औरत जो नदी है... / भाग 8 / जयश्री रॉय

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मैं समझने की कोशिश करता, मगर समझ नहीं पाता। पुरुष हूँ, देह और मन- दोनों स्तर पर एकसाथ जी सकता हूँ और कोई द्वंद्व भी महसूस नहीं करता। मन मीरा बनकर वैराग्य की माला फेरता है तो तन राधा की तरह महारास में मगन हुआ रहता है। मैं उसे समझाने की कोशिश करता - मगर इसमें गलत क्या है! देह ही तो प्यार की जमीन है। वह उदास हो जाती - मगर यही उसकी हद तो नहीं होनी चाहिए... तुमलोग इसी जंगल में क्यों भटकते रहते हो!

सोने के मृग के पीछे तो हमारे राम भी भटक गए, फिर हम माटी के पुतले क्या हैं! फिर, तुम भी तो भटकती हो... मैं उसे अपने ऊपर खींच लेता। वह सहज मुस्कराती -प्यार में सबकुछ सही होता है। गलत तो वह होता है जो प्यार में नहीं होता।

कभी-कभी मुझे उसका अपनी इच्छाओं के संदर्भ में इतना मुखर होना खल भी जाता था। कहता था, अपनी वासना को लेकर तुममें कोई वर्जना, कोई इनहिबिशन नहीं... वह बिंदास हँसती - यू हिप्पोक्रेट मैन, हर जगह अपना ही आधिपत्य चाहते हो, घर में भी, बाजार और बिस्तर पर भी... औरत तुम्हारी मर्जी की करती रहे हमेशा और अपनी इच्छा या खुशी भी जताए तो तुमलोगों को नागवार गुजरती है, एक बात निकाल दो अपने दिमाग से कि औरत सिर्फ भोग्या है। वह भी भोगती है! फर्क बस इतना है कि वह तुमलोगों की तरह संभोग में अपने अहम के साथ अकेली नहीं रहना चाहती, अपने साथी का दैहिक और मानसिक स्तर पर बराबर का साथ चाहती है, जितना लेती है, उतना, बल्कि उससे भी ज्यादा देना चाहती है! सम+भोग तो सही अर्थ में वही करती है... वह शब्दों को रुक-रुककर उच्चारती है - सबकुछ अकेले हड़पने के चक्कर में तुम मर्द कितने अकेले रह गए हो...

इतनी सहजता से वह अपने विगत संबधों की लंबी सूची मुझे गिनाती कि कभी-कभी मैं अपनी कुढ़न छिपा नहीं पाता, पूछता, तुम्हें ग्लानि नहीं होती? वह झट जोगन बन जाती - जब तक स्त्री अपनी इच्छा से किसी का वरण नहीं कर लेती, कुँवारी ही रहती है। वैसे, माटी की देह का क्या है, टूटता-फूटता रहता है... और फिर एक बात कहूँ, इस मामले में स्त्री लंबी दौड़ की खिलाड़ी होती है, वह पुरुष का आखिरी प्रेम होना चाहती है। पुरुष तो पहला प्रेमी - वह भी देह के संदर्भ में - होकर ही खुश हो लेता है। कितना सतही होता है उसका ये पाना, वह कभी समझ ही नहीं पाता!

उसकी उपालंभ से भरी आँखें मुझे गहरे तक दाग गई थी। ऐसे मौकों पर वह मुझसे कितनी दूर हो जाया करती थी - समानांतर दौड़ते नदी के दो किनारों की तरह, जहाँ बाँह भर की दूरी जीवन भर का अभाव बना रहता है।

एकबार बिस्तर पर रोम-रोम से रीत गई-सी पड़ी-पड़ी वह शिकायत कर बैठी थी - मेरा सबकुछ जस का तस रह गया है अशेष। तुम मुझे लेते क्यों नहीं? मैं तुम पर पूरी तरह खत्म हो जाना चाहती हूँ। तुम मुझे सूद-मूल में कमा लो, मैं तुमपर पाई-पाई खर्च हो जाऊँगी... जानते हो टैगोर क्या कहते हैं - दूँगा उसे जिसे बिना मूल्य दे सकूँगा - हर औरत बस यही चाहती है।

मेरे द्वारा उपहार में लाई हुई मोतियों की माला अपने गले में डालते हुए उसका यह कहना अजीब विरोधाभास से भरा हुआ था। वह जैसे विसंगतियों का एक गुंजल थी। भोग्या बनी स्वयं जीवन को हर स्तर पर पूरी शिद्दत से भोगती वह न जाने किस क्षण संन्यास की विरक्ति से भर उठेगी, कहना कठिन था। उसका साहचर्य मुझे सुख के साथ असुरक्षा की गहरी कुरेदती भावना से रातदिन ग्रसित रखता था।

दूसरी तरफ तरफ उमा थी और उसकी अंतहीन शिकायतें, जो गलत भी नहीं थीं। कौन था गलत यहाँ - मैं, उमा या फिर दामिनी...! शायद हममें से कोई भी नहीं। ये हालात थे... गलत समय या स्थिति में सही भी गलत ही हो जाता है। दामिनी कहती है, प्यार कभी गलत नहीं हो सकता। मैं सोचता हूँ, प्यार की अभिव्यक्ति तो गलत हो सकती है...

मैंने बातों के छिलके उतारने छोड़ दिए हैं - इससे कभी कुछ हासिल नहीं होता। जीना चाहता हूँ, खुश होना चाहता हूँ... इसमें कहाँ क्या गलत है, इसकी विवेचना दुनिया करती रहे। अपनी मंजिल की तरफ बढ़ते हुए हम दूसरों के रास्ते मे आ जाते हैं... अनजाने ही। दुश्मनी नहीं करते, मगर दुश्मन बन जाते हैं, बिना पाप किए पापी हो जाते हैं... मैं उमा का कसूरवार था, दामिनी का भी, मगर बिना कसूर किए... बस, उनकी राह में आ गया! पाप-पुण्य जैसा कहीं कुछ होता भी है? ये हालात होते हैं और विवशताएँ... मैं अक्सर सोचता हूँ, जब उमा के सवाल कचोटने लगते हैं या फिर दामिनी के शब्द तकलीफ पहुँचाते हैं। प्यार खुशियाँ लाता है, मगर किस कीमत पर... खुशियों की ही कीमत पर! घर फूँककर उजाला करना...।

दामिनी क्या चाहती है, मैं समझ नहीं पाता। वह अपने जिस्म और रूह के बीच उलझी रहती है - उसे दोनों चाहिए - पूरा-पूरा! नशे में अपनी जपा फूल बनी आँखों को झपकाकर कहती है - देह साध्य नहीं, सिर्फ साधन होनी चाहिए... मैं इन तर्कों के मकड़जाल में नहीं उलझना चाहता, जो महसूस करता हूँ, देखता हूँ, छूता हूँ, उसे सच मानता हूँ। ये हाड़-मांस की स्थूल दुनिया मेरे लिए सच है। देह से परे क्या रह जाता है... मैं हवा को मुट्ठी में बाँधने की ख्वाहिश नहीं रखता। निरगुन कोन देस को वासी... एक से प्यार करने का अर्थ दूसरे से नफरत करना नहीं होता। सीधे-सादे शब्दों में मेरे लिए प्यार का जो अर्थ है, वह मैं उमा से करता हूँ और दामिनी से भी करता हूँ। यदि इस बात को समझने, स्वीकार करने की सामर्थ्य दामिनी या उमा में होती तो शायद मैं उन्हें यह सच बताने की जुर्रत भी कर लेता। झूठ बोलने के लिए हम अक्सर विवश किए जाते हैं, सच सुनना कौन चाहता है...

शायद मैं डिफेंसिव हो रहा हूँ... क्या करें, स्वयं को बचाना सेल्फ इमेज और एस्टीम के लिए जरूरी होता है। ईगो - अपने अहम की रक्षा! अपराधबोध से मुक्त होने की कवायद, ताकि रातों को चैन से सोया जा सके।

दामिनी से एकबार स्पष्ट पूछा भी था, क्या उसे मर्दों से घृणा है। उसने कहा था, मर्दों से नहीं, मगर हाँ, शायद मर्दों की टिपिकल प्रवृत्ति, जो स्त्री विरोधी है, से घृणा करती हूँ। उसके पास अगर औरतों से ज्यादा - ज्यादा कह रही हूँ - बेहतर नहीं - कुछ है तो बस अहंकार का वह टोकरा, जिसकी वजह से वह स्वयं को सिर्फ पुरुष होने के नाते स्त्री से श्रेष्ठ समझता है। दोनों - स्त्री और पुरुष - अपनी-अपनी जगह अन्याय का शिकार होते हैं, मगर जहाँ स्त्री-पुरुष संबंध की बात है, वहाँ जरूर पुरुष ने ही स्त्री के साथ अन्याय किया है। सभ्यता के हम रोज नए-नए सोपान चढ़ रहे हैं, मगर अंदर वही जंगल बना हुआ है और उसका वही जंगली राज - माइट इज राइट... तुम अपनी सभ्यता के इतने लंबे सफर के पद-चिह्न हम औरतों की देह पर देख सकते हो - नखों, खुरों से लेकर सिगरेट से जलाए गए धब्बों तक...

कहाँ, मेरी आँखें तो इतना सबकुछ नहीं देख पातीं... मैं उसे छेड़ता हूँ, वह बुरा मान जाती है - आँखें तो होती ही हैं अंधी, ये तो मन है जो देखता है। वह मन पैदा करो, इतना स्थूल मत बन जाओ कि तुममें और कद्दू, लौकी में कोई फर्क ही न रह जाय...

कभी-कभी मुझे दामिनी के जीवन की ट्रेजेडी भी बहुत कृत्रिम, एक हदतक रोमानी प्रतीत होती थी। वाइन पीकर रोना भी एक तरह की ऐय्याशी होती है, किसी-किसी के लिए समय गुजारने का एक हसीन तरीका... सुनकर दामिनी इसबार नाराज नहीं हुई थी, बस धीरे से कहा था, किसी जलपक्षी की तरह गंभीर और उदास आवाज में -

इतना जजमेंटल क्यों हो रहे हैं! दुनिया में बहुतों के दुख होंगे - बहुत ज्यादा, मगर इसी से मेरे दुख तो कम नहीं हो जाते न? जब कोई भूख से रोता है, कोई किसी और बात के लिए रोता है। दुख को हम आकार या वजन में क्यों बाँटने लगते हैं? यहाँ कोई कंपटीशन नहीं हो रहा है, इस मामले में किसी को मुझसे आगे निकलना हो तो शौक से निकले...

मुझे कौतुहल होता था, अपनी माँ का जीवन, उनका अनुभव देखकर भी दामिनी किस तरह अब भी प्यार पर यकीन किए बैठी थी। उसके लिए तो अबतक सब झूठ हो जाना चाहिए था। सुनकर वह हँसी थी - तुम नहीं समझोगे, एक तरफ मेरे पापा थे, मगर दूसरी तरफ मेरी माँ भी तो थीं! प्यार होता है, उसपर लोग अपना सबकुछ कुर्बान कर देते हैं, यह सच्चाई भी तो मेरी आँखों के सामने ही थी न? अशेष, अविश्वास में जीने से अच्छा है विश्वास के हाथों मारा जाना, कभी कहा भी था शायद तुमसे। वह गजल सुनी है - 'हर जर्रा चमकता है अनवर-ए-ईलाही से, हर साँस ये कहती है, हम हैं तो खुदा भी है...' ...तो प्यार है, यकीन है...

ऐसा कहते हुए उसकी आँखों में ध्रुवतारा-सा कुछ अडोल चमक आया था। न जाने क्यों मैंने अपनी नजरें झुका ली थीं उस क्षण - उनका सामना नहीं कर पाया था।

उसदिन हम आइनोक्स में फिल्म देखने गए थे। किस्मत से उसदिन लगभग पूरा हॉल ही खाली था। थोड़ी ही देर में दामिनी ऊब गई थी - क्या बकवास फिल्म है अशेष! ऐसी फिल्म दिखाने लाए ही क्यों?

मैं तो जानबूझकर ही लाया था, मेरी शरारत भरी मुस्कराहट से वह चौंकी थी -

क्या मतलब?

मतलब... नहीं तो ऐसा खाली हॅाल कहाँ से मिलता... मैं उसके बहुत करीब होकर बैठा था।

बदमाश कहीं के... उसने नाराजगी दिखाई थी, हँसते हुए...

उसके बाद आधी फिल्म छोड़कर ही हम मिरामार बीच चले गए थे। पैदल ही, माँडवी के किनारे-किनारे। शाम के समय पूरी नदी रँगी हुई थी, शहर भी - आकाश के टेसुआ रंग में। सूरज थोड़ी देर पहले ढला था, हवा अब ठंडी होने लगी थी। दूर नदी के सीने पर तैरते हुए कैसिनो की नीली बत्तियाँ एक-एककर जल उठी थीं। पानी में नावों की परछाइयाँ लंबी होकर डोल रही थी। सड़क के किनारे सैलानियों की भीड़ जमा थी। पास ही लगे बाजार में बिकते अलफोंसों आम की महक से हवा तर हो रही थी। गर्मी की एक खूबसूरत शाम, गंध और रंग भरी... मुझे सबकुछ बहुत सुखद लग रहा था।

हम जाकर मिरामार बीच पर बैठ गए थे। चारों तरफ ऊँचे, लंबे पेड़ों की कतारें और उनके चीरे, महीन पत्तों के बीच से झाँकता हुआ रंगभरा सँझाता आकाश... दामिनी ने उसदिन तसर सिल्क की हल्की नीली साड़ी पहनी हुई थी। ढीले जूड़े में पीले चंपा की एक अधखिली कली। पास बैठने पर उसकी मीठी गंध मेरे नासारंध्र से टकराई थी।

- हम दोनों आज साथ-साथ कितने खुश हैं न दामिनी... मैंने उसकी हथेली खोलकर उसमें एक मुट्ठी रेत उँड़ेली थी।

- हाँ, उसने वह रेत अपनी मुट्ठी अलगाकर धीरे-धीरे हवा में उड़ा दी थी - काश! ये समय यूँ ही ठहरा रह जाए...

- दो इनसान एक साथ इतना खुश रहते हैं, और कभी-कभी क्या हो जाता है कि वही इनसान किसी और के लिए असह्य हो उठते हैं...

- कहीं कुछ गलत हो जाता है। बल्कि मुझे तो लगता है, कोई कभी गलत नहीं होता, ये हालात होते हैं या फिर हमारी अपेक्षाएँ जो गलत होती हैं... इनसान बुरा भी शायद ही होता है, हाँ, भिन्न जरूर होता है और अपने से भिन्न को न सह पाने की असहिष्णुता ने ही तो पूरी दुनिया को हमेशा से तनाव में डाल रखा है। किसी को हम उसी रूप में स्वीकार नहीं कर पाते जो वह है। रिश्ता जुडते ही हम उसे बदलने में लग जाते हैं, वह बना देना चाहते हैं जो वह नहीं है। और फिर इस गलत कोशिश में न खुद खुश रह पाते हैं, न औरों को ही रहने देते हैं। कोई ये क्यों नहीं सोचता कि अगर पूरी दुनिया एक जैसी होती तो सबकुछ कितना उबाऊ और एकरस हो जाता...

एक क्षण के लिए रुककर वह रेत पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचती रही थी, किसी सोच में डूबी हुई-सी, फिर मेरी आँखों में झाँका था, अपनी आँखों के ढेर सारे सवाल लिए -

यहाँ रिश्ते के नामपर ये हिंसा क्यों होती है अशेष, जिससे हम प्यार करने का दावा करते हैं, उसे ही तोड़ डालते हैं, धीमे जहर से मार डालते हैं, उसकी हर खुशी, उपलब्धि से ईर्ष्या करते हैं, चाहते हैं, वह वह न रह जाय, कोई और बन जाय - जो वह नहीं है। पापा ने यही किया था मेरी माँ के साथ। माँ का अपना व्यक्तित्व था जिसे वे बदलकर अपने मन मुताबिक नहीं बना पाए। औरत का कुछ अपना हो, निजस्व हो, यह मर्द बर्दाश्त नहीं कर पाता, चाहता है, औरत उसकी परछाईं भर बनकर रह जाय। शायद इसीलिए पापा माँ से चिढ़ने लगे थे। उन्हें जब बदल या झुका नहीं पाए, तब उन्हें पराजित करने का दूसरा तरीका ढूँढ़ निकाला - उन्हें पूरी तरह नजरअंदाज कर उनके मर्म और आत्मसम्मान पर चोट पहुँचाकर... उनके किसी सवाल का जबाव देना तो दूर, उन्होंने माँ से बोलना ही छोड़ दिया था।

माँ इस अपमान और गहरी अवज्ञा को सह नहीं पाईं... अंततः टूट ही गईं...

एक छोटे-से विराम के बाद वह बोली थी, अवसन्न आवाज में - जनते हो अशेष, यह दुनिया की सबसे बड़ी और क्रूरतम सजा है। यही सजा पापा ने मेरी माँ को दी थी। कुछ घंटे या एक दिन में नहीं, एक उमर तक उन्हें तिल-तिलकर मारा था - हर रोज, हर क्षण...

उसी मौत के साक्ष्य में मेरे बचपन की दूधिया हँसी घुलकर रह गई है अशेष! अपनी निरंतर मरती माँ को देखते हुए मैं कौन-सा सपना देख सकती थी। नहीं होता था मुझसे कुछ भी - हँसना, बोलना, मुस्कराना... माँ मेरे लिए गाती थी, मुस्कराती थी, मगर उनसे चुपचाप रिसते दुख मुझतक पहँच ही जाते थे, अदृश्य, अरूप वन्या की तरह।

एक दिन - जब मैं कुछ बड़ी हो गई थी - माँ से कहा था - माँ, हमेशा हँसने की जरूरत नहीं। कभी रो लिया करो, इट्स ओके - सच! उसदिन माँ ने मुझे किन गीली नजरों से देखा था, जैसे चोरी करते हुए रँगे हाथों पकड़ी गई हों। उनकी झेंप को मिटाने के लिए मैं एकबार फिर से अनजान बन गई थी।

देर शाम तक समुद्र तट पर बैठकर उस दिन हम दामिनी की कॉटेज में लौट आए थे। तबतक दामिनी का मूड बदल गया था। अपनी माँ के प्रसंग पर अक्सर दामिनी के साथ यही होता था, वह अपने अतीत में देरतक के लिए गुम जाती थी। कमरे में अपने बिस्तर पर लेटकर वह देरतक बोलती रही थी, छोटी-मोटी बात... मैंने फ्रिज से रेड वाइन निकाल ली थी। साथ में उषा मछली के कटलेट्स रख गई थी। यह वह बहुत अच्छा बनाती थी। खाते हुए मैंने गौर किया था, दामिनी न जाने कब चुप हो गई थी। जैसे उसे झपकी आ गई हो।

उसकी बातें खत्म होने के बाद भी देरतक कमरे में चक्कर काटती रही थीं, जैसे किसी मंदिर के गर्भ-गृह में जलकर बुझ चुकी धूप की गंध...! मैं उसी में डूबा बैठा रहा था, कुछ कहने की इच्छा नहीं हो रही थी। मैं चाहता था, आज दामिनी अपने बंद मुट्ठी-से मन से निकलकर आकाश हो जाय - उन्मुक्त, स्वच्छंद और असीम! संकुल हृदय दिगंत का विस्तार पा ले, कहीं बँधा न रहे, घिरा न हो... ये उसके कन्फेशन का दिन था - सबकुछ-सबकुछ कह लेने का, सुना देने का दिन। उसने ही मुझसे यह माँगा था - किसी वरदान की तरह! मैंने स्वेच्छा से उसे दिया भी था। अगर वह खुश हो लेना चाहती है तो जरूर हो ले, रोकर ही सही!

मेरे खयालों से अनजान उसने फिर कहा था - मैंने माँ की डायरियाँ देखी थी - तुम्हें बताया था। खूबसूरत, रूहानी कविताएँ लिखती थीं वे। अपनी अनकही। उनकी मौत के कुछ दिनों बाद मैं उनका कमरा साफ कर रही थी। अप्रैल की एक खुशनुमा सुबह थी वह - चटकीली धूप और नर्म-मुलायम हवा से लबरेज। वह हमेशा का बोझिल-सा कमरा यकायक हल्का-फुल्का हो आया था। अलगनी पर माँ की हल्की पीली सूती साड़ी का लाल पाड़ झिलमिला रहा था। श्रृंगार मेज पर उनकी चूड़ियाँ बेतरतीब बिखरी पड़ी थीं। न जाने मन में क्या आया था कि मैंने आईने पर चिपकी उनकी लाल बिंदी उठाकर अपने माथे पर लगा लिया था और फिर चौंककर देखा था, मैं बिल्कुल अपनी माँ जैसी दिख रही हूँ! उस क्षण मैं रोना नहीं चाहती थी, मगर बस वही किया - देरतक रोती रही। कोई-कोई पल सिर्फ सच के लिए होता है। उसमें झूठ के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती। मैं अपने छद्म से थक गई थी, थोड़ी देर के लिए सही, अपने आप में होना चाहती थी, अपनी माँ की याद में होना चाहती थी - रोना चाहती थी...

माँ की देह पर पापा को बिलखते हुए देखकर मेरे आँसू सूख गए थे। अंदर विद्रोह और धिक्कार का ऐसा तीव्र बवंडर उठा था कि मैं उसमें आपाद-मस्तक ढँककर रह गई थी। अंदर का सच - घिनौना सच - मुझपर जाहिर था, इसलिए मैं उनके झूठ को बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। क्या मृत्यु के उस क्षण में भी पापा को उन्हें सिर्फ छलना ही था। कम-से-कम आज तो माँ को यह सब नहीं मिलना चाहिए था!

अचानक उठकर दामिनी खिड़की पर खड़ी हो गई थी। बाहर आकाश का रंग बदल रहा था। हवा में आते हुए नए मौसम की गंध थी - बहुत नया, मगर वही पुराना, चिर परिचित... मैंने उस गंध को पहचानने की कोशिश की थी - गंध के भी चेहरे होते हैं, रंग भी! जैसे आम की फूलती मँजरी की गंध के साथ गर्मी की किसी दोपहरी, अमराई या बचपन में अपने ननिहाल में बिताई गर्मी की छुट्टियों की याद एकदम से ताजा हो उठती है - किसी जीवंत तस्वीर की तरह। ऐसा कि हाथ बढ़ाकर उन्हें छुआ जा सके!

न जाने मेरी उँगलियों के पोरों में उस क्षण जीवन का कौन-सा अनुभव स्पर्श बनकर धड़क रहा था जब दामिनी ने मुझे संबोधित किया था, जाने कहाँ से, यादों के किस गाँव से... एक चूर होती आवाज - काँच के किरचों की तरह - महीन, धारदार - पापा को और शायद वहाँ उपस्थित सभी लोगों को मेरा अपनी मृत माँ के सिरहाने यूँ निर्लिप्त और भावहीन होकर बैठी रहना आश्चर्य में डाल रहा था। दुख मनाना, शोक व्यक्त करना हमारे समाज में एक रस्म भी है, सामाजिक व्यवहार! सभी को, विशेषकर स्त्रियों को इसमें पारंगत होना ही चाहिए। वर्ना छी-छी होती है... अब दामिनी की आवाज में हँसी-सी घुल आई थी। वह कह रही थी - किसी ने मुझे सुनाकर कहा भी था - आजकल के बच्चे - सेल्फ सेंटर्ड, स्वार्थी... माँ-बाप की भी नहीं पड़ी है उन्हें - ऐसे अवसर में भी... उनकी बात पर किसी ने गहरा उच्छ्वास भरा था।

मुझमें उस वक्त एक गहरा आक्रोश और जिद भरी हुई थी। किसी का कुछ नहीं गया था, सब रस्म निभा रहे थे। दुनिया तो मेरी लुटी थी। मैं किसी भी स्तर पर उनसे- उन कृतिम और दिखावटी लोगों से अपनी माँ को बाँटना नहीं चाहती थी - रोकर भी नहीं। कैसे दो बूँद बहाकर मैं अपने अंदर से उनके दुख को कम हो जाने देती! अब जो था यही था मेरे लिए - माँ की थाती, माँ की निशानी - उनकी विरासत... मुझे सहेजना था उनको - एक पूरी उम्र के लिए!

डायरी के एक पन्ने में माँ ने लिखा था - समय की आँखों में हींग-हल्दी और पसीने से लिथड़ी हुई कामवालियों के लिए लालसा देखती हूँ और शर्म से गड़ जाती हूँ। ये वही समय है जिसके लिए मैंने अपनी सपनों और इच्छाओं की एक पूरी दुनिया छोड़ दी, जिसके प्यार को पाकर मैं स्वयं को दुनिया की सबसे अमीर औरत मानने लगी थी। समय से शादी करने के बाद मैंने किसी को लिखा था, मैंने अपने सबसे अच्छे दोस्त से शादी कर ली है। अब याद करती हूँ तो अपने ही भोले यकीन पर तरस आता है। कितनी मासूम थी, इस तरह से यकीन करना आता था।

ये पक्तियाँ पढ़कर मुझे भी शर्म महसूस हुई थी। माँ की स्थिति में होकर सोचना चाहा था। उनकी संपूर्ण आस्था और समर्पण का ये तो प्रतिदान नहीं होना चाहिए था! पापा से शादी करने के लिए उन्होंने लगभग अपने सारे ही रिश्ते ठुकरा दिए थे। ससुराल के अजनबी माहौल में पापा के सिवाय उनका कोई नहीं था। यहाँ की भाषा, संस्कृति, खान-पान - सभी कुछ माँ के लिए नया था। उस नए और अजनबी माहौल में व्यवस्थित और सहज होने के लिए उनको पापा के साथ और सहानुभूति की सख्त जरूरत थी। मगर पापा ने उसी कठिन समय में माँ का साथ छोड़ दिया था।

पापा के इस व्यवहार से माँ बिल्कुल अवाक रह गई थी। लोग विश्वासघात करते हैं, मगर इस आकस्मिकता से... माँ सह नहीं पाई थी, टूट गई थी एकदम से - अचानक! लोग झूठे निकलते हैं। मगर भगवान...? पापा माँ के लिए भगवान ही थे। उस उम्र में जब इनसान आदर्शवादी होता है और प्यार, यकीन जैसी खूबसूरत चीजों में भरोसा रखता है, माँ ने पापा की बातों और व्यवहार पर यकीन करके उन्हें अपना भगवान ही मान लिया था। अंधविश्वास था उनका उनपर। वे बहुत भावुक और रोमांटिक प्रकृति की थीं, शायद मन से अकेली भी। उनके बहुत बड़े घर में सुख-सुविधाएँ तो खूब थीं, मगर आत्मीयता की गरमाहट उतनी नहीं थी। उनके पिताजी बड़े आदमी थे, बहुत व्यस्त भी। माँ हमेशा सामाजिक कामों या किटी पार्टियों में उलझी हुई। बहुत बड़े अभाव से जन्मी थी उनके अंदर प्यार की गहरी भूख। अपने सारे सपनों, इच्छाओं-कामनाओं का आरोपण उन्होंने पापा पर कर दिया था। वे शायद अपनी हर अधूरी इच्छाओं की पूर्ति पापा से करना चाहती थीं। बहुत ज्यादा उम्मीदें वे अपने इस रिश्ते से लगा बैठी थीं। आखिर इसी संबंध पर उन्होंने अपना सबकुछ लगा दिया था। एक तरह से पूरे जीवन का निवेश ही।

समुद्र के किनारे चलते हुए जैसे वह हर बार अपने अतीत में चलने लगती थी। कई बार मैं यह देख चुका था। एकदिन बाघातोर समंदर के तट पर चलते हुए भी उसने कहा था - माँ का जीवन स्वप्न भंग के एक अंतहीन सिलसिले की तरह ही था - अछोर और यातना भरा! उनका हिसाब दिन, महीनों से नहीं लगाया जा सकता। दुखों के एक पल में न जाने कितनी सदियाँ होती हैं - कटती हैं, मगर नहीं कटतीं... इन्हीं छोटे-छोटे पलों से बना था माँ का जीवन, इसलिए लंबा था। उनके सिरे नहीं मिलते थे... उन्होंने अंततः काट ही लिया था अपना जीवन, मगर कोई पूछे कि कैसे... दामिनी चलते-चलते रुक गई थी, उसके पीछे उमड़ती हुई अबाध्य लहरें भी! कभी कोई क्षण जैसे तस्वीर-सा बन जाता है, स्मृति के फ्रेम में हमेशा के लिए जड़ जाने के लिए। यह क्षण भी कुछ ऐसा ही था। उसकी गीली आँखों का सूनापन देखकर अचानक इच्छा हुई थी, इस दुनिया को सिरे से बदल दूँ, सबकुछ तहस-नहस कर दूँ, यहाँ बहुत कुछ गलत होता है - यहाँ मेरी दामिनी को दुख पहुँचता है... कभी-कभी तुम मुझे क्या कुछ करने पर आमादा कर देती हो दामिनी...!

मेरी आँखों का मौन उसतक पहुँचा था या नहीं, कह नहीं सकता, मगर वह हल्की हो आई थी, बरसे हुए बादल की तरह। उसके गहरे कासनी आँचल में इस समय सारे आकाश का रंग था - चेहरे पर भी - अबीरी हो रहा था, न जाने किस सोच में... उसके चेहरे पर जल-बिंदुओं की तरह ठहरा हुआ उसका मन होता था - टल-मल - स्पष्ट... कितनी पारदर्शी थी वह - काँच के नाजुक गहने की तरह... उसे छूते हुए ध्यान रखना पड़ता था, कुछ चटक न जाय!

अपने बेतरतीब उड़ते बालों को एक जूड़े में समेटने का असफल प्रयास करते हुए वह एक पत्थर पर बैठ गई थी - ऐसा क्यों है अशेष कि हम हमेशा अपने अतीत या भविष्य में ही जीना पसंद करते हैं? वर्तमान जो सच है और हमारे सामने है, अदेखा रह जाता है...

- जो अप्राप्य है, वही लोभनीय है... पाया हुआ अपना आकर्षण खो देता है - ह्यूमन नेचर! मैं उसके बगल में बैठ गया था, अपनी गीली होती पैंट की परवाह किए बगैर। मेरी बात पर वह सोच में पड़ गई थी - तुमने मुझे भी तो पा लिया है... आगे की बात करने के लिए शायद उसे शब्दों की तलाश थी, एकदम से रुक गई थी। मैं अपने बयान की पकड़ में आ गया था, अब क्या कहूँ सोच रहा था। उसने अचानक अपनी बात का रुख मोड़ दिया था -

अशेष, तुम अपनी पत्नी से कभी प्यार करते थे...? उसके सवाल ने मुझे चौंकाया था - कभी... मैं अपनी पत्नी से कब प्यार नहीं करता था! मगर ये जवाब मैं उसे दे नहीं सकता था। उसकी आँखों की झिलमिल बता रही थी, उसकी मुझसे क्या अपेक्षा है... वह सुनना चाहती है कि मैं उमा से कभी प्यार नहीं करता था, ये रिश्ता एक मजबूरी और समझौता है, मैं उससे - सिर्फ उससे प्यार करता हूँ। ऐसा इंगित तो कभी मैंने ही किया था न। अब मैंने वही सब कहा भी। वह सुनी और संतुष्ट हुई - प्यार किया नहीं जाता है, ये तो घटित होता है!

- हाँ, और होता भी है बस एकबार... मैंने उसका हाथ पकड़ा था - उसके बाद तो सिर्फ दुहराया ही जाता है...

उसने मेरी आँखों में गहरा झाँका था - मगर तुम दुहराना भी मत...

- तुम पागल हो... उससे जो कुछ भी मैं इस क्षण कह रहा था उसमें कितनी सच्चाई थी, कह नहीं सकता, मगर झूठ कहने का इरादा भी नहीं था। ये समय विश्लेषण, विवेचन का नहीं, विशुद्ध भावनाओं का है और मैं उसमें पूरी तरह डूबा हुआ हूँ। प्रेम इनसान को क्या सिर्फ ईमानदार बनाता है? वह उसे बेईमान भी बना देता है - अधिकतर... मैं अपनी किसी बेईमानी पर शर्मिंदा नहीं था, जो कुछ किया था, उसी की लगन में किया था, उसी के लिए किया था। प्यार में सबकुछ सही होता है, गलत तो वह होता है जो प्यार में नहीं होता... एकबार शायद दामिनी ने ही यह कहा था। कभी उसने कैफियत माँगी तो उसकी यही बात दुहरा दूँगा।

उसका धूपछाँही व्यक्तित्व मुझे भूलभुलैया जैसा प्रतीत होता। कभी सुबह की लिली-सी ताजी, चमकीली तो कभी सावन के आकाश की तरह मेघिल और उदास... खासकर इच्छा के चरम क्षणों में मैंने उसे किसी जंगली बिल्ली की तरह सांघातिक और उत्तेजक पाया है। अपनी पूरे सामर्थ्य और दैहिक शक्ति से से भी उसे दमित और संतुष्ट न कर पाने की कुंठा में मैं बार-बार उसकी देह पर उत्पात मचाता रहा, मगर निष्फल! वह मेरी हताशा देखकर गहरी यातना में भी मँजीरे की तरह बज उठती थी। ऐसे में उसकी उजली हँसी उसकी आँखों से होते हुए उसके सुडौल उरोजों पर फैल जाती थी - ठीक जलतरंग की मीठी ठुनक की तरह!