साथ चलते हुए / अध्याय 10 / जयश्री रॉय

Gadya Kosh से
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दिन भर के काम के बाद वह और कौशल अधिकतर शामों को टहलते हुए मैना नदी के किनारे दूर तक निकल जाया करते थे। शाम के रंगभरे आकाश के नीचे मैना की दुबली धारा के साथ चलते हुए वे प्रायः चुप ही रहा करते थे। कौशल बहुत कम बोलता था और उसे उसका यह स्वभाव अच्छा लगता था। वह स्वयं भी कम बोलती थी और अब तो बहुत कुछ कहने-सुनने की इच्छा भी नहीं रह गई थी। कौशल का साथ उसे प्रिय लगने लगा था, क्योंकि वह बिना उसकी दुनिया में हस्तक्षेप किए चुपचाप उसके साथ हो लेता था। शायद उसकी भी अपनी एक निहायत निजी दुनिया थी जिसमें वह रात दिन डूबा रहता था।

उसकी गहरी काली आँखों में बहुत कुछ अनकहा-सा था, जैसे वह कुछ कहते-कहते एकदम से चुप हो गया हो। दोनों के बीच अजाने ही एक मौन का संबंध बन गया था। नदी की अबरकी रेत में पाँव धँसाए वह आसमान पर जंगली बत्तखों का उड़ना देखती रहती। पास ही आँवला के जंगल में चरते हुए हिरणों के पद्चाप सुनाई पड़ते। जंगली तोते झुंड के झुंड कलरव करते हुए पास के पेड़ों पर बैठते या अचानक भरभराकर उड़ जाते। दूर बंदरों का 'हुप-हुप' सुनाई पड़ता।

इन सब के बीच दोनों अपनी-अपनी दुनिया में डूबे चुपचाप बैठे रहते। कई बार कौशल की आँखों में उसे कुछ पहचाना-सा दिखता, मगर वह जान-बूझकर अनजान बन जाती। एक बार उसकी गहरी नीली टांगाइल साड़ी की तरफ देखकर उसने अनायास कहा था -

'ये रंग नयन पर बहुत फबता था। न जाने क्यों उसने वह साड़ी दुबारा उसके सामने फिर कभी नहीं पहनी थी। क्यों... कभी वह खुद से ही पूछती है और सवाल को टाल जाती है। वह किसी की तरह दिखना नहीं चाहती या... कौशल को किसी की याद दिलाना नहीं चाहती? कौशल उसे देखे... उसमें किसी और को क्यों? वह परछाई नहीं, हकीकत है, जैसी भी हो...

न चाहते हुए भी एक बार उसने कौशल से नयन के विषय में पूछ लिया था। पहले तो वह हिचकिचाया था, मगर फिर शुरू हुआ तो कहता ही चला गया था। कितनी बातें, कितना कुछ... जैसे कोई बाँध टूट गया हो... इतना कुछ अपने भीतर समेटे-समेटे शायद वह दरक जाने के कगार तक पहुँच गया था।

- शुरू-शुरू के दिन बहुत अनोखे थे... कहते हैं न, पहली नजर में प्यार का हो जाना... कुछ-कुछ वैसा ही... जवानी के दिन... बंगाल को तो आप जानती हैं... राजनीति का गढ़... जिसे देखो, मुट्ठियाँ तानकर, मुँह से फेन बहाकर बहस कर रहा है। युनिवर्सिटी के प्रोफेसर से लेकर एक मछली बेचनेवाला तक... तो हम भी कहाँ पीछे रहनेवाले थे... कितनी उमंगें, सपने, हौसला...हौसला- पूरी दुनिया को बदल डालने का... वह सब कुछ जो दुनिया को बीमार बनाता है, बाँटता-काटता है - जात-पात। मजहब, नस्ल, सरहद के नाम पर... हर मनुष्य को मनुष्य होने का सम्मान मिले, इनसान पहले इनसान बने... कम उम्र में लोग आदर्शवादी होते हैं न... यथार्थ से तब सामना कहाँ हुआ होता है? घर का खा-पीकर अच्छी-अच्छी किताबें पढ़ना और उसीको जिंदगी की सच्चाई मान लेना...

कहकर अपनी ही बात पर कौशल देर तक हँसता रहा था। पहली बार उसने कौशल को इस तरह से खुलकर हँसते हुए देखा था। हँसते हुए कितना अलग, कितना आकर्षक दिखता था वह - जैसे यकायक उसकी उम्र के कई साल एक साथ घट गए हों। किसी टीनएजर लड़के की तरह... वह उसे मुग्ध होकर देखती रह गई थी। हँसी - उसकी आँखों, होंठों, चिबुक से बहकर पानी की उजली धार-सी समस्त शरीर में फैलती हुई... उसकी उस निश्छल हँसी की वन्या में वह उस दिन जैसे डूब-डूब गई थी। अंदर कुछ बहुत नर्म, बहुत कोमल-सा पनपा था - खरगोश के रेशमी बच्चे की तरह। वह अनमन हो आई थी - क्या है यह...?

उसे डर लगता है ऐसे क्षणों में। अपने इर्द-गिर्द लकीरें खींचती है, दीवारें खड़ी करती है... मगर उस नींव का क्या जिसके आसपास नमी इकट्ठी हो रही है, इतनी सारी... वह थरथराती है, और कसके खुद को समेटती है... न जाने कहाँ से सेंध लगे, न जाने कौन-सी दीवार गिरे, न जाने... उसकी आँखों में उसका मन उतर आता है, अपनी गहरी दहशत और डूब के साथ। कौशल देखता है और थमक जाता है - क्या हुआ अपर्णा?

कुछ भी तो नहीं... वह कानों तक रंग जाती है। कौशल उसे देखता है - पढ़ते हुए, सुनते हुए-सा - तुमने पूछा था... अगर अच्छा न लग रहा हो तो... वह अपनी बात अधूरी छोड़कर उसकी तरफ देखता रहता है। इन दिनों उसे कौशल की आँखों से डर लगता है, वे उसे देखती ही नहीं, पढ़-समझ भी लेती हैं... अपना इस तरह से किसी के सामने खुल जाना... पन्ना दर पन्ना... वह स्वयं को बहुत वलनरेवल महसूस करती है।

- नहीं, आप कहिए न... मैं सुन रही हूँ...।

वह सहज दिखने की कोशिश में और असहज हो आती है। कौशल देखता है, मगर नहीं देखता। इतनी सहूलियत तो देनी पड़ती है, अगर समय-असमय लेनी हो तो...

- क्या कहे... कौशल अपनी हथेलियों की तरफ देखता रहता है - होता बस वही है जो होना होता है... हमारे-आपके चाहने से कुछ नहीं होता। वर्ना... वह एक पल के लिए रुकता है और फिर धीरे-धीरे कहता है, जैसे सोच रहा हो - कहीं कुछ कमी नहीं थी। हम दोनों एक-दूसरे से प्यार करते थे, टूटकर... साथ चलते हुए न जाने कब एक-दूसरे के विपरीत दिशा में चलने लगे... आपस में टकराने लगे, एक-दूसरे के रास्ते में आने लगे... न मैं गलत था न वह... हमारी नियत भी ठीक थी... फिर... नहीं समझ पाया... आज भी नहीं समझ पाया... क्यों सब कुछ इस तरह से खत्म हो गया...!

अपनी बात के अंत तक आते-आते उसकी आवाज में गहरी खोह-सी पैदा हो गई थी। अपर्णा के भीतर कुछ हल्के से दरका था, काँच की तरह पारदर्शी कुछ। एक अनाम विषाद में वह अनायास हो आई थी। क्यों कौशल की तकलीफ में इन दिनों वह हो आती है? पराए पीर के लिए उसके अंदर जगह कहाँ... अपना ही कुछ कम है क्या? वह सोचती है, मगर कुछ कर नहीं पाती। कौशल की यातना में असहाय पड़ी रहती है, गीली-गीली- कई पर्तों तक...।

- इनसान नहीं, अक्सर इनसान की परिस्थितियाँ गलत होती हैं... उसकी अपेक्षाएँ भी... और कभी-कभी हम खुद को भी समझ नहीं पाते... किसी समय विशेष में जब हम अजीब ढंग से रिएक्ट करते हैं तो स्वयं ही आश्चर्य में पड़ जाते हैं। लाइफ इज फुल ऑफ सरप्राइजेज...

कहते हुए उसने मुस्कराने का प्रयत्न किया था, मगर कौशल के चेहरे पर थोड़ी देर पहले छाई मुस्कराहट न जाने कहाँ खो गई थी। वह एकटक आसमान की ओर देख रहा था - शायद उसके भी पार... वह यकायक बहुत अकेली हो आई थी। कौशल उसके पास था, साथ नहीं...

- दुख इस बात का है कि इस सबके चपेट में वह छोटी-सी जान आ गई... मेरी दीया! जिस उम्र में बच्चों को सबसे ज्यादा भावनात्मक सुरक्षा की जरूरत होती है, उसी उम्र में हमने उससे उसका सब कुछ छीन लिया... किया हमने, चुका वह रही है... यह बात मुझे रातों को सोने नहीं देती। कहते हुए कौशल ने अपना चेहरा दूसरी तरफ मोड़ लिया था। अपर्णा उसके भींचे हुए जबड़े की तरफ देखती हुई चुपचाप बैठी रह गई थी। इस समय कोई शब्द उसे ढाँढ़स नहीं दे पाएगा, वह जानती है।

- दीया की चुप्पी, आँखों का गहरा मौन, उदास चेहरा मुझसे सवाल करते रहते हैं। एकदम से बड़ी हो गई हो जैसे। हमने उससे उसका बचपन, मासूमियत, सपने - सब चुरा लिए... एक बाप होकर मैं ऐसा कैसे कर सका... खुद ही सोच नहीं पाता... कौशल रेत पर औंधा लेट गया था - हमारा अहम, हमारा सम्मान - यही ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया हमारे लिए... इस सब के बीच वह नन्हीं-सी जान दाँव पर लगी है, इसका ख्याल नहीं आया हमें... कैसे इस तरह से संवेदनहीन, स्वार्थी हो जाते हैं हमलोग...

इसके बाद कौशल देर तक चुपचाप पड़ा रह गया था। उसकी गहरी, लंबी साँसों को सुनते हुए अपर्णा जानती थी, कौशल किन तकलीफों से गुजर रहा होगा। अपने हाथों से अपनों की जिंदगी बर्बाद कर देने का अहसास, उसकी ग्लानि... इन सबसे जूझना आसान नहीं होता होगा। उसका जी चाहा था, बढ़कर कौशल को अपनी गोद में समेट ले। कितना अकेला, कितना खोया हुआ लग रहा था वह। थोड़ी देर असमंजस की स्थिति में रहकर उसने जरा-सा आगे झुककर उसकी पीठ पर हाथ रखा था। पीठ पर हाथ का स्पर्श महसूसते ही कौशल का पूरा शरीर काँप उठा था। उसके हाथ को अपनी मुट्ठी में सख्ती से बाँधकर उसके बाद वह रोता रहा था - निःशब्द...

अपर्णा ने उसे रोका नहीं था। रो ले... मन का संताप, विवेक का दंश कुछ शांत हो, गल, बह जाय... अंदर सीझते-सीझते अंततः एक दिन संवेदनाएँ जलकर कोयला, राख बन जाती है या फिर बँधकर पत्थर... आँसू के साथ मन का बोझ भी बह जाता है, हल्का करता है भार...

- सॉरी... कुछ देर के बाद कुछ संयत होकर कौशल ने कहा था। अब उसके चेहरे पर शर्म के भाव थे।

- आप सोचेंगी कैसा मर्द है, बच्चों की तरह रोता है...

- इसमें सॉरी कहने की क्या जरूरत है... हम इनसान हैं, ईंट-पत्थर नहीं। दुख होगा तो आँसू भी आँखों में आएँगे ही। मुझे समझ में नहीं आता, इसमें मर्द-औरत होने की बात क्यों उठाई जाती है। मेरी माँ क्या कहती थी पता है कौशल बाबू, इनसान को रोना और गाना कभी नहीं भूलना चाहिए। उसकी बातें सुनकर कौशल के चेहरे की कठिन रेखाएँ सहज हो आई थीं। उसने धीरे-से कहा था - थैंक्स...

अपर्णा मुस्करा दी थी - किसलिए?

- फॅार बीइंग यू...

- कांट हेल्प बीइंग माय शेल्फ... कहते हुए अब वह खुलकर हँस पड़ी थी। साथ में कौशल भी। अनायास माहौल हल्का हो आया था। ठीक जैसे एक अच्छी बारिश के बाद धूप निकल आती है, धूली-धूली, निखरी... उस समय कौशल का चेहरा कितना उजला लग रहा था, शाम की ललछौंह धूप में चमकते हुए...