साथ चलते हुए / अध्याय 1 / जयश्री रॉय

Gadya Kosh से
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ग्रीष्म ऋतु की सुनहरी शाम खिड़की पर अलस झर रही थी। उसी की अमलतासी उजास से कमरा अनायास दिप उठा था। हल्की गर्म हवा में आम की फूलती मंजरी की तेज, तुर्श गंध थी।

एक गहरी साँस के साथ उसे अपने नासापुटों में भरते हुए उसने कलम मेज पर रख दी थी। हल्की चढ़ी धूप में पारदर्शी हो उठे लेश के पर्दे हल्के-हल्के लहरा रहे थे, उनकी तरफ देखते हुए उसे लगा था, उसके अंदर भी ऐसा ही कुछ निःशब्द डोलता हुआ-सा है जो एक ही साथ मधुमय भी है और पीर भरा भी।

आँसुओं का घुलता नमक पलकों पर महसूस करते हुए वह अपना चश्मा उतार कर आहिस्ता-आहिस्ता आँखें मलती है, ऐसे जैसे पानी के साथ कुछ पुँछ जाने से सायास बचाना चाह रही हो, शायद वे बचे-खुचे अभागे स्वप्न जिन्हें कभी देख लेने की कीमत उसे आज भी कहीं न कहीं जाने-अनजाने चुकानी पड़ रही थी। विडंबना शायद जीवन की यही है कि सपने तो अंततः टूट ही जाते हैं, मगर उन्हें देखनेवाली आँखें रह जाती हैं - कच्ची कब्रों की तरह अभिशप्त - अपने अंदर बहुत प्रिय कुछ दफनाए हुए, समय के सुने गलियारे का उदास सफर निसंग तय करते हुए - किसी कयामत की अंतहीन प्रतीक्षा में निःशब्द, निरंतर...

वह समझ रही है, आज और कुछ भी लिखना संभव नहीं होगा। सोच में आँसू घुल गए हैं, शब्द अब फीके-फीके, धुँधलाए ही उतरेंगे... अपनी कलम बंद करके वह कमरे से बाहर निकल आई थी। शाम के एकदम से डूब जाने से पहले का उजाला चारों तरफ था - गहरे रंगों के कई शेड्स में - क्षण-क्षण परिवर्तित होते हुए, एक स्वप्न का-सा दृश्य रचते हुए!

सूती साड़ी का हल्का पीला आँचल अपनी खुली बाँहों पर लपेटती हुई वह बँगले के बाहर आ गई थी तथा खामख्याली में टहलती हुई बाईं तरफ जानेवाली सँकरी पगडंडी पर चल पड़ी थी। इसी बीच शाल, सागौन के ऊँचे, घने पेड़ों के माथे पर शुक्ल पक्ष का भरा-पूरा चाँद आधे से अधिक उठ आया था। उसका चंदन का-सा हल्का पीला रंग अब सेमल, पलाश के दूर-दूर तक फैले जंगलों पर फिके रोली की तरह चढ़ने लगा था। हवा में फूलते हुए महुआ की अलस, मदिर गंध थी। दूर कहीं रह-रहकर मोर का केंका सुनाई पड़ रहा था। सारा जंगल बसंत के टेसुआ रंग में निःशब्द भीग रहा था...

उसे बाहर निकलते देख पुनिया पीछे हो ली थी - 'दीदिया, अकेली मती निकलना इस बखत, जंगली-जिनावरों का खतरा है!'

पुनिया बँगले के चौकीदार की पत्नी थी। उसके लिए खाना वही बनाती थी। उसने उसे हँसकर टाल दिया था - 'बस यहीं हूँ, थोड़ा टहलकर लौट आऊँगी!'

पुनिया न चाहते हुए भी लौट गई थी।

डूबते दिन की हल्की रोशनी और उठते चाँद के आलोक मे वह जंगल की धुँधलाई पगडंडियों पर अनमन चलती रही थी। पैर के नीचे आते सूखे पत्तों और चारों तरफ झिंगुरों की तेज शोर की पृष्ठभूमि में एक अलक्षित सन्नाटा था जिसे वह अपने अंदर कहीं गहरे तक अनुभव कर पा रही थी। बाईं तरफ जहाँ पुटुस की घनी झाड़ियाँ थी, कुछ अस्पष्ट-सी आवाजें सुनाई पड़ रही थीं। उसे अचानक ख्याल आया था, कल रेंजर साहब का ड्राइवर चाँद सिंह उसे बँगले में छोड़ने के लिए आते हुए रास्ते में कह रहा था, इन दिनों महुआ के फल खाने के लिए प्रायः जंगली भालू निकलते हैं, जरा सावधान रहिएगा। कुछ ही दिनों पहले एक विदेशी सैलानी को दो भालुओं ने बुरी तरह से जख्मी कर दिया था। याद आते ही उसने अपने कदम तेज कर दिए थे।

घने पेड़ों के खत्म होते ही करीब पचास कदम की दूरी पर बेतरतीब फैले पत्थरों के बीच से होकर छोटी-सी पहाड़ी नदी मैना बहती है। वह अधिकतर शाम को इसके किनारे आकर बैठा करती थी। शाम के धुँधलके में ग्रीष्म ऋतु में सूख आई उसकी जीर्ण-शीर्ण धारा का मंथर गति से बहना और आसपास जंगली तोतों का कलरव उसे बहुत अच्छा लगता था। यहाँ आकर कुछ देर के लिए ही सही, वह सब कुछ भूल जाती थी। एक नीरव शांति से मन भर उठता था। सारी दुनिया की आपाधापी, एक अश्रृसिक्त अतीत और तकलीफों की लंबी फेहरिस्त पर क्षणांश के लिए ही सही, पर्दा पड़ जाता था।

चलते हुए यकायक वह खुले में आ गई थी। सामने आईने-से झक् नील आकाश पर सुडौल चाँद एक बड़ी रूपहली थाल की तरह जगमगा रहा था। सफेद रेतों में अबरक का झिलमिल चूरा दूर-दूर तक बिखरा था। अपनी चप्पलें उतारकर उन पर चलती हुई वह नदी के पास आकर एक बहुत बड़े पत्थर का टेक लगाकर पानी में पैर डुबोकर बैठ गई थी। ठंडे पानी की सिहरन तलवों से होते हुए पूरे शरीर में फैल गई थी।

उंगलियों से छल-छल बहते पानी को छूते हुए वह निरुद्देश्य-सी अपने चारों तरफ देखती रही थी। साँझ के म्लान आलोक में सर के ऊपर से रह-रहकर बादुर पंख झटपटाते हुए उड़े जा रहे थे। दूर कहीं से आदिवासियों के बजते हुए माँदल के साथ-साथ उनके समवेत स्वर में गाने की आवाजें आ रही थीं। पूरा वातावरण अरण्य के आदिम, अभेद्द रहस्य से आप्लावित हो उठा था। कुछ ही दूरी पर अपनी घनी जटाएँ फैलाए समाधिस्थ-से प्राचीन बरगद की डालों पर रह-रहकर रात जगे पक्षियों का कचर-मचर सुनाई पड़ रहा था। हवा में काई और जंगली घास की उग्र गंध तैर रही थी... निविड़ वन की मूक भाषा से वन-वनांतर मुखरित हो उठा था। सोने से पहले जंगल कुछ इसी तरह से रोज जाग पड़ता है, उसने हर बार देखा है...

अपनी आँखें मूँदकर उसने इस नीरव शांति को महसूसना चाहा था। अंदर शिराओं में रात दिन खौलता हुआ-सा रक्त का प्रवाह जैसे अनायास मद्धिम पड़ने लगा था। पसीने से भीगे हुए माथे पर हल्की ठंडी हवा की छुअन सुकून दे रही थी। उसे लगा, वह कहीं से हील हो रही है, जुड़ा रही है, अंदर एक पानी का सोता-जैसा कुछ बहुत शीतल निःशब्द बह निकला है...

न जाने वह इस इस तरह से कब तक चुपचाप बैठी रही थी कि जब पीछे से आते किसी के हल्के पद्चापों ने उसे चौंका दिया था। उसने मुड़कर देखा था, कोई साँझ के झुटपुटे में उसी की तरफ बढ़ा चला आ रहा था। वह अचानक सतर्क होकर अपने अस्त-व्यस्त कपड़े सँभालकर उठ खड़ी हुई थी। मन आशंकाओं से घिर गया था। ऐसी निर्जन संध्या और वह यहाँ बिल्कुल अकेली! दूर-दूर तक कोई जन-प्राणी नहीं... उसे याद आया था, इस इलाके में कई दिनों से ननकू माझी का आतंक फैला हुआ था। उसका गिरोह रोज ही कहीं न कहीं डाका डाल रहा था।

इन आतंकित करते हुए विचारों को जबरन अपने से परे धकेलती हुई वह किसी तरह सीधी खड़ी रही थी। शायद उसे शाम ढले इस तरह से इस निर्जन जगह में अकेली आना नहीं चाहिए था। अब तक वह छाया काफी पास चली आई थी। चाँदनी में उसका चेहरा चमकने लगा था। आगंतुक के एक हाथ में बंदूक थी तथा दूसरे हाथ में दो जंगली बत्तख झूल रहे थे। शायद वह कहीं से शिकार करके लौट रहा था।

उसने करीब आकर उसका अभिवादन किया था - 'नमस्ते अपर्णा जी! शाम के समय आपको इस तरह अकेली यहाँ नहीं आना चाहिए था। इस मौसम में यहाँ बहुत जंगली-जानवर निकलते हैं, पानी पीने के लिए, महुआ के लिए और शिकार के लिए भी। चलिए, मैं आपको आपके बँगले तक पहुँचा दूँ।'

'जी...'

आगंतुक की सहज, शिष्ट बातों से उसका डर काफी हद तक जाता रहा था -

'आप मुझे जानते हैं?'

'इतना भी नहीं, रेंजर साहब के पास आपके विषय में सुनता हूँ, आते-जाते कई बार देखा भी है। रेंजर साहब मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं, उनके साथ प्रायः शामों को शतरंज की बाजी जमती है। सदर हस्पताल के पास ही मेरा बँगला है, मैं कौशल - कौशल भट्टाचार्य!'

आगे-आगे चलते हुए उसने मुड़कर कहा था। वह बिना कुछ कहे उसके पीछे चुपचाप चलती रही थी। दूर, नदी किनारे जंगली आम की झाड़ियों के पास कोई अकेली पड़ गई टिटहरी दिशाहारा-सी रह-रहकर पुकारती फिर रही थी। जंगल के अंदर इसी बीच सियार भी बोलने लगे थे। हवा में महुआ और करौंदे की गंध तेज हो आई थी। आँवला के पेड़ों के नीचे चरते हुए हिरणों का झुंड उनकी आहट पाकर यकायक हड़बड़ाकर भागने लगा था। सूखे पत्तों पर उनके खुरों की आवाज दूर तक आती रही थी।

बँगले के गेट के पास आकर दोनों आमने-सामने खड़े हो गए थे।

'अंदर आइए न, चाय पीकर जाइए।'

उसने शिष्टतावश पूछा था।

'नही! अब चलूँगा।'

फीके अँधेरे में अपनी घड़ी देखने की कोशिश करते हुए कौशल ने कहा था।

'सुना है, आप बहुत अच्छा लिखती हैं, कमलिका भाभी कह रही थीं, रेंजर साहब की पत्नी... कभी आपको जरूर पढ़ना चाहूँगा...'

हाथ जोड़कर वह स्वप्निल-से लगते रात के गहरे नीले अंधकार में चलते हुए धीरे-धीरे खो गया था। वह भी थोड़ी देर गेट पर खड़ी रहकर अंदर चली आई थी। अंदर की निःस्तब्ध दुनिया में बहुत दिनों बाद कुछ भँवर-से पड़े थे, एक सुगबुगाहट हुई थी, जिन्हें वह स्वीकृति नहीं देना चाहती थी। उसे अपने पथराए हुए मौन से मोह हो गया है। इनसे छूटकर किसी उत्सव का हिस्सा उसे अब कभी नहीं बनना है। मातम के मौसम में यह सब कुछ वर्जित है। और अब यह मौसम उसके जीवन में हमेशा के लिए है। बिना छुए उसने उन्हें उदासीनता से एक ओर परे करके रख दिया था। उसे कुछ भी नहीं चाहिए, जिंदगी उसे परेशान न करे, खुशियों का यहाँ कोई मोहताज नहीं...

उसकी आहट पाकर पुनिया पीछे के सर्वेंट्स क्वाटर से निकल आई थी -

'आप लौट आई दीदिया, हम बहुत डराय रहे थे, इहाँ कुच्छो ठीक नहीं है न...

फिर अपनी गोद में रोते हुए छुटकू को थपकते हुए आगे बढ़ आई थी - आज फूलो के बाबूजी जंगली मुर्गा पका रहे हैं, हरिया तीनगो मार कर लाया था।'

'अच्छा...'

वह सुनने का भान करती हुई बँगले के अंदर चली आई थी। बाथरूम में देर तक ठंडे पानी से नहाते रहना उसे अच्छा लगा था। पसीने से सारा शरीर चिपचिपा गया था। तौलिए से स्वयं को सुखाते हुए उसने बेसिन के ऊपर लगे एक टुकड़े आईने में अपना चेहरा देखा था। माँग के पास बालों का एक छोटा गुच्छा सफेद हो रहा था। अनायास उसे अंगुलियों से काले बालों के नीचे छिपाते हुए उसे हँसी आई थी - अब भी युवा दिखना चाहती हूँ! ...अच्छा है, सब कुछ खत्म नहीं हो गया है भीतर - जैसे थोड़ी देर पहले सोचा था। जिजीविषा अब भी है कहीं बची हुई...

धूप में बादामी पड़ गए चेहरे पर इसी बीच पसीने की नन्हीं बूँदें छलक आई थीं। बाएँ नासापुट पर वे लौंग-सी चमक रही थीं। उसने अपना चेहरा जरा-सा घुमाकर फिर आईने में स्वयं को देखा था - जो राख हो गया है, उसमें भी कहीं कोई टुकड़ा सुलगता हुआ रह ही गया है, जिंदगी कितने-कितने चेहरे में सामने आती है...

बालों को ढीले जूड़े में गूँथकर एक हल्की छपी हुई सूती साड़ी पहन वह बरामदे में बिछे ईजी चेयर पर आ बैठी थी। चाँद अब तक आकाश के बीचोबीच उठ आया था। सामने साल, सागौन, करम के पेड़ों के सघन माथे चाँदी की तरह चमक रहे थे। इसी बीच आम की पन्नी बनाकर पुनिया टेबल पर रख गई थी। गिलास से खट्टे-मीठे पेय के हल्के-हल्के घूँट लेती हुई वह सामने स्वप्नवत पसरी जंगल की शांत, मायावी दुनिया को तकती रही थी। एक चुप्पी भरा शोर आसपास अलक्ष्य घनीभूत होता रहा था। ऐसे में अपनी निसंगता का बोध और अधिक स्पष्ट होकर कहीं कसक उठता है।

इसी तरह बैठे-बैठे न जाने कितना समय बीत गया था जब पुनिया रात का खाना वहीं मेज पर लगा गई थी। खूब सारी काली मिर्च डालकर पकाया गया जंगली मुर्गे का मांस और मोटी-मोटी अधजली, अनगढ़ रोटियों के साथ कच्चे आम, हरी मिर्च की चटनी खाना उसे बुरा नहीं लगा था। शहरी चमक-दमक से दूर छोटा नागपुर के इस वन्य इलाके में एक तरह से वह स्वयं को खो देना चाहती थी - अपने अब तक के हर उस हासिल के साथ जो उसे अब पीड़ा के सिवा कुछ भी नहीं देता था।