अंधेरे के पक्ष में उजाला / प्रेम जनमेजय

Gadya Kosh से
(अंधेरे के पक्ष में उजाला से पुनर्निर्देशित)
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मेरे मोहल्ले में अनेक चलते किस्म के लोग रहते हैं। मेरे मोहल्ले में पुलिस, न्यायालय, संसद, साहित्य, नौकरशाही आदि क्षेत्रों से जुड़े लोग रहते हैं। आप तो ज्ञानी ही हैं और जानते ही होंगें मनुष्य भी एक मशीन है और इस मशीन के पुर्जों का सही इस्तेमाल करना चलते किस्म के लोगों का ही कमाल होता है और ऐसे महापुरुषों को चलाता पुर्जा भी कहा जाता है। मेरे मोहल्ले में इन्हीं ‘चलताउ’ किस्म के लोगों का साथ निभाने और नैतिक बल देने के लिए एक चलती सड़क भी है। जैसे नारे हमें निरंतर ये भ्रम देते रहते हैं कि देश चल रहा है वैसे ही इस सड़क से लगातार फेरीवालों की आवाजाही और उनकी भांति-भांति की आवाज़ें निरंतर भ्रम देती रहती हैं कि ये सड़क बहुत चलती है। कोई रद्दी पेपर की पुकार लगाकर आपके कबाड़ से आपको लाभान्वित करने का अह्वान देता है, कोई बासी सब्जी को ताजा का भ्रम पैदा करने वाली रसघोल पुकार को जन्म देता है। कोई चाट-पकोड़ी की चटकोरी जुबान से चटपटाता है तो कोई...। मौसम के अनुसार आवाज़ें भी बदलती रहती हैं। चुनाव के मौसम में अपनी रेहड़ी पर देशसेवा लादे, देशसेवा ले लो, देशसेवा ले लो की गुहार लगाने वाले भी आते हैं। ये सभी आवाज़ें मेरी परिचित आवाज़ें हैं और मुझे परेशान नहीं करती हैं। जैसे रेल की पटरियों के पास रहने वालों को रेलगाड़ी का आना-जाना, मछली बाज़ार में रहने वालों को मछली की गंध, सरकारी दफतरों में काम करने वालों को भ्रष्टाचार, पुलिस वालों को कत्ल, वकील को झूठ आदि परेशान नहीं करते। पर उस दिन एक नई पुकार सुनकर मैं परेशान हो गया, कोई पुकार रहा था --उजाला ले लो, उजाला ले लो, बहुत सस्ता और उजला उजाला ले लो।

पचास परसेंट डिस्काउंट पर उजाला ले लो।’

डिस्काउंट सेल तो बड़े-बड़े माॅल पर लगती है या उनकी देखा-देखी किसी छोटी दुकान पर। किसी फेरीवाले को मैंनें डिस्काउंट सेल लगाते हुए नहीं देखा। हां मोल-भाव करते जरूर देखा है। मोल-भाव तो हम भारतीयों की पहचान और आवश्यक्ता है। बिना मोलभाव किए माल खरीद लो तो लगता है कि लुट गए और मोलभाव करके खरीद तो लगता है कि लूट लिया। मैंनें फेरी को बुलाया और कहा-

तुम्हें मैंनें पहले कभी इस मोहल्ले में नहीं देखा, तुम कौन हो और कहां से आए हो?

उसने कहा- मैं उजाला हूं और स्वर्ग से आया हूं। -

तुम तो सोने के भाव बिका करते थे, तुम्हारी तो पूछ ही पूछ थी, ये क्या हाल बना लिया है तुमने? तुम स्वर्ग में थे तो फिर धरती पर क्या लेने आ गए? -

मैं आया नहीं, प्रभु के द्वारा धकियाया गया हूं। -

क्या स्वर्ग में भी प्रजातंत्र के कारण चुनाव होने लगे हैं जो उजाले को धकियाया जा रहा है। तुम तो प्रभु के बहुत ही करीबी हुआ करते थे। साधक तो अंधेरे से लड़ने के लिए प्रभु की तपस्या करते हैं और प्रभु अंधेरे से लड़ने के लिए तुम्हारा वरदान देते हैं। तुम तो इतने ताकतवर हो कि एक दीए को तूफान से लड़वा दो, जितवा दो पर इस समय तो तुम ऐसे लग रहे हो जैसे प्रेमचंद की कहानियों का किसी सूदखोर बनिए के सामने खड़ा निरीह किसान या फिर आज के भारत का आत्महत्या करने वाला सरकारी आंकड़ों में चित्रित ‘खुशहाल’ किसान। -

मेरी हालत तो किसान से भी बदतर है, किसान तो आत्महत्या कर सकता है, मैं तो वो भी नहीं कर सकता।’ यह कहकर वह रोने लगा।

मैंनें कहा- उजाला इस तरह रोता हुआ अच्छा नहीं लगता। तुम ही कमजोर हो जाओगे तो ईमानदार मनुष्य का क्या होगा। बताओ तो सही,क्या और कैसे हुआ, तुम राजा से रंक कैसे हुए?

- तुम तो जानते ही सतयुग में मेरी क्या ताकत थी। हर समय प्रभु के निकट ही रहता था। कितना विश्वास था प्रभु को मुझपर! अच्छे -अच्छे राजा मुझसे भय खाते थे। चारों ओर मेरा ही साम्राज्य था। अंधेरा मुझे देखते ही दुम दबाकर भाग जाता था। उन दिनों अंध्ेारा दीए तले रहने से भी घबराता था। मेरी ताकत के कारण मुझे बस संकेत भर करना होता था और अंधेरा किसी कोने में अपना मुंह छिपा लेता था। मेरा काम बस प्रभु के चरणों में पड़ा रहना होता था। प्रभु मुझे देखकर प्रसन्नचितदानंद होते और अपनी सृष्टि में मेरा विस्तार देखकर संतुष्ट होते। प्रभु मुझे देखकर प्रसन्न होते और मैं प्रभु को देखकर प्रसन्न होता। जैसे प्रेम में फंसा हुआ नया जोड़ा एक दूसरे को एकटक निहारता रहता है, उसे समय और स्थान का ज्ञान नहीं रहता है, वो दुनिया से कट जाता है, वैसे ही प्रभु और मैं हो गए। हम दोनों अपने प्रति परवाहकामी और संसार के प्रति बेपरवाह हो गए। अंधेरा तो इसी की तलाश में था। उसने धीरे-धीरे अपने पैर पसारने आरंभ कर दिए। एक ही स्थान पर बैठे-बैठे मुझपर चर्बी भी बहुत चढ़ गई थी। हर समय नींद-सी आई रहती थी। इधर अचानक मेरा काम बढ़ गया। समझो सरकारी नौकरी से मैं किसी मल्टीनेशनल कंपनी के चंगुल में पफंस गया। आप जानों प्रभु तो प्रभु होते हैं। निरंतर व्यस्त रहना ही प्रभु का प्रभुत्व होता है और उनके इस प्रभुत्व को उनके भक्त भोगते हैं। व्यस्त प्रभु निर्देश देते हैं और भक्त सेवक बन उनका पालन करते हैं। ज़रा-सी चूक सेवक को उसके पद से स्खलित कर देती है। मेरे साथ भी ऐसा हुआ। काम की अधिकता के कारण एक दिन मुझे उंघ आ गई और किसी ने प्रभु की प्रभुता को चुनौती दे डाली। प्रभु का नजला मुझ पर गिरा और उन्होंने मुझे श्राप दे डाला। उस श्राप के कारण मेरे अनेक टुकड़े हुए और मैं धरती पर आ गिरा। मेरे अनेक टुकड़ों मे से कोई पुलिस की गोद में गिरा, कोई वकील की गोद में गिरा, कोई नेता की गोद में गिरा, और कोई... अब मैं अपने विघटन का क्या बयान करूं...’’ ये कहकर वो फूट-फूट कर रोने लगा।

उजाले को रोता देख मेरे घर के हर कोने का अंधेरा अट्टहास करने लगा। मैंनें कहा- देखो उजाले, तुम्हें रोना है तो कहीं और जाकर रोओ, वरना मेरे घर में अंध्ेारा अपना साम्राज्य स्थापित कर लेगा। मेरे घर में तुम्हारे होने का ताकतवर भ्रम बना हुआ है, उसे बना रहने दो। मुझे तुमसे सहानुभूति है, पर क्योकि अब तुम दुर्बल हो चुके हो, इसलिए तुम्हें मैं अपने घर में टिका नहीं सकता हूं। तुम्हारे रहने से मेरे घर में थोड़ा बहुत जो उजाले के होने का भ्रम है वो दूर हो जाएगा और मोहल्ले में मेरी इज्जत का भ्रम टूट जाएगा।’

उजाले ने सुबकते हुए कहा- मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है, मैं सभी जगह से इसी तरह से ठुकराया गया हूं। मेरे किसी टुकड़े को किसी ने शरण नहीं दी है। पुलिसवाले, वकील, नेता आदि सबने यही चाहा कि मैं अपने होने का भ्रम तो पैदा करूं पर खड़ा अंधेरे के पक्ष में रहूं। मेरी भूमिका अंधेरे के गवाह के रूप में रह गई है। मैं क्या करूं?

- करना क्या है, वही करो जो समय की मांग है। समय की मांग बहुत बड़ी मांग होती है। इस मांग के कारण ही बाप अपनी बेटी से बलात्कार करता है, इस मांग के चलते ही बेटा कंपनी के काम को मां-बाप की आवश्यकता से अधिक प्राथमिकता देता है, इस मांग के कारण ही जनसेवक अपनी सेवा को प्राथमिकता देता है।

आज समय की मांग है कि उजाला अंध्ेारे के पक्ष में खड़ा हो। तो प्यारे तुम चाहे खड़े होओ या बैठो पर मेरे यहां से फूट लो वरना तुम्हें इस घर की युवा पीढ़ी ने तुम्हें मेरे साथ देख लिया तो वो मुझे श्राप दे देगी और मैं तुम्हारी तरह फेरी लगाता अपने आपको बेच रहा हूंगा।’

उजाले ने मेरी ओर जिस निगाह से देखा उसका बयान करते हुए मेरी गर्दन शर्म के कारण झुकी जा रही थी, पर जब अस्तित्व का प्रश्न आता है तो शर्म, लज्जा, नैतिकता,आत्मस्वाभिमान आदि को तेल लेने भेजना ही पड़ता है। उजाले ने ना जाने किस दृष्टि से मुझे देखा कि वो मेरी आत्मा को बेंध गई। उजाला अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए फिर पफेरीवाल बन आवाज़े लगाने लगा।

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