"डाउनफॉल" हिटलर के अंतिम दिनों की दास्तान / राकेश मित्तल

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"डाउनफॉल" हिटलर के अंतिम दिनों की दास्तान
प्रकाशन तिथि : 09 फरवरी 2013


यह फिल्म जर्मन सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर हैण् द्वितीय विश्व युद्द को लेकर इस फिल्म से अधिक प्रमाणिक तथा महत्वपूर्ण फिल्म अभी तक सामने नहीं आई हैण् यह जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर के जीवन के अंतिम दस दिनों की कहानी हैण् इसके माध्यम से निर्देशक ओलिवर हर्शबीगल ने न केवल हिटलर के अंतिम दिनों की मनोदशा को बखूबी दर्शाया हैए बल्कि उस समय के जर्मनी के समूचे परिद्रश्य को सामने ल खड़ा किया हैण्

फिल्म की शुरूआत हिटलर की रियल लाइफ निजी सचिव ट्राड जंग के बयान से होती है, जिसमें वह अपनी युवावस्था में हिटलर के प्रति सम्मान एवं समर्थन के लिए शर्मिंदगी एवं अपराध बोध महसूस करती है। फिल्म में ट्राड जंग की भूमिका रोमानियन मूल की जर्मन अभिनेत्री एलेक्जेंड्रा मारिया लारा ने निभाई है। ट्राड जंग नवंबर 1942 में हिटलर की निजी सचिव नियुक्त हुई थीं और हिटलर के अंतिम समय तक वह उसके साथ रही। इस फिल्म की पटकथा का मुख्य आधार ट्राड जंग के चश्मदीद संस्मरण एवं विभिन्न ऐतिहासिक दस्तावेज रहे हैं, जो फिल्म की विश्वसनीयता को पुख्ता करते हैं।

शुरूआती दृश्यों के बाद फिल्म सीधे हमें 20 अप्रैल 1945 के एक जश्न में ले जाती है, जहां बर्लिन शहर में स्थित एक गुप्त बंकर में विश्वस्त आला अधिकारियों के बीच हिटलर (बू्रनो गेंझ) अपना 56वां जन्मदिन मना रहा है। हिटलर की प्रेमिका ईवा ब्राउन (जूलियन कोहलर) ने यह जन्मदिन पार्टी आयोजित की है। इसमें हिटलर के तीन सबसे विश्वासपात्र सेनापति जनरल हेमरिक हिमलर (उलरिच नोथन), जोसफ गोब्रेल्स (ऊतरिच मेथ्स) एवं अल्बर्ट स्पीयर (हेनो फर्च) मौजूद हैं। हिटलर उनके साथ युद्ध की आगामी रणनीतियों पर चर्चा कर रहा है। बर्लिन पर लगातार बमबारी बढ़ती जा रही है। जर्मनी का अधिकांश हिस्सा खंडहर बन चुका है। हिटलर को सूचना मिलती है कि सोवियत सेनाएं बर्लिन से मात्र बारह किलोमीटर की दूरी तक पहुंच चुकी हैं तथा बहुत शीघ्र बर्लिन पर कब्जा कर लेंगीं। हिटलर के सेनापति उसे तुरंत किसी सुरक्षित स्थान पर जाने के लिए निवेदन करते हैं लेकिन वह राजी नहीं होता। वह कहता है, ‘मैं उन्हें बर्लिन में ही पराजित करूंगा या फिर यहीं अपनी पराजय को गले लागाऊंगा।’

निर्देशक बड़ी कुशलता से अपना कैमरा कभी बर्लिन की सड़कों पर ले जाता है जहां हिटलर की नाजी सेना अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ रही है और कभी उस गुप्त बंकर में जहां हिटलर अपने विश्वस्त अधिकारियों के साथ आखिरी सांस तक लड़ने की रणनीति बना रहा है। इस दौरान दर्शक एक तरफ आम जर्मन नागरिक तथा सेना के संघर्ष और दूसरी ओर एक स्वयंभू सर्वशक्तिमान तानाशाह की असहाय अवस्था से रूबरू होते हैं।

जर्मनी और नाजी सेना की निश्चित पराजय को सामने देख हिटलर बौखलाने लगता है और अपने आसपास के हर व्यक्ति, हर परिस्थिति को दोष देने लगता है। उसे समझ नहीं आता कि उसके नेतृत्व में ऐसी क्या कमी रह गई जिसके कारण जर्मनी को हार का मुंह देखना पड़ रहा है। इस सबके बावजूद हिटलर के सैनिकों, अधिकारियों, अनुयायियों और यहां तक कि आम जर्मन नागरिकों के मन में हिटलर के प्रति निष्ठा में कोई कमी नहीं आई है। वे अब भी अपने नेता के एक इशारे पर कुछ भी करने को तैयार हैं। यह फिल्म हिटलर को एक व्यक्ति के रूप में न देखते हुए एक लीडर के रूप में देखने की कोशिश करती है और विश्लेषण करती है कि अपने तमाम सनकी, उन्मादी, क्रूर एवं असहिष्णु व्यक्तित्व के बावजूद हिटलर में आखिर ऐसा क्या करिश्मा था कि उसके मातहत, अनुयायी और प्रशसंक उसकी खातिर जान देने को तैयार थे? बंकर में उपस्थित अधिकारी एवं हिटलर स्वयं सोवियत सेना के सामने समर्पण करने के बजाए आत्महत्या करना पसंद करते हैं। वे अपनी ‘नस्ल’ के प्रति बेहद संवेदनशील हैं और उसे अन्य नस्लों से श्रेष्ठ मानते हैं। इसी बीच जनरल जोसफ गोबेल्स अपनी पत्नी और छः बच्चों को बंकर में ले आता है। उसकी पत्नी सभी बच्चों को सोते समय मुंह में सायनाइड का कैप्सूल रखकर मौत की नींद सुला देती है और बाद में पति-पत्नी स्वयं भी आत्महत्या कर लेते हैं। हिटलर भी अपनी प्रेमिका ईवा ब्राउन के साथ आत्महत्या कर लेता है।

हिटलर की भूमिका में स्विस अभिनेता बू्रनो गेंझ ने कमाल किया है। उन्होंने हिटलर की शक्ल-सूरत, चाल-ढाल, हाव-भाव, भाषा, आवाज आदि को इतनी सूक्ष्मता से आत्मसात किया है कि दर्शक उन्हें सहज ही हिटलर मान लेते हैं। उन्होंने एक निराश, नाराज, असहाय किंतु दृढ़ निश्चयी योद्धा की कसमसाहट को अद्भुत अभिव्यक्ति दी है।

द्वितीय विश्व युद्ध में लगभग 5 करोड़ लोग मारे गए, जिनमें 60 लाख से ज्यादा यहूदियों को हिटलर ने यातनाएं देते हुए मरवाया था। मानव इतिहास के इस क्रूरतम तानाशाह को मानव स्वरूप में दिखाने के लिए इस फिल्म की आलोचना भी हुई। निर्देशक ऑलिवर हर्शबीगल के अनुसार, ‘हिटलर पर फिल्म बनाना एक बेहद संवेदनशील और चूनौतीपूर्ण कार्य था। द्वितीय विश्व युद्ध समाप्ति के साठ साल बाद भी हिटलर लोगों के जेहन में पूरी तरह छाया हुआ था। हम जानना चाहते थे कि वे कौन-सी परिस्थितियां और चुनौतियां थीं जिन्होंने ऐसे क्रूर तानाशाह को उभरने दिया। हिटलर भी एक मनुष्य था। उसके व्यक्तित्व को समझने के लिए सभी पक्षों की विवेचना जरूरी थी।’

हिटलर का पतन एक युग का अंत था। इस पतन के अंतिम अध्याय को इस फिल्म में बेहद प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस फिल्म को वर्ष 2004 में बेस्ट फॉरेन लैंग्वेज फिल्म के ऑस्कर पुरस्कार हेतु नामांकित किया गया था।