साथ चलते हुए / अध्याय 5 / जयश्री रॉय

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपने घर से छूटकर वह फिर किसी एक जगह बँध नहीं पाई थी। स्वदेश लौटकर भी यहाँ-वहाँ भटकती ही रही थी। जब तक जाने का रास्ता खुला दिखता था, वह ठहरी रहती थी, मगर ज्यों ही कोई संबंध बंधन बनने लगता था, वह उसे तोड़कर चल देती। अब भटकन को ही उसने अपना ठिकाना बना लिया था। टूटे हुए साहिल पर घर बनाकर बार-बार बिखर जाने का एक अपना ही परवर्टेट किस्म का सुख होता है, यह उसने बेघर होकर जाना था। उसका घर उसकी काजोल से था, आशुतोष से था। अब जो वे नहीं तो वह इन ईंट-पत्थरों के मकानों का क्या करती!

कुछ दिन अल्मोड़ा में रहकर उसने अपनी दूसरी किताब पूरी की थी। स्कूल, कॉलेज के दिनों में लिखने-पढ़ने का शौक था। कॉलेज के मैगजीन में ही पहली बार छपी थी। फिर कुछ स्थानीय पत्रिकाओं में भी। शादी के बाद कई सालों तक सब कुछ छूट गया था। काजोल के थोड़ी बड़ी होने के बाद प्रवासी भारतीयों के प्रयास से छपनेवाली कुछ पत्रिकाओं के लिए उसने लिखा था, प्रसंशा भी मिली थी। फिर उसका पहला उपन्यास देश के एक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्था से प्रकाशित हुआ था जिसकी अच्छी-खासी चर्चा हुई थी। इसके बाद अपने प्रकाशक के आग्रह पर उसने दूसरा उपन्यास शुरू किया था, मगर फिर अचानक काजोल के बीमार पर जाने की वजह से कई वर्षों तक कुछ भी लिखना संभव नहीं हो पाया था। अब जाकर इतने वर्षों के बाद उसने अपना अधूरा पड़ा हुआ उपन्यास पूरा किया था।

अर्चना के आग्रह पर वह छोटानागपुर के इस डाक बँगले में गर्मी की छुट्टियों तक रुकने के लिए तैयार हो गई थी। अर्चना उसके स्कूल के दिनों की मित्र थी। उसके पति यहाँ के जंगलों के ठेके लिया करते हैं। यह बँगला उन्हीं का था। अपने बेटे की परीक्षा पूरी होने के बाद वह भी यहाँ थोडे दिनों के लिए आनेवाली थी। दोनों ने एक ही साथ जीवन के बसंत, यौवन की उठान और फागुन, पतझड़ के दिन देखे थे। दोनों के सुख-दुख एक-से और साँझ के थे। तीन वर्ष पहले उसने भी एक सड़क दुर्घटना में अपनी पहली संतान को खो दिया था। दोनों के बीच सुख से ज्यादा दुख का रिश्ता था और शायद तभी इतना गहरा था।

यहाँ का हर तरह की आधुनिकता तथा भीड़-भाड़ से दूर शांत, वन्य जीवन उसे रास आ गया था। न कोई जाननेवाला न परेशान करनेवाला। वह घंटों जंगलों में भटकती रहती, या ईजी चेयर पर अधलेटी कोई किताब पढ़ती रहती। रातों को महुआ के नशे में बेसुध सो रहती, या बीच रात को उठकर जंगल के आदिम, अभेद्य दुनिया की रहस्यमयी संगीत सुनती रहती। कभी खिड़की के पास बनैले सूअरों का 'घोत-घोत' सुनाई पड़ता तो कभी दूर किसी भयभीत मोर का अनवरत केंका। गर्मी की ये लंबी दुपहरे वह प्रायः लिखते हुए बीता देती। आसपास जंगली फूलों की गंध, पहाड़ी सुग्गों का कलरव, चाँद का उठना, सघन पेड़ों के बीच से गुजरती हुई हवा का उदास मर्र-मर्र स्वर... उसे सब कुछ प्रिय लगने लगा था।

रातों को दूर से आती संथालों के माँदल की धप-धप और गीतों की स्वर-लहरी सुनती हुई वह बँगले के बरामदे में देर रात तक अनझिप आँखों से बैठी रहती। ऐसे में एक उदास सुकून से उसका नीरव मन भर उठता। कभी वह अतीत के सुख में डूब जाती तो कभी उसी सुख की स्मृति में आँखें भीगोती रहती। नीली धुंध में लिपटी रात उसे निशि की तरह दोनों हाथ फैलाकर अपने पास बुलाती। मोहाछन्न की तरह उसका मन चाहता कि वह बढ़े और हमेशा के लिए उन साँवली, अशरीरी बाँहों में खो जाए। कितनी रातें वह जागकर बीता चुकी है और कितने दिन सोकर, अब उसके पास हिसाब नहीं रह गया है। यह अच्छा है कि यहाँ वह समय के बंधन से छूट गई है। एक दूसरे से उलझे-गुँथे दिनों की एक लंबी फेहरिस्त कैलेंडर में दर्ज है, मगर उसकी याद में नहीं। ये दिन बस कट जाए किसी भी तरह।

वह भटकती फिरती है जाने कहाँ-कहाँ, मगर अपनी अंदरुनी दुनिया में आज भी खड़ी रहती है अपनी बेटी के सरहाने। काजोल मर गई है और वह मर रही है! बस, इतनी-सी बात है और यही बात है। हर बीतते दिन के साथ उसे प्रतीत होता है कि वह काजोल के थोड़ा और करीब हो गई है। दोनों के बीच की दूरी घट रही है। जीवन - ये जीवन ही तो है दोनों के बीच! साँसें, धड़कनें... क्या है? बाधा ही तो है... इन्हें हटाए बिना एक-दूसरे तक पहुँचा नहीं जा सकता। कैसी गहरी निराशाजन्य सोच है... मगर वह विवश हो गई है।

दुख ने जीवन में जो कुछ भी सुंदर था, उजला था को पूरी तरह से आच्छादित कर दिया है। पाले से ठिठुरी हुई हरियाली की तरह सब कुछ हो गया है, धीरे-धीरे मटमैला पड़ते हुए, जर्द होते हुए... कभी शायद ये बादल छँटे, धूप खिले... उसने सब कुछ समय के हाथों छोड़ दिया है। उसकी सोच, उसकी दुनिया तो बस काजोल, उसकी स्मृति के इर्द- गिर्द घूमती रहती है।वह जानती है, काजोल आज भी उसके बिना अकेली रह नहीं पाती होगी... कही खड़ी सीने से अपन छोटा-सा तकिया दबाए रो रही होगी - माँ! मुझे डर लग रहा है...

- मैं आती हूँ चंदा... रात-बिरात वह अपने कमरे का दरवाजा खोलकर खड़ी हो जाती है, सामने पसरे अंधकार को टटोलते हुए। वहाँ कोई नहीं होगा, वह जानती है, मगर मान नहीं पाती... कभी उसे डर लगता है, वह पागल हो जाएगी।

कई बार काउंसलर के पास भी गई थी, फिर जाना छोड़ दिया था। नींद की गोलियाँ भी बेकार हो गई थीं। बस सर भारी हो जाता था और आँखें लाल, ऊपर से दिन भर की थकावट और ऊँघ। अपने चारों तरफ काजोल के कपड़े, किताबें, फोटो आदि फैलाकर अनझिप आँखों से रात को ढलते देखना और सुबह का इंतजार करना। सुबह होते ही फिर उसी अभिशप्त रात की प्रतीक्षा... कि काजोल, उसकी स्मृति के साथ एकांत में हुआ जा सके। पूरी तरह से। काउंसलर ने कहा था, खुद को थोड़ा समय दो... उसने मान लिया था। इसकी कोई कमी नहीं... समय ही समय है उसके पास। और क्या है। कुछ भी तो नहीं।

खुद से निजात पाने के लिए वह यहाँ-वहाँ भटकती फिरती है। न जाने कहाँ-कहाँ। कभी जंगलों में घूम-घूमकर सेमल, पलाश और पुटुस के फूल इकट्ठा करती है और उन्हें लाकर गुलदस्ते में सजा देती है। पीले, सिंदूरी फूलों से कमरा दमक उठता है। वह उन्हें देखती है और एक अनाम गंध में भीगी लिखती रहती है। आँसुओं का अनुवाद पन्नों में उतरता है, संवेदनाएँ शब्द बन जाती हैं और जिंदगी धीरे-धीरे किताब की शक्ल अख्तियार कर लेती है। बाहर झिमाती दुपहरी में रसभीना महुआ निःशब्द टपकता रहता है, देखते ही देखते बँगले का अहाता सफेद फलों से अंट जाता है। हवा उसकी मादक गंध से बोझिल हो उठती है। दिन ढलता है अपनी अलस, मंथर गति से, वन-वनांतर में निझूम रात उतरती है, कभी आधे-पूरे चाँद के साथ, कभी असंख्य, अनगिन तारों के साथ... एक आदिम रहस्य-रोमांच से भरी समस्त वन भूमि थरथराती रहती है रात भर...

रास्तों में आते-जाते कई बार कौशल मिले थे। एक बार बँगले में आकर चाय भी पी गए थे। उसकी किताब की बहुत प्रशंसा भी की थी।

उस दिन सुबह-सुबह रेंजर साहब आ धमके थे। गेट के बाहर खड़ी उनकी जीप में बहुत सारे लोग ठूँसे बैठे शोर मचा रहे थे। वह देर से सोकर उठी थी और उस समय चाय का कप लेकर अलस भाव से बरामदे में बैठी हुई थी। उन्हें आया देखकर वह हडबड़ाकर उठ खड़ी हुई थी। ढीले जूड़े के बाल खुलकर पीठ पर बेतरतीब फैल गए थे। वह अपनी मुसी हुई अस्त-व्यस्त साड़ी में काफी असहज महसूस कर रही थी। मगर रेंजर साहब उसके आग्रह करने पर भी बैठे नहीं थे। वे काफी जल्दी में दिख रहे थे। खड़े-खड़े ही उसे दूसरे दिन उनके साथ पिकनिक में आने का निमंत्रण दिया था। उनके कई रिश्तेदार कोलकाता से गर्मी की छुट्टियाँ मनाने यहाँ आए हुए थे। सबने मिलकर पिकनिक जाने का कार्यक्रम बनाया था। न चाहते हुए भी उसे हाँ कहना पड़ा था।

दूसरे दिन सुबह-सुबह तीन-चार जीपों में भरकर वे घाटशिला पहुँचे थे। बड़े-बड़े पत्थरों के बीच गहरी बहती हुई नदी के किनारे एक अच्छी-सी जगह देखकर उन्होंने अपना सामान जमाया था। कुछ दूरी पर पत्थरों को जोड़कर बनाए गए चूल्हों पर बड़ी-बड़ी देगचियाँ चढ गई थीं। रेंजर साहब के बड़े जीजाजी उनके माली और खानसामा के साथ खाना बनाने में जुट गए थे। हाथ के करछुल को उन्होंने नाटकीय अंदाज से हवा में लहराया था -

'मुरगीर कॅसा माँगसो आर खिचुड़ी, केमोन...?'

'दारूण-दारूण...'

सभी कोरस में चिल्ला उठे थे। वह औरों के साथ मिलकर सूखी लकड़ियाँ चुन लाई थी। एक केंद के पेड़ के नीचे शतरंजी बिछाकर कुछ लोग बैठे थे। रेंजर साहब की पत्नी कमलिका सबके आग्रह पर रवींद्र संगीत गा रही थी - जे रातें मोर दुआर गुली भांगलो झॅरे... उनकी आवाज बेहद मीठी और सुरीली थी। गीत के बोल का दर्द तरल होकर हर तरफ अनायास व्याप गया था। वह शब्दों की पीड़ा में डूब-सी गई थी - कैसी गहरी चाह, कसक है आवाज में!

अपने बालों के ढीले-से बंगाली जूड़े में कमलिका ने सेमल के लाल फूल खोंस रखे थे। धूप की सफेद उजास में उनके गोरे चेहरे पर उसी की दुधिया आभा फैली थी। बिना बाँहवाले ब्लाउज से झाँकते उनके सुडौल हाथ बहुत सुंदर लग रहे थे। तराशी हुई अंगुलियों में हीरे, पन्ने की अँगूठियाँ दमक रही थीं। उनकी तरफ देखते हुए उसे अचानक ख्याल आया था, कमलिका का चेहरा बँगला सीने तारिका सुचित्रा सेन से बहुत मिलता है। वैसे ही आकर्षक, मांसल होंठ और दिलकश मुस्कराहट। हारानो सुर फिल्म देखने के बाद वह उसकी फैन हो गई थी। प्रायः एकांत में उस फिल्म के गीत गुनगुनाया करती थी - आमी जे तोमार, ओगो तुमी जे आमार...

उनके गीतों में डूबती हुई उसने थोड़ी दूर पर उधम मचाते हुए बच्चों को देखा था। उनकी माँएँ उन्हें बार-बार पानी के पास न जाने की हिदायत दे रही थी। एक घने पीपल के तने से पीठ टिकाए वह मुट्ठियों में भर-भरकर घास नोंचती रही थी। पीपल की नर्म, गुलाबी पत्तियों से छनकर आती धूप यहाँ-वहाँ तितली की तरह उड़ती फिर रही थी। गहरे लाल, नीले रंग के पतंगे जंगली फूलों पर हीरे की तरह जड़े चमक रहे थे। लकड़ी चुनते हुए उसे एक मोर पंख मिला था। उसने उसे अपने बालों में खोंस लिया था। ऐसा करते हुए उसने कौशल को अपनी तरफ देखते हुए पाया था। उसकी आँखों में कुछ बहुत जाना-पहचाना-सा था। उसने अपनी दृष्टि फेर ली थी। वह कुछ जानना-पहचानना नहीं चाहती।

एक छोटी-सी लड़की जिसका नाम शायद आलो था, अपनी सुनहरी चोटियाँ हिलाते हुए दौड़ती फिर रही थी। अपने लाल फ्राक के घेर में वह न जाने क्या-क्या चुन लाई थी - केंद, आँवला, कुचफल... धूप में उसके गाल टमाटर जैसे लाल हो रहे थे।

उसकी तरफ देखते हुए उसकी आँखों के सामने बहुत पीछे छूट गया एक चेहरा कौंध उठा था - काजोल का चेहरा! उसकी काली-डागर आँखों में संसार भर का कौतूहल हुआ करता था - माँ, यह क्या है? माँ, वह क्या है?

उसके अद्भुत सवालों के जवाब अधिकतर उसके पास नहीं होते थे। सोचते हुए वह यकायक बेतरह थक आई थी। पेड़ के तने से टिककर खुद को ढीला छोड़ते हुए उसने अपनी आँखें बंद कर ली थी। काजोल का चेहरा कंकर पड़े पानी की तरह हिलते हुए धीरे-धीरे खो गया था, मगर वह जानती थी, जल के अंदर हिलते सेंवार की तरह वह उसके अंतस की गहराई में हर क्षण बनी रहती है।