गए हैं. नए डाक्टर बोस ने मुझे जोर की झाड़ लगाई--"आप मेजर चौहान के कैसे बेकहन और बदतमीज़ बेटे हैं कि आपके पिता मौत से जूझ रहे हैं जबकि आप सुबह से ही नदारद हैं? कितने शर्म की बात है कि यहाँ आपके पिता एक लावारिस मरीज़ की तरह यहाँ डेथ-बेड पर पड़े-पड़े हमारे स्टाफ के रहमोकरम की भीख मांग रहे हैं! अगर इस दरमियान इनकी मौत हो जाती तो इनकी बाडी का क्लेम करने के लिए भी कोई आगे आना वाला नहीं था..."<br />
<br />
मैंने लगभग हकलाते हुए खे प्रकट किया और किसी को ढूँढने के बहाने आसपास का चक्कर लगाने लगा. थोड़ी बाद ग्रीन लान में मैंने मम्मी को उनकी कुछ आगंतुक सहेलियों के साथ जोर-जोर से गप्प लड़ाते हुए पाया. बेशक! चर्चा काविशय क्रिकेट ही था. मुझे अपने पास पाकर उन्होंने अपना चेहरा हाथी के सूंड़ की तरह लटका लिया. जैसेकि वह सुबह से ही गम में डूबी हुईं हों. वह मुझे देखते ही उठ खड़ी हुईं. कहने लगीं, "अभी-अभी तो आई हूँ. क्या करती? तुम्हारी आंटियां डैडी को देखने आई थीं जिन्हें छोड़ने बाहर तक आ गई..."<br />
<br />
मैंने सिर्फ उन्हें घूरकर शिकायताना अंदाज़ में देखा. अगर पूचता तो वह भी कह सकती थीं कि तुम भी तो अपनी ज़िम्मेदारी से बचने के लिए आफिस चले गए थे. उन्होंने चलते-चलते मुझे बताया कि तुम्हारे बड़े भाई एक मुवक्किल के साथ कचहरी चले गए हैं. हेमा सुबह से ही एक सेमीनार में गई हुई है और अभी तक लौटी नहीं, जबकि सुधा अपनी किसी सहेली के बेटे केजन्म दिन पर कान्ग्रेट करने गई हुई है.<br />
<br />
डैडी के बेड के पास हमारे कुछ देर तक ठहरने के बाद, डाक्टर बोस ने बताया कि मेजर चौहान यानी मेरे पिता को दोपहर से दो बार तेज दौरा पड़ चुका है और साथ में खान्सियों के साथ खून भी आया है. मैंने मम्मी का चेहरा गौर से देखा. वह इस सूचना से कोई ख़ास प्रभावित नज़र नहीं आ रही थीं. हाँ, कुछ और सुनने की उत्सुकता साफ़ झलक रही थी.<br />
<br />
डा. बोस ने फिर कहा, "अब तो भगवान् ही मालिक है. दवा ने भी असर करना बंद कर दिया है. बेहतर होगा कि आप इन्हें अब घर ही ले जाइए. हमने जी-जान से कोशिश की. अब कुछ भी नहीं कर सकते. हाँ, मैं कुछ दवाइयां लिख दे रहा हूँ, इन्हें देते रहिएगा."<br />
<br />
हमने डाक्टर के मशविरे को आँख मूँद कर मान लिया. यह भी नहीं सोचा कि अस्पताल में जो चिकित्सीय सुविधाएं मिल रही हैं, वे घर में कहाँ से मिल पाएंगी? हमने मम्मी की आँखों में झाँक कर देखा. उनका इशारा साफ़ था कि डैडी को रामभरोसे छोड़ देना ही श्रेयस्कर है. उन्होंने अपनी सूखी आँखों को साड़ी के पल्लू से बार-बार रगडा. उसके बाद हमने डैडी और सारे सामान-असबाब को कार में डाल दिया. ड्राइवर से कहा, "फ़ौरन घर ले चलो!"<br />
<br />
डैडी को उनके बेड पर दोबारा डाल दिया गया. सारा घर फिर से अपनी दिनचर्या में ऐसे व्यस्त हो गया, जैसेकि कुछ हुआ ही न हो. सभी संतुष्ट थे कि चलो! डैडी को बचाने के लिए इतनी कोशिश तो की गई. चालीस-पैंतालीस हजार रूपए भी फूंक-ताप दिए गए. अब भगवान की मर्जी! वह बचें या न बचें!<br />
<br />
चूंकि, डैडी की लाइलाज बीमारी का चतुर्दिक विज्ञापन हो चुका था, इसलिए उन्हें देखने आने वाले शुभचिंतकों का भी तांता लग गया था. मम्मी उन्हें चाय पिलाते-पिलाते कुछ रेट-रटाए जुमले सुना देती थी--जैसेकि 'भगवान की मर्जी', 'विधि का बदा टारे नहीं टरे', 'विधाता को हमें सुहागन देखना नहीं भा रहा है', 'पैतालीस साल साथ-साथ जिए, बस! हेमा बिटिया के हाथ पीले नहीं करा सकेंगे,' वगैरह=-वगैरह. तदुपरांत, वह शुभचिंतकों को बेड की ओर इशारा कर देती जैसेकि यह कहना चाह रही हों कि 'बहुत इस्तेमाल कर चुकी, अब इस डिस्पोजेबल आइटम को निपटाना भर बाकी है.'<br />
<br />
रात के लगभग ग्यारह बजे हेमा आकर अपने दोस्तों के साथ ड्राइंग रूम में सेमीनार हुई चर्चाओं की समीक्षा कर रही थी. थोड़ी देर बाद जब भाईसाहब घर में तशरीफ़ लाए तो उनका मुंह गुस्से में सूजा हुआ था. या, यूं कहिए कि वे जानबूझकर अपने चेहरे पर गुस्सा लाने की असफल कोशिश कर रहे थे. शायद, वे अस्पताल होते हुए आए थे. बेशक! उनके अहं को इस बात से बेहद चोट पहुँची थी कि डैडी को अस्पताल से वापस लाने के फैसले में उनको क्यों नहीं शामिल किया गया. उन्होंने डैडी का हालचाल लेने वालों की मौजूदगी में हममें से एक-एक की खबर ली, "आखिर, इतनी ज़ल्दी क्या थी कि डैडी को वापस लेते आए? अरे, उन्हें पूरी तरह ठीक तो हो जाने दिया होता! हमलोग एक-दो दिन अस्पताल की ज़िल्लत और झेल लेते! यहाँ क्या है? न कोई डाक्टर है, न ही कोई कायदे की दवा? डा. अष्ठाना तो चूतिया और निकम्मा है. बस, ऊपरी तौर पर डैडी का खैरख्वाह बनने का ड्रामा करता रहता है. उसने ही डैडी को इस हालत में ला खड़ा किया है. उल्टे, उनकी बीमार हालत के लिए हमें ज़िम्मेदार ठहराता है."<br />
<br />
मैंने भाईसाहब को एक कोने में ले जाकर बताया, ""हमलोग क्या करते? खुद डाक्टर ने हमें डैडी को घर ले जाने की सलाह दी थी कि अब ईश्वर से प्रार्थना कीजिए. उन्हें कोई करिश्मा ही बचा सकता है, हम जैसे इंसान नहीं..."<br />
<br />
मेरी बात सुनकर वह पहले हमारा चेहरा घूरते रहे. कुछ क्षण तक उन्होंने डैडी के कमरे की ओर भी निर्भाव दृष्टि से देखा. मैंने सोचा कि वह कमरे में जाकर डैडी की हालत का जायजा लेंगे. पर, वे ठिठकते हुए अपने बेडरूम में घुस गए. <br />
<br />
रात के लगभग साढ़े बारह बजे हम लेट-लतीफ़ खाना खाने के बाद सोने का यत्न कर रहे थे. हम यह सोचकर खुश थे कि अच्छा हुआ कि डैडी घर वापस आ गए. कल का फाइनल मैच टी. वी. पर तसल्ली से देख सकेंगे. अस्पताल में तो इतना बढ़िया मौक़ा खटाई में पड़ जाता. शायद, बेड में पड़े-पड़े हर व्यक्ति यह सोच रहा था कि ज़ल्दी से एक ही नींद में रात गुजर जाए, ताकि कल सबेरे तरिताजा मूड में मैच का भरपूर आनंद लिया जा सके. <br />
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contd./--</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A4%B2_%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%9F%E0%A4%AE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5273डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव2011-03-28T10:21:50Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div>'''डिस्पोजेबल आइटम'''<br />
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डैड की बीमारी पर किसे खुंदक नहीं थी? उन खबीस को भी ऐसी लाइलाज बीमारी तभी लगनी थी जबकि इतना दिलचस्प क्रिकेट मैच चल रहा था! वह मैच भी कोई मामूली मैच नहीं था. वर्ल्ड कप का मैच था. भारत और पाकिस्तान के बीच सीधा मुकाबला था. इसलिए, मेरा घर ही क्या, सारा मोहल्ला क्रिकेटमय था. मोहल्ले से निकलकर सड़क पर आने के बाद चाहे किसी बस की सवारी की जाए या बाजार में चहलक़दमी की जाए, क्रिकेट की चर्चा हर जुबान पर थी. चाय-पान की गुमटियों से लेकर शहर के चप्पे-चप्पे पर लोगबाग इस वर्ल्डकप को लेकर बहसा-बहसी में जमे हुए थे. मेरे आफिस में भी इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर गलाफोड़ तकरार जारी था. कभी-कभार यह तकरार झगड़ा-फसाद का भी रूप ले लेता था. मेरे आफिस वाले ही क्या, दूसरे कार्यालयों के अधिकारी-कर्मचारी भी छुट्टियां लेकर अपने-अपने घरों में टी० वी० सेटों के आगे वर्ल्ड कप के मैचों का सीधा प्रसारण देखने में जमे हुए थे. ऐसे में ऐसा लगता था कि जैसे सारी दुनिया को क्रिकेट के सिवाय कोई और काम नहीं है. बेशक! मेरा घर भी इस टूर्नामेंट का लुत्फ़ उठाने में जुटा हुआ था--घर के सारे कामकाज को ताक पर रखकर. यहाँ तक कि लोगबाग ने खुद को शौच, स्नान आदि को भी गैर-ज़रूरी समझ, चाय-नाश्ता, खाने-पीने तक ही सीमित कर रखा था. हमें तो यह भी चिंता नहीं थी कि घर में बीमार डैडी की तीमारदारी में सभी को जुट जाना चाहिए ताकि वह ज़ल्दी से भले-चंगे होकर किसी अनिष्ट की आशंका से हमें मुक्त कर दें! घरेलू डाक्टर अष्ठाना ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि अगर उन्हें वक़्त पर दवाइयां नहीं दी गईं और उनकी हालत पर खास निगरानी नहीं रखी गई तो उनकी बीमारी जानलेवा भी हो सकती है. <br />
<br />
शायद, डैडी रोमांचक क्रिकेट का परवान चढ़ते जा रहे थे. यों तो, उन्हें भी क्रिकेट मैचों में बेइन्तेहाँ दिलचस्पी रही है; लेकिन, इस बीमारी के कारण उन्हें वर्ल्ड कप मैचों का मजा न ले पाने की भीतर ही भीतर बेहद कसक होगी, जिसे वे व्यक्त नहीं कर पा रहे होंगे. आखिर, उनके जीर्ण-शीर्ण शरीर में मैचों का आनंद लेने का दमखम कहाँ रहा? <br />
<br />
भारत के फ़ाइनल में पहुंचते ही सभी ने अपनी दिनचर्या को भी किनारे कर दिया. रात को डैडी की देखभाल के लिए किसी को भी अपनी नींद हराम करना गवांरा नहीं था. उधर डैडी कराहते रहते और इधर हम गहरे नींद में खर्राटे भर रहे होते. कई बार तो वह पानी-पानी की रट लगाते रहते; पर, कोई उठने का नाम तक नहीं लेता. ऐसे वक़्त में मम्मी की ज़िम्मेदारी बनती थी कि वह उनके दुःख-दर्द में हाथ बंटाने के लिए उनके सामने मौजूद रहतीं. हमें भी संतोष होता! क्योंकि हमें उनकी सेवा करने की नैतिक दुविधा से मुक्ति मिल जाती--'चलो! हमें डैडी की सेवा करने न करने में धर्म-संकट में फ़िज़ूल नहीं पड़ना पड़ा.'<br />
<br />
जब वर्ल्ड कप की सनसनीखेज़ पारियां रात को शुरू हुईं तो हम सभी की आँखों से नींद ऐसे गायब हो गई जैसे गधे के सिर से सींग. डैडी के बेडरूम में जो ब्लैक एंड व्हाइट टी० वी० लगी हुई महीनों से सीलन खा रही थी (क्योंकि उन्होंने बीमारी के कारण काफी समय से टी०वी० देखना बंद कर दिया था), उसे मेरी बहन हेमा अपने कमरे में उठा ले गयी थी ताकि वह अकेले में मैचों का बेखट मजा ले सके. हमने भी टी०वी० पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित करने के साथ-साथ कानोप्न से मिनी ट्रांजिस्टर चिपका रहा था. <br />
<br />
यह स्थिति और भी भयावह थी. अगर रात को दवा-दारू के अभाव में डैडी के प्राण भी निकल जाते तो उसकी खबर सवेरे ही मिलाती. क्योंकि देर रात तक मैच के ख़त्म होने के बाद हम तत्काल बिस्तरों पर सो जाते थे और सुबह हमारी नींद तब खुलती थी जबकि महरी या ग्वाला दरवाज़ा खटखटाते थे. <br />
<br />
दो दिनों से मैं भी आफिस नहीं जा रहा था. जब तक लीग मैच होते रहे, मैंने आफिस में पाकिट ट्रांजिस्टर से ही काम चलाया. बीच-बीच में अपनी पत्नी सुधा को घर पर फोन करके मैच के बारे में ताजा स्थिति की जानकारी लेकर ही संतोष कर लेता! लेकिन, जब भारत ने साउथ अफ्रीका को सेमी फाइनल में पीटकर फाइनल में प्रवेश पा लिया तो मैंने अपने जूनियर को सेक्शन का चार्ज सौंप कर छुट्टी मार ली. मेरे खाते में छुट्टियों का हमेशा अभाव रहा है जिसके चलते डैडी की हालत बेहद गंभीर होने के बावजूद मैं उन्हें खुद कई बार डाक्टर के पास नहीं ले जा सका और उन्हें ड्राइवर के भरोसे छोड़ कर अपनी ड्यूटी पर निकल पड़ा. <br />
<br />
उस दिन फाइनल में पहुँचने के लिए सेमी फ़ाइनल का मुकाबला पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया के बीच था. सारा देश पाकिस्तान के हारने की उम्मीद लगाए बैठा था क्योंकि लोगों को यकीन था कि अगर फाइनल में भारत का सामना पाकिस्तान से हुआ तो उसके जीतने की आशा धूमिल पड़ जाएगी. मेरे घर में भी सभी, सब कुछ छोड़कर यह प्रार्थना करने में जुटे हुए थे कि काश! पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया के हाथों चारों खाना चित्त हो जाता. <br />
<br />
पता नहीं क्यों? पाकिस्तान के खिलाफ खेलते हुए न केवल हमारे खिलाड़ियों का मनोबल आधा हो जाता है, बल्कि हम भी अपनी हार माँ बैठते हैं. <br />
<br />
सुबह जब मम्मी नहा-धोकर रोज़ की तरह मंदिर को दर्शन करने निकलीं तो हम सोच रहे थे कि वह मंदिर में जाकर ईश्वर से डैड के रोगमुक्त होने के लिए प्रार्थनाएं करेंगी. लेकिन, मंदिर से वापस आते ही वह मरीजखाने में डैड के पास जाने के बजाए सीधे ड्राइंग रूम में तशरीफ़ लाईन जहां भाईसाहब और मेरे बीच इस बाबत जोरदार बहस छिड़ी हुई थी कि सेमी फाइनल में कौन जीतेगा--पाकिस्तान या आस्ट्रेलिया. भाईसाहब तो पाकिस्तान द्वारा सेमी फाइनल में पूर्व वर्ल्ड कप चैम्पियन--आस्ट्रेलिया को शिकस्त दिए जाने के पक्ष में दनादन तर्क दिए जा रहे थे जबकि मेरे द्वारा आस्ट्रेलिया को जिताने के लिए दी जाने वाली सारी दलीलें हल्की पड़ती जा रही थीं. <br />
<br />
बेशक! उस वाक् युद्ध में मैं अपनी हार से बेहद मायूस होता जा रहा था. वहां मौजूद मेरी पत्नी सुधा को भी इससे बड़ा कोफ़्त हो रहा था. मुझे उसके सामने अपनी मात से और भी ज़्यादा आत्मग्लानि हो रही थी. वह भी चाहती थी कि भले ही पाकिस्तान क्रिकेट के मैदान में आस्ट्रेलिया को धूल चटा दे, लेकिन भाईसाहब से तर्क-कुतर्क में मैं मात न खाऊँ. बहरहाल, मुझे अपनी बहन--हेमा पर अत्यंत क्रोध आ रहा था जो बिलावज़ह भाईसाहब का पक्ष ले रही थी और वह भी बड़ी चुटकियाँ ले-लेकर. उसकी व्यंग्य-मुस्कान से यह साफ ज़ाहिर हो रहा था कि वह मुझे चिढ़ाना ज़्यादा चाह रही है और पाकिस्तान को जिताना कम. अन्यथा, वह छोटी बहन होने के बावजूद, भाई साहब को आदतन यह सबक देने की गुस्ताखी तो जरूर करती कि 'भैया, क्रिकेट जैसे पेंचीदे विषय से आपका क्या लेना-देना? जाइए, आप किसी मुकदमे की गुत्थी तलाशिए. वकालत के पेशे वालों को क्रिकेट में कतई दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए.'<br />
<br />
लिहाजा, मुझे यह सोचकर बड़ा सुकून मिला कि चलो, कम से कम मेरे घर में एक तो ऐसा बन्दा है जो क्रिकेट को गंभीरतापूर्वक न लेकर मजाकिया लहजे में ले रहा है. मैं भी इस विश्व कप में भले ही दिलचस्पी ले रहा था, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर मैं क्रिकेट जैसे खेल का आलोचक रहा हूँ. क्योंकि जब कोई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच होता है तो सारे देश की हालत नाबदान में ठहरे हुए पानी जैसी हो जाती है. घर, खेत-खलिहानों, कल-कारखानों, दफ्तरों आदि में सारी गतिविधियाँ ठप्प पड़ जाती हैं. सोचिए, जितने दिन क्रिकेट मैच होता है, देश की कितनी श्रम-ऊर्जा निष्क्रिय होकर व्यर्थ जाती होगी! कितना आर्थिक नुकसान होता होगा!<br />
<br />
बहरहाल, मम्मी के आते ही बहसा-बहसी की फिजां ही बदल गई. सारा पासा ही पलट गया. मंदिर से आने के बाद उनकी बातों में बड़ा दम आ गया था. आखिर, उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ ईश्वर से जो मन्नतें मानी थी, वे व्यर्थ थोड़े ही जाने वाली थी. सो, जब पाकिस्तान भाई साहब को आड़े हाथन लिया तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. उस पल, ऐसा लगा कि जैसे आस्ट्रेलिया के हाथों पाकिस्तान का हारना तय है.<br />
<br />
उस रात, हमने यह निश्चय किया कि हम सब दालान में बैठकर टी.वी. देखेंगे और पाकिस्तान को हारते हुए देखने का असली मज़ा लेंगे. सुधा ने वहीं एक टेबल पर स्टोव, केतली और चाय बनाने का सारा सामान भी जमा कर दिया था ताकि बीच-बीच में चाय पीते हुए मैच देखने का असली लुत्फ़ उठाया जाए. भाई साहब ने पाकिस्तान की जीत को सेलीब्रेट करने के लिए पटाखे छोड़ने का इंतजाम पहले से कर लिया था. मैंने आस्ट्रेलिया की जीत के उपलक्ष्य में ऐसा कुछ भी न करने का इंतजाम किया था. क्योंकि मन ही मन मैं भी आस्ट्रेलिया के हारने के भय से मुक्त नहीं हो पाया था. <br />
<br />
डिनर के बाद, सभी दालान में तशरीफ़ लाए. हेमा भी आ गई. इस दिन वह अकेले मैच देखने से बाज आ रही थी. उसने आते ही अपना आसन भाईसाहब के बगल में जमाया. वह मुझे व्यंग्यपूर्वक देखते हुए भाईसाहब के गुट में शामिल होने का अहसास दिला रही थी. अगर मायके से भाभी आ गयी होतीं तो वह नि:संदेह उनके पल्लू में बैठती. तब, मेरा मनोबल और भी गिर जाता. क्योंकि जब भाईसाहब, भाभी और छोटी बहन की तिकड़ी साथ-साथ बैठती थी तो मैं कोई वाक् युद्ध छेड़ने से पहले ही भींगी बिल्ली बन जाता था. मेरी पत्नी तो बहस में एकदम फिसड्डी थी. सही तर्क न दे पाने के कारण वह बेपेंदे के लोटे की तरह फिस्स मुस्कराकर किसी भे ओर लुढ़क कर उसका पलड़ा भारी कर देती थी. <br />
<br />
आखिर में पानदान लटकाए हुए और ताजे पान की गिलौरी चबाते हुए मम्मी ने बिलकुल टी.वी. के सामने दीवान के ऊपर मसनद पर बड़े आराम से दस्तक दिया. उनके हावभाव में बड़ा सुकून था. क्योंकि उन्होंने कुछ क्षण पहले डैडी के कमरे में जाकर उनके सिरहाने स्टूल पर दवाइयां, चम्मच, कटोरी, गिलास और जग में पानी रखते हुए और उन्हें जोर से झकझोरते हुए चिल्ला-चिल्लाकर बता दिया था कि रात को वे याद कर सारी दवाइयां समय से ले लेंगे वरना रोग लाइलाज हो जाएगा. साथ में यह चेतावनी भी दे दी कि वे फ़िज़ूल में बच्चों की तरह शोर मचा-मचाकर हमारे क्रिकेट मैच का मज़ा किरकिरा नहीं करेंगे और सुबह ग्वाले के आने तक हमारे जगने की प्रतीक्षा करेंगे. पता नहीं, उन्होंने मम्मी की बातें ठीक-ठीक सुनी भी थीं, या नहीं. पर, मम्मी अपना पत्नी-सुलभ फ़र्ज़ अदाकार पूरी तरह आश्वस्त नज़र आ रही थीं. हम सभी ने भी उनके चेहरे पर आत्मसंतोष का जो भाव देखा, उससे हम डैडी की ओर से बेफिक्र होकर मैच में पूरी तरह खोने को तैयार हो गए.<br />
<br />
बेशक! मैच बड़ा रोमांचक था. आस्ट्रेलिया ने टास जीत कर, पहले बल्लेबाजी की और पूरे ३०९ रन का विशाल स्कोर खड़ा किया. भाई साहब के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. और हमलोग खूब खिल्लियाँ उड़ा रहे थे. हम इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थे कि पाकिस्तान चाहे जितना भी जोर लगा ले, वह इतना विशाल स्कोर खड़ा नहीं कर सकता. इस बीच मम्मी कम से कम तीन-चार दफे उठकर आँगन में गई थीं और तुलसी के गमले में रखे शिवलिंग पर बार-बार मत्था टेक आई थीं. लिहाजा, जब पाकिस्तान ने लगभग १४-१५ रन की औसत से धुआंधार बल्लेबाजी शुरू की तो हमलोगों के मुंह से सिसकारी भी निकलनी बंद हो गई. जब तक आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज पाकिस्तानी गेंदबाजों के छक्के छुडाते रहे, हम विस्फोटक हंसी हंसते रहे और भाईसाहब को व्यंग्य-बाण से आहत करते रहे. लेकिन, पाकिस्तान द्वारा धुआंधार बल्लेबाजी देखकर हमें विश्वास होता गया कि उसका मैच जीतना कोई टेढ़ी खीर नहीं है. चूंकि उसके चार सलामी बल्लेबाज पवेलियन वापिस लौट चुके थे; लेकिन, उसकी रन बनाने की गति में कोई कमी नहीं आई थी.भाईसाहब का गुट फिर उत्तेजना में आ गया था. पाकिस्तान के अन्तिम क्रम के बल्लेबाज भी मशीन की तरह रन बना रहे थे. उस दरमियान, मम्मी फिर उठकर शिवलिंग के आगे सिर झुकाने नहीं गईं. मेरी पोतनी सुधा ने आँख मूँद कर भगवान से पाकिस्तान की पराजय नहीं माँगी. मैंने लज्जावश भाईसाहब से नज़रें हटा-हटाकर मिलाईं. <br />
<br />
शायद, भगवान में से विश्वास खोने का का दुष्परिणाम कुछ ऐसा हुआ कि अंत में, पाकिस्तान के दसवें क्रम पर आए बल्लेबाज के छक्के ने आस्ट्रेलिया को फाइनल से बाहर कर दिया.<br />
<br />
भाईसाहब ने जमकर पटाखे छोड़े. उन्होंने यह भी चिंता की कि इससे बीमार डैडी को बेहद तकलीफ हो सकती है. सायद, उन्हें इस बारे में कुछ याद ही नहीं रहा. ऐसे जोश में होश कहाँ रहता है ?<br />
<br />
सुबह जब धूप इतनी तेज हो गई कि हमारा सिर दर्द से फटने लगा, तब कहीं जाकर हमारी नीद खुली. हम पहले ही उठ गए होते. लेकिन, उस दिन महरी छुट्टी पर थी और संयोगवश, ग्वाला भी किसी वज़ह से नौ बजे तक नहीं आया था. अन्यथा, उनमें से किसी के दस्तक देने से हम पहले ही जग गए होते. कहीं हमें खराई न मार दे, इसलिए सुधा ने बासी दूध से ही चाय बनाई और हमें डाइनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए बुलाया गया. चाय-नाश्ता कर चुकने के बाद मैंने फिर अपने बेडरूम में जाकर खिड़कियाँ बंद की और बिस्तर पर पसर गया. मम्मी तो नहाने-धोने गुशालाखाने में चली गई थी. लेकिन, मुझसे किसी ने यह भी नहीं पूछा कि तुम्हें आफिस जाना है या नहीं. क्योंकि सभी को मालूम था कि मई अनिश्चित काल के लिए टायफायड का बहाना बनाकर छुट्टी पर हूँ और आफिस तभी जाऊंगा जबकि वर्ल्ड कप मैच समाप्त होगा. भाईसाहब की कचहरी में पहले से ही हड़ताल चल रही थी जिस कारण, वह भी बड़ी तबियत से फाइनल मैच के होने की प्रतीक्षा कर रहे थे. रही छोटी बहन हेमा... तो वह अपने आख़िरी सेमेस्टर के पेपर्स से फारिग होने के बाद मेडिकल सेमीनारों से कतना चाह रही थी. वह पछता रही थी कि उसने इतनी ज़ल्दी मेडिकल असोसिएशन की मेम्बरशिप क्यों ले ली. वर्ल्ड कप मैच के बाद लेती! इस वज़ह से उसे बेकार में रोज़-रोज़ के सेमीनारों आदि में व्यस्त रहना पड़ता था. वास्तव में! फाइनल मैच चार दिनों बाद होना था जिसकी बेसब्री से प्रतीक्षा करने से मिलने वाली अवर्णनीय खुशी में हम किसी काम की फ़िज़ूल चिंता से खलल नहीं डालने चाहते थे. <br />
<br />
अचानक, कुछ अजीबोगरीब शोर से मेरी नींद उचट गई. मुझे बड़ी झुंझलाहट सी हो रही थी क्योंकि मेरा एक सुन्दर सपना टूट गया था जिसमें मैं भारत और पाकिस्तान के बीच जो मैच देख रहा था, उसमें भारत का पलड़ा भारी पड़ता जा रहा था और वह नि:संदेह! विजय की ओर अग्रसर हो रहा था.<br />
<br />
मै उठकर भीतर आँगन में शोरगुल का जायजा लेने गया तो मम्मी की हालत देखकर हकबका गया. वह बेतहाशा रोने के मूड में लग रही थी. तभी हेमा ने बताया कि डैडी की तबियत ज़्यादा खराब है. वहीं देर से आया ग्वाला भी खड़ा था. दरअसल, उसने कई बार आवाज़ लगाई थी. लेकिन, घर में छाया सन्नाटा देखकर वह आवाज़ लगाता हुआ सीधे डैडी के कमरे में घुस गया था जहां उसने डैडी को बेड के नीचे अचेतावस्था में लुढ़का हुआ औंधे मुंह देखकर प्राय: डर-सा गया था. उसने ही मम्मी को उनकी हालत के बारे में सबसे पहले जानकारी दी थी. वह संभवत: रात से ही वहां पड़े हुए थे. उन्होंने रात को हमें किसी वज़ह से आवाज़ दी होगी जिसे हमने मैच में मस्त होने के कारण नहीं सुना होगा. फिर, उन्होंने उठने की कोशिश की होगी. पर अशक्त होने के कारण गिर पड़े होंगे. दिलचस्प बात यह थी कि हमने सुबह देर से उठने के बावजूद उनके कमरे में जाकर उनकी हालत जानने की जुर्रत महसूस नहीं की. अगर ग्वाला अनजाने में उनके कमरे में दाखिला नहीं हुआ होता तो...<br />
<br />
खैर, हेमा ने अपने नए डाक्टरी अनुभवों का इस्तेमाल कर, हमें तत्काल इत्तला किया कि डैडी की हालत नाज़ुक है और अब उन्हें अस्पताल में अब तो भर्ती करा ही देना चाहिए.<br />
<br />
हमने ड्राइवर की मदद से डैडी को अस्पताल में भर्ती करा ही दिया. उस दिन हम सभी अस्पताल गए. हम सोच रहे थे कि दो-तीन दिनों में डैडी की हालत सम्हल ही जाएगी. फिर, उन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी जाएगी. <br />
<br />
उस दिन उनकी कई जांचें हुईं और सभी में आई रिपोर्टें चिंताजनक थीं. खून में शूगर की मात्रा बहुत बढ़ गई थी. रक्तचाप भी इतना बढ़ गया था कि उनका उपचार कर रहे डा. श्रीवास्तव के माथे पर बार-बार बल पड़ जा रहे थे. करीब एक बजे रात को जब उन्हें सांस लेने में दिक्कत-सी होने लगी तो डाक्टर ने तत्काल नर्स को तलब कर कृत्रिम आक्सीजन की व्यवस्था कर दी. यह सब देख, मम्मी चिंता में पड़ गईं कि शायद, अस्पताल में हफ़्तों लग सकते हैं. वह उनके बगल में बैठकर लगातार ग्लूकोज़ की बोतल पर नज़रें गड़ाई हुईं थी. वह बार-बार वहां बेताबी से लगातार चहलकदमी कर रहे भाईसाहब को सवालिया नज़रों से पूछना चाह रही थीं कि बोतल का पानी इतना धीमे-धीमे क्यों चढ़ाया जा रहा है, एकसाथ उनकी नसों में क्यों नहीं उड़ेल दिया जा रहा है. उनकी इस उधेड़बुन पर मेरा मन बेहद खीझ रहा था. आखिर सभी क्यों चाह रहे थे कि जबकि डैडी तीन सालों से लगातार रुग्ण चल रहे हैं, वे अति शीघ्र ठीक हो जाएं! या यूं कही कि हम सभी किसी तरह डैडी के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से किनारा करना चाह रहे थे. <br />
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सारी रात हम सभी को अस्पताल में बैठकर डैडी की तीमारदारी करनी पड़ी. पिछले तीन सालों से जब से उनकी हालत बाद से बदतर हो गई, किसी ने उनकी तसल्लीबख्श सेवा-सुश्रुषा नहीं की थी. उनके बचपन के दोस्त--डा. अष्ठाना का कहना था कि बदपरहेज़ी ने ही उन्हें इस घातक हालत में ला खड़ा किया है. वरना, उनके मज़बूत कद-काठी को देखते हुए यह कोई नहीं कह सकता था कि मौत का खौफ उन्हें पच्चीस सालों से पहले भी छू सकता है. आज उनका शरीर कई बीमारियों का घर बन गया है. दमा, मधुमेह और अब तपेदिक ने उन्हें बारी-बारी से जकड़ लिया है. <br />
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अस्पताल में दाखिल होने के बाद से उनकी हालत में रत्ती भर भी सुधार नहीं आया. उल्टे, हालत और बिगड़ती जा रही थी. दूसरे दिन, सुबह तक सारी रिपोर्टें आ गईं. डा. श्रीवास्तव ने बताया कि दो दिन पहले की रात को उन्हें दमा का तेज दौरा पड़ा था और अगर उस वक़्त उन्हें उचित दवा मिल गई होती तो उनकी दशा इतनी नहीं बिगड़ती. <br />
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तब, हम सभी अपराधबोध से ग्रस्त होकर एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे थे. क्योंकि दौरे के समय तो हमलोग क्रिकेट मैच का आनंद ले रहे थे. हमारी उस स्थिति पर डाक्टर मुंह बिचकाते हुए चले गए थे. शायद, उन्होंने हमारे बाडी लैंग्विज़ से पढ़ लिया था किहमने उस वृद्ध व्यक्ति के प्रति घोर लापरवाही की थी. उस क्षण, हमें ऐसा लगा कि जैसे डाक्टर एक झन्नाटेदार तमाचा मार गया हो.<br />
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जब से डैडी अस्पताल में लाए गए थे, उन्होंने हममे से किसी से भी बात नहीं की थी, जबकि वह डाक्टर के सवालों का उत्तर बहुत धीमी आवाज़ में या 'हाँ' और 'ना' में दे रहे थे. हमारे बार-बार पूछने पर भी वह कुछ नहीं बोलते थे. बल्कि बड़ी गैरियत से मुंह फेर लेते थे. उनके चेहरे पर हमने घृणा और तिरस्कार के स्पष्ट भाव देखे थे. बेशक! अगर उनमें ताकत होती तो वे हमारे मुंह पर जोर से थूक भी सकते थे. <br />
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उस दिन दोपहर को डाक्टर ने बताया कि डैडी थैलीसीमिया से भी पीड़ित हैं और उनका खून बनना बिल्कुल बंद हो चुका है. सो, शाम से ही उन्हें खून चढ़ाया जाने लगा. भाईसाहब ने कहा कि अभी हमें अपना खून देने की क्या ज़रुरत है. महानगर के रक्त बैंकों में पर्याप्त मात्रा में खून उपलब्ध है. इसलिए ज़्यादा से ज़्यादा कीमतें देकर खून की चार बोतलें मंगाई गईं. रात को करीब दो बजे, उन्हें दमा के दौरे के साथ दर्ज़नों फटी खांसियाँ आईं. डाक्टर ने बताया कि यह लक्षण ठीक नहीं है. अगर ऐसा दोबारा या तिबारा हुआ तो यह घातक भी हो सकता है.<br />
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उस रात उनकी हालत वास्तव में दयनीय थी. वह बड़ी बैचेनी में थे क्योंकि उन्हें सांस लेने में बड़ी परेशानी हो रही थी. मम्मी पिछली रात से बिल्कुल न सो पाने के कारण दस बजे से ही बाहर सोफे पर खर्राटे भर रही थीं. भाईसाहब और मेरी पत्नी सुधा थोड़ी-थोड़ी देर पर डैडी को देखकर, पता नहीं कहाँ घंटों-घंटों तक लापता हो जा रहे थे. हेमा भी डैडी के मर्ज़ पर अलग-अलग डाक्टरों से बातचीत में मशगूल-सी दिखाई दे रही थी. लिहाजा, मैं वहां लगातार डैडी की हालत पर नज़र रखते हुए यह योजना बना रहाथा कि कल सुबह मुझे आफिस ज्वाइन कर ही लेना चाहिए. इसलिए, मैंने चुपके से एक डाक्टर से अपने लिए मेडिकल सर्टीफिकेट और फिटनेस सर्टीफिकेट बनवा लिए ताकि कल ड्यूटी ज्वाइन करने में कोई अड़ंगा न आए. <br />
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तीसरे दिन सुबह, मै किसी को कुछ बताए बगैर आफिस चला गया. वहीं से मैंने फोन पर अस्पताल में मम्मी को सूचित कर दिया कि आफिस के मेसेंजेर ने आकर मुझे कुछ आवश्यक काम के लिए बुलाक था जिससे मुझे अचानक ड्यूटी ज्वाइन करनी पड़ी. शाम, को मैं जानबूझकर देर से लौटा. पहले घर जाकर नहाया-धोया और फिर, नौकर से बाहर से चाय मंगवाकर नाश्ता किया. उसके बाद, तसल्ली से अस्पताल गया. वहां, की हालत देख, मैं घबड़ा-सा गया. डैडी के बेड पर कोई दूसरा डाक्टर उन्हें कृत्रिम सांस देने की कोशिश कर रहा था. पूछने पर पता चला कि डा. श्रीवास्तव छुट्टी पर चले गए हैं. नए डाक्टर बोस ने मुझे जोर की झाड़ लगाई--"आप मेजर चौहान के कैसे बेकहन और बदतमीज़ बेटे हैं कि आपके पिता मौत से जूझ रहे हैं जबकि आप सुबह से ही नदारद हैं? कितने शर्म की बात है कि यहाँ आपके पिता एक लावारिस मरीज़ की तरह यहाँ डेथ-बेड पर पड़े-पड़े हमारे स्टाफ के रहमोकरम की भीख मांग रहे हैं! अगर इस दरमियान इनकी मौत हो जाती तो इनकी बाडी का क्लेम करने के लिए भी कोई आगे आना वाला नहीं था..."<br />
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मैंने लगभग हकलाते हुए खे प्रकट किया और किसी को ढूँढने के बहाने आसपास का चक्कर लगाने लगा. थोड़ी बाद ग्रीन लान में मैंने मम्मी को उनकी कुछ आगंतुक सहेलियों के साथ जोर-जोर से गप्प लड़ाते हुए पाया. बेशक! चर्चा काविशय क्रिकेट ही था. मुझे अपने पास पाकर उन्होंने अपना चेहरा हाथी के सूंड़ की तरह लटका लिया. जैसेकि वह सुबह से ही गम में डूबी हुईं हों. वह मुझे देखते ही उठ खड़ी हुईं. कहने लगीं, "अभी-अभी तो आई हूँ. क्या करती? तुम्हारी आंटियां डैडी को देखने आई थीं जिन्हें छोड़ने बाहर तक आ गई..."<br />
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मैंने सिर्फ उन्हें घूरकर शिकायताना अंदाज़ में देखा. अगर पूचता तो वह भी कह सकती थीं कि तुम भी तो अपनी ज़िम्मेदारी से बचने के लिए आफिस चले गए थे. उन्होंने चलते-चलते मुझे बताया कि तुम्हारे बड़े भाई एक मुवक्किल के साथ कचहरी चले गए हैं. हेमा सुबह से ही एक सेमीनार में गई हुई है और अभी तक लौटी नहीं, जबकि सुधा अपनी किसी सहेली के बेटे केजन्म दिन पर कान्ग्रेट करने गई हुई है.<br />
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डैडी के बेड के पास हमारे कुछ देर तक ठहरने के बाद, डाक्टर बोस ने बताया कि मेजर चौहान यानी मेरे पिता को दोपहर से दो बार तेज दौरा पड़ चुका है और साथ में खान्सियों के साथ खून भी आया है. मैंने मम्मी का चेहरा गौर से देखा. वह इस सूचना से <br />
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contd./--</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A4%B2_%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%9F%E0%A4%AE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5272डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव2011-03-24T08:24:14Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
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<div>'''डिस्पोजेबल आइटम'''<br />
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डैड की बीमारी पर किसे खुंदक नहीं थी? उन खबीस को भी ऐसी लाइलाज बीमारी तभी लगनी थी जबकि इतना दिलचस्प क्रिकेट मैच चल रहा था! वह मैच भी कोई मामूली मैच नहीं था. वर्ल्ड कप का मैच था. भारत और पाकिस्तान के बीच सीधा मुकाबला था. इसलिए, मेरा घर ही क्या, सारा मोहल्ला क्रिकेटमय था. मोहल्ले से निकलकर सड़क पर आने के बाद चाहे किसी बस की सवारी की जाए या बाजार में चहलक़दमी की जाए, क्रिकेट की चर्चा हर जुबान पर थी. चाय-पान की गुमटियों से लेकर शहर के चप्पे-चप्पे पर लोगबाग इस वर्ल्डकप को लेकर बहसा-बहसी में जमे हुए थे. मेरे आफिस में भी इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर गलाफोड़ तकरार जारी था. कभी-कभार यह तकरार झगड़ा-फसाद का भी रूप ले लेता था. मेरे आफिस वाले ही क्या, दूसरे कार्यालयों के अधिकारी-कर्मचारी भी छुट्टियां लेकर अपने-अपने घरों में टी० वी० सेटों के आगे वर्ल्ड कप के मैचों का सीधा प्रसारण देखने में जमे हुए थे. ऐसे में ऐसा लगता था कि जैसे सारी दुनिया को क्रिकेट के सिवाय कोई और काम नहीं है. बेशक! मेरा घर भी इस टूर्नामेंट का लुत्फ़ उठाने में जुटा हुआ था--घर के सारे कामकाज को ताक पर रखकर. यहाँ तक कि लोगबाग ने खुद को शौच, स्नान आदि को भी गैर-ज़रूरी समझ, चाय-नाश्ता, खाने-पीने तक ही सीमित कर रखा था. हमें तो यह भी चिंता नहीं थी कि घर में बीमार डैडी की तीमारदारी में सभी को जुट जाना चाहिए ताकि वह ज़ल्दी से भले-चंगे होकर किसी अनिष्ट की आशंका से हमें मुक्त कर दें! घरेलू डाक्टर अष्ठाना ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि अगर उन्हें वक़्त पर दवाइयां नहीं दी गईं और उनकी हालत पर खास निगरानी नहीं रखी गई तो उनकी बीमारी जानलेवा भी हो सकती है. <br />
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शायद, डैडी रोमांचक क्रिकेट का परवान चढ़ते जा रहे थे. यों तो, उन्हें भी क्रिकेट मैचों में बेइन्तेहाँ दिलचस्पी रही है; लेकिन, इस बीमारी के कारण उन्हें वर्ल्ड कप मैचों का मजा न ले पाने की भीतर ही भीतर बेहद कसक होगी, जिसे वे व्यक्त नहीं कर पा रहे होंगे. आखिर, उनके जीर्ण-शीर्ण शरीर में मैचों का आनंद लेने का दमखम कहाँ रहा? <br />
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भारत के फ़ाइनल में पहुंचते ही सभी ने अपनी दिनचर्या को भी किनारे कर दिया. रात को डैडी की देखभाल के लिए किसी को भी अपनी नींद हराम करना गवांरा नहीं था. उधर डैडी कराहते रहते और इधर हम गहरे नींद में खर्राटे भर रहे होते. कई बार तो वह पानी-पानी की रट लगाते रहते; पर, कोई उठने का नाम तक नहीं लेता. ऐसे वक़्त में मम्मी की ज़िम्मेदारी बनती थी कि वह उनके दुःख-दर्द में हाथ बंटाने के लिए उनके सामने मौजूद रहतीं. हमें भी संतोष होता! क्योंकि हमें उनकी सेवा करने की नैतिक दुविधा से मुक्ति मिल जाती--'चलो! हमें डैडी की सेवा करने न करने में धर्म-संकट में फ़िज़ूल नहीं पड़ना पड़ा.'<br />
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जब वर्ल्ड कप की सनसनीखेज़ पारियां रात को शुरू हुईं तो हम सभी की आँखों से नींद ऐसे गायब हो गई जैसे गधे के सिर से सींग. डैडी के बेडरूम में जो ब्लैक एंड व्हाइट टी० वी० लगी हुई महीनों से सीलन खा रही थी (क्योंकि उन्होंने बीमारी के कारण काफी समय से टी०वी० देखना बंद कर दिया था), उसे मेरी बहन हेमा अपने कमरे में उठा ले गयी थी ताकि वह अकेले में मैचों का बेखट मजा ले सके. हमने भी टी०वी० पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित करने के साथ-साथ कानोप्न से मिनी ट्रांजिस्टर चिपका रहा था. <br />
<br />
यह स्थिति और भी भयावह थी. अगर रात को दवा-दारू के अभाव में डैडी के प्राण भी निकल जाते तो उसकी खबर सवेरे ही मिलाती. क्योंकि देर रात तक मैच के ख़त्म होने के बाद हम तत्काल बिस्तरों पर सो जाते थे और सुबह हमारी नींद तब खुलती थी जबकि महरी या ग्वाला दरवाज़ा खटखटाते थे. <br />
<br />
दो दिनों से मैं भी आफिस नहीं जा रहा था. जब तक लीग मैच होते रहे, मैंने आफिस में पाकिट ट्रांजिस्टर से ही काम चलाया. बीच-बीच में अपनी पत्नी सुधा को घर पर फोन करके मैच के बारे में ताजा स्थिति की जानकारी लेकर ही संतोष कर लेता! लेकिन, जब भारत ने साउथ अफ्रीका को सेमी फाइनल में पीटकर फाइनल में प्रवेश पा लिया तो मैंने अपने जूनियर को सेक्शन का चार्ज सौंप कर छुट्टी मार ली. मेरे खाते में छुट्टियों का हमेशा अभाव रहा है जिसके चलते डैडी की हालत बेहद गंभीर होने के बावजूद मैं उन्हें खुद कई बार डाक्टर के पास नहीं ले जा सका और उन्हें ड्राइवर के भरोसे छोड़ कर अपनी ड्यूटी पर निकल पड़ा. <br />
<br />
उस दिन फाइनल में पहुँचने के लिए सेमी फ़ाइनल का मुकाबला पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया के बीच था. सारा देश पाकिस्तान के हारने की उम्मीद लगाए बैठा था क्योंकि लोगों को यकीन था कि अगर फाइनल में भारत का सामना पाकिस्तान से हुआ तो उसके जीतने की आशा धूमिल पड़ जाएगी. मेरे घर में भी सभी, सब कुछ छोड़कर यह प्रार्थना करने में जुटे हुए थे कि काश! पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया के हाथों चारों खाना चित्त हो जाता. <br />
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पता नहीं क्यों? पाकिस्तान के खिलाफ खेलते हुए न केवल हमारे खिलाड़ियों का मनोबल आधा हो जाता है, बल्कि हम भी अपनी हार माँ बैठते हैं. <br />
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सुबह जब मम्मी नहा-धोकर रोज़ की तरह मंदिर को दर्शन करने निकलीं तो हम सोच रहे थे कि वह मंदिर में जाकर ईश्वर से डैड के रोगमुक्त होने के लिए प्रार्थनाएं करेंगी. लेकिन, मंदिर से वापस आते ही वह मरीजखाने में डैड के पास जाने के बजाए सीधे ड्राइंग रूम में तशरीफ़ लाईन जहां भाईसाहब और मेरे बीच इस बाबत जोरदार बहस छिड़ी हुई थी कि सेमी फाइनल में कौन जीतेगा--पाकिस्तान या आस्ट्रेलिया. भाईसाहब तो पाकिस्तान द्वारा सेमी फाइनल में पूर्व वर्ल्ड कप चैम्पियन--आस्ट्रेलिया को शिकस्त दिए जाने के पक्ष में दनादन तर्क दिए जा रहे थे जबकि मेरे द्वारा आस्ट्रेलिया को जिताने के लिए दी जाने वाली सारी दलीलें हल्की पड़ती जा रही थीं. <br />
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बेशक! उस वाक् युद्ध में मैं अपनी हार से बेहद मायूस होता जा रहा था. वहां मौजूद मेरी पत्नी सुधा को भी इससे बड़ा कोफ़्त हो रहा था. मुझे उसके सामने अपनी मात से और भी ज़्यादा आत्मग्लानि हो रही थी. वह भी चाहती थी कि भले ही पाकिस्तान क्रिकेट के मैदान में आस्ट्रेलिया को धूल चटा दे, लेकिन भाईसाहब से तर्क-कुतर्क में मैं मात न खाऊँ. बहरहाल, मुझे अपनी बहन--हेमा पर अत्यंत क्रोध आ रहा था जो बिलावज़ह भाईसाहब का पक्ष ले रही थी और वह भी बड़ी चुटकियाँ ले-लेकर. उसकी व्यंग्य-मुस्कान से यह साफ ज़ाहिर हो रहा था कि वह मुझे चिढ़ाना ज़्यादा चाह रही है और पाकिस्तान को जिताना कम. अन्यथा, वह छोटी बहन होने के बावजूद, भाई साहब को आदतन यह सबक देने की गुस्ताखी तो जरूर करती कि 'भैया, क्रिकेट जैसे पेंचीदे विषय से आपका क्या लेना-देना? जाइए, आप किसी मुकदमे की गुत्थी तलाशिए. वकालत के पेशे वालों को क्रिकेट में कतई दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए.'<br />
<br />
लिहाजा, मुझे यह सोचकर बड़ा सुकून मिला कि चलो, कम से कम मेरे घर में एक तो ऐसा बन्दा है जो क्रिकेट को गंभीरतापूर्वक न लेकर मजाकिया लहजे में ले रहा है. मैं भी इस विश्व कप में भले ही दिलचस्पी ले रहा था, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर मैं क्रिकेट जैसे खेल का आलोचक रहा हूँ. क्योंकि जब कोई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच होता है तो सारे देश की हालत नाबदान में ठहरे हुए पानी जैसी हो जाती है. घर, खेत-खलिहानों, कल-कारखानों, दफ्तरों आदि में सारी गतिविधियाँ ठप्प पड़ जाती हैं. सोचिए, जितने दिन क्रिकेट मैच होता है, देश की कितनी श्रम-ऊर्जा निष्क्रिय होकर व्यर्थ जाती होगी! कितना आर्थिक नुकसान होता होगा!<br />
<br />
बहरहाल, मम्मी के आते ही बहसा-बहसी की फिजां ही बदल गई. सारा पासा ही पलट गया. मंदिर से आने के बाद उनकी बातों में बड़ा दम आ गया था. आखिर, उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ ईश्वर से जो मन्नतें मानी थी, वे व्यर्थ थोड़े ही जाने वाली थी. सो, जब पाकिस्तान भाई साहब को आड़े हाथन लिया तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. उस पल, ऐसा लगा कि जैसे आस्ट्रेलिया के हाथों पाकिस्तान का हारना तय है.<br />
<br />
उस रात, हमने यह निश्चय किया कि हम सब दालान में बैठकर टी.वी. देखेंगे और पाकिस्तान को हारते हुए देखने का असली मज़ा लेंगे. सुधा ने वहीं एक टेबल पर स्टोव, केतली और चाय बनाने का सारा सामान भी जमा कर दिया था ताकि बीच-बीच में चाय पीते हुए मैच देखने का असली लुत्फ़ उठाया जाए. भाई साहब ने पाकिस्तान की जीत को सेलीब्रेट करने के लिए पटाखे छोड़ने का इंतजाम पहले से कर लिया था. मैंने आस्ट्रेलिया की जीत के उपलक्ष्य में ऐसा कुछ भी न करने का इंतजाम किया था. क्योंकि मन ही मन मैं भी आस्ट्रेलिया के हारने के भय से मुक्त नहीं हो पाया था. <br />
<br />
डिनर के बाद, सभी दालान में तशरीफ़ लाए. हेमा भी आ गई. इस दिन वह अकेले मैच देखने से बाज आ रही थी. उसने आते ही अपना आसन भाईसाहब के बगल में जमाया. वह मुझे व्यंग्यपूर्वक देखते हुए भाईसाहब के गुट में शामिल होने का अहसास दिला रही थी. अगर मायके से भाभी आ गयी होतीं तो वह नि:संदेह उनके पल्लू में बैठती. तब, मेरा मनोबल और भी गिर जाता. क्योंकि जब भाईसाहब, भाभी और छोटी बहन की तिकड़ी साथ-साथ बैठती थी तो मैं कोई वाक् युद्ध छेड़ने से पहले ही भींगी बिल्ली बन जाता था. मेरी पत्नी तो बहस में एकदम फिसड्डी थी. सही तर्क न दे पाने के कारण वह बेपेंदे के लोटे की तरह फिस्स मुस्कराकर किसी भे ओर लुढ़क कर उसका पलड़ा भारी कर देती थी. <br />
<br />
आखिर में पानदान लटकाए हुए और ताजे पान की गिलौरी चबाते हुए मम्मी ने बिलकुल टी.वी. के सामने दीवान के ऊपर मसनद पर बड़े आराम से दस्तक दिया. उनके हावभाव में बड़ा सुकून था. क्योंकि उन्होंने कुछ क्षण पहले डैडी के कमरे में जाकर उनके सिरहाने स्टूल पर दवाइयां, चम्मच, कटोरी, गिलास और जग में पानी रखते हुए और उन्हें जोर से झकझोरते हुए चिल्ला-चिल्लाकर बता दिया था कि रात को वे याद कर सारी दवाइयां समय से ले लेंगे वरना रोग लाइलाज हो जाएगा. साथ में यह चेतावनी भी दे दी कि वे फ़िज़ूल में बच्चों की तरह शोर मचा-मचाकर हमारे क्रिकेट मैच का मज़ा किरकिरा नहीं करेंगे और सुबह ग्वाले के आने तक हमारे जगने की प्रतीक्षा करेंगे. पता नहीं, उन्होंने मम्मी की बातें ठीक-ठीक सुनी भी थीं, या नहीं. पर, मम्मी अपना पत्नी-सुलभ फ़र्ज़ अदाकार पूरी तरह आश्वस्त नज़र आ रही थीं. हम सभी ने भी उनके चेहरे पर आत्मसंतोष का जो भाव देखा, उससे हम डैडी की ओर से बेफिक्र होकर मैच में पूरी तरह खोने को तैयार हो गए.<br />
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बेशक! मैच बड़ा रोमांचक था. आस्ट्रेलिया ने टास जीत कर, पहले बल्लेबाजी की और पूरे ३०९ रन का विशाल स्कोर खड़ा किया. भाई साहब के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. और हमलोग खूब खिल्लियाँ उड़ा रहे थे. हम इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थे कि पाकिस्तान चाहे जितना भी जोर लगा ले, वह इतना विशाल स्कोर खड़ा नहीं कर सकता. इस बीच मम्मी कम से कम तीन-चार दफे उठकर आँगन में गई थीं और तुलसी के गमले में रखे शिवलिंग पर बार-बार मत्था टेक आई थीं. लिहाजा, जब पाकिस्तान ने लगभग १४-१५ रन की औसत से धुआंधार बल्लेबाजी शुरू की तो हमलोगों के मुंह से सिसकारी भी निकलनी बंद हो गई. जब तक आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज पाकिस्तानी गेंदबाजों के छक्के छुडाते रहे, हम विस्फोटक हंसी हंसते रहे और भाईसाहब को व्यंग्य-बाण से आहत करते रहे. लेकिन, पाकिस्तान द्वारा धुआंधार बल्लेबाजी देखकर हमें विश्वास होता गया कि उसका मैच जीतना कोई टेढ़ी खीर नहीं है. चूंकि उसके चार सलामी बल्लेबाज पवेलियन वापिस लौट चुके थे; लेकिन, उसकी रन बनाने की गति में कोई कमी नहीं आई थी.भाईसाहब का गुट फिर उत्तेजना में आ गया था. पाकिस्तान के अन्तिम क्रम के बल्लेबाज भी मशीन की तरह रन बना रहे थे. उस दरमियान, मम्मी फिर उठकर शिवलिंग के आगे सिर झुकाने नहीं गईं. मेरी पोतनी सुधा ने आँख मूँद कर भगवान से पाकिस्तान की पराजय नहीं माँगी. मैंने लज्जावश भाईसाहब से नज़रें हटा-हटाकर मिलाईं. <br />
<br />
शायद, भगवान में से विश्वास खोने का का दुष्परिणाम कुछ ऐसा हुआ कि अंत में, पाकिस्तान के दसवें क्रम पर आए बल्लेबाज के छक्के ने आस्ट्रेलिया को फाइनल से बाहर कर दिया.<br />
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भाईसाहब ने जमकर पटाखे छोड़े. उन्होंने यह भी चिंता की कि इससे बीमार डैडी को बेहद तकलीफ हो सकती है. सायद, उन्हें इस बारे में कुछ याद ही नहीं रहा. ऐसे जोश में होश कहाँ रहता है ?<br />
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सुबह जब धूप इतनी तेज हो गई कि हमारा सिर दर्द से फटने लगा, तब कहीं जाकर हमारी नीद खुली. हम पहले ही उठ गए होते. लेकिन, उस दिन महरी छुट्टी पर थी और संयोगवश, ग्वाला भी किसी वज़ह से नौ बजे तक नहीं आया था. अन्यथा, उनमें से किसी के दस्तक देने से हम पहले ही जग गए होते. कहीं हमें खराई न मार दे, इसलिए सुधा ने बासी दूध से ही चाय बनाई और हमें डाइनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए बुलाया गया. चाय-नाश्ता कर चुकने के बाद मैंने फिर अपने बेडरूम में जाकर खिड़कियाँ बंद की और बिस्तर पर पसर गया. मम्मी तो नहाने-धोने गुशालाखाने में चली गई थी. लेकिन, मुझसे किसी ने यह भी नहीं पूछा कि तुम्हें आफिस जाना है या नहीं. क्योंकि सभी को मालूम था कि मई अनिश्चित काल के लिए टायफायड का बहाना बनाकर छुट्टी पर हूँ और आफिस तभी जाऊंगा जबकि वर्ल्ड कप मैच समाप्त होगा. भाईसाहब की कचहरी में पहले से ही हड़ताल चल रही थी जिस कारण, वह भी बड़ी तबियत से फाइनल मैच के होने की प्रतीक्षा कर रहे थे. रही छोटी बहन हेमा... तो वह अपने आख़िरी सेमेस्टर के पेपर्स से फारिग होने के बाद मेडिकल सेमीनारों से कतना चाह रही थी. वह पछता रही थी कि उसने इतनी ज़ल्दी मेडिकल असोसिएशन की मेम्बरशिप क्यों ले ली. वर्ल्ड कप मैच के बाद लेती! इस वज़ह से उसे बेकार में रोज़-रोज़ के सेमीनारों आदि में व्यस्त रहना पड़ता था. वास्तव में! फाइनल मैच चार दिनों बाद होना था जिसकी बेसब्री से प्रतीक्षा करने से मिलने वाली अवर्णनीय खुशी में हम किसी काम की फ़िज़ूल चिंता से खलल नहीं डालने चाहते थे. <br />
<br />
अचानक, कुछ अजीबोगरीब शोर से मेरी नींद उचट गई. मुझे बड़ी झुंझलाहट सी हो रही थी क्योंकि मेरा एक सुन्दर सपना टूट गया था जिसमें मैं भारत और पाकिस्तान के बीच जो मैच देख रहा था, उसमें भारत का पलड़ा भारी पड़ता जा रहा था और वह नि:संदेह! विजय की ओर अग्रसर हो रहा था.<br />
<br />
मै उठकर भीतर आँगन में शोरगुल का जायजा लेने गया तो मम्मी की हालत देखकर हकबका गया. वह बेतहाशा रोने के मूड में लग रही थी. तभी हेमा ने बताया कि डैडी की तबियत ज़्यादा खराब है. वहीं देर से आया ग्वाला भी खड़ा था. दरअसल, उसने कई बार आवाज़ लगाई थी. लेकिन, घर में छाया सन्नाटा देखकर वह आवाज़ लगाता हुआ सीधे डैडी के कमरे में घुस गया था जहां उसने डैडी को बेड के नीचे अचेतावस्था में लुढ़का हुआ औंधे मुंह देखकर प्राय: डर-सा गया था. उसने ही मम्मी को उनकी हालत के बारे में सबसे पहले जानकारी दी थी. वह संभवत: रात से ही वहां पड़े हुए थे. उन्होंने रात को हमें किसी वज़ह से आवाज़ दी होगी जिसे हमने मैच में मस्त होने के कारण नहीं सुना होगा. फिर, उन्होंने उठने की कोशिश की होगी. पर अशक्त होने के कारण गिर पड़े होंगे. दिलचस्प बात यह थी कि हमने सुबह देर से उठने के बावजूद उनके कमरे में जाकर उनकी हालत जानने की जुर्रत महसूस नहीं की. अगर ग्वाला अनजाने में उनके कमरे में दाखिला नहीं हुआ होता तो...<br />
<br />
खैर, हेमा ने अपने नए डाक्टरी अनुभवों का इस्तेमाल कर, हमें तत्काल इत्तला किया कि डैडी की हालत नाज़ुक है और अब उन्हें अस्पताल में अब तो भर्ती करा ही देना चाहिए.<br />
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हमने ड्राइवर की मदद से डैडी को अस्पताल में भर्ती करा ही दिया. उस दिन हम सभी अस्पताल गए. हम सोच रहे थे कि दो-तीन दिनों में डैडी की हालत सम्हल ही जाएगी. फिर, उन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी जाएगी. <br />
<br />
उस दिन उनकी कई जांचें हुईं और सभी में आई रिपोर्टें चिंताजनक थीं. खून में शूगर की मात्रा बहुत बढ़ गई थी. रक्तचाप भी इतना बढ़ गया था कि उनका उपचार कर रहे डा. श्रीवास्तव के माथे पर बार-बार बल पड़ जा रहे थे. करीब एक बजे रात को जब उन्हें सांस लेने में दिक्कत-सी होने लगी तो डाक्टर ने तत्काल नर्स को तलब कर कृत्रिम आक्सीजन की व्यवस्था कर दी. यह सब देख, मम्मी चिंता में पड़ गईं कि शायद, अस्पताल में हफ़्तों लग सकते हैं. वह उनके बगल में बैठकर लगातार ग्लूकोज़ की बोतल पर नज़रें गड़ाई हुईं थी. वह बार-बार वहां बेताबी से लगातार चहलकदमी कर रहे भाईसाहब को सवालिया नज़रों से पूछना चाह रही थीं कि बोतल का पानी इतना धीमे-धीमे क्यों चढ़ाया जा रहा है, एकसाथ उनकी नसों में क्यों नहीं उड़ेल दिया जा रहा है. उनकी इस उधेड़बुन पर मेरा मन बेहद खीझ रहा था. आखिर सभी क्यों चाह रहे थे कि जबकि डैडी तीन सालों से लगातार रुग्ण चल रहे हैं, वे अति शीघ्र ठीक हो जाएं! या यूं कही कि हम सभी किसी तरह डैडी के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से किनारा करना चाह रहे थे. <br />
<br />
सारी रात हम सभी को अस्पताल में बैठकर डैडी की तीमारदारी करनी पड़ी. पिछले तीन सालों से जब से उनकी हालत बाद से बदतर हो गई, किसी ने उनकी तसल्लीबख्श सेवा-सुश्रुषा नहीं की थी. उनके बचपन के दोस्त--डा. अष्ठाना का कहना था कि बदपरहेज़ी ने ही उन्हें इस घातक हालत में ला खड़ा किया है. वरना, उनके मज़बूत कद-काठी को देखते हुए यह कोई नहीं कह सकता था कि मौत का खौफ उन्हें पच्चीस सालों से पहले भी छू सकता है. आज उनका शरीर कई बीमारियों का घर बन गया है. दमा, मधुमेह और अब तपेदिक ने उन्हें बारी-बारी से जकड़ लिया है. <br />
<br />
अस्पताल में दाखिल होने के बाद से उनकी हालत में रत्ती भर भी सुधार नहीं आया. उल्टे, हालत और बिगड़ती जा रही थी. दूसरे दिन, सुबह तक सारी रिपोर्टें आ गईं. डा. श्रीवास्तव ने बताया कि दो दिन पहले की रात को उन्हें दमा का तेज दौरा पड़ा था और अगर उस वक़्त उन्हें उचित दवा मिल गई होती तो उनकी दशा इतनी नहीं बिगड़ती. <br />
<br />
तब, हम सभी अपराधबोध से ग्रस्त होकर एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे थे. क्योंकि दौरे के समय तो हमलोग क्रिकेट मैच का आनंद ले रहे थे. हमारी उस स्थिति पर डाक्टर मुंह बिचकाते हुए चले गए थे. शायद, उन्होंने हमारे बाडी लैंग्विज़ से पढ़ लिया था किहमने उस वृद्ध व्यक्ति के प्रति घोर लापरवाही की थी. उस क्षण, हमें ऐसा लगा कि जैसे डाक्टर एक झन्नाटेदार तमाचा मार गया हो.<br />
<br />
जब से डैडी अस्पताल में लाए गए थे, उन्होंने हममे से किसी से भी बात नहीं की थी, जबकि वह डाक्टर के सवालों का उत्तर बहुत धीमी आवाज़ में या 'हाँ' और 'ना' में दे रहे थे. हमारे बार-बार पूछने पर भी वह कुछ नहीं बोलते थे. बल्कि बड़ी गैरियत से मुंह फेर लेते थे. उनके चेहरे पर हमने घृणा और तिरस्कार के स्पष्ट भाव देखे थे. बेशक! अगर उनमें ताकत होती तो वे हमारे मुंह पर जोर से थूक भी सकते थे. <br />
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<br />
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contd./--</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A4%B2_%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%9F%E0%A4%AE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5271डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव2011-03-23T09:46:59Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div>'''डिस्पोजेबल आइटम'''<br />
<br />
डैड की बीमारी पर किसे खुंदक नहीं थी? उन खबीस को भी ऐसी लाइलाज बीमारी तभी लगनी थी जबकि इतना दिलचस्प क्रिकेट मैच चल रहा था! वह मैच भी कोई मामूली मैच नहीं था. वर्ल्ड कप का मैच था. भारत और पाकिस्तान के बीच सीधा मुकाबला था. इसलिए, मेरा घर ही क्या, सारा मोहल्ला क्रिकेटमय था. मोहल्ले से निकलकर सड़क पर आने के बाद चाहे किसी बस की सवारी की जाए या बाजार में चहलक़दमी की जाए, क्रिकेट की चर्चा हर जुबान पर थी. चाय-पान की गुमटियों से लेकर शहर के चप्पे-चप्पे पर लोगबाग इस वर्ल्डकप को लेकर बहसा-बहसी में जमे हुए थे. मेरे आफिस में भी इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर गलाफोड़ तकरार जारी था. कभी-कभार यह तकरार झगड़ा-फसाद का भी रूप ले लेता था. मेरे आफिस वाले ही क्या, दूसरे कार्यालयों के अधिकारी-कर्मचारी भी छुट्टियां लेकर अपने-अपने घरों में टी० वी० सेटों के आगे वर्ल्ड कप के मैचों का सीधा प्रसारण देखने में जमे हुए थे. ऐसे में ऐसा लगता था कि जैसे सारी दुनिया को क्रिकेट के सिवाय कोई और काम नहीं है. बेशक! मेरा घर भी इस टूर्नामेंट का लुत्फ़ उठाने में जुटा हुआ था--घर के सारे कामकाज को ताक पर रखकर. यहाँ तक कि लोगबाग ने खुद को शौच, स्नान आदि को भी गैर-ज़रूरी समझ, चाय-नाश्ता, खाने-पीने तक ही सीमित कर रखा था. हमें तो यह भी चिंता नहीं थी कि घर में बीमार डैडी की तीमारदारी में सभी को जुट जाना चाहिए ताकि वह ज़ल्दी से भले-चंगे होकर किसी अनिष्ट की आशंका से हमें मुक्त कर दें! घरेलू डाक्टर अष्ठाना ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि अगर उन्हें वक़्त पर दवाइयां नहीं दी गईं और उनकी हालत पर खास निगरानी नहीं रखी गई तो उनकी बीमारी जानलेवा भी हो सकती है. <br />
<br />
शायद, डैडी रोमांचक क्रिकेट का परवान चढ़ते जा रहे थे. यों तो, उन्हें भी क्रिकेट मैचों में बेइन्तेहाँ दिलचस्पी रही है; लेकिन, इस बीमारी के कारण उन्हें वर्ल्ड कप मैचों का मजा न ले पाने की भीतर ही भीतर बेहद कसक होगी, जिसे वे व्यक्त नहीं कर पा रहे होंगे. आखिर, उनके जीर्ण-शीर्ण शरीर में मैचों का आनंद लेने का दमखम कहाँ रहा? <br />
<br />
भारत के फ़ाइनल में पहुंचते ही सभी ने अपनी दिनचर्या को भी किनारे कर दिया. रात को डैडी की देखभाल के लिए किसी को भी अपनी नींद हराम करना गवांरा नहीं था. उधर डैडी कराहते रहते और इधर हम गहरे नींद में खर्राटे भर रहे होते. कई बार तो वह पानी-पानी की रट लगाते रहते; पर, कोई उठने का नाम तक नहीं लेता. ऐसे वक़्त में मम्मी की ज़िम्मेदारी बनती थी कि वह उनके दुःख-दर्द में हाथ बंटाने के लिए उनके सामने मौजूद रहतीं. हमें भी संतोष होता! क्योंकि हमें उनकी सेवा करने की नैतिक दुविधा से मुक्ति मिल जाती--'चलो! हमें डैडी की सेवा करने न करने में धर्म-संकट में फ़िज़ूल नहीं पड़ना पड़ा.'<br />
<br />
जब वर्ल्ड कप की सनसनीखेज़ पारियां रात को शुरू हुईं तो हम सभी की आँखों से नींद ऐसे गायब हो गई जैसे गधे के सिर से सींग. डैडी के बेडरूम में जो ब्लैक एंड व्हाइट टी० वी० लगी हुई महीनों से सीलन खा रही थी (क्योंकि उन्होंने बीमारी के कारण काफी समय से टी०वी० देखना बंद कर दिया था), उसे मेरी बहन हेमा अपने कमरे में उठा ले गयी थी ताकि वह अकेले में मैचों का बेखट मजा ले सके. हमने भी टी०वी० पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित करने के साथ-साथ कानोप्न से मिनी ट्रांजिस्टर चिपका रहा था. <br />
<br />
यह स्थिति और भी भयावह थी. अगर रात को दवा-दारू के अभाव में डैडी के प्राण भी निकल जाते तो उसकी खबर सवेरे ही मिलाती. क्योंकि देर रात तक मैच के ख़त्म होने के बाद हम तत्काल बिस्तरों पर सो जाते थे और सुबह हमारी नींद तब खुलती थी जबकि महरी या ग्वाला दरवाज़ा खटखटाते थे. <br />
<br />
दो दिनों से मैं भी आफिस नहीं जा रहा था. जब तक लीग मैच होते रहे, मैंने आफिस में पाकिट ट्रांजिस्टर से ही काम चलाया. बीच-बीच में अपनी पत्नी सुधा को घर पर फोन करके मैच के बारे में ताजा स्थिति की जानकारी लेकर ही संतोष कर लेता! लेकिन, जब भारत ने साउथ अफ्रीका को सेमी फाइनल में पीटकर फाइनल में प्रवेश पा लिया तो मैंने अपने जूनियर को सेक्शन का चार्ज सौंप कर छुट्टी मार ली. मेरे खाते में छुट्टियों का हमेशा अभाव रहा है जिसके चलते डैडी की हालत बेहद गंभीर होने के बावजूद मैं उन्हें खुद कई बार डाक्टर के पास नहीं ले जा सका और उन्हें ड्राइवर के भरोसे छोड़ कर अपनी ड्यूटी पर निकल पड़ा. <br />
<br />
उस दिन फाइनल में पहुँचने के लिए सेमी फ़ाइनल का मुकाबला पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया के बीच था. सारा देश पाकिस्तान के हारने की उम्मीद लगाए बैठा था क्योंकि लोगों को यकीन था कि अगर फाइनल में भारत का सामना पाकिस्तान से हुआ तो उसके जीतने की आशा धूमिल पड़ जाएगी. मेरे घर में भी सभी, सब कुछ छोड़कर यह प्रार्थना करने में जुटे हुए थे कि काश! पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया के हाथों चारों खाना चित्त हो जाता. <br />
<br />
पता नहीं क्यों? पाकिस्तान के खिलाफ खेलते हुए न केवल हमारे खिलाड़ियों का मनोबल आधा हो जाता है, बल्कि हम भी अपनी हार माँ बैठते हैं. <br />
<br />
सुबह जब मम्मी नहा-धोकर रोज़ की तरह मंदिर को दर्शन करने निकलीं तो हम सोच रहे थे कि वह मंदिर में जाकर ईश्वर से डैड के रोगमुक्त होने के लिए प्रार्थनाएं करेंगी. लेकिन, मंदिर से वापस आते ही वह मरीजखाने में डैड के पास जाने के बजाए सीधे ड्राइंग रूम में तशरीफ़ लाईन जहां भाईसाहब और मेरे बीच इस बाबत जोरदार बहस छिड़ी हुई थी कि सेमी फाइनल में कौन जीतेगा--पाकिस्तान या आस्ट्रेलिया. भाईसाहब तो पाकिस्तान द्वारा सेमी फाइनल में पूर्व वर्ल्ड कप चैम्पियन--आस्ट्रेलिया को शिकस्त दिए जाने के पक्ष में दनादन तर्क दिए जा रहे थे जबकि मेरे द्वारा आस्ट्रेलिया को जिताने के लिए दी जाने वाली सारी दलीलें हल्की पड़ती जा रही थीं. <br />
<br />
बेशक! उस वाक् युद्ध में मैं अपनी हार से बेहद मायूस होता जा रहा था. वहां मौजूद मेरी पत्नी सुधा को भी इससे बड़ा कोफ़्त हो रहा था. मुझे उसके सामने अपनी मात से और भी ज़्यादा आत्मग्लानि हो रही थी. वह भी चाहती थी कि भले ही पाकिस्तान क्रिकेट के मैदान में आस्ट्रेलिया को धूल चटा दे, लेकिन भाईसाहब से तर्क-कुतर्क में मैं मात न खाऊँ. बहरहाल, मुझे अपनी बहन--हेमा पर अत्यंत क्रोध आ रहा था जो बिलावज़ह भाईसाहब का पक्ष ले रही थी और वह भी बड़ी चुटकियाँ ले-लेकर. उसकी व्यंग्य-मुस्कान से यह साफ ज़ाहिर हो रहा था कि वह मुझे चिढ़ाना ज़्यादा चाह रही है और पाकिस्तान को जिताना कम. अन्यथा, वह छोटी बहन होने के बावजूद, भाई साहब को आदतन यह सबक देने की गुस्ताखी तो जरूर करती कि 'भैया, क्रिकेट जैसे पेंचीदे विषय से आपका क्या लेना-देना? जाइए, आप किसी मुकदमे की गुत्थी तलाशिए. वकालत के पेशे वालों को क्रिकेट में कतई दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए.'<br />
<br />
लिहाजा, मुझे यह सोचकर बड़ा सुकून मिला कि चलो, कम से कम मेरे घर में एक तो ऐसा बन्दा है जो क्रिकेट को गंभीरतापूर्वक न लेकर मजाकिया लहजे में ले रहा है. मैं भी इस विश्व कप में भले ही दिलचस्पी ले रहा था, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर मैं क्रिकेट जैसे खेल का आलोचक रहा हूँ. क्योंकि जब कोई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच होता है तो सारे देश की हालत नाबदान में ठहरे हुए पानी जैसी हो जाती है. घर, खेत-खलिहानों, कल-कारखानों, दफ्तरों आदि में सारी गतिविधियाँ ठप्प पड़ जाती हैं. सोचिए, जितने दिन क्रिकेट मैच होता है, देश की कितनी श्रम-ऊर्जा निष्क्रिय होकर व्यर्थ जाती होगी! कितना आर्थिक नुकसान होता होगा!<br />
<br />
बहरहाल, मम्मी के आते ही बहसा-बहसी की फिजां ही बदल गई. सारा पासा ही पलट गया. मंदिर से आने के बाद उनकी बातों में बड़ा दम आ गया था. आखिर, उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ ईश्वर से जो मन्नतें मानी थी, वे व्यर्थ थोड़े ही जाने वाली थी. सो, जब पाकिस्तान भाई साहब को आड़े हाथन लिया तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. उस पल, ऐसा लगा कि जैसे आस्ट्रेलिया के हाथों पाकिस्तान का हारना तय है.<br />
<br />
उस रात, हमने यह निश्चय किया कि हम सब दालान में बैठकर टी.वी. देखेंगे और पाकिस्तान को हारते हुए देखने का असली मज़ा लेंगे. सुधा ने वहीं एक टेबल पर स्टोव, केतली और चाय बनाने का सारा सामान भी जमा कर दिया था ताकि बीच-बीच में चाय पीते हुए मैच देखने का असली लुत्फ़ उठाया जाए. भाई साहब ने पाकिस्तान की जीत को सेलीब्रेट करने के लिए पटाखे छोड़ने का इंतजाम पहले से कर लिया था. मैंने आस्ट्रेलिया की जीत के उपलक्ष्य में ऐसा कुछ भी न करने का इंतजाम किया था. क्योंकि मन ही मन मैं भी आस्ट्रेलिया के हारने के भय से मुक्त नहीं हो पाया था. <br />
<br />
डिनर के बाद, सभी दालान में तशरीफ़ लाए. हेमा भी आ गई. इस दिन वह अकेले मैच देखने से बाज आ रही थी. उसने आते ही अपना आसन भाईसाहब के बगल में जमाया. वह मुझे व्यंग्यपूर्वक देखते हुए भाईसाहब के गुट में शामिल होने का अहसास दिला रही थी. अगर मायके से भाभी आ गयी होतीं तो वह नि:संदेह उनके पल्लू में बैठती. तब, मेरा मनोबल और भी गिर जाता. क्योंकि जब भाईसाहब, भाभी और छोटी बहन की तिकड़ी साथ-साथ बैठती थी तो मैं कोई वाक् युद्ध छेड़ने से पहले ही भींगी बिल्ली बन जाता था. मेरी पत्नी तो बहस में एकदम फिसड्डी थी. सही तर्क न दे पाने के कारण वह बेपेंदे के लोटे की तरह फिस्स मुस्कराकर किसी भे ओर लुढ़क कर उसका पलड़ा भारी कर देती थी. <br />
<br />
आखिर में पानदान लटकाए हुए और ताजे पान की गिलौरी चबाते हुए मम्मी ने बिलकुल टी.वी. के सामने दीवान के ऊपर मसनद पर बड़े आराम से दस्तक दिया. उनके हावभाव में बड़ा सुकून था. क्योंकि उन्होंने कुछ क्षण पहले डैडी के कमरे में जाकर उनके सिरहाने स्टूल पर दवाइयां, चम्मच, कटोरी, गिलास और जग में पानी रखते हुए और उन्हें जोर से झकझोरते हुए चिल्ला-चिल्लाकर बता दिया था कि रात को वे याद कर सारी दवाइयां समय से ले लेंगे वरना रोग लाइलाज हो जाएगा. साथ में यह चेतावनी भी दे दी कि वे फ़िज़ूल में बच्चों की तरह शोर मचा-मचाकर हमारे क्रिकेट मैच का मज़ा किरकिरा नहीं करेंगे और सुबह ग्वाले के आने तक हमारे जगने की प्रतीक्षा करेंगे. पता नहीं, उन्होंने मम्मी की बातें ठीक-ठीक सुनी भी थीं, या नहीं. पर, मम्मी अपना पत्नी-सुलभ फ़र्ज़ अदाकार पूरी तरह आश्वस्त नज़र आ रही थीं. हम सभी ने भी उनके चेहरे पर आत्मसंतोष का जो भाव देखा, उससे हम डैडी की ओर से बेफिक्र होकर मैच में पूरी तरह खोने को तैयार हो गए.<br />
<br />
बेशक! मैच बड़ा रोमांचक था. आस्ट्रेलिया ने टास जीत कर, पहले बल्लेबाजी की और पूरे ३०९ रन का विशाल स्कोर खड़ा किया. भाई साहब के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. और हमलोग खूब खिल्लियाँ उड़ा रहे थे. हम इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थे कि पाकिस्तान चाहे जितना भी जोर लगा ले, वह इतना विशाल स्कोर खड़ा नहीं कर सकता. इस बीच मम्मी कम से कम तीन-चार दफे उठकर आँगन में गई थीं और तुलसी के गमले में रखे शिवलिंग पर बार-बार मत्था टेक आई थीं. लिहाजा, जब पाकिस्तान ने लगभग १४-१५ रन की औसत से धुआंधार बल्लेबाजी शुरू की तो हमलोगों के मुंह से सिसकारी भी निकलनी बंद हो गई. जब तक आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज पाकिस्तानी गेंदबाजों के छक्के छुडाते रहे, हम विस्फोटक हंसी हंसते रहे और भाईसाहब को व्यंग्य-बाण से आहत करते रहे. लेकिन, पाकिस्तान द्वारा धुआंधार बल्लेबाजी देखकर हमें विश्वास होता गया कि उसका मैच जीतना कोई टेढ़ी खीर नहीं है. चूंकि उसके चार सलामी बल्लेबाज पवेलियन वापिस लौट चुके थे; लेकिन, उसकी रन बनाने की गति में कोई कमी नहीं आई थी.भाईसाहब का गुट फिर उत्तेजना में आ गया था. पाकिस्तान के अन्तिम क्रम के बल्लेबाज भी मशीन की तरह रन बना रहे थे. उस दरमियान, मम्मी फिर उठकर शिवलिंग के आगे सिर झुकाने नहीं गईं. मेरी पोतनी सुधा ने आँख मूँद कर भगवान से पाकिस्तान की पराजय नहीं माँगी. मैंने लज्जावश भाईसाहब से नज़रें हटा-हटाकर मिलाईं. <br />
<br />
शायद, भगवान में से विश्वास खोने का का दुष्परिणाम कुछ ऐसा हुआ कि अंत में, पाकिस्तान के दसवें क्रम पर आए बल्लेबाज के छक्के ने आस्ट्रेलिया को फाइनल से बाहर कर दिया.<br />
<br />
भाईसाहब ने जमकर पटाखे छोड़े. उन्होंने यह भी चिंता की कि इससे बीमार डैडी को बेहद तकलीफ हो सकती है. सायद, उन्हें इस बारे में कुछ याद ही नहीं रहा. ऐसे जोश में होश कहाँ रहता है ?<br />
<br />
सुबह जब धूप इतनी तेज हो गई कि हमारा सिर दर्द से फटने लगा, तब कहीं जाकर हमारी नीद खुली. हम पहले ही उठ गए होते. लेकिन, उस दिन महरी छुट्टी पर थी और संयोगवश, ग्वाला भी किसी वज़ह से नौ बजे तक नहीं आया था. अन्यथा, उनमें से किसी के दस्तक देने से हम पहले ही जग गए होते. कहीं हमें खराई न मार दे, इसलिए सुधा ने बासी दूध से ही चाय बनाई और हमें डाइनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए बुलाया गया. चाय-नाश्ता कर चुकने के बाद मैंने फिर अपने बेडरूम में जाकर खिड़कियाँ बंद की और बिस्तर पर पसर गया. मम्मी तो नहाने-धोने गुशालाखाने में चली गई थी. लेकिन, मुझसे किसी ने यह भी नहीं पूछा कि तुम्हें आफिस जाना है या नहीं. क्योंकि सभी को मालूम था कि मई अनिश्चित काल के लिए टायफायड का बहाना बनाकर छुट्टी पर हूँ और आफिस तभी जाऊंगा जबकि वर्ल्ड कप मैच समाप्त होगा. भाईसाहब की कचहरी में पहले से ही हड़ताल चल रही थी जिस कारण, वह भी बड़ी तबियत से फाइनल मैच के होने की प्रतीक्षा कर रहे थे. रही छोटी बहन हेमा... तो वह अपने आख़िरी सेमेस्टर के पेपर्स से फारिग होने के बाद मेडिकल सेमीनारों से कतना चाह रही थी. वह पछता रही थी कि उसने इतनी ज़ल्दी मेडिकल असोसिएशन की मेम्बरशिप क्यों ले ली. वर्ल्ड कप मैच के बाद लेती! इस वज़ह से उसे बेकार में रोज़-रोज़ के सेमीनारों आदि में व्यस्त रहना पड़ता था. वास्तव में! फाइनल मैच चार दिनों बाद होना था जिसकी बेसब्री से प्रतीक्षा करने से मिलने वाली अवर्णनीय खुशी में हम किसी काम की फ़िज़ूल चिंता से खलल नहीं डालने चाहते थे. <br />
<br />
अचानक, कुछ अजीबोगरीब शोर से मेरी नींद उचट गई. मुझे बड़ी झुंझलाहट सी हो रही थी क्योंकि मेरा एक सुन्दर सपना टूट गया था जिसमें मैं भारत और पाकिस्तान के बीच जो मैच देख रहा था, उसमें भारत का पलड़ा भारी पड़ता जा रहा था और वह नि:संदेह! विजय की ओर अग्रसर हो रहा था.<br />
<br />
मै उठकर भीतर आँगन में शोरगुल का जायजा लेने गया तो मम्मी की हालत देखकर हकबका गया. वह बेतहाशा रोने के मूड में लग रही थी. तभी हेमा ने बताया कि डैडी की तबियत ज़्यादा खराब है. वहीं देर से आया ग्वाला भी खड़ा था. दरअसल, उसने कई बार आवाज़ लगाई थी. लेकिन, घर में छाया सन्नाटा देखकर वह आवाज़ लगाता हुआ सीधे डैडी के कमरे में घुस गया था जहां उसने डैडी को बेड के नीचे अचेतावस्था में लुढ़का हुआ औंधे मुंह देखकर प्राय: डर-सा गया था. उसने ही मम्मी को उनकी हालत के बारे में सबसे पहले जानकारी दी थी. वह संभवत: रात से ही वहां पड़े हुए थे. उन्होंने रात को हमें किसी वज़ह से आवाज़ दी होगी जिसे हमने मैच में मस्त होने के कारण नहीं सुना होगा. फिर, उन्होंने उठने की कोशिश की होगी. पर अशक्त होने के कारण गिर पड़े होंगे. दिलचस्प बात यह थी कि हमने सुबह देर से उठने के बावजूद उनके कमरे में जाकर उनकी हालत जानने की जुर्रत महसूस नहीं की. अगर ग्वाला अनजाने में उनके कमरे में दाखिला नहीं हुआ होता तो...<br />
<br />
खैर, हेमा ने अपने नए डाक्टरी अनुभवों का इस्तेमाल कर, हमें तत्काल इत्तला किया कि डैडी की हालत नाज़ुक है और अब उन्हें अस्पताल में अब तो भर्ती करा ही देना चाहिए.<br />
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हमने ड्राइवर की मदद से डैडी को अस्पताल में भर्ती करा ही दिया. उस दिन हम सभी अस्पताल गए. हम सोच रहे थे कि दो-तीन दिनों में डैडी की हालत सम्हल ही जाएगी. फिर, उन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी जाएगी. <br />
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उस दिन उनकी कई जांचें हुईं और सभी में आई रिपोर्टें चिंताजनक थीं. खून में शूगर की मात्रा बहुत बढ़ गई थी. रक्तचाप भी इतना बढ़ गया था कि उनका उपचार कर रहे डा. श्रीवास्तव के माथे पर बार-बार बल पड़ जा रहे थे. करीब एक बजे रात को जब उन्हें सांस लेने में दिक्कत-सी होने लगी तो डाक्टर ने तत्काल नर्स को तलब कर कृत्रिम आक्सीजन की व्यवस्था कर दी. यह सब देख, मम्मी चिंता में पड़ गईं कि शायद, अस्पताल में हफ़्तों लग सकते हैं. वह उनके बगल में बैठकर लगातार ग्लूकोज़ की बोतल पर नज़रें गड़ाई हुईं थी. वह बार-बार वहां बेताबी से लगातार चहलकदमी कर रहे भाईसाहब को सवालिया नज़रों से पूछना चाह रही थीं कि बोतल का पानी इतना धीमे-धीमे क्यों चढ़ाया जा रहा है, एकसाथ उनकी नसों में क्यों नहीं उड़ेल दिया जा रहा है. उनकी इस उधेड़बुन पर मेरा मन बेहद खीझ रहा था. आखिर सभी क्यों चाह रहे थे कि जबकि डैडी तीन सालों से लगातार रुग्ण चल रहे हैं, वे अति शीघ्र ठीक हो जाएं! या यूं कही कि हम सभी किसी तरह डैडी के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से किनारा करना चाह रहे थे. <br />
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contd./--</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A4%B2_%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%9F%E0%A4%AE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5270डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव2011-03-23T09:28:57Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
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<div>'''डिस्पोजेबल आइटम'''<br />
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डैड की बीमारी पर किसे खुंदक नहीं थी? उन खबीस को भी ऐसी लाइलाज बीमारी तभी लगनी थी जबकि इतना दिलचस्प क्रिकेट मैच चल रहा था! वह मैच भी कोई मामूली मैच नहीं था. वर्ल्ड कप का मैच था. भारत और पाकिस्तान के बीच सीधा मुकाबला था. इसलिए, मेरा घर ही क्या, सारा मोहल्ला क्रिकेटमय था. मोहल्ले से निकलकर सड़क पर आने के बाद चाहे किसी बस की सवारी की जाए या बाजार में चहलक़दमी की जाए, क्रिकेट की चर्चा हर जुबान पर थी. चाय-पान की गुमटियों से लेकर शहर के चप्पे-चप्पे पर लोगबाग इस वर्ल्डकप को लेकर बहसा-बहसी में जमे हुए थे. मेरे आफिस में भी इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर गलाफोड़ तकरार जारी था. कभी-कभार यह तकरार झगड़ा-फसाद का भी रूप ले लेता था. मेरे आफिस वाले ही क्या, दूसरे कार्यालयों के अधिकारी-कर्मचारी भी छुट्टियां लेकर अपने-अपने घरों में टी० वी० सेटों के आगे वर्ल्ड कप के मैचों का सीधा प्रसारण देखने में जमे हुए थे. ऐसे में ऐसा लगता था कि जैसे सारी दुनिया को क्रिकेट के सिवाय कोई और काम नहीं है. बेशक! मेरा घर भी इस टूर्नामेंट का लुत्फ़ उठाने में जुटा हुआ था--घर के सारे कामकाज को ताक पर रखकर. यहाँ तक कि लोगबाग ने खुद को शौच, स्नान आदि को भी गैर-ज़रूरी समझ, चाय-नाश्ता, खाने-पीने तक ही सीमित कर रखा था. हमें तो यह भी चिंता नहीं थी कि घर में बीमार डैडी की तीमारदारी में सभी को जुट जाना चाहिए ताकि वह ज़ल्दी से भले-चंगे होकर किसी अनिष्ट की आशंका से हमें मुक्त कर दें! घरेलू डाक्टर अष्ठाना ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि अगर उन्हें वक़्त पर दवाइयां नहीं दी गईं और उनकी हालत पर खास निगरानी नहीं रखी गई तो उनकी बीमारी जानलेवा भी हो सकती है. <br />
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शायद, डैडी रोमांचक क्रिकेट का परवान चढ़ते जा रहे थे. यों तो, उन्हें भी क्रिकेट मैचों में बेइन्तेहाँ दिलचस्पी रही है; लेकिन, इस बीमारी के कारण उन्हें वर्ल्ड कप मैचों का मजा न ले पाने की भीतर ही भीतर बेहद कसक होगी, जिसे वे व्यक्त नहीं कर पा रहे होंगे. आखिर, उनके जीर्ण-शीर्ण शरीर में मैचों का आनंद लेने का दमखम कहाँ रहा? <br />
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भारत के फ़ाइनल में पहुंचते ही सभी ने अपनी दिनचर्या को भी किनारे कर दिया. रात को डैडी की देखभाल के लिए किसी को भी अपनी नींद हराम करना गवांरा नहीं था. उधर डैडी कराहते रहते और इधर हम गहरे नींद में खर्राटे भर रहे होते. कई बार तो वह पानी-पानी की रट लगाते रहते; पर, कोई उठने का नाम तक नहीं लेता. ऐसे वक़्त में मम्मी की ज़िम्मेदारी बनती थी कि वह उनके दुःख-दर्द में हाथ बंटाने के लिए उनके सामने मौजूद रहतीं. हमें भी संतोष होता! क्योंकि हमें उनकी सेवा करने की नैतिक दुविधा से मुक्ति मिल जाती--'चलो! हमें डैडी की सेवा करने न करने में धर्म-संकट में फ़िज़ूल नहीं पड़ना पड़ा.'<br />
<br />
जब वर्ल्ड कप की सनसनीखेज़ पारियां रात को शुरू हुईं तो हम सभी की आँखों से नींद ऐसे गायब हो गई जैसे गधे के सिर से सींग. डैडी के बेडरूम में जो ब्लैक एंड व्हाइट टी० वी० लगी हुई महीनों से सीलन खा रही थी (क्योंकि उन्होंने बीमारी के कारण काफी समय से टी०वी० देखना बंद कर दिया था), उसे मेरी बहन हेमा अपने कमरे में उठा ले गयी थी ताकि वह अकेले में मैचों का बेखट मजा ले सके. हमने भी टी०वी० पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित करने के साथ-साथ कानोप्न से मिनी ट्रांजिस्टर चिपका रहा था. <br />
<br />
यह स्थिति और भी भयावह थी. अगर रात को दवा-दारू के अभाव में डैडी के प्राण भी निकल जाते तो उसकी खबर सवेरे ही मिलाती. क्योंकि देर रात तक मैच के ख़त्म होने के बाद हम तत्काल बिस्तरों पर सो जाते थे और सुबह हमारी नींद तब खुलती थी जबकि महरी या ग्वाला दरवाज़ा खटखटाते थे. <br />
<br />
दो दिनों से मैं भी आफिस नहीं जा रहा था. जब तक लीग मैच होते रहे, मैंने आफिस में पाकिट ट्रांजिस्टर से ही काम चलाया. बीच-बीच में अपनी पत्नी सुधा को घर पर फोन करके मैच के बारे में ताजा स्थिति की जानकारी लेकर ही संतोष कर लेता! लेकिन, जब भारत ने साउथ अफ्रीका को सेमी फाइनल में पीटकर फाइनल में प्रवेश पा लिया तो मैंने अपने जूनियर को सेक्शन का चार्ज सौंप कर छुट्टी मार ली. मेरे खाते में छुट्टियों का हमेशा अभाव रहा है जिसके चलते डैडी की हालत बेहद गंभीर होने के बावजूद मैं उन्हें खुद कई बार डाक्टर के पास नहीं ले जा सका और उन्हें ड्राइवर के भरोसे छोड़ कर अपनी ड्यूटी पर निकल पड़ा. <br />
<br />
उस दिन फाइनल में पहुँचने के लिए सेमी फ़ाइनल का मुकाबला पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया के बीच था. सारा देश पाकिस्तान के हारने की उम्मीद लगाए बैठा था क्योंकि लोगों को यकीन था कि अगर फाइनल में भारत का सामना पाकिस्तान से हुआ तो उसके जीतने की आशा धूमिल पड़ जाएगी. मेरे घर में भी सभी, सब कुछ छोड़कर यह प्रार्थना करने में जुटे हुए थे कि काश! पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया के हाथों चारों खाना चित्त हो जाता. <br />
<br />
पता नहीं क्यों? पाकिस्तान के खिलाफ खेलते हुए न केवल हमारे खिलाड़ियों का मनोबल आधा हो जाता है, बल्कि हम भी अपनी हार माँ बैठते हैं. <br />
<br />
सुबह जब मम्मी नहा-धोकर रोज़ की तरह मंदिर को दर्शन करने निकलीं तो हम सोच रहे थे कि वह मंदिर में जाकर ईश्वर से डैड के रोगमुक्त होने के लिए प्रार्थनाएं करेंगी. लेकिन, मंदिर से वापस आते ही वह मरीजखाने में डैड के पास जाने के बजाए सीधे ड्राइंग रूम में तशरीफ़ लाईन जहां भाईसाहब और मेरे बीच इस बाबत जोरदार बहस छिड़ी हुई थी कि सेमी फाइनल में कौन जीतेगा--पाकिस्तान या आस्ट्रेलिया. भाईसाहब तो पाकिस्तान द्वारा सेमी फाइनल में पूर्व वर्ल्ड कप चैम्पियन--आस्ट्रेलिया को शिकस्त दिए जाने के पक्ष में दनादन तर्क दिए जा रहे थे जबकि मेरे द्वारा आस्ट्रेलिया को जिताने के लिए दी जाने वाली सारी दलीलें हल्की पड़ती जा रही थीं. <br />
<br />
बेशक! उस वाक् युद्ध में मैं अपनी हार से बेहद मायूस होता जा रहा था. वहां मौजूद मेरी पत्नी सुधा को भी इससे बड़ा कोफ़्त हो रहा था. मुझे उसके सामने अपनी मात से और भी ज़्यादा आत्मग्लानि हो रही थी. वह भी चाहती थी कि भले ही पाकिस्तान क्रिकेट के मैदान में आस्ट्रेलिया को धूल चटा दे, लेकिन भाईसाहब से तर्क-कुतर्क में मैं मात न खाऊँ. बहरहाल, मुझे अपनी बहन--हेमा पर अत्यंत क्रोध आ रहा था जो बिलावज़ह भाईसाहब का पक्ष ले रही थी और वह भी बड़ी चुटकियाँ ले-लेकर. उसकी व्यंग्य-मुस्कान से यह साफ ज़ाहिर हो रहा था कि वह मुझे चिढ़ाना ज़्यादा चाह रही है और पाकिस्तान को जिताना कम. अन्यथा, वह छोटी बहन होने के बावजूद, भाई साहब को आदतन यह सबक देने की गुस्ताखी तो जरूर करती कि 'भैया, क्रिकेट जैसे पेंचीदे विषय से आपका क्या लेना-देना? जाइए, आप किसी मुकदमे की गुत्थी तलाशिए. वकालत के पेशे वालों को क्रिकेट में कतई दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए.'<br />
<br />
लिहाजा, मुझे यह सोचकर बड़ा सुकून मिला कि चलो, कम से कम मेरे घर में एक तो ऐसा बन्दा है जो क्रिकेट को गंभीरतापूर्वक न लेकर मजाकिया लहजे में ले रहा है. मैं भी इस विश्व कप में भले ही दिलचस्पी ले रहा था, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर मैं क्रिकेट जैसे खेल का आलोचक रहा हूँ. क्योंकि जब कोई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच होता है तो सारे देश की हालत नाबदान में ठहरे हुए पानी जैसी हो जाती है. घर, खेत-खलिहानों, कल-कारखानों, दफ्तरों आदि में सारी गतिविधियाँ ठप्प पड़ जाती हैं. सोचिए, जितने दिन क्रिकेट मैच होता है, देश की कितनी श्रम-ऊर्जा निष्क्रिय होकर व्यर्थ जाती होगी! कितना आर्थिक नुकसान होता होगा!<br />
<br />
बहरहाल, मम्मी के आते ही बहसा-बहसी की फिजां ही बदल गई. सारा पासा ही पलट गया. मंदिर से आने के बाद उनकी बातों में बड़ा दम आ गया था. आखिर, उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ ईश्वर से जो मन्नतें मानी थी, वे व्यर्थ थोड़े ही जाने वाली थी. सो, जब पाकिस्तान भाई साहब को आड़े हाथन लिया तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. उस पल, ऐसा लगा कि जैसे आस्ट्रेलिया के हाथों पाकिस्तान का हारना तय है.<br />
<br />
उस रात, हमने यह निश्चय किया कि हम सब दालान में बैठकर टी.वी. देखेंगे और पाकिस्तान को हारते हुए देखने का असली मज़ा लेंगे. सुधा ने वहीं एक टेबल पर स्टोव, केतली और चाय बनाने का सारा सामान भी जमा कर दिया था ताकि बीच-बीच में चाय पीते हुए मैच देखने का असली लुत्फ़ उठाया जाए. भाई साहब ने पाकिस्तान की जीत को सेलीब्रेट करने के लिए पटाखे छोड़ने का इंतजाम पहले से कर लिया था. मैंने आस्ट्रेलिया की जीत के उपलक्ष्य में ऐसा कुछ भी न करने का इंतजाम किया था. क्योंकि मन ही मन मैं भी आस्ट्रेलिया के हारने के भय से मुक्त नहीं हो पाया था. <br />
<br />
डिनर के बाद, सभी दालान में तशरीफ़ लाए. हेमा भी आ गई. इस दिन वह अकेले मैच देखने से बाज आ रही थी. उसने आते ही अपना आसन भाईसाहब के बगल में जमाया. वह मुझे व्यंग्यपूर्वक देखते हुए भाईसाहब के गुट में शामिल होने का अहसास दिला रही थी. अगर मायके से भाभी आ गयी होतीं तो वह नि:संदेह उनके पल्लू में बैठती. तब, मेरा मनोबल और भी गिर जाता. क्योंकि जब भाईसाहब, भाभी और छोटी बहन की तिकड़ी साथ-साथ बैठती थी तो मैं कोई वाक् युद्ध छेड़ने से पहले ही भींगी बिल्ली बन जाता था. मेरी पत्नी तो बहस में एकदम फिसड्डी थी. सही तर्क न दे पाने के कारण वह बेपेंदे के लोटे की तरह फिस्स मुस्कराकर किसी भे ओर लुढ़क कर उसका पलड़ा भारी कर देती थी. <br />
<br />
आखिर में पानदान लटकाए हुए और ताजे पान की गिलौरी चबाते हुए मम्मी ने बिलकुल टी.वी. के सामने दीवान के ऊपर मसनद पर बड़े आराम से दस्तक दिया. उनके हावभाव में बड़ा सुकून था. क्योंकि उन्होंने कुछ क्षण पहले डैडी के कमरे में जाकर उनके सिरहाने स्टूल पर दवाइयां, चम्मच, कटोरी, गिलास और जग में पानी रखते हुए और उन्हें जोर से झकझोरते हुए चिल्ला-चिल्लाकर बता दिया था कि रात को वे याद कर सारी दवाइयां समय से ले लेंगे वरना रोग लाइलाज हो जाएगा. साथ में यह चेतावनी भी दे दी कि वे फ़िज़ूल में बच्चों की तरह शोर मचा-मचाकर हमारे क्रिकेट मैच का मज़ा किरकिरा नहीं करेंगे और सुबह ग्वाले के आने तक हमारे जगने की प्रतीक्षा करेंगे. पता नहीं, उन्होंने मम्मी की बातें ठीक-ठीक सुनी भी थीं, या नहीं. पर, मम्मी अपना पत्नी-सुलभ फ़र्ज़ अदाकार पूरी तरह आश्वस्त नज़र आ रही थीं. हम सभी ने भी उनके चेहरे पर आत्मसंतोष का जो भाव देखा, उससे हम डैडी की ओर से बेफिक्र होकर मैच में पूरी तरह खोने को तैयार हो गए.<br />
<br />
बेशक! मैच बड़ा रोमांचक था. आस्ट्रेलिया ने टास जीत कर, पहले बल्लेबाजी की और पूरे ३०९ रन का विशाल स्कोर खड़ा किया. भाई साहब के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. और हमलोग खूब खिल्लियाँ उड़ा रहे थे. हम इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थे कि पाकिस्तान चाहे जितना भी जोर लगा ले, वह इतना विशाल स्कोर खड़ा नहीं कर सकता. इस बीच मम्मी कम से कम तीन-चार दफे उठकर आँगन में गई थीं और तुलसी के गमले में रखे शिवलिंग पर बार-बार मत्था टेक आई थीं. लिहाजा, जब पाकिस्तान ने लगभग १४-१५ रन की औसत से धुआंधार बल्लेबाजी शुरू की तो हमलोगों के मुंह से सिसकारी भी निकलनी बंद हो गई. जब तक आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज पाकिस्तानी गेंदबाजों के छक्के छुडाते रहे, हम विस्फोटक हंसी हंसते रहे और भाईसाहब को व्यंग्य-बाण से आहत करते रहे. लेकिन, पाकिस्तान द्वारा धुआंधार बल्लेबाजी देखकर हमें विश्वास होता गया कि उसका मैच जीतना कोई टेढ़ी खीर नहीं है. चूंकि उसके चार सलामी बल्लेबाज पवेलियन वापिस लौट चुके थे; लेकिन, उसकी रन बनाने की गति में कोई कमी नहीं आई थी.भाईसाहब का गुट फिर उत्तेजना में आ गया था. पाकिस्तान के अन्तिम क्रम के बल्लेबाज भी मशीन की तरह रन बना रहे थे. उस दरमियान, मम्मी फिर उठकर शिवलिंग के आगे सिर झुकाने नहीं गईं. मेरी पोतनी सुधा ने आँख मूँद कर भगवान से पाकिस्तान की पराजय नहीं माँगी. मैंने लज्जावश भाईसाहब से नज़रें हटा-हटाकर मिलाईं. <br />
<br />
शायद, भगवान में से विश्वास खोने का का दुष्परिणाम कुछ ऐसा हुआ कि अंत में, पाकिस्तान के दसवें क्रम पर आए बल्लेबाज के छक्के ने आस्ट्रेलिया को फाइनल से बाहर कर दिया.<br />
<br />
भाईसाहब ने जमकर पटाखे छोड़े. उन्होंने यह भी चिंता की कि इससे बीमार डैडी को बेहद तकलीफ हो सकती है. सायद, उन्हें इस बारे में कुछ याद ही नहीं रहा. ऐसे जोश में होश कहाँ रहता है ?<br />
<br />
सुबह जब धूप इतनी तेज हो गई कि हमारा सिर दर्द से फटने लगा, तब कहीं जाकर हमारी नीद खुली. हम पहले ही उठ गए होते. लेकिन, उस दिन महरी छुट्टी पर थी और संयोगवश, ग्वाला भी किसी वज़ह से नौ बजे तक नहीं आया था. अन्यथा, उनमें से किसी के दस्तक देने से हम पहले ही जग गए होते. कहीं हमें खराई न मार दे, इसलिए सुधा ने बासी दूध से ही चाय बनाई और हमें डाइनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए बुलाया गया. चाय-नाश्ता कर चुकने के बाद मैंने फिर अपने बेडरूम में जाकर खिड़कियाँ बंद की और बिस्तर पर पसर गया. मम्मी तो नहाने-धोने गुशालाखाने में चली गई थी. लेकिन, मुझसे किसी ने यह भी नहीं पूछा कि तुम्हें आफिस जाना है या नहीं. क्योंकि सभी को मालूम था कि मई अनिश्चित काल के लिए टायफायड का बहाना बनाकर छुट्टी पर हूँ और आफिस तभी जाऊंगा जबकि वर्ल्ड कप मैच समाप्त होगा. भाईसाहब की कचहरी में पहले से ही हड़ताल चल रही थी जिस कारण, वह भी बड़ी तबियत से फाइनल मैच के होने की प्रतीक्षा कर रहे थे. रही छोटी बहन हेमा... तो वह अपने आख़िरी सेमेस्टर के पेपर्स से फारिग होने के बाद मेडिकल सेमीनारों से कतना चाह रही थी. वह पछता रही थी कि उसने इतनी ज़ल्दी मेडिकल असोसिएशन की मेम्बरशिप क्यों ले ली. वर्ल्ड कप मैच के बाद लेती! इस वज़ह से उसे बेकार में रोज़-रोज़ के सेमीनारों आदि में व्यस्त रहना पड़ता था. वास्तव में! फाइनल मैच चार दिनों बाद होना था जिसकी बेसब्री से प्रतीक्षा करने से मिलने वाली अवर्णनीय खुशी में हम किसी काम की फ़िज़ूल चिंता से खलल नहीं डालने चाहते थे. <br />
<br />
अचानक, कुछ अजीबोगरीब शोर से मेरी नींद उचट गई. मुझे बड़ी झुंझलाहट सी हो रही थी क्योंकि मेरा एक सुन्दर सपना टूट गया था जिसमें मैं भारत और पाकिस्तान के बीच जो मैच देख रहा था, उसमें भारत का पलड़ा भारी पड़ता जा रहा था और वह नि:संदेह! विजय की ओर अग्रसर हो रहा था.<br />
<br />
मै उठकर भीतर आँगन में शोरगुल का जायजा लेने गया तो मम्मी की हालत देखकर हकबका गया. वह बेतहाशा रोने के मूड में लग रही थी. तभी हेमा ने बताया कि डैडी की तबियत ज़्यादा खराब है. वहीं देर से आया ग्वाला भी खड़ा था. दरअसल, उसने कई बार आवाज़ लगाई थी. लेकिन, घर में छाया सन्नाटा देखकर वह आवाज़ लगाता हुआ सीधे डैडी के कमरे में घुस गया था जहां उसने डैडी को बेड के नीचे अचेतावस्था में लुढ़का हुआ औंधे मुंह देखकर प्राय: डर-सा गया था. उसने ही मम्मी को उनकी हालत के बारे में सबसे पहले जानकारी दी थी. वह संभवत: रात से ही वहां पड़े हुए थे. उन्होंने रात को हमें किसी वज़ह से आवाज़ दी होगी जिसे हमने मैच में मस्त होने के कारण नहीं सुना होगा. फिर, उन्होंने उठने की कोशिश की होगी. पर अशक्त होने के कारण गिर पड़े होंगे. दिलचस्प बात यह थी कि हमने सुबह देर से उठने के बावजूद उनके कमरे में जाकर उनकी हालत जानने की जुर्रत महसूस नहीं की. अगर ग्वाला अनजाने में उनके कमरे में दाखिला नहीं हुआ होता तो...<br />
<br />
contd./--</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A4%B2_%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%9F%E0%A4%AE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5269डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव2011-03-23T06:44:01Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div>'''डिस्पोजेबल आइटम'''<br />
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डैड की बीमारी पर किसे खुंदक नहीं थी? उन खबीस को भी ऐसी लाइलाज बीमारी तभी लगनी थी जबकि इतना दिलचस्प क्रिकेट मैच चल रहा था! वह मैच भी कोई मामूली मैच नहीं था. वर्ल्ड कप का मैच था. भारत और पाकिस्तान के बीच सीधा मुकाबला था. इसलिए, मेरा घर ही क्या, सारा मोहल्ला क्रिकेटमय था. मोहल्ले से निकलकर सड़क पर आने के बाद चाहे किसी बस की सवारी की जाए या बाजार में चहलक़दमी की जाए, क्रिकेट की चर्चा हर जुबान पर थी. चाय-पान की गुमटियों से लेकर शहर के चप्पे-चप्पे पर लोगबाग इस वर्ल्डकप को लेकर बहसा-बहसी में जमे हुए थे. मेरे आफिस में भी इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर गलाफोड़ तकरार जारी था. कभी-कभार यह तकरार झगड़ा-फसाद का भी रूप ले लेता था. मेरे आफिस वाले ही क्या, दूसरे कार्यालयों के अधिकारी-कर्मचारी भी छुट्टियां लेकर अपने-अपने घरों में टी० वी० सेटों के आगे वर्ल्ड कप के मैचों का सीधा प्रसारण देखने में जमे हुए थे. ऐसे में ऐसा लगता था कि जैसे सारी दुनिया को क्रिकेट के सिवाय कोई और काम नहीं है. बेशक! मेरा घर भी इस टूर्नामेंट का लुत्फ़ उठाने में जुटा हुआ था--घर के सारे कामकाज को ताक पर रखकर. यहाँ तक कि लोगबाग ने खुद को शौच, स्नान आदि को भी गैर-ज़रूरी समझ, चाय-नाश्ता, खाने-पीने तक ही सीमित कर रखा था. हमें तो यह भी चिंता नहीं थी कि घर में बीमार डैडी की तीमारदारी में सभी को जुट जाना चाहिए ताकि वह ज़ल्दी से भले-चंगे होकर किसी अनिष्ट की आशंका से हमें मुक्त कर दें! घरेलू डाक्टर अष्ठाना ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि अगर उन्हें वक़्त पर दवाइयां नहीं दी गईं और उनकी हालत पर खास निगरानी नहीं रखी गई तो उनकी बीमारी जानलेवा भी हो सकती है. <br />
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शायद, डैडी रोमांचक क्रिकेट का परवान चढ़ते जा रहे थे. यों तो, उन्हें भी क्रिकेट मैचों में बेइन्तेहाँ दिलचस्पी रही है; लेकिन, इस बीमारी के कारण उन्हें वर्ल्ड कप मैचों का मजा न ले पाने की भीतर ही भीतर बेहद कसक होगी, जिसे वे व्यक्त नहीं कर पा रहे होंगे. आखिर, उनके जीर्ण-शीर्ण शरीर में मैचों का आनंद लेने का दमखम कहाँ रहा? <br />
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भारत के फ़ाइनल में पहुंचते ही सभी ने अपनी दिनचर्या को भी किनारे कर दिया. रात को डैडी की देखभाल के लिए किसी को भी अपनी नींद हराम करना गवांरा नहीं था. उधर डैडी कराहते रहते और इधर हम गहरे नींद में खर्राटे भर रहे होते. कई बार तो वह पानी-पानी की रट लगाते रहते; पर, कोई उठने का नाम तक नहीं लेता. ऐसे वक़्त में मम्मी की ज़िम्मेदारी बनती थी कि वह उनके दुःख-दर्द में हाथ बंटाने के लिए उनके सामने मौजूद रहतीं. हमें भी संतोष होता! क्योंकि हमें उनकी सेवा करने की नैतिक दुविधा से मुक्ति मिल जाती--'चलो! हमें डैडी की सेवा करने न करने में धर्म-संकट में फ़िज़ूल नहीं पड़ना पड़ा.'<br />
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जब वर्ल्ड कप की सनसनीखेज़ पारियां रात को शुरू हुईं तो हम सभी की आँखों से नींद ऐसे गायब हो गई जैसे गधे के सिर से सींग. डैडी के बेडरूम में जो ब्लैक एंड व्हाइट टी० वी० लगी हुई महीनों से सीलन खा रही थी (क्योंकि उन्होंने बीमारी के कारण काफी समय से टी०वी० देखना बंद कर दिया था), उसे मेरी बहन हेमा अपने कमरे में उठा ले गयी थी ताकि वह अकेले में मैचों का बेखट मजा ले सके. हमने भी टी०वी० पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित करने के साथ-साथ कानोप्न से मिनी ट्रांजिस्टर चिपका रहा था. <br />
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यह स्थिति और भी भयावह थी. अगर रात को दवा-दारू के अभाव में डैडी के प्राण भी निकल जाते तो उसकी खबर सवेरे ही मिलाती. क्योंकि देर रात तक मैच के ख़त्म होने के बाद हम तत्काल बिस्तरों पर सो जाते थे और सुबह हमारी नींद तब खुलती थी जबकि महरी या ग्वाला दरवाज़ा खटखटाते थे. <br />
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दो दिनों से मैं भी आफिस नहीं जा रहा था. जब तक लीग मैच होते रहे, मैंने आफिस में पाकिट ट्रांजिस्टर से ही काम चलाया. बीच-बीच में अपनी पत्नी सुधा को घर पर फोन करके मैच के बारे में ताजा स्थिति की जानकारी लेकर ही संतोष कर लेता! लेकिन, जब भारत ने साउथ अफ्रीका को सेमी फाइनल में पीटकर फाइनल में प्रवेश पा लिया तो मैंने अपने जूनियर को सेक्शन का चार्ज सौंप कर छुट्टी मार ली. मेरे खाते में छुट्टियों का हमेशा अभाव रहा है जिसके चलते डैडी की हालत बेहद गंभीर होने के बावजूद मैं उन्हें खुद कई बार डाक्टर के पास नहीं ले जा सका और उन्हें ड्राइवर के भरोसे छोड़ कर अपनी ड्यूटी पर निकल पड़ा. <br />
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उस दिन फाइनल में पहुँचने के लिए सेमी फ़ाइनल का मुकाबला पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया के बीच था. सारा देश पाकिस्तान के हारने की उम्मीद लगाए बैठा था क्योंकि लोगों को यकीन था कि अगर फाइनल में भारत का सामना पाकिस्तान से हुआ तो उसके जीतने की आशा धूमिल पड़ जाएगी. मेरे घर में भी सभी, सब कुछ छोड़कर यह प्रार्थना करने में जुटे हुए थे कि काश! पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया के हाथों चारों खाना चित्त हो जाता. <br />
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पता नहीं क्यों? पाकिस्तान के खिलाफ खेलते हुए न केवल हमारे खिलाड़ियों का मनोबल आधा हो जाता है, बल्कि हम भी अपनी हार माँ बैठते हैं. <br />
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सुबह जब मम्मी नहा-धोकर रोज़ की तरह मंदिर को दर्शन करने निकलीं तो हम सोच रहे थे कि वह मंदिर में जाकर ईश्वर से डैड के रोगमुक्त होने के लिए प्रार्थनाएं करेंगी. लेकिन, मंदिर से वापस आते ही वह मरीजखाने में डैड के पास जाने के बजाए सीधे ड्राइंग रूम में तशरीफ़ लाईन जहां भाईसाहब और मेरे बीच इस बाबत जोरदार बहस छिड़ी हुई थी कि सेमी फाइनल में कौन जीतेगा--पाकिस्तान या आस्ट्रेलिया. भाईसाहब तो पाकिस्तान द्वारा सेमी फाइनल में पूर्व वर्ल्ड कप चैम्पियन--आस्ट्रेलिया को शिकस्त दिए जाने के पक्ष में दनादन तर्क दिए जा रहे थे जबकि मेरे द्वारा आस्ट्रेलिया को जिताने के लिए दी जाने वाली सारी दलीलें हल्की पड़ती जा रही थीं. <br />
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बेशक! उस वाक् युद्ध में मैं अपनी हार से बेहद मायूस होता जा रहा था. वहां मौजूद मेरी पत्नी सुधा को भी इससे बड़ा कोफ़्त हो रहा था. मुझे उसके सामने अपनी मात से और भी ज़्यादा आत्मग्लानि हो रही थी. वह भी चाहती थी कि भले ही पाकिस्तान क्रिकेट के मैदान में आस्ट्रेलिया को धूल चटा दे, लेकिन भाईसाहब से तर्क-कुतर्क में मैं मात न खाऊँ. बहरहाल, मुझे अपनी बहन--हेमा पर अत्यंत क्रोध आ रहा था जो बिलावज़ह भाईसाहब का पक्ष ले रही थी और वह भी बड़ी चुटकियाँ ले-लेकर. उसकी व्यंग्य-मुस्कान से यह साफ ज़ाहिर हो रहा था कि वह मुझे चिढ़ाना ज़्यादा चाह रही है और पाकिस्तान को जिताना कम. अन्यथा, वह छोटी बहन होने के बावजूद, भाई साहब को आदतन यह सबक देने की गुस्ताखी तो जरूर करती कि 'भैया, क्रिकेट जैसे पेंचीदे विषय से आपका क्या लेना-देना? जाइए, आप किसी मुकदमे की गुत्थी तलाशिए. वकालत के पेशे वालों को क्रिकेट में कतई दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए.'<br />
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लिहाजा, मुझे यह सोचकर बड़ा सुकून मिला कि चलो, कम से कम मेरे घर में एक तो ऐसा बन्दा है जो क्रिकेट को गंभीरतापूर्वक न लेकर मजाकिया लहजे में ले रहा है. मैं भी इस विश्व कप में भले ही दिलचस्पी ले रहा था, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर मैं क्रिकेट जैसे खेल का आलोचक रहा हूँ. क्योंकि जब कोई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच होता है तो सारे देश की हालत नाबदान में ठहरे हुए पानी जैसी हो जाती है. घर, खेत-खलिहानों, कल-कारखानों, दफ्तरों आदि में सारी गतिविधियाँ ठप्प पड़ जाती हैं. सोचिए, जितने दिन क्रिकेट मैच होता है, देश की कितनी श्रम-ऊर्जा निष्क्रिय होकर व्यर्थ जाती होगी! कितना आर्थिक नुकसान होता होगा!<br />
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बहरहाल, मम्मी के आते ही बहसा-बहसी की फिजां ही बदल गई. सारा पासा ही पलट गया. मंदिर से आने के बाद उनकी बातों में बड़ा दम आ गया था. आखिर, उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ ईश्वर से जो मन्नतें मानी थी, वे व्यर्थ थोड़े ही जाने वाली थी. सो, जब पाकिस्तान भाई साहब को आड़े हाथन लिया तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. उस पल, ऐसा लगा कि जैसे आस्ट्रेलिया के हाथों पाकिस्तान का हारना तय है.<br />
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उस रात, हमने यह निश्चय किया कि हम सब दालान में बैठकर टी.वी. देखेंगे और पाकिस्तान को हारते हुए देखने का असली मज़ा लेंगे. सुधा ने वहीं एक टेबल पर स्टोव, केतली और चाय बनाने का सारा सामान भी जमा कर दिया था ताकि बीच-बीच में चाय पीते हुए मैच देखने का असली लुत्फ़ उठाया जाए. भाई साहब ने पाकिस्तान की जीत को सेलीब्रेट करने के लिए पटाखे छोड़ने का इंतजाम पहले से कर लिया था. मैंने आस्ट्रेलिया की जीत के उपलक्ष्य में ऐसा कुछ भी न करने का इंतजाम किया था. क्योंकि मन ही मन मैं भी आस्ट्रेलिया के हारने के भय से मुक्त नहीं हो पाया था. <br />
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डिनर के बाद, सभी दालान में तशरीफ़ लाए. हेमा भी आ गई. इस दिन वह अकेले मैच देखने से बाज आ रही थी. उसने आते ही अपना आसन भाईसाहब के बगल में जमाया. वह मुझे व्यंग्यपूर्वक देखते हुए भाईसाहब के गुट में शामिल होने का अहसास दिला रही थी. अगर मायके से भाभी आ गयी होतीं तो वह नि:संदेह उनके पल्लू में बैठती. तब, मेरा मनोबल और भी गिर जाता. क्योंकि जब भाईसाहब, भाभी और छोटी बहन की तिकड़ी साथ-साथ बैठती थी तो मैं कोई वाक् युद्ध छेड़ने से पहले ही भींगी बिल्ली बन जाता था. मेरी पत्नी तो बहस में एकदम फिसड्डी थी. सही तर्क न दे पाने के कारण वह बेपेंदे के लोटे की तरह फिस्स मुस्कराकर किसी भे ओर लुढ़क कर उसका पलड़ा भारी कर देती थी. <br />
<br />
आखिर में पानदान लटकाए हुए और ताजे पान की गिलौरी चबाते हुए मम्मी ने बिलकुल टी.वी. के सामने दीवान के ऊपर मसनद पर बड़े आराम से दस्तक दिया. उनके हावभाव में बड़ा सुकून था. क्योंकि उन्होंने कुछ क्षण पहले डैडी के कमरे में जाकर उनके सिरहाने स्टूल पर दवाइयां, चम्मच, कटोरी, गिलास और जग में पानी रखते हुए और उन्हें जोर से झकझोरते हुए चिल्ला-चिल्लाकर बता दिया था कि रात को वे याद कर सारी दवाइयां समय से ले लेंगे वरना रोग लाइलाज हो जाएगा. साथ में यह चेतावनी भी दे दी कि वे फ़िज़ूल में बच्चों की तरह शोर मचा-मचाकर हमारे क्रिकेट मैच का मज़ा किरकिरा नहीं करेंगे और सुबह ग्वाले के आने तक हमारे जगने की प्रतीक्षा करेंगे. पता नहीं, उन्होंने मम्मी की बातें ठीक-ठीक सुनी भी थीं, या नहीं. पर, मम्मी अपना पत्नी-सुलभ फ़र्ज़ अदाकार पूरी तरह आश्वस्त नज़र आ रही थीं. हम सभी ने भी उनके चेहरे पर आत्मसंतोष का जो भाव देखा, उससे हम डैडी की ओर से बेफिक्र होकर मैच में पूरी तरह खोने को तैयार हो गए.<br />
<br />
बेशक! मैच बड़ा रोमांचक था. आस्ट्रेलिया ने टास जीत कर, पहले बल्लेबाजी की और पूरे ३०९ रन का विशाल स्कोर खड़ा किया. भाई साहब के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. और हमलोग खूब खिल्लियाँ उड़ा रहे थे. हम इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थे कि पाकिस्तान चाहे जितना भी जोर लगा ले, वह इतना विशाल स्कोर खड़ा नहीं कर सकता. इस बीच मम्मी कम से कम तीन-चार दफे उठकर आँगन में गई थीं और तुलसी के गमले में रखे शिवलिंग पर बार-बार मत्था टेक आई थीं. लिहाजा, जब पाकिस्तान ने लगभग १४-१५ रन की औसत से धुआंधार बल्लेबाजी शुरू की तो हमलोगों के मुंह से सिसकारी भी निकलनी बंद हो गई. जब तक आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज पाकिस्तानी गेंदबाजों के छक्के छुडाते रहे, हम विस्फोटक हंसी हंसते रहे और भाईसाहब को व्यंग्य-बाण से आहत करते रहे. लेकिन, पाकिस्तान द्वारा धुआंधार बल्लेबाजी देखकर हमें विश्वास होता गया कि उसका मैच जीतना कोई टेढ़ी खीर नहीं है. चूंकि उसके चार सलामी बल्लेबाज पवेलियन वापिस लौट चुके थे; लेकिन, उसकी रन बनाने की गति में कोई कमी नहीं आई थी.भाईसाहब का गुट फिर उत्तेजना में आ गया था. पाकिस्तान के अन्तिम क्रम के बल्लेबाज भी मशीन की तरह रन बना रहे थे. उस दरमियान, मम्मी फिर उठकर शिवलिंग के आगे सिर झुकाने नहीं गईं. मेरी पोतनी सुधा ने आँख मूँद कर भगवान से पाकिस्तान की पराजय नहीं माँगी. मैंने लज्जावश भाईसाहब से नज़रें हटा-हटाकर मिलाईं. <br />
<br />
शायद, भगवान में से विश्वास खोने का का दुष्परिणाम कुछ ऐसा हुआ कि अंत में, पाकिस्तान के दसवें क्रम पर आए बल्लेबाज के छक्के ने आस्ट्रेलिया को फाइनल से बाहर कर दिया.<br />
<br />
भाईसाहब ने जमकर पटाखे छोड़े. उन्होंने यह भी चिंता की कि इससे बीमार डैडी को बेहद तकलीफ हो सकती है. सायद, उन्हें इस बारे में कुछ याद ही नहीं रहा. ऐसे जोश में होश कहाँ रहता है ?<br />
<br />
सुबह जब धूप इतनी तेज हो गई कि हमारा सिर दर्द से फटने लगा, तब कहीं जाकर हमारी नीद खुली. हम पहले ही उठ गए होते. लेकिन, उस दिन महरी छुट्टी पर थी और संयोगवश, ग्वाला भी किसी वज़ह से नौ बजे तक नहीं आया था. अन्यथा, उनमें से किसी के दस्तक देने से हम पहले ही जग गए होते. कहीं हमें खराई न मार दे, इसलिए सुधा ने बासी दूध से ही चाय बनाई और हमें डाइनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए बुलाया गया. चाय-नाश्ता कर चुकने के बाद मैंने फिर अपने बेडरूम में जाकर खिड़कियाँ बंद की और बिस्तर पर पसर गया. मम्मी तो नहाने-धोने गुशालाखाने में चली गई थी. लेकिन, मुझसे किसी ने यह भी नहीं पूछा कि तुम्हें आफिस जाना है या नहीं. क्योंकि सभी को मालूम था कि मई अनिश्चित काल के लिए टायफायड का बहाना बनाकर छुट्टी पर हूँ और आफिस तभी जाऊंगा जबकि वर्ल्ड कप मैच समाप्त होगा. भाईसाहब की कचहरी में पहले से ही हड़ताल चल रही थी जिस कारण, वह भी बड़ी तबियत से फाइनल मैच के होने की प्रतीक्षा कर रहे थे. रही छोटी बहन हेमा... तो वह अपने आख़िरी सेमेस्टर के पेपर्स से फारिग होने के बाद मेडिकल सेमीनारों से कतना चाह रही थी. वह पछता रही थी कि उसने इतनी ज़ल्दी मेडिकल असोसिएशन की मेम्बरशिप क्यों ले ली. वर्ल्ड कप मैच के बाद लेती! इस वज़ह से उसे बेकार में रोज़-रोज़ के सेमीनारों आदि में व्यस्त रहना पड़ता था. वास्तव में! फाइनल मैच चार दिनों बाद होना था जिसकी बेसब्री से प्रतीक्षा करने से मिलने वाली अवर्णनीय खुशी में हम किसी काम की फ़िज़ूल चिंता से खलल नहीं डालने चाहते थे. contd./--</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A4%B2_%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%9F%E0%A4%AE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5268डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव2011-03-23T06:40:00Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
<hr />
<div>'''डिस्पोजेबल आइटम'''<br />
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डैड की बीमारी पर किसे खुंदक नहीं थी? उन खबीस को भी ऐसी लाइलाज बीमारी तभी लगनी थी जबकि इतना दिलचस्प क्रिकेट मैच चल रहा था! वह मैच भी कोई मामूली मैच नहीं था. वर्ल्ड कप का मैच था. भारत और पाकिस्तान के बीच सीधा मुकाबला था. इसलिए, मेरा घर ही क्या, सारा मोहल्ला क्रिकेटमय था. मोहल्ले से निकलकर सड़क पर आने के बाद चाहे किसी बस की सवारी की जाए या बाजार में चहलक़दमी की जाए, क्रिकेट की चर्चा हर जुबान पर थी. चाय-पान की गुमटियों से लेकर शहर के चप्पे-चप्पे पर लोगबाग इस वर्ल्डकप को लेकर बहसा-बहसी में जमे हुए थे. मेरे आफिस में भी इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर गलाफोड़ तकरार जारी था. कभी-कभार यह तकरार झगड़ा-फसाद का भी रूप ले लेता था. मेरे आफिस वाले ही क्या, दूसरे कार्यालयों के अधिकारी-कर्मचारी भी छुट्टियां लेकर अपने-अपने घरों में टी० वी० सेटों के आगे वर्ल्ड कप के मैचों का सीधा प्रसारण देखने में जमे हुए थे. ऐसे में ऐसा लगता था कि जैसे सारी दुनिया को क्रिकेट के सिवाय कोई और काम नहीं है. बेशक! मेरा घर भी इस टूर्नामेंट का लुत्फ़ उठाने में जुटा हुआ था--घर के सारे कामकाज को ताक पर रखकर. यहाँ तक कि लोगबाग ने खुद को शौच, स्नान आदि को भी गैर-ज़रूरी समझ, चाय-नाश्ता, खाने-पीने तक ही सीमित कर रखा था. हमें तो यह भी चिंता नहीं थी कि घर में बीमार डैडी की तीमारदारी में सभी को जुट जाना चाहिए ताकि वह ज़ल्दी से भले-चंगे होकर किसी अनिष्ट की आशंका से हमें मुक्त कर दें! घरेलू डाक्टर अष्ठाना ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि अगर उन्हें वक़्त पर दवाइयां नहीं दी गईं और उनकी हालत पर खास निगरानी नहीं रखी गई तो उनकी बीमारी जानलेवा भी हो सकती है. <br />
<br />
शायद, डैडी रोमांचक क्रिकेट का परवान चढ़ते जा रहे थे. यों तो, उन्हें भी क्रिकेट मैचों में बेइन्तेहाँ दिलचस्पी रही है; लेकिन, इस बीमारी के कारण उन्हें वर्ल्ड कप मैचों का मजा न ले पाने की भीतर ही भीतर बेहद कसक होगी, जिसे वे व्यक्त नहीं कर पा रहे होंगे. आखिर, उनके जीर्ण-शीर्ण शरीर में मैचों का आनंद लेने का दमखम कहाँ रहा? <br />
<br />
भारत के फ़ाइनल में पहुंचते ही सभी ने अपनी दिनचर्या को भी किनारे कर दिया. रात को डैडी की देखभाल के लिए किसी को भी अपनी नींद हराम करना गवांरा नहीं था. उधर डैडी कराहते रहते और इधर हम गहरे नींद में खर्राटे भर रहे होते. कई बार तो वह पानी-पानी की रट लगाते रहते; पर, कोई उठने का नाम तक नहीं लेता. ऐसे वक़्त में मम्मी की ज़िम्मेदारी बनती थी कि वह उनके दुःख-दर्द में हाथ बंटाने के लिए उनके सामने मौजूद रहतीं. हमें भी संतोष होता! क्योंकि हमें उनकी सेवा करने की नैतिक दुविधा से मुक्ति मिल जाती--'चलो! हमें डैडी की सेवा करने न करने में धर्म-संकट में फ़िज़ूल नहीं पड़ना पड़ा.'<br />
<br />
जब वर्ल्ड कप की सनसनीखेज़ पारियां रात को शुरू हुईं तो हम सभी की आँखों से नींद ऐसे गायब हो गई जैसे गधे के सिर से सींग. डैडी के बेडरूम में जो ब्लैक एंड व्हाइट टी० वी० लगी हुई महीनों से सीलन खा रही थी (क्योंकि उन्होंने बीमारी के कारण काफी समय से टी०वी० देखना बंद कर दिया था), उसे मेरी बहन हेमा अपने कमरे में उठा ले गयी थी ताकि वह अकेले में मैचों का बेखट मजा ले सके. हमने भी टी०वी० पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित करने के साथ-साथ कानोप्न से मिनी ट्रांजिस्टर चिपका रहा था. <br />
<br />
यह स्थिति और भी भयावह थी. अगर रात को दवा-दारू के अभाव में डैडी के प्राण भी निकल जाते तो उसकी खबर सवेरे ही मिलाती. क्योंकि देर रात तक मैच के ख़त्म होने के बाद हम तत्काल बिस्तरों पर सो जाते थे और सुबह हमारी नींद तब खुलती थी जबकि महरी या ग्वाला दरवाज़ा खटखटाते थे. <br />
<br />
दो दिनों से मैं भी आफिस नहीं जा रहा था. जब तक लीग मैच होते रहे, मैंने आफिस में पाकिट ट्रांजिस्टर से ही काम चलाया. बीच-बीच में अपनी पत्नी सुधा को घर पर फोन करके मैच के बारे में ताजा स्थिति की जानकारी लेकर ही संतोष कर लेता! लेकिन, जब भारत ने साउथ अफ्रीका को सेमी फाइनल में पीटकर फाइनल में प्रवेश पा लिया तो मैंने अपने जूनियर को सेक्शन का चार्ज सौंप कर छुट्टी मार ली. मेरे खाते में छुट्टियों का हमेशा अभाव रहा है जिसके चलते डैडी की हालत बेहद गंभीर होने के बावजूद मैं उन्हें खुद कई बार डाक्टर के पास नहीं ले जा सका और उन्हें ड्राइवर के भरोसे छोड़ कर अपनी ड्यूटी पर निकल पड़ा. <br />
<br />
उस दिन फाइनल में पहुँचने के लिए सेमी फ़ाइनल का मुकाबला पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया के बीच था. सारा देश पाकिस्तान के हारने की उम्मीद लगाए बैठा था क्योंकि लोगों को यकीन था कि अगर फाइनल में भारत का सामना पाकिस्तान से हुआ तो उसके जीतने की आशा धूमिल पड़ जाएगी. मेरे घर में भी सभी, सब कुछ छोड़कर यह प्रार्थना करने में जुटे हुए थे कि काश! पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया के हाथों चारों खाना चित्त हो जाता. <br />
<br />
पता नहीं क्यों? पाकिस्तान के खिलाफ खेलते हुए न केवल हमारे खिलाड़ियों का मनोबल आधा हो जाता है, बल्कि हम भी अपनी हार माँ बैठते हैं. <br />
<br />
सुबह जब मम्मी नहा-धोकर रोज़ की तरह मंदिर को दर्शन करने निकलीं तो हम सोच रहे थे कि वह मंदिर में जाकर ईश्वर से डैड के रोगमुक्त होने के लिए प्रार्थनाएं करेंगी. लेकिन, मंदिर से वापस आते ही वह मरीजखाने में डैड के पास जाने के बजाए सीधे ड्राइंग रूम में तशरीफ़ लाईन जहां भाईसाहब और मेरे बीच इस बाबत जोरदार बहस छिड़ी हुई थी कि सेमी फाइनल में कौन जीतेगा--पाकिस्तान या आस्ट्रेलिया. भाईसाहब तो पाकिस्तान द्वारा सेमी फाइनल में पूर्व वर्ल्ड कप चैम्पियन--आस्ट्रेलिया को शिकस्त दिए जाने के पक्ष में दनादन तर्क दिए जा रहे थे जबकि मेरे द्वारा आस्ट्रेलिया को जिताने के लिए दी जाने वाली सारी दलीलें हल्की पड़ती जा रही थीं. <br />
<br />
बेशक! उस वाक् युद्ध में मैं अपनी हार से बेहद मायूस होता जा रहा था. वहां मौजूद मेरी पत्नी सुधा को भी इससे बड़ा कोफ़्त हो रहा था. मुझे उसके सामने अपनी मात से और भी ज़्यादा आत्मग्लानि हो रही थी. वह भी चाहती थी कि भले ही पाकिस्तान क्रिकेट के मैदान में आस्ट्रेलिया को धूल चटा दे, लेकिन भाईसाहब से तर्क-कुतर्क में मैं मात न खाऊँ. बहरहाल, मुझे अपनी बहन--हेमा पर अत्यंत क्रोध आ रहा था जो बिलावज़ह भाईसाहब का पक्ष ले रही थी और वह भी बड़ी चुटकियाँ ले-लेकर. उसकी व्यंग्य-मुस्कान से यह साफ ज़ाहिर हो रहा था कि वह मुझे चिढ़ाना ज़्यादा चाह रही है और पाकिस्तान को जिताना कम. अन्यथा, वह छोटी बहन होने के बावजूद, भाई साहब को आदतन यह सबक देने की गुस्ताखी तो जरूर करती कि 'भैया, क्रिकेट जैसे पेंचीदे विषय से आपका क्या लेना-देना? जाइए, आप किसी मुकदमे की गुत्थी तलाशिए. वकालत के पेशे वालों को क्रिकेट में कतई दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए.'<br />
<br />
लिहाजा, मुझे यह सोचकर बड़ा सुकून मिला कि चलो, कम से कम मेरे घर में एक तो ऐसा बन्दा है जो क्रिकेट को गंभीरतापूर्वक न लेकर मजाकिया लहजे में ले रहा है. मैं भी इस विश्व कप में भले ही दिलचस्पी ले रहा था, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर मैं क्रिकेट जैसे खेल का आलोचक रहा हूँ. क्योंकि जब कोई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच होता है तो सारे देश की हालत नाबदान में ठहरे हुए पानी जैसी हो जाती है. घर, खेत-खलिहानों, कल-कारखानों, दफ्तरों आदि में सारी गतिविधियाँ ठप्प पड़ जाती हैं. सोचिए, जितने दिन क्रिकेट मैच होता है, देश की कितनी श्रम-ऊर्जा निष्क्रिय होकर व्यर्थ जाती होगी! कितना आर्थिक नुकसान होता होगा!<br />
<br />
बहरहाल, मम्मी के आते ही बहसा-बहसी की फिजां ही बदल गई. सारा पासा ही पलट गया. मंदिर से आने के बाद उनकी बातों में बड़ा दम आ गया था. आखिर, उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ ईश्वर से जो मन्नतें मानी थी, वे व्यर्थ थोड़े ही जाने वाली थी. सो, जब पाकिस्तान भाई साहब को आड़े हाथन लिया तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. उस पल, ऐसा लगा कि जैसे आस्ट्रेलिया के हाथों पाकिस्तान का हारना तय है.<br />
<br />
उस रात, हमने यह निश्चय किया कि हम सब दालान में बैठकर टी.वी. देखेंगे और पाकिस्तान को हारते हुए देखने का असली मज़ा लेंगे. सुधा ने वहीं एक टेबल पर स्टोव, केतली और चाय बनाने का सारा सामान भी जमा कर दिया था ताकि बीच-बीच में चाय पीते हुए मैच देखने का असली लुत्फ़ उठाया जाए. भाई साहब ने पाकिस्तान की जीत को सेलीब्रेट करने के लिए पटाखे छोड़ने का इंतजाम पहले से कर लिया था. मैंने आस्ट्रेलिया की जीत के उपलक्ष्य में ऐसा कुछ भी न करने का इंतजाम किया था. क्योंकि मन ही मन मैं भी आस्ट्रेलिया के हारने के भय से मुक्त नहीं हो पाया था. <br />
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डिनर के बाद, सभी दालान में तशरीफ़ लाए. हेमा भी आ गई. इस दिन वह अकेले मैच देखने से बाज आ रही थी. उसने आते ही अपना आसन भाईसाहब के बगल में जमाया. वह मुझे व्यंग्यपूर्वक देखते हुए भाईसाहब के गुट में शामिल होने का अहसास दिला रही थी. अगर मायके से भाभी आ गयी होतीं तो वह नि:संदेह उनके पल्लू में बैठती. तब, मेरा मनोबल और भी गिर जाता. क्योंकि जब भाईसाहब, भाभी और छोटी बहन की तिकड़ी साथ-साथ बैठती थी तो मैं कोई वाक् युद्ध छेड़ने से पहले ही भींगी बिल्ली बन जाता था. मेरी पत्नी तो बहस में एकदम फिसड्डी थी. सही तर्क न दे पाने के कारण वह बेपेंदे के लोटे की तरह फिस्स मुस्कराकर किसी भे ओर लुढ़क कर उसका पलड़ा भारी कर देती थी. <br />
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आखिर में पानदान लटकाए हुए और ताजे पान की गिलौरी चबाते हुए मम्मी ने बिलकुल टी.वी. के सामने दीवान के ऊपर मसनद पर बड़े आराम से दस्तक दिया. उनके हावभाव में बड़ा सुकून था. क्योंकि उन्होंने कुछ क्षण पहले डैडी के कमरे में जाकर उनके सिरहाने स्टूल पर दवाइयां, चम्मच, कटोरी, गिलास और जग में पानी रखते हुए और उन्हें जोर से झकझोरते हुए चिल्ला-चिल्लाकर बता दिया था कि रात को वे याद कर सारी दवाइयां समय से ले लेंगे वरना रोग लाइलाज हो जाएगा. साथ में यह चेतावनी भी दे दी कि वे फ़िज़ूल में बच्चों की तरह शोर मचा-मचाकर हमारे क्रिकेट मैच का मज़ा किरकिरा नहीं करेंगे और सुबह ग्वाले के आने तक हमारे जगने की प्रतीक्षा करेंगे. पता नहीं, उन्होंने मम्मी की बातें ठीक-ठीक सुनी भी थीं, या नहीं. पर, मम्मी अपना पत्नी-सुलभ फ़र्ज़ अदाकार पूरी तरह आश्वस्त नज़र आ रही थीं. हम सभी ने भी उनके चेहरे पर आत्मसंतोष का जो भाव देखा, उससे हम डैडी की ओर से बेफिक्र होकर मैच में पूरी तरह खोने को तैयार हो गए.<br />
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बेशक! मैच बड़ा रोमांचक था. आस्ट्रेलिया ने टास जीत कर, पहले बल्लेबाजी की और पूरे ३०९ रन का विशाल स्कोर खड़ा किया. भाई साहब के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. और हमलोग खूब खिल्लियाँ उड़ा रहे थे. हम इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थे कि पाकिस्तान चाहे जितना भी जोर लगा ले, वह इतना विशाल स्कोर खड़ा नहीं कर सकता. इस बीच मम्मी कम से कम तीन-चार दफे उठकर आँगन में गई थीं और तुलसी के गमले में रखे शिवलिंग पर बार-बार मत्था टेक आई थीं. लिहाजा, जब पाकिस्तान ने लगभग १४-१५ रन की औसत से धुआंधार बल्लेबाजी शुरू की तो हमलोगों के मुंह से सिसकारी भी निकलनी बंद हो गई. जब तक आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज पाकिस्तानी गेंदबाजों के छक्के छुडाते रहे, हम विस्फोटक हंसी हंसते रहे और भाईसाहब को व्यंग्य-बाण से आहत करते रहे. लेकिन, पाकिस्तान द्वारा धुआंधार बल्लेबाजी देखकर हमें विश्वास होता गया कि उसका मैच जीतना कोई टेढ़ी खीर नहीं है. चूंकि उसके चार सलामी बल्लेबाज पवेलियन वापिस लौट चुके थे; लेकिन, उसकी रन बनाने की गति में कोई कमी नहीं आई थी.भाईसाहब का गुट फिर उत्तेजना में आ गया था. पाकिस्तान के अन्तिम क्रम के बल्लेबाज भी मशीन की तरह रन बना रहे थे. उस दरमियान, मम्मी फिर उठकर शिवलिंग के आगे सिर झुकाने नहीं गईं. मेरी पोतनी सुधा ने आँख मूँद कर भगवान से पाकिस्तान की पराजय नहीं माँगी. मैंने लज्जावश भाईसाहब से नज़रें हटा-हटाकर मिलाईं. <br />
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शायद, भगवान में से विश्वास खोने का का दुष्परिणाम कुछ ऐसा हुआ कि अंत में, पाकिस्तान के दसवें क्रम पर आए बल्लेबाज के छक्के ने आस्ट्रेलिया को फाइनल से बाहर कर दिया.<br />
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भाईसाहब ने जमकर पटाखे छोड़े. उन्होंने यह भी चिंता की कि इससे बीमार डैडी को बेहद तकलीफ हो सकती है. सायद, उन्हें इस बारे में कुछ याद ही नहीं रहा. ऐसे जोश में होश कहाँ रहता है ?<br />
<br />
सुबह जब धूप इतनी तेज हो गई कि हमारा सिर दर्द से फटने लगा, तब कहीं जाकर हमारी नीद खुली. हम पहले ही उठ गए होते. लेकिन, उस दिन महरी छुट्टी पर थी और संयोगवश, ग्वाला भी किसी वज़ह से नौ बजे तक नहीं आया था. अन्यथा, उनमें से किसी के दस्तक देने से हम पहले ही जग गए होते. कहीं हमें खराई न मार दे, इसलिए सुधा ने बासी दूध से ही चाय बनाई और हमें डाइनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए बुलाया गया. चाय-नाश्ता कर चुकने के बाद मैंने फिर अपने बेडरूम में जाकर खिड़कियाँ बंद की और बिस्तर पर पसर गया. मम्मी तो नहाने-धोने गुशालाखाने में चली गई थी. लेकिन, मुझसे किसी ने यह भी नहीं पूछा कि तुम्हें आफिस जाना है या नहीं. क्योंकि सभी को मालूम था कि मई अनिश्चित काल के लिए टायफायड का बहाना बनाकर छुट्टी पर हूँ और आफिस तभी जाऊंगा जबकि वर्ल्ड कप मैच समाप्त होगा. भाईसाहब की कचहरी में पहले से ही हड़ताल चल रही थी जिस कारण, वह भी बड़ी तबियत से फाइनल मैच के होने की प्रतीक्षा कर रहे थे. रही छोटी बहन हेमा... तो वह अपने आख़िरी सेमेस्टर के पेपर्स से फारिग होने के बाद मेडिकल सेमीनारों से कतना चाह रही थी. वह पछता रही थी कि उसने इतनी ज़ल्दी मेडिकल असोसिएशन की मेम्बरशिप क्यों ले ली. वर्ल्ड कप मैच के बाद लेती! इस वज़ह से उसे बेकार में रोज़-रोज़ के सेमीनारों आदि में व्यस्त रहना पड़ता था. वास्तव में! फाइनल मैच चार दिनों बाद होना था जिसकी बेसब्री से प्रतीक्षा करने से मिलाने वाली अवर्णनीय खुशी में हम किसी काम की फ़िज़ूल चिंता से खलल नहीं डालने चाहते थे. contd./--</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A4%B2_%E0%A4%86%E0%A4%87%E0%A4%9F%E0%A4%AE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5266डिस्पोजेबल आइटम / मनोज श्रीवास्तव2011-03-22T08:30:25Z<p>Dr. Manoj Srivastav: </p>
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<div>'''डिस्पोजेबल आइटम'''<br />
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डैड की बीमारी पर किसे खुंदक नहीं थी? उन खबीस को भी ऐसी लाइलाज बीमारी तभी लगनी थी जबकि इतना दिलचस्प क्रिकेट मैच चल रहा था! वह मैच भी कोई मामूली मैच नहीं था. वर्ल्ड कप का मैच था. भारत और पाकिस्तान के बीच सीधा मुकाबला था. इसलिए, मेरा घर ही क्या, सारा मोहल्ला क्रिकेटमय था. मोहल्ले से निकलकर सड़क पर आने के बाद चाहे किसी बस की सवारी की जाए या बाजार में चहलक़दमी की जाए, क्रिकेट की चर्चा हर जुबान पर थी. चाय-पान की गुमटियों से लेकर शहर के चप्पे-चप्पे पर लोगबाग इस वर्ल्डकप को लेकर बहसा-बहसी में जमे हुए थे. मेरे आफिस में भी इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर गलाफोड़ तकरार जारी था. कभी-कभार यह तकरार झगड़ा-फसाद का भी रूप ले लेता था. मेरे आफिस वाले ही क्या, दूसरे कार्यालयों के अधिकारी-कर्मचारी भी छुट्टियां लेकर अपने-अपने घरों में टी० वी० सेटों के आगे वर्ल्ड कप के मैचों का सीधा प्रसारण देखने में जमे हुए थे. ऐसे में ऐसा लगता था कि जैसे सारी दुनिया को क्रिकेट के सिवाय कोई और काम नहीं है. बेशक! मेरा घर भी इस टूर्नामेंट का लुत्फ़ उठाने में जुटा हुआ था--घर के सारे कामकाज को ताक पर रखकर. यहाँ तक कि लोगबाग ने खुद को शौच, स्नान आदि को भी गैर-ज़रूरी समझ, चाय-नाश्ता, खाने-पीने तक ही सीमित कर रखा था. हमें तो यह भी चिंता नहीं थी कि घर में बीमार डैडी की तीमारदारी में सभी को जुट जाना चाहिए ताकि वह ज़ल्दी से भले-चंगे होकर किसी अनिष्ट की आशंका से हमें मुक्त कर दें! घरेलू डाक्टर अष्ठाना ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि अगर उन्हें वक़्त पर दवाइयां नहीं दी गईं और उनकी हालत पर खास निगरानी नहीं रखी गई तो उनकी बीमारी जानलेवा भी हो सकती है. <br />
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शायद, डैडी रोमांचक क्रिकेट का परवान चढ़ते जा रहे थे. यों तो, उन्हें भी क्रिकेट मैचों में बेइन्तेहाँ दिलचस्पी रही है; लेकिन, इस बीमारी के कारण उन्हें वर्ल्ड कप मैचों का मजा न ले पाने की भीतर ही भीतर बेहद कसक होगी, जिसे वे व्यक्त नहीं कर पा रहे होंगे. आखिर, उनके जीर्ण-शीर्ण शरीर में मैचों का आनंद लेने का दमखम कहाँ रहा? <br />
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भारत के फ़ाइनल में पहुंचते ही सभी ने अपनी दिनचर्या को भी किनारे कर दिया. रात को डैडी की देखभाल के लिए किसी को भी अपनी नींद हराम करना गवांरा नहीं था. उधर डैडी कराहते रहते और इधर हम गहरे नींद में खर्राटे भर रहे होते. कई बार तो वह पानी-पानी की रट लगाते रहते; पर, कोई उठने का नाम तक नहीं लेता. ऐसे वक़्त में मम्मी की ज़िम्मेदारी बनती थी कि वह उनके दुःख-दर्द में हाथ बंटाने के लिए उनके सामने मौजूद रहतीं. हमें भी संतोष होता! क्योंकि हमें उनकी सेवा करने की नैतिक दुविधा से मुक्ति मिल जाती--'चलो! हमें डैडी की सेवा करने न करने में धर्म-संकट में फ़िज़ूल नहीं पड़ना पड़ा.'<br />
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जब वर्ल्ड कप की सनसनीखेज़ पारियां रात को शुरू हुईं तो हम सभी की आँखों से नींद ऐसे गायब हो गई जैसे गधे के सिर से सींग. डैडी के बेडरूम में जो ब्लैक एंड व्हाइट टी० वी० लगी हुई महीनों से सीलन खा रही थी (क्योंकि उन्होंने बीमारी के कारण काफी समय से टी०वी० देखना बंद कर दिया था), उसे मेरी बहन हेमा अपने कमरे में उठा ले गयी थी ताकि वह अकेले में मैचों का बेखट मजा ले सके. हमने भी टी०वी० पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित करने के साथ-साथ कानोप्न से मिनी ट्रांजिस्टर चिपका रहा था. <br />
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यह स्थिति और भी भयावह थी. अगर रात को दवा-दारू के अभाव में डैडी के प्राण भी निकल जाते तो उसकी खबर सवेरे ही मिलाती. क्योंकि देर रात तक मैच के ख़त्म होने के बाद हम तत्काल बिस्तरों पर सो जाते थे और सुबह हमारी नींद तब खुलती थी जबकि महरी या ग्वाला दरवाज़ा खटखटाते थे. <br />
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दो दिनों से मैं भी आफिस नहीं जा रहा था. जब तक लीग मैच होते रहे, मैंने आफिस में पाकिट ट्रांजिस्टर से ही काम चलाया. बीच-बीच में अपनी पत्नी सुधा को घर पर फोन करके मैच के बारे में ताजा स्थिति की जानकारी लेकर ही संतोष कर लेता! लेकिन, जब भारत ने साउथ अफ्रीका को सेमी फाइनल में पीटकर फाइनल में प्रवेश पा लिया तो मैंने अपने जूनियर को सेक्शन का चार्ज सौंप कर छुट्टी मार ली. मेरे खाते में छुट्टियों का हमेशा अभाव रहा है जिसके चलते डैडी की हालत बेहद गंभीर होने के बावजूद मैं उन्हें खुद कई बार डाक्टर के पास नहीं ले जा सका और उन्हें ड्राइवर के भरोसे छोड़ कर अपनी ड्यूटी पर निकल पड़ा. <br />
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उस दिन फाइनल में पहुँचने के लिए सेमी फ़ाइनल का मुकाबला पाकिस्तान और आस्ट्रेलिया के बीच था. सारा देश पाकिस्तान के हारने की उम्मीद लगाए बैठा था क्योंकि लोगों को यकीन था कि अगर फाइनल में भारत का सामना पाकिस्तान से हुआ तो उसके जीतने की आशा धूमिल पड़ जाएगी. मेरे घर में भी सभी, सब कुछ छोड़कर यह प्रार्थना करने में जुटे हुए थे कि काश! पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया के हाथों चारों खाना चित्त हो जाता. <br />
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पता नहीं क्यों? पाकिस्तान के खिलाफ खेलते हुए न केवल हमारे खिलाड़ियों का मनोबल आधा हो जाता है, बल्कि हम भी अपनी हार माँ बैठते हैं. <br />
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सुबह जब मम्मी नहा-धोकर रोज़ की तरह मंदिर को दर्शन करने निकलीं तो हम सोच रहे थे कि वह मंदिर में जाकर ईश्वर से डैड के रोगमुक्त होने के लिए प्रार्थनाएं करेंगी. लेकिन, मंदिर से वापस आते ही वह मरीजखाने में डैड के पास जाने के बजाए सीधे ड्राइंग रूम में तशरीफ़ लाईन जहां भाईसाहब और मेरे बीच इस बाबत जोरदार बहस छिड़ी हुई थी कि सेमी फाइनल में कौन जीतेगा--पाकिस्तान या आस्ट्रेलिया. भाईसाहब तो पाकिस्तान द्वारा सेमी फाइनल में पूर्व वर्ल्ड कप चैम्पियन--आस्ट्रेलिया को शिकस्त दिए जाने के पक्ष में दनादन तर्क दिए जा रहे थे जबकि मेरे द्वारा आस्ट्रेलिया को जिताने के लिए दी जाने वाली सारी दलीलें हल्की पड़ती जा रही थीं. <br />
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बेशक! उस वाक् युद्ध में मैं अपनी हार से बेहद मायूस होता जा रहा था. वहां मौजूद मेरी पत्नी सुधा को भी इससे बड़ा कोफ़्त हो रहा था. मुझे उसके सामने अपनी मात से और भी ज़्यादा आत्मग्लानि हो रही थी. वह भी चाहती थी कि भले ही पाकिस्तान क्रिकेट के मैदान में आस्ट्रेलिया को धूल चटा दे, लेकिन भाईसाहब से तर्क-कुतर्क में मैं मात न खाऊँ. बहरहाल, मुझे अपनी बहन--हेमा पर अत्यंत क्रोध आ रहा था जो बिलावज़ह भाईसाहब का पक्ष ले रही थी और वह भी बड़ी चुटकियाँ ले-लेकर. उसकी व्यंग्य-मुस्कान से यह साफ ज़ाहिर हो रहा था कि वह मुझे चिढ़ाना ज़्यादा चाह रही है और पाकिस्तान को जिताना कम. अन्यथा, वह छोटी बहन होने के बावजूद, भाई साहब को आदतन यह सबक देने की गुस्ताखी तो जरूर करती कि 'भैया, क्रिकेट जैसे पेंचीदे विषय से आपका क्या लेना-देना? जाइए, आप किसी मुकदमे की गुत्थी तलाशिए. वकालत के पेशे वालों को क्रिकेट में कतई दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए.'<br />
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लिहाजा, मुझे यह सोचकर बड़ा सुकून मिला कि चलो, कम से कम मेरे घर में एक तो ऐसा बन्दा है जो क्रिकेट को गंभीरतापूर्वक न लेकर मजाकिया लहजे में ले रहा है. मैं भी इस विश्व कप में भले ही दिलचस्पी ले रहा था, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर मैं क्रिकेट जैसे खेल का आलोचक रहा हूँ. क्योंकि जब कोई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच होता है तो सारे देश की हालत नाबदान में ठहरे हुए पानी जैसी हो जाती है. घर, खेत-खलिहानों, कल-कारखानों, दफ्तरों आदि में सारी गतिविधियाँ ठप्प पड़ जाती हैं. सोचिए, जितने दिन क्रिकेट मैच होता है, देश की कितनी श्रम-ऊर्जा निष्क्रिय होकर व्यर्थ जाती होगी! कितना आर्थिक नुकसान होता होगा!<br />
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बहरहाल, मम्मी के आते ही बहसा-बहसी की फिजां ही बदल गई. सारा पासा ही पलट गया. मंदिर से आने के बाद उनकी बातों में बड़ा दम आ गया था. आखिर, उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ ईश्वर से जो मन्नतें मानी थी, वे व्यर्थ थोड़े ही जाने वाली थी. सो, जब पाकिस्तान भाई साहब को आड़े हाथन लिया तो उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. उस पल, ऐसा लगा कि जैसे आस्ट्रेलिया के हाथों पाकिस्तान का हारना तय है.<br />
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उस रात, हमने यह निश्चय किया कि हम सब दालान में बैठकर टी.वी. देखेंगे और पाकिस्तान को हारते हुए देखने का असली मज़ा लेंगे. सुधा ने वहीं एक टेबल पर स्टोव, केतली और चाय बनाने का सारा सामान भी जमा कर दिया था ताकि बीच-बीच में चाय पीते हुए मैच देखने का असली लुत्फ़ उठाया जाए. भाई साहब ने पाकिस्तान की जीत को सेलीब्रेट करने के लिए पटाखे छोड़ने का इंतजाम पहले से कर लिया था. मैंने आस्ट्रेलिया की जीत के उपलक्ष्य में ऐसा कुछ भी न करने का इंतजाम किया था. क्योंकि मन ही मन मैं भी आस्ट्रेलिया के हारने के भय से मुक्त नहीं हो पाया था. <br />
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डिनर के बाद, सभी दालान में तशरीफ़ लाए. हेमा भी आ गई. इस दिन वह अकेले मैच देखने से बाज आ रही थी. उसने आते ही अपना आसन भाईसाहब के बगल में जमाया. वह मुझे व्यंग्यपूर्वक देखते हुए भाईसाहब के गुट में शामिल होने का अहसास दिला रही थी. अगर मायके से भाभी आ गयी होतीं तो वह नि:संदेह उनके पल्लू में बैठती. तब, मेरा मनोबल और भी गिर जाता. क्योंकि जब भाईसाहब, भाभी और छोटी बहन की तिकड़ी साथ-साथ बैठती थी तो मैं कोई वाक् युद्ध छेड़ने से पहले ही भींगी बिल्ली बन जाता था. मेरी पत्नी तो बहस में एकदम फिसड्डी थी. सही तर्क न दे पाने के कारण वह बेपेंदे के लोटे की तरह फिस्स मुस्कराकर किसी भे ओर लुढ़क कर उसका पलड़ा भारी कर देती थी. <br />
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आखिर में पानदान लटकाए हुए और ताजे पान की गिलौरी चबाते हुए मम्मी ने बिलकुल टी.वी. के सामने दीवान के ऊपर मसनद पर बड़े आराम से दस्तक दिया. उनके हावभाव में बड़ा सुकून था. क्योंकि उन्होंने कुछ क्षण पहले डैडी के कमरे में जाकर उनके सिरहाने स्टूल पर दवाइयां, चम्मच, कटोरी, गिलास और जग में पानी रखते हुए और उन्हें जोर से झकझोरते हुए चिल्ला-चिल्लाकर बता दिया था कि रात को वे याद कर सारी दवाइयां समय से ले लेंगे वरना रोग लाइलाज हो जाएगा. साथ में यह चेतावनी भी दे दी कि वे फ़िज़ूल में बच्चों की तरह शोर मचा-मचाकर हमारे क्रिकेट मैच का मज़ा किरकिरा नहीं करेंगे और सुबह ग्वाले के आने तक हमारे जगने की प्रतीक्षा करेंगे. पता नहीं, उन्होंने मम्मी की बातें ठीक-ठीक सुनी भी थीं, या नहीं. पर, मम्मी अपना पत्नी-सुलभ फ़र्ज़ अदाकार पूरी तरह आश्वस्त नज़र आ रही थीं. हम सभी ने भी उनके चेहरे पर आत्मसंतोष का जो भाव देखा, उससे हम डैडी की ओर से बेफिक्र होकर मैच में पूरी तरह खोने को तैयार हो गए.<br />
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बेशक! मैच बड़ा रोमांचक था. आस्ट्रेलिया ने टास जीत कर, पहले बल्लेबाजी की और पूरे ३०९ रन का विशाल स्कोर खड़ा किया. भाई साहब के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. और हमलोग खूब खिल्लियाँ उड़ा रहे थे. हम इस बात से पूरी तरह आश्वस्त थे कि पाकिस्तान चाहे जितना भी जोर लगा ले, वह इतना विशाल स्कोर खड़ा नहीं कर सकता. इस बीच मम्मी कम से कम तीन-चार दफे उठकर आँगन में गई थीं और तुलसी के गमले में रखे शिवलिंग पर बार-बार मत्था टेक आई थीं. लिहाजा, जब पाकिस्तान ने लगभग १४-१५ रन की औसत से धुआंधार बल्लेबाजी शुरू की तो हमलोगों के मुंह से सिसकारी भी निकलनी बंद हो गई. जब तक आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज पाकिस्तानी गेंदबाजों के छक्के छुडाते रहे, हम विस्फोटक हंसी हंसते रहे और भाईसाहब को व्यंग्य-बाण से आहत करते रहे. लेकिन, पाकिस्तान द्वारा धुआंधार बल्लेबाजी देखकर हमें विश्वास होता गया कि उसका मैच जीतना कोई टेढ़ी खीर नहीं है. चूंकि उसके चार सलामी बल्लेबाज पवेलियन वापिस लौट चुके थे; लेकिन, उसकी रन बनाने की गति में कोई कमी नहीं आई थी.भाईसाहब का गुट फिर उत्तेजना में आ गया था. पाकिस्तान के अन्तिम क्रम के बल्लेबाज भी मशीन की तरह रन बना रहे थे. उस दरमियान, मम्मी फिर उठकर शिवलिंग के आगे सिर झुकाने नहीं गईं. मेरी पोतनी सुधा ने आँख मूँद कर भगवान से पाकिस्तान की पराजय नहीं माँगी. मैंने लज्जावश भाईसाहब से नज़रें हटा-हटाकर मिलाईं. <br />
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शायद, भगवान में से विश्वास खोने का contd./--</div>Dr. Manoj Srivastavhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%AE%E0%A4%B2%E0%A5%80_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5&diff=5265कमली / मनोज श्रीवास्तव2011-03-21T11:28:51Z<p>Dr. Manoj Srivastav: पृष्ठ को ''''कमली'''
(क्रमश:)' से बदल रहा है।</p>
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<div>'''कमली''' <br />
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(क्रमश:)</div>Dr. Manoj Srivastav