http://www.gadyakosh.org/gk/api.php?action=feedcontributions&user=Pratishtha&feedformat=atomGadya Kosh - सदस्य योगदान [hi]2024-03-28T23:38:59Zसदस्य योगदानMediaWiki 1.24.1http://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%97%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%81_%E0%A4%B9%E0%A5%88_/_%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95&diff=4417सेवानगर कहाँ है / ज्ञान प्रकाश विवेक2010-03-07T02:54:01Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=ज्ञान प्रकाश विवेक<br />
}}<br />
<br />
{{GKPustak<br />
|चित्र= Sevanagar_Kahan_Hai.jpg<br />
|नाम=सेवानगर कहाँ है<br />
|रचनाकार=[[ज्ञान प्रकाश विवेक]]<br />
|प्रकाशक=भारतीय ज्ञानपीठ<br />
|वर्ष= --<br />
|भाषा=हिन्दी<br />
|विषय=कहानी <br />
|शैली=--<br />
|पृष्ठ=128<br />
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|विविध=--<br />
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<br />
* [[कैद / ज्ञान प्रकाश विवेक]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%88%E0%A4%A6_/_%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95&diff=4415कैद / ज्ञान प्रकाश विवेक2010-03-07T02:53:32Z<p>Pratishtha: कैद / ज्ञानप्रकाश विवेक का नाम बदलकर कैद / ज्ञान प्रकाश विवेक कर दिया गया है</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=ज्ञान प्रकाश विवेक <br />
|संग्रह=सेवानगर कहाँ है / ज्ञान प्रकाश विवेक <br />
}}<br />
<poem><br />
आसमान कितना छोटा है उसके लिए। छोटे-से कैनवस पर जैसे एक धब्बा आसमान। यह प्रतीक थोड़ा रूमानी है। हकीकत इसके विपरीत है। दीवार के आले से सिर निकालकर आसमान देखना, बेबसी और बेचैनी के अनकहे बयान जैसा होता है। <br />
<br />
वह आसमान को थोड़ा-सा देख सकता है। थोड़-सा वह उस दीवार को भी देख सकता है जो गुमटी के एकदम सामने है, जहाँ वह कील गाड़कर अपनी सद्दी का माँझा बनाता था और देर तक पतंग उड़ाते हुए पेच लड़ाता था। प्रतिद्वन्द्वी की पतंग कटती तो वह खुशी से झूम उठता, ‘‘वो काटाऽऽऽ !’’ <br />
आले से बाहर सिर निकालकर वह सामने बिछी चारपाई को देख सकता है। छत पर कोई चिड़िया, कबूतर या कव्वा चला आये तो वह उन्हें भी देख सकता है। वह बार-बार इन्हीं चीजों को देखता होगा। उकता जाता होगा। फिर अकेली छोटी-सी गुमटी में सिमट जाता होगा। गुस्से में अपने बाल नोचता होगा। कुछ बुदबुदाया होगा। हो सकता है, वह फर्श पर थूक देता हो तभी तो उसकी आँखों में आक्रोश होता है या फिर दुख ! <br />
<br />
उसे देखो तो उसकी आँखें गुर्राती हुई नजर आती हैं। और चेहरा ! जैसे मनुष्य का चेहरा हटाकर किसी जानवर का चेहरा लगा दिया हो। वह हमेशा बुदबुदाता, बड़बड़ाता नजर आता है। उसका बस चले तो सामने बैठी चिड़िया को पकड़े और कुतर दे पंख। उसका बस चले तो सामने उड़ते रद्दी अखबार को मसल दे। उसका बस चले तो इस कोठरी को गिरा दे जिसमें वह कैद है। कैद बेमुद्दत ! <br />
<br />
यह पुराने इलाके की बस्ती का छोटा-सा मकान है। खुली छत। छत की एक गली में बाजार दुकानें। आमदरफ्त। चहल-पहल। शोर। दुकानदार बहस। ठहाके। छत के बीचोंबीच यह कोठरी है। कोठरी में लड़का है। लड़के की उम्र तेरह चौदह है कोठरी का भूगोल बेहद सीमित है। एक दरवाजा है जो बाहर से बन्द रहता है। सांकल है। जिस पर ताला जड़ा रहता है। दीवारों में कोई खिड़की नहीं। एक आला है। आले का आकार नौ इंच बाइ एक फुट का है। लड़का आले से निकलना चाहे तो नहीं निकल सकता। इस आले के जरिए उसे थोड़ी-सी हवा, थोड़ी-सी धूप मिलती रहती है। इसके अलावा जो तीन वक्त का रोटी भी। इस आले से उस लड़के तक पहुँचती है। कैद किए गये बच्चे के साथ, बाहरी दुनिया का रिश्ता लगभग खत्म हो चुका है। कोई परिवार का सदस्य जब रोटी देने ऊपर आता है तो लड़के की बेचैनी बढ़ जाती है। वह दरवाजा पीटता है। हुँकारता है। बड़बड़ाता है। लेकिन जाने वाला जा चुका होता है। <br />
<br />
सीढ़िया उतरने की आवाज। फिर सन्नाटा। फिर बेबसी। फिर कैद। कोठरी। अँधेरा। वह थाली सरकाता है। कुछ खाता है। कुछ फेंकता है। कभी-कभी जब वह बहुत ज्यादा आक्रामक होता है। तो आले में रखी थाली को बाहर फेंक देता है। लेकिन यह आक्रामकता खुद उसके लिए नुकसानदायक होती है। सजा के तौर पर उसकी एक वक्त की रोटी बन्द हो जाती है।<br />
वह हर वक्त आले के पास रहता है। यही, रोशनी हवा, और आवाजों का रास्ता है। इसी आले से, वह अपने हिस्से की बहुत सीमित दुनिया को देखता है। कभी-कभी वह आले के पास, अपनी उँगली से कुछ लिखने की कोशिश करता है। किसी ने नहीं पूछा कि वह क्या लिखता है ? <br />
<br />
ऐसा लगता है जैसे वह हर लड़ाई हार चुका है। हार के निशान उसके चेहरे पर है, किसी ऐसे जख्म की तरह जो दिखाई नहीं देता। वैसे जख्म का एक बड़ा-सा निशान उसके माथे पर है। एक दिन गुस्से में आकर उसने अपने माथे को दीवार से टकरा दिया था। खून निकल आया था। खून रिसना बन्द हुआ तो घाव बन गया।<br />
घाव पर मक्खियाँ भिनकती हैं। घाव भरता नहीं। हरा रहता है। <br />
<br />
कभी-कभी वह आले के बीच अपना चेहरा टिका देता है। थक चुकने, टूट चुकने और निढाल हो चुकने के बाद वह ऐसा करता है। <br />
<br />
तब वह बेबस नजर आता है। हर तरफ शोर-हंगामें। कारों, स्कूटरों के हार्न। बच्चों की आवाजें और कोठरी में कैद एक बच्चा। <br />
<br />
उसका चेहरा सख्त है। आँखें भारी, लाल। पलकें फूली हुई। आँखों के नीचे का हिस्सा सूजा हुआ। बाल खिचड़ी। सख्त और मैले। कपड़े बेतरतीब। एक अजीब-सी दुर्गन्ध पूरे शरीर से। हाथ मोटे खुरदरे। नाखून बढ़े हुए। नाखूनों में मैल। <br />
<br />
कभी-कभी वह आले से ओझल हो जाता है। तब वह दरवाजे के पास जा बैठता है। दरवाजे को खटखटाता है। झिंझोड़ता है। जोर से थपथपाता है। दरारों से झांकता है। रोशनी की पतली लकीरें। दरारों से छनकर कोठरी के अँधेरे फर्श पर गिरती हैं। वह उन्हें पकड़ने की कोशिश करता है। <br />
<br />
कोठरी में बदबू है। मेहतर से हफ्ते में एक बार सफाई कराई जाती है। कोठरी साफ कराना, पूरे घर के लिए बहुत बड़ा अभियान....बल्कि बहुत बड़ा झंझट होता है घर के सब लोग इकट्ठा होते हैं। पिता, मां, बहन और बड़ा भाई सब ! डर वितृष्णा, उपेक्षा, दया और तिरस्कार, कई सारे भाव होते हैं। पिता के मन में लड़के के प्रति वितृष्णा तो बहन के मन में दया। माँ डरी हुई तो बड़ा भाई तिरस्कार का भाव लिए मुँह बिचकाता, थूकता। <br />
घर के सब लोग मिलकर लड़के के मुँह पर कपड़ा बाँधते हैं। इसलिए कि वह अपने दाँतों से किसी को काट न ले। वह ऐसा कर भी चुका है। इसलिए हिफाजत के लिए यह कदम उठाए जाते हैं। फिर हाथ बाँधे जाते हैं, कि वह नाखून न गढ़ा दे। फिर टाँगे कि वह भाग न खड़ा हो। <br />
<br />
वह कसमसाता है। विरोध करता है। गुस्सा, गालियाँ और बड़बड़ाना। बेशक उसके मुँह पर कपड़ा बँधा होता है फिर भी वह गालियों जैसी कोई चीज बक देता है। <br />
घर के लोग उसे काबू में कर लेते हैं। यानी उसे पूरी तरह जकड़ लेते हैं। उनमें से कोई तीन-चार बाल्टियाँ पानी की लगातार लड़के पर डालता है। लड़के के कपड़े भीग जाते हैं। दुर्गन्ध कुछ कम हो जाती है। मेहतर उसके कपड़े उतारता है। फिर साबुन से नहलाता है। कपड़े बदलता है। वह भारी कम शरीर का लम्बा-चौड़ा इनसान है। सख्त जान दिमाग का कोरा। लेकिन भीतर से नर्म। लड़का जरा ऊँ-चूँ करे तो थप्पड़ गाल पर ! घर के लोग लड़के को पिटता देखते रहते हैं। बहन की आँखें नम हो जाती हैं।<br />
<br />
लड़के को नहलाने और कोठरी साफ करने के वह आदमी बीस रुपये लेता है। उसे बीस रुपये कम लगते हैं। वह इस गन्दे काम को छोड़ भी देता है। लड़के के प्रति उसके मन में कोई लगाव सा पैदा हो गया। मेहतर सफाई करता है। लड़का बँधा रहता है। फर्श पर बैठ जाता है। सामने बिछी चारपाई पर बहन बैठी होती है, अपने भाई को देखती-अपने भाई संजू को देखती !<br />
<br />
संजू से पूरा मोहल्ला भयभीत था। स्कूल, मौहल्ले, परिवार-हर कहीं यह तय हो चुका था कि वह पागल हो चुका है- खतरनाक पागल ! उसने तीन-चार बार स्कूल के बच्चों की पिटाई की अपनी टीचर तक को गाली दी। चिढ़ाया। घर आते वक्त मौहल्ले की लड़की संगीता को जोर से मुक्का मारा और दयालचन्द्र दुकानदार को अड़ंगी मारी। दयालचन्द्र सँभल न सका और धप्प-से गिरा। संजू ने अपनी ही नहीं, कई सहपाठियों की किताबें फाड़ दीं। <br />
<br />
संजू की हरकतों से घर के लोग परेशान हो उठे। गंडा ताबीज। झाड़-फूँक। ओपरा उतारने के टोटके सब आजमाये। बीमरी बढ़ गयी। अस्पतालों के चक्कर लम्बा। धैर्य कम रोजी-रोटी का चक्कर। काम धन्धे की फिक्र। फिक्र संजू की भी। अच्छा-खासा लड़का था। स्कूल जाता था। हर साल इम्तिहान पास करता था। घर आकर होमवर्क करता था। खेल-कूद में उपद्रव कर बैठता। वैसे तो बिलकुल ठीक था। थोड़ा स्वभाव का गरम। मिजाज का लड़ाकू।<br />
<br />
डाक्टरों ने संजू के रोग की जड़ तक पहचान ली। बताया कि उसकी निरन्तर उपेक्षा की गयी है। संजू ने इस उपेक्षा को भुलाया नहीं। यही उपेक्षा गाँठ बन गई। मन पर असर कर गई। संजू का दिमाग असन्तुलित हो गया। <br />
मालूम हुआ की स्कूल का सिस्टम जिम्मेदार है। एक टीचर ने उसे लगातार बिना किसी कारण के बैंच पर खड़ा किए रखा-बीस दिन तक। टीचर आते ही संजू को बैंच पर खड़ा होने का आदेश देता। पढ़ाने लगता। बच्चे पीछे मुड़मुड कर देखते। हँसते। <br />
संजू का कसूर इतना था कि उसने टीचर से कोचिंग के लिए मना कर दिया था।<br />
एक, दूसरी टीचर थी जो संजू की कॉपी चैक ही नहीं करती थी। हुआ यूँ था कि एक बार वह अपनी टीचर को देखकर हँस पड़ा था टीचर ने उसी वक्त संजू को बुलाकर कहा था कि ‘लड़के तुम्हें ऐसी सजा दूँगी कि हँसना भूल जाएगा।’ <br />
<br />
संजू सचमुच हँसना भूल गया था। या वह गुस्से में होता या फिर कुछ सोचता। कुछ अनर्गल बोलता हुआ। सबसे बुरा असर उसके मन पर तब पड़ा जब पूरी क्लास विज्ञान मेले और अप्पूघर घूमने गयी। उस पिकनिक में संजू को शामिल नहीं किया गया था कारण यह है कि इस दौरान उसने दो-तीन लड़कों को पीट दिया था और बहाना यह कि वह रास्ते में भी ऐसी शरारतें कर सकता है। <br />
<br />
संजू ने अपनी टीचर से बहुत मिन्नतें की, बहुत दयनीय भाव से कहा ‘‘मैडम जी मेरे को भी ले चलो। अकेला मेरे को छोड़कर क्यों जा रहे हो ?....मुझे भी ले चलो मैडम’’ कभी वह सर के पास जाता तो कभी मैडम के पास ! उसकी सारी प्रार्थनाएँ सारी अर्जियाँ खारिज कर दी गयीं। <br />
<br />
संजू के मन में कोई डर जरूर था। इसके बावजूद उसने अपने सहपाठियों से कहा कि वह विज्ञान मेले में जरूर जाएगा अप्पूघर भी जरूर जाएगा। उसे कोई भी नहीं रोक सकता लेकिन उसे रोक दिया गया। वह नहीं जा सका। उसके दस-दस के पाँच नोट जेब में पड़े रह गए। वह उस बस के पास खड़ा रहा जिसे मेले जाना था। बस चली। सहपाठियों ने हाथ हिलाये। किलकारियाँ मारी। खुश हुए। <br />
संजू कुछ दूर बस के पीछे भागा। शायद आखिरी वक्त उसे बस में चढ़ा लिया जाये। लेकिन टीचर-मैडम सब मिलकर संजू को सबक सिखाना चाहते थे। <br />
<br />
घर आया तो वह दूसरा संजू था। कुछ-कुछ बौराया। पगलाया। विक्षिप्तियों-जैसा। उपेक्षा मन पर असर कर गयी। दिमाग ने सोचना बन्द कर दिया और जो सोचा वह विध्वंसक था। अगले दिन स्कूल जाने का मन नहीं था। लेकिन भेजा गया। बच्चे चहक रहे थे, अप्पूघर। झूले। वाटरफाल। पापकार्न। आइस्क्रीम, मस्ती। खुशी .....<br />
संजू ताव खा गया। तीन सहपाठियों से मारपीट की। एक का सिर दीवार से टकरा दिया। मैडम ने रोका तो उसकी बाजू पर इतने जोर का काटा कि खून निकल आया। <br />
<br />
टीचरों ने पकड़ने की कोशिश की। सो उन्हें धकेल दिया। टीचरों ने कहा, ‘‘संजू पागल हो गया है। खतरा है स्कूल के लिए।’’ बच्चों ने टीचरों की बात दोहरायी, ‘‘संजू पागल हो गया है। हम सबके लिए खतरा है।’’ <br />
संजू बदहवास पगलाया तोड़फोड़ करता। मारपीट करता। किसी जंगली जानवर जैसा। बच्चे संजू को देखते। शोर मचाते, ‘‘भागों संजू पागल !....वो रहा संजू पागल !’’ बाहर की दुनिया संजू से डरी हुई थी। अपने भीतर की दुनिया से संजू डरा हुआ था। संजू से लोग परेशान। संजू से घर परेशान। संजू से स्कूल परेशान। और संजू...परिवेश से परेशान ! <br />
<br />
<br />
</poem></div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%88%E0%A4%A6_/_%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95&diff=4414कैद / ज्ञान प्रकाश विवेक2010-03-07T02:53:23Z<p>Pratishtha: </p>
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<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=ज्ञान प्रकाश विवेक <br />
|संग्रह=सेवानगर कहाँ है / ज्ञान प्रकाश विवेक <br />
}}<br />
<poem><br />
आसमान कितना छोटा है उसके लिए। छोटे-से कैनवस पर जैसे एक धब्बा आसमान। यह प्रतीक थोड़ा रूमानी है। हकीकत इसके विपरीत है। दीवार के आले से सिर निकालकर आसमान देखना, बेबसी और बेचैनी के अनकहे बयान जैसा होता है। <br />
<br />
वह आसमान को थोड़ा-सा देख सकता है। थोड़-सा वह उस दीवार को भी देख सकता है जो गुमटी के एकदम सामने है, जहाँ वह कील गाड़कर अपनी सद्दी का माँझा बनाता था और देर तक पतंग उड़ाते हुए पेच लड़ाता था। प्रतिद्वन्द्वी की पतंग कटती तो वह खुशी से झूम उठता, ‘‘वो काटाऽऽऽ !’’ <br />
आले से बाहर सिर निकालकर वह सामने बिछी चारपाई को देख सकता है। छत पर कोई चिड़िया, कबूतर या कव्वा चला आये तो वह उन्हें भी देख सकता है। वह बार-बार इन्हीं चीजों को देखता होगा। उकता जाता होगा। फिर अकेली छोटी-सी गुमटी में सिमट जाता होगा। गुस्से में अपने बाल नोचता होगा। कुछ बुदबुदाया होगा। हो सकता है, वह फर्श पर थूक देता हो तभी तो उसकी आँखों में आक्रोश होता है या फिर दुख ! <br />
<br />
उसे देखो तो उसकी आँखें गुर्राती हुई नजर आती हैं। और चेहरा ! जैसे मनुष्य का चेहरा हटाकर किसी जानवर का चेहरा लगा दिया हो। वह हमेशा बुदबुदाता, बड़बड़ाता नजर आता है। उसका बस चले तो सामने बैठी चिड़िया को पकड़े और कुतर दे पंख। उसका बस चले तो सामने उड़ते रद्दी अखबार को मसल दे। उसका बस चले तो इस कोठरी को गिरा दे जिसमें वह कैद है। कैद बेमुद्दत ! <br />
<br />
यह पुराने इलाके की बस्ती का छोटा-सा मकान है। खुली छत। छत की एक गली में बाजार दुकानें। आमदरफ्त। चहल-पहल। शोर। दुकानदार बहस। ठहाके। छत के बीचोंबीच यह कोठरी है। कोठरी में लड़का है। लड़के की उम्र तेरह चौदह है कोठरी का भूगोल बेहद सीमित है। एक दरवाजा है जो बाहर से बन्द रहता है। सांकल है। जिस पर ताला जड़ा रहता है। दीवारों में कोई खिड़की नहीं। एक आला है। आले का आकार नौ इंच बाइ एक फुट का है। लड़का आले से निकलना चाहे तो नहीं निकल सकता। इस आले के जरिए उसे थोड़ी-सी हवा, थोड़ी-सी धूप मिलती रहती है। इसके अलावा जो तीन वक्त का रोटी भी। इस आले से उस लड़के तक पहुँचती है। कैद किए गये बच्चे के साथ, बाहरी दुनिया का रिश्ता लगभग खत्म हो चुका है। कोई परिवार का सदस्य जब रोटी देने ऊपर आता है तो लड़के की बेचैनी बढ़ जाती है। वह दरवाजा पीटता है। हुँकारता है। बड़बड़ाता है। लेकिन जाने वाला जा चुका होता है। <br />
<br />
सीढ़िया उतरने की आवाज। फिर सन्नाटा। फिर बेबसी। फिर कैद। कोठरी। अँधेरा। वह थाली सरकाता है। कुछ खाता है। कुछ फेंकता है। कभी-कभी जब वह बहुत ज्यादा आक्रामक होता है। तो आले में रखी थाली को बाहर फेंक देता है। लेकिन यह आक्रामकता खुद उसके लिए नुकसानदायक होती है। सजा के तौर पर उसकी एक वक्त की रोटी बन्द हो जाती है।<br />
वह हर वक्त आले के पास रहता है। यही, रोशनी हवा, और आवाजों का रास्ता है। इसी आले से, वह अपने हिस्से की बहुत सीमित दुनिया को देखता है। कभी-कभी वह आले के पास, अपनी उँगली से कुछ लिखने की कोशिश करता है। किसी ने नहीं पूछा कि वह क्या लिखता है ? <br />
<br />
ऐसा लगता है जैसे वह हर लड़ाई हार चुका है। हार के निशान उसके चेहरे पर है, किसी ऐसे जख्म की तरह जो दिखाई नहीं देता। वैसे जख्म का एक बड़ा-सा निशान उसके माथे पर है। एक दिन गुस्से में आकर उसने अपने माथे को दीवार से टकरा दिया था। खून निकल आया था। खून रिसना बन्द हुआ तो घाव बन गया।<br />
घाव पर मक्खियाँ भिनकती हैं। घाव भरता नहीं। हरा रहता है। <br />
<br />
कभी-कभी वह आले के बीच अपना चेहरा टिका देता है। थक चुकने, टूट चुकने और निढाल हो चुकने के बाद वह ऐसा करता है। <br />
<br />
तब वह बेबस नजर आता है। हर तरफ शोर-हंगामें। कारों, स्कूटरों के हार्न। बच्चों की आवाजें और कोठरी में कैद एक बच्चा। <br />
<br />
उसका चेहरा सख्त है। आँखें भारी, लाल। पलकें फूली हुई। आँखों के नीचे का हिस्सा सूजा हुआ। बाल खिचड़ी। सख्त और मैले। कपड़े बेतरतीब। एक अजीब-सी दुर्गन्ध पूरे शरीर से। हाथ मोटे खुरदरे। नाखून बढ़े हुए। नाखूनों में मैल। <br />
<br />
कभी-कभी वह आले से ओझल हो जाता है। तब वह दरवाजे के पास जा बैठता है। दरवाजे को खटखटाता है। झिंझोड़ता है। जोर से थपथपाता है। दरारों से झांकता है। रोशनी की पतली लकीरें। दरारों से छनकर कोठरी के अँधेरे फर्श पर गिरती हैं। वह उन्हें पकड़ने की कोशिश करता है। <br />
<br />
कोठरी में बदबू है। मेहतर से हफ्ते में एक बार सफाई कराई जाती है। कोठरी साफ कराना, पूरे घर के लिए बहुत बड़ा अभियान....बल्कि बहुत बड़ा झंझट होता है घर के सब लोग इकट्ठा होते हैं। पिता, मां, बहन और बड़ा भाई सब ! डर वितृष्णा, उपेक्षा, दया और तिरस्कार, कई सारे भाव होते हैं। पिता के मन में लड़के के प्रति वितृष्णा तो बहन के मन में दया। माँ डरी हुई तो बड़ा भाई तिरस्कार का भाव लिए मुँह बिचकाता, थूकता। <br />
घर के सब लोग मिलकर लड़के के मुँह पर कपड़ा बाँधते हैं। इसलिए कि वह अपने दाँतों से किसी को काट न ले। वह ऐसा कर भी चुका है। इसलिए हिफाजत के लिए यह कदम उठाए जाते हैं। फिर हाथ बाँधे जाते हैं, कि वह नाखून न गढ़ा दे। फिर टाँगे कि वह भाग न खड़ा हो। <br />
<br />
वह कसमसाता है। विरोध करता है। गुस्सा, गालियाँ और बड़बड़ाना। बेशक उसके मुँह पर कपड़ा बँधा होता है फिर भी वह गालियों जैसी कोई चीज बक देता है। <br />
घर के लोग उसे काबू में कर लेते हैं। यानी उसे पूरी तरह जकड़ लेते हैं। उनमें से कोई तीन-चार बाल्टियाँ पानी की लगातार लड़के पर डालता है। लड़के के कपड़े भीग जाते हैं। दुर्गन्ध कुछ कम हो जाती है। मेहतर उसके कपड़े उतारता है। फिर साबुन से नहलाता है। कपड़े बदलता है। वह भारी कम शरीर का लम्बा-चौड़ा इनसान है। सख्त जान दिमाग का कोरा। लेकिन भीतर से नर्म। लड़का जरा ऊँ-चूँ करे तो थप्पड़ गाल पर ! घर के लोग लड़के को पिटता देखते रहते हैं। बहन की आँखें नम हो जाती हैं।<br />
<br />
लड़के को नहलाने और कोठरी साफ करने के वह आदमी बीस रुपये लेता है। उसे बीस रुपये कम लगते हैं। वह इस गन्दे काम को छोड़ भी देता है। लड़के के प्रति उसके मन में कोई लगाव सा पैदा हो गया। मेहतर सफाई करता है। लड़का बँधा रहता है। फर्श पर बैठ जाता है। सामने बिछी चारपाई पर बहन बैठी होती है, अपने भाई को देखती-अपने भाई संजू को देखती !<br />
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संजू से पूरा मोहल्ला भयभीत था। स्कूल, मौहल्ले, परिवार-हर कहीं यह तय हो चुका था कि वह पागल हो चुका है- खतरनाक पागल ! उसने तीन-चार बार स्कूल के बच्चों की पिटाई की अपनी टीचर तक को गाली दी। चिढ़ाया। घर आते वक्त मौहल्ले की लड़की संगीता को जोर से मुक्का मारा और दयालचन्द्र दुकानदार को अड़ंगी मारी। दयालचन्द्र सँभल न सका और धप्प-से गिरा। संजू ने अपनी ही नहीं, कई सहपाठियों की किताबें फाड़ दीं। <br />
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संजू की हरकतों से घर के लोग परेशान हो उठे। गंडा ताबीज। झाड़-फूँक। ओपरा उतारने के टोटके सब आजमाये। बीमरी बढ़ गयी। अस्पतालों के चक्कर लम्बा। धैर्य कम रोजी-रोटी का चक्कर। काम धन्धे की फिक्र। फिक्र संजू की भी। अच्छा-खासा लड़का था। स्कूल जाता था। हर साल इम्तिहान पास करता था। घर आकर होमवर्क करता था। खेल-कूद में उपद्रव कर बैठता। वैसे तो बिलकुल ठीक था। थोड़ा स्वभाव का गरम। मिजाज का लड़ाकू।<br />
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डाक्टरों ने संजू के रोग की जड़ तक पहचान ली। बताया कि उसकी निरन्तर उपेक्षा की गयी है। संजू ने इस उपेक्षा को भुलाया नहीं। यही उपेक्षा गाँठ बन गई। मन पर असर कर गई। संजू का दिमाग असन्तुलित हो गया। <br />
मालूम हुआ की स्कूल का सिस्टम जिम्मेदार है। एक टीचर ने उसे लगातार बिना किसी कारण के बैंच पर खड़ा किए रखा-बीस दिन तक। टीचर आते ही संजू को बैंच पर खड़ा होने का आदेश देता। पढ़ाने लगता। बच्चे पीछे मुड़मुड कर देखते। हँसते। <br />
संजू का कसूर इतना था कि उसने टीचर से कोचिंग के लिए मना कर दिया था।<br />
एक, दूसरी टीचर थी जो संजू की कॉपी चैक ही नहीं करती थी। हुआ यूँ था कि एक बार वह अपनी टीचर को देखकर हँस पड़ा था टीचर ने उसी वक्त संजू को बुलाकर कहा था कि ‘लड़के तुम्हें ऐसी सजा दूँगी कि हँसना भूल जाएगा।’ <br />
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संजू सचमुच हँसना भूल गया था। या वह गुस्से में होता या फिर कुछ सोचता। कुछ अनर्गल बोलता हुआ। सबसे बुरा असर उसके मन पर तब पड़ा जब पूरी क्लास विज्ञान मेले और अप्पूघर घूमने गयी। उस पिकनिक में संजू को शामिल नहीं किया गया था कारण यह है कि इस दौरान उसने दो-तीन लड़कों को पीट दिया था और बहाना यह कि वह रास्ते में भी ऐसी शरारतें कर सकता है। <br />
<br />
संजू ने अपनी टीचर से बहुत मिन्नतें की, बहुत दयनीय भाव से कहा ‘‘मैडम जी मेरे को भी ले चलो। अकेला मेरे को छोड़कर क्यों जा रहे हो ?....मुझे भी ले चलो मैडम’’ कभी वह सर के पास जाता तो कभी मैडम के पास ! उसकी सारी प्रार्थनाएँ सारी अर्जियाँ खारिज कर दी गयीं। <br />
<br />
संजू के मन में कोई डर जरूर था। इसके बावजूद उसने अपने सहपाठियों से कहा कि वह विज्ञान मेले में जरूर जाएगा अप्पूघर भी जरूर जाएगा। उसे कोई भी नहीं रोक सकता लेकिन उसे रोक दिया गया। वह नहीं जा सका। उसके दस-दस के पाँच नोट जेब में पड़े रह गए। वह उस बस के पास खड़ा रहा जिसे मेले जाना था। बस चली। सहपाठियों ने हाथ हिलाये। किलकारियाँ मारी। खुश हुए। <br />
संजू कुछ दूर बस के पीछे भागा। शायद आखिरी वक्त उसे बस में चढ़ा लिया जाये। लेकिन टीचर-मैडम सब मिलकर संजू को सबक सिखाना चाहते थे। <br />
<br />
घर आया तो वह दूसरा संजू था। कुछ-कुछ बौराया। पगलाया। विक्षिप्तियों-जैसा। उपेक्षा मन पर असर कर गयी। दिमाग ने सोचना बन्द कर दिया और जो सोचा वह विध्वंसक था। अगले दिन स्कूल जाने का मन नहीं था। लेकिन भेजा गया। बच्चे चहक रहे थे, अप्पूघर। झूले। वाटरफाल। पापकार्न। आइस्क्रीम, मस्ती। खुशी .....<br />
संजू ताव खा गया। तीन सहपाठियों से मारपीट की। एक का सिर दीवार से टकरा दिया। मैडम ने रोका तो उसकी बाजू पर इतने जोर का काटा कि खून निकल आया। <br />
<br />
टीचरों ने पकड़ने की कोशिश की। सो उन्हें धकेल दिया। टीचरों ने कहा, ‘‘संजू पागल हो गया है। खतरा है स्कूल के लिए।’’ बच्चों ने टीचरों की बात दोहरायी, ‘‘संजू पागल हो गया है। हम सबके लिए खतरा है।’’ <br />
संजू बदहवास पगलाया तोड़फोड़ करता। मारपीट करता। किसी जंगली जानवर जैसा। बच्चे संजू को देखते। शोर मचाते, ‘‘भागों संजू पागल !....वो रहा संजू पागल !’’ बाहर की दुनिया संजू से डरी हुई थी। अपने भीतर की दुनिया से संजू डरा हुआ था। संजू से लोग परेशान। संजू से घर परेशान। संजू से स्कूल परेशान। और संजू...परिवेश से परेशान ! <br />
<br />
<br />
</poem></div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%88%E0%A4%A6_/_%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95&diff=4413कैद / ज्ञान प्रकाश विवेक2010-03-07T02:52:36Z<p>Pratishtha: नया पृष्ठ: {{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=अमृता प्रीतम |संग्रह=सत्रह कहानियाँ / अमृता प्र…</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=अमृता प्रीतम<br />
|संग्रह=सत्रह कहानियाँ / अमृता प्रीतम<br />
}}<br />
<poem><br />
आसमान कितना छोटा है उसके लिए। छोटे-से कैनवस पर जैसे एक धब्बा आसमान। यह प्रतीक थोड़ा रूमानी है। हकीकत इसके विपरीत है। दीवार के आले से सिर निकालकर आसमान देखना, बेबसी और बेचैनी के अनकहे बयान जैसा होता है। <br />
<br />
वह आसमान को थोड़ा-सा देख सकता है। थोड़-सा वह उस दीवार को भी देख सकता है जो गुमटी के एकदम सामने है, जहाँ वह कील गाड़कर अपनी सद्दी का माँझा बनाता था और देर तक पतंग उड़ाते हुए पेच लड़ाता था। प्रतिद्वन्द्वी की पतंग कटती तो वह खुशी से झूम उठता, ‘‘वो काटाऽऽऽ !’’ <br />
आले से बाहर सिर निकालकर वह सामने बिछी चारपाई को देख सकता है। छत पर कोई चिड़िया, कबूतर या कव्वा चला आये तो वह उन्हें भी देख सकता है। वह बार-बार इन्हीं चीजों को देखता होगा। उकता जाता होगा। फिर अकेली छोटी-सी गुमटी में सिमट जाता होगा। गुस्से में अपने बाल नोचता होगा। कुछ बुदबुदाया होगा। हो सकता है, वह फर्श पर थूक देता हो तभी तो उसकी आँखों में आक्रोश होता है या फिर दुख ! <br />
<br />
उसे देखो तो उसकी आँखें गुर्राती हुई नजर आती हैं। और चेहरा ! जैसे मनुष्य का चेहरा हटाकर किसी जानवर का चेहरा लगा दिया हो। वह हमेशा बुदबुदाता, बड़बड़ाता नजर आता है। उसका बस चले तो सामने बैठी चिड़िया को पकड़े और कुतर दे पंख। उसका बस चले तो सामने उड़ते रद्दी अखबार को मसल दे। उसका बस चले तो इस कोठरी को गिरा दे जिसमें वह कैद है। कैद बेमुद्दत ! <br />
<br />
यह पुराने इलाके की बस्ती का छोटा-सा मकान है। खुली छत। छत की एक गली में बाजार दुकानें। आमदरफ्त। चहल-पहल। शोर। दुकानदार बहस। ठहाके। छत के बीचोंबीच यह कोठरी है। कोठरी में लड़का है। लड़के की उम्र तेरह चौदह है कोठरी का भूगोल बेहद सीमित है। एक दरवाजा है जो बाहर से बन्द रहता है। सांकल है। जिस पर ताला जड़ा रहता है। दीवारों में कोई खिड़की नहीं। एक आला है। आले का आकार नौ इंच बाइ एक फुट का है। लड़का आले से निकलना चाहे तो नहीं निकल सकता। इस आले के जरिए उसे थोड़ी-सी हवा, थोड़ी-सी धूप मिलती रहती है। इसके अलावा जो तीन वक्त का रोटी भी। इस आले से उस लड़के तक पहुँचती है। कैद किए गये बच्चे के साथ, बाहरी दुनिया का रिश्ता लगभग खत्म हो चुका है। कोई परिवार का सदस्य जब रोटी देने ऊपर आता है तो लड़के की बेचैनी बढ़ जाती है। वह दरवाजा पीटता है। हुँकारता है। बड़बड़ाता है। लेकिन जाने वाला जा चुका होता है। <br />
<br />
सीढ़िया उतरने की आवाज। फिर सन्नाटा। फिर बेबसी। फिर कैद। कोठरी। अँधेरा। वह थाली सरकाता है। कुछ खाता है। कुछ फेंकता है। कभी-कभी जब वह बहुत ज्यादा आक्रामक होता है। तो आले में रखी थाली को बाहर फेंक देता है। लेकिन यह आक्रामकता खुद उसके लिए नुकसानदायक होती है। सजा के तौर पर उसकी एक वक्त की रोटी बन्द हो जाती है।<br />
वह हर वक्त आले के पास रहता है। यही, रोशनी हवा, और आवाजों का रास्ता है। इसी आले से, वह अपने हिस्से की बहुत सीमित दुनिया को देखता है। कभी-कभी वह आले के पास, अपनी उँगली से कुछ लिखने की कोशिश करता है। किसी ने नहीं पूछा कि वह क्या लिखता है ? <br />
<br />
ऐसा लगता है जैसे वह हर लड़ाई हार चुका है। हार के निशान उसके चेहरे पर है, किसी ऐसे जख्म की तरह जो दिखाई नहीं देता। वैसे जख्म का एक बड़ा-सा निशान उसके माथे पर है। एक दिन गुस्से में आकर उसने अपने माथे को दीवार से टकरा दिया था। खून निकल आया था। खून रिसना बन्द हुआ तो घाव बन गया।<br />
घाव पर मक्खियाँ भिनकती हैं। घाव भरता नहीं। हरा रहता है। <br />
<br />
कभी-कभी वह आले के बीच अपना चेहरा टिका देता है। थक चुकने, टूट चुकने और निढाल हो चुकने के बाद वह ऐसा करता है। <br />
<br />
तब वह बेबस नजर आता है। हर तरफ शोर-हंगामें। कारों, स्कूटरों के हार्न। बच्चों की आवाजें और कोठरी में कैद एक बच्चा। <br />
<br />
उसका चेहरा सख्त है। आँखें भारी, लाल। पलकें फूली हुई। आँखों के नीचे का हिस्सा सूजा हुआ। बाल खिचड़ी। सख्त और मैले। कपड़े बेतरतीब। एक अजीब-सी दुर्गन्ध पूरे शरीर से। हाथ मोटे खुरदरे। नाखून बढ़े हुए। नाखूनों में मैल। <br />
<br />
कभी-कभी वह आले से ओझल हो जाता है। तब वह दरवाजे के पास जा बैठता है। दरवाजे को खटखटाता है। झिंझोड़ता है। जोर से थपथपाता है। दरारों से झांकता है। रोशनी की पतली लकीरें। दरारों से छनकर कोठरी के अँधेरे फर्श पर गिरती हैं। वह उन्हें पकड़ने की कोशिश करता है। <br />
<br />
कोठरी में बदबू है। मेहतर से हफ्ते में एक बार सफाई कराई जाती है। कोठरी साफ कराना, पूरे घर के लिए बहुत बड़ा अभियान....बल्कि बहुत बड़ा झंझट होता है घर के सब लोग इकट्ठा होते हैं। पिता, मां, बहन और बड़ा भाई सब ! डर वितृष्णा, उपेक्षा, दया और तिरस्कार, कई सारे भाव होते हैं। पिता के मन में लड़के के प्रति वितृष्णा तो बहन के मन में दया। माँ डरी हुई तो बड़ा भाई तिरस्कार का भाव लिए मुँह बिचकाता, थूकता। <br />
घर के सब लोग मिलकर लड़के के मुँह पर कपड़ा बाँधते हैं। इसलिए कि वह अपने दाँतों से किसी को काट न ले। वह ऐसा कर भी चुका है। इसलिए हिफाजत के लिए यह कदम उठाए जाते हैं। फिर हाथ बाँधे जाते हैं, कि वह नाखून न गढ़ा दे। फिर टाँगे कि वह भाग न खड़ा हो। <br />
<br />
वह कसमसाता है। विरोध करता है। गुस्सा, गालियाँ और बड़बड़ाना। बेशक उसके मुँह पर कपड़ा बँधा होता है फिर भी वह गालियों जैसी कोई चीज बक देता है। <br />
घर के लोग उसे काबू में कर लेते हैं। यानी उसे पूरी तरह जकड़ लेते हैं। उनमें से कोई तीन-चार बाल्टियाँ पानी की लगातार लड़के पर डालता है। लड़के के कपड़े भीग जाते हैं। दुर्गन्ध कुछ कम हो जाती है। मेहतर उसके कपड़े उतारता है। फिर साबुन से नहलाता है। कपड़े बदलता है। वह भारी कम शरीर का लम्बा-चौड़ा इनसान है। सख्त जान दिमाग का कोरा। लेकिन भीतर से नर्म। लड़का जरा ऊँ-चूँ करे तो थप्पड़ गाल पर ! घर के लोग लड़के को पिटता देखते रहते हैं। बहन की आँखें नम हो जाती हैं।<br />
<br />
लड़के को नहलाने और कोठरी साफ करने के वह आदमी बीस रुपये लेता है। उसे बीस रुपये कम लगते हैं। वह इस गन्दे काम को छोड़ भी देता है। लड़के के प्रति उसके मन में कोई लगाव सा पैदा हो गया। मेहतर सफाई करता है। लड़का बँधा रहता है। फर्श पर बैठ जाता है। सामने बिछी चारपाई पर बहन बैठी होती है, अपने भाई को देखती-अपने भाई संजू को देखती !<br />
<br />
संजू से पूरा मोहल्ला भयभीत था। स्कूल, मौहल्ले, परिवार-हर कहीं यह तय हो चुका था कि वह पागल हो चुका है- खतरनाक पागल ! उसने तीन-चार बार स्कूल के बच्चों की पिटाई की अपनी टीचर तक को गाली दी। चिढ़ाया। घर आते वक्त मौहल्ले की लड़की संगीता को जोर से मुक्का मारा और दयालचन्द्र दुकानदार को अड़ंगी मारी। दयालचन्द्र सँभल न सका और धप्प-से गिरा। संजू ने अपनी ही नहीं, कई सहपाठियों की किताबें फाड़ दीं। <br />
<br />
संजू की हरकतों से घर के लोग परेशान हो उठे। गंडा ताबीज। झाड़-फूँक। ओपरा उतारने के टोटके सब आजमाये। बीमरी बढ़ गयी। अस्पतालों के चक्कर लम्बा। धैर्य कम रोजी-रोटी का चक्कर। काम धन्धे की फिक्र। फिक्र संजू की भी। अच्छा-खासा लड़का था। स्कूल जाता था। हर साल इम्तिहान पास करता था। घर आकर होमवर्क करता था। खेल-कूद में उपद्रव कर बैठता। वैसे तो बिलकुल ठीक था। थोड़ा स्वभाव का गरम। मिजाज का लड़ाकू।<br />
<br />
डाक्टरों ने संजू के रोग की जड़ तक पहचान ली। बताया कि उसकी निरन्तर उपेक्षा की गयी है। संजू ने इस उपेक्षा को भुलाया नहीं। यही उपेक्षा गाँठ बन गई। मन पर असर कर गई। संजू का दिमाग असन्तुलित हो गया। <br />
मालूम हुआ की स्कूल का सिस्टम जिम्मेदार है। एक टीचर ने उसे लगातार बिना किसी कारण के बैंच पर खड़ा किए रखा-बीस दिन तक। टीचर आते ही संजू को बैंच पर खड़ा होने का आदेश देता। पढ़ाने लगता। बच्चे पीछे मुड़मुड कर देखते। हँसते। <br />
संजू का कसूर इतना था कि उसने टीचर से कोचिंग के लिए मना कर दिया था।<br />
एक, दूसरी टीचर थी जो संजू की कॉपी चैक ही नहीं करती थी। हुआ यूँ था कि एक बार वह अपनी टीचर को देखकर हँस पड़ा था टीचर ने उसी वक्त संजू को बुलाकर कहा था कि ‘लड़के तुम्हें ऐसी सजा दूँगी कि हँसना भूल जाएगा।’ <br />
<br />
संजू सचमुच हँसना भूल गया था। या वह गुस्से में होता या फिर कुछ सोचता। कुछ अनर्गल बोलता हुआ। सबसे बुरा असर उसके मन पर तब पड़ा जब पूरी क्लास विज्ञान मेले और अप्पूघर घूमने गयी। उस पिकनिक में संजू को शामिल नहीं किया गया था कारण यह है कि इस दौरान उसने दो-तीन लड़कों को पीट दिया था और बहाना यह कि वह रास्ते में भी ऐसी शरारतें कर सकता है। <br />
<br />
संजू ने अपनी टीचर से बहुत मिन्नतें की, बहुत दयनीय भाव से कहा ‘‘मैडम जी मेरे को भी ले चलो। अकेला मेरे को छोड़कर क्यों जा रहे हो ?....मुझे भी ले चलो मैडम’’ कभी वह सर के पास जाता तो कभी मैडम के पास ! उसकी सारी प्रार्थनाएँ सारी अर्जियाँ खारिज कर दी गयीं। <br />
<br />
संजू के मन में कोई डर जरूर था। इसके बावजूद उसने अपने सहपाठियों से कहा कि वह विज्ञान मेले में जरूर जाएगा अप्पूघर भी जरूर जाएगा। उसे कोई भी नहीं रोक सकता लेकिन उसे रोक दिया गया। वह नहीं जा सका। उसके दस-दस के पाँच नोट जेब में पड़े रह गए। वह उस बस के पास खड़ा रहा जिसे मेले जाना था। बस चली। सहपाठियों ने हाथ हिलाये। किलकारियाँ मारी। खुश हुए। <br />
संजू कुछ दूर बस के पीछे भागा। शायद आखिरी वक्त उसे बस में चढ़ा लिया जाये। लेकिन टीचर-मैडम सब मिलकर संजू को सबक सिखाना चाहते थे। <br />
<br />
घर आया तो वह दूसरा संजू था। कुछ-कुछ बौराया। पगलाया। विक्षिप्तियों-जैसा। उपेक्षा मन पर असर कर गयी। दिमाग ने सोचना बन्द कर दिया और जो सोचा वह विध्वंसक था। अगले दिन स्कूल जाने का मन नहीं था। लेकिन भेजा गया। बच्चे चहक रहे थे, अप्पूघर। झूले। वाटरफाल। पापकार्न। आइस्क्रीम, मस्ती। खुशी .....<br />
संजू ताव खा गया। तीन सहपाठियों से मारपीट की। एक का सिर दीवार से टकरा दिया। मैडम ने रोका तो उसकी बाजू पर इतने जोर का काटा कि खून निकल आया। <br />
<br />
टीचरों ने पकड़ने की कोशिश की। सो उन्हें धकेल दिया। टीचरों ने कहा, ‘‘संजू पागल हो गया है। खतरा है स्कूल के लिए।’’ बच्चों ने टीचरों की बात दोहरायी, ‘‘संजू पागल हो गया है। हम सबके लिए खतरा है।’’ <br />
संजू बदहवास पगलाया तोड़फोड़ करता। मारपीट करता। किसी जंगली जानवर जैसा। बच्चे संजू को देखते। शोर मचाते, ‘‘भागों संजू पागल !....वो रहा संजू पागल !’’ बाहर की दुनिया संजू से डरी हुई थी। अपने भीतर की दुनिया से संजू डरा हुआ था। संजू से लोग परेशान। संजू से घर परेशान। संजू से स्कूल परेशान। और संजू...परिवेश से परेशान ! <br />
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</poem></div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95&diff=4412ज्ञान प्रकाश विवेक2010-03-07T02:51:13Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Gyan_prakash_vivek.jpg<br />
|नाम=ज्ञान प्रकाश विवेक<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म= 30 जनवरी 1949<br />
|जन्मस्थान= बहादुरगढ़, हरियाणा, भारत<br />
|कृतियाँ=<br />
|विविध= <br />
|जीवनी=[[ज्ञान प्रकाश विवेक / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
'''कहानियाँ'''<br />
* [[मुसाफ़िरख़ाना / ज्ञान प्रकाश विवेक]]<br />
* [[शिकारगाह / ज्ञान प्रकाश विवेक]]<br />
* [[सेवानगर कहाँ है / ज्ञान प्रकाश विवेक]]<br />
* [[बच्चा / ज्ञान प्रकाश विवेक]]<br />
<br />
'''उपन्यास'''<br />
* [[अस्तित्व / ज्ञान प्रकाश विवेक]]<br />
<br />
'''लघुकथाएँ'''<br />
* [[जेबकतरा / ज्ञान प्रकाश विवेक]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%AC%E0%A4%95%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%BE_/_%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95&diff=4410जेबकतरा / ज्ञान प्रकाश विवेक2010-03-07T02:50:28Z<p>Pratishtha: जेबकतरा / ज्ञानप्रकाश विवेक का नाम बदलकर जेबकतरा / ज्ञान प्रकाश विवेक कर दिया गया है</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=ज्ञानप्रकाश विवेक <br />
}}<br />
[[Category:लघुकथा]]<br />
<br />
बस से उतरकर जेब में हाथ डाला। मैं चौंक पड़ा। जेब कट चुकी थी। जेब में था भी क्या? कुल नौ रुपए और एक खत, जो मैंने माँ को लिखा था कि—मेरी नौकरी छूट गई है; अभी पैसे नहीं भेज पाऊँगा…। तीन दिनों से वह पोस्टकार्ड जेब में पड़ा था। पोस्ट करने को मन ही नहीं कर रहा था।<br />
<br />
नौ रुपए जा चुके थे। यूँ नौ रुपए कोई बड़ी रकम नहीं थी, लेकिन जिसकी नौकरी छूट चुकी हो, उसके लिए नौ रुपए नौ सौ से कम नहीं होते।<br />
<br />
कुछ दिन गुजरे। माँ का खत मिला। पढ़ने से पूर्व मैं सहम गया। जरूर पैसे भेजने को लिखा होगा।…लेकिन, खत पढ़कर मैं हैरान रह गया। माँ ने लिखा था—“बेटा, तेरा पचास रुपए का भेजा हुआ मनीआर्डर मिल गया है। तू कितना अच्छा है रे!…पैसे भेजने में कभी लापरवाही नहीं बरतता।”<br />
<br />
मैं इसी उधेड़-बुन में लग गया कि आखिर माँ को मनीआर्डर किसने भेजा होगा?<br />
<br />
कुछ दिन बाद, एक और पत्र मिला। चंद लाइनें थीं—आड़ी-तिरछी। बड़ी मुश्किल से खत पढ़ पाया। लिखा था—“भाई, नौ रुपए तुम्हारे और इकतालीस रुपए अपनी ओर से मिलाकर मैंने तुम्हारी माँ को मनीआर्डर भेज दिया है। फिकर न करना।…माँ तो सबकी एक-जैसी होती है न। वह क्यों भूखी रहे?…तुम्हारा—जेबकतरा!</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%97%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%81_%E0%A4%B9%E0%A5%88_/_%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95&diff=4408सेवानगर कहाँ है / ज्ञान प्रकाश विवेक2010-03-07T02:49:44Z<p>Pratishtha: सेवानगर कहाँ है / ज्ञानप्रकाश विवेक का नाम बदलकर सेवानगर कहाँ है / ज्ञान प्रकाश विवेक कर दिया गया ह</p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=ज्ञान प्रकाश विवेक<br />
}}<br />
<br />
{{GKPustak<br />
|चित्र= Sevanagar_Kahan_Hai.jpg<br />
|नाम=सेवानगर कहाँ है<br />
|रचनाकार=[[ज्ञान प्रकाश विवेक]]<br />
|प्रकाशक=भारतीय ज्ञानपीठ<br />
|वर्ष= --<br />
|भाषा=हिन्दी<br />
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|शैली=--<br />
|पृष्ठ=128<br />
|ISBN=81-263-1298<br />
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}}<br />
<br />
* [[कैद / ज्ञानप्रकाश विवेक]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%97%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%81_%E0%A4%B9%E0%A5%88_/_%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95&diff=4407सेवानगर कहाँ है / ज्ञान प्रकाश विवेक2010-03-07T02:49:35Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=ज्ञान प्रकाश विवेक<br />
}}<br />
<br />
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|ISBN=81-263-1298<br />
|विविध=--<br />
}}<br />
<br />
* [[कैद / ज्ञानप्रकाश विवेक]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A4%9A%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%BE_/_%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95&diff=4405बच्चा / ज्ञान प्रकाश विवेक2010-03-07T02:48:45Z<p>Pratishtha: बच्चा / ज्ञानप्रकाश विवेक का नाम बदलकर बच्चा / ज्ञान प्रकाश विवेक कर दिया गया है</p>
<hr />
<div>#REDIRECT [[बच्चा / ज्ञान प्रकाश विवेक]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A4%9A%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%BE_/_%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95&diff=4404बच्चा / ज्ञान प्रकाश विवेक2010-03-07T02:48:33Z<p>Pratishtha: बच्चा / ज्ञानप्रकाश विवेक का नाम बदलकर बच्चा / ज्ञान प्रकाश विवेक कर दिया गया है</p>
<hr />
<div>#REDIRECT [[बच्चा / ज्ञान प्रकाश विवेक]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%97%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%81_%E0%A4%B9%E0%A5%88_/_%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95&diff=4401सेवानगर कहाँ है / ज्ञान प्रकाश विवेक2010-03-07T02:46:44Z<p>Pratishtha: नया पृष्ठ: {{GKRachna |रचनाकार=ज्ञानप्रकाश विवेक }} {{GKPustak |चित्र= Sevanagar_Kahan_Hai.jpg |नाम=सेवान…</p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=ज्ञानप्रकाश विवेक <br />
}}<br />
<br />
{{GKPustak<br />
|चित्र= Sevanagar_Kahan_Hai.jpg<br />
|नाम=सेवानगर कहाँ है<br />
|रचनाकार=[[ज्ञानप्रकाश विवेक]]<br />
|प्रकाशक=भारतीय ज्ञानपीठ<br />
|वर्ष= --<br />
|भाषा=हिन्दी<br />
|विषय=कहानी <br />
|शैली=--<br />
|पृष्ठ=128<br />
|ISBN=81-263-1298<br />
|विविध=--<br />
}}<br />
<br />
* [[कैद / ज्ञानप्रकाश विवेक]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Sevanagar_Kahan_Hai.jpg&diff=4400चित्र:Sevanagar Kahan Hai.jpg2010-03-07T02:46:30Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div></div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%95&diff=4399ज्ञान प्रकाश विवेक2010-03-07T02:42:28Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Gyan_prakash_vivek.jpg<br />
|नाम=ज्ञान प्रकाश विवेक<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म= 30 जनवरी 1949<br />
|जन्मस्थान= बहादुरगढ़, हरियाणा, भारत<br />
|कृतियाँ=<br />
|विविध= <br />
|जीवनी=[[ज्ञान प्रकाश विवेक / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
'''कहानियाँ'''<br />
* [[मुसाफ़िरख़ाना / ज्ञानप्रकाश विवेक]]<br />
* [[शिकारगाह / ज्ञानप्रकाश विवेक]]<br />
* [[सेवानगर कहाँ है / ज्ञानप्रकाश विवेक]]<br />
* [[बच्चा / ज्ञानप्रकाश विवेक]]<br />
<br />
'''उपन्यास'''<br />
* [[अस्तित्व / ज्ञानप्रकाश विवेक]]<br />
<br />
'''लघुकथाएँ'''<br />
* [[जेबकतरा / ज्ञानप्रकाश विवेक]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%B0_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%88&diff=4398हरिशंकर परसाई2010-03-07T02:35:23Z<p>Pratishtha: Pratishtha (वार्ता) के अवतरण 4397 को पूर्ववत किया</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=HarishankerParsai.jpg <br />
|नाम=हरिशंकर परसाई<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म= 22 अगस्त 1924<br />
|जन्मस्थान= जमानी, होशंगाबाद¸ मध्य प्रदेश<br />
|कृतियाँ=हँसते हैं रोते हैं¸ जैसे उनके दिन फिरे, रानी नागफनी की कहानी¸ तट की खोज, ज्वाला और जल, तिरछी रेखाएँ।<br />
|विविध= --<br />
|जीवनी=[[हरिशंकर परसाई / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
'''लघुकथाएँ'''<br />
<br />
'''कहानियाँ '''<br />
* [[हँसते हैं रोते हैं / हरिशंकर परसाई]] (कहानी संग्रह)<br />
* [[जैसे उनके दिन फिरे / हरिशंकर परसाई]] (कहानी संग्रह)<br />
* [[भोलाराम का जीव / हरिशंकर परसाई]]<br />
<br />
'''उपन्यास <br />
* [[ज्वाला और जल / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[तट की खोज / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[रानी नागफनी की कहानी / हरिशंकर परसाई]]<br />
<br />
'''आत्मकथा <br />
<br />
'''संस्मरण<br />
* [[तिरछी रेखाएँ / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[मरना कोई हार नहीं होती / हरिशंकर परसाई]]<br />
'''यात्रा-संस्मरण<br />
<br />
'''नाटक<br />
<br />
'''लेख-आलेख<br />
* [[आवारा भीड़ के खतरे / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[ऐसा भी सोचा जाता है / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[अपनी अपनी बीमारी / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[माटी कहे कुम्हार से / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[काग भगोड़ा / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[सदाचार का ताबीज / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[तब की बात और थी / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[भूत के पाँव पीछे / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[बेइमानी की परत / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[प्रेमचन्द के फटे जूते / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[वैष्णव की फिसलन / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[पगडण्डियों का जमाना / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[शिकायत मुझे भी है / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[विकलांग श्रद्धा का दौर / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[तुलसीदास चंदन घिसैं / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[हम एक उम्र से वाकिफ हैं / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[ठिठुरता हुआ गणतंत्र / हरिशंकर परसाई]]<br />
<br />
'''हास्य-व्यंग्य'''<br />
<br />
* [[दो नाक वाले लोग / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[आध्यात्मिक पागलों का मिशन / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[सुदामा का चावल / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[अकाल उत्सव / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[क्रांतिकारी की कथा / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[पवित्रता का दौरा / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[पुलिस-मंत्री का पुतला / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[वह जो आदमी है न / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[नया साल / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[घायल बसंत / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[संस्कृति / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[बारात की वापसी / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[ग्रीटिंग कार्ड और राशन कार्ड / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[उखड़े खंभे / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[शर्म की बात पर ताली पीटना / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[पिटने-पिटने में फर्क / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[यस सर / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[बदचलन / हरिशंकर परसाई]] <br />
* [[एक अशुद्ध बेवकूफ / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[भारत को चाहिए जादूगर और साधु / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[भगत की गत / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[मुण्डन / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[दो नाक वाले लोग / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[खतरे ऐसे भी / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[तट की खोज / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[खेती / हरिशंकर परसाई]]<br />
'''अन्तर्वार्ता<br />
<br />
'''बाल उपन्यास<br />
<br />
'''बाल कहानियाँ<br />
<br />
'''बाल नाटक<br />
<br />
<br />
'''चिट्ठी-पतरी<br />
* [[मायाराम सुरजन / हरिशंकर परसाई]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%B0_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%88&diff=4397हरिशंकर परसाई2010-03-07T02:34:01Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=HarishankerParsai.jpg <br />
|नाम=हरिशंकर परसाई<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म= 22 अगस्त 1924<br />
|जन्मस्थान= जमानी, होशंगाबाद¸ मध्य प्रदेश<br />
|कृतियाँ=हँसते हैं रोते हैं¸ जैसे उनके दिन फिरे, रानी नागफनी की कहानी¸ तट की खोज, ज्वाला और जल, तिरछी रेखाएँ।<br />
|विविध= --<br />
|जीवनी=[[हरिशंकर परसाई / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
'''लघुकथाएँ'''<br />
<br />
'''कहानियाँ '''<br />
* [[विकलांग श्रद्धा का दौर / हरिशंकर परसाई]] (कहानी संग्रह)<br />
* [[हँसते हैं रोते हैं / हरिशंकर परसाई]] (कहानी संग्रह)<br />
* [[जैसे उनके दिन फिरे / हरिशंकर परसाई]] (कहानी संग्रह)<br />
* [[भोलाराम का जीव / हरिशंकर परसाई]]<br />
<br />
'''उपन्यास <br />
* [[ज्वाला और जल / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[तट की खोज / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[रानी नागफनी की कहानी / हरिशंकर परसाई]]<br />
<br />
'''आत्मकथा <br />
<br />
'''संस्मरण<br />
* [[तिरछी रेखाएँ / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[मरना कोई हार नहीं होती / हरिशंकर परसाई]]<br />
'''यात्रा-संस्मरण<br />
<br />
'''नाटक<br />
<br />
'''लेख-आलेख<br />
* [[आवारा भीड़ के खतरे / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[ऐसा भी सोचा जाता है / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[अपनी अपनी बीमारी / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[माटी कहे कुम्हार से / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[काग भगोड़ा / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[सदाचार का ताबीज / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[तब की बात और थी / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[भूत के पाँव पीछे / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[बेइमानी की परत / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[प्रेमचन्द के फटे जूते / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[वैष्णव की फिसलन / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[पगडण्डियों का जमाना / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[शिकायत मुझे भी है / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[विकलांग श्रद्धा का दौर / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[तुलसीदास चंदन घिसैं / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[हम एक उम्र से वाकिफ हैं / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[ठिठुरता हुआ गणतंत्र / हरिशंकर परसाई]]<br />
<br />
'''हास्य-व्यंग्य'''<br />
<br />
* [[दो नाक वाले लोग / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[आध्यात्मिक पागलों का मिशन / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[सुदामा का चावल / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[अकाल उत्सव / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[क्रांतिकारी की कथा / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[पवित्रता का दौरा / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[पुलिस-मंत्री का पुतला / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[वह जो आदमी है न / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[नया साल / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[घायल बसंत / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[संस्कृति / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[बारात की वापसी / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[ग्रीटिंग कार्ड और राशन कार्ड / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[उखड़े खंभे / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[शर्म की बात पर ताली पीटना / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[पिटने-पिटने में फर्क / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[यस सर / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[बदचलन / हरिशंकर परसाई]] <br />
* [[एक अशुद्ध बेवकूफ / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[भारत को चाहिए जादूगर और साधु / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[भगत की गत / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[मुण्डन / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[दो नाक वाले लोग / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[खतरे ऐसे भी / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[तट की खोज / हरिशंकर परसाई]]<br />
* [[खेती / हरिशंकर परसाई]]<br />
'''अन्तर्वार्ता<br />
<br />
'''बाल उपन्यास<br />
<br />
'''बाल कहानियाँ<br />
<br />
'''बाल नाटक<br />
<br />
<br />
'''चिट्ठी-पतरी<br />
* [[मायाराम सुरजन / हरिशंकर परसाई]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%82&diff=4396लाल्टू2010-03-07T02:29:11Z<p>Pratishtha: Pratishtha (Talk) के संपादनोंको हटाकर Bharatbhooshan.tiwari के आखिरी अवतरण को पूर्ववत </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र= --<br />
|नाम=लाल्टू<br />
|उपनाम=--<br />
|जन्म= <br />
|मृत्यु=<br />
|जन्मस्थान= <br />
|कृतियाँ=--<br />
|विविध=--<br />
|जीवनी=[[लाल्टू / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
'''कहानियाँ'''<br />
* '''[[घुघनी / लाल्टू ]]'''(कहानी-संग्रह)</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A5%82&diff=4395लाल्टू2010-03-07T02:28:25Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र= --<br />
|नाम=लाल्टू<br />
|उपनाम=--<br />
|जन्म= <br />
|मृत्यु=<br />
|जन्मस्थान= <br />
|कृतियाँ=--<br />
|विविध=--<br />
|जीवनी=[[लाल्टू / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
'''कहानियाँ'''<br />
* '''[[घुघनी / लाल्टू ]]'''(कहानी-संग्रह)<br />
* [[महेश-प्रतिभा / लाल्टू]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7_%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A4%B5&diff=4394सुभाष नीरव2010-03-07T02:26:52Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Neerav.jpg<br />
|नाम=सुभाष नीरव<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=1953<br />
|जन्मस्थान= मुरादनगर, उत्तर प्रदेश<br />
|कृतियाँ=दैत्य तथा अन्य कहानियाँ (1990), औरत होने का गुनाह (2003), आख़िरी पड़ाव का दु:ख (2007)<br />
|विविध= <br />
|जीवनी=[[सुभाष नीरव / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
<br />
<br />
'''लघुकथाएँ'''<br />
<sort order="asc" class="ul"><br />
* [[शिक्षाकाल/ सुभाष नीरव]]<br />
* [[तिड़के घड़े / सुभाष नीरव]]<br />
* [[मकड़ी / सुभाष नीरव]]<br />
* [[एक और कस्बा / सुभाष नीरव]]<br />
* [[बीमार / सुभाष नीरव]]<br />
* [[वाह मिट्टी / सुभाष नीरव]]<br />
* [[रंग परिवर्तन / सुभाष नीरव]]<br />
* [[कबाड़ / सुभाष नीरव]]<br />
* [[सहयात्री / सुभाष नीरव]]<br />
* [[धूप / सुभाष नीरव]]<br />
* [[कमरा / सुभाष नीरव]]<br />
* [[सफर में / सुभाष नीरव]]<br />
* [[अपना–अपना नशा / सुभाष नीरव]]<br />
</sort><br />
<br />
'''कहानियाँ'''<br />
<sort order="asc" class="ul"><br />
* [[साँप/ सुभाष नीरव]]<br />
* [[जीवन का ताप / सुभाष नीरव]]<br />
* [[आवाज़ / सुभाष नीरव]]<br />
* [[अन्तत: / सुभाष नीरव]]<br />
* [[अब और नही / सुभाष नीरव]]<br />
* [[दैत्य / सुभाष नीरव]]<br />
* [[बूढ़ी आँखों का आकाश / सुभाष नीरव]]<br />
* [[थके पैरों का सफ़र / सुभाष नीरव]]<br />
* [[उसकी भागीदारी / सुभाष नीरव]]<br />
* [[गोली दागो रामसिंह / सुभाष नीरव]]<br />
* [[लड़कियों वाला घर / सुभाष नीरव]]<br />
* [[वेलफेयर बाबू / सुभाष नीरव]]<br />
* [[इतने बुरे दिन / सुभाष नीरव]]<br />
</sort></div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AF%E0%A4%B6%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B2&diff=4175यशपाल2009-09-23T16:04:42Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र= --<br />
|नाम=यशपाल<br />
|उपनाम=--<br />
|जन्म= <br />
|मृत्यु=<br />
|जन्मस्थान= <br />
|कृतियाँ=--<br />
|विविध=--<br />
|जीवनी=[[यशपाल / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
'''कहानियाँ'''<br />
* '''[[धर्मयुद्ध / यशपाल]]'''<br />
* '''[[उत्तमी की माँ]]'''<br />
भस्मावृत चिनगारी<br />
<br />
मक्रील<br />
* [[आदमी का बच्चा/ यशपाल]]<br />
* [[मंगला/ यशपाल]]<br />
* [[वैष्णवी/ यशपाल]]<br />
* [[मक्रील/ यशपाल]]<br />
* [[फूलो का कुर्ता/ यशपाल]]<br />
* [[करवा का व्रत/ यशपाल]]<br />
* [[जाब्ते की कार्रवाई/ यशपाल]]<br />
* [[दुख/ यशपाल]]<br />
* [[कलाकार की आत्महत्या/ यशपाल]]<br />
* [[महाराजा का इलाज/ यशपाल]]<br />
* [[परदा/ यशपाल]]<br />
* [[दूसरी नाक/ यशपाल]]<br />
* [[खच्चर और आदमी/ यशपाल]]<br />
* [[अख़बार में नाम/ यशपाल]]<br />
* [[ख़ुदा और ख़ुदा की लड़ाई/ यशपाल]]<br />
* [[सन्तान की मशीन/ यशपाल]]<br />
* [[होली का मज़ाक / यशपाल]]<br />
<br />
'''उपन्यास<br />
* [[तारा / यशपाल]]<br />
* [[तारा और बन्ती / यशपाल]]<br />
* [[झूठा सच / यशपाल]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%AF%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7_(%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80)_/_%E0%A4%AF%E0%A4%B6%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B2&diff=4174धर्मयुद्ध (कहानी) / यशपाल2009-09-23T15:57:32Z<p>Pratishtha: नया पृष्ठ: {{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=यशपाल |संग्रह=धर्मयुद्ध / यशपाल }}<poem> श्री कन्हैय...</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=यशपाल <br />
|संग्रह=धर्मयुद्ध / यशपाल <br />
}}<poem><br />
श्री कन्हैयालाल के पारिवारिक क्षेत्र में घटी धर्म-युद्ध की घटना की बात कहने से पहले कुछ भूमिका की आवश्यकता है इसलिये कि गलत-फहमी न हो। <br />
कुरुक्षेत्र में जो धर्मयुद्ध हुआ था उसमें शस्त्रों का यानि गाँधीवाद के दृष्टिकोण से पाशविक बल का ही प्रयोग किया गया था। यों तो सतयुग से लेकर द्वापर तक धर्मयुद्ध का काल रहा है। वह युग आध्यात्मिक और नैतिकता का काल था। सुनते हैं कि उस काल में लोग बहुत शांतिप्रिय और संतुष्ट थे परन्तु सभी सदा सशस्त्र रहते थे। न्याय-अन्याय और उचित-अनुचित का प्रश्न जब भी उठता तो निर्णय शस्त्रों के प्रयोग और रक्तपात से ही होता था। झगड़ा चाहे भाइयों में रहा हो या देव-दानवों में या पति पत्नी में...जैसाकि ऋषि जमदग्नि का अपनी पत्नी से या ऋषियों के समाज में....जैसा कि ब्रह्मर्षि वशिष्ठ और राजर्षि विश्वामित्र में। <br />
<br />
इधर ज्यों-ज्यों मानव समाज में आध्यात्मिकता का ह्रास होता गया, लोग निःशस्त्र रहने लगे। झगड़े तो होते ही रहे, होते ही हैं; परन्तु निःशस्त्र होने के कारण लोग नैतिक शक्ति का प्रयोग करने लगे। शस्त्रों के बिना नैतिक शक्ति से न्याय और धर्म के लिये लड़ने का संघर्ष करने की विधि का नाम कालान्तर में सत्याग्रह पड़ गया। सत्याग्रह को ही हम वास्तव में धर्मयुद्ध कह सकते हैं क्योंकि युद्ध की इस विधि में मनुष्य पाशविक बल से नहीं बल्कि आत्म-बलिदान से या धर्म बल से ही न्याय की प्रतिष्ठा का यत्न करता है। श्री कन्हैयालाल के पारिवारिक क्षेत्र में विचारों का संघर्ष धर्मयुद्ध की विधि से ही हुआ था। <br />
कुछ परिचय श्री कन्हैयालाल का भी आवश्यक है। यों तो कन्हैयालाल की स्थिति हमारे दफ्तर के सौ-सौ रुपये माहवार पाने वाले दूसरे बाबुओं के समान ही थी परन्तु उनके व्यवहार में दूसरे सामान्य बाबुओं से भिन्नता थी। <br />
<br />
सौ सवासौ रुपये का मामूली आर्थिक आधार होने पर भी उनके व्यवहार में एक बड़प्पन और उदारता थी, जैसी ऊँचे स्तर के बड़े-बाबू लोगों में होती है। वे दस्तखत करते थे ‘के. लाल’ और हाथ मिलाते तो जरा कलाई को झटक कर ओठों पर मुस्कराहट आ जाती-हाओ डू यू डू कहिये क्या हाल है और पूछ बैठते, ह्वाट कैन आई डू फार यू ! (आपके लिये क्या करता सकता हूँ !)’<br />
<br />
दफ्तर के कुछ तुनक मिजाज लोग के. लाल के ‘व्हाट कैन आई डू फार यू (आपके लिये मैं क्या कर सकता हूँ)’ प्रश्न पर अपना अपमान भी समझ बैठते और कुछ उनकी इस उदारता का मजाक उड़ा कर उन्हें ‘बास’ (मालिक) पुकारने लगे लेकिन के. लाल के व्यवहार में दूसरों का अपमान करने की भावना नहीं थी। दूसरे को क्षुद्र बनाये बिना ही वे स्वयं बड़प्पन अनुभव करना चाहते थे। इसके लिये हमसे और हमारे पड़ोसी दीना बाबू से कभी किसी प्रतिदान की आशा न होने पर भी उन्होंने कितनी ही बार हमें काफी-हाउस में काफी पिलाई और घर पर भी चाय और शरबत से सत्कार किया। लाल की इस सब उदारता का मूल्य हम इतना ही देते थे कि उन्हें अपने से अधिक बड़ा आदमी और अमीर स्वीकार करते रहते। दफ्तर के चपरासी लाल का आदर लगभग बड़े साहब के समान ही करते थे। लाल के आने पर उनकी साइकिल थाम लेते और छुट्टी के समय साइकिल को झाड़-पोंछ कर आगे बढ़ा देते। कारण यह कि लाल कभी पान या सिगरेट का पैकेट मंगाते तो कभी कभार रुपये में से शेष बचे दाम चपरासी को बख्शीश में दे देते। <br />
<br />
हम लोग तो इस दफ्तर में तीन चार बरस से काम कर रहे थे; पचहत्तर रुपये पर काम आरम्भ करके सवासौ तक पहुँच गये थे। दफ्तर की साधारण सालाना तरक्की के अतिरिक्त कोई सुनहरा भविष्य सामने था नहीं। वह आशा भी नहीं थी कि हमें कभी असिस्टेन्ट या मैनेजर बन जाना है परन्तु के. लाल शीघ्र ही किसी ऐसी तरक्की की आशा में थे। तीन-चार मास पूर्व ही वे किसी बड़े आदमी की सिफारिश से दफ्तर में आये थे। प्रायः बड़े आदमियों से मिलने-जुलने की बात इस भाव से करते कि अपने समान आदमियों की ही बात कर रहे हों। अक्सर कह देते ग्राहम ऐण्ड ग्रिण्डले के दफ्तर से उन्हें चार सौ का आफर है अभी सोच रहे हैं....या मैकेन्जी एण्ड विनसन उन्हें तीन सौ तनख्वाह और बिक्री पर तीन प्रतिशत मय फर्स्ट क्लास किराये के देने के लिये तैयार है, लेकिन सोच रहे हैं...। <br />
<br />
हमारे दफ्तर में उन्हें लोहे की सलाखों और चादरों के आर्डर बुक करने का काम दिया गया था। इस ड्यूटी के कारण उन्हें दफ्तर के समय की पाबन्दी कम रहती, घूमने फिरने का समय मिलता रहता और वे अपने आप को साधारण बाबुओं से भिन्न समझते। इस काम में कम्पनी को कोई विशेष सफलता उनके आने से नहीं हुई थी इसलिये शीघ्र ही कोई तरक्की पा जाने की लाल की आशा हमें बहुत सार्थक नहीं जान पड़ रही थी परन्तु लाल को अपने उज्ज्वल भविष्य पर अडिग विश्वास था। ऊँचे दर्जे के खर्च से बढ़ते कर्जे की चिन्ता के कारण उनके माथे पर कभी तेवर नहीं देखे गये और न उनके चाय, और सिगरेट आफर प्रस्तुत करने में कोई कमी देखी गयी। उन्हें ज्योतिषी द्वारा बताये अपनी हस्तरेखा के फल पर दृढ़ विश्वास था। <br />
<br />
जैसे जंगल में आग लग जाने पर बीहड़ झाड़-झंखार में छिपे जानवरों को मैदानों की ओर भागना पड़ता है और टुच्चे-टुच्चे शिकारियों की भी बन आती है वैसे ही पिछले युद्ध के समय महान् राष्ट्रों को परस्पर संहार के लिये साधारण पदार्थों की अपरिचित आवश्यकता हो गयी थी। सर्वसाधारण जनता तो अभाव से मरने लगी, परन्तु व्यापारी समाज की बन आयी। अब हमारी मिल को ग्राहक और एजेण्ट ढूँढ़ने नहीं पड़ रहे थे बल्कि ग्राहक और एजेण्टों से पीछा छुड़ाना पड़ रहा था। लाल का काम सरल हो गया। उनका काम था मिल के लोहे का कोटा बाँटना और मिल के लिये लाभ की प्रतिशत दर बढ़ाना। <br />
दस्तूरन तो के. लाल की तनख्वाह में कोई अन्तर नहीं आया परन्तु अब वे साइकिल पर पाँव चलाते दफ्तर आने के बजाय ताँगे या रिक्शा पर आते दिखाई देते। ताँगे वाले की ओर रुपया फेंककर बाकी रेजगारी के लिये नहीं बल्कि उनके सलाम का जवाब देने के लिये ही उसकी ओर देखते। कई बार उनके मुख से सेकेण्ड हेन्ड-‘शेवरले’ या ‘वाक्सहाल’ गाड़ी का ट्रायल लेने जाने की बात भी सुनाई दी। अब वे चार-चार, पाँच-पाँच आदमियों को काफी हाउस ले जाने लगे और उम्मुक्त उदारता से पूछते-‘‘व्हाट बुड यू लाइक टु हैव ? (क्या शौक कीजिएगा)’’<br />
<br />
अपने घर पर भी अब वे अधिक निमंत्रण देने लगे। उनके घर जाने पर भी हर बार कोई न कोई नयी चीज दिखाई देती। कमरे का आकार बढ़ नहीं सकता था, इसलिये वह फर्नीचर और सामान से अटा जा रहा था। जगह न रहने पर कुर्सियां सोफाओं के पीछे रख दी गयी थीं और टी टेबलें कार्नर टेबलें और पेग टेबलें मेजों और सोफाओं के नीचे दबानी पड़ रही थीं। मेहमानों के सत्कार में भी अब केवल चायदानी या शरवत का जग ही सामने नहीं आता था। के. लाल तराशे हुए बिल्लौर का डिकेण्टर उपेक्षा से उठाकर आग्रह करते-‘‘हैव ए डैश आफ ह्विस्की ! (एक दौर ह्विस्की का हो जाय ?)’’<br />
धन्यवाद सहित नकारात्मक उत्तर दे देने पर भी वे अपनी उदारता को समेटने के लिये तैयार न थे; आग्रह करते-तो रम लो। अच्छा गिमलेट।’’<br />
<br />
युद्ध के दिनों में कुछ समय वैकाइयों (W. A. C. A. I.) की भी बहार आई थी। सर्वसाधारण लोग बाजार में जवान, चुस्त बेझिझक छोकरियों के दलों को देख कर हैरान थे जैसे नीलगायों का कोई दल नगर की सीमा में फाँद आया हो। सामर्थ्य रखने वाले लोग प्रायः इनकी संगति का प्रदर्शन कर गौरव अनुभव करते थे। ऐसी तीन चार हँसमुखियाँ के. लाल साहब की महफिल में भी शोभा बढ़ाने लगीं। <br />
<br />
श्री के. लाल के माता-पिता अपेक्षाकृत रुढ़िवादी हैं। आचार-व्यवहार के सम्बन्ध में उनकी धारणा धर्म पाप और पुण्य के विचारों से बँधी है। अपने एक मात्र पुत्र की सांसारिक समृद्धि से उन्हें सन्तोष और गौरव अनुभव होता था परन्तु उसकी आचार सम्बन्धी उच्छृंखलता से अपना धर्म और परलोक बिगड़ जाने की बात की भी वे उपेक्षा न कर सकते थे। एक दिन माता-पिता और पुत्र की आचार सम्बन्धी धारणाओं में परस्पर-विरोध के कारण धर्मयुद्ध ठन गया। <br />
<br />
उस दिन के. लाल ने अन्तरंग मित्र मि. माथुर और वैकाई में काम करने वाली उनकी पत्नी तथा उनकी साली को ‘डिनर’ और ‘काकटेल’ (शराब) पार्टी के लिये निमन्त्रित किया था। इस प्रकार की पार्टियाँ प्रायः होती ही रहती थीं। परन्तु इस सावधानी से कि ऊपर को मंजिल में रसोई-चौके के काम में व्यस्त उनकी माँ और संग्रहणी के रोग से जर्जर खाट पर पड़े उनके पिता को पार्टी की बातचीत और खानपान के ढंग का आभास न हो पाता था। पार्टी के कमरे से रसोई तक सम्बन्ध नौकर या श्रीमती लाल द्वारा ही रहता था। मिसेज लाल सास-ससुर की धार्मिक निष्ठा की अपेक्षा अपने पति के सन्तोष को ही अपना धर्म मानती थी। सास के निर्मम अनुशासन की अपेक्षा पति की उच्छृंखलता उनके लिये अधिक सह्य थी। <br />
उस सन्ध्या ऊपर और नीचे की मंजिलों का प्रबन्ध अलग-अलग रखने के प्रसंग में श्रीमती लाल ने पति से पूछा-‘‘विद्या और आनन्द का क्या होगा ?’’<br />
<br />
के. लाल की बहिन विद्या अपने पति आनन्द सहित आगरे से आकर एक सप्ताह के लिये भाई के यहाँ ठहरी हुई थी। बहिन और बहनोई को मेहमानों से मिलने से रोके रहना सम्भव न था। इसमें आशंका भी थी, क्योंकि विद्या को इस कम उम्र में ही धार्मिकता का गर्व अपनी माँ से कुछ कम न था।<br />
दाँत से नाखून खोंटते हुए लाल ने सलाह दी-‘‘तुम विद्या को समझा दो।’’<br />
‘‘यह मेरे बस का नहीं...।’’ श्रीमती लाल ने दोनों हाथ उठा कर दुहाई दी, ‘‘तुम ही आनन्द को समझा दो वही विद्या को संभाल सकता है।’’<br />
<br />
यही तय पाया और लाल ने आनन्द को एक ओर ले जाकर उसके हाथ अपने हाथों में थाम विश्वास और भरोसे के स्वर में समझाया-‘आज मेहमान आ रहे हैं।....मेहमानों के लिये तो करना ही पड़ता है। तुम तो होगे ही। अगर विद्या को एतराज हो तो कुछ समय के लिये टाल देना या उसे समझा दो।....तुम जैसा समझो। विद्या को पहले से समझा देना ठीक होगा। उसे शायद यह बात विचित्र जान पड़े। माता जी के विचार और विश्वास तो तुम जानते ही हो। वह जाकर माता जी को न कुछ कह दे !’’ लाल ने मुस्कराकर अपना पूर्ण विश्वास और भरोसा प्रकट करने के लिये बहनोई के हाथ जरा और जोर से दबा दिये। <br />
<br />
आनन्द ने विद्या को एक ओर बुलाकर समझाया-‘‘आजकल के जमाने में यह सब होता ही है। भैया की मजबूरी है....। तुम जानती हो मैं तो कभी पीता नहीं। हमारी वजह से इन लोगों के मेहमानों को क्यों परेशानी हो ? तुम इतना ध्यान रखना कि माता जी को नीचे न आना पड़े।’’ विद्या ने सुना और मानसिक आघात से चुप रह गयी। <br />
मिस्टर माथुर, मिसेज माथुर अपनी साली के साथ जरा विलम्ब से पहुँचे। पार्टी शुरू हो गयी थी। पहला पेग चल रहा था। हँसी-मजाक की दबी-दबी आवाजें ऊपर की मंजिल में पहुँच रही थीं। आनन्द कुछ देर नीचे बैठता और फिर ऊपर जाकर देख आता कि सब ठीक है।</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%AF%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7_/_%E0%A4%AF%E0%A4%B6%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B2&diff=4173धर्मयुद्ध / यशपाल2009-09-23T15:56:54Z<p>Pratishtha: नया पृष्ठ: {{GKRachna |रचनाकार=यशपाल }} {{GKPustak |चित्र= Dharmyuddha.jpg |नाम=धर्मयुद्ध |रचनाकार=[[यश...</p>
<hr />
<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=यशपाल <br />
}}<br />
<br />
{{GKPustak<br />
|चित्र= Dharmyuddha.jpg<br />
|नाम=धर्मयुद्ध <br />
|रचनाकार=[[यशपाल ]]<br />
|प्रकाशक=लोकभारती प्रकाशन<br />
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|विषय=कहानी <br />
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}}<br />
<br />
* [[धर्मयुद्ध (कहानी) / यशपाल]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Dharmyuddha.jpg&diff=4172चित्र:Dharmyuddha.jpg2009-09-23T15:56:50Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div></div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AF%E0%A4%B6%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B2&diff=4171यशपाल2009-09-23T15:54:48Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र= --<br />
|नाम=यशपाल<br />
|उपनाम=--<br />
|जन्म= <br />
|मृत्यु=<br />
|जन्मस्थान= <br />
|कृतियाँ=--<br />
|विविध=--<br />
|जीवनी=[[यशपाल / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
'''कहानियाँ'''<br />
* '''[[धर्मयुद्ध / यशपाल]]'''<br />
* [[आदमी का बच्चा/ यशपाल]]<br />
* [[मंगला/ यशपाल]]<br />
* [[वैष्णवी/ यशपाल]]<br />
* [[मक्रील/ यशपाल]]<br />
* [[फूलो का कुर्ता/ यशपाल]]<br />
* [[करवा का व्रत/ यशपाल]]<br />
* [[जाब्ते की कार्रवाई/ यशपाल]]<br />
* [[दुख/ यशपाल]]<br />
* [[कलाकार की आत्महत्या/ यशपाल]]<br />
* [[महाराजा का इलाज/ यशपाल]]<br />
* [[परदा/ यशपाल]]<br />
* [[दूसरी नाक/ यशपाल]]<br />
* [[खच्चर और आदमी/ यशपाल]]<br />
* [[अख़बार में नाम/ यशपाल]]<br />
* [[ख़ुदा और ख़ुदा की लड़ाई/ यशपाल]]<br />
* [[सन्तान की मशीन/ यशपाल]]<br />
* [[होली का मज़ाक / यशपाल]]<br />
<br />
'''उपन्यास<br />
* [[तारा / यशपाल]]<br />
* [[तारा और बन्ती / यशपाल]]<br />
* [[झूठा सच / यशपाल]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9D%E0%A5%82%E0%A4%A0%E0%A4%BE_%E0%A4%B8%E0%A4%9A_/_%E0%A4%AF%E0%A4%B6%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B2&diff=4170झूठा सच / यशपाल2009-09-23T15:53:25Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=यशपाल <br />
}}<br />
[[Category:उपन्यास]]<br />
<br />
{{GKUpanyaas<br />
|चित्र= Jhutha_sucha.jpg<br />
|नाम=झूठा सच <br />
|रचनाकार=[[यशपाल ]]<br />
|प्रकाशक=लोकभारती प्रकाशन<br />
|वर्ष= २००५<br />
|भाषा=हिन्दी<br />
|विषय=--<br />
|शैली=--<br />
|पृष्ठ=330<br />
|ISBN=--<br />
|विविध=--<br />
}}<br />
<poem><br />
सास के अन्तिम समय दोनों बहुएँ उपस्थित थीं।<br />
बड़ी बहू ने सास की मृत्यु की घोषणा करने के लिए, दारुण दुःख के समय की रीति का ध्यान कर देवरानी को असह्य पीड़ा के ऊँचे स्वर में चीत्कार करने के लिए कहा।<br />
घबराहट में देवरानी से ठीक तरह से बन न पड़ा। बड़ी बहू ने रीति कि रक्षा के लिए स्वयं खिड़की में जाकर उचित ऊँचे स्वर में विलाप का हृदय-बेधी चीत्कार किया जैसे बाण से बिंध गयी कोई चील मर्मान्तक पीड़ा से चीख उठी हो।<br />
गली भर के लोग नींद से जाग उठे। पड़ोसिनें मेलादई, लाल्लो, कर्तारो, संतकौर पीतमदेई और जीवां तुरन्त आ गयीं। छाती पीट-पीटकर विलाप होने लगा। विलाप करती स्त्रियाँ बीच-बीच में संतोष भी प्रकट कर देती थीं—बुढ़िया का समय भी आ गया था। भागवान पोते-पोतियों से भरा घर छोड़ गयी है। कर्मों वाली थी।<br />
<br />
मर्द भी नीचे गली में, मकान के चबूतरे पर एकत्र हो गये थे। सब लोग मास्टर रामलुभाया और बाबू रामज्वाया के माँ की छत्रछाया से वंचित हो जाने पर सोक प्रकट करके, संसार की अनित्यता की याद दिला कर उन्हें सांत्वना देने लगे।<br />
वृद्धा प्रायः अपने बड़े लड़के बाबू रामज्वाया के ही घर पर रहती थी। रामज्वाया रेलवे पार्सल दफ्तर में नौकर थे। वे छब्बीस वर्ष से नौकरी में थे। उन्होंने पीपल बेहड़े (पीपल वाले आँगन) मुहल्ले की उच्ची गली में गिरे दो गिरे हुए मकान खरीद कर, नये तिमंजिले मकान बनवा लिये थे। आमदनी के लोभ में, अपने रहने के मकान का भी आधा भाग किराये पर दे दिया था।<br />
<br />
रामज्वाया के बड़े लड़के का विवाह हो चुका था। मकान का एक कमरा लड़के और नयी बहू ने सँभाल लिया था। अन्य सबका तो निर्वाह हो ही जाता था, केवल बुढ़िया माँ के लिए जगह न रहती थी। बुढ़िया को ऐसा कुछ करना भी क्या था कि उसके लिए खास जगह की जरूरत समझी जाती।<br />
रामज्वाया की घरवाली का स्वभाव कुछ तीखा था। दो मकानों की मालकिन बन जाने से उसकी जिह्वा की तीव्रता भी कुछ बढ़ गयी थी। सास बुढ़ापे की चिड़चिड़ाहट में बक देती तो स्वयं सास बन चुकी बहू खरा-खटाक उत्तर दिये बिना न रहती। जब तब ऐसा झगड़ा हो जाता और बुढ़िया अपने बड़े बेटे की पहली बहू का गुण याद करने लगती। अपने चार कपड़ों की पोटली बगल में दबाये, भोला पाँधे की गली में, अपने छोटे बेटे रामलुभाया के घर आ जाती। कुछ दिन बाद रामज्वाया जाकर माँ को लौटा लाते या बुढ़िया के छोटे बेटे के घर में जगह की तंगी से तंग आकर बड़े बेटे के बच्चों को देख आने के लिए उच्ची गली में लौट आती थी सन् 1946 के जाड़ों में बुढ़िया छोटे के यहाँ आयी थी तो गहरी सर्दी खा गयी। उसे निमोनिया हो गया। दोनों बेटों ने बहुत दौड़-धूप की परन्तु माँ का समय आ गया था।<br />
<br />
मास्टर रामलुभाया आर्य समाजी डी. ए. वी. स्कूल में अध्यापक थे और विचारों से सुधारवादी थे। उनके विचार में माता की मृत्यु का शोकाचार और सूतक दूर करने का उपाय ईश्वर-भजन और हवन में होना चाहिए था। गली की स्त्रियों ने उचित स्यापे के स्थान में रूखे ईश्वर-भजन और हवन के प्रस्ताव सुने तो उन्होंने विस्मय प्रकट कर आपत्ति की—हाय, यह कैसे हो सकता है। कर्मों वाली बुढ़िया थी, पोते-पोतियों का, पोते की बहू का मुँह देखकर मरी; इसका विमान नहीं सजेगा, इसके लिए संगस्यापा नहीं होगा तो फिर क्या किसी जवान के मरने पर होगा ?<br />
<br />
बुढ़िया की मृत्यु मास्टर रामलुभाया के घर में हुई थी। नड़ोया (अर्थी) भी उन्हीं के दरवाजे से उठी परन्तु बाबू रामज्वाया की भी तो माता थी और बुढ़िया का किरिया-कर्म उचित सम्मान के साथ होने में उनके सम्मान का भी प्रश्न था। ऐसी भाग्यवान बुढ़िया का विमान जिस सज-धज से उठना चाहिए था, वह गरीब मास्टर जी के वश की बात न थी। रामज्वाया को इस बात के लिए बहुत खेद और लज्जा थी, शहर में उनका अपना घर रहते माँ का अन्तकाल छोटे भाई के यहाँ आया। माँ के किरिया-कर्म का अनुष्ठान छोटे भाई के घर पर भोला पाँधे की गली में हो रहा था, परन्तु माँ के प्रति उचित प्रतिष्ठा प्रदर्शन के लिए सब खर्च और व्यवस्था उन्होंने सँभाल ली थी।<br />
<br />
मास्टर जी किराये के मकान की ऊपर की मंजिल में रहते थे। नीचे आँगन में पानी का नल था और नीचे की कोठरियों में मकान मालिक का बजाजे का गोदाम था। ऊपर एक बड़ी कोठरी, एक रसोई और बरामदा ही तो था। रीति के अनुसार स्यापे की संगत ऊपर की मंजिल पर नहीं बैठ सकती थी। बाबू रामज्वाया मास्टर की ससुरालों से और गाँव के सम्बन्धियों का आना भी आवश्यक था। मास्टर जी के मकान से लगते मकान में डाकखाने का बाबू बीरूमल और इंश्योरेन्स कम्पनी के क्लर्क टीकाराम रहते थे। इन मकानों के साथ गज भर चौड़े रास्ते से पीछे एक छोटा-सा आँगन था। गली के काज, संग-स्यापे उस खुले स्थान में ही होते थे। स्यापे के लिए वहाँ ही चटाइयाँ बिछा दी गयी थीं।<br />
वृद्धा की मृत्यु का समाचार पाकर ‘बुद्ध समाज’ की बहिनें आ गयी थीं। यह बहिनें समाज से कुरीतियाँ दूर करने का और सदाचार का प्रचार करती थीं। इन बहिनों ने दिवंगत वृद्धा के सोग में स्यापे की कुप्रथा को छोड़कर भक्ति और वैराग्य के भजन गाने का उपदेश दिया। वृद्धा की बड़ी बहू ने एक न सुनी, बोली—‘‘हम चली आयी रीति को छोड़ अपनी नाक कैसे कटा लें ? लोग नाम धरेंगे कि खर्च से डर गये...।’’<br />
<br />
रामज्वाया की घरवाली ने कौलां नाऊन को बुलवा लिया था। कौलां स्यापा-विशारद समझी जाती थी। सब स्त्रियाँ स्यापे और सोग के परम्परागत पहनावे में थीं। काले लहँगे और राख घोलकर रंगी हुई मोटी मलमल की खूब बड़ी-बड़ी चादरें। नाऊन, दिवंगत भागवान बुढ़िया की दोनों बहुओं के साथ बीच में बैठी। जिन स्त्रियों का जितना निकट का सम्बन्ध था, वे उतनी ही निकट, एक के पश्चात एक वृत्तों में बैठ गयीं।<br />
कौलां नाऊन ने पहली उलाहनी (विलाप का बोल) दी—‘‘बोल मेरिए राणिए रामजी का नाम।’’<br />
स्त्रियों ने समवेत स्वर में उसका अनुसरण किया।<br />
<br />
नाऊन वृद्धा माँ की स्मृति के उपयुक्त उलाहनियाँ बोल रही थी—‘‘डिट्ठे पलंगा वालिए (भरे-पूरे घर वाली) राणिए अम्मां।’’<br />
स्त्रियों ने समवेत स्वर में दोहराया—‘‘हाय-हाय राणिए अम्मां।’’<br />
नाऊन बोली—‘‘ हुन्दयां हुक्मां वालिये (जिसका हुक्म चलता हो) राणिए अम्मां।’’<br />
स्त्रियों ने दोहराया—‘‘हाय-हाय राणिए अम्मां।’’<br />
नाऊन बोली—‘लग्गे बागां वालिए (अनेक बागों की मालकिन) राणिए अम्मां।’’<br />
स्त्रियों ने अनुसरण क्या—‘‘हाय-हाय राणिए अम्मां।’’<br />
<br />
स्यापे में स्त्रियों के हाथ से एक ताल से धप-धप छातियों पर पड़ने लगे। नाऊन वेदना के कुरलाते स्वरों में विलाप के बोल बोलती थी और स्त्रियाँ एक स्वर से ‘‘हाया-हाया, हाया-हाया’ पुकारती दोनों हाथों से एक साथ छाती पीटती जाती थीं। रीति के इस विलाप और पीटने में एक सुनिश्चित क्रम था। स्त्रियों के हाथ तभी छातियों पर पड़ते थे कभी क्रम से जांघों और छातियों पर, फिर जांघों, छातियों और गालों पर पड़ते थे। कौलां के संकेतों के अनुसार यह क्रम कभी विलम्बित में, कभी द्रुत में और फिर अति द्रुत में चलता और कभी बैठ कर और कभी खड़े होकर। नाऊन इस अनुष्ठान का नेतृत्व सतर्कता और आनुशासन से करती थीं। आँखें मूँद कर अथवा दीवार की ओट से सुनने पर स्त्रियों का छाती पीटने का सम्मिलित स्वर इस प्रकार बँधा हुआ जान पड़ता था मानों मैदान में बहुत सधे हुए सिपाही मार्च, मार्क-टाइम और क्विक मार्च कर रहे हों। किसी स्त्री के बेमेल हो जाने पर नाऊन उसे संगत से उठा दे सकती है।<br />
<br />
स्यापों का भारीपन मृतक के वियोग के शोक के अनुपात से होता है। भरी जवानी में हुई मृत्यु पर सोग-स्यापा अधिक और बूढ़ों के मरने पर कम होता है। रामज्वाया की माँ की मृत्यु पर शोक कम और आमोद अधिक होने का अवसर था परन्तु रीति पूरी करने में किसी प्रकार की शिथिलता नहीं दी गयी। बुढ़िया के जीवन-काल में उसके प्रति जो उपेक्षा हुई थी, उसे मृत्यु उपरान्त प्रतिष्ठा से पूरा किया जा रहा था।<br />
<br />
स्यापे में हाय-हाय कर छाती पीटने का प्रत्येक दौर पाँच-पाँच मिनट का होता था। नाऊन के संकेतों पर आरम्भ और विराम होता था। विराम के समय स्त्रियाँ गत स्यापों और सम्भावित सगाइयों की चर्चा करती रहती थीं। दूर के सम्बन्धों या बिरादरी की स्त्रियाँ स्यापा करने वालियों को घेर कर दूसरी बातें करने लगतीं; अथवा हाथ में लिया कोई काम करती रहतीं। शोक में उनका कर्तव्य उनकी अनुपस्थिति से ही पूरा समझ लिया जाता था। सोग का ‘देय और कर्तव्य’ सम्बन्ध की निकटता के अनुसार माना जाता था। बिरादरी और परिचय के सम्बन्ध में आने वाली स्त्रियाँ साधारण पोशाक में भी आ सकती थीं। परिवार में शोक की पोशाक से छूट केवल कुमारी लड़कियों और नयी दुल्हिनों की होती थी। वृद्ध-वृद्धाओं के स्यापे में मृतक के जीवन की सफलता का प्रदर्शन किया जाता था। उसके लिए उनकी कुमारी पोतियों और पोत-बहुओं के गहने-कपड़े से सज-धज कर आकर बैठने की रीति थी।<br />
<br />
मास्टर रामलुभाया की माता का शोर मनाने के लिए, पुरुषों की बैठक उनके मकान के चबूतरे पर दरी बिछाकर लगती थी। दोनों भाइयों ने सिर, दाढ़ी मूँछ उस्तरे से मुड़ा दिये थे। दोनों भाई चेहरे लटकाये आगतों के बीच में बैठे रहते। उनकी आँखों से रुलाई की लाली रहती। लोग पहले आकर मिनट-दो-मिनट चुपचाप उनके समीप बैठ जाते। फिर माता-पिता के स्नेह और वत्सलता की चर्चा करते। दोनों भाइयों के सिर से माता की छत्र-छाया और वरद-हस्त का बादल उठ जाने पर संवेदना प्रकट करते। अन्त में, इस शरीर के नश्वर होने के उपदेश की याद दिलाकर, संसार से विरक्ति द्वारा संतोष पाने का उपदेश दोहरा कर चले जाते हैं।<br />
बाबू रामज्वाया और मास्टर जी अभ्यागतों के कुछ देर बैठ लेने पर हाथ जोड़कर आओ जी’ कहकर उनकी संवेदना के लिए धन्यवाद देते। यह अभ्यागतों के लिए उठकर जा सकने का संकेत था। सहानुभूति प्रकट करने वाले शोकग्रस्त से ऐसा संकेत दो-तीन बार पाकर ही उन्हें छोड़ कर जाते थे।<br />
<br />
शोक के इस अनुष्ठान में प्रयत्न, सतर्कता, सावधानी और संयम की इतनी आवश्यकता रहती थी कि मस्तिष्क शोक के आघात से जड़ नहीं हो पाता था। शोक आघात न रहकर एक अनुष्ठान और कर्तव्य बन जाता था, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। शोकातुरों को शोक के वशीभूत न होने देकर शोक को अनिवार्य सम्पादन और कर्तव्य बना देना, शोक को वश करने का और उसे बहा देने का मनोवैज्ञानिक उपाय भी था।<br />
बाबू रामज्वाया और मास्टर रामलुभाया की माँ की मृत्यु के चौथे दिन ‘मरना’ बाँटा गया। रामज्वाया की बहू विशेष रूप से बन-सँवर कर आयी थी। मास्टर जी की लड़की तारा और रामज्वाया की लड़की शीलो को भी नये रंगीन कपड़े पहनाकर कुछ समय स्यापे की संगत के समीप बैठना पड़ा था।<br />
<br />
दोपहर में शीलो और तारा अपने छोटे भाई-बहनों को लेकर मास्टर जी यहाँ बैठ कर बातचीत करने और कुछ खाने-पीने के लिए जाने लगीं तो उन्होंने भाभी को भी साथ चलने के लिए कहा परन्तु बहू सिर में दर्द बताकर उच्ची गली लौट गयी।<br />
शीलो की बातचीत करते समय कुछ नमकीन या मीठा ठुंगते रहने की आदत थी। छः मास पूर्व उसकी सगाई हो चुकी थी इसलिए उसे भी दादी के ‘मरने’ के दो रुपये मिले थे। बेचारी तारा की सगाई अभी तक नहीं हुई थी इसलिए उसका कोई हक नहीं आता था। शीलो ने तारा के घर जाकर बैठने से पहले, गली को मोड़ पर जाकर दो आने का ताजा मोंगरा दोने में ले लिया था।<br />
तारा के घर में सूना था। बड़ा भाई जयदेव कालिज गया हुआ था। तारा ने अपनी बरस भर की बहिन के सामने रबड़ की गुड़िया और झुनझुना रख दिया और चटाई बिछाकर शीलो के साथ लेट गयी। मोंगरे का दोना बीच में रख कर, दोनों मोंगरे के दाने ठुंगती हुई बातें करने लगीं।<br />
शीलो ने कहा—‘‘भाभी की बात जानती हो। उसे लहँगा-दुपट्टा मिला और पाँच रुपये मिले हैं। फिर भी कह रही थी, मैं तो दस रुपये लूँगी।’’ फिर शीलो बोली, ‘‘और तू देख, हमने बुलाया तो हमारे यहाँ नहीं आयी। झूठी कह दिया, सिर में दरद हो रहा है। घर लौटकर भाई के साथ कमरे में जाकर किवाड़ बन्द कर लेगी, और क्या। बेशर्म कहीं की दिन में भी नहीं मानती।’’<br />
<br />
‘‘क्या ?’’ तारा ने पूछा।<br />
‘‘वाह तू नहीं जानती ?’’ शीलो मुस्कराकर घुले स्वर में बोली, ‘‘मैंने तो उन्हें किवाड़ों से की फाँक से झाँक कर देखा है। तूने कभी नहीं देखा ?’’<br />
तारा का मुँह झेंप से लाल हो गया—‘‘हमारे यहाँ एक ही तो कोठरी है। भाई और मास्टर जी बरामदे में सो जाते हैं। एक रात नींद खुल गयी। नाली पर जाने के लिए उठी तो मास्टर जी...मुझे बहुत शरम आयी...।’’ तारा ने दोनों हाथों से मुँह ढाँप लिया।<br />
<br />
हँसी और संकोच के मारे तारा की बात रुक गयी थी—‘‘हाय तुझे कैसे बताऊँ, हरी अभी कितना है और सामने वाली पीतो; वही जो अभी नीचे बिना झगले के फिर रही थी। हाय कैसे बताऊँ, गधों ने जाने कहाँ क्या देख लिया होगा।’’ तारा ने लाज से होंठों पर हाथ रख लिया, ‘‘पीतो के आँगन में वैसे ही करने लगे। कर्तारी मौसी ने देख लिया तो हरी को घसीटती हुई माँ के पास आयी और लड़ने लगी—क्या सिखाती हो बच्चों को ? कुछ लाज-शर्म है तुमको ?’’<br />
<br />
माँ उल्टे बोली, ‘‘तू ही दिखाती-सिखाती होगी। तेरी पीतो तो बड़ी है।’’ दोनों में बहुत लड़ाई हुई।<br />
<br />
मास्टर जी ने आकर सुना तो हरी को बहुत पीटा। माँ से नाराज हुए—लड़के को जाँघिया क्यों नहीं पहनाती। वही हाल है हमारे यहाँ। इतनी ही जगह पीतो के घर है। बच्चे मरे देखकर समझते हैं खेल और मार खाते हैं। हाय मर गयी, कितनी बेशर्मी है।’’<br />
शीलो ने स्वर दबाकर विज्ञता से कहा—‘‘और क्या, मैंने बाबू जी और माँ को भी देखा है।’’ और कुछ सोच कर फिर बोली, ‘‘तुझे लड़कों से डर लगता है ?’’<br />
<br />
तारा ने उत्तर दिया—‘‘कई लड़के बहुत खराब होते हैं। सिर सड़े (कपाल फूटे) छेड़ते हैं।’’<br />
शीलो बोली—‘‘हमारी गली में बलदेव है न, हाय कितना अच्छा लगता है। भैड़ा (बेशर्म) कहीं का, मुझे देखकर आँख....।’’<br />
जीने में तेजी से ऊपर आते कदमों की आहट सुनकर शीलो ने अनुमान प्रकट किया—‘‘भाई !’’<br />
तारा ने कहा—‘‘रतन होगा।’’<br />
<br />
कोठरी के किवाड़ खुले ही थे। आधे मकान के पड़ोसी बाबू गोविन्दराम के लड़के रतन ने पुस्तकें बगल में दबाये झाँककर पूछ लिया—‘‘मासी जी स्यापे से अभी नहीं लौटीं ? झाई (मेरी माँ) नहीं आयी ?’’<br />
शीलो ने रतन को तारा के यहाँ पहिले भी कई बार देखा था। रतन ने शीलो से पूछ लिया—‘‘तू कब आयी ?’’<br />
तारा ने रूखा-सा उत्तर दे दिया—‘‘अभी से कैसे आ जायेगी ! तेरी झाई रसोई में कटोरदान के नीचे ढाँक गयी है।’’<br />
रतन लौट गया। रतन ग्यारहवीं श्रेणी में पढ़ रहा था। उम्र सत्रह-अठारह की की थी। तारा से तीन बरस बड़ा था। गोरा-गोरा, लम्बा कद, होंठों पर रोयें काले हो रहे थे। <br />
<br />
</poem></div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9D%E0%A5%82%E0%A4%A0%E0%A4%BE_%E0%A4%B8%E0%A4%9A_/_%E0%A4%AF%E0%A4%B6%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B2&diff=4169झूठा सच / यशपाल2009-09-23T15:52:20Z<p>Pratishtha: नया पृष्ठ: {{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=यशपाल }} Category:उपन्यास {{GKNatak |चित्र= Jhutha_sucha.jpg |नाम=झूठ...</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=यशपाल <br />
}}<br />
[[Category:उपन्यास]]<br />
<br />
{{GKNatak<br />
|चित्र= Jhutha_sucha.jpg<br />
|नाम=झूठा सच <br />
|रचनाकार=[[यशपाल ]]<br />
|प्रकाशक=लोकभारती प्रकाशन<br />
|वर्ष= २००५<br />
|भाषा=हिन्दी<br />
|विषय=--<br />
|शैली=--<br />
|पृष्ठ=330<br />
|ISBN=--<br />
|विविध=--<br />
}}<br />
<poem><br />
सास के अन्तिम समय दोनों बहुएँ उपस्थित थीं।<br />
बड़ी बहू ने सास की मृत्यु की घोषणा करने के लिए, दारुण दुःख के समय की रीति का ध्यान कर देवरानी को असह्य पीड़ा के ऊँचे स्वर में चीत्कार करने के लिए कहा।<br />
घबराहट में देवरानी से ठीक तरह से बन न पड़ा। बड़ी बहू ने रीति कि रक्षा के लिए स्वयं खिड़की में जाकर उचित ऊँचे स्वर में विलाप का हृदय-बेधी चीत्कार किया जैसे बाण से बिंध गयी कोई चील मर्मान्तक पीड़ा से चीख उठी हो।<br />
गली भर के लोग नींद से जाग उठे। पड़ोसिनें मेलादई, लाल्लो, कर्तारो, संतकौर पीतमदेई और जीवां तुरन्त आ गयीं। छाती पीट-पीटकर विलाप होने लगा। विलाप करती स्त्रियाँ बीच-बीच में संतोष भी प्रकट कर देती थीं—बुढ़िया का समय भी आ गया था। भागवान पोते-पोतियों से भरा घर छोड़ गयी है। कर्मों वाली थी।<br />
<br />
मर्द भी नीचे गली में, मकान के चबूतरे पर एकत्र हो गये थे। सब लोग मास्टर रामलुभाया और बाबू रामज्वाया के माँ की छत्रछाया से वंचित हो जाने पर सोक प्रकट करके, संसार की अनित्यता की याद दिला कर उन्हें सांत्वना देने लगे।<br />
वृद्धा प्रायः अपने बड़े लड़के बाबू रामज्वाया के ही घर पर रहती थी। रामज्वाया रेलवे पार्सल दफ्तर में नौकर थे। वे छब्बीस वर्ष से नौकरी में थे। उन्होंने पीपल बेहड़े (पीपल वाले आँगन) मुहल्ले की उच्ची गली में गिरे दो गिरे हुए मकान खरीद कर, नये तिमंजिले मकान बनवा लिये थे। आमदनी के लोभ में, अपने रहने के मकान का भी आधा भाग किराये पर दे दिया था।<br />
<br />
रामज्वाया के बड़े लड़के का विवाह हो चुका था। मकान का एक कमरा लड़के और नयी बहू ने सँभाल लिया था। अन्य सबका तो निर्वाह हो ही जाता था, केवल बुढ़िया माँ के लिए जगह न रहती थी। बुढ़िया को ऐसा कुछ करना भी क्या था कि उसके लिए खास जगह की जरूरत समझी जाती।<br />
रामज्वाया की घरवाली का स्वभाव कुछ तीखा था। दो मकानों की मालकिन बन जाने से उसकी जिह्वा की तीव्रता भी कुछ बढ़ गयी थी। सास बुढ़ापे की चिड़चिड़ाहट में बक देती तो स्वयं सास बन चुकी बहू खरा-खटाक उत्तर दिये बिना न रहती। जब तब ऐसा झगड़ा हो जाता और बुढ़िया अपने बड़े बेटे की पहली बहू का गुण याद करने लगती। अपने चार कपड़ों की पोटली बगल में दबाये, भोला पाँधे की गली में, अपने छोटे बेटे रामलुभाया के घर आ जाती। कुछ दिन बाद रामज्वाया जाकर माँ को लौटा लाते या बुढ़िया के छोटे बेटे के घर में जगह की तंगी से तंग आकर बड़े बेटे के बच्चों को देख आने के लिए उच्ची गली में लौट आती थी सन् 1946 के जाड़ों में बुढ़िया छोटे के यहाँ आयी थी तो गहरी सर्दी खा गयी। उसे निमोनिया हो गया। दोनों बेटों ने बहुत दौड़-धूप की परन्तु माँ का समय आ गया था।<br />
<br />
मास्टर रामलुभाया आर्य समाजी डी. ए. वी. स्कूल में अध्यापक थे और विचारों से सुधारवादी थे। उनके विचार में माता की मृत्यु का शोकाचार और सूतक दूर करने का उपाय ईश्वर-भजन और हवन में होना चाहिए था। गली की स्त्रियों ने उचित स्यापे के स्थान में रूखे ईश्वर-भजन और हवन के प्रस्ताव सुने तो उन्होंने विस्मय प्रकट कर आपत्ति की—हाय, यह कैसे हो सकता है। कर्मों वाली बुढ़िया थी, पोते-पोतियों का, पोते की बहू का मुँह देखकर मरी; इसका विमान नहीं सजेगा, इसके लिए संगस्यापा नहीं होगा तो फिर क्या किसी जवान के मरने पर होगा ?<br />
<br />
बुढ़िया की मृत्यु मास्टर रामलुभाया के घर में हुई थी। नड़ोया (अर्थी) भी उन्हीं के दरवाजे से उठी परन्तु बाबू रामज्वाया की भी तो माता थी और बुढ़िया का किरिया-कर्म उचित सम्मान के साथ होने में उनके सम्मान का भी प्रश्न था। ऐसी भाग्यवान बुढ़िया का विमान जिस सज-धज से उठना चाहिए था, वह गरीब मास्टर जी के वश की बात न थी। रामज्वाया को इस बात के लिए बहुत खेद और लज्जा थी, शहर में उनका अपना घर रहते माँ का अन्तकाल छोटे भाई के यहाँ आया। माँ के किरिया-कर्म का अनुष्ठान छोटे भाई के घर पर भोला पाँधे की गली में हो रहा था, परन्तु माँ के प्रति उचित प्रतिष्ठा प्रदर्शन के लिए सब खर्च और व्यवस्था उन्होंने सँभाल ली थी।<br />
<br />
मास्टर जी किराये के मकान की ऊपर की मंजिल में रहते थे। नीचे आँगन में पानी का नल था और नीचे की कोठरियों में मकान मालिक का बजाजे का गोदाम था। ऊपर एक बड़ी कोठरी, एक रसोई और बरामदा ही तो था। रीति के अनुसार स्यापे की संगत ऊपर की मंजिल पर नहीं बैठ सकती थी। बाबू रामज्वाया मास्टर की ससुरालों से और गाँव के सम्बन्धियों का आना भी आवश्यक था। मास्टर जी के मकान से लगते मकान में डाकखाने का बाबू बीरूमल और इंश्योरेन्स कम्पनी के क्लर्क टीकाराम रहते थे। इन मकानों के साथ गज भर चौड़े रास्ते से पीछे एक छोटा-सा आँगन था। गली के काज, संग-स्यापे उस खुले स्थान में ही होते थे। स्यापे के लिए वहाँ ही चटाइयाँ बिछा दी गयी थीं।<br />
वृद्धा की मृत्यु का समाचार पाकर ‘बुद्ध समाज’ की बहिनें आ गयी थीं। यह बहिनें समाज से कुरीतियाँ दूर करने का और सदाचार का प्रचार करती थीं। इन बहिनों ने दिवंगत वृद्धा के सोग में स्यापे की कुप्रथा को छोड़कर भक्ति और वैराग्य के भजन गाने का उपदेश दिया। वृद्धा की बड़ी बहू ने एक न सुनी, बोली—‘‘हम चली आयी रीति को छोड़ अपनी नाक कैसे कटा लें ? लोग नाम धरेंगे कि खर्च से डर गये...।’’<br />
<br />
रामज्वाया की घरवाली ने कौलां नाऊन को बुलवा लिया था। कौलां स्यापा-विशारद समझी जाती थी। सब स्त्रियाँ स्यापे और सोग के परम्परागत पहनावे में थीं। काले लहँगे और राख घोलकर रंगी हुई मोटी मलमल की खूब बड़ी-बड़ी चादरें। नाऊन, दिवंगत भागवान बुढ़िया की दोनों बहुओं के साथ बीच में बैठी। जिन स्त्रियों का जितना निकट का सम्बन्ध था, वे उतनी ही निकट, एक के पश्चात एक वृत्तों में बैठ गयीं।<br />
कौलां नाऊन ने पहली उलाहनी (विलाप का बोल) दी—‘‘बोल मेरिए राणिए रामजी का नाम।’’<br />
स्त्रियों ने समवेत स्वर में उसका अनुसरण किया।<br />
<br />
नाऊन वृद्धा माँ की स्मृति के उपयुक्त उलाहनियाँ बोल रही थी—‘‘डिट्ठे पलंगा वालिए (भरे-पूरे घर वाली) राणिए अम्मां।’’<br />
स्त्रियों ने समवेत स्वर में दोहराया—‘‘हाय-हाय राणिए अम्मां।’’<br />
नाऊन बोली—‘‘ हुन्दयां हुक्मां वालिये (जिसका हुक्म चलता हो) राणिए अम्मां।’’<br />
स्त्रियों ने दोहराया—‘‘हाय-हाय राणिए अम्मां।’’<br />
नाऊन बोली—‘लग्गे बागां वालिए (अनेक बागों की मालकिन) राणिए अम्मां।’’<br />
स्त्रियों ने अनुसरण क्या—‘‘हाय-हाय राणिए अम्मां।’’<br />
<br />
स्यापे में स्त्रियों के हाथ से एक ताल से धप-धप छातियों पर पड़ने लगे। नाऊन वेदना के कुरलाते स्वरों में विलाप के बोल बोलती थी और स्त्रियाँ एक स्वर से ‘‘हाया-हाया, हाया-हाया’ पुकारती दोनों हाथों से एक साथ छाती पीटती जाती थीं। रीति के इस विलाप और पीटने में एक सुनिश्चित क्रम था। स्त्रियों के हाथ तभी छातियों पर पड़ते थे कभी क्रम से जांघों और छातियों पर, फिर जांघों, छातियों और गालों पर पड़ते थे। कौलां के संकेतों के अनुसार यह क्रम कभी विलम्बित में, कभी द्रुत में और फिर अति द्रुत में चलता और कभी बैठ कर और कभी खड़े होकर। नाऊन इस अनुष्ठान का नेतृत्व सतर्कता और आनुशासन से करती थीं। आँखें मूँद कर अथवा दीवार की ओट से सुनने पर स्त्रियों का छाती पीटने का सम्मिलित स्वर इस प्रकार बँधा हुआ जान पड़ता था मानों मैदान में बहुत सधे हुए सिपाही मार्च, मार्क-टाइम और क्विक मार्च कर रहे हों। किसी स्त्री के बेमेल हो जाने पर नाऊन उसे संगत से उठा दे सकती है।<br />
<br />
स्यापों का भारीपन मृतक के वियोग के शोक के अनुपात से होता है। भरी जवानी में हुई मृत्यु पर सोग-स्यापा अधिक और बूढ़ों के मरने पर कम होता है। रामज्वाया की माँ की मृत्यु पर शोक कम और आमोद अधिक होने का अवसर था परन्तु रीति पूरी करने में किसी प्रकार की शिथिलता नहीं दी गयी। बुढ़िया के जीवन-काल में उसके प्रति जो उपेक्षा हुई थी, उसे मृत्यु उपरान्त प्रतिष्ठा से पूरा किया जा रहा था।<br />
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स्यापे में हाय-हाय कर छाती पीटने का प्रत्येक दौर पाँच-पाँच मिनट का होता था। नाऊन के संकेतों पर आरम्भ और विराम होता था। विराम के समय स्त्रियाँ गत स्यापों और सम्भावित सगाइयों की चर्चा करती रहती थीं। दूर के सम्बन्धों या बिरादरी की स्त्रियाँ स्यापा करने वालियों को घेर कर दूसरी बातें करने लगतीं; अथवा हाथ में लिया कोई काम करती रहतीं। शोक में उनका कर्तव्य उनकी अनुपस्थिति से ही पूरा समझ लिया जाता था। सोग का ‘देय और कर्तव्य’ सम्बन्ध की निकटता के अनुसार माना जाता था। बिरादरी और परिचय के सम्बन्ध में आने वाली स्त्रियाँ साधारण पोशाक में भी आ सकती थीं। परिवार में शोक की पोशाक से छूट केवल कुमारी लड़कियों और नयी दुल्हिनों की होती थी। वृद्ध-वृद्धाओं के स्यापे में मृतक के जीवन की सफलता का प्रदर्शन किया जाता था। उसके लिए उनकी कुमारी पोतियों और पोत-बहुओं के गहने-कपड़े से सज-धज कर आकर बैठने की रीति थी।<br />
<br />
मास्टर रामलुभाया की माता का शोर मनाने के लिए, पुरुषों की बैठक उनके मकान के चबूतरे पर दरी बिछाकर लगती थी। दोनों भाइयों ने सिर, दाढ़ी मूँछ उस्तरे से मुड़ा दिये थे। दोनों भाई चेहरे लटकाये आगतों के बीच में बैठे रहते। उनकी आँखों से रुलाई की लाली रहती। लोग पहले आकर मिनट-दो-मिनट चुपचाप उनके समीप बैठ जाते। फिर माता-पिता के स्नेह और वत्सलता की चर्चा करते। दोनों भाइयों के सिर से माता की छत्र-छाया और वरद-हस्त का बादल उठ जाने पर संवेदना प्रकट करते। अन्त में, इस शरीर के नश्वर होने के उपदेश की याद दिलाकर, संसार से विरक्ति द्वारा संतोष पाने का उपदेश दोहरा कर चले जाते हैं।<br />
बाबू रामज्वाया और मास्टर जी अभ्यागतों के कुछ देर बैठ लेने पर हाथ जोड़कर आओ जी’ कहकर उनकी संवेदना के लिए धन्यवाद देते। यह अभ्यागतों के लिए उठकर जा सकने का संकेत था। सहानुभूति प्रकट करने वाले शोकग्रस्त से ऐसा संकेत दो-तीन बार पाकर ही उन्हें छोड़ कर जाते थे।<br />
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शोक के इस अनुष्ठान में प्रयत्न, सतर्कता, सावधानी और संयम की इतनी आवश्यकता रहती थी कि मस्तिष्क शोक के आघात से जड़ नहीं हो पाता था। शोक आघात न रहकर एक अनुष्ठान और कर्तव्य बन जाता था, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। शोकातुरों को शोक के वशीभूत न होने देकर शोक को अनिवार्य सम्पादन और कर्तव्य बना देना, शोक को वश करने का और उसे बहा देने का मनोवैज्ञानिक उपाय भी था।<br />
बाबू रामज्वाया और मास्टर रामलुभाया की माँ की मृत्यु के चौथे दिन ‘मरना’ बाँटा गया। रामज्वाया की बहू विशेष रूप से बन-सँवर कर आयी थी। मास्टर जी की लड़की तारा और रामज्वाया की लड़की शीलो को भी नये रंगीन कपड़े पहनाकर कुछ समय स्यापे की संगत के समीप बैठना पड़ा था।<br />
<br />
दोपहर में शीलो और तारा अपने छोटे भाई-बहनों को लेकर मास्टर जी यहाँ बैठ कर बातचीत करने और कुछ खाने-पीने के लिए जाने लगीं तो उन्होंने भाभी को भी साथ चलने के लिए कहा परन्तु बहू सिर में दर्द बताकर उच्ची गली लौट गयी।<br />
शीलो की बातचीत करते समय कुछ नमकीन या मीठा ठुंगते रहने की आदत थी। छः मास पूर्व उसकी सगाई हो चुकी थी इसलिए उसे भी दादी के ‘मरने’ के दो रुपये मिले थे। बेचारी तारा की सगाई अभी तक नहीं हुई थी इसलिए उसका कोई हक नहीं आता था। शीलो ने तारा के घर जाकर बैठने से पहले, गली को मोड़ पर जाकर दो आने का ताजा मोंगरा दोने में ले लिया था।<br />
तारा के घर में सूना था। बड़ा भाई जयदेव कालिज गया हुआ था। तारा ने अपनी बरस भर की बहिन के सामने रबड़ की गुड़िया और झुनझुना रख दिया और चटाई बिछाकर शीलो के साथ लेट गयी। मोंगरे का दोना बीच में रख कर, दोनों मोंगरे के दाने ठुंगती हुई बातें करने लगीं।<br />
शीलो ने कहा—‘‘भाभी की बात जानती हो। उसे लहँगा-दुपट्टा मिला और पाँच रुपये मिले हैं। फिर भी कह रही थी, मैं तो दस रुपये लूँगी।’’ फिर शीलो बोली, ‘‘और तू देख, हमने बुलाया तो हमारे यहाँ नहीं आयी। झूठी कह दिया, सिर में दरद हो रहा है। घर लौटकर भाई के साथ कमरे में जाकर किवाड़ बन्द कर लेगी, और क्या। बेशर्म कहीं की दिन में भी नहीं मानती।’’<br />
<br />
‘‘क्या ?’’ तारा ने पूछा।<br />
‘‘वाह तू नहीं जानती ?’’ शीलो मुस्कराकर घुले स्वर में बोली, ‘‘मैंने तो उन्हें किवाड़ों से की फाँक से झाँक कर देखा है। तूने कभी नहीं देखा ?’’<br />
तारा का मुँह झेंप से लाल हो गया—‘‘हमारे यहाँ एक ही तो कोठरी है। भाई और मास्टर जी बरामदे में सो जाते हैं। एक रात नींद खुल गयी। नाली पर जाने के लिए उठी तो मास्टर जी...मुझे बहुत शरम आयी...।’’ तारा ने दोनों हाथों से मुँह ढाँप लिया।<br />
<br />
हँसी और संकोच के मारे तारा की बात रुक गयी थी—‘‘हाय तुझे कैसे बताऊँ, हरी अभी कितना है और सामने वाली पीतो; वही जो अभी नीचे बिना झगले के फिर रही थी। हाय कैसे बताऊँ, गधों ने जाने कहाँ क्या देख लिया होगा।’’ तारा ने लाज से होंठों पर हाथ रख लिया, ‘‘पीतो के आँगन में वैसे ही करने लगे। कर्तारी मौसी ने देख लिया तो हरी को घसीटती हुई माँ के पास आयी और लड़ने लगी—क्या सिखाती हो बच्चों को ? कुछ लाज-शर्म है तुमको ?’’<br />
<br />
माँ उल्टे बोली, ‘‘तू ही दिखाती-सिखाती होगी। तेरी पीतो तो बड़ी है।’’ दोनों में बहुत लड़ाई हुई।<br />
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मास्टर जी ने आकर सुना तो हरी को बहुत पीटा। माँ से नाराज हुए—लड़के को जाँघिया क्यों नहीं पहनाती। वही हाल है हमारे यहाँ। इतनी ही जगह पीतो के घर है। बच्चे मरे देखकर समझते हैं खेल और मार खाते हैं। हाय मर गयी, कितनी बेशर्मी है।’’<br />
शीलो ने स्वर दबाकर विज्ञता से कहा—‘‘और क्या, मैंने बाबू जी और माँ को भी देखा है।’’ और कुछ सोच कर फिर बोली, ‘‘तुझे लड़कों से डर लगता है ?’’<br />
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तारा ने उत्तर दिया—‘‘कई लड़के बहुत खराब होते हैं। सिर सड़े (कपाल फूटे) छेड़ते हैं।’’<br />
शीलो बोली—‘‘हमारी गली में बलदेव है न, हाय कितना अच्छा लगता है। भैड़ा (बेशर्म) कहीं का, मुझे देखकर आँख....।’’<br />
जीने में तेजी से ऊपर आते कदमों की आहट सुनकर शीलो ने अनुमान प्रकट किया—‘‘भाई !’’<br />
तारा ने कहा—‘‘रतन होगा।’’<br />
<br />
कोठरी के किवाड़ खुले ही थे। आधे मकान के पड़ोसी बाबू गोविन्दराम के लड़के रतन ने पुस्तकें बगल में दबाये झाँककर पूछ लिया—‘‘मासी जी स्यापे से अभी नहीं लौटीं ? झाई (मेरी माँ) नहीं आयी ?’’<br />
शीलो ने रतन को तारा के यहाँ पहिले भी कई बार देखा था। रतन ने शीलो से पूछ लिया—‘‘तू कब आयी ?’’<br />
तारा ने रूखा-सा उत्तर दे दिया—‘‘अभी से कैसे आ जायेगी ! तेरी झाई रसोई में कटोरदान के नीचे ढाँक गयी है।’’<br />
रतन लौट गया। रतन ग्यारहवीं श्रेणी में पढ़ रहा था। उम्र सत्रह-अठारह की की थी। तारा से तीन बरस बड़ा था। गोरा-गोरा, लम्बा कद, होंठों पर रोयें काले हो रहे थे। <br />
<br />
<\poem></div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Jhutha_sucha.jpg&diff=4168चित्र:Jhutha sucha.jpg2009-09-23T15:52:08Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div></div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AF%E0%A4%B6%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B2&diff=4167यशपाल2009-09-23T15:50:07Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र= --<br />
|नाम=यशपाल<br />
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|विविध=--<br />
|जीवनी=[[यशपाल / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
'''कहानियाँ'''<br />
<br />
* [[आदमी का बच्चा/ यशपाल]]<br />
* [[मंगला/ यशपाल]]<br />
* [[वैष्णवी/ यशपाल]]<br />
* [[मक्रील/ यशपाल]]<br />
* [[फूलो का कुर्ता/ यशपाल]]<br />
* [[करवा का व्रत/ यशपाल]]<br />
* [[जाब्ते की कार्रवाई/ यशपाल]]<br />
* [[दुख/ यशपाल]]<br />
* [[कलाकार की आत्महत्या/ यशपाल]]<br />
* [[महाराजा का इलाज/ यशपाल]]<br />
* [[परदा/ यशपाल]]<br />
* [[दूसरी नाक/ यशपाल]]<br />
* [[खच्चर और आदमी/ यशपाल]]<br />
* [[अख़बार में नाम/ यशपाल]]<br />
* [[ख़ुदा और ख़ुदा की लड़ाई/ यशपाल]]<br />
* [[सन्तान की मशीन/ यशपाल]]<br />
* [[होली का मज़ाक / यशपाल]]<br />
<br />
'''उपन्यास<br />
* [[तारा / यशपाल]]<br />
* [[तारा और बन्ती / यशपाल]]<br />
* [[झूठा सच / यशपाल]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%9C%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%82&diff=4153सरोजिनी साहू2009-09-06T13:42:29Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Sarojini_sahu.jpg<br />
|नाम=सरोजिनी साहू<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=1956 <br />
|जन्मस्थान= <br />
|कृतियाँ=--<br />
|विविध= ओड़िया भाषा की प्रमुख समकालीन लेखिका।<br />
|जीवनी=[[सरोजिनी साहू / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
'''कहानियाँ'''<br />
* [[छिन्न-मूल / सरोजिनी साहू]]<br />
* [[बलात्कृता / सरोजिनी साहू]]<br />
* [[बेड़ी / सरोजिनी साहू]]<br />
* [[दुःख अपरिमित / सरोजिनी साहू]]<br />
'''उपन्यास '''<br />
* [[पक्षी-वास / सरोजिनी साहू]]<br />
* [[ / सरोजिनी साहू]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Sarojini_sahu.jpg&diff=4152चित्र:Sarojini sahu.jpg2009-09-06T13:42:06Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div></div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%87_%E0%A4%B8%E0%A5%87_%E0%A4%AA%E0%A4%B9%E0%A4%B2%E0%A5%87_/_%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%B8&diff=4007नाश्ते से पहले / मुद्राराक्षस2009-08-03T20:50:09Z<p>Pratishtha: नया पृष्ठ: {{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=मुद्राराक्षस |संग्रह=सरला, बिल्लू और जाला / मुद...</p>
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<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=मुद्राराक्षस <br />
|संग्रह=सरला, बिल्लू और जाला / मुद्राराक्षस<br />
}}<br />
[[श्रेणी:बाल कथाएँ ]]<br />
सुबह जब सीता नाश्ता करने बैठी तो उसने देखा कि उसका बाबा हँसिया लेकर कहीं बाहर जा रहा है। ताज्जुब से सीता ने माँ को टोका, ‘‘माँ, बाबा इस वक्त हँसिया लेकर कहाँ जा रहे हैं ?’’<br />
‘‘बाड़े में जा रहे हैं।’’ माँ ने जवाब दिया, ‘‘सूअर ने कल राते में बच्चे दिये थे।’’<br />
‘‘लेकिन इसमें वहाँ हँसिया का क्या काम?’’ सीता ने पूछा। वह अब लगभग आठ साल की हो चली थी। काफी कुछ समझने भी लगी थी।<br />
माँ बोली, ‘‘अरे, उन बच्चों में एक तो बिल्कुल ही मरियल है। वह बहुत छोटा और कमज़ोर है। उसके जिन्दा रहने-न-रहने से कोई फ़ायदा नहीं है। इसीलिए तुम्हारे बाबा ने सोचा कि उसे मार दिया जाये।’’<br />
‘‘’मार दिया जाये? सीता चौंक पड़ी, ‘‘क्या सिर्फ उसे इसीलिए मार डालना चाहिए कि वह बहुत छोटा और कमज़ोर हैं ?’’<br />
<br />
माँ ने चावल के मांड में चीनी डालकर एक कटोरी सीता के सामने रखते हुये कहा, ‘‘इसके लिए तुम्हें चिल्लाने की जरूरत नहीं है। बाबा ठीक ही तो कह रहे हैं। सूअर का वह बच्चा आखिर मर ही तो जायेगा !’’<br />
सीता ने बैठनेवाला पीढ़ा एक ओर सरका दिया और उठकर दरवाजे़ के बाहर भागी।<br />
घास भीगी हुई थी और धरती से वसन्त की सोंधी-सोंधी गन्ध उठ रही थी। दौड़कर बाबा तक पहुँचते-पहुँचते उसकी नन्हीं-सी घाघर कोरें भीग गयीं।<br />
<br />
उसने रोते-रोते पुकारा, ‘‘बाबा, बाबा ! उसे मत मारो। यह बहुत बुरी बात है, बाबा !’’<br />
उसका बाबा रुक गया, ‘‘क्या हुआ, सीता ? आखिर तुझे अक्ल कब आयेगी ?’’<br />
सीता चिल्लाई, ‘‘अक्ल ? वहाँ तो मरने-जीने का सवाल है और तुम अक्ल की बातें कर रहे हो !’’ उसके गालों पर आँसू लुढ़कने लगे। उसने दौड़कर बाबा के हाथ की हँसिया पकड़ ली और छीनने लगी।<br />
बाबा ने समझाया, ‘‘देखो बेटा, मैं तुमसे ज्यादा जानता हूँ कि नन्हें सूअरों को कैसे पाला जाता है। कमज़ोर बच्चे बड़ी परेशानी पैदा करते हैं। बस जाओ, अब भाग जाओ !’’<br />
‘‘लेकिन यह बुरी बात है, बाबा !’’ सीता रोती हुई बोली, ‘‘इसमें सूअर के बच्चे का क्या दोष है कि वह छोटा पैदा हुआ ? कोई दोष दीखता है तुम्हें ? मैं ही जब पैदा हुई थी तब अगर बहुत छोटी और कमजोर होती तो क्या तुम मुझको मार डालते ?’’<br />
<br />
बाबा ने उसकी ओर प्यार से मुस्कराकर कहा, ‘‘नहीं, कभी नहीं। लेकिन यहाँ तो बात ही दूसरी है। नन्ही बेटी अलग चीज़ होती है और वह सूअर का कमज़ोर बच्चा अलग चीज़ है।’’<br />
‘‘लेकिन मुझे तो इसमें कोई फर्क नहीं लगता !’’ सीता ने बाबा के हाथ की हँसिया छीनने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘यह तो बहुत ही भयानक अन्याय है, बाबा !’’<br />
बाबा का चेहरा विचित्र भावों से आच्छादित हो गया। वह स्वयं अपने में ही रुआँसा-सा हो आया।<br />
‘‘ठीक हैं !’’ अन्तत: बाबा ने कहा, ‘‘अच्छा, तुम तो अब घर चलो, मैं उस मरकुट को लेकर आता हूँ। अब तुम्हें ही उसे शीशी से दूध पिलाना होगा, बच्चों की तरह। तभी तुम जानोगी कि इस तरह के सूअर के बच्चे से कितनी परेशानी होती है।’’<br />
आधे घण्टे बाद जब बाबा लौटे तो उनकी बग़ल में एक दफ्ती का डिब्बा दबा हुआ था। सीता अन्दर उस वक्त अपने कपड़े बदल रही थी। रसोई में सुबह का नाश्ता तैयार हो चुका था। तले हुये चने और चाय की महक फैल रही थी। दीवारों की सीलन और चूल्हे की लकड़ी के सुलगते हुये धुएँ की महक हवा में भरी हुई थी।<br />
<br />
बाबा ने कहा, ‘‘इसे सीता के ही खटोले में डाल दो।’’<br />
सीता की माँ ने उस डिब्बे को सीता के खटोले में ही रख दिया। बाबा ने आँगन में आकर पानी से अपने हाथ धोए और अंगोछे में पोंछ लिए। सीता धीरे-धीरे कोठरी से बाहर आयी। रोने से उसकी आँखें लाल हो रही थीं। अचानक दफ्ती का डिब्बा हिलने-डुलने लगा और फिर उसमें से चिचियाने की आवाज़ आयी। सीता ने अपने बाबा की ओर देखा और लपककर डिब्बे का ढकना उठा लिया। उसके अन्दर सूअर का ताजा पैदा हुआ हुआ बच्चा सीता की ओर टुकुर-टुकुर ताकता हुआ बैठा था। वह सफेद था, सुबह की रोशनी उसके कानों पर पड़ रही थी और वे गुलाबी-से हो रहे थे।<br />
<br />
‘‘अब यह तुम्हारा है !’’ बाबा ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ कि वेवजह मरने से बच गया। भगवान्, इस मूर्खता के लिए मुझे क्षमा कर !’’<br />
सीता उस नन्हें-से सूअर के बच्चे की ओर से अपनी आँखें नहीं हटा पा रही थी। बच्चा बहुत खूबसूरत लग रहा था।<br />
सीता ने जैसे अपने-आप ही कहा, ‘‘कितना सुन्दर लग रहा है ! बहुत ही खूबसूरत !’’<br />
उसने डिब्बे को सावधानी से बन्द कर दिया। इसके बाद उसने अपने बाबा को प्यार किया और फिर अपनी माँ को और तब डिब्बे का ढकना दुबारा खोला। उसके अन्दर से बच्चे को बाहर निकालकर अपने गालों से सटा लिया।<br />
इसी समय उसका भाई अन्दर आया। वह कई हथियारों से लैस था-एक हाथ में गुलेल थी और दूसरे में छड़ी और कमर में लकड़ी की धज्जी की बनाई हुई तलवार।<br />
<br />
‘‘वह क्या है ?’’ अप्पू ने ललकारा, ‘‘सीता के हाथ में क्या है ?’’<br />
‘‘उसका एक मेहमान है !’’ माँ ने कहा, ‘‘अप्पू, तू हाथ धो ले और मुँह भी। कितनी धूल लग रही है !’’<br />
‘‘लाओ मैं देखूँ !’’ अप्पू ने अपनी गुलेल रखते हुये कहा। फिर नज़दीक से देखकर बोला, ‘‘अरे, यह भी कोई सूअर है ! इसी मरियल को सूअर कहते हैं ! वाह, बहुत ही बढ़िया नमूना है सूअर का ! यह तो सफेद चूँहे के बराबर है।’’<br />
‘‘अप्पू मुँह-हाथ धो ले और नाश्ता कर ले आकर !’’ माँ ने कहा, ‘‘फिर तुझे स्कूल भी तो जाना होगा।’’<br />
‘‘बाबा, क्या तुम मुझे भी एक बच्चा नहीं दोगे ?’’ अप्पू ने कहा।</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%B2%E0%A4%BE,_%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A5%82_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%B8&diff=4006सरला, बिल्लू और जाला / मुद्राराक्षस2009-08-03T20:49:02Z<p>Pratishtha: नया पृष्ठ: {{GKRachna |रचनाकार=मुद्राराक्षस }} {{GKPustak |चित्र= Sarla,_Billu_Aur_Jala.jpg |नाम=सरला, बिल्ल...</p>
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<div>{{GKRachna<br />
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}}<br />
<br />
{{GKPustak<br />
|चित्र= Sarla,_Billu_Aur_Jala.jpg<br />
|नाम=सरला, बिल्लू और जाला<br />
|रचनाकार=[[मुद्राराक्षस]]<br />
|प्रकाशक=आत्माराम एण्ड सन्स<br />
|वर्ष= २००६<br />
|भाषा=हिन्दी<br />
|विषय=कहानी <br />
|शैली=--<br />
|पृष्ठ=160<br />
|ISBN=--<br />
|विविध=--<br />
}}<br />
<br />
* [[नाश्ते से पहले / मुद्राराक्षस]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%B8&diff=4005मुद्राराक्षस2009-08-03T20:47:32Z<p>Pratishtha: </p>
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<div>{{GKGlobal}}<br />
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|जीवनी=[[मुद्राराक्षस / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
'''कहानियाँ'''<br />
* [[मुठभेड़ / मुद्राराक्षस]]<br />
* [[नयी सदी की पहचान श्रेष्ठ दलित कहानियाँ / मुद्राराक्षस]]<br />
<br />
'''बाल-साहित्य <br />
* [[सरला, बिल्लू और जाला / मुद्राराक्षस]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%98%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B2_%E0%A4%B6%E0%A4%B9%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%8F%E0%A4%95_%E0%A4%AC%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%80_/_%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%B8&diff=4004घायल शहर की एक बस्ती / मुद्राराक्षस2009-08-03T20:46:52Z<p>Pratishtha: नया पृष्ठ: {{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=मुद्राराक्षस |संग्रह=नयी सदी की पहचान श्रेष्ठ ...</p>
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<div>{{GKGlobal}}<br />
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|रचनाकार=मुद्राराक्षस <br />
|संग्रह=नयी सदी की पहचान श्रेष्ठ दलित कहानियाँ / मुद्राराक्षस <br />
}}<br />
<br />
मैं जिस शहर (मेरठ) में पल कर बड़ा हुआ, वही शहर सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलसता रहा है। शहर में बस्ती-बस्ती आग बरस रही है। मार काट मची है। लोग चीखते-चिल्लाते जान बचाकर भाग रहे हैं। वैसा खौफनाक मंजर बचपन में भी देखा और जवानी में भी। मेरठ शहर का चप्पा-चप्पा हिंदू मुस्लिम दंगों का चश्मदीद गवाह रहा है। <br />
इन्हीं दंगों में दलितों को यह अहसास भी होता रहा है कि वे न हिंदू हैं और न मुसलमान। उनके भीतर से सवाल दर सवाल उभरते रहे हैं। इन्हीं सवालों के उत्तर तलाशने की कोशिश ‘‘घायल शहर की एक बस्ती’’-लगभग डेढ़-दो दशक पूर्व यह कहानी लिखी थी, छपी बाद में।</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Sarla,_Billu_Aur_Jala.jpg&diff=4003चित्र:Sarla, Billu Aur Jala.jpg2009-08-03T20:46:02Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div></div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A8%E0%A4%AF%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%AA%E0%A4%B9%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%A8_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A0_%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%81_/_%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%B8&diff=4002नयी सदी की पहचान श्रेष्ठ दलित कहानियाँ / मुद्राराक्षस2009-08-03T20:45:40Z<p>Pratishtha: नया पृष्ठ: {{GKRachna |रचनाकार=मुद्राराक्षस }} {{GKPustak |चित्र= Nayi_Sadi_Ki_Pahchan.jpg |नाम=नयी सदी की ...</p>
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<div>{{GKRachna<br />
|रचनाकार=मुद्राराक्षस <br />
}}<br />
<br />
{{GKPustak<br />
|चित्र= Nayi_Sadi_Ki_Pahchan.jpg<br />
|नाम=नयी सदी की पहचान श्रेष्ठ दलित कहानियाँ <br />
|रचनाकार=[[मुद्राराक्षस]]<br />
|प्रकाशक=लोकभारती प्रकाशन<br />
|वर्ष= २००४<br />
|भाषा=हिन्दी<br />
|विषय=कहानी <br />
|शैली=--<br />
|पृष्ठ=160<br />
|ISBN=--<br />
|विविध=--<br />
}}<br />
<br />
* [[घायल शहर की एक बस्ती / मुद्राराक्षस]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Nayi_Sadi_Ki_Pahchan.jpg&diff=4001चित्र:Nayi Sadi Ki Pahchan.jpg2009-08-03T20:45:37Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div></div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%8F%E0%A4%95_%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%9F%E0%A4%BE_%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80_/_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AE_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0_%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2&diff=4000एक लोटा पानी / श्याम सुन्दर अग्रवाल2009-08-03T20:42:48Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=श्याम सुन्दर अग्रवाल }}<br />
<poem><br />
बहुत समय पहले की बात है। एक गाँव में राधा नाम की एक औरत रहती थी। राधा बहुत ही समझदार थी। उसके पास एक भेड़ थी। भेड़ जो दूध देती, राधा उसमें से कुछ दूध बचा लेती। उस दूध से वह दही जमाती। दही से मक्खन निकाल लेती। छाछ तो वह पी लेती, लेकिन मक्खन से घी निकाल लेती। उस घी को राधा एक मटकी में डाल लेती। धीरे-धीरे मटकी घी से भर गई।<br />
राधा ने सोचा, अगर घी को नगर में जा कर बेचा जाए तो काफी पैसे मिल जाएंगे। इन पैसों से वह घर की ज़रूरत का कुछ सामान खरीद सकती है। इसलिए वह घी की मटकी सिर पर उठा कर नगर की ओर चल पड़ी।<br />
उन दिनों आवाजाही के अधिक साधन नहीं थे। लोग अधिकतर पैदल ही सफर करते थे। रास्ता बहुत लम्बा था। गरमी भी बहुत थी। इसलिए राधा जल्दी ही थक गई। उसने सोचा, थोड़ा आराम कर लूँ। आराम करने के लिए वह एक वृक्ष के नीचे बैठ गई। घी की मटकी उसने एक तरफ रख दी। वृक्ष की शीतल छाया में बैठते ही राधा को नींद आ गई। जब उसकी आँख खुली तो उसने देखा, घी की मटकी वहाँ नहीं थी। उसने घबरा कर इधर-उधर देखा। उसे थोड़ी दूर पर ही एक औरत अपने सिर पर मटकी लिये जाती दिखाई दी। वह उस औरत के पीछे भागी। उस औरत के पास पहुँच राधा ने अपनी मटकी झट पहचान ली।<br />
राधा ने उस औरत से अपनी घी की मटकी माँगी। वह औरत बोली, “यह मटकी तो मेरी है, तुम्हें क्यों दूँ?”<br />
राधा ने बहुत विनती की, परंतु उस औरत पर कुछ असर न हुआ। उसने राधा की एक न सुनी। राधा उसके साथ-साथ चलती नगर पहुँच गई। नगर में पहुँच कर राधा ने मटकी के लिए बहुत शोर मचाया। शोर सुनकर लोग एकत्र हो गए। लोगों ने जब पूछा तो उस औरत ने घी की मटकी को अपना बताया। लोग निर्णय नहीं कर पाए कि वास्तव में मटकी किसकी है। इसलिए वे उन दोनों को हाकिम की कचहरी में ले गए।<br />
राधा ने हाकिम से कहा, “हुजूर! इस औरत ने मेरी घी की मटकी चुरा ली है। मुझे वापस नहीं कर रही। कृपया इससे मुझे मेरी मटकी दिला दें। मुझे यह घी बेचकर घर के लिए जरूरी सामान खरीदना है।”<br />
“तुम्हारे पास यह घी कहाँ से आया ? और इसने कैसे चुरा लिया ?” हाकिम ने पूछा।<br />
“मेरे पास एक भेड़ है। उसी के दूध से मैने यह घी जमा किया है। रास्ते में आराम करने के लिए मैं एक वृक्ष की छाया में बैठी तो मुझे नींद आ गई। तभी यह औरत मेरी मटकी उठा कर चलती बनी।” <br />
<br />
हाकिम ने उस औरत से पूछा तो वह बोली, “हुजूर, आप ठीक-ठीक न्याय करें. मैने पिछले माह ही एक गाय खरीदी है, जो बहुत दूध देती है। मैने यह घी अपनी गाय के दूध से ही <br />
तैयार किया है। जरा सोचिए, एक भेड़ रखने वाली औरत एक मटकी घी कैसे जमा कर सकती है?”<br />
हाकिम भी दोनों की बातें सुनकर दुविधा में पड़ गया। वह भी निर्णय नहीं कर पा रहा था कि वास्तव में घी की मटकी किसकी है। उसने दोनों औरतों से पूछा, “क्या तुम्हारे पास कोई सबूत है ?”<br />
दोनों ने कहा कि उनके पास कोई सबूत नहीं है।<br />
तब हाकिम को एक उपाय सूझा। उसने दोनों औरतों से कहा, “वर्षा के पानी से कचहरी के सामने जो कीचड़ जमा हो गया है, उसमें मेरे बेटे का एक जूता रह गया है। तुम पहले वह जूता निकाल कर लाओ, फिर मैं फैसला करूँगा।” <br />
राधा और वह औरत कीचड़ में घुस कर जूता ढूँढ़ने लगीं। वे बहुत देर तक कीचड़ में हाथ-पाँव मारती रहीं, परंतु उन्हें जूता नहीं मिला। तब हाकिम ने उन्हें वापस आ जाने को कहा। दोनों कीचड़ में लथपथ हो गईं थीं। हाकिम ने चपरासी से उन्हें एक-एक लोटा पानी देने को कहा, ताकि वे हाथ-पाँव धो कर कचहरी में हाज़िर हो सकें। <br />
दोनों को एक-एक लोटा पानी दे दिया गया। राधा ने तो उस एक लोटा पानी में से ही अपने हाथ-पाँव धो कर थोड़ा-सा पानी बचा लिया। परंतु गाय वाली वह औरत एक लोटा पानी से हाथ भी साफ नहीं कर पाई। उसने कहा, “इतने पानी से क्या होता है! मुझे तो एक बाल्टी पानी दो, ताकि मैं ठीक से हाथ-पाँव धो सकूँ।”<br />
हाकिम के आदेश से उसे और पानी दे दिया गया।<br />
हाथ-पाँव धोने के बाद जब राधा उस औरत के साथ कचहरी में पहुँची तो हाकिम ने फैसला सुना दिया, “घी की यह मटकी भेड़ वाली औरत की है। गाय वाली औरत जबरन इस पर अपना अधिकार जमा रही है।”<br />
सब लोग हाकिम के न्याय से बहुत खुश हुए क्योंकि उन्होंने स्वयं देख लिया था कि भेड़ वाली औरत ने कितने संयम से सिर्फ एक लोटा पानी से ही हाथ-पाँव धो लिए थे। गाय वाली औरत में संयम नाम मात्र को भी नहीं था। वह भला घी कैसे जमा कर सकती थी। </poem> <br />
[[श्रेणी:बाल कथाएँ ]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%B8&diff=3999मुद्राराक्षस2009-08-03T20:42:08Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=<br />
|नाम=मुद्राराक्षस<br />
|उपनाम=--<br />
|जन्म=--<br />
|मृत्यु=-<br />
|जन्मस्थान=--<br />
|कृतियाँ=--<br />
|विविध=--<br />
|जीवनी=[[मुद्राराक्षस / परिचय]]<br />
}}<br />
<br />
'''कहानियाँ'''<br />
* [[मुठभेड़ / मुद्राराक्षस]]<br />
* [[नयी सदी की पहचान श्रेष्ठ दलित कहानियाँ / मुद्राराक्षस]]<br />
<br />
'''बाल कहानियाँ'''<br />
* [[सरला, बिल्लू और जाला / मुद्राराक्षस]]</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%A3_/_%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%BE_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%9C&diff=3998समरांगण / मेहरुन्निसा परवेज2009-08-03T20:39:39Z<p>Pratishtha: नया पृष्ठ: {{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=मेहरुन्निसा परवेज }} Category:उपन्यास {{GKUpanyaas |चित्र= Sama...</p>
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|रचनाकार=मेहरुन्निसा परवेज<br />
}}<br />
[[Category:उपन्यास]]<br />
<br />
{{GKUpanyaas<br />
|चित्र= Samaraagana.jpg<br />
|नाम=समरांगण <br />
|रचनाकार=[[मेहरुन्निसा परवेज]]<br />
|प्रकाशक=वाणी प्रकाशन<br />
|वर्ष= २००६<br />
|भाषा=हिन्दी<br />
|विषय=--<br />
|शैली=--<br />
|पृष्ठ=356<br />
|ISBN=--<br />
|विविध=--<br />
}}<br />
<poem><br />
1<br />
दिल्ली शहर की पराठेवाली गली जिसमें ढेर सारी मिठाइयों की दुकाने थीं। पराठेवाली गली की शुद्ध मिठाइयाँ दूर-दूर तक तक प्रसिद्ध थीं। दूर से लोग खरीदने आते थे वहाँ मिठाई की सारी दुकानें कश्मीरी पण्डितों की थीं। यही लोग यहाँ मिठाई बनाकर बेचते थे। मुगलों के शाही परिवारों की हिंदू बेगमों के यहाँ तथा ठाकुरों की हवेलियों में रोज़ाना पूजा के लिए यहीं से मिठाइयाँ पाबंदी से जाती थीं। <br />
<br />
पंड़ित गोपीलाल आज ज़रा तड़के ही घर चल पड़े थे, सोचा था ज़रा दुकान की सफाई करवा लेंगे। उन्होंने आकर अपनी मिठाई की दुकान खोली ही थी और सोच ही रहे थे कि दुकान पर काम करने वाला लड़का आ जाए तो ज़रा सफ़ाई करवा कर बर्तन धुलवा लेंगे। दो दिन से आँधी-तूफान लगातार आ रहा था। इस कारण भी कोई काम नहीं हो पाता था। चारों तरफ़ धूल-ही-धूल समा गई थी। अभी वह दुकान ढंग से खोल भी नहीं पाए थे कि शोर सुनाई देने लगा। लोग भाग रहे थे। कुछ लोग दुकानें लूटने लगे थे। मार-काट, वाही-तबाही मचने लगी थी। भगदड़-सी मच गई। अचानक जैसे कोहराम मच गया। साथ के सभी मिठाई वाले जल्दी-जल्दी दुकानें बंद करने लगे। लोग छुपने लगे, भागने लगे। <br />
बेहद नफ़ासत, तहज़ीब पसंद दिल्ली देखते ही निपट गँवार, जाहिल, बेअदब हो गई थी। किसी का लिहाज़-पर्दा अदब-क़ायदा रह गया था। घोड़ों की टाप से गलियाँ गूँज उठीं लोग सहम गए। भागो ! मारो ! कत्ल करो की आवाज़ चारों ओर से आ रही थी। अंग्रेज सैनिक बेखटके घरों में, दुकानों में घुस रहे थे। जिसको जहाँ जगह मिल रही थी, वहीं छुप रहा था। भाग रहा था। लोग बदहवास से भाग रहे थे। <br />
<br />
पंडित गोपीलाल ने जल्दी से अपनी दुकान बंद की सामने दरवाज़े पर ताला ठोंका और बग़ल में छाता दबाकर धीरे से दुकान के पीछे वाली गली में उतर गए थे। धीरे-धीरे, लुकते-छिपते आगे बढ़ते गए। सकरी गलियों में अभी कोई बावेला नहीं मचा था। गलियाँ इतनी सकरी थीं। कि एक समय में एक ही व्यक्ति पैदल-पैदल आ-जा सकता था। लहरदार-चक्कर गलियाँ थीं। एक बार यदि कोई आदमी धोखे से भी इन गलियों में उतर आए तो फिर चक्कर पार कर ही घंटे-दो-घंटे में ही बाहर आ सकता था। <br />
<br />
एक बार उन्होंने मिठाई की दुकान वाले अपने मित्र रतनलालजी से सकरी गलियों का रोना रोया था, तो उन्होंने बताया था, कि यह सकरी गलियाँ बड़ी ही सुरक्षित होती हैं। पुराने लोग ऐसी ही सकरी गलियों में रहना पसंद थे, ताकि कोई दुश्मन यदि धोखे से आ जाए तो जल्दी लौटकर नहीं जा पाए। घोड़ा तो ख़ैर इन गलियों में चल ही नहीं सकता। घोड़ा मुड़ ही नहीं सकता था। इस कारण इन गलियों को सकरा रखा गया था, ताकि कोई ख़ून करके, लूटकर भाग न सके। आज उन्हें अपने मित्र रतनलालजी की बात सोलह आने सत्य लग रही थी। रतनलाल जी की बात की सत्यता का परीक्षण इतने बरसों बाद वह भी संकट का समय हो पाया था।<br />
<br />
संकरी गली में अधिकतर लोगों के पिछवाड़े वाले दरवाजे़ ही खुलते थे। कहीं-कहीं तो दरवाज़े भी नहीं थे, बस घरों की दीवारें बनी थीं। दीवारों ने जैसे एक पर-कोटा सा बना दिया था। इन दीवारों में छोटी –छोटी मेहराबें बनी थीं। उन मेहराबों में सुना है कई दंगा फसादी लोग अपना गोला-बारूद छुपाकर रखते थे। कहीं दंगा होता था, करना होता तो झट से गलियों में घुसकर अपना गोला-बारूद निकालते और फ़रार हो जाते थे। बची सामग्री, जुटी सामग्री भी तत्काल यहीं लाकर छुपा देते थे। दंगाइयों के लिए यह गलियाँ बड़ी ही सुरक्षित, सुविधाजनक होती थीं।<br />
<br />
पंड़ित गोपीलाल सोचते-विचारते मन ही मन ईश्वर को याद करते अपने घर की ओर बढ़ने लगे। अपने प्राणों की चिंता तो थी ही पर अपनी नई ब्याहता पत्नी सुहासनी की चिंता उन्हें ज़्यादा सता रही थी। जाने कब घर पहुँच पाएँगे ? जाने सुहासनी किस हाल में मिलेगी ? मिल पाएँगे भी या नहीं। कोई भरोसा नहीं ? दंगे में तो सब कुछ हो सकता है ? घंटाघर के पास की एक गली में वह रहते थे। आजकल सुहासनी एकदम अकेली रहती थी। पिताजी और माँ तो गाँव चले गए थे। वैसे तो घंटाघर के पास कुछ कश्मीरी पंडितों के घर थे, पर क्या ऐसे संकट के समय में वह एक दूसरे की मदद कर पाए होंगे ? संकट में दूसरे की सुध किसे रहती है ?<br />
<br />
ग़दर का खटका कई दिनों से लग रहा था, पर सब कुछ-इतने जल्दी हो जाएगा, उन्होंने सोचा नहीं था। सोच ही रहे थे इस बार किसी त्यौहार पर कश्मीर गए तो सुहासनी को गाँव छोड़ आएँगे। दिल्ली में राजनीतिक वातावरण काफ़ी पहले से ख़राब था। भीतर-ही-भीतर आग सुलग रही थी, यह सभी समझ रहे थे। विस्फोट इतना जल्दी होगा सोचा नहीं था। <br />
<br />
गली के समाप्त होते ही उन्होंने झाँक कर देखा, बड़ी सड़क पर भयानक मारकाट मची थी। चीत्कार, कोलाहल चारों तरफ फैला था। पंडित गोपीलाल को लगा अब आगे नहीं बढ़ सकते, इतनी मारकाट में आगे बढ़ना कठिन काम था। बहुत देर तक वह गली के मुहाने पर छुपे रहे। दिन धीरे-धीरे ढलने लगा था, शाम होने लगी थी। साथ ही उनकी चिन्ता बढ़ने लगी थी, जाने सुहासनी कैसी होगी ? सुरक्षित मिलेंगे भी या नहीं ? भय और चिंता के कारण गोपीलाल का गला सूखने लगा, आँख के आगे अंधेरा-सा छाने लगा। साहस करके लुकते-छुपते साक्षात मृत्यु के तांडव के बीच से वह सरकते-सरकते आगे बढ़े। <br />
<br />
घंटाघर जब पहुँचे तब तक अँधेरा हो चुका था। दिन ढल गया था। सारा दिन लग गया था। उन्हें घर पहुंचने में, चिंता ने उन्हें सुखा-सा दिया था। भयभीत काँपते हाथों से गोपीलाल ने अपने घर के किवाड़ की कुंडी खटखटाई। किवाड़ की कुंडी उन्होंने धीरे से खटखटाई थी, भीतर कोई आहट नहीं हुई कोई हरकत नहीं हुई। हरकत सुनाई नहीं दी। मन की वेदना, घबराहट और बढ़ गई। माथे का पसीना पोंछते हुए उन्होंने दोबारा किवाड़ खटखटाए। किवाड़ों की दरार से भी झाँका, भीतर घुप्प अँधेरा दिखा। उन्होंने दोनों हथेलियों की ओक में अपना मुँह फँसाया और धीरे से आवाज़ लगाई। <br />
‘‘सुहासनी.....सुहासनी, मैं हूँ द्वारा खोलो ?’’ <br />
भीतर थोड़ी आहट मिली। कोई सरक कर रेंग रहा था। बहुत देर बाद धीरे से किवाड़ खुले, झट से वह भीतर हो गए और जल्दी से भीतर से किवाड़ की कुंडी लगा लिया। भीतर भयानक अँधेरा था। <br />
अचानक कोई उनसे लिपट गया और रोने लगा, स्पर्श से वह जान गए घबराई सुहासनी है। अपनों के जीवित स्पर्श ने जैसे उन्हें विचित्र-सा सुख दिया। बेहद थके होने के कारण भी उन्हें अपनों के बीच पहुँच कर संतोष-सा हुआ, लगा जैसे जीवन का सबसे बड़ा सुख मिल गया है। <br />
<br />
<\poem><br />
{{GKIncomplete}}</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Samaraagana.jpg&diff=3997चित्र:Samaraagana.jpg2009-08-03T20:38:47Z<p>Pratishtha: </p>
<hr />
<div></div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%B2%E0%A4%BE_%E0%A4%AA%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B6_/_%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%BE_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%9C&diff=3996अकेला पलाश / मेहरुन्निसा परवेज2009-08-03T20:36:06Z<p>Pratishtha: नया पृष्ठ: {{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=मेहरुन्निसा परवेज }} Category:उपन्यास {{GKUpanyaas |चित्र=Akel...</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=मेहरुन्निसा परवेज <br />
}}<br />
[[Category:उपन्यास]]<br />
<br />
{{GKUpanyaas<br />
|चित्र=Akela_palash.jpg<br />
|नाम=अकेला पलाश <br />
|रचनाकार=[[मेहरुन्निसा परवेज]]<br />
|प्रकाशक=वाणी प्रकाशन<br />
|वर्ष= २००२<br />
|भाषा=हिन्दी<br />
|विषय=--<br />
|शैली=--<br />
|पृष्ठ=232<br />
|ISBN=--<br />
|विविध=--<br />
}}<br />
<br />
आफिस में टेबल के सामने बैठते ही मन की कमजोरी, उदासी जैसे बटन दबाते ही गायब हो गयी थी कहीं। उसकी जगह धैर्य-दृढ़ता आ गयी थी। जिम्मेदारी के एहसास ने उसे बाँध लिया, कस के। चपरासी ने एक गिलास पानी उसके आगे रख दिया। पानी पीकर उसे अच्छा लगा। रुमाल से उसने चेहरा साफ किया। अब वह पूर्ण रूप से तैयार थी, आगे की स्थिति का सामना करने के लिए। चपरासी ने उसके आगे ढेर सारी डाक लाकर रखी दी। डाक छाँटते ही एक लिफाफे को देख उसके हाथ काँप गये। पहचाने अक्षरों की पहचान जो अभी फीकी नहीं हुई थी, उसे देखते ही वह चौंक पड़ी। पत्र खोलते ही वह काँप-सी गयी। तुषार का पत्र था—तहमीना, मैं तुम्हारे शहर में आ रहा हूँ...मिल सकोगी ?<br />
पत्र पढ़कर वह जैसे काँप-सी गयी।<br />
<br />
तभी सामने रोड से रजिया आती दिखी। उसने दूर से ही आदाब किया। जवाब में वह धीरे से मुस्करा दी और टेबल पर रखा पेपरवेट गोल-गोल घुमाती रही। हाथ में रखे पत्र को उसने पेरवट से दबा दिया।<br />
‘‘हूँ, आओ रजिया, कैसी हो ?’’ उसने बिना उसकी ओर देखे पूछा। उस वक्त लहजा वैसा ही था जैसे मरीज को उसकी बड़ी बीमारी की सूचना देते समय टटोल कर देखना चाहती हो कि मरीज कितना धैर्य रखता है।<br />
‘‘जी अच्छी हूँ...’’ कहते हुए रजिया ने सहम कर दीवार का सहारा ले लिया।<br />
‘‘रजिया, तुम विनोद को कब से जानती हो ?’’ तहमीना ने बहुत अचानक से सवाल कर दिया।<br />
‘‘जी...’’ वह घबरा-सी गयी, ‘‘जी मैं नहीं जानती, बस पढ़ाते थे, उन्हें मास्टर के रूप में जानती हूँ,’’ वह सतर्क होकर साफ झूठ बोल गयी।<br />
<br />
‘‘देखो, रजिया, मेरे सामने झूठ बोलने की कोई आवश्यकता नहीं,’’ उसने टेबल पर से पेन उठा लिया और कोरे कागज पर लकीरें खींचते बोली—‘‘तुम्हें और मेरे सारे स्टाफ को मालूम है, मुझे झूठ कतई पसन्द नहीं, सच-सच बात कहो क्या तुम्हें मेरे सामने झूठ बोलने की आवश्यकता है ?’’<br />
‘‘जी...’’ वह सहमकर उसे देखने लगी।<br />
<br />
‘‘देखो रजिया, मैं ज्यादा नहीं पूछूँगी, न ही ज्यादा बोलूँगी। ठीक है तुम्हारी उम्र अभी कम है, तुम मुश्किल से बीस-इक्कीस वर्ष की हो और तुम्हारी उम्र ऐसी है कि तुम्हें सहारे की भी आवश्यकता है; पर रजिया मेरी बात ध्यान से सुनो। यह ठीक है कि तुम्हें धूप लगी है और तुम्हें छाया की सख्त जरूरत है, पर छाया के लिए ऐसे पेड़ के नीचे पनाह लो जो तुम्हें वास्तव में छाया दे सके। ऐसे पेड़ के नीचे मत खड़ी हो जो तुम्हें छाया भी न दे सके। बल्कि उलटा तुम्हारे ऊपर गिरे और तुम्हें तबाह कर दे। तुम क्या नहीं जानतीं, विनोद दो बच्चों का बाप है, उसकी पत्नी है, उसकी अपनी जिम्मेदारियाँ हैं, वह तुम्हें अपने घर नहीं रख सकता। ऐसे रिश्तों से क्या फायदा जो सहारा न दे सकें...। समझ रही हो न मेरी बात ?’’<br />
‘‘जी,’’ रजिया सर झुकाकर रो पड़ी।<br />
‘‘मत रो रजिया, मेरी बात को अकेले में सोचो और उस पर अमल करो। क्या फायदा, विनोद की पत्नी इधर-उधर बकती है, तुम्हें बदनाम करती है, पति से लड़ती है ! तुम्हें अब यहाँ रखना भी ठीक नहीं है। इसलिए मैंने तुम्हारा ट्रांसफर कर दिया है, और तुम कल ही यहाँ से चली जाओ और काम में अपना मन लगाओ।’’<br />
‘‘जी...।’’<br />
<br />
‘‘अब आँसू पोंछ लो और जाकर पानी पियो और अपना काम देखो और मेरी बात का मान रखना अब तुम्हारा काम है।’’<br />
रजिया चली गयी। मीनाक्षी जो खिड़की के पास बैठी चुपचाप अब तक तमाशा देख रही थी, उसकी तरफ देख मुस्कुरायी और बोली—‘‘आपने तो बहुत थोड़े शब्दों में उसे अच्छी तरह समझा दिया है।’’<br />
तहमीना मुस्कुरा दी, तभी चाय आ गयी और उसने हाथ बढ़ाकर चाय ले ली।<br />
‘‘एक और केस है मैडम,’’ मीनाक्षी उसके पास आती हुई बोली।<br />
‘‘किसका है ?’’<br />
<br />
‘‘अपने यहाँ की ही है। उसका एक ग्राम-सेवक से प्रेम चलता है, उसका अपना पति मर गया है, पति की तरफ से दो-तीन बच्चे हैं, अब इस ग्राम-सेवक से भी उसे गर्भ है। मुझे पता चला तो मैंने उसे बुलाकर बहुत डांटा, मैंने उसे गर्भ गिराने और आपरेशन करवा लेने के लिए बहुत कहा, पर वह नहीं मानी। अब अपने यहाँ दो-तीन माह से तनख्वाह नहीं मिल पा रही है, पैसों की तंगी है, तो उसे एक दूसरे डिपार्टमेंट वाली ने अपने घर रख लिया है। आजकल वह अपने यहाँ ड्यूटी भी नहीं कर रही है। वह उसी महिला के पास रहती है और उसके घर का काम देखती है। उसने उसे दूसरी जगह काम पर लगवा देने का आश्वासन दिया है।’’<br />
<br />
‘‘अच्छा,’’ तहमीना ने खाली कप टेबल पर रख दिया, ‘‘यह तो बहुत बुरा है कि हमारे डिपार्टमेंट के व्यक्ति को कोई दूसरा भड़काये,’’ तभी सामने से दुलारी बाई आती हुई दिखी, और उसके सामने नमस्ते कर खड़ी हो गयी।<br />
‘‘कहो कैसी हो ?’’ तहमीना ने एकदम शान्त होकर उससे पूछा जैसे कुछ न जानती हो।<br />
‘‘जी अच्छी हूँ, गाड़ी देखकर आपके पास आयी हूँ।’’<br />
‘‘सुना है तुमने यहाँ का काम छोड़ दिया है और पंचायत में काम ढूँढ़ रही हो !’’<br />
‘‘यहाँ तनखा कम है दीदी, फिर समय पर मिलती भी नहीं,’’ वह ढीठ होते हुए बोली।<br />
<br />
‘‘देखो दुलारी बाई, इसी तनखा पर तुम दो साल से काम कर रही थीं, तब तनखा कम नहीं लगती थी, अचानक अब लग रही है। इसमें मैं क्या कर सकती हूँ, जैसा ऊपर के आदेश होते हैं वैसे ही काम होता है। हम अपनी मरजी से अधिक वेतन तो नहीं दे सकते। रही समय पर वेतन न मिलने की बात, तो देर-सबेर हर जगह होती है। तुमने यह कैसे सोच लिया कि उनके डिपार्टमेंट में समय पर वेतन मिलेगा ? वहाँ भी यही परेशानी होगी। यदि तुम्हें परेशानी थी तो यहाँ तुम किसी से कह सकती थी। यह तो बहुत बुरी बात है दुलारी बाई की कि अपने यहां की बात दूसरे के घर जाकर कहो। मैं तुम्हें यहाँ रहने पर जोर नहीं देती, पर इतना जरूर कहूँगी कि जिसका नमक खाओ उसके प्रति वफादार भी रहो।’’<br />
‘‘जी,’’ घबराकर उसने देखा।<br />
<br />
‘‘और सुना है तुम्हें गर्भ है ?’’<br />
‘‘जी,’’ उसके माथे पर पसीना छलक आया।<br />
‘‘देखो बनो मत, यह मत सोचो कि मैं कुछ नहीं जानती, मुझे अपने हर कमर्चारी के बारे में एक-एक बात मालूम रहती है। गर्भ किसका है, ग्राम-सेवक का न ?’’<br />
‘‘................’’<br />
‘‘आज तुम चुप रहोगी, पर कल तुम्हारी स्थिति जब सब से सब कह देगी कि तुम विधवा हो यह बात सारे लोग जानते हैं ! दुलारी बाई मैं जानती हूँ औरत मजबूरियों में हर काम करती है। तुम्हारे जो बच्चे हैं इन्हें अच्छे से पालो, भटको मत। कल यह तुम्हें सहारा देंगे, तुम्हें, सँभालेंगे।’’<br />
‘‘जी...जी’’ कहती वह फूट-फूटकर रोने लगी—‘‘मैं भटक गयी थी, दूसरे के बहकावे में आ गयी थी, आपने मुझे रास्ता दिखा दिया, मुझे बचा लिया। अब मैं कहीं नहीं जाऊँगी, पर मुझे उस गाँव से हटा दीजिए, कहीं और भेज दीजिये, वह ग्राम-सेवक मेरी जान के पीछे पड़ा है।’’<br />
<br />
‘‘ठीक है हम तुम्हें दूसरे गाँव में भेज देंगे, तुम जाओ और अपना काम करो, दूसरों के बहकावे में मत आओ। दूसरों के दिखाये रास्ते पर चलने के बजाय अपना रास्ता चलना ठीक होता है न।’’<br />
दुलारी बाई रोती हुई उठी और नमस्ते कर चली गयी।<br />
<br />
‘‘मैडम कहीं वह उस महिला से जाकर कुछ कहेगी तो नहीं,’’ मीनाक्षी घबराती हुई बोली,’’ वरना वह मुझसे लड़ने आयेगी कि मैंने उसका नाम आपको बतला दिया।’’<br />
‘‘बताने दो मीनाक्षी क्या फर्क पड़ता है; पर नहीं वह नहीं बतायेगी, उसका मन दुख गया है जहाँ मन दुखता है। औरत का, वह बात की तह तक पहुँच जाती है। वह अपनी गलती समझ गयी है, और वह किसी से कुछ नहीं कहेगी, और यहीं लौट आयेगी।’’<br />
‘‘चलिये मैडम नाश्ते का टाइम हो गया है,’’ मीनाक्षी उठते हुए बोली।<br />
‘‘नहीं, मुझे भूख नहीं है, खाने की बिलकुल इच्छा नहीं है, बल्कि तुम जाओ और नास्ता कर आओ, मैं कुछ देर अकेले रहना चाहती हूँ।’’<br />
<br />
मीनाक्षी उठकर बाहर चली गयी और वह ढीली होकर अपनी कुर्सी पर लेट-सी गयी। अपने बालों से खेलते हुए उसने छत को दखा। खपरैल की बड़ी पुरानी-सी छत थी, नीचे यहाँ से वहाँ तक सफेद कपड़ा लगा दिया गया था ताकि धूल न गिरे। कपड़ा सफेद था इसलिए काफी गंदा हो गया था।<br />
रजिया और दुलारी को शान्त कर वह खुद भीतर से बहुत अशान्त हो गयी थी, आँखें वीरान हो गयी थीं। दूसरों के कष्ट के आगे अपने कष्ट बड़े नहीं लगते। आज उसे वैसा ही लग रहा था जैसे सूखी नदी के किनारों की तरह, नदी जब सूख जाती है तो उसका दर्द कितनों ने देखा था, कितनों ने परखा था ! वह अपने सारे दर्द को गर्भ में छुपाए वीरान, हैरान सी पड़ी रहती है।<br />
<br />
धूप काफी तेज हो गयी थी, गर्म हवा को झोंकों से कमरा एक दम गर्म सा हो गया था। विचित्र बेचैनी वाली स्थिति थी। मन भी शान्त नहीं था, और कमरा भी मन को शान्ति नहीं दे पा रहा था। जबरदस्ती आँख मूँदकर वह पड़ी रही, पर सारी आहटें मन की भी, बाहर की भी, उसे आराम से बैठने नहीं दे रही थीं, उसे परेशान किये हुए थीं। तुषार का पत्र कितनी-कितनी स्मृतियों को जगा गया था। अब वह पहले की तरह कमजोर, लाचार, बात-बात पर रोने वाली तहमीना नहीं रह गयी थी। उसकी जगह ले ली थी एक अच्छे, ऊँचे व्यक्तित्व वाली तहमीना ने, जिसके पास आज अपना बँगला, गाड़ी, फ्रिज, वे सारी चीजें हैं, जिनके लिए वह कल तरसती थी, सपने सँजोये थे। आज इतने वर्षों बाद तुषार का पत्र पाकर उसकी इच्छा हुई कि मुड़कर एक बार फिर पुरानी तहमीना को निहारे, जो कच्ची धरती पर खड़ी व्याकुल-सी आगे के रास्ते को निहारती थी।...<br />
<br />
सुबह अचानक पानी बरस गया था, जिससे ठंड काफी बढ़ गयी थी। समय ज्यादा नहीं हुआ था, पर वे लोग जब उस छोटे से निपट एकाकी बस स्टैंड में उतरे तो लगा दोपहर काफी भारी हो गयी है। अभी दिन का साढ़े ग्यारह ही बजा था। बस स्टैंड में उतरने के बाद पहली बार मन में ढेर सारा संकोच उतर आया था। कहाँ जायें...कैसे जायें ? कैसे वहाँ जाकर खुद से अपना परिचय दें ? पता नहीं वहाँ जाकर कैसे उनका स्वागत होगा... स्वागत होगा भी या नहीं ? बहुत गैर-जरूरी प्रश्न थे जो एकाएक सामने आ खड़े हुए थे, जिनकी तरफ देखने से भय लग रहा था।<br />
<br />
छोटा-सा बस स्टैंड...छोटा-सा गाँव, लगा आँख को इस छोर से उस छोर तक घुमा लेने से ही गाँव की लंबाई देखी जा सकती है। बस स्टैंड के किनारे लगे, इमली के पेड़ों ने जोर-जोर से अपनी बाँहें हिलायी, हवा के साथ इमली के फूलों की खट्टी महक ने स्पर्श किया।<br />
‘‘कुछ पता है किधर चलना है,’’ जमशेद ने तहमीना से पूछा।<br />
‘‘नहीं, किसी से पूछ लो न,’’ उसने खीजे हुए लहजे में कहा। उसे इस तरह बेवकूफों की तरह खड़े रहना बड़ा अखर रहा था। वह चाहती थी वहाँ से जल्दी से जल्दी हट जाए, क्योंकि कुछ लोग उत्सुकता से उन्हें देखने लगे थे। रिंकू पास के घर में चरती हुई मुर्गियों को बहुत प्रसन्नता से निहार रहा था। धूप से उसका चेहरा लाल हो उठा था। तहमीना ने रूमाल से उसका चेहरा साफ किया और पर्स से लेमनजूस की एक गोली निकाल कर उसे दी।<br />
‘‘मम्मी पानी,’’ रिंकू उसकी साड़ी को मुट्ठी में भरता हुआ रुआँसा-सा बोला।<br />
‘‘बस अभी बेटा, अभी चलते हैं आफिस वहाँ पानी मिलेगा,’’ तहनीमा ने रिंकू को बहलाते हुए कहा।<br />
‘‘नईं, अभी दो’’...वह ठुनकने लगा।<br />
<br />
थरमस का पानी खत्म हो गया था और वह बच्चे को बाहर का पानी पिलाना नहीं चाहती थी। होटल के नाम पर वहाँ कुछ था भी तो नहीं, टी स्टाल तक नजर नहीं आया। तहमीना ने रोते हए, ठिनकते हुए रिंकू को गोद में उठा लिया, और सामने रोड पर नजर डाली। लाल मुरूम वाली सड़क थी। सड़क के आगे जाने पर शायद आफिस मिलता हो। वह बेचैनी से आगे बढ़ी, जमशेद भी शांत हो लिए। प्यास से धूप में, थकान से रिंकू रोने लगा था। <br />
बस स्टैंड के पास एक बड़ा-सा एक आम का वृक्ष है, जहाँ एक औरत लाई चना और सस्ते किस्म के लाल-लाल बिल्कुट बेच रही थी। उसी के पीछे पान का एक ठेला। नाली के पार कुछ क्वार्टर बने थे, सड़क के इस पार कोई आफिस था शायद। वे लोग आगे बढ़ते गये।<br />
<br />
कुछ आगे जाने पर तहमीना को अपने दफ्तर का बोर्ड दिखा, जिसे देखते ही उसे हँसी आयी। दफ्तर क्या, दो छोटे से कमरों का आफिस था, सामने छोटा-सा पत्थरों का बरामदा जो एक दम गंदा-सा पड़ा था, जिसकी किसी ने बरसों से सफाई नहीं की थी। वे लोग बरामदे में आकर खड़े हो गये। रिंकू बरामदे में दौड़ने लगा था। कमरों में ताला पड़ा था।<br />
<br />
अचानक सामने से एक व्यक्ति दौड़ता हुआ आया और नमस्ते कर बोला, ‘‘मैं बड़े बाबू को अभी बुलाकर ला रहा हूँ।’’<br />
वह शायद चपरासी होगा, तहमीना ने सोचा और बरामदे में टहलती रही। बरामदे के दोनों ओर जंगली झाड़ियाँ उग आयी थीं। वे इतनी बढ़ गयी थीं कि उनकी शाखाएँ बरामदे की दीवारों को घेरे हुए थीं। जंगली घास घुटनों-घुटनों तक उग आयी थी। सड़क के पार मेहंदी की कंपाउड से घिरा छोटा-सा पोस्ट आफिस था और उससे लगे पी. डब्ल्यू. डी. के नए क्वार्टर थे। <br />
<br />
सामने से एक व्यक्ति दौड़ेते हुए आया। तहमीना ने सोच लिया—यही यहाँ का बाबू होगा। भूरे रंग की टेरी काट की फुलपैंट तथा पीले चेक की उसने बुश्शर्ट पहन रखी थी जो काफी गंदी-सी हो गयी थी। आते ही उसने बड़े अजीब अंदाज से हाथ हिलाकर नमस्ते किया, जैसे चेहरे पर बैठ आयी मक्खी उड़ा रहा हो। और आफिस का ताला खोलने लगा।<br />
‘‘आपका आफिस कितने बजे खुलता है ?’’ तहमीना ने घड़ी पर नजर रखते हुए उससे पूछा।<br />
‘‘ग्यारह बजे,’’ उसने घबराते हुए कहा, ‘‘आज देर हो गयी मैडम,’’ उसने दरवाजा खोलकर खादी का छींट वाला परदा नीचे गिरा दिया।<br />
वे लोग अंदर कुर्सियों पर बैठ गये। वहीं तीन कुर्सियाँ, एक बेंच, आफिस टेबल तथा पीछे दीवार से लगी लकड़ी की दो आलमारियाँ और लोहे की तिजोरी रखी थी। <br />
<br />
‘‘आपने मुझे कोई सूचना नहीं दी,’’ तहमीना ने बाबू से पूछा।<br />
मैडम, वह हम समझे के आपकी तरफ से हमें कोई सूचना मिलेगी कि आप फलाँ दिन चार्ज लेने आ रही हैं।’’<br />
‘‘खैर, नये-नये वातावरण में इस तरह की गलतफहमियाँ हो जाती हैं,’’ तहमीना ने कहा, ‘‘आप चार्ज तैयार कर लीजिये।’’<br />
‘‘जी, बहुत अच्छा,’’ कहता हुआ बड़ा बाबू बाहर चला गया। जमशेद तहमीना के रोब को देखकर मुस्कुरा रहे थे, जवाब में तहमीना भी मुस्कुरा दी। तभी बाबू अन्दर आया और वे दोनों संजीदा हो गये। तहमीना ने दीवारों का निरीक्षण शुरू किया। दीवार पर इन्दिरा गांधी और नेहरूजी के बड़े-से चित्र टँगे थे। इन्दिरा गांधी का यह चित्र बहुत पुराना था। तब शायद वह जवान थी। पूरे मध्यप्रदेश का नक्शा, जो किसी के हाथ से बना हुआ था, टँगा था, जो बीच से लंबाई में भी फट गया था।<br />
‘‘इतने अच्छे नक्शे की आप लोग हिफाजत न कर सके,’’ तहमीना ने बाबू से कहा। जवाब में बाबू ने झेंपकर नीचे सर कर लिया।<br />
<br />
थोड़ी देर में एक लड़का गिलासों में चाय लेकर आया। बाबू ने स्टोर से बिस्कुट निकालकर एक पेपर पर रख दिये, जिस पर रिंकू ने शीघ्र से शीघ्र हाथ साफ करना शुरू कर दिया। वे लोग चाय पीने लगे। सामने से एक सफेद साड़ी पहने महिला ने प्रवेश किया, पास आने पर उसे महिला कहना गलत लगा। वह मुश्किल से बीस-बाईस साल की लड़की थी। उसके बाल विचित्र ढंग से घुटे थे। लगता था जैसे वह किसी बंगाली गुरू की शिष्या हो। तहमीना को उसे देख बड़ा विचित्र-सा लगा। आते ही उसने दोनों को नमस्कार किया और बड़े बाबू की कुर्सी पर बैठते हुए, ‘‘क्षमा काजियेगा, आपकी तारीफ ?’’<br />
‘‘अरे, मैडम हैं,’’ बड़े बाबू ने एकदम घबराते हुए जल्दी से बतलाया।<br />
<br />
‘‘अरे,’’ वह एकदम घबराकर उठी, जैसे उसे बिजली का करेंट छू गया हो, और दुबारा नमस्कार कर बोली, ‘‘क्षमा करियेगा मैडम, मुझसे गलती हो गयी। आप आने वाली हैं, यह तो बड़े बाबू ने भी नहीं बलताया मुझे। आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई। मैं यहाँ पर नयी ही आयी आयी हूँ, सिर्फ एक महीना हुआ है।’’<br />
‘‘अच्छा, कहाँ से आयी हैं आप यहाँ ?’’<br />
‘‘भोपाल से...मुझसे पहले जो यहाँ ड्यूटी पर थी उसकी मृत्यु के बाद मेरी पोस्टिंग यहाँ हुई है।’’<br />
‘अच्छा, डैथ हो गयी ! क्या वह ज्यादा बूढ़ी थी ?’’ तहमीना ने पूछा।<br />
‘‘नहीं, दीदी, एकदम यंग थी, कुँवारी थी और उसकी एबार्शन केस में डैथ हुई।’’<br />
<br />
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सिविल लाइन। डामर रोड के किनारे दूर से बने बँगलों में नसीमा आपा का मकान ढूँढ़ने में कोई परेशानी नहीं हुई, क्योंकि शादी की तामझाम दूर से ही देखी जा सकती थी। बँगले के सामने शामियाना लग रहा था, रंग-बिरंगी झंडियों से बँगले को सजाया जा रहा था, सामने मैदान की घास छीली जा रही थी, याने पूरी तरह से शादी की तैयारियाँ हो रही थीं।<br />
रिक्शा टूटे लकड़ी के गेट के सामने रुका। गेंद खेलते बच्चे दौड़कर रिक्शे के करीब आ गए, और देखने लगे। नसीमा ने रिक्शेवाले को पैसा देते हुए बच्चों से पूछा, ‘‘क्यों, यही है न रिजवी साहब का बँगला ?’’<br />
‘‘जी हाँ, यही है, पर आप किसके यहाँ जाएँगी ? क्योंकि वह पुलिस चौकी के बाजू मोड़ पर बना बँगला रिजवी कप्तान का है,’’ बच्चों के झुण्ड में से सब से चुस्त व चालाक दिखनेवाले लड़के ने कहा, ‘‘नहीं, वहाँ नहीं, मुझे डिप्टी कलेक्टर रिजवी के यहाँ जाना है।’’ नसीमा ने मुस्कराते हुए लड़के से पूछा-‘‘तुम्हारा नाम क्या है, कहाँ रहते हो ?’’<br />
<br />
‘‘रिजवान अहमद, मेरा यही घर है। रिजवी साहब का बेटा हूँ।’’ ‘‘तो तुम आपा के बेटे हो ?’’ नसीमा ने प्रसन्नता से कहा। बरामदे की सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आते आपा दिखीं, उन्होंने बैंगनी फूलोंवाली साड़ी पहन रखी थी, पैरों में हरी पट्टेवाली रबर की स्लीपर थी। शरीर से आपा भारी हो गई थीं पर खूबसूरत अभी भी कम नहीं लग रही थीं।<br />
‘‘अरे नसीमा, आओ, यह बच्चों ने तुम्हें घेर रखा है ! रिजवान यह नसीमा आण्टी हैं। चलो, सामान चटपट कमरे में पहुँचाओ’’, आपा ने बच्चों को काम सौंपते तथा नसीमा को गले से लगाते हुए कहा।<br />
बच्चों ने रिक्शे पर रक्खा सामान तेजी से उठाकर रिक्शे को खाली कर दिया, जैसे बन्दर की टोली आँगन में ककड़ी की बेल पर टूट पड़ी हो और यह जा वह जा !..<br />
‘‘रत्नों की शादी हो रही है, मुबारक हो आपा, अब तुम वाकई सास-जैसी लगने भी लगी हो !’’<br />
‘‘और तू ? तू तो अभी भी वही छोटी-सी नसीमा लगती है जिसकी शलवार हमेशा ऊँची हो जाया करती थी, और नंगे टखने दिखाते घूमती रहती थी, है न।’’ आपा ने हँसते हुए कहा।<br />
वह दोनों एक-दूसरे का हाथ थामे अंदर की ओर बढ़ीं, बच्चों ने फुरती से सामान कमरे में रख दिया था तथा नसीमा के आने का ऐलान भी कर दिया था। बाहर से आए मेहमान-रिश्तेदार कमरे में जमा हो गए थे, और कुछ औरतें परदा उठा-उठाकर उत्सुकता से इधर झाँक रही थीं।<br />
<br />
‘‘ले, तू तो शायद किसी को पहचानती नहीं होगी, मैं परिचय करा देती हूँ-यह खाला हैं यह...’’ आपा शुरू हो चुकी थीं। नसीमा सब को सलाम कर रही थी साथ ही सब की ओर मुस्करा-मुस्कराकर देख भी रही थी। लंबी यात्रा की थकान और आते ही लंबे-लंबे परिचय से थकावट और बढ़ रही थी।<br />
‘‘रन्नो की शादी न होती तो शायद तू आती भी नहीं-है न ?’’ आपा ने उसे सोफे पर बैठाते हुए कहा और फिर रिजवान से बोलीं-‘‘जा, बुआ से कहना-जल्दी चाय और नाश्ता भेजे।’’<br />
‘‘आपा, मैं रहती भी तो कितनी दूर हूँ...रिश्तेदारों को मैं भूल गई या रिश्तेदार मुझे भूल गए ? मैं तो फिर भी आ जाती हूँ, आप लोग तो कभी भूले से याद भी नहीं करते, ईद पर ईद-कार्ड ही डाल दिया करो न !’’<br />
‘‘भई, तुमसे बातों में कौन जीत सकता है ?’’ चाय शायद बनकर पहले से तैयार थी या रिजवान का पहले से हुक्म चल चुका था, क्योंकि तुरंत चाय आ गई। गरम-गरम चाय मिल जाए इससे बड़ी बात नसीमा के लिए दूसरी नहीं है। नसीमा चाय पी रही थी, आँखें नीचे झुकी हुई थीं कि आँखों के आगे पीली-पट्टी की स्लीपर में फँसे, हल्दी रंग के गरारे में, हल्दी की रंगत लिये पैर आ खड़े हुए। नसीमा ने फिर उठाकर देखा। हल्दी में डुबोकर रँगे गए गरारे-कुरते और बारीक क्रोशिया की मख्खी बनी ओढ़नी में कोई सामने खड़ा था, पल-भर को नसीमा चकरा गई। लगा-आपा एक बार फिर जवान होकर सामने आ गई हैं। वही-सब-कुछ वही ! वही नाक-नक्शा, वही रंगत, और चेहरे के वही भाव।<br />
<br />
‘‘रन्नो है’’, आपा ने उसे हैरान देखकर कहा, ‘‘और रन्नो, यही है नसीमा आंटी।’’<br />
रन्नो करीब आ गई और उसने उठकर हल्दी की सोंधी और पवित्र खुशबू में बसी उस लड़की को जल्दी से लिपटा लिया।<br />
‘‘आपा, लगता है एक साथ दो जन्म लिखाकर लाई हो ! रन्नो को देख तुम्हें अपनी याद नहीं आती-क्यों ?’’<br />
रन्नो झेंपकर मुस्करा दी, आपा उदास होकर कहीं खो-सी गईं। रन्नो के यौवन को नसीमा अपनी आँख में भर लेना चाहती थी। पतली गोरी-गोरी कलाइयाँ, लंबी आँखें, छोटी-सी ठोड़ी, गोल-सा चेहरा...।<br />
नसीमा को कुछ काटने लगा। सोचा नहीं था कि समय इतनी जल्दी वैसी ही रंगत वैसी है खुशबू लिये पलटता है !<br />
रन्नो को शाम का चिकसा (हल्दी) लगाने का समय हो गया था क्योंकि दो लड़कियाँ उसे बुलाने आईं। वह उठकर उनके साथ चली गई।<br />
‘‘एहसान भाई ? तुम्हें याद है आपा, मैं तुम्हें कितना परेशान करती थी न !’’<br />
आपा चौंक गईं। नसीमा ने जानबूझकर सुई चुभोया था, यह देखने के लिए कि इस भरे हुए गुब्बारे में अभी हवा बची है या नहीं। वह इस चुभन से सिसक उठीं।<br />
‘‘चुप ! पुरानी बातों को उधेड़ती है !’’<br />
‘‘यहाँ कोई दूसरा तो है नहीं, अगर सुन भी ले तो क्या समझेगा ? बताओ न कहाँ हैं वह ?’’<br />
<br />
‘‘पता नहीं नसीमा, एक बार उनकी खाला का लड़का, तुझे फटी हाफपैंट पहने रफीक की याद तो है न ?-वही अब मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव हो गया है। एक बार यहाँ भी पहुँच गया। उसे देख मैं तुरंत पहचान गई, वही चेहरा। कोई फर्क नहीं। काफी देर बैठा काफी बोलता रहा, पर मैं चुप उसे देखती रही। मुझसे बोला ही नहीं जा रहा था, उसी ने बताया कि एहसान रायपुर में है। शादी कर लिया है दो बेटे हैं। उसी ने रफीक को मेरा पता बताया था और सलाम भी भेजा था।’’<br />
आपा बोलते-बोलते थोड़ा रुकीं, जैसे साँस ली हो, ‘‘बड़ा अजीब लगा, इतने दिनों बाद, जबकि मैं सब भूलकर अपनी गृहस्थी में लग गई, तब अचानक उससे कुछ पूछा, वह अपने-आप बोलता गया था।’’<br />
‘‘आपा, मोहब्बत कभी मरती तो नहीं, बल्कि उसकी खुशबू बाद में और तेज होकर आती है।’’<br />
‘‘हाँ, वह दिन कुछ और ही थे नसीमा, अजीब उतावली, ब्रेसब्री से भरे दिन ! अब उन्हें याद करने से क्या फायदा ?’’ आपा ठंडी साँस खींचते बोली, ‘‘अच्छा, छोड़ इन बेकार की बातों को-अब अपनी कह, जमीर मियाँ कैसे हैं ?’’ आपा ने नसीमा को पुरानी बातों से खींचते हुए कहा।<br />
<br />
अब तक कमरे में अँधेरा हो गया था, बातों में कुछ पता नहीं चला। आपा ने उठकर खट्ट से ट्यूब लाइट जला दिया। झक ! तेज रोशनी में एक-दूसरे को देख वह दोनों चौंक पड़ी, जैसे आँखें चकाचौंध हो गई हों।<br />
कमरे में कुछ लड़कियाँ निहारी सजा रही थीं। दरी पर उबली सेवाइयाँ से भरे बड़े-बड़े शीन रखे हुए थे। उन्हें पान के पत्ते से बराबर करके लड़कियाँ तरह-तरह के रंगीन फूल बना रही थीं। शेर लिख रही थीं। हर लड़की एक-एक शीन पर अपना हुनर उँड़ेल रही थी। उभरती उम्र का शोर कमरे में भरा था। आपस में हँसी-मजाक भी चल रहा था।<br />
नसीमा एक तरफ बैठ गई और ध्यान से उसके हुनर को सहराती हुई दृष्टि से देखने लगी।<br />
‘‘आप पान की गिलौरी में चाँदी के बर्क लगा दीजिए न’’, एक लड़की ने-जो खुद दूल्हे के नए सूट में इत्र लगा रही थी नसीमा को बेकार बैठे देख काम सौंपा। <br />
तभी आपा कमरे में आईं, ‘‘नसीमा तुझे भी निहारी में जाना है, जल्दी से तैयार हो या बस, बैंडवाले आ रहे हैं, औरतें कारों में जाएँगी।’’<br />
‘‘आपा निहारी में इन लड़कियों को जाने दो, वहाँ मैं जाकर बोर हो जाऊँगी।’’<br />
‘‘क्यों, तू क्या बूढ़ी हो गई ?’’<br />
‘‘पर शादीशुदा तो हूँ !’’<br />
<br />
‘‘ओफ्फोह् ! अब नखरे न दिखा। चल, दूल्हे को ही देख आना।’’ ‘‘दामाद दिखाने को बड़ी बेचैन हो आपा ? भई इतनी बेताबी तो हमने अपने दूल्हे भाई को भी देखने में नहीं की।’’ नसीमा ने शरारत से कहा, ‘‘बड़ी नटखट है’’, आपा झेंप गई।<br />
‘‘तुमने अपने पानदान का वह मशहूर पान अपने हाथों अभी तक मुझे नहीं खिलाया जिसके लिए एहसान भाई दीवाने...’’<br />
आपा ने पूरा वाक्य बोलने के पहले ही नसीमा को जल्दी से वहाँ से उठा दिया। नसीमा ने अपने को उस कमरे से बाहर जाने के लिए ही यह बहाना खोजा था, क्योंकि नसीमा ने महसूस कर लिया था कि उसके आने से आपस में ठिठोली करती शोख लड़कियाँ एकाएक चुप हो गई थीं।<br />
आपा के कमरे में आकर गद्देदार तख्त पर नसीमा लेट-सी गई। आपा ने पानदान खींचा, इधर वह पान ज्यादा खाने लगी थीं, साथ में तंबाकू भी।<br />
‘‘तुमने यह शादी अपनी पसंद से तय की या रन्नो की पसंद से ?’’<br />
‘‘रन्नो की पसंद है। दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं। अब यह पहले-सा वक्त तो रहा नहीं नसीमा, जब प्यार को घरवालों से छिपाकर करना पड़ता था, जबान से निकलता तक नहीं था कि हम फलाँ से प्यार करते हैं। जहाँ-माँ-बाप ने रिश्ता तै कर दिया, बस वहीं चले आए।’’ आपा ने पान की गिलोरी नसीमा को दी और खुद भी एक मुँह में रखकर बोलीं, ‘‘वक्त बदल गया है नसीमा, उसके साथ-साथ सब बदल गया है।’’<br />
‘‘तुम्हें पुरानी बातें याद हैं आपा ?’’ नसीमा ने पूछा।<br />
<br />
‘‘सब याद है नसीमा, पर अब वह कच्ची उम्र भी तो नहीं रही। अब तो गृहस्थी की झंझटें निपटाते ही वक्त निकल जाता है। पुरानी यादों के लिए किसे फुरसत है ?’’ आपा ने ठंडी साँस ली, ‘‘रन्नो की शादी के बाद तो अब मुझ पर और भी जवाबदारियाँ होंगी। आज सास बन रही हूँ कल नानी बन जाऊँगी। बस। औरत इन्हीं रिश्तों की भँवर में ही तो गुम हो कर रह जाती है...खो जाती है।’’<br />
‘‘अरे हाँ, मैं भी कैसी भुलक्कड़ हूँ’’ आप थोड़ी देर चुप रहकर दोबारा बोलीं, ‘‘तेरा सब से परिचय कराया पर असली लोगों से मिलाना ही भूल गई। दरअसल वह लोग पिक्चर चले गए थे, थोड़ी देर पहले ही आए हैं।’’<br />
आपा उठीं और दूसरे कमरे में चली गईं। नसीमा हैरान थी कि कौन से लोगों से मिलाना आपा भूल गई थीं ? थोड़ी देर में लौटीं तो उनके साथ तीन जवान लड़के थे।<br />
‘‘नसीमा, पहचान तो यह कौन हैं ?’’ आपा उसे और हैरान करती बोलीं।<br />
नसीमा को परेशान देख आखिर आपा खुद ही बोलीं, ‘‘जानती है रफीक, शफीक और यह छोटा मुन्नू है, पहचाना ?’’<br />
नसीमा को जैसे करेंट छू गया। आँखें डबडबा गईं। सच यही ऊँचे-ऊँचे जवान चेहरे क्या बरसों पहले के रफीक, शफीक और मुन्नू हैं ? फटे चिथड़े पहने, दो टाइम के खाने को तरसते क्या वही हैं यह ?<br />
<br />
‘‘रफीक, तुझे तो शायद नसीमा की याद्दाश्त होगी। तू हमेशा नसीमा के साथ करेले तोड़ने जाता था न ?’’ आपा ने रफीक से कहा।<br />
रफीक ने हाँ में सिर हिलाया और नसीमा के पास चला आया, शफीक को भी थोड़ी-थोड़ी याद थी। नसीमा के खुशी और पीड़ा के मारे आँसू निकल पड़े।<br />
‘‘जानती है नसीमा, रफीक ने जगदलपुर में बहुत बड़ी दरजी की दूकान खोल ली है। कई नौकर रख लिये हैं। दस-पंद्रह मशीनें हैं इसकी दूकान पर। सब से बड़ी दूकान है जगदलपुर में इसकी।’’<br />
‘‘सच !’’ और नसीमा ने प्यार से तीनों को समेट लिया, ‘‘साजो खाला कहाँ है आपा आजकल ?’’<br />
‘‘ओह !-साजो खाला अब इस दुनिया में कहाँ है नसीमा ? नानी के मरने के बाद थोड़े ही दिनों में साजो खाला को टाइफाइड हो गया था। बाद में वह सँभल न पाई, उनके दोनों पैर बैकार हो गए थे। घसीट-घसीटकर चलती थी। एक बार मैं मिलने जगदलपुर गई थी तो मुझे देख रोने लगी। कहती थी-गुनाहों की सजा खुदा ने मुझे दी है रब्बो। पर वह गुनाह क्या मैंने अकेले, अपने लिए किए थे ?’’<br />
<br />
‘‘सच है आपा, साजो खाला ने जो भी गुनाह किए उनमें हम सब शामिल थे। हम सब के लिए किये थे उन्होंने।’’<br />
‘‘गुनाह’’, नसीमा ने कहा, ‘‘आज मैं सोचती हूँ आपा, तो बड़ा अजीब-सा लगता है क्या उन दिनों बिखरे-छितरे लोग ही नानी के घर पनाह ढूँढ़ने आ जाते थे ? नानी के उस पुराने, गरीब से घर में कितनी मजबूर जिंदगियाँ साँस ले रही थीं। अपने में दूसरों के इतिहास को समेटकर रखवाली करती थीं नानी।’’<br />
उस शाम इकट्ठे बैठे कितनी-कितनी स्मृतियों को साथ जी लिया था सब ने। कितने बीते हुए जख्मों को सहलाया था।<br />
रन्नो की शादी में कब के बिछड़े हुए लोग फिर एक बार आ मिले थे, पर अब सब-कुछ कितना बदल गया था। कितना अजीब है-इंसान वहीं रहते हैं, पर यादों पर जिंदगी के पहरे लग जाते हैं और जिंदगी अपने ढंग से इंसान को कहाँ से कहाँ ढकेल देती है। रन्नो, आपा, नसीमा, रफीक, शफीक और मुन्नू सब ने अपने-अपने ढंग से याद किया था बीते हुए कल को। सब इकट्ठे एक छत के नीचे रह चुके थे, पर आज इतने बरसों बाद कितना अजनबीपन महसूस हो रहा था।<br />
बाहर मंडप में दहेज सजा हुआ था। नीले चूड़ीदार पैजामेवाला सूट पहने एक लड़की कागज पेन लिये लिस्ट बना रही थी। घर की दो-तीन नौकरानियाँ दहेज के आस-पास खड़ी पहरा दे रही थीं।<br />
<br />
रेशम, जर्र, मखमल की चमक-दमक लिये दुल्हन के जोड़े सजे थे। शानदार चमकता नया पलंग, पलंग पर खूबसूरत मखमल का बिस्तर और रंगीन गोटे टँकी मसकरी, महीन चुन्नटों से भरी दुलाई, झल-झल चमकचे स्टील और काँच के डिनर-सेट, टी-सेट और दीगर सामान का अंबार था, नई पॉलिश की सोंधी महक लिए फर्नीचर था। और बेहद उत्सुक, ईर्ष्यालु कई-कई हजार आँखें थीं।...<br />
जुलवे की रस्म अभी-अभी हुई थी। दूल्ला-दुल्हन को नए बिस्तर पर बैठाया गया था। इसलिए चादर कसमसा-सी गई थी। दुल्हन और दूल्हे के सेहरे के ताजा फूल कहीं-कहीं टपक गए थे, और अपने होने का एहसास दिला रहे थे।<br />
अंदर कमरे में अभी फिर रस्म चल रही थी। दूध और सेवाइयाँ दोनों को खिलाया जा रहा था। नई-नई मेंहदी की खुशबू से बसे हाथों से दुल्हन को दूल्हे को सेवाइयाँ खिलाना था और दुल्हन की कुँआरी उँगलियों को काटते-छीनते हुए दूल्हे को लूटकर खाना था। इस रस्म में दुल्हन का साथ उसकी बहनें या चाचियाँ देती हैं, वही दुल्हन के हाथ को पकड़े रहती हैं। जब दूल्हे मियाँ खाने झपटते हैं, झट दुल्हन का हाथ पीछे खींच लिया जाता है। इसी तरह छका-छकाकर दूल्हे को सात या पाँच निवाले खिलाये जाते हैं। दूल्हे की पारी के वक्त तो बस दूल्हे के हर निवाले को उसके होंठों तक ले जाकर छुआना होता है।<br />
<br />
यह रस्म है तो छोटी पर नई उम्र की लड़कियों के लिए बड़ी ही मजेदार होती है। वही दुल्हा- दुल्हन को घेरे शोर करती खड़ी रहती हैं।<br />
चुस्त पिंडलियों पर कैसे रंग-बिरंगे पैजामे, महीन चुन्नटों और जरी की गोट से सजे गरारे-सरारे। प्याजी, नीले सुर्ख, गुलाबी, बैंगनी शिफॉन और टेरलीन की ओढ़नियाँ जिन पर मुकेश, सलमे-सितारे और जरी की खूबसूरत लेस से टँके, इत्र में बसाए गए दुपट्टे, जवान शरीर और जवान दिख रहे थे। तरह-तरह के जेवर-गुलुबंद चंपावली, वैजंतीमाला और हार, नेकलेस, चेन। और न जाने क्या-क्या जेवर की चमक थी। चूड़ियों और कंगन की आवाज अलग पहचानी जा सकती थी। कुँआरी मुस्कराहटें और ठहाके घर की दीवारों तक को कँपा रहे थे।<br />
<br />
नसीमा दिन-भर सिर्फ काम की देख-रेख में चहलकदमी करती हुई ही काफी थक गई थी। चेहरा उदास-उदास थकान की वजह से लग रहा था। जी चाह रहा था कब यह हंगामा खत्म हो और अपने कमरे में जाकर बैठ जी-भरकर बातें कर ले; पर अभी कहाँ फुरसत होनेवाली थी, अभी तो नौ बज रहे थे और विदाई होते-होते एक बजनेवाला था।<br />
बाहर मरदाने में डिनर चल रहा था। बिरयानी, कोरमा मुर्ग-मुसल्लम, सींककबाब, कलिया दही का रायता, बरकी-पराठे, शाही टुकड़े, आलू का हलवा और न जाने क्या-क्या, एक-से-एक खाने की खुशबू से सारा आसपास का वातावरण महक रहा था। ड्रम के पास अपने चिकने-चिकने हाथ धोती और टावेल से पोंछते हुए लोग दिख रहे थे।<br />
कमरों और मंडप में औरतें ही औरतें भरी थीं। बच्चे मुँह में पान के बीड़े ठूँसे, बीच-बीच में हो रहे थे, आज इन्हें न कोई रोकनेवाला था न टोकनेवाला, आज तो इन्हीं का राज था। फूलों की क्यारियों को हाथ धो-धोकर उजड्ड किस्म के मेहमानों ने खराब कर दिया था, शादी के घर से महकते फूलों की गंध, एक-से-एक बढ़िया खानों की गंध, नई-नई साड़ियों की गंध, तरह-तरह के सेंट-इत्र, मीठे पान, जवान और बूढ़े शरीरों की पसीने की गंध का बोझ उठाये हवा धीरे-धीरे रंगीन झंडियों को छू-छूकर शैतानी से भाग रही थी।<br />
<br />
रन्नो को पुरानी तथा बूढ़ी औरतों ने रुला-रुलाकर काफी हलकान कर दिया था। फर्श पर कालीन बिछा था, जिस पर दूल्हा-दुल्हन को बिठाया गया था। एक कटोरी में संदल रखा था और एक बड़ी-सी स्टील की थाली में रुपए बढ़ते जा रहे थे। जो भी औरत संदल लगाने आती रन्नो के गले में हाथ डालकर रोने लगती। नसीमा की इच्छा हो रही थी कि एक-एक को डाँटकर भगा दे, पर साहस नहीं हुआ। दूल्हे मियाँ मुँह पर रुमाल रखे काफी व्याकुल से हो रहे थे, शायद रन्नो की हालत उनसे भी देखी नहीं जा रही थी। <br />
अशफाक भाई याने रन्नो के अब्बा और आपा के शौहर आए और बेटी का हाथ अपने समधी के हाथ में सौंपने लगे तब तो माहौल और रंजीदा हो उठा, औरतें ऊँचे स्वर में रोने लगीं। काफी देर तक यह रस्म चली, याने पहले अशफाक भाई ने बेटी सौंपी फिर आपा ने रोते हुए अपनी समधिन को बेटी सौंपी। <br />
काफी देर बाद जब माहौल का घुटा-घुटापन खत्म हुआ तथा रन्नो की सास थाली में पड़े रुपयों को गिनने लगी तब रन्नो ने नसीमा की ओर मुँह किया, ‘‘आंटी मुझे बाथरूम ले चलो।’’<br />
नसीमा ने खड़े होकर धीरे-से उसे सहारा देकर खड़ा किया। उसके लाल गोटे और सलमा-सितारों की गंगा-जमना से झलमलाते महजर को चारों ओर से समेटकर उसके हाथ में पकड़ा दिया, और उसके फर्शी गरारे को थोड़ा ऊपर उठाकर मेहंदी-रचे पैरों में लाल मखमल की जर्रदार मोती-टँकी जूतियाँ पहना दीं।<br />
<br />
बाथरूम के पास आकर रन्नो ने जल्दी से महजर निकाल दिया, वह बहुत बेचैन सी लग रही थी।<br />
‘‘आंटी अंदर आकर दरवाजा लगा लो।’’ नसीमा ने अंदर से बाथरूम का दरवाजा लगा लिया। रन्नो जल्दी से नीचे बैठकर उल्टी करने लगी। नसीमा आश्चर्य में भरी जल्दी से महजर को स्टैंड पर रख उसकी ओर बढ़ी।<br />
रन्नो एक हाथ से नसीमा को पकड़े, बहुत बेचैन होकर उल्टी करने लगी। नसीमा उसकी पीठ सहलाती रही। थोड़ी देर बाद निढाल-सी उठी और नसीमा के कंधे पर आ गिरी। नसीमा हड़बड़ाकर उसके भारी शरीर को सँभाले रही। <br />
अचेत रन्नो को जब नसीमा ने बड़ी ही मुश्किल से लाकर पलंग पर लिटाया तो कमरे में कोई नहीं था, सब बाहर मंडप में थे। नसीमा ने मन-ही-मन खुदा को धन्यवाद दिया।<br />
नसीमा ने फैन फुल स्पीड में खोल दिया।<br />
लाल गोटे-टँके रेशमी जोड़े में और जड़ाऊ गहने, नाक में बड़ी-सी सरजे की नथ पहने रन्नो परी लग रही थी। उसे बेहद नूर खुला था।<br />
<br />
‘‘क्या हुआ, इतनी देर कैसे लगा दी ?’’ आपा इसी तरफ लपककर आती हुई बोलीं।<br />
‘‘आपा, इसे गश आ गया है, थोड़ा सँभल जाने दो।’’<br />
आपा के चेहरे पर कई रंग आए, कई रंग गए, फिर वह नसीमा के करीब आ गई और उसका हाथ दबाते हुए बोली,‘‘नस्सो इसे दिन चढ़े हैं, दोनों एकदम खुलकर साथ रहते थे। मेरी ही जिद पर यह शादी जल्दी हो रही है, वरना, यह दोनों को तो कोई चिंता नहीं थी, क्या जमाना आ गया है !...’’<br />
आपा ने बहुत दिनों बाद नसीमा को अपने उसी पुराने नाम से पुकारा था जो बहुत पहले, जब आपा कुँआरी थी तब पुकारती थी।<br />
रन्नो की इस अवस्था की जानकारी से नसीमा को कुछ खरोंच गया। कुछ उधड़-सा गया, और जाने क्यों पुरानी बातें एक-एक कर उसे याद आने लगी थीं।</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%9C%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%BE_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%9C&diff=3993कोरजा / मेहरुन्निसा परवेज2009-08-03T20:32:51Z<p>Pratishtha: नया पृष्ठ: {{GKRachna |रचनाकार=मेहरुन्निसा परवेज }} {{GKPustak |चित्र= Koraza.jpg |नाम=कोरजा |रचना...</p>
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वह सुबह उठ गई थी। घर के दरवाजे- खिड़की खोलते ही यूकेलिप्टस की तेज मादक गंद ने उसे भीतर तक भिगो दिया। आँधी-पानी ने यूकेलिप्टस के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों को एकदम नंगा कर दिया था। पत्तियाँ चारों ओर बिखरी पड़ी थीं। उनकी गंध हवा में समाई हुई थी। मोगरे के फूलों जड़ी-बूटियों और पत्तियों की सोंधी महक भी उसमें शामिल थी। उसने जोर से साँस खींचकर उस मोहक गंध को अपने भीतर खींचा। लगा, जैसे उसे बहुत आराम, सुख और राहत-सी मिली है। <br />
यह 28 अगस्त की भोर थी। लगातार दो-तीन माह सूरज की तपन के बाद पानी हफ्ता भर बरसकर आज थमा था। धूल भरी आँधी और तेज झंझावात के साथ पानी की बूँदे सरककर धरती पर दौड़ी थीं। गरमी से झुलसे लोगों ने पहली बार ठंडक से चैन की साँस ली थी। तेज गरम हवा के थपेड़ों के बाद तेज अंधड़ के साथ बूँदाबाँदी हुई थी, जो बाद में तेज बारिश में बदल गई। काले बादलों ने भी जैसे शहर के ऊपर अपना तंबू डालकर डेरा गाड़ दिया था। बिजली की चमक और बादलों की गड़हड़ाहट ने सारी धरती को कँपा दिया था। <br />
<br />
शहर का जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। घरों के छप्पर उड़ गए थे। कहीं-कहीं बड़े-बड़े पेड़ धराशायी होकर सड़कों पर आ गए थे। शहर की बिजली व्यवस्था कहीं-कहीं ठप्प हो गई थी। भयभीत बगुले तथा पक्षी आकाश में चीखते भाग रहे थे। पक्षियों का कोलाहल तेज हो गया था। मौसम ठंडा हो गया था। <br />
चारों ओर अभी भी पानी-ही-पानी दिख रहा था। बड़े- बड़े पेड़ अभी भी घुटने-घुटने पानी में डूबे खड़े थे। पानी अभी नहीं बरस रहा था, परंतु बाहर का सारा दृश्य पानी से सराबोर था। <br />
<br />
आज उसके स्वर्गीय बेटे समर का जन्मदिन था। आज वही सौभाग्यशाली दिन था जब वह बेटे की माँ बनी थी। आज से अठारह बरस पहले जब वह भोर आई थी, उस भोर में और आज की भोर में कितना अंतर था। कितनी सुहावनी भोर थी वह। लगा था जैसे सारा संसार उसकी खुशी में शामिल है और नगाड़े बजा रहा है; परंतु अब लग रहा है कि आज की ही तरह उजड़ा बेरौनक उसका भाग्य है। काल की अंधड़-आँधी ने उसके जमे पैर उखाड़कर उसे भी सड़क पर धराशायी वृक्ष की तरह फेंक दिया था। उसके सपने भी ऐसे पत्तों की तरह झड़ गए थे। और वह नंगी उघाड़ी होकर रह गई थी। <br />
आज तो कब्रिस्तान जाना है। दो दिन से वह खुदा से दुआ कर रही थी कि पानी थम जाए। खुदा ने वैसे तो कभी भी जीवन में उसकी नहीं सुनी, जो चाहा या कहा, ठीक उसका उलटा हुआ था। बेटे की बीमारी के समय उसने न जाने कितनी प्रार्थनाएँ की थीं, कितनी अरजी लगाई, थीं, कितने करार किए थे कि वह यह करेगी, वह करेगी; परंतु खुदा को तो अपनी मनमानी करनी थी और वही उसने किया। आज जाने कैसे उसने सुन लिया था और पानी रुक गया था। धुली पोंछी, साफ-सुथरी भीगी- भीगी बिना पानीवाली भोर आज उसके द्वार पर दस्तक दे रही थी। <br />
नहाकर वह तैयार हो गई। पति से जल्दी तैयार होने का आग्रह करने लगी। वह जल्दी से बेटे की कब्र पर जाकर फूल रखना चाहती थी। <br />
<br />
पति ने उठकर खिड़की के बाहर ताकते हुए पूछा, "कब्रिस्तान कैसे जा पाएँगे ? वहाँ तो पानी- ही- पानी भरा होगा न ?"<br />
"तो," वह एकदम बिफर गई। लगा सारा धैर्य छूटा जा रहा है, पानी बरस गया तो क्या हम बेटे की कब्र पर नहीं जाएँगे ? आज उसका जन्मदिन है। हर दिन की अपनी अहमियत, अपनी महक होती है। उसे दूसरे दिन नहीं किया जा सकता।"</div>Pratishthahttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AC_/_%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%BE_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%9C&diff=3988लाल गुलाब / मेहरुन्निसा परवेज2009-08-03T20:30:13Z<p>Pratishtha: नया पृष्ठ: {{GKRachna |रचनाकार=मेहरुन्निसा परवेज }} {{GKPustak |चित्र= |नाम=लाल गुलाब |रचना...</p>
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* [[समर (कहानी) / मेहरुन्निसा परवेज]]</div>Pratishtha