अस्पृश्यता-उसका स्रोत / भीमराव आम्बेडकर

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ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अस्पृश्यों की दयनीय स्थिति से दुखी हो यह चिल्ला कर अपना जी हल्का करते फिरते हैं कि 'हमें अस्पृश्यों के लिए कुछ करना चाहिए।' लेकिन इस समस्या को जो लोग हल करना चाहते हैं, उनमें से शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो यह कहता हो कि 'हमें स्पृश्य हिंदुओं को बदलने के लिए भी कुछ करना चाहिए।' यह धारणा बनी हुई है कि अगर किसी का सुधार होना है तो वह अस्पृश्यों का ही होना है। अगर कुछ किया जाना है तो वह अस्पृश्यों के प्रति किया जाना है और अगर अस्पृश्यों को सुधार दिया जाए, तब अस्पृ‍श्यता की भावना मिट जाएगी। सवर्णों के बारे में कुछ भी नहीं किया जाना है। उनकी भावनाएँ, आचार-विचार और आदर्श उच्च हैं। वे पूर्ण हैं, उनमें कहीं भी कोई खोट नहीं है। क्या यह धारणा उचित है? यह धारणा उचित हो या अनुचित, लेकिन हिंदू इसमें कोई परिवर्तन नहीं चाहते? उन्हें इस धारणा का सबसे बड़ा लाभ यह है कि वे इस बात से आश्वस्त हैं कि वे अस्पृश्यों की समस्या के लिए बिल्कुल भी उत्तरदायी नहीं हैं।

यह मनोवृत्ति कितनी स्वभाव अनुरूप है, इसे यहूदियों के प्रति ईसाइयों की मनोवृत्ति का उदाहरण देकर स्पष्ट किया जा सकता है। हिंदुओं की तरह ईसाई भी यह नहीं मानते कि यहूदियों की समस्या असल में ईसाइयों की समस्या है। इस विषय पर लुइस गोल्डिंग की टिप्पणी इस स्थिति को और अधिक स्पष्ट करती है। यहूदियों की समस्या असलियत में किस तरह ईसाइयों की समस्या है, इसे बताते हुए वह कहते हैं - जिस अर्थ में मैं यहूदियों की समस्या को असलियत में ईसाई समस्या समझता हूँ, उसको स्पष्ट करने के लिए बहुत ही सीधी-सी मिसाल देता हूँ। मेरे ध्यान में मिश्रित जाति का एक आयरिश शिकारी कुत्ता आ रहा है। इसे मैं बहुत दिनों से देखता हूँ। यह मेरे दोस्त जॉन स्मिथ का कुत्ता है, नाम है पैडी। वह इसे बेहद प्यार करते हैं। पैडी को स्कॉच शिकारी कुत्ते नापसंद हैं। इस जाति का कोई कुत्ता उसके आस-पास बीस गज दूर से भी नहीं निकल सकता और कोई दिख भी जाता है तो वह भूँक-भूँककर आसमान सिर पर उठा लेता है। उसकी यह बात जॉन स्मिथ को बेहद बुरी लगती है और वह उसे चुप करने का हर संभव प्रयत्न भी करते हैं, क्योंकि पैडी जिन कुत्तों से नफरत करता है, वे बेचारे चुपचाप रहते हैं और कभी भी पहले नहीं भूँकते। मेरा दोस्त, हालाँकि पैडी को बहुत प्यार करता है, तो भी वह यह सोचता है, और जैसा कि मैं भी सोचता हूँ, कि पैडी की यह आदत बहुत कुछ उसके किसी जाति-विशेष होने पर उसके स्वभाव के कारण है। हमसे किसी ने यह नहीं कहा कि यहाँ जो समस्या है, वह स्कॉच शिकारी कुत्ते की समस्या है और जब पैडी अपने पास के किसी कुत्ते पर झपटता है जो बेचारा टट्टी-पेशाब वगैरह के लिए जमीन सूँघ-साँघ रहा होता है, तब उस कुत्ते को क्या इसलिए मारना-पीटना चाहिए कि वह वहाँ अपने अस्तित्व के कारण पैडी को हमला करने के लिए उकसा देता है।'

हम देखते हैं कि यहूदी समस्या और अस्पृश्यों की समस्या एक जैसी है। स्कॉच शिकारी कुत्ते के लिए जैसा पैडी है, यहूदियों के लिए वैसा कोई ईसाई है और वैसा ही अस्पृश्यों के लिए कोई हिंदू है। किंतु एक बात में यहूदियों की समस्या और ईसाई समस्या एक-दूसरे की विरोधी है। यहूदी और ईसाई अपनी प्रजाति से एक-दूसरे के शत्रु होने के कारण एक-दूसरे से अलग कर दिए गए हैं। यहूदी प्रजाति ईसाई प्रजाति के विरुद्ध है। हिंदू और अस्पृश्य इस प्रकार की शत्रुता के कारण एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। उनकी एक ही प्रजाति है और उनके एक जैसे रीति-रिवाज हैं।

दूसरी बात यह है कि यहूदी, ईसाइयों से अलग-अलग रहना चाहते हैं। इन दो तथ्यों में से पहले तथ्य अर्थात यहूदियों और ईसाइयों में वैर-भाव का आधार यहूदियों की अपनी प्रजाति के प्रति कट्टर भावना है और दूसरा तथ्य ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित लगता है। प्राचीन-काल में ईसाइयों ने यहूदियों को अपने साथ मिलाने के कई प्रयत्न किए, लेकिन यहूदियों ने इसका सदा प्रतिरोध किया। इस संबंध में दो घटनाएँ उल्लेखनीय हैं -

पहली घटना नेपोलियन के शासन-काल की है। जब फ्रांस की राष्ट्रीय असेंबली इस बात के लिए सहमत हो गई कि यहूदियों के लिए 'मानव के अधिकार' घोषित किए जाएँ, तब अलसा के व्यापारी संघ और प्रतिक्रियावादी पुरोहितों ने यहूदी प्रश्न को फिर उठाया। इस पर नेपोलियन ने इस प्रश्न को यहूदियों को उनके द्वारा ही विचार करने के लिए सौंपने का निर्णय किया। उसने फ्रांस, जर्मनी और इटली के प्रमुख यहूदी नेताओं का एक सम्मेलन बुलाया ताकि इस बात पर विचार किया जा सके कि क्या यहूदी धर्म के सिद्धांत, नागरिकता प्राप्त करने के लिए आवश्यक शर्तों के अनुरूप हैं अथवा नहीं। नेपोलियन यहूदियों को बहुसंख्यकों के साथ मिला देना चाहता था। इस सम्मेलन में एक सौ ग्यारह प्रतिनिधियों ने भाग लिया। यह सम्मेलन 25 जुलाई 1806 को पेरिस के टाउन हाल में हुआ, जिसमें बारह प्रश्न विचारार्थ रखे गए थे। ये प्रश्न मुख्य रूप से यहूदियों में देश-भक्ति की भावना, यहूदियों और गैर-यहूदियों के बीच विवाह होने की संभावना और इसकी कानूनी मान्यता से संबंधित थे। सम्मेलन में जो घोषणा की गई, उससे नेपोलियन इतना प्रसन्न हुआ कि उसने येरुशलम की प्राचीन परिषद के आधार पर यहूदियों की एक सर्वोच्च न्याय परिषद (सैनहेड्रिन) का आयोजन किया। उसने इसे विधान सभा का कानूनी दर्जा देना चाहा। इसमें फ्रांस, जर्मनी, हॉलैंड और इटली के इकहत्तर प्रतिनिधि शामिल हुए। इसकी अध्यक्षता स्ट्रासबर्ग के रब्बी सिनजेइम ने की। इसकी बैठक 9 फरवरी 1807 को हुई और इसमें एक घोषणा-पत्र स्वीकार किया गया, जिसमें इस बात के लिए सभी यहूदियों का आवाह्न किया गया कि वे फ्रांस को अपने पूर्वजों का निवास स्थान मान लें, इस देश के सभी निवासियों को अपना भाई समझें और यहाँ की भाषा बोलें। इसमें यहूदियों और ईसाइयों के बीच विवाह-संबंध उदार भाव से ग्रहण करने का भी अनुरोध किया गया, लेकिन इस घोषणा-पत्र में यह भी कहा गया कि ये विवाह-संबंध यहूदियों की धार्मिक महासभा द्वारा नहीं स्वीकृत किए जा सके। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि यहूदियों ने अपने और गैर-यहूदियों के साथ विवाह-संबंध होने की स्वीकृति नहीं दी। उन्होंने इन संबंधों के विरुद्ध कुछ भी कार्रवाई न करने के बारे में सहमति मात्र दी थी।

दूसरी घटना तब की है, जब बटाविया गणराज्यों की स्थापना 1795 में हुई थी। इसमें यहूदी संप्रदाय के अति-उत्साही सदस्यों ने इस बात पर दबाव डाला कि उन ढेर सारे प्रतिबंधों को समाप्त किया जाए, जिनसे यहूदी पीड़ित हैं। किंतु प्रगतिशील यहूदियों ने नागरिकता के पूर्ण अधिकार की जो माँग की थी, उसका ऐम्स्टर्डैम में रहने वाले यहूदियों के नेताओं ने पहले तो विरोध किया जो काफी आश्चर्य की बात थी। उनको आशंका थी कि नागरिक समानता होने से यहूदी धर्म की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी और उन्होंने घोषणा की कि उनके सहधर्मी अपने नागरिक होने के अधिकार का परित्याग करते हैं, क्योंकि इससे उनके धर्म के निर्देशों के अनुपालन में बाधा पहुँचती है। इससे स्पष्ट है कि वहाँ के यहूदियों ने उस गणराज्य के सामान्य नागरिक के रूप में रहने की अपेक्षा विदेशी के रूप में रहना अधिक पसंद किया था।

ईसाइयों के स्पष्टीकरण का चाहे जो भी अर्थ समझा जाए, इतना तो स्पष्ट है कि उन्हें कम से कम इस बात का तो एहसास रहा है कि उनका यह प्रमाणित करना एक दायित्व है कि यहूदियों के प्रति उनका व्यवहार गैर-मानवीय नहीं रहा है। परंतु हिंदुओं ने अस्पृश्यों के साथ अपने व्यवहार के औचित्य को प्रमाणित करने की बात तो कभी सोची ही नहीं। हिंदुओं का दायित्व तो बहुत बड़ा है, क्योंकि उनके पास कोई वास्तविक कारण है ही नहीं, जिसके अनुसार वे अस्पृश्यता को उचित ठहरा सकें। वे यह नहीं कह सकते कि कोई व्यक्ति समाज में इसलिए अस्पृ्श्य है, क्योंकि वह कोढ़ी है या वह घिनौना लगता है। वे यह भी नहीं कह सकते कि उनके और अस्पृश्यों के बीच में कोई धार्मिक वैर है, जिसकी खाई को पाटा नहीं जा सकता। वे यह तर्क भी नहीं दे सकते कि अस्पृश्य स्वयं हिंदुओं में घुलना-मिलना नहीं चाहते।

लेकिन अस्पृश्यों के संबंध में ऐसी बात नहीं है। वे अर्थ में अनादि हैं और शेष से विभक्त हैं। लेकिन यह पृथकता, उनका पृथग्वास उनकी इच्छा का परिणाम नहीं है। उनको इसलिए दंडित नहीं किया जाता कि वे घुलना-मिलना नहीं चाहते। उन्हें इसलिए दंडित किया जाता है कि वे हिंदुओं में घुल-मिल जाना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि हालाँकि यहूदियों और अस्पृश्यों की समस्या एक जैसी है क्योंकि यह समस्या दूसरों की पैदा की हुई है, तो भी वह मूलतः भिन्न है। यहूदी की समस्या स्वेच्छा से अलग रहने की है। अस्पृश्यों की समस्या यह है कि उन्हें अनिवार्य रूप से अलग कर दिया गया है। अस्पृश्यता एक मजबूरी है, पसंद नहीं।

अस्पृश्य - उनकी संख्या

यह जानने से पहले कि अस्पृश्य होने का क्या अर्थ होता है, यह जानना आवश्याक है कि भारत में अस्पृश्यों की संख्या कितनी है? इसके लिए जनसंख्या रिपोर्ट देखनी होगी।

भारत में पहली बार आम जनगणना 1881 में हुई थी। 1881 की जनसंख्या रिपोर्ट में भारत की कुल जनगणना करने के लिए यहाँ की विभिन्न जातियों और प्रजातियों की सूची बनाने और उनका कुल योग करने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया गया था। इस रिपोर्ट में विभिन्न हिंदू जातियों का उच्च या निम्न अथवा स्पृश्य या अस्पृश्य जातियों के रूप में कोई वर्गीकरण नहीं किया गया। दूसरी बार आम जनगणना 1891 में हुई। इस बार जनगणना आयुक्त ने देश की जनसंख्या को जाति, प्रजाति और उच्च या निम्न जाति के रूप में वर्गीकृत करने की कोशिश की। किंतु यह एक प्रयास मात्र था।

तीसरी बार आम जनगणना 1901 में हुई। इस बार जनगणना के लिए एक नया सिद्धांत अर्थात स्थानीय जनमत द्वारा स्वीकृत सामाजिक वरीयता के आधार पर वर्गीकरण का सिद्धांत अपनाया गया। इस पर उच्च जाति के हिंदुओं ने जाति के अनुसार उल्लेख किए जाने का तीव्र विरोध किया। उन्होंने जाति के बारे में पूछे गए प्रश्न को निकाल देने पर बल दिया।

किंतु जनगणना आयुक्त पर इस आपत्ति का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। जनगणना आयुक्त की दृष्टि में जाति के आधार पर उल्लेख किया जाना महत्वपूर्ण और आवश्यक था। जनगणना आयुक्त ने यह तर्क दिया कि सामाजिक संस्था के रूप में जाति के गुण-दोष के बारे में चाहे कुछ भी कहा जाए, परंतु यह स्वीकार करना असंभव है कि भारत में जनसंख्या संबंधी समस्या पर कोई भी विचार-विमर्श, जिसमें जाति एक महत्वपूर्ण मुद्दा न हो, लाभप्रद हो सकता है। भारतीय समाज का ताना-बाना अभी जाति-व्यवस्था पर आधारित है और भारतीय समाज के विभिन्न स्तरों में परिवर्तन का निर्धारण अभी भी जाति के आधार पर होता है। प्रत्येक हिंदू (यहाँ इसका प्रयोग व्या‍पक अर्थ में किया जा रहा है) जाति में जन्म लेता है, उसकी वह जाति ही उसके धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक जीवन का निर्धारण करती है। यह स्थिति माँ की गोद से लेकर मृत्यु की गोद तक रहती है। पश्चिमी देशों में समाज के विभिन्न स्तरों का निर्धारण, चाहे वह आर्थिक हो, शैक्षिक हो, या व्यवसायिक हो, जिन प्रधान तत्वों के द्वारा होता है, वे अदलते-बदलते रहते हैं, वे उदार होते हैं और उनमें जन्म और वंश की कसौटी को बदलने की प्रवृत्ति होती है। भारत में आध्यात्मिक, सामाजिक, सामुदायिक तथा पैतृक व्यवसाय सबसे बड़े तत्व हैं, जो अन्य तत्वों की अपेक्षा प्रधान तत्व होते हैं। इसलिए पश्चिमी देशों में जहाँ जनगणना के समय आर्थिक अथवा व्यवसायिक वर्ग के आधार पर आँकड़े एकत्र किए जाते हैं, वहाँ भारत में जनगणना के समय धर्म और जाति का ध्यान रखा जाता है। राष्ट्रव्यापी और सामाजिक संस्थान के रूप में जाति के बारे में कुछ भी क्यों न कहा जाए, इसकी उपेक्षा करने से कोई लाभ नहीं होगा और जब तक समाज में किसी व्यक्ति के अधिकार और उसके पद की पहचान जाति के आधार पर की जाती रहेगी, तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि हर दस साल बाद होने वाली जनगणना से इस अवांछनीय संस्थाओं के स्थायी होते जाने में सहायता मिलती है।

सन 1901 की जनगणना के परिणामस्वरूप अस्पृश्यों की कुल जनसंख्या के बारे में कोई सटीक आँकड़े नहीं निकल सके। इसके दो कारण थे। पहला तो यह कि इस जनगणना में कौन अस्पृश्य है और कौन नहीं, इसे निश्चित करने के लिए कोई सटीक कसौटी नहीं अपनाई गई थी। दूसरे यह कि जो जातियाँ आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी हुई थीं और अस्पृश्य नहीं थीं, उन्हें भी अस्पृश्यों की जनसंख्या के साथ मिला दिया गया।

सन 1911 की जनगणना में कुछ आगे काम हुआ और अस्पृश्यों की गणना बाकी लोगों से अलग करने के लिए दस मानदंड अपनाए गए। इन मानदंडों के अनुसार जनसंख्या अधीक्षकों ने उन जातियों और कबीलों की अलग-अलग गणना की, जो -

1. ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को नहीं मानते।

2. किसी ब्राह्मण या अन्य मान्यता प्राप्त हिंदू से गुरु-दीक्षा नहीं लेते।

3. वेदों की सत्ता को नहीं मानते थे।

4. बड़े-बड़े हिंदू देवी-देवताओं की पूजा नहीं करते।

5. ब्राह्मण जिनकी यजमानी नहीं करते।

6. जो किसी ब्राह्मण को पुरोहित बिल्कुल भी नहीं बनाते।

7. जो साधारण हिंदू मंदिरों के गर्भ-गृह में भी प्रवेश नहीं कर सकते।

8. जिनसे छूत लगती है।

9. जो अपने मुर्दों को दफनाते हैं, और

10. जो गोमांस खाते हैं और गाय की पूजा नहीं करते।

हिंदुओं से अस्पृश्यों को अलग मानने पर मुसलमानों द्वारा सरकार को 27 जनवरी 1910 को प्रस्तुत किए अपने एक ज्ञापन में इस माँग पर बल दिया गया कि उन्हें भारत की राजनीतिक संस्थाओं में प्रतिनिधित्व हिंदुओं की कुल जनसंख्या के अनुपात में न देकर उन हिंदुओं की जनसंख्या के अनुपात में दिया जाए जो स्पृश्य होते हैं, क्योंकि उनका यह तर्क था कि जो अस्पृश्य हैं, वे हिंदू नहीं हैं।

इस तरह यह कहा जा सकता है कि 1911 की जनगणना से अस्पृश्यों की संख्या के निर्धारण की शुरुआत हुई। 1921 और 1931 की जनगणना में भी इन हिदायतों के अनुपालन की कोशिश जारी रखी गई। साइमन कमीशन जो 1930 में भारत आया था, इन्हीं कोशिशों के परिणामस्वरूप कुछ-कुछ निश्चयपूर्वक यह बता सका कि ब्रिटिश भारत में अस्पृश्यों की जनसंख्या चार करोड़ 45 लाख है।

किंतु 1932 में जब लोथियन समिति पुनर्गठित विधान सभा के लिए मताधिकार के प्रश्न पर विचार करने के लिए भारत आई और उसने जाँच करनी शुरू की तब हिंदुओं ने अचानक अपने तेवर बदल दिए और भारत में अस्पृश्यों की संख्या के बारे में जो आँकड़े साइमन कमीशन ने दिए थे उनको भारत में अस्पृश्यों की जनसंख्या के बारे में सही आँकड़ों के रूप में मानने से इनकार कर दिया। कुछ प्रांतों में तो हिेंदुओं ने यहाँ तक कहा कि उनके प्रांत में कोई अस्पृश्य है ही नहीं। इसका कारण यह था कि तब तक हिंदुओं को अस्पृश्यों की स्थिति को खुलेआम स्वीकार करने के खतरे का अहसास हो चुका था, क्योंकि इसका मतलब यह था कि हिंदुओं को जनसंख्या के आधार पर विधान सभा में जितना प्रतिनिधित्वि मिला हुआ था, उसका कुछ अंश उनसे छिनकर अस्पृश्यों को मिल जाएगा।

सन 1941 की जनगणना पर विचार करना व्यर्थ है, क्योंकि यह जनगणना युद्ध-काल में की गई और एक प्रकार से यह अनुमानित ही थी।

अंतिम जनगणना 1951 में हुई। निम्नलिखित आँकड़े जनगणना आयुक्त द्वारा जारी विवरण से लिए गए हैं। जनगणना आयुक्त ने भारत में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या पाँच करोड़ 13 लाख बताई है।

सन 1951 की जनगणना में, जिसमें भारत की कुल जनसंख्या 35 करोड़ 67 लाख बताई गई है, एक लाख 35 हजार लोगों की गणना नहीं की जा सकी, जिनसे संबंधित रिकार्ड जालंधर के जनगणना अधिकारी के कार्यालय में आग लग जाने के कारण नष्ट हो गया था।

पैंतीस करोड़, 67 लाख की कुल आबादी में से 29 करोड़ 49 लाख लोग ग्रामीण क्षेत्रों में हैं और छह करोड़, 18 लाख लोग शहरों में रहते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या चार करोड़, 62 लाख है, जब कि शहरों में उनकी जनसंख्या 51 लाख है। कुल आबादी में गैर-कृषि कार्यों में लगे दस करोड़, 76 लाख लोगों में से एक करोड़, 32 लाख लोग अनुसूचित जातियों के हैं।

कुल आबादी में जिन लोगों या उनके आश्रितों के पास पूरी तरह या आंशिक रूप से अपनी-अपनी जमीने हैं और जो खेती करते हैं, उनकी जनसंख्या 16 करोड़, 74 लाख है। इनमें से एक करोड़, 74 लाख लोग अनुसूचित जातियों के हैं। जिन लोगों के पास बिल्कुल भी या मुख्य रूप से अपनी-अपनी जमीनें नहीं है और जो खेती करते हैं, उनकी जनसंख्या पूरे भारत में तीन करोड़, 16 लाख है, इनमें से 56 लाख लोग अनुसूचित जातियों के हैं।

खेतिहर मजदूरों और उनके आश्रितों की कुल जनसंख्या पूरे भारत में चार करोड़, 48 लाख है। इनमें से एक करोड़, 48 लाख अनुसूचित जातियों के हैं।

गैर-कृषि वर्गों के आँकड़े इस प्रकार हैं -

कृषि को छोड़कर अन्य उत्पादन कार्य : कुल तीन करोड़ 77 लाख, अनुसूचित जातियों के लोग 53 लाख।

वाणिज्य व्यावसाय : कुल दो करोड़ 13 लाख अनुसूचित जातियों के लोग नौ लाख।

परिवहन : कुल 56 लाख, अनुसूचित जातियों के लोग छह लाख।

अन्य सेवाएँ और विविध साधन : कुल चार करोड़ 30 लाख, अनुसूचित जातियों के लोग 64 लाख।

अनुसूचित जाति के लोगों की कुल पाँच करोड़ 13 लाख की जनसंख्या में से उत्तर-भारत (उत्तर प्रदेश) में एक करोड़ 14 लाख लोग, पूर्वी भारत (बिहार, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल, असम, मणिपुर, त्रिपुरा) में एक करोड़ 28 लाख लोग, दक्षिणी भारत (मद्रास, मैसूर, ट्रावनकोर-कोचीन और कुर्ग) में एक करोड़ दस लाख लोग, पश्चिमी भारत (बंबई, सौराष्ट्र और कच्छ) में 31 लाख लोग, मध्य भारत (मध्य प्रदेश, मध्य‍ भारत हैदराबाद, भोपाल और विंध्य प्रदेश) में 76 लाख लोग और उत्तर-पश्चिमी भारत (राजस्थान, पंजाब, पटियाला और पूर्वी पंजाब के राज्यों, अजमेर, दिल्ली, बिलासपुर और हिमाचल प्रदेश) में 52 लाख लोग अनुसूचित जाति के हैं।

गुलाम-प्रथा और अस्पृश्यता

1.

अस्पृश्यता पर लज्जित होने के बजाए, हिंदू उसे हमेशा उचित ठहराने की कोशिश करते हैं। इसके समर्थन में उनका यह कहना है कि अन्य देशों की तुलना में भारत में गुलाम-प्रथा कभी नहीं रही और यह कि अस्पृश्यता किसी भी दशा में उतनी बुरी नहीं है, जितनी कि गुलाम-प्रथा है। ऐसा ही तर्क स्व. लाला लाजपतराय जैसे महान व्यक्ति ने 'अनहैपी इंडिया' नामक अपनी पुस्तक में दिया है। इस कथन का खंडन करने के लिए समय का अपव्यय करने की आवश्यकता नहीं थी, अगर बाकी दुनिया को, जिसने गुलाम-प्रथा से बुरी कोई प्रथा देखी ही नहीं, यह विश्वास नहीं होता कि अस्पृश्यता गुलाम-प्रथा से बुरी हो ही नहीं सकती।

इस तर्क का उत्तर तो यही है कि यह कहना सरासर झूठ बोलना है कि हिंदुओं में गुलाम-प्रथा कभी थी ही नहीं। यह तो हिंदुओं की एक अति-प्राचीन प्रथा है। इसे हिंदुओं के विधि-निर्माता मनु ने मान्यता प्रदान की और उनके बाद उनका अनुसरण करने वाले अन्य स्मृतिकारों ने इसे व्यापक बनाया और व्यवस्थित रूप दिया। हिंदुओं में गुलाम-प्रथा केवल एक प्राचीन प्रथा के रूप में नहीं थी जो केवल धुँधले अतीत में प्रचलित रही हो, बल्कि यह तो एक ऐसी संस्था थी जो भारत के इतिहास में 1843 तक प्रचलित रही और अगर अँग्रेजी सरकार इसे उस वर्ष कानून बनाकर समाप्त न कर देती, तो शायद यह आज भी प्रचलित होती।

अस्पृश्यता और गुलाम-प्रथा में कौन-सी प्रथा अच्छी या बुरी है, इसे आधार मानकर उठाए जाने वाले तर्क का उत्तर देने के लिए सबसे अच्छा उपाय इन दोनों के बीच अर्थात अस्पृश्यता का गुलाम-प्रथा के साथ, जैसी कि यह प्राचीन रोम और आधुनिक अमरीका में थी, तुलना करना और उनके अंतर को स्पष्ट करना है।

रोम साम्राज्य में व्यवहार में गुलामों की क्या स्थिति थी? जहाँ तक मेरी जानकारी है, इसका सबसे अच्छा विवरण श्री बैरो की 'स्लेवरी इन रोमन एंपायर' नामक पुस्तक में मिलता है। श्री बैरो लिखते हैं - अब तक जो चित्रण किया गया, वह घरों की गुलाम-प्रथा का घृणित पक्ष है। इसका एक दूसरा पक्ष भी है। साहित्य में घरों को सामान्य रूप में चित्रित किया गया है। निश्चय ही यह अपवादस्वरूप है। निस्संदेह गुलाम भारी संख्या में होते थे और ये प्रायः रोम में पाए जाते हैं। इटली और अन्य प्रांतों में दिखाने के लिए इनकी आवश्यकता घरों में कम थी। इनके गुलाम भारी संख्या में खेतों में काम करने और इससे जुड़े उत्पादकता कार्यों के लिए लगाए जाते थे। वहाँ इन गुलामों के बीच आपसी संबंध ठेकेदार और मजदूरों के बीच जैसा होता था, उनमें से एक उनका मुखिया होता था, बाकी उसके अधीन काम करते थे। प्लिनी का अपने गुलामों के प्रति दयापूर्ण व्यवहार प्रसिद्ध है। वह अपने गुलामों के प्रति यह व्यवहार धार्मिक भावना से प्रेरित होकर या इस इच्छा से नहीं करता था कि आगे आने वाली पीढ़ी की दृष्टि में वह अच्छा समझा जाएगा और यह पीढ़ी उसके उन पत्रों को पढ़ेगी जिसमें उसने अपने गुलामों की मुसीबतों और मृत्यु का वर्णन किया है। प्रत्येक घर (या प्लिनी) उसके गुलामों के लिए मानो एक गणराज्य था। प्लिनी का अपने गुलामों के साथ व्यवहार सामान्य या कभी-कभी के व्यवहार की तुलना में इतना अच्छा मान लिया जाता है कि उसे कोई ठोस साक्ष्य नहीं माना जाता है। इस दृष्टिकोण के लिए कोई कारण समझ में नहीं आता।

अमीर लोग कुछ तो दिखावे के लिए और कुछ सचमुच साहित्यिक रुचि के कारण अपने-अपने घरों में ऐसे गुलाम रखा करते थे, जो साहित्य और कला में दक्ष होते थे। 'क्लाविससेस सेबीनस' के बारे में 'सैनेडा' का कहना है कि उसने अपने ग्यारह गुलामों को होमर, हैसीओइड और नौ अन्य गीतकारों की रचनाएँ कंठस्थ करा दी थीं। जब उसके एक मित्र ने इस पर यह टिप्पणी की कि 'इससे सस्ती न तो किताबों की अलमारियाँ होंगी, तब यह उत्तर दिया गया कि 'नहीं, जो घर का मालिक जानता है, घर के सभी लोग भी वही जानें।' इन अतिशयोक्तियों के अलावा, सच्चाई तो यह है कि छपाई आदि की सुविधा नहीं होने के कारण पढ़े-लिखे गुलाम आवश्याक समझे जाते होंगे। व्यस्त वकील, काव्यप्रेमी, कवि, दार्शनिक और साहित्यिक अभिरुचि के व्यक्तियों को नकलनवीसों, रीडरों और लिपिकों की आवश्यकता होती थी। ऐसे लोग स्वाभाविक रूप से भाषा वैज्ञानिक भी होते थे। एक पुस्तक विक्रेता का दावा है कि वह लैटिन और ग्रीक साहित्य का विद्वान है। आशुलिपिकों की भरमार थी। निजी और सार्वजनिक पुस्तकालयों में लाइब्रेरियन होते थे...। शासन में आशुलिपि की सहायता लेना साधारण बात थी और गुलाम नाजिरों को नियमित नौकरियाँ मिलती थीं। एक विशेष शोध-प्रबंध में स्नेटोनियस ने बहुत से मुक्त गुलाम शास्त्रकारों और वैयाकरणिकों का उल्लेख किया है। आस्टस के पोते का अध्यापक वैरीअस फलाकस था और उसकी मृत्यु हो जाने पर उसकी मूर्ति लगाकर उसका सार्वजनिक रूप से सम्मान किया गया। स्क्रीबोनियस एफ्रोडीसियस एक गुलाम था। वह ओरबीलियस का शिष्य था, जो बाद में स्क्रीबेनिया द्वारा आजाद कर दिया गया था। हाइजीनियस, पैलेटाइन पुस्तकालय का लाइब्रेरियन था। इस कार्यालय में उसके पश्चात उसी के द्वारा आजाद किए गए जूलियस मोडेसटस नामक गुलाम को नियुक्त किया गया। हमें एक गुलाम दार्शनिक का भी पता चलता है, जिसके अनेक मुक्त किए गए गुलाम इतिहासकार होते थे। इस दार्शनिक को अपने मालिक, गुलामों के दोस्तों और मुक्ते हुए गुलाम वास्तुकारों के साथ बहस के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। शिलालेखों में मुक्त किए ऐसे गुलामों का बार-बार उल्लेख मिलता है, जो डॉक्टार होते थे। इनमें से कुछ विशेषज्ञ भी थे। जैसा कि एक या दो उदाहरणों से पता चलता है, इनका प्रशिक्षण बड़े-बड़े घरानों में गुलाम के रूप में हुआ। ये कुछ दिन पश्चात प्रख्यात हो गए और मोटी फीस लेने के लिए बदनाम हो गए।

समाज के कुछ वर्गों द्वारा नर्तर्कों, गायकों, संगीतकारों, खेलकूद प्रशिक्षकों आदि की माँग हुई। गुलामों में इस कोटि के लोग भी हुए। इनमें से कुछ को शिक्षकों द्वारा प्रशिक्षित भी किया गया और उन्होंने ख्याति अर्जित की।

आगस्टगस के समय में वाणिज्य और उद्योगों का विस्तार हुआ। इससे पहले भी गुलामों को (कला और शिल्प) के कार्यों में लगाया जाता था। परंतु व्यापार में अचानक वृद्धि हो गई, अन्य था उन्हें। अधिक संख्या में रखना व्यर्थ होता। रोम निवासी और भी खुलकर विभिन्न व्यावसायिक और औद्योगिक गतिविधियों में लग गए। चूँकि व्यापारिक गतिविधियाँ और अधिक बड़े पैमाने पर होने लगी और दलालों का महत्व और अधिक बढ़ गया, तो भी ये दलाल वही होते थे जो गुलाम थे। यह इस कारण था कि गुलामों की शर्तें लचीली होती थीं। यह इसलिए भी लचीली होती थीं कि जिससे किसी भी गुलाम को यह लालच दिया जा सके कि वह धन और स्वतंत्रता की आशा से कार्य करे और उनमें इतनी बंदिश भी रहे कि जिससे गुलाम द्वारा अपने मालिक को अपने दुर्व्यवहार के कारण हुए नुकसान की भरपाई करने की गारंटी भी रहे। व्यापार में किसी गुलाम और उसके मालिक अथवा अन्य व्यक्ति के बीच व्यावसायिक शर्तें आम बात थी और इस प्रकार किया गया कार्य निःसंदेह बहुत लाभकारी था...। गुलामों को भूमि किराए पर देने की प्रथा का ऊपर जिक्र किया जा चुका है... और यह प्रणाली उद्योगों में कई रूपों में प्रचलित थी। मालिक किसी भी गुलाम को अपने बैंक या जहाज के उपयोग की इजाजत दे सकता था, लेकिन शर्त यह होती थी कि वह उसे इसके बदले में निश्चित राशि या कमीशन देगा।

ये गुलाम जो कुछ कमाते, वह कानून की दृष्टि में उनकी संपत्ति बन गई और जिसे वे विभिन्न प्रयोजनों पर खर्च कर सकते थे। निस्संदेह अधिकांश मामलों में यह धनराशि या तो भोजन पर खर्च होती या आमोद-प्रमोद पर खर्च होती। यह संपत्ति कोई थोड़ी बचत नहीं होती थी जिसे वह कभी-कभी कमाते और मौज-मस्ती के लिए उड़ा देते हों। जो गुलाम अपने मालिक के कारोबार को इस लायक बना देते कि उससे लाभ होने लगे और उन्हें खुद भी लाभ हो, वे यह भी कोशिश करते कि उन्होंने जो कुछ खर्च कर दिया है उसकी भरपाई भी हो जाए। वह अपनी इस अतिरिक्त आय को अपने मालिक के कारोबार में या उससे भिन्न किसी दूसरे कारोबार में फिर से लगा देते। वह अपने मालिक के साथ व्यापारिक संबंध रखते और मालिक उन्हें बराबर का हिस्सेदार मान लेते या वे किसी के साथ करार करते। वह अपनी संपत्ति अथवा अपने कारोबार के इंतजाम के लिए मुख्तार भी रख लेते और इस प्रकार उनकी संपत्ति में केवल भूमि, भवन, दुकानें ही नहीं होती थीं बल्कि अधिकार-पत्र और दावे भी होते थे।

व्यापार में लगे गुलामों के अनगिनत कारोबार होते, उनमें से बहुत से दुकानदार होते जो खाने की तरह-तरह की सामग्री बेचते जैसे रोटी, मांस, नमक, मछली, शराब, सब्जियाँ, फल, शहद, दही, बत्तखें और ताजा मछलियाँ आदि। कुछ गुलाम कपड़े, चप्पलें, जूते, गाउन और मेंटल आदि बेचते थे। रोम में सर्कस मामीमस या पोर्टिकस ट्रिगमिमस या इज क्विलाइन मार्केट या दि ग्रेट मार्ट (कैओलिन पहाड़ी पर स्थित) या सुबर्रा नामक स्थाकनों पर इनकी दुकानें थीं....।

पोंपेई में सैसीलियस जुकुंडस के घर पर जो रसीदें मिलीं, उनसे यह स्पष्ट पता चलता है कि ये गुलाम कितनी अधिक संख्या में अपने-अपने मालिकों के यहाँ मुख्तार और एजेंटों के रूप में काम किया करते थे।

यह बात कोई आश्चर्यजनक नहीं लगती कि राज्य के अधीन भी गुलाम हुआ करते थे। आखिरकार युद्ध करना तो राज्य का ही कार्य था और इससे जो बंदी बनाए जाते, वह राज्य की ही तो संपत्ति होती थी। आश्चर्यजनक तो यह है कि राज्य में इन गुलामों से बड़े-बड़े काम लिए जाते और यह कि इन्हें समाज में विशेष पद प्राप्त थे।

किसी साम्राज्य के लिए 'राज्य का गुलाम' शब्द का अर्थ यह होने लगा कि वह गुलाम राज्य में शासन के विभिन्न पदों में से किसी पद पर नियुक्त है, उसका एक निश्चित कर्तव्य है तथा समाज में प्रायः उसकी एक प्रतिष्ठा है। राज्य के गुलाम, नगर के गुलाम और सीजर के गुलाम से क्रमशः ऐसे कर्मचारियों का बोध होने लगा, जैसे कि आजकल सिविल सेवाओं उच्च और समस्त अवर पद या नगर निगम में कार्यरत कार्मिक होते हैं। (कोषागार के) अधीनस्थ अनेक लिपिक और वित्तीय अधिकारी काम करते थे। इनमें सभी मुक्त गुलाम होते थे। ये लोग जो व्यवसाय करते, उसका क्षेत्र व्यापक होता... जैसे टकसाल... यहाँ प्रधान कोई सामंत होता, जो सारी टकराव का अधिकारी होता था... इसके अधीन एक मुक्त गुलाम होता और उसके अधीन अनेक मुक्त गुलाम और गुलाम होते थे। लेकिन कुछ विशेष संकट के समय एक या दो अवसरों को छोड़कर इन गुलामों को एक कार्य से बिल्कुल अलग रखा जाता था। उन्हें सेना में शामिल होकर युद्ध करने की अनुमति नहीं थी, क्योंकि ये इस सम्माननीय कार्य के योग्य नहीं समझे जाते थे। हो सकता है कि इसके अन्‍य कारण भी हों, अधिक संख्या में गुलामों का शस्त्रों के प्रयोग का विधिवत प्रशिक्षण खतरनाक प्रयोग हो सकता था। अगर इन्हें सेना में रख भी लिया जाता, तो इन्हें युद्ध करने बहुत कम भेजा जाता और इन्हें नियमित रूप से सेना के हरावल में रखा जाता था, जहाँ ये भारी संख्या में सेवक के रूप में काम करते और इनसे रसद पहुँचाने की ढुलाई करने का काम लिया जाता था। नावों के बेड़ों में गुलाम काफी संख्या में होते थे।

2.

अब हम अमरीका में नीग्रो लोगों के बारे में उनके उस युग की वास्तविक दशा पर विचार करेंगे, जब कानून की दृष्टि में वे गुलाम माने जाते थे। यहाँ कुछ ऐसे तथ्य दिए जा रहे हैं, जिनसे उनकी दशा पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है - "लैफायत ने स्वयं यह देखा कि क्रांति के दौरान श्वेत और अश्वेत नाविकों और सैनिकों ने एकजुट हो आपस में बिना किसी कटुता के संघर्ष किया। उत्तरी कैरोलिना के ग्रानविले काउंटी में जॉन चैविस नामक एक मूल नीग्रो था, जिसकी शिक्षा-दीक्षा प्रिंसटन विश्वविद्यालय में हुई थी। यह श्वेत छात्रों के लिए एक प्राइवेट स्कूील चलाता था। उसे स्थानीय चर्च द्वारा राज्य में श्वेतों की सभाओं में प्रवचन करने का भी अधिकार मिला हुआ था। उसके शिष्यों में से एक शिष्य उत्तरी कैरोलिना का गवर्नर और दूसरा राज्य का एक प्रमुख बिग सीनेटर भी हुआ। उसके दो शिष्य उत्तरी कैरोलिना के मुख्य न्यायाधीश के पुत्र थे। राज्य की सबसे बड़ी सैनिक अकादमी के संस्थापक का पिता उसके स्कूल में पढ़ा और उसी के घर में रहा...। इस प्रकार गुलाम हर प्रकार का कार्य करते थे। नीग्रो गुलामों में जो अधिक प्रतिभाशाली होते थे, उन्हें कारीगर का प्रशिक्षण दिया जाता था, जिससे उनका उपयोग हो सके और उनकी सेवाएँ ठेके पर दी जा सकें। गुलाम कारीगरों से बाजार में उपलब्ध दूसरे सामान्य कारीगरों की अपेक्षा दुगुनी आय होती थी। उस्ताद कारीगरों के अपने कर्मचारी होते थे। चूँकि इस पद्धति का विकास होता गया, कुछ उस्ताद कारीगर अपने गुलाम कारीगरों के लिए भाड़े पर गुलामों को रखने लगे। बहुत से गुलाम कारीगर अपनी बचत से जो उन्हें सामान्यतः किए गए काम से अधिक काम करने से होती, उन्हें खरीद लिया करते थे।

काम छोड़कर भाग जाने वाले गुलामों और उनकी बिक्री के बारे में जो विज्ञापन प्रकाशित होते, उनसे इस परिपाटी के विकसित हो जाने की पुष्टि होती है। इन लोगों को गरीब श्वेत मजदूरों के बराबर या उनसे अधिक वेतन मिलता और अपने उस्तादों के प्रभाव से अच्छे‍ से अच्छा‍ काम मिल जाता था। 1838 में एथेंस और जार्जिया में चिनाई व लकड़ी का काम करने वालों के ठेकेदारों को एक याचिका दी गई कि वे नीग्रो मजदूरों को तरजीह देना बंद कर दें। 'कानूनी तौर पर, नैतिक दृष्टि से और नागरिकता की दृष्टि से इस देश और राज्य के असली मालिक श्वेत हैं। उनके स्वामित्व का अधिकार तभी स्थापित हो गया था, जब श्वेत जाति के कोपरनिकस और गैलिलियो ने पृथ्वी को गोलाकार साबित कर दिया था। इसका ज्ञान एक अन्य श्वेत व्यक्ति कोलंबस को भी था, जिसने पश्चिम की ओर चलकर इस भूमि का पता लगाया। इसलिए एक श्वे‍त व्यक्ति ने ही इस महाद्वीप की खोज की। इस प्रकार आप उसी वर्ग के व्यक्तियों को रोजी-रोटी से वंचित कर रहे हैं, उनके परिवार का पेट काट रहे हैं। आप सौदेबाजी में भी उन्हें काम न देकर नीग्रो लोगों का पक्ष ले रहे हैं।' 1858 में अटलांटा में श्वेत मिस्त्रियों और मजदूरों ने उस्तादों के अश्वेत गुलाम कारीगरों के खिलाफ याचिका दी, जो अलग कालोनी में रह रहे थे। उसके अगले वर्ष ही बहुत से श्वे‍त नागरिकों ने इस बात पर आपत्ति प्रकट की कि नगर परिषद ने उनकी कालोनी में एक नीग्रो दंत चिकित्सक को डॉक्टरी की इजाजत दे रखी है। 'हमारे और समाज के साथ न्याय करने के लिए उस पर रोक लगाई जाए। हम अटलांटा के नागरिक आप से न्याय की गुहार करते हैं।' जार्जिया के रिचमंड काउंटी में 1819 में स्वतंत्र नीग्रो वर्ग की जनगणना से पता चला है कि उनमें बढ़ई नाई, बोटकोर्कर, जीनसाज, चर्खा कातने वाले, मिलराइट, होल्ट कर, जुलाहे, करघा बनाने वाले, आरा मशीन चलाने वाले और स्टीम बोट पायलेट थे। एक नीग्रो मोची ने अपने हाथ से जूते बनाए थे, जो राष्ट्रपति मुनरो ने अपना पद ग्रहण करते समय पहने थे। मोंटीसेलो में थामस जेफर्सन के घर पर जिस खूबसूरती से एक गुलाम ने टाइलें बिछाई थीं, उसे देख हैरियत मार्टीन्यूप को दंग रह जाना पड़ा था। आज भी पुराने बाग में यह भवन मौजूद है, जिसमें इन नीग्रो कारीगरों का कमाल देखने को मिलता है। इन लोगों ने ओक वृक्षों के तनों को चीरकर उसे उन्हीं वृक्षों की लकड़ी के कीलों को जोड़-जोड़ कर तैयार किया था। कताई और बुनाई में प्रवीण नीग्रो स्त्रियाँ मिलों में कार्य करती थीं। बकिंघम ने 1839 में एथेंस और जार्जिया में देखा कि ये नीग्रो श्वेत लड़कियों के साथ कार्य कर रहे थे और उनमें श्वेत लड़कियों के प्रति तिरस्कार या आपत्ति की कोई भावना नहीं थी। दक्षिण के नीग्रो कारीगर चाहे वे गुलाम होते या मुक्त, सभी अपने उत्तरी क्षेत्र के भाइयों से बेहतर थे। फिल्डेकल्फिया में 1856 में लोगों की चिढ़ के कारण 1,637 नीग्रो कारीगरों में से दो तिहाई से भी कम अपना धंधा कर पाते थे। उत्तर में आयरिश लोगों को जो 19वीं शताब्दी के शुरू से ही अमरीका में आने शुरू हो गए थे, उन्हीं सिद्धांतों के आधार पर काम पर लिया जाने लगा, जो नीग्रो गुलामों पर लागू होते थे। उनके पक्ष में कहा गया था कि एक आयरिश कैथोलिक मुश्किल से ही अपनी स्थिति को सुधार पाता है, जब कि इस बारे में नीग्रो लोग सफल हो जाते हैं। जिस समय अश्वेत गुलामों की खरीद-फरोख्त का चलन था तो क्या ओलीवर क्रोमवेल ने उन सभी आयरिश लोगों को बेच नहीं दिया था जो फ्लोरिडा के ड्रोघेदा नरसंहार से बच बार्बेडोस भाग आए थे। न्यूयार्क और पेंसिलवानिया के मुक्त और भगोड़े नीग्रो लोगों का इन लोगों के साथ बराबर टकराव होता रहता था। इस टकराव का सबसे भयंकर रूप उन दंगों में देखने के लिए मिला, जो न्यूयार्क में भड़क उठे थे। इन मूल आयरिश लोगों का मकान बनाते समय बेलदार के रूप मे काम पर और छोटे-बड़े कामों पर एकाधिकार था। इसलिए वे नीग्रो लोगों की किसी भी ऐसी कोशिश पर भड़क उठते, जो उन्हें अपनी रोजी-रोटी के लिए खतरा लगती।

3.

रोज रोमन गुलामों और अमरीका के नीग्रो गुलामों की यथार्थ स्थिति थी। क्या भारत में अस्पृश्यों की स्थिति में कहीं कोई ऐसी बात है, जिसकी रोमन गुलामों और नीग्रो गुलामों की स्थिति से तुलना की जा सकें? अगर हम रोमन और नीग्रो गुलामों की स्थिति के साथ अस्पृश्यों की स्थिति की तुलना करने के लिए समान युग का चयन करें तो यह अनुचित नहीं होगा। लेकिन मैं आज के अस्पृश्यों की तुलना गुलामों की उस दशा से करना अनुचित नहीं समझता, जो रोमन साम्राज्य में उनकी थी। यह तुलना ऐसी होगी कि हम बदतर स्थिति की तुलना किसी श्रेष्ठ स्थिति से कर रहे है क्योंकि अस्पृश्यों के संबंध में उनकी आज की स्थिति स्वर्णिम स्थिति समझी जाती है। आज की अस्पृश्‍यों की वास्तविक स्थिति गुलामों की वास्तविक स्थिति से कितनी भिन्न है? आज कितनी संख्या में अस्पृश्य लाइब्रेरियन, स्टेनोग्राफर आदि जैसे व्यवसायों में लगे हुए हैं, जितने कि इन व्यवसायों में रोम में गुलाम नियुक्त थे? आज कितने अस्पृश्य वाक्पटु, भाषाविज्ञानी, दार्शनिक, अध्यापक, डाक्टोर और कलाकार हैं और बौद्धिक कार्यकलाप करते हैं, जैसा कि रोम में गुलाम किया करते थे। क्या रोम के गुलामों की तरह भारतीय अस्पृश्यों से वे काम कराए जाते है, क्या कोई हिंदू ऐसी हिम्मत रखता है कि इन प्रश्नों की उत्तर 'हाँ' कह कर दे? अस्पृश्यों के लिए ये सारे रास्ते पूरी तरह बंद है, जब कि रोमन गुलामों के लिए ये पूरी तरह खुले हुए थे। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि हिंदू अस्पृश्यता को उचित ठहराने के लिए जो दलील देते हैं, कितनी सारहीन है। दुख तो इस बात का है कि अधिकांश लोग गुलामी को मात्र इसलिए बुरा बताते हैं कि इसमें कानून द्वारा एक व्यक्ति के जीवन का जो अधिकार दूसरे को सौप दिया जाता है, वह गलत है। वे यह भूल जाते हैं, चाहे गुलाम-प्रथा हो न हो, जुल्म, उत्पीड़न, क्रूरता और प्रताड़ना बनी ही रहती है, जिससे पीड़ा, हताशा और नैराश्य का जन्म होता है। जो लोग गुलामों की उपरोक्त यथार्थ स्थिति पर विचार करेंगे, उन्हें यह मानना पड़ेगा कि गुलाम-प्रथा को उसकी कानूनी अवधारणा पर हल्के-फुल्के ढंग या तपाक से बुरा कह देना निरर्थक बात होगी। जो कुछ कानून अनुमति देता है, वह समाज में प्रचलित व्यवस्था का साक्ष्य नहीं है। बहुत से गुलाम यह स्वीकार कर लेंगे कि उनके पास जो कुछ है, वह गुलाम-प्रथा के कारण ही है और बहुतों ने संपदा अर्जित की, चाहे उन्होंने इस तथ्य को स्वीकार किया हो अथवा नहीं।

यह अवश्य, स्वीकार किया जाना चाहिए कि गुलाम-प्रथा कोई स्वतंत्र समाज-व्यवस्था नहीं है। किंतु क्या अस्पृश्यता एक स्वतंत्र-व्यवस्था है? जो हिंदू अस्पृश्यता का समर्थन करते हैं, निस्संदेह वे कहेंगे कि 'हाँ, यह स्वतंत्र समाज-व्यवस्था है।' वे यह भूल जाते हैं कि गुलामी और अस्पृश्यता में अनेक प्रकार के अंतर हैं, और इनके कारण ही अस्पृश्यता परतंत्र समाज-व्यवस्था का सबसे अधिक कुत्सित रूप है। गुलामी कभी अनिवार्य नहीं रही, परंतु अस्पृश्यता अनिवार्य व्यवस्था है। कोई व्यक्ति किसी को भी गुलाम के रूप में रख सकता था। यदि वह किसी को गुलाम न रखना चाहे, तब उस पर ऐसा न करने की कोई पाबंदी नहीं। परंतु अस्पृश्यता के संबंध में कोई विकल्प नहीं। अगर कोई एक बार अस्पृ‍श्य के घर में जन्म‍ ले ले, तब वह सब तरह से अस्पृश्य हो जाएगा। गुलाम-प्रथा के कानूनों में मुक्ति का विधान है। कोई व्यक्ति यदि एक बार गुलाम हो गया, तो यह आवश्यक नहीं कि वह जीवन-भर गुलाम ही रहेगा। अस्पृश्य होने पर वह उससे बच नहीं सकता। एक बार अस्पृश्य, तो हमेशा के लिए अस्पृश्य। दूसरा अंतर यह है कि अस्पृश्यता गुलामी का एक अप्रत्यक्ष रूप है और इसलिए अत्यंत कुत्सित है। किसी व्यक्ति को उसकी स्व‍तंत्रता से खुले तौर पर और प्रत्यक्ष रीति से वं‍चित कर देना गुलाम बनाने की बेहतर प्रथा है। इससे एक गुलाम को अपनी गुलामी का अहसास रहता है और यह प्रतीति ही आजादी की लड़ाई का सबसे पहला और अमोघ अस्त्र है। परंतु यदि किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता अप्रत्यक्ष रीति से छीन ली जाए, तब उसे अपने गुलाम होने का अहसास ही नहीं होगा। अस्पृश्यता गुलाम-प्रथा का एक अप्रत्यक्ष रूप है। किसी अस्पृश्य से कहा जाए कि 'तुम स्वतंत्र हो, तुम एक नागरिक हो, तुमको नागरिकता के सभी अधिकार प्राप्त है' और उसे रस्सी से इस तरह बाँध दिया जाए कि वह स्वतंत्र होने का अनुभव भी न कर सके, तब यह निर्दयतापूर्वक धोखा देना है। अस्पृश्यों को उनकी गुलामी का अहसास न होने देना उनको गुलाम बनाना है। यह अस्पृ्श्यता है, तो भी यह गुलामी है। यह यथार्थ है, हालाँकि यह अप्रत्यक्ष है। यह अव्यक्त है, इसलिए यह स्थायी है। इन दोनों व्यवस्थाओं में से अस्पृश्यता निस्संदेह बुरी है।

न तो गुलामी ही स्वतंत्र समाज-व्यवस्था है, और न ही अस्पृश्यता। परंतु यदि इन दोनों में अंतर किया जाए और इस बात में कोई संदेह भी नहीं है कि इन दोनों में अंतर है, तो इस अंतर की कसौटी यह होगी कि क्या गुलामी की स्थिति में शिक्षा, नैतिक आदर्श, सुख, संस्कृति और समृद्धि संभव है, या यह अस्पृश्यता की स्थिति में संभव है। अगर इन कसौटी पर इन दोनों स्थितियों को परखा जाए तब निस्संदेह यह पता चलेगा कि गुलामी की स्थिति सौ दर्जे अच्छी है। गुलामी में शिक्षा, नैतिक आदर्श, सुख, संस्कृति और समृद्धि की गुंजाइश है। अस्पृश्यता में तो इनमें से किसी की गुंजाइश नहीं। अस्पृश्यता में गुलामी जैसी परतंत्र समाज-व्यवस्था के लाभ की कोई संभावना नहीं। इसमें स्वतंत्र व्यवस्था की सारी हानियाँ विद्यमान हैं। गुलामी जैसी परतंत्र समाज-व्यवस्था में कुछ लाभ भी हैं, जैसे व्यापार, दस्त-कारी या कला का अनुभव, या जैसा कि प्रोफेसर मूरेस ने इसे 'उच्च संस्कृति की दीक्षा का सोपान' कहा था। गुलामी की प्रथा में, विशेषकर जो प्रथा रोमन साम्राज्य में प्रचलित थी, उसमें अस्पृश्यता को समाप्त करने या व्यक्तिगत विकास की बाधाओं की अस्वी‍कृति का प्रश्न ही नहीं हुआ। इसलिए अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि गुलामी की प्रथा अस्पृश्यता से बेहतर है।

इस प्रकार यह प्रशिक्षण, संस्कृति से परिचय निस्संदेह गुलामों के लिए एक बहुत बड़ी नियामत थी। इसमें मालिकों को अपने गुलामों के प्रशिक्षण और उन्हें सुसंस्कृत करने पर काफी धन खर्च करना पड़ता था। 'गुलामों के रूप में रखने से पूर्व बहुत कम गुलाम ऐसे मिलते थे, जो शिक्षित या दीक्षित होते थे। इसका उपाय यही था कि उन्हें छोटी अवस्था से ही घरेलू कामों में प्रशिक्षित कर दिया जाए या कारीगरी सिखा दी जाए, जैसा कि साम्राज्य की स्थापना के पूर्व कुछ मात्रा में ज्येष्ठ काटो ने किया था। यह प्रशिक्षण उनके मालिकों और उनके यहाँ मौजूद कार्मिकों द्वारा दिया जाता था। दरअसल अमीर घरों में विशेष प्रशिक्षक होते थे। यह प्रशिक्षण कई प्रकार के क्षेत्रों में दिया जाता था, जैसे उद्योग-व्यापार, कला और साहित्य।'

ये मालिक अपने गुलामों को अच्छे से अच्छे कामों और संस्कृति में क्यों प्रशिक्षित करते थे, निस्संदेह उनका उद्देश्य इनसे आर्थिक लाभ प्राप्त करना होता था। कुशल श्रमिक अकुशल श्रमिक की तुलना में अधिक मूल्यवान मद होती थी। उसे बेचने पर उसकी कीमत ज्यादा मिलती और भाड़े पर चढ़ाने पर उसकी मजदूरी भी ज्यादा मिलती थी। इसलिए मालिकों द्वारा गुलामों को शिक्षित करना मानो पूँजी निवेश करना था।

गुलाम-प्रथा जैसी परतंत्र समाज-व्यवस्था में गुलामों का भरण-पोषण करना और उन्हें। स्वस्थ रखना उनके मालिकों का दायित्व था। गुलाम को अपने भोजन, कपड़ों और अपनी रिहायश के बारे में चिंता से मुक्त रखा जाता था। इस सबकी व्यवस्था करने के लिए मालिक बाध्य होता था। यह उसके मालिक के लिए बोझ नहीं होता था, क्योंकि गुलाम अपने ऊपर होने वाले खर्च से ज्यादा कमा लेता था। लेकिन हर स्वतंत्र व्यक्ति के लिए अपनी रोजी-रोटी और मकान की कोई सुरक्षित व्यवस्था हमेशा संभव नहीं होती है, क्योंकि श्रमिक अपनी-अपनी कीमत जानते हैं। जो काम करने के लिए तैयार है, उस तक को काम नहीं मिलता और श्रमिक के संबंध में ऐसा कोई नियम भी नहीं है, जिसके अधीन उसे उन दिनों तक दाना-पानी मिल सके, जब तक उसे कोई काम नहीं मिल जाता है। यह नियम कि काम नहीं तो रोटी नहीं, गुलामों पर नहीं लागू होता है। उसके लिए रोटी के साथ-साथ काम ढूँढ़ने की जिम्मेदारी मालिक पर होती है। अगर मालिक उसके लिए काम ढूँढ़ने में असफल रहता है, तो इससे गुलाम का अपने लिए रोटी मिलने का अधिकार नहीं छिन जाता है। व्यापार में उतार-चढ़ाव, लाभ और हानि सामान्य परिवर्तन हैं, जिन्हें हर स्वतंत्र श्रमिक को भोगना होता है। लेकिन इनका गुलामों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इनका प्रभाव उसके मालिक पर तो पड़ सकता है, लेकिन गुलाम इन सबसे मुक्त है। उसे अपनी रोटी, शायद वही रोटी मिलती है, चाहे लाभ के दिन हों या घाटा हो रहा हो।

गुलाम-प्रथा जैसी परतंत्र समाज-व्यवस्था में गुलाम के स्वास्थ्य और उसके कुशल-क्षेम का ध्यान रखने के लिए उसका मालिक बाध्य है। गुलाम, मालिक की संपत्ति था। लेकिन गुलामों की यही निर्भरता स्वतंत्र व्यक्ति के मुकाबले उनके लिए वरदान बन गई। वे संपत्ति स्वरूप थे, इसलिए मूल्यवान थे। मालिक अपने हित गुलामों के स्वास्थ्य और उनके कुशल-क्षेम का पूरा ध्यान रखते थे। रोम में गुलामों को दलदली इलाकों या मलेरिया-ग्रस्त क्षेत्रों में, कभी नहीं भेजा जाता था। ऐसे क्षेत्रों में स्वतंत्र व्यक्ति भेजे जाते थे। काटो ने रोमन किसानों को सलाह दी थी कि वे कभी भी अपने गुलामों को दलदली या मलेरिया-ग्रस्त क्षेत्रों में न भेजें। यह अजीब-सा लगता है। परंतु जरा-सा ध्यान देने पर ही पता चल जाएगा कि यह स्वाभाविक भी था। आखिर गुलाम उनकी मूल्यवान संपत्ति होते थे। इसलिए कोई समझदार मालिक जिसे अपने हित का ज्ञान है, अपनी मूल्यवान संपत्ति को मलेरिया से क्यों तबाह होने दे। परंतु जो गुलाम नहीं थे, उनकी किसे परवाह थी क्यों कि वे किसी की संपत्ति थोड़े ही होते थे? इस कारण गुलामों को बड़ी सुविधा प्राप्त थी। उनका इतना ध्यान रखा जाता था, जितना और किसी का नहीं रखा जाता।

अस्पृश्यों को परतंत्र समाज-व्यवस्था की उक्त इन तीनों सुविधाओं में से कोई भी सुविधा प्राप्त नहीं है। उच्चतर अध्ययन के क्षेत्र में अस्पृ‍श्य का कोई प्रवेश नहीं है, उसके लिए सभ्य जीवन के कोई रास्ते नहीं खुले हुए हैं। उसका काम सिर्फ सफाई करना है। उसे और कुछ नहीं करना है। अस्पृश्यता का अर्थ उसकी रोजी-रोटी की सुविधा नहीं है। हिंदुओं में से कोई भी अस्पृश्य को रोजी-रोटी, मकान व कपड़ा मुहैया करने के लिए जिम्मेदार नहीं है। अस्पृश्य का स्वास्थ्य किसी की जिम्मेदारी नहीं। अस्पृ़श्य की मौत शुभ मानी जाती है। एक हिंदू कहावत है - 'अस्पृश्य मरा, गंद हटा।

दूसरी तरफ, अस्पृश्य के लिए स्वतंत्र समाज-व्यवस्था की सभी बलाएँ उसकी तकदीर में लिखी हैं। स्वतंत्र समाज-व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन के लिए संघर्ष करना पड़ता है। उसकी यही जिम्मेदारी स्वतंत्र समाज-व्यवस्थाक का सबसे बड़ा अभिशाप है। कोई इस उत्तरदायित्व को पूरा कर पाता है या नहीं, यह समान अवसर और समान व्य‍वहार मिलने पर निर्भर करता है। हालाँकि अस्पृश्य एक स्वतंत्र व्यक्ति होता है, तो भी उसे समान अवसर नहीं मिलते और न उसके साथ राग-द्वेष से मुक्त व्यवहार ही होता है। इस दृष्टि से अस्पृश्यता गुलाम-प्रथा की तुलना में न केवल बदतर है, बल्कि यह निश्चय ही एक क्रूर कर्म है। गुलामी की प्रथा में गुलाम के लिए रोजी ढूँढ़ने की जिम्मेदारी उसके मालिक की होती है। स्वतंत्र मजदूर व्यवस्था में रोजी प्राप्त करने के लिए मजदूरों को अपने साथियों का मुकाबला करना पड़ता है। इस धक्का-मुक्की में अस्पृश्य के लिए अवसर कहाँ? संक्षेप में, जिस प्रतियोगिता में सामाजिक कलंक के कारण अस्पृश्य का पक्ष निर्बल हो, तब जिन्हें रोजगार दिया जाएगा, उनकी सूची में उसका आखिरी नंबर होगा और जिन लोगों को निकाला जाना है, उनमें उसका प्रथम स्थान होगा। गुलाम-प्रथा की तुलना में अस्पृश्यता इसलिए क्रूर कर्म है कि इससे अस्पृश्यों पर अपने लिए रोजी कमाने का दायित्व डाल दिया जाता है, जबकि रोजी कमाने के दरवाजे उनके लिए पूरी तरह खुले नहीं होते।

सारांश यह है कि हिंदू, अस्पृश्यों को गुलामों की स्थिति से भिन्न उन स्थितियों में अपना मानते हैं, जिनसे उनके स्वार्थ की पूर्ति होती है और जब उन्हें अपने साथ रखने में उनका स्वार्थ आड़े आ जाता है और वे बोझ लगने लगते हैं, तब वे उनको अपना कहने और अपने बराबर रखने से इनकार कर देते हैं। अस्पृश्य, परतंत्र समाज-व्यवस्था के किसी लाभ के अधिकारी होने का दावा नहीं कर सकते, उन्हें स्वतंत्र समाज-व्यवस्था की सभी मुसीबतों को स्वयं ढ़ोने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है।

भारत की बहिष्कृत बस्तियाँ - अस्पृश्यता की केंद्र - समाज से बाहर

हिंदू समाज-व्यवस्था में अस्पृ‍श्यों की सामाजिक स्थिति क्या है? उनकी स्थिति की सही जानकारी देना ही इस अध्याय का मुख्य‍ उद्देश्य है। लेकिन हिंदू समाज-व्यवस्था में अस्पृश्य किस प्रकार रहते हैं या उन्हें किस प्रकार रहने के लिए मजबूर किया जाता है, इसका यथार्थ और प्रत्यक्ष चित्र उनके सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए सबसे अच्छा माध्यम ढूँढ़ निकालना कोई आसान काम नहीं है। एक उपाय यह है कि हम हिंदू समाज-व्यवस्था का एक मॉडल बना लें और तब उसमें उनकी उस स्थिति को प्रदर्शित करें, जो उन्हें यहाँ दी गई है। इसके लिए हिंदुओं के किसी गाँव जाना आवश्यक है। हमारे उद्देश्य की पूर्ति के लिए इससे अच्छा उपाय और कोई नहीं है। हिंदुओं का गाँव हिंदुओं की समाज-व्यवस्था की मानो प्रयोगशाला है। गाँव में हिंदू समाज-व्यवस्था का पूरा-पूरा पालन होता है। जब कभी कोई हिंदू भारतीय गाँवों का जिक्र करता है, तो वह उल्लास से भर उठता है। वह उन्हें समाज-व्यवस्था का आदर्श रूप मानता है। उसकी यह पक्की धारणा है कि संसार में इसकी कोई तुलना नहीं। कहा जाता है कि सामाजिक संगठन के सिद्धांत में भारतीय गाँवों का एक विशेष योगदान है, जिसके लिए भारत गर्व कर सकता है।

हिंदू अपनी इस धारणा के बारे में कि भारतीय गाँव सामाजिक संगठन के आदर्श रूप हैं, कितने कट्टर होते हैं, इसका अनुमान भारतीय संविधान सभा के हिंदू सदस्यों के धुआँधार भाषणों से लगाया जा सकता है, जो उन्होंने अपने इस मत के समर्थन में दिए थे कि भारतीय संविधान में भारतीय गाँवों को स्वायत्त प्रशासनिक इकाइयों के संवैधानिक पिरामिड के आदर्श के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए, जहाँ उनकी अपनी-अपनी विधायिका, अपनी कार्यपालिका, अपनी न्यायपालिका होती है। अस्पृश्यों के दृष्टिकोण में इससे बढ़कर कोई दुखद बात नहीं है। भगवान का शुक्र है कि संविधान सभा ने इसे स्वीकार नहीं किया। इसके बावजूद हिंदू अपनी इस बात पर हमेशा जोर देते हैं कि भारतीय गाँव समाज-व्यवस्था के आदर्श रूप हैं। यह धारणा हिंदुओं की कोई पुश्तैनी धारणा नहीं है और न इस धारणा की जड़ें उनके अतीत में छिपी हुई हैं। यह उन्होंने चार्ल्स मैटकाफ से ली है, जो ईस्ट इंडिया कंपनी में एक कर्मचारी था और राजस्व अधिकरी के पद पर काम करता था। उसने अपने राजस्व के दस्तावेजों में भारतीय गाँवों का इस प्रकार वर्णन किया :

"प्रत्येक गाँव छोटे-छोटे गणराज्य हैं, जिनमें अपनी-अपनी आवश्यकता की लगभग हर वस्तु् मौजूद है और वे दूसरों से पूर्णतः स्वतंत्र हैं। ऐसा लगता है कि जब कुछ भी नहीं बचेगा, तब भी वे बने रहेंगे। सल्तनतें एक के बाद एक गिरती जाती हैं, एक के बाद दूसरी क्रांति होती है। हिंदू, पठान, मुगल, मराठा, सिख, अँग्रेज बारी-बारी से शासक बनते जाते हैं, लेकिन गाँव वैसे के वैसे ही रहते हैं। संकट के दिनों में वे अपनी रक्षा स्वयं कर लेते हैं। जब आक्रामक सेनाएँ देश को एक कोने से दूसरे कोने तक रौंदने लगती हैं, तब गाँव के लोग अपने-अपने जानवरों को अपने-अपने बाड़े के अंदर बंद कर लेते हैं और आक्रामकों को चुपचाप रास्ता दे देते हैं। अगर वे स्वयं लूटमार का निशाना बनते हैं और फौजों के आक्रमण को नहीं झेल पाते हैं, तो वे भागकर दूर के किसी गाँव में चले जाते हैं। लेकिन जब फौजें निकल जाती हैं, तब वे लौट आते हैं और अपना धंधा फिर शुरू कर देते हैं। अगर किसी भू-भाग में बार-बार लूटमार और नर-संहार होता है, और गाँव फिर से आबाद न हो सकें, तब लोग बिखर जाते हैं। लेकिन ज्यों ही अमन-चैन हो जाता है, त्यों ही ये लोग अपने-अपने गाँव फिर वापस आ जाते हैं। एक पीढ़ी गुजर जाती है, लेकिन उसके बाद आने वाली पीढ़ी लौट आती है। बेटा, बाप की जगह ले लेता है और अपने बाप-दादा के गाँव आ जाता है, उसी जगह घर बनाता है जहाँ उसके बाप-दादा का घर था, यह पीढ़ी भी वहीं पर फिर बस जाती है जहाँ उसके पूर्वज गाँव में फिर से आबाद होने पर दुबारा इसमें आए थे। इस बार किसी छोटे-मोटे हमले से डरकर नहीं भागेगी, क्योंकि जब ये लोग मुसीबतों का मुकाबला करने के लिए अपना दल गठित कर लेंगे और लूटमार करने वालों का सफलतापूर्वक मुकाबला कर लेंगे। मैं सोचता हूँ कि गाँव के लोगों का इस प्रकार संगठित होना और अपने लिए एक छोटी-मोटी शासकीय इकाई बनाना सभी प्रकार की उथल-पुथल और उलट-फेर के बावजूद भारत की जनता के संरक्षण में जितना सहायक हुआ, उतना कोई और तत्व नहीं हुआ और इसी के कारण यहाँ की जनता खुशहाल रही, उसने आजादी का सुख भोगा।"

हिंदुओं ने भारतीय गाँवों के बारे में जब अँग्रेज सरकार के एक अधिकारी का यह वर्णन पढ़ा, तब वे फूलकर कुप्पा हो गए, उन्होंने इसे अपना वास्तविक गुण समझा। भारतीय गाँवों के बारे में इस दृष्टिकोण को अपना कर हिंदुओं ने अपनी बुद्धि या ज्ञान के प्रति न्याय नहीं किया, बल्कि उन्हों ने अपनी कमजोरी ही प्रकट कर दी। चूँकि बहुत से विदेशी भारतीय गाँवों के बारे में इसी आदर्शपरक दृष्टिकोण को सही मान लेते हैं, इसलिए समाज की असली तस्वीर पेश करना उचित होगा, जैसी कि हर किसी को भारतीय गाँवों में मिलती है।

भारतीय गाँव अलग से सामाजिक इकाई नहीं है। उसमें भिन्न-भिन्न जातियाँ होती हैं। परंतु हमारे प्रयोग के लिए यह कहना पर्याप्त है -

1. गाँव में दो तरह की आबादी होती है - (क) स्पृश्य, और (ख) अस्पृश्य।

2. स्पृश्य लोगों की संख्या अधिक और अस्पृश्य लोगों की संख्या थोड़ी होती है।

3. स्पृश्य लोग गाँव में रहते हैं और अस्पृश्य गाँव के बाहर अलग-अलग घर बनाकर रहते हैं।

4. आर्थिक दृष्टि से स्पृश्य लोग सबल और शक्तिशाली होते हैं, जबकि अस्पृश्य लोग गरीब और पराश्रित होते हैं।

5. स्पृश्य लोग सामाजिक दृष्टि से शासकों की जाति होती है, जब कि अस्पृश्य लोग पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे बँधुआ लोगों की जाति होती है।

भारत के गाँवों में रहने वाले इन स्पृश्य और अस्पृश्य लोगों के बीच आपसी व्यवहार की शर्तें क्या होती हैं? प्रत्येक गाँव में स्पृ‍श्य लोगों की एक आचार-संहिता होती है, जिसका अस्पृश्यों को पालन करना होता है। यह संहिता उन कार्यों को निश्चित करती है, जिनको करने या न करने पर अस्पृश्य लोगों का अपराध माना जाता है। इन अपराधों की सूची निम्नलिखित है -

1. अस्पृश्यों को चाहिए कि वे अपने घर हिंदुओं की बस्तियों से दूर बनाएँ। अगर अस्पृश्य अपने घर दूर बनाने के इस नियम को तोड़ते हैं या उसकी अनदेखी करते हैं, तब यह उनका अपराध माना जाएगा।

2. अस्पृश्य लोगों के घर गाँव के दक्षिण में होने चाहिए, क्योंकि चारों दिशाओं में दक्षिण दिशा ही सबसे अधिक अशुभ होती है। इस नियम का उल्लंघन अपराध समझा जाएगा।

3. अस्पृश्य को चाहिए कि वह इस बात का ध्यान रखे कि उसके छू जाने या उसकी छाया से भी पाप लगता है। अगर वह इस नियम को तोड़ता है, तब वह अपराध करता है।

4. अगर कोई अस्पृश्य अपने पास किसी भी प्रकार की कोई संपत्ति, जैसे भूमि या पशु रखता है, तब वह अपराध करता है।

5. अगर कोई अस्पृश्य अपने लिए खपरैल की छतवाला घर बनाता है, तब वह उसका अपराध माना जाता है।

6. अगर कोई अस्पृश्य स्वच्छ कपड़े, जूते, घड़ी या सोने के जेवर पहनता है, तब वह अपराध करता है।

7. अगर कोई अस्पृश्य अपने बच्चों के अच्छे नाम रखता है, तब वह अपराध करता है। उनके नाम ऐसे होने चाहिए, जो हीनता/घृणा सूचक हों।

8. अगर कोई अस्पृश्य किसी हिंदू के सामने किसी कुर्सी पर बैठता है, तब वह अपराध करता है।

9. अगर कोई अस्पृश्य घोड़े पर चढ़कर या पालकी में बैठकर गाँव से गुजरता है, तब वह अपराध करता है।

10. अगर कोई अस्पृश्य अपनी बिरादरी वालों का कोई जुलूस गाँव से होकर ले जाता है, तब वह अपराध करता है।

11. अगर कोई अस्पृश्य किसी हिंदू को प्रणाम आदि नहीं करता, तब वह अपराध करता है।

12. अगर कोई अस्पृश्य सभ्य लोगों की भाषा बोलता है, तब वह अपराध करता है।

13. अगर कोई अस्पृश्य किसी शुभ दिन गाँव में आकर बातचीत करता फिरता है जब हिंदू व्रत कर रहे हों या जब वे अपना व्रत पूरा कर अन्न-जल ग्रहण कर रहें हों, तब वह अपराध करता है, क्योंकि उसके मुख से निकली श्वास से केवल वातावरण दूषित होता है बल्कि हिंदुओं का आहार भी दूषित हो जाता है।

14. अगर कोई अस्पृश्य, स्पृ‍श्य व्यक्तियों के जैसे चिहृन धारण करता है और अपने को स्पृश्य जैसा प्रदर्शित करता घूमता है, तब वह अपराध करता है।

15. अस्पृश्य को चाहिए कि वह हीन व्यक्तियों के स्तर के अनुरूप दिखे और उसे प्रत्यक्ष रूप में हीनता दर्शाने वाले ऐसे नाम आदि धारण करने चाहिए, जिनसे लोग उसे तदनुरूप पहचान सकें। जो इस प्रकार हैं -

(क) हीनता-सूचक नाम रखना।

(ख) स्वच्छ वस्त्र न पहनना।

(ग) बिना खपरैल वाले घर में रहना।

` (घ) चाँदी-सोने के जेवर न पहनना।

इनमें से किसी भी नियम का उल्लंघन करना अपराध है।

इसके बाद हम उन कर्तव्यों को लेते हैं, जो इस संहिता के अनुसार अस्पृश्यों को स्पृश्यों के लिए करने अपेक्षित हैं। इस शीर्षक के अंतर्गत निम्नलिखित कार्यों को रखा जा सकता है :

1. अस्पृश्य जाति के व्यक्ति को चाहिए कि वह किसी भी हिंदू के घर की घटना, जैसे मृत्यु या विवाह की सूचना दूसरे गाँवों में रहने वाले उसके सगे-संबंधियों तक पहुँचाए, चाहे वह गाँव कितनी ही दूर क्यों न हो।

2. अस्पृश्यों को चाहिए कि हिंदू के घर में विवाह के अवसर पर ऐसे कार्य, जैसे लकड़ी चीरना या आने-जाने का कार्य करे।

3. अस्पृश्य को चाहिए कि जब हिंदू की लड़की अपने पिता के घर से पति के गाँव जा रही हो तो वह उसके साथ जाए चाहे वह गाँव कितनी ही दूर क्यों न हो।

4. जब सारा गाँव बड़े-बड़े त्यौहार, जैसे होली और दशहरे का त्यौहार, की तैयारी कर रहा हो, तब अस्पृश्यों को चाहिए कि वे नौकरों द्वारा किए जाने वाले ऐसे काम करें, जो मुख्य कार्य के पहले किए जाने जरूरी होते हैं।

5. अस्पृश्यों को चाहिए कि वे कुछ त्यौहारों पर अपनी स्त्रियों को गाँव के बाकी लोगों के हवाले कर दें, जिससे वे उनके साथ फूहड़ मजाक आदि कर सकें।

ये काम बिना मजदूरी लिए किए जाने होते हैं। इन कामों के महत्व को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि ये काम क्यों अस्तित्व में आए। गाँव का हर हिंदू अपने आपको अस्पृश्यों से श्रेष्ठ मानता है। वह अपने आपको सबका मालिक मानता है और इसलिए वह अपनी इज्जत को बनाए रखना बहुत जरूरी समझता है। वह अपनी इस इज्जत को तब तक कायम नहीं रख सकता, जब तक उसके इशारे पर नाचने वालों की भीड़ उसके आस-पास नहीं रहती। इसके लिए उसे अस्पृश्य ही मिलते हैं, जो उसका हर काम करने के लिए तैयार रहते हैं और जिन्हें उसके लिए कुछ भी देना नहीं पड़ता। चूँकि अस्पृश्य असहाय होते हैं, अतः वे इस कारण इन कामों को करने से इनकार नहीं कर सकते और हिंदू भी उनसे जबरदस्ती काम करवाने से नहीं चूकते, क्योंकि वे उनकी प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए जरूरी होते है।

अँग्रेज सरकार ने जब दंड-संहिता बनाई, तब उसमें इन अपराधों को शामिल नहीं किया गया। लेकिन जहाँ तक अस्पृश्यों का सवाल है, अपराध अभी भी वास्तविक हैं। इनमें से कोई भी अपराध करने पर अस्पृश्य को अवश्य सजा भुगतनी पड़ती है। ये नियम किस प्रकार लागू किए जाते हैं, यह अध्याय 5 और 6 से स्पष्ट हो जाएगा।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इन अपराधों के लिए जो सजा दी जाती है, वह सामूहिक होती है। चाहे अपराध किसी एक अस्पृश्य ने किया हो, लेकिन उसकी सजा पूरी जाति को भुगतनी होती है।

अस्पृश्य किस प्रकार रहते हैं? वे अपनी रोजी-रोटी किस प्रकार कमाते हैं, जब तक यह नहीं पता चलता है, तब तक हिंदू समाज में उनकी हैसियत का स्पष्ट पता लगना संभव नहीं।

एक कृषि-प्रधान देश में जीविका का प्रमुख साधन कृषि हो सकती है, परंतु रोजी-रोटी का यह साधन आमतौर से अस्पृश्यों के लिए उपलब्ध नहीं है। इसके कई कारण हैं। पहली बात तो यह है कि जमीन खरीदना उनके वश की बात नहीं और दूसरी यह कि यदि अस्पृश्य जमीन खरीदने की स्थिति में है, तो भी वह ऐसा नहीं कर सकता। देश के अधिकांश भागों में हिंदू इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सकते कि अस्पृश्य जाति का कोई व्यक्ति जमीन खरीदकर स्पृश्य जाति की बराबरी का प्रयत्न करे। किसी अस्पृश्य के ऐसे दुस्साहस का विरोध ही नहीं किया जाता, बल्कि उसको सजा भी भुगतनी पड़ सकती है। कुछ भागों में तो उनके जमीन खरीदने पर कानूनी प्रतिबंध है। उदाहरणार्थ, पंजाब प्रांत में एक कानून है जिसका नाम है, भूमि स्वामित्व अधिनियम। इस कानून में उन जातियों का उल्लेख किया गया है, जो जमीन खरीद सकती हैं और अस्पृश्यों को इस सूची में शामिल नहीं किया गया है। इसके परिणामस्वरूप अधिकांश भागों में अस्पृश्य भूमिहीन मजदूर रहने के लिए विवश है और मजदूर के रूप में वे वाजिब मजदूरी की माँग नहीं कर सकते। वे हिंदू किसानों के लिए उसी मजदूरी पर काम करने को मजबूर हैं, जो उन्हें मालिक देना चाहे। इस प्रश्न पर हिंदू किसान मजदूरी कम से कम रखने के लिए आपस में एकमत हो जाते हैं, क्योंकि यह उनके हित में होता है। दूसरी और अस्पृश्यों के पास कोई चारा नहीं रहता। वे या तो उसी मजदूरी पर काम करें अथवा भूखों मरें। न ही उनमें मोल-तौल करने की क्षमता होती है। वे या तो निश्चित की हुई दरों पर काम करें या फिर पिटाई के लिए तैयार रहें।

अस्पृश्यों को उनकी मजदूरी नकद या अनाज के रूप में दी जाती थी। उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में मजदूरी के रूप में दिए जाने वाले अनाज को 'गोबरहा' कहा जाता है। इसका अर्थ है, जानवरों के गोबर से निकलने वाला अनाज। मार्च या अप्रैल के महीने में जब फसल पूरी तरह पक जाती है तो उसे काटकर खलिहान में फैला दिया जाता है। उस पर बैलों की दांय चलती है, ताकि उनके चलने से भूसा अनाज से अलग हो जाए। दांय पर चलते हुए बैल बहुत-सा अनाज और लाँक खा जाते हैं। जब वे जरूरत से ज्यादा खा लेते हैं, तो अनाज को पचाना मुश्किल होता है। अगले दिन वही अनाज गोबर के साथ निकल जाता है। गोबर को इकट्ठाकर लिया जाता है और उसमें से अनाज निकाल लिया जाता है। यही अनाज मजदूरी के रूप में अस्पृश्य मजदूरों को दे दिया जाता है, जिसे पीसकर वे रोटी बना लेते हैं।

जब फसल का समय गुजर जाता है और अस्पृश्यों के पास रोजी-रोटी का कोई साधन नहीं होता, तो वे घास काटते हैं और जंगलों से ईंधन इकट्ठा कर आस-पास के शहरों में बेच आते हैं। परंतु यह भी वन-रक्षकों के ऊपर निर्भर करता है। जब उसकी मुट्ठी गरम की जाएगी, तभी वह उन्हें सरकारी जंगलों में घास और लकड़ी काटने देता है। जब वे शहर में आते हैं तो उनका मुकाबला खरीदारों से होता है। ये खरीददार भी हिंदू ही होते हैं, जो हमेशा मजदूरी कम रखने की कोशिश में रहते हैं। चूँकि उनमें अपने माल को रोके रखने की सामर्थ्य नहीं होती, इसलिए उन्हें अपना माल उसी कीमत पर बेचना पड़ जाता है, जो भी उन्हें बताई जाती है। कभी-कभी तो उन्हें अपने गाँव से शहरों तक दस-दस मील तक बोझ लेकर जाना पड़ता है।

ऐसा कोई व्यवसाय नहीं है, जिससे वे अपनी रोजी-रोटी कमा सकें। उनके पास इसके लिए न तो पूँजी होती है और यदि हो भी तो, कोई भी उनसे सामान नहीं खरीदता।

आमदनी के ये सभी साधन स्पष्टतः अनिश्चित और अस्थायी होते हैं। इनमें कोई गांरटी नहीं होती है। देश के कुछ भागों में जिन्हें मैं जानता हूँ, अस्पृश्यों के लिए रोजी-रोटी का केवल एक ही स्थायी साधन है। यह है, गाँव के हिंदू किसानों से खाना माँगने का अधिकार। हर गाँव का अपना अलग शासन-तंत्र होता है। गाँव की व्यवस्था के अनुसार अस्पृश्य पुश्तैनी नौकर-चाकर होते हैं। मजदूरी के अंश के रूप में सारे अस्पृश्यों को मिलाकर जमीन का एक छोटा-सा टुकड़ा मिलता है, जो उन्हें बहुत पहले दिया गया था, जो निश्चित होता है, जिसमें कभी बढ़ोतरी नहीं की गई, और जिसे अस्पृश्य भी बगैर खेती किए छोड़ देना बेहतर समझते हैं, क्योंकि उसके भी छोटे-छोटे टुकड़े हो गए होते हैं। इस कारण उन्हें भीख माँगने का अधिकार ही मिलता है।

यह बात चाहे कितनी ही खेदजनक क्यों न हो, यह अधिकार उनका परंपरागत अधिकार बन गया है और सरकार भी अस्पृश्य का वेतन तय करते समय, चाहे वह सरकारी पद पर क्यों न नियुक्त हो, अस्पृश्य को मिलने वाली भीख की कीमत को अपने ध्यान में रखती है।

भारत में इस समय स्पृश्यों से भीख माँगकर खाना छह करोड़ अस्पृश्यों की जीविका का मुख्य आधार है। अगर कोई किसी गाँव में उस समय जाए लोग शाम का खाना खा चुके होते है, तब वह अस्पृश्यों के झुंड के रटे-रटाए ढंग से गुहार करते हुए भीख माँगते हुए देख सकता है।

यह विधि सम्मत भिक्षा-वृत्ति अस्पृश्यों के लिए एक प्रथा बना चुकी है। गाँव में स्पृश्यों के परिवार के साथ अस्पृश्यों के परिवारों का वैसा ही संबंध होता है, जैसा मध्यकालीन यूरोप में लार्ड्स आफ मैनर्स और उनके अधीन सर्फस और मिलेंस के बीच होता था। स्पृश्य लोगों के परिवारों के साथ जुड़े अस्पृश्य लोगों के परिवार उनके यहाँ काम करते थे। ये संबंध इतने गहरे हो गए हैं कि जब कोई स्पृश्य हिंदू किसी अस्पृश्य की बात करता है तो वह उसे 'मेरा आदमी' कहता हैं, जैसे कि वह उसका गुलाम हो। यह संबंध-सूत्र ही स्पृश्य परिवारों के यहाँ अस्पृश्य लोगों द्वारा भीख माँगकर खाना खाने की प्रथा को स्थायी प्रथा बनाने में सहायक हुआ।

यही हैं हमारे ग्रामीण गणराज्य जिन पर हिंदुओं को इतना नाज है। इन गणराज्यों में अस्पृश्यों की क्या स्थिति है? वे दुमछल्ला तो क्या, पैर की जूती भी नहीं हैं। उनको दीन-हीन बना दिया गया है। उन्हें हर तरह से इतना दीन-हीन बना दिया गया है कि बहुसंख्यक उन पर राज कर सकें। यह विपन्नता किसी एक व्यक्ति या परिवार की नहीं, बल्कि उनके पूरे समुदाय की नियति है। अस्पृश्य हर स्पृश्य से तुच्छ है, चाहे उसकी आयु कुछ भी क्यों न हो, वह कितना भी योग्य क्यों न हो। एक स्पृश्य हिंदू युवक किसी भी वृद्ध अस्पृश्य से उच्च है। पढ़ा-लिखा अस्पृश्य भी उस स्पृश्य से हीन है, जिसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर है। स्पृश्य द्वारा दिया गया आदेश कानून है। अस्पृश्यों को इस बात से और कुछ लेना-देना नहीं सिवाय इसके कि वे उसका पालन करें और उसे शिरोधार्य करें।

स्पृश्यों के विरुद्ध अस्पृश्यों को कोई अधिकार प्राप्त नहीं। उन्हें न कोई समान अधिकार प्राप्त है और न ही कोई न्याय, जिसके द्वारा उन्हें वह सब कुछ दिया जा सकें, जो उन्हें देय है। उन्हें उसके सिवा कुछ भी देय नहीं हैं, जो स्पृश्य उन्हें देने के लिए सहमत हैं। अपनी ओर से अस्पृश्यों को अपने लिए कुछ भी अधिकार नहीं माँगने चाहिए। उनको स्पृश्यों से उनकी कृपा और अनुकंपा के लिए विनती करनी चाहिए। उन्हें जो कुछ मिले, उसी से संतोष करना चाहिए।

यह व्यवस्था हैसियत और व्यवहार, दोनों ही दृष्टियों से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। एक बार स्पृश्य तो हमेशा के लिए स्पृश्‍य। एक बार अस्पृश्य तो हमेशा के लिए अस्पृश्य। एक बार ब्राह्मण तो हमेशा के लिए ब्राह्मण। एक बर भंगी तो हमेशा के लिए भंगी। जो लोग उच्च जाति में पैदा होते हैं, वह इस व्यवस्था में हमेशा उच्च रहते हैं और जो निम्न जाति में पैदा होते हैं वे हमेशा निम्न रहते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि यह व्यवस्था कर्म, अर्थात भाग्य, के अटल सिद्धांत पर आधारित है, जो एक बार हमेशा के लिए निश्चित होता है और जिसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। इस व्यवस्था में किसी व्यक्तिगत योग्यता या अयोग्यता का कोई स्‍थान नहीं है। कोई अस्पृश्य ज्ञान और आचार-विचार में कितना ही श्रेष्ठ क्यों न हो, लेकिन ज्ञान और आचार-विचार में वह स्पृश्य से नीचे ही समझा जाएगा, जो ज्ञान या आचार विचार में कितना ही हीन क्यों न हो। कोई स्पृश्य चाहे कितना ही गरीब क्यों न हो, वह उस अस्पृश्य से ऊँचा है, जो चाहे कितना ही अमीर क्यों न हो।

यही है भारतीय गाँवों के भीतरी जीवन की तस्वीर। इस गणतंत्र में लोकतंत्र के लिए कोई स्थान नहीं। इसमें समता के लिए कोई स्थान नहीं। इसमें स्वतंत्रता के लिए कोई स्थान नहीं। इसमें भ्रातृत्व के लिए कोई स्थान नहीं। भारतीय गाँव गणतंत्र का ठीक उलटा रूप है। अगर यह गणतंत्र है तो यह स्पृश्यों का गणतंत्र है, स्पृश्यों के द्वारा है और उन्हीं के लिए है। यह गणतंत्र अस्पृश्यों पर स्थगित हिंदुओं का एक विशाल साम्राज्य है। यह हिंदुओं का एक प्रकार का उपनिवेशवाद है, जो अस्पृश्यों का शोषण करने के लिए है। अस्पृश्यों के कोई अधिकार नहीं हैं। उन्हें तो सिर्फ मुँह जोड़ना है, सेवा करनी है और अपने को अर्पित कर देना है। उन्हें यह कार्य सिर्फ करते रहना या मर जाना है। उनके कोई अधिकार नहीं हैं, क्योंकि वे इस तथाकथित गणतंत्र के बाहर हैं। वे हिंदुओं के समाज से बहिष्कृत हैं। यह एक दुश्चक्र है। लेकिन यह एक यथार्थ है, जिसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता।

मनुष्यों में रहने के अयोग्य

अस्पृश्य जैसा कि पिछले अध्यायों में बताया गया है, हिंदू समाज से बाहर हैं। हिंदू समाज से बाहर हैं। लेकिन अभी यह सवाल बा‍की है कि उन्हें हिंदुओं से कितनी दूरी पर रखा गया है? अगर हिंदू उन्हें हिंदू के रूप में नहीं मानते, तब वे मानव मानकर उनके साथ किस प्रकार का व्यवहार करते हैं? जब तक इन सवालों का जवाब नहीं मिल जाता, तब तक हम अस्पृश्यों के जीवन के बारे में कोई सही तस्वीर नहीं बना सकते। इसका उत्तर है, बशर्ते कि कोई इसे जानना चाहे। कठिनाई केवल यह है कि उस उत्तर को किस प्रकार पेश किया जाए। इसे पेश करने के दो तरीके हैं। या तो यह कि यह उत्तर बयान के रूप में दिया जाए या यह कि कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए जाए। मैं उदाहरण का तरीका अपनाऊँगा। मैं पाठकों को ढेर सारे उदाहरण दूँगा, जिनसे स्थिति स्वतः स्पष्ट हो जाएगी। पहला उदाहरण मद्रास राज्य से है।

सन 1909 में श्री वेंकट सुब्बा रेड्डी और उसके साथियों ने मजिस्ट्रेट द्वारा कुछ लोगों की इस शिकायत पर कि उन्होंने उनको बाधा पहुँचाई भारतीय दंड-सहिता की धारा - 339 के अधीन सजा दिए जाने के विरुद्ध मद्रास हाईकोर्ट में अपील की। इस मुकदमे में वादी और प्रतिवादी दोनों ही हिंदू थे। मद्रास हाईकोर्ट के निर्णय में इस मुकदमे का पूरा ब्यौरा तो मिलता ही है, लेकिन इससे स्पृश्यों की तुलना में अस्पृश्यों की स्थिति बड़े ही सटीक ढंग से स्पष्ट होती है। यह निर्णय उद्धृत करने योग्य है। यह इस प्रकार है :

'अपीलकर्ताओं (वेंकट सुब्बा रेड्डी तथा अन्य) को इसलिए सजा दी गई है कि उन्होंने कुछ पेरियाओं को एक मंदिर के पास सार्वजनिक मार्ग में इस उद्देश्य से खड़ा किया, जिससे वादी उस मंदिर से एक जुलूस उस सड़क से होकर निकाल न सके। यह पता चला कि वादी ने इस आशंका से जुलूस नहीं निकला कि अगर वह पेरियाओं के पास से होकर गुजरा तो वह अपवित्र हो जाएगा और यह कि अभियुक्त ने दुर्भावनापूर्वक पेरियाओं को सड़क पर खड़ा किया, जिसका एकमात्र प्रयोजन वादी को वहाँ जाने से रोकना था, जहाँ उसे जाने का अधिकार था।

हम यह नहीं समझते कि अभियुक्तों ने अनुचित अवरोध करने का कोई अपराध किया, हमारे विचार से यह कार्रवाई कोई ऐसी कार्रवाई नहीं थी, जिसे धारा - 339 के अंतर्गत बाधा माना जाए। पेरिया लोग कोई बाधक नहीं थे। दरअसल वादी को उनके पास से जुलूस ले जाने से रोकने की कोई बात नहीं थी और उन्हें। यह अधिकार था कि वे जहाँ रहना चाहते थे, रहें। और यह नहीं कहा गया कि उनकी उपस्थिति का प्रयोजन शारीरिक क्षति पहुँचाने का या किसी ऐसे भय को उत्पन्न करना था कि उनकी उपस्थिति से अपवित्र होने के अतिरिक्त कुछ और भी हो सकता था।

शिकायतकर्ता जहाँ जाना चाहता था, उसको वहाँ जाने से रोकने का कारण पेरियाओं की उपस्थिति नहीं थी, बल्कि उसका कारण उसकी खुद की अनिच्छा थी, जिसके कारण वह पेरियाओं के पास नहीं गया। जैसा कि श्री कुप्पुर स्वामी अय्यर ने कहा है कि यह उसके द्वारा स्वयं किया गया चुनाव था, जिसके कारण वह मंदिर से बाहर नहीं गया। यह उसने अपनी सहमति से किया कि वह वहीं रहा और दंड-संहिता के अर्थ की सीमा में क्षति पहुँचने का कोई भय नहीं था, जिसके कारण उनकी सहमति मुक्त सहमति न होती। यदि स्थिति इससे भिन्न होती, तब यह समझा-जाता कि किसी भी पेरिया के खिलाफ गलत खड़े होने के बारे में शिकायतकर्ता द्वारा की गई यह शिकायत उचित थी कि जब उससे उस स्थान से कुछ दूर हट जाने के लिए कहा गया, जहाँ वह अपने किसी काम से बिना किसी कानून का उल्लंघन किए विद्यमान था, तो उसने वहाँ से हटने से यह जानते हुए मना कर दिया कि जब तक वह वहाँ रहेगा, तब तक शिकायतकर्ता अपवित्र हो जाने के डर के कारण उसके पास से नहीं जाएगा।

यह स्पष्ट है कि इस मामले में कोई अनुचित बाधा नहीं पहुँचाई गई और हम समझते हैं कि अभियुक्त ने जो वहाँ पेरिया लोगों को खड़ा किया, उसमें कोई अंतर नहीं पड़ता।

इसलिए हम सजा को रद्द करते हैं और यदि कोई जुर्माना अदा कर दिया गया है, तो वह लौटा दिया जाए।

यह एक ज्वलंत उदाहरण है। मुकदमे में दो पक्ष थे। वेंकट सुब्बा रेड्डी एक पक्ष का नेता था। दोनों पक्ष सवर्ण हिंदू थे। उनके बीच जुलूस ले जाने के अधिकार के बारे में विवाद था। वेंकट सुब्बा रेड्डी अपने विरोधियों को जुलूस निकालने से रोकना चाहता था। इसके लिए उसे कोई अच्छा तरीका मालूम नहीं था। तभी उसके दिमाग में यह तरकीब सूझी कि कारगर तरीका यही हो सकता है कि कुछ अस्पृश्यों को सड़क पर खड़ा कर दिया जाए और उनसे वहाँ से न हटने के लिए कहा जाए। यह चाल काम कर गई और उसके विरोधी अपवित्र हो जाने के भय के कारण अपना जुलूस नहीं निकाल सके। यह बात दूसरी है कि मद्रास हाईकोर्ट ने यह फैसला दिया कि पेरियाओं को सड़क पर खड़ा करना कानून की दृष्टि में बाधा नहीं कहलाता। लेकिन सच्चाई तो यही है कि सड़क पर पेरियाओं की उपस्थिति हिंदुओं को दूर रखने के लिए काफी है। इसका अर्थ यह हुआ कि हिंदुओं के मन में अस्पृश्यों के प्रति अटूट घृणा भरी हुई है।

दूसरा उदाहरण भी उतना ही ज्वलंत है। यह कठियावाड़ में स्कूल के एक अस्पृश्य मास्टर से संबंधित है। यह श्री गांधी द्वारा प्रकाशित 'यंग इंडिया' नामक पत्र के 12 दिसंबर 1929 के अंक में पत्र के रूप में छपा था। इस पत्र में उसने यह बताया है कि उसे अपनी पत्री का एक हिंदू डॉक्टर से इलाज कराने में कौन-कौन सी कठिनाइयाँ आई और किस प्रकार उसकी पत्नी और उसका बच्चा, दोनों ही इलाज न किए जाने पर मर गए। पत्र में बताया गया है :

'मेरी पत्नी ने इस महीने की पाँच तारीख को एक बच्चे को जन्म दिया। सात तारीख को वह बीमार पड़ गई और उसे दस्त लग गए। यह कमजोर होती गई। उसके सोने पर सूजन आ गई। उसे साँस लेने में तकलीफ होने लगी और उसकी पसलियों में बहुत दर्द होने लगा। मैं डॉक्टर को बुलाने गया, लेकिन उसने कहा कि वह हरिजन के घर नहीं जाएगा। वह बच्चे की जाँच करने के लिए भी तैयार नहीं हुआ। तब मैं नगर सेठ के पास गया और गरसिया दरबार में गया और उनसे गुजारिश की कि वे इस मामले में मदद करें। नगर सेठ ने बतौर डॉक्टर की फीस दो रुपये की जमानत दी। डॉक्टर इस शर्त पर आया कि वह उन्हें हरिजन की बस्ती के बाहर देखेगा। मैं अपनी पत्‍नी और उसके हाल के हुए बच्चे को बस्ती के बाहर ले गया। तब डॉक्टर ने अपना थर्मामीटर एक मुसलमान को दिया, उसने मुझे दिया और मैंने उसे अपनी पत्नी को लगाया, और बाद में इसी प्रक्रिया के द्वारा थर्मामीटर डॉक्टर को लौटा दिया गया। तब कोई रात के आठ बजे होंगे। डॉक्टर ने लालटेन की रोशनी में थर्मामीटर देखा और कहा कि मरीज को निमोनिया हो गया है। इसके बाद डॉक्टर चला गया और उसने दवाई भेज दी। मैं बाजार से अलसी का तेल खरीद लाया और उसे अपनी पत्नी के सीने पर मला। इसके बाद डॉक्टर दुबारा आने के लिए तैयार न हुआ, हालाँकि मैंने उसे उसकी फीस के दो रुपये दे दिए थे। यह बीमारी खतरनाक है। भगवान ही हमारा भला करेगा।

मेरे जीवन की ज्योति बुझ गई। आज दोपहर दो बजे मेरी पत्नी का देहांत हो गया।

इस पत्र में स्कूल के अस्पृश्य मास्टर का नाम नहीं दिया गया। इसी प्रकार डॉक्टर का नाम भी नहीं बताया गया है। ऐसा स्कूल के अस्पृश्य मास्टर के अनुरोध पर किया गया, क्योंकि उसे बाद में अपने सताए जाने की आशंका थी। इसमें जो बातें बताई गई हैं, वह सच है।

इसकी व्याख्या करने की कोई जरूरत नहीं है। काफी पढ़े-लिखे होने पर भी एक डॉक्टर ने ऐसी महिला के थर्मामीटर लगाना और उसका इलाज करना अस्वीकार कर दिया, जिसकी हालत काफी नाजुक थी। चूँकि उसने उसका इलाज करने से मना कर दिया, इसलिए वह महिला मर गई। उस डाक्टर को इस बात का तनिक भी ख्याल नहीं हुआ कि वह उस आचरण-संहिता का उल्लंघन कर रहा है, जो उसके व्यवसाय के लिए अनिवार्य होती है। हिंदू एक अस्पृश्य को छूने के बजाए अमानवीय होना अधिक पसंद करता है।

तीसरा उदाहरण 23 अगस्त 1932 के 'प्रकाश' से लिया गया है :

"तहसील जफरवाल के गाँव जगवाल में 6 अगस्त को एक बछड़ा कुएँ में गिर पड़ा। उस समय राम महाशय नाम का एक डोम पास में ही खड़ा हुआ था। वह तुरंत कुएँ में कूद पड़ा और उसने बछड़े को अपनी गोद में उठा लिया। तीन-चार आदमी उसकी सहायता के लिए आ गए और बछड़े को बचा लिया गया। लेकिन गाँव के हिंदुओं ने आसमान सिर पर उठा लिया कि इस आदमी ने हमारा कुआँ ही गंदा कर दिया और बेचारे को डाँटने-फटकारने लगे। सौभाग्य से वहाँ एक बैरिस्टर आ गया। उसने उन लोगों को खूब डाँटा-फटकारा, जो राम महाशय से झगड़ रहे थे और उन्हें शांत किया। इस प्रकार एक आदमी की जान बच गई, वरना पता नहीं क्या होता।"

यहाँ क्या महत्वपूर्ण है - एक अस्पृश्य द्वारा बछड़े की रक्षा करना और उसके कारण कुएँ का गंदा हो जाना, "हिंदुओं के विचार से बेहतर होता यदि उस बछड़े को मरने दिया जाता और कुएँ को गंदा होने से बचाना...।"

एक ऐसा ही मामला 19 दिसंबर 1936 के 'बंबई समाचार' में छपा है - "कालीकट के एक गाँव कलाडी में एक युवती का बच्चा कुएँ में गिर पड़ा। वह जोर-जोर से रोने-चिल्लाने लगी, लेकिन किसी की हिम्मत कुएँ में कूदने की न हुई। वहाँ से एक अजनबी गुजर रहा था। वह बच्चे, की रक्षा के लिए तुरंत कुएँ में कूद पड़ा। जब उससे लोगों ने उसके बारे में पूछा कि वह कौन है, तो उसने जवाब दिया कि वह अस्पृश्य है। वहाँ लोगों ने उसके प्रति आभार प्रकट करने के बजाए उस पर गालियों की बौछार करनी शुरू कर दी और उसे मारा-पीटा कि उसने कुआँ गंदा कर दिया।"

हिंदुओं के लिए अस्पृश्य कितना गंदा और साथ में रहने के अयोग्य समझा जाता है। यह जुलाई 1937 के लखनऊ से प्रकाशित 'आदि हिंदू' नामक पत्र में प्रकाशित इस घटना से प्रकट होता है - "मद्रास होल्स कंपनी का एक कर्मचारी हाल ही में मर गया, जो अपने आपको ऊँची जाति का कहता था। जब उसकी चिता को अग्नि दी गई, तो उसके परिवार वालों और वहाँ खड़े लोगों ने उसकी चिता पर चावल फेंके। दुर्भाग्य, से उसके दोस्तों में से एक अस्पृश्य भी था, जो मद्रास का आदि-द्रविड़ था। उसने भी दूसरे लोगों की तरह चिता पर चावल फेंके। इस पर सवर्ण हिंदुओं ने उसे भला-बुरा कहा कि उसने चिता को अपवित्र कर दिया। इस बात पर काफी गरमा-गरमी हुई और बात यहाँ तक पहुँच गई कि दो आदमियों के पेट में चाकू घोंप दिया गया। एक आदमी तो अस्पताल जाते-जाते मर गया और दूसरे की हालत नाजुक बताई जाती है।"

एक घटना है, जो इससे भी बढ़कर है। बंबई में 6 मार्च, 1938 को दादर के पास कासरवाड़ी (वूलेन मिल्स के पीछे) में इंदूलाल याज्ञनिक की अध्यक्षता में भंगियों की एक सभा हुई। इस सभा में एक भंगी युवक ने आप बीती इस प्रकार सुनाई - "मैंने 1933 में वर्नाक्यूंलर परीक्षा पास की। मैंने चौथी कक्षा तक अँग्रेजी पढ़ी थी। मैंने बंबई नगर पालिका की स्कू्ल कमेटी को एक अध्यापक के रूप में नियुक्त के लिए आवेदन-पत्र दिया। परंतु वहाँ कोई जगह खाली नहीं थी, इसलिए मुझे सफलता नहीं मिली। फिर मैंने अहमदाबाद के पिछड़ी जाति अधिकारी को आवेदन-पत्र दिया कि मुझे पटवारी की नौकरी दी जाए और मैं सफल हो गया। 19 फरवरी 1936 को मुझे खेड़ा जिले के वरसाड तालुका में मामलातदार के यहाँ पटवारी नियुक्‍त किया गया।

हालाँकि हमारा परिवार गुजरात का है, लेकिन मैं इससे पहले कभी गुजरात नहीं गया था। गुजरात जाने का मेरा यह पहला मौका था। मुझे यह नहीं मालूम था कि सरकारी दफ्तरों में भी छुआछूत होती है। इसके अलावा, मैंने अपने आवेदन-पत्र में भी यह लिख दिया था कि मैं एक हरिजन हूँ, इसलिए मुझे उम्मीद थी कि मेरे वहाँ पहुँचने से पहले ही लोगों को यह पता चल जाएगा कि मैं कौन हूँ? जब मैं मामलातदार के दफ्तर में पहुँचा और पटवारी का कार्यभार सँभालने के लिए उपस्थित हुआ, तो वहाँ के क्लर्क का रवैया देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ।

कारकून ने मुँह बिचका कर पूछा, 'तुम कौन हो?' मैंने उत्तर दिया, 'श्रीमान, मैं एक हरिजन हूँ।' उसने कहा, 'दूर हटो। वहाँ दूर खड़े होकर बात करो। मेरे पास आकर खड़े होने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? गनीमत है कि यह दफ्तर है। दफ्तर के बाहर होता तो मैं तुझे छह ठोकर मारता। यहाँ नौकरी पर आने की हिम्मत कैसे हुई।' इसके बाद उसने मुझसे कहा कि मैं अपने प्रमाण-पत्र और पटवारी के लिए नियुक्ति-पत्र जमीन पर डाल दूँ। उसने उन्हें वहाँ से उठाया।' जब मैं वरसाड में मामलातदार के दफ्तर में काम करता था, तो मुझे पानी पीने के लिए बहुत कष्ट उठाना पड़ता था। दफ्तर के बरांडे में पानी के घड़े रखे होते थे। पानी पिलाने वाला एक नौकर भी था। उसका काम दफ्तर के क्लर्को को जब वे आते, पानी पिलाना था। जब पानी पिलाने वाला नहीं होता था तो वे उन घड़ों से खुद पानी ले लेते थे। मेरे लिए ऐसा करना असंभव था। मैं घड़ों को छू भी नहीं सकता था, क्योंकि मेरे छू लेने से पानी गंदा हो जाता। इसलिए मेरा पानी पीना दूसरों की कृपा कर निर्भर करता था। मेरे लिए वहाँ एक जंग खाया कनस्तर रख दिया गया था। कोई उसे छूता ही नहीं था और उसे मेरे सिवाय कोई साफ भी नहीं करता था। मेरे लिए इसी कनस्तर में पानी डाल दिया जाता था। लेकिन वह पानी भी मैं तभी पी सकता था, जब पानी पिलाने वाला वहाँ मौजूद हो। उस आदमी की इच्छा मुझे पानी देते की न होती थी। जब वह यह देखता कि मैं पानी पीने के लिए आ रहा हूँ, तो वह जान-बूझकर इधर-उधर हो जाया करता था। नतीजा यह होता था कि मैं प्यासा ही रह जाता था। अक्सर मुझे प्यासा रहना पड़ता था।

मकान के मामले में भी मेरे सामने ऐसी ही मुश्किलें आईं। मैं वरसाड में अजनबी था। कोई सवर्ण हिंदू मुझे रहने के लिए किराए पर मकान क्यों देता? वहाँ के अस्पृश्य भी मुझे इसलिए मकान देने के लिए तैयार न हुए कि वहाँ के हिंदू लोग कहीं उनसे नाराज न हो जाए। हिंदू नहीं चाहते थे कि मैं वहाँ एक क्लर्क के रूप में कार्य करूँ, जो मेरे लिए ऊँची नौकरी थी। इससे भी ज्यादा मुश्किलें खाना खाने के बारे में सामने आई। मैं कहीं से भोजन प्राप्त, नहीं कर सकता था। मैं सुबह-शाम भाजा खरीदकर खाता था, और वह भी मैं गाँव के बाहर अकेले में खाता। लौटकर फिर मामलातदार के दफ्तर की सीढ़ियों पर सो जाता था। मैंने चार दिन ऐसे ही बिताए। जब मुझसे बर्दाश्त न हुआ, तब मैं जंतराल में रहने के लिए चला गया, जो मेरा पुश्तैनी गाँव था। यह वरसाड से करीब छह मील दूर है। मुझे रोजाना ग्यारह मील आना-जाना पड़ता था। मैंने डेढ़ महीने इसी प्रकार गुजारे।

इसके बाद मामलातदार ने मुझे पटवारीगिरी सीखने के लिए एक पटवारी के पास भेज दिया। उस पटवारी के अधीन तीन गाँव, जंतराल, खापुर और सैजपुर थे। वह जंतराल में रहता था। मैं जंतराल में उस पटवारी के साथ दो महीने रहा। उसने मुझे इस बीच में कुछ नहीं सिखाया। मैं उसके दफ्तर के अंदर एक बार भी नहीं जा सका। गाँव का मुखिया खासतौर से मुझसे चिढ़ता था। एक बार उसने मुझसे कहा, 'तुम लोग, तुम्हारा बाप, तुम्हारा भाई पटवारी के दफ्तर में झाड़ू लगाते थे और तुम दफ्तर में हमारे बराबर बैठना चाहते हो? होश में आओ, और यह नौकरी छोड़ दो?"

एक दिन पटवारी ने मुझे सैजपुर बुलाया और गाँव की जनसंख्या की तालिका बनाने को कहा। मैं जतराल से सैजपुर गया। मैंने देखा कि मुखिया और पटवारी कोई काम कर रहे थे। मैं गया, दफ्तर के दरवाजे के पास खड़ा रहा। मैंने उनको नमस्ते की, पर किसी ने मेरी तरफ देखा तक नहीं। मैं पंद्रह मिनट तक बाहर खड़ा रहा। मैं अपनी जिंदगी से तंग हो चुका था। इस प्रकार उपेक्षित और अपमानित होने पर मुझे भी गुस्सा आ गया। वहाँ एक कुर्सी पड़ी थी। मैं उस पर बैठ गया। मुझे कुर्सी पर बैठा देखकर मुखिया और पटवारी मुझसे कुछ कहे बिना चुपचाप वहाँ से चले गए। कुछ ही देर में वहाँ लोग आने शुरू हो गए और देखते ही देखते मेरे चारों ओर भीड़ जमा हो गई। इस भीड़ का मुखिया गाँव की लाइब्रेरी का कर्मचारी था। मेरी समझ में नहीं आया कि क्यों कर एक पढ़ा-लिखा आदमी उस भीड़ का अगुआ बना हुआ है। फिर मुझे पता चला कि यह कुर्सी उसी की थी। उसने मुझे गंदी-गंदी गालियाँ बकनी शुरू कर दीं। फिर उसने रावनिया (गाँव के चौकीदार) से कहा कि इस भंगी के कुत्ते को इस कुर्सी पर किसने बैठने दिया। चौकीदार ने मुझे उठा दिया और मुझसे कुर्सी छीन ली। मैं जमीन पर बैठ गया। तब भीड़ दफ्तर के भीतर घुस आई और मुझे घेर लिया। लोग गुस्से से लाल हो रहे थे। कुछ मुझे गालियाँ दे रहे थे और कुछ ने धमकी दी कि धारिया (तेजधार का तलवार जैसा हथियार) से मेरी बोटी-बोटी काट दी जाएगी। मैंने उनसे माफी माँगी और दया करने को कहा। भीड़ पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं कैसे जान बचाऊँ। मेरे दिमाग में आया कि इस बारे में मैं मामलातदार को बताऊँ कि किस तरह यह मुसीबत मेरे गले आ पड़ी है, और अगर इस भीड़ द्वारा मेरी हत्या कर दी जाए, तो मेरे शव का क्या किया जाए? मैंने सोचा कि अगर भीड़ को किसी तरह यह पता चल जाए कि मैं सचमुच मामलातदार से शिकायत कर रहा हूँ, तो शायद लोग मुझे छोड़ दें। मैंने चौकीदार से कागज लाने को कहा, जो उसने ला दिया। इसके बाद मैंने बड़े-बड़े अक्षरों में यह चिट्ठी लिखी, जिसे हर कोई पढ़ सकता था।

सेवा में,

मामलातदार

वरसाड तालुका।

महोदय,

कृपया कालीदास शिवराम परमाए का विनम्र अभिवादन स्वीकार करें। मैं आपको विनम्रता के साथ सूचित करता हूँ कि आज मौत साक्षात मेरे सामने आकर खड़ी हो गई है। यदि मैंने माता-पिता का कहना माना होता, तो आज यह नौबत नहीं आती। कृपया मेरे माता-पिता को मेरी मौत का समाचार दे दें।

जो कुछ मैंने लिखा था, उसे लाइब्रेरियन ने पढ़ लिया। उन्होंने मुझे चिट्ठी को फाड़ डालने के लिए कहा। मैंने वह चिट्ठी फाड़ दी। उन्होंने जी-भर कर मुझे गालियाँ सुनाई और कहा, 'तुम चाहते हो कि हम तुम्हें पटवारी जी कहें, तुम एक भंगी हो, और दफ्तर में घुसकर कुर्सी पर बैठना चाहते हो।' मैंने दया की, याचना की और वादा किया कि ऐसा फिर कभी नहीं होगा। मैंने नौकरी छोड़ देने का भी वादा किया। जब शाम को सात बजे भीड़ वहाँ से चली गई, तब तक मैं वहाँ रहा। तब तक पटवारी और मुखिया नहीं आए थे। उसके बाद मैंने पंद्रह दिन की छुट्टी ली और लौटकर अपने माता-पिता के पास बंबई आ गया।"

अस्पृश्यों के प्रति हिंदुओं के सामाजिक दृष्टिकोण का एक और उदाहरण है, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। यह दृष्टिकोण निम्नलिखित उदाहरणों से और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है। आठ सितंबर 1943 के 'अलफजल' से - "नासिक से पहली सितंबर को यह खबर मिली कि गाँव के हिंदुओं ने एक अछूत परिवार पर धावा बोल दिया है। एक बुढ़िया के हाथ-पाँव बाँध दिए, उसे लकड़ियों के ढेर पर डाल दिया और उसमें आग लगा दी। यह सब-कुछ इसलिए हुआ कि वे सोचते थे कि गाँव में हैजा इसी की वजह से फैला है।"

उनतीस अगस्त 1946 के 'टाइम्स आफ इंडिया' से - "खेड़ा जिले के एक गाँव में सवर्ण हिंदुओं ने हरिजनों के मकानों पर हमला कर दिया। उनको संदेह था कि ये लोग जादू-टोना करते हैं, जिससे जानवर मर जाते हैं।

कहा जाता है कि दो सौ ग्रामीण लाठियाँ लेकर हरिजनों के मकानों में घुस आए, एक बुढ़िया को पेड़ से बाँध दिया और उसके पैर जला दिए। उन्होंने एक और औरत की जबरदस्त पिटाई की।

हरिजन डरकर गाँव से भाग गए। जिला हरिजन सेवक संघ के मंत्री छोटा भाई पटेल को जब इस घटना का पता चला, तो वह हरिजनों को गाँव वापस ले आए हैं और उन्होंने हरिजनों की सुरक्षा के लिए अधिकारियों को एक पत्र भेजा है।"

एक और गाँव से भी ऐसी ही घटना का समाचार मिला है। कहा जाता है कि यहाँ भी हरिजनों की जबरदस्त पिटाई की गई है।

बात यहीं खत्म नहीं हो जाती। हिंसा की ऐसी ही एक और घटना हुई, जिसमें कहा गया है कि हिंदुओं ने मिलकर अस्पृश्यों पर हमला किया। यह खबर 22 सितंबर 1946 के 'भारत ज्योति' नामक समाचार-पत्र में छपी। इसका विवरण इस प्रकार है - "वरसाड तालुका के हरिजन सेवक संघ के मंत्री को एक रिपोर्ट प्राप्त हुई है, जिसमें कहा गया है कि खेड़ा जिले के वरसाड तालुका के एक गाँव में ग्रामीणों की भीड़ द्वारा किए गए हमले के कारण पाँच हरिजन गंभीर रूप से घायल हो गए। उनमें एक महिला भी थी। उन पर यह हमला धारियों और लाठियों से किया गया। यह हमला लगभग सात बैलों के मर जाने के कारण किया गया। गाँव वालों को यह संदेह था कि हरिजन टोना-टोटका किया करते हैं।

घायलों को अस्पताल भेज दिया गया है। पुलिस मौके पर पहुँच गई है और कुछ लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है। कहा जाता है कि गाँव वाले हरिजनों को धमका रहे हैं कि यदि वे इस बारे में अधिकारियों से किसी तरह की शिकायत करेंगे, तो उन्हें जिंदा जला दिया जाएगा।

खेड़ा के गाँवों में ऐसी घटनाएँ प्रायः होती रहती हैं और जिलाधीश ने सभी पुलिस अधिकारियों और अन्य अधिकारियों को हिदायतें दी हैं कि हरिजनों का उत्पीड़न करने वालों को कड़ी सजा दी जाए।"

इन उदाहरणों से जो बात सामने आती है, वह साफ और सीधी है। कुछ और कहने की जरूरत नहीं। अस्पृश्य के पास आना भी आम हिंदू के लिए गवारा नहीं। उससे छूत लग जाती है। वह इनसान नहीं है। उसे दूर रखना चाहिए।