http://www.gadyakosh.org/gk/api.php?action=feedcontributions&user=Preksha+Jain&feedformat=atomGadya Kosh - सदस्य योगदान [hi]2024-03-29T06:25:15Zसदस्य योगदानMediaWiki 1.24.1http://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%22%E0%A4%AC%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A4%A6,_%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A4%A4%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0!%22_/_%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A3_%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%27%E0%A4%85%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%B2%27&diff=33161"बेशर्म सांसद, शर्मसार लोकतंत्र!" / अर्पण जैन 'अविचल'2017-03-19T07:01:24Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार= अर्पण जैन 'अविचल' }} {{GKCatLekh}} " गर चिराग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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|रचनाकार= अर्पण जैन 'अविचल'<br />
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<br />
" गर चिरागो की हिफ़ाज़त फिर इन्हे सौपी गई,<br />
<br />
रोशनी के शहर में बस अँधेरा ही रह जाएगा। "<br />
<br />
आज लाल किले के आँगन में फिर शर्म की बयार चली, वाक़या राष्ट्र के सबसे गरिमामय मंदिर, लोकतंत्र के देवता की स्तुति गान की बाग देने वाले देश की संसद में मिर्च और हथियार निकल आए और इस अस्मिता को सरे आम नीलाम करने वाले और कोई नहीं "विजयवाड़ा के कांग्रेस के सांसद राजा गोपाल" थे।<br />
<br />
एक तरफ तो राष्ट्र कई और संकटो और मुद्दो के बोझ के तले अपनी अस्मिता की रक्षा कर पाने में भी सक्षम नहीं हो पा रहा है और दूसरी और संसद की गरिमा के पुरोधा वतन की आबरू को नीलाम करने पर उतारू है, वतन की कोख ने कैसे लाल पैदा करे अब यह भी चिंतनीय विषय है।<br />
<br />
जनता ने किन्हे चुन कर लोकतंत्र के मंदिर में भेजा उस चुनाव पर भी संशय होने लगा है। मुद्दा यह नहीं कि सांसद ने मिर्च स्प्रे और चाकू नुमा माइक का इस्तेमाल किया, बल्कि मुद्दा यह है कि आख़िर ये सामान अंदर पहुंचा कैसे और इसी उत्पात के बीच "तेलंगाना बिल" पेश कैसे हो पाया?<br />
<br />
२२ जुलाई २००८ का "नोट के बदले वोट" कांड ने शुरुआत की थी लोकतंत्र का सर झुकाने, पर उसे परंपरा बना कर देश और दुनिया को १३ फ़रवरी २०१४ को फिर नया चेहरा दिखा दिया लोकतंत्र के मंदिर का।<br />
<br />
मिर्च की जलन से जहां एक और अन्य सांसद और नागरिकगण ही आहत नहीं हुए बल्कि इसे राष्ट्रीय शर्म मान कर राष्ट्र की अस्मिता को तार-तार कर देने वाले इन स्तरहीन सांसदो को देश द्रोही करार कर देश निकाला देना चाहिए.<br />
<br />
एक और तो राहुल गाँधी विकास और देश के युवा जोश की बात करते है और दूसरी और उन्ही की पार्टी के बेशर्म सांसद संसद में मिर्ची झोक कर बिल पेश करवा जाते है तब भी पार्टी मौन रहती है, ये राष्ट्र शर्म का विषय है, आख़िर हमने कैसे बेशर्मो को चुन कर भेजा है संसद में ...<br />
<br />
जिन पर ज़िम्मेदारी है सविधान के अनुरूप राष्ट्र की गरिमा को बनाए रखे वह ही आबरू को लूटने के लिए तैयार बैठे हो तो कौन रखवाला राष्ट्र का?<br />
<br />
वो कहते है ना जब बाग का माली ही चोरी में लिप्त हो जाए तो बाग की रखवाली तो भगवान भरोसे ही है ... एक और राष्ट्र की प्रगति और उन्नति का ढिढ़ोरा पीटने वाली सं प्र ग सरकार अपने ही सिपाहियो को संभाल नहीं पा रही है। राष्ट्र धर्म का बखान करने तो छोड़िए पर गौरव की बात अधूरी है।<br />
<br />
इन बेशर्म सांसदो की करतूतो की सज़ा तो वही होनी चाहिए तो एक राष्ट्र द्रोही की सज़ा होती है फिर भी असली सज़ा लोकतंत्र की अधिनायक जनता इन्हे बेहतर सज़ा दे पाएगी गर जनता भी मिर्च की जलन से आहत है तो...</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE_%E0%A4%B8%E0%A5%87_%E0%A4%A4%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A5%80%E0%A4%AB_%E0%A4%B9%E0%A5%88_%E0%A4%A4%E0%A5%8B..._/_%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A3_%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%27%E0%A4%85%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%B2%27&diff=33160मीडिया से तकलीफ है तो... / अर्पण जैन 'अविचल'2017-03-19T06:38:25Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार= अर्पण जैन 'अविचल' }} {{GKCatLekh}} मीडिया से...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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|रचनाकार= अर्पण जैन 'अविचल'<br />
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मीडिया से तकलीफ हैं तो देशव्यापी मीडिया पर रोक लगवाये, मैं आपका साथ दुंगा, पर उससे पहले एक बार मीडियाविहीन जीवन की बस कल्पना मात्र कर लीजिये श्रीमान जी। या अनुभव चाहिए तो एक बार 1947 के पूर्व की पैदाइश अपने दादा-नाना से आजादी के पहले के जीवन के अनुभव साझा ज़रूर कर लेना। मालूम चल जायेगा की ये अफसरशाही क्या होती हैं और कैसे काम करती हैं। नितांत आवश्यक जीवन भी देख लो एक बार, आपके घर के बाहर की सड़क ना जाने कितनी बार कागजों पर बन कर बिखर जायेगी आपको पता चलना तो दूर भनक भी नहीं लग पायेगी।<br />
<br />
अस्पताल के डॉक्टर से इलाज करवा कर देखो, मीडिया का एक अदम्य दबदबा हैं जिसने अफसरशाही की नाक में नकेल डाल रखी हैं वर्ना आपकी बातें केवल बातें रह जाती घर की चार दिवारी को भी लांघ नहीं पाती।<br />
<br />
जनता के हक़ की लड़ाई लड़ने वाला एक पत्रकार आपसे अपेक्षा भी क्या रखता हैं कि आप 2 या 3 रुपये प्रतिदिन का अख़बार पड़े जिसका लागत मूल्य ही 20 से 22 रुपये हैं...<br />
<br />
कभी अपने किसी पत्रकार भाई से पूछा हैं कि भाई तू जनता की लड़ाई लड़ता हैं तो घर कैसे चलता हैं?<br />
<br />
कोई डराता या धमकाता तो नहीं या यार अर्पण कही जान का खतरा तो नहीं...<br />
<br />
कभी नहीं...बस हमें कोसना ही आता हैं। कभी अदद पत्रकार से जाना भी की लेखन की क्या पीड़ा हैं?<br />
<br />
अफसरशाही वाला जीवन बढ़िया था तो वाकई देशव्यापी मुहिम चलाइये श्रीमान जी जिसमे मीडिया का बहिष्कार और मीडिया पर ताउम्र बेन लगे क्योंकि मीडिया आपको बताता हैं जेएनयु में कन्हैया और उमर क्या बोला, कैसे सियाचिन से हनुमंत्थप्पा की विदाई हो गई, कौन से देश हिंदुस्तान की सरजमीं पर कब्ज़ा करना चाह रहे हैं। मीडिया ये बताता हैं कि आपका कौनसा नेता देश के लिए काम कर रहा हैं या कौनसा देश विरोधी तत्वों के साथ हैं, मीडिया ये बताता हैं कि कौनसा अफसर भ्रष्टाचारी हैं कौन व्यभिचारी...यही अपराध हैं ना मीडिया का तो गुनहगार हैं मीडिया ...तमाम राष्ट्रभक्त मिल कर देश से मीडिया को आजीवन बेन करवाय। मैं भी साथ दुंगा...कुछ एक अपवाद को छोड़ कर पूरी जमात को बदनाम करने वाले ठेकेदार आगे आये। तब तो जाने की कितना जिगर रखते हैं आक्रांतित जनता के ठेकेदार...क्योंकि क्रांति का नियम हैं केवल जनाक्रोश क्रांति नहीं पैदा करता बल्कि नेतृत्व की भूमिका भी दिशा तय करती हैं श्रीमान जी।<br />
<br />
किसी को बुरा लगा हो तो क्षमा सहित, किन्तु मीडिया ने देश को दिशा दी हैं आगे भी हमारी वही भूमिका रहेगी। आप अपवादों के दम पर पूरी कौम को गाली नहीं दे सकते।</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A3_%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%27%E0%A4%85%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%B2%27&diff=33159अर्पण जैन 'अविचल'2017-03-19T06:27:45Z<p>Preksha Jain: /* लेख */</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Arpan-Jain-GadyaKosh.jpg<br />
|नाम=अर्पण जैन <br />
|उपनाम='अविचल'<br />
|जन्म=29 अप्रैल 1989<br />
|जन्मस्थान=कुक्षी, जिला-धार, मध्यप्रदेश<br />
|मृत्यु=<br />
|कृतियाँ=<br />
|विविध=<br />
|जीवनी=[[अर्पण जैन / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Arpan Jain <br />
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|kavitakosh=<br />
|copyright=<br />
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{{GKCatMadhyaPradesh}}<br />
====लेख====<br />
* [['पशुधन' नहीं, 'धनपशु' हैं आवारा / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [[गाँव में खबरों का कुँआ हैं / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [[पत्रकारिता: शैशव से भविष्य तक / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [[अबकी बार असली लाल किले से / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [[मीडिया से तकलीफ है तो... / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [["बेशर्म सांसद, शर्मसार लोकतंत्र!" / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [[“हो रहा गाँधी का विभाजन गाँधी के देश में" / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [[अच्छे दिनों का इंतजार करता भारत / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [[एक और सियाचिन से खो गये हनुमनथप्पा, दूसरी और "जेएनयू" का बखेड़ा / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [[खोखले विचार कैसी क्रांति लाएँगे / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [[पत्रकार हैं पक्षकार नहीं / अर्पण जैन 'अविचल']]</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%AC%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%85%E0%A4%B8%E0%A4%B2%E0%A5%80_%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%87_%E0%A4%B8%E0%A5%87_/_%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A3_%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%27%E0%A4%85%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%B2%27&diff=33158अबकी बार असली लाल किले से / अर्पण जैन 'अविचल'2017-03-19T06:25:31Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार= अर्पण जैन 'अविचल' }} {{GKCatLekh}} ६८ बसंत औ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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|रचनाकार= अर्पण जैन 'अविचल'<br />
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६८ बसंत और लगभग १० प्रधानमंत्रियों को अपनी प्राचीर से तिरंगा फहराने की इजाज़त देता ये दिल्ली का लालकिला कई इतिहास स्वयं में समाहित कर चुका है। गत वर्ष एक लालकिले से प्रधानमंत्री मनमोहन सिहँ देश को संबोधित कर रहे थे तो वही दुसरी और उस वक्त के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी को जनता आक्रोशित रूप में भुज में लालकीले की प्रतिकृति से देख रही थी। नजारा खास भी था किन्तु आज हालात बदल गये, अब बारी असली लाल किले से है।<br />
<br />
अबकी बार देश ने प्रंचड बहुमत के साथ मोदी जी को आमंत्रित किया है लालकिले पर,<br />
<br />
हालातो के साथ-साथ देश को युवा कहा जाने वाला प्रधान तो मिला ही है साथ में चुनौती से भरा हिन्दुस्थान भी मिला है...<br />
<br />
देश के हालातो में मंहगाई के साथ गरिबी, भुखमरी से तड़पता भारत आज भी उम्मीद की टकटकी लगाये बैठा है नये प्रधानमंत्री से...<br />
<br />
नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश की आवाम के आज सरताज बन गये, एक साल में कितना कुछ बदल गया, तख्त बदले, ताज बदल गये, जो कल विपक्ष के गलियारे में दहाड़ते थे आज संसद के सत्तासीन बन गये, कल जिनकी तान सुन कर सत्ता पक्ष भी अचंभित हो जाता था आज वह सत्ता के धरातल के शहंशाह बन गये।<br />
<br />
इतिहास के पन्ने भी सदा से ही इसी तरह लिखे गये है, दिन चाहे १९८० की इंदिरा लहर हो या १९८४ में राजीव गाँधी का सत्ता पर काबिज होना हो या २०१४ में नरेंद्र दामोदर दास मोदी का, स्वर्ण अक्षरो ने सदा से ही इसी तरह का आगाज़ इतिहास की किताबो में संजोया है।<br />
<br />
वर्तमान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगभग ७५ दिनो का कार्यकाल व्यतीत कर चुके है, जिसमे से एक बजट सत्र भी पूर्ण हो चुका है, इसमे देश की जनता को कड़वी दवाओ के साथ अच्छे दिनो का वायदा भी दर्शाया है।<br />
<br />
याद रहे नायक! तुम्हें संविधान सौंपा है!<br />
<br />
देश के नये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तुम्हे करोड़ो भारतवासीयो ने एक उम्मीद के रूप में स्वीकारा है, देश पिछली सरकार की जनविरोधी नीतियो से त्रस्त था, सहमा-सा भारत बन चुका था देश उन सरकारों के नेतृत्व में, उन लोगों ने घोटालो के नित नये कीर्तिमान रचना शुरू कर दिए थे, हर तरफ त्राहि-त्राहि मची हुई थी, मंहगाई की मार थी, महिलायें व बच्चियां भी असुरक्षा में थी, इन सब अंधियारों के बीच भारतवंशियों ने नरेंद्र मोदी के रूप में एक उम्मीद की है उजियारे की,<br />
<br />
जनता से आपने ६० महीने माँगे थे, जनता ने पूर्ण बहुमत के साथ आपको ६० महीने दिए है, अब आपके हाथो में भारत का भविष्य दिया है, संविधान दिया है आपको, आपके पास अधिकार भी है ... देश उन सब कष्ट से निजात चाहता है और ऐसा चाह कर वह कोई ग़लत काम भी नहीं कर रहा है,<br />
<br />
क्यू ना करे आपसे उम्मीद?<br />
<br />
देश के वर्तमान हालत भी आज़ादी के परवानो को रास नहीं आएँगे,<br />
<br />
आज भी सत्ता के रास्ते से लोकतंत्र के मंदिर तक जाने वाले लोग सुभाष चंद्र बोस की मौत पर खामोश ही नज़र आते है।<br />
<br />
आज जब भारत रत्न देने के मुद्द्दे पर देश में बहस तो छिड़ रही है कि सुभाष चन्द्र बोस को (मरणोपरांत) भारत रत्न दिया जाएगा किंतु कोई ये भी तो बताए की उनकी मृत्यु कब और कहा हुई?<br />
<br />
कैसे हालातो ने देश में जगह बना ली है, अब आँधियारे से उजाले की और ले जाने वाले हाथो में संविधान सौप कर निश्चिंत तो है किंतु भयभीत भी।<br />
<br />
यदा कदा कश्मीर की केसर की घाटी में होने वाली गोलाबारी अभी भी भयभीत कर देती है देश, कब चीन अरुणाचल के रास्ते हिन्दुस्तान घुस जाए यह अनायास भय देशवासीयो को सोने नहीं देता, अब नरेंद्र मोदी से देश केवल उम्मीद कर रहा है।<br />
<br />
उम्मीद के रास्ते से ही मंज़िल का पता मिलता है।<br />
<br />
कटु किंतु सत्य है कि आज़ादी के ६८ बसंत पर करने के बाद भी आर्थिक रूप से हम आत्मनिर्भर नहीं, सामाजिक ढाचे में अभी ढले नहीं, ना वैश्विक सोच को देश ने पूर्णत: स्वीकार किया, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी।<br />
<br />
विश्वस्तर पर विश्व बेंक को चुनोती देने वाली संस्था "ब्रिक्स" की नीव तो आप रख आए हो प्रधानमंत्री जी किंतु चिंता इस बात की भी ज़रूर करना की देश में अभी भी कर्ज़ के कारण कई किसान आत्महत्या जैसे जघन्य अपराध करने पर मजबूर है,<br />
<br />
चिंता में सूना चूल्हा भी रखना और वह बहन का भी ध्यान रखना जिसकी राखी का हकदार सेना के जवान का पाकिस्तान शीश काट कर ले गया था। उस मासूम की किलकारी मत भूल जाना जिसने अपने पिता को रसुखदारो के काले कारनामो की भेट चढ़ते देखा है, उस अबला को मत भूल जाना जिसका शील भंग होने के साथ बलात्कार के बाद जान गवाँ दी है।<br />
<br />
मत भूलना उस माँ के आँसुओ को जिसने अपने लाल को खोया है सीमा पर, मत भूलना उस पत्नी के सुहाग को जिसकी बलि शासकीय सेवा के दौरान सही कार्य करने पर नेताओ ने ले ली, आप मत भूल जाना उस मासूम किलकारी को जिसे माँ-बाप ने इसलिए मार दिया क्यूकी वह बेटी थी ...<br />
<br />
हे नायक! कूटनीति के रास्ते से वतन के आचमन का कोई नुकसान ना हो और जो दहाड़ चुनाव के पूर्व तुमने रखी थी कम से कम उसे मत भूल जाना, वरना देश की जनता बेचारी भविष्य में उम्मीद करना भी छोड़ देगी।<br />
<br />
आपने ही उम्मीद जगाई है हर उस भारतीय में जो हताश हो चुका था हालातो के मंज़र से गुज़रते-गुज़रते ...<br />
<br />
पड़ोसी देशों की बढ़ती दादागिरी पर पूर्व की सरकार की चुप्पी ने देश के हर उस व्यक्ति के दिल को कचोटा है जिसके दिल में भारत बसता है, किंतु आपने उस भारतवंशी के दिल में अरमान जगाए है कि ईंट का जवाब पत्थर होगा।<br />
<br />
अब वह सीमा पर जवानो के सिर कटते हुए नहीं देखना चाहता, हिन्दुस्तान की सीमाओं को सुरक्षित देखना चाहता है ... भारत की उम्मीद के दीये बने हो तो याद रखना की उम्मीद को तोड़ना मत, क्योंकि गर उम्मीद एक बार टूट गई तो दोबारा किसी और पर विश्वास नहीं होगा...<br />
<br />
अब तो सभी ताकते तुम्हारे पास है... हर शक्ति है तुम्हारे पास...<br />
<br />
अब तुम जो चाहे कर सकते हो... देश को कम से कम अच्छे दिन का एहसास करवा दो...<br />
<br />
तुम्हारे पास संवैधानिक बल है...<br />
<br />
हमे आशा का सूरज दिखा दो अब...<br />
<br />
याद रहे नायक! तुम्हे संविधान सौपा है!<br />
<br />
अच्छे दिनो की उम्मीद में।</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE:_%E0%A4%B6%E0%A5%88%E0%A4%B6%E0%A4%B5_%E0%A4%B8%E0%A5%87_%E0%A4%AD%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%A4%E0%A4%95_/_%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A3_%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%27%E0%A4%85%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%B2%27&diff=32948पत्रकारिता: शैशव से भविष्य तक / अर्पण जैन 'अविचल'2017-01-28T17:52:19Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार= अर्पण जैन 'अविचल' }} {{GKCatLekh}} कैसे कैसे...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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कैसे कैसे हालात हो गये ...<br />
<br />
जब आज देश के हर कोने से पत्रकारिता (यानी मीडिया) को कोसा जा रहा है, तमाम तरह के आरोप लग रहे है, जिव्हा पर सत्य आने से पहले बीसियो बार रुक रहा है, कही कोई गाली दे रहा है तो कोई धमकी, तब एसे कालखंड में उद्देशो को लेकर चिंतन स्वाभाविक है।<br />
<br />
स्वरूप का चिंतन, मौलिकता के ख़तरे भयभीत नहीं करते अपितु उचाई पर जाने की इच्छा को और बल प्रदान करते है ...<br />
<br />
<br />
<br />
"एक समय आएगा, जब हिन्दी पत्र रोटरी पर छपेंगे, संपादकों को ऊंची तनख्वाहें मिलेंगी, सब कुछ होगा किन्तु उनकी आत्मा मर जाएगी, सम्पादक, सम्पादक न होकर मालिक का नौकर होगा।"<br />
<br />
<br />
<br />
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अपनी कलम की ताक़त से देश और दुनिया के सामने पत्रकारिता का लोहा मनवाने वाले बाबूराव विष्णु पराड़कर जी ने यह बात कही थी। उस समय उन्होंने शायद पत्रकारिता के भविष्य को भांप लिया था।<br />
<br />
<br />
<br />
इतिहास के पन्नो में सिमटी ये छोटी-सी बात वर्तमान के हालत पर सीधा कटाक्ष ही नहीं करती वरन भूतकाल के गर्भ में भविष्य के अध्याय भी बुन आई है। पत्रकारिता की शुरूआत जहा मिशन से हुई थी जो आजादी के बाद धीरे-धीरे प्रोफेशन बन गई.<br />
<br />
इक्कीसवी सदी की शुरुआत और सूचना क्रांति के विस्फोट के साथ-साथ पत्रकारिता का विकास के साथ-साथ मूल्यो के हास का दौर भी शुरू हो गया है। लगभग 92674 पंजीकृत अखबारों और 600 से अधिक समाचार चैनलों के साथ देश के मीडिया ने पूरे विश्व में अपनी एक जगह तो बनाई है, किंतु विडंबना है कि यह तरक्की पाठक को खो कर और ग्राहक के साथ प्राप्त हुई है, आधुनिक जीवन की बढ़ती व्यस्तताओं और बदलती भाषा शैली के मद्देनजर पत्रकारिता ने अपना कलेवर भी बदला है। अब पत्रकारिता 24×7 यानी चौबीस घंटे, सातों दिन सजग तो रहती है, चीजों को लाइव यानी साक्षात् दिखाने की कोशिश करती तो है, स्टिंग यानी परदे के पीछे झांकने की चेष्टा भी करती है और स्थानीय मुद्दों से जुड़ने का प्रयत्न भी करती है किंतु फिर भी मूल्यानुगत पतन के दौर को आमंत्रित भी कर ही रही है। निश्चित ही आज देश में मीडिया का व्यापक प्रसार हुआ है, परंतु दूसरी ओर उसका नैतिक और चारित्रिक पतन भी हुआ है। पत्रकारिता में बाजार, विज्ञापन, पैसे व सनसनी की महत्ता भी बढ़ी है और मानवीयता, निष्पक्षता व खबरीपने में गिरावट आई है। इसका परिणाम यह हुआ है कि समाचारों में भी केवल सनसनी और चटपटेपन को ही प्रमुखता मिल रही है। समाज के उच्च वर्ग कीअय्याशियो को खबर बनाने के लिए एक पेज थ्री नामक आयाम विकसित हो गया है।<br />
<br />
आख़िर यह दौर क्यू आया?<br />
<br />
<br />
<br />
पत्रकारिता के मापदंडो की पुन: विवेचना ना हो पाने की दशा में आज मीडिया कलंकित हो रहा है<br />
<br />
ध्यान रहे कि भले ही आधुनिक पत्रकारिता का जन्म और विकास यूरोप में हुआ है, भारत में इसका एक स्वतंत्र स्वरूप विकसित हुआ। यह स्वरूप पश्चिम के स्वरूप से न केवल भिन्न था, बल्कि कई मायनों में उससे काफी बेहतर भी था। भारत में पत्रकारिता अमीरों के मनोरंजन के साधन के रूप में विकसित होने की बजाय स्वतंत्रता संग्राम के एक साधन के रूप में विकसित हुई थी। इसलिए जब 1920 के दशक में यूरोप में पत्रकारिता की सामाजिक भूमिका पर बहस शुरू हो रही थी, भारत में पत्रकारिता ने इसमें प्रौढ़ता प्राप्त कर ली थी। 1827 में राजा राममोहन राय ने पत्रकारिता के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा था, "मेरा सिर्फ़ यही उद्देश्य है कि मैं जनता के सामने ऐसे बौध्दिक निबंध उपस्थित करूं, जो उनके अनुभवों को बढ़ाए और सामाजिक प्रगति में सहायक सिध्द हो। मैं अपने शक्तिशाली शासकों को उनकी प्रजा की परिस्थितियों का सही परिचय देना चाहता हूँ ताकि शासक जनता को अधिक से अधिक सुविधा देने का अवसर पा सकें और जनता उन उपायों से परिचित हो सके जिनके द्वारा शासकों से सुरक्षा पायी जा सके और उचित मांगें पूरी कराई जा सकें।"<br />
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आख़िर इतने उन्नत उद्देश्यो के साथ शुरू हुई यह जंग आज अपने बौनेपन पर क्यू आ चुकी है। हिन्दी पत्रकारिता आज हाशिए पर आ रही है।<br />
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भाषाई पत्रकारिता की प्रमुख चुनौतिया:<br />
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स्वाधीनता के बाद परिस्थितियां बदली, स्वाधीनता मिलने के बाद से ही पत्रकारिता के इस भारतीय स्वरूप के सामने चुनौतियां भी बढ़ने लगीं थीं। 15 अगस्त, 1947 को 'जनता' (समाचार) ने लिखा था, "भारत में पत्रकारिता के समक्ष तीन प्रकार की कठिनाइयां हैं। पहली समस्या वित्त की है। दूसरी चुनौती है, स्वतंत्र समाचार पत्रों के पूंजीवादियों से सम्बंध, जो समाचार पत्रों को लाभ कमाने के साधन के रूप में विकसित करने और इसके द्वारा प्रतिक्रियावादी आर्थिक सिध्दांतों को स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। प्रबंध संपादकों द्वारा पूंजिवादियों के हितों के विरुद्ध किसी भी विचार को प्रकाशन से रोका जा रहा है। तीसरी समस्या है, व्यावसायिक पत्रकार, जो अपने कैरियर की आवश्यकता को पूरा करने के लिए पत्रकारिता के सिध्दांतवादी व मिशनरी भूमिका को दबा देते हैं।" वास्तव में यह तीसरी समस्या ही सबसे बड़ी समस्या है। व्यावसायिक पत्रकार और पत्र-पत्रिकाएं, दोनों की जो शृंखला विकसित हुई है, उसे पत्रकारिता के सिध्दांतों और उद्देश्यों से कोई लेना देना नहीं है। टेलीविजन चैनलों की तो बात ही करना व्यर्थ है। उनका तो जन्म ही यूरोप की नकल से हुआ है। उनसे किसी भी प्रकार की भारतीयता की अपेक्षा करना ऐसा ही है जैसे कोई बबूल का वृक्ष बोए और आम के फलने की आशा करे। आज यदि महात्मा गांधी या राजा राममोहन राय या विष्णु हरि परांडकर या माखनलाल चतुर्वेदी जीवित होते तो क्या वे स्वयं को पत्रकार कहलाने की हिम्मत करते? क्या उन जैसे पत्रकारों की विरासत को आज के पत्रकार ठीक से स्मरण भी कर पा रहे हैं? क्या आज के पत्रकारों में उनकी उस समृध्द विरासत को संभालने की क्षमता है? ये प्रश्न ऐसे हैं, जिनके उत्तर आज की भारतीय पत्रकारिता को तलाशने की ज़रूरत है, अन्यथा न तो वह पत्रकारिता ही रह जाएगी और न ही उसमें भारतीय कहलाने लायक कुछ होगा।<br />
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पत्रकारिता और सेंसरशिप<br />
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वर्ष 1947 से लेकर वर्ष 1975 तक पत्रकारिता जगत में विकासात्मक पत्रकारिता का दौर रहा। नए उद्योगों के खुलने और तकनीकी विकास के कारण उस समय समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में भारत के विकास की खबरें प्रमुखता से छपती भी थी। समाचार-पत्रों में धीरे-धीरे विज्ञापनों की संख्या बढ़ रही थी व इसे रोजगार का साधन माना जाने लगा था।<br />
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वर्ष 1975 पत्रकारिता के दुखद कालखंड के रूप में उभर कर सामने आया, एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर काले बादल छा गए, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर मीडिया पर सेंसरशिप लागू दी। सरकार के विपक्षी पार्टियो की ओर से भ्रष्टाचार, कमजोर आर्थिक नीति को लेकर उनके खिलाफ उठ रहे सवालों के कारण इंदिरा गांधी ने प्रेस से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन ली। लगभग 19 महीनों तक चले आपातकाल के दौरान भारतीय मीडिया को हर तरह से कमजोर किया गया। उस समय दो समाचार पत्रों द इंडियन एक्सप्रेस और द स्टेट्समेन ने उनके खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की तो उनकी भी शासकीय वित्तीय सहायता रोक दी गई. इंदिरा गांधी ने भारतीय मीडिया की कमजोर नस को अच्छे से पहचान लिया था। उन्होंने मीडिया को अपने पक्ष में करने के लिए उनको दी जाने वाली वित्तीय सहायता में इजाफा कर दिया और प्रेस सेंसरशिप लागू कर दी। उस समय कुछ पत्रकार सरकार की चाटुकारिता में स्वयं के मार्ग से भटक गए और कुछ चाहकर भी सरकार के विरूद्ध स्वतंत्र रूप से अपने विचारों को नहीं प्रकट कर सकें। कुछ पत्रकार ऐसे भी थे जो सत्य के मार्ग पर अडिग रहें। आपातकाल के दौरान समाचार पत्रों में सरकारी प्रेस विज्ञप्तियां ही ज़्यादा नजर आती थी। यही वह दौर था जब से खबरो को विज्ञापन के वजन से तोला जाने लगा फिर कुछ सम्पादकों ने सेंसरशिप के विरोध में सम्पादकीय खाली छोड़ दिया। अख़बार का संपादकीय पृष्ट काला कर दिया, किंतु इंदिरा गाँधी की हटधार्मिता के कारण पत्रकारिता अपने योवनकाल में ही मूल्यो से भटक गई।<br />
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यौवन अवस्था ही मनुष्य की भटकाव की ज़िम्मेदार होती है। पत्रकारिता का भी वही हश्र हुआ।<br />
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लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी एक पुस्तक में कहा है-<br />
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"उन्होंने हमें झुकने के लिए कहा और हमने रेंगना शुरू कर दिया।"<br />
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1977 में जब चुनाव हुए तो मोरारजी देसाई की सरकार आई और उन्होंने प्रेस पर लगी सेंसरशिप को हटा दिया। इसके बाद समाचार पत्रों ने आपातकाल के दौरान छिपाई गई बातों को छापा।<br />
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पत्रकारिता द्वारा आजादी के दौरान किया गया संघर्ष बहुत पीछे छूट चुका था और पत्रकारिता अब पेशे में तब्दील हो चुकी थी। भारत में एक और ऐसी घटना घटी जिसने पत्रकारिता के स्वरूप को एक बार फिर बदल दिया। वर्ष 1991 की उदारीकरण की नीति और वैश्वीकरण के कारण पत्रकारिता पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा और पत्रकारिता में धीरे-धीरे व्यावसायिककरण का दौर आने लगा।<br />
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यही दौर है जिसने कलम की ताक़त को चुनौती दे दी, कहते है ना वक्त से बड़ा कुछ भी नहीं होता, वक्त की मार कहे या सियासत की हठ!<br />
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आख़िर नियति को यही मंजूर था, यही लिखा था कलमविरो के भाग्य में, जिस कलम को तलवार भी ज़्यादा ताकतवर माना जाता था उसी की मजबूत निब को तोड़ा जाने लगा।<br />
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सियासत भी पहले से कही ज़्यादा बदल गई थी, विश्वास और मानवीय मूल्यो की बलि दे कर लोग यहा सपनो के महल बुनने लग गये थे,<br />
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इसी दौर में रोशनी की किरण भी आई, जिन्होने अपनी कलम को सियासत के नापाक मंसूबो के आगे झुकने नहीं दिया।<br />
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उम्मीद बनी, कुछ बेहतर लिखा जाने लगा, किंतु आज के इस दौर में बेहतर और सच लिखा भी गया तो वह बहरे हो गये जिनको सच सुनना था।<br />
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खबरो पर बाज़ारवाद का असर<br />
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इन सब के अलावा सबसे मूल चुनौती आधुनिकता से रंग में पत्रकारिता का मूल स्वरूप है।<br />
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खबरो पर बाज़ारवाद हावी होता जा रहा है, जहा एक और निस्वार्थ सेवा पत्रकारिता का मूल उद्देश्य था आज वह मूल्य नदारद है। आख़िर अब पत्रकारिता "मिशन" नहीं बल्कि "प्रोफ़ेशन" बनता जा रहा है।<br />
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और जब प्रोफ़ेशन बन ही रहा है तो उसमे कही ना कही वित्त की विकराल समस्या और विज्ञापनवाद का हावी होना भी कही ना कही पत्रकारिता के नैतिक पतन में शामिल है।<br />
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खबरो से ज़्यादा विज्ञापन लाना और उन्हे प्रकाशित करना आज मजबूरी बन चुकी है, क्यूकी अख़बार का दम रद्दी की कीमत से बस तोड़ा ही तो ज़्यादा है, जबकि लागत मूल्य से कोसो दूर।<br />
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अख़बार की लागत मूल्य १५ रुपये २५ रुपये के बीच होती है और वह बिकता है महज २रुपये या ४ रुपये में।<br />
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बचा हुआ लागत मूल्य निकालने का जिम्मा विज्ञापन विभाग पर आ जाता है जिस कारण से कई ख़बरे रोशनी में आने से रह जाती है। क्यूकी विज्ञापन विभाग की भी अपनी मजबूरी हो जाती है खबरो में हस्तक्षेप करना। जबकि होना तो यह चाहिए की विज्ञापन विभाग, कभी संपादकीय कक्ष में कोई हस्तक्षेप ही ना करे, किंतु ये तब तक नहीं हो सकता जब तक अख़बार का दम उसकी लागत मूल्य तक ना पहुचे, ताकि वित्त की कोई समस्या ही नहीं हो।<br />
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तब तो सच्चा दस्तावेज़ फिर बन जाएगा अख़बार और न्यूज चेनल भी 250 चैनल २०० रुपये में ना दिखाए जाए।<br />
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आख़िर पत्रकारिता के वास्तविक मूल्यो की बलि देकर कोई केसे क्रांति की अपेक्षा कर सकता है।<br />
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टकसाल और सेवा में रास्ते बहुत अलग होते है, जो रास्ता टकसाल की तरफ जाता है उसका कही भी किसी भी समय सेवा में मार्ग से मिलन असंभव है। वही अंतर है पुराने समय की पत्रकारिता और आधुनिकता का लिबास पहनी हुई पत्रकारिता में।<br />
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पुराने जमाने की पत्रकारिता नज़रिया देती थी, क्रांति का माद्दा रखती थी, कलम की ताक़त से सियासत को भी हिला कर रख देती थी, किंतु वर्तमान समय की पत्रकारिता में उपर्युक्त कोई गुण नज़र कम आता है।<br />
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आख़िर चिंतन का परिणाम सभी पत्रकारो को मिलकर ही निकलना पड़ेगा की आख़िर कैसे भटके हुई कलम को फिर से गौरवान्वित क्षण दे जिससे वह पुन: निर्दोष बन जाए।<br />
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आख़िर हमारा कर्तव्य बनता है कि घर में लगे मकड़ी के जाल से हम ही घर को साफ करे। अन्यथा परिणाम बहुत ही विनाशकारी होगा, शायद पत्रकारिता का अस्तित्व ही ख़तरे में आ जाए।<br />
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किसी कवि ने ठीक ही लिखा है,<br />
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" तुमने कलम उठाई है तो वर्तमान लिखना,<br />
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हो सके तो राष्ट्र का कीर्तिमान लिखना।<br />
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चापलूस तो लिख चुके हैं चालीसे बहुत,<br />
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हो सके तुम ह्रदय का तापमान लिखना...<br />
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महलों मैं गिरवी है गरिमा जो गाँव की,<br />
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सहमी-सी सड़कों पर तुम स्वाभिमान लिखना।"</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%81%E0%A4%B5_%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82_%E0%A4%96%E0%A4%AC%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%82_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%81%E0%A4%86_%E0%A4%B9%E0%A5%88%E0%A4%82_/_%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A3_%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%27%E0%A4%85%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%B2%27&diff=32947गाँव में खबरों का कुँआ हैं / अर्पण जैन 'अविचल'2017-01-28T16:12:19Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार= अर्पण जैन 'अविचल' }} {{GKCatLekh}} ये उँची-ल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<div>{{GKGlobal}}<br />
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|रचनाकार= अर्पण जैन 'अविचल'<br />
}}<br />
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ये उँची-लंबी, विशालकाय बहुमंज़िला इमारते, सरपट दौड़ती-भागती गाड़ीयाँ, सुंदरता का दुशाला ओढ़े चकमक सड़के, बेवजह तनाव से जकड़ी जिंदगी, चौपालों से ज़्यादा क्लबों की भर्ती, पान टपरी की बजाए मोबाइल से सनसनाती सभ्यता, धोती-कुर्ते पर शरमाती और जींस पर इठलाती जवानी, मनुष्यता को चिड़ाती व्यवहारशीलता, मेंल-ईमेंल में उलझी हुई दास्तानों और शहरी चाक-चौबंध पर पैबंध लगे पाजामें के लिबास में स्वच्छंदता की ग्रामीण शहनाई भारी हैं।<br />
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हर रोज मेरे शहर के भीतर एक नया शहर पैदा हो रहा है, सूर्योदय से अधिक रोशनी शहरों की सड़को पर सुबह-सुबह बिखरी मिल जाती हैं। और सूर्यास्त के बाद शहर अपने लिए एक नया सूर्य विकसित कर चुका होता हैं, जहाँ आधुनिक सभ्यताये अपनी भाषा के आईने में अपना व्याकरण गड़ती हैं। इतनी सारी यांत्रिक गतिविधियाँ संचालित होने के बाद भी, शहर के किसी भी आदमी के पास अपना ऐसा चेहरा भी नहीं जो लोगों के लिए चौराहा भी साबित हो सके.<br />
<br />
भैंसों के तबेलों से निकला हुआ किसान, धरती के सौंदर्य का बखूबी बखान कर जाता है, उस धरती पर चारो और फैले लहलहाते खेत, नीले अंबर में मस्ताते काले बादल, नदी का मुहाना, खेतों में गीत गुनगुनाते हलधर किसान, गोधूली से ढकी सांझ, पनघट से हंसी-ठिठोली करती आती बहुए, गौबर से लिपि हुई कुछ झोपड़ीयाँ, कच्चे-पक्के घर, उन घरों के चूल्हे से निकला धुँआ, चौपाल पर चर्चाओं में डूबे बुजुर्ग, अधनंगे खेलते बच्चे-यही है एक गाँव का दृश्य।<br />
<br />
गाँव की वेशभूषा, परिवेश और ज़िन्दगी के छन-छनाते रोशनदान ज़रूर से यांत्रिक नहीं हैं पर इतना तो ज़रूर है क़ि शहर की आत्मा में विकास की गाठें हैं, लेकिन गाँव की आत्मा कपास की तरह खुली हुई हैं। एक अदद ग्रामीण व्यक्ति शहर में जब भी आएगा तो कुछ लेने नहीं बल्कि बहुत कुछ देकर जाएगा, जबकि शहरी जब भी गाँव की तरफ जाएगा, कुछ ना कुछ लेने के मतलब से ही जाएगा नहीं कुछ तो उनके सुकून के पल और गाँव के परिवेश का सुखंद ज़रूर ले आएगा। आख़िर आंचलिक, शहरी सभ्यता से क्या माँगता है? कुछ नहीं, केवल दृष्टा के भाव से शहर की तरफ आता हैं, केवल घूम कर देख कर फिर अपनी जड़ों की ओर लौट जाता हैं। यही सब कुछ इन इमारतों को रास नहीं आ रहा हैं। सचमुच आज सबकुछ बदल गया पर गाँव नहीं बदला, वही खेतों की मुंडेर, परसराम भैया की चाय की दुकान और धनु काका की पान की टपरी... इन सब के बीच सपनों की नुमाइश हो जाना, वही खबरों का प्रतिष्ठा पाना और रोजमर्रा की उहापोह के बीच यकायक गाँव की हर छोटी-सी घटना का चर्चा बन जाना...आज सत्ता या अफ़सरशाही कितनी भी स्मार्टसिटी बना लें, कितनी ही उँचीं इमारते बना लें, पर वह गाँव की मिठासभरी सभ्यता और आत्मिकता से भरपूर बोली नहीं ला पाएगी।<br />
<br />
चौपाल से तहसील, तहसील से जनपद, जनपद से अस्पताल, अस्पताल से थाने, थाने से फिर लौट कर चौपाल... यही दिनचर्या है आंचलिक पत्रकार की ...इन सब के बीच सैकड़ों ख़बरे... सैकड़ों उम्मीदे, सैकड़ों समझाइशें, हज़ारों दर्द, मार्मिकता, सहृदयता, आपसी प्रेम, फिर कही दिल के किसी कौने में दबी छिपी राजनीति...<br />
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अक्सर बड़े शहरों की बड़ी इमारतों के आकर्षण में बँधे लोग, असल ज़िन्दगी के सौपानों से मेंल-मुलाकात करने से दूरी बनाते हैं, उन्हे वही लगता है कि शहरों के सौंदर्य में ही खबरों का संसार हैं। हिन्दी साहित्य सदन के पुरोधा आंचलिक पत्रकार, भाषा के कुंभकार होते हैं, हर एक खबर रूपी कच्ची मिट्टी से समस्याओं के समाधान का पुलिंदा बनाते हैं, वही पुलिंदा मिट्टी के घड़े के मानिंद जनमानस को ठंडक और तृप्ति दे जाता हैं। जब गाँव की अदनी-सी समस्या भी सुलझ भर जाए तो जनता उस पत्रकार को, जो खबरों का कुम्हार हैं उसे अपनी पलकों पर बिठा लेती हैं। इस खबरों के कुम्हार का जीवन हमेशा से ही जनसत्ता को चिर आनंद की अनुभूति देना भर ही रह जाता हैं। जब-जब भी जनमानस में किसी समस्या ने विद्रोह किया हैं, या राजनीति-दंडनीति ने विरोधाभास दर्शाया हैं, ये पत्रकार उन सब के खिलाफ अपना मौर्चा खोले जनता के साथ खड़ा मिला हैं। यही पहचान हैं एक क़लमकार की।<br />
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गाँव के हर एक शख्स से जब भी मिलोगे, एक नयी उर्जा मिलेगी, प्रेम मिलेगा, कुछ और ना मिल सका तो प्रेरणा ज़रूर मिलेगी। पर इन शहरी कट्टरताओं से ज़िन्दगी भर भी लड़ते-भीड़ते रहे तो खाली हाथ ही लौटोंगे। अफ़सरशाही का भी नरम मिज़ाज और रिश्तों में शहद घुला प्यार, संकीर्णता पर विशालता का पुट ज़रूर पाओगे। खोज के रास्ते से गुज़रोंगे तो एक नया संसार खोज लाओगे, यही सच हैं धरती के आँचल का।<br />
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गाँव की तमाम उम्मीदों का पुलिंदा सौंप दिया जाता है एक अदद पत्रकार की झोली में, सच ना लगे तो चलिए गाँव, खुद-ब-खुद देख लीजिए श्रीमान...आप वातानुकूलित कमरों में बैठ कर गाँव का चित्र ज़रूर खीच सकते हैं, पर गाँव 'जी' नहीं पाएँगे...आख़िर विभिन्न भाषाओं और बोलियों का बेजोड़ मेंल और उसमें से खबर का छलक जाना ही उस सभ्यता का समूल चित्रण माना जाएगा। आर्थिक और तकनीकी में, यांत्रिकों और यंत्रों में शहर ज़रूर वजनी माना जाएगा, परंतु जब भी हिन्दी के विन्यास और विस्तार का ज़िक्र किया जाएगा, हिन्दी पत्रकारिता की कही बात भी होगी तो आंचलिक परिवेश में पली-बड़ी आंचलिक पत्रकारिता अपना लोहा ज़रूर मनवाएगी।<br />
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सत्ता के केंद्रबिंदुओं को भी अंचल की दहाड़ ही हिला कर रख देती हैं, सत्ता मदमस्त हो जाए तो देश की ७० फीसदी आबादी जो गाँवों में रहती है वही अपना आइना भी दिखा जाती हैं। कस्बों से चल कर आई नीति ने सदा से ही शहरी सभ्यताओं का मार्गदर्शन किया हैं, किंतु इन सब से अंजान कुछेक इमारते आज उन्ही मूल्यों को समय का उपहास मानने लगी हैं।<br />
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शहर के मोहल्लों और 'वार्डों' में राजनीति ज़रूर हैं पर पत्रकारिता गौण है... संपादको को लगता हैं, गाँव की समस्याओं को सुलझाने में क्या मिलने वाला है, शहर में शान है, शोहरत है, पैसे है, सबकुछ तो है। मान लिया जाए शहरों में व्यापार हैं, शहरों में विज्ञापन का अंबार हैं, शहरों में चाकलेट और बिस्किट ज़रूर हैं पर आज भी गाँव में मिश्री-गुड की मिठास शेष हैं। दिलों में प्यार, वह राम-रहीम का मेंल और असलियत तो प्रधानी के चुनावों में भी देखा जा सकता हैं। शहरों में सबकुछ हैं, पर गाँव में खबरें हैं श्रीमान...<br />
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राजपाठ सम वैभवतुल्य शहरी सभ्यताओं ने ग्रामीण पहनावे पर ही रुककर ज़रूरतों के मुताबिक आंकलन की सीमाएँ बना ली, हर रिश्तों को पूंजी के मापदंडों से तौल दिया, समस्याओं को भी ज़िन्दगी का कड़वा घूँट और पतन का मार्गदृष्टा मान लिया, किंतु इस तरह के लिबासी आंकलन को केवल मानव सभ्यता के विकास में समय की भूल माना जाएगा। यंत्र और यांत्रिकी से लबरेज रिश्ते कभी माटी के नैसर्गिक सौंदर्य की पराकाष्ठा हासिल नहीं कर पाएँगे।<br />
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भरी दुपहरी में भी कागज-कलम संभालती हुई, छज्जे से रिसति प्रशासनिक इमारतों के बीच, माटी की मिठास भरी धूल और मोहल्लों, वार्डों की समस्याओं को सुलझाती हुई आंचलिक पत्रकारिता का मूल्यांकन वातानुकूलित संयंत्रों सहित बंद कमरों से करने की हिमाकत करती संपादक की डेस्क गच्चा खा ही जाती हैं। गाँव में खबरें थी उसके हत्यारे हम है, आख़िर हिन्दी पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास की झलक अगर सच्चे अर्थों में नापनी है तो श्रीमान चलो गाँव चले...<br />
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आँकड़ों के अनुसार भारत के शहरों में 44 प्रतिशत परिवार 1 कमरे में गुजारा करते हैं और शौचालय की सुविधा सिर्फ़ 24 प्रतिशत आबादी को उपलब्ध है। 60 प्रतिशत शहरों में रोज निकलने वाले कूड़े को ठिकाने लगाने की व्यवस्था नहीं है तथा यह यों ही गलियों में खुले में सड़ता है। अधिकतर शहरों में बरसात के पानी की भी समुचित निकासी नहीं है। प्रदूषण की समस्या सबसे ज़्यादा शहरों में है शहर में प्रदूषण की खबरें भी बहुत छपती हैं और शहर में खबरों का भी प्रदूषण भी बहुत ज़्यादा हैं। और गरीब लोग इसकी चपेट में हैं। हमारे शहरों के अनियंत्रित विकास का कारण, कोई सुव्यवस्थित योजना नहीं होना है। शहरों में कुछ आबादी को तो नागरिक सुविधाएँ हैं लेकिन बाकी इससे वंचित है। क्योंकि सुविधाएँ उपलब्ध करवाने वाली एजेंसियाँ स्वतः होते विस्तार के साथ सुविधाओं का विस्तार करने में सक्षम नहीं हैं।<br />
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देश में जहाँ 1971 में 3126 शहर थे वहीं 1981 में 4029 तथा 1991 में 4689 शहर बन गए. आज यह आँकड़ा 15000 को पार कर चुका है। एक सर्वे के अनुसार देश के लगभग 5000 शहरों में लगभग 1850 में नगर पालिका भी नहीं है। 1971-1991 के बीच 20 सालों में 1563 नए शहर बने तथा 1981-1991 के बीच में शहरी आबादी 36.19 प्रतिशत बढ़ी। जहाँ 1901 में शहरों में 2.5 करोड़ लोग रहते थे वहीं 1951 में यह संख्या 6.2 करोड़ थी। 1971 में यह संख्या बढ़कर 10.91 करोड़ हो गई जबकि 1991 में यह संख्या 21.71 करोड़ तथा आज लगभग 30 करोड़ हो गई है।<br />
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शहरी संरचनाए ज़रूर भौतिकतावादी और आधुनिक हो गई है पर मानस पर मूल्यों की तिलांजलि भी इन्ही कृत्रिम इमारतों से दी जाती है। अब बात करते हैं गाँव में बसने वाली पत्रकारिता की... अंचल की सर्द हवाए आज भी सत्ता और सल्तनत के गुमान को कम करने का माद्दा रखती हैं।<br />
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शहर में विभाग हैं, कोठियाँ हैं, अफ़सरशाही के ओहदेदार हैं, पर गाँव में आज भी पत्रकार हैं, भले ही मीडिया संस्थान उसे केवल एजेंट या संवाददाता ही मान कर क्यूँ ना इतिश्री कर ले पर वे आज भी ज़िम्मेदार हैं।<br />
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भ्रष्टाचार की चरमता, शहरों में दिखने ज़रूर लगी हैं, छोटी-छोटी समस्याओं के लिए शहरीयों को जूझते ज़रूर आपने देखा होगा, किंतु असली जद्दोजहद आज भी गाँव में होती हैं। अड़ना-सा राशनकार्ड बनवाना हो,<br />
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चाहे लल्लन की दुकान के बाहर लगे सरकारी नल पर पीने के पानी को इकठ्ठा करने लिए लगी कतार और उसमें छोटी-सी बात पर होती हाथापाई, यहाँ तक की मुन्ना को मिड डे मिल में कीड़े का दिखना हो, चाहे बडकऊ की बीमार माँ का सरकारी अस्पताल में इलाज बिगड़ जाना ही हो, चाहे अल्लाबेली की बकरी का चोरी चले जाना हो, या सरपंच, सचिव का शौचालय निर्माण में घपला करना ही हो, सब के लिए उम्मीद का दिया आज भी वहाँ पत्रकार ही माना जाता हैं। राजनीति की चाहे कितनी भी बड़ी बिसात हो, सट्टे की सजी हुई दुकानों को बंद करवाने के लिए आज भी गाँव वाले एक पत्रकार से ही उम्मीद करते हैं। आज़ादी के 69 साल बीत गये हों पर गाँव आज भी अपनी रोशनी के लिए उसी दीये पर भरोसा करते हैं।<br />
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सरदार वल्लभ भाई पटेल ने कहा था कि "पंचायत संस्थाएं प्रजातंत्र की नर्सरी हैं। हमारे देश या प्रजातंत्र की विफलता के लिए सबसे पहले दोष नेतृत्व को दिया जाता है। पंचायतों में कार्य करते हुए पंचायत प्रतिनिधियों को स्वतः ही उत्तम प्रशिक्षण प्राप्त हो जाता है जिसका उपयोग वे भविष्य में नेतृत्व के उच्च पदों पर कर सकते हैं।"<br />
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हमेंशा शहरी लोगों द्वारा एक ताना दिया जाता रहा हैं कि गाँव से शहरों की और आबादी का पलायन हो रहा हैं, काम ना मिलने से लोग गाँव छोड़ रहे हैं, चिंतनीय ज़रूर हैं किंतु आपको मालूम ही होगा क़ि 2 फरवरी, 2006 को देश के 200 जिलों में "महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना" के लागू होने के बाद पंचायती राज व्यवस्था काफी सुदृढ़ हुई है। सबसे ज़्यादा फायदा यह हुआ है कि ग्रामीणों का पलायन रुका है। लोगों को घर बैठे काम मिल रहा है और निर्धारित मजदूरी भी। मजदूरों में इस बात की खुशी है कि उन्हें काम के साथ ही सम्मान भी मिला है। कार्यस्थल पर उनकी आधारभूत ज़रूरतों का भी ध्यान रखा गया है। उन्हें यह कहते हुए प्रसन्नता होती है कि "अब गांव-शहर एक साथ चलेंगे, देश हमारा आगे बढ़ेगा।"<br />
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शहरों में पत्रकारिता का कलेवर बहुत कुछ बदला हुआ है। शहरों में पत्रकारिता चाटुकरिता का पूरक बनती नज़र आ रही हैं, किंतु मानवीय मूल्यों के प्रहरी होने की वजह से अंचल में आज भी यह दुर्गंध नहीं पहुँची। आंचलिक पत्रकार आज भी समाज के लिए ही खबरों का सर्जन और निष्पादन करते हैं। छोटी से छोटी समस्या ही क्यूँ ना हो जैसे गली में १० दिन से जमादारनी का नहीं आना, सरकारी नल का नहीं चलना, इंतहान के दिनों में बत्ती गुल हो जाना, किसी के खेत पर किसी पड़ोसी के जानवरों का चर जाना, सांस बहू की आपस में नोकझोक हो जाना, या थाने पर रिपोर्ट नहीं लिखा जाना, इन छोटी समस्याओं के लिए भी ग्रामीण व्यक्ति पत्रकार की तरफ ही देखता हैं। शहरों में पत्रकार की तरफ केवल तब ज़्यादा देखा जाने लगा है जब कोई आयोजन हों या कोई प्रेसनोट छपवाना हों, श्रीमान खबरों का अथाह संसार आज भी ग्रामीण अंचलों में भरा हुआ हैं।<br />
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भारत एक कृषि प्रधान देश हैं, राजनीति के अधिकांश निर्णय गाँवो से होते है, सरकारे गाँवो से बनती और बिगड़ती है। देश की बहुसंख्यक आबादी को खुशहाल बनने में आंचलिक पत्रकारिता की निर्णायक भूमिका है किंतु उसी ग्राम प्रधान देश में चन्द लोगो के कारण ग्रामीण पत्रकारिता हाशिए पर जाती जा रही है। अभी तक पत्रकारिता का केंद्र केवल राजनीति के गलियारो की चहलकदमी और अपराध तथा कारोबार के अलावा कही और रहा भी नहीं जिन मुद्दो में आम जनमानस का जुड़ाव संभव हो सके, महानगरो के गलियारो के इर्द-गिर्द घूमती पत्रकारिता जनता की मूल समस्याओं को पीछे छोड़ती जा रही हैं। पत्रकारिता को गाँवो की याद तभी आती है जब कोई बड़ा हादसा होजाए या फिर कोई बड़ी घटना या राजनैताओ का दौरा, वर्ना बड़ा पत्रकार कभी नजर भी नहीं डालता गाँवो की तरफ, ना मीडिया संस्थान गाँवो में बसने वाले आंचलिक पत्रकारों की और ध्यान देते हैं। आज पत्रकारिता का मूल मकसद हैं, मुनाफा कमाना। मुनाफा शहरी लोगों के पेट के बीच से होकर जाता है, आज पत्रकारिता कॉरपोरेट और शहरी लोगों का लीबास बनकर रह गयी है। भारतीय पत्रकारिता में किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याओं के लिए कोई जगह नहीं रह गयी। इस दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार किसानों की बढ़ती आत्महत्या, गरीबी, अशिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था को मीडिया कवरेज नहीं मिल पाने से ग्रामीण लोग पत्रकारिता का लाभ नहीं उठा पाते है। टी.वी. चैनलों और बड़े अखबारों की एक मजबूरी यह भी है कि वे आंचलिक क्षेत्रों में अपने संवाददाताओं को स्थायी रूप से नियुक्त नहीं कर पाते है। ग्रामीण पत्रकारिता की जो कुछ भी भूमिकाए हम भिन्न-भिन्न समाचार माध्यमों से देख पाते है, उसका श्रेय जिला मुख्यालयों की मेजों में रहकर अंशकालिक रूप से काम करने वाले पत्रकारों को जाता है।<br />
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आज की स्थिति विचित्र है। नगर सबसे आगे है, गाँव पिछड़ते ही जा रहे है। नगर सब गतिविधियों के केंद्र हैं। वहाँ शिक्षा के केंद्र हैं, बड़े-बड़े पूंजी के बाज़ार हैं, सांस्कृतिक केंद्र हैं, मनोरंजन के साधनों की भरमार है। कहीं पाठशाला नहीं है तो कही मास्टर नहीं हैं, कही दोनो हैं तो बच्चों की स्थिति गंभीर हैं। न सड़क है, न पानी-सिचाई की व्यवस्था, न अस्पताल और न ही कोई ठोस भावी योजनाएँ हैं और जो अन्न पैदा करता है, उसको ही भूखा रहना पड़ता है। जिसके खेतों में कपास पैदा होती हैं, उसके ही तन में वस्त्र नहीं होते है। आज वह कडकडाती सरदी, चिलचिलाती धुप और वर्षा के थपेड़े सहकर अपने कृषि-कर्म में जुटा हुआ है। आख़िर इन सब समस्याओं के लिए कौन आवाज़ उठाएगा, कौन लड़ेगा लगभग 80 करोड़ भारतीयों के लिए जो गाँवों में ही रहते हैं।<br />
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डॉ।एपीजे अब्दुल कलाम कहा करते थे कि "शहरों को गांवों में ले जाकर ही ग्रामीण पलायन पर रोक लगाई जा सकती है।" उनके कथन के पीछे यह तर्कपूर्ण सत्य छिपा है कि वर्तमान में देश के कई गाँवों में शहरों की अपेक्षा 5 प्रतिशत आधारभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। रोजगार और शिक्षा जैसी आवश्यकताओं की कमी के अलावा गांवों में बिजली, स्वच्छता, आवास, चिकित्सा, सड़क, संचार जैसी अनेक सुविधाएं या तो होती ही नहीं और यदि होती हैं तो बहुत कम। स्कूलों, कॉलेजों तथा प्राथमिक चिकित्सालयों की हालत बहुत खस्ता होती है। गांवों में बिजली पहुंचाने के अनेक प्रयासों के बावजूद नियमित रूप से बिजली उपलब्ध नहीं रहती। इस पर प्रशासनिक महकमें का ध्यान नहीं जाता, बल्कि गाँवों पर नकेल कसने और उस पर सारी सभ्यताओं का ठीकरा फोड़ने से कोई चुकता नहीं। इसी सन्दर्भ में पूर्व प्रधानमंत्री स्व। राजीव गांधी ने एक बार कहा था कि "हमारी योजनाओं का केवल 15 प्रतिशत धन ही आम आदमी तक पहुंच पाता है।" देश के किसी गांव में दिल्ली से भेजा गया एक रुपया वहाँ पहुंचते-पहुंचते 15 पैसा हो जाता है। यह ऐसा क्यों होता है? वह शेष राशि 85 पैसे कहाँ चले जाते हैं। इसका एक ही जवाब है कि वह राशि भ्रष्टाचार रूपी मशीनरी द्वारा हजम कर ली जाती है। उन्हे खोजना और खोज कर अख़बारों में प्रकाशित करना ही पत्रकारिता की सार्थकता हैं। आज आंचलिक पत्रकारिता का मुख्य ध्येय ही सत्ता से मिली हर लाभ की स्थिति को आम जनता तक पहुँचना हैं।<br />
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आजादी के बाद जो ह्रास राजनीति का हुआ, वहीं पत्रकारिता का भी हुआ है। हम गाँव से आएँ ज़रूर हैं लेकिन गाँव को भूलते चले गये। विभिन्न परिवेश, भाषा और बोलियों से सनी आंचलिक पत्रकारिता का बड़ा दंभ हैं हिन्दी पत्रकारिता में और सत्ता की नाक में नकेल भी आंचलिक पत्रकार ही डाल देते हैं, जब अंचल में कोई हुंकार नहीं हो तब भी आंचलिक पत्रकार समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाते हैं और हर पक्ष को समाज के सामने उजागर कर उसे अंजाम तक पंहुचाते भी हैं। समाज का व्यावहारिक चित्रण खबरों में दिखाने की कला में आंचलिक पत्रकार निपूर्ण होते है उसके बाद भी उपेक्षाओं का शिकार वें आंचलिक पत्रकार ही होते जा रहे हैं।<br />
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गाँवो में खबरों की उत्सुकता देखते ही बनती है और यक़ीनन इंतजार भी रहता है सुबह के अख़बार का।<br />
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किंतु मीडिया संस्थानो की उपेक्षाओ ने ग्रामीण पत्रकारिता के आयाम ही गिराना शुरू कर दिए. ब्रेकिंग और पेज थ्री आधारित पत्रकारिता के लिए गाँवो में कोई मसाला नहीं है, वहा कोई एड नहीं है, ना कोई स्टिंग है, है तो केवल ख़बरे, घटनाए, रिश्वत के कारनामें, राशन की दुकान की भच-भच, तोल में कमी की शिकायत, स्कूल में शिक्षको ने नदारद रहने की बात, ग्राम पंचायत के कारनामें, जन सुनवाई में अधिकारी की अनुपस्थिति, ग्रामसभा से सरपंच-सचिव का गायब रहना, सड़को की बदहाली या बिजली की समस्या, सूखा ग्रस्त ग्राम, अन्य कुछ भी नहीं।<br />
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इन सब से मीडिया संस्थान कोई विशेष लाभ की अपेक्षाए नहीं कर सकता, कोई बहुत बड़ा आर्थिक लाभ भी नहीं, अत: मीडिया संस्थानो के लिए भी ग्रामीण पत्रकार "यूज एंड थ्रौ" का साधन बन गये है।<br />
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पत्रकारिता के असली मापदंड तो अंचल के संघर्षो से ही पोषित हो पाते है, आंचलिक क्षेत्रो में, गाँवो में, शहरो की अपेक्षा अधिक समय खबरों को पड़ने पर खर्च किया जाता है, उन्हे ये उत्सुकता रहती है कि कौनसी घटना अपने गाँव, राज्य, देश में हो रही है, गाँवो में जनमानस के मानस पटल पर मीडिया का बेहतर चेहरा ही उकेरा हुआ है, में मानता हुं कि उन पाठको के पास तथ्यात्मक विश्लेषण और निष्कर्ष नहीं होता इसीलिए वह मीडिया पर निर्भर भी होता है, पाठको की ललक ने ग्रामीण स्तर पर कई हाकर, एजेंट और पत्रकारों को जन्म दिया, उन्होने आगे के रास्ते तय किए किंतु फिर भी ग्रामीण पत्रकारों की स्थिति यथावत है।<br />
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ग्रामीण परिवेश और ग्रामीण जनमानस में आज भी मीडिया के प्रति गहरी संवेदनाए है, किंतु उसी विश्वास और मानवीयता के साथ छल हो गया और अंचल में पत्रकारिता की पौध को समय से पहले नष्ट करने की तैयारिया की जा रही है। आंचलिक पत्रकारों के कुनबे को खबरों के अस्तित्व और प्रिंट मीडिया के भविष्य को सुरक्षित रखने का काम यदि किसी ने किया है तो वह है ग्रामीण पत्रकार और पाठक। अंचल में रहने वाला पत्रकार में नहीं मानता की बहुत पड़ा-लिखा या प्रशिक्षण प्राप्त किया हुआ या कोई डिग्री धारक पत्रकार होगा, किंतु उसमें तथ्यो को भलीभाती देखने और विश्लेषण करने की क्षमता ज़रूर होती है, खबरों के दृष्टांत की गहराई में डुबकी लगाने की कूबत ज़रूर होती है, किंतु वर्तमान दौर में जिस तरह से पत्रकारिता के मूल्यों का क्षरण दिन-प्रतिदिन होता ही जा रहा है उससे तो ये साफ तौर पर लगने लग गया है आनेवाले समय में आंचलिक क्षेत्रो के पत्रकारों की स्थिति भयावह हो जाएगी।<br />
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कोई मीडिया संस्थान ग्रामीण परिवेश में रहने वाले पत्रकारों के प्रशिक्षण और शिक्षण की व्यवस्था नहीं करता, न ही उन पर विशेष ध्यान नहीं देता, क्योकि वह ग्रामीण पत्रकार कोई विशेष आर्थिक लाभ संस्थान को नहीं पहुँचाता।<br />
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आख़िर क्या पत्रकारिता केवल आर्थिक लाभ आधारित ही शेष बची हैं? टकसाल की तरफ हिन्दी पत्रकारिता के बड़ते कदमों ने मूल्यो और आदर्शो की होली जलाना शुरू कर दी, किंतु उसमें नुकसान पत्रकारिता की आत्मा "ग्रामीण पत्रकारिता" का ज़्यादा हुआ है।<br />
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शहरों में हर एक बीट के लिए अलग-अलग व्यक्ति हैं, अलग-अलग ज़िम्मेदारी हैं, किंतु अंचल में एक ही संवाददाता हर एक बीट का कार्य बखूबी करता हैं, उसे क्राइम लिखना भी आता हैं, प्रशासन की खबरें भी लिखता हैं, शिक्षा और अन्य सभी विषयों को अपनी खबरों में परोसने का माद्दा भी वही आंचलिक पत्रकार रखता है जिन सामंतवादी ताकतों और अफ़सरशाही से आंचलिक पत्रकारों को उपेक्षित कर मीडिया के मेरूरज्जु पर प्रहार अर्पण किया जा रहा हैं, निश्चित तौर पर यह इन बेलगाम तंत्र को और मदमस्त करने की नाकाम कोशिश ही मानी जाएगी, ये हिन्दी पत्रकारिता की रीढ़ आंचलिक पत्रकारिता को तोड़ने का कुत्सित प्रयास हैं। सनातन काल की अवधारणा भी जिन कलपुर्जों के आगे नतमस्तक मानी गई उन्ही कलपुर्जों को सरस्वतीपुत्र कहा जाता रहा हैं। आंचलिक पत्रकारिता नदी की भाँति निश्चल और लोभ रहित मानी जाती रही हैं। एक स्वर्णिम इतिहास की पोषक आंचलिक पत्रकारिता, जिसने समय की गहराई में कई संपादक, पत्रकार और वाणीपुत्र हिन्दी पत्रकारिता को अर्पण किए हैं। आंचलिक पत्रकारों को हिन्दी पत्रकारिता एक साधारण-सा अंग मान कर ही पाने कर्तव्यों से मुक्त हो जाती हैं बल्कि उनकी उपेक्षाए भी लगातार करती रहती हैं, इस स्थिति में कबीरदास का एक दोहा सटीक बैठता हैं-<br />
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तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,<br />
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कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।<br />
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अक्सर जिन्हे समाज उपेक्षित मान कर या उपेक्षित कर उसपर आक्षेप लगता हैं, वही एक दिन इतिहास के सृजक बनते हैं। यह इतिहास भी गवाह हैं गहरे पानी पैठ का... सृजक की भूमिका समाज के लिए कुछ निर्माण करने की होती हैं, न कि समाज के अस्तित्व पर कोई घात करने की। पत्रकारिता के ध्वजवाहक आंचलिक पत्रकार भी हिन्दी पत्रकारिता के सृजक माने गये हैं, उनकी भूमिका भी समय के अवनीतल में कुछ मूल्यों का निर्माण करने की हैं। शाब्दिकजामा पहनाने में भले ही आंचलिक पत्रकार थोड़े कम जानकार हो पर भावनात्मक तीर उनकी तरकश में बहुत ही होंगे। मीडिया को नेताओं, अभिनेताओं और बड़े खिलाड़ियों के पीछे भागने की बजाय उसे आम जनता की तरफ रुख करना चाहिए, जो गाँवों में रहती है, मीडिया संस्थानों को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी, आंचलिक पत्रकारों के ओहदे को सम्मान सहित गौरवान्वित करना होगा और उनके शिक्षण-प्रशिक्षण हेतु भी व्यवस्थाएँ करनी होगी। तभी ग्रामीण (आंचलिक) पत्रकारिता सम्मान पाएगी और बच भी पाएगी।<br />
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अंचल में खबरों का संसार हैं श्रीमान... गाँवों में ख़बरे हैं...</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%27%E0%A4%AA%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%A7%E0%A4%A8%27_%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82,_%27%E0%A4%A7%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B6%E0%A5%81%27_%E0%A4%B9%E0%A5%88%E0%A4%82_%E0%A4%86%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE_/_%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A3_%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%27%E0%A4%85%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%B2%27&diff=32946'पशुधन' नहीं, 'धनपशु' हैं आवारा / अर्पण जैन 'अविचल'2017-01-28T16:04:12Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार= अर्पण जैन 'अविचल' }} {{GKCatLekh}} शहर में ट...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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|रचनाकार= अर्पण जैन 'अविचल'<br />
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शहर में ट्रेफिक सिग्नल के सामने, अस्पताल में लगे नीम के पेड़ के नीचे, रास्ते के किनारे, कचहरी के खुले बरामदे में, चौराहों के बीचों-बीच, हाँफती रेलवे लाइन पर नेरोगेज रेल के सहारे खड़ा, कभी पोलिथीन तो कभी कूड़ा करकट ख़ाता, कभी शहरी सभ्यता के बीच आ जाता, कभी कुछ ज़हरीला खा लेने से परमेंश्वर शरण में चला जाता और आदम की तरक्की की इबारते गुथता शहर और उन बेजुबान पशुधन को शहरी तरक्की में बाधक समझता प्रशासनिक अमला और आम जनमानस...<br />
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यही व्यवस्था का ताना-बाना बुनता बुनकर तमस के तज में वैश्विक प्रगति के सपने बुनने को ही शहर की प्रगति मानता हैं। चाक-चौबंध व्यवस्थाओं के तंज़ के सहारे जीने की नाकाम कोशिश की उड़ेड़बुन में लगा शहरी मानव धरती के प्राण को आवारा मानने को आतुर हो चला हैं। इसे शहर की प्रगति मानना समय की भूल के ख़ाके के सिवा कुछ नहीं हैं।<br />
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राजनीति के चरगाह से लेकर अफ़सरशाही के बीच झूलती आस्था के बिंब में पशु को आवारा सिद्ध करने हेतु पूरी सियासत बिछ-सी गई हैं। वर्तमान में मानसून के मौसम में चारे की कमी और पशुपालकों की अदद लापरवाही सहित संकट की घटा ने राष्ट्र की अर्थव्यवस्था के आधार पशुओं को बर्बरता के हल में जोत दिया हैं। शहरी व्यवस्था की मुख्य धारा में जब संकट के लिहाज से पशुओं को माना जाने लगा तो निश्चित तौर पर सांस्कृतिक विरासत के अंधे कुएँ में भी उबाल-सा आ गया, जलविहीन धरती की कल्पना मात्र से सिहर जाने वाली आबादी एक बार पशु विहीन समाज की कल्पना कर के भी देखे, शायद अस्तित्व पर उठता प्रश्नचिन्ह भी नज़रबद्ध हो जाएगा।<br />
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आम पशुपालक भी संकट में हो सकता हैं, पर उन्होने अपने पशुओं को समाज में स्वच्छंद छोड़ तो दिया हैं, किंतु इसका सर्वाधिक असर गाय और बछड़ों पर पड़ा है। क्षेत्र में बेसहारा घूमने वाले पशुओं में सबसे अधिक संख्या इन्ही पशुओं की है। शहर में भी संकट है, पशुओं को खाने के लिए खेत खलिहानों में भी कुछ नहीं मिल रहा, खेत भी तो खाली हैं। जहां थोड़ी बहुत खेती है वहाँ वे पहुंच नहीं सकते।<br />
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इन्ही सब शहरी पशुपालकों के सभ्यतागत लिबासों और परंपराओं ने उन बेजुबान और बेसहारा पशुओं को 'आवारा' घोषित कर दिया हैं। बीते मार्च माह में हिमाचल विधानसभा में सत्ता पक्ष और विपक्ष पशुधन को बेसहारा सड़कों पर छोड़ देने से उपजी स्थितियों पर चिंतित दिखा था, प्रश्नकाल के दौरान एक सवाल पर समूचे सदन ने पशुओं को बेसहारा छोड़ने की प्रवृत्ति को ग़लत ठहराया। सदन के एक सदस्य ने जब आवारा पशुओं की समस्या पर कुछ कहा तो मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह तुरंत अपनी सीट से उठे और कहा कि पशु आवारा नहीं होते। पशुओं को आवारा कहने की बजाय उन लोगों को आवारा पुरुष कहो जो पशुओं को बेसहारा छोड़ देते हैं। उसके बाद सदन में सड़कों पर छोड़े गए पशुओं के लिए बेसहारा शब्द का प्रयोग किया गया।<br />
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आख़िर संवेदनाओं का दृष्टिकोण की अधर में लटक चुका हैं जहाँ जीवन की विराटता का दृष्टांत भी आज आवारा सिद्ध हो रहा हैं? सनातन धर्म में गौवन्श सभी देवी-देवताओं का एक स्थान हैं, इसके बारे में शास्त्रो में लिखा भी है-<br />
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"कहु बिधि हमहिं एक अस्थानू, जहाँ मिलि रहहिं होइ सममानू।<br />
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सुनहुँ देव तब कहेउँ बिधाता, सकल निवास एक गौमाता।।"<br />
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अर्थात: देवताओं ने विधाता से पूछा की प्रभु हमें कोई एक ऐसा स्थान बताइए जहाँ हम सब एक साथ रह सके, हम सब की एक साथ पूजा हो सके, तब ब्रह्मा जी ने सभी देवताओं से कहा क़ि "है देवगण, आप सबको गौमाता के शरीर में निवास करना होगा, उसी की पूजा मात्र से आप सब की पूजा हो जाएगी"<br />
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धर्मपरायण जनमानस की भावनाओं को पशुपालकों द्वारा बड़ी चतुराई के साथ जिस तरह से खेला जा रहा हैं यह संस्कृति पर न केवल हमला हैं बल्कि सार्वभोमिक सनातनी विरासत पर कुठाराघात भी हैं।<br />
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पूजनीय और आस्था के धरातल की अलौकिक रश्मीयों को जब सड़कों पर पशुपालक केवल अपनी सुविधा और बचत के चलते छोड़ देते हैं तो उन धन पशुओं पर कार्यवाही क्यू कर नहीं होती?<br />
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सड़कों पर बेसहारा घूमते पशुओं से सारा प्रशासनिक अमला चिंतित हैं, पशु पालकों द्वारा स्वयं के पालित पशु, जिनमें अधिकांश गौवंश है, अनुत्पादक हो जाने पर पशुओं को घर पर बांधा नहीं जाता है, बल्कि घर से छोड़ दिया जाता है और यही गौवंश बेसहारा रूप में शहर भर में विचरण करते हैं। आख़िर पशुपालकों को इनकी चिंता क्यूँ नहीं होती?<br />
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शासन ने जिस तरह से गौ संवर्धन बोर्ड बनाया, यहाँ तक की गौशाला निर्माण हेतु निजी संस्थाओं को भी अनुदान दिया जा रहा हैं फिर सड़कों पर घूमते बेजुबान उपेक्षित क्यूँ? यह इस बात का प्रमाण है कि शासन द्वारा पशु संरक्षण की दिशा में किया जा रहा प्रयास या तो सही लोगो द्वारा संचालित नहीं किया जा रहा हैं या फिर उस पर भी भ्रष्टाचार की दीमक लगने से सड़ान्ध आना शुरू हो गई हैं।<br />
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पशुधन को बेमतलब ही दोषी माना जा रहा हैं, पशु में विवेक और बुद्धि की चालाकता की कमी ही उसे अपराधी सिद्ध करने पर तुली हुई हैं। आख़िर किस माटी से जन्मा हुआ मानस हैं या जो उस देवतुल्य वंश को दुतकार कर शहरी विलासिता के वैभव में खोया हुआ हैं।<br />
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गाँव-शहर में मनुष्य की तरह चौपाया जीव भी रहने का अधिकारी हैं, यह शहर केवल दौपाया मनुष्य के लिए ही नहीं बल्कि चौपाया जानवर के रहने का भी स्थान हैं। शहर के आस्ताने में बँध धनपशु मानुस खुले घूमते पशुओं का ना जाने कितने नामकरण कर देते हैं, सब्जी मंडी, किराना व गल्ला मंडी, दुकानों, गली सड़क में मुंह मारते दिखा देते, सड़क, गली, मुहल्ले में घूमते पशुओं देख उन्हे ऐसा लगता हैं जैसे नारा लगाते आन्दोलनकारी, नेता की तरह हड़ताल पर बैठ जाते हैं। आप लाठीचार्ज करों या बल बुलाइए, वे खुद में मस्त रहते हैं। पशु मालिक खुश होते हैं अपने पशुधन को आवारगी का तमगा दिलवाकर, बेचारे जानवर यहाँ-वहां मुंह मारकर पेट भर लेते हैं। फिर भी सुबह–शाम दूध देते हैं।<br />
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शहर धर्म और धार्मिकता से भी भरपूर है, रोज पुण्य कमाने के लिए इन्हे वे चारा भी खिलाते रहते हैं, कहते हैं इन पशुओं को चारा-पानी देने से धन-धान्य की वृद्धि होती हैं ग्रह दोष शांत रहते हैं परंतु गौवन्श को प्रताड़ित करने और उनकी चिंता ना करने वाले इन पशुमालिकों पर कभी ग्रहदोष नहीं मंडराते। जो इन्हें मुफ्त के माल पर मुंह मारने हेतु आवारा बना देते हैं।<br />
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शास्त्र यह भी कहते है क़ि<br />
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"धेनु सहहि दुख कोटि अपारा, ताको कोउ नहिं देखनहारा।<br />
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जगत मात दुख होउँ बेहाला, कस कठिन देख कलिकाला।।"<br />
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यानी की-गौमाता निरंतर करोंड़ो दुख सहन कर रही, किंतु इस कलियुग में उसे देखने वाला कोई नहीं है, संसार की माता दुखी हैं, तकलीफ़ में है, उसकी देखभाल करना हर मानव का धर्म हैं।<br />
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मानव ने विकास की गगनचुंभी इमारतों के सादृश्य अवस्था की गहन समझ ज़रूर विकसित कर ली हैं किंतु यही सब यदि समाज का हिस्सा है तो जीव जंतुओं के लिए किसी नये ब्रह्माण्ड की रचना कर दीजिए, शायद उसी से ही शालीनता का सम्मान हो जाए या धनपशुओं का कोई संभ्रांत शहर बस जाए.<br />
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जब-जब भी शहर की जनता ने मवेशियों के आवारा विचरण पर हाहाकार मचाया हैं, तब मीडिया के स्वर भी उन्ही मवेशियों के विरोध में उठे हैं, अख़बारों की हेडिंग भी यही बनीं है क़ि "शहर को आवारा पशुओं ने बनाया बंधक", "आवारा पशुओं ने किया नाक में दम", "यातायात व्यवस्था में बाधक आवारा जानवर", "शहरी सौंदर्य को पलिता लगाते आवारा मवेशी", "स्मार्टसिटी का सौंदर्य मवेशियों के कारण ख़तरे में..."<br />
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आख़िर किस दुनिया में जीने लगा है मीडिया भी, जिसमें बेजुबान को अपराधी मानकर शहरी खाँको को लिखने वाले लोग उन धन कुबेर पशुपालकों को पाक-सॉफ मानने लग गये? आख़िर इन मवेशियों से ज़्यादा तकलीफ़देह तो वे स्वार्थी और लालची पशुपालक हैं जो पशुओं के ख़ानपान पर लगने वाले अपने खर्च को बचाने की लालच में उन्हे शहर में खुला छोड़ देते हैं, फिर वही पशु न चाहते हुए सभ्यता का बाधक बन जाता हैं। आख़िर वह खुले में घूमने का आदि हैं, उसे आकाश का खुलापन और रसातल का प्रेम खींच लाता हैं अपने रंग में मस्ती करने के लिए. यदि पशुओं के दूध से व्यापार करना जानते हो तो उनका पालन पोषण करना भी तुम्हारी ज़िम्मेदारी हैं और वृद्धावस्था में उसे संभालना भी। जिस तरह बुजुर्ग माँ-बाप भी बुढ़ापे में व्यक्ति की ज़िम्मेदारी का हिस्सा होते है उसी तरह पशु भी हैं। तब इनका जमीर कहाँ चला जाता हैं।<br />
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ज़िम्मेदार केवल कन्नी काटने में ही अपनी भलाई समझते हैं, जबकि यथार्थ के धरातल पर स्वामित्व का स्वांग रचना महज कूटनीतिक षड्यंत्र ही माना जाएगा।<br />
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इसी सन्दर्भ में मध्यप्रदेश के इंदौर नगर निगम ने एक ऐतिहासिक फ़ैसला लिया हैं जिसमें स्पष्ट किया है कि यदि शहर में कोई पशुधन घूमता पाया जाता हैं तो उसे पकड़ कर, उसके मालिक का पता-ठिकाना खोज कर उसके विरुद्ध कार्यवाही की जाएगी, दुबारा उसी मालिक का मवेशी पकड़ा जाता है तो मालिक को जिलाबदर किया जाएगा। होना भी यही चाहिए, क्युंकि मवेशियों को शहर में खुला छोड़ कर ये धन पशु यानी मवेशियों के मालिक केवल अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्ति पाते हैं और शहरभर परेशान होता रहता हैं। उन बेचारे जानवरों को लोग आवारगी से नवाज देते हैं जबकि आवारा वे 'पशु' नहीं हैं, बल्कि आवारा पशुपालक 'धनपशु' हैं।<br />
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गौशालाएँ बनीं हैं व्यवस्थाए बनीं हैं, सरकारी योजनाओं का भी रेखांकन उभरा हुआ हैं, उसके बाद भी शहर में मवेशियों के लिए कोई जगह नहीं होती जहाँ वे चेन की सांस ले सके? आख़िर किस दिशा में सांस्कृतिक विरासत का गला घोटा जा रहा हैं।<br />
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मानव ने शहर, नगर, ग्राम को केवल अपने रहने के लिए ही मान लिया हैं, इन जानवरों के संसार के लिए कुछ छोड़ा भी नहीं... स्वयंभू इस धनसंपदा का मालिक बना बैठा हैं, किंतु इस बात से बेख़बर भी है क़ि प्रकृति की हर संपदा पर जितना अधिकार आदमी का है उतना ही पशु-पक्षियों का भी हैं।<br />
<br />
उसी आदम रूपी संभ्रांत चित्रकारों ने अपने अधिकारों की बजाय मूक जीवजंतुओं के हक को मार दिया हैं इसी कारण पशुओं को शहर में आवारा करार दिया जा रहा हैं। शायद ये पशु नहीं बल्कि शहर "आवारा" हो चुका हैं, जिसे यह भी ध्यान नहीं क़ि जिसके कारण यह संपदा है, खेत है खलिहान हैं, अनाज है, भोजन है, सब कुछ हैं इस शहर पर उसका भी पूर्ण अधिकार हैं। और यदि कही व्यवस्था संचालन में कोई बाधा उत्पन्न हो रही हैं तो उन बेसहारा जानवरों पर आरोप-प्रत्यारोप की बजाए उन धन कुबेरों को बंधक बनाइए जिनके कारण चौपाया जानवर अपनी आज़ादी के हक़ से वंचित हैं... शायद संविधान की किताब ने प्राकृतिक न्याय दृष्टांत का उल्लेख उन बेजुबानो के लिए नहीं किया हैं या कहे वह अपना अधिकार माँगने में असक्षम है, जिसका फायदा ज़ुबान वाले बड़ी खूबसूरती से उठा रहे हैं।<br />
<br />
शहर की खूबसुरती उसके बाहरी अंगवस्त्रों से नहीं बल्कि उसमें रहने वाले लोगों की मानसिक ताज़गी और सभ्यता के सम्मान से होती हैं। शहर में उठते-बैठते, घूमते-ठहरते पशुधन को आवारा कहना न्यायोचित नहीं बल्कि शहरी विकास के मुँह पर अर्पण की गई गाली है, भौतिकतावादी समाज जिस भी नज़रिए से शहर का नाप-तौल कर रहा हैं उस नज़रिए में भी जीव-जानवरों का अहम किरदार हैं। और यह भी सार्वभोमिक सत्य हैं क़ि आदमी से ज़्यादा वफ़ादार, ईमानदार, और कृतघ्न जानवर ही होता हैं। आदमी स्वार्थवश भूल जाता है एहसान, किंतु जानवर ताउम्र एहसानमंद रहता हैं।<br />
<br />
पशुता की और अग्रसर मानव, स्वभाववश एवम् धन लोभ में इतना व्यस्त हो जाता और यह भूल जाता हैं क़ि उसकी ग़लतियों की सज़ा किसी और को मिलने वाली होती है वह भी बेजुबान जानवर 'आवारा' हो जाता हैं इसीलिए 'पशुधन' आवारा नहीं होता 'धनपशु' आवारा होता हैं।</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A3_%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%27%E0%A4%85%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%B2%27&diff=32945अर्पण जैन 'अविचल'2017-01-28T15:54:12Z<p>Preksha Jain: /* कुछ प्रतिनिधि रचनाएँ */</p>
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<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Arpan-Jain-GadyaKosh.jpg<br />
|नाम=अर्पण जैन <br />
|उपनाम='अविचल'<br />
|जन्म=29 अप्रैल 1989<br />
|जन्मस्थान=कुक्षी, जिला-धार, मध्यप्रदेश<br />
|मृत्यु=<br />
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|विविध=<br />
|जीवनी=[[अर्पण जैन / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Arpan Jain <br />
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|copyright=<br />
}}<br />
{{GKCatMadhyaPradesh}}<br />
====लेख====<br />
* [['पशुधन' नहीं, 'धनपशु' हैं आवारा / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [[गाँव में खबरों का कुँआ हैं / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [[पत्रकारिता: शैशव से भविष्य तक / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [[अबकी बार असली लाल किले से / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [[मिडिया से तकलीफ है तो... / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [["बेशर्म सांसद, शर्मसार लोकतंत्र!" / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [[“हो रहा गाँधी का विभाजन गाँधी के देश में" / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [[अच्छे दिनों का इंतजार करता भारत / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [[एक और सियाचिन से खो गये हनुमनथप्पा, दूसरी और "जेएनयू" का बखेड़ा / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [[खोखले विचार कैसी क्रांति लाएँगे / अर्पण जैन 'अविचल']] <br />
* [[पत्रकार हैं पक्षकार नहीं / अर्पण जैन 'अविचल']]</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A3_%E0%A4%9C%E0%A5%88%E0%A4%A8_%27%E0%A4%85%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%B2%27&diff=32738अर्पण जैन 'अविचल'2016-12-04T16:42:24Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKParichay |चित्र=Arpan-Jain-GadyaKosh.jpg |नाम=अर्पण जैन |उपनाम='अवि...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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{{GKParichay<br />
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|नाम=अर्पण जैन <br />
|उपनाम='अविचल'<br />
|जन्म=29 अप्रैल 1989<br />
|जन्मस्थान=कुक्षी, जिला-धार, मध्यप्रदेश<br />
|मृत्यु=<br />
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====कुछ प्रतिनिधि रचनाएँ====<br />
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<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Bharat-Yayawar-Gadyakosh .jpg<br />
|नाम=भारत यायावर<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=29 नवम्बर 1954<br />
|जन्मस्थान=हजारीबाग, झारखंड<br />
|मृत्यु=<br />
|कृतियाँ=झेलते हुए, मैं यहाँ हूँ, बेचैनी, हाल-बेहाल आदि<br />
|विविध=नागार्जुन पुरस्कार, रामवृक्ष बेनीपुरी पुरस्कार, राधाकृष्ण पुरस्कार, अंतरराष्ट्रीय पुश्किन सम्मान<br />
|जीवनी=[[भारत यायावर / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Bharat Yayavar, bharat yayawar<br />
|shorturl=<br />
|kavitakosh=<br />
|copyright=<br />
}}<br />
{{GKCatJharkhand}}<br />
* [[काम / भारत यायावर]]<br />
* [[ अंतिम गांधीवादी !/ भारत यायावर]]<br />
* [[गांधी और जयप्रकाश/ भारत यायावर]]<br />
* [[गांधी होने का अर्थ/ भारत यायावर]]<br />
* [[वह अधनंगा फकीर!/ भारत यायावर]]</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Bharat-Yayawar-Gadyakosh_.jpg&diff=32735चित्र:Bharat-Yayawar-Gadyakosh .jpg2016-12-04T16:08:23Z<p>Preksha Jain: </p>
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<div></div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8&diff=32734मनोज चौहान2016-12-04T15:50:26Z<p>Preksha Jain: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Manoj-Chauhan-Gadyakosh .jpg<br />
|नाम=मनोज चौहान<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=01 मई 1979<br />
|जन्मस्थान=महादेव (सुंदर नगर), जिला-मंडी, हिमाचल प्रदेश, भारत<br />
|मृत्यु=<br />
|कृतियाँ=<br />
|विविध=साहित्यिक संस्था “कवि हम-तुम” समूह दिल्ली द्वारा “काव्य गौरव सम्मान” (अप्रैल, 2016), साहित्यिक संस्था “कवि हम-तुम” समूह, दिल्ली द्वारा “शब्द गंगा सम्मान” (अप्रैल, 2016), जेएमडी पब्लिकेशन, दिल्ली द्वारा “प्रतिभाशाली रचनाकार सम्मान” (सितम्बर, 2016) <br />
|जीवनी=[[मनोज चौहान / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Manoj Chauhan<br />
|shorturl=<br />
|kavitakosh=<br />
|copyright=मनोज चौहान<br />
}}<br />
{{GKCatHimachalPradesh}}<br />
===लघुकथाएँ ===<br />
* [[मजदूर औरत / मनोज चौहान]]<br />
* [[साक्षात्कार / मनोज चौहान]]<br />
* [[शहर का डॉक्टर / मनोज चौहान]]<br />
* [[व्यंग्य बाण / मनोज चौहान]] <br />
* [[अहसास / मनोज चौहान]] <br />
* [[परिवर्तन / मनोज चौहान]]<br />
* [[मनचले / मनोज चौहान]]<br />
* [[बकरा / मनोज चौहान]]<br />
* [[बिजी शेड्यूल / मनोज चौहान]]<br />
* [[भूल सुधार / मनोज चौहान]]<br />
* [[गन्दी मछली / मनोज चौहान]]</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Manoj-Chauhan-Gadyakosh_.jpg&diff=32717चित्र:Manoj-Chauhan-Gadyakosh .jpg2016-11-27T18:25:13Z<p>Preksha Jain: </p>
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<div></div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%97%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%AE%E0%A4%9B%E0%A4%B2%E0%A5%80_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8&diff=32716गन्दी मछली / मनोज चौहान2016-11-27T17:41:08Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=मनोज चौहान |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatLaghu...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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}}<br />
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रूप लाल कटोच बहुत ही कर्मठ और जुझारू चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी थाl ऑफिस में बड़े से लेकर छोटे अधिकारी सभी उसकी कार्य निष्ठा से प्रसन्न थेl वह सभी के टेबल पर पानी भर लाता था और कागज़ एवं अन्य छोटा–मोटा सामान एक टेबल से दुसरे टेबल पर फट से पहुंचा देताl उसकी ऊँची मगर विनम्र आवाज ऑफिस में अक्सर गूंजती रहतीl<br />
<br />
इधर कुछ दिनों से कामचोर और चमचागिरी में माहिर जोलण प्रसाद का तबादला दुसरे कार्यालय से उसी कार्यालय में हो गया था, जिसमें कि रूप लाल कटोच कार्यरत थाl जोलण बातों का धनी तो था ही और साथ ही दंभी भी थाl किसी को नमस्ते भी ऐसे बोलता जैसे कि सामने वाले पर अहसान कर रहा होl वह रूप लाल कटोच को भी बातों में लगाये रखता थाl अपने सारे गुण वह रूप लाल में भी धीरे-2 रोपित करता जा रहा थाl रूप लाल अब अपने कार्य में कोताही बरतने लगा थाl वह अब सिर्फ़ चुनिन्दा अधिकारियों की ही कॉल बेल अटेंड करता और उनके कार्यों में ही लगा रहताl<br />
<br />
ऑफिस के समय और लंच टाइम में उसे जोलण चापलूसी और कामचोरी के गुण सिखाता हुआ दिख जाता थाl जिस तरह से एक गन्दी मछली के आने से पूरा तालाब गन्दा हो जाता है, वैसे ही रूप लाल कटोच की मानसिकता भी बदलने लगी थीl गन्दी मछली ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया थाl रूप लाल कटोच की साख अब कार्यालय में गिरने लगी थीl</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%B2_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8&diff=32715भूल सुधार / मनोज चौहान2016-11-27T17:39:24Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=मनोज चौहान |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatLaghu...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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प्रताप सिंह अपने 12 बर्षीय बीमार बेटे को डॉक्टर को दिखाकर, दवाई लिए लौट रहे थेl अँधेरा गहरा चला थाl वे लोग गाँव की सुनसान और संकरी गली से होकर गुजर रहे थेl इतने में पंडत रौलू राम आगे से आता हुआ दिखाई दियाl उसके घर यहाँ से कुछ ही कदम की दूरी पर थेl<br />
<br />
चाँद की हल्की दुधिया रौशनी में उसके पीले दांतों के भीतर की खाली जगह साफ़ दिखाई दे जाती थीl प्रताप सिंह जैसे ही औपचारिकता स्वरुप हाथ मिलाने को हुए तो रौलू सकपका कर पीछे हो लियाl कहने लगा मैं ऐसी सुनसान जगह पर किसी से हाथ नहीं मिलाताl इस समय बुरी शक्तियां सक्रीय होती हैं!<br />
<br />
प्रताप सिंह को थोड़ा अचरज हुआl वे उसकी इस हरकत पर अधिक ध्यान न देते हुए बेटे को साथ लिए आगे निकल गएl आगे गाँव में दो–चार लोग बातें कर रहे थेl हरिया बता रहा था कि कैसे रौलू को 2 दिन पहले कुछ लोगों ने खरी-खोटी सुनाते हुए आचरण और संस्कारों का पाठ पढ़ाया था l वह लघुशंका के पश्चात बिना पानी स्पर्श किये ही कुछ राहगीरों से हाथ मिला रहा थाl प्रताप सिंह और उनके बेटे को अब सारा मामला समझ में आ गया थाl वे रौलू राम की भूल सुधार से मन ही मन प्रसन्न थेl बुरी शक्तियों का रहस्योद्घाटन हो चुका थाl</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A5%80_%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%A1%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%82%E0%A4%B2_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8&diff=32714बिजी शेड्यूल / मनोज चौहान2016-11-27T17:36:43Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=मनोज चौहान |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatLaghu...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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एक सहकर्मी व मित्र को ब्लड कैंसर होने की खबर जंगल की आग तरह 50 किलोमीटर के दायरे में फैले कंपनी के सभी कार्यस्थलों तक पहुँच गई थीl अशोक को पता चला तो वह विचलित हो गया थाl उसने पुष्टि हेतु तुरंत ही मिश्रा जी को फ़ोन लगायाl मिश्रा जी ने फ़ोन उठाकर दो मिनट में ही औपचारिकता निभाकर खबर की पुष्टि कर दी और यह कह कर फ़ोन रख दिया कि अभी ऑफिस में व्यस्त हूँ, बहुत ही बिजी शेडयूल है आजकलl आपको शाम को घर जाकर कॉल करता हूँl अशोक मन मसोस कर रह गया थाl<br />
<br />
दो साल पहले की ही तो बात थी, जब उन तीनों ने इकठ्ठे ही नौकरी ज्वाइन की थीl कितना आत्मीय भाव और समझ थी तीनो मेंl कंपनी द्वारा प्रायोजित लगभग 3 महीने का वह प्रशिक्षण कार्यक्रम नए तजुर्बों से भरा थाl प्रशिक्षण पूरा होते ही सबकी पोस्टिंग अलग-2 स्थानों पर हो गईl अभी 2 महीने पहले ही तो अनिकेत का कॉल आया था अशोक कोl बहुत खुश था, बोल रहा था मेरी शादी तय हो गई है उसमें ज़रूर आनाl उसकी शादी की तय तिथि से महज 5 दिन पहले इतनी भयावह खबर पाकर अशोक हतप्रभ और बेचैन थाl सोचा था इस दुःख भरी खबर की चर्चा मिश्रा जी से करेगा तो दिल को कुछ तसल्ली होगीl<br />
<br />
कई दिन बीत गएl अशोक ने जैसे–तैसे प्रयास कर अनिकेत से फ़ोन पर सम्पर्क साध लियाl वह दुसरे राज्य के एक बड़े अस्पताल में उपचाराधीन थाl 15–20 मिनट की उस बातचीत में अशोक ने अनिकेत को ढाढस बंधाया और शीघ्र ही मिलने को बोल कर फ़ोन रख दियाl उसकी बेचैनी कुछ कम हुई थीl मगर मिश्रा जी के शब्द "आपको शाम को घर जाकर कॉल करता हूँ" बार-2 कर्ण पटल पर दस्तक दे जाते थेl वह अभी तक समय नहीं निकाल पाए थेl उनका 'बिजी शेडयूल' घर और ऑफिस दोनों जगह अनवरत जारी थाl</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AC%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8&diff=32713बकरा / मनोज चौहान2016-11-27T17:34:37Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=मनोज चौहान |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatLaghu...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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मैदानी इलाके का भवन निर्माण मिस्त्री हाड़ू छोटे–मोटे ठेके लेने लग गया थाl उसे अब सभी हाड़ू ठेकेदार के नाम से जानने लगे थेl अपने इलाके में काम कुछ मंदा पड़ने लगा तो उसने पहाड़ों की तरफ रुख करने की सोचीl जान–पहचान के एक व्यक्ति से उसने एक मकान के निर्माण कार्य का ठेका ले लियाl मैदानी इलाके से ही मजदूरों की टोली लेकर वह साथ गया थाl काम वाली जगह से थोड़ी दूर ही उसने मजदूरों को ठहराने के लिए 2-3 कमरे किराये पर ले लिए थेl मकान मालिक ने सख्त हिदायत भी दी थी कि साथ वाले देवता के मंदिर से भूल कर भी स्पर्श न करेl<br />
<br />
दिन बीतने लगे और हाड़ू ठेकेदार का निर्माण कार्य चरम पर थाl कुछ ही दिनों में लैंटर पड़ने वाला थाl शैटरिंग की लकड़ियों को उचित जगह पर पहुँचाने की आवाजाही में कुछ मजदूर मंदिर के साथ वाले संकरे रास्ते पर अनियंत्रित हो गए और मंदिर से स्पर्श कर गएl उन्होंने न चाहते हुए भी स्वयं और हाड़ू ठेकेदार के लिए आफत मोल ले ली थीl देखते ही देखते बात पूरे गाँव से होती हुई पुजारी और देवता के ख़ास देवलुओं तक पहुँच गईl थोड़ी ही देर में सभा का आयोजन किया गया और हाड़ू ठेकेदार को दंड स्वरुप एक बकरा भेंट करने का फरमान सुना दिया गयाl हाड़ू ने खुद के और अपने मजदूरों के बेकसूर होने की कई दलीलें दी, मगर सब व्यर्थ ही साबित हुईl मरता क्या न करताl थक–हारकर उसने बकरा भेंट करने की बात मान ही लीl<br />
<br />
शाम होने तक हाड़ू ने जैसे–तैसे रुपये जोड़कर भारी मन से बकरा खरीद लिया और उसे पुजारी और देवलुओं को सौंप दियाl दिन–भर की मेहनत से थके हुए मजदूर और हाड़ू ठेकेदार खाना खाकर जैसे ही आराम करने को हुए तो गाँव के ऊँचे टीले से आ रही नाच–गाने की आवाजों ने उनके आराम में खलल डाल दियाl सभी देवलु मांस पकाने और मदिरा का इंतजाम करने में जुटे हुए थेl गाँव में आज उत्सव-सा माहौल थाl सभी देवलू प्रसाद पाकर प्रसन्न थेl हाड़ू और उसके मजदूर उनींदे होकर करवट बदलते रहेl रात्रि के 12 बज चुके थे, मगर देवलु मदमस्त होकर अब भी संगीत की धुनों पर थिरक रहे थेl बकरे की भेंट पाकर मंदिर पुनः पवित्र हो गया थाl</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A4%9A%E0%A4%B2%E0%A5%87_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8&diff=32712मनचले / मनोज चौहान2016-11-27T17:31:41Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=मनोज चौहान |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatLaghu...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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लॉन्ग रूट की बस सर्पीली पहाड़ी सड़क से गुजर रही थीl कंडक्टर की सीटी के साथ ही बस सवारियों को चढ़ाने के लिए एकाएक रुकीl अन्य सवारियों के साथ दो किशोरियां भी बस में चढ़ीl दो मनचले लड़के भी उनका पीछा करते बस में चढ़ गए थेl बस की सभी सीटों पर सवारियां बैठी थी, इसीलिए दोनों लड़के बस की बीच वाली गैलरी नुमा जगह पर खड़े हो गएl दोनों किशोरियों को सीट पर बैठी सवारियों ने आगे–पीछे, जैसे–तैसे एडजस्ट करके बिठा दियाl एक मनचले ने आगे वाली सीट पर बैठी किशोरी के साथ बुदबुदाहट के साथ छेड़खानी शुरू कर दी और दुसरा मनचला पीछे वाली सीट पर बैठी किशोरी के साथ अपनी टांग सटाकर खड़ा हो गयाl यही क्रम काफी देर तक चलता रहाl पीछे वाली किशोरी के सामने की सीट पर सिद्धांत अपनी 5 साल की बेटी और पत्नी के साथ बैठा थाl किशोरी की नज़र सिद्धांत पर पड़ी तो वह लज्जा से झेंप-सी गई थीl मानो, सहायता के लिए कहना चाहती हो मगर संकोचवश कह न पा रही होl<br />
<br />
बस में भीड़ ज़्यादा होने के कारण किसी का भी ध्यान उन मनचलों की हरकतों पर नहीं गयाl सिद्धांत ने जैसे ही पीछे वाली किशोरी से कहा कि "अगर आपको बैठने में कोई परेशानी हो रही है तो आप मेरी सीट पर बैठ जाइयेl" इससे पहले कि वह किशोरी कुछ प्रतिक्रिया देती, पीछे वाला मनचला सचेत हो गयाl सिद्धांत ने उस मनचले को उग्र भावों के साथ घूर कर देखा तो उसके माथे पर बल पढ़ने लगेl सहारे का अहसास पाकर, आगे बैठी किशोरी ने भी हिम्मत जुटाकर ऊँचे स्वर में विरोध कर दियाl सभी सवारियों की नज़र अब उन मनचलों पर थीl दो–तीन सवारियों ने उन्हें हड़का भी दिया थाl ये देखकर दोनों मनचलों पसीने-2 हो गए थेl उनकी टांगों में पैदा हो चुकी कंपकपी से उनका बस में खड़ा रहना अब मुश्किल हो गया थाl सवारियों को उतारने के लिए जैसे ही बस रुकी तो वह मनचले तेजी से बस से नीचे उतर गएl<br />
<br />
दोनों किशोरियों के चेहरों पर अब मुस्कान तैर रही थीl शायद वे समझ चुकीं थी कि निडरता और आत्मविश्वास से हर मुसीबत का सामना किया जा सकता हैl कुछ ही देर में उनका स्टॉपेज आ गयाl उन्होंने निश्चल नेत्रों से सिद्धांत को एक नज़र देखा और धन्यवाद करते हुए बस से उतर गईl सिद्धांत ने भी मुस्कुरा कर संतोष की सांस लीl उसका सफ़र लम्बा था, इसीलिए उसने आँखे मूंद ली थीl बस अब पुनः पहाड़ी-सर्पीली सड़क पर निर्बाध दौड़ रही थीl</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%A8_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8&diff=32711परिवर्तन / मनोज चौहान2016-11-27T17:27:39Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=मनोज चौहान |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatLaghu...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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नन्ही सुजाता अब बड़ी हो गई थीl ऑफिस से लौटते हुए रिहायशी कॉलोनी के कैंपस में जैसे ही सिद्दार्थ की नज़र उस पर पड़ी तो उसने जैसे नज़रें ही मोड़ ली थीl सिद्दार्थ को जैसे झटका-सा लगाl उसे वह पुराने दिन स्मरण हो चले जब वह किताबें उठाये उसी ट्यूशन सेंटर में आती थी जहाँ पर वह ट्यूशन पढाया करता थाl जब कभी सुजाता के अध्यापक अवकाश पर होते थे तो वही उसको पढ़ाता थाl सिद्दार्थ और सुजाता एक ही गाँव के थेl सुजाता उसकी 12 वर्ष छोटी चचेरी बहन की क्लास में पढ़ती थी, इसीलिए वह उसे भी हमेशा छोटी बहन की तरह ही समझता थाl मिलते ही वह हाथ जोड़कर आदर स्वरुप "नमस्ते भैया" ज़रूर बोल देती थीl<br />
<br />
जीवन के संघर्षों से झूझते हुए सिद्दार्थ ने रोजगार की तलाश में गाँव छोड़ दियाl सुजाता की शादी सिद्दार्थ की कंपनी में काम करने वाले केशव से हुई थी जो कि सिद्दार्थ से पद में एक दर्जे ऊपर थाl सुजाता भी पढ़ने में होशियार थी, उसने भी अभियांत्रिकी में स्नातक की डिग्री हासिल कर ली थीl वर्षों से घर से दूर शहर के कामकाजी माहौल में रहते हुए भी सिद्दार्थ को कभी अपने पद का गुमान नहीं रहाl वह हमेशा साधारण जीवन जीने में ही विश्वास रखता थाl<br />
<br />
उसके बाद भी कई बार आते–जाते उसका सामना सुजाता से हुआ, मगर वह हर बार उसे देख कर भी अनदेखा कर देती थीl आदर्शवादी सिद्दार्थ को हमेशा ही यह बात कचोटती रहती थीl मगर धीरे-2 उसे अब यह महसूस होने लगा था कि गुजरते बक्त के साथ सुजाता की सोच भी शायद आधुनिक और अति परिपक्व हो गई हैl हो सकता है कि वह अपनेआप को गाँव के बजाय शहर का ही दिखाना चाहती हो या उसके बात न करने का कारण उसके पति की तथाकथित पद प्रतिष्ठा रही होl उसके व्यवहार में आये इस परिवर्तन को स्वीकारने में ही अब सिद्दार्थ को समझदारी लगने लगी थीl मगर नन्ही सुजाता के बचपन की वह मासूम व निर्मल छवि अक्सर उसकी आँखों के सामने तैरने लग जाती थीl</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A3_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8&diff=32710व्यंग्य बाण / मनोज चौहान2016-11-27T17:21:23Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=मनोज चौहान |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatLaghu...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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रविवार का दिन था और हमेशा की तरह ही भागूमल नाई की दुकान पर आज भीड़ थीl सब लोग जल्दी-2 बाल कटवाकर घर के दुसरे काम निपटाना चाहते थेl भागूमल नाई अपनी वाक् पटुता के लिए पूरे इलाके में मशहूर थाl जो भी उसकी हजामत वाली कुर्सी पर बैठता था वह उसका अपनी रोचक बातों से मनोरंजन किया करता थाl इस पेशे में वाक् कौशल तो आ ही जाता हैl कहावत भी है कि मोहल्ले में कोई बात फैलानी हो तो हजाम को बता दोl दुसरे दिन वह बात पूरे मोहल्ले में फ़ैल चुकी होगीl वैसे भी हजाम तो पूरे मोहल्ले का खबरी होता ही हैl<br />
<br />
मियां सपडू जैसे ही बाल कटवाने बैठा तो भागूमल नाई ने आदतन बातों की झड़ी लगा दीl भागूमल बोल्या "मियां जी आपने सुना कि मसेहडुओं के लड़के की सरकारी नौकरी लग गई, लड़का वैसे भी काफी मेहनती हैl चलो अच्छा हो गया, मेहनत का फल तो मीठा ही होता हैl ये सुनकर मियां तपाक से बोल उठा "अरे भाई भागूमल–इसमें मेहनत वाली कौन-सी बात है? वह कोटे से लगा होगाl मियां जी–कैसे कोटे की बात कर रहे हो? कोटा तो तब होता जब उसे बिना किसी पढाई, ट्रेनिंग, टेस्ट या साक्षात्कार के नौकरी मिल जातीl लेकिन वह तो इन सब चीजों से होकर निकला है, भागूमल ने समझाते हुए कहाl<br />
<br />
मियां ने भौहें तानते हुए कहा "फिर भी यार, आरक्षण में कुछ छूट तो मिल ही जाती हैl" नहीं मियां जी, उस लड़के ने तो सामान्य श्रेणी से टेस्ट पास किया हैl उन लोगों को तो वैसे भी कुछ लोगों ने अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति हेतु आरक्षित श्रेणी में डाल रखा है, वर्ना आप तो जानते ही हैं कि वे तो मूलतः क्षत्रिय हैं और सुकेत के राजा के यहाँ उनकी कितनी धाक थीl क्या आपको नहीं पता कि अपने स्वाभिमान की लड़ाई वे लोग आज भी न्यायालय में लड़ रहे हैं? हां ठीक है-ठीक हैl जल्दी बाल काट, घर में कुछ ज़रूरी काम हैl इतना बोलकर मियां सपडू खामोश हो गयाl उसका आरक्षण का व्यंग्य बाण व्यर्थ होकर उसी के पास लौट आया थाl भागूमल नाई ने उसे आड़े हाथों ले लिया थाl उसकी कैंची अब मियां सपडू के बालों पर पहले से तेज चल रही थीl</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%B9%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B8_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8&diff=32709अहसास / मनोज चौहान2016-11-27T16:37:38Z<p>Preksha Jain: </p>
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<br />
सुधीर की पत्नी मालती की डिलीवरी हुए आज पांच दिन हो गए थेl उसने एक बच्ची को जन्म दिया था और वह शहर के सिविल हॉस्पिटल में एडमिट थीl सुधीर और उसके घर वालों ने बहुत आस लगा रखी थी की उनके यहाँ लड़का ही पैदा होगाl सुधीर की माँ मालती का गर्भ ठहरने के बाद अब तक कितनी सेवा और देखभाल करती आई थीl मगर नियति के आगे किसका वश चलता हैl आखिर लड़की पैदा हुई और उनके खिले हुए चेहरे मायूस हो गएl सुधीर तो इतना निराश हो गया था कि डिलीवरी के दिन के बाद, वो दोबारा कभी अपनी पत्नी और बच्ची से मिलने हॉस्पिटल नहीं गया थाl<br />
<br />
सुधीर आई.पी.एच. विभाग में सहायक अभियन्ता के पद पर कार्यरत थाl उस रोज वह दफ्तर में बैठा थाl उसके ऑफिस में काम करने वाला चपरासी रामदीन छुट्टी की अर्जी लेकर आयाl कारण पढ़ा तो देखा कि पत्नी बीमार है और देखभाल करने वाला कोई नहीं हैl डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया थाl इसीलिए रामदीन 15 दिन की छुट्टी ले रहा थाl सुधीर ने पूछा कि तुम्हारा बेटा और बहू तुम्हारी पत्नी की देखभाल नहीं करतेl यह सुनकर रामदीन खुद को रोक ना सका और फफक-2 कर रोने लग गयाl सुधीर ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया थाl उसकी आँखों से निकलने वाली अश्रुधारा ने सुधीर को एक पल के लिए बिचलित कर दियाl<br />
<br />
रामदीन बोला, "साहब, अपने जीवन की सारी जमा पूंजी मैंने बेटे की पढाई पर खर्च कर दीl" सोचा था कि पढ़–लिख कर कुछ बन जाएगा तो बुढ़ापे की लाठी बनेगाl मगर शादी के छः महीने बाद ही वह अलग रहता हैl उसे तो यह भी नहीं मालूम की हम लोग जिन्दा हैं या मर गएl ऐसा तो कोई बेगाना भी नहीं करता, साहबl काश! मेरी लड़की पैदा हुई होती तो आज संकट की इस घड़ी में हमारा सहारा तो बनतीl इतना कहकर रामदीन चला गयाl सुधीर ने उसकी अर्जी तो मंजूर कर ली मगर उसके ये शब्द कि "काश! मेरी लड़की पैदा हुई होती", उसे अन्दर तक झकझोरते चले गएl एक वह था जो लड़की के पैदा होने पर खुश नहीं था और दूसरी ओर रामदीन लड़की के ना होने पर पछता रहा थाl<br />
<br />
सुधीर सारा दिन इसी कशमकश में रहाl कब पांच बज गए उसे पता ही नहीं चलाl छुटी होते ही वह ऑफिस से बाहर निकला और उसके कदम अपनेआप ही सिविल हॉस्पिटल की तरफ बढ़ने लगेl<br />
<br />
मैटरनिटी वार्ड में दाखिल होते ही उसने अपनी पांच दिन की नन्ही बच्ची को प्यार से पुचकारना और सहलाना शुरू कर दियाl मालती सुधीर में आये इस अचानक परिवर्तन से हैरान थीl अपनी बच्ची के लिए सुधीर के दिल में प्यार उमड़ आया थाl वह आत्ममंथित हो चुका था और उसे अहसास हो गया था कि एक लड़की जो माँ-बाप के लिए कर सकती है, एक लड़का वह कभी नहीं कर सकताl उसे रामदीन के वह शब्द अब भी याद आ रहे थे कि काश! मेरी लड़की ...l</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%B9%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B8_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8&diff=32708अहसास / मनोज चौहान2016-11-27T16:35:37Z<p>Preksha Jain: ' { {GKGlobal} } { {GKRachna । रचनाकार=मनोज चौहान । अनुवाद= । संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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सुधीर की पत्नी मालती की डिलीवरी हुए आज पांच दिन हो गए थेl उसने एक बच्ची को जन्म दिया था और वह शहर के सिविल हॉस्पिटल में एडमिट थीl सुधीर और उसके घर वालों ने बहुत आस लगा रखी थी की उनके यहाँ लड़का ही पैदा होगाl सुधीर की माँ मालती का गर्भ ठहरने के बाद अब तक कितनी सेवा और देखभाल करती आई थीl मगर नियति के आगे किसका वश चलता हैl आखिर लड़की पैदा हुई और उनके खिले हुए चेहरे मायूस हो गएl सुधीर तो इतना निराश हो गया था कि डिलीवरी के दिन के बाद, वो दोबारा कभी अपनी पत्नी और बच्ची से मिलने हॉस्पिटल नहीं गया थाl<br />
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सुधीर आई.पी.एच. विभाग में सहायक अभियन्ता के पद पर कार्यरत थाl उस रोज वह दफ्तर में बैठा थाl उसके ऑफिस में काम करने वाला चपरासी रामदीन छुट्टी की अर्जी लेकर आयाl कारण पढ़ा तो देखा कि पत्नी बीमार है और देखभाल करने वाला कोई नहीं हैl डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया थाl इसीलिए रामदीन 15 दिन की छुट्टी ले रहा थाl सुधीर ने पूछा कि तुम्हारा बेटा और बहू तुम्हारी पत्नी की देखभाल नहीं करतेl यह सुनकर रामदीन खुद को रोक ना सका और फफक-2 कर रोने लग गयाl सुधीर ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया थाl उसकी आँखों से निकलने वाली अश्रुधारा ने सुधीर को एक पल के लिए बिचलित कर दियाl<br />
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रामदीन बोला, "साहब, अपने जीवन की सारी जमा पूंजी मैंने बेटे की पढाई पर खर्च कर दीl" सोचा था कि पढ़–लिख कर कुछ बन जाएगा तो बुढ़ापे की लाठी बनेगाl मगर शादी के छः महीने बाद ही वह अलग रहता हैl उसे तो यह भी नहीं मालूम की हम लोग जिन्दा हैं या मर गएl ऐसा तो कोई बेगाना भी नहीं करता, साहबl काश! मेरी लड़की पैदा हुई होती तो आज संकट की इस घड़ी में हमारा सहारा तो बनतीl इतना कहकर रामदीन चला गयाl सुधीर ने उसकी अर्जी तो मंजूर कर ली मगर उसके ये शब्द कि "काश! मेरी लड़की पैदा हुई होती", उसे अन्दर तक झकझोरते चले गएl एक वह था जो लड़की के पैदा होने पर खुश नहीं था और दूसरी ओर रामदीन लड़की के ना होने पर पछता रहा थाl<br />
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सुधीर सारा दिन इसी कशमकश में रहाl कब पांच बज गए उसे पता ही नहीं चलाl छुटी होते ही वह ऑफिस से बाहर निकला और उसके कदम अपनेआप ही सिविल हॉस्पिटल की तरफ बढ़ने लगेl<br />
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मैटरनिटी वार्ड में दाखिल होते ही उसने अपनी पांच दिन की नन्ही बच्ची को प्यार से पुचकारना और सहलाना शुरू कर दियाl मालती सुधीर में आये इस अचानक परिवर्तन से हैरान थीl अपनी बच्ची के लिए सुधीर के दिल में प्यार उमड़ आया थाl वह आत्ममंथित हो चुका था और उसे अहसास हो गया था कि एक लड़की जो माँ-बाप के लिए कर सकती है, एक लड़का वह कभी नहीं कर सकताl उसे रामदीन के वह शब्द अब भी याद आ रहे थे कि काश! मेरी लड़की ...l</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B6%E0%A4%B9%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%A1%E0%A5%89%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%B0_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8&diff=32707शहर का डॉक्टर / मनोज चौहान2016-11-27T16:27:46Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=मनोज चौहान |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatLaghu...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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निशांत की प्रमोशन हुई तो उसे मैनेजमेंट ट्रेनिंग के लिए कंपनी की ओर से शहर भेज दिया गयाl वह पेशे से एक इलेक्ट्रिकल इंजिनियर थाl पहाड़ी प्रदेश में ही पले–बढे निशांत को शहर का गर्म और प्रदूषित बातावरण रास नहीं आया और उसे सांस से सम्बंधित कुछ समस्या हो गई l ट्रेनिंग इंस्टीटूट से एक दिन की छुट्टी लेकर वह एक डॉक्टर की क्लिनिक पर चेक-अप करवाने गयाl उसके दो सहकर्मी साथी भी उसके साथ थेl<br />
<br />
अभी वह क्लिनिक में प्रविष्ट हुए ही थे की इतने में एक देहाती-सी दिखने वाली घरेलु महिला अपने खून से लथपथ बच्चे को उठाकर अन्दर आई l वह एकदम डरी और सहमी हुई-सी थीl उसका करीब 2 साल का बच्चा अचेत अवस्था में थाl निशांत, उसके दोस्त और क्लिनिक का स्टाफ सभी उस औरत और बच्चे की तरफ देखने लगेl उस महिला के साथ एक व्यक्ति भी आया था जिसने बताया की ये महिला सड़क के किनारे अपने बच्चे को उठाये रो रही थीl सड़क क्रॉस करने की कोशिश में किसी मोटरसाइकिल वाले ने टक्कर मार दी और वह भाग खड़ा हुआl महिला बच्चे समेत नीचे गिर गई थी और बच्चे के सिर पर गंभीर चोट आ गई थीl<br />
<br />
डॉक्टर ने बच्चे को हिलाया–डुलाया और उसके दिल की धड़कन चैक कीl एक क्षण के लिए तो लग रहा था कि जैसे उसमें जान ही नहीं हैl महिला का रुदन जैसे निशांत के हृदय को चीरता-सा जा रहा थाl डॉक्टर ने बच्चे का घाव देखा और उसे साफ़ कियाl इतने में बच्चा होश में आकर रोने लगा तो महिला की जान में जान आईl डॉक्टर ने उसके सिर पर तीन टांके लगायेl<br />
<br />
बच्चे की मरहम पट्टी कर डॉक्टर ने बिल उस महिला के हाथ में थमा दियाl जिसे देखकर वह देहाती महिला अवाक रह गईl महिला के साथ आया हुआ व्यक्ति कुछ पैसे देने लग गयाl निशांत और उसके दोस्त पहले ही डॉक्टर का बिल चुकाने का मन बना चुके थेl सबने मिलकर बिल चुका दियाl मगर उस शहर के डॉक्टर में इतनी भी करुणा नहीं थी कि वह कम से कम अपनी फीस ही छोड़ देता, मरहम–पट्टी और दवा की बात तो और थीl निशांत सोच रहा था, क्या इसी को शहर कहते है? उसके भीतर विचारों का एक असीम सागर हिलोरे ले रहा थाl विचारों की इसी उहा–पोह में कब उसकी टर्न आ गई, उसे पता ही नहीं चलाl डॉक्टर से बैठने का संकेत पाकर वह रोगी कुर्सी पर बैठ गयाl डॉक्टर ने चैक–अप शुरू कर दिया थाl</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%A4%E0%A5%80_%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE_%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%AE%E0%A4%9F%E0%A4%95%E0%A5%88_%E0%A4%A4%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A5%80_/_%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%A8_%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A4%A3&diff=32171कती माधुरी की तरिया गात की पोरी-पोरी मटकै तेरी / नवीन रमण2016-10-12T16:58:03Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार= नवीन रमण |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatHaryanaviR...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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माधुरी और जोगिन्दर<br />
<br />
ओये होये मेरी माधुरी<br />
<br />
सही मैं तू ना कती (बिल्कुल) माधुरी जीसी लाग्गै मन्नै। ओर तै सारी छोरी ब्याह होंदेए. काकड़ी तै घीया हो ज्या सै। पर तू तै जमा काकड़ी-सी पड़ी इब भी। तू तै मेरे तै इब भी उतना ए प्यार करै जितना ब्याह तै पहल्या करै थी। स्कूल मैं कितनी कसुत्ती नाचया करदी तू उस गाणे पै 12345678910111213. जबे तो तेरा नाम माधुरी धरया था। कती गात (शरीर) की पोरी-पोरी मटका दे थी। जमा बिजली बरगा होया करै था तेरा गात। बता तेरै बालक नहीं होये तै इसमैं तेरी के गलती थी। उस कमीण नै जब तू छोड़ी। उसनै सरम नहीं आई. म्हारी तै मजबूरी सै हाम ब्याह कोनी कर सकते।<br />
<br />
इसे मारे तू सारी हाण बुझी-बुझी रहण लाग गी। मैं तो तेरा ए सूं। होणी नै कुण टाल सकै सै। तेरे भाग मैं या ए लिख री होगी। लिखे होड़ नै कुण बदल सकै सै।<br />
<br />
म्हारा मिलणा न्यू वै बणा रै।<br />
<br />
तेरा जोगिन्दर</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A5%88%E0%A4%A1%E0%A4%AE_%E0%A4%AA%E0%A5%88_%E0%A4%9C%E0%A5%8B_%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B2_%E0%A4%86%E0%A4%AF%E0%A4%BE_/_%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%A8_%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A4%A3&diff=32170मैडम पै जो दिल आया / नवीन रमण2016-10-12T16:55:41Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=नवीन रमण |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatHaryanaviRac...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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मैडम और स्टूडेंट<br />
<br />
नमसते मैडम<br />
<br />
ऊं मेरी लिखाई घणी कसूत्ती सै। पर आप जीतनी तै कोनी। यो लैटर भूंडी (गंदी) लिखाई मैं जाण (जान-बूझकर) कै लिखूं सूं। नहीं तै पकडया जांगा (जाऊंगा) <br />
<br />
तू स्कूल की सारी मैडम-मा मैं सब तै सुथरी सै। जब तू हांसै (हंसती) है तो जमा बेर से झड़ ज्या सै।<br />
<br />
जब ओ हरया (हरा) सूट पहर ल्यो सो तो जमा इसी लागो सो जणू छोले-कुलचे आले के छोले मैं हरी मर्च खड़ी हो। अर जब तू क्लास मैं नून तै नून (इस तरफ से उस तरफ) घूमै सै तो इसा लाग्गै जणू (जैसे) थाली मैं कै लास्सी (लस्सी) हांडदी (घूमना) हो।<br />
<br />
मरच (मिर्च) जीसी चरचरी (तीखी) सै जमा तू।<br />
<br />
अर क्लास मैं कुरसी पर बैठ कै नै जो आप आपणे नहूँ (नाखून) काट्टे पीछै उननै घीसो सो उसका मजाक सारी क्लास उड़ाया करै सै। आपणे घरा काट लिया करो।<br />
<br />
अंगरेजी आली मैडम तो नू कै थी अक इसकी सक्ल-सक्ल बढ़िया सै, अकल नी इसमें एक धेले (रुपये) की। इस मैडम के नाम के तै सबकै चूरणे होए रै सै।<br />
<br />
डंडे की जगाह तू रैपटे मार लिया कर। कम तै कम थोबड़े (मुंह) पै तेरा हाथ तो लाग ज्यागा।<br />
<br />
तन्नै तेरी माता रानी की कसम, जै तन्नै इस लैटर की बात कीसे तै बताई तो<br />
<br />
तेरे घर तै के कुछ जावै सै। पढ़ कै थोड़ी हाण हांस लिए।<br />
<br />
तेरा...<br />
<br />
हाहाहाहा, नाम कोनी बताऊं</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%80%E0%A4%9F%E0%A4%B0_%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%96%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%A7%E0%A4%BE_%E0%A4%A4%E0%A5%88_%E0%A4%95%E0%A4%AE-%E0%A4%8F-%E0%A4%95%E0%A4%AE_/_%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%A8_%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A4%A3&diff=32169मनीटर देखी सुधा तै कम-ए-कम / नवीन रमण2016-10-12T16:53:53Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=नवीन रमण |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatHaryanaviRac...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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सुधा और मदन<br />
<br />
सुधा<br />
<br />
करया ना तन्नै ओये काम। तू घणी वकील पाक (बन रही है क्या) री सै के। तन्नै दो पुड़िया ईमली की मांगी थी मन्नै वै तेरे तै ल्या कै दे दी थी।<br />
<br />
फेर भी तन्नै मास्टर तै नू बताणा ज़रूरी था अक इसनै छुट्टियां का काम कोनी करया। घणी बड्डी मनीटर पाकै सै के।<br />
<br />
तेरै तै बढ़िया मोनिटर तै पूजा थी। कहंदे (कहते ही) ए मान ले थी। अर एक तू सै।<br />
<br />
मन्नै पिटवा कै तेरै के घी घल ग्या।<br />
<br />
जब मैं मुर्गा बणा राख्या था। जब बी तू मेरे कैनी आँख मारै थी। बता कोए इसा भी प्यार करया करै।<br />
<br />
तू ए प्यार करै अर तू मन्नै पिटवा कै राजी (खुश) रहवै।<br />
<br />
तेरा बी बेरा (पता) नी (नहीं) लाग्दा (लगता)।<br />
<br />
इब मुंह बाए देखती रहिये बाट (इंतजार) कती बी नहीं ल्याऊ तेरै तई ईमली।<br />
<br />
जीभ दिखाण का बेरा (पता) लाग ज्यागा।<br />
<br />
पूजा खावैगी ईमली।<br />
<br />
सुधा रोवैगी जीभली। (जीभ दिखाने वाली) <br />
<br />
मदन</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%9F%E0%A5%80_%E0%A4%AC%E0%A5%88%E0%A4%B0%E0%A4%A3_%E0%A4%A4%E0%A5%88_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE_/_%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%A8_%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A4%A3&diff=32168परकटी बैरण तै प्यार होग्या / नवीन रमण2016-10-12T16:51:21Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=नवीन रमण |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatHaryanaviRac...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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अश्वनी और बबीता<br />
<br />
अश्वनी<br />
<br />
जाको राखे साइयां मार सकै ना कोई. बाल न बांका हो सके चाहे जगबैरी होई॥<br />
<br />
अश्वनी मैं समझगी ओ लैटर तन्नै मेरे तै लिख्या था।<br />
<br />
जूणसा (जो) काल (कल) हिन्दी के मासटर कै फंस गया था। बता कोए लैटर नै किताब मैं भी धरया (रखता,) करै। के तेरै गोज (जेब) कोनी थी। क्यूकर (कैसे-कैसे) तेरे लैटर मैं गलती काढण (निकाल) लाग रह्या था। बता लैटर का प्यार नी दिख्या बस गलती दिखी उसनै।<br />
<br />
यो हिन्दी आळा मासटर है पक्का कमीण सै। ऊ तै पूरे टिक्के (तिलक) लगा कै आवै। अर जब उसी प्यार आळी कविता पढ़ावै फेर एक हाथ इसका आपणी पेंट मैं रहवै। कितनी भूंडी (बुरी तरह) ढाल खुजावै (खुजलाता) सै। शरम बी कोनी आती इसनै तो।<br />
<br />
यो तो सुकर है एक क्लास मैं तीन बबीता सै। मासटर समझया कोनी कुण-सी बबीता तै लैटर लिख्या सै।<br />
<br />
ऊ तै तू इतना सरमावै (शरमाना) अर लैटर मैं इतनी कसुत्ती-कसुत्ती बात लिख राखी थी। हाट कै (दोबारा) लिखिए तू मन्नै लैटर।<br />
<br />
फूल बोया है तन्नै प्यार का, सुखण कोनी दयू।<br />
<br />
बबीता बात की पक्की सै, तन्नै रोण कोनी दयू॥<br />
<br />
तेरी प्यारी परकटी बबीता<br />
<br />
*परकटी-छोटे बालों वाली</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%B8_%E0%A4%AC%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%A4%E0%A5%87_%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%96%E0%A5%87_%E0%A4%AA%E0%A4%B0_%E0%A4%A4%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A5%87_%E0%A4%A4%E0%A5%88_%E0%A4%A4%E0%A4%B2%E0%A5%88-%E0%A4%A4%E0%A4%B2%E0%A5%88_/_%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%A8_%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A4%A3&diff=32167माणस बदलते देखे पर तेरे तै तलै-तलै / नवीन रमण2016-10-12T16:47:29Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=नवीन रमण |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatHaryanaviRac...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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जसोदाबेन और परिधान मंत्री मोदी<br />
<br />
हे मेरे भरतार<br />
<br />
मैं तै तन्नै आज तई आपणा भगवान मान्या करती। तेरे भक्ता नै मेरे पै तै ओ हक खोस (छीन) लिया। इब तै तू उनका भगवान सै। घरा अकेली छोड़ कै तै कद (कब) का चल्या ग्या था। देश की सेवा करण का घणा कीड़ा था तेरै। एक बर बी न्यू नी सोच्या अक मेरा के होवैगा। मेरा बी भोत (बहुत) मन था तेरी सेवा करण का।<br />
<br />
सेवा तै तन्नै ठवाई कोन्या। हां, इतने साल मैं गाळ (गालियां) खूब खाली। बाकी एक बात तो सै लत्ते (कपड़े) घणे कसुत्ते पहरण लाग ग्या इब तू। पहल्या तै तन्नै ना तै खाणा खाण का शहूर था अर ना लत्ते पहरण का।<br />
<br />
तेरी शक्ल बी इसी लाग्गै सै जणु नीरा घी पींदा हो। आड़ै घर मैं खाण नै दाणे नी थे अर तू इब घी खावै। धरती के सारे देस देख दिए होंगे तन्नै। जब देखूं मैं टीवी पै बाहर-ए दिखै सै। किसे बाबा तै दिखा ले कदे तेरे पां (पैर) तले किसे नै टोणा कर राख्या हो। एक जगाह टिकदे-ए कोनी। घणा हांडणा बी ठीक कोनी होंदा।<br />
<br />
हिम्मत-सी मार कै यो पहल्या खत लिखे दिया। इब तै लिखती रहया करूंगी।<br />
<br />
अच्छा राम-राम<br />
<br />
तेरी भागवान जसोदाबेन</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%A8%E0%A4%B6%E0%A4%BE_%E0%A4%AA%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%BE_%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82_%E0%A4%AA%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%A4%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A5%88_/_%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%A8_%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A4%A3&diff=32166प्यार का नशा पूरा नहीं पड़ता तन्नै / नवीन रमण2016-10-12T16:45:53Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=नवीन रमण |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatHaryanaviRa...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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}}<br />
{{GKCatHaryanaviRachna}}<br />
बबलू और प्रियंका<br />
<br />
बबलू<br />
<br />
आज तेरे मुंह मैं कै घणी भूंडी बांस (बदबू) आवै थी बीड़ी की। कम तै कम जब मेरे तै मिलण आवै तै बीड़ी तो मत पी कै आया कर। इस बीड़ी तै बढ़िया तो मेरा बाबू होक्का (हुक्का) बताया करै। ओए पी लिया कर। यै बीड़ी तै दांत बी पीले कर दे सै।<br />
<br />
अर मन्नै तै इसा बी लागण लाग लिया सै अक तू दारू बी पीवै सै। जबे तेरा पेट बढन लाग रह्या सै। क्यूं तू नास की राहिया चालण लाग रह्या सै।<br />
<br />
मान ज्या यार। तन्नै मेरी कसम सै। जै तू मेरे तै साच्चा प्यार करता होगा तो दोनूं चीज छोड़ देगा।<br />
<br />
आई लव यू<br />
<br />
तेरी प्रियंका<br />
————————————————<br />
<br />
हाँ डार्लिंग प्रियंका<br />
<br />
ऊँ तै तू ठीक कहवै सै। मन्नै बी महसूस होवै सै अक तन्नै साच्ची मैं घणी भूंडी बांस आंदी होगी। अर मन्नै बी दिखै सै। अक दांत बी कती पीले के कती सड़ लिए सै। अर दारू की बी के बताऊ। तन्नै बेरा सै इब मन्नै 20-21 दिन होगे छोड़ राखी थी। पर के करूँ मेरा बी दोस्ता गेल पीण नै जी कर ज्या सै। एकाध सै जिनके गेल पिए बिना मजा नी आंदा। पर कती तो ना छुटै पर कोशिश करूँगा एकाध पै पी लिया करूंगा।<br />
<br />
तन्नै बी कसम सै घणी नी कहवैगी। तू बी तै कसम पै कसम खवां कै कती लत्ते से तार दे सै। थोड़ा बहोत तू सोच लिया कर यार।<br />
<br />
दांत तो डॉक्टर पै कती धोले करवा ल्यूंगा।<br />
<br />
आई लव यू प्रियंका।<br />
<br />
तेरा बबलू</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A4%E0%A5%82_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%A3_%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%82,_%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A4%B0_%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%82_/_%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%A8_%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A4%A3&diff=32165तू प्यार रहण दें, सरकार की भक्ति कर लें / नवीन रमण2016-10-12T16:43:46Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=नवीन रमण |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatHaryanaviRac...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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|रचनाकार=नवीन रमण<br />
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}}<br />
{{GKCatHaryanaviRachna}}<br />
विशाल और कोमल<br />
<br />
हाय विशाल<br />
<br />
मन्नै नहीं बेरा था तेरी इतनी घटिया पसन्द बी हो सकै सै। बता तन्नै सुधीर चौधरी पसन्द सै। फेर तो छी न्यूज भी पसन्द होगा। फेर तो तू इसी ए इज्जत करता होगा लुगाइयाँ की जीसी तेरा सुधीर चौधरी करै सै। हे राम! मैं तो कदे सोच बी कोणी सकूँ थी। अक तू बी भक्त लिकड़ ज्यागा। चलो कोई नहीं बेरा तो लाग ग्या इब। इब तै तेरा अर तेरी बात का ध्यान राखणा पडैगा। कद तू के कहवै सै उस तै तेरी सोच का बी बेरा लाग ज्यागा।<br />
<br />
आई लव यू की जगह इब तै मैं तन्नै भारत माता की जै लिख्या करूंगी। के पता तू बी रामदेव की तरिया संविधान तै डरता चुप हो। मन्नै अपनी गर्दन कोनी कटवानी। इबै तो मन्नै खूब जीणा सै।<br />
<br />
चुभै तो खूब गी तेरै यै बात अर चुभनी बी चहिये। काम ए इसा करया सै तन्नै।<br />
<br />
भारत माता की जै<br />
<br />
तेरी कोमल <br />
——————————————-<br />
<br />
कोमल<br />
<br />
तू आपणे आप नै घणी स्याणी मान्नै सै के। मन्नै सुधीर चौधरी बढ़िया लाग्गै सै तो मेरी सोच घटिया होगी। अर तन्नै रविस पसन्द सै तो तेरी पसन्द कसुत्ती होगी। चल मैं तो भक्त सूं। तू बता तू के सै। फ़ैन या कुल्लर। अक ac सै।<br />
<br />
दो अक्षर के पढ़ लिए आपणे आप नै फ़न्ने खां समझण लाग गी। तेरी ज़बान घणी चालण लाग गी सै। डाट ले इस नै। नहीं तै या ज़बान रिश्तों नै काटती चली जागी कैंची की तरिया।<br />
<br />
असल मैं जिसका मुंह ऊप्पर नै उठ जाया करै सै। उसनै के धरती पै कुछ दिख्या करै सै। तेरै जब ठोकर लागै गी जब तेरी समझ मैं आवैगी। उस तै पहल्या तै मैं बी तन्नै कुत्ते की तरिया भौंकता लागूंगा।<br />
<br />
देख ले जो तन्नै ठीक लागता हो ओ कर। मेरै सूईं चुभैगी इसकी टेंसन तू ना लेवे। चुभण आळी बात तो चुभैगी। डांगर कोनी सूं। जो मेरै दर्द कोनी होवै।<br />
<br />
आपणी इसी तीसी करा तू।<br />
<br />
भारत माता की जै।<br />
<br />
विशाल</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%A8%E0%A5%88_%E0%A4%AF%E0%A5%88%E0%A4%82_%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%87_%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%A8_%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%96%E0%A4%BE_%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%8F_/_%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%A8_%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A4%A3&diff=32164सरकार नै यैं किसे दिन दिखा दिए / नवीन रमण2016-10-12T16:41:06Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=नवीन रमण |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatHaryanaviRac...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
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|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatHaryanaviRachna}}<br />
पूजा और मुकेश<br />
<br />
यार मुकेश<br />
<br />
तन्नै नू के पता होगा। अक दुनिया का पहला sms 1992 मैं करया ग्या था। आज म्हारे प्यार नै दो साल होगे। पर मैं तेरे तै पहली बार sms करण लाग री सूं। ओ बी मजबूरी मैं। आरक्षण के चक्कर मैं नेट बन्द होग्या। व्हाट्सऐप तै बढ़िया काम चाल रह्या था। रोज बात हो जाया करती। लिखण की इसी आदत पड़ गी सै। अक फोन पै बात करण मैं ओ मजा नी आंदा। बात करण का मजा तो रात नै ए सै। दिन मैं तो व्हाट्सऐप तै बढ़िया कुछ नी।<br />
<br />
नौकरी करदे-करदे बात करण का इस तै बढ़िया जुगाड़ कुछ नी सै।<br />
<br />
यो मैसेज बी मन्नै इसा लाग्गै सै। जणु दो मैसेज जितनी जगह खा ज्यागा। फेर तू इतवार नै मेरे तै मिलण मोटर साईकिल पै आवैगा के? बस तो बन्द कर राखी सै सरकार नै। आरक्षण आल्या के चक्कर मैं।<br />
<br />
तन्नै पता सै जाये रोया नै ओ मित्तल फ़ास्ट फ़ूड बी फूँक दिया। जिस पै हाम बैठया करदे। इब किते पार्क मैं ए मिलणा पडैगा। पर पार्क मैं जांदी हाण डर लाग्गै सै। उडै कोए हो फ़िल्म बणा लें सै।<br />
<br />
इब तो कई बै इसा लाग्गै सै अक ब्याह होये पीछै ए यो डर दूर होवैगा। टाइम तै आ जाइये। उडै स्टैंड पै आंदे जांदे लोग भूंडी तरिया देखे जा सै। उस दिन तै एक कार आळा नू बोल्या अक कित छोड़ दयू मैडम जी। म्हारै के कांटे लाग रे सै। आज्या नै। कती सारे तरिया के मजे आज्यांगे।<br />
<br />
मैं तन्नै उस जूस आळे की दुकान पै मिलूंगी। 50रु तो लाग ज्यांगे पर कलेस तै पिंड छूट ज्यागा।<br />
<br />
आई लव यू मुकेश<br />
<br />
तेरी पूजा</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A4%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A4%BE_%E0%A4%A4%E0%A5%8B_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%9A%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A5%80_%E0%A4%AE%E0%A5%88%E0%A4%82_%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B9_%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE_%E0%A4%AC%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE_/_%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A5%80%E0%A4%A8_%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A4%A3&diff=32163तेरा तो साच्ची मैं ब्याह होग्या बबीता / नवीन रमण2016-10-12T16:36:51Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=नवीन रमण |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatHaryanaviRa...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
|रचनाकार=नवीन रमण <br />
|अनुवाद=<br />
|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatHaryanaviRachna}}<br />
बबीता और पवन<br />
<br />
यार बबीता!<br />
<br />
एक तो तेरे बाबू नै तेरा इतने तकाजै तै ब्याह कर दिया। वह भी किसे और गेल (साथ)। जब बी मन्नै सब्र कर लिया। ऊपर तै तेरे ब्याह मैं मेरे बाबू नै कती चाला पाड़ दिया। बोल्या जा रै जैकिसन की छोरी का कन्या दान घालया (डाल) आ। सबतै बड़ा चाला यो होया अक जिस राममेहर नै हम दोनों थारे घेर मैं पकड़े थे वह कन्यादान की कॉपी लिए कन्यादान लिखण लाग रह्या था। मेरे कैनी देख कै और तरिया हांसै था।<br />
<br />
कन्यादान घाले पीछै जीमण बैठया तो पात्तल मैं जो चार लाड्डू थे। उनमै तेरे बाबू नै काली मिर्च गिरवा राखी थी। जी कती काचचा होग्या। एक तो तेरे ब्याह के लाड्डू वै बी काली मिर्च आळे। तेरा ब्याह है। नू सोच कै बस खा लिए।<br />
<br />
अर जांदी हाण विदा पै जब तू रोवै थी तो इसा लाग्गै था जणू मेरी बाबत रोण लाग री सै। जी तो मेरा बी करै था रोण का। पर उडै नी रोया बल्कि थारे घेर मैं जा कै रोया। बाकि हलवाई नै पेठे का साग घणा कसुत्ता बणाया था। तन्नै तो कुछ नी खाया होगा।<br />
<br />
तन्नै मेरी याद आवैगी। अक तू भूल ज्यागी इब।<br />
<br />
तेरा पुराणा यार पवन<br />
—————————————————————————————<br />
<br />
मेरे प्यारे पवन<br />
<br />
यार तू नू तो ना लिखता। अक तन्नै याद करूंगी की नहीं। तन्नै मैं कदे नी भूल सकती। तेरा लैटर मेरे सन्दूक तै बी भारी होग्या मेरे खात्तर। सन्दूक नै तो दूसरे ठा-उतार देंगे। पर इतनी भारी बात तै मन्नै अकेली नै ठाणी अर तारणी पडैंगी।<br />
<br />
अर यो के लिख्या तन्नै पुराणा यार। तू पुराणा यार कोनी मेरा। पहल्या अर आखिरी प्यार सै। तन्नै पता सै मेरे लोग का नाम बी पवन सै। जब महेंदी लाण आळी नै मेरे हाथ पै पवन लिख्या तो मेरै गुदगुदी होण लाग गी थी। तेरी शक़्ल आग्गै आवै थी। आपणे लोग की तो मन्नै शक़्ल बी कोनी देखी इब तक।<br />
<br />
ओ राममेहर घणा कमीण सै। मेरे बाबू नू कहवै था। अक कन्याकान के कुछ पीसे औ आपणे धौरै राख ग्या। अर मेरे तै नू बोल्या अक एक पप्पी तो दे-दे मेरे तै बी. मेरै के कांटे लाग रे सै। अर सबके आगे बेटी-बेटी करे जा सै। कीड़े पड़ कै मरैगा। तू रोइये ना यार। हांसता ए कसुत्ता लाग्गै सै तू। जब आऊंगी तै तेरे तै ज़रूर मिलूंगी। गीता नू कहवै थी अक तू दारू पी कै आरया था। देख तन्नै आपणे प्यार की कसम सै। दारू मत पीण लागइये।<br />
<br />
तेरी कसुत्ती बबीता</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8&diff=32080साक्षात्कार / मनोज चौहान2016-10-08T17:07:01Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=मनोज चौहान |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatLaghu...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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दफ्तर के बाहर आज बड़ी भारी भीड थी। आज यंहा एक क्लर्क के पद हेतू साक्षात्कार होना था। कई उम्मीदवार आज सुबह से ही दफ्तर के बाहर तांता लगाए खडे थे। साक्षात्कार के तय समय से दो घण्टे देर से बडे. साहब आए और आते ही चपरासी रामदीन को चाय लाने का आदेश दिया।<br />
<br />
चाय बगैरह की आवाभगत से निवृत होकर बडे. साहब ने आधा घण्टा आराम किया और फिर साक्षात्कार प्रारम्भ किया। "मे आई कम इन सर" के एक विनम्र सम्बोधन के साथ एक उम्मीदवार अंदर आया और बडे. साहब ने उसे कुर्सी पर बैठने का इशारा किया।<br />
<br />
बडे. साहबः आपका नाम?<br />
<br />
उम्मीदवार: जी, राजबीर... राजबीर सिंह।<br />
<br />
बडे. साहबः आपकी शैक्षणिक योग्यता?<br />
<br />
उम्मीदवार: जी, एम. कॉम. और कम्पयूटर में एक वर्षीय डिप्लोमा।<br />
<br />
बडे. साहबः क्या आपको कोई अनुभव है?<br />
<br />
उम्मीदवार: जी, अभी तक तो कोई अनुभव नहीं है।<br />
<br />
बडे. साहबः किसी मन्त्री से जान-पहचान है?<br />
<br />
उम्मीदवार: जी, मन्त्री से तो नहीं, एक विधायक से थोड़ी जान - पहचान है?<br />
<br />
हूँ...हूँ...हूँ...बडे. साहब ने कुछ सोचते हुए कहा। ओ. के. मिस्टर राजबीर। आप जा सकते हैं। अगर आपका नाम योग्यता सूची में आता है तो आपको बुला लिया जाएगा। ये सुनकर उम्मीदवार कमरे से बाहर आ गया। बडे. साहब ने घण्टी बजाकर दुसरे उम्मीदवार को अंदर बुलाया और उससे भी वही रटे- रटाये प्रश्न पुछ लिए जो पहले उम्मीदवार से पुछे थे। यही क्रम बारी-बारीसे चलता रहा और एक-एक करके सभी उम्मीदवारों का साक्षात्कार ले लिया गया।<br />
<br />
इतने में बडे. साहब को मन्त्री जी का फोन आया। उन्होंने अपने किसी रिश्तेदार की सिफारिश की, जो किसी बजह से साक्षात्कार में उपस्थित नहीं हो पाया था। बडे. साहब ने कागज पर मन्त्री जी के रिश्तेदार का नाम लिखा और ''यू डोंट बरी सर...इटस ऑल राइट, कहते हुए फोन रख दिया।<br />
<br />
साक्षात्कार खत्म हो चुका था। सभी उम्मीदवार घर वापिस जा रहे थे, इस उम्मीद के साथ कि शायद योग्यता सुची में उनका नाम आ जाए। कुछ दिनों के बाद साक्षात्कार का परिणाम निकला और मन्त्री जी के रिश्तेदार का नाम योग्यता सुची में आ गया और उसे नौकरी मिल गई। बाकी उम्मीदवारों को अभी भी आस है कि शायद योग्यता सुची में उनका नाम आ जाए।</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%9C%E0%A4%A6%E0%A5%82%E0%A4%B0_%E0%A4%94%E0%A4%B0%E0%A4%A4_/_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8&diff=32079मजदूर औरत / मनोज चौहान2016-10-08T16:32:38Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=मनोज चौहान |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatLaghuK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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पीठ पर शाल में लिपटे हुए अढाई साल के बच्चे को लेकर जैसे ही वह मजदूर औरत प्रोजैक्ट साईट की डिस्पैसरी में प्रवेश हुई तो अनायास ही सबका ध्यान उसकी ओर चला गया। पसीने से तर-बतर और हांफते हुए वह बोली मेरे बच्चे को चोट लग गई है बाबू जी, ज़रा पट्टी कर दीजिये। वहाँ बैठे प्राथमिक चिकित्सा सहायक ने रौबीले स्वर में उससे पूछा '"कैसे चोट लग गई" तो वह रूआंसे से स्वर में बोली "कमरे में अपने पांच साल के भाई के साथ खेल रहा था, बाबू जी। दरबाजे की चौखट और पल्ले के बीच बांये हाथ का अगुंठा आ गया। तुम कहाँ थी उस वक्त, प्राथमिक चिकित्सा सहायक ने जैसे सवालों की झड़ी ही लगा दी थी। मैं और मेरा आदमी तो रोज यहाँ काम पर आ जाते हैं, साहब। दोनों बच्चे कमरे में ही रहते हैं। अच्छा दिखाओ, इस बार प्राथमिक चिकित्सा सहायक की आवाज में नरमी थी। उसने अपने बच्चे को पीठ से उतारकर गोद में लिया, जो दर्द से कराह रहा था।<br />
<br />
जैसे ही प्राथमिक चिकित्सा सहायक ने बच्चे की उंगली पकड़ी तो वह जोर-जोर से रोने लग गया। बच्चे की चीखों से डिस्पैसरी के उस कमरे में मौजूद चार-पांच लोगों सहित रौबीले से दिखने वाले चिकित्सा सहायक का दिल जैसे पसीज-सा गया था। उसने बच्चे का जख्म साफ किया और उसकी मरहम पटटी की और पेन किल्लर का इंजेक्शन लगा दिया। फिर उसने उस औरत को कुछ दवाई दी और एक कागज पर कुछ लिखते हुए बोला कि ये लो, ये दवाई बाज़ार से ले लेना। कागज को हाथ में लेते हुए वह मजदूर औरत कुछ सोचने लगी। क्या हुआ...अब क्या सोच रही हो...? चिकित्सा सहायक के स्वर दोबारा से तल्ख हो उठे थे।<br />
<br />
तभी वहाँ पर बैठे साईट इन्जीनियर शेखर (जो अभी तक एक ज़रूरी फोन कॉल अटैन्ड कर रहा था) ने उस औरत को सहज भाव से कहा कि आपके बच्चे की मरहम पट्रटी कर दी है, अब आप घर जाइए और बाज़ार से दवाई ले लीजिए. इतना सुनते ही उस औरत की आंखों में आंसू आ गए। दवा-दारू कहाँ से करेगें, हम गरीब लोग हैं बाबू जी...! मैं और मेरा आदमी तो दिन भर यहाँ काम करते हैं। हमारे गांव में पिछले साल बाढ आई थी, जिसमें खेत-खलिहान, मकान सब बह गए. घर में और लोग भी हैं जिन्हे हर महीने रूपये भेजने पडते हैं, इसीलिए यहाँ दूर परदेश में मर-खप रहे हैं। इतना सुनते ही शेखर ने जेब से 500 रूपये निकाले और उस औरत के हाथ में थमा दिए और भावुकता के आवेष में बिना कुछ कहे ही कमरे से बाहर निकल गया। वह औरत निश्चल नेत्रों से हाथ जोड उसे जाते देखती रही। चिकित्सा सहायक और अन्य लोग बिना कुछ कहे अब भी उस औरत को देख रहे थे। बच्चे की चीखें शांत हो गई थी, शायद पेन किल्लर ने अपना असर दिखा दिया था।</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8&diff=32078मनोज चौहान2016-10-08T16:23:14Z<p>Preksha Jain: /* लघुकथा */</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=<br />
|नाम=मनोज चौहान<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=01 मई 1979<br />
|जन्मस्थान=महादेव (सुंदर नगर), जिला-मंडी, हिमाचल प्रदेश, भारत<br />
|मृत्यु=<br />
|कृतियाँ=<br />
|विविध=साहित्यिक संस्था “कवि हम-तुम” समूह दिल्ली द्वारा “काव्य गौरव सम्मान” (अप्रैल, 2016), साहित्यिक संस्था “कवि हम-तुम” समूह, दिल्ली द्वारा “शब्द गंगा सम्मान” (अप्रैल, 2016), जेएमडी पब्लिकेशन, दिल्ली द्वारा “प्रतिभाशाली रचनाकार सम्मान” (सितम्बर, 2016) <br />
|जीवनी=[[ / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Manoj Chauhan<br />
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|copyright=<br />
}}<br />
{{GKCatHimachal}}<br />
===लघुकथाएँ ===<br />
* [[मजदूर औरत / मनोज चौहान]]<br />
* [[साक्षात्कार / मनोज चौहान]]<br />
* [[शहर का डॉक्टर / मनोज चौहान]]<br />
* [[व्यंग्य बाण / मनोज चौहान]] <br />
* [[अहसास / मनोज चौहान]] <br />
* [[परिवर्तन / मनोज चौहान]]<br />
* [[मनचले / मनोज चौहान]]<br />
* [[बकरा / मनोज चौहान]]<br />
* [[बिजी शेड्यूल / मनोज चौहान]]<br />
* [[भूल सुधार / मनोज चौहान]]<br />
* [[गन्दी मछली / मनोज चौहान]]</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%9C_%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8&diff=32077मनोज चौहान2016-10-08T16:02:41Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKParichay |चित्र= |नाम=मनोज चौहान |उपनाम= |जन्म=01 मई 1979 |...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
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|नाम=मनोज चौहान<br />
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|विविध=साहित्यिक संस्था “कवि हम-तुम” समूह दिल्ली द्वारा “काव्य गौरव सम्मान” (अप्रैल, 2016), साहित्यिक संस्था “कवि हम-तुम” समूह, दिल्ली द्वारा “शब्द गंगा सम्मान” (अप्रैल, 2016), जेएमडी पब्लिकेशन, दिल्ली द्वारा “प्रतिभाशाली रचनाकार सम्मान” (सितम्बर, 2016) <br />
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{{GKCatHimachal}}<br />
===लघुकथा ===</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B7%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF&diff=31926तुषार कान्त उपाध्याय2016-10-02T08:12:51Z<p>Preksha Jain: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
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|copyright=तुषार कान्त उपाध्याय<br />
}}<br />
===कहानियाँ===<br />
*[[सौ के नोट / तुषार कान्त उपाध्याय ]]<br />
*[[बचकालो / तुषार कान्त उपाध्याय ]]</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Tushar-Kant-Upadhyay-Gadyakosh.JPG&diff=31925चित्र:Tushar-Kant-Upadhyay-Gadyakosh.JPG2016-10-02T08:10:42Z<p>Preksha Jain: Tushar-Kant-Upadhyay-Gadyakosh.JPG</p>
<hr />
<div>Tushar-Kant-Upadhyay-Gadyakosh.JPG</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B5%E0%A5%8B_%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%96_%E0%A4%AA%E0%A4%A2%E0%A4%BC%E0%A4%A4%E0%A5%80_%E0%A4%A5%E0%A5%80,_%E0%A4%B5%E0%A5%8B_%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%96_%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%96%E0%A4%A4%E0%A5%80_%E0%A4%A5%E0%A5%80-%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A4%BE_%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A5%80_/_%E0%A4%B8%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BE_%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%95&diff=31914वो भूख पढ़ती थी, वो भूख लिखती थी-महाश्वेता देवी / सपना मांगलिक2016-10-02T07:08:41Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सपना मांगलिक |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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ब्रेख्त के अनुसार "भूखा आदमी किताब की और जाता है, यह उसका एक हथियार है।" उसी तरह महाश्वेता देवी के अपने जीवन में भी कम संघर्ष नहीं थे, इसलिए वह उन शोषित और वंचितों का दुःख पढ़ सकती थीं जिनके लिए सरकार ने अनगिनत क़ानून तो बना रखे हैं मगर उन कानूनों की जानकारी और सहायता प्रदान करने के बारे में कभी सोचा ही नहीं। महाश्वेता ऐसे ही वंचित भूखे उदरों की मूक चीत्कार थीं और उस चीत्कार को समाज के सामने लाना और उनकी आवाज बनकर क़ानून का दरवाजा खटखटाना उनके जीवन का मिशन था जिसके लिए उस देवी ने अपने निजी जीवन को ही ताक पर रख दिया। अन्ना हजारे कहते हैं कि "जो ज़िंदा रहने के लिए मरते हैं वह कभी ज़िंदा नहीं रहते और जो मरने के लिए ज़िंदा रहते हैं वह अमर हो जाते हैं दुनिया के लिए।" उनका शरीर लोगों के मध्य से उठाता है मगर उनकी याद हर एक दिल में ज़िंदा रहती है उनकी मौत के सैंकड़ो साल बाद भी दुनिया उन्हें उतने ही सम्मान और प्रेम से याद करती है। महाश्वेता देवी ने समाज से लिया कुछ नहीं सिर्फ दिया। अपने घर परिवार का सुख चैन अपनी सेवा, अपना सम्पूर्ण जीवन उन्होंने शोषितों और वंचितों पर खर्च किया।वह जितनी भावुक और सशक्त समाजसेविका थीं उससे भी कहीं ज़्यादा बेहतर एक लेखिका थी और इससे भी ज़्यादा प्रभावशाली वक्ता भी थीं। कहते हैं कि दो हजार छह के फ्रंक्फार्ट पुस्तक मेले में भारत एक ऐसा देश था जिसे दोवारा आमंत्रित किया गया था और उस विश्वप्रसिद्ध पुस्तक मेले के शुभारम्भ में महाश्वेता देवी ने ऐसी भावनापूर्ण और दिल को छू लेने वाला भाषण दिया कि हर एक सुनने वाले की आँखों से अश्रु धारा बह निकली। उन्होंने राजकपूर के गीत की प्रसिद्द पंक्तियों को इस्तेमाल करते हुए कहा कि "भारत में यह वह समय है जब जूता जापानी पहना जाता है, पतलून इंगलिश्तानी पहनी जाती है टोपी रूसी होती होता है मगर दिल जैसा कि हमेशा था, और युगों युगों तक रहेगा हिन्दुस्तानी है। महाश्वेता की कलम किसी यश या पुरूस्कार की भूखी नहीं थी न ही वह अपनी लेखनी से धनोपार्जन करना चाहती थीं। कहते हैं कि शोध के बिना बोध असंभव है और महाश्वेता पूरे शोध के बाद ही अपनी लेखनी को गति देती थीं। वो उन छपास की भड़ास वाले तमाम लेखकों की दौड़ से अलग थीं जो यह समझते हैं कि पाठक को जो कुछ भी अधकचरा ज्ञान परोसा जाएगा वह उसको भूखे विलाव की तरह से लपक लेगा। महाश्वेता देवी से पहले बांग्ला साहित्य में पारिवारिक द्वंद की कहानियां होती थीं। मगर महाश्वेता देवी पहली ऐसी लेखिका हैं जिन्होंने नक्सलबादी आंदोलन के दौरान जितनी लोगों ने यातनाएं सहीं, उनपर जितने भी अत्याचार हुए.उन सबको अपनी कहानियों का विषय बनाया, उनकी कहानियों के पात्र राजा - रानी की तरह रूमानी और अलादीन के चिराग की तरह पलक झपकते ही ईच्छा पूरी करने या सपने सच करने वाले काल्पनिक नहीं होते थे। वरन आम ज़िन्दगी के संघर्षशील जुझारू सच्चे नायाक होते थे जैसे कि "बिरसा मुंडा"। न्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि "हम सभी लेखकों को रोज़मर्रा की ज़िंदगी को नज़दीक से देखे-सुने बिना लिखने का कोई अधिकार नहीं है। यह ज़रूरी है कि हम जनता तक जाए और उनकी वास्तविक ज़िंदगी से जुड़ी कहानियों को समझें। और हमारे पास जो कुछ है वह उन्हें दें।" एक बार महाश्वेता देवी आदिवासियों के साथ भोजन पर बैठीं तो देखा भात के साथ चुटकी बहर नमक रखा है, उन्होंने आदिवासियों से पूछा "इस भात को कैसे सानेग" आदिवासियों में से एक ने उत्तर दिया "हम इसे भूख से सानेगा" आदिवासी का यह उत्तर उन्हें द्रवित कर गया और इस घटना का जिक्र उन्होंने अपनी किताबों के साथ अपने दिए विभिन्न पत्र पत्रिकाओं के इंटरव्यू में भी किया।<br />
<br />
बिहार, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके महाश्वेता देवी के कार्यक्षेत्र रहे। वहाँ इनका ध्यान लोढ़ा तथा शबरा आदिवासियों की दीन दशा की ओर अधिक रहा। इसी तरह बिहार के पलामू क्षेत्र के आदिवासी भी इनके सरोकार का विषय बने। इनमें स्त्रियों की दशा और भी दयनीय थी। महाश्वेता देवी ने इस स्थिति में सुधार करने का संकल्प लिया। 1970 से महाश्वेता देवी ने अपने उद्देश्य के हित में व्यवस्था से सीधा हस्तक्षेप शुरू किया। उन्होंने पश्चिम बंगाल की औद्योगिक नीतियों के ख़िलाफ़ भी आंदोलन छेड़ा तथा विकास के प्रचलित कार्य को चुनौती दी। वह आदिवासियों पर लिखने मात्र से अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं समझती थीं अपितु उनके हाथों से बने हस्तशिल्प के सामान की प्रदर्शनी लगाना और उनका विक्रय करवाने से लेकर, उनके होनहार बच्चों के शिक्षा की व्यवस्था करना और उनकी तरफ से कानूनी लड़ाई लड़ने के कार्य भी वह किया करती थीं तभी तो उन्हें सभी प्रेम से महाश्वेता माँ कहकर संबोधित करते थे।जितनी उच्च लेखन क्षमता और करुनामय दिल था उनका उतनी ही सादगी पसंद भी थीं।समाचार पत्रों और टीवी चेनलों को इंटरव्यू देते समय वह कभी अपनी वेश भूषा और शृंगार पर ध्यान नहीं देती थीं।अगर कोई इस बाबत उनका ध्यान भी आकर्षित करता तो उनका जवाब होता "हमारा साडी देखेगा या हमारा चूल देखेगा।"<br />
<br />
महाश्वेता का साहित्य:-<br />
<br />
बाहर के देशों में भारतीय साहित्य को जिन रचनाओं की बदौलत जाना गया, उनमें महाश्वेता देवी की रचनाएं भी हैं।महाश्वेता देवी अपने शब्दों का अमीर के बच्चों की भाँति कल्पनाओं से शृंगार नहीं करती थीं अपितु वह गरीव के बालकों की तरह से उन्हें अनुभव और भूख की तपती आग में तपाकर उन्हें जीवन की कडवी सच्चाइयों का एक आइना बनाती थीं। आदिवासियों के हक के लिए कानूनी लड़ाई लड़ना, उनके क्षेत्रों का दौरा कर उनकी समस्याओं को सुनना इन सब पर अपना पूरा समय और ऊर्जा खर्च करने के उपरान्त भी वह लेखन के लिए समय निकाल ही लेती थीं तभी तो सौ उपन्यास और बीस कथा संग्रह वह अपने खाते में जोड़ पायी। उनका खुद का कहना था कि "मैं कितनी भी भागदौड़ क्यों न कर लूं, रचनाएँ मेरे सर पर सवार हो जाती हैं" तीन तीन कहानिया एक दिन में और हज़ार चौरासी की माँ जैसा उपन्यास महज चार दिन में उन्होंने पूरा किया था कभी कभी वह सुबह लिखने बैठतीं और रात के डेढ़ बज जाते लिखते - लिखते। सृजन के लिए इतना समर्पण तो विरलों में ही देखने को मिलता है। वह हर एक रचना को अथक परिश्रम और शोध के बाद गहरी सम्बेद्नात्मक दृष्टि से परखती और फिर अपने भावों की स्याही से रच डालतीं आम आदमी की ख़ास गाथा। जिसका एक उदाहरण उनका प्रसिद्द उपन्यास 'अरण्येर अधिकार' है जो कि हिन्दी में 'जंगल के दावेदार' के नाम से प्रकाशित हुआ है, इस उपन्यास को लिखने के लिए महाश्वेता देवी ने काफी लंबा समय रांची और उसके आसपास के इलाके में बिताया। अपने जमीनी हक के लिए मुंडा लोगों के संघर्ष के विरुद्ध ब्रिटिश हुकूमत का कुटिल अभियान, मुंडाओं के सहज स्वभाव का तथ्य संग्रह करने के साथ ही उन्होंने वहाँ के आदिवासियों के जीवन को नजदीक से देखा और उनके संघर्षों से जुड़ गईं। उन्होंने साहित्य के माध्यम से जन-इतिहास को सामने लाने का वह काम किया जो उनके पहले नहीं हुआ था। 'जंगल के दावेदार' उनकी ऐसी कृति है, जिसे 1979 में जब साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला तो आदिवासियों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई थी। उन्हें लगा जैसे यह पुरूस्कार महाश्वेता देवी को नहीं अपितु उन्हें मिला है, उन्होंने अपने आदिवासी वाध यंत्र ढ़ाक को बजाकर इस ख़ुशी को जाहिर किया।<br />
<br />
'झासेंर रानी' के लिए महाश्वेता ने झाँसी की रानी के भतीजे गोविंद चिंतामणि से पत्र व्यवहार शुरू किया। सामग्री जुटाने और पढ़ने के साथ-साथ उत्साहित होकर महाश्वेता ने लिखना भी शुरू कर दिया। फटाफट चार सौ पेज लिख डाले। पर इतना लिखने के बाद उनके मन ने कहा – यह तो कुछ भी नहीं हुआ। उन्होंने उसे फाड़कर फेंक दिया। झाँसी की रानी के बारे में और जानना पड़ेगा। तो इसके लिए छह वर्ष के बेटे नवारुण भट्टाचार्य और पति को कलकत्ता में छोड़कर अंततः झाँसी ही चली गईं। तब न पति के पास नौकरी थी न उनके पास। 'रुदाली' कहानी में महाश्वेता ने औरत की अस्मिता का प्रश्न उम्दा तरीके से उठाया तो 'अक्लांत कौरव' में विकास और छद्म प्रगतिवाद की तीखी आलोचना की। 'चोट्टि मुंडा और उसका तीर' में आदिवासी समाज की हकीकत को दर्शाया गया है। 'अमृत संचय' उपन्यास 1857 से थोड़ा पहले प्रारंभ होता है। 'अमृत संचय' में प्रतिकूल स्थितियों में भी जीवन के प्रति जो ललक है और प्रतिरोध की जो चेतना है, उस चेतना पर महाश्वेता की बराबर नजर रही है। गोरों के विरुद्ध ही वह चेतना नहीं थी, बल्कि आज़ाद भारत में भी प्रतिरोध की चेतना रही है, जिसे महाश्वेता पूरे साहस के साथ अभिव्यक्त करती हैं। 'आपरेशन बसाईटुडु', 'जगमोहन की मृत्यु' में महाश्वेता की वेदना और संघर्ष की स्मृति भी संचित है। महाश्वेता इतिहास, मिथक और वर्तमान राजनैतिक यथार्थ के ताने-बाने को संजोते हुए सामाजिक परिवेश की मानवीय पीड़ा को स्वर देती हैं। सर्कस की पृष्ठभूमि पर लिखा 'प्रेमतारा' प्रेम की कथा है, फिर भी उसकी पृष्ठभूमि में सिपाही विद्रोह रहता है। महाश्वेता ने 'हजार चौरासी की माँ' में नक्सल आंदोलन को माँ की नजर से देखा। नक्सल आंदोलन की वे साक्षी रही थीं। जनसंघर्षों ने उनके जीवन को भी परिवर्तित किया और लेखन को भी। 'हजार चौरासी की माँ' उस माँ की मर्मस्पर्शी कहानी है, जिसने जान लिया है कि उसके पुत्र का शव पुलिस हिरासत में कैसे और क्यों है।<br />
<br />
महाश्वेता देवी ने लेखन की शुरुआत कविता से की थी, पर बाद में कहानी और उपन्यास लिखने लगीं। 'अग्निगर्भ', 'जंगल के दावेदार', '1084 की मां', 'माहेश्वर', 'ग्राम बांग्ला' सहित उनके 100 उपन्यास प्रकाशित हैं। बिहार के भोजपुर के नक्सल आन्दोलन से जुड़े एक क्रान्तिकारी के जीवन की सच्ची कथा उपन्यास के रूप में उन्होंने 'मास्टर साहब' में लिखी। इसे उनकी बहुत ही महत्त्वपूर्ण कृति माना गया। महाश्वेता देवी वामपंथी विचारधारा से जुड़ी रहीं, पर पार्टीगत बंधनों से अलग ही रहीं।महाश्वेता देवी ने हमेशा वास्तविक नायकों को अपने लेखन का आधार बनाया।<br />
<br />
महाश्वेता देवी के निधन से साहित्य जगत में शोक की लहर फैल गई। उनके निधन पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि बंगाल ने अपनी माँ को खो दिया है। यह साहित्य जगत के लिए अपूरणीय क्षति है। उन्होंने एक ट्वीट में लिखा, "भारत ने एक महान लेखक खो दिया है। बंगाल ने एक ममतामयी माँ को खोया है। मैंने एक निजी मार्गदर्शक को खो दिया है। ईश्वर महाश्वेता दी की आत्मा को शांति प्रदान करे।"</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%85%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%95_%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%9F%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE&diff=31913अशोक भाटिया2016-10-02T05:49:29Z<p>Preksha Jain: </p>
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<div>{{GKCatLaghuKatha}}<br />
{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Ashok-bhatia-gadyakosh.jpg<br />
|नाम=अशोक भाटिया<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म= 05 जनवरी 1955<br />
|मृत्यु=<br />
|जन्मस्थान=अम्बाला छावनी, पंजाब, भारत<br />
|कृतियाँ=<br />
|जीवनी=[[अशोक भाटिया / परिचय]]<br />
}}<br />
{{GKCatPunjab}}<br />
====लघुकथाएँ====<br />
* [[रिश्ते / अशोक भाटिया]]<br />
* [[सपना / अशोक भाटिया]]<br />
* [[पीढ़ी-दर-पीढ़ी / अशोक भाटिया]]<br />
* [[लोक और तंत्र / अशोक भाटिया]]<br />
* [[गेट सम्राट / अशोक भाटिया]]<br />
* [[रंग / अशोक भाटिया]]<br />
* [[स्त्री कुछ नहीं करती! / अशोक भाटिया]]<br />
* [[भीतर का सच / अशोक भाटिया]]<br />
* [[बराबरी / अशोक भाटिया]]<br />
* [[कपों की कहानी / अशोक भाटिया]]<br />
* [[मोह / अशोक भाटिया]]<br />
* [[आत्मालाप / अशोक भाटिया]]<br />
* [[सामने / अशोक भाटिया]]<br />
* [[रो–मान्स / अशोक भाटिया]]<br />
* [[ भूख / अशोक भाटिया]]<br />
* [[ श्राद्ध / अशोक भाटिया]]<br />
* [[नमस्ते की वापसी / अशोक भाटिया]]<br />
* [[दर्शन / अशोक भाटिया]]<br />
* [[तीसरा चित्र / अशोक भाटिया]]<br />
* [[चौथा चित्र / अशोक भाटिया]]<br />
* [[देश / अशोक भाटिया]]<br />
* [[बीच का आदमी / अशोक भाटिया]]<br />
* [[अच्छा घर / अशोक भाटिया]]<br />
* [[क्या मथुरा, क्या द्वारका? / अशोक भाटिया]]<br />
* [[डर के पीछे / अशोक भाटिया]]<br />
* [[अमिया / अशोक भाटिया]]<br />
* [[दिल की बात / अशोक भाटिया]]<br />
* [[बीसवीं सदी की आखिरी शाम / अशोक भाटिया]]<br />
* [[मां - बेटा संवाद / अशोक भाटिया]]<br />
* [[पहचान / अशोक भाटिया]]<br />
* [[एक पहेली / अशोक भाटिया]]<br />
* [[समय की जंजीरें / अशोक भाटिया]]<br />
* [[कोण /अशोक भाटिया]]<br />
* [[विवाद-संवाद /अशोक भाटिया]]<br />
* [[पसीने की कहानी / अशोक भाटिया]]<br />
* [[ज़िन्दगी / अशोक भाटिया]]<br />
* [[लगा हुआ स्कूल / अशोक भाटिया]]<br />
* [[साहब ? / अशोक भाटिया]]<br />
* [[रोग और इलाज / अशोक भाटिया]]<br />
* [[पार्टी-लाइन / अशोक भाटिया]]<br />
* [[पापा जब बच्चे थे / अशोक भाटिया]]<br />
* [[यक्ष प्रश्न / अशोक भाटिया]]<br />
* [[युग मार्ग / अशोक भाटिया]]<br />
* [[कुंडली / अशोक भाटिया]]<br />
* [[शेर और बकरी / अशोक भाटिया]]<br />
* [[जकड़न / अशोक भाटिया]]<br />
* [[किसान आज / अशोक भाटिया]]<br />
<br />
====लेख====<br />
* [[हरियाणा का हिन्दी लघुकथा लेखन / अशोक भाटिया]]</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%9A%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0:Ashok-bhatia-gadyakosh.jpg&diff=31912चित्र:Ashok-bhatia-gadyakosh.jpg2016-10-02T05:47:53Z<p>Preksha Jain: </p>
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<div></div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%85%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%BE_%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B6%E0%A5%88%E0%A4%B2%E0%A5%87%E0%A4%B6_%E0%A4%AE%E0%A4%9F%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80_/_%E0%A4%B8%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BE_%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%95&diff=31816भारत का अभागा गोर्की-शैलेश मटियानी / सपना मांगलिक2016-09-24T19:57:25Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सपना मांगलिक |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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|रचनाकार=सपना मांगलिक<br />
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|संग्रह=<br />
}}<br />
{{GKCatLekh}}<br />
होंठ हँसते हैं,<br />
<br />
मगर मन तो दहा जाता है<br />
<br />
सत्य को इस तरह<br />
<br />
सपनों से कहा जाता है।<br />
<br />
शैलेश मटियानी जी की लिखी यह कविता उनके स्वंय के जीवन की गाथा है।उस जीवन की जो कि हमेशा कुदरत की क्रूर प्रताड़ना सह - सहकर फौलाद-सा मजबूत हुआ, मगर सहन शक्ति की भी एक सीमा होती है कहते हैं ना कि लोहा भी ज़रूरत से ज़्यादा ठोका जाए तो अपनी आकृति खो देता है, ज़्यादा तापमान पर तपाया जाए तो पिघल जाता है और पानी में डुबोया जाए तो एक समय के बाद जंग लगकर उसका अस्तित्व आहिस्ता-आहिस्ता खत्म हो जाता है। अल्मोड़ा के रम्य पहाड़ी इलाके में जन्मे मटियानी की ज़िन्दगी पहाड़ों की हरी भरी घाटियों-सी सुन्दर कभी नहीं रही, बल्कि रात्री में पहाड़ की भयाभय निशब्दता, अँधेरे और दिल दहला देने वाले सन्नाटे से भी ज़्यादा खौफनाक थी उनकी जिन्दगी। मात्र 12 वर्ष की उम्र में पिता-माता दोनों को खो देनेवाले इस बच्चे ने 13 साल की नन्ही-सी उम्र में अपनी पहली कविता लिखी थी। 15 वर्ष की छोटी-सी उम्र में वह अपनी पहली किताब का मालिक था। जैसा कि लेखक अमूमन होते हैं, 'रमेश कुमार मटियानी' उर्फ़ शैलेश मटियानी पहले एक कवि थे। वे भी उसी तरह कविताएं लिखते रहें जैसे बहुत सारे लेखक अपने लेखन के शुरुआती काल में लिखते हैं। फिर उनका झुकाव गद्य-लेखन की तरफ हुआ और तब वह शैलेश मटियानी हो गए। वह हिन्दी साहित्य के महान लेखक थे और उनका साहित्य दबे-कुचले और समाज के पिछङे लोगों पर आधारित था।दूसरे शब्दों में कहें तो उनका साहित्य उनकी ही भुक्ति गाथा थी जिससे उन्हें मुक्ति मृत्यु के उपरान्त ही प्राप्त हुई। बचपन में ही मां-बाप का साया उठने पर, कम पढे-लिखे होने के बावजूद उन्होने हिन्दी में बेहतरीन कहानियां-उपन्यास लिखनी शुरु की। धन की कमी के कारण उन्हें घरेलू नौकर तक बनने को मजबूर होना पङा। अपने अन्तिम दिनों में उन्हें अनेक विपत्तियों का सामना करना पङा।उन्होंने यह साबित किया कि 'जुआरी का बेटा और बूचड़ का भतीजा' कविता-कहानियाँ सिर्फ लिख ही नहीं सकता, बल्कि ऐसा लिख सकता है कि बड़े-बड़ों को उसमें विश्व का महान साहित्यकार गोर्की दिखाई दे। बंबई प्रवास का उनका समय, समाज के हाशिए और फुटपाथों पर पड़ी जिंदगी से साक्षात्कार का ही नहीं बल्कि खुद उस जिंदगी को जीने का भी समय रहा है। चाट हाऊस और ढाबों पर जूठे बर्तन धोता, ग्राहकों को चाय का ग्लास पहुँचाता, रेलवे स्टेशनों पर कुलीगीरी करता बीस-बाईस साल का युवक 'पर्वत से सागर तक' की संघर्षपूर्ण यात्रा करता हुआ सिर्फ सपनों में ही नहीं हक़ीक़त में भी साहित्य रच रहा था। धर्मयुग जैसी देश की प्रतिष्ठित पत्रिका में इसी दौरान उस नवयुवक की रचनाएँ छप भी रही थीं।बंबई में सर छुपाने कि जगह न होने के कारण फुटपाथ पर रातें गुजारीं। कई बार भोजन और सर छुपाने की जगह के लिए जानबूझकर हवालात भी गए। रात में वह पुलिस की गश्त के वक़्त टहलने लगते और पुलिस उन्हें पकड़ कर ले जाती। वहाँ भूख की आग भी मिटती और साये विहीन सिर को छत भी मिल जाती। साथ में जेल के काम के बदले भत्ता भी मिलता। एक व्यक्ति पैसा और रोटी अर्जित करने के लिए किस हद तक जा सकता है उसकी बानगी देखिये कि मटियानी ने अपने उन संघर्ष के दिनों में कमाई के लिए अपना ख़ून भी बेंचा। ख़ून बेचकर जो पैसे मिलते उसका कुछ हिस्सा उन्हें उन दलालों को देना पड़ता जो गरीव और अफीमचियों का खून बेचते हैं। यहीं उनका बंबई के अपराध जगत से भी परिचय हुआ। अपराध जगत के इसी अनुभव को आधार बनाकर उन्होंने 'बोरीवली से बोरीबंदर तक' उपन्यास की रचना की। और बंबई में प्राप्त अनुभव के आधार पर न जाने कितनी ही कहानियाँ भी लिखीं। इस संघर्षपूर्ण जीवन के समानान्तर वे लगातार साहित्य सर्जन करते रहे। जिसकी वजह से उन्हें प्रेमचंद के बाद भारत का दूसरा सबसे ज़्यादा और बेहतरीन लिखने वाला कहानीकार माना जाता है।उन्होंने जीवन से चाहे जितने समझौते किया हों मगर लेखन के साथ कभी कोई समझौता नहीं किया। एक बार भूख की तीब्रता का अनुभव करते हुए उन्होंने बंबई में समुद्र के किनारे फेंका हुआ एक डब्बा उठाया, तो उसके भीतर पॉलीथीन में बंधा हुआ कुछ मिला। उसे खोलकर देखा तो उसमें मनुष्य का मल था। जैसा कि गोर्की ने कहा है कि- "हमारा सबसे बड़ा निर्दयी दुश्मन हमारा अतीत होता है" ठीक उसी तरह मटियानी भी कभी अपना अतीत भुला न सके। वह अपनी किसी भी रचना को छापने की अनुमति देने से पूर्व पूछते थे 'पैसे कितने मिलेंगे, मिलेंगे भी या नहीं?' निर्मल वर्मा के बाद पैसों के लिए पूछनेवाले मटियानी दूसरे लेखक थे। ये दोनों ही लेखन के द्वारा आजीविका चलाते थे। अतीत की दुश्वारियां और अपमान उनकी आत्मा और मस्तिष्क को सदैव छीलते रहे जिसका परिणाम उनका आक्रोश भरा व्यक्तित्व था।जीवन के ऐसे दारुण और घिनौने यथार्थ को उन्होंने भोगा शायद इसलिए ही व्यवहारिकता उनमें समा गयी थी। रूस के गोर्की का लिखा एक-एक शब्द शायद जीवन का वह कडवा यथार्थ था जो हमारे भारत का गोर्की मटियानी भी जी रहा था, जैसे कि गोर्की ने कहा है कि "जब काम में आनंद आता है तो जीवन खुशनुमा होता है, अगर जब वही काम नौकरी बन जाए तो जीवन गुलामी हो जाता है" मटियानी ने लेखन को ही अपनी आजीविका का साधन बनाया और जैसे कि किसान बंजर भूमि पर भी अपनी मेहनत और लगन से फसल उगा सकता है उन्होंने भी जीवन की पथरीली माटी को खोदकर उनसे अपनी पुष्प और फल-सी रचनाओं की पैदावार की। लेकिन यहाँ भी गोर्की की कही एक कडवी सच्चाई से मटियानी को भी रूबरू होना पडा, जैसा कि गोर्की ने कहा है कि "लेखक हवा में महल खड़े करता है, पाठक उस महल में रहते हैं, मगर उस महल का किराया प्रकाशक वसूलते हैं।" मटियानी की लिखी यह कविता मेरे इस तर्क को पुष्टि देगी -<br />
<br />
लेखनी का<br />
<br />
धर्म है,<br />
<br />
युग-सत्य को<br />
<br />
अभिव्यक्ति दे!<br />
<br />
शैलेश मटियानी की रचनाओं में 'अनुभव की आग और तड़प' आकाश या हवा से नहीं आयी, बल्कि काँटों भरा एक संघर्षपूर्ण जीवन उन्होंने खुद ही जिया। जिन परिस्थितियों में एक साधारण आदमी को मौत ज़्यादा आसान लग सकती है उन्हीं परिस्थितियों में मौत के बारे में सोचकर भी वह बार-बार जीवन की तरफ लौटते रहे।<br />
<br />
उगते हुए<br />
<br />
सूरज-सरीखे छंद दो<br />
<br />
शौर्य को फिर<br />
<br />
शत्रु की<br />
<br />
हुंकार का अनुबंध दो।<br />
<br />
गांव की बीरानियों से लेकर इलाहाबाद, मुजफ्फरनगर व दिल्ली के संषर्घों के साथ मुंबई के फुटपाथ और जूठन पर गुजरी ज़िन्दगी के बावजूद उनका रचना संसार आगे बढ़ता गया। 'चील माता' और 'दो दुखों का एक सुख' वे अन्य महत्त्वपूर्ण कहानियां हैं जिनके कारण उनकी तुलना मैक्सिम गोर्की और दोस्तोवस्की से की जाती रही। उनके 30 कहानी संग्रह, 30 उपन्यास, 13 वैचारिक निबंध की किताबें, दो संस्मरण और तीन लोक-कथाओं की किताब इसका उदाहरण हैं। इस मामले में उनकी तुलना बांग्ला भाषा के लेखकों से की जा सकती है। हालांकि इतना लिखना एक बहुत मुश्किल काम है। नए विषयों की खोज, उसका सुंदर और प्रमाणिक निर्वाह और साथ ही दोहराव से बचाव, अगर असंभव नहीं तो कष्टकर तो है ही। लेकिन मटियानी के यहाँ विषयों का दुहराव कहीं नहीं मिलता। शायद इसलिए भी कि जिंदगी उनके लिए रोज नई चुनौतियां गढ़ती रही और यह लेखक उन्हें अपनी रक्त को स्याही बनाकर लिखता रहा। करीब 100 से अधिक प्रकाशित पुस्तकों का लेखन करने वाले शैलेश मटियानी को उनकी रचनाओं ने ही साहित्य के विश्व पटल पर एक अलग पहचान दिलायी। उनके रचना कर्म पर टिप्पणी करते हुए हंस संपादक ने अपने बहुचर्चित संपादकीय शैलेश मटियानी बनाम शैलेश मटियानी में लिखा था- "मटियानी को मैं भारत के उन सर्वश्रेष्ठ कथाकारों के रूप में देखता हूँ, जिन्हें विश्व साहित्य में इसलिए चर्चा नहीं मिली कि वे अंग्रेजी से नहीं आ पाए. वे भयानक आस्थावान लेखक हैं और यही आस्था उन्हें टालस्टाय, चेखव और तुर्गनेव जैसी गरिमा देती है। उन्होंने अद्र्धागिनी, दो दु: खों का एक सुख, इब्बू-मलंग, गोपुली-गफुरन, नदी किनारे का गांव, सुहागिनी, पापमुक्ति जैसी कई श्रेष्ठ कहानियां तथा कबूतरखाना, किस्सा नर्मदा बेन गंगू बाई, चिट्ठी रसैन, मुख सरोवर के हंस, छोटे-छोटे पक्षी जैसे उपन्यास तथा लेखक की हैसियत से, बेला हुइ अबेर जैसी विचारात्मक तथा लोक आख्यान से संबद्ध उत्कृष्ट कृतियां हिन्दी जगत को दीं। अपने विचारात्मक लेखन में उन्होंने भाषा, साहित्य तथा जीवन के अंत: संबंध के बारे में प्रेरणादायी स्थापनाएं दी हैं।" भारतीय कथा में साहित्य की समाजवादी परंपरा से शैलेश मटियानी के कथा साहित्य का अटूट रिश्ता है। वे दबे-कुचले भूखे नंगों दलितों उपेक्षितों के व्यापक संसार की बड़ी आत्मीयता से अपनी कहानियों में पनाह देते हैं। मटियानी वाकई सच्चे अर्थो में भारत के गोर्की थे।<br />
<br />
<br />
मटियानी का पारिवारिक जीवन<br />
<br />
संघर्ष का यह दौर चल ही रहा था कि 1958 ई. में नीला मटियानी से उनका विवाह हो गया। परिवार और पारिवारिक जीवन के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा का परिचय मिलने लगा। वह अपनी कहानियों के सन्दर्भ में कहते थे कि - "मेरे लेखक-जीवन की नींव में दादी के मुख से निकली लोक-कथाओं की ईंटें पड़ी हुई हैं।" स्त्रियों के लिए एक गहरी संवेदना शैलेश मटियानी जीवन और लेखन में हमेशा मौजूद रही। प्रेयसियों को और उनके प्रेम को केंद्र में रखकर लिखने वाले तो न जाने कितने लेखक हुए, मटियानी अकेले लेखक हैं जो पत्नी प्रेम को अपनी कहानी का केंद्रबिंदु बनाते हैं 'अर्धांगिनी' कहानी इस प्रतिबद्धता के साथ-साथ पर्वतीय पृष्ठभूमि और घर-परिवार से सहज संवेदनात्मक और प्रगाढ़ जुड़ाव का ही प्रतिफलन है।कहते हैं न कि एकदम से आई शांति आने वाले तूफ़ान का प्रतीक होती है उसी तरह सुखद दाम्पत्य जीवन जी रहे मटियानी को लग रहा था कि उनके जीवन को एक आधार मिल चुका है जिसपर अपने मेहनत और लगन की ईंट से वह ख़्वाबों का महल बनायेंगे मगर 1992 में आया उनके जीवन का वह तूफ़ान उनके महल को बनने से पूर्व ही उजाड़ गया और मटियानी लाचार विवश उसे ध्वस्त होते देखते रह गए ठीक वैसे ही जैसे बंदर और बया की बाल कथा में बया अपने घोंसले को चुपचाप असहाय बंदर को क्रूरता से मिटाते हुए देखती रह गयी थी।उनके छोटे बेटे की जो उनके हृदय के सबसे करीब था कुछ भू माफियाओं द्वारा हत्या कर दी गयी। इस करुण घटना ने उन्हें भीतर तक तोड़ दिया।<br />
<br />
हमारी<br />
<br />
शांतिप्रियता का<br />
<br />
नहीं है अर्थ कायरता-<br />
<br />
हमें फिर<br />
<br />
ख़ून से लिखकर<br />
<br />
नया इतिहास देना है!<br />
<br />
अपनी कविता में व्यक्त इसी जज्बे को लेकर वह इससे भी लड़े। इस लड़ाई ने उन्हें मानसिक विक्षिप्तता की हालत में पहुँचा दिया। उन्हें बार-बार दौरे पड़ने लगे। इसी बीच उन्होंने अपने बेटे की हत्या वाली घटना को आधार बनाकर'नदी किनारे का गाँव' कहानी लिखी।<br />
<br />
खुद ही सहने की जब<br />
<br />
सामर्थ्य नहीं रह जाती<br />
<br />
दर्द उस रोज़ ही<br />
<br />
अपनों से कहा जाता है!<br />
<br />
सबको लगा वे लौट रहे हैं, ठीक हो रहे हैं। लेकिन, ठीक वैसे ही जैसे बुझने से पहले लौ तेजी से फडफडाती है। लंबे समय से चल रही सिर दर्द की एक रहस्यमय बीमारी ने अंततः 24 अप्रैल 2001 को उनके शरीर से उनकी रूह को जुदा कर दिया। जाते-जाते वे छोड़ गए एक बड़ा उपन्यास और 'जुआरी के बेटे और बूचड़ के भतीजे की आत्म-कथा' लिखने की हसरत।जिस परिवार के साथ मटियानी ने सुख के दिन रैन देखने की कल्पनाएँ संजोयीं थीं आइये मालूम करते हैं उनके जाने के बाद उनके परिवार की क्या दशा हुई - मटियानी की मौत के बाद उनके परिवार का संघर्ष और अधिक बढ़ गया है।बड़ा बेटा राकेश मटियानी इलाहाबाद छोड़कर हल्द्वानी चला आया है। कभी अपने पिता की कहानी संग्रह का संपादन करने वाला राकेश आज फेरीवाला बुकसेलर बन चुका है। माँ नीला मटियानी, पत्नी गीता, बेटा 15 वर्षीय निखिल, 11 वर्षीय बेटी राधा की जिम्मेदारियों ने उसे फेरीवाला बना दिया है। वह आजकल अपने पिता की पुरानी किताबों को बेचकर परिवार का गुजारा करने के साथ ही स्टेशनरी का सामान भी फेरी लगाकर बेच रहे हैं। माँ नीला मटियानी को भी एचआरडी की पेंशन समय पर नहीं मिलती है। तत्कालीन यूपी सरकार की ओर से दिए गए टूटते व टपकते मकान में किसी तरह से पूरा परिवार रह रहा है।पिता के जन्मदिन के कार्यक्रम तक को मनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाने वाले राकेश मटियानी कहते हैं कि "प्रदेश के मुख्यमंत्री हरीश रावत उनकी रिश्तेदारी में आते हैं, वह पिता की किताबें यदि स्कूलों में लगा देते तो शायद रायल्टी से परिवार को गुजारा चल जाता।" प्रख्यात साहित्यकार शैलेश मटियानी ने जीवन यात्रा के अंतिम पड़ाव में 'जुआरी का बेटा व बुचड़ के भतीजे की आत्मकथा' को लिखने का साहस जुटाया था, लेकिन उनके जीवित रहते उनकी यह हसरत पूरी नहीं हो सकी। आज स्थिति यह है कि उनका बड़ा बेटा राकेश मटियानी 'फेरीवाला बुकसेलर बन चुका है। ऐसे में यदि शैलेश मटियानी जिंदा होते तो वह अपने बेटे के इस किरदार को अपनी कहानी का हिस्सा बनाने की हिम्मत शायद ही जुटा पाते? -<br />
<br />
खंडित हुआ<br />
<br />
ख़ुद ही सपन,<br />
<br />
तो नयन आधार क्या दें<br />
<br />
नक्षत्र टूटा स्वयं,<br />
<br />
तो फिर गगन आधार क्या दे<br />
<br />
मेक्सिम गोर्की और मटियानी के जीवन में तमाम समानताओं के वावजूद एक मात्र अंतर यह रहा कि गोर्की को एक बार में जहर देकर मार दिया गया।और हमारे भारत का अभागा गोर्की मटियानी जब तक जिया हर पल हर रोज़ जहर पी पीकर जिया और यूँ ही घुटते घुटते एक दिन चला भी गया। उस असीम अनन्त आकाश की ओर जिसे वह जीते जी छूना चाहता था।<br />
<br />
सन्दर्भ-<br />
<br />
पंत, कैलाशचन्द्र, शैलेश मटियानी की वैचारिक आधार भूमि (लेख) , सर्जन यात्रा: तीन शैलेश मटियानी, कैलाशचन्द्र पंत (संपा।), मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हिन्दी भवन, भोपाल, प्रथम संस्करण: 2002, पृ। सं।: 15<br />
<br />
मटियानी, शैलेश, मैं और मेरी रचना-प्रक्रिया (लेख) , सर्जन यात्रा: तीन शैलेश मटियानी, कैलाशचन्द्र पंत (संपा।), मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हिन्दी भवन, भोपाल, प्रथम संस्करण: 2002, पृ। सं।: 98-99<br />
<br />
मेहता, श्री नरेश, यात्रा एक तापस की (लेख), अक्षरा, अंक: 56, विजय कुमार देव (संपा।) , नवंबर-दिसंबर: 2001,- 0 -</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A4%95_%E0%A4%B8%E0%A5%87_%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A4%A6_%E0%A4%A4%E0%A4%95_%E0%A4%97%E0%A5%82%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%A4%E0%A5%80_%E0%A4%86%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%9C-%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%82%E0%A4%A4_/_%E0%A4%B8%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BE_%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%95&diff=31815सड़क से संसद तक गूंजती आवाज-दुष्यंत / सपना मांगलिक2016-09-24T19:44:40Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सपना मांगलिक |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
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"एक खंडहर के हृदय-सी एक जंगली फूल सी,<br />
<br />
आदमी की पीर गूगी ही सही गाती तो है।"<br />
<br />
वास्तव में वह कवि, कवि नहीं वह शायर, शायर नहीं और वह लेखक, लेखक ही नहीं है जो कि अपने देश और समाज तथा उसमें निवास करने वाले अपने बंधुओं की पीड़ा को न समझ सके तथा उस पीड़ा को व्यक्त करने और शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने में अपनी लेखनी को हथियार न बनाए। कहते हैं कि "जहाँ न पहुंचे रवि वहाँ पहुंचे कवि", एक कवि ही मूक सवेद्नाओं को मुखर कर सकता। दिनकर ने भी तो कहा है कि "दो में से तुम्हें क्या चाहिए कलम या कि तलवार।" असली साहित्यकार वही है जो अपने समय की नब्ज़ हाथ में पकड़ कर उसकी पहचान रख सकता है। निर्मल वर्मा कहते थे कि "जैसे कटीली झाडियों में कोई कबूतर फंसा है और उसे बाहर निकाल कर लोगों को दिखाने में हाथ लहू - लुहान हो जाता है, वैसे ही सच्चाई को कागज़ पर उतारने में व्यक्ति को पूर्णतः छिल जाना पड़ता है।" दुष्यंत कुमार की कई ग़ज़लें इंदिरा गाँधी की निर्मम व्यवस्था पर करारा प्रहार करती थी।उस वक्त जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया था। तब सामाजिक सरोकार से जुडी हर चीज़ पर प्रतिबन्ध लगाए जा रहे थे चाहे वह कोई फिल्म हो साहित्य हो या पत्रकारिता। हर एक को संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा था। आम जनता घुट रही थी, परेशान हो रही थी और उसकी चीत्कार निर्मम सरकार के प्रतिबंधों और तानाशाही की वजह से कंठ में दबी थी, आम आदमी के कंठ में दबी उसी चीत्कार को दुष्यंत ने मुखर किया। उन्होनें ऐसी गज़लें लिखीं जिन्होंने सड़क से लेकर संसद तक विरोध की आवाज उठा दी। आम जनता का खोया हुआ आत्मविश्वास लौटाया और सामाजिक चेतना की अलख जगा दी। ऐसा नहीं है कि उससे पहले राष्ट्रीय काव्य लिखा ही नहीं गया। दिनकर जैसे राष्ट्र कवि रहे जिन्होंने कई देशभक्ति से ओत-प्रोत शायरी लिखीं, आजादी के संघर्ष के समय रामप्रसाद बिस्मिल जैसे शायर रहे जो 'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है' जैसी अमर ग़ज़लें लिख गए। सुभद्रा कुमारी चौहान ने "बुंदेले हरबोलों के मुंह से शोर्य गाथा सुनवाई तो माखन लाल चतुर्वेदी ने "पुष्प की अभिलाषा" के माध्यम से मातृभूमि और उसके वीरों के महत्त्व को वर्णित किया। पर दुष्यंत ने इस मुल्क की व्यवस्था के सामने आदमी की बेबसी और लाचारी को इतना सशक्त और चुभने वाला स्वर दिया कि लोगों के सीधे दिल में उतर गया। इसकी एक बानगी देखिये-<br />
<br />
"कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए<br />
<br />
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए."<br />
<br />
इस शेर में दुष्यंत ने तत्कालीन सरकार के करनी और कथनी के अंतर पर करारा व्यंग्य किया है। कविता के माध्यम से भ्रष्टाचार को करारा तमाचा जड़ना शायद इसी को कहते हैं। और ऐसे तमाचे तत्कालीन व्यवस्था पर दुष्यंत ने एक बार नहीं बार -बार मारे हर बार मारे। क्योंकि धरती पर जलजला लाने के लिए किसी प्राकृतिक आपदा की ज़रूरत नहीं होती बस एक कवि या शायर का रोता हुआ दिल ही यह काम बखूबी कर देता है। विकास, समानता और उन्नति के झूठे वादे और वोट बेंक की स्वार्थी नीतियों पर क्षोभ प्रकट करते हुए, इस शेर में दुष्यंत लोगों का आगाह करते हैं कि -<br />
<br />
"ये रोशनी है हकीकत में एक छ्ल लोगो<br />
<br />
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगो।"<br />
<br />
दुष्यंत कुमार का जन्म बिजनौर जनपद (उत्तर प्रदेश) के ग्राम राजपुर नवादा में 1 सितम्बर, 1933 को हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत कुछ दिन आकाशवाणी भोपाल में असिस्टेंट प्रोड्यूसर रहे। इलाहाबाद में कमलेश्वर, मार्कण्डेय और दुष्यंत की दोस्ती बहुत लोकप्रिय थी। वास्तविक जीवन में दुष्यंत बहुत, सहज और मनमौजी व्यक्ति थे। कथाकार कमलेश्वर बाद में दुष्यंत के समधी भी हुए. दुष्यंत का पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था। प्रारम्भ में दुष्यंत कुमार परदेशी के नाम से लेखन करते थे। जब उनका शायर चिन्तन की गहराई में उतर जाता तो उन्हें यह चिन्ता हो उठती है कि-<br />
<br />
"तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है<br />
<br />
तमाम उम्र नशे में निकल न जाय कहीं।"<br />
<br />
आजादी के बाद हमारे आंतरिक मूल्यों में इतनी गिरावट आयी है कि हम अपने ही भाई बंधुओं को धोखा देने से बाज नहीं आते, वशुधैव कुटुम्बकम की भावना का तो प्रश्न ही नहीं उठता। आज हर रिश्ते में हर आदमी में हम प्रेम नहीं मतलब खोजते हैं जिससे मतलब सिद्ध हो वही मित्र अन्यथा हम उसे पहचानते भी नहीं। गजलकार ने हमारी इस मनोदशा को कुछ यूँ व्यक्त किया है -<br />
<br />
दुकानदार तो मेले में लुट गये यारो<br />
<br />
तमाशबीन दुकानें लगाके बैठ गये।<br />
<br />
भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के माध्यम से सरकारी कार्यालयों में लालफीताशाही और अफसरों की मनमानी के चरम पर पहुँचने से दुष्यंत को कोफ़्त होती थी वह मेहनत का खाने के पक्षधर थे हराम का खाने वालों से या लूटमार करने वालों से उन्हें सख्त नफरत थी।तभी तो वह कहते हैं कि-<br />
<br />
"यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ<br />
<br />
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।"<br />
<br />
आजादी से पूर्व लोगों का स्वप्न, राम राज्य की स्थापना और देश को पुन: सोने की चिड़िया बनाना था। मगर साम्प्रदायिक दंगे जातिगत वर्गीकरण और आरक्षण नेताओं का स्वार्थ की खातिर भोली भाली जनता को बरगलाना उन्हें ग़लत रास्ते पर ले जाने वाले भड़काऊ भाषण एवं प्रचार दुष्यंत को कभी रास नहीं आये। टूटते स्वप्नों के इस मायूसी भरे माहौल पर उन्होंने कहा -<br />
<br />
"कहीं पर धूप की चादर बिछा के बैठ गए<br />
<br />
कहीं पर शाम सिरहाने लगा के बैठ गए<br />
<br />
खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को,<br />
<br />
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए"<br />
<br />
अपने ही वतन की आवोहवा में उन्हें परायेपन की बू आने लगी थी तभी तो इस शायर का भावुक ह्रदय बोल पडा -<br />
<br />
यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है<br />
<br />
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए.<br />
<br />
सत्ता का कहर और आम जन की खामोशी परे दुष्यंत को बड़ी हैरानी होती है कि क्या यही वह देश है जहाँ भगत, राजगुरु, सुखवीर जैसे क्रांतिकारी हुए थे? क्या यह वही देश है जहाँ सरदार बल्लभ भाई जैसे लोह पुरुष और रानी लक्ष्मी बाई और झलकारी वाई जैसी वीरांगनाओं ने जन्म लिया था? क्या यह वीर सुभाष का वही देश है जहाँ यह नारा लगाया जाता था कि "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा" और सुभाष के इतना कहते ही माएं अपने इकलौते पुत्रों को मातृभूमि पर शीश चढाने हँसते हँसते विदा करती थीं।नहीं यह वह देश नहीं नहीं यह वह वीर देशवासी भी नहीं लगते? आखिर क्या हुआ है इन्हें? क्यों पहन ली हैं वीर हाथों ने चूड़ियाँ? मन में उमड़ते घुमड़ते यह प्रश्न और जनता की खामोशी दुष्यंत को विचलित कर रही थी तभी तो वह पूछ उठे -<br />
<br />
"यहाँ तो सिर्फ़ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं<br />
<br />
खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा"<br />
<br />
जहां आम आदमी की बोटियों को खाकर कुछ भूखे स्वान अपनी स्वार्थ पूर्ति में लिप्त थे वहीँ गरीव एक एक निवाले को तरस रहा था।आम जन की यह करूण व्यथा, यह दारुण दुःख दुष्यंत के सिवा कौन बयान कर सकता है? इन दो शेरों में कातिल और बिस्मिल दोनों को ही इंगित किया गया है-<br />
<br />
"अब नयी तहजीब के पेशे-नज़र हम<br />
<br />
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं।"<br />
<br />
और<br />
<br />
"हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत<br />
<br />
तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठाकर फेंक दीं।"<br />
<br />
इन्हीं सारी तकलीफों ने दुष्यंत की गजल में एक क्रांति का स्वर भर दिया।और वह जानते थे उनके दिल से निकली आवाज में वह ताकत है जो गरम लावे की तरह से सरजमीं के लोगों के दिलों में धधक रही वेदना को ज्वालामुखी में परिवर्तित कर सकती है, जो चट्टानों को चूर चूर कर रेत बना सकती है।उनके इसी यकीन पर उनका ही यह शेर देखिये -<br />
<br />
"वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता<br />
<br />
मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए।"<br />
<br />
वह देश के डरे-सहमे लोगों से अपील करते हैं कि डर के साए से बाहर आकर साहस के सूरज को सलाम करो क्योंकि अगर तुम नहीं बदलोगे तो तुम्हारा वक्त कैसे बदलेगा? और कौन बदलेगा? क्योंकि अपने मरे बिना स्वर्ग न आज तक किसी को प्राप्त हुआ है और न ही होगा।इसलिए मेरे देशवासियों आओ और हो जाओ एकजुट समाज में एक नयी चेतना लाने के लिए, अपना हक़ पाने के लिए, देश की बदहाल तस्वीर बदलने के लिये, आओ और बन जाओ उँगलियों से मुठ्ठी और तोड़ दो स्वार्थी सत्ता का तिलिस्म -<br />
<br />
"पुराने पड़ गये डर फेंक दो तुम भी<br />
<br />
ये कचरा आज बाहर फेंक दो तुम भी।"<br />
<br />
वह अपनी शायरी को जन जन की आवाज बना क्रान्ति चाहते थे, और इसके लिए वह लोगों में दायित्व की भावना देखना चाहते थे जो उस वक्त ढूंढें नहीं मिल रही थी।व्यथित हो दुष्यंत को कहना पडा-<br />
<br />
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो<br />
<br />
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।<br />
<br />
और देश के प्रति अपने समाज के प्रति इसी भावना को जाग्रत करने के लिए उन्होंने फिर वह शेर कहा जो इतिहास बन गया।यह शेर दुष्यंत का प्रतिनिधित्व करता है, इसी शेर ने दुष्यंत को हिन्दी का मीर बना दिया।जो आज भी सड़क से लेकर संसद तक आम जनता की आवाज बनकर गूंजता है-<br />
<br />
"सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं<br />
<br />
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।<br />
<br />
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,<br />
<br />
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।"<br />
<br />
आम आदमी गरीवी, बेरोजगारी और भुखमरी से जूझ रहा था, सरकार आस तो बंधा रही थी मगर प्यासे की प्यास नहीं बुझा रही थी जनता का आक्रोश बढ़ता जा रहा था कहीं से भी कोई राहत या उम्मीद की किरण दूर दूर तक द्रष्टिगोचर नहीं थी। ऐसे हालात का दुष्यंत ने अपनी शायरी में यूँ जिक्र किया-<br />
<br />
"ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा<br />
<br />
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा।<br />
<br />
कई फ़ाके बिता कर मर गया जो उसके बारे में<br />
<br />
वो सब कहते हैं कि ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा"<br />
<br />
सता अपनी ताकत से अपने कार्यों को बढ़ा चढ़ा कर पेश कर रही थी, सरकारी नुमाइंदे सरकार का और उसकी योजनाओं का ढोल पीट रहे थे, वह ढोल जो कब का फट चुका था, और फटे ढोल की बेसुरी आवाज लोगों के कानों में जबरन गर्म शीशे की तरह डाली जा रही थी, सरकार और उसके गुलामों के लिए दुष्यंत ने क्या खूब कहा है कि -<br />
<br />
"दोस्त अपने मुल्क की किस्मत पर रंजीदा न हो<br />
<br />
उनके हाथों में है पिंजरा उन के पिंजरे में सुआ"<br />
<br />
जनता को जिस तरह दिवास्वप्न दिखाए जा रहे थे वीस सूत्रीय कार्यक्रमों का जिस प्रकार रेडिओ और दूरदर्शन पर धुआंधार प्रचार किया जा रहा था उस पर दुष्यंत ने अन्दर ही अन्दर भुनभुनाते हुए जो व्यंग्य किया -<br />
<br />
जिस तरह चाहो बजाओ तुम हमें<br />
<br />
हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं।<br />
<br />
निदा फ़ाज़ली उनके बारे में कहते हैं- "दुष्यंत की नज़र उनके युग की नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है। यह ग़ुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मो के ख़िलाफ़ नए तेवरों की आवाज़ थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है।" दुष्यंत कुमार केवल व्यवस्था के विरुद्ध ही एक बगावत का स्वर ले कर नहीं उभरे, वरन उन्होंने तो तकनीकी तौर पर हिन्दी ग़ज़ल को मान्यता तक न देने या उसे हीन कह डालने की धृष्टता करने वालों को दो टूक जवाब दिए. ग़ज़ल बेहद अनुशासित विधा है। माना उसमें मतला, काफिया, रदीफ़, बह्र (छंद) व रुक्न को लेकर कई शायरों की खूब मारामारी चलती रहती है। पर जब दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों में 'शहर' नहीं 'शह्र' लिखना चाहिए आदि जैसी बातें कह कर उन्हें टोका गया, तो उन्होंने स्पष्ट जवाब दिया कि आप हमारे 'ब्रह्मण' शब्द को 'बिरहमन' बना सकते हैं, 'ऋतु' को रुत, तो हम 'शह्र' को 'शहर' क्यों नहीं लिख सकते। अपने सर्वाधिक व सर्वप्रसिद्ध दीवान 'साए में धूप' की भूमिका रूप लेख 'मैं स्वीकार करता हूँ।' में वे कहते हैं कि 'इन शब्दों का प्रयोग यहाँ अज्ञानता वश नहीं जानबूझ कर किया गया है। यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि 'शहर' की जगह 'नगर' लिख कर इस दोष से मुक्ति पा लूँ, किंतु मैं ने उर्दू शब्दों का उस रूप में इस्तैमाल किया है जिस रूप में वे हिन्दी में घुलमिल गए हैं'। इस का अर्थ कि दुष्यंत कुमार ने, बोलचाल की भाषा को ही उचित मानदंड बनाया। दुष्यंत जैसे मनमौजी थे वैसी ही उनकी ग़ज़ल भी थीं। ग़ज़ल में चाहे जो हो रदीफ़ नहीं बदलता और दुष्यंत की इस ग़ज़ल को ज़रा देखें -<br />
<br />
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ,<br />
<br />
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ<br />
<br />
गिड़गिडाने का यहाँ कोई असर होता नहीं<br />
<br />
पेट भर कर गालियाँ दो आह भर कर बद-दुआ<br />
<br />
इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो<br />
<br />
जब तलक खिलते नहीं हैं कोयले देंगे धुआँ<br />
<br />
इस ग़ज़ल में बार बार रदीफ़ बदलता है। पर ऐसा बहुत ज़्यादा ग़ज़लों में नहीं है।<br />
<br />
जो लोग खुद को सभ्रांत, जिम्मेदार और दयावान दिखाते हैं मगर देश के हालात और मुश्किलात से ताल्लुक नहीं रखते उनसे दुष्यंत को खासी चिढ थी।तभी तो ऐसे लोगों के लिए उन्होंने कहा है -<br />
<br />
"लहू लुहान नजारों के ज़िक्र आया तो,<br />
<br />
शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए।"<br />
<br />
वतन परस्ती दुष्यंत की नस- नस में भरी थी, अपने वतन की तुलना गुलमोहर के पेड़ से करते हुए वह अपना देशभक्ति का जज्बा कुछ यूँ बयां करते हैं -<br />
<br />
"जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,<br />
<br />
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।"<br />
<br />
ऐसा नहीं है कि दुष्यंत के सीने में हमेशा आक्रोश का लावा ही प्रस्फुटित होता था। युवा दुष्यंत के सीने में जो दिल था वह रूमानियत भी जानता था और किसी के लिए धड़कता भी था। उनका लिखा यह शेर देखिये -<br />
<br />
"एक जंगल है तेरी आँखों में जहाँ मैं राह भूल जाता हूँ"<br />
<br />
दुष्यंत ने बयालीस वर्ष के अल्प जीवन में 'एक कंठ विषपायी', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाज़ों के घेरे', 'जलते हुए वन का बसंत', 'छोटे-छोटे सवाल' और दूसरी गद्य तथा कविता की कई किताबों का सर्जन किया। दुष्यंत कुमार ने साहित्य की दुनिया में अपने कदम रखे, उस समय भोपाल के दो प्रगतिशील शायरों ताज भोपाली तथा क़ैफ़ भोपाली का ग़ज़लों की दुनिया पर राज था।ऐसे ऐसे सूरमाओं के बीच अपनी सहज सरल आम बोलचाल बाली शायरी और कविताओं से दुष्यंत ने जतला दिया कि लोगों के दिल में शिल्प नहीं भावनाएं उतरती हैं और अपने दिल की आवाज को दूसरे के दिल में उतारने का हुनर वह बखूबी जानते थे।आज दुष्यंत हमारे बीच नहीं हैं मगर दुष्यन्त की शायरी जनता के जुबान पर चढ़ी हुई हैं। इसलिए मीडिया के लोग भी विशेष मौकों पर अपनी बात जन तक पहुँचाने के लिए, उनके दिलों में उतार देने के लिए दुष्यन्त की शायरी का इस्तेमाल करते हैं। दुष्यन्त की ग़ज़लें कठिन समय को समझने के लिए विवेक और उनसे जूझने के लिए साहस प्रदान करती हैं। उनकी लोकप्रियता का अनुमान केवल इतनी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले चुनाव में दिल्ली के मुख्यमंत्री साहब और उनकी पार्टी दुष्यंत की यही पंक्तियाँ -<br />
<br />
"मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही<br />
<br />
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए."<br />
<br />
अलाप कर वोट मांगती फिर रही थीं, खैर उन्होंने देश की सूरत कितनी बदली इस का जिक्र यहाँ मुनासिब नहीं। मगर सड़क से संसद तक चाहे इंदिरा गांधी का दौर हो या राहुल गांधी का, बड़ी बेख़ौफ़ होकर एक ही आवाज गूंजती आई है और वह आवाज है युवा शायर दुष्यंत की जो अपनी अल्प आयु में ही जीती जागती किवदंती बन गए थे। दुष्यन्त की शायरी ज़िन्दगी की कटु सच्चाई है जिसे स्वीकारना ही होगा और क्यूँ न स्वीकारें दुष्यंत ने जो देखा वह लिखा जो महसूस किया वह लिखा कलम से नहीं दर्द भरे सीने के कागज़ पर आंसुओं की स्याही से लिखा। इसीलिए तो ज़िन्दगी के हर सुख- दुःख में उनकी शायरी होठों पर आ जाती है। उनकी शायरी अक्षरों का समूह नहीं व्यक्तियों का समूह है उनके कष्टों का उनकी भुक्ति का बही खाता है जिसमे उस दौर के समाज और सरकार के सारे लेखे - जोखे दर्ज हैं। उस दौर में ही नहीं उनकी शायरी हर दौर के व्यक्ति को अपनी आवाज लगने लगती है आम आदमी को वे अपनी आवाज़ लगने लगती हैं। समय को समझने और उससे लड़ने की ताकत देती ये शायरी हमारे समाज में हर संघर्ष में सर्वाधिक इस्तेमाल होने वाली शायरी हैं। हम गर्व से कह सकते हैं कि हमारी मातृभाषा हिन्दी ने मीर, नजीर और ग़ालिब जैसे शायर भले ही न पैदा किये हों मगर दुष्यन्त कुमार जैसे शेर को पैदा किया है। और यही एकमात्र दुष्यंत, उर्दू शायरी की आँखों में आँखें डालकर कह सकता है कि -<br />
<br />
"चलो अब यादगारों की अंधेरी पोटली खोलें<br />
<br />
कम-स-कम एक वह चेहरा तो पहचाना हुआ होगा"</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BE_%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%95&diff=31814सपना मांगलिक2016-09-24T19:25:35Z<p>Preksha Jain: </p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Sapna-manglik-gadyakosh.jpg<br />
|नाम=सपना मांगलिक<br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=17 फ़रवरी 1981<br />
|जन्मस्थान=भरतपुर <br />
|कृतियाँ=पापा कब आओगे, नौकी बहू (कहानी संग्रह); सफलता रास्तों से मंजिल तक, ढाई आखर प्रेम का (प्रेरक गद्ध संग्रह); कमसिन बाला ,कल क्या होगा, बगावत (काव्य संग्रह); जज्बा-ए-दिल भाग प्रथम, द्वितीय ,तृतीय (ग़ज़ल संग्रह); टिमटिम तारे, गुनगुनाते अक्षर, होटल जंगल ट्रीट (बाल साहित्य); बोन्साई (हाइकु संग्रह)<br />
|विविध=<br />
|जीवनी=[[सपना मांगलिक / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Sapna Manglik<br />
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===कहानियाँ===<br />
*[[फटी जीन्स / सपना मांगलिक]]<br />
*[[किटकेट / सपना मांगलिक]]<br />
<br />
===लघुकथाएँ===<br />
*[[तमाचा / सपना मांगलिक]] <br />
*[[माँ और गृहस्थी / सपना मांगलिक]]<br />
*[[प्रेम / सपना मांगलिक]]<br />
*[[मनोरंजन / सपना मांगलिक]]<br />
*[[होली / सपना मांगलिक]]<br />
*[[सुविधा का सिद्धांत / सपना मांगलिक]]<br />
*[[पहनावा / सपना मांगलिक]]<br />
*[[घुमक्कड़ / सपना मांगलिक]]<br />
*[[चुनावी दंगे / सपना मांगलिक]]<br />
*[[महिला एकता समिति / सपना मांगलिक]]<br />
*[[अपना घर / सपना मांगलिक]]<br />
*[[हिन्दी के पक्षधर / सपना मांगलिक]]<br />
*[[कैसे कैसे चोर / सपना मांगलिक]]<br />
*[[रंगे हाथ / सपना मांगलिक]]<br />
*[[रिटायरमेंट / सपना मांगलिक]]<br />
*[[कुत्ता कौन? / सपना मांगलिक]]<br />
*[[कैनवास / सपना मांगलिक]]<br />
*[[एक दूजे के लिए / सपना मांगलिक]]<br />
*[[गुरु / सपना मांगलिक]]<br />
*[[टल्ली / सपना मांगलिक]]<br />
*[[दाना-पानी / सपना मांगलिक]]<br />
*[[देखभाल / सपना मांगलिक]]<br />
*[[धर्म / सपना मांगलिक]]<br />
*[[पुराना हारमोनियम / सपना मांगलिक]]<br />
*[[बेटा कौन? / सपना मांगलिक]]<br />
*[[मुफ़्त शिक्षा / सपना मांगलिक]]<br />
*[[समाज सुधारक / सपना मांगलिक]]<br />
*[[हादसा / सपना मांगलिक]]<br />
<br />
===आलेख===<br />
*[[रिश्ता-ए-सुखन (मीर और ग़ालिब) / सपना मांगलिक]]<br />
*[[लिहाफ हटाती कहानियाँ-इस्मत चुगताई / सपना मांगलिक]]<br />
*[[शिक्षा में बढ़ती व्यवसायिकता उसके परिणाम और सुझाव / सपना मांगलिक]]<br />
*[[हिन्दी प्रचार-प्रसार में पत्र-पत्रिकाओं की महती भूमिका / सपना मांगलिक]]<br />
*[[सड़क से संसद तक गूंजती आवाज-दुष्यंत / सपना मांगलिक]]<br />
*[[वो भूख पढ़ती थी, वो भूख लिखती थी-महाश्वेता देवी / सपना मांगलिक]]<br />
*[[भारत का अभागा गोर्की-शैलेश मटियानी / सपना मांगलिक]]</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%A8%E0%A4%BE_%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%AC%E0%A5%87_%E0%A4%A8%E0%A5%87_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%80_%E0%A4%B2%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%80_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=31813किसना दुबे ने कुश्ती लड़ी / सुभाष चन्दर2016-09-24T19:01:45Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुभाष चन्दर |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatVya...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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बात लगभग चालीस बरस पुरानी है। यानी उस जाने की, जब इश्क आज की तरह सर्वसुलभ किस्म का नहीं था। मोबाइल आए नहीं थे, ई-मेल, फेसबुक, ट्विटर वगैरह का नामोनिशान नहीं था, टेलीफोन बड़े लोगों की चीज था और अकसर बड़े शहरो में ही पाया जाता था। ऐसे में आशिकी करना, वह भी गांव-कस्बे के माहौल में, सच्ची बड़ी मुश्किल और बहादुरी का काम था।<br />
<br />
इसमें शक की कतई गुंजाइश नहीं थी कि कृष्ण कुमार द्विवेदी उर्फ किसना दुबे काफी बहादुर किस्म के आशिक थे। वह घोर प्रेम विरोधी माहौल में भी इश्क की पतंग उड़ाने में जुटे थे, पर अफसोस कि ज़्यादा सफल नहीं हो पाए थे। जबकि उनका जुगराफिया काफी शानदार था। पांच फुट चार इंच का कद, पैंतालीस किलो वजन, उट्ठाइस-तीस इंची चैड़ी छाती और आंखों पर मोटा चश्मा। पर्सनैलिटी सच्ची में आशिकी के लायक थी, पर कुछ जम नहीं रहा था। उन्होंने आठवीं जमात के बाद से कुल दस-बारह जगह इश्क का जुगाड़ बैठाने की कोशिश की थी, पर कुछ चप्पलों और गालियों के प्रसाद के अलावा वह कुछ ज़्यादा प्राप्त नहीं कर पाए थे। हां... एक कन्या ने ज़रूर उनकी अधमिची अंखियों का निवेदन स्वीकार किया थ, अकेले में मिलने का वादा भी किया था। वह हफ्तेभर बाद अकेले में मिली भी थी, पर उसकी आंखों में आंसू और हाथों में अपनी शादी का कार्ड था। इंटरमीडिएट किसना दुबे की हालत कुछ ऐसी ही रही थी। बी.ए. में आते ही उन्होंने प्रण कर लिया था कि इस बार वह इश्क की गोटी बिठाकर रहेंगे। सो, उन्होंने कॉलेज और कॉलेज के बाहर इश्क की संभावनाओं पर गंभीरता से मनन किया। क्लास की लड़कियों में उन्हें कुछ रोशनी को किरणें नजर आईं। काफी दिन तक शोध करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे कि कुमारी चमेली देवी सुपुत्री राम बाबू मिश्रा उनके लिए अधिक उपयुक्त रहेंगी। इसके पीछे कुमारी चमेली देवी के लड़की होने के अलावा एक कारण ये भी था कि उनके पिता रामबाबू पी.डब्ल्यू.डी. में इंजीनियर थे। दहेज का मामला सही से सुलझ सकता था। दूसरे कुमारी चमेली देवी उनकी तरह इश्कियां फिल्मों की शौकीन थीं। तीसरे ये कि वह बात-बेबात मुस्कराती रहती थीं जो कि इस बात का प्रमाण था कि ये चिड़िया दाना चुगने को तैयार बैठी है... बशर्ते कि कोई दाना तमीज से डाले। किसना दुबे तो कमीज तक तमीज से पहनते थे, उनमें भला इसकी क्या कमी थी। सो, उन्होंने क्लास रूम में कन्या को कनखियों से निहारना शुरू किया। बदले में चमेली ने देखा-देखी का मामला आगे बढ़ाया। बात आगे बढ़ते-बढ़ते चिट्ठी-पत्री तक पहुंची। किसना ने कई घंटे के मनन के बाद एक चिट्ठी लिख मारी, जिसमें अस्सी परसेंट हिस्सा फिल्मी गानों और डायलोगों का था। काम की बात ये थी कि वह उससे अकेले में मिलना चाहते हैं, वह भी रामू के भैंसों के तबेले में। प्रेम प्रार्थना स्वीकार हो गई। क्लास बंक करके किसना रामू के तबेले की तरफ प्रस्थान कर गए।<br />
<br />
दिन धड़धड़ बज रहा था, पांवों में लड़खड़ाहट थी, गला रुंधा जा रहा था। इसके बाद भी दिल 'हम होंगे कामयाब एक दिन' की धुन बजा रहा था। किसना ने सोच लिया था कि चाहे जो हो, वह आज ही अपनी मुहब्बत का इजहार कर देंगे, हो सके तो शादी का मामला भी आज ही फाइनल कर लेंगे। आपको शायद अजीब लगेगा, पर उन दिनों इश्क के बाद शाही करने का ही रियाज था, जो लोग शादी नहीं कर पाते थे। वे दाढ़ी बढ़ाकर घूमते थे। दारू-गांजा आदि मुक्तिदायक पदार्थों की शपथ में जाते थे और गाहे-बगाहे कुंदनलाल सहगल के गीत गाते पाए जाते थे।<br />
<br />
खैर... किसना दुबे तबेले में पहुंचे। कुमारी चमेली वहाँ पहले से ही विराजमान थी। अब वहाँ किसना थे, चमेली थीं और कुछ अदद भैंसे थीं। किसना ने इधर-उधर देखा, फिर चमेली के सामने जाकर खड़े हो गए। संवाद शुरू हो गए-<br />
<br />
''क्यों जी, तुमने मुझे यहाँ क्यों बुलाया... कोई देखेा तो लोग बात बनाएंगे।''<br />
<br />
''वो... वो... क्या है... चमेली... मैं... मैं।''<br />
<br />
''ये क्या बकरी की तरह में-में कर रहे हो... चिट्ठी में तो खूब चटर-पटर बोलते हो... यहाँ क्या मुंह में घी भरके आए हो... कुछ बोलो न, वरना मैं चली जाऊंगी।''<br />
<br />
''अरे... ना... ना... जाना मत... वह बात ऐसी है कि मैं... मैं... तुमसे प्यार करता हूँए क्या तुम भी मुझसे।''<br />
<br />
''हाय दैया रे... ये क्या कह दिया... कोई सुनेगा तो क्या कहेगा... ना ये प्यार-प्यार फिल्मों में ही अच्छा लगता है, हमारे बाबूजी सुनेंगे तो मार डालेंगे... ना बाबा ना... मैं तो चली।''<br />
<br />
''अरे, बैठो तो... सुनो... मुझे तुम बहुत अच्छी लगती हो... मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ।''<br />
<br />
''क्या-क्या कहा... शादी और तुमसे... सुनो जी... शादी तो मैं किसी खिलाड़ी से करूंगी... मेरे बाबू जी की इच्छा तो मेरी शादी किसी पहलवान से करने की है... बोलो बनोगे पहलवान... बोलोकृफूंक क्यों सरक गई.''<br />
<br />
''हां... हां... बनूंगा। मजनूं लैला के लिए पागल बन गया था... क्या मैं तुम्हारे लिए पहलवान नहीं बन सकता।''<br />
<br />
''तो फिर ठीक है, तय रहा... तुम इस बार कॉलेज की कुश्ती चैंपियनशिप में हिस्सा लोगे... मेडल लाओगे... बोलो।''<br />
<br />
''ऐं... कॉलेज की कुश्ती... मतलब तेजप्रताप सिंह से कुश्ती... बाप रे... वह काला सांड तो मुझे मार डालेगा... ना बाबा... नाऽऽ।''<br />
<br />
''बस निकल गई आशिकी, फिर ठीक है, मैं पिताजी से कह दूंगी कि मेरी शादी तेजप्रताप से ही कर दें। पढ़ा-लिखा है, कुश्ती चैंपियन है।''<br />
<br />
''बस...बस... मैं कुश्ती प्रतियोगिता में भाग लूंगा... बस... तुम अपना बादा याद रखना... अगर मैंने मेडल जीता तो तुम मुझसे शादी करोगी...वादा पक्का? ''<br />
<br />
''हुम्म... पक्का, पर पहले मैडल जीतो तो... अच्छा अब चलती हूँ... राम-राम।''<br />
<br />
चमेली देवी तो प्रस्थान कर गई, पर किसना दुबे बहुत देर तक तबेले में बैठकर सोच की चिड़िया उड़ाते रहे। फिर वह हलवाई की दुकान पर पधारे, चाय और समोसे पेट में पहुंचने के बाद उनके दिमाग की खिड़की खुल गई.<br />
<br />
इसके बाद उन्होंने पहला काम यह किया कि वह खेल टीचर के कमरे में गए और कुश्ती कंपीटीशन के लिए अपना नाम लिखा दिया। टीचर ने पहले उनके सींकिया बदन को देखा, उनके चश्मे से झांकती आंखों पर नजरें गढ़ाईं और बोले, ''बालक... फिर सोच लो, कहाँ तेजप्रताप और कहाँ तुम। हाथी और चींटी वाली बात है।''<br />
<br />
इस पर किसना ने अपने अट्ठाइस इंची सीने को फुलाकर कहा, ''गुरुजी, चींटी अगर हाथी की सूंड में घुस जाए तो उसकी नाक में दम कर सकती है। बस आप मेरा नाम लिख लीजिए... मैं तेजप्रताप के खिलाफ लडूंगा।''<br />
<br />
मास्टर जी ने नाम लिख लिया।<br />
<br />
पूरे कॉलेज में यह बात जंगल की आग की तरह फैल गई कि किसना दुबे कुश्ती चैंपियनशिप में भाग ले रहे हैं। उन्होंने तेजप्रताप सिंह पहलवान का चैलेंज स्वीकार कर लिया है। बात विश्वास करने की तो नहीं ही थी। तेजप्रताप से कुश्ती लड़ना कोई हंसी-खेल है, वह पिछले तीन बरस से कुश्ती चैंपियन थे। पहले दो बरस में उन्होंने चैदह पहलवानों को हराया था। इनमें पांच पहलवान अपने पैंरों की तो पांच पहलवान अपने हाथों की बाजी हार गए थे। चार पहलवानों को सिर्फ अपने जबड़ों से ही मुक्ति मिली थी। इसी कारण पिछले साल तेजप्रताप के खिलाफ कुश्ती में किसी भी लड़के ने अपना नाम नहीं दिया था, सो तेजप्रताप निर्विरोध चैंपियन बन गए थे। इसी ठसक में तेजप्रताप गनमनाए हुए छाती फुलाकर घूमते थे। खुलेआम सबको चैलेंज देते थे, पर उनका मुकाबला करने को कोई तैयार नहीं था। छह फुट से निकलता कद, आबनूसी रंग, पैंतालीस इंची चैड़ा सीना, ये बड़ी-बड़ी काली मूंछें और सबसे बढ़कर मोटी-मोटी लाल-लाल आंखें। उन्हें देखते ही लड़कों के पाजामे गीले हो जाते थे। फिर लड़ने का साहस कौन करता?<br />
<br />
सो, तेजप्रताप को उम्मीद थी कि उनके खिलाफ कोई नहीं लड़ेगा। वह इस बार भी चैंपियन बनने को तैयार बैठे थे, पर किसना नाम के लड़के ने सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। उनके जी में आया कि देखें तो ये किसना दुबे चीज़ क्या है? वह पूछते-पूछते उनकी क्लास में पहुंचे। पीरियड खाली था, किसना बाहर ही टहल रहे थे। तेजप्रताप को किसी ने बताया कि वह चारखाने की कमीज में किसना दुबे ही खड़े हैं।<br />
<br />
तेजप्रताप ने किसना दुबे का काफी नजदीक से अध्ययन किया। पतला-दुबला जिस्म, चश्में से झांकती मिचमिची आंखें, सरकंडे को मात देती टांगें। बदन ऐसा कि आंधी आ जाए तो किसी भारी चीज से बांधकर रखने की नौबत आ जाए। उन्होंने मन में सोचा कि अखाड़े में पंडित जी पांच सैकिंड तक उनके सामने ज़रूर खड़े रह सकते हैं। उसके आगे उनका भगवान् ही मालिक होगा। हे भगवान्... क्या ब्राह्मण की हत्या उनके हाथ से ही होगी। यह सोचकर उन्होंने दुबे जी को प्रणाम किया। अपना परिचय देकर हाथ जोड़कर बोले, ''पंडित जी, हमसे हाथ-पांव जुड़वा लो, पैर छुबा लो, क्यों हम पर ब्रह्म हत्या का पाप लगाते हो।''<br />
<br />
किसना दुबे यह सुनते ही बिगड़ गए. बोले, ''ठाकुर... हमें कमजोर मत समझो। पहलवानों की असली ताकत अखाड़े में पहचानी जाती है। जाओ और परसों की कुश्ती की तैयारी करो।''<br />
<br />
किसना दुबे के ये वचन सुनकर तेजप्रताप भरे मन से लौट गए. सोच लिया, अब तो ब्रह्म हत्या का पाप लगना ही है।<br />
<br />
इधर इस घटना की भनक किसना के यार-दोस्तों को लग गई. प्रमोद चौधरी किसना के पास आए. दो बीड़ियां सुलगाईं, एक किसना के हवाले की, दूसरी से धुआं उड़ाया और फिर उनके कान में फुसफुसाए, ''भैया, आत्महत्या करने के और भी कई तरीके हैं। तेजप्रताप बेचारे को क्यों फंसाते हो।''<br />
<br />
पर किसना को न मानना था, न माने। आखिर इश्क की आन-बान-शान का सवाल था। कुमारी चमेली देवी को दिए वचन की लाज रखनी थी, वह मान कैसे जाते।<br />
<br />
ऐसे ही कई मित्रो ने उन्हें समझाया, पर किसना इश्क के हाथों मजबूर थे। लोग तो इश्क में तख्तोताज लुटा देते हैं, उन्हें तो फकत एक कुश्ती लड़नी थी।<br />
<br />
खैर... धीरे-धीरे कुश्ती चैंपियनशिप का दिन आ गया। भीड़ जुटनी शुरू हो गई।<br />
<br />
कॉलेज के ग्राउंड में ठीक तीन बजे कुश्ती कंपटीशन होना था। अखाड़ा खुद चुका था। चूना-मिट्टी डाली जा चुकी थी। कॉलेज प्रबंधन ने सारे प्रबंध समझदारी से किए थे। एक एंबुलेंस मंगा ली थी। अखाड़े के बाहर भी एक स्ट्रेचर रख दिया था अहतियातन एक डॉक्टर का इंतजाम भी कर लिया था।<br />
<br />
कुश्ती प्रेमियों की भीड़ हजारों की तादाद में पहुंच चुकी थी। कुश्ती में बस पांच मिनट बचे थे। किसना के दोस्तों ने एक बार फिर आत्महत्या से बचने की सलाह दी। उनके न मानने पर नजर भरकर एक बार उनके साबुत शरीर को देख लिया। आंखों में आंसू और मुंह से आह उगलकर बोले, ''जा भाई, शहीदों में नाम लिखा ले। समझ लेंगे, हमारा और तेरा इतने ही दिनों का साथ था।''<br />
<br />
किसना ने खेल टीचर से विजयी होने का आशीर्वाद मांगा। खेल टीचर बुदबुदाए, ''स्वस्थ रहो, जीवित रहो।'' किसना के मूड का दीया बुझने को हुआ, इसलिए उन्होंने दर्शक दीर्घा पर नज़र दौड़ाई. कुमारी चमेली देवी उन्हीं को टुकुर-टुकुर देख रही थीं। उनकी नज़रों में प्यार था, प्यार के साथ सहानुभूति थी और सहानुभूति के साथ किसी के बलिदान पर न्यौछावर होने के लिए जो कुछ था, वह पूरी शिद्दत के साथ मौजूद था। किसना यह देखकर खुशी के मारे बगलोल हो गए और जोश में कूद पड़े अखाड़े में। दोस्त लोगों ने नारा लगया- चढ़ जा बेटा सूली पे, भली करेंगे राम।<br />
<br />
तेजप्रताप भी अखाड़े में तशरीफ ले आए। उन्होंने कपड़े उतारे। लंगोट कसा और जांघों पर हाथ मारकर दंड बैठक लगानी शुरू कर दी। पैंतालीच इंची चैड़ी छाती, ये मोटे-मोटे कसरती बाजू। मलखंभ जैंसी जंघाएं और उमेठी हुई मूछें। उन्हें देखकर लोगों ने शर्त लगानी शुरू कर दी कि किसना कितने सैकिंड तक उनके सामने रहेंगे। उनके सिर्फ हाथ-पांव टूटने से काम चल जाएगा या उनकी आत्मा का परमात्मा से मिलन होगा। कयास लग रहे थे, शर्तों का बाज़ार गर्म था।<br />
<br />
तेज प्रताप को देखकर किसना ने भी कपड़े उतारने की पहल की। कमीज उतारी, पाजामा उतारा। पाजामा के नीचे ढीला-ढाला पट्टीदार नेकर था। रेफरी ने कहा, ''इसे भी उतारो, लंगोट में लड़ो।'' पर लंगोट उन्होंने पहना कब था। अखाड़े की मर्यादा थी, सो किसी का गमछा लेकर उसे नेकर पर कसा गया। कुछ-कुछ लंगोट की शक्ल आ गई। रेफरी ने दोनों पहलवानों के हाथ मिलवाए.<br />
<br />
पहला राउंड शुरू हुआ।<br />
<br />
दर्शकों का उत्तेजना के मारे बुरा हाल था। उन्हें अब लगा, तब लगा कि गए किसना। अब टूटे, अब फूटे। तेजप्रताप की इच्छा भी यही थी, पर किसना उनके हाथ आएं तब न। वह आगे जाते, किसना पीछे। तेजप्रताप ने उन्हें धर-पकड़ने की लाख कोशिश की, पर वह किसना को छू भी नहीं पाए. हर बार वह किसना पर झपट्टा मारते, पर किसना दायें-बायें हो जाते। तेजप्रताप बेबसी से उन्हें देखते रह जाते। एक-दो बार किसना तो उनकी टांगों के बीच से भी निकल गए। इसी चक्कर में पहला राउंड खत्म हो गया।<br />
<br />
भीड़ के साथ किसना ने भी ठंडी सांस ली। किसना ने पसीना पोंछा। एक नजर कुमारी चमेली को देखा। लोटा भर पानी पिया, फिर खड़े हो गए।<br />
<br />
छूसरे राउंड की सीटी बजी। तेजप्रताप गुस्से में थे ही। पहली बार ऐसा हुआ कि कोई पहलवान उनसे एक राउंड तक बचा रह गया था। उन्होंने सोच लिया कि इस बार वे इस भुनगे को पीसकर रख देंगे। वह दांत कटकटाकर की तरफ झपटे ही थे कि तभी किसना ने हाथ उठा दिए। चिल्लाकर बोले, ''भाइयो, मैं अपनी हार स्वीकार करता हूँ। तेजप्रताप जीते, मैं हारा।''<br />
<br />
उनकी घोषणा सुनकर दर्शकगण भौंचक्के रह गए। भला ये क्या हुआ? ये कैसी कुश्ती! वे तो सोच रहे थे कि आज कुछ खूनी खेल देखने को मिलेगा। उन्हें किसना की मौत पर मातम करने का मौका मिलेगा, पर यहाँ तो कहानी ही अलग थी।<br />
<br />
तेजप्रताप तो घोषणा सुनकर बगलोल से खड़े रह गए। किसना के सारे यार-दोस्तों को भी सांप सूंघ गया था। पूरी भीड़ चकित थी।<br />
<br />
इधर रेफरी ने कुश्ती खत्म करने की घोषणा कर दी। तेजप्रताप विजेता बने और किसना दुबे उप विजेता। कुश्ती का स्वर्णपदक तेज प्रताप के हिस्से में आया तो किसना दुबे के हिस्से में चांदी का पदक। अब वह निर्विवाद रूप से कॉलेज के दूसरे नंबर के पहलवान थे। जब वह पदक लेने मंच पर गए, तो उनके लिए सबसे ज़्यादा तालियां बजी थीं। ताली बजाने वालों में कुमारी चमेली सबसे आगे थीं। आखिर उनका प्रेमी कॉलेज का नंबर दो पहलवान जो बन गया था।<br />
<br />
सच्ची, पहलवान किसना दुबे इश्क के इतिहास में सौ परसेंट नंबर लेकर पास हो गए थे।</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%8F%E0%A4%95_%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%85%E0%A4%B8%E0%A4%B2%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=31812एक भूत की असली कहानी / सुभाष चन्दर2016-09-24T18:53:49Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुभाष चन्दर |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatVya...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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गाँव पहुँचकर हीरालाल वल्द किशनलाल पर ये राज खुला कि वह आदमी नहीं है, भूत है। उसे मरे हुए तो तीन साल गुजर गए हैं।<br />
<br />
पाठकों, आप लोग उलझ रहे होंगे। सो आपके इस उलझाव को दूर करने के लिए मुझे फ्लैशबैक का सुलझाव प्लांट करना पड़ेगा। सो लीजिए सच्चे का बोलबाला, झूठे का मुँह काला। सुनिए एक चौबीस कैरेट सच्ची कहानी। एक भूत की असली कहानी।<br />
<br />
यही कोई सात-आठ बरस पहले की बात होगी। हीरालाल पुत्र किशन लाल बिसौली इंटर कालेज में पढ़ने जाता था। वहीं उसकी कुमारी चंपा देवी से आँख मटक्का हुआ। हीरा जाति के यादव थे और चंपा थी राजपूत कन्या। ब्याह-शादी मुमकिन थी ना। सो हीरा बाप के कुर्ते से सात सौ रुपये और पड़ोस के गाँव से कुमारी चंपा को लेकर फरार हो गया। फिर वह पूरे तीन साल तक फरार ही रहा। वह गाँव तब ही लौटा, जब उसके साथ दो चिंगू-मिंगू थे।<br />
<br />
जैसी कि परंपरा होती है कि प्रेम-विवाहों के बाद घरवाले कुछ दिन नाराज रहते हैं। पर जैसे ही चिंगू-मिंगू पैदा होते हैं, उनका गुस्सा कम हो जाता है। प्रेमी जोड़े को माफ कर दिया जाता है। पूरे देश में कमोबेश यही रिवाज चलता है। पर हीरा के मामले में ऐसा नहीं हुआ। इन तीन सालों में उसके अम्मा-बाबा तो ऊपर वाले की सेवा में जा चुके थे। बचे थे दोनों भाई-माणिक और पन्ना। उन्होंने उसे लड़की भगाने के जुर्म में कभी माफ नहीं किया। उन्होनें उसे घर में ही नहीं घुसने दिया। गाँववालों ने भी उसे ज़्यादा तवज्जो नहीं दी। सो हीरा मय चंपा देवी और चिंगू-मिंगू के साथ उल्टे पाँव शहर को लौट लिया और भाइयों को गलियाते हुए अपनी फैक्ट्री की नौकरी बजाने लगा।<br />
<br />
उन दिनों फैक्ट्री में यूनियन और मेंनेजमेंट का लफड़ा चल रहा था। एक दिन मालिक ने फैक्ट्री बंद करने की घोषणा कर दी। खूब हाय-हाय, इंकलाब जिंदाबाद हुई, पर नतीजा सिर्फ मजदूरों की बेरोजागरी निकला। वैसे भी गाँव में उसके हिस्से बारह बीघे जमीन आती थी। उसमें खेती करके वह अपना और अपने बच्चों के पेट भी भर सकता था और दोनों बड़े भाइयों की छाती पर मूँग दलने का काम भी संपन्न कर सकता था।<br />
<br />
बड़े अरमानों के साथ वह अपने गाँव पहुँचा, पर जल्दी ही उसके अरमाँ आँसुओं में ढल गए. पहले माणिक ने पहचानने से इनकार कर दिया, फिर पन्ना ने तो जलील करके घर से ही भगा दिया। दोनों भाभियों ने भी जली-कटी सुनाई. हीरा परेशान हो गया। वह माणिक के घर के दरवाजे पर ही जम गया। वहीं अपना खूँटा गाड़ दिया और बोला, ''मुझे अपने हिस्से की जमीन और घर चाहिए. अपना हिस्सा लिए बगैर में यहाँ से हिलूँगा भी नहीं।''<br />
<br />
इता सुनना था कि दोनों भाई बिगड़ गए. माणिक बोला, ''काहे की जमीन रे। बापू मरते समय जमीन हम दोनों भाइयों के नाम कर गए. उन्होंने तो तुझे मरा हुआ मान लिया था। जा भाग यहाँ से। यहाँ तेरी कोई जमीन नहीं है।''<br />
<br />
हीरा पहले गिड़गिड़ाया, फिर भुनभुनाया और उसके बाद सूखी पुआल की आग-सा भभक उठा। गुस्साय के बोला, ''भैया, जे बात सही ना है। हमें पता है, हमारे बापू हमारे साथ ऐसा अन्याव कतई ना कर सकते। हमें लगै, तुम झूठ बोल रहे हो।''<br />
<br />
उसका इतना कहना था कि पन्ना पिनपिनाय के बोले, ''दारी कै... बड़के भैया पर झूठ बोलने का इलजाम लगा रहो है। तुझे तो नरक में भी जगह ना मिलेगी।'' फिर ताल ठोक के बोले, ''सुन ले, पिताजी की नजर में ही ना, सरकार की नजर में भी मर गयौ। मुर्दों के नाम जमीन ना होती है। सो सरकार ने जमीन हमारे नाम कर दई है।''<br />
<br />
अबके माणिक बोले, ''सुन ले छोरे... हमने कही है ना कि तू मर गयौ... तो समझ ले तू मर गयौ। अब तू कहीं चला जा, पर अब जिंदा ना होने को है... समझी।''<br />
<br />
हीरा ने अपनी परछाईं देखी। परछाई थी। अपने पैर देखे - सीधे थे। इसका मतलब अभी वह भूत नहीं बना था। भैया लोग जबरदस्ती उसे भूत बनाने को तुले थे।<br />
<br />
वह बिगड़ गया। उसने चिल्ला-चिल्ला कर कहा, ''देखो हम जिंदा हैं। हम बोल रहे हैं, चल रहे हैं। जिंदा न होते तो का चलते-फिरते।'' फिर बीड़ी निकालकर सुलगाई, भीड़ को दिखाई. बोला, ''देखो, भूत कहीं बीड़ी पी सके है। वह तो आग से डरकै भागै है।'' फिर चुन्नी दद्दा से बोला, ''दद्दा, तुम ही न्याय करो। हम जिंदा हैं कि ना? ''<br />
<br />
चुन्नी दद्दा क्या बोलते। जब उसके सगे भाई उसे जिंदा मानने को तैयार ना हैं तो वह कौन...? खामख्वाह... वह जिंदा होने का प्रमाण-पत्र कैसे दे देते? सो उन्होंने बात का तोड़ यह कहकर दिया, ''लल्ला, जे बात हम ना जाने। मानिक कह रये हैं कि तुम मर गए तो समझो मर गए. बड़ा भाई तो राम समान होवै है। वह भला झूठ क्यों बोलेगा। और भैया-जे तुम्हारे घर का मामला है। हम तुम्हारे फटे में टाँग क्यों अड़ावैं। अच्छा चले हैं... भैंसन का दूध काढ़नौ है।'' कहकर चुन्नू दद्दा चल दिए. उनके पीछे-पीछे बाक की भीड़ भी चल दी।<br />
<br />
रह गया तो अकेला हीरालाल। बहुत देर रोया-झींका। पर कुछ बात ना बनी। थोड़ी देर में दोनों भैया लट्ठ निकाल लाए. यूँ तो हीरा देह से अच्छा-भला मजबूत था। पर निहत्था भी था और उसे भाइयों से मार-पीट करना अच्छा नहीं लग रहा था। तीसरा उसे खुद पर ही शक होने लगा था कि कहीं वह सचमुच में ही तो मरके भूत नहीं बन गया। सो वह वहाँ से हट गया। थोड़ी देर टसुए बहाने के बाद पीपल के पेड़ के नीचे आ बैठा। बदन पर ठंडी हवा लगी। दिमाग में भी हवा के कुछ झोंके गए. दिमाग का रोशनदान खुल गया। उसके खुलते ही हीरा ने सोचा। सब झूठ बोल लेंगे, पर पंचों में तो परमेश्वर का वास होता है। वह ज़रूर नियाय की बात करेंगे। ये सोचकर वह चौपाल पर पहुँचा।<br />
<br />
चौपाल में सरपंच जी न्याय के हुक्के में, ईमान का तंबाकू डालकर गड़प-गड़प कर रहे थे। हीरा ने पाँयलागी की। सरपंच जी ने मुँह फेर लिया। हीरा समझ गया, न्याय के देवता कन्या भगाई की घटना से अब तक नाराज हैं। देवता चरण वंदना से प्रसन्न होते हैं, उसने दसवीं की हिन्दी की किताब में पढ़ा था। सो उसने सरपंच जी के पैर पकड़ लिए. सरपंच जी भिनभिनाए, ''का बात है रे... को है, हमारे पाँव काहे पकड़ रहा है? ''<br />
<br />
हीरा सकपकाया। भिनभिनाकर बोला, ''सरपंच जी... मैं... मैं हीरा... किशन का छोरा... पहचाने ना का? ''<br />
<br />
सरपंच जी मुँह टेढ़ा कर के मुसकराए.<br />
<br />
किशन का छोरा तो उसी दिन मर गया था जिस दिन वह बलेसर की छोकरी कू भगाए के ले गया था।'' सरपंच जी हुक्का गुड़गुड़ाते हुए उवाचे।<br />
<br />
हीरा रो पड़ा। रोते-रोते भी बात उगलना ना भूला, ''हुजूर हमें पता है, आप हमसे छोकरी भगावे कू लेके भौत नाराज हैं।...पर अब तो हम बाल-बच्चेदार हो गए. हमें अब छमा कर दो। सरपंच जी हम तो आप की काली गाय हैं, आपकी पिरजा हैं। हमारी खता माफ कर दौ।''<br />
<br />
सरपंच जी ने मुँह टेढ़ा ही रखा, पर जुबान खोल दी, ''लल्ला, खता माफ करने लायक ना है। समझे। हमारे लिए, पूरे गाँव के लिए, तो तुम मर गए और भूतों से हम बात नहीं करते।'' जुबान बंद हुई, हुक्के की गड़प-गड़प शुरू हो गई.<br />
<br />
हीरा समझ गया, अब आँसुओं की नुमाइश करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। सो उसने झटपट आँखों में आँसुओं की फसल उगाई और गिड़गिड़ाकर बोला, 'महाराज हमारी गलती पै हमें गिन के दस जूते मार लो। पर हमें हमारी जमीन दिला दो। हमारे दोनों भइया जमीन कब्जाए बैठे हैं। कहवैं हैं कि हम मर गए. पर देखियौ, हम तो आपके सामने जिंदे बैठे हैं। देखो-देखो छू कर देख लो।'' कहकर वह खुद को छुआने के लिए आगे बढ़ा।<br />
<br />
संरपंच जी बिदक लिए, ''हट्ट...हट्ट... हम मरे हुए आदमी को नाँही छुवेंगे... हट्ट।''<br />
<br />
अबकी बार हीरा बुक्का फाड़कर रो पड़ा। रोते-रोते बोला, ''मालिक नियाय करौ। माना आप हमसे नाराज हैं, हम मानै हैं, हमने गाँव की इज्जत डुबोई. आपका नाम बदनाम किया। पर क्या जे नियाव है कि हमारे भैया, हमरी जमीन कब्जा लें, हमें मरा घोसित करा दें और आप कुछ भी ना करैं। आखिर आप गाँव के मुखिया हैं। आप कुछ तो कहो। बताओ हम मरे हैं कि जिंदा हैं? ''<br />
<br />
सरपंच जी ने इस बार कुछ कहा। मुँह सीधा करके बोले, ''देखो लल्ला, गाँव के लिए तुम सात बरस पहले मर गए और घरवालों के लिए तीन बरस पहले। जब गाँव के लिए मर गए, अपने घरवालों के लिए मर गए तो जिंदा कैसे हो सके हो? ''<br />
<br />
उसके बाद हुक्के का एक गड़प मारके बोले, ''...देखो, जे तुम्हारे घर की बात है। जब तुम्हारे घरवाले ही तुम्हें मुर्दा मान रहे हैं तो हमारी क्या हैसियत जो तुम्हें जिंदा मान लें। हाँ... अगर तुम्हारे भैया लोग तुम्हें जिंदा मान लेंगे तो हम भी तुम्हें जिंदा होने का परमाण-पत्र दे देंगे। अब तुम जाओ यहाँ से।''<br />
<br />
सरपंच जी की इस न्याय की बात और उसक बाद के आदेश के बाद भी हीरा नहीं हिला। सरपंच जी ने लठैत को हुक्म दिया, ''भूत को लाठी की मार दिखाओ. मार के आगे भूत भी भगते हैं।''<br />
<br />
ऐसा ही हुआ जैसे ही लठैत ने लाठी उठाई, हीरा भाग लिया। कहावत भी तो सच सिद्ध करनी थी।<br />
<br />
न्याय की दुकान से भागते-भीगते हीरा की साँस फूल गई. उसने हैंडपंप चलाकर ओक से पानी पिया। पानी से प्यास बुझाई और दिमाग को हिलाया। दिमाग में एक रोशनी कौंधी। उस रोशनाई में उसे लेखपाल यानी पटवारी का चेहरा नजर आया। बस दिमाग की कलियाँ खिल गईं। कदम चल पड़े। कहना ना होगा कि उनकी मंजिल पड़ोसी गाँव में पटवारी का घर था।<br />
<br />
पटवारी के घर तक पहुँचते-पहुँचते हीरा की हालत टाइट हो चुकी थी। शरीर में थकान, पर मन में उमंग थी। 'भाई धोखा कर सकै हैं, गाँववाले भी साथ ना देवैं, पर कागज तो झूठ ना बोलेगा। कागज तो पटवारी के पास होगा ही।'<br />
<br />
यही सोचते हुए हीरा ने पटवारी के घर की कुंडी खटखटाई. साक्षात पटवारी बाहर निकले। हीरा ने पटवारी जी से राम-राम की, अपना परिचय दिया। बताया, ''हम हीरा हैं। बिसौली गाँव के मरहूम किशन लाल के छोटे बेटे।''<br />
<br />
पटवारी ने इशारे से रोक दिया, बोले, ''बताने की ज़रूरत नहीं है। हम तुम्हें पहचानते हैं। तुम पन्ना और माणिक के छोटे भाई हो। सात-आठ साल पहले घर छोड़कर चले गऐ थे। बताओ, कैसे आना हुआ? ''<br />
<br />
हीरा की बाँछें खिल गईं। खिली बाँछों ने इशारे में कहा, 'ले बेट्टे! हो गया काम, अब तो जमीन मिल गई.''हीरा ने खुशी के इजहार के रूप में गुटखे से पीले दाँत चमकाए और बोला,''पटवारी जी, अब तो मैं आपकी ही सरन में हूँ। मेरे भाइयों ने मिस्कौट करके मेरी जमीन दबा ली है। कहते हें कि मैं मर गया हूँ।''<br />
<br />
''भइया, कह तो वे सही रहे हैं। तुम सच्ची में मर चुके हो।'' पटवारी ने गंभीरता से कहा।<br />
<br />
हीरा का दिमाग भन्ना गया। चिढ़कर बोला, ''क्या कहते हैं पटवारी जी, हम आपके सामने जिंदा खड़े हैं और आप कह रहे हैं कि हम मर चुके हैं। मुझे लगे है कि आप भी हमारे भाइयों से मिल चुके हैं। आपको भी भगवान के घर जवाब देना है। न्याय की बात करो, पटवारी जी।'' हीरा ने भिनभिनाकर कहा।<br />
<br />
''भइया हीरा, हम न्याय की बात ही कर रहे हैं। तुम सचमुच मर चुके हो। हमारे रिकार्ड के हिसाब से तुम तीन साल पहले ही मर चुके हो। हमारे रिकार्ड में मृतक के रूप में ही तुम्हारा नाम दर्ज है।'' पटवारी ने झोले में रखे कागज खँगालते हुए कहा।<br />
<br />
''मतलब? '' हीरा सन्नाय गया।<br />
<br />
''मतलब ये भइया कि हमारे रिकार्ड में तुम्हारे तीन साल दो महीने पहले मरने का सर्टिफिकेट लगा है। अब आदमी तो झूठ बोल सकै है, पर सरकारी कागज तो झूठ ना बोले। बस इसी कागज के बल पर चकबंदी में तुम्हारी जमीन तुम्हारे भाइयों के नाम हो गई. ये देखो, उनका हलफनामा। अब हम क्या करते, तुम्हारे बाल-बच्चे होते तो जमीन उनके नाम होती। अब तुम्हारे बाल-बच्चों का तो रिकार्ड था ना, सो जमीन माणिक और पन्ना के नाम चढ़ गई. विश्वास न हो तो देख लो ये कागज।'' कहकर पटवारी ने कागज हीरा के सामने लहरा दिया।<br />
<br />
हीरा ने कागज पढ़ा। सच में ही उसके नाम के आगे मृतक लिखा था। कागज के हिसाब से वह तीन साल दो महीने पहले ही मर चुका था।<br />
<br />
हीरा चक्कर खा कर गिरा। गिरते-गिरते उसने देखा कि उसके पैर सचमुच भूतों की तरह पीछे को थे। इसके बाद बेहोश ही होना था, जो वह हो गया।<br />
<br />
पटवारी ने पानी के छींटे डालकर उसकी बेहोशी दूर की और फिर उसके कान में फुसफुसाए, ''भइया हीरा, हमारी फीस दो तो हम तुम्हें जिंदा होने का रास्ता बता देंगे। बोलो दोगे फीस? ''<br />
<br />
हीरा के दिमाग में हवा के साथ बुद्धि प्रविष्ट हुई. उसने जेब में हाथ डाला। सौ-सौ के दो नोट निकाले और पटवारी जी के हाथ में रख दिए. पटवारी जी ने फी नोट दो बातें बताईं।<br />
<br />
पटवारी जी बोले, ''भइया, हमारी सुनो, एक तो अपने जिंदा होने का केस फाईल कर दो। उसमें चार सौ बीसी का मुकदमा लगा दो। हो सकै है, तुम कोर्ट में से जिंदा साबित हो जाओ. कोर्ट ने तुम्हें जिंदा मान लिया तो तुम्हारी जमीन वापस मिल सकेगी।'' कहकर उन्होंने बीड़ी सुलगाई और धुआँ फेकते हुए शून्य में निहारने लगे।<br />
<br />
हीरा दूसरी बात के बाहर आने का इंतजार करने लगा। पटवारी जी ने बीड़ी खत्म होने तक बात पैंडिंग रखी। फिर बोले, ''भइया, दूसरी बात ये है कि जाके बिरमा यादव से मिल लो। वह ही तुम्हें इस भवसागर से पार उतार सकता है।'' फिर हीरा को सोचते देखकर बोले, ''सुनो हीरा, हम जानते हैं कि बिरमा से तुम्हारे घरवालों की पक्की दुश्मनी है। अब तुम तो गाँव में रहते नहीं, सो वह दुश्मनी तुम्हारे भाइयों से निभा रहा है। अभी साल भर पहले ही फौजदारी हुई है। पन्ना का तो समझ लो, वह जानी दुश्मन है। वह पन्ना को सबक सिखाने में तुम्हारा... साथ देगा, मान लो।''<br />
<br />
''पर।'' हीरा मिनमिनाया।<br />
<br />
''पर...वर को डालौ चूल्हे में। याद रखौ, दुश्मन का दुश्मन दोस्त होवै है। फिर हम जानै हैं कि बिरमा से ज़्यादा हरामी इलाके भर में कोई ना है। तुम्हारे लट्ठों का और उसका शातिर दिमाग दोनों मिल गए तो कुछ-ना-कुछ नौटंकी तो होगी ही।''<br />
<br />
बात कुछ-कुछ हीरा की समझ में आई. उसने ठान ली कि लौटते में आज वह बिरमा के चौबारे पर जाएगा और उससे मदद की भीख माँगेगा। पर उससे पहले उसकी इच्छा थाने में जाकर भाइयों के खिलाफ रपट लिखाने की थी। यह बात उसने पटवारी जी से शेयर भी कर डाली।<br />
<br />
पटवारी हँसे और बोले, ''भइया, जहाँ तक हम तुम्हारे भाइयों को जाने हैं, उनके पिछवाड़े में सूअर का बाल है। वे तुमसे पहले थाने पहुँच चुके होंगे। वैसे भी तुम्हारा मृत्यु प्रमाण-पत्र उनके पास है। फिर भी अपने मन-की-मन में मत रखो। कोशिश करके देख लो।''<br />
<br />
हीरा पटवारी से राम-राम करके चला आया। अगली मंजिल थाना थी।<br />
<br />
थाने में वही हुआ, जो पटवारी ने कहा था। खूब चिल्ल-पौं मची।<br />
<br />
हीरा बोला, ''थानेदार जी, बहुत परेसान हूँ। मेरे भाइयों ने मेरी जमीन दबा ली है। उनके खिलाफ रिपोर्ट लिख लो।''<br />
<br />
थानेदार हँसा। हँसकर बोला, ''थाने में सिर्फ जीवित लोगों की रिपोर्ट लिखने का कायदा है। भूतों की रिपोर्ट लिखे जाने के ऑर्डर अब तक नहीं आए हैं।''<br />
<br />
हीरा भभककर बोला, ''में आपके सामने जिंदा खड़ा हूँ जिंदा हूँ, भूत नहीं।''<br />
<br />
थानेदार बोला, ''हमारा रिकार्ड कहता है कि तू मर चुका है। सरकारी रिकार्ड झूठ नहीं बोलता।''<br />
<br />
हीरा इस बार गिड़गिड़ाकर बोला, ''हुजूर... मै। सच्ची-मुच्ची का आदमी ही हूँ, मेरा विश्वास करो।''<br />
<br />
थानेदार फिर हँसा, ''पगला कहीं का, हम तेरा विश्वास क्यों करें। हम तेरा विश्वास क्यूँ करें। हम सरकारी नौकर तेरा विश्वास करेंगे कि सरकारी कागज का। देख तेरे भाई लोग आज दोपहर में ही तेरा मृत्यु प्रमाण-पत्र थाने में जमा करके गए हैं। ज़्यादा तीया-पाँचा करेगा तो चार डंडे लगाकर पिछवाड़ा सुजा दूँगा। भाग यहाँ से... स्साला मरने के बाद भी रिपोर्ट लिखाने आ गया।''<br />
<br />
कहकर थानेदार हँसा।<br />
<br />
हीरा लौट आया।<br />
<br />
अब अगली मंजिल बिरमा यादव का घर था।<br />
<br />
उस रात हीरा बिरमा यादव के घर रुका। बिरमा ने उसकी जमकर खातिरदारी की। सारी रात उसकी मिस्कौट हुई. इसका असर अगली सुबह ही देखने को मिल गया।<br />
<br />
हीरा का बड़का भइया माणिक हाथ में लोटा लेकर दिशा-मैदान को जंगल में जा रहा था। सामने से लट्ठ लिए आ गया हीरा। पहले भैया 'राम-राम' कही। फिर बिना आशीर्वाद का इंतजार किए, घुमाय दिया लट्ठ। फिर क्या था - दे दना... दे दन। लट्ठ की आवाज और माणिक की चीखों के बीच कंपटीशन हो गया। कंपटीशन तभी खत्म हुआ, जब माणिक की दाएँ हाथ की हड्डी के चट-चट करके टूटने की आवाज आई. हीरा ने पिटाई बंद की और नीचे पड़े, चीखते-कराहते भाई को विदाई की राम-राम कहकर आगे चल दिया।<br />
<br />
अब अगली मंजिल मँझले भैया पन्ना का घर था। पन्ना उस समय भैंस का दूध काढ़ रहे थे। बाल्टी लगाए भैंस के नीचे बैठे थे। हीरा पहुँच गया। पहले मँझले भैया को राम-राम की। फिर लट्ठ उठा लिया और फिर तो धर लिया भइया को। सिर, हाथ, पाँव, कमर... सबकी सेवा की। पन्ना चीखे, चिल्लाए, 'कमीने छोटा होके बड़े भाई पर हाथ उठावै है। तुझे ना छोड़ूँगा। जेल कराऊँगा। सालों चक्की पीसैगा... हाय। उनकी चीख सुनकर मँझली भाभी दौड़ी आईं।<br />
<br />
हीरा ने भाभी को भी राम-राम की, फिर लट्ठ ने राम-राम की। मँझली भाभी लट्ठ लगते ही अंदर भागीं। उनके पतिदेव ने बाहर से और उन्होंने घर के अंदर से गालियों की बौछार शुरू कर दी। पर हीरा निर्विकार भाव से भैया की सुताई करता रहा। कुछ देर में गाँव में हल्ला हो गया। हीरा ने मौके की नजाकत समझ ली और चीखते-चिल्लाते भैया को छोड़कर बाहर भागा। हाँ, जाते-जाते भी भैया को राम-राम करना ना भूला। आखिर गाँव की मरजादा तो रखनी थी ना!<br />
<br />
हीरा के लट्ठ ने माणिक और पन्ना की जमकर सेवा की थी। उसकी कृपा से माणिक के हाथ की हड्डी और पन्ना का सिर फट चुका था। पन्ना-बहू की सिर्फ पैर की हड्डी टूटी थी। पहले राउंड में उन्होंने अपनी चोटों का इलाज कराया, प्लास्टर चढ़वाया। उसके बाद वे बैलगाड़ी में लदकर रोते-कराहते पहुँचे थाने।<br />
<br />
वहाँ जाकर थानेदार को रो-रोकर हीरा की करतूत बताई. अपने जख्म, अपने प्लास्टर दिखाए. हीरा के खिलाफ 'हत्या करने की कोशिश' यानी दफा 307 में रिपोर्ट लिखाने की बात कही।<br />
<br />
थानेदार हँसा। बोला, ''पागल हुए हो क्या? मृतक के खिलाफ रिपोर्ट लिखाने का कोई प्रावधान नहीं है। मरा हुआ आदमी किसी को कैसे घायल कर सकता है?''<br />
<br />
माणिक-पन्ना ने बहुतेरी आँय-बाँय की, कसम-धरम खाई, पर थानेदार नहीं माना। बिगड़कर बोला, ''स्सालों, झूठी रिपोर्ट लिखाने आए हो। तुमने ही तो कहा था, हीरा मर चुका है। वह तुम्हें कैसे मार सकता है? तुमने ही दिया था ना हीरा का मृत्यु प्रमाण-पत्र। अब वह सरकारी कागजो में मर चुका है तो हम उसे जिंदा कैसे कर सकते हैं? भागो यहाँ से, झूठी रिपोर्ट लिखवाते हो।''<br />
<br />
पन्ना गिड़गिड़ाकर बोला, ''माई-बाप, रहम करो। हम सच्ची कह रहे हैं। हमें हीरा ने ही मारा है राम जी की सौं। बताओ, बताओ, हम झूठ बोल सके हैं, पर हमारे ये जख्म, ये हमारा प्लास्टर, ये तो झूठ ना बोलें। बताओ, उसने हमें ना मारा तो हमारे चोट कैसे लग गई?''<br />
<br />
थानेदार का माथा सोचने की मुद्रा में सिकुड़ा। वह सोचकर बोला, ''हम्म... चोट तो तुम्हें लगी है। हीरा तो मर चुका है, वह तो तुम्हें मार नहीं सकता। मुझे लगता है, तुम लोगों ने एक-दूसरे पर हमला किया है, तभी ये चोट लगी है। फिर हवलदार को आवाज देकर बोला, ''अबे ओ बदरी... गिरफ्तार करो बे इन सालों को। आपस में फौजदारी की रिपोर्ट लिखो। साथ में झूठी रिपोर्ट लिखाने की कोशिश की धारा भी लगाओ।''<br />
<br />
अब इतना सुनना था कि माणिक और पन्ना दोनों के रंग उड़ गए. उन्होने माफी माँगी, पर पुलिस को तो अपना काम करना ही था। सो उसने अपना काम किया। सो दोनों के हिस्से में चार-चार झापड़, दर्जन-दर्जन भर गालियाँ और पाँच-पाँच हजार का दंड आया। इसके बाद वह रोते-काँखते हीरा के बदन में दो-दो मीटर के कीड़े पड़ने की दुआ माँगते हुए बाहर आए।<br />
<br />
रात के लगभग बारह बजे होंगे। पन्ना औसारे में खाट डालकर लेटे थे। सोना कहना तो ग़लत होगा। कमर का दर्द हीरा को गलियाने की सहूलियत तो दे रहा था, पर सोने की इजाजत नहीं दे रहा था। ऐसे में भूत से हीरा प्रकट हुए। एक हाथ में वही तेल पिला लट्ठ, दूसरे में गंड़ासा।<br />
<br />
पन्ना की तो अपान वायु निकल गई। घबराकर बिस्तर गीला करने वाले थे कि हीरा ने आते ही पैर छुए. राम-राम की। पन्ना को लगा कि पड़ा अब लट्ठ। सुबह की याद ताजा हो आई। हीरा बोला, ''दद्दा, डरो मत। हम मारने ना आए। हम तो समझाने आए हैं। हमारी जमीन वापस दे दो।''<br />
<br />
पन्ना पिनपिनाए, ''ना हम जमीन वापस ना देंगे। रिकार्ड में तुम मर चुके हो तो जमीन किसके नाम करेंगे। मुर्दों के नाम कहीं जमीन होवै है?''<br />
<br />
हीरा बोला, ''हाँ दद्दा, ठीक कहते हो। मुर्दों के नाम जमीन ना हो सकती। पर जे बताओ, अगर मुर्दा किसी कू जान से मार देवै तो उसे सजा हो सके कि ना?''<br />
<br />
पन्ना सोच में पड़ गए. थानेदार की बात भी याद आ गई।<br />
<br />
हीरा बोला, ''अब सुनो। अबही तो हम जा रहे हैं। पर परसों तक हमरी जमीन हमें ना मिली तो समझ लौ। हम तुम्हारे और माणिक भैया के पूरे खानदान कू खतम कर देंगे, कहे देते हैं।''<br />
<br />
पन्ना पिनपिना के बोले, ''अंधेरगर्दी है का। पुलिस-थाना कुछ ना है का? फाँसी हो जाएगी, समझे? ''<br />
<br />
हीरा हँसा। बोला, ''दद्दा, मुर्दों को फाँसी होते सुनी है? हम तो भूत हैं, किसी को भी मार सकै हैं। याद है ना थानेदार ने क्या कही कि मुर्दों के खिलाफ रपट ना लिखी जा सकती।''<br />
<br />
हीरा बोला, ''दद्दा... और सोच लीजौ। परसों तक का टैम दे रहे हैं। दसके बाद...फिर... जे गंड़ासा और।<br />
<br />
बात हीरा ने अधूरी छोड़ दी। लट्ठ कंधे पर रखकर चल दिए, पर भइया को राम-राम करनी फिर भी ना भूले।<br />
<br />
तीसरे दिन क्या हुआ? इसमें लिखने को कुछ बचा है क्या? बस इतना काफी है कि हीरा को पहले जमीन मिली, घर मिला उसके बाद जिंदा होने का प्रमाण-पत्र मिला। प्रमाण-पत्र दिलाने में उसके भाइयों का बड़ा हाथ रहा। जब तक प्रमाण-पत्र नहीं था, तब-तक वह डर-डर कर जीते रहे। भूत का क्या पता कब मार डाले। भूत को कोई सजा थोड़े ही मिलती है।<br />
<br />
भगवान ने जैसे हीरा को जीवित किया, वैसे हर मुर्दे को जीवित करें।</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%8F%E0%A4%95_%E0%A4%B8%E0%A4%9A%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A5%80_%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%9A%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AE_%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=31811एक सच्ची मुच्ची की प्रेम कहानी / सुभाष चन्दर2016-09-24T18:47:41Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुभाष चन्दर |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatVya...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKRachna<br />
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}}<br />
{{GKCatVyangya}}<br />
कहानी कुछ ऐसे शुरू करता हूँ।<br />
<br />
एक शहर में एक अदद लड़का था और एक नग लड़की थी। लड़का और लड़की दोनों ही इश्किया फिल्मों के शौकीन थे। इश्किया फिल्म देखकर आहें भरते थे और रोज़ प्रार्थना करते थे - हे भगवान काश हमें भी ये निगोड़ा इश्क हो जाये।<br />
<br />
लड़के ने तो बाकायदा मन्नत मांग रखी थी कि जिस दिन वह इश्क के इम्तिहान में पास हो जायेगा। ठाकुर जी के मंदिर में सवा किलो देसी घी के लड्डू चढ़ायेगा। इसके लिए वह काफ़ी यतन भी करता था। मसलन वह प्रचलित फैशन के हिसाब से बालों का फुग्गा बनाता था, रंगीन छींटदार शर्ट पहनता था, उसके नीचे घिसी हुई जीन्स धारण करता था। दिन हो या रात, आंखों पर काला चश्मा चढ़ाए रखता था। दिन में कई घंटे आइने को भेंट करता था। उसे कई फिल्मों के डायलॉग याद थे जिन्हें वह अपनी भावी प्रेमिका को सुनाने के लिए बेताब था। पर उसकी यह मनोकामना सिद्ध नहीं हुई। हारकर उसने एक प्रेम विशेषज्ञ से सम्पर्क किया। ये लवगुरू महाराज वाकई गुरु थे, एक अदद बीबी और नौ प्रेमिकाओं को एक साथ अफोर्ड करते थे। कहीं कोई लफड़ा की नहीं होने देते थे। ऐसे महानुभावों के तो दर्शन करने से भी पुण्य मिलता है। सो हमारा हीरो, उस लव गुरु की शरण में पहुंचा। जाकर सीधे उसके चरणों में गिर गया।<br />
<br />
लव गुरु ने पहले लड़का देखा, उसका जुगराफिया जांचा, उसकी जेब का हाल मालूम किया। इश्क पर उसके इन्वेस्टमेंट की संभावनाएं तलाशीं। तब जाकर उवाचे- ''बालक, तेरा भविष्य उज्जवल है। इश्क की बिसात पर तेरी गोटी ज़रूर फिट बैठेगी। मैं तुझे एक लव लैटर डिक्टेट करा देता हूँ। तू इसकी कम्प्यूटर पर सात आठ कॉपी तैयार कर लियो और जहां-जहां तुझे थोड़ी-सी भी संभावना लगे, इन्हें बांट दियो। कामदेव ने चाहा तो तू जल्दी ही इश्क के मैदान में कबड्डी खेलने लगेगा।'' हीरो ने डिक्टेशन ली। पत्र पढ़कर उसकी बांछें खिल गयी। उसके मंह से बेसाख्ता निकल पड़ा – ये मारा पापड़वाले को।'' उसने लव गुरु के दुबारा पैर पकड़ लिया। लव गुरु प्रसन्न भए. उसे विजयी भव का आशीर्वाद दिया। लड़का जब जाने लगा तो उसे पीछे से टोककर बोले- ''बालक इश्क के मैदान में एक बार घुस जाने के बाद कदम पीछे मत हटाईयो। हो सकता है कि लड़कियों के भाई-बाप, नाते-रिश्तेदार तेरे दो-चार दांत तोड़ दें। तेरा एकाध हड्डी चटका दे। पर उनसे डरने का नहीं है। दांत नकली लग सकते हैं, हड्डी दुबारा जुड़ सकती है पर इश्क का चांस एक बार निकल गया तो आसानी से हाथ नहीं आयेगा।'' कहकर लव गुरु ने पान का बीड़ा मुंह के हवाले कर लिय। लड़के ने बड़े श्रद्धाभाव से गुरु की बातें गांठ में बांध लीं और अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ गया।<br />
<br />
पहले राउन्ड में उसने प्रेम-पत्र की सात कॉपियां कम्प्यूटर पर तैयार कराई. तीन प्रतियां उसने कॉलेज में, दो पड़ौस में और दो उस टाइम सेंटर में इंवेस्ट कर दीं, जहां वह टाइप सीखने जाता था। सात कन्याओं को प्रेमपत्र वितरित करने के बाद वह उनके जवाब के इंतजार के काम में लग गया। छह पत्रों का जवाब जल्दी आ गया। कॉलेज वाली दो कन्याओं ने तो उसे लगे हाथ थप्पड़ों का भुगतान कर दिया तो तीसरी कन्या के भाई और उसके दोस्तों ने यह काम सम्पन्न किया। हीरो का मन कॉलेज से तो खट्टा हो गया पर मीठे की आशा अब भी थी क्योंकि पड़ोस और टाइप सेंटर के विकल्प अब भी खुले थे। अगले दिन तक पड़ोस का भी जवाब आ गया। एक कन्या ने बताया कि वह पहले से ही इन्गेज्ड है, इसलिए सॉरी। दूसरी की अम्मा, हीरो की अम्मा से मिलने आ पहुंची। कहना ना होगा क प्रेम पत्र उसके हाथ में था फिर क्या था अम्मा ने पहले अपना माथा ठोका, फिर लड़के को। मामला फिर भी काफ़ी सस्ते में निपट गया क्यों कि अम्मा ने सिर्फ चार-पांच चप्पलें मारी और गालियां भी एक दर्जन के करीब ही दीं। अब उसकी आशा टाइप सेंटर पर केन्द्रित हो गयी। वहाँ दो पत्रों का इन्वेस्टमेंट था। एक लड़की ने तो उसे अपनी शादी का कार्ड़ थमा दिया। मतलब यहाँ भी भैंस पानी में थी। पर सातवां पत्र जिस पर कन्या रत्न के पास था, उसी पर सारी उम्मीदें टिकी थीं।<br />
<br />
अब कहानी को थोड़ा लड़की यानी कहानी की हीरोइन की तरफ मोड़ देता हूँ। पहले ही बता चुका हूँ कि लड़की फिल्मों की शौकीन थी और उसका पसंदीदा गाना भी था- ऐ काश किसी दीवाने को हम से भी मौहब्बत हो जाये। वह दिन में तीन बार कपड़े बदलती थी और तीस बार आईना देखती थी। मतलब हर तरह से हीरोइन बनने की पात्रता रखती थी। वैसे उसके मन मंदिर में तो सलमान खान बसा था पर अपनी व्यस्तताओं के कारण न तो वह उसका मोबाइल चार्ज करा सकता था, ना अपनी मोटर साईकिल पर मॉल ले जा सकता था और तो और वह उसे पिक्चर भी नहीं दिखा सकता था। सो इन हालातों में उसे एक फुलटाइम आशिक की ज़रूरत थी, जो ये सब पात्रताएं पूरी कर देता। वह हमेशा सपनों में देखती कि उसका आशिक उसे कनॉट प्लेस में चाट-पकौड़ी खिला रहा है, महंगे-महंगे गिफ्ट दिला रहा है बॉक्स में फिल्में दिखा रहा है और इनसे समय बचने के बाद प्यार की गाड़ी भी हांक रहा है। सो वह एक अदद इश्क के लिए बेचैन थी और खासी बेचैन थी। इसी बेचैनी के हालातों में उसे हमारे हीरो का लवलैटर मिल गया। बस फिर क्या था, उसका दिल मीटरों उछल गया। पर उसने दिल के भावों को चेहरे पर आने नहीं दिया। रात भर में उसने प्रेम पत्र को बीस-पच्चीस बार पढ़ा। चालीस-पचास बार चूमा और फिर पिया मिलन की आस वाला गान गाकर सो गयी। कहना ना होगा कि आज उसके सपने में सलमान खान की जगह अपना हीरो गाना गा रहा था।<br />
<br />
अगले दिन लड़का और लड़की... नहीं अब उन्हें हीरो और हीरोइन कहेंगे... तो अगले दिन हीरो-हीरोइन पत्र में लिखी जगह पर मिले। हीरो सच्चे भारतीय आशिक की तरह समय से आधा घंटे पहले पहुंच गया। अलबत्ता हीरोइन ने प्रेमिका के किरदार की लाज़ रखी। वह सिर्फ एक घंटे लेट पहुंची। हीरो ने धड़कते दिल से हीरोइन को गुलाव का भेंट किया। लड़की ने थोड़ी ना-नुकुर के बाद स्वीकार कर लिया। उसके बाद बातों का सिलसिला चल पड़ा। कुछ संवाद यहाँ प्रस्तुत है... कृपया ध्यान दें कि कोष्ठक के संवाद पात्रों के मन से फूट रहे हैं-<br />
<br />
- क्यों जी... इतनी चुप क्यों हो... कुछ बोलो ना?<br />
<br />
- (चुप्पी) ... क्या बोलूं... आपने तो मुझे फंसा दिया है। आप जानते हैं मैंने तो इस बारे में कभी सोचा भी नहीं था। सच्ची... मैं ऐसी लड़की नहीं हूँ (मन में सोचती तो हर वक्त रहती थी, पर किसी कमबख्त ने घास ही नहीं डाली) <br />
<br />
- सच कहूँ जी –मैं भी ऐसा लड़का नहीं हूँ- मेरा भी यह पहला प्यार है। मैंने भी आज तक किसी लड़की की तरफ आँख उठाकर नहीं देखा (जब भी देखा, टकटकी लगाकर देखा) <br />
<br />
- फिर मुझमें ऐसा क्या था... खिस्स... हंसने की आवाज़...<br />
<br />
- आप में तो वह बात है जो दुनिया की किसी लड़की में नहीं। आपकी आंखे प्रियंका चोपड़ा जैसी है, नाक कैटरीना जैसी और होंठ तो बिल्कुल करीना जैसे हैं- (बोलना तो आगे भी कुछ चाहता हूँ... पर पहली मुलाकात में... नो... नो... पांच सात मुलाकात के बाद ही कुछ बोलूंगा... हो सका तो...) <br />
<br />
- हुम्म (शर्माकर) – मैं कहाँ ऐसी हूँ... मैं तो बिल्कुल सिम्पल-सी हूँ... पता नहीं, आपने मुझमें क्या देख लिया (कमबख्त मेरी तुलना इन फटीचर हीरोइनों से कर रहा है, ये तो मेरे आगे पानी भरती हैं... दो चार मुलाकातें और हो जाने दे... फिर देखूंगी, तू कैसे हीरोइनों का नाम लेता है) <br />
<br />
- ये आप क्या कह रही हैं। मैं तो पहली नज़र में ही आप का दीवाना हो गया था। सोचता था कि प्यार करूंगा तो सिर्फ आपसे ही... वरना जीवन भर कुंआरा रहूँगा (कब से सोच रहा था, ये डायलॉग मारूंगा, पर ससुरा मौका ही नहीं मिला। अब तुम्हें क्या बताऊं कि सात को लव लैटर दिए थे, पसंद तो मुझे अपनी क्लास फैलो तृष्णा थी... पर ठीक है जो मिल गया) <br />
<br />
- क्या हुआ... जी... किस सोच में पड़ गये। अच्छा, अभी आपने कहा था कि मैं अगर आपको नहीं मिलती तो आप जीवन भर कुंआरे रहते। क्या इतनी दूर की सोच रहे हैं... बोलिए ना चुप क्यों हैं?<br />
<br />
- ऐं... (अब क्या बोलूं, घबराहट में ऐसी बेवकूफियां तो हो ही जाती है, गज़ब कर दिया- अपने पैरों पर पहली मुलाकात में ही कुल्हाड़ी मार ली। लड़की सैंटी हो गयी तो आफ़त आ जायेगी) <br />
<br />
- सुनो जी... क्या सोच रहे हैं?<br />
<br />
- कुछ नहीं... अब बताइये... आपको देखने के बाद सोचने को रह ही क्या जाता है। वह क्या कहा है शायर ने... तुमको देखें कि तुमसे बात करें (बात तो थोड़ी बनी प्यारे) <br />
<br />
- खिस्स... आप भी ना... (शर्माना) ... अच्छा सुनिये जी... मुझे शिप्रा मॉल जाना है। एक दो ड्रेस खरीदनी है- आप मुझे वहाँ छोड़ देंगे (पट्ठे पता चल जायेगा मॉल में कि तू कितने पानी में है) <br />
<br />
- (ड्रेस खरीदवायेगा तो मामला फाइनल वरना जैराम जी की, सोच लूंगी, कोई बहाना) हां जी बोलिए छोड़ देंगे, मोटर साइकिल से।<br />
<br />
- अरे... क्यों नहीं... क्यों नहीं... मोटर साइकिल आपकी... हम आपके, चलिए ना... इसी बहाने आपके साथ कुछ वक्त और गुज़र जायेगा (वक्त तो गुजरेगा बेटे, पर सारा जेब खर्च स्वाहा हो जायेगा, लोंडिया को ड्रेस तो दिलवानी ही पड़ेगी... आखिर फर्स्ट इम्प्रेशन का मामला है) <br />
<br />
- चलिये जी... क्या सोचने लगे... (ये तो सोचने लगा, कमबख्त कहीं बाहर छोड़कर ही ना चला जाये) <br />
<br />
- आइये जी... बैठिये... मोटर साइकिल की घर्र-घर्र...<br />
<br />
- सुनिये... थोड़ा आगे सरककर बैठिये... पिछले पहिये में हवा कम है...<br />
<br />
- जी... ठीक है... (ये तो काफी शरारती लगता है... चलो अपना क्या जाता है।) मोटर साइकिल की घर्र-घर्र...<br />
<br />
आगे की कहानी में जुड़ता है। हीरो हीरोइन के साथ मॉल जाता है। ड्रेस की दुकान के पास हीरो के कदम ठिठकते हैं, लड़की तड़ाक से हीरो का हाथ अपने हाथ में ले लेती है। नतीजा अच्छा निकलता है। हीरो तीन ड्रेस खरीद देता है। हीरोइन खुश हो जाती है और मोटर साइकिल पर हीरो से चिपककर बैठती है। हीरो का इन्वेस्टमेंट सार्थक हो जाता है।<br />
<br />
तीन चार मुलाकातों में इश्क काफी आगे बढ़ता है। हीरो हीरोइन का मोबाइल चार्ज कराता है। चाय पकौड़ी का रसावादन करता है। सिनेमा दिखाता है। गाहे-बगाहे गिफ्ट देता है। बदल में किसी पार्क के कोने में या सिनेमा हॉल के अंधेरे में छुआ-छुई, पुच-पुच का सुख पाता है। हीरोइन खुश है। हीरो इश्क की परीक्षा में पास हो गया। हीरो अपने खर्चे का हिसाब लगाता है, इश्क का सुख उसे खर्चे से बड़ा लगता है और लगभग साल भर तक लगता रहता है। लड़की सुरक्षित दूरी की सीमा को पीछे छोड़कर आधुनिक सीमाओं में प्रवेश करती है। यानी इश्क की गाड़ी अपनी मंजिल तलाशने लगती है।<br />
<br />
कहानी कुछ ज्यादा ही फुटेज ले रही है, सो अब थोड़ा दी एंड की ओर बढ़ा जाये।<br />
<br />
एक दिन लड़की के रिश्ते वाले घर आते हैं। उन्हें लड़की पसंद है। लड़का अपने बाप की इकलौती संतान है। बैंक में प्रोबेशनरी ऑफिसर है। घर का मकान है। देखने-सुनने में अच्छा है। हीरो से अच्छा। रिश्ता पक्का हो जाता है। हीरोइन और हीरो फिर मिलते हैं। उनके डायलॉग (मन वाले कोष्ठक के डायलॉगों के साथ पाठकों की सेवा में प्रस्तुत हैं) <br />
<br />
- सुनो जी... आज मेरा मन बहुत खराब है।<br />
<br />
- क्या हुआ जानू?<br />
<br />
- पता है आज सुबह मेरा रिश्ता पक्का हो गया (ऊं... ऊं... ऊं...) <br />
<br />
- हे भगवान... ये किस को हमारे प्यार की नज़र लग गयी। (गहरी सांस) ... रोओ मत... भगवान ठीक करेगा। भगवान तो जो करता है, ठीक ही करता है। मैं तो सोच रहा था कि मेरे गले ना पड़ जाये, वरना बापू बहुत मारता, लाखों का दहेज मारा जाता) <br />
<br />
- तुम बताओ जी... अब मैं क्या... मन तो करता है कि ज़हर खाकर जान दू दूं (सिसकियां) (जान दें मेरे दुश्मन) <br />
<br />
- अरे... अरे... रोओ मत... तुम रोती हो तो दर्द मेरे दिल में होता है (वाह क्या फंडू डायलॉग मारा है प्यारे) <br />
<br />
- सच्ची कहती हूँ... मैं तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह पाऊंगी... तुम कहो तो मैं शादी के लिए इंकार कर दूं... तुम्हारी नौकरी लगने तक मैं इंतज़ार कर लूंगी (निठल्ले तू बस इश्क के मतलब का ही है, वर्ना क्या अब तक नौकरी ना पा जाता, तेरा इन्तज़ार करे मेरी जूती। मैं तो बैंक अफसर की बीबी बनूंगी) बोलो ना जी... क्या कहते हो?<br />
<br />
- (गहरी सांस) - मैं क्या कहूँ जानू... मैं तो किसी लायक हूँ ही नहीं, मां-बाप के टुकड़ों पर पल रहा हूँ... और पता नहीं... नौकरी कब तक मिलेगी... (मिल भी जाये तो क्या तुझसे शादी करुंगा, तेरा कंजूस बाप कुछ देगा भी) <br />
<br />
- (सिंसकियां) - तो तुम क्या कहते हो... मैं जीते जी उस नर्क में गिर जाऊं। सच कहती हूँ जी तुम्हारे बिना तो मैं एक पल भी नहीं जी पाऊंगी...<br />
<br />
- (गहरी सांस) - क्या कहा जानू... मज़बूरी है। तुम मेरा इन्तज़ार भला कब तक करोगी। तुम्हारी दो बहने और भी तो हैं... मेरी मानो तो... (गहरी सांस) ... तुम शादी कर ही लो (सिसकियां) <br />
<br />
- सुनो जी... अब तुम रोने लगे... प्लीज़ मत रोओ... देखो, हम दोनों एक-दूसरे से हमेशा प्यार करते रहेंगे, शादी के बाद भी।<br />
<br />
- सच कहती हो ना... मुझसे शादी के बाद भी प्यार करोगी...<br />
<br />
- हां हां... हमेशा करूंगी... मेरे देवता... (सिसकियां) तो जानू अब पक्का रहा ना कि मुझे अपने घर वालों की मर्जी से शादी करनी पड़ेगी। रिश्ते को हां कर दूं ना... (रिश्ता तो पहले ही पक्का हो गया है, लल्लू, मैं तो तुझे सिर्फ ख़बर कर रही हूँ।<br />
<br />
- हां... हां... हां कर दो... सच कहूँ, मेरा दिल फटा जा रहा है (अच्छा हुआ, बला टली) <br />
<br />
- तो जानू... अब में चलूं... लड़के वाले अब भी घर पर हैं...<br />
<br />
- ठीक है जानू... तुम जाओ...<br />
<br />
- अच्छा चलती हूँ... सुनो... मैंने सुना है लडके वाले शादी के लिए जल्दी कर रहे हैं अगले महीने ही शादी हो जायेगी। सुनो... अब हम आगे नहीं मिल पायेंगे... मेरी मज़बूरी समझ रहे हो ना... प्लीज़... समझ लेना... (लल्लू, ये सब मैं इसलिए कह रही हूँ कि तू शादी में कोई बवाल ना कर दे) <br />
<br />
- हां... हां... जानू... मैं नहीं चाहता कि बदनामी से तुम्हारी शादी टूट जाये। ठीक है तुम्हारी खातिर मैं अपने दिल पर पत्थर रख लूंगा... पर तुमसे कभी नहीं मिलूंगा... बाय... जानू...<br />
<br />
-...बाय मेरे राजा... मेरे हीरो... अच्छा हां... सुनो... मेरा मोबाइल रिचार्ज करा देना... चलती हूँ...<br />
<br />
हीरोइन चली जाती है। हीरो कुछ देर वहीं खड़े होकर मुक्ति का आनंद लेने के लिए एक सिगरेट फूंकता है। अपने मोबाइल से संभावित गलफ्रैण्ड का नम्बर मिलाता है। कुछ पुराने डायलॉग दोहराता है। भावी गलफ्रैण्ड से मिलने का टाइम फिक्स हो जाता है। अब वह निर्णय लेता है कि वह लड़की का मोबाइल रिचार्ज नहीं करायेगा। इस प्रोजेक्ट पर और इन्वेस्टमेंट करना बेकार है।<br />
<br />
इस घटना के कुछ दिन बाद हीरोइन की सहेली मिलती है।<br />
<br />
- क्यों री... मैंने सुना है तू शादी कर रही है...<br />
<br />
- हां... री... अगले हफ्ते ही तो शादी है। मेरे होने वाले वह ना... बैंक में अफसर हैं। देखने में बिल्कुल हीरो जैसे हैं... हमारी जोड़ी खूब जमेगी।<br />
<br />
- अरी वह तो ठीक है पर वह लड़का... जिससे तेरा अफेयर चल रहा था... उसका क्या होगा?<br />
<br />
- मैंने क्या उसका ठेका ले रखा है वह भी कर लेगा, कहीं शादी... हुम्म...<br />
<br />
- पर तुम लोग तो एक दूसरे के पीछे दीवाने थे एक साथ जीने मरने की कसमें खाते थे...<br />
<br />
- तो क्या हुआ...<br />
<br />
- फिर भी बता ना... तूने उससे शादी क्यों नहीं की?<br />
<br />
- अरी तू पागल है क्या... उस निठल्ले से शादी करके क्या करती। क्या कमाता... क्या खिलाता... खाली इश्क से पेट भरता क्या... और सुन... एक बात और कहूँ... अपने कान ज़रा पास ला।<br />
<br />
- हां... बोल...<br />
<br />
- (फुसफुसाकर) - शादी तो मैं किसी अच्छे कैरेक्टर के लड़के से ही करुंगी... वह तो कमीना...<br />
<br />
सहेली का मुंह खुला रह जाता है, इतना खुला कि एक मक्खी उसमे घुस जाती है और कुछ देर घुम घामकर साबुत बाहर निकल आती है।<br />
<br />
आधुनिक युग की एक सच्ची प्रेम कथा का अन्त यूं भी होता है।</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A5%80_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%9C%E0%A5%80_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%97%E0%A4%BE_/_%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=31810लालाजी और अंग्रेजी राज का दरोगा / सुभाष चन्दर2016-09-24T18:31:29Z<p>Preksha Jain: '{{GKGlobal}} {{GKRachna |रचनाकार=सुभाष चन्दर |अनुवाद= |संग्रह= }} {{GKCatVya...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
<hr />
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}}<br />
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कहानी काफी पुरानी है। अंग्रेजों के ज़माने की। उस समय देश में दो तरह के अंग्रेज राज कर रहे थे। गोरे अंग्रेज और काले अंग्रेज, गोरे अंग्रेजो का काम था- भारत नाम की सोने की चिड़िया के परों को बड़े करीने से उखाड़ना और फिर उन्हें महारानी विक्टोरिया के मालखाने में जमा करना। वे वहाँ से वेल्डन के रूप में रसीद लेते और फिर अपने काम में जुट जाते। फुर्सत मिलती तो देश संभाल लेते। काले अंग्रेज उनके अनुयायी थे। वे गोरे अंग्रेजो से सीखी गयी कला को चिड़िया के बदन पर अजमाते। वे चिड़िया के बदन से मांस नोचने के पुनीत काम को अंजाम देते। चिड़िया खुश थी कि उसके शरीर का बोझ कम हो रहा था और फ्री में उसकी डाईटिंग हो रही थी। चिड़िया खुश तो देश खुश। देश खुश था तो आम आदमी नाम का एक जीव भी खुश था।गाहे बगाहे वह अपने अधनंगे बदन की हड्डियों का प्रदर्शन करके, अपनी ख़ुशी दर्शाता रहता था इसी खुशनुमा माहौल में देश का काम चल रहा था।<br />
<br />
इसी खुशहाल देश के एक कस्बे में लाला रामदीन रहते थे। बड़े शरीफ आदमी थे। हमेशा मीठा बोलते थे और कम तोलते थे। उस दिन भी वह अपनी दुकान पर बैठे तोलन विद्या के क्षेत्र में नए आविष्कार कर रहे थे तभी एक सिपाही उनकी दुकान पर प्रगट भया। लाला का उसे देखते ही माथा ठनक गया-ज़रूर लौंडे ने कोई गुल खिलाया होगा। उन्होंने लड़के के गुल अपनी जेब की तराजू पर तोले, फिर बोले, "कहो दीवान जी कैसे आना हुआ, बैठो, उन्होंने शब्दों में मिसरी घोलते हुए उससे तशरीफ़ रखने की गुजारिश की। पर वह अंगरेजी राज का सिपाही था, अदने से लाला के कहने पर भला इतनी महंगी तशरीफ़ कैसे धर देता। उसने तशरीफ़ नहीं रखी और खड़े खड़े ही हुंकारा, -"लाला, तेरे लौंडे ने ननुआ की लौंडिया की इज्ज़त खराब की है। थाने में बंद है।जल्दी चल, दरोगा जी ने बुलाया है।"इतनां सुनते ही लाला को सच्ची-मुच्ची का सांप सूंघ गया। सो कुछ देर वह बेहोशी को प्राप्त भये। होश में आते ही उन्होंने एक हाथ से अपना माथा ठोंका और दूसरे हाथ से अपनी जेब कसके पकड़ ली। उसके बाद गिनकर एक हज़ार एक लानते बेटे को भेजी,"कमबख्त ने कभी कोई काम सलीके से नहीं किया। अच्छे भले रिश्ते आ रहे थे। लाखो का मामला जमना था। रेट सीधा बीसियों हजार नीचे चला जायेगा, ऊपर से थाना कचहरी में चपत पड़ेगी सो अलग।"<br />
<br />
इलाके के दरोगा के बारे में उनकी राय थी कि वाह वैसे तो दयालु प्रवृति का है, पर भेड़ों के बदन से ऊन भर उतारने का उसे शौक है। यहाँ तो भेड़ को खुद थाने आना था। सो उसकी जेब में भारी ऊन कैसे बचती, सो कटवाने के लिए लालाजी ने जेब भरी और पहुँच गए थाने।<br />
<br />
जेल में काफी तबीयत से ठुकाई कार्यक्रम चल रहा था। लालाजी के आने के बाद उसमें और बढोत्तरी हुई. सुपुत्र महाराज की चीखें, कटते बकरे की चीखों से कम्पटीशन करने लगी। लालाजी यह देखकर काफी प्रभावित हुए. अपने स्वर में हीं...हीं...की मात्रा बढ़ाते हुए दरोगा जी से बोले, "हुजूर, ये क्या कर रहे हैं? बच्चा जख्मी हो जायेगा। इलाज में बहुत खर्चा आएगा। अब छोड दीजिए, अब ये ऐसी कोई गलती नहीं करेगा।"<br />
<br />
अपनी जान में लालाजी ने बड़ी मार्के की बात कही थी। सतयुग होता तो ऐसी चाशनी भरी बातों से लड़का बाइज्जत छूट जाता, ऊपर से लालाजी की तारीफ होती सो अलग, पर यह कमबख्त कलियुग था। कलियुग में भी जो जगह थी, वह थाना था। थाने में दरोगा था, वह भी अंग्रेजी राज का। मामला तो बिगडना ही था सो बिगड़ा।<br />
<br />
दरोगा ने लाला को लगते हाथों ले लिया, "चुप रह बे लाला। इस सेल को तो में जान से ही मार दूँगा, स्साले ने सत्रह साल की लड़की बिगाड़ी है। इसका मजा में इसे चखाऊंगा। सालो साल सडाऊँगा साले को" कहकर उसने लाला के सपूत के पिछवाड़े मैं दो तीन बेल्टें और रसीद कर दीं।<br />
<br />
लालाजी ने दरोगा की बात सुनकर भोलेपन से कहा, "हुजूर सड़ाएंगे कैसे? क्या हवालात में कोढ़ फैली है?<br />
<br />
दरोगा चिहुंक गया, उसने लड़के में दो तीन डंडे फिर फटकार दिए और गरमा कर बोला, "बरबाद कर दूँगा, भूखा मार दूँगा। इसकी शक्ल ऐसी बिगाड दूँगा कि पहचान में भी नहीं आएगा।<br />
<br />
लालाजी कहने तो वाले थे कि हुजूर ऐसा गजब मत करना, वरना लड़के की दहेज की मार्किट बिगड जायेगी, पर कुछ सोचकर चुप रह गए.<br />
<br />
उन्हें चुप देखकर लड़का डकराया, "पिताजी मुझे छुडा लो, अब कभी गलती नहीं करूँगा। ये लोग तो मुझे मार ही डालेंगे।<br />
<br />
यह दृश्य देखकर लाला का माथा ठनका। वह दरोगा जी से हाथ जोड़कर बोले, " हुजूर बच्चे की गलती माफ कर दो। जो सजा देनी है मुझे दे दो। आखिर इस कपूत का बाप हूँ। बताओ चाय-पानी को कितने नजर कर दूं। सौ दो सौ...हुक्म करो।<br />
<br />
दरोगा भन्ना गया। अंग्रेजी राज का दरोगा। उसे कोई इतने बड़े गुनाह के एवज में इतनी छोटी सजा की तजबीज करे। धिक्कार उसकी दरोगाई पर।<br />
<br />
वह कड़ककर बोला, "लाला...सौ...पचास की बात की तो तुझे भी अंदर कर दूँगा। लड़का छुड़ाना तो पूरे पांच हजार सिक्के लगेंगे चांदी के।<br />
<br />
लालाजी ने बहुतेरी चिरोरी की। दो हजार तक को तैयार हो गए पर दरोगा न माना। उल्टे बहस करने पर प्रति शब्द सौ सिक्के बढ़ाने की धमकी और दी। लालाजी का ब्लड प्रेशर बढ़ गया। हारकर दो दिन का वक्त मांगा ताकि राशि का इंतजाम कर सके। इसके बाद वह बैक टू पवेलियन हो गए।<br />
<br />
घर लौट कर लालाजी ने सिक्कों का वजन किया, बेटे का वजन किया और दरोगा को तौल कर देखा। बेटा भारी निकला। बेटे के भारी पड़ने के पीछे कई तकनीकी कारण थे। मसलन जेल में रहने के दौरान दुकान पर न बैठने की हानि, दहेज के फूटी कोड़ियों में बदलने का डर और थोड़ी बहुत बेइज्जती भी। लालाजी ने सारा हिसाब लगा लिया। नुक्सान ज़्यादा था तो लड़के का वजन भी ज़्यादा था। पर पांच हजार सिक्के...रकम बड़ी थी तो लालाजी की चिंता ही कहाँ छोटी थी। लालाजी ने सारी रात सोच में काटी। हल निकल आया लालाजी ने दरियादिली से एक मुस्कराहट खर्च की और चैन की नींद सो गए।<br />
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लालाजी ने अगले दिन ही दरोगा को खबर भिजवा दी कि वह उन्हें शाम को पांच बजे घंटा घर पर मिलें। वहीं वह उन्हें रूपये देंगे।<br />
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दरोगा को खबर मिली तो उसका माथा ठनक गया। कंजूस लाला पूरे पैसे दे रहा है। एक तो यही खुराफ़ाती बात, दूसरे घंटाघर पर बुलाहट। बस उसके दिमाग में खतरे की घंटी घनघना गयी। उसने कुछ सोचा और खबरची को कहला दिया कि वह दो दिन के लिए गांव जा रहा है। ज़रूरी काम है वहाँ से लौट कर पैसा लेगा।<br />
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दो दिन बाद दरोगा नियत समय पर घंटाघर पहुंचा। अपने साथ दो आदमी गवाह के रूप में साथ और ले लिए ताकि कहीं लाला कोई चालाकी ना खेल दे।<br />
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घंटाघर पर पहुँच कर देखा तो लालाजी मय अपने छोटे बेटे, मुनीम और दो लोगों के साथ मौजूद थे। दरोगा ने लाला का फ़ौज फांटा जांचा। मामला कुछ कुछ समझ में आ गया। पर दरोगा अंग्रेजो के ज़माने का था बुद्धि भी काफी हद तक अंग्रेजी हो चुकी थी। सो वह कतई नहीं घबराया बोला, " लाला पूरे पैसे गिनकर लूँगा, तेरा विश्वास नहीं है।<br />
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लालाजी ने खींसे निपोरी, "हुजूर पूरे गिनकर लीजिए रोजी की कसम...एक रुपया भी कम ना है।"<br />
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दरोगा ने भी एक एक रूपया उछाला जांचा और फिर थेले के हवाले किया। संतुष्ट होने के बाद लाला के लड़के को अभयदान दे दिया।<br />
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लालाजी ने पहले लड़का छुडाया, उसके बाद उसे दूर रिश्तेदारी में पहुँचाया। हर तरफ से निश्चिंत होने के बाद अंग्रेज जज के इजलास में डाल दिया, दरोगा के खिलाफ रिश्वत लेने का मुकदमा, साथ ही झूठे मुकदमे में फ़साने की धमकी दी। मुकदमा पेश हुआ लाला ने गवाह पेश किये। उन्होंने बयान दिए कि उनके सामने ही दरोगा ने रुपये लिए हैं।<br />
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जज ने दरोगा से पूछा –क्यों डरोगा...ये लोग ठीक बोलटा? टूमने पैसा लिया...?<br />
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दरोगा बोला, "जी हुजूर, मैंने वाकई पैसा लिया। मेरे भी अपने गवाह हैं जिनके सामने मैंने पैसा लिया" कहकर उसने अपने गवाह भी पेश कर दिए। उन्होंने भी बयान दिया कि "दरोगा जी ने उनके सामने ही रूपये गिन गिन कर लिए।"<br />
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लालाजी यह सब देखकर भौचक्के थे! भला दरोगा की बुद्धि खराब हो गयी, खुद जुर्म स्वीकार कर रहा है, ज़रूर मरेगा ससुरा।<br />
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जज बोला, "तो डरोगा, तुम मानता कि टूमने रिश्वत लिया? जुर्म कबूलता बोलो?<br />
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दरोगा रिरियाकर बोला, "हुजूर कैसी रिश्वत। मेरी तो आपसे यही गुजारिश है कि मेरे बाकी के पांच हजार भी लालाजी से दिलवाइये वरना में गरीब तो मर जाऊंगा।<br />
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जज चौंका –"क्या मतलब? सारी गवाही तुम्हारे खिलाफ। बजाय सजा के टूम बोलटा कि लाला से पांच हजार और दिलाओ. अडालट से मजाक करेगा तो और बड़ा सजा मिलेगा। ठीक ठीक बोलो क्या बात है?<br />
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दरोगा आवाज में मिस्री घोलता हुआ बोला, "हुजूर माई बाप, नाराज न हों। सच्ची बात ये है कि मैंने अपने खेत बेचकर लाला को दस हजार रुपये दिए थे, जिसमें से लाला ने पांच हजार वापिस कर दिए। अभी इसे मेरे पांच हजार वापस और करने हैं। उन्हें बचाने के लिए ये मुझे फसाने की कोशिश कर रहा है। विश्वास न माने तो ये देखिये मेरे खेतों की रजिस्ट्री की रसीद। देख लीजिए ये लाला से पैसे लेने से एक दिन पहले की ही हैं।<br />
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जज ने रशीद देखी और प्रभावित हुआ।<br />
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उधर दरोगा फिर शुरू हो गया, "हुजूर में अंग्रेजो का वफादार नौकर। में भला रिश्वत लेने जैसा पाप कर सकता हूँ। फिर थोडा रुक कर बोला, "हुजूर अगर में रिश्वत लेता तो क्या सबके सामने लेता। पूछो लाला से गवाहों से कि मैंने एक एक सिक्का गिनकर लिया या नहीं...पूछो... पूछो।<br />
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जज ने पूछा लाला सकपकाया –बहुतेरी ना –नुकुर की –पर जज ने घुड़क कर हामी भरवा ली।<br />
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दरोगा फिर बोला, " हुजूर...आप खुद देख लीजिए आदमी अपने पैसे को ही ठोक बजाकर वापस लेता है, गवाहों के सामने लेता है। बताइए में ग़लत कह रहा हूँ।<br />
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जज ने सहमति में गर्दन हिलाई.<br />
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दरोगा के चेहरे पर दीनता आ गयी, बोला, "हुजूर अब तो आप समझ गए कि मैंने रिश्वत नहीं ली। अब हुजूर आपसे मेरी विनती है कि लाला से मेरे बाकी पांच हजार भी दिलवा दीजिए. वरना ये बेईमान मेरी रकम लूट लेगा, में गरीब बेमौत मर जाऊंगा।" कहकर दरोगा फूट फूट कर रोने लगा।<br />
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लालाजी ने बहुतेरी ना नुकुर की, खूब रोये गिडगिडाए, चिल्लाये, दरोगा पर चालबाजी का इल्जाम लगाया। पर जज अंग्रेज था। क्रांतिकारियों का मामला होता तो न्याय की पूरी लुटिया डुबो देता। पर यहाँ न्यायी होने की पूरी छूट थी सो बेहतरीन न्याय किया।<br />
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दरोगा बाइज्जत बरी हुआ और लाला को अगले दिन तक पैसा चुकाने की ताकीद मिल गई। साथ ही चेतावनी की डोज भी कि आगे भविष्य में शरीफ आदमियों पर झूठे मुक़दमे ना डाले। वरना जेल की सजा हो जायेगी।<br />
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इसके बाद कोर्ट बर्खास्त हो गयी। फैसला सुनकर लालाजी रोये, दरोगा हंसा। लालाजी ने घर आकर दरोगा के पैसे दिए। दरोगा हँसता हुआ चला गया।<br />
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दरोगा के जाते ही लालाजी को दिल का दौरा पड़ा। सारे परिवारीजन इकटठे हो गए. अपने आखिरी वक्त में उनकी जुबान से ये अमृत वचन निकले — "बच्चों शेर और पुलिस दोनों सामने से आ रहे हों तो शेर की तरफ भागना चाहिए। शेर से आदमी कभी कभी बच भी जाता है" कहकर लालाजी ने प्राण त्याग दिए।</div>Preksha Jainhttp://www.gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7_%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%B0&diff=31809सुभाष चन्दर2016-09-24T18:23:14Z<p>Preksha Jain: /* व्यंग्य */</p>
<hr />
<div>{{GKGlobal}}<br />
{{GKParichay<br />
|चित्र=Subhash-Chandar.JPG<br />
|नाम=सुभाष चन्दर <br />
|उपनाम=<br />
|जन्म=27 जनवरी 1961<br />
|जन्मस्थान=<br />
|मृत्यु=<br />
|कृतियाँ=हिंदी व्यंग्य का इतिहास, व्यंग्य की सात पुस्तकों सहित कुल 39 पुस्तकों का लेखन <br />
|विविध=इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय पुरस्कार, डा.मेघनाथ साहा पुरस्कार, अट्टहास सम्मान, हरिशंकर परसाई सम्मान आदि <br />
|जीवनी=[[सुभाष चन्दर / परिचय]]<br />
|अंग्रेज़ीनाम=Subhash Chandar<br />
|shorturl=<br />
|kavitakosh=<br />
|copyright=<br />
}}<br />
====व्यंग्य====<br />
* [[सावधान! अपराध कम हो रहे हैं! / सुभाष चन्दर]]<br />
* [[बड़े काम की चीज है जूता / सुभाष चन्दर]]<br />
* [[आइये स्वर्ग चलते हैं / सुभाष चन्दर]]<br />
* [[अथः श्री बाबू पुराण / सुभाष चन्दर]]<br />
* [[क्रांति होकर रहेगी / सुभाष चन्दर]]<br />
* [[दानं परमो धर्मः / सुभाष चन्दर]]<br />
* [[महान लेखक से मुलाकात / सुभाष चन्दर]]<br />
* [[शुभचिंतकों की परंपरा / सुभाष चन्दर]]<br />
* [[लालाजी और अंग्रेजी राज का दरोगा / सुभाष चन्दर]]<br />
* [[एक सच्ची मुच्ची की प्रेम कहानी / सुभाष चन्दर]]<br />
* [[एक भूत की असली कहानी / सुभाष चन्दर]]<br />
* [[किसना दुबे ने कुश्ती लड़ी / सुभाष चन्दर]]</div>Preksha Jain