समर (कहानी) / मेहरुन्निसा परवेज

Gadya Kosh से
(समर (कहानी) / अमृता प्रीतम से पुनर्निर्देशित)
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अपने घर की अँधेरे में डूबी छत पर मैं चुपचाप गुमसुम-सी खड़ी थी। चारों ओर पटाखों का शोर गूँज रहा था। पटाखों के धुएं से सारा वातावरण भर गया था। पटाखों की तेज आवाजों से भ्रम हो रहा था कि कहीं किसी दुश्मन देश ने आक्रमण करके बमबारी तो नहीं कर दी है। चार इमली के सारे घर रंग-बिरंगी रोशनी से सजे थे। हमारा घर भी पहले ऐसे ही सजा होता था। इस बार पूरा घर अँधेरे की कालिमा में डूबा था। भीतर-बाहर सब तरफ अँधेरा-ही-अँधेरा था। जाने इस बार यह कैसी काली दीवाली आई थी।

मेरी आँखों के आगे एक पागल आँधी-सी उठती है। आँधी के बवंडर से सामने का सारा दृश्य धुँधला हो उठता है। ढेर सारे रेत के कण, धूल के कण जैसे आँखों में चले जाते हैं। घबराकर मैं अपनी आँखें बंद कर लेती हूँ कितनी अविश्वसनीय घटना हमारे घर घट गई थी। सोचती हूँ तो लगता है जैसे बीता समय सत्य नहीं था, या आज जो वर्तमान में है वह समय सत्य नहीं है। दोनों समय के बीच अनिर्णय में मैं हतप्रभ, भौचक्की सी रह जाती हूँ।

मेरे बेटे समर का देहान्त हुए अब लगभग दो माह होने को आ रहे थे। कैसे समय धीरे-धीरे चींटी की चाल से आगे सरका था। हर क्षण, हर घड़ी कितनी लंबी लगी थी। समय जैसे पहाड़ की तरह एक जगह खड़ा हो गया था। काल के इस अकस्मात् आए भूकंप ने सारी जिंदगी ध्वस्त कर दी थी। सबकुछ तहस-नहस हो गया था। सबकुछ काल के गाल में समा गया था। चारों ओर पुरानी यादों के बिखरे अवशेष खंडहर के रूप में धराशायी होकर पड़े थे। इतना बड़ा झटका सहने के बाद भी मैं अभी जिंदा हूँ, देख आश्चर्यचकित थी।

24 अगस्त को बेटे की मृत्यु हुई थी और ठीक चार दिन बाद यानी 28 अगस्त को उसका जन्मदिन आया था। सवेरे मुँह अँधेरे से मैंने अपने पलंग पर बैठकर उसका इंतजार किया था। हर पल, हर क्षण लगता, बेटा आएगा और मेरे पैर छुएगा; जैसा वह हर जन्मदिन पर करता था। मैं उसका माथा चूमकर उसे लंबी आयु का अशीष दूँगी। पर वह नहीं आया। एक-एक क्षण मेरे लिए भारी होता गया। बेटे के बिना बेटे के जन्मदिन की कल्पना से ही मन काँप उठा था। इस वर्ष वह अठारह में लग जाता। सोचा था, इस वर्ष उसकी अठारहवीं वर्षगाँठ अच्छे से मनाएँगे। कितनी ढेर-ढेर स्मृतियाँ हैं। पूरे सत्रह बरस की स्मृतियाँ। बेटे की माँ बनकर मैं कैसी गदबदाई सी रहती थी। पहली बार अपनी कमजोर काया पर मांस की परत चढ़ते देखा था।

ऐसा दुर्भाग्य ! आँख के सामने बेटा इतनी छोटी उम्र में चला गया ! बेटे के आगे तो सभी माता-पिता जाते हैं। बेटा कँधा देता है, पिंडदान करता है, फातेहा पढ़ता है। मेरे अपने भाग्य में सबकुछ क्यों नहीं था ? ऐसा क्यों किया खुदा ने ? क्या इसलिए कि मुझे खुदा पर बहुत आस्था थी ? मेरी आस्था-विश्वास का यह फल मिला ! इससे तो नास्तिक रहती तब शायद इतना दुःख नहीं होता। मेरी आस्था को इतनी गहरी चोट क्यों लगी ? मेरी आस्था का अंत बेटे की मृत्यु पर होना था ?

आज जैसे मैं कुछ नहीं हूँ—बस, एक रोती-कलपती, विलाप करती माँ बन गई हूँ। लगता है जैसे संसार से सारे रिश्ते-नाते टूट गए हैं। केवल मिट्टी का ढेर बनकर रह गई हूँ। मेरी सारी दुनिया अँधेरी हो गई थी। बेटे के बगैर मैं अब कुछ देखना, जीना नहीं चाहती। सब समाप्त हो चुका था। दुःख या तो सिखाते हैं या मिचाकर चले जाते हैं। संसार पहले जैसा ही था। वही शोर, वही आवाजें; सारी गतिविधियाँ पहले जैसी थीं। वही चिड़ियों का शोर, रेल का शोर, टेलीफोन का शोर; छिपकलियों का वैसे ही दीवार पर दौड़ना, झींगुरों का बोलना—सबकुछ ज्यों-का-त्यों था। बस, संसार में एक मेरे बेटे की आहट नहीं थी।

मेरे पैर पत्थर के हो गए थे, उठते नहीं थे; जैसे किसी ने लोहे की मोटी-मोटी जंजीरें डाल दी हों। बेटे के बिना मुझसे एक कदम नहीं चला जाता। जब बेटा था तब मैं सारी दुनिया में घूमती थी, कार्यक्रमों में व्यस्त रहती थी। बेटा जैसे मेरी शक्ति था, आत्मा था, वह मेरा डैना था। उसी के पंख के सहारे मैं चारों दिशाओं में उड़ती फिरती थी। आज जैसे किसी ने मेरे डैने ही काट दिए थे और मैं बेबस जमीन पर पड़ी थी। उसी की शक्ति के सहारे मैं सब कर लेती थी। उसके बिना मेरे भीतर शक्ति समाप्त हो गई थी। वह तो मृत्यु पाकर मुक्त हो गया और मैं जीवित मृत्यु झेल रही थी। बाजार में मिट्टी की गुड़िया मिलती है, जिसका पूरा शरीर होता है, बस प्राण नहीं होते। लगता है, ऐसी ही मैं हो गई हूँ—कहीं भी बैठा दो, टुकुर-टुकुर देखती हूँ।

बेटा था तब मुझमें कितनी शक्ति थी। मैं दुर्गा की तरह थी। मेरे कई-कई हाथ थे। हर हाथ में अलग हथियार और शक्ति थी। अब लगता है जैसे किसी ने मेरे हाथ काट दिए हैं। मैं बिना हाथों वाली दुर्गा बन गई हूँ। खंडित मूर्ति बन गई हूँ। मिट्टी का ढेर। बिना हाथ और शक्ति की दुर्गा जैसी। इसको तो विसर्जन होना चाहिए ! मेरा भी अब अंत होना चाहिए। आत्मा व्याकुलता से हाड़-मांस के पिंजरे में मैना की तरह फड़फड़ाती है मार्ग ढूँढ़ती है बाहर निकलने के लिए; पर मार्ग नहीं मिलता तो हताश, अँधेरे को घूरती बैठ जाती है।

बेटे की स्मृति में शोक में डूबी, तड़पती, व्याकुल, अधीर मन से बातों-बातों की जुगाली करती खड़ी थी कि देखा, सामने से नेहा आती दिखी। नेहा मेरे बेटे की दोस्त थी। मन के दुःख को परे सरकाकर मैं तुरंत नीचे उतरी। नेहा मेरी बेटी के साथ बैठी बातें कर रही थी। मुझे देखते ही वह उठी और बढ़कर मेरे पैर छू लिये। ‘‘नेहा बेटी, कैसी हो ? आज दीवाली के दिन तुम्हें देखकर अच्छा लगा।’’ ‘‘आंटी, घर में मेरा मन नहीं लग रहा था। सब दीवाली मना रहे हैं। मैं आपके पास आ गई। जानती थी, आप लोग भी दुःखी बैठे होंगे।’’

नेहा के साथ बेटे के कमरे में आ गई। मैं पलंग पर बैठ गई। नेहा बेटे के कमरे में बैठी चारों ओर सजी उसकी चीजों को नजर भर-भरकर, छू-छीकर देखती रही। हर चीज में वह अपने प्रेमी को ढूँढ़ रही थी। उसकी तड़प, उसकी उदास होती गहरी आँखें अपने में खोती जा रही थीं। वह मेरी उपस्थिति को भी जैसे भूल गई थी।

हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी दीवाली आई थी; पर इस बार घर में दीया तक नहीं जला था और पूजा भी नहीं हुई थी। बीती बातें, यादें मन को कुतर रहे थे। पिछले वर्ष कितनी बढ़िया दीवाली हुई थी। बेटे ने कितनी रात तक पटाखे जलाए थे। अनारदाने के फव्वारों से सारा आँगन खिल उठा था। पहले दीवाली की तैयारियाँ कितने दिन पहले से होती थीं।